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________________ ५४७ -५. १५१] भावप्राभृतम् __चकाराच्चिन्ताऽरतिनिद्राविषादस्वेदखेदविस्मया गृह्यन्ते । निर्दोषपरमाप्तविचारोऽष्टसहस्रोन्यायकुमुदचन्द्रोदयप्रमेयकमलमार्तण्डाप्तपरीक्षातत्वार्थराजवातिकतत्वार्थश्लोकवार्तिकन्यायविनिश्चयालङ्कारादिषु महाशास्त्रेषु विस्तरेण ज्ञातव्यः । जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण। ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ॥१५१॥ जिनवरचरणाम्बुरुहं नमन्ति ये परमभक्तिरायेण । ते जन्मवल्लीमूलं खनन्ति वरभावशस्त्रेण ॥१५१॥ (जिणवरचरणंबुरुह ) जिनोऽनेकविषमभवगहनव्यसनप्रापणहेतून कर्मारातीन् जयतीति जिनः "इणजिकृषिभ्यो 'नक्"। जनश्चासौ वरः श्रेष्ठो जिनवरः । अथवा जिनानां गणघरदेवादीनां मध्ये वरः श्रेयस्करो जिनवरस्तस्य चरणावेवाम्बुरहं जिनवरचरणाम्बुरुहं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञवीतरागपादपद्म । ( णमंति जे परम द्वेष, मोह और चकार से संगृहीत चिन्ता अरति निद्रा विषाद पसीना खेद और आश्चयं ये अठारह दोष जिसमें नहीं होते हैं वह आप्त कहा जाता है। निर्दोष आप्त का विचार अष्ट-सहस्री, न्याय कुमुदचन्द्रोदय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तपरीक्षा, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तथा न्यायविनिश्चयालङ्कार आदि शास्त्रों में विस्तारसे जानना चाहिये ॥१५०॥ गाथार्थ-जो उत्कृष्ट भक्तिसम्बन्धी रागसे जिनेन्द्रदेवके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं वे उत्तम भाव रूपी शस्त्रके द्वारा संसाररूपी लताके मूलको उखाड़ देते हैं ॥१५१॥ विशेषार्थ-'जयतीति जिनः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो संसार रूपी संघन वन में अनेक विषय कष्टोंको प्राप्त कराने वाले कर्मरूपी शत्रुओं को जीतता है वह जिन कहलाता है। 'इण् जिकृषिभ्योनक्' इस सूत्र से 'ज़ि जये' धातु से नक् प्रत्यय होने पर जिन शब्द सिद्ध होता है। जो जिन होकर श्रेष्ठ है वह जिनवर है अथवा जिन शब्द से गणधर देव आदिका ग्रहण होता है उनमें जो वर-श्रेष्ठ है वे जिनवर-तीर्थंकर परमदेव कहलाते हैं । उन तीर्थंकर सर्वज्ञ अर्हन्त देवके चरण कमलों को निकट भव्य जीव परमभक्ति रूप अनुराग अर्थात् अकृत्रिम स्नेह से नमस्कार १. इत्यनेन जि जये न इत्यस्य धातोर्नगादेशः क इत् कित्वान्नैङ् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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