Book Title: Abhidhan Rajendra kosha Part 1
Author(s): Rajendrasuri
Publisher: Abhidhan Rajendra Kosh Prakashan Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष (प्रथम भागः) रचयिता: प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. प्रकाशक: अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः सकलागम रहस्यवेदी कलिकाळ सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष + प्रथम भागः [द्वितीय संस्करण] -: प्रकाशक :शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज के उपदेश से अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ प्रदत्त द्रव्यसहाय से । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद. 7 श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८ ईस्वी सन १९८६ मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१ (दो हजार पांचसो एक रुपये) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान श्री अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था C/०. श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद. TraITTITITaarabrahmiraramirmitm मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी नयन प्रि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-१ -- ------------- ------ - अभिधान राजेन्द्रकोषस्य रचना तु सर्वथा अपूर्वेवाऽस्ति । पण्डित शितिकण्ठशास्त्री श्री अभिधान राजेन्द्रकोष! ___ शब्दकोशांकी परंपरा में 'अभिधानराजेन्द्र' यथार्थमें एक विशिष्ट उपलब्धि है। __श्रीमद् की जीवनसाधनाका यह अत्यंत उदाहरण है। जब इस कोषका पहिला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे । सात भागों में तथा दस हजार पांचसो छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोष के समान है । जिसमें जिनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया हैं - वसंतीलाल जैन ___ अभिधानराजेन्द्र कोष जैसे अतिविशाल ग्रन्थरत्नकी रचना उनके सम्यगू ज्ञानके सर्वागी समर्पणकी साहजिक निष्पत्ति हैं । अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधानराजेन्द्र कोष सामान्य शब्दकोष नहीं हैं । किन्तु शास्त्रवचनोंकी समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटनका सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है । - रमेश आर. जवेरी הההההההההההTITהההההההההההה प्रा.कातााााााााााााााााााााा : Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरूदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज । श्रीअभिधान राजेन्द्र कोषः GGES लालानालामालालागाळागगलार telefofotofolor ത്ര ത ത ര ത ര तोलाrawenlain दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत:। सङ्यस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिषदाकितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ॥ १। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागमरहस्य वेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप. जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-नन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों को युगों युगों के लिये अद्भुत प्रेरणा प्रदान की है। बीसवीं शताब्दी के सध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र.) से प्रकाशित की गई थी। प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया था । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुरतीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ । इस महान कार्य में परमपूज्य शान्नमूर्ति आचार्य देव श्रीमदू विजय विद्याचंद्रसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनिषी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ है । वर्षा के बाद पुनः एक बार इस ग्रन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है। इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्य देव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज सयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानन्द विजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एवं साध्वी-मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक सघ-अहमदाबाद के ट्रस्टी मडल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला हैं । इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एव महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है । उन की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार । १ साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संघ । २ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.) ३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढ़ी, श्रीभाण्डवपुर तीर्थ (राज.) ४ श्री भेसवाड़ा सिल्क मिल्स, भीवडी (महाराष्ट्र) ५ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज) शाह नेमिचन्द देवीचन्द फूलचन्द, शुकनराज, कान्तिलाल, राजु बेटापोता श्री लखमाजी वलदरिया, कोशेलाव (राज.) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक (त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात) ८ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद ९ श्री सौधर्मबृहत्तापागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल १० श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा ११ श्री जैन श्वताम्बर त्रिस्तुतिक संघ-धानेरा १२ श्री जैनश्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सं घ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई । १३ श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ, नेनावा (गुजरात) १४ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक सघ, मेंगलवा (राज.) ५५ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, सियाणा (राज.) १६ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, आकोली (,) १७ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (,) १८ श्री मांगीलाल, फूटरमल, शान्तिलाल, किशोरचन्द्र बेटा पोता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुड़ाबालोतान् (राज.) १९ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज) २० श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र.) २१ श्री चीमनलाल भीखालाल लाधाणो वासणवाला, धानेरा (गुजरात) २२ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, वीरचन्द, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापोता केनाजी मेंगलवा, (राजस्थान) २३ श्री अमरचन्द देशमल तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल धरमाजी पटियात (धाणसा) २४ शाह मगराज सुखराज एन्ड क. मद्रास २५ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटा पोता हांसाजी रतनपुराबोरा, मोदरा (राज.) इन के अतिरिक्त गाँव नगरों के महानुभावने लाभ लिया है उन के नाम है. भीनमाल, जोधपुर, मेंगलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लोर, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहार, भेसवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी, पांथेडी, बम्बई, सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ, कोशेलाव, थराद, अहमदाबाद, लेोवाणा, दूधवा, आणद, वासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलोल, झाबुआ, टांडा, पारा, रिंगणाद, (धार) इस प्रकार गुरु कृपा से एव पू. आचार्य श्री के सतत प्रयत्न से यह प्रकाशन हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् । निवेदक श्री अभिधान राजेन्द्र काश प्रकाशन संस्था अहमदाबाद श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक पो. अहमदाबाद २०४२ पोष सुद७ (गुरुसप्तमी) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयावृत्ति प्रस्तावना अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुन हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है। ___ मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परीक्षज्ञान में होता है। परन्तु अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। - सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लेोकोत्तर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे। 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पठा।' संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आम्रब और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वय' का अलग रखा जाय तो अवश्य ही हम निर्वन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है। अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है. जैसे खान में रहे हए मोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है । मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की । प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रुप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है । मिट्टी का कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण का केई मिट्टी कहता है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती हैं। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं। ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानावरणीय कर्म अखि पर रही हुई पट्टी के समान है आंखों पर कपडे की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है। इससे कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है । जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से व ंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है । यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है; अतः जीव अपम भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है । मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म यह जीव का क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असा दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार बेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है । मोहनीय कर्म मदिरा के समान है । मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश- हवास खा बैठता है; इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म स्वरुप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्म स्वरूप मान लेता है। वही एकमेव कारण है उसक संसार परिभ्रमण का मोह महामद पिया अनादि, भूलि आपक भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है । " जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता; वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है । अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममकार जितना जितना घटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है । यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोहराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है। जीव का भेदविज्ञान से बचित रखनेवाला यही कर्म है। इसने ही जीव को संसार को भूलभुलैया में अटकाये रखा है। । और बेडी के समान है आयुष्य कर्म । इसने जीव को शरीर रुपी बेडी लगा दी है; जो अनादि से आज तक चली आ रही है एक बेडी टूटती है तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है । सजा की अवधि पूरी हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव की जन्म जन्म की केंद्र की अवधि पूरी नहीं होती तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता । नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान । चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिर्यंच और नरक गति में भ्रमण करता है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बडे बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजाँची के समान | खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजांची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता । यही कार्य अन्तराय कर्म करता हैं । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद । इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है । संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । 'सब धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं ब्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि......धम्म सरणं गच्छामि ।' और 'केवलिपण्णत्त धम्म सरणं पञ्चज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत दरवाजे खले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है। जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है। यह जैन धर्म की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यावाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ ग्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है । आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुरुजी तलाश रहे थे जो सारे रहस्य खाल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध, तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे-उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज | उन्हेंनि जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुलजीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलनी रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है-'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त 'अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है । जैनागमों में निर्दिष्ट | Jain Education Interational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतत्त्व जो ‘अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं; वह कहीं नहीं है । यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है । भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रहो है। निघट कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। 'यास्क' की रचना 'निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दसंग्रह दृष्टिगोचर होता है। ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल । जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दुसरा प्रकार है-अनेकार्थक कोश । कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागरी का 'त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टः इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' बहु प्रचलित है। धनपाल का 'पाइय लच्छी नाम माला' २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता हैं। इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनरुजयने 'धनकजय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत बाचक बन जाते हैं--जसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं। इसी प्रकार धनब्जयने 'अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के 'अभिधान चिन्तामणि', 'अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्ट संग्रह' और 'देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं। इसके अलावा 'शिलांछ कोश', 'नाम कोश', 'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शब्दभेद नाममाला', 'नाम सग्रह', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला'. 'एकाक्षरी-नानार्थ कोश'. 'एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेपता के कारण यह आज भी समस्त कोश प्रन्यों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है। फिर भी इसकी कुछ विशेषताए प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा। Jain Education Interational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्प्रभाकर-चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज। तासार मनशमी विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥१॥ wwjaireniorary.org Education International Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो को धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन भागों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है । इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कगया है। इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सत्तानवे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी है। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है। इसमें धर्म-सकृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक लेोक उद्धत किये गये हैं। इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा । इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने गत के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोध विहार किये प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान. संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस ‘जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है। इस महाग्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपुज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेवसूरिजी महाराज 'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है। इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रस्तुत बृहद् विश्वकेाश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए । बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये । हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है ! • अभिधान राजेन्द्र यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा । श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में बसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की । मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमो प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है । गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया । उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में · अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके आवश्यकता पर जोर दिया । पुनर्मुद्रण की बीड़ा उठाने का गंगा उमड़ पड़ी । 4 इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्वपूर्ण कार्य का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया । आह्नान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ । ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई; पर श्रेयांसि बहुविधनानि ' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा aara इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था । प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर मैं मजबूर था । आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है । हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने । उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तः सुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल adier को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है । श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए अस्थित हुए । पावन पुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा । For Private Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृति इस ' अभिधान राजेन्द्र ' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावेोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है । और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश ग्रन्थ पुनर्मुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है; यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है । ७ इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है; फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. बृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री होराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं । इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है । प्रेसकार्य, प्रूफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है । हम उन्हें नहीं भूल सकते । त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं । वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् । नेनावा ( बनासकांठा ) दिनांक २-१२-८५ For Private Personal Use Only आचार्य जयन्तसेनरि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सौधर्म बृहत्तपागलीय पट्टावली - #eake श्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहसूरि , श्रीसुधर्मास्वामी २६ श्रीसमुद्रसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २७ श्रीमानदेवसरि ३ श्रीप्रनवस्वामी २८ श्रीविवुधप्रभसूरि ॥ श्रीसय्यंभवस्वामी २६ श्रीजयानन्दसूरि ५ श्रीयशोमवसूरि ३. श्रीरविप्रनसूरि . श्रीसंभूतविजयजी ३१ श्रीयशोदेवसूरि श्रीनबबाहुस्वामी ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि ७ श्रीस्थूलभस्वामी ३३ श्रीमानदेवसूरि श्रीआर्यसुहस्तीसूरि ३४ श्रीविमलचन्मसूरि श्रीमार्यमहागिरि ३५ श्रीसद्योतनसूरि श्रीसुस्थितसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि श्रीमुपतिबद्धमूरि १. श्रीइन्द्रदिन्नसूरि ३७ श्रीदेवसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि ११ श्रीदिन्नसूरि .. श्रीयशोभद्रसूरि १२ श्रीसिंहगिरिसूरि ३८ श्रीनेमिचन्मसूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी ४. श्रीमुनिचन्मसूरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी ४१ श्रीअजितदेवसूरि १५ श्रीचन्मसूरिजी ४२ श्रीविजयसिंहसूरि १६ श्रीसामन्तनप्रसूरि श्रीसोमप्रनसूरि १७ श्रीवृद्धदेवसूरि ४३ श्रीमणिरत्नसूरि १८ श्रीप्रद्योतनसूरि ४४ श्रीजगञ्चन्मसूरि १६ श्रीमानदेवसरि श्रीदेवेन्यसूरि २० श्रीमानतुगसूरि ४५ श्रीविद्यानन्दसूरि २१ श्रीवीरसूरि ४६ श्रीधर्मघोषसरि २२ श्रीजयदेवसूरि ४७ श्रीसोमप्रभसूरि २३ श्रीदेवामन्दसूरि ४८ श्रीसोमतिलकसरि २६ श्रीविक्रमसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसरि ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि ५१ श्रीमुनिसुन्दरसूरि ५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ५३ श्रीसक्ष्मीसागरसूरि ५४ श्रीसुमतिसाधुसूरि ५५ श्रीहेमविमलसूरि ५६ श्रीआनन्दविमलसूरि ५७ श्रीविजयदानसूरि ५८ श्रीहीरविजयसूरि ५६ श्रीविजयसेनसरि ..श्रीविजयदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि ६१ श्रीविजयप्रभसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि ६४ श्रीविजयदेवेन्दसूरि ६५ श्रीविजयकल्याणसूरि ६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि ६७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरि ६८. श्री विजयधनचन्द्रसूरि ६६ श्री विजयभूपेन्द्ररि ७० श्री विजययतीन्द्रसूरि ७१ श्री विजयविद्यावन्द्रस्ि ७२ वर्तमाता धारी साविजयजयत्तसेनसारे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय राजदसूरीश्वरजी महाराज Viमद् विलाय HAIDEVवाजी महमान उपाध्याय मोहनतिजयजी महाराज निभूपेदीकर जी महाराज विजय यतीनदीमाजी महाराज उयायाय गुलामजियजी महाराज विजय विशाहीवाजी सह *सद विजय यातायात मन GOOO Private-Personal Us wwjalgeetry.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईम् । ग्रन्थकर्ता का संक्षिप्त जीवन - परिचय | रागद्वेषप्रदाद्वयदलन कृते वैनतेयत्वमाप्तः, सूणामग्रगण्यो गुणगण महितो मोहनीयस्वरूपः । यः “श्रीराजेन्द्रसूरि”र्जगति गुरुवरः साधुवर्गे वरिष्ठः, तस्य स्मर्तु चरित्रं कियदपि यतते 'श्री यतीन्द्रो' मुनीद्रः ॥ १ ॥ याज हम उन महानुजाव करुणामूर्ति उपशम ( शान्त ) रसस्वरूप वर्तमान सकल जैनागमपारदर्शी श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय प्रवर जैनाचार्य जट्टारक श्रीश्री १००८ श्रीमद् - विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का अत्यन्त प्रजावशाली संक्षिप्त जीवन-परिचय देंगे, जो कि इस जारत भूमि में अनेक विद्वज्जनों के पूज्य परोपकारपरायण महाप्रजावक थाचार्य हो गये हैं । पूर्वोक्त महात्मा का जन्म श्री विक्रम संवत् १८०३ पौषशुक्ल ७ गुरुवार मुताविक सन् १०२७ ईस्वी दिसम्बर ३ तारीख के दिन 'अनेरा' रेल्वे स्टेशन से १७ मील और 'यगरे' के किले से ३४ मील पश्चिम राजपूताना में एक प्रसिद्ध देशी राज्य की राजधानी शहर 'जरतपुर' में पारखगोत्रावतंस यश (वाल ) वंशीय श्रेष्ठिवर्य 'श्री ऋषनदास जी ' की सुशीला पत्नी 'श्रीकेसरी बाई' सौजाग्यवती की कुक्षि ( कूँख ) से हुआ था । आपका नाम रत्नों की तरह देदीप्यमान होने से जातीय जीमनवार पूर्वक 'रत्नराज ' रक्खा गया था । यापके जन्मोत्सव में जगवद्नक्ति, पूजा, प्रजावना, दान आदि सत्कार्य विशेष रूप से कराये गये थे, यहाँ तक कि नगर की सजावट करने में भी कुछ कमी नहीं रक्खी गयी थी । पकी बाल्यावस्था जी इतनी प्रजावसंपन्न थी कि जिसने आपके माता पिता आदि परिवार के क्या ? अपरिचित सज्जनों के जी चित्तों में आनन्द-सागर का उल्लास कर दिया, अर्थात् सबके लिये आनन्दोत्पादक और अतिसुखप्रद थी । आपने अपने बाल्यावस्था दी सुरम्य वैनयिक गुणों से माता पिता और कलाचार्यों को रञ्जित कर करीब दस बारह वर्ष की अवस्था में ही सांसारिक सब शिक्षाएँ संपन्न करलीं थीं । आपके ज्येष्ठ जाता 'माकिचन्दजी' और बोटी बढ्न 'प्रेमाबाई ' थी । 1 पूज्य लोगों की आज्ञा पालन करना और माता पिता आदि पूज्यों को प्रणाम करना और प्रातःकाल उठकर उनके चरण कमलों को पूजकर उनसे शुनाशीर्वाद प्राप्त करना, यह तो आपका परमावश्यकीय नित्य कर्त्तव्य कर्म था । For Private Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) पकी रमणीय चित्तवृत्ति निरन्तर स्वाभाविक वैराग्य की ओर ही भाकर्षित रद्दा करती थी, इसी से याप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिद्ध करने में और उच्चतम शिक्षाओं को प्राप्त करने में उत्साही रहते थे । सबके साथ मित्राव से वर्त्तना, पूज्यों पर पूज्य बुद्धि रखना, गुणवानों के गुणों को देख कर प्रसन्न होना, सत्समागम की अभिलाषा रखना, कलह से करना, हास्य कुतूहलों से उदासीन रहना, और दुर्व्यसनी लोगों की संगति से बचकर चलना, यह आपकी स्वाजाचित्तवृत्ति थी । बारह वर्ष की अवस्था से कुछ ऊपर होने पर अपने पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई 'माणिकचंदजी ' के साथ 'श्रीकेस रियाजी 'महातीर्थ की यात्रा की, और रास्ते में 'अम्बर शहर - निवासी सेठ 'सौभाग्यमलजी ' की पुत्री के माकिनी का दोष निवारण किया और जीलों के संकट से सारे कुटुम्ब को बचाया था। इसी सबब से इस उपकार के प्रत्युपकार में 'सौनाग्यमलजी' ने अपनी सुरूपा पुत्री ' रमादेवी ' का सगपन ( सगाई ) आप ( रत्नराज ) के साथ संयोजन करने का मानसिक विचार किया था । परन्तु यहाँ संबन्धियों का संमेलन न होने के सबब से सेठजी अपने कुटुम्ब सहित घर की तरफ रवाना हो गये । इधर ' माणिकचंदजी ' जी अपने छोटे जाई को यात्रा कराकर 'गोमवाड' की पञ्चतीर्थी की यात्रा करते हुए अपने घर को चले आये । C कुल दिन घर में रहकर फिर दोनों जाई व्यापारोन्नति के निमित्त अपने पिता का शुजाशीर्वाद ले बङ्गाज की घोर खाना हुए। क्रमशः पन्थ प्रसार करते हुए दोनों जाई ' कलकत्ते ' शहर में आए और सर्राफी बाजार में आढ़तिया के यहाँ उतरे । इस शहर में दस पन्द्रह दिन ठहर कर जहाजों में धान ( गल्ला ) जर शुभ मुहूर्त में ' सिंहलद्वीप ' ( सिलोन) की ओर रवाना हुए। मार्ग में अनेक उपद्रवों को सहन करते हुए ' सिंहलद्वीप' में पहुँचे । यहाँ से द्रव्योपार्जन करके कुछ दिनों के बाद 'कलकत्ता' आदि शहरों को देखते हुए अपने घर को आये । तदनन्तर माता पिता की वृद्धावस्था समऊ कर उनकी सेवा में तत्पर हो वहाँ ही रहना स्थिर किया । काल की प्रबल गति अनिवार्य है, यह मनुष्यों को दुःखित किये बिना नहीं रहती । अकस्मात् ऐसा समय थाया कि माता और पिता के अन्तिम दिन या पहुँचे और दोनों जाइयों को अत्यन्त शोक होनेका अवसर श्रागया, परन्तु किञ्चित् धैर्य पकड़ कर माता पिता की अन्तिम नक्ति करने में कटिवद्ध हो, उनकी सुन्दर शिक्षाएँ सावधानी से ग्रहण कीं, और रातदिन उनके निकट ही रहना शुरू किया, यों करते काल समय आने पर जब माता पिता का देहान्त हो गया, तब दोनों जाई संसारी कृत्य कर विशेष शोक के वशीभूत न हो धर्मध्यान में निमग्न हुए । For Private Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब से आपकी सुरम्य चित्तवृत्ति विशेषरूप से निरन्तर वैराग्य की श्रोर ही आकर्षित रहने लगी, इसी से आप विषयवासनाओं से रहित होकर परमार्थ सिझ करने में और उच्चतम मुनिराजों के दर्शन प्राप्त करने में प्रोत्साहित रहते थे। एक समय 'श्रीकल्याणसुरिजी महाराज के शिष्य-यतिवर्य श्री प्रमोदविजयजी' महाराज विचरते विचरते शहर 'जरतपुर' में पधारे और आज्ञा लेकर उपाश्रय में ठहरे । सब लोग आपके पास व्याख्यान सुनने आने लगे। इधर 'रत्नराज जी देव दर्शन कर उपाश्रय में व्याख्यान सुनने के लिये आये । इस सुयोग्य सजा में 'श्रीप्रमोद विजयजी' महाराज ने संसार की क्षणिक प्रीति के स्वरूप को बहुत विवेचन के साथ दिखाया कि"अनित्यानि शरीराणि, विनवो नैव शाश्वतः” अर्थात् इस संसार में शरीरादि संयोग सब क्षणिक हैं, याने देखने में तो सुन्दर लगते हैं परन्तु अन्त में अत्यन्त पुःखदायक होते हैं और धन दौलत नी विनाशवान है इसके ऊपर मोद रखना केवल अझान ही है,क्यों कि-- " दुःखं स्त्रीकुदिमध्ये प्रथममिह भवे गर्नवासे नराणां, बालवे चापि दुःखं मलबुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्रम् ॥ तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्याः ! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ? " ॥ १॥ अर्थात् इस संसार में पहिले तो गर्जवास ही में मनुष्यों को जननी के कुति (कँख) में पुःख प्राप्त होता है, तदनन्तर बाल्यावस्था में जी मलपरिपूर्ण शरीर स्त्रीस्तनपयः पान से मिश्रित फुःख होता है, और जवानी में भी विरह श्रादि से छःख उत्पन्न होता है, तथा वृद्धावस्था तो बिलकुल निःसार याने कफ वातादि के दोषों से परिपूर्ण है; इसलिये हे मनुष्यो ! जो संसार में थोमा जी सुख का देश हो तो बतलायो ? ॥ १ ॥ इसवास्ते अरे जव्यो ! परमसुखदायक श्री जिनेन्द्रप्ररूपित अहिंसामय धर्म की आरा. धना करो जिससे आत्मकल्याण हो । इस प्रकार हृदयग्राहिणी और वैराग्योत्पादिका गुरुवर्य की धर्मदेशना सुनकर रत्नराज'के चित्त में अत्यन्त उदासीनता उत्पन्न हुई और विचार किया कि-वस्तुगत्या संयोग मोह ही प्राणीमात्रको पुःखित कर देता है, इससे मुके उचित है कि-श्रात्मकल्याण करने के लिये इन्हीं गुरुवर्य का शरण ग्रहण करूँ, क्योंकि संसार के तापों से संतप्त प्राणियों की रक्षा करने वाले गुरु ही हैं। ऐसा विचार कर अपने संबन्धिवर्गों की अनुमति ( ाझा ) लेकर बझे समारोह के साथ संवत् १९०३ वैशाख सुदी ५ शुक्रवार के दिन शुभयोग और शुज नक्षत्र में महाराज 'श्री प्रमोद विजयजी' के कहने से उनके ज्येष्ठ गुरुज्राता 'श्रीहेमविजयजी' महाराज के पास यतिदीक्षा स्वीकार की, और संघ के समक्ष आपका नाम 'श्रीरत्नविजयजी' रक्खा गया। महानुभाव पाठकगण ! उस समय यतिप्रणाली की मर्यादा, प्रचलित प्रणाली से अ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) त्यन्त प्रशंसनीय थी अर्थात् रजो मुहपत्ती सर्वदा पास में रखना, दोनों काल ( स. (A) प्रतिक्रमण और प्रतिलेखन करना, श्वेत- मानोपेन वस्त्र धारण करना, स्त्रियों के परिचय से सर्वथा बहिर्भूत रहना, पठन और पाठन के अतिरिक्त व्यर्थ समय न खोकर निद्रादेवी के वशीभूत न होना, निन्तर अपनी उन्नति के उपाय खोजना, और धर्म - विचार या शास्त्र विचार में निमग्न रहना इत्यादि सदाचार से अतीव प्रशंसनीय प्राचीन समय में वर्ग था । जैसे आज कल यतियों की प्रथा विगड़ गयी है, वैसे वे लोग विगमे हुए नहीं थे, किन्तु इनसे बहुत ज्यादे सुधरे हुए थे। हाँ इतना जरूर था कि उस समय (१९०३) में जी कोई यति परिग्रह रखते थे, परन्तु महाराज 'श्रीप्रमोदविजयजी' की रहनी कहनी बिलकुल निर्दोष थी, अर्थात् उस समय के और (दूसरे ) यतियों की अपेक्षा प्रायः बहुत जागों में सुधरी हुई थी, इसी पुरुषरत्न 'श्री रत्नराजजी' ने वैराग्यरागरञ्जित हो यतिदीक्षा स्वीकार की थी । फिर कुछ दिन के बाद 'श्रीप्रमोद विजयजी गुरूकी आज्ञा से श्रीरत्नविजयजी ने 'मूँगी सरस्वती' विरुदधारी यतिवर्य श्रीमान् 'श्री सागरचन्द्रजी' महाराज के पास रहकर व्याकरण, न्याय, कोष, काव्य, और अलङ्कार आदि का विशेष रूप से अभ्यास किया । 'श्रीप्रमोद विजयजी' और श्रीसागरचन्द्रजी' महाराज की परस्पर अत्यन्त मित्रता थी । जब दोनों का परस्पर मिलाप होता था, तत्र लोगों को अत्यन्त ही श्रानन्द होता था । यद्यपि दोंनों का गच्छ जिन्न २ था, तथापि गच्छों के ऊगको में न पड़कर केवल धार्मिक विचार करने में तत्पर रहते थे, इसलिये 'श्री सागरचन्द्रजी' ने आपको अपने अन्तेवासी (शिष्य) की तरह पढ़ाकर हुशियार किया था । 'सागरचन्द्रजी' मरुधर (मारवाक) देश के यतियों में एक जारी विद्वान् थे, इनकी वि त्ता की प्रख्याति काशी ऐसे पुन्य क्षेत्र में भी थी, आप ही की शुभ कृपा से श्रीरत्नविजयजी' स्वल्पकाल ही में व्याकरण यदि शास्त्रों में निपुण और जैनागमों के विज्ञाता दो गये, परन्तु विशेषरूप से गुरुगम्य शैली के अनुसार अभ्यास करने के लिये तपागच्छाधिराज श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज के पास रहकर जैन सिद्धान्तों का अवलोकन किया और गुरुदत्त अनेक चमत्कारी विद्याओं का साधन किया । आपके विनयादि गुणों को और बुद्धिविचक्षणता को देखकर 'श्रीदेवेन्द्रसूरिजी' महाराज ने श्रापको शहर 'उदयपुर' में 'श्रीम विजयजी' के पास बड़ी दीक्षा और 'पन्यास ' पदवी प्रदान करवाई थी और अपने अन्त समय में पं० श्रीरत्न विजयजी ' से कहा कि- " ब मेरा तो यह समय लगा है, और मैंने अपने पाट पर शिष्य 'श्रीधीरविजय' को धरणेन्द्रसूरि' नामाङ्कित करके बैठाया तो है किन्तु अभी यह यज्ञ है, याने व्यवहार से परिचित नहीं है । इसलिये तुमको मैं श्रादेश करता हूँ कि इसको पढ़ाकर साक्षर बनाना For Private Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) और गच्छ की मर्यादा सिखाना " । इस शुभ आज्ञा को सुनकर पं० रत्नविजयजी' ने साञ्ज लिबन्ध होकर 'तहत्ति' कहा । फिर श्रीपूज्यजी महाराज ने विजयधरणेन्द्रसूरिजी से कहा कि- 'तुम रत्नविजय पन्यास के पास पढ़ना और यह जिस मर्यादा से चलने को कहें उसी तरह चलना '। धरणेन्द्रसूरिजी ने जी इस आज्ञा को शिरोधार्य माना । महाराज श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ने तो चारों आहार का त्याग कर शहर 'राधनपुर' में अनशन किया और समाधिपूर्वक कालमहीने में काल किया। पीछे से पट्टाधीश 'श्री धरणेन्द्रसूरिजी ' 'श्रीरत्न विजयजी 'पन्यास को बुलाने के लिये एक रुक्का लिखा कि पेस्तर 'श्रीखन्ति विजयजी' ने खेवटकर उदयपुर राणाजी के पास से ' श्रीदेवेन्द्रसूरिजी ' महाराज को पालखी प्रमुख शिरोपाव बक्साया था, उसी प्रकार तुम को भी उचित है कि 'सिद्ध विजयजी' से बन्द हुआ जोधपुर और बीकानेर नरेशों की तरफ से छड़ी दुशाला प्रमुख शिरोपाव को खेवटकर फिर शुरू करायो, इस रुक्के को वाँचकर 'श्री प्रमोद विजयजी' महाराज ने कहा कि" सूचिप्रवेशे मुशलप्रवेशः " यह लोकोक्ति बहुत सत्य है, क्यों कि श्री हीर विजय सूरिजी ' महाराज की उपदेशमय वचनों को सुनकर दिल्लीपति बादशाह अकबर अत्यन्त हर्षित हुआ और कहने लगा कि - " हे प्रजो ! आप पुत्र, कलत्र, धन, स्वजनादि में तो ममत्व रहित हैं इसलिये आपको सोना चाँदी देना तो ठीक नहीं ?, परन्तु मेरे मकान में जैन मजहब की प्राचीन २ बहुत पुस्तकें हैं सो आप लीजिये और मुजे कृतार्थ करिये " । इस प्रकार बादशाह का बहुत आग्रह देख 'हीरविजय सूरिजी' ने उन तमाम पुस्तकों को आगरा नगर ज्ञानजष्कार स्थापन किया। फिर मम्बर सहित उपाश्रय में आकर बादशाह के साथ अनेक धर्मगोष्ठी की ; उससे प्रसन्न हो छत्र, चामर, पालखी वगैरह बहु मानार्थ 'श्री दीर विजय सूरिजी ' के अगाड़ी नित्य चलाने की आज्ञा अपने नोकरों को दी। तब ही रविजय सूरिजी ने कहा कि हम लोग जंजाल से रहित हैं इससे हमारे आगे यह तूफा उचित नहीं है । बादशाह ने विनय पूर्वक कहा कि ' हे प्रजो ! आप तो निस्पृह हैं परन्तु मेरी जक्ति है निस्पृहन में कुछ दोष लगने का संभव नहीं है'। उस समय बादशाह का अत्यन्त ग्रह देख श्रीसंघ ने विनती की कि स्वामी ! यह तो जिनशासन की शोना और बादशाह की जक्ति है इसलिये आपके आगे चलने में कुछ अटकाव नहीं है । गुरुजी ने जी द्रव्य, क्षेत्र, काल, जाव की अपेक्षा विचार मौन धारण कर लिया। बस उसी दिन से श्रीपूज्यों के आगे शोजातरीके पालखी छड़ी प्रमुख चलना शुरू हुआ । " श्री विजयरत्न सूरिजी " महाराज तक तो कोई आचार्य पालखी में न बैठे, परन्तु 'लघुकमासूरिजी ' वृद्धावस्था होने से अपने शिथिलाचारी साधुओं की प्रेरणा होने पर बैठने लगे। इतनी रीति कायम रखी कि गाँम में आते समय पालखी से उतर जाते थे, तदनन्तर 'दयासूरिजी ' तो गाँव नगर में जी बैठने लगे । इस तरह क्रमशः धीरे २ शिथिलाचार की प्रवृत्ति चलते चलते अत्यन्त शिथिल होगये क्योंकि पेस्तर तो कोई राजा वगैरह प्रसन्न हो ग्राम नगर क्षेत्रादि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिरोपाव देता तो उसको स्वीकार न कर उसके राज्य में जीवधादि हिंसा को बुझाकर आचार्य धर्म की प्रवृत्ति में वधारा करते थे, और अब तो 'श्रीपूज्य' नाम धराकर खुद खेवट कराके शिरोपाव लेने की इच्छा करते हैं, यह सब पुःषम काल में शिथिलाचारादिप्रवृत्ति का प्रनाव जानना चाहिये । अत एव हे शिष्य ! "श्रीपूज्यजी ने जो कुछ लिखा है उस प्रमाणे उद्यम करना चाहिये, क्योंकि बहुत दिन से अपना इनके साथ संवन्ध चला आता है उसको एक दम तोड़ना ठीक नहीं है”। तब अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास रत्न विजयजी जी नवीन श्रीपूज्यजी को दत्तचित्त होकर पढ़ाना प्रारम्भ किया और गच्छाधीश की मर्यादाऽनुसार बर्ताव कराना शुरू किया । श्री. पूज्यजी ने अपने गुरुवर्य की आज्ञानुसार पन्यास श्री रत्न विजयजी को विद्यागुरु समझकर आदर, सत्कार, विनय आदि करना शुरू किया। पन्यासजी ने भी श्रीपूज्य श्रादि सोलह व्यक्तियों को निःस्वार्थ वृत्ति से पढ़ाकर विद्वान् कर दिया । श्रीपूज्यजी महाराज ने अपने विद्यागुरु का महत्व बढ़ाने के लिये दफतरीपन का ओहदा [ अधिकार ] सौंपा अर्थात् जो पदवियाँ किसी को दी जाय और यतियों को अलग चौमासा करने की श्राज्ञा दी जाय तो उनको पट्टा पन्यास 'श्री रत्नविजयजी' के सिवाय दूसरा कोई भी नहीं कर सके ऐसा अधिकार अर्पण किया। तब ज्योतिष, वैद्यक और मंत्रादि से जोधपुर और बीकानेर नरेशों को रन्जितकर छमी उशाला प्रमुख शिरोपाव और परवाना श्रीधरणेन्प्रसूरिजी को लेट कराया। एक समय संवत् १९२३ का चौमासा 'श्री धरणेन्ऽसूरिजी'ने शहर 'घाणेराव' में किया उस समय पं० श्रीरत्न विजयजी श्रादि ५० यति साथ में थे परन्तु नवितव्यता अत्यन्त प्रबल होती है करोझो उपाय करने पर जी वह [ होनहार] किसी प्रकार टल नहीं सकती, जिस मनुष्य के लिये जितना कर्त्तव्य करना है वह होही जाता है, याने पर्युषणा में ऐसा मौका था पहा कि श्रीपूज्यजी के साथ श्रीरत्न विजयजी का अतर के बाबत चित्त उद्विग्न हो गया, यहाँ तक कि उस विषय में अत्यन्त वाद विवाद बढ़ गया, इससे रत्नविजयजी लाउपद सुदीहितीया के दिन 'श्रीप्रमोदरुचि' और 'धन विजयजी' श्रादि कई सुयोग्य यतियों को साथ लेकर ' नामोल' होते हुए शहर ' आहोर ' में आये और अपने गुरु श्री प्रमोद विजयजी को सब हाल कह सुनाया। जब गुरुमहाराज ने श्रीपूज्य को हित शिक्षा देने के लिये श्रीसंघ की संमति से पूर्व परंपराऽऽगत सूरिमंत्र देकर रत्नविजयजी को अत्यन्त महोत्सव के साथ संवत् १९२३ वैशाख सुदी ५ बुधवार के दिन ‘श्राचार्य' पदवी दी और उसी समय श्राहोर के ठाकुर साहव 'श्रीयशवन्तसिंह' जी ने श्रीपूज्य के योग्य ठमी, चामर, पालखी, सूरजमुखी आदि सामान लेट किया। और श्रीसंघ ने श्रीपूज्यजी को 'श्री विजयराजेन्दसूरिजी महाराज के नाम से प्रख्यात करना शुरू किया। श्रीपूज्य श्री विजयराजेन्प्रसूरिजी महाराज अपनी सुयोग्य यतिमएमली सहित ग्राम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) ग्राम विहार करते हुए मेवाड़देशस्थ 'श्रीशंजूगढ़' पधारे। यहां के चौमासी 'श्री फतेहसागरजी' ने फिर पाटोच्छव करा के राणाजी के ' कामेती' के पास लेट पूजा करायी। फिर गाँवो गाँव श्रावकों से ‘खमासमणा' कराते हुए संवत २ए २४ का चौमासा 'श्रीसंघ के अत्यन्त आग्रह से शहर 'जावरे' में किया और 'मीजगवतीजी' सूत्र को व्याख्यान में बाँचा। यहां पर जनाणी मोगलालजी प्रमुख श्रावकों के मुख से श्रीपूज्यजी की प्रशंसा सुनकर 'नवाबसाहेब' ने एक प्रश्न पुछाया कि-"तुम्हारा धर्म हम अंगीकार करें तो हमारे साथ तुम खाना पीना करसकते हो, या नहीं? इसका उत्तर श्रीपूज्यजी महाराज ने यह फरमाया कि-"दीन का और जैन का घर एक है इसलिये चाहे जैसी जातिवाला मनुष्य जैनधर्म पालता हो उसके साथ हम बन्धु से जी अधिक प्रेम रख सकते हैं, किन्तु लोकव्यवहार अस्पृश्य जाति न हो तो हम जैन शास्त्र के मुताबिक खाने पीने में दोष नहीं समझते हैं" इत्यादि प्रश्न का उत्तर सुन और सन्तुष्ट हो अपने वजीर के जरिये मोहर परवाना सहित आपदागिरि, किरणीया, वगैरह लवाजमा नेट कराया। इस चौमासे में 'धरणेन्द्रसूरि' ने एक पत्र (रुक्का) लिखकर अपने नामी यति सिकुशलजी' और ' मोतीविजयजी' को जावरे संघ के पास भेजा। उन दोनों ने आकर संघ से सब वृत्तान्त (हकीकत) कहा, तब संघ ने उत्तर दिया कि-'हम ने तो इनको योग्य और उचित क्रियावान् देखकर श्रीपूज्य मान लिया है और जो तुह्मारे जी श्रीपूज्य गच्छमर्यादाऽनुसार चलेंगे तो हम उन्हें नी मानने को तैयार हैं। इस प्रकार बात चीत करके दोनों यति आपके पास आये और वन्दन विधि साँचवकर बोले कि-श्राप तो बड़े हैं, थोकीसी बात पर इतना जारी कार्य कर मालना ठीक नहीं है, इस गादी की बिगड़ने और सुधरने की चिन्ता तो आपही को है । तब आपने मधुर वचनों से कहा कि मैं तो अब क्रियाउद्धार करने वाला हूँ मुळे तो यह पदवी बिलकुल उपाधिरूप मालूम पड़ती है परन्तु तुम्हारे श्रीपूज्यजी गच्छमर्यादा का जवंघन करके अपनी मनमानी रीति में प्रवृत्त होने लग गये हैं, इस वास्ते उनको नव कलमें मंजूर कराये बिना अली क्रियाउझार नहीं हो सकता । ऐसा कह नव कलमों की नकल दोनों यतियों को दी, तब उस नकल को लेकर दोनों यति श्रीपूज्यजी के पास गये और सब वृत्तान्त कह सुनाया तब श्रीपूज्यजी ने भी उन कलमों को बाँच कर और हितकारक समझकर मंजूर की और उस पर अपनी सहीनी कर दी और साथ में सूरिपद की अनुमति जी दी। इस प्रकार श्रीधरणेन्सूरिजी को गच्छसामाचारी की नव कलमों को मनाकर और अपना पाँच वर्ष का लिया दुवा 'अनिग्रह' पूर्ण होने पर जावरे के श्रीसंघ की पूर्ण विनती होने से वैराग्यरङ्गरञ्जित हो श्रीपूज्याचार्य श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने अपना श्रीपूज्यसंबन्धी डमी, चामर, पालखी, पुस्तक श्रा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) दि सब सामान श्री सुपार्श्वनाथजी के मंदिर में चढ़ाकर संवत् १७ २५ प्राषाढ वदि १० बुधवार के दिन पने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री प्रमोदरुचिजी और श्री धनविजयजी के साथ बड़े समारोह से क्रिया - उद्धार किया, अर्थात् संसारवर्द्धक सब उपाधियों को छोड़ कर सदाचारी, पञ्च महाव्रतधारी सर्वोत्कृष्ट पद को स्वीकार किया । उस समय प्रत्येक गामों के करीब चार हजार श्रावक हाजिर थे उन सबों ने व्यापकी जयध्वनि करते हुए सारे शहर को गुंजार कर दिया । क्रियाद्धार करने के अनन्तर खाचरोद संघ के अत्यन्त श्राग्रह से आपका प्रथम चौमासा ( सम्वत् १९०२५ का ) खाचरोद में हुआ, इस चौमासे में श्रावक और श्राविकाओं को धार्मिक शिक्षण बहुत ही उत्तम प्रकार से मिला और सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई । चौमासे के उतार में श्रीसंघ की ओर से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिसपर करीब तीन चार हजार श्रावक श्राविका एकत्रित हुए, जिससे जैन धर्म की बड़ी जारी उन्नति हुई; इस चौमासे में पाँच सात हजार रुपये खर्च हुए थे और जीर्णोद्धारादि अनेक सत्कार्य हुए। फिर चतुर्मासे के उतरे बाद ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'नीबा' देशान्तर्गत शहर 'कुकसी ' की ओर थापका पधारना हुआ । ' कूकसी ' में सोजी देवीचन्दजी यदि अच्छे २ विद्वान् श्रावक रहते थे, जिनके व्याख्यान में पाँच पाँच सौ श्रावक लोगाते थे, इन दोनों श्रावकों ने आपके पास द्रव्यानुयोग विषयक अनेक प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर आपने बहुतही सन्तोषदायक दिये। उन्हें सुनकर और आपका साधुव्यवहार शुद्ध देखकर प्रतीव समारोह के साथ सव श्रावक और श्राविकाओं ने विधि पूर्वक सम्यक्त्व व्रत स्वीकार किया । यहाँ उन्तीस १५ दिन रहकर अनेक लोगों को जैनमार्गानुगामी बनाया । फिर क्रम से संवत् १९०२६ रतलाम, १७२७ कूकसी, १९२८ राजगढ़ और फिर १२ का चौमासा रतलाम में हुआ । इस चौमासे में संवेगी जवेरसागरजी और यती बालचन्दजी उपाध्याय के साथ चर्चा हुई, जिसमें आपको दी विजय प्राप्त हुआ और 'सिद्धान्तप्रकाश' नामक बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ बनाया गया । संवत् १९३० का चौमासा जावरा में और १९३१ तथा १९३२ का चौमासा शहर 'माहोर' में हु । ये दोनों चौमासे एकही गाँव में एक जारो जातीय ऊगड़े को मिटाने के लिये हुए थे, नहीं तो जैन साधुओं की यह रीति नहीं है कि जिस गाँव में एक चौमासा कर लिया, उसी गाँव में फिर तदनन्तर दूसरे साल का चौमासा करना, परन्तु कोई लाजालान का अवसर हो तो कारण सर चौमासा पर जी चौमासा हो सकता है। संवत् १९३३ का चौमासा शहर जालोर में हुआ, यहाँ पर ढूढ़ियों के साथ चर्चा कर सात सौ 900 घर मन्दिरमार्गी बनाये और गढ के ऊपर राजा कुमारपाल के बनाये हुए प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया, और कुम्न सेठ का बनाया हुआ जो चौमुखजी का मन्दिर था. उसमें से सरकारी सामान निकलवा कर बड़े समारोह से शास्त्रीय विधिपूर्वक For Private Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) प्रतिष्ठा करायी । सम्वत् १९३४ राजगढ़, १०३५ रतलाम, १९७३६ जीनमाल, २०३७ शिवगंज, १७३८ आलीराजपुर, १९७३० कूगसी, १०४० राजगढ़, और १९४१ का चौमासा शहर हमदाबाद में हुआ। इस चौमासे में आत्मारामजी के साथ पत्रद्वारा चर्चा वार्ता हुई और बहुत धार्मिक उन्नति जी हुई । सम्वत् १९४२ धोराजी,१९०४३ धानेरा, और १९०४४ का चौमासा' थराद' में हुआ । यहाँ श्री जगवतीजी सूत्र व्याख्यान में बाँचा गया, जिसपर सङ्घ ने जारी उत्सव किया और प्रति प्रश्न तथा उत्तर की पूजा की। सं० १९९४५ वीरमगाम, और १९४६का चौमासा सियाणा में हुआ, इस चौमासे 'धानराजेन्द्र कोष' बनाने का श्रारम्भ किया गया । सं० १९४१ में गुड़ा, १९४८ - होर, और १९४७ का चौमासा ' निबाहेमा ' में हुआ । इसमें ढूँढकपन्थियों के पूज्य नन्दरामजी के साथ चर्चा हुई, जिसमें दूढियों को परास्त करके साठ ६० घर मन्दिरमार्गी बनाये । सं० १९७५० खाचरोद, १०५१ और १९५२ का चौमासा ' निधानराजेन्द्रकोष ' के काम चलने से राजगढ़ही में हुए । सं० १९७५३ में चौमासा शहर 'जावरे ' में हुआ, यहाँ कार्तिक महीने में बड़े समारोह के साथ संघ की तरफ से अट्ठाई महोत्सव किया गया, जिसमें बीस हजार रुपये खर्च हुए और विपक्षी लोगों को अच्छी रीति से शिक्षा दी गयी. जिससे जैन धर्म की बहुत जारी उन्नति हुई । सं० १९९२४ का चौमासा शहर रतलाम में हुआ, यहाँ जी बाई महोत्सव बड़े धूमधाम से हुआ, जिस पर करीब दश हजार श्रावक और श्राविकाएँ आपके दर्शन करने को आई, और संघ की ओर से उनकी जक्ति पूर्ण रूप से हुई, जिसमें सब खर्च करीब बीस हजार के हुआ, विशेष प्रशंसनीय बात यह हुई कि पाखएकी लोगों को पूर्ण रूप से शिक्षा दी गयी, जिससे आपको बड़ा यश प्राप्त हुआ । सम्वत् १०५८ का चौमासा मारवाड़ देश के शहर 'आहोर' में हुआ, इस चौमासे में जी धार्मिक उन्नति विशेष प्रकार से हुई और इसी वर्ष में श्री होरसंघ की तरफ से 'श्रीगो पार्श्वनाथजी ' के बावन ५२ जिनालय (जिनमंदिर) की प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाका थापढ़ी के करकमलों से करायी गयी, जिसके उत्सव पर करीब पचास हजार श्रावक श्राविकाएँ और मन्दिर में एक लाख रुपयों की श्रमद हुई। इस अञ्जनशलाका में नौ सौ ० जिनेन्द्र बिम्बों की अञ्जनशलाका की गयी थी, इतना नारी उत्सव मारवाड़ में पहिले पहिल यही दुआ । इतने मनुष्यों के एकत्र होने पर जी कुछ जीं किसीकी जो हानि नहीं हुई यह सब प्रजावपी का था । सं० १९९५६ का चौमासा शहर शिवगञ्ज में हुआ। जिस गच्छ की मर्यादा बिगड़ने न पावे इस लिये इस चौमासे में आपने साधु और श्रा वक संबन्धी पैंतीस सामाचारी ( कलमें ) जादर कीं, जिसके मुताबिक आजकल आपका साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ बर्ताव कर रहा है । से सम्वत् १०५७ का चौमासा शहर सियाणा में हुआ । यहाँ श्रीसंघ की तरफ For Private Personal Use Only ⚫ महाराज Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) कुमारपाल का बनवाया हुआ 'श्री सुविधिनाथ जी' के जिनमन्दिर का उद्धार श्रापदी के उपदेश से कराया गया था और आस पास चौवीस देवकुलिका बनायी गयीं थीं और उनकी प्रतिष्ठा आपके ही हाथ से करायी गयी, इस उत्सव पर मन्दिर में सत्तर १० हजार रुपयों की आमद हुई और दिव्य एक पाठशाला जी स्थापित हुई । सं० १०५८ का चौमासा दौर, और १९५० का शहर ' जालोर' में हुवा । इस चौमासे में जैनधर्म की बहुत बड़ी उन्नति हुई और मोदियों का कुसंप हटाकर सुसंप किया गया । फिर चौमासा उतरे बाद शहर आहोर में दिव्य ज्ञाननएकार की और एक घूमटदार जि मन्दिर की प्रतिष्ठा की । इस ज्ञानजएमार में बहुत प्राचीन २ ग्रन्थ हैं । पैंतालीस यागम और उनको पञ्चाङ्गी तिबरती ( तेहरी ) मौजूद है और प्राचीन महर्षियों के बनाये प्रन्थी अगणित मौजूद हैं, और छपी हुई पुस्तकें जी अपरिमित संग्रह की गयी हैं, इसकी सुरक्षा के लिये एक अत्यन्त सुन्दर मार्बुल ( पाषाण ) की आलमारी बनायी गयी है, जिसके चारो तरफ श्री गौतमस्वामी जी, श्रीसरस्वती जी, श्रीचक्रेश्वरी जी, और श्रीमविजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी की मूर्तियां विराजमान हैं। यह जएकार आपही की कृपा से संग्रहीत हुआ है । फिर सूरीजी महाराज श्रहोर से विहार कर ' गुमे ' गाम में पधारे । यहाँ माघसुदी ५ के दिन 'चला जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की । तदनन्तर शिवगञ्ज होकर ' बाली ' शहर में पधारे । यहाँ तीन श्रावकों को दीक्षा देकर 'श्रीकेसरिया जी' और 'श्री सिद्धाचल जी, ' तथा 'जोयणी जी' आदि सुतीर्थों की यात्रा करते हुए शहर 'सूरत' में पधारे । यहाँ पर सब श्रावकों ने बड़े जारी समारोह से नगरप्रवेश कराया और संवत् १९६० का चौमासा इसी शहर में हुआ । इस चौमासे में बहुत से धर्मद्रोही लोगों ने आपको उपसर्ग किया, परन्तु सद्धर्म के प्रजाव से उन धर्मद्रोही धर्मनिन्दकों का कुछभी जोर नहीं चला किन्तु सूरीजी महाराज को ही विजय प्राप्त हुआ । इस चौमासे का विशेष दिग्दर्शन ' राजेन्द्रसूर्योदय' और ' कदाग्रह दुर्ग्रह नो शान्तिमन्त्र' आदि पुस्तकों में किया जा चुका है, इससे यहाँ फिर लिखना पिष्टपेषण होगा । सम्वत् १७६१ का चौमासा शहर 'कूगसी' में हुआ । इसी चौमासे में सूरीजी महाराज ने हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को बन्दोबद्ध संदर्भित किया, यह बात उसके प्रशस्तिश्लोकों में लिखी है दीपविजय मुनिनाऽहं यतीन्द्र विजयेन शिष्ययुग्मेन । विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृतिं विधातुमिमाम् ॥ अत एव विक्रमाब्दे, नूरसेनवविधुमिते दशम्यां तु । विजयाख्यां चतुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे ॥ हेमचन्द्रसंरचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनीं विवृतिम् । पद्यमयीं सच्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ॥ अर्थात् मुनि विजय और यतीन्द्र विजय नामक दोनो शिष्यों से बन्दोबद्ध प्राकृतव्याकरण बनाने के लिये मैं प्रार्थित हुआ, इसीलिये विक्रम सं० १७६१ के चौमासे में आ For Private Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) श्विनशुक्ल विजय दशमी को कूकसीनगर में श्री हेमचन्द्राचार्य रचित प्रकृतसूत्रों की वृत्तिरूप इस प्राकृतव्याकरण को अच्छे छन्दों में मैनें रचा । 6 " " चौमासे के उतार पर गाँव ' ' में बाग विमलनाथ स्वामी जी ' की अञ्ज नशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी; फिर माह महीने में शहर ' राजगढ़' में खजानची ' चुन्नीलाल जी के वनवाये हुए ' अष्टापद जी के मन्दिर की अञ्जनशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी । और शहर ' राणापुर ' में ' श्री धर्मनाथस्वामी की अञ्जनशलाका ( प्रतिष्ठा ) करायी । तदनन्तर ' खाचरोद ' शहर में पधारे। यहाँ कुछ दिन ठहर कर शहर जावरे में 'लक्खा जी' के बनवाये हुए मन्दिर की प्रतिष्ठा की, और सम्वत् १९६२ का चौमासा शहर ' खाचरोद ' में किया । इस चौमासे में आपने चीरोलावालों को बड़े संकट ( दुःख ) से छुड़ाया । ' चीरोला ' मालवे में एक बोटासा गाँव है, यह गाँव ढाईसौ वर्षों से जातिबाहर था, कारण यह था कि शहर 'रतलाम' और 'सीतामऊ ' की दो बातें एकदम एकड़ी लड़की पर आयीं, जिसमें सीतामऊ वाले व्याह (परण) गये और रतलाम वाले योहीं रहगये । इससे इन्होंने क्रोधित हो चीरोलावालों को जाति बाहर कर दिया। फिर वह ऊगड़ा चला तो बहुत वर्षों तक चलता ही रहा परन्तु जाति में वे लोग न सके, यहाँ तक कि मालवे जर में सब जगह चीरोलावाले जातिबादर दो गये। कई मरतबा चीरोलावालों ने रतलामवाले पंचों को एक २ लाख रुपया दएक देना चाहा लेकिन ऊगड़ा नहीं मिटसका, तब बासठ १९६२ के चौमासे में चीरोलावाले सव श्रावक लोग श्राकर विनंती की और सब दाल कह सुनाया, तब आपने दया कर खाचरोदयादि के श्रीसंघ को समजाया और सबके हस्ताक्षर कराकर बिना दम लिये दी जाति में शामिल करादिया । यह कार्य असाधारण था, क्यों कि इसके लिये पहिले बड़े‍ साहूकार और साधूलोग परिश्रम कर चुके थे किन्तु कोई जी सफलता को नहीं प्राप्त हुआ था । आपके प्रजाव ने सहज ही में इस कार्य को पार लगा दिया। इसी से आपकी उपदेशप्रणाली कितनी प्रबल थी यह निःसंशय मालूम प सकती है; यह एकही काम आपने नहीं किया किन्तु ऐसे सैकड़ों काम किये हैं । सम्वत् १९६३ का चौमासा शहर ' बड़नगर ' में हुआ, यहाँ चारो महीना धर्मध्यान का बाजारी श्रानन्द रहा और अनेक प्रशंसनीय कार्य हुए। इस प्रकार क्रियाउद्धार करने के बाद आपके ३९ उनतालीस चौमासा हुए। इन सब चौमासाओं में अनेक कार्य प्रशंसनीय हुए और श्रावकों ने स्वामीभक्ति अष्टादिकामहोत्सव आदि सत्कार्यों में खूब द्रव्य लगाया । कम से कम प्रत्येक चौमासे में ५००० हजार से लेकर २०००० हजार तक खरचा श्रावकों की तरफ से किया गया है, इससे अतिरिक्त शेष काल में जी आपने उलटे मार्ग में जाते हुए अनेक भव्यवर्गों को रोक कर शुद्ध सम्यक्त्वधारी बनाया । आपके उपदेश का प्रजाव इतना तीव्र था कि जिसको सुनकर कट्टर द्वेषी जी शान्त स्वभाव वाले होगये । ܕ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रिभोजन नहीं करना,जीवों को जानकर नहीं मारना,चोरी नहीं करना इत्यादि अनेक नियम जिन्होंने श्रापसे लिये हुए हैं और जैनधर्मविषयक दृढ नियमों को परिपालन कर रहे हैं ऐसे आपके उपदेशी केवल जैन ही नहीं हैं किन्तु अन्यमतवाले ली हैं। यति अवस्था में जी आपने सम्बत् १०४ का चौमासा मेवाफ देशस्थ शहर 'आकोला' में किया था। फिर क्रमशः इन्दौर, उज्जैन, मन्दसोर, उदयपुर, नागौर, जेसलमेर,पाली, जोधपुर, किसनगढ़, चित्तोर, सोजत, शंजुगढ़, बीकानेर, सादरी, जिलामे, रतलाम, अजमेर, जालोर, घाणेराव, जावरा इत्यादि शहरों में चौमासा कर सैंकों नवनीरु महानुजावों को जैनधर्म के संमुख किया। आपकी विद्वत्ता सारे भारतवर्ष में प्रख्यात थी, कोई जी प्रायः ऐसा न होगा जो आपके नाम से परिचित न हो।ज्योतिषशास्त्र में जी आपका पूर्ण ज्ञान था, जहाँ जहाँ आपके दिये हुए मुहूर्त से प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाकाएँ दुई हैं वहाँ हजारों जनसमूह के एकत्र होने पर जी किसी का शिर जी नहीं दुखा। आपके हाथ से कम से कम बाईस अञ्जनशलाकाएँ तो वझी बड़ी हुई, जिनमें हजारों रुपये की आमद हुई और छोटी २ अञ्जनशलाका या प्रतिष्ठा तो करीब सौ १०० हुई होंगी । इसके अतिरिक्त ज्ञानजकारों की स्थापना, अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्रपूजा, उद्यापन, जीर्णोद्धार, जिनालय, उपाश्रय, तीर्थसंघ थादि सत्कार्यों में सूरीजी महाराज के उपदेश से जव्यवर्गों ने हजारों रुपये खर्च किये हैं और अब जी आपके प्रताप से हजारों रुपये सत्कार्यो में खर्च किये जारहे हैं। आपकी साधुक्रिया अत्यन्त कविन थी इस बात को तो श्राबालवृद्ध सनी जानते हैं, यहाँ तक कि वयोवृद्ध होने पर नी थाप अपना उपकरणादिनार सुशिष्य साधु को नी नहीं देते थे तो गृहस्थों को देने की तो श्राशाही कैसे संभावित हो सकती है। क्रियाजद्धार करने के पीछे तो आपने शिथिलमार्गों का जी सहारा नहीं लिया और न वैसा उपदेशही किसीको दिया, किन्तु ज्ञानसहित सक्रियापरिपालन करने में श्राप बमेही उ. स्कण्ठित रहा करते थे । और वैसी ही क्रिया करने में उद्यत जी रहते थे, इसीसे आपकी उत्तमता देशान्तरों में जी सर्वत्र जाहिर थी। प्रमाद शत्रु को तो श्राप हरदम दबाया ही करते थे, इसीलिये साधुक्रिया से बचे हुए काल में शिष्यों को पढ़ाना और शास्त्रविचार करना, या धार्मिक चर्चा करना यही आपका मुख्य कार्य था। दिन को सोना नहीं, और रात्रि को जी एक प्रहर निसा खेकर ध्यानमग्न रहना, इसी में आपका समय निर्गमन होता था; इसीलिये समाधियोग और अनुभव विचार आपसे बढ़कर इस समय और किसी में नहीं पाया जाता है । शहर 'वानगर के चौमासे में मरुधरदेशस्थ गाँव पलट' के श्रावक अपने गाँव में प्रतिछा कराने के लिये आपसे विनती करने थाये थे, उनसे आपने यह कह दिया था कि 'अब Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) मेरे हाथ से प्रतिष्ठा अञ्जनशलाका आदि कार्य न होंगे'। इसी तरह 'सूरत' में एक श्रावक के प्रश्न करने पर कहा था कि-'ाजी में तीन वर्ष पर्यन्त फिर विहारादि करूँगा ' । इन दोनों वाक्यों से आपने अपने आयुष्य का समय गर्जित रीति से श्रावक और साधुओं को बतला दिया था और हुआ भी ऐसाही । पकी पैदल विहारशक्ति के अगाड़ी युवा साधु जी परिश्रान्त हो जाते थे, इस प्रकार यापने अन्तिम अवस्था पर्यन्त विहार किया, चाहे जितना कठिन से कठिन शीत पड़े परन्तु थप ध्यान और प्रतिक्रमण यदि क्रियाएँ उघाने शरीर से ही करते थे और अपने जीवन में फुलाटीन की साढ़े चार हाथ एक काँबली और उतनी ही बड़ी दो चादर के सिवा अधिक जी नहीं छोड़ते थे। आपने करीब ढाई सौ मनुष्यों को दीक्षा दी होगी लेकिन कितनेही यापकी उत्कृष्ट क्रिया को पालन नहीं कर सके, इसलिये शिथिलाचारी संवेगी और ढुंढकों में चले गये, परन्तु इस समय जी ध्यापके दस्त से दीक्षित चालीस साधु और साध्वियाँ हैं जो कि ग्राम ग्राम विहार कर अनेक उपकार कर रहे हैं । सत्पुरुषों का मुख्य धर्म यह है कि जन्यजीवों के हितार्थ उपकार बुद्धि से नाना ग्रन्थ बनाना, जिससे लोगों को शुद्ध धार्मिक पथ ( रास्ता ) सूऊ पड़े । इसी लिये हमारे पूर्वकालीन आचार्यवर्यों ने अनेक ग्रन्थ बनाकर अपरिमित उपकार किया है तभी हम अपने धर्म को समऊकर दृढ श्रद्धावान् बने हुए हैं, और जो कोई धर्म पर आक्षेप करता है सो उसको उन ग्रन्थों के द्वारा परास्त कर लेते हैं, यदि महर्षियों के निर्मित ग्रन्थरत्न न होते तो आज हम कुछ जी अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते, इसी लिये जो जो विद्वान आचार्य आदि होते हैं वे समयानुकूल लोगों के हित के लिये ग्रन्थ बनाते हैं । इसी शैली के अनुसार सूरीजी महाराज ने जी लोकोपयोगी अनेक ग्रन्थ बनाये हैं । सूरीजी महाराज के निर्मित संस्कृत - प्राकृत- जाषामयग्रन्थ १ ‘अनिधानराजेन्द्र' प्राकृतमहाकोश- इस कोश की रचना बहुत सुन्दरता से की गई है अर्थात् जो बात देखना हो वह उसी शब्द पर मिल सकती है। संदर्भ इसका इस प्रकार रक्खा गया है - पहिले तो यकारादि वर्णानुक्रम से प्राकृतशब्द, उसके बाद उनका अनुवाद संस्कृत में, फिर व्युत्पत्ति, लिङ्ग निर्देश, और उनका अर्थ जैसा जैनागमों में मिल स कता है वैसाही जिन्न २ रूप से दिखला दिया गया है । बड़े बड़े शब्दों पर अधिकार सूची नम्बरवार दी गयी है, जिससे हर एक बात सुगमता से मिल सकती है। जैनागमों का ऐसा कोई जी विषय नहीं रहा जो इस महाकोश में न आया हो । केवल इस कोश के ही देखने से संपूर्ण जैनागमों का बोध हो सकता है । इसकी श्लोकसंख्या करीब साढ़े चार लाख है, और अकारादि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है । २ 'शब्दाम्बुधि' कोश - इसमें केवल अकारादि अनुक्रम से प्राकृत शब्दों का संग्रह किया Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है और साथ में संस्कृत अनुवाद और उसका अर्थ हिन्दी में दिया गया है किन्तु अभिधानराजेन्द्र कोश की तरह शब्दों पर व्याख्या नहीं की हुई है। ३ सकलैश्वर्यस्तोत्र सटीक, ४ खापरियातस्करप्रबन्ध, ५ शब्दकौमुदी श्लोकबद्ध, ६ कव्याणस्तोत्र प्रक्रियाटीका, धातुपाठ श्लोकबद्ध, उपदेशरत्नसार गद्य ए दीपावली (दिवाली) कल्पसार गद्य, १० सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृतगाथाबक) ११ प्राकृतव्याकरणविकृति । सूरीजी के संकलित संगीत ग्रन्थ१५ मुनिपति चौपाई, १३ अघटकुँवरचौपाई, १४ भ्रष्टरचौपाई, १५ सिद्धचक्रपूजा, १६ पञ्चकल्याणकपूजा, १७ चौवीसीस्तवन, २७ चैत्यवन्दनचौवीसी, १ए चौवीसजिनस्तुति । सूरीजी महाराज के रचित वालावबोध नाषाग्रन्थ२०-उपासकदशाङ्ग सूत्र बालावबोध, २१ गछाचारपयन्ना सविस्तर नाषान्तर, २५ कल्पसूत्र बालावबोध सविस्तर, ३ अष्टाहिकाव्याख्यान नाषान्तर, २४ चार कर्मग्रन्थ अक्षरार्थ, २५ सिझान्तसारसागर ( बोलसंग्रह), २६ तत्वविवेक, २७ सिझान्तप्रकाश, २७ स्तुतिप्रभाकर, श्ए प्रश्नोत्तरमालिका, ३० राजेन्द्रसूर्योदय, ३१ सेनप्रश्नवीजक, ३२ षड्ऽव्यचर्चा, ३३ स्वरोदयज्ञानयन्त्रावली, ३४ त्रैलोक्यदीपिकायन्त्रावली, ३५ वासमार्गणाविचार, ३६ षमावश्यक अक्षरार्थ, ३७ एकसौ आठ बोल का थोकमा, ३० पञ्चमीदेववन्दनविधि, ३ए नवपद ओली देववन्दनविधि, ४० सिद्धाचल नवाणुं यात्रादेववन्दनविधि, १ चौमासी देववन्दनविधि, ४५ कमलप्रनाशुधरहस्य, ४३ कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार । इस प्रकार उत्तमोत्तम ग्रन्थ बनाकर सूरीजी महाराज ने जैनधर्मानुरागियों पर तथा श्तर जनों पर जी पूर्ण उपकार किया है। बमनगर के चौमासा पूरे होनेपर अपनी साधुमएमली सहित सूरीजी ने शहर 'राजगढ़' की ओर विहार किया था, इस समय आपके शरीर में साधारण श्वास रोग उग था । यद्यपि यह प्रथम जोर शोर से नहीं था तथापि उसका प्रकोप धीरे २ बढ़ने लगा, यहाँ तक कि औषधोपचार होने पर जी वह रोग शान्त नहीं हुआ, किन्तु श्वास की बीमारी अधिक होने पर भी आप अपनी साधुक्रिया में शिथिल नहीं हुए, और सब साधुओं से कहा कि-" हमारे इस विनाशी शरीर का भरोसा अब नहीं है, इसलिये तुमलोग साधुक्रियापरिपालन में दृढ रहना, ऐसा न हो कि जो चारित्र रत्न तुम्हें मिला है वह निष्फल होजावे, सावधानी से इसकी सुरक्षा करना, हमने तो अपना कार्य यथाशक्ति सिज कर लिया है अब तुम जी अपने आत्मा का सुधारा जिस प्रकार हो सके वैसा प्रयत्न करते रहना ”। इस प्रकार अपने शिष्यों को सुशिदा देकर सुसमाधिपूर्वक अनशन व्रत को धारण कर लिया और औषधोपचार को सर्वथा बन्द कर दिया। बस तदनन्तर थोमे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ही दिन के बाद परमोपकारी धर्मप्रजावक याचार्यवर्य्य श्रीमान् श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वर महाराजजी ने अपने इस अनित्य शरीर का सम्वत् १७६३ पौष शुक्ल ७ शुक्रवार मुताबिक २१ दिसम्बर सन् १९०६ ई० को समाधियुक्त परित्याग किया, अर्थात् इन नाशवान् संयोगों को छोड़ कर स्वर्ग में विराजमान हुए । उपसंहार महानुजाव पाठकवर्ग ! इस समय जीवनचरित्र लिखने की प्रथा बहुतदी बढ़ गयी है इसलिये प्रायः बहुत से सामान्य पुरुषों के जी जीवनचरित्र मिलते हैं किन्तु जीवनचरित्र के लिखने का क्या प्रयोजन है यह कोई जी नहीं विचार करता, वस्तुतः सत्पुरुषों की जीवनघटना देखने से सर्व साधारण को लाभ यह होता है कि जिस तरह सत्पुरुष क्रम क्रम से उच्चकोटी वाली व्यवस्था को प्राप्त हुआ है वैसी ही पाठक भी अपनी व्यवस्था को उच्चकोटी वाली बनावे और दुर्जन पुरुषों की जीवनघटना देखने से जी यह लाज होता है कि जिसतरह अपने कुकर्मों से दुर्जन अन्त में दुरवस्था को प्राप्त होता है वैसा वाचक न हो, किन्तु दुर्जन की जीवनघटना की अपेक्षा से सत्पुरुष के ही जीवनचरित्र पढ़ने से शीघ्र लाभ हो सकता है, इसीलिये पाठकों को महानुभाव सूरीश्वरजी का यह जीवनपरिचय कराया गया है, जिससे व्यापजी ऐसी व्यवस्था को प्राप्त होकर सदा के सुखजागी बनें, क्योंकि सूरीजी का जीवन इस संसार में केवल परोपकार के वास्ते ही था, नकि किसी स्वार्थ के वास्ते । यदि रागद्वेषरहित बुद्धि से विचारा जाय तो हमारे उत्तमोत्तम जैन धर्म की उन्नति ऐसेही प्रभावशाली क्रियापात्र सद्गुरुओं के द्वारा हो सकती है। आपका जो जीवनपरिचय बहुत ही अद्भुत और आश्चर्यजनक है, उसका यह दिग्दर्शनमात्र कराया गया है, किन्तु बड़ा जीवनचरित्र ' जो बना हुआ है उसमें प्रायः बहुत कुछ सूरीजी महाराज का जीवनपरिचय दिया गया है, इसलिये विशेष जिज्ञासुधों को बढ़ा जीवनचरित्र देखना चाहिये, उसके द्वारा संपूर्ण आपका जीवनपरिचय हो जायगा और इन महानुभाव महापुरुष के जीवनचरित्र पढ़ने से क्या लाज हुआ सो जी सहज में मालूम पड़ जायगा । इत्यलं विस्तरेण । " नवरसनिधिविधुवर्षे यतीन्द्र विजयेन वागरानगरे । आश्विनशुक्लदशम्यां जीवनचरितं व्यलेखि गुरोः ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) श्री सौधर्म बृहत्तपागच्चीय पट्टावती -oeste श्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २३ श्रीदेवानन्दसूरि ४६ श्रीधर्मघोषसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २४ श्रीविक्रमसूरि ४७ श्रीसोमप्रभसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २५ श्रीनरसिंहमूरि ४८ श्रीसोमतिलकसरि ३ श्रीप्रनवस्वामी २६ श्रीसमुद्रसुरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि ४ श्रीसय्यंभवस्वामी २७ श्रीमानदेवसूरि ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि ५ श्रीयशोमबसूरि २८ श्रीविवुधप्रमसूरि ५१ श्रीमुमिसुन्दरसूरि . (श्रीसंभूतविजयजी २६ श्रीजयानन्दसूरि ५२ श्रीरत्नशेखरसूरि श्रीनवबाहुस्वामी ३. श्रीरविप्रमसूरि ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि ७ श्रीरथूलमवस्वामी ३१ श्रीयशोदेवसरि ५४ श्रीसुमतिसाधुसरि _श्रीअार्यसुहस्तीसूरि ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि ५५ श्रीहेमविमलसरि श्रीमार्यमहागिरि ३३ श्रीमानदेवसूरि ५६ श्रीमानन्दविमलसूरि ..श्रीमुस्थितसूरि ३४ श्रीविमलचम्बसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि ५७ श्रीविजयदानसूरि ३५ श्रीसद्योतनसरि १. श्रीइन्प्रविनसूरि ५८ श्रीहरिविजयसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि " श्रीदिन्नसूरि ३७ श्रीदेवसूरि ५६ श्रीविजयसेनसरि १२ श्रीसिंहगिरिसरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि ...श्रीविजयदेवसूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी .. श्रीयशोभद्रसूरि श्रीविजयसिंइसरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी ३ श्रीमेमिचम्बसूरि ६१ श्रीविजयप्रभसूरि १५ श्रीधम्मसूरिजी ४. श्रीमुनिचन्धसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि १६ श्रीसामन्तनबसूरि ४१ श्रीअजितदेवसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि १७ श्रीवृदेवसूरि ४२ श्रीविजयसिंहसरि ६४ श्रीविजयदेवेन्धसूरि १८ श्रीप्रद्योतनसरि ...श्रीसोमप्रनसूरि ६५ श्रीविजयकल्याणसूरि १६ श्रीमानदेवसरि ७२ श्रीमस्थिरत्नसूरि २. श्रीमानतुङ्गसरि ४४ श्रीजगञ्चन्धसूरि ६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि २१ श्रीवीरसूरि ...श्रीदेवेन्प्रसूरि ६७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरि २२ श्रीजयदेवसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि EMA Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रहम् ॥ || प्रस्तावना ॥ इस संसार में ऐसा कौन प्राणी है जो दुःख से मुक्त होने की अभिलाषा नहीं करता, किन्तु जबतक उन दुःखों से मुक्त होने के सत्य उपाय उसको मालूम न हों तबतक वह कैसे कृतकार्य ( सफल ) हो सकता है; इसलिये सभी को दुःख से मुक्त होने के सत्य उपाय जानने की बड़ी अभिलाषा रहती है, कि इस अपार संसार समुद्र में निरन्तर भ्रमणकरने वाले प्राणियों को प्राप्त होते हुए प्रत्युत्कट [ जन्म-जरा-मरणादि] दुःखों से छूटने का कौनसा उपाय है ?। यद्यपि विचारशाली और तीक्ष्ण बुद्धि वाले मनुष्य इसका उत्तर अवश्य देंगे, कि धर्म के सिवाय और कोई ऐसा दूसरा उपाय इन दुःखों से मुक्त होने का नहीं है; कितु धर्माधर्म का विवेक करना ही सर्व साधारण को अतिदुष्कर है अर्थात कौन धर्म है और कौनसा धर्म है इसका समऊना जी कुछ सहज काम नहीं है, क्यों कि इस दुनिया में अनेक धर्मनामधारी मत प्रचलित हो रहे हैं, जिनकी गिनती करना भी बहुत कठिन है तो फिर उनमें किसको धर्म और किसको धर्माजास कहा जाय ? | हाँ महानुभावों के आदेशानु सार इतना अवश्य कह सकते हैं कि इस पञ्चमकाल में - श्रर्थात् दुःषम आरा में, धर्माजासों का प्रायः प्रचार विशेष होना चाहिये और धर्म की अवनति दशा विशेष होनी चाहिये । इस पर फिर यह जिज्ञासा होगी कि वैसा धर्म कौन है ? | इसका उत्तर यह कि जिस धर्म के प्रवर्तक पुरुष किसी के द्वेषी अथवा रागी न हों और जो धर्म किसी जीव के [ अत्यन्त प्रिय ] प्राण का विघातक न हो अर्थात् जिससे सभी जीवों को सुख ही प्राप्त हो उसे ही धर्म कहना चाहिये । यदि ऐसा धर्म वस्तुगत्या देखा जाय तो जैन धर्म ही दिखाई देता है क्योंकि उसके प्रवर्तक जिन भगवान् भी रागद्वेष-विजेता हैं और उस ' का 'अहिंसा परमो धर्मः ' यह सिद्धान्त भी है । यद्यपि अन्य धर्माजासों में भी अहिंसा की महिमा है किन्तु प्रधानरूप से उसकी कारणता [ जन्मादि ] दुःखों से मुक्त होने में नहीं मानी हुई है; और उनमें यदि एकाध अंश में दया है तो अन्यांश में हिंसा भी है। जैसे किसी मत का मन्तव्य है कि यदि कोई पशु पक्षी प्राणी इस भव में दुःख महता हो तो उसको इस जन्म से मुक्त करदेना ही दया है । अथवा जब कभी अवसर प्राप्त हो तो यज्ञ में प्राणियों को मारकर उनको उत्तमगति वाला बना देना । अस्तु विशेष विस्तार इसका इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में ' अद्दकुमार ' और ' अहिंसा' शब्द पर जिज्ञासुओं को देखना चाहिये । इसीलिये कहा हुआ है कि 'पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमत् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १ ॥ और 'प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ' इत्यादि ॥ 99 यह जैनधर्म — दयाधर्म, आचारधर्म, क्रियाधर्म, और वस्तुधर्म से चार भागों में विजक्त है । और इस धर्म का मुख्य कारण शासन है, जो समवसरण में बैठेदृए देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवान् श्री तीर्थङ्कर के उपदेश से आविर्भूत होता है और पीछे उन्हीं उपदेशों को श्री गौतमादि गणधर द्वादशाङ्गी अथवा एकादशाङ्गी रूप में संदर्भित करते हैं, जिनका 'सूत्र' नाम से व्यवहार किया जाता है। ये प्रत्येक तीर्थङ्करों के शासन काल में विद्यमान दशा को प्राप्त होते हैं । पि पूर्वकाल में चौदह पूर्वधर, तथा दश पूर्वधर, श्रुतकेवली आदि महात्माओं को तो किसी पुस्तकपत्रादि की आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि उनके अतिशय से उन्हें मूल से ही अर्थज्ञान हो जाता था परन्तु श्रामे वाले जीवों के ज्ञान में दुर्वता होने से और जैन धर्म के विषय प्रति गहन होने से उनको स्पष्ट करने के लिये नियुक्ति-भाष्यचूर्णि - टीका आदि रचने पड़े। परन्तु इस समय में जैन ग्रन्थों का इतना विस्तार हो गया है कि थोड़ीसी आयुष्य में कोई मनुष्य सांसारिक कार्य करता हुआ गृहस्य क्या विरक्त जी इस जैनशासन सागर के पार को प्रायः नहीं जा सकता। कारण यह है कि पहिले तो सब ग्रन्थों की उपलब्धि सब कहीं नहीं होती और जो मिलते जी हैं उनमें कौन विषय कहाँ पर है यह प्रायः ठीक २ पता हर एक को नहीं लगता और यदि किसी ग्रन्थ में पता भी लग जाय तो वह विषय दूसरी जगह या दूसरे ग्रन्थों में कहाँ कहाँ पर आया है यह पता नहीं लग सकता। यह कारण तो एक तरफ रहा, दूसरी बात यह भी है कि जिस जाषा में जैनदर्शन बना है, वह जाषा वही है कि जिसने प्राचीन समय में मातृभाषा से और राष्ट्रजाषा से जारतभूमि में स्थान पाया था, और जिसका सर्वज्ञों से और गणधरों सबमा आदर किया गया, उसी भाषा का प्रचार इस समय बिलकुल नहीं है और जो नाटकों में जहाँ कहीं दिखाई देता है उसको जी उसके नीचे दी हुई बाया से ही लोग समऊ लेते हैं, और यदि किसी ने उसका कुछ अभ्यास जी कर लिया तो उससे जैन धर्म के मूलसूत्रों का अथवा निर्यू क्तिगाथाओं का Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ समझ में नहीं आसकता, क्योंकि भगवान तीर्थङ्कर ने, तथा गणधरों ने अर्धमागधी भाषा में उन सूत्रों का प्रस्ताव किया है, जो कि सामान्य प्राकृत भाषा से कुछ विलक्षण है । पूर्व समय में तो लोग परिश्रम करके प्राचार्यों के मुख से सूत्रपाठ और उसका अर्थ सुनकर कण्ठस्थ करते थे तभी वे कृतकार्य जी होते थे (इसका संक्षिप्त विवरण पहिले भाग के 'अहासंदिय' शब्द पर देखो) किन्तु आजकल ऐसी परिपाटी के प्रायः नष्ट होजाने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अत्यन्त हास होगया है। इस दशा को देखकर हमारे गुरुवर्य श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञकप जट्टारक १००० श्रीमद्विजयराजेमसूरीश्वरजी महाराज को वमी चिन्ता उपस्थित हुई कि दिनों दिन जैन धर्म के शास्त्रों का हास होता जाता है, इसीलिये बहुत से लोग उत्सूत्र काम भी करने लग गये हैं और अपने धर्मग्रन्थों से बिल्कुल बेखबर से होगये हैं। ऐसी दशा में क्या करना चाहिये। क्योंकि संसार में उसी मनुष्य का जीवन सफल है जिसने अपने धर्म की यथाशक्य उन्नति की, अन्यथा-'असंपादयतः कश्चि-दर्थ जातिक्रियागुणैः। यदृच्छाशब्दवत् पुंसः, संज्ञाय जन्म केवलम्' की तरह हो जाता है। ऐसी चिन्ता हृदय में बहुत दिन रही, किन्तु एक दिन रात्रि में ऐसा विचार हुवा कि-एक ऐसा ग्रन्य नवीन रूदि से बनाना चाहिये जिसमें जैनागम की मागधी भाषा के शब्दों को अकारादि क्रम से रखकर संस्कृत में उनका अनुवाद, लिङ्ग, व्युत्पत्ति, और अर्थ लिखकर फिर नस शब्द पर जो पाउ मलमूत्र का आया है उसको लिखना और टीका यदि उस न मिले तो उसको देकर स्पष्ट करना और यदि ग्रन्थान्तर में भी वही विषय आया हो तो उसकी सूचना (भलावन) दे देना चाहिये । इससे प्रायः अपने मनोऽनुकूल संसार का उपकार होगा । तदनन्तर प्रातःकाल होते ही पूर्वोक्त सूरी जी महाराज ने अपनी नित्य क्रिया को करके इस कार्य का भार उठाया, औरै दत्तचित्त होकर बाईस वर्ष पर्यन्त घोर परिश्रम करने पर इस कार्य में सफल हुए, अर्थात् 'अनिधानराजेन्ड' नाम का कोष मागधीभाषा में रचकर चार भागों में विभक्त कर दिया। इसके बाद कितने ही श्रावकों ने और शिष्यों ने प्रार्थना की कि यदि यह अन्य भी और ग्रन्थों की तरह भएकार में ही पमा रह जायगा तो कितने मनुष्य इससे लाज उठा सकेंगे। इसलिये अनेक देश देशान्तरों में जिस तरह इसका प्रचार हो वह काम झेना चाहिये। इसपर सूरीजी महाराज ने उत्तर दिया कि मेरा कर्तव्य तो पूर्ण होगया अब जिसमें समस्त संसार का उपकार हो वैसा तुम लोगों को करना चाहिये, मैं इस विषय में तटस्थ हूँ । तदनन्तर श्रीसय ने इस ग्रन्थ के विशेष प्रचार होने के लिये छपवाना ही निश्चय किया । तब इस ग्रन्थ के शोधन का भार सूरीजी महाराज के विनीत शिष्य मुनिश्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने ग्रहण किया, जो इस कार्य के पूर्ण अभिज्ञ हैं। जैनधर्म का ऐसा कोई भी साधु--साधी--श्रावक-श्राविका-संबन्धी विषय नहीं है जो इस कोश में आया न हो,किन्तु सायही साथ विशेषता यह है कि मागधीनाषा के अनुक्रम से शब्दों पर सब विषय रक्खे गये हैं। जो मनुष्य जिस विषय को देखना चाहे वह नसी शब्दपर पुस्तक खोलकर देख ले । जो विषय जहाँ जिस जगह पर आया है उसकी लावन (सूचना) भी उसी जगह पर दी है। और वझे शब्दों पर विषयसूची जी दी हुई है जिससे विषय जानने में सुगमता हो । तथा प्रमाण में मूल सूत्र १,और उनकी नियुक्ति,भाष्य ३, चर्णिप,टीका ५ तथा और जीप्रामाणिक माचार्यों के बनाये हुए प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थों का संग्रह है। जिसशब्द पर या उसके विषय पर किसी प्राचार्य या श्रावक की कथा मिली है उसे भी उस शब्दपर संग्रह कर ली है। तथा प्रसिकार तीर्थों की और सनी तीर्थकरों की कई पूर्वभवों से लेकर निर्वाण पर्यन्त कथायें दी हुई हैं; इत्यादि विषय आगे दी हुई संक्षिप्त सूची से समझना चाहिये। इस ग्रन्थ में जो संकेत (नियम) रक्खे गये हैं वे इस तरह हैं१-मागधीभाषा का मूवशब्द, और उसका संस्कृत अनुवाद, तथा पूल की गाथा, और मूलसूत्र, [जिसकी टीका है] मोटे ( ग्रेट ) अक्षरों में रक्खा है। २-यदि कोई गाथा टीका में भी आई है और उसकी जीटीका है तो उसे दो लाइन ( पङ्क्ति ) में रक्खा है । और मोटे अहरों में न रखकर गाथा के आदि अन्त में ("") ये चिह्न दे दिये हैं । फिर उसके नीचे से उसकी टीका चलाई गयी है। अन्य स्थल में तो मूल मोटे अक्षरों में, और टीका गेटे (पाइका) अक्षरों में दी गई है। ३-जहाँ कहीं उदाहरण में प्राकृत वाक्य या संस्कृत श्लोक आया है उसके आद्यन्त में '' यह चिह्न दिया गया है, किन्तु एक से ज्यादा गाथा या श्लोक जहाँ कहीं विना टीका के हैं वहाँ पर भी दोश् बैन करके उनको रक्खा है। और यदि एकही है तो उसी बैन में रखा है। और जहाँ टीका अनुपयुक्त है वहाँ पर मूलमात्र ही मोटे अक्षरों में रक्खा है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जिस शब्द का जो अर्थ है उसको सप्तम्यन्त से दिया है और उसके नीचे [,] यह चिह्न दिया है और उसके बाद जिस ग्रन्थ से वह अर्थ लिया गया है उसका नाम नी दे दिया है । यदि उसके आगे उस ग्रन्थ का कुछ नी पाठ नहीं है तो उस ग्रन्थ के आगे अध्ययन उद्देशादि जो कुछ मिला है वह भी दिया गया है और यदि उस ग्रन्थ का पाठ मिला है तो पाठ की समाप्ति में अध्ययन उद्देश आदि रक्खे गये हैं, किन्तु अर्थ के पास केवल ग्रन्थ का ही नाम रक्खा है ।। ५-मागधीशब्द और संस्कृत अनुवाद शब्द के मध्य में तथा लिङ्ग और अनुवाद के मध्यमें भी (-)यह चिह्न दिया है। इसी तरह तदेव दर्शयति-तथा चाह- या अवतरणिका के अन्त में भी आगे से संबन्ध दिखाने के लिये यही चित्र दिया गया है। ६-जहाँ कहीं मागधी शब्द के अनुवाद संस्कृत में दो तीन चार हुए हैं तो दूसरे तीसरे अनुवाद को भी मोटे ही अक्षरों में रक्खा है किन्तु जैसे प्राकृत शब्द सामान्य पङ्क्ति (लाईन )से कुल बाहर रहता है वैसा न रखकर सामान्य पक्ति के बराबर ही रक्खा है और उसके आगे नीलिङ्गप्रदर्शन कराया है। बाकी सभी बात पूर्ववत् मूलशब्द की तरह दी है। ७-किसी किसी मागधीशब्द का अनुवाद संस्कृत में नहीं है किन्तु उसके आगे 'देशी' लिखा है वहाँ पर देशीय शब्द समझना चाहिये, उसकी व्युत्पत्ति न होने से अनुवाद नहीं है । ८-किसी शब्द के बाद जो अनुवाद है उसके बाद लिङ्ग नहीं है किन्तु (धा ) लिखा है उससे धात्वादेश समझना चाहिये। ए-कहीं कहीं (ब० व०)(क० स०)(बहु० स०) (त० स० ) (न० त०) (३ त० ) (४०) (एत०) (६ त०) (७०) (अव्ययी० स०) आदि दिया हुआ है उनको क्रमसे बहुवचन; कर्मधारय समास; बहुव्रीहि तत्पुरुष नञ्तत्पुरुष तृतीयातत्पुरुष; चतुर्थीतत्पुरुष; पञ्चमीतत्पुरुष, षष्ठीतत्पुरुषः सप्तमीतत्पुरुष, अव्ययीभाव समास समऊना चाहिये। १०- पुं० । स्त्री ।न। त्रि० । अन्य०-का संकेत क्रम से द्विङ्गः स्त्रीलिङ्ग नपुंसकलिङ्ग त्रिलिङ्ग और अव्यय समझना। अध्ययनादि के सङ्केत और वे किन किन ग्रन्थों में हैं ११-१०-अध्ययन- आवश्यकचूर्णि, भावश्यकत्ति, प्राचाराक, उपासकदशाम, उत्तराध्ययन, ज्ञाताधर्मकथा, दशाश्रुतस्कन्ध, दशबैकालिक, विपाकसूत्र और सूत्रकृतान में हैं। २ अधिo- अधिकार- अनेकान्तजयपताकावृत्तिविवरण, गच्यचारपयत्रा, धर्मसंग्रह और जीवानुशासन में हैं। ३ अध्या०- अध्याय- व्यानुयोगतर्कणा में हैं। भ्रष्ट०- अष्टक-हारिभाष्टक और यशोविजयाष्टक में हैं। ५ ज०- उद्देश- सूत्रकृताङ्ग, जगवती, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्प, व्यवहार, स्थानान और प्राचाराक में हैं। ६ उद्या-नल्लास-सेनप्रश्न में हैं। ७ कर्म-कर्मग्रन्थ- कर्मग्रन्थ में हैं। ८ कल्प-कन्प-विविधतीर्थकल्प में हैं। एग०-गणा- स्थानाङ्गसूत्र में हैं। १०खएम-खएम-उत्तराध्ययननियुक्ति में है। ११क्षण-क्षण-कल्पसुबोधिका में हैं। १५ काएम-काएक- सम्मतितर्क में हैं। १३ घा०-द्वात्रिंशिका-द्वात्रिंशददात्रिंशिका में हैं। १४ द्वार-द्वार- पञ्चवस्तुक, पञ्चसंग्रह, प्रवचनसारोदार और प्रश्नव्याकरण में हैं। (प्रश्नव्याकरण में आश्रवद्वार और संवरद्वार के नाम से ही द्वार प्रसिक ) , १५ पद-पद-प्रझापनासूत्र में हैं। १६ परि०- परिच्छेद- रत्नाकरावतारिका में हैं। १७ चू- चूलिका- दशकालिक और प्राचाराक में हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रति०- प्रतिपत्ति- जीवानिगम सूत्र में हैं। २६ पाद- पाद- प्राकृतव्याकरण और नसकी टीका दुष्टिका में हैं। २० पाहु०- पाहुडा- चन्प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक में हैं। २१ वर्ग- वर्ग-निरयावनिका, अणुत्तरोक्वाई, अन्तकृददशाङ्ग में हैं। २२ विव० -विवरण-पोमशमकरण और पञ्चाशक में हैं। १३ प्रका०-प्रकाश-हीरप्रश्न में हैं। २४ प्र०-प्रश्न-सेनप्रश्न में हैं। २५ श-शतक- भगवती सूत्र में हैं। २६ श्रु०- श्रुतस्कन्ध- सूत्रकृताङ्ग, आचारा, झाताधर्मकथा और विपाकसूत्र में हैं। २७ वक्ष०- वक्षस्कार- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में हैं। श्० सम०- समवाय-समवायाजसत्र में हैं। श्ए सू०-सूत्र- पञ्चसूत्र में हैं। १५-जिन जिन ग्रन्थों का प्रमाण दिया है उनके सङ्केत और नाम१ अन० - अचूमिका । | २७ जं० - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र सटीक । १ अणु० - अणुत्तरोववाई सूत्र सटीक। २० झा० - ज्ञाताधर्मकथा सूत्र सटीक । ३ अनु० - अनुयोगद्वार सूत्र सटीक । २० जी० - जीवाभिगम सूत्र सटीक । ४ अने० - अनेकान्तजयपताकात्तिविवरण । ३० जीत० - जीतकल्प वृत्ति ५ अन्त० - अन्तगडदशाङ्ग सूत्र । ३१ जीवा - जीवानुशासन सटीक । ६ अष्ट - अष्टक यशोविजयकृत सटीक । ३२ जै०३० - जैनइतिहास । ७ श्राचा० - आचारागसत्र सटीक । ३३ ज्यो० - ज्योतिष्करएमक सटीक । G आचू० - आवश्यकचूर्णि।। ३४ दु० - हुएढी (प्राकृतव्याकरण ) टीका । ६ आम०- आवश्यकमलयगिरि (प्रथमखएड ) ३५ तं० - तन्दुलवयासी पयन्ना टीका। १० आण्मद्वि०- आवश्यकमलयगिरि (द्वितीयखएड) ३६ तित्थु० - तित्थुगानी पयन्नामूल । ११ पातु० - आतुरमत्याख्यान पयन्ना टीका। ३७ दशा० - दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रवृत्ति । १२ आक० - आवश्यक कथा। ३० दर्श० - दर्शनशछि सटीक । १३ श्राव. - आवश्यकबृहद्वृत्ति । ३६ दश० - दशवैकालिकसूत्र सटीक । १४ नुत्त. - उत्तराध्ययन मूत्र सटीक । ४० द० ५०-दशपयन्नामृत। १५ उपा० - उपासकदशाङ्ग मूत्र सटीक । १ चउसरण पयन्ना। २ आतुरप्रत्याख्यान एएमा। १६ उत्त०नि० - उत्तराध्ययन नियुक्ति । ३ संथारगह पयन्ना। १७ एका० - एकाक्षरीकोश । ४ चंदविजा पयन्ना। १० भोघ० - ओघनियुक्ति सटीक । ५ गच्छाचार पयन्ना। १५ औ० ६ तंफुलवयाती पयन्ना। - भौषपातिकसूत्र वृत्ति। ७ देविदत्थव पयन्ना। २० कर्म० - कर्मग्रन्थ सटीक । गणिविजा पयन्ना। १ कप - कर्मप्रकृति सटीक । है महापञ्चक्खाण पयत्रा । १२ कल्प० - कल्पसुबोधिका सटीक । १० मरणविधि पयना । ३ को० - पाइयलच्छीनाममाला कोश । ४१ व्या० - द्रव्यानुयोगतर्कणा सटीक। २४ ग० - गच्छाचारपयन्ना टीका। ४२ द्वा० -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका(बत्तीसबत्तीसी)सटीक २५ चंप्र० - चन्धप्राप्ति सूत्र सटीक । ४३ द्वी० -द्वीपसागरप्रप्ति। १६. गा० - जनगायत्रीव्याख्या। पप दे० ना०-देशीनाममाला सटीक । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ष० धर्मसंग्रह सटीक । ४६ ६० २० - धर्मरत्नप्रकरण सटीक । ४७ नयो० नयोपदेश सटीक । नन्दी सूत्र सहति । ४८ नं० - ४६ नि० निरयावली सूत्र सटीक | ५० नि०० - निशीयसूत्र सचूर्णि । ५१ पं० चू०- पञ्चकल्पचूर्णि । ५२ पं० भा० ५३ पञ्चा० - ५४ पं०व० - ५५ पं० सं० ५६ पं० सू० - ५७ प्रव० ५० प्र०सू० - एह प्रति० ६० प्रश्न० ६५ पा० ६६ प्रा० ६७ भ० ६० महा० ६६ मएम० - ७० यो० चिं० ७१ रत्ना० - पञ्चकल्प भाष्य । पञ्चाशक सटीक । ६१ प्रज्ञा० - ६२ प्रमा० - ६३ पिं० ६४ पिएड०० - पिएम नियुक्ति मूल । पाक्षिक सूत्र सटीक । - पञ्चवस्तुक सटीक । पञ्चसंग्रह सटीक । पञ्चसूत्र सटीक । प्रवचनसारोद्धारटीका | प्रवचनसारोकार मूल । प्रतिमाशतक सूत्र सटीक । प्रश्नव्याकरण सूत्र सटीक । प्रज्ञापना सूत्र सटीक । प्रमाणनयतत्राओकालङ्कार सूत्र । पिएमनिर्युक्तिवृत्ति । प्राकृतव्याकरण | भगवती सूत्र सटीक । महानिशीथ सूत्र मूल । एकलप्रकरण सवृत्ति । योगबिन्दु सटीक । रत्नाकरावतारिका वृत्ति । ( 4 ) ७३ रा० ७३ ल० ७८ व्य० ७० ती० - ७४ लघु० लघुप्रवचनसार मूल । ७५ ल० ०- अघुक्षेत्र समास प्रकरण । ७६ व्य०अ० - व्यवहार सूत्र अक्षरार्थ । ७७ वाच० - - - - व्यवहारसूत्रवृत्ति । विविधर्थिकल्प | ८० बु० · बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य | ८१ विशे० विशेषावश्यक सजाय सबृहद्वृत्ति । ८२ विपा० राजपूरनीय (रायपसेणी ) सटीक । विस्तरा वृत्ति | - - विपाक सूत्र सटीक । वाचस्पत्याभिधान ( कोश ) - श्राचकधर्मप्रज्ञप्ति सटीक । - -पोमशपूकरण सटीक । - - समवायाङ्ग सूत्र सटीक | - ८३ श्रा० ८४ पो० ८५ स० ८६ संथा० संथारगपयन्ना सटीक | 9 संस०नि०- संसक्तनियुक्ति मूल । GG संघा० सङ्घाचार जाष्य | - - ८ए सत्त० - सत्तरिसयठाणा वृत्ति । ० सम्म० - सम्मतितर्क सटीक | ७१ स्था० - स्थानाङ्ग सूत्र सटीक । २ स्या० - स्याद्वादमञ्जरी सटीक । ३ सू०प्र० - सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र सटीक । ४ सूत्र ० सूत्रकृताङ्ग सूत्र सटीक | ५ सेन०- सेनप्रश्न | - ०६ डा० - हारिनद्राष्टक सटीक | - ७० हीरप्रश्न | १३- प्राकृतशब्दों में जो कहीं कहीं ( ) ऐसे कोष्ठक के मध्य में अक्षर दिये गये हैं, उनके विषय में थोड़े से नियम १-कहीं कहीं एक शब्द के अनेक रूप होते हैं परन्तु सूत्रों में एकही रूप का पाठ विशेष आता है इसलिये उसीको मुख्य रखकर रूपान्तर को कोष्ठक में रक्खा है - जैसे 'अदत्तादाण' या 'अनाग' शब्द है और उसका रूपान्तर प्रदेष्पादाण ' या ' अणुजाव ' होता है किन्तु सूत्र में पाठ पूर्व का ही प्रायः विशेष आता है तो उसीको मुख्य रखकर दूसरे को कोष्ठक में रखादया है; अर्थात्- 'अदत्ता (दिला) दाण, 'अणुभाग (ब) ' । 2-कहीं कहीं मागधी शब्द के अन्त में (ए) इत्यादि व्यञ्जन वर्ण भी कोष्ठक में दिया गया है वह "अन्त्यव्यञ्जनस्य" । छ । १ । ११ ॥ इस प्राकृतसूत्र से लुप्त हुए की सूचना है । ३-कहीं कहीं “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् " ।। ८ । १ । १७७ ।। इस सूत्र से एक पक्ष में व्यञ्जन के लोप होने पर बचे हुए (अ) (इ) आदि स्वरमात्र को रूपान्तर में दिया है । ४- इसी तरह "अवर्णो यश्रुतिः " ॥ ७ । २ । १८० ॥ का भी विषय कोष्ठक में (य) आदि रक्खा है । ५- तथा 'स्व-ध-य-ध-नाम् " ॥ ८ । १ । १८७ || इस प्राकृत सूत्र से ख घथ ध न अक्षरों को प्रायः ह्कार हुवा करता " Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और कहींहकार न होने का नी रूप आता है तो रूपान्तर की सूचना के लिये (घ)(भ) आदि अक्षर जी कोष्ठक में दिये हैं। यह नियम स्मरण रखने के योग्य है। ६-कहीं कहीं प्राकृतव्याकरण के प्रथमपादस्य १२-१३-१४-१५-१६-१७-१०-१४-२०-२१-२२-४४ सूत्रों के भी वैकठिपक रूप, और दूसरे पाद के २-३-५-७-१०-११ सूत्रों से भी किये हुए रूपान्तर को कोष्ठक में दिया है। 9-"फो महौ" ॥८।१।२३६ ॥ इस सूत्र के लगने से फ को (न) या ( ह ) होने पर, दो रूपों में किसी एक को कोष्ठक में दिया गया है । इसी तरह इसी पाद के २४१-२४२-२४३-२०४-२४८-२४१-२५२-२५६-२५५-२६१२६२-२६३-२६४ सूत्रों के विषय भी समझना चाहिये। G-"स्वार्थे कश्च वा" ।।२।१६४॥ इस सूत्र से आये हुए क प्रत्यय को कहीं कहीं कोष्ठक में (अ) इस तरह रक्खा है। इसी तरह “नो णः"|| G१।२२०।। सूत्र का जी आर्ष प्रयोगों में विकल्प होता है, इत्यादि विषय प्रथमजाग में दिये हुए पाकृतव्याकरण-परिशिष्ट से समझ लेना चाहिये। १४-प्राकृत शब्दो में कहीं संस्कृत शब्दों के लिङ्गों से विलक्षण जी लिङ्ग आता हैकहीं कहीं प्राकृत मान कर ही लिङ्ग का व्यत्यय हुआ करता है जैसे तृतीय भाग के ४३७ पृष्ठ में 'पिट्ठतो वराई' मूल में है, उसपर टीकाकार निखते हैं कि 'प्रदेशे वराहः, प्राक्तत्वाद नपंसकलिङगता। इसीतरह "पावट-शरत-तरणयः पुंसि"॥८॥१।३१।। इस सूत्र से स्त्रीनिङग को पुंनिदग होता है औरदामन्-शिरस-नभस् शब्दों को गमकर सनीसान्त और नान्त शब्द पुंलिङ्ग होते हैं, तया 'वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः'।१।३३ । 'गुणाद्याः क्लीवेवा'। १ । ३४॥ 'वेमाजच्याद्याः स्त्रियाम् ' ।१।३५। सूत्रों के भी विषय हैं। अन्यत्र स्थान में भी लोक प्रसिफि की अपेक्षा से ही प्राकृत में लिङ्गों की व्यवस्या मानी हुई है। जैसे-तृतीय नाग के २०४ पृष्ठ में 'कडवाइ (ए)-कृतवादिन्' इत्यादि को में पुंस्त्व ही होता है । यद्यपिसभा और कुल का विशेषण मानने से स्त्रीलिंग और नपुंसकलिङ्ग भी हो सकता है किन्तु उन दोनों का ग्रहण नहीं किया है। इसी तरह द्वितीय भाग के २० पृष्ठ में आनकखेम-आयुःक्षेम' इत्यादि को में यद्यपि 'कुशलं हममस्त्रियाम् ' इस कोश के प्रामाण्य से नपुंसकत्व और पुंस्त्व भी प्राप्त है तथापि केवन्न पुंस्त्व का ही स्वीकार है; क्यों कि काव्यादिप्रयोगों में जी लोक प्रसिछि से ही लिङग माना हुवा है, जैसे अर्डर्चादि गण में पद्म शब्द का पाठ होने से पुंस्त्वनी है, तदनुसारही'जाति पद्मः सरोवरे' यह किसीने प्रयोग नी किया, किन्तु काव्यानुशासन-साहित्यदपण-काव्यप्रकाश-सरस्वतीकएगजरण-रसगङ्गाधरकारादिकों ने पुष्टिङ्ग का आदर नहीं किया है। इस ग्रन्थ के हर एक नागों में आये हुए शब्दों में से थोमे शब्दों के उपयोगी विषय दिये जाते हैं प्रथम नाग के कतिपय शब्दों के संदिप्त विषय१-'अंतर' शब्द पर अन्तर के छेद,द्वीप पर्वतों में परस्पर अन्तर, जम्बूद्वारों में परस्पर अन्तर, जिनेश्वरों में परस्पर अन्तर, ऋषनस्वामी से वीर भगवान् का अन्तर,ज्योतिष्कों का और चन्जमएडल का अन्तर,चन्छ सर्यों का परस्पर अन्तर,ताराओं का परस्पर अन्तर, सूर्यों का परस्पर अन्तर, धातकीखएक के द्वारों का अन्तर, विमानकों का अन्तर, आहार के आश्रय से जीवों का अन्तर, और सयोगि भवस्य केवल्यनाहारक का अन्तर इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं। ५-'अचित्त ' शब्द पर अचित्त पदार्थ का, तथा 'अच्छेर' शब्द पर दश १० आश्चर्यों का निरूपण देखना चाहिये । ३-'अजीव' शब्द पर 5व्य-क्षेत्र-कान-नाव से अजीव की व्याख्या की हुई है। ४-'अन्जा' शब्द पर आया साध्वी) को गृहस्य के सामने दुष्टभाषण करने का निषेध,और विचित्र (नानारंग वाले) वस्त्र पहिरने का निषेध, तथा गृहस्थ के कपमे सीने का निषेध, और सविलास गमन करने का निषेध,पर्यङ्कगादी तकिया आदि को काम में लाने का निषेध, स्नान अङ्गरागादि करने का निषेध, गृहस्थों के घर जाकर व्यावहारिक अथवाधार्मिक कथा करने का निषेध, तरुण पुरुषों के आने पर उनके स्वागत करने का,तथा पुनरागमन कहने का निषेध, और उनके गचिताचारादि विषय वरिणत हैं। ५-'अणाचार ' शब्द पर साधुओं के अनाचार; 'अणारिय' शब्द पर अनार्यों का निरूपण' अणुप्रोग' शब्द पर अनुयोग शब्द का अर्थ, अनुयोगविधि, अनुयोग का अधिकारी, तथा अनुयोगों की पार्थक्य आर्यरक्षित से हुई है, इत्यादि। और 'अणुव्यय 'शब्द पर जलगियों के बिनाग देखने के लायक हैं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६-'अणेगंतवाय' शब्द पर स्यादवाद का स्वरूप, एकान्तवादियों को दोष,अनेकान्तवादियों के मत का प्रदर्शन,अनेकान्तवाद के प्रत्यक्तरूप से दिखाई देते हए भी उसको तिरस्कार करने वालों की उन्मत्तता,एकान्तरूप से उत्पत्ति अथवा नाश मानने में दोष, हरएक वस्तु के अनन्तधर्मात्मक होने में प्रमाण, वस्तु की एकान्तसत्ता माननेवाले सांरूपमत का खएहन इत्यादि विषय उत्तमोत्तम दिखाये गये हैं। ७'अमाउत्यिय' शब्द पर एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता है कि नहीं? इसपर अन्ययथिकों के साथ विवाद, अदत्तादानादि क्रिया के विषय में विवाद, एक समय में एक जीव के दो किया करने में विवाद, कल्याणकारी शील है या श्रुत है ? इसपर अम्ययूथिकों के साथ विवाद, और अन्ययूधिकों के साथ गोचरी का निषेध, तथा अन्यायकों को भोजन देने का निषध, एवं उनके साथ विचारनूमि या विहारमि में जाने का निपेप आदि विषय आवश्यकीय है। • अदत्तादाण' शब्द पर अदत्तादान के नाम, अदचादान का स्वरूप, अदचादान का कर्ता, और भदचादान का फल इत्यादि विषय उपकारी हैं। ए'अगकुमार' शब्द पर आर्षककुमार की कथा, रागद्वेषरहित के भाषण करने में दोषाजाव, बीजादि के उ. पनोक्का भमण ( साधु ) नहीं कहे जाते, समवसरणादि के उपभोग करने पर भी अर्हन नगवान् के कर्मबन्ध न होने का प्रतिपादन, केवल नावाकिही को माननेवाले बौखों का खयमन, विना हिंसा किये हुए भी मांस खाने का निषेध श्रादि विषय प्रदर्शित किये गये हैं। १० ' प्राधिगरण ' शब्द पर कलह करने का निषेध, उत्पन्न हुए कलह को शान्त करने की प्राइा, कलह उत्पत्ति के कारण, कलह करके दूसरे गण में जाने का निषेध, गृहस्थ के साथ कलह उत्पन्न होजाने पर उसको बिना शान्त किये पिएमादि ग्रहण करने का निषेध इत्यादि विषय स्मरण रखने के योग्य हैं। ११ 'अप्पाबद्य' शब्द पर अल्पबहुत्व के चारजेद,पृथ्वीकायादिकों के जघन्याद्यवगाहना से अल्पबदुत्व.आहारक और अनाहारक जीवों का अल्पबदुत्व, सेन्धियों का परस्पर अस्पबहुत्व, क्रोधादि कपायों का अल्पबहुत्व, किम क्षेत्र में जीव थोमे है और किसमें बहत है इसका निरूपण, जीव और पुलों का अध्पबहुत्व, तथा शानियों का अल्पबदुत्व आदि अनेक विषय हैं। १५'अमावसा' शब्द पर एक वर्ष में द्वादश अमावास्याओं का निरूपण, तथा उनके नक्षत्रों का योग और उनके कुन्न, एवं कितने मुहूर्तों के जानेपर अमावास्या के बाद पूर्णमासी और पूर्णमासी के बाद अमावास्या आती है इत्यादि विषय है। और 'अयण' शब्द पर अयन का परिमाण, करण का निरूपण, चन्छायण के परिज्ञान में करण आदि विषय रमणीय हैं। १३ ' अहिंसा' शब्द पर अहिंसा का स्वरूपनिरूपण, अहिंसा व्रत का लक्षण, जिनको यह मिली है और जिन्होंने इसको ग्रहण की है उनका वर्णन, अहिंसा पानन में उधत पुरुषों का कर्तव्य, अहिंसा की पांच भावनाएँ. माणीमात्र की हिंसा करने का निषेध, वैदिक ( याज्ञिक) हिंसा पर विचार, पाणी के न मारने के कारण. जैनों के ममान अन्य मत में अहिंसा के अभाव का निरूपण, अन्य मत में अहिंसा को मोक्ष की कारणता मुख्य न ( गौण ) होना, एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य आत्मा के मानने वालों के मत में अहिंसा का व्यर्थ हो जाना, आत्मा के परिणामी होने पर जी हिंसा में अविरोध का प्रतिपादन, आत्मा के नित्यानित्यत्व और देह से जिन्नाभिन्नत्व होने में प्रमाण, तथा प्रात्मा के शरीरावच्चिन्न होने में गुण आदि विषय ध्यान देने के योग्य हैं। प्रथम भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हैं उनको नामावली'अइमुंतय "अनजका " अंगारमहग' ' अंजू' 'अंम' 'अंबर' 'अक्कर कीर्तिचन्छ नरचन्ध की] — अक्खयप्या" प्रकावुद्द' 'अगमदत्त''अगहिट्यगराय''अचंकारियभट्टा''अचल" अजिअदेव"अज्जगंग' 'अज्जचंदणा'' अज्जमंगु 'अज्जमणगज्जरक्ख' 'अज्जरक्खिय' 'प्रज्जव' (अहर्षिकथा) 'अज्जवहर' 'अज्जुमणग' अहण' 'अहावय 'अहिअगाम' 'अमबि ''अणिस्सि प्रोवहाण''अणीयस''अणुबेखंघर'' आणुन्नमवेस'' अपायया 'अलियानत्त'' अत्तदोसोवसंहार' · अत्थकुसन्न' 'अगकुमार' 'अप्पमाय ' ' अव्वुय' 'अन्न 'अनयकुमार ''अभयदेव '' अमरदत्त '' अर' 'अरहाय' 'अरिहनेमि' 'अलोभया' “अवंतिसुकुमार 'असढ''असाववोहितित्थ'अहिउत्ता' अहिणंदण 'अादि शब्दों पर कथायें इष्टव्य हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानमापात्रताका (८) द्वितीय भाग के कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-'प्रान' शब्द पर आयु के जेद, आयु प्राणीमात्र को अतिप्रिय है इसका निरूपण, आयु की पुष्टि के कारण, और उनके उदाहरणादि देखने चाहिये । २-'पानकाय' शब्द पर अकायिकों के नेद, अप्कायिक केशरीरादि का वर्णन, और उसके सचित्त-अचित्त-मिश्र भेदों का निरूपण, उष्ण जन्न की अचित्तसिकि, अप्काय शस्त्र का निरूपण, अप्काय की हिंसा का निषध, अप्काय के स्पर्श का निषेध, और शीतोदक के सेवन का निषेध आदि विषय हैं। ३- आउदि' शब्द में चन्छ और सूर्य की आवृत्तियाँ किस ऋतु में और किस नत्र के साथ कितनी होती हैं इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं। ४-' आगम' शब्द पर लौकिक और लोकोत्तर भेद से आगम के लेद, आगम का परतः प्रामाण्य, आगम के अपौपेयत्व का खामन. आप्नों के रचे गए ही आगम का प्रामाण्य, जहाँ जहाँ प्रामाण्य का संभव है वह सभी प्रमाणी. नूत है इसका निरूपण, मूलागम से अतिरिक्त के मामाण्य न होने पर विचार, शब्द के नित्यत्व का विचार, जो आगमप्रमाण का विषय होता है वह अन्य प्रमाण का भी विषय हो मकता है इसका विचार, धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग में श्रागम ही प्रमाण है, जिनागम का सत्यत्वमतिपादन, सब व्यवहारों में आगम के ही नियामक होने का विचार, बौद्धों के अपोहबाद का संक्षिप्त निरूपण इत्यादि पञ्च स विषय बड़े रमणीय हैं । ५-'आणा' शब्द पर आज्ञा के सदा आराधक होने का निरूपण, परलोक में आज्ञाही प्रमाण है, विराधना करने में दोप, तथा आझाभङ्ग होने पर प्रायश्चिच, श्राकारहित पुरुष का चारित्र ठीक नहीं रह सकता, भौर आइा के व्यवहार आदि का बहुतही अच्छा विचार हैं। ६-'प्राणुपुन्छ।' शब्द पर बहुत ही गम्भीर १५ विषय विद्वानों के देखने योग्य हैं। ७-'आता' शब्द पर आत्मा के तीन नेद, आत्मा का लक्षण, आत्मा के कर्तृत्व पर विचार, आत्मा का विजुत्वखएमन, आत्मा का परिणाम, आत्मा के एकत्व मानने पर विचार, आत्मा का क्रियावस्व, और आत्मा के क्षणिकत्व मानने पर विचार इत्यादि विषय हैं। --'प्राधाकम्म' शब्द पर प्राधाकर्म शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, तीर्थकर के माधाकर्म-जोजित्व पर विचार, जोजनादिक में आधार्म के संनत्र होने का विचार, प्राधाकर्म-भोजियों का दारुण परिणाम, और प्राधाकर्म-भोजियों का कर्मबन्ध होना, इत्यादि अनेक विषय है। ६-'प्राजिणिबोदियणाण' शब्द पर १३ विषय विचारणीय है; और 'प्रायविलपञ्चक्खाण' शब्द पर भाचामाम्बप्रत्याख्यान के स्वरूप का निरूपण है। १०-'आयरिय' शब्द पर प्राचार्यपद का विवेक, प्राचार्य के भेद; प्राचार्य का ऐहलौकिक और पारलौकिक स्वरूप, प्रव्राजनाचार्य, और उपस्थापनाचार्य का स्वरूप, प्राचार्य का विनय करना; आचार्य के लक्षण, जिनके अभाव में प्राचार्य नहीं हो सकता वे गुण, आचार्य के भ्रष्टाचारत्व होने में दुर्गुण, दूसरे का अहित करनाजी दुर्गुण है इसका कथन,प्रमादी प्राचार्य के लिये शिष्य को शिक्षा करने का अधिकार; गुरु के विनय में वैद्यदृष्टान्त,माचार्य के लिये नमस्कार करने का निरूपण, गुरु की वैयावृत्य, जिस कर्म से गच्च का अधिपति होता है उसका निरूपण, प्राचार्य के अतिशय, निर्ग्रन्थियों के प्राचार्य, एक प्राचार्य के काल कर जाने पर दूसरे प्राचार्य के स्थापन में विधि, आचार्य की परीक्षा, आचार्य पद पर गुरू के स्थापन करने में विधि, विना परिवार के प्राचार्य होने का खण्डन, स्थापन करने में वृद्ध साधुनों की सम्मति लेने की भावश्यकता, इत्यादि उत्तमोत्तम विषय हैं। ११-'आलोयणा' शब्द पर आलोचना की व्युत्पत्ति, अर्थ और स्वरूप, मूलगुण और उत्तरगुण से आलोचना के भेद, विहारादि भेद से प्रासोचना के तीन भेद, और उसके भी लेद, शल्य के उच्चारार्थ अालोचना करने में विधि, आलोचनीय विषयों में यथाक्रम पालोचना के प्रकार, आलोचना में शिष्याचार्य की परीक्षा पर आवश्यकछार, आलो. चना लेने के स्थान, गोचरी से आये हए की आलोचना, अव्य-क्षेत्र-काल-भाव जेद से आलोचना के चार प्रकार, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचना का समय, तथा किमके निकट श्रासोचनालेनी चाहिये इस पर विचार, आमत्रमरण जीव केजी पालोचना लेने में ब्राह्मण कादष्टान्त, अदत्तालोचन पर व्याध का शान्त, आलोचना के प्राव और दश स्थानक, कृत कर्मों की क्रम से मालोचना लेनी चाहिये, पालोचना न लेकर मृत होने पर दोष, और पालोचना का फला इत्यादि विषय प्रावश्यकीय हैं। १२-'पासायणा' शब्द पर अाशातना करने में दोष, और आशातना का फल इत्यादि विवेचन देखने के योग्य है। १३-'भाहार' शब्द पर 'सयोगी केवली, अनाहारक होते हैं। इस दिगम्बर के मत का खान, केवनियों के आहार और नीहार प्रच्छन्न होते हैं इस पर विचार, प्रथिवीकायिकादिकों के आहार का निरूपण, तथा वनस्पतियों का, कोपरिस्थ वृक्षों का, मनुष्यों का, तिर्यग्नलचरों का, स्थायर सादिकों का, खेचरों का, विकलोन्धियों का, पञ्चेन्द्रियों के मत्र पुरीषों से उत्पन्न जीवों का माहार तेजस्कायिक और वायुकायिक के आहार का निरूपण.और मचित्ताहार का प्रतिपादन. यावग्जीव पाणी कितना श्राहार करता है इसका परिमाण, आहार के कारण, माहारत्याग का कारण. और आहार करने का प्रमाण, भगवान ऋषभ स्वामी के द्वारा कन्दाहारी युगलियों का अनाहारी होना इत्यादि विषय हैं। १४- इंदिय ' शब्द पर इन्द्रियों के पाँच नेद होने परजी नामादि भेद से चार लेद, नथा व्यादि भेद से दो जेद, और इन्द्रियों के संस्थान (रचना), इन्द्रियों के विषय, नेत्र और मन का अप्राप्यकारित्व, अवशिष्ट इन्श्यिों का प्राप्यकारित्व, और इन्धियों के गुप्तागुप्त दोष का निरूपण आदि विषय द्रष्टव्य हैं। १५-इत्यी' शब्द परस्त्री के लक्षण, स्त्रियों के स्वभाव जानने की आवश्यकता, और उनके कृत्यों का वर्णन, स्त्रीसंबन्धमें दोष, स्त्रियों के साथ विहार नहीं करना, स्त्री के साथ संबन्ध होने से इसी लोक में फस, स्त्री के संसर्ग में दोष, भोगियों की विमम्बना, विश्वास देकर स्त्रियों के अकार्य करने का निरूपण, स्त्रियों के स्वरूप और शरीर की निन्दा, वैराग्य उत्पन्न होने के लिये स्त्रीचरित्र का निरीक्षण, स्त्रियों की अपवित्रता, प्राणी का सर्वस्व हरण करने वाली और बन्धन में विशेष कारण स्त्रियां हैं, उनके स्नेह में फसे हुए पुरुष को दुःखप्राप्ति, स्त्री का संबन्ध सर्वथा त्याज्य है इमका निरूपण, और नसके त्याग के कारण, स्त्री के हस्तस्पर्श करने का निषेध, तया स्त्री के साथ विहार, स्वाध्याय, आहार, उच्चार, प्रस्रवण, परिष्ठापनिका, और धर्मकथादि करने का भी निषेध इत्यादि बहुत अच्छे २० विषय अष्टव्य हैं। १६-'इस्सर' शब्द पर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का खएमन, तथा ईश्वर के एकत्व और विजुत्व का खण्डन, अन्य तीर्थकों के माने हुए ईश्वर का खएकन आदि विषय विचारने के योग्य हैं। १७-'उरणा' शब्द भी इष्टव्य है, और 'उववाय' शब्द पर ३० विषय ध्यान रखने के योग्य हैं, जैसे-देवता देवलोक में क्यों उत्पच होते हैं, अविराधित श्रामण्य होने पर देवलोक में उपपात होता है, और नैरयिक कैसे उत्पन्न होते हैं इत्यादि विषयों पर विचार है। १८-'उचसंपया' शब्द पर प्राचार्यादि के काल कर जाने पर साधु के अन्यत्र गमन करने पर विचार, हानि और वृद्धि की परीक्षा करके कर्तव्याकर्तव्य का निरूपण, भिक्षु का एक गण से निकल कर दूसरे गण में प्राप्त हो के विहार, तथा इसीका दूसरा प्रकार, कुगुरु होने पर अन्यत्र गमन करना इत्यादि विचार है । १५-'उवसग्ग' शब्द पर उपसर्ग की व्याख्या, उपसर्गकारी के भेद से नपसर्ग के नेद, और उपसर्ग का सहन, तथा संयमों का रूक्षत्व आदि विषय हैं। २०-'उहि शब्द पर नपधि के भेद, जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिकों के उपधि, जिन कहिपक और गच्छ. वासियों के उपधि में उत्कृष्ट विभाग प्रमाण, उपधि के न्यूनाधिक्य में प्रायश्चित्त, प्रथम प्रव्रज्या के ग्रहण करने पर उपधि, प्रव्रज्या को ग्रहण करती हई निग्रन्थी के उपधि, रात्रि में अथवा विकाल में उपधि का ग्रहण, भिक्षा के लिये गये हुए साधु के उपकरण गिर जाने पर विधि, स्थविरों के ग्रहण योग्य उपधि, माध्वियों को जो उपधि देता हो उसे उनके प्राने के माग में रख देना चाहिये इत्यादि विषय उपयोगी हैं। १-उसन' शब्द पर पभस्वामी के पूर्व नव का चरित्र, ऋषभस्वामी के तीर्थङ्कर होने में कारण, ऋषजस्वामी का जन्म और जन्ममहोत्सव, ऋषजस्वामी के नाम, और उनकी वृद्धि, और उनका विवाह, पुत्र, नीतिव्यवस्था. राज्यालिषेक, राज्यसंग्रह, लोकस्थिति के लिये शिस्पादि का शिक्षण, वास, तदनन्तर ऋषजस्वामी के पुत्र का Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) अभिषेक ऋष स्वामी का दीक्षा कल्याणक, और उनके चीवरधारी होने का कालप्रमाण, जिज्ञाकाल का प्रमाण, ऋषभस्वामी केा भव का श्रेयांसकुमार के द्वारा कथन, ऋषभनाथ का श्रामण्य के बाद प्रवर्तनप्रकार, श्रामण्यावस्थावर्णन, केवलोत्पस्यनन्तर धर्मकथन, ऋषभस्वामी के बन्दनार्थ मरुदेवी के साथ जरत का गमन, और जरत का दिग्विजय, ब्राह्मणों की उत्पत्ति का प्रकार, ऋष स्वामी की सङ्घमङ्ख्या, और उनके केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद कितने कालानन्तर का सिद्धिगमन प्रवृत्त हुवा, और कब तक रहा, ऋषजस्वामी के जन्मकल्याणकादि के नक्षत्र, और उनके शरीर की संपत्ति, शरीर का प्रमाण, कुमारावस्था में तथा राज्य करने के समय म और गृहस्यावस्था में जितना काल है उसका मान, ऋषभस्वमी का निर्वाण इत्यादि विषय स्थित हैं । इस से अतिरिक्त भी विषय इस भाग में स्थित हैं जिनका विस्तार के भय से निरूपण नहीं हो सकता । द्वितीय भाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें माई हुई हैं उनकी नामावली ‘आउ' ‘नाणंद,' 'आधाकम्म' 'आपई,' 'आभीरचंचग,' 'प्रायरिय,' 'आराढ्णा, 'आरुगदिय' 'आलंबण' 'आलोयणा.' 'आसाकनृइ,' 'इंद्रदत्त' 'इंदज़इ,' 'इच्छकार ' 'इत्थिपरिसह, ' 'इत्थी' 'इलापुत्त' 'इसिभद्दपुत्त' 'इसि भासिय,' 'इस्सर,' 'उनंभरदत्त' 'नक्कम,' 'नवघायमाण,' 'उज्जयंत,' उज्जुमतित्रवहार,' 'उज्जुववहार' 'उज्झियय,' 'उएहपरीसह,' 'उदयश्ण,' 'उदय'पनसूरि,' 'उद्देसिय, 'उप्पत्तिय', 'उप्पत्तिया, 'उन्न,' 'उबवूह' 'उवसंपया, ' 'उवहि,' 'उवालंन' 'उस्सारकप्प' इत्यादि शब्दों पर कथायें द्रष्टव्य हैं । तृतीय जाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय १-‘एगलावेहार' शब्द पर एकाकी विहार करने में साधू को क्या दोष होता है इस पर विचार, एका कीवेडारियों के नेद, शिवादि कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, गण को छोम कर एकाकी विहार करने पर प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं । 2- ' गावा' शब्द पर आत्मा का एकत्व मानने वालों का खएन, तथा एक मानने में दोष, अद्वैतवाद ( पुरुषाद्वैत ) का खण्डन विस्तार से है । ३– एसणा ' शब्द पर १४ विषय दिये हैं वे भी साधू और गृहस्थों के देखने योग्य हैं, जैसे- साधू को किस प्रकार भिक्षा लेना, और गृहस्थ को किस प्रकार देना चाहिये इत्यादि । ४- 'गाणा' शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक शरीर की अवगाहना (क्षेत्र) कामान, द्वित्रिचतुरिन्धि मान, की दारिकावगाहना, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियों की औदारिकावगाहना, मनुष्यपञ्चेन्द्रियों की औदारिकशरीरावगाहना, चौक्रय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रिय शरीरावगाद्दना, असुरकुमारों की वैक्रियशरीगबगाहना, आहारकशरीरों की अवगाहना का तेजस शरीर की अवगाहना का मान, निगोद जीवों की अवगाहना का मान, धर्मास्तिकाय के अवगाढानवगाढ की चिन्ता, एक जगह एकही धर्मास्तिकायादि प्रवेशावगाढ है इत्यादि विवेचन है। 1 ५- ' सप्पणी' शब्द पर अवसर्पिणी शब्द की व्युत्पत्ति, और अवसर्पिणी कितने काल को कहते हैं, अवसर्पिणी काल में संपूर्ण शुभ भाव क्रम से अनन्त गुण से ही होते हैं, और उसी तरह अशुभ जाव बढते हैं, सुषमसुषमा से लेकर दुःषमदुःषमा पर्यन्त अवसर्पिर्ण । के छ नेद, सुषपादिकों का प्रमाण, भेरुतालादि वृक्ष का वर्णन, अष्टम कल्पवृक्ष का स्वरूप, उस काल में होने वाले मनुष्यादिकों के स्वरूप का वर्णन, और उनकी जवस्थिति, प्रथम से लेकर षष्ठ आरा तक का स्वरूपनिरूपण, जगत की व्यवस्था का वर्णन, भरतभूमिस्वरूप, अवसर्पिणी के तीन जेद इत्यादि विषय दिये हुए हैं । ין ६-— ओहि ' शब्द पर अवधि शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षण, अवधि के भेद, अवधि के नामादि सात जेद, अवधिक्षेत्र मान, अवधिविषयक इव्य का मान, क्षेत्र और काल के विषय का मान इत्यादि अनेक विचार हैं । ७-' कज्जकारणभाव ' शब्द पर कापिलादि मतों का खाऊन आदि विषय विचारणीय हैं। - 'कम्प' शब्द पर कर्म के तीन भेद, और उनके स्वरूप का निरूपण, कर्म और शिल्प में जेट, नैयायिक और वैयाकरगों के कर्म पदार्थ का निरूपण, कर्म के स्वरूप का निरूपण, पुण्य और पापरूप कर्म की सिद्धि, अकर्मवादी नास्तिक के मत Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का खण्डन, कर्म के मृतत्व पर आक्षेप और परिहार, जगत के वैचित्र्य से भी कर्म की सिद्धि. जीव के साथ कर्म का सम्मान, कर्म का अनादित्व, जगत की विचित्रता में कर्मही कारण है ईश्वरादि नहीं हैं इसका निरूपण, स्वजाववादी के मत का खएमन, पुण्य और पाप कर्म रूप ही हैं, पुण्य और पाप के जिन बक्षण, कर्म के चार लेद, हानावरणीय दर्शनावरणीय और मोहनीयों का विचार, नामकर्म गोत्रकर्म और आयुष्यकर्म का निरूपण इत्यादि ३७वषय विचारणीय हैं। ए-कसाय' शब्द पर कषायों का निरूपण है।। १०- काउसम्ग' शब्द पर कायोत्सर्ग का अर्थ , किन किन कार्यों में कितने उच्गस मान व्युत्सर्ग है, किस रीति से कायोत्सर्ग में स्थित होना इत्यादि १५ विषय बसे गंजीर हैं। ११-'काम' शब्द पर काम की रूपित्वसिधि, अरूपित्व का खएकन; तथा 'कायडिइ' शब्द पर जीवों की कायस्थिति, जीवों की नैरयिकादि पर्याय से स्थितिचिन्ता, तिर्यक् तया तिर्यस्त्रियों की, और मनुष्य तथा मनुष्यस्त्रियों की कायस्थिति, देव तथा देवियों की कायस्थिति, पर्याप्तापर्याप्त के विशेष से नैरयिकों की कायस्थिति, इन्जियों के द्वारा से जीवों की कायस्थिति, कायद्वार से जीवों की कायस्थिति,इसी तरह योगद्वार, वेददार, कषायद्वार, लेश्याद्वार,सम्यग्दृष्टिद्वार, ज्ञानद्वार, दर्शनद्वार संयमद्वार, उपयोगद्वार, आहारद्वार, नाषकानाषकद्वार, संझिदार, जवस्थितिकद्वार के जद से जीवों की कायस्थिति, और उदकगादिकों की कायस्थिति इत्यादि२० विषय हैं। १२- काल ' शब्द पर कासशन्द की व्युत्पत्ति, काल की सिदि, काल का लक्षण, काम के भेद, दिगम्बर की प्रक्रिया से काल का निरूपण , और उसका खएकन,काल का ज्ञान मनुष्य क्षेत्र ही में होताहै इसका निरूपण, काल के संख्येय, असंख्येय और अनन्त भेद से तीन नेद तीर्थकर और गणधरों से कहे हुए हैं, स्निग्ध और रूक्ष नेद से काम के दो जेद, स्निग्ध और रूक्ष के तीन तीन लेद इत्यादि विषय निर्दिष्ट हैं।। १३-'किइकम्म' शब्द पर कृतिकर्म में साधुओं की अपेक्षा से साध्वियों का विशेष, यथोचित वन्दना न करने में दोष, कृतिकर्म में द्रव्य और भाव के जनाने के लिये दृष्टान्त, कृतिकर्म करने के योग्य साधुओं का निरूपण, तथा वन्दन करने के योग्य साधुओं का निरूपण, अव्य-क्षेत्र-काल-नाव से नेद, आचरणा का लक्षण, और पर्याय ज्येष्ठों से प्रा. चार्य की वन्दना का विचार, देवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण के मध्य में स्तुति मङ्गल अवश्य करना चाहिये, कृतिकर्म किसको करना चाहिये और किसको नहीं इसका विवेचन, पार्थस्यादि कों की वन्दना पर विचार सुसाधु के बन्दना पर गुण का विचार, कृतिकर्म करने में उचितानुचित का निरूपण, कृतिकर्म को कब करना और कब नहीं करना, और कितनी वार कृतिकर्म करना इसका निरूपण, नियत वन्दनस्थान की संख्याका कथन, कृतिकर्म के स्वरूप का निरूपण इत्यादि १ विषयों का विवेचन है। १४--'किरिया' शब्द पर क्रिया का स्वरूप, क्रिया का निक्षेप, क्रिया के जेद, स्पृष्टास्पृष्टत्व से प्राणातिपातक्रिया का निरूपण, क्रिया का सक्रियत्व और प्रक्रियत्व, मृषावादादि का आश्रयण करके क्रियाकरने का प्रकार, अष्टादश स्थानों के अधिकार से एकत्व और पृथक्त्व के द्वारा कर्मबन्ध का निरूपण, झानावरणीयादि कर्म को बाँधता हुवा जीव कितनी क्रियाओं से समाप्त करता है, मृगयादि में उद्यत पुरुष की क्रिया का निरूपण, क्रिया से जन्य कर्म और उसकी वेदना के अधिकार से क्रिया का निरूपण, श्रमणोपासक की क्रिया का कथन, अनायुक्त में जाते हुए अनगार की क्रिया का निरूपण इत्यादि १८ विषय आये हुए हैं। १५–'कुसील' शब्द पर कुशीन किसको कहना, और उनके जेद, कुशील के चरित्र, कुशीनों के निरूपणानन्तर मुशीलों का निरूपण, पार्थस्थादिकों का संसर्ग नहीं करना, और उनके संसर्ग में दोष इत्यादि विषय हैं। १६-केवलणाण' शब्द पर केवलज्ञान शब्द का अर्थ, केवलज्ञान की सिद्धि. इसका साद्यपर्यवासितत्व, केवलज्ञान के भेद, सिद्ध का स्वरूप, किस प्रकार का केवलज्ञान होता है इसका निरूपण, स्त्रीकथा नक्तकथा देशकथा और राजकया करनेवाले के लिये केवल ज्ञान और केवन दर्शन का प्रतिबन्ध इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। १७--'केवलिपमत्त' शब्द पर केवली से कहे हुए धर्म का निरूपण, केवली के नेद,पहिले केली हो कर ही सिधि को प्राप्त होता है, केरनी के आहार पर दिगम्बर की विप्रतिपत्ति आदि विषय निरूपित हैं। १७-' खोवसमिय' शब्द पर क्योपशमिक के जेद तथा औपशमिक से इसका भेद, और उसके अगरह जेद इत्यादि विषय षष्टव्य हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) १७- स्वरयर' शब्द पर स्वरतर गच्छ का संक्षिप्त विवरण; तथा 'स्खणियवाई' शब्द पर बौद्धों के मत का संक्षिप्त नि रूपण, और वन आदि देखने के लायक है । २०--'खेल' शब्द पर क्षेत्र का निरूपण, क्षेत्र के तीन भेद, क्षेत्र के गुण, क्षेत्र का आभवनव्यवहार आदि कई विषय निरूपित हैं। . २१ - 'ग' शब्द पर स्पृशद्गति और अस्पृशद्गति से गति के दो जेद, प्रकारान्तर से भी दो भेद, गति शब्द की व्युत्पत्ति, नारक तिर्यग् मनुष्य देव के जैद से गति के चार भेद, प्रकारान्तर से पाँच भेद, अथवा आठ जेद, नारकादिकों की शीघ्रगति आदि विषय दिये हुए हैं । २३- 'गच्छ' शब्द पर गच्छविधि, सदाचाररूपी गच्छ का लक्षण, गच्छ का अगच्छत्व, गच्छ में बसने से विशेष निर्जरा होती है इसका निरूपण, शिष्य तथा गच्छ का स्वरूप, आर्यिकाओं के साथ संवाद का निषेध, क्रयविक्रयकारी गच्छ का निषेध, सुगच्छ में बसना चाहिये, वसति का रचण, अष्टभाषण, गच्छमर्यादा, आचार्यादिकों के प्रभाव होने पर गच्छ में नहीं बसना, गच्छ और जिनकरूप दोनों की प्रशंसा इत्यादि विषय हैं। २३-‘गणह ( ध ) र' शब्द पर गणधर का स्वरूप, किस तीर्थङ्कर के कितने गणधर हैं, गणधर शब्द का अर्थ, जिनगुणों से गणधर होने की योग्यता होती है उनका निरूपण किया है। २४ - ' गब्ज ' शब्द पर गर्भ में अहोरात्रियों का प्रमाण, मुहूर्तों का प्रमाण, गर्भ में निःश्वासोच्छ्रास का प्रमाण, गर्जका स्वरूप, ध्वस्तयोनि के काल का मान, कितने वर्ष के बाद स्त्री गर्भ धारण नहीं करती और पुरुष निर्वार्य हो जाता है इसका निरूपण, कितने जीव एक देला से एक स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कुक्षि में पुरुषादि कहाँ बसते हैं, गर्भ में जीव उत्पन्न होकर क्या आहार करता है ?, गर्भस्थ जीव के उच्चार और प्रावरण का विचार, गर्भसे भी जीव नरक या देवलोक को जाता है या नहीं इस गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर, नवमास का अन्तर हो जाने पर पूर्व भव को जीव क्यों नहीं स्मरण करता ?, और गर्भगत का शौचादि विचार, स्त्री के गर्भधारण करने के पाँच प्रकार, गर्भपतन का कारण, गर्भपोषण में विधि इत्यादि विषय हैं । २५- ' गिलाल ' शब्द पर ग्लान के प्रति जागरण, सचित्ताचित्त से चिकित्सा, ग्लान का अनुवर्तन, वैद्यानुवर्तना, वैद्य का उपदेश, ज्ञान के लिये एपणा इत्यादि विषय हैं। २६ - 'गुण' शब्द पर मूलगुण, उत्तग्गुण, एकतीस सिकादिगुण, सत्ताईस अनगार गुण, महार्द्ध प्राप्त्यादि, सौनाग्यादि, मृफुत्वौदार्यादि, क्षान्त्यादि, वैशेषिकसंमत गुण, अव्यगुणों का परस्पर प्रभेद, गुणपर्याय के नेद, गुणपर्याय का ऐक्य, और जैनसंमत गुण इत्यादि प्रष्टव्य विषय है । २७- ' गुणट्ठाण' शब्द पर चौदह गुणस्थान, कायस्थिति, गुणस्थान में बन्ध इत्यादि विषय हैं। २६-' गोयरचरिया ' शब्द पर जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक, निर्ग्रन्थियों की जिक्षा में विधि, जिक्षाटन में विधि, आचार्य की आज्ञा, जाने के समय धार्याधार्य और कार्याकार्य, मार्ग में जिस तरह जाना, दृष्टिकाय के गिरने पर विधि, गृह प्रवेश, गृह के अवयवों को पकड़ करके नहीं खड़े होना, अंगुली दिखाने का निषेध, अगारी (स्त्री) के साथ खमे होने का निषेध, ब्राह्मणादि को प्रविष्ट देख कर के जिक्षा के लिये प्रवेश नहीं करना, तीर्थकर और उत्पन्नकेवलज्ञानदर्शन वाले शिक्षा के लिये भ्रमण नहीं करते, आचार्य भिक्षा के लिये नहीं जाता, ब्राह्मवस्तु, गोचरातिचार में प्रायश्चित्त, साध्वियों की जिक्षा का प्रकार इत्यादि विषय बहुत उपयोगी हैं। २६ - ' चक्कट्टी ' शब्द पर चक्रवर्तियों की गति का प्रतिपादन, गोत्रप्रतिपादन, चक्रवर्ती के पुर का प्रतिपादन, चक्रवर्ती कावल, मुक्ताहार, वर्णादि, स्त्रियां, स्त्रियों के सन्तान आदि का निरूपण, उत्सर्पिणी में १२ चक्रवर्त्ती होते हैं, कौन और कैसे चक्रवर्ती होता है इसका निरूपण इत्यादि विषय हैं । ३० - ' चारित' शब्द पर कुम्न के दृष्टान्त से चारित्र के चार भेद, सामायिकादि रूप से चारित्र के पाँच जेद, किस तरह चारित्र की प्राप्ति होती है इसका प्रतिपादन, चारित्र मे हीन ज्ञान अथवा दर्शन मोक्ष का साधन नहीं होता है, किन कषायों के उदय से चारित्र का लाभ ही नहीं होता और किन से हानि होती है इसका निरूपण, वीतराग का चारित्र न बढ़ता प्रायः चारित्र का कारण है इत्यादि विषय है। है और न घटता है, चारित्र की विराधना नहीं करना, आहारशुद्धि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) ३१ - 'चैहय' शब्द पर चैत्य का अर्थ, प्रतिमा की सिद्धि, चारणमुनिकृत वन्दनाधिकार, चैत्य शब्द का अर्थ जो ज्ञान मानते हैं उनका खण्डन, चमरकृतवन्दन, देवकृत चैत्यवन्दन, सावद्य पदार्थ पर भगवान् की अनुमति नहीं होती, और मौन रहने से भगवान् की अनुमति समझी जाती है क्योंकि निषेध न करने से अनुमति ही होती है इसपर दृष्टान्त, हिंसा का विचार, साधू को स्वातन्त्र्य से चैत्य में अनधिकार, द्रव्यस्तव मे गुण, जिनपूजन से वैयावृत्य, तीन स्तुति, जिन भवन के बनाने में विधि, प्रतिमा बनाने में विधि, प्रतिष्ठाविधि, जिनपूजाविधि, जिनस्नात्रविधि, आभरण के विषय में दिगम्बरों के मत का प्रदर्शन और खण्डन, चैत्यविषयक प्रश्नों पर हीरविजय सूरिकृत उत्तर इत्यादि अनेक विषय हैं । ३२- 'चेइयवंदण' शब्द पर नैषेधिकत्रिय, पूजात्रिक, भावनात्रिक, त्रिदिनिरीक्षण प्रतिषेध, प्रणिधान, अभिगम, चैत्यवन्दनदिक्, अवगाह, ३ वन्दना, ३ या ४ स्तुति, जघन्यवन्दना, अपुनर्बन्धकाऽऽदिक अधिकारी हैं, नमस्कार, प्रणिपातदण्डक, २४ स्तव, सिद्धस्तुति, वीरस्तुति, वैयावृत्य की चौथी स्तुति, १६ आकार, कायोत्सर्ग इत्यादि अनेक विषय आये हैं । तृतीय जाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली‘एगत्तभावणा, ' ‘एलकक्ख, 'एसखासमिइ,' 'कम्मायणीय,' 'कम्मीरह, 'कत्तिय, "कप्प, "कप्पच, "कय एणू 'कवड्डिजक्ख, ''कंडरिय, ' 'कंबल, "करंड, 'काकंदिय, ' 'कायगुत्ति, 'काल, 'कालसोच्चरिय, ' ' कासीराज, ''किइकम्म, ' ‘कुबेरदत्त,' ‘कुबेरदत्ता,’‘कुबेरसेगा, ' 'कोडिसिला, ' 'गंगदत्त, ' 'गयसुकुमाल,' 'गुणचंद, ' 'गुणसागर,' 'गुत्तसूरि, ''गुरुकुलवास, ' 'गुरुणिग्गह, ' 'गोड्डामाहिल, ' चंडरुद, ' 'चंदगुत्त, ' 'चंदप्पभसूरि, ' 'चंपा, ' 'चक्कदेव,' 'चेइयवंदण' | चतुर्थभाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय १ - ' जीव ' शब्द पर जीव की व्युत्पत्ति, जीव का लक्षण, जीव का कथञ्चिन्नित्यत्व, और कथञ्चित् अनित्यत्व, इस्ति और कुन्थु का समान जीव है इसका प्रतिपादन, जीव और चैतन्य का भेदाभेद, संसारी और सिद्ध के भेद से Tata के दो भेद, संसारियों का सेन्द्रियत्व, सिद्धों का अनिन्द्रियत्व इत्यादि विषय वर्णित हैं । २ - ' जोइसिय' शब्द पर जम्बूद्वीपगत चन्द्र सूर्य की सङ्ख्या, तथा लवण समुद्र के, धातकी खण्ड के, कालोदसमुद्र के, पुष्करवर द्वीप के, और मनुष्यक्षेत्रगत समस्त चन्द्रादि की संख्या का मान, चन्द्र-सूर्यों की कितनी पङ्क्तियाँ हैं और किस तरह स्थित हैं इसका निरूपण, चन्द्रादिकों के भ्रमण का स्वरूप, और इनके मण्डल, तथा चन्द्र से चन्द्र का और सूर्य से सूर्य का परस्पर अन्तर इत्यादि अनेक विषय हैं जिनका पूरा २ निरूपण यहाँ नहीं किया जा सकता । ३- ' जोग' शब्द पर योग का स्वरूप, तथा योग के भेद, और योग का माहात्म्य आदि अनेक बृहत् विषय हैं । ४- ' जोनि ' शब्द पर योनि का लक्षण, और उसकी संख्या, और भेद, तथा स्वरूप आदि अनेक विषय हैं। ५-' झाण ' शब्द पर ध्यान का अर्थ ध्यान के चार भेद, शुक्लध्यानादि का निरूपण, ध्यान का आसन, ध्यातव्य और ध्यानकर्ताओं का निरूपण, ध्यान का मोचहेतुत्व इत्यादि विषय हैं । ६-‘ठवण्णा' शब्द पर स्थापनानिक्षेप, प्रतिक्रमण करते हुए गणधर स्थापना करते हैं, स्थापनाचार्य का चालन, स्थामना कितने प्रदेश में होती है इसका निरूपण, स्थापना शब्द की व्युत्पत्ति, और स्थापना के भेद इत्यादि विषय हैं। ७- ठाण' शब्द पर साधु और साध्वी को एक स्थल पर कायोत्सर्ग करने का निषेध, स्थान के पंद्रह भेद, बादर पर्याप्त तेजस्कायिक स्थान, पर्याप्तापर्याप्त नैरयिक स्थान, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वों का स्थान, भवनपति का स्थान, और स्थान शब्द की व्युत्पत्ति इत्यादि विषय हैं । E-' ठिई' शब्द पर नैरयिकों की स्थिति, पृथिवीविभाग से स्थितिचिन्ता, देवताओं की स्थिति, तथा देवियों की, भवनवासियों की, भवनवासिनियों की, असुरकुमारों की, अभुरकुमारियों की, नागकुमारों की, नागकुमारियों की, सु कुमारों की, सुवर्णकुमारियों की पृथिवीकायिकों की, सूक्ष्म पृथिवीकायिकों की, आउकायिकों की, बादर आउकायिकों की, ते कायिकों की, सूक्ष्म तेउकायिकों की, बादर तेउकायिकों की, वायुकायिक-सूक्ष्म वायुकायिक-वादर वायुकायिकों की. वनस्पतिकायिक- सूक्ष्म वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिकों की, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्, जलचरपञ्चेन्द्रिय, संमूर्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय, चतुष्पद स्थलचरपश्चेन्द्रिय, संमूर्छिम चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, गर्भापक्रान्तिक चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय, उरः परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, संमूर्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय For Private Personal Use Only - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्योनिक. गर्भापक्रान्तिकभुज०, खचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक,समूचिम०, गर्भापक्रान्ति०, मनुष्यों की. स्त्रियों की, नपुंसकों की,निर्ग्रन्थों की,वाणव्यन्तरों की,वाणव्यन्तरियों की,ज्योतिष्कों की,ज्योतिष्कियों की स्थिति-चन्द्रविम न में,सूर्य विमान में,ग्रहविमान में,नक्षत्रविमान में ताराविमान में स्थिति,वैमानिकों की स्थिति सौधर्म कन्प में, ईशान कल्प में,सनत्कुमार कल्प में, माहेन्द्र कल्प में, ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में, महाशुक्र-सहस्रार कम्प में, पानत कल्प में.