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________________ ७०८ षट्प्राभृते [८.३६-३८लावण्णसीलकुसला जम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स। सो सोलो स महप्पा भमित्थ गुणवित्थरो भविए ॥३६॥ . लावण्यशोलकुशलाः जन्ममहीरुहः यस्य श्रवणस्य । ... स शोल: सः महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारे भव्ये ॥ ३६॥ गाणं झाणं जोगो दसणसुद्धी य वोरियावत्तं । सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं ॥३७॥ ज्ञानं ध्यानं योगो दर्शनशुद्धिश्च वीर्यत्वं । सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधि ॥ ३७॥ जिणवयणगहिदसारा विसयबिरत्ता तवोधणा धीरा। सोलसलिलेण व्हावा ते सिद्धालयसुहं जंति ॥३८॥ जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः। शीलसलिलेन स्नाताः ते सिद्धालयसुखं यान्ति ॥ ३८॥ विनय और शील से सहित हैं वे सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं और वे ही सिद्ध कहलाते हैं ॥३५॥ ___ लावण्णशील-जिस मुनि का जन्म रूपी वृक्ष लावण्य और सील से कुशल है वह शीलवान् है, महात्मा है तथा उसके गुणों का विस्तार लोक में व्याप्त होता है। भावार्थ-जिस मुनि का जन्म जीवों को अत्यन्त प्रिय है तथा समता भाव रूप शील से सुशोभित है वही मुनि शीलवान कहलाता है वही महात्मा कहलाता है और उसी के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं॥३६॥ णाणं झाणं-ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धि-निरतिचार प्रवृत्ति ये सब वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन के द्वारा जीव जिनशासन सम्बन्धी बोधिरत्नत्रय रूप परिणति को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-आत्मा में वीर्य गुण का जैसा विकास होता है उसी के अनुरूप ज्ञान, ध्यान, योग और दर्शन की शुद्धता होती है तथा सम्यग्दर्शन के द्वारा जीव जिनशासन में बोधि-रत्नत्रय का जैसा स्वरूप बतलाया है उस रूप परिणति को प्राप्त होते हैं ॥३७।। जिणवयण-जिन्होंने जिनेन्द्र देव के वचनों से सार ग्रहण किया है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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