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षट्प्राभृते
[ ६. ६६-६७
( भाविय सहावपुरिसो विसएसु विरच्चइ दुक्खं ) भावितस्वभावः पुरुषः आत्मभावनासहितोऽपि सूरिः यद्विषयेषु वनिताजनस्तनजघनवदनलोचनादिविलोने तद्वार्ता - लाप गोष्ठीषु शरीर स्पर्शनादिसुखेषु विरज्यति तत्सुख हालाहलंविषास्वदनवज्जानाति तदतीव दुःख दुष्करमीति तात्पर्यार्थः ।
ताव ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम । विस विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ॥ ६६ ॥
तावत् न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत् । विषये विरक्तचित्तः योगी जानाति आत्मानम् ॥ ६६ ॥
( ताव ण णज्जइ अप्पा ) तावत्कालमात्मा न ज्ञायते । तावत्कियत् ? ( विसएसु णरो पवट्टएं जाम ) यावत्कालं विषयेषु पूर्वोक्तलक्षणेषु नरो जीवः प्रवर्तते व्याप्रियते । ( विसए विरत्तचित्तो) विषये पूर्वोक्तलक्षणे विरक्तचित्तो निवृत्तचेता यती । ( जोई जाणेइ अप्पाणं ) योगी ध्यानवान् पुमान् महामुनिरात्मानं जानाति प्रत्यक्षतया पश्यति ।
अप्पा गाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्टा । हिंडति चाउरंगं विसएसु
विमोहिया मूढा ॥ ६७ ॥
आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित्सद्भाव प्रभ्रष्टाः । हिण्डन्ते चातुरङ्ग ं विषयेषु विमोहिता मूढाः ॥ ६७ ॥
गुणों का स्मरण आदि करना दुःख है - दुष्प्राप्य है तदनन्त र यदि आत्मा की भावना भी होती है तो स्त्री आदि विषयों से विरक्त होना दुःख हैदुष्प्राप्य है ॥ ६५ ॥
गाथार्थ - जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है तब तक आत्मा नहीं जानो जाती अर्थात् आत्म ज्ञान नहीं होता है । विषयों से विरक्त चित्त योगी ही आत्मा को जानता है ।। ६६ ।।
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विशेषार्थ - तब तक आत्मा नहीं जानो जाती जब तक की मनुष्य विषयों में प्रवृत्त होता रहता है । यथार्थ में विषयों से विरक्त चित्त योगी अर्थात् महामुनि ही आत्माको जानता है ॥ ६६ ॥
गाथार्थ - आत्माको जानकर भी कितने ही लोग सद्भाव की भावना से – निजात्म भावना से भ्रष्ट होकर विषयों में मोहित होते हुए चतुर्गति रूपी संसार में भटकते रहते हैं ॥ ६७ ॥
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