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भावप्राभृतम्
वित, चतुर्विधो विनयः, दशविधं वैयावृत्यं पंचविधः स्वाध्यायः, द्विविधो व्युत्सर्गः, चतुविधं ध्यानं चेति षड्विधमभ्यन्तरं तप इति द्वादशविधं तपः । किं तन्नafai प्रायश्चित्तमिति चेत् ? गुरोरग्रे स्वप्रमादनिवेदनं दशदोषरहितमालोचनं । के ते दश दोषा आलोचनाया इति चेत् ? -
'आकंपिय अणुमणि जं दिट्ठ बाअरं च सुहमं च । छन्नं सद्दाउल बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥ १ ॥
पुरुषस्यैकान्ते द्वयाश्रयमालोचनं, स्त्रियास्तु प्रकाशे ध्याश्रयमालोचनं महदपि तपश्चरणमालोचनरहितं तत्प्रायश्चित्तमकुर्वतो वा अभीष्टफलदं न भवतीति ज्ञातव्यं । दोषमुच्चार्योच्चार्य मिथ्या में दुष्कृतमस्तु इत्येवमादिरभिप्रेतः प्रतीकारः प्रतिक्रमणं एतत्प्रतिक्रमणमाचार्यानुज्ञया शिष्येणैव कर्त्तव्यं । आलोचनं प्रदाय प्रति
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प्रश्न - प्रायश्चित्त तपके नौ भेद कौन हैं ?
उत्तर - आलोचना, प्रतिक्रमण तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ये प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है
गुरु के आगे दश दोष रहित होकर अपना अपराध निवेदन करना आलोचना है ।
आकंपिअ - आकम्पित अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन अव्यक्त और तत्सेवी ये आलोचना के दश दोष हैं । इनका विवेचन दर्शन प्राभृतकी गाथा ९ में किया जा चुका है। पुरुष को एकान्त
दो जनों के समक्ष और स्त्रीको प्रकाश में तीन जनोंके समक्ष आलोचना करना चाहिये । आलोचना से रहित बहुत बड़ा भी तपश्चरण प्रायश्चित्त न करने वाले साधु को इष्ट फल नहीं देता है, ऐसा जानना चाहिये । दोष का बार-बार उच्चारण कर मेरा पाप मिथ्या हो इस प्रकार कह कर अपनी इच्छानुसार उसका प्रतिकार करना प्रतिक्रमण कहलाता है । यह प्रतिक्रमण आचार्य की आज्ञा से शिष्य को ही स्वयं करना चाहिये । जिसमें गुरुके लिये आलोचना देनेके बाद प्रतिक्रमण स्वयं शिष्यको करना पड़ता है वह तदुभय कहलाता है । जहाँ शुद्ध वस्तुमें भी अशुद्धपनेका संशय अथवा विपर्यय ज्ञान होता है अथवा अशुद्ध वस्तु में शुद्धपने का निश्चय होता है अथवा छोड़ी हुई वस्तु पात्र में आ जाती है अथवा मुख में पहुँच जाती है अथवा जिस वस्तु के ग्रहण करने पर कषायादिक
१. अस्या गाथाया गर्यो दर्शन-प्राभृतस्य नवमगाथायां दृष्टव्यः ।
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