SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२४ षट्प्राभूते [ ५.७८ कायाद्यवष्टम्भेनात्मप्रदेशचलनं न भवति । पृथक्त्ववितकंवीचारमेकत्ववितर्कवीचारं ध्यानद्वयं पूर्वेष्वघोतिन एव । वितर्कवीचारसहितं पूर्वं । द्वितीयं तु वीचाररहितं । वीचारः किं ? अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिवचारः परिवर्तनभित्यर्थः । अर्थसंक्रान्तिः का ? द्रव्यं विमुच्य पर्यायं गच्छति पर्यायं विहाय द्रव्यं समुपेतीत्यर्थसंक्रान्तिः । व्यञ्जनसंक्रान्तिः का ? एकं वचनं त्यक्त्वा वचनान्तरमवलम्बते तदपि त्यक्त्वाऽन्यद्ववचनमवलम्बते इति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । योगसंक्रान्तिः का ? काययोगं त्यक्त्वा योगान्तरं गच्छति तदपि त्यक्त्वा काययोगं व्रजतीति योगसंक्रान्तिः । एवं श्रुतज्ञानेन वितर्क्यं समूह्य द्रव्यं तत्पर्याये पर्यायान् वित्तक्यं ततो द्रव्ये परिवर्तने वीचारे सति पृथक्त्वेन भेदेन अर्थपर्याययोवं चनयोगयोर्वा श्रुतज्ञानपर्यालोचनेन संक्रान्तिः पृथक्त्ववितर्कवीचारः शुक्लध्यानं भवति ! यद्यप्यर्थं व्यञ्जनादिसंक्रान्ति विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय से धर्म्यं ध्यान होता है और वह पूर्वके ज्ञाता मुनिके श्रेणी चढ़ने के पहले पहले तक होता है। दोनों श्रेणियों में अपूर्व करण से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक प्रथम शुक्लध्यान होता है । क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती 'मुनिके दूसरा शुक्लध्यान होता है । तीसरा और चौथा शुक्लध्यान केवलियों के होता है । उनमें से संयोग केवलो के तीसरा और अयोग केवली के चौथा शुक्लध्यान होता है । पृथक्त्व-वितर्क विचार पहला शुक्लध्यान है, एकत्व वितर्क अवीचार दूसरा शुक्लध्यान है, सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपाति तीसरा शुक्लध्यान है और व्युपरत क्रिया निर्वात चोथा शुक्लध्यान है। उनमें से पृथक्त्व वितर्क विचार नामका शुक्लध्यान तीनों योग वाले जीवके होता है । मन वचन और कायके अवलम्बन से आत्मा के प्रदेशों में जो परिस्पन्द होते हैं उन्हें तीन योग कहते हैं । पृथक्त्व वितर्क विचार नामका शुक्लध्यान इन तीनों योगोंके अवलम्बन से उत्पन्न होता है । एकत्व - वितर्कअविचार नामका शुक्लध्यान तीन योगों में से किसी एक योग के कम्पन से आत्म प्रदेशों में परिस्पन्द होने पर उत्पन्न होता है । केवली भगवान् के जब मनोयोग और वचन योग नष्ट होकर जब मात्र कार्य योग रह जाता है तब उनके सूक्ष्म- क्रिया-प्रतिपाति नामका शुक्लध्यान होता है । इस ध्यान में मात्र काययोग के अवलम्बन से आत्माका परिस्पन्द होता है । अयोग केवली के व्युपरत क्रिया-निवर्त नामका शुक्लध्यान होता है क्योंकि यहाँ काययोग के अवलम्बन से भी आत्म- प्रदेशों में हलन चलन नहीं होता । पृथक्त्व वितर्क-विचार और एकत्व वितर्क अविचार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy