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षट्प्राभृते
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[६.५त्मानं हित्वापरित्यज्य । (तत्थ परो माइज्जइ) तत्र परमात्मा ध्यायते कथं परमात्मा ध्यायते ? ( अंतोबाएण) अन्तरात्मोपायेन भेदज्ञानबलेनेत्यर्थः ( चयहि बहिरप्पा ) त्यज परिहर त्वं हे मुने वहिरप्पा वहिरात्मानं-शरीरमेवात्मेति मत मन्यते वहिरात्मा तमभिप्रायं त्वं त्यजेति तात्पर्यार्थः।
अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ॥५॥
अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसंकल्पः। ..
कर्मकलंकविमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः ॥५॥ (अक्खाणि बाहिरप्पा ) अक्षाणि इन्द्रियाणि बहिरात्मा भवति । ( अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो) अन्तरात्मा हु-स्फुटं मात्मसंकल्पः शरीरकर्मरागद्वेषमोहादिदुःखपरिणामरहितोऽयं ममात्मा वर्तते शरीरे तिष्ठन्नशुद्धनिश्चयनयेन शरीरं न स्पृशति, कर्मबन्धनबद्धोपि सन् कर्मबन्धनबंदो न भवति नलिनीदलस्थितजलवदि. तीदृशं भेदज्ञानं आत्मसंकल्प उच्यते स वात्मसंकल्पो यस्य जीवस्य वर्तते सोऽन्त
विशेषार्थ-आत्मा के तीन भेद हैं १ परमात्मा २ अन्तरात्मा ३ बहि: रात्मा । इन तीनोंके लक्षण आगे स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी कहेंगे । इनमें से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से-भेदज्ञान के बलसे परमात्मा का ध्यान किया जाता है। हे मुने! तू बहिरात्मा को छोड़ अर्थात् शरीर ही आत्मा है इस अभिप्राय का त्याग कर ||४|| .
गाचार्य-इन्द्रियाँ बहिरात्मा हैं, आत्मा का संकल्प अन्तरात्मा है और कर्म-रूपी कलंक से रहित आत्मा परमात्मा कहलाता है। परमात्मा को देव संज्ञा है ॥५॥
विशेषार्थ-यह जोव इन्द्रियों के द्वारा पदार्थ का स्पर्श आदि करता है इसलिये इन्द्रियों को बहिरात्मा कहा है। शरीर कर्म रागद्वेष मोह आदि दुःख रूप परिणामों से रहित मेरा आत्मा अशुद्ध निश्चयनय से यद्यपि शरीर में निवास कर रहा है तथापि शरीर का स्पर्श नहीं करता है, कर्म-बन्धन से बद्ध होनेपर भी बद्ध नहीं है, जैसे कमलिनो के पत्र पर स्थित पानी उस पर स्थित होता हआ भो निलिप्त होने से उससे पयक माना जाता है इसी प्रकार मेरो आत्मा भो शरीर में रहतो हई भी निलिप्त होनेसे उससे पृथक् है, इस प्रकार का भेद-जान आत्म-संकल कहलाता है जिसके यह आत्म-संकल्प होता है वह अन्तरात्मा कहलाता
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