SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी अब से कुछ दशक पूर्व तक प्रायः भारतीय और पाश्चात्य विद्वान् भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन और साहित्य का मूल वेदों में देखने के अभ्यस्त थे किन्तु जब से मोहन जोदड़ो हड़प्पा से प्राप्त सामग्री आदि साक्ष्यों के अध्ययन के पश्चात् चिन्तकों के चिन्तन की दिशा ही बदल गई और अब यह प्रमाणित हो चुका है कि श्रमण-संस्कृति-वैदिक संस्कृति से पृथक् और प्राचीन है। वस्तुतः श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही प्रवहमान है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों, भाषावैज्ञानिक, साहित्यिक एवं शिलालेखीय आदि अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान् अब यह मानने लगे हैं कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह श्रमण या आईत्-संस्कृति होनी चाहिए । श्रमण संस्कृति अपनी जिन-विशेषताओं के कारण गरिमा-मण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैन धर्म के आदि तीर्थकर वृषभ या ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई । ऋषभदेव का उल्लेख श्रमण और वैदिक इन दोनों ही संस्कृतियों में स्वयं-सिद्ध है। ये इस अवसर्पिणी काल के प्रथम सुसंस्कृत पुरुष थे, जिन्होंने सर्वप्रथम विविध ज्ञान-विज्ञान और कलाओं की शिक्षा दी थी। मनुष्य को जीवनोपयोगी असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या का उपदेश देकर समाज-व्यवस्था स्थापित की। इनके प्रथम चक्रवर्ती पुत्र भरत के नाम से इस पुण्यदेश का "भारतवर्ष" यह नाम प्रसिद्ध हुआ। - प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम एवं चौबीसवें तीर्थकर महावीर तक की इस गौरवशाली तीर्थकर परम्परा से प्राप्त तत्त्वज्ञान और आत्म कल्याणकारी उपदेशों के आधार पर श्रमण संस्कृति के अमर गायक और उन्नायक सहस्रों जैन-आचार्यों ने प्रायः सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं सभी विधाओं में अपने श्रेष्ठ साहित्य के माध्यम से भारतीय साहित्य और चिन्तन परम्परा में धीवृद्धि की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy