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________________ ३६० पद्माभृते [५५१ खलीभूतकण्ठः प्रोद्गतलोचनः शमनमन्दिरं प्राप । कन्या तद्दृष्ट्वा मरणभयात् गृहमागता तथा कुमार त्वया लोभो हेय: ( ७ ) । इति तस्य वाग्जालमाकर्ण्य जम्बूनामा कुमारोऽसहमानस्तं प्रति भणिष्यति कस्यचिद्राज्ञो महादेवी ललिताङ्गनामधेयं धूर्तविटं दृष्ट्वा मदनविह्वला संजाता । तस्य विटस्या - नयन निरन्तरोपायनियुक्ता तद्धात्री तं गुप्तमानीतवती । सा महादेवी यथा भर्ता न जानाति तथैकान्तप्रदेशे यथेष्टं तं रममाणा स्थिता बहुभिर्दिनैः शुद्धान्तरक्षकैः ज्ञाता राज्ञो ज्ञापिता च । उपपत्यपनयोपाय मजानत्यः परिसारिकास्तं खलं नीत्वा वस्कर - गृहे निक्षिप्तवत्यः । स तत्रातिदुर्गन्धेन तत्कीटैश्च दुखं प्राप । पापोदयेनात्रैव नरकावासं प्राप्तः । तद्वदल्पसुखाभिलाषिणो जीवस्य निघोरनरकादिषु महापदो भवन्ति ( ८ ) । कुमारः पुनरप्येकं प्रपंचं कथयिष्यति येन श्रुतेन सतां लघु संसारनिर्वेगो भवति । जोवोऽयं पथिकः संसारकान्तारे भ्राम्यन् मृत्यु मत्तगजेन जिघां हुआ मर गया। इसी प्रकार यह जीव विषय रूपी अल्प मुख में आसक्त हो रहा है । राग रूपी चोरोंके द्वारा दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी रत्नों के चुरा लिये जाने पर वह नष्ट हो रहा है । इसके बाद चोर कहेगा (७) समस्त आभरणों से सुशोभित कोई एक कन्या अपनी मामी के कटुक वचनों से उत्पन्न हुए क्रोधके कारण वृक्ष के नीचे स्थित थी । वह मरने का उपाय नहीं जानती हुई मन ही मन बहुत व्याकुल हो रही थी। सुवर्णको हरने वाले किसी पापो मृदङ्ग-वादक ने उसे देख लिया । यह उसके आभूषण लेना चाहता था इसलिये उसने उसके लिये वृक्ष से लटकने का उपाय बतलाया । उसने अपना मृदङ्ग वृक्षके नीचे खड़ा रक्खा । फिर उस लड़की को गले में फाँसी देनेकी शिक्षा देनेके लिये उसने मृदङ्ग पर दोनों पैर रखकर अपने गले में फांसी लगाई। इतने में किसी कारण मृदङ्ग गिर पड़ा जिससे उसके गलेमें फांसी का फंदा पक्का लग गया । इससे उसका कण्ठ फँस गया और आँखें निकल आई तथा वह यमराज के गृहको प्राप्त होगया अर्थात् मर गया । यह देख कन्या मरण के भय से तुम्हें लोभ छोड़ना चाहिये । घर आ गई । हे कुमार ! इसी तरह सुनकर जम्बू कुमार सहन न करता इस प्रकार चोरके वाग्जाल को हुआ उसके प्रति कहेगा (८) किसी राजा की महारानी ललिताङ्ग नामके एक धूर्त विटको देखकर काम से विह्वल होगई। उस ब्रिटको लानेके लिये सनीने एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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