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________________ ५८० षट्प्राभृते [ ६. १६परिणतः पुनः मिथ्यादर्शने वासितो मुनिः ( वज्झदि दुट्ठकम्मेहिं ) बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः । उक्तं च कम्मइं दिढघणचिक्कणई गरुयई वज्जसमाई। णाणवियक्खणजीवडउ उप्पहि पाडहि ताई ॥१॥ इति कारणात् कर्माणि दुष्टत्वविशेषणविशिष्टत्वं लभन्ते । परदव्वादो दुगई सद्दव्वादो हु सुग्गई हवइ । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ॥१६॥ परद्रव्यात् दुर्गतिः स्वद्रव्यात् स्फुटं सुगतिः भवति । इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रति विरतिमितरस्मिन् ॥१६॥. . (परदव्वादो दुगई ) परद्रव्यादुर्गतिः परमात्मध्यानं परिहत्य परद्रव्ये परिगमनान्नरकादिषु चतसृषु गतिषु पतनं हे जीव ! तव भवति । ( सहव्वादो हु सुग्गई हवइ) स्वद्रव्यादात्मद्रव्ये एकलोलीभावात् सम्यक्त्रदानज्ञानानुचरणात् सुगतिर्भवति मुक्तिर्भवति । ( इय णाऊण सदन्वे ) इति ज्ञात्वा इदृशमयं परिमाय स्वद्रव्ये आत्मतत्वे । (कुणह रई बिरइ इयरम्मि) कुरुत यूयं रति भावनां, विरति विरमणं, इतरस्मिन् परद्रव्ये, मा रज्यत यूयमिति । विशेषार्थ जो साधु इष्ट स्त्री आदि पर-द्रव्य में रत है अर्थात् उनके स्तन जघन मुख नेत्र आदि के देखने में लम्पट है वह मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिनलिन धारण कर मात्र आजीविका करता है और मिष्यात्व रूप परिणत अर्थात् मिथ्यादर्शन की वासना रखने वाला साघु आठ दुष्ट कर्मोसे बैधता है। कहा भी है कम्मई-कर्म अत्यन्त मजबूत चिकने, भारी और वज़ के समान हैं वे इस मानी जीवको भी कुमार्ग में डाल देते हैं। इसी कारण कर्म दुष्ट विशेषण को प्राप्त हैं ॥१५॥ गाथार्य-परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से निश्चित ही संगति होती है ऐसा जानकर स्वद्रव्य में रति करो और परद्रव्य में विरति करो॥१६॥ विशेषार्थ-परमात्म-द्रव्यको छोड़कर परद्रव्यमें परिणमन करने सेउनमें तल्लीनता बढ़ाने से जीव ! तेरा नरकादि चारों गतियोंमें पतन होता है और स्वद्रव्य अर्थात् आत्म-द्रव्य में तन्मयो भाव रूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्रसे सुगति होती है-मुक्ति को प्राप्ति होतो है ऐसा जातकर तू आत्मद्रव्यमें रति कर और परदूव्यसे विरति कर अर्थात् उसमें राग मत कर ॥१६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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