SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 662
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -६. ४६ ] मोक्षप्राभृतम् ६०९ बहुभिर्दिनः साधितविद्याचिमालिनीन्दुवदना सदनं जगाम । मातरपितरौ द्वयोर्मनो विज्ञाय तयोर्विवाहं चक्रतुः । तौ रतिरसरंजितौ साधितप्रज्ञप्तिविद्यौ नन्दनवने शान्तिहेतवे जिनस्नपनपूजनस्तवनानि कृत्वा सुखं स्थितौ । मनोजयचित्तवेगौ तस्या मैथुनिकावागत्य महाजालिनीविद्यया रुद्रमालिनं वद्ध्वा प्रगृह्य गतौ । सोऽपि तौ निर्जित्य पुनरागतः । अचिमालिन्या सह निजपुरं प्रविवेश । सानुरागस्तस्थौ । एकदा वैराग्यं प्राप्य चारणचरणमूले सभार्यो दिदीक्षे । तौ परस्परं ममायं कान्तो भविष्यति ममेयं प्राणप्रिया भविष्यतीति सनिदानौ सौधमं संन्यासेन गतौ । तत्रापि दीर्घकालं निसुखं भुक्त्वा गन्धारदेशे माहेश्वरपुरे स देवः सत्यन्ध र महाराज सत्यवत्योः सुतः सात्यकिर्जातः । अचिमालिनीचरी देवी सौधर्माच्च्युत्वा सिन्धुदेशे विशालीपत्तने चेटकमहाराजसुप्रभादेव्योः सुता ज्येष्ठा जाता । सा सात्यकेः पूर्वमेव दत्ता । परं विवाहो न वर्तते । अवान्तरे श्रेणिकमहाराजपुत्रः कस्यार्थं सार्थवाहो भूत्वा अभयकुमारो नाम धूर्तस्तत्रागतः । तत्र राजपुत्र्यौ चेलनां ज्येष्ठां च चालयित्वा उपायं कृत्वा सुरगया निःसृतः । तत्र चेलनया जेष्ठा आभरणादिमिषेण व्याघोटिता स्वयं श्रेणिकं आगता । यावज्ज्येष्ठा जिनप्रतिमां गृहीत्वा गच्छति बहुत दिनों में विद्या सिद्ध कर, चन्द्रमुखी, इन्दुमालिनी अपने घर चल गई। माता-पिता ने दोनोंका मन जानकर उनका विवाह कर दिया । रतिके रागसे रंगे तथा प्रज्ञप्ति नामक विद्या को सिद्ध करने वाले वे दोनों शान्ति के हेतु नन्दन वनमें जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक पूजन तथा स्तवन कर सुखसे बैठे थे। इतने में मनोजय और चित्तवेग नामके दो विद्याधर जो कि अर्चिमालिनी के अभिलाषी थे महाजालिनी विद्या से रुद्रमाली को बाँधकर ले गये । परन्तु रुद्रमाली उन दोनोंको जीतकर फिर आगया । अर्चिमालिनीके साथ उसने नगर में प्रवेश किया तथा अनुराग पूर्वक रहने लगा । एक दिन उसने विरक्त होकर चारण ऋद्धिधारी मुनिके चरण मूलमें स्त्रीके साथ दीक्षा ले ली अर्थात् रुद्रमाली मुनि होगया और अर्चिमालिनी आर्यिका बन गई । उन दोनों ने 'परस्पर यह मेरा पति होगा और यह मेरी स्त्री होगी' इस प्रकार निदान कर संन्यास धारण किया और मरकर सौधर्म स्वर्गं गये । वहाँ भी दीर्घकाल तक रति सुखका उपभोग कर देव तो गन्धार देशके माहेश्वर पुरनगर में महाराज सत्यन्धर और उनकी . रानी सत्यवतीके सात्यकि नामका पुत्र हुआ । तथा अर्चिमालिनी का जीव देवी सौधर्मं स्वर्गसे च्युत हो सिन्धुदेश के विशाली नगर में महाराज चेटक ३९. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy