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________________ - २० - प्रतिष्ठापक होनेके नाते कुन्दकुन्दको महत्ता बढ़ती हो गई । और इसीलिए . कुन्दकुन्दके मूलसंघका दूसरा नाम ही कुन्दकुन्दान्वय प्रसिद्ध हो गया।' आचार्य कुन्दकुन्दके समय बौद्धधर्मका नैरात्मवाद, क्षणिकवाद और शून्यवाद राज्याश्रय पाकर जनमानसको उद्वेलित कर रहा था। इसके कारण जनमानसमें आत्मा और आत्माके कल्याणके लिए किये जानेवाले तपश्चरण और चारित्रपर अनास्था उत्पन्न होने लगी थी। इस अनास्थाको सांख्यमतके कूटस्थ नित्यवादने और हवा दी। कुल मिलाकर उस समय जनताको धार्मिक आस्थायें चंचल हो. . रही थीं और जनतामें दिशाहीनताकी भावना व्याप्त थी । ऐसे कालमें कुन्दकुन्दने जनताको सही धार्मिक मार्गदर्शन कराने और तीर्थङ्करोंको वाणीके अनादि-निधन सत्यको प्रचारित करनेका दायित्व अपने ऊपर ले लिया और अपने तपःपूत व्यक्तित्व, अविरत साधना एवं गम्भीर आगमज्ञानके द्वारा सत्यधर्मको पुनः स्थापना की। मुनिधर्मके अन्दर व्याप्त विकृतियोंका परिमार्जन किया और अध्यात्मकी गंगा बहाकर आत्माके प्रति व्याप्त अनास्थाको दूर किया। इसलिए वे युगप्रवर्तक, युगपुरुष और क्रान्तदृष्टाके रूपमें सर्वाधिक विख्यात हुए । मंगलपाठमें तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधरके बाद आचार्य कुन्दकुन्दके नाम-स्मरणका, उनके नामपर मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित होने एवं परवर्ती आचार्यों द्वारा अपने आपको कुन्दकुन्दान्वयी माननेका यहो रहस्य है । आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थ 'पाहुड' कहे जाते हैं । पाहुड अर्थात् प्रामृत जिसका अर्थ है 'भेंट' । आचार्य जयसेन ने समयसार को तात्पर्यवृत्ति में कहा है कि जैसे देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति राजा का दर्शन करने के लिए कोई "सारभूत वस्तु" राजा को देता है तो उसे प्राभृत या भेंट कहते हैं, उसी प्रकार परमात्मा के आराधक पुरुषके लिए निर्दोष परमात्मा रूपी राजा'का दर्शन कराने के लिए यह शास्त्र भी प्रामृत ( भेंट ) है। कसायपाहड पर चूणि सूत्रों के रचयिता आचार्य यतिवृषभ के अनुसार "जम्हा पदेहि पुदं ( फुड ) तम्हा पाहुड' अर्थात् जो पदों से स्फुट हो उसे पाहुड कहते हैं । जयघवलाकार आचार्य वीरसेन के अनुसार-प्रकृष्टेन तीर्थकरेण १. आचार्य कुन्दकुन्द और उनका समयसार-पृ० २२. २. णियमसारो : प्रस्तावना पृ० ४. सं० बलभद्र जैन, कुन्दकुन्द भारती दिल्ली, १९८७. ३. समयसार तात्पर्य वृत्ति : गापा १. ४. कसायपाहर भाग-१ पृष्ठ ३८६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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