SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावप्राभृतम् ३०३ सेषु 'पर्वतोऽकीतिविपरीतार्थग्राही वसुनारदी यथोपदिष्टार्थग्राहिणी। ते त्रयोऽपि सोपाध्याया दर्भादिकं चेतु वनं गताः । तत्र गिरिशिलोपरि स्थितः श्रुतघरगुरुः । मुनित्रयं तस्मादष्टाङ्गनिमित्तं पपाठ । तत्समाप्तौ स्तुतिं कृत्वा सुखं तस्थौ तस्य निपुणतापरीक्षार्थ गुरुः पप्रच्छ । भो मुनित्रय ! अधीयानस्य छात्रत्रयस्यास्य किं नाम, कस्य किं कुलं को भावः प्रान्ते कस्य का गतिर्भविष्यतीत्युक्ते एकः प्राह-अस्मत्समीपगो वसुः, राज्ञः सुतः, तीव्ररागादि शिष्योंमें पर्वत की कीर्ति ठीक नहीं थी, वह विपरीत अर्थको ग्रहण करता था परन्तु वसु और नारद जैसा उपदेश दिया गया था वैसा ही अर्थ ग्रहण करते थे। एक दिन वे तीनों शिष्य उपाध्याय के साथ कुशा आदि इकट्ठा करनेके लिये वनको गये थे । वहाँ पर्वत की शिलाके ऊपर एक श्रुधिर गुरु विराजमान थे तथा तीन मुनि उनसे अष्टांग निमित्त शास्त्र पढ़ रहे थे। पाठकी समाप्ति होनेपर स्तुति करके तीनों मुनि सखसे बैठे थे। उनकी चतुराई की परीक्षा करनेके लिये गुरुने पूछाहे मुनित्रय ! ये जो तीन छात्र पढ़ रहे हैं इनमें किसका क्या नाम है, क्या कुल है, क्या भाव है, और अन्तमें किसकी क्या गति होगी ? गुरुके ऐसा कह चुकने पर एक मुनि बोला कि हमारे पास जो बैठा है इसका नाम वसु है, यह राजाका पुत्र है, तीव्र राग आदिसे दूषित है और हिंसा धर्म है, ऐसा निश्चय कर नारकी होगा। दूसरा मुनि बोला-जो बीच में बैठा है वह पर्वत है, ब्राह्मणका लड़का है, दुर्बुद्धि तथा क्रूर परिणाम वाला है, महाकालके उपदेशसे अथर्वण (अथर्व वेद ) नामक पाप शास्त्रको पढ़कर खोटे मार्गका उपदेश करेगा, तथा 'हिंसा हो धर्म है' इस प्रकारके रोद्रध्यानमें तत्पर हो बहुत जनोंको नरक भेजकर स्वयं भी नरक जावेगा। तीसरा मुनि बोला--यह जो पीछे बैठा है इसका नाम नारद है, यह ब्राह्मण है, बुद्धिमान् है, धर्मध्यानमें तत्पर रहता है, आश्रित मनुष्योंको अहिंसा धर्मका उपदेश देता है, यह गिरितट नगरका स्वामी होगा और अन्तमें दीक्षा लेकर सर्वार्थ सिद्धि जावेगा। उन तीनों मुनियोंके द्वारा कहे हुए उत्तर को सुनकर श्रुतधर गुरु 'आपलोगोंने निमित्त शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ा है' यह कहते हुए संतुष्ट हुए। १. अकीतिविपरीतार्थग्राही छ। २. स्थितं मुनित्रयंक० । ३. श्रुतघरमुनिः छ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy