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-१.२६] दर्शनप्रामृतम् 'अस्संजदंग वंदे वच्छविहीणोवि सो ग बंदिज्ज । दुणिवि होति समाणा एगो विण संजदो होदि ॥२६॥
असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्येत ।
द्वावपि भवतः समानौ एकोऽपि न संयतो भवति ॥२६॥ (अस्संजदं ण ) वंदे असंयतं गृहस्थवेषधारिणं संयम पालयन्तमपि न वन्देत । (बच्छविहीणो वि सो ण बंदिज्ज) वस्त्र-विहीनोऽपि नग्नोऽपि संयमरहितो न वन्धेत न नमस्क्रियेत् । ( दुण्णिवि होंति समाणा ) द्वितीयेऽपि समाना संयमरहिता भवन्ति । ( एगो वि ण संजदो होदि ) 'एकोऽपि न संयतो भवति । गृहस्थः संयम प्रतिपालयन्नप्यसंयमी ज्ञातव्य इति भावः ॥२६॥
गाचार्य--असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये और जो वस्त्र-- रहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है । ये दोनों ही समान हैं, दोनोंमें एक भी संयमी नहीं है ॥ २६ ॥
विशेषा-जो सयम का पालन करता हुआ भी असंयत है अर्थात् सवस्त्र होनेसे गृहस्थ के वेष को धारण करता है उसे वन्दना नहीं करना चाहिये और जो वस्त्र-रहित अर्थात् नग्न होकर भी संयम से रहित हैमात्र द्रव्य-लिङ्ग को धारण करता है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है क्योंकि तत्व-दृष्टि से दोनों ही एक समान हैं, उनमें एक भी संयमी नहीं है।
(जिनागम में पूज्यता संयमसे बतलाई गई है। संयम महाव्रती के होता है और महाव्रती निर्गन्य होनेसे नग्न ही रहता है। जो साधु महा. व्रत रूप संयम का नियम लेकर भी वस्त्र धारण करता है, वह गृहस्थ है, अतः असंयमी होनेसे वन्दना के योग्य नहीं है। इसी प्रकार जो नग्न
होकर भी वास्तविक संयम से रहित है वह भी असंयमी है, अतः नमस्कार · · करनेके योग्य नहीं है। यद्यपि संयमासंयम के धारक ऐलक क्षुल्लक
ब्रह्मचारी आदि भी गृहस्थ के द्वारा वन्दनीय होते हैं तथापि यहाँ गुरु का प्रकरण होनेसे उनकी विवक्षा नहीं को गई है। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक अपने पदके अनुसार जो
१. असंजद क०। २. वोष्णिवि म। 1. बर्य पाठः क पुस्तके नास्ति ।
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