SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ षट्प्राभृते [५.७६ऽमरा व्यन्तरदेवाः, मणुय-प्रतिश्रुत्यादिभ्यो जाता मनुजाः, खचरामरमनुजास्तेषां कराञ्जलयः करकुड्मलानि तेषां मालाभिः श्रेणिभिश्च । ( संथुआ)-संस्तुताः। चक्रवर्तिनां च तथा मण्डलेश्वरमहामण्डलेश्वरार्धमण्डलेश्वराणां राज्ञां लक्ष्मीः चक्रधरराजलक्ष्मी । ( लब्भेइ बोही ण भव्वणुआ ) एतादृशी लक्ष्मीविभूतिर्लभ्यते प्राप्यते जीवेनेति, बोही ण-परं बोधिनं लभ्यते । कथंभूता बोषिः, भव्यनुता भव्यवरपुण्डरीकैः स्तुता प्रशंसनीया । अथवा हे भव्यनुत ! आसन्नभव्यजीव! त्वमिदं जानीहीति शेषः । पर्यालयमाण कसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो। पावइ तिहुयणसारं बोही जिणसासणे जीवो ॥७६॥ प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः। .. प्राप्नोति त्रिभुवनसारां बोधि जिनशासने जीवः ।।७६।। (पलियमाणकसाओ ) प्रगलितमानकषायो मानकषायरहितः । ( पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो) प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तो यद्विपरीतं तन्मिथ्यात्वं, मोहो वैचित्यं निविवेकता पुत्रमित्रकलत्रादिस्नेहः, प्रगतो विनाशं प्राप्तौ मिथ्यात्वमोही यस्य स प्रगलितमिथ्यात्वमोहः, समं सर्वत्र तृणसुवर्ण-सर्पस्रक शत्रुमित्र उत्पत्ति हुई है वे मनुज हैं। इन सबके कर-कुड्मलों को मालाओं से जिसकी सम्यक् प्रकार स्तुति की जाती है अर्थात् विद्याधर व्यन्तर देव तथा मनुष्य जिसे हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं ऐसी चक्रवर्तियों, मण्ड. लेश्वर, महा मण्डलेश्वर, तथा अर्ध मण्डलेश्वर राजाओं की विपुल-बहुत भारी लक्ष्मी तो जीवके द्वारा प्राप्त की जाती है परन्तु श्रेष्ठ भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत बोधि-रत्नत्रय रूप विभूति प्राप्त नहीं कही जातो। अर्थात् चक्रवर्ती आदि की लक्ष्मी का मिलना तो सरल है परन्तु रत्नत्रय रूप विभूति का मिलना कठिन है। अथवा भव्वणुआ इस विशेषण को बोही के साथ न लगाकर स्वतन्त्र सम्बोधन पद माना जा सकता है इस पक्ष में 'भव्वणुआ' पदका अर्थ होगा-हे भव्य जीवोंके द्वारा स्तुत निकट भव्यजीव ! तुम ऐसा जानो। इस गाथामें भी विपुला नामक आर्या छन्द है ॥७॥ गाथार्थ-जिसकी मान कषाय गल चुकी है, जिसके मिथ्यात्व और मोह नष्ट हो चुके हैं तथा जिसका चित्त समता भावको प्राप्त हुआ है ऐसा जीव ही जिनशासन में त्रिलोक श्रेष्ठ बोधि-रत्नत्रय रूप विभूतिको प्राप्त होता है ॥७६|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy