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________________ - २१ - आभृतं प्रस्थापितं इति प्राभृतम् । प्रकृष्टराचार्यविद्यावित्तद्भिराभृतं धारित ध्याख्यातमानीतमिति वा प्राभृतम् ।' जो प्रकृष्ट अर्थात् तीर्थकर के द्वारा प्राभूत अथवा प्रस्थापित किया गया है वह प्राभूत है । अथवा जिनका विद्या ही धन है ऐसे प्रकृष्ट आचार्यों के द्वारा जो धारण अथवा व्याख्यान किया गया है अथवा परम्परा रूप से लाया गया है वह प्राभृत है। इस तरह तीर्थकरोंके उपदेश रूप द्वादशांग वाणीसे सम्बद्ध ज्ञानरूप ग्रन्थों को हम पाहुड कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रायः सभी ग्रन्थों की रचना मूल द्वादशांगके तत्संबंधो स्थलोंके आधार पर की है । यथा बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्वोमें पंचम पूर्व ज्ञानप्रवादके बारह वस्तु अधिकारोंमें से दशम वस्तु अधिकार के 'समय पाहुड' के आधार पर समयसार ग्रन्थ को रचना की गई। इन्होंने अपने ग्रन्थोंको प्रामाणिकताका आधार प्रायः सभी ग्रन्थोंके प्रारम्भिक मंगलाचरणोंमें कहा है कि श्रतकेवलियोंने जो कहा है मैं वही कहूँगा । अर्थात् श्रुतकेवलियों द्वारा प्ररूपित तत्वज्ञानका मैं वक्ता मात्र हैं, स्वयं कर्ता नहीं । अर्थात् समयपाहुड आदि वही ग्रन्थ है, जिनकी देशना भगवान् महावीरने और जिनकी प्ररूपणा गौतम गणधर तथा श्रुतकेवलियोंने की थी वही आचार्य परम्परासे सुरक्षित रूपमें आचार्य कुन्दकुन्दको प्राप्त हुई। साक्षात् गणधर कथित या प्रत्येकबुद्ध कथित सूत्रग्रन्थों की केवल मौखिक परम्परा चली आ रही थी, सिद्धान्त ग्रन्थों के नाम पर गृहस्थोंको पढ़नेकी अनुमति नहीं थी । श्रुत प्रायः इतना विच्छिन्न और विस्मृत-सा हो गया था कि सर्वसाधारण विद्वान्-साधुओंको उन विषयों पर लेखनी चलानेका साहस न होता था। किन्तु इस स्थितिको आचार्य कुन्दकुन्दने बड़ी कुशलताके साथ सम्हाला और साहित्य सृजन करके जनताको उद्बोधन करनेके लिए वे आगे बढ़े तथा अपने अनुभवकी बाजी लगाकर उन्होंने १. पंचत्थिकाय, २. समयपाहुड ३. पवयणसार, ४. णियमसार, ५. अट्ठपाहुड (दसणपाहुड, चारित. पाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, सीलपाहुड तथा लिंगपाहुड) ६. बारस अणुवेक्खा और ७. भत्तिसंगहो-(सिद्ध, सुद, चारित्त, जोइ ( योगी ) आइरिय, णिव्वाण, पंचगुरु तथा तित्थयरभत्ति नामक भक्तिसंग्रह) जैसे महान् ग्रन्थोंकी रचना की। इनके अतिरिक्त रयणसारको भी कुछ विद्वान् १. वही भाग-१, पृष्ठ ३२५. २. (क) वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं-समयसार १.१. (ख) वोच्छामि णियमसारं, केवलि-सुदकेवली भणिदं-नियमसार १.१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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