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डॉ० ए० एन उपाध्ये ने भी इनका समय ईसवी सन्के प्रारम्भमें मानते हुए. लिखा है
"I am inclined to believe, after this long survey of the available material, that kundakunda's age lies at the beginning of thc Christian era'',
कुछ विद्वान् आ० कुन्दकुन्दको पांचवी-छठी शतीका भी सिद्ध करनेमें प्रयत्नशील हैं ।२ लगता है मूल दिगम्बर परम्पराके महान् पोषक होनेके कारण आचार्य कुन्दकुन्द जैसे अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्वके धनी आचार्यकी उत्कृष्ट मौलिकता एवं कोतिको कुछ विद्वान् सहन नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिए उन्हें परवर्ती सिद्ध करनेके लिए तथ्य-रहित आधार बतलाकर अपनेको सन्तुष्ट मान रहे हैं। वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द या अन्य जैनाचार्य द्वारा श्रेष्ठ साहित्यके निर्माणका उद्देश्य स्व-पर कल्याण करना था, न कि आत्म-प्रदर्शन या लौकिक यशकी प्राप्ति । इसीलिए आज अनेकों ऐसे उत्कृष्ट अज्ञातकतक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनमें उसके लेखकने अपना नाम तक लिखना उचित न समझा । आचार्य अमृतचन्द्राचार्य ( ८-९वीं शती ) के पूर्व तक कुन्दकुन्दके साहित्य पर किसी द्वारा टीका आदि न लिखे जाने का यह अर्थ नहीं कि वे ५-६वीं शतीके थे, अपितु काफी साहित्यका नष्ट होना, भाषायी आक्रमण और साथ ही आज जैसे प्राचीन कालमें विविध सम्पर्क और साधनोंका अभाव कारण हैं । .... आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थ ही उनको प्राचीनता, प्रामाणिकता और मौलिकताको कह रहे हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें "सुयगाणिभद्दबाहु गमयगुरू भगवओ जयओ'-कहकर अपनेको बारह अंगों और चौदह पूर्वोके विपुल विस्तारके वेत्ता, गमकगुरु ( प्रबोधक ) भगवान् श्रुतज्ञानी-श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य कहा है। भद्रबाहुको अपना गमकगुरु कहनेका यही अर्थ है कि श्रुतकेवलो भद्रबाहु कुन्दकुन्दको प्रबोध करने वाले गुरु थे। इसीलिए समयसारको भी उन्होंने "श्रुतकेवली भणित" कहा है । यथा
१. Pravacansāra : Introduction p. 21. २. श्रमण भगवान् महावीर : पृ० ३०६ लेखक पं० कल्याण विजयगणी, (विशेष
लेखकने इस पुस्तकमें दस प्रमाणों ( प्वाइंटों ) से आचार्य कुन्दकुन्दको छठी
शतीका माना है। ३. बोध पाहर गाथा ६०-६१.
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