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षट्प्राभूते
[५. १२१एवमिन्द्रियसुखाकुला इन्द्रियसुखविह्वला न छिन्दन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । (छिदंति भावसवणा) छिन्दन्ति द्विधाकुर्वन्ति खण्डयन्ति भववृक्षमिति सम्बन्धः । के छिन्दन्ति ? भावश्रवणा जिनसम्यक्त्वरत्नमण्डितहृदयस्थलाः । ( माणकुडारेण भवरुक्खं ) ध्यानं घHध्यानं शुक्लध्यानं च तदेव कुठारः कुठान् वृक्षान् इयति गृह,णातीति कुठारः, ध्यानमेव कुठारो ध्यानकुठारः कर्मतरुस्कन्धविदारणत्वात् । भववृक्षं संसारतरुमिति शेषः ।
जह दीवो गम्भहरे मारुयवाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायाणिलरहिलो प्राणपईवो वि पज्जलई ॥१२१॥
यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविजितो ज्वलति ।
तथा रागानिलरहितो ध्यानप्रदीपोऽपि प्रज्वलति ॥१२१॥ (जह दीवो गन्भहरे ) यथा दीपो ज्योतिः गर्भगृहेऽपवरके स्थितः सन् । . (माझ्यवाहाविवज्जिओ जलइ ) मारुतस्य सम्बन्धिनी मारुतोत्पन्ना वायोः संजाता, बाषा प्रचलाचिःकरणलक्षणा पीडा तस्या विवजितो ज्वलति ज्वलनक्रियां कुर्वाण उद्योतं करोति । (तह रायानिलरहिओ ) तथा रागानिलरहितो वनितालिंगनादिप्रीतिलक्षणरागानिलरहितो रागझंझावातविवर्जितो मुनानप्रदीपः प्रज्वलति-उचोतं करोति । उक्तं च
है उसी प्रकार स्त्री के अपवित्र स्थान-योनि से उत्पन्न हुआ कामी पुरुष स्त्री के अमेध्य स्थान में प्रीति करता है। .
इस तरह जो मुनि इन्द्रिय सुख से विह्वल हैं वे संसार रूपी वृक्षको नहीं छेदते हैं। किन्तु जो भावभ्रमण हैं जिनका हृदय सम्यक्त्वरूपी रत्नसे अलंकृत है वे धय॑ध्यान और शुक्लध्यान रूपी कुठार से संसार रूपी वृक्ष को छेदते हैं।
गाचार्य-जिस प्रकार गर्भ गृहमें स्थित दीपक वायु की बाधा से रहित होकर प्रज्वलित होता रहता है उसी प्रकार राग-रूपी वायु से रहित ध्यान-रूपी दीपक भी प्रज्वलित होता रहता है ।।१२१॥
विशेषार्थ-जिस घरमें वायु का संचार नहीं होता है उसमें दीपक की लौ स्थिर होकर जलती रहती है। उसी प्रकार जिस मुनिके हृदय में राग रूपी वायुका प्रवेश नहीं होता उसमें ध्यान रूपी दीपक अच्छी तरह प्रज्वलित रहता है। इसलिये हे मुने ! अपने हृदय को राग रूपी संशा. वायुसे बचाओ। कहा भी है
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