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षट्नाभृते ६१. २७ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो। . . को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ ॥२७॥
नापि देहो वन्द्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः। कं वन्दे गुणहीनं न हि श्रमणो नैव श्रावको भवति ॥२७il (ण वि देहो वंदिज्जइ) नापि देहो वन्द्यते । ( ण वि य कुलो ) नापि च कुलं पितृपक्षो वन्द्यते । ( ण विय जाइसंजुत्तो ) न च जातिसंयुक्तो मातृपक्षशुद्धः पुमान् वन्द्यते । ( को वंदमि गुणहीणो) कं वन्दे गुणहीनम् अपितु गुणहीनं न नियम लेता है उसका पालन करता है अतः वस्त्र-सहित होनेपर भी उसे असंयमी नहीं कहा जाता किन्तु संयमासंयमी कहा जाता है। पर जो पंच महाव्रत का नियम लेकर भी वस्त्र धारण करता है वह अपने गृहीत संयम से च्युत होनेके कारण असंयमी कहा जाता है। इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने द्रव्यसंयम और भावसंयम दोनों को उपादेय बतलाया है । अपनी मान्यता के अनुसार कथित संयमका धारक होनेपर भी सवस्त्र होनेसे जिसके द्रव्यसंयम नहीं है वह अवन्द्रनीय है, साथ ही वस्त्र-रहित होनेसे द्रव्य-संयम का धारक होनेपर भी जिसके भाव-संयम नहीं है वह भी अवन्दनीय है । मोक्षप्राप्तिके लिये द्रव्य-शुद्धि और भावशुद्धि दोनों ही आवश्यक हैं । ] ॥२६॥
गाथार्थ-न शरीर की वन्दना की जाती है, न कुल को वन्दना की जाती है किस गुणहीन की वन्दना करूं ? क्योंकि गुण-हीन मनुष्य न मनि है और न श्रावक ही है ॥२७॥ . ___ विशेषार्थ-न तो किसी का शरीर पूजा जाता है, न कुल-पितृपक्ष पूजा जाता है और न जाति-मातृपक्ष पूजा जाता है किन्तु संयमरूप गुण ही पूजा जाता है । जिसमें संयम नहीं है वह सुन्दर स्वस्थ शरीर, उच्चकुल और उच्चजातिवाला होकर भी अपूजनीय ही रहता है । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि मैं किस गुण-हीन की वन्दना करूं ? अर्थात् मैं किसी भी गुणहीन को वन्दना नहीं कर सकता। क्योंकि संयम गुण से भ्रष्ट पुरुष, न मुनि ही है और न श्रावक ही है । तात्पर्य यह है कि गुणवान् मुनि ही वन्दनीय हैं-नमस्कार करने के योग्य हैं।
[ इस गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रगट किया है कि मात्र सुन्दर वस्त्र, शरीर, उच्चकुल और उच्चजाति से युक्त होनेके कारण ही किसो मनुष्यकी पूजा नहीं होती किन्तु गुणों से युक्त होनेपर ही शरीरादि पूजा
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