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________________ १३६ षट्नाभृते [५. १४३ (जह तारयाण चंदो) यथा तारकाणां ताराणां मध्ये चन्द्रोऽधिक इति सम्बन्धः । ( मयराओ मयउलाण सव्वाणं ) मृगराजः सिंहः मृगकुलानां मध्ये सर्वेषामपि अधिकः प्रधानभूतः ( अहिओ तह सम्मत्तो) अधिकं तथा सम्यक्त्वं । केषां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं, (रिसिसावयदुविहधम्माणं ) ऋषीणां दिगम्बराणां श्रावकाणां च देशयतीनां द्विविधधर्माणां मध्ये सम्यक्त्वमधिकं प्रधानभूतमित्यर्थः अस्य षट्प्राभृतग्रन्थस्य प्रारंभपरिसमाप्तिपर्यतं सम्यक्त्वमेव प्रशंसितमिति तात्पर्यार्थो ज्ञातव्य इति भावः। जह फणिराओ रेहइ फणमणिमाणिक्ककिरण विष्फुरिओ। तह विमलदंसणधरो जिणभत्तीपवयणे जीवो ॥१४३॥ यथा फणिराजो राजते फणमणिमाणिक्यकिरणविस्फुरितः। तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिप्रवचनो जीवः ॥१४३।। (जह फणिराओ रेहइ ) यथा मणिराजो धरणेन्द्रो राजते शोभते । कथंभूतः सन् राजते, ( फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ) फणानां सहस्रसंख्यफटानां पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि-धर्म और श्रावक-धर्म इन दोनों धर्मोमें सम्यक्त्व प्रधान है ॥१४२।। - विशेषार्थ-यहां उपमालंकार द्वारा आचार्य सम्यग्दर्शन को महिमा बतलाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त ताराओं में प्रधान है और सिंह समस्त मगों के समूह में प्रधान है, उसी प्रकार सम्यक्त्व मुनि और श्रावक-दोनों धर्मों में प्रधान है, अतः सम्यक्त्व को सर्व प्रथम प्राप्त करना चाहिये। इस षट्प्राभत ग्रन्थ में प्रारम्भ से लेकर समाप्ति पर्यन्त सम्यक्त्व की ही प्रशंसा की गई है, यह इस गाथाका तात्पर्य है।। १४२ ॥ __गाथार्थ-जिस प्रकार हजार फणाओं पर स्थित मणियों के बीच में विद्यमान माणिक्य की किरणोंसे देदीप्यमान शेषनाग शोभित होता है उसी प्रकार जिनभक्ति रूप सिद्धान्त से युक्त निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जीव शोभित होता है ।। १४३ ।। विशेषार्थ-पद्मावती देवीका पति धरणेन्द्र नामका शेषनाग पातालसम्बन्धी स्वर्गलोक का स्वामी है। श्री भगवान् पार्श्वनाथ का उपसर्ग दूर करने के लिये उस धरणेन्द्र ने विक्रिया से एक ऐसे नागका रूप बनाया १. पं० जयचन्द्रकृत वचनिकायां 'रेहइ' स्थाने 'सोहइ' पाठो विद्यते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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