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नमः सिद्धेभ्यः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य - विरचितम्
षट्प्राभृतम्
श्री श्रुतसागर सूरि- विरचितया टीकया सहितम्
दृग्वृत्तसूत्रबोधाख्यं भावमोक्षसमाह्वयम् । षट्प्राभूतमिति प्राहुः कुन्दकुन्दगुरूदितम् ॥ १ ॥
अथ 'श्रीविद्यानन्दिभट्टारक पट्टाभरणभूतश्री मल्लिभूषणभट्टारकाणामादेशादध्येषणावशाद् बहुशः प्रार्थनावशात् कलिकालसर्वज्ञविरुदावलीविराजमानाः श्रीसद्धर्मोपदेशकुशला निजात्मस्वरूपप्राप्तिं पञ्चपरमेष्ठिचरणान् प्रार्थयन्तः सर्वजगदुपकारिण उत्तमक्षमाप्रधानतपोरत्नसंभूषितहृदयस्थला भव्यजनजन कतुल्याः श्री
दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत और मोक्षप्राभृतं इस प्रकार कुन्दकुन्द स्वामीके द्वारा कथित षट्प्राभृत कहे जाते हैं ॥
[ विशेष - श्री कुन्दकुन्द स्वामीके द्वारा रचित लिङ्गप्राभृत और शीलप्राभृतये दो प्राभृत और हैं जिनकी भाषा टीका षट्प्राभूत के अनन्तर इसी ग्रन्थ में आगे दी जावेगी । जान पड़ता है कि संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागर सूरिको टीका करते समय वे उपलब्ध नहीं होंगे, इसलिये उन्होंने षट्प्राभृतके नामसे दर्शनप्राभृत आदि छह प्राभृतोंकी ही टीका की है । ]
अथानन्तर जो 'कलिकालसर्वज्ञ' इस विरुदावलीसे सुशोभित हैं, श्रीसम्पन्न आर्हत धर्म के उपदेश में कुशल हैं, पञ्च परमेष्ठी के चरणों से जो निज आत्मस्वरूप की प्रार्थना करते हैं, सर्व जगत् का उपकार करने - वाले हैं, उत्तम क्षमा की प्रधानता लिये हुए तपरूपी ज्ञान से जिनका हृदय विभूषित है, जो भव्य जीवोंके लिये पिताके समान हैं तथा आत्मस्वरूप की श्रद्धा से जिन्हें सम्यग्दर्शन उपलब्ध हुआ है ऐसे श्री श्रुतसागर सूरि, श्री विद्यानन्दिभट्टारक सम्बन्धी पट्ट के अलंकारस्वरूप श्री मल्लि
१. श्रीविद्यानन्दिपदाभरण - म० ।
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