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षट्प्राभृते
[४. २७
अथ पश्चिमे देशे-भैमरथी दारणा नीरा मूला बाणा केता स्वाकरीरी प्रहरा मुररा मदना गोदावरी तापी लाङ्गला खातिका कावेरी तुङ्गभद्रा साभ्रवती महीसागरा सरस्वतीत्यादयो नद्यो न तीर्थं भवन्ति पापहेतुत्वात्, तन्मतेऽपि विरुद्धत्वात् ।
गङ्गाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलपर्वते । .
स्नात्वा कनखले तीर्थे संभवेन्न पुनर्भवे ॥१॥ किमत्र विरोधः ?
दुष्टमन्तर्गतं चित्त तीर्थस्नानान्न शुद्धयति ।
शतशोऽपि जलंधीतं सुराभाण्डमिवाशुचि ॥ १॥ तित्यं इति श्रीबोधप्रामृते तीर्थाधिकारो नवमः समाप्तः ॥ ९ ॥
अब दक्षिण दिशाको नदियां बतलाते हैं-तैला, इक्षुमती, नकरवा, चाङ्गा, श्वसना, वैतरणी, माषवती, महिन्द्रा, शुष्कनदी, सप्तगोदावर, गोदावरी, मानससर, सुप्रयोगा, कृष्णवर्णा, सन्नीरा, प्रवेणी, कुब्जा, धेर्या, चूर्णी, वेला, शूकरिका, अम्बर्णा। ___ अब पश्चिम देशकी नदियां कहते हैं-भेमरथी, दारुवेणा, नोरा, मूला, केता, स्वाकरीरी, प्रहरा, मुररा, गोदावरी, तापी, लाङ्गला, खातिका, कावेरी, तुङ्गभद्रा, साभ्रवती, महीसाग़रा, सरस्वती आदि नदियाँ तीर्थ नहीं हैं क्योंकि ये पापके कारण हैं। साथ ही इस विषय को लेकर ब्राह्मण मतमें विरुद्ध कथन भी पाया जाता है। जैसे एक स्थान पर कहा है
गङ्गा-गङ्गाद्वार, कुशावर्त, विल्वक, नीलपर्वत, और कनखल तीर्थमें स्नान कर मनुष्य पुनः संसार में उत्पन्न नहीं होता अर्थात् मुक्त हो जाता है।
तो दूसरे स्थान पर कहा है
दुष्ट-जिस प्रकार मदिरा का वर्तन सैकड़ों बार जलसे धोने पर भी अशुद्ध ही रहता है उसी प्रकार मनुष्य का अन्तर्वर्ती चित्त दुष्ट ही रहता है, तीर्थ स्नानसे शुद्ध नहीं होता ॥२७॥
इस प्रकार श्री बोध-प्राभूत में तीर्थाधिकार नामका नौवां अधिकार समाप्त हुआ ॥९॥
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