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भावप्राभृतम्
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सुघोप्रध्योरुपन्यासं श्रुत्वा ब्राह्मणमुख्याः साधवः प्राहुः प्राणिवषाद्धर्मो न भवति । नारदे मत्सरित्वात् पर्वतोऽवन्यामधमं प्रवर्तयितुं दुरात्मोपन्यास्थत् । पतितोऽयमयोग्यः सहसंभाषणादिषु इत्युक्त्वा चपेटाभिस्ताडितः निर्भत्सतोऽयं पापात्मा लोके घोषितः । दुर्बुद्धेः फलमत्रैवे दृशं भवति । एवं सर्वैरपि बहिष्कृतो मानभंगाद्वनं जगाम तत्र ब्राह्मणवेषेण कृतान्तारोहणासन्नसोपानपदवीमिव बलीरुद्वहता अन्धचक्षुषेव मुहुः स्खलता विरलेनां सितेन मूर्धजेन ततं राजतं शिरस्त्राणं समीपयम'जादुभयादिव दघता जराङ्गनासमासन्नसुखेनेव मीलन्चक्षुषा चलच्छिन्नकरेण करिव कुपितसर्पेणेव ऊर्ध्वश्वासिना राजवल्लभेनेवाऽग्रतो' स्फुटं पश्यता भग्नपृष्ठेन अपटुजल्पितेन 'समेन योग्यदण्डेन राज्ञेव त्रिगुणीकृतमुपवीतंघारयता विश्वभूनृप - सुलसासु निजं बद्धक्रोधं वक्तुमिव स्वाभिमतारंभसिद्धिगवेषिणा पर्यंते पर्यटन् पर्वतो महाकाला सुरेण दृष्टः सन् तमभिगम्यानम्य चाभिवादनमभ्यधात् । महाकालस्तं
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इस प्रकार सबके द्वारा बहिष्कृत होकर मान भंगके कारण पर्वत वनमें
चला गया।
वहीं वनमें मधुपिङ्गल मुनिका जीव महाकाल नामका असुर घूम रहा था। वह ब्राह्मणके वेषमें था, यमराजके चढ़नेके लिये निकटवर्ती सीढ़ियोंके मार्ग के समान अनेक बलियों सिकुड़नोंको धारण कर रहा था, अन्धे मनुष्य की तरह वार वार गिर रहा था । उसके शिर पर विरल तथा सफेद बाल व्याप्त थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो समीपवर्ती यमराज से होनेवाले भयके कारण चाँदीका शिरस्त्राण ही धारण कर रहा हो । उसके नेत्र कुछ कुछ बन्द थे उनसे ऐसा जान पड़ता था कि मानों वृद्धावस्था रूपी स्त्रीके आलिङ्गनसे उत्पन्न सुखसे ही उसके नेत्र बन्द हो गये थे । वह उस हाथीके समान जान पड़ता था जिसकी कटी सूंड हिल रही हो । क्रुद्ध साँपके समान ऊपर को श्वास खींच रहा था, राजा के प्रिय मनुष्यके समान आगे स्पष्ट नहीं देखता था, उसकी पीठ शुकी हुई थी. वार्तालाप अस्पष्ट था, हाथ में योग्य दण्ड लिये हुए था इसलिये योग्य दण्ड- सेनासे सहित राजाके समान जान पड़ता था । विश्वभू मन्त्रो, सगर राजा और सुलसा स्त्री पर अपने बद्ध क्रोधको प्रकट करनेके लिये ही मानों तीन लड़ का यज्ञोपवीत धारण कर रहा था और अपने इष्ट कार्यके आरम्भ सम्बन्धी सफलता की खोज कर रहा था ।
१. मनतः स्फुटं क० ।
१. असमेन योग्यबण्डेन म० ।
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