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___षट्प्रामृते [६.१०ध्यायते शरीरस्वरूपं चिन्त्यत परमभागेन पृथक्तया भेदज्ञानेन-शरीर भिन्न आत्मा भिन्नी वर्तते इति भेद कृत्वेत्यर्थः । तथा चोक्त
आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत् कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच्च भिन्न मतं मे ।
भिन्न भिन्नं निजगुणकलालङ्कृतं सर्वमेतत् ॥ १॥ ... सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं । . सुयदाराईविसए मणुयाणं वड्ढए मोहो ॥१०॥
स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् ।
सुतदारादिविषये मनुजानां वर्धते मोहः ॥ १० ॥ ( सपरज्झवसाएणं ) स्वपराध्यवसायेन परवस्तुशरीरादिकं स्वमात्मानं मन्यते स्वपराध्यवसायः । केषु पदार्थेषु, ( देहेसु य) शरीरेषु च, चक्रराद्वनितादिषु च, . शरीरं वनितासुतस्वापतेयादिकं वस्तु खलु परकीयं वर्तते तत्र। (अविदिदत्थं )
जैसा कि कहा है
आत्मा-आत्मा भिन्न है, उसके साथ लगे हुए कर्म भिन्न हैं, आत्मा और कर्म की प्रत्यासत्ति-एक क्षेत्रावगाह से जो विकार उत्पन्न हुआ है वह भी भिन्न है । आत्माका काल तथा क्षेत्र आदि भिन्न हैं तथा आत्मगुणों की कला से अलंकृत जो कुछ है वह सब भिन्न भिन्न है।
[ इस गाथाके 'परमभाएण' पाठकी छाया पं० जयचन्द्र जी ने 'परमभावेन' स्वीकृत की है और उसका अर्थ परम भाव लिया है। अन्य कितनो ही प्रतियों में 'परमभाएण' के स्थान पर 'मिच्छभावेण' पाठ है । इस पाठ से गाथा का अभिप्राय ही दूसरा हो जाता है उससे गाथा में ज्ञानी जीव के विचार को चर्चा न होकर अज्ञानी जीव की चर्चा दिखने लगती है। यह जीव मिथ्या भावके कारण बहिरात्मा बनकर अपने शरीर के समान इष्ट स्त्री आदि परके शरीरको भी आत्मा मानता है तथा प्रयत्नपूर्वक उनमें राग भाव करता है ]
गाथार्थ-स्व-पराध्यवसाय के कारण अर्थात् परको आत्मा समझने के कारण यह जोव अज्ञान-वश शरीरादिको आत्मा मानता है। इस विपरीत अभिनिवेश के कारण ही मनुष्यों का पुत्र तथा स्त्री आदि विषयों में मोह बढ़ता है ॥१०॥
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