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-६. ७८ ]
मोक्षप्राभृतम्
चतुर्लक्षाः सहस्राणि सप्त चैव शताष्टकं । विशतिर्मेलिता एते बुधैर्लोकान्तिका मताः ॥ १ ॥
" सारस्वत्यादित्यवन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च" इति तेषां अष्टो जातयः । तथा तेषां षोडशजातयश्च वर्तन्ते । सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यवन्हिमध्ये चन्द्राभसत्याभाः । वन्ह्यरुणान्तरे श्रेयस्कर क्षेमंकराः । अरुण दंतोयमध्य वृषभोष्ट्रकामचराः । गर्दतोय तुषितान्तरे निर्वाणरजोदिगन्तरक्षिता: । तुषिताव्यावाघमध्ये आत्मरक्षित सर्व रक्षिताः । अव्याबाधारिष्टान्तरे महद्वसवः । अरिष्टसारस्वतान्तरे अश्वविश्वाः । ( तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति ) तस्माच्युता निर्वृति निर्वाणं यान्ति गच्छन्ति सर्वेऽपि पूर्वधारिण एकं गर्भवासं गृहीत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्ति ।
जे पावमोहियमई लिंग घेत्तूण जिणवरदाणं । 'पावं कुणति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गमि ॥ ७८ ॥
ये पापमोहितमतयः लिङ्गं गृहीत्वा जिनवरेन्द्राणाम् । पापं कुर्वन्ति पापाः ते त्यक्ता मोक्षमार्गे ॥ ७८ ॥
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चतुर्लक्षा - विद्वानों ने समस्त लौकान्तिक देवोंका प्रमाण चार लाख सात हजार आठसौ बीस माना है । " सारस्वतादित्यवन्ह्यरुण गर्दतोय तुषिताव्याबाधारिष्टाश्च" तत्वार्थ सूत्र के इस सूत्र में उनकी आठ जातियाँ बतलाई गई हैं । अथवा उनकी सोलह जातियाँ भी होती हैं। सारस्वत और आदित्य के मध्य में अग्न्याभ और सूर्याभ रहते हैं । आदित्य और वह्निके मध्य में चन्द्रमा तथा सत्याभमें रहते हैं । वह्नि और अरुणके बीच में श्रेय -- स्कर तथा क्षेमंकर रहते हैं । अरुण और गर्दतोय के मध्य में वृषभोष्ट्र और कामचर रहते हैं । गर्दतोय और तुषित के बीच में निर्वाणरज और दिगन्त रक्षित रहते हैं । तुषित और अव्यावाध के मध्य में आत्म रक्षित और सर्व रक्षित रहते हैं । अव्याबाध और अरिष्ट के मध्य में मरुद् तथा वसु रहते हैं । तथा अरिष्ट और सार स्वत के मध्य में अश्व और विश्व रहते हैं । ये लौकान्तिक देव वहाँ से च्युत होकर नियम से निर्वाण को प्राप्त होते हैं। सभी पूर्वके धारी होते हैं और एक गर्भवास ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
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भावार्थ - जो पाप से मोहित बुद्धि मनुष्य, जिनेन्द्र देवका लिङ्ग धारण कर पाप करते हैं वे पापी मोक्ष मार्ग से पतित हैं ॥७८॥
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