प्राणत कल्प में, पारणअच्युत कल्प में स्थिति-अधोऽधोग्रेवेयकों की, अधोमध्यमग्रैवेयकों की, अधउपरिवेयकों की, मध्यमाधोत्रेयकों की, मध्यममध्यमवेयकों की, मध्यमउपरिगणैवेयकों की, उपरिमाधोग्रेवेयकों की, उपरिममध्यमवयकों की, उपरिमउपरिम अवेयकों की स्थिति-विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धों में देवों की स्थिति,वेदनीय कर्मों की स्थिति, पुनपुंसकों की स्थिति, अकामकायक्लेशतपस्त्रियों की, व्यन्तरों में उत्पन्न की स्थिति-बाल मरण से मरे हुये व्यन्तरों की, विधवाओं की अल्पारम्भप्रवृत्त व्यन्तरों में उत्पत्रों की स्थिति इत्यादि विषय बहुत मेद प्रभेद से निरूपित हैं। ६-'णक्खत्त' शब्द पर नक्षत्रों की संख्या, इन नक्षत्रों में कब क्या कार्य(गमन प्रस्थानादि) करना, स्वाध्यायादि नचत्र-क्षिप्र, मृदु और ज्ञानवृद्धिकर नक्षत्र, चन्द्रनक्षत्रयोग, कितने भाग नक्षत्र चन्द्र के साथ युक्त होते है.प्रमदयोमी नक्षत्र, कौन नक्षत्र कितने तारावला है, नक्षत्रों के देवता, नक्षत्रों के गोत्र, भोजन.द्वार,नचत्रविजय,सायंकाल और प्रातःकाल में नक्षत्रचन्द्रयोग,अमावास्याओं में चन्द्रनक्षत्रयोग, संवत्सरान्तो में नचत्रचन्द्रयोग,और संस्थान(रचना)आदि विषय है। १०-'णम्मोकार' शब्द पर नमस्कार के भेद, सिद्धनमस्कार, वीतराग के अनुग्रह से रहित होने पर भी नमस्कार का फलद होना, सिद्ध गुण अमूर्त ही होते हैं, नमस्कार का क्रम इत्यादि अनेक विषय द्रष्टव्य है । ११-'णय' शब्द पर नय का लक्षण, अपेक्षानय, सप्तभङ्गी, वस्तु का अनन्तधर्मात्मकत्व, एक जगह अनेकाकार नयप्रमाणबुद्धि, नयज्ञान प्रमात्मक है या भ्रमात्मक है इसपर विचार, द्रव्यार्थिक नय, पर्यायार्थिक नय,और उन दोनों का मत, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के मध्य में नैगमादि नयों का अन्तर्भाव, नैगमादि ७ मूल नय हैं और उनके मत का संग्रह, 'सिद्धसेन दिवाकर' के मत में ६ नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्दनय, एवंभूत नय, ७०० नय, निचेपनययोजना, कौन दर्शन किस नय से उत्पन्न हुआ, शब्दब्रह्मवादियों का मत, अद्वैतवादियों का मत, निश्चय और व्य नयों का अन्तर्भाव, व्यवहार नय से साइख्यमत, वेदान्त और साङ्ख्य का शुद्धाशुद्धत्व, गम और संग्रह का व्यवहार में अन्तर्भाव, कणाद और सौगत (बौद्ध ) का मत, दिगम्बर मत में नय, शब्दनय,अर्थनय , नयों में सम्यक्त्व, नयफल, ज्ञानक्रियानय, नयपार्थक्य आदि विषय दिये हुये हैं। १२–'णरग' शब्द पर नरकदुःखवर्णन,नरकवेक्मा, नरक के बहुत से स्वरूप इत्यादि अनेक विषय हैं। १३-“णाण' शब्द पर पाँच ज्ञान, मति श्रुत भेद से ज्ञान के भेद, ज्ञान का साकारानाकारत्व, ज्ञान का स्वप्रकाशकत्व, तत्त्वज्ञान इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं,और "णिग्गंथ' शब्द पर निर्ग्रन्थ शब्द की व्युत्पत्ति आदि देखना चाहिये। १४-'तपस' शब्द पर तप क्या वस्तु है, अनशन व्रत तप कैसे है, बाह्य और भाभ्यन्तर तप का निरूपण,तप वैसा करना चाहिये जिसमें शरीर की ग्लानि न हो.तप का फल, तप के चार भेद इत्यादि विषय हैं। १५-'तित्थयर'शब्द पर तीर्थकर शब्द की व्युत्पत्ति और यह किसका प्रतिपादक है इसका निरूपण,तीर्थकरों के प्रतिशय.तीर्थकरों के अन्तर.और तीर्थकरों में अष्टादश दोष का प्रभाव,तीर्थंकरों के अभिग्रह और उनकी आदेशसङ्ख्या .आवश्यक, और उनके आहार,जन्मावसर में इन्द्रकृत्य,समानिवेशन,शक्रक्रिया,देवलोक से उतरने के मार्ग.मेरुगमन,उपकरणसंख्या. उपसर्ग:देहमान(उँचाई मादि)चतुर्विंशति जिनों के अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या,कल्पशोधि,कुमारवास, केवल(ज्ञान)नक्षत्र केवलनगरी,केवलतप, केवलमास-तिथि, केवलराशि, केवलवृक्ष, केवलवृक्षमान, केवलवन, केवलवेला,के. लिकाल, केत्रलिसंख्या,गणसंख्या,गणधरसंख्या,गर्भस्थिति,गृहिकाल,गृहस्थावस्था के तीन ज्ञान,गोत्र,चतुर्दशपूर्वी,चक्रित्वकाल,चरित्र,च्युतिनक्षत्र, च्युतिमास,च्युतिराशि,च्युतिवेला,छबस्थत्व,छमस्थावस्था में वीरतपमान,यक्ष, यक्षिणी, जन्मनक्षत्र,जन्मनगरी,जन्मदेश, जन्ममास,जन्मराशि,जन्मवेला,जन्मारक,जन्मारकशेषकाल, तवसंख्या,तीर्थप्रवृत्तिकाल,तीर्थोच्छेदकाल,तीर्थकरनाम, 'चक्रवर्ति,बलदेव,वासुदेव,प्रतिवासुदेव,तीथोत्पत्ति,दीक्षाकाल,दर्शन, दीक्षानक्षत्र, दीक्षापर्याय, दीक्षातरु, दीक्षातप , दीक्षापरिवार , दीक्षापुर, दीदाज्ञान, दीक्षामास , दीक्षाराशि, दीचालोचमुष्टि, दीक्षायन, दीक्षावय, दीक्षाशिविका,दिक्कुमारीकृत्य, अष्टकुमारियों के नाम,और इनके अासनों का चलन, गमनावसर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) में क्या करती हैं, तीर्थकरमाताओं को नमस्कार, इनोंका कर्तव्य, दक्षिणरुचकवासियों का कृत्य, पश्चिमरुचकवासियों का कृत्य, उदीची में रुचकवासियों का कृत्य इत्यादि, देवदुष्यवस्त्र, देवदूष्यत्रस्त्रस्थिति, धर्मप्रभेद, धर्मोप्रदेशक, नाम तीर्थकरों के, पञ्चकल्याणक पर्यायान्तकृतभूमि, प्रतिक्रमण संख्या, प्रथमगणघरनाम, प्रथमप्रवर्तिनी, प्रथम श्रावक, प्रथमश्राविका,प्रत्येकबुद्धसंख्या, प्रमाद, परिवह, पार खाकाल, पारणाद्रव्य, पारणादायक, पारणादायक गति, पारणादायक दिव्यपञ्च, परिणादायक व सुधारादृष्टि, पारखापुर, प्रियगति, प्रियनाम, पूर्वप्रवृत्तिकाल, पूर्वप्रवृत्तिच्छेद, जिनों के पूर्व भव, (ऋषभदेव के पूर्वभव 'ऋषभ, शब्द पर हैं ) चन्द्रप्रभ के सात मत्र, शान्तिनाथ के द्वादश पूर्वभव, मुनिसुव्रत के नवभव, नेमिनाथ के नवभव, पार्श्वनाथ के पूर्वभव, वीर के अट्ठाईसमव, शेष जिनों के भव, पूर्व भवगुरु, पूर्वत्र वायु, पूर्व मवशेत्र, पूर्वभ वदीक्षा, पूर्वभवजिनहेतु, पूर्वभवद्वीप, पूर्वभवनाम, पूर्वभवपुरी, पूर्वमवराज्य, पूर्वभवविजय, पूर्वभवसर्ग, पूर्वभवसूत्र, मुख्यआसन, मुख्यस्थान, मुख्यतप, मुख्यनक्षत्र, मुख्य परिवार, मुख्यपथ, मुख्यमास, मुख्यराशि, मुख्यविनय, मुख्यवेला, मुख्यारक, मुख्यारकशेषकाल, मुख्यावगाहना, मुनिस्वरूप, मुनिसंख्या, राज्य, रुद्रनाम, लाञ्छन, शरीरलक्षण, जिनवंश, वस्त्रवर्ण, जिनों के वर्ण, विवाह, विहार, संयम, सांवत्सरिक दान, समवसरण, सर्वायु, सामान्यमुनि, सामायिक, सामायिकसंख्या, श्रावकसंख्या, स्वप्न, स्वप्नविचार इत्यादि अनेक विषय हैं । १६ - ' तेउकाइय ' शब्द पर तेज की जीवत्वसिद्धि, अग्नि की जीवत्वसिद्धि, तद्विषयसमारंभ कटुकफलपरिहारोपन्यास, अग्निसमारम्भ में नानाविधप्राणियों की हिंसा, तेजस्कायपिण्डप्रतिपादन, तेजस्का यहिंसानिषेध इत्यादि विषय हैं । १७ - थंडिल ' शब्द पर स्थण्डिल का विवेचन देखना चाहिये । 'दंसण ' शब्द पर दर्शन की व्युत्पत्ति, सम्यक् और मिथ्या भेद-से-दर्शन के दो भेद, क्षायिकादि भेद से तीन भेद, तथा दर्शन का पञ्चविधत्व और सप्तविधत्व, कारक रोचक दीपक भेद से तीन भेद, नवविघदर्शन इत्यादि विषय हैं । १८- ' दव्व' शब्द पर द्रव्य का निरुक्त, द्रव्य का लक्षण, षड्द्रव्यनिगमन, जीवाजीवद्रव्य असख्य अनन्त द्रव्य "के दो भेद, वैशेषिकरीति से नव द्रव्य, और उनमें दोष इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं । १६ - ' दाग ' शब्द पर दान का विशेष विचार देखना चाहिये । २०- ' देव ' शब्द पर देवताओं के दो भेद, तीन भेद, चार भेद, पाँच भेद इत्यादि विषय है । २१ - ' धम्म ' शब्द पर धर्म शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, धर्म के दो भेद, धर्म का लक्षण, धर्म के भेद और प्रभेद, धर्म के चिह्न, औदार्यलक्षण, दाक्षिण्यलक्ष्य, निर्मलवेोघलचण, मैत्र्यादिकों के लक्षण, धर्म के अधिकारी, धर्म के योग्य, अवश्यही धर्म की रक्षाकरना चाहिये इसका निरूपण, अर्थ और काम का धर्म ही मूल है, धर्मोपदेश का विस्तार, धर्म का माहात्म्य, धर्म का मोक्षकारणत्वप्रतिपादन, धर्म का फल, और वह किसको दुर्लभ है और किसको सुलभ है इसका निरूपण, केवलभाषित धर्म का श्रवण दुर्लभ है, धर्म की परीचा, धर्माधर्म का विचार सूक्ष्म बुद्धि से करना चाहिये इत्यादि विषय हैं । चतुर्थ जाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावलीजत्तासिद्ध, ''दसिरि, दिसेण, ''नरसुंदर, गागज्जुख, गागहत्थिय, ' ' ताराचंद, ' 'दमदंत, ' 'दसउर, ' 'दसम्भद्द, ' 'धमित, ' ' घणवई, ''भखावह, ' 'धणसिरी, ' 'घम्मघोस, ' ' धम्मजस ' | 4 4. पञ्चम भागमें आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय १- ' पश्चक्खाण' शब्द पर अहिंसाप्रत्याख्यान, प्रतिषेघप्रत्याख्यान, भावप्रत्याख्यान, मूलगुणप्रत्याख्यान, सम्यक्त्वप्रतिक्रमण, सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान अनागतादि दशविध प्रत्याख्यान, अद्धा प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानविधि, दानविधि, प्रत्याख्यानशुद्धि, प्रत्याख्यान का षड्विधत्व, ज्ञानशुद्ध, अनुभाषणाशुद्ध, अनुपालनाशुद्ध, आकार, प्रत्याख्यान में सामायिक, प्रत्याख्याताकृत प्रत्याख्यान दान का निषेध, निर्विषयक प्रत्याख्यान नहीं होता, श्रावक का प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान का फल आदि कई विषय हैं । २ - 'पच्छिन ' शब्द पर प्रायश्चित्त का अर्थ भाव से प्रायश्चित्त किसको होता है, आलोचनादि दशविध प्रतिसेवना प्रायश्चित्त, तपोऽर्ह प्रायश्चित्त में मासिक प्रायश्चित्त, संयोजनाप्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त देने के योग्य पर्षत् (सभा), दण्डानुरूप प्रायश्चित्त, द्वैमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पाञ्चमासिक, और बहुमासिक प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्तदानविधि, आलोचना को सुनकर प्रायश्वित्त देना, प्रायश्चित्त का काल, प्रायश्चित्त का उपदेश इत्यादि विषय हैं । For Private Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) ३- ' पज्जुसणाकप्प' शब्द पर पर्युषणा कब करना, पर्युषणास्थापना, भाद्रपदपञ्चमीविचार, क्षेत्रस्थापना, भिक्षाक्षेत्र, संखडि, एकनिर्ग्रन्थी के साथ नहीं ठहरना, अगारी के साथ नहीं ठहरना, इच्छा से अधिक नहीं खाना, शय्यासंस्तार, उच्चारप्रस्रवणभूमि, पर्युषणा में केशलोच, उपाश्रय, दिगवकाश इत्यादि देखने के योग्य हैं । ४ - ' पडिक्कमण' शब्द पर प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ, प्रतिक्रामक, नामस्थापनाप्रतिक्रमण, प्रतिक्रान्तव्य के पाँच भेद, प्रतिक्रमण, दैवसिकप्रतिक्रमण वेला, रात्रिकप्रतिक्रमण, पाक्षिकादिकों में प्रतिक्रमण, पाक्षिक प्रतिक्रमण चतुर्दशी ही में होता है, मङ्गल, त्रैकालिक प्राणातिपातविरति, श्रावक के प्रतिक्रमण में विधि इत्यादि बहुत विषय हैं। ५- ' पडिमा ' और ' पडिलेहणा ' शब्द देखने चाहिये । ' पडिसेवणा ' शब्द पर प्रतिसेवना शब्द का अर्थ, और भेद आदि का बहुत विस्तार है। ६- ' पत्त' शब्द पर पात्र का लेपकरणादिक देखना चाहिये । ७- 'माण' शब्द पर प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण का लक्षण, स्वतः प्रामाण्यविचार, प्रमाण संख्या, प्रमाणफल, द्रव्यादिप्रमाण आदि विषय हैं । ८-' परिग्गह ' शब्द पर परिग्रह के दो भेद, मूर्च्छापरिग्रह आदि अनेक भेद द्रष्टव्य हैं । ६- 'परिट्ठवण' शब्द पर परिष्ठापना विधि, पृथ्वीकायपरिष्ठापना, अशुद्ध गृहीत आहार की परिष्ठापना, कालगत - साधु की परिष्ठापनिका इत्यादि अनेक विषय हैं । १०- ' परिणाम' शब्द पर परिणाम की व्युत्पत्ति और अर्थ, जीवाजीव के परिणाम, नैरयिकादिकों का परिणाम विशेष, स्कन्ध और पुद्गलों का परिणामित्व, देवताओं का बाह्यपुद्गलों को ले करके परिणामी होने में सामर्थ्य, पुद्गलपरिणाम, वर्ण गन्ध रस स्पर्श के संस्थान से पुद्गल परिणत होते हैं, पुद्गलों का प्रयोग परिणतहोना, दण्डक, जीव का परिणाम, मूलप्रकृति का महदादिपरिणाम, स्वभावपरिणाम, परिणाम के अनुसार से कर्मबन्ध, आकारबोध और क्रिया के भेद से परिणाम इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं । ११- ' पवजा ' शब्द पर प्रव्रज्या का अर्थ और व्युत्पत्ति, प्रव्रज्या के पर्याय, दीक्षा का तस्व. किससे किसको प्रव्रज्या देना, किस नक्षत्र और किस तिथि में दीक्षा लेनी. दीक्षा में अपेक्ष्य वस्तु, दीक्षा में अनुराग आदि, लोकविरुद्धत्याग, सुन्दरगुरुयोग, समवसरण में विधि, पुष्पपात में दीक्षा, वासक्षेपादिरूप दीक्षासामाचारी, दीक्षा किस प्रकार से देना, चैत्यवन्दन, प्रव्रज्याग्रहण में सूत्र, और उसके पालन में सूत्र, प्रव्रज्या में विधि, गुरु से अपना निवेदन, दीक्षा की प्रशंसा, जिसतरह साधर्मिकों की प्रीति हो वैसा चिह्न धारण करना, दीक्षाफल, प्रव्रजित का आर्यिकाओं के द्वारा वन्दन, प्रत्रजित को ऐसा उपदेश करना जिसमें अन्य भी दीक्षा लेले, परीक्षा करके प्रत्राजन, एकादशप्रतिपन्न श्रावक को दीक्षा देना, पण्डक ( क्लीब ) आदि को दीक्षा नहीं देना इत्यादि अनेक विषय है । १२ - ' पुढवीकाइय' शब्द पर पृथिवीकायिक की वक्तव्यता स्थित है । १३- ' पोग्गल ' शब्द पर पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, पुद्गल का लक्षण, पुद्गल भिदुरधर्मवाले हैं, परमाणु का पुल से अन्तर इत्यादि विषय देखने के योग्य हैं । १४-' बन्ध' शब्द पर बन्धमोक्षसिद्धि, बन्ध के भेद, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध, प्रेमद्वेषबन्ध, अनुभागबन्ध, बन्ध में मोदक का दृष्टान्त, ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध इत्यादि अनेक बातें हैं । १५ - ' भरह ' शब्द पर भरत वर्ष का स्वरूपनिरूपण, दक्षिणार्द्ध भरत का निरूपण, और वहाँ के मनुष्यों का स्वरूप, भरत के सीमाकारी वैताढ्य गिरि का स्थाननिर्देश, और इसके गुहाद्वय का निरूपण, तथा श्रेणि और कूटों का निरूपण, उत्तरार्द्ध भरत का निरूपण, भरत इस नाम पड़ने का कारण, तदनन्तर राजा भरत की कथा है । १६- ' भावणा ' शब्द पर भावना का निर्वाचन, प्रशस्ताप्रशस्त भावना का निरूपण, मैत्र्यादि भावनाओं के चार भेद, सद्भावना से भावित पुरुष को जो होता है उसका निरूपण इत्यादि विषय आये हैं । पञ्चम जाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली - 94 पुढविचंद, ' ' फासिंदिय, ' 'पापरीसह, पउम सेह, ' 'पउमावई, '' पउमसिरी, ' ' पउमभद्द, ' 'पउमद्दह, 94 बंधुमई, ''भद्द, भद्दणंदिन्, ' 'भरह, ' ' भीमकुमार ' । For Private Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठभागमे भाये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-' मग्ग' शब्द पर द्रव्यस्तव और भावस्तव रूप से मार्ग के दो भेद, मार्ग का निक्षेप, मार्ग के स्वरूप का निरूपण इत्यादि अनेक विचार हैं । २-' मरण' शब्द पर सपराक्रम और अपराक्रम मरण, पादपोपगमनादिकों का संक्षिप्त स्वरूप, भक्तपरिज्ञा, बालमरण, कालद्वार, अकाम मरण और सकाम मरण,विमोक्षाध्ययनोक मरणविधि,मरण के भेद इत्यादि विषय दिये गये हैं। ३-' मल्लि' शब्द पर मन्तिनाथ भगवान की कथा द्रष्टव्य है। ४-'मिच्छत्त' शब्द पर मिथ्यास्व के छ स्थान, मिथ्यात्वप्रतिक्रमण, मिथ्यात्व की निन्दा, मिथ्यात्व का स्वरूप, द्रव्य और भाव से मिध्यात्व के भेद आदि निरूपित हैं। ५-'मेहुण' शब्द पर मैथुन के निषेध का गंभीर विचार है । ६- मोक्ख' शब्द पर मोक्ष की सिद्धि, निर्वाण की सत्ता है, या नहीं, इसका निरूपण, मोच का कारण ज्ञान और क्रिया है, धर्म का फल मोक्ष है, मोक्ष पर साइख्य और नैयायिकों का मत, मोक्ष पर विशेष विचार, मोच पर वेदान्तियों के मत का निरूपण और खण्डन. स्त्री की मोक्षसिद्धि मोक्ष का उपाय इत्यादि विषय हैं। ७-'रोहरण' शब्द पर रजोहरण शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति, रजोहरण का प्रमाण, मांसचचुवाले मनुष्यों को मूक्ष्म जीव दिखाई नहीं दे सकते इसलिये उनको जीवदयार्थ रजोहरण धारण करना चाहिये, रजोहरण की दशा (किनारी या अग्रभाग) सूक्ष्म नहीं करना चाहिये, रजोहरण के धारण करने का क्रम और नियम, अनिमृष्ट रजोहरण प्रहण नहीं करना चाहिये इत्यादि विषय देखने के योग्य है। -'राइभोयण' शब्द पर रात्रिभोजन का त्याग, रात्रिभोजन करने वाला अनुद्घातिक होता है, रात्रिभोजन के चार प्रकार, रास्ते में रात्रिको आहार लेने का विचार,कैसा पाहार रात्रि में रक्खा जा सकता है इसका विवेक,राजा से द्वेष होने पर रात्रि को भी आहार लेने में दोषाभाव, रात्रि में उद्गार आने पर उगिरण करने में दोष, रात्रिभोजन प्रतिगृहीत हो तो परिष्ठापना करना, रात्रिभोजन के प्रायश्चित्त, औषधि के रात्रि में लेने का विचार इत्यादि अनेक विषय हैं। 8-'रुद्दज्माण' शब्द पर रौद्रध्यान का स्वरूप, और उसके चार भेद,रौद्रध्यानी के चिह्न आदि अनेक विषय है। १० 'लेस्सा' शब्द पर लेश्या के भेद, लेश्याके अर्थ, आठ लेश्याओं का अल्पबहुत्व, देवविषयक अल्पबहुत्व, कौन लेश्या कितने ज्ञानों मे मिलती है, कौन लेश्या किस वर्ण से साधित होती है, मनुष्यों की लेश्या, लेश्याओं में गुणस्थानक, धर्मध्यनियों की लेश्या आदि विषय हैं । ११-'लोग'शब्द पर लोक शब्द का अर्थ और व्युत्पत्ति,लोक का लवण,लोक का महत्व,लोक का संस्थान आदि विषय हैं। १२-'वत्थ' शब्द पर लिखा है कि कितनी दूर तक वख के वास्ते जाना, कितनी प्रतिमा से वस्त्र का गवेषण करना, याचा वस्त्र और निमन्त्रण वस्त्र की यात्रा पर विचार. निग्रन्थिों के वस्त्र लेने का प्रकार, चातुर्मास्य में वख लेने पर विचार, प्राचार्य की अनुज्ञा से ही साधू अथवा साध्वी को वस्त्र लेना चाहिये, वस्त्र का प्रमाण (फटे) वस्त्र लेने की अनुज्ञा, वस्त्रों के रँगने का निषेध, वस्त्र के सीने पर विचार, अन्ययथिक और पार्श्वस्थादि कों को वख देने का निषेध, वस्त्र को यत्न से रखना जिससे विकलेन्द्रियों का घात न हो. वो के धोने क चार्य के मलिन वस्त्रों के धोने की अनुज्ञा इत्यादि विशेष विचार हैं। १३-' वसहि' शब्द पर किस प्रकार के उपाश्रय में रहना चाहिये इसका निरूपण, उपाश्रय के उद्गमादि दोषों का निरूपण, भिक्ष के वास्ते असंयत उपाश्रय वनावे, प्रविधि से उपाश्रय के प्रमार्जन में दोष. जहाँ गृहप का आहार करता है वहां नहीं रहना, सस्त्रीक उपाश्रय में नहीं रहना, रुग्ण साधु की प्रतिक्रिया, जहां गृहिणी मेथुन की वाञ्छा करे उस गृहपति के गृह में नहीं वसना, गृहपति के घर में वसने के दोष, प्रतिबद्ध शय्या में वमने के दोष जिममें घरवाला भोजन बनावे वहां नहीं रहना, और जहां पर घर का मालिक काष्ठ फाड़े या अग्नि जलावे वहां नहीं रहना, जहाँ पर साधर्मिक निरन्तर आते हों वहां नहीं रहना, कार्यवश से चरक और कार्पटिकों के साथ वसने में विधि, के याचन का प्रकार, जहां पर गृहपति के मनुष्य कलह करते हों या अभ्यङ्ग ( मर्दन) करते हों वहां नहीं रहना, कब कहां कितना वास करना इसका नियम, जहां राजा हो उस उपाश्रय मे वसने का निषेध, साध्वियों की वसति में साधु के जाने का निषेध इत्यादि विषय हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४-'विजय' शब्द पर विजय की विशेषवक्तव्या देखना चाहिये । १५-' विनय' शब्द पर विनय के पाँच ५ भेद और सात ७ भेद, विनयमूलक धर्म की सिद्धि, गुरु के निकट विनय की आवश्यकता, आर्यिका के विनय इत्यादि विस्तृत विषय देखने के योग्य हैं। १६ 'विमान' शब्द पर विमानों की संख्या, और विमानों का मान, विमानों का संस्थान,विमानों के वर्ण,विमानों की प्रभा , गन्ध, स्पर्श, और महत्व प्रादि देखने के योग्य हैं। १७-'विहार' शब्द पर प्राचार्य और उपाध्याय के एकाकी विहार करने का निषेध, किनके साथ विहार करना और किनके साथ नहीं करना इसका निरूपण, वर्षाकाल में या वर्षा में विहार करने का निषेध, अशिवादि में भी बिहार करना, वर्षा की समाप्ति में विहार करना, मार्ग में युगमात्र देखते हुए जाना चाहिये, नदी के पार जाने में विधि, प्राचार्य के साथ जाते हुए साधू को विधि, साधुओं का और साधियों का रात्रि में या विकाल में विहार करने का विचार इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। १०-'वीर' शब्द पर वीरशब्द की व्युत्पत्ति, और कथा देखना चाहिये। ___षष्ठ नाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'मनि' 'महापारिकतर' 'मुणिसुब्बय' 'मूलदत्ता' 'मूलसिरी' 'मेहघोस' 'मेहपुर ' 'मेहमुह ' 'मेहरिपुत्त' 'रहणमि' 'रोहिणी' 'रोहिणेयचोर' बद्धमाणमूरि' 'वररुइ' वराहमिहिर' 'वरुण' 'ववहारकुसल' 'वाणारसी' 'विजइंदररि' विजयकुमार' 'विजयघासे 'विजयचंद' 'विजयतिलकसरि' 'विजयसेट्ठि' 'विजयसेण' 'विणयंधर' 'बिसेसएणु' 'वीर'। सप्तम नाग में माये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१-'संथार' शब्द पर संस्तार का विचार है । 'संबर' शब्द पर सम्बर का निरूपण है । 'संसार' शब्द पर संसार की असार दशा दिखाई गई है। २- सक' शब्द पर शक की वृद्धि और स्थान, विकुर्वणा, और पूर्वभव, शक्र का विमान, भौर शक किस भाषा को बोलते हैं इसका निरूपण और शक की सामर्थ्य प्रादि वर्णित है। ३- सज्झाय' शब्द पर स्वाध्याय का स्वरूप, स्वाध्यायकाल, स्वाध्यायविधि, स्वाध्याय के गुण, स्वाध्याय के फल इत्यादि विषय हैं, तथा 'सत्तभंगी' शब्द पर सप्तभङ्गी का विचार है। ४-'सह' शब्द पर शब्द का निर्वचन, नामस्थापनादि भेद से चार भेद, बौद्धों के अपोहवाद का खण्डन, नित्यानित्य विचार, और शब्द का पौद्गलिकत्व, शब्द के दश भेद, मनोज्ञ शब्दों के सुनने का निषेध, शब्द के माकाश गुणत्व का खण्डन इत्यादि विषय हैं। ५-'सावय' शब्द पर श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ, श्रावक के लक्षण श्रावक का सामान्य कर्त्तव्य, निवासविधि, श्रावक की दिनचर्या, श्रावक के २१ एकविंशति गुण इत्यादि विषय हैं। ६-' हिंसा' शब्द पर हिंसा का स्वरूप, वैदिक हिंसा का खण्डन, षड्जीवनिकायों की हिंसा का निषेध, जिनमन्दिर बनवाने में प्राते हुए दोष का परिहार इत्यादि अनेक विषय हैं। ७ -' हेउ' शब्द पर हेतु के प्रयोगप्रकार, कारक और ज्ञापक रूप से हेतु के दो भेद इत्यादि विषय द्रष्टव्य हैं। सप्तम नाग में जिन जिन शब्दों पर कथा या उपकथायें आई हुई हैं उनकी संक्षिप्त नामावली'संखपुर' संजय ' 'संतिदास' 'संतिविजय' 'सकह ' 'सत्त' 'समुद्दपाल' 'सयंभूदत्त' 'सावत्थी' 'सावयगुण' 'सिंहगिरि ' ' सीलंगायरिय' 'सीह ' ' सुकण्हा' 'सुक' 'सुग्गीव ' ' सुजसिरी' 'सुमित्र' 'सुट्ठिय' 'सुणंद ' 'सुणक्खत्त' 'सुदंसण' 'सुदक्खिण' 'सुपासा' 'सुप्पभ' 'सुभद्द' 'सुभूम' 'सुमंगल' 'सुमंगला' 'सुधय' 'सूर' 'सेणिय'' सोमचंद' ' सोमा' 'हरिएस''हरिभद्द'' इत्यादि शब्दों पर कथाएँ द्रष्टव्य हैं। - :0- इस तरह से सातो भागों की यह अत्यन्त संक्षिप्त सूची समझना चाहिये, विस्तार तो ग्रन्थ से ही मालूम होगा क्योंकि भूमिका में विशेष विस्तार करके पाठकों का समय व्यर्थ नष्ट करना है। . Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रकार से ककार तक शब्दों के अन्तर्गत () कोष्ठक में आये हुए शब्दों की अकारादिक्रम से सूचीअर-अदि-अइति-अदिति। अइसंधाण-अतिसंधाण । | अगारिय-रंगारिय-अंगालिय-शंगात्रिय । अदिश्र-अहंदिय। असंधाणपर-अतिसंधाणपर। अंगुअ-गुन। अहकंत-प्रतिकत। अइसंपत्रोग-प्रतिसंपओग। अंगुलि-अंगुली। अश्कत-अतिकता अश्सकणा-अतिसक्कणा। अंगुलिज्जग-भंगुलेज्जग। अश्कंतजोधण-अतिकंतजोधण। अश्सय-अतिसय । अंगुलिविज्जा-अंगुलीविज्जा । कंतपच्चक्खाण-अतिकंतपच्चक्लाण। अइसयणाणि-प्रतिसयणाणि । अंचिन--अंचित। अश्गत -अश्गय । अश्सयमईयकाल-प्रतिसयमईयकाल । अंचिअरिजिय-अंचियरिनिय । अश्त-अति-अतीत-अश्य-अईय-अतीय। अश्साइ-अतिसाद। अंजणगिरि-अंजणागिरि । भश्तका--अईतका--प्रतीतका--प्रया- अश्सीय-अतिसीय। अंजलि-अंजली। अईयका-अतीयका। अश्नुहुम-अतिसुहुम। अंतक--अंतग। भश्तपच्चक्खाण-प्रतिपच्चक्खाण- अश्सेस--अनिसेस। अंतकर-अंतगर। प्रतीतपच्चक्खाण-अश्यपच्चक्वाण-अहि-अतिहि । अंतकरजूमि-अंतगडभूमि। अश्यपञ्चक्खाण-अतीयपश्चक्वाण। | अशहपूना-अतिहिपूना । अंतगत--अंतगय । इताण-अतिताण-अश्याण-अतियाण। अहिबल-अतिहिबल । अंतद्धाणं!-अंतहाणिया। अश्ताणकहा--अतिताणकहा--प्रायाणक-| अहिम-अतिहिम। अंतरकप्प-अंतराकप्प। हा-अतियाणकहा। अहिवणीमग-अतिहिवणीमग। अंतरणई-अंतरणदी। इताणगिह-अतिताणगिह-अश्याणगिढ़-| अइहिसंविभाग-प्रतिहिसंविभाग। अंतरदीवन-अंतरदीवय। ___ अतियाणगिह। अईव-अतिव। अंतराश्य--अंतराय । अयाणिलि-अतियाणिलि-अश्ताणिम्-ि | अउप-अउय। अंतरिक्ख-अंतनिक्ख। अतिताणिछि। अउल-अतुल। अंतरिक्खजाय-अतिलिबजाय । अश्ताणागययाण-अईताणागययाण- अंकधर--अंकहर। अंतरिक्षपमिवएण-अंतशिक्खपमिवष्ठ। अतीताणागययाण-अइयाणागयमाण-| अंकि-अंकिय। अंतारक्वपासणाह-अंतविक्तपासणाहर अईयाणागयमाण-प्रतीयाणागयमाण || अंगसि-अंगरिसि। अंतरिक्खोदय-अंतलिक्खोदय । अश्मुंतय-अश्मुत्तय। अंगच्छेद-अंगच्छय। श्रतावेह-अंतावई । अइयात अइयाय । अंगण-अङ्गण । अंतिअ--अंतिय। भश्यार-अईयार-आतियार-प्रतीयार। | अंगसुहफरिस-अंगसुहफासिय । अंतेउर--अंतपुर। अश्रत्तकंबलसिला-अतिरत्तकंबलसिला।| अंगार-इंगार-अंगाल-इंगान। अंदोलण-अंदोखण । अहरावण-एरावण। अंगारकट्टिणी-इंगारकट्टिणी-अंगालकट्टि- अंधकार--अंधयार। अरित्त-अतिरिक्त। णी-इंगानकट्टिणी। अंधकारपक्ख-अंधयारपक्ख । भारिससिज्जासणिय-अतिरित्तसिज्जास-अंगारकम्म-इंगारकम्म-अंगालकम्म- । | अंधिल्लग-अंधल्लग। णिय। इंगालकम्म । अंबम-अम्मड। अरेग-अतिरेग। अंगारकारिया-दंगारकारिया-अंगाशकारि- अंबमालग-अंवदानग। अइरेगसंठिय-अतिरेगसंग्यि । या-इंगालकारिया। अंबरिस-अंबरीस। अहरेण-अचिरेण । अंगारग-इंगारग-अंगालग-दंगालग। अंबरिस--अंबरीस--अंबरिसि-अंबरीसि । अइरोववएणग--अचिरोववएणग। अंगारमाह-इंगारमाह-अंगालमाइ-अंगा-| अंबिधा-अंबिया। अश्लोसुय-अतिलोलुय। रदाह-अंगाबदाह-रंगारदाह-रंगाबमा-| अंसगय--अंसागय। अश्वश्त्ता-अतिवात्ता। ह-रंगाबदाइ । प्रकइ-अकति। अहवाइन्-अतिवाइनु-भश्वातिन-प्रति- भंगारपतावणा-इंगारपतावणा-अंगालप- अकइसंचिय-अकतिसंचिय। वातिन् । तावणा-इंगालपतावणा। अकम्हा-प्रकम्मा। अहवाएमाण-अतिवाएमाण । अंगारमद्दग--इंगारमहग-अंगालमद्दग-- अकम्हाकिरिया-अकम्माकिरिया। अश्वाय-अतिवाय। गालमांग। अकम्हादंग-अकम्मादंड। अश्वाड-अतिवाहरू। अंगाररासि-इंगाररासि अंगालरासि, ई- अकम्हादंगवत्तिय-अकम्मादम्वत्तिय । अहविज-अतिविज। __ गासरासि। अकम्हाजय-अफम्माजय। अइविसय-प्रतिबिसय । अंगारवई-शंगारवई। अकालसज्जायकर-प्रकाझसज्झायकाअविसाया-अतिविसाया। अंगारसहस्स-इंगारसहस्स--अंगालसह- रिन् । अइविसाल-अतिविसान। __ स्स-इंगालसहस्स। अकिरियवाइ-किरियावा। अश्वुद्धि-अतिदुति। अंगालसाखिय-इंगालसोहिय । अकुओभय--अकुतोजय । असंकिलेस--अतिसंकिखस । अंगारायतण-दंगारायतण-अंगासायतण।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अकूर-अक्कर। अणागतकाल-प्रणागयकाल। अएणात-प्राणाय। अक्केज्ज-अक्केय। प्रणागतकानग्गहण-अणागथकानग्गहण! प्ररणातउञ्छ-एणायनन्छ। अकोसपरिसह-अकोसपरीसह । अरिणतय-अणिउँतय! एणातचरय-अण्णायचरय । अकोसपरिसहविजय-अकोसपरीसहावि- अणिज्जमाण-अहिज्जमाण | एणादिस-अन्नादिस-एणारिसजय। अणिजमाणमग्ग-अमिज्जमा एमग । अन्नारिस। अक्खित्त-अक्खत्ता अणिदा-अणिया। अगरण-अन्नुराण-अण्णुन-अन्नुन्न । अक्खीरमधुसपिय-अक्खीरमहुसप्पिय। अणिदाण-अणियाण । अतारिस अतालिस। अगत-अगद। अणिदाणनूय-अणियाणनूय । अत्तसंजोग-अप्पसंजोग। अगार-आगार। अणिदाणया-अणियाणया। अत्तहिय-आयहिय। अगारधम्म-प्रागारधम्म। अणियत-अणियय। . प्रतिज्ज-यत्तिय । अग्गाणीअ-अग्गेणीश्र। अणियतचारिण-अणिययचारिण। अत्थादाण-अस्थायाण । अग्गिश्र-अग्गिय । अणियतप्प-अणिययप्प । अत्थिणस्थिप्पवाय-अत्यनस्थिष्पवाय । अग्गेई-अम्गेणी। अणियतवट्टि-आणिययवट्टि । अस्थिर-अथिर । अम्गेतण-अग्गेयण । अणियतवास-अणिययवास। अस्थिरछक-अथिरठक्क । अघुणित-अघुणिय। अणियतवित्ति-अणिययवित्ति। अत्थिरणाम-अधिरणाम । अचंकारियभट्टा अञ्चकारियभट्टा । अणिहुत-अणिहुय। अस्थिरतिग-अधिरतिग। अचरम-प्रचरिम। अणिहुतपरिणाम-अणिहुयपरिणाम । अत्थिरग-अथिरदुग। अचरमंतपएस अचरिमंतपएस । अत्थिरब्बय-अथिरव्वय । अणुगाम-अणुग्गाम। अचरमसमय-अचरिमसमय। अस्थिवाय-अथिवाय। श्रणुजात-अणुजाय। अचरमावट्ट-अचरिमावह। अत्युग्गह-अत्थोवम्गह। अणुएणत-अणु माय। अचल-श्रयल। अत्धुग्गहण-प्रत्थोग्गहण | अणुपरिहारि-अनुपरिहारि। अचवट्ठाण-अयनडाण । अणुपायकिरिया-अणुवायकिरिया। अदंगकुदंडिम-अदंगकोदंडिम । अचलपुर-अयलपुर। असण-अइंसण। अणुपायण-अणुवाय। अचलभाया-अयलभाया। अदत्त-अदिएण। श्रणुपालण-अणुवालण । अचला अयला। अदत्तहारि अदिएणहारि। अतुपालणाकप्प-अणुवालणाकप्प । प्रचलिय-अयलिय। अणुपासणासुद्ध-अणुचालणासुरू। अदत्तादाण-अदिराणादाण। अचुक्ख प्रचोक्ख। अणुप्पदाण-अणुप्पयाण। अदत्तादाणकिरिया-अदिएणादाणकिरिया। अचेल-अचेलग। अणुनाग-अणुभाव। अदत्तादाणवत्तिय-अदिराणादाणवत्तिय । अवेत्रपरिसह-अचेत्रपरीसह । अणुभागबंध-अणुभावबंध। अदत्तादाणविरश्-अदिण्णादाणविर । अच्छतित-अच्छदित । अणुभागबंधठाण-अभावबंधहाण। अदत्तादाणवेरमण-अदिराणादाणरमण । अच्छिंदण-आदिण । अणुभागसंकम-अणुभावसंकम। अदत्तालोयण-अदिएणालोयण । अछिदित्ता-प्राच्छिदित्ता--श्राच्छिदिय- अणुभासणसुरू-अणुभासणासुद्ध । श्रदूरग-अदृरय। अच्छिदिय । श्रद्दगकुमार-अद्दयकुमार। अणुमत-अणुमय । अच्छिदमाण-प्राच्चिदमाण । अणुमुक्क-अणुम्मुक्क। अद्दगपुर अद्दयपुर। अच्चर-अच्छेरग। अणुमायण-अणुमायणा। अहणा-श्रद्दमो। अज्जजीयर-अज्जजीयहर। अणुविम्ग-अणुब्विग्ग। अद्दागपसिण-श्रद्दागपसिन। अपदचिंतण-अपयचिंतण । अणुच्चय-अणुव्वा अद्ध अद्धाण। अट्ठपदपरूवण्या--अट्ठपयपरूवणया। अणुसूयत्ता-अणुस्सुयत्ता। अद्धकप्प-अहाणकप्प। अढिगकडठिय-प्रायकहिय । अणेक्क-अणेग। असकुलव-अशकुमव। अमविवास अवीवास। अरण-अन्न। अहक्खिकडक्ख-अरुच्चिकमक्ख । अणंगकिडा अणंगकीमा । अराणाय-अन्नश्लाय--प्रमागिलाय-श्र अंमिश्करण-अधितिकरण। अणं ठग-अणंतय। न्नगिनाय। अद्धव-अधुव । श्रणक-अरणक्ख। अमनो-श्रमात्तो-अमदो। अदुवबंधिणी-अधुवबंधिणी। अणपज्ज-अगाप्पज्ज । अराणगोत्तिय-अन्नगोतिय । अद्धवसंतकम्म-अधुवसंतकम्म। अणवडियसंठाण-श्रणवद्वितसंठाण । अरणग्गहण-अन्नग्गहण । अवसकम्मिया-अधुवसम्मिया अरणविक्खा-अणवेक्खा। अहाराण-अन्ना-एणन्न-अम्मन्न । अद्धवसत्तागा-अधुवसत्तागा। अणहिलपारगणयर-अणहिलवाम्गणयर, थराणतर-अन्नतर-अप्पयर-अन्नयर । श्रद्धवसाहण-अधुवसाहण । प्रणाइजवयणपच्चायाय-अणाएजवयण- एणहा-अन्नहा-अएणह-अन्नह । श्रद्धयोदया-अधुवादया। पञ्चायाय। अण्णाश्स्-अन्नाइस्। अधम-अहम । प्रणागत-प्रणागय । अएणाणिय-अन्नाणिय। अधम्म-श्रहम्म। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) प्रधम्मक्खाइ-अदम्मक्खा। अपचन-अप्पचक्न । प्रपत्थण--अप्पत्यण। प्रधम्मजुत्त-बहम्मत्त । अपञ्चक्खाण-अप्पच्चक्खाण। अपत्थिय-अप्पस्थिय । प्रधम्मस्थिकाय-महम्मत्थिकाय । अपच्चक्वाणकिरिया-अप्पच्चक्वाणकि- अपत्थियपत्थय-अप्पत्थिय पत्थय-अपस्थि. भधम्मदाण-भहम्मदाण। रिया। यपत्थिय-अप्पत्थियपत्थिय । अधम्मदार-अहम्मदार। अपच्यत्राणि-अप्पचक्वाणि । अपद-अपय। अधम्मपास-महम्मपक्व । अपच्चक्षाय-अप्पच्चक्खाय। अपदुस्समाण-अप्पदुस्समाण । प्रधम्मपजणण-अहम्मपजणण । अपच्चय-अप्पाय। अपभु-अप्पत्तु। मधम्मपमिमा-अहम्मपडिमा। अपमिफम्म-अप्पमिकम्म। अपमज्जणसीस-अप्पमजणसीन। अधम्मपलज्जण-ब्रहम्मपलज्जण । अपडिकंत-अप्पडित। अपमजित्ता-अप्पमाज्जित्ता। प्रधम्मपलोइ-महम्मपनो। अपमिचक्क-अप्पडितक। भपमज्जिय-अप्पमज्जिय। अधम्मराइ-अहम्मरा। पमिएण-अप्पमिएण। अपमज्जियचारि-अप्पमाजियचारि। अधम्मरुड़-महम्मरु। अपविभंत-अप्पमियमंत। अपमाजियपुप्पमज्जियउच्चारपासवण धधम्मसमुदायार-अहम्मसमुदायार। अपमिबद्ध-अप्पडिबद्ध। भूमि-अप्पमस्जियदुप्पमज्जियउच्चार अधरमसीलसमुदायार-अहम्मसीनसमुः| अपरिबद्धया-अप्पमियद्धया। पासवणनमि। दायार। अपडिबझविहार-अप्पमिवरूविहार। अपज्जियदुप्पमस्जियसिज्जासंथार-प्रअधम्माणुय-महम्माणुय । अपमिबुज्झमाण-अप्पडिबुज्जमाण । प्पमजियदुष्णमजियसिज्जासंथार। अधम्मिजोय-महम्मिजोय। मपमियार-अप्पडियार। अपमत्त-अप्पमत्त । अम्मिटु-अहम्मि। अपमिरुव-अप्पभिरूव। भपमत्तसंजय-अप्पमत्तसंजय । अभिमय-अहम्मिय। अपमिन्नक-अप्पमिलद्ध। अपमत्तसंजयगुगाहाण-अप्पमतसंजय अधर-अहर। अपमिद्धसम्मत्तरयणपमिलभ-अप्पमि गुण्ट्ठाण। अधरगमण-अहरगमण । सरुसमचरयणपमिलंभ । अपमाण-अप्पमाण। अधरिम-अहरिग। अपमिलेस्स-अप्पमिलस्स। अपमाणभो-अप्पमाणभो। अधरी-अहरी। अपमिलेहण-अप्पमिलेहण । अपमाय-अप्पमाय । अधरीलोह-प्रहरीलोछ । अपमिलेहणासील-अप्पमिलेहणाशील।। अपमायपडिहा-अप्पमायपष्टिलेहा। अधरुत-बहरुमा अपडिलेहिय-अप्पमिवेहिय । अपमायभावणा-अप्पमायजावणा। अधव-अहव-अधवा-हवा । अपमिलेहि यदुप्पडिलेहियउच्चारपासवण| अपमायबुझिजणगत्तण-अप्पमायबुकिज अधि-अदि। भूमि-अप्पडिलडियदुप्पमिलेहियनचा- जगत्तण। अधिश्-अहिह। रपासवणभूमि। अपमायपडिसवणा-अप्पमायपमिसवणा। अधिग-अहिग। अपमिटेहियपुप्पमिलहियसिज्जासंथार अपमेय-अप्पमय । भधिगम-अहिंगम। य-अप्पडिलहियप्पमिलेहियसिजासं. अपराश्त-अपराइय। अधिगमरुइ-अनिगम-अहिंगमरक। थारय। परिसाइ-अपरिस्सा-अपरिसावि-एमधिगमसम्मदसण-अभिगमसम्मदसण || अपमिलेहियपणग-अप्पडिलहिगपणग। रिस्सावि । मधिगय-अहिंगय। अपमिलोमया-अप्पमिलोमया। अपलीण-अप्पलीण। अधिगरण अहिगरण । अपडिवाइ-अप्पमिवाद । अपवत्तण-अप्पवत्तण । अधिगरणकिरिया-अहिगरणकिरिया। | अपमिसंलीण-अप्पमिसंलीण । अपबित्त-अप्पवित्त। भधिगरणिया-अहिंगरणिया-माहिगरणि- अपमिसुणेत्ता-अप्पीममुणेत्ता । अपवित्ति-अप्पवित्ति। या-प्राधिगरणिया। अपडिड-अप्पडिड। अपसंसणिज्ज-अप्पसंसणिज्ज। अधिगरणी-अहिगरणी। | अपडिहणंत-अप्पमिहणंत । अपसझ-अप्पसज्झ। अधिगार अहिगार। अपडिहय-अप्पडिहय । अपसज्जपुरिसाणुग-अप्पसज्जपुरिसाणुग। अधिटुंत-अहिटुंत । अपमिहयग-अप्पडिहयगई। अपसत्य-अप्पसत्था अधिधावण-अहिछत्रण। अपडिहयपकचक्खायपावकम्म-अप्पडि- | अपि-प्रवि। अधिडत्ता-अहितॄश्त्ता। हयपच्चक्खायपावकम्म । अपीडणया-अपीक्षणया। अधिमासग-अदिमासग । अपमिहयबल-अप्पमिहयबल। अपुस्सुय-अप्पुस्सय । अधिमुत्ति-अहिमुत्ति। अपमिहयवरणाणदसणधर-अप्पमिहयच | अप्पज्ज-अप्पा । भधिव-अहिवश्-अधिवति-अहियति । रणाणदसणधर। अप्पाबहुय-अप्पाबदुग। अधेकम्म-अहेकम्म। अपडिहयसासण-अप्पडिहयसासण।। | अप्फालिय-अफालिय। अघोदि-अहोहि। अपडिहारय-अप्पमिहारय । अप्फोबा-अप्फोया। अपहाण-अप्पइहाण । अपडीकार अप्पमीकार। अप्फोमिश्र-अप्फोमिह । अपहिय-अप्पट्टिय। अपमुप्पएण-अप्पमुप्पएण । अप्फोव अफोव । अपश्यपसरियत्त-अप्पश्यपसरियत्त। | अपत्तभूमिग-अपत्तनृमिव । अबहुस्सुय-अबहुस्सुत। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्भंगित्ता-अभंगेत्ता । असंथरमाण-असंथरंत । भाएमग-आएसया अम्भंतर-अभितर। असाधारण-असाहारण। पाकि-मागई। अग्नंतरोसचित्तकम्म-अम्भितरोसअसाय-असात। आगंतुय-आगंतुग। चित्तकम्म। असायण-अस्सायण । प्रागमि--श्रागामि । अग्नंतरकरण-अम्नितरकरण । असायवेयांणज-सायावेयणिज्ज। आगमिस्स-आगमिस्सस् । अभंतरग-अम्भितरग। असिय-असित। प्रागमेत्ता-भागम्म। अम्भतरगणिज-भितरवाणिज्ज । असुज असुह। आगासफलिह आगासफालिय। अनंतरतव-अभितरतव। असुभकम्मबहुल-असुहकम्मबहुस। आगासफालियसरिसप्पद-भागासफलि अम्भतरनो-अमितरतो। असुनकिरियादिगहिय-असुहकिरियादि. हसरिसप्पह। अब्भतरदेवसिय-अम्भितरदेवसिय । रहिय। आगासफालियामय-धागासफलिहामय। अभंतरपरिस-अग्नितरपरिस । असुभझवसाण-असुहज्भवसाण । आघायण-आघयण। अग्नंतरपाणीय-प्रभिनरपाणीय । असुभणाम-असुहणाम। अाजग-भाजय। अब्जंतरपुक्खरद्ध-अजितरपुक्खरद्ध । असुभतरंमुत्सरणप्पाय-असुहतरंकुत्तरण-आजम्मसुरहिपत्त-प्रायम्मसुरहिपत्त। अभंतरपुप्फफल-अभितरपुप्फफल । प्पाय। आजवंजवीनाव-प्रायवंजवीभाव । अन्तरबाहरिय-भितरबाहरिय । असुनत्त-असुहत्त। आजाइ-आया। अभंतरय-अनितरय।। असुनदुक्ख नागि-असुहक्खभागि । आढग-प्राढय। अन्नंतरसद्धि अभिनरलद्धि । असुभविवाग-असुहविवाग । माढत्त-प्रारक। अनंतरसंवुक्का-अम्भितरसबुक्का । असुभा-असुहा। प्राणमणी-प्राणवणी। अनंतरसगाईया-अजितरसगडुद्धिया। असुभाणुप्पेढा-असुहागुप्पेहा। आणयणप्पोग-प्राणवणप्पभोग । अनंतरोहि-अम्भितरोहि। अहत-अहया प्राणाकारि-प्राणागारि। अम्भतरिया-अभितरिया । अहरु-अहरो। आणाजोग-आणाजोय । अभविय-अभव्य । अहाकम-अहागडा प्राणिय-प्राणीय। अनिव-अभीड़। अहिआइ-त्राहिबाद। प्राणुपुयसुजाय-प्राणुपुन्विसुजाय । अभिएणाय अभिजाणिय। अहिगरणकर-अहिंगरणकम। आतंक-श्रायंका अभिसंग-अभिस्संग। अहिगार-श्रहियार। आतंकदंसि-भायंकदंसि । अभिसेगड-अनिसयभंड। अहिवंघ-अहिवंत। आतंकविवश्चास-आयंकविवच्चास। अभिसगसभा-अभिसयसभा। ॥ या॥ आतंकसंपयोगसंपउत्त-आयंकसंपभोगसंअन्निहित-अनिहिय। गसंउत्त। श्राअ-आमश्र। अमगघाय-अमाघाय।, आमरिस-अंसअरिस। आतंकि-श्रायकि। अमावसा-अमावासा। आइअंतियमरण-श्रादिप्रतियमरण । अातंचणिया-श्रायंचणिया। अभिज्ज-अमेज। प्रायंतकर-अातंतकर। आरक्खग-अाश्क्खय। अमिझ-अमेझ। अमिझपुगण-अमेज्मपुराण । प्राइज्ज-प्रादेज। आतंतम-मायतम। प्राज्जमाण-आदेजमाण । अमिझाय-अमज्झमय । आतंदम-श्रायंदम। आतंव-आयंव। अमिकरस-अमेझरस । आइज्जवक-आदेज्जयक। श्राश्ज्जवयण-पादेउजवयण । आतंबज्झयण-भायंवमयण । अभिज्झसंय-अमेझसभूय । आज्जवयणया-प्रादेजवयणया। आतंभरि-भायंभरि। अमिझकर अमेज्मुक्कर। प्राध्यावण-आदियावण । प्रातकम्म--प्रायकम्म। अयपाद-अयपाया आईण-पात्तीण-श्रादीण । आतगवेसय-प्रायगवेसय । अयसीवरण-अयसिवम । आईणभोर आदीणभो। आतगय प्रायगय। अरइपरिसह-अरश्परीसह । आईणवित्ति-आदीणवित्ति । प्रातगुत्त-भायगुत्त। अरपरिमहविजय-अरइपरीसहविजय। श्राइणिय-प्रादीणिय। प्रातच्चाइ-आयच्चाई। अलाभ-अलाह। प्रानचणा-अाउटणा। श्रातछन्वाइ-प्रायनटुवा । अनाभपरिसह-प्रलाह परिसह अनाभपप्राउकाय-आनकाय । प्रातजन्म-आयजम्म । रीसह-अलाहपरीसह । आउस-आनस्स। आतजस-प्रायजस । मलोग-अत्राय। आपज्ज-आदेज्ज। श्रातजोगि-प्रायजोगि। अवायाणुप्पेढा-अवायाणु वेहा! प्रारजवक-श्रादेज्जवक्क । आतजाणि-प्रायजोणि। अविरइवाय-अविरइयवाय । आपज्जणाम-श्रादेज्जपाम । आतज्माण-पायज्माण । अधिसंवायण जोग-अविसंवायणाजोग। भाएज्जवयण-आदेज्जवयण । आतछ-श्रायट्र-अप्पण? । अध्यत्तब्यगसंचिय-अवत्तबगसंचिय। आरज्जवयणया-आदेउजवयणया । आताह-आया। भसाणाहसंचय-असंनिहिसंचय । । आएस-आदेस। | श्रातणाण-श्रायणाण । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) प्रातनिटु-आयनित। प्रातसंजमोवाय-प्रायसंजमोवाय। भादंसतलोवम-प्रायंसतोषम-आदरिप्रातनिप्फम्य भायनिप्फेय। आतसंवेयण-मायसंवेयण । । सतलोवम-प्रादसतलोवम । प्रातणीण प्रायणीण । आतसंवेयणिज्ज-प्रायसंवेयणिज्ज। भादसमंगल-आयसमंगल-भादरिसमंप्रातराण-आयपण। प्रातसक्खि-आगसक्खि । मस-आदसममा । भाततंत-आयतंत। मातअप्पसत्तम-प्रायअप्पसत्तम । प्रादंसमुह-प्रायंसमुह-श्रादरिसमुह-माप्राततंतकर-प्रायतंतकर । आतसनि-श्रायसत्ति। दसमुह । भाततत्त-मायतस। प्रातसमप्पण-प्रायसमप्पण । आदालवि-प्रायंसलिवि-श्रादरिस. प्राततत्तप्पगास-भायतत्तप्पगास । प्रातसमया-पायसमया । लिवि-पादस्सलिवि। प्राततरग-प्रायतरग। श्रातसमुन्भव-प्रायसमुभव । प्रादर-प्रायर। प्राततुला-बायतुला । आतसमोयार-प्रायसमोयार । आदरण-प्रायरण। श्रातत्त-प्रायत्त । आतसरीरखंत्तोगाढं-आयसरिखेत्तो- प्रादरणया-आयरणया। श्रातदंग-प्रायदंग। आदरणिज्जा-पायरणिज्जा। प्रातदंगसमायार-प्रायदंगसमाचार । प्रातसाय-आयसाय। आदरतर-प्रायरतर । प्रातदरिस-आयरिस । प्रातसाया गुगामि-प्रायसायाशुगामि । भादराश्जुत्त-आयराइजुत्त । प्रातहाहि-आयोहि। श्रातसिद्ध-बायसिक। भादाण-आयाण । प्रातपएस-यायपएस । आतसुह-प्रायसुह । आदाणअहि--प्रायाणअछि। पातपरिणा-आयपरिण। भातसाहि-प्रायसोहि । प्रादाणगुत्त-आयाणगुत्त। प्रातपसंसा-पायपसंसा। आतहित-आयहित। आदाणाणक्नवदुगुंछय-आयाणणिक्ने प्रातप्पओग-आयप्पभोग। माता-अप्पा। वगंछय। पातप्पभोगणिवत्तिय-पायप्पनोगणिश्व | आताणुकंपय-प्रायाणु कंपय । प्रादाणनिरुद्ध-आयाणनिरुद्ध । त्तिय। प्राताणुस्सरण-आयाणुस्सरण । आदाणपय-प्रायाणपय । प्रातप्पभ-आयप्पभ । प्राताणुसासण-आयाणुसासण-1 श्रादाणफलिह-प्रायाणफलिह। श्रातप्पमाण-पायप्पमाण । आताधीण-आयाधीण । आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमि--आयाश्रातप्पवाय-पायप्पवाय । आताबग-आयाबग । णभंम्मत्तनिवस्नेवणासमिछ। माताप्पियसंबंधणसंयोग-आयप्पियसंबंध आतावण-आयाबण । आदाणभंम्मत्तनिक्खवणासमिय-आयाणसंयोग। आतावणया-पायावणया । णभंम्मत्तनिक्खेवणासमिय । प्रातवतत्त-श्रायवतत्त। श्रानावणा-पायावणा। श्रादाणनय-आयाणजय । मातवल-प्रायवल। आताबित्तए--आयाबिसए । आदाणनरिय-आयाणभरिय । आतववत्-प्रायववत् । आताबिया-प्रायाविया। आदाण्या--आयाणया। श्रातवाल-श्रायवान। आतावेमाण-प्रायाबेमाण । प्रादाणवंत--आयाणवंत । प्रातवाध-प्रायवोध। प्राताभिणिवेस-आयाभिणिवेस । प्रादाणसोयगडिय-आयाणसोयगहिय । प्रातभाव-प्रायभाव। प्राताभिसित्त-आयाभिसित्त । आदाणिज्ज--प्रायाणिज्ज । प्रातभाववंकणया-प्रायनाववंकणया। आतार-पायार। आदाणिज्जज्झयण-आयाणिज्जज्झयण । प्रातभाववत्तन्वया-पायभाववत्तन्वया। आताराम-भायागम। भादाय-प्रायाय । श्रातनु-आयन। प्रातारामि-आयारामि । आदाहिणपयाहिण-भायाहिणपयाहिए। प्रातरक्ख-आयरक्ख । प्राताव-भायाव । श्रादाहिणपयाहिणा-आयाहिणपयाहिणा। श्रातरक्खा-आयरक्खा। आतावाह-पायावाइ। प्राधमण-ब्राहमण । प्रातरक्खि-प्रायरक्खि । मातासय-प्रायासय । श्राधरिसिय-श्रादरिसिय । थातराक्खय-आयरक्खिय। भाताहम्म-आयाहम्म । प्राधा--श्राहा। प्रातव-प्रायवं। आताहिगरणवत्तिय-प्रायाहिगरणवत्तिय। | प्राधाकम्म-श्राहाकम्म । प्रातवस-आयवस। आताहिगरणि-आयाहिंगरणि । आधाकम्मिय-श्राहाकम्मिय । प्रातवस्स-आयबस्स। आताहिय-प्रायाहिय। प्राधाण-प्राहाण । प्रातवायपत्त-प्रायवायपत्त। आतिण-आतीण । आधाणिय-श्राहाणिय । श्रातवि-श्रायवि। आतीकय-अप्पीकय । प्राधाय-पाहाय। प्रातविज्जा-आयविना। आस-पाताय। श्राधायग--आहायग। प्रातबीरिय-बायबीरिय । आदस-आयस-आदरिस-पादस्स। आधार-आहार। आतविसोहि-प्रायविसोहि । आईसग आयसग-श्रादरिसग-अादसग। श्राधारसत्ति-आहारसत्ति । आतबेयावच्चकर-प्रायवेयावच्चकर। आसघरग-प्रायसघरग आदारसघरग-| श्राधि-प्राहि । प्रातमजम-आयसंजम । श्रादसघरग। प्राधिक्क-आहिक्क। प्रातसंजमपर-आयसंजमपर। | प्रादसतल-प्रायंसतन्त्र । प्राधिगरणिय-श्राहिगरणिय । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरणिया-ब्राहिमरणिया । अधिण्युमादिष्णु । - मादित्य अधिदेवियाहिविय - आधिबंधबंध। आदिमोदय आरिहरख भवेदशियादिवेदिय आधीगड-मादीगड | आगरण-भीगरणआधुनियाहुजिय । मधुव आय आधेय- आहेय । आधेष आहेच्य आधोरण- श्रहोरण । माघोधिय- श्राहोहिय । आप-आ आप श्रावई । माधवधम्म आपगा श्रवगा । आपगंज्ज - भावगेज्ज । अपरुण-आवडण । आपरुव-आवडव । अडिग आवरिग । आय-भावपि । आपण-श्रवण । आपणगि प्रायणमिह । श्रापणवीहि आवणवीहि । आणि श्रावणिग आजिज्ञाश आपण आवरण | आपणपरिहार परिहार आपण सत्ता-श्रावासता । आपस प्राप्त । आपत्ति - श्रवत्ति । श्रापत्ति सुत्त श्रावत्तिसुत । आपदकाल- आवदकाल | आपदंव-छावदेव आपाग-पाय- आवागश्रावाय । आपाड़-श्रावाइ । श्रापाण-श्रावाण । श्रपाणग-श्रावाणग । श्रापाय-आवाय । आपायापायी । (२४) आपाय - आवायण । आपायभद्दय-श्रवायजय । आपायलिया श्राचायलिया। आपालि-श्रावालि । आपालाविय श्रापिताविय । पिंजर-जिर अपमिसन्ति । विजय आि आमेचर आमेगार । अमे-आबेड। आमोडग-आमोक्षय । आप-माप । आयज्ज -प्रायम्ब । आयतकएणायय-आयय करणायय । प्रायतचक्खु आययचक्खु । भयतजीव-आपयोग। भायति श्रायताय । आयनतर- आयतयर । -आयरिश । मारिषद्वारा परिषाण । श्ररियदसि आयरिश्वांस । आरियदिएण आयरियदिएण । श्ररियदेस श्रायरियदेस । श्ररियधम्म- श्रायरियधम्म । आणि सिय-आयपिसिय रिपायरिय आरियध्येय-आयरियाय आयाम-भाचाम । आयारखं श्रायारमंत । आरजश्ता श्रारम्नश्ता । राहग-आराहय । आप मिचग-श्रावमिश्चग | आपपिता-भावविता । पहिय-प्रायर देहव । आपलव- श्रपि । श्रापसरीरअणवस्त्रबत्तिया श्रायसरीर आलुग-आमुय | श्रणवकं स्ववत्तिया । श्राव-जाव । आरि-नारिय आमा- आरोग प्रारुग्गफत्र आरोग्यफल | आग्गयांदिनाथ-आरोमहिनाम आरुग्गबोढिल्लाभाइपत्थणाचित्ततुल-श्रा रोमादिमानापत्थणाि आरुग्गसाहग आरोग्गसाग । भातिवग श्रतीवग । शिवण आलीयण । प्रातिविय भातीचिय । अतिसंग आलिसिंग । यत्थिय समावकमा रामम करंगजारामाराकुलाय लपडमपला गरतरंगवणमयपि श्रावतकूड आवट्टकूम । आवस श्रावट्टण । आयडिया वट्टणपेडिया श्रावतणिज्ज श्रावणिज्ज । भावतय श्रावय । श्रावतायंत आवडायंत । श्रावलि श्रवसी । प्रायद्भियविवाय प्रापयाशिवाय प्राथ तिषिय आवलियपवि श्रावलियापविष्ठ । भावसिषपविभक्ति-सायनवादाभा आयभयचादिरादि आवकम्म वीकम्म । सुरासुरी। ॥६॥ इन्दति । इकड-तिकड इश्कायव्वया इतिकायब्वया । इ-इतिह इइहास इतिहास | इंगिअ - इंगिय । इंगिधमरण- इंगियमरण । इंदकाश्य- दगाइय । इंदियत्यकीपण इंदियत्यचिकोपन वंश उच्छु। तो । इक्खाग - इक्खागु । इस्त्रागकुल इक्खागुकुल | सागभूमि-लागुभूमि । इक्खागराय इक्खागुराय । वंश इक्खुकरण उच्छुकरण । इषखुखंः-उच्छुखंमं । इक्खुगंरिया-चकिया । इधर-उधर । योग। इक्खुजंत-उच्बुजंत | इक्खुमा लग उच्बुडालग | इक्खु पेसिया उच्छु पेसिया । नित्ति चतुभित्ति । खुमेरग- उच्छुमेरग । इक्खुलट्ठि-चच्तुलट्ठि । आवत-श्रावत श्रावड श्रावट्ट । आवडपथावर से डिप सेडियसोत्थिय (सो. पण उषण । परिचय) समाणपखंडमका । रंगजारामाराफुलाचात्रिपड पसागामिया उधवाडिया रनरंगवणलपपडमलयभक्तिसाग उच् चट्टपथावर सेडिप सेडियसोत्थिय (सोका कार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) इच्छामित्तश्च्छामेत्ता शस्थिविलोयण-इत्थीविनोयण । इति-रिखि-शकि। त्थिवेय-पत्थीवेय। शकिअप्पवण-इरिअप्पवण । इथिवेयरण-इत्थीवेयएण। उइओइश्र-उदिओ-उदनोदिन-उदिइमिं-दिमंत। स्थिसंकिसिट्ट-इत्थीसंकिमिछ। ओदिन। इत्तो-दो-श्यो। इत्थिसंग-इत्थीसंग। उइएण-उदिएण। शत्थिनाणमणी-इत्थीाणमणी । इत्थिसंपक-इत्थीसंपक । उश्रणकम्म-उदिएणकम्म । शथिकम्म-इत्थीकम्म। इत्थिसंपरिखुड-इत्थीसंपरिवुन । उहसाबलवाहण-उदिमबलवाहण । इथिकला-श्त्थीकला। हत्यिसंवास-इत्थीसंवास । उममोह-नदिममोह। शत्थिकसेवर-श्थीकलेवर। शत्थिसंसत्त--इत्थीसंसत्त। नमवेय-उदिमावेय। शथिकहा-इत्योकहा। शथिसहा-श्त्यासका। उश्य-उदिय। इत्थिकाम-इत्थीकाम । स्थिसहाव-इत्थीसहाव । वश्यत्यमिय-उदियत्थमिय । इत्थिकामभोग-इत्थीकामभोग। शत्थिसेवा-श्त्थीसेवा। उईण-उदीण। इत्थिगण-त्थीगण । दाणि-श्याणि-श्याए। उईणा-उदीणा। शस्थिगम्भ-इत्थीगन्ज । इंध-चिएह । नईणपाईण-उदीणपाईण ।। इत्थिगुम्म-इत्थीगुम्म । इब्जग-इन्भय। नईणवाय-उदोणवाय। इथिचिंध-इत्थीचिंध। श्मी-इमा-इमिश्रा। ढईत्ता-उदीत्ता। शथिचोरनत्थीचार। इसि-रिसि। नईरण-उदीरण। शथिजण इत्थीजण । शसिदिएण-इसिदत्त। उहरणा-उदीरणा। इस्थिजिय-इत्थीजिय। स्सर-सर। उईरिज्जमाण-उदीरिजमाण । इत्थिट्टाण-श्त्थीगण । श्स्स रकड-ईसरकड। उईरिय-उदीरिय। इत्थिणपुंसग-इत्थीणपुंसग। इस्सरकमवाइ-ईसरकरवाह । रित-उदीरत। इत्थिणामगोयकम्म-इत्थीणामगोयकम्म । इस्सरकारय-ईसरकारय । उबंबर-उबर । शस्थितित्य-श्त्थीतित्य। श्स्सरवाइ-ईसरवाद। उंबरदत्त-उंबरदत्त। इत्थिोस-इत्थीदोस। इस्सरविभू-ईसरविनूह । उउंबरपणग-उंबरपणग। इस्थिपच्छाकड-इत्थीपच्चाकम । इस्सरसरिस-ईसरसरिस । उउंबरपुप्फ-उबरपुष्फ-उउंबरपुप्फु-उंबरशत्थिपएणवणी-श्थीपएणवणी । इस्सरियमय-इस्सरियामय-ईसरियमय पुप्फु। इत्थिपरिएणज्झयण-इत्थीपरिएणज्जयणगईसरियामय। उबरवच-उंबरवश्च । शस्थिपरिणा-इत्थीपरिएणा। इस्सरियसिद्धि-सिरियसिकि। उचंबरीय-चंबरीय। शत्थिपरिसह-इत्थीपरिसह । । इस्सरीकय-ईसरीकय । उउपरियट्ट-ऊऊपरियह। इस्थिपरिसहविजय-श्त्थीपरिसहविजय । ईसि-सिंन्सी। उउसंधि-उऊसंधि। इस्थिपोसय-इत्थीपोसय । इसिउठावलंबि-इसिंउछावलंबि-ईसीउ उंदुर-उंदुरू। शस्थिपुंसलक्खणा-इत्थीपुंसलक्षणा। | मुरुमाला-पुरूमाला। इस्थिन्नाव-श्त्थीभाव। ट्ठावलंबि। ईसितंवच्छिकरणी-सिंतंवच्छिकरणी उक्कटु-लक्किठ। इस्थिभोग-इत्थीभोग। इत्थिमझगय-श्त्थीमज्झगय । उक्खन-उक्खा। ईसीतंवच्छिकरणी। उचिप्रकरण-उचियकरण । शस्थिरज्ज-श्त्थीरज। सितुंग-ईसिंतुंग-ईसीतुंग। ईसिपएणवणिज्ज-सिंपएणवणिज्ज-ईसी उचिअकरणिज्ज-उचियकरणिज्ज । इत्थिरयण-इत्थीरयण । उचिभकिञ्च-उचियकिश्च । पखवणिज्ज। शत्थिराग-इत्थीराग। ईसिपब्जार-इसिपम्भार-ईसीपम्भार । उचिअजोग-उचियजोग । शत्थिरूव-इत्योकव। शथिलक्षण-इत्थीअक्षण । ईसिपम्भारगय-ईसिंपम्भारगय-ईसीप उचिअदिर-उचियट्टिइ। चित्त-उचियत्त । शथिलिंरा-इत्थीलिंग। भारगय। इंसिपम्भारा-ईसिंपाभारा-ईसीपम्भारा। उचिअत्थापायण-उचियत्थापायण । इथिलिंगसिद्ध-इत्थीलिंगसिद्ध । चिअपवित्तिप्पहाण-उचियपवित्तिप्पशथिलिंगसिरकेवलणाण-इत्थीनिंगसि-ईसिपुरोवाय ईसिंपुरोवाय-ईसीपुरोवाय । केवलणाण। इसिमत्त-ईसिंमत्त-ईसीमत्त । इथिव-इत्यीवउ। इसिरहस्स-इंसिरहस्स-ईसीरहस्स। उचिप्राचरण-उचियाचरण । त्धिवयण-इत्थीवयण। ईसिविच्छेयकडुवा-ईसिंविच्छेयकवा चिप्राणुट्ठाण-उचियाणाण । इस्थिवस-इत्थीवस। ईसीविच्छेयकमुषा। उच्च-उच्चन। इथिविग्गह-श्थीविग्गह। इसिलिंदपुप्फपगास-ईसिलिंदपुप्फप्प उच्छण-उच्छाण। इथिविएणवणा-इत्थीविमवणा। गास-ईसीलिंदपुप्फप्पगास-सिलिध-| उच्चूढसररारागह-उत उच्चूढसरीरगिह-उच्छूढसरीरघर । इथिविप्पजह-इत्थीविप्पजह । पुष्फप्पगास-सिलिंधपुप्फप्पगास-ई-| उच्छेद-उच्छेय । इत्यिविपरियासिया-इत्याविपरियासिया।| सालिधपुप्फप्पगास । | उग्जुग-उजुय। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) उज्जुगनूय-उज्जयभूय । उज्जुगया-उज्जुयया। उज्जुगा-उज्जया। उज्जुमश्-रिउम। उज्जुसुत्त-उज्जुसुय। उज्जुसुत्तवयणविच्छेय-उज्जुसुयवयणविच्छेय । उज्जुसुत्तानास-उज्जुसुयानास । उहिश्र उहिय। उदिअदंड-उघ्यिदा उईग-उदंडग। उळूजाणु-उहजाणु। लोग-कुलोय। उलोगविभत्ति-उछलोयविभति।। उम्म-चरण । उएणुइतो-नुन्नुइतो। उण्ट्परिसह-नएहपरीसह-उसिणपरिस. ह-उसिणपरीसह। नगह परियाव-उसिणपरियाव । उराहानितत्त-उपहाहितत्त। उत्तमाथि उत्तमरिकि। उत्तरकुरा-उत्तरकुरु। उत्तरसमा-नुत्तरासमा । उत्तरिज्ज-उत्तरित्र। उत्तरुध-उत्तरुट्ठ। उत्तामण-उत्तालण । उत्ताडिज्जत-उत्तालिग्जंत । उदग-उदय। उदगगभन्दगगम्भ। उदगवेव-दगलेव । उदगसीमय-दगसीमय। उदगहारा-दगहारा। उदयसायर-उदयसागर । उदर-नयर । उदरगंठि-उयरगंगि। उदरत्ताण-नयरत्ताण। उदार-उराल । उद्देसिय-उद्देसिउ। नरुत-नरूय। चम्भिदिन-भिदिय । उम्माद-उम्माय । उम्मादपमाय-उम्मायपमाय । उम्मिवीर-उम्मीवीह। उराल-ओरात्र। उझुग-उलूग। उलुगच्छि-नगच्चि। मलुगपत्तनहुय-नलूगपत्तलहुय । उलुगी-नबूगी। नवएसणा-उवदेसणा। अवक्वश्त्ता-उवक्ताश्त्ता। नवगारण-उवयारण । एगारस-एगारह । उवगारियालयण-उबगारियलयण। एग्णवीस-पगूणतीसा। उवचित-उवचिय। एज-एय। उवट्टण-नव्वट्टण। एजत-पजयंत। उवणविहि-बट्टणविहि। एजणं-एयण। उवट्ठवणा-उवधावणा। एजणा-एयणा । उवटुवणाकप्पिय-उवछावणाकप्पिय । एजमाण-रज्जमाण । नवट्ठवणागहण-उवढाषणागरण । पाणिज्ज-पणेज्ज। उवटवणायरिय-उवछावणायरिय। पणिज्जय-पणेज्जय। उबवणारिह-उवढावणारिह। पण्डि-एताहे। उबवणी-उवट्ठावणी। पत-एय। उबटुवित्तए-उवाविचए-चवट्ठवेत्तए- पतकम्म-एयकम्म। उवढावेत्तए । पतप्पगार-एयप्पगार । उवरिम-उपरिम। एतप्पहाण-पयप्पहाण। नवलीण-नवल्लीण। एतसमायार-एयसमायार। उपवूह-व्यवूहा । एतारिस-प्यारिस-एतारिच्छ-पयारिच्छ। उसभ-उसह । एतारुव-पयारूव। नसभकंठ-उसहकंग। पतावंति-एयावंति। नसभणाराय-नसहणाराय । परिक्ख-एलिक्ख। उसभदत्त-उसहदत्त । पलकक्ख-एलकच्छ। उसभपुर-उसहपुर। पलग-पलय। उसभपुरी-नसहपुरी। एव एवं। बसनसण-उसहसेण । ॥ श्रो॥ उसिणपरिसह-उसिणपरीसह । उसिय-नस्सिय-ऊसिय। ओघसिय-प्रोग्यसिय। ओघ-श्रोत। अोचिश्य-प्रोचिच्च । पई-एया। ओचिइयजोग-प्रोचिच्चजोग । पक्क-एग-एय। प्रोदण-भोयण। एक-एग-एक्काअ-एगश्त्र। भोदणविहि-ओयणविहि । एक-एगइअ-एकश्य-एगइय। प्रोभासण-ओहासण। एकसि-पक्कसिअं-एका -एकश्मा- श्रोभासणभिक्खा-ओहासणनिक्खा। एगया। भोजासमाण-ओहासमाण । पक्को -पगो-एकदो-एक्कत्तो-पगत्तो। ओरसववसमम्यागय-रस्सवलसममाएकमोखहा-एगोखहा। गय। एक्कओणंतय एगोणंतय। भोलि-पोली। एक्कोपमाग-एगोपमाग। ॥क एक्काका-पगोवंका। ॥ एक्कोवत्त-एगोवत्त। कम्गह-कयग्गह। एक्कोसमुवायग-एगोसमुवायग। कश्भवपत्ति-कश्यवपत्ति । एक्कोसहिय-एगोसहिय। . करवपेमगिरितडी-कल्यवपेमगिरिएक्कांगय-एगंगिय। एक्कंत-पगंत। कहअविया-कश्यविया। एक्कंतओ-एगंतो। कविया-करविका। एक्कंतकूम-एगंतकूड। कंकत-कंकय। एगंतचारि-पगंतयारि । कंखापश्रोस-कंखप्परोस । पगचरियापरिसह-एगचरियापरीसह । | कंचण उर-कंचणपुर। एगतर-एगयर। कंची-कंचि। एगता-एगया। कमक- कंग। एगदा-पगया। कंडगगह-कंदुगग। तडी। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंसपत्ती- कंसपाई। कलुसकम्मण-कलुसकम्म । कालोद-कालोय। कक्कोम-करको। कबुसाउलचेय-कलुसाविज्ञचय। किरियारय-किरियरय । कभी-कच्छवी। कल्लुग-कल्लुय । किसल-किसल। कच्छ-कच्छू। कविल्लुय-कवाय। कीयकह-कोयगम। कच्छन्न-कच्छन । कविल्लुयावाय-कबलुयावाय । कुंजग-कुजय। कमजोग-कयजोग। कह-कहं। कुंभगार-कुंजयार। कमि-कमी। कहकहभूय-कहकगभूय । कुविख-कुचि। कमुग-कडय। काऊण-काठणं। कुक्खिाकाम-कुचिकिमि । कम्गतुंबी-कम्यतुंबी। काक-काग। कुक्खिपूर-कुच्चिपर। . कमुगफलदंसंग-ककुयफसदसग। काकंदिय-कागंदिय। कुक्खियणा-कुच्छिवेयणा । कमुगफलविवाग-कमुयफलविवाग। काकंदिया-कागंदिया। कुक्खिसंनुय-कुच्चिसंभृय । कागावली-कणगावलि । काकजंघ-कागजंघ। कुक्खिसंवल-कुच्चिसंवल । कणाद-कणाय । काकजंघा-कागजंघा। कुक्खिसूत्र-कुच्चिसूत्र । कणिश्रार-कमिभार । काकणि-कागणि। कुक्खिहार-कुच्छिहार ! काकणिमसग-कागणिमंसग। कणिक-कणिय। कुवेर-कुबेर । काकणिरयण-कागणिरयण । कुमुअ-कुमुय। कराणधार-कम्पहार। काकणिलक्षण-कागणिलक्षण । कामपालि-कष्मपाली। कुमुश्रवणविवोहग-कुमुयवणविवाहग । काकतालिज्ज-कागतासिज्ज । कुमुघा-कुमुया। कप्पववहार-कपववहार । काकतुंड-कागतुंग। कुमुश्रागर-कुमुयागर। कमण-कमन । कुलकर-कुलगर। कमझागरखंभवोहय-कमलागरसंगवोहय। काकध-कागध। कुलकरश्त्थी-कुलगरश्त्थी। कमलापीड-कमलामल । काकपाल-कागपाल । कम्भीर--कम्हीर। कापिंडी-कागपिंकी। कुलकरगंठिया-कुलगरगर्मिया। कुलकरवंस-कुलगरवंस। काका-कागा। कम्मकारि-कम्मकत्ता। कुलतिलग-कुलतिलय । कम्मपगमि--कम्मपयडि। काकलि-कागलि-काकली-कागती। कवलयप्पभ-कवलयप्पह। कम्मयकायजोग-कम्मणकायजोग । काकस्सर-कागस्सर । कुवेणि कुवेणी। कम्मयणाम-कम्मणणाम । काणक-काणग। कुसञ्च-कृसस। कम्मयवग्गणा-कम्मणवग्गणा। कादंब-कार्यब। कुहग-कुहय। कम्मायरिय-कम्मारिय। कादंबग-कायंबग। कृषिय-कोणिय। कम्मोपाहिविणिमुक-कम्मोवाहिविणिमु- कादंबरी-कायंबरी। ककय-केयय । क। कामभोगसंसाप्पओग-कामभोगासंसाप-| केकाश्य-कंगाइय। कयएणू-कयन्नू। ओग। केवलदसण-केवलदरिसण । कयविक्कयज्माग-कयविक्कयंकाण । कामासंसप्पभोग-कामासंसापओग-का- केवलसणाचरण-केवलदारसणावरण । करणश्रो-करणतो। मासंसपोग। कोउहल-कोऊहल-कोउहल्ल-कोकहल्ल। करतल-करया। कायपरिचारग-कायपरियारग। कोकस्सर-कोगस्सर । करतलपम्गहिय-करयलपग्गहिय। कायरो-कायलो। कोमिग-कोमिम। करतलपम्भाविप्पमुक-करयलपम्भावि-कारवण-कारावण । कोमिगण-कोमियगण । प्पमुक्का कारवाहिय-कारावाहिय। कोत्थुभ-कोत्थुह। करतलमाइय-करयलमाश्य । कारविय-काराविय। कोदंड-कोडं। करतलपरिमिय-करयलपरिमिय। कालागरु-कालागुरु। कोमुई-कोमुद।। करज-करह। कालिग-कालिय। कोमुईचार-कोमुदीचार। फलसंगलिया-कलसिंवलिया। कालिगसुय-काक्षियसुय : कोरंट-कोरंटंग। कलाद-कलाय। कालिगा-कालिया। कोलपाल-कोलवाल । कलिंकलुस-कनिकसुस। कालिगावाय-कालिभाषाय । कोलपागपट्टण-कोलवागपट्टण । IF आगे से कोष्ठक में शब्दान्तर देने की प्रथा उग दी गयी है किन्तु उनको ग्रन्थ में ही यथास्थान स्थान दिया जायगा। और 'अन्त्यज्यानस्य लुक' इस सूत्र से लुक हुए वर्ण का शन्दान्तर में समावेश नहीं है। " Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) आवश्यक कतिपय सङ्केत १ - प्राकृतशैली से अनुस्वार और मकार (गाथाओं में) समस्त दो शब्दों के मध्य में जी आाया करता है, इसीलिये अनेक स्थल पर (टीका में) लिखा रहता है कि 'अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः' तथा 'मकारोऽत्रालाक्षणिकः,' जैसे म० भा० ८२८ पृष्ठ में 'असज्झाइय शब्द पर बृ० की गाथा है-' पंसुयमंसयरुहिरं केस सिलावुट्ठि तह रोघाए ' ॥ यहाँ समस्त ' रुहिर ' शब्द में जी अनुस्वार है । और ३७५ पृष्ठ में ' जाण' शब्द पर " सीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादी " । यहाँ 'तत्वादिसु' का ' तंतुमादीसु ' हुआ । और तु० भा० ६०३ पृष्ठ में भी 'कुसमयमोह मोहमड़मोहिय''कुसमयौघमोहमतिमोहित' इस शब्द पर लिखा है कि- 'मकारस्तु प्रकृतत्वात् '। इस पाठ से भी यह बात सिद्ध होती है। 2- बहुत सी जगह गाथाओं में दीर्घ को हस्त्र, और हस्त्र को दीर्घ हुआ करता है, उसका कारण यह है कि ऐसा करने से गाथाओं के बनाने में बहुत सुगमता होती है, इसीलिये कहा हुआ है कि - " अपि माषं मषं कुर्यात् बन्दोभङ्ग न कारयेत्” | और व्याकरणकार भी " दीर्घहस्त्रौ मिथो वृत्तौ " ॥ ८ । १ । ४ ।। इस सूत्र से इस बात का अनुमोदन करते हैं | जैसे ' साहू ' को ' सदृ', और ' विरुज्झइ ( ति ) ' का ' विरुज्झई [र्ती ]' होता है। 1 ३ - कहीं कहीं प्राकृतशैली से अनुस्वार का लोप जी होता है, जैसे विशेषावश्यक नाष्य के २००६ गाथा में "समबाइ समवाई, उन्त्रिकत्ता य कम्मं च ।। " ( विह त्ति ) ' अनुस्वारस्य लुप्तस्य दर्शनात् ' । प्राय: करके नियुक्तिकार अपनी गाथाओं में इस नियम को विशेष रूप से काम में लाये हैं, इसलिये उनको गाथा बनाने में अत्यन्त सुगमता हुई है। जैसे तु० भा० ५१७ पृष्ठ में 'किइकम्प' शब्द पर आवश्यकनियुक्ति है कि - 'गुरुजण वंदावंती, सुस्समण जहुत्तकारिं च ' ||३३|| इसकी वृत्ति में लिखा है कि ' अनुस्वारलोपोऽत्र प्रष्टव्यः ' । ४- प्राकृतशैली से कहीं कहीं बहुवचन के स्थान में जी एकवचन हुआ करता है, जैसे आवश्यकवृत्ति के पाँचवें ध्ययन में ' नरतैरवतविदेहेषु ' के स्थान में ' जर हेरवयविदेहे ' ऐसा एकवचन किया है "" 66 ए - प्रायः सूत्रों में और निर्युक्तिगाथाओं में जो निर्विभक्तिक पद आया करते हैं उनमें “ स्यम् - जम्-शसा बुक् ॥ ८ । ४ । ३४४ ॥ तथा षष्ठ्याः " || ८ | ४ | ३४५ ।। इन सूत्रों से अथवा सौत्र सुप् का लोप समऊना चाहिये। जैसे तृतीय भाग के ४४६ पृष्ठ में उत्त० २४ ० का मूलपाठ है कि - "उलंघण पल्लंघण" इत्यादि । और इसपर टीकाकार लिखते हैं कि ' उज्जयत्र सौत्रत्वात् सुपो लुक् ' । इसी तरह अन्य स्थल में जी समऊना चाहिये । 3 -६-सूत्रों में बाहुल्य से प्रथमा के एक वचन में 'तः सेर्मोः । ८ । ३ । २ । इस सूत्र को न लगाकर 66 तत्सौ पुंसि मागध्याम् ” । ८ । ४ । २२७ || इस सूत्र से एकार ही किया गया है, जैसे तृ० भा० ४६० पृष्ठ में है कि-“आहारए दुबिहे पत्ते " । इस पर टीकाकार की टीका है कि ' आहारको द्विविधः प्रज्ञप्तः'। इसी तरह नियुक्तिगाथाओं में भी समझना चाहिये-जैसे " वाहे " का अनुवाद ' व्याधः ' है । 9- प्रायः करके सूत्रों में आया करता है कि- " तेणं कालेणं तेणं समएणं" और इसपर टीकाकार लिखा करते हैं कि " तस्मिन् काले तस्मिन् समये" इसको हेमचन्द्राचार्य जी सिद्धमव्याकरण के अष्टमाध्याय - तृतीयपाद में “ सप्तम्या द्वितीया ” | ८ | ३ | १३७ || इस सूत्रपर अनुमोदन करते हैं कि 'घर्षे तृतीयाऽपि दृश्यते । यथा-' तेणं कालेणं तेणं समएणं' अस्यार्थः-' तस्मिन् काले तस्मिन् समये ' । किन्तु रायपसेणी के टीकाकार मलयगिरि लिखते हैं कि 'इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति प्रष्टव्यम् ' एमिति वाक्यालङ्कारे । दृष्टान्तश्चान्यत्रापि - ' णं ' शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः । यथा-' इमाणं पुढवी' इत्यादि । यह पक्षान्तर भी उनके मत से स्थित है । - व्यवहार, बृहत्कल्प, आवश्यकचूरिंग और निशीथ सूत्र, पं० भा०, पं०च० आदि में प्राय: करके विशेष रूप से सूत्र नियुक्ति और चूर्णि में 'तदोस्तः | ८|| | ३०७ | इस से और आर्षत्वाद भी वर्णान्तर के स्थान में तकार हो जाता है, जैसे तृ०जा० 'किइम्म' शब्द के ५१४ और ५१५ पृष्ठ में बृहत्कल्प की नियुक्ति है कि - " ओसंकं भे दहुं, संकच्छेती उ वातगो कुविओ” । यहाँ पर शादी की दकार को तकार और वाचक की चकार को तकार किया है । इसी तरह “इय संजमस्स विवतो, तसेवाए दोसा | इस गाथा में भी व्यय शब्द की यकार को भी तकार किया है। इसी तरह तृ० भा०५०६ पृष्ठ के 'काहि य' शब्द पर निशीथ सूत्र की नियुक्ति और चूर्णि की व्यवस्था है, जैसे 'तक्कम्पो जो धम्मं, कधेति सो काधितो होई' ॥ ६३ ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस नियुक्तिगाथा को चूमि है कि-एवंविधो काहितो जवति'। यहाँ पर नी कायिक के ककार को तकार किया हुआ है, इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये । यकार को धकार तो ' यो धः ' ।। ४ । २६७॥ और 'अनादौ स्वरादसंयुक्तानां कगतयपफां गपदधबभाः' | GI8| ३५६ । इत्यादि सूत्रों से होता है। ए-संस्कृत शब्दों की सिधि तो पचास अक्षरों से है, परन्तु प्राकृत शब्दों की मिछि चालीस ही अक्षरों से होती है, क्योंकि स्वरों में तो ऋ,लऐ, औका अनाव है और व्यञ्जन में श, ष, तथा असंयुक्त , व मादि कई व्यञ्जनों का अनाव है। १०-व्यञ्जनान्त शब्दों के व्यञ्जन का 'अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक' ।।८।२।११॥ इस सूत्र से लुक होजाने पर किसी शब्द का तो व्यञ्जनान्तत्वही नष्ट हो जाता है और किसी किसी का अजन्त में विपरिणाम हो जाता है, इसीनिये हलन्त शब्दों की सिधि के लिये कोई विशेष नियम नहीं है, केवल 'आत्मन् ' शब्द और 'राजन् ' शब्द की सिधि के लिये जो थोड़े से नियम नन्हींसे अन्य नकारान्त शब्दों की जी व्यवस्था की जाती है। ११-यदि किसी अन्य का पाठ कुछ बीच में जमकर फिर लिया है तो जहाँ से पाठ बूटा है वहाँ पर उसी अन्य का नाम इस बात की सूचना के लिये चलते हुए पाठ के मध्य में जी दे दिया है कि पाठक जम में न लें। १२-माकृत लाषा में हिन्दी नाषा की तरह द्विवचन नहीं होता, किन्तु " द्विवचनस्य बहुवचनं नित्यम् " ॥ ८। ३।१३०॥ स सत्र से टिवचन के स्थान में बहवचन हो जाता है, इसलिये दित्वबोधन की जहाँ कहीं विशेष प्रावश्यकता होती है वहाँ द्वि शब्द का प्रयोग किया जाता है; और चतुर्थी के स्थान में षष्ठी “ चतुर्थ्याः षष्ठी" ।। ३ । १३१ ।। इस सूत्र से होती है। १३-गाथाओं में पाद पूरे होने पर यदि सुबन्त अथवा तिडन्त रूप पद पूरा हो जाता है तो (,) यह चिह्न दिया नाता है और जहाँ पाद पूरा होने पर भी पद पूरा नहीं हुआ है वहाँ [-] ऐसा चिह्न दिया है । १४-बहुतसी जगह गाथाओं में शुरू या व्यञ्जनमिश्रित एकार स्वर आता है किन्तु उसकी दीर्घाझर में परिगणना होने से जो किसी जगह मात्रा बढ़ जाती है, उसको कम करने के लिये [ • ] ऐसा चिन्ह दिया गया है । यद्यपि 'दीर्घइस्वौ मिथो वृत्तौ' ।।७।१।४॥इस मूत्र से हस्व करने पर एकार को इकार हो सकता है, किन्तु वैसा करने से सर्वसाधारण को उसकी मूल प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये हत्ववोधक संकेत किया गया है, इसीतरह व्याकरणमहाभाष्य में जी लिखा है कि-" अर्थ एकारः, अर्ध ओकारो वा इति राणायनीयाः पठन्ति" । और वाग्लटविरचित प्राकृत पिङ्गलसूत्र में भी लिखा है कि "दीहो संजुत्तपरो, विन्दुजुओ पामित्रो अचरणंते । स गुरू वंक उमनो, अमो बहु होइ सुध एक्ककझो"। इस तरह गुरु लघु की व्यवस्था करके लिखते हैं कि 'कत्य वि संजुत्तपरो, वप्लो बहु होइ दंसणेण जहा । परिसइ चित्तधिज्ज, तरुणिकडक्खम्मिणिबुत्तं ॥ दूसरा अपवाद- 'इहिकारा विन्दजुश्रा, एप्रो सुखा अवस्ममिलि पा विलह । रहवंजणसंजोए, परे असेस पि सविहासं'* ॥ उदाहरण- 'माणिणि ! माणहिँ काइँ फल, ऍओं में चरण पमु कन्त । सहले नुअँगम जइ णमइ, किं करिए मणिमन्त ?' ॥ दसरा विकल्प- 'जइ दीहो वि अवएणो, सह जीही पढइ सो वि बहू । वमो वितरियपढिो , दो तिमि वि एक जाणेद" ॥ उदाहरण- 'अरेरे वाहहिं कान्ह ! णाव गोटि डगमग कुगति ण देहि । तइ इयि एदिहि सतार दे, जो चाहसि सो बेहि" ॥ * इकारहिकारौ बिन्ध्युतौ एपी शुकौ च वर्णमिलितावपि लघू । रेफहकारी, व्यञ्जनसंयोगे परेऽशेषमपि सविभापम् ॥ * यदि दीर्घमपि वर्ण बघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः । वौँ अपि त्वरितपवितौ द्वौ त्रयो वा पकं मानीत ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) छन्द की परम आवश्यकता - 'जेम न सहइ कणअतुला, तिचतुलिअं श्रद्धअद्वेण । तेर्मेण सदसवणतुझा, छंद बंद भंगेण " ॥ १५-कहीं कहीं गाथाओं में शब्दों के आयन्त स्वर को 'लुक' | ८ | १|१०| सूत्र से झोप कर माझते हैं, और कहीं आर्पत्वात् भी लोप करते हैं- जैसे एक उदाहरण तृ० ना० ५५६ पृष्ठ में 'किरियात्राइ (ए) ' शब्द पर सूत्रकृताङ्ग की गाथा है कि- “ गई च जो जाइगागई च । इसी तरह अतीत के स्थान में 'तीत ' लिखा करते हैं, और प्र० ना० ७८० पृष्ठ में 'अवञ्च ' शब्दपर 'वेंतियरे ह्मं तू ' और ७७२ पृष्ठ में 'अलाजपरीसह ' शब्दपर 'अलाजए होउदाहरणं' इत्यादि समजना चाहिये । १६- प्रायः बहुत से स्थल पर 'से गुणं' इत्यादि मूलपाठों में ' से ' शब्द आया करता है, उस पर न० १३-१-३ ( स्था० ५६२-२-५)में लिखा है कि- “ से शब्दो मागधी देशी प्रसिद्धोऽयशब्दार्थः, कचिदसावित्यर्थे, कचित्तस्येत्यर्थे प्रयुज्यते । प्रकीर्षक विषय - १ - ज्योतिष्करएक में लिखा है कि स्कन्दिन्नाचार्य की प्रवृत्ति समय में दुःषम धारा के प्रभाव से दुनिक पर जाने पर साधुओं का पढ़ना गुणना सब नष्ट होगया, फिर दुनिक शान्त होने पर जब दो संघों का मिलाप हुआ (जो एक मथुरा में और दूसरा वलभी में था) तब दोनों के पाठ में वाचना भेद हो गया, क्योंकि विस्मृत सूत्रार्थ के पुनः स्मरण करके संघटन में अवश्य वाचनानेद हो जाता है । २-विशेषावश्यक जाष्य आदि कई ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि ' आर्यबैर ' के समय तक अनुयोगों का पार्थक्य नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय व्याख्याता और श्रोता दोनों तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे, किन्तु ' आर्यरक्षित' के समय से अनुयोगों का पार्थक्य हुआ है, यह बात प्रथम भाग में ' अज्जरक्खिय ' शब्द पर और ' अणुयोग ' शब्द पर विस्तार से लिखी हुई है । 3 - तृतीय जाग के ५०० पृष्ठ में 'कालियसुय' शब्द पर काञ्जिकश्रुत ( एकादशाङ्गी ) के व्यवच्छेद की चर्चा है, कि सुविधि जिन के तीर्थ का सुविधि और शीतल जिन के मध्य काल में व्यवच्छंद हो गया, और व्यवच्छेद का काल पल्योपमचतुर्थ माना गया है । इसी तरह और भी षट् ( ब ) जिनों में समझना, किन्तु व्यवच्छेद काझ तो सातो - नों के मध्य में इस तरह समझना - " चउजागो १ चजागो २, तिथि य चउजाग ३ पलियमेगं च ४ । तिष्ठेव य चज्ञागा ५, चउत्यन्नागो य ६ चननागो ७ " ॥ १ ॥ इति । परन्तु दृष्टिवाद अङ्ग का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में था, और उसकी अवधि भी नहीं की हुई है। ४- यद्यपि मीमांसादर्शन के तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट ने इस प्राकृतभाषा ( अर्धमागधी ) पर बहुत कुछ प्राप किया है, किन्तु वह उनकी अदूरदर्शिता है और व्यर्थ का ही कटाक्ष हैं, क्योंकि इस कोश के 'पागड ' शब्द पर विशेवाश्यक जाय पर टीकाकार का लेख है कि - ' ननु जैनं प्रवचनं सर्व प्राकृतनिबन्धमिति दुःश्रद्धेयम् । मैवं शक्यम्-' बालस्त्रीमूढमूर्खाणां नृणां चारित्रका‌ङ्क्षिणाम् | अनुग्रहाय तत्रज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ' ।। १ ! और यह विचारसह जी है क्योंकि जो जाषा 'राष्ट्रभाषा ' या ' मातृभाषा ' जिस समय होती है, उसीमें जो लोगों को उपदेश मिलता है उसीसे आबालवृद्ध पठितापत्रित स्त्री पुरुष सर्वसाधारण जीवों का विशेष उपकार होता है । ए-' वागरण' शब्द पर आ० म० द्वि० कार लिखते हैं कि जगवान् ऋषभ देव ने शक्रेन्द्र से जो व्याकरण प्रथम कहा था वही ऐन्द्र व्याकरण के नाम से प्रख्यात हुआ । तथा कल्पसुबोधिका में लिखा है कि - २० व्याकरण हैं, अर्थात् १ ऐन्ध, २ जैनेन्द्र, ३ सिह हेम, ४ चान्ड, ए पाणिनीय, ६ सारस्वत ७ शाकटायन, ६ वामन, विश्रान्त, १० बुद्धिसागर, ११ सरस्वतीकण्ठाभरण, १२ विद्याधर, १३ कलापक, १४ जीमसेन, १२ शैव, १६ गौम, १७ नन्दि, १६ जयोत्पल, १७ मुष्टि व्याकरण, और २० वाँ जयदेव नाम से प्रसिद्ध है । इसीलिये आवश्यकवृत्ति के दूसरे अध्ययन में लिखा है कि जब ऐन्द्रादि आठ व्याकरण हैं तब कंवल पाणिनीय व्याकरण पर ही आग्रह नहीं करना चाहिये । यद्यपि प्राकृतकल्पलतिका, प्राकृतप्रकाश, हेमचन्द्र, प्राकृत षड्जापाचन्द्रिका, प्राकृतमञ्जरी आदि कई प्राकृत के व्याकरण हैं परन्तु जैसा सिट हेम का प्राकृत व्याकरण बना है वैसा प्रायः सकलविषयसंग्राहक दूसरा प्राकृत का व्याकरण नहीं है । तथापि उसके गद्यमय होने से लोगों को स्थ करने में कठिनता पड़ती देखकर इस कोश के कर्ता हमारे गुरुवर्य पूर्वोक्त सूरीजी महा अष्टमाध्याय उचम For Private Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) राज ने अनुग्रह करके सिपहेम सूत्रों पर श्लोकवक विवरण रचकर सरल कर दिया, जो कि कोश के प्रथम भाग के परिशिष्टों में संकलित कर दिया गया है। क्योंकि जिस भाषा का ज्ञान अपेक्षित होता है उसके व्याकरण की बझी श्रावश्यकता होती है, अर्थात विना व्याकरण के किसी भाषा का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। इस लिये परिले उसको एक वार खूब मनन करके पीछे कोश को देखने से विशेष आनन्द आवेगा। ६-यद्यपि महानिशीथ सूत्र में टीका या चूर्णि नहीं पायी जाती, तथापि हमारी पुस्तक में चतुर्थाध्ययन की समाप्ति में लिखा है कि-"अत्र चतुर्याध्ययने बहवः सघान्तिकाः, केचिदालापकान सम्यक् श्रद्दधत्येवं तैरश्रद्दधानरस्माकमपि न सम्यक श्रद्दधानमित्याह हरिजद्रसूरिः,न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनमन्यानि वाऽध्ययनानि । अस्यैव कतिपयैः परिमितैरामापकैरश्रद्दधानमित्यर्थः । यतः स्यानसमवायनीवाभिगमप्रझापनादिषु न कथञ्चिदिदमाचके, यथा प्रतिसंतापस्थलमस्तितद्गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु च परमाधार्मिकाणां पुनः सप्ताष्टवारान यावदुपपत्नस्तषां च तैर्दारुणैर्वजशिलाघरदृसंपुटैगिलितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत् पाणव्यापत्तिर्न नवतीति। वृक्षवादस्तु पुनर्यथा-तावदिदमार्षसूत्र, विकृतिर्न तावदत्र प्रविष्टा, अनूताश्चात्र श्रुतस्कन्धे अर्थाः, शुघातिशयेन सातिशयानि गणधरोक्तानि चेह वचनानि, तदेवं स्थिते न किश्चिदाशनीयम् ।।" इसके बाद फिर ' एवं कुशीलसंमगि सव्वोपाएहिं पयहियं' इत्यादि एञ्चमाध्ययन का प्रारम्भ है । इसीतरह कहीं ५ चर्णि जी मिलती है जैसे इसी कोश के प्र० भा० 'अरहंत' शब्द पर ७५६ पृष्ठ में मूल और चूणि दोनों हैं । और 'एस समासत्यो' 'वित्यरत्यं तु श्मं ' ऐसा हमारे पुस्तक के ६ पत्र २ पृष्ठ २६ पति में लिखा है। ७-सूत्रकृता की गाथाएँ कई अध्ययनों में ऐसी टूटीसी मालूम पड़ती हैं जैसे उन्दोभङ्गवाली हों, किन्तु प्रायः वे नी बन्दालक्षणविहीन नहीं हैं, क्यों कि बहुत से ऐसे भी बन्द हैं जो पढ़ने में असगत से मालूम होते हैं किन्तु लक्षण से पूर्ण सङ्गत हैं। क्योंकि प्राकृत पिङ्गलसूत्र में चन्द्रलेखा-चित्र-नाराच-नील-चञ्चला-ऋषभगविलसित-चकिता-मदनललिता-वाणिनी-प्रवरललित-गरुमरुत-अचलधृति बन्द जी विलक्षण हैं। जैसे मदन ललिता का यह उदाहरण है " विष्टलग्गलितचिकुरा धौताधरपुटा, म्लायत्पत्त्रावलिकुचतटोच्छासोर्मितरला । राधाऽत्यर्य मदनललिताऽऽन्दोलालसवपुः, कंसाराते रतिरसमहो चक्रे तिचटलम्" ॥१॥ और यदि कहीं पर किसी भी बन्द का लक्षण सङ्कत न हो तो वहाँ आर्ष उन्द समझना चाहिये। 000 पैंतालीस आगमों के नाम, और उनकी मूबश्लोकसंख्या, और हर एक पर पृथक् पृथक् आचार्यों की निर्मित बृहद्वृत्ति, लघवृत्ति, नियुक्ति और नाष्यादिक, और उनका सोकसंख्याप्रमाण इस रीति से है श्रीसुधर्मास्वामीकृत ग्यारह अङ्गो के नाम और व्याख्यासहित ग्रन्थप्रमाण१-प्राचाराङ्ग सूत्र, अध्ययन २५, मलइलोकसंख्या २५००, और उसपर शीलानाचार्यकृत टीका १२०००, चूणि ८३००, तथा भद्रबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा ३६७, श्लोक ४५०, (नाष्य और लघुवृत्ति इस पर नहीं है ) । संपूर्णसंख्या २३२५० है। -सूत्रकृताङ्ग सूत्र, श्रुतस्कन्ध २, अध्ययन २३, मूलश्लोकसंख्या २१००, और उसपर शीलाझाचार्यकृत टीका १२८५०, चूणि १००००, तथा भबाहुस्वामिकृत नियुक्तिगाथा २०७, श्लोक २५०, (लाष्य नहीं है ) संपूर्ण संख्या २५३०० है । संवत् १५७३ में नवीन श्रीहेमविमलसूरि ने दीपिका टीका बनायी है, किन्तु वह पूर्वाचार्यों की गिनती में नहीं है। ३-स्थानाङ्ग सूत्र, अध्ययन ( ठाणा ) १०, नूललोकसंख्या ३७७० , और उसपर संवत् ११३० में अभयदेवसूरि ने टीका बनायी है, उसका मान १५२५० है, संपूर्ण संख्या १५०२० है। ४-समवायाङ्ग सूत्र, (१०० समवाय तक समवाय मिन्नते हैं ) मूलश्लोकसंख्या १६६७, और उसपर अजयदेयमूरिकृत टीका ३७७६, चूर्णि पूर्वाचार्य कृत ४००, संपूर्ण संख्या ५०४३ है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ए-जगवती सूत्र (विवाहपन्नत्ति), शतक ४१, मूलश्लोकसंख्या १५७५२, और उसपर श्री अजयदेवसूरिकृत टीका ( sोणाचार्य से शोधी हुई ) १८६१६, चूर्णि पूर्वाचार्यकृत ४०००, संपूर्ण संख्या ३८३६८ है । संवत् १९६८ में दानशेखर उपाध्याय ने १२००० श्लोक संख्या की लघुवृत्ति बनायी है। ६ - ज्ञाताधर्मकथा सूत्र, अध्ययन १६, मूलश्लोकसंख्या ५५००, और उसपर अभयदेवसूरिकृत टीका ४२५२ है। इस समय में १७ कयाएँ दिखायी देती है, किन्तु पूर्व समय में साढ़े तीन करोड़ कथाएँ थी ऐसी प्रसिद्ध है। ७-उपासकदशाङ्ग सूत्र, अध्यन १०, मूल लोकसंख्या ८१२, और इसपर अजयदेवसूरिकृत टीका ७००, संपूर्ण संख्या १७१२ है । - अन्तगमदशाङ्ग सूत्र, अध्ययन ए०, मूलश्लोकसंख्या ७००, और उसपर अजयदेवसूरिकृत टीका ३००, संपूर्णसंख्या १२०० है | U-अणुत्तरोत्रवाइयदशाङ्ग सूत्र, अध्ययन ३३, मूलश्लोकसंख्या २६२, और उसपर अजयदेवसूरिकृत टीका १००, संपूर्ण संख्या ३०२ है । १० - प्रश्नव्याकरण सूत्र, ए आश्रवद्वार और ५ सम्बरद्वाररूप १० अध्ययन, मूलश्लोकसंख्या १२५०, और उसपर जयदेवसूरिकृत टीका ४६००, संपूर्ण संख्या ५८५० है । ११ - विपाक सूत्र, अध्ययन २०, मूलश्लोकसंख्या १२१६, और उसपर अजयदेवसूरिकृत टीका ए००, संपूर्ण संरूपा २११६ है । संपूर्ण ग्यारह ग्रहों की मूलश्लोकसंख्या ३५६५७ है, और टीका ७३५४४ है, और चूर्णि २२७०० है, तथा निर्युक्ति ७०० है, और सब मिलकर १३२६०३ है । याचारा और सूत्रकृताङ्ग की टीका तो शीलानाचार्यकृत है और बाकी नवाजी की टीका अजयदेवसूरिकृत है, इसी लिये अजयदेवसूरि का नवाकीवृत्तिकार के नाम से उल्लेख किया जाता है; अजयदेवसूरिजी का चरित्र म० भ० ७०६ पृष्ठ में और 'सीलिंगायरिय' शब्दपर शीलाङ्गाचार्य की कथा देखना चाहिये । बारह उपाङ्गों के नाम, टीका, और संख्या इस तरह है १-नबवाई उपाङ्ग, ( आचाराङ्गप्रतिबन्ध ) मूलश्लोकसंख्या १२००, और उसपर अजयदेवसूरिकृत टीका ३१२५, संपूर्ण संख्या ४२२५ है । २-रायपसेण। उपाङ्ग, ( सूत्रकृताङ्गप्रतिबन्ध ) मूल श्लोक संख्या २०७८, और उसपर मलयगिरिकृत टीका ३७००, संपूर्ण संख्या ७७८ है । ३ - जीवानिगम उपाङ्ग, (स्थानाङ्गप्रतिबद्ध) मूलश्लोकसंख्या ४७००, मलयगिरिकृत टीका १४०००, लघुवृचि ११००, और चूर्णि १५०० है, संपूर्ण संख्या २१३०० है । ४- पन्ना (प्रज्ञापना ) उपाङ्ग, (समत्रायाङ्गप्रतिवद्ध ) मूलश्लोकसंख्या 999, मलयगिरिकृत टीका १६०००, हरिप्रसूरिकृत लघुवृत्ति ३७२८ है, संपूर्ण संख्या २७५१५ है । ए-जम्बूद्रीपपन्नत्ति उपाङ्ग, ( जगवती प्रतिबद्ध ) मूलश्लोकसंख्या ४१४६, मलयगिरिकृत टीका १२०००, चूर्णि १८६० है, संपूर्ण संख्या १८००६ है । ६ - चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र, (ज्ञाताप्रतिवद्ध ) मूल श्लोकसंख्या २२००, मलयगिरिकृत टीका ए४११, लघुवृत्ति १००० है. संपूर्ण संख्या १२६११ है । 9- सूरपन्नत्ति सूत्र उपाङ्ग, ( ज्ञाताप्रतिवन्ध ) मूझसंख्या १२००, मन्नयगिरिकृत टीका ६०००, चूर्णि १०००, संपूर्ण संख्या १२२०० है | चन्द्रमइप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति दोनों मिलकर ज्ञाताप्रतिबद्ध हैं । G-कल्पिका उपाङ्ग, [ उपासकदशाङ्गप्रतिबद्ध ] काल, सुकाल, महाकाल, कृष्ण, सुकृष्ण, महाकृष्ण, वीरकृष्ण, रामकृष्ण, पितृसेनकृष्ण, सहासेनकृष्ण के नाम से १० अध्ययन हैं । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) ए-कल्पावतंसिका उपाङ्ग, [ अन्तगडदशाङ्गप्रतिबद्ध ] पद्म, महापद्म, भय, सुभड, पद्मन, पद्मसेन, पद्मगुल्म, न लिनीगुल्म, आनन्द, नन्दन के नाम से १० अध्ययन हैं । १०- पुष्पिका उपाङ्ग, [ अणुत्तरोववाईप्रतिबद्ध ] चन्द्र, सूर, शुक्र, बहुपुत्रिका, पुण्यभत्र, माणिभय, दत्त, शिव, वाल, अनादृत नाम से दश १० अध्ययन हैं । ११- पुष्पचूलिका उपान, [ प्रश्नव्याकरणप्रतिबद्ध ] श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इलादेवी, सुरादेवी, रसदेवी, गन्धदेवी नाम से दश १० अध्ययन हैं । १२- वह्निदिशा उपाङ्ग, [ विपाकसूत्रप्रतिवद्ध ] निस, अत्रि, दह, वह, पगती, जुति, दसरह, दढरह, महाधनु, सतधनु, दसधनु, नामेसय के नाम से १२ अध्ययन हैं । इन पाँचो उपाङ्गों का एक नाम 'निरयावली ' है, और कल्पिका आदि पाँचो उपानो के . ५२ अध्ययन हैं । इनकी संपूर्ण मूलग्रन्थसंख्या ११०० है, इनकी वृत्ति ७०० श्री चन्द्रसूरिकृत है । संपूर्ण ग्रन्थसंख्या १८०६ है । I इस तरह बारह उपानों की मूलसंख्या २५४२० है और टीका की संख्या ६७०३६, और लघुवृत्ति ६०२८, चूर्णि ३३६०, संपूर्णसंख्या १०३२४४ है | दश पन्नाओं ( प्रकीर्णक ) की गाथा संख्या इस तरह है 1 १ - चउसरण पन्ना में ६३ गाथा हैं । २ आजरपच्चक्खाण पन्ना में ८४ गाथा हैं । ३ भत्तपच्चक्खाण पइना में १७२ गाथा हैं । ४ संथारग पड़ना में १२२ गाया है। ए तंडुलवेयाली पड़ना में ४०० गाया हैं । ६ चन्दविज्जगपइन में ३१० गाथा हैं । ७ देविन्दत्थव पन्ना में २०० गाथा हैं । ८ गणिविज्जा पइन्ना में १०० गाथा है । ए महापच्चक्खाण पन्ना में १३४ गाथा है * । १० समाधिमरण पन्ना में ७२० गाथा हैं। इन दश पन्नाओं की संपूर्ण गाथासंख्या २३०५ है और प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, और ये दश पन्ना जी पैंतालीस आगम की गिनती में हैं । १ वीरस्तव पइन्ना गाया ४३ । २ ऋषिनाषित सूत्र संख्या ७५० । ३ सिद्धिमानृतसूत्र संख्या १५०, और इसकी टीका ७५० है । ४ दीवसागरपन्नत्ति संग्रहणी संख्या २५०, और इसकी टीका २५०० है । ए विज्ञापन्ना संख्या ८८०० ( कहीं २ पाई जाती ) है | ६ ज्योतिष्करणमक पइन्ना संख्या५००, इसकी टीका मलयगिरिकृत २४०० है, और २१ पादुका [ प्रानृतक ] | ७ गच्छाचार पन्ना, टीका विजयविमलगणिविरचित, मूझटीका संख्या ५८५० है, और ४ अधिकार हैं । ८ श्रङ्गचूलिया ग्रन्थसंख्या ८००, इसमें लिखा हुआ है कि “प्रार्यसुधर्मा स्वामी से उन के शिष्य जम्बूस्वामी ने पूछा कि ग्यारह अनों की अङ्गचूलिका किस वास्ते हैं ?" इस पर सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया कि- "जिस तरह आभूषणों से अङ्ग शोजित होते हैं उसी तरह चूलिका से एकादशाङ्ग शोजित हेती है, इस लिये निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ये जानने के aree हैं और गुरुपरंपरागम से ग्रहण करने के योग्य है" । फिर जम्बू स्वामी ने पूछा कि - " गुरुपरंपरागम कैसा ? " । उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा कि- "आगम तीन प्रकार के हैं- १ अन्तागम, २ अनन्तरागम, और ३ परंपरागम । अर्थ से तो अन् भगवान का अन्तागम है, और सूत्र से गणधरों का अन्तागम है । तदनन्तर गणधर शिष्यों का अनन्तरागम है, उसके बाद सभी का परंपरागम है "। और अङ्गचूलिका के अन्त में उपाचूलिका की चर्चा है कि-सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - " सेसं उबंगचूलिया तो गहेयव्वं " अर्थात् अवशिष्ट जाग उपाचूलिका से लेना चाहिये । * कई लिखी प्रतियों में महापश्च वाण पन्ना के स्थान में ४३ गाथावाला वीरस्तव पन्ना लिखा है, किन्तु ऊपर कहे हुए दश पश्श्ाओं से पृथक् नी है परन्तु उनकी यहाँ आवश्यकता न होने से केवल नामनिर्देश ही किया है। * For Private Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) छः बेदग्रन्थों के नाम और उनकी ग्रन्थसंख्या ११ - निशीथ सूत्र, उद्देश २०, मूलश्लोकसंख्या ८१५, और इस पर लघुजाष्य ७४००, और जिनदासगणिमहसर बिरचित चूर्णि २८०००, बृहद्भाष्य १२००० है, यह टीका के नाम से ही प्रसिद्ध है। बादुस्वामी की बनायी हुई नि युक्ति गाथाएँ है । संपूर्ण ग्रन्थसंख्या ४८३१५ है । शीलभसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ने वि० सं० १९७४ में व्याख्या की है । जिनदासगण महत्तर ने अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथचूर्णि, बृहत्करूपजाप्य, आवश्यकचूर्णि आदि कई एक ग्रन्थ बन. ये हैं । 2- महानिशीथ सूत्र, अध्ययन 9, चूलिका २, मूल श्लोकसंख्या ४५००, मतान्तर में इसकी तीन वाचनाएँ हैं-१ लघुवाचना; ४२००; २ - मध्यवाचना ४५००; ३ बृहद्बाचना ११८०० है । किन्तु हमारी पुस्तक के अन्त में लिखा है कि" चत्तारि सरसहस्सा, पंचसयाश्रो तहेब पंचासं ॥ चारि सिल्लोगावी, महानिसीहम्मि पाएणं " ॥ १ ॥ ४५५४ ॥ ३- बृहत्कल्पसूत्र, उद्देश ६, मूझसंख्या ४७३ है । इसपर सं ० १३३२ में बृहच्छालीय श्री क्षेमकीर्तिमूरिने ४२००० संख्यापरिमित टीका बनायी हैं । जाष्य जिनदासगणिमहत्तरकृत १२०००, लघुज्ञाप्य ८००, चूर्णि १४३२५, संपूर्ण ग्रन्थसंख्या ७६७०८ हुई। टीका में लिखा हुआ है कि - [ कः सूत्रमकार्षीत्, को वा निर्युक्ति, को वा जाष्यामिति १ । उच्यते - पूर्वेषु यन्नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्व तस्य यत्तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन विंशतिनाममानृते मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वाऽपराधेषु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितं, कालक्रमेण च दुष्षमानुभात्रतो धृतिबलवीर्यमुख्यायुः प्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि ततो मा भूत् प्रायश्चित्तव्यवच्छेद इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण जगवता भाषाहुस्वामिना कल्पसूत्रं, व्यवहारसूत्रं चाकारि; उज्जयोरपि च सूत्रस्पर्शिक नियुक्ती ] ४- व्यवहारदशाकल्पच्छेद सूत्र, उदेश १०, दो खण्ड, मूलश्लोकसंख्या ६००, टीका मलयगिरिकृत ३३६२५, चूर्णि १०३६१, जाष्प ६००० हैं । निर्युक्ति की संख्या अज्ञात है। संपूर्ण ग्रन्य संख्या ५०७८६ है । ५- पञ्चकल्पच्छेद सूत्र, अध्ययन १६, मूझसंख्या ११३३, चूर्णि २१३०, और दूसरी टीका की संख्या ३३००, जाय ३१२५, संपूर्ण संख्या ६३०८, और गाथासंख्या २०० है । ६-दशाश्रुतस्कन्धवेदसूत्र, मूझसंख्या १०३५, अध्ययन १०, चूर्णि २२४५, नियुक्तिसंख्या १६८, संपूर्णसंख्या ४२४८ है । टीका श्रीब्रह्मविरचित है, इसका आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र १२१६ है जिसकी टीका कल्पसुबोधिका है * । 9- जीतकल्पच्छेदसूत्र, मूलसंख्या १००, टीका १२०००, सेनकृत चूर्णि १०००, भाष्य ३१२४, संपूर्ण संख्या १६२३२ है, और चूर्णि की व्याख्या ११२० है, और इसकी लघुवृत्ति श्रीसा धुरत्नकृत ५७००, और तिलकाचार्यकृत वृत्ति १५०० है । साधुतिकल्पविस्तार ३७५, धर्मघोषसरिकृत वृत्ति २६५० है, और उसपर पृथ्वीचन्द्रकृत टिप्पण ६७०, और नियुक्तिगाथा १६८ वाहुस्वामीकृत है, इसकी चूर्णि और टीकाएँ बहुत है, परंतु प्रायः करके वि० सं० १२०० के पीछे की बनी हुई हैं । चार मूलसूत्रों की संख्या इस तरह है १ - आवश्यक सूत्र, मूत्रगाथा १२५, टीका हरिजप्रसूरिकृत २२०००, निर्युक्ति भडवादुस्वामिकृत ३१००, चूर्णि १०००० है । दूसरी आवश्यकवृत्ति [ चतुर्विंशति ] २२००० है, उसकी लघुवृत्ति तिलकाचार्य कृत १२३२१ है, और अञ्चलगच्छाचार्यकृत दीपिका १२००० है, इसका भाष्य ४००० है, आवश्यक टिप्पण मलधारि हेमचन्द्रसूरिकृत ४६०० है | संपूर्ण संख्या ए८१४६ है, नियुक्ति की टीका हरिजसूरिकृत २२५०० है । * अर्थतो जगवता वर्डमानस्वामिना श्रसमाधिस्थानपरिज्ञानपरमार्थ उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वनेषु गणधरैः, ततोऽपि च मन्दमेघसामनुग्रहाय अतिशायिनिः प्रत्याख्यानपूर्वादुद्धृत्य पृथक् दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः । दशाध्ययनप्रतिपाद को ग्रन्थो दशा, स चासौ श्रुतस्कन्धः । दशाकल्य इति पर्य्यायनाम । अयं च प्रन्थोऽसमाधिस्थानादिपदार्थशासनाच्छास्त्रम् । - स्याष्टमाध्ययनं कल्पसूत्रमुच्यते, टीका चास्य कल्प-सुबोधिकेति । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) १-विशेषावश्यकसूत्र, [ आवश्यकसूत्र मूल (सामायिकाध्ययन) का विशेष परिकर है ] मूलसंख्या ५००० है। श्री. जिनभद्रगणितमाश्रमण कृत है, और इसकी बृहवृत्ति २८००० मलधारिहेमचन्धमूरिकृत है, लघुवृति १४००० कोटाचार्यकृत, या घोणाचार्यकृत है. बृहबृत्ति की टीका तर्कानुविद्या जैनस्थापनाचार्य कृत है। १-पाखी ( पाक्षिक ) सूत्र, मूल ३६०, सं० ११८० में यशोदेवमूरिकृत टीका २७००, चूर्णि ४०० है । २-पतिपतिक्रमणसूत्रवृत्ति ६०० है। श्-दशबैकालिक सूत्र, सय्यंभवसूरिकृत, मूल ७००, वृत्ति तिलकाचार्यकृत 90००, दूसरी वृत्ति हरिमंत्रमूरिकत ६०१०, और मलयागिरिकृत वृत्ति ७७००, चूर्णि ७५००, लघुवृत्ति ३७०० है । नियुक्तिगाथा-४५० है । आधुनिक सोमसुन्दरमरिकृत बघुटीका ४२००, तथा समयसुंदरउपाध्यायकृत लघुटीका २६०० है। ५-पिएडनियुक्ति, भद्रबाहुस्वामिकृत, मूलसंख्या ७००, इसपर टीका मलपगिरिकृत ७०००, दूसरी प्रति में ६६०० है, वि० सं० ११६० में वीरगणिकृत टीका ७५०० है और महामूरिकृत लघुवृत्ति ४००० है, संपूर्णसंख्या १५२००है। ३-भोपनियुक्ति, नद्रबाहुस्वामिकृत, मूलगाथा ११७० हैं, घोणाचार्यकृत टीका ७०००, और इसका भाष्य २००० है, चूर्णि ७००० है, संपूर्णसंख्या १८४५० है । ४-उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन ३६ हैं,मनसंख्या २००० है,वादिवेताल शान्तिप्रिकृत बृवृत्ति [पाईटीका]१८००० है, दूसरी प्रति में १७६४५ [ बदमीवबजी टीका ] है, सं० ११२६ में नेमिक्मसूरि से कृत लघुवृत्ति १३६०० है, भद्रबाहुस्वामिकृत गाथानियुक्ति ६०७ है, और चूर्णि ६००० है, संपूर्णसंख्या ४०३०० । अब दो चूलिकासूत्र की संख्या और नाम१-नन्दीसूत्र, देवर्षिगणिक्षमाश्रमणकृत, मूलसंख्या ७०० है, इसपर मलयगिरिकृत वृत्ति ७७३५, चूर्णि सं० ७३३ में बनी हुई २००० है, हरिजद्रमूरिकृत लघुटीका २३१५ है, संपूर्णसंख्या १२७४७ है । चन्छसारिकत टिप्पण ३००० है। ५-अनुयोगद्वारसूत्र, गाया १६०० हैं, उसपर ममधारिहेमचन्धसूरिकृत वृत्ति ६००० है । जिनदासगणिमहत्तर कत चूर्णि ३०००, और हरिभद्रसूरिकृत लघुवृत्ति ३५०० है, इसतरह संपूर्णसंख्या १४३०० है । छ इस तरह ग्यारह अङ्ग, बारह उपाङ्ग, दस पइमा, उबेदमूत्र, चारमूलमूत्र, और दो चूलिकासूत्र मिलकर इस समय पैंतालीस भागमों की संख्या ली जाती है। इत्यसं विस्तरेण । Mus विशेष विज्ञापनइस पुस्तक के संशोधन में हमारे सतीर्थ्य मुनि श्री दीपविजयजी और मुनि श्री यतीन्द्रविजयजी ने पूर्ण परिश्रम किया है किन्तु लेखकों की लिखी हुई पुस्तकों के अत्यन्त जीर्ण होने से और प्रायः एकही एक प्रति के मिलने से भी कहीं कहीं त्रुटित गाथाएँ टीका का अवलम्बन लेकर प्रकरण और विषय के अविरोध से पूरी की गयी हैं उनमें यदि कहीं पर पाठ भेद हो गया हो तो सज्जनों को उसे ठीककर लेना चाहिये । निवेदक उपाध्याय मुनि श्री १०८ मोहनविजयजी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ as AA AA AA AA AA AA AA AAAA AA AA AA AAAA AA മരം - വിക് ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക വ്വം വഴിമാറിയാലാടാമലീലയsecoac ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക ക കകക ർ ശ്വര്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ് * * * * * * * * * * * * * * * * * * * Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार - प्रदर्शनम् । सुविदितसूरि कुल तिलकायमान- सकल जैनागमपारश्व - श्राबालब्रह्मचारी- जङ्गमयुगप्रधान - प्रातःस्मरणीय - परम योगिराज - क्रियाशुद्धयुपकारक - श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- सितपटाचार्य - जगत्पूज्य गुरुदेव - जट्टारक श्री १००८ प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्री अनिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् १९४६ के प्राश्विनशुक्ल द्वितीया के दिन शुभ लग्न में यारम्भ किया । इस महान संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्त्ता के मुख्य पट्टधर शिष्यश्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराजने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् १०६० चैत्र शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर ( सूरत - गुजरात ) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) दुश्रा । गवालियर - रियासत के राजगढ (मालबा ) में गुरु निर्वाणोत्सव के दरमियान संवत् २०६३ पौष - शुक्ला १३ के दिन महातपस्वी - मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्री दीप विजयजी, मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित - सद्गृहस्थों की सामाजिक- मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि - महुम- गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'अभिधानराजेन्द्र' प्राकृत मागधी महा-कोश का जैन और जैनंतर समानरूप से लाज प्राप्त कर सकें, इसलिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत् - मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-जागीरथजी, वीसाजी जवर चंदजीत् - प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंदजीत्- निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्री निधानराजेन्द्र - कार्यालय और 'श्रीजैन प्रजाकर प्रिन्टिगप्रेस' स्वतन्त्र खोलना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का 358 *** For Private Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XX X 21 -137** * * समस्त-भार मर्हम-गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीम. हिजयनूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १ए६४ श्रावणसुदी ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुश्रा, जो सं० १९८१ चैत्र-वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त दुथा। इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदजञ्जनकेसरीकलिकाल सिझान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्य-श्रीमद्धनचन्दसूरि. जी महाराज, उपाध्याय-श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवादेवाक-मुनिश्रीहुकुम विज-- यजी महाराज, सस्क्रियावान् -महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विद्यानूषण-श्रीमद्विजयनूपेन्मसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्जविजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी, मुनिश्री-लदमी विजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्री-हंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी , आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन , मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उगया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आजारी है। 半生半半子未去去去去去去去亲生去去去去去去去去去手法+生事半挂车系法去半士半士半苯苯基本手法老王学军士1. 本主羊羊 जिन जिन प्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में श्रार्थिक-सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाकरी नामावली इस प्रकार है श्रीसौधर्मवृत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ-रतलाम । " जावरा। श्रीसंघ-वाँगरोद। र वारोदा-बड़ा। श्रीसंघ-राजगढ़। , झाबुवा। LETINik* *** * ***I-FITITIFI 11 ---- - Jain Education Interational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंघ-बड़नगर। खाचरोद । मन्दसोर । सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। नयागाम। नीमच-सिटी। संजीत। नारायणगढ़। बरडायदा। श्रीसंघ-सरसी। , मुंजाखेड़ी। खरसोद-बड़ी। चीरोला-बड़ा। मकरावन । बरडिया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दशाई। बड़ी-कड़ोद। धामणदा। राजोद। श्रीसंघ-भकरणावदा। " कूकसी। आलीराजपुर । रींगनोद। राणापुर। पारां। टांडा। बाग। खवासा। रंभापुर। अमला। बोरी। " नानपुर । ************************ श्रीसोधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसंघ-अहमदाबाद। वीरमगाम । सूरत। साणंद । बम्बई। पालनपुर। श्रीसंघ-थिरपुर (थराद)। श्रीसंघ-ढीमा । है वाव । " दूधवा। है .भोरोल। वात्यम। है धानेरा। वासण। ". धोराजी। जामनगर। हुवा। खंभात। ********************************* श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर । पाहोर। जालोर। भैसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर। देवावस । विशनगढ़। मांडवला। श्रीसंघ-भीनमाल । है सांचोर। बागरा। धानपुर। माकोली। साथू । सियाणा। काणोदर । देलंदर । श्रीसंघ-शिवगंज। " कोरटा। " फतापुरा। जोगापुरा। , भारंदा। पोमावा। बीजापुर। बाली। खिमेल। ************************ ** ****************** *** ************* ********** Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************* ************************************ श्रीसंघ-गोल । , साहेला। मालासण। रेवतड़ा। धापसा। षाकरा। मोदरा। भलवाड़। मंगलवा। सूराणा। दाधाल। धनारी। श्रीसंघ-मंडवारिया। " बलदूट। " जावाल। सिरोही। तिरोड़ी। हरजी। गुडाबालोतरा। भूति। तखतगढ। सेदरिया। रोवाडा। " भावरी। श्रीसंघ-सांडेराव । , खुडाला। राणी। खिमाड़ा। कोशीलाव। पावा। एंदला का गुड़ा। चाँणोद। ड्रडसी। थाँवला। जोयला। काचोली। इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय. रतलाम (मालवा) ****************** *** *************** *************** Jain Education Interational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घातः ******************** ********************** अहम् । का बबु सचेतनो जन्मी नाऽस्मात् संसृतिसंसरणक्लेशादा-द्य दयापात्राणामनन्यगतिकानां छागतिकानां विशसनमेवाचं त्मानमपवर्तयितुं कामयते ?, तथा चास्मिन् भवे बम्भ्रम्यमाण- गतिप्रापणभित्यादि ग्रन्थेऽस्मिन्नेव प्रथमभागे "अहगकुमार" *स्य कस्य वा प्रेकावतो दुःखमनागतमजिहासितं भवति । कि- "अहिंसा" शब्दयोरुपरि विशेषविस्तरःप्रेक्षणीयो जिज्ञासूनामि * जन्तु दानोपायपरिझानमन्तरा कथं कृती कोऽपि समापद्यत? ति। अत एवाभियुक्तानामाभाणकः ततो विश्वस्याऽपि विश्ववार्तनश्चेतस्तदुपायजिज्ञासायर्या सा- “पत्तपातो न मे वीरे,न द्वेषः कपिलादिषु। * भिलाषम्-यदेतदपारसंसारपारावारान्तनिरन्तरनिमग्नकलेवर युक्तिमद वचनं यस्य, तम्य कार्यः परिग्रहः ॥१॥ * धारिणामनवरतोत्कटजन्मजरामरणाऽऽदिवेदनाऽनिभूतानां को रागद्वषावनिमुक्ता-हंन्कृतं च कृपापरम् । भ्युपायो मौलोहेयमिदं समूलमुन्मूलयति । यद्यपि खरतर प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयति शासनम्" ॥२॥ इत्यादि । " धिषणादीप्तिमानिनो विचारशालिनो नरा वादमुत्तरयितुं प्राग*कत्यमालम्बिध्यन्ते-यदु धर्ममन्तरेण कीऽप्युपायो न प्रेक्काप दयाऽऽचारक्रियावस्तु धमाध्यमाईनश्चतुर्थी प्रविभक्तः। नि* थमारोहति तस्मात् पराङ्मुखीकर्तुम् । परंतु कीरनीरयोरिव दानमा देवनिर्मितसमवसरणसमवसृतस्य देवाधिदेवस्य धर्माधर्मयोधिया केवनिहसमपास्य मिश्रणमितयोरन्यतरं विवे. भगवतोऽखिलझस्य श्रीतीर्थकरस्योपदेशादाविर्भूतं शासनतुमसाधारणजनाऽतिरिक्तस्याऽसुकरं वर्वति, यतोऽस्मिन् समये मेव । यधिश्रीमदभिर्गोतमादिभिर्गणधरैः समनन्तरं कियत्यपरम्शतानि मतानि धर्मवाणि तत इतः प्रचरन्ति, यानि सं- प्यनेहास समतीते द्वादशाङ्गीरूपेणकादशाङ्गीरूपेण वा संदख्यातुमप्यशक्यानि संख्यावतां महामनीषिणामपि, कि पुनः नितं सत् सूत्रनाम्ना व्यवहियते, तथा चैतत् प्रत्येकतोयंकर. पार्थक्येन धर्मोऽयमयं धर्माभास इति प्रदर्शयितुमायद्यपिमहा- शासनसमयेऽस्तित्वदशामासादयान । य शासनसमयेऽस्तित्वदशामासादयनि । यद्यपि काले पूर्वस्मिनुभावानामस्मदूमहामान्यानां धन्यतमानामादेशानुसारेणेयद-न् चतुर्दशपूर्वधर-दशपूर्वधर-श्रुतकेबलिप्रभृतयो महानुभावा वश्यमाभाषितुं शक्यते-यदस्मिन् दुषमागपरपयांये पञ्चमे महात्मानो ये केचनाऽऽसन् तेषामतिशयवैजयचशादू मूलादेकाले धर्माजासानामेव विशेषतः प्रायशः प्रचारो भवितुमईति वार्थज्ञानं सुकरमतः स्पष्टीकरणप्रवणटोकादिपुस्तकादीनामा* धर्मस्य चाऽवनतिदशा नवितुं युज्यत इति । वश्यकतैव नासीत्, परन्तु तादृशज्ञानविकलानां जौवामामर्वापुनरप्यत्र पर्यनुयोगेन स्मृतिसरणावधिरुह्यते-यत्तेषामन्यतम चामवधारणधुरां योदुमसमर्थानां विस्मृतपदार्थसार्थस्मृतिमा गस्तारशः को नुधर्मानिधयधुरामधिरोहति तत्रेधं प्रातबाक्यमु लभमानानां बर्बोधस्य गहनातिगहनविषयस्य स्यावादिक. मा पढौकयन्याहनाभियुक्ताः-यहर्मप्रवर्तक पुरुषारागद्वेषकापङ्का दर्शनस्य विशदीकरणाय भगवद्भिः श्रीभबाहुस्वामिप्रमुखैकिताङ्गविकनाभवेयुर्धर्मश्च कुञ्जरादिपिपीलिकापर्यन्तस्य कस्या यद्यपि नियुक्ति-भाष्य-चूर्णि-टीकाऽऽदीनां रचना कृता, तथापि * पिप्राणिनः परमप्रेयःप्राण परिवर्तनोपदेष्टा न स्यात,प्रत्युत शाश्व साम्प्रतं जैनग्रन्थस्य भूयान् विस्तरः समजनि, यदधुना स्वतमशाश्वतंच श्वःश्रेयसमेव प्रापयितुं प्रभवेत, स एव धर्मपदोपा- | ल्पीयसाऽऽयुषा न कोऽपि कमो मनुष्यः सांसारिक कृत्यं स* देयपदवीमाङ्कर्तुम बम ।परमार्थतो यदीरतः परमार्थः परामृश्य | माचरन् गृहस्थविरक्तान्यतरोऽमुष्मानशासनसागरात् पार* *त तदा तत्र जवतांतीर्थकराणामथवाजगवतो बर्द्धमानस्येवाड-मुत्तरीतुम हेतुरयमत्र विभाव्यते-यत् प्रथमतः सर्वेषां ग्रन्थानां सन्नोपकारित्वेनानेकान्तजयपताका प्रादुर्भयात् । यतस्त एववि- समुपलान्धरव न सर्वत्र समुपजायते, ये चाल्पायांसः क्वचित * मनकवलालोकन कासत्रयवतिसामान्यविशेषात्मकनिखिलपदा- क्वचिदपि समुपलभ्यन्ते, के विषयाः कुत्र तत्र विन्यस्ता इति * सार्थवेत्तारः, शक्राणामाप जन्मस्नात्राद्यष्टमहायातिहार्यादि. सर्वसाधारणस्य तावतो ज्ञानम्सुकरम् । यदि कस्यापि कस्मि* संपादनेनार्चना, अवितयवस्तुतत्यप्रवक्तारः, शान्तरससरस-आप ग्रन्थ ज नपि अन्धे जायेतानि विषयाणां यथाकथञ्चिदुपलब्धिस्तथापि * स्वान्तत्वेन रागद्वेषविजयकार, राकान्तश्च तेषामहिंसा पर चेमेऽनिधेया अन्यत्रान्यत्र ग्रन्थे च कुत्र कुत्र भविष्यन्तीति # * मो धर्म इति ॥ परामर्शवैदग्भ्यविधुरधुरामधिरुह्याल्लब्धवर्णोऽपि। * यद्यपि पृथग्भूतेवितो धर्माभासेयपि किंपाकपाकोपलिप्ता- कारणान्तरमप्येतत- यदिदं जैनदर्शनं यस्याम् (अमागध्याम् ) 2 यसदेच्या हिमागर्भिता अहिंसा भगवती यत्र तत्र वित्रोक्यते- भाषायामनिनिबरूम,एपा सैव,यया प्राक्तनसमये भारतभूम्यां *तस्या जिघृता मधुदिग्धधाराकरालकरवाजाप्रलोलरसनानामि, मातृभाषात्वेन. राष्ट्रनापात्वेन च स्थान प्रापि । यस्याश्व तीर्थ* व जनानां न सुखाकरोतीति एकत्रामत्रे संपृक्तविषमधुकल्पेव करगणधरप्रभृतिभिर्महानादरः कृतोऽमुष्या पय भाषायाः प्र-* * न युक्ता । यतस्तेषु जन्मादिदुःखमुमुक्षूणां प्राधान्येन कारणता | चारः प्रचलितसमये कियानपि क्वापि नोपज्यते । यदपि तस्या नोपलन्यत, अपि तु यद्यंशतस्तत्र दया ऽभिनिविणा, हि-दशरूपकादिषु यत्र तत्र पात्रप्रभेदप्रयुक्ता कतिपयप्रभेदनिन्ना ** साऽपि तान्यांशतो जागर्ति,यथा संसारमोचकानामिदमैदंपर्य- प्राकृतभाषा दृष्टिपधमधिरोहति, तदपि तनिम्ननिहितच्छाया*म-यदि नरपशुशकुनिष्यन्यतमः कोऽपिनवेऽस्मिन् संसारखेट-त एवं कार्य निर्वहन्ति यथाकथञ्चित सबऽपि पाठकाः। नामनुभवति,तर्हि तस्येतोदेखतः पृथककरणमेव दयापरवशानां यदि केनापि प्राकृतप्रकाशादिव्याकरणदर्शनेन समज्यस्ताव *कत्तव्यमिति । सप्ततन्तुप्रवणानां यज्वनां तु ताहकमवसरमासा-शुद्धा प्राकृतभाषा.न तावत्या जैनागममूलसूत्राणां नियुक्तिगाथा-4 tit***********tttttttttttttttttttttttttt.t************ * htttttttttt.********************************************************************* ******* Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) प्रिभृतीनां तात्पर्यधारण रादिभिरसं मागध्यामेवैषां प्रस्तावः प्रस्तुतः, या च सामान्यप्रा नभाषा नेतरा उपोद्घातः । प्रोकोपकारः स्यात् स तु युष्मन्तु यमात्रऽर्थे ताटस्थ्यमुपगताः । ततः समास्याभिधानस्य विशेषप्रयाराय शीशकाक्षरे: पुरविणपथेषु मुद्रापवितुमेष निखित्य प्रारज्यते स्म । पुनरस्य शोधनादिभाराः सुराणामु गतवति समयेतु गुरुपापरायणाः श्रममविगणय्यान्ते यासिजनाः स्वस्वाचार्यमुखाम्भोजसकाशात् समुपलब्धमधुबिन्दुनिकरसटकसूत्रानुपूर्वीतदर्थान् संचिन्नानाः कण्ठस्थं कुर्वन्त एव कृतकार्या बभूवुः किन्त्वद्यश्वीनायास्तार या परिपाठ्याशी पादानदर्शनचारिणां भूमिका यान् ह्रासः समजनि । संक्षिप्त विवरणं चास्याऽत्रैव प्रथम नागे "अहादिव" शब्दे तस्मजिज्ञासुभिईष्टव्यम् । जगत्स कर्तृकत्व - शब्दाकाशगुणत्वाऽद्वैतवादादिखमनेन एनवतीति दिमितद्केन्द्रियाणां भावेन्द्रियज्ञानस्थापनेन च जैनदर्शनस्यातिगा दीपविजय मुनिश्री यतीन्द्रविजयाभ्यां जगृहे, यावस्मिन् कार्ये पूर्णाऽभिशौ बर्तते । अतः परं चक्कयान्तरं ज्ञाषा (हिन्दी) सेयम पादचानकपणे समवाय सत्ताऽपोहचेाऽपौरुषेयत्य निरोदय वैतादर्शी दुर्दशामस्माकं गुरु श्रीधर्मी पागच्छी कलिकाल सर्वज्ञकल्पभट्टारक १००८ श्रीमविजयराजेन्द्रसूरीश्वर महाराजानां चेतसि चिन्ताऽतिमहती समुपस्थिता यत्प्रत्यहमानचार्मिक दार्शनिक हानि रेवोपजायते, कारणादस्मादेवाज्ञा बहवः सुइं मन्वानाः का मर्तुमन्त तथा स्वयो विस्मृति सरणिमाश्रिता इव । ततः किमस्यामवस्थायां करणीयमस्मा. भितः संसारेऽस्मिनसारे तस्यैव मत्स्य निः साधिका येन यथाशक्यमात्मधर्म स्योन्नतिः ः कृता । अन्यथा 39 संपादनः कञ्चिदर्थे जातिक्रियागुणैः। यच्चाशब्दवत् पुंसः संज्ञायै जन्म केवलम् ॥ अथवा - " स लोहकारभस्त्रेव श्वसन्नपि न जीवति "। इति लौकिकोकिं सार्थकयति । एतादृक्षो विमर्शश्चतलि प्रभूतामुवास, किन्तु कदाचिदेकस्यां कणदायां सहसा विचारः प्रा ुर्बन्त्र - कोऽप्येकस्तादृशो ग्रन्थः प्रने पाचन वस्मिन् जैनागममागीभाषा नमकार मनो विन्यासं विधाय गीर्वाणभाषायां स दनुवाद लिङ्गभ्युत्पत्तिवाच्यार्थान् निधाय समनन्तरं यथासंभवं तउपरि मूलसूत्राणां पाठनिर्देशपुरःसरं समुपलब्धपुरातनटीकाचूर्यादि विवरणं दत्वा स्पष्टयितव्यः । यदि स एव विषयो प्र ग्रेप्युपलभ्येत सा तदनुपदमेव सोऽपि निर्देश्यः प्रा. तर्हि यशोऽस्माद् निजमनोनुकूलो लोकस्योपकारो भविष्यतीति । यो समुदाय सुन्वनित्यनैमित्तिकः क्रियाः समाप्यास्य प्रकृतकार्यस्य भारमुबाह । समाहितमानसेन द्वाविंशतिया महानमपि श्रममचिगनकार्यमे संपूर्णम्यभिधानजेन्द्र'नामा कोशः प्रकृतादभूतमागध्यां विरचय तु भागेषु वित्तक्तः । अर्थका नया धावक शिष्याच मुनयः श्रीमपाध्याय मोहन विजयदीप विजययतीन्द्र विजयप्रभृतयः साधवो विप्रार्थनापुरःसरं व्यजिज्ञपन-भगवन् मणि प्रन्ध प्रन्धान्तरयमः पुस्तकमाहागारेध्येय नि हितः स्थास्यति तदा कियन्तो जना अनर्घ्यस्यास्य प्रवररक्षस्पेय कोपरस्य लाभभाजी जयिष्यन्ति । तस्मादनेषु देशदेशान्तरेषु यया रीत्या नूयान् प्रचारः स्यात्, तदुपायः क. रणीय गुरुचरणावितिपुरस्सर निवेद्यामः । तदुत्तरं प्रशान्तगम्नीरया गिरा श्रीसूरीश्वराः नातिस्तोकश्वडुनं प्रोचुः-अमात्मीयं करणीयं पूर्तिमनयमतः परं येनोपायेन * * * * अथ वस्तुनः स्याद्वादात्मकत्वं सप्तमङ्गरूपणेन सुखो स्थादिति प्रथमं तस्या निरूपणम् एकत्र वस्तुभ्ये कचर्मपर्यनुयोगवशाद विरोधेन स्पस्तयोः ममस्तयोष विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराद्वितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तङ्गी ॥ एक जीवादी वस्तुनि एकैकस्यादिधर्मविषयवशादविरोधेन प्रत्यज्ञादित्रायापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयो श्च विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छन्दलान्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्ग। विज्ञेया । मनः पुनरिमे स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिविकल्पनया प्रथमो भङ्गः १ निषेधकल्पनया द्वितीयः 2 स्यान्नाऽस्त्येव सर्वमिति स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकरूपनया तृतीयः स्यादवक्तव्यमेवेति युगपद् विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः ४ स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद विधिनिषेधकल्पनाच पञ्चमः ए स्पानास्त्वेव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेवकल्पनया युगपद विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः ६ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्या दवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः ७ स्वादित्यच्ययमनेकान्त द्योतकम् स्यात् कथचि स्वय क्षेत्रकालभावको अपेव सर्व कुम्मन पुनः पर द्रव्य क्षेत्र कालनावरूपेण । तथाहि कुम्नो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनास्ति, न जलादिरूपत्वेन । क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकत्वेन, न कायजादित्वेन कालः शैशवेन न वासन्तिकादित्वेन । भावतः श्यामत्येन न रक्तत्वादिना । श्रन्यथा इतररूपापस्त्या स्वरूपहानिः स्यादिति । अत्र भने पारस्तु अभिमता व्यावृत्यर्थमुपालम् अवेव कुम्भ इत्याद कुम्नस्य स्तम्भाद्यस्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वप्राप्तेः प्रतिनियतस्यानुपपत्तिः स्यात् स्वादिति युज्यते, स्यात् कोऽर्थः कञ्चित् स्वव्यादिभिरेवायमस्ति न परच्यादिभिरपत्यर्थः । (२) स्वद्रव्यादिमिर प दिभिरपि वस्तुनोऽसत्वानिष्टौ हि प्रतिनियत स्वरूपाजावाद्वप्रतिनियम विरोधः । न चास्यैिकान्तवादिन नास्ति Sonal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************************************************** उपोद्घातः। *********** त्वमसिमित्यभिधानीयम. कथञ्चित् तस्य वस्तुनि युक्ति-स्पादन्ययधौव्ययुक्तं सत्"। समस्वनावत्वे हेतुस्तु स्यादवादः, सिरुत्वात् साधनवत् । न हि कचिदनित्यत्यादी साध्ये सत्त्वा-नित्यानित्यायनेकधर्मशवकपस्दभ्युपगम इत्यर्थः। तदनभ्यु दिसाधनस्यास्तित्वं विपके नास्तित्वमन्नरेणोपपत्रम्, तस्य | | पगमे सर्ववस्तूनां स्वरूपदानिप्रमङ्गः, कस्यचित् न्योमादिवस्तु Mसाधनाभासत्वप्रसङ्गात् । अथ यदेव नियतं साभ्यसभावेऽ- | नित्यमेय, अन्यस्य प्रदीपादिवस्तु अनित्यमेवेत्यस्य प्रतिक्केप स्तित्वं तदेव साध्यानावे साधनस्य नास्तित्वमभिधीयते, त- |स्तु दिक्मात्रमुच्यते-सर्वे नावा व्यार्थिकनयापेक्वथा निया, *कथं प्रतिषेध्यम् ?, स्वरूपस्य प्रतिषेधत्वानुपपत्तेः, साध्य- पर्यायाथिकनयादेशात् पुनरनिन्याः, तत्रैकान्तानियतया परै-* सद्भावे नास्तित्वं तु यत् तत् प्रतिषेध्यम्, तेनाविनाभावित्वे | रङ्गीकृतस्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्वव्यवस्थापनमित्थम ।त. *साध्यसद्भावास्तित्वस्य व्याघातात तेनैव स्वरूपेणास्ति नास्ति- | थाहि-प्रदीपपर्यायापम्नास्तैजसाः परमाणषः स्वरसतः तै चेति प्रतीत्यनावादिति चेत् । तदसत् । एवं हेतोत्रिरूपत्वविरो. | सक्कयात् बातानिधाताद् वा ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य तमो. धात् । विपक्षासत्वस्य तारिखकस्या नावात् । यदि चायना-रूपं पर्यायान्तरमासादयन्तोऽपि जैकान्तेनानित्याः ; पुझलकवाभावयोरेकत्वमाचक्षीत, तदा सर्वथा नकचित् प्रवतेत व्यरूपतयाऽवस्थितत्वात् तेषाम । न घेतावनेचानित्यत्वं या तश्विनिवर्तेत । प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयस्य भावस्थानाव- | बता पूर्वपर्यायस्य नाश उत्तरपर्यायस्य चोत्पादः ! न खलु परिहरिणासंभवात्, अभावस्य च भावपरिहारेणेति वस्तुनो. | मृदुव्यं स्थासक-कोश-कुशूल-शिवक-घटाद्यवस्थान्तरमाप. स्तित्वनास्तित्वयोः रूपानन्तरत्वमष्टव्यम् । तथा चास्तित्वं नास्ति- | चमानमप्येकान्ततो विनष्टम, तेषु मृदच्यानुगमस्याबालगोपा* त्वेन प्रतिषेध्येनाविनानावि सिद्धम। यथा च प्रतिवेध्यमस्ति- | वं प्रतीतत्वात्। न च तमसः सैद्गलिकत्वमसिकम, चाकुषत्वास्वस्य नास्तित्वं तथा प्रधानभावतः क्रमार्पितोजयत्वादिधर्म- | न्यथाऽनुपपत्तेः, प्रदीपालोकवत् । अथ यश्चाक्षुषं तत्सर्व स्व. पञ्चकमपि वक्ष्यमाणं लवणीयम् ॥ (३) सर्वामति द्विती-तिभासे पालोकमपेक्कतेन चैवं तमः तत् कथं चाक्षुषमा नैवम् । सयलक्षणादिहोत्तरत्र चानुवर्तनीयम् । ततोऽयमथ:-क्रमापि- उलूकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासनात, येस्त्वस्मदादि तस्वपरव्यादिचतुष्टयापेक्या क्रमार्पिताभ्यामस्तित्वनास्तित्वा- भिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते, तैरपितिभ्यां विशेषितं सर्व कुम्नादि वस्तु स्यात् ( कथञ्चित् ) मिरमालोकयिष्यते, विचित्रत्वाद् भावानाम्।कथमन्यथा पौत अस्त्येव, स्यात् ( कथञ्चित ) नास्त्येवेत्युल्लेखेन वक्तव्यमि- | श्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या श्रासोकापेकदर्शनाः, प्रदीप-* यति ॥ (४) द्वाज्यामस्तित्वनास्तित्वास्यधर्माज्यां युगपत | चन्छादयस्तु प्रकाशन्तरनिरपेक्षाः, इति सिकं तमश्चाक्षुपम् । प्रधानतयाऽर्पिताभ्यामकस्य वस्तुनोऽनिधित्सायां ताहशस्य | रूपवत्त्वात् स्पर्शवत्वपपि प्रतीयते,शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात्। शब्दस्यासम्भवादवक्तव्यं जीवादि बस्विति । तथादि-सद- | | यानि त्वनिविमावयवत्वमप्रतिघातित्वमनुदूनूतस्पर्शविशेषत्व सत्वगुणद्वयं युगपदकत्र सदित्यमिधानेन वक्तुमशक्यम्, | मप्रतीयमानखगमावयविषयमविभागत्वमित्यादीनि तमसः * * तस्यासत्यप्रतिपादनासमर्थत्वात् । तथैवासदिति अभिधानेन पौद्गलिकत्वनिषेधाय. परैः साधनान्युपन्यस्तानि, तानि प्रद * न सद् वक्तुं शक्यम, तस्य सत्त्वप्रत्यायने सामथ्याभावात् । | पप्रभारष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि, तुल्पयोगकेमन्यात । न च वा-* पसाङ्कतिकमेकं पदं तदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यम्, च्यम-तैजसाः परमाणवः कथं तमस्त्वेन परिणमन्त ? इति । * * तस्यापि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तः । “ती सत्" पदगलानां तत्तत्सामग्रीसहकृतानां विसदृशकार्योत्पादकत्व*३।२।१३७ । (पाणि) इति शतृशानचोः संकेतितसच. | स्यापि दर्शनात्। दृष्टो ह्यान्धनसंयोगवशाद भास्वररूपस्या*वत् । इति सकलवाचकरहितत्वादवत्तव्यं वस्तु युगपद स-पिबहेरनास्वररूपधूमरूपकार्योत्पादः, इति सिद्धो नित्यानित्यः ** दसत्वाभ्यां प्रधानजावार्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते । (५) स्व-प्रदीपः । यदपि निर्वाणादर्वाक देदीप्यमानो दीपस्तदाऽपि * द्रव्यादिचतुष्टयाऽऽपेक्वयाऽस्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वान्यां सह | नवनवपर्यायोत्पादविनाशभाक्त्वात प्रदीपत्वान्वयाच्च नित्या+ वक्तुमशक्यं सर्व वस्तु; ततः स्यादस्स्यैव स्यादवक्तव्यमे-| नित्य एव ॥ एवं व्योमापि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वात्रिस्या* वेत्येवं पञ्चमभनेनोपदयते इति (६) परजन्यादिचतु- नित्यमेव । तथाहि-अवगाहकानां जीवपद्लानामवगाहदानो. *टयापेक्षया नास्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वाभ्यां योगपधेन प्रति- | पग्रह एव तलकणम, अवकाशदमाकाशम' इति वचनात् । यदा पादयितुमशक्यं समस्तं वस्तु, ततः स्थानास्त्यव स्यादवक्तव्य- चाचगाहका जीवपुद्रलाः प्रयोगतो विन्नसाता वापकस्मानमःमेवेत्येवं पष्ठभड्रेन प्रकाश्यते (७) स्वपररुयादिचतुष्टयापेकया- प्रदेशात्प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति, तदा तस्य व्योम्नस्तरवगाहकैः ** ऽस्तित्वनास्तित्वयोः सतोरस्तित्वनास्तित्वाभ्यां समसमयमभि- सममेकस्मिन् प्रदेशे विभागः, उत्तरस्मिन् प्रदेशे च संयोगः,सं.* धातुमशक्यमखिलं वस्तु, तत पयमनेन भनेनोपदश्यते इति ॥ | योगविभागौ च परस्पर विरुद्धौ धौ, तद्नेदे चावश्यं धउक्तंच मिणो भेदः। तथा चाहुः-"अयमेव हि नेदो भेदहेतुर्या यद् विरु“या प्रश्नाद् विधिपर्युदासनिदया बाधच्युता सप्तधा, धर्माध्यासः कारणभेदश्च" इति । ततश्च तदाकाशं पूर्वसंधर्म धर्ममपक्ष्य वाक्यरचनाऽनेकात्मके वस्तुनि ॥ योगविनाशलकणपरिणामापत्त्या विनष्टम, उत्तरसंयोगोत्पादानिर्दोषा निरदशि देव ! जवता सा सप्तभङ्गी यया, स्यपरिणामानुभवाच्चोत्पन्नम,उभयत्राकाशाव्यस्यानुगतत्या-* च्चोत्पादव्यययोरेकाधिकरणत्वम् । तथा च 'यदप्रच्युतानुत्पजल्पन जल्परणाङ्गणे विजयते वादी विपक्ष कणात् ॥१॥" अस्थिरेकरू नित्यम्' इति नित्यलक्षणमाचकते, तदपास्तम । अथ समजगीदर्शित दिशा स्यादवादास्तित्वम् |एवंविधस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽनावात् । 'तभावाव्ययं नि त्यम, इति तु सत्यं नित्यनकणम् । उत्पाद विनाशयोः सभा* दीपादारभ्य व्योमपर्यन्तं सर्व वस्तु समस्वरूपम, यतो घ-वेऽपि तदभावादन्वयिरूपाद यन्न व्यति तन्नित्यम् इति तदथ* स्तुनः अव्यपर्यायात्मकत्वमिति। वाचकमुख्योऽप्येवमेवाह-"न-स्य घटमानत्वात् । यदि हि अप्रच्युतादिनकणं नित्यामष्यते, ************************ * *** ******************* ***************************************************ttit* *************: Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******* ********************************************************* उपोद्घातः। तदोत्पादव्यययोनिराधारत्वप्रसङ्गः, न च तयोोंगे नित्यत्व- "प्रध्वस्ते कलशे शुशोच तनया मौलौ समुत्पादिते, हानिः । " द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया अव्यवर्जिताः कि कदा पुत्रः प्रीनिमुवाह कामपि नृपः शिश्राय मध्यस्थताम् । *कन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा?॥" इति वचनात् । न चा- पूर्वाकारपरिकयस्तदपराकारोदयस्तयाकाशं न यम, लौकिकानामपि घटाऽऽकाशं पटाकाशमि- | धारश्चैक इति स्थितं त्रयमयं तत्त्वं तथाप्रत्ययात् ॥१॥" नि व्यवहारप्रसिकेराकाशस्य नित्यानित्यत्वम । घटाकाशमपि | तथा च स्थितं नित्यानित्याने कान्तः कान्त एवेति । एवं सदसदहि यदा घटापगमे पटेनाकान्तं, नदा पटाकाशमिति व्यवहारः। | नेकान्तोऽपि । नन्वत्र विरोधः। कथमकमेव कुम्नादिवस्तु सन चायमौपचारिकत्वाद् प्रमाणमेव, उपचारस्यापि किञ्चिन्मा- |च, असच जबति? सत्त्वं ह्यसत्यपरिहारेण व्यवस्थितम, श्र येद्वारेण मरूयार्थस्पर्शित्वात नजसो हि यत किल सर्व-सत्त्वमपि सत्त्वपरिहारण, अन्यथा तयोरविशेष: स्यात् । तत-* व्यापकत्वं मुख्य परिमाणं तत्तदाधयघट स्टादिसम्बन्धिनियत | श तयाद सत, कथमसत् । अधासत, कथं सदिति । तदनवम परिमाणवशात् कल्पित नेदं सत् प्रतिनियतदेशव्यापितया व्यव- |दातम्। यतो यदि येनैव प्रकारेण सत्त्वम्, तीवाऽसत्त्वम, यमेव हियमाणं घटाकाशपटाकाशादि तत्तत् व्यपदेशनिबन्धनं भवति | चासत्त्वम्, तेनैव सत्त्वमन्युपेयत, तदा स्याद्विरोधः । यदा तु * तत्तद्घटादिसम्बत्धे च व्यापकत्वेनावस्थितस्य व्योम्नोऽवस्थान्त- | स्वरूपेण घटादित्वेन, स्वद्रव्येण हिरण्मयादिवेन, स्वकेत्रण राऽऽपत्तिः, ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थावतोऽपि भेदः, तासांततोऽ- नगरादित्येन,स्वकालत्येन वासन्तिकादत्वेन सत्त्वम्,पररूपा. 22 विष्वगभावात् । इति सि नित्यानित्यत्वं व्याम्नः । इति | दिना तु पटत्यतन्तुषग्राम्यत्वग्रेमिकत्वादनाऽसत्यम, तदा क* नेकान्तनित्यपक्का युक्तिक्षमः। विरोधगन्धोऽपि । ये तु सौगताः परासत्त्वं नाभ्युपयन्ति, तेषां * स्यादवादे तु-पूर्वोत्तराकारपरिहारस्वीकारस्थितिलक्षणपरि घटा सर्वात्मकत्वप्रसङ्गः । नथाहि-यथा घटस्य स्वरूपादिना रणामेन भावानामकियोपपत्तिरविरुका । न चैकत्र वस्तुनि प सत्वं तया यदिपररूपादिनाऽपिस्यान तथा सति स्वरूपादित्वयत रस्परविरुधर्माध्यासायोगादसन् स्याद्वाद इति वाच्यम् ?, पररूपादित्वप्रसक्तः कथं न सर्वात्मकत्वं भवेत? परामत्त्वेन तु नित्यानित्य पवित्रवणस्य पक्वान्तरस्याङ्गीक्रियमाणत्वात् ,त. प्रतिनियतोऽसौ सिध्यति । अथ न नाम नास्ति परासत्वम, किन्तु धैव च मग्नुनवात् । तथा च पठन्ति स्वसत्त्वमेव तदिति चेत; अहा! नूतन. कोऽपि तर्कवितर्ककर्कat "भागे सिंहो नरोजागे, योऽर्थो भागद्वयात्मकः । शः समुल्लापः। न खलु यदेव सत्त्वम, तदेवामत्त्वं भवितुमर्हति; तमभाग विभागेन, नरसिंह प्रचक्षते" ॥१॥ विधिप्रतिषेधरूपतया विरुद्धधर्माध्यासेनानयोरक्या योगात् । एवं चोपस्थितमिदं नित्यानित्यात्मकं वस्तु उत्पादव्ययधाव्यात्मक- अथ पृथक तन्नाभ्युपगम्यते; न च नान्युपगम्यन एवेति किस्वान्ययाऽनुपपत्तेरितिा तथाहि-सर्व वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते, मिदामन्जालम् । ततश्चास्थान मिदमिन्द्रजालम् । ततश्चास्यानकरमसत्वमेवाक्तं भवति । *विपद्यते वा,परिस्फुटमन्वयदर्शनात खूनपुनर्जातनस्वादिषु अन्ध पवं च यथा स्वासत्वासत्त्वात्स्व त्वं तस्य,नशा परासस्वासयदर्शनेन व्यभिचार पति नवाच्यमाप्रमाणेन वाध्यमानस्यान्बय स्वात्परसस्वप्रसक्तिरनिवारितप्रसरा; विशेषाऽभावात । अथ स्यापरिस्फुटत्वात् । न च प्रस्तुतोऽन्य यः प्रमाणविरुरूः सत्यप्र नाभावनिवृत्त्या पदार्थों नावरूपः प्रतिनियतो वा भवति, त्यनिहानारूद्धत्वात् ततो रूच्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः, अपि तु स्वसामग्रीतः स्वस्वभावनियन एवोपजायत इति किम पर्यायात्मना तु सर्व वस्तूत्पद्यते, विपद्यते च , अस्स्वलितप परासवेनति चत? न किञ्चित् केवलं स्वसामग्रीतः स्वस्वभार्यायानुजयसनावात् । न चैवं इके शो पीतादिपर्यायानुभवेन वनियतात्पतिरेव परासत्वात्मकत्वम्यतिरेकेण नोपपद्यत, पारव्य भचारः, तस्य स्खलद्रूपत्वात् । न रूलु सोऽरूरू. दुरूपी, मार्थिकस्वासस्वासत्यात्मकस्वसत्वनैव परासखासत्त्वात्मकायेन पूर्धाकारविनाशाजहत्तोसराकारोत्पादाविनाभावी भवेत्। रसत्वनाप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् । इति सूक्तः सदसदनेकान्तः । एवन च जीवादी वस्तुनि हामदासीन्यादिपर्यायपरम्परानु मपरेऽपिजेदानेदानेकान्तादयः स्वयं चतुर्विवचनीयाः संमतिभयः स्खल दुरूपः, कस्यचिद्वाधकस्याभावात् । ननुत्पादादयः तर्कादिन्यो विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते। परस्परं नियन्ते, नया? यदि भियन्ते, कथमेकं यस्तु यात्मक अतोऽनकान्तवाद एव सन्मार्गः । यदाहमन भिद्यन्ते चेत् , तथापि कथमेक श्यात्मकम? । तथाच " इच्चेयं गणिपिमगं, निच्वं दवष्टियाएँ नायम्यं । 2 " यद्युत्गन्यादयो मित्राः, कथमेकं त्रयात्मकम। पज्जापण अणिचं, निच्चानिच्चं च सियवादो॥१॥ * अथोत्पत्यादयोऽनिम्नाः, कथमेकं त्रयात्मकम?॥१॥" जो लियवाय भासति, पमाणनयपेसलं गुणाधारं। इति चेत् । तदयुक्तम् । कथञ्चिद्भिन्नलकणत्वेन तेषां कश्चि. नाव से ण ण सय, सो हि पमाणं पवयमस्स ॥२॥ जेदाज्युपगमान् । तथाहि-उत्पादांवनाशध्रौव्याणि स्याद्भि जो सियवायं निंदति, पमाणनयपेसनं गुणाधारं। *नानि, मिन्न लक्षणत्वात, रूपादिवत । न च भिन्नलकत्वमसि भावेण दुटुनावो, न सो पमाणं पवयणस्स ॥ ३॥" दम । असन प्रान्मलाभः, सतः मत्तावियोगः, अभ्यरूपतया:नुवसनं च खलू पाहादानां परस्परमसंकीर्णानि लक्षणानि स अथ समवायखएडनम्*कनलोकसालिकागयेव । न चामी भिन्नवक्षणा अपि परस्प- भयुतसिद्धानामाधार्याधारभूनानामिहप्रत्यय हेतुः सम्बन्धः रानपेकाः, स्वपुष्पवदमन्वापत्तः । तथाहि-उत्पादः कंवलो समवायः । स च समवयनात् समवाय इति, व्यगुणकर्मनास्ति, स्थितिविगमरदिनत्वात, कमरोमवत । तथा विनाशः सामान्यविशेषेषु पञ्चमु पदार्थेषु वर्तनाद वृत्तिरिति चास्याकर । नास्त, स्थित्युम्पत्तिगहनत्वान्, तद्वत् । एवं स्थितः यते । तया वृत्त्या समवायसम्बन्धेन तयाधर्मधर्मिणोरितरेतर.. 2 केवला नाम्नि, विनाशात्पादशून्यत्वात, नदव । इत्यन्योन्या-विनिलएितत्वेऽपि धर्मधर्मिव्यपदेश इष्यते । पहाणामुत्पादादीनां वस्तुनि सल्यं प्रतिपत्तन्यम् । तथा च क अत्र जैनाचार्या वदन्तिथं ने यात्मकम् । उक्तं च पञ्चाशति अयं धर्मी, इमे चास्य धर्माः, अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं ******************************************************************************************* "Forpivate a Personal use only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %%** *********** ***** 专林林林林林法本法未幸苦苦种幸未未未字未考法李李李李幸幸苦苦主本本本本本学李李李李学学 उपोद्घातः। समवाय इत्येतद् वस्तुत्रयं ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते । अथ सत्तानिरसनम्यथा शिलाशकमयुगलम्य मिथोऽनुसन्धायकं रालादिन्यं अविशेषण सठियपि सर्वपदार्थेषु च्यादिवेव त्रिषु * तस्मात भिनीयतया प्रतिभासते, नेयमन समवायस्यापि |RATARAN: चीक्रियते न सामान्यादित्रये, इति महतीय अप्रतिभानम; किन्तु योरेव धर्मधर्मिणो, इति शपथप्रत्यायनी पश्यतोहरता। यतः परिजाव्यतां सत्ताशब्दस्य शब्दार्थः । योऽयं समवायः। किसायं वादिना एको नित्यः सर्वव्यापकोs अस्तीति सन्, सतो भावः सत्ता, अस्तित्वं तद्वस्तुस्वरूप नि. *मूर्तच परिकल्प्यते, ततो यथा घटाश्रिताः पाकजरूपादयो ध. विशेषमशेषेवपि पदार्थेषु त्वयाऽप्युक्तम् । तत्किमिदमर्द्धजर*माः समवायसम्बन्धेन समवेताः, तथा किन पटेऽपि, तस्यैक तीयम्-यद्व्यादित्रय एव सत्तायोगो नेतरा ति अनुवृत्तिस्वनित्यत्वब्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् । यथाऽऽकाश एको प्रत्ययाऽभावान्न सामान्यादित्रये सनायोग इति चेलान । त. *नित्यो व्यापकोऽमूर्नश्च सन् सर्वैः सम्बन्धिनिर्युगपदविशेषण प्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्यानिवार्यत्वात् । पृथिवीत्यगोत्यघटत्यादि* संबध्यते, तथाकिं नायमपीति विनश्यदेकवस्तुसमवायाना | सामाम्येषु सामान्य सामान्यमिति । विशेषेष्यपि बहुत्यादयमपि वे च समस्तवस्तुसमवायाऽभावः प्रसज्यते । तत्तदवच्छेदक- विशेषोऽयमपि विशेष इति।