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________________ ४१६ बटुप्राभूते [ ५.७८ क्रमणमार्येणैव कर्तव्यं तत्तदुभय मुच्यते । शुद्धस्याप्यशुद्धत्वे यत्र सन्देहविपर्ययो भवतः, अशुद्धस्य शुद्धत्वेन निश्चयो वा यत्र, प्रत्याख्यातं यत्तद्वस्तु भाजने मुखे वा प्राप्तं यस्मिन् वस्तुनि गृहीते कषायादिकमुत्पद्यते तस्य सर्वस्य त्यागो विवेकः । नियतकालकायवाङ्मनसां त्यागो व्युत्सर्गः । तपो बाह्य कथितमेव । दिनपक्षमासादिविभागेन दीक्षाहापनं छेदः । दिवसादिविभागेनैव दूरतः परिवर्जनं परिहारः । महाव्रतानां मूलच्छेदनं कृत्वा पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तकपिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचना‍ करणे संघनाथमपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रत विशेषस्य धर्मकथादिव्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्त ं । षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने व्रतसमिति विकार उत्पन्न होता है, उस सबका त्याग करना विवेक कहलाता है। किसी निश्चित समय तक शरीर वचन और मनका त्याग करना अर्थात् इनकी प्रवृत्ति को रोकना व्युत्सर्ग है । बाह्य तप ऊपर कहा ही जा चुका है । दिन पक्ष तथा मास आदि के विभाग से दीक्षा कम करना छेद है । दिन आदि के विभाग द्वारा अर्थात् किसी निश्चित अवधि तक के लिये दूर छोड़ना परिहार है । और महाव्रतों का मूलच्छेद करके फिर से नई दीक्षा देना उपस्थापना है । आचार्य से पूछे विना आतापन आदि योग धारण करना, बिना पूछे पुस्तक पीछी आदि दूसरों के उपकरण ग्रहण करना, दूसरे के परोक्ष में अर्थात् यदि कोई देखने वाला न हो ऐसी स्थिति में प्रमाद से आचार्य आदि के वचनों का पालन नहीं करना, संघके स्वामी से पूछे बिना अपने संघसे चला जाना, देश और कालके नियमानुसार अवश्य ही करने योग्य व्रत- विशेष का धर्म - कथा आदि में लग जानेसे भूलजाना तथा बाद में उसका करना, इन कार्योंमें तथा इसी प्रकारके अन्य कार्यों में भी आलोचना ही प्रायश्चित होता है । मन सहित स्पर्शनादि छह इन्द्रियों और वचन आदि की दुष्प्रवृत्ति होना, आचार्य आदि पूज्य जनोंको अपने हाथ तथा पाँव आदिका धक्का लग जाना, व्रत समिति और गुप्तियों में थोड़ा अतिचार लग जाना, चुगली तथा कलह आदि करना, वैयावृत्य और स्वाध्याय आदि में प्रमाद करना, आहार के लिये गये हुए साधुके लिङ्गका उठना तथा दूसरेको संक्लेश करने वाली प्रवृत्तका होना आदि कार्योंके समय प्रतिक्रमण नामका प्रायश्चित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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