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________________ ३६४ पद्माभृते [ ५.५१ नाम चत्वारिंशद्वर्षाणीह भरतक्षेत्रे विहरिष्यति । तदाकयं श्र णिकं स्थितेऽनावृतों देवो मदीयवंशस्येदं माहात्म्यमुद्धृतमोदृशमन्यत्र न दृष्टमित्युच्च रानन्दनाटकं [ कृतवान् तं ] दृष्ट्वा श्रेणिक उवाच - कस्मादनेनबन्धुत्वमस्य देवस्येति ? भगवान् गौतमो बभाण--जम्बूनाम्नो वंशे पूर्वं धर्मप्रिय श्रेष्ठी गुणदेवी श्रेष्ठिनी । तयोरर्हद्दासः सुतो धनयौवनमदेन पितुः शिलामगणयन् कर्मवशात् सप्तव्यसनेषु निरंकुशो बभूव । निजदुराचारेण दरिद्री संजातः । पश्चादुत्पन्नपश्चात्तापो मत्पितुः शिक्षा मया न श्रुता, उत्पन्नशमभावः किंचित्पुण्यमुपार्ज्यान वृतनामा साथ सुधर्म गणधर के चरण मूल में समचित्त होकर संयम ग्रहण करेगा । बारह वर्ष के बाद जब मैं मोक्ष चला जाऊँगा तब सुधर्माचार्यं केवली होंगे और जम्बूस्वामी श्रुत केवली होंगे तदनन्तर बारह वर्ष के बाद जब सुधर्माचार्य मोक्ष को प्राप्त होंगे तब जम्बू स्वामी केवली होंगे । जम्बू स्वामी का एक शिष्य जिसका कि नाम भव होगा व्यालीस वर्ष तक इस भरत क्षेत्र में विहार करेगा । यह सुनकर राजा श्रेणिक के रहते हुए अनावृत, देव कहेगा कि इसने ( जम्बू कुमार ने ) हमारे वंशका माहात्य बढ़ाया है ऐसा अन्यत्र नहीं देखा, ऐसा जोरसे कहकर वह हर्ष से नृत्य करने लगेगा । उसे देख राजा ने कहा कि जम्बकुमारके साथ इस देवकी बन्धुता किस प्रकार है ? भगवान् गौतम स्वामी कहने लगे - जम्बू कुमार के वंश में पहले धर्मप्रिय नामका एक सेठ था उसकी गुणदेवी नामकी स्त्री थी । उन दोनों अर्हद्दास नामका पुत्र था, वह धन और यौवन के मदसे पिताकी शिक्षा को न गिनता हुआ कर्मवश सात व्यसनों में स्वच्छन्द हो गया । अपने इस दुराचारके कारण वह दरिद्र हो गया । पीछे उसे इस बात का पश्चाताप हुआ कि मैंने अपने पिता की शिक्षा को नहीं सुना । इस तरह शमभाव उत्पन्न होनेपर किञ्चित् पुण्यका उपार्जन कर वह अनावृत नामका व्यन्तर देव हुआ । वहाँ इसे सम्यग्रूपी सम्पत्ति उत्पन्न हुई है इसलिये जम्बू कुमार के प्रति इसे बन्धुता के कारण प्रीति उत्पन्न हुई है। तदनन्तर श्रेणिक ने कहा- हे स्वामिन् ! यह विद्युन्माली किस कारण आया ? इसने पूर्व भव में क्या पुण्य किया था ? इसकी प्रभा आयु के अन्त तक अनाहत है | श्रेणिक के उपकार की बुद्धि से ही भगवान् गौतम स्वामी कहने लगे इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र सम्बन्धी पुष्कलावतो देशमें एक बीतशोक नाम का नगर है उसमें महापद्म नामका राजा रहता था उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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