SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रप्राभृतम् अरहंतभासिय त्थं गणहरदेवेहि गंथियं सम्मं । सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहंति परमत्थं ॥ १ ॥ अर्हदुभाषितार्थं गणधर देवैर्ग्रथितं सम्यक् । सूत्रार्थमार्गणार्थं श्रमणाः साधयन्ति परमार्थम् ॥१॥ 1 ( अरहंतभासियत्थं ) अर्हद्भिस्तीर्थकरपरमदेवैर्भाषितोऽर्थः सूत्र भवति । ( गणहरदेवेह गंथियं सम्मं ) गणधरदेवैश्चतुर्भिर्ज्ञानैः सम्पूर्णैरष्टमहाप्रातिहार्य सहितैस्तीर्थकर युवराजः गंधियं पदं रचितं सम्मं सम्यक् पूर्वापर - विरोधरहितं शास्त्रं सूत्रं भवति । ( सुत्तत्थमग्गणत्थं ) सूत्रार्थमार्गणं सूत्रार्थं विचारः सोऽर्थः प्रयोजनं यस्मिन् सूत्रे तत्सूत्रार्थमागंणार्थं । तेन शुक्लध्यानद्वयं भवति । तेन ( सवणा साहंति परमत्थं ) सूत्रार्थेन श्रवणा ( श्रमणाः ) सदृदृष्टयो दिगम्बराः गाथार्थ -- जिसका अर्थ अरहन्त भगवानके द्वारा प्रतिपादित है, गणधर देवों ने जिसका अच्छी तरह गुम्फन किया है तथा शास्त्र के अर्थका खोजना ही जिसका प्रयोजन है, उसे सूत्र कहते हैं। ऐसे सूत्रके द्वारा सम्यग्दृष्टि दिगम्बर साधु अपने परमार्थको साधते हैं ॥१॥ विशेषार्थ - अरहन्त तीर्थंकर परमदेव ने जिसका अर्थं रूपसे प्रतिपादन किया है और चार ज्ञानके धारी, आठ महाऋद्धियों से सहित, तीर्थङ्करों के युवराज स्वरूप समस्त गणधरों ने जिसकी द्वादशाङ्ग रूप रचना की है उसे सूत्र कहते हैं । यह सूत्र अर्थात् शास्त्र पूर्वा-पर विरोधसे रहित होता है । सूत्र- प्रतिपादित अर्थ की खोज करना ही शास्त्रका प्रयोजन है । इसके चिन्तन से पृथक्त्व - वितर्क - वीचार और एकत्व - वितर्क ये दो शुक्लध्यान होते हैं । सूत्रार्थंके चिन्तन से सम्यग्दृष्टि निर्ग्रन्थ साधु परमार्थं रूप मोक्षको साधते हैं, अपने वश करते हैं । इस तरह सूत्र मोक्षका कारण है । यद्यपि इस गाथा में 'सूत्र' इस विशेष्य पदका ग्रहण नहीं है तथापि ऊपर से उसकी योजना कर लेनी चाहिये ॥ १ ॥ ( भाव-सूत्र और द्रव्य-सूत्र की अपेक्षा सूत्रके दो भेद हैं, इस गाथामें कुन्दकुन्द स्वामी ने दोनों के लक्षण कहे हैं। तीर्थङ्कर परमदेव के द्वारा प्रतिपादित जो अर्थ है वह भावसूत्र अथवा भावश्रुत है और गणधर देवोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy