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________________ -४. ९ ] बोधप्राभूतम् १५१ रागशासने वर्तते एव, को मिथ्यादृष्टिः पापीयांस्तल्लोपयति ? यश्चैत्य चैत्यगृहं च न मानयति स महापातकी भवति । अतएव चोक्तं गौतमेन भगवता - यावन्ति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्या त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ॥ ( छक्का हियंकरं भणियं ) चैत्यगृहं षट्कायानां हितङ्करं स्वर्गमोक्षकारकं भणितं जिनागमे प्रतिपादितम् । चैत्यगृहार्थं या मृत्तिका खन्यते सा काययोगेनोपकारं चैत्यगृहस्य कृत्वा शुभमुपार्जयति तेन तु पारम्पर्येण स्वर्गमोक्षं लभते । यज्जलं चैत्यगृहस्य कार्यमायाति तद्वत्तदपि शुभभाग् भवति । यत्तेजोऽग्निः चैत्यगृहनिमित्तं प्रज्वाल्यते तदपि तद्वच्छुभं लभते । यो वायुश्चैत्यगृह - निमित्तं वह्निसंधुक्षणाद्यर्थं विराध्यते धूपाङ्गारहविः पाकार्थं चोत्क्षेपनिक्षेपणं प्राप्यते सोऽपि तद्वच्छुभं प्राप्नोति । यो वनस्पतिः पुष्पादिकश्चैत्यगृहपूजाद्यर्थं लूयते सोऽपि काययोगेन पुण्यमुपार्जयति तस्यापि शुभं भवति । उक्तञ्च - • फुल्ल पुकारइ वागियहि कहियो जिणहं चडेसि | धम्मी को विन आवियउ कंपिय धरणि पडेसि ॥ १ ॥ और जिनमन्दिर को नहीं मानता है वह महान् पापी है । इसलिये भगवान गौतम ने कहा है यावन्ति - तीनों लोकों में जितने चैत्यालय हैं मैं सदा भक्ति - पूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार करता हूँ । चैत्यगृह -- जिनमन्दिर को जिनागम में षट्कायिक जीवों का हितकारक -स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त कराने वाला कहा है। चैत्यगृह के निर्माण के लिये जो मिट्टी खोदी जाती है वह काययोग के द्वारा चैत्यगृह का उपकार करके पुण्य कर्मका उपार्जन करती है और उस पुण्यकर्म के द्वारा परम्परासे स्वर्गं तथा मोक्षको प्राप्त होती है। जो जल चैत्यगृह के काम आता है वह भी मिट्टी की तरह पुण्यको प्राप्त होता है । जो अग्नि चैत्यगृहके निमित्त जलाई जाती है वह भी उसी तरह पुण्यको प्राप्त होती है । जो वायु चैत्यगृह के निमित्त अग्नि को प्रदीप्त करने के लिये विराधित होती है अथवा धूपके अङ्गार और नैवेद्य के पाकके लिये उत्क्षेप - निक्षेपको प्राप्त होती है ऊँची-नीची को जाती है वह भी उसी तरह पुण्य को प्राप्त होती है। जो पुष्प आदि वनस्पति चेत्यगृह की पूजाके लिये छेदी जाती है वह भी काय योगके द्वारा पुण्य उपार्जन करती है, अतः उसका भी भला होता है। कहा भी गया है फुल्क — बागवान् फूलसे कहता है कि फूल ! तुम जिनेन्द्र भगवान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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