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-५.४२]
भावप्रामृतम्
'बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङ्गो हितं वाहित । कामान्धः खलु कामिनीद्रुमधने भ्राम्यन् वने यौवने । मध्ये बुद्धतृषाजितु वसु पशुः क्लिश्नासिं कृष्यादिभि
वर्षियेऽमृतः क्व जन्मफलिते धर्मो भवेन्निर्मलः ॥१॥ मंसद्विसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं । खरिसवसपूयखिन्भिसभरियं चितेहि देहउडं ॥४२॥ मांसास्थिशुक्रशोणितपित्तान्त्रस्रवत्कुणि मदुर्गन्धम् ।
खरिसवसापूकिल्बिषभरितं चिन्तय देहकुटम् ॥४२॥ हे जीव ! शुद्धबुद्ध कस्वभाव आत्मन् ! त्वं ( देहउड ) कायकुटं शरीरघटं । (चितेहि ) चिन्तय विचारयं पर्यालोचयस्व । कथंभूतं देहकुटं, मसेत्यादि मांसं च पिशितं, अस्थीनि च हड्डानि, शुक्रं च सप्तमो घातुः बीजं वीयं चेति मावत्, शोणितं रुधिरं रक्त लोहितमिति यावत्, पित्तं च उष्णविकारो मायुरिति, अत्राणि च पुरीतंति, एतः स्रवद्गलत् ( कुणिमं ) शटितमृतकं तद्वदुर्गन्धमसुरभि । पुनः कथंभूतं देहकुटं स्वं चिन्तय, खरिसश्च अपक्वमलरुधिरमिश्रितं द्रव्यं । वसा च
बाल्ये हे जीव ! बाल्य-अवस्थामें अङ्गोंकी पूर्णता न होनेसे तू हित और अहितको कुछ भी नहीं जानता है। यौवन अवस्थामें कामसे अन्धा होकर स्त्रीरूप वृक्षोंसे सघन वनमें भ्रमण करता है । मध्यअवस्थामें बढ़ीहुई तृष्णासे धन-उपार्जन करनेके लिये पशुकी तरह अज्ञानी हो खेती आदिके द्वारा क्लेश उठाता है और बुढ़ापेमें अर्धमृतकके समान होजाता है फिर तेरा जन्म सफल हो तो कहाँ हो ? और तेरा धर्म निर्मल हो तो कहाँ हो ॥४१॥ . गायार्थ हे जीव ! तू ऐसा चिन्तन कर कि यह शरीर रूपी घड़ा मांस, हड्डी, वीर्य, रुधिर, पित्त और आंतोंसे निकलती हुई सड़े मुरदे की भाँति दुर्गन्धसे युक्त है तथा खरिस, चर्वी, पोप और विष्ठा आदि वस्तुओंसे भरा हुआ है ॥४२॥
विशेषार्थ-हे जीव ! हे शुद्ध बुद्ध एक स्वभावके धारक आत्मन् ! तेरा यह शरीर रूपी घट कैसा है ? थोड़ा इसका चिन्तवन तो कर । यह मांस हड्डी वीर्य रुधिर, पित्त और आँतों से झरती हुई सड़े मुरदे जैसी १. वात्मानुसासने मुगभास्य ।
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