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________________ ५३३ -५. १३९-१४०] भावप्रामृतम् इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्यहि मोहिओ जीवो।। भमिओ अणाइकालं संसारे धोर चितेहि ॥१३९॥ इति मिथ्यात्वावासे कुनयकुशास्त्रः मोहितो जीवः । भ्रान्तः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय ॥१३९॥ ( इय मिच्छत्तावासे ) इति अमुना प्रकारेण मिथ्यात्वावासे मिथ्यात्वास्पदे प्रायेण मिथ्यात्वभृते संसारे इति सम्बन्धः । (कुणयकुत्सत्थेहि मोहिओ जीवो) कुनयः कुत्सितनयः सर्वथकान्तरूपैः, कुशास्त्रः चतुर्वेदाष्टादशपुराणाष्टादशस्मृत्युभयमीमांसादिशास्त्रः मोहितो भ्रान्ति प्राप्तो जीव आत्मा। (भमिओ अणाइकाल) भ्रान्तोऽयं पर्यटितो जीवोऽनादिकालं उत्सपिण्यवसर्पिणीकालबहुलं ( संसारे धीर चितेहि ) हे धीर! हे योगीश्वर ! संसारे भवे भ्रान्त इति चिन्तय विचारय । पासंडी तिण्णिसया तिसट्ठिभेया उमग्ग मुत्तूण । रंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा ॥१४०॥ पाषण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्ठिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । रुन्द्धि मनो जिनमार्ग असत्प्रलापेन किं बहुना ॥१४॥ (पासंडी तिण्णिसया) पाषण्डिनस्त्रीणि शतानि । (तिसट्ठिभेया उमग्ग मुत्तूण ) तथा त्रिषष्ठिभेदा उन्मार्ग मुक्त्वा । ( रुंभहि मणु जिणमग्गे ) रुन्धि' गाथार्थ-इस प्रकार मिथ्यात्व के आवास स्वरूप संसार में मिथ्यानय • और मिथ्याशास्त्रों से मोहित हुआ यह जीव अनादि कालसे भटक रहा है, ऐसा हे धोर मुनि ! तू चिन्तवन कर ॥१३९।। विशेषार्थ-यह संसार अनेक प्रकार के मिथ्यात्वों का निवास स्थान है अर्थात् अनेक मिथ्यात्वों से भरा हुआ है इसमें यह जीव सर्वथा एकान्त रूप कुनय तथा चार वेद, अठारह पुराण अठारह स्मृतियाँ तथा दोनों प्रकार की मीमांसा आदि कुशास्त्रों से भ्रान्ति को प्राप्त होता हुआ अनादिकाल से लगातार भटक रहा है । हे योगीश्वर ! तू ऐसा चिन्तवन कर ॥१३९॥ गाथार्थ हे साधो ! पाषण्डियों के तीन सौ त्रेसठ उन्मार्गों-कुमार्गों को छोड़कर तू जिनमार्गमें अपना मन रोक, बहुत अधिक निरर्थक वचन कहनेसे क्या लाभ है ॥१४॥ विशेषार्थ-पाषण्डियों के तीन सौ त्रेसठ मतोंका वर्णन पहले मा कुका है। ये मत उन्मार्ग हैं अर्थात् कण्टकाकीर्ण बीहड़ पगडण्डियाँ हैं । हे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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