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________________ षट्प्राभृते [ ५. १३४ जीवाणमभयदाणं देह मुणी पाणभूदसत्ताणं । कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धी ॥ १३४ ॥ जीवनामभयदानं देहि मुने ! प्राणभूतसत्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परम्परा त्रिविधशुद्धया ॥ १३४ ॥ ( जीवाणमभयदाणं ) जीवानामभयदानं । ( देह मुणी पाणभूदसत्ताणं ) हे मुने ! त्वं देहि प्रयच्छ न केवलं जीवानां अभयदानं देहि-अपि तु प्राणभूतसत्वानां किमर्थमभयदानं देहि ? ( कल्लाणसुहनिमित्तं ) तीर्थंकर नामकर्मबन्धनार्थं गर्भावतारजन्माभिषेकनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणसुख परंपरानिमित्तं सुखश्रेणिकारणं अभयदानमित्यर्थः । ( तिविहसुद्धीए ) त्रिविधशुद्धधा मनोवचनकार्यानिर्मलतया अभयदानं देहि उक्तं च अभयदाणु भयभीरुहं जीवहं दिष्णु ण आसि । वारवारमरणहं डरहि केम्व चिराउ सुहोसि ॥ १ ॥ तथा चोक्तं 'एका जीवदयैकत्र परत्र सकलाः क्रियाः । पर फलं तु पूर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥१॥ ५२८ गाथार्थ — हे मुने ! तू कल्याणक सम्बन्धी सुखकी परम्परा के निमित्त, मन वचन कायको शुद्धिसे जीव, प्राणी, भूत और सत्वोंको अभय दान दे ||१३४|| विशेषार्थ - हे जोव ! तीर्थंकर नाम कर्मका बन्ध करनेके लिये तथा उसके फलस्वरूप गर्भावतार, जन्माभिषेक, निष्क्रमण, ज्ञान और निर्वाण कल्याण इन पञ्च कल्याणकों-सम्बन्धी सुखकी परम्पराके निमित्त त मन वचन कायको निर्मलता से समस्त जीव प्राणी, भूत और सत्योंको अभयदान दे । अभयवाणु - हे आत्मन् ! तूने भयभीत जीवोंको अभयदान नहीं दिया इसीलिये बार बार म रजसे डर रहा है। तू दीर्घायु कैसे हो सकता है.? ||१|| और भी कहा है एका - एक ओर अकेली जीव दया और दूसरी ओर समस्त क्रियाएँ रखी जावें परन्तु उत्कृष्ट फल जीव दयाका ही होगा, उस तरह, जिस १. यशस्तिलके इति पदं नास्ति । २. सर्वत्र म०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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