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-६. ३९ ]
मोक्षप्राभृतम्
( तच्च रुई सम्मत्तं ) तत्वरुचिः सम्यक्त्वं तत्वानां जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षलक्षणोपलक्षितानां सप्तानां रुचिः श्रद्धा सम्यक्त्वमुच्यते । "तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं" इति वचनात् । ( तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं ) तत्वानां पूर्वोक्तसप्तपदार्थानां ग्रहणं सम्यग्विज्ञानं भवति सज्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं । ( चारित्तं परिहारो ) चारित्रं पापक्रियापरिहरणं परिहारः सम्यक्चारित्रं भवति । ( पयंपियं जिणवरिदेहि ) प्रजल्पितं कथितं जिनवरेन्द्र: ।..
दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दंसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं ॥ ३९ ॥ दर्शनशुद्धः शुद्धः दर्शनशुद्धः लभते निर्वाणम् । दर्शनविहोनपुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम् ।। ३९ ।। ( दंसणसुद्धो सुद्धो ) दर्शनेन सम्यग्दर्शनेन सम्यक्त्वेन शुद्धो निर्मल निरतिचार: पंचविंशतिदोषरहितः पुमान् शुद्धः कथ्यते । उक्तं च
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सम्यग्दर्शनसंशुद्धमपि
मातंगदेहजं । देवा देवं विदुर्भस्मगुढाङ्गारान्तरोजसं ॥ १ ॥
है और पाप का परिहार होना सम्यक्चारित्र है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् कहा है ॥ ३८ ॥
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विशेषार्थ - जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वोंकी रुचि श्रद्धा होना सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन कहलाता है । क्योंकि 'तत्वार्थं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थात् यथार्थतासे सहित जीवादि तत्वोंका श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है, ऐसा आगम में कहा गया है। पूर्वोक्त सात तत्वोंका ग्रहण करना अर्थात् उनके यथार्थ स्वरूपको जानना सम्यग्ज्ञान कहा जाता है और पापका परित्याग होना सम्यक्चारित्र . कहलाता है, ऐसा जिनवरेन्द्र - तीर्थंकर सर्वज्ञ देवने कथन किया है ||३८||
गाथार्थ - सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुष्य, शुद्ध कहलाता है । सम्यग्दर्शन शुद्ध मनुष्य निर्वाणको प्राप्त होता है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है वह इष्ट लाभ को नहीं पाता ॥ ३९ ॥
से
विशेषार्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शन में कभी अतिचार नहीं लगाता तथा पच्चीस दोषों से रहित है वह शुद्ध कहलाता है । कहा भी है
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सम्यग्दर्शन - सम्यग्दर्शन से शुद्ध चाण्डाल को भी गणधरादिक देव, भस्म के भीतर छिपे अङ्गारके समान आभ्यन्तर तेजसे युक्त देव कहते हैं।
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