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दर्शनप्राभृतम्
'यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गीं कृतरुचिरथ तं विद्धि विस्तार दृष्टि संजातार्यात्कुतश्चित्प्रवचन वचनान्यन्तरेणायंदृष्टिः ।
दृष्टिः साङ्गाङ्गबाह्य प्रवचनमवगाह्योत्थिता यावगाढा कैवल्यालोकितार्थे रुचिरिह परमावादिगाढेति रूढा ॥३॥
ईदृशदर्शनेषु भ्रष्टास्त्यक्तमयूरपिच्छ- कमण्डलु - परमागमपुस्तकाः सन्तो गृहस्थवेषधारिणः संयमघराणां संयमिनां सदृष्टीनाम् । ( पाए ण पडंति) पादे चरणयुगले न पतन्ति नैव नमोऽस्त्विति कुर्वन्ति, अभिमानित्वान्मुसलवत्तिष्ठन्ति । ते किं भवन्ति ? ( ते होंति लल्लमूआ ) ते भवन्ति लल्ला अस्फुटवाचो मूका वक्तु श्रोतुमशिक्षिताः । ( बोही पुण दुल्लहा ) बोधिः खलु रत्नत्रयप्राप्तिः पुनर्जन्मशतसहस्रेष्वपि दुर्लभा कष्टेनापि लब्घुमशक्या (तेसिं) तेषां जैनाभास - तदाभासानां च मिथ्यादृष्टीनामिति शेषः ॥ १२ ॥
यः श्रुत्वा - जो पुरुष द्वादशाङ्ग को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी होता है उसे विस्तरदृष्टि जाने । अङ्गबाह्य प्रवचनों को श्रवण किये बिना ही किसो कारण से श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अर्थदृष्टि- अर्थ- सम्यग्दर्शन है । अङ्ग तथा अङ्गबाह्य प्रवचनों का अवगाहन करने से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है वह अवगाढ़ - सम्यग्दर्शन है और केवलज्ञान के द्वारा देखे हुए पदार्थों की जो श्रद्धा है वह परमावगाढ सम्यग्दर्शन नाम से प्रसिद्ध है ।
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इस प्रकार के सम्यग्दर्शनों से जो भ्रष्ट हैं तथा मयूरपिच्छ, कमण्डलु और परमागम - शास्त्रों को छोड़कर गृहस्थवेष को धारण करते हुए संयम के धारी सम्यग्दृष्टि मुनियों के चरणों में नहीं पड़ते हैं, उन्हें नमोऽस्तु नहीं करते हैं और अभिमान के वश मूसल के समान यों ही खड़े रहते हैं
अस्पष्टभाष गूंगे होते हैं अर्थात् बोलने और सुनने में असमर्थ होते हैं । ऐसे लोगों को लाखों जन्म में भो रत्नत्रय की प्राप्ति दुर्लभ रहती है।
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१. आत्मानुशासने श्लोकसंख्या १४.
२. पं० जयचन्द्रजी ने 'सरल' के स्थानपर 'लुल्ल' पाठ रख कर 'झूले नहीं चल सकने वाले' अर्थ किया है।
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