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-६. २०] मोक्षप्राभृतम्
५८३ (जिणवरमएण जोई ) जिनवरमतेन जिनशासनेन सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभवनलक्षणेन रत्नत्रयेन योगी दिगंबरो मुनिः । ( झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं) ध्याने एकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणे, ध्यायति चिन्तयति, शुद्ध रागद्वेषमोहादिरहितं कर्ममलकलंकरहितं टंकोत्कीर्णस्फटिकमणिविंबसदृशं ज्ञायकैकस्वभावं चिच्चमत्कारस्वरूपं, आत्मानं निजात्मतत्वं । ( जेण लहइ णिव्वाणं ) येनात्मध्यानेन लभते निर्वाणं सर्वकर्मक्षयलक्षणमोक्षमनन्तसौख्यं । (ण लहइ किं तेण सुरलोयं ) तनात्मध्यानेन न लभते कि न प्राप्नोति सुरलोकं स्वर्गभोगं ? तथा चोक्तं
तृष्णा भोगेषु चेद्भिक्षो ! सहस्वाल्पं स्वरेव ते । 'प्रतीक्ष्प पाकं किं पीत्वा पेयं भुक्ति विनाशयः ॥१॥
ध्यान करता है वह स्वर्ग लोक को प्राप्त होता है सो ठीक ही है क्योंकि जिस ध्यान से निर्वाण प्राप्त हो सकता है उससे क्या स्वर्ग लोक प्राप्त नहीं हो सकता ? ॥२०॥ ... विशेषार्थ-जो दिगम्बर मुनि जिनवरके मतानुसार अर्थात् सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अनुभवन रूप रत्नत्रय के अनुसार ध्यान में रागद्वेष मोहसे रहित टंकोत्कीर्ण स्फटिकमणिके विम्बके समान ज्ञायक-स्वभाव चिच्चमत्कार रूप निज आत्म-तत्वका ध्यान करता है, वह स्वर्ग-लोकको प्राप्त होता है। सो ठीक ही है क्योंकि जिससे सर्व कर्मक्षय रूप लक्षण से युक्त मोक्ष प्राप्त होता है उससे क्या स्वर्गलोक प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य होगा। जैसा कि कहा है.. तृष्णाहे मुने ! यदि भोगों में ही तेरी इच्छा है तो कुछ काल तक स्वर्गके विलम्ब को सहन कर ले। भोजन के पाककी प्रतीक्षा कर अर्थात्
भोजन तैयार हो जाने दे क्षुधा की अधिकतासे मात्र-पेय-पानीको पीकर .. भोजन को क्यों नष्ट करता है ? 'पेयाम्' पाठ में उसे मुक्ति विशेषण लगाना चाहिये ।
१. प्रतीच्छ इति पाठः शुद्धो भाति 'प्रतीक्ष्य' इति पाठोऽनुपमयोगी, प्रतीक्षस्व इति .. पाठः शुद्धः किन्तु छन्दोभङ्गावहः। २. पेयां म०। ३. आत्मानुशासने ।
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