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________________ ५४३ ५. १४८] भावप्राभृतम् चक्रिणां कुरुजातानां नागेन्द्राणां मरुत्वताम् । अनन्तगुणितं सौख्यमुत्तरोत्तरवतिनां ॥२॥ तस्त्रिकालभवात् सौख्यादनन्तगुणितं सुखं । सिद्धानां तु क्षणार्धेन ते वो यच्छन्तु तच्छिवं ॥३॥ तथा ज्ञानं केवलज्ञानं लोकालोकवस्तुपरिज्ञायकं, दर्शनं चानन्तदर्शनं ज्ञानक्षण एव वस्तुसत्तास्वरूपेण ग्रहणलक्षणं बोद्धव्यं ( चत्तारि वि पायडा गुणा होति ) चत्वारोऽपि गुणाः प्रकटा भवन्ति । कस्मिन् सति, ( णट्ठ घाइचउक्के ) नष्टे विनाशं प्राप्ते घाइचउक्के-मोहज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायात्मकेवलज्ञानसाम्राज्यविध्वंसकारके कर्मशत्रुचतुष्टये । (लोयालोयं पयासेदि ) लोकालोकं प्रकाशयति । लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवपुद्गलधर्माधर्मकालाकाशा यस्मिन्निति लोकः । ते न चक्रिणां-चक्रवर्ती, भोगभूमिज, मनुष्य, नागेन्द्र और देव इनके उत्तरोत्तर अनन्त-गुणा सुख होता है ।।२।। तस्त्रिकाल-और इन सबको तीनकालमें जितना सुख होता है उससे अनन्त गुण सुख सिद्ध भगवान् को आधे क्षण में प्राप्त होता है । वे सिद्ध भगवान् तुम सबको मोक्ष प्रदान करें ॥३॥ - इसी प्रकार ज्ञान शब्द से लोक तथा अलोककी वस्तुओंको जानने वाला केवलज्ञान लेना चाहिये और दर्शन शब्द से अनन्त दर्शन अर्थात् केवल-दर्शनका ग्रहण करना चाहिये। यह केवलदर्शन ज्ञानके साथ ही वस्तुके सत्ता स्वरूपको ग्रहण करनेवाला होता है। मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये चार कर्म, आत्माके केवलज्ञान रूप साम्राज्य का विध्वंस करने वाले कर्म शत्रु हैं । इनका क्षय होनेपर ही ऊपर कहे हुए केवल ज्ञानादि गुण प्रकट होते हैं। जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, बाकाश और काल ये छह द्रव्य दिखाई देते हैं-वह लोक है और जिसमें सब ओर अनन्तानन्त जीव आदि पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं वह अलोक १. त्रिलोकसारस्य निम्नाङ्किताः गाथा एतेषां श्लोकानां मूलाधारः प्रतीताः एवं सत्यं सव्वं सत्यं वा सम्म मेत्थ जाणंता । तिव्वं तुस्सति गरा कि ण समत्थत्थतच्चव्हा ॥१॥ सक्कि कुरु फणि सुरिंदे सह मिदेजं सुहं तिकालभवं । ततो अणंत गुणिदं सिद्धाणं राणसुई होदि ॥२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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