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________________ ६२८ षट्प्राभृते [ ६.५४ दव्वे कुणइ रागदो साहू ) परद्रव्ये आत्मनो भिन्ने वस्तुनि इष्टवनितादी, करोति विदधाति सुभावमिति सम्बन्धः, रागतः प्रेमपरिणामात् । कः कर्ता, साधुर्वेषधारी मुनिः पुष्पदन्तवत् । तथा चोक्तं 'अलकवलय रम्यं भूलतानर्तकान्तं नवनयनविलासं चारुगण्डस्थलं च । मधुरवचनगर्भ स्मेरबिम्बाधरायाः पुरत इव समास्ते तन्मुखं मे प्रियायाः ॥ १ ॥ कर्णावतंसमुखमण्डन कण्ठभूषावक्षोजपत्रजघनाभरणानि रागात् । पादेष्वलक्तकरसेन च चर्चनानि कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एव धन्याः ॥ २ ॥ लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलायाः स्फारस्मरोत्तरलिताधरपल्लवायाः । उत्तुंगपीवरपयोधरमंडलायास्तस्या महा सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥३॥ विशेषार्थ - इष्ट स्त्री आदि शुभ पदार्थ के योग से मिलने, पास में आने अथवा आगे आने आदि के कारण जो साधु रागके वशीभूत हो उसमें प्रीति रूप परिणाम करता है तथा उपलक्षणा से अनिष्ट पदार्थ के योग से द्वेष वश अप्रीति रूप परिणाम करता है वह पुष्पदन्त (पुष्पडाल) के समान मात्र वेषको धारण करने वाला अज्ञानी साघु है और इससे विपरीत लक्षणों वाला साधु ज्ञानी साधु है। अज्ञानी साघु निरन्तर विषय सामग्रीका चिन्तन करता है । जैसा कि कहा है अलक वलय — जो घुंघराले बालोंसे सुन्दर है, भ्रकुटी रूपलता के नृत्य से मनोहर है, नेत्रोंके नये नये विलास से सहित है, सुन्दर कपोलों से सुशोभित है और मीठे मीठे वचनों से युक्त है ऐसा, मन्दमुसकान से युक्त बिम्बफलके समान लाललाल ओठों वाली प्रिया का वह मुख ऐसा जान पड़ता है मानों मेरे सामने ही स्थित हो ॥१॥ 'कर्णावतस - जो पुरुष रागवश स्त्रियों के कानों में आभूषण पहिनाना, मुखको सुसज्जित करना, गले में आभूषण बाँधना, स्तनों पर पत्र रचना करना, नितम्ब पर मेखला कसना तथा पैरों में महावर से चर्चग करना आदि करते हैं वे ही धन्य हैं - भाग्यशाली हैं ॥२॥ लीलाविलास – जिसके नेत्र रूपी नील कमल लोला से सुशोभित हो रहे हैं, जिसका अधर पल्लव अत्यधिक कामकी बाधा से चुञ्चल हो रहा है और जिसका स्तन मण्डल उन्नत तथा स्थूल है उस प्रिया का मेरे साथ संगम कब होगा ॥३॥ १. एते सर्वेश्लोका यशस्तिलकचम्प्यां सोमदेवस्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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