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बोधप्राभृतम्
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वीतरागं । 'अज क्षेपणे' इति धातोः प्रयोगात् । "अजेर्वी : " इति चनादजेर्धातोवरादेशः चकारात्तद्गुणाधिकारोपणा निषेधिका च जिनविम्बं भवति । ( जं देह दिवख सिक्खा ) यज्जिनविम्बमाचार्यः ददाति दीक्षां व्रतारोपणलक्षणां, शिक्षां च द्वादशानुप्रेक्षा लक्षणां ददाति । ( कम्मक्खय-कारणे सुद्धा ) कर्मक्षयकारणे शुद्धां निर्मलां । जीवन्मुक्तजिनवदाचार्यो' - माननीय इति भावार्थः । उक्तं च सोमदेवेन सूरिणा -
ज्ञानकाण्डे
सूरिर्देव इवाराध्यः
तस्स य करह पणामं सव्वं पुज्जं च विणय वच्छल्लं । जस्स य दंसण गाणं अस्थि धुवं चेयणाभावो ॥ १७॥ तस्य च कुरुत प्रणामं सर्वां पूजां विनयं वात्सल्यं । यस्य च दर्शनं ज्ञानं अस्ति ध्रुवं चेतनाभावः ॥ १७ ॥ ( तस्स य करह पणामं ) तस्य च जिनविम्बस्य जिनविम्बमूर्ते राचार्यस्य प्रणामं नमस्कारं पञ्चाङ्गमष्टाङ्ग वा कुरुत यूयं हे भव्यजीवाः ! चकारादुपा
क्रियाकाण्डे
चातुर्वर्ण्यपुरःसरः । संसाराब्धितरण्डकः ॥ १ ॥
निरतिचार चारित्र से शुद्ध हैं और अतिशय वीतराग हैं - प्रीतिरूप रागसे रहित हैं । यहाँ 'सुवीयरायं च' पद में जो चकार दिया है उससे आचार्य परमेष्ठी के गुणों को अधिक रूपसे बढ़ाने वाली सिद्ध भूमिको भी जिनविम्ब जानना चाहिये | आचार्य परमेष्ठी कर्मक्षय में कारण निर्मल व्रतधारण रूप दीक्षा और बारह अनुप्रेक्षा रूप शिक्षाको देते हैं । तात्पर्य यह है कि आचार्य जीवन्मक्त हैं अतः जिनेन्द्रके समान माननीय हैं। जैसा कि सोमदेव सूरि ने कहा है
ज्ञानकाण्डे - जो ज्ञानकाण्ड और क्रियाकाण्ड में शिक्षा और दीक्षा में ऋषि, यति, मुनि और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के अग्रसर हैं तथा संसाररूपी समुद्रसे पार करने के लिये नौका के समान हैं ऐसे आचार्यं परमेष्ठी देवके समान आराधना करने के योग्य हैं ॥ १ ॥
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गाथार्थ - उन जिनविम्बरूप आचार्य परमेष्ठी को प्रणाम करो, सब प्रकार की पूजा करो उनके प्रति विनय और वात्सल्य भाव प्रगट करो जिनके कि सम्यग्दर्शन तथा निश्चित रूपसे चेतनाभाव विद्यमान है ॥१७॥
विशेषार्थ - यहाँ जिनविम्ब शब्दसे जिनविम्बके समान मुद्राके धारक आचार्य परमेष्ठीका ग्रहण है । हे भव्य जीवो ! तुम उन्हें पञ्चाङ्ग
१. जीवन्मुक्तजिनवरा म० ।
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