________________
-१. १२ ]
दर्शनप्राभूतम्
२५
द्वितीयमुच्यते (२) । त्रिषष्ठिलक्षणमहापुराणसमाकर्णनेन बोधि-समाधि- प्रदानकारणेन यदुत्पन्नं श्रद्धानं तदुपदेशनामकं सम्यग्दर्शनं भण्यते (३) । मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वं कथ्यते ( ४ ) । उपलब्धिवशाद् दुर'भिनिवेशविध्वंसान्निरुपमोपशमाभ्यन्तर कारणाद्विज्ञातदुर्व्याख्येयजीवादिपदार्थबीज - भूतशास्त्राद्यदुत्पद्यते तद् बीजसम्यक्त्वं प्ररूप्यते ( ५ ) । तत्त्वार्थसूत्रादिसिद्धान्त - निरूपित जीवादिद्रव्यानुयोगद्वारेण पदार्थान् संक्षेपेण ज्ञात्वा रुचि चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः पुमानुच्यते (६) । द्वादशाङ्गश्रवणेन यज्जायते तद्विस्तार सम्यक्त्वं प्रतिपाद्यते (७) । अङ्गबाह्यश्रुतोक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गबाह्यश्रुतं विनापि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वमर्थसम्यक्त्वं निगद्यते ( ८ ) । अङ्गान्यङ्गबाह्यानि च शास्त्राण्यधीत्य यदुत्पद्यते सम्यक्त्वं तदवगाढमुच्यते ( ९ ) । यत्केवलज्ञानेनार्थानवलोक्य
प्राप्त नहीं होगा; ऐसा मन का अभिप्राय रखते हुए निग्रन्यलक्षण मोक्षमार्ग में रुचि रखना सो दूसरा मार्ग - सम्यक्त्व कहा जाता है ।
रत्नत्रय एवं आत्मध्यान को प्रदान करनेवाले शठ शलाकापुरुष सम्बन्धी महापुराण के सुनने से जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह उपदेश नाम का सम्यग्दर्शन कहा जाता है ।
मुनियों के आचार का निरूपण करनेवाले मूलाचार आदि शास्त्रों को सुन कर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है वह सूत्र - सम्यक्त्व कहा जाता है।
काललब्धि वश मिथ्या अभिप्राय के नष्ट होने पर, दर्शनमोह के असाधारण उपशम रूप आभ्यन्तर कारण से कठिनाई से व्याख्यान करने योग्य जीवादि पदार्थों के बीजभूत शास्त्र से जो उत्पन्न होता है वह बीजसम्यक्त्व कहलाता है।
तत्त्वार्थसूत्र आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में निरूपित जीवादि द्रव्यों के प्ररूपक अनुयोग के द्वारा संक्षेप से पदार्थों को जान कर जो श्रद्धा करता है वह संक्षेप- सम्यक्त्व का धारक, पुरुष कहा जाता है ।
द्वादशाङ्ग के सुनने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह विस्तारसम्यक्त्व कहलाता है ।
अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य श्रुत के बिना ही अङ्गबाह्य श्रुत में कहे हुए किसी पदार्थ से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अर्थ - सम्यक्त्व कहलाता है ।
अङ्ग और अङ्गबाह्य शास्त्रों को पढ़ कर जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अवगाढ़ सम्यदर्शन कहलाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org