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-६. ५६] मोक्षप्राभृतम्
६३१ जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्य खंडदूसयरो। सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ॥५६॥
यः कर्मजातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खण्ढदूषणकरः। __स तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषको भणितः ॥५६॥
( जो कम्मजादमइओ ) यः पुमान् कर्मजातमतिक इन्द्रियानिन्द्रियाणि खलु कर्मजातानि तदुत्पन्नमतिलेशसंयुक्तः । (सहावणाणस्स खंडदूसयरो) स्वभावज्ञानस्यात्मोत्थज्ञानस्य केवलज्ञानस्य दूसयरो-दोषदायकः । आत्मनः खल्वतीन्द्रियज्ञानं नास्ति चक्षुरादीन्द्रियजनितमेव ज्ञानं वर्तते इत्येवं स्वभावज्ञानस्य दूषणकरो भवति, अतीन्द्रियज्ञानं न मन्यते । खंडदूसयरो-खण्डज्ञानेन दूषणकरः कश्चिन्मिथ्यादृष्टिः । ( सो तेण दु अण्णाणी) स पुमान, तेन तु दूषणदानेन अज्ञानी ज्ञातव्यो ज्ञानिनः ज्ञेयो वेदितव्य इति यावत् । स कथंभूतः, ( जिणसासणदूसगो भणिदो) जिनशासनस्याहतमतस्य दूषको दोषभाषको भणितः स नरकदुखं प्राप्स्यति । तथा चोक्तं पुष्पदन्तेन महाकविना काव्यपिशाचखण्डकव्यपरनामद्वयेन
सव्वण्ह अणिदिओ णाणमउ जो मइमूढ न पत्तियइ । सो णिदिउ पंचिदियणिरउ वैतरणिहि पाणिउ पियइ ॥१॥
गाथार्थ-कर्म जन्य मतिज्ञान को धारण करने वाला जो जीव स्वभाव ज्ञान-केवल ज्ञान का खण्डन करता है अथवा उसमें दोष लगाता है वह अपने इस कार्य से अज्ञानी तथा जिनधर्म का दूषक कहा गया है ॥५६॥
विशेषार्थ-जो पुरुष ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पाँच इन्द्रियों और मनके निमित्त से होनेवाले अल्पतम मति ज्ञानसे युक्त होकर भी आत्मोत्थ-स्वभावभूत केवलज्ञान को दोष देता है अर्थात् कहता है कि आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं है चक्षुरादि इन्द्रियों से होनेवाला ज्ञान ही है अतीन्द्रिय ज्ञानको नहीं मानता है तथा अपने खण्डज्ञानसे दूषण लगाता है उसे उस दूषण के देनेसे अज्ञानी जानना चाहिये । ऐसा पुरुष जिन शासक का दूषक कहा गया है तथा उसके फल स्वरूप वह नरकको प्राप्त करता है । जैसाकि काव्य पिशाच और खण्डकवि इन दो दूसरे नामों को धारण करने वाले महाकवि पुष्पदन्त ने कहा है___सम्बण्ड-'सर्वज्ञ अतीन्द्रिय तथा केवल ज्ञानमय है' ऐसा जो मूढमति
श्रद्धान नहीं करता है. वह निन्दित है, पञ्चेन्द्रियों के विषयों में निरत है तथा वैतरणी नदी का पानी पीता है अर्थात् मरकर नरक जाता है। .
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