SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ षट्प्राभृते [4.48 चण्डो महातरुमाघारं कृत्वा गण्डान्तं धनराकृष्य वाणेन वारणं जघान । तरुकोटरस्थितसर्पदष्टस्तं सर्पं मारयित्वा स्वयं च मृतः । अथ तान् त्रीन् किरातसर्पगजान् मृतान् दृष्ट्वा क्रोष्टाऽति लुब्धस्तावदेतांस्त्रीन्नाद्मि पूर्व धनुमौर्वी प्रान्तस्थितां च स्नुंसां भक्षयामीति कृतोद्य मस्तच्छेदं वैधेयश्चकार । सद्यो धनुरग्रनिभिन्नगलः सोऽपि मृतः । ततोऽतिगृध्नुता त्वया त्याज्या (३) । इति श्रुत्वा कुमारश्चिन्तयित्वा सूक्तं प्रवक्ष्यति चतुर्मार्गसमायोगदेशमध्ये सुग्रहं रत्नराशि प्राप्य पथिको मूर्खस्तदात्- ' मना दायकेनापि कारणेन गतः पुनर्वनादागत्य तं देशं तं रत्नपुंजं कि पुनर्लभते तथा गुणमाणिक्यसंचयं दुष्प्रापमगृह णन् संसारसमुद्रे कथं पुनः प्राप्नुयात् ( ४ ) । तदा मलिम्लुचोऽन्यदन्यायसूचनमुपाख्यानं वदिष्यति कश्चित्शृगालो मुखस्थितं मां १ नदी सरोवर तालाब आदिका पानी बार-बार पिया फिर भी उसकी प्यास नष्ट नहीं हुई । वह अब क्या तृणके अग्र भाग पर स्थित जलके कणको पीता हुआ क्या तृप्तिको प्राप्त हो जावेगा ? उसी प्रकार यह जीव भी चिर काल तक स्वर्गके सुख भोगकर भी तृप्त नहीं हुआ । अब क्या मनुष्य भव में उत्पन्न होनेवाले, अत्यन्त अल्प और हाथी के कान के समान अस्थिर अमनोज्ञ सुख से क्या तृप्ति को प्राप्त हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता । जम्बूकुमार के वचन सुनकर चोर फिर कथा कहेगा(३) एक वन में चण्ड नामका अथवा अत्यन्त क्रोध करने वाला एक भोल रहता था । उसने एक वार किसी महावृक्ष को आधार बना कर अर्थात् उस पर चढ़कर गाल पर्यन्त धनुष खींच वाण द्वारा हाथी को मारा। उसी वृक्ष की कोटर में एक साँप रहता था उस साँपने भीलको काट खाया | भील ने बदले में साँपको मार दिया और वह स्वयं मर गया । तदनन्तर किरात, साँप और हाथीको मरा देख कर लोभी शृगाल वहाँ आया । वह कहने लगा कि मैं तीनों को अभी खाता हूँ, पहले धनुष के छोर पर लगी ताँतको खाता हूँ। ऐसा विचार कर उस मूर्ख ने ताँत को काटने का उद्यम किया । फलस्वरूप धनुष के अग्रभाग से उसका गला फट गया और वह मर गया । इसलिये तुम्हें अधिक लोभका त्याग करना चाहिये । यह सुन जम्बूकुमार विचार करके एक सुभाषित कहेगा(४) एक पथिक को चौराहे पर ऐसी रत्नों की राशि मिली जिसे १. दातमना म० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy