SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्प्राभृते [२. ३०-. ( हिंसाविरइ अहिंसा ) हिंसाविरतिरहिंसा प्राणातिपातविरतिभवति । (अस- . च्चविरई) असत्यविरतिद्वितीयं महाव्रतं भवति । ( अदत्तविरई य ) अदत्त विरतिश्चादत्ताद्विरतिरदत्तविरतिस्तृतीयं महाव्रतं भवति । ( तुरियं अबंभविरई ) अब्रह्मविरति मैथुनाद्विरमणं तुरियं-चतुर्थं महाव्रतं ज्ञातव्यम् । “चतुरो यदीयौ चलोपश्चेति" सूत्रसाधुत्वात् । (पंचमसंगम्मि विरई य ) पंचमं महाव्रतं भवति । का ? सङ्ग परिग्रहे विरतिश्च परिग्रहाद्विरमणमित्यर्थः ॥२९॥ ... साहति ज महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं । जं च महल्लाणि तदो महल्लया इत्तहे ताई ॥३०॥ साधयन्ति यन्महान्तः आचरितं यन्महत्पूर्वैः । यच्च महान्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि ॥३०॥ ( साहति ज महल्ला ) साधयन्ति यद्यस्मात्कारणात् प्रतिपालयन्ति । के ते? . महल्ला-महान्तो गुरूणामपि गुरवः पुरुषः । ( आयरियं जं महल्लपुव्वेहि ) आचरितमादृतं वा यद्यस्मात् कारणात् महल्लपुव्वेहि-महद्भिः गुरुभिः पूर्वैः चिरन्तनाचार्यः वृषभादिभिमहावीर-पर्यन्तैः वृषभसेनादिगौतमात्त-गणधरश्च जम्बू विशेषार्थ-त्रस और स्थावर-दोनों प्रकारके जीवोंके प्राणघातसे विरत होना सो अहिंसा महाव्रत है। असत्य वचन से विरत होना सो सत्यमहावत है। विना दी हुई वस्तुके ग्रहण से विरत होना अदत्तत्याग अथवा अचौर्य महाव्रत है। स्त्रीसेवन से विरति होना सो अब्रह्मत्याग अथवा ब्रह्मचर्य महावत है और परिग्रह का सर्वथा त्याग होना सो परिग्रहत्याग महाव्रत है ॥२९॥ आगे महाव्रत नामकी सार्थकता बतलाते हैं गाथार्थ-चूंकि महापुरुष इनका साधन करते हैं, पूर्ववर्ती महापुरुषों ने इनका आचरण किया है, और स्वयं ही ये महान् हैं अतः उन्हें महाव्रत कहते हैं ॥३०॥ विशेषार्थ-अहिंसा आदिको महाव्रत क्यों कहते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कुन्दकुन्दस्वामीने तोन हेतु दिये हैं । प्रथम हेतु में उन्होंने कहा है कि चूंकि महापुरुष अर्थात् गुरुओं के भी गुरु श्रेष्ठ जन इनका साधन करते हैं इसलिये इन्हें महाव्रत कहते हैं। दूसरे हेतु में उन्होंने कहा है कि चूंकि पूर्ववर्ती बड़े बड़े आचार्यों ने, भगवान् वृषभदेव को आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy