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अन्यञ्च -
षट्प्राभृते
केrय वाडी वाईया केणय वीणिय फुल्ल ।
hra जिगह चडाविया ए तिष्णि व समतुल्ल ॥ २॥
' तथा सानामपि यथासंभवं पुण्योपार्जनममुया दिशा ज्ञातव्यम् । चेइयहरं — चैत्यगृहाधिकारः समाप्त इत्यर्थः ॥ ३ ३॥
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को कैसे चढाये जाओगे क्योंकि कोई धर्मात्मा जीव नहीं आ रहा है, तुम यू ही कंपित होकर पृथिवी पर गिर जाओगे ।
और भी कहा है
hणय - किसी ने वाटिका लगवाई, किसी ने फूल चुने और किसी ने जिनेन्द्र भगवान् को चढाये । ये तीनों ही पुरुष एक समान हैं—एक समान ही पुण्यको प्राप्त होते हैं ।
[ ४. ९
इसी पद्धति से सजीवों के भी यथासम्भव पुण्यका उपार्जन होता है ऐसा जानना चाहिये ।
इस प्रकार चैत्यगृह नामका दूसरा अधिकार समाप्त हुआ । २
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षट् प्राभृत की एक संस्कृत टोका अन्य संक्षिप्त है आदि अन्त पत्र न होने से
आचार्य कृत है, जो अत्यन्त कर्ता का नाम विदित नहीं हो
१. म० प्रती अयं पाठो नास्ति ।
२. इस गाथाके पूवा में आये हुए 'अप्पयंतस्स' पाठ की छाया पं० जयचन्द्र जी ने 'आत्मकं तस्य' ऐसा स्वीकृत कर गाथा का अर्थ निम्न प्रकार किया है— 'जाकै बंघ अर मोक्ष बहुरि सुख और दुःख ये आत्मा के होंय, जाके स्वरूप में होंय सो चैत्य कहिये जातै चेतना स्वरूप होय ताही के बंध मोक्ष सुख दुःख संभव ऐसा जो चैत्य का गृह होय सो चैत्यगृह है । जो जिनमार्ग विषै ऐसा चैत्यगृह छह कायका हित करने वाला होय, सो ऐसा मुनि है, सो पाँचथावर अरस में विकलत्रय अर असैनी पंचेन्द्रिय तांई केवल रक्षा ही करने योग्य हैं तातें तिनकी रक्षा करने का उपदेश करे है, तथा आप तिनिका घात न करें हैं तिनिका यही हित है, बहुरि सैनी पञ्चेन्द्रिय जीव हैं तिनिकी रक्षा भी करें हैं, तथा तिनकू संसार ते निवृत्ति रूप मोक्ष होनेका उपदेश करें हैं, ऐसे मुनिराज को चैत्यगृह कहिये ।
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