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________________ -२. १०-११] . चारित्रप्राभृतम् (एएहि लक्खणेहिं य ) एतलंक्षणः । जिनसम्यक्त्वम् । ( आराहतो ) आराघयन् । ( जीवो लक्खिज्जइ ) जीव आत्मा लक्ष्यते ज्ञायते । न केवलमेतर्भावरपितु ( अज्जवेहिं भावहिं ) आजवैभविश्चाकुटिलपरिणामश्चोपलक्ष्यते । केन कृत्वा लक्ष्यते ? ( अमोहेण ) अमोहेनानज्ञानतया ज्ञानेन विचक्षणतया । विचक्षणं विना सम्यक्त्वाराधकं पुरुषं कोऽपि न जानाति सम्यक्त्वपरिणामस्यातिसूक्ष्मत्वात् । अथवा अमोहेण अमोघेन सफलजन्मना पुरुषेण । एतैः कैरित्याह-विच्छल्लं) एकं तावद्वात्सल्यं धर्मिष्ठजनेषु स्नेहलत्वं सद्यः प्रसूतगौरिव वत्से वत्सलत्वेन सद्दृष्टिविचक्षणैर्जायते । ( विणएण य ) विनयेन च विनयगुणेन गुरुजनेष्वभ्युत्थानसम्मुखगमन-करमोटनपादवन्दनादिभिगुणैः सदृष्टिविचक्षणयिते । (अणुकंपाए) अनुकम्पया दुखितं जनं दृष्ट्वा कारुण्यपरिणामोऽनुकम्पा तया सदृष्टिविचक्षणयिते । कथंभूतयानुकम्पया ? ( सुदाणदच्छाए ) शोभनदान दक्षया दुःखितजनयोग्यदान-विशिष्टया । ( मग्गगुण संसणाए ) मार्गगुणशंसनया निर्ग्रन्थ-लक्षणो मार्ग के गुणोंको प्रशंसा, उपगृहन, स्थितीकरण और अकुटिल परिणाम; इन लक्षणों के द्वारा जिनप्रतिपादित सम्यक्त्वकी आराधना करनेवाले पुरुष को पहिचानता है ॥१०-११।। विशेषार्थ-इन गाथाओं में कुन्दकुन्द स्वामी ने जिन-प्रतिपादित सम्यक्त्व को आराधना करने वाले जोव को पहिचान बताते हुए लिखा है कि सम्यक्त्वरूप परिणाम अत्यन्त सूक्ष्म हैं, अतः उन्हें अमोह-अज्ञान से रहित विचक्षण-चतुर मनुष्य ही जान सकता है अथवा प्राकृत में घ के स्थान में ह होजाने के कारण अमोहेन का पर्याय अमोघेन लिया जाता है, अतः अमोघ-सफल जन्म वाला मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि जीवको जान सकता है । जिन लक्षणों के द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव की पहिचान होती है उनमें वात्सल्य, विनय, उत्तमदान देने में दक्ष, अनुकम्पा, मार्गगुण प्रशंसा, उपगृहन, रक्षण और आर्जव भावोंका उल्लेख किया है। इन वात्सल्य आदिका स्वरूप इस प्रकार है-जिसप्रकार तत्काल प्रसूता गाय अपने बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार धर्मात्मा जीवों पर स्नेह रखना वात्सल्य है। गुरुजनों के आनेपर उठ कर खड़े होना, सम्मुख जाना, हाथ जोड़ना, चरण-वन्दना करना आदिको विनय कहते हैं। दुखी मनुष्यको देखकर करुणाभाव उत्पन्न होना अनुकम्पा कहलाती है। यह अनुकम्पा दुखी मनुष्योंके योग्य दान देनेमें तत्पर रहती है। निग्रन्थता ही मोक्षमार्ग है, परिग्रह सहित एवं वस्त्रादि से वेष्टित कोई भी मनुष्य मोक्षको प्राप्त Jain Education International 'For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004241
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2004
Total Pages766
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size13 MB
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