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षट्प्राभूते
[ ६. ६२
साघु स्वकचरित्रभ्रष्टः । ( मोक्खपहविणासबो साहू) मोक्षपथविनाशक: साधु: स साघुर्मोक्षमार्गविध्वंसको ज्ञातव्यो ज्ञानीयो ज्ञेयः । इति भावं ज्ञात्वा निजशुद्धबुद्धैकस्वभावे आत्मतत्वे नित्यं भावना कर्तव्या साघोः ।
सुहेण भाविदं गाणं दुहे जादे विणस्सदि । तम्हा जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए ॥ ६२ ॥
६२ ॥
सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति । तस्माद् यथाबलं योगी आत्मानं दुःखः भावयेत् ॥ ( सुहेण भाविदं गाणं ) सुखेन नित्यभोजनादिना भावितं वासितं ज्ञानं आत्मा । ( दुहे जादे विणस्सदि ) दुःखे जाते सति भोजनादेर प्राप्तौ सत्यां विनश्यति आत्मभावनाप्रच्युतो भवति । ( तम्हा जहा बलं जोई ) तस्मात्कारणाद्यथाबलं निजशक्त्यनुसारेण योगी मुनिः । ( अप्पा दुक्खेहि भावए ) आत्मानं दुःखैरनेकतपःक्लेशैः भावयेद्वासयेत् दुःखाभ्यासं कुर्यादित्यर्थः ।
मार्गका विध्वंस करने वाला है। ऐसा जानकर साधुको शुद्धबुद्धक स्वभाव युक्त निज आत्म तत्व की भावना करना चाहिये ।
से
[ मोक्षमार्ग के प्रवर्तन के लिये बाह्य लिङ्गको निर्दोष प्रवृत्ति तथा तदनुरूप आत्म तत्व की भावना और रागादि विकारों के अभाव की आवश्यकता है जिस साधु में उक्त बातों की कमी हैं वह यथार्थ चारित्र से रहित है तथा अपनी प्रवृत्तिसे मोक्षमार्गको दूषित करने वाला है।]
गाथा - सुख से वासित ज्ञान दुःख उत्पन्न होनेपर नष्ट हो जाता है इसलिये योगी को यथाशक्ति आत्माको दुःख से वासित करना चाहिये ॥ ६२ ॥
विशेषार्थ - नित्य प्रति भोजन करना आदि सुखिया स्वभाव से जो ज्ञानका अर्जन होता है वह भोजनादि की अप्राप्ति जन्य दुःख के उपस्थित होनेपर नष्ट हो जाता है । अथवा ज्ञान का अर्थ आत्मा है । जो आत्मा सुखसे वासित है वह दुःख के उत्पन्न होनेपर आत्म भावना से च्युत हो जाता है इसलिये योगी को चाहिये कि वह निज शक्ति के अनुसार अनेक तप सम्बन्धी दुःखों से आत्मा को वासित करे अर्थात् दुःख सहन करने का अभ्यास करे ।। ६२ ।।
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