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भावप्राभृतम्
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मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजन प्रतिबन्धकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणे महापापमुत्पद्यते । तथा चोक्तं कालिदासेन महाकविना
"निवार्यतामालि ! किमप्ययं वटुः पुनववक्षुः स्फुरितोत्तराधरः । न केवलं यो महत्तां विभाषते शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक् ॥१॥ तेन जिनमुनिनिन्दका लौकाः परिहर्तव्याः । तथा चोक्तंखलानां कंटकानां च द्विधैव हि प्रतिक्रिया | उपानन्मुखभंगो वा दूरतः परिवर्जनम् ॥ १ ॥ जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं । अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं ॥ १४२ ॥ तथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजो मृगकुलानां सर्वेषाम् । अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावक द्विविधधर्माणाम् ॥ १४२ ॥
लक लोग जिनाभिषेक तथा जिन पूजाके निषेधक होनेसे अतिशय पापी मिथ्या दृष्टि हैं उनके साथ संभाषण नहीं करना चाहिये । उनके साथ संभाषण करनेमें महापाप उत्पन्न होता है । जैसा कि महाकवि कालिदास ने कहा है
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निवार्यता - पार्वती अपनी सखी से कहती है कि सखि ! इस ब्राह्मण को यहाँ से हटाओ, इसके होठ कांप रहे हैं इसलिये जान पड़ता है कि यह फिर भी कुछ कहना चाहता है। जो महापुरुषों की निन्दा करता है, केवल वही पापी नहीं होता किन्तु जो उससे निन्दा के वचन सुनता है. वह भी पापी होता है ।
इसलिये जिन मुनियों की निन्दा करने वाले लोक दूर से ही छोड़ देने के योग्य हैं । कहा भी है
खलानां - दुष्ट पुरुष और कांटों का प्रतिकार दो प्रकार से होता है। या तो जूतों से उनका मुख भङ्ग कर दिया जाय या दूर से छोड़ दिया जाय ।
. गाथार्थ - जिस प्रकार समस्त ताराओं में चन्द्रमा और समस्त वन्य१. कुमारसंभवे ।
२. परीक्षा करने के लिये महादेवजी एक ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पार्वती के पास गये और महादेव की निन्दा करने लगे । पार्वती ने उसके निन्दा वचनों का समाधान किया परन्तु वह फिर भी कहने के लिये उत्सुक हुआ तब सलीके प्रति पार्वती ने उपयुक्त वचन कहे ।
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