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-१.२०]
दर्शनप्रामृतम् नामन्यत्र सिद्धजीवेभ्यः । धर्मा-धर्मकजीवानामसंख्येयाः प्रदेशाः। संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशः आकाशः [ पुद्गलः ] । पुद्गलो [ आकाशो ]ऽनन्तप्रदेशश्च [ शः] । सर्वाणि द्रव्याण्येकतो मिलितान्यपि निज-निजगुणान् न जहति । एवं तत्त्वास्तिकायपदार्था-नामपि स्वरूप ज्ञातव्यम् ॥१९॥
जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥२०॥
जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्त्वं जिनवरैः प्रणीतम् ।
व्यवहारात् निश्चयतः आत्मनो भवति सम्यक्त्वम् ।।२०।। (जीवादीसद्दहणं) जीवादीनां श्रद्धानं रुचिः ( सम्मत्तं ) सम्यक्त्वमिति (जिणवरेहि पण्णत्त ) जिनवरः प्रणीतम् । तत्तु सम्यग्दर्शनं ( ववहार ) व्यवहाराज्जातव्यम् । ( णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्त) निश्चयतो निश्चयनयादात्मैव भवति सम्यक्त्वं रुचिसामान्यत्वादित्यर्थः ॥
धर्म, अधर्म और एक जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात, तथा अनन्त प्रदेश हैं; अर्थात् कोई स्कन्ध संख्यातप्रदेशी हैं, कोई असंख्यातप्रदेशो हैं, और कोई अनन्तप्रदेशी हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है । यद्यपि सभी द्रव्य एकरूप से मिले हुए हैं तथापि वे अपने अपने गुणों को नहीं छोड़ते हैं। इसी प्रकार तत्त्व, अस्तिकाय और पदार्थों का भी स्वरूप जानना चाहिये ॥१९॥
गावार्थ-व्यवहार नय से जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है और निश्चय नय से आत्मा का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है अथवा गुण और गुणी की अभेद विवक्षा से आत्मा स्वयं सम्यक्त्व है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥२०॥
विशेषार्थ-जीव आदि सात तत्त्वों, जीव आदि नौ पदार्थों, जीव बादि छह द्रव्यों अथवा जीव आदि पांच अस्तिकायों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह लक्षण गुण-गुणी की भेदविवक्षा से कहा गया है, अतः व्यवहार नय से जानना चाहिये; क्योंकि गुण-गुणी का भेद व्यवहार मय का विषय है। निश्चय नय अभेद को विषय करता है, अतः उसकी अपेक्षा पर पदार्थ से भिन्न आत्मा का ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अथवा 'आत्मा का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' यहाँ भी गुण-गुणी का भेद दृष्टिगोचर होता है, इसलिये आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। निश्चय नय से सम्यग्दर्शन का यहो लक्षण मानना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥२०॥
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