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________________ बोधप्रामृतम् रागः प्रीतिलक्षणः । दोषोऽप्रीतिस्वभावः । मोहः कलत्रपुत्रमित्रादि-स्नेहः । (कोहो लोहो य जस्स आयत्ता ) क्रोधो रोषस्वभावः लोभो मूर्छा परिग्रहग्रहणस्वभावः, चकारात्परवञ्चनप्रकृतिर्माया। एते पदार्था यस्य महर्षेस्त्रिविधमुनि समूहस्यायत्ता निग्रहपरिग्रहनाथवन्तो भवन्ति । (पंच महम्वधारा ) पञ्चमहाव्रतघरा अहिंसा सत्याचौर्यब्रह्मचर्याकिञ्चन्यानि रात्रिभोजनवर्जनषष्ठानि प्रतिपालयन्तः । ( आयदणं महरिसी भणियं ) आयतनं महर्षयो भणिताः । एतेऽभिगमनयोग्या भवन्ति दर्शनस्पर्शन-वन्दनाश्चि भवन्ति । अन्ये विलिङ्गिनो जटिनः पाशुपताः, एकदण्डत्रिदण्डधरा मिथ्यादृष्टिमुडिनः शिखिनः पञ्चचूलाः भस्मोठूलना नग्नाण्डका चरकनामानो दिगम्बरसंज्ञकाः हंसपरमहंसाभिधानाः पशुयाज्ञिकाः दीक्षिता अध्वर्यवः उद्गातारो होतार आथर्वणाः व्यासाः स्मार्ता जैनाभासाश्च नाभिगम्या न दर्शनीया नाभिवादनीयाश्च भवन्ति । अथ के ते जैनाभासाः ? पूर्वमप्युक्ताः . प्रीतिको कहते हैं । द्वेष अप्रीति स्वभावको कहते हैं। स्त्री पुत्र तथा मित्र आदि के स्नेह को मोह कहते हैं। रोष रूप स्वभावको क्रोध कहते हैं, मूळ रूप परिणाम अर्थात् परिग्रह को ग्रहण करनेका जो स्वभाव है उसे लोभ कहते हैं। चकार से माया का ग्रहण होता है, दूसरे को ठगनेका जो स्वभाव है, उसे माया कहते हैं । ये सब मद आदि विकार जिस महर्षि के-आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन भेद रूप मुनिके अधीन हैंस्वीकार अथवा अस्वीकार करनेके योग्य हैं। जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंको अथवा रात्रिभोजन त्याग के साथ छह महाव्रतों को धारण करने वाले हैं, ऐसे महर्षि आयतन कहे गये हैं। ये महर्षि ही संमुख-गमन करने के योग्य हैं, तथा दर्शन, स्पर्शन, और वन्दना के योग्य हैं। . ... इनके सिवाय अन्य लिङ्गों को धारण करने वाले जटाधारी, पाशुपत, . एकदण्ड अथवा तीन दण्डको धारण करनेवाले, मिथ्यादृष्टि होकर - शिर मुड़ानेवाले, एक शिखा रखने वाले, पांच चोटियां रखने वाले, शरीर में भस्म रमाने वाले, अण्डकोषोंको खुला रखने वाले, चरक नामधारी, दिगम्बर नामधारी, हंस, परमहंस नामके धारक, पशुयज्ञ करनेवाले, दोलित, अध्वयु, उद्गाता, होता, अथर्ववेदके ज्ञाता, व्यास, स्मार्त तथा नाभास आदि साधु न सागने जानेके योग्य हैं, न दर्शन करनेके योग्य है और न अभिवादन नमस्कार करने योग्य हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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