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________________ मोक्षप्राभूतम् आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण । झायव्वो णियअप्पा णाऊ गुरुपसाएण ॥६३॥ आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन । ध्यातव्यो निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन ।। ६३ ।। ( आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण ) आहारासननिद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन, शनैः शनैः आहारोऽल्पः क्रियते । शनैः शनैरासनं पद्मासनं उद्भासनं चाभ्यस्यते । शनैः शनैः निद्रापि स्तोका स्तोका क्रियते एकस्मिन्नेव पार्श्वे पार्श्वपरिवर्तनं न क्रियते । एवं सति सर्वोऽप्याहारस्त्यक्तु ं शक्यते आसनं च कदाचिदपि त्यक्तु ं '( न ) शक्यते । निद्रापि कदाचिदप्यकतु ं शक्यते । अभ्यासात् कि न भवति ? तस्मादेवकारणात्केवलिभिः कदाचिदपि न भुज्यते । पद्मासन एव वर्षाणांसहस्रं रपि स्थीयते, निद्राजयेनाप्रमत्तर्भूयते, स्वप्नो न दृश्यते । एवं जिनवरमतेन वृषभस्वामिवोरचन्द्रशासनेनानुशील्यते । ( झायव्वो णियअप्पा ) ध्यातव्यो निज आत्मा । ( णाऊणं गुरुपसाएण ) आत्मानमष्टाङ्ग [ योगं ] च ज्ञात्वा गुरु —६. ६३ ] गाथार्थ - आहार आसन और निद्रा को जीतकर जिनेन्द्र देवके मता - नुसार गुरुओं के प्रसाद से निज आत्मा को जानना चाहिये और जानकर उसीका ध्यान करना चाहिये । ६३९ विशेषार्थ - जिनेन्द्र देवके मतानुसार पहले धीरे धीरे आहार अल्प . किया जाता है। धीरे धीरे पद्मासन और खङ्गासन का अभ्यास किया जाता है तथा धीरे धीरे निद्रा भी कम की जाती है एक ही करवट से शयन करनेका अभ्यास किया जाता है करवट नहीं बदली जाती । इस तरह अभ्यास होते होते सभी आहार का त्याग किया जा सकता है । आसन का कभी भी त्याग नहीं किया जा सकता निद्रा भी कभी बिलकुल छोड़ी जा सकती है । अभ्यास से क्या नहीं होता ? इसी कारण केवलो कभी भोजन नहीं करते । पद्मासन से ही हजारों वर्ष स्थित रहे आते हैं । निद्रा जीतने से अप्रमत्त रहा जाता है अर्थात् प्रमाद का अभाव होता है, स्वप्न नहीं दिखाई देता । इस तरह जिनेन्द्र देवके मतानुसार अभ्यास किया जाता है । साधुको चाहिये कि वह गुरुओं के प्रसाद से अर्थात् निग्रन्थाचार्यवर्य की करुणा से आत्मा को तथा अष्टाङ्ग योग को जानकर उसका ध्यान करे। गुरुप्रसाद के बिना आत्मा का ज्ञान होना संभव नहीं है । 'द्रष्टव्यो वारेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनमन्तव्यो निदिध्यासितव्य ' — निश्चय १. सर्वप्रतिषु नकारो नास्ति परन्तु आसनस्य त्यागः कथं शक्यः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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