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षट्प्राभृते
[५.४६(अण्णं च वसिट्ठमुणी ) अन्यच्च भावरहितद्रव्यमुनिदृष्टान्तकथानकं वर्तते । . तत्कि वशिष्ठमुनिः। (पत्तो दुक्खं नियाणदोसैण ) प्राप्तो दुःखं निदानदोषेण शत्रुबधप्रार्थननिदानदोषेणतवमेन विष्णुना यः कंसनामा नृपो मारितः स वशिष्ठमुनिचरो मल्लयुद्धे मरणदुःख प्राप्तः । (सो णत्थि वासठाणो ) तन्नास्ति वासस्थानं जन्ममरणस्थानं । ( जत्थ न लुरुक्षुल्लिओ जीव ) हे जीव ! हे आत्मन् ! यत्र त्वं न जातो नोत्पन्नश्च दुरुढुल्लिओ भ्रान्त इति । वशिष्ठस्य कथा यथा___ गंगागन्धवत्यो द्योः संगमे जठरकौशिकं नाम तापसानां पल्ली बभूव । 'तत्र वशिष्ठो नायकः पंचाग्निव्रतं चरन्नास्ते स्म । तत्र गुणभद्रवीरभद्रनामचारणमुनिवरौ जगदतुः-अज्ञानकृतमिदं तप इति । तत्व त्वा वशिष्ठः कुधीः सक्रोधं तयोः पुरतः स्थित्वा पप्रच्छ–कस्मान्मेऽज्ञानतेति । तत्र गुणभद्रो भगवानाह यतः
विशेषार्थ-भाव रहित द्रव्य मुनिका दूसरा दृष्टान्त भी है। वह यह कि वसिष्ठ नामका मुनि जो आगे चलकर कंस हुआ था, शत्रु के मारने की अभिलाषा रूप निदान के दोषसे नौवें नारायण श्री कृष्ण के द्वारा मल्ल युद्ध में मरण के दुःखको प्राप्त हुआ। वह जन्म-मरण का स्थान कोई ऐसा नहीं है जहाँ हे जीव ! तू न उत्पन्न हुआ हो, अथवा न घूमा हो । वशिष्ठ मुनिकी कथा इस प्रकार है__गङ्गा और गन्धवतो नदियों के संगम स्थान पर जठर कोशिक नामकी तापसियों की वसति थी। उसका नायक वशिष्ठ नामका साधु था जो पञ्चाग्नि व्रतका आचरण करता हुआ रहता था। एक वार वहाँ गुणभद्र और वीरभद्र नामक चारण ऋद्धि धारी मुनिराज पहुंचे। उन्होंने वशिष्ठ से कहा कि तुम्हारा यह तप अज्ञान के द्वारा किया हुआ है। यह सुनकर दुबुद्धि वशिष्ठ ने क्रुद्ध हो उनके आगे खड़ा होकर पूछा कि मेरी अज्ञानता किस कारण है ? उनमें भगवान गुणभद्र ने कहा क्योंकि सत्पुरुष हितभाषी होते ही हैं। उन्होंने जटाओं के समूह में उत्पन्न जुएं तथा लीखोंके निरन्तर घात को, जटाओं के मध्यमें लगी हुई छोटो छोटी लोखोंको तथा जलते हुए काठके मध्यमें स्थित कीड़ोंको दिखा कर समझाया कि तुम्हारा अज्ञान यह है। काललब्धि पाकर उस वशिष्ठ साधुने बुद्धिमान हो निम्रन्थ तप अर्थात् दिगम्बरो दीक्षा धारण कर ली और उपवास के साथ आतापन योग ग्रहण किया। उसके महान् तपके माहात्म्य से सात व्यन्तर देवताओं ने आगे खड़े होकर कहा-मुनिराज ! 'आज्ञा देओ' । मुनिने कहा इस समय मेरा कोई प्रयोजन नहीं है इसलिये तुम
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