समवाये च प्रागुक्तयुक्त्या तत्तदवभेदानायं दोष इति चेदेवमनित्यत्वापत्तिः, प्रतिवस्तुस्वभावभे- च्छेदकोदादेकाकारप्रतीतरेनुभवात् । स्वरूपसवसाधयेण *दादिति। अथ कथं समवायस्य न ज्ञाने प्रतिज्ञानम? यतस्त सत्ताऽध्यारोपासामान्यादिवपि सत्सदित्यनुगम इति चेत्तहि स्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनम् । इहप्रत्ययश्चानुभवसिक- मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते। अयमिन्नस्वभाववेकानुगमो मिध्येधेएव । ह तन्तुषुपटः, वहात्मनि कानमिद घटे रूपादय इति प्र ति चेद्रव्यादिण्यपिसत्ताध्यारोपकृत पवास्तु प्रत्ययानुगमः। - * तीतेकपलम्भात् । अस्य च प्रत्ययस्य केवलधमंधम्यनालम्ब- मति मोऽध्यारोपस्थासंनवात जव्यादिषु मुख्योऽयमनुगतः नत्वादस्ति समवायास्य पदार्थान्तरं तबेतु, इति पराशङ्काम प्रत्ययः, सामान्यादिषु तु गौण ति चेत् । न । विपर्ययस्यापि भिसन्धाय पुनरुच्यते-त्वन्मते यथा पृथवीत्वाभिसम्बन्धात्पृथ शक्यकल्पनत्वात् । सामान्यादिषु बाधकसंभवान मुस्योऽनुगतः * वी, तत्र पृथवीत्वं पृथिव्या एव स्वरूपमस्तित्वाख्यं नापरं 2 वस्त्वन्तरम् । तेन स्वरूपेणैव समं योऽसावभिसम्बन्धः पृ. प्रत्ययो,कच्यादिषु तु नदभावान्मुख्य इति चेद्, ननु किमिदं बाध कम। श्रय सामान्येऽपि सत्ताऽभ्युपगमेऽनवस्था, विशेषेषु पुनः थिव्याः स एव समवाय इत्युच्यते, " प्राप्तानामेव प्राप्तिः सामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः समवाये पिसत्ताकल्पने तत्वृत्यर्थ * समवायः" इति वचनात् । एवं समवायत्वामिसम्बन्धात्समा सम्बन्धान्तभाव इति बाधकानीति चेत । न । सामान्येऽपि वाय इत्यपि किंन कल्प्यते । यतस्तस्यापि यत्समवायत्वं स्व सत्ताकल्पने यद्यनवस्था, तर्हि कथं न सा च्यादिषु । तेषा* स्वरूपं तेन साई सम्बन्धोऽस्त्येव । अन्यथा निःस्वभावत्वात मपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेय विद्यमानत्वात् । विशेषेषु पुनः स. *शशविषाणबदवस्तुत्यमेव भवेत्। ततश्चाइह समवाये समवाय. ताज्युपगमेऽपि न स्वरूपहानिः । स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात् । त्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव ।तता. निःसामान्यस्य विशेषस्य कावेदप्यनुपलम्नात् । समवायेऽपि * यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायेन समवेतं.समवायेऽपि समया समवायत्वलकणायाः स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवा. * यत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनीयम्, तदप्यपरणेत्य, पुस्त विघगनावात्मका सम्बन्धः,अन्यथा तस्य स्वरूपानावप्रसङ्ग रानवस्थामहानदी । ननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिसम्बन्ध. इति बाधकानावातदपि द्रव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः; निबन्धनं समवायो मुख्यस्तत्र स्वतन्नादिप्रत्ययानिव्यङ्गस्य संतिव्य व्यगणकर्मस्वेव सत्ताकस्पनम् । किश्च-तवोदि. गृहीतसकशाबान्तरजातिलक्षणव्याक्मेिदस्य सामान्यस्योजवा-नियाजव्यादित्रये मुख्यः सत्तासम्बन्धः ककीकृतः, सोऽपि वि. * त् । इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिदानावे जातरेनुदनूत-चार्यमाणो विशीर्यत । तथाहि-यदि व्यादिभ्योऽत्यन्तविलत्वामीणोऽयं युष्मत्परिकल्पित श्देतिप्रत्ययसाध्यः समवा | कणा सत्ता, तदा व्यादीन्यसहपापयेव स्युः । सत्तायोगात्स* यत्वानिसम्बन्धः, तत्साध्यश्च समवाय इति । तदेत विप- वेति चेत असतां सनायोगेऽपिकुतः सत्त्वम् , सता # चिच्चेतश्चमत्कारकारणम् । यतोऽत्रापि जातिरुवन्ती कन नि तु निष्फलः सत्तायोगः । स्वरूपसत्त्वं जावानामस्त्येवेति चेत्त. मरुध्येत । व्यरनेदेनेति चेत् । न । तत्सदवच्छेदकवशासत्तद्भेदो- शिखपिकना सत्तायोगेन । सत्तायोगात्प्राग् भावो नस. अन्यो हि घटसम-न् , नाप्यसन सत्तायोगातु सन्निति चेद्वामात्रमेतत् ।सदस* वायोऽन्यश्च पटसमवाय शति व्यक्त एव समवायस्यापि व्यक्ति Iहिलणस्य प्रकारान्तरस्थासंभवात् । तस्मात् सतामपि अभेद इति; तत्सिद्धौ सिक एव जात्युद्भवः । तस्मादन्यत्रापि युद्भवः । तस्मादन्यत्रापि स्यात्कचिदेवसत्तेति तेषां वचनं विदुषां परिषदि कथमिव नो. * मुख्य पव समवायः, हिप्रत्ययस्योजयत्राप्यभिचारात् । यदाह- पदासाय जायत । " अव्यनिचारी मुख्यो-ऽधिकलोऽसाधारणोऽन्तरङ्गश्च । । विपरीतो गौणोऽर्थः, सति मुख्य धीः कथं गौणे?"॥१॥ अपोहस्य स्वरूपनिर्वचनपुरस्सरं निरसनम्तस्मामधर्मिणोः सम्बन्धने मुख्यः समवायः, समवाये च | अपोढत्वं च स्वाकारविपरीताकारोन्मूलकन्वेनावसेयम् । अपोसमवायत्वाभिसम्बन्धे गौण इत्ययं भेदो नास्तीत्यर्थः । ह्यने स्वाकाराद्विपरीत आकारोऽनेनेत्यपोह इनि व्युत्पत्तेः । किच-योऽयमिह तन्तुषु पट इत्यादिप्रन्ययात्समवायसाधनमा | तत्त्वतस्तु न किश्चिद्वाच्यं वाचकं वा विद्यते,शब्दार्थतया कधिनोरथः, स खल्वनुहरते नपुंसकादपत्यप्रसवमनोरथम् । इह ते बुद्धिप्रतिविम्बात्मन्यपोहे कार्यकारण जावस्यैव वाच्यवाचतन्तुषु पट इत्यादेर्व्यवहारस्याऽलौकिकत्वात्पांशुलपादानाम कनया व्यवस्थापितत्वात्। पिइह पटे तन्तव इत्येवं प्रतीतिदर्शनात् इह भूतले घटाभाव ननु कोऽयम अपोहो नाम ?. किमिदम अन्यस्मा दपोहाते, अस्माद्वा अन्यदपोहते, अस्मिन् वा अन्यद-* दृश्यत्रापि समवायप्रसङ्गात् । | पोह्यत इति व्युत्पल्या विजातिव्यावृत्तं याधनेव विवक्षितं. ७-" *********************** Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) उपोद्घातः । याकारोवा यदि वा अपोहनमपोह इति अन्यव्यावृत्तिमात्रम संवेदनमुनयोरविशिष्टम अन्यथा यदि शब्दादप्रतिपत्ति इति यः पक्षाः न तावदादिमोहनानाविधेरेव कवितो न परापोः कथमम्यपरिहारेण प्रवृत्तिः । ततो विवािन्तिमोऽप्यसङ्गतः प्रतीताधित्वात् तथादिधानेति चोदितोऽश्वादीनपि बध्नीयात् यदवोचद्वाचस्पतिःपर्वतोद्देशे रिस्तीति शब्द प्रतीतिर्विधिरूपमेवबती जातिमत्योः विकल्पानां शब्दानां च गोधरा तासांच लक्ष्यते नानझिने प्रयतीति निवृतिमात्रमामुखयन्तो यदा तद्वतीनां रूपमतजातीय परावृत्तमित्यर्थतस्तदवगतेनं गां बधा प्रत्यक्षवाधितं न तत्र साधनान्तरावकाश इत्यतिप्रसिकम् । मेति चोदितो बध्नाति । तद्यनेनैव निरस्ततो जा | तेरधिकायाः प्रपे वीनां रूपमायामेव बेत्. तदा तेनैव रूपेण शब्दविकल्प पोर्विषयीभवन्तीनां कथमतया सिपरिद्वारः १ अथ न विजातीयन्यायसं व्यक्तिरूपं तयाप्रतीतं या तदा जातिप्रसाद] एच इति चमर्थतोऽपि तद्मगतिरित्युक्त प्रायम् अथ जातिबादेवायतो यत्युम भवतु जातिद्वात् वदेत्परम्परा बलाद्वाऽन्यव्यावृत्तम् । उजयथाऽपि व्यावृसप्रतिपत्तौ व्यावृत्तिप्रतिपत्तिरस्त्येव । न चागोऽपोढे गोशसंकेत विधावन्योन्याश्रयदोषः सामान्ये तद्वति वा सङ्केते ऽपि तदोषावकाशात् । न हि सामान्यं नाम सामान्यमाश्रमभिप्रेतम तुरगे गोशब्दसङ्केताः किन्तु गोत्वम तावता च स एव दोषः, गवापरिज्ञाने गोत्वसामान्या परिक्षानात् । गोत्वसामान्यापरिज्ञाने गोशब्दवाच्या अथ यद्यपि निवृतिम प्रत्येमोति न विकल्पः तथापि नि पायले निवृत्त्युखः नह्यनन्तरजातिविशेषणतीतितितिः। ततो यथा सामान्यमहं प्रत्येमीति विक नावेऽपि साधारण कारपरिस्फुरणात विषय सामान्यबुद्धिः परेषाम तथा निवृत्प्रत्यया किसा निसिद्धिरपोदय तीतिव्यवहारमातनोतीति चेत् ?, ननु साधारणाकारपरिस्फुरणे विधिरूपतया यदि सामान्यबोधव्यवस्था; तत् किमायातमस्फुमायाकारे चेतसि निवृत्तिप्रतीतिव्यवस्थायाः । ततो निवृ तिमहं प्रत्येमीत्येवमाकाराभावेऽपि निवृत्याकारस्फुरणं यदि स्यात् को नाम निवृतिप्रतीतिस्थितिमपक्षपेत् । अन्यथा सति प्रतिमासे तत्प्रतीतिव्यवहतिरिति गवाकारेऽपि चेतसि तुरगबोध इत्यस्तु । ६ स्मात् एक पिएमदर्शनपूर्वको यः सर्वव्यक्तिसाधारण इव व हिरण्यस्तो विकल्पयाकारः, तथा गीति सङ्केतकर नेत निवृ-रेतराश्चयदोषः । अभिमते च गोशब्दप्रवृत्तावगोशब्देन शेषस्याप्यनिधानमुचितम् । न चान्यापोढान्यापोहयोर्विरोधो, विशेष्यविशेषणतिर्वा, परस्परव्यवच्छेदाभावात, सामानाधिकरण्यसद्भावात् भूतघनापत् स्वानावेन हि विरोधो न पराभावेनेत्या बालग्रसिकम् । पचपन्याः प्रमुपतिष्ठते विशेषतो विकल्पादे कन्यावृतो खिनोऽखिलान्यन्यात पोहो गम्यत एवं प्रकृतपथान्तरापेक्षया एष एव प्रप्रत्यमीक्षमाणस्य तस्याद्वियाकारावग्रहादग्याच द्विकर स्थापिदिनीकानिस्थानापेकृया प्रमेय भरण्यमार्गदिमाचिविषयत्वमेव नाम्यापोहविषयत्वमिति कथमपोदः शब्दार्थों दुपतिष्ठत एव सार्थदूतादिव्यवच्छेदेन पन्था पवेति प्रतिपदं घुष्यते ? | व्यवच्छेदस्य सुलभत्वात् तस्मादयो धर्मको विधिपस्य श दादयगतिः पुराकसम्हादिवेतिमविशिएस्य पद्मस्य । यद्येवं विधिरेव शब्दार्थो वक्तुमुचितः कथमपोहो गीयत इति चेत् ?, उक्तमत्रापोहशब्देनान्यापोहविशिष्टो विधिरुच्यते; तत्र अथ विशेषणतया अन्तर्भूता निवृत्तिप्रतीतिरित्युक्तं, तथापि गवापोटी विकल्पस्तदा विशेष वेशो भवतु, किन्तु गौरिति प्रतीतिः । तदा च सतोऽपि तिलकणस्य विशेषणस्य तत्रानुत्कलनात्ः कथं तत्प्रतीतिव्यव स्या । अथैवं मतिः- यद्विधिरूपं स्फुरितं तस्य परापोदोऽप्य स्तीतिते तथापि सम्बन्धमात्रमपोहस्य विधि रेवानी अपि महायपोहविषयत्वमनिया अत्राजिधीयते । प्रतीयमाने विशेषणतया तुल्यकालन्यायाप्रतीतिरिति मे न चैवं प्रत्यकस्याप्यपोहविषयत्वव्यवस्था कर्तुमुचिता, तस्य शाब्दप्रत्ययस्येव वस्तुविषयत्वे विवादाभावात् । विधिशब्देन च यथाऽध्यवसाय मतदूपपरावृतो वाह्योभ्योऽभिमतः प्रतिमासं दुरुयाकारस्य तत्र बाह्यग्यपयसायादेवाय व्यय स्थाप्यते न स्वपरिस्कृत्य प्रत्यदेश कालावस्थानियतमम्यकस्वलक्षणास्फुरणात् यच्छास्त्रम् नास्मानिरपदशब्देन विधिरेव केवलोभिप्रेतः नाप्यन्यन्यावृत्तिमात्रम् किमन्यापोहविधिः शब्दानामर्थविधी प्रत्येकपको पनिपातिदोषावकाशः । यतु गोः प्रतीतौ न तदात्मा परात्मेति सामर्थ्यादपोहः पश्चान्निश्चीयते इति विधिवादिनां मतम्पापापनीती या सामय अन्यापदग्धा इति प्रतिषेधादिनां मतम् । तदसुन्दरम प्राथमिकस्यापि प्रतिपत्तिकमादर्शनात् । न हि विप्रतिपद्य कश्चिदर्था पश्चितः पादमवगच्छति अरो वा प्रतिपद्यान्यापो दम, तस्माद् गोः प्रतिपत्तिरिति श्रन्यापोढ प्रतिपत्तिरुच्यते । यद्यपि चान्यापोढशब्दानुलेख उक्तः । तथापि नाप्रतिपत्तिदेवविशेषणस्यान्यापोहस्य भगवापोड पर गोशन्दस्य निवेशितत्वात् । यथा नीलोत्पले निवेशितादिन्दीवरशब्दातत्काल व नीलमस्फुरणमनिवार्य तथा गोशब्दादपि अगपापोढे निवेशिता गोत्रतीती " जातो नामाश्रयोऽन्यान्यः, चेतसाऽन्तस्य वस्तुनः । तुल्यकालमेवविशेषात् भगोपोस्फुरणमनिवार्यम् । एकस्यैव कुतो रूपं भिन्नाकारावभासि तत् ? " ५१ ॥ यथा प्रत्यकस्य प्रसह्यरूपाभावग्रहणमभावविकल्पोत्पादनशक्तिन हि स्पष्टशस्पष्ट रूपे परस्परविरु एकस्य वस्तुतः स्तः, रेव तथा विधिविकल्पानामपि तदनुरूपानुष्ठानदानशक्तिरेवा- यत के प्रति तास वस्तु जावग्रहणमभिर्घायते । पर्युदासरूपाजावग्रहणं तु नियतस्वरूप- । एव जेदप्राप्तेः । न हि स्वरूपभेदादपरो वस्तुभेदः । न च प्रतिभास " शब्देनान्यापृताक्यस्य, बुद्धावप्रतिभासनात् । अर्धस्वराधिपति। " इन्द्रियशब्दस्वभावोपायभेदात् एकस्यैव प्रतिभासभेद इति चेत् ? । अत्राप्युक्तम् " 1 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** ** 新手卡本半本来生并未未朱孝丰丰牛牛津津本法法律法未违法违法本法法丰丰丰丰丰法本法未事本本基本港法律法 उपोद्घातः। भेदादपरस्वरूपभेदः,अन्यथा बैलोक्यमेकमेव वस्तु स्यात दुरा-तित्तिप्तत्वात्, अन्यथा सर्वसर्वत्रस्यादिति अतिप्रसङ्ग काल्पसन्नदेशवर्तिनोः पुरुषयोः एक शानिनि स्पष्टास्पष्टप्रतिभासभे- निकनेदाश्रयम्तु धर्मधर्मियवहार इति प्रसाधितं शाने, भवदेविन शास्त्रिभेद इति चेत्, न घूमः प्रतिभासभेदो निन्नवस्तुनि- |तु वा पारमार्थिको धर्मधामनेदः, तथाऽप्यनयोः समवायाद * यतः, किन्तु पकविषयत्वाभावनियत इति । ततो यत्रार्थक्रिया- | दूषितत्वाऽपकारलकणैव प्रत्यासत्तिरेषितम्या । पर यथे. भेदादिसचिवः प्रतिभासनेदः तब वस्तुभेदः. घटवत् । अन्यत्र जियप्रत्यासत्या प्रत्यक्षेप धर्मिप्रतिपत्तौ सकलतधर्मप्रतिप* पुनर्नियमेनकविषयतां परिहरतीत्येकप्रतिनासो भ्रान्तः। तिः। तथा शब्द लिङ्गाज्यामपि वाच्यवाचकादिसंपन्धप्रतिर* पतेन यदाद वाचस्पतिः-न च शब्दप्रत्यकयोवस्तुगोचरत्वे बायां धमिप्रतिपत्तौ निरवशेषतद्धर्मप्रतिपत्तिर्भवेत्, प्रत्यासप्रत्ययाभेदः,कारणजेदन पारोक्ष्यापारोदयदोपपत्तेरिति । तनो-IAN तिमात्रस्याविशेषात्। यच्च वाचस्पतिः-न चैकोपाधिना सत्वे *पयोगि। परोक्प्रत्ययस्य वस्तुगोचरत्वासमर्थनात्।परोकताऽऽ. विशिष्ट तस्मिन् गृहीते, उपाध्यन्तरविशिष्टतद्ग्रहः । स्वभायो यस्तु कारणभेद इन्द्रियगोचरग्रहणविरहेणैव कृतार्थः। तत्र हिद्रव्यस्य उपाधिनिर्विशिष्यतेन तपाधयो वा, विशेष्यत्वं वा, शान्दे प्रत्यये स्वाकणं परिस्फुरतिकिञ्च-वनकणात्मनि वस्तुनि वाच्ये सर्वात्मना प्रतिपत्तेः विधिनिषेधयोरयोगः । तस्य हि तस्य स्वनाव इति । तदपि नवत एव । न बभेदादुपाप्यन्तरण हणत्वमासजितम्। भेदं पुरस्कृत्यैवोपकारकप्रहणे उपकार्यग्रह* सद्भावेऽस्तीति व्यर्थम,नास्ति इत्यसमर्थम; असद्भावे नास्तीति * व्यर्थम,अस्ति इत्यसमर्थमा भस्ति चास्त्यादिपदप्रयोगः। तस्मात् णप्रसञ्जनात् । न चाग्निधूमयोः कार्यकारणभाव एव, स्वभावत एव धर्मर्मियोप्रतिनियमकपनमुचितम्,तयोरपि प्रमाणासिशम्दप्रतिजासस्य बावार्थभावाभावसाधारण्यं न तद्विषयतां दत्वात् । प्रमाणसिद्धेच स्वभावोपवर्णनमिति न्यायः। पच्चात्र कमते । यश वाचस्पतिना जातिमाक्तिवाच्यता स्ववाचैव न्यायभूषणेन सूर्यादिग्रहणे तदुपकार्याशेषवस्तुराशिग्रहणप्रस. प्रस्तुत्याऽनन्तरमेव न च शब्दार्थस्य जाते वाजायसाधारण्यं अनभुक्तम । तदभिप्रायानवगाहनफलम् । तथादि-स्वन्मते धर्मनोपपद्यतेसा हि स्वरूपतो नित्याऽपि देशकासविप्रकीर्णानकव्य धर्मिणोदः, उपकारलकणैव च प्रत्यासत्तिः। तदोपकारकप्रनद्याश्रयतया नावाभावसाधारणीनवनस्ति-नास्ति-संबन्धयो दणे समानदेशस्यैव धर्मरूपस्यैव चोपकार्यस्य प्रदणमासरिज* ग्या। वर्तमानव्यक्तिसम्बन्धिता दि जातेगस्तिता, अतीतानागत. तम,तत् कथं सूर्योपकार्यस्य भिण्देशस्य ध्यान्तरस्य वाट. व्यक्तिसम्बन्धिता च नास्तितेति संदिग्धव्यतिरेकित्वादकान्ति व्यभिचारस्य प्रहणप्रसङ्गः सङ्गतः। तस्मादेकधर्मद्वारेणाऽपि . * भावाभावसाधारण्यमन्यथासिद्धं वेति विलपितम, तावन्न स्तुस्वरूपप्रतिपसौसर्वात्मप्रतीतेः, क शब्दान्तरेण विधिनिषे. *प्रकृतकतिः, जाती भरं न्यस्यता स्वलकणावाच्यत्वस्य स्वयं धावकाशः अस्ति च, तस्मान्न स्वलक्षणस्य शब्दविकल्पसिङ्गप्रर स्वीकारात् । किश्च-सर्वत्र पदार्थस्य स्वलक्षणस्वरूपेणैचास्तित्वा तिभासित्वमिति स्थितम् । नापि सामान्यं शान्दप्रत्ययप्रतिभादिकं चिन्यते । जातेस्तु वर्तमानादिव्यक्तिसम्बन्धोऽस्तित्वादि. सि । सरितः पारे गावश्चरन्तीति गवादिशब्दात् सास्नाशृङ्ग* कमिति तु बालप्रतारणम् । एवं जातिम व्यक्तिवचनेऽपि दोषः व्यक्तेश्चत प्रतीतिसिकिः, जातिरधिका प्रतीयताम; मा वा, न तु लाङ्गलादयोऽक्षराकारपरिकरिताः सजातीय भेदापरामर्शनात व्यक्तिप्रतीतिदोषान्मुक्तिः। संपिरिडप्रायाः प्रतिनासन्ते । न च तदेव सामान्यम्। वांक* पतेन यमुच्यते कौमारिलैः-सभागत्वादेव वस्तुनो न सा त्यकाकारशून्यं गोत्वं दि कथ्यते । तदेव च सास्नाशृङ्गा*धारण्यदोषः । वृक्तत्वं ह्यनिर्धारित नावाजावं शब्दादवग दिमात्रमखिमब्यक्तावत्यन्तविलकणमपि स्वत्रणेने की क्रियमासम्पते । तयोरन्यतरेण शब्दान्तराबगतेन संबध्यत इति । णं सामान्यमित्युच्यते; तारशस्य बाह्यस्याप्राप्तेभ्रान्तिरेवासी * तदप्यसङ्गतम् । सामान्यस्य नित्यस्य प्रतिपत्तावनिर्धारितजा केशप्रतिजासवत् । तस्माद्वासनावशादुद्धेरेव तदात्मना विवों*वाभावत्वायोगात् । यच्चेदं न च प्रत्यक्स्ये व शम्दानाम अर्थ ऽयमस्तु,असदेव वा तद्रूपं ख्यातु,व्यक्तय एव वा सजातीय भेदप्रत्यायनप्रकारो येन तदूरप इवास्त्यादिशब्दापेक्षा न स्यातावित तिरस्कारेणान्यथा भासन्ताम, अनुभवव्यवधानात् । स्मृतिप्रचित्रशक्तित्वात प्रमाणानामिति । तदप्यन्छियकशान्दप्रतिजास- मोषो वानिधीयतामास | मोपोवाऽनिधीयताम,सर्वथा निर्विषयः खल्वयं सामान्यप्रत्ययः, * योरेकस्वरूपग्राहित्वे भिन्नावभासदृषणेन क्षितम, विचित्रशक्ति- कसामान्यवाताायत पुनः साम *वं च प्रमाणानां साक्षात्काराध्यवसायाच्यामपि चरितार्थम् । स्मिकत्वमुकम?। तदयुक्तम् । यतः पूर्वपिण्डदण्डदर्शनस्मरण*ततो यदि प्रत्यक्वार्थप्रतिपादनं शाम्देन तद्वदेवावभासः स्यात् , सहकारिणाऽतिरिच्यमानाविशेषप्रत्ययजनिका सामग्री निर्विष. * अजवंश्च न तद्विषयख्यापनं कमते । ननु वृक्तशब्दन वृतत्वांशे |यं सामान्यविकल्पमुत्पादयति तदेवं न शान्दप्रत्यये जातिः प्रति*चोदिते सल्वाधेशनिश्चयनार्थमस्त्यादिपदप्रयोग इति चेत?,नि भाति, नापि प्रत्यक्के, नचानुमानतोऽपि सिकि अदृश्यत्वे प्रतिरंशत्वेन प्रत्यकसमधिगतस्य स्वलकणस्य कोऽवकाशः पदान्त बद्धसिङ्गादर्शनात्। नापीन्द्रियवदस्याः सिकिशानकार्यतःकादा* रेण; धर्मान्तरविधिनिषेधयोः प्रमाणान्तरेण वा । प्रत्यक्षेऽपि प्रमा चित्तस्यैव निमित्तान्तरस्य सिके। यदाऽपि पिण्डान्तरेऽन्तराने णान्तरापेका दृऐति चेत् !,भवतु तस्यानिश्चयात्मत्वात् अनभ्य. वा गोबुद्धरजावं दर्शयेत; तदा शावयादिसकनगोपिण्डानास्तस्वरूपविषये, विकल्पस्तु स्वयं निश्चयात्मको यत्र ग्राही तासाभावादभावो गोबुद्धरुपपद्यमानः कथमान्तरमाक्षिप्त *किमपरेण!, मस्ति च शब्दनिकान्तरापेक्का, ततो न वस्तुस्वरू- गोस्वादेव गोपिएमा,अन्यथा तुरगोऽपि गोपिण्डः स्यात् यो. + *पग्रहः। ननु भिन्ना जात्यादयो धर्माः परस्परं धर्मिणश्चेति जाति-वं गोपिएमादेव गोत्वमन्यथा तुरगत्वमपि गोत्वं स्यात, तस्मात् लकलैकधर्मद्वारेण प्रतीतेऽपि शाखिनि धर्मान्तरवत्तया न प्र-कारण परम्परात एव गोपिण्डो, गोत्वं तु भवतु मा वा। ननु तीतिरिति किन्न निन्नाभिधानाधीनो धर्मान्तरस्य नीलचलो. सामान्यप्रत्यजननसामर्थ्य यकस्मात पिण्डाद जिनमः तदा * स्तरत्वादेरववोधः। तदेतदसङ्गतम। अखरमात्मनःस्वलक्षण-|विजातीयव्यावृत्तं पिएडान्तरमसमर विजातीयव्यावृत्तं पिएडान्तरमसमर्थम । अथ भिनं, नदातदेष स्य प्रत्यके प्रतिभासात् । दृश्यस्य धर्मधर्मिभेदस्य प्रत्यक-सामान्यं, नाम्नि पर विवाद इति चेत्, आभन्नेव सा शक्ति प्रा. campucation art-t-**-*-*-*-*-****ttttttttt t ttttttt.tt-t-III-IIT .. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 林 ६) - 法 未考未未未持本本本李李李孝丰牛津津津津孝丰法法牛津津津津李孝丰津津津津津津率半半害学生实事考 उपोद्घातः। तिवस्तुः यथा त्वेकः शक्तस्वभावो भावःतथा अन्योऽपि भवन | जावात् तस्मात बाह्यस्यैव साम्वृतौ विधिनिषेधौ । मन्यथा कीरशंदोषमावहति ,यथा नवता जातिरेकाऽपि समानव-| संव्यवहारहानिप्रसार । तदेवंसनियसवहेतुरन्याऽपि स्वरूपेणैव जात्यन्तरनिरपेक्षा, तथाऽ. | "नाकारस्य न बाह्यस्य, तत्त्वतो विधिसाधनम् । स्माकं व्यक्तिरपि जातिनिरपेक्का स्वरूपेणैव भिन्ना हेतुः । बहिरेव हि संवृत्या, संवृत्याऽ वितु माकृतः॥१॥" यतु त्रिलोचन:-अश्वत्यगोत्वादीनां सामान्यविशेषाणां स्वाभ एतेन यद्धर्मोत्तरः-प्रारोपितस्य बाह्यत्वस्य विधिनिषेधाविये समवायः सामान्यम; सामान्यमित्यभिधानप्रत्यययोनिमित. स्खलौकिकमनागममताकिंकायं कथयति । तदपहस्तितम् । मिति । यद्येवं व्यक्तिप्यप्ययमेव तथाभिधानप्रत्ययहेतुरस्तु कि नन्यध्यवसाये यद्यध्यवसेयं वस्तु न स्फुरति तदा तदध्यवसित* सामान्यस्वीकारप्रमादेन ?। न च समवायः सम्भवी ॥ मिति कोऽर्थः, अप्रतिभासेऽपि प्रवृत्तिविषयीकृतमिति योऽर्थः। * “हेति बुरः समघायसिद्धि-रिहेति धीश्च द्वयदर्शने स्यात् । अप्रतिभासाविशेषे विषयान्तरपरिहारेण कथं नियतविषया प्र. नचकचित्तद्विषये स्वपेका,स्वकल्पनामात्रमतोऽयुपायः" ॥१॥ सिरितिचेत उच्यते-यद्यपि विश्वमगृहीतं तथापि विकल्प * एतेन येयं प्रत्ययानुवृत्तिरनुवृत्तवस्वनुयायिनी कथमत्य | स्य नियतमामग्रीप्रसनत्वेन नियताकारतया नियतशक्तित्वात *तभेदिनीषुव्यक्तिषु व्यावृत्तविषयप्रत्ययभावानुपातिनीषु भधि-नियता पब जमादी प्रवृत्तिः। धूमस्य परोकानिकानजनमवत । तुमईतीत्यूहाप्रवर्तनमस्य प्रत्याख्यातम्। जातिवेव परस्परव्या नियतविषया हिनायाः प्रमाणपरिनिष्ठितस्वभावा न शक्तिवृत्ततया व्यकीयमानास्वनुवृत्तप्रत्ययेन व्यभिचारात् । यत पु.मnitis | सायपर्यनुयोगभाजः। तस्मात् तदभ्यवसायित्वमाकारविशेष* नरनेन विपर्यये वाधकमुक्तम,अभिधानप्रत्ययानुवृत्तिः कुताच. | योगात् तत्प्रवृत्तिजनकत्वम् । न च सारइयादारोपेण प्रवृत्ति *निवृल्य क्वचिदेव जयन्ती निमित्तवता न चान्यनिमित्तमित्या |घूमः, येनाकारे बाबस्य बाह्ये षा प्राकारस्यारोपद्वारेण दूदि। तन सम्यक । अनुवृत्तमन्तरेणापि अनिधानप्रत्ययानुवृत्ते. पणावकाशः, किं तहिं स्ववासनाधिपाकशामुपजायमानव रतदूपपरावृत्तस्वरूपविशेषात अवश्यं स्वीकारस्य साधि बुकिरपश्यन्त्यपि बाह्यं बाह्य वृत्तिमातनोतीति विप्लुनैव । तदे* तत्वात् । तस्मात् वमन्याभावविशिष्ट विजातिव्यावृत्तोऽथों विधिः। स एव चा"तुल्यनेदे यया जातिः, प्रत्यासत्या प्रसपैति । पोहशब्दयाच्याशब्दानामर्थः प्रवृत्तिनियत्तिविषयवेति स्थितम् । कचिन्नान्यत्र सैवास्तु, शब्दकानानिबन्धनम" ॥१॥ अत्र प्रयोगः--यद वाचकं ततावमध्यवसितातद्रूपपरावृत्तवयत पुनरत्रन्यायभूषणेनोक्तम-नह्येवं भवति यया प्रत्यासल्या दस्तुमात्रगोचरम; यथेह कूपे जलमिति वचनम । वाचक एहसूत्रादिकं प्रसर्पति क्वचिनान्यत्र सैव प्रत्यासत्तिःपुरुषस्फ- | चेदं गवादिशब्दरूपमिति स्वभावहेनुः । नायमसिद्धः, पूर्वोक्ते*टिकादिषु दण्डिसूत्रित्वादिव्यवहारनिबन्धनमस्तु किं दण्ड- नन्यायेन पारमार्थिकवाच्यवाचकनावस्याभावेऽपि अध्य सत्रादिनेति । तदमानम् । दएमसूत्रयोहि पुरुषस्फटिकप्रत्या- वसायकृतस्य सर्वव्यवहारिनिरवश्यं स्वीकर्तव्यत्वात् । अन्य* सन्नयोदृष्टयोः दकिसूत्रिप्रत्ययहेतुत्वं नापलप्यते । सामान्य था सनव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । नाऽपि विरुरूः, सपके ना*तु स्वपिन दृष्टम् । तद्यदीदं परिकल्पनीयं तदा वरं प्रत्यास- वात् । न चानकान्तिकः, तथाहि-शब्दानामध्यवसितविजातिरेव सामान्यप्रत्ययहेतुः परिकल्प्पताम, कि गुा परिक-तिव्यावृत्तवस्तुमात्रविषयत्वमनिच्छद्भिः परैः परमार्थतःल्पनयेत्यभिप्रायापरिहानात् ।। " वाच्यं स्वलकणमुपाधिरुपाधियोगः, * अथेदं जातिप्रसाधकमनुमानमभिधीयते-यद्विशिएकानं त सोपाधिरस्तु यदि वा कृतिरस्तु बुके।" * द्विशेषणग्रहणनान्तरीयकम् । यथा दगिमकानम | विशिष्ट- गत्यन्तराभायात्। अधिषयत्वे च वाचकस्वायोगात् । तत्र ज्ञानं चेदं-गौरयमित्यर्थतः कार्यहेतु विशेषणानुभवकार्य हि "प्राचन्तयोर्म समयः फलशक्तिहाने*रान्ते विशिपबुद्धिः सिति । अत्रानुयोगः विशिष्टयुद्धेनिनवि मध्येऽप्युपाधिविरहात त्रितयेन युक्तः ॥" *शेषणग्रहणनान्तरीयकत्वं वा साध्यम; विशेषणमात्रानुभव तदेवं याच्यान्तरस्याभावात् । विषयवस्त्वलकणस्य व्यापकस्य * नान्तरीयकत्वं वा । प्रथमपके पकस्य प्रत्यत्तबाधासाधना निवृत्ती विपकतो निवर्तमान वाचकत्स्यमत्यवसितबाह्यविवधानमनवकाशयति वस्तुग्राहिणः प्रत्यकस्योभयप्रतिभा षयत्वेन व्याप्यत इति व्याप्तिसिद्धिः। *सानावात् विशिएबुद्धित्वं च सामान्यम् । देतुग्नैकान्तिकः । *जिन्नविशेषणग्रहणमन्तरेणापि दर्शनात, यथा स्वरूपवान् घटः। " शम्दैस्तावन्मुख्यमाश्यायतेऽर्थः, गोत्वं सामान्यमिति था। द्वितीयपके तु सिद्धसाधम् स्वरूपया तत्रापोडस्तद्गुणत्वेन गम्यः। *न घट इत्यादियत् गोत्वजातिमान् पिएम इति परिकस्पिस भे अर्थश्चैकोऽभ्यासतो भासतोऽन्यः, *दमुपादाय विशेषणविशेष्यन्नावस्यष्टत्वादगोव्यावृनानुजयभा स्थाप्यो वाच्यस्तस्त्वतो मैव कश्चित् ॥" *वित्वात् गौरयमिति व्यवहारस्य । तदेव न सामान्यबुद्धिः । वाधकं च सामान्यगुणकर्माद्यपाधिचक्रस्य, केवलव्यक्तिप्राहकं. अथापोहसिधिनाचारित्वं पराक्रियतेपटुप्रत्यक्रम । श्यानुपलम्भो वा प्रसिकः । तदेवं विधिरेव शनार्थः । स च बायोडों बुख्याकारश्च विवक्षितः तत्र,नयु “अथ श्रीमदनेकान--समुद्घोष पिशासितः।। *ध्याकारम्य तत्वतः संवृल्या या विधिनिषेधी, स्वसंवेदनप्र अपोहमापिबामि प्राक्, वीक्षन्तां भिक्षवः क्षणम्" ॥१॥ *त्यवगम्यत्वात, अनध्ययसायाश्च । नापि तत्त्वतो बाह्य- शह तावद्विकल्यानां तथाप्रतीतिपरिहतविरूधर्माध्यासकथ* स्यापि विधिनिषेधी, तस्य शाम्दे प्रत्ययेऽप्रतिनासनात। अत/ चित्तादात्म्यापनसामान्य विशेषस्वरूपवस्तुलकणाक्षणदीवादीपब सर्वधर्माणां तत्त्वतोऽननिसाप्यत्वं प्रतिभासाध्यवसाया | कितन्यं प्राक् प्राकट्यत। ततस्तत्त्वतः शम्दानामाप तत्प्रसिद्धमे, ***************************************************************************************** Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************************** 來去书本书本书本书本卡本书本书本卡卡卡卡卡卡主本本本去林林丰林未未丰丰林 林林志 उपोद्घातः। वायतोऽजलिप युष्मदीयैः-"स एव शम्दानां विषयो यो विक-| परस्पराश्रयत्वमिति । एवं च कारणैक्यं, प्रत्यवमशैक्यं च वि. ल्पानाम्" इति कथमपोहः शब्दार्थः स्यात् ।। मस्तु वा,तथा:- | कल्प्य इषणीयम् । अपि च-यदि बुद्धिप्रतिविम्बात्मा शम्दा. प्यनुमानवत् किं न शम्दः प्रमाणमुच्यते । अपाडगांचरत्वेऽपिर्थः स्यात्. तदा कथमतो बहिरणे प्रवृत्तिः स्यात् ? स्वप्रतिना* परम्परया पदार्थे प्रतिबन्धात् प्रमाणमनुमानमिति चेत, तत से उनथेंऽर्थाध्यवसायाच्नत् । ननु कोऽयमर्थान्यवसायो नाम?) पव शब्दोऽपि प्रमाणमस्तु । अतीतानागताम्बरसरोजादि- अर्थसमारोप इति चेत, तर्हि सोऽयमानर्थयोरग्निमाणवक* वसत्स्वपि शब्दोपलम्भान्नात्रार्थप्रतिबन्ध इति चेत् , तहानुद्योरिव तद्विकल्पविषयभावे सत्येव समुत्पत्तुमर्हति । न च * वृष्टिः, गिरिनदीगोपलम्भात्,भावी भरण्युदयः,रेवत्युदयात, समारोपविकल्पस्य स्वलक्षणं कदाचन गोचरतामञ्चति । यदि नास्ति रासनङ्गम, समनप्रमाणैरनुपलम्भात्, इत्यादेरा-चानर्थेऽर्थसमारोपः स्यात, तदा वाहदोडायर्थक्रियार्थिनः * भावेऽवि प्रवृत्तऽनुमानऽपि नार्थप्रतिबन्धः स्यात् । यदि वचो- सुतरां प्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि दाहपाकाद्यर्थी समारोपितपाववाच्यापोहोऽपि पारम्पर्येण पदार्थप्रतिष्ठः स्यात, तदानीमलाबू- कत्व माणवके कदाचित्प्रवर्तते । रजतरूपताऽयभासमान शुक्तिनि मजन्तीत्यादिविप्रतारकवाक्यापोहोऽपि तथा भवेदिति कायामिव रजतार्थिनोऽयक्रियार्थिनो विकल्पात्तत्र प्रवृत्तिरिचेत्, अनुमेयापादेऽपि तुल्यमेतत्, प्रमेयत्वादिहेत्वनुमेयापोह - ति चेत् । भ्रान्तिरूपस्तवयं समारोपः, तथा च कथं ततः पिपदार्थप्रतिष्ठिताप्रसक्तः। प्रमेयत्वं हेतुरेव न जवति, विप-1 प्रवृत्तोऽयक्रियार्थी कृतार्थः स्यात् । यथा शुक्तिकायां प्रवृत्तो * कासत्त्वतलकणाभावादिति कुतस्त्या तदपोहस्य तनिष्ठतेति | रजतार्थक्रियार्थीति । यदपि प्रोक्तम्-कार्यकारणनावस्यैव * चेत्, तर्हि विप्रतारकवाक्यमप्यागम एव न भवति, आप्तोक्त-वाच्यवाचकतया व्यवस्थापितत्वादिति । तदप्ययुक्तम् । यतो त्वतलक्षणाजावादित्यादि समस्तं समानम् । यस्तु नाप्तोक्तत्वं यदि कार्यकारणभाव एव याच्यवाचकभावः स्यात्, तदा घचलि विवेचयितुं शक्यमिति शाक्यो वक्ति. सपर्यनुयोज्य:- श्रावकाने प्रतिभासमानः शब्दः स्वप्रतिभासस्य भवन्येव कारकिमाप्तस्यैव कस्याप्यजावादेवमभिधीयत, भावऽप्यस्य निश्च-णमिति तस्याप्यसौ वाचकः स्यात् । यथा च विकल्पस्य शब्द: याभावात्,निश्चयेऽपि मौनव्रतिकत्वात् , वक्तृत्वेऽप्यनाप्तवचनात, | कारणम्, एवं परम्परया स्वलक्षणमपि,अतस्तदपि वाचकं भवे. तवचसो विवेकावधारणाभावाद्वा । सर्वमप्येतच्चाकादिवा-दिति प्रतिनियतवाच्यवाचकभावव्यवस्थानं प्रलयपद्धतिमनुचां प्रपञ्चात्, मातापितृपुत्रभ्रातृगुरुसुगतादिवचसा विशेषमा-थावत् । ततः शम्दः सामान्यविशेषात्मकार्थावबोधनिबन्धनमा तिष्ठमानैरप्रकटनीयमेव । न च नास्ति विशवस्वीकारः, तत्प-वेति स्थितम् ।। ठितानुष्ठानघटनायामेव प्रवृत्तनिर्निबन्धनत्यापत्तेः । अथानुमानि अथापौरुषेयत्वव्याघात:क्येवाऽऽप्तशब्दादर्थप्रतीतिः कथम् ? आगमस्यापौरुषेयत्वं स्याद्वादमजांम् । स हि पौरुषेयो षा "पादपार्थविवक्तावान्, पुरुषोऽयं प्रतीयते । स्यादपौरुषेयो वा । पौरुपयश्चेत्सर्वज्ञकृतस्तदितरकृतो वा? वृकशब्दप्रयोक्तृत्वात्, पूर्वावस्थास्वहं यथा ॥१॥" - प्रायपत्ते युप्मन्मतव्याहतिः। तथा च भवत्तिकान्तःइति विवक्तामनुमाय,सत्या विवक्केयम्,प्राप्तविवक्षावात,मद्विव- | "अतीन्द्रियाणामर्थानां, साकाद् अष्टा न विद्यते। कावदिति वस्तुनो निर्णयादिति चेत्।तदचतुरस्रम्। अमहशव्य नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः" ॥१॥ *वस्थाया अनन्तरोक्तवैशेविकपक्षप्रतिक्षेपेण कृतिनिर्वचनस्या- द्वितीयपके तु तत्र दोषवाकर्तृकत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः । अत। किश्च-शाखादिमति पदार्थे वृक्षशब्दसते सत्येतद्विवक्षाऽ पौरुषेयश्चेन संत्रवत्येव, स्वरूपनिराकरणात् , तुरशृङ्गाव*नुमानमातायेत, अन्यथा वा । न तावदन्यथा, केनचित् कके त्। तथाहि-उक्तिर्यचनमुच्यते इति चेति पुरुषक्रियानुगतं क*वृत्तशब्दं संकेत्य तदुच्चारणात, उन्मत्तसुप्तशुकशारिकादिना | पमस्य ए | पमस्य एतत् क्रियाजावे कथं भवितुमर्हति । न चैतत् केवलं %गोत्रस्खलनवता चान्यथाऽपि तत्प्रतिपादनाच्च हेतोयभिचारा-काचद् वनदुपलभ्यत, ० | कचिद वनदुपलभ्यते, उपलब्धावप्यरश्यवक्त्राशङ्कासम्भपत्तेः । संकेतपक्ष त योष तपस्वी शस्त रोनावात् । तस्माद्यवचनं तत्पीरुपेयमेव, वर्णात्मकत्वात् , कुमारस* तदा कि नाम सूर्ण स्यात् । न खल्वेषोऽर्धादिभति। विशेषलाभ म्भवादिवचनवत् । वचनात्मकश्च वेदः । तथा चाहुः*वं सति यदवविधाननुनूयमानपारम्पर्यपरित्याग इति । " ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों, * यदकथि-परमार्थतः सर्वतोऽव्यावृत्तस्वरूपेषु स्वन्नकणेकार्थ*कारित्वेनेत्यादि । तदवद्यम् । यतोऽर्थस्य वाहदोहादेरेकत्वम, पुंसश्च ताल्वादि ततः कथं स्याअद्विरूपत्वं , समानत्व वा विवक्तितम् ? । न तावदाद्यः दपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः॥१॥" इति । * पक्का, पण्डमुण्डादौ कुण्डकाण्डभाण्डादिवाहादेरर्थस्य जिन्न- श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररीकृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदर्थव्याख्यानं जिनस्वैव संदर्शनात् । द्वितीयपकेऽपि सदृशपरिणामास्पद- | पौरुषेयमेवाङ्गीक्रियते । अन्यथा अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम त्वम. अन्यव्यावृत्यधिष्ठितत्वं वा समानत्वं स्यात् ।न प्राच्यः इत्यस्य स्वमांसं भक्षयदिति किं नाथों,नियामकाभावात्ततोऽवरं प्रकारः, सरशारणामस्य सोगतिरस्वीकतत्यानन वितीयःमत्रमपि पौरुषेयमभ्यागतम । अस्त वा अपौरुषेयस्तथापि अन्यव्यावृत्तरतात्विकत्वेन बान्ध्येयस्येव स्वलकणेऽधिष्ठाना- | तस्य न प्रामाण्यम् , प्राप्तपुरुषाधीना हि वाचांप्रमाणतेति । सभवात् । किंव-अन्यतः सामान्येन, विजातीयाहा व्याव-यत्त कर्मस्मरणं साधनं तद्विशेषणं सविशेषणं धावण्यताप्रा. * त्तिरन्यव्यावृत्तिभवेत् ?। प्रथमपत, न किदिसमानं स्यात,क्तनं तावत्पराणकपप्रासादारामविहारादिव्यभिचार, तपा का • सबस्याप सबंता व्यावृत्तत्वात् । द्वितीये तु विजातीयत्यं वा-स्मरणेऽपि पौरुषेयत्यात् । द्वितीयं तु सम्प्रदायान्यवच्छ जिकुञ्जरादिकार्याणां वाहादिसजातीयत्वे सिद्ध सति स्यात, सति कर्तस्मरणादिति व्याधिकरणासिकः, कतृस्मरणस्य भुत *तच्चान्यव्यावृत्तिरूपमन्येषां विजातीयत्वे सिद्धेसति, इति स्पट | रत्यत्राश्रये पंसि वर्तमानात । अथापीरुपया श्रुतिः, सम्म ***************** ******************************* *******************++ +KRRER www.janielibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) दायाव्यवच्छेदे सत्यस्मर्यमारा कर्तृकत्वादाकाशवदित्यनुमानरचना यामनय काशा व्यधिकरणासिद्धिः मैवम् एवमपि विशेषणे संदिग्धासिरुतापत्तेः । तथा ह्यादिमतामपि प्रासादादीनां स म्प्रदायो व्यवच्छिद्यमानो विलोक्यते, अनादेयस्तु श्रुतेरव्यवच्छे संप्रदायोश्चापि विद्यत इति सूतकटिबन्धमन्यकार्यात तथा च कथं न संदिग्धासिक विशेषणं विशेष्यमप्युभया सिद्धं वादिप्रतिवादिभ्यां तच कर्तुः स्मरणात् । न तु भो त्रियाः धुतौ कर्त्तारं स्मरन्तीति मृषोधं श्रोत्रियापसदाः मी इति चेन्ननु यूयमाम्नायमाम्नासिष्ठ तावत्ततो ' यो वै aria प्रती प्रजापतिः सोमं राजानमन्वसृजन्ततख यो वेदा मन्यसृजन्तेति व स्वयमेव स्वस्थ कर्त्तारं स्मारयत विताय गणयन्तो यूयमेव ओरियापसदाः किन स्यात् । किं च पवमान्यदिमितिसिरियनृतिमुनिनामाङ्किताः काश्चन शाखास्तत्कृतत्वादेव मन्यादिस्मृत्यादिषडुरानां तासां कल्पादी तेर्दत्वात् प्रकाशित मचिनादी कालेऽनन्तमुनिनामतित्यं तासां स्यात् । जैनाच कामासुरमेतत्कर्तारं स्मरन्ति। कर्तृविशेषविप्रतिपतेर प्रमाणमेवैतत्स्मरणमिति चेत् नैवम यतो यत्रैव विप्रतिपतिः देवाप्रमाणमस्तु न पुनः कर्तृमात्रस्मरणमपि । " बेस्यायनं सर्वे गुर्वण्ययनपूर्वकम । वेदाध्ययनवाक्यत्वात् चुनाऽध्ययनं यथा ॥ १ ॥ अतीतानागती काही बेदकारविवर्जिती । कालत्वात्तद्यथा कालौ, वर्तमानः समीकृते " ॥२॥ इति कारिकोकेर्वेदाध्ययनवाच्यत्यकालत्वेऽपि हेतुः कुरण शुभरं कुरङ्गाणां बेत इति ययययन पूर्वकमेतद्वाक्याध्ययनवाच्यत्वादधुनातनाध्ययनषदतीतानागतौ कालो प्रक्रान्तवाक्यकर्तृवर्जितौ कालत्वाद्वर्त्तमानकालव दिति वेदप्रयोजकत्वादनाकर्तनीयौ सकर्णानाम । अथार्थापत्तेरपौरुषेयत्वनिर्थयो बेद्स्य तथाहि संवादविसंवाददर्शाथमा नादर्शनात्यां तावदेव निःशेषपुरुयैः प्रामादयेन निधि, नित्यादिवासा धारयानकान्तिको हेतु द्वितीय विकल्ये पुनर या पौरुषेयत्वे दुरापः यतः , । शरीरत्वे तस्य माहात्स्यविशेषः कारणमाहोस्विदस्मदायरवैगुण्यम। प्रथमप्रकारः कोश पानप्रत्यायनीयः तत्सिको प्रमा खाभावात् इतरेतराभ्यदोषापतेश्च सिद्धे हि माहात्म्यदि शेषे तपश्रावं प्रातम्यम तरसी माहास्यविशेषसिद्धिरिति । द्वैतीयीकस्तु प्रकारो न संचरत्येव विचारगोचरे संशयानिवृतेः किं तस्यासत्वादयशरीरत्वं पा यादिवत् किंवा रायटयैगुण्यात्पिशाचादिनि इचयाभावात् । अशरीरश्वेतदा दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोर्वैषम्यम् । घटायो हि कार्यरूपाः सशरीरकर्तृका र अशरस्य प सतस्तस्य कार्यप्रवृत्ती कुत्ता सामर्थ्यमाकाशादित् राशरीरले पचेऽपि कार्यसिद्धिः कि त्वन्यतेन कालपरियर्थ देतुः चम्कदेशस्य विएबधदादेरिदानीमप्युत्पद्यमानस्य विधातुरनुपलभ्यमानत्वेन प्रत्यनन्तरं हेतुलात् तदेवं न कश्चितः कर्ता किञ्च स ईश्वरनित्यत्वेनेकरूपः सन् त्रिभुवनस्वभावो वा प्रथमविधा जगनिर्माणात्कदाखि पिनोपरमेत । तदुपरमे तत्स्वभावत्वहानिः । एवं च सर्गक्रियाया अपसानादेकस्यापि कार्यस्य न हि घटो हि स्वारम्भणादारज्य परिसमाप्तेरुपान्त्यहणं यावनिश्वयनयाभिप्रायेण न "शब्दे दोषोस्ताचीन इति स्थितिः । तदभावः क्वचित्तावद्, गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ १ ॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्य संजवात् । वेदे तु गुणवान् वा नितुं नैव शक्यते ॥ २॥ ततब्ध दोषान्नावोऽपि निशां कथम् । प्रभावे तु सुखानो, दोषाभावो विनायते ॥ ३ ॥ यस्माद्वक्तुरजावेन. न स्युद्दोंषा निराश्रयाः " । उपोद्घातः । ततः प्रामाण्यनिर्णयान्यथाऽनुपपत्तेर पौरुषेयोऽयमिति अस्तु तावदत्र कृपणपशु परम्परामायणम्यपरोपणप्रगुणप्रचुरो पदेशापविषमाणमेवैष इत्यनुत्तरोत्तरप्रकारः प्रामाय निर्णयोऽप्यस्य न साध्यसिद्धिविंद गुणस्तृतायामेव चापेषु प्रामाण्यनियोपपतेः पुरुषो हि यथा रागादिमान् मृषावादी तथा सत्यशीचादिमान् वितथवचनः समुपलब्धः भानार्थक्यमेत्र नवेद कथं अपरदन्दसीति बेत कथं पितृपितामहप्रपितामहादेयसी तस्माद्येन तरुस्तन्यस्ताकरणेः पारम्पर्योपदेशस्य चानुसारेण प्रायनिधानादी निःशङ्कया क्यसिंवादात पत्रायत्रापि प्रतीहि कारीर्यादौ संवाददर्शनात् । कदाचित Jain Educa******* । कचित् संवादस्तु सामग्रीवैगुण्यात् स्वयाऽपि प्रतीयत पर्व प्रतीतासमन्त्रोपदिष्टमन्त्रयत्प्रतिपादिवध प्रा रागद्वेषाज्ञानशून्य पुरुषविशेष निर्णयः किं वास्य व्याक्यानं तावत्पौरुषेयमे वा पौरुषेयत्वे भावना नियोगादिविरुरूयास्वाने नेहाभावप्रसङ्गात् तथा च को नामात्र विश्रम्भो भवेत; कथं चैतद् ध्वनीनामर्थनिर्णी तिलौकिकन्यन्यनुसारजेति चेत किन पौरुषेयत्वनिसतिरपि तत्रोभवस्यापि विज्ञायमादन्यथा त्वजरतीयम्। न च लौकिकार्थानुसारेण मदीयोऽर्थः स्थापनीय इति श्रुतिरेव स्वयं वक्ति । न द जैमिन्यादावपि तथा कथयति प्रत्यय इत्यपौरुषेयवचन सामथ्र्यो ऽप्यम्य पत्र कोsपि संभाम्येत, पौरुषेयीणामपि म्लेच्छार्थयाचामेकाक पुनरपौरुषेययायां ततः परमकृपापीयूषवितान्तकरणा कोऽपि पुमान् निर्दोषः प्रसिद्धार्थे ध्वनिभिः स्वाध्यायं विधाय व्याख्यातीदानींतनग्रन्थकारवदिति युक्तं पश्यामः । श्रवोचाम च- वन्दः स्वीकुरुषे प्रमाणमथ बेसद्वारयनिश्चायकं । विनि जल्पति ततो ज्ञातोऽस्य मूल्यकवी " इति भागमोऽपि नापीरुपेयत्वमायाति । पौरुषेयत्याविष्कारिण एवास्योपसद्द्भावात् अपि मानुपूर्वी पिपीकिनामित्र देशकृतारपत्रक कामादीनामिय कालकृता चावलमां वेदेन तेषां नित्यम्यात्यात् क्रमेणाभिव्यकेःसा संजयतीति तर्हि कथमियमपौरुषेयी नवेदमिष्यति पौने यत्वादिति सिया पौरुषेथी पुतिः । अथ जगत्कर्तृव विध्वंसः घटवदिति । तदयुक्तम व्यारहणात् साधनं हि सर्वत्र याच्यते परैः शित्यादयो बुककर्तृका कार्यवा स्वाती प्रमाणेन सिद्धायां सायं गमयेदिति सर्ववादिसंवादः । सायं जगन्ति सृजन सरीरोऽशरीरो वा स्यात् । सशरीरो sपि किमस्मादिवद टइयशरीरविशिष्ट उत पिशाचादिवदडपुरन्धार्यत्वात् प्रमेयश्यशरीरविशिष्टः । प्रचमपके प्रत्ययाधः समन्तरेणापेच ainelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********** ************************************************************ उपोद्घातः। घटव्यपदेशमासादयति । जलाहरणाद्यर्थक्रियायामसाधकतम-म,प्रतिनिबिडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघातः,पूर्व पश्चाचावस्वात । अतत्स्वनावपके तु न जातु जगन्ति सजेसत्वजावायो- यवानुपलब्धिः ,सदममूर्तद्रव्यान्तराऽप्रेरकत्वं,गगनगुणत्वं वा? । गागनवत् । अपि च-तस्यैकान्तनित्यस्वरूपत्वे सृष्टिवत्संहारो- नाद्यःपक्षः। यतः शब्दपर्यायस्याश्रये भाषावर्गणारूपे स्पर्शामा- ** पिन घटते । नानारूपकार्यकरणेऽनित्यत्वापत्तेः। स हियेनैव | वोन तावदनुपमाधिमात्रात् प्रसिद्ध्यति,तस्थ सव्यभिचारत्वात् । * स्वजावेन जगन्ति सजेत् तेनैव तानि संहरेत,स्वभावान्तरेण वा! | योग्यानुपलब्धिस्त्वसिदा तत्र स्पर्शस्यानुद्भूतत्वेनोपलब्धिलक-* तेनैव चेत्सरिसंहारयोयोगपचप्रसङ्गः, स्वनाथाभेदात् । एकस्व- प्राप्तत्वानावात उपलज्यमानगन्धाधारद्रव्यवत । अथ घनसभावात्कारणादनेकखभावकार्योत्पत्तिविरोधात् । स्वजावान्तरण | सारगन्धसारादौगन्धस्य स्पर्शाव्यभिचारनिश्चयात्रापि तनि. चेभिस्यत्वहानिः । स्वभावभेद एव हि लक्षणमनित्यतायाः।यथार्णयऽप्यनुपलम्भावनुद्भतत्वं युक्तम, नेतरत्र, तनिर्णायकाजावागरी पार्थिवशरीरस्याहारपरमाणुसहरुतस्य प्रत्यहमपूर्वापूर्वोत्पादेत इति वेत, मातृत्तावत्तविणायक किश्चित्, किन्तु पुकला. न खनावमेदादनित्यत्वम् । इष्टश्च भवतां सृष्टिसंहारयोः शंभी |मामुद्भतानुभूतस्पर्शानामुपलब्धेः शम्बेऽपि पौलिकत्वेन परैः यो स्वभावभेषः । रजोगुणात्मकतया सृष्टी, तमोगुणात्मकतया सं. प्रणिगचमाने, बाधकाभावे च सति संदेह एवं स्यात्, न त्वहरणे, साविकतया च खितौ तस्य व्यापारस्वीकारात । एवं जावनिश्चयः, तथा च सन्दिग्धासियो हेतुःनि च नास्ति तान चाषस्थानेदस्त दे चावस्थावतोऽपि दानित्यत्वक्षतिः।-र्णायकम् । तथादि-शम्दाश्रयः स्पर्शवान्, अनुवातप्रतिवातयोअथास्तु नित्यः सस्तथापि कथं सततमेव सृष्टौ न चेष्टते । श्या- विप्रष्ठनिकटशरीरिणोपलभ्यमानाऽनुपमन्यमानेन्क्रियार्थत्वा पशावेचनु ता अपीछाः स्वसत्तामात्रनिबन्धनात्मलामाः सदै-द, तथाविधगन्धाधारद्रव्यवत्, इति । द्वितीयकल्पेऽपि गन्ध#वकिन प्रवर्तयन्तीति स एवोपालम्भः । तथा शम्भोरगुणा-द्रव्येण व्यभिचारः, वर्तमानजात्यकस्तूरिकाकर्परकश्मीरजादि धिकरणत्वे कार्यभेदानुमेयानां तदिब्धानामपि विषमरूपत्वानि-गन्धजन्यं हि पिहितकपाटसंपुटापवरकस्यान्तविंशति, बहिश्व * त्यत्यहानिः केन पायते । किा-प्रेकावतां प्रवृत्तिः स्वार्थकार-निस्सरति, नचापौलिकम् । अथ तत्र सूक्मरन्ध्रसंभवेनाति एयाभ्यां व्याप्ता । ततश्चायं जगत्सर्गे व्याप्रियते स्वार्थात्कारुण्या-| निविडस्वाभावात् तत्प्रवेशनिष्काशी, अत एव तदल्पीयस्ता, द्वान तावत्स्वार्धात,तस्य कृतकृत्यत्वातानचकारुण्यात,परदुः- नत्वपावृतद्वारदशायामिव तदेकार्णवत्वम्, सर्वथा नीरन्धे तु खप्रहाणेच्छा हि काहण्यम् । ततः प्राक्सर्गाजीवानामान्छि- प्रदेशे नैतौ संजयत इति चेत्, एवं तर्हि शब्देवि सर्वस्य * यशरीरविषयानुत्पत्तौ दुःखाभावेन कस्य प्रहाणेचा कारुण्य- तुल्ययोगक्षेमत्वादसिकता हेतोरस्तु । पूर्व पश्चाचावयवानुपलम । सर्गोत्तरकाले तु दुखिनोऽवलोक्य कारुण्याज्युपगमे दु.धिः, सौदामिनीदामोल्कादिजिरनैकान्तिकी। सूक्ष्ममूर्तरूच्यान्तरुत्तरमितरेतराश्रयम् । कारुण्येन सधिः, सध्या व कारुण्यम | राप्रेरकत्वमपि गन्धद्रव्यविशेषसूक्ष्मरजोधूमादिनियंनिचारी। इति नास्य जगत्कर्तृत्वं कथमपि सिस्वतीति संकेपः । नहिगन्धद्रव्यादिकमपि नास निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्रिअथ शन्दाकाशगुणत्वखएमनम् अश्मभुप्रेरकं प्रेक्ष्यते । गगनगुणत्वं त्वसिकम । तथाहि-न गग नगुणः शब्दः भस्मदादिप्रत्यकत्वात् रूपादिवदिति । पौलिक-* * अकारादिः पौद्गमिको वर्णः । स्वसिकिः पुनरस्य-शनः पौलिक, इन्द्रियार्थत्वात,पादिवपुलभाषावर्गणापरमाणुभिरारब्धः पौसिकः । पालिका देवत्यतितर देवेत्यतितरां संक्षेपः। पशब्द इन्धियार्थत्वाबूपादिवत् । यच्चास्य पौलिकत्वनिषेधाय * स्पर्शशून्याश्रयत्वादतिनिविडप्रदेशे प्रवेशनिर्गमयोरप्रतिघाता अबैतखएमनम्*त्पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धेः सूदममूर्तकच्यान्तराप्रेरकस्वाग-1 वेदान्तिनस्त्वेवं प्रजल्पन्ति-' सवे ख नगुणत्वाच्चेति पञ्च हेतवो यौगैरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासा तथा | स्ति किञ्चन । भारामं तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन' हि-शब्दपर्यायस्याश्रयो भाषावर्गणा,न पुनराकाशं तत्र चस्पों |॥ १ ॥रति न्यायादयं प्रपश्चो मिथ्यारूपः , प्रतीयमान* निर्णीयत एव । यथा शम्दाश्रयः स्पर्शवाननुवातप्रतिवातयोर्वि-त्वात् , यदेवं तदेवम् , यथा शुक्तिशकले कलधौतम, तथा मप्रकृष्टमिकटशरीरिणोपलज्यमानानुपमभ्यमानेन्द्रियार्थत्वात्तथा- चायं, तस्मात्तथा । तदेतद्वार्तम् । तथाहि -मिथ्यारूपत्वं तैः धारद्रव्यपरमाणुषत् इत्यसिकः प्रथमः । द्विती-कीरा विवक्तितम् । किमत्यन्तासस्वम् उतान्यस्थान्याकारत** यस्तु गन्धव्येण व्यभिचारादनकान्तिकः। वर्तमानजात्यकस्तू. या प्रतीतत्वम, पाहोस्विदनिर्वाच्यत्वम । प्रथमपकेऽसतस्या* रिकादिगन्धद्रव्यं हि पिहितद्वारापवरकस्यान्तर्विशति बहिश्च | तिप्रसङ्गः। द्वितीये विपरीतण्यातिस्वीकृतिः। तृतीये तु किमि निर्याति, न चापौदक्षिकम् । अथ तत्र सहमरन्ध्रसम्भवानाति- | दम् अनिर्वाच्यत्वम् । निःस्वन्नावत्वं चेत निसः प्रतिषेधार्थत्वे * निविरुत्वमतस्तत्र तत्प्रवेशनिष्कमौ, कथमन्यथोडाटितद्वाराव- स्वभावशम्नस्यापि भावाभावयोरन्यतरार्थत्वेऽसत्ख्यातिमत्ख्या* स्थायामिव न तदेकार्णवत्वम, सर्वथा नीरने तु प्रदेशेन तयोः स्यभ्युपगमप्रसङ्गः । भावप्रतिषेधेऽसत्ख्यातिरजावप्रतिषेधे * संजय इति चेत्तर्हि शम्देऽप्येतत्समानमित्यसिको देतुः । तृती- सत्ख्यातिरिति । प्रतीत्य गोचरत्वं निःस्वनावत्वमिति चेत, * यस्तु तडिलतोल्कादिभिरनैकान्तिकः। चतुर्थोऽपि तथैव, गन्धद्र- अत्र विरोधःनि प्रपञ्चो, हिन प्रतीयते चेत्कथम धर्मितयोपाव्यविशेषसक्कारजोधूमादिभियंत्रिचारात नहि गन्धद्रव्यादिक- सः कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम ? । तथोपादाने मपि नासायां निविशमानं तद्विवरद्वारदेशोद्भिशश्मश्रुप्रेरकंरश्य- वा कथं न प्रतीयते । यथा प्रतीयते, न तथेति चेत्तदि विपरीतते। पञ्चमः पुनरसिद्धः, तथा हि-न गगनगुणः शब्दोऽस्मदादिप्र-] स्यातिरियमन्युपगता स्यात् । किञ्चेयमनिर्वाच्यता प्रपश्चस्य त्यवत्वादूपादिवदिति सिकः पौगलिकः शब्द इति । अथ नायं | प्रत्यक्तवाधिता, घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यकं प्रपञ्चस्य सशब्दः पौगलिकासंगच्छतइति यौगाः सझिरमाणाः सप्रणयप्र-त्यतामेव व्यवस्थति, घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मन-4 णयिनीनामेव गौरवाही। यतः कोऽत्र हेतु स्पर्शशून्याशयत्व-स्तस्योत्पादात् । इतरेतरविविकवस्तूनामेव च प्रपञ्चशब्द| Jan Educatio娜本书本学丰羊羊牛牛棒棒棒棒棒丰丰半半本书李李孝宗本來样丰丰卡牛津味牛羊料李孝丰老本书。 ********************************************* ****************************************************** *** Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********************************************************** (१५) उपोद्घातः। वाच्यत्वात् । अथ प्रत्यत्तस्य विधायकत्वात्कथं प्रतिषेधे सा- यच्चाभावास्यं प्रमाणं, तस्य प्रामाण्याभायान्न तत्प्रमाणम् । * मर्यम् । प्रत्यक्षं हि-दमिति वस्तुस्वरूपं गृह्णाति, नान्यत्स्व- तद्विषयस्य कस्यचिदप्यनावात् । यस्तु प्रमाणपञ्चकविषयः स * रूपं प्रतिषेधति। विधिरेव । तेनैव च प्रमेयत्वस्य व्याप्तत्वात् । सिर्फ प्रमेयत्वेन "आहुर्विधातृ प्रत्यकं, न निषेध विपश्चितः। विधिरेव तत्वम, यत्तु न विधिरूपं, तन्न प्रमेयम् । यथा स्वरविनैकत्व भागमस्तेन, प्रत्यकेण प्रयाध्यते" ॥ १॥ पाणम । प्रमेय चदं निखिलं वस्तुतत्वम् । तस्माद् विधिरूपमेध। * इति वचनात, इति चेन्न । अन्यरूपनिषधमन्तरेण त |अतो वा तत्सिकिः । प्रामारामादयः पदार्थाः प्रतिभासान्तः* स्वरूपपरिच्छेदस्याप्यसंपत्तेः । पीतादिव्यवचिन्नं हि नालं प्रविष्टाः प्रतिमासमानत्वात, यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्तःनीलमिति गृहीतं भवति, नान्यथा । केबलवस्तुस्वरूपप्र प्रविष्टम् । यथा प्रतिजासस्वरूपम् । प्रतिनासन्ते च प्रामाऽऽरातिपत्तेरेवान्यप्रतिषेधप्रतिपत्तिरूपत्वात् । मुण्मभूतलग्रडणे मादयः पदार्थास्तस्मात्प्रतिभासान्तःप्रविष्टाः । प्रागमोऽपि परम* घटाभावग्रहणवत् । तस्माद्यथा प्रत्यकं विधायक प्रति | ब्रह्मण पव प्रतिपादकः समुपलभ्यते-"पुरुष एवेदं सर्व यद् नूतं पनं तथा निषेधकमपि प्रतिपत्तव्यम् । अपि च-विधाय- | यच्च भाव्यम, उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति। यदेजति कमेव प्रत्यकमित्यङ्गीकृते यथा प्रत्यकेण विद्या विधीयते, | यन्नेजति यद दूरे यदन्तिके यदन्तरस्य सर्वस्य यदुत सर्वस्यास्य तथा कि नाविद्याऽपि इति । तथा च द्वैतापत्तिः। ततश्च सुव्य | बाह्यतः" इत्यादि। 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यामितव्योऽनुमन्तवस्थितः प्रपञ्चः। तदमी वादिनोऽविद्याविवेकेन सन्मानं प्रत्य | न्यः' इत्यादिवेदवाक्यैरपि तत्सिरः। कृत्रिमेणापि भागमन तवात्प्रतीयन्तोऽपिन निषेधकं तदिति वाणाः कथं नोन्मत्ताः इति | स्यैव प्रतिपादनात् । उक्तं चसिकं प्रत्यकबाधितः पक इति । अनुमानबाधितश्व-प्रपञ्चो | "सर्व वै खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन। * मिथ्या न भवति, असद्विलकणस्वात् , आत्मवत् । प्रतीयमानत्वं | आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत्पश्यति कश्चन " ॥१॥ *च हेतुब्रह्मात्मना व्यनिचारी । स हि प्रतीयते न च मिथ्या।। इति प्रमाणतस्तस्यैव सिद्धेः परमपुरुष एक एव तत्त्वम्, सक* अप्रतीयमानत्वे त्वस्य तद्विषयवचसामप्रवृत्तेमकतैव तेषां। सभेदानां तद्विवर्तत्वात् । तथाहि-सवें जावा ब्रह्मविवाः, सत्वैश्रेयसी । माध्यविकलश्च रान्तः । शक्तिशकलकलधौतेऽपि |करूपेणान्वितत्वात् । यद्यपेणान्वितं तत्तदात्मकमेव । यथा प्रपञ्चान्तर्गतत्वेन अनिर्वचनीयतायाः सायमनवा घटघटीशरावोदञ्चनादयो मृपेणैकेनान्विता मदिवाः । * मनुमानं प्रपञ्चाद्भिन्नम, अभिन्नं वा । यदि निम्नं तर्हि सत्यम | सत्त्वैकरूपेणान्वितं च सकतं वस्तु । इति सिद्धं ब्रह्मविवर्तित्वं * सत्यं वा । यदि सत्यं तर्हि तद्वदेव प्रपश्चस्यापि सत्यत्वं स्यात् । | निखिलभेदानामिति । तदेतत्सर्व मदिरारसास्वादगद्गदोकअद्वैतवादप्राकारे खङ्गपातात । अथासत्यम , ताईन किधि-दितमिवावजासते, विचारासदत्वात् ।सर्व हिवस्तु प्रमाणसिद्धं तेन साधयितुं शक्यम , अवस्तुस्वात् । अनिशं चेत् प्रपञ्च नतु वायात्रेण। अद्वैतमते च प्रमाणमेव नास्ति, तत्सद्भावे द्वै-* स्वभावतया तस्यापि मिथ्यारूपत्वापत्तिः। मिथ्यारूपं च तत्कथं तप्रसङ्गात् । अद्वैतसाधकस्य प्रमाणस्य द्वितीयस्य सद्भावात । स्वसाध्यसाधनायानम् । एवं च प्रपञ्चस्यापि मिथ्यारूपत्वा अथ मतं लोकप्रत्यायनाय तदपेकथा प्रमाणमप्यन्यपगम्यते। सिकेः कथं परमब्रह्मणस्ताविकत्वं स्यात, यतो बाह्यार्थाना तदसत्। तन्मते लोकस्यैदासम्भवात् । एकस्यैव नित्यनिरंशस्य वो भवेदिति । अथ वा प्रकारान्तरेण सन्मात्रलकणस्य परम परब्रह्मण एव सत्वात् । अथास्तु यथाकथञ्चिप्रमाणमपि । ब्रह्मणः साधनं दूषणं चोपन्यस्यते । ननु परमब्रह्मण पवैकस्य तरिक प्रस्यत्तमनुमानमागमो वा तत्साधकं प्रमाणमुररीक्रियते ? * परमार्थसतो विधिरूपस्य विद्यमानत्वात्प्रमाणविषयत्वम् । अप न तावत्प्रत्यकम् । तस्य समस्तवस्तुजातगतभेदस्यैव प्रकाश* रस्य द्वितीयस्य कस्यचिदप्यभावात् । तथाहि-प्रत्यक्षं तदा कत्वात, मावामगोपालं तथैव प्रतिनासनात् । ' यच्च निर्विवेदकमस्ति । प्रत्यक्तं द्विधा निद्यते-निर्विकल्पकसविकल्पकभे कल्पकं प्रत्यकं तदावेदकम' श्त्युक्तम् । तदपि न सम्यक । तस्य दात् । ततश्च निर्विकल्पकप्रत्यक्षात सन्मात्रविषयात्तस्यैकस्यैव प्रामाण्यानन्युपगमात् । सर्वस्यापि प्रमाणतत्वस्य व्यवसायासिद्धिः। तथा चोक्तम् त्मकस्यैवाविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेः।सविकल्पकेन तुप्र. त्यकेण प्रमाणजूतेनैकस्यैव विधिरूपस्य परब्रह्मणः स्वप्नेऽपि श्र. “ अस्ति ह्यासोचनाझानं, प्रथमं निर्विकल्पकम् । प्रतिभासनात । यदप्युक्तम-"आदुर्विधातृ प्रत्यकम्" इत्यादि। बालमूकादिविज्ञान-सदृशं शुद्धवस्तुजम्" ॥१॥ तदपि न पेशलम् । प्रत्यक्षेण ह्यनुवृत्तव्यावृत्ताकारात्मकवस्तुन च विधिवत्परस्परल्यावृत्तिरप्यध्यक्षत एवं प्रतीयत इति न पव प्रकाशनात । एतच्च प्रागेव क्षुण्णमान हनुस्यूतमेकमतसिकिः, तस्य निषेधाऽविषयत्वात, " पाहुर्विधातृ प्रत्यकं खमं सत्तामा विशेषनिरपेकं सामान्य प्रतिभासते, येन न निषेद" इत्यादिवचनात् । यच्च सविकल्पकप्रत्यतं घट- यदद्वैतं त ब्रह्मणो रूपमित्यायुक्तं शोजेता विशेषनिरपेक्षसामापटादिभेदसाधकं तदपि सत्तारूपेणान्वितानामेव तेषां प्रकाश. न्यस्य खरविषाणवदप्रतिजासनात् । तदुक्तम्*कत्वात् सत्ताद्वैतस्यैव साधकम, सत्तायाश्च परमब्रह्मरूपत्वात । "निर्विशे हि सामान्य, नवेत् खरविषाणवत्। तदुक्तम-" यदद्वैतं तब्रह्मणो रूपम" इति । अनुमानादपि तत् ___ सामान्यरहितत्वेन, विशेषास्तद्वदेव हि" ॥१॥ सद्भावो बिन्नाव्यत एव । तथाहि-विधिरेव तत्वं प्रमेयत्वात् । | ततःसिके सामान्यविशेषात्मन्य प्रमाणविषये कुत पवैकस्य यतः प्रमाणविषयभूतोऽधःप्रमेयः,प्रमाणानां च प्रत्यकानुमाना- परमब्रह्मणः प्रमाणविषयत्वम् । यच्च प्रमेयत्वादित्यनुमानमुक्त* गमोपमानार्धापत्तिसंशकानां भावविषयत्वेनैव प्रवृत्तेः। । म, तदप्येतेनवापास्तं बोकव्यम् । पक्षस्य प्रत्यकबाधितत्वेन तथा चोक्तम् देतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । यच्च तस्सिद्धी प्रतिभासमान"प्रत्यक्तावतारः स्या-द्रायांशो गृह्यते यदा । त्वसाधनमुक्तम् । तदपि साधनाभासत्वेन म प्रकृतसाध्यसाधना व्यापारस्तदनुत्पत्ते-रजावांशे जिघृकिते"॥१॥ याऽलमा प्रतिभासमानत्वं दि निखिलनावानां स्वतः,परतोषा?* Jain Educi ************************* * ************************** ******************************************************************* ***************************************************************************************** ********************* Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ******************************* तदुक्तम् ************************************************************************************** *********************************************************** उपोद्घातः। न तावत्स्वतः; घटपटमुकुटशकटादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वे तृप्तिसिद्धौ तत्प्राप्तिप्रयतवैफल्यप्रसक्तिरिति यज्ञानात्मना स. नासिद्धः। परतः प्रतितासमानत्वं च परं विना नोपपद्यते | वंगतत्वे सिरसाधनं प्रागुक्कम , तपक्तिमात्रमपेक्ष्य मन्तव्यम् । इति । यच्च परमब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलभेदानामित्युक्तम, तथा च वक्तारो भवन्ति-अस्य मतिः सर्वशासेषु प्रसरति तदप्यत्र स्थलेऽन्वायमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिष- इति। न च ज्ञानं प्राप्यकारि,तस्याऽऽत्मधर्मत्वेन बहिनिर्गमाभात । * नात्येव । नचघटादीनां चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति, मृदाद्यन्वयस्यैव | बहिनिर्गमे चात्मनोऽचैतन्यापत्या अजीबत्वप्रसः। न हि धर्मों * तत्र दर्शनात्, ततो न किञ्चिदेतदपि । अतोऽनुमानादपि न त- धर्मिणमतिरिच्य कचन केवलो विलोकितः । यच्च परे रशन्त* सिकिः । किञ्च-पकहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायनूताः परस्परं | यन्ति-यथा सूर्यस्य किरणा गुणस्पा अपि सूर्यासिकम्य - *जिन्नाः, अभिन्ना वा । भेदे द्वैतसिद्धिरभेदे त्वेकतारूपतापत्तिः। वनं नासयन्त्येवं ज्ञानमप्यात्मनः सकाशादाहिर्निर्गत्य प्रमेयं तत्कथमेतेभ्योऽनुमानमात्मानमासादयति। यदि च देतुमन्तरेणा- परिच्चिनतीति । तत्रेदमुत्तरम् । किरणानां गुणत्वमसिम्म ,* पिसाध्यसिफिः स्यात्तर्हि द्वैतस्यापि वाल्मात्रतः कथं न सिद्धिः? | तेषां तेजसपुलमयत्वेन रून्यस्वात् । यख तेषां प्रकाशात्मा गुणः स तेभ्यो न जातु पृथग भवतीति संक्षेपः। * "हेतोरद्वैतासद्धिश्चेद, द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः। * हेतुना चेद्विना सिरि-द्वैतं वाङ्मात्रतो न किम्?" ॥१॥ * “पुरुष एवंदं सर्वम्" इत्यादेः,"सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादे अथैकेन्धियाणां नावेन्धियज्ञानसमर्थनेन भावश्रुत- * *श्चागमादपि न तस्सिकिः । तस्यापि द्वैताविनानावित्वेन भद्वैत समर्थनम्प्रति प्रामाण्यासंभवात् वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि दर्शनात्। एकेन्द्रियाणां तावोत्रादिद्रव्यन्छियानावेऽपि भाषेन्कियकानं * किचिद् रयत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतविकोपसम्भाव। ततदुक्तम्| "कर्मद्वैतं फयद्वैत, लोकद्वैतं विरुभ्यते । थाहि-कलकण्ठोदूगीर्णमधुरपञ्चमोद्गारभवणात सद्यः कुविद्याऽविद्याध्यं न स्याद, बन्धमोक्षद्वयं तथा" ॥१॥ सुम-पल्लवादिप्रसवो विरहकवादिषु भवन्द्रियकानस्य म्यअथ कथमागमादपि तत्सिहिः। ततो न पुरुषाद्वैतलकणमेक तं लिकमवलोक्यते । तिलकादितरुषु पुनः कमनीयकामि-* नीकमलदलदीर्घशरदिन्दुधवाललोचनकटाकविक्षेपात कम* मेव प्रमाणस्य विषयः। इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः। माद्याविभावश्चक्षुरिन्छियज्ञानस्य, चम्पकाहिपेषु तु विविध सुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिधविमलशीतलससिलसेकात तईश्वरव्यापकत्वखएकनम् त्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य, वकुलादिभूरुदेषु तु रम्नातिशा* ईश्वरस्य सर्वगतत्वं नोपपन्नम् । तद्धि शरीरात्मना भानात्मना या यिप्रवररूपवरतरुणनामिनीमुखप्रदत्तस्वसुस्वासुरनिवार-* स्याती प्रथमपके तदीयेनैव देहेन जगत्त्रयस्य व्याप्तत्वादितर- णीगएषास्वादनात् तदाविष्करणं रसनेन्कियकानस्य, कुरष*निर्भयपदार्थानामाश्रयानवकाशः । द्वितीयपके तु सिमसाध्यता; कादिविटविश्वशोकादिब्रुमेषु च धनपीनोगतकग्निकुचकुम्भ अस्माभिरपि निरतिशयझानात्मना परमपुरुषस्य जगत्त्रयको- विचमापत्राजितकुम्भीनकुम्भरणन्मणिवलयकणकणाभरणसडीकरणाभ्युपगमात् । यदि परमेवं भवत्प्रमाणीकृतेन वेदेन वि- | भूषितभव्यभामिनीनुजलताऽवगृहनसुखात निम्पिष्टपधाराग-* रोधः । तत्राहि शरीरात्मना सर्वगतत्वमुक्तम्-"विश्वतश्चक्षुरुत |चूर्णशोणतनतत्पादकमलपाणिप्रहाराषऊगिति प्रसूनपक्षपादि* विश्वतो मुखो विश्वतः पाणिरुत विश्वतः पाद्" इत्यादिश्रुतेः। प्रभवः स्पर्शनन्छियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमनिवीदयते । ततश्च * यच्चोक्तं तस्य प्रतिनियतदेशवर्तित्वे त्रिनुवनगतपदार्थानाम- यथैतेषु व्यन्छियासत्त्वेऽप्येतत् भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकल-* * नियतदेशवृत्तीनां यथावनिर्माणानुपपत्तिरिति । तत्रेदं पृच्च्यते । जनप्रसिद्धमस्ति,तथा व्यश्रुताभावे भावश्रुतमपि भविष्यति । * स जगत्त्रयं निर्मिमाणस्तकादिवत्साकाद्देहव्यापारेण निर्मिमी- रश्यते हि जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामाहारसंका, * ते, यदि वा सङ्कल्पमात्रेण ? आधे पक्के एकस्यैव भूभूधरादेर्वि | संकोचनबल्ख्यादीनां तु हस्तस्पादिभीत्याऽवयवसंकोचनादि*धाने अक्षोदीयसः कालकेपस्य सम्भवाद्धंहीयसाऽप्यनेहसा न ज्यो नयसंझा, विरहक-तिलक-चम्पक-केशराऽशोकादीनां परिसमाप्तिः। द्वितीयपकेतु सङ्कल्पमात्रेणैव कार्यकल्पनायां निय तु मैथुनसंज्ञा दर्शितव; विल्वपलाशादीनां तु निधानीकृतद्रवितदेशस्थायित्वेऽपि न किञ्चिद् दूषणमुत्पश्यामः। नियतदेशस्थायि णोपरिपादमोचनादिन्यः परिग्रहसंका । नचैताः संज्ञा भावभु*नां सामान्यदेवानामपि सङ्कल्पमात्रेणैव तत्तत्कार्यसम्पादनप्रति तमन्तरेणोपपद्यन्ते । तस्मात भावेन्धियपक्षकावरणकयोपशमापत्तः। किञ्च-तस्य सर्वगतत्वेऽङ्गीक्रियमाणेशुचिषु निरन्तरसन्त- दू भावेन्छियपञ्चकज्ञानवद् भावभुतावरणकयोपशमसद्भाषा*मसेषु नरकादिस्थलेष्वपि तस्य वृत्तिःप्रसज्यते। तथा चानिष्टाप द् द्रव्यश्रुताभावेऽपि यच्च यावच्च भावभुतमस्त्येवैकेन्छि*त्तिः। अथ युष्मत्पक्षऽपि यदा झानात्मना सर्वजगत्त्रयं व्यानोतीत्यु याणामित्यलमतितरां पल्लवितेन । इत्थं सत्स्वपि प्रभूतेषु जैनच्यते तदाऽशुचिरसास्वादादीनामप्युपत्रम्भसम्नावनात्, नरका दार्शनिकविषयषु कथमल्पीयस्यस्मिन्नुपोद्घाते पार्यते दर्शयि* दिदुःस्वस्वरूपसंवेदनाऽऽमकतया सुखाऽनुभवप्रसङ्गाचानि तुमिति विरम्यते कतिपयविषयप्रदर्शनेनेति#पत्तिस्तुल्यैवेति चेत् । तदेतदुपपत्तिनिः प्रतिकर्तुमशक्तस्य निवेदयन्ति धूलिजिरिवावकरणम् । यता ज्ञानमप्राप्यकारि स्वस्थलस्थमेव *विषयं परिनित्ति, न पुनस्तत्र गत्वा, तत्कुतो भवदुपालम्भः समीचीनः। न हि भवतोऽप्यशुचिज्ञानमात्रेण तसास्वादानु* भूतिः। तद्भावे हि स्रक्चन्दनाऽङ्गनारसवत्यादिचिन्तनमात्रणेव ***************************************** संशोधकाः Jain Education********************************************************** *inelibrary.org Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਰੋ ਵ ਚ ਵ ਚ ਤ ਵਾਤ ਦਾ ਵ ਵ ਲ ਵ ਲ ਤ ਨੂੰ ਤ ਤ ਰ ਆ ਰ ਦ ਤ ਤ ਰ ਲ ਮੂੰਹ ਰ ਰ ਵ ਲ ਤ ਤ ਤ ਵ ਰ ਵ ਰ ਲ ਵ ਤ ਵ ਰ ਵ ਵਾ ਵਰ : മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്മ്കാരാരാരാര്ത്ഥമായ വിവര്മ്മാറ്റത്ഠര്ര്ര്ര്ഹിറ്റ്മാവ് മറ് ਵਣ me ਨੂੰ ਲੈ ਕ ਚ ਡ ਣ ਤ ਵ ਚ ਕ SAVHTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT मत्तघ्रान्तविपददन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्प्रानिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनागमः। संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, धन्यःसूरिपदाड्रितोविजयराजेन्त्रात्परोन्योस्तिकः॥ ANakeakoolakoaloadcalinaleelcalaalealealsatsalwalsalcolmoloolcalcolgalwalpalkalalyalaatoolcolookootootnalooloittee ਦ ਵ ਣ ਣਾ ਣ ਣਾ DR.कतार ਣ ਤ ਵ ਵ ਨੂੰ TRENTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTER sasalsalsalsakcolsaileoisalcolmateniwalwalealcaselpsaisalwakolapipalonleolalsovaselsakoolookcakooloolwalselvalvalualcolmolsolalsalsalvalenloalsakoolsalcalsalwale ਚ ਤ ਵ ਵ ਡ ਨ ਏਕ ਬਾਰ ਚਾਰ ਨੂੰ ਤ ਸੈਂਕ ਦਾ ਡ ਡ ਕ ਈਵਰ ਨੂੰ ਇੱਕ ਵਾਰ ਮੁੱਖ ਮਤ ਵ ਦ ਭ ਣ ਤ ਵ ਲ ਸ਼ਾਂ ਲਾ ਚ ਵ ਲ ਵ ਵ ਲ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महम ॥ अनिघानराजेन्जपरिशिष्टम् ॥ (सिछहेमशब्दानुशासनम ) [अ०८ पा० १] मस्वा वीरेवन्द्यवन्ध, रागद्वेषविवर्जितम् । पहुनाधिकारजायात्, कचिदेकस्मिन् पदेऽपि यथा-1 माकृतम्याकृतिरिय, बन्दोबद्धा विरच्यते ॥१॥ कादिक काही, विश्भो, बीमो, इत्यादि बोरुभ्यम् ॥ अथ प्राकृतम् ॥ १ ॥ न युवर्णस्यास्वे ।।६।। प्रथाम्दोऽधिकारार्थ-श्वानन्तर्यार्थ प्यते । श्वर्णो वर्णयोरस्वे , परेवणे न संहिता। प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र-भवं, या तत भागतम् ॥ चंदामि मज-वरं , न वेरि-धमो वि अषयासो। प्राकृतं, संस्कृतस्थान्ते, तदधिक्रियते ततः। दणुक-रुहिर-लित्तो , सहर दो, सहर पसो। सिकंच साध्यमानं च , द्विविधं संस्कृतं मतम् ॥ संझाबहु अवळंदी, नव-चारिहरो ब विग्जुलाभिषो । सोनेरेव तस्येह , सकणं , देशजस्य न । मह-प्पभावनि अरुणो, वेद्य चेत्यायुदाहरणम् ।। इति विज्ञापनार्थे हि, प्राकृतस्यानुशासनम् ॥ 'युवर्णस्येति 'कि?, गूढो-अर-तामरसप्पभम् । संस्कृतानन्तरं कुर्मस्तद् धीरैरवधार्यताम। 'भस्वे' इति च कि?, सिध्यत. पुहवीसो यथा पदम ॥ विभक्तिः कारकं लिङ्गं, प्रकृतिः प्रत्ययोऽभिधा। एदोतोः स्वरे ॥ ७॥ समाप्तश्चापि सवैयः , संस्कृतस्येच प्राकृते । एकारीकारयोः सान्ध-न स्यात् क्वापि स्वरे परे। लल. विसर्गश्च , ऐ भी प्रशाः प्लुतः ॥ बहुप्राहमहु जिरणे , आबंधंती कंचु अंगे। एतद्वज्यों वर्णगणो , लोकाद् बोध्योऽनुवृत्तितः। मयररूयसरधारणि-धारा-श्रव्यदीसन्ति। जो स्ववर्यसंयुक्तौ , वौँ च भवनो हितौ ॥ चवमासु भपजत्ते-न-कलभ-दन्तावदासमूहजुझं। ऐदौती चापि केषांचित , कैतवं कैभव यथा । तं चेत्रमिक्षिभ-विस-द-म-विरसमालक्खिमो एपिंड। सौन्दर्य व सौंअरि, कौरवाः कौरवा इति ॥ अहो अच्चरिभं चापि . 'पदोतोरिति' कि?, यथान मस्वरं व्यञ्जनं सर्वे , कृत्यं द्विवचनं तथा । भत्थालोअण-तरक्षा , स्थरकईणं जमति बुद्धीमो। चतुर्थ्यास्तु बहुत्वं च , न भवत्यत्र कुत्रवित ॥ अत्यम निरारं-भौति दिनयं कान्दाणं ॥ बहलम् ॥५॥ स्वरम्योवृत्ते ।। ७ ॥ 'बहुलम' इत्यधिकृत-माशाखपरिपूरणात् । व्याजनसंपृक्तो यः , स्वरो व्यञ्जनेऽवशिष्यते लुप्ते । बेदितव्यं, यथास्यानं, तत्कार्य दर्शयिध्यते ॥ उतृत्तः स ह स्यादू, न स्वरसम्धिस्तु तत्परतः ॥ आर्षम् ॥३॥ गयणे यिन गंध-उभि कुणन्ति , रयणी-रो यमाअतं । ऋषीणामिदमार्य च , प्राकृतं बहुलं भवेत् । निसा-रो य निसि अरो, बाहुलकात कापि वैकरप्यम-॥ तथापि दर्शयिष्यामो , यथास्थानं यथाविधि । कुंभारो कुंजरो च, सूरिसो च सुऊरिसो। कचित् प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः, कचिद् विनाचा कचिदन्यदेव ।। सन्धिरेव कृनित चक्का-प्रो च सालादणो यथा। विविधानं बहुधा समीक्षय, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति । भत एक प्रतिषेधात, समासेऽपि स्वरस्य तु । दीर्घ-इस्खौ मिथो वृत्तौ ॥ ४ ॥ सन्धौ भिनपदत्वं च, वेदितव्यं मनीषिभिः॥ स्वराणां दोघंहस्थत्वे , समासे भवतो मिथः । त्यादेः ।।। सत्रदीर्धस्य इस्वत्वं , पूर्व तायनिगद्यते । तिबादीनां स्वरस्य स्यात् , न तु सन्धिः स्थरे परे। 'मन्नर्वेदि '-पदस्थाने, 'अन्तावेई 'प्रयुज्यते । यथा 'नवति दह' स्यात् , तथा- दोर ह' स्मृतम् ॥ सप्तविंशतिरित्यत्र , 'सत्तावीसा' भवेदिदम् ॥ लक्॥ १०॥ कचिनो'जुबह-जणो,' विकल्पस्तु कचिद् यथा स्वरस्य बहुमुक स्यात् , संहितायां स्वरे परे। बारी-मई वारि-मई , भुजयन्त्रमथोच्यते ॥ निःश्वासोच्चासौनी-सासूसासा च संभवत्यत्र । भुभा-यतं तुअ-यतं , अथो पति गृहं त्विदम् । त्रिदशशर्तियसासो, प्रयुज्यते कोविदरेखम। पर-हरं पश्-वरं , अथ वेणुवनं पदम् ॥ अन्त्यव्यन्जनस्य ।। ११ ।। 'धेतू-वर्ण वेलु-वणं,' इत्येवमन्निधीयते । शम्दानामन्तिमस्य स्थावू. व्यञ्जनस्येढ मग यथा। अथ दीर्घस्य हस्वत्वं , नियसिल त्यपि। तमो जम्मो जमो जाव, ताव चेत्यादि गद्यते ॥ कचिद् विकल्पो-जउँगा-यमं च जणा यडं। समास तु विभक्तीनां, वाक्यगानामपेकया। ना-सोत्तं नई-सोतं, वेद्यं गोरि-हरं त्विदम ॥ अन्त्यत्वं चाप्यनमयत्वे, भवतीत्यवगम्यतामा गोरी-हरं, वहू-मुहं , वहु-मुहमुदाहृतम् । यथा सभिक्खू सद्भिक्षुः , सजनः सजणोऽपि च । पदयोः सन्धिर्वा ॥ ५॥ एतदुणा पत्र-गुणा , तम्गुणा तहगुणा इति । मंस्कृतोक्तं सन्धिकार्य, व्यवस्थितविभाषया । न श्रदोः ।। १२॥ प्राकृते निखिलं वेद्य, तदुदाहियते यथा-॥ अदित्येतयोरनय , व्यजनं नैव मुप्यते। वासेसी वास-रसी, विसमाऽऽयवो विसम-प्रायवो भवति।। यथा-सद्दहियं सदा, जग्गयं चोभयं पदम॥ दहि-ईसरो विकल्पाद् , दहीसरो , साउ-अयं तु ।। निईरोवा ॥ १३ ॥ साऊ-अयमिति वेद्यं, 'पदयोरिति 'कि? मह महए। | निर्दुरोरन्त्यलोपो चा, निमहं नीसह यथा। पाया, पत्र, वत्थाओ, मुद्धाप चा मुद्धाइ। इस्सदो दूसदो चापि , इक्सिमो दुहिमो तथा । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिकम ] स्वरेऽन्तरथ ॥। १४ ॥ मान्तरो निर्झरोश्वान्त्यं, व्यञ्जनं मुध्यते स्परे । निरन्तरं अंतरया, निरसेसं दुरुत्तरम् ॥ गामित्यादि कापि यते । यथा अन्तोवर त्यत्र, रकारो लोपमाप्तवान् ॥ त्रियामादविद्युतः ॥ १५ ॥ लियां प्रवर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यं यदस्वरम् । तस्य स्थाने भवत्या विद्युतु ते ॥ प्रतिपत् पाडिया स्यात्, संपत् संपत्रा च सरित् सरिश्रा च । बालकाय 'सरिया'द्यपि 'अविद्युतः किं? यथा विजू ॥ रोरा ।। १६ ।। स्त्रियां रेफान्तशब्दस्य, 'रा' इत्यादेश इष्यते । अयमास्यापवादोऽस्ति यथा रूपं धुरा पुरा ॥ दुधो हा ।। १७ ।। , (3) अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । 6 युधो यस्यास्तु हादेश - स्तेन रूपं ख़ुदा भवेत् । शरदादेरत् ।। १८ ।। शरदादेरन्तिमस्य व्यञ्जनस्याद्भवेदिह । शरद् भिषगू यथा स्यातां सरश्री भिसओ क्रमात् ॥ दिपापः सः ॥ २५ ॥ दिक्प्रावृषः सो भवति, तेन स्यात् पाउसो दिखा। आरप्सरसोर्वा ॥ २० ॥ , आयुषोऽप्सरसधान्ते सो वा भवति तद्यथा । दीहाउसो च दीहाऊ, अच्छराऽच्छरसा भवेत् ॥ ककुजो हः ।। २२ ।। 9 ककुभो भस्य 'हः ' स्यात्, ककुहा तेन सिद्ध्यति । धनुषो वा ।। २२ ।। धनुषः यस्य हो वा स्यात्, धणुहं च धणु यथा । मोऽनुस्वारः || २३ || अन्तिमस्य मकारस्या नुस्वारोऽत्र विधीयते । ज फलं गिरिं बच् चेत्यादि निदर्शनम काप्यनन्त्यस्यापि यथा, -वर्णाम्मित्र वसुंमि च । वा स्वरे मथ ।। २४ ॥ अन्तस्थस्य मकारस्या- नुखारो वा स्वरे परे । पक्षे लुगपवादो मो, मस्य स्थाने भवेदिह ॥ उसभं श्रजिअं वंदे, उसभम् अजिनं च वा । बहुलत्वात् तथाऽन्यस्य, व्यञ्जनस्यापि मो भवेत् ॥ साक्षात् सक्खं यत् जं, तंतू तं विष्वक व वीसुमध सम्यक् । सम्म, पृथक पिहम, इह - मिहयं चाऽऽले लेहु वैद्यम ॥ ङ-ब-ए-नो व्यञ्जने ॥ २५ ॥ यास्पद बुखारी बरे यथा । 1 पति: पती च परामुखः परंमुरो भ्युका कं। अपि लाइन संकणं, परामुख इति छंमुही, नवति उत्कण्ठा कंठा, मन्ध्या संजा च विन्ध्य इति विको निदर्शनं येद्यम् ॥ चक्रादावन्तः ।। २६ ।। बकादीनां शब्दानां प्रथमादिः स्वरः । तस्यान्ते स्यादनुस्वारा -ऽऽगमो सक्ष्यानुसारतः ॥ कुं गुंदा कोडी गित | मंजारो दंसणमित्यादिष्वाद्यस्य कार्य्यमिह बेद्यम् । परं च सोमाणी मला यादवगमका भवेद् द्वितीयस्य अमिय-मरि अनयोस्तृतीयस्य ॥ कचिदपूरणेऽपि देवं नाग सुधार्थ । कचिन गिठी मज्जारों, मणसिला मणासिला ॥ श्रमणोसिला ' रूपं, ' अश्मुत्तयम्' इत्यपि । " परम पु + अपरि वयस्यां मा जीरो गृष्टिर्मनस्विनी । पद्मश्च कर्कोटो, दर्शनं गृष्टि-वृश्चिकौ ॥ अतिमुक्तः प्रतिश्रुत्, मनस्वी च मनःशिला । इत्यादयां शिदा काही परिकीर्तिताः क्वा स्यादेर्ण स्वोर्वा ॥ २७ ॥ क्वाप्रत्ययस्य स्वादीनां प्रत्ययानां च यौ ण-सू । तयोरन्तस्त्वनुस्वारो वा स्यादित्यवधार्यताम् ॥ यथा काऊण काऊणं, काळआण पदं तु वा । स्यात् काआणं, स्यादौ वच्चेण वच्छ्रेणमित्यपि ॥ तथा बच्चेसु वच्छ, 'णस्वोरिति ' किम् ? श्रग्गियो । विंशत्यादम् ॥ २० ॥ '' 3 [ भ०८ पा० १] विशत्यादिपदानां योऽनुस्वारस्तस्य सुग्भवेत् । तेन स्याद् विंशतिवसा, त्रिंशत् तीसा च संस्कृतम् ॥ सकयं स्थाश्च संस्कारः, सक्कारो विनिगद्यते । देव ।। २५ ।। मांसादीनामनुस्वारो लोकतः । , 1 मासं मंसं मासलं मंसलं वा 9 कामं कंसं केसुश्रं किंसुश्रं वा । " सीडी सिंहो, किं कि वा दाणि दाणिं, पासु पंसू वा, कटं या कह स्यात् ॥ पत्र एवं नूण नूर्ण, समुढं संमुहं तथा । श्राणिवा आणि स्वादु मांसादीनां निदर्शनम् ॥ मांस कांस्यं कथं पांसु-मसिनः सिंह-किंशुकौ । एवं नूनम् इदानीम् किम, दाणिम संमुख इत्यपि ॥ वर्गेऽस्यो वा ।। ३० ।। अनुस्वारस्य वर्णान्त्यो वा परे भयं । पड़ा पंको, कञ्चुक्रो कंचुओ वा, सज्जा संका, कण्टकं वा । कंड कराड, अन्तरं अंतरं वा, वो बंदो कम्प कंप वा ॥ इत्याद्यन्यद्वेदितव्यं च लक्ष्यं, वर्गे किं?यत् संसश्रो सहरेति । कचिदू धीराःशब्दविद्याप्रवीणा, एतत्कार्य नैत्यिकं वर्णयन्ति । माहदू-शरत्-वरणयः पुंसि ।। २२ ।। प्रावृट्शब्दः शरच्छन्द-स्तरणिश्वेति ते त्रयः । पुंसिस्युस्तरी वैस पाउसो सरधो यथा ॥ पाप-शिरो नजः ॥ २२ ॥ दामन् शिरो नभो बर्जे, यत् सान्तं नान्तमस्ति वा । शब्दस्वरूपं तत्सर्वे पुंलिङ्गमवगम्यताम् ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिद्धम० ] 'जसो पो नमो तेस्रो, उरो खान्ते निदर्शनम् । 9 ' जम्मा नम्मो तथा मम्मो, ' नान्ते लक्ष्यमिदं मतम् ॥ 'अदामेत्यादि' किं प्रोक्तम् १ यथा-दामं सिरं नहं । सेयं चम्मं वयं चैता दृशं बाहुलकं पदम् ॥ वापर्य वचनायाः ।। ३३ ।। 1 3 ये चातिवाचकाः शब्दा स्तथा ये वचनादयः । से पुंसि संप्रयोक्तव्याः सर्वेऽपीह विकल्पनात् ॥ तत्रादयथां यथा-' अच्छी अच्छी ' चापि गद्यते । अयादिगले पाठात् 'दसा अच्छी कचि भवेत् ॥ चक्खू चक्खूइँ, नयणा, नयणादं च लोयणा । लोणारं च वचनादिर्यथा-वयणा तथा ॥ धाविश्वातु विन्तु कुल कुलं । छन्दो छन्दं च माहप्पो, माहप्पं, भायणाईं तु ॥ भायणा च तथा दुक्खा, दुक्खाई चेति भएयते । तामित्या, सिद्धिः संस्कृतवद् भवेद ॥ " 1 गुथायाः फ्रीवे वा ॥ ३४ ॥ क्रीबे गुणादयः शब्दाः प्रयोक्तव्या विकल्पतः । गुणा गुणाई, देवाणि, देवा, विन्दूइँ विन्दुणो ॥ खग्गं खग्गा मण्डलग्गं, मण्डलग्गोऽपि भएयते । करयहं कररुहो, रुक्खा रुक्खाएँ चेत्यपि ॥ 1 , ( ३ ) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । माल्याद्याः स्त्रियाम् ।। ३५ ।। ये तु शब्दा इमान्ताः स्यु-स्तथाऽजल्यादयश्च ये । से सर्वे या विवाच्या दृष्यिते यथा ॥ गरिमा महिमा निल-जिमा च घुत्तिमाऽणिमा । तेखापुंच्या दयते । च चोरिश्रं । अंजलं । चोरिआ पिही तथा पि अच्छी अछि च वा पहा, पढो कुच्छ । बली निही ॥ गरीची जन्यादिरिष्यते । ' गड्डा गड्डो ' ऽनयोः सिद्धि-रत्र संस्कृतवन्मता । मन्त्रमाथित्य कामयते । स्वादेशस्य रिमेयस्य पृथवादी संग्रहा स्वदेशस्य सदा स्त्रीत्व मित्येके विपश्चितः ॥ बाहोरात् ।। २६ ।। माकारो बाहुशब्दस्य, स्त्रत्वेिऽन्तादेश इष्यते । "बाहार जेण धरिश्रो, पक्का " इति दृश्यते ॥ तो मो विसर्गस्य ॥ ३७ ॥ अतः परः संस्कृतो योगों भवेदिह । तस्य स्थाने तु ' मो' होता-दशादेशो विधीयते ॥ सर्वतः स तेन पुरतः पुरश्रो तथा । अतस्त्वा वाच्यो मार्गनो मग्गोऽपि च । सिद्धावस्थापेक्षाऽपि जवतो भवश्रो तथा । भवतो 'स्यात्, सन्तः संतो, कुतः कुदो । निष्यती ओरपरी मान्य-स्थां ॥ २० ॥ निजी श्रोतपरी वा स्तः, परे माल्ये व तिष्ठतौ । अत्र योऽभेदनिर्देशः, स च सर्वार्थ इष्यते । ओमालं वाऽपि निम्मनुं पश्ठा परिठा तथा ॥ जवन्तस्तु • 1 , आदेः ॥ ३६ ॥ आदेरित्यधिकारोऽयं, 'कगचा - 101१1१७७] ऽवधिको मतः इतः परस्तु यः स्थाना, तस्यादेः काय्र्यमिष्यते ॥ त्वदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् ॥ ४० ॥ स्वाद्यापरी । तयोरादेः स्वरस्पे, बहुविधीयते ॥ श्रम्हे पत्थ यथात्थ, जर मा जइमाऽपि वा । जब जरहं चैव माद्यं वेद्यं निदर्शनम् ॥ पदादव ॥ ४१ ॥ पदात्परो योऽपि शब्दस्तस्यादेर्वाऽत्र लुग्भवेत् । यथा- केण वि केणावि, वा तं पितमवाप्यते । इतः स्राव द्विः ॥ ४२ ॥ 3 इतः पदात्प स्वरात्परस्कारस्तु तत् ॥ स्यात् किं ति जति दिहुंति, 'न जुत्तं ति' स्वराद् यथातहत्ति ऊसिपीओ सि, पुरिसो सि निगद्यते ॥ 6 -पर-व-प-शपसां दीर्घः ॥ ४३ ॥ येषामुपधस्ताद्वा पसां यान्ति झोपताम् । यरवाः शवसा वाऽपि तेषां स्यादादिदीर्घता ॥ शस्य यलोपे ' पश्यति, पासई' ति निगद्यते । f 'कश्यपः कासवो 'श्रावश्यकमावासयं ' तथा । 3 • . रस्य लोपे तु विश्रामः, वीसामो ' संप्रयुज्यते । ' विश्राम्यति वीसमश्, ' मिश्र मीसं च जण्यते ॥ चलोपे त्वश्व श्रासौ स्यात्, शलोपे तु मनः शिला । मणासिञ्जा च दुःशासनोऽपि सासणो प्रवेत् । पकारस्य यलोपे तु, शिष्यः सीसेोऽनिधीयते । तथा लोपे वस्तु, वासा चाथ क्लोपने ॥ विष्वाणः स्याश्च वीसाणो विष्वक् वीसुं च नाभ्यते । पस्य लोपे तु निष्पितो, नीसित्तो, सस्य लोपने । सस्यं सासं कस्यचित् तु कास-ईति रलोपने ॥ चत्र कसो च विश्रम्भः, वीसम्नोऽथ बलोपने । निःस्वः नीसा, सलोपे तु निस्सहः नीसहो भवेत् ॥ अतः समयादौ वा ॥ ४४ ॥ समृद्ध्यादिषु दीर्घः स्यादकारस्याऽऽदिमस्य वा । सामि च समिकी नवति पसिद्धी च पासिकी ॥ पयमं तु पायमं स्यात, पाडिया पमिचम वेद्या ॥ पाच पो मिसी पामिि सारिच्छोऽपि सरिच्छो, तथा मणंसी न्र माणंसी ॥ मासिणी मसिणी आई माहिभाई था । पारोहों तु परोड़ो, जयति पत्रासू च पावासू ॥ पाडी डिप्टी समृद्ध्यादश्यं गणना समृद्धिः प्रतिषिविश्व प्रतिस्पर्धी मनखिनी । मरोद प्रकट प्रतिपत् प्रमोऽधानियाति च । सटश्च मनस्वी व प्रवासी चैवमादयः । 1 श्रस्पर्श आफँसो । , तेन प्रवचनं पाव- यणं [अ०८ पा० १] 1 • " " 1 परकीयं पारकेरं, पारकं चापि पठ्यते । चतुरंतं चाउरतं इत्याद्यपि च सिध्यति । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिद्ध हेम० ] दक्षिणे हे ।। ४५ । 3 " कि दस्य दीघों है परे स्याद् दारिणो यथा । 'द' इति किं ?, स्याद् दक्खिणो, यथा दीर्घोऽत्र नो भवेत् । इ: स्वप्नादौ || ४६ ॥ च । , स्वप्नादिषु भवेदित्व-मादेरस्यैह तद्यथा-1 सिवियो सिमि, घार्गे, वकारः-सुमिणो यथा । सब ई.स, बेकसो विल विश्रणं तिमो मिरि किविणा तथा मुगो दिव्यं चेत्यादि वादविधिः। यथा दक्षं देवदतो, ' माषासो संप्रवर्तने । प्पो, दसो मरिच वेतसौ । व्यक्षीक - व्यजने ईषद्, उत्तमश्चेह पठ्यते । पकाङ्गार - ललाटे वो ॥ ४७ ॥ पपाद्वाराध्यदेवं यथा पिकं पर्क, इङ्गालो अङ्गारो, णिडानं णडालं च । मध्यम कलमे द्वितीयस्य ॥ ४८ ॥ मध्यमे चैव कतमे, द्वितीयस्य स्वरस्य तु । इत्वं स्यातां यथा रूपे, ' मज्जिमो कश्मा ' हमे । सप्तपर्णे या ॥ ४६ ॥ सप्तपर्णे द्वितीयस्या-कारस्येवं विकल्पनात् । उत्तिव छत्तवठो, स्यानां रूपे इमे यथा ॥ sa || ० || , 3 यदि प्रत्यये स्या-दादेरस्य तु वा यथा-1 विषमयः - विसमग्र स्याद् चिलमइओऽपि च ॥ रेवा ।। ५१ ।। हरशब्दे इकारस्याकारं इत्थं विकल्पतः । यत् समापद्यते तेन ' दरो हीरो 'ऽनिधीयते ॥ ध्वनि - विष्वचोरुः ॥ ५२ ॥ यश तथा विश्वादेऽकारस्तु या बहु तस्योत्वं क्रियते तेन, 'भुणी वसुं ' च सिध्यतः ॥ चरम - खणिमते णा वा ॥ ५३ ॥ चण्डखडतयोरस्य सणस्योरवं विकल्पते । तेन चएम चुडं रूपं खःएमओ खमिओ जवेत् ॥ 9 गवये वः || ५४ ॥ गवये तु वकारस्या-कारस्योत्वं प्रसज्यते । 'गश्री गडआ ' चेति, रूपं सिद्धिमुपागमत् ॥ मयमे प-यो । ५५ ।। प्रथमस्य पथोरस्य वोत्वं स्याद्युगपत् क्रमात् । पुडुमंदमं तेन पदुमं पढमं तथा ॥ 1 ( ७ ) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् । 3 को जिज्ञादी ।। ५६ ।। श्रभिशादिषु शब्देषु शस्य सत्ये कृते पुनः । शस्यैव यस्त्वकारः स्यादुत्वं तस्य विधीयते ॥ यथा-अहिर सभ्य श्रागमणू कयएणुआ । किम बधासम्बो' 'अडियो' भवेदिदम् ॥ 'अभिवादाविति' किन ?, प्राज्ञ पढो भवेद् यथा । यत्रत्वं ह्रस्य णत्वं स्यात् सोऽभिज्ञादिगणः स्मृतः ॥ 1 राध्यादिषु भवेदेष-मकारस्यादिमस्य तु । सेर सुन्दरं मेन्दुमाः ॥ पुराकर्म पदं पुरेकम्मं प्रयुज्यते । युत्करपर्यन्ता वा ॥ ५८ ॥ " - धमयुरकरपर्यन्ता कार्येऽकारस्य वैश्वमादिभुः । तेन हि वेज्ञी यल्ली, उक्केरो उक्करो, भवति ॥ पेरतो पती अच्छे अच 1 अच्छरिश्रं अच्छरं, तथाऽच्छरीचं विनिर्दिष्टम | ब्रह्मचर्ये च ॥ ५ ॥ ब्रह्मचर्ये चकारस्या-कार एवमवाप्नुयात् । अतो बुधा ब्रह्मचर्य म्ह तो अन्तरि ।। ६० ।। अन्तः शब्दे तकारस्या-कारम्यैवं विधीयते । तस्मादन्तःपुरं रं विद्भितं । अन्तश्चारी भवेदन्ते श्ररी, नायं क्वचिद् विधिः । यथा-' अतग्गयं ''अंतो, वीसम्भो' विनिगद्यते ॥ ओरखये ।। ६१ ।। " - " श्रमाः पद्म शमेोग्यं ततो भवेत् । पद्म-मेति । २११२। खत्रेण विश्लेषे 'पउमं स्मृतम् ॥ नमस्कार परस्परे द्वितीयस्य ।। ६२ ।। द्वितीयस्थात त्वं स्यात् नमस्कारपरस्परं । तो रूपं सुनिष्पनं 'नमोक्कारो ' परोप्परं ' ॥ बाप ।। ६३ ।। आदरस्य तु चत्वं स्याद् धातार्पयती यथा-1 रूपं भवेत् ॥ . , यादी ।। ५७ ।। [अ०८१०२] 1 स्वपावृश्च ।। ६४ ॥ स्थानीकमतः स्वातामा तेन ' सोबह सुबह ' इयं रूपं विभाष्यते ॥ " नानीदाइ वा ।। ६५ ।। 3 9 परे ' पुनः ' शब्दे, यस्त्वकारोऽस्ति तस्य तु । , श्री श्रइ ' इत्यादेशो वा स्यातामित्यभिधीयते ॥ 9 'न उणा न गुणाइ' स्याद्, न तृणो न उण्यम् । केवलस्यापि यदू रूपं पुणा ' कापि दृश्यते ॥ Nisaare लुक् ।। ६६ ।। अलारयोदे-रकारस्येह लुग्न सावं भला या लाऊ, अलाऊ च विकल्पनात् ॥ एवं रपणं श्ररएणं स्यात् श्रत इत्येव' नान्यथा । 6 धारण कुरो वेदपाल इयते ॥ वाऽव्यपरखातादावदातः ।। ६७ ।। ययेषु तथेोत्खाता दिव्याकारस्य बाउ भवेत् । तत्राऽव्यये 'जह जहा, ' रूपं ' तह तड़ा ' तथा ॥ 6 , 3 व वा'' द ढा' 'वाहन '-प्रमुखा बढ्यो मताः । उन्नतुखार्थ, उपमयं चमरो तथा ॥ चामरो, कलओ काल-श्री परिहाविओ पुनः । स्यात् परिद्ववियाँ, संग-विश्रो संविभो पदम् ॥ - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०८ पा० १] तबवेण्टं तालबेण्ट, नविओ नाविभो भवेत् । प्रायशब्द भवेदेव-मातो गेज्कं ततो भवेत्। तलवोपटं तावोएट, पायसं पयसं, स्मृतम् ।। द्वारे वा || Bए । हलिओ हालिओ, नारा-श्रो नराओ च, खारं । द्वारशब्दे नवेदेव-माकारस्य विनाषया । खरं, कुमरो वाच्यः, कुमारो, वलया पुनः॥ देरं पके दुभारं स्यादू, दारं बारं पदं तथा ॥ बनाया, बाम्हणो बम्हणो, पुनाएदो मतान्तरे । • नेरइओ नारो , ' स्यातां नरयिकनारकिकयोस्तु । पुन्वएहो च, चमूचामू, दावग्गी च दवग्यपि ॥ भाषेऽन्यत्रापि यथा,-'पच्छेकम्म' तथाऽन्यदपि ॥ उत्थातं चामरं ताल-वृन्तं प्राकृतहासिकी। पारापते रो वा ।। ७०|| स्थापितः कालको नारा-चो बझाका च स्वादिरः ।। नवेत् पारापते रस्या-कारस्यैवं विकल्पनात् । कुमारो, ब्राह्मणः पूर्वा-श्वेमी कस्यचिन्मते । तेन 'पारेवो पारा-वो'रूपदयं मतम् ।। उत्सातादिरयं धार-राकृत्या परिगण्यते ॥ मात्रटि वा ।। ८१ ॥ पञ्छा ।। ६७ ॥ स्यान्मात्रटप्रत्यये वाऽऽत-पत्वं रूपद्वयं ततः। घनिमित्तो वृद्धिरूपो, य आकारोऽस्तु तस्य वाऽद् । एक 'पसिश्रमेतं ए-त्तिभमत्तं' तथाऽपरम् ।। 'पवाहो पवढो' वा स्यात्, 'पयारो पयरो' तथा ॥ 'पत्थावी पत्थयो' कापि, न 'राओ' रागवाधकः । बहुलाद् मात्रशब्दे 'भो-मणमेत्तं ' ततो नवत् । उदोद्धाऽऽः ॥ २ ॥ महाराष्ट्र । ६६ ।। प्राकारस्याऽऽऽशन्दे स्या-पुत्वमोवं विज्ञापया। महाराष्ट्र हकारस्या-55कारस्थ त्वविधानतः । 'उद्धं ओवं ' तथा पक्के, 'अवं अई' च वा नवेत् ॥ 'मरहट्ठ मरदहो,' पुनपुंसकतो भवेत् ॥ ओदाल्यां पडी। ०३ !! मांसादिष्वनुस्वारे ।। ७० ।। 'बाली' शब्दे जवेदात-श्रोत्त्वं पङ्कयर्थबोधने । कृतानुस्वारमांसादा-वाकारो यात्यकारताम् । 'मोली' पति विजानीयात्, 'भासी' नात्र, सखी यदि। मंसं कसं तथा पंसू, पंसणो कंसियोऽपि च ।। चंसिओ पंचो संसि-सिओ संजत्तिो यथा । हस्वः संयोगे ।। ४।। * अनुस्वारे ' इति कथम् ?, 'मासं पासू' न चाऽदिह ॥ दीर्घवर्णस्य हस्वत्वं, संयोगे परतो नवेत् । मांसं कास्यं पांसनं कां-सिकं वांशिकपाएमची। तद्यथादर्शनं वेद्यं, न सर्वत्र विधीयते ॥ पांसुः सांसिफिका सांया-धिको मांसादिरिष्यते । तानं 'तम्ब ' आनं · अम्बं, 'आस्यम् 'अस्सं 'प्रयुज्यते। श्यामाके मः ॥ ७१ ॥ मुनीरूस्तु 'मुणिन्दो' स्यात्, तीर्थ 'तित्थं' तथा पुनः ।। श्यामाके तु मकारस्य, य प्राकारोऽस्ति तस्य तु । गुरुल्लापाः 'गुरुल्लावा, 'चूर्णः 'चुम्यो' प्रपठ्यते। अदाशेन श्यामाका, 'सामो' चिनिगद्यते ।। नरेन्द्रस्तु 'नरिन्दो' स्यात्, 'मिलिच्छो' मुच्छ उच्यते ।। सदादौ वा ।। ७ ।। भधरोष्ठोऽहरु 'सं-वेद्यं, नीलोत्पलं तथा । •मीमुप्पलं 'विजानीया-देवमन्यद् निदर्शनम् ॥ सदाविशम्दग्वित्वं स्या-दाकारस्य विभाषया। 'सया सर'च वा रूपं, 'कुप्पासो कुप्पिसो'ऽपि च । इत एद्वा ॥ ५ ॥ 'निसारो निसिपरो,' तथैवान्ये सदादयः ।। संयोगे तु परे वाऽऽदे-रित एत्त्वं विभाज्यते । भाचार्ये चोऽच्च ।। ७३ ॥ पिएम पेपमं च धम्मिलु, धम्मळ विबुधा विदुः । प्राचार्यशब्दे चस्याऽऽत-इत्वमत्त्वं च वा भवेत् । स्यात् सिन्दूरं तु सन्दूरं, विण्इ वेण्ड मिगधसे । 'मायरित्रो' तेन, सिद्धम् 'मारिनो' सथा । 'पिटुं पटुं' अनित्यत्वात, 'चिता' इत्यत्र मा नवेत् । किंशुके वा ।। ०६ ॥ ई:स्त्यान-खस्वाटे ॥ ७४ ॥ पत्वं चाऽऽदेरितो वेद्यं, किंशुके वाचके यथा । सस्थान-खल्वाटयारादि-रात ईत्वं विधीयते । 'कसुनं किंसु' चैतद्, द्वयं रूपं विऽर्बुधाः ॥ जीणं थीण तथा थिन, खल्लीको तेन सिद्ध्यति॥ उ साना-स्तावके || ७५ ।। मिरायाम् ।। ७७॥ भवेदेवमिकारस्य मिरा मेरा ततो भवेत् । साना-स्तावकयोरादे-रात नत्वं निगद्यते। तेन सास्ना भवेत् 'सुरहा', स्तावकः 'थुवो' भवेत॥ पथि-पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिया-विनीतकेष्वव ।।। पथि प्रतिश्रुत पृथिवी,हरिद्रा-मूषिके तथा । घाऽऽमारे ॥ ७६ ॥ विभीतके नवेदादे-रितोऽत्यमिति भएयते । भासारशब्दे स्यादादे-रात कत्वं विभाषया। पहो च पुहवी पुढवा, पर्मसुआ मृसी दलही तु। तेन सिम्यति ऊसारो, आसारो' रुपयुग्मकम् ॥ वा स्यादत्र हबद्दा, 'वहेमो ' कापि वैकल्प्यम । आर्यायां यः इवचाम् ॥७७|| 'पंथं किर देसित्ते, '-त्यत्र तु पथिशब्दतुल्यवाच्यस्य । यस्याऽऽत ऊत्त्वं ' आर्यायाम, अज्जू' श्ववां ततो भवेत् । पन्धशब्दस्य रूपं, ज्ञातव्यं शब्दविनिरिह । वश्वामिति 'तु किम ?, अजा, साध्वी भ्रष्ठाऽपि भरायते ।। शिथिलेङ्गद वा ।। ए || एन् ग्राह्ये ॥ ७॥ शिधिोदयौरादेरितोऽद वा संप्रयुज्यते । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजन्मपरिशिष्टम् । [अ०८ पा.१] सढिल नवति पसदिलं,सिढिलं पमिढिनमिहात्ववैकल्प्यात्। उणिअमिति संवेद्यः, पानीयादिगणो विदुषा । मुअमअमिङ्गुद-शब्दे म्पद्वयं घोध्यम् ॥ बाहुलकात् कनिदेषु, स्याद् वैकल्प्यं ततः करोसोऽपि । तित्तिरी रः ।। || पाणीअं च अली, उधणीश्रो जीबह स्याच ॥ रस्येतोऽत्वं तित्तिग स्यात, तेन हि तित्तिरो। पानीय ब्रीडितं बल्मी-कं तदानी प्रदीपितम् । तो तो वाक्यादौ ॥ १ ॥ अवसाददलीकं चा-नातं जीवति जीवतु ॥ वाक्यादेरितिशब्द-म्याऽन्त्यस्येतोऽत्र संभवस्यत्वम ॥ उपनौत गृहीतं च, शिरीषं च प्रसीद च । 'न' जाम्पियावसाण, 'अ' विअसिम-कुसुमसरोपीह ॥ गभीरतृतीयकरी-पद्वितीयादयः स्मृताः ॥ इणिहा-सिंह-त्रिंशविंशतो त्या ।। ए३॥ उज्जीणे ।। १०२ ॥ जिह्वादिषु इकारस्य, ईकारः संप्रयुज्यते । जीर्णशन्दे भवेदीत-उत्त्वं जुम्म-सुरा ततः। 'जीदा सीहो 'तथा' 'तीसा', यक तिस्तत्र त्या सह। जिम भोमणमसे च, मात्र बाहुलकाद् भवेत ॥ 'वीसा' इति नवेद् रूपं, किन्तु क्वापि न जायते। - कहींन-विहीने वा ।। १०३ ।। 'सिंहदतो''सिंहरायो' इति बाहुकामतम् ॥ ऊत्वं होने विहीने स्या-दीकारस्य यिभाषया । झुकि निरः ।। ६३ || इणो हीणो विहीणो च, विहणो सिद्धिमाययुः॥ निरो रोपे दीर्घः स्या-दिकारस्येति शब्द्यते । स्याद् 'नोसासो' 'नीसरक्ष,' पवमन्यनिदर्शनम् ॥ तीर्थ हे॥१०४॥ 'लुकोति' किम् ?, यथा-निस्स-दाई अंगाई, निराणो। ऊत्वमीतो भवेत् तीर्थ-शब्द हे तु कृते सति । द्विन्योरुत् ।। ६४॥ तूह, 'हे' इति किं प्रोक्तम् ?, 'तित्थं ' नात्र यथा भवेत् ।। द्विशब्दे न्युपप्तमें च, भवेदुत्वमितो यथा-। एत् पीयूषापीम-विभीतक-कीरशेशे।। १०५॥ दु-मत्तो च दु-आई च, दु-रेहो दु-विहो तया ॥ पीयूथापीड विभीतक-कीदृशेशेषु स्यादेत्त्वम् । ऽवयणं, वैकल्प्यं च ,नवेद् बाहुनकादिह । पेकस पामेलो, बहेडो केरिसो पॅरिसो । बु-नुणो बि-उणो चैव, पुश्मो विश्ओ यथा ॥ नीम-पीछे वा ।। १०६ ।। 'कचिन्न' द्विरदः शान्दो, 'दिरो' स्याद् द्विजो 'दिनो' । श्रोत्वं कापि यथा स्पं, 'दो-वयणं' प्रपठ्यते ॥ नीडपीठयोरीतो, वा स्यादेवं ततश्च सिब्बन्ति । स्याद् 'गुमन्नो' 'एम-जर,' न्युपसर्गे निदर्शनम् । नई नीडं पेढं, पीढ़ क्वाप्यन्यथाऽपि स्यात् ।। अनित्यत्वाद् ‘निवार,'जवतीत्यादि भूरिशः ॥ नतो मुकुलादिवत् ॥ १०७॥ प्रवासीको । ए५॥ मुकुलादीनामादे-रुतो भवेदत्वमत्र तेन स्युः। इको प्रवासिनि तथा, नवेऽत्त्वमितो, यथा-। मउलं मउलो मउरं, मउड अगरुं गलोई च ॥ 'उधू''पावासुनो' चैतद्, दयं व्याहियते पदम् ॥ जहिडिलोऽथ च गरुई, जहुठिलो सोअमल्लमिति शम्दाः। युधिष्ठिरे वा ।। ६ ।। कचिदाकारोऽपि स्याद्. यथा-विदुतस्तु 'विदामो'। युधिष्ठिरे भवेदादे-रित सत्त्वं विकल्पनात् । मुकुलो मुकुरो गुर्वी, सौकुमार्य-युधिष्ठिरौ। जहिलो ततो रूपं, विकल्पेन जदिठियो। अगुरुश्च गुहूची च, मुकुट मुकुलादयः॥ ओच्च दिया कृगः।। ए७॥ वोपरौ।। १०८ ॥ उस्वमोत्त्वं द्विधाशब्दे, वा रुग्धातावितः परे । उपरौ स्यादुतो वाऽत्वम, प्रवरि उवार यथा । 'दोहा-किजाइ' तेन स्यात, “दुहा- किज' श्त्यवि। गुरौ के वा ॥ १० ॥ दोहा-भं दुहा-अ-मिति, का' इति किं , 'दिहाऽऽगय' येन। | गुरोः कृते स्वार्थिके के, वाऽत्त्वमादेरुतो भवेत् । कचित केवलस्य स्यात, 'उहा वि सो सुर-बह-सत्या'। गरुमो गुरुयो रपे, कं विना तु 'गुरु' स्मृतम ।। वा निरे ना || ए८॥ इले कुटौ ॥ ११०॥ निझरे तु नकारेण, सहेतो वौत्त्वमिप्यते । अकुटौ स्यादुतश्चादे-रित्वं हि 'भिउडी' भवेत् । 'प्रोज्झरों' 'निज्करो" वैता-रशं रूपं बुधा विः। पुरुषे रोः ॥ १११ ॥ हरीतक्यामीलोऽत् || एए । पुरुषे रोरुतः स्यादिः, पुरिसो वा पउरिसं। हरीतकीपदे रीका-रस्येतोऽवं विधीयते । ईक्षुते ॥ ११२॥ रूपं 'हरमई' तेन , बुधैरेवं प्रयुज्यते। प्रात कश्मीरे ।। १०० ।। क्षुतं प्रयुज्यते की, भवेदोत्यमुता यदा। भास्वमीतोऽस्तु कश्मीरे, 'कम्हारा' तेन सिध्यन्ति। ऊत् मुजग-मुसले वा।। ११३॥ पानीयादिष्वित् ।। १०१ ।। सुलगे मुसले च स्या-दुत ऊत्त्वं विज्ञापया। पानीयादिषु शन्देषु, स्यादीतोऽवेत्वमध्रुवम् । सुहवो सूहयो तेन, मुसलं मूसलं भवेत। पाणि अनि श्रोसि अंतं जिअ आणिधे ॥ अनुत्साहोत्सने सच्चे ॥ ११४॥ विलिअं करिसो धम्मि-श्रो तयाणि च जीउ । उत्साहोत्सन्नभिन्न यौ, शम्द सच्छी निरीकिती। दुइ त गहिरं, गहि सिरिसो च पलिपि पसिन् । तयोरादेरुकारस्य, नित्यमूत्वं विधीयते। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिडहेमा] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [ भ. पा.१] कसुत्रो ऊसयो ऊसि-तो ऊसर३, उच्छुकः । आत् कृशा-मृमुक-मृदुत्वे वा ॥ १७ ॥ ऊसुओ कससचे-त्यादि वेध निदर्शनम् ॥ मृक-मृत्व-कृशाया-मारवमृतः स्याद् यथा किसा कासा । उत्साहोत्सन्नयोस्तूच्चा-दो उन्नो निगद्यते । मानकं च महत्तण-मथ माउकं च मन अंवा ॥ झुकि दुरो वा ।। ११५ ।। इत् कृपादौ ॥ १८ ॥ पुरो रेफस्य लोपे स्या-दुत ऊरवं विकल्पनात् । रुपेत्यादिषु शम्देषु, भयेदित्यमृतो यथा । महो ऽसहोऽपि स्थाद, दूहयो दुहबी तथा। किवा मिरसे घाच्य, मट्रमन्यत्र पठ्यते ॥ सूत्रे लुकीति किं ? प्रोक्तं, दुस्सहो विरहोऽत्र न ॥ दिअयं दिलु सिह, दिही सिही निवो कियो किया। श्रोत संयोगे ॥ ११६ ।। गिट्टी पिछी इबी, गिझी तिप्पं धि किच्चं॥ प्रोत्वमादेरुतो नित्य, संयोगे परतो नवेत् । सिंगारो जिंगारो, भिगो किसिनो निऊ घिणा घुसिणं । तोरा मोर पोक्खरं कोट्टिमं वा, किसरोकिई सिमालो, विसी विश्राहो निदा किषिणो। कोएडो कोन्तो पोत्थो मोद्धो वा । वि-कई वाहितं, किसो समिकीच सकिसाणू षा॥ घोकन्तंबा मोग्गरो पोग्गलं वा, हिनं विचुत्रो वित्तं, इसी निसंसो च उक्कि। मोत्था चतान्यस्य दयाणि सन्ति । वित्ती तथा विहिओ, कियाणयं या कृपादयश्चैते । कुतूहले वा हस्वश्च ॥ ११७॥ बाहुलकादपि कार्य, वेद्यं सिम्बेद यथा रिद्धी । कुतूहले भवेदोत्त्वमुतो दूस्वश्च वा ततः। रुपा मृष्टं दृष्टं दृदय-भृगु-सृष्टं कृपनृपौ, कोऊदलं कोउदवं, कुऊह समिति त्रयम् ॥ घृणा रष्टिः सृष्टिः कृति-घुरण-गृष्टिः कृशहतौ ॥ अतः सूदमे वा ॥ ११ ॥ वृसी पृथ्वी कृत्या कृषित-कृपणी वृश्चिककृती। सदमशब्दे नवेदत्व-मूतो वा तेन सिध्यति । नृशंसो भृकारः शर-सकृती व्याहत-ऋषी । सपदं सुराहं तथाऽऽर्षे तु, 'सुदुम' संप्रयुज्यते । उत्कृष्ट-हित-शूगाल-कृशानु-गृद्धि दुकूले वा लश्च द्विः॥ ११ ॥ गृङ्गार-वृद्धकवि-वृत्त-कृपाण-तृप्ताः ऋद्धि-स्पृहे अथ वितृष्ण-समृद्धि-कृच्छअकूलशमे वाऽवं स्या-दूतो लश्च द्विरुच्यते। अखं च ऊन च, 'दुगुलं' स्वार्ष सच्यते । भृङ्गास्तु वृत्तिरपि तेत्र कृपादयः स्युः ॥ वोदयदे ॥ १२० ॥ पृष्ठे वाऽनुत्तरपदे ॥ १६ ॥ सद्व्यूदशम्दे स्यादीत्व-मूकारस्य विभाषया । स्यात् पृष्ठेऽनुत्तरपदे, वेस्वमृत्वस्य, तद्यथा'नवाद' तेन 'उबूढं,' द्वयं विद्वद्भिरुच्यते । पिट्ठी पठी पिछि, परि-ट्ठविध संप्रयुज्यते ॥ उहनूमत्कएम्य-वातूले ।। ११ ।। किमनुत्तरपद इति !, महिवई यथा भवेत् । बृहनूमत्कएय-वात्लेषूत उर्भवत् । मसृणमृगाडू-मृत्यु-शृङ्ग-घृष्टे वा ॥ १३० ॥ चमया हनुमंतो वा-उलो, करमुअर स्मृतम्। शुरु घृष्टे मृगाङ्के च, मृत्यौ च मसृणे तथा । मधुके वा ॥ १२ ॥ कारस्य भवेदिरवं, विकल्पेनति दृश्यताम || ऊत उत्वं मधूके वा, मनं महुअं यथा । स्याद् मिश्रङ्को मयङ्को वा, मिच्चू मच्चू च पठ्यते । सिंग संग विजानीयाद, घिट्ठो घट्ठोऽपि गद्यते॥ इदेतो नूपुरे वा ॥ १२३ ।। देतो नपुरे स्याता-मूकारस्य विकल्पनात् । उदृत्वादौ ॥ १३१॥ निउरं नरं पके, नवरं संप्रकीर्त्यते ॥ ऋत्वादीनामृकारस्य, भवेदादेरुकारता। भोत कूष्माएमो-तूणीर-कूपर-स्थूल-ताम्बूल. उक पुट्ठो परामुट्ठो, पउट्ठो पुहई भुई। गुडूची-मूस्ये ।। १४॥ पउत्ती पाउसो बुंदा-वणो वुहो च निव्वुनं । पाउरो पाहुडं वुट्टी, उजू वुत्तन्त संवुनं ।। कूष्माएकी-स्थूल-ताम्बूल-गुरुची-मूल्य-क्षरे । निहुअं निउभं जामा-उप्रो माउ.प्रो भाउो। तूणीरे च भवत्योस्वमूकारस्येति दर्यते । मुणालं च परहुओ, बुंदं पहुडि निव्वुई ।। कोहएमी कोहनी थोरं, तोणीरं कोप्परं तथा । विउ उसहो पिउ-ओ, पुहवी च माउभा । मोल्लं गलोई तंबोलं, व्युत्क्रमेण प्रदर्शितम् । तुः परामृष्टमृणालवृन्दा-वनप्रवृत्तिप्रभृतिप्रवृष्टाः। स्थूणा-तुणे वा ॥ १५ ॥ वृन्दर्षभभ्रातृकमातृकामा-तृकर्जुजामातृकवृद्धिवृद्धाः ॥ स्थूणा-तूणयोरोत्त्वमूकारस्य विभाषया। विवृतनिवृतवृत्ता-न्ताभृतिप्राभृतप्राथोणा घृणा तथा तोणं, तूणं चैवमुदाहतम् । वृतपितृकपृथिव्यः, संवृतप्रावृषौ च । ऋतोऽत ।। १३६ ॥ परभृतनिभृतस्पृ-ष्टानि निर्वृत्तपृथ्वी, शुकारस्याऽऽदिनूतस्य, नवत्यस्वमितीर्यते । परिपठति च ऋत्वा-दि गणं निर्वृतिश्च ।। वृषभो वसहो वाच्यो, धृष्टो घट्ठोऽनिधीयते। निवृत्त-वृन्दारके वा ॥ १३॥ घृतं घयं, तृणं तणं, कृतं कयं, मृगो मनो। ऋत उत्वं वा वाच्यं, निवृत्सवृन्दारके पदे तु यथा। इहाइ कृपादिपा-तोऽबसेयमित्यपि। बुन्दारया च वन्दा-रया निबुत्तं निमित्तं च ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) [सिबहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०० पा. १] वृषभे वा वा ।। १३३ ।। पत इत्त्वं विकल्पैन, भवेदित्यवगम्यताम् ।। वृषभे वेन साकं स्या-दृकारस्योत्त्वमत्र या । विपणा वेपणा वा स्यात्, चवेडा चविमा तथा। 'उसहो वसहो' चैता-दृशं रूपं प्रयुज्यते ॥ दिअरो देवरो घेद्यः, किसरं केसरं मतम् ।। गौणान्त्यस्य ॥ १३४॥ जास्तेने वा ॥ १४७ ।। गुणीभूतस्य शब्दस्य, योऽन्त्य ऋत् तस्य उद् भयेत । पत ऊत्वं तु वा स्तेने, घूणो येणो द्वयं नवेत्। स्याद् माउ-मण्डलं. माउ-हरं पिउहरं तथा। ऐत एत् ।। १४० ॥ माउ-सिया पिउ-सिपा, तथा पिउ-वणं स्मृतम् ।। ऐकारस्यादिभूतस्य, भवत्येत्त्वं ततो भवेत् । मातुरिद्वा ।। १३५ ।। घेदम्ब केढवो वैजो, सेला एरावणो तथा ।। मातृ-शब्दस्य गौणस्य, भूत इत्वं विकल्पते। तेमुक्कं चैव केलासो, रूपाएयेतानि सन्ति च । मार-हरं माउ-हरं, कापि माईणमिप्यते॥ इत् सैन्धव-शनैश्चरे ।। १ ।। नदान्मृषि ।। १३६ ।। पेत इत्त्वं भवेन्नित्यं, सैन्धवे च शनैश्चरे । श्रोदूपुच्च क्रमादेतद्, मृषाशब्दे भवेहनः । सणिचरोसिंघवं च, द्वयं रूपं प्रसिध्यति । मासा मूसा 'मुसा मोसा-वाओ' चेहक प्रयुज्यते ।। सैन्ये वा ।। १५० ॥ इदुतौ वृष्ट-वृष्टि-पृथक्-मृदङ्ग नप्तके ॥ १३७॥ ऐत इत्वं तु वा सैन्ये, 'सिन्नं सन्नं ' ततो दयम् । वृष्टी वृष्टे मृदङ्गे च. नप्तृके पृथगव्यये। अइदैत्यादौ च ॥ १५१ ।। कारस्येदुतौ स्यातां, तदुदाव्हियते यथा-॥ ऐतोऽः सैन्यशन्दे स्याद, दैत्यादौ च तथा गणे। स्याद् मिइलो मुइङ्गो वा, नत्तिो नत्ती तथा । सैन्य सइग्नं संप्रोक्तं, दैत्यादिलक्ष्यतेऽधुना-॥ विठो बुडो तथा विट्ठी, वुटी रूपं पिहं पुहं ॥ प्रश्सरिअं वरजवणो, वानीरं च कश्वं सहरं । वा बृहस्पतौ ॥ १३ ॥ वएसो च दश्च्चो, चश्त्त वदम्भ-वश्सालो। बृहस्पती भवेद् तो, विकल्पनादिदुत् तथा । घरहो च वइस्सा-गने दइव दन्न-वसाहो । भइरव इति दैत्यादि-गणो वुधैाहतः पूर्वैः॥ बिहकई बुहप्फई,बहप्फई च पाक्षिकम् ॥ [नगस्वरूपिणीनं०] 'विश्लषे तु न जवति'-चेहअमिति चैत्य इष्यते रूपम् । देदोद्वन्ते ॥ १३ ॥ आर्ष-'चैत्यवन्दनं ची-वन्दण-'मुच्यते सद्भिः। ऋकारस्य भवेदित्त्वमेवमात्वं यथाक्रमम् । दैत्यो दैन्यं भैरवो दैवतं च, बैतालीयं कैतवं स्वर-चैत्यम् । तेन वृन्तं भवेद् 'विराटं, वेण्टं घोण्टं' त्रिधाऽऽत्मकम् ।। वैशालो वैशास्त्र-वैश्वानरौ वै-दो वैदेहश्च वैदश एवम् ।। रिः केवलस्य ॥ १४॥ ऐश्वर्य च वैजवनं, देत्यादिगण इत्ययम् । केवलस्य ऋतो रिः स्याद् , रिद्धी रिच्छो' ततो भवेत् । प्राकृत्या गपयते यस्माद्, न संख्यानियमस्ततः ॥ ऋषजत्वपो वा ॥ ११ ॥ वैरादौ वा ॥ १५ ॥ श्रणऋजुऋषतऋतुऋषिषु,ऋतोऽस्तु वारिसरणं अणंरिज्जू। वैरादिषु भवेदेतो-इरादेशो विकल्पनात् । अज्जू रिसहो उसहो', रिक उऊ स्याद् रिसी इसी रूपम् ।। तेन रूपवयं वैरे, 'घरं बेर-' मीरशम् ॥ कामासो केलासो, वश्सवणो पठ्यते च वेसवणो । दृशः किप्-टक्मकः ॥ १४॥ वश्वालियो च वेत्रा-लिओ, चश्त्तो तथा चेत्तो। किए टक्-सगन्तस्य शेर्धातोः रिः स्गद् ऋतो यथा । कारवमिति फेरवमिह, वसिअमिति बेसिनं पा स्यात् । 'सहग्वर्णः सरिवमो', सदृशः सरिसो मतः ॥ चासंपायण-वेसं-पायणरूपवयं च मतम् ॥ सरकस्तु 'सरिच्चो' स्याद्, यादृशो जारिसो भवेत् । वैरं वैश्रवणो वैशम्पायनश्चैत्र-कैरवे । एवं एयारिसो अन्ना-रिसो प्रम्हारिमो तथा ।। कैलासो वैशिका वैता-बिको बैरादिरुच्यते । तारिसो केरिसो तुम्हा-रिसो सन्तीह नरिशः । एच देवे ॥१५३ ॥ त्पदाचन्यादि-(१९५२) सूत्रोक्तः, प्रत्ययः किबिहेप्यते ॥ । पेत एवमश्त्वं च, देवशम्दे पृथग्भवेत् । माहते ढिः ॥ १४३ ॥ देवं वश्व्वं दइव, रूपत्रयमुदाहतम् ।। भारते तु तो दिः स्याद्, 'प्राढिो' तेन सिद्ध्यति । नचैनीचैस्यः ॥ १५४॥ अरिस ।। १४४॥ प्रअ पतादृशादेशो, भवेदैतोऽविकल्पतः। हप्तशब्देऽरिरादेश-ऋकारस्य विधीयते । चर्नीचैरिति पदे, नीचभं नच्च तथा ॥ सप्तसिंहेन दरिअ-सोदेणेति निगद्यते ॥ ईद धैर्ये ॥ १५॥ सृत इनिः कप्त-कन्ने ॥ १४५॥ धैर्य-शन्दे नवैदेत-इत्त्वं 'धीर' ततो भवेत । कम-क्लन्नयोरमयो-मृत इनिरादेश इण्यते तेन । ओतोऽद्वाऽन्योऽन्य-प्रकोष्ठाऽऽतोद्य-शिरांवेदना-- धाराकिलिसवत्त, किलिन्न-कुसुमोवयासु ॥ मनोहर-सरोरुहे क्तोश्च वः॥ १५६ ॥ एत इद् वा वेदना-चपेटा-देवर केसरे ॥ २४६ ॥ शिरोवेदनाऽन्णेऽन्य-प्रकोष्ठ-मनोहर-सरोरुहातोये । धंदनायां चपेटायां. देवरे केसरे नथा। आताऽस्वंचा, क-तयो-ययासंनवं चत्वं स्यात् । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिद्धहेम] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [ . पा.१] अनन्नं अन्नुस्, मणोहर मणहरं, सिरोविप्रणा । वा कदले ॥ १६७ ॥ सिरविणा, आवज, प्रारज्जं सररुहं सरोरुहमिति ॥ विनाषया तु कदल-शब्दे स्वरयुतेन हि । रूपं भवति पवट्ठो, तथा पउट्ठो प्रकोष्ठशब्दस्स। परेण व्यञ्जनेनादः, स्वरस्यैवं विधीयते ॥ बाहुलकादपि कार्य, क्वचिदिद वेधं यथास्थानम् ॥ फयलं कयली केली, केलं पचतुष्टयम् । सत्सोच्छासे ॥ १५७ ।। वेतः कर्णिकारे ।। १६८ ॥ श्रोत कत्त्वं तु सोच्चासे, सूसासो सिद्धिमृच्चति । कर्णिकारे भवेदेत्त्वमितो चा सस्वरेण हि । गव्य उ-आमः ।। १५० ।। परेण व्यम्जनेनेद कमेरो कसिमारो॥ 'प्रह-प्राथ' इत्यादेशी, स्या-तामोतस्तु गोपदे । प्रयो वैव ।। १६ए । गनो गउश्रा गाओ, 'गाई एसा हरस्स'च॥ प्राकृते तु विकल्पना-ऽयिशदे सस्वरेण हि । औत ओत् ।। १५६ ।। परेण व्यन्जनेनादेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते ।। औकारस्यदिनूतस्य, भवेदोत्त्वमिति स्थितम् । 'अ सम्मत्तिए' 'पे वी-देमि' चैवं प्रयुज्यते । कौमुदी- 'कोमुई' कौश्च:-'काँचो' यौवनमेव च । ऐकारस्य प्रयोगोऽपि, प्राकृत तेन बुध्यते ॥ 'जावणं' कौस्तुनः 'कोत्यु-हो' कौशाम्बी च कौशिकः। प्रोत-पूतर-बदर-नवमात्रिका-नवफनिका-पूगफले ॥१७॥ 'कोसंबी' 'कोसिओ' रूपं, यथाक्रममुदीरयेत् । प्तर-नवमालिकयो-नवफलिकाबदरयोश्च पूगफले । नत् सौन्दर्यादौ ।। १६० ॥ व्यञ्जनसहितेनाऽऽदे, स्वरस्य वौत्त्वं परस्वरेणापि ॥ दादेशो अवेदौतः, सौन्दर्यादिषु, तद्यथा। नोमालिया पोष्फलं, नोहलिया पोप्फली तथा पोरी। सुन्दरं सुन्दरि, सुगन्धत्तणं वारिओ सुमो । पोरो बोरं रूपं, निदर्शितं कोविदैरेवम् ॥ सुकोमणी पुलोमी, मुंजायण-सुखपिणो प्रबति । नना मयूख-लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दशसौन्दर्य-शौएम-पौलोमी-दौवारिक-सौवर्णिकाः। चतुर्वार-सुकुमार-कुतूहलोदूखोलूखले ॥ १७१ ॥ मौजायनः शौकोदनिः, सौन्दर्यादिः प्रकीर्तितः॥ उबूस्खले चतुर्वारे, सुकुमारे चतुर्दशे । कौदेयके वा ॥ १६१ ।। उदूससे मयूखे च, सवणे च चतुर्गुणे ॥ कौकेयकशम्ने स्था-चौकारस्योत्त्वमत्र वैफल्प्यम् । कुतूहले चतुयें च, वैकल्प्यं सस्वरेण हि। कुच्छेअयं च कोच्छे-अयं द्विरूपं समुद्दिष्टम ॥ परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्यौत्त्वं विधीयते ॥ भः पौरादौ च ।। १६२ ॥ मोदो मऊडो मवर्ण, लोणं भवति चोग्गुणो । कौकेयके च पौरादौ, य औकारःप्रपठ्यते । चउमगुणो, चमत्थो चो-स्थो, चमहद चोइट। तस्य म्याद अरादेशः, कउच्छेमयमित्यपि ॥ चोन्बारो च चउचारो, कोउहल्लं च काहसं । पौर:-पउरी, गौमो-गउमो, सौधो निगद्यते सब्हं । सुकुमालो च सोमालो, ओहलो स्यादुऊहसो ॥ कौशनमिह कउसलमिति, पौरुषमिह परिसंवेद्यम् । सऊखलं ओक्लश्यं स्या-देवं सर्वमुदाहृतम् ॥ स्यात् कौरवः कउरखो, सौराः सारा बुधैर्निगद्यन्ते । अवापोते च ॥१७२॥ . मौलिः-मउली, मौन-मडणं, कौमास्तथा कडला ॥ उतेऽवेऽपेऽव्यये शब्द-त्रये, वा सस्वरेण हि। पौरो गौमाकौशलं पौरुषंच,सौराः कौमाः कौरवो मौन-सौधौ। परेण व्यजनेनाऽऽदेः, स्वरस्यौत्त्वं विधीयते । मौलिः पौरादिगणो धीरवय-राकृत्या संख्यायते नेह संख्या । 'प्रो भर 'भव यरई,' तथाऽवयासो भवेय'योनासो'। प्राच गौरवे ॥ १६३ ॥ 'भो सर' 'अव सर' प्रो-सारिश्रमवसारिध चैव ॥ मो वणं, मो घणो, सन-वणमुत्र घणोऽथ च बाहुलकात् । श्रौत प्रात्त्वम् , उश्च स्या-दादेशो गौरवे पदे । 'अबगय-मवसद्दो, उभ, रवी'न चौत्त्वं प्रवत्यत्र । स्याद गारवं गउरवं, कविनिः संप्रकीर्तितम् ।। मच्चोपे ॥ १७३ ॥ नाव्यावः ।। १६४ ॥ उपसर्गे तूपशम्ने, साई वा सस्वरेण हि। आवाऽऽदेशोऽस्तु नौ-शम्ने, औतो ' नावा' ततो भवेत् । परेण व्यञ्जनेनादेः, स्वरस्योत्त्वं तधौद् भवेत् ॥ एत् त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन ॥ १६५ ॥ सवहसि मोहसि, कहसि वा वकानो। प्रयोदशादिषु संख्या-शब्देषु सस्वरेण हि। ओज्झायो कज्जाओ, त्रयं त्रयं चात्र रूपं स्यात् ।। परेण व्यञ्जनेनाऽदेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते ॥ _ नमो निषले ॥ १७४ ॥ यथा-तेरह तेवीसा, तेतीसा परिपव्यते । निषपण-शब्दे वैकल्य प्रादेशः सखरेण हि। स्थविर-विचकिन्झायस्कार ॥ १६॥ परेण व्यजनेनादेः, स्वरस्योमो विधीयते ॥ स्थविरे च विवकिले-ऽयस्कार सस्वरेण हि । पुणुमपणो च णिसपणो च, बुधै रूपद्वयं स्मृतम् । परेण व्यञ्जनेनाऽऽदेः, स्वरस्यैत्त्वं विधीयते । प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ॥ १७५॥ थेरो वेलं एकारो, विश्वमपि कचित् । 'अ' 'पा' श्त्यादेशौ, शब्दे प्रावरणे स्मृती। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिमहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०७ पा. १] श्रादेः स्वरस्य स्तः सव्य-जनस्वरपरस्य, वा ॥ मयणो नयण कयग्गहो, सयलं तित्थयरो रसायकं ॥ पसरणं पाउरणं, पावरणमुदाहृतम् । 'सायास चव पायाल, 'दयालू ' इति गृह्यते । प्रवर्ण इति किं प्रोक्तं, ' सणो''पमणो' ई'। स्वराइसंयुक्तस्यानादेः ॥ १७६॥ 'पनरं' 'निहो ' 'वाऊ.''राईव''निनो ' तथा । सूत्रं 'स्वरादसंयुक्त-स्यानादेः' निखिवं त्विदम् । यश्रुतिनात्र कर्तव्या, नच 'लोअस्स' 'देअरो'। इताऽधिक्रियते कार्य-सिम्ये, तद विचिन्त्यताम् ॥ जवायवर्णादित्येव, क्वचित् 'पियन ' इत्यपि ॥ क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक ॥१७॥ कुब्ज-कर्पर कीले कः खोऽपुप्पे ।। १०१ ।। स्वरात् परेऽसंयुक्ता अनादिभूतास्तु सन्ति ये तेषाम् । कुम्जकर्परकीनेषु, कस्य वर्णस्य वो भवेत् । क-ग-च ज प-य-वानां, प्रायो बुक प्राकृते भवति । कुब्जाभिधेयं पुणं चेत, तदा नैव विधीयते ॥ के नित्ययरो लोश्रो, गे-नयर स्याद नो मयंको च । 'खुज्जो ' च 'स्वीलओ' चैव, 'खप्परं च तथैव हि। चे-सई कयम्गडो स्याद्, जे-वा रययं पयाई च गयो । अपुष्प इति किं प्रोक्तं, 'बंधेडं कुज्ज-पुष्फयं'। ते-जई रसायलं, दे-मयणो, पे-रिऊ सुरिसो च । आर्षेऽन्यत्रापि खसिअं' 'कसिनं ''खासिभ' तथा। ये-तु बिनोओ नअणं, वे-लायमं च विउहो च । 'कासितं' रूपमप्येवं, विकल्पमिह दृश्यते ॥ प्रायोग्रहणात् कचिदपि, न नवति यत्-पयागजलमगरू। विदुरो समवाोदा-णवो सुकुसुमं तथा सुगयो । मरकतमदकने गः कन्दुके त्वादेः ॥ १२॥ स्वरात परः किं कथितः?, पुरंदरी संवडोच संकरी॥ मरकतमदकलशब्दौ, कस्य च गत्वेन सिद्ध्यतः किंतु । नकंचरो सगमो, धणंजो संवगे नात्र ॥ कन्दुकशब्दस्यादे-रेव च गत्वं विनिर्देश्यम् ॥ किमसंयुक्ताः ?-अको, वग्गो काजं तथैव विप्पो च। रूपं 'मरगयं' मय-गलो 'गेंदुअमियाप । मच्चो धुत्तो सब्वं, वज्ज उहाम इति च यथा ॥ किराते चः ॥ १०३।। कचिप संयुक्तस्य च, नकचर इति अवेद् यथा रूपम् । किरातशब्दे चत्वं हि फकारस्य विधीयते ॥ सक्ता अनादिनृताः, जारो चोरो तरू वएणो । विधिः पुलिन्द एवाय, 'चिल्लाओ' इति दृश्यते। समासे तु विभक्तीनां, वाक्यमानामपेकया। न कामरूपिणि विधिः, 'नमो हरकिराययं '॥ पदत्वं चापदत्वंच, तत्र लक्ष्यानुसारतः॥ यथा-भागमित्रो आय-मिओ, जलचरस्तथा । शीकरे भ-हो वा ॥१८॥ धात्यो जनयरो' चेरक, सुखदो सुह ओऽपि च ॥ शोकरे तुककारस्य, न-हौ स्यातां विकल्पनात् । कचिदादेरपि यथा 'सपुनः-सवण' स्मृतम् । सीभरी सीहरो, पक्षे सीअरो विनिगद्यते । सच सोप, तथा चिन्द इन्धं चैव प्रयुज्यते ॥ चन्द्रिकायां मः ॥१५॥ पिशाची तु पिसाजी स्या-वस्य जत्वन कुत्रचित् । व्यत्ययो रश्यते कापि, तदुदाहियतेऽधुना। चन्धिका चन्दिमा जाता, कस्य मे विहिते सति । 'पगत' एकत्वम्, 'एगा' एकोऽमुको-'ऽमुगो'चाप। निकष-स्फटिक-चिकुरे हः ॥१८६॥ 'लोगस्सुज्जोयगरा, ''प्रसुगो' असुकोऽपि प्रागारो' || निकषे स्फटिक चिकुरे, कस्य हकारी विधीयते तस्मात् । आकारस्तीर्थकरः, 'तित्थगरो' 'सावगो' विनिर्देश्यः। निहसी फलिहो चिहुरो, क्रमेण रूपाणि सिध्यन्ति ।। भावक इति 'अागरिसो,' आकर्षः कस्य गत्वेऽत्र ॥ . ख-घ-थ-प-नाम् ।।१८।। व्यत्ययश्चे-(४४४७) ति सूत्रानु, रूपनिष्पत्तिरिष्यते। दृश्यते चान्यदप्या, चस्य टत्वविधानतः॥ स्वरात् परेऽसंयुक्ता अनादिनूतास्तु सन्ति य, तेषाम् । यथाऽऽकुञ्चनमित्यत्रा-55वंटणं रूपमृच्छति । ख-घ-थ-ध-नां वर्णानां प्रायो हः प्राकृते भवति ॥ खे-मेहला च साहा, घे-मेहो जहणमिति तथा माहो। यमुना-चामुएमा-कामुकातिमुक्तके मोऽनुनासिकश्च ॥१७॥ थे-पावसहो, नाहो, धे-याहो वाई-दहणू॥ यमुना चामुण्मा का-मुकातिमुक्तकपदेषु मुक मस्य । भे-थणहरो सहावो, सहा नहं सोह इत्युदाहरणम् । अनुनासिकश्च मस्य, स्थाने स्थादित्युदाहियते ॥ स्वरात परः किं कथितः ?, संखो संघो तथा बंधो॥ 'जैउणा' 'काँचो' चाँउ-मा' तथा 'अँणि उत्तयं'। किमसंयुक्ताः? अक्स३, अग्घ कत्थर च सिद्धो बंध। कचिन जायते 'अइ-मुंतयं' 'अश्मुत्तयं'। 'गज्जते व मेहा, ' भनादिभूताभिधानेन । नावणात पः ॥ १७॥ प्रायोग्रहणादू अधिरो, पलय -घणो वा ननं च जिणधम्मो । अवीपुत्तरस्याना-देमुक गम्य न जायते। सरिसवखलो पणटुभ-ओ, कार्य चेरगिह बेचम् ॥ शपथ:-'सवढा' शापः, 'सांवो'नादेः कदाचन ।। पृथकि धो वा ॥१८॥ 'परउठो' यतो नात्र, पस्य लोपो विधीयते । अवों यश्रुतिः ॥ १७ ॥ पृथशब्दे थकारस्य, स्थाने धो वा विधीयते । पिधं पुधं पिहं तेद्वत्, पुहं रूपचतुष्टयम् ॥ कगचजे-(४।१७७) त्यादिसूत्रात, लुकि जातेऽवशिष्यते । अवर्णाश परीभूतो, योऽवर्णस्तस्य यश्रुतिः । शृङले खः कः ॥१६॥ सयदं नयरं गया मयंको, रययं कायमणी पयावई। शृङले खस्य कादेशः. सङ्कलं तेन सिद्धयति । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिक हेम• ] ( ११ ) अभिधानराजेन्परिशिष्टम | पुन्नाग - भागिन्योगों मः ॥ १६० ॥ स्यात् पुन्नागे च जागिन्यां गकारस्य मकारता | सभाम डांगे ॥११॥ ग गस्य लकारः स्यात्, बानो बाली च सिध्यतः । ऊत्वे दुर्भग-मुनगे वः ॥ १७२॥ दुर्भगे सुभगे चोले, कृतं गस्य तु वो भवेत् । दूदयो हो ' मतः ॥ खचित-पिशाचयोश्चः स नौ वा ॥ १०३ ॥ स्वचिते तथा पिशाचे, चस्य तु स द्वौ विकल्पतो भवतः । खसिख तस्माद् भवति पिसा पिसा च ॥ जटिले जो भी वा ॥ १७४॥ जटिले जस्य भो वा स्यादू, अमिलो जडिलो तथा । टोकः ।। १६५|| स्वरात् परस्यासंयुक्त म्यानादेष्टस्य डो भवेत् । नडी भमो घडी रूपं, घडर प्रणिगद्यते ॥ रानवे घंटा खट्टा-संयुदात् प्रादेरेवेत्यतः 'टक्को' क्वचिन्न स्याद् यथा ऽटइ ॥ सटा - शकट कैटने ढः ॥ १६६॥ सायक-दो भवेत् । केवो सयढो तद्वत् सदा रूपं पृथक् पृथक् ॥ स्फटिके सः ||१७|| स्फटिकेटस् लादेश, 'फो' सिष्यति । चपेटा - पाटौ वा ॥ १ए। चपेटायां च वा ण्यन्ते परिधातौ च दृस्य लः । चविला चविडा फाले- फाडेर प्रसिध्यति । ठोड ||१५|| स्वरात्परस्यासंयुक्त स्थानादेष्ठस्थ ढो प्रवेत् । मदो सी कमोि स्वरादित्येव वेकुं -ऽसंयुक्तस्यैव चिटुइ । अनादेरेव 'हिप-ठार' चैवं प्रयुज्यते ॥ अङ्कः ॥ २०० ॥ ठस्य लोद्वित्व-भूतो भवति तेन हि । अंकोल तेल-तुप्पं तु, पदं लोकैः प्रयुज्यते ॥ पिठरे हो वा रथ कः ॥ २०२ ॥ पिवरे ठस्य हो वा हस्य योगे च रस्य रुः । पिडो पिरो रूप-यं सिकिमुपागमत् । मो लः || २०२ || स्वरात्परस्यासंयुक्त स्यानादेर्डस्य लो भवेत् । प्रायो, 'गरुनो' वडवामुखं च 'वलयामुहं' | कस्को स्वरात किम अनादरिति किम् ? डिमो, प्रायः किस कापि या भवेत् ॥ [अ०८०१ ] वलिसं वमिसं णाली. गाडी वाऽस्ति यालं णमं । दानिमं दाडिमं श्रमेोगुडे ॥ कचित्रव, यथा-नीडं निविडं गउडो तमी । उडू पीडिआमत्यादि यथालक्ष्यं विनाव्यताम् ॥ ण णो वा ।। २०३ ॥ वेणौ तु रास्य वो वा स्यात्, 'बेल वेणू' द्वयं मनम् । तुच्छे तथ-ही वा ॥ २०४ ॥ तुशब्दे तकारस्य च ौ वा स्तो यथाक्रमम् । चुच्छं छुच्छं तथा तुच्छं, रुपत्रयमुदाहृतम् ॥ तगर - त्रसर - तूबरे टः ॥ २०५ ॥ तसर- तगर - नृबर- पदे, तस्य टकारो विधीयते तस्मात् । टसरो टगरो टूवरो, रुपत्रयमत्र जानीहि ॥ || २०६ ॥ त्यादी प्रत्यादिषु शब्देषु तु तस्य मकारः प्रवर्तते तस्मात् । पडिव परिहासो, पडिहारो परिनियतं च ॥ पाडी पडिमा पापमिवया व परिसारो । पड पाहू मम बहेडी हररुई पढाया च ॥ दुष्कृतं कडं त्वा सुकृतं सुकडं तथा । अपहृतं चाग्वदडं, श्राहृतं त्वा ऽऽहडं स्मृतम् ॥ प्रायः किम् ? प्रतिसमयं परसमयं प्रतीपमिति पईवं च । संप्रति संपर बोध्यं तथा प्रतिष्ठा पड्ड्डा च ॥ प्रतिप्रति मृतक प्रानाथ हरीतकी विभीतक पताका या पूताः प्रत्यादिरिष्यते ॥ इसे वेतसे ।। २०७ ।। इत्वे सति तकारस्य, मः स्यात् शब्दे तु वेतसे । वेडिसो, इत्व इति किम् ? 'वेअसो' नेत्वमत्र तु ॥ गर्भितातिमुक्तः ॥ २०० ॥ गर्मितातिमुक्तस्तस्य वकारः प्रवर्तते तस्मात् । अणित गम्भिणाऽपि श्वचित्र' अश्मुतयं' नयति ॥ रुदिते दिना एणः ॥ २०६ ॥ रुदिते तु दिना साकं, तस्य से-रुएणमुच्यते । * सप्ततौरः ।। २१० ।। सप्ततिः सन्तरी जाता, तस्य रे विहिते सति । सी- सातवाहने लः ॥ २११ ॥ * अत्र केचित् त्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः, स तु शौरसेनी मागचीविषय एव दृश्यते इति माध्यते । प्राकृते हि ऋतु:--' रिक्त ' ' उऊ ' । रजतम् - 'रययं ' । एतद्-' एवं '। गतः - ' गनो' । श्रागतः - ' श्रागश्रो ' । सांप्रतम् -' संपयं । यतः - ' जश्र ' । ततः - ' तो ' । कृतम् -'कथं 'ह (इ) तम् -' इयं ' । इताशः- हयासो ' । श्रुतः - ' सुभ '। आकृतिः''। नित: निधो । तातः ताओ' कतरः' क परो द्वितीया (ई) श्रो' इत्यादयः प्रयोगा भवन्ति । L न पुनः उदू ' ' रयदमित्यादि । कचिदू नावेऽपि " व्यत्य 39 (४०४४७) इत्येव सिमदिही इत्येतदर्थं तु 66 ' धृतेर्दिहिः " ( २१३१ ) इति वक्ष्यामः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिरुहेम ] ० ( १२ ) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् । अतसी सातवाहने, तस्य लकारो भवेद्, यथा-नसी | सालवाहणां सात्रा हो च मालाहणी भासा ॥ पलिते वा ।। २१२ ॥ पलिते तस्य लो वा स्यात्, पहिलं पशिनं यथा । पीते सेवा ।। २१२ ॥ पीते तस्य तु वः स्यात्, स्वार्थकारे परे विकल्पेन | भवति पीव पनि मिति, लः किम् ? स्याद् यथा-'पी' ॥ तिवसति भरत कातर-मालिङ्गे ।। २१४ ।। वितस्तौ वसतौ मातु-लिने भरत कातरे । पञ्चस्त्रेषु तकारस्य इकारादेश इष्यते ॥ विद्दत्यी, वसी कापि नायं स्याद् 'वसई ' बथा । भरडो कालो माहु -लिंगं चैतदुदाहृतम् ॥ मेथि - शिथिर - शिथिल-प्रथमे थस्य दः ॥ २१५ ॥ मेथि - शिथिर-शिथिल प्रथ-मेषु धकारस्य दो भवत्यत्र । मेडी सिद्धिलो सिडिल, पदमपाणि सिध्यन्ति ॥ निशीच पृथिव्यो || २१६ ।। निशीथे च पृथिव्यां च वा धकारस्य दो भवेत् । निसीडी व निसीहो च, पुढची पुदी तथा दशन-दष्ट - दग्ध-दोना- दम-दर- दाह-दम्न दर्भ-कदन दोहदे दो वा रुः ।। २१७ ।। दग्ध-द-दोष, दोला-दर-द-दादग्भेषु । दशन- कदन- दर्भेषु च दस्य डकारो विकल्पेन ॥ डसणं दसणं, डट्टो दट्ठो, महो व दो च । कोला दोला, मंको दंडो, डाहो तथा दादो ॥ डिंभो दंभो, डब्जो, दग्भो, कडणं त्र कयणं च । अमिलो, डरो द चेति रूपाणि ॥ देश-दहोः ।। २१० ॥ स्याद् धातोर्देश-दहयो- दकारस्य डकारता | तेनैव रूपं ' डलर, मद्द ' प्रतिपठ्यते ॥ संख्या - गद्दे रः ॥ २१ ॥ संख्यावाचिनि गऊद-शब्देऽपि च रो दकारस्य । वारह तेरह एश्रा-रह रूपं मग्गरं च यथा ॥ श्रनादेरित्येव यथा-' ते दस ' प्रतिज्ञाप्यते । असंयुक्तस्येति यावत्, ' चउद्दह ' यथा भवेत् । कदस्थाममे ।। २२० ॥ अनुमे कदलीशब्दे, दकारस्य रकारता । करली, श्रम इति किम् ? - केली कयली यथा ॥ प्रदीपि दोहदे लः ॥ १२१ ॥ पूर्वे दीप्यती घाती तथा शब्दे च दोहदे । दस्य लः स्यात् पलावे, पलितं दोनो यथा ॥ कदम्बे वा ।। २२२ । स्यात् कम्यो कम्बो वा, कदम्बे दस्य ले कृते । दोषी भो वा ॥ २२३ ॥ दीप्यत दस्य घो वा स्यात्, यथा-धिप्पर दिव्य । कः ।। २२४ ॥ कति दस्य कः स्याद् येन सिध्येत कपट्टियो । [अ०८ पा.१] ककुदे हः || २२५ || ककुदे दो दस्य तेन कउहं' सिद्धिमृच्छति । निषधे धो दः ।। १२६ ।। निषेधे धस्य डस्तेन' निसढो ' रूपमाप्नुयात् । दोषधे ।। 229 ।। प्रोषधे धस्य दो बा स्याद्, यथा- श्रसदमोसहं । नो णः ।। २२८ ॥ स्वरात्परस्यासंयुक्तस्थानानेो भवेत् । करणं चयणं नयणं, मयणो माण, तथाऽऽरनालं तु । श्री- अनिल अनलो, नानारूपाणि सन्तीह ॥ बाऽऽदों || २२७ ॥ अमंयुतस्य नस्य स्यादादिभूतस्य धातु णः । पारो नरो, णेड़ नेइ, सक्ष्यते च गई नई ॥ संयुकश्य किम ?-न्यायो' नावाच प्रवेश। निम्ब-नापिते ल एवं वा ।। २३० ।। निम्ब-नापितयांनंस्य, ब- एढादेशौ यथाक्रमम् । लिम्बो निम्बो, एहाविश्रो तु, नाविश्रो, सिद्धिमाप्नुतः । पो वः ।। २३१ ।। स्वरात्परस्थासंयुक्त स्थानादेः पस्य वो भवेत् । प्रायः, सवहो सावो उवसग्गो कासवो पश्वा च । उपमा कवि पावं, महिवाल [१] पाटि परुप परिघ परिखा पनस पारिभद्रे कः ॥ २२॥ पाटादावन्तः परुषादि यो गणः। तयोरेव पकारस्य, फकारादेश इष्यते ॥ यथा-फाले फामेह, फरुसो फलिदो तथा । फबिहा फणसो फालि-हदो रूपाण्यमूनि हि ॥ मजूते वः ।। २३३|| प्रभूते पस्य वो वा स्याद्, बदुतं तेन सिध्यति । नीपाऽऽपी मे मो वा ॥ २२४|| यानी पाऽऽपीडयेोः पस्य, मकारः पाकिको यथा । नीमनी तथा मे मे सिद्धिमाप्नुतः ॥ पापकरः ||३५|| पापात् 'परी' पस्य रे कृते । 1 फो भ-हो ।।२३६॥ स्वरात्परस्यासंयुक्त स्थानादेः फस्य वा मही । क्वचिद् नकारः स्यादत्र - रेफो रेजो, शिफा सिभा । कवि दकारः स्याद् मुत्ता-हलं, कचिषुनावपि । समयं सह, सेना-लिया सेडालिया तथा । वो वः ||२३७।। स्वरात् परस्यासंयुक्त स्थानादेर्यस्य वो भवेत् । यथाऽलावू अलावू चाऽऽलाऊ घस्येद लोपनात् ॥ वयः ॥ २३८॥ बिसिनी मिसिणी जाता, बस्य मे विहिते सति [२] । [१] स्वरादित्येव कंप'वे' यम' नांदेरित्येव' सुद्रेण पढछ । प्राय इत्येव कई रिक । पतेन पकारस्य प्राप्त बोर्लेपवकारयोः यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स त कार्यः [२] स्त्रीलिङ्गनिर्देशादि न नवतिविखतंतुनवाण'। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [म. ८ पा० ] कान्धेम-यौ ॥२३॥ हनिदी सिदिलो लुको दलिदाइ जदुट्टिलो॥ स्थात् कमन्धो कयन्धो च, कन्धे बस्य वाम-पी। दलिदो मुहलो दाखि-दलिदो च काहलो। चलणी बलुको रक्षा-लो सबालोच निलो। ___ कैटने जो वः ॥२०॥ सोमालो कबुणा फालि-हदोऽधहाल फालिहा। कैटभे भस्य वस्तेन, केडवो' सिसिमानुयात् । चिलाओ फलिहों चैव, भसलो बढलो तथा ॥ विषमे मो दो वा ॥२४॥ जबलं चेति रूपाणि, वियानि मनीषिनिः। विषमे मस्य दो वा स्यात्, 'विसढो बिसमो' यथा । हरिद्रा दारिचं शिथिर-मुखरामार-परिखा, हरिकः सत्कारी जगर-चरणौ रुग्ण-करणी। मन्मथे ३. ॥२४२॥ किरातापद्वार-म्रमर-सुकुमाराध वरुणो, मन्मथे मस्य वस्तेन, वम्महो सिद्धिमृष्यति । परिकातिर्धातुः परिष-बग्री निघुरमपि । वाऽभिमन्यौ ॥२४॥ युधिष्ठिरः पारिभको, दरिकः कातरस्तथा। हरिबादिगणचाय-माकृत्या परिगएयते [१] ॥ अमिमन्यौ मकारस्य, वकारो वा विधीयते । 'अहिवन्नू अदिमन्नू,' द्वयं सिद्धिमुपागमत्॥ स्थूले लो ः ॥ २५ ॥ स्थूले लस्य रकारः स्यात, थोरं म्युत्पद्यते तदा। जमरे सो वा ॥ ५४॥ थूलभदो हरिदादिलत्वे स्थूरस्य सिध्यति । भ्रमरे मस्य सो वा स्याद्, भससो भमरो यथा । प्रादों जः ॥ १४५॥ लाहल-झाङ्गल-लागृले वाऽऽदेर्णः ॥२५६ ॥ पदार्यस्य जादेशः, जसो जाइ जमो यथा । लाहले बाङ्गले लागू-ले वाऽऽदस्य णो प्रवेत् । बहुलात् सोपसर्गस्या-नादेरपि भवेत क्वचित । णाइलो लाइमो, पा-लं लालं च णालं। संजोगो संजमो क्वापि न-पोत्रो' ऽभिधीयते । सावं चेति पाणि, बन्दभूतानि चकते। स्रोपोऽप्या-यथाख्यातम्-अहवायं प्रयुज्यते । ललाटे च ।। २५७॥ युष्मधर्थपरे तः॥ २४६ ।। सलाटे चादिनतस्य, सस्य णः संप्रवर्तते । युष्मद्यर्थपरे यस्य, तकारादेश इज्यते । हिमालं च जमालंच, चस्वादेरित बोधकः। तुम्हारिसो तुम्हकेरो, किमर्थपर इत्यदः । शबरे बो मः ॥ २५ ॥ 'जुम्हरम्हपयरण' नात्र, शम्दपरो यतः। यष्टयां लः ।। २४७॥ शबरे बस्य मत्वेन, समरो सिशिमृच्छति । यचा यस्य लो 'लझी, वेणुसही च भपयते । स्वमनीव्योर्वा ।। २५ए ।। वोत्तरीयानीय-तीय-कृदये ज्जः ॥४८॥ स्वा-नीव्योर्वकारस्य, मकारोवा विधीयते । उत्तरीयऽनीय-तीय-कृचेषु प्रत्ययेषु च । सिमिणो सिषिणो, नीमी नाथी व्युत्पत्तिमति च। द्विरुक्तो यस्य वा उजः स्यात, तदाहियतेऽधुना ॥ शपोः सः॥१६॥ अत्तरि उत्तरी अं, करणिज्जं विभापया। शेषयोस्तु सकारः स्यात सर्वत्रात्र, निवार्यते। करणी, विजो तु बीमो तीयस्य दृश्यताम् । संसो विससो निहसो, कसाभो दस सोहा । कृद्यस्य पंजा पेमा च. द्वन्द्वं सर्वमुदाहृतम् । स्नुषायां एहो वा ।। ३६१ ॥ गयायां होऽकान्तो वा ।। २४ए॥ प्रकान्तिवाचके छाया-शम्दे हो यस्य वा भवेत । स्नुषायां षस्य रहो वा स्यात, ततः 'मुण्डा सुसा' यम । बच्छस्स छाही गया वा, भातपाभाव उच्यते ॥ दश-पापाणे हः ॥ २६२ ।। माह-वो कतिपये ॥ २५० ॥ दशन-पाषाणयोहों वा, शषयोलक्ष्यदर्शनात् । यस्य स्यातां कतिपये, माटो ववेत्युभी क्रमात । दहमुदो दस-मुहो दबलो दस-बलो। करवाई कावं, यं निर्वर्तते पदम् ॥ दह-रहो दस-रहो वार-प्रारह । किरि-भेरे रो मः ॥ २५१ ॥ पापाणस्य तु पाहाणो, पासाणोऽपि परश्यते॥ किरि-भेरयोः रस्य डः, किमी भेडा च सिद्ध्यतः । दिवसे सः॥ १६३ ॥ पर्याणे मा वा ॥ २५॥ दिवसे सस्य हो वा स्याद्, दिवसो दियहो तथा। पडायाणं च पल्लाण, पर्याणे रस्य डाऽस्तु वा। हो घोऽनुस्वाराव ॥ २६४ ॥ करवीरे णः ॥ २५३ ॥ अनुस्वाराद् डकारस्य, धकारी वा विधीयते । 'कणवीरो' करवीरे, रस्याऽऽद्यस्य तु णो नवेत् । [१] बसाधिकाराचरणशरवस्य पदार्थवृत्तरेष । अन्यत्र हरिजादौ यः॥ २५४ ॥ 'चरणकरणं 'भ्रमरे ससंनियोगे एव । अन्यत्र 'भमरो'। असंयुक्तस्य रस्य स्याद्, हरिद्रादिगणे तु लः । तथा 'जढरं 'बटरो''निटुरो' इत्यापि । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) अभिधानगजेन्द्र परिशिष्टम् । [ सिरुहेम० ] सिंधो सो संघारो, संहारो, क[ि६] पद - शमी - शात्र-सुधा-सप्तपर्णेष्वादेवः ॥ २६५ ॥ सप्तपर्ण-सुधा-शाब-शमी पादमस् बत्तिव बुद्दा गीदम यथाक्रमम् ॥ शिरायां वा ।। २६६ ॥ , शिराशब्दे भवेदादे-कारोवारा सिरा । लुग्भाजन- दनुज- राजकुलं नः सस्वरस्य नवा ॥ २६७ ॥ भाजनं दनुजे राज- - कुले सस्वरजस्य वा । लुगष्यते यथा जाणं भावनं स्पा रावलं, राय-उलं, यथाक्रममुदाहृतम् । ॥ 9 व्याकरण- माकाराने कगोः ।। २६८ ।। व्याकरणप्रकाराssगतेषु कगयोस्तु सस्वरथाः ॥ लुग्वा वायरणं वा रणं च पारो व पायारा ॥ आओ तथाऽऽग रूपे, आगतस्येति बुध्यताम् । किसलय- कालायस - हृदये यः ।। २६ ।। कायसे किसलये ये तु स्वराः । यकारस्तस्य लुग्वा स्यादू, यथा- कालायसं त्विदम् ॥ कावासं स्यात् किसलयं, किस, श्रियं हि श्रं । दुर्गाष्यम्पर-पादपतन- पादप वेई || 290 ॥ दुर्गादेव्यां तथा पाद--पतने चाप्युडुम्बरे । पादयो मध्ये दो, वासयते ॥ दुपारी तु दुगावी उम्बरो स्याद् उउपरो । पा-वरुणं च वा पाय वरुणं संप्रकीर्तितम् ॥ पाय- बडिं तु पा-वीडं, अन्तर् - दुर्गा-दरक्षकम् । [२] यावत्तावज्जीवितावर्त्तमानावट प्रावारक- देवकुलैबमे वः ।। २७२ ॥ 4 प्रायारके देवकुल एयमेवे च जीविते । आवर्तमानावयांस्तथा यावति तावति । योऽन्तीं सम्वरो व स्तस्य लुग्वा विधीयते । जा जाव, ताव ता, जं श्रं जीविश्रं श्रवम श्रडो। अत्तमाणो तथाऽऽवत्तमाणो, देवलं पुनः । देवलं पार पावरमेव नृत्यते । एवंमेव तथाऽन्तस्तु मेव वस्यास्ति रत्तकम् [३] ॥ या भाषा जगवदनचोनिरगमत् ख्यातिं प्रतिष्ठां परां यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च । तस्याः संप्रति पारवशतो नानोऽमचारः पुनः संचाराय मया कृते विवरणे पादोऽयमाद्यो गतः || १ || इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय- कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद्भट्टारक- श्री विजयराजेन्जसूरिविरचि तायां प्राकृतव्याकृतौ प्रथमः पादः । [१] कचिदननुस्वारादपि दाहः दाघां [२] अन्ताराकिम् ?, दुर्गादेव्यामादौ मा भूत् । [३] अन्तरित्येव । एवमेवेत्यस्य न भवति । [अ०८ पा० २] ॥ * श्रर्हम् * ॥ ॥ अथ द्वितीयः पादः ॥ DOO संयुक्तस्य ॥१॥ व्यायाम] [२११५] इत्यतो यावद्र अधिकारोऽयमीरितः । यदितोऽनुमिष्यामस्तन् संनाम शक्त-मुक्त-दष्ट-रुग्ण मृदुस्खे को वा ॥२॥ शके मुके मृत्ये पदभा संयुक्तस्य ककारः स्याद्, यथोदाह्रियतेऽधुना ॥ सक्को सत्ता, मुक्को मुत्तो, मक्को तथा दट्ठो । लुकी लुग्गा, माउत्तणं च माउकमिति वेद्यम् । क्षः खः कचित्तु छौ ॥ श कस्य खः स्यादू, ब-भौ क्वापि, 'खो' लक्खणमुच्यते । ब-भावपि, यथा-खीं छीणं, भीणं च जिजइ । क- स्कयोर्नानि ||४|| संज्ञायां ष्कस्कयोः खः स्यादू, निक्खं पोक्स्खरिणी यथा । श्रवक्खन्दो तथा खन्धा- वोरा खन्धी प्रकीर्त्यते । शुष्क-स्कन्दे वा ||५|| शुष्के स्कन्दे कक्कयोः खो विकल्पेन प्रवर्तते। सुपलं सुकं तथा खन्दी, कन्दो' वैवमुदाहृतम् ॥ चटका ॥६॥ वेकादिशब्दे संयुक्तस्पात्रो भवेत् । वेकः खेड, वोटकः खोडओ | स्फोटकः खेोमश्र, स्फेटकः खेडश्रो । स्फेटिक वेडिओचार्य वेदकोट स्फोटक फटकतया । स्फटिकश्चेति संख्यातः कादिरयं गणः । स्थाणवहरे ||७|| अहरायें स्थादे सस्था तभ स्वम्नेस्तो वा ||८|| स्तम्भे स्तस्य खकारो वा खम्भो थम्भो प्रभाप्यते । यास्पदे ||६|| स्पन्दार्थे स्तम्भे, स्तस्य उ-थौ स्तो यथा पदं थम्भो । बम्जो, स्तस्ज्यत इति थम्भिर उम्निज्जइ स्याताम् ।। रक्ते गो वा ॥ १० ॥ रक्तं तस्य गकारो वा, रग्गो रक्षा विभाध्यते । शुन्के झो वा ||११|| शुल्केको भाषा सुकं प्रकर्तितम् । कृत्ति चत्वरे चः ॥ १२॥ कृति चन्वरयोः संयु-तस्य चः संप्रवर्तते । किसी च चचरं रूप द्वये सिकिमुपागतम् । योऽपत्ये ॥१३॥ त्ययस्यस्य वा स्यात् पचमुध्यते। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्रपगिशष्टम् । [अ०८ पा०२] प्रत्यूपे पश्च हो वा ॥१॥ अभिमन्यौ ज-जो वा ॥२५॥ प्रत्यूपे त्यस्य चः स्यात् तत्संनिधौ षस्य हश्च वा। अनिमन्युपदे न्योजों, अश्चाऽऽदेशो विकल्पनात् । विधीयते च पच्चूहो, पच्चूसो तेन सिध्यतः ।। अहिमज्जू अहिमञ्जू, अहिमन्नू तु पाक्षिकः ॥ [१] त्व-व-द्र-ध्वां च-छ-ज काः कचित् ।।१५।। साश्वस-ध्य-द्यांकः ॥ ६ ॥ स्व-श्व-तुवां च-उ-ज-काः क्वचिदत भवन्ति हि । साध्वसे ध्य-ह्ययोश्च स्याद, युक्तयोों हि, सकसं । नुकत्या भाच्चा, ज्ञात्वा णच्चा, सज्काओ वज्झए काणं, मझझं च नमः॥ श्रुत्वा सांचा पृथ्वी पिडी। ध्वजे बा ॥ १७ ॥ विद्वान् विज्ज, बुद्धा वुज्जा, भ्घजे ध्वस्य ऊकारो वा, ततः स्यातां 'ऊो' 'धओं' । एवं चान्य रूपं वद्यम् । इन्धी झा॥ २८ ॥ "भोच्चा सयलं पिच्छि, पिज्ज बुका अणणयम्गामि।. इन्धौ धातौ तु युक्तस्य, 'का' इत्यादश इप्यते । चऊण तवं का, सन्त। पत्तं। सिवं परमं ॥" समिका च विझाइ, चदृशं संप्रयुज्यते ॥ वृश्चिके श्चेञ्चुर्वा ॥१६॥ वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कदार्थत टः॥२५॥ वृश्चिके श्वेः सस्वरस्य, चुरादेशी विभाष्यने । वृत्त प्रवृत्ते पत्तने, मृत्तिकायां कदर्थिते । विञ्चुत्रा वियुओ, पक्के-विञ्छिा , गेऽत्र वाध्यते । संयुक्तस्य टकारः स्यादू. यथा रुप कट्टिो ॥ ___ छोऽदयादो ॥१७॥ पचट्टो मट्टिा घट्टा, पट्टणं समुदाहृतम् । प्रत्यादिपु कारः स्यात् संशुनस्य, प्रयाध्य खम् । तस्याधुत्तादौ ॥ ३० ॥ आन उच्च बच्ची कच्छोडीअंजीरं कुच्ची दच्चगे। धृतादीन वर्जयित्वा टो, 'त'स्य स्थाने प्रवर्तते । उत्तं वच्छंचच्चा कच्ग, छुगणो छारा सारिच्चं च । केवट्टो नट्टई संव-ट्टिअं जट्टो पयः॥ सरिच्गे मच्चिा कुच्छा, 'अयं बच्चो ग्यं हुगे । धृर्त्तादौ तु विधिनाय, ततो धूतादिरुच्यते । छुहा, श्राप तु-सारिकवं, इग्बू खीरं च दृश्यते । धुत्तो किसी वत्ता, निवत्तमो वत्तिओ मुहत्ती च॥ अक्षी-कु-सन्मी-नुत-कक्ष-कोक-यकाक्ष-यक:-क्षत-दक-वृताः।। आवत्तणं च संव-त्तणं च आवत्तो मुत्त।। कक्का-शुर-कार-सहत-कुक्ति-क्षीर-कृधः केत्रमथा शुणुप्त । निवत्तणं च पवत्तण-मुक्कत्तिप्रो वत्तिमा कत्तिभी च ॥ सादृश्यं मक्तिका नामः, कथितोऽन्यादिग्न्यियम् ॥ निबत्तनो पवत्तओ, संवत्तो कत्तरी मुत्ता । आकृतिग्रहणाः शब्दाः, न संख्शनियमस्ततः। आवतकावर्तनकीर्तिमूर्तिवार्ताप्रवर्तकमुहर्तनिवर्तकाश्च । क्षमायां कौ ॥ १० ॥ संवत कोकर्षितमूतंधूर्तप्रवर्तन वार्निककार्तिकी च ॥ पृथिव्यर्थ क्षमाशब्दे, क्षस्य छादेश इध्यते । वर्तिका कर्तरी चापि, संवर्तननियनने । धमा दमाऽपि उमा भूमिः, जान्न्यथं तु कमा खमा ॥ निर्वर्तकमसौ धृादिर्गणः परिकीर्तितः ॥ ऋक्ष वा ।। १ ।। वृन्ते एटः ॥ ३१॥ ऋन कस्य बकारी वा, रिच्छो रिक्खोऽस्त्रियां मता । संयुक्तस्य भवेद् वृन्ते, एटाऽऽदेश। निर्विकल्पकः । वृत-कित (७११२७ ) तिमूत्रण, 'रुख-ढा' च सत्स्यतः॥ तालवएटं च वरदं च यथा सिकि समश्नुते ॥ झण उत्सवे ॥२०॥ गेऽस्थि-विसंस्थुले ॥ ३२ ॥ सरसबाथै ऋणे कम्य छः, 'छणो' स्यात् खणोऽन्यतः। । विसंस्थुलेऽस्थिशब्दे च, संयुक्तस्य ठकारता । हस्वान् थ्य-श्व-रस-सामानश्चन ॥ २१ ॥ अही विसंठुलं तेन, पृथक सिद्धिमुपागमत् ॥ हस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सा, स्थान छो भर्यात, निश्चल न स्यात्।। स्त्यान-चतुथार्य वा ॥ ३३ ॥ मिच्छग, पच्चा, संव-चलो. जगच्च च निच्छद च ॥ अर्थ-स्त्यान-चतुर्थप, वा संयक्तस्य यो नवेत् । हुभ्वात् किम् ? ऊसारियो'ऽनिश्चल इति किम्? च 'निश्चमायेन ठाणं थीणं चत्योऽहो-उधनेऽत्थो धनवाचकः ॥ आप-तथ्य चाऽपि तु जयति ततः 'तञ्चमिति रूपम् ॥ एस्याऽनुष्देष्टासंदष्टे ।। ३ ।। मामत्मिकात्म वा ।। २२॥ संदरमिणामुएं च त्याचा प्रस्य तु गे भवेत् । उसनुकोत्सव-सामध्यें, वा संयुक्तस्य छो भवेत् । लही मुठी सुरक्षा च, कन्ट्रो अणि च ॥ सामच्छ वा च सामन्यं, उच्छुओ ऊसुत्रो तथा ॥ उहो इट्टा च संदट्टो रूपमुटादिसंनवम् । नच्चयो ऊसयो वा स्यात् , पृथगुनद्वयं द्वयम् । गर्ने मः ॥ ३५ ॥ स्पृहायाम् ॥ २३ ॥ स्याद् गर्ने 'ते'स्य डो, 'गहो गड़ा'-ऽयं टस्य वाधकः । संयुक्तम्य कारः स्यातू, स्पृहायां फस्य बाधकः । बिहा, बाहुलकात क्वापि निस्पृहो निप्पिहो' मतः॥ सम्पर्द-वितर्दि-विच्चद-उर्दिकपर्द-मर्दिने दस्य ॥३६॥ घ-ग्य-यो नः ॥ १४॥ सम्म बिच्छर्दै गर्दि-वितर्दि-कपर्द-मर्दिने च । घ-स्यानां तु युक्तानो, स्थाने जः संप्रवर्तते । इंस्य डकारो भवति, सम्मडो मडिओ छड़ी। (घ) मजं अवजं,(य्य) जजो च, सेजा, (ब) भजा च भारिभा॥ [१] अनिग्रहणान् इह न भवति- मन्नू'। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिक हेम० ] सम्म कवडो, विन्छो छडर विश्रड्ड । गर्द वा ।। ३७ ।। गर्दभेदस्य डो वा स्यादू, गड्हो गइदो तथा । कन्दरिका-चिन्दिपाले एमः ॥ ३८ ॥ एकः संदिपाले कन्दरिकापदे । निवाल या इयं संखिच्यिति । स्तम्यं वदी ॥ २५ ॥ 4 मौ ( १६ ) अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । संयुक्तः स्यातां दग्ध-विदग्ध-कि- द ।। ४० ।। यथाक्रमम् । + दग्धे विदग्धे वृद्धौ च वृद्धं युक्तस्य दो भवेत् । दबुद्धी वृो किचिन्मतः [१] । श्रद्धि-मूर्धन्ते वा ॥ ४१ ॥ डः स्याच्छ्रध-मूर्धान्ते संयुक्तस्य वा यथा । सङ्घा सद्धा, शकी रिकी, मुगढा मुद्धा श्रमुं श्ररूं ॥ नोर्णः ।। ४२ ।। यानि च विद्वाणं पयतः । पञ्चाशत्पञ्चदशदच ॥ ४३ ॥ स्यात् पञ्चाशत् पञ्चदश-दत्ते युक्तस्य णो, यथा । श्वास परह च, दिमां त्रयमुदाहृतम् ॥ मन्यौ न्तो वा ॥ ४४ ॥ युक्तस्य वान्तः स्याद्, मन्तृ मन्नू च पठ्यते । स्तस्य योऽसमस्त स्तम्बे ॥ ४५ ॥ स्तम्बं समस्तं च त्यक्त्वा, 'स्त' स्य थादेश इष्यते । 'थोक्तं थो थुई हत्था, पसत्यो पत्थरोऽत्थि च । सम्बो स्तम्बे समतो तु समस्तेऽथे प्रकीर्तितः ॥ स्तने वा ।। ४६ ।। स्तवशब्दे स्तस्य यो वा ततो रूपं थवो तो । पर्यस्ते चटौ ॥ ४७ ॥ पर्यस्ते स्तस्य तु स्यातां थ-टौ पर्यायनाविनौ । लोकद्वयम् । - वोत्साई यो हश्वरः ॥ ४८ ॥ साद-शब्दे थादेशः संयुक्तस्य विकल्पनात् । हस्य रश्चापि 'उत्थारो, 'उच्छाहो' सिद्धिमाप्नुतः ॥ आौि ॥ ४६ ॥ संयुक्तयोर्यथासंरूपमा तुल धी स्मृती । आदिरूपं तस्य जायते । चिह्न न्धो वा ॥ ५० ॥ चिहे ह्रस्य तु वा न्धः स्याद् रदं वाधित्वैव तद्यथा । चिन्धं इन्ध च, चिराहं तु पके एहस्यापि संभवात् । अस्मात्मनोः पो वा ॥ ५१ ॥ भस्मात्मनोः प्रकारः संयुक्तस्य, विभाषया भवति । भयो जस्तो, अप्पा अप्पाणो, पाक्षिको 'इत्ता' ऽपि । रुम-क्मोः ।। ५२ ।। यस्य कमस्य च पादेशः, कुमलं कुम्पलं तथा । [९] कचिन्न भवति 'विष-क-निविश्रं । रुक्मिणी- रुप्पिणी, रुच्मी, रुप्पी रूमः कापि दृश्यते । यस्पयोः कः ।। ५३ ।। फः पपयोर्भवेत्, पुष्पं पुष्कं स्यात, रूपन्दनं पुनः । फन्दणं च प्रतिस्पर्धी पाकिफ प्रयुज्यते । बहुलात् कापि वैकल्यं यथा रूपं । पाप-निष्पाप जीध्ये प्यः ॥ ५४ ॥ । मी मस्य फकारः स्यात्, रूपं 'भिष्फो' यथा भवेत् श्रेष्वा ।। ५५ ।। मणिः सेफोसिलो किल्पनात् । ताम्रायः ।। ५६ ।। प्रस्य यः स्यात् ताम्र आम्रे, 'तम्यं' 'अम्बे' व सिध्यतः । हो जो वा ।। ५७ ।। [अ० पा०२] ह्रस्य भो वा, यथा-जिन्भा जीदा सिद्धिमवाप्नुतः । वाविले नौ वश्व ॥ ८ ॥ विह्वले ह्रस्य भो वा स्याद्, विशब्दे वा च वस्य भः । निम्मलो बिम्भलो वा त्र विला च श्रयं मतम् । बाये ।। ५५ ।। युक्तस्य जो वा स्याद् उन्भ च सिध्यतः । कश्मीर ॥ ६० ॥ कश्मीर-शब्दे भो या स्यात् संयुक्तस्य ततो द्वयं । सिद्धिमृच्छति, 'कम्भारा कम्हारा 'चेति पाक्तिकम् ॥ न्मो मः ॥ ६१ ॥ ऊर्ध्व नमस्य मो वा, यथा-जम्मो वम्महो मम्मणं तथा । मोवा ।। ६२ ।। ग्मस्य मोवा, यथा-युग्मं जुम्मं जुग्गं च कथ्यते । ब्रह्मचर्य सूर्य मन्दिर्य शीयः ।। ६२ । तूर्य-सौन्दर्य - शौएडीयं ब्रह्मचर्येषु 'ये' स्य रः । म्होरं च सुन्दरं, लोरमीरं तूरमित्यपि ॥ परितः । - धैर्ये वा ॥ ६४ ॥ धैर्य र्यस्य रकारो वा, धीरं धिज्जं न सिद्ध्यतः । 'सृरो सुज्जो' इति कथं ? रूपे स्तः, सूर-सूर्ययोः [१] ॥ एतः पर्यन्ते ।। ६५ ।। पर्यन्तशब्दे एतः स्याद् र्यस्य रस्तेन सिध्यति । 'पन्ना' पत इति किम ?, 'पज्जन्ती' परिपठ्यते ।। आषये ।। ६६ ।। पतः परस्य से ''स्वाऽऽयै अरमिष्यते । तरिधर रिश्जरी ।। ६७ ।। अतः परस्यायें, र्यस्थ 'रिवार रिग्ज -मादेशाः श्रच्छरिज्जमच्चरित्रं तथाऽच्छरी व वरं ॥ पर्यस्त पण सौकुमार्ये झुः ।। ६० ।। सौकुमार्ये च पर्या पर्यस्ते र्यस्य लद्वयम [ २ ]। पल्लई पलत्थं पलाणं साश्रमलमिति भवति । प [१] सूरो सुज्जो इति तु सूरसूर्यप्रकृतिभेदात । [२] 'ल' इति । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) [सिडहेम] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०७ पा० २] बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ।। ६६ ।। (क) दु:खं दुक्खं (प) अन्त: पातः,अन्तप्पाओ निगद्यते । वृहस्पतिवनस्पत्योः, सो युक्तस्य विकल्पनात् । अधोम-न-याम् ।। ७८ ।। बहस्सई बहपफई भयस्सई भयप्फई । युक्ताधो वर्तमानानां, मनयानां तु लुग भवेत् । वणस्सई वणप्फई च सिकिमश्नुते पृथक् ॥ (म) जुग्गं रस्सी सरो (न) नम्गो, (य) सामा कुहूं यथा पदम् । वाष्पे होऽश्रुणि ॥ ७० ॥ सर्वत्रन-व-रामऽवन्छे ॥ ७ ॥ स्यादब्रुवाचके बाप्पे, संयुक्तस्य डकारता । युक्तस्योलमधो वा थे, संस्थिता ल-व-राः क्वचित्। बाहो नेत्रजलं, 'बप्फो-'ऊप्मार्थेऽयं प्रयुज्यते ॥ बन्छशब्द चिना तेषां मुक स्यादित्युपदिश्यते ॥ कार्षापणे ॥ ७१ ।। (कार्यम) (ल) उल्का उक्का, वल्कल वकलंच, कार्षापणे हकारः स्यात्, संयुक्तस्यति कथ्यते । (ब) शब्दः सहो, लुब्धको लोहोच। फाहावणो, क्वचिद् हस्वे कृते रूपं कहावणो [२] ॥ (र) को वम्गो अर्क-वर्गों भवेताम, (अधः) (ल) लणं सपदं, विक्लबो विक्कयो च ।। दुःख-दक्षिण-तीर्थे वा ॥ ७ ॥ (घ) पकं पकं च पिकं च, (र) चक्रं चकं ग्रहो गहो । पुःने च दक्विणे तीर्थ वा संयुक्तस्य हो प्रवेत्। रात्रिः रत्ती, यथालयं, लोपः स्यात् कापि, तद्यथा । दाहिणो दक्खियो, तित्थं तूह, सुक्खं दुहं तथा ।। (कलम् ) उद्विग्नः स्याद् उब्धिगो, द्विगुणो विउणों तथा । ___ कूष्माण्ड्यां ष्मो लस्तु एमो वा ॥ ७३ ॥ कस्मषं फम्मस, सर्व-सन्वं, सन्ति सहस्रशः। 'मा' इत्येतस्य कूष्माएड्यां हः स्थाद, एडस्य तु वा च लः। (अधः) काव्यं कव्वं प्रवक्तव्यं, माव्यं मलं, द्विपो दियो। कोहएमी कोहली चैतद् घ्यं व्युत्पद्यते ततः॥ पर्यायण क्वचित् हार-बारं दारं प्रचकते। एवमुद्विग्न उब्विम्गो, सब्विमो विनिगद्यते । पा-३म-ष्म-स्म-मां म्हः ॥ ७४ ॥ वन्धं पदं तु संवद्यं, संस्कृते प्राकृते समम् । म्हः पदम-इम-म-स्म-मानां संयुक्तानामादेशः स्यात् । पदमाणि स्यात् पम्हाई, कुश्मानः कम्हाणो पठ्यन्ते । रो न वा ॥ ८० ॥ प्रीमो गिम्हो भवेद 'अम्हा-रिसो' अस्मारशः स्मृतः । -शन्दे तु विकल्पेन, लुक स्याद रेफस्य तद्यथा । ब्रह्मा बम्हा, तथा सुराः 'मुम्हा' जातास्तथा पुनः । चन्दा चन्छो च, रुद्दो रुद्रो, भई भद्रमित्यपि ।। बम्हणो बम्हचरं च, रश्यते म्नोऽपि कुत्रचित् । परिवृत्या स्थिते रूपढ़यं घेछ हदे यथा । बम्भणो बम्भचेरंच, सिम्लो रूपं यथा भवेत् । कहो दहो, रसोपं तु केऽपि नेच्छन्ति सूरयः । काचिन्न रश्यते चायं रश्मिः-रस्सी, स्मरः-सरो॥ ये वोफहादयः शब्दास्तरुणाद्यर्थवाचकाः। सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-इ-ह-क्ष्ण एहः॥ ७५॥ ते नित्यं रेफसंयुक्ता देश्या एवेति बुध्यताम् ॥ सूदम-इन-ष्ण-स्न-ब-ह-यां धाभ्याम् ॥१॥ संयुक्तानामादेशो एहः। धाव्यां वा मुग रस्य, धत्ती धारी धाईरलोपनात् । सूक्ष्म सपहं (भ) परहो सिण्डो तीक्ष्णे एः ॥ ७॥ (ण) बिराह जिएह उपहीसं स्यात् । तीक्ष्ण-शब्द णस्य लुम्वा, तिक्त्रं तिपदं ततो द्वयम् । (स्त्र) जोरहा रहाओ पाहुओ च, (ह) वराही जण्हू तथैव च।। (ढ) पुवाहो अवरणहो च,(पण ) सपहं तिरहं प्रयुज्यते । ज्ञो वः ॥ ३॥ विप्रकर्षे तु कसणो कसिणो कृष्ण-कृत्स्नयोः॥ सस्य सम्बन्धिनो अस्य, लुक स्यादत्र विभाषया । होन्हः ॥ ७६ ॥ जाणं णाण, कचिन्न स्याद्, विमाणं संप्रयुज्यते ।। ल्हः स्याद् हस्य तु कल्हारं, पल्हारो रूपमीरशम् । मध्याह्ने हः॥८६॥ क-ग-ट-म-त-द-प-श-ष-सक पार्श्व लुक ।७। स्यात् 'मज्जनो च मग्झण्हो' मध्याह्न बुकि हस्य वा। क-ग-ट-उ-त-द-प-श-पानां, स-क-पानांतथार्श्वभूतानाम् । दशाहे ॥८ ॥ संयुक्तवर्णसम्ब-धिना लुगवेति शास्ति मुनिः। दशा दस्य लुक वेद्यो, दसारो सिझिमृच्छति । (क) तुतं (ग) दुकं (ट) षट्पदः 'पओ' च (1) खगः स्वग्गो (त) उप्पलं उत्पलं च । आदेः इमश्रु-श्मशाने ॥ ६ ॥ (द) मद्गुः-मग्गू, मुद्रो-मोग्गरो च, श्मश्रु-श्मशानयोरादे-मुंगादेशो विधीयते । (प) सुत्तो गुत्तो (श) निश्चलो निश्चलो च। मासू मंसू च मस्सू च, मसाणं चेह सिध्यति । (ब) गोहीको निट्टरो च, (स) नेहो च खलिओ तथा । आर्षे सुसाणं सीआणं, श्मशानस्य द्विरूपता। [१] कथं 'कट्टावणो'। “हस्वः संयोगे" [ १४] इति पूर्वमेव थो हरिश्चन्छे ।। ७७॥ हस्वत्वे पाश्चादावेश; कार्षापणशब्दस्य वा भविष्यति । श्वस्य मुक स्यादू हरिश्चन्के, 'हरिअन्दो' ततो नबन्। Jain Education Interational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) [सिबहेम अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ० पा.२] रात्रौ वा ।। ८॥ नहगामो नहग्गामो, अशेषादेशयोः क्वचित् । रात्रौ युक्तस्य वा मुक स्यादू, राई रत्ती च सिध्यतः । स-पिवासो स-प्पिवासो, असण-मऽदसणं । अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्वित्वम् ।। ह || तैलादौ । एज ॥ अनादिनूतयोः शेषाऽऽदेशयोत्विमिष्यते। तैलादिषु यथालक्ष्यमनादेर्व्यञ्जनस्य तु । तत्र शेषे यथा-कप्पतरू नुत्तं प्रयुज्यते । अन्त्यानन्त्यस्य वर्णस्य, द्वित्वं स्यादिति संमतम् । तेलं बहुत्तं मरामुक्को, विड्डा वेश्लमित्यपि । भादेशे तु यथा-मको जक्खो रम्गो निगद्यते । सोत्तं पेम्म जुब्बणं स्यादनन्त्यस्य निदर्शनम् । क्वचिन्न-कसिणो-उनादाविति किम् ? खलित्रं यथा । आर्षे तु विस्सोअसिआ, पडिसोश्रो च भूरिशः । द्वित्वं द्वयोरेव न स्याद्, भिरिमपालो च विञ्चुत्रो। तेल-प्रभूत-मएका ऋजु बीमा च यौवनम् । _ द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः ॥ १० ॥ माता विचकिल्लं प्रेम, तैलादिः समुदाहृतः ॥ द्वितीय-तुर्ययोवित्व-प्रसङ्गे पूर्ववर्तिनौ । सेवादौ वा ।। एए । वर्गस्थौ भवतो वर्णावुपरिमादितीयते ॥ . सेवादिषु यथावक्ष्यमनादेर्व्यञ्जनस्य वा । शेषे यथा तु बक्खाणं, घग्घो मुच्छन च निकरो। अन्त्याऽनन्त्यस्य वर्णस्य द्वित्वं स्यादिति कथ्यते । कठं तित्थं च गुप्फंच, निकरो निम्नरो तथा। सेव्वा सेवा, मेई नी, नक्खा नहा, निहितो तु। आदेश तु यथा-जक्खो,(घस्य नास्ति)अच्छीमकं च निम्भलो।। निहिओ, बाहित्तो बाहिओ, दइव्वं च दइवं स्यात् ॥ पट्ठी वुलो च हत्थो चाऽऽलिद्धो पुप्फ प्रपठ्यते । माउकं माउअमे-क्को एप्रो कोठहन्न कोनहलं । तैलादौ (शए)ओक्खलं,नक्खा नहा सेवादिषु(श६६)स्मृतम् थुलो थोरो हुत्तं हूअं मुक्को च मूओ च ॥ काको कश्धो , समासे वा ( शE७) प्रयुज्यते । वाचल्लो च वाउलो, तुण्हिक्को तुण्हिो विकल्पवशात् । दीर्घ वा ।। ६१ ॥ मुक्को मूओ, स्वराणू खाणू, पिएणं च थीणं च ॥ दोघशब्दे तु शेषस्य, धकारस्य विभाषया। द्वित्वमनन्त्यस्य यथा-अम्होरं तथाऽम्हकेरं च । उपरि स्यात् पूर्ववर्णो, दिग्घो दीहो वयं यथा । सोच्चि सोचित्र वा स्याद्, रूपं तच्चेअतंचअ । सेवा नीडो निदित-मृदुक-व्याकुल स्थूल-मूका न दीर्घानुस्वारात् ।। ६॥ एकस्तूष्णीक-चित्र-नख-चेाऽस्मदीयाश्च दैवम् । दीर्घानुस्वाराभ्यां, लाकणिकालाकणिकरूपाच्याम् । स्त्यानो हुतो निगदति मुनिः स्थाणु-कौतूहलं च शेषस्यादेशस्य च, परस्य द्वित्वं विजानीयात्॥ सेवादि तद् प्रहशशिमितं १६ व्याहृतश्चापि शब्दः । छटो फासोनीसासो-इलाकणिके यथा-ऽऽस्य-माऽऽसं' स्यात् । शाङ्गै डात् पूर्वोऽत् ।। १०० ।। पाव पासं, शीर्ष सीसं द्वेष्यो भवेद् वेसो। सास्य लासं, प्रेयः पेसो, आक्षप्तिराणत्ती। शाङ्कात् प्रागकारः स्यात, 'सार' सिकिमश्नुते । अवमाल्यम-'ओमालं,' आशा-आणा, घनुस्वारातू-। दमा-श्लाघा-रत्नेऽन्त्यव्यञ्जनात् ।। १०१ ।। उयत्र-तंसं, चालाक्षणिके संझा तु संध्यायाः। अन्तिमा व्यन्जनात् प्रागत् क्षमा-प्रसाधा-रत्न इष्यते । विशो कंसानो चत्यादि तु नानाविधं लक्ष्यम् । छमा सलाहा रयणं, सूदम सुहममाऽऽर्षतः ॥ 'र-होः ।। ए३॥ स्नेहाग्न्योर्वा ।। १० ॥ रेफस्यापि हकारस्य न द्वित्वं स्यात् कदाचन । मेदेऽग्नौ यश्च संयोगस्तस्य मध्ये तु वाऽद् भवेत् । रेफो न शिष्यते क्वापि, तस्मादादेश ईक्यताम्॥ नेहो सणेहो, अगणी अग्गा पं विदुर्बुधाः । सुन्दरं बम्हचेरं परन्तं शेषस्य हस्य तु । पद लात् ॥ १०३ ।। विहलो स्यात, तथाऽऽदेशस्य रूपं च कहावणो । प्रः स्यात् प्लक्के लकारात् प्राक् 'पलक्खो' सिकिमश्नुते । धृष्टद्युम्ने णः ॥ ४॥ ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टया स्वित् ।। १०४॥ धृएशुम्ने तु न द्वित्वं णस्याऽऽदेशस्य कर्दिचित् । श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टया-ऽहेषु युक्तान्त्यवर्णतः । घटुन्जुणो ततो रूपं, प्राकृते सिद्धिमृच्छति । प्रागिकारो भवेदेषु षट्सु, तलदयतेऽधुना। कर्णिकारे वा ।। एए॥ सिरी हिरी, च कसिणो किरिआ दिठिाऽरिहा, कर्णिकारे न वा द्वित्वं णस्य शेषस्य, तद्यथा 'हयं नाणं किया-हीण' इत्याः क्वचिदिप्यते । कणिश्रारो कमिआरो, नूयं सिकिमुपागमत् । श-प-तप्त-वत्रे वा ॥ १०५॥ हप्ते ॥ ६ ॥ तप्त-वज्र-श-पशब्दे संयकस्यान्त्यवर्णतः। रस्ते शंषस्य न द्वित्वं, दरिओ रप्त उच्यते । प्रागिकारो विकल्पेन, भवेदियुपदिश्यते ॥ (0) आयरिसो आयंसा, सुदरिसणा वा सुदंसणो, (ब) वासा। समासे वा ।। १७॥ वरिसा, वासं वरिसं, वरिस-सयं वाससयमिति च ॥ स्यात् शेषादेशयोर्द्वित्वं, समासे तु विभाषया । नित्यं वचिद् व्यवस्थित-विनाषया रश्यते-उमरिसो। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिरुहेम• ] दरिसो च परामरिसो, तविश्रो तत्सो, वरं वज्रं ॥ लात् ।। १०६ ।। संयुक्तम्य तु लादन्त्य व्यञ्जनात् प्राणिकारता । किलिनं च किलो च क्वचिन्न स्यात्-कमा पवो ॥ स्वाजन्य चैत्य चौर्यसमेषु यात् ॥ १०७ ॥ स्वादादिषु शब्दतुल्येषु निमदेषु च । संयुक्तस्य यकारात्प्रादिदेश विधीयते ॥ सिग्रा यथा-सिश्रावाश्रो, भविश्रो चेश्श्रं तथा । (नीमा चोरि रिशं गम्भीर सोरिय वीरिअं । स्वमे नातु ॥ १०८ ॥ स्वप्नशब्दे नकारात् प्राणिकारः, सिविणो यथा । स्निग्धे वाऽदिती ॥ १०५ ॥ स्निग्धशब्दे नकारात् प्राग्, श्रदितौ स्तो विकल्पनात् । सद्धिं च सिद्धिं च, पक्के निरूं निगद्यते ॥ ( १७ ) अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । - कृष्णे वर्णे वा ।। ११० ।। वर्णे कृष्णे एकारात् प्राग्, श्रदितौ स्तो विकल्पनात् । कसयो कसिणो करो, विष्णो को प्रयुज्यते ॥ उचाईवि ।। १११ ।। अर्हत्-शब्दे हकारात् प्राग्, श्रदिताबु भवन्ति च । अरहो अरिहो रूप- मरुहो चेति सिध्यति ॥ अरदन्तो अरिहन्तो, अरुहन्ता च पठ्यते । पद्म-द-मूर्ख द्वारे वा ॥ ११२ ॥ पच मूचद्वारे युक्तान्यवतः । प्रागुद् वा, पचमं पोम्मं, छम्मं च बडमं तथा ॥ मूर्खो रुखो मुक्खो बा, दुवारं द्वारमुच्यते । पक्षे वारं च देरं च दारं चेति त्रयं स्मृतम् ॥ तन्वी तुल्येषु ॥ ११३ ॥ उदन्ता ङीप्रत्ययान्ताः, शब्दास्तन्वीसमाः स्मृताः । संयुक्तस्यात्यांत् प्राकार | रावी लड़धी रुची, कचिदयिते च यथा । जयति सुर आयेंतु स्यात् । एकस्वरे श्वः स्वे ॥ ११४ ॥ एकस्वरे पदे यौ श्वस्-स्व इत्येतौ तयोरिह । चकारात् प्राग्, उकारः स्यात्, भ्वः कृतं तु 'सुवे कथं ' । 'सुवे जणा स्वे जनास्तु, कुत ' एकस्वरे ' इति ? | स्वजन:-' लयणो ' नात्र, यतोऽनेकस्वरे स्थितः ॥ ज्यायामीत् ॥ १२५ ॥ या शब्दे तु यकारात् प्रात् स्यात् 'जोधा' ततो भवेत् । करेण वाराणस्योः रणोत्यवः ।। १२६ ।। वाराणस्य करेपर्वाच योत्ययो भवेत् । वारसी, कोक, स्त्री- निर्देशात् पुंसि नेष्यते । लाने लनोः ।। ११७ ॥ मनयोरावाला नमाण प्रयुज्यते । अचलपुरे चलोः ॥ ११० ॥ अपुरे तु शखयोः स्थानमेदतः । प्रयुज्यतेऽथपुरं बुधैः प्राकृतयेदिनिः । [अ०८ पा०२] महाराष्ट्र हरोः ॥ ११५ ॥ 'मरद महारा हरयोत्ययाद्भवेत् । हदे दो ः || १२० ॥ हद-शब्दे हदयोव्यत्ययेन रूपं दहो भवत्यत्र । 'हर मह पुष्करिणा । हरिताले र- लोर्नवा ॥ १२१ ॥ वयत्ययः काय्यों, हरिताले विकल्पनात् । सिद्धं ततो 'हरिआलो, हलिआरो' इति द्वयम् । लघु होः ॥ १२२ ॥ लघुके घस्य इत्वे वा लहयांव्यत्ययः स्मृतः । हलुअं लहुं, घस्य व्यत्यये न तु हो भवेत् [१] " ललाटे लोः ।। १२३ ।। लाल या विधीयते। कालं च णलामंच, ललाटे चेति [ १२५७ ] लस्य णः [२] | हो बोः ।। १२४ ।। -शब्दे ह ययोर्वा स्यात् व्यत्ययः सह्य- गुह्ययोः । सहो सो तथा गुद्धं गुरु, रूपे श्मे मते 1 स्तोकस्य थोक-योग- क्षेत्राः ।। १२५ ।। थोक-थोव धेवा वा स्युः, स्तोकशब्दे त्रयः क्रमात् । थोक्कं थोवं च थेवं च, पक्के थोत्रं विधीयते । दुहितृभगिन्यो चहिएयौ ।। १२६ ।। बाभ, नविन्या बहिणी तथा। बहिणी भरणी, धूश्रा दुडिआ च विभाष्यते ॥ वृक्ष- क्षिप्तयो: क्लछूटी।। १२७ ।। वृक्क - क्षिप्तशब्दयोर्यथाक्रमं 'रुख' 'छूढ' इति वा स्तः । रुखबच्छू खितं मुक्तिं ॥ - वनिताया विलया ॥ १२८ ॥ वनिताया विलया वा विलया वणिश्रा ततः ! गौणस्येषतः कूरः ॥ १२७ ॥ ईषच्छन्दस्य गौणस्य, कूरादेशो विभाषया । चिचव कूर - पिक्केति पक्ष स्याद् 'ईसि' निर्वृतम् ॥ 9 खिया इत्यी ।। २३० ॥ " " स्त्री भवेदित्थी था, इत्थी थे प्रयुज्यते । धृतेर्दिः ।। १३१ ॥ तेषां दिहिरादेशः स्यातां हिंदी थिई । मार्जारस्य मञ्जर- बञ्जरौ ॥ १३२ ॥ माजरस्य विकल्पेन स्यातां मर-बजरी । मजसे बजरो पड़े मजारो चाभिधीयते । - वैय्र्यस्य वेल्लिअं ॥ १२३ ॥ वेरुलिअ इत्यादेशो वा वैडूर्यस्व स्यात् ततः । रुचि वयंसि समते । [१] घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वाद हो न प्राप्नोतीति हकरणम । [२] " ललाटे च " [ १ । २५७] इति आदेर्लस्य णविधानादि द्वितीय स्थानी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) [सिघहेम. अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८पा.२] एम्हि एत्ताहे इदानीमः ॥ १३४॥ (तुम्) मोत्तुं (अत्) प्रमित्र (तूण) काऊण. इदानीमो भवेद् पर्गिह, एतादे च विकल्पनात् । कट्टा-55 (तुआण) नुप्राण च । आणि एरिदम एसाहे, अयं चैतत् प्ररूपितम् । इदमर्थस्य केरः॥१४७।। पूर्वस्य पुरिमः ॥ १३५ ॥ प्रत्ययस्येदमर्थस्य, केर' प्रादेश इम्यते । पूर्वस्य पुरिमो वा स्यात, पुव्वं च पुरिमं तथा । तुम्हफेरी अम्हकेरा, युष्मदीयाऽस्मदीययोः। त्रस्तस्य हित्थ-तट्ठौ ॥ १३६ ॥ न स्यात् 'महम-पक्खे' तु 'पाणिणीया' हापि च । अस्त-शब्दस्य वा स्याता, हिट्ठ-तट्ठौ विकल्पनात्। पर-राजच्यांक-मिको च ॥१४॥ हित्थं तरं च तत्थं च, त्रयं सिद्धिं समश्नुते ॥ प्रत्ययः पर-राजभ्या-मिदमर्थः परोऽस्तु यः । बृहस्पती बहो नयः ॥ १३७ ॥ तस्व स्थाने भवेतांतु,क-डिक्की केर श्त्यपि॥ गृहस्पती वहस्य वा भयो निगद्यते पदे । परकीयं तु पारकं, परकं पारफेर। भयस्सई नयाई भयप्पर ततो भवेत् । राजकीयं तु राइक रायकेरं च पठ्यते । पहस्सई बहकर बहप्पई च पाक्तिकम् । - युष्मदस्मदोऽत्र एच्चयः ॥१४॥ इदुश यत्र वा वृहस्पता' (१११३८) ति प्रदर्शितौ । यः परो युष्मदस्मदग्न्यां प्रत्ययोऽभिदमर्थकः । बिहस्सई बिहप्फई बिहप्पई बुहस्सई । पच्चयस्तस्य, युप्माकमिदं यामाकमित्यदः। बुद्धप्फई बुहप्पई च तत्र यान्ति सिद्धिताम् । तुम्देच्चयं स्याद्, आस्माकं नवेदम्देवयं तथा। मसिनोजय-शक्ति-बुप्ताऽऽरब्ध-पदातेमेइलावह वतवः ॥१५॥ प्रत्ययस्य वतेवः स्यात्, 'मुहरब्व' निदश्यते। सिप्पि-विका-दत्त पाइकं ॥१३॥ सर्वाङ्गादीनस्येकः ॥१५॥ 'मलिनादेमहलादिरादेशो वा विधीयते । मलिनं-मनिणं महलं, सभयं-अवहं च सवदमिति केचित् । सर्वानात् 'सर्वादेः पथ्यने-[ हेम०७।१] त्यादिना य ईनऽस्ति । शुक्ति:-सिप्पी सुस्ती, छुप्ता-निको च छुतो च ॥ तस्येकः स्यात, सर्वाङ्गीण:-सव्वत्रियो गदितः। प्रारब्धश्चाढत्तो बारको वा, पदातिरिति तु पदम् । पथो णस्येकट् ॥१५॥ पारको च पयाई, 'उभयोकालं'नवेदार्षे । "नित्यं णः पन्थश्च" [हे०६४] सूत्रणेतेन यः पयो णः स्यात् । दंशाया दाहा ॥१३॥ तस्येकट करणीयः, पान्धः पहिमो ततो भवति । दंगा-शब्दस्य दाढा स्यात्, संस्कृतेऽप्ययमिप्यते । ईयस्यात्मनो णयः ॥१५॥ बहिसो बाहिं-बाहिरौ ॥१४०॥ पात्मनः पर ईयो यो, जयादशोऽस्तु तस्य तु । 'बाहिं पाहिरमित्येतो' स्थाने द्वौ पहिसो मतो। प्रात्मीयं पठ्यते तेन, बुधैरऽप्पणयं पदम् । त्वस्य डिमा-त्तणो वा ॥१५॥ अधसो हेढें ॥१४॥ त्व प्रत्यस्य वा स्यातां 'मिमा 'तण' श्मौ क्रमात । देह इत्ययमादेशोऽधसो, हेटुमतो भवेत् । पीणिमा पुप्फिमा, पीणतणं पुप्फत्तणं तथा। मातृ-पितुः स्वसुः सिआ-ौ ॥१४॥ पके पीणतं पुष्फत्त, एवमन्यनिदर्शनम् । मातुः पितुः परः स्वस-शब्दः, तस्य सिआ च छा। इनः पृथ्यादि-शब्देषु नियतत्वादयं विधिः। स्याद् माउच्ग माउसिमा, पिसच्छा च पि (ब) ऊलिया। तदन्यप्रत्ययान्तेषु साम्प्रतं तु विधीयते। तिर्यचस्तिरिच्छिः ॥१४३॥ पीनता 'पीणया' चहा-न्यभाषायां तु-'पीणदा'। तिरिच्कृिस्तिर्यचः स्थान प्रादेशो विनिगद्यते । तेनेह 'दा' तनः स्थाने, आदेशो न विधीयते । 'तिरिच्चि पेच्या भाषे-'तिरिमा' ऽपि प्रयुज्यते ।। अनोगत् तैलस्य मेधः ॥१५॥ गृहस्य घरोऽपतौ ॥१४४॥ अङ्कोपवर्जितात् शब्दात, 'डेम्लः' तैलस्य कथ्यते । हस्य घर प्रादेशः, पतिशब्दः परो न चेत् । कपलं, न चाकोतेखमत्र प्रवर्तते। -सामी, राय-घरं पत्यौ-गहवई पुनः॥ यत्तदेतदोतोरित्तिा एतल्लुक च ॥१५६॥ शीलाद्यर्थस्येरः ॥१४॥ इत्तिो यत्तदेतद्भ्यः स्याद् मावादरतारिख । परिमाणार्थकस्याऽऽदेशो, लुक् स्यादेतदोऽपि च । शौन-धर्म-साध्वर्थे यो, विहितः प्रत्ययो भवेत । पतावत इत्तिनं, तावद् यावत तित्ति जित्तिमं । । ययमादेशः, तस्य स्थाने विधीयते ।। इदंकिमश्च मेत्तिअ-डेतिल-केदहाः ॥१५७।। हा लस्तु-दसिरो, रोविरो लजिरो तथा। जार वाविरो ऊस-सिरो च नमिरो ऽपिच॥ शवेन्यो यत्तदेतद्भ्यः किमिदंभ्यां च यः परः। न र केचिदिच्छान्त, नमिराऽऽदयः । अतुर्वा मवतुर्वा स्यात् तस्य स्थाने मितत्रयः । तेग सिध्यन्ति, तृनो बाधाऽत्र रादिना ॥ डेदहो मेत्तिो डेत्तिलो, भवेदतदध मुक। पत्ति पत्तिलं एहहं स्यादियत क्त्वस्तुमत्तूण-तुप्राणाः ॥१४६॥ कत्तिनं केत्तिनं केहहं स्यात् कियत् । "नम प्रत् दुण-तुप्राणा' स्युः, स्थाने त्वाप्रत्ययस्य त। । जेसिजेत्तिलं जेदहं यावतः Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) [ सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८ पा० २] तेत्तिमं तेत्तिलं तेदहं तावतः । उपरेः संव्याने ॥ १६६ ॥ पत्तिभं पत्तिलं एधमतावतः। संव्यानेऽर्थे स्थितात् स्वार्थे वो भवेद् उपरेरिह । पदह, चेरशं सूरिनिहितम ।। 'अवरिष्ठो''वरि' रूपमसंव्याने प्रतिष्ठितम । कृत्वसो दुत्तं ।। १५८ ।। भ्रुवो मया ममया ॥ १६७ ॥ "वारे कृत्वस्" [हिम०७।२] दि सूत्रेण यः कृत्वस्प्रत्ययः कृतः । खार्थिको प्रत्यया स्याता, भ्रशब्दाद् डमया मया । तस्य स्थाने भवेद् 'हुत्तं' 'सयहुतं' निदर्शनम् । कथं प्रियानिमुखं तु 'पियदुतं' प्रयुज्यते । भुमया भमया चेमौ, शब्दी सिकिमवाप्नुतः। इत्तेनाभिमुखार्थेन रूपसिद्धिर्भविष्यति। शनैसो मिअम् ।। १६० ॥ आस्विल्लोबाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणा मतोः॥ १५ ॥ शनैस्शब्दाद् भवेत् खार्थे, डिअम तु 'सणि' यथा । आलुर, इल्लो, मणो, वन्त-बाल-बल्ल-इरः, तथा । मनाको नवा डयं च ॥ १६॥ श्तो, मन्ता, यथालयं, नवाऽऽदेशा मतोः स्मृताः। डयम मिअम् च वा स्वार्थे, मनाक्शब्दादिमौ यथा। (मालु) नेहालू च दयाबू (शल्ल) सोहिल्लो भवति जामश्वोच। मणयं मणिअं पके 'मणा' इत्यपि सिध्यति । (उल्लमंसुद्धो दप्पुखो (पान) तथा जमालो च सदालो॥ मिश्राडामियः ।। १७० ।। (वन्त)धणवन्त-भत्तिवन्तो(मन्त)हणुमन्तो भवति पुम्ममन्तोच। मिश्र-शब्दात् तु वा स्वार्थे, 'मानिअः ' प्रत्ययो भवेत् । (इत्त) कव्वात्तो माणइत्तो (इर)गविरो रेडिरो भवत् । मीसाक्षि तथा पक्के, 'मीसं' इत्यपि दृश्यते । (मण) स्याद् 'धणमणो,' केषांचिदू,मादेशाद् हणुमा मतः ॥[१] रो दीर्घात ।। १७१॥ चो दो तसो वा ॥१६॥ स्वार्थे दीर्घात परो वारः, दोहरं दीहमित्यपि। प्रत्ययस्य तसः स्थाने 'तो' 'दो' वा भवतो, यथा। वादेः सः ॥ १७२॥ सम्वत्तो सम्बदो, पके भवेद् रूपं तु सम्वत्रो । 'भावे त्वता' (हेम०७१) हि सूत्रेण, यात्वादिविहितस्ततः। पो हि-ह-स्थाः ।। १६१ ।। स्वार्थ स एवं त्वादिर्वा, भवेदित्युपदिश्यते । प्रत्ययस्य त्रपः स्थाने हि-द-स्थाः स्युरिमे त्रयः । मृकत्वेन 'मउअत्तयाइ' अनुवाद्यते । निदर्शनं यत्र-तत्र-कुत्राणामिद रश्यताम् । स्यात् कणिटुयरो जिट्टयरो रूपं पृथग्विधम् । जहि वा जह वा जत्थ, तत्थ वा तहि वा तह । विद्युत्पत्र-पीतान्धारः॥ १७३ ।। कहिवा कद वा कत्था-नत्थ बाउन्नहि वानह । पा विद्युत्पत्रपीतान्धशब्दभ्यः स्वार्थिकोऽस्तु लः। वैकादः सि सिधे आ ॥ १६२ ॥ विज्जुला पत्तलं अन्धलो च पीवल पीपलं । एक-शब्दात् परो यो दा-प्रत्ययस्तस्य वा त्रयः । पक्षे विज्जू च पत्तं च पी'अन्धो' चतुष्टयम् । 'इश्रा सिप्रंसि' इत्येते, आदेशाः स्युर्यथाक्रमम् ॥ यमलस्य संस्कृतस्य 'जमलं 'रूपमिप्यते। स्यादेकदा पक्कसि', तथा 'एकसित्रा'ऽपरम् । गोणादयः ॥१७४।। 'पक्कास' त्रितयं चैतत्, पते स्याद् 'एगया' पदम् । [२] गोणादयो निपात्यन्त, बहुलं लक्ष्यदर्शनात् । मिस-दुधौ जवे ॥ १६३ ॥ गोणी गावीच गौर्वाच्यो, गावी गाव उच्यते। नाम्नः परौ डिव-कुल्लौ, भवेऽर्थे प्रत्ययौ मितौ। बश्लो तु बनीवर्दः, श्राऊ आप श्तीरितः। गामल्लिा , उशन्त्यन्य, पाल्वासा [२२१५६] प्रत्ययावपि ।[३] 'पञ्चावमा पणपन्ना' पञ्चपञ्चाशदिष्यते । __स्वार्थे कश्च वा ॥ १६४॥ तेवामा तु त्रिपञ्चाशत, तेपालीसा त्रिवदमित् । विनसग्गो तु व्युत्सर्गः, वोसिरणं व्युत्सर्जनम् । स्वार्थे को डिल्ल-मुखौ च, मिती वा प्रत्ययास्त्रयः। 'बहिद्धा' इत्ययं शब्दो बहिर्वा मैथुनार्थकः। [१] चन्दा इडयं, क्वापि द्वित्वं-'बहुअयं' यथा। ‘णामुक्कसिअम्'-इत्येतत् कार्य, कत्थर तु क्वचित् । क.कारोचारणं पैशाचिकभाषार्थमिष्यते। मुव्वहइ उद्वहति, अपस्मारस्तु बम्हनो। यथा वतनकं, इन श्ताऽने लक्ष्यते स्फुटम् । कन्दुट्ट उत्पत्र, धिधिक गिछि शिकिच पठ्यते । पुरा पुरो वा 'पुरिल्लो' 'पद्वविवेण' इत्यपि । 'धिगस्तु' वाक्यमित्येतद् धिरत्यु प्रतिभण्यते । उन्छः-पिउल्लओ हत्थुल्ला मुदुद्धं त्रयं मतम् । पमिसिद्धी पाडिसिझी, प्रतिस्पर्धाऽभिधीयते।। पक्ष-चन्दा इह बहु बहु अं मुहमित्यपि । चश्चिकं स्थासकः, साक्षी सक्खिणो, जन्म जम्मणं । स्यात् कुत्सादिविशिष्ट तु 'कप्' संस्कृतवदेव च। निहरणं तु निलयः, मधोणो मघवानिति । यावादिलकणः कस्तु, नियतस्थान इष्यते । महान् महन्तो, आसीसा पाशीरिति, भवान् पुनः । झो नवैकाद्वा ।। १६५।। भवन्तो कुत्रचित् स्यातां हकारस्य हुभो, यथा। नवादेकाश्च वा स्वार्थे संयुक्तो 'वः' प्रवर्तते । वृहत्तरं वड्यरं, स्याद् हिमारो भिमोरओ। ततो नवल्लो एकल्लो, एश्री एको नवोऽपि वा। वस्य डो दृश्यते क्यापि, कुखकः खुट्टो यथा। सेवादित्वात् ( श६६ ) कस्य द्वित्वे 'पकलो' सिद्धिमृच्छति। 'घायणो' गायनो, काण्डम्-'अस्थक्क'च, वमो 'बढो। [१] मतारिति किम, धणी, अस्थिी । [२] एकइआ। लज्जावती च लज्जाबुश्णी फकुदमित्यपि । [३] पुरिद्धं, हेट्ठिलं, नवरिलं, अप्पुलं । * त्रिचत्वारिंशदित्ययः । [१] बहिस्तादथवा मैथुनम् । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) [सिकहेम.] अनिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०पा०] ककुधं, कडुमित्येतत् कुतूहलपदस्य तु । 'हन्दि ' शब्दः प्रयुज्येत, लक्ष्यमेतद् निशम्यताम् । चूतो भवति मायन्दो, 'आगया'-असुराः तथा । "हन्दि चलणे णो सो, ण माणिो हन्दि हुज पत्ताहे माकन्दः संस्कृतेऽपि स्यात, भट्टिओ विष्णुरुच्यते। हन्दि ण होही भणिरी, सा खिज्ज इन्दि तुह कजे" । [१] श्मशानं करसी, खेलं खई, अवं दिनं तथा। हन्द च गृहाणार्थे ॥ १८१॥ पौष्पं रजस्तु 'तिङ्गिच्छि,' समर्थः पक्कलो, बली। 'हन्द''हन्दि 'इमौ शब्दो गृहाणार्थस्य वाचकौ । उज्जल्ला, पएमको लच्छा, शाखा साहुली मता। यथा-'हन्द पलोपसु श्म' हन्दि गृहाण च । कर्पासःपहली, ताम्बूलं मतं कसुरंह। मिव पिव विव व व विप्र इवार्थे वा ॥ १८२॥ पुंश्चली चिंगई, चैवं सन्ति बदयाणि भूरिशः। 'मिव-पिव-वि-विव-व-वा' अमी इवार्थे च वा प्रयुज्यन्ते। वाऽधिकारात्तु पकेऽत्र यथादर्शनमिष्यते । कुसुमं मिव, हंसो विव, कमझं विश्र, चन्दणं पिव च । तेन गौः-'गउओ' इंग्रपं चापि प्रयुज्यते। सेसस्स व निम्मोश्रो, खीरोओ सायरो ब्व, पक्के तु। गोला गोआवरी चेमौ, गोला-गोदावरी-भवौ । नीबुप्पलमाला श्व, दिशाऽनया त्वन्यदपि बोध्यम। भाषाशब्दाश्च सन्तीह बहवस्तान ववीम्यहम् । जेण तेण लक्षणे ॥ १३ ॥ आहित्थो लब्बक्को, विहिर-पञ्चडिओ च उज्जल्लो। जेण तेण इत्येती, सदा बकणे बुधैः प्रयोक्तव्यौ । उप्पहर-विहमप्फ:-ममप्फरो अट्टमट्टो च । जेण नमरों कमलं, 'भमररुअं तेण कमलवणं'। पहिच्किर-लफल श्त्याचा भरेिशाऽभिधाशब्दाः[१]| इचे चिच्च अवधारणे ॥ १८४ ॥ अवयास फुम्फुल्वर, उप्फालेई क्रियाशब्दाः। 'ण चेच चित्र 'श्मे-ऽवधारणेऽर्थे यथा-'गईएँ । अत एव कृष्ट-ए-वाक्य-विद्वत्वचेतसाम् । जं चेअ मचलणं लो-अणाण, ते चेअ सप्पुरिसा ॥ वाचस्पति-प्रोक्त-प्रोत-विष्टरश्रवसां तथा। अणुबळं तं चित्र का-मिणीण, सेवादिदर्शनाद् द्वित्वे । अग्निचित्-सोमसुत्-सुग्ल-सुम्बादीनां च नूयसाम् । 'ते चिम धन्ना' इत्यपि, स च्च य रूवेण, स च सोलेन । विबादिप्रत्ययान्तानामनुक्तानां तु सूरिभिः। प्रतीतिवैषम्यपरः, प्रयोगो न विधीयते । बले निर्धारण-निश्चययोः॥ १०५॥ किंतु शब्दान्तरैरेव, तदर्थोऽत्राऽभिधीयते । निर्धारणे निश्चये, 'बले' इतादं, यथा-'बल्ले सीहो'। [२] वाचस्पतिर्गुरुः, कृष्टः कुशझो, विष्टरश्रवाः। अस्थि बल्ले सप्पुरिसो, धणंजओ स्वत्तिाणं तु । [३] हरिरित्यादिवद् लेखो, भवेत् पर्यायसंजयः । किरेर हिर किलार्थे वा ॥ १६ ॥ सोपसर्गस्य घृटस्य, प्रयोगः क्रियते बुधैः । 'किर हर हिर' इत्येते, त्रयः किसाथै हि वा प्रयुज्यन्ते । परिघटुं निहीं चेत्येवमादि निदर्शनम् । पते सोदाहरणाः, कथ्यन्ते तेऽवगन्तव्याः। आर्षे यथादर्शनं तु, न विरुकं किमप्यतः। 'कई फिर खर-हिशो' 'एवं किल तेण सिविणए जणिश्रा'। 'घहा महा विउसा,' तथैव 'सुत्र-लक्खणाणुसारेण '। 'तस्स इर,' 'पित्र-वयंसो हिर' किल-शब्दोऽपि वा वाच्यः । 'वकन्तरेसु अ पुणो,' इत्याद्या विजानीयात् । वरं केवले ॥ १७॥ अव्ययम् ।। १७५॥ णचरंतु केवलार्थे, 'णवरं' 'नबरं' च कुत्रचिद् एम् । अव्ययमित्यधिकार आपादपरिपुरणात् । 'णवरं पिआई चिणि-वडन्ति' चैवं प्रयोक्तव्यम्। इतः परं ये वक्ष्यन्ते, ते सर्वेऽप्यव्ययाभिधाः। श्रानन्तर्ये एवरि ॥ १८ ॥ तं वाक्योपन्यासे ॥ १७६ ॥ श्रानन्तर्ये 'णवरि' प्रयुज्यते, तन्निदर्शनं चैतत् । तमिति वाक्योपन्यासे, प्रयोक्तव्यं यथाविधि । 'णवरि असे रहु-वइणा,' 'णवरणवरि' सूत्रमेकेषाम् । [४] 'तं तिस-बन्दिमोक्खं ' एवं सर्वत्र बुध्यताम् । अझाहि निवारणे ॥ १६ ॥ आम अज्युपगमे ।। १७७॥ प्रथें निबारणे 'ऽलाहि,' सुधाभिः समुदीरितम् । भाम-शब्दोऽज्युपगमे, वाच्ये साधु प्रयुज्यताम् । अनादि किं वाइएण, लेहेणेति निदर्यते । तद्यथा-'आम वहला बणोली' ईगुच्यते । अण णाई नबर्थे ।। १६० ।। जवि वैपरीत्ये ।। १७ ॥ 'अण, णाई' इत्येतो, बुधैर्नमोऽथे परं प्रयुज्यते ॥ णवीति वैपरीत्ये स्यात्, तथाहि-'णवि हा वणे'। अणचिन्तिममुणन्ती, 'णाई रोसं करेमि' यथा । पुणरुत्तं कृतकरणे ॥१७॥ माई माऽर्थे ॥ ११ ॥ 'पुणरुत्तम् 'तिशब्दः, कृतकरणेऽर्थे प्रयुज्यते हि, यथा-1 'माई रोसं तु काही,' अत्र माई तु माऽर्थकः । 'अइ सुप्पर पंसुलि! गोसहेहि अनेहि पुणरुतं' ॥ [१] [१] दन्दि [विषादे] चरणे नतः सः, न मानितो हन्दि [विहन्दि विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये॥१८॥ कल्पे] भविष्यति इदानीम् ( नवा )। हन्दि [पश्चात्तापे] न ज. विषादे निश्चये सत्पे, पश्चात्तापे विकल्पने। विष्यति भणिरी [नगणनशीला सा खिद्यते हन्दि [सत्यम] तव [१] इत्यादयो महाराष्ट्रविदादिदेशप्रसिहा लोकतोऽव- कायें। [२] निश्चये-सिंह एवायम् । [३] निर्धारणे । [४] गन्तव्याः। [२] हे पांसुले ! त्वं निःसहैरङ्गैः पुनरुक्तं [ वारं केचित्तु केवानन्तयर्थियोः 'णवर-णवरि' इत्येकमेव सूत्रं कुर्ववारं] स्वपिपि । | ते, तन्मते उभावप्युभयार्थी । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०८ पा० २] हछी निर्वेदे ।। १३॥ केपे रतिकलहे संभाषणविषये च कथ्यते तु 'हरे। 'हकी' इति निवेदे, हाधिक्-शब्दस्य भवति वाऽऽदेशः। (केपे हरे णि सज्ज!(रतिकल हे) हरे बहुतस्माद् 'हकी हद्धी' तथा च 'हा धाह धाह' इति । वबह ! दुजण! (संभाषण) हरे पुरिसा!। वेबे भय-वारण-विषादे ॥१३॥ ओ सूचना पश्चात्तापे ॥३०३ ॥ भय-वारण-विषादेषु, 'वेव्वे' इत्यनिधीयते । "वव्वे त्ति भय बन्वे, त्ति वारणे जूरणे अवेवेति। सूचनायां तथा पश्चात्तापे 'ओ' इति पठ्यते । 'श्री अविणय तत्तिल्ले (पश्चात्तापे) 'ओ छाया इतिश्राए । नह्याविरी वि तुहं, वेब्वे ति मयस्ति ! किं णेअं? ॥ उतस्य तु विकल्पार्थवाचकस्यापि'ओ' भवेत् । किं उद्बावेन्तीए उअ जूरन्ती' किंतुनीआए। यथा 'नयले प्रो विरपमीति' निगद्यते । उब्वामिरी' वेब्वे तिताएँ भणिभं न विम्हरिमो" [१] ॥ वेव च आमन्त्रणे ।।१६ अब्बो मूचना-दुःख-संभाषणापराध-विस्मयानन्दादरभयवेवे वेव्य च आमन्त्रणे, यथा-भत्रति 'वेव्ध गोले' वा। खेद-विषाद-पश्चात्तापे । २०४॥ 'वब्वे मुरन्दो बह-सि पाणिअं' चदृशं वाक्यम् । अन्बो दुःखे सूचनायामपराधे च विस्मये । मामि हला हल्ले सख्या वा ॥१॥ सनाषणे भये खेद, पश्चात्तापविषादयोः। 'हला मामि, हले' चैते सख्या आमन्त्रणे तु वा । प्रानन्दादरयोश्चापि प्रयोक्तव्यं हि, तद्यथा। पणवह माणस्स हला, मामि हु सरिसक्खराण वि'च कथितम्। [१] अब्बो ऽक्करधारय!(२) अब्बो हिययं दयन्ति वयणाणि । 'हले हयाप्सस्स' तथा, पत-'सहि परिसि चित्र गई' तु ।। [३] अब्बो किमिणं किमिणं, अपराधे विस्मये तु यथा-1 दे संमुखीकरणे च ॥ १६ ॥ [४] *अब्बो हरन्ति हिअयं,तह विन वेसा हवन्ति जुवईण। 'दे' तु संमुखीकरणे, सख्या आमन्त्रणे व वक्तव्यम् । [५] अब्वो किपि रहस्यं, मुणन्ति धुत्ता जणभहिश्रा ।। 'दे' पसि ताव सुन्दरि'! 'दे पा खु पसिननिअत्तसु च ॥ [६] अठयो सुपहायामिण (७) अव्वो अजम्ह सप्फलं जी। हुँ दान-पृच्छा-निवारणे ॥१७॥ [८] अब्वा अइअम्मि तुमे, नवरं जइ सा न जूरिहा ।। स्याद् ‘हुँ' निवारणे दाने, पृच्गयां चापि, तद्यथा-। [8] अब्बो न जामि तं, पश्चात्तापेऽभिधीयते तु यथा ॥ 'अप्पणो चित्र हु गेरह' 'हुं निर्लज! समोसर । [१०] "अब्बो तह तेण कया, अहवं जह कस्स साहेमि"? 'हुंच साहसु सन्नाव, एवमादि निदर्शनम् । [११]x"अब्बोनासन्ति दिहि,पुलयं वन्ति देन्ति रणरणयं । दुखु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ॥१५॥ पपिंह तस्सेश्रगुणा, ते चित्र अव्वो कहणु परं? 'ढ' 'खु' निश्चय-संभावन-वितर्क-विस्मय-पदेषु वक्तव्यौ। भइ संभावने ।। २०५।। (निश्चय) तं पि हु अच्छिन्नसिरी', 'तं खुसिरीए रहस्सं च'। अ संभावने, अइ दिअर ! किं न पच्छास? ऊहसंशयौ द्वावपि, वितर्क-वाच्यौ (कहे) हसखुए सा।। 'न हु णवर संगहिवा' (संशये) खु जसहरो धूमवडलो खु॥ वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ॥१०६ ॥ (संजावने) 'ए खु हस' इत्यपि,'णवर श्मण हु तरी' च।। संभावनेऽनुकम्प्ये च विकल्पे निश्चये वणे । (विस्मये) को खु सहस्ससिरो, हुर्नाऽनुस्वारात परोवाच्यः ।। [निश्चये ] वणे देमि 'वणे होक, न ढोइ' स्याद् विकल्पने । ऊ गहाऽऽ-क्षेप-विस्मय-सूचने ॥१ए दासो न मुघा वणे, अनुकम्प्यो न मुच्यते । 'ऊ' गर्दा विस्मयाऽऽक्षेप-सूचनेषु प्रयुज्यते । [संभावने ] 'नथि वणे जं न दे' विहि परिणामो' यथा । (गहाँ) ऊ पिल्लज' (सूचने) 'ऊ केण, नविएणायं गुणं तुह'। मणे विमर्शे ॥ २०७॥ (प्राकप) 'ऊमए भणि अंकि खु'(विस्मये) क मणिश्राऽहयं कह। आकेपः सोऽत्र, वाक्यस्य यद् विपर्यासवारणम् । मणे विमर्शे, 'मन्ये' इत्यर्थेऽपीच्छन्ति केचन । धू कुत्सायाम् ॥२०॥ किंस्वित् सूर्यो-'मणे सूरो' रूपमीर विदुर्बुधाः। कुत्सायां थू, यथा-'लोरो निद्वज्जो थू' प्रयुज्यते । अम्मो आश्चर्ये ॥ २०७॥ रे अरे संभाषण-रतिकलहे ॥२०१॥ भाश्चयेऽर्थे भवेद् अम्मो, 'अम्मो कह तरिज'। संभाषणे तुरे' स्यात्, रतिकबहे संप्रयुज्यते च 'अरे'। स्वयमोऽर्थे अप्पणो नवा ।। २० ॥ रे हिअय ! मडह-सरित्रा, 'अरे मए मा करेसु उवहासं'। [१] सूचनायाम् (१) दुःखे [३] संभाषणे [४] हरे क्षेपे च ।। ३०२ ।। अपराधे [५] विस्मये [६] आनन्दे (७) श्रादरे [८] नये [.] खेदे [१०] विषादे [११] पश्चात्तापे । [१] वेवे इति भये वेवे इति वारणे जरणे [खेदे ] च वेव्वे *अव्वो हरन्ति हृदयं तथाऽपि न द्वेष्या भवन्ति युवतीनाम् । इति । नल्लापयन्त्या अपि (मया) तव वेब्वे शत मृगाकि! किं अव्वो किमाप रहस्य जानन्ति धूर्ती जनाभ्यकाः ॥ झयम । कि नवापयन्त्या उत जूरन्त्या किंतु भीतया। नव- x अश्वो नाशयन्ति धृति पुवकं वद्धयन्ति ददति रणरणकम् । टन्त्या (निषेधं कुर्चत्या) वेञ्चे इति तया जाणितं न विस्मरामः।। श्दानीं तस्यैव गुणा त एव अब्बो कथं नु पतत् ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०८ पा०३] 'स्वयम् ' इत्यस्य पाध्ये वा, 'अप्पणो' संप्रयुज्यते । ॥ * अहम् ॥ 'अप्पणो विसयं कम-लसरा विसंति च'॥ 'करणिजं सयं चेत्र, मुणसि' स्याद्धि पाक्तिकम् । ॥ अथ तृतीयः पादः ॥ प्रत्येकमा पामिकं पामिएकं ॥ २१०॥ oo#om प्रत्येकमा पारिएक, पामिकं च पदे भवेत् । पाडिकं पाडिएकच पक्षे पत्ते-'मिष्यते ॥ वीप्स्यात् स्यादेवीप्स्ये स्वरे मो वा ॥१॥ उअ पश्य ॥ ११ ॥ 'वीप्सायंकात पदात् स्यादेः स्थाने मः स्याद् विकल्पनात 'उ' इत्यव्ययं पश्येत्यस्यार्थे वाऽनिधीयते । पदे स्वरादौ वीप्सार्थे परे, इत्युपदिश्यते । "अनिश्चलणिप्फंदा निसिणी-पत्तम्मि रेहरु बलामा। एकक स्यादेकमेक्वं, पके पक्ककमिप्यते । निम्मल-मरगय-भायण-परिट्ठिा सह-सुत्ति व्य" ॥ [२] अङ्ग्रे भने तथा 'अङ्गमङ्गम्मि' प्रतिपाद्यते । अतः सेोः ॥ ॥ हरा इतरथा ॥ १२ ॥ 'हरा' इतरथाऽर्थे, प्रयोक्तव्यं विभाषया। नाम्नोऽदन्तात् नवेत् स्यादेः सेो, 'वच्छो' यथा भवेत । 'नीसामन्नेहि इहरा' पक्के-' इअरहा' इति ॥ वैतत्तदः ॥ ३ ॥ ____एक्कसरिअं झगिति संप्रति ॥२१३॥ एतत्तदोरतः स्यादेः सेः स्थाने 'मो' विकल्पनात् । 'सो णरो' 'स णरो' 'एसो पस' चैवं निदर्शनम् । सम्प्रत्यर्थे झगित्यर्थे स्याद् 'एक्कसरिअं' पदम् । जश्शसोलुक ।। ४ ।। मोरउदा मुधा ॥ २४ ॥ नाम्नोऽदन्ताजगशसौ यो स्यादिसम्बन्धिनौ, तयोः । 'मोरवडा' इति पदं, मुधाऽर्थे प्रतिपाद्यते । लुग प्रवत् तद्यथा-'वच्छा एप' 'वच्छे पि पेच्छ' च। दरार्धाल्पे ॥१५॥ अमोऽस्य ॥५॥ 'दर' श्त्यव्ययम् ईषदर्धाय च पठ्यते । अतोऽमोऽस्य मुगान्येयो 'वच्छ पेच्छ ' सदाहृतम् । 'पर-विमसि' ईषध विकसितं तथा ॥ टा-आमाणेः॥६॥ अतः परस्य 'टा' इत्येतस्याऽऽमश्चापि णो नवेत् । किणो प्रश्ने ॥१६॥ यथा-बच्छण बच्छाण' द्वयं सिकिमुपागमत् । 'किणो' इत्यव्ययं प्रश्ने, 'किणो धुवसि' ईशम् । जिसो हि हि हिं॥ ७ ।। इ-जे-राः पादपूरणे ॥ १७॥ भिसो हि हि हिं' इत्येत श्रादेशाः स्युस्त्रयः क्रमात् । इ-जे-रा इत्यमी शब्दा उच्यन्ते पादपूरणे । रूपं 'वहि वच्छेहिँ वच्छेडिं' च बुधा जगुः । 'न उणा ३ च अच्छीई''अणुकूलं च वो जे'॥ डन्सम् तो-दो--हि-हिन्तो-सुकः ॥ ७॥ स्याद् गेएहश्र कलम-गोवी' वाक्ये र-पूरणम् । अतो उसोऽमी स्युः त्तो-दो-दु-हि-हिन्तो-मुकोऽत्र षट् । 'अहो हंदो च हा हेहो, नाम हीसि अहाह च ॥ 'वगहितो च बच्चत्तो वच्चा बच्चन च क्वचित् । अदहाऽयि अरिरिहो' इत्याद्याः संस्कृतोपमाः । तथा बाहि वच्छानों' दोऽन्यन्नाषार्थ इष्यते । प्यादयः ॥ १० ॥ ज्यसस् तो-दो-च-हि--हिन्तो--सुन्तो ॥ ७ ॥ अतो ज्यसो भवेत् 'त्तो-दो हिन्तो-सुन्तो-इ-दि' क्रमात । प्राकृते प्यादयः सर्वे, नियतार्थप्रवृत्तयः । यथा-घच्याउ बच्चाई वच्छेह' त्रयमीरशम् । प्रयोक्तव्याः, यथा-पि' 'वि' अप्यर्थे परिकीर्तितौ ॥ वच्गहिन्ता बच्छेहिन्तो, वच्गसुन्तो वच्चेसुन्तो। . या भाषा भगवद्वचोभिरगमद ख्याति प्रतिष्ठां पर, वच्चत्तो वच्चायो चैव, रूपंबिद्वद्वयरुक्तम् । यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्येकादशाङ्गानि च । इनमः स्सः ॥ १०॥ तस्याः संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः अतः परस्य तु सः संयुक्तः 'स्सो' भवेदिद। संचाराय मया कृते विवरणे पादो द्वितीयो गतः ॥१॥ यथा- पिस्स पेम्मस्स, शैत्यमुपकुम्नं स्वदः। नवकुम्नस्स सीअलत्तणमित्यभिधीयते । इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्व मे म्मि ॥ ११ ॥ श्रीमद्भट्टारक-श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचि अतः परस्य डित् में, म्मिश्चाऽऽदेशौ यथाक्रमम् । बच्छ बच्चम्मि, देवम्मि देवं, तं तम्मि इत्यपि । तायां प्राकृतव्याकृतौ द्वितीयः पादः। द्वितीयेत्यादि [ ३११३५] सूत्रेणाऽमः स्थाने डिविधाम्यते । [१] उप ति पश्य इत्यर्थे, बलाका, विसिनीपत्रे कमलि जस्-शस्-ङसि-तो-दो द्वामि दीर्घः ॥ १॥ नीपत्रे राजति । किंभृता बलाका?, निश्चलनिन्दा, निश्चला जस्-शस्-ङसि-तो-दो-द्वामसु, स्यादकारस्य दीर्घता । बहिनीवादिना, निष्पदाऽन्तरुच्यासादिना, कव?, निर्मलमरक- [१-२] वच्छा [३]वच्छास वच्छाओ, बच्छा, वच्छादि वा पुनः। तभाजनप्रतिष्ठिता शङ्खशक्तिरिव । [१-२] जसि शसि च [३] ङसि । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) [सिद्धहेम] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ. पा.३] यच्छाहिन्तो च, वृकेन्यः वच्छतो हस्व [१४] सूत्रतः । - जस्-शसोर्णो वा ॥२॥ बच्चाप्रो बच्छाउ[६], भामि-रूपं 'वच्छाण' सिध्यति । इतः परयोः पुंसि जस्-शसोऽस्तु णों' इति । सिग्रहणैव सिद्धे, 'तो दो 5'-ग्रहणेन किम् ?। गिरिणा तरुणो, पक्ष स्याता रूपे 'गिरी तरू। [१] पत्वस्य बाधनार्थाय ज्यसि, तस्य प्रढो मतः। डसि-उसोः पुं-कीबे वा ॥३॥ ज्यसि वा ॥ १३ ॥ इतो वा सिङसोः, पुसि क्लब च वाऽस्तु 'णो' । ज्यसादेशे परे दीपों, वाऽकारस्य विधीयते । गिरिको तरुणो रूपं दहिणो महुणो तथा। यथा-वच्छादि बच्छेदि,' तथाऽन्यदपि बुध्यताम् । पक्षे 'गिरीश्री गिरीउ गिरीदिन्तो,' ऽनया दिशा । टाण-शस्येत् ॥ १४॥ अन्येषामपि रूपाणि, हि-लुको न नविष्यतः । टाऽऽदेशे-णे च, शसि च, भवत्येवमतो, यथा । उसो 'गिरिम्स' इत्येकं पके रूपं प्रयुज्यते । [शस ] वच्छे पेच्छ, [टा-ण ] च वच्छण, गति किम् ? श्र टो णा ॥२४॥ प्पणा यतः । इदुद्यां पुंसि क्लीवे च, 'टा' इत्यस्य तु 'णा' नवेत् । भिमन्यस्मुपि ॥ १५॥ गिरिणा च गामणिणा, तरुणा दहिणा यथा । भिस-ज्यस-सुपसु भवत्येत्त्वमतः, तदर्शयाम्यहम् । क्लीवे स्वरान्म सेः ॥२५॥ वच्छेहिन्ता च वच्चेदि वच्छसु प्रयमीरितम् । [७] क्लीचे स्वरान्तादू नाम्नः सेः, स्थाने मो व्यजनं भवेत् । दुतो दीर्घः ॥ १६ ॥ ददि महुं व पेम्म, केऽपीच्छन्यनुनासिकम् ॥ [२] कारोकारयोदी? भिस्-भ्यस्-सुपसु परेषु च। गिरीहिं च गिरी हिन्तो, गिरीसु च तरूसु च । जस्-शस् ३-६-णयः समाग्दीर्घाः ।। २६ ।। तहि च तरूहिन्तो बुद्धीहिं, नापि कुत्रचित् । नाम्नः परयोर्जस्-शसोः क्लीये ई-ई-णयस त्रयः । 'दिअभूमिसु दाणजझोल्लिाई' तु यादृशम्। [-] एषु सत्सु भवत् पूर्वस्वराणां दीर्घता, यथा ॥ चतुरो वा ॥ १७ ॥ वयणा पङ्कयाई दही पङ्कयाणि च । उकारान्तस्य चतुरो निस्-ज्यस्-सुप्सु परेषु वा । स्त्रियामदोतो वा ।। १७॥ दोघी भवति, चओ चका, चउहि च वा। नाम्नः परयोजश्शसार नदोतौ वा स्त्रियां मतौ । चर्हि, चउसु स्याद् वा चऊसु, शति बुभ्यताम् । तयोस्तु परयाः पूर्वस्वरस्येष्टा च दीर्घता ॥ लुप्ते शसि ॥ १८ ॥ यथा वुझी बुडीओ, सहीश्री च सहीउ च । इदुतोः शसि झुप्ते तु दी| भवति, तद्यथा । पक्के बुझी सही चैवमन्ये ऽप्यूह्या विचारणात् । गिरी बुझी तरू घेणु पेच, चैवं निदर्शनम् । ईतः सेश्वाऽऽवा ।। २८ ॥ ' बने' इति किम् ? 'गिरिणा, तरुणो पेच्छ' यद्नवेत् । सेजग-शसोश्च वाऽऽकारः, स्त्रियामीतः परस्य तु । दुनः किम? यथा-वच्छे पेच्छ' नास्त्यत्र दीर्घता । यथा एसा हसन्तीपा, गोरीश्रा सन्ति पेच्छ चा। जम-शस-[३.१२] इत्यादिना योगः शसि दीर्घस्य यः कृतः । पक्के हसन्ती गोरीया, एवमन्यत्र बुध्यताम् । साऽस्ति लक्ष्यानुरोधाों न सर्वत्र प्रवर्तते। टा-डम्-ढरदादिदेव वा तु ङसेः ॥ २७॥ णवि [३२२] प्रतिप्रसवार्थ[३।१२५] शङ्काया विनिवृसये । नाम्नः परेषां स्त्रीलिङ्ग, टा-स्- ङीनां क्रमात् वुधैः । 'बुप्त' इति हि योगाऽस्ति, स शेयः सूक्ष्मदर्शिनिः । अद् पाद इदू पतश्चत्वारः, समान्दाघीः प्रकीर्तिताः। अक्लीवे सो ॥ १६ ॥ कवलस्य ङसः स्थाने, सप्राग्दीघी अमी तु वा । इदुनोः सौ भवेद् दीर्घः, स चाक्लीव विधीयते । यथा मुद्धाअ मुना मुकाए च कयं निधे । गिरी बुद्धी तरू धेणू, लीये तु स्याद् दहि महुँ । कप्रत्यये मुद्धिनाथ, मुस्प्रिाइच कथ्यते । विकल्प्य केऽपिदीयत्वं तदभावे वदन्ति च । एवं सही धेरअ बहुआऽऽदि प्रयुज्यताम् । सर्मादेश, यथा सिध्येत्-अग्गिं वाउं निहिं विहुँ । मुकाहिन्तो च मुद्धाउ मुद्धाओ चति पाक्षिकम् । पुंसि जसो मन मयो वा ||३०|| शप ऽदन्ता-[३।१२४] तिदेशाद्धि,दा दीर्घत्वं जसादिना [३।१२] इपुतः परस्य जमाउन अश्रो पुमि वा मितौ। नात प्रात् ॥ ३०॥ खियामातः परपां तु, उसिटाऊ-मां न चाऽऽत् । अग्गा अग्गन स्यानाम्, 'श्रग्गिणो' इति पाक्तिकम् । 'वाया चायन' प्राः 'वानगो'- ऽप्यग्निवन्मतम् । भवद् 'मालामालाइ मालाए' चति वै त्रयम् । शेष त्वदन्तवद्भाबाद अग्गी वाऊच सिध्यतः । प्रत्यये ङीनवा ।।१।। वोतो मवो ॥३१॥ अणादि [ हेम०२:४] सूत्रता यो ङीरुतो, वा स स्त्रियामिह । उदन्तात् परस्य जसः, पुंसिया 'ऽयो' डिदिश्यते । आत् [हम०।४] इत्याए च नवत् पक्के, साहणी साहणा यथा। सारवा, साही पक साहु माहन साहुणा। अजातेः पुंसः ।। ३२॥ [४] त्तो [५] दो [६] 5 [७] भिम्-वाहि, परहि, जातिवानिपुल्लिङ्गात् स्त्रिया डी विधीयते । वहिाध्यम-वन्धहि, वच्छेडिन्तो, वच्छेसुन्तो । सुप्-वच्छे- [२] जमशसागिति द्वित्याभदुत इत्यनन यथामख्याभासु । [3] हिजभूमिपु दानजातिानि । । वार्थम् । [२] दाई , महुँ । स्वरादिनि इदुनो निवृत्यर्थम् । Jain Education Interational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) [सिघहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०७ पा० ३] नीली नीला, हसमाणी हसमाणा, श्मीए तु । ऋतामुदस्यमौसु वा ।। ४४ ।। स्याद् इमाए, इमीणं तु, इमाण, अनिधीयते ।। सि-अम्-ौ-वर्जिते स्यादौ ऋदन्तानाम् उद् अस्तु वा। अजातरिति किम् ? यद्वत् करिणी एसया प्रया॥ अप्राप्ते तु विभाषेय, तेन संस्कृतवत् सदा ॥ जसि 'भसू भत्तुणो च नत्तनो भत्तउ'स्मृतम् । भत्तारा पाक्षिकं रूपं, शसि भत्तू च ननुणो। गौरी 'कुमारी' इत्यादौ, बुधैर्डीः प्रविधीयते ॥ भत्तारे चेति, टायां तु भत्तारेण च भसुणा। किं यत्तदोऽस्यमामि || ३३ ।। भिसि भत्तूहि जत्तारेहिं रूपं, असि भत्सुणो । किं-यत्-तदन्यः स्त्रियां ङीर्वा, न सौ आमि तथाऽमि च ॥ जत्तूहितो च जनहि भत्तो भतून स्मृतम्, । कोश्रो काओ कीसु कासु, कीर काए यथा किमः॥ भत्ताराहि च जत्ताराहिन्तो पाक्षिकरूपतः । तथैव जीओ जाओ च, तीश्रोताओ ऽस्ति यत्तदोः॥ भत्ताराश्रो च भत्तारा भत्ताराउ प्रयुज्यते । किमऽस्यमामि? का जा सा कंजं तं, काण जाण च ॥ जत्तस्स भत्तणो ङसि भत्तारस्सेति पाक्षिकम् । गया-हरियोः ।। ३४ ॥ सुपि भसूसु पके तु, भत्तारेसु निगद्यते । छयाहरिद्रयोरापः, प्रसङ्गे कीर्विकल्प्यते । व्याप्त्यर्थत्वाद् बहुत्वस्य नाम्न्यपि काप्युदस्तु वा । छाही गया हलद्दी तु हलदा तेन भएयते ॥ जस्-शस्-कुल-उसो जामानणो च पिउणो पुनः । स्वस्त्रादा।। ३५॥ टायां तु पित्रणा रूपं, भिसि रूपं पिऊहिँ च। पिउसु सुपि पके तु पिपरा रूपमिष्यते । डाप्रत्ययः स्त्रियां स्वस्रादिभ्यः स्यात् तद्यथा ससा ॥ दुहिना दुहियाहिं च, नणन्दा गनुआ तथा ॥ अस्य मौस्विति किं प्रोक्तं? (जस्)पिआरा(अम् पिअरं(सि)गिआ। हस्वोऽमि ॥ ३६ ।। आरः स्यादौ ॥ ४५ ॥ स्त्रियां नाम्नोऽमि हस्वः स्यात्, 'पेच्च मालं नई बहुं'। ऋतः स्थाने नवेद् आराऽऽदेशः स्यादौ परे, यथा- । भत्तारो, चैव भत्तारा, भत्तारं, परिपठ्यते । नामन्त्र्यात् सौमः ॥३७॥ भत्तारे चमत्तारोह, लत्तारेण ङलेस्तया। श्रामन्यार्धात परे सौ तु, नैव 'क्लीये स्वरान्मसे' [३३३५] । लुप्तस्याद्यापेक्तया तु 'भत्तार-विहिअं' मतम् । इति सूत्रेण सेर्मो, हे तण : हे दहि ! हे महु !। मो दीर्थो वा ॥ ३० ॥ आ अरा मातुः॥ ४६॥ आमन्ध्यार्थात् परे सौ तु 'अतः सेमों [३२] अयं विधिः ।। मातृसम्बन्धिन अतः, स्यादौ तु श्रा अरा, मती । 'अक्लीबे सौ' [३।१६] चेति दीर्घः, द्वयं चैतद् विकल्प्यते । माधान मारा मात्रा, माअाश्रो माअराउ च । यथा-हे देव! हे देवो! हे हरी! हे हरि! द्वयम् । माअराओ च मा माअरं इत्यादि साध्यताम् । हे गुरु ! हे गुरु ! च, 'हे पहू हे पहु' इत्यपि । जनन्यथस्य प्रा-5ऽदेशो देवतार्थस्य स्यादरा। एषु प्राप्ते विकल्पोऽस्ति, अप्राप्ते विह दृश्यताम् । यथा-मात्राएँ कुच्छीए, नमो मे मा अराण च । हे गोमा ! हे गोअम!, हे हे कासव ! कासवा! 'मातुरिदूचा' [१।१३५]श्तीत्वेन, रूपं 'माईण' सिध्यति । ऋताम्-[३।४४] उत्त्वे तु 'माऊए अहं वन्दे समन्नि अं'। ऋतोऽद वा ।। ३ए॥ स्यादौ किं नु ? माश्देवो, तथा मागणो इति। ऋकारान्तस्य वाऽत्त्वं तु, भवेदामन्त्रणे हि सौ। नाम्यरः ॥ ४॥ हे पितः ! हे पित्र ततो, पके हे पिअरं मतम् । ऋदन्तस्याऽर इत्यन्तादेशो स्यादा हि नामनि । [२] नाम्यरं वा ।। ४०॥ पिपरा पिअरं पिअरे, पिअरेण पिअरेहि मिष्यते रूपम् । आमन्त्रणे सौ ऋतः, संझायां वा ' अरं' भवेत् । 'जामायरा, भायरा,' रूपं पितृतुल्यमनयोः स्यात् । स्याद् हे पितः! हे पिअरं!, पके 'हे पिथ' इत्यपि । आ सौ न वा ।। ४८ ॥ नाम्नाति तु किम् ? हे कर्तः!, हे कत्तार ! इति स्मृतम् । दन्तस्येह वाऽऽकारः, सौ परे तु विधीयते । वाऽऽप ए ॥ ४१ ॥ पिआ जायाच जामाया, कत्ता, पके भवेद 'अरः'। आमन्त्रणे सौ परे स्याद्, आप एत्वं विभाषया । पिरो नायरो कत्तारो च जामायरो तथा। हे माले ! महिले!, पके-हे माला महिला! मता। राः ॥४ ॥ आपः किं नु ? हे पिउच्चा!, हे माउच्छा!, न चेह 'ए'। 'अम्मा भणामि भणिए' ओत्वं बाहुलकादिह । राको न-लोपेऽन्त्यस्याऽऽत्वं, वा भवेत् सौ परे यथा । .राया तथा चहेराआ!'रायाणों'चेति पाक्तिकम् । ईदूतोईस्वः ॥ ४॥ शौरसेन्यां तु हे राया हे राथमिति नाप्यते। स्यादीदृदन्तयाहस्वः, संबुझौ सौ परे यथा। एवं हे अप्प ! हे अप्पं ! इत्यादीनि विदुर्बुधाः । हे गामणि ! हे समणि., पवमन्यनिदर्शनम् । जस्-शस्-डमि-डमांणो || ५०॥ किपः॥४३॥ राजनशब्दात परेषां वा, जस्-शस्-ङसि-डसां हि 'रणो'। ईदुदन्तस्य ह्रस्वः स्यात् , क्विबन्तस्येति दृश्यताम् । रायाणो जस्-शसोः, राया जसि, राप च वा शसि ॥ गामणिणा खनपुणा, गामणिणो खलपुणो । [१] संझायाम् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [सिक हेम• ] मोरो राणो च पयताम् । रायाहिन्तो च रायाहि, राया रायाज इत्यपि ॥ राया (ङसि) राहणो रखो, पक्षे रायस्स पठ्यते । ये हा ।। ५१ ।। राजशब्दात् विकल्पेन, टा-स्थाने 'णा' विधीयते । रा च राणा, पके, रायेणेत्यपि सिद्धयति ॥ इर्जस्य णो णा की ।। ५२ ।। राजन् शब्दस्य जस्येत्वं वा णो णा-ङिषु कथ्यते । राश्णो पेच्च चिट्ठन्ति श्रागश्रो वा धणं यथा ॥ राणा चैव, रायम्मि, पक्के रूपं निशम्यताम् । रणो रायम्मि रायाणो, रापण रायणा तथा ॥ इणममामा ।। ५३ ।। राजन - शब्दस्य जस्येणम, अमास्त्र्यां सह वेष्यते । राहणं वा धणं पेच्छ, रायं राईण पाक्षिकम् ॥ ईसा || ५४ ॥ राजन् शब्दस्य जस्येत्वं भिम् भ्यसाम् सुप्सु वेष्यते । राहिलो राईटि रातो भवेद् प्रयसि ॥ जिसि राईहि, राईणं श्रमि राईसु सुप्यदः । पक्षे ' रायादि ' इत्यादीनि रूपाणि चकते ॥ आस्पाङसिङस्तु सणाप्वण् ॥ ५५ ॥ राजन्-शब्दस्य योऽस्त्याजोऽवयवस्तस्य भवेद‍ । णा-गो- प्रदेशरूपेषु, टा - ङसि - ङस्सु वा मतः ॥ टायां रा राणा, ङस् डस्यो रणो च राइणो । सणाष्विति किम् ? रायाओ रायस्स व रापण ॥ पुंस्यन आणो राजवच्च ॥ ५६ ॥ अनन्तस्थ भवेद् 'आस' इति पुंसि विकल्पनात् । पतु यथादगमिष्यते ॥ श्राणादेशे श्रतः सेडः [ ३ । २] एवमादि प्रवर्त्तते । पक्के तु राज्ञः 'जस् [ ३ । ५० ] ' टोणा, ' [ ३ । २४ ] 'इणम्' [ ३ । ५३ ] एतद् विधिश्रयम् ॥ अप्पाणो अप्पाणा, अप्पा अप्पाणे। अप्पाणाओ अप्पाणासुतो पञ्चम्याम् ॥ अप्पा अप्पा, टायां निसि यथाक्रमम् । अप्पाणस्साऽऽप्पाणाम, रूखि चाऽऽमि क्रमेण हि ॥ अप्पाणस्मि तथा अप्पा - खेसु ङौ सुपि चोच्यते । पाण-कथं, पक्के तु, राजवत् कार्श्वमीक्ष्यताम् । अप्पा अप्पो च, हे अप्पा ! हे अप्प ! इयमीदृशम् । अप्पाणी जसि, अप्पाजो शसि, टायां तु अप्पणा । श्रपेहिं भिसि श्रप्पाणणे अप्पानोऽप्पाच वै पुनः । पाहि पाहतो गप्पा अप्पासुन्तो स्याद् ज्यसि । अपणो णम्, अप्पाणं, अप्पे अप्पेसु कीर्त्यते । रायाणां चैव रायाणा' एवं सर्वे विभाव्यताम् । पक्षे तु राया इत्यादि, जुवाणो न जुआ तथा । बम्हाणो पाक्तिको बम्बा, श्रकारणोऽहाऽपि चेष्यते । उच्छा वा भवेद् उच्छा, गावा गावाणो वा भवेत् । तथैव पूसा साणो, तखा तक्खाणो इत्यपि । मुषाणो वा च मुषा स्यात्, ' साणो सा' इवा प्रकीर्तितः । सुका सम्म नेष्यते । [अ०८ पा. ३] आत्मनष्टो पिआ गाइआ ॥ ५७ ॥ आत्मशब्द हि टा-स्थाने वा 'णिश्रा' 'इभ' मतौ । अप्पाणिश्राऽप्पणश्रा, पत्तेऽ'पाणेण' कथ्यते । मतः सर्वादेर्जसः ॥ ५८ ॥ मवेददन्तात् सर्वास स्थाने निवेदि । सव्वे अन्न व जे ते के कयरे श्यरे तथा । सम्पत्या ॥ ५६ ॥ सर्वादीनामतो के समस्यास्तु यथाक्रमम सव्वत्थ सम्बसि सव्वम्मि, अतः किम् ? श्रमुम्मि तु । न वाऽनिमेतदो हिं ॥ ६० ॥ इदमेव विना सर्वादेरदन्तात् परस्य के हिमादेशो विकल्पेन, भवेदित्युपदिश्यते । सहि अन्न विद्यस्वादिखियामपि । काहि जाहिं च ताहि च कियत्तद्भघो न ङ । [३/३३] रिह | तद्वयं काव्ये, पके निशम्यताम् । सव्वत्थ सव्वस्ति सव्वम्मि चैवं बुध्यतां परम् । स्त्रियां तु पक्षे कार च, कीप चैवं विचार्यताम् । इदमेतदरिमस एअरिंस रूपमिष्यते। आमो मेसि ।। ६१ ।। अदन्तात् सर्वनाम्नः स्याद्, श्रमो 'डेसिं' विभाषया । सम्पसियरेसिसिसिि पक्षेवराण सव्वाण जाण ताण इमाण च । स्त्रियां बाहुलकात सर्वासां सम्प्रयुज्यते । किंतद्द्भ्यां मासः || ६२ ॥ किंतदृभ्यां तु परस्यामः, स्थाने डासो विकल्पते। तास कासवे के किस प्रयुते । यो उसः ।। ६३ ।। किंवसभ्य सस्थाने, डासादेो विकल्प्यते । ङसः स्स (३।१०) स्यापवादोऽयं, पक्के सोऽपि प्रवर्तते । कास करस जास जस्स, तास तरल प्रयुज्यते । आदन्तायां च किं तद्भया-मपि डासां विभाषया । कस्याः तस्याः कास तास, कार ताए च पाकिकम् । ईज्यः स्सा से ।। ६४ ॥ दन्तेयः किमादिभ्यों इसस्सा 'से' विकल्पिती । टाउ- [३।२२] इत्यादिस्यापवादो ऽयं निरूपिता । निते। ' किस्सा की से कीम कीश्रा, कीए की ' भवन्ति षट् । जिस्सा जीसे जी जीश्रा, जीए जीइ यो मताः । 'तिम्सा ती ती तीचा, ती ती ' इमे तदः । 4 हे माला इथा काले ।। ६५ ।। किंयत्तदृज्यस्तु के स्थाने, 'माहे डाला श्श्रा ' त्रयः । हिंस्सिम्मिन्थान् श्रपाकृत्य, काले वाच्ये भवन्ति वा । काहे काला कहा, जाहे जाला जश्श्रा । ताहे ताला तश्रा, पक्के ते चापि मताः * । " कहिं कर्टिस कम्मि कत्थ रूपाणीमानि तत्र च । सेम्हां ।। ६६ ।। * ताला जायन्ति गुणा, जाला ते सहिश्रएहि घेप्पन्ति । . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) [सिघहेम.] अभिधानराजेन्मपरिशिष्टम् । [अ०८पा०३] कियत्तद्भ्यो ङसेः स्थाने, म्हाऽऽदेशो वा विधीयते । वेदं-तदेतदो डसामन्यां से-सिमौ ॥ ०१ ।। कम्हा जम्हा च तम्हा च, काश्रो जाओ तु पाक्तिकम् । इदम् तद् एतद् इत्येषां, वाऽऽमस्यां सह से-सिमौ । तदो डोः ।। ६७॥ अस्प तस्य च चैतस्य शीलं-से सील-मुच्यते । तदः परस्य तु ङसेर्मो' वा, ' तम्हा' च 'तो' यथा । एषां तेषां तथैतेषां शावं-सिं सील-मिष्यते । किमो मिणो-मीसौ ।। ६८ ॥ पत्ते 'इमस्स चमेसि इमाण, तस्स ताण च । तेर्सि, एस्स पपसिं पाण' इति बुध्यताम् । किमः परस्य तु ङसे-डिणो डीसौ च वा स्मृतौ । कश्चिदामाऽपि से प्रादेशं वष्टीवंतदोरिह ॥ किणो कीस, तथा कम्हा, त्रीणि सिद्धिमुपागमन् । से-सिमौ त्रिषु लिङ्गेषु, तुल्यं रूपमवाप्नुतः । इदमेतत्-कि-यत्तद्भ्यो मिणा ।।६।। वैतदो उसेस तो ताहे ॥ २॥ इदं-यत्-तत्-किमेतद्न्योऽदन्तेज्यस टो-मिणाऽस्तु वा । पतदः परस्य ङसेस् 'तो, ताहे ' स्तो विकल्पनात् । इमेण इमिणा, जेण जिणा, पदेण एदिणा । एत्तो पत्ताहे, पके तु, पञ्च रूपाणि, तद्यथाकिणा केण, तिणा तेण, एवं टाया डिणाविधिः । पाहिन्तो च पाहि, एआ एग्राम पआप्रो॥ नदो णः स्यादौ कचित् ॥ ७० ॥ त्थे च तस्य लुक् ॥७३॥ तदः स्थाने ण आदेशः, स्यादौ वक्ष्यानुसारतः । एतदः त्धे परे 'तो त्ताहे-' उनयोः परयोरपि । 'णं तिश्रमा' तां त्रिजटा, पेच्छणं' पश्य तं बथा। तकारस्य लुग, 'पत्ताहे, पत्थ एत्तो' इति त्रयम् ॥ तेन णण, तया णाए, तैः ताभिर् णेहि हि च । एरदीतो म्मौ वा ॥४॥ किमः कस्त्र-तसोश्च ।। ७१ ॥ पतद आदिवर्णस्य, ङ्यादेशे म्मौ अदीच वा। किमः को भवति स्यादौ, तसोः परयोस्तथा । यथा-प्रयम्मि ईयम्मि, पक्षे एअम्मि भएयते ॥ को के के के केण, [1] कत्थ, [तस] को कत्तो कदो यथा । वैसेण मिणमो सिना ॥ ५ ॥ इदम इमः ।। ७३ ।। सिना सहैतदो वा स्युः, पसेणम् इणमो त्रयः । पुस्त्रियोरिदमः स्यादौ, स्यादिमो, हि 'इमो' 'इमा'। श्णं पसेणमो, एअं एसा एसो च पाक्तिकम् ॥ पुं-खियोनवाऽयमिमिश्रा सौ ।। ७३ || तदश्च तः सोऽक्रीचे ॥ ८६ ॥ इदमः सौ परे पुंसि 'अयं' वा 'इमिश्रा' स्त्रियाम् । तदेतदोस्तस्य सः स्या-दक्लीवे सौ परे यथाइमो इमा भवेत् पके, पवं रूपचतुष्टयम् । सो पुरिसो, सा महिला, एसो एसा पिओ पिया ॥ स्मि-स्सयोरत ।। ७४॥ वाऽदसो दस्य होनोदाम् ॥ ८७॥ इनमोऽस्त्वं विकलपन, स्सि-स्सयोः परयोरिह। अदसो दस्य सैो हो वा, मो [३।३] आत [४|४ ] अस्सि अस्स. मादेश इमस्सि च मस्स च। आप [२४] मश्च [३।२५] नो ततः । बहलग्रहणादन्यत्राध्ययं संप्रवर्तते । श्रद पुरिसो, अह महिला,अह मोहो अह वणं च हसः सा ।। एहि एभिः, श्राहि श्राभिर, एसु पषु प्रयुज्यते । पक्षे तु मुरादेशो, [३ । १८] अमू अमू त्रिषु अमु रूपम् । डेर्मेन हः ।। ७५ ।। मुः स्यादौ ।। ७८ || श्दमः कृतेमादेशाद्, वा मेन सह होऽस्तु । अदसो दस्य तु स्यादौ, मुरादेशोऽभिधीयते । इह, पक-इमस्सि च, श्मम्मि प्रतिपठ्यत । अमू पुरिसो, अमुणो पुरिसा, च अमुं वणं ॥ नत्यः ॥७३।। ततो अमू वणाई, तथाऽमृणि वरणाणि च । न 'त्थः' [३.५६] स्यादिदमो डेस्नु, हेमसि इमम्मि च । अमू माला, अमूओऽमूल मालाओ, ऽमुणाऽतथा । गोऽम्-शस्-टा-निसि ॥ 99॥ ङसी अमूओऽमूहिन्तोऽमून, ज्यसि निशम्यताम् । दमो णोऽस्तु वाऽम-झाम्-टा-भिस्म, णं णण रोहिणे । अमूहिन्तो अमूसुन्तो, अमुस्स अमुणो ङसि ॥ पक्षे इमं श्मेणेमेहि इमे सिधिमाययः । श्रामि ङी सुपि चाऽमृण स्याद् अमुम्मि अमूसु च । अमेणम् ॥ ७० ॥ म्भावयेऔ वा ।। 60 || अमा सहेदमः स्थाने, 'इणम' वा स्याद, इणं, इमं । दकारान्तम्यादमो वा, यादेशे म्मौ इयाय च । वीवे स्यमेदमिए मो च ।। ७ ।। ततोऽयम्मि झ्याम्म हो, म्यात् पके मम्मि' इत्यपि ।। 'इदम्' 'इणम' च ' इमो', क्लीवे नित्यममी त्रयः। युष्मदः तं तु तुवं तुह तुमं सिना ॥ ५० ॥ स्यम्त्यां सहेदमः स्थाने, भवन्तीति विभाव्यताम्। युष्मदस्तु सिना मार्क, तं तु तुह नुवं तुम । इदं णं वा इणमो, धणं बिछड पेच्छ बा । पञ्च रूपाणि सौ विद्या-दग्रेऽप्येवे विचिन्तयेत् ॥ किमः किं ।। 60 || ने तुम्भे तुझ तुम्ह तुम्हे उरहे जसा ।। १ ।। क्लीवे प्रवर्तमानस्य, स्यम्भ्यां सह किमोऽस्तु किं । तुरहे नरहे तुझ तुम्ह. भे तुम्भे च जसा सह । किं कुल तुह, 'किं किं ते पडिहाइ' यथा भवेत् । म्भो म्हज्को वेति [ ३१.४वचनात् तुम्हे तुके तताऽटकम । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) [सिघहेम.] अभिधानराजेन्द्रपगिशष्टम् । [अ०८ पा०३] तंतुं तुमं तुवं तुह तुमे नुए अमा ॥ ए२ ॥ तु-तुव-तुम-तुह-तुन्ना ङौ ।। १०२॥ तुए तुमे तुमं तं तुं, तुवं तुह अमा सह । डौ युष्मदस् ' तु तुव तुम, तुह तुम्भाः' पञ्च तु स्युरादेशाः । वो तुक तुन्ने तुय्हे उरहे ने शसा ॥ ३ ॥ ङस्तु यथाप्राप्तं स्यादादेशो दर्शितः पूर्वम्॥ घो तुज्ज तुम्भे तुरहे ने, उरहे षटू शसा सह । तुम्मि तुवम्मि तुमम्मिच,तुहम्मि तुब्भम्मिचात्र वैकल्प्यात्'३।१०४' 'भो म्हज्छौ बेति' [३३१०४]वचनातू, तुम्हे तुज्के ततोऽष्टकम्। तुम्हाम्म च तुज्झम्मि च, रूपाण्यन्यानि वोध्यानि । भेदि दे ते तइ नए तमं तुम तुमए तुमे तुमाइ टा |ए| सुपि ॥ १०३ ॥ ने दि दे ते तश्तए, तुमार तुमए तुमं । सुपि युष्मदस् तु-तुव-तुम-तुह-तुम्भाः पञ्च तु स्युरादेशाः। तुमे तुमद साधै तु, टया रुद्रमितं [१२] पदम । तुसुच तुवेसु तुमेसु च, तुहेसु तुम्भेसु रूपाणि । भे तुम्नेहिं उज्केहिं जम्हहिं तुम्हेहिं नरहेहि निसाए। म्भस्य [३११०४] विकल्पादू रूपद्वयं च तुम्हेसु भवति तुझसु। तुरहेहिं उन्हेहि, तुभाई उज्केहिं उम्हेहिं । सुप्यत्वस्य विकल्पं, केचित् कथयन्ति, तदपि यथा । ने-'भो म्ह-ज्झौ' [३।१०४] सूत्रातू,तुम्हे तुझे ततोऽधौ स्युः। तुम्मसु तुम्हसु तुज्मसु, तुवसु तुमसु तुहसु षट्संख्यम् । ब्नस्याऽऽत्वमपि परःतु-उनासु च तुम्हासुतुज्कासु ॥ तश्-तुव-तुम-तुह-तुम्ना डसौ ।। ६ ।। भो मल-जौ वा ।। १०४॥ तर-तुव-तुम-तुह-तुम्भा ङसौ युष्मदो भवन्त्यमी नित्यम् । युष्मदादेशरूपेषु, यो द्विरुक्तोब्भ उच्यते । तो दो दुहि हिन्तो लुक सेयथाप्राप्तमेव स्यात् । स्यात् तश्त्तो तुबत्तो च, तुमत्तो च तुहत्तों च । तस्याऽऽदेशौ तु वा 'म्ह-ौ,' स्याताम, सर्वमुदाहृतम् । तुभत्तो, ऽत्र तु तुम्हत्तो तुज्जतो, पूर्ववत् [३।१०४] पुनः । एवं दो-दु-हि-हिन्तो-लुक्ष्वप्युदाहियतां पुनः । अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना॥१०॥ त्वत्तः इत्यस्य तत्तोऽदो रूपमस्ति वलोपनात् । अम्मि अम्हि म्मि अह यं, अहं हं च सिना सह । तुम्ह तुब्न तहिन्तो उमिना ।। ७ ॥ अस्मदः षट् तु रूपाणि, सौ नवन्तीति बुध्यताम् । तुयह तुब्भ तहिन्तो च, त्रयः स्युङसिना सह । अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं ने जसा ।। १०६ ।। तुम्ह तुज्झ च वैकल्प्याद्, रूपपञ्चकमिष्यते । अम्हे अम्हो श्रम्ह माने वयं, षट् स्युर्जसा सह । तुब्ज-तुम्होरहोम्हा ज्यास || ए॥ णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा।१०७) तुम्भ, तुरह, उरह, नम्ह इत्यमी युष्मदो भ्यसि । अम्मि अम्ह मिमं ण ण मि मं मम्ह ममं अहं। भ्यसः स्थाने यथाप्राप्तमादेशाः[३] पूर्वदर्शिताः। अमा सह दशाऽऽदशा: सभवन्त्यस्मदात्र तु। तुभत्तो तुरहत्तो नयहत्तो उम्हत्ते।। अम्हे अम्हो अम्हणे शसा ।। १० ।। तुम्हत्तो तुज्झत्तो वैकलयात् पापो।। तो आदेशे यथा चेयं पारूपी दर्शिता मया । अम्हे अम्हो अम्ह णे च, चत्वारि स्युः शसा सह । एवं दो-दु-हि-हिन्तो-सुन्तोषूदाहियतां त्वया । मि मे ममं ममए ममाड मइ मए मयाई णटा ॥ १० ॥ तर-तु-ते-तुम्हं-तुह-तुई-तुव-तुम-तुमे-तुमो-तुमाइ-दि- मि में मम णे मया, ममाइ ममएमए । दे-इ-ए-तुनोग्नोरहा ङसा || एU || मइ, चेति नवादेशाः, सार्ध टा-प्रत्ययेन हि । तर ते तु तह तुम्ह, तुमा तुम तुमे तुह । अम्हहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे जिसा ।। ११० ।। तुमा तुव दे ए ३ तुभाम्भोरहादि, वा ङसा । अम्हाहि अम्ह अम्हे णे, अम्हहि स्युर्भिसा सह । विकल्पनात् [३।१०४] तुम्ह तुज्क उम्ह उभ चतुष्टयम् । मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ ॥ १११ ॥ एवं द्वाविंशती रूपाणीह जल्पन्ति कोविदाः। उसी पर 'मह-मम-मह-मज्झा' स्युरस्मदः । तु वो भे तुम्न तुब्नं तुलाण तुवाण तुमारण तुहागा ङयथाप्राप्तमेवाऽऽदेशाः स्युः पूर्वदर्शिताः। म्हाए आमा ।। १०० ।। यथा मत्तो मज्झत्ता, ममत्तो च महत्तों च । तुम्भ, तुवाण, उम्हाण, तुमाण, तु, तुहाण भे । एवं दो-हि-हिन्तो-लुदवायुदाहियतां पुनः । नुन, तुम्माण, चो, अामा सह स्युयुष्मदो दश । ममाम्ही ज्यसि ॥ ११ ॥ क्त्वा स्यादे-[१।२७] रित्यनुस्वार, सानुस्वार णपञ्चकम् । भ्यसि स्यातां ममाम्ही द्वौ, यथाप्राप्त भ्यसोऽपि च । यथा-नुवाग तुम्भाणं तुमाणं च तुहागण च । अम्हाहिन्तो ममाहिन्तो, अम्हासुन्तो ममत्तो छ । उम्हाणं चेति वर्धन्ते पञ्च रूपाणि णस्य च । ममेसुन्तो ममासुन्तो अम्हेसुन्ता च अम्हत्तो। 'भो म्ह-उको वेति' [३३१०४] वचनात्, पुनरौ भवन्ति च । तुझं तुभाग तुम्हाण, तुझाणं तुम्ह तुज्झ च । मे या यम मह महं मजक मऊ अम्ह अम्हं डसा ।११३। तम्हाणं तम्हमित्यवं, त्रयाविशतिगमि तु । अम्हाम्हं मे मइ मम, मज्म मझ महं मह । तुमे तुमए तुमाइ तऽ नए बिन्ना ।। १०१।। डसा सह नवादेशाः, संभवन्यस्मदोऽत्र तु । तुम, तुमार, तुमए, तप, तइ, हिना सह । गे पो मज्ज अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण मपाण Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिघहेम.] अनिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०७ पा०३] महाण मज्माण आमा ।। ११४ ।। 'भिसो हि हिँ हि' [३।७] इत्येतत् कार्य चाप्यतिदिश्यते ॥ अम्हे महाण मज्माण अम्होऽमहाण ममाण णे।। यथा गिरीहि मासाहि गुरूहि च सहीहिँ च। णो अम्हं अम्ह मज् स्युर् आमा सार्धं च पञ्च षद् [११]। विद्यादेवं चातिदेशमनुस्वारेऽनुनासिके । 'क्त्वा स्यादेरिति' [२७] वा णस्य सानुस्वारं चतुष्टयम। 'अमेस् त्तो-दो-दु-३८] सूत्रस्य विधिरेषोऽतिदिश्यते। यथा महाणं मकाणं अम्हाणं च ममाण च । मालाहिन्तो चमाबानो बुझीओ, हिमुकौनहि[३।१२७।१२६] ॥ मि मा ममाइ मए मे डिना ॥ ११५ ॥ 'भ्यसम् त्तो दो दु'[३१] सूत्रस्याऽतिदेशा दर्श्यतेऽधुना। मए ममाइ म मे, मि, स्युः पञ्च ङिना सह । मालाहिन्तो तथा मालासुन्तो, हिस्तु निषेत्स्यते [३६१२७]॥ अम्ह-मम--मह-मज्का डौ ।। ११६ ।। 'उसः स्सः '[३।१०] इति सुत्रस्यातिदेशो दर्यतऽधुना। गिरिम्सेति गुरुस्सेति दहिस्सेति महुस्स च॥ अम्ह-मज्जो मम-मही, डी स्युरेतेऽस्मदः परे । 'टा-ङस् -[३।२५] इति सूत्रं तु स्त्रियां सम्यगुदाहृतम् । ः स्थाने तु यथाप्राप्तमादेशः पूर्वदर्शितः। 'मे म्मि : ' [३ । ११] इति सूत्रस्यातिदेशो दयते ऽधुना । यथा ममम्मि मऊम्मि, तथाऽम्हम्मि महम्मि च । यथा 'गिरम्मि' इत्यादि, डेविधिस्तु निषत्स्यते [३ । १२८] सुपि ।। ११७॥ 'जस-शस्-ङसि त्तो'[३।१२] सूत्रस्यातिदेशो दश्यतेऽधुना । चत्वारोऽम्हादयोऽत्रापि, जवन्ति सुपि तद्यथा । गिरी गुरु गिरीओ च, गुरुओ च गुरूण च । यथा ममेसु मझेसु, अम्हेसु च महेसु च । 'भ्यास वा' [३।१३] इति सूत्रस्यातिदेशो नोपदिश्यते । सुप्यत्वं केऽपि वेच्छन्ति, तन्मतेऽम्हसु मज्झसु । 'इकुतो दीर्घ'-[३ । १६] सूत्रेण नित्यं दीघस्य शासनात् । ममसु स्यात् महसु च, ततो रूपचतुष्टयी। टाण--शस्येत् [३।१४ ] च' भिस्-ज्यस् [ ३।१५] केचिद् अम्हस्यात्वमपि, वाञ्चन्त्यम्हासु तन्मते । इत्यतिदेशो निषेत्स्यते [३ । १२६] । स्ती तृतीयादौ ॥ ११ ॥ नदी? णा ।। १२५॥ स्थाने ती तृतीयादौ, प्रत्यये परतो भवेत् । इदन्तोदन्तयोर्जस-शस्-स्यादेशे परे णवि [३।१२] सीदन्तो तीसु तिपदं च, तीहिं चेति प्रकीर्तितम् । न दीर्घः पूर्ववर्णस्य, अम्गिणो वाणो यथा । द्वेदों वे ॥ ११ ॥ डसेय्क।। १२६ ॥ द्विशब्दस्य तृतीयादी 'दो''वे' स्तः, दोहि वेहि च । आकारान्तादिशब्देभ्यो, बुक् नेवादन्तवद् डसेः। दोएडं वेण्डं च दोहिन्तो, वेहिन्तो दोमु वेसु च ॥ मालाहिन्तो च अग्गीओ, वाउो-ऽस्ति निदर्शनम् ॥ दुवे दोणि वेपि च जस्-शसा ॥ १० ॥ ज्यसश्च हिः॥१७॥ जस्-शस्भ्यां सहितस्य द्वेः, स्थाने स्युः, दोमि, वमि, च । हिर्नाऽऽदन्तादिशब्देभ्योऽदन्तवत् स्याद् ज्यसो उसेः। पुचे, दो, वे, 'दुमि विम्मि' संयागे [६८४] हस्वदर्शनात् ॥ मावाहिन्तो च मालाओ, अग्गीहिन्तो निदर्शनम् ॥ स्तिमिः॥ ११ ॥ डेमेंः॥ १२ ॥ जस्-शसभ्यां सहितस्य त्रः, स्थाने तिमि प्रयुज्यते । 'मे' नाऽऽदन्तादिशब्देन्योऽदन्तवत् केनवेदिह । चतुरश्वत्तारो चउरो चत्तारि ॥१२॥ यथा-अग्गिम्मि वाउम्मि, दहिम्मि च महुम्मि च ।। चतुर् इत्यस्य जस्-शसभ्यां, सहाऽऽदेशास्त्रयो मताः। एत् ।। १२ ।। यथा चत्तारि चत्तारो, चउरो आसि पंच्छ वा ॥ टा-शस-भिस-भ्यस्-सुप्सु नैत्वम् , आदन्तादेरदन्तवत् । संख्याया आमो एह एहं ॥ १३ ॥ कयं हाहाण, मालाओ पंच्छ, मालाहि वा कयं । संख्याशब्दात् परस्याऽऽमो, 'एह एहं 'एतद् द्वयं भवेत् । मालाहिन्तो तथा मालासुन्तो मात्रामु अग्गियो । दोएह पञ्चरह सत्तएह, तिएह छण्ह चउण्ड च॥ धाउणों चदृ लक्ष्य, विविधं प्रतिवुध्यताम् । दोएहं तिाई चउपई पञ्चएहं छण्डं च सत्तए । द्विवचनस्य बहुवचनम् ॥ १३० ।। प्रनावादू बहुलस्येमा, विशत्यादेनं चाप्नुतः ॥ सर्वासां हि विभक्तीनां, स्यादि-त्यादिप्रवर्तिनाम् । शेषेऽदन्तवत् ।। १२४ ॥ स्थान द्विवचनस्यह, बहुत्वं संप्रयुज्यते॥ इहोपयुक्तादन्यो यः, स शेष इति कथ्यते । चतुर्थ्याः षष्टी ॥ १३१ ।। तत्र स्यादिविधिः सर्वाऽदन्तवत् सोऽतिदिश्यते ॥ स्थाने चतुर्थ्याः पष्ठी स्यात. 'नमो देवस्स ' ईदृशम् । येवादन्तादिशब्देषु, पूर्व कार्य न दर्शितम् । तेष्वदन्ताधिकारोक्तो, लुगादि [३४] विधिरिप्यते ॥ तादध्यदेवा ।। १३२॥ तादय उस चतुर्थंकवचनस्य विभापया। तत्र तावत् 'जस्-शसोर्बुक' [३४] विधिरपोऽतिदिश्यते। पष्टी, देवस्स देवाय, 'देवार्थ' तस्य बुध्यताम्॥ 'मात्रा गिरी गुरू रेहन्ति वा पेच्छ ' ययोच्यते ॥ 'अमोऽस्य' [३५] इति कार्य्यस्यातिदेशो दर्श्यतेऽधुना । वधाद माइश्च वा ।। १३३ ॥ गिरि गुरुं महिं पेच्छ, गामणि खापुं बहुं ॥ घधशब्दात् नु तादर्थ्य डेः पठी माइ चाऽस्तु बा। 'टा-मोर्णः ' [३ । ६] इति कार्यस्यातिदेशो दश्यतेऽधुना। वहाद वहस्स वहाय वधार्थ त्रयं मतम् । कयं हाहाण, मालाण गिरीण धणमीदशम ॥ कचिद दिनीयादेः ।। १३४॥ टायास्तु टोणा[२४]टाउन्स्के: [३२६] इत्ययं दर्शिने द्वितीयादिविभक्तीनां स्थाने षष्टी क्वचिद् भयंत्। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ० ८ पा० ३] सीमाधरस्स बन्दे,तिस्सा भरिमो मुहस्स,अम्हो म (द्विती०षष्ठी) 'श्त्थाऽन्यत्रापि बहुलम्-'यद्यत्त रोचते' इदम् । लको धणस्स, मुक्काचिरस्स (तृतीषष्ठी) चोरस्स वीहरसा। वाक्यं 'जं जं ते रोइत्था,'ईरशं संप्रयुज्यते । अराइँ जाण बदुअक्तराई पायन्तिमिल्लसहिप्राणा(पञ्चषष्ठी) स्यात् चः 'बह-हचोर्हस्य' [१६८] सूत्रस्यास्य विशेषकः। 'पिट्ठी केस-मारो' (सप्त० षष्ठी) विचिन्तनीयं बुधैरेवम् । तृतीयस्य मो-मु-माः ।। १४४॥ द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ॥ १३५॥ त्यादीनां तु विभक्तीना, यत् तृतीय षिकं भवेत्। द्वितीयायास्तृतयिायाः स्थाने स्यात् सप्तमी क्वचित् । 'मो-मु-मा' स्युस्तदन्त्यस्य, पदयोरुभयोरपि । गामे वसामि,नयरेन जामि (द्वि०स०)मश्वोरी' मलिआई। यथा हसामो हसामु हसाम, तुवराम च। लोप तिसु तेसु प्रसंकिआ अ पुहवी जहा भाइ। (तृती०सप्त०) तुवरामो तुवरामु, तथाऽन्यत्रापि बुध्यताम। पञ्चम्यास्तृतीया च ॥ १३६॥ अत एवैच से ।। १४५ ।। स्यातां तृतीया-सप्तम्यौ पञ्चम्याः कत्रचित् यथा । त्यादः स्थाने तु या 'एच, से' इत्येती परिकीर्तितौ । चोराद् बिभेति 'चोरेण वीहर' प्रतिपाद्यते । अदन्तादेव तौ स्यातां, नाऽन्यस्मादिति हि स्थितिः। हसए हससे-ऽतः किम् ?, गगसिन चेह तौ। 'अन्तउरे महाराओ अागो रमिउं' यथा । सप्तम्या द्वितीया । १३७ ।। अदन्ताद् एच् से' एवंत्यवधारणवारणः । क्वचिद् द्वितीया सप्तम्याः स्थान सद्भिः प्रयुज्यते । एवकारस्ततोऽदन्तात् सि-श्चावपि सिध्यतः। अतो 'हस हसास' तथा वेव वेवसि । जवेदाः तृतीयाऽपि, द्वितीया प्रथमास्थले । 'बिज्जुजोयं रत्ति भरक, ' तृतीया तु-तेण कालेणं । सिनाऽस्तेः सिः॥ १४६ ॥ तणं समएणं वा, चनासं जिणबरा पि' यथा । सिना मध्यत्रिकस्थेन, सहाऽस्तेः सिनवदिह । क्यङोर्यबुक् ॥ १३७ ।। सिनेति किम? 'अस्थि तुम' से प्रादेशे कृते सति । मि-मो-मैम्हि-म्हो-म्हा बा ॥ १४७॥ क्यङन्तस्य क्यपन्तस्य, यस्य वा लुक भवेदिह । गरुनाइच गरुआअझ, अगुरुर्गुरुर्भवति, गुरुरिवाचरति । अस्तेः स्थाने यथासंख्य, 'मि-मो-मैः' सह वा त्रयः । दमदमा दमदमाश्र-, लाहिवाइ लोहियाइच । 'म्दि-म्हो-म्ह' इत्यादेशास्तु भवन्ति, तन्निदश्यते । त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्यस्येचेचौ ॥ १३॥ 'एस म्हि' एषोऽस्मीत्यर्थः, गयम्हो च गयम्ह च । मुकाराग्रहणात् तस्याऽप्रयोग इति मन्यताम्। स्यादीनां तु विभक्तीनां, यदस्ति प्रथमं त्रिकम् । पक्के-अस्थि अहं, अस्थि अम्हे, अम्हा वि अत्थि च । इचेची स्तः, तदाद्यस्य पदयोरुभयोरपि । ननु सिकावस्थायां, 'म्हो'इतिसिहि पदमसूत्र[२।७४ बलात् । यथा-हस हसए, तथा वेव वेवए । प्रायस्तु साध्यमानाऽवस्था मान्या विभक्तिविधी। 'श्चचः' [४।३१८ ] इति सूत्रस्य चकारावुपकारको। नो चेत् 'सव, जे, के,' इत्याद्यर्थ बहुनि सूत्राणि । द्वितीयस्य सि से ॥ १४० ॥ न विधेयानि स्युरताऽङ्गीका- साध्यमानाऽत्र । त्यादीनां तु विभक्तीनां यद् द्वितीयं त्रिकं भवत् । अस्थिस्त्यादिना ॥ १४ ॥ सि, से, च स्तः, तदाद्यस्य पदयोरुभयोरपि । अस्तेः स्थाने नवेद् अस्थि-रादेशस्त्यादिभिः सह । यथा-हसास हससे, तथा वेवसि वेवस । अस्थि सा, अस्थि ते, अत्थि तुमं, अस्थि अहं तथा । तृतीयस्य मिः ।। १४१ ।। अस्थि तुम्हे, अत्यि अम्हे, रूपष्ट्रमुदाहृतम् । त्यादीनां तु विभक्तीनां यत् तृतीयं त्रिकं भवत् । गरदेदावावे ॥ १४६ ।। मिरादेशस्तदाद्यस्य पदयोरुनयोरपि । णेः 'अत् एत् प्राव आवे सन्त्वमी च यथाक्रमम् । यथा-हसामि बेवामि, भवेद् बाहुल कादिह । मिवमरिकारलोपो, न मरं न म्रिये तथा । दरिस कार३ करा-वह च करावइ, वा हसावे। हासह हसाव वा, नेत्वं क्वापीह बाहुलकात् । 'बहुजाणय रूसिर 'सकं' शक्नोमि गद्यते। . जाणावेद, न श्राव इत्यादेशः प्रवर्तत कापि । बहप्वाद्यस्य न्ति न्ते इरे ॥ १४ ॥ तेन भवेदिह रूप सिद्ध 'पाएइ 'भावेइ'। त्यादीनां तु विजनीनां, यदस्ति प्रथमं त्रिकम । गुदरविर्वा ॥ १५० ।। तदन्त्यस्य त्रयो 'न्तिन्ते रे' स्युः पदयोद्धयाः । गुर्यादर्णेर अविर्वा स्यात, शोषितम्-सोसि तथा। हसिन्जन्ति रमिज्जन्ति ववन्ति च हसन्ति च । सांसविनं, तोपितम्-तोसयि तोसिअं यथा ॥ नप्पज्जन्त विच्छु हर वोहन्ते च पटुप्पिरे । एकत्वऽपि क्वचिदिर स्याच सूसर इति । [१] मेरामा वा ॥ १५१ ।। मध्यमस्येत्या-हचो ॥ १४३ ।। भ्रमः परस्य णेराड आदेशो वा विधीयते। भमाड भमाझेड, पक्के रूपं निशम्यताम्। त्यादीनां तु विभनीनां, यदस्ति मध्यमं त्रिकम् । जमावइ भमावड, भाम त्रयमिष्यते । 'इत्था-हचो' तदन्त्यस्य, भवतां पदयोद्धयोः। बगावी क्त-नाव-कर्मम् ॥ १५ ॥ यथा-हमिन्था हसह, वित्या अपि वेवह। णेलुग श्रावि नवेतां फे, प्रत्यये भावकर्मणोः । [१] शुध्यतीत्यर्थः । कैराविंश्नं कारिअं हासिभं चैव हसावि। Jain Education Interational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिघहेम.1 आभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८पा०३] [भावकर्म०] कारी श्राइच करावी-अकारिजइ तथा कराविज। ई-ज्जापवादोऽयम, यथा 'दीस' वुश्चई'। हासीअश् च हसावी-श्रर हासिज्जइ हसाविजय । सी ही ही जूतार्थस्य ॥ १६॥ अदेव्युक्यादेरत आः ॥ १५३ ।। प्रत्ययो योऽद्यतन्यादिभूतेऽर्थे विहितो भवेत् । अद्-पद्-लोपेषु जातेषु, णेरादेरस्य 'आ' भवेत् । तस्य सूतार्थसंझस्य' सी ही ही'जवन्त्यम।। पति-कारे खामेश, अति-पामइ मारा व्यअनादीप [ ३ । १६३] करणात स्वरान्तादयमिष्यते । सुकि-कारिअं खामिग्रं, कारीअइ भवति वा च कारिजा। 'कासी काहीच काही' अकार्षीद् अकरोत् तथा । खामीअइ खामिजर, किमदेल्लुकि-इति? कराविज॥ चकारेत्यर्थकाः, आर्षे-'दविन्दो इणमब्बी '। कराविच करावी-अ, प्रादेः किम् ? यथा संगामेछ। इत्यत्र सिद्धावस्थातः, प्रयुक्ता ह्यस्तनी क्रिया । व्यवहितान्त्ययोन स्यात्-कारि, किम् ? अतश्च-दूसेइ ॥ व्यञ्जनादीअः ॥ १६३ ।। आवे अाव्यादेशेऽध्यादेरत श्रात्वमाह कोऽपि बुधः । व्यञ्जनान्ताद् नवेद् धातोभूनार्थस्य तु ईस' हि । कारावइ च, 'हासावित्रो जणो सामनीए च'। बभूवाभूदभवदित्यर्थे वाच्य हुवीअ'तु। मौ वा ।। १५४ ॥ एवं 'अच्छी' आसिट आसाश्चक्र तथाऽस्त वा। अत आत्वं वाऽदन्ताद् धातार्भवतीह मौ परे हि यथा। अगृह्णाद अग्रहीत् जग्राह वा 'गेगह।अ' कथ्यते । हसमि हसामि, च जाणमि, जाणामि निहामि, बिहमि यथा । तेनास्तेरास्यहेसी ॥ १६४ ।। . इच्च मो-मु-मे वा ।। १५५॥ नूतार्थः प्रत्ययो योऽत्र कथितः सह तेन हि । अत इत्त्वं चाऽऽत्वं वा उदन्ताद्धातोः परेषु मु-मे-मोषु । अस्तेर्धातोः पदे स्याताम् 'आस्यहेस। 'श्मी यथा । अणिमु नणामु, भणामो, भणि मो, च भणाम नणिम यथा। 'तुम अहं वा सो आसि'ये श्रासमिति 'श्रासि ये' पक्के तु स्यात् भणमो, नणमु भणम, 'वर्तमान' [३।१५८] सूत्रेण । | एवम् 'अहसि' इत्यस्य, सर्व वाक्य विभाव्यताम् ॥ एत्वे कृते, भणेमो नणेमु सिर्फ भणेम तथा । ___ जात् सप्तम्या इर्वा ॥ १६५ ।। ते ॥ १५६ ॥ सप्तम्यादेशभूतादू हि, ज्जात् परो वा इरिष्यते । अन इत्त्वं ते परे स्याद्, हसिधे हासिअं यथा । 'होज होजर इत्येतत्-' भवेत्' इत्यर्थबोधकम् । सिधावस्थापेकणात् तु गयमित्यादि सिध्यति ।। नविष्यति हिरादिः ।। १६६ ॥ एच क्त्वा--तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ॥ १५७॥ भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये पर इष्यते । क्या-तुम-तव्येषु परतो, भविष्यत्प्रत्यये तथा । तस्यैवादिहिरादेशो, यथा' होहिइ' इत्ययम् । एत्वम् इत्वम् अतः स्यातां तत् क्रमेणेह दृश्यताम | वा जविष्यति भविता, एवं होहिन्ति होहिसि । (क्वा) हसिऊण हसेऊण (तुम) हसेउं हसि तथा। होहित्था वा इसिहिइ, तथा काहि बुध्यताम् । (तव्य) इसिब हसे प्रव्वं (भविष्यत्) हसिहिद हसेहिए। मि-मो-मु-मे स्सा हा नवा ।। १६७।। वर्तमाना--पश्चमी-शतृषु वा ॥ १५ ॥ अर्थ नविष्यति परेषु मु-मो-मि-मेषु पञ्चम्यां वर्तमानायां शतरि प्रत्यये तथा । ‘स्सा हा' इम हि विदधीत तदादिभूतौ । परतोऽतो विकल्पेन स्थाने स्यादेवमत्र तु । वाऽयं विधिर्हिमऽपवाद्य भवत्यतो हि: हसर हसेइ,हसिम हसेम,हसिमु हसेमु ह च भवन्ति। [२] | पक्षे नवेदिति बुधैः परिजावनीयम् ॥ 'हसन हसे उ.मुग्गउ सुगन, इति चिबुधा हि परिणिगदन्ति।[२] होस्सामो होहामो, तथैव होम्सामि भवति होहामि । वा हसन्तो हसेन्तो च, कचिन्नो-जयई त्यतः । [३] होस्मामु च होहामु च, भवति च होस्साम होहाम । आत्वं च दृश्यते क्वापि-'सुणान' तिरूपतः । पक्के होहिमि होहिम, होहिमु होहिमो च भवति रूपमिति । जा-ज्जे || १५ ॥ 'हा' न क्वापि दिह, यथा-हमिहिमा हसिस्सामा । जा-जयोः परयोरस्य भवेदेव ततो जयेत् । मो-मु-मानां हिस्सा हित्था ।। १६८।। हसज्ज च हसज्जा च, ' हाज्जा होज्ज 'अतं विना । जविष्यति प्रवृत्तानां, मो-मु-मानां पुनर्मती । ई-इज्जौ क्यस्य ।। १६० ।। • हिस्सा' हित्था, इमी धातोः पगै वेन्युपदिश्यते । चिज्यादीनां भावकर्मविधिरग्रे प्रवक्ष्यते। हमिहिम्मा हसिहिन्था, होहिम्सा पठ्यत च हाहित्था। येषां न वक्ष्यते तेग क्यस्य ईश्रच इज्ज च । पक्ष होस्सामो होहामोहोहिमो च रूपाणि ॥ पती भवेतामादेशा, हासीअइ इसिज्जइ । मेः स्सं ॥ १६ ॥ हमीयन्तो हमिःजन्तो, पढिज पढी। धातोः परी नविष्यति काले, मेस्सं विकल्पना नवति । हमीप्रमाणो च हसिज्जमागो, क्योऽपि वा क्यचित् । होस् हसिस्स, पके होहिमि होम्सामि होहामि । मग नवेज तु मा नविजेज्ज भवेदिह । कृ-दो हं ।। १७० ।। दृशि-चचेर्मास-डुच ।। १६१ ॥ कगेतेश्च ददातेश्च, परः काले भविष्यति । हशेचेः परो यः क्यस्तस्य स्तो ‘डीस मुच्च' च । विहितस्य हि ' मेः ' स्थाने ' हम ' आदेशो विकल्यते । [B] वर्तमाना । [२] कवी । २] शत् । काई दाहं करिष्यामि दास्यामीत्यर्थबोधको। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामा [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८ पा.३] पते रूपवयं घेचं, यथा-कादिमि दाहिमि । प्रत्ययस्तस्य तु स्थाने, 'ज्ज ज्जा'-देशी विकल्पिती। श्रु-गमि-रुदि-विदि-दृशि-मुचि-बचि-रिदि-भिदि-भुजां [वर्तमामा ] हसेज्ज च इसेज्जा च, पक्के 'हस' सिद्ध्यति । पढेज्ज च पढेज्जा च, पके-पढइ' इत्यपि। सोच्छ गच्छ रोच्चं वेच्छ दच्छं मोच्छं वोच्छ बेचनेच्छं [नविष्यन्ती] पढेज्ज च पढेज्जा च, पके पढिदिर स्मृतम् । भोच्छं ॥ १७१॥ [विध्यादिषु] हसेन पक्के, हसत हसिज्जा च साज च । श्वादीनां दशधातूनां, म्यन्तानां हि नविष्यति । एवं सर्वत्र बोद्धव्य, तृतीये तु त्रिके यथा । सोच्नमित्यादयस्तेषां निपात्यन्त पदे, यथा। अइवाएज्जा अश्वायावेज्जा चेह पठ्यते । सोच्छ श्रोष्यामि तथा, दच्छं द्रक्ष्यामि, मोच्छ मोक्ष्यामि। स्याद् न समपूजाणामि, समणुजाणेज्जा नवा । चोच्वं वक्ष्यामि पुनः, छेच्छ छेत्स्यामि जानीहि । अन्ये तु सूरयोऽन्वासामपि वाच्छन्ति, तद्यथा। भेच्छ भेत्स्यामि तथा, भोच्च नोदये च धीवरैरुक्तम् । सकारदशके होज्ज' भवतीत्यादिवाचकम् । संगच्छ संगस्ये, रोविण्यामीति रोचमिति भवति । मध्ये च स्वरान्ताद् वा ।। १७७ ।। चेदिष्यामि च वेच्छ, तथैव गच्छं गमिष्यामि । धातोः स्वरान्तात् प्रकृति-प्रत्ययान्तरगी तथा । सोच्गदय इजादिषु हिलुक् च वा ।। १७२ ॥. चात् प्रत्ययानां च स्थाने, 'उज उजा'-5ऽदेशौ विकल्पिती। वादीनां धातूनां स्थाने सोच्छादयो यथासंख्यम् । वर्तमाना--भविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च दर्श्यते । भविष्यतीजादिवा-देशेषु स्युर्, हिझुक वा च । [वर्तमाना] होज्जा होज्जा होज्जाश्होज्ज, हो तुपातिकम्। साच्छिावा तु सोचिहिक, एवं सोच्छिन्ति सोच्चिहिन्ति तथा।। होज्जा होज्जसि टोज्जासि होज्ज, होसि तु पातिकम। सोचिसि सोचिहिसि स्यात, सोच्छित्था सोच्छिहित्था च॥ [जविष्यन्ती ] होजाहिर होज्जहिर, होज्जा होज्ज च पठ्यते । सोच्छिह सोच्चिहिहस्यात,सोच्चिमि सोचिदिमि भवति रूपम। पक्के 'होदिई' इत्येतद् रूपं सिद्धि प्रयाति च । सोच्छिस्सामि सोच्चिदामि सोच्चिस्सं सोच्छिमो सोच्छ । होज्जाहिसि होज्जहिसि, होज्ज दोज्जा च होहिसि । सोचिहिमो सोच्चिस्सामो सोच्छिहामो सोचिहिस्सा च । होजाहिमि होजहिमि, होजस्सामि ततः परम् । रूपं च सोच्छिडिस्था, एवं मु-मयोरपि झयम ॥ होजहामि च होजस्सं, होज होज्जा-5ऽदि बुध्यताम् ॥ गच्छि वा तु गचिहिश, एवं गच्छिन्ति गतिहिन्ति तथा । [विध्यादिषु होज्जदोज्जा होज्जाट दोज्जा,जवतु वानवेत् । गच्छिसि गनिहिसि स्यात्, गचित्था गच्चिहित्था च ॥ पक्षे होन, स्वरान्तात् किम् ?-हसज्जा च इमेज्ज च ।। गच्छिद गचिहिह स्यात्, गच्छिमि गतिहिमि भवति रूपम्। क्रियाऽतिपतेः ।। १७ ।। गच्चिस्सामि गच्छिहामि गच्चिस्सं गच्छिमो गच्छ । क्रियाऽतिपत्तेः स्थाने तु, ‘ज्ज ज्जा'-ऽऽदेशौ प्रकीर्तितौ । गच्चिहिमो गछिस्सामो गच्छिहामो गििहस्सा च । अतो-' ऽभविष्यद्' इत्यर्थे ' होज्ज होज्जा' प्रयुज्यते ॥ रूपं च गच्छिहित्था एवं मु-मयोरपि नेयम् ॥ न्त-माणौ ।। १० ।। रुदादीनां च धातूनामप्युदाहायमीरशम् । क्रियाऽतिपत्तेः स्थाने तु, 'त-माणी' इति भाषितौ । दुसु मुविध्यादिप्वकस्मिंस्त्रयाणाम् ॥१७३।। अतो 'होन्तो' च 'होमाणो'-ऽभविष्यद्' इति बोधको ।। विध्यादिपूपपन्नानाम, एकत्वेऽर्थे प्रवर्तिनाम् । " हरिण-हाणे दरिणंक : जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो। त्रयाणां हि त्रिकाणां तु, स्थाने स्युः 'दु सु मु'क्रमात् ॥ न सहन्तो चिय तो राहुपरिढवं से जिअन्तस्स" * ॥ हसउ सा, इससु तुं, हसामु अहमित्यपि। शत्रानशः ।। १०१ ॥ एवं भवति पेच्छामु तथा पेच्छउ पेच्छसु ॥ 'शत-आनम्' इत्यनयोर् 'न्त-माणी' स्तः पृथक पृथक् । दकारोचारणं भाषान्तरार्थ प्रतिपद्यताम् । [शत] हसन्तो इसमालो च, [आना बेवन्तो वेबमाणा च ।। सोहिर्वा ॥ १७॥ ईच स्त्रियाम् ॥१८॥ कृतस्य पूर्वसूत्रेण सोः स्थाने हिर्विकल्प्यते । स्त्रियां शत्रानशोः स्थाने, 'ई, न्त-माणौ' भवन्ति च । 'देहि देसु' ततो रूपद्वयं सिद्धि समश्नुते । इसन्ती हसमाण। च, हसई च शतुत्यम् । अत इज्जस्विज्जहीजे-लुको वा ।। १७५ ॥ वेवन्ती वेवमाणी च वेवई त्रयमानशः ॥ अतः परस्य सोः स्थाने 'इज्ज इज्जसु इज्जहि' या जापा जगवदचोजिरगमत् ख्याति प्रतिष्ठा परां, इत्येते लुक च चत्वार आदेशाः परिकीर्तिताः। यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमान निखिलान्येकादशाङ्गानि च । हसेज्जसु सज्ज च हसेज्जहिचवा इस । पक्षे-हससु, किमतः ? यथा स्याद होसु गहि च । तस्याः संप्रति दु:षमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः बहुपु न्तु ह मो ।। १७६।। संचाराय मया कृते विवरणे पादस्तृतीयो गतः।। विध्यादिपपपन्नानां बहुत्वेऽर्थे प्रवर्तिनाम । इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञत्रयाणां हि त्रिकाणां तु, स्थाने स्युर 'न्तु ह मो' क्रमात् । ___ श्रीमद्भट्टारक-श्रीविजयराजेन्द्रसूशिवरचियथा-[न्तु हसन्तु इसन्तु हसेर्युवा.[४] हसह इसेत वा हसत। भवति-[मो] हसामो च हसाम वा हसेम स्युरिति बोध्यम्। तायां प्राकृतव्याकृतौ तृतीयः पादः। वर्तमाना--भविष्यन्त्योश्च ज ज्जा वा ॥ १७ ॥ ___ * हरिणस्थाने हरिणाङ्क ! यदि त्वं हरिणाधिपं न्यवेदयः । वर्तमानाभविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च यः कृतः। | नासदिप्यथा एव ततो राहुपरिभवं तस्य जोवतः॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ चतुर्थः पादः ॥ [सिरहेम.] अभिधानराजेन्स परिशिष्टम् । [अ०८ पा०४] ॥ * अहम् ॥ उघातरोरुम्मा वसुबा ॥ ११॥ 'प्रोरुम्मा वसुधा' च स्यातामुत्पूर्व-वातिधातार्वा । 'ओरुम्मा' च 'वसुधा' च पक्के भवति 'उब्वाइ' । 2000*on निजातेरोहीरोड्यौ ।। १२॥ ___ इदितो वा ॥ १॥ 'सोहीर [ो] ' इत्येतो, वा नि-जातेः पदे मता। पदितो धातवः सूत्रे ये वक्ष्यन्तेऽत्र नृरिशः। यथा-'- [ो] वर निद्दार श्रोहीर' भवेत् त्रयम् । तेषां विकल्पनाऽऽदेशा भवन्तीत्यवगम्यताम ॥ आघेराग्यः ।। १३ ॥ कथेजर-पज्जरोप्पाल-पिमुण-सह-बोस-चव-जम्प वाऽऽजिघ्रतेः स्याद् आश्ग्यः, प्राइग्रह अग्घाइच । सीस-साहाः॥॥ स्नातेरन्तुत्तः॥१४॥ 'सह-बोल-चवाः जम्प-पज्जरोप्पास-वजराः। स्नातेर् 'प्रभुत्त' इति वा स्याद् अन्जुत्त रहार च । साहो सीसो च पिसुण' आदशा या कथेदंश । समः स्त्यः खाः ॥ १५ ॥ पिसुण सवड बोल, उप्पाला वजरइ च पज्जरइ । संपूर्वस्य स्त्यायतेः 'खाः' स्यात् 'संखाई' यथा भवेत् । साद जम्पर सीस, चवद कथयतीति संवेद्यम् ॥ 'बुक्क जपण' इति धातोरुत्पूर्वस्यैव तस्य उम्बुक्का । स्थष्ठा-थक्क-चिट्ठ-निरप्पाः ॥ १६ ॥ पक्षे 'कहर' इतीदं रूपं वेद्यं हि कधधातोः॥ 'थक्को चिठो निरप्पः, वग' स्था-धातोः स्युरिमे यथा । प्रन्यैरेते तु देशीषु पविता अपि सरिन्निः । गर थक्क चिट्टर चिटुिऊण निरप्पश् । 'विविधेषु प्रत्ययेषु प्रयुक्ताः' इत्यतो मया ॥ पछिी उठिो पहाविओ उहाविमो तथा । धात्वादेशीकृता होते, तत्सर्व श्रूयतामिह । कचिन्न बहुलात-थाणं थिभं थाऊण थियो । वज्जरियो कथितो, वज्जरिअव्वं कथयितव्यमिति भवति । नदष्ठ-कुकुरौ ॥ १७॥ बज्जरणं कथनं, वज्जरिऊणं चापि कथयित्वा। उदः परस्य स्था-धातोः, स्यातामत्र -कुक्कुरौ। कथयन् हि वज्जरन्तो, सहस्रशः सन्ति चास्य रूपाणि ॥ 'उहर स्यात् तथा 'उक्कुक्कुरई' द्वयमत्र तु। संस्कृतधातुवदत्र प्रत्ययस्रोपागमादिविधिः । म्ना-पव्यायौ ।।१८।। दु:खे णिब्बरः ॥३॥ 'पब्वाय वा इत्यादेशी, म्लायतेऽत्र संमती। पुःखविषयस्य कथेः, 'णिबरो' या विधीयते । 'वाइ पव्वायई तथा, पक्षे रूपं 'मिलाइ' च । दुःखं कथयतीत्यर्थे, क्रिया - णिव्वरर ' स्मृता। निर्मो निम्माण-निम्मवौ ॥ १५ ॥ जुगुप्सेर्पण-गुच्च-मुगुञ्चाः ॥४॥ 'निम्माण-निम्मवौ' स्यातां, निर्मिमातेरिमा यथा । 'फुण-दुगुच्छ-गुगः 'जुगुप्सर्वा त्रयो मताः । 'निम्माण निम्मवई' यथैते सिद्धिमाप्नुतः । झुणइ दुगुच्छद च दुगुञ्छर, पके भवति वै जुगुच्छश् च । दोणिज्झरो वा ॥ २० ॥ लोपे गस्य सुनुच्छर तथा दुमचा जुउच्च च । बुभुक्षि-वीज्योीरव-वोजौ ॥५॥ क्षयतेर णिज्झरो वा णिज्कर, पक्षे झिज्जा । वोजणीरचौ स्यातां, क्विबन्त-वीजेस तथा बुचकेर्वा । बदेणेणुम-नूम-सन्नुम-ढक्कोम्बाल-पव्वानाः ।। २१ ॥ घोज वीज तस्माद्, भवति बुतुक्खइच जीरबह । 'स्युर ढकौम्बाल-पच्चाला णुमो नमश्च सन्नुमः । ध्या-गोओ-गौ ॥ ६ ॥ छदय॑न्तस्य वा55-देशाः षडेते, तन्निशम्यताम् । 'भ्या गा' अनयोर् 'का गा'श्त्यादेशौ हि.काकाअश्च।। तुम च नूमश, णत्वे गूम ढक्का च सन्नुमइ भवति । णिज्का णिज्झाइच, काणं गाणं, च गागायच। ओम्बालइ पव्वाल, तथा च गय निगद्यन्ते । . झो जाण-मुणौ ॥ ७॥ निविपत्योणिहोमः ॥ १२ ।। जानातेः स्तो 'जाण-मुणौ ' स्यातां 'मुणइ जाण'। निवृगः पतेश्च धातोः, एयन्तस्य तु वा 'णिहोड' इति भवतु । कचिद विकल्पो बहुअात्, यथा-णायं च जाणिवे । यथा 'णिहोम' पके तथा निवारेइ, पाडे । घा जाणिऊण णाऊण, रूपं 'मण' मन्यतेः। उदो घ्मो धुमा ।। G॥ दुङो दूमः ॥ १३॥ उदः परस्य ध्मा-धातोर 'धुमा' स्याद्, 'मधुमाइ ' हि। दूङो रायन्तस्य दूमः स्यात्, हिश्रयं मम दूमेश् । श्रदो धो दहः ॥६॥ धवलेदुमः ॥२४॥ भ्रत्परस्य दधातेदह इति वै 'सदहर'। धवलयतरार्यन्तम्य दुमादेशो वा, दुम च धवलश् च । पिबेः पिज-मस-पट्ट-घोटाः ॥ १०॥ स्वर-[४।२३८] सूत्रेण तु दोघे दृमिअमिति धवलिनं भवति। घा 'पिज्ज कन्व-पट्ट-घोट्टाः, एते स्युरत्र वा पियतेः। तुलेरोहामः ।। २५ ।। पिजइ मल्ल पट्टर, घोहर, पक्के 'पिय' रूपम् । तुलेय॑न्तस्य 'पोहामो' वा, तुला ओहामइ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ० पा० ४] विरिचेरोलुएमोल्लुएम-पहत्थाः॥ २६ ॥ यापेजवः ॥ ४०॥ विरेचतेर्यन्तस्य तु वा, म्युरोलुण्डोल्लुएफ-पल्हत्थाः। जवो यापयतेर्वा जवइ, जावेद वेष्यते । भोलुएडा समुण्डर पल्हत्य वा विरेश् च । प्यारोम्बाल-पवाझौ॥ ४१ ।। तमेराहोम-विहोमौ ॥१७॥ स्याताम् 'प्रोम्बाल-पाबली' स्थाने प्वावयतेस्तु वा। तडेएर्यन्तस्य चाऽऽहोम-विहोमौ भवतः क्रमातू । प्रोम्बालइ पन्चालन, पक्के 'पावेह' सिद्ध्यति। माहोमा विहोडर, पके 'तामेई' सिध्यति । विकोशेः पक्खोडः ॥ ४॥ मिश्रेवासाल-मेलवौ ॥ २० ॥ वा विकोशयते मधातोः 'पक्खोड ' इण्यते । मिश्रयतेय॑न्तस्य तु, वा स्तो वसास-मेलवौ । 'पक्खोडा' ततः सिहं, पते रूप 'विकास'। बीसाल मेवर, पक्षे 'मिस्सई' जायते । रोमन्थेरोग्गाल-वग्गोलौ ॥ ३ ॥ उफनर्गुण्ठः ।। २६ ॥ स्याताम् 'श्रोग्गाल-वग्गोलो' रोमन्येस्तु विनाषया । एयन्तस्योद्धूलि-धातोः स्याद्, गुएगाऽऽदेशो विभाषया । प्रोग्गालइ वग्गोलइ, रोमन्थ तु पाक्षिकम् । तता गुण्ठह पके स्थाद्, 'उद्धृले' क्रियापदम् । कमेणिदुवः ॥ ४॥ भ्रमेस्तासिएट-तमाडौ ॥ ३० ॥ स्यात् कमेः स्वार्थएयन्तस्य, णिदुवोऽत्र विकल्पनात् । तालिपट-तमामौ द्वा, चमेपर्यन्तस्य वा मता। प्रयुज्यते णिहुवइ, तथा कामेश् पाकिकम् । स्यात् तालिपटइ तमाडा चेति द्वयं, तथा । प्रकाशेप्न्यः ॥१५॥ नमाडेइ भमावेश, भामेह त्रयमीरितम् । ब्वः प्रकाशेय॑न्तस्य, वा पयासह गुब्वः । नशेर्विउड-नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः ॥ ३१ ॥ कम्पर्विच्छोलः ॥ ४६॥ पलायो विउमो विप्पगासो नासव-हारवौ । कम्पपर्यन्तस्य विच्छोलो वा, विच्छोबइ कम्पॅइ । एते पश्च विकल्पेन स्युर्यन्तस्य नशरिह । आरोपेर्वनः ॥ १७ ॥ बिप्पगालाच पक्षा-बइ हारवइ स्मृतम् । विउड नासवर, पके 'नासई' सिध्यति । एयन्तस्य वाऽऽरुदेः स्थाने वलाऽऽदेशोऽभिधीयते । रूपं 'वाइ 'संसिरूम, आरोवेश् च पाकिकम् । दृशेर्दाव-दस-दक्खवाः ।।३।। दायो दंसो दक्खयश्च, दृशेयन्तस्य वा त्रयः । दोले रखोलः ॥ ४ ॥ दावह दंसर दक्खवइ दरिसर स्मृतम् । स्वार्थे ण्यन्तस्य तु दुः, रसोलो वा विधीयते । सिकं रूपं ततो रखाबाइ'दोबइ' पाक्षिकम् । नघटेरुग्गः ॥ ३३ ॥ रजेः रावः ॥ ४ ॥ एयन्तस्य वोद्घटेर जग्गः, उग्घाडइ च उग्गर । रहजेर्यन्तस्य वा रावो, यथा-रावेह रजें। स्पृहः सिहः ॥ ३४॥ घटेः परिवाडः ।। १०॥ स्पृहो ण्यन्तस्य 'सिंह' इत्यादेशः, सिहर स्मृतम् । परिवामो विकल्पेन घटेराय॑न्तस्य जायत । संजावेरामतः॥३५॥ संसिद्धं परिवार, पक्षे रूपं घमेश च। संभावयतेर्धातोरासको वा विधीयते । वेष्टेः परिपालः ॥ ५१ ।। भवेद् अासङ्घइ तथा, संभावश् च पाकिकम् । वेटेगर्यन्तस्य तु स्थाने 'परिआलो' विकल्पनात् । नन्नमेरुत्यड्डोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेलाः ।। ३६ ।। 'परिश्राबेइ वेढेरे, द्वयं संसिस्मृिच्छति । सत्थनेल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेशा वा स्युर् जनमः । क्रियः किणो वेस्तु के च ।। ५२ ।। उत्थक नल्लाब, उप्पेबइ तथा पुनः । णेरित्यत्र निवृत्तं च, क्रीणातेः किण इभ्यते । गुलुगुञ्चर, पके तु पदम् उन्नाव स्मृतम् । वः परस्य द्विरुक्तः के चात किणश्चेति बुभ्यताम् । प्रस्थापेः पटव-पेएमवौ ॥ ३७॥ रूप किण विकेड, तथा विक्किण स्मृतम् । प्रस्थापयतेरादेशौ वा पच्च--एकवौ । लियो भा-बीहौ ।। ५३ ॥ पटुवा पेण्डवः, पके पठावर स्मृतम् । भा-बी हो च विनंतः स्तः, नाद बीहइ भाइवे । विझोंकावुको ॥ ३८ ॥ बीहिअं, बहुलाद् 'जीओ,' इति रूपं च सिध्यति । वकाबुक्की विजानातेः,स्थान स्यातांविनापया। आलीडोऽवी ॥ ५४ ॥ स्याद् अवुकर वोक्का, पके विएणव स्मृतम् । प्रालीयतेर् भवेद् अल्बी, अल्लीणो च श्रलिअ । अगद्विव-चच्चुप्प--पणामाः।। ३।। निमीडेणिनीय-णिलुक-णिरिग्य-बुक्क-निक-बिहप्रयो वाऽर्पयतेः स्थाने, पणामश्चच्चुपोऽल्लिवः । काः ।। ५५॥ अल्लिवरचच्चुष्पा पणामइ, अप्पेशवा । 'लुक-णिली प्र-णिझुका, लिको लिहको णिरिग्ध' इत्येते । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) [सिघहेम]] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०७ पा० ४ ] आदेशास्तु निलीडो धातोः षर या प्रवर्तन्ते । मालिनीकुरुते स्वौष्ठं कुधा, 'णिवोलइ' स्मृतम् । मुकर लिकर लिहक भवति णिलीअाइ तथा णिलुक्कर च । शैथिल्यसम्बने पयल्लः ॥ ७० ॥ तथा णिरिग्घा रूपं, पके वेद्यं निलिज्जतु । शैथिल्ये लम्बनेऽर्थे च, 'पयल्लो' बा कृगो यथा । विलीविरा ।। ५६ ।। लम्बते वा च शिथिलीभवति स्यात् 'पयख' । विरा बिलीरादेशो वा, विराइ विविज्जइ । निष्पाताच्छोटे णीबुञ्चः ॥ ७१ ।। रुते रुज-रुएटौ ॥५७ ॥ आच्चोटेऽर्थे च निष्पाते, ‘णीलुञ्छो' वा कृगो भवेत् । रौतेः स्थाने विकल्पेन रुज-रुण्टौ प्रकीर्तितौ । 'णीबुञ्छ' निष्पतति, वाऽऽच्छोटयति कथ्यते । रुज रुएटइ ततः, पके रवर सिध्यति । कुरे कम्मः ॥ ७ ॥ श्रुटेईणः ॥७॥ सुरार्थस्य कृगः 'कम्म,' इत्यादेशो विभाषया । शृणोतेर्वा दणो, हण-इ सुण सिसिमितः । 'कुरं करोति' इत्यर्थे, पदं 'कम्मर' नएयते । धृगेधुवः ॥ एए चाटौ गुललः ।। ७३ ॥ धुनातेर्वा धुवो धुवइ स्याद् धुण पाक्विकम् । चाटुविषयस्य कृगो, 'गुमलो' वा विधीयते । जुवेहो-हुव-हवाः ।। ६०॥ प्रयुज्यते 'गुललइ,' चाटुकारं करोत्यतः । 'हो हुव हव' इत्येते नुवः स्थाने विकल्पिताः। स्मरमर-झर-जर-भल-लढ-बिम्हर-सुमर-पयर-पम्हा : ७वा 'होइ दुवइ हव' स्युर् , 'दोन्ति हुवन्ति च हवन्ति' बहुवचने । पम्हहो विम्हरो झरः पयरः, सुमरी भरः । पके भव भवन्ति च, नविचं पभवरच परिभवः । भलो बढो करो वैते, नवादेशाः स्मरेर्मताः। कचिदन्यदपि यथा-मत्तं, नन्तु अइ स्मृतम् । झूर झर विम्हरह, सुमरइ पयर च पम्हुह सरह । अविति हुः ।। ६१॥ नरइ भला ढलइ ततः, स्मरेजवन्तीह रूपाणि । विद्वर्जे प्रत्यये 'हु' स्याद्, भुवः स्थाने विनापया। विस्मुः पम्हस-विम्हर-वीसराः ॥ ७५ ॥ यथा हुन्ति, भवन् हुन्तो, किम ? अवितीति, 'होइ' च । 'पम्हुस विम्हर वीसर' इत्यादेशा भवन्ति विस्मरतेः । पृथक स्पष्टे णिव्वमः ।। ६२ ।। 'पम्हुस विम्हर वासरह ' च सिद्धयन्ति रूपाणि । पृथग्भूते तथा स्पष्ट, कर्तरि' गिब्बडो' भुषः। व्यागेः कोक-पोको ।। ७६ ॥ पृथक् स्पष्टो वा अवती-त्यर्थे । णिचम' स्मृतम् । व्याहरतेर्वा स्याता-मादशौ द्वौ हि कोक्क-पोको' च । प्रजौ दुप्पो वा ॥ ६३ ।। कोक्कर, हस्वत्वे कुक्का पोक्कर, बाहर' पक्के। प्रनुकर्तृकस्य नुवः, स्थाने हुप्पो विकल्प्यते । प्रसरेः पयहोवबौ ।। ७७॥ प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्य-वार्थो ऽत्रेति विभाव्यताम् । उवेवश्च पयल्हो वा, स्यातां प्रसरतरिमौ । अङ्ग चित्र पहुप्पइ, न, पक्के पभवेइ च । उवेल्ल पयल्लर, पक्के पसर स्मृतम् । ते हः॥ ६४ ।। महमहो गन्धे ॥ ७ ॥ के नुवो हर' अणहवं, पहुअं दृअमीदृशम् । गन्धार्थस्य प्रसरतेः, स्थाने महमहोऽस्तु वा। कृगेः कुणः ।। ६५ ॥ 'मालई महमहइ,' गन्धे किं ? पसर च । रुगः कुणो वा, कुणइ, करइ स्यात्तु पाक्विकम् । निस्सरेणीहर-नील-धाम-वरहाडाः ।।७।। काणेदित णिारः ॥ ६६ ॥ निस्सरतेर् 'वरहाडो, मीलो धाडो च णीहरो' वा स्युः । काणेवितविषयस्य तु, कृगः पदे वाणिभार आदेशः। वरहाड नीलइ णीहरइ च धाड च, नीसरह । काणेवितं करोतीत्यर्थे वाच्य 'णिश्रार' हिं। जाग्रेजेग्गः ।। ७ ।। निटम्नावष्टम्भे णिह-संदाणं ॥६७ ॥ जागर्तेर् 'जग्ग' इति तु, स्यादादेशो विभापया। अयष्टम्भे च निष्टम्भे, कृगः सदाण-णिहौ । रूप 'जग्गइ' तेन स्यात, पक्के 'जागर' स्मृतम् । इत्यादी यथासंण्यं, विकल्पनेह बुध्यताम् । व्याप्रेराअड्डः ॥८॥ णिहरु तु निष्टम्भं करोती-त्यर्थबोधकम् । धातोर्व्याप्रियतेः स्थाने, 'अाश्रहो' वा विधीयते । 'सदाणाई' अवयम्भं करोतीत्यर्थवाचकम् । आअ तथा 'वायरे' रूपं तु पाक्तिकम् । श्रम वावम्फः ।। ६७ ।। __ मंगेः साहर-साहटो ।। ३ ।। श्रमविषयस्य तु कृगो, वावम्फो वा विधीयते । संवृणोतस्तु साहर-साहट्टौ वा पदे मतौ । श्रमं करोति इत्यर्थ, 'वायम्फ' निगद्यत । साहवर साहरइ, पले 'संवर' स्मृतम् । मन्युनौष्ठमालिन्ये गिव्योलः ।। ६६॥ श्रादृङः सन्नामः ॥ ३॥ मन्युनोष्टानिमालिन्य, 'णिबोलइ' कृगोऽस्तु वा। वाऽऽपिङः स्यात्तु 'सन्नामो,' श्रादर सन्नामइ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिक हेम० ] ( ३७ ) अभिधान राजेन्परिशिष्टम् । महुनेः सारः ॥ ८४ ॥ सारः प्रहरतेः स्थाने, वा पहरइ सारइ | अवतरोह - घोरसौ ॥ ८५ ॥ 'श्रोह ओरस' इत्येतौ, चाऽत्रावतरतेनौ । ओह वा ओरसर, पक्के 'ओर' स्मृतम् शकेअय-तर-तीर-पाराः ।। ८६ ।। वयस्तरस्तीरपारी, चत्वारो या शरिमे तीर पारइ सक्कर, चयइ तरह, चयश् च त्यजतेः । [१] तरतेरपि तु तर वा, तीरयतेरपि भवेत् तीरश | पारयतेरपि भवेत्, रूपं 'पारेह' पठ्यते । [२] फक्स्यक्कः || ८9 ॥ थक्कस्तु 'फक्तेः स्थाने भवेत्, 'थक्कर' सिध्यति । श्लाघः सतहः ॥ ८८ ॥ लाघतेः सलहादेशो भवेत्, 'सबहइ' स्मृतम् । खर्चेर्चेडः || GO || खचतेर् 'वेड' वा 'वेवडा' 'खचइ' स्मृतम् । पचेः सोल-पौ ॥ ६० ॥ वा 'सोल - पउल्ली' इत्यादेशौ स्तः पचतेः स्थले । 'सोल' वा 'पल्लई,' पके 'पयइ' सिध्यति । सुचेनायम-मेलोस्सिक रेवरि सामाः ॥ ६१ ॥ मेलवडे धंसामो, णिल्लुञ्छोस्लिक्क - रेश्रवाः । मुस्थाने, सप्तादेशा विकल्पिताः । पिल्लुरकर असा मेहर के मुध रूपं तु भवतीति । - दुःखे शिव्यः ॥ २ ॥ विषयस्यमुवा विधीयते। 'त्य 'जियो' क्रियापदम चेह-योच्छा || ३ || दूरस्थाने। चावेव चेदवर वेलवर जूरवर उमच्छर च, वञ्चश् च । ररुग्गहावह - विविड्डाः ॥ ए४ ॥ घातोः उमहावह चिडवियो भवत्येते । विमवि उग्गहरु च प्रवह, पक्षे रयः भवति । समारचेरुव इत्थ-सारव समार केलायाः ॥ एए ॥ समारचेर् उवत्थः, केलायः सारवः समारो वा । उवहत्थर केलायर, समारयइ सारव समारश्च । सिचेः सिम-सिम्पो ॥ ए६ ॥ सिसिपी विकसन देती। नएयते । सिर्फ सिश्चर सिम्पर, पक्के से मच्छः पुच्छः ॥ ६७ ॥ अच्छे स्थाने भवेत् पुच्वादेशः, पुच्छति सिद्ध्यति । गर्जेर्बुकः ॥६८॥ गर्जतेर्बुक्क इत्यादेशो वा बुक्कर, गजरं । [१] हानिं करोति । [२] कर्म समाप्नोति । १० वृषेदिकः ||६|| या विकादेशो विधीयते । 'ढिकर' 'गर्जति वृषः' इत्यर्थे परिपठ्यते । रामेरम्प-उल-सह-रीर-रेहाः ।। १०० ।। अघोरीरो रेहः, बज्जश्च सहां भवन्तु वा राजेः । अग्र बज्जर रीरह, रेहरू राय च सहइ तथा । [अ००पा० ४] मस्जेराउट्ट - पिछड बुड्डु खप्पाः ।। १०१ ।। श्रदृश्च णिउडो, वुड: खुप्पश्च मज्जतेर्वा स्युः । उदृश् च णिउडुइ, बुट्टर खुप्पश् च मज्जश् च ॥ पुजेरोल - मालौ ॥ १०२ ॥ आरोल पमालब्ध, पुती श्रारोलर वमालर, पक्षे- 'पुञ्ज' सिध्यति । लः ॥ १०३ ॥ जीहो वा लज्जतेः स्थाने, यथा-जीहर, लज्जइ । विजेरोमुकः ॥ १०४ ॥ कोपा तिस्थाने सुरव मृजेरुग्घुस बुञ्च- पुञ्छ - पुंस- फुस - पुस- कुह-हुलरोसाणाः || १०५ ।। उग्घुसो रोसो बुकः, पुञ्छः पुंसः कुमः पुनः । लुहो हुलो, नवादेशा विकल्पेन मृजेर्मताः । लु पु पुंसइ, रोसाणइ फुसइ पुसइ तथा लुहः । दुबइ वग्घुसर, पक्षे- 'मज्जइ' इति सिडिमेति पदम् । मूर-सूर-क-पर-पविर करञ्ज-नीरञ्जाः ॥ १०६ ॥ मुसुरो विरो मूरः, सूरः सूडश्च वेमयः । पविरञ्जः करज्जो नीरओ वा भञ्जनेर्नव । जे मूर सूरइ सूम, मुसुमूरद वेमयइ च पविरजइ । नीरज च करञ्ज‍, विरश्च पक्के भवेद्- 'भअर' । अनुषः पथियग्गः ।। १०७ ।। अनुमतः 'पति' इत्यादेशो वियते । 'पिके' सिध्यति। अर्जेर् विश्वः ॥ १०८ ॥ अर्ज देते। प्रयुज्यते विवर' तथा 'भरत' पाक्षिकम्। युनो जुन जुन जुप्पाः ॥ १०६ ॥ , युजः स्थाने 'जुअ- जुज्ज-जुप्पा' एते त्रयो मताः । जुञ्जर जुज्जर तथा, जुप्पड़' सिकिमागमन् । भुजो निमनेम - कम्पाएह- समाचमट चड्डाः ॥११०॥ समाणश्चमश्वबुः कम्मो भुजो जिमस्तथा । रहो जेमो, भुज: स्थानेऽष्टादेशाः परिकीर्तिताः । 'जर जिमश् च जेम, चमढइ कम्मे च समाणः । 'असद' इति भुजातरूपं यं सुभरता वोपेन कम्पः ।। १११ ॥ उपेन युक्तस्य भुजेः, 'कम्मवो' या विधीयते । तेन सिद्धं 'कम्मवश, बहुपि । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) [सिद्धहेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ० ८ पा० ४] घटेगढः ।। ११२॥ 'अन्दर, नद्दास''अच्छिन्दः' इति विकल्पयशात । घटेगढो वा, गढर, घडइ स्यानु पाक्विकम् । मृदा मन-मह-परिहट्ट-खडु-चहु-मह-पनामाः॥१२६।। समो गमः ॥ ११३ ॥ बहु-बड़ौ च पन्नाडः, परिहहो मढो मलः। मपूर्वम्य घटे स्थाने, गनादेशो विकल्पनात् । मइश्चापि मृदः स्थाने, सप्तादेशाः प्रकीर्तिताः । ततः सिकं 'संगल, पंके 'संघम' स्मृतम् । पनामा मह च, परिहट्ट खड़ा । मढ चहा तथा, मलइ प्रतिपठ्यते। हासेन स्फुटेर्मुरः ॥ ११४ ।। हासेन स्फुटनेऽय तु, स्फुटेः स्थाने मुरोऽस्तु वा। स्पन्देश्चुलुचुनः ।। १२७॥ हासन स्फुटनीत्यर्थे, रूपं 'मुरइ ' कथ्यते। स्पन्देश्चुमुचुलादेशो, विकल्पेन प्रयुज्यते । माश्विश्च चिश्चअ-चिचिल्ल-रीम-टिविमिकाः ॥११॥ सिकं 'चुमुचुल' तु, पक्के 'फन्दर ' इत्यपि । चिनिश्चिश्चिश्चिञ्चो, रीडष्टिविडिकस्तथा । निरः पदवलः॥१२॥ एते मगडेर विकल्पेन, पश्चादेशाः प्रकीर्तिताः। निःपूर्वस्य पदे स्थाने, बलादेशो विकल्प्यते । निश्चिवर निश्चम, टिविडि चिश्चर। 'निब्बन निप्पज्जर, ' द्वयं सिकिमगादिदम । गंड नथा, 'मएडइ,' इति रूपं तु पाक्तिकम्। विमंदेर्विअट्ट-विलोट्ट-फंसाः ।। १२ ।। तुमेस्तोड-तुट-खुट्ट-खुमोक्खुडोल्लुक्क-णि बुक्क लुकोल्लूराः।११६ विश्व विनोदृश्व, फंसश्चेति त्रयोऽपि वा। लुकोल्लूरी तुट्ट-खुट्टी, णिबुकश्व खुडाक्खुडौ । विसंपूर्वस्य तु वदः, स्थाने सन्तु यथाक्रमम् । तोडोल्नुको, तुडेः स्थाने, विनापा स्युरमी नव । विअर ततः सिद्ध, विलोहद च फंसद। नोड तुहर खुदृश, जल्लुमा उक्खुडा गिलुक्कर च । विसंवत्र चैतत्तु, पाक्तिक रूपमिष्यते । खुबह तुडइ उल्लूरइ, मुक्का रूपं तुमरेतत् । शदो कम-पक्खोमौ॥ १३०॥ घूर्णो घुन-योन-घुम्म-पहाः ।। ११७ ।। 'शदः स्तोका-पक्खोमा, कमर, वा पक्खोडद । घुलो घोलः पहल्लव, घुम्मो घूर्णेरमी मताः । प्राक्रन्देणीहरः॥ १३१ ।। 'घुला घोबा पहल्लइ घुम्म सिद्धयति । आन्दीहरो वा स्याद्, पीहर प्रकन्दा । विवृतेसः ॥ ११८ ।। खिदेर जूर-विमूरौ ॥ १३२ ।। ढंसो वा विवृतेः स्थाने, दंसह स्याद् विव। खिदेर् जूर-विसूरी हो, स्यातामत्र विकल्पनात्। __ क्षयरट्टः ॥ ११ ॥ 'विसूरा' ततःसिद्ध, पक्षे जूर, खिजर। कथेरहो वा, अदृ३, पक्के-कढ सिध्यति । रुधेरुत्यड्डः ॥ १३३ ।। ग्रन्यो गएकः ॥ १० ॥ रुधेरुत्थक इति वा, उत्यच च रुन्धः । अन्धेगण्ठोऽस्तु, गएर, गण्ठ। सद्भिः प्रयुज्यते। निषेधहकः ॥ १३४॥ मन्धेघुसन्न-विरोनौ ॥ ११ ॥ हक्को निषेधतेर् हक्क या पक्के निसेह। घुमनश्च विरोलच, मन्धरती विकल्पिती। धेर्जुरः॥ १३५॥ रूपं घुसलर विगत्र, मन्था इत्यपि । कुर्धेजूरो विकल्पेन, 'जूरई' 'कुज्जर' इत्यपि । हादेव अच्छः ।। १२२॥ जनो जा-जम्मो ॥ १३६ ॥ हादेवयन्तस्यावअच्छोडायन्तस्यापि स्थले भवेत् । जा-जम्मौ जायतेः स्थाने, सिद्धं 'जाअ जम्म'। हादते कादयति चा, 'अबअच्छ।' उच्यते । तनेस्तम्-तह-तव-विग्लाः ॥ १३७ ।। मंत्रकारस्तु ण्यन्तस्यापि ग्रहाथः प्रयुज्यते । तर-तह-तहब-विरल्लाश्चत्वारस्तनः स्थल वा स्युः। नेः मदो मज्जः ।। १२ ।। तहतमा तइवर, तथा विग्लश, 'तणा' पक्के । निपूर्वस्य सदा मज्जः, 'अत्ता पत्थ णिमजा'। तृपस्थिप्पः॥१३॥ विदेहाव-णिच्च-णिज्झोम-णिधर-णिलर- तृप्यतेस्तु पदे थिणः, 'थिप्पई' प्रणिगद्यते । सराः ।। १२४॥ नपरशियः ॥ १३६ ।। वा स्युर णिकद-गिकोमो, मिब्यूगे लूर णिवरौं । कृतगुणस्योपसृपः. स्थाने वा 'अल्लिओ'मतः । दुहायश्च पमादेशाः, विद-धातोः पदे यथा । ततः सिकम् 'अलिअक्ष,' 'नवसप्पई' पाक्षिकम । पिच्छल्लद णिझोड, जिलयुगइ णिचरम दुडावद च । मंतपझङ्कः ॥ १४॥ लर इति छिदधातोः, पक्ष छिन्दा 'मतं रूपम् । संत शनि बा, संताप व मजः । - आडा प्रोअन्दोहामा।। १२५ ।। व्यापेरोअग्गः ।। १४१॥ 'अन्दोद्दाली' वा, स्यानाम् आङा महात्र छिद्-धातोः। | व्याप्नोनेस्तु विकलनाऽऽदेश 'ओश्रम्ग 'इष्यते। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्रपगिशष्टम । [अ०८ पा० ४] 'मोअग्गा' ततः पक्ष, रूपं 'वावेह' सिध्यति । उपालम्भेल-पचार-वेनवाः ॥ १५६ ॥ समापः समाणः ॥ १४॥ नपालम्भेस्त्रयो वा स्युश-पच्चार-बलवाः। समाप्नोतेः समाणो वा, समावेश समाण। पच्चार वेलवह बवालम्भव मला। किपेगलत्याहुक्ख-सोस-पव-णोच-छह-हुल-परी अवेज़म्भो जम्ना ॥ १५७ ॥ पत्ताः॥ १४३ ॥ जुम्नेर् जम्ना, न तु वेः परस्य, जम्भा भवति जम्भाअाइ । सोलापल्ली परी-घत्ती, गमत्थश्च छहो हुलः । किम् ? अवेरिति हि निषेधः, 'सुकेलिपसरो विअम्भर अ'। माइक्खो खोल्ल इत्येते, नवादेशाः किंपस्तु वा । भाराकान्ते नमेणिसुढः ॥ १५ ॥ अहमखश्च गमत्थर, सोलर पेल्ल बुहा हुन घत्त। भाराकान्ते तु कर्तरि, णिसुढो वा नमेः स्मृतः । णोल्मा हस्वत्वे गुल्लह परीक्ष, पाक्तिकं खिव । णिसुढा, घा'णव, 'आक्रान्तो नमतीत्यतः । जत्क्षिपेर्गुलगुजोत्यड्डालत्थोन्नुत्तोस्सिक-हक्खुवाः।१४४।। विश्रमर्णिव्या ॥ १५ ॥ गुलगुटोत्थकाल्लत्योन्जुत्तेस्सिक्क-हक्खुवा वा स्युः । 'णिब्वा ' विश्राम्यते णिवाइ, वीसमर' द्वयम् । उत्पूर्वस्य तु विपर् , धातोः स्थाने पमादेशाः। आक्रमेरोहावोत्थारच्चन्दाः ॥ १६० ॥ गुलगुब्छा उत्थर, अल्लत्या हक्खुवश्च उस्सिका। प्राक्रमेः 'उन्द उत्थार ओहावो' धात्रयो मताः। उन्नुत्त इति पके, रूपं वेद्यं तु 'उक्खिबई'। प्रोहावर उत्थार, वा अक्कम छुन्द। __ प्राविणीरवः ॥ १४५ ॥ भ्रमेष्टिरिटा-दुएस-ढाढव-चकम्म-भम्मम-भमआपूर्वस्य क्षिपेर्धाताीरवो चा विधीयते । म-भमाम-तझएट-एट-ऊम्प-तुम-गुम-फुम-फुततः सिद्ध 'णीरवइ,' पके 'अक्खिवई' स्मृतम् । स-दुम-दुस-परी-पराः ।। १६१ ।। स्वपः कमवस-निस-लोहाः ।। १४६ ॥ चक्कम्मो भम्ममो कम्पपिरिटियो नुमो गुमः । 'कमवस लिस-लोट्टा'वा,स्युग्मीधातोःस्वपेः स्थले प्रमशः। दुखदुल्लो नममो ढएढल्लो भमाडः फुमः फुसः । लोट्ट लिसह कमवसर, भवति तु पक्षे 'सुश्रई' रूपम् । तलअगटस्तथा झएटो, दुमो दस-परी-पराः। वेपेरायम्बायको ॥ १७॥ इत्यमी भ्रमतेरष्टादशादेशा विकल्पनात् । वेपेर 'प्रायम्ब प्रायझ' इत्यादेशौ विकल्पनात् । टिरिल्ला दण्ढल्ल, ढण्ढटल तलप्रएटश् च फएटा। प्रायम्बक्ष तथा प्रायकर, पके तु 'वई'। भमडइ चक्कम्मद भम्ममइ भमाड जमा कम्प। विनफेख-वम्वमो ॥ १४ ॥ गुम फम फुल दमछ, दसर परीश्च पर जमा पक्के। विलपेस्तु विकल्पन. महो वडवडश्च वा । भ्रमधातोरिह रूप, विविधं वेद्यं सुधीनिस्तु । का वडवमह, पत्ते विलवइ स्मृतम् । गमेरई-अच्छाणुवज्जावजसोक्कुमाक्कुस-पच्चड्ड-पच्छत्रिपा लिम्पः ।। १४ ।। न्द-णिमह-णी-पीए-णीलुक्क-पद-रम्न परिग्रहलिम्पस्तु लिम्पतेः स्थाने, ततो बिम्प सिध्यति । वोल-परिअझ-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः ॥१६२॥ गुप्यर्विर-णमौ ।। १५० ।। मई णी पदोऽइच्छोडणुवज्जोऽवज्जसोऽक्कुसः । स्थाने धातोगुप्यतेची, भवतां द्वौ विरो, णडः'। पचाडो णिवहः पन्दोऽवसहश्च णिम्महः । विरक्षणमा पक. गुप्पम सिद्धिमश्नुते । परिमल्लः परिलो, णिरिणासस्तथोक्सः। कृपाऽअहो णिः ॥ १५१ ।। रम्नो णीणश्च णीलुक्कोऽत्रहरो बोल इत्यम।। अवहस्तु कृपेः स्थाने, ण्यन्तो भवति, तद्यथा । एकविंशतिरादेशा गमधातोस्तु वा मताः । 'कृपां करोति' इत्यर्थे, 'अवहावई' पठ्यते । अणुवज्जइ पच्चर, अवज्जस अक्कुसा च पच्छन्दश। प्रदीपस्तं अव-सन्म-मन्धुक्काब्नुनाः॥ १५ ॥ गीण अई रम्भइ, णिरिणासर णी णीलुक्कर। 'नव-सन्दुम-सन्धुक्कावनुत्ता' या प्रदीप्यतरेते। पदअणिम्महर अश्च्च परिअल्लच उकुसइ बोला। सन्धुका अभुत्त३, सन्दुम पलीवर ते अवश् । अवसहइ अवहरच,णिवह परिश्रलश्या गच्छ॥ बुनः संनावः ।। १५३ ।। [णीहम्मा पाहम्मद, पहम्मइ णिहम्मद तु तथा हम्मद । संभावो लुच्यतर्वा स्यात, संभावइ च मुम्भः । 'हम्म गतो' इति धातोरमूनि रूपाणि वेद्यानि ।] चुनः खनर-पड़हौ ।। १५४ ।। श्राडा अहिपच्चुअः॥१६३ ॥ खतरः पहा या स्तः, श्रुनेधातोः पदे यथा । आङा सहिनस्य गमः, स्थाने वाऽस्त्वहिपच्चुत्रः । सनरइ पट्टहरु, पक्क 'खुमाई' सिध्यति । 'अहिपच्चुअर' म्याद वा, तथा-ऽऽगच्छर ' पाक्विकम् ॥ आइने रनेः रम्भ-ढवी ।। १५५ ।। ममा अब्जिडः ॥१६४ ।। श्राङः परस्य तु रभेः स्यातां रम्भो ढयश्च वा । समा युक्तस्य तु गमर्, 'अभिडो' वा विधीयते। प्रारम्भा आचढ२, पके 'प्रारभा स्मृतम् । सिद्धं ततो' अभिड, 'पके-संगच्छइ स्मृतम् । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिक हेम० ] अन्याम्पत्यः ॥ १६५ ॥ उम्मत्थस्तु गमेः स्थानेऽभ्याद्भ्यां युक्तस्य वा श्वेत् । 'उम्मत्थइ' तथा ऽग्भागच्छ' रूपद्वयं ततः । मत्पान पलोहः ।। १६६ ।। पल्लोट्टस्तु गमेः प्रत्यभ्यां युक्तस्य पदेऽस्तु वा । ' पलोट्टश्' तथा ' पञ्चागच्छ३' स्यान्तु पाक्तिकम् । शमेः पडिसा परिमामी ।। १६७ ।। शमेः पदे तु परिसा परिसामौ विकल्पितौ । 'परिसामइ समझ, पमिसाइ ' त्रयं शमेः । रमेः संखुड्ड-रेवड्डोब्भाव-किल्लिकिञ्च-कोहुममोहाय - णीसर-बेल्लाः ।। १६८ ।। मालि 6 ( ४० ) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् । भावी खुरप उतार, फिसिअर कोडम च मोहाय । खेडूर तथा णीसरर, खेल्लर पक्के ' रम' रूपम् । पूरे रामामामाहरेमाः ।। १६६ ।। 'अहिरेमाम उमाऽङ्गसत्यमी । पञ्चादेशा विकल्पेन स्थाने कीर्तिताः L 'अग्घा अग्घव, अहिरेमइ पूरइ । उडुमा अङ्कुमइ, ' सविकल्पमुदाहृतम् । स्वरस्तुवर-जअको ॥ १७० ॥ तुवरी जबमचे मौ, भवेतां त्वरतेः पदे । सिद्धं रूपं तुवरइ, तथा जनरुद्द स्मृतम् । स्यादिशत्रोस्तूरः ।। १७१ ।। त्वरः शतरि त्यादौ च, तूरः, 'तूरन्तो तूर६' । त्यादी ||१७२ ॥ त्वरोऽत्यादौ तुरादेशः, तुरन्तो तुरिश्रो यथा । सरः खिर-कर-प‍र-पचड-बिचल-सिम ।।१७३ ।। चिलो णिहु पच्चडो ऊरः पज्जरः खिरः । करेरेते धमादेशाः भवन्तीति विभाव्यताम् ॥ पञ्झरह पश्चम, खिरई ऊरई तथा । लिपि एवं रूपाणि चचते ॥ उच्छल जत्थतः ॥ १७४ ॥ स्यादू 'उत्थल' उच्छलते रूपम् 'उत्थर' स्मृतम् । गिलेः थप्पड ॥ १७५ ॥ धार विगतेः स्याने या स्यातां 'थिष्य-पिही' । गिला स्मृतम् ॥ दलि - वल्पोर्विसट्ट - बम्फौ ।। १७६ ।। , - ' या स्यातां विसट्ट - वम्फी, या दलि- बल्योः पदे यथासंख्यम् । ततो 'विसट्टइ वम्फर, ' पके रूपं दल बनाइ !! अंशे : फिक- फिट्ट - फुम या फिट्ट फुट्ट पक्षे ' फुट्ट - चुक्क - जुल्लाः || १७७ ॥ फिट्ट फिड फुट कर, फिडर फुरुर भुलइ च भवति रूपम् ॥ ' रूपं वेद्यं भ्रंशेः सुधीभिरिदम् । नशेर्णिरिणास - विहाव सेह - परिसा - सेहा बहराः ।। १७८ ।। [अ०८पा. ४] निरास शिवही यह डिसा तथा । धावहरते, परदेशा नशेस्तु वा णिरिणासर शिवहर श्रवसेहर परिसाइ श्रवहर सेहर । पक्के ' नस्सर' इत्यप्यमूनि रूपाणि नशधातोः ॥ व्यवात् काशो वासः ॥ १७० ॥ श्रवात् परस्य काशस्तु, 'वासः, ' ' श्रोवास ' स्मृतम् । सन्दिशेरप्पाहः ॥ १०० ॥ अप्पाहः संदिशे वा स्यात्, अप्पाहर सन्दिसह । शो निच्छाच्छासवदेखो क्खावखाक्ख- पुलोए - पुल ए निआव आस-पासाः। १०१ ।। भोभवोऽवनिः । श्रवयच्छो ऽवयज्भः पेच्छेो देक्खः पुनस्तथा ॥ अवाक्खः पुत्रोश्च पासोऽवक्खा, दृशेर् अमी । श्रवयच्छ अवयज्भर, वज्जर पेच्छा च सव्ववह पास ॥ अक्ख च निश्रच्छ देक्खर अवभक्खर पुलोपइ । अवश्रास अवक्खड़, निश्रइ च पुलप चेहरा रूपम् ॥ 'निज्भाइ' स्वरादत्यन्ते निध्यायतेः सिद्धम् । स्पृशः फास-फंसफरिस विहारखालिहाः ।। १८२ ॥ फरिसः फंसः, ब्रिवः फासः छिहासिहौ । श्रलुङ्खः मीनः स्थाने सप्तादेशाः प्रकीर्तिताः। फासर फसर फरिसर, छिवर छिह लिटर तथाऽऽबुबइ । इति धातोः स्पृशतेरिह, रूपाणां सप्तकं भवति । प्रविशेरिश्रः ।। १०३ ॥ धातोः प्रविशतेः स्थाने, रिआऽऽदेशो विकल्प्यते । सिर्फ 'रि' पक्षे तु, रूपं 'पविसङ्घ' स्मृतम् । मान्ममुपसः ॥ १८४ ॥ प्रात् परस्य तु मुख्या स भवेद 'पम्डुसइ' प्रमृशति वा प्रमुष्णाति कथ्यते । पिषेत्रिह - पिरिणास गिरिगज्ज- रोश्च चड्डाः ।। १८५ ।। परिणारिक वारिवहः। रोञ्च चड्इ गिरिणासर गिरिणज्जर च पीसह शिवहर । भषेकः ।। १०६ ।। प्रभुको विकल्पेन, सिद्धं भर कर कृषेः कल - सामवाञ्चाच्छायञ्छा इच्छाः ॥ १८७ ॥ कटुः साश्रमु आइ। योऽणच्छोऽञ्च इत्यमी । देशा विकल्पेन की आइञ्छ साअरु कमु श्रञ्च श्रणच्च श्रय । पके 'रिस' कर्प, पातर संवधम् । असावलोकः ॥ १०० ॥ पेस्थानेकाकर्षणे । ''अशा कर्षतीति प्रतिकृन् । ढढोल-गमेस-घत्ताः || १८ || तो गमेसो दण्डोलो, दुपदुतो वा वेपतेः । दुरदुल्ला ढढोल, गमेलश् च घत्तर । [१] [१] गवेस गवेषे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिकड़ेम• ] पेः सामन्यावयास परिन्ताः अवयासः लामग्गः, परिमन्तश्च त्रयः निर्वा अवयास सामग्गड़, परिश्रन्तर, वा सिलेस धोपमः ।। १६१ ॥ प्रस्तु चोप्पो वा स्याद्, वा मक्बइ चोप्पम‍ । कारादा हिला हिल-बध-बफ-मढ़-सिंहविपाः ।। १६२ ।। डिलडोsढिलो घम्फो विलुम्पो महः सिद्धः । हो वचः काऽशवादेशा श्रमी मताः । अलि महिल६, आहर वथर महर विलुम्पह च । यम्फर सिह च, पढ़ें- 'कहर' इति सिद्धिमेति पदम् । ( ४१ ) अभिधानगजेन्द्र परिशिष्टम् । ॥ १६० ॥ स्युः 1 च । प्रतीक्षेः साम-विहीर विरमाला ।। १०३ ॥ पदे प्रतीर्वा स्युः, विरमालः सामयो विहीरश्च । विरमाला व बिदीरह, सामयह तथा परिक्ख वा । तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प- रम्फाः ।। १६४ ।। सोपोरी तुलनेव स्युः । रम्फञ्चैते तच्छर चच्छर रम्पर, रम्फर, तक्व तु बैकल्यात् । विकसे को आस-पोसट्टी ॥ १०५ ॥ कोआसो बोसट्टो, विकसेरेतौ पदे तु वा भवतः । कोश्रासह बोसट्टा, तथा विकल्पेन विश्वसह च । इसेगुञ्जः || १७६ || हसेर्गुजो विभाषा स्यादू, यथा इसइ गुज्जर | सेक्स-मिनी ॥ १६७ ॥ ल्डसो डिम्भश्च वा स्यातां स्रंसेर् धातोः पदे यथा । सहसह मिम्भर तथा, पक्के 'संसद्' सिध्यति । सेमेर-योजनाः ॥ १८ ॥ बोजो वज्जो मरबैते, वा भवन्तु त्रसेः पदं । सिकं वांजर डर, तथा तसइ वजह | न्यसोमिमी ॥ १६५ ॥ म्यस्यतेः स्तो णिम सुमो, 'खिम‍ णुमइ' यथा । पर्यसः पोट्ट-पट्ट पल्हत्याः ॥ २०० ॥ पर्यस्यतेः 'पलोट्टः, पट्टः पदस्थ इति सन्तु हि । पलट्टर पदस्थ तथा पलोदृछ भवति रूपम् । निश्वसेऽङ्कः ॥ २०१ ।। भो वा निश्वसेर् नीससइ भइ च द्वयम् । जसि पुलमा गुज्जोद्धारोमाः । २०२ कसुम्भ ऊसलो गुञ्जनः पुल आश्र - सिसौ । आओ, वा षमादेशाः, उल्लसेस्तु पदं मताः । पुलर गुलर, 'गुज्जुल‍ हस्वतस्तु,' ऊसलइ । ऊसुम्भ श्राश्र तथा णिलसर व उसछ । नामेर्तिनः ॥ २०३ ॥ भासेर भिसोचा, 'मिस' पके 'नासह' इत्यपि । प्रतनिः ॥ २०४ ॥ प्रालि के '' इत्यपि । ११ , अवाद गावहः ॥ २०५ ॥ भवाद गास्तु ग्राहो वा श्रोवाहरु श्रोगाहरु । आरुमवलग्गी ॥। २०६ ।। नमो नग्गश्वाम हौ, भवेताम् आरुहेः पदे । चावलग्गर चडर, तथाऽऽरुहर पाक्तिकम् । मुगुम्म गुम्म । २०७ । " या गुम्म गुम्ममा स्थानां मुहेतोः परे यथा । वा गुम्मर गुम्मम, पक्ष 'मुज्जद्द' सिध्यति । दर ।। २०८ ॥ आलुको वाऽहिऊलश्व, दहेः स्थाने विकल्पिती । अहिऊल आलुहर, पज्ञे महइ स्मृतम् । ग्रहो वन-एड-हर-पद्म-निश्वाराहिपरा: २० पत्र-पद-हर-प-निवाराहिन्या ग्रहेः स्युरमी अहिपच्चुअर वब निस्वार गगहरु हर६ पङ्गछ । क्त्वा तुम्- तब्येषु पेत् ।। २१० ।। क्या तुम-तव्येषु परतो, 'घंदू' श्रादेशो ग्रहेर्मतः । [[[[का] ] स्याद् धेनुआण घेन्स, कवियो' स्मृतम् । [स] [] [तथ्य] घेतध्वम् इत्येतत् त्रिविधं यमीरितम्। वचो चोत् ॥ २११ ॥ क्त्वा तुम-तव्येषु चतेर् 'धोत्' इत्यादेशो विधीयते । 'वोत्तृण वास्तु वास्तव्यं', त्र्यं चैतदाहृतम् । [अ०८ पा० ४] रुद - भुज- मुचां तांऽन्त्यस्य ॥ २१२ ॥ तः स्याद् रुद-ज- मुचां क्त्वा तुम्-तव्येषु तद्यथा । भोत्तूण भोक्तुं भोतव्यं ज्ञातव्यमनया दिशा । रशस्तेन ः || २१३ ॥ शोऽन्त्यस्य तकारेण सह छः प्रभवेद्, यथा । दडूण दक्षं दव्वं, संप्रयुक्तं बुधैरिदम । S " ? यः कुगो नृत- भविष्यतोश्च ।। २१४ ॥ क्या तुम-तयेषु च तथा काले भूते प्रविष्यति । कृत्यस्य तु ''पादिति । 'वकाराकार्षीदकरोत् 'एषु ' काडीथ ' भाष्यते । 'कती करिष्यतीत्यर्थे, पदं ' काहिर पठ्यत । क्या तुम तध्येषु काऊ, का कायन्वमिष्यते । गमिष्यमाssसां छः ।। २१५ ।। गमिष्यमाssसामन्त्यस्य, उकारादेश इष्यंत । गच्छ इच्छा तथा सिरूं जच्छर अच्छइ । चिदि-भोः ।। २१६ ।। स्थान निदिमिदोर ते, यथा-जिन्दा भिन्द युध-बुध-गृध-कुध-सिध-मुहां ज्जः ॥ २१७ ॥ स्यात्क्रुध-युध-बुध-गृध-सिध-मुहां द्विरुको 'ज्झ' ईशादेशः। कुज्जर जुज्झर बुज्भर, गिझर सिज्झर व मुज्झ च । रुधो न्यस्ती च ॥ २९७ ॥ रुधो न्ध-नौ तु चात् 'ज्जो', रुन्ध रुम्भर रुज्झर । मद-पतोर्डः ।। २१ । श्रन्ते सद-पतोर्डः स्यात्, सडड़ पड‍ स्मृतम् । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) [सिम्हेम०] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०० पा० ४] क्वय-वर्धा ढः ॥ २० ॥ ऋवर्णस्यारः ।। २३४॥ क्यथर् वधैर् अन्तिमस्थ, ढः स्यात् कढा वकृत। अगदेश ऋवर्णस्य, नवेद् धात्वन्तवर्तिनः। वृधेः कृतगुणस्यह, वर्धेश्च ग्रहणं समम । यथा करह धर, हर प्रमुख मतम् । वृषादीनामरिः ॥ २३५॥ वेष्टः ।। २३१॥ अरिर्वृषादिधातूनाम, ऋवर्णस्य परे नवंत । 'वेष्ट वेटने 'श्त्यस्य, धातोः 'कगट'-[२। ७७] सूत्रतः। वृषो 'वरिसा' कृषी, तथा कारसा' स्मृतम् । पलोपेऽन्त्यस्य ढो, 'वेदिज्जर, वढई' इत्यपि । एवं मृषो 'मरिसई', हपो 'हरिसह' स्मृतम् । समोलः ॥ १२ ॥ अरिः संदृश्यते येषां वेद्यास्ते हि वृषादयः। संवेष्टतेरन्तिमस्य, लिला' स्यात, 'संपेल्न स्मृतम्।। रुषादीनां दीर्घः ।। २३६ ।। वादः ।।१३।। रुषप्रभृतिधातूनां, स्वरस्य दीपों भवद्, यथा रूम। वा 'ल्ल' उद्वेष्टतेर् 'उज्वेल्सइ, उव्वेढ' स्मृतम् । तूमहसूस दूसा, पूसइ सीस, तथाऽन्यदपि। स्विदां जः ।। १२४॥ युवणस्य गुणः ॥ २३७।। स्थिदिप्रकाराणां जः' स्याद, अन्तिमस्य द्विरूपकः । इवों वर्णयोर्धातो-र्गुणः कित्यपि ङित्याप । सम्वद्ध-सिज्जिरीए संपज्जर खिज्ज स्मृतम्। यथा जेऊण नेऊण, नेइ उद्देइ नेन्ति च । बहुत्वं तु प्रयोगानुसरणार्धमिहेभ्यते । कनिन्नायं विधिर् नीओ, नहीश्रो सिध्यतो यतः। स्वगणां स्वराः ।। २३०॥ व्रज-नृत-मदां चः ।। २२५ ।। धातुषु स्वराणां स्थाने, प्रवन्ति बहुलं स्वराः। . अन्तिमस्य वज-नत-मदानां श्यो' भवेदिह । सद्दहणं सहाण, तथा धुवर धावा [१] । बच्चनच्च तथा, पच्चर सिद्धिमाययुः। कचिन्नित्यं देह बेह, आर्षे 'बेमि' प्रयुज्यते । रुद-नमोर्वः ॥ २६ ॥ व्यञ्जनाददन्ते ॥ ३॥ रुद-नमोर् वो, रुवा, रोवर नव स्मृतम् । व्यञ्जनवर्णान्तादू धातोरन्तेऽकार आगमो भवति । उद्विजः ॥२७॥ भम हसइ चुम्बर उवसमइ कुण सिश्च च रुन्ध । उद्विजतेरन्त्यस्य वः, नन्वेवो च विवर। शवादीनां प्रयोगश्च, प्रायो नास्तीति बुध्यताम्। खाद-धावोर्लुक् ।। २८ ॥ स्वरादनतो वा ।। २४०॥ खाद-वायोर्मुग अन्ते स्यात, खाइ खापर खाहिए। अनदन्त-स्वरवर्णान्तादू धातोर्याऽस्त्वदागमस्त्वन्ते । पास पाइच, धाश्र धाइ, मिलाभ मिला तथा । स्याद् धार धान धाहिह, कनिनो-'धाय' स्मृतम् । वर्तमाना-भविष्यद्-विध्यायकवचनेषु हि । सव्वा उव्याच, होऊण च होऊण इति भवार्त। तेनेह नैव 'खादन्ति, धावन्ति' बहुलग्रहात्। 'अनत' इति च किमुक्तम् ?, यथा चिच्छ दुगुच्च च । चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो हस्वश्च । २४॥ सृजा रः॥ २२ ॥ चिज्यादीनामन्ते भवति णागमः, स्वरस्य हवश्च। सजो धातोरन्तिमस्य, रकारोऽप्र विधीयते । [चिचिण [जि ] जिण [७] सुण [४] हुणा, वोसिरामि योसिर, तथा निसिरह स्मृतम्। [स्तु] थुण [लू ] लुण [पू] पुण[धूग ] धुण तथा । शकादीनां द्वित्वम् ।। २३०॥ बहुलात कापि विकल्पो,जयह जिगह उच्चिणा च उच्चंद्र। अम्तिमस्य शकादीनां, द्वित्वं भवति, तद्यथा। जऊण च जिणिऊण च, तथैव सोऊण सुबिऊण । [शक ] सका [जिम ] जिम्मा [बर] लग्गइ, नवा कर्म-जावे वः क्यस्य च युक् ॥ २४॥ [मग मग्गा [कुप् ] कुप्पा [मुह पलाश च [तद] तहः । भाव-कर्मप्रवृत्तानां, चिज्यादीनां विभाषया । [नश् ] नस्सा [अद् ] परिअहः [नट ] म व्योऽन्ते, तत्सन्नियोगे च, क्यस्य लुक स्यादितीर्यते। दृइ [ सिव्] सिव्वा, अन्यदपि चैवम् । चिव चिणिज्जा, जिव्वद जिणिज्जा, स्फुटि-चन्नेः॥३१॥ सुव्वा सुणिज्जा, हुब्ब हुणिज्जा। स्फुटेश्चलेश्व बैंकलन्यं, द्वित्वमन्त्यस्य भाष्यते। थुच थुणिज्जा, मुब्बर लुणिज्जर, फुर फुट्ट तथा, रूपं चला चल्ला। पुग्धः पुणिज्जइ, धुब्बइ-धुणिज्जह । एवं चिठियहित्यादि. रूपं काले भविष्यति । प्रादेमीलेः ।। २३ ॥ म्पश्चः ।। २४३ ॥ प्रादेः परस्य मोलेर्वा, द्वित्वमन्त्यस्य बुध्यताम् । नाप-कर्मप्रवृत्तस्य, चिगो धातोर विभाषया । संमिल्लह तथा संमीला,मीलाइ तं बिना। म्मोऽन्ते, तत्मनियोगे च क्यस्य लुक स्यादितीयते । उवर्णस्यावः ॥ २३३ ।। वर्तमाने 'चिणिजश तथा चिम्मा चिया'। अवादेशस्तु धातूनामन्योवर्णस्य बुध्यताम् । 'चियिहि चिणिहिश, चिम्मिहिनविष्यति । [ह ] निदवा] निहवर, [कु] कवर प्रभृति स्मृतम् । [२] हवा हिवद । चिणचुण ! स्वर रोव। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) [सिकहेम.] आभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८ पा०४] इन्-वनोऽन्त्यस्य ।। २४४ ।। झो एन-जौ ।। १५ ।। धात्वोर हन-खसोरत्र, भाव-कर्मप्रवृत्तयोः। भाव-कर्मप्रवृत्तस्य, जानातेर्भवतः पदे । अन्त्यस्य वा स्याद् म्मः, तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तु बक। णव्यो गज्जव चा, तत्सन्नियोगे क्यस्य चास्तु लुक् । [ वर्तमाने ] यथा हम्मद खम्म, हणिज खणिजइ । णवणज्जइ, पक-जाणिज्ज मुणिज्जा। [भविष्यति ] हम्मिहि हणिहिद, खम्मिहि खणिहिह । 'म्न-झोर्ग:' [२।४२] इति णादेशे, णाइज्जहच सिध्यति । कर्तयपि हनोऽयं स्याद्, हन्तीत्यर्थे तु ' हम्मह'। न:पूर्वकस्य जानातर् 'श्रणाइज्जई' पठ्यते । कचिन्न रश्यते-'हन्तव्वं 'हन्तृण' 'हा' यथा। व्यागेाहिप्पः ॥ ३५३ ।। म्भो दुइ-लिह-वह-रुधामुच्चातः ।। २४५ ।। भावकर्मप्रवृत्तस्य, नवेद व्याहरतेः पदे। दह-लिह-बह-सुधधातुनां नो वाऽम्त्यस्य भावकर्मजपाम । चाहिप्पो वाऽत्र तत्सन्नियोग क्यस्यापि सुग्भवेत् ।। मुक च तत्सन्नियोगे क्यस्य, भवेद उद वहेरस्य । वाहिप्पड तथा वाहरिज्जइ स्यान्निदर्शनम् । स्याद् हिज्जा भइ, वा लिग्ना लिहिज्ज। पारनेराढप्पः ।। ३५४ ।। म्भ वहिज्जा रुब्न रुधिज्जा स्मृतम् । पारने कर्मभावे स्यात्, वाऽऽढप्पः क्यस्य चास्तु लुक् । दुभिहिर उहिहित्यादि काले भविष्यति । आढप्पर भवेत्, पके-'श्राढवीश्रा' सिध्यति । दहो म || २४६ ।। स्निह-सिचोः सिप्पः ।। २५५ ॥ भाव-कर्मप्रवृत्तस्य, दहो धातोर विनापया । स्निह-सिचाः कर्मभावे, सिप्प स्यात् क्यस्य चास्तु मुक् । जऊः स्यात्, अन्त्यस्य तत्सन्नि-योगे क्यस्यापि मुग प्रवेत् । 'स्निह्यते, सिच्यते' इत्येतयारर्थेऽत्र 'सिप्प। स्याद् वर्तमाने डज्जा, तथा रूपं डहिज्ज । अहेर्येप्पः ॥ २५६ ॥ 'डमिहिर डहिदिर ' इति काले भविष्यति । कर्मभावे ग्रहेर घेप्पो, वा भवेत, क्यस्य चास्तु लुक । बन्धो न्धः ॥ २४ ॥ यथा 'घेपर' इत्येतत्, पते गिपिहज्जर स्मृतम् । भावकर्मप्रवृत्तस्य, बन्धधातोर्विभाषया । स्पृशेश्चिप्पः ॥ १५७ ।। ज्कः स्याद् अन्त्ययोर तत्सनियांगे क्यस्य चास्तु बुक् । स्पृशतेः कर्मभावे स्याद्, वा छिप्पः, क्यस्य चास्तु लुक् । स्याद् वर्तमान वज्का, तथा बन्धिज्जा स्मृतम् । 'बमिहिर बन्धिहिर' इति काले प्रविष्यति । तेन 'विपक्ष' संसिद्धं, तथा रूपं 'गिविज्ज'। तेनाप्फुस्मादयः ॥ २५० ।। ___समनूपा,धेः ।। २४ ॥ प्राक्रमिप्रनृतीनां तु, धातूनाम् अप्फुमादयः । नावकर्मप्रवृत्तस्य, समनूपाद् रुस्तु वा । अप्फुसो आक्रान्तः, मक्कोसं उत्कृष्टं, लुग्गी रुग्णः। अन्त्यस्य वा ज्झः, तत्सन्नियोगे क्यस्यापि लुग भवेत् । चोलीणोऽतिक्रान्तः, पल्हाधं पोर्ट वा पर्यस्तम् । संरुज्झा अणुरुज्झा, उवरुज्झ भवति, पाक्तिकं तु यथा। संरुन्धिज्जा अणुरुन्धिग्ज उवरुन्धिज्जा जवति। . फुड स्पष्ट, विकसितो वोसट्टो, निमिअं स्विदम् । संरुज्किहित संरुन्धिहित्यादि भविष्यति । स्थापितं, चक्खिरं आस्वादित, क्तिप्तं तु कोसि। निपातितो निसट्टो स्याद, हीसमाणं न हषितम । गमादीनां द्वित्वम् ॥ २४ ॥ वा प्रमृष्टः प्रमुषितः, पम्हट्टो परिपठ्यते। . भावकर्मप्रवृत्तानां, गमादीनां विनाषया। लिहक्को नष्टो, जढं त्यक्तं, विढतं अर्जितं तथा । स्याद द्वित्वमन्त्यस्य तत्सनियोगे क्यस्य चास्तु सुक् । छित्तं स्पृष्टं, लुभं लूनं, भवेद् निच्छूढम धृम् । [गम् ] गम्मा गमिज्जा [हस] हस्सह इसिज्ज । श्त्यादयो चेदितव्या शब्दा सत्यानुसारतः। [भग] नएणड जणिज्जा [छुप ] छुप्प बुदिज्जा । धातवोऽर्थान्तरेऽपि ॥२५॥ [रु ] रुवा रुविज्ञ [लन ] लम्भ लहिज्ज । उक्तादर्थात प्रवर्तन्तेऽर्थान्तरेऽपीह धातवः। [कथ् ] कत्था कहिज्जा [भुज्ञ] भुज्जा मुजिज्जा। उक्को वलिः प्राणनेऽथें, खादनेऽपि स वर्तते । गम्मिहि गमिहिर्मत्यादि रूपं भविष्यति । यथा 'वल' खादति, प्राणनं च करोति वा। रुप-४।१२६ ] सूत्रेण कृतवाऽऽदेशोऽत्र रुदिरिष्यते । एवं कमिश्च संख्याने, संझानेऽपि स दृश्यते। ह-क-त-जामीरः ।। २५० ॥ यथा 'कल' जानाति, संख्यानं च करोति था । धातूनां ---मां स्याद, ईरादेशो विज्ञापया। रिगिर्गती प्रवेशेऽपि, 'रिंग' विशत्यति च । क्यलुक तत्सन्नियोगेच, भवेदित्युपदिश्यते । काबन्तेःप्राकृते वम्फो, 'वम्फ' खादतीच्छति । हीर हरिज्जा, कीर करिज्जा। फक्कतेः स्थक्क आदेशस्ततः सिध्यति 'थक्का'। तीर तरिज्जर, जीररु जरिरजह । नीचां गतिं करोतीति वा, बिलम्बयतीति वा । धास्वोर्विक्षप्युपानम्त्योर् महादेश तु 'झना'। अर्जेविढप्पः ।। १५१ ॥ तस्थार्थ उपालभते, वा विलपति भाषते। अर्जेविंढप्पो वा तत्सनियोगे क्यस्य चास्तु मुक्। एवं हि 'पडियाले', वा रक्षति प्रतीकते । निढप्पा, विढविग्जा, अज्जिज्जा पाकिकम् । केचित कैश्चिउपसर्गेनित्यमन्यार्थका मताः । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [ सिडहेम० ] 'सहरह' संवृति, स्वात् 'प' बुध्यते। 'अदर' तु खरशीभवतीति 'मीर' पुरोपति श्रीमति 'विहर,' 'शहर' च खादति, 'उच्चुप' चटति । पुनः पूरयति 'पमिहरद्द' स्यात् त्यजतीति 'परिहरह' रूपम् । 'उबर' पूजयति, 'बाइरह' तथा-55पति इत्यर्थे । याति विदेश 'पवसद्द,' निःसरतीत्यथ 'उल्लुदर' भवति । एवं बहुपसर्गात् बर्था धातवो बेथाः । इति प्राकृतभाषा समाप्ता । ॥ अथ शौरसेनी जापाऽऽरज्यते ॥ ASN तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ।। २६० ।। शौरसेन्यां तु भाषायामपदाद - तकारस्य दकारः स्याद्, न स युक्तो भवेद् यदि । तो मारना दिपदिन मन्ति अनादाविति किम् ? तस्स, तधा, नेह प्रवर्तताम * । अयुतस्येति किम मो अधः कचित ।। १६१ ।। शौरसेन्यां तु वर्णधोवर्तमानस्य तस्य दः । यथालयं, महन्दो निश्चिन्दो अन्देउरे यथा । वाssस्तावति ॥ २६२ ॥ तावच्छब्दे तकारस्य दो वा, दाव च ताच चं । आ आमन्त्रये सौ बेनो नः ।। २६२ ।। इनो नकारस्याऽऽमन्ध्ये वाऽऽकारः सौ परे यथा । 9 भो सुदिश्रा ! कचुआ ! जो तबस्सि ! मणस्सि ! वा । [१] मो वा ।। २६४ ॥ श्रामन्त्रये सौ परे नस्य, मकारो वा विधीयते । भी राय ! भी सुकम्मं !, जो भयवं कुसुमाउह ! | पं तु भव!! प्रयुज्यते । भवद्भगवतोः || २६५ ॥ भवद्-भगवतोर्नस्य, मकारः सौ परे भवेत् । भवं चिन्तेदि किं एत्थ, भगवं ! च हुदास । [२] कवियत्रापि यथा-गाये। कयवं, संपा सीसो काहं करेमि च । नवा र्यो य्यः ।। २६६ ।। वाथ्यो र्यस्य भवेत् स्थाने. 'अय्यां सुय्यां' प्रपठ्यते । पक्ष कज्जपरवसा, श्रज्जो पज्जाउलो यथा । यो धः ।। २६७ । थस्य घो वा, यथा-णाघो णाहो वा स्यात् कथं कहूं । अपदादावेव, 'थामं, थेश्रो' नेह धकारता । हास्य ।। २६८ ॥ [१४३] चहकारस्य घोऽस्तु पा ध, हांध, द्वयं पके-श्, होह निगद्यते । यो नः ।। २६ ।। भवस्य भो वा स्याद्, भोदि होदि यथा द्वयम् । * तथा करेध जधा तस्स राइसिणो श्रणुकंपणीया होमि । [६] पके। [२] समये भगवं महावीरे । तथा भुवदि हुवदि, भवदि हवदि स्मृतम् । पूर्व पुरः || २७० ।। पूर्वशब्दस्य 'पुरव' इत्यादेशो विकल्प्यते । यथारखं ना पपई नम् वत्व इयौ ।। २७१ ॥ [अ० पा० ४ ] त्याप्रत्ययस्य वा स्याताम, 'श्य-दू' यथाक्रमम । यथा 'भविय' 'भोदूण, ' पक्के 'जांता' प्रयुज्यते । कृ-गमो ममुयः ॥ २७२ ॥ - गमियां परस्य क्त्वः, स्थान वा 'अरुओ' ऽस्तु डित् । सिद्धं करु गरुन, पक्षे रूपं निशम्यताम् । छ, तथा करय गय दिरिथेचोः ।। २७२ ॥ कर दिर इचेचोः [३|१३६] भवेद्, नदि देदि भोदि च होदि च । तो देव || २७४ ॥ अतः परयोर् इचेचो, स्थाने 'दे दि' इमौ क्रमात् । तथा सिद्ध अ अतः किम् ? स्याट् 'वसुआदि' 'नेदि, भोदि' यथाऽत्र न । भविष्यति हिसः ॥ २७५ ॥ भविष्यदर्थे विहिते, प्रत्यये परे भ हिस्साहासपवादोऽयं, तथा रूपं भविस्सिदि । तो उसे र्मादे - मादू || २७६ ।। अतः परस्य तु उसे:, 'कादो जादु 'इमौ कितौ । 'दूरादो ध्येय राद्वयं सिकिसृष्वति । इदानीमो दाणिं ।। 299 ॥ इदानीमः पदे ' दाणि ' इत्यादेशो ऽभिधीयते । 'अय्यो दाणि श्राणवेदु' व्यत्ययात् प्राकृतेऽपि च । अतस्तत्रापि 'अन्नं च दाणि बोहिं ' प्रयुज्यते । तस्मात् ताः ।। २७८ ॥ तस्माच्छब्दस्य 'ता' इत्यादेशो भवति, तद्यथा । 'माणेण एदिणाऽयं ता,' 'ता जाव पबिरामि च' । मोऽन्त्याएणो वेदेतोः ॥ २७७ ॥ देतोः परयोर्यद् मान परो खागमोऽस्तु पा [इकारे] जुत्तं णिमं जुतमिणं, [एकारे] किं खेदं वा किमेव । एवार्थे ध्वेव || २०० li . एवार्थे श्येव ' इति तु निपातोऽत्राभिधीयते । L मम य्येव बम्जणस्स, एसो सो य्येच ' पठ्यते । हुड चेट पाहाने || २०१ || भजे जे बरके !' यथा । हीमाणडे विस्मय-निर्वेदे ॥ २०२ ॥ . ही माण' निपातोऽयं, निर्वेदे चिस्मये तथा । [ विस्मये ] जीवन्त था जणी मे हमारा यथा । [निय]माण किया। नम्पर्ये ।। २८३ ॥ नयमित बुधाः संप्रयुज्यते । 6 भय्य मिस्सेहि आणतं, पुढमं य्येव णं ' यथा । इदम् आ पदं वाक्यालङ्कारेऽपि च दृश्यते । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४५) [सिबहेम.] अनिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [प्र. पा.४] नमोत्थु णं, जया णं च, तया णं, चैवमादयः। [स्थ ] ग्वस्तिदे हास्तिदे [2] शस्तवाहेऽस्तवदी यथा । अम्महे हर्षे ।। २८४ ॥ ज-ध-यां यः ॥ २॥२॥ 'अम्महे ' इति निपातो, हर्षे ऽर्थे संप्रयुज्यते । पदाऽवयवभूतानां, ज-द्य-यानां पदेऽस्तु यः। 'भव सुपलिगढिदो, सुम्मिनाए च अम्महे'। [ज ] अय्युण दुय्यण [I] मध्य,अय्ये विख्याहने [य] यदि । हीह। विपकस्य ॥ २०५॥ श्रादेयों ज-[२२२४५] स्य बाधाथै, यस्य यत्वं विधीयते। ड विदूषकाणां तु, द्योत्ये 'हीही 'निपात्यते । न्य-एय-इ-जां नः ॥ २६३ ।। 'हाह। पियवयस्सस्स, भो संपन्ना मणारधा' । 'न्य-य--ज' अमीषां तु, द्विरुक्तो ओ विधीयते । शेष प्राकृतवत् ।। १८६ ।। [न्य ] का [ण्य ] पुनं च [क] शब्ब, दीर्घ[१४]तो दो-[४।२६०]ऽनयोर्मध्ये,सत्रयोर् यद्यदीरितम्। [ज] अमली च धणजए। तत् सर्व कार्यमत्रापि बोध्यं, भेदस्तु दर्शितः [१]। वजा जः॥ एव॥ इति शरसेनी भाषा समाप्ता। बजे जस्य हिरुको ओ, यापवादोऽस्तु, 'वादि'। ॥ अथ मागधी नाषाऽऽरज्यते ॥ छस्य श्चोऽनादौ ॥२५॥ अनादौ वर्तमानस्य, ग्स्य श्वः संविधीयते । अत एत सौ पुंसि मागध्याम् ॥ १८७॥ 'पिश्चिले, उश्चयदि, पुश्चदि, गश्च' निदर्शनम् । मागध्यां सौ परऽकारस्यैकारः पुंसि जायते । अयं लाक्षणिकस्यापि, यथा आपन्नवत्सलः। एशे मेशे एष मषः, एशे च पुलिशे तथा । 'भावनवच्छो' चैतद्, भवेद् 'आवन्नवचने'। 'भो भदन्त ! करोमीति भवेद् 'जन्ते! करेमि भो'। अनादाविति किम ? 'गो' नेह श्चत्वं भवद् यथा । अतः किं नु ? 'कली' रूपं, किं पुंसीति ? 'जा' यथा। [२] क्षस्य ४ कः॥५६॥ र-सोल-शौ ॥ २८ ॥ ल-तालव्यशकारौ स्तो, रेफ-दन्त्यसकारयोः। अनादौ क्षस्य को जिह्वामूलीयो, 'लकशे' यथा । [२] नल कने [स] शुदं हंशे (उभयोः) शालशे पुलिशे'तथा। स्कः प्रेक्षा-चक्षोः॥॥७॥ "लहश-वश-नमित्र-शुस-शिव-विअसिद-मन्दान-सायिदहि-युगे। प्रेक्षेर् धातोस्तथाऽऽचक्के, तस्य स्कः कस्य बाधकः । वील-यिणे पक्खाल, मम शयलमवय्य-यम्बालं"। प्राचस्कदि पेस्कदि च, वयं सिकिं समश्नुते । स-पोः संयोगे सोऽग्रीष्मे ॥ ६ ॥ तिष्ठश्चिष्ठः॥२ ॥ संयोगे स-षयोः सः स्याद्, न तु ग्रीष्मे कदाचन । कल लोपादिसूत्राणामपत्रादोऽयमीरितः। स्थाधातोस् 'तिष्ठ' इत्यस्य, 'चिष्ठो' भवति, चिष्ठदि । [स] हस्ती वुहस्पदी मस्कली पस्खबदि विस्मये । अवर्णाद्वा सो डाहः॥ २७॥ [प] कस्टं, विस्नु, शुस्क-दालुं, धनुस्खएमं च निस्फलं। प्रवर्णात् परस्य तु उसः, स्थाने डाहो विकल्प्यते । * अग्रीमे' इति किम् ? 'गिम्ह-वाशो' नेह सो भवत् । 'एलिशाह हगे काली न कम्माह' प्रयुज्यते । ह-ठयोः स्टः ॥ २० ॥ 'भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि' तु पाक्तिकम् । द्विरुक्त-टस्य, पाऽऽक्रान्त-उस्य 'स्टो' भवति द्वयोः। प्रामो माह वा ॥ ३००॥ [] पस्टे, जस्टालिका,[ष्ठ] कोल्टागालं, शुस्टु कदं'यथा। प्रवाद उत्तरस्याऽऽमो, विभाषा 'माह. हन्यते । स्थथयोस्तः ॥१॥ शयणाई सुहं, पक्षे 'नबिन्दाणं' इति स्मृतम् । 'स्थ-र्थ' स्स्येतयोः स्थाने, साक्रान्तस्तो विधीयते ।। व्यत्ययात् प्राकृतेऽपि स्यात्, तदाहरणं यथा । [१] शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत्कार्यमुक्तं ततोऽन्यच्छौर- ताहँ तुम्हार अम्हाह, कम्माहँ सरिमाह च । सेन्यां प्राकृतवदेव भवति । 'दीर्घ-हस्थी मिथो वृत्ती' [१४] अहं-वयमोहगे ॥ ३०१॥ इत्यारज्य. 'तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य' [४॥२६०] ए. तस्मात् सूत्रात् प्राग् यानि सूत्राणि एषु यान्युदाहरणानि तंषु 'हगे' इत्यमादेशः, पदेऽहं-वयमोर् भवेत् । मध्य प्रमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्या भवन्ति, अमूनि पुनरेवं. 'शकावदालतित्य-णिवाशी च धीवसे हंगे। विधानि जवन्तीति विनागः प्रतिसूत्रं खयमन्यूय दर्शनीयः। शेषं शौरसेनीवत् ॥ ३०॥ यथा अन्दावेदी । जुवदि-जयो । मणसिला इत्यादि। [२] बदपि "पोराणमय-मागह-भासा-निययं हवा मागध्यां यदनुक्तं तच्चौरसेनीवदिप्यते [१]। सुतं"श्त्यादिनाऽर्षस्य अर्द्धमागधनापानियतत्वमानायि बृ. [३] 'शष प्राकृतवत्' [४-१७६] मागभ्यामपि दोघंहस्थी मिबैस्तदपि प्रायोऽस्यैव विधानान वक्ष्यमाणलक्षणस्य । कयरे थो वृत्ती'[१-४] इत्यारभ्य 'तो दोऽनादी शौरसेन्यामयुप्रागरुका।से सारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए इत्यादि । तस्य'[४-२६०] इत्यस्मात् प्राग यानि सूत्राणि तेषु यान्यु* रभसवशननसुरशिरोविगलितमन्दारराजिताहियुगः। दाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये अनि तदरस्थान्येव मागभ्याममूबीरजिनःप्रक्षालयतु, मम सकलमवाजम्बालम। नि पुनरेवंविधानि भवन्तीति विभागः स्वयमत्यूख दर्शनीयः। १२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिबहेम.] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८ पा. ४] यथा 'हजे'[ ४।२८१] चदुरिके, हज्जे चदुलिके, इह । कृगो मीरः॥३१६॥ इति मागधी जाषा समाप्ता। कृगः परस्य 'मोर' तु, क्यस्य स्थाने, विधीयते । 'सम्मान कीरते सम्वस्स य्येव' तु निदर्शनम् ॥ ॥अथ पैशाची नाषाऽऽरज्यते ॥ __यादृशादेऽस्तिः ॥ ३१७ ॥ यारशादिपदे यो ',' तस्य तिः क्रियते पदे। झो अः पैशाच्याम् ॥ ३०३ ॥ यातिसो तातिसो युम्हातिसो अम्हातिसो तथा । पैशाच्यां भाषायां, इस्य पदे तो विधीयते, स यथा। केतिसो पतिसा अनातिसो चैव नवातिसो। पञ्मा सञआ सवओ विज्ञान तथा प्रानं । इचेचः ॥ ३१ ॥ राझो वा चिञ् ॥ ३०४॥ 'इचे चोः'(३।१३६] तिः, नेति तेति,वस्त्राति च भोति च । 'राक' इत्यत्र शब्दे यो, कारस्तस्य वाऽस्तु चिम् । श्रात्तश्च ॥ ३१॥ राचिप्रा लपितं, रआ अपित, राचिनो धनं । अतः परयोर् श्वेचोः, पदे ' ते ति' इमौ मतो। रमो धन, इत्येव, 'राजा' नेह प्रवर्तते । गच्छते गच्चति यथा-ऽऽदिति किम् ? नेति होति च॥ न्य-एयोजः ॥ ३०५ ।। भविष्यत्येय्य एव ॥ ३२०॥ न्यायोः स्थाने 'अ' श्रादेशः, 'पुजाहं, कमका' यथा। एग्य एव न तु स्सिः [धा२७५] स्याद्, इचेचोस्तु, भविष्यति । यो नः ॥ ३०६ ॥ तद्भून चिंतितं रञा, का एसा तं हुवेय्य च ॥ अतो डसेर्मातो-डातू ।। ३२१ ॥ णस्य नः स्यात्, 'गुनगनयुत्तो' यद्वद् 'गुनेन' च । अतः परस्य तु उसेः, 'डातो मातू' श्मौ मतौ। तदोस्तः ॥ ३०७ ॥ यथा-तूरातु तूरातो, तुमातो च तुमातु च ॥ त-दयोस्तो, [नस्य भगवती पव्वती च सतं यथा । तदिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए ॥ ३२॥ [दस्य पतेसो सतनं तामोतरो रमतु होतु च। सार्धं टा-प्रत्ययेन स्याद्, 'नेनो' तदिदमोः पदे । तकारस्यापि तादेश आदेशान्तरबाधकः। स्त्रीलिङ्गे तु तयोरेव, 'नाए ' इत्यनिधीयते ॥ 'पताका, वेतिसो' इत्याद्यपि सिकं ततः पदम् । •नेन कत-सिनानेन तत्थ' पुसि, स्त्रियां पुनः । लो ळ: ॥३०॥ पातम्ग-कुसुम-पतानेन नाए च पूजितो॥ लस्य ळः स्यात्. कुळं सीळं कमळं सळिळं जळं । टेति कि? चिन्तयन्तो ताए समीपं गतो च सो।' शपोः सः ॥ ३०६ ॥ शेषं शौरसेनीवत् ।। ३३ ।। श-पयोःसः शस्य]ससी सको,[षस्य किसानो विसमो यथा। पैशाच्यां यदनुक्तं तच्चौरसेनीवदिष्यते ॥ 'न कगचेति' [४।३२४] सूत्रस्य, बाधकोऽयं विधिः स्मृतः। विशेषो दर्शितः सर्वः, तथापीपन्निशम्यताम । [१] हृदये यस्य पः ॥ ३१० ।। न क-ग-च-जादि-षट्-शम्यन्त-सूत्रोक्तम् ॥ ३२४ ।। हदये वस्य पस्तेन, सिर्फ हितपक' पदम् । क-ग-चः [१।१७७ ] षट्-शमी-[ ११२६५] इत्येटोस्तुर्वा ।। ३११ ॥ तयोर् मध्येऽपि सूत्रयोः। यत् काय दार्शतं सर्व, न तदत्र प्रवर्तते । टोः स्थाने तु तुरादेशो, विभाषा संप्रवर्तते। मकरकेतू, सगरपुत्त-वचनं, अपितं । कुतुम्बकं ततः सिद्ध, तथा रूपं कुटुम्बकम् । विजयसेनेन, पाप, श्रायुधं चैव तेवरो। क्त्वस्तूनः ॥ ३१२ ॥ अन्येषामार्प सूत्राणामेवमूह्यं मनीषया । तूनः क्त्वाप्रत्ययस्यास्तु, गन्तून हसितून च । इति पैशाची भाषा समाप्ता। छून-त्नौ ष्ट्वः ॥ ३१३ ॥ 'हा' इत्यस्य पदे 'खून-त्थूनौ' तूनस्य बाधकौ । ॥ श्रथ चूलिकापैशाचिकनाषा प्रारज्यते ॥ नवून नत्थून तन तत्थून इति स्मृतम् । र्य-स्न- रिय-सिन-सटाः कचित ॥ ३१४ ॥ चधिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराद्य-द्वितीयौ ॥ ३२५ ॥ स्न-य-टानां सिन-रिय-सटाः स्युः फमतः कचित् । नापायां चूलिका-पैशाचिकारुयायां यथाक्रमम । भार्यात भारिया वेद्या, सिनातं स्नातमुच्यते । तृतीय-तुर्ययोर् आद्य-द्वितीयौ वर्गवर्णयोः। कष्टं तु कसटं बोध्यं, अयमेतदुदाहृतम् । [१] अध ससरीरो जगव मकरधज।। एत्थ परिभमन्तो हकचिदिति कि ? सुनुसा, सुज्जो ति हो यथा भवेत् ॥ वेय्य । एवंविधाए भगवतीए कधं तापस-वस-गहन कतं । क्यस्येय्यः ॥ ३१५॥ एतिसं भतिहपुरवं महाधनं तद्धन । जगवं यदि मं वरं पयसि क्यप्रत्ययस्य तु स्थाने, श्य्यादेशोऽनिधीयते । राजं च दाव लोक । ताव च तीए दूरातो य्येव तिछो सो भागरमिय्यते गिय्यते दिय्यते चैव पचिय्यते। च्चमानो राजा। Jain Education Interational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) [सिद्धहम०] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । _ [अ० ८ पा० ४] नगर नकर तेन, मेघो मेखः प्रयुज्यते। अन्यासां च विभक्तीनामेवमृह्यं निदर्शनम् । एवं पञ्चसु वर्गेषु, लक्ष्य बोध्यं मनीषितिः। स्यमोरस्योत् ।। ३३१ ॥ कविल्लाकणिकस्यापि, पदे कार्यमिदं भवेत् । अत उत्वं स्यमोः, 'चमुह छमुहु' सिध्यतः । दाढा ताना ततो बोध्या, पमिमा पटिमा तथा । "दहमुह जुवण-भयंकरु तोमिय-संकरुणिग्गउरहवरि चमिअउ। रस्य सो वा ॥ ३२६॥ चनमुदुग्मुहु मावि एकहि बाइविणावर दवे घडिअ[१]॥ रस्य स्थाने लकारः स्यात्, गौरी 'गोली हरो 'हलो'। "पनमथ पनय-पकुपित-गोली-चसनम्ग-लग्ग-पतिविम्बं । सौ पुंस्यौदा ॥ ३३॥ तससु नव-तप्पनेसुं, एकातस-तनु-थलं लुई। नाम्नोऽकारस्य सौ पुस्योद् वा, 'जो' 'सो' यथा भवेत् । नच्चन्तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कम्पिता वसुथा। "अगलिश्र-नेह-निचट्टाहं जोअणनक्खुवि जाउ । सच्चल्लन्ति समुद्दा, सइला निपतन्ति तं हझं नमथ" [२] वरिस-सपण वि जो मिल सहि सोक्खहं सो गाउ"[२]॥ नादि-युज्योरन्येषाम् ॥ ३७॥ पुमीति किम्अन्येषां तु मते, धाता युजि चाऽऽदिमवर्णयोः । "अङ्गर्हि अङ्गन मिलित हलि! अहरें अहरु न पत्तु । तृतीय-तुर्ययोराद्यद्वितीयौ जवतो न तौ । पिय जोअन्तिहे मुह-कमलु एम्बइ सुरउ समनु" [३] । यथा नियोजितं' इत्येतद् अत्रापि नियोजितं'। गतिर् 'गती' तथा घर्मो, 'धम्मो' विद्वद्भिरुच्यते। टायाम एवमकारस्य, वसन्तेण बहेण च । शेषं प्राग्वत् ।। ३२० ॥ "जे महु दिमा दिअहडा, दश्ए पवसन्तेण । अत्रानुक्तं तु यत् कार्य, तत् पैशाचीवदिष्यते । ताण गणतिएँ अहलिउ जजरिबान नहेण" [४] ॥ यथद नस्य गात्व म, णस्य नत्वं तु सर्वतः । डिनच ॥ ३३४।। इति चूलिका-पैशाचिकभाषा समाप्ता। श्देती स्तो डिना साकम् , अकारस्य पदे यथा। अथापभ्रंशभाषाऽऽरभ्यते। 'तल घल्सर' इत्यत्र, 'तलि घल्लइ' वेष्यते । "सायरु उपरि तणु धरइ तसि धब्बइ रयणाई। स्वराणां स्वराः प्रायोऽपनशे ॥ ३२॥ सामि सुभिच्चु वि परिहर३, संमाणेइ खलाई" [५] ॥ अपभ्रंशे स्वराणां तु, स्थाने प्रायः स्वरा मताः। जिस्यद्वा ।। ३३५।। यथा-बाहा बाह वाहु, किनी च किलिनो। अत एत्वं वा भिसि स्याद्, 'गुणेहिं गुणहिं' यथा । 'अत्रापञ्चश-भाषायां, विशषो यस्य वक्ष्यते । " गुणहिं न संपद कित्ति पर फल लिहिश्रा नुञ्जन्ति । तस्यापि शौरसेनीवत् , कार्य प्राकृतवत् क्वचित् । केसरि न लहर बोडिअवि गय लक्खदि घेप्पन्ति" [६] ॥ इत्यर्थबोधकः 'प्रायःशब्दः' सूत्रे नियोजितः । स्यादौ दीर्घ-हस्त्रो॥ ३३०॥ प्रायः स्यादौ दीर्घ-हस्वी, स्तो नाम्नोऽन्त्यस्वरस्य तु । अतः परस्य 'हे हु'इत्यादेशी स्तो ङसेः पदे । वच्छहे वच्चहु यथा, रूपं वैज्ञापिकं मतम् । [सौ] "ढोल्ला सामत्रा धण चम्पा-वमी। "वच्छहे गिराहइ फलई जणु कपल्लव बजे। णा सुवा-रह कस-वट्टर दिली ॥ [आमन्व्ये ] ढोखाम तुहुं वारिया, मा कुरु दीहा माणु। तो वि महहमु मुभा जिव, ते उच्छनि धरेड" [७] ॥ निदएँ गमिही रत्तमी, दडवर होश विहाणु ॥ ज्यसो हुँ ।। ३३७॥ खियाम 1 विट्रोए ! म भणिय तुहुँ, मा कुरु वङ्की दिछ। अतः परस्य त पश्चमी-बहुवचनस्य हुम् पात। पुत्ति ! सकम्मी नव जिवं, मार दिप पइदि। [जसि ] ए ति घोडा एह थलि ए ति निसिश्रा स्वग्ग । [१]दशमुखोभुवनजयङ्करस्तोषितशङ्करो निर्गतो रयवरेचटितः। पत्थु मुणसिम जाणिक, जो नवि वाला वग" [२] ॥ चतुर्मुखं पम्मुखं च ध्यात्वैकस्मिल्लागत्वा शायते देवेन घटितः॥ [३] प्रणमत प्रणयप्रकुपितगौरीचरणाग्रलमप्रतिविम्बम् । [२] अगलितस्नेहनिवृत्तानां योजनल कमपि यात।' वर्षशतेनापि यो मिलति सखि! सौख्यानां स स्थाने । दशसु नखदपेणषु एकादशतनुधरं रुम । नृत्यतश्च लालापादोरकेपेण कम्पिता वसुधा । [३] अङ्गैरङ्गंन मिलितं सखि ! अधरेऽधरो न प्राप्तः । उच्छलन्ति समुद्राः शैला निपतन्ति तं हरं नमत । प्रियस्य पश्यन्त्या भुखकमलमेवमेव सुरतं समाप्तम् ॥ [२] नायकः श्यामलः प्रिया चम्पावर्ण । [४] ये मम दत्ता दिवसा दयितेन प्रवसता। प्रायते सुवर्णरेखा कपपट्टके दत्ता ॥ तान् गणयन्या अइल्यो जर्जरिता नखन ॥ नायक ! मया त्वं वारितो मा कुरु दीर्घमानम् । [५] सागर उपरि तृणं धरति तले विपति रत्नानि । निध्या गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं भवति विभातम् ॥ स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति समानयति सलान् ॥ पुत्रिके ! मया त्वं भणिता मा कुरु वक्रां दृष्टिम् । [६] गुणैन संपदः कीर्तिः परं, फलानि विस्मितानि नुञ्जन्ति । पुत्रि! सकी भल्लियथा, मारयति हृदय प्रविष्टा ॥ केसरी न लजत कपर्दिकामपि गजा लकैगृह्यन्ते ॥ एते ते घोटका एषा स्थली एते ते निशिताः खगाः। [७] वृक्काढ गृह्णाति फलानि जनो कटपल्लवान् वर्जयति । अत्र मनुष्यत्वं ज्ञायते यो नापि वायति वल्गाम ॥ ततोऽपि महाद्रुमः सुजनो यथा, तान् उत्सरे धरति । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) [सिघहेम.] श्रभिधानराजेन्द्र पगिशष्टम् । [अ०८ पा०४] "दूरुड़ाणे परिउ खबु, अप्पणु जणु मारेर । "विपित्र-आरउ जवि पिन, तोवि तं प्राणहि अज्जु । जिद गिरि-सिङ्गहु पमिअसिन अन्नु वि चूरु करे।" [१]। अग्गिण दला जइवि घरु तो ते अग्गि कज्जु"[१] ॥ डन्तः सु-हो-स्सवः ॥ ३३०॥ स्यम् जस-शसां बुक् ।। ३४४।। अतः परस्य सः पदे 'स्सु सु हो' इमे भवन्ति । . स्यम-जस्-शमां लुगवास्तु, स्यम्-जसा स्यम-हासां यथा-1 'तमु सुमणस्सु परस्सु वा, दुष्यहहो' निगदन्ति । "ए ति घोडा एह थबि ए ति निसिआ खग्ग । " जो गुण गोवा अप्पणो, पयडा करह परस्सु । एत्यु मुणीसिम जाणिभर जा नवि वान वम्ग"। तसु हउं कलिजुगि उल्लहहो बलि किम्जउंसुअणस्सु"[२]॥ [अत्र स्यमजसा सुक] आमो हं ॥ ३३ ॥ "जि जिव बंकिम लोश्रणहं णिरु सामलि सिक्ख। अतः परस्य 'ह' श्रामः, पदे स्यात, 'तणहं' यथा। तिव तिव वम्मदु निप्रय-सरु खर-पत्थरि तिक्खइ" [२]। " तणहं तइज्जी भङ्गि नवि ते अवड-यमि वसन्ति । [अत्र स्यमशसां लुक् ] अह जणु लग्गिवि उत्तर अह सह सई मज्जन्ति " [३] ॥ षष्ठयाः ॥ ३४॥ हूं चेदुदज्याम् ॥ ३४०॥ षष्ठ्याः प्रायो सुगत्रास्तु, तदाहरणं यथा। भ्यां तु परस्याऽऽमो, भवेतां हुं हम' इत्यम् । "संगर-सअपहिं जु वमिअइ देक्यु अम्हारा कन्तु । सिकं 'सउणिहं' तेन, 'तरुडे'च पदद्वयम् । अइमत्तहं चत्तकसहं गय-कुम्भ दारन्तु" [३] । प्रायोऽधिकाराद् 'हुँ' काऽपि, सुपोऽपि 'हुम्' इत्यपि । पृथभ्योगः कृतो वक्ष्यानुराधार्थोऽत्र सूत्रयोः । "दइव घडाव वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई । आमन्त्र्ये जसो होः॥ ३४६ ।। सो बरि सुक्खु पर णवि, कमहिं खल-वयणाई" [४]॥ श्रामव्यर्थे जसः स्थाने 'हो' स्याल्लोपस्य बाधकः । डासि-ज्यस्-डीनां हे-हुं-हयः ॥ ३४१ ।। म्याद् अप्पहो तरुणिहो, तथा तरुणही यथा । दुदुन्यां तु परेषां भ्यस्-ङसिङीनां हि-दु-हयः'। निस्सुपोहि ॥ ३४७ ॥ [ङसेहें] तरुहे [भ्यसो हुँ ] तरुडं रूपं, भिस्सुपोर् 'हिं' भवेत, सुप] मम्गहिनिस्] गुणेहिं प्रयुज्यते। तथा [ र्हि ] कलिहि सिध्यति ॥ . स्त्रियां जस्-शसोरुदोत् ।। ३४८ ।। "गिरिहे सिलायमु तरुहे फझु घेप्पइ नीसावन्नु । स्त्रियां लोपापवादौ द्वावुदाती जस्-शसोः पृथक । घरु मेवेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुश्चइ रन्नु । यथा-जजीरयाओ अंगुलिउ स्याद द्वयं जसः। तरहुं वि वलु फझु मुणि वि परिहणु असणु बहंति । 'विलासिणीओ सुन्दर-सम्वङ्गान' शसः स्मृतम् । सामिहुँ पत्तिउ अगलउं पायरु भिच्चु गृहन्ति" [५]॥ यथासंख्यनिवृत्यर्थो, भेदोऽत्र वचनस्य तु । प्राट्टो णानुस्वारौ ॥ ३४२ ।। टए ॥ ३४॥ अतः परस्याष्टायास्तु, णानुस्वारी मती, पदे । 'दइएं पवसन्तेण,' द्वाविमौ सिकिमृच्चतः । स्त्रियां टायाः पदे म्याद 'ए' चन्दिमए च कन्तिए । “नियमुह फराहि वि मुद्ध कर अन्धार पडिपक्खा ॥ एं चेदुतः ॥ ३४३ ॥ ससिमरामन चन्दिमए पुणु कान दूरे देवस्व"[v] ज्यां टा-पदे 'पं'चात् णानुस्वारी, मसालयः। डन्स-डन्स्योहे ॥ ३५ ॥ अतः सिध्यन्ति रूपाणि, 'अगि अग्गिण अग्गिएं। "अम्गिएँ उएहन होइ जगु, वाएं सीयल तेवें। त्रियां 'हे' अस्डस्योः स्याद् , धणहे बालहे यथा । जो पुण अग्गि सीअला, तसु उण्डत्तणु केव" [६] ॥ ज्यसामोर्तुः ।। ३५१ ॥ [१] दूरोडानेन पतितः स्खल आत्मानं जनं मारयति । स्त्रियां च्यसामोः स्थाने हुः, 'वयंसिअहु' गद्यते । यथा गिरिशुओं पतिता शिला (स्वम) अन्यमपिचूर्णीकरोति डेहि ।। ३५॥ [१] जो गुणान् गोपयति आत्मनः, प्रकटीकरोति परस्य । त्रियां उहि, यथा 'मह्याम् ' श्त्येतत् 'महिहि' स्मृतम् । तस्याहं कलियुगे दुर्लनस्य वलिं क्रिये सुजनस्य ।। क्लीवे जस्-शसोरिं ।। ३५३ ॥ [३] तृणानां तृतीया भङ्गी नापि, ततो अवटतटे वसन्ति । अथ जनो लगित्वाऽपि उत्तरति अथ सह स्वयं मजन्ति"॥ कीये'ई' जस्-शसाः स्थाने, 'गएमाई''कु' यथा । [U] देवो घटयति बने तरुणा शकुन्तानां पकफलानि । [३] विप्रियकारको यद्यपि प्रियस्तथाऽपि तमानयाद्य । तद् वरं सुखं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि "॥ अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं ततोऽपि तेनाग्निना महत्कार्यम् ॥ [५] गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्णाति निःसामान्यः। [२] यथा यथा वक्रत्वं लोचनानां श्यामला शिकते। गृहं मुक्त्या मनुष्येन्यः ततोऽपि न रोयतेऽरण्यम् ॥ तथा तथा मन्मथो निजशरान् खरप्रस्तरे तीक्ष्णयति ॥ तरुन्योऽपि बटकलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते । [३] संगरशतषु यो वर्यते पश्य मदीयं कान्तम् । स्वामिन्य इयदलमायं भृत्या गृहन्ति । अतिमत्तानां त्यक्ताङ्कशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् । [६] अमिनोष्णं भवति जगत् वातेन शीतलं तथा। [] निजमुखकरैरपि मुग्धा करमन्धकारे प्रत्यवेक्वते । यः पुनराननाऽपि शीतलस्तस्योष्णत्वं कथम?॥ शशिमएकलं चन्छिकया पुनः कथं न दूरे पश्यति॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सिद्धम० ] कान्तस्यात जं स्यमोः ॥ ३५४ ॥ क्लीचे ककारान्तनानोऽत 'चं ' स्यात् परयोः स्यमोः । परिभ तुच्छ, भग्गनं चाऽभिधीयते । सदेही ।। २५५ ॥ अभिधान राजेन्द्रपरिशिष्टम् । सर्वादीनामका रास्ता सदस्यां तहां किमो मिहे वा ॥ ३६ ॥ किमदन्ताद् उसेर वा स्थादू, 'मिहे' रूपं 'किहे यथा । डेहि || ३५७ || सर्वाद। नामकारान्तादू: डे: स्थाने 'हिं ' यथा 'जहि ' । यत्तरिया मावा ॥ ३५८ ॥ यत्ततकिभ्यो ङलो डासुर्, अदन्तेभ्यो विकल्प्यते । जासु तासु तथा कासु, सद्भिरेवं निगद्यते । स्त्रियां हे || ३५ ॥ यत्तत्कियो ' उहे ' वाऽस्तु, उसः स्थाने स्त्रियां यथा । जहे तहे कहे बेतत यं सिद्धि । यादः स्वमो मे ।। ३६० ।। यत्तदोस्तु पत्रे 'धुं' 'त्रं,' वा स्यातां परयोः स्यमोः । नाहु प्रङ्गणि चिदि, धुं रण करदि न । इदम इनुः क्लीवे ।। ३६१ ॥ 3 मुः स्यादिदमः की, स्वमोर, मुकुलु' स्मृतम् । एतदः स्त्री-पुं-की एह एहो एडु ।। १६२ ।। स्त्री-पुं-पह यहां पहु स्पा मोः। 'कुमारी यह' वा 'या' 'हो न स्मृत - शसोः ।। २६३ ।। " " " दोस्तो यह विति पेड़ या । दस || ३६४ ॥ अदसो जस-शस ओर, ओमिति पेच्छया । इदम आयः ।। २६५ ।। " आयः स्याद्, इदमः स्यादौ, आग्रहो श्रायां यथा । सर्वस्य साहो वा ।। २६६ ।। सर्वशब्दस्य सादी वा सिद्धं साहू विवि किमः काकवी वा ।। २६७ ।। चा किमः 'कवणो काई, काई दूरे न देक्खर । 'जण कज्जे कवणेण, ' पक्के 'गज्जहि किं खल' । सौ तुहुं ।। ३६८ ।। युष्मदः युष्मदः सौ 'तुहुं' इत्यादेशः स्यात् त्वं 'तुहुं' ततः । जम्- सांस्तुम्हे तुम्हई ।। २६ ।। युष्मदो जस-सोस तुम्हे तुम्हरे व पृथक पृथक। जाणढ तुम्ह तुम्हे, तुम्हे पेच्छा तुम्हई । यथासंख्यनिवृत्त्यर्थो, नेदोऽत्र वचनस्य तु ॥ " भिसा तुम्हेहिं ।। ३७१ ॥ • युष्मदस्तु भिसा खार्क, तुम्देदि इति पठ्यते । १३ टा-ङयमा पई तई ॥ ३७० ॥ 'मम दा ङि' इत्येतैः सार्ध, युष्मदस्तु 'तरं ' पई ' । ' त्वां त्वया त्वाय' इत्येषां स्थाने वाच्यं ' त' परं ' | (82) [अ००पा० ४] दिज्यांत तु तु ॥ ३७२ ॥ ङसिङज्यांसह 'तड, तुज्ऊ, तुभ्र ' च युष्मदः । 'तव त्वत्' अनयोः स्थाने, 'तुज्भ' 'तुध' 'त' त्रयम् । 4 न्यसाभ्यां तुम्हं ॥ २७३ ॥ युष्मदस्तु पदे, साकं भ्यसामभ्यां तुम्हहं मतम् । युष्मभ्यं तुम्हढं वाच्यं तथा युष्माकमित्यपि । तुम्हासु सुपा ।। ३७४ ॥ स्तुप, साकं सुपा 'तुम्हा सास्मदो हुई ।। ३७५ || अस्मदः सौ परे रूपं, 'ह' इत्यभिधीयत । उद ही कांगत निदर्शनम्। जम्-शसोरम्हे अम्हई ।। २७६ ।। अस्मदो जस्शसार 'अम्' पृथक पृथक टाङमा मई ॥ ३७७ ॥ 6 श्रम टा ङि' इत्येतैः सार्धम्, श्रस्मदस्तु भवेद् 'म' | 'मां मया माय' इत्येषां स्थाने वाच्यं 'म' सदा । अम्देहिं जिसा ।। २७८ ॥ अस्मदस्तु भिसा साकम, 'अम्हेहिं' इति पठ्यते । महु म हिज्याम् ॥ २७९ ॥ सिभ्यांसह 'महु मज्जु' सोऽथाऽस्मदः पदे । 'मत् ममेत्यनयोः स्थान, 'मडु मज्जु' यथाक्रमम् । अहं यमाभ्याम् || ३८० || श्रस्मदस्तु पदे, साकं भ्यसामभ्याम्, 'अम्हहं' मतम् । अस्मभ्यम् 'श्रम्हढं' वाच्यं तथा चास्माकमित्यपि । पाहा । ३०१ ॥ अस्मदस्तु पदे, साकं सुपा 'अम्हासु' पठ्यते । त्यादेराद्यत्रयस्य बहुत्वे हिं नवा ॥ ३८२ ॥ स्यादीनां पदार्थ विकमुच्यते। तद्बहुत्वस्य 'हिं' वा स्याद्, धरन्ति 'घरहिं' स्मृतम् । मध्यत्रयस्याद्यस्य हिः ॥ ३८३ || स्वादीनां तु विनां यन्मध्यकिमुच्यते । तदाद्यनस्पेट, हिरादेशो विकल्प्यते । "बप्पीड़ा ! पि पिच भणवि, कित्तिउ 'रुअहि' हयास ! | तुह जल मह पुल है, बिहुं विन पूरिअ आस । [श्रात्मनेपदे] वप्पीहा ! कई बोलियण निधिण चार बार । सायरि भरिअर विमलि-जलि, 'लहहि' न एक्कइ धार" # । 'दिहि' स्यात् रुसीत्यादि पाक्षिकम बहुदुः || ३८४ ॥ त्वादीनां तु विनां यन्मध्यकिमुच्यते। तद्वद्दुत्वस्य दुर्वा स्याद्, यथा- 'इच्छड ऽच्छह' । अन्त्यत्रयस्याद्यस्य जं ॥ ३८५ ॥ त्यादीनां तु विभक्तीनां यदन्त्यं त्रिकमुच्यते । 'उं' तदाद्यस्य वाऽऽदेशो, यथा- 'कठ्ठामि कडुडं' । * बप्पीह ! प्रिय प्रिय भणित्वाऽपि कियत् रोदिषि हताश ! | तव जलधरेण मम पुनर्वल्लभेन द्वयोरपि न परिता भाशा । बप्पीहक ! किं कथनेन निर्घृण ! वारं वारम् । सागरे भृते चिमनजलेन लभसे नैकामपि धाराम Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिघहेम.] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् । [अ०८पा०४] बहुवे हुँ ।। ३७६ ॥ "अब्भमवंचिउ बे पय पेम्म नि प्रत्तइ जाँव । सव्वासण-रि-संजयहो कर परिश्रत्ता ताँच ।। त्यादीनां तु विनतीनां, यदन्त्यं त्रिकमुच्यते । हिअ खुमका गोरमी गयणि घुरुक्कर मेहु । तद्दुत्वस्य 'हुं' वा स्याद्, 'लहुहुं लहिमु' स्मृतम् ॥ वासा-रात्त-पवासुअहं विसमा संकर पहु॥ हि-स्खयोरिदेव ।। ३७ ।। अम्मि! पोहर वज्ज मा निच्चु जे संमुह थन्ति । पञ्चम्या हि-स्वयोर वा स्युर्, 'श्दुदेत' मे त्रयः। मह कन्तहो समरण गय-घभ भन्जिन जन्ति । [इत] "कुञ्जर! सुमरि म सल्लइन सरला सास म मेखि ॥ पुत्ते जाएं कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुषण । कवल जि पाबिय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि जा अपडीकी मुंहमी चम्पिज अवरेण (उत्] भमरा! पत्थु वि लिम्बमा केवि दियहडा विलम्बु ॥ तं तेत्तिउ जसु सायरहो सो तेवदु वित्थारु। घण-पत्तनु गया-बहुबु फुल्बइ जाव कयम्बु । तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुट्टअ असारु" । [२] [पत्] प्रिय ! एम्बहिं करि सेल्लु करि बडि तुहुं करवालु ॥ जं कावासिय बप्पुमा बेहि अभग्गु कवालु" i[१] अनादो स्वरादसंयुक्तानां क-ग-त-थ-प-फां ग-घपके सुमरहीत्यादि, रूपं बोध्यं मनीषिभिः॥ द-ध-ब-नाः ॥ ३०६ ॥ वत्स्यति स्यस्य सः ॥ ३८॥ स्वरात परेऽसंयुका अनादिभूतास्तु सन्ति ये, तेषाम् । भविष्यदर्थे त्यादीनां, स्यस्य सो वा विधीयते । 'क-ग-त-थ-प-फ' वर्णानां स्थाने 'ग-घ-द-ध-ब-भाः' प्रायः॥ [कस्य गः] "जं दिछ सोम-गहणु असहि हसिउ निसङ्क। यथा ' होस' इत्येतत, पक्के होदिश पठ्यते ॥ पिय-माणुस-विच्छोह-गरु गिलि गिनि रादु मयडू ॥ क्रियेः कीम् ॥ ३८॥ [खस्य घः] अम्मीए सत्थावत्यहि सुधि चिन्तिजामाणु । 'क्रिये' क्रियापदं त्वेतत, वाऽत्र 'कीसु' निगद्यते। पिए दिले हल्लोहलेण को चे अप्पाणु॥ पके तु 'किज्ज बलि सुअणस्सु ' प्रयुज्यते ॥ तथपफानां दधबन्नाः यथा सवधु करेप्पिणु कधिदु मई तस पर सभलउं जम्मु । भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ॥ ३६०॥ जासु न चाउ न चारहमि न य पम्हछन धम्म" ॥[२] पर्याप्त्यर्थं नुवो धातोः, पदे 'हुश्चः', 'पहुश्चर'। बगो वो वा ॥ ३१ ॥ - मोऽनुनासिको वो वा ॥ ३७॥ बगो धातोर् ध्रुवो वा स्याद्, 'बुवद प्रोप्पिणु' स्मृतम् । अनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य तु मस्य वा । स्याद् वोऽनुनासिकस्, तेन कयलु कमसु द्वयम् ।। व्रजेवुअः ।। ३६२ ।। अयं लाक्षणिकस्यापि, जैवं तेव इति स्मृतम् । बजतेस्तु खुप्रादेशो, वुप्पिणु वुअप्पि च । वाऽयो रो लुक् ।। ३७८ । दृशेः प्रस्सः ।। ३६३ ।। शेर्धातोः पदे प्रस्साऽऽदेशः, 'प्रस्सदि' पश्यति । संयोगाऽधःस्थितस्येह, वा रेफस्य लुगिष्यते । 'जइ केवः पावासु पिउ' पक्के 'प्रियेण' च !! ग्रहेण्हः ॥ ३॥४॥ अचूतोऽपि कचित् ॥ ३ए || गृणहादेशो ग्रहेः स्थाने, ' पढ गृण्हेप्पिणु वतु' तदयादीनां गेझादयः ।। ३५ रेफोऽत्राविद्यमानोऽपि क्वचिद् भवति, दर्यते । तत्यादीनां तु धातूनां, पदे छोल्लादयो मताः। [१] अनुव्रज्य (मुत्काबाय्य) द्वौ पादौ प्रेम (प्रिया) निवर्तते यावत् । ये क्रियावाचका देश्या प्रादिशब्दग्रहा हि ते॥ सर्वाशनरिपुसंतवस्य कराः परिवृत्तास्तावत् ॥ "जिव तिवं तिक्खा बेवि सर जह ससि गेद्विज्जन्तु । हृदय शल्यायते गौरी गगने गर्जति मेघः। तो जर गोरिह मुह-कमलि सरिसिम कावि ल हन्तु ॥ वर्षारात्रिप्रवासिकानां विषम संकटमेतत् ॥ चूकुल्लउ खुसीहोइ सह मुद्धि कवोलि निहित्तन । अम्ब! पयोधरौ वर्जय मा नित्यं यौ संमुखौ तिष्ठतः। सासानल-जाल-झलक्किअउ वाह-सझिल-संसित्तन"॥[२] मम कान्तस्य समराङ्गणे गजघटा जङ-क्त्वा यान्ति ॥ [२] कुखर! स्मर मा सम्सकान् सरलान् श्वासान् मा मुश्च । पुत्रेण जातेन को गुणः अपगुणः को मृतन। कवना ये प्राप्ता विधिवशेन तान् चर मानं मा मुश्च। या पैतृकी भूमिराक्रम्यते अपरेण ॥ चमर! अत्रापि निम्ब कियन्ति दिवसानि विलम्बस्व । तत्तावत जलं सागरस्य स तावान् बिस्तारः। घनपत्रवान बायाबहुसः फुल्लति यावत् कदम्बः॥ तृषाया निवारणे पलमपि नापि, परं शब्दायतेऽसारः॥ प्रिय! श्दानी करे सद्धं कुरु मुञ्च त्वं करवालम्। [२] यद् दृष्टं सोमग्रहणमसतीभिर्हसितं निःशङ्कम् । यत् कापालिका बराका सान्ति अभग्नं कपालम् ॥ प्रियमानसविताभकरं गिल गिल राहा! मृगाङ्कम् ॥ [२] यथा तथा तीक्ष्णान लात्वा शरान यदि शशी अतक्विष्यत।। अम्ब! स्वस्थावस्थैः सुखेन चिन्त्यत मानः । ततो जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशता कामपि अनप्स्यत॥ | प्रिये दृष्टे औत्सुक्येन क श्रात्मानं चेतयते ॥ चूटकरचूर्णीभविष्यति मुग्धे ! कपोले निहितः। शपथं कृत्वा कथितं मया तस्य परं सफलं जन्म। श्वासानसज्वालादग्धः वापसमिक्षसंसिकः॥ यस्य न त्यागो न चारजटी न च प्रमृतो धर्मः। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिरहेम.] अभिधानराजेन्डपरिशिष्टम् । [अ०८ पा०४] "वास महारिसि पन भणइ ज सुइ-सन्यु परमाणु । 'अवरोप्परु' इत्येतत, ततः सिद्धं परस्परे । ' मायहं चलण नवन्ताहं दिविदिवि गङ्गा-हाणु" ॥ [१] कादि-स्थैदोतोरुचार-साघवम् ॥ ४१०॥ क्वचिदिति किम ? 'बरू बासेण विजारह-खम्नि' च ॥ पदोतोर लघुताऽस्तु, प्रायः स्थितयोः कादिषु हि । आपद्विपत्संपदां द इः॥ ४०० ॥ सुधैं चिन्तिजइ माणु, तमु हवं कलि-जुगि दुल्लहहो । चिपदापसंपदा स्याद, दस्येकारः कचिद्, यथा-। पदान्ते उ-हुं-हिं-हंकाराणाम् ।। ४११ ॥ रूपम् ' आवड' संप' तथा 'विव' इत्यपि। 'उ-हुं-हिं-हं' इत्यमीष, पदान्तानां तु भाषणे । प्रायोऽधिकाराद् 'गुणहिं न कित्ति पर संप'। कर्तव्य लाघवं प्रायो, यथा लहहुँ किजउ । कयं यथा-तयां यादेरेमेमेहेधा मितः ॥४०१॥ म्हो म्नो वा ॥४१॥ 'कथं यथा तथा 'एषां थादरवयवस्य तु । प्राकृते पका-[२०७४ ] सूत्रेण, यो म्हाऽऽदेशो विधीयते । 'इह इध एम इम' इत्यादेशा डितः पृथक् । तस्य 'म्नो' वाऽत्र जायत, 'गिम्भो सिम्लो' यथा पदम । अतः कथं' 'किह किध किम केम' निगद्यते । अन्यादृशोऽन्नासावराइसौ ॥४१३॥ 'यथा' जिह जिधेत्यादि, 'तथा' तिह तिधादि च । स्थाने त्वऽन्यारशस्यात्राऽन्नाइसः स्तोऽवराश्सः। यादृक्-तादृक्-कोहगीदृशां दादेर्मेहः॥ ४० ॥ प्रायसः प्रान-पाश्व-प्राश्म्ब-पग्गिम्बाः ।।४१४॥ 'यारत्ताहक्कीहगीहर' इत्येतेषां तु योऽस्ति दः । 'पग्गिम्ब-प्राश्व-प्राउ-प्राइम्बाः ' प्रायसः पदे । तदाद्यावयवस्यह, मेहादेशो विधीयते । "मई भणिअउ बलिराय! तुई केहन मग्गण पहु । वाऽन्यथोऽनुः ॥ ४१५ ॥ जेहु तेहु नवि होइ बढ! सई नरायणु पहु" ॥ [२] 'अनुः स्याद वाऽन्यथेत्यस्य, पक्के स्याद् रूपम् 'अन्नह'। _ अतां मइसः॥ ४०३ ।। कुतसः कन कहन्तिहु ॥ ४१६ ॥ ईदृश-कीरश--यादृश--तादृशशब्देषु दादिवर्णस्य । 'कहन्तिदु कल 'स्यातामादेशौ कुतसः पदे । डइसाऽऽदेशो, जसो तसो करसोइसो च यथा । ततस्तदोस्तोः ॥१७॥ यत्र-तत्रयोस्त्रस्य मिदेत्थ्यत्तु ।। ४०४ ।। 'ततस् तदा ' इत्यनयोस्, 'तो' इत्यादेश इष्यते । 'पत्थु अत्तु' डिती त्रस्य, शब्दयोर्यत्र-तत्रयोः। "जइ भग्गा पारवडा, तो सहि ! मज्छु पियेण । 'अत्तु तत्तु जत्थु तेत्थु' सिके रूपचतुष्टयम् । अह भगा अम्हहं तणा, तो ते मारिअडेण" । [१] एत्थु कुत्रात्रे ॥४०५॥ एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक् एम्ब पर समाणु ध्रुवु मं कुत्राऽत्रयोस प्रशब्दस्य, पदे 'पत्थु'मिदिष्यते । मणा ॥ ४१०॥ केत्थु वि सेप्पिणु सिक्खु, पत्थु जेत्थु वि तेत्थु वि। एवं ' एम्ब' तथा मा 'मं,' ध्रुवं ध्रुवु, परं पर। ___ यावत्तावतो;ऽऽदेर्म वं महिं ।। ४०६ ॥ मनाक 'मणान' वक्तव्यं, समम् अत्र 'समाणु' च । यावत्तावदित्यनयोर्, वाऽऽदेरवयवस्य तु । किसाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहव दिवे सडं नाहिं ।।१६। म, लं, मदि चेत्यते स्युर्, आदेशास्तु त्रयो यथा। किल किर, अथवा अहवा, दिवा दिवे, नहि नाहिं। जाउं ताउं, जाम ताम, जामहि तामाई तथा । सह सहुम, श्त्यभिधीयते, प्रायो, नैव सदा हि । [सहस्य साहु] "जब पवसन्ते सदुं न गयअन मुअविनापं तस्सु। वा यत्तदोऽतोर्मेबहः॥ ४०७ ।। लजिजर संदेसमा, दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु"। [२] अत्वन्तयत्तदोर यावत्तावतौ यौ, तयोः पुनः। पश्चादेवमेवेदानी-प्रत्युनेतसः पच्छाइ एम्बइ जि एम्बहि वाऽऽदेरवयवस्येह, पदे वा 'मेवो' ऽस्तु मित् । "जेवम् अन्तरु रावण-रामहं तेवडु अन्तर पट्टण-गामहं"। पञ्चनिउ एत्तहे ॥ ४३०॥ पक्षे रूपं भवति जेनुलो, तावच्छन्दस्यह तेत्तुलो । पश्चात् पच्छा, एव जि, श्त एत्तहे, एवमेव पम्बर च । वेदं किमार्यादेः॥ ४०८ ॥ भवतीदानीम् पम्वहि, तथा प्रत्युतेति पञ्चसिउ । प्रत्वन्तव-किमोर् 'श्यत्-कियती ' यो तयोः पुनः । विषयोक्त-वफ्नो वुन-वुत्त-विच्चं ॥ ४२१ ।। याऽऽदेवयवस्यह, पदे वा 'मेवडो' ऽस्तु मित् । उक्तं वुत्तं, वर्त्म विच्छ, विषम्मं बुन्नम् उच्यते । एत्तुलो केतुलो रूपं, तथा एवम् केवम् । शीघ्रादीनां वहिमादयः ॥ ४ ॥ परस्परस्यादिरः॥ १० ॥ शीघ्रादेस्तु बदिल्लादिरादेशोऽत्र निगद्यते । परस्परस्य शम्दस्थ, भवेद् मादावद् भागमः । शीघ्र 'वहिव' इत्युक्तं, झकटो घालः स्मृतः । [२] ब्यासो महर्षिरतद्भणति यदि श्रुतिशालं प्रमाणम्। [१] यदि भन्नाः परकीयास्ततः सखि! मम प्रियंण । मातृणां चरणी नमतां दिवसे दिवसे गङ्गास्नानम् ॥ अथ भमा आस्माकीनास्ततस्तेन मारितेन ॥ [२] मया जणितो बलिराज!त्व कीरग मार्गण एषः। [२] यत् प्रवसता सहन गता न मृता वियोगेन तस्य । यारक तारग नाऽपि भवति मूर्ख! स्वयं नारायण ईटक लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः सुभगजनस्य ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिद्धहेम.] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् । [अ०७ पा०४] [घडलः]"जिव सुपुरिस तिव यालरंजिव नइ तिवं वलणाई।। "विरदानल-जाल-करालिबउ पहिन पन्थि ज दिट्ठउ । जिवे डोगर तिव कोट्टर विश्रा विसूरहि काई" [१] तं मेलवि सम्वहिं पंथिप्रार्ह सोजि किअउ अग्गिन" [१] ॥ 'विद्यालो'ऽस्पृश्यसंसर्गो, 'द्रवक्को' जयवाचकः । ममस्य 'दोसडा' दुल्लस्य कुमुली निदर्यते । आत्मीया'ऽप्पण, इत्युक्तो ' निचट्टो' गाढ ईरितः। योगजाश्चेषाम् ।। ४३०॥ देहि दृष्टौ, रवण्णस्तु रम्ये, खडस्तु कोमने । एषाम् अ-डड-मुल्लानां, योगन्नेदेन निर्मिताः । स्यात् कोडः कौतुके सफुलस्त्वसाधारण तथा । जायन्ते प्रत्यया येऽत्र, तेऽपि स्वार्थ क्वचिन्मताः । अद्भुते ढक्करिः, हेल्लिः हेखि, नवखो नवे । [] 'फोमेन्ति जेहिश्रमउं' किसबेति[१।२६६] यमुक्मतः। अवस्कन्दे दडवमः, पृथगर्थे जुजुश्रः। [ सुखन] 'चुन्नी होइसर चूमुदउ' मुल्लम श्रृणुसम्बन्ध्यर्थ कर-तणा, मुढेऽर्थे वढ-नालिऔ। [उल्लम्म ] "सामिपसाउ सलज्जुपित सीमा-संधिर्हि वासु । मा नैषीरिति मम्भौसा, यद्यर्थे बुडर् इप्यते । पेक्खिवि बाहु-बलुल्लमा धण मेहर नीसासु"[२] ॥ 'यद्यद्रष्टं तत्सद्' इत्यर्थ जाइहिश्रा स्मृता । आमि 'स्यादौ दीर्घ-इस्वो'-[४॥३३०]इति दीघोऽत्र युध्यताम् । हुहुरु-घुग्घादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः ।। १३३ ।। 'बाहु बबुल्ल डउ' तु, प्रत्ययत्रयसंभवम । स्युर् हुहुरु-प्रभृतयः, शब्दानुकरणे तथा । खियां तदन्ताहीः॥ ४३१ ।। चेपाऽनुकरणे घुग्घादयः शब्दा व्यवस्थिताः। पूर्वसूत्रद्वयोक्तप्रत्ययान्ताद् मीः श्रियां नवेत् । "मई जाणिउं बुद्धीस हउं पेम्म-ब्राहि दुदुरु त्ति । "पहिश्रा दिही गोरमी दिट्ठी मगु निअन्त । नवरि भचिन्तिय संपमिश्र विप्पिय नाय झडत्ति । अंसूसासेहि कञ्चुत्रा तिंतुवाण करन्त" [३] ॥ अज्जवि नाडु महुजि घरि सिद्धत्था वन्देह । आन्तान्ताहाः ॥ ४३२ ।। ताजि विरह गवक्खेहि मक्का-घुग्घिन देह"। [२] स्त्रिया अप्रत्ययान्त-प्रत्ययान्ताद् 'मा'ऽस्तु नैव डी। घइमादयोऽनर्थकाः ॥ ४२४॥ "पिउ आउ सुत्रवत्तडीणि कन्नडा पश्छ। तहो विरहहो नासंतश्रहो धूलडिष्ण वि न दिट्ठ"[४]॥ 'घरम्' इत्यादयः शब्दाः, निपाताः परिकीर्तिताः । वेद्या अनर्थकास्तेऽत्र, 'घई स्वाई' निदर्शनम् । अस्येदे ॥४३॥ तादध्ये केहि-तेहिं-रेसि-रेसिं-तणेणाः ॥ ४२५ ॥ खियां नाम्नोऽत त्वं स्याद अाकार प्रत्यये परे । 'धूलडिया वि दिन' इति वाक्ये विभाव्यताम् । 'कहि-तहि-रसि-रेसिं-तणेणा' इति पञ्चतु । युष्मदादेरीयस्य डारः॥ ४३४॥ निपाताः संप्रयोक्तव्यास्तादयं यत्र गम्यते । "ढोला एह परिहासडी अइभ न कवणहि देसि । युप्मदादिज्य ईय प्रत्ययस्य 'डार' प्यते । "संदेसे काई तुहारेण जे साहो न मिलिज। हर छिज्जवं तउ केहिं पित्र! तुडुं पुष्णु अनीह रेसि" । [३] सुश्णन्तरि पिएं पाणिपण पित्र!पिआस किं विज्ज" [५]. पुनर्विनः स्वार्थे डुः ॥ ४२६ ॥ अम्हारा च महारा च. वेद्यं चैवं निदर्शनम् । 'पुनर् विना' इत्येताभ्यां, स्वार्थे छुः प्रत्ययो भवेत् । अतोर्मेत्तुनः॥ ४३५ ।। पुनर| पुणु ततो, विनाऽर्थे 'विणु' सिध्यति । दकिंयत्तदेतद्भयोऽतोः स्थाने 'डे तुलो' भवेत् । अवश्यमो में-दौ ॥ १७॥ एनुलो केनुलो जत्तुलो च तेनुला पसलो। अवश्यमः परौ में-मो,' स्वार्थिको प्रत्ययौ स्मृतौ । त्रस्य मेत्तहे ।। ४३६ ॥ तस्माद् अवश्यम् 'श्रवसे अवस' स्मर्यते बुधैः । सर्वादेस् त्र-प्रत्ययस्य, पदे स्यात् 'उत्तहे' यथा-। एकशमो मिः ॥ ४२७ ।। "एत्तहे तेत्तहे वीरघरि लच्छि विसठुल ठाइ । पिभ-पभट्टव गोरडी निघल कहिंविन गर"[६] ॥ स्वार्थे डिर् एकशस् शब्दाद, रूपम 'एक्कसि' संस्मृतम् । अ-मह-मुल्लाः स्वार्थिक-क-लुक् च ।। ४२ए । [१] विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यद रयः । नाम्नः परे-'झम हुस' इत्यमी स्वार्थिकास्त्रयः। तत् मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतोऽग्निष्टः ॥ तत्सन्नियोगे स्वार्थे क-प्रत्ययश्चह लुप्यते । [२] स्वामिप्रसादः सलज्जप्रियः सीमासंधी वासः। प्रेक्ष्य बाहुवलं नायिका मुश्चति निश्वासम् ॥ [१] यथा सुपुरुषास्तथा झगटका यथा नद्यस्तथा वक्षनानि । [३] पथिक! दृष्टा गौरी दृष्टया मार्ग पश्यन्ती। यथा गिरयस्तथा कोटराणि हृदय ! खिद्यसे कथम् । अधूच्यासाभ्यां कञ्चुकं तमिताद्वातं कुवंती॥ [२] मया ज्ञातं त्रुडिष्यामि अहं प्रेमहदे दुहरुरिति । [४] प्रिय पागतः श्रुता वार्ता ध्वनिः कर्णप्रविष्टः । केवलमचिन्तित्वा संपतिता (संप्राप्ता) विप्रियनाः झटिति ॥ तस्य 'घिरहस्य नश्यतो' धूलिरपि न रष्टा ॥ श्रद्यापि नाथा ममैव गृहं सिद्धार्थान् वन्दते। [५] संदर्शन कियत युष्मदीयन यत सङ्गाय न मिल्यते। जावदेव विरहो गवाक्षेषु मर्कटचेष्टाः ददाति ॥ स्वमान्तरे पीतन पानी येन प्रिय ! पिपासा किं विद्यते । [३] नायक! एपा रीतिः अत्यद्भुता न कुत्रापि रष्टा । [६] अत्र तब वीरगृहे लक्ष्मी विसंस्थुला तिष्ठति । अहं कीये तव कृते प्रिय ! त्वं पुनरन्यस्यार्थे । प्रियप्रनष्टा गौरी निश्चला कापि न तिष्ठति ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सिघहेम.] अनिधानराजेन्धपरिशिष्टम् । [प्र. पा.४] व-तलोः प्पणः ॥ ४३७ ।। [पक्षे ] "गङ्ग गप्पिणु जो मुम्र, जो सिव-तित्थ गर्मपि । प्रत्यययोस् त्व-तलो स्यात्, 'प्पण', वडप्पा' स्मृतम्। कीलदि तिदसावास-गड, सो जम-लोच जिणेपि ॥" [१] प्रायोऽधिकारादू 'वडत्तणहो' इत्यपि सिध्यति । तृनोऽणः ॥ ४४३ ॥ तव्यस्य इएबाउं एकाउं एवा ।। ४३०॥ प्रत्ययस्य सृनः स्थानेऽण आऽऽदेशो विधीयते। पचउं एबउं एवा' तव्यस्य पदे त्रयः। बोलणउ वजण उ, तथा नसणउ स्मृतम् । "एउ गृगहेपिणु 5 मई, जइ प्रिउ नब्वारिज। इवार्थे नं-नन-नाइ-नावइ-जाण-जणवः ॥४४४॥ मह करिएव्य किं पिणवि, मरिएबउं पर देजइ । अपनश'जणि जण नाइ नावानं ननु'। देसुच्चाडणु सिंहिकढणु, घणकुट्टणु जे लो। इत्यमी पट प्रयुज्यन्ते, श्वार्थ कोविदैः सदा । मंजिट्रप पाइरत्तिए, सव्वु सहब्बाउं होइ। [ना] "वलयावनि-निवडण-भपण,धण नद्धन्तु जा। सोपवा पर वारिश्रा, पुष्फवहिं समाए। जग्गवा पुणु को घर, जइ सो वेउ पमाणु ?" ॥ [१] बल्लह-विरह-महाद हो, थाह गवेस नाइ॥"[२] __ क्त्व इ-उ-इवि-अवयः।। ४३ लिङ्गमतन्त्रम् ।। ४४५॥ ॥ अत्र लिङ्गं व्यभिचारि, प्रायो भवति तेन हि । 'अवि इवि इउ इ' इतीमे, चत्वारः क्वः पदे भवन्ति, यथा । []जइ[विचुम्विवि च [अवि] विछोडवि, स्त्रीपुनपुंसकं लिङ्गं, यथे; संप्रवर्तते । "अम्भा लम्गा कुरिदि, पहिउ रमन्त न जाइ। [] भज्जिन रूपाणि सिध्यन्ति । जो पहा गिरि-गिलण-मण, सो किंधण्हे धणार॥"[३] [अवि ] "बाह बिछोडवि जाहि तुहुं, हवं ते को दोसु?। हिअय-ट्टि उ ज नीसरह, जाणउं मुञ्ज! सरोसु ॥" [२] अत्र अब्जेति पुंस्त्वं हि, क्लीबस्य प्रतिपादितम् । एवमन्यासु गाधासु, स्वयं बुख्या विचार्यताम् । एप्प्येपिएवेन्येविण वः ॥ १४ ॥ शौरसेनीवत् ।। ४४६ ॥ चत्वारः क्त्वः पद 'एप्पि, पवि एपिणुए विणु' । सूत्रयोर्यः पृथग्योग उत्तरार्थः स ध्यते । अपभ्रंशे शौरसेनीवत् कार्य प्रायशः स्मृतम्। व्यत्ययश्च ॥ "जेप्पि अससु कसाय-बलु, दप्पिणु अभन जयस्सु । ७ ॥ लेवि महब्वय सिवु लहहिं, झापविणु तत्तस्सु ॥" [३] भाषाणां प्राकृतादीनां, सणानि तु यानि हि। तुम एवमणाणहमणहिं च ॥ ४४१ ॥ तेषां च व्यत्ययः प्रायो, भवेदित्युपदिश्यते। 'श्रणहिं अणहं एवं, अण एप्पिणु पविणु। तिष्ठश्चिष्ठति [धार] मागध्यां, यथा कायं प्रदर्शितम्। एप्पि पवि' अमी अष्टी, प्रत्ययस्य तुमः पदे । तत् पैशाची-शौरसेनी-प्राकृतेम्वपि जायते । "देवं दुकरु निय-धणु, करण न तउ पमिहा। अपनशे तु रेफस्याधो वा लुक स्यादितीरितम् । पम्वर सुह भुजणहं मणु, पर तुम्जणहि न जाइ । मागध्यामपि तत् कार्य, नवतीति निदर्शनम् । जेप्पिचपप्पिणु सया धर, लेविण तवु पालव । न केवलं हि भाषालवणानां व्यत्ययः कृतः । विषु सन्ते तित्थेसरण, को सक्क भुवणे वि?॥"[४] त्याद्यादेशानामपि तु, व्यत्ययो दृश्यते यतः। गमेरेपिएवेप्प्योरेलुंग वा ।। ४४२॥ वर्तमाने प्रसिका ये, ते नूनेऽपि भवन्ति तु। गम-धातोः परौ यो स्तः, 'एप्पि एप्पिणु' इत्यम् । भूतकाले प्रसिहास्तु, वर्तमान ऽपि वीक्विताः। तयोर् एतो मुम् अत्रास्तु,विभाषेति विधीयते । यथा 'पेच्छश्' इत्येतत् , 'प्रेवाश्चके ' क्वचिन्मतम् । "गम्प्पिणु वाणारसिहि नर,अह उजेणिहिं गम्पि। 'पानासायभाष,' इत्यर्थ कापि दृश्यते । मुत्रा परावहिं परम-पन, दिव्वन्तरई म जम्पि" | [] एवं 'सोहीअ' इति तु, शृणोतीत्यर्थक क्वचित् । शिष्टप्रयोगतः सर्वे, बोहव्यं सूक्ष्मदर्शिनिः । [१] एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रिय! उद्धार्यते । शेषं संस्कृतवत् सिछम् ॥ ४५८ ।। मम कर्तव्यं किमपि नापि, मर्तव्यं परं दीयते ॥ देशोचाटनं शिखिक्कथनं घनकुट्टनं यल्लोके । प्राकृताहिषु भाषासु, यत् कार्य नेह दर्शितम् । मजिष्टया अतिरक्कया सर्व सोढव्य जवति ॥ सप्ताध्यायीनिबन, संस्कृतेन समं हि तत् । स्वपितव्यं परवारिता पुष्पवतीनिः समम् । "हेछ-ट्टिय-सूर-निवारणाय, उत्तं अहो श्च वहन्ती। जागर्तव्यं पुनः को बिनर्ति यदि स वेदः प्रमाणम् ॥ जय ससेसा वराह-सास-दूरुक्खुया पुहवी" । [४] [२] बाहू विच्छोट्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः। याप्यत्र चतुर्थ्यास्तु, नादेशो दर्शितः कचित् । हृदयस्थितो यदि निःसरस जाने मुज! सरोषः॥ तथाऽपि सोऽतिदेशेन, सिद्धः संस्कृतवत् खलु । [३] जित्वाऽशेष कषायबलं दत्वाऽभयं जगतः । [१] गङ्गां गत्वा यो मृतो यः शिवतीर्थ गत्वा । लात्वा महावतानि शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् ॥ क्रीडति त्रिदशावासगतः स यमलोकं जित्वा । [४] दातुं दुष्करं निजकधनं कर्तुं न तपः प्रतिनाति । [२] वलयावविनिपतनभयेन नायिका कर्घजा याति । वमेव सुखं भोक्तुं मनः परं नोक्तुं न याति ॥ वल्लनविरहमहादस्य स्ताघं गवेषयति श्व॥ जेतुं त्यक्तुं सका धरां लातुं तपः पालयितुम। [३] अचाणि लग्नानि पर्वतेषु पथिको रटन याति । विना शान्तिना तीर्थश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि?॥ य इच्छति गिरिगलनमनाः स किं नायिकायाः धनानि?॥ [५] गत्वा वाराणस्यां नरा अथोज्जयिन्यां गत्वा । [४] अधास्थितसूरानवारणाय छत्रमध श्व वहन्ती। मृताः (नियन्त) प्राप्नुवन्ति परमपदं दिव्यान्तराणि मा जप ॥ जयति सशेषा वराहश्वासदूरोकिप्ता पृथिव। ॥ १४ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) [सिरहेम.] अभिधानराजेन्द्र पगिशष्टम् । [अ०८ पा० ४] उकं चापि भवत्यत्र, कार्य संस्कृतवत् क्वचित् । अथ सूत्रनिर्दिष्टानां गणानां नामानि । 'उरे उरम्मि' इत्येतो, प्रयोगौ प्राकृते मतौ। उरसीत्यपि तस्यार्थे, क्वापि संस्कृतवन्मतम् । सिरे सिरम्मि सिरसि, सरम्मि सरसि सरे । । पादे. सूत्रे पादे. सूत्रे इत्याद्यपि बुधैरेवं, वेद्यं लक्ष्यानुसारतः । सिम्स्य ग्रहण सूत्रे, मङ्गलार्थे प्रकीर्तितम् । २।१७ अक्ष्यादिः ।१।७० मांसादिः येन वाचकवृन्दस्य, नित्यमभ्युदयोऽस्त्विति । १ । ३५ अंजल्यादिः १।१०७ मुकुलादिः या भाषा भगवदनचोजिरगमत ख्याति प्रतिष्ठा परां । ४। २५८ अप्फुमादिः ४।३१७ यादृशादिः यस्यां सन्त्यधुनाऽप्यमूनि निखिलान्यकादशाङ्गानि च । १।५६ अभिज्ञादिः ४।४३४ युष्मदादिः तस्याः संप्रति दुःषमारवशतो जातोऽप्रचारः पुनः ३ । १७२ इजादिः४।२३६ रुषादिः संचाराय मया कृते विवरण पादश्चतुर्थो गतः ।।१।। १ । ६७ नत्वातादिः | १।२६ वक्रादिः इति श्रीबृहत्सौधर्मतपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञ- १ । १३१ ऋत्वादिः १। ३३ वचनादिः श्रीमद्भट्टारक-श्रीविजयराजेन्प्रसूरिविरचि- १।१२० कृपादिः ४ । ४२२ वहिल्लादिः तायां प्राकृतच्याकृतौ चतुर्थः पादः । ६ वेटकादिः पा२३५ वृषादिः ४।२४ए गमादिः तत्समाप्तौ समाप्ता चेयं प्राकृतव्याकृतिः। १ । १५२ वैरादिः १। ३४ गुणादिः १। २० विंशत्यादिः । १७४ गोणादिः ४।२३० शकादिः अथ प्रशस्तिश्लोकाः-- ४।४२४ घइमादिः १। ५७ शय्यादिः ४।२३ घुग्धादिः १।१८ शरदादिः श्रीसौधर्मबृहत्तपेतिविदिते गच्छे पुरा धर्मराट् ४। ३५ छोसादिः २२ शीघ्रादिः संजातः खलु रत्नसूरिस्परः सूरिः दमाऽऽख्यस्ततः।। ४।३एए तक्ष्यादिः | । १४५ शीलादिः देवेन्द्रश्च ततो बभूव विबुवः, कल्याणसूरिर्महान् । ए तैलादिः १। ७२ सदादिः प्राचार्यः सकलोपकारनिरतः सूरिः प्रमोदस्ततः ॥१॥ १।४० त्यदादिः १। धन समृध्यादिः तच्छिष्यो निजगच्छकृत्यविशदीकर्ता स नट्टारको २।१७२ त्वादिः । ३ । ५० सर्वादिः १ । १५१ दैत्यादिः | । सेवादिः राजेन्द्रानिधकोशसंप्रणयने संजातनरिश्रमः । २।३० धूर्तादिः ३ । १७२ सोच्ादिः ग्रन्थानां सुविचारचारुचतुरो धर्मप्रचारोद्यतो १ । १०१ पानीयादिः १। १६० सौन्दर्यादिः जैनाचार्यपदाडिन्तोऽहमधुना राजेन्प्रसूरिर्बुधः ॥२॥ १ । १६५ पौरादिः १। ४६ स्वमादिः दीपविजयमुनिना वा यतीन्प्रविजयेन शिष्ययुग्मेन। ।२२७ प्यादिः ३ । ३५ स्वसादिः विज्ञप्तः पद्यमयीं प्राकृतविवृति विधातुमहम् ॥३॥ १।२०६ प्रत्यादिः १ । २५४ हरिद्रादिः मोहनविजयेन पुनः प्रधानशिष्येण नूरि विज्ञप्तः । । १२ए मांसादिः ४। ५२३ हुहुर्वादिः सकलजनोपकृतिश्चेदेवं करणे महान् लाभः ॥४॥ अथ प्राकृतसूत्राणां सूत्रसङ्ख्या । अत एव विक्रमाब्दे, भूरसेनवविधुमिते दशम्यां तु । विजयाख्यायां चातुर्मास्येऽहं कूकसीनगरे ॥५॥ सुत्रसङ्ख्या हेमचन्प्रसंरचितप्राकृतसूत्रार्थबोधिनी विवृतिम् । २७१ पद्यमयी सन्छन्दोवृन्दै रम्यामकार्षमिमाम् ॥६॥ १० श्रीवीरजिनप्रीत्यै, प्रायो विवृतिः कृताऽवधानेन । स्खलनं क्वापि यदि स्यान्मिथ्या मे दुष्कृतं भूया ॥७॥ -- २२२६ पादे १०२ पवन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ * अहम् ॥ ॥ अनिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् २ ॥ ॥ श्रथ प्राकृतसूत्राणामकाराद्यनुक्रमणिका ॥ ORDER: ४६ पृष्ट. २८ अमेणम् ।।३७८ ।। है भाच्च गौरवे ।८१।१६३ । २४ अमोऽस्य ।८।३।५ । आजस्य टाङ । ८।३। ५५ । ८ अश्दैत्यादौ च ।।१।१५१ । ४५ अम्महे हर्षे ।।४।२८४। ४८ आहो णानुस्वारौ।।४।३४२॥ २३ अ संभावने ।८।२।२०५। १३ वाम्मो आश्चये ।८।२।२०८। आत्कश्मीरे । ।१।१००। है अनुः पारादीच ।८।१ । १६२ । __ अम्ह अम्हे अम्हो०1७।३।१०६ । श्राकृशा-मृदुक०।७।१।१२७ । २५ अनी सा । ।३।१६ । ३० अम्ह मम मह म ।८।३।११६ । भात्तश्च 1018| ३१६ । ११ अङ्कोठेळ: ।।१।२००। अम्हहंज्यस० 1218| ३८०। २७ आत्मनष्टो णि ।८।३।५७ । २६ अचलपुरेचलोः ।।२।१९८। २६ अम्हे प्रम्हो अम्ह०।८।३।१०७। ३६ आङः सन्नामः 1८।४।८३ । २५ अजातेः पुंसः । ।३।३ । अम्हहि अम्हाहि०८।३। ११०। ८ अाहते दिः ।८।१।१४३। ५२ अ-मड-मुल्लाः० |८|४|४२६। ४६ अम्हहिं जिसा ||३७८।। ३ आदे: आदेः | |१| ३६ । २२ अण णाईनअर्ये ।।२।११०। ए अयौ वैत ।८।१।१६।। १७ आदेः श्मश्रुश्म० ।८।२।८६ । ३३ प्रतज्जस्विजः ।।३।१७५॥ ० अरिईप्ते ।।१।१४४। १३ श्रादेयों जः । ।१। २४५ । ४५ अत पत्सौ पुसि० ।८४२७। ४३ अर्जेढिप्पः ।।४।२५१ २२ आनन्तये णवरि ।।२१८८ । ३१ अत एवैच् से ।८।३।१४५॥ ३७ अर्जेविंढवः ।।४।१०८। ५२ ग्रान्तान्ताहाः ।।४।४३२। ११ अतसीसातवाह० ।८।१।२११॥ ३५ अरल्लिव-चच्च०१।४।३१।५१ प्रापद्विपत्संपदांग८।४ । ४००। ५१ अतां मासः ।८।४।४०३। २२ अलाहि निवारण | ८।२१ २२ आम सभ्युपगमे ।८।२।१७७। ४६ अतो उसे तो०।।। ३२१॥ ३७ अवतरेरोह-और०।८।४।८५ । ४८ श्रामध्ये जसो०।८।४। ३४६ । ४४ अतो उसे दो० ।। ४ । २७६। ४५ अवर्णाद्वा सो० ।।४।२६। ४५ प्रामो डावा ।८।४।३००। ३ प्रतो डो विसर्ग०।८।१।३७ । १० अवर्णो यश्रुतिः ।।१।१०।। २७ आमो डेसि ।८।३।६१ । ४४ अतो देश्च ।।४।२७४। ५१ अवश्यमो मेंडौ ।८।४।४२७ । ४७ आमा ई ।८।४। ३३६। १६ अतोरिआररिजन।२।६७ । |४० अवारकाशो वा०1018|१७३१ आयुरप्सरसोर्वा । ८।२।२० । 15|४|४३५।। ४१ वाट गाहेर ४३ प्रारभेराढप्पः ।८।४।२५४। अतःसमृद्ध्यादौ०।८।१।४४ । है अवापोते च ।।१।१७२। ४१ प्रारुहश्चम-व० ।।४।२०६ । १७ अतःस दर्ज०।८।३।५। ३६ अविति दुः ।।४।६१ । ३५ आरोपर्वलः ।८।४।४७ । २४ अतः सेोंः । ।३।२ । ३६ अवेर्जम्भो जम्मा ।।४|१५७। २६ भारः स्यादौ ।८।३।४५ । ३१ अस्थि स्त्यादिना । ८।३।१४८ । २२ अव्ययम् ।।२।१७५। ५ आर्यायां यः ।८।१।७७ । १ अथ प्राकृतम् ।।१।१ । २३ अब्बोसूचनादुः०।८।२।२०४।१ आर्षम् ||१३ । अदस प्रो ।८।४।३६४। ४० असावक्खोडः । ।४।१८।१६ पालामे सनोः 15|११७। ७ अतः सूक्मे था ।८।१।११८ । २६ अस्मदो म्मि अ०।८।३।१०५ । | ३५ प्रालीकोऽल्ली ।।४।५४ । ३२ अदेल्लुक्यादरत० ८।३।१५३॥ ५१ अस्येदे ।८।४।४३३ । १ आल्विल्लोल्लास०।८।।१५। अधसो हेटुं ।८।२।१४१ । ४५ अहंषयमोहगे । ।४।३०१। 1८।२। ६६ । १७ अधो मनयाम ।।२। ७८ । १६ पाश्लिष्टे लधौ ।।२।४६ । अधः कचित् ।८।४।२६१ । था १६ मा सौ नवा ।८।३।४८ । २० अनोगतेलस्य०।८।२।१५५ । २६ श्रा अरा मातुः ||३१४६ ।। १८ भनादौशेषादे० ।८।२६ । ४४ आश्रामन्ये सौ०।८।४।१६३ । ५० अनादी स्वराद० ।८।४। ३६६ ४१ मा गो भूत-भ०८।४।२१४।५ सदादी वा ।१२ । ६ अनुत्साहोत्सो०।८।१।१२४।। ३८ आक्रन्दीहरः ।८।४।१३१।।४ स्वमादी ।८।१।४६ । ३७ भनत्रजेः पमित्रम्गः ८।४।१०७। | ३६ आक्रमेरोडावो०।।४।१६०1४६ श्वेचः । ।४। ३१७ । ४९ अन्यत्रयस्या० ।८।४।३०५|| ३६ प्राक्षिीरवः ।।४।१४५।। ३२ इच मो-गु-येवा।८।३। १५५ । १ अन्त्यव्यञ्जनस्य ।।१। ११ ।। ३४ श्राधेराइग्धः ।८।४।१३ ।। इजेसम्पादपूरणे।८।२।२१७ । ५१ अन्याहशोबाइ०।८।४।४१३।। ३६ पाका महिप० ।८४।१६३।। २७ श्णममामा ८।३।५३ । १५ अभिमन्यौ जीवा।८।। २५।। ३८ आजाओअन्दो०1८।४।१२५।। ५ त पखा ।८।१।०५ । ५० अजूतोऽपिकचि०1८18| ३६६। ३६ श्राको रभेः र० |८|४|१५५। ३ इतेः स्वरात्तश्च०।८।४३ । ४० अभ्याकोम्मत्थः ।८।४।१६५। ५ प्राचार्ये चोऽध |८।१।७३ ।।६ श्ती तो पाक्या०1८।१।१ । . Jain Education Interational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृतसूत्राणाम् ] अभिधानगजेन्द्र परिशिष्टम् २ । अकाराद्यनुक्रमणिका] पृष्ठ. सूत्र | पृष्ठ. सूत्र ७ कृपादौ ।।१।१२८ । ७ उरत्वादा ।८।१।१३१ । । ३० पत । ।३।१२।। ११ श्वे वेतसे । ।१।२०७। ५ उदोद्वाऽऽ ।।१। ६२ । । पत् प्रयोदशादीत।१।१६५। 6 इन्ध वशनैश्चरे। ८।१।१४।। ३४ उदो मो धुमा ।८४।८। ५१ पत्थु कुत्रा ।८।४। ४०५ । ४९ दम प्रायः ।८।४। ३६५।। ३५ घटेरुग्गः ।।४।३३ ।। ६ पत् पीयूषापाड०1८।१।१०५ । २० इदम इमः ।८३। ७२ ।। ३५ उद्धृलेगुण्ठः ।।४ ।१ पदोतोः स्वरे । ।१। ७। ४८ इदम मुः कीबे । 6 ।। ३६१ । । ३४ उद्वातेरोरुम्मा० ।८।४।११ । ५ पद् ग्राह्ये । ।१। ७८ । २० इदमर्थस्य करः ।८।२।१४७।। ४२ उद्विजः ||४:२२७। ५३ एप्प्ये प्पिएवे० ।८।४।४४०। २८ इदमेतत्कियत्त०।८।३।६६ ।। ३५ चन्नमरुत्थक्वाल्लान०1८18! ३६ ! २८ एरदीतो म्मौ वा।८।३। ८४ । ४४ इदानीमो दाणि ।८।४।२७७।। २१ उपरःसंव्यान । ।२।१६६। ५१ एवं-पर-समं० ।८।४।४१८। ३४ इदितो वा ।।४।१ । ३८ उपसरल्लिअः ।८।४।१३६। | ४४ एवार्थे येव ।।४।२८०। २५ तो दीर्घः ।८।३।१६ । ३६ उपालम्भेमा ।८।४।१५६ । ८ इकुता वृष्टवृष्टिपृ० ।८।१ । १३७। ए तमो निषले ।।१।१७४ । ७ देती नूपुरे वा ।८।१।१२३।। ७ उभ्रेहनूमत्कएकूय०1८1१।११। | ८ ऐत पत् | |१|१४७ । ७ श्देदोवृन्त ।।१।१३६ । ४१ उल्लसरूसनोसुम्न० ८।४।२०२। यो १० दंकिमचडेत्ति०८।२।१५७।४२ उवर्णस्यावः । ४।२३३। १५ इन्धी झा ।८।२।२८ ।। ६ मोच द्विधा कृगः।८।१।७। २७ जेस्य कोणाङी।७।३। ५२ । प्रोताऽद्वाऽन्यो।७।१।१५६. ८ ऊःस्तेने वा ।।१।१४७।। ७. श्रोत्कृष्माएकीतू०।८।१।१२४ । ६ इर्धकुटी ।८।१ । ११० । २३ क गर्दाऽऽकेपवि०।७।२।१६६ । ४ सोत्प । । । ६१ । ५३ श्याथै न-नन० ।।४।४४४। ए कच्चापे ।८।१।१७३ । ६ मोत्पूतरबदर० ।८।१।१७०। २४ शहरा इतरथा ।८।२।२१२। ११ कत्त्वे दुभंगसुभगे। ७।१।१२। ७ श्रोत्संयोगे ४४ चोईस्य ।८।१।११६ । । ।४।२६८ । ऊत्सुभगमुसझे वा।।१।११३ । ५ प्रोदाल्यां पड्डौ ।८।१। ८३ । एकत्साच्चासे ।१।१५७। | १३ ओ सूचनापश्चा०।८।२।२०३। ५ रुद् वाऽऽसारे ।।१।७६ । ३२ ई-इज्जीक्यः10।३।१६०।६ ऊहीनविहीन वा ।८।१।१०३। ६ ई. सुते ।।१।११२ । ६ प्रीत श्रोत् ।।१।१५ए । ५ ईस्त्याननस्वा०।।१।७४ । ३३ च स्त्रियाम ।८।३।१२। १५ ऋके वा । ।२। १९ । २५ ईतः सेवाऽऽवा ।।३।२८ । 4 ऋणर्वृषभवृषौ०।८।१।१४१ । १० कगच जतद.।८।१।१७७। २६ दितोईस्वः । ।३।४२ । १६ ऋतामुदस्यमौ०।८।३। ४४। १७ कगट मतदप०।८।। ७ । ७ ८ ईद धैर्ये ।८।१।१५५ ।। ऋतोऽत् । ।१।१२६ । १२ ककुद हः । ।१।१२५। २७ द्भिसभ्यसा सु०।८।३।४ ।। | २६ ऋतोऽद् वा ।८।३। ३५, २ ककुभा हः 5| | २१॥ २७ यः स्सा से ।।३। ६४ । ४५ वर्णस्यारः ।।४।२३४ । ३४ कथेवंजरपज्जा ।८।४। २। २० ईयस्थात्मनो णयः। ।२।१५३।। ५१ कर्थयथातथा० ।5181४०१ ६ ईर्जिहासिंहत्रिंश०।८।१ । १२ ।। ११ कदम्बे षा । ।१।२२२ । ७ चोद व्यूढे ।।१।१०। लत शसक्लुप्त०।८।१।२४५। १२ कदचित वः ।८।१।१२४। ४ हरे वा ।८।१।५१ ।। ११ कदल्यामद्रुमे ।८।१। २२० । ४६ एर्जस्शसोः ।८।४। ३६३ । १६ कन्दरिकाभि० ।। ३०। ४८ पंचपुतः । ।४।३४३। १३ कबन्धे मया ।।१।२३६ । २४ उस पश्य ।।२:२११ । ५२ एकशसो मिः ।८।४।४२७ । ३५ कमेणियः 10!४। ४४। * ससानास्तावके ।८।१।७५ ! १६ एकस्वरे श्वः स्व ।८।२।११४। ३५ कम्पेर्विच्चगेलः ।८।४।४६। २५ उचाईति ।।२। १११। २४ एकसरि झगि ८।२।२१३ । १३ करवीरे णः ।८।१ । २५३ । G उचिस्यत्रः ।१।१५।। ३२ एचक्त्वा तुम त०।८।३।१५७। १६ करेणूषाराण. ।८।३।११६ । ४० उच्छल उत्थानः ।।४।२७४। ८ पञ्च देवे ।१।१५३। | १८ कर्णिकारे वा ।८।२। ६५ । ६ उज्जीणे ।।१।१०२। ४ एच्छय्यादौ ८।१।५७ ।। १६ कश्मीरे म्भो वा।८।२। ६०। ६ उतो मुकुन्नादिषत्।।१।१०७।४७ पदि ।।४।३३३। ४१ का राहाहिल० ।।४।१६२। ३६ उरिक्षपगुलगुगे०८।४।१४४।। २० पसिंह एतादे० ।।२।१३४।। ३६ काणक्तिते णि० ।८।४।६६ । ए तत् सन्दियादी ।८।१।१६० । एत इ घेदना।।१।१४६। ५१ कादिस्यैदोतोरु०।७।४।४१०॥ ३४ उदष्ठकुकुरी ।।४।१७।। १६ एतः पर्यन्ते ।।२।६५ ।। ४६ कान्तस्यात उं० ।८।४। ३५४ । म उदान्मृषि ।।१।१३६ । । ४॥ एतदः स्त्रीपंकी।।४।३६२।। १७ कापिणे ।८।२। ७१ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृतसूत्राणाम् ] अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् २ । । [अकाराद्यनुक्रमणिका] सूत्र | पृष्ठ. सूत्र पृ ष्ठ. सूत्र १७ किंतद्भयां मासः।।३।६१ ।। कोट ४११५ घनवृहा ।।१।६०। १६ किंयत्तदोऽस्य० ।। ३। ३३ । २६ विषपः ।८।३। ४३।। ३५ घटेः परिवामः ।८।४।५०॥ २७ किंयत्तद्भयो ङ०।।३। ६३ । १४ कः खः क्वचित्त०।८।२। ३ ।। ३८ घटेर्गढः । ।४।११२। ५ किशके वा ।८।१। ८६ ।।१५ क्षण उत्सवे | १५ क्षण नत्सवे । ।।२। २० ।। ३८ ।२। २० ।। घों घुम-घोल०।८।४ । ११७। २४ किणो प्रभे |८|२२१६। १५ कमायां कौ ।२। १० । २८ किमो मिणोमी०।७।३। ६८ ।। ४० वरः खिरझर० ।।४। १७३। ४६ किमो मिहे वा ।८।४। ३५६। ४५ वस्य कः ।८।४। २६६।। १ ञणनो व्यअने ।८।१।२५। २८ किमः कस्त्रतसो०।८।३। ७१ । ३६ क्लिपेगवत्थाइ ।८।४।१४३ । ४८ डसः नुहोस्सवः ।।४।३३। पए किमः का कव०।४। ३६७ । २ सुधा हा ।८।१। १७ । २४ डसः स्सः |८|३।१०। २० किमः किं । ।३। ०० । ३६ कुभेः स्व उरप० ।८।४। १५४। २५ उसिङसोःपूकीय०८।३।२३। १० किराते चः ।८।१।१८३। ३६ तुरे कम्मः ।८।४। ७२ । ४६ ङसिङस्भ्यां ।८।४३७२। १३ किरिभेरेरो मः ।। १ । २५१। ३४ क्षणिकरो वा ।८।४।२० । ४८ उसिभ्यस्ङीनां ।८।४।३४॥ २२ किररहिरकिला।।२।१८६। १८ माश्लाघारत्ने 5०1८।३।१०१। २७ उमेडी ।८।३।६६॥ ५१ किलाथवादि० ।८।४। ४१६ । १४ वटकादौ ।८।२।६ । ३० सेलुक ।८।३।१२६। १४ किसलयकाला।८।१।२६६ । ङसेहेड ।८।४।३३६। ५१ कुतसः कउ० । ।४।४१६। ७ २४ ङसेस्तोदोदुहि० ।८।३।। कुतूहले वाहु ।।१।११७ । । १० खघथधभाम् । ।१।१८७।। ४८ ङसुङस्या ।८।४।३५० १० कुब्जकर्परकीले०।।१।१८१ । | ११ खचितपिशाच० ।८।१।१६३ । निश्च | |४।३३४॥ १७ कूष्माएड्यांप्मो०।८।२।७३ । ३७ वचेअडः । नए । २७ डे हेमालाश्रा०।८।३।६।। ४४ गमो मडुः ।८।४।२७२। ४२ खादधावोर्बुक ।।४।२२० । ।८।३।१२८ ३६ कृगेः कुणः । ।४। ६५ । ३८ निदेर्जूरविसूरौ । ८।४।१३२ ।। २८ मन हः | | ३! ७५ ४६ कृगो मीरः ।८।४।३१६। ४८ हिं ।८।४। ३५२॥ १४ कृत्तिचत्वरेचः ।८।२। १२ । | ४३ गमादीनां द्वित्वम् । ८1४२४६। 1८।४। ३५७) २१ कृत्वसो दुतं ।८।२। १५७।। ३२ कृदो ह । ४१ गमिष्यमासांग |5181२१५। २७ ङः स्सिम्मित्थाः. 15| ३ | ५१ ।३।१७०। गमेरईअच्छाणुव०।८।४।१६श ३६ कृपोऽवहो णिः ।८।४। १५१ ४. कृषः कसा । ।४।९८७ । ५३ गमेरेप्पिर० ।। ४४४२। ४ चण्डखएिमते णा०।८।१ । ५३ । १६ कृष्णेखणे वा ।८।२।११०। ।८।४। एक ३७ गर्जेर्बुकः १५ गते मः । ।५।३५ । १३ कैटभे भो वः ३० चतुरश्चत्तारोचउ०।८।३।१२२॥ । ।१।१४०। 10।३।१७। कौक्षेयके वा २५ चतुरो वा १६ गर्दभेवा ।।१।१६१ । । ।२।३७ । ३० चतुर्थ्याः षष्ठी । ।३।१३।। ३२ के गर्भितातिमुक्तके० ।।१।१०। ।८।३। १५६। ११ ४ गवये वः । १० चन्धिकायांमः ।८।१।१८।। ।१। ५४। ४३ तेनाप्फुरणादयः। ७।४।२५८ | ११ चपेटापाटौवा ।।१।१६। ते हः । ४० गवेषेर्दुदुल्लढंढो०।८।४।०९। ।४।६४ । गव्यत आअः ३६ चाटौ गुललः क्रय श्र-दूणौ ।८।४।२७१ । ।८।११।। ८।४। ७३ । ४२ चिजिश्रहमतुल० ।।४।२४६। ५३ क्त्व उ विं०1८1.४|४३९ । ३ गुणाचा:नीबे वा ।।१।३४।। ३६ गुप्यर्विरणडौ ।८।४।१५०1। १६ चिह्नन्धो वा २० क्त्व स्तुमत्तणतु०।२।१४६। ।८191५०। ४६ क्त्वस्तूनः ।८।४।३१.। ६ गुरौ के वा ।।३१०४६ चूलिकापैशाचि०।८।४।३२५ । ४१ क्त्वा तुम तव्येषु० ८।४।२१०। ३१ गुर्वादेरविर्वा ।८।३।१५०। २ फवास्यादेणस्वो। ८।१ । २७ । २० गृहस्य घरोऽपती ।।२।१४।। ३४ देणेमनूमस०। ८।४।२१ । ३१ क्या डोर्यमुक ।८।३।१३८ । २१ गोणादयः । ।२।१७४। ४५ स्य श्चातादो ।८।४।२५। ४६ क्यस्यव्यः ।८।४।३१५ । १६ गौणस्येषतः करः । ८ । २ १२६। ११ गगे लः । ।१।१६। ३५ क्रियाकिणोव०।८।४। ५२ । गौणान्त्यस्य ।८।१। १३४ १३ गयायां होऽका०1८।१। २४६ । ३३ क्रियातिपत्तेः ।८।३।१७६ । १६ ग्मो वा ।८।२। ६२ । २६ गयाहरिद्रयोः ।८।३। ३४। ५० कियेः कीसु ।८।४।३८६ । ३८ ग्रन्थो गए ।८।४।१२०। ४१ किदिभिदोन्दः । ८।४। २.६ । ३८ धेर्जरः । ।४।१३५ । ४१ ग्रसेधिसः 1८।४।२०४। ३८ छिदेहाव-णि । ८।४।१२।। ४८ क्लीवे जश्शसो०। ८।४ । ३५३ ।। ५० ग्रहगुएहः ।८।४।३६४। १५ छोऽध्यादौ । ।२। । २८ क्लीवे स्यमेदमि० ।। ३। ७ए। ४३ ग्रघेपः ।८।४। २५६। २५ क्लब स्वरान्मसेः।।३। २५ ।। ४१ ग्रहो वसगेएहहरप०1८।४।२०९। ३० क्वचिदहितीयादेः।८।३।१३४। ११ जटिले जो झो010।१।१४। ४२ कथवधी दः ।८।४। २२० ।। ५२ घहमादयोऽनर्यकाः८४४२४।। ४५ जद्ययां यः ।८।४।२। । ४४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृतसूत्राणाम् ] पृष्ठ. सूत्र ३० जनो जा जम्मौ । । ४ । | २५ जस्शस् ३० । ८ । ३ । ४९ जस्शसोरम्हे० | ८ | ४ २५ जस्शसोर्णो वा । ८ । ३ । २४ जस्शसोलुक | ६ | ३ | ४६ जस्शसेोस्तु० । । ४ । २४ जस्शस्ङसि० । ८ । ३ । २६ जस्शस्ङसि० । ८ । ३ । ३६ जाग्रेजग्गः ३४ जुगुप्सेर्भुण० | ८ | ४ | २२ जेण तेरा न० 1 | २ । ३२ नाओ | ६ | ३ | ย कोणत्s०८ । १ । ४३ को णव्वज्ञ्जौ । ८ । ४ । १६ ज्यायामीत् | ६ । २ । ट ३२ जात् सप्तम्या० । ८ । ३ । ३४ को जाणमुखौ ६ । ४ । ७ १७ को अ | ६ |२|०३ I ४६ को मः पैशा० । ८ । ४ । ३०३ । 1018150 १३६ । २६ । ३७६ || 1 २४ डेम्मि ङः २६ को दीर्घो वा ११ डो लः १६ काकमोः २२ ४ す ड १३ माहवौ कतिपये २१ भवे ४८ ट ए १८।४ । ३४ । 1 २४ टाश्रामोर्णः | ६ । ३।६ २५ टाल्डेरदादि० ८ । ३ । २९ ४टाङमा पतई | ८ | ४ | ३७० 1 । , ३६६ । १२ । ५० । । ४ । १८३ । १५९ । १६५ । I ४० टाड्यमा महं | ८ | ४ | ३७७ | २५ टाणशस्येत् ११ टोड | ६ | ३ | १४ । १८ । १ । १६५ । 10131 281 २५ टोणा २७ टोणा । । ३ । ५१ । ४६ टोस्तु | ६ । ४ ।३११ । ४५ दृष्ठयोः स्टः | ६ | ४२६० । प २२ अचित्रश्च० २२ णवरं केवले २२ वि वैपरीत्ये ११ गे ढः । ८ । १ । १६६ । १५ ोऽस्थिविसंस्थुले । । २ । ३२ । ५६ । २५२ । ११५ । । ८ । १ । २५० । | ६ । २ । १६३ / १६।३।११ | | | ३ | ३८ । । ८ । १ ।२०२ । ।। २ । ५२ । |८|२| १८४ । | ८ | २ ।१८७। १६।२१७८ । ( ४ ) श्रमिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् २ । पृष्ठ. २६ २६ ३१ ४६ २८ ४४ २६ २६ ४१ ५० ११ ३५ ५१ २८ ४६ २८ २८ ४६ ३० १९ ५३ * ३० ५२ १६ २७ ६ २० ४५ १७ ६ ११ ३० २६ २६ ५३ २६ ४६ २६ ४० २४ २६ ३१ णे णं मि अम्मि० णे णो मज्ऊ णेरदेदावावे णो नः म्ह० णोऽमशस्टानि० ८ । ३ । णं नन्वर्थे सूत्र । ८ । ३ । २०७ । ८ | ३ | ६१४ । १८ | ३ | १४६ । त तइ तु ते तुम्हं तु०८|३|१६| तश्तु तुम तुह० ८३ । ९६ । तस्तच्चचच्चरम्प० | ८ | ४ | १६४ । तदयादीनां बोल्ला ८४३६५ | तगरत्रसरतूवरे टः । ८ । १ । २०५ । तमेरा होमविहोम ८।४।२७ ! ततस्तदोस्तोः १६ |४| ४१७ | तदश्वतः सोऽक्कीब। । ३ । ८६ । तदिदमोष्टा नेन स्त्रिol |४| ३२२ । तदो मोः तदो णः स्यादौ तदोस्तः | ६ | ४ | ३०६ । ७७ । | ६ । ४ । २८३ । 1 ८ । ३ । ७० । || ४ | ३०७ । तनेस्तततव० । ८ । ४ । १३७ । सम्बतुल्पेषु सव्यस्य इ५०व० । । २ । ११३ । ८|४| ४३८ १६ । ४ । २७८ । तस्मात्ताः ता । तादर्थ्य केहि तेहिं० । ताम्राचे स्वः | ६ । ३ । ६७ । ३ । १३२ । ८ । ४ । ४२५ । तिजेरोसक ६।२ । ५६ । १६।४ । १०४ । 1=18100 तित्तिरौ रः तिर्यचस्तिरिनिः ।। २ । १४३ । १६ । ४ । २६ । । ६ । २ । ८२ । तु वो ने तुम्भ० तृतीयस्य मिः ३१ ५३ तृनोऽण्मः ० तिष्ठश्चिष्ठः तीक्ष्णे णः तीर्थे हे तुच्छे तचछौ वा । ८ । १ । २०४ | तुमेस्तोमतुट्ट० । ८ । ४ । ११६ | तु तुब तुम तुह० । ८ । ३ । १०२ । तुम्भ तुय्होय्हो० । ८ । ३ । ६० । तुम्हासु सुपा तुम्ह तुम्भ तहिं० तृतीयस्य मोमु० तुम एवमणा० । ८ । ४ । ४४१ । तुमे तुम तु० । ८ । ३ । १०१ । १६ । ४ । ३७४ । । ८ । ३ । ९७ । । ८ । ४ । १७२ । १६ । ४ । १५ । ८ । ३ । १०० । । ८ । ३ । १४१ । ८ । १ । १०४ / | ८ | ३ | १४४ । १६ । ४ । ४४३ । ३८ तृपस्थिप्पः । ६ । ४ । १३८ । ३२ तेनास्तेगस्यहे० । ० । ३ । १६४ ! १० | ६ |२| ८ | २६ २२ २२ २८ १४. सूत्र ४४ तो दोऽनादौ शौ० । ८ । ४ । २६० ॥ तोऽन्तरि || १ | ६० / ४ ते तु तुमं तुवं तु। ५ । ३ । २ । ते वाक्योपन्यासे || २ | १७६ । ३ तो दो तसो वा । ८२ । १६० । त्थे च तस्य । ८ । ३ । ८३ । त्यदाद्यव्ययान० ८ १४० । ४० त्यादिशत्रोस्तृः । ४ । १७१ १ त्यादीनामाद्यत्र० । ८ । ३ । २३९ । स्पावे: | ६ |१| ३१ १ त्यादेराद्यत्रय० । ८४ । ३८२ । त्योऽचैत्ये | ६ । २ । १३ । || २ | १६१ । त्रपोहिहृत्याः सेर्डरवोजव० त्रस्तस्य दित्थत० ० ४। १६८ । ८ । २ । १३६ । त्रस्य मत्तहे प्रेस्तिमिः | ४ | ३ | १२१ । प्रेस्ती तृतीयादौ । ८ । ३ । ११८ | त्वतलोः पणः 1। ४ । ४३७। त्वथ्वद्वध्वां चछ० । ६ । २ । १५ । त्वरस्तुवरजश्रम। ८ । ४ । १७० । त्वस्य डिमान्त । २ । १५४ । २२ त्वादेः सः | ६ । २ । १७१ । थ ४६ १४ २१ ४१ २० ५२ ३० ३० ५३ १५ ४० २० १४ २३ ४४ १ १० १७ [ अकाराद्यनुक्रमणिका ] ३४ ३७ भावस्पन्दे थू कुत्सायाम् यो धः द १४ १७ ४१ ४३ दहो २ ४४ १३ १२ ४ । ६ । १ । ४५ । १६ दग्धविदग्धवृद्धि०।८।२।४० | २४ । । २ । २९५ । ४० दलिवल्योर्विसट्ट०||४ | १७६ | १२ दशनदप्रदग्धदोए || १ | २१७ | दशपाषाणे हः १३ १६ । १ । २६२ । दशार्हे दरापे द | दिकप्रावृपः सः दिरिचेचोः ८ | ४ | ४३६ | ||२|६ 1 | ६ । २ । २०० । | ६ | ४ । २६७ १ दहेरहिऊलालु० 1८/४/२०७१ दिवसे सः दीपौधो वा दही मिथो दीर्घे वा । ७ । २ । ८५ । १६ । ४ । २४६ । १८ । १ । ६९ । १८ । ४।२७३ / । । १ । २६३ । । । १ । २२३ । ८२४ I १६ । २ । ६१ । । ६ । २ । ७२ । १६।४।३ " दुःखदक्षिणतीर्थे दुःखे णिश्वरः दुःखे व्विलः |८|४| ६२ | दुकुत्रे वा लश्च द्विः = | १ | ११६ । दुर्गादेम्बर १ २७० ॥ 1 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृतसूत्राणाम् ] पृष्ठ. सूत्र ३० दुवे दोष्टि वेसि० । । ३ । १२० । ३३ 5-सु-मु-विध्यादि०|०| ३ | १७३ | १६०२ १२६ । |६|४|२३ । ।६।२।६६ । १६ । ४ । २१३ । शस्तेन दुः दृशि बचेसमुच्यं । ८ । ३ । १६१ । दविदंशदo || ४ | ३२ । ४ । १८१ । । १ । १४२ । ३४ ङो दूमः १८ हप्ते ४१ ३२ ३५ ४० ८ ५० १८ | ४ | ३९३ । दृशेः प्रस्सः २३ वे संमुखीकरणे च | ८ | २ | १६६ | २५ ४४८ । १२ २० ४६ १५ १७ दृशो निश्रच्छप० । शेः क्विप्टक्स० । ४ १. ४२ २७ है दंष्ट्राया दाढा नत्थूना ः धय्यर्थी जः खेरो न वा ४ | ६ । १ । २१ । १६।२।१३६ । || ४ | ३१३ । ।६।२।२४ । ध २ धनुषो वा १५१।२२ । २४ | ६ |४| २४ । ४३ धातवोऽथान्तरे | ८ | ४२५९ । १७ धाग्याम् SIRIERI ३६ १६ १५ णः १६ धैर्य वा ३४ योगी १५ ध्वजे वा ย 1012100! १६।१।७६ । ५ द्वारे, वा १५ द्वितीय०।२।१०। ३१ द्वितीयस्य सि से 1० 1३ । १४० | ३१ द्वितीयातृतीययोः ० । ८ । ३ । १३५ । द्विन्योरुत् १।४।१२ ३० द्विवचनस्य बहुव० । ८ । ३ । १२० । 15 | ३ | ११९ । ३० छेदों वे ६ |६|४|५९ । । ७ । २ । १३१ । १८।२।६४ | ६ । २ । ६४ । | १८ |४|६ १६।२।२७ । ध्वनिविष्वचोरुः || १ |४२ | पृष्ठ. ४० मशेणिरिणास ३५ १ २५ ४ ४७ २६ २६ (x) श्रभिधान राजेन्द्र परिशेष्टम् २ | २६ १० ६ १० ३४ १२ ३८ १ ३४ ३५ ७ ३४ १२ ४१ ३० ३६ ३६ ३ ३६ ६ १२ न. ४६ २८ न कगचजादि०८६४ । ३२४ । न त्थः ।। ३ । ७६ । न दीर्घानुस्वारात् । ८।२।६२ । ३० न दीर्घा णो ४ 29 ३७ १८ नमस्कार परस्परे नवस्यास्त्रे | | ३ | १२५ ।। ३१ । ६ । १ । ६२ । । १६ | | १६ | न वाकमभाव व्यः०१८ १४ | २५२ | न वानिदमे ||३| ६० । । १ न वा मयूखलव ०६८।१।१०१ ॥ न वा यो व्यः TALVIRU ३ at ३८ १२ ३३ १६ ४५ કદ ફર २० नशविमनास | ८ | ४ | न श्रदो १२ । ।८।१। ||३| नात श्रात् ३० । ६५ । नात्पुनर्यादा वा | ८ |१| नादियुज्यांरम्ये | ८ | ४ | ३१७ । नामन्यात्सा मः | ८१६३७१ नाम्यरं वा १८।३।४०। नाम्म्यरः नावर्णात्यः नाव्यावः सूत्र ८४ १७६ । ۱۱۱ निरः पदेर्बलः निर्वा निर्मो निम्माण निली डेर्णिली० ६४५५ । निवृत्त वृन्दारके८ । १ । १३२ । निवृपत्योर्णिहो । ८ । ४ । 1८।३। ४७ । १८ |१| १७६ ६।१।१६४६ निकषस्फटिक० ८११८६ | निद्रातेरोही रो० | ८ |४| १२ | निम्बनापिते ०६ | १ | २३० । | ६ |४ | १२० । । । १ । १३ । |८|४|१९ / २२ । निशीथपृथिव्योर्वा । ८ । १ । २१६ । १६ । ४ । २०१ । निश्व सेर्भः निषधे धो दः । । १ । २९६ । निषेधेईकः १६ । ४ । १३४ | निघुम्भावष्टम्भे० । ६ । ४ । ६७ । निष्पाताच्छोटे० ।। ४ । ७१ । निष्प्रती श्रोत्प० । ६ । १ । ३० । निस्सरेर्णीहर० ८ |४| ७| पीठे वा नीपापी डेमो वा । । १ । १०६ । । ८ । १ । २३४ । | ० | ४ । १२३ । | ६ | १ | २२० । 10121 250I । ८ । २ । ६१ । न्यपयओं sञः । ८ । ४ । २८३ । न्यगयोः १८ | ४ | ३०५ । न्यसेो णिम १८ । ४ । १५ । न्मो मः नैः सदो मज्जः नो णः न्तमाणौ प पक्काङ्गारसाटे० । ८१ । ४७ । परमश्मम स्म० १६ । २ । ७४ । पचः सोल्लपचली । ४० पञ्चम्यास्तृतीया ८ । ३ । १३६ । पञ्चाशत्पञ्च० ।। २ । ४३ । पथिपृथिवं प्रति । ८ १ | पथो णस्येकटू = | २ | १५२ । पदयोः सन्धिवी | ६| १ | ५ | पदाava IG | १ । ४१ । पदान्ते उहुईि० । ४ । ४११ । पृष्ठ. १६ २० ५१ ર १६ १६ १३ १२ ५१ १२ १२ ५ ११ ३४ ४० १२ २५ २८ ४० १० ३६ पिथेर्णिवहणि० । । ४ । १८५ । २७ ३७ पीते वो ले वा । ५ । १ । २१३ । पुंसि जसो डर० । ८ । ३ । २० । पुंस्त्रियोर्न वाध्य० । ८ । ३ । ७३ । पुंस्यन आणो रा०। । ३ । ५६ । पुजेरानवमात्रौ । ८ । ४ । १०२ । पुएरुक्तं कृत करणे ८ । २ । १७६ । पुनर्थिनः स्वार्थे ||४|| ११ पुनागनागिन्योगों २२ ५२ ६ पुरुष रो ४४ पूर्वस्य पुरवः २० पूर्व पुरमा पुररग्घाडाघ• पृथकि धो वा पृथक् स्पष्टे णिन् पृष्ठे वाऽनुत्तरपदे पो वः प्यादयः ७ १२ २४ २५ ३. ४१ २५ ४० १२ १५ २४ ४ १२ ३६ १२ ३६ ५० [ अकारानुक्रमणिका ] ३६ सूत्र पद्ममुखंद्वारे० । । २ । ११२ । परराजभ्यां क० । ६ । २ । १४८ परस्परस्यादिरः । ८४ । ४० । पर्यसः पनोट्ट - प८ । ४ । २०० । पर्यस्तपर्यंण० ८ । २ । ६८ । । |छ । २ । ४७ । । ६ । १ । २५२ । | ६ । १ । २१२ । ४२० । २३२ | १०१ । | ६ । १ । २३५ । पर्यस्ते थटी पर्याणे का वा पक्षिते वा पश्चादेवमेवैवे० । ६ । ४ । पाटिपरुषपरि० । ८१ । पानीयादिष्वित् । ८१ । पापद्ध र पारापते रो वा पिठरे हो वा र० । ६१ । ८० । ८ |१| २०१ । पिबेः पिज्जम० । ८६ । ४ । १० । प्रच्छः पुच्छः प्रतीः सामय० प्रत्यये ङीनेवा 10 | ४ ४५ । 10 | ४ । ६७ । । ४ । १६३ । | ८ | ३ | ३१ । प्रत्याङा पलोहः । ८ । ४ । १०६ । || १ | २०६ प्रत्यादौ मः प्रदीपि दोहदे लः प्रदीपेस्ते श्रवसं० | ४ । १ । १३५ । ४१६८ । १ । १६८ । । ४ । २ । ८ | १ | १२९ । | ० | १ । २३१ । । २ । १ । ११८ प्रभूते वः प्रभो हुप्पो वा । प्रत्यूषे षश्च हो वा । ८ । २ । १४ । प्रत्येकमः पाकि० । ८ । २ । २१० । प्रथमे पोष | ६ | १ | ५५ । | ८ | १ | २२१ | प्रवासीको प्रविशेशेरि प्रसरेः प० | । ८ । ४ । १५२ । | ६ | १ | २३३ । १६ । ४ । ६३ । १८ । १ । ६५ । | ६ | ४ | १८२ । । ६ । ४ । ७७ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृतसूत्राणाम् ] पृष्ट. अभिधानगजेन्द्र परिशिष्टम् २ । [अकाराद्यनुक्रमणिका] सूत्र सूत्र | पृष्ठ. सूत्र ३५ प्रस्थापेः पदवपे० ८।४। ३७ ।। ४८ भिस्सुपोहि ।।४। ३४७। ५ मात्रटि वा । ।१।१ । ३७ प्रहगेः सार: 8IE४ । १६ भीष्मे ष्मः ।८।२।५४ २३ मामि हला० IE| २ ५ | ४२ प्रादेमीलेः ।।४।२३२।। ३७ जो नुजजिम०1८।४।११० ।। १५ मार्जारस्य मा०।८।२।१३२। ४० प्रान्मशमपोई० ।।४।१४।। ३६ वेहादुवहवाः ।८।४। ६० ।। ५ मांसादिष्वनुस्खा०।८।१।७० । ५१ प्रायसः प्राउ प्रा०।८।४।।१४।। ४४ नुवानः ८।४।२६६। २ मांसादेर्वा ।८।१।२५। ६ प्रावरणे अश्या०1८1१।१७५।। ५० नुवः पर्याप्ती दु० ।।४१ ३६०। ३० मि मयि ममा०।७।३।११५ । २ प्रावृदशरततर० ।।१।११ ।। में तब्ने तुज्झ० ।८।३।१ ।। २६ मि मे मम मम ।।३।१०९ । १७ प्ल के लात् ।८।२।१०३। २६ ने तुम्नहि उऊऊ.।८।३।६५ । ३२ मिमोमु मे स्सा।।३।१६७ । ३५ प्लावरोम्बाल ।८४।४१ । ६ भेदित तहतका ८।३ । १४ । ३१ मिममिर्मिहम्हा०।८।३।१४७ । ३० भ्यमश्व हिः ।८।३।१२७।। ५ मिरायाम । ।१। ७ । | २४ यसस्ता दो० ।।३।। २२ मिव पिव विव०।८।२।१२। ३७ फकस्थकः ।८।४/८७ । ४८ भ्यसामाईः ।।४।३५१|: २१ मिथाद् मानिः ।८।३.१७०। १५ फो भहो ।८।१।२३६ । ४६ भ्यसाम्भ्यां ।।४।३७३ ३५ मिथ्रीसालमे० ।८४२० । २५ भयसिवा ।।३।१३ । २८ मुः स्यादौ ।३८८ । ४३ बन्धोन्ध: । ।४।२४७॥ ४७ भ्यसो हुँ ।८।४।३३७। ३७ मुचश्कड़ावहे० ।८।४।१ । २२ बसे निर्धारण ।।२।१८५। ४० भ्रंश:फिरफिट्ट०1८।४।१७७। |४२ मुहेर्गुम्मगुम्ममौ । ८।४।२०७। १० बदिसो बाहिं० ।।।१४०। १३ चमरेसा वा ।।१।२४४।। ३७ मृजरुग्घुसमु०।८।४।१०५ । ५० बहुत्ये हुं ।८।४।३० । ३१ चमराडो वा ।८।३।१५१ ।। ३८ मृदो मलमढ० ।।४।१२६ । ४. बदुत्वे दुः ।८।४।३८४। ३९ भ्रमेटिरिटिल्ल० ।८।४।१६१ । ३२ मेस्सं । ।३।१६।। १ ३५ भ्रमेस्तालि० बलम् । ।१।१ ।। ।।४। ३० ।। १२ मेथिशिधिरशि०।८।१।२१५ । ३३ यदुषुन्तुहमो ।८।३।१७। ११ भ्रवो मया डमया।८।२।१६७। २६ मे म मम मह०।।३।११३ । ३१ बवाद्यस्य० ।।३।१४२। ५० मोऽनुनासिको0 ।।४।३१७| म १७ बाप्पे दोऽश्रु० ।।२।७० । २ मोऽनुस्वारः । ।१।२३ । २६ मई मम महम०।८।३।१११।४४ मोऽन्त्यादणोघे०८।४।२७। ३ बाहोरात । ।११३८ । २३ मण विमर्श 10|२|२०७। ३२ मोममानां हि० ।।३।१६८। १५ मिसिन्यां भः ।।१।२३० ।। ३० मरामश्विश्चर्चि० ।८।४।११५।२४ मोरनचा मुधा ।८।२।११४ : ३४ बुभुक्षिवीज्यो९०1८।४।५ । ७ मधूके वा । ।१।१२।। १७ वृहस्पतिवन० ।८।२६ । ।८।४।२६४। २. बृहस्पती बहो० ।।२।१३।। मध्यत्रयस्याच०1८।४। ३०३।" ३२ मौ वा 1८।३।१५४। ४ मध्यमकतमे० ।।१।४८ ।। १२ बो वः ।१।२३७ । १६ म्नझोर्णः । ।८।२ ४२ । ३१ मध्यमस्येत्था० ।। ३ । १४३ । ४२ म्मश्चः ४३ भो दुहलिहा ।।४।२४५।। ।८।४।२४३। १७ मध्याह्हः ।८।२।८८ । २६ भो म्हज्को बा । ८।३।१०।। २८ म्मावयेत्री वा ।८।३। नए । ३३ मध्य च स्वरा०1८।३।१७०। ४२ प्रक्षश्चोप्पडः ।।४।१९१ । १६ ब्रह्मचर्यतूर्यसौ० ।८।२।६३ ।। ४ ब्रह्मचर्ये चः २१ मनाको न वा दु०।।२।१६।। । ।१।५ए: ३४ मला पब्वायौ ।।४।१० । ३० मन्थे सनवि० ।८४।१२१। १ ५. गोबो वा ।।४।३६१ म्हो म्भो वा ।८।४। ४१२। १३ मन्मथ वः ।८।२।२४२। :३६ मन्युनाठमा० । ।४। ६६ । ३७ भम्जेर्वमय-मु० ।।४।१०६ । १६ मन्यौता वा ।।२।४४ । यतरिकन्यो ।८।४।३५० । ४४ जबद्भगवतोः ८.४।२६५ २६ ममाम्ही ज्यसि ।८।३।१२। २० यत्तदेतदोतो०1८।२।१५६ । ४५ भविष्यति सिमः ।।४19७५।४ मयटया ।८।२५0 ।४६ यत्तदः स्यमो । ।४।३६० । ३२ भविष्यति हिग ।३।१६६।१० मरकतमदकले०।८। १ २ । १ यत्रतत्रयात्रस्य।१४।४०४। ४६ भविष्यत्येय्य एय।।४। ३२०। १० मलिनाभय ।८।२।१३८ । १० यमुनाचामुएमा०।८।१।१७८ । ४० भपेतुका ।। ४ । २०६।। ७ मस्णमृगाङ्कमृ० ।।१।३०। १३ यष्टयां लः । ।१।१४॥ १६ भरमात्मनोः०1८।२।५ । ३७ मस्जरा उणि उ01018।१०। ५१ यादृकतारक० ।।४। ४०२। ३९ जागान्ते नमे०।८।४।१५। ३६ महमहो गन्धे ।८।४। J: ।।४६ यारशाददास्तः ।८।४।३१७ नासभिसः ।।४।२०३। ५ महाराष्ट्र ।८१।६५ । | ३५ यापैर्जयः । ।४।४० । ३५ जियो भायाही ।। ४।५३ । १६ महाराष्ट्र हरोः ।८।२।१२।१४ यावत्ताबजीवि०।८।२।२७१। ४ जिमा तुम्हर्दि ।८।४। ३७१। मह मजकु ङसि०८।४ । ३७६ । ५. यावत्तावतार्वा० । ८18|४०६। २५ जिसो हि हि हिं।।३।७।२२ माई मार्थे ।।२।१६१ ३७ युजो जुनजुज० ८।४।१०९। २५ भिस्भ्यमपि ।।३।१५। मातुग्दिा । २३। ४१ युवधगृध० । ।४।२१ । ४७ जिस्येद्वा ।।४। ३३५ । । २० मातृपिताम्ब० ।।२।४२।। यधिष्ठिरवा ।।२ ६i Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृतसूत्राणाम्] अभिधानराजेन्द्र पगिशष्टम् २ । [अकागद्यनुक्रमणिका ] | सूत्र पृष्ठ. सूत्र | पृष्ठ. युवर्णस्य गुणः ।।४।१३७। | ३६ लुनेः संभावः ।८।४।१५३। १५ वृत्तप्रवृत्तमृत्तिः । ८।२।२ए । ४१ युष्मदः सौ तुहुं।८।४।३६७। | ४६ लोळः । ।४। ३०८ । १५ वृन्त एदः ।८।२।३१ । २८ युष्मदस्तं तु तुव01८।३।१०। २१ ला नवैकाद्वा ।८।२।१६५।। १५ वृश्चिकश्चञ्चुर्वा । ८।२।१६ । युष्मदस्मदोऽ०८।२।१४९ । ७ वृषभे वा वा । ।१।१३३ । ५२ युष्मदादेरी० ।८।४।४३४। २ वक्रादावन्तः ।८।१।२६ । |४२ वृषादीनामरिः ।८।४।२३५ । १३ युष्मद्यर्थपरे तः ।८।१।२४६।। ४१ वचो वात् ।८४।२११ । वृषे ढिक्का 1८18| ६ | ५२ योगजाचैषाम ।018|४३०।। ३७ बर्वहववेसव.।८।४।६३ । ११ वणो णो वा । ।१।०३। २३ वणे निश्चयवि० ।८।२।२०६।। ९ वतः काणकार ।८।२।१६८। १४ रके गो वा ।।२।१० ।। २० वचः ।। १०।। ५१ वेदकिमोऽयोदः ।।४।४०61 ३७ रचेरुग्गहावह० ।८।४।९४ । ३० वधात् डाइश्चवा।८।३। १३३।। २८ वेदंतदेतदो ङ० ।।३।८१ । ३५ रम्जेः राषः ।।४।४ ।१६ वनिताया विल०।८।२।१२८ । ३६ वेपेरायम्बाय० ।८। ४ । १४७। ४० रमः संखुइले० ।।४।१६८ । |२ घर्गेऽन्त्यो वा ।।१। ३० । वेमाजल्याद्याः०।८।१।३५ । ४५ रसालशौ ।८।४।२०८।। ३२ वर्तमानाप० ।८।३।१५८ । वेवच आमन्त्रण। ७।२।१६४ । ४७ रस्य लोपा ।।४। ३२६।। ३३ वर्तमानाभवि० ।८।३।१७७॥ २३ वेव जयवारण।।२।१६३ । । ।४। २२१ । १८ रहो । ।३। ५० वय॑ति स्यस्य०१८।४। ३०८। वेष्टेः परिपालः ।।४।५१ । ३७ राजे रग्घराज।।४।१००। ४ बल्युत्करपर्य० ।।१।५० । वैकादः सि सि०८।२।१६।। ४६ राको वाचि ।।५।३०४। ए वा कदले ||११६७। १६ चैमूर्यस्य वेरुलिय। ।।१३३। १६ राकः । ।३।४ए । | ३ बाह्यर्थवचना०।८।१।३३ । वैतत्तदः १८ ८३३ । रात्री वा ।८।२100 । वाऽदसो दस्य० ।।३।७ । २८ २८ वैतदो ङसेस् त्तो०।८।३।१ । ८ सिकेवमस्य ।८।१।१४०। ४४ वाऽऽदेस्तावति ।।४।२६२। वैरादौवा । १२ वाऽऽदौ ३६ रुते रुजरुएटौ ।।४। ।१।१५२ । ७। । ।१।१२६ । २० पैसेणमिणमो० ।८।३।८५ । ४२ रुदनम्मोर्वः ।।४।२६।५० वाऽधा रो मुक ।८18| ३९८ । २६ पोतुज्झतुम्भे० ।८।३।६३ । ४१ रुदभुजमुचांग ।।४।२१।। ६ वा निझेरे ना । ।१। २५ बोतो डवो | ५१ वाऽन्यथाऽनु: ११ रुदिते दिना सः ।८।१। २०४। ।८।३।२१ ।८।४।४१५। । २६ वाऽऽपए ।।४।१३३ । ।८।३।४. १३ वोत्तरीयानीय० ।।१।२४८ । । ३८ रुधेरुत्य: ८ वा बृहस्पती । १६ बोत्साहेथो दश्च०।८।२।४८ । ।१।१३८ । ४१ रुधो ग्धम्भौ च ।८।४। १८।। बाऽभिमन्यौ । ।१। २४३। २ चोद: । ।४।२२३ । ४२ रुषादीनां दीर्घः ।८।४।२३६।। ५१ वा यत्तदोऽतो01८।४।४०७। वोपरी । ।१।१००। १३ रे अरे संभाषण०।८।२।२०१।। ४ घाडौँ ।८।१।६३ । ३७ वोपेन कम्मवः ।८।४।१२१ । २१ रोदीघात ।८।२।१७१। ४ वाऽलावरण्ये० ।।१।६६ ।। १६ वोवें ।८।२। । ३५ रोमन्थे रोग्गा० ।८।४।४३ । १६ वा विहले चौ० ।८।२।५८ । वौषधे ।८।१।२२७। |४ वाऽव्ययोत्खाता ।१।६७ ।। ४२ व्य जनाददन्ते ।८।४।२३८ । सम्याधुदिौ ।८।२।३० । | २ वा स्वर मश्च ।।१।५४ । ३२ व्यजनादभिः ।८।३।१६३ । र्यस्नष्टां रिय० ।।४।३१४ । व्यत्ययश्च 151४|४४७ २ विंशत्यादलुक ।८।१।२८ । लुकि दुरो वा ।।१।११५। १४ व्याकरणप्राका०1८।१।२६७। ४१ विकसेः कोपा०।८।४।१६५। ३८ व्यापेरोअग्गः ।८।४।१४१ । लुकि निरः . ।८।१ । ६३ । ३५ विकाशः पक्खो०। ८1१५ ।३६ व्याप्रेरामा ।४।१ । १८ शतप्तवजे वा । ।३।१०५ । ४० विगः थिप्प० । ८।४।१७५। ३६ व्याहगः कोक०।८।४।७६ । १७ श्रीन्ह कृत्स्न०।८।२।१०४। ३५ विरुपाक्का० ।।४।३८ । ४३ व्याहगेर्वाहिप्पः ।।४।२५३ | स १२ वितस्तिवस० ।।११४।। ४२ ब्रजनृतमदांग ।।४।२२५ । १६ लघुके लहोः ।।२।१२२ । | २१ विगुत्पत्रपीता० । ८।२।१७३।५० जना ८।४। ३६२। १३ सनाटे च ।८।१।२५७ । | ३५ चिरिचरानुगमो०।८।४।२६ । ४५ ४५ प्रजो जा1८।४।२६४। १६ ललाटे लमोः ।८।।१२३ । ३० विलपमयम० ।८।४।५४८ । ३७ बस्जीदः ।८।४।१०३। ३६ विलीङविरा ।।४।५६ ।। ४२ शाकादीनां १६ सात् 1८।२।१०६ । । ।४।२३। ३० विवृत्तसः ।८।४।११८। १३ साहलसागस० ।८।१।२५६ । ३७ ३७ शेकेश्चयतरती०।८।४।०६ । ३६ विश्रमर्णिव्वा ५३ लिलमतन्त्रम् ।८।४।४४५ । ।८।४।१५६ । १४ शक्तमुक्तदष्टरुग्णा८। १ । ५१ विषाणाक्तवर्म०।८।४।४२१। ३६ लिपो लिम्पः ।।४।१४६। | ३३ शत्रानशः । ।३।१८१। १३ विषम मा दो वा ! ८।१।२४१ । १ सुक ।१।१० । शदो ऊरपक्खो०।८।४।१३० । ३१ सुगावी क्तभाय०१८।३।१५२। ३८ विसंवदर्विअट्ट ।।४।१२६।२१ शनसोडिअम् ।।२।१६८ । १४ लुम्भाजनदनुज ।८।१।२६७।। ३६ विममुः पम्हुस-010।४।७५ ।। १३ शबरे बो मः । ।१।२५८। लुप्तयरवशप० ।८।१।४३ । २४ वाप्सात्स्यादेवी।।३।१ । ४. शमेः पमिसाप०।८।४।१६७ । २५ सुप्ते शसि ।८।३। १७ ।। १६ वृक्तक्विप्तयोः रु०।।२।१२७।। २ शरदादरत 151१।१८ । | ३८ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृतसूत्राणाम ] पृष्ठ. १३ शषोः सः ४६ शपोः सः | ८ | ४ | ३०६ । १८ शार्ङ्ग जात्पूर्वोत् । ८२ । १०० । शिथिले देवा । । १ । ८६ ५ । १४ शिरायां वा | ८ | १ | २६६ । १० शीकरे भहौवा । ८ । १ । १८४ ॥ ५१ शीघ्रादीनां वहि० । ८ । ४ । ४२२ । २० शीलाद्यर्थ स्रः । १४५ । । ११ । | ६ |२| ५ 1 । ८ । १ । १०६ । | ६ |४| २८६ । सूत्र | ८ | १ | २६० । १४ शुल्के वा १४ शुष्कस्कन्दे वा १० श्रृङ्खले खः कः ४५ शेषं प्राकृतवत् ४७ शेषं प्राग्वत् ४५ शेषं शौरसेनीयत्। ६ । ४ । ४६ शेषं शौरसेनी वत् । ८ । ४ । ५३ शेषं संस्कृतव० ।। ४ । ३० शेत ३६ शैथिल्यल• सरसेन । २ । । २ । | ६ । ४ । ४४६ ॥ ।। २ । ८७ ५ १७ वो हरिश्चन्द्रे श्यामाके मः ३४ श्रदो धो दहः १६ । १ । ७१ |८|४| । १६ श्रद्धर्धिमूर्धऽर्धे ० । ६ । २ । ४१ । ३६ श्रमे वावम्फः | ६ | ४ । ६६ । २३ भुगमिरुदिविदि ८ ३ १७१ । १४ संयुक्तस्य ३६ संवृगे: सादर ११ सटाशकटकैट० | ६ | ४ | ३१८ । ३०२ । ३२३ | ४४८ | | ८ | ३ | १२४ । १६ । ४ । ७० 1 ३६ श्रुटेर्हणः ३७ श्लाघः सलड़ः ४१ लिषेः सामग्गाव० ८४ । १५० । १६ श्लेष्मणि वा | ६ । २ । ५५ । ४१ ११ सप्ततौरः ४ । । ष १४ पदशमीशावसु० । ८ । १ । २६५ । ४८५ षष्ठचाः | ८ | ४ | ३४५ । १४ कस्कयोर्नाम्नि | ८ |२|४ स्यानुष्टशसंदष्टे । ६ । २ । ३४ | ६ । ४ । ५६ । ' १५ । १६ पस्पयोः फः । ८।२ । ५३ । 1518100 1 स १२ संख्यादेर । ५ । १ । २१६ । ३० संख्याया श्रमो० । ८ । ३ । १२३ । २० संव | | ४ | १४० | 15181250| ४० संदिशेरपादः ३५ संभावेरासङ्घः । ७ । ४ । ३५ । । ७ । २ । १ 1 सप्तपर्णे वा | ६ | ४ । ८२ । || १ | १६ | | ६ । ४ । २१६ । । १ । २१० । १८ । १ । ४०० | सप्तम्या द्वितीया । ८ । ३ । १३७ । ३४ समः स्त्यः खाः । ८ । ४ । १५ 1 ४३ समनूपाद् रुधेः । ८ । ४ । २४८ | ३६ समा अग्निडः || ४ | १६४ | ३६ समापेः समाणः । ८ । ४ । १४२ । ३७ समारचेरुवद्द० ||४ | ०५ । ३१ पृष्ठ. १८ ३८ ४२ १५ १७ ४६ २० ४६ ४५ १५ १५ ४६ ३७ ३१ ३२ ४६ २६ ३० १७ ४२ १८ ३३ ३३ २७ ४५ १६ १४ १६ १६ १६ १५ १६ ७ १३ २ अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् २ | ३४ १६ ४३ (=) १३ २० समासे वा समो गलः समोल्लः १४. सूत्र ।।२९७ । ११ स्फटिके लः ४२ स्फुटिचले: । ८ । ४ । ११३ । । ८ । ४ । २२२ । ३६ स्मरंभरकूरनर० ४७ ४० ४७ १९ ४१ सम्मर्दतिर्दि० । ६ । २ । ३६ । सर्वत्र लवराम० ।। २ । ७० । सर्वस्य साहो वा । ८ । ४ । ३६६ । सर्वाङ्गादीनस्येकः । । २ । १५१ । सर्वादेईसेही | ० | ४ | ३५५ सपोः संयोगे सो० ८।४।२८६ | साध्वसध्याह्यांऊः । ८ । २ । २६ । सामर्थ्यात्सुको० । । २ । २२ । सावस्मदा हउ० | ८ | ४ | ३७५ । सिचेः सिञ्चसि० ।। ४ । ६६ । सिनास्तेः सिः ४० ३५ १५ सी ही ही सुपा अम्हासु सुपि । ८ । ३ । १०३ । । ८ । ३ । ११७ । ८।२।७५ | ६ । ४ । २२६ । | ६ |२| ६६ । । ८ । १ । १५० । सोच्द्रादय इजा० । ७ । ३ । १७२ । सोहिर्वा । ८ । ३ । १७४ । सुपि सुक्ष्म श्रष्णस्त्र० सृजो रः सेवादौ वा सैन्ये वा सी यो स्कः प्रेकाचक्कोः स्तब्धे ठदौ स्तम्भे स्तो वा स्तवे वा स्तस्य थोऽसम० स्तोकस्य थोक० | ६ । ४ । ३३२ । । ८ । ४ । २६७ । । ७ । २ । ३६ । । ६।२।६ स्वरस्यादुत्ते | ८ | ३ | १४६ । भू०|| ३ | १६२ । || ४ | ३८१ । स्त्यानचतु० स्त्रिया इत्थी ४८ स्त्रियां जस्श० | ८ | ४ | ३४८ । ४६ स्त्रियां महः || ४ | ३५हा | ६ । २ । ४६ । । 1 ६ । २ । ४५ । । ८ । २ । १२५ । । ७ । २ । ३३ ५२ स्त्रियां तदन्ताडीः । ८ । ४ । ४३१ । २२ स्त्रियामादवि । ६ । १ । १५ । २५ स्त्रियामुदोतौ वा । ८ । ३ । २७ ४५ स्थर्थयोस्तः | ६ | ४ | २६१ । । स्थविरचिकि० है ३४ स्थष्ठाथक्क स्थाणावहरे १४ स्थूणातूण वा स्थूले लो ६० । ८ । १ । १६६ । १६ । ४ । १६ । १६।२।७ | ६ । १ । १२५ । । ६ । १ । २५५ । स्नमदामशिरो० । ८ । १ । ३२ । स्नातेरन्नुत्तः 1G|४| २४ । स्निग्धे वाऽदितौ । ८ । २ । १०६ । स्निहसिचाः सि० । ८ । ४ । २५५ । स्तुपायां एहो वा० | १ | २६१ स्नेहा । ६ । २ । १०२ | । । । २ । १३० । ३८ रूपन्देश्चुलुम्नः । ८ । ४ । १२७ । ४३ स्पृशेशिय | ६ | ४ | २५७ । स्पृशः फासफे० । । ४ । १८२ | स्पृहः सिंहः १६ । ४ । ३४ । स्पृहायाम् | ६ ।२।२३ । ४ ३५ १३ १७ २३ २ ४२ ४७ ४२ १० २ २६ २१ ४२ २८ ४४ ४३ २२ २२ २३ १० १३ ६ २३ ४१ ३० ५० ४४ ४५ ४८ २३ २३ ५२ ४३ ४६ १३ १६ १६ 'अकारानुक्रमणिका ] १५ २६ 보 ३८ स्यादौ दीर्घ० स्याद्भव्य चैत्य० संम्भो ८ | ४७४ | स्यमोरस्योत | ८ | ४ | ३३१ । स्यम्जस्सां० | ८ | ४ | ३४४ । १८ । १ । १०७ । स्वार्थे कश्च वा स्विदां ज्जः सिस्सयोरत् ६ । ४ । १९७ । । ८ । १ । ६४ । स्वपावुश्च स्वपेः कमवस० स्वप्ननी व्योवी ८ ४ १४६ । । ८ । १ । २५६ । | ६ |२| १०८ स्वप्ने नात् स्वयमोऽर्थे श्रप्प० ८ । २ । २०६ । |८|११० । सूत्र १ ८ । ४ । २३१ । स्वराणां स्वराः | ८|४| २३८ । स्वराणां स्वरा:०८ ४ । ३२ । स्वरादनतो वा । ८ । ४ । २४० । स्वरादसंयुक्त० । ८ । १ । १७६ | स्वरेऽन्तरश्च ||१| १४ | स्वस्रादेमी हरिताले लो० हरिद्रादौ सः हरीतक्यामी० हरे के च हसेर्गुजः हासेन स्फुटेर्मुरः | ८ | ४ | ३३० । ८२ । १०७ । । ह हज्जे चेट्याह्नाने | छ । ४। २०१ । हन्खनो ऽन्त्यस्य |८|४ | २४४ ॥ हन्द च गृहाणार्थे । ८ । २ । १०१ । हन्दिविषादवि० । ८ । २ । १८० । हद्धी निवेदे | ६ । २ । १९२ । । हस्वात् ध्यश्च० ह्रस्वोऽमि | | ३ | ३५ । । ८२ । १६४ | १८ | ४ | २२४ । । ८।३ । ७४ । हृदये यस्य प हो घोऽनुस्वारातू हो ह्योः हद दोः क । २ । १२१ । | ६ | १ | २५४ ॥ ६१ । ६० । | ६ । २ । २०२ । हिस्वरि | ८ | ४ | ३८७ । हीमाणड़े विस्म० ।। ४ । २८२ । हीड़ी विदूषकस्य । ६ । ४ । २८५ । हूं चेदुङ्गाम् | ८ | ४ | ३४० | हुं दानपृच्छानि० । ८ । २ । १९७ । हुखु निश्चयवि० । ६ । २ । १६८ । हुहरु घुग्घादयः० | ८ | ४ ४२३ । हऋतृज्रामीर: | ६ । ४ । २५० ॥ | ६ । ४ । १६६ / । ८४ । ११४ । । । २ । १२० । । ६।२।२१ । । ८ । ३ । ३६ । ह्रस्वः संयोगे ० | ८ | १ | ८४ | । ८ । ४ । १२२ । || ४ | ३१० । । ८ । १ । २६४ । | छ । २ । १२४ | १७ | ६ । २ । ७६ । हा व्हः १६ ह्रो भो वा | ६ । २ । ५७ । इति प्राकृतसूत्राणामकारानुक्रमणिका Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्ति एकवचन | वच्छो । वच्छं | प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी विजक्ति, एकवचन | गोवो | गोवा । बच्छेणं, बच्चेण । वच्छाय, * वच्छस्स । वच्छत्तो, वच्छाओ, बच्छाउ ) बच्चाहि, वच्छाहिन्तो, वच्छा । वच्छस्स । वच्छम्मि, वच्छे | संबोधनम् देवच्छ, हे बच्चो, हे बच्छा । प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी 27 षष्ठी सप्तमी ॥ * ईम् * ॥ ॥ श्री अनिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ ॥ ॥ संक्षिप्तप्राकृतशब्दरूपावलिः ॥ 00: गोवस्स | गोवम्मि | संबोधनम् हे गांव हे गोवा । प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी अकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'वृक्ष' शब्दः । बहुवचन | वच्छा । बच्छे, वच्छा । वच्छेहि, वच्छेहि, बच्छेहिं | बच्चाणं, वच्छा । वच्छत्तो, बच्चा, बच्छाउ, वच्छाहि, वच्छेदि. ( वच्छाहिन्तो, वच्छेदिन्तो, वच्छासुन्तो, वच्छेसुन्तो । बच्चाणं, वच्चाए । वच्छेतुं वच्छेसु । हे बच्चा । कारान्तः पुंलिङ्गो ' गोपा' शब्दः। बहुवचन | गोवाणं, गोवाण । गोवे, गोवस । गोवतो, गोवा, गोवाउ ) गोवाहिन्तो । विजक्ति, एकवचन | गिरी । गिरिं । गिरिणा । गिरिलो, गिरिस्म, गिरये । गिरिणो, गिरित्तो, गिरीप्रो, गिरीड ) गिरीहिन्तो । गिरिणो. गिरिस्स । गिरिम्मि । गोवा | गोवा । गोवाहिं गोवाहिँ, गोवाहि । गोवाणं, गोवारण | गोवत्तो, गोवाओ, गोवाउ, गोत्राहिन्तो, ( गोवा सुन्तो । गोवा, गोत्राण । गोवा, गोवा । हे गोवा | इकारान्तः पुंलिङ्गो 'गिरि' शब्दः । बहुवचन | गिरिणो, गिरी, गिरड, गिरो । गिरिलो, गिरी। गिरीहिं, गिरीहिं, गिरीहि । गिरी, गिरीण । गिरितो, गिरीप्रो, गिरीज, गिरीहिन्तो, ( गिरीसुन्तो । गिरीणं, गिरीण | 27 षष्टी मप्तमी गिरी, गिरीसु । संबोधनम् गिरि, हे गिरी । हे गिरिणो, हे गिरी, हे गिरउ, हे गिरो । * तादर्श्यङेवी ।। ८ । ३ । १३२ ।। तादर्थ्यविहितस्य ङेश्चतुर्थ्येकवचनस्य षष्टी वा भवति । देवस्त्र, देवाय, देवार्थमित्यर्थः । For Private Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) चतुर्थी [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] कारान्तः पुंलिङ्गो ' गामणी' शब्दः । विनक्ति . एकवचन । बहुवचन। प्रथमा गामणी। गामणिणो, गामणी, गामणन, गामणो। द्वितीया गामणि। गामणिणो, गामणी। तृतीया गामणिणा। गामणीहि, गामणीहि, गामणीहिं । गामणये, गामणिणो, गामणिस्स । गामणीणं, गामणीण । पञ्चमी गामणिणो, गामणित्तो, गामणीओ) गामणित्तो, गामणीओ, गामणीन, गामणीहिन्तो, गामणीउ, गामणीहिन्तो। ( गामणीसुन्तो। षष्टी गामणिणो, गामणिस्स। गामणीणं, गामणीण। सप्तमी गामणिम्मि। गामणीसुं, गामणीसु। संबोधनम् हे गामणि, हे गामणी। हे गामणिणो, हे गामणी, हे गामणन, हे गामणी । उकारान्तः पुंलिङ्गो 'गुरु' शब्दः । विभक्ति एकवचन। बहुवचन । प्रथमा गुरुणो, गुरू, गुरओ, गुरउ, गुरवो *। द्वितीया गुरुं। . गुरुणो, गुरू। तृतीया गुरुणा। गुरूहि, गुरूहिँ, गुरूहि । चतुर्थी गुरवे, गुरुणो, गुरुस्स । गुरूणं, गुरूण । पश्चमी गुरुणो, गुरुत्तो गुरूओ, गुरूउ) गुरुत्तो, गुरूओ, गुरूउ, गुरूहिन्तो, गुरूहिन्तो। . (गुरूसुन्तो। षष्ठी गुरुणो, गुरुस्स। गुरूणं, गुरूण । सप्तमी गुरुम्मि। गुरूमुं, गुरूमु । संबोधनम् हे गुरु, हे गुरू । हे गुरुणो, हे गुरू, हे गुरन, हे गुरो, हे गुरवो। ऊकारान्तः पुंबिङ्गः 'खलपू' शब्दः। विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा खलपू। खलपुणो, खलपू, खलपउ, खलपा, खलपवा । द्वितीया खलपुं। खसपुणो, खलपू। तृतीया खलपुणा। खलपूर्ति, खलपूहिँ, खलपूहि । खापवे, खलपुणो, खापुस्स। खन्नपूर्ण, खलपूण। पञ्चमी खलपुणो, खलपुत्तो, खलपूओ). खलपुत्तो, खलपूओ, खलपून, खन्नपूर, खलपूहिन्तो। (खमपूहिन्तो, खलपूसुन्तो। षष्ठी खबपुणो, खलपुस्स। खलपूर्ण, खलपूण । सप्तमी खलपुम्मि। खरपूसु, खलपूसु। संबोधनम् हे खुलपु, हे खलपू। हे खलपुणो, हे खलपू, हे खलपन, हे खलपो , हे खापवो । कारान्तः पुंलिङ्गः 'पितृ' शब्दः। विनक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा पिआ, पिअरो। पिअरा, पिउणो, पिअन, पिअओ, पिक। द्वितीया पिअरं। पिपरा, पिअर, पिउणो, पिऊ । तृतीया पिनणा, पिअरेणं, पिअरेण । पिअरेहिं.पिहि,पिअरेहि, पिकहि. पिकाह, पिकहिं। * 'वोतो म्वो '।। ३ । २१ ॥ उदन्तात् परस्य जसः पुंसि मित् अयो श्त्यादेशो वा भवति । साहयो । . " चतुर्थी 44 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अनिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विज्ञक्ति एकवचन । बहुवचन । चतुर्थी पिनरस्म, पिउणो, पिउस्म । पिअराणं, पिअराण, पिकणं, पिकण । पञ्चमी पिनणो, पिनत्तो, पिऊो, पिऊन, पिऊहि-) पिपरत्तो, पिरानो, पिमराउ, पिअराहि, पिमरेहि, " तो, पिअरत्तो, पिअरामो, पिराउ, पिअराहि) (पिमराहिन्तो, पिअरेहिन्तो, पिअरासुन्तो, पिअरेम" पिअराहिन्तो, पिपरा। (न्तो,पिनत्तो, पिऊो, पिऊउ, पिळहिन्तो, पिळसुन्तो। षष्ठी पिअरस्स, पिउणो, पिनस्स । पिअराणं, पिअराण, पिळणं, पिळण । सप्तमी पिअरम्मि, पिअरे, पिउम्मि । पिअरेसुं, पिअरेसु, पिकसुं, पिकमु । सम्बोधनम् हे पित्र, हे पिमरं । हे पिअरा, हे पिऊ, हे पिउणो। अकारान्तः पुंलिङ्गो 'जर्तृ' शब्दः । विज्ञक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा भत्ता, जत्तारो। भत्तुणो, भत्तू, भत्तउ, जत्तमो, जत्तारा। द्वितीया जत्तारं। जत्तुणो, भत्त, नत्तारे । तृतीया जत्तुणा, भत्तारेणं, जत्तारेण । भत्तारहिं, भत्तारेहि, जत्तारोहि, भटिं, भत्तूहि नहि। चतुर्थी भत्तुणो, जत्तुस्स, जत्तारस्स । भत्तूणं, नचूण, भत्ताराणं, जत्ताराण । पञ्चमी जत्तुणो, नतुत्तो, जत्तो, भत्त, भत्तूहिन्तो,) भत्तुत्तो, भत्तूरो, अत्तउ, चत्तृहिन्तो, जत्तूमुन्तो, भ" भत्तारत्तो, भत्ताराम्रो, जताराम, जनाराहि, भ-) (तारत्तो, भत्ताराओ, चत्ताराउ, भत्ताराहि, भत्तारोह, म, चाराहिन्तो, जत्तारा । (शाराहिन्तो, जत्तारेहिन्तो, बत्तारासुन्तो, भचारेसुन्तो । पष्ठी भत्तुणो, भत्तुस्स, भत्तारस्त । भत्तूणं, जत्तूण, भत्ताराणं, बत्ताराण । सप्तमी भत्तुम्मि, भत्तारम्मि, भत्तारे । जत्तूमुं, नत्तूसु, भत्तारेसुं, भनारे । सम्बोधनम् हे जत्त, हे नचार । हे भत्तू, हे जत्तुणो, हे जत्तउ, हे भत्तभो, हे जतारा । ___ नकारान्तस्यापि 'राजन्' शब्दस्य प्राकृतेऽकारान्तवद् रूपं डेयम् । विनक्ति एकवचन। बहुवचन । प्रथमा राया, रायाणो। रायाणो, राइणो, राया, रायाणा । द्वितीया रायाणं, रायं, राइणं । रायाणो, राणो, रायाणे, राए । तृतीया रायाणेणं, रायाणेण, राहणा, रणा, रापणं, रायाणेहिं, रायाणेहिँ, रायाणेहि, राईहिं, राईदि, रा" राएण, रायणा। ' (ईहि, राएहिं, राग, राएहि । चतुर्थी रायाणस्स, रायाणो, रठो, राइणो, रायस्स। रायाणाणं, रायाणाण, राइणं, राइण, राईणं, राईण, रायाणं, रायाण। पञ्चमी रायाणत्तो, रायाणाम्रो, रायाणाड, रायाणाहि,) राइतो, राईनो, राईन, राईहिन्तो, राईसुन्तो, रापा, रायाणाडिन्तो, रायाणा, राहणो, रायाणो, रमो,) (णत्ता, रायाणाओ, रायाणान, रायाणाहि, रायाणेहि, , रायत्तो, रायाभो, रायाउ, रायाहि, रायाहिन्तो,) (रायाणाहिन्तो, रायाणेहिन्तो, रायाणासुन्तो,रायाणेमु" राया। (न्तो, रायत्तो, रायाओ, रायाउ, रायाहि, राएहि, राया (हिन्तो, राएहिन्तो, रायासन्तो, राएमन्तो। पष्ठी रायाणस्स, राइणो, रसो, रायाणो, रायस्स। रायाणाणं, रायाणाण, राईणं, राईण, राइणं, राइण, (रायाण, रायाण। सप्तमी रायाणम्मि, रायाणे, राशम्मि, रायम्मि, राए। रायाणे, रायाणेसु, राई, राईस, राएसं, राएम् । सम्बो हेरायाण, हे सयाणा, हेरायाणो, हेराअ, हेराया। हे रायाणा, हे राणो, हे रायाणो। नकारान्तः पुंलिङ्ग 'आत्मन् शब्दः । विभक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा अप्पाणो, अप्पो, अप्या। अप्पाणा. अप्पाणो, अप्पा । Jain Education Interational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत ] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विनक्ति एकवचन । बहुवचन । द्वितीया अप्पाणं, भप्पं । अप्पाणे, अप्पाणो, अपे। तृतीया अप्पाणेणं, अप्पाणेण, अप्पेणं, अप्पेण, अप्प.) अप्पाणेहि, अप्पाणेहिँ. अप्पाणेहि, अप्पेहि, अपेहि, " णा, अप्पणा , अप्पणिया। (अप्पेहि । चतुयीं अप्पाणस्स, अप्पस्म, अप्पणो। अप्पाणाणं, अप्पाणाण, अप्पाणं, अप्पाण । पत्रमी अप्पाणतो,अप्पाणाप्रो.अप्पाणान, अप्पाणाहि.) अप्पाणतो, अप्पाणाओ, अप्पाणान, अण्णाणाहि,अप्पा " अप्पाणाहिन्तो,अप्पाणा, अप्पणो,अप्पत्तो, अप्पा.) (णेहि, अप्पाणेहिन्तो, अप्पाणाहिन्तो, अप्पाणेसुन्तो, " ओ, अप्पाउ, अप्पादि, अपाहिन्तो, अप्पा। (अप्पाणासुन्तो, अप्पत्तो, अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, (अप्पेहि, अप्पाहिन्तो,अप्पहिन्तो,अप्पासन्तो,अप्पेमुन्ती। षष्ठी अप्पाणस्स, अप्पस्स, अप्पणो। अप्पाणाणं, अप्पाणाण, अप्पाणं, अप्पाण । सप्तमी अप्पाणम्मि, अप्पाणे, अप्पम्मि, अप्पे । अप्पाणसुं, अप्पाणेसु, अप्पमुं, अप्पमु । सम्बोधनम् हे अप्पाणो, हे अप्पो, हे अप्प । हे अप्पाणो, हे अप्पाणा, हे अप्पा । ॥ अथ सर्वादीनां पुंलिङ्गे रूपाणि तत्र सर्वशब्दः ॥ विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा सम्बो। सचे। द्वितीया सव्वं । सव्ने, सव्वा । तृतीया सव्वेणं, सम्वेण | सव्नेहि, सहि, सव्वेहि। चतुर्थी सबस्स। सम्बोसि, सवाणं, सव्वाण । पञ्चमी सम्वत्तो, सव्वानो, सव्वाठ, सब्बाहिन्तो, स-) सबत्ती, सव्वाओ सब्बाउ, सव्वाहि, सम्बेहि, सव्वाबाहि, सन्चा। (हिन्तो, सच्चे हिन्तो, सब्बासुन्तो, सव्वेमुन्तो । षष्ठी सबस्स। सम्बेसि, सव्वाणं, सव्वाण । सप्तमी सम्वस्सि, सव्वाम्म, सम्वत्थ, सबाहिं। सम्बेसुं, सम्बेसु । सम्बोधनम् हे सब, हे सन्यो, हे सव्वा । हे सके। तथाऽकारान्तः पुंलिङ्गो विश्व' शब्दः । विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा विस्सो। विस्से। द्वितीया विस्सं। विस्से, विस्सा। वतीया विस्सेणं, विस्सेण । विस्से हिं, विस्सेहि, विस्सेहि । चतुर्थी विस्सस्स । विस्सेसि, विस्साणं, विस्साण । पञ्चमी विस्मत्तो, चिस्सामो, विस्साउ, बिस्साहि, वि.) विस्सत्तो, विस्साओ, विस्साउ, विस्साहि, विस्मेहि, वि. , साहिन्तो, विस्सा। स्माहितो, विस्सेहितो, विस्सामुन्तो, विस्सेसुन्तो। षष्ठी विस्ससा। विस्सेसि, विस्साणं, विस्साण । मप्तमी विस्सस्सि, विम्सम्मि, विस्सत्य, विस्सहि। विस्सेसुं, विस्सेसु । सम्बोधनम् हे विस्स, हे विस्सो, हे विस्मा । हे विस्से। अकारान्तः पुंलिङ्ग 'उन्नय' शब्दः विनक्ति एकवचन । बहुवचन। प्रथमा उत्नयो। उजये। द्वितीया उन्नयं। उभये, उन्नया। Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अनिधानराजेन्परिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विजकि एकवचन । बहुवचन । तृतीया उभयेणं, उभयेण । नभयेहि, उजयहि, उजयहि । चतुर्थी नजयस्स। उभयसिं, उभयाणं, नत्जयाण । पश्चमी उजयत्तो, उन्नयाओ, उभयाउ, उत्नयाहि, ज.) उभयत्तो, उजयाभो, उनयान, उजयाधि, उत्नवेडि, उ. भयाहिन्तो, भया। (भयाहिन्तो, उजयेहिन्तो, उभयामुन्ता, उभयेमुन्ता। पष्ठी नभयस्स। उभयसिं, उन्नयाणं, उत्जयाण । .सप्तमी उभयम्मि, उत्नयरिंस, उजयस्थ, उत्जयहिं । उभयेमुं, मभये। सम्बोधनम् हे नन्नय, हे उभयो, हे उभया । हे उजये । तत्राकारान्तः पुंलिङ्गो 'अन्य' शब्दः। विनक्ति एकवचन। बहुवचन। प्रथमा प्रमो। अमे। द्वितीया अमं । असे, असा। हतीपा अमेणं, अहोण। अहि, अहि, अहि। चतुर्थी अमस्स। अमेसि, अमाणं, अप्माण। पञ्चमी अप्पत्तो, अमाप्रो, अमाउ, अम्माहि, प्रमा.) अप्लाचो, अस्मा ओ, अमान, अप्साहि, अमेहि, अहिन्तो, अया। (पाहिन्तो, अहिन्तो, असामुन्तो, असन्तो। षष्ठी अमस्स। असोसिं, अपाणं, प्रमाण । सप्तमी अमस्ति, अमम्मि, अमत्थ, अयाहि । अमेसुं, अमेसु । सम्बोधनम् हे अम्ल, हे अम्यो, हे आमा । हे अमे। तत्राकारान्तः पुंलिङ्गः ' कतर ' शब्दः । विजाक्त एकवचन । बहुवचन । प्रथमा कयरो। कयर। द्वितीया कयरं । कयरे, कयरा। तृतीया कयरेणं, कयरेण । कयरेहिं, कयरेहि, कयरेहि । चतुर्थी कयरस्स। कयरोसिं, कयराणं, कयराण । पञ्चमी कयरत्तो, कयराओ, कयराउ, कयराहि,) कयरत्तो, कयराओ, कयरान, कयराहि, कयरेहि, कय" कयराहिन्तो, कयरा । राहिन्तो, कयरोहिन्तो, कयरासुन्ता, कयरेमुन्तो । षष्ठी कयरस्स। कयरेसिं, कयराणं, कयराण । सप्तमी कयरस्मि, कयरम्मि, कयरत्य, कयरहिं । कयरेमुं, कयरमु । सम्बोधनम् हे कयर, हे कयरो, हे कयरा । हे कयरे। अकारान्तः पुंल्लिङ्गो 'अवर' शब्दः । विनक्ति एकवचन । बहुवचन। पथमा अवरो। अवरे । द्वितीया अवरं। अवरे, अवरा। तृतीया अवरेणं, अवरेण । अवरोहिं, अवरहि, अवरहि । चतुथीं अवरस्स। अवरेसिं, अवराणं, अवराण । पश्चमी अवरत्तो, अवराओ, अवरान, अबराहि, अ.) अवरत्तो. अवरात्रो. अवरान, अवराहि. अवरोहि. भ. " बराहि-तो, प्रवरा । बराहिलो, अपरेहिन्तो, अबरासुन्तो, अवरेसुन्तो । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विभक्ति एकवचन । पठी अवरस्स । सप्तमी अवरस्सि, अवरम्मि, अवरत्थ, अवरहिं । देवरा, हे अव । सम्बोधनम् हे अवर विजक्ति एकवचन । प्रथमा इयरो | द्वितीया इयरं । तृतीया चतुर्थी पञ्चमी " षष्ठी सप्तमी "7 षष्ठी सप्तमी इयरस्म | इयररिंग, इयम्म, इयरत्य, इयरहिं । सम्बोधनम् हे इयर, हे इयरा, हे इयरो । "7 विभक्ति एकवचन । प्रथमा जो । द्वितीया जं । तृतीया जेणं, जेल, जिणा । चतुर्थी जस्स | पञ्चमी जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जाहिन्तो, जम्हा । जस्स । जसि, जम्मि, जत्थ, नहि, जाडे, नाला,) जश्या । "" (६) निधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । इयरेणं, इयरेण । " षष्टी सप्तमी "" अकारान्तः पुंस्लिङ्ग ' इतर ' शब्दः। बहुवचन । इयरे । इयरे, इयरा । इयरेहिं, इयरेहि, इयरेहि । इयरस्स | इयरतो, इयराओ, इयराउ, इयराहि, इयरा - ) हिन्तो, इयरा । विभक्ति एकवचन | प्रथमा सो, यो । द्वितीया तं णं । तृतीया तेणं, तेरा, तिशा, पेणं, पेण । चतुर्थी तास, तस्स, से, एस्म । पञ्चमी तम्हा, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, ता, एम्हा ) एत्तो, पाओ, लाउ, नाहि, साहिन्तो, या । पुँल्लिङ्गे यच्छब्दरूपाणि । जा) बहुवचन । अवरेसिं, प्रवराणं, अवराण । रेसुं वरेषु । हे अवरे । " तास, तस्स, से, एस्स । तास तत्य, तम्मि, तर्हि, एसि, एम्मि, णत्य ) यहि, ताहे, ताला, तड़, पाहे, लाला, इमा। इयरेसिं, इयराणं, इयराण । इयरत्तो, इयराओ, इयराउ, इयराहि, इयरेहि, इयराहि(न्तो, इयरे हिन्तो, इयरासुन्तो, इयरेसुन्तो । इयरेसि, इयराणं, इयराण । इयरेसुं, इयरेसु । हे श्यरे । बहुवचन । जे । पुंलिङ्गे तच्छब्दरूपाणि । बहुवचन । तेणे । तेणे, ता, या । तेहिं, तेहि, तेहि, ऐहिं, रोहि, हि । सिं, ताणं, ताण, सिं, पेसिं, जाणं, णाण । जे, जा । जेहिं, जेहि, जेहि । जेसिं, जाणं, जाण । जत्तो, जाओ, जाउ, जाहि, जेहि, जाहिन्तो, जेहिन्तो, (जासुन्तो, जेसुन्तो । जेसिं, जाप, जाण । जेसुं जेसु । 19 [शब्दरूपावलिः] ततो, ताओ, ताउ, ताहि, तेहि, ताहिन्तो, तेहिन्तो, ता( सुन्तो, तेसुन्तो, एत्तो, खाओ, पाउ, शाहि, लेहि, पा ( हिन्तो, ऐ हिन्तो, पासुन्तो, सुन्तो । तेसिं, ताणं, ताण, सिं, ऐसिं, खाणं, पाल । तेसुं, तेसु, सुं, सू । " Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एके। । [प्राकृत] अनिधानराजेन्मपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] एकशब्दस्य रूपाणि। विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा एको। द्वितीया एकं । एके, एका । तृतीया एक्केणं, एक्केण । एकविं. एक है, एकेहि। चतुर्थी एकस्स। एकेसि, एकाणं, एक्काण । पञ्चमी एकत्तो, एकाओ, एकाउ, एकाहि, एकाहिन्तो,) एक्कतो, एकाओ, एकाउ, एकाहि, एकेहि, एकाहिन्तो, एका । (एक्केहिन्तो, एक्कासुन्तो, एकसुन्तो । षष्ठी एकस्स। एकेसि, एकाणं, एकाण । सप्तमी एकस्सि, एकम्मि, एकत्य, एक्कहि । एकेमुं, एकेमु। प्रकृत्यन्तरेण’ एकशब्दस्यैवान्यानि रूपाणि । विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा एगो। .. एगे। द्वितीया एग। एगे. एगा। तृतीया एगेणं, एगेण। एगेहि, एहैिं, एगेहि, चतुर्थी एगस्स। एगेसि, एगाणं, एगाण। पञ्चमी एगत्तो, एगाओ, एगाउ, एगाहि, एगाहितो,) एगत्तो, एगाओ, एगान, एगाहि, एगेहि, एगाहिन्लो, " एगा। (एगेहिन्तो, एगासुन्तो, एगेसुन्तो। षष्ठी एगस्स। पगसि, एगाणं, एगाण । सप्तमी एगरिस, एगम्मि, एगत्य, एगर्हि । एगेसुं, एगेस। प्रकृत्यन्तरेणैव पुनरेकशब्दस्य रूपाणि । विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा इको। श्के । द्वितीया शक। इके, इका। तृतीया इकेणं, केण । इकेहि, इक्केहि, इक्केहि। चतुथीं इक्कस्स । इकेसि, इकाणं, इकाण। पञ्चमी इक्वत्तो, इकाओ, कान, काहि, काहिन्तो,) इकतो, इकाओ, इक्काउ, काहि, केहि, इकाहिन्तो, " इका। (श्केहिन्तो, इकासुन्तो, इक्केसुन्तो । षष्ठी कस्स । इक्केसि, काणं, इलाण । सप्तमी इकस्सि, इकम्मि, इकत्य, इकहि। इक्केमुं, इकेसु । किंशब्दस्य रूपाणि। विभक्ति एकवचन। बहुवचन । पथमा को। के। द्वितीया कं। के, का। तृतीया केणं, केण, किणा। केहि, केहि, केहि। चतुर्थी कस्स, कास। केसि, काणं, काण, कास । पचनी कत्तो, कामो, काउ, काहि, काहिन्तो, कम्हा,) कत्तो, कामो, कान, काहि, केहि, काहिन्तो, केहिन्तो. " कियो, कीस । कामुन्तो, केमन्तो। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अनिधानराजेन्परिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विभक्ति एकवचन । बहुवचन । षष्ठी कस्स, कास। केसि, काणं, काणं, कास। सप्तमी कस्सि, काम्म, कत्थ, कहिं, काहे, काला, कडा। केसु, केसु । एतन्छब्दस्य रूपाणि। विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा एसो, एस, इणं, णमो। एए। द्वितीया एअं। एए, एआ। तृतीया एएणं, एएण, एश्णा । एएहिं, एएहिँ, एएहि । चतुर्थी एअस्स, से। एएसिं, एआणं, एमाल, सिं । पञ्चमी एअत्तो, एआओ, एआउ, एमआदि,एमआहिन्तो) एअत्तो, एआओ, एआउ, एआहि, एएहि, एमाहिन्तो, " एआ, एत्तो, एत्ताहे। (एएहिन्तो, एआसुन्तो, एएसुन्तो। षष्ठी एअस्स, से। एएसि, एमाणं, एआण, सिं । सप्तमी एअस्सि, एअम्मि, अयम्मि, ईयम्मि, एत्थ।। एएमुं, एएसु। इदंशब्दस्य रूपाणि। विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रयमा अयं, इमो। . इमे । द्वितीया इमं, णं, णं। इमे, इमा, णे, णा। तृतीया इमेणं, इमेण, णेणं, णेण, इमिणा । इमेहिं, इमेहिँ, इमेहि, रोहिं, णेहि , णेहि,एहिं,एहि,एहि । चतुर्थी इमस्स, अस्स, से । इमेमि, इमाणं, इमाण, सिं । पञ्चमी इमत्तो, माओ, इमाउ, इमाहि, इमाहिन्तो, इमा। इमत्तो, इमाओ, इमाउ, इमाहि, इमेहि, इमाहिन्तो, इमे हिन्तो, इमासुन्तो, इमेसुन्तो। पष्ठी मस्स, अस्स, से। इमेसि, इमाणं, इमाण, सिं। सप्तमी प्रस्सि, इमस्सि, इमम्मि, शह । इमेसुं, इमेमु । थद-शब्दस्य रूपाणि । चिनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रयमा प्रह, अम्। अमुणो, अमआ, अमवो, अमउ, अम् । द्वितीया अमुं। अमुणो, अम् । तृतीया भमुणा। प्रमूहि, अमोह, अमूहि । चतुयीं अमुणो, अमुस्स । अमणं, अमांश । पञ्चमी अमुणो, अमुत्तो, अमूओ, अमून, अमूहिन्तो।। अमुत्तो, अमूओ, अमन, अमूहिन्तो, अमूमुन्तो । पष्ठी अमुणो, अमुस्स । अमूणं, अमूण। सप्तमी अमुम्मि, अयम्मि, इम्मि । अमूहूं, अमूसु। विज्ञक्ति एकवचन । प्रथमा रमा। द्वितीया स्म। अथ स्त्रीलिङ्गशब्दाः। श्राकारान्तः स्त्रीलिङ्गो रमाशब्दः । बहुवचन। रमाओ, रमाउ, रमा । स्माओ, रमाउ, रमा। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विनक्ति एकवचन | तृतीया रमाए, रमा, रमाइ । चतुर्थी रमाए, रमा, रमाइ । पञ्चमी रमाए, रमा, रमाइ रमत्तो, रमाओ, रमान, ) रमाहिन्तो । 12 षष्ठी सप्तमी रमाए, रमा, रमाइ । रमाए, रमा, रमाइ । सम्बोधनम् हे रमे, हे रमा । रुईहन्तो । "" षष्ठी रुईया, रुई, रुई, रुईए । सप्तमी रुई, रुई, रुई, रुई । सम्बोधनम् हे रुई, हे रुइ । (u) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् ३ । विभक्ति एकवचन | प्रथमा रुई +1 द्वितीया रुई । तृतीया रुई, रुईया, रुई, रुईए । चतुर्थी रुई, रुईया, रुई, रुईए । पञ्चमी रुई, रुई, रुईइ, रुईए, रुइत्तो, रुईओ, रुई उ ) 99 षष्ठी नईम, नई, नई, नईए । सप्तमी नई, नईया, नईइ, नईए । सम्बोधनम् हे नई, हे नइ । विनक्ति एकवचन । प्रथम नई, नई x | द्वितीया नई | तृतीया नई, नई, नई, नईए । चतुर्थी नई, नई, नई, नईए । पञ्चमी नई, नई, नई, नईए, नइभो, नईओ, नईन,) नईहन्तो । कान्तः स्त्रीलिङ्गो रुचिशब्दः । बहुवचन | रमाहिं, रमाहूिँ, रमाहि । रमाणं, रमाए । रमत्तो, रमाओ, रमान, रमाहिन्तो, रमासुन्तो । विभक्ति एकवचन | प्रथमा इत्थी, इत्थी भा । द्वितीया इथि । तृतीया इत्थी, इत्थी, इत्थी, इत्थीए । रमाणं, रमाण । रमासु, रमासु । हे रमाओ हेरमान हे रमा । बहुवचन । I रुई, रुई, रुई, रुई, रुई । हिं, रुई, रुईहि । 33 "" रुई, रुई । रुइतो, रुई, रुई, रुई हिन्तो, रुईसुन्तो । ईकारान्तः स्त्रीलिङ्गो नदीशब्दः । बहुवचन । नई, नई, नई, नई | नई, नई, नई, नईयो । नहिं नहिं नहि । नई नई नइतो, नई, नई, नई हिन्तो, नईसुन्तो । नई, नईण । नई, नई, नई, हे नईआ । रुई, रुई । रुई, रुई । हे रुई, हे रुई, हे रुई । स्त्री शब्दरूपाणि । [शब्दरूपावलिः ] बहुवचन | इत्थी, इत्थीओ, इत्थीउ, इत्यीआ । इत्थी, इत्थच्यो, इत्थी, इत्थीचा । इत्यीहिं, इत्थीहिं, इत्थीहि । * " टास्दादिदेद् वा तु ङलेः " ॥ ८ । ३ । २९ ॥ स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाङङीनां प्रत्येकम् अत्, आत्, इत्, पत् एते चत्वार आदेशाः सप्राग्दीर्घा नवन्ति, ङसेस्तु पुनरेते वा भवन्ति । 'नात आत्' | ८ | ३ | ३० ॥ स्त्रियां वर्तमानादादन्तान्नाम्नः परेषां टाङ जिङसीमामादादेशो न भवति । + 'अमीषे सौ ' ॥ ८ । ३ । १९ ॥ इदुतोऽक्लीबे नपुंसकादन्यत्र सा दीर्घो नवति । बुद्धी । x “ईतः सेवावा" || ८ | ३ | २० ॥ स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेल्शसोश्च स्थाने आकारो वा नवति । For Private Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विज्ञक्ति एकवचन । बहुवचन । चतुर्थी इत्थीअ, इत्थीआ, इत्थीइ, इत्थीए । इत्थीणं, इत्थीण । पञ्चमी इत्थीअ, इत्यीत्रा, इत्थीइ, इत्थीए, इत्यित्तो) इत्थित्तो, इत्थीओ, इत्थीच, इत्थीहिन्तो इत्थीमन्तो । , इत्थीओ, इत्थीन, इत्याहिन्तो । षष्ठी इत्थीअ, इत्योआ, इत्थीइ, इत्थीए । इत्थीणं, इत्याण । सप्तमी इत्थीअ, इत्यीश्रा, इत्थी, श्याए । इत्थीमुं, इत्थीसु। सम्बोधनम् हे इत्थी, हे इत्थि, हे इत्थीओ, हे इत्थीन, हे इत्थी, हे इत्थीया। प्रकृत्यन्तरेण स्त्रीशब्दरूपाणि । विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा थी, * थी । थी, थीओ, थीउ, थी। द्वितीया थि। थी, पीओ, थीउ, थीमा। तृतीया थीमा, थी, थीइ, थीए । थीहि, थीहि, थाहि । चतुयीं थीया, थीम, थी, थीए । थीणं, थीण। पञ्चमी थीआ, थीम, थीम, थीए, थित्तो, थीओ, थीन,) चित्तो, यीश्रो, थीम, थीहिन्तो, थीमन्तो। र थीहिन्तो। षष्ठी थी, थी, थीइ, थीए । थीणं, यीण। सप्तमी थीश्रा, थीम, थीइ, थीए । थीसुं, थी। सम्बोधनम् हे थी, हे थि। हे थीओ, हे थीन, हे थी, हे थी । उकारान्तः स्त्रीलिङ्गो घेणुशब्दः। विनक्ति एकवचन। बहुवचन । प्रथमा धेणु। घेणून, घेणूओ, घेणू । द्वितीया धे। घेणूउ, घेणूओ, घेणू । तृतीया घेणूअ, घेण्या , घेणूइ, घेणुए । घेणुहिं घेणूहिँ, धेहि । चतुर्थी घेणुअ, घेणुआ, घेण्इ, घेणुए । घेणुणं, घेणुण । पञ्चमी घेणूअ, घेणूया, घेणूड, घेणूए, घेणुत्तो,धणूओ,) घेणुत्तो, घेणूओ, घेणून, घेणूहिन्तो, घेणूसुन्तो । , घेणुउ, घेणूहिन्तो। षष्ठी घेणुअ, घेणुमा, घेणु, घेणूए । घेणणं, घेणुण । सप्तमी घेणु, घेणुआ, घेणुश, घेणूए । घेणूमुं, घेणूमु । सम्बोधनम् हे घेण, हे घेणु । हे घेणूओ, हे घेणून, हे घेणू । अकारान्तः स्त्रीलिङ्गो वधूशब्दः । विभक्ति एकवचन । बहुवचन। प्रथमा बहू। वहूउ, बहूओ, वह। द्वितीया वहुं। वहून, बहूओ, वढू । तृतीया वहा, वढूअ, वहूइ, वहूए । वहिं, वहूहिं, वहूहि । चतुर्थी वहा , वहअ, बहूइ, वहए । वहूणं, वहूण । पञ्चमी बहुआ, वह अ, वहू, बढ़ए,बहुत्तो, बहूओ, वढून) वदुत्तो, वडूओ, वहूउ, बहिन्तो, वसुन्तो । वहूहिन्तो। *"खिया इत्थी" ॥ ११३०॥ खीशन्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति । पक्षे 'सर्वत्र सवरामवम्झे ॥८२७॥ ॥ इति रलोपे 'स्तस्य धोऽसमस्तस्तम्॥ ४५॥'स्तम्बं समस्तच त्यक्त्वा , स्तस्य थादेश इष्यते'ति 'थी'रूपं निष्पन्नम्। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विभक्ति एकवचन | षष्ठी बहूआ, बडू, बहू, वहूए । सप्तमी बहूआ, बहूअ, बहु, बहूए । सम्बोधनम् हे बहु, हे बहू | विभक्ति एकवचन | प्रथमा मात्रा, माअरा * 1 33 द्वितीया मा, मारं । "" "" तृतीया माअराइ, माअराए, मायरा, माआए, माआइ) मात्रा, माऊश्रा, माऊ, माऊए, माऊ‍ । चतुर्थी मात्र राइ, माराए, माअरात्र्य, मात्र्याए, मायाइ) मात्रा, माऊआ, माऊ, माऊए, माऊ‍ । पञ्चमी माअराइ, माअराए, मायरा, माआए, माआइ) 39 मात्राअ, माऊश्रा, मांऊ, माऊए, माऊश, ) मारतो, माअराओ, मात्र्यराज, मात्र्ाराहिन्तो) मात्रात्तो, मात्राओ, माया, मायाहिंतो, माउ ) तो, माऊओ, माऊन, माऊहिंतो । 31 39 षष्ठी 19 (33) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् ३ । बहूणं, बहूण | बसुं, वहुसु । बहून, ऋकारान्तः स्त्रीलिङ्गो मातृशब्दः । 15 मारा, माराए, माअराअ, माझाए, माओइ,) मात्रात्र, माऊश्रा, माऊ, माऊए, माऊर सप्तमी मा राइ, माअराए, माश्रराश्र, मात्राए, माआइ) मात्रा, माऊआ, माऊच, माऊए, माऊ । सम्बोधनम् हे मात्र, हे माचरं । विभक्ति एकवचन | प्रथमा हिमा | द्वितीया दुहि । तृतीया दुहिचाए, हिश्रा, दुहिआई । चतुर्थी 5हिए, दुहिचा दुहिआइ । पञ्चमी दुहिचाए, दुहिया, दुड़िया, बुद्धिभत्तो, उहि ) दुहिम, दुहिआहिन्तो । बहुवचन । 12 षष्ठी दुहिचाए, हिश्रा, दुडिआइ !. सप्तमी बुढिआए, दुहिया, हिश्राइ । सम्बोधनम् हे दुहि हे दुहि । हे बहू हे बहू । [ शब्दरूपावलिः ] बहुवचन । माअरा, मात्र्मराज, माअराओ, मात्रा, मात्रा, माया(ओ, माऊ, माऊउ, माऊओ । मायरा, मामराज, मायराओ, मात्रा, माया, माया(ओ, माऊ, माऊन, माऊश्रो । माराहिं, माराहिं, मात्र्ाराहि माहिं, माचाहिँ, (माप्राहि, माऊहिं, माऊहि, माऊहि । मायराणं, माअराण, मात्राणं, मात्राण, माऊणं, मा(ऊण, माईणं, माई + 1 मारतो, मात्र राम्रो, मायरान, मायराहिंतो, मारा( सुन्तो, मात्तो, मात्राओ, मायाउ, मायाहिंतो, माझा(सुन्तो, माजतो, माऊओ, माऊन, माऊहिंतो, माऊ - (सुन्तो । ऋकारान्तः स्त्रीलिङ्गो दुहतृशब्दः । बहुवचन । पुहिश्राभो, दुहिचान, दुहि । हा दुर्दिआउ, दुहिया । दुहिहिं दुहिचाहिँ, हिश्राहि । दुहि दुहिण | हित्तो, दुहाओ दुहिआउ, दुद्दिश्राहिन्तो, बुद्धि सुन्तो । माअराणं, मायराण, माआणं, मात्राण, माऊणं, मा (ऊ, माई, माई | मारासुं, माअरासु, मायासुं, मात्र्यासु, माऊसुं, ( माऊसु । माअ हे मात्र, हे माआउ, हे माचाओ, हे मारा, (राउ, हे मारा, हे माऊ, हे माऊऊ, हे माऊओ । दुहि दुहिण | हिासुं, हिश्रासु । दुआओ, हे दुहिउ, हे दुहिआ । * बाहुलकाद् जनन्यर्थे श्रा, देवताऽर्थस्य तु अरा इत्यादेशः । मायाए कुच्छीप, नमो माश्रराण + 'मातुरिद वा । ८ । १ । १३५ । मातृशब्दस्य गौणस्य ऋत इद् भवति वा । कचिदगौणस्यापि । माईणं । For Private Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विजक्ति एकवचन । प्रथमा जा । द्वितीया जं । तृतीया जाए, जात्रा, जाइ । चतुर्थी जाए, जाअ, जाइ । पञ्चमी जाए, जा, जाइ, जत्तो, जाओ, जान, जा-) हितो, जम्हा "" षष्ठी जाए, जा, जाड़ । सप्तमी जाए, जाअ, जाइ । विभक्ति एकवचन | प्रथमा द्वितीया तृतीया जी, जीआ, जी, जीए । जा । जं । "" षष्ठी (१२) अभियान राजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । यच्छब्दरूपाणि । चतुर्थी जीअ, जीश्रा, जीइ, जीए, जिस्सा, जीसे । पञ्चमी जी, जीया, जी, जीए, जित्तो, जीओ, जीउ) जीहिन्तो । जी, जीआ, जीड़, जीए. जिस्सा, जीसे । सप्तमी जी, जीआ, जीव, जीए । जाणं, जाण । जानुं, जासु । प्रकृत्यन्तरेण यच्छब्दरूपाणि । विजक्ति एकवचन । प्रथमा सा, ता, या × 1 द्वितीया तं णं । तृतीया पाए, ताए, ता, ताइ । चतुर्थी ताए, ता, ताइ, तास +1 पञ्चमी ताए, ताअ, ताइ, तत्तो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तो, तुम्हा । षष्ठी ताए, ता, ताइ, तास । सप्तमी तार, ताम, ताइ । बहुवचन | जाओ, जान, जा | जाओ, जाउ, जा । विभक्ति एकवचन | प्रथमा सा, ता, या । द्वितीया तं णं । तृतीया ती, ती, तीइ, तीए । चतुर्थी ती, ती, तीर, तीए, तिस्सा, तीसे । जाहि, जाहिँ, जाहि । जाएं, जाण । जत्तो, जाओ, जाउ, जाहिंन्तो, जामुन्तो । तच्छब्दरूपाणि । बहुवचन । जीओ, जीन, जीया, जी । जीओ, जीन, जीआ, जी । जीहिं, जीहिं, जीहि । जाणं, जाए । जित्तो, जीओ, जीन, जीहिन्तो, जीसुन्तो । " जाणं, जाण । जीसुं, जीसु । [शब्दरूपावलिः ] बहुवचन | ताओ, ताउ, ता । ताओ, ताज, ता । ताहिं, ताहि, ताहि पाहिँ, जाहिँ, पाहि । ताणं, ताण, ताम । तायुं, तासु । प्रकृत्यन्तरेण तच्छब्दरूपाणि । ततो, ताओ, ताउ, ताहिन्तो, तासुन्तो । ताणं, ताण, तास । बहुवचन । तीओ, तीड, तीमा, ती । ती, ती, तीआ, ती । alfe, affe, ताणं, ताए । तीहि । * 'किंयत्तदो ऽस्यमामि' | ८ | ३ | ३३ ॥ स श्रम् श्राम वर्जिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां ङीर्वा । जाओ । श्रस्यमामीति किम । जा, जं, जाण । तदो णः स्यादौ क्वचित् ' ॥ ८ । ३ । ७० । तदः स्थाने स्यादौ परे ण श्रादेशो भवति क्वचिद् लक्ष्यानुसारे । स्त्रियामपि । इत्थुनामिश्र मुडी णं तियटा । तां त्रिजटेत्यर्थः । नणिश्रं च णाए, तयेत्यर्थः । णाहि कथं, ताभिः कृतमित्यर्थः । + बहुलाधिकारात कितद्भ्यामाकारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा । तास धणं । पक्षे ताए । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विभक्ति एकवचन । बहुवचन । पञ्चमी तीअ, तीआ, तीइ, तीए, तिचो, तीओ, तीन, ती-) तिनो, तीओ, वीउ, तीहिन्तो, तीमुन्तो । हिन्तो। षष्ठी तीअ, ती, तीइ, तीए, तिस्सा, तीसे । वाणं, ताण । सप्तमी ती तीआ, ती, तीए । वीमुं, तीसु। किंशब्दरूपाणि । विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा का। काओ, कान, का। द्वितीया कं। काओ, कान, का। तृतीया काए, काअ, का। काहिं, काहिँ, काहि । चतुर्थी काए, काम काइ, कास । काणं, काण, कास, केसि + । पञ्चमी काए, काम काइ, कत्तो, कामो, कान, काहिन्तो. कत्तो, काओ. काउ, काहिन्तो, कासुन्तो। , कम्हा, कीस, किणो *। षष्ठी काए, काम, काइ, कास। काणं, काण, कास, केसिं । सप्तमी काए, काम का। कामुं, कासु । प्रकृत्यन्तरेण किंशब्दरूपाणि । विभाक्त एकवचन । बहुवचन। प्रथमा का। कीमो. कीउ, कीया की । द्वितीया कं। कीओ, कीड, कीा, की। तृतीया की, की श्रा, की, कीए । कीहिं, कीहिँ, कीहि । चतुर्थी को अ, कीआ, कीइ, कीए, किस्सा, कीसे । काणं, काण, कास, केसि । पञ्चमीकी,की,कीइ,कीए,कित्तो कीओ,कीउकीहिन्तो। कित्तो, कीओ. कीउ, कीहिन्तो कीसुन्तो। षष्ठी कीम, कीपा, कीइ, कीए, किस्सा. कीसे । काणं, काण, कास, केसि । सप्तमी कीअ, कीपा, कीइ, कीए । की सुं, की। एतच्छब्दरूपाणि। विभक्ति एकवचन। बहुवचन । प्रथमा एसा, एस, ण, इणमो ४ । एआओ, एआन, एमा। द्वितीया एअं। एआओ, एमान, एमा। तृतीया एआअ, एमआइ, एअाए । एआहिं, एाहि, एआदि । चतुर्थी एआअ, एआइ, एमाए, से । एआग, एमाण, एएसि, सिं । पञ्चमी एआअ, एआइ, एआए, एत्तो, एमाओ,) एत्तो, एआओ, एआन, एअाहिन्तो, एनामुन्तो । , एआन, एताहिन्तो। षष्ठी एआअ, एआइ, एआए, से। एआणं, एमाण, एएसि, सिं। . सप्तमी एप्राअ, एआर, एमाए। एआमुं, एआसु। प्रकृत्यन्तरेण एतच्छब्दरूपाणि। विजक्ति एकवचन । बहुवचन। प्रथमा एई, एस, इणं, णमो। एईओ, एईउ, एईमा, एई। + “आमो डेसिं"।८।३।६१ । बहुलाधिकारात् नियामपि । सम्वेसि, फेसि । “किमो मिणोमोसी" ॥ । ३ । ६८॥x "वैसेणमिणमो सिना"||३|५॥ एतदः सिना सह एस श्णम् णमो इत्यादेशा वा जवन्ति । एस गई। "त्थे च तस्मलुक"८।३।२३॥ एतदः त्थे तो ताहे परे तस्य युक । एत्थ, पत्ता, एताहे। . Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) [प्राकृत] अभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपावलिः] विभक्ति एकवचन । बहुवचन । द्वितीया एई। एईओ, एईन, एईश्रा, एई। तृतीया एईअ, एईआ, एईइ, एईए । पईहिं, एईहि, एईहि। चतुर्थी एईअ, एश्रा, एई, एईए। एणं, एईण, पञ्चमी एईअ, एईश्रा, एईइ, एईए एइत्तो, एईओ, ) एइत्तो, एओ, एई उ, एहिन्तो, एईसुन्तो । एईहिन्तो । पष्ठी एई, एईआ, एई, एए । एणं, एण। सप्तमी एईअ, एईआ, एईइ, एईए । एईसु, एईसु । इदंशब्दरूपाणि। विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा इमिश्रा, इमा *। इमाओ, इमाउ, इमा । द्वितीया इम, इणं, एं । इमाओ, इमाउ, इमा, णाओ, णाउ, णा। तृतीया इमाए, इमाइ, माअ, णाए, णाक्ष, णाअ। इमाहि, माहिँ, इमाहि, णाहिं, णाहिँ, णाहि, आहिं, आहिँ, आहि । चतुर्थी इमाए, इमाइ, इमाश्र, से + । इमाणं, इमाण, सिं । पश्चमी इमाए,इमाइ,इमाअ,इमत्तो,माओ,मान,माहिन्तो। इमत्तो, इमाओ, इमान, इमाहिन्तो, इमासुन्तो । षष्टी इमाए, इमाइ, इमाअ, से । इमाएं, इमाण, सिं। सप्तमी इमाए, इमाइ, इमाअ, प्रह । इमामुं, इमासु। प्रकृत्यन्तरेण दंशब्दरूपाणि । विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा मिश्रा, इमी। श्मीओ, मीठ, इमीमा, इमी।। द्वितीया इमि । इमीओ, इमीन, इमीग्रा, इमी । तृतीया इमीअ, इमीग्रा, इमीइ, इमीए । इमीहिं, इमीहि, इमीहि । चतुर्थी इमीअ, इमीमा, इमाइ, इमीए । इमीणं, इमीण। पश्चमी इमीअ, इमीग्रा, इमीइ, इमीए, शमित्तो, इमीओ,) इमित्तो, इमीओ, इमीन, इमीहिन्तो, मीसुन्तो। इमीउ, इमीहिन्तो। षष्ठी इमीअ, इमीग्रा, इमीश, इमीए । इमीणं, इमीण । सप्तमी इमीअ, इमीभा, इमीइ, श्मीए । इमीमुं, इमीम् । यदःशब्दरूपाणि । विभक्ति एकवचन। बहुवचन । प्रथमा अह, अमू । अमून, अमृओ अम्। द्वितीया अमुं। अमूर, अमूओ, अम्। तृतीया अमूअ, अमूत्रा, अमृत, अमूए । अमूहि, अमूहिँ, अमूहि । चतुर्थी अमूअ, अमूआ, अमूह, अमूए । अमूणं, अमृण । पश्चमी अमू अ, अमृआ, अमइ, अमूए, अमुत्तो अमूओ) अमुत्तो, अमूओ, अमूउ, अमूहिन्तो, अमृसुन्तो । ___ अमून, अमृहिन्तो। षष्ठी अमूअ, अमूत्रा, अमूइ, अमृए । अमृणं, अमूण । सप्तमी अयम्मि, अम्मि, अमूम, अमूआ, अमूह, अमुए। अमूम, अमूम् । *"पुखियाने वाऽयमिमिआ सौ"॥८॥३॥७३॥पके 'इदम इमः ॥ ३॥७२॥x 'अमेणम्' ॥८।३।७८॥ 'गोऽमशस्टाभिसि'॥८।३१७७॥ = "स्सि-स्सयोरतू" ।।३।७४॥ बहलाधिकारात अन्यत्रापि जवति । आहि।+ "वेदतदेतदो सामन्यां से-सिमा" ॥८।३२॥"मन हः" ।।३/७५ ॥ इदमः कृतेमादेशात परस्य ङः स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति । इह। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विभक्ति एकवचन । प्रथमा मंगलं । द्वितीया मंगलं । विभक्ति एकवचन | प्रथमा दहिं, दहि, दहिँ । द्वितीया दहिं । विभक्ति एकवचन प्रथमा महुं महु, महुँ । द्वितीया महुं । विभक्ति एकवचन । प्रथमा जं । द्वितीया जं । विभक्ति एकवचन | प्रथमा इदं इणं, इमो द्वितीया इदं इणं, णमो । विभक्ति एकवचन | प्रथमा एस, इणं, इमो, एयं । द्वितीया एयं । ॥ अथ नपुंसकलिङ्गशब्दाः ॥ अकारान्त नपुंसकलिङ्गो मङ्गलशब्दः । बहुवचन | मंगलारी, मंगलाई, मंगलाई × । मंगलाणि, मंगलाई, मंगलाइँ । ( १५ ) अभिधान राजेन्द्र परिशिष्टम् ३ । =1 शेषं ' वच्छ' शब्दवत् + इकारान्त नपुंसकलिङ्गो वारिशब्दः । बहुवचन । दही, दही, दही | दही, दही दहीणि । शेषं पुम्वत् । कारान्तो नपुंसकलिङ्गो मधुशब्दः । बहुवचन | महूई, महूइँ, महूरिंग । महू, मह, महूणि । शेषं 'गुरु' शब्दवत् । यच्छब्दरूपाणि । बहुवचन । जाणि, जाई, जाइँ । जाणि, जाई, जाइँ । शेषं पुम्वत् । एवं तच्छब्दरूपाणि ज्ञेयानि । एतच्छब्दरूपाणि । बहुवचन । आणि, एआई, एआइँ । आणि, एआई, एचाइँ । शेषं पुम्वत् । शब्दरूपाणि । बहुवचन | इमाणि, इमाइँ, इमाई । इमाणि इाइँ, इमाई । शेषं पुम्वत् । यदः शब्दरूपाणि । विभक्ति एकवचन | प्रथमा ग्रह, अमुं =1 " क्लीबे स्वरान्मू सेः " । ८ । ३ । २५ ॥ X “जस्शस इ-ई-रायः सप्राग्दीर्घाः " । ८ । ३ । २६ ॥ + "नामन्यात्सौ मः " ॥ ८ । ३ । ३७ ॥ * दहि इति सिद्धपिक्कया । केचिदनुनासिकमपन्ति दहिँ । = " क्लीचे स्यमेदमिणमा च " ॥ ८ । ३ । ७६५ इति स्यमच्यां सहितस्य श्दम इणमो इणम आदेशाः । ÷ "वाऽदसो दस्य दो नोदाम्॥८३॥ मुः स्यादौ " ॥ ८३ ॥ ८८ ॥ बहुवचन | श्रमूरिण, अमू, अमू । [ शब्दरूपावलिः ] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विभक्ति एकवचन | द्वितीया अमुं । विभक्ति एकवचन | प्रथमा किं + | द्वितीया किं । विभक्ति एकवचन | ० प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी 97 षष्ठी सप्तमी चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी सप्तमी ० प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी ० ० विभक्ति एकवचन | प्रथमा ० द्वितीया तृतीया ० ० o ० ० ० विभक्ति एकवचन | ० ० ० ० " ० ( १६ ) श्रभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । शेषं पुम्वत् । किंशब्दरूपाणि । बहुवचन | मणि, अमू, मूइँ । बहुवचन । काणि, काई, काइँ । काणि, काई, काइँ | शेषं पुम्वत् । ॥ इति नपुंसकलिङ्गशब्दाः ॥ ॥ अथ संख्यावाचकशब्दाः ॥ पञ्चशब्दरूपाणि । पंच, पंचएह । पंचे, पंचेसु । एवं ब, सत्त, अ, नव, दहशब्दरूपाणि ज्ञेयानि । बहुवचन | पंच | पंच । पंच, पंचाहिँ, पंचहि । पंच, पंच x | पंचतो, पंचाओ, पंचाउ, पंचाहि पंचेहि, पंचाहिन्तो, (पंचेहिन्तो, पंचासुन्तो, पंचेसुन्तो । त्रिशब्दरूपाणि । For Private द्विशब्दरूपाणि । बहुवचन । दुवे, दोष, सि, पि, विष्ठि, दो, वे । दुबे, दोष, सि, वेसि, विधि, दो, वे । दोहिं, दोहिं, दोहि, वेहिं, वेहि, वेहि । दोएहं, पुण्हं, वेएहं, विएदं । दोहिन्तो, हिन्तो । दोहे, दुई, ए, विएहं । दोसुं, दासु, सुं, वैसु । बहुवचन | तिष्ठि । + "किनः किं । ८६ । ३ ८० ॥ स्यमाम्भ्यां सह किं ॥ तृ० भा० ५४६ पृष्ठे १७ पङ्किः ॥ तिष्ठि | तीहिं ताहिँ, तीहि । तिरहं, तिएह । [शब्दरूपावलिः ] Personal Use Only संख्याया श्रमो यह एहूं" ८/३/ १२३ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० चतुथीं ० ० ० सप्तमी ० . [प्राकृत] श्रभिधानराजेन्द्रपरिशिष्टम् ३ । [शब्दरूपाचतिः] विभक्ति एकवचन । बढुवचन। पञ्चमी तितो, तीओ, तीन, तीदिन्तो, नीसुन्तो । तिराहं, तिबह । सप्तमी तीएं, तीम् । कतिशब्दरूपाणि। विभक्ति एकवचन । बहुवचन। प्रथमा कह। द्वितीया . तृतीया कहिं, काहि , कहि । कहाह, कशाह। पञ्चमी कइत्तो, कईओ, कईउ, कईहिन्तो, कईमुन्तो । षष्ठी कएह, कइण्ह । कसं, कईसु । चतुशब्दरूपाणि। विनक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रथमा ० चत्तारो, चउरो, चत्तारि। द्वितीया चत्तारो, चउरो, चत्तारि । तृतीया चऊहिं, चकहि, चकहि। चनएहं, चाह। पञ्चमी चनुत्तो, चमओ, चऊन, चऊहिन्तो, चळसुन्तो । षष्ठी चउपह, चउएह । चक, चकम। युष्मब्दरूपाणि । विभक्ति एकवचन । बहुवचन । प्रयमा तं, तुं, तुवं, तुह, तुमं । भे, तुम्ने, तुम्हे, तुजो, तुज्क, तुम्ह, तुम्हे, नरहे । द्वितीया तं, तुं, तुम, तुवं, तुह, तुमे, तुए । बो, तुज्क. तुब्ने, तुम्हे, तुजके, तुरहे, उय्हे, ने। तृतीया ने, दि, दे, ते, तइ, तए, तुम, तुमइ, तुमए, तुमे,) भे, तुम्नेहि, तुजहि, तुम्हेहि, उज्केहिं, उम्हेहि, तुर " तुमाइ। (हिं, उव्हहिं । चतुर्थी तइ, तु, ते, तुम्ह, तुह, तुई, तुव, तुम, तुमे, तुमी,) तु, वो, जे, तुन्न, तुऊ, तुम्ह, तुम्भं, तुकं, तुम्हं, , तुमार, दि, दे, इ, ए, तुन्न, तुज्क,तुम्ह, उन्न) (तुन्नाणं, तुब्भाण, तुज्काणं, तुकाण, तुम्हाणं, तुम्हा" उजा, जम्ह, नरह। (ण, नुवाणं, तुवाण, तुमाणं, तुमाण, नुहाणं, तुहाण, (नम्हाणं, उम्हाण। पश्चनी तइत्तो, तईओ, तई ठ, तईहिन्तो, तुबत्तो, तुवा.) तुभत्तो, तुम्जाओ, तुब्भाउ, तुम्नाहि, तुम्भेहि, तुब्ना. , ओ, तुवान, तुवाहि, तुवा िहन्तो, तुवा, तुमत्तो,) (हिन्तो, तुब्नेहिन्तो, तुम्भासुन्तो, तुम्भेमुन्तो, तुम्हत्तो, तु. , तुमा प्रो, तुमान, तुमाहि, तुमाहिन्तो, तुमा,) (म्हाओ,तुम्हाउ, तुम्हाहि, तुम्हेहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हेहि तुहनो, तुहाओ, तुहाउ, तुहाहि, तुहाहितो,) (न्तो,तुम्हासुन्तो, तुम्हेसुन्तो, तुकत्तो, तुकाओ,तुज्काउ, तुहा, तुम्भत्तो, तुन्नाओ, तुम्नाज, तुम्नाहि, तु-) (तुज्झाहि,तुज्केहि, तुज्झाहिन्तो, तुझे हिन्तो, तुज्झासु, भाहिन्तो, तुम्जा, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुम्हाउ) (तो, तुज्केमुन्तो, तुम्हत्तो, तुम्हाओ, तुरहान, तुरहाहि, • "वास्यादेवोवों" ।।२।२७। क्त्वायाः स्यादीनां च यो रणसुनयोरनुस्वारोऽस्तो वा भवति। बच्चेणं यच्छग, वच्छेसुं बच्चेसु। चतुर्थी सप्तमी Jain Education Interational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राकृत ] विभक्ति एकवचन | "9 " 29 77 27 षष्ठी 99 "9 99 "" 79 "" 19 सप्तमी तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तर, तुम्मि, तुवम्मि) तुवशि, तुवस्य, तुमम्मि, तुमहिंस, तुमत्य, तुम्मि, ) तुहरिंस, तुहत्थ, तुन्नम्मि, तुजसि, तुन्नस्य, ) तुम्हाम्म, तुम्हहिंस, तुम्हत्य, तुज्जम्मि, तुज्ज-) हिंस, तुज्जत्य । 22 " "" " षष्ठी विभक्ति एकवचन | प्रथमा अहं, हं, अहयं, म्मि, अम्हि, अम्मि । द्वितीया ऐ, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, मं, ममं, मिमं अहं । तृतीया मि, मे, ममं ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ, ऐ । चतुर्थी मे, म‍, मम, मह, महं, मज्ज, मज्छं, अम्ह, अम्हं । ( १० ) अभिधानराजेन्द्र परिशिष्टम् ३ । बहुवचन । तुम्हाहि, तुम्हाहिन्तो, तुम्हा, तुकत्तो, तुज्या-) प्रो, तुकाउ, तुकाहि, तुकाहिन्तो, तुच्छा,) तुम्ह, तुम्भ, तुम्ह, तुज्ऊ, तहिन्तो । 99 पञ्चमी महतो, मईओ, मईउ, मईहिन्तो, ममत्तो, ममाओ) ममान, ममाहि, ममादिन्तो, ममा, महतो, महा-) प्रो, महाउ, महाहि, महाहिन्तो, महा, मज्जत्तो, ) मज्जाश्रो, मकाउ, मज्जाहि, मज्जा हिन्तो मज्जा । मे, म, मम, मह, महं, मज्छं, मज्ज, अहं, अभ्ह | "" " 17 तर, तु, ते, तुम्हें, तुह, तुदं, तुब, तुम, तुमे, तुमो,) तुमाइ दि, दे, इ, ए, तुम्भ, तुम्ह, तुज्फ, नन्न, ) उम्द, बज्छ, उच्ह । 97 "" सप्तमी मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हम्मि, अम्हस्सि, ) म्हत्य, ममम्मि, ममस्सि, ममत्य, महम्मि, मह-) हिंस, महत्य, मज्जम्मि, मज्जहिंस, मज्कत्थ । अस्मच्छब्दरूपाणि । बहुवचन ! अम्द, अम्हे, अम्हो, मो, वयं, भे । अम्हे, अम्दो, अम्ह णे । अम्हेहि, अम्हारि, ब्रम्ह, अम्हे, णे, णो, मऊ, अम्ह, अभ्हं, अम्दे, अम्हो, भ्रम्हाणं, अ(म्हाण, ममारणं, ममाण, महाणं, महाण, मज्जाणं, मज्जाण । ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि, ममेहि, ममाहिन्तो, ममे (हिन्तो, ममेन्तो, ममान्तो, अम्हत्तो, अम्हाश्रो, अम्हाउ, (अम्हारि, अम्हेदि, अम्हाहिन्तो, म्हेहिन्तो, चम्हा(सुन्तो, तो | णे, गो, मज्क, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाणं, (अम्हाण, ममारणं, ममाण, महाणं, महाण, मज्जाणं, मज्जाए । अम्हे, हेसु, ममेनुं, ममेसु महेसुं, महेभु, मज्जेसुं, (मम्फेसु, अम्हसुं, म्हसु. ममसुं, ममसु, मज्जसुं, मज्जसु, ( महसुं, महसु, अम्हासुं, अम्हासु । [ शब्दरूपावलिः ] (तुम्हहि, तुम्हा हिन्तो, तुम्हे हिन्तो, तुम्हासुन्तो, तुम्हे सुन्तो, (उहत्तो, उच्हाम्रो, उहाउ, उरहाहि, नव्हेहि, उन्हा( हिन्तो, जम्होहिन्तो, उय्हासुन्तो, उद्देसुन्तो, उम्हत्तो, ( म्हाम्रो, उम्हाउ, उम्हाहि, उम्हेहि, उम्हाहिन्तो, (उम्हेहिन्तो, उम्हासुन्तो, उम्देसुन्तो । तु, बो, भे, तुन्न, तुम्ह, तुज्ऊ, तुब्धं, तुम्हें, तुझं, . (तुन्नाणं, तुन्नाण, तुम्हाणं, तुम्हाण, तुज्याणं, तुजाण, (तुमाणं, तुमाल, तुत्राणं, तुवाण, तुहाणं, तुहाण, उम्हा(णं, उम्हाण । तु तुम, तुत्रेसुं, तुवे, तुमेनुं, तुमेसु, तुहेसुं, तुहेस, तु(जेसुं, तुब्नेसु, तुम्हेसुं, तुम्हेस, तुज्फेसुं, तुज्केसु, तुवसुं, (तुबसु, तुम, तुम, तुहसुं, तुहसु, तुन्नसुं, तुन्नसु, (तुज्हसुं, तुज्ऊसु, तुम्हसुं, तुम्हसु, तुम्भासुं, तुम्भासु, (तुम्हासुं, तुम्हास, तुज्जासं, तुज्कासु । 1:0: ॥ इति प्राकृतशब्दरूपावलिः समाप्ता ॥ पठन्तु बालकाः सर्वे जैनानामितरे तथा । तस्मान्मयेयं प्राकृत - शब्दरूपावलिः कृता ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहम् * अभिधानराजेन्दः। जयति सिरिवीरवाणी, वुद विवुहनमंसिया या सा । वत्तव्वयं से बेमि, समासो अक्खरकमसो ॥१॥ प्रकार अगर-अजगर-पुं० प्रजं गगं गिरति गिन्नति गृ-अन् । वृहरस, । अजगरमगस्त्यशापात् वृहत्सर्पजावापन नहुपमधिकृत्य कृतो प्रन्यः अण्-आजगरम । अजगरकथायाम, न० । वाच । भावालग-अजापालक-पुं०६ त०। गगरवके, अजारकणप्रवृत्ते अश्वते, वाचकभेदे च । ७० ३ उ०। (तकृतं कियकम्म शब्द) अइ-अयि-अव्य० सम्नाचने, अ संभावने १२ । संना बने अक्ष इति प्रयोक्तव्यम् । “अ दिअर! किं न पेच्चसि,"अयि भ-प्र-पुं० स्वरसंझके कए स्थानीये स्वनामख्यातेवणे,एका।। देवर ! किन्न प्रेक्कसे प्रा०॥ भईति, भाचाकरण तस्य ग्रहणात् सिकेच । शरीरेति सि गम्-धा० सक० पर स्वा० गती, गमेर ति ।। ६५ । वाचकस्याधाकरेण तदोधात् । गा० । अवति रक्कति प्रतति इति सूत्रेण गमेः अझ प्रादेशः। अश्श-गच्छति प्रा० । सातत्येन तिष्ठतीति वा भव-मत-बा-म-विष्णी, "अकारो विष्णु अति-अव्य० अत्-इ-पूजायाम, उत्कर्षे, अतिक्रमणे, चि. कहिष्टः"वाचा शिवे, ब्रह्मणि, पायौ, चम्के, भनौ, जानी, कम- क्रमे, प्रबुको, भृशे, "विक्रमातिक्रमाबुद्धिभृशातिशयम्वतीहै, अन्तःपुरे, भूषणे, वरणे, कारणे, रणे, प्रजिने,गौरवे, एकाग ति" गणरत्नम् । तत्र विक्रमे अतिरथः । अतिक्रमे अतिअ-प्रव्य व प्रीणनादौ, र स्वरादिस्वादव्ययत्वम् मभावे, मतिः । अचुकौ अतिगदनम् । बुकेरविषयः । भृशे प्रतितप्तम् । पाच । प्रतिषेधे, “अमानोनाः प्रतिषेधे" आ० म. वि.सू. अतिशये प्रतिवेगः वाच । “अति सर्वत्र वर्जयेत्" यतः "अ. । मत्रोदाहरणम्, “नियरिसणं अघमो" मकारस्य तद्भाव रोसो भइ तोसो, अश्वासो पुजणेहिं संवासो । प्रश्न मो य प्रतिषेधे निदर्शनं यथा अघटोऽयमिति नघटो घटव्यतिरिका पटा वेसो, पंच वि गुरुग्रं पि बहुअंपि" ध०१ अधि॥ विका पदार्थ इत्यर्थः । वृ.१००। “मजावे मनोनः" श्त्यम- प्रदि] -[ति इ-अदिति-स्त्री० न दीयते खएन्यते वृहरटीकायां नमावेशोऽयमित्युक्तम् । स च प्रादेशः नखनमुच्या- स्वादू-दो-क्ति न० त० दातुं तुमयोभ्यायां पृथिव्याम, दितिदिजिन्नशम्दघटके उत्तरपदस्थे हलादौ शम्दे परे भवति । स दनुजमाता । विरोधार्थे, न० त० । देवमातरि, सा च दकस्य तु नभय एष स्थानितुल्यार्थत्वादादेशस्य । वाचा स्वल्पेऽथे, सुता बाचा पुनर्वसुनकत्रस्याधिपतिर्देवता ज्यो०६ पाहु । मनुकम्पायां, सम्बोधने, अ अनन्त! अधिके,अ पचासत्वं जा- | “पुणब्बसुम देवयाए पएणत्ते" सु०प्र०१०पाहु०॥ जं० ॥ म! "उपसर्गस्वरविज्ञक्तिप्रतिरूपकाति" स्वरादिगणसूत्रे म "दो प्रश"पुनर्वस्वोर्खित्वाददितिद्वित्वम् । स्था० २ ग. ॥ इति सिकान्तकौमुद्यामुदाहतं मनोरमायां च असंबोधने, अधि- | प्राइउकस-प्रत्युत्कर्ष-त्रि० उत्कर्षमतिकान्तः । उत्कर्षरहिते, केपे, निवेधे चेति व्याख्यातम् । वाच० । “अपधिममारणंति "तवस्सी अश्मुक्कसो" तपस्वी साधुः अत्युत्कर्षः अहं तपस्वीयसंलेहणाकोसणाह" अत्र अपश्चिमाः पश्चारकालभाविन्यः । त्युत्कर्षरहितः। दश ५ अ०॥ भकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थ इति । स०। उन्भट-अत्युचट-त्रि० अतिशयितचेतश्चमत्कृतिकृति, "भ. च-प्रव्य कगचजतदपयवां प्रयो लुक, ७।१। ७७ । इति उम्भडो अवेसो" घ०२अधि०॥ सूत्रेण चमोपः । न चाऽनादेरेव सःकचिदादेरपि विधानात् । अत-अतियत-त्रि० प्रविशति, नि०यू० १६०० । " पढमं सो भन्स च० प्रा० । भर्थस्तु चशम्दे । उसनं मुहेणं अश्तं पास" कल्प० ॥ अभ-अज-पुन जायते जन-म-नात० ईश्वरे,जोधे, मणि, प्रशंदिया अ-अतीन्द्रिय-त्रि० प्रतिक्रान्तमिन्द्रियं तदवि. विष्णी, हरे, कागे, मेवरूपे प्रथमे राशौ, माक्तिकधातौ च। जन- षयत्वात् अत्या० स० वाच० । इन्छियझानाऽगम्ये, अ० ॥ नगन्ये गगनादौ, त्रि० । प्रात् विष्णोर्जायते इति । चन्छे, कामे, अतीन्डिया अर्था आगमेन उपपत्त्या च झायन्ते न केवलया यु. दशरथपितरि रघुनूपपुत्र रामचन्मस्य पितामहे सूर्यवंश्ये नृप- तथा तमुक्तम् । "भागमञ्चोपपनिश्च, संपूर्ण दृष्टिकारणम् । अ. भेदे, वाच । प्राकृते 'अजातेः पुंसः । ३। ३२ इति जातिपm- तीन्द्रियाणामानां, सद्भावप्रतिपत्तये"।१। विदोकादई॥ दासान जीविकल्पः प्रा० । मेषङ्गधाम, गा। कर्म० । अनु० । कथ न युत्त्येति चेत् ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदिय प्राभिधानराजेन्धः। भश्चरा झायेरन् हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्धियाः। माचा०१७०७०ासपातबिनाशे,प्राचा०११०२० साघुकिकालेनैतावता माझैः, कृतः स्यात्तेषु निश्चयः॥४॥ योहाने, आव०म०। यदि यावता कानातीन्छिया छियागोचराः पदार्या धर्मा भतिक्रमव्यतिक्रमादयः साधुक्रियोलानरूपास्तत्रातिक्रम स्याधाकर्माश्रित्य स्वरूपमित्थम् । स्तिकायादयः हेतुवादेन युक्तिप्रमाणसमूहेन शायरन् एतावता कालेन परमात्मभावश्रवणचिन्तननिदिध्यासनादिना स्वात्म श्राहाकम्म निमंतण, पडिमुणमाणो अतिक्कमो होई। स्वरूपे उपयोगोऽनुभवः कृतः स्यात् तदा तेषु धर्मास्तिकायादि. पयनेयाइवइक्कम-गहिए तइनो तरो गिलिए॥ पुगुकात्मनि च निश्चयः कृतः स्यात् प्राः इत्यनेन परजन्यचि. कोऽपि भाको नानप्रतियको कातिप्रतिबद्धो गुणानुरको वा न्तनकालमात्रेणात्मखरूपचिन्तने स्वपरावबोधो भवति तेन सद्भिः प्राधाकर्म निष्पाद्य निमन्त्रयति । यथा प्रगवन्युप्मचिमित्तमस्वस्वनावभावने मतिः कार्या येन निष्प्रयासतः स्वपरा "जे स्मकहे सिरूमचमास्ते ति समागत्य प्रतिगृह्यतामित्यादि । पगं जाणा से सव्वं जाणति" इति वचनात बोधपरित्यागपरि तत्प्रतिशृण्वति भन्युपगच्छति भतिकमो नाम दोषो भवति । स णतिर्नधति ॥४॥ अष्ट०॥ (ननु अतीन्छिया अर्थान सन्त्येवेति व तावद्यावदुपयोगपरिसमाप्तिः । किमुक्तं प्रवति । यत्पतिखेन। मकभ्रमणोपासकेनाऽन्ययथिकान्प्रतिवातघ्राणसहगत- पोति प्रतिश्रवणानन्तरं योचिष्ठति पात्राएयुजाति उच्य च पुझारूपादेरतीन्छियार्थस्य सत्वप्रसाधनात् । मडग मंडग गुरोःसमीपमागत्योपयोगकरोति।एष समस्तोपिण्यापारोऽतिशमे त कष्टव्यम् ) अतीन्द्रियार्थकानं घेदवाक्येज्य ए. क्रमः । उपयोगपरिसमाप्यनन्तरं च यदाधाकर्मग्रहणाय पदवेति जैमिनीयाः । साकादतीन्द्रियार्थदर्शिनस्तन्मतेऽभावात य. भेदं करोति प्राविशदान्मार्गे गच्छति गृहं प्रविशति प्राधाकउक्तम्" भतीन्द्रियाणामर्थानां, साकाद द्रथम विचते । नि-1 मर्मग्रहणाय पात्रं प्रसारयति न चाद्यपि प्रतिद्वाति एव सर्वोत्येच्यो वेदवाक्येन्यो, यथार्थत्वविनिश्चयः॥१॥ गा० (सम्भ- ऽपि व्यापारो व्यतिक्रमः (गहिए तश्मोक्ति) प्राधाकर्मणि गुवत्यतीकियार्यकानं सर्वकस्येति सव्वय शब्दे उपपादयिष्यते)। होते उपलकणमेतत् । यावसतीसमानीते गुरुसमकमासोचिअकंडुइय-अतिकरमूयित-न० अत्या० स०अतिशयिते नर्स- ते भोजनार्थमुपस्थापिते मुखे प्रतिप्यमाणेऽपि च यावाद्यापि बिलेखने, सून. १ ० ३ ० ३ उ०। गिमति तावतृतीयोऽतिचारसवणो दोषः । गिसिते त्वाधाकम्मेअति ] कंत-प्रतिकान्त-त्रि० अस्या० स० अतिकमनीये, एयनाचारः । एवं सर्वेष्यप्यौदेशिकादिषु प्रावनीयम् । पि०। प्रश्न.१ अध०६०४० समुन्नेदाधिपतौ च पुं०डी०।। धर्म० । व्या स्था०।०२०। आतु। एवं भावना मझगुणेषु अइकाय-अतिकाय-पुं० प्रतिक्रान्तः कायात प्रत्या० स० उत्तरगुणेषु च कार्या । भत्रायं विवेकः । मूसगुणेषु अतिक्रमामदोरगविशेष, प्रका० १ पद । महोरगेन्द्रे च स्था०२ ग.।। दिनिखिनिश्चारित्रस्य मालिन्यं तस्य चासोचनप्रतिक्रमणादिभिः (अप्रमहिन्यादयः स्वस्वस्थाने)वृहचरीरे, त्रि० "उम्मविसे शुचितुर्थे तु प्रत एव तथा सति पुनरुपस्थापनैव युज्यते। चमघोरविसे महाधिसे प्रश्काये महाकाए" (सर्पवर्षक:)का-| उत्तरगुणवु चतानपि चरित्रस्य मासिन्यं न पुनर्भङ्ग इत्युक्ता यान् शरीराणि शेषाहीनामतिकान्तोऽतिकायः मत एष महाका-1 मूलोचरगुणातिचाराः। घ०३अधि० (कानदर्शनचारित्रन्नेदरयः। का०६०। अथवाप्रतिकायानां मध्ये महाकायोऽतिकाय- दातकमादीनां विध्यमिति संकिसेस शरदे) महाकायःन०१५ श०१०० प्रत्युत्कटः कायोऽस्य । विक- | अइकमण-अतिक्रमण-न• अति-क्रम ल्युद-सहने, विराधने, टदेहे, त्रि० रावणपुत्र राकसनेदे, पुं० । वाच॥ घ०२ अधि०। भाव। प्रतित-प्रतिक्रान्त-त्रि० भति-क्रम्-क-अतीते, अश्कमणिज-अतिक्रमणीय-त्रि०अतिलहनीये,सूत्र२७०७० आचा०१७०४ अ० १ उ० "जेय बुद्धा अतिकता" सूत्र०१ प्राइक्कमित्त-अतिक्रम्य-श्रव्य प्रति क्रम-स्वा-ल्यप्-छायेअ० ११५०ातीणे, विशे० प्रा० म०प्र० । पयेन्तवतिनि, त्य."तं अश्कमिन न पधिसे" दश०५०। जी०३ प्रति। ०। त्यक्तवति, "सश्वसिणेहाकता" औ०।। अइगंजीर-अतिगम्नीर-त्रिप्रतीवातुच्याशये, पंचा०२ विय। अ(ति) कंतजोवण-अतिक्रान्तयौवन-त्रि० प्रत्या० स० भइगच्छमाण-प्रतिगच्छत- वि० प्रति-गम+शतृ प्रविशति, प्रतीततारुण्ये,“अपत्तजोवणा अकंतजोश्यणा" स्था०५ ग०। (ति) कंतपञ्चक्रवाण-प्रतिक्रान्तप्रत्याख्यान-न०अति नि० चू०एस०का। क्रान्ते पर्वणि यत् क्रियते तदतिक्रान्तं तच्च तत्प्रत्याख्यानम् । अग (य)त अतिगत-त्रि० अति-गम् त-प्रविऐ, "जे भिप्रत्याख्यानन्नेदे, ध० १ अधि० । आव पथमेवातीते पर्युष क्खू गाहावाकुलं प्रतिगते" नि०० ३३० । प्राप्ते च । २० । णादौ करणादतिक्रान्तमाहच 'पज्जोसवणाए तवं,जो खलुन प्राइगम-अतिगम--पुं० प्रवेशे, प्रा०म०प्र०। करेछ कारणज्जाए । गुरुवेयायश्चेणं, तवरिसंगम एणयाए व अगमण-अतिगमन-न० प्रवेशमार्गे, का०१०। ।१॥सो दाई तवोकम्मं, पमियज्जातं अच्चिए कासे । एवं अश्गुरु-अतिगुरु-प्रतिशयितो गुरुः पूज्यतमत्वात् प्रा०स० चक्खाणं, अइतं होइ मायग्वति" ॥२॥ स्था०१०म०। "अतिकंतं णाम पजोसवणाए तवं तेहि कारणेहिं ण कीरति "त्रयः पुरुषस्यातिगुरयो भवन्ति पिता माताऽऽचार्यश्वेति"याचा गुरुतवस्सिगिबाणकारणेहिं सो प्रतिकतं करेति तहेव विभा-| अइचंद-अतिचन्छ-पुं० षष्ठे लोकोत्तरमुहर्ते, कल्प० । सा। आ० चू। आव०। अइचरा-अतिचरा-स्त्री. अतिक्रम्य-स्थस्थानं सरोऽन्तर सर. अश्कम-अतिक्रम-पुं० अतिक्रम्-घअतिचारे, "पाणाध्याय- ति गति चर+अच् पचिन्याम, ततुल्याकारवत्त्वात् स्थापस्स बेरमणे एस वुत्ते अश्कमे" ध०३अधिः। सूत्र. अतिलाने, निन्यांपप्रचारियां लतायाश्च । अतिक्रमणकारिणि, त्रिवाच०। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) भइचिंत अभिधानराजेन्द्रः। अइधुत्त मचिंत-अतिचिन्त-त्रि०प्रतीष चिन्ता यस्मिस्तदतिचिन्तम्। (ति)इ(या) ताणगिह-अतियानगृह-० नगरादिप्रतिचिन्तासहिते, का १०॥ प्रवेशे यानि गृहाणि तेषु, स्था०२ ग०॥ प्रच-अतीत्य-अन्य अति--रवा-स्यप-स्यारवेत्यये, “स-अ (ति) (ता) याणिनि-प्रतियानर्षि-स्त्री. राजा. ब्वाई संगाई भणधीरे" सूत्र.१६० ७.॥ देनगरप्रवेशे सम्भवन्त्यां तोरणहशोभाजनसम्मादिलकभइच्च-म- धावा प० सक०। गमेरमश्ना४।६१।। णायामृगौ, स्था०३०॥ पति सत्रेण गमधातोरश्चादेशागती, अश्या, गवति, प्रा० अ (ई)[ती][या] ताणागयमाण-अतीतानागतज्ञानभइच्छंत-गच्छद-त्रि विचरति, अतिकामति, उत्त०१० मा न० अतिक्रान्तानुत्पत्रार्थपरिच्छेदने, द्वा० २६ द्वा०॥ प्रश्च्चत्त-प्रतिच्छत्र- पुं० प्रतिक्रान्तवत्रम् । तुस्याकारण अइताल-अतिताल-० उत्साले गेयदोष, अनु। भत्या० स०। (गतिया) इति प्रसिके स्थातृणविशेषे, (ताल- प्रतिक्खरोस-अतितीवणरोष-त्रि०६०। पुनः पुना रोषणमखाना) रति प्रसिद्ध जलतृणमेदे च । वीरस्वामिमते ग्त्रा शीसे, दीर्घरोषिणि, वृ०२ उ० । प्रत्येव नाम । ग्त्रातिक्रमकारिणि, त्रि. अतिक्रमेऽव्ययीत्रातिक्रमे, अन्य वाच॥ प्रतिव्व-अतितीव्र-त्रि अत्युत्कटे, पंचा० १ विव०। भइच्छपञ्चक्खाण-प्रदित्सा (प्रतिगच्छ) प्रत्याख्यान प्राइतिब्बकम्मविगम-अतितीव्रकर्मविगम-पुं०६ त प्रत्युत्कटन०-प्रत्याख्यानभेदे, “भिक्खाईणमदाणा भइ" भिक्षणं स्य कर्मणो कानावरणीयमिथ्यात्वादेः विनाशे, पंचा० विषः। निका प्राभृतिका मादिशब्दानादिपरिग्रहस्तेषामदाने प्रतिग-अतुट्टण-प्रतित्रुट्टण-न० अतिशयेनापनयने, सूत्र. १७०१० बेति प्रदित्सेति वा वचनमतिगच्छप्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्या | अइतना-प्रतितेजा-स्त्री० चतुर्दश्यां रात्रौ, जं०७ वका कल्प। नेवा। भा०म०प्र० "मर (च) ग पचक्याणं भणसमणाजं। प्रश्च्यति" अदित्साप्रत्याख्यानं हेवाह्मण! हेभ्रमण!भदि |भइइंपज्ज-ऐदंपर्य-०दं परं प्रधानमस्मिन् वाक्ये श्तीदं परं सेति नाम दातुमनिच्छन तु नास्ति यद्भवतां याञ्चितंतवादि तझाव दंपर्यम् । वाक्यस्य तात्पर्यशकौ,पो०१ विवश पूर्वोक्तसैव वस्तुनः प्रतिषेधात्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यातमिति गाथार्थः। तात्पर्य, षो. १६ विवाजावार्थगर्ने (प्रति०) तत्वे, पश्चा भाव०६०॥ १४ विव०॥ अजाय-प्रतिजा (या)त-पुं० पितुः संपदमतिलपजा-| प्रश्दारुण-अतिदारुण-त्रि० महाभयानके, अष्ट। तः संवृत्तो वाऽतिक्रम्य वा तां यातःप्राप्तो विशिष्टतरसंपदं स-भइमुक्ख-अतिपुःख-न० अतिदुःसहे, आचा०१०६०। मृहतर इत्यर्थः। इत्यतिजातोऽतियातो वा ऋषभवत् । सुतभेदे,। अइदुक्खधम्म-अतिदुःखधर्म-त्रि० अतीव दुःखामसातवेदनीस्था०४ मा०॥ यं धर्मः स्वभावो यस्य तत्तथा । अत्यन्तासातस्वभावे, “गाअडिय-अतिष्ठित-त्रि०अतिक्रान्ते, उल्लकितवति, उत्त०७० ढोवणीय अश्दुक्खधम्म" सूत्र०१ ०५ ०। अतिदुःखरूपो प्रतिष्ठाय-अध्य० अतिक्रम्योववेत्यर्थे, उत्त०७ अ०॥ धर्मः स्वभावो यस्मिन्निति श्वमुक्तं नवति । अविनिमषमात्रप्रणिञ्चल-अतिनिश्चल-त्रि० अतीव निष्पकम्पे, पंचा०१५ विध मपि कासं न पुःखस्य विश्राम ति । सूत्र०१ भु०५ म०। प्राणिमहुरत्त-अतिस्निग्धमधुरत्व-न० घृतगुमादिवत् सु- अइबुहिण-अतिदुर्दिन-न० अतिशयेन मेघतिमिरे, पिं०। खकारित्वरूपे एकोनविंशे वचनातिशये, स०॥ अश्फुलह-अतिदुर्द्धन-त्रि० अतिशयेन दुष्पांप्ये, ग०२ अधिः। अ (ई)(ती) (य) त-अतीत-त्रि० प्रति-इ-त० अइस्सह-अतिदुस्सह-त्रि अत्यन्तपुरध्यासे, उत्त०१५० अतिक्रान्ते, सूत्र०१धु०१० अ० आचा। प्रा० म०प्र०ा दश। प्रश्दूर-अतिदूर-नि० अतिविप्रकृष्टे, रा० । औ०। विवक्षितसमयमवधीकृत्य नृतवति समयराझौ, ज्यो०१पाहु०॥ अश्वसमा-अतिदुष्षमा-स्त्री० दुष्पमपुष्षमाऽऽस्ये अवसर्पिप्राकते, अतिक्रान्तसमयनाविनि, विशे० श्रातु०(अतीतवस्तु ण्याः षष्ठे उत्सपिण्याश्च प्रथमे अरके, एतवर्णनश्च तत्रैव ति। नः सत्वविचारः सव्वस्मुशम्ने) दूरीभूते च उत्त० १५०॥ | नं० । ज्यो। अ (ई)(ती)(य) तद्धा-अतीताद्धा-स्त्री० अती अइदेस-अतिदेश-० अतिक्रम्य स्थविषयमुखाय अन्यत्र वितकाले, आचा०१ श्रु०१०१ उ० । अतीतेषु अनन्तेषु पुद्रख षये देश अतिदेशः अतिदिश्यतेवा करणे कर्मणि वा घम् “अपरावर्तेषु, अनु०॥ न्यत्रैष प्रणीतायाः, कृत्स्नाया धर्मसंहतेः। अन्यत्र कार्यतःप्राअ (ई)(ती)इ (य) तपञ्चक्खाण-प्रतीतपत्याख्यान प्ति-रतिदेशः स उच्यते ॥ प्रारुतात् कर्मणो यस्मा-त्तत्समानेषु न० पूर्वकालकरणीये प्रत्याख्यानभेदे, प्रव० ४ द्वा० । २०प्र०॥ 'कर्मस। धर्मप्रवेशो येन स्या-दतिदेशः स उच्यते"श्त्यधिकभ(ति)इ (या) ताण-अतियान- न० नगरादौ राजादेः रणमालाधृतानियुक्तवाक्योक्ते अन्यत्र प्राप्तेऽन्यधर्मे, तत्प्रापके प्रवेशे, स्था०४०॥ शास्त्रभेदे च । वाच। अ (ति) इ ( या) ताणकहा-अतियानकथा-खी० रा अइधमंत-अतिधमत्-त्रि अतिशयेन शब्दकारके, नि०यू०१३० जादेः नगरादौ प्रवेशकथायाम, यथा " सिय सिंधुरखंधगभो, अश्वामिय-अतिधाडित-त्रि.नामिते, अतिवर्तिते च प्रश्न १ सियचमरो सेयपत्तनमहो । जणनयणकिरणसेओ, पसो पविसापुरेराया" इति स्था०४०। राजकथाभेदे, (व्याख्या अध० द्वा० ३ अ०। रायकहा शब्दे)॥ | अधुत्त-अतिधूर्त-त्रि० अतीव प्रजूतं धूर्तमष्टप्रकारं कर्म यस्य Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्धुत्त अभिधानराजेन्द्रः। अश्परिणाम सोऽतिधूनः । बहुलकर्मणि, सूत्र. २ ० २ ० १ उ०।। लवणादिनिर्वासितानि उतानावितानि (केदहत्ति ) किं प्रमा. अइपंडिय-अतिपएिमत-त्रि० अतीव दुर्विदग्धे, वृ०१०।। णानि कि महन्ति किंवा अनि (छिन्नत्ति) किं पूर्वभिमानि अइपंडुकंबलसिला-अतिपाए मुकम्बलशिला-स्त्री० मन्दरप किं वा इदानी गित्वा आनीतानि । अथवा (निन्नति) किं र्वतस्य दक्षिणदिग्गतायामभिषेकशिक्षायाम, स्था०२ठा. "दो अ. निन्नानि स्वामीकृतानि किं पा सकनानि (कित्तिति) कि. पमुकंबरसिक्षात्रो" स्था०४ ग० । पाएमुकम्बलशिलेत्यस्या यन्ति वा गणनायां द्वियादिसंख्याकान्यानेकानि वा अपिशव्दा त् कि बकास्थिकानि अषकास्थिकानि वा तरुणानि जरगनि नामान्तरमिति तत्रैव वर्णको वक्ष्यते । ०५ बका। घेत्यत्रापि प्रपत्र्यम् । इत्थं शिष्येणानिहिते आचार्येण वक्तव्यं अइपडागा-अतिपताका-स्त्री० एका पताकामतिक्रम्य या प सौम्य! सम्धानि सन्त्यप्रेऽपि मम पुनःपुरा विस्मृतान्यासभिदानी ताका साऽतिपताका । झा० १ मा पताकोपरिवर्तिन्यां पताका स्मृतिपथमवतीर्णानीति । यद्वा पर्याप्तं तावदिदानी प्रयोजने समायाम, । दशा औ०। पतिते पुनर्नवन्तं वक्ष्यामि भणिष्यामि । अथवा वत्स! किंममाअश्परिणाम-अतिपरिणाम-पुं० अतिव्याप्या परिणामो यदु कार्य विमर्शाय किमयं विनीतो नवा परिणामको बानवेति तार्थपरिणमनं यस्य स तथा व्य०१०। नि०चा अपवादैकम विकानार्थमुक्तोऽसीति । यः पुनरपरिणामकः स धूयात् । तो, वृ०१३। तवकणम् ॥ किं ते पित्तपलावो, मा वयं एरिसाई जंपाहि । अतिपरिणामकमाई ॥ जो दव्यखेत्तकाल-नावकयं जं जहिं जया काले । माणं परे वि सोइ, कहं पिनेच्छाम एयरस ॥ भो प्राचार्य ! किं ते पित्तप्मावः समजनि यदेवमुन्मत्तवदसं. तन्नेसुस्सत्तुमई, अइपरिणामं वियाणाहि ॥ बद्धं प्रलपसि योकवारं ममाने जस्पितं बहि जल्पितं नाम मा अव्यकेत्रकालभावकृतं यद्वस्तु यस्मिन् विकृयावादौ यदा | पुनहितीयं चारमीदशानि सावधानि वचनानि जल्पेति । यतोकाले आत्यन्तिकर्मिशादौ नणितम् [तम्लेसुत्ति] तस्मिन् द्रव्या "मा णमि" त्येतस्वदीयं वचनं परोऽप्यन्योऽपि श्रोष्यति । वयंपुनः दिकृते अबादिकवस्तुनि वेश्या यस्य स तद्देश्यः पश्यामि । कथमपि नेच्छाम एतस्यार्थस्याम्रानयनलकणस्य किं पुनः कर्तव्य तावदत्र किमपि निश्रारदं ततस्तदेवावलम्वयिष्यामीत्यपवाद तामित्यपिशब्दार्थः । यः पुनरतिपरिणामकःस एवमभिदध्यात् । कमतिरित्यर्थः । तथा सूत्रादपवादश्रुतादुत्पाबल्येन मतिरस्येत्युसूत्रमतिः । श्रुतोक्तापवादादज्यधिकापवादबुकिरिति भावस्त कालेसिं अइवत्ता, अह्म विइच्छा न भाणिउं तरिमो। मेवंविधं साधुमतिपरिणामकं विजानीहीति वृ० ११०। कि एचिरस्स वुत्तं, अन्नाणि वि किं च आणेमि ॥ अथ प्रसङ्गादत्रैव परिणामकापरिणामातिपरिणामानां कमाश्रमणा! यदि युष्माकमात्रैः प्रयोजनं तत इदानीमप्यान__ सदृष्टान्त स्वरूपम् दश्यते । यामि यतः (सि त्ति) एषामाम्राणां कालोऽतिवर्सते अतिपरिणमा जहत्थेणं, मई उ परिणामगस्स कजेसु । कामति । अद्य तावत्तानि तरुणानि वर्तन्ते अत सर्व जरठीनविश्ए न तु परिणमड, अहिगम परिणामे तो ॥ विष्यन्तीत्यर्थः । यहा अस्माकमप्याघ्राणां ग्रहणे महती श्चापरिणामकस्य मतिः कार्येषु याथार्थेन यथार्थग्राहकतया परि- परं किं कुर्मो न वयं योप्माकीणभयनीता भणितुं किमपि (तरिणमति । अत एवासौ परिणामक उच्यते। द्वितीये द्वितीयस्याप- मोत्ति ) शक्नुमः । अथवा यद्याम्राएयपि ग्रहीतुं कल्पन्ते ततः रिणामकस्य मतिनं तु नैव परिणमते । अतएवासावपरिणामस्त. किमियतश्चिरात्कासाहुक्तं वञ्चिताः स्मो वयमियन्तं कासमितितीयः पुनरधिकां मतिमधिगच्छतीति परिणामकोऽनिधीयते पत- भावः । किं वा अन्यान्यपि मातुर्मिनादीन्यानयामीति । अनदेव स्पष्टयति॥ योरपरिणामकातिपरिणामकयोरेवं जपतोराचार्यणेदमुत्तरं दा. दोसु विपरिणमइ मश्-मुस्सग्गववायओ उ पढमस्स । तव्यम् । विइतस्स उ नस्सग्गे, अश्व वाए अतइयस्स ।। नाभिप्पायं गिएहसि, असमत्ते चेत्र भाससी वयणे । प्रथमस्य परिणामकस्य मतिरुत्सापवादयोरपि परिणमति। मुत्तविशालोणकए, भिन्ने अहवा वि दोच्चंगे । किमुक्तं जवति । यः परिणामको भवति तस्योत्सम्में प्राप्ते उ-| भो मुग्ध! त्वं न मदीयमनिप्रायं गृहासि किन्तत्सुकतया मसर्ग पव मतिः परिणामते । अपवादे प्राप्तेऽपवाद पव मतिः प| दीये वचने असमाप्त एवेदृशं समयविरुकं निष्ठरं वचनं भाषसे। रिणमते । यत्रोत्सम्यों बसीयान् तत्रोत्सर्ग समाचरति । यत्राप-1 मया पुनरेतेनाभिप्रायेणानिहितम् (मुत्तबिल इत्यादि) मुक्त वादो वसवान् तत्रापवादं गृह्णाति । द्वितीयस्यापरिणामकस्य पु. काधिकं तदेवात्यम्तं मुक्ताम्यं तेन लवणेन वा कृतानि भावि. नम्मर्ग एव मतिः परिणमते । न पुनरपवादे । तृतीयस्य तु तानि मुक्ताम्लनवणकृतानि निन्नानि च । किमुक्तं नवति । न मअति अत्यर्थम् । अपवादे मतिः परिणमते । स च व्यादिकार-1 या नवतः पादपरिणतान्यानाण्यानायितानि किं तु चतुर्थणे प्रतिमेवनामनुनानां ज्ञात्वा न किंचित्परिहरति। कारणमन्त रसिकभावितानि वा लवणनावितानि वा व्यतोनावतश्च निरेणापि प्रतिसेयते । अथ यदुक्तमासीत् ( अंबाई दिट्टतोत्ति) मानि परिणतानीति भावः । अथ वा (दोश्चंगत्ति) सामयिकी. तदिदानी जाव्यते । एतेषां परिणामकादीनां त्रयाणामपि जिज्ञासया संज्ञा श्रोदनादिमूसापेकया नोजनस्य हितीयाङ्गानि राख्शाकेचिदाचार्याः स्वभिप्यानित्थमभिदध्युः आर्या ! पारस्माकं करूपाणि तानि मया नायितानीति प्रक्रमः । "अंबाई" इत्यप्रयोजनमस्तीत्युने. यः परिणामकः शिष्यः स ब्रूयात् । श्रादिशब्दसूचितौ वृक्तयाजदृष्टान्ताविमौ । प्राचार्या भणन्ति । चेयणमचे अणं विय, केदहदिन ओकिनिया वावि।। आर्या ! “रुक्वेहिं या पत्रोअणंति" अत्रापि परिणामकादीजसफा पुणो व वोच्छ, वीणासत्थं च वुत्तोसि ॥ स्पस्तथैवावसातव्यः । नवरम् । अपरिणामकातिपरिणामको 'नगवन् ! यैरानैः प्रयोजनं तानि कि चेतनानि कि नाविनानि प्रति मूरिणा प्रतिवक्तव्यम् । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्परिणाम श्रभिधानराजेन्द्रः। प्रश्बेला निफावका दवाई-णि बेमि रुक्खाणि न हरिए रुक्खे। अइपास-अतिपार्थ-पुं० भरतकेबजारजिनसमकासजाते परव अंबिझविफत्थाण अ. भणामि न विरोहणसमत्थे ॥ तजे तीर्थकरे, " अरजिणवरो य भरदे, अश्पासजिणे य निष्पावा वजाः कोऽयाः प्रतीतास्तदादीनि ( रुक्खाणित्ति )। एरषद " ति। रुकाणि द्रव्याणि तान्येवाहं ब्रवीमिन हारितान्न तु सचित्तान् वृ- अइपासन-प्रतिपश्यत-त्रि. अतीव असाधारणं पश्यति, । कान् । तथा बीजान्यपि यानि अम्बभावितानि विध्वस्तानि वा सूज्ञ०१ श्रु० १ ० ३ ०। व्यवच्छिन्नानि यानि कानि तान्यहं भणामि न विरोहणसमर्था अप्पमान-प्रतिप्रमाण-10 वारत्रयाऽतीते भोजने, पि० । निपुनरङ्कोद्भवनशक्तिकानीत्येष अाम्रादिष्टान्तः । कथनाचार्ये (प्रश्बहुशब्देऽस्य स्वरूम ) अतिक्रान्तः प्रमाणम् । अत्या० णामीनिः स्थानैः "मुत्तंबिझ"श्त्यादिभिःप्रकारैः कृत्वा एवं परी सम् प्रमाणातिकाम्ते, यस्य यत् प्रमाणमुचितं ततोऽधिकप्रमास्य यः परिणामकस्तस्य दातव्यम्।पुनस्तेन श्रोतव्यमित्याह । णपति, प्रा०स० । भत्यन्तप्रमाणे, वृहत्प्रमाणे, न. वाच । निहाविगहापरिव-जिएण गुत्तिदिएण पंजलिणा। अइप्पसंग-अतिप्रसङ्ग-पुं० अतिपरिचये, पश्चा० १० विव० । जत्ती बहुमाणेष य, नवनत्तेणं सुणेयव्वं ।। भतिव्याप्तिनकणायामनिष्टापत्ती, पञ्चा०६ विव०॥ अजिकखतेष सुभा-सिया वयणाई अत्थमहुराई। प्रश्वल-अतिबल-त्रि० पुरुषान्तरणमान्यतिक्रान्तोऽतिवसः । विम्हियमुहेण हरिसा- गएण हरिसं जणातण ॥ प्रम० अध० ४ ० । प्रतिकान्ताशेषपुरुषामरतिर्यम्बले, । निद्रायमाणः सन् न किंचिदप्यवधारयति । विकथायां क्रिय सपा०२०। अतिशयवले, औ०। राय। स०। भविष्यति माणायां न्याघातो जवतीत्यत्तो निझाधिकथापरिवर्जितने श्रोत पचमे वासुदेवे च पुं० ती० । स० । ति । पत्रदेवस्य ग्यम् । गुप्तानि स्वस्वविषयप्रवृत्तिनिरोधेन संवृत्तानीन्द्रियाणि चतुर्थभवे महाबलनामो राज्ञः पितामहे शतबलस्य पितरि, "गंयेमासी गुप्तेन्द्रियस्तेन । तथा प्राइजलिना योजितकरयुगक्षेनज धसमिरे विजाहरनगरे पश्चलरको पत्ता सयबलरायणो पुत्ते कल्या बहुमानेन च श्रोतव्यम् । क्तिर्नाम गुरुणामिति कर्तव्यता महाबलो नाम राया जातो"। प्रा० म०प्र० चूण्या तु "गंधयो निषधारचनादिकायां बाह्या प्रवृत्तिः । बहुमानस्तु गुरुणामु समिद्धं णगरं राया रायीच विबुरुणयणो जणवहितो सतपरिमान्तरः प्रतिबन्धः। अत्र चतुगीजक्तिर्नामैकस्य न ब बसस्स रस्मो णगरं नत्तुतो अतिवससुतो महायलो नाम । मा० हुमानः, बहुमानो नामैकस्य न जतिः, एकस्य भक्तिरपि बहु माद्वि। मा००।भरतचक्रिणः प्रपौत्रे च । स्था०८ चा० श्रा० मानोऽपि, एकस्य न नक्तिन वा बहुमान इति । अत्र च भक्तिब चू० । अतिशयितं बलं यस्याः ५ प० । अत्यन्तबलाधायिकायां हुमानयोर्विशेषकापकं शिवाण्यवानमन्तरभक्तयोर्मरुफपुसिन्द पीतवर्णायां (वेमियाला) इति स्यातायां लतायाम, विश्वामित्रयोगदाहरणं तच सुप्रसिमिति कृत्वा न लिख्यते । यदि च ण रामाय दत्ते भाविद्यानेदे च स्त्रीला अतिशयितं बलम प्रा० भक्ति बहुमानं वा न करोति तदा चतुर्बधु । तथोपयुक्तेनानन्यम स० अस्यन्ते बसे, सामर्थे, सैन्ये च न० अतिरिक्तं बसमस्य मसा श्रोतव्यम् । “अनिकखतेणं" इत्यादिवचनानि श्रुतव्याख्या अत्यन्तबलयुक्ते, त्रि०"जयत्यतिबलो रामो लक्ष्मणश्च महाबल" सपाणि सुभाषितानि शोभनभणितानि अर्थमधुराणि नावार्थसुस्वादूनि अभिकाङ्गता आभिमुल्येन वाचता । तथा विस्मि इति रामा० । अतिरथे च । वाच । तमुखेनापूर्वापूर्वश्रवणसमुद्भतविस्मयस्मरवदनेन हर्षगतेन अहो अश्वहुय-अतिबहुक-न० अतिशयेन बहु-निजप्रमाणाऽन्यभमी प्रगवन्तः स्वगलता शोषमवगणय्यास्मन्निमित्तमेव-| धिके नोजने, पि०। विध सूत्रार्थव्याख्यानं कुर्वन्ति नानृणी भवेयममीषां परमोप तत्स्वरूपम् । कारिणामहमित्येवंविधं दर्षमागतः प्राप्तो हर्षागतस्तेन । तथा बहुयातीयमपहुं, अइबहुसो तिनि तिमिय परणं । गुरुणामपि स्ववदनप्रसन्नतया उत्फुल्ललोचनतया च हर्षम् पदो कधमयं संवेगरअन्तरङ्गिमानसः परमागमव्याख्याने शृणो तं वि य अइप्पमाणं, तुंज जं वा प्रतिप्पंतो॥ तीतिमकणं प्रमोदं जनयता श्रोतव्यमिति । बरकातीतमतिशयेन बहु भतिशयेन निजप्रमाणान्यधिकमिअथ परिणामकद्वारमुपसंदरचाह । त्यर्थः । तथा दिवसमध्ये यत्रीन वारान् भुङ्क्ते त्रिज्यो वा वारेमाधारिपसुत्तत्थो, सविसेसो दिज्जए परिणयस्स ।। न्यः परतस्तद्भोजनमतिबहुशः तदेव च वारत्रयातीतमतिप्रमा णमुख्यते "अप्पमाणे" त्यवयघो व्याख्यातः। अस्यैव प्रकासपरिच्छिता य सुनिच्छि-यस्स इच्छागए पच्छा य॥ रान्तरेण व्याख्यानमाह । एते यद्वा भतृप्यन् एष " अप्पमाकल्पव्यवहारादेः सूत्रार्थः सविशेषःसापवादः स्वगुरुसकाशा ण" इत्यस्य शब्दस्यार्थः । “ अप्पमाण" इत्यत्र चशानमदवधारित भागृहीतः स सर्वोऽपि दीयते परिणतस्य परिणा त्ययस्ताच्छील्यधिवक्तायां यद्वा प्रारुतमणधशादिति पिं० । मकस्य शिष्यस्य सुपरीक्ष्य पूर्वोक्ताम्रादिदृष्टान्तैः सुप्तु अषि प्रश्बहुसो-प्रतिबहुशस्-भव्य दिवसमध्ये त्रीन् वारान् त्रिसंबादेन परीकां कृत्वा सुनिश्चितस्य प्रारब्धसूत्रार्थे प्रहीतव्ये कृतनिश्चयस्य । यद्वा ज्ञानदर्शनचारित्राणां याधजीवमपि विरा ज्यो वा परतो नोजने, पिं०। ( स्वरूपमनन्तरमुक्तम् ) धनान कर्तब्येत्येवं सत्रुनिश्चितो निश्चयवान् यस्सुनिश्चितस्तस्य अश्वेल-अतिबेल-बेलामतिक्रम्याऽतिबलम्।यो यस्य कर्तदीयते (रागए पत्ति ) अपरिणामकातिपरिणामकयोः व्यस्य कालोऽध्ययन वा तां सामतिबध्यत्यर्थे, सूत्र०१ श्र०१४ पुनर्यदा सा आत्मीया यथाक्रम केवलो.सर्गापवादरुचिलकणा म० “ नातियेलं उचाचर" न मर्यादोबजनमित्यर्थः कुयादात इच्छा गता नपा जवति तदा पश्चात्तयोःछेदभूतानि दातव्या- प्राचा० १ १०८ अ०। मीति । उक्तं परिणामफद्वारम् । वृ० १० । (अत्रैव म- | अश्वेला अतिबेला-स्त्री. अन्यसमयातिशायिन्यां मर्यादायाम, रुकरान्तः स च पसंयशब्दे कारणिकतहणावसरे वक्ष्यते)। साधुमर्यादायाम उत्त) ३ अ। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भइनह अन्निधानराजेन्द्रः। अश्मुत्त प्रश्न-प्रतिनध-पुं० कस्यचिच्छेष्ठिनः पुत्रे, येन स्त्रीकसहे प्रज्ञा सतानेदे, आचा०१ श्रु०१० औ० सम्रातरि, पुं० येन सति भद्रनामनातुः पृथग्नूय गृहाद्यर्द्धकरणं कृतम् तं० । वाल्ये देवकी स्वस्वसा प्रोक्ता 'स्वमष्ट पुत्रान् सरशान् जनअइभड्ग-अतिभक-त्रि प्रदर्शने, प्रति०। यिष्यसि' मा० म० ६० प्रा० च । पोशासपुरवास्तव्ये विजयराजस्य श्रीनाम्न्यां देव्यां जाते पुत्रे, स्था० १० म० । अइभद्दा-अतिभघा-खी० प्रनासनामगणधरस्य मातरि, प्रा० तक्तव्यता अन्तकरशाने यथा। म.द्वि०। प्रा० चू०। तेणं कालेणं तेणं समरणं पोलासपुरे घरे सिरीवणे अइजय-प्रतिजय-त्रि० पेहलौकिकादीनि जयान्यतिक्रान्ते, प्र नज्जाणे तस्स एं पोझामपुरे शयरे विजये नामं राया म० अ०१द्वा० । अइनार-अतिभार-पुं० अत्यन्तं भारः । गुरुत्थे, पिं०। वोदुम- होत्था । तम्स णं विजयस्स रनो सिरी नामं देव। होत्था शक्ये भारे, प्रव०४ द्वा०।अतीव नरणमतिभारः। प्रजूतस्य पूग वाममो तत्थ एं विजयस्स रपणो पुचे सिरीए देवीए फलादेः स्कन्धपृष्ठादिष्वारोपणरूपे, आव०६० । धर्म।घ०। अत्तत्त अइमुत्ते नाम कुमारे होत्या सुमाल० तेणं कालेण र०। प्रव। तथाविधशक्तिकलानां महाजारारोपणस्वरूपे, न. तेणं समएणं समणं ३ जाव सिरीवणे उज्जाणे विहरपा०१०। प्रथमाणुव्रतस्य चतुर्थेऽतिचारे, पंचा०१ विव० ति । तेणं कालेणं समणस्स भगवो महावीरस्स जेटे " अतिभारो न आरोवेयब्वो पुचि चेव जा वाहणाप जीविगा सा मोत्सव्वा न होज अन्ना जीविगा ताहे दुपयो जं सयं अंतेवासी इंदनतीजहा पएणत्तीए आव पोलासपुरेणय. सक्खिबर ओयारे वा भारं एवं वहाविज बल्लाणं जहा सा- रे जच्च जाव अमति इमं च णं अतिमुत्ते कुमारे एहाए जाव भावियाओ वि भाराओ ऊणो उ कीर नसगमेसु वि बेवाए विजूसिते बाहिं दारएहि य भिएहि य कुमारेहि य मुयश प्रासहत्यीसुवि पसेव विदी आव० ६००। कुमारयाहिय साकं संपरिवुमे सानो गिहातो पमिनिक्खप्रश्भारग-पतिनारग-पुं० अतिभारेण वेगेन गच्चति, गम-म३त. खरे, भश्वतरे, गईनाद् वमवायां जाते अश्वनेदे, वाचा मइ पमिनिक्खमइत्ता जेणेव इंदहाणे तेणेव उवागते तेहिं अजारारोवण-अतिभारारोपण-० अतिशयितो नारोऽति- बहूाहिं दारएहि य संपरिबुडे अनिरममाणे अभिरममाणे मारो योदमशक्य ति यावत् तस्यारोपणं गोकरजरासनमनु विहरति । तते पं जगवं गोयमे पोलासपुरे यरे उच्चनीध्यादेः स्कन्धे पृष्टे शिरसि चा स्थापनम् । प्रथमावतस्य चतु- य जाब अममाणे इंदट्ठाणम्स असामंतेण वीतिवयति ! ऽतिचारे, घ०२ अधि०। प्रभ०। तते णं से अपमुत्ते कुमारे जगवं गोयम भदरसामंतेणं वीति प्रश्नूमि-अतिमि-स्त्री० एलुकात्परनागे, अननुज्ञाता गृह वयमाणं पासति पासतित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवास्थैर्यवान्यनिशाचरा नायान्तीत्यर्थः दश० अ०। (तत्र गमनं | गते भगवं गोयम एवं वयास । के णं भंते ! तुझे कि निषिद्धमिति गोयरचरिया शब्दे ) अतिशयिता भूमिमर्यादा वा अमह तते ण भगवं गोयमं अतिमुत्तं कुमारं एवं बयाप्रा० स० । अतिक्रमेऽव्ययी. मर्यादातिक्रमे, अव्य० । नूमि मर्यादां वाऽतिकान्ते, त्रि० वाच । सी अम्हे एं देवाणुप्पिया सपणा निग्गंथा इरियासमिया अश्मंच-अतिमश्च-पुं० मञ्चोपरितने विशिष्टमशे, 'मञ्चाश्मञ्च- जाव बम्नचारी उच्चनीय जाव अममाणे । तते णं अतिकसिय' औ० ! दशा । का॥ 'मुत्ते कुमारे जगवं गोयमे एवं वयासी । अह णं भंते ! अइमट्टिया-अतिमृत्तिका- स्त्री० कर्दमरूपायां मृत्तिकायाम, तुझे जेणेव अहं तुज्झं भिक्खं दलावेमि त्ति कह भ. जी. ३ प्रतिः । गर्व गोयम भंगुलीते गेएहात गेण्हतित्ता जेणेव सते गिअइमहल-अतिमहत- पुं० वयसाऽतिगरिष्टे, व्य०३०॥ हे तेणेव मवागए तते णं सा सिरि देवी जगवं गोयम एज्जमाअश्माण-अतिमान- पुं० अतीव मानोऽतिमानः। सुभूमादी णं पासति पासतित्ता हतुहा आसणाओ अन्तुष्टुति अन्तुनामिव महामाने, सत्र०१ ६०००। चारित्रमतिक्रम्य वर्तमाने द्वितित्ताजेणेव नगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति नवागच्छतिकपायनेदे, सूत्र०१ श्रु० ११ भ.। ' त्ता जगवं गोयमं तिक्खुत्तो मायाहिणं पयाहिणं बंदति भइमाय-अतिमात्र- पि. मात्रामतिकान्तः । मात्राऽधिके, उत्त० १६ अ० । प्रा० घू० । नमसति विनलेणं असणं पाणं खाश्मं सामं पतिलाजति अश्माया-अतिमात्रा- स्त्री० उचितमात्राया अधिकमात्रायाम, पडिलाभतित्ता पमिविसजेति । तते णं से अइमुत्ते कुमारे "प्रश्मायाए पाणभोयणं पाहारित्ताजव" उत्त०१६७० प्रइन। एवं वयासी । कह णं भंते ! तुझे परिवसह । नगवं गो प्रतिमाया-स्त्री. अतीय माया अतिमाया । चारित्रमतिक्रम्य यमे अतिमुत्तं कुमार एवं वयासी । एवं खलु देवाणुप्पिवर्तमाने कवायदे, सूत्र १ श्रु. ११०॥ या ! मम धम्मायरियने धम्मोवएसए धम्मे नेतारिए समभइमुंत ( मुन) य-अतिमुक्तक--न० मुचो जाये क्तः । प्रतिश णं ३ महावीरे आदिकरे जाच संपाविउकामे इहेच पोलायेन मुक्तं बन्धहीनता यस्य का वाचा वक्रादावन्तः।१।१६। सपुरस्स नगरस्म बहिया सिरिवणे उजाणे य उग्गई उइति तृतीयस्य अनुस्वाराऽऽगमः प्रातुन प्राः । तिन्दुक गएहेत्ता समणेणं जाव जावेमाणे विहरति । तत्थ एणं श्रके, तालवृत्त, वाच। पुष्पप्रधाने बनप्पती, जं०१ वक० । बल्लीनेदे प्रकार पद । प्रतिमुक्तमएमपकाः जी०३ प्रतिकाविशेगा म्हे परिनसामो। तते णं से अतिमत्ते कंमारे जगवं गोय Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुत्त अनिधानराजेन्डः। अश्मुञ्जिय एवं बयासी गच्छामि णं भंते ! अह तुज्झेहिं सकिं सम- मया बुटिकायांस निवयमाएंमि कक्खपमिग्गहरयहरणमाणं ३ पायं वंदति अहामुहं तते णं से अश्मुत्ते कुमारे भ- याए बहिया संपट्टिए विहाराए । तए ण से अमुत्त कुगवं गोपमं सछि नेणेव समणे ३ तेणेव उवागच्छ- मारसमणे वाहयं वाहयमाणं पासइ पासइत्ता मट्टियपाहिं ति उवागच्छतित्ता समणं ३ तिक्खुत्तो आयाहिणं बंधा बंधइत्ता पावियामेव नाविप्रो वित्र णावमयं परिपयाहिणं करेति जाव पज्जुवासति । तते णं जगवं गोयमे | गहयं उदगास पवाहमाणे अनिरमइ । तं च थेरा अदक्खु जणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागते जाव पमिदंसेति | जेणेव समण नगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छं. पडिसेतिचा संजमे तवसा मायाहिणं पयाहिणं विहरति । तित्ता एवं वयासी । एवं खा देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तेणं समणे ३ अतिमुत्तस्स कुमारस्स तीसे य धम्मकहा क- अइमुत्ते णामं कुमारसमणे । सेण नंते अइमुत्ते कुमारसमणे से अतिमुत्ते समणस्स जगवभो अंतिए धम्मं सोचानि कहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति ? सम्म हडतुट्ठ० जनवरं देवाणप्पिया अम्मापितरो पापु-1 अज्जोति समणे जयवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी । एवं च्छामि तते णं अहं देवानुप्पिया अंतिते जाव पव्वयामि - खलु मज्जो ! ममं अंतेवासी अश्मुत्ते णाम कुमारसमणे हासह देवाणप्पिया ! मा पमिबंध करेह । ततेणं से अति- पगश्नदए जाव विणीए से णं अइमुत्ते कुमारसमणे एगणं मुत्ते कुमारे जेणेव अम्मापियरोतेणेव उवागते जाव पञ्चतिए | चेव भवग्गहणेषं सिज्झिहिर जाव अंते करेहिइ । तंमा गं तते णं अतिमुत्तं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासीवालेसि अज्जा ! तुम्ने अश्मत्वं कुमारसमणं हीलह निंदह खिंसह ताव तुमं पुत्ता ! असंबके किएह तुमं जाणसि धम्मं । गरिहह अवमयह तुन्ने णं देवाणुप्पिया अश्मुत्तं कुमारतते णं से अपमुत्ते कुमारे अम्मापितरो एवं खलु अहं समणं अगिलाए संगिएहह अगिलाए उवगिएहह अगिमम्मयाभो जं चेव जाणामितं चेव न जाणामि जंचेव ण माएणं जत्तेणं पाणेणं विणएणं वेयावमियं करेह । अइ. जाणामि तं चेव जाणामि । ततेणं भइमुत्तं कुमारं अम्मा मुत्तेणं कुमारसमणे अंतकरे चेव अंतिमसरीरिए चेव । पियरो एवं बयासी । कह णं तुम पुत्ता ! चेव जाणामि | तए णं ते थेरा नगवंतो समणेणं भगवया महावीरेणं एवं जाव तं चेत्र न जाणामि तेसिं अतिमुत्ते कुमारे अम्मापियरे वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदंति वंदंतित्ता प्रश्मुत्तं एवं बयासी जाणामि अहं अम्म जाओ जहा जातेण कुमारसमणं अगिल.ए संगिएहति जाव वेयावमियं करेंति तहाअवस्सं मरियम्बं नजाणामि अह अम्म जानो काहे वा कुमारसमणोत्त । पम्वर्षजातस्य तस्य प्रवजितत्वादाह व कहं वा कह वा केव चिरेणेव वा कालेण न जाणामि णं 'म्बरिसो पावो णिगंथं रोऊण पावयणति एतदेव चाक्षअम्म यो मे यातो केहिं कम्मायाणेहिं वा जीवा नेरइयति-| यंमिहाऽन्यथा वर्षाष्टकादारान प्रवज्या स्थादिति (कक्सपबिरिक्खजोणियमणुस्सदेवेसु उववज्जति । जाणामि णं अ ग्गहरयहरणमायापत्ति) कक्कायां प्रतिप्रहकंरजोहरणं चादायेम्म यातो जहा सत्तेहि कम्मायाणेहिं जीवा नेरश्य जाव त्यर्थः । (नावियामेत्ति) नौका छोणिका मे ममेयमिति विकउववज्जति । एवं खलु अहं अम्मं यातो जंचव जाणामि | ल्पयनिति गम्यते "नावियो विव नायंति"नाविक श्व नौवाहक श्व नावं कोणी ( अवंति ) असावतिमुक्तकमुनिः प्रतिग्रहक तं चेव न जाणामि जं चेव न जाणामि तं चेव जाणामि प्रवाहयननिरमते एवं च तस्य रमणक्रिया बानावस्थाबलातं इच्छामि णं अम्म यातो तुज्केहिं अन्नणुएणाते समाणे दिति (अदक्खुत्ति ) अजाचुः रवन्तस्ते चैतदीयामत्यम्ताजाव पब्बतिए। ततेणं से अश्मुत्ते कुमारे अम्मापियरोजा. नुचिताश्चेष्टां रष्ट्वा तमुपहसन्त श्वजगवन्तं पप्रच्छुः । एतदेवाह हे नो संचाएति बहुहिं आघवति । तं इच्छामो ते जाया "एवं स्खलु" इत्यादि (हीलहत्ति) जात्याधुबनतः (निदहत्ति) मनसा (खिसहत्ति) जनसमकम (गरिहहत्ति ) तत्समकम एगदिवसमावि रायसिरिं पासेति पासेतित्ता। तते णं से (अवमन्नहात्ति) तमुचितप्रतिपत्त्यकरणेन ( परिजवहरि) भातमुत्ते कुमारे अम्मापिनवयणमण्यत्तमाणे तुसिणीए | कचित्पास्तत्र परिभवः समस्तपूर्वोक्तपदकरणेन ( अगिमासंचिति । अजिसेओ जहा महाबलस्स निक्खमणं जाव पत्ति) अग्लान्या अखेदेन (संगिण्डहत्ति )संगृह्णीत स्वांकुरुत सामाश्याति एक्कारस अंगाई अहिजति अहिज्जतित्ता बहुहिं (नवगिरहहात्ति ) सपगृहीत नपष्टम्भं कुरुत एतदेवाह बासाति सामएणपरियागं पावणेति पावणित्ता गुणरयणेणं (वेयावमियंति ) वैयावृत्त्यं कुरुतास्येति शेषः (अंतकरे चेवत्ति) भवच्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि स्यादत प्राह ( अंतिमसरीतवोकम्मेणं जाव विपुले पच्चए सिके अन्त०५ वर्ग । रिए चेवत्ति ) चरमशरोर इत्यर्थः भ० ५ ० ४ ० । अस्य सिद्धिविषयः स्थविराणां प्रश्नो यथा अनुत्तरोपपातिकेषु दशमाध्ययनतयोक्ते च स्था० १०ग० । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवमो महावीर- (तदपर एवायं नविष्यतीति संभाव्यते) स्स अंतेवासी प्रमुत्ते णामं कुमारसमणे पगनदए जाव अडमच्छिय-अतिमलित-त्रि० विषयदोपदर्शने प्रत्यभिमृदा विणाए । तए एं से अइमुत्ते कुमारसमणे अएणया कयाई । तामुपगते, प्रश्न प्राश्र१४ द्वा० । Jain Education Interational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह इमोह - प्रतिमोह - त्रि० श्रतीव मोहो यस्मिंस्तदतिमोहम् । अतिकामाशी अतिशयितमोहते ० १ ० ॥ अयंचिय- अत्यञ्चय-श्रव्य० श्रतिक्रम्येत्यथे स्था० ५ ठा० । अध्यच्च -- अतिगत्य - अव्य० अतिक्रम्येत्यर्थे, श्राचा०१ ४०६ श्र० अश्या अत्यदन न० श्रतिभक्षणे, श्रयुकंपा सामायण दुगुंछा " व्य० २३० ॥ या अनिका-त्री०लिकाया ० १ ० अइया (य उत्त० २० अ० ( 0 ) अभिधानराजेन्द्रः | प्रतियानगते, "अयाओ पराहियो " अइयायरक्ख- प्रत्यात्मरक्ष- त्रि० अतीवाऽऽत्मनः परैः पापक रक्का यस्यासावत्यात्मरकः । अतीवाऽऽत्मानं पापै रकृति, अश्या र दाहिणगामिए नेरइए' सूत्र०२ ० २० । अ (ई ) ( ति ) ( तो ) इयार - प्रति ( ती ) चार -पु० अतिचरणमा ०२०७० तृतीये अपरा बो० ११ विव० प्रा० चू० । श्रतिक्रमे, अतिक्रम्य गमने श्राव२४ अग ग्रहणतो व्रतस्यातिक्रमणे, व्य०१० चारित्रस्तनविशेषे, आ० म० पि० । श्रा० चू० । देशनङ्गहेतौ श्रात्मनोऽशुने परिनामविशेषे धर्म० अ० शनिवारसा यथा मनु दिसैव श्रावकेण प्रत्याख्याता ततो वधादिकरणेऽपि न दोषो हिंसाविरतेरखा एकतत्वात् । अथ वधादयोऽपि प्रत्याख्यातास्तदा तत्करणे व्रतभङ्ग एव विरतिखरमनात् । किञ्च बधादीनां प्रत्यायेयत्वे प्रयता विशीत प्रतितमति चाराणामाधिक्यादिति एवं च न चादीनामतियारतिय से प्रत्याश्याता न चचादयः केवलं सत्त्याच्याने स्टेऽपि, प्रत्याख्याता दृष्टव्या हिंसोपायत्वात् । तेष/मेव चेत्तर्हि वधादिकरणे वतन एव नातिबारो नियमस्य पालनान्मैवं यतो कविता बहिया व तत्र मायामतिनावेन यदा कोपाद्यावेशा निरपेक्षतया वचादौ प्रवर्तते न च दिसा भवति तदा नितया वियना तस्य भङ्ग दिखाया अभावा बहिश्या पानमिति देव भजनादेशस्यैष पालनादतिचारल्यपदेशः प्रवर्तते तदुक्तम् न मारयामीति कृतव्रतस्य, विनैव मृत्युं क इहातिचारः । निगद्यते कः कुपितो बधादी करोत्यसो स्पानियमानयेः । मृत्योरावयिमोऽस्ति तस्य कोपादयादीनतया तु नन्नः । देशस्थ भङ्गावनुवासनाध्य, पूज्या अतीवारमुदाहरन्ति । यो वयत्ता विशीर्येत इति तदप्ययुक्तं विशुद्ध हिंसासद्भावे दिवानामभाव स्थितमेादयोऽतिवारा ए ति पानालोग इसाकारादिनादिना या सर्वत्रातिचारता ज्ञेया ध० २ अधि० ( आधाकमश्रित्यातिचारता अश्कम्म शब्दे दर्शिता ) अयं चाति वारः संक्रेपत एकविधः संक्षेपविस्तरतस्तु विविधस्त्रिविधो यावदसंख्येयवित्रः संकेपविस्तरतः पुनाविधः विविधं प्रति विस्तरत्वेवमन्यत्रापि योज्यं विस्तरतस्त्वनन्तविधः भाव० ४ श्र० । स्था०५० । अ० एतेषु विक्रमादिषु उत्तरोत्तरं दोपाधिकवं प्रायश्चित्ताधिक्यात् आधाकम्र्म्मणा निमन्त्रितः सन् यः प्रतिशृणोति सोsतिक्रमे वर्तते तग्रहणनिमित्तं पदनेदं कुर्वन् व्यतिक्रमे हानी वारे जानना बारे एवमन्यदपि परिहारस्थानमहित्वातिकायनेषु च प्रत्यभितमिदम्। अश्यार अतिक्रमे मासगुरु व्यतिक्रमेऽपि मासगुरु काललघु अतीबारे मासगुरु द्वाभ्यां विशेषितं तद्यथा तपोगुरु कालगुरु ख 1 अनाचारे गुरु परमात गुरुकाती चारः शोकसमु चयार्थः स चैतत् समुच्चिनोति अतिक्रमात् व्यतिक्रमो गुरुकस्तस्मादपि गुरुको तीचार इति । ततोऽप्यतीचारात् गुरुतरको ऽनाचारः । तत इत्यधित विशेष तत्य नवे न उ सुत्ते, अतिकमादी न वस्मिया केई । चोयग ! सुत्तमुत्ते, अतिक्कमादी उ जोएज्जा | तत्र पचमुक्तेन नवेन्मतिथोदकस्य यथा न तु नैव सूत्रे विशीथाध्ययनत्रणे केचिदतिक्रमादय उपवर्णिताः सन्ति ततः कथं चत्वारोऽतिक्रमादयस्तत्रैवाभ्ययने सिक। इति सूरिढ चादक ! सर्वोच्येव प्रायधितगणोतिकमादिषु भवति ततः सानु कामपि सूत्रे सूत्रितान् प्रतिक्रमादीन् योजयेत् अतः सूचि तत्वात् व्य० १ ० । अत्रेय प्रातिविधिमा तिथि य गुरुगा मासा, विसेसिया तिरिण चलगुरू अंते । एए चेत्र य लहुया, विसोहिकोमीए पच्छित्ता ॥ प्रयाणामतिक्रमव्यतिक्रमातीचाराणां त्रयो गुरुका मासाः । क थंभूता इत्याद विशेषितास्तपःकालविशेषिताः । किमुक्तं भवति । अतिक्रमे मातिक्रमेऽपि मासगुरुर चारेऽपि मा गुरुरेते च प्रयोऽपि यथोत्तरं तपःकालविशेषिताः । तथा म नाणे दो चतुर्गुरु चतुर्मासगुरु प्रायमित्तम् । तेच मासर्यादयः प्रायचित्ता भवक्रमादिष्यविशोधिको द्रष्टव्याः विशोधिकोटयां समासादयो प्रकाः प्रायश्वितानि । तद्यथा श्रतिक्रमे मासलघु व्यतिक्रमेऽपि मासलघु प्रती चारे sपि मासलघु नवरमेते यथोत्तरं तपःकाल विशेषिताः व्य०१४०| ज्ञानातिचारादयस्तेषु प्रायश्चित्तम् । उद्दज्यसुय - खंधंगेसु कमसो पमाइस्स । कालाइकमासु, नाणावरणाइयारेसु ।। २२ ।। निब्बीए पुरिम, गजत्तमायंविलं च लागाढे । पुरिमाई खमणं तं .गाडे एवमत्ये वि ।। २३ ।। युगल मिह तपोऽई प्रायश्विते ज्ञानदर्शनचारित्रत पोषीर्याचारपञ्चकानात चारचक्रमालोच्यम् । तत्राद्यो नापारस्पातिचारे ज्ञाना चारा तिचारः सोऽष्टविधः तद्यथा भकाले स्वाध्यायकरणं कालातिवादः ॥ १ ॥ जियोमायोपे गुरुष्व विनयो वन्दनादिरूपाचारस्तस्य प्रयोजनं हीनं वा विनयातिचारः ॥ २ ॥ बुते गुरौ या बहुमानो दाई प्रतिबन्धविशेषस्त स्याकरणं बहुमानातिचारः ॥ ३ ॥ उपधानम् श्रचामाम्सादि तपसा योगविधानं तस्याऽकरणमुपधानाऽतिचारः ॥ ४॥ यत्पा तीतेऽपत्रपति अन्यं वा युगप्रधान मात्मनोऽ ध्यापक निर्दिशति स्वयं वाऽधीतमित्याचष्टे एवं निहवनाजिधानातिचारः ॥ ५ ॥ व्यज्यते अर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमागमसूत्रं तन्मात्राकरविन्दुभिरूनमतिरिक्तं वा करोति संस्कृतं वा विधते पर्यायैर्वा विदधाति यथा " धम्मो मंगलमुक्तिष्ठ " मित्यादिस्थाने "पुन कलाणमुक्का सदयो संवर निज्जरेति" व्यञ्जनातिचारः ६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्यार . अन्निधानराजेन्डः। अश्यार प्रागमपदार्थस्यान्यथा परिकल्पनमातिचारः । यथा आचार- दये संजायते। अथवा दं मृवच्छेद्यं दोषजातं यथासंनवतो योसूत्रेऽवन्त्यध्ययनमध्ये पावन्तीके "प्रावती होगंसि विप्पमुगसं- ज्यते तद्यथा प्रत्याख्यानावरणकपायचतुष्कोदये सर्वधिरतिसतीति" यावत् केचित् लोकेऽस्मिन् पापरिमलोके विपरामश- पस्य चारित्रम्य मृवच्छेद्यं सर्वनाशरूप भवति । अप्रत्याख्यानकम्तीति प्रस्तुतेऽर्थे अन्योऽर्थः परिकल्प्यते "आवंति होश देसो, पायचतुष्कोदये तु देशविरनिचारित्रस्य अनन्तानुबन्धिकपा. तत्थ न अरहट्टकूवजा केया। घट्ट मासा पमिडियाहि, हे उत्तं यचतुष्कोदये पुनः सम्यक्त्वस्येति नियुक्तिगाथार्थः ॥ १५० ॥ सोगो विपरामुस ॥७॥ यत्र च सूत्रार्थी द्वावपि विनश्यत स नाप्यम् । तपुभयातिचागे यथा “ धम्मो मंगलमुक्किठो, अहिंसा गिरि- अइआरा छेदंता, सव्वे संजलाए हेयवो होति । मत्थए । देवा वितं नमसंति, यस्म धम्मे सया मई" "अहागडे सेसकसाओदयो मूलच्चेज क्यारुहणं ॥ २५१ ॥ सु रंधति, कठेसु रहकारो। रत्तो जत्तंसि जो जत्थ, गहनों जत्थ दीसि" ॥८॥ अयं च महीयानतिचारो यतः सूत्रा सप्तमस्थानवती प्रायश्चित्तविशेषच्छेदस्ततश्चासोचनादिना छे. र्थोभयनाशे मावाभावस्तदनावे दीवावैयर्थ्यमिति । एष चाट दान्तेन सप्तविधप्रायश्चित्तेनान्तो येषान्ते एकस्यान्तशब्दस्य विधोऽपि । ज्ञानाचारातिचारो द्विधा भोवतो विभागतश्च । स्रोपाच्चेदान्ताः सर्वेऽप्यतिचाराः संज्वलनकषायोदयजन्या न. तत्र विभागतः उदेशकाध्ययनश्रुतस्कन्धाङ्गेषु विषये प्रमादिनः वन्ति । शेषकपायाणां हादशानामुदये मूलच्छेद्यं समस्तचारिप्रमादपरस्य काातिक्रमणादिष्वष्टसु ज्ञानाचारातिचारेषु जाते. घोच्छेदकारक दोषजातं नवति । तद्विशुरुये च प्रायश्चित्त न पुषु क्रमशः क्रमेण तपोनिर्विकृतिकं पुरिमाकभक्त आचाम्सं नरपि व्रतारोपणमिति ।। च । अनागाढे दशवकालिकादिके श्रुते सद्देशकातिचारे अका अथवा यथासनवं मत्रच्छेद्य योज्यते ज्येतदेवाह । अपानादिके निर्विकातकम् । अध्ययनातिचारे पुरिमार्फम श्रुतस्क- अहवा मंजममूल-कजं तइयकलुमोदये निययं । धातिचारे एकजक्तमङ्गातिचारे आचाम्बमित्यर्थः । आगाढे सम्मत्ताई मूल-च्छेजं पुण वारमए पि ॥२५॥ तूत्तराध्ययनजगवत्यादिके श्रुते एतेष्वेवातिचारस्थानेषु पुरिमा- तृतीयानां प्रत्याख्यानावरणकषायाणामुदये संयमस्य सर्वविआदिकपणान्तमेव तपो भवति । एतद्विभागतःप्रायश्चित्तमुक्तम रतिरूपस्य भूवच्छेद्यं नियतं निश्चितं जयति सम्यक्त्वादिमुसजीत। स्था। च्छेद्यं तु द्वादशानामप्युदये संपद्यत इति । अससमारम्नप्रत्याख्याता पृथिवीसमारम्ने __ अथ प्रेयमाशङ्कय परिहरन्नाह । वर्तमानो प्रतं नातिचरात । समणोवासगस्स णं नंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे | मूत्रच्छिज्जे सिके, पुव्वं मूलगुण घागहणेणं । पच्चक्खाए जवा पुढवीसमारंने अपच्चक्खाए जवा, से इह कीस पुणो गहणं, असारविसेसणत्थं ति ॥२५॥ यादविं खणमाणे अस्मयरं तसपाणं विहिंसेज्जा से णं भंते ! पगयमहक्खायं ति य, अश्वारे तम्मि चेव मा जोए । तं वय अश्चरइ ? णो इणढे समढे नो खलु से तस्म अ तो मलच्चिजामिणं, सेसचरित्ते निग्रोए । २५४ ॥ इवायाए आरइ । समणोवासयस्स ते ! पुच्चामेव शाह नन्वनन्तरनिर्दिष्टनियुक्तिगाथायां "मुबगुणाणं संनं, न लहर मूबगुणघायिणो उदये" इत्येतस्मिन्पूर्वार्द्ध मूत्रगुणघावणप्फइसमारंले पच्चक्खाए से य पुढविं खणमाणे अय तिग्रहणेन द्वादशकषायाणामुदये मृच्छेध सिम्मेवेति किमिद रस्स रुक्खस्स मूलं चिंदेज्जा से णं नंते ! वयं अतिचरति ? पुनस्तद्ग्रहणमत्रोत्तरमाह । अतिचारविशेषणार्थमिति । अतिणो णटे सम नो खबु से तस्स अइवायाए आउट्टइ । । चाराणां विशेषव्यवस्थापनार्थमित्यर्थः । दमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह । जसवधः । (नो खलु से तस्स अश्वायाए प्राउट्टत्ति ) न (पगयमित्यादि) इदमुक्तं भवति "संजसणाणं उदए न बहर खस्वसौ तस्य त्रसप्राणस्यातिपाताय वधायावर्तते प्रवर्तते इति चरणं अहक्वायमि" त्यनन्तरनियुक्तिगाथोसराादिह यथान सङ्कल्पवधोऽसौ, सङ्कल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ । न चैवं ख्यातचारिख प्रकृतमनुवर्तते ततश्च 'सव्व विय अश्वारा संजनतस्य संपन्न इति नासावतिचरति ग्रतम् भ०७श० १० । णाणं उदयो होति "इत्येतानतिचाराननन्तरानुवर्तमाने यथा. (देवसिका अतिचाराः काउस्सग्गशब्दे) ( मूलगुणातिचारा ख्यातचारित्र एव शिष्यो योजयेत्सदेतन्मा नूसतस्तेनेह पुनरउत्तरगुणातिचाराश्च मूत्रातिचारे प्रायश्चित्तमित्यवतरणमाश्रित्य पि मूलच्छेद्यमेतद्यथाख्यातधर्जिते शेषचारित्रे सामायिकादिके प्रच्छित्तशब्द वक्ष्यन्ते) नियोजयति । अस्यां हि मुलगाथायां मूअच्छेधग्रहणात्पुनःसर्वेऽप्यतीचाराः संज्वलनकषायोदये भवन्तीत्याह। शब्दविशेषणाचायमर्थः संपद्यते संज्वलनानामुदये शेषचारित्रसव्वे वि य अइयारा, संजलणाणं तु उदयो होति । स्य सर्वेऽप्यतिचारा जवन्ति द्वादशकषायाणामुदये पुनर्मवच्छेद्य मूलच्छेज पुण होइ, बारसएहं कसायाणं ॥२५॥ जवति । यस्यैवास्यां गाथायां मूलच्छेद्यमुक्तं तस्यैवातिचारा भपि नतु यथाण्यातचारित्रस्य कषायोदयरहितत्वेन तस्य निरतिचासर्वेऽप्यालोचनाप्रतिक्रमणोजयादिध्दपर्यन्तं प्रायश्चित्तशोभ्याः । भपिशब्दाकियन्तोऽपि च अतिचरणान्यतिचाराश्चारित्र रत्वादिति गाथाचतुष्टयार्थः २५४। विशे० ३०० पत्र प्रा० विराधनाविशेषाः संज्वलनानामेवोदयतो जवन्ति । द्वादशानां म. प्रा० चू० । दर्श०॥ पुनः कषायाणामुदयतो मुलच्नेद्यं भवति । मूत्रमाष्टमस्थानवतिना सातिचारस्य चरणस्य विपाककटुकताविचारः ॥ प्रायश्चित्तेन छिद्यतेऽपनीयते यहोषजातं तन्मूलच्छेद्यम् । श्रशे सम्म वि आरियव्वं, अत्थपदनावणापहाणेणं । पचारित्रोच्छेदकारीत्यर्थस्तदेवंनूतं दोषजातं द्वादशानामन विसए अगविअव्वं, बहु मुअगुरुसयासाओ ॥६॥ न्तानुयध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसवणानां कपायाणामु सम्यक सूदमेण न्यायन विचारयितव्यमर्थपदनावनाप्रधा न ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्यार अभिधानराजेन्दः । अइरत्त नेन सता तस्या एवेह प्रधानत्वात् । तथा चिपये च स्थापयि- ये प्रतीकारविरहिता अतिचारेषु प्रमादिनो सन्यसाधवस्तेषां तव्यं तदर्थपदं कुत इत्याह यहुश्रुतगुरुसकाशान्न स्वमनीषिक | पुनस्तकम्मचरणं यथोदितं चिम्त्यं न भवतीत्यर्थः । एतदेव येति गाथार्थः। स्पष्टयति गृहीतशरोदाहरणाचगयथा ग्रेडीतो हस्तमेधावएतदेवाह। कृन्तति श्रामएयप्परामृटनरकानुपर्पतीत्यस्मादनिष्फलमजह मुहमाराणं, वनीपमुहाइफलनिआणाणं । । प्येतद्धर्मवरण व्यरूपं नणितं मनीषिनिरिति गाथार्थः। जं गुरुअं फलमुत्तं, एअं कह पमा जुत्तीए ॥६६॥ एतदेव सामान्येन अढयन्नाह। यथा सूत्रमातिचाराणां बघुचारित्रापराधानां किनूतानामि- । खुडाराणं वि अ, माइस अमुह मो फलं ने अं। त्याह । ब्रह्मप्रमुखादिफबनिदानानां प्रमुखशब्दासुन्दरीपरिग्रहः | इअरेसु अनिरयाइसु, गुरुग्रं तं अन्नहा कत्तो ॥७३॥ श्रादिशब्दात्तपःस्तेनप्रभृतीनां यद्रु फलमुक्तं सूत्रे स्त्रीत्वं कि- छातिनाराणामे वौघतो धर्मसंवन्धिनां मनुष्यादिवशुनफी ख्यिपिकत्यादिति एतत्कथं घटते युक्तया कोऽस्य विषय इति झेयं स्त्रीन्यदारिदयादि आदिशब्दात्तथाविधतिर्यपरिग्रहः। इतगाथाथः । तथा। रेषां पुनर्मदातिचाराणां नरकादिषु गुरुकं तदाप्नफलं कालाद्यसइ एअम्मि अ एवं, कहं पमत्ताण धम्मचरणं तु । शुभापदाया आदिशब्दात् क्लिष्टतिर्यक्परिग्रहः। इत्थं चैतदङ्गीअश्यारासया -ण हैदि मोक्खस्स हेउ ति ॥६॥ । कर्तव्यं तदन्यथा कुतकस्तस्य हेतुर्महातिचारान्मुक्त्वेति गाथार्थः सत्येतस्मिश्चैवं यथार्थ एवं कथं प्रमत्तानामद्यतनसाधूनां धर्म उपसंहरन्नाह । चरणमेवं हन्दि मोकस्य हेतुरिति योगः नैवेत्यभिप्रायः। कि एवं विधारणाए, सइ संवेगान चरणपरिवुट्टी। नूतानामिन्याह । अतिचाराश्रयनूतानां प्रसूतातिचारवता श्हरा मम्मुच्छिमप-णितुबया ददं होइ दोसा य ||७४।। मिति गाथार्थः ॥ , एवमुक्तेन प्रकारेण विचारणायां सत्यां सदा संवेगातोः कि___ मार्गानुसारिणां विकल्पमाह । मित्याह (चरणपरिवुहित्ति ) करणतया इतरथा खेचाराएवं च घडइ एवं, पवजिनं जो निच्छिमारं। । णामन्तरेण सम्मूर्चनजप्राणितुल्यता दृढतया करणेन असावत्यसुहमपि कुण सो खलु,तस्स विवागम्मि अरोहो । थै दोषाय नवति ज्ञातव्या प्रव्रज्यायामपति गाथार्थः। पं०व०३. एवं चघटते पतदनन्तरोदितं प्रपद्य यश्चिकित्सा कुष्ठादेरविचारं का (श्रावकवतानामतिचागः सम्यक्त्वातिचाराश्च स्वस्वस्थाने) तद्विरोधिनं किमित्याह सुदममपि करोति स खमु तस्यातिचारे यस्याष्टावतीचारगाथा नायान्ति तेनापौ नमस्कारा गण्यन्ते पर विपाकेऽतिरीमो भवति दृष्टमेतदेवं दान्तिकेऽपि प्रविष्य गाथाया उच्चासा द्वात्रिंशद्भवन्ति नमस्कारचतुष्कस्यापि तथव तीति गाथार्थः। नमस्काराएकस्य तु चतुःपष्टिरुच्चामा भवन्ति तत्कथमिति प्रअतिचारकपणहेतुमाह । भे? उत्तरं यस्याटी गाथा नायान्ति तस्याटनमस्कारकायोपडिवक्खज्मवसाणं, पाएणं तत्स खवणहेक वि। त्सर्गः कार्यते न तृच्चासमानमिति श्ये चहा०६प्र०। अतिणालोणामित्तं, तेसि ओहेण तब्जावा ॥६॥ क्रम्य स्वस्वभोगकालमुल्य चारः राश्यन्तरगमनम् अतिचारः। ज्योतिपोक्तेः भौमादिपञ्चकस्य स्वस्वाक्रान्तराशिषु नोगकालप्रतिपक्काभ्यवसानं क्लिशान्बुद्ध तुल्यगुणमधिकगुकणं वा प्रायेण मुल्लाय गश्यन्तरगमने, अतिचारस्य-" रविर्मासं निशानाथः तस्थातिचारस्य कपणहेतुरपि यहच्यापि ह्यचितादिप्रायोग्रहणं सपाददिवसद्वयम्" इत्यादिनोक्तन्नोगकाभेदो बनेन ग्रहणनालोचनामात्रम । तथाविधभावशून्यं कुत इत्याह । तेषामपि मतिशीघ्रतया अल्पकानव अाक्रान्तगशिमुपज्य राश्यन्तरब्रह्मादीनां प्राणिनामोधेन सामान्यन तद्भावादालोचनादिमात्र गमनम् । वाच॥ जावादिति गाथार्थः । एवमपत्ताणं पि हु, पक्षप्रारं विवक्खहेकणं । अश्रत्त-अतिरक्त-त्र अत्यन्तो रक्तः रक्तवर्णः अनुरागयुक्तो आमेवणेण दोसो, त्ति धम्मचगणं जहाभिहि अं॥७॥ वा अतिझोहितवणे, अत्यन्तानुरक्ते च अत्यन्तरक्तवणे,पुंण्याचा पवं प्रमत्तानामपि साधूनां प्रत्यतिचारमतिचारं प्रति विपक्कहे अतिरात्र-पुं० अतिशयिता रात्रिस्ततोऽस्त्यर्थ अच् अधिकदिने तूनां यथोक्ताव्यवसायानामासेयने सति न दोषोऽतिचारकयात् दिनवृष्टी, ते च पद तद्यथा ॥ इत्येवं धर्माचरणं यथाऽनिहितं शुद्धत्वान्मोवस्य हेतुरिति __ छ अश्रत्ता परमत्ता तंजहा चउत्ये पव्वे अट्टमे पव्वे सुवागाथार्थः। लसमे पन्ध सालसमे पव्वे वीसइमे पव्वे नन्वीसइमे पव्वे । अत्रैवेदं तात्पर्यमाह । (अत्तत्ति ) अतिरात्रोऽधिकदिनं दिनवृहिरिति यावत चसम्मंकयपमित्रारं, बहुअंपि विसं न मारए जहउ।। तुर्थ पर्व आपाढयक्रपक्क एवमिहकान्तरितमासानां कपक्वाः थो पि विवरीअं, मारइ एसोचमा एत्थ ॥७॥ सर्वत्र पाणीति, स्था०६ ग०। संप्रत्यतिरात्रप्रतिपादनार्थमाह सम्यकृतप्रतीकारमगदमन्त्रादिना बह्वपि विषं न मारयति । " तत्धेत्यादि" तत्र एकस्मिन् संवत्सरे स्खल्बिमे क्ट अतिरात्रा यथा भक्तिं सस्तोकमपि च विपरीतमकृतप्रतीकारं मारयति प्रशानास्तद्यथा 'च नत्थे पव्ये' इत्यादि इह कर्ममासमपंचय सूर्यपपोपमाऽत्रातिचारविचारे इति गाथार्थः । मासचिन्तायामकैकसूर्य परिसमाप्तावकैकोऽधिकोऽहोत्राप्राप्यते विपतमाह । तथाहि त्रिशता अहोरात्रैरेकः कर्ममासःसार्कत्रिंशता अहोरात्रै जे पमिआरविरहिआ, पमाणो तेसि पुण तयं विति।। रेकः सूर्यमासो मासद्वयात्मकश्च ऋतुः ततः एकसूर्यतुपरिसमा- . प्ता कम्ममासद्वयमपेक्ष्य एकोऽधिकोऽहोरात्रः प्राप्यते सूर्यतुमुगहिअसरोहरणा, अणिफलपं पिर्म जाणियं।७२। श्च आषाढादिकस्तत आपाढादारभ्य चनु) पर्वणि एकोऽधिको Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइत पर्वणि रात्र पर्वणि गते द्वितीयः तृतीया पञ्चमो विसतितमे धतुविशतितमे इति । अवमरात्रश्च कर्ममासद्वयमपेक्ष्य चन्द्रमास चिन्तायां चन्द्रमासा यस्तो वर्षाकालस्य श्रवणादिरित्युक्तं प्राकअ संतमारा ये चाय अपरात्रा जयन्ति तदेतत् प्रतिपादयति ॥ बचे वय असा आश्थाओ हवंति माणाहि । दच्चेव ओमरणा. पंदाहि हवंति माणा ।। १ ।। अतिरात्रात आदित्यमय किमुक्तं भवति आदिमा सानपेक्ष्य कर्म्ममा सचिन्तायां प्रतिवर्षे पट् अतिरात्रा नवन्तीति (माणादि) जानीहि । तथा पट् अवमरात्रा प्रवन्ति चन्द्रात् चचन्द्रमासमासवितायां प्रति संस षट् श्रवमरात्रा भवन्तीत्यर्थ इति (माणादि) जानीहि तदेवमुक्ता अवमात्रा अतिरात्राश्च चं० प्र० १२ पाहु० | ज्यो० | सू० प्र० ॥ अ (ति) रसिला अतिरक्तकम्बल शिला श्रीम दरपवर्तस्योत्तरस्यां दिशि वर्तमानायामभिषेकशिलायाम " दो अहरत्त कंबल सिलाश्रो " स्था० २ ठा० । भरा-चिराखी विश्वसेनभायां शान्ति जिनेन्द्रस्य मा तरि, ती० एक० । श्राव० स० । प्रव० । 66 अ (ए) रावण - ऐरावण- पुं० इन्द्रगजे, को० । अ (त) रिच अतिरिक्त ० अति-रिव-क-प्रतिशयि श्रेष्ठे मिले ये च त भेदे अतिरिमथापि यद् भवेदिति भाषाः । यस्य यावत्प्रमाणं युक्तं ततोऽधिकवे, वाच । श्राचा० । अधिके, स्था० २ ठा० १२० । अतिप्रमाणे, स० [ सूत्र० । अतिरेके, प्रश्न० सं०५ द्वा० । भाव- श्रतिशये आधिक्ये च नवाच । नि०चु० । ( ११ ) अभिधानराजेन्द्रः । अ (ति) रिवसिस अतिरिक्तशय्याशनिक धुं० अतिरिक्ता अतिप्रमाणा या सामानि च पीठका शय्या वसतिरासनानि दीनि यस्य सन्ति सोऽतरिकशासनिःस विस्थाने सातिरिकायां शय्यायां पालादिरूपायाम न्येऽपि की टिकादयः ( कार्पेटिकादयः ) आवासयन्तीति तैः सहाधिकरणत्वाद समाधिस्थानमेव सहाधिकरणसम्भवादासमायोजयतीति स० दशा० आ०० प्र० अरुमाय- अचिरोत- मित्रमुरा० प्रथमोदिते अरुग्गए वि सूरे " उत्त० ३ श्र० । श्रइरुमायसमभ्गसुणिद्धचंदद्धसंठियणिडाला " नं० । । । श्रा०० । 66 अरु प्रतिरूप पुं० अतिक्रान्तो रूपम् रूपयर्जिते परमेम्बरे, बाच० ( एतन्निराकरणमन्यत्र) भूतभेदे च प्रशा०१ पद । अ (ति) रेग अतिरेक-पुं० अति-रि-प-भेदे. प्रा 66 "" धान्ये, वाच० । श्रतिशये, जी० ३ प्रति० २३० । श्राधिक्ये, ज्ञा० १ अ० । अरेरेहंत सरिसे अतिरेकेण राजमानस्सन् सदृशः कल्प० । कर्मणि - घञ् । श्रधिकतरे, कल्प० । भति) रेगसंजय- अतिरेकसंस्थित-त्र अतिरेकेण सं स्थितं यस्य सः। प्रतिशायितया संस्थानवति, “कयली खंभा इरेगसंठिए " जी० ३ प्रति० । 66 - و'' [च] - प्रथिरे अन्य विस्वव्ययस्य न०त०] स्तोकं काले, " अचिरेण सिद्धिवासायं ०८० विशे 55 विसाया 66 - अरोस अतिशेष पुं० अतिरातिकोथे, "अहरोसो अहतोसो अरहासो बुजदि संवासो अम्भो य पेसो पंच वि गुरुयं पि लहुयं पि " ध० र० । , [ चि ] रोवबाग अधिरोपपत्रक-००० ि रजाते, श्र० ५ श्र० । अइरोहिप प्रतिरोहित-००० प्रकाशिते, स्फु श्रव्यवहिते च वाचः । अ [ति ] लोप-अतिलोप- बि० अतीय रससम्प उत्त० ११ श्र० । [ति ] वइत्ता प्रति ( व्रज्य ) पत्य-श्रव्य ० अति-पत्-व्रज्वाक्त्वा ल्यप् । श्रतिक्रम्येत्यर्थे, शा०५ अ० प्रविश्येत्यर्थे च प्रश्न० आश्र० ३ द्वा० । अ- अतिवर्तन २० उलने चाचा० १५०८५५०६४० ॥ [] - प्रतिपातिन् ० अती पा तयितुं शीलमस्य । हिंसके, सूत्र० १० ५ ० । [ति ] बाइसा प्रतिपानपि श्र० अति-पत-शीलाऽर्थे तृन् । प्राणिनां विनाशनशीले, णो पाणे श्रश्वाइत्ता भवइ G 35 स्था० ३ ठा० २ उ० । अतिपात्य-अध्य० अनि पत्या स्यप् प्राणिनो विनाश्ये त्यर्थ, स्था० ३ ठा० १३० । अवाश्यप्रतिपातिक प्रतिपतनमतिपातस्स विद्यते यस्य सोऽतिपातिकः । प्राणयुपमर्दके, सूत्र० २ श्रु० १ ० । अवाइया प्रतिपातिकां स्त्री० अतिक्रान्ता पातकमतिपातिका निर्दोषायाम्, पापाद् दूरीभूतायाम्, आचा० १ ० प्र० । [ति ] वाएमाण अतिपातयत् त्रि० प्राणिम उपमर्दयति सूत्र० १० श्र० । । अ ( ति ] वाय- अतिपात पुं० अतिपतनमतिपातः । प्रा। विभ्रंशे, रापमने सूब० २५०१० विशे, स्था० ५ ० वि नाशे, सुत्र० १० १० ० पा० । प्रतिवाद - पुं० [अत्यन्तकथने, वाच० । पुं० वेगवद्वर्षणे, प्रवास प्रतिवर्ष ० अतिशय वेगवणे, प्र०३ २०९४० अह (ति) बाहर अतिव्याप्रात शि० यप्रांत धा दिविशिष्टे, वृ० ४ ० । [ति) बिल अतिविषम० विदितागमसद्भावे, "व म्हार (ति) विज्जो णो परिसंजलिजा" श्राचा०१ श्रु०४ अ० [वि] विषय प्रतिविषय-पुं० प्रलप ट्ये, तं० । अइ [ ति ] विसाया- अति [ विस्वादा] [विषयगा] [वृषाका] [विषाचा] रिपादाखी० अतिविषादाः दावास्वात् १ यद्वा अतीत्यतिक्रान्तो गतोऽकार्थ्यकरणे विषादः कोनो यासां तास्तथा २ यद्वा अतीति भृशं विषमतिविषम् श्रासमन्ताद् ददति पुरुषाणां विरक्ताः सत्यः सूर्यकान्तावदिति अतिविषादाः ३ यद्वातीति भृशं वीति नानाविधः स्वादो ला-म्पत्यं यासां ता अतिविस्वादास्तथा ४ अतिविषयगा अतिविषयात् प्रबललाम्पट्यात् पष्ठीं नरकपृथिवीं गच्छन्ति चकब - - - - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) भइविसाया अभिधानराजेन्द्रः । अश्सेस र्तिस्त्रीरत्नवत्सुसढमातृवद्वा प्राकृतत्वात्तत्र योपेसन्धिः यद्वा | अड[ ति ] सीय-अतिशीत-वि० श्रतिशयिते शीते, स्था. अतिविषादा इष्टपुरुषाप्राप्ती स्वेन्द्रियविषयाप्राप्तौ वाऽतिवि- | ५ ठा० १ ० । तिशयितं शीतम् प्रा० स० । अत्यन्तशीतलपादोयासां ताः ६ अतिकोपादत्युग्रं विषमदन्ति नक्कयन्ति इति | स्पर्श, तद्विशिष्टे. त्रि० वाच । अतिविषादा ७ अतिवृष महत्पुण्यं येषां तेऽतिवृषारसाधवः तेषां | अइ[ ति ] सहम-अतिमहम-त्रि. अतिशयसूक्ष्म बुद्धिगम्ये, कायन्ते यम श्वाचरन्ति चारित्रप्राणहरणेनेति यद्वा अतिवृ- घो० ११ वि०। पाणां कायन्ति अग्नीयन्ति संयभग्रहज्वालनेनेति अतिवृषाका ए | अश् [ति ] सेस-अतिशेष-पुं० अतिशये, आचार्योपाध्यायद्वा अतिवृषे लोकानां पुण्यरूपमहद्वने पानृशं चायन्ते चौर यगणे पञ्च अतिशयाः। श्याचरन्ति यास्तास्तथोक्ताः १० एता दश व्युत्पत्तयः । दुष्ट. (सत्रम् ) आयरियउवज्कायस्सणं गणंसि पंच अतिसेसा स्वभावासु खीषु, तं०। अइ[ ति ] विसाल-अतिविशाल-त्रि अत्यन्तविशावे, यम पस्पत्ता तं जहा आयरियनवज्काए अंतो अवस्सयस्म प्रनशैवस्य दक्विणपाव वर्तमानायाम राजधान्याम,स्त्रोद्वी पाये निगिज्मिय निगिज्किय पप्फोमेमाणे वा पमज्जेमाणे अइ [ति] वुद्धि-अतिवृष्टि-स्त्री०अति-वृष्-क्तिन्-अधिकवर्षे, वा गाइक्कमइ । आयरियउबकाए अंतो नवस्सयस्स सशस्योपघातकोपभवविशेषे, दर्श। उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा हाइकमइ । अइस-ईदृश-त्रि० अयमिव पश्यति इदम् दृश-कर्मकर्तरि- आयरियडवज्काए पनूइच्छावेयावमियं करेजा इच्छा क्विन् शादेशो दधिः । अतांमइसः।४।३ इति सूत्रेणाप- णो करेजा । पायरियउवज्काए अंतो उवस्सयस एगराई भ्रंशे ईदृशशब्दस्य असाऽऽदेशः । एतत्तुट्ये, प्रा० । वा दुराई वा एगागी वसमाणे णाइक्कम | आयरियउवअइसइय-अतिशयित-त्रि० विशेषिते, को ज्झाए बाहिं नवस्सगस्स एगराई वा पुराई वा वसमाणे अइ (ति)संकिनेश-अतिसंक्वेश-पुं० आत्यन्तिके चित्तमा णाइक्कमइ स्या० ५ग०३ उ०। व्य० ६ ०॥ लिन्ये, पंचा० १५ विव०। आचार्यश्वासावुपाध्यायश्चत्याचार्योपाध्यायः स हि केषांचिदाअ [ति] संधाण-अतिसंधान-न० प्रख्यापने, आव० ४० चार्यः केपांचिदुपाध्यायस्तत पवमुक्तं यावता पुनः स नियमाअड[ ति] संधाणपर-अतिसंधानपर-त्रि० असद्भतगुणं गु- | दाचार्य एव तस्य गणे गणमध्ये पश्च अतिशेषा अतिशयाः प्र. णवन्तमात्मानं ख्यापयति, श्राव० ४ अ०। झप्तास्तद्यथा आचार्योपाध्यायानामुपाश्रयस्यान्तर्मध्ये पादान् प्रति संपओग-अतिसंप्रयोग-पुं० गाध्ये, " अतिशयेन निगृह्य निगृह्य तथा पादा यतनया प्रस्फोटयितव्या यथा धृतिः व्येण कस्तूरिकादिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः । अतिशय- कस्यापि कपकादेन गलति एवं शिक्वयित्वा शिवयित्वा प्रस्फोव्येण ब्यान्तरस्य संप्रयोग, सुत्र०२ श्रु० २ अ०। । टयतः प्रस्फोटको नातिकामति एष एकोऽतिशयः। यथा आचाअ [ ति] सक्कणा-अतिष्वष्कणा-स्त्री० अग्निवनविति योपाध्यायान् उपाश्रयस्यान्तरुचारं प्रस्रवणं वा विगिश्चयतो इन्धनानां समीरणायाम, नि० ०२०। व्युत्मजतो विशोधक सच्चारादिपरिष्ठापको नातिकामति पष द्वितीययस्तथा आचार्योपाध्यायः प्रचुरतो वैयावृत्यमिच्चया अइ[ति शय-अतिशय-पुं० अति-शीक अच्-आधिक्ये, अतिरेके, वाच । प्रकर्षभावे, नं० । अतिक्रान्तः शयं ह. कारयेत् न वनाभियोगतः "आणा बझाभियोगो निग्गंथाणं न कप्पए काउमिति” वचनात् एष तृतीयः। तथा प्राचार्योपाध्यास्तम् अत्या० स० हस्तातिक्रमकारके, त्रि० अतिशय-अस्त्य य उपाश्रयस्यान्तर्मध्ये एकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसेत् नातिकाथेऽन् । अतिशयवति, वाच० ( आचार्योपाध्यायादीनां तीर्थकृतां. मति नातीचारनाम्जवति एष चतर्थः। आचार्योपाध्याय उपाश्रचातिशयाः अइसेसशन्दे) यादहिरेकरात्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नातिकामति प्रत्येष सूत्रसंअ [ति] सयणाणि-[ न् ] अतिशयज्ञानिन्-पुं० अव- केपार्थः (व्य० ६ उ०) आचार्योपाध्यायस्य वसतेरन्तः पादप्रधिज्ञानादिकलिते, व्य०१ उ०। स्फोटनप्रमार्जने श्त्ययं प्रथमोऽतिशयस्तत्र भाष्यनिस्तरः । प्र[ति] सयमईयकाल-अतिशयानीतकाल-पुं० अतिश- बहिअंतो विवज्जासो, पणगं सागारिचि मुहुतं । येन योऽतीतः कालः समयः स तथा (मकरोडलाक्षणिकः ) विश्यपयं विच्छि, निरुकवसहीए यजणाए । अतिव्यवहिते काले, स० । बहिरन्तश्च यदि विपर्यासो बहिरनास्फोट्यान्तःप्रस्फोटनरूपस्तप्रश्सयसंदोह-अतिशयसंदोह-त्रि० अतिशयान संदुग्धे प्रपू. दा पञ्चकं पञ्चरात्रिन्दिवं प्रायश्चित्तमथ यहिः सागारिको धरयति यत्तदतिशयसंदोहम् । अतिशयसंदोहबद्ध, अतिशयस तते ततस्तिष्ठति मुहूर्त व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरन्तर्मुहर्समूहसंपन्ने, पो० १५ विव०। मित्यर्थः। अथैतावता कालेन सागारिको नापयाति तर्हि हितीअइसरि-ऐश्वर्य-नईश्वरस्य भावः । आइत्यादौ च ८१८ यपदमपवादपदमाश्रीयते। बहिः पादा अप्रस्फोटताऽप्यन्तर्वसते: इति सूत्रेणतः अइ इत्यादेशः । अणिमाद्यष्टविधभूतिभेदे, प्रा०। प्रविश्यते तत्रा विस्तीर्म नपाश्रये अपरिभोगे प्रदेश प्राचार्यप्रद [ ति] साइन-अतिशायिन-त्रि० ऋद्धिमत्सु, के. पादाः प्रस्फोटयितव्याः निरुकायां संकटायां वसती यत्राचार्यवलमनःपर्यायाऽवधिमञ्चतुर्दशपूर्ववित्सु,अमोषध्यादिप्राप्त- सत्कवण्टकाद्यवकाशस्तत्र यतनया यथान कस्यापिधूमिलगतीऋद्धिषु, श्राचा०२ श्रु० ३ चू० । त्येवंरूपया प्रस्फोटयितव्याः । एष द्वारगाथासंकेपार्थः। अइमिरिहर-अतिश्रीभर-पुंगअतिशयिते श्रीभरे,(शोभासमूह) . सांप्रतमेनामेव विवरीषुरिदमाह ॥ " प्राइसिरिभरपिल्लणविसप्पंतकंतसोहंतचारुककुहं " कल्प०।। बाहिं अपमजते. पणिणं गणिणो उ सेसए मासो। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्सेस अभिधानराजेन्द्रः। अइसेस अप्पमिलेह दुपेहा, पुच्चुत्ता सत्त नंगा न॥ विपुलाए अपरिभोगे, अप्पणो वासए वविधस्स । भाचार्यः कुलादिकार्येण निर्गतः प्रत्यागत उत्सर्गेण तावद्वसन् एमेव निक्खुयस्स वि, नवरिं वाहिं चिरयरं तु ।। वसतेबहिरेव पादान्प्रस्फोटयति प्रत्युपेक्वते प्रमार्जयति चेत्यर्थः। यदि विपुला वसतिस्तर्हि तस्यां विपुलायां वसतावपरिभोगे यदि पुनर्निष्कारण बहिः पादान स्फोटयति तदा बहिरप्रमार्जने अवकाशे आचार्येण स्थित्वा पादाः प्रस्फोटयितव्याः। अथ संकगणिन प्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं पञ्चकं शेषके साधौ बहिः पादान् टा वसतिस्तर्हि य श्राचार्यस्य प्रात्मीयो वएटकाद्यवकाशस्तत्र अप्रमार्जयति लघुको मासः प्रायश्चित्तम् । तस्मात् बहिः पादान् एर्यापथिकी प्रतिक्रम्योपविष्टस्य पादाः प्रमार्जनीयास्ते च कुश. प्रस्फोट्यान्तः प्रवेष्टव्यं तत प्रस्फोटनं विधिना कर्त्तव्यम्। सचा. लेन साधुना तथा प्रमार्जनीया यथा अन्ये साधवो धृल्या न सं विधिः प्रत्युपेक्वते ततः प्रमार्जयति । प्रविधिः पुनरयं न प्रत्युपे- वियन्ते । यथा श्राचार्यस्योक्तमेवं निकोरपि व्यं नवरं यदि कते न प्रमार्जयति ॥ १ ॥न प्रत्युपेक्वते प्रमाजयात ॥ २ ॥ बहिर्वसतेः सागारिकस्तिष्ठति ततश्चिरतरमपि कानं प्रतीकेत प्रत्युपेकते न प्रमार्जयति ॥ ३ ॥ प्रत्युपेकते प्रमार्जयति च ॥४॥ यावचनसागारिको व्यतिक्रामति । यदि पुनर्निभुर्वसतबहिः साअत्रायेषु त्रिषु भनेषु प्रत्येक प्रायश्चित्तं मासिकं चतुर्थे नङ्ग गारिकाभावेऽपि पादावप्रस्फोट्य वसतेरन्तः प्रविशति तदा तस्य भङ्गाश्चत्वारस्तद्यथा दुष्प्रत्युपेकते दुषमार्जयति ॥१॥ पुष्प- प्रायश्चित्तं मासलघु ॥ क्युपेकते सुप्रमार्जयति ॥२॥ सुप्रत्युपेकते दुष्प्रमार्जयति ॥३॥ निगिजिकय पंमज्जाहि, अभयंतस्सेव मासियं गुरुणो । सुप्रत्युपेक्वते सुप्रमार्जयति ॥४॥ अत्र चतुर्थो भङ्गः शुद्धः पायरयक्खमगादी, चोयग कज्जागते दोसा ।। शेषेषु तु त्रिषु भङ्गेषु प्रत्येक प्रायश्चित्तं पञ्चरात्रिन्दिधम् पत यदि बहिः सांगारिक इति कृत्वा वसतेरन्तः पादाःप्रस्फोटयिदेवाह ॥ अप्रत्युपेवणे उपत्रकणमेतत् अप्रमार्जने च । तथा तव्यास्ततः संकटायां वसतौ पादान प्रमायितुमुरस्थित सापुष्पेक्तायामत्राप्युपश्नकणं झेयमिति दुष्प्रमार्जनतायां च पूर्वो धुमाचार्यो ब्रूते आर्य ! निगृह्य पादान्त्रमार्जय । किमुक्तं. भवति काः कल्पाध्ययनोक्ताः सप्त भङ्गाः। तत्र चोक्तःप्रायाश्चत्तविधिः। तथा यतनया पादान् प्रमार्जय यथा पादधूल्या न कोऽपि साधुयहि अंतो विवज्जासो, पणगं सागारिय असंतम्मि ।। वियते । अथैवं न व्रते तत एवमभणतो गुरोः प्रायश्चित्तं मास सागारियम्मि उ चने, अत्यंति मुहत्तगं थेरा। रघु। तथा पादरजसा कपकादयः खरण्टन्ते तथा सति वत्ययदि सागारिके असति अविद्यमाने बहिरन्तर्विपर्यासो नवति माणाः दोषाः । अत्र चोदक आह आचार्यः कस्मादहिगच्छति। बहिरनास्फोट्यान्तः प्रस्फोटयतीत्यर्थः तदा गणिनः प्रायश्चित्तं सूरिसह कार्यागते कार्येषु समापतितप्वगत दोपास्तस्माच्चपञ्चकम् । अथ सागारिको बहिस्तिष्ठति सोऽपि च चबधतो ति । अधुना “ पायरयक्खमगादी" इत्येतत् व्याख्यानयति ॥ नाम मुद्दतमात्रेण गन्ता तस्मिन्सागारिके चले तिष्ठति मुहर्तका तवसोसितो व खमगो, हिमवतो व कोवितो वा वि। मल्पार्थे कप्रत्ययोऽस्पं मुहूर्त किमुक्तं जवति सप्ततावातिमात्र सप्तपदातिक्रमणमा वा कालं स्थविरास्तिष्ठन्ति । मा भणखमगादी, इति सुत्त निगिज्झिए जयणा ।। थिरविक्खित्ते सागा-रिय अणुव उत्ते पमज्जि पविसे । तपसा शोषितस्तपःशोषितः कपकस्तस्य त्वरूपेऽप्यपराधे निविक्खि तुवउत्ते, अंतो अपमज्जणा ताई ।। कोपो जायते ततः स प्राचार्यपादप्रमार्जनधृल्या विकीर्णः कुपि तो नवेत् कुपितश्च सन् नरामनं कृत्वा अन्यत्र गच्छेतू प्रविशत् स्थिरो नाम यत्रावस्थायां ध्रुवकमिको व्याक्तिप्तः कर्मणि प्रतिपद्येत वा । अथवा कोऽपि ऋद्धिमान् वृद्धो राजादिः प्रवकर्तव्ये व्याकुत्रस्तद्विपरीतोऽध्यातिप्तः । उपयुक्त श्राचार्यान् जितः स पादधूल्याऽवकीर्णो रुष्टः सन् नएमनादि कुर्यात् । हा निरीकमाणस्ताविपरीतोऽनुपयुक्तः । तत्र स्थिरे व्याकितेऽ. कोपितो नाम शककः कोऽपि रुष्टः प्रतिपद्येत तस्मात्कपकादि. नुपयुक्त 'सागारिके विद्यमाने बहिः पादान प्रमृज्य प्रविशत् माभिराम कादिति सूत्रेनिगिज्जिय निगिकियेत्युक्तमस्याप्यस्थिर निर्व्याक्तिले उपयुक्ते बहिः सागारिके सति वसतेरन्तः यमों यतनयेति । प्रमार्जना पादानाम् । अथाचार्यस्य पादाः किं स्वयमेवाचार्य संप्रति " चोयग कजागते दोसा" इति व्याख्यानयति ॥ ण प्रस्फोटयितव्याः नतान्येन साधुना तत प्राह । आजिग्गहियस्म अमति, तस्सव रोहरेण अम्पायरे । थाणे कुप्पति खमगो, किं चेव गुरुस्म निग्गमो भणिता। पाउंछणुमिपणव, पुस्मति य प्राणानुत्तणं ॥ भाइ कुनगणकज्जे, चेइ यनमणं च पव्वेमु ॥ केनापि साधुना अनिग्रहो गृहीतो वर्तते यथा मया आचार्यस्य स्थाने कुप्यति कपकस्तथा हि स पादधल्या अवकीर्यते ततो बहिर्निर्गतस्य प्रत्यागतस्य पादाःप्रस्फोटयितव्या इति स यद्य मा कोपं कार्षीत् । किं चैवं गुरोराचार्यस्य निर्गमः केन कारणेन स्ति तर्हि तेन प्रमार्जनायोपस्थातव्यं तत्र चाचार्यस्यात्मीयमन्य भणितस्तत्कारणमेव नास्ति येन कारणेन बहिराचार्यस्य निर्गदौर्णिकं पादप्रोचनकमन्येन साधुना पादप्रमार्जनेनापरिनुक्तं ते मनमाभाचार्य प्राह भायते अत्रोत्तरं दीयते ।कुबकायें उपलक्षनाचार्यस्य पादान् प्रस्फोटयति । अयाभिग्रहिको न विद्यते तत णमेतत् सङ्घकार्ये च बहुविधे समापतिते तथा पर्वसु पाक्तिश्राभिग्रहिकस्यासत्यनावे अन्यतरेण तस्यैवाचार्यस्य रजोहरणे कादिषु चैत्यानां सर्वेषामपि नमनमवश्यं कर्तव्यमिति हेतोन आणिकेन वा पादप्रोञ्चनकनानन्यनुक्तेन पादान् प्रोयति । इचाचार्यस्य वसतेयहिर्निर्गमनम् ॥ पुनश्चोदक आह॥ यदि पुनरव्यापृतोऽपि निष्कारणमाचार्यस्य पादाम्न प्रमार्जयति तदा मासबघु । अथामायेन रजोहरणेन पादानकेन वाऽन्य जति एवं निग्गमणे. जणाति तो बाहि चिट्ठिए पुंछ। पादप्रमार्जनतः परिनुक्तेन प्रमार्जयति तदापि मासलघु । यदि वुच्चति बहि अत्यंते. चोयग गुरुणो मे दोसा ।। बहिर्वसतः सागारिकस्तिष्ठतीन्याचार्यस्य पादा न प्रस्फोटिता- चोदको नणति यदि एवं कुलादिकार्यनिमित्तमाचार्यस्य मिर्ग. स्तहि वसतेरन्तः प्रविपस्थ प्रस्फोटनीवास्तत्रायं विधिः । मनं ततो निर्गमने सति प्रत्यागतो यदि वसतेबहिःसागारिक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्सेस अभिधानराजेन्धः । असेस स्ततस्तावहिस्तिष्ठतु यावश्चासागारिको व्युत्क्रान्तोनति ततो क्यान्तो विनयेन पारणके वुलुक्कातः प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति न बहिरेव पादान प्रस्फोट्य वसतेरन्तः प्रविशतु एवं च सति कप- | तु भुते अद्यापि नालोचितमाचार्येण च न रष्टमिति कृत्वा । कादिदोषाः परित्यक्ता भवन्ति । आचार्य आह उच्यते उत्तरं परितावअंतराया, दोमा होति अभुंजागे । नण्यते हेचोदक ! गुरोराचार्यस्य वसतेबहिः तिष्ठत श्मे नंजणे अविणादीया. दोसा तत्थ भवति य ।। वक्ष्यमाणा बहवो दोषास्तानेवाह ॥ एवं तपकस्य विक्लिटतपसा क्लान्तस्य प्रतीकणेनानीजने महा. तएहण्हाविअनाविय, वुढा वा अत्थमाणपुच्चादी। । न् परितापो भवति अन्तरायं चोपजायते । अथ शुक्रे तर्हि नोविणए गिलाणमादी, साहू सन्नी पमिच्छतो ॥ जने तत्राविनयादयो विनयः प्रतीत आदिशब्दाददृष्टाद्यनाकुलादिकार्येण निर्गत आचार्य उष्णेन भाविते तृष्णा जायते तत-| नोचितभोजने अदत्तादानदोषपरिग्रहो दोषा भवन्ति । स्तृष्णानिनूतो वसतिमागतो यदि बहिर्वसतेः प्रतीकते यावत्सा ग्लानमधिकृत्याह । गारिकोऽपगच्चतिततस्तृष्णया उष्णेनादिशब्दादनागाढागाढप. गिलाणस्सोसहादी उ, न देंति गुरुणो विणा। रितापनापरिग्रहःपीमिते मूळ जायते । आदिशब्दात वसतिप्र. ऊपाहिय व देज्जाहि, तस्स वेझा तिगच्छति । विष्टस्सम् प्रचुर पानीयमापिवेत् । ततो नक्ताजीर्णतया ग्लानत्वं न. ग्वानस्यौषधादिकं साधवो गुरुणा विना न ददति । श्रादिशवेदित्यादिपरिग्रहस्तथा वृद्धा उपलकणमेतत् बालशैक्कासहाया ब्दात भोजनपरिग्रहः । यदि वा छनमधिकं वा बघुस्तस्य दयश्चाचार्ये तिष्ठति प्रतीक्षन्ते तेच प्रतीकमाणाः प्रथमाद्वितीयप च ग्लानस्थाचार्य प्रतीकमाणस्य वेलातिगति। रिपहाभ्यां पीमितामूर्गद्याप्नुवन्ति तथा स्त्रान श्रादिशब्दात् क संप्रात "साहसम्मी" इति व्याख्यानयति । पकादिपरिग्रहस्ते विनयेन प्रतीकमाणा नोजनमकुर्वन्त औषधादिकं च गुरुणा विना अवनमाना गाढतरंम्बानत्वाधाप्नुवन्ति । पाहुणगा गंतुमणा, बंदिय जो तेसि नएहसंतावो । ' तथा साधवः केचित्पाघुर्मका गन्तुमनसस्तथा संझिनः पारणयपमिच्छते, सके वा अंतराय तु ।। श्रावका अष्टम्यादिषु कृतजक्ताः पारणके भिक्षायामदत्तायाम प्राघूमकाः केचित्साधव आगतास्ते गन्तुमनसस्ते यद्याचार्यपारयन्त आचार्य प्रतीकमाणास्तिष्ठन्ति तत्र साधनां दिवसो मबन्दित्वा अनापृच्छय गच्छन्ति ततोऽविनयादयो दोषास्ततः गरीयान् चढात तत्र चोष्णादिपरितापना दोषाः । संझिनां प्रतीकमाणास्तिष्ठन्ति आचार्यश्चिरेण वसतिं प्रविष्टस्तावद्दिवस चान्तरायमित्येष गाथासंकेपार्थः॥ आ समन्तात्ततोऽभवत् ततो गुरुंवन्दित्वा बजतां य उष्णसंसांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतः “तएहुएहादिअभाविय" तापस्तेषां स प्राचार्यनिमित्तकस्तथा श्राके अपम्यादिषु पर्वश्त्येतद् व्याख्यानयति सुकृताभक्त पारपके प्राचार्य प्रतीकमाणे अन्तरायं कृतं भवति। उपसंहारमाह । ताहुएहलावियस्स, पडिच्चमाणस्स मुच्चमादी य । जम्हा एते दोसा, तम्हा बाहिं चिरं तु वसहीए । खछादिए गिलाणे, मुत्तत्थविराहणा चेव ।। गुरुणा न चिट्टियवं, तस्स न किं दोस होते य ॥ प्राचार्यः स्वरूपत उष्णेन भावितः क्वचित्कदाचित्प्रयोजनव यस्मादेते दोषास्तस्मात् गुरुणा न वसतेहिश्चिरं स्थातव्यं शतो बहिर्गमनात् ततः कुत्रादिकार्येषु निर्गतस्तृष्णाभिनूतो वसतिमागतोऽपि यदि साग़ारिकमपगच्छन्तं यावत्प्रतीक्षते निक्षुणा पुनश्चिरमपि स्थातव्यं यावश्चलसागरिको न प्रयाति ततः प्रतीकमाणस्य तृष्णया उणेन च तापितस्य मूळदयो ततो बहिः पादान्प्रमृज्यान्तर्वसतेः प्रवेशव्यम् । अत्र चोदक भवन्ति आदिशब्दादागाढादिपरितापनापरिग्रहस्तथा वसति आह तस्व निकोः किमेते अन्तरोदिता दोषा न भवन्ति । प्रविष्टोऽतीव तृष्णाभिनूतः खस्य प्रचुरस्य पानीयस्या - आचार्य श्राइ । दानं ग्रहणं कुर्यात् प्रचुरं पानीयं पिवेदित्यर्थः । ततो नक्ता अणेगवहुणिग्गमणे, अब्लुट्ठएनाविया य हिंडंता । जीमतया ग्बानो नवेत् तस्मिश्च ग्लाने सूत्राथपरिहाणि- दस विह वेयावच्चे, सग्गामे बहिं च वायामो । विराधना च तस्याचार्यस्य स्यात् सानत्वेनाचार्यों नियेते- सीउएहसहा निक्खा, न य हाणी वायणादिया तेसिं । तिनावः । अथवा सूत्रार्थपरिहाण्या अजानतां साधूनां ज्ञाना गुरुणो पुण ते नत्यी, तामकितो य खेयमे ॥ दिविराधना स्यात् । सूत्रार्थानावतो जानन्तः साधवा ज्ञानादिविराधनां कुर्युरिति नावः । अनेकैः कारणबहूनां निर्गमनमनेकबहुनिर्गमनं तस्मिन् तथा गु दीनामयुत्याने प्रासनप्रदानादौ च तथा निकार्य हिराममाअधुना “वुधावेति" व्याख्यानार्थमाह । ना जाविता व्यायामितशरीराः । यदुक्तमनेकैः कारणैर्बहुवारं वुलासहसेहादी, खमगो वा पारणे विनुक्खुत्तो । निगमनं तत्रकारणान्याह दशावधवैयावृत्त्यानमित्तं स्वग्रामे बहिः चिट्ठइ पमिच्छमाणो, न भुजेण लोइयमदिर्से ।। परग्रामे अनेकवारमनेकधा व्यायामोऽभवत् तथा शीतोष्णसहा वृक्षा वयोवृद्धा असहाः प्रथमद्वितीयपरीषहान् सोदुमसम भिकवो न च तेषां निक्षणां वाचनादिका वाचनादिविषया हार्थाः शकका आदिशब्दात् ग्लानाश्चाचार्य प्रतीकमाणास्तिष्ठन्ति निर्गुराः पुनरनेके बहुनिर्गमनादयो न सन्ति ततस्तृष्णाद्यध्यासितेच तथा तिष्ठन्तस्तृष्णादिभिःपीमिता मूर्छाद्याप्नुवन्तिमानस्य तुमसहिष्णव आचार्या वसतेबहिः सागारिके तिष्ठति लघु वसच गाढतरं मानत्वमुपजायते । यदि पुनरागतमात्र एव वसती | तेरस्तः प्रविशन्ति ततः खदझेन कुशलेन पादान् प्रमार्जयन्ति । प्रविशति ततो यथायोगं वृक्षादीनामकालदीनं संपद्यते इति इदानी भिक्षोरपि द्वितीयपदापवादमाह । न कश्चिद्दोषः अधुना " विनयगित्राणादि" इत्येतद्वयाख्यानय--1 धुवकम्मियं व नाउं, कजेणोण वा अणतिपानि । ति (समगो वा इत्यादि) कपको वा कोऽपि विलिऐन तपसा अनक्खित्तानतं, न उ दिक्खति बाहि भिक्खं वि ।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अभिधानराजेन्द्रः । इसस यसहि सागारिक कमिक वा लोहकारादिकमन्येन वा कार्येणान्यमपि सागारिकमनतिपातिनमिच्छन्तं तथा श्रभ्याक्षिप्तमायुक्तं च ज्ञात्वा भिक्षुरापे बहिनदीक्षेत न प्रतोकिन्तु वसतिं प्रविश्वात्म्यावकाशे वतनयाऽधमः पादरी प्रमार्जयेत् । प्रथमोऽतिशयो गतः । श्राचार्योपाध्यायस्य श्रन्तरुपाश्रयस्य उच्चारप्रस्रवणत्यजननामा द्वितीयो ऽतिशयः संप्रति द्वितीयं विभाषाविषुरिदमाह । वहिगमणे चगुरुगा, आणादी वाणिए यमिच्छत । परिणमणाभोगे, खरिगुहमरुए तिरिक्खादी | आचार्यो यदि विचारभूमिं बहिर्गच्छति ततः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः श्राशादयश्च दोषाः । तथा "पाणिए य मिच्छिसमिति" यणिजे अभ्युत्थानं पूर्वकृतं भवति पश्चादकुर्बति केषाञ्चिन्मिथ्यात्वमुपजायते इयमत्र भावना आचार्य सं शाभूमिं भजन्तं ततः प्रत्यागच्छन्तं च दृङ्गा वणिजो निजनिजा पणे स्थिता अभ्युत्थानं कृतवन्तस्तं च तथा वणिजां बहुमानेनाभ्युत्थानं दृष्ट्वा केचिदन्ये मन्यन्ते गुणवानेष श्राचार्यो येन वणिज एवभेनमभ्युपतिष्ठन्ति तस्मादस्माकमपि पूज्य इति तेऽपि पूजयन्ति । यदा त्वाचार्यः कदाचित् द्वौ वारी संज्ञाभूमें व्रजति तदा चतुरो वारान् गमने प्रत्यागमने चोत्थातव्यं ते चालस्यं मन्यमाना श्रभ्युत्थातव्यं भविष्यतीति कृत्वा श्राचार्य वाsन्यतो मुखं कुर्वन्ति तांश्च तथा कुर्वतो दृष्ट्वा अभ्ये चिन्तयन्ति नूनमेष प्रमादी जातो शातो. पे गुणवानपि यदीदृशः पतति तर्हि न किञ्चिदिति ते मिध्यात्वं गच्छन्ति । तथा श्राचार्य लोकेन पूज्यमानं दृष्ट्वा मरुके ब्राह्मणस्य मारगवख्या प्रतिचरणं भवति । ततः संज्ञाभूमिं गतं विजने प्रदेशे मारयेत् तथा खरमुख नपुंसक दासी या प्रापयित्योद्वाहं कुर्यात् श्रनाभोगेन वा चनगहने प्रचिऐ निर्वगादी गर्दभ्यादौ कुलादौ च प्रविष्ायामात्मपरोभयसमुत्था दोषाः एष गाथासंक्षेपार्थः । संप्रति " वाणिए यमिच्छत्तमि " त्येतद्विभावयिषुराह । सुपि परिवार परिहाले । दुद्वाण निगमम्मिय, हाणी य परमुहाम्रो । संज्ञाभूमिं बजाते ततः प्रत्यागच्छति वा तस्मिन्नाचार्ये श्रुतवाने परिवारवांश्चेति मन्यमाना श्रन्तरा निजनिजापणेषु स्थिता परिजोऽभ्युत्थानं कृतवन्तः तेषां चोरथाः लोकस्य च भूयान् बहुमान ग्रासीत्। कदाचिदाचायों ही वारी संज्ञाभूमि बजेत् ततो द्विस्थाने निर्गमने चतुरो वारान् गच्छति प्रत्यागच्छति चोत्थातव्यं ततस्ते श्रालस्यं मन्यमाना अभ्युत्थानस्य हानिं कुर्वन्ति ते च हानिमभ्युत्थानस्य चिकीर्षवोऽभ्युत्थातव्यं भविष्यतीति कृत्वा तमाचार्य दृष्ट्वा परमुखा भवन्ति श्रस्वतोमुखं कुर्वन्तीति भावः । अथवा अवर्णः स्यात्तथाहि द्वी वारी संज्ञाभूमिं व्रजन्तमाचार्य दृष्ट्वा ते वदन्ति नूनमेष श्रा चार्यो द्वौ बीन्वारान्समुद्दिशति तेन द्वौ वारौ संज्ञाभूमिं याति । गुणवंतु जो वणिया, पृयंत से वि सम्मुहा तम्मि । परियं चि अण्डा, हि नियती अनिमुहाणं ॥ शिजां बहुमानेनाभ्युत्थानं रद्दा फेचिदन्ये चिन्तयन्ति । गुधानाचार्यो यतो सिजः पूजयन्ति एवं चिन्तय येतस्मिन्ायै सम्युक्षा भवन्ति वारद्वयाने ब जिमनुष्याने से चिन्तयान्ट मुनभेय आचार्यः पहितः कथ अइसेस मन्यथा वणिजः पूर्वमभ्युत्थानं कृतवन्तो नेदानीम् । तथा च सति तेषामभिमुखानां द्विविधा निवृत्तिस्तथा ये धावकत्वं प्रहीतुकामा ये च तस्य समीपे मजनुकामास्ते विन्तयन्ति यद्येोऽपि प्रधानो शाता कुशीलवं प्रतिपद्यते तर्हि नूनं सर्व जिनवचनमसारमिति मन्यमानाः श्रावकत्वाद्रतग्रहणाद्वा प्रतिनिवर्तन्ते मिध्यात्वं गच्छन्ति । संप्रति " पडियरणमणाभोगे ” इत्यादि व्याख्यानयन्नाह । आउट्टो त्ति व बोगे, पडियरिओ उन्नमारए मरुगो । खरिया, लोफेड तिश्विखसंगहणं ॥ गुणायानाचार्य इति कृत्या सर्यो लोक आचार्यस्यावृतोऽभ यत् प्रणतोऽभूत् चिरजातीयानां केषांचित्पापीयसां तथा पुजामाचार्यस्य दृष्ट्वा महामत्सरो भवेत् मात्सर्येण संक्षाभूमिगतमाचार्य प्रतिवर्य छन्ने प्रदेशे मरुको ब्राह्मणः कोऽपि जाविताद्वापरोप्य गर्त्तादिषु प्रच्छन्ने प्रदेशे स्थगयेत् । तथा खरिकामुखी दासी नपुंसकं वा प्रलोभ्य तत्र प्रेष्य संग्रहं कुर्यात् यथा मैथुनमेव सेवमानो गृहीतस्तत उड्डाहः स्यात्तथा अनाभोगेनाचाय बनादि पिलमपकाशं संज्ञान्युत्सर्जनाय प्रविष्टः स्या उत्तत्र च (तिरिक्खत्ति ) तिर्यग्योनिका गर्दभ्यादिका पूर्वगता पश्चाद्वा प्रविष्टा भवेत् तां च केचित्प्रत्यनीका दृष्ट्वा उड्डाहं कुर्युः । मूलगाथायां यदुक्तं (तिरिक्खादीति ) तनादिशब्दव्यास्पानार्थमाह । आदिग्गहसा उग्गा, मिगाव तट अतिथिगा वावि । अहवा व दोसा हवा मे वादिमादी व ॥ श्रादिग्रहणादुद्धामिका कुलटा तथा अन्यतकिा या परिगृहाते सा तस्मिन् गहने पूर्व गता पश्चाद्वा प्रविष्टाऽभवत् । तत्र चात्मपरोभयसमुत्था दोषाः संग्रहणादयश्च प्रागुक्ताः । अथवा इमे वक्ष्यमाणा अन्ये वाद्यादयो दोषा भवन्ति । तानेव संजिघृशुर्दारगाथामाह । वादी यादी, सुतत्वाणं च गच्छपरिहाणी । यावस्सगदितो, कुमार अकरंतकरंते य ।। वादिदfosकादयो वादिदण्डिकादिविषया बहवो दोषास्तथा सूत्रार्थानां गच्छस्य परिहाणि अथवा सूपार्थानां परिहा निर्गच्छेच ज्ञानादीनां परिहाणिस्तथा आवश्यकमुच्चाराध श्यकं कुर्वप्रकुर्वेध कुमारो दृष्टान्तः । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः सांप्रतमेनामेव विधरीषुः प्रथमतो वादिद्वारमाह । मागतो तिपिट्टे, ज्यातिसारो नि चेति परवादी | मा होदी रिसिया, नथामि अलं विवाण | कोऽपि परमवादी बहुश्रुताचार्य लोकपूजितं तेन संवादं करिष्यामीत्यागतो भवेत् आचार्य संज्ञाभूमिं तदा मतरतेन चागतेन पती पृएं क आचार्यः साधुभिः कथितमाचार्याः संज्ञाभूमिं गता एवं श्रुत्वा स परप्रवादी ब्रूयात् स मम भयेन पलायितो यदिवामम भयेनातीसारो जातः। श्रथ. वा मा भवत्येषां हत्येति व्रजामि श्रलं पर्याप्तं विवादेन । अधुना "दण्डियमादीति " व्याख्यानयति । चंदगरेका सरिसं आगमणं एवं इडियंताणं । , पव्वज्जावजगदादिगुणाण परिहाणी || यथा इन्द्रपुरे इन्द्रदास्य राशः सुतेन कथमपि पुत्तलिकाक्षिचन्द्रकस्य वेधः कृतस्तत्तदर्श " काकाक्षीवत् " राक्षः Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अइसेस ऋद्धिमतां चान्येषामाचार्यसमीपे आगमनं श्राचार्ये च संज्ञाभूमिं गते दण्डिकादिरागतो भवेत् ततः संज्ञाभूमि गतवा चार्य इति श्रुत्वा प्रतिनिवर्तन्ते यदि पुनः संज्ञाभूमि न गता श्राचार्या भवेयुस्ततो धर्मे श्रुत्वा कदाचित्ते प्रव्रज्यां गृह्णीयुः प्रत्रजितेषु च राजादिषु महती प्रवचनप्रभावना । तथा श्रावकत्वं केचित्कदाचित्प्रतिपद्येरन् यथा भद्रका वा भवेयुस्तथा च चैत्यसाधूनां महानुषग्रहः संज्ञाभूमिगमने चैतेषां गुणानां हानिः संप्रति " सुत्तत्धा व गच्छे परिहारणी "इत्येता ध्यानार्थमाह ॥ सुत्तरथे पारहाणी, बीपारं गंतु जा पुणो एति । तत्येव य वोसरणे, सुत्तत्येसुं न सीयंत ॥ विचारं विचारभूमिं गत्वा यावत् पुनरेति तावत्सूनार्थपरिभावना संज्ञाभूमिरे भवेत्सूजपोरुष्यामपौरु यां चार्द्धकृतायामाचार्यः संज्ञावान् ज्ञातस्ततो गतः संज्ञाभूमि तत उद्घाटयां पौरुष्यामपीरुष्यां कालवेलायां समागतस्ततः सूतार्थपरिहाणिः तद्भावाच्च शिष्याः प्रातीच्छि कागजन्ति ततो गच्छस्यापि परिहास्तव पुनरुपाश्रये संज्ञाया व्युत्सजने सूत्रार्थेषु साधवो न सीदन्ति । श्रत्र चावश्यकं कुर्वन्नकुर्वन् कुमारो दृष्टान्तः ॥ एयमेव भावयति । तीरगए ववहारे, खीरगते होंति तदिह नहाणे । कोसरस हाणि परचम्पेर अपत्ये ॥ कुमारस्याssस्थाने समुपविष्टस्यार्थिनः प्रत्यर्थिनश्च व्यवहारेोपस्थितास्तेषां चोतरोत्तरेण व्यवहरतां व्यवहारस्तीरं गतः परं नाद्यापि समाप्तिमुपयाति तस्मिश्चासमाप्ते व्यवहारे सति राजकुमारः संज्ञावान् जातस्तत उत्थाय संशाभूमिं गतः सच यात्रायाति तायदर्शिनः प्रत्यर्थिनखेदसंयोगा विदेकीभूतास्ततो राजकुमारस्य प्रत्यागतस्य ते भवते वर्ष परस्परं स्वस्थीभूताः एवं सदा सर्वत्र समस्तादपि लक्षादिप्रमाणाद् दण्डायपदात् परिभ्रष्टास्ततः कोशस्य हानिजता नां च ज्ञात्वा परचमूः परवलमागच्छेत् तया च राज्यस्य प्रेरणमेोऽप्रशस्ते दृष्टान्तः । प्रशस्ते पुनर्दृष्टान्तः स्वयं भावनीयः । स चायं प्रथमत एवावश्यकमुच्चारादेः कृत्वा आस्थाने समुपविशति उपविशे यदि संज्ञावान भवति ततः प्रदे प्रच्छन्ने शेव्युत्सजैति एवं तस्य कुर्वतः प्रभूतं प्रभृततरं दण्डायपदं जातं तथा च सति कोशस्य महती वृद्धिस्ततः परवलस्य प्रेरं राज्यान्तरसंग्रहः । एष दृष्टान्तो ऽयमर्थोपनयः । य श्राचार्यो बहिस्संक्षाभूमिं व्रजति तस्य प्रागुक्तप्रकारेण सूत्रार्थप-र्शनः रिहाणिस्तत्परिहाण्या गच्छस्यापि परिहाणिः शिष्याणां प्रातीच्छुकानां चान्यत्र गणान्तरे गमनात् । यस्तु तत्रैवोपाश्रये व्युत्सुजति तस्य न किचिदपि परिहीयते इति सर्व सुस्थम् । एतदेवाह । वेलं सुत्तत्थाणं, न जंजए दकियादिकरणं वा । अमयकोसे, पुच्छा पुरा सोहणा विशए ॥ यथा वयमेवं प्रामादीनामन्तरपि सुवार्थानामपरि टाणिनिमित्तंसिकानामागतानां म्या निमि पायस्यान्नी येन सूत्र श्रयेा न जनक्ति, नापि दक्षिकादीनामागतानां धर्मकचनं विष्यति। पूर्वमेव योगयोगः संज्याः किं मम संज्ञा वे असेस न वा । तत्र यदि शङ्का तदा कृतावश्यकेन सूत्रपौरुष्यामर्थ पारुष्यां सूत्रार्थप्रदानाय पनि दासितव्यं यावदश्यमुत्येयं भवति किन्त्वग्रे । श्रत्रार्थे निदर्शनमेक आचार्य आवश्य कं शोधयित्वा तिष्ठति दसिमका धम्मंश्रवणार्थमागत प्राचार्येण धर्मकथा प्रारब्धा स च धर्म्मकथाक्तितो राजकुमारो धर्म्म 'एवअभीक्ष्णमभीक्ष्णं कायिकीव्युत्सृजनायोत्तिष्ठति श्राचार्यस्य प्रच्छन्नो मूत्रकोश: समर्प्यते प्रच्छन्नं कायिकीमात्रकं साधवः समर्पयन्ति तत्र कायिकी व्युत्सृजति ततो विनये लोकोतरिके बलवति राज्ञः पृच्छा श्राचार्यस्य कथनमेतदेव वि भावयिषुरिदमाह ॥ 9 निदाहारो विछ असई उहेमिनेस कहते । पासगतो तं (सा) मतं वत्यंतरियं पणामे || राजा चिन्तयति मम स्निग्ध आहारस्तथाऽपि कायिकत्गांय पुनःपुनरुतिष्ठामि। आचार्यस्तु कथयन कक्षाहारोअपि कायिकव्युत्सर्गायनोत्तिष्ठति नूनं मध्ये य एष श्राचार्यस्य पार्श्वे स्थितः क्षुल्लकः स तत्कायिकीमात्रं प्रच्छन्नं वस्त्रान्तरितं प्रणमयति समर्पयति तत्र कायिकमाचार्यो व्युत्सृजति एतच्च यदि पृच्छयते तर्ह्यविनयः कृतो भवति तस्मादुपायेन पृच्छामीति विचिन्त्वेदं पृच्छति ॥ त्रिणओ लोडपलोड सरी ततां गंगा । कोही अचलतो, नणिति नित्रं आगिति जता || राजा सूरिमापृच्छति भगवन् ! कि लीफिको विनय बली यान् अथवा लोकोत्तरिकः । श्राचार्येणोक्क्रमयमर्थः परीक्षतां परमेव ज्ञायते लोकोसरको वियो बलीयान तत्र परीक्षा कर्तुमारब्धा श्राचार्येणोक्तं यस्तच दृष्टिप्रत्ययो यं वा कृत्वा त्वं जानासि न एष विनयभ्रंसी तं प्रेषय | यथा ततो कुनोमुखी गङ्गा वहतीति ज्ञात्वा निवेदय । राजा य आकृतिमान् यश्च दृष्टप्रत्ययस्तं प्रेषयति व्रज कुतो - मुख गङ्गा वहति सोऽचलन् तत्रैव स्थितो नृपं भणति यथा पूर्वमुखी गङ्गा वहति लोकोऽप्यन्य एतत् जानाति । तत आचार्यो भूते मम शिष्याणां मध्ये यं त्वं विषमकरणनाशादिनिर्विषमं जानासि । उक्तञ्च " विषमसमै विषयसमा विषमेषमाः समैः समाचाराः। करचरणवदननासा कर्णोष्ठनिरीक्षखैः पुरुषाः " विषमत्वाच्च विनयभ्रंसं करिष्यतीति तं प्रेषय | रापर्य सतो एसओ प्रमो समणो । पच्चागय उस कार्ड आलोय गुरुणो || पत्रमाचार्यों के राशा यो विषम करचरणादिना अविननदश्रमणः प्रदर्शित एष व्रजतु कया दिशा गङ्गा वहतीति श्राचार्येण संप्रेषितः स श्राचार्यानापृच्छ्य तत्र गत्वा ततः प्र स्वागत्यैपथिक्याः कायोत्सर्ग कृत्वा गुरोः दुरत आलोययति कथमित्याह । " यादिवदिमा लोयण-तरंगता माझ्या य पुच्त्रमुही | मोटो दिसाए मा होउ हो जो तब ॥ भगवन्! शुष्मत्पादानापृच्छयाहं गङ्गातटं गतस्तत्र च गत्वा सूर्य नियतवान् यत आदित्यादिग्विभागः सम्याए यमादित्यदिगालोचनं कृतं तथा तरस्तृणादीनि पूर्वाभिमुखा न्यूयमानानि पानि तत्र कदाचिहिमोटोऽपि स्थानमा दिग्मोह इत्यन्योऽपि जनस्त्रिसंख्याकः पृष्टः सोऽपि तथैवाह यथा पूर्वाभिमुख गङ्गा बहतीति । एतच राज्ञा प्रत्ययि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) अइसेस अनिधानराजेन्द्रः। अइसेस कप्रच्छन्नपुरुषैः परि (भावित) भावापितं तैरपि तथैव कथितम् | रोति यथा यदेतदौत्पातिकमुपशाम्यति अविघ्नोत्तरामि च ततो राजा प्राह । ततोऽनयाईयोमणिरत्नयो मणिमरयो जिनप्रतिमे कारयिवहवंधनेयमारण-निविसयधण वहारलोगम्मि । प्यामि एवमौपयाचितिके कृते देवतानुभावेनौत्पातिकमुपभवदंडो उत्तरितो, नच्हमाणस तो वलितो ।। शान्तमविघ्नं समुद्रोत्तरणमभूत् स चोत्तीर्मः सन लोभेन एक स्मिन्मणिरत्ने एकां जिनप्रतिमां कारयति ततो देवतया द्विलोके योऽस्माकमाज्ञां भनक्ति तस्य वधं लकुटादिप्रहारैस्ता- | तीये मणिरत्ने द्वितीया जिनप्रतिमा कारिता तथा चाह । देवम चन्धं निगडादिभिश्छेदं कर्मच्छेदादिकं केषाञ्चित् मारणं विनाशनमपरेषां निर्विषयकरणमन्येषां धनापहारं कुर्म ताच्छन्देन ततो जाता द्वितीयेऽपि मणिरत्ने प्रतिमा स्तथाऽपि केचिदस्माकमाज्ञां भञ्जन्ति । लोकोत्तरेषु पुनरेषां तो भत्तीए वणितो, मुस्सस ता परेण जत्तेणं । भजनामेतानि न भयानि सन्ति तथाऽपि परेण प्रयत्नेन लो ता दीवएण पमिमा, दीसंतिहरा न रयणाई ॥ कोतरिका श्राक्षां कुर्वन्ति तत्र किं कारणमाचार्य श्राह "भ- | ततः कारापणानन्तरं ते प्रतिमे वणिको भक्त्या परेण यत्नेवदंडो" इत्यादि पश्चाई यस्तीर्थकरगणधरादीनामाज्ञां भनक्ति न शुधृपते ततः तयोश्च प्रतिमयोरिदं प्रातिहाय ते प्रतिम यानस्य परभवे हस्तच्छेदनादीनि भवन्ति एष लोकोत्तरे भव- वद्दीपकः पाचे ध्रियते तावद्दीपन हेतुना प्रतिमे दृश्येते इ. दण्डः अस्माद्भतिस्य साधोरुत्सहमानस्य स्वशक्त्यनिगूह- तरथा दीपकाभावे सप्रकाशे अपि प्रकाशमणिरत्ने दृश्यते ॥ नेनोद्यमं कुर्वतो विनयो वलीयान् । एवं लोकोत्तरिको वि- सोऊण पामिहरं, राया घेत्तृण सिरिहरे मुहति । नयो वलिकः। मंगनभत्तए तो, एति परेण जत्तेण ॥ अत्रैवापवादमाह। इदमनन्तरोदितं प्रातिहार्य राजा तौसलिकः श्रुत्वा ते प्रतिवितियपयं असतीए, अमाए नवस्सय व सागारो। मे स्वयमेवात्मीयश्रीगृहके भाण्डारे क्षिपति मुञ्चति ततो न पवत्तति सन्ने वि, जे य समत्था समं तेहिं ।। मङ्गल बुद्धया भक्त्या च परेण यत्नेन ते पूजयति । यस्मिश्च कुपहादीनिग्गमणे, नातिगभीरे अपञ्चवायाम्म । दिवसे ते प्रतिमे श्रीगृहमानीते ततः प्रभृति राक्षः कोशादि घु वृद्धिरुपजाता । ततः श्रीगृहसदृश श्राचार्य इत्युक्तं तत वोसरियम्मि य गुरुणा, निसिरति महंतदंडधरा ॥ एवं दृष्टान्तभावना कर्तव्या यथा राजा श्रीगृहं प्रयत्नेन रक्षद्वितीयपदमपवादपदमधिकृत्य संशाभूमिमाचार्यों व्रजेत् । यति एवमाचार्योऽपि रक्षणीयस्ततः कथमत्र मणिमयप्रतिमातदेव द्वितीयपदमाह । उपाश्रये च पश्चात्कृते संशाभूमिर्नास्ति भ्यां दृष्टान्तभावना कृता उच्यते ॥ ततस्तस्या असति बहिब्रजेत् । (अमाएत्ति) यत्र न ज्ञायते मंगलमत्त अहिया, उपन्जइ तारिसम्मि दचम्मि । एप प्राचार्यस्तत्रापि बहिबजेत् । श्रथवा उपाश्रये सागारिको विद्यते ततो बहिर्याति कस्यापि पुनरुपाश्रयस्य पश्चात्कृते वि रय गग्गहणं तेणं, रयणब्नतो तहारतो ।। धमानेऽपि संज्ञा न प्रवर्त्तते सोऽपि बहिर्याति एतैः कारण- श्रीगृहे द्रविणं रक्षणीयं मणिमयप्रतिमयोः पुनविणमप्यहिर्गमनम् तत्र ये समस्तरुणाः साधवस्तैः समं याति । तत्र तिप्रभूनमस्ति मङ्गलवुद्धिश्च तत्रापि परमतीर्थकरभक्तिश्चेति । पानि कुपथादीनि कुरथ्यादीनि तैर्गन्तव्यं तैर्गच्छतोऽपि प्रायः प्रयत्नेन रक्षणे त्रीणि कारणानि तथा चाह । मङ्गलं मङ्गलपूर्वोक्ता दोषा न भवन्ति । तत्रापि यन्नातिगम्भीरं नातिविषम बुद्धिर्भक्तिश्चाधिका तादृशे द्रव्ये समुत्पद्यते ततो रत्नग्रहणं मप्रत्यवायं प्रत्यवायविरहितं तत्राचार्यः संज्ञां व्युत्सृजति । यथा ते रत्नप्रतिमे कारणत्रयवशाद्विशिष्टेन प्रयत्नेन रक्षेते येषां च सहायानां हस्ते महान्तो दण्डकास्ते महादराडधरा शुश्रृप्यते च तथा शिष्यैराचार्यः प्रयत्नेन रक्तकणीयः शुश्रूषणीयश्चतसृष्वपि दिक्षु संरक्षणपरायणास्तिष्ठन्ति व्युत्सृष्टे च गु श्व । अथैवमाचार्ये रविते शुश्रूपिते च को गुण इत्यत आह । रुणा पुरीषे ते महादण्डधरास्ततस्तरन्ति कस्मादेवं रक्षा पूयंति य रक्खयंनि य. मीसा सव्वं गणिं सया पयया । क्रियते इति चेत् कुलस्य तदायत्तत्वात् उक्तश्च" जम्मि कुलं इह परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा ॥ प्रायत्तं, तं पुरिसं पायरेण रक्खाहि " इत्यादि कथं पुनः स गणिनमाचार्य शिष्याः सर्वे सदा प्रयताः प्रयत्नपराः पूजयरक्षितव्य इत्यत श्राह। न्ति शुश्रूपन्त च यस्मात्तत्पूजने आचायपूजने श्ह लोके परलोके जह राया तोसलिओ, मणिपमिमा रक्खए पयत्तण। च गुणा भवन्ति श्ह लोके सूत्रार्थ तभयमुपयाति परलोक तह होइ रक्खियव्यो, सिरिघरसरिमो य आयरितो ।। सत्रार्थाच्यामधीताज्यां झानादिमोकमार्गप्रसाधनम् । अथवा यथा राजा तोसलिको मणिप्रतिमे च प्रयत्नेन रक्षति तथा पारझोकिका गुणा: "पायरिए बेयावञ्चं करमाणे महानिजंर मभवत्याचार्यो रक्षितव्यो यतः श्रीगृहसरश एष आचार्यः । हापज्जवसाणे भवति" इत्येवमादयः। गता द्वितीयोऽतिशयः । अथ के ते प्रतिमे इत्यत आह । संप्रति तृतीयमाह "इच्छगए पढ़ वेयावमियं करेज्जा" इत्येवरू पमतिशयमभिधित्सुगह। पडिमुप्पत्ती वाणिय, उदाहिप्पातो उचायणं भीती। जेणाहारो उ गण), मवालबुकस्स हो गच्चस्स । रयाणपुगे जिणपडिमे, करेमि जइ उत्तरे विग्यं ।। तो अतिसेसपनुत्तं, इमेहिं दारेहिं तस्स भवे ।। उप्पानवममनुत्तर-मविग्यए एक्कपकिम वा।। यन कारणेन गण। प्राचार्यः सबालवृद्धस्य गच्छस्याधारस्तदेवयदंदेण ततो, जाया वितिए वि पडिमा तो॥ तस्तस्य भवत्यतिशेषप्रभुत्वमतिशायिप्रनुत्वं तश्वेभिर्वक्ष्यमा प्रतिमयोरुत्पत्तिर्वक्तव्या सा चैवमेकस्य वणिजः समुदं प्रव गारैरवगन्तव्यम् । तान्येबाद । हनावगाढस्योत्पात उपस्थितः । ततः स औषयाचितिक क- | तित्ययरपवयणे नि-जरा य सावेक्खनत्तिवोच्छेतो। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८ ) अइसेस अन्निधानराजेन्डः। अइसेस एएहिं कारणेहिं, अतिसेसा होति आयरिए । न्ता भवति । तथा मेढीभूत प्राचार्यस्तस्मिन् भिक्षामटति आचार्यस्तीर्थकरस्तीर्थकरानुकारी तथा सूत्रतोऽर्थतश्चाधी शिष्याणामात्मद्वाराभावात् प्राघूम्पकादीनां वात्सल्यकरणानाती प्रवचने तथा तस्य वैयावृत्यकरणे महती निर्जरा भवति । वः । तथा अकारकं चेत् अव्यं बनते तस्य जोजने म्यानत्वमतथा शिष्याः प्रातीचिका श्रात्मानुग्रह घ्या सूरेयावृत्त्यं कुर्व नोजने परिष्ठापनिकादोषः। तथा भिक्षामटतो ब्यानःश्वादिरुपमनः सापेक्ता भवन्ति सापेक्वाणां च नूयान झानादिलानो मह तिष्ठेत तत्र चात्मविराधनादोषस्ततो गणचिन्ता । तथा वादी ती निर्जरा इतरे त्वकुर्वन्तो निरपेवास्तेषां महान्संसारस्तथा कोऽपि समागतः स च भिक्षागतमाचार्य श्रुत्वा हीलयत जक्तावाचार्यस्य क्रियमाणायां सकलस्यापि गच्चस्याग्रह कर उडाई वा कुर्यात् । तथा ऋझिमान् समृद्धः प्राचार्यो नवतीति णातीर्थस्याव्यवच्छेदः कृतो नवति । एतैः कारणैराचार्यस्य सू न स हिरामापयितव्य इत्येष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । त्रोक्ता अतिशेषा भवन्त्यन्ये च वक्ष्यमाणा इति द्वारगाथासंके सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो धातद्वारमाह ॥ पार्थः । सांप्रतमेषा व्याख्या। तत्र प्रथमं तीर्थकरकल्पद्वारं व्या भारण वेयणाए, हिंडते नच्चनीयसासो वा । ख्यानयति॥ वाहुकडिवायगहणं, विसमाकारेण सूलं वा ।। देविंद चक्कवट्टी, मंडलिया ईसरा तलवरा य । भारेण भक्तभृतनाजननरेण वेदना जवति । तथा कोऽपि अभिगच्छंति जिणिंदे, ते गोयरियं न हिंडंति ।। ग्रामो गिरौ निविष्टो भवेत् तत्र च कानिचित् नीचस्थानानि जिनेन्द्रा जगवन्त उत्पन्ने झाने देवेन्जाः शक्रप्रनृतयश्चक्रवर्ति तानि भारेण वेदनायां सत्यां हिण्डमानस्य श्वासो भवति तथा न उपयक्कणमेतत् यथायोगं च वलदेवाश्च तथा माएमलिकाः कटेश्च वातग्रहणं जवति । तथा ग्रामे विषमाकारेण व्यवस्थिते कतिपयममलप्रनव ईश्वरास्तलवराश्चाभिगच्छन्ति । ततोऽपि यत्र तत्र वा तिर्यक्शरीरं कृत्वा गच्छतः शूलं वा नवेत् । ते गोचरचर्या न दिएमन्ते ॥ अच्चुएहतावितो उ, खचदवाददीय ग्रहणाई य । संखादीया कोमी, सुराण निच्चं जिणे उवासंति । अप्पियणे असमाही, गेलले सुत्तभंगाद।। संसयवागरणाणि य, मणसा वयसा व पुच्छंते ।। तथा अत्युष्णेन परितापितः सन् खद्धं प्रचुरं वं पानीयमसंख्यातीताः सुराणां कोटयो नित्यं सर्वकालं जिनान् तीर्थकृत तितृषित आददीत। तथा परितापनावतः पुनः पुनः पानयिमा. उपासन्ते तथा सततं मनसा वचसा च पृच्चगति सुरादिके पिबेत् तथा चाहारपानीयेन प्लावितः सन् न जीर्यत अजरमनसा वचसा च संशयव्याकरणानि करोति । ततो भिकां न णाच्च गर्दनं वमनं नवेत आदिशब्दात् आहाररुचिर्नोपजायते । हिएमन्ते । अथवा पानीयं प्रभूतं न पिबति ततोऽसमाधिः । आहाररुची नप्पएणणाणा जह नो अडंति, च पुनर्मोजने बानत्वं ग्लानत्वे च सूत्रनङ्गः सूत्रपौरुषीभक्तः चोत्तीसबुछातिसया जिणिदा! श्रादिशब्दादर्थपौरुषीभङ्गश्च । गतं वातद्वारम् । एवं गणी अगुणोववेतो, अधुना पित्तद्वारमाह ॥ सत्या व तो हिंमद इमिं तु ॥ बहिया य पित्तमुच्ग, पमणं उपहा वा वि वसहीए । यथा उत्पन्न झाने जिनेन्डाइचतत्रिंशत् बद्धातिशयाः सर्वमा आदियणे छट्टणादी, सो चव य पोरसीनंगो।। तिशया देहसौगन्धादयो येषां ते तथा भिक्कां न दिएमन्ते । एवं सष्णेन परितापितस्य चित्तप्रकृतेर्बहिः पित्तमूविंशतः तपतीर्थकरदृष्टान्तेन गणी आचार्योऽएगुणोपेतोऽष्टविधगणिसं- नं भवेत् । तथा च सति भक्तभृतभाजनसहितस्य नहाहः ।वपउपेतः शास्ता श्च तीर्थकर श्व ऋद्धिमान न हिएकते ॥ सतौवा पित्तमूर्छावशतः पतनं तत्र प्रनूतजलपानानन्तरमपि गुरुहिंडणम्मि गुरुगा,वसभे लहुया न निवारयंतस्स । प्रचुरजलादान तथा च सति त एव ईनादयः प्रागुक्ता दोषाः स एव सूत्रपौरुष्या अर्थपौरुष्याश्च भङ्गः । गतं पित्तद्वारम् ॥ गीतागीते गुरुलहु, प्राणादीया बढ़ दोसा ॥ अधुना गणालोकद्वारमाह ॥ प्राचार्य भिक्षामटामीति व्यवसितं यदि वृषभो न निवारयति आलोगो तिमि वारे, गोणीण जहा तहेव गच्छे वि । तदा तस्यानिवारयतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । अथ नटुं न नाहिंति नियद-दीहसोही निसिज्जं च ॥ वृषभेण निवारितोपिन तिष्ठति तर्हि वृषन्नः शुद्धःप्राचार्यस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। तथा गीतार्थो भिक्षुश्चेन्न निवारय यथा गोपालस्तिसृषु वेवासु गवामाबोकं करोति । तद्यथा ति तदा तस्य मासगुरु अगीतार्थस्य भिक्षोरनिवारयतो प्राक प्रसरन्तीनां मध्याहे गयासु स्थितानां विकासवेलायांमासलघु । आचार्यस्य गीतार्थागीतार्थाज्यां वारितस्याप गृहं प्रत्यागच्छन्तीनां यदि न करोति तदा न जानाति काचिगमने प्रत्येक चतुर्गुरु । प्राज्ञादय श्मे वक्ष्यमाणा बहवो नष्टा का वा गतेति एव माचार्येणापि तिसृषु वेवासु गच्छेदोषास्तानेवाह । प्यालोकः कर्तव्यः । तद्यथा प्रातमध्याह्न विकालवेलायां च तत्र यदि प्रातरावश्यके कृते गणालोकं न करोति तदा मासलघुनिवाते पित्ते गणालोए, कायकिलेसे अचिंतया। क्षावलायां द्वितीयं वारं गणाझोकमकुर्वतोमासलघु तृतीयं वारं मेदी अकारगे वाले, गणचिंता वादिशहियो ।। विकावेसायामध्यकुर्वतो मासलघु । तत्राचार्यो यदि भिक्षां शिक्षामटतो वातो वा प्रकुपितोभवति तथा अत्युष्णपरितापेन नाटयति तदा तिसृषु वेवासु गणालोकं कर्तुं न शक्नोति भिक्षापित्तमुक्तिी भवति । तथा गणस्य गच्छस्य भिक्षाटनपरि- मटन् कथं कुर्यात् गणालोके चाक्रियमाणे इमे दोषाः । कोऽपि श्रमत पालोकः कर्त्तव्यो न भवति । तथा भिक्षाटने काय-| साधुनो भवेत् स च नष्ट इति ज्ञात्वा प्रत्यानीयते गणालोके क्लेशो जवति तस्माच सूत्रार्थपरिहाणिस्तथा सुत्रार्थयोरचि- पुनरकृते नष्ट इत्येव न ज्ञायते । तथा भिक्काचर्यागमने का स Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) अभिधानराजेन्द्रः | इस निवृत्तः को वा नेति न ज्ञायते । तथा गणाचीके अक्रियमाणे को कालं भिकाचर्य करोति को वा नैति केन ज्ञायते । शाभिकामाचा निहायत आगनानामालोचनाय का शोपिं करोति तथा भिक मानेकोऽपि गृहप बाहयात ज्ञायते ॥ सो वहां, करेज्ज भिक्खानसा व प्रत्येज्जा । ते तिसंगालोगं, सिस्ताण करे अत्यंतो || मात्याचायें ये श्रावश्यकर्तव्या योगास्तेषां यः प्रमादतो हानि करोति स न ज्ञायते तथा श्राचार्य एवास्माकं निकामानेष्यतीति केचित् निकाला बसतावेव तिष्ठेयुर्न निकाम युत एवं गणलोकेऽक्रियमाणे हमे दोषास्तस्मात्तिसृष्यपि संध्यासु शिष्याणामालोके तिष्ठन् निकामदमराममानः करो ति । गतं गणालोकद्वारम् ॥ अधुना कायदाद्वारमा | हिंडतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छूपरिहाणी | नासेहिति हिंडतो, सुत्तं प्रत्यं च प्राणं ॥ दिएमा महान कार्यक्रेश इति तोति ) परिश्रान्तो भवति परिश्रान्तत्यात्सूत्रमर्थ इति शिष्येषु प्रि केषु च सूत्रार्थानां परिहाणिस्ततो गच्छस्यापि परिहाणिः शि व्याणां प्रातीविकानां चान्यत्रान्यत्र गणान्तरे संगमात् । तथा दिएरमानः सुमचे वारेकेणापसात्मनो नाशविष्यति । गतं कायफ्रेशद्वारम् । इदानीं चिताद्वारमाह । जा आससि तो खेयं च जाव परिणे । तात्र गतो सो दिवसो, नसर्त दाहिती किं वा ।। यावद्भकामर्थयित्वा कणमात्रमाश्वस्य मुङ्क्ते मुक्तोऽपि च खेदं भिकाउनपरिश्रमं यावत्प्रतिनयति स्फोटयति सायसः सकनोऽपि गतस्ततो नास्ति सा वेला यत्र सूत्रस्यार्थस्य वा चिन्तां करोति प्रति विस्मृतिमुपयाति ततो नरमृतिः कदा स्थति न किमपीति भावः । वाशब्दो दूषणसमुच्चये । एतदेव सुभ्यक्तं नावयति ॥ " एगा नात्य दिवसतो, रपि न जन्गते सम्पातो । नय अगुदिन न दिन संकितो हतो || नास्ति को विविऽवसरो दिवसमध्ये यत्र सूत्रमर्थ वा चि न्तयति रात्रावपि समुद्वातः सम्यक् परिश्रान्तो न जागर्त्ति । न सूत्रमर्थ या भगुणशिया दीयते यदि पुनर्दीयते तर्हि विधा तः सूत्रतोऽर्थतश्च शङ्कितो भवति । तं चिताद्वारम अधुना मेदिद्वारमा। मेढीभूते बाहिं, मुंजण आदेसमाइ आगमणं । बिए गिलाणमादि अत्यंत मेदिसंदेसा ॥ आचार्यः सर्वस्यापि गच्छस्य मेढी जूतः मेदिरिति वा आधार इति वा चक्षुरिति वा एकाथै स चेद्भिकां गच्छति ततः साधूनां बसतेर्बदिर्यदृच्छया नोजनं स्यादेतदनन्तरमेय नावयिष्यते तत एवं ज्ञायते केचिदादेशाः प्राघूर्णका आगच्छेयुरादिशब्दास्केचिदाधिका लब्धिपरिही नास्ततस्तेषामादेशादीनामागमनं ज्ञात्वा कः प्राघूर्यकानां विश्रामणं संदेशं वा कुर्यात् ॥ को या परिहीनानां पद्मास्ति तस्य दानं प्रार्धकानामितरेषां वात्सल्याकरणे विनयो न कृतः स्यात्तथा ग्लान इस स्यादिशब्दात् वासहायानां च कः संदेशप्रदानेन चिन्तां कुर्यात् तिष्ठति निकामाचायें मेढे संदेशादादेशात सर्वमादेशादि सुस्थं भवति । संप्रति "बाहि रंजना "सद्भावयति ॥ आदाय वा कस्स करेहासु कं च छंदेमां । आयरिए य अडते, को अस्थि न मुच्छहे अन्नो || शिष्याः प्रतीकारय मित्रां प्रविष्टान्तियन्ति सुरि निक्कार्थ निर्गतो भविष्यति ततो वयं संप्रति प्रतिश्रयं गत्वा कस्य पुरतः आलोचयिष्यामः कस्य या भक्तं पानं वा दर्शयिध्यामः कं चान्यं साधुं तत्र गताइबन्दयामो निमन्त्रयामो यतो निकामटत्याचार्ये कोऽन्यः साधुः स्थातुमुत्सहते सर्वोऽपि - कां पातीति भावस्तथाहि सर्वे साधवो निकामटवायें चिन्त यन्ति यदि स्वयमाचार्यों भिकां हिएकते काऽस्माकं शक्तिः पश्चात् स्थातुं वयमपि यास्यामः । एवं सर्वस्यापि गमने निमन्त्रणाऽपि कस्य स्यादिति विचिन्त्य बहिरेव समुद्दिश्य वसतावागच्छेयुरिति । गतं मेदिद्वारम् ॥ इदानीमकारकद्वारमाह ॥ णिक्कासिते अकारगम्मि, दव्वे पकिसेहणा हवति दुक्खं । नियंतणे, खिंसणवावारणा दुखं ॥ निकामटत आचार्यस्य यदकारकं तस्य तत् जिकार्थे निष्काशितं तस्मिन् अकारके इच्ये भिकार्य निष्कासिने प्रतिषेध ममैतद कारकमन्यद्देही ति वक्तुं लज्जितो भवति दुःखं यदि पुनजां मुक्वा जर्णाति तदाऽनन्तरं वक्ष्यमाणा गाथाद्वयोक्ता दोपास्तथा भिकामटत्याचायें राझ मत्तवारणक स्थितेन दृष्टस्तत श्राकारयित्वा प्रणितो मम गृहे निकां गृह्णीत स प्राह न कल्पते राजपिएक इति एवं निमन्त्रणानन्तरमग्रहणे राज्ञा नष्यते साधो! किं तब समस्ति ततो दर्शितप्रान्तादि के पासिका दौ च राजा तत् वा खिसनं कुर्यात् । तथा श्राचायsaब्धिको प्रवेत स चेत् वानादिनिमित्तं शिष्यान् प्रातीच्छिकांच व्यापारयेत् तथा खानादीनां योग्यमानयेति ते चालब्धिकं ज्ञात्वा परिभवमुत्पादयन्तीति तेषां व्यापारणे दुःखमेवंति धारगाथासमासार्थः । सांप्रतमेनामेव विमुक्त्वा अकारकद्रव्यप्रतिषेधने दोषास्तानेचा ॥ जेणेव कारणां सीसमियं मुंडियं देते | घरवास विहु न मुंडिया ते कईि जीहा ॥ येनैव कारणेन हेतुना भदन्तेन गुरुणा तव शीर्षमिदं मुएिकतं तेनैव कारणेन तव जिहाऽाप बढ्नगृहनिवासिनी मतदा रकमन्यदेहीति ब्रुवाणा कथं न मुऐिकता येनैवं भाषते यथा । गयभागमम्मि लोए, सीसा वि तहेब गस्स गच्छति । सयमेव जिम्मा संसेस्सिती केण ॥ गतागतोऽयं स्वनावतो लोकः पितृस्वभावं पुत्रोऽनुकरोतीति नावः ततो गतागमेऽस्मिन् लोके यथाऽऽचार्यों गच्छति चेष्टते शिष्या अपि तस्य तथैव गच्छन्ति वर्त्तन्ते त्वं च स्वयमेवेत्थं दुष्टजिद्धस्ततः केन प्रकारेण शिष्पान्विनेष्यसि शिवियसि व कथञ्चनेति । ततस्तेऽपि त्वत्सदृशा भविष्यन्तीति । पमिसेदंतमजोगं, मस्स वि दुबई हवइ निक्खं । सद्धार्भगचिव, निम्भादोसो यो य ॥ अयोग्यमकारकं प्रतिविध्यमानं महान्तमगुणं करोति के Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) निधानराजेन्द्रः । अइसेस are astraगुण इत्याह अन्यस्यापि साधनं भवति नैके नैते यद्वा तद्वा गृहन्तीत्यदानात् । तथा अकारकस्प प्रतिषेधने कस्या अपि महत्या (अ) निस्ततस्तादणी संप्रति यक्तं राजनिमन्त्रणाग्रहणसिंसनमिति तत्र तदेव खिसनमाह । श्रकाया भङ्गः अपरस्या पुर्वि दत्तदाणा, अकोविया इह उ संकलिस्संति । काऊ अंतरायं, नेच्छेति वि दिज्जंते !! प्रदर्शिते राजा पूर्वमतदान यंत इडाकोविदा तत्वज्ञाः सन्तः क्लिश्यन्ते । तथाच राजपिण्ड इत्यन्तरायं कृत्वा इमपि दीयमानं नवन्तो नेच्छन्ति । सेहजा, अर्जुज चेत्र मासिवं लनुयं । मेवमादय ।। अकारकस्य ग्रहणे सति यद्यन्यैः साधुभिः प्रतिषिध्यमानोऽपि ते तदा वानत्वमथ न भुके तदा अभोजने पारिष्ठापनिकादोषस्तत्र च प्रायश्चित्तं मासिकं लघु । तथा यद्याचार्योऽलअमोल या कापि गतो लनते रिक्तमेतस्यान्त्रार्यत्वम् । वावारिया गिलाणा-दिया (गेएहह) जोग्गंति ते तत्र ति तुमने कोम न गेल्डर, हिताओ चैत्र । आचार्यो विधीनः सन् शिष्यान्प्रातीचित्रकांश्च व्यापारयेते यथादनांना योग्यं गृह एवं चारिताः सन्तो युवते यूयं स्वयमेव हिममाना जानादिप्रायो म्यं कस्मान्न गृह्णीत । परिभवो वेंति व दसति प । भाणेह नामा, खियंती एवमादीहिं ॥ पवमुपदर्शितेन प्रकारेण श्राज्ञायाः परिजव उत्पाद्यते यथा यदि यूयं प्रायोग्यं न लभध्ये वयं कथं लप्स्यामहे एवमुक्ते याद्यावायव्रते श्रार्या उद्यमेन किं न लभ्यते तत एवमुक्ते रुष्टा ते दृश्यते जे भवतां प्रातिहार्य सातिशयमाचार्यत्वं स्वयमवखलु जानतः कस्मान्नानयत एवमादिनिरुच्चावचैर्वचनः खिंसयन्ति हालयन्ति । गतमकारकद्वारम् । व्यालद्वारमाह । वाय माणसादी, दिनो तत्थ होति उ झोजे य आजिआगो, विसे य इत्यीकए वा वि ॥ भिकामटतोयाभूतिकमिति तदा महत्यभ्राजना तत्र दृष्टान्तश्वत्रेण यथा बत्रमुपरि प्रियमाणं शोजअधः पतितं तु न किमपि एवमाचार्योऽपि बहुभिः परिवारि तो गच्छन् शोभते तथा भिकाटनप्रवृत्तस्तु श्वादिपरिगृहीतो न किमपि । तथा प्रतिरूपवानाचार्यो भवतीति लोभेन गाथायां समी तृतीयार्थे नियोगो वशीकरण स्त्रीकृतं स्यात् । विषं वा केनचित्प्रविन दीयेत । एतदेवोत्तरार्ध व्याचिख्यासुराह । मां समस्या, बद्धं रुच नयां कुसिया । तिकमणिरुवो, सो पुणमध्ये व ते सत्तो ॥ युवतिकमनयिरूपतयाऽनीकदोष संभावनया अन्यथा ब नानायकं कुखिनामोचथितुं समस्तेषां ता अइसेस रातिकमनीय रूप सिके नापि दोषेण बकान् रुद्धान्या मोचयितुं शक्तस्ततो यथा सप्रयत्नेन रयते एवमाचार्योऽपि रक्षणीयो ऽन्यथा दोषस्तथा चाह । मेवारिस वि, दोमा परूिववं च सो होइ । सो, अभिजांगवीकरणमादी || यमेव नर्त्तकस्याचार्यस्याप्यरकृितस्य दोषा नयन्ति । तथाहि सोऽपि प्रतिरूपवान् भवति ततः कोऽपि निद्युपासको जिनप्रवचन नावनामसहिष्णुर्विषं दद्यात्स्त्री वा काचिपलुन्धा अभियोगं कुर्यात् वशीकरणादि वा प्रसुति यस्मादेते होपास्त स्मात्प्रयत्नेन रऋणीयोऽन्यथा तदभावे गणस्याप्यभावापतिस्तथा चाह । नचीणा वनडा, नायगढ़ीणा च रूपिणी वावि । वक्कं व तुंमहीणं, न हवति एवं गणो गणिणा ॥ यथा नर्त्तन |ना नटा यथा नायकही ना रूपवर्ती स्त्री यथा व चक्त्रं तुएकहीनं न भवति एवं गणिनाऽऽचार्येण विना गणोऽपि न भवति तदेवं व्यालद्वारं गतम् । इदानीं गणचिन्ताद्वारमाह । लाभाला काणे, अकारके बालवृमादेसे । मेहखमए न नाहिति, चिडतो नाहिति न सन्चो ॥ केन पयल केन वा न यमिति न हास्यति स्वयं भिकाटने परिश्रान्तत्वात्तथा अध्वनि मार्गे ये परिश्रान्ताः समागमनप्राघूर्णकाः तेषामिदं वाऽकारकं तथा बालान् वृकान् पूर्वान् गतांचादेशान् प्राघूर्णकान् तथा शैक्कान् कपकांश्ध करणं यसाराकरणतया न ज्ञास्यति । स्वयं भिक्षापरिभ्रमणपरिश्रान्तत्वात् तिपुनः सर्वान पथकयेन ज्ञास्यति परिश्रमानावात् । गर्त गणचिन्ताकारम | अधुना वादिद्वारमाह । सोऊण गर्न सति, पाय वादिपेक्षेइ । अति सत्यचित्ते, न होंति दोसा तवाद। य ॥ भिकामदितुं प्रवृत्त आचार्ये वादी कोऽपि समागतस्तेन साधव उक्ताः क्व आचार्याः साधुनिरुक्तं भिकाटनाय गतस्ततः स निहार्थं गतं श्रुत्वा खिसति दीलयति एतावत्तस्य पाणिमत्यं स स्वयं जिकामदति । ततः कणमात्रं प्रतीक्तिः स चाचार्य उद्धान्तः समागतस्तं समागतं दृष्ट्वा वादी प्रेरयति । स च परिभ्रान्तस्वास दातुमसमर्थस्तिति पुनः स्वस्थ दोषास्तापादय आदिशब्दानृषितादिपरि प्रयति तथाच सति न यादिना तस्य प्रेरणं किं तु जयति । वादं । समागतो निक्कार्थ गत इति यदि दर्शयति ॥ पादियं माहणं, विद्याणं चेत्र मुटु ते गुरुणां । जय सो विजमाणे, न वि तुम्भमणादित हुतो ॥ नार्थ गत इति अतिशयेन माहात्म्यंग रिमलकणं विज्ञानं च प्रकटितम् । यदि सोऽपि ज्ञाता भवति न चैत्र युष्माकमनाहतो जवेत् । अधुना "परिच्छिउच्चा यबदि पिछे " इति व्याख्यानयति । नवि उत्तराणि पास, पासायाणं च होति परिभूतो । मेदाभिनगा विपद अमु परिणमति । स निक्काटनपरिश्रान्तः सन् म वि नैव उत्तराणि पश्यति परिश्रमेण बुद्धेः सव्यापादनात्तथा च सति स प्रानिकानामप Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) अभिधानराजेन्द्रः । अइसेस सभ्यानामपि परिभूतो भवति ततो ये शैक्कादयो ये च भड़कादयस्ते तन्मुखं निरुत्तरं दृढा परिणमन्ति विपरिणामं भजन्ते । निक्कार्थमनटने पुनरिमे गुणाः । सुतत्थाण गुणाएं, विजार्थता निमित्तजोगाणं । सत्थे परिक्खे, परिजिणइ रहस्समुत्ते य ॥ सूत्रार्थानां तथा विधान मन्त्राणां निमित्ताणां योगशा गुणनं पावनं भवति तथा विश्वस्तः प्रतिि के विधि प्रदेशे रहस्वाणि परिजयति अत्यन्तं स्वन्यस्तानि करोति तस्मान्न भिकार्यमदितव्यमाचार्येण गतं वादिकारम् । इदानीमृद्धिमद्वारमाह । रमा विदुवक्खरको उषितो सम्यस्स उत्तम होति । गच्छामि वि आयरितो, सव्वस्स वि उत्तम होई राज्ञा द्वधकरको दासो यद्यपि जात्या हीनस्तथाऽपि संस्थापितः सन् सर्वस्याप्युत्तमो भवति । उत्तमत्वाश्च यथा न कश् न प्रेषणेन हिएडाप्यते सोऽप्येवं यथा तथा गच्छेऽप्याचार्यः सस्वामी जयतीति स सुतरां भिनहिएकापयितव्यः रायामच्चपुरोहिय, सेडी सेणावर्त । तलवरा य । अभिगच्छंतारिए, वहियं च इमं उदाहरणं ॥ यथास्थकाले दिएकमानो ऽप्युत्पन्न काने देवेन्द्राअभिगमा दिपकते । पयमाचायांना चापदस्थापितान् राजा अमात्यः पुरोहितः श्रेष्ठ सेनापतिः न्ति ततस्तेऽपि भिक्कां न दिएकन्ते । अन्यथा दोषस्तत्रेदमुदाहरणं तदेवाह । सोऊण य वसंतो, मचो रो तगं निवेदे | राया विति दिवसे, तइएऽमच्ची य देवी य ।। राज्ञोऽमात्य आचार्यसमीपे धर्मं श्रुत्वा उपशान्तः स च राः स्वकमाचार्ये निवेदयति । यथा गुणवानतीवाचार्योऽमुकप्रदेशे तिष्ठति ततो द्वितीयदिवसे राजा अमात्येन सह गतः धर्म त्या परितु भगतो निजामहिष्याः परियमित्येना प्यारीयायाः कथितं ततोऽमायदेव तृतीयदिवसे प श्रवणाय समागते आचार्यो निक्कार्थे गतस्ततः । सोनं पाणि, गया अवापरणे खिसा । हिंति होति दोसा, कारण पमिवत्तिकुसलेहिं ॥ भिक्षार्थं गत इति श्रुत्वा ते हीलयित्वा गते । श्रथवा क्षणमात्रं प्रतीय हॉलयमयी गते । यदि या वादाचार्य आगच्छति तावत्प्रतीक्षमाणे हीलयतः । श्रथवा प्रस्विन्नशरीरं परिगलत्मस्वेदमा सितोदिया मे सुकृतं चन्दनं वा सोमं कथयतो या परिभ्रमेण न सु वचनविनिर्गमस्तत - स्थिते हीलयतो, यथा पिण्डोलक इवैष भिक्षामदति किमाचा यत्यमेतस्य पते निक्षां हिरुडमाने दोषाः । यदि पुनः कारणे वक्ष्यमाणे भिकार्थं गतो भवेत् राजादयश्च तत्र गतास्ते च पृच्छेयुः क्व गत श्राचार्यस्तत्र ये प्रतिपत्तिकुशलास्तैर्नेदं प्रतिवक्तव्यं भिक्षार्थं गत इति किंतु चैत्यवन्दननिमित्तं गत इति । यदि राजाय आचार्थमागता येतीय दक्षा गी धोते सुन्दर पानकं प्रथमालिकां व सुन्दरं बोलप च गृहीत्वाऽऽचार्यस्य कथयन्ति । तत श्राचार्यो मुखहस्तपादादि प्रक्षाल्य प्रथमालिकां पानकं च कृत्वा श्रल्पं प्रावृत्य पात्रारामन्यस्य समय तादृशवेषो वसतावानंीयते यथाऽनाख्या सेस तोऽपि राजादिभिर्ज्ञायते एष आचार्य इति । ततो वसतिं प्राप्तस्य पादोदनं पादमानार्थमादाय साधव उपतिष्ठन्ति पादमार्जनानन्तरं वसतेरन्तः प्रविश्य पूर्वरचितायां विद्यायामुप विशति उपविष्टस्य चरणकल्पकरणाय कोऽपि साधुरुपढौकते चरणप्रक्षालनानन्तरं च सर्वे साधवः पुरतः पार्श्वतः पृष्ठतो घा किंकरभूता स्तिष्ठन्ति यथा राजा चकितस्तिष्ठति । एतदेवाह । कारण जिक्खस्स गते, वि कज्जमन्नं निवस्स साहिता । निज्जोगनयनपडमा, कमादिधुवणं माई || कारणे पक्ष्यमाणलक्षणे समापतिते मैास्य गाचायें - पस्यान्यत्कार्यं कथयित्वा प्रथमालिकादेर्नियोगस्य नयनं ततः श्रमदान तोकाविरणम कयकुरुकुय आसत्थो, परिसई पुब्वरयनिसेज्जाए । पयया य होंति सीसा, जह चकितो होइ राया वि ॥ कृतकुरुकुचः कृतकुलकुल श्रास्वस्थः प्रविशति प्रविश्य पूर्वरचितायां निपयायामुपविशति ततः पालनपोष शनप्रयतास्तथा भवन्ति यथा राजाऽपि चकितो जायते । अत्र परप्रश्नमाह । सीसा परिचत्ता, चोयगवयणं कुटुंबिसामणिया । दितो दभिरण, सावेक्वे चैव निरवेक्वे ॥ बोदकवचनमाचार्य रक्षत्वा शिष्या भिक्षायां प्रेषितास्ता ते त्यक्ताः । श्राचार्य भाह । अत्र कुटुम्बिगृह प्रदीपनन्तस्तथा दण्डिकेन दृष्टान्तः सापेक्षां निरपेक्षश्चाचार्ये एष द्वारगाथाक्षरार्थः । संप्रत्येनामेव विवरीषुः प्रथमतः " सीसा य परिश्वता " इति भावयति । बायादीया दोसा, गुरुस्स इतरेसि किं न ते होंति रक्खयसिसचाए, हिंरुणतुझे असमता य ॥ यातादयो दोषा गुरोर्भवन्ति इतरेषां साधनां किं तेन नयन्ति जयत्येवेति नायः ततो हिमने हिमनदीचे तुल्ये आत्मन रक्का क्रियते शिष्याणां च त्याग इत्यसमता नेदं समञ्जसमित्यर्थः । अन्यश्च ॥ दसविहवेयावच्चे, निच्चं भुट्टिया असदभावा । ते दाणिं परिभूय-अज्जता दंकोय ।। दशविधेयादिभेदतो दशप्रकारे वैधानिक मायाः सन्तोऽभ्युत्थितास्ते संप्रति वातादिदोषान्पश्य द्भिरपि निक्काटने प्रेष्यमाणाः परित्यक्तास्तथा दशविधे वैयावृत्ये नोद्यच्छन्ति ततस्तेषामनुद्यच्छ्रतामाचार्यादिवैयावृत्याकरणे यथाऽहं प्रायधितं दसको दीयते तदेवं "सीसा व परिचता" इति भावितम् ॥ इदानी कुटुम्बितामणियेति दृष्टान्तं भावयति ॥ बुधनसुनरियं, कोठागारं मज्जति कुटुंबिस्स । किं अ मुद्दा देश, केई तहिये ना || एक: कौटम्बिकः स कर्षकाणां कारणे उत्पन्ने वृद्ध्या कानान्तररूपया धान्यं ददाति तथा च वृद्ध्या कौटुम्बिकस्य कोष्ठागाराणि धान्यसुतानि जातानि सम्यदा च तस्यैकं कोष्टागारं वृद्धिधा न्यसुनृतं वह्निना प्रदीप्तेन दह्यते तत्र केचित्कर्षका विघ्मापननिमितं तत्र प्रदह्यमाने कोष्टागारे समागतास्तत्र केचित्कथयन्ति Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) अन्निधानराजेन्द्रः । असेस फिमेल की बीमाकं ददाति येन वयं विज्ञापनार्थ मन्युद्यता भवामः ॥ एयस्स पजावे, जीवा अम्देति एन नाऊण | उ समझीणा, विज्जविए तेसि सो तृट्ठो ॥ अन्ये कर्षका पतस्य कौटुम्बिकस्य प्रभावेण वयं जीवन्तः स्म जीव अनुप्रत्ययः जीविता इत्यर्थः । एवं ज्ञात्वा समांलीनास्तत्र समागता विध्यापनाय च प्रवृत्तास्ततो विध्मापिते कोष्टागारे स कौटुम्बिकस्तेषां तुष्टः ततः किमकार्षीदित्य आ जे हायाग करेमु तेसि अट्टि दिनं । दहंति न दिाियरे, अकाक्षगा दुक्खजीवी य ॥ ये विध्यापने सहायकत्वमकार्षुस्तेषामवृद्धिकं कालान्तरवृद्धिरहितं धान्यं दमितरेषां तु सहायत्वमकृतवतां दमित्युत्तरं विधाय न दत्तं ततस्ते अकर्षकाः सन्तो दुःखजीविनो जाताः । एष दृष्टान्तः ॥ सांप्रतमुपनयमनिधित्सुराह ॥ रिय कुटुव वा, सामाणियथालिया जत्रे साहू | ववाहअगणितक्षा सुचत्या जाण पत्रं तु ॥ भाचार्यः कुटुम्बी कुटुम्बितुल्य इत्यर्थः । सामान्यकर्षक स्थानीयाः साधव आचार्यस्य त्रिकाटने वातादित्र्यावाधा अग्नितुल्या सूत्रार्थान् जानीहि धान्यं धान्यतुल्यान् ॥ एमेव वियाणं, करेंति सुत्तत्य संगहं येरा । हाति उदासी, फिलेसभागी व संसारे । एवमेव कटुम्बिकान्तप्रकारेण ये विनीतास्तेषां स्थविरा आचार्याः सूत्रार्थसंग्रहं कुर्वन्ति सुत्रार्थान्प्रयच्छन्ति यस्तदासीनस्तत्र हापयन्तीति न प्रयच्छन्तीति जाषः स चोदासीनो वर्त्तमानः केवलं सूत्रार्थयोग्या भवति क्लेशभागी च संसारे जायते गतं ध्यापनद्वारम् । संप्रति दन्तं विभावविषुरिदमाद उपकारणे पुण, जइ सयमेव सहसा गुरू हिंये । अप्पाण गठन परिचयती तारथमं नायं ॥ उत्पन्ने कारणे वक्ष्यमाणलक्षणे यदि सहसा स्वयमेव गुरुरामानं गच्छमुभयं च परित्यजति तत्र चेदं वक्ष्यमाणं ज्ञातमुदाहरणम् । तदेवाह । सोर्ट परवलमा सहसा एका गिओ न जो राया । निगच्छति सोपी, अप्पा रामयं च ॥ यो निरपेको राज्ये परसमागतं श्रुत्वा वापादनान्यमेव सहसा एकाकी परवनस्य संमुखो निर्गच्छति स श्रात्मानं राज्यमयं त्यजति यादव्यतिरेकेण कारने मरणभावात् । एवमाचार्योऽपि निरपेकः समुत्पन्नेऽपि कारणे सहसा मामात्मानं मुनयं च परित्यजति उक्ता निरपेकद forseन्तावना । संप्रति सडक तभावनामाह । साक्खो पुरण राया, कुमारमादीहि परवलं खवियं । अजिए सयं पि जुज्झर, नवमा एमेव गच्छे वि ॥ सापेकः पुना राजा प्रथमं कुमारादीन् युद्धाय प्रेपयति ततः कमारादिभिः परपलं कृपयित्वा यदा कुमारेने पर क्षपितं तदा तस्मिन्नजिते स्वयमपि राजा युध्यते एबोपमा गच्छेऽपि या । अइसेस आचायोऽपि पूर्व यतनां करोति तथाऽपि असंस्तरणे स्वयमपि हिण्डते एवं चात्मानं गच्छमुनयं निस्तारयतीति भावः । संप्रति यैः कारणैराचार्येण निक्कार्थमदितव्यं तानि कारणान्याह । अच्छाकक्खमासति. गेल छादेसमाइएसुं तु । संचरमाणे भरतो, हिज्ज असंथरंतम् ॥ अभ्यानं प्रपन्नः सार्धन समाचायों गतवासंस्तर यदि सार्थिका श्राचार्यस्य गौरवेण प्रयच्छन्ति ततः स्वयमेवाचार्यो हिमते एवं कर्कशेऽपि क्षेत्रे भाषनधिं तथा असति सहायानामभावे को भिकामानीय ददातीति स्वयं हिरमते । तथा नाना बहवस्ततस्तेषां सर्वेषामपि गच्छसाधवः प्रयोग्यमुत्पादयितुमशक्ता अथवा ग्यानप्रयोग्यमन्यः कोऽपि न समते रात आचायों दियते एवमादेशाः प्रार्थकामादिशब्दात् धात्रवृद्धासह परिग्रहस्तेष्वपि प्रायम् षुविषयेषु संस् रति गच्छे नियमादाचाय दिइने अन्यथा प्रायशिसंभा संस्तरति पुनर्भको विकल्पितः हि एकते कदाचिन्न श्रभ्युद्यतविहारपरिकर्म्म कुर्वन् हिएकते शेषकानं नेत्यर्थः । एष द्वारगाथाकेपार्थः । अत्र के स्तर न मिले इति तत्र संस्तरणं त्रिविधं जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च तत्र जघन्यमधिकृत्याह । पंचवि परियादी अत्यंते जग व संचरणे । एमेव संवरंते, सयमेव गए। अमात गांमे || जघन्येऽपि यदयमाणस्वरूप संस्तरणे पञ्चाप्याचार्योपाध्यय पर्त्तिस्यधिरगणावच्छेदिनस्तिष्ठन्ति जघन्येऽपीत्यपि संभाव नेस चैतत्संभावयति । यदि तावत् जघन्येऽपि संस्तरणे पचाप्याचार्यादयस्तिष्ठति बध्यमे उत्कृष्ट संस्तरणे नियमा पश्चभिरपि स्थातव्यम् । एवमपि जघन्येनापि संस्तरणेनासंस्तरति गच्छे स्वयमेव मणी आचार्यो ग्रामे निकामरति स च प्रतिलोम परिपाट्या पर्यन्त तथाहि जघन्येनापि असंस्तरति प्रथमं गणावच्छेदको डिएमते तथाज्यस्तरणे स्थविरोऽपि हिड एवमप्यसंस्तरणे प्रवर्त्यपि तथाप्यसंस्तरणे उपाध्यायोऽपि तथापि चेन्न संस्तरति गच्छस्तव आचार्योऽपि । तत्र प्रथमत उत्कृष्टसंस्तरणमाह ॥ मंदलगयाम्प सुरे, हरिणाभाव वाला | ता ऐति नासेस-गया व उकोससंचरणे | मनोमस्य मध्यगते सूर्ये मध्या इत्यर्थः निशार्थमयस्ततः पर्याप्तं हिरिरुत्वा यावत् तृतीय पौरुपया आदौ स्वाध्यायप्रस्थापन वेला तावत्स निवर्त्तते तदुत्कृष्टं संस्तरणम् । अथवा तृतीय पौरुण्या आदौ स्वाध्याय प्रस्थापनवेलायां स निवर्त्तते एतडुत्कृष्टं संस्तरणम् । मध्यमं जघन्यं चाह । समातो गाणं, चउपोरिसि मज्झिमं हवति एयं । विशुयावि मत्तदिणे, समतिऽत्यंत जहां तु ॥ मध्याह्नादारज्य भिकार्थमवतीर्णानां पर्याप्तं हिमित्वा चलतावागतानां तानां सञ्ज्ञातः सञ्ज्ञाभूमित आगतानां यदि चतु र्थी पौरुषी अवगाहते एतत् मध्यमं संस्तरणं भवति । मध्याद्वादारभ्य मिकादितिः प्रवि सुविसु विशोषित जघन्यं संस्तरणमवसातव्यं तदेवमुक्तं जघन्यादिनेदनिन्नं संस्तरणम् । इदानीं मध्यादिद्वारव्याख्यानार्थमाह ॥ अकाणेऽवरणे, अकोपिया विकरण पलये । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) अश्सस अभिधानराजेन्द्रः। अइसेस एमेव कक्खमम्मि वि, असति त्ति सहायगा नस्थि ।। । लब्धे प्रवर्तकस्तेनाप्यलब्धे उपाध्यायस्तेनाप्यलग्धे स्वयमाभयान साथैन समं वजतामसंस्तरणे भिवार्थमाचार्यों हि चार्यों व्रजति । यदि वा स गृहप्रभुर्यस्य गौरवं करोति स एमते । अथवा ते सहायाः अकोविदाःसाथै च प्रत्रम्बान्यविक प्रेषयितव्यः। रणीकृतान्यखएकीकृतानि अन्यन्तं तत आचार्यः स्वयमेव हि सांप्रतमस्या एष गाथायाः पूर्वार्द्ध भाधयति । एममानस्तानि विकरणानि कृत्वा सनिवर्तते अथवा ददतामु- गणावदो पुन्वं, ठवण कुबे व हिंमा सगामे । पदेशं ददाति विकरणानि कृत्वा ददश्वमिति । एवमकोविदानां एवं थेरपबित्ती, अभिसेयं गुरुयपमित्रोम ।। सहायानां नाव प्रलम्बविकरणनिमित्तमाचार्यों गच्याति । एव- पूर्व गणावच्छेदकः स्वग्रामे स्थापनाकुलेषु हिण्डते एवं गणाभव कर्कशेऽपि केत्र भिकार्य गमनमाचार्यस्य भवति तत्रान्यसं- वच्छेदकादारभ्य प्रतिलोमं वक्तव्यं तद्यथा प्रसंस्करणे स्थविगेस्तरणे अकोविदाः सहायनावे प्रत्रम्बधिकरणाय वा गच्छन्तीति ऽपि हिण्डते तथाऽप्यसंस्तरणे भभिषेक उपाध्यायस्तथापिसंतथा असतीति नाम सहायका न सन्ति ततः स्वयमेव नि- स्तरणाभावे गुरुरपि। अधुना "पेसति वितिए दिवसे" इत्यादि कामदति । भावयति । बहुया तत्य तरंता, अह गिद्माणस्स सो परं लहति । ओभासिय पडिसिछ, तं चेवन तत्थ पडवेज्जाउ । एमेव य आदेसे, सेसेसु विनासबुछीए । पमिलोमं मणिमादी, गारवं जत्थ वा कुणति ।। वहवस्तत्र गच्छे अतरन्तो ग्वानास्ततः सर्वेषां गच्चसाधवःप्रा केनापि साधुना ग्लानप्रायोग्यं किमपि अव्यं कस्मिंश्चित्कुले योग्यमुत्पादयितुमशक्ता अथवा खानस्य परं प्रायोग्यमन्या न अवभाषितं याचितमित्यर्थः। तच्च गृहप्रभुणा प्रतिषिद्धमन्यत्र लभते किंतु स पवाचार्यस्ततः स हिएडते । एवमेवादेशेषु प्र तत् व्यं नास्ति किं तु तस्मिन्नेव गृहे ततो द्वितीयदिवसे तत्र सानकेषु शेषेषु च बाबवृहासहेषु विभाषा विनाषणं तश्च बु कुले न तमेव प्रेषयत्कि तु प्रतिलोमं गणावच्छेदकप्रभृतिक द्या कर्तव्यं तवं यद्यादेशादयो बहवः सर्वेषां साधवः कर्तु यथोक्तं प्राक् यत्र वा गृहप्रभुर्गौरवं करोति तं वा प्रेपयेत् । न शकुवन्ति यदि वा स एवादेशादिप्रायोग्यं सभते नान्यः को तित्यकर त्ति समत्तं, अहणा पावयण निजारा चेव । पि ततः स हिरामते । संप्रति “संथरमाणे भो इति" व्याख्यानयति । वचंति दो व समगं, दुवालसंग पवयणं तु ॥ अन्भुज्जयपरिकम्म, कुणमाणो जा गणं न वासिरिति । तीर्थकर इति द्वारं समाप्तम् । अधुना प्रवचनं निर्जरा चति वे अपिद्वारे समकमेककालं व्रजतस्तत्र प्रषसमं नाम हादशाङ्गताव सयं सो हिंमद, शत भयणे संथरंतम्मि ॥ गणिपिटकम्। अज्युद्यतविहारएरिकर्म कुर्वन् यावत् गणं न व्युत्सृजति तावत्स्वयं स आचार्यों हि एमते इत्येषा भजना संस्तरति गच्छे । तं तु अहिजंताणं, वेयावच्चे न निजरा तेसिं । अछाणादिसुवेहं, सुहसीलत्तेण जो करेजाहि । कस्म भवे केरिसिया, सुत्तत्थे जहोत्तरं वलिया । गुरुगा य जं च जत्थ व, सयपयत्तेण कायव्वं ।। ननु द्वादशाङ्गं गणिपिटकमधीयानानां वैयावृत्ये क्रियमाणे अध्वादिषु अध्यकर्कशादिप्वसंस्तरति गच्छेत् सुखशीलत्वेन तेषां वैयावृत्यकराणां महती निर्जरा तदावरणीयरय कर्मणः क्षसुखमाकाइमाण आचार्योऽहमित्यालम्बनमाधाय य उपेक्का यकरणात् महापर्यवसानः पुनरन्यनवकर्मबन्धाभावात् । अत्र माचार्यः करोति निकां न हि एमते इत्यर्थस्तस्य प्रायश्चित्तं च शिप्यः प्राह । कस्य कीशी निर्जरा भवति । प्राचार्य: प्राह त्यारो गुरुकाः। यच्च तत्र वा अनागाढपरितापनादि साधवः सूत्रे अथें च यथोत्तरं बलिका एतदेव विभावयिषुराह । प्राप्नुवन्ति तनिष्पन्नमपि तस्य प्रायश्चित्तं तस्मात्सर्वप्रयत्नेना- सुत्तावस्तगरादी, चोद्दसपुराण तह जिणाणं च । भ्वादिध्वसंस्तरणे निकाटनं कर्त्तव्यम्। जावे सुद्धममुषं, मुत्तत्थे मंत्री चेव ॥ सांप्रतमसंस्तरणयतनामाह । सूत्रमावश्यकादि यावश्चतुर्दशपूर्वाणि पतद्वारा यथोअसती पमिलोमं तु, सग्गामे गमणदासलेसु । त्तरं महती महत्तरा निर्जरा एवमधेऽपि नावनीयम् । तथा पेसति वितिए दिवसे, आवज मासियं गुरुयं ।। जिनानामप्येवंविधाजनप्रनतीनां यथोत्तरं वहिका निर्जरा। असति श्रवमौदर्यादिना गच्छसंस्तरणाभावे प्रतिलोमंगणा- | श्यमत्र जावना । एक आवश्यकसूत्रधरस्य वैयावृत्त्यं करोति वच्छेदकादारभ्य प्रतिकूलगमनमवसातव्यं तद्यथा प्रतिवृषभादि | अपरो दरावैकाशिकसत्रधरवैयावृत्यकरस्तस्य आवश्यक करानाऽसंस्तरणे गणावच्छेदकःप्रतिवृषभादिभिःमह हिण्डते तथा महनी निर्जरा एवमधस्तनाधस्तनतरश्रुतधरवैयावृत्यकरादुपप्यसंस्तरणे स्थविरोऽपि तथा प्यसंस्तरणे प्रवर्तकोऽपि तथा. युपरितरश्रुतधरवैयावृत्यकरो यथोत्तरं महानिर्जरस्तावदवसयो प्यसंस्तरणे उपाध्यायोपि तथाचेन्न संस्तरति तर्हि स्वग्राम | यावत्त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्यकराञ्चतुर्दशपूर्वधरवैयावृत्यकरदानशाकेषु कुलेप्चाचार्यगमनं भवति तथापि चेदसंस्तरणं महानि झरः । एवमर्थेऽपि भावनीयं तऽभयचिन्तायां ग्लानतत आचार्योऽन्यान्यपि गृहाणि । तथा केनापि साधुना कस्मिाश्चि. | वयावृत्य करादर्थयावृत्यकरो महीको नवरं निशीथकल्पस्कुले ग्लानप्रायोग्यं किमपि द्रव्यं याचितं परं न लब्धम् । अथवा व्य पहारार्थधराणां वैयावृत्यकरो महानिर्जरः । तथा श्रुतज्ञातद्रव्यं तस्मिन्गृहे प्रभूतमस्ति अन्यत्र च न विद्यते तत्र यदि द्वि- | निवैयावृत्यकरः । तथा जावः परिणामस्तस्मिन् यूके अकेच नीय दिवस तस्मिन्कुले येन न लब्धं तमेवाचार्यःप्रेषयति ततो | तदनुसारेण निर्जरा प्रवर्तते । नथा स्त्रार्थे युगपच्चिन्त्यमान यथागुरुकं मासिकं प्रायश्चित्तम । तस्मिन् कुले प्रतिलोम प्रेषयात । |त्तरं वक्षिका। तथा मरमसीस्वार्थावधिकृत्य विचारणीया । इहातद्यथा प्रथमंगणावच्छेदका प्रेयस्तेनालब्ध स्थविरतेनाय- | नार्यः प्रस्तुतस्तमधिन्य बैवावृत्यकरणे महती निर्जगतामाह। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असेस अभिधानगजेन्द्रः। प्रश्सेस पावयाणी खा जम्हा, आयरितो तेण तस्म कुणमाणो वतो बफमाणसामिस्स चरमतित्थगरभावे रायगि नयरे कमहतीए निजगए, वहति साह दसविहम्मि ।। विसस्स बंभणस्स य वगा जातो सो अम्मया समोसरणे श्रापाययणी प्रावनिकःखबु यम्मादाचार्यस्तेन तस्य वैयावृत्यं कु गतो जयवंतं दटुण धमधम्मे । ततो जयवया गोयमसामी पंवन् साधुमहत्यां निर्जरायां वर्तते एवं दशविधेऽपि घेयावृत्य सितो जहा ग्वसामेह ततो गतो अणुसासितो य जहा एस महा नर्जराकत्वं भावनीयम । संप्रति यदुक्तं नाचे शुद्धे अशुके महप्पा तित्थंकरो एयम्मि जो पमिनिवसति सो पुग्गई जाति । च तदनुसारतो निर्जग जवतीति तत्र भावो व्यवहारतः शुरू एवं सा नवसामितो तस्स दिक्खा गोयमसामीणा दिन्ना । वस्तुबजावाद्भवताति प्रतिपिपादयिषुराह। एतदेवाह। जारिसगं जं वत्यु, सुयं च तिएडं च ओहिमादीणं । । सीहो तिविट्ठनिहता, भमिउं रायगिहं कविलवमुग त्ति । तारिमतो चिय भावो, उप्पज्जति वत्यु तो जम्हा ।।। जिगवरकरणमणुवसम, गोयमोवस मे दिक्खा य ।। मिहरिखपृष्टन निहतः संसारं भ्रमित्वा राजगृहे कपिलस्य ब्रापारद यद्वस्तु प्रतिमादिकं यस्य यावश्च श्रुतं त्रयाणां चावृ मणस्य बटुकोऽनृत् जिनस्य वीरस्य कथन तथाऽपि तस्यानुयादीनां स्वस्थाने ये विशेषास्तस्माद्वस्तुनः श्रुताद्विशेषात्तारशा पशमो गौतमेन चानुशासन कृतेऽततू उपशमोदीका च । अत्र त जावः परिणामो व्यवहारस्तादृश उत्पद्यते तदनुसारेण च भगवदपेक्कया हीनगुणेऽपि गौतमे तस्य गुरुपरिणामा जायते निजंग ततः पूर्व श्रुतचिन्तायामर्थचिन्तायां तथा जिनानां च य इति महती निर्जरा भवदिति । थोत्तरं वलिका निर्जराक्ता । तथा चैवमेव व्यवहारनयं प्रतिपिपादयिषुगह। संप्रति 'सुत्तत्थे' इत्यस्य व्याख्यानमाद। गुणनइ दब-म्मि जण मत्ता हयनाणं जावे । मुत्ते अत्थे तदुलए, पुचि जणिया जहोत्तरं वलिया। इति वत्यती इच्चगति, ववहागे निज्जरं विउ ।। __ मंझलिए पुण भयणा, जइ जाण तत्य नृयत्यं । यन यतो गुण नृयिष्ट व्यं ततस्तस्मिन् येन कारणेन मात्रा- सुत्रे अर्थे तदुजयस्मिन् स्वस्थाननिर्जरा पूर्व यथोत्तरं वत्रिका धिकचं परिणाम इति अस्मान्कारणात वस्तुनः प्रतिमाश्रुतादे. घनवती नगिता । संप्रति पुनः सूत्रार्थतदुनयेषु युगपश्चिन्त्यसंधोत्तर गुगलयिष्ठात विपुलां निर्जगमिचति व्यवहारा व्यव- मानेषु यथोत्तरं निर्जरा बलवती। सांप्रतं 'मंगल। चेवत्ति' व्याहारनयः । पतदेव स्पष्टतरं नावति ॥ ख्यानार्थमाह (मंत्रीए पुण इत्यादि) मएमल्यां पुनर्भजना विसक्खणजुत्ता पमिमा, पासादीया समत्तलंकारा। कल्पना यदि जानाति तत्र मएमल्यां नृतार्थ सद्भतमर्थं तदा परहायति जह व मार्ग, तह निजरं मो वियाणाहि॥ स महानिर्जरकः । श्यमत्र भावना माल्यां पठन्ति पाव्यया प्रतिमा लकणयुक्ता प्रमाद। मनःप्रसादकारणं समस्तालं न्ति च तत्रावश्यकादि परतां यथोत्तरं पठन्ता वत्रिकाः । अथ कागतां पश्यतो यथैव मनः प्रहाद ने तथा निर्जगं विजानाहि जानाति वैयावृत्यकरो यथाऽधस्तनसूत्रपाको ज्ञानादिभिर्गुयद्यधिक मनःप्रहन्निस्तता महनी निर्जरा मन्दमनःप्रहनी तु रणरधिकतरस्ततोऽधस्तनश्रुतपातकस्य चैयावृत्यकरणे महती मन्दति भावः ॥ निजंग ददतांमध्ये य नपरितनश्रुतवाचकः स ज्ञानादिभिरधिकमुयवं अतिमयजुत्तो, मुहाचितो तह वि तवगणुज्जुत्तो । तर इति तद्वयावृत्यकरण महती निर्जग । अथ जानाति यैया वृत्यकरो यथाऽधस्तनश्रुतवाचको झानादिभिरधिकतरस्तताऽजो सो मणप्पसातों, जायइ सो निजरं कुणति ।। धस्तनश्रुतवाचकस्य वैयावृत्यकरण बनवती निर्जरा ! वाचकाঅনন্যান: অ্যৰ নাথ মনিহান ১ংস্থানি- तीचिकानां मध्य यो वाचकस्तद्वैयावृत्यकरण महती निर्जग शयोपेतोऽत्राप्यवध्यादिविषय बहवस्तरतमविशेषाः मुखाचि- अथ वैयावृत्यकरो जानान्येष प्रातीनिक प्राचायाँ वाच्यते तोऽपि तपसि स बाह्यान्यन्तरे गुण ज्ञानादी उद्युक्तस्तपांगु- तत्प्रत्युज्यासनमात्रं यावतां सर्वमतस्यायाति सूत्रतोऽयंतश्चाणाद्यत इत्येवं योऽसी यादृशो मन:प्रमादो मनःप्रसत्तिपरिणा- धिकतर इति तदा तस्य प्रातीचिकस्य चयावत्यकृते महती मो जायने म तादृशीं निर्जगं करोति । तस्माद्वस्तुनो निजरति ! निजंग। इह मोऽर्थे तदुभये च यथोत्तरं वझवती निजरेत्युक्तम व्यवहारनयः । तदेवमुक्तं व्यवहारनयमनम् । तत्र योत्तरं निजराया बलवत्तां भावयति । अधुना निश्चयनयमतमाह । अत्यो उ महमित्तो, करणेणं घरस्म निप्पत्ती । निच्चयतो पुण अप्पे, जस्म वत्थुम्मि जायते भावो । अन्भुट्ठाणे गुरुगा, रमो याणे य देवी य॥ तत्तो सो निजग्गो, जिणगोयम सीहाहरणं ।। हटान्तः सूत्रात् केवलात् अर्थाद्वा स सूत्राथें। महर्डिकः कि निश्चयनः पुनरपऽपि महागुणाः गुणान्तगद्धीनगुणेऽपि व कारणमिति चेत् उच्यते । अत्र कृतकरणन गृहस्य निष्पत्तिः म्नुनि यम्य जायते तावः शुभी नावस्तस्मान्महागुणतरविषय तश्च सुत्रादर्थः स सूत्रो महर्द्धिकः सूत्रमगमल्यामाचार्यादयः भावयुनात स हीनगुणविषयतावशूनभावी निर्जरका महानि प्राघूर्णकप्रभृतीनामत्युत्थानं कुर्वन्ति अर्थमण्डल्यां पुनस्य औरतरः सद्भावम्यातीव शुभत्वात् । अत्र जिनगीतम समीपे अनुयोग श्रुतवान् तमेकं मुक्या अन्यस्य दीवागुरोसिंह उदाहरणम् । तथैवम् "तिविटुत्तणे भयवया वकमाण राज्युत्थान चत्वारा गुरुकाः प्रायश्चित्तं ततः सूत्रादों ययान् सामिणा सीहो निहतो, अधिर्ति कर खुवगेण निदनो हमि अत्रार्थ राज्ञः शातवाहनस्य याने निर्गमने देवी दृष्टान्तः । एप ति पग्निवतो मोयमेणं माहिनगेण मणुमासितो मा भधि गाथविरार्थः। ति करेह तुम पसुमीद नरसीहण मारियस्म तुन्न को परिभ सांप्रतमेनामेव विवरीषुः कृतकरणेन गृहस्य यो एवं सो अपमामिन्नतो मनो। नतो संमारं भामरण भय नियत्तिरिति दृपान्तं भावयति । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राइसेस अभिधानराजेन्धः। असेस आराहितो नरवती, तिहि उ पुरिसहिं तेसि संदिसति । ततो राजोतघनन्तरं सा पृथिवी नाम देवी गजानमाह । तवास्थानिकायामुपविष्टा दासा अपि नाथाः संपूर्ण गुणा पाअमुयपुरे सयसहस्स, घरं व एएसि दायव्यं ।। विमपि स्वामिनमागच्चन्तं नान्युस्तिष्ठन्ति तवाग्थानिकायाः पट्टग घेत्तण गतो, मियं वितियो न तो नभयं । प्रन.व एवैषः । तथाहि । निष्फलगा दोणि तहिं, मुद्दापट्टे उसफो उ।। तुंवावि गुरुणो मोतुं न वि नुट्ठमि कस्सइ ! एको नरपतिस्त्रिनिः पुरुपैराराधितस्ततः परितुएः स नरपति न ने लीला कया होती, नती हं म नोसिनो ।। स्तेषां प्रत्यक संदिशति । यथा अमुकपुरे सुन्दरं गृहं शतं सहस्रं च दीनाराणामिन्येषां प्रत्येकं दातव्यमिति तत्रैकोऽमु संदेश स्वमप्यस्यामास्थानिकायामुपविष्टा गुरुन् मुक्या नान्यस्य क. पटके गृहीत्वा लेखयित्वा गतो द्वितीयः ( उशिमका ) मुद्रा स्यापि महीयसोऽप्यन्तिष्टमि अहमपि तवास्थानिकायां त्वदीयां गृहीत्वा गतस्तृतीय नभयं पट्टके देवयित्वा गतस्तत्र येन लीनां धरन्ती समुपविष्टा ततो न सपरिवाराच्यन्थिना यदि पट्टकं तयतिरेकेण मुडाप्रतिबिम्बमात्रं गृहीतं तौ द्वापि निष्फली पुनस्ते तव लीजा न कृता स्यात्ततोऽहमन्यु त्तष्टेयमित्येवं गजा जातौ । तथाहि ते त्रयोऽपि तनगरं गतास्ता य आयुक्तस्तस्य दव्या तोपितः। एवमत्रापि तीर्थकरस्थानीय प्राचार्योऽर्थमएमसमीपमुपागताः । पट्टकं मुकामुनयं च दर्शयन्ति तत्रायु केन प्र स्यामपविष्टः सन् न कस्याप्यभ्युत्तिष्ठति ॥ थमो नखिता मुजो न पश्यामि कथं ददामि द्वितीयो इणितो अमुमेवार्थ गौतमदृष्टान्तन हृदयति । जानामि राको मुखां न पुनर्जन मि राज्ञः संदेशं किं दातव्य- कहं ते गोयमो अत्य, मोतुं नित्थगरं मयं ! मिति । एवं तौ निष्फली जाती यस्य तृतीयस्य मुद्रा पट्टकश्च न विन अन्नस्स, नग्गयं चेव गम्मनि ।। स सफलस्तस्यायुक्तेन यथाशतदानात् एप रणान्तः । न खलु भगवान् गौतमोऽर्थ कथयन् स्वकमान्मीय तीर्थकर ___सांप्रतमुपनयमाह। मुक्त्वा अन्यस्य कस्यापि उत्तिष्टति अभ्यस्थानं कृत्वान् नातं एवं पट्टगसरिसं, मुत्तं अत्थो य उमियहाणे । चेदानी सर्वैरपि गम्यते तदनुष्ठितं सर्व मदानोमनुष्टीयत ततोऽ उस्सग्गववायत्थो, उभयसरिच्छेय तेण बनी। थं कथयन् न कस्याप्युत्तिष्ठेत् ।। एवममुना प्रकारेण पट्टकसदृशं पट्टकस्थानीयं सूत्रम् सिमका संप्रति श्रवणविधिमाह । मुजा तत्स्थानीयोऽर्थः उत्सर्गापवादस्य नभयसडकस्तेन भी। सोयचे उ विही पुण, अव्वक्वेवादि होड नायव्यो । तस्योजयस्य नावात्। विवेवम्मि य दोसा, प्राणादया मुण्यव्या ।। संप्रति 'अन्जुहाणे गुरुगा' इत्यस्य व्याख्यानार्थमाह । श्रोतव्ये पुनग्यं विधिव्यापादिबति झातव्य आदिशब्दामुत्तस्स मंझलीए, नियमा उद्धति पायरियमादी । हिकथादिपरिग्रहस्तयाकेपे पुनराज्ञादयः । अाज्ञानवस्थामिमुत्तूण पवागतं, न उ अत्ये दिक्खाण गुरुं पि ॥ थ्यात्यधिगधनारूपदोपा झातव्याः। श्रत पयागुत्थानमपि न सूपमामन्यां वाचयत प्राचार्यादय प्राचार्योपाध्यायप्रभृतयः क्रियते तस्मिन्सप्ति व्यापादिसंभवात्तथा चैतदर्थमेय द्वारगामाघूर्ण कादीनामागचतां सर्वेषामपि नियमादुत्तिष्ठन्ति अज्युत्था थाद्वयंनाह। नं कुर्वन्ति अर्थमयम्ल्यां पुनरुपविष्टः सन् यस्य समापेऽनुयो कानस्सग्गे विक्खे-वया य विकहा कि सोतिया पयते । गः शुनस्तमेकं प्रवावयन्तं मुक्त्वा अन्यं दावणगुरुमपि नान्यु वणय वाउलणा वि य. अक्खेवो चेव आहरणं ।। तिति यद्ययात्तष्ठति तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। आरोवणा परूवाण, नगह निजरा य वानलणा । श्रोतारापि यद्यानायें अन ज्युत्तिष्ठत्यन्यत्तिष्ठन्ति तदा तेषामपि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुक यदि पुनर्यस्य समीपेऽनुयोग धृतवान् एगह कारयोहिं, अन्तुट्ठाणं तु पमिकुटुं।। तस्य नान्यत्तिति तर्हि तदाऽपि तस्य चतुगुरुकम्। पत्र. अनुयागारम्भनिमित्तं कायोत्सर्गे कृते .तः कारणरज्युत्थानं शान्तो राज्ञो देव। तं नाययनि। प्रति कुए निराकृतम् । कैः कारणैरत आह । “विवखेषया य इति" व्याकेपस्य व्याकेपशब्दस्य नावः प्रवृत्ति निमित्त व्यापतिलील करमाणी, नोट्ठिया सातवाहणं ॥ केप इत्यर्थः । अन्यत्वाने कियमाणे व्याकेपो भवति व्याकंपाच पुढवी नाम सा देवी, सो य रुट्ठो ताहि निवो॥ विकथा चतुर्विधा प्रवर्तत तत्प्रवृत्ती चेन्ज्यिमनसा विधीतराः शा (त्रि) तवाहनध्य पृथिवी नाम अग्रमहिष। अन्यदा सा| सिका संयमस्थानला वनभिति भावः । तस्मादन्युत्थानमकुर्वन कापि निर्गते राझिशेषाभिरन्तःपुरिकानिदेवीभिः संपरिवता प्रयतः शृपयात् प्रयतो नाम कृताञ्जभिप्राडो दृष्ट्या सूरिमुखारघातवाहनषेपमाथायराइ. स्थानिकायामुपपतिनीधिसम्ब- विन्द मवेकमाणों वुभयपयुनःस्तथास्थाने नियमाणं सपनमानावतिष्ठते। राजा प्रत्यागतः प्रविएस्तस्मिन्प्रदेशमाच पति- यस्य विषये व्याकुझना उपनयः कस्याप्यर्थ न कियत । - सीलां कुर्वन्ती पुथिवी नाम देवी शातवाहनं राजानमायान्तमपि नयग्रहणमुपलकणं तेन गहरणं जातं तन् व्याकुञ्जनात् भ्रश्यति दृढा नीस्थिता नम्या अनुत्थाने शेषा अपिदव्यो नान्यस्थितव- पृच्चा वा कर्तुमारब्धा विस्मृतिमुपयाति काझी या व्याख्यानस्य वस्नतः स नृपो गजा नत्र यो ते त्वंतावन्महादयी नतो म- त्रुट्यतीति । तथा निरन्तरमविच्छेदेन जापमाणेऽस्य गएयतो हामधारयन नान्यस्थिना पताः किं यथा धारिता यन्नाभ्युत्थानम- महान्याकेपस्तीवशुनपरिणामरूपो जायने अन्यु यान च तद्वय कापुस्तता न सुन्दरमेतदिति । घातस्तथा च सति राजपरिणामभावनो योऽवध्यादिशाभः सं. जाव्यते तस्य विनाशोऽत्राथै चाहरणं झातं बत्तव्यम् । तथा ततो णं आह सा देवी, अत्याणीए तवागहा। प्रारोपणायाः प्रायश्चित्तप्ररूपणे क्रियमाणे अगुत्थाने रयाघादासा वि सामियं एतं, नोटंनि आने पत्थितं ।। तो भवति, व्याघाताच्व सम्यमवग्रहो ग्रहणं न भवति न रुनु Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसेस अनिधानगजेन्द्रः । अइसेस व्याकिमोऽयग्रहीतुं शक्नोति कित्यव्याप्ति इति प्रतीतमेतत् ।। श्यति विस्मृति याति यदि वा व्याकुल नया अन्यथोपनीयते तथाऽप्युत्थाने क्रियमाणे व्याकुयना ततः सम्यक श्रुतोपयोगी | ज्ञातं वा व्याकरणं वा पृच्छा वा कर्तुमारब्धा अद्धा वा पौरुषान भवति तदनानाच्च कानावरणीयस्य कर्मणो ननिर्जरा। ए- लक्षणा भ्रश्यति प्राक्षपव्याख्यानार्थमाह ।। ने कारणरभ्युत्थान प्रतिकुएम् । भासतो भावतो वावि, तिव्वं मे जायमाणसो। सांप्रतमेतदेव गाथाद्वयं विवरीपुः प्रथमतः "कानस्सम्गे लनंतो ओहिसंजादी, जहा मुभिवगो मुणी ।। विक्खेवया य" इति नावयति ॥ निरन्तरमविच्छेदेन भाषकः श्रावको वा उत्तरविशिष्टावगादमचारियाए नंदीए. विखेवे गुरुतो जवे। नतस्तीवसंजातमानमो जातपरमोत्क्षेपो यद्यभ्युत्थाने व्याअपसत्थ पसन्थे य, दिलुतो हत्थिनावका ॥ क्षेपो नाभविष्यत् ततोऽवधिलाभादिकमलप्म्यत यथा मुडिअनुयोगारम्नार्थ कायोत्सर्गे कृते नन्द्यां इनपञ्चकरूपाया- म्बको मुनिस्तथा मुडिम्बक प्राचार्यः परमकाष्ठीभूते शुभमुच्चारितायामभ्युन्धानेनान्येन यश प्रकारेण यो व्याकेप करो- ध्याने प्रवृत्तोऽवध्यादिलब्धिमलप्स्यत यदि तस्य पुष्पमित्रण नि तस्य प्रायश्चित्तं गुरको मासकस्माद व्याोपो न कर्तव्यः । ध्यानविघ्नो नाकरिष्यत परं सर्वसाधुसाचीप्रभृत्याकुलमभमत्राप्रशस्त ग्याकेपकरणे प्रशस्ते च व्यापकरणे दृष्टान्ता वदिति तेन ध्यानव्याघानः कृतः । इस्तिमावकाः हस्ती च शालीनां सावकाश्च । तत्राप्रशस्त प्रातः अधुना " प्रारोवणा परूवणेति" व्याख्यानार्थमाद । पादयति ॥ आरोवाणमक्खेवं, दारं कामो तहिं तु आयरितो। जह सालिं लुणातो, कोई अत्यारिएहि उ । वानलणाए पिट्टड, उत्येत्तुजणे न ओगेण्हे ।। सेयं हत्थि तु दावंड, धाविया ते य मग्गओ ।। प्रारोपणां प्रायश्चित्तं तत्रार्थमामल्यामाचार्यो दातुकामः प्रकन सूना अह साझीओ, वक्खेवणेव तेण उ । पयतुकाम इति तात्पर्यार्थः । यद्यभ्युत्थानं करोति ततो व्याकुलवववेवावरयाणं तु, पोरिसीर व नजइ । नया स्फिटति व्याकुल नन प्रायश्चित्तप्ररूपणा न तिष्ठतीति भावयथा कोऽपि कुटुम्बी निजे क्षेत्रे "अथारिपटिनु" ये मूल्य- स्तथा अवग्रहीतुमना अभ्युत्थानेन व्याकुलनातो नावगृवाति । प्रदानेन शानिनवनाय कर्मकगाको क्षिप्यन्ते ने प्रास्नारिका- एकग्गा प्रागिएहरु, विक्खि पंतस्म विस्मृति जाइ । स्तैलावयन्कथमपि सप्ताकप्रतिष्ठित श्वतमारण्यहस्तिनमागतं इंदपुरे इंददत्तो. अज्जुणतणो य दिटुंतो ॥ रवा दर्शयति तदर्शित न ते रस्तिनो मार्गतः पृष्ठतो धाविताः । एकामः सन् अवगृहाति अभ्युत्थानेन पुनर्व्याक्षिप्यमाणस्याभागतरपि हस्तिनो रूपेण क्षिप्तस्तिरूपं वर्मकम्तेन व्याके. वगृहीतमपि विम्मृति याति कुतोऽनवगृहीतार्थावग्रहणव्याक्षपेणा ते शासयो न लूना एवमिहापि भन्युत्थानन व्यापरता. पाच विस्मृतिगमने इन्पुरपत्तने इन्द्रदत्तस्य गमः मुतारनां पौरुषोभमा नवति । व्याख्यान पुनर्न किमपि याति तस्मा टान्तस्तथा च तेषां कला अत्यस्यतां प्रभादर्विकथादिव्याक्षेपात्र दन्याक्षपो न विधेयः। प्रशस्त व्याक्षपाकरण रटान्तः स्वयं जाव किमप्यवगृहीतमभूत् यदपि किचिदवगृहीनं तदपि विम्मृतिनायः । स चैवं एक. कौटुम्बिकः शाक्षिक्षत्र साचति तस्य मुपगतमत एव ते राधावेधो न कर्नु शकितः । तथा अर्जुनसत्कया दास्या शातिलूनन्त्या सप्ताङ्गप्रतिष्ठितः श्वेतो वनहस्त। स्तेनश्च रान्तस्तथाहि सोर्जुनकम्तनागडदत्तन सह युध्यचरन् रशे दास्या झातं यदिशालिलावकानां कथयिष्यामि नतो मानो न कथमप्यगडदत्तन पराजेनुं शक्यते ततो निजनार्या:हस्तिनं रचा इम्तिनो कपणानिमा इम्तिनो रूपं वर्षयन्त प्रासि तीव रूपवती सर्वालंकारविभूषिता रथस्य नुण्डे निशिता ध्यन्ते पषनरस्ती दिनेऽस्मिनवकाशे श्यते ततः शालिन ततः स्त्रीरूपदर्शनव्याक्षपात युद्धकरणं विस्मृतिमुपगतमिति भविष्यते यदा तु शालिः परिपृयो लूनोऽनवत् तदा सा दासी सोऽगडदत्तन विनाशितः । एवमिहापि व्याक्षपात भुतोपयोगः स्वामिनः शालिवावकानां चाचथत ततस्तै रुक्तं किं तदा प्राणविनाशमाप्नोति । मनातं तदा दासी प्राड शामिलवितव्यव्याघातो नविष्यतीति एए चेव य दोला, अन्नुघाणे वि होति नायव्वा । हे तोम्तत पषमुक्ते कौटुम्बिकः परितुष्टस्तेन च परितुऐन मस्तकप्रक्षालनतोऽदासी कता। एमिहापि व्याकंपो न करणीय नवरं अन्जुटाएं, इमेहिं निहिं कारणेहिं तु ।। स्तथा च मति जगवदाज्ञापरिपालनतः कर्मक्षेण शिनाम यस्मात् श्रवणे कर्तव्ये व्यापादिषु क्रियमाणवेने ऽनन्तरोक्ता स्तकरथो प्रवति । दोषाम्नम्मानचाकेपादिरहितैः श्रोतव्यम् । पते पच च ज्याक्ष__ संप्रति विकथादिपदव्याख्यानार्थमाद । पादया दोषा अभ्युत्थाने ऽपि प्रियमाणे भवन्ति तम्मादभ्यविकहा चनचिहा वुत्ता, इंदिपहिं विसतिया। त्थानमपि न कर्नत्यं नवरमभ्युत्थानमेभिर्वक्ष्यमाणैनिभिः काभंजनीपग्गहो चव, दिट्ठ। बुकुवजुत्तया । रणैः कर्तव्यं तान्येवाह। विकथा स्त्रीकधादिभेदाच्चतुर्विधोक्ता विश्रोतसिका इन्डियै- पगयसमने काने, अझयादेस अंगमुपग्वंधे । कपलकणमेनन् मनसा वाचा प्रयता मञ्जलिप्रप्रदो गुरोमखे। एएहिं कारणेहिं, अब्भुटाणं तु अयोगो । रव॒ियुरयुक्तता च । प्रको समाने तथा काले ममाप्ते अध्ययनोदेशाङ्गश्रुतस्कन्धेष उपनयव्याकुलनेति व्याख्यानयनि । वा समाप्लेषु यदि प्राघूभीकाद्यागमनं भवति तदैतैः कारणैरभ्यनस्सने गजलाना मो, अन्नहा वोवणिज्जा । त्यानमनुयोगो भवति तत्र कालोऽध्ययनादिकं च प्रतीनं न नायं वा करणे वा वि. पुराअट्ठाव नस्स। प्रकृतमिनि । कल्पे व्यवहारे च प्रकृतप्रतिपादनार्थमाह। अभ्युत्थानेनारपेन वा माकुलनायां स रर्शित उपनयो न- कष्यम्मि दोषि पगया. पलंबसुनं च पासकम्येय। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असेस दो चैव य ववहारे, पढमे दसमे य जे जलिया ॥ कल्पे कल्पाध्ययने द्वे प्रकृतं तद्यथा प्रलम्बसूत्रं मास कल्पसूत्रं व्यवहारे प्रकृते ये नणिते प्रथमे आरोपणासूत्रं दशमे पञ्चविधव्यवहारसूत्रम् । न केवलमेतदेव प्रकृतं किंत्वन्यदपि तथा चाह । पीढियातोय सव्वातो, चूलियातां तहेव य । निष्पतं । कप्पनामस्म, ववद्वारस्म तहेव य ।। सर्वाः प्रकल्पादिगताः पीठिकास्तथा सर्पालिकास्तथा कल्पनाम्नो व्यवहारस्य च तथा चैवेति वचनादन्येषां च दशकालिकप्रभृतीनां च निर्युक्तयः प्रकृताः । अत्रैवादेशान्तरमाह । अयि एसो, जो रायणितोय तर सोपत्रे अगम्याए कि कम्पं तस्स काय | अन्योऽपि चादेशो मतान्तरं तत्र श्रीतव्ये यो रत्निको रत्नाचिको इत्यर्थः तस्य नन्यामुचारितायामनुगच तया कृतिक वन्दनं कर्तव्यम् । तथा । केवलिमादी चोदस, दसनत्रपुत्री य उट्ठणिज्जो उ । जे तीहि ऊतरगा, समाणे श्रगुरुं न नर्हति ॥ श्रर्थमपि कथयता समागच्छन् केवली अभ्युत्थातव्यः । आ दिशब्दात्मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी च परिगृह्यते तथा ये तेभ्यो नवपूर्वधरादिभ्य ऊननरास्तैर्नवपूर्वधरादिभ्युत्थानीयस्तथाहि कथा यदि कालिकाम तापूर्वी चनुशपूर्वी वाचनपूर्व पूर्वी पूर्वानुनिया यदि समान गुरु दानरेऽतिदेवं प्र वचने निर्जरा चति द्वारद्वयं गतम् । दानी साकारमाह । . सावेकखे निरवेकखे, गच्छे दिहंगाममग मेए । रामफल निरनं जगामेां कथं मगमं ॥ ( २७ ) अभिधानराजेन्द्रः । सामिबुद्धियाए, पमियं सडियं व न विंय रक्खति । रम्माण ने दंमो, मयं न दीसंति कज्जेसु ॥ श्राचार्यस्य शिष्यैः प्रातीच्चिकैश्च सर्वे कर्त्तव्यं ते च तथा कु. तुम के निरषेके च गच्छे हान्तो ग्रामशकटेन तद्यथा एकस्मिन राजन राजाय धान्यं दिवा बाऽस्मिन् शकटे आरोग्य आनयन्ति नयन्ति वा । तथा नास्य क मित्यभियान्मनोऽपि कार्याणि कुर्वि म्यामिबुद्धयैव पतितं शार्टतं वा तस्य शकटस्य नापि रन्ति ततः कालेन गच्छता नग्नम । अन्यदा राजकुलेन ते आता धा न्यमानय नैः ः शकटानाचान्नानीतं तत श्राज्ञाभङ्गोऽकारीति तेषां गमः कृतः कार्येषु वा सभापतितेषु स्वयं ते न दृश्यन्ते । ए दृशन्तः । श्रयमधषनयः । एनकरेंनि सीमा काहिति परिन्द्रयनि काऊए । ने सीमनि तो महादि मिंगो || " अइसेस ति मत्वा न कुर्वन्तीति तेऽपि च प्रातीच्चिकाः शिष्याः करिष्यन्तीति बुद्ध्या न कुर्वते ततः सीनाचार्यः स्वयं निक्षामदति स्वयं चापकरणादिकं इति हिने का निर शिष्याः प्रातीविका शकटानियुणभृत्य श्व दमनी याः जयन्ति विनाशं चोपयान्ति । अथ सापके दृष्टान्तमाह । सारावियं जेहिं समयं रम्या ने उकरा य कया । इयजे करेंति गुरुणो, निज्जरलाभो य कित्ती य ॥ परस्मिन् ग्रामे द्वितीय के ग्रामे ग्रामेयकैः राजकुल कार्यनियुक्तं शकतं तेन राजकीय चानघटाद्यानयति जयति त शकटं तैः सम्यक् सारापितं ततो न कदाचिदाज्ञानङ्गः कृत इति परितुटेन राज्ञा ते उत्कराः करविदीनाः कृताः। एष दृष्टान्तोऽयमथोपनय इति पचमुतेन प्रकारेण शिष्याः प्रातीकामा ग्रहयुद्ध्या ये गुरोः कृत्यं कुर्वन्ति तेषां महान् भूयान् कानादिलाजः कीर्त्तित्र गतं सापेकद्वारम् । 1 संप्रति भक्तिव्यवच्छेदद्वारमाद | दव्वे जावे जत्ती दव्बे गरिणगाउ दूर्ति जाराएं | जावम्मि सीसवरगो, करेति जत्तिं सुयधरस्स । आचार्यस्य भक्तौ क्रियमाणायां तीर्थस्याव्यवच्छेदो नक्तावक्रि यमाणायां तु तीर्थव्यवच्छेदः सा च प्रकिर्द्विधा द्रव्ये भावे च । तत्र यन्नाम गणिका भुजङ्गानां नतिं कुर्वन्ति तयो वा जराणां साध्ये द्रव्यभक्तिर्भावे जावविषया भक्तिः पुनरियं यत् शिष्यवर्गः श्रुतधरस्य भक्तिं करोति । यद्यपि चान्योऽपि गुरो करोति तथापि ममापि निर्जरा स्यादित्यात्मानुग्रहकर्तव्येति लोहागी नाति जवि व झोसमा गेएहर खतराको छं । तहविय गोयमसामी, पारणए गेएहए गुरुणो || यद्यपि काणान्तरायस्य जगतमा नस्वामिनः सदैवाष्यमेषणीयनक्तादिकं गृह्णाति । तस्य भगयावत् थ सो लोखिम पवरलाहसविन्नो मस्स जियो पत्ता तो इच्छ पाणीहिं नुं जे" तथापि गीनमः स्वामी स्वपारण मानस्यामिनी योद्धा एवमन्येनापि वैयाकरमाथा रो तस्यां क्रियमाणायां यथा 1 पिस्ता शमवाययं तत्प्रमपणायास्तदधीनत्वादिति भावः । तदेवमव्यवच्छेदोऽपि प्रमेयकान्तप्रकारंण शिष्याः प्रातीच्छिकाः करिष्यन्ती । नाचितः प्रधुना अति से सा पंच श्रारिए' इति व्याख्यानयति ॥ +6 यायच्छेद भवन तथा गुरु अणुकंपा पुग, मच्छो अणुकंपितो महाजागो । गापार किया निन्ये ॥ गुरोरनुकम्पया अनुष्ठो महानिन्यशक्तिको गृहीतो भवति गच्छानुकम्पया चाव्यवच्छित्तिस्तीर्थस्य कृता । कह तेण नु होइ कयं, नेयावच्चं दसविहं जण । तम् पना अणुकं पितो उथेरो थिरसहावो ॥ कथं न दर्शयित्वा स्वताऽनुनयस्यास्यप्रयोक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) अभिधानराजेन् अइसेस असे वि अस्थिनशिया, अतिसेसा पंच होति आरिए। जो अनसन कीरइ, नया तिचारो असति सेसे ॥ अतिशेषाः पञ्च भवत्यनेन वदान्येऽप्यतिशयाः पञ्चार्थतो जणिताः सन्ति यः पञ्चानामन्यतरोऽप्यन्य स्थानाचार्य स्य न क्रियतेन च शेषेऽनाचार्ये पञ्चानामेकतरस्मिन्नध्यक्रियमाursaiचारः । तानेव पञ्चातिशयानाह ॥ जत्ते पाणे धुवण, पसंसणा इत्यपायसोए य । आरिए अतिसेसा, अणातिमेसा अणावरिए || उत्कृष्टं जक्तमुत्कृष्टं पानं मलिनोपधिधावनं प्रशंसनं हस्तपा दशौचं च । एते पञ्चातिशेषा अतिशया श्राचार्य अनाचार्ये त्वनतिशया अनाचार्ये पते न कर्तव्या इति नायः । संप्रति दिपानार्थमार " कालसहावा जनं पानं च चिनं खेथे । मणिमलिशा य जाया, चोलादी तस्स धोवंति || यत् कालानुमतं स्वभावानुकूलं चेत्यर्थः भक्तमाचार्यस्य श्रादेयमिति प्रथमो ऽतिशयः । तथा यत् यत्र क्षेत्रे अर्चितं पानीयं तपाद्यमाचार्यस्येति द्विनिमनम लिनानि जातानि तस्यार्थस्य प्रकारयन्ते किं कारणमिति चे दत आह । परवादीण अगम्मे, नेव अव कति मेहा । जह अकद्दितोवि नज्ज‍, एस गणी गुज्जपरिहीणो ॥ यथा परवादिनामगम्यो नवति यथा च शुचिशाकशि अवज्ञानं न कुर्वते यथा चाकथितोऽपि ज्ञायते एव गणी आचार्यस्तथाऽनुयमसीतरही मनिमलिनाकर्तव्यं नन एवं विभूषा दोषप्रसतिर्यत आह । | जह उबगरणं सुरु, परिहरमाणो अमु तो साहू सहख विशुद्धभावो, विमुकवासा प रजोगो ॥ यथा साधुपकरणं क्रमपकरणः सन् परिहरन् परि भगवते नरिष्यते अस5 नायो विशुद्धवासांपास तोति तस्यातिशयः । संप्रति प्रशंसनमाह । गंभीरो मदवितो, त्रयवच्छ सिवो सोमो | त्या दाया ॥ तादिगुणावे, पहाणणाणतत्रसंजमावसतो । माइसनगुरुगुण, विकणं संसरतियये ॥ गम्भीरोऽपरावी मादवितो मार्दवोपेतस्तया अभ्युपगतस्य शिष्यस्य प्रातीच्छिकस्य वत्सलो यथोचितवात्सल्यकारी तथा शिवोऽनुपवस्तथा सोमः शान्ताकृतिः तथा विस्तीर्णकुत्पन्न दाता कृतज्ञः श्रुतवान् तथा कान्यादिगुणोपेतः प्रधानज्ञानतपः संयमाना मावसथी गृह एवमादीनां सतां गुरुगां नाविकत्थनं श्लाघनमेवं चतुर्थः प्रशंसनः निशयः अथवा प्रशंसनस्य फलनात् । सगुना चैव मया। भावे ट्रोग्न संसणं, निगमे विसान्जो ॥ मगुणोत्कीर्तनायां महती निर्जरा जवान तथा सद्गुणकीनावादिनां प्राकृती भवन अपभ । इसेस महान गुणो गुणवन्तमाचार्य श्रुत्वा बहूनां राजेश्वर तलवरप्रनतीन पृष्ठार्थमनिगमो भवति । पृथ्यानिमित्तमाचार्यसमीप मागच्छन्त आगताश्च धम्मं श्रुत्वा भगारधर्ममनगारधम्मं वा प्रतिपद्यन्ते इति द्विविधलाभः । पम्मातिशयप्रतिपादनार्थमा करचरण नयनदसणा, ईपाच अतिसेो । आयरियस उ सययं, कायव्वो होति नियमेण ॥ करचरणनयनदशनादिप्रकालनं पञ्चमोऽतिशयः सततमाचार्यस्य नियमेन जवति कर्तव्यः । अत्र पर आई । मुहनयतपाया - दिघोवणे को गुणणे त्ति ते बुधी । अग्निमतिनापिया, होइ गोप्यया चैव ॥ मुखपनपादिचाने को गुण इति एषा ते बुद्धिः स्यात् ममुखादिजनेनपटुता जरा नित्यं मति पटुता वातायनपादादिकाने या अञ्जन | पहारीता भवति गुणो मुखादा तिशयाः पञ्च । उपलक्षणमन्यदपि यथायोगमाचार्यस्य कप्तव्यं तथा चाड ॥ "" असदस्य जेण जोगा- संचाणं जद व हो येस्स्स | कति त ज संजोगा न हायति ॥ यथा स्थविरस्याशवस्य सतो येन येन क्रियमाणेन योगानां सन्धानं भवति तत्तत्तस्याचार्यस्य साधवः कुर्वन्ति तथा (से) तस्याचार्यस्य योगा न हीयन्ते न हानिमुपगच्छन्ति । एए पुलिसे, उपजीवे न याविको वि दढदेहो | निदरिणं एत्थ जवे, अज्जसमुद्दा य मंगू अ ॥ एतान् पुनरतिशयान् को प्रत्याचार्यो दृढदेहः सन् नोपजीवति यस्त्वदृढदेहः सोऽशनो नृत्वा उपजीवति न तु तैरतिशयै गर्व करोति यामि सम्यते। अत्र निदर्शनं नवत्यार्थसमुद्र महस्याचार्यका एतदेव निदर्शनद्वयं भावयति । अज्जम मुद्दा दुव्वल, कितिकम्मा तिथि तस्स कीरति । सुनत्यपोरिसिसमु-द्वियाण तयं तु चरमाए । आर्य समुद्राः सूरयो दुर्वा दुर्बल रास्ततस्तेऽतिशयानुजीवितवन्तोऽनुपजपने योगसंधानकरणः शस्तथा च तप्रतिदिन णिणि विपाणि क्रिय तथा सुत्रार्थपीरूपमुपस्थानां तृतीयं कृतम् चरम भावना सरसमाप्य यात्रि पद्या क्रियते तावत्प्रथमा विश्रामणा द्वितीयाऽथ पारूपसमायनन्नरं तृतीया चरम पर्यन्तं कालक्रमम सकु तेसिं, दो बंगादी नवी पेप्यति । मंगुस्स न किइकम्मं, न य बीसुंघेप्पए किं वि ।। श्राद्धकुत्रेषु तेषु नेपामार्थसमुद्राणामाचार्याणां योग्यानि विक किया पका रास्कृतिक किति विवक मापके ने किया धा मन्यते दीया होत्य विष्वगानीतमपि न मुझे तौ च पावण्याचा विहरन्तापन्यदा सीपार के गीत ही कार्यकारिक : Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on ) प्रभिधानराजेन्द्रः । इस वैकटिको नाम सुरासन्धानकारी तौ द्वावपि श्रावकावार्थसमु यतिनृतिमात्रके मा मार्यमङ्गूनां पुनर्योग्यमेकस्मिन्नेव पतगृहे गृह्यमाणं पश्यतो दृष्ट्रा ssचार्यमसमीपमागच्छताम् । वेति ततो णं सङ्ग्रा, तुब्ज वि वीसुं न घेप्पए कीस | तो तिज सुन्ने थिय इत्यदितो ॥ ततः समीपागमनानन्तरं तो धावक वा कार्यसमुद्रा सामिव युष्माकमपि विप्राय तत । ब्रक आचार्या अत्रार्थे यूथमेव दृशन्तः कथमित्याद जा मी पुन्नान, तं तुब्जे बंधह प्पयते न विबंध बलियाउ, दुब्बलवलिए व कुंकी वि ॥ अहो शाकटिक या तव मी गन्त्री दुर्वा तां नृपं पत्न बध्दीथ । ततः सा वति यदि पुनरबद्धा वाह्यते तदा विनश्यति या पुनर्वलिका तां नैव बध्नीथ । बन्धनव्यतिरेकेणापि तस्या वदनात् । वैकटिकं प्रति ब्रुवते भो वैकटिक ! या तब कुरामी दुतांश तत्र मयं संथ या तु पत्रिका कुरामी तस्या बन्धमकृत्वाऽपि तत्र संघानं कुरुथ "डुच्चलिए व कुंमी वि" एवं कुएकधपि दुर्बला वल्लिकाच जएमीवत् वक्तव्या । उक्तो दृष्टान्तः । सांप्रतमुपनयनाद एवं अज्जसमुद्दा, दुव्वल जंकी व संतत्रयणाए । धारेति सरीरंतु लिमीसारसगययं तु । मुकेन प्रकारेण दुर्वा गन्धी चात्मीयं शरीरं संस्थापनया धारयति नेतरथा ततस्तेषां योग्यं विष्वक् माके पयंत शास्ततो व शरीरस्य सं स्थापनामपे कामदे । निष्पकिम्मो वि जोगाए तरामिका। नेच्छामि वितियंगे, बी इनिवैति से मंगू ॥ नियतिको वियोगानां संधानं कर्तुं शक्नोति ततो म द्वितीये अङ्गे गात्रके विष्वक् गृह्यमाणमिति ते मझवाचार्या भवते । न तरंतिय ते विरणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु । यतिसा यरिए, सेसा पंतेण बार्देति ॥ आर्यसमुद्राः पुनराचार्यास्तेन विष्वक् प्रायोग्यग्रहणेन विना योगानां सम्धान कर्तुं न शक्नुवन्ति तेन तत्प्रायोग्यं विश्वक गृह्यते एवं शेषाणामपि इत्यस्मात् कारणात् श्रतिशेषा श्रतिशया श्राचार्ये भवन्ति शेषाः पुनः साधवः प्रान्तेन वादयन्ति आत्मानं यापयन्ति गतस्तृतीयोऽतिशयः। श्राचार्योपाध्यायस्य वसतेरन्तदियो एकाकिन चाख इति चतुर्थपञ्चमायतिशयी । संप्रति चतुर्थ पञ्चमावतिशयावाह " अंतो नवस्सयस्स एगराय या पुरायाणं (पूर्वोक्तं विनावधिरिदमाद । तो विसुं समा मासिवं तु क्खुिस । संजम प्रायत्रिराहण, सुझे श्रमुजोदतो होइ ॥ यदि भिक्षुरुपाश्रयस्यान्तरपचर के विष्वक्यतियदिवा बहि रुपाश्रयात् शून्यगृहादिषु तदा तस्य प्रायश्चित्तं मासिकं न केव प्रियति किन्तु दोषाय तामेवाद अन्तहियो राज्यस्थानेोभोदयम् जय विराधना संयमविराधना च । एनामेव नावयति ॥ Jain Education Internationel तायोगे रहिए कम्पादि संजये भेदो । मेराविया में, पेाणसमादिनिव्वे इसे स ॥ तस्य नावस्तङ्गावः पुंवेद इत्यर्थः । तस्मिन्नुपयोगस्तेन तद्भावोपयोगेन विजने स्थाने च वर्त्तमानः सहायरहितो हस्तकमदि कुर्यात् एवं संयमे संयमस्य भेदो विराधना । तथा कोऽप्य तिम्रो एवं चिन्तयेत् यथा मया मर्यादा सफ जनसमकं गुरुपादसमीपेऽवम्बिता संप्रति चारमतिपीमित आसितुं न शक्नोमि ततो निवेदात् वैहानसमुत्कलम्बनमादिशब्दादन्यद्वा श्रात्मघातादिकमाचरेत् एषा आत्मविराधना । तथा विहरतावा एकाकिना न स्थातव्यमाह यदि संयमान्निर्गतजावस्ततस्तस्य सहाया अपि किं करिष्यन्ति तत आह ॥ जयि निग्गय जावो, तहवि य रक्खिज्जए स मेहिं । सकले चिन्ने, विणुतो पावए न महिं || यद्यपि च स संयमात् निर्गतभावस्तथापि सोऽन्यैर्हस्तकर्मादि वैहानसादि वा समाचरन् रयते श्रत्रैवार्थे प्रतिवस्तूपमामाह । (क) को वंशो महीं न प्राप्त अन्य सैरन्तराले स्वस्ति एवं संमभावानपि पसाशुभिः सर्वधा पतन रयतेोकम् । इदानीं गणावच्छेदकाचार्ययोराह ॥ बीते दप्पा, गणिचापरिए होंति एमेष सुन्नं पुरा कारयिं चिक्खुस्त विकारणे गुन्ना ॥ विष्वक दर्पात् कारणमन्तरेण गणिनि गणावच्छेदके आचाये च एवमेव निकोरिव प्रायश्चित्तं संयमात्मविराधने च भवतः । यद्येवं तर्हि सूत्रमनवकाशमत श्राह । सूत्रं पुनः कारणिकं कारणमधिकृत्य प्रवृत्तं ततो नानवकाशं न केवलं गणावच्छे दकाचार्ययोः कारणे यतेरन्तर्यदि सना किंतु मि रवि कारणे बतियां वचनस्यानुका । श्रथ किं तत्कारणं यदधिकृत्य सूत्रं प्रवृत्तमत श्राह । बिजाणं परिवामी, पच्चे एए य देवि प्रायरिया | मास मासिया, पव्वं पुण होइ मज्जं तु ॥ आचार्याः पर्वणि विद्यानां परिपादिति विद्याः परावर्त्तन्ते इति भावः । अथ पर्व किमुच्यते तत श्राह मासाई मासयोर्मध्यं यं पुनः प भवति । तदेवाह । पक्खस्स अहम खबु, मासस्स व पविवयं मुयवं । अपि होइ पव्वं, नवरागो चंदसूराणं || श्रर्द्धमासस्य पक्कात्मकस्य मध्यमाऽमी सा खड पर्व । मासस्य मध्यं पाक्षिकं पक्षेण निर्वृत्तं ज्ञातव्यं तच्च कृष्णचतुर्दशीरुपमव सातव्यं तत्र प्रायो विद्यासाधनोपचारनावात् बहुलादिका मासा इति वचनाच्च न केवलमेतदेव पर्व कित्वन्यदपि प भवति यत्रोपयो ग्रहणं चन्द्रसूर्ययो रेतेषु पसु विद्यासाधनप्रवृत्तिर्यद्येवं तत एकरात्रग्रहणं तत श्राह । सीहो होइ, कोई अवा विसोलामेग्गणं । वत्त तु अज्जतो, होइ पुरायं तिरायं वा ॥ कोऽपि विद्याया प्रयतुर्दश्यां भवति अथवा पो शुक्लपक्क प्रतिपदि विद्याया ग्रहणम् । किमुक्तं नवति कोऽपि विद्याग्रहश्चर्तुदश्यां कृतः कोऽपि प्रतिपदि क्रियते इत्येवं त्रिरात्रयसममथ च केनदिवसेन मनुभावमानं वि- Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) अइसस अनिधानराजेन्डः । असेस याया ग्रहणं भवति । हिग भित्र वा विश्यक वसनमिति। | जहा पंचवाणे जाव बाहिं उस्मगस्स एगगयं वा दुगयं वा यदुक्तं सूत्रेऽतिरायं चति तत्र याशब्दव्याख्यानार्थमाह । वसमाएँ नाइकमइ उचगरणाइसमे नत्तपागाइ मेसे ।। वासद्देण चिरं पि, महपाणादीमुमो उ अत्यजा। एत व्याख्यातमेवेति इदमधिकमुपकरणानिशेषःशेषसाधुभ्यः ओयविए भरहम्मि, जह राया चक्कवहादी। सकाशात प्रधानोज्ज्वल वस्त्राापकरणतः उक्नंच । “श्रारिवाशब्देनेदं सूच्यते चिम्मपि कालं महा (पाना) प्राणा- यगिलागाणं, महला मइला पुणो वि धोवति । मा हु गुरुण दिपु ध्यानेषु स तिष्ठत स हि यावन्नाद्यापि विशिष्टलाभो भ- | अवमो, लोगम्मि अजिरणं इयरोत्त" ॥१॥ ग्लाने इत्यर्थः वनि तावन्न निवर्तते ध्यानादत्रैव दृष्टान्तमाह । यथा गजा भक्तपानातिशेपः पूज्यतरभक्तपानतेति उक्तञ्च " कलमायणा चक्रयादिगदिशब्दाद्वासुदेवपरिग्रहः (ओयविए) प्रसाधि- उ पयसा, परिहाणी जाव कोद्दयज्झजी । तत्थ उ मिउप्पतरं, ते अर्द्धभरने वा न निवर्तते यावदवध्यादिलाभो न भवतीति। जन्थ य ज अच्चियं दोसु" ॥१॥ (कोद्दवज्झन्जित्ति काहबअथ महाप्राणध्याने का कियन्तं कालमुन्कर्पतस्ति नीति जाउलये दासुति ) क्षेत्रकालयोरिति गुणाचने "सुत्तत्थथिप्रतिपादनार्थमाह । करणं, विणश्री गुरुपूय से य बहुमाणो । दाणवइसम्बुद्धी, वारसवामा भरहा-हिवस्स छच्चेव वासुदेवाणं । बुद्धोबलबद्धणं चेव त्ति" स्था० ७ ग०॥१॥ तिणि य मंझलियम्म, उम्मामा पागयजस्म ।। गणावच्छेदकस्य गणे द्वौ अतिशयौ । महाप्राणध्यानमुत्कर्षनो भरताधिपस्य चक्रवर्तिनो द्वादश (मूत्रम् ) गणावच्यस्स गणसि ए दो अइमेसा पवणि यावत्यः वर्षाणि वासुदेवानां वलदेवानामित्यर्थः । साना तं जहा गणावच्चए अंतो उवस्सयस्स एगरायं वा वीणि वर्णणि मालिकस्य परमासान् यावत् प्राकृतजनस्य। दुगयं वा वममाणे णो अपकमइ १ गणावच्छेदए बाहिं उजे जत्थ अहिगया खबु, अस्सादचक्खमाइया रम्या । वस्मयम्स एगरायं वा दुरायं वा वसमाण को अतिकमह।। तेसि जरणम्मि कणे, मुंजनि भाए अदंमादी ।। " गणावच्छेयस्स गणंसि णं" इत्यादि गणावच्छेदकस्य ये "अस्सादद्धक्खमाइया" महाश्वपत्यादयो यत्राश्वभर- गणे गणमध्ये द्वावतिशयौ भवतस्तद्यथा गणावच्छेदक उपागादौ गज्ञा अधिकृता व्यापारिनास्ते सेगमश्वादीनां भरणे श्रयस्यान्तः एकरात्रं वा द्विरात्र वा वसन नातिकामति नाऊने मनि भोगान् अदगडादीन दगडादिरहितान् भुङ्क्ते न तस्य तीचाग्भाग्भवति तथा गणावच्छेदको दहि रुपाश्रयादेकगनथा भोगान् भुजानस्य दण्डोऽपराधो वा अद्याप्यश्वादिभ- त्रं वा द्विरात्रं वा वसन् नातिकामति । एतौ च द्वावप्यतिशरणभावात् एष दृष्टान्त उक्तः। यो सूत्रोक्ती गणावच्छेदकस्य द्रएव्यौ यो नियमादाचार्यो भसंप्रति दार्शन्तिकयोजनामाह । विष्यति यः पुनर्गणावच्छेदकत्वे वर्तमान प्राचार्यपदस्यानह. इय पुनगयाधीते. वाहु नामेव ताम्मणे पच्छा। स्तस्यैतौ द्वावष्यतिशयो न कल्पते । भाष्यम् । पियइ ति व अत्थपए, मिणइ त्ति व दो वि अविरुछा। पंचेते अतिसेसा, आयरिए होंति दोलि उ गणिस्स । इत्येवममुना दृशान्तप्रकारेण पूर्वगते अधीने "बाहुसनामेव" भिक्खुस्स कारणाम्म उ, अतिसेसा पंच वा जणिया ।। भद्रबाहुग्वि तत् पूर्वगतं पश्चात् महापानध्यानबलेन मिनाति पते अनन्तरसूत्रोदिताः पञ्चातिशया आचार्य भवन्ति । दागनिःशेषमात्मेच्छया तावन्न निवर्तते नतश्विरकालमपि वसति णिनो गणावच्छेदकस्य निकाः पुनः कारणेऽप्यतिशया भणितस्य न कोऽव्यपगधःप्रायश्चित्तं दण्डो वा। संप्रति महापान ताः । एतदेवाह । शब्दस्य व्युत्पत्तिमाह पिबतीति वा मिनोतीनि वेति द्वावपि जे सुत्ते अतिसेमा, आयरिए अत्थतो व जे जणिया । शब्दावेतावविरुद्धी तत्वत एकार्थापित्यर्थः । नत एव व्यत्तिः पियति अर्थपदानि यत्र स्थितस्तत् पानं महश्च तत्पानं ते कज्जे जयसेवी, भिवस्व विन वाउमी जवति ।। च महापानमिति । येऽतिशेषा आचार्यसूत्रे साकादनिहिता ये चान्ये पञ्चार्थतो अंता गणी वा गणो, विक्खेवो मा हु होज अग्गहणं । भणितास्तान् दशाप्यतिशयान कार्य कारणे समागते। "कजंति ता कारणति वा एगहमिति" वचनात् ( जयसेवीति) यतनया वमनेहिं परिक्खित्तो. न अत्यते कारणे तेहिं ।। सवमानी भिक्षुरपि नवकुशत्वदोषण गृह्यते इति भावः किं तअन्तर्गणी गणा या वाशब्दादेवं बहिरपि । इयमत्र भावना ।। कार्यमत पाह। यद्याचायों वसंतरन्तम्तता गणो बहिर्वसति श्रथ गणोऽन्तम्तत आचायों बहिः किं कारणमाचार्यो गणश्च विष्वक व वालासहमतरतं, सुवादि पप्प इमिवु वा। मति तत वाह (विस्खेवी) इत्यादि प्राचार्यस्य विद्यादिगुणा दस वि भक्ष्यातिमेसा, निक्खुस्स जहकमं कजे ।। दिषु व्याक्षपो मा भूत (अम्गहणमिति) अयोग्यानां कर्मपत चोलममहमनरन्तं ग्लानं शुचिवादिन ऋद्धिवृक्ष वा प्राप्य नती विद्यादीनामग्रहणं भूयात् एताभ्यां कारणाभ्यां वृषभः दशाप्यतिशेषा निक्षा कार्य समापतिते यथाक्रम नजिताविकपगितिमाऽन्तर्बहिर्वा विष्वगाचार्यों वसति । व्य०१ उ०। हिपना भवन्तीति भावःतथा हि वात्रस्य हस्तपादादयःनकाल्यआवायांपाध्यायस्य गण मन अतिशयाः। न्ते अन्य वातिशया यथासंन क्रियन्ते तथा असहो नामासआयरियन्कायस्स णं गांसि सत्त अइसेसा पम्पत्ता मर्थस्तस्यापि यथाप्रयोगमतिशयाः क्रियन्ते । तथाऽतरन् ग्लान: शचिवाई। शोचप्रधानः शिष्य ऋफिवृको गजादिःप्रव्रजित इ. नं जहा आयरिय उज्झाए अंतो उवम्सगस्स पाए निग त्यपामपि दशाप्यतिशया यथायोग विधेयाः । व्य०६००। झिय २ पष्फोमेमाणे वा पमजेमाणेवा नाकमा एवं (जिनकल्पिकस्य सोभतिशयो) “विहो तसि" (जिनक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) अभिधानगजेन्द्रः | अइस ल्पिकानाम ) " इसओ नाणासश्रो सरीराइसओ य णाणाइसओ ओहि मणपज्जवसुत्तत्थ तनयं च । निवत्र अभिनवच्चा, सारीरा होतिं अइसेसा " पं० ० ॥ ( तीथकृतः चस्वारः मूलातिशयाः) “अपायापगमातिशयो ज्ञानातिशयः पूजातिशयो वा गतिशयश्च " पं० सू० । र० । स्था० नं० बुद्धस्य ( तीर्थकृतः ) चतुस्त्रिंशदतिशयाः । चौती का सा पानातं जहा अयिकेससुरोमन हे ? निरामया निरुवलेवा गायलडी २ गोक्खीर पंकुरे मंससोलिए ३ पउप्पलगंधिए उस्मामनिस्सासे ४ पच्छ आहारनीहारे अदि सचवा आगासमयं चक्कं ६ आगासगयं उत्त ७ आगासगयाच्या सेयवरचामराओ G आगासफालियामयं सपायपीट मीहासरणं श्रागासग कुमभीसहस्सपरिमंकियानिराम इंदपुर गच्छ १० जन्य जस्थ पिय अर हंता जगवंता चिट्ठेति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थ वि तक्खणादेव सच्चनपत्त पुष्पपत्रसमाउलो सच्छतो सज्य सघंटो सपफागो अभोगवरपायवे अभिसंजाय‍ ११ सिपि मरुद्वाणम्मि तेयममलं अभिसंज्ञाय अंधकारे विव दस दिसाओ पनास १२ बसमरमणिजे भूमिजागे १२ अहोमिरा कंटया जायेति १४ टक विवरीया मुहफासा भवंति १५ सयलेणं मुहफासणं सुरजिला मारुएणं जोयणपरिमंगलं सव्वत्र समता संपमजिन्न १६ गुनफुनिएणं मेहेण य नियम्यरेणू पकिज्जइ १७ जलथलयभासुरपनृतेनं विंटद्वावियदसवन्नणं कुसुमेणं जास्सेप्पमाणमिले पुष्फोक्यारे किलाइ १० श्रमाणं सद्दफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसां भवइ मणुन्नाणं सदफरिसर सरूवगंधाणं पाउभाओ जवइ १० उओ पासि च अरहताणं जगताएं दुबे जखा करुगमियर्थभियया चामरुक्वेव करेति २० पत्राहरओ त्रियणं हियवगमणी ओ जोपणनीहारी सरो २१ भगवं च ां अद्धमागहीए नासाए धम्ममाइक्खर २२ सा वि य णं श्रद्धमागही नासा जासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं रियमणारियाणं दुपयचनृप्पय मियंपसुपक्खिसरीसिवाणं पणो हियसिवसुहदाए जासत्ताए परिणम २३ पुचवद्धयेरा वि ष णं देवासुरनागमुपजक्रखरवस्वसार्कनरकिंपुरिसगरुगंधस्त्रमहोरगा आरओ पावले पसंतपित्तमाणसा धम्मं निसामेति २४ अतिथियपाणिया विय समागवावंदति २५ आ गया समाणा अरओ पायनिप्पनिया हति २६ जय जय वि य णं अरहंतो भगवंतो विरति तत्र तत्र वि य णं जायणपणवीसांईती न जवइ २७ मारी न जब छ सचकेन नव परचन व ३० ही न भव ३२ इसेस अनभव २२ २३ पुष्पमा चिणं उपाध्या वाटी पिप्यामेव उपमति २४ | म. ३५ अथ चतुस्त्रिंशत्तमस्थानकं किमपि लिख्यते ( बुद्धासत्ति) निशा शेषः अत्रस्थितमस्विभाव देशाथ शिरोजाः मणिरामाणि च शेषशरीरनोमानि नखाश्च प्रतीता इति द्वन्द्वैकत्वमित्येकः १ निरामया नीरोगा निरुपपा निर्मला गात्रयष्टिस्तनुवतेति द्वितीयः २ गोकीरपाणकुरं मांसशोणितमिति तृतीयः ३ तथा पद्मं च कमन्यद्रव्यविशेषामिति मुलान्धस्यविशेषस्तयोयों मन्यः सत्रात ततसमासमिति चतुर्थः समाहारनिदोरम अभ्यवहरणसूत्रपुरीषोमेटतरमाह श् मांसा न पुनरययादिचनेन इति पञ्चमः ५द्विती यादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययम् । आकाश चक्रं षष्ठं तथा आकाशगतं व्योमवर्ति आकाशकं वा प्रकाशमित्यर्थः चक्रं धर्मचक्रमिति षष्ठः ६ आकाशके उत्रमिति सप्तमः एवमाकाशगं वत्रं बत्रत्रयमित्यर्थः ७ आकाश के प्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः ८ ( आगासफालियामयत्ति ) आकाशमिव यदत्यन्तमच्छं स्फटिकं तन्मयं सिंहासनं सहपादपीत्रमिति नवमः ६ ( आगासगओन्ति ) आकासगतोऽत्यर्थे तुङ्गमित्यर्थः कुडिनपिताका संभाव्य परिमाि रामश्वातिरमणीय इति विग्रह: ( इंदज्जयन्ति ) शेषध्वजापेक्याऽतिमहत्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति ( पुरओत्ति) जिनस्याप्रतो गच्छतीति दशमः १० " चि ंति वा निसीयंति येति" तिष्ठन्ति गतिनिवृत्यादिशन्ति तणा देवास) कानमित्यर्थः पत्रः इति बक्त व्ये प्राकृतत्वात् संकृनपत्र इत्युक्तं स चासौं पुष्प पल्लव समाकुलश्वेति विग्रहः पवा] अङ्कुराः सच्छत्रः सध्वजः सघण्टः सपताकाशोकचरा इत्येका ११ खिन्ति पद (पति) पृष्ठतः पचाद्भा (ममाणमिति) मस्तक तेजीम प्रारमिति द्वादशः १२ समरमणीय भूमिभाग इति प्रद दशः १३ (अहोसिरति अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति चतु देशः १४ ऋतवां विपरीताः कथमित्याह । सुखस्पर्शा भवन्तीति पञ्चरः १५ योजनं वाचन क्षेत्रशुद्धिः संवर्तत १६ ( जुत्तफुसिपत्ति ) उचितबिन्दुपातेनेति ( निहयरयरेसुयंति) वातवानमाकाशवर्ति रजो भूचर्ती तु रेणुरिति ग न्धोदकवर्षाभिधानः सप्तदशः १७ जलस्थलजं यद्भास्वरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थापिता ऊर्द्धमुखेन दशार्द्धवर्णन पञ्चवर्णेन जानुनोरुत्सेधस्य उच्चत्वस्य यत्प्रमाणं यस्य स जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोपचारः पुष्पप्रकर इत्यष्टादशः १८ तथा ( कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे भयाति) कालागुरुगन्धद्रव्यविशेषरु श्च चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुक्कं च शिक्षकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्वस्तत एतल्लक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमातो बहुलसीरभ्यां यो गाउन उद्धतस्तेनाभिराममभि रमणीयं यत्तत्तथा स्थानं निपीदनस्थानमिति । प्रक्रम इत्येको नविंशतितमः १६ तथा उभयोः "पासि च णं अरहंताणं भगवनाएं दुवे जक्खा कडयतुडियथंभियभुया नामरुक्खेवणं क रतित्ति " कटकानि प्रकोष्ठाभरणविशेषास्त्रुटितानि ब्राह्नाभर विशेषास्तैरतिबहुत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भित भुज ययो Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) अइसेस अभिधानराजेन्द्रः। अश्सेस स्तौ तथा यक्षौ देवाविति विंशतितमः २० वृहद्वाचनायामन- र्वापर्यम् । शिएम १० असंदिग्धम् ११ अपहृतान्योत्तरम् १२ न्तरोक्नमतिशयद्वयं नाधीयते अतस्तस्यां पूर्वेऽटादशैव श्रम- हृदयग्राहि १३ देशकावाव्यतीतम् १४ तत्वानुरूपम् १५ अप्रमोज्ञानांशब्दादीनामपकर्षोऽभाव इत्येकोनविंशतितमः १६ म. कीमाप्रमृतम १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतम् १७ अभिजातम् १८ नोझानांप्रादुर्भाव इति विंशतितमः २० (पवाहरोत्ति)प्रव्या- अतिस्निग्धमधुरम १४ अपरमर्मविद्धम २० अर्थधर्माच्यासा. हरतो व्याकुर्वतो भगवतः (हिययगमणीउत्ति) हृदयङ्गमः (जो- नपेतम् २१ उदारम ५५ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तम २३ उपगयणनीहारीत्ति) योजनातिक्रमी स्वर इत्येकविंशः२१ (अद्धमा- तवाघम २४ अनपनीतम २५ उत्पादिताचिनकौत हलम २६ गहीयत्ति)प्राकृतादीनांपनां भाषाविशेषाणांमध्ये या मागधी ना- अद्भुतम् २७ अनतिविम्बितमा २८ विभ्रमविक्केपकिलिकिञ्चिता. म भाषा 'रसोलसौ' मागच्यामित्यादिलक्षणवती सा असमा- दिविमुक्तम २५ अनेकजातिसंश्रया द्विचित्रम् ३० आहितविशेश्रितस्वकीयसमग्रलक्षण्यईमागधीत्युच्यते तया धर्ममाख्याति पम् ३१ साकारम् ३२ सत्यपरिग्रहम् ३३ अपरिवदितम् ३४ तस्याएवातिकोमलत्वादिति द्वाविंशः२२(भासिज्जमाणात्ति) अब्युच्छेदम् ३५ चेतिवचनम महानुन्नावर्वक्तव्यमिति । तत्र भगवताऽभिधीयमाना (श्रारियमणारियाणंति) श्रार्यानार्यद. संस्कारवत्त्वं संस्कृतानिणयुक्तत्वम । नदात्तत्वमुच्चैर्वृत्तिता २ शोत्पन्नानां द्विपदा मनुष्याश्चतुप्पदा गवादयः मृगा पाटव्याः उपचारोपेतत्त्वमग्राम्यता ३ गम्भीरशब्द मेघस्येव ४ अनुनादित्वं पशवो ग्राम्याः पक्षिणःप्रतीताःसरीसृपा उर:परिसपी भुजप- प्रतिरवोपेतता ५ दकिणत्वं सरलत्वं ६ उपनीतरागत्वं मानरिसपश्चेिति तेषां किमात्मन श्रात्मतया श्रात्मीययेत्यर्थः भाषा कोशादिग्रामरागयुक्तता ७ पते सप्त शब्दापेक्वा अतिशयाः । सया भाषाभावेन परिणमतीति संबन्धः । किं भूताऽसौभा अन्ये त्वर्थाश्रयास्तत्र महार्थत्वम् वृहदभिधेयता G अव्याहत. त्याह हितमभ्युदयः शिवं मोक्षः सुखं श्रवणकालोद्भवमा पौर्वापर्यत्वम् पूर्वापरयाक्याविरोधः । शिष्टत्वम् अभिमतनन्दं ददातीति हितशिवसुखदेति त्रयोविंशः २३ पूर्व भवा सिमान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १० असंदिग्धत्वम् न्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्ययबद्धं निकाचितं वैरमामित्रभा असंशयकारिता ११ अपहृतान्योत्तरत्वम् परदूषणाविषयना १२ वो येषां ते तथा तेऽपि च आसतां मध्ये देवा वैमानिका अ हृदयग्रादित्वम् श्रोतृमनोहरता १३ देशकालाव्यतीतत्वम् प्रस्तामुरा नागाश्च भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः शोभनवर्णा एते वोचितता १४ तत्वानुरूपत्वम् विवक्तिवस्तुस्वरूपानुसारिता च ज्योतिष्का यक्षराक्षसकिन्नराः किंपुरुषाः व्यन्तरभेदाः ग १५ अप्रकीर्णप्रसतत्वम् सुसंबन्धस्य सतः प्रसरणम् अथवाऽ रुडागरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः ग संबद्धाधिकारित्वातिविस्तरयोरजावः१६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वम् न्धर्वा महोरगाश्च व्यन्तरविशेषा एव पतेषां द्वन्द्वः ( पसंतचित्तमागसत्ति) प्रशान्तानि समङ्गतानि चित्राणि रागद्वेषा परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्वता १७ अभिजातत्व धनेकविधविकारयुक्ततया विविधानि मानसान्यन्तःकरणा चक्षुःप्रतिपाद्यस्येव नूमिकानुसारिता १८ अतिस्निग्धमधुरत्वम् नि येषां ते प्रशान्तचित्रमानसा धर्म निशामयन्ति इति चतु घृतगुमादिवत् सुखकारित्वम् १६ अपरमर्मवेधित्वम् परमर्माविशः २४ वृष्वादतया इदमन्यदातशयद्वयमधीयते यदुत अ नुद्वहनस्वरूपत्वम् २० अर्थधर्माज्यासानपेतत्वम् अर्थधर्मप्रतिन्यतीर्थिकप्रावचनिका अपि च रणं वन्दन्तो भगवन्तमिति ग बहत्वम् २१ उदारत्वम् अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वगुम्फं गुणविम्यते इति पञ्चविंशः २५ आगताः सन्तोऽर्हतः पादमूले नि शेषं वा २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव २३ प्रतिवचना भवन्ति इति षकिंशः २६ ( जो जो वि य उपगतश्लाघत्वम् उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाघता २४ अनपनीतगति) यत्र यत्रापि च देशे (तो तो त्ति ) तत्र तत्राs त्वम् कारककालवचननिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५ पि च पञ्चविंशतियोजनेषु ईतियाध्यागुपद्रवकारी प्रचुरमे उत्पादिताच्चिन्नकौतूहलत्वम् स्वविषये श्रोतृणां जनितमविच्छिन्नं पकादिप्राणिगण इति सप्तविंशः २७ मारिर्जनमारक इत्यष्टा कौतुकं येन तत्तथा तद्भावस्तत्वम् २६ अद्रुतत्वमनतिविलम्बिविंशः २८ स्वचक्रं स्वकीयराजसैन्यं तदुपद्रवकारि न भव तत्वं च प्रतीतम् २७----२८ विभ्रमविक्केपकिलकिञ्चितादिवितीति एकोनत्रिंशः २६ एवं परचक्र परराजसैन्यमिति त्रिंशः मुक्तत्वम् विभ्रमो वक्तमनसो भ्रान्तता विक्केपस्तस्यैवाभिधेयार्थ ३० अतिवृष्टिरधिकवर्ष इत्येकत्रिंशः ३१ अनावृष्टिवर्षणाभाव प्रत्यनासक्तता किनिकिञ्चितं रोषभयानिवाषादिनावानां युगइति द्वात्रिंशः ३२ दुर्भिक्षं दुष्काल इति वयस्त्रिंशः ३३ (उप्पा- पहासककरणमादिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्त इयावाहित्ति) उत्पाता अनिष्टसूचका रुधिरवृष्टयादयस्तद्धे- त्तथा तद्भावस्तत्वम् २६ अनेकजातिसंश्रया द्विचित्रत्वम श्छ तुका येऽनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो ज्वराद्यास्तदु- जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि ३० श्राहितविशेषत्वम् वचपशमोऽभाव इति चतुस्त्रिंशतमः ३४ अन्यञ्च "पवाहरो" नान्तरापेकया दौकितविशेषता ३१ साकारत्वम विच्छिन्नवर्मइत श्रारभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः पदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वम् ३२ सत्वपरिगृहीतत्वं साहसोपेतता शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति पते च यदन्यथाऽपि ३३ अपरिखेदितत्वम अनायाससंजयः ३४ अव्युच्छेदित्वं विवदृश्यन्ते तन्मतान्तरमेव मन्तव्यमिति सम०३४ स०(इदमत्रनि- क्वितार्थसम्यसिलिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५ सम। गमनं चत्वारो जन्मप्रतित एकोनविंशतिः देवकृताः एका सूत्रार्थाद्यतिशयाः। दश घातिकर्मणां क्याद्भवन्तीति चतुस्त्रिंशदतिशयाः उक्ताः दर्श०)। सत्यवचनस्य पञ्चनिशदतिशयाः। मुत्तत्ये अइसेसा, सामायारी य विज्जजोगाइ । पणतीसं सच्चवयणाइसेसापएणता। विज्जाजोगाइ मुए, विसति दुविहा अओ होति ।। पञ्चत्रिंशत् स्थानकं सुगमं नवरं सत्यवचनातिशया आगमेन | हातिशयात्रिविधास्तद्यथा सूत्रार्थातिशयाः सामाचार्यतिरष्टा एते तु ग्रन्थान्तरे दृशाः संजावितवचनं हि गुणवद्वक्तव्यं । शयाः विद्या योगा आदिशब्दान्मन्त्राश्चेति त्रयोऽतिशयास्तत्रतद्यथा संस्कारवत् १ उदात्तं २ उपचारोपेतं ३ गम्भीरशब्दम् ४ विद्या स्त्रीदेवताधिष्ठिता पूर्वसेवादिप्रक्रियासाध्या वा योगाः अनुनादि ५ दक्किणम् ६ उपनीतरागं ७ महाथै ८ अव्याहतपौ- पादपप्रनृतयो गगनगमनादिफलाः । मन्त्राः पुरुपदेवताः, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) अश्सेस अभिधानराजेन्द्रः। अहिसंविनाग पंगितसिका वा । या विद्या यागाश्चशब्दान्मन्त्राश्च श्रुते एवं | पाणाई दवाणं देसकालसद्धासकारकम नुत्त पराए विशन्ति अन्तर्भवन्ति अतो द्विविधा अतिशयाः भवन्ति तत्र सुत्रार्थातिशयाः सामाचार्यतिश याश्वेत्येतेषामतिशयानामुपल .. भत्तीए आयाणुग्गहनुछीए संजयाणं दाणं ।। ब्धिः प्रवाचनाचार्यपर्युपासनया भवति वृ० १ ० । अव- नामशब्दः पूर्ववत् न्यायागतानामिति न्यायो द्विजक्षत्रियविध्यादौ, ० । कर्मणि प्रत्ययः अतिक्रान्ते, स्था० ४ ग०१ उ० टशूद्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठानं स्ववृत्तिश्च प्रसिद्धव प्रायो लोकव्यवपतिशिष्यते कर्मणि घश् । स्वल्पावशिष्टे, वाच । हार्या तेन तादृशा न्यायेनागतानां प्राप्तानामनेनान्यायेनागअइसेसइलि-अतिशेषधि-पुं० अतिशेषा अवधिमनःपर्याय- तानां प्रतिषेधमाह । कल्पनीयानामित्युद्गमादिदोषवर्जिनानाझानामोषध्यादयोऽतिशयास्ते तैर्वा अभियस्याऽसौ अतिशे मनेनाकल्पनीयानां निषेधमाह अन्नपानादीनां द्रव्याणामादिपार्हः प्रथमे प्रवचनप्रनायके, प्रव०१४ द्वानि००। दश० ग्रहणादापात्रौषधभेषजादिपरिग्रहः अनेनापि हिरण्यादिव्यअइसेमपत्त-अतिशेषमाप्त-त्रि० श्रामदैषध्यादिलब्धीः प्राने, वच्छेदमाह । देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तं तत्र नानाब्रीहि कोद्रवकङ्गगोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः, सुभिक्षदुर्भिक्षादिः का. कल्प०॥ लः, विशुद्धचित्तपरिणामः श्रद्धा, अभ्युत्थानासनदानवन्दअइसेमपहत्त-अतिशेषमनुव-न० अतिशायिप्रभुत्वे, व्य०६उ०। नानुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदान अइसेसि (न् )-अतिशेषिन्-त्रि० स्फोत, श्रोघ०। क्रमः, पभिर्देशादिभिः युक्तं समन्वितमनेनापि विपक्षव्यवअइसेसिय-अतिशेषित-त्रि० अतिशयिते, व्य०६ उ०। कछदमाह । परया प्रधानया भक्त्योत्पन्नेन फलप्राप्ती भक्तिकअ (ति) हि-अतिथि-पुं०न विद्यन्ते सततप्रवृत्त्या विश तमतिशयमाह । श्रात्मानुग्रहवुयेति न पुनर्यस्यनुग्रह बुवेति देकाकाराऽनुष्ठानतया तिथयो दिनविभागा यस्य सोऽतिथिः तथा ह्यात्मपगनुग्रहपरा एव यतयः संयताः मूलगुणोत्तरगु. रगसंपन्नाः साधवः तेभ्यो दानमिति सूत्राक्षरार्थः प्राव० ६ "तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथि तं श्र० । अत्र बुद्धोक्ता सामाचारी श्रावण पोषधं पारयता विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुरित्युक्तलक्षणे (ध०२ अधि०)। नियमास्साधुभ्यो दत्वा पारयितव्यमन्यदा पुनरनियमो दत्वा तिथिपर्वादिलौकिकव्यवहारपरिवर्जके भोजनकालोपस्था वा पारयति पारयित्वा वा ददाति तस्मात्पूर्व साधुभ्यो दत्वा यिनि भिक्षुविशेपे, ध० २ अधि । श्राव० । श्रा० । श्रातु । पश्चात्पारयितव्यम् । कथं यदा देशकालो भवति तदात्मनो प्रनि० । प्राचा०। श्रागन्तुके, भ०११ श०६ उ०। विभूषां कृत्वा साधूंस्तत्प्रश्रयं गत्वा निमन्त्रयते भिक्षां गृहीअइ (ति) हिमा-अतिथिपूजा-स्त्री०६ तक अाहारादि तेति । साधूनां का प्रतिपत्तिरुच्यते । तदा एकः पटलकमन्यो दानेनातिथेः सत्कारलक्षणे लोकोपचारविनयभेदे, द०५ मुखानन्तकमपरो भाजनं प्रत्यपेक्षते मा अन्तरायदोषाः स्थापश्र० " बलिवइस्सदेवं करेइत्ता अतिहिपूयं करे करेइत्ता नदोषा वा भवन्तु स च यदि प्रथमायां पौरुप्यां निमन्त्रयते तो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ"भ०११ श६ उ नि०, अस्ति च नमस्कारसहितप्रत्याख्यानीयस्ततस्तमृह्यते । अथवा अइ (ति) हिवन-अतिथिवन-न० अतिथेः शक्त्युपचये, नास्त्यसौ तदा न गृह्यते यतस्तद्वोढव्यं भवति । यदि पुनर्घश्राचा० १ श्रु० २ १०२ उ०। प्रति। न लगेत्तदा गृह्येत संस्थाप्यते च यो वोदाटपौरुष्यां पारयति श्रा (ति) हिम-अतिहिम-न० प्रतिशयितहिमे, पिं०। । पारणकवानन्यो वा तस्मै तद्दीयते पश्चात्तेन श्रावकेण सम संघाटको बजत्येको न व्रजेत् प्रेषयितुं साधुपुरतः श्रावकस्तु अइ (ति) हिवणीमग-अतिथिवनीपक-पुं० अतिथिमा-| मार्गतो गच्छति ततोऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमन्वयेत श्रित्य वनीपकः । अतिथिदानप्रशंसनेन तद्नात् लिप्स्यमाने यदि निविशेते तदा भ्रष्टमथ न निविशेने तथाऽपि विनयः प्रयुयाचकभेदे, स्था० ५ ठा। तो भवति ततोऽसौ भक्तं पानं च स्वयमेव ददाति अथवा सांप्रतमतिथिभक्तानां पुरतोऽतिथिप्रशंसारूपं वनीपकत्वं भाजन धारयत्यथवा स्थित एवास्ते यावदत्तं साधू अपि यथा साधुर्विदधाति तथा दर्शयति । सावशेष गृहीतः पश्चात्कर्मपरिहरणार्थ ततो दत्वा वन्दित्वा पाएण देइ लोगो, उवगारिमु परिचिएमु कुसिए वा । च विसर्जयत्यनुगच्छति च कतिचित्पदानि ततः स्वयं भुते नो पुण अछाखिन्नं, अतिहिं पूएइ तं दागं ।। यञ्च किल साधुभ्यो न दसं तत् श्रावकेण न भोक्तव्यम् । इह प्रायेण लोक उपकारिषु यद्वा परिचितेषु यदि वा अध्यु- | यदि पुनस्तत्र प्रामादौ साधवो न सन्ति तदा भोजनयेलायां दिगवलोकनं करोति विशुद्धभावेन च चिन्तयति यदि सापिते आश्रिते ददाति भक्तादि यः पुनरध्वखिन्नमतिथि पूज धवोऽभविष्यस्तदा निस्तारितोऽहमभविष्यमिति विभापति यति तदेवं जगति दानं प्रधानमिति शेषः। पिं० । नि० चू। गाथार्थः ३१ पंचा० १विव० । ध०र० । ५० । धा । “एसा अइ (ति) हिसंविनाग-अतिथिविनाग-पुं० तिथिपर्वा विहीणाणासु बंभयारीसु भत्तीए गिही उगह कुज्जा पारिदिलौकिकव्यवहारत्यागाद भोजनकालोपस्थायी श्रावक- उकामो य वरं इह परलोगे य दाण फलं"श्रा० चू०४ अ०॥ स्यातिथिः साधुरुच्यते तस्य संगतो निर्दोषो न्यायागतानां अस्य पञ्चातिचाराः। कल्पनीयानपानादीनां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तः पश्चाकर्मादिदोपपरिहारेण विशिष्ट भाग श्रात्मानुग्रहबुञ्यादान तयाणंतरं च णं अहासचिनागस्स पंच अाराजामतिथिसंविभागः। यथा संविभागापरनामके चतुर्थे शिक्षा- प्रियव्या न समारियव्वा । तं महा सनित्तनिक्खेवण्या व्रते, ध० ३ अधि० ( तत्वं च ) १ सपिचत्तहणया २ कालाकमदाणे ३ परवदेसे । अतिहिसैविभागो नाम नायागया कप्पणिज्जाणं अन्नं मच्छरया ५ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) अहिसविनाग अभिधानराजेन्द्रः । प्रश्रो यथा सिम्स्य स्वार्थ निर्तितस्येत्यर्थोऽशनादेः समिति सरऊ नईए समं मिलित्तासम्गदुवारंति पसिद्धमावन्नो जीए. सातत्वेन पश्चारकर्मादिदोपपरिहारेण विभजनं साधवे दान- उत्तरदिसाए बारसहि जोयणेहिं अट्ठापयनगवरो जत्थ भद्वारेण विभागकरणं ग्था सविभागस्तस्य (सचित्तनिक्खेवणे- गवं प्राइगरो सिद्धो जत्थय भरहेसरेण सीहनिसिज्जाययणं त्यादि) सचित्तषु ब्रीह्यादिषु निक्षेपणमन्नादेरदानबुद्धया मा. ति कोसुश्चं कारियं नियनियवम्पप्पमाणसठाणजुत्ताणि अचतृस्थानतः सचित्तनिक्षेपगमेवं सचित्तेन फलादिना स्थगनम उवीसजिणाणं बिंबाई ठाषियाई तत्थ पुवदारे उसभजियाणं सचित्तपिधानम् २ कालानिक्रमः कालस्य साधुभोजनकाल- दाहिणदारे संभवाईणं चउमं, पच्छिमदुवारे सुपासाईणं अस्यादिक्रम उल्लङ्घनं कालातिक्रमः । अयमभिप्रायः कालमून. टुराहं उत्तरदुवारे धम्माईणं दसराहं थूभसयं च भाउप्राणं मधिकं च ज्ञात्वा साधवो न ग्रहीष्यन्ति शास्यन्ति च यथा- तेण च कारिग्रं। जीए नयरीए वत्थव्या जस अट्ठावयउच्चव्यऽयं ददात्येवं विकल्पतो दानार्थमभ्युत्थानमतीचर इति ३ । यासु किलिसु जो असेरीसयपुरे नवंगवित्तिकारसाहासतथा परव्यपदेशः परकीयमेतत्तेन साधुभ्यो न दीयते इति मुम्भवहि सिरिदेविंदसूरीहिं चत्तारि महाबियाई दिव्यसत्तीय माधुसमतं मणनं जानन्तु साधवो यद्यस्यैतद्भक्कादिकं ज. गयणमग्गेण आणीआई जत्थ अज्जवि नाभिरायस्स मंदिरं वेत तदा कथमस्मन्यं न दद्यादिति साधुप्रत्ययार्थम् अथवा जत्थ पासनाहवामित्रसीयाकुंडं सहस्सधारं च पायारट्रिो उस्मादानान्ममान्नादेःपुण्यमस्त्यिति भणनमिति ४ मत्सरिता मत्तगयंदजक्खो अलाविजस्स अम्ग करिणो न संचरंति अपरणेदं दस किमह तस्मादपि कृपणो हीनो वाऽतोऽहमपि संचरंति था ता मरंति गोपथराईणि य भणेगाणि य लोइअतिददामीत्येवंरूपोदानप्रवर्तकविकल्पो मत्सरिता पते चाति- हाणि वळंति "पसा पुरी अउज्का, सरसजलाभिसिच्चमाणचारा पच न भङ्गा दानार्थमन्युत्थानं दानपरिणतेश्च दूषितत्वात्। गढभित्ती । जिणसमयत्तितित्थी, जत्तपवित्तिप्रजणा जयर।। भलस्वरूपस्य चेहैवमभिधानात् यथा “दाणंतराय दोसा, ण कह पुण देविंदसूरिहिं चत्तारि विबाणि अनुज्मापुरश्रो आणिदे दिजंतयं च वारे । दिन्ने वा परितप्पड़, इति किवणता याणित्ति नन्न सेरीसेयनयरे विहरंता बाराहिअपरमावश्धभवे भंगो" १ उपा० १ अाधः। रणिंदा उत्तावद्वीयसिरे देविंदसरिणो उ कुरुमि अप्पए गणेअई (ति) व-अतीव-० अति-श्व-समासः । अतिशयायें, - काउसलिंग करिंसु एवं बहुवारं कारिते दहण सायएई पुच्चियं पंचा० १९ विव० । "अश्व णिचंधयारकनिएसु" प्रश्न आ. भय को विसेसो श्थ काउसम्गकरणे सरिहि नणि त्य २दा।"अश्व सोमचारुरूवा" अतीव अतिशयेन सोमं दृष्टिसु पहाणपत्रही चिहजोसे पासनाहपम्मिा कीरइसा यसत्तिर्डि भगं चारु रूपं येषां तेऽतोव सोमवारुरूपाः जी०३ प्रति०३ उ०। अपामिहेरा हव तो सावयवयणेणं परमावई भराहणत्थं उववासतिगं कयं गुरुणा आगया जगवतीए ब्राश्टुं जहा सी भउ [य] अयुत-न चतुरशीत्या सकैर्गुणिते, अनु० । अ पारए अंधो सुत्तहारोचिट्ठ सा जर इत्थ आगच्छ अहमजतं युताने, स्था०२०। अनु० । जी । । दशसहस्रषु, क. च करे सूरिप अत्थमिए फलहिअं अंधाडउमादव अणुदिप सामसंबके, असंयुक्ते च वाच । पडिपुग्मं संपामेश तो निप्पज्ज । तओ सावपदि तदाहरणत्थं अउमंग-अयुताङ्ग-न चतुरशीत्या सर्गुणिते अर्थनिपूरे, जी०। सो पारए पुरिसा पवित्रा सो आगओ तहेव घमिनमाढत्ता ३ प्रति० । अं० । कल्प० । स्था० । अनु। धरणिदधारिश्रा निप्पना पमिमा घर्मितस्स सुत्तहारस्स पमिअननसह-अयुतसिक-त्रि० कारणकपालादेरपृथग्नूततया माएहिं अपमासा पाउम्भूभो । तमुविक्खिनणा उत्तरकाउंघ मित्रो पुणो समारिनेण मसो दिट्ठो ढंकिग्रा वाहिआरुहिर निस्ससिद्धे कायजध्ये घटादौ, तथाभूते वैशेषिकोक्त च्याश्रिते गुणे, रिमारकं तो सूरीहिं जाणिग्रं किमयं तुमप कयं पयम्मि कर्मणि च वात्रा प्रा०म० । सम्म० । स्या। मसे अत्यतं सा पमिमा अईव अज्मुअ अह समप्पभवा हुंता। अउजक-अयोध्य -त्रि० परैयामशक्ये, जी० ३ प्रतिः ।। तो अंगुटेणं चंपिउं थंभि सरुदिरं एवं तीसे पमिमाए निपुगतत्वात्परबलैः संग्रामयितुमशक्ये, स्था०४ ० । पन्नाप च नवीसं अनाणि बिबाणि स्त्राणीहिंता आणित्ता गविअउज्झा-अयोध्या-स्त्री० विनीताऽपरनामके पुरीनेदे, आणि।तो दिव्वसत्तीए अउज्जापुरोतिनि महाबियाण रत्तीय तमाहात्म्यम् । गयणमग्गेण आणियाणि । चनत्थे वि आणिजमाणे विहाया अनुज्काए पगठिया जहा अडका अवज्मा कोसना विणीया रयणी चनधारासणेयग्गामे खित्तमज्जे बिबं वि गमासिसा केयं इक्खागुनुमी रायपुरी कोसनत्ति एसा सिरिउसन रिकुमारपानेण चालुक्कचकवणा चमत्थंबिध कारिता गविग्रंप अजिअअभिनंदणसुमअणंतजिणाणं तदा नवमस्स सिरिवी घं सरीसे महप्पनाचो पासनाहो अज वि संघेण पृश्जर मिरगण हरस्स भवनाउणा जम्मनूमी रहुवंसमवाणं दसरहराम च्चावि उवदवं कारिखं न पारेति कुसुअघमित्तेण न तहा सलाभरहाणं च रज्जहाणं विमलवाहणाइ सत्त कुलगरा इत्थ उप्प घमा अवयवा दीसति तम्मि अगामे तं बिंब अज वि चेहरे पृश्रा सभसामिणो रज्जानिए मिहुणगदि निसीणीपत्तयं उ जशत्त । इतिश्री अयोध्याकल्पः समाप्तः ती०१३ कल्पागन्धिदयं घिनु पापसुन्दं तो सा हृविणोया पुरिसत्ति नणि अंस सायतीविजये वर्तमाने पुगेयुगो च"दो अनज्जाओ" स्था०२ ग कण तो विरणीयसि सा नयरी रूढा । जन्थ य महासए सी- अउ (तु) ल-अतुल-त्रि० अनन्यसरशे, प्राथ. ६० । याप अप्पाणं साहंतीए नि प्रसीबवलेण अग्गी जबपुरा को सो द निरुपमे, उत्त० २० अ०। प्रधाने, श्रा० । नास्ति तुला शुअंजनपुगे नयरि दोसंतोनिप्रमाहप्पण तीए चेव रक्खि प्रोजाय अजरहवसुहागोत्रस्स ममनूश्रा सया नवजोअणवित्थिमा ताया यस्यामिति तिबकवृक्के, पुं। वाच । वारसजोअणदीहा य जत्थ चक्केसरी रयणमयायतणदिप. | अनो-अतस्-अ० दस तसिम्-पतकेतुकार्ये, वाच० "प्रमोसन्वे डिमा संघविर हरेर । यो मुहजक्खो अ जत्थ धम्भरदहोउ..हिसिया " सूत० १ ० १ ० १ उ.. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभोषण भोपण - अयोधन जिदति अभघणेहिं " सुत्र० ५ ० २३० । प्रोय-अयोमयविकारे, (३५) अभिधानराजे अ: । मोहने योमये घने "सीपि सं पण गहाय" सुत्र० २ ० २ भ० । अमोमुह--अयांमुख-त्रि० भय व मुखं यस्य मोहमुखे पादप खति नभोमु"ि सू०१००२ ० योमुखीपनिवासिनि मनुष्ये, धुं० स्था० ५ ० ॥ ओमुहदी-योमुखद्वीप - पु० गोकर्णनाम्नो अन्तरद्वीपस्य परतो दक्षिणपधायां विरिश पत्रयोजनम्यतिक्रमेण स्थिते योजनायामविष्कम्भे एकाशीत्यधिक योज नशतपरिकेपे पद्मत्ररवेदिकावनख एक मऐिमतबाह्य प्रदेशेऽन्तरझोपविशेषे नं० 1 प्रज्ञा० । स्था० । अंक - अडू - पुं० श्रङ्क अच । शुल्कमणिविशेषे, उत० ३४ अ० । रत्नविशेषे, झा० १ अ० ज० । ज्ञा० रा० । सूत्र० । उत्तः । ज | ० | भ० । श्रा०म०प्र० । प्रज्ञा० नि०चू०|" पद्मासनोपविएस आसन बद्र० पा०मृगायचयलोके मृगादिव्यपदेशं लगते जं० २० सूर० । चिह्ने, चन्द्र २० पाहु० । लाञ्छने, औ० । उत्सक्के, व्य० ८ उ० | जं०] । शा० । सुत्र० । श्राचा० । दृश्यकाव्यभेदे व पुं०. न वाच० । दृश्यकाव्यरूपकभेदे, एकत्वादिसंख्याबोधक रेखासनिवेशे नवसंख्यायाञ्च पुं० वाच० । अंककंड-अडकाएक १० अराम योजनाहर प्रभायाः स्वरकाण्डस्य चतुर्दशे भागे, स्था० १० वा० । ॐ करे-अरेक०स्पतिविशेषेाचा० १ श्रु० १ अ० ५ उ० । - कङ्किस्थिति स्त्री० संख्या रेखाविचित्रस्थापनरूपायां त्रयश्चत्वारिंशत्कलायाम, कल्प० । अंकडून०-कादिनावनां चिह्नकरणे, प्रश्न० श्राश्र० १ द्वा० भ० । श्वशृगालचरणादिजिसांच्छनकरणे च श्राव० ४ अ० अङ्क- करणे ल्युट् । श्रङ्कसाधनद्रव्ये " गदागामीति " प्रसिद्धे, वाच० । अंक (६) अधर पुं० ६ ० चन्द्रमसि जी०३ प्रति० । तं० । जं० । कधाइ प्रधात्री - स्त्री० उत्सङ्गस्थापिकायां धात्र्याम, शा० १ अ० नि० चू० । श्राचाण । अंक (ज) पुं० अङ्कनविजि रा० अंकमुह-अंकमुख-न० ६ त पद्मासनोपविष्टस्य उत्सङ्गरूपासनबन्धाग्रजागे, सूर० ॥ पाहु० चं० । मंत्र-मुखसंस्थित शि० पद्मासनोपविएस्पोत्स ङ्गरूप आसनबन्धस्तस्य मुखमप्रभागोऽर्द्ध बयाकारस्तस्यैव संस्थितं यस्य । श्रर्द्धवलयाकार संस्थान संस्थिते, सू०५ पाहु० । चन्द्र० । अंकलिपि अङ्गुलिपि-स्त्री० ब्रा निषेदशेयविधाने अरनविकारे अइ प्रज्ञा० १प० । स० । रत्नप्रचुरे वा "कामया पक्खा पक्खवाहा " श्रो०रा० प्रतिश एकानी-श्री सदाविदेदरम्यनिवर्तमान यमय अलम अंकोड 66 राजधान्याम् । रम्मे विजय अंकाव रायहाणी अंजणे वखारपव्वए" जं०४ वक० "दो अंकावईओ" स्था० २ ० । मन्दरस्य पूर्वे शीतोदाया महानया दक्षिणे वर्त्तमाने वक्षस्कारपर्वते च स्था० ५ ० । कि ( य ) - अङ्कित - त्रि० लाडिकुते, आव० ४ ८० श्र० । अंकिल - देशी० नटे, शा० १ ० । अंकुंडग - ऋङ्कुटक - पुं० नागदन्तके; जं० १ बक्क० । अंकुत्तरपास - अङ्गोत्तरपार्श्व- त्रि० श्रङ्का रत्नमया उतरपाश्यां यस्य राय मांटरपाश्वं भरत्नमयोचरायुके द्वारे । रा० जी० । अंकुर - अङ्कुर-पुं० न० अङ्क- उरस् । प्ररोहे, वृ० १ ४० । शाल्यादिवीजसूची, प्र० ७ उ० ७ श० । कालकृतावस्थाविशेषनाजि प्रवाले, जी० ३ प्रति० । स्था० । "दग्धे बीजे यथाउत्यन्तं प्रादुर्भवति नाडु कर्मबजे तथा दधे न रोहनि नाङ्करः | भयङ्करः" ०२ अधिले प्रोत्पत्तिसाधर्म्यात् रुधिरे लोग्न, मुकुले च वाच० । अंकुस ब्रश ० ००४० "अंकुसेण जड़ा जागो धम्मे संपरिवाश्भो” उत्त० २२ ४०। अशा मुद्दामा सम्बनाभ्यभूते बन्कोप, ०३ प्रति०। स्था० आ० म० द्वि० विमानविशेषे, स०] देवार्चनाथै वृक्षपकपणा परिवाजकोपकरणविशेथे श्री० [प बन्दनकदोषे, तत्स्वरूप च । उनगरणे इत्थम्मि व, पित्तं विसेति अकुसंविति । याहून जमिव शिष्यः सूरि स्थित शक्ति प्रयोजना न्तरव्यवोपकरणे चोबपट्टककल्पादी हस्ते वाऽवइया समाकृबन्दकदानार्थमासने उपवेशयति तद्यदकमुच्यते महि श्रीपूयाः कदाचनाप्युपकरणाद्याकर्षण मात् किंतु कृत्याकृतानियपूर्वकमिदमभिधीयते उपविशतु भगवतोयेन चन्दनकं प्रयाम दमिति । आवश्यकवृती रजोदरणम करत गृहीत्वा यत्र वन्दते तदङ्कुशमिति व्याख्यातम् । अन्ये तु महाकालस्य हस्तिन यशिरोमोजम कुर्याणस्थ वन्दनामित्याः एतच द्वयमपि सूत्रानुयायि न मचति । तत्वं पुनर्बहुश्रुता जानन्ति प्रय० २३० । भाष० । घ० । ' अंकुसो दुविहां सूत्रे गंगुस्स रयहरणं गढाय भणति निषेस जा ते चंद्रामि भढ़वा दोहिं वि हत्थेहि अंकुसं जधा भा० चू० ३ उ० । प्रतिबन्धे च वाचः । अंकुसा-अंकुशा स्त्री० अनन्तजिनस्य शासनदेवताग्राम, सा 64 देव गौरवर्णा पद्मासना तुज पाशयुक्त किया निद्रया फलकाङ्कुशयुक्तवामकरद्वया च प्रव० २० द्वा० ॥ केल्लरणपहार - अंकेक्षण प्रहार - पुं० भश्वादीनां तर्जक विशेपदारपरिय प्रहारपरिवर्जिताः भवाननुत्पादण महाररहितशरीरमवारी ० -- जं० ४ वक० । पुं० अङ्कयते अंको अंकोट [व] [ल] लक्ष्य की कारकाण्डैः श्रङ्कट श्रोत ओल वा । श्रंकोवेल्लः ८ । १ । २०० । सुत्तस्य द्विरुलः प्रा० पीतवर्णसारे सत्ययुक के एक विशेषे वाचका कभेदे. गुरुचनेदे च प्रज्ञा० १ पद० । कल्प० । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकोल्लतल्ल अभिधानराजेन्धः । अंग अंकोलतेच-अंकोट [3] तेल- न० अङ्कोच-तैयन् अनको- " सयपुप्फाणंति" वचमव्यत्ययात् शतपुप्पाया नागो जागश्च वात्तै वस्य मेलः ८ ।। ५५ । इत्यडोपर्युदासान्न तैलप्रत्य- तमानपत्रस्य भाग इह पलिका मात्रा । अस्य माहात्म्यमाह। पत यस्य डेखः । अकोठस्नेहे. प्रा०॥ स्नानमेतहिलेपनमेष चैव पटवासः बासवदसया चाडप्रद्योगअंग-अङ्ग-अ0 आमन्त्रणे, न० ए श० ३३ उ० दशा० । झा०। दहिया कृतो विहित उदयनं वीणावत्सराजमनिधारयन्त्या चऔ० । अलंकारे च । “विमंग पुण अहं अज्जोवगमित्रो" स्था। तसि वहन्या अनेन परिचित्तापकत्वमस्य महात्म्यमुक्त४ वा अतव्यक्तिघ्राणगतिवितिअजधातोरज्यन्ते गर्भोत्पत्ते मिति सूत्रार्थः । औषधाङ्गमाह । रारस्य व्यक्तीजवन्ति जन्मप्रनृतम्रक्ष्यन्ते चेत्यङ्गानि । शिर-1 दोलि य रयणी महिंद-फलं च तिमि य समसगाई। नदरादिषु न० कर्म०। देहावयवेषु, प्रव० ८ द्वा० । आ०० सरसंब कणयमूलं, एसा उदगढमागुझिया ॥ प्रकाश निचू विशे० नुत्त० अङ्गान्यष्टौ शिरः प्रतीनि तदुक्तं "सीसमुरोयरपिठी, दो वाहू करुया य अटुंगा" कर्मगारा०। एसा उ हणइ कंहुँ, तिमिरं अवहेमगं मिरोरोगं । "बाहरुहिसिरउरउयरंगा" बाहू नुजद्वयम् ऊरू ऊरद्वयं . तेइज्जगचाजत्थग-मूसगसप्पावरचं च ॥ पृष्ठिः प्रतीता शिरो मस्तकमुरो वका उदरं पोट्टमित्यष्टावङ्गान्यु- | वे रजन्यौ पिएकदारुहरिद्रे माहेन्द्रफलं चेन्द्रयवा श्रीणि व च्यन्ते इह विभक्तिझोपः प्राकृतत्यात कर्म.१००। प्राम। समूषणं त्रिकटुकं तस्याङ्गानि सुएठीपिप्पलीमरिचद्रव्याणि सगात्रे, औ० । स्था० । उत्त० । अवयवे, स्था० ७ ठा० । “अई. रसंचाईकनकमूलं विल्बमूलमेषोदकाएमेत्युदकममं यस्यां गाई"बा०१० स० । स्था० बौकिकानि वेदस्य ष- साच तथा गुटिका वटिका । अस्याः फलमाह । एषा तु हान्न गानि तद्यथा शिक्का १ कल्पो २ व्याकरणं ३ उन्दा ४ नि-1 कराहुं तिमिरं ( अवहेम्यति) अद्धशिरोरोग समस्तशिरारुक्तं ५ ज्योतिष ६ चेति प्रा०चू०२०। अनु०। प्रा०म०।। व्य ( तेइज्जगचाउत्थगत्ति ) सुपो लोपे तार्तीयिकचातुर्थिको आव० । लोकोत्तराणि प्रवचनस्य द्वादश अङ्गान्याचा- रुच्या ज्वरौ मूषकसर्पापराद्धमुन्दराहिदष्टं चः समुच्चय इति राङ्गादीनि ( तानि अंगप्पविट्ठशब्द व्याख्यास्यन्ते) कारणे, | गाथाद्वयार्थः । मद्यानमाह । प्रति । स्था। सोलस दक्खानागा, चउरो नागा य धावतीपुप्फे । अस्य निक्केपमाह। आढगमो नच्छुरसे, मागहमाणेण मज्जंग ।। दारं ।। णामंगं ठवणंगं, दव्वंग चेव होइ भावंगं । (सोलसगाहा ) षोमश द्राकानागाश्चत्वारो भागाश्च धातएसो खलु अंगस्म, णिकवेवो चनबिहो होइ नत्त०नि० कीपुष्पे धातकीपुष्पविषयाः (आढगमोति ) श्रार्षवादाढक नामाकं स्थापनाङ्गं द्रव्याङ्गं चैव नवति भावाङ्गमेष खलु चरसविषयः आढक इह केन मानेनेत्याह। मागधमानेन "टो( अंगस्स इति) प्राकृतत्वादङ्गस्य निकेपश्चतुर्विधो भवतीतिगा असह" इत्यादिरूपेण मद्याङ्ग मदिराकारणं जवतीति गाथार्थः। थासमासार्थः। अत्र च नामस्थापने प्रसिद्धत्वाद नारत्य द्रव्या अातोद्याङ्गमाह । ङ्गमभिधित्सुगह। एर्ग मगुंदातूर-मेगं अहिमारुदारु अग्गी । गंधंगमोमहंगं, मज्जानजं सरीरजुकंगं । एगं साझियपोंझ, बच्छो आमोलतो होइ ।। एत्तो एकेक पि य, गविहं होइ णायव्यं ।। गन्धाङ्गमौषधाङ्गं (मजा नजं सरीरजुद्धंग)विन्दोरलाक्वणिकत्वा ( पगंगाहा ) एक मकुन्दातूर्यमिति । एकैव मकुन्दा यादिनदशब्दस्य च प्रत्येकमभिसंबन्धात् मद्याकमातोद्याझं शरीरात विशेषो गम्नीरस्वरत्वादिना तूर्यकार्यकारित्वात् तूर्यमनेनास्या युकाङ्गमिति पद्धिधम् ( एत्तोत्ति ) सुब्ब्यत्ययादेषु मध्ये एकै विशिएमातोद्याङ्गत्वमेवाह । किमेकैव मकुन्दातूर्य सोपस्कारकमपि चानेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथावराथः । भावार्थ त्वायथैकमभिमारस्य वृतविशेषस्य दारुकं काष्ठमभिमारदारुतु विवक्षुराचार्यों "यथोदेशं निर्देशमिति" न्यायमाश्रित्य गन्धाङ्गं कमग्निविशेषतोऽग्निजनकत्वाद्यथा वा एक शाल्मलीपोराडं प्रतिपादयन्नाह। शाल्मलीपुष्पं बद्धमामोमको नवति । आमामक पुप्पोन्मिश्री जमदग्गिजहा हरेणु-या सबरणिबसणयं सपिलियं। यालबन्धविशेषः स्फारत्वादस्येत्थं दृष्टान्तानिधायितयेवं व्या ख्यायते प्रसङ्गतो वाम्यामोगकाङ्गयोरप्यभिधानमिति सू. रुक्खस्स बाहिरा तथा, मनियवासियकोडिअग्पती॥ त्रार्थः । शरीराङ्गमाह। उसीरहिरिवेराणं, पलं भद्ददारुणो करिसो। सीसं उरो य उदरं, पिट्ठी वाहू य दोहि उरू य । सत्तपुप्फाण भागो य, भागो य तमालपत्तस्स ।। एए होंति अटुंगा खनु, अंगोवंगाई सेसाई ।। एवं पहाणमयं, विनेवणं एस चेव पडवासो । होति उचंगा कना, णासच्चाहत्यपादधा य । वासवदत्ताकत्तो, उदयणमनिधारयंतीए । तत्र जमदग्निजटा वालको हरेणुका प्रियङ्कः सबरनिवसन णहकेसमंसअंगुलि, ओटा खलु अंगुवंगाई [दारम् ] तमालपत्रं (सपिन्नियं) पिन्निका ध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यं तया सह शिरश्च उरश्च प्राम्बदरं "पिहित्ति" प्राकृतत्वात्पृष्ठं बाद हो सपित्रिकं वृकस्य च बाह्या त्वक् चातुर्यातकाङ्गं प्रतीतमेव करूच पतान्यष्टानानि । प्राग्वत् लिङ्गम्यस्ययः खलुग्वधारण "मल्लियवासियनि" मल्लिका जातिस्तद्वासितमनन्तरोक्तद्रव्य- पतान्येवाङ्गानि अङ्गोपाङ्गानि शेषाणि नखार्द नि उपलक्षणत्वाजातं चूर्णकृतमिति गम्यते कोटि (अग्ध इत्ति) अति कोटि- सुपाङ्गानि च कर्णादीनि यत उक्तम। होति उवंगा कम्पा नासच्ची मूल्याई जवान । महार्घतोपलवणं चैतत् तथा उशीर प्रसिद्धं | अंघहत्थपाया य । नहकेसमंसअंगुलि हा खलु अंगुवंगाणि हीरो बालकः पल पलमनयोस्तथा भब्दारोदेवदारोः कर्षः। ति गायार्थः । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) अंग अभिधानराजेन्द्रः । अंगचूलिया सांप्रत युधाङ्गमाह । नाऽव्यभावभेदात् । तत्र नामस्थापने क्षुणे द्रव्यानं इशरीरनजाणाराणपहरणे, जुन्छ कु.सलत्तणं व ण ती य । व्यशरीरव्यतिरिक्त शिरोबाह्वादि।नायतोऽयमेवाचारः याचादक्खत्तं ववसातो, सरीरमारोगए चेव ।। राम श्राचा०९ श्रु०१० उ० चिने, अङ्गजे कामे नपाये, प्रधानोपयोगिनि उपकरणे, फत्रयन्निधावफलं तदङ्गमिति (दारम्) ( जाणावरणपहरणेत्ति) यानं च हस्त्यादि तत्र सत्यपिन शक्नोत्यभिभवितं दात्रमत श्रावरणं च कवचादि स मीमांसा जन्मादिलग्ने, यस्मात्प्रत्ययविधिम्तदादि प्रत्ययेऽङ्गमिनि त्यप्यावरणे प्रदरणं बिना किं करोतीति प्रहरणं च खङ्गादिया पाणिनपरिजापिते प्रत्ययावधिनते शब्दभूते च वाचः । ऋष. नावरणप्रहरणानि यदि युद्धे कुशलत्वं नास्ति किं यानादिने त भदेवस्य द्वादशे पुत्रे, कल्प० । नो० जनपदावशेष, यत्र चम्पायुद्धे संग्रामे कुशलत्वं च प्रावीण्यरूपं सत्यप्यस्मिन्नीति विना न नगर। झा०८ अ० । प्रवः । स्था० । वृ) । कल्प० । सूत्रः । शत्रुजयनमतो नीतिश्चापक्रमादिलक्षणा सत्यापि चास्यां द- प्राङ्ग-पु० अङ्गानां राजा आङ्गः प्रदेशाधिपे, यहथेऽणो लुक् प्रजा क्षत्वाधीनो जयस्ततो दकत्वमाशुकारित्वं सत्यस्मिन्निव्यवसा- अङ्गदेशास्तद्राजानो वा भक्तिरस्य अण प्राङ्गः: अङ्गदेशभने, यस्य कुतो जय इति व्यवसायो व्यापारस्तत्रापि यदि न श।- अङ्गराजभक्ते वा त्रि० । अङ्गादागतम प्राङ्गम् । अङ्गनिमित्त रमहीनाङ्गं तनो न जय प्रति शरीरमर्थात्परिपूर्णाङ्गं तत्राप्यारी- काय्य, वाणीदाबलीयः इति परिज्ञापा वाचा अनं शरीराग्यमेव जयायेति (आरोगयत्ति) श्रारोग्यता चः समुशये ए. वयवस्तद्विकार पाङ्गम् । देहावयविकारे, स्था० ८ ० । वावधारणे ततः समुदितानामेवेषां युद्धाङ्गत्वमिति सूत्रार्थः अङ्गे नवमाङ्गम् । शरीरोत्पन्ने, मृत्र०२ श्रु०२ अ विषयमाभावाङ्गमाह। इम । श्राव.४० । शिरःस्फूरगादी, स्था० ८ ग । जावंग पि य विहं, सुतमंग चेव गोसृतं अंगं । शरीराऽवयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफत्रोद्भावक महानिमित्त. मृतमंगं वारसहा, चनविहंगोमुयजगं ।। नेदे, स० । अस्फुरणादिनिः शरीरावयवस्पन्दन प्रमाणादिभावाङ्गमपि च द्विविधम् ( सुयमंगं चवत्ति ) श्रुताङ्गं चैव नो- भिर्यदिह वर्तमानमतीतमनागतं वा शूनं प्रशस्तमगुनं वाऽप्रशश्रुताङ्गं च । शुताङ्गं द्वादशधा आचारादि भावाङ्गना चास्य स्तमन्यस्मै कथ्यते तद्भण्यते प्राङ्गं निमित्तं यथा 'मृश्नि म्फुरक्षायोपशमिकतावान्तर्गतत्वात् । उक्तं च "भावे खोवसमिए त्याशु पृथिव्यवाप्तिः, स्थानप्रवृतिश्च ललाटदेशे । घ्राणमध्य सुवालसंगं पिहोति सुयणाणति" चतुर्विधं चतुष्प्रकारं नोश्रुता- प्रियसंगमः स्यानासाक्षिमध्येच महार्थवान' इत्यादि प्रव०५५७ कंतु नोशब्दस्य सनिषेधार्थत्वादश्रुताई पुनः मकारश्च सर्व- द्वा० "दक्विणपावें स्पन्दनमनिधास्ये तत्फ स्त्रिया वामे। पथिश्राझाक्षणिक इति गाथार्थः । एतदेवाह। वीलामं शिरसि, स्थानविहिवाटे स्यात्" इत्यादि स्थाग. माणसं धम्मसुत्ती, सच्चा तवसंजमम्मि विरयं च । ( प्राङ्गनाम्नो महानिमित्तस्य सूत्रादिमानम् ) "अंगस्स सय. एए जावंगा खबु, दुल्ल भगा होति संसारे ।। सहस्सं, सुत्तवित्तीय कोडिविन्नेया। वक्खाणं अपरिमियं, इयमानुष्यं मनुजत्वमस्य चादावुपन्यास एतद्भावे शेषाङ्गभावा- मेव य वत्तियं जाण" आव०४ श्र। श्रा००। स० । तु धर्मश्रुतिरहित्प्रणीतधमाकाम्न श्रद्धा धर्मकरणाभिमापः । अंगअ-अङ्गज-पु० अङ्गाजायते जन--पुत्रे, को। का। भा० तपोऽनशनादिस्त प्रधानः संयमः पञ्चाश्रयविरमणादिस्तपः सं. चू। दुहितरि, रो. देह जातमात्रे, त्रि० रुधिरे, न रोग, पुं० यमा मध्यमपदापी समासः। तपश्च संयमश्व तपःसंयममिति लोम्नि, न० अङ्गं मनस्तस्माज्जायते कामे, पं. वाच०।। समाहारो वा तस्मिन्चार्य च वीर्यान्तरायवयोपशमसमुत्था अङ्गन्द-न० अङ्गं दायति शोधयति दै-क-बाहुशी भरणे, शक्तिः । अस्य च द्विष्ठस्याप्येकत्वेन विवक्तितत्वानोक्त.संख्या प्रशा०२ पद। जी0। ज०मा० । स्था। रा० औ बालिविरोधः। एतानि नावाङ्गानि खत्रु निश्चितं दुर्द्धभकानि भवन्ति संसारे लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वादेतच्चानुक्तमपि सर्वत्र नाव वानरराजपुत्रे, वाच ॥ नीयमिति गाथार्थः । इह च्याङ्गेषु शरीराङ्गं भावाङ्गेषु च सं अंग-अङ्गजित-पुं श्रावस्तीवास्तव्य गृहपतिभेदे, निका स्था (सच पाश्वजिनान्तिके प्रव्रज्यां गृहीत्वाऽनशनेन मत्वा चन्छयमः प्रधानमिति । तदेकाथिकान्याह । विमाने चत्वेनोपपन्न इति चंदशम्ने वक्ष्यते ) अंगं दसनागभेए, अवयव असगलचुमियाखेमे । अंगइ (रि) सि-अङ्गर्षि-अङ्गऋषि-पुंचम्पावास्तव्ये कोदेसे पदेसपव्ये, साहापमलपज्जवखिलं च ।। शिकार्यशिष्ये, तस्य नद्रत्वादपिरिति कोशिकारण नाम दया य संजमे लज्जा, दुगुग अच्छणादि य । कृतम् । श्रा० म०वि० । आव० । प्रा० चू० । आ0 का तीर्थ। तितिक्खा य अहिंसा य, हिरी ति एगट्ठिया पदा। । ।तेनोपशमे सति सामायिकमवाप्य केवल मधिगतमिति अज्ज. अङ्गदशभागी भेदोऽवयवोऽसकलचूर्णः खएको देशः प्रदेशः | वशब्द वक्ष्यते ) पर्यशास्त्रापाटसंपर्यवः खिझं चेति शरीराङ्गपर्याया इति वृद्धाः। श्रगचनिया-अङ्गचूलिका-स्त्री० अङ्गस्याऽऽचारादेवचूलिका भ्याख्यानिकस्त्वधिशेषतोऽमी अङ्गपर्यायास्तथा ( दसभाग- यथाचाचारस्यानेकविधा हानुक्तार्थसंग्राहिका चूलिका । काति) दशभाग इति च भिन्नावेव पर्यायाचित्याह । चःसमुच्च लिकश्रुतनेदे, पा) । नंग स्थानाङ्गसूत्रे तु संक्षेपिकाददायास्तृ. यं सुत्रत्वाच्च सुपः कचिदश्रवणमिति । संघमपर्यायानाह तीयाध्ययनत्वेनेयमुक्ता स्थाः१० गत दया व संयमो बज्जा जुगुप्सा अच्च बना । इतिशध्दः स्वरूपपरामर्शकः पर्यन्ते योदयते तितिका चाहिसा चहीश्चेत्यकार्थि सम्प्रत्युपलभ्यमानाङ्गलिकाग्रन्थस्येत्थमारम्भानिः । काम्यन्निन्नाभिधेयानि पदानि सुवन्तशब्दरूपाणि पर्यायाभिधानं नमो सुअदेवयाए भगवईए नमो अरिहंताणं नमो सिसाणं बनानादेशजविनेयानुग्रहार्थमिति गाथाद्वयार्थः । नत्त०३० नमो आयरियाणं नमो उवज्कायाणं नमो सोए मेबसास्था। अज्यते व्यक्तीक्रियते ऽस्मिन्निति चतुर्विधं नामस्थाप- | हणं । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपाणामं एयरीहोत्था शपथ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) अंगलिया अनिधानराजेन्द्रः । अगप्पविष्ट वप्लो पुस्मभद्दे क्षेत्तिए । तेशं कालेणं तेणं समएणं नकोट्टसीसमुदायिणायं करेह वेयगच्चहियं अंगच्छहियं इमं समणस्स जगवत्रो महावीरस्स अंतेवास। अजसोहम्मे | पुक्खाफोमियं करेह" सत्र०२७० २ अ० । णामं अणगारे । जाइसंपन्ने जहा नववाए जाव चनणा अंगच्छे [य] द-प्रमखेद-पुं० दूषितावयवकर्तने, “अंणमंपन्ने । पंचहि अणगारसएहिं संपरिवुझे पुवापुन्धि गच्छेदो सहितो सेसरक्खडा" पंचा०१६ विव०। चरमाण जाव जेणेव पुणभद्दे चेहए अहापडिरूवं विहर अंग अङ्ग ] ण-अङ्गण (न )-न० अगि-गतौ अल्यते गृ हानिःसृत्य गम्यते ल्युट । पृषोदरादित्वाद्वा णत्वम् । घर्गेऽन्त्यो परिसा णिग्गया । धम्मं सोचा णिसम्म जामेव दिसिं पा वा ८.१।३० इत्यनुस्वारस्य वा परसवर्णः । प्रा० अजिरे, प्रश्न नब्लूबा तामेव दिसि पगिया । तेणं कालेणं तेणं सम- सं० २ द्वा०४ श्रागृहाग्रभागे, कल्प० । "अंगणं मंगवट्ठाणं" एण अज्जमुहम्मस्स अंतेवासी अज्जजंबूणाम अणगारे ।। निचू० ३ उ०। जायसले जाव जेणेव अज्जसोहम्मे सामी तेणेव नवागच्छद | अंगणा-अङ्गना-स्त्री० अङ्ग्रे स्वशरीरे पयोधरनितम्बजघनस्मउवागच्चश्त्ता तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करइ करित्ता रकृषिकादिरूपे अनुरागो ये गं ते अङ्गानुरागास्तान् अङ्गानुरा गान् कुर्वन्तीति अङ्गनाः। स्त्रीषु, । तं० आचा०नि००। वंदति एमसति वंदित्ता गमंसित्ता जाव पज्जवास- दिया-अहदिका-स्त्रीतार्थविशेषे, यत्र धीमदजितस्थाति एवं वयासी । जाणं भंते समणेणं भगवया महावी- मिशान्तिदेवताद्वयं श्रीब्रह्मेन्द्र देवतावसरः ती० ४५ कल्प० । रेणं जाव संपत्तेणं इक्कारस अंगाणं अयमढे पन्नत्ते इक्का- अंगप्पाजव-अङ्गप्रभव-त्रि० अङ्गद् दृष्टिवादादेः प्रभव उत्पत्तिरस अंगाणं अंगलियाए केअट्ठ पन्नत्ते ततेणं अज्जसुह- रस्येति अङ्गप्रभवः। दृष्ट्रिवादादेरुत्पन्ने, यथोत्तराध्ययने परषहाम्मे अणगारे जंबूशणगारं एवं वयासी। एवं खस जंब- ध्ययनम् “कम्मापवायपुवे सत्तरसे पाहुमम्मि जं सुतं । ससमणणं जाव संपत्तणं अंगचूलियाए अयमटे पन्न । णय सादाहरणं, ते चेव इह पि णायब्वं" उत्त०१०॥ जंवूअंगचूलिया अंगचूलियानूया णायव्वा । जहा कण अंगप्पविट्ठ-अङ्गप्रविष्ट-न० इह पुरुषस्य द्वादश अङ्गानि भवयगिरिचूलिया सिआ । चत्तालीसं जोअणुचा कणयगि न्ति तद्यथा द्वौ पादौ के जङ्घरुणी हे गात्राः द्वौ बाढ़ ग्रीवा शिरश्च एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि द्वारम्मि रमणिज्जे दीसंति । जहा पुरिसिथीएमच्छ।। दशाहानि क्रमेण वेदितव्यानि तथा चोक्तम् । "पायपुगं जंजहा य चूलियाए सिरं सोनति मणिरयणममियमउमेणं घोरु गायदुग तु दो य बाहु य । गीवा सिरं च पुरिसो, वारमउलियं दिप्पति तिलयरयणेणं जालं दिप्पति । विवि- स अंगेसु य पविछो" श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्टमङ्गप्रविष्टम् । हनाणामणिखचियकुंमलजुअलेणं को दिप्पंति । तेहिं अङ्गभावेन व्यवस्थिते श्रुतभेदे, नं० । स्था० । अनु० । पा० । अङ्गप्रविष्टस्यानङ्गप्रविष्टादू नेद श्ह प्रदर्यते ।। " अह नगवं तुविलिहिज्ज मागेणं गंडे दिप्पंति । नन्नयनासाए विमलस वे चेव सब्वनुमते को विसेसो । जहा इमं अंगप्पवि श्मं अं. मुताहलं दिप्पति । कजणं विसावलोअणे दिपंति ।। गबाहिरति । आयरिओ आह जे अरहंतेहि भगवंतेहिं अतीतापंचसुगंधिएगं तंबोक्षणं वयणकमलं दिप्पति । गीवानर- णागतवट्टमाणदव्यलिंगखेत्तकालनावजहावस्थितदंसीहि अस्थणेणं भीवा दिप्पति । वरमुत्ताहाहारएणं वच्छत्थझं दि परूविता ते गणहरोहिं परमबुझिसभिवादगुणसंपनहिं सयं चे. व तित्यगरसकासातो उवझभिऊण सव्वसत्ताणं हियताय सुपति । वरकणगरयणखचियकमिसुत्तएणं कडी दिप्पति । ता तेण उवणिवका तं अंगप्पविठं आयारादि दुवाबसविहं । नेउरेणं पाए दिपंति । तहा अंगचलिआए इक्कारसं अं- जं पुण अन्नेहि विसुद्धागमबुम्हिजुत्तेहि थेरोहिं अप्पाच्याणं मणुगाणि दिप्पंति । सा अंगलिया निग्गंथाणं निग्गंथीणं याणं अप्पबुझिसत्ताणं बहुम्गाहकति नाऊण तं चेव आयारादि सम्मं जाणिव्वा फासियव्वा तारियव्या किट्टियव्या भुजो सुयणाणं परंपरागयं अत्थतो गंथंतो य अतिमहं ति काऊण श्रनुजो अट्ठा कहेउा सवागरणा गुरुपरंपरागमेण गहि एकंपानिमित् दसवेयालयमादिपरूवितं अणेगभेदं भणंगप्पवि टुं" श्रा० चू०१ अ० ॥ तथा च ॥ यव्वा । तत णं अजमुहुम्मसामिणा एवं वुत्ते समाणे हट गणधरथेरकयं वा, आएसा मुक्कवागरणो वा । तुट्ठ चित्तमाणदिए जंप एवं क्यासी । कह णं ते ! गुरु धुवचलविसेसो वा, अंगाणंगेसु णाणत्तं ।। परंपरागमो जाम । जवसमणेणं भगवया महावीरेणं तओ अङ्गानङ्गप्रविएश्रुतयोरिदं नानात्वमेतद् भेदकारणं किमिभागमा पणत्ता । तं जहा अत्तागमे अणंतरागमे परंप- स्याह गणधरा गौतमस्वाम्यादयस्तत्कृतं श्रुतं द्वादशाङ्गरूपमा रागमे अत्तो अरहताणं भगवंताणं अत्तागमे । सुत्तओ। प्रविटमुच्यते विशे० ॥ गणधरदेवा हि मृबनूतमाचारादिकं गणहराणं अत्तागमे । गणहरसीसाणं अपतरागमे । तओ श्रुतमुपरचयन्ति तेषामेव सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसंपन्नतया तद्रचयिपरं मवेसि परंपरागमे ।। तुमीशत्वान्न शेषाणां ततस्तत्कृतं सूत्रं मूत्रनूतमित्यप्रविष्म च्यते (नं) यत्पुनः शेषैः श्रुतस्थविरैः तदेकदेशमुपजीव्य विर(अस्य ग्रन्थस्य श्लोकमानमष्टौ शतानीति तत्रैव प्रन्थसमाप्तौ चितं तदनङ्गप्रविष्टम् (नं) स्थविरास्तु भऽबाहुस्वाम्यादयः प्रतिपादितम् । स्तदृष्टं श्रुतमावश्यकनिर्युक्त्यादिकमनङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यमुच्यते अंगच्च इय-अहच्छिन्न-त्रि० अङ्गेषु निन्नः । कृत्ताने, “ इमं | अथवा वारत्रयं गणधरपृष्टस्य तीर्थकरस्य संबन्धनीय भादेशः Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्पविट्ट अभिधानराजेन्धः । अंगसुहफरिस प्रतिवचनमुत्पादव्ययध्रौव्यवाचकंपदत्रयमित्यर्थः तस्माद्यनिष्प- शेषे, नं० । एतद्भेदा यथा “ अंगवाहिरे ऽविहे पामते तं जहा अंसदप्रविष्ट द्वादशाङ्गमव विपा०२ श्रु०१० अ०। आदेशा यथा श्रावस्सए चेव श्रावस्सयवरित चेव" स्था०१ मा नं०। अनु। "आर्यमङ्गराचार्यस्त्रिविधं शवमिच्चति एकभविकं बद्धायुष्क- श्रा०रा० । कर्म० । (अङ्गप्रविष्टादस्य भेदोऽनन्तरमेव मभिमुखनामगोरं च । आर्यसमुजो द्विविधं बकायुष्कमभिमुख अङ्गप्पवित्र शब्दे उक्तः) नामगोत्रं च । आर्यसु इस्ती एकमभिमुखनामगोत्रमिति । वृ. अंगवाहिरिया-अङ्गवाद्या--स्त्री० अङ्गान्याचारादीनि तेज्या या. १ उ० । मुक्तं मुत्कलमप्रश्नपूर्वकं यद् व्याकरणमर्थप्रतिपादनम ह्या अङ्गबाह्याः। अनङ्गप्रविष्टायाम, चमसूरजम्बूद्वीपद्वीपसागर(वि०२ श्रु०१० अ० ) यथा वर्षदेवकुणालायामित्यादि । प्रज्ञप्तयः । श्रङ्गयाह्याः । स्था०४ ग० ॥ तथा मरुदेवी जगवती अनादिवनस्पतिकायिका तजवन सिद्धा अंगभंजण-अङ्गभजन-न० शरीराऽवयवप्रमोटने, प्रश्न इति (वृ० १ ० ) तस्मानिष्पन्नमङ्गवाह्यमनिधीयते तथाव- संव०५ द्वा०। श्यकादिकं वाशब्दोऽङ्गानपविष्टत्वे पूर्वोक्तभेदकारणादन्यत्वसूचकः। तृतीयभेदकारणमाह (धुचेत्ति) ध्रुवं सर्वेषु तीर्थकर अंगभूय-अङ्गभूत-त्रि० कारणनते, प्रव० १ द्वा०। अंगभंग-अङ्गाग-न० (प्राकृतेऽत्रावणिको मकारः) अङ्गप्रत्यतीर्थेषु निश्चयभावि (विपा०२ श्रु० १० अ०) सर्वेषु केत्रेषु सर्वकालं चार्यक्रम चाधिकृत्य एवमेव व्यवस्थितं ततस्तदङ्गप्र केषु, " रायबक्खणविराश्यंगमंगा" रा स । शरीराऽवय वेषु, ज्ञा०ए०। विमुच्यते अङ्गप्रविष्टमङ्गनूतं मूलतमित्यर्थः। नं. ॥ द्वादशावमिति यत्पुनश्चलमनियतमनिश्चयनावि तत्तएमुसवैका अंगमांगभावचार-अनानिभावचार-पुं० परिणामपरिणामिलिकप्रकीर्णकादिश्रुतमङ्गवाह्यं वाशब्दोऽत्रापि भेदकारणान्तर नावगमने, द्वा०। त्यसूचकः । श्दमुक्तं भवति गणधरकृतं पदत्रयसवणतीर्थकरा- अंगमंदिर-अङ्गमन्दिर-न. चम्पानगर्या बहिर्विद्यमाने चैत्ये, देशनिष्पन्न ध्रवं च यत् श्रुतं तदङ्गप्रविष्टमुच्यते ।तश्च द्वादशाङ्गी- " अंगमंदिरंसि चेश्यसि मदरामस्स सरीरं विप्पजहामि"। रूपमेव यत्पुनः स्थविरकृतमुत्कलार्थानिधानं चत्रं च तदाय- | ज०१ श०१०। श्यकप्रकीर्णादि श्रुतमङ्गबाह्यमिति विशे० । अंगमदिया-अङ्गमर्दिका-स्त्री. शरीरमर्दनकारियां दास्याम, अङ्गप्रविष्टश्रुतनेदा यथा । "अह अंगमहियाओ अह उम्महियाओ" इहाङ्गमदिकानामुसे किं तं अंगपविठं अंगपविट्ठ दुवालसविहं पनत्तं तं | न्मर्दिकानां चाल्यबहुमदनकृतो विशेषः । भ० ११ श०११ २०॥ जहा । आयारो १ सुयगमो गणं ३ समवाओ अंगरक्ख- रक्ष-न० अङ्गं रक्कयति । अङ्ग रक-अच् वर्मणि, विवाहपन्नत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ | झा०३०। अंतगमदसाओ ८ अनुत्तरोववाश्यदसानो ६ पाहावा अंगहरण-अङ्गरक्षण-न० अंशु केनाङ्गस्य स्नानजक्लिनतापगरणाई १० विवागसुयं ११ दिहियाओ य १२ ॥ नयने, ध०२ अधिक। अथ किं नदङ्गप्रविष्ट सूरिराह अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधं प्राप्त त अंगविज्जा-अविद्या-स्त्री० अङ्गरूपा व्याकरणादिशास्त्ररूपा यथा आचारं सूत्रकृतमित्यादि नं० श्राम. प्राधा (आचारा विद्या ज्ञानसाधनम् । ज्ञानसंपादके व्याकरणादिशास्त्रे, वाच । दीनामर्थः स्वस्वस्थाने) एतेषां मानं तथा हि 'अहरसपयसहस्सा शिरप्रभृत्यङ्गस्फुरणतःशुभाशुनसूचिकायां विद्यायाम, अलमायारे १ गुण दुगुणसेसेसु । सुयगड २ गण ३ समवाय ४ स्फुरणफलशाखे, यथा “शिरसः स्फुरणे राज्यं, हृदयस्फुरणे भगवई ५नायधम्मकहा ६।११ अंगं उवासगदसा,७ अंतग ८ सुखम् । बाहोश्च मित्रसंलापो जड़योनोंगसंगमः ॥१॥ उत्त०० अगुत्तरोववाश्दसा है। परहवागरणं तहा,१०विवागसुय ११ अ० । स्वनामख्यातेऽङ्गादिनिमित्तफलदेशके ग्रन्थविशेषे च । मिगदसं अंग' दृष्टिवादे सर्वश्रुतसद्भावेऽपि शेषश्रुतरचने हेतुः स च ग्रन्थः कुतो निर्गुढः कति तत्राध्यायाः कियत्यो वा तत्र विशे० । आह ननु प्रथम पूर्वाण्येवोपनिबध्नाति गणधर इत्या विद्या इति तत्रैवादौ प्रदर्शितं । यथा अङ्गानि च विद्याश्च श्रगमे श्रूयते पूर्वकरणादेव चैतानि पूर्वाण्यऽभिधीयते तेषु च नि- विद्या । अलविद्याव्यावर्णितेषु भौमान्तरितादिषु हिलि हिलि इशेषमपि वाख्नयमवतरति अतश्चतुर्दशात्मकं द्वादशमेवाङ्गमस्तु मातङ्गिनि स्वाहा इत्यादिषु विद्यानुवादप्रसिहासु विद्यासु च । किं शेषाणामङ्गविरचनेन अङ्गबाह्यश्रुतरचनेन वा इत्याशङ्कयाह ॥ "अंगविजं च जे पउंजंति न हुते समणा" उत्त०८१० जइ वि य जूतावाए, सबस्स वि उगयस्स ओयारो। अंगवियार-अङ्गविकार-पुं०६ त० शिरःस्फुरणादौ, शरीरनिम्बूहणा तहा वि हु, दुम्मेहे पप्प इत्यीया । स्फुरणादितः शुनाशुभसूचके शास्त्रे, उत्त०१५ १०॥ अशेषविशेषान्वितस्य समग्रवस्तुस्तोमस्य नूतस्य सद्भतस्य अङ्गविचार-पुं० ६ त० शरीरस्पर्शनस्य नेत्रादीनां स्फुरणस्य वादो भणनं यत्राऽसौ नूतवादः। अथवाऽनुगतच्यावृत्तापरिशे वा विचारे । तद्विचारेण फलादेशके शास्त्रे च उत्स०१५ अ०। पधर्मकापान्वितानां सभेदप्रजेदानां नूतानां प्राणिनां वादो य "अंगवियारं सरस्स विजयं जो विजाहि न जीवई सजिक्ख" त्राऽसौ भूतवादो दृपिवादः । दीर्घत्वं च तकारस्यार्षत्वात्तत्र | उत्त०१५ अ०। ष्टिवादे सर्वस्यापि वाङ्यस्यावतारोऽस्ति तथापि अंगसंचाल--अगसंचार--पुं० रोमोजमादिषु गात्रविचलनप्रकारेमेधसां तदवधारणाद्ययोग्यानां मन्दमतीनां तथा स्त्रीणां चान षु, “सुमेहि अंगसंचालेदि" श्राव०५ ०। ।स। प्रहार्थे निव्यूहणा विरचना शेषश्रुतस्येति । विशे० १५० पत्र। अंगमहफरिस ( फासिय)--अस्पशेक--त्रि० अगस्य सुखा अंगबाहिर-अंगबाह्य-न० द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य बहि- सम्मकारी स्यों यस्य तत्तथा । क. । देहमुखहेतुस्पर्शयुक्त यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यम् । अङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थिते भुतथि- भ० १९ २० २१ उ० । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगादाण अनिधानराजेन्दः । अंगादाण अंगादाण-आङ्गादान-न0 अझं शरीरं शिर आदनि वा अङ्गा- जे भिक्खू पूर्ववत् संवाहति एक्कसि परिमहति पुणो पुणो सा नि तेषामादानं प्रनवः प्रसूतिर ङ्गादानम् । मेढ़े, अङ्गादानस्य सं संवाहणा सणिमित्ता वा अणिमित्ता वा पूर्ववत् । अणादिविमाननादिनिषेधस्तत्र प्रायश्चित्तम् । राहणा पूर्ववत् ॥ [सूत्रम् जे निक्व अंगादाणं कट्टण वा कलिंचेण वा अंगु-| ( सूत्रम् ) जे जिक्खू अंगादाणं तेद्वेण वा घएण वा लियाए वा सिमागाए वा संचाइ संचावंतं वा साइज्जइ ।। णवाणीएण वा वसाए वा अभंगेज्ज वा मंखेज वा अअङ्गं शरीरं सिरमादीणि वा अंगाणि तेसिं श्रादाणं अंगादा- भगतं वा मखतं वा साइज ॥ ४॥ णं प्रभवो प्रसुतिरित्यर्थः । तं पुण मादाणं मेद भाणात तं जे निक्खू पूर्ववत् तेलकघता पसिका । वसा अयगरमच्छमूओ आणतरेण कद्वेण वा कलिंचो वंसकपट्टी अंगुली प्रसिद्धा कराणं अब्जंगेत्ति एकसि मवेति प्रणो पुणो अड्या थोवण वेत्रमादि सलागाए तेहिं जो संचालेति साइजति वा तस्समास- अम्भंगणं बहुणा मंखण चट्टणास्त्र सणिमित्त अणिमित्ता गुरुं पत्तिं ॥ या पूर्ववत् साजणा तहेव आणातिविराहणा पूर्ववत् । दाणी णिज्जुत्तीए भाति । [सूत्रम् ] जे निक्खू अंगादाणं ककेण वा लोहेण वा अंगाण उवंगाणं, अंगोवंगाण एयमादीणं । पनमचुएणेण वा एहाणेण वा चुराणेहि वा वहिं वा एतणंगा ताणं, अणंतणं वा नवे विनियं ।। एए॥ । उन्नद्देश् या परिवट्टे वा नबट्टनं वा परिवदृतं वा साइज्जइ ५५ अंगाणि अष्ठसिरादीणि उचंगा कामादीणि । अंगोवंगाणक्खपञ्चा- ककं ब्वत्रणयं अव्यसंयोगेन वा कक्कं क्रियते किंचिल्लो दी एतसि सय श्रादाणं कारणमिति तेण एवं अंगादाणं भमति। हव्यं तेण वा चट्टेति पद्मचूर्णेन वा एहाणं एहाणमेव । अह्वा अणायत्तणं वा नवे वितियं णाम अंगादाणं ति ॥ अहवा उधाणाणयं नएणति तं पुण मासचूर्णादिसिणाणं गंधिअस्य व्याख्या। यावणे मंगाघसरणयं वुञ्चति वएणो जो सुगंधो चंदनादिचूसीसं नरो य उदरं, पिट्ठी बाद य दोषि ऊरूओ। नि जहा वट्टमाणचुराणे पम्वासादिवासनिमित्तानि निमित्त एते अटुंगा खलु, अंगोवंगाणि सेसाणि ।। ७६ ॥ तहेव उबट्टत्ति एकस्सि परिचट्टेति पुणो पुणो । लिरः प्रसिई नरः स्तनप्रदेशः उदरं पोट्टे पिही पसिद्धा सूत्रम् ] जे जिक्खू अंगादाणं सीमोदगवियमेण वा होम्मि बाद दोमि करू आणि एताणि अटुंगाणि खलु अवधारणे उासणोदगवियडेण उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोनणितं अवसेसा जे ते नवगा अंगोवंगाय ते मे य । संतं वा पधोयंतं वा सातिज्जइ ॥ ६ ॥ होति वंगा काणा, णासच्ची जंघहत्थपासा य । शीतमुद के शीतोदकं वियम ववगयजीवियं उसिणमुद कं णह केसु मंसु अंगुलि, तन्नोवतअंगुवंगाउ || ७॥ | सिणोदकं उच्चगेनेति सकृत् पधोषणा पुणा पुणो।। कामा नासिगा अच्छी जंघा हत्था पादा य एवमादी सब्वे [सूत्रम् ] जे निकावू अंगादाणं णिच्छगेत णिच्छोलतं उवंगा भवंति नहा बाबा स्मश्रु अङ्गाली हस्ततलं हत्थतलाओ वा साइज्जति ।। ७ ।। समंता पाससु अम्माया उवतलं भाति । एते नखादि अंगोवं. गादीत्यर्थः तस्स संचालणसंभवो इमो। णिच्छवत्ति त्वचं अधणेति महामणि प्रकाशयतीत्यर्थः । मित्रम] जे भिक्खू अंगादाणं जिंघति जिधंतं वा साइज्जइ८| संचालणं तु तस्स, सणिमित्तं अणिमित्तए वा वि । जे भिक्खू पूर्ववत् जिघ्रन्ति नासिकया आघ्रातीत्यर्थः । इत्थे. आतपरतदुभए वा, अणंतरं परंपरा चेव ।। ए८॥ ण वा मलकणं सधणं सिंघति । पतेसि संचालणादाणं तस्येति मेद्रस्य संचालणा सणिमित्ते उदयाहारे सरीरे य जिघणावसाणाणं सत्तएह वि सुत्ताणं श्मा सुत्तफासनिभासादमपि प्रथमसूत्र एव व्याख्यातम् (पतएवावित्ति) सणिमि- | सूत्राणि वक्तव्यानि । ताणिमित्तवज्जा सामीण सव्वा विचालणा त्रिविधा अप्प- संवा हणमब्नंगण, उबट्टणधोरणे य एस कमो । तेण परेण या उभपण वा । एक्केका दुविधा अणंतरा परंपरा णायन्वो णियमो उ, बिच्छरण जिंघणाए य ॥१०॥ या अणंतरेण हत्थेण परंपरेण कहादिणा पत पवावित्ति । संवाहणसूत्रे अभंगणासत्रे नवट्टणासूत्रे धोवणास्त्रे एस गमो अस्य व्याख्या । त्ति संचालणासूत्र नणिओ सो चेव य पगारा णायव्यो णियमो उहाणिवेसुद्धंघण, उच्चत्तणगमणमादिएसि तए। अवस्सं णिच्छलणासूत्रे जिंघणासूत्रे च । एतेसु चेव सत्ससु वि ण य घट्टण वोसिरिन, चिरति ताणि पज्जलं जाव 1881 सुत्तेसु श्मो दितो जहकमेण । तस्स णिसीपंतस्स चा लंघणीयं वा उल्लंघेतस्स मुत्तस्स सीहासीविस अग्गी, भिटी वग्घे य अयगरणरिंदो। । वा उब्वत्तणादि करेतस्स स गच्छंतस्स वा आदिसहातो पमिलेहणादिकिरिया एवमादि इतरा संचाबणा सम्म काइयं वा सत्तम वि पदेसु ते, अहारणा होंति णायव्वा ॥१०१॥ घोसिरिळण संचालेति काइयपरिसामणणिमित्तं ताव चिट्ठइ संचालणासुत्ते दितो। सीहो सुत्तो संचालितो जहा जीयंतजाघ सयं चेय णिप्पगलं अणंतरं परंपरे संचालणेमाणस्स गरो भवति एवं अंगादाणं संचाबियं मोहुब्भयं जणयति । तमासगुरुं आणादीणो य दोसा भवंति ॥ तो चारित्रधिराधना इमा प्रायविराहणा सुक्खपण मारज प्पेण वा कहाणा संचालेति तं सविसं सुत्तियलयं वा खयं [सूत्रम् ] जे भिक्खू अंगादाणं संबाहेज्ज वा पग्निमद्दे- । वा कण हवेज्जा ।संवाहणासूत्रे श्मो दिदंतो। जो श्रासीविसं ज वा संवाहंतं वा पालमइंतं वा सातिज्जति ॥३॥ सुहमुत्तं संवोदेति सो चिबुको तस्स जीवियंतकरो भवति । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) अंगादाण अभिधानराजेन्कः। अंगादाण एवं अंगादाणं पि परिमहमाणस्म मोहुनवो ततो चारित्रजी- | ते पुण सरीरा अपडिग्गहा इतग सपरिग्गहा। सचेतणं सपरिचियविणासो जवति । अन्नंगणासूत्रे इमो दिटुंतो इहरह वि | गह उपरिवक्खमाणं भविस्सति । पयं देहजुयं जवतीत्यर्थः । ताव अग्गी ज्ववति किं पुण घतादिणा सिंचमाणो पर्व अंगा दाणी पमिमाजुत्तं तिविहं परविज्जति । दाणं वि मरिज्जमाणो सुटुत्तरं मोहुन्नवो भवति । उव्वदृणासूत्रे | तिरियमणयदेवीण, जाय.पमिमा असनिहितिओ। मो दितो नही शस्त्रविशेषः सा सन्नावेण तिराहा किमंग ! अपरिग्गहेतगवि य, तं पमिमजुत्तं ति णायत्वं ॥१०६।। पुण णिसिया एवं अंगादाणसमुत्थो सनावण मोहोदिप्पति कि- तिरियपडिमा मणुयपमिमा देवपडिमा या असंनिहियाओं मग! पुण नव्याहते । उच्छोलणा सुत्ते इमोदितो एगो बग्घी | संनिहियाओ अ। असंम्मिहि श्राश्रो दुविहा अपरिगहा इतरा सो चिरोगेण गहिनो संबद्धा य अच्ची तस्स य पंगण पंजे- सपरिग्गहा य । जं एयविहाण नियंत पमिमाजुत्तंति णायव्वं । ण वझियाए अक्खीणि अंजेकण पक्षणीकताणि तेण सो चेव य दाणी एतरं अणेगविहं परूविज्जति । खद्धा एवं अंगादाणं पि सो इतरं चारित्रावनाशाय भवती जुगचिद्दणालियाकर-गीवेमाति सोतगं जं तु । ग्यर्थः । णिचालणासुत्रे इमो दिटुंतो जहा अयगरस्स सुहप्पसुत्तसमुहं वियतेति तं तस्स अप्पवहाय भवति एवं अंगा देहचा विवरीत, तु एतरं तं मुगणे यव्वं ॥१०७।। दाणं पि णिच्छविय चारित्रविनाशाय भवति । जिंघणासूत्रे इ. जुगं वहिल्लाण खंधे आरोविज्जति लोगपसिद्धं तस्स छिदं मो दिटुंतो परिंदेति एगो राया तस्स वेजपमिसिद्धे अंदए जि- अामतर वा । णालिपासणलगादीणं नि करगीयाणीयभंगगंघमाणस्स अंघाबाही नकारत्तो गंधप्रियेण वा कुमारण गंध तस्स गीवा मिदं वा एवमादि सातगंदेहं सरीरं अञ्चयंति तामग्यायमाणण अप्पा जीविया नसिम्रो एवं छांगादाणं जिंघ- | मिति अच्चा प्रतिमा तेसि विवरीतं अगनवुत्तं जवति । बह माणा संजमजीवियाओ ओ अणाश्यं च संसारं नमिस्सति पुण असमिहियअपरिमाहेसु अधिकारी जं परिसं तं पतरं मुत्ति सत्तसु वि पदेस पते आतारणा भयंतीत्यर्थः ॥ भणिो गयब्वमित्यर्थः । पतसि सीयाणं आमतर जो सक्कपोम्गले णिउस्सग्गो । इदाणी अववातो नम्पति ।। ग्घातति तस्स पच्चित्तं भम्मति । तिवियपदमणपभे, अपदंसे मुत्तसकरपमेहे । मासगुरुगादि छबहु, जहाए मजिकमे य नकोसे । मत्तमु वि पदेसु ते, वितियपदा होति णायव्वा ।।१०२।। अपरिग्महित्तचित्त, अदिदिटे य देहजुने ॥१०८ ॥ वितियपदं अवधायपदं मणप्पनी एनात्मयशः ग्रहगृहीत देहजुए अपरिग्गहिते अचित्ते जहम्मए अदिठे मासगुरुं दिले प्रत्यर्थः । सो संचालणादी पदे सव्व करडजा। अपदंसी पि चनलहु अलोकंतीण वारियब्वं मझिमे अदि चनलहु दिट्टे कारनं मुत्तसुक्कए पाषाणकः पमही रोगी संसत्तं काय झ चउगुरूं उकोमते अदिके चमगुरुं दि उल्लहु । तिरियमणुसारंतं अच्छति एतेमुपदेसु सत्तसु वि जहासंभवं भाणियब्वा माण देह जुधे अपरिग्गहियं नणियं । इदाणी तिविहं परिग्गहियं भमति । भणियं संजयाणं। इदाणी संजतीएं। चनबहगाद। मृलं, जहागादिम्मि होति अञ्चित्ते । एसव गमो पियमा, संचाक्षणवज्नित्तो उ वज्जाणं । तिविहेहि पमिजुत्ते, अदिदिठे य देहजुते ।।१०६ ।। सवाहणमादीसुं, वरिखे मुंमु पदेस ।।१०३|| हमा वि अम्हांकती वारीया देहजुते अचित्ते यावश्च परिएसव पगारो सम्बो णियमा संचालणासुत्तविजिश्रो सं- | ग्गहे जहम्मए अदिळेच उलहुअं दिट्टे चनगुरुग्रं कोडंबियपरि गह जहम्मए अदिट्टे च उगुरु दिछे बहुं दमियपरिग्गहे जहम्मए वाहणादिसु उवरिलेसु सु वि मुक्तेसु इत्यर्थः। अदिष्टे ल हुअं दिडे बग्गुरुअं एतेण चेव कम्मेण तिपरिग्गहे म[ सूत्राणि जे जग्यू अंगादाणं अन्नयरंसि अचित्तास झिमए चउगुरुगादी छेदे गति एतेण चेव कम्मेण तिपरिम्गह सोयगाम अपव्वेसित्ता मुक्कपोग्गले णिग्याएरात णिग्यायंतं । उक्कोसए छल्लहुश्राद। मूत्रे ठाति नाणयं दहजुधे । वा साइज्जति ।। ए॥ इदाणी पमिमाजुनं नामादि। जे भिक पूर्ववत् अायतरं णाम बदणं पबियाणं अम्मतरे। पडिमाजुरं वि एवं, अपरिग्गहएतरे असंणिहिते। अचित्तं णाम जीवविरहियं भवतीति श्रोत्र तत्र अंगादाणं प अचित्तसोयसुत्ते, एसा भाणिता भवे सोधी ।।११०।। विसं कण सुक्कगोग्गले णिग्घ पति गायतीत्यर्थः साइज्जइ वा।। पमिमाजु पि एवं चेव नाणियध्वं जहा देहजुनं अचित्तं इदाणी णिज्जुत्ती। 'अपारमहंतहा पमिमाजुभं असारहिअं अपरिग्गहियं ॥ अचित्त सोत्तं पुण, देहे पडिमा जुतेतरं चेव । जहा देह जुभं अञ्चित्तं सपरिग्गइंतहा पमिमाजुझं अगिणहिय सुविधं तिविधमणगे,एकेके तं पुणं कमसी ॥१०४॥ सपरिगहभाणियव्यं । इतरेसु पूण जगम्हिणानियादिसुमासश्रचिन जीवहितं सोतं छिदं पुणसहो भेदएपरिसणे गुरु पत्थ सुनणिवानो एमा अचित्तसोयमुत्तेसाहणिया। अचित्तसोत्तं तिचिद देहजुयं पडिमजुयं चेयरं च । पछाकस्स एते सामएणतरे, तु सोत्तए जे नदिएएमाहाओ। पुणो मो भेदो कममो दहव्यो । देहजुत्तं दुविहं पडिमाजुत्तं सणिमित्तमणिमित्तं वा, कुज्जा शिग्यत्तणादीणि ।। तिाय गगतां अगगहा । नत्थ देहे जुअंदेह जयं दुधिहं इमं । पास अनित्तमोआणादिविराहणं पावेमा संजमविगाणा निग्यिमास्मित्थीणं, जे खलु देहा भवंति जीवनदा । रागग्गिसंजमिंधण, माहो अह संज्मे विगहणया। अपरिग्गहनरा वि य, तं देह जुतं तु णातव्वं ।।१०।। सुक्खए य मरणं, अकिच्चकारित्ति उबंधे।।११।। निरिपमरणुस्सित्थी जे तहा जीपजदा नवंति खन्नु अवधारणे गग पय अग्निः रागाग्निः संयम एवं इन्धनं संयमे धनम Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगादाण अभिधानराजेन्द्रः। अंगालडाह भतस्तेन रागाग्निना संयमेन्धनस्य दाघो जवति विनाश इत्यर्थः दोसगी वि जलंतो, अप्पत्तियधुमधूवियं चरणं । अह इति एषा संयमविराधना श्मा आत्मविराधनापुणो पुणो अंगारमित्तसरिसं, जो न हवइ निद्दही ताव ।। विग्धापमाणस्स सुक्कक्खए मरणं भवति ते वा सुक्कपोम्गले देषाग्निरपि ज्वसन अप्रोतिरेव कमुषभाव एव धूमोऽप्रीतिणिग्यारत्ता अकिञ्चकारित्ति काउं अप्पाणं बंधेति उक्कलं धूमस्तेन धूमितं चरणेन्धनं यावदकारमात्रसरशं न भवति योतत्ति वुत्तं नवति (अपवादमार्गस्तु ग्रन्थत एवावसेयः)नि. तावत् निर्दहति चू० १३० । जीनकल्पे नयमपत्रे स्नेहादिना नक्षणादिकं पञ्च तत पदमागतम्। कल्याणकप्रायश्चित्तमुक्तम ( मैथुनप्रतिझ्या अङ्गादानसंचालन म मेहण शब्दे प्रदर्शयिष्यते) (अङ्गादानाकारां कर्काटिका रागेण सइंगासं, दोसेण सधूमगं मुणेयव्वं । रवा जातकौतुकायाः देव्या उदाहरणं पलंब शब्द दर्शयिष्यते) छायालीसं दोसा, बाधवा जोयणविहीए। अं (ई) गार (ल)-अङ्गार-पुं० न० अङ्ग-पारन् । पक्का- रागण ध्मातस्य यद्भोजनं तत्साङ्गारंचरणेन्धनस्याङ्गारभूतत्वाकारबबाटे वा । ८ । १।४७ । इति सूत्रेणादेत इत्वं धा प्रा०। त्। द्वेषेण ध्मातस्य तु यद्भोजनं तत्सधूमं निन्दात्मककमुषभावविगतधूमवाबदह्यमानेन्धनादिके बादरतेजस्कायनेदे, उत्त. रूपचमसन्मित्वात पि०१०ए पत्र। पं००। भौमप्रहे, पुं. ३६ अ. प्राचा पिंजीवा। जी प्रकाशनानौता रक्तवर्ण, न० तद्वति , त्रि०वाच०। स्थाका०॥ चारित्रेन्धनस्य रागाग्निनाऽङ्गारस्येव करणे,ग० आहार-त्रि० अङ्गाराणामयमाङ्गारः । अकारसंबन्धिनि, “ई७ अधि० । स्वाद्वघ्नं तहातारं या प्रशंसयतो भोजने आपतति | गालं गरियरासिं" दश ५ अ०॥ आहारदोषविशेषे, ध०३ अधि० । पं० २० । प्रव० । उत्त०॥ अं(६)गार (ल) कहिणी-अहारकर्षिणी-स्त्री० अकराआचा० । तत्वं च । स्थापिकायामीपद्वक्राणायां लोहमययष्टौ, भ०१६ ० १ उ०। जेणं णिग्गंत्ये वा णिग्गयी वा फामुयं एसाणज्ज अ-| अं गार निकम्म - अङ्गारकम्मन--न० अङ्गारविषयं सणं पाणं खाश्मं साइमं पमिग्गहेत्ता सम्मुच्किए गिथे। कर्माङ्गारकर्म । अङ्गाराणां करणविक्रयस्वरूपे कर्मादानवादगढिए अन्झोपवएणए आहारमाहारेइ एस एं गोयमा ! कर्तव्ये कर्मणि, एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदप एकापाकादिकं संगाले पाणभोयणे भ०७ श०१ उ० । कर्म तदङ्गारकोच्यते अङ्गारशब्दस्य तदन्योपनक्कणत्वात "रागेग सइंगा" महा० ३ ०। एतदेव सव्याख्यानमाह। । न.श.५०० । समानस्वभावत्वात् पा०१०। यता योगशास्त्रे "अङ्गारभ्राष्ट्रकरणं, कुम्नायःस्वर्णकारिता । ग्वारतं होइ सइंगालं, जं आहारे मुच्छिओ संतो। त्वेटकापाका-विति ह्यङ्गारजीविका ॥ध०२ अधि० । प्रव० । तं पुण होइ मधूमं, जं आहारेइ निंदंतो ।। आव० "ङ्गाले दहिकरण विक्किणेति तत्थ बक्कायपाण बधो तन्त्र तद्भवति नोजनं सागारं यत्ततिविशिष्टगन्धरसास्वादवशतो कापति अहवा लोहकारादि" आ०चू०६० श्राधा पंचा। जाततहिषयमूर्च: सन् अहो मिष्टमहो सुसंभृतमहो समिधं अं[६] गार [ख] कारिया-अङ्गारकारिका-स्त्री० असुपक्वं सरसमित्येवं प्रशंसन्नाहारयति । तत्पुनर्भवति भोजनं सधृमं यत्ततिविरुपरसगन्धास्वादतो जाततद्विषयव्यलीकचित्तः ङ्गारान् करोतीति अङ्गारकारिका । अग्निशकटिकायाम, । मन्नहो रूपम् क्वथितमपक्वमसंस्कृतमवणं चेति निन्दन्ना ___ इंगालका रिएणं नंते ! अगणिकाए केवइयं कालं संहारयति । अयं तत्र भावार्थः । इह द्विविधा अङ्गाराः तद्यथा चिट्ठ गोयमा ! जहामेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिमिरा व्यतो भावतश्च । तत्र अभ्यतः कृशानुदग्धाः खदिरादिवनस्प- इंदियाई अपवेत्य वाचकाए बक्कमइ ण विणा वाउकाइएणं तिविशेषाः भावतो रागाम्निना निर्दग्धं चरणेन्धनम्। धूमोऽपि | अगणिकाए उज्जल ।। द्विधा तद्यथा व्यतो जावतश्च । तत्र द्रव्यतो योऽर्फदग्धानां अकारान् करोतीति अङ्गारकारिका अग्निशकटिका । न केकाष्ठानां संबन्ध| भावतो द्वेषाग्निना दह्यमानस्य मानस्य संब वलं तस्यामग्निकायो नवति ( अमवेत्थत्ति ) अन्योऽप्यत्र न्धी कमुष नावो निन्दात्मकः ततः सहाङ्गारेण यद्वर्तते तत्सा वायुकायो व्युत्कामति यत्राग्निस्तन वायुरिति कृत्वा कस्मादेवशारं धूमेन सह वर्तते यत्तत्सधूमम् । मित्याह “न विणेत्यादि" । न० १६ श० १ उ० । संप्रत्यङ्गारधृमयोलकणमाह । अं (इं) गार (स)ग-अङ्गारक-पुं० अङ्गार-स्वाथें-कन्-प्रअंगारत्तमपत्तं, जलमाणं धणं सधृमं तु । ङ्गारे, वाच० । मङ्गलनामके तारग्रहभेदे, स्था० ६ ठा0 1 औ० । अंगारत्ति पधुव्यइ, तं वि य दटुंगए धूमे ॥ प्रश्नः । श्राद्ये महाग्रडेच कल्प० । स०प्र०। चं०प्र० । भ०। अङ्गारत्वमप्राप्त ज्वजदिन्धनं सधूममुच्यते तदेवेन्धनं दग्धे | "दो इंगालगा" स्था२ ठा। अङ्गारमिव इवार्थे कन रक्तधूमे गते सति अङ्गार इति । एवमिहापि चरणेन्धनं रागाग्निना | वर्णत्वात् । कुरण्टकवृक्ष, भृङ्गराजवृक्षेच पुं० अल्पार्थ कन् रनिर्दग्धं सत् अङ्गार इत्युच्यते । द्वेषाग्निना तु दह्यमानं सरणन्ध क्तवर्णत्वात् विस्फुलिङ्ग इति विख्याते अङ्गारक्षुधांशे, नावाच नं सधूमं निन्दात्मककयुषभावरूपधृमसन्मिश्रत्वात । अं(इं) गार ( ल) मा (दा) ह-अङ्गारदाह-पुं० अएतदेव नावयति । झारा दह्यन्ते यत्र । य बाङ्गाराणां दाहो भवति तादृशे स्थाने,नि. रागग्गिसंपलितो, लुतो फामुयं पिाहारं। चू०३ ०। प्राचा० । अङ्गारान् दहतीति अङ्गारदाहः । श्रङ्गानिदषंगालनिभं, करे चरणिधणं खिप्पं ।। राणां दाहके,त्रि० (अङ्गारदाह केन तङ्गणम जानता चन्दनखोटी प्राशुकमायाहारं शुआनो रागाग्निना संप्रदीतश्चरणेन्धन नि-| दग्धेति चन्दननोटीदृष्टान्तः सच श्रायरिय शब्दे) (मुक्तिसईग्धालारनि क्षिप्रं करोति । खमसह शामित्यत्राङ्गारदादृष्टान्तः सिद्ध शब्द) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल (४३) अंगारपतावणा अभिधानराजेन्द्रः। अं(इं) गार (ब) पतावणा-झारपतापना-स्त्री. अ. तत्रायातैः स तैदृष्टो, गुरुरकारमईकः ।। कारेषु प्रतापनाशकारप्रतापना । शरीरस्य शीतकालादी अझा राष्ट्रत्वन समुत्पन्नः, पृष्ठारूढमहाभरः ।। २३॥ रषु प्रतापनायाम, प्रश्न० सं०५द्वान गावम्बितस्थूल-कुतुपोऽपेससं रटन् । अं (1) गार (ल) मद्दग-अकारमर्दक-पुं० जीवाश्रद्धान पामनः सर्वजीर्णाङ्गो, गतत्राणोऽतिपुःखितः ।। २४ ।। तोऽनाराणां मर्दनेनाङ्गारमर्दकेति प्रसिद्धि गते रुषदेवाभिधे समुष्टमीकमाणानां, तेषां कारुण्यतो भृशम् । प्रभव्याचायें, तत्संविधानकं चैवं श्रूयते। जातिस्मरणमुत्पन्नं, सर्वेषां शुभभावतः ।। २५ ।। " सूगिर्विजयसेनाख्यो, मासकस्पविहारतः । देवजन्मोद्भवज्ञान-झातत्वात्तैरसौ स्फुटम् । करभः प्रत्यभिज्ञातो, यथाऽयं चन्ननो गुरुः ॥ २६ ॥ ममायातो महानागः, पुरे गर्जनकाभिधे॥१॥ अथाऽत्र तिष्ठतस्तस्य, कदाचिन्मुनिपुङ्गवः । ततस्ते चिन्तयामासु-धिक संसारविचेष्टितम् । गा विसर्गवेवायां, स्वप्नोऽयं किल वीक्वितः ॥ २ ॥ येनैष तादृशज्ञान-मवाप्यापि कुजावतः ॥ २७ ॥ काजानां शतैः शूरैः, शूकरः परिवारितः । अवस्थामीरशी प्राप्तः, संसारं व मिष्यति । पञ्चनिजातीना-मस्मदाश्रयमागतः ॥३॥ ततोऽसौ मोचितस्तेज्य-स्तत्स्वामिन्यः कृपापरैः ॥ २८ ॥ ततस्तदैव ते प्राप्य, भवनिवेदकारणम् । ततस्ते कथयामासुः, सुरेः स्वप्नं तमद्रुतम् । सूरिस्तूवान तस्यार्थ, साधूनां पृच्चताममुम ॥४॥ कामनोगपरित्यागा-त्ते प्रत्रज्यां प्रपेदिरे ॥२६॥ सुसाधुपरिवारोऽद्य, सूरिरेष्यति कोऽपि वः। ततः सुगतिसंताना-निर्वास्यत्यचिरादमी। प्राघूर्णकः परं नव्यो, नासाविति विनिश्चयः ॥५॥ अन्यः पुनरभव्यत्वादू, जवारण्ये अमिष्यतीति ।। ३०॥ यावज्जलपत्यसौ तेषां, साधूनां सूरिरग्रतः । (गाथार्थः १२) पंचा०विव० ॥ रुपदेवानिधः सूरि-स्तावत्तत्र समागतः ॥ ६॥ अं[३] गार[स] राति--अनाररासि-पुं० स्खदिराङ्गारपुळे. शनैश्चर व स्फार-सौम्यग्रहगणान्वितः। सूत्र. १ श्रु. ५ अ० १३० । प्रा०क० । भाव । आ० चू० । परएमतरुवत्कान्त-कल्पवृकगणान्वितः ॥७॥ अं[ई] गारवई-अकारवतो-स्त्री. धुन्धुमारनृपसुतायाम, रुता च तस्य तैस्तूर्ण-मन्युत्थानादिका क्रिया। (तद्वक्तव्यता संवेगशन्दे वयते) प्रातिथेयी यथायोगं, स गच्छस्य यथागमम् ॥८॥ अं[३] गार [ल] सहस्स-अङ्गारसहस्र-न० ६१० म ततो विकात्रवेसायां, कोलाकारस्य तस्य तैः। पररावणाय निक्षिप्ताः, अङ्गाराः कायिकीनुवि ।। तराणामग्निकणानां सहस्रे, स्था० ८ ग०। स्वकीयाचार्यनिर्देशा-प्रच्छन्नश्च तकैः स्थितैः । अं(६) गालसोधिय-अनारशाच्य-त्रि० अङ्गारैरिवास्तव्यसाधुनिदृष्टा-स्ते प्राघूर्णकसाधयः ॥ १०॥ व पक्के, न. ११ श. ६०॥ पादसंचूर्णिताकार-कृशत्काररवस्तुतौ । अं (ई) गारा [बा] यतण-अनारायतन-न० यत्राङ्गार. मिथ्याऽकृतमित्येत-वाणः प्राणिशङ्कया ॥ ११ ॥ परिकर्म क्रियते तस्मिन् गृहे, प्राचा०२७० २०२०। कृशत्काररवस्थाने, कृतचिह्ना श्तीच्या । अं[६] गारि[लि] य-अमारित-त्रि०विवर्णीनूते, मादिने निभावयिष्यामः, कृशत्कारः किमुद्भवः ॥ १२ ॥ चा०२ श्रु.१०८301 आचार्यों रुद्रदेवस्तु, प्रस्थितः कायिकी नुवम । अंगिरस-अङ्गिरस-पुं० गोतमगोत्रविशेषनूताहिरपुरुषापत्ये, कृश काररवं कुर्व-प्रकारपरिमईनात् ॥ १३ ॥ स्था ७ ग। जीवाश्रहानतो मूढो, बदश्चतज्जिनः किल । जन्तवोऽमो विनिर्दिशः, प्रमाणधक्कता अपि ॥१४॥ अंगीकम--अकीकृत-त्रि अङ्गीतिव्यन्तं तत्पूर्वकात कृषःका वास्तव्यसाधुभिर्टयो, यथा च साधितम् । . स्वीकृत, स्था०५ठा0 'अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयातीति'चौ. मूरिविजयसेनस्य, तेनापि गदितं ततः ॥ १५॥ रपश्चाशिका वाच। स पप शूकरो भद्रा-स्त एते बरहस्तिनः। अं[ई] गुअ-इजद-पुं० इगि-उः रङ्गः रोगः तं धति खएकस्वभेन सूचिता येवो, न विधेयोऽत्र संशयः ॥१६॥ यति दो क "शिथिलेऽङ्गदे वा" । । ८१ । ति सूत्रेस तैः प्रभातेऽथ तच्छिष्या, बाधितास्तूपपत्तिभिः । प्राकृते आदी इत्वम् । तापसतरौ, प्रा०। यथैवं चेष्टिते नाय-मभव्य इति बुध्यताम् ॥ १७ ।। अंगट्ठ-अष्ट-पुं० अङ्गी पाणी प्राधान्येन तिष्ठति स्था--- त्याज्यो वोऽयं, यतो घोर-संसारतरुकारणम् । त्वम् । हस्ताऽवयवे, स्था० १० वग। ततस्तैरप्युपायेन, क्रमेणासौ विवर्जितः॥१८॥ अंगुटपासण-अजमश्न-नक विद्याविशेषे, ययाऽष्ठे देवताते चाकाङ्कसाधुत्वं, विधायाथ दिवं गताः। ततोऽपि प्रच्युताः सन्तः, केत्रेऽमुत्रैव भारते ।। १९ ।। वतारः क्रियते तत्प्रतिपादके प्रश्नव्याकरणानां नवमे ऽध्ययने च श्रीवसन्तपुर जाता, जितशत्रोर्महीपतेः। परमिदानीतने प्रश्नव्याकरणपुस्तके नेदमुपक्षज्यते स्था०१० मा पुत्राः सर्वेऽपि कालेन, ते प्राप्ता यौवनश्रियम् ॥२०॥ अंगुम-पूरि-धा पूर० णिच् पूरेरघाडोग्यबोद्भूमाङ्गमाहिरेमाः भन्यदा तान् सुरूपत्वात्, कलाकौशलयोगतः। ८।४ । ६८ । इति सूत्रेण पूरेरङ्गम इत्यादेशः । पूर्ती, अमेर सर्वत्र स्यातकीर्तित्वा-सर्वानाशु न्यमन्त्रयत् ॥ २१ ॥ पूरयति प्रा०। हस्तिनागपुरे राजा, कनकध्वजसंशितः। अंगुल-अङ्गुल-पुं० अङ्गु उल० । हस्तपादशास्खायाम् , पाच स्वकन्याया परार्याय, तान स्वयंवरमएकपे॥२२॥ अष्टयवमध्यात्मके परिमाणनेदे, न. "अजवमकाओ से पये Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) अभिधानराजेन्द्रः | अंगुल भंगुले" भ० ३ ० ७ उ० । ज्यो० । स्था० | अगिरगीत्यादिदके परितः अगित्यधधानुत्पथी ज्ञानाची अपि भवन्त्य तोऽङ्गन्ते प्रमाणतो ज्ञायन्ते पदार्था अनेनेत्यङ्गुलम् । मानवि शेगे, प्रव० २५४ द्वा० । तद्भेदा यथा । से किं तं अंगुले ? अंगुले तिविहे पत्ते तंजहा | आगले उस्ले मागुले ॥ विविधं तद्यथा ममुत्सेचा प्रमाणाङ्गलम् । तत्र ये यस्मिन् काले भरतसगरादयो मनुष्याः प्रमाणयुक्ता भवन्ति तेषां च संबन्धी अत्रात्मा गृह्यते आत्मनामङ्गलमात्मा मुक्त पवाड श्रात्माङ्गुलम् । से किं तं यंगुले आयंगुले जे जे एस जया मसा "जब तेसि तथा अपणो अंगुणं वास अंगुलाई मुहं नवमुद्दा पुरिसेपमा राजुने भव। दोसि पुरिसे मानजुत्ते भवइ । भारं तुह्नमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भव माणुम्माणमा जुत्ता लक्खणत्रंजणगुणेहिं नववे उपकुलप्पा उनमरिमा मुणे ति पुरा अहियपुरमा अस अंगुलाण उकिडा अहम्पुरिसा, चतरं मज्झिमझाओ । २ अहिया वासरसतमारपरिहीया ते रिमाणं, असा समुपैति । ३। एषणं अंगुलपमा अंगुन्नाई पादो, दो पाया वित्यी, दो वित्थी ओ रयर्ण। दो रयणीओ कुत्थी, दो कुत्थीओदनं, धरणजुगेनासिया अयमले दो पन्नस्माई गाउ चचारि गाउआ जो एवं गुप्यमाणं किं भय ? आरंगुलेशं ने नया मनुस्सा इति तेमिणं तया आयंगुले अगरतला गदद्दनदी वा वि पुत्रखरिणो दोहि य गुंजालिआओ सरासरपंतिचाओ मरामरपतिओ निलपतिओ आरामुराणकाणणवणवण देउसभापाखाऽअपरिहाओं पागाराहायचरिषदारगो पुरपामायपरसरणाण प्राणमित्रांमगतिगच उक्कच उम्मुह महापह पहा सगकर जाणजुग्गगिल्लिघिलिसिवेदमाणि लोहीओकडाहकवियजमनोवगरणमाईणि अज्जकवियाई च जोलाई भविज्जंति से ममासओ तिविहे पत्ते तंजहा संगुले पयरंगृचे घणंगुझे अंगुलायया एगपएसिया मेढी सूझअंगुको गुणिया पपरं परं मुनिं गुले एस सूपरंगुनघणंगुचाएं कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बावा तुझ वा विसाडिया वा सो परंगुळे खंगुणेपणं गुणाज्जगुसेतं आयं ॥ ये रतादयः प्रमाणयुक्ता यदा जयन्ति तेषां तदा स्वकीयममनिषदनानवस्थितमानत्वादनियतप्रमाणं द्रव्यम् । श्रतेतैवात्मा डुलेन । द होना वा मधु अंगुल पुरुषाणां प्रमाणयुतादिन कुत्र्यंबाह ( भयो त्रासेत्यादि) यद्यस्यात्मीयमेडुलं तेनात्मनोऽङ्गुलेन द्वादशाङ्गानि मुखं प्रमाणयुद्धं भवत्यनेन मुखप्रमाणे नत्र मुखा नि सर्वोअप पुरुषः प्रमाणको भवति प्रत्येक द्वा पनिर्मुखेरशेतरं शतमहू-नानां संपद्यते तताय दुधयः पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवतीति परमार्थः । अथ तस्यैय मानयुक्तातिपादनार्थमाह । डौणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति कोणी जलपरिपूर्ण महती कुमिका तस्यां प्रवेशितो यः पुरुषो जनस्थ कोणं पुचस्वरूपं नियति या पुरयति स द्रोणिकः पुरुषो मानयुको निगद्यते शत भाष स्यैवोन्मानयुक्ततामाह | सारपुल रचितत्वा तुलारोपितः सन्नकंजारं तुलयन्पुरुष] उन्मानयुक्तो भवति । तत्रोत्तम पुरुषाः यथोक्तैः प्रमाणमानो मानेः अन्यैा सर्वेरेव गुणैः संपन्ना एव तद्दर्शयन्नाह (मान्माणगाड़ा ) अनन्तरोक्तस्वरूपैर्मानो मानप्रमाणैर्युक्ता उत्तमपुरुषाश्चक्रवर्त्यादयो शातव्या इति संबन्धस्तथा लक्षणान् शङ्खस्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि मीतिलकादीनि गुणाः कास्यादयस्तैरुपेतास्तद्योत्तमकुनान्युपाई नि प्रसूता इति गाथार्थः । अथात्मानैषोत्तममध्यमाधमपुरुषाणां प्रमा माह ( ति पुरा गाहा) भवन्ति पुनरधिकपुरुषा उत्तमपुरषाचांदमला (उच्चा) उमाउन या पुन:शब्दरूपेषामेवाधिक पुरुषानामनेकभेदादर्शकः । श्रात्माकुनेनैव प्रसवत्यङ्गुलान्यधम पुरुषा: भवन्ति (चरुतरमन्नमिलाउस तेनैवाने मला मध्यमानः शब्दो ) चतुरुन्त यथानुरूपशेषलकणादिभावप्रतिपादनपर इति गाथार्थः । अष्टसरता जमानादीना अधिकाया कि नवतीस्याद] (टीणा या गाहा) अष्टोत्तरशताङ्गलहीना वा अधिका वा ये खलु स्वरः सकल जनादेयत्वप्रतिगम्भीरतादिगुणालंकृतो ध्वनिः सत्यं दैन्यविनिर्मुको मानसोऽवष्टम्भः सारः शुनपुझोपचयजः शारीरशक्तिविशेषस्तैः परिदना सम्त उत्तम पुरुषाणां उपचितपुष्पाग्भा राणाम अशा अनिच्छुतो ऽच्य कर्मचशतः प्रेयमुपयान्ति स्वरादिशेषण कल्पसाहाय्यात् पथकप्रमाणानाधिषयमनिष्फल प्रदायि प्रतिपत्तव्यं तत्केवलमिद लक्ष्यत । जरतचक्र - दशप्रमाणानामपि निर्ण तत्पदानां पचिम्मन चतुरशीत्या प्रमाणत्वाद्भवन्ति विशिष्टाः स्वरादयः प्रधानफलदायिनों यत वक्तम् " अस्थिष्प्रर्धा सुखं मांसे त्वचि जोगाः स्त्रियोऽऋिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा, सबै सत्वे प्रतिष्ठितमिति” गाथार्थः । पतेनाप्रमाणेन पडङ्गानि पादः पादस्य मध्यतः प्रदेशः पर कु विस्ताः पादैकदेशत्वात्पादाः द्वौ च युग्मकृतौ पादौ विसस्तिः द्वे च वितस्त। रत्निस्त इत्यर्थः । रत्निद्वयं कुकिः प्रत्येकं कुक्तिद्वयनिष्पन्नास्तु पदप्रमाणविशेषाद एक धनुर्युगनालिका मुस ललकणा भवन्ति । अत्राका घुरी शेषो गतार्थः । द्वे धनुःसहसे गतं चत्वारि व्यूतानि योजनम् । पणं श्रयंगुरुप्पमाणणं किं पचणमिति " गतार्थ नवरं ये यदा मनुष्या भवन्ति तेषां तदा आत्मनामङ्गवेन स्वकीयस्वकीय काल संजय न्यय 66 दादीनि मीयन्त इति संटङ्कः । ( अवटादीनां व्याख्या स्वस्वखान) मनु मान्मानात्मनात्मक संनिय स्तुत्यद्यकात्रीनानि च योजनानि मीयन्ते । ये यत्र काले पुरुषा भवन्ति तदपेक्षयाऽद्य शब्दो यः । इदं बात्मा सून्यादिनेशस्त्रिविधं तत्र द । घेणाङ्गुलायना या इल्यस्यै क प्रदेशिक । नभः Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल अन्निधानराजेन्पः । अंगुल प्रदेश श्रेणिः सूख्यगासमुच्यते । एतच्च सद्भावतोऽसंख्येयप्रदेश- | महावीरस्म अफ लंज स.गुणं पमाणंगुलं भवइ । एएमप्यसत्कल्पनया सूच्याकारव्यवस्थापितप्रदेशचयनिप्पन्नं इष्ट- | ग्यम् । तद्यथा सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गसम। श्दमपि पर णं अंगुलपमाणाण छ अंगुलाई पादोदुवालसंगुलाई विहमार्थतोऽसंख्येयप्रदेशान्मकम् । असद्भावनस्त्वेवानन्तरदर्शि त्थी दो विहयाओ रयणी दा रयणीओ कुच्छी दो सा त्रिप्रदेशात्मिका सुचिस्तयैव अतः प्रत्येक प्रदेशनिप्पन्नं सूची- कुच्चीओ धणू दो धणमहस्माई गाउअं चत्तारि गानाई अपात्मकं नवप्रदेशसंख्य संपद्यते । स्थापना प्रतरश्च सूच्या गु- जोअणं । एमाणं पमाणंगुलेणं किं पोपणं एएणं पमाणिता दयण विष्कम्भतः पिएमनश्च समसंख्य घनाननं भवति णंगलोणं पुढवी कमाणं पातालाणं नवगाणंचवणपत्थदंयादिषु त्रिष्यपि स्थानेषु समतावकणस्यैव समयचय्यया घनस्यह रूढत्वात् प्रतरानं तु देय॑विष्कम्भाभ्यामेव समं न माणं निस्याणं निरयावलीणं निरयपत्थमाणं कप्पाणं पिए तस्तस्यैकप्रदेशमात्रत्वादिति भावः । इदमपि वस्तुवृत्या विमा गाण विमाणपत्थमाणं टंकाण कुंमाणं सेलाणं सिह• उसस्पेयप्रदेशमानम । असन्प्ररूपणया नु सप्तविंशतिप्रदेशात्मक रीणं पन्जाराणं विजयाणं वक्खाएणं वारुहराणं पच्चयाणं पूर्वोक्तच्या अनन्तरोक्तनवप्रदेशात्मके प्रतरे गुणिते एतावता- वेसाणं वेइस्सणं वेश्या दाराणं तो.णाणं दीवाणं सममंव प्रदेशानां भावात् । एषा च स्थापना अनन्तरनिर्दिया नवप्र- हाण आयामविक्खनोच्चतोवेह परिक्खेवो मविजात ।। देशात्मकप्रतरस्याध नपरि च नय नव प्रदेशान् दत्वा भावनीया। तथा दैयविष्कम्नपिरामैस्तुल्यमिदमापद्यते " एएसिणं सहन गुणितापुत्सेधाङ्गलप्रमाण जातं प्रमाणाङ्गलम् । अथवा नंत" इत्यादिना सूच्यहुलादिप्रदेशानामल्पबहुत्वचिन्ता यथा परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तमङ्गलं प्रमाणाङ्गलं नातः परं वृहत्तर निर्दिप्रन्यायानुसारतः सुखावसेयेति तदेतदात्माङ्गसमिति ।। मङ्गनमस्ताति भावः । यद्वा समस्तलोकव्यवहारादिराज्याउत्सेधाडुलनिर्णयार्थमाह। दिस्थितिप्रथमप्राणनाथेन प्रमाणततोऽस्मिन्नवसर्पिणीकास मे किं तं नस्सहंगुले ? नस्सहगुले अणगविहे पएगत्ते तावागादिदेवो जरतो वा तस्याङ्गलं प्रमाणाङ्गसमेतच्च काक्र. तंजहा "परमाण तसरेणू रहरेग अगायंच बालस्स । निक्खा णारत्नस्वरूपरिझानेन शिप्यायुत्पत्तिकणं गुणाधिक्यमपश्यं जा य जवो अट्ठमविवाहिया कमसो" ।। स्तद्वारेण निरूपयितुमाह । " एगमेगस्स णं रमो इत्यादि" उत्मेधः “अणंताणं मुहमपरमाणु पोग्गलाणमित्यादि" क्रमेणो एकैकस्य राइश्चतुरन्तचक्रवर्तिनोऽटसौर्णिकं काकणीरत्न च्छ्यो वृद्धिन यनं तस्माजातमङ्गलमुत्सेधाङ्गलम अथ वा उत्सेधो षट्तलादिधम्मोपेतं प्राप्तं तस्यकैका कोटिरुत्सेधाविष्कम्ना तत्प्रमाणस्य जगवतो महावीरस्याङ्गिसं तसहस्रगुणं प्रमाणानारकादिशरोराणामुशस्वं तत्स्वरूपनिर्णयार्थमङ्गलमुत्सेधाङ्ग हलं नवतीति समुदायार्थः तत्रान्यान्यकालोत्पन्नानामपि चक्रिलम् । तच्च कारणस्य परमाणुसरेएवादरनेकविधत्वादकविधं प्राप्तम् ॥ (परमाएवादीनां स्वरूपं स्वस्वस्थाने) णा काकणीरत्नतुल्यताप्रतिपादनार्थमकैकग्रहणं निरुपचरितरा जशब्दविषयज्ञापनार्थ राजग्रहणं दिक्त्रय नेदनिन्नसमुजाहिएए णं नस्सेहंगुन्नणं किं पोअणं एए | उस्सेहं: मपर्वतपर्यन्तसीमाचतुरयत्रवणाश्चत्वारोऽन्तास्तांश्चतुराऽपि लेणं णेरअतिरिक्खजोणि अमणुस्सदेवाणं सरीरागाहणा पक्रेण वर्त्तयति पालयतांति चतुरन्तचक्रवर्ती तस्य परिपूर्णमविजंति ॥ पट्खामजरतभोक्तरित्यर्थः । चत्वारि मधुरतृणफलाम्येकसर्षपः, (तदेवमेश श्रीगाहणा शब्दे वक्ष्यमाणा अवगाहना सर्वाऽप्यु षोमश सर्पपा एकं धान्यमाषफलं, द्वे धान्यमाषफले ५का गुजा, त्सेधाङ्गलेन मीयत) पश्च गुडचा पकः कर्ममाषका, पोमश कर्ममाषका सुवर्णः, पतैरएभिः काकणारत्नं निष्पद्यते । एतानि च मधुरतृणफनासे समासओ तिबिहे पत्ते तजह सूइअंगुले पयरंगुले दीनि जरतचक्रवर्तिकालसंनवान्यव गृह्यन्ते अन्यथा कालभेदेघणंगुले एअंगुलयया एगपएसिया सेढी सइअंगुझे सई न तपम्यसनव काकणारत्नं सर्वधक्रिीणां दुष्यं न स्यात सहए गुणिया पयरंगुले पयरं सूइए गुणितं घणंगुले । एए- तुल्यं चेप्यते तदिति चत्वारि ६ सप्वाप दिक्षु ने कर्कासिणं सूअंगुलपयरंगुलपण फुलाणं कयरे कररेहि अप्पे ध इत्येवं षट् तलानि यत्र तत् पट्तलम् । अध उपरि पा श्वतश्च प्रत्येकं चतसृणामधीणां नाचात् । द्वादश अधयः वा बहुए वा तुझे वा विसेसाहिए वा सव्वथाव सइअंगुले कोटयो यत्र तद् द्वादशाधिकं कर्णिकाः कोणास्तेषां च अध पपरगुल असंखेज्जगुणे घणंगुळे असंखेज्जगुणे सेत्तं उपरि च प्रत्येची सद्भावादएकर्णिकम् । अधः कनस्सहगुल्ने । रणिः सुवर्णकारोपकरणं तत्संस्थानेन संस्थितं तत्सहशाकारं एतक सूचीप्रतरघनभेदात्रिविधमात्माङ्गलबद्भावनीयम्। उक्त- समचतुरस्र मिति यावत्प्रा.तं प्ररूपितं तस्य काकणीरत्नस्यकैका मुत्संघाङ्गुलम् । काटिरुत्सेधाहुलप्रमाणविष्कम्ना द्वादशाप्यथय एकैकस्य उत्स. अथ प्रमाणाङ्गुलम् । धाङ्गलप्रमाणा भयन्तीत्यर्थः । अस्य समचतुरस्त्रत्वादायामा मे किं तं पमाणंगुझे? पमाणंगुने एगमेगस्स रन्नो चाउरंत- विष्कम्नश्च प्रत्येकमुत्संधाइलप्रमाण इत्युक्तं जयति । यैव च चकबहिस्स अट्ट सोवामिए कागणीरयणे छत्तले दुवालस कोटिरूकता अायाम प्रतिपद्यते साधस्नियवस्थापिता विष्कम्भनागवतीयायामाचकम्नयोरेकमारमियेऽप्यपरमिश्वसिए अहकमिए अहिगरणमंठाणसंचिर पप्पत्त तस्स एं यः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं तहणे मायामा प एगमेगा कोमी उस्मेहंगुले विकावना तं ममागस्स नगवो गुदीत एव समचतुरस्रत्वात्तस्ये त तदेव सवते उत्सधाकुल Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अंगुल प्रमाणमिदं सिर्फ यत्र कुलप्रमाण परागण मेवेति भूते तम्मत संभार्य तु सर्ववेदिनो विद न्तीति । तदेोगितमुपाधमणस्य भगवा वीरस्याङ्गलं कथमिदमुच्यते श्रमदायीरस्य सप्तहस्तप्रमा त्वादेकस्य हस्तस्य चतुःशत्चालमानाप चिकशताङ्गलमानो भगवान सिद्धो भवति स ए खात्मानमतान्तरमाश्रित्य स्वहस्तेन साहस्तत्रयमानत्वातुलमान गायतः सामर्थ्यादेकमुत्सेधा श्रीम महावीरापेक्षा इसमे भवति । येषां मतेन भगवानात्माङ्गलनामा स्तेन साहस्त श्यमानत्वामन भगवत एकस्मिनात्माले एकमु तस्य च पञ्च नव जागा भवन्ति श्रष्टषष्यधिकशतस्य अष्टोत्त रशतेन भागापहारे एतावत एव भावात् यन्मतेन तु भगवान्दिसत्यमङ्गलशतं स्वस्तेन पञ्च दस्तमागत्य सन्मते नगयत एकस्मिन्नात्माङ्गुल एकमुत्सेधाङ्गुलं तस्य च द्वौ पञ्चमागौ भ वतः । अपप्रयधिकशतस्य विंशताधिकशतेन भागे हृते इत सभासदेवमिहायमतम पेयैमुत्सेधा भगवातस्यार्करूपतया प्रोकमित्यवसेयमिति । तदुत्सेधायं सहस्रगुतिं प्रमाण भवति कथमिदमवसीय उच्यते ज्ञरतअवर्ती प्रमाणानात्मानकिल विंशतिशतं नां नवति भरतात्मा कुलस्य प्रमाणा गुलस्य चैकरूपत्या लेन तु मानत्वाविध प दृष्टचत्वारिंशत्सहस्त्राण्यङ्गानां संपद्यन्तेऽतः सामर्थ्यादेकस्मिन् प्रमाणाङ्गुले चत्वारि शतान्युत्सेधाङ्गुलानां भवन्ति । विंशत्यधिकरातेन श्रष्टचत्वारिंशत्सहस्राणां भागापहारे एतावतो लाजात्यमुत्तगुणमेव स्थान कथं सहस्रगुणमुकं सत्यं किं तु प्रमाणाकुलस्पात योत्सेश्राकुलरूपं वाढल्यमस्ति ततो यदा स्वकीय वाढल्येन युक्तं यथावस्थितमेवेदं विश्यते तदोत्से पाइला चतुःशतगुणमेव भवति दललन पाहल्येन तचतुष्टयलदेवं गते तदा करना सहस्रा मालपासून पाल विहान प्रमाणले तिस्रः श्रेणयः कल्पले एकाविभा ती द्वितीयाऽपि तायमानयतीचापि देय्वैण चतुःशतमानैव विष्कम्भतलं ततोऽस्यापि विकम्भो कुलप्रमाणः संपद्यते तथा च सत्यङ्गुलशतद्वयदीर्घा अङ्ग विष्कम्ना इयमपि सिद्धा । ततस्तिसृणामप्येतासामुपर्युपरि व्यवस्थापने उत्सेधालतोऽकुलस विष्कम्भा प्रमाणाङ्गलस्य सुचिः सिद्धा भवति तस्म कृत्योपाला सत्सहस्रगुणमुकं वस्तुतस्तु चतुःशतगुणमेव अतएव पर्वतविमाना मानाने अ तृतीयलक्षणस्यविनापितेन मी तु सहखगु गया अलविष्कम्भया मुख्यति शेष भावार्थ वात (पुढ बीति ) रत्नप्रभादीनां ( कंमाणंति ) रत्नकारकादीनां ( पातालाति) पातान्त्रकलशानां ( भवणाणंति ) भवनपत्यावासादीनां (जवणपत्थमाणंति भवनस्तर स्तरान्तरे तेषां ( निरयाणंति ) नरकावासानां (निरयावालेयाणति ) नरकाबासन हात]रेकारसि हेव एकाइयादिना प्रतिपादितानां नरकप्रस्तद्वानां शेषं प्रतीतं अंगुलिमुहा नवरम् ( टंकाणंति ) विटङ्कानां ( कृाणंति ) रत्नकूटादीनां (लाति) मुपतानां सिहरीणंति ) पर्वतानामेव शिखरयां (पण्यात मला ज लधिवेलाविषयभूमीनामूर्द्धाघोभूमिमध्ये ऽवगाहः । तदेवम्"गुप्तचित्रिणी स्वादिगापन्यस्ततादीनि योजनाव सानानि पदानि व्याख्यातानि । 30 साम्प्रतं शेषाणि श्रेण्यादीनि व्याविषयांसुराह से समास तिविद्धे पत्ते तं जहा से अंगुले परं गुले घणगुले असंखेज्जाओ जोअणकोड कोमीओ सेढी सेडीए गुणियाणं परं परं गुण लोगो संर लोगो गुण संखेज्जा लोगा असंखेज्जएणं गुणिश्रो लोगो असंखेला सोगा अर्थ लोगो गुणिश्रो अनंता लोगा एएमिणं सेढिअंगुल पयरं गुलघरांगुलाएंणं कर कयरेर्हितो अप्पे वा बहुए वा तुने वा विसेसाहिए वा सच्चयो सेडिगुले पयरंगुले असंखेज्जगुणे पगुले श्रसंखेज्जगुणे सेत पमाणंगुले । अनन्तरनिर्णीतप्रमाणाङ्गुलेन यद्योजनं तेन योजनेनासंख्येया यो जनकोट कोट संपतिसमचतुरखीकृतकस्यैकाणिवति ( सप्तरज्जुप्रमाणत्वं लोकस्य लोगशब्दे ) अनु तदिदं सप्तरज्ज्वायामत्वात्प्रमाणाङ्ग्झतोऽसंख्येययोजना कोटिकोट्यायता पकप्रदोशक श्रेणिः सा च तयैव गुणिता प्रतरः सोऽपि पर्यायागुतो यक: अयमपि येन राशिमा गु तः संख्या लोकाः अध्येयेन तु राशिनः समाहतो उस या लोकाः अनन्तैश्च लोकैरलोकः ॥ अनु० ॥ प्रवः । श्रा० म० प्र० । विशे० । वात्स्यायनमुनौ पुं० श्रङ्गी पाणौ लीयते वा रु–श्रृङ्गुष्टे, न० वाच० । : अंगुलपोहनिय कत्य दिद्विप्रकृतिरानचयति परिभाषाश यगादनामानमेवामस्तीति पृथक्रिया अतोऽस्वरादितीक प्रत्ययः जी० १ प्रति० । अङ्गुल द्विकादिशरीरावगाहनामाने, प्रज्ञा० १ पद । | अंगुलि (ली) मुली ० अङ्ग-उनिया प् वा च० करपादशाखायाम्, तं० औ० | प्रब० । गजकर्णिका वृक्षे, गजएकाच पुंस्यमपि संवृताधरोष्ठमलिनेसि शकु०याच अंगुलिकोश- अङ्गलिकोश-पुं० अङ्गुलीनां रक्तार्थ प्रियमाणे तदायर दी, रा० तकारणे "अंगुणि" । नि चू० १ उ० । अंगुलि [ ले ] जगती भयसी ततः कः । श्रङ्गुल्याभरणविशेषे, औ० । उपा० | प्रब० । श्राष० । - कल्प० । श्र० । श्रा० म० प्र० । अंगुलिम्फोमण - अङ्गलिस्फोटन न० मङ्गुलीनां परस्परं ताम ने, कढिकाकरणे च तं० | अंगुलिमुहालि श्री० [अङ्गुलीवी या चाज्ञयतः कायोत्सर्गस्थितिरूपे होता" ओ वि य, चावतो तह य कुरा उस्सगं आज्ञावगगणणट्ठा, संग्वणां च जोगाणं " श्राव० ५ अ० । प्रव० 1 श्रालाप Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) अंगुलि नमुद्रा भभिधानराजेन्जः। अंजणुग कगणनार्थमङ्गलीचालयन् तथा योगो नाम स्थापनार्थ व्यापा-| बेवम्बस्य तृतीये लोकपाले, भ०३ २०६०। उदधिकुमारे-- रान्तरनिरूपणार्थ भ्रवी चालयन भ्रसंज्ञां कुर्वन् चकारादेवमेव | अस्य प्रभञ्जनस्य चतुर्थे बोकपाले, स्था० ४ ग० मन्दरस्य वा भ्रनृत्यं कुर्वन्नुत्सर्गे तिष्ठतीति अत्रीभ्रदोषः प्रव० ५ द्वा०।। पुरतो रुचकवरपर्वते, सप्तमे कूटे च पुं० । स्था० ग०। अंगुलि [ लो] विजा-अलि [ली] विद्या-स्त्री० श्रा अंजण:-अजनिका-स्त्री० बल्ली भेदे, प्रका० १ पद० । वस्त्यां नगी बुद्धप्रकाशिते महाप्रनावे विद्यानेदे, " अंगुली-1 अंजणकेसिया-अजनकेशिका-स्त्री. बनस्पतिविशेष, मा। विज्जा य इत्येव बुद्धेण संपयासिया महप्पनाया" ती०३५पत्र । म०प्र० जे०रा०। प्रशा० । अंगोवंग-अनोपाङ्ग-अङ्गानि शिरम्प्रभृतीन्यौ नपानानि अङ्गा-अंज गग-अञ्जनक-पु० अञ्जनरत्नमयत्वादञ्जनास्ततः वयवभूतान्यहल्यादीनि शेषाणि तत्प्रत्यवयवभूतान्यङ्गालीपर्व कप्रत्ययः । कृष्णवर्णत्वेन अजनतुल्या अजनकाः उपमाने करेखादीनि अनोपानानि अङ्गानि च उपाङ्गानि च अनोपानानि प्रत्ययः । जे०२ वक०। नन्दीश्वरद्वीपस्य चतुर्दिकु व्यवस्थितेषु अङ्गापाङ्गस्यादावसंख्येय इत्येकशेषः। इतरेतरयोगःशिरःप्रभ- पर्वतभेदषु, स्था०४ ग०। प्रव० । तिषु. अङ्गाल्यादिपु, तत्पवरेखादिषु च प्रज्ञा०२३ पद । कर्म०।। अथ नन्दीश्वरस्य चतुर्दिकु व्यवस्थिता अञ्जनकपर्वताःच्यन्ते नहकेसमंसु अंगुलिश्रोट्टा खलु अंगुवंगाणि" उत्त० ३ अ.। दासरवरस्स एं दीवस्स चकवाझविक्खम्भस्म बहुमजकअंगोवंगणाम-अङ्गोपाङ्गनामन्-न अङ्गोपाङ्गनियन्धनं नाम अ-1 दसभाए चनहिनि चतार अंजणगपन्चया पएणत्ता तंज पाङ्गनाम | नामकमभेदे, यदयाच्छरीरतयोपात्ता अपि पु- हा परच्छि मद्ये अंजणगपन्चए पच्च चमिढे अंजएगपमला अजापाङ्गविभागेन परिणमन्ति तत्कर्माङ्गोपाङ्गनाम । कम १ काङ्गोपाङ्गनाम त्रिविध मन्तव्यं तथाहि श्रीदारिकाङ्गोपा-1 व्बए नुत्तरिझे अंजणगपचए दाहिणिल्ले अंजणगपव्वए गनाम कियाङ्गोपाङ्गनाम, आहारकाङ्गोपाङ्गनाम तैजसकार्मण ते गं अंजणगपन्चयगा चतुरसीति जोयणमहस्साई नई योस्तु जीवप्रदेशसंस्थानानुरोधित्वान्नास्ति अलोपासंभव उच्चत्तेणं, एगमेगं जोयणसहस्सं नव्हेणं मले दसजायणइत्युक्तं त्रिविधमङ्गोपाङ्गनाम । कर्म० ६ क०। प्रशा० । पं०सं०।। सहस्साइंधरणियले दसजोयणप्तहस्सा आयामविक्खंजेणं प्रवाश्रा० । श्रा०चू। ततो णतरं चणं माताए पदेसपरिहाये माणामाणा नवर अंचि- च-पु० गम्ने, भ०१५ श०१०। पगमेगं जोयणसहस्सं आयामविखंभणं मले एकतीसं ' आञ्चि -पुं० भागमने, १५ श० १३० । जोयणसहस्साई बच्च तेवीसजोयणसते किंचि विसेसाहिए मंच (त)-आञ्चित-त्रि० पूज्ये राजमान्ये पितृव्यादी, व्य०४ उ. । सकृझमने, भ० १५ श०१ उ० । पञ्चविंशतितमे परिक्खेवणं सिहरितले तिम्सि जोयणसहस्साई एग च नाट्यभेदे, राप्रा०म०प्र० । दात्रसन्धी, नि०चू०१०। छावट्ठजोयणसतं किंचिविसेमाहियं परिक्खेवेशं परमत्ता अंचिचय-अञ्चिताञ्चिक-पुं० अश्चिते सकृमने अश्चितेन मूले वित्यिा मम्झे संखित्ता गप्पिं तण्या गोपुउसंगसमतेन वा देशेनाचि पुनर्गमनमञ्चिताश्चि । गतपूर्वदेशे तेन णनंग्यिा अच्छा जाव पत्तेयं पत्तयं पनमवरवेतिया परिबा पुनर्गमने अञ्च्याश्चि अञ्च्या गमनेन सह प्राचिरागमन कखेवेणं पत्ते पत्तेयं वणसंपरिक्खेत्ता वस्मयो गोयमा ! मच्याश्चि । गमागमे, "णो कमइ को पक्कम अंचियंचियं कर भ०१५ श०१ उ0 । स्था। तसिणं अंजणपब्धयाणं उरि पत्तेये पत्तेयं बहुसमरमणिअंचि[य] रिजिय-अञ्चितरिजित-ननाट्यनेदे, राग ज्जा मिजागा पसत्ता से जहानामए प्रालिंगपुक्खरचि प्रा० म०प्र०। वा जाब सयंति । अंचता-अंचयित्वा-अव्य० उत्पाटयित्वेत्यर्थे, प्रा०माका | ते अजनकपर्वताश्चतुरशीतियोजनसहस्राणि ऊमुच्चस्त्वेन अंध-देशी धा. उन०प० आकर्षण, अंगति वासुदेवं अगम्तम्- एकं योजनसहनमुवेधेन मध्ये सातिरकाणि दशयोजनसहस्रा. मिश्रा० म०प्र० । विशेाभ। कल्प० । णि विष्कम्भेन धरणितले दश योजनसहस्राणि । तदनन्तरं च अंगण-देशी० आकर्षणे, पो.निवृ०। मात्रया परिहीयमानाः परिहीयमाना उपरि एकैकं योजनसहलं अंजण-अजन-न० अज ल्युट । नयनयोः कजनापादने, विष्कम्भेन मुझे एकत्रिंशत् योजनसहस्राणि षट्शतानि त्रयोसूत्र०१० अ०। तं०। तप्ताय शलाकया नेत्रयोः : विशतियोजनानि किंचिद्विशेषाधिकानि ( ३१६२३) परिकेपे. खोत्पादने, कारतैलादिना देहस्य म्रक्षणे च स०। प्रज्यतेऽ ण धरणितले एकत्रिंशत् योजनसहस्राणि पदशतानि प्रयोर्विनेन प्रज-करणे ल्युट वाचा कजले, झा० अ०सौवीरा शतियोजनानि देशोनानि [ ३१६२३] परिकेपेण उपरि त्रीण दौ, सूत्र०२०१०। जं०। प्रा०म० प्र० ०। जी । योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टियोजनशतं किंचिद्विशेषाधिक प्रका०। भाव०। रसाजने, दश०३० । रत्नविशेषे, प्रा० [३१६२] परिकेपेण ततो मूले विस्तीणों मध्ये संक्किप्तानि उपम०प्र०। रत्नप्रजायाः खरकाएकस्य दशमे भागे च । तद्दश- रि तनुकाः अत एव गोपुच्चसंस्थानसंस्थिताःसर्वात्मना अञ्जयोजनशतानि बाहस्येन प्राप्तम् स्था०१०म०। वनस्पतिविशे- नमया अजनरत्नात्मका: 'अच्छा जाव पमिरुवा' इति प्राग्वत प्रपे, भौका पा० म०प्र०ा चन्दसूर्याणां लेश्यानुबन्धचारिणां पुजा त्येकं पद्मवरवेदिकाः परिक्तिप्ताः प्रत्येकं वनखएपरिक्तिप्ताः पनमानां पञ्चमे पुम्ले, चप्र०२० पाहु० स०प्र०ा मन्दरस्य पूर्वण वरवेदिका वनखरामवर्णनं प्राग्वत् "तेसिणमित्यादि" तेषामजशीतोदाया महानद्या दक्षिणेन स्थिते वकस्कारपर्वतन्नेदे,स्था० नपर्वतानां प्रत्येकं प्रत्येकमुपरि बहुसमरमणीयो नूमिभागः प्र५०जन "दो अंजणा" स्था०२ वाद्वीपकुमारेन्द्रस्य कप्तः तस्य से जहानामए प्राकिंगणपुक्खर वा इत्यादि' वर्ण Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) अंजणग अभिधानराजेन्द्रः। अंजणग नं जम्बूद्वीपजगत्या उपरितननागस्येव तावद्वक्तव्यं यावत् 'तत्थ जहा वेमणिया सिचाययणस्म ॥ णं बहये वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति जाव विहरति' तेषां बहुममरमणीयानां नूमिभागानां बदमध्यदेशभागे प्रत्येक तोस व समरमणि जाणं लूमिनागाणं बा मझदे. प्रत्येक सिद्धायतनं प्रझन तानि च सिद्धायतनानि प्रत्येक प्रत्येक मनाए पत्तय पत्तयं चत्तारि सिचायतणा एगमेकं जोय- योजनशतमायामेन पञ्चाशद्योजनानि विष्कम्नेन द्विसप्ततियो जनानि कमुश्चस्त्वेन अनेकस्तम्नशतसन्निविष्टानीत्यादि सदणसयं आयामेणं परमासं जोयणाई विक्खनणं छावत्तरि जनं विजयदेवसुधर्मसभावद्वक्तव्यम् (तसिणमित्यादि ) तेषां जायणाति उहूं उच्चत्तेणं अणेगख जसयमन्निविट्ठा वाम सिचायतनानां प्रत्येक चतुर्दिशि चतसृषु दिनु एकैक.स्यां दिश्रो गोयमा ! तेसि एं सिहायतणाणं पत्तयं पत्तेयं चउ-| शि एकैकनावेन चवारि द्वाराणि प्राप्तानि तद्यथा पूर्वेण पूर्वदिसिं चत्तारि दारा परमत्ता तंजहा देवदारे असुरदारे नाग- | स्थामेवं दक्षिणस्यां पश्चिमायामुत्तरस्याम । तत्र पूर्वस्यां दिशि द्वारं देवद्वार देवनामकस्य तदधिपतेस्तत्र भायादेवं दक्षिणस्यारे सुवर्मदारे तत्थ एं चत्तारि देवा महिलिया जाव प. मसुरद्वारं पश्चिमायां नागद्वारम् उत्तरस्यां सुवर्णद्वारम् (नरथे. लि प्रोवमद्वितिया परिवसंति तं देवे असुरे नाग सुवर्म त्यादि) तत्र तंषु चतुर्प द्वारेषु यथाक्रमं चत्वारो देवा महर्कितेणं दारा सान्त्रसजोयणाई उठं उच्चत्तणं अह जायगाई का यावत्पल्योपमस्थितयः परिवसन्ति तद्यथा ( देवेत्यादि) विक्खंनेणं तावतियं पवेसेणं सेतावम्कण । सो जाव प्रर्वद्वारे देवा देवनामा दक्विणद्वारे असुरनामा पश्चिमद्वारे नागवणमालायो। तेसि णं दाराणं च उद्दिसिं च तारि मुश्ममवा नामा उत्तरद्वारे सुवर्णनामा (नेणं दारा इत्यादि ) तानि द्वा राणि पोमशयोजनानि प्रत्येकसूर्फमुच्चस्त्वेन अण योजनानि विपपत्ता ते णं मुहमंडवा एगमेगं जोयणसयं आया कम्नतः (तावश्यं चवत्ति) तावन्त्येव अष्टावेव योजनानीमेणं पम्पास जोयणाई विखंजेणं सातिरेगाई सोन्नसजो- ति जावः । प्रवेशेन (सयावरकणगयूनिया इत्यादिवर्णकः विजयणाई उसुं उच्चत्तेणं वमो तेसि एणं मुहममवाणं चन- यहारस्येवेति विजयदारशब्दे भावयिष्यते) दिनि चत्तारि दारा पमत्ता त णं दारा सोलस जायणाई तत्थ णं जेसिं पुरच्चिमिवणं अंजाणपञ्चते तस्सणं चउउहूं उच्चतेणं अट्ठजोयणाई विक्खंभेणं नावतियं चेव पवे- दिसिं चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ पन्नत्ताओ तंजा गंदासेणं सेसं तं चेत्र जाव वामानाओ । एवं पिच्छाघरमड- त्तरा य एवंदा आणदा णदिवद्धणा । ताओ गंदा पुक्खरिपा वि तं चेव पमाणं जे मुहम्मवाण दारा वि तहेव णीनो एगमेग जोयणसयसहस्सं आयामविवखंजेणं दस वरि बहुमझदेसभाए पेच्छाघरमंमवाणं अक्खामगाम जोयणाइं उबहेणं अच्छाओ सएहाओ पत्तेयं पत्तेयं पनणिपेदियाओ अट्ठजोयणप्पमाणातो सीहासणा सपरि- मवरवेत्तिया पनयं पत्तयं वणसंमपरिक्खित्ता तत्थ तत्थ वारा जाव दामा थूभा वि चगहासे तहेव णवरिं सोलस | जाव तिसोपाणपमिरूवगा तोरणा तासि णं पुक्खरिणीणं जोयणप्पमाणा सारेगाई सोलन नचा सेसं तहेव । जिण वहमझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वए पहाते तेणं पडिमाओ चेइयरुक्खा तहेव चउद्दिसिं तं चेव पमाणं दहिपुहपब्वया चनसटिं जोयणसहस्साई उ{ नच्चनेणं एगं जहा विजयाए रायहाणीए एवरिं मणिपेढियाओ सोलस जोयणसहस्सं उबेहेणं सचत्य समा पल्लगसँठाणसंगिता जोयणप्पमाणामो तेसि णं चेतियरुबखाणं चनदिसिं च- दसजोयणसहस्साई विक्खम्भणं एकतीसं जोयणसहस्साई नारि मणिपेदियाओ अट्ठ जोयण विखंभेणं चउजोयण- कृञ्च तेवीसजोयणसए परिक्खेवणं पणत्ता सव्वरययाबाहबानो महिंदज्झयाणं चउसा जोयणुच्चा जोयण न- मता अच्छा जाव पमिरूवा पत्तेयं पत्तयं पउपवरबेतिया मेहा जायणविक्खना सेसं तहेव एवं चनदिसिं चत्तारि- नगमबएण उ बहुसपरमणीय० जाव आसयंति सिद्धायनंदापुक्खरिणीओ नवीरं खोयरसपडिपुग्नाओ जोयणसयं यणं तं चेव पमाणं तं अंजणपव्वएमु वत्तचया निरवसंसा आयामेणं पन्नास जोयणाई विक्खंभेणं दम जोयणाई उ- जाणियव्या जाव नप्पिं अट्ठवमंगलया ।। व्यहेणं सेसं तहेच । मणोगुलिया गोमाणसिया अमया तत्र तेषु चतुर्यु अञ्जनपर्वतेषु मध्ये याऽसौ पूर्वदिग्नावी प्र. लीसं अभ्यालीसं सहस्साओ पुरच्लिमेण वि सोलसपञ्च जनपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि चतसृषु दिक्कु एकैकस्यां दिशि ए कैकनन्दापुष्करिणीभावेन चतस्रो नन्दापुष्करिण्यः प्राप्तास्तच्छिमेण वि सोलस सहस्सा दाहिणेण वि अट्ठ सहस्सान- यथा पूर्वस्यां दिशि नन्दिषेणा दक्षिणस्याममोघा अपरस्या तरेण वि अट्ठ सहस्साभो तहेव सेसं नबोया नृमिनागा गोस्तूपा सत्तरस्यां सुदर्शमा ताश्च पुष्करिणय एकं योजनशतजान बहमझदेसामिभागे मणिपेढिया सोलस जोयणाई सहनमायामविष्कम्नाभ्यां त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे शत सप्तविंशस्यधिकत्रीणि गव्यूतानि अष्टाविशं प्रायामविखंजेण अट्ट जोयगाई बाहोणं तेसिणं मणि-1 धनुःशतं प्रयोदश अङ्गलानि अर्धाङ्गलं च किंचिद्विशेषाधिक पर्दियाणं उप्पि देवच्छंदगा सोलस जोयणारं पायामविक्वं परिक्षेपेण प्राप्ताः । दश योजनानि उद्वेधेन "अच्छाओसभेण सातिरेगाई सोलस जोयणाई उम्सुं उच्चत्तेणं सम्वरय पहायो रययमयकूलानो इत्यादि " जगत्युपरि पुष्करिणीवएपमा यो मह मयं जिएपमिमाएं सम्बो सो चेव गमो मिरवशेष चक्रव्यं नवरं “बहानोसमतीरामो खोदोदगपति Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ख) अंजणग अभिधानराजेन्द्रः। अंजयग पुणगाओ" इति विशेषः । ताश्च प्रत्येक प्रत्येकं पावरवेदि- | टेणं गोयमा ! जाव निच्चे जोतिसं संखेज्ज । कया परिक्तिमाः प्रत्येक प्रत्येक वनखण्डेन परिक्षिप्ताः । अत्रा- पूर्वदिग्भाव्यञ्जनकपर्वतस्येव पश्चिम दिग्नाव्यजनपर्वतस्यापीदमन्यदधिकं पुस्तकान्तर दृश्यते " तासि णं पुक्खरिणीणं पि वक्तव्यं यावत्प्रत्येकं प्रत्येकमष्टशतं धूपकमुच्छुकानां नवरं पत्तेयं पत्तेयं च उद्दिसिं चत्तारि वणसंमा पन्नत्ता तं जहा पुर नन्दापुष्करिणीनां नामनानात्वं तद्यथा पूर्वस्यां भा दक्विणस्यां च्छिमेणं दाहिणणं अवरेणं उत्तरेणं पुवेणं असोगवणं जाव विशामा अपरस्यां कुमुदा उत्तरम्यां पुएरीकिणी शेषं तथष। नृयवणं उत्तरे पासे" एवं शेषाञ्जनपर्वतसंबन्धिनीनामपि एवमुत्तरदिग्नान्यजनकपर्वतेऽपि वक्तव्यं नवरमत्रापि नन्दामन्दापुष्करिणीनां वाच्यम् (तामिणमित्यादि)तासां पुष्करि पुष्करिणीनां नामनानात्वं तद्यथा प्रर्वस्यां दिशि विजया जीना बहुमध्यदेशनागे प्रत्येकं प्रत्येकं दधिमुखो दधिमुखनामा दक्विणस्यां वेजयन्ती अपरस्यां जयन्ती उत्तरस्यामपराजिता पर्वतः प्राप्तः (तेणमित्यादि) ते दधिमुखपवेताश्चतुःषाए- शेष तथैव यावत्प्रत्येकं प्रत्येकमष्टशतं धूपकाच्छुकानामिति पोम योजनसहस्राणि ऊर्द्धमुच्चैस्त्वेन एकं योजनसहस्रमुवेधेन स | शानामपि चामुषां वापीनामपान्तराले प्रत्येक प्रत्येकं रतिकर. यंत्र समाः पल्यसंस्थानसंस्थिता दशयोजनसहस्राणि विष्क | पर्वती जिनभवनमरिमतशिखरौ शास्त्रान्तरे अनिहिताविति । म्नेन एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि षट्त्रयोविंशानि प्रयोविंशत्य. सर्वसंख्यया नन्दीश्वरद्वीपे पापनाशत्सिद्धायतनानि ( तत्थण धिकानि योजनशतानि परिक्षेपेण प्राप्ताः । सर्वात्मना स्फटि मित्यादि) तत्र तेषु सिहायतनेषु णमिति पूर्ववत् बढयो नवकमया अच्छा यावत्प्रतिरूपाः प्रत्येक प्रत्येकं पद्मवरवेदिकया नपतिवाणमन्तराज्योतिष्कवैमानिका देवाश्चातुर्मासिकेषु पर्युपरिक्षिप्ताः प्रत्येकं वनस्खएमेन परिक्तिप्ताः (तेसिणमित्यादि) पणायामन्येषु च बहुषु जिनजन्मनिष्कमणशानोत्पाद परिनिर्वातेषां दधिमुख पर्वतानामुपरि प्रत्येकंबहुसमरमणीयो भूमिभागः णादिषु देवकार्येषु देवसमितिषु एतदेव पर्यायवयेन व्याचो प्राप्तः तस्य च वर्णनं तावद्वक्तव्यं यावदहवो " वाणमम्तरा देवसमवायेषु देवसमुदायप्वागताः प्रमुदितप्रक्रीमिता अष्टादेवा देवीश्रो य प्रासयंति सयंति जाब विहरंति" (तेसि हिकारूपा महामहिमाः कुर्वन्तः सुखं सुखेन विहरन्ति पासते । णमित्यादि) तेषां बहुममरमणीयानां मिभागानां बहुमध्य (अनुत्तरं च णं गोयमा! इत्यादि)अथान्यत् गौतम! नन्दीश्यदेशनागे प्रत्येक प्रत्येक सिहायतनं प्राप्त सिद्धायतनवक्तव्यता रवरशीपे चक्रवात्रविष्कम्भेन बहुमध्यदेशजागे चतसृषु दिधु प्रमाणादिका अञ्जनकपर्वतोपरि सिद्धायतनवद्वक्तव्या यावद पकैकस्यां विदिशि एकैकनायेन चत्वारो रतिकरपर्वताः प्रहप्रशतं प्रत्यकं प्रत्येकं धूपकाच्चकानामिति । साः तद्यथा एक उत्तरपूर्वस्यां द्वितीयो दक्षिणपूर्वस्यां तृतीयो तत्य णं जे मे दक्खिणिल्ले णं अंजणपबए तस्स एं दकिणापरस्यां चतुर्थ उत्तरापरस्याम् । ( तेणमित्यादि ) ते रचदिसिं चत्तारि एंदायुक्खरिणीओ पन्नत्ताओ तंजहा तिकरपर्वता दशयोजनसहस्राणि ऊर्द्धमुश्चस्वेन एकयोजनसनदा य विमाना य कुमुया पुमरीगिणी तं चव तहव दहि हनसमुद्वेधेन सर्वत्र समा झबरीसंस्थानसंस्थिता दशयोजनमुहपचया तं चेव पमाणं जाव सिहायतणे। सहस्राणि विष्कम्भेन एकत्रिंशद्योजनसहस्राणि पत्रिंशानि योजनशतानि परिकेपेण सर्वात्मना रत्नमया अच्छा यावत् प्र. [ तत्थ णं ज स दाहिणिजेणं अंजणगपत्रए इत्यादि ] दक्कि तिरूपाः । तत्र योऽसावुत्तरपूर्वो रतिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि णाजनकपर्वतकस्यापि पूर्वदिग्भाव्यञ्जनकपर्वतस्येव निरवशेष षक नवरं नन्दापुष्करिणोनामिमानि नामानि तद्यथा पूर्वस्यां चतसृषु दिक्षु एकैकराजधानीभावेन ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवरामन्दोत्तरा दक्षिणस्यां नन्दा अपरस्यामानन्दा उत्तरस्यां नन्दि जस्य चतसृणामग्रमहिषीणां जम्बूद्वीपप्रमाणाः चतस्रो राजधा. न्यः प्राप्तास्तद्यथा पूर्वस्यां दिशि नन्दोत्तरा दक्विणस्यां नन्दा बर्द्धना शषं तथैव ॥ पश्विमायामुत्तरकुरा उत्तरस्यां देवकुरा । तत्र कृष्णायाः कृष्णतत्य णं जे से पच्चोउमणं अंजगपन्नए तस्स णं चउ नामिकाया अग्रमहिण्या नन्दोत्तरा कृष्णराज्या नन्दा रामाया शिनि चत्तारि पुक्खरिणीओ पम्मत्ताओ तं जहा णंदेसिाणा उत्तरकुरा रामरविताया देवकुरा । तत्र योऽसौ दक्किणपूर्वो रप अमोहा य गोत्थुना य सुईसणा य तं चैव सव्वं भाणिय- तिकरपर्वतस्तस्य चतुर्दिशि शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चव्वं जाब सिद्धाययणं तत्य जे से उत्तरिझे अंजणपन्च। तसृणामग्रमहिषाणां जम्बूद्वीपप्रमाणाश्वतम्रो राजधान्यः प्रक तास्तद्यथा पूर्वस्यां सुमनाः दक्षिणस्यां सौमनसा अपरस्याम.ते तस्स णं चनदिसिं चत्तारि नंदापुकखरिणीओ पमत्ता चिमाजी उत्तरस्यां मनोरमा।तत्र पद्मायाः पद्यनामिकाया प्रमओ तंजहा विजया वैजयंती जयंत। अपराजिता सेसं तहेव महिष्याः सुमनाः शिवायाः सौमनसा सोमाया अर्चिमासी भ. मात्र सिद्धाययणा सम्बो चेति य वामणा ऐयन्वा । तत्थ जुकाया मनोरमा । तत्र योऽसौ दक्षिणपश्चिमो रतिकर पर्वतणं बहवे भवणवइवाणमंतरजोतिसवेमाणिया देवा चाउ स्तस्य चतुर्दिशि शकस्य देवराजस्य चतसृणामग्रमहिषीणां मासियपविएमु संवच्छरेमु य अमेसु बहुजिणजम्मण जम्बद्धीपप्रमाणमात्राश्चतस्रो राजधान्यः प्राप्तास्तद्यथा पूर्व. स्यां दिशि नूता दकिणस्यां नृतावतंसा अपरस्यां गोस्तूपान. निक्खमणणाप्पपातपरिणिव्वाणमादिएमु य देवकज्जेमु य तरस्यां सुदर्शना । तत्र अमलाया अमलनामिकाया श्रग्रमहिदेवसमुद्दएमु य देवसमतीसुय देवसमाएमु य देवपोयणेमु प्या नूता राजधानी अप्सरसोश्चभूतावसन्तिका नवमिकयोर्गाय एगंतो सहिया समुवागया समाणा पमुदितपकलिया स्तपा रोहिण्याः सुदर्शना। सत्र योऽसावुत्तरपश्चिमो रतिकरपअहहिया ओ महामहिमाओ कारेमाणा पालेमाणा महं घंतस्तस्य चतुर्दिशि ईशानस्य देवेरूस्य देवराजस्य चतरुणामग्र महिषीणां जम्बृद्धीपप्रमाणाश्वतम्रो राजधान्यः प्राप्तास्तद्यथा मुहण विहरति । कयस्सासहरिवाहणा य तत्य दुवे देवा पूर्वस्यां दिशि रत्ना दक्विणस्यां रत्नोश्चया अपरस्यां सर्वरत्ना महिरिया जान पालोवमटुितिया परिवसंति से तेण- | उत्तरस्यां रत्नसञ्चया । तत्र रत्नवसुनामिकामा अप्रमादिच्या Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणग अभिधानराजेन्द्रः। रला बसुप्राप्ताया रत्नोपया वसुमित्रायाः सर्वरला बसुन्धरायाः अम्जलिकरणरूपे विनयविशेषे, भ०१४ श०३ ०। प्रव० । सर्वसञ्चया । श्यं रतिकरपर्वतचतुष्टयवक्तव्यता । केषुचित पु. सम्भोगदेब । स०(संजोग शब्द निरूपणम् ) स्तकेषु सर्वथा न रश्यते कैनासहरिवाहननामानौ च दो देवी अंजलिबंध--अमलिबन्ध-०करकुडालस्य शिरसि विधाने, तत्र यथाक्रम पूर्वापरार्माधिपती महर्फिको यावत् पट्योपम दर्श। . खितिको परिवसतस्तत एवं नन्द्या समृदया टुनदिसमृसाविति बचनात ईश्वरः स्फातिमान् नतु नाम्नेति नन्दीश्वरः। तथाचाह। भंज []-अजम--न अनक्ति गच्चति मिश्रयति पाऽनेन से एएण्टेणमित्यादि उपसंहारवाक्यं प्रतीतं चन्जादिसंख्यासूत्र मञ्ज गती मिश्रणे च असुन वेगे, बने, औचित्येच 'अञ्जस प्राम्बत् जी०३ प्रति।स। बनस्पतिविशषे, रा.दामंजणा उपसंख्यानमिति' वार्तिकात् तृतीयायाः मलुक । मजसाकृतम स्था०२गशवायुकुमारेन्डाणांतृतीये लोकपाले,भ०३०001 पाच० । प्रगुणे, न्याये, विशे० । अंजण [णा] गिरि-अजनगिरि-पुं० कृष्णवर्णपर्वतविशे- अंजिय-अजित-त्रि० अजि-क्त० कज्जलेन प्रतिते, तेअंजिथे,का० अामन्दरपर्वते भजशासबने व्यवस्थिते चतर्थे। यक्वा सिलए पते कप" नि० चू० १०।। विग्यस्तिकूटे, स्था० ८ ठा० तदधिपे देव च जं.४ पक्का ।। अंजु-ऋजु--त्रि० प्रगुणे, अकुरिसे," अप्पणो यवियक्वाभि(वर्णनं दिसाहस्थिशदे) यमंजूर्वि सुम्मई" प्राचा० १ श्रु०५ अामायाप्रपञ्चरहितत्याअंजणजोग-भजनयोग-पुं० सप्तविंशकसाभेदे, कल्प। दवके, “अंजुधम्मं जहा तथं जिणाणं तं सुण्ड मे" सुत्र० १ अंजणपुलग-अञ्जनपुलक-पुं० रत्नभेदे, सका आ० म०प्र०। भु० ६ 01 संयमे प्रगुणे अव्यभिचारिणि सूत्र०१०१ अ०। रत्नमनायाः पृथिव्याः खरकाएमस्य एकादशे जागे, स्था० माचा० । व्यक्ते, सूत्र०५ ० १ ० । निदोषत्वात्प्रकट, सूत्र० १० ग० । मन्दरस्य पूर्वे रुचकवरे पर्वते व्यवस्थितेऽटम कूटे २०७० । स्थान॥ भंजा-अञ्जका-स्त्री० अरनाथस्य प्रथमशिष्यायाम् , सा अंजणल-अञ्जनमूल-पुं० रुचकपर्वतस्याष्टमे कुटे, बी० । अंज-अञ्ज-स्त्री० धनदेवसार्थवाहमुहितरि, तद्वक्तव्यता विअंजणरि-अजनरिष्ट-पु. वायुकुमाराणां चतुर्थे रन्के, न. पाकश्रुते दुःखविपाकानां दशमेऽभ्ययने श्रूयते स्था० १० वा० । ३श. ८० । जह पं भंते! समणेणं जगवया महावीरेणं दमस्त भंजणसमुग्गग-अजनसमक-पुं० सुगन्ध्याजमाधारे, जी. उक्खेवो एवं खल्ल जंब ! तणं कालेणं तेणं समएणं ३ प्रतिकारा०1 वकमाणपुरे गामे एयर होत्या । विजयवफमाणे लज्जाअंजणसमागा-अजनशलाका-स्त्री० अणोरजनार्थ शमा ण माणिनद्दे जक्खे विजय मित्ते राया । तत्थ णं धणदेवकायाम, सूत्र० १७.५० भंजयसिक-अजनसिछ-पं०प्रणोरन्जनविशेषम्रकणेनार णामं मत्थवाहे होत्या । अङ्ग्रे पियंगुनारिया अंजदारिया श्यतां गते,पिं० । नि० चू०।(यथा सुस्थिताभिधसूरिमुवायो- जाव मरीरा ममांसरणं परिसा पिग्गया जाव पडिगया निप्राभृतोक्तमार्शीकरणमजनं श्रुत्वा कुद्वकध्येनादृश्यं नृत्वा | तेणं कालेणं तेणं समएणं जडेजाव अममाणे जाव विजबन्छगुप्ताऽऽहारो जुक्तः इत्यादि चुम्म शब्द) यमित्तस्स रमो गिहस्स अमांगणियाए अदूरसामंते णं अंजणा-अञ्जना-स्त्री. तृतीयनरकपृयिव्याम, जी. ३ प्रतिभा वाईवयमाणे पास पासइत्ता एगंत्यियं सुकं नुक्खं णिम्मंस्था । प्रघा जम्म्याः सुदर्शनाया अपरदक्षिणस्यां व्यवस्थि सं किमिकिमिलूयं अचिम्मावणळं पीलसालगणिसायो पुष्करिएयाम, जं०४ वक०। जी। अंजणिया प्रजानका-स्त्री० कजलाधारनूतायां नलिकायाम, यत्थं कहा कबुणाई विस्मराई कृवमाणं पासइ पासत्ता चिंता तहेव जाव. एवं वयासी एस एं भंते ! इत्थिया पुसूत्र.१ ० ४ ०।। अंजाल (ली)-स्त्री० पुं० अञ्जलि-पुं०-अज-अलि वनवे का आसी वागरणं एवं खबु गोयमा! वेमाजवाद्याः स्त्रियाम् ८।१।३५ । इति प्राकृतसूत्रेण बास्त्री अज्वाः पूर्वजयः। त्वम् । प्रा० । मुकुन्नितकमलाकारकरद्वयरूपे (जं० ३ वक०) : तेणं कालेणं तेणं समएणं हेव जंवृद्धवेदीवे भारहे वासे स्तन्यासचिशेष, रा०ा भ0 | चं०प्र०। दो वि हत्था मनुकम इंदपुरे णाम णयरे तत्थ एं इंददत्ते राया पुढविसिरिणाम लसंग्यिा अंजनी जम्पनि नि००१ उ० । मुकुबितहस्तयो सारसंश्रये, " पगण वा दाहि वा मलिपति हत्यहि णिमात्र- गणिया वणो तएणं मा पुढविसिरिगणिया इंदपुरेणयरे संमितदि अंजली नाति" नि चू० ५ ० । द्वयोईस्त. बहवे राईसर जान पनिो बहिं चुामप्पयोगेहि य जाव .. योरन्योन्यानन्तरितालिकयोः संपुटरूपतया एकत्र मीलने च. अभियोगिता नरालाई माणुस्सगाई जोगभोगाईजमाणे जी०३ प्रति० प्रा० म०प्र० । प्रश्नाद। क्रियमाणे कायिक- विहरह। तए णं मा पुढविसिरिंगणिया एए कम्माए य विनयभेदे, मजलिप्रणामादौ यदि पुनः कथमप्यको दस्तःकणि मकम्मा ४ सुबहु पावं समजिणित्ता पमातीसं वाससयाई को नवति तदेकतरं हस्तमुत्पाट्य नमः क्रमाश्रमणेभ्य हात वकम्यम व्य०१3०1 द्वा०। दश। परमाउसं पालित्ता कालमासे काझं किना नहीए पुढवीए अंजलिपग्गह-अनशिपग्रह-पुं० दस्तजोमने, झा० १० उक्कोसे रगताएं नववधा । सा एं तो उच्चहित्ता Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अंजू अमिधानराजेन्धः । अंम , अज्या वर्तमानभवः । अज्यणस्स अयमट्ठ पत्ते सेवं नंत विपा.१००। शहेव वकमाणे एयरे धणदेवस्स सत्यवाहस्स पियंगु. तक्तव्यताप्रतिबद्ध कर्मविपाकानां दशमेऽभययनेच स्था० मारियाए कुञ्जिसि दारियत्ताए गप्पामा तएणं सा पियं- १० 710 | शक्रस्य चतुमिप्रमहिन्यां च स्था०८ गा साल गुजारिया णवएहं मासाणं दारियंधयाणं णाम अंज़ सेसं पूर्वभवे हस्तिनापुरे पद्या विजयायामुत्पन्ना पावोर्डतोऽस्तिके प्रवजिता शक्रस्याग्रमहिषी जाता । स्थितिः सप्तपल्योपमा जहा देवदत्ताए । तए णं से विजये राया पासवाहाणियाए | महाविदेहेऽन्तं करिष्यति तत्प्रतिपादके काताधर्मकथायाः णिज्जायमाणे जहा वेसमणदत्ते तहा अंजू पास एवरं प्र. द्वितीयश्रुतस्य नवमवर्गस्य चतुर्थेऽभ्ययने च.का०२०॥ प्पणो अट्ठावर बरेइ जहा तेतली जाव अंजूए दारियाए अंग-एम--० अमान्त सम्प्रयोगं याम्ति अनेनेति भम-क सदि उपि जाब विहर। तएणं तीसे अंजूदेवीए अस्मया टवर्गादित्वेऽपि मस्य नेत्वम् । पुंसोऽवयवभेदे मुके, याच० । पिपीलिकादानां मिम्बे, वृ०४ ०। प्राचा०ा चतुरिन्द्रियकीटवि. ओणीसूले पाउम्नूए या वि डोत्था । तएणं से विजये राया शेषनिवर्तितकोशकारे, विशेशज्ञाताधर्मकथायाः प्रथमश्रुतस्ककोडंबियटुरिसे सद्दावे सद्दावेइत्ता एवं बयासीगच्छह णं ग्धस्य मयूराएमकवक्तव्यताप्रतिबके तृतीयेऽभययमे,का० १०॥ दवा वचमाणपुरे पयरे सिंघामग जाव एवं वयह एवं प्राव०। प्रश्न । सामा० चू०। खत्रु दवा विजए अंजए देवीए जोणीमले पाउन्नुए जो तत्कथानकं चैवम् । णं इच्छसि वा ६ जाव उग्रोसर तएणं से बहवे वंजा वा , जणं जंते ! समणेणं जगवया महावीरेणं जाव एवं सयु ६ इमं एयारूवं सोचा पिसम्म जेणेव विजए राया तेणेच.. जंबू तेणं कानेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्या जवागच्च न्वागच्चइत्ता अंजए देवीए बहवे उप्पत्ति वालो तीसे णं चंपाए नयर ए बहिया उत्तरपुर जमे याहिं ४ बाहिं परिणामेमाणा इच्छंति । अंजूए देवीए दिसीनाए सुनूमिनागे णाम उज्जाणे समो य सुरम्मे मोणीसूले उवसाभित्ते णो संचाएइ नबसामित्तए तएणं एणंदणवणे व भूहमुरजिसीयलच्छायाए समावो तस्स से वह विज्जा य जाहे को संचाएइ अंजए देवीए जोणी एं सुनूमिभागस्स उज्जास्स उत्तरे एगदेसम्मि मास्या सूले जवसामित्तए ताहे संता तंता जामव दिसं पानन्नूए कच्चए होत्या वएणो तत्थ णं एगा वणमयूर। दो पुढे तामेव दिसं पकिंगया तएणं सा अंजू देवी ताए वेयणाए पारेयागते पिट्ठउंगी पंडुरे णिवणे निरुवहर भित्रमुहिभनिनूया समाणी सुका मुक्खा जिम्मंसा कट्टाई कसुणाई प्पमाणे मयूरी अंमए पसवइ मरणं पक्खवाएणं संरक्खमाबीसराई विलवइ । एवं खलु गोयमा ! अंजू देवी पुरा णी संगोरेमाणी संचिढेमाणी विहर । तत्थ णं चंपाए जाब विहरइ अंजू एं नंते ! देवी कालमासे कालं किच्चा गयरीए वे सत्यवाहदारगा परिवसंति तंजहा जिणदत्तकहिं गच्छिहिंति कहिं उववज्निहिति । गोयमा ! जहा पुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य मह जायया सहवलियया सह सेयलि त ॥ पंसुकीलिया सह दारदरिसी अनमन्त्रमणरत्तया समयज्ञाताधर्मकथायां यथा तेतलिसुतनामा आमात्यः पोट्टिला मणबयया अप्पमपच्चंदाणवत्तया अपमाहिययाभिधानां कलादस्तपिकादारश्रेष्टिसुतामात्मार्थ याचयित्वाऽऽन्म- जियकारया अपममेमु गिहेसु किच्चाई करणिजाई नैव परिण तवानवमयमपति दशमान्ययनविवरणम् । पञ्चकनवमाणा विहरंति । तए ण तेसिं सत्थवाहदारगाणं अश्वा भविष्यद्भवः । अप्पया कयाई एगो सहियाएं समुवगयाणं सप्लिसमार्ण अंज णं देवी णनइवासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे सखिचिट्ठार्ण एमेयारूवे मिहोकहासमुद्यावे समुप्पजिस्था कालं किच्चा इमीसे रयणप्पनाए रश्यत्ताए नववा जेणं देवाणुप्पिया अम्हं सुई वा दुई वा पञ्चज्जा वा वि. एवं संसारो जहा पढमो तहाणेयव्वं जाव वणस्मईसाणं। देसगमणं वा समुप्पजति तेणं अम्हे एगो समेच्च हि ती अणंतरे उचट्टित्ता सन्चोन एयरे मयूरत्ताए | चरियव्वं तिकड आएणममं एयारूवं संकयं मुणंति सकपचायाहिंति से णं तत्य साउणि एहिं बहिए समाणे म्मसंपनत्ता जाया वि होत्था । तत्य णं चपाए नयरीए नत्थेव सबओभद पयरे मेडिकलंसि पुत्तत्ताए पच्चा. देवदत्ता नामं गणिया परिवसति अा जाव भत्तपादा याहिंति से णं तत्थ जम्मुक्तहारू वाणं थेराणं अंतिए | चउसडिकलापंझिया चउमटिगणियागुणोववेया अनुणतीकेवलिं बोहिं बुन्फिहिति बुझिहितित्ता पवज सोहम्मे सं विसेसरममाणी एकत्रीसरहगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोबसेणं ताओ देवमोगाओ आउक्खएणं ३ कहिं गच्छिहि- यारकुसला एवंगमुत्तपहिवाहिया अट्ठारस देसांभासाति कहिं जबजिजहिति गोयमा! महाविदेहे वासे जहा विसारया सिंगारागारचास्वेमा संगयगयहसियत्नणियविहिपढमे जाव मिज्किहिंति जाव अंतं काहिंति । एवं खलु यविनासललियसंसावनिउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियमंबुसमणेणं जाव संपत्तेणं हविवागाणं दसपस्स | या सहम्सनंजा विदिएणरत्तचापरवालवीयाणया क Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) अभिधानराजेन्द्रः । झंड रहपायी त्रिहोत्या । बहूणं गणिया सहस्माणं आ देवच्च जाव विहरति । तएणं तेसिं सत्यवाहदारयाणं अएण्या कयाई पुव्वावर एह कालर. मयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणां आयत्ताणं चोक्खाणं परमसूइयाणं सुहास वरयाणं इमेयारूवे मिटो कट्टासमुल्लावे समुप्पजित्या से खलु देवाप्पिया कलं जाव जलते विपुलं सणं पारणं खाइमं साइमं उक्खडावेत्ता तं विपुलं अस पाणं खाइमं साइमं धूत्रपुप्फ गंधवत्थं गहाय देवदत्ताए गणिया स मनूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्च भवमाणा गं विहरत्तए तिकट्टु श्रममाणस्म एयपपणे परिणेता क पाउन्नए कोटुंबियपुरिसे सदावेति सदावेत्ता एवं वयासी गच्छ एणं तुब्भे देवाप्पिए विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं नवक्रखमेढ बक्खमावेत्ता तं विपुलं असणं पारणं खाइमं साइमं धूत्रपुष्कं गहाय जेव सुभूमिभागे जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छर उबागच्छत्ता दाए एक्खरिणीए अदूरसामंते धूणा मंरुबं आहहं श्रमियसमज्जिवलितं सुगंध जात्र कलियं क हम्माण चिह्न । तए एं से सत्यवादारंगा दो पिकांविपुरिने सहावेति सदायेइता एवं वयामी विप्पामेव लहुकर गजुत्तजोइयं समरखुरवासिहाणं ममन्निहियतिवखपसंगढ़िएहिं रययामयघंटसुत्त-रज्जुयपत्र र कंचखचियत्थवग्गहोवरगाहिएहिं नीलोप्पलकयामेल एहिं पवरगोणजुवाणएहिं णाणामणिरयणकंचपाघंटिया जाऊ परिक्खिनं पत्ररलक्खोवांचियं जुत्तामेव पहाणं व ते तत्र वेति तं से सत्यवाददारंगा पहाया जान सव्वमरीरपवहणं दुरुहंति जेणेव देबताए गयाए गिहे तेणेव उवागच्छति । पत्रह पोरुति देवदत्ता गणियाए गेहूं अणुपत्रिसंनि तणं सा देवदत्ता गणिया ते सत्यवाहदारंगा एजमाणे पाम पा सत्ता हडतुडा श्रमणाओ अन्नुदेति अन्जुट्टित्ता सत्तद्रुपया गच्छति गच्छत्ता ते मत्थवाहदारए एवं यामी संदिसह णं तुमं देवागुप्पिया किमागमणप्पप्रय तणं ते सत्यवादारगा देवदनं गणियं एवं वयासी इच्छामाणं देवाप्पिए तुब्नेहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पचणुजवमाणा विहरित्तए । तएवं सा देवदत्ता गणिया तेसि सत्यवाहदारगाणं एयमहं पडिमुणेति पतिना एहाया कयवलिकम्मा किं ते पवर० जात्र मेरिसमाणसा जेशेव सत्यवाहदारए तेणेव उवागच्छति । तए रणं से सत्यवाहवारंगा देवदत्ताप गणियाए मद्धि जाणं दुरुहंत चंपाए नगरीए भन्भं मज्केणं जेव छाप नागे उज्जाणे जेणेव नंदापोक्स्खरिणी तेऐव बाग अंड च्छति जवागच्छंतित्ता पत्रहातो पचोरुहंति णंदापाक्खरिणी प्रोग्गति जलमज्जणं करोति जलकी में करेंति एहाया देवदत्ताए स िपच्चरुदंति जेणेव थूणामंडवे तेव उवागच्छंति उवागच्छंतित्ता अपविसंति सव्वालंकारविजू सिया सत्या वसत्या सुहासएवरगया देवदत्ताए गलियार सतिं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूनपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुंजड़ एवं च णं विहरं - ति जिमियत्तोत्तरागया देवदत्ताए गलियाए सद्धिं विपुलाई माणुस्साई कामभोगाई जमाणा विहरंति तरणं से सत्थवाहदारया पुव्वावरएडकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए स िथूण मंत्रा पडिनिज्वमंति इत्थ संगालिए सुमिजागे बहुसु आलियघरेस य कयलीघरेसु य लयाघरेसुय अच्छघरेय पेच्छणाघरेसु य पासणघरंसु य मोहणघरे य साझघरेसु य जालघरेसु य कुसुमघरेसु उज्जाए सिरिं पञ्चब्जवमाणा विहति तए णं ते सत्यवाहदारया जेणेव से मालुवया कच्चे तेणेव पहारेत्यगमणाए तए एां सावरणमयूरी ते सत्यवाहदारए एजमाणे पासति पासतित्ता जीया तत्थ महया महया संदेणं केकारवं विणिमुयमाणा मालुया कच्छा परिक्खिमः । एगंसि स्क्खमालियं ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुया कच्छेयं च पविसमाला का एमिसदिडीए पेमाणी चित्रइ । तए णं ते सत्यवाहदारए अएए. मां सदा सदावेत्ता एवं वयासी जहा णं देवागुप्पिया एमा मयूरी अम्हे एजमाणे पासित्ता भीया तत्थ तसिया उविग्गा पलाया महया महया सदेणं जाव म्हे मालुया कच्छगं च पदमाणी पेमाणी चिट्ठति तं भवियन्त्रमेत्यकारणें । तिकट्टु मानुया कत्यगं तो अणुष्पविमति । तत्य दो परियाग जाव पाता ममं सदावत सदावेइत्ता एवं बयासी तं से यं खलु देवाणुप्पिया म्हे इमे वणमयू कसा गं जाइमंताणं कुकडिया अंमए सुपक्खिवावेत्तर तरणं ताओ जाइयंताओ कुक्कमियाओ एएमए य सरणं पक्खवाएं सा रक्खमाणीओ संगीमी हिरिति । तए णं अम्ह एत्य दो की लावणगा मयूरपागा जवि संति तिकडु अएएमएमस्स एयमहं परिगुणइ परिसुता सए सए दासचैडर सदावेइ सदावेइत्ता एवं वयासी गच्छद गं तुब्भे देवाणुपिया ! इसे क हाय सयां जाइयंताणं कुकमीए मएस पक्खिवड जाव ते विपक्विति तए णं ते सत्यवादारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुनृमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणमिरिं पच्चपुन्नत्रमाणा विहरेत्ता तमेत्र जाणं दुरूढा समाराजेशेव चंपानगरी जेऐव देवदत्ताएँ गणियाए गिहे तेव उबागच्च तवागच्छइत्ता । देवदत्ताए गिहे अणुप्पविसंति Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग अन्निधानराजेन्डः। अंमकर देवदत्ताप गणियाए विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दक्षयति चप्पुझियाए कयाए समाणीए अणेगाई णलगसयाई सकारोति सम्माणति देवदत्ताए विहान पमिणिक्वमति पाम केगाइं सयाणि य करेमाणे विहरति । तएएं ते मयूरपोसणिक्खमंतिना जेणेव सयाई गिहाईतेणेव उवागच्छति सक- गा तं मयपोयगं उम्मुक्कचाल जाव करेमाणे पासित्ता तं म्मसंपमित्ता जायावि होत्या। तत्थ पंजे से सागरदत्तपुत्ते मयरपोयगं गिएहंति गिएहतित्ता जिणदत्तउत्ते उवति । सत्थवाहे से णं कद्वंजाव जन्नते जऐव से वणमयरीअंडए ते- तएणं से जिणदत्तनुत्ते सत्यवाहदारए मयरपोयगं नम्मुणेव उवागच्छइ उवागच्चश्त्ता तसि मयुरी मयंसि संकिए क० जाव करेमाणं पासित्ता हनुढे तेमि विनलं जीविकंखित्ते वितिगिच्चे समावएणे भेयसमावणे कबुससमावएणे यारिहपीयदानं दाइ पडिविसजे । तए णं से मयूरपोकिम समं ममं एत्थ कीलावणमयुरीपोयए विस्संति नदादु यए जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पमियाए कयाए ममाणीएणं नोजविस्संतित्तिकटुतं मयुरी अंडयं अनिवखणं अभिक्खणं गोत्राभंगसिरोधरे सेयावगे उत्तरीयपइणपक्खे उक्खित्तचंदउदत्ता परियत्तेति असारेति संसारेति चालेति घट्टे खो- गाश्यकलावे केकाश्यसश्य विमुच्चमाणे नच्चश्तएणं से जिभेति अनिक्खणं अजिक्रवणं कम्पमूलसि टिट्टियावेति तपणं एणदत्तपुत्ते तं मयपोयगं चंपाए एयरीए सिंघामग. जाव पहेसु से मयूरीअंमए अभिक्रवणं अजिक्खणं जन्वत्तिज्जमाणे सएहि य साहास्सएहि य सयसाहस्सिपाहि य पणियएहिं जाव टिट्टियावेजमाणे पोच्चमे जाएया वि होत्था । तए णं जयं करेमाणे विहरति एवामेव समााउसो अम्हं पि णिसे सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अएणया कयाई जेणेव से। ग्गयो वाणिग्गंथी वा पव्वइए समाणे पंचम महब्बएसुसु मयूरीअंमए तेणेव नवागच्छति नवागच्चश्ता तं मयरी- जीवनिकापम निग्गये पावयणे निस्संकिए निकंखिए निभंमयं पोचममेव पासात पासइत्ता अहो णं ममेसकीझाव- बितिगिच्छे से णं इह जवे बहूणं समणेणं बहूणं समणीणं णमयूर पोच्चए जाए तिकट्ठ ओहयमण जाव फियायति जाव वितिव्वइस्तांत एवं खलु जबसमणेणं जगवया म. एवामेव समणानसो जो अम्हं निग्गंथे वा निग्गंधी वा हावीरेणं जाव संपत्तेणं तच्चस्त णायज्झयणस्स अयमहे भायरियं बकायाणं अंतिएपब्वइए समाणे पंचमहब्बए पत्ते त्ति वेमि तच्चं णायझयणं सम्मत्तं ।। मुजाव जीवानिकाएसु निग्गंथे पावयणे सकिए जाव कम टीका सुगमत्वान गृहीता मवरम् एवमेवेत्यादि उपनयनवचससमावएणे से णंह भवे चेव वहणं ममणाणं बणं समणी- नमिति । नवन्ति चात्र गायाः "जिणवरजासियभावे, सुभावसणं बहणं सावयाणं वहणं. सावियाणं हीलणिजे निंदणिज्ज व्येसु भावभो ममं । नो कुजा संदेहं, संदेहो णत्थ हे ओत्ति १ खिंसणिजे गरहणिजे परिभवाणिज्जे परलोए पि य एं निस्संदेहत्तं पुण, गुण हेऊ जं तओ तय कजं । एत्थं दो सेहिआगच्छइ बदणि दंझणाण य जाव मणुपरियति ।। सुया, अंमयगाही उदाहरणं २८ तथा) कत्थश्मश्य सेणं, त विहायरियविरहनो वावि । नेयग्गहणत्तणेणं, नाणावरणोदपतए णं से जिणदत्तत्ते जेणेव से मयरीअंडए तणेव उवा णं च ३ हेऊदाहरणाणं, भवे य सश्सुजन बुझिज्जा । सव्यगच्छइ नवागच्चइत्ता तसि मयभिंडयंसि निस्संकिए मुव पणुमयमवितह, तह वि इति चिंतए ममं ४ अणुवकयपराणुतणं ममेत्य कीलावणमयरीपोयए नविस्सति त्ति कहु तं ग्गह-परायणा जंजिणा जुगप्पवरा। जियरागहोसमोहा, य नन्नमयूरी अंडयं अनिक्खणं नो उचट्टे जाव नो टिट्टियावे हा वाणो तेणं ५ तृतीयमभ्ययनं विवरणतः समाप्तमिति का तए णं से मयूरीअंडए अणुवत्तिज्जमाणे जाव अटिहिया. ३ अ० पुरिमतालनगरवास्तव्यस्य कुकुटाद्यनेकविधाएमजभा एमव्यवहारिणो वाणिजकस्य निन्नकाभिधानस्य पापविपाकप्रविजमाणे । तेणं कालेणं तेणं समणेणं उजिसे मयरीपोय तिपादके कर्मविपाकानां द्वितीयेऽध्यने च स च निन्नको नरकए एत्य जाए तए णं से जिणदत्तउत्ते तं मयूरपोययं पासइ इतस्तत उद्धत्याभग्नसेननामा पट्टीपतिर्जातः । स च पुरिमपासइत्ता हतुट्ठयहियए मयरीपोसए सदावेइ सदावेइत्ता तालनगरवास्तव्येन निरन्तरं देशबूषणातिकोपितेन विश्वास्याएवं बयासी तुन्ने गं देवाणुप्पिया इमं मयूरपोययं बहहिं नीय प्रत्येकं नगरचत्वारेषु तदग्रतः पितृव्य पितृध्यानप्रिनृतिकमयूरपोसाणपाउग्गेहिं दबहि आणुपुवेणं संरक्खेमाणे स्वजनवगै विनाश्य तियशो मांसच्छेदनरुधिरमांसभोजनादिसंगोवेमाणे संवदेह पट्टट्सगं च सिक्स्वावेह । तए णं से भिः कदर्थयित्वा निपातित इति विपाकश्रुते वा भाग्नसेनपयूरपोसगा जिणदत्तस्स एयमढे पमिसुणेति पमिसुणेइत्ता मितीदमध्ययनमुच्यते स्था० १० ग० । तं मयूरपोयगं गिएहेति जेणेव सए गिहे तेणेव नवागच्चइ अंडनम-एमपुट-न० कर्मधा-स- स्वकीये अण्डके एडउवागच्चत्ता तं मयरपोयगं जाव णट्टलगं सिक्खावेति । कस्य पुटम् । अण्मकस्य संबद्धदबद्भये, दशा ए अस। तएणं से मयरपोयए उम्मुकवासनावे विनाय जोव्वण- | अंमक-एमक-ना जन्तुयोनिविशेषे, प्रश्न आश्र०२द्वान लक्खणवंजणमाषुम्माणपमाणपमिपुरणपक्खपहुणकलावे | | अंमकड-एमकृत-त्रि० अएकाजाते, सूत्र० १ ० १ ० ३ विचित्तापिच्चासत्तचंदए नीलकंठए पच्चासीलए एगाए | ३० एमकप्रभूतचुवनबादिनां मतमित्यमाचकते ने “संभो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) अंडकड अन्निधानराजेन्दः। अंत अंडकाच लोको" संभूतो जातोराडकाजन्तुयोनिविशेषाल्लोकः | शणकादिवस्त्रे, सूत्र०२ श्रु०२ १० प्रतिबन्धभेदे च । अण्डजो क्वितिजलानमानिनवननरनारकितिर्यग्रपः प्रश्न प्राथ०२द्वा०। हंसादिर्ममायभित्युल्लेखन वा प्रतिबन्धो भवति अथवा अ"पुव्वं श्रासि जगसिणं, पंचमहब्लूय वजियगनीरं। . एडकं मयूर्यादीनामिदं रमणकमयूरादि कारणमिति प्रतिएगावजलेण, महप्पमाणं तहिं अंमं ॥१॥ बन्धः स्यादित्यथवा अण्डजं पट्टसूत्रजमिति वा स्था०६ बीई परंपरेण, घोतं अत्थिउ सुइरकालं । ठा० । सूत्र। पुठं भागजायं, अज्जंतूमी य संयुत्तं ॥३॥ अंडसुदुम-एममूदम-न० अण्डमेव सूक्ष्मम् । मक्षिकाकीटितत्थ सुरासुरनारग-समणुयसचनप्पयं जगं सव्वं । कागृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलाशाद्यण्डकरूपे सूक्ष्मभेदे, सूत्र उपमं जणियमिणं, भंम्पराणसत्थम्मि ॥४॥ १ श्रु० अ० । दश०। माहणा समणा एगे, आह अंमकडे जगे। से किं तं अंडमुहुने ? अंमसुहमे पंचविह पमत्ते तंजहा असौ तत्तमकासी य, अयाएंता मुसंवदे ॥ १॥ नदंसंडे १ नक्कलिअंडे २ पिपीलिअंडे ३ हालिमे । ब्राह्मणा द्विजातयः श्रमणास्त्रिदएिमप्रभृतयः एके केचन पौ- हदोहनिअंडे ५ जे निग्गंथे एं वा जाव पमिलेहियध्वे राणिका न सर्वे एवमाहुरुक्तवन्तो वदन्ति च । यथा जगदेतच- नवइ सेत्तं अंममुहमे ६ ।। राचरमरामेन कृतमएमकृतम् । एमाज्जातमित्यर्थः । तथाहि " अण्डसुहुम उइंसंडे इत्यादि " उदंशा मधुमक्षिका मकुते वदन्ति यदा न किंचिदपि वस्त्वासीत् पदार्थशून्योऽयं संसार- णाद्यास्तेषामण्डं उदंशाण्डम् १ उत्कलिकाएडं लूतापुटाएडम्२ स्तदा ब्रह्माऽएममस्वसृजत्तस्माच्च क्रमेण वृक्षात्पश्चाद् द्विधा- पीपिलिकाएडं कीटिकाण्डम् ३ हलिका गृहकोलिका ग्राभावमुपगतादृवाधोविनागोऽनूत तन्मध्ये च सर्वाः प्रकृतयोऽभू मणी वा तस्या अण्डम् ४ हल्लोहलिश्रा अहिलोडीसरडीकवन्। एवं पृथिव्यप्तेजोवारवाकाशसमुसरित्पर्वतमकराकरगि- क्किण्डी इत्येकार्थास्तस्या अण्डम् एतानि सूक्ष्माणि स्युः। वेशादिसंस्थितिरजूदिति । तथा चोक्तं " पासीदिदं नमोनूत-| कल्प। स्था। मप्रझातमलकणम् ॥ अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः" ॥१॥ अंड-एक (म)-न० काष्ठमयेषु लोहमयेषु वा हस्तयोः एवंभूते चास्मिन् जगत्यसौ ग्रह्मा तस्य जावस्तत्वं पदार्थजातं | पादयोर्वा बन्धनविशेषेषु, औ०।। तदामादि प्रक्रमेणाकार्षीत् कृतवानिति । ते च ब्राह्मणादयःप अंत-अन्त-पुं० अम् गच्छाइसु तस्सेह श्रमणमंतो वसाणमेरमार्थमजानानाः सन्तो मृषा बदन्ति अन्यथा च स्थितं तत्वमन्यथा प्रतिपादयन्तीत्यर्थः (सूत्राएतदसमीचिनम) यतो यास्व. गत्थं अम् धातुर्गत्यादिष्वर्थेषु पठ्यते तस्येहान्त इति रूपं भप्सु तदएम निसृष्टं ता यथाऽएकमन्तरेणाभूवन तथा लोकोऽपि वति । अमनमन्तः । अवसाने, विशे० । स्था० । यस्मात्पूर्वनूत इत्यभ्युपगमे न काचिद्वाधा दृश्यते तथाऽसौ ब्रह्मा यावद • मस्ति न परं सोऽन्तः अनु० । पर्यन्ते, प्रा०म०प्र० । सूत्र। एकं सृजति तावल्लोकमेव कस्मान्नोत्पादयति किमनया कष्टया निक्षेपोऽस्य षट्विधः तद्यथा नामान्तः स्थापनान्तो द्रयुक्त्यसंगतया चाएपरिकल्पनया सूत्र०१ श्रु० ३ ० । नि0 व्यान्तः क्षेत्रान्तः कालान्तो भावान्तश्च । तत्र नामस्थापने प्रचूला भरतस्य तिमिस्रगुहाप्रवेशे सप्तरात्रं वर्ष वर्षति नागकुमा तीते द्रव्यान्तो घटाद्यन्तः क्षेत्रान्त अर्द्धलोकादि कालान्तः रे,जरहो वि वम्मरयणे खंधावारं ग्वेऊण उवरं उत्तरयणं - समयाद्यन्तो भावान्त औदारिकादि प्रा० म० प्र० प्रा० वेश मणिरयणं उत्तरयणं वत्थिनाए ग्वेइ ततो पभि सोगेण चू० । परमकाष्ठायाम् , सूत्र०१ श्रु० १५ १०। परिसमाप्ती, अंमसंनवं जगं पणीयं ति ॥ प्रा० म०प्र० । विशे० । पारे, शा०१ अ० । समीपे, व्य०१ उ० न०। अंडपनव-एसपनव-त्रि० अएमा प्रनव उत्पत्तिर्यस्य स | स्था० । अमनमधिगमनमन्तः। परिच्छेदे, निर्णये, स्था० ३ ठा०। प्रज्ञास त्रिविधः। तथा । एमादुत्पने, "जहा य अंगप्पभवा वसागा" उत्त०३श्रा तिविहे अंते पामते तंजहा लोगते वेयंते समयंते स्था०३ठा। अंमय-अएडज-पुं० अरामाज्जायतेऽएमजः । हंसादौ, खचरपञ्चन्छिययोनिसंग्रहलेदे, ज०७ श० ७ ०। आचा० । अम व अं तेणतो अमतीति वा यस्मानान्त इति कर्तरि विशे० । “ अंभया तिविहा परणत्ता तंजहा इत्थी पुरिसा ण साध्यते । अवसानं गते, विशे० देशे, " पगंतमंतं अबक्कमंति" एकान्तं विजनमन्तं देशमवकामन्ति न० ३ श०२ उ०।" श्रम सका" अएमजास्त्रिविधा प्राप्तास्तद्यथा स्त्रियः पुरुषा नपुंस रोगे वा अंतो रोगो भंगो विणासपज्जाओ" अमरोगे रुजोनले काश्च जावा ० ३ प्रति • । शकुनिगृहकोकिलसरीसृपादि अम-तन् रोगे, भने, विनाशे, अन्तो रोगो प्रको विनाश इति बु, सूत्र ० १ श्रु० अ० त्रसभेदेषु, सूत्र ० १ श्रु. ७. अ०० । प्राचा०। दश। मत्स्यभेदेषु च । स्था० ३० । पर्यायशदा एते विशे० । स्था० । धर्म । अन्त । स० । नं०। अरडेभ्यो हंसाद्यण्डकेभ्यो यज्जायते तदण्डजम् । सूत्रभेदे, अन्तहेतुत्वादन्ते रागद्वेषयोश्च आचा० १ ० ३ ०"दोहि न. यथा कचित्पट्टसूत्रम् उत्त०२६ अ० । "अंडयं हंसगम्भादि" अंतेहिं अदिस्समाणो" आचा०१ श्रु०३ अाजीणे, अव्यवअण्डाजातमण्डजं हंसपतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषो गर्भ हरणीये, त्रि.नि००१ उ० । कये, भेदे, व्यवच्छेदे, कल्प। स्तु तनिवर्तितः कोशकारो हंसस्य गर्भो हंसगर्भः तदुत्पन्न अन्त्य-न० दशभिर्गुणिते जलाधसंख्याभेदे, कल्प। सूत्रमण्डजमुच्यते । तर्हि सूत्रे अण्डज हंसगर्भादीति सामा- अन्त्र-न० अन्व्यते देहोबध्यतेऽनेनोत । अति-बन्धने करणे ट्रन् नाधिकरण्यं विरुध्यते हंसगर्भस्य प्रस्तुतसूत्रकारणत्वादिति | देहबन्धने, “उक्ताःसार्द्धात्रयो व्यामाः पुंसामन्त्राणि सरिनिः। चेत्सत्यं कारणे कार्योपचारादविरोधः । कोशकारभवं सूत्रं | अर्द्धव्यामेन हीनानि स्त्रीणामन्त्राणि निर्दिशेदिति वैद्यकोक्तपट्टकसूत्रमिति लोके प्रतीतमण्डजमुच्यत इति हृदयम् ।। परिमाणवति नामीभेदे, वाच०। सूत्र । उदरमध्याऽवयवधिपश्चन्द्रियहंसगर्भसंभवम् । अनु० । विशे० प्रा० म०प्र० शेपेच तं०। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत (५५) अभिधानराजेन्द्रः । अंतकिरिया दो अंता पंच वामा पाम्पत्ता तंजहा यूनते य तणुयंते य रियाएणं सिकड युज्झइ मुच्चड़ परिणिज्जाइ मध्यक्रवा तत्थ णं जे से धृवंत तेणं उच्चारे परिणम तत्थ एं जे | णमंतं करेइ जहा से भरहे गया चाउरंतचकवट्टी । पढमा से तणुयंते तेणं पामवणे परिणम ॥ अंतकिरिया। द्वे अन्वे प्रत्येक पञ्च पञ्च व्यायामप्रमाणे प्रशप्ते जिनैः तद्यथा यस्य न तथाविधं तपो नापि परीपहादिजनिता तथाविधा स्थूलान्त्रं तन्वन्त्रम् २ तत्र यत्स्थूझान्त्रं तनोच्चारः परिणमति ।। घेदना दीर्घण प्रवज्यापर्यायेण सिद्धिर्भवति तस्यैका यस्य तु तत्र च यत्तन्वन्त्रं तेन प्रथवणं मृत्रं परिणमति तं०। प्रतियोधा. तथाविधे तपावेदने अल्पनैव च प्रव्रज्यापर्यायेण सिद्धिः म्याथे भगवता वीरेण रष्ट चतुर्थे स्वप्ने च. श्रा०म० द्वि०। त्तस्य द्वितीया यस्य च प्रकृट तपोवेदने दार्पण च पर्यायग प्रान्त-न० अन्ते जवमान्तम् । चुक्तावशेष, पंचा० १५ विवा सिद्धिस्तस्य तृतीया यस्य पुनरविद्यमानतथाविधतपावेदअरसतया सर्वधान्यान्तवर्तिनि बल्बचणकादौ, नए श०३३ नस्य हस्वपर्यायण सिद्धिस्तस्य चतुर्थीति । अन्तक्रियाया उ० । स्था० "णिप्पावमा अंतं " निष्पावा बाश्चणकाः एकस्वरूपत्वेऽपि सामग्रीभेदाचातुर्विध्यमिति समुदायार्थः । प्रतीताः भादिशब्दात्कुल्माषादिकं च प्रान्तमित्युच्यते वृ० अवयवार्थस्वयं चतस्रोऽन्तक्रियाः प्रशप्ता भगवतेति गम्यंत १. उ०। ज्ञान तत्रेति सममी निर्धारणे तासु चतसृषु मध्य इत्यर्थः । खलुर्वाअंतर] अन्तर-अव्य० अम्-अरन् तुमागमश्च । वाच ।। क्यालङ्कारे इयमनन्तरवक्ष्यमाणत्वेन प्रत्यक्षासन्ना प्रथमा इ. म्बरेऽन्तरश्च ७ । १ । १४ इति अन्तःशब्दस्यान्त्ययञ्जन तरापेक्षया आद्या अन्तक्रिया।इह कश्चित् पुरुषः देवलोकादी स्य स्वरे परे न मुक् अन्यत्र लुक प्रा० मध्ये, । आ० म०वि०। गत्वा ततोऽल्पैः स्तोकैः कर्मभिः करणभूतैः प्रत्यायातः प्रत्यारा०ापाचा०। विशे० । "अंतरप्पा" अत्र स्वरपरत्वान्न सुक। गतो मानुषत्वमिति अल्पकर्मप्रत्यायातो य इति गम्यते । श्रकचिद्भवत्यपि "अंतोवरि" प्रा०। थवा एकत्र जनित्वा ततोऽल्पकर्मा सन् यः प्रत्यायातः स अंतक (ग)-अन्तक-पुं० अन्तयति अन्तं करोति अन्त-णिच्- तथा लघुकर्मतयोत्पन्न इत्यर्थः । चकारो वक्ष्यमाणमहाकएवुब्वाच० । मृत्यौ, “ समागम कंखति अंतकस्स" सूत्र०१ उपेक्षया समुच्चयार्थः । अपिः सम्भावने सम्भाव्यतेऽयश्रु०७ अ० । पर्यन्ते, " जे एवं परिभासंति, अंतए ते मपि पक्ष इत्यर्थः भवति स्यात् स इति । असौ णमिति वासमाहिए" सूत्र०१ श्रु०२० । अन्तर्वर्तिनि च. सूत्र०१ क्यालङ्कारे मुण्डो भूत्वा द्रव्यतः शिरोलोचेन भावतो रागा चपनयनेनागारात् द्रव्यतो गेहात् भावतः संसाराभिनन्दिनां श्रु० १५ १०। देहिनामावासभूतादविवेकगेहानिष्क्रम्येति गम्यतेऽनगारिअंतकम्म-अन्तकर्मन्-न अचलकर्मणि, औ० । ताम् अगारी गृही असंयतस्तत्प्रतिषेधादनगारी संयतस्तद्भाअंतक(ग)र-अन्तकर-त्रि० अन्तस्य करः। संसारस्य तत्कार वस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः । प्रवजितः प्रगतः प्राप्त इत्यर्थः । णस्य वा क्षयकारिणि, " अंताणि धीरा सेवंति तेणं अंतकरा अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया निर्ग्रन्थतया प्रवजितः इह" सूत्र०१ श्रु० १५ १०। श्रा० म० द्वि० । भ० । स्था० । प्रव्रज्या प्रतिपन्नः किंभूत इत्याह (संजमबहुलेत्ति) संयमेन अंतकर ( गम ) नूमि-अन्तकर-(कृद् ) जूमि-स्त्रीअन्तं पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा । संभवस्य कुर्वन्तीति अन्तकराः (अन्तकृतो वा) तेषां भूमि यमो वा बहुलः प्रचुरो यस्य स तथा । एवं संवरबहुलोऽपि कालः कालस्य चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेशः।। नवरमाधवनिरोधः संवरः अथवा इन्द्रियकषायनिग्रहादिमुक्तिगामिनां काले, सा द्विधा युगान्तकरभूमिः पर्यायान्तक-| भेदः । एवं च संयमबहुलग्रहणं प्राणातिपातविरतेः प्राधान्यरभूमिश्च जं०२ वक्ष (यस्य तीर्थकृतो यावती अन्तकरभूमिः ख्यापनार्थम् । यतः "एक चिय एत्थ वयं, निद्दिटुं जिणवरेहि सा तच्छब्दे वक्ष्यते) . सबहिं । पाणाइवायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खट्टत्ति" अंतकाल-अन्तकाल-पुं० मरणकाले, सूत्र० १ श्रु०५०। ॥१॥ एतश्च द्वितयमपि रागाद्युपशमयुक्तचित्तवृत्तेर्भवति। यत अंतकिरिया-अन्तक्रिया-स्त्री० अन्तोऽवसानं तच प्रस्तावा आह सामाधिबहुलः समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादिर्क दिह कर्मणामवसातव्यमन्यत्रागमे अन्तक्रियाशब्दस्य रूढ समाधिःपुनर्निःस्नेहस्यैव भवतीत्याह (लूहेत्ति) रूक्षःशरीरे त्वात् तस्य क्रिया करणमन्तक्रिया । कर्मान्तकरणे, मोक्षे, क मनसि च द्रव्यभावस्नेहवर्जितत्वेन रुषः लूपयति वा कर्ममस्नकर्मक्षयान्मोक्ष इति वचनात् प्रशा०१५ पद। लमपनयतीति लूषः कथमसावेवं संवृत्त इत्याह यतः (ती रट्ठी) तीरं पारं भवार्णवस्यार्थयत इत्येवं शीलस्तीरार्थी अन्त्य(न्त)-क्रिया-स्त्री० अन्त्या च सापर्यन्तवर्तिनी क्रिया - तीरस्थायी वा तीरस्थितिरिति वा प्राकृतत्वात् 'तीरट्ठीति' अत त्यस्य वा कर्मान्तस्य क्रियाऽन्त्यक्रिया । कृत्स्नकर्मक्षयलक्ष एवाह(उचहाणवंति)उपधीयते उपष्टभ्यते श्रुतमनेनेति उपधानं णायां मोक्षप्राप्ती, भ.१श०२ उ० प्रा०म०प्र० स०। श्रुतविषयस्तप उपचार इत्यर्थस्तद्वान् अत एव च (दुक्खक्खचत्तारि अंतकिरियायो पम्मत्ता तंजहा तत्थ खबु इमा वेत्ति) दुःखमसुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म तत् क्षपयतीति दुःखपढमा अंतकिरिया अप्पकम्मपच्चाएया वि भवइ से णं क्षपः । कर्मक्षपणं च तपोहेतुकमित्यत आह । (तवस्सीति) त. मुंडे नवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्चइए संजमबहुले पोऽभ्यन्तरकर्मेन्धनदहनज्वलनकल्पमनवरतशुभध्यानलक्षणसंवरबहले समाहिबहुले चूहे तीरट्ठी उपहाणवं दुक्ख मस्ति यस्य स तपस्वी (तस्स णं ति) यश्चैवंविधस्तस्य णं वाक्यालङ्कारे नो तथाप्रकारमत्यन्तघोरं वर्षमानजिनस्येव तक्ववे तवस्सी । तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवइ जो पोऽनशनादिर्भवति । तथा नो तथाप्रकारा अतिधोरैयोपसर्गातहप्पगारा वैयणा भवइ तहप्पगारे पुरिसजाए दीहणं प-| दिसम्पाद्या वेदना दुःखासिका नवा ते अल्पकर्मप्रन्यायातत्वा Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) अंतकिरिया अजिधानराजेन्द्रः । अंतकिरिया दिति । ततश्च तत्तथाप्रकारमा पकर्मप्रन्यायातादिविशेषणक- "अहावरेत्यादि" काठ्यं यथासौ मरदेवी प्रथम जन जननी सा लापोपेतं पुरुपजातं पुरुषप्रकारोदार्पण बहुकालेन पर्यायेण हिम्यावरत्वेऽपिक्कीणप्रायकर्मत्वेनाल्पकी अविद्यमानतपोवेदना प्रव्रज्यालक्षणेन कर्म नूतन सिध्यति । अणिमादियोगेन निष्ठिता च मिद्धा गजबरारूढाया एवायुःसमाप्तौ सिद्धत्वादिति । एपार्थो वा विशेषतः सिकिंगमनयोग्यो वा भवति सकलकर्मनाय ञ्च हशान्तदाट्रान्तिकानामर्थानां न सर्वथा साधर्म्यमन्चपर्णीय कमोहनीयघातात ततो घातिचतुष्टयघातेन वुध्यते केवबहान देशदृष्टान्तत्वादेयं यतो मरुदेव्याः “मुग भवित्तत्यादि"विशेनावात् समस्तवस्तूनि ततो मुच्यन्ते भवोपग्राहि कर्मभिः परि षणानि कानिचित् न घटत अथवा फत्रतः सर्वसाधर्म्यमपि निर्याति सकलकर्मकृधिकारव्यतिकरनिराकरणन · शीतीभव मुएनादिकार्यस्यासिकर्वस्य सिद्धत्वादिति स्था०४ वा०२०। तीति । किमुक्तं नवतीत्याह सर्वदुःखानामन्तं करोति शारी अन्तक्रियायाः सकता वक्तव्यता प्रदर्श्यते रमानसानामित्यर्थः । अतथाविधतपोवेदनो दीर्धेणापि पर्यायेण किं कोऽपि सिद्ध इति शङ्कापनोदार्थमाह । " जहासेश्त्या तत्रेयमादावधिकारगाथा । दि" यथाऽसौ प्रथमजिनप्रथमनन्दनो नन्दनशताग्रजन्मा जर नेरश्यअंतकिरिया, अर्णतरे एगसमय नबट्टा । तो राजा चत्वारोऽन्ताः पर्यन्ताः पूर्वदक्किणपश्चिमसमुद्राहिम- तित्थगरच किवादे-व वासुदेवमंगलियरयणा य ॥१॥ यल्लकणा यस्याः पृथिव्याःसा सतुरन्ता तस्या अयं स्वामित्वन- प्रथमतो नैरयिकोपलकितेषु चतुर्विंशतिस्थानेप्वन्तक्रिया । नि चातुरन्तः। स चासौ चक्रवर्ती चेति स तथा। स हि प्राग्न चिन्तनीया ततोऽन्तरागताः किमन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता थे लघुकृतकर्मा सर्वार्थसिविमानात् च्युत्वा चक्रवार्ततयात्पद्य वेत्येवमन्तरं चिन्तनीयम् । ततो नरयिकादिज्योऽनन्तरमागताः राज्यावस्थ एव केवलमुत्पाद्य कृतपूर्वलक्षप्रवत्यः अतथाविध कियन्त एकसमये अन्तक्रियांकुर्वन्तीतिचिन्त्यं तत"बट्टाइति" तपोवेदन एव सिकिमुपगत इति प्रथमाऽन्तक्रियेति ॥ उत्ताः सन्तः कस्यां योनावुत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं तथा यत जड़अहावरे दोच्चा अंतकिरिया महाकम्मं पञ्चाएया वि जव त्तास्तीर्थंकराश्चक्रवर्तिनी बरदेवा वासुदेवा मरामक्षिकाश्चक्रवसे णं मुंम भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वर संजमव- तिनो रत्नानि च सेनापतिप्रमुखाणि भवन्ति ततस्तानि क्रमेण हुले सवरटुझे जाव उवहाणवं दुक्रवक्रववे तबस्सी तस्म वक्तव्यानोति द्वारगाथासंकेपार्थः। विस्तरार्थ तुसूत्रकदेव वदयति तत्र प्रथमतोऽन्तक्रियामनिधिसुराह । णं तहप्पगारे तवे भव तहप्पगारा वेयाणा नवा तहप्पगारे पुरिमजाए निरुद्धणं परियारणं सिक जाच अंतं करेइ जीवेणं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा! अत्ये गनहा से गजमुकुमाले अणगारे दोचा अंतकिरिया ॥ तिए करेजा कत्येगहए ना करेज्जा एवं नेरइए जाव वेमाणिए अथानन्तरमपरापूर्वापेक्या भन्या द्वितीयस्थानेऽभिधानात् द्वि - जीये णमिति वाक्यालंकृतौ भदन्त ! अन्तक्रियामिति अन्तोऽ तीया महाकर्मनिर्गुरुकर्मनिः महाकर्मा वा सन् प्रत्यायातःप्र. घसान तश्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम् । अन्यत्रागमे त्याजातो वा यः स तथा " तस्स णमित्यादि " तस्य महाकर्म ऽन्तकियाशब्दस्य रूढत्वात् तस्य क्रिया करणमन्तक्रिया कर्माप्रत्याजातत्वेन तत्कपणाय तथाप्रकारं घोरं तपो भवति । एवं न्तकरणं मोक इति भावार्थः । कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्ष इतिवचनात् वेदनाऽपि कर्मोदयसम्पाद्यत्वादुपसर्गादीनामिति निरुद्धेनेति अ तां कुर्याद्भगवानाह । गौतम!अस्त्येकको यः कुर्यात् अस्त्येकको ल्पेन यथाऽसौ गजसुकुमारो विष्णोर्लघुन्नाता स हि भगवतोऽरि योन कुर्यात् । श्यमत्र भावना यतस्तथाविधभव्यत्वपरिपाकवएनेमिजिननाथस्यास्तिके प्रव्रज्या प्रतिपद्य स्मशाने कृतकायो शतो मनुष्यत्वादिकामविकलां सामग्रीमवाप्य तत्सामर्थ्यसमु. सर्गजवणमहातपाः शिरोनिहितजाज्वल्यमानाङ्गारजनितात्य तातिप्रयत्नवीर्योल्लासवशतः कपकणिसमारोहणेन केवलकान्तवेदनोऽवेनैव पर्यायेण सिझवानिति शेष कएठ्यम् । नमासाद्य घातीन्यपि कर्माणि क्षपयेत स कुर्यात् अन्यस्तु न अहावरे तचा अंतकिरिया महाकम्मपच्चाएया वि जव कुर्याद्विपर्ययादिति । एवं नैरयिकादिचतुर्विंशतिदएमकक्रमेण तावद्भावनीया यावद्वैमानिका सूत्रतस्त्वेवम् " नेरश्याणं नंते ! से एं मुंडे नवित्ता अगाराओ जाव पव्वइए जहा दोचा' अंतश्रो किरियं करेजा गोयमा ! प्रत्धेगए करेजा प्रत्येगाप पावरं दीहेणं परियाएणं सिझर जाव सव्वदुक्खाणमंतं नोकरेजा इत्यादि करेइ जहा से सएंकुमार राया चानरंतचकवट्टी। तचा अंत- दानी नैरयिकेषु मध्ये वर्तमानोऽन्तक्रियां करोति किं पान किरिया ॥ करोतीति पिच्चिषुरिदमाद । "अहाबरेत्यादि" कराव्यं यथाऽसौ सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती नेरइएणं भंते ! असुरकुमारे अंतकिरियं करेजा गोस हि महातपाः महाषेदनश्च सरोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण च | यमा ! नो णडे समटे एवं जाव वेमाणि एमु णवरं मासिम्स्तद्भधे सिद्ध्यभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ॥ स्सेसु अंतकिरियं करेज पुच्छा ! गोयमा ! अत्थेगतिअहावरा चउत्था अंतकिरिया अप्पकम्मपच्चाएया वि | ए करेजा अत्थेगतिए ना करजा एवं असुरकुमारे जाव जबइ से णं मुंडे भविता जाव पचभए संजमबहुले जाव वमाणिए । एवमेवं चउवसं चवीसा दंगा भवंति ॥ तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवइ नो तहप्पगारा घेयणा भवइ तहप्पगारे पुरिमजाए निरुदणं परियारणं सिज्जा नेरएणमित्यादि भगवानाह गौतम! नायमर्थःसमथों युक्तप पन्न इत्यर्थः कथमिति चेदुच्यतेश्हत्स्नकर्मवयःप्रकर्षप्राप्तात जाव सम्बदुक्खाणमंतं करेइ जहा सा मरुदेवी जगवई सम्यग्दर्शनकानचारित्रसमुदायाद्भवति न च नैरयिकावस्थायां चनन्या अंतकिरिया ॥ चारित्रपरिणामस्तया स्वाभाब्यादिति ।पषमसुरकुमारादिषु Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) अभिधान राजेन्द्रः | अंत किरिया वैमानिकपर्यवसानेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । मनुष्येषु मध्ये समागतः सन् कश्विदन्तकियां कुर्यात् यस्य परिपूर्णा चारित्रादिसामग्री चिन कुर्यात् यस्तद्विकल इति एवमसुरकुमारादयोऽपि वैमानिकपर्यवसानाः प्रत्येकं नैरयिकादिचतुर्विंशतिद एक कक्रमेण वक्तव्यास्तत एवमेते चतुर्विंशतिद एक काञ्चतुर्विंशतयो भवन्ति । अथ ते नैरयिकादयः स्वस्वनैरयिकादिनवे ज्यो ऽनन्तरं मनुष्यनवे समागताः सन्तोऽन्तक्रियां कुर्वन्ति किं वा तिर्यगादिसंव्यवधानेन परम्यरागता इति निरूपयितुकाम श्राह । नेरइयाणं भंते ! किं अंतरागया अंतकिरियं करंति परंपरागया अंतरियं कति ? गोयमा ! अंतरागयात्रि तकरिये करेंति परंपरागया कि अंता केरियं करेंति एवं यापुढविनेरइया वि जात्र पंकप्पभापुढविणेर या धूपभापुढविणेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नो अांतरागया अंतरियं पकरंति परंपरागया अंताकरियं पकरंसि जाव आहेसत्तमा पुढविणेरझ्या असुरकुमारा जाव थणि कुमारा । पुढविआउवणस्सइकाइया य अंतरागया वि अंतकिरियं पकरंति परंपरागया वि अंतकिरियं पकरंति । तेजवाउबेई दियतेइंदियचनरिंदिया नो अांतरागया - तकिरियं पकति परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति सेसा अनंतरागया विअंतकिरियं पकरेंति परंपरागया वितकिरियं पकरेति ॥ प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह गौतम ! अनन्तरागता अपि श्रन्तक्रियां कुर्वन्ति परंपरागता अपि तत्र रत्नशर्करावालुकापङ्कप्रभाज्योऽनन्तरागता श्रपि धूमप्रभा पृथिव्यादिभ्यः पुनः परंपरागता एव तथा स्वाभाव्यादेनमेव विशेषं प्रतिपादयिषुः सूत्रसतकमाह । “ एवं रयणप्पजापुढविनेरश्या चि इत्यादि " सुगमम् असुरकुमारादयः स्तनितकुमार पर्यवसानाः पृथिव्यध्वनस्पतयखानन्तरागता अपि श्रन्तक्रियां कुर्वन्ति परंपरागता अपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति उभयथा आगता अपि । उभयथाऽप्यागतानां तेषामन्तक्रियाकरणाविरोधात् तथा केवलचक्षुरुपलब्धेः । तेजोवायुद्वित्रिचतुरिन्द्रियाः परम्परागता एव नत्वनन्तरागतास्तत्र तेजीवानामानन्तर्येण मनुष्यत्वस्यैवाप्राप्तेः द्वं। न्द्रियादीनां तु तथानवस्वानाव्यादिति । शेषास्तु तिर्यक्पञ्चेन्द्रियादयो वैमानिकपर्यवसाना अनन्तरागता अपि परम्परागता अपि । नैरयिकादिभवेयोऽनन्तरमागताः कियन्त एकसमये अ तक्रियां कुर्वन्तीत्येवंरूपं तृतीयं धारमनिधित्सुराह । अतरागया णं भंते ! णेरइया एगममएणं केवतिया अंतरियं पकति ? गोयमा ! जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस रयणप्पभा पुढविणेरइया वि एवं चेत्र जाव वालुयप्पनापुढविणेरश्या । अंतरागयाणं भंते ! पंकप्पापुढविणेरझ्या एगसमएणं केवतिया अंत कति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं चत्तारि । अांतरागयाणं भंते ! असुरकुमारा एगसमरणं केवइया अंतकरियं पकरंति जहनेणं एको वा दो वा नित्रि वा उक्कोसेगं दस । अांतरागयाओ गं भंते ! For Private अतकिरिया असुरकुमारी एगसमरणं, केवतिया अंतकिरियं पकति ? गोयमा ! जहां एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कीमेणं पंच एव जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा थण्यिकुमारा वि । अतरागया णं भंते ! पुढविकाइया एगसम केवया अंतरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहनेणं एगो वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं चत्तारि एवं आकाइया वि चत्तारि वस्सकाश्या व पंचिंदियतिरिक्खजोलिया दस तिरिक्खजोशिणी ओ दस मगुस्सा दस मणुस्सी ओवीसं वाणमंतरा दस वाणमंतरी ओ पंच जोइसिया दम जोइसिपीओवीसं वेमालिया असतं माणिणीओ वीसं ॥ " अणंतरागया णं भंते इत्यादि " नैरायकभवादनन्तरमव्यवधानेन मनुष्यजवमागता अनन्तरागता नैरयिका इति प्राग्भवपर्यायेण व्यपदेशः सुरादिप्रान्नव पर्यायप्रतिपतिव्युदासार्थः एवमुत्तरत्रापि तत्तत्प्राग्भवपर्यायेण व्यपदेशः प्रयोजनं चिन्त नीयं शेषं कपठ्यम् । सम्प्रति तत उहुत्ताः कस्यां योनायुत्पद्यन्ते इति चतुर्थधारमनिधित्सुराह । रइपाएं भंते ! ऐरइए हिंतो अांतरं नव्यट्टित्ता नेरएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! लो इट्ठे समट्ठे । णेरइएणं भंते : रइएहिंतो अांतरं व्यहिना असुरकुमारेसु उववज्जेज्जा ? गोमा ! नो इण्डे समेड एवं निरंतरं जाव चनरिदिए पुच्छा गोयमा ! नो इण्डे समट्ठे । नेरइए णं जंते ! नेर - एहिंतो अनंतरं नव्यट्टित्ता पंचिदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! प्रत्येगइए नववज्जेज्जा प्रत्येगइए नो उववज्जेज्जा जेणं नंते. नेरइएहिंतो अणंतर पंचिंदियतिरिक्खजोणिएमु उववज्जेज्जा से णं केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवण्याए गोयमा ! अत्येगइए लभेज्जा अत्थगतिए नो लभेजा । जेणं अंते! केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवण्याए से णं केवलबोहिं बुज्केज्जा १ गोयमा ! अत्येगइए बुज्छेज्जा प्रत्येगइए नो बुज्जेज्जा । जे एणं जंते ! बुज्ज्जा से गं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? गोयमा ! सज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा । जं णं भंते! सदहेज्जा पतिएज्जा रोएज्जा से गं आभिणि बोहियनाणसुयनाणाइं उप्पाडेज्जा गोयमा ! उप्पाज्जा । जे गं जंते ! - भिणिवेोद्दियनासुयनालाई उप्पामेज्जा से णं संचारज्जा सीलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा परिवज्जित्तए ? गोयमा ! प्रत्येगतिए संचारज्जा प्रत्येगइए नो संचाएज्जा । जे गं जेते ! संधाएज्जा सीलं वा जाब पोसहोववासं वा पडिवज्जित्तए सेद्दिनाणं उप्पामेज्जा गोयमा ! प्रत्येगतिए उप्पाडे प्रत्येगतिए णो उप्पा मेज्जा । जेणं जंते ! ओहिनाणं उप्पामेज्जा से ए संचाएज्जा मुंगे नवित्ता आगाराश्री Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया अभिधानराजेन्द्रः। अंतकिरिया अणगारियं पव्वइत्तए ? गोयमा ! णो इणढे समझे। ऐरए | जहा पुढविकाइयो जणिो तहा आउकाइओ वि वणणं ते ! रइएहितो अतरं नचाहिना मगुस्सेमू स्सइकाओ जाणियचो । तेउकाइएणं नंते ! तेउकाइएजनपज्जेज्जा गोधमा ! अत्येतिए उववज्जेजा अ-| हिंतो अएंतर उव्याहत्ताणेरइएमुनववजज्जा! गोयमा! नो न्थेगतिर नो उवधज्जेज्जा । जे णं भंते ! उज्नेज्जा इण के समढे एवं असुरकुमारेसु [व जाव थणियकुमारेम मे णं केवामपाल | धम्मं सभेज्जा सवणय ए गोयमा ! वि । पुढधिकाइयानव उवणस्सश्वेइंदियतेदियचउरिदिजहा पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस जाव जेणं भंते अोहि-| एसु अत्यगतिए नववज्जेज्जासणं केवलिपन्नत्तं धम्म खनेजा माग उप्पामेज्जा से णं संचाएज्जा मुंभपित्ता अगाराओ। सवणयाए गोयमाणो इणटे समठे । तेनकाइएणं भंते ! अगगारिए पन्चइत्तए ? मोयम ! अत्थेगतिए संचाएज्जा तेउकाइएहितो अणंतरं नव्याहत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिप्रत्येगतिए नो संचाएजा से णं भंते ! मुंजवित्त. अगारा- एमु उववज्जेज्जा? गोयमा! अत्येगातिए नववजेज्जा अत्थेओ अणगारियं पन्चानए से णं मरणपज्जवनाणं नुप्पाम- गतिए णा उवव जेणं नवव० सेणं केवलिपन्नत्तं धम्मलनिज्जा ? गायमा ! प्रत्ये तिए उप्पामेज्जा अत्यंगतिए नो | ज्जासवणयाए? गायमा अत्थेगतिए लभेजा प्रत्येगतिए नो उप्पामज्जा। जेणं जंते ! मणपजवनाएं उपाऊजा से लभेज्जाजेणं ते! केवलिपन्नत्तं धम्मं बभज्जासवणयाए के लना उप्पामेज्जा? गोयमा: अत्येगतिए नप्पाडेजा संण केवलिवोहिंज्केज्जागोयमा! णोणटे समडेमणुस्सअत्थगतिए नो नुप्पाडेजा । जे भंते ! केवलनाणं | वाणमंतरजोइसियवेमाणिएमु पुच्चा गोयमाणो इण? सम? उपाडेज्जा मेणं सिज्झेजा युज्जा मुत्तेज्जा सब- एवं जहेव तेउकाइए निरंतरं एवं वानकाए नि । बेइंदिएणं क्खाण अंतं करेजा ? गायमा ! सिजफेज्जा जाव सयदु- भंत! बेइंदिएहिंतो अणंतरं नव्याहिता नेरइएसु उपवज्जेक्वाण अतं करेजा। नेरइए णं नंते ! नेर.ए तो अणं- जा गोयमा! जहा पुढविकाइए णवरं मणुसेसु जाव मणपनरं उत्पट्टिना वाणमंतरेसु जोइसियवेमाणिएम उववज्जेज्जा' ज्जवनाणं जप्पाज्जा एवं तेइंदियचउरिदिया वि जाव मगोयमा! णो इणढे समजा असुरकुमारा णं भंते असुरकु- एपज्जवनाणं उप्पामेज्जा जे एं मणपज्जवनाणं उप्पामज्जा मारहितो अनरं उव्वट्टित्ता नेग्इएस नववजेजा? गोयमा | से णं कंवलनाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! णोणढे सम पोशणहे ममढे । अमुकुमारेणं जंते ! अणतरं उच्चट्टित्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोअमुरकुमारे नववज्जेजा गोयमा ! णो इणटे समढे एवं | णिएहिंता अणंतरं नव्याहत्ता नेरइएमु उववज्जेज्जा ? गोजाव थपियकमारेसु । असुरकुमाराणं भंते ! अमुरकुमा-| यमा! अत्थेगाए नववज्जेज्जा अत्थेगडए नो नववज्जेगहिंतो अणंतरं नबाट्टित्ता पुढ विकाइएमु नववज्जज्जा हंता उजाणं भंते ! नववज्जेज्जा से णं केवलिपन्नत्तं धम्म गायमा ! अत्यंगतिए उववोजा अत्यंगतिए नो नववज्जे- लनेजा सवणयाए गोयमा! अत्येगतिए लज्जा अत्थेज्जा । जे णं ते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपपत्तं गतिए नो लज्जा जेणं केवलिपन्नत्तं धम्मं लज्जा सवधम्म प्रजेज्जा सवणयाए गायमा ! णो इणढे समढे एवं याए से णं केवलबाहिं बुज्केज्जा गोयमा ! अत्थेगातमानवणसईरावि अमुरकुमारे णं जंते! अमरकुमारेहितो ए बुज्झज्जा अत्यंगतिए नो बुज्केज्जा। जे ए केवलवोअणंतरं उबट्टित्ता तेनवान्बेदियतेइंदियचउरिदिएमु उव- हिं बुज्केज्जा से णं सद्दहेज्का पत्तिएजा रोएज्जा हंता गोबज्जज्जा गोयमा ! णो णटे समढे अवसेसेसु पंचसु यमा ! जाव रोएज्जा । जेणं नंते! सद्दहेजा जाव रोएपंचिंदियतिरिक्खजोणियादिम अमरकुमारेसु जहा नेरइ-| ज्जा से णं प्राजिणिवोहियनाणसुइनाण गहिनाणाई उमओ एवं जाब थणियकुमारो । पुढविकाइए णं भंते ! पुढ- प्पाडेजा ? गोयमा ! जाव उप्पामेज्जाजेणं भंते ! जाव उविकाइएहितो अणंतरं उबाट्टित्ताणेरइएम उवयज्जेज्जा ? प्पाज्जा से णं मंचाएज्जा सीलं वा जाव पमिवज्जित्तए गोयमा ! णो इणढे समढे एवं असुरकुमागेसु वि जाव गोयमा ! इण्डे समटे एवं अमुग्कुमारेसु वि जाव थथणियकुमारमु । पुढविकाइएहितो अणंतरं नवट्टित्ता णियकुमारेमु एगिदिय विगलिदिएमु जहा पुढविकाइए पंपुढषिकाइएमु उववजेज्जा ? गोयमा! अत्थेगतिए नववज्जे चिंदियतिरिक्खजोणिएमु मास्मेसु य जहा णेरइयवाणमंतज्जा अत्यगतिप, नो उपबन्जेजा। जेणं भंते नववज्जेज्जा रजोऽसियवेमाणिएसु जहा णेरइएमु उववज्जइ पुच्छा नसे एं केवझिपन्न धम्म सभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! णिया एवं मणुस्से विवाणमंतरजोइसियवेमागिय० जहा नो इण्टे समढे । एवं आनकाझ्यादिसु निरंतरं जाणिय असुरकुमारेसु ॥ नं जाव चरिदिएमु पंचिंदियतिरिक्खजोणियपणुस्सेसु | खजाणियमणुस्ससु (इतः पूर्व टीका मुगमेति न गृहीता] नवरं जे षं भंते !इत्याजहा परश्याणमंतरजोसियवेमाणिएस पमिसेहो एवं मुराम नत्वा अनगारतां प्रवजितुं शक्नुयान्नवेति प्रश्ने नग Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया अन्निधानराजेन्डः। अंतकिरिया वानाह नायमर्थः समर्थः तिरिश्चां नवस्वभावतः तथारूपप- गोयमा! एवं बुच्चइ अत्यंगतिए सभेजा प्रत्येगतिए नो रिणामासंनचात अनगारताया अभावे मनः पर्यवज्ञानस्य चा- सभेजा एवं जाव वालुयप्पभापुढविनेरइएहितो तित्यगर भावः सिरू एव यथा च तिर्यक्पश्चेन्द्रियविषयं सूत्रकदम्बकमुक्तं तथा मनुष्यविषयमपि वक्तव्यं नवरं मनुष्येषु सर्वनावस लनेजा। पंकप्पभापुढविनेरइए णं भंते ! पंकप्पभानेर एहितो म्भवात् मनःपर्यवज्ञानकेवलझानसूत्रे अधिके प्रतिपादयति "जे अणंतरं नव्बाट्टित्तातित्यगर लभेज्जा? गोयमा !णो इवं भंते ! संचापजा मुंझे भवित्ता इत्यादि " सुगमं नवरं सि- णट्ठ समडे अंतकिरियं पुण करेज्जा धूमप्पनापुढविनरइए कंज्जा इत्यादि सिख्येत समस्ताणिमैश्वर्यादिसिद्धिनाक् भये णं पुच्चा? गोयमा! णो इणढे समटे विरतिं पुण लज्जा न बुध्येत् लोकालोकस्वरूपमशेषमवगच्छेत् मुच्येत् भवोपना तमाए पुच्छा ? गोयमा ! णो णटे सम8 विरयाविरतिं हककर्माभराप । किमुक्तं नवति सर्वपुःखानामन्तं कुर्यात वानमन्तरज्योतिषकवैमानिकेषु प्रतिषेधो वक्तव्यो नैरयिकस्य पुण अजेज्जा अहेसत्तमाए पुच्ग ? गोयमा! णो इण भवस्वाजाव्यानरयिकदेवभवयोग्यायुबन्धाऽसंभवात् तदेवं नै- समट्ठ सम्मत्तं पुण अनेज्जा असुरकुमारणं पुच्छा? गोयमा! रयिकादिचतुर्विंशतिदएमकक्रमेण चिन्तितं साम्प्रतमसुरकु- णो इण्ड समढे अंतकिरियं पुण करज्जा एवं निरंतरं जाव मारान् नैरयिकादिचतुर्विशतिदएमकक्रमेण चिन्तयति “ असुर आउकाइए । तेउकाइए णं भंते ! तेनकाइएहिंतो अणंतरं कुमाराणं ते" इत्यादि प्राग्वत् नवरमेते पृथिव्यवनस्पतिध्वप्युटावन्ते ईशानान्तदेवानां तेषत्पादाविरोधात् तेषु चोत्पन्ना नव्वट्टित्ता नववजेज्जा? गोयमा! कोणसमटे केवलिन केवलिप्रप्तं धर्म लभन्ते । श्रवणतया श्रवणेन्द्रियस्यानावात पप्पत्तं धम्मं लज्जा सवणयाए एवं वानकाइए वि । शर्ष सर्व नरयिकवत् । "एवं जाव थणियकुमारा ति" एवम वणस्लइकाइएणं पुच्छा? गोयमा! कोण समज अंतसुरकुमारोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमाराः पृथि किरियं पुण करेज्जा वेदियतेऽदियच उरिदिय पुच्ा ? वाकायिका नैरयिकेषु च प्रतिषिध्यन्ते तेषां विशिष्टमनायासम्नवतस्तीवसंक्लेशविशुद्धाभ्यवसायानावात् । शेषेषु तु स गोयमा ! णो णटे समढे मणपज्जवनाणं उप्पामेजा पं. र्येष्वपि स्थानेषु चस्पद्यन्ते तद्योग्याध्यवसायस्थानसम्भवात् ।। चिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सवाणमंतरजोइसिएणं पुच्चा? तत्रापि च तिर्यपञ्चेम्ब्येिषु च नैरयिकवद्वक्तव्यमेवमका- गोयमा ! णो णट्ठ समढे अतकिरियाण करज्जा । सोयिकवनस्पतिकायिकाश्च वक्तव्याः तेजस्कायिका वायुकायिका हम्मदेवेणं नंते ! अणं तरं चश्त्ता तित्थगरत्तं लज्जा ? श्च मनुष्यष्वपि प्रतिषेधनीयास्तेषामानन्तर्येण मनुष्यवृत्पादसंनयात असम्नवश्च क्अिष्टपरिणामतया मनुष्यगतिमनुष्यानु गोयमा ! अत्थेगतिए लज्जा अत्यंगतिए ना सज्जा पूर्वीमनुष्यायुर्वन्धासम्भवात् । तिर्यपञ्चेन्द्रियेषत्पन्नाः कव- एवं जहा रयणप्पना ढविणेरइए एवं जाव सव्वट्ठसिकसिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणतया लभ्येरन् श्रवणेन्द्रियस्य भावात् । पुन- गदेवे रयणप्पजापुढविणेरइए णं भंते ! अणं तरं नव्याहत्ता स्तां केवनिकी बोधि नावबुध्यरन् संक्लिएपरिणामत्यात् द्वित्रि चकवट्टित्तं लज्जा? गोयमा! अत्थेगतिए लज्जा - चतुरिन्छियाः पृथिवीकायिकवत् देवनैरयिकवर्जेषु शेषेषु सप्वपि स्थानेषत्पद्यन्ते नवरं पृथिवीकायिका मनुष्येष्वागता - त्थेगतिए नो लज्जा से केणटेणं भंते ! एवं बुच्च गोयन्तक्रियामपि कुयुस्ते पुनरन्तक्रियां न कुर्वन्ति तथास्वनावत्वात् मा ! जहा रयणप्पभापुढविणेरड्यतित्थगरते। सकरप्पनामनःपर्यवसानं पुनरुत्पादयेयुस्तिर्यपञ्चन्छियमनुष्याइच सर्वे- पुढविणेरइएणं भंते ! अणंतरं नव्बाट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लचपि स्थानपत्पद्यन्ते तवक्तव्यता पाठसिका। वानमन्तरज्योति- भेज्जा ? गोयमा ! णो इणटे समटे एवं जाव अहेसत्तकवैमानिका असुरकुमारवद्भावनीया गतं चतुर्थद्वारम् । (ले माए पुढविणेरइए तिरियमणुएहितो पुच्छा ? गोयमा ! झ्याविशेषणेनान्तक्रियाविचारो माकंदिक शब्द)। इदानी पञ्चमं तीर्थकरत्ववक्तव्यताम्रक्षणद्वारमन्निधित्सुराह । नोट्ठ समहे । जवणवश्वाणमंतरजोइसियवमाणिएहितो रयणप्पभापुढविनेरइए णं नंते! रयणप्पनापुढविनेरए पुच्छा ? गोयमा प्रत्येगइए लज्जा अत्येगइर नोलनेहिंतो अणतरं उबट्टित्ता तित्यगरत्तं लभेज्जा ? गोयमा ! ज्जा। एवं च बलदेवत्तं एवरं सकरापुढविणेरइए विलभेअत्यंगतिए सभेजा अत्यंगतिए नो नभेज्जा से केण्डेणं ज्जा एवं वासुदेवत्तं दोहिंतो पुढविहितो वेमाणिएहिंतो य नंते ! एवं बुच्चइ अत्थगतिए लज्जा अत्यंगतिए नो अणुत्तरोववातियवज्जेहिंतो सेसेसु णो इणटे समढे। मंसज्जा ? गोयमा ! जस्सन्नरयणप्पनापुढविनरइयस्स ति. मलियत्तं अहेसत्तमाए तेउवानवज्जेहिंतो सेणावहरयणत्थगरनामगोयाई कम्माई बचाई पुढाई कमाई पट्टवियाई तं गाहावश्रयणत्तं वयणत्तं पुरोहियरयणत्तं इत्थियरणिविट्ठाई अभिनिविहाई अभिसमन्नागयाइं उदिन्नाई ना पत्तं च एवं चेव नवरं अणुत्तरोववाश्यवज्जेहिंतो आसरउवसंताई हवांत से णं रयणप्पभापुढविनरइएहितो अणं- यणतं हत्थिरयणत्तं च रयणप्पभाओ निरंतरं जाव सहतरं उवाहिताण तित्थगरत्तं लभेज्जा जस्सन्नं रयणप्पभा. स्सारो अत्यगतिए लन्नेज्जा अत्थेगतिए नो लज्जा। चपुढविनेरइयस्स तित्थगरनामगोयाईणो बचाई जाव नो करयणत्तं चम्मरयण दारयणत्तं छत्तरयण मणिरयउदिन्नाइं उपसंताई जवंति से णं रयाप्पभापुढाविनेरइएहिं एतं असिरयणतं कागिणिरयणतं एएसिं असुरकुमारेहितो मानरं उबट्टित्ता तित्थगरत्तं नो लज्जा से तेण्टेणं | तो पारदं निरंतरंजावईमाणाश्रोसेसेहिंवो ना इण्डे समझे। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) अभिधान राजेन्द्रः अंतकिरिया एवं शर्करावाकप्राविषये अपि सूत्रे वक्तव्ये भा पङ्कप्रभा - विनैरयिकस्ततोऽनन्तरमुदृत्तः संस्तीर्थकरत्वं न लभते श्रन्तक्रियां पुनः कुर्यात् धूमापृथियं निरयिकोऽन्तक्रियामपि न करोति सर्वजिते तमः प्रनापृथिवानेकः सर्व चिरमिनि नरियर देश सप्तमधिय नरकस्तामपि देशविरति न लभते परं सम्प मात्रं लभते । असुरादयो यावद्वनस्पतिकादयोऽनन्तरमु वृत्तास्तीयकरत्वं न सनन्ते अन्तक्रियां पुनः कुर्युः । वसुदेवचरिते पुनः नागकुमारेभ्यो ऽयुता अनन्तरमैरयतस्यामया यसर्वियां चतुर्विंशतितमतीर्थकर उपदर्शिता के पलिनो तेजोवायरस अन्तक्रियामपि न कुर्वन्ति मनुष्येषु तेषामानन्तर्येणोत्पादाभावादपि च ते तिर्यक्कृत्पमाः केवलिक धर्मपणतया मेरोधमा वनस्पतिकाधिकाद्यनन्तरमुतास्तीकरावं न सभन्ते अन्त कियां पुनः कुर्युः। चतुरिन्द्रय अनन्तरमुतास्तामपि न कुर्वन्ति मन:पर्ययज्ञानं पुनरादयेपिचेन्द्रियमनुष्यव्य न्तरज्योतिष्का अनन्तरमुद्वृत्तास्तीर्थंकरत्वं न लभन्ते श्रन्तक्रियां पुनः कुर्युः । सौधर्मादयः सर्वार्थसिद्धपर्यवसाना नैरथि - कवकत्र्याः । गतं तीर्थंकरद्वारम् । संप्रति चक्रवर्तित्वादीनि द्वारारायुध्यन्ते तत्रत्वं जनानैरयिक भवन पतियन्तर ज्योतिष्क वैमानिकेयो न शेवेभ्यः बलदेववासुदेवत्वे शर्करासोऽपि वासुदेवे वैमानिके ज्योऽनुत्तरीतयज्य मा एकलि कत्वमधः सप्तमतेजोवायुवर्जेज्यः शेषेज्यः सर्वज्योऽपि स्थानेयः सेनापतिना वाकिरत्नत्वं पुरोहितरत्नार्थ स्त्रीरत्नत्वमधः सप्तम पृथिवी तेजोवाय्वनुत्तरोपपन्नदेववर्जेज्यः शेषेभ्वः स्थानेज्यः श्रश्वरत्नत्वं हस्तिरत्नत्वं रत्नप्रनाया श्रारभ्य निरन्तरं यादासहस्राराचकरस्नत्यं उधर करनायमसि रनत्वं मणिरत्नत्वं काकिणिरत्नत्वं चासुरकुमारादारज्य नि. रन्तरं यावदीशानात् । सर्वत्र विधिवाक्यम् । " श्रत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए नो लभेज्जा " इति वक्तव्यं प्रतिषेधे " नां इणठे सम" इति तदेवमुक्तानि द्वाराणि प्र० १० पद तीर्थकृतामन्तक्रिया तित्थयर शब्दे ) उग्रादयोऽस्मिन् धर्मेऽवगाहमाना अन्तक्रियां कुर्वन्ति । जे इमे भंते! उग्गा जोगा राइसा इक्खागा शाया कोरवा एए णं असि धम्मे प्रगाढइ प्रोगाहइत्ता अडविहं कम्मरयम पनाति पनाहिंतिचा तभी पच्छा सिम्झ ति जावत करेंति हंवा गोपमा ! जे इजे उग्गा भोगा चैत्रजातं कति अथेगया अरे देक्लोएमु देबचाए उपचारो जर्वति । (असि धम्मेत्ति) अस्मिनैग्रन्थ्ये धर्मे इति भ०२० श०८० । [ जीवः सदसदमितमेजनादिभावं परिणमन्नान्तक्रियां करोतीति मंगपुत्त शब्दे ] केनियां कुन्तीति कुराह येते! सेतीत सामयं समयं केवलेसंजमेां केवलेणं संवरणं केवलेणं वंभरवासेां केपहिंपणमा सिझना सध्वदुक्खातं करिं ? गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठे से केलट्ठे जंते ! एवं करिंतु गोवमा जे थं बुच्च तं चैव जातं ? ! के अंतकिरिया तकरा वा अंतिमसरी रिया वा सव्वखाणमंत करिं वा करिति वा करिति वाच्ये ते उप्पन्ननादंसणधरा रहा जिणे केवली वित्ता तो पच्छा सिज्यंति मुञ्चंति परिनिव्वायंति जाव सव्वक्खाणमंतं करिति करिस्मंति वा से नेणं गोषमा ! जान सम्यक्खाणमंतं करिमु पशुसे वि एवं चैत्र नवरं सिज्छंति जाणियव्वा प्रणागए वि एवं चैव नवरं सिकस्यति प्राणियच्या जहा उमत्यो ता होहिओ वि तहा परमोहि यो वि तिन्नि तिन्नि आलावगा भाणियन्ना ॥ 66 इह छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयो न पुनरके व त्रिमात्रमुत्तराधादिति (केवलेांति) असहायेन शुरून वा परिपूर्णेन वा असाधारणेन वा यदाह "केवलमेगं सुरूं सगलमसाधारणमतं " ( संजमेति) पृथिव्यादि लरूपेण (संचरेति इन्द्रियकपायनिरोधेन "सि" - त्यादीच बहुवचनं प्रदति त गीतमेनानेनानिप्रायेण पृएं बहुत उपशान्तमदाद्यवस्थायां सर्वविका संयमायत पि भवन्ति संयमादिसाध्या य सिद्धिरितिसादास्थस्यापि स्यादिति ( अंतकरेति भयान्तकारिणस्तं च दीतर कालापेयाऽपि भवन्तीत्यत श्राह ( अंतिमसरियावत्त) अन्तिम शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिमशरिकाश्रमात्यर्थ वादी समुये सम्यक्ाणमंत कर "हाद"सि सित" स्याद्यपि द्रव्य सिद्ध्यावि दुखान्तकरणस्येति (उपजाति) उत्पज्ञानदर्शने धारयन्ति ये ते तथा त्वनादिसंसिद्धज्ञाना अत एव (श्ररइति ) पुजा (जिला ) रागादिजेतारस्ते स्थापि जवन्तीत्यत आह । केवझीति सर्वज्ञाः 'सिज्ऊंती' त्यादिषु चतुर्षु पदेषु वर्त्तमाननिर्देशस्य शेषोपलकृष्णा "सिसिति सिज्जिस्संति" इत्येवमतीतादिनिर्देशो दृव्यः । अत एव "सवडुक्खाण " मित्यादौ पञ्चमपदेऽसौ विहित इति । "जहा बलमत्यो" इत्यादि भावना "आदोडियां नंत सासयमित्यादि" दण्डकत्रयं तत्र अधः परमावधेरधस्ताद्योऽनधिः सोऽघोऽवधिस्तेन यो व्यवहरत्यसावाधावधिकः परिमित परमाही हिति) परम :1 स परमाधोवधिकः प्राकृतत्वाश्च व्यत्ययनिर्देशः (परमोहिश्रांत्ति ) कचित्पाठो व्यक्तश्च स च समस्तरुपिऽव्या संख्यातत्रोकमात्रालोकखरामा संख्यातावसर्पिणी विषयायधिज्ञानः (तिथिप्रायगति) कालत्रयवेदिनः केवलमध्ये काः विशेषस्तु सूत्रोपयति । द केवली ते माणूसे तीतम 1 सास समर्थ जान करें ? देता गोयमा ! सिज्यंसु जाव तं करिंसु एते तिनि आलावा जाणियव्वा । उमत्थस्म जहा नवरं सिम्सति सिन्झिस्संति से अं तीनम सास समयं पप्पनं वा सास समयं प्रणा गयमा सास समर्थ जे केतकरावा अंतिमस रीरिया वा सव्वक्खाणमंतं करिंसु वा करिंति वा करिसंनि वा सच्चे ते सप्पाना साध रहा जिसे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतकिरिया अभिधानराजेन्दः। अंतगमदसा केवली जवित्ता तो पच्छा सिझति जाव अंतं करि- संपत्तणं सत्तमस्म अंगस्स उवामगसाणं अयमढे पन्नने । मंति वा हंता गोयमा ! तीतमणतं सासयं जाव अंतं अहमस्म णं नंते ! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं के करिस्संति वा से नूर्ण नंते ! नप्पन्ननाणदंसाणधरे अरहा अट्टे पालने एवं खलु जंब ! समागेरणं जाव मंपने अट्ठमस्म जिणे केवली अलमत्यु त्ति वत्तव्वंसिया हंता गोयमा ! अंगस्स अंतगम्हसाणं अट्ठ वग्गा पम्पत्ता जति णं नंते ! उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे कवेली अनमत्य तिव- समणेणं ३ जाव संपत्तेणं अघमम्स अंगस्स अंतगमदमाणं तवंमिया सेवं ते भंतेत्ति ।। अट्ठ वग्गा पहाता पदमस्स एणं भंते वग्गरम अंतगडदसाणं "से नूण" मित्यादिषु कालत्रयानिर्देशो वाच्य एवेति (अलम- ममण ३ जाव संपत्तेण कति अजयणा परमत्ता एवं त्थुत्ति) अनमस्तु पर्याप्तं भवतु नातः परं किञ्चिबानान्तरं प्रा खलु जबू! समणणं जाव संपत्तणं अच्मस्स अंगस्स अंतवक्तव्यमस्तीति पतद्वक्तव्यं स्याद् भवेत्सत्यत्वादस्येति ज. १ श.४१० । विनाशे, "दुक्खाणमंतं करिय काही अचिरेण गम्दसाणं पढमस्स वग्गस्स दम अजायणा पामत्ता नं कालेण" ध०२ अधिअन्तो जवान्तस्तस्य क्रियाऽन्तक्रिया जहा [अन्त० १ वर्ग०] नमी य मंगे सोमिझे, रामगुत्ते भवच्छेद इत्यर्थस्तकेतुर्याऽऽराधना शैलेशीरूपा सा अन्तक्रिये- सुदंसणे । जमाली य जगाली य, किं कमे पसएश्य ॥१|| त्युपचारात् केवस्याराधनाभेदे, पषा च कायिकज्ञानिकेवभिना फाले अभट्टपुत्ते य, एमेते दस आहिया । स्था०१०ठा। मेव नवति स्था० २ ग०। अन्तगमेत्यादि इह चाौ वर्गास्तत्र प्रथमवर्ग दशाध्यरागद्वेषतये पवान्तक्रिया नवितुं शक्नोति । पनानि तानि चामूनि (नमीत्यादि) साई श्लोकमेतानि से नृणं नंते ! कंखापदोसे खाणे समण णिगंये अंत- | च नमीत्यादिकान्यन्तकृत्साधुनामानि अन्तकृदशाङ्गप्रथमवर्ग कर भवइ अंतिमसरीरिए वा बहुमोहे नि य णं पुचि विह मध्ययनसंग्रहे नोपलज्यन्ते यतस्तत्रानिधीयते " गोयम! स. मुद्दसागर, गंभीरे चेव होश थिमिए य । अयले कंपिवे खमुभरित्ता अह पच्छा, संचुमे कानं करेइ तओ पच्ला सिक क्खोन पसणई वित्ति ॥१॥" ततो वाचनान्तरापेकाणीमाइ वुजा मुञ्चइ जाव अंतं करे ? हंता गोयमा! खापदो नीति सम्भावयामो न च जन्मान्तरनामापेक्यैतानि भविष्यन्तीस खाणे जाव अंतं करेइ भ० १० उ०। ति वाच्यं जन्मान्तराणां तत्रानभिधीयमानत्वादिति ॥ (जीबो यावदेजते तावनो अन्तक्रियां कर्तुं शक्रोतीतिइरियाव द्वितीये वर्गे इमानि । हिया शब्द ) ( प्राचार्य उपाध्यायो वाऽमान्या गणसंग्रहं कुर्वन् अक्खोमि १ सागरे खलु, २ समुद्द ३ हिमवंत ४ अचकतिनिभवैः सिद्ध्यति इति गणसंगहकर शब्दे ) लनामे य ५। धरणे य ६ पूरणे य, ७ अनिचंदे चेव भंतकुल-अन्त्यकुल-न० शूकुले, कल्प० । प्रा०म० द्वि०। अट्ठमए । भंतकवरिया-अन्त्याकरिका-स्त्री० ब्राम्या लिपेनवमे लेख्य तृतीये वगें। विधाने, प्रज्ञा०१ पद । त्रिषष्टितमकलायात्र. कल्प० । जाते गं भंते ! तच्चस्म उक्खेवो एवं खल्ल जंब अट्ठअंतग-अन्तक-त्रि० विनाशकारिण, सूम० १ ० ए ० । मस्स अंगस्म तच्चस्स वग्गस्स तेरस अज्जयणा पन्नत्ता अन्तग-त्रि० अन्तं गच्छत्यन्तगः। दुष्परित्यजे, “चिपाण अंतर्ग तंजहा अणीयससे १ अणतसेणेश्ाजियसेणे ३ अणिहसो यं णिरवेक्यो परिवए" सूत्र० १ श्रु० ए ०ा अन्तयति मन्तं करोति अन्त णिच् एवुन् मृत्यौ, वाच०। यरोसो देवसेणे ५ सत्तुसेणे ६ सारणे ७ गए समूह अंतगड-अन्तकृत(त)-पुं० अन्तो विनाशः स च कर्मणस्तत्फ एदुम्मुहे १० कुवए ११ दारुए १५ प्रणाहिट्ठा १३ ॥ सस्य वा संसारस्य कृतो यैस्तेऽन्तकृतातीर्थकरादिषु, स.। चतुर्य बनें। स्था०। पा० अन्ततं०। सूत्र। मनुकल्प। जति णं नंते ! समणेणं जाव संपत्तणं चउत्यस्स वग्गस्स अंतगमदसा-अन्तकृद (त)दशा-स्त्री० बहु० अन्तो जवान्तः | अंतगमदसाणं जाव संपत्तेणं के अटे पक्षाने ? एवं खल कृतो विहितो यैस्तेऽन्तकृतास्तक्तव्यता प्रतिवद्धा दशा दशा- जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स वग्गस्स दस अज्कशयनरूपा ग्रन्थपरुतय इति अन्तकृद (त) दशा इह चारी यणा पम्पत्ता तंजहा जाली १ मयानी उवयाली,३ पूरिधर्गा भवन्ति तत्र प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तानि शम्नव्युत्पतेनिमित्तीकृत्यान्तकद् (त) दशाः । अष्टमेने, अन्तास्था०।। ससेण य४ वारिसेणे य ५ । पज्जएण६ संवे७ अनिरुके, स० । पा० । नं० । अनु। सच्चणेमी य ए दढनेमी य १०॥ प्रासां वर्गाऽध्ययनानि । पञ्चमे चगें। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्या पुस- जति भंते ! समाणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स बग्गस्म भद्दे चेतिए वनसंवमओ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज- अंतगादसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पएणते एवं मुहम्मे समोसरिते परिसा णिग्गया जाव पडिग्गता। तेणं का- खलु जंबू समणणं जाव संपत्तणं पंचमस्स बग्गस्स दस आजकलेणं तेणं समएणं अज्जमुकम्मे अंतेवासी अज्जजंबू जाव यणा पत्ता पउमावतीए गोरीगंधारी लक्खणा सुसीमा पज्जुवासति एवं बयासी जति णं नंते ! समणणं ३ जाव या जंबुवती सत्तलामा य, रुप्पिणी मूलसिरी मूबदत्ता वि। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) अंतगडदसा अभिधानराजेन्द्रः। अंतगय षष्ठे वगें। ओ, संखिजानो संगहणीओ, मंखिज्जाओ पमिवसीओ, जति णं त उहस्स नकखेवतोवरं सोलस अकयणा | से णं अंगअट्ठयाए अध्मे अंगे एगे सुयक्खंधे अट्ठ उद्देसणकापपत्ता तंजहा " मकायी? किंकमए चेव २ मोग्गरपा ला अदृ समुद्देसणकाला, संखिज्जा पयसहस्सा, पयग्गेणं णी य ३ कासव ४ खेमती एद्वितवरे चेय ६ केनासे ७/ संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अर्णता पज्जवा, परित्ता हरिचंदण वारत ए सुदंसणे १० पुएणजद्दे ११ तह तसा, अणंता थावरा, सासयकडनिवकनिकाइया जिणप. मुमगन १२ मुपा १३ मोहति १४ मुत्ते १५ अमक्खे पत्ता भावा आपविज्जत्ति पनबिज्जति परूविज्जतिदंसि१६ अजायणेण तु सोलसयं ॥ ३॥ ज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति । से एवं आया एवं सप्तमे यगें। नाया एवं विनाया एवं चरणकरणपरूवणा प्रायविज्जड़ जति णं नंते ! समणेणं सत्तमस्स वग्गस्स नक्खेवतो जाव सेत्तं अंतगम्दसाओ ॥ ७॥ तेरस अज्जयणा पमत्ता तंजहा "नंदा१तह नंदवतीरनंदत्त तथा प्राप्तानाञ्च संयमोत्तमं सर्वविरतिजितपरीषहाणाश्चतुर्विध२३ नंदिसेणिया४ चेवामरुतापसुमरुता६ महामरुता अमरुदेवा कर्मक्षये सति यथा केवबस्य ज्ञानादेर्लाभः पर्यायः प्रवज्यायाः न्य अट्ठमी भद्दा एमुनदाय१०सुजया११ सुमणाइया १२ लकणो यावाँश्च यावद्वर्षादिप्रमाणो यथा येन तपोविशेषश्रवयदिप्मा १३ य बोचव्या सेणियनजाण नामानि ५ णादिना प्रकारेण पालितो मुनिभिः पादपोपगमश्च पादयोषगमाअएमे वगें। निधानमनशनं प्रतिपनों वो मुनिर्यत्र शत्रुञ्जयपर्वतादौ यावन्ति च भक्तानि भोजनानि दयित्वा अनशनिनां हि प्रतिदिनं भक्तद्धसमणणं जगवया महावीरेणं जाव अहमस्स बग्गस्स यच्छेदो भवति अन्तकृतो मुनिवरी जात इति शेषः । तमोरजनक्खेवओ जाव नवरं दस अज्जयणा पमना तंजहा ओधविप्रमुक्त एवं च सर्वेऽपि केत्रकामादिविशेषिता मुनयो मो"काली मुकाली २ महा-कानी३ कएहा ४ सुकएहा ६ य कसुखमनुत्तरञ्च प्राप्ता प्राण्यायन्त इति क्रियायोगः । एते - न्ये "चेत्यादि" प्राग्वत् नवरं (दस अज्झयणत्ति) प्रथमवर्गावीरकएहा य ७ बोछन्ना समकएहा ८ तहेव य । पउमसे पेक्वयैव घटन्ते नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात यश्चेह पठ्यते णकएहानवमी दसमी महासेणकएहा य ।। "सत्त वग्गत्ति" तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्कया यतोऽत्र सर्वेऽप्यष्टसर्वसंग्रहेण। वर्मा नन्द्यामपि तथा पठितत्वात्तवृत्तिश्चयम् (अट्ठवग्गत्ति) अत्र अंतगमदसाणं अट्ठमस्स अंगस्स एगो मुगक्खंधो अहव- वर्ग:समूहः स चान्तकृतानामध्ययनानांवा सर्वाणि चैकर्मागताग्गा अट्ठसु.येव दिवसेसु नदिसंति तत्य पढमविईयवग्गे दस नि युगपदुद्दिश्यन्ते ततो भणितं"अटु नहेसणकाना" इत्यादि दस दसगा तइयवग्गे तेरस उद्देसगा चउत्थपंचमनग्गे दस शह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्यानिप्रायमवग च्छामः । तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति तानि दस उद्देसगा उच्वग्गे सोलस उद्देसगा सत्तमनग्गे तेरस उद्दे च किन त्रयोविंशतिबकाणि चत्वारि च सहस्राणीति (असगा अमनग्गे दस उद्देसगा सेसं जहानायाधम्मकहाए ।। | ध्वम्गत्ति) वर्गः समूहः स चान्तकृतामध्ययनानां बेदितविषयोऽन्तकृशानाम् । ज्यः सर्वाणि चाध्ययनानि धर्मावान्तर्गतानि युगपदिश्यन्ते से किं तं अंतगम्दसायो अंतगमदसासु f अंतगमाणं प्रत आह अष्टौ उद्देशनकालाः अथै समुद्देशनकाझाः संख्येया. णगराई उजाणचेश्यवणराया अम्मापयरोसमोसरणध नि पदसहस्राणि पदाग्रेण च तानि च किन प्रयोविंशतिःकाः चत्वारःसहस्राःशेषं पारसिद्धं यावनिगमनम नं०।"दस रहेम्मा धम्मकहा इह लोअपरसोइअ शक्लिविससा भोगप सणकाला दस समुहसणकाला" स० रिच या पब्वज्जाप्रो सुर्यपरिगाहा तवोत्रहाणाई पाममायो अंतगत (य)-अन्तगत-न० अन्तशम्दः यर्यन्तवाची यथा बहुविहानो खमा अजवं महवं च सोरं च सच्चसहियं बनान्ते इत्यत्र ततश्चान्ते पर्यन्ते गतं व्यवस्थितमन्तगतम । - सत्तरसविहो य संजमो नत्तमच बंभ आकिंचिणया तवो. नुगामिकाऽवधिनेदे, शहार्थत्रयव्याख्या अन्ते गतमात्मप्रदेशानां किरियाओ समिश्गुस्सीओ चेव । वह अप्पमायजोगो सज्का- पर्यन्तेस्थितमन्तगतमध्यमत्र भावनाइहावधिरुत्पद्यमानः कोऽ यकाणेण य उत्तमाणं दोएह पि लक्खणाई पत्ताण य सं पि स्पर्ककरूपतयोत्पद्यते स्पर्द्धकं नामावधिकानप्रभाया गवाक जालादिघारविनिर्गतप्रदीपप्रजाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविममुत्तमं जियपरीसहाणं चनबिहकम्मक्खयम्मि जहा शेषः । तथा चाह जिनजागणिकमाश्रमणः स्वोपकनायटीकेवास्स संभो परिया उ जत्तिो य जह पालियो कायां स्पर्ककोऽयमवधिर्विच्छेदविशेष इति तानि चैकजीवस्य मुणीहिं पावोवगनो य जहिं जत्तियाणि जत्साणि अइ- संख्येयान्यसंख्येयानि वा जवन्ति । यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमता अंतगमे मुणिवरो तमरयोघविमुक्को मोक्खमुहमणंतरं । पीठिकायाम् "फडा वि असंखजे , संखेज्जयावि एगजीवच पत्ता एए अन्ने य एवमाश्त्यवित्यरेणं परूवे । सम० । स्सेति" तानि च विचित्ररूपाणि तथाहि कानिचित्पर्यन्तव तिवात्मप्रदेशघूत्पद्यते तत्रापि कानिचित पुरतः कानिचिअंतगमदसाणं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुोगदारा, त्पृष्ठतः कानिचिदधोनागे कानिचिदुपरितनभागे कानिमंखिजा ढा, संखि जासिमझोगा, संखिजाओ निज्जुनी- चिन्मध्यवर्तिवात्मप्रदेशेष्यवधिज्ञानमुपजायते तदात्मनोऽन्ते Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) अंतगडदसा अभिधानराजेन्द्रः । अंतद्धाणपिंड पर्यन्ते स्थितमिति कृत्या अन्तगतमित्युच्यते तैरेव पर्यन्तवर्ति- गुदम् प्रगुदन् हस्तस्थितं दएमाप्राद्यवस्थितं या क्रमेण स्वनिरात्मप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण मानेन झानानाशेषैरिति । अथ-| गत्यनुसारतः प्रेरयन् प्रेरयन् गच्छेत् यायात् एष दृष्टान्तः । वा औदारिकशरीरस्य अन्ते गतं स्थितमन्तगतं कयानिदेकदि- उपनयस्तु स्वयमेव जावनीयः । तत उपसंहरति (सत्तं पुरो शोपमम्नात् इदमपि स्पर्द्धकरूपमवधिज्ञानम् । अथवा सर्वेषा. अंतगयं) से शम्दः प्रतिवचनोपसंहारदर्शने तदेतत् पुरतोऽन्तमप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमनावेऽपि श्रीदारिकशरीरान्त क- गतम्य मत्र भावना। यथा स पूरुषः उल्कादिभिः पुरत याऽपि दिशा यद्वशादुपलनते तदप्यन्तगतम् । आह यदि सर्वा- एव पश्यति नान्यत्र एवं येनावधिज्ञानेन तथाविधक्षयोपशमन्नामप्रदेशानां कयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति? उच्यते ए- यतः पुरतः एव पश्यति नान्यत्र तदवधिज्ञानं पुरतोऽन्तगतमकदिशव क्षयोपशमस्य संभवात् विचित्रो हि वयोपशमस्ततः | निधीयते । एवं मार्गतोऽन्तगतं पावतोऽन्तगतसूत्रं नावनीयं न. सर्वेगमप्यात्मप्रदेशानामित्थं नूत एव स्तसामग्रीवशात् क्षयो- वरम (अगुकमाणे अणुकद्देमाणेसि) हस्तगतं दरामग्रादिस्थित पशमः संवृत्तो यदौदारिकशरीरमपेक्ष्य कयाचिद्विवक्कितया ए. वा मनु पश्चात् कर्षन अनुकर्षन् पृष्ठतः पश्चात कृत्वा समाकर्षन् कदिशा पश्यतीति उक्तं च चुणौँ । “ोरानियसरीरंते हियं ग- समाकर्षनित्यर्थः। तथा (पासाओ का परिकमाणे परिकमायंति पगटुं तं चायप्पएसफडगावहिएगदिसोवलंभो य अंत- त्ति) पार्श्वतो दक्षिणपावतोऽथवा वामपार्श्वतो यद्वा द्वयोगहुं ओहिनाणं जम्म । अहवा सब्बायप्परासविसुखसुवि प्रो- रपि पार्श्वया उल्कादिकं हस्तस्थितं वा दरामाप्रादिस्थितं वा प. राजियसरीरगते एगदिसि पासणागयंति अंतगयं भन्म " तृ- रिकर्षन् परिकर्षन् पार्श्वभागे कृत्वा समापन समाकर्षनित्यर्थः। तीयोऽर्थः एकदिग्भाविनाऽवधिज्ञानेन यद्योतितं केत्र तस्यां नं० १९ पत्र। (मध्यगतादस्य विशेषः प्राणुगामिय शब्द) वर्तते तदवधिज्ञानमवधिज्ञानवतस्तदन्ते वर्तमानत्वात्ततोऽन्ते अन्त्रगत-त्रि० मन्त्रान्तर्वतिनि, सूत्र० २०१० एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्वन्ते व्यवस्थितमन्तगतम्। अंतग्ग-अन्तर्गत-त्रि तोऽन्तरि ८१॥६० इति सूत्रस्य क्वातनेदा यथा। चित्कस्थानान्तः शन्दे तस्यात एवम् । मभ्यगते, प्रा० । अध्यसे कितं अंतगयं अंतगयं तिविहं पम्पत्तं तंजहा पुरा अंतगयं | मग्गयो अंतगयं पासओ अंतगयं । से किं तं पुरो अं अंतचरय-प्रान्तचरक-पुं० पार्श्वचारिणि, भनिग्रहविशेषधारतगयं ? पुरो अंतगयं से जहानामए केइ पुरिसे नकं वा के भिवाके, स्था० ५ ० । यो दि अभिग्रहविशेषारक्षेत्रान्तरेषु मुग्लियं वा अन्नातं वा मणिं वा पश्वं वा जोई वा रो... चरति स्था०४ गग। का पणो माणा पणोलेमाणा गच्चिज्जा सेत्तं पुरओ अ-. अंतचारिम आन्तचारिन्-पुं० अन्तेन तुक्तावशेषेण बद्वादिप्र. | कृष्टेन चरन्तीति । मभिप्रहविशेषधारके भिकाके, स्था० १० तगयं । से किं तं मग्गो अंतगयं मग्गो अंतगय से जहा-| ठा० । सूत्र। नामए केइ पुरिसे उकं वा चलियं वा अलावा माण वा अंतजीवि (न्)-प्रान्तजीविन्-पु० प्रान्तेन जीवितुं शीलमाजपईवं वा जोई वा मग्गओ काउं अणकढमाणे अणुकदमाण माऽपि यस्य स तथा 1 मनिप्रदविशेषधारके भिक्की, स्था०५ गचिज्जा सेत्तं मग्गओ अंतगयं । से किं तं पासको अंत- ग०। सूत्र। गयं पासो अंतगयं से जहानामए केइ पुरिसे उकं वा चम् अंतट्ठ-अन्तःस्थ-मुं० अन्तः स्पशॉप्मणोवर्णयोमध्ये तिष्ठतीति लियं वा अलायं वा मणि वा पईवं वा जोइंवा पास भोका। स्था-क्वि । यरसवास्येषु वर्णेषु, ते दिकाविमावसानस्पर्शाना शपसहरूपोष्मणां च मध्यस्थाः। वा विसर्गलोपेन्सिस्था अपि परिकढमाणे परिकढेमाणे गचिज्जा सेत्त पासो अंतगयं | मध्यस्थितमात्रे, त्रि० वाच । सेत्तं अंतगयं ॥ अंतदाण-अन्तर्धान-न अन्तर्-घा०-म्युट् । तिरोधाने, अथ किं तत् अन्तगतम् अन्तगतं त्रिविधं त्रिप्रकार प्राप्त तद्य- शक्तिस्तम्ने तिरोधानं, कायरूपस्य संयमाद । था पुरतोऽन्तगतमित्यादि । तत्र पुरतोऽवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्ष कायः शरीरं तस्यरूपं चकु यो गुणस्तस्य मास्त्यस्मिन्काबा भप्रभागे अन्तगतं पुरतोऽन्तगतम् तथा मार्गतः पृष्ठतोऽन्त ये रूपमिति संयमापस्य चर्गाद्यत्वरूपायाः शाक्त स्तम्मे, गतं मार्गतोऽन्तगम् । तथा पार्श्वतो स्योः पार्श्वयोरेकतरपार्श्वतो नावनावशात् प्रतिबन्धे सति तिरोधानं जवति चतुषः प्रकाश पाऽन्तगतं पार्श्वतोऽन्तगतम् । अथ किं तत्पुरतोऽन्तगतम्(सेज स्पस्य सात्विकस्य धर्मस्य तहणव्यापारानावात्तथा संयमइत्यादि) स विवक्तितो यथा नाम कश्चित्पुरुषः अत्र सर्मेबपि पान् योगी न केनचिद् दृश्यत इत्यर्थः। एवं शम्दादितिरोधानमपदेषु एकारान्तत्वमतः सौ पुंसि इमानि मागधिकजापालकणा पिकेयम् । तदुक्तं कायरूपसंयमात ग्राह्यशक्तिस्तम्मे चक्षुषः सर्वमधीहिप्रवचनमर्समागधिकन्नाधात्मकम् । अर्धमागधिकना प्रकाशसंयोगेऽन्तर्धानम् । एतेन शब्दाचत नमुक्तमिति द्वा० पया तीर्थकृतां देशनाप्रवृत्तेः । ततः प्रायः सर्वत्रापि मागधिक २६वाअजनविद्यादिनाऽदृश्यीभवने,नि०पू०१०ाम्यवधान भाषासवणमनुसरणीयम् । (नकं घोत्ति) नस्का दीपिका पा. च-व्य०२०। शम्मः सोऽपि विकल्पार्थः । चटुनी वा चटुली पर्यन्तज्वलित- अंतकाणपिंग-अन्तर्धानपिएम-पुं० पास्मानमन्तर्हितं करवा तृणपूलिका अज्ञातं वा अमातमुस्मुकंच अपनागे ज्वलत्काष्ठमि- गृह्यमाणे पिएके, " अप्पाणं अंतरहितं करेत्ता जो पिंसं गेण्डर स्यर्थः । मणि वा मणिः प्रतीतः ज्योतिर्वा ज्योतिः स एवाचाधा- सो अंतद्धाणपिसो जम्पति जो अंतखाणपिंडं तुंजाजंतं वा रोज्वलदम्निः । प्राइच चूर्णिकृत् "जोश त्ति मगाइपिओ साज" आझादयोऽत्र दोषाश्चतुर्बघु प्रायश्चित्सम । नि० चूत अगमी जसंतो इति" प्रदीपं वा प्रदीपः प्रतीतः पुरतोऽग्रतो २ उ० । अशिवादिकारणेऽन्तर्धानपिएममुत्पादयेत् (अत्रोदहाबा हस्ते दण्डादौ या कृत्वा (पणोद्धमा पोखेमाणेति) | रणं युग्म शब्दे ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतहाणी अनिधानराजेन्डः । अंतर अतंका (णिया) णी-अन्तर्धानिका-स्त्री० अन्तर्धानकारिणि [२४] लवणसमुद्रचरमान्तयोरन्तरम् । विद्याविशेष, सूत्र. २ श्रु०२ अ० । [२५] लवणसमुद्रद्वाराणामन्तरम् । अंतद्धि-अन्तर्षि-पुं० व्यवधाने, हैम० । [२६] वडवामुखादीनामधस्तनाश्चरमान्ताद्रत्नप्रभाया प्रध स्तनचरमान्बस्यान्तरम् । अंतघाय-अन्तर्धाजत-त्रि० नष्टे, “ नट्ठत्ति वा विगपत्ति वा [२७] विमानकल्पानामन्तरम् । अंतकाभूतत्ति वा एगा" प्रा० चू० १ अ॥ [२८] श्राहारमाश्रित्य जीवानामन्तरं प्रतिपाद्य तस्मिन्नेव सूअंतप्पाअ-अन्तःपात-पु० कगमतदपशषस:क-पामूर्ध्व लु. त्रे सयोगिभवस्थकेवल्यनाहारकस्य चान्तरम् । क । २ । ७७ इति ककारादूर्ध्वस्थस्य जीतामूलीयस्य सुक । [२६] एकेन्द्रियाद्याश्रित्य कालतोऽन्तरम् । मध्ये यतने, प्रा०। [३०] कषायमाश्रित्यान्तरं प्रतिपाद्य कायमाश्रित्यान्तरं निअंतन्नाव-अन्तर्भाव-पुं० प्रवेशे, विशेष। रूपितम् । अंतर-अन्तर-न० मध्ये, प्राचा०१श्रु०६अ विशेषे, ध०१ अधि० [३१] गतिमाश्रित्यान्तरं प्रतिपाद्य ज्ञानमाश्रित्य जीवानामअवधौ, परिधानांके, अन्तर्धाने, नेदे, परस्परवैलक्षण्यम्पे न्तरमभिहितम् । विशेषे, तादर्थ्य, निके, आत्मीये, विनार्थे, बहिरर्थे, सरश, [३२] असस्थावरनोत्रसस्थावराणामन्तरम् । वाच । सूरविशेषे, पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्यद् व्यपदिश्यते [३३] समग्दृष्टिकमाश्रित्यान्तरम् । ज्ञा० १० व्यवधाने, जं१ वक० । स्था० । अन्तं राति द [३४] पर्याप्तिमाश्रित्यान्तरमभिधाय कायादिपरतिानामन्तदाति रा-क- वि० । तं० । अवकाश, भ०७ श० ८ रमभिहितम्। उ०प्रव० । सूत्र० । नि। [३५] पुलमाश्रित्यान्तरमुक्त्वा प्रथमसमयाऽप्रथमसमय[१] अन्तरस्य नेदाः। विशेषणेनैकेन्द्रियाणां नैरयिकादीनां चान्तरम् । [२] द्वीपपर्वतानां परस्परं व्यवधाने वक्तव्ये ईषत्प्रारभारायाः [३६] बादरसूक्ष्मनोसूक्ष्मनोबादराणामन्तरम् । अलोकस्यान्तरमुक्तम् । [३७ ] सूक्ष्मस्यान्तरं प्रतिपाद्य भाषामाश्रित्य जीवानामन्तरं [३] हिमवत्कृट स्योपरितनाच्चरमान्ताद्वर्षधरपर्वतस्य स निरूपितम्। मधरणितलस्यान्तरम् । [३८] योगमाश्रित्यान्तरमुक्त्वा लेश्यामाश्रित्य जीवानाम[४] गोस्तूभस्य पौरस्त्याश्चरमाम्ताद्वषामुखस्य पाश्चात्यचर न्तरं निरूपितम्। मान्तस्यान्तरम् [३६] वेदविशिष्टजोवानामन्तरं प्रतिपाद्य मनुष्यादिभेदेन [५] जम्बूद्धाराणां परस्परमन्तरम् । वेदविशेषविशिष्टानां स्त्रीपुनपुंसकानामन्तरं प्रति[६] जम्बूद्वीपस्य पारस्त्यचरमान्तामोस्तूभस्य पाश्चात्यचर पादितम् । मान्तस्यान्तरम् ।। [४०] औदारिकादिशरीरविशिष्टानामन्तरमुक्त्वा संशावि[७] जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्याद्वेदिकान्ताद् धातकीखएमस्य पा-| शेषणेन अन्तरं निरूपितम् । श्वात्यचरमान्तस्यान्तरम् । [४१] संयमविशेषणेनान्तरमभिधाय सिद्धस्यासिशस्य चा[८] जिनान्तराणि । न्तरं निरूपितम् । [ए]ऋषभाद्वीरस्यान्तरम् । [१] अन्तरस्य भेदाः। [१०] ज्योतिप्काणां चन्द्रमएमसस्य चान्तरम् । चनबिहे अंतरे परमत्ते तं जहा कटुंतरे पम्हंतरे लोहं. [११] चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरम् । तर पत्थतरे एवामेव इथिए वा पुरिसस्म वा चनबिहे भं[१२] ताराणां परस्परमन्तरम् । तरे पलत्ते तं जहा कहतरसमाणे पम्हंतरसमाणे लोहंतरस[१३] सूर्याणां परस्परमन्तरम् । [१४] धातकीसएमस्य द्वाराणामन्तरम् । माणे पत्थंतरसमाणे ॥ [१५] नन्दनवनस्याधस्तनाचरमान्तात्सौगन्धिकस्य कापम काष्ठस्य च काष्ठस्य चेति काष्ठयोरन्तरं विशेषो रूपनिर्माणास्याधस्तनचरमान्तस्यान्तरम् । दिभिः पवमेव काष्ठाद्यन्तरमिव पदमकासरूतादि पदमणोर[१६] नरकपृथ्वीनां रत्नप्रनाकारमानामन्तरम् । न्सरं विशिष्टसौकुमारर्यादिभिर्लोहान्तरमत्यन्ताच्छेदकत्वादि[१७] रत्नप्रभादिभ्यो घनवातादेरन्तरम् । भिः प्रस्तरान्तरं पाषाणान्तरंचिन्तितार्थप्रापणादिमिरेवमेव का[१८] रत्नप्रनादीनां परस्परमन्तरम् । ष्ठाद्यन्तरवत् स्त्रिया वारूयन्तरापेक्षया पुरुषस्य वा पुरुषान्तरा[१६] निषधकूटस्योपरितनाच्छिखरतमात्समधरणितमस्या पेक्षया वाशब्दो स्त्रीपुंसयोश्चातुर्विध्यं प्रति निर्विशेषम्तरं निरूप्य निषधपर्वतस्य रत्नप्रभायाः बहुमध्यदेश ताख्यापनार्थों काष्ठान्तरेण समानं तुल्यमन्तरं विशेषो विशिभागो निरूपितः एपदवियोग्यत्वादिना पक्मान्तरसमानं वचनसुकुमारतयैव [२०] पुष्करवरद्वाराणामन्तरम् । लोहान्तरसमानं स्नेहच्छदेन परीषदादौ निर्भङ्गत्वादिभिश्च [२१] मन्दराजम्बूद्वीपाच्च गोस्तूभस्थान्तरम् । प्रस्तरान्तरसमानं चिन्तातिक्रान्तमनोरथपूरकत्वेन विशिष्टगु[२२] मन्दरामौतमस्यान्तरम् । णवत् वन्द्यपदवीयोग्यत्वादिना चेति स्था० ४।ग। [२३] मन्दराहकभासस्यान्तरं निरूप्य महाहिमवतोऽन्तरं। (२) द्वीपपवतादीनां परस्पर व्यवधान दश्यतं तत्र पत्माप्रतिपादितम् महाहिमवद्रुक्मिकस्यापीति इहैव महा भाराया अलोकस्य यथा हिमवत्सूत्रे प्रतिपादितम् । ईसिप्पन्नाराए णं भंते! पुदवीए अझोगस्स य केवइए Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) अंतर अभिधानराजेन्दः । अंतर प्रवाहाए पुच्चा, गोयमा ! देसूणं जोअणए अवाहाए शास्त्रयोश्च परिमाणे चतुर्गुण जातान्यष्टादश योजनानि (१८) अंतरं परमत्ते । ततस्तदपनयने शेषपरिधिसत्कस्यास्य योजनरूपस्य (३१६२०९) ( देसणं जोयणति) ह सिक्वलोकयोर्देशोनं योजनमन्तरमुक्त चतु गलब्धानि योजनानि एकोनाशीतिः सहस्राणि द्विम, मावश्यकेतु योजनमेव । तत्रच किञ्चिन्यनताया अवि पञ्चाशदधिकानि (७/०५२) क्रोशश्चैकः । तथा परिधिसवकणान्न विरोधो मन्तव्य इति भ०४।०८ उ०। स्कस्य कोशत्रयस्य धनुष्करण जातानि धनुषां पद सहाम्रणि [३] कुहिमवत्कूटस्योपरितनाथरमान्ताद्वर्षधर (६००० ) एष च परिधिसत्कः अष्टाविंशत्यधिकधनुःशतस्य पर्वतस्य समधरणितोऽन्तरम् । केपे जातानि धनुषामेकपटिशतान्याविंशत्यधिकानि (६१२८) चुहिमवंतकूमस्स णं उवरियाअो चरमंताओ चुसहिमवं ततोऽस्य चतुभिर्नागे अब्धानि पञ्चदश शतानि द्वात्रिंशदधि कानि (१५३२) यानि च परिधिसत्कत्रयोदश अङ्गानि (१३) तस्स वासहरपवयस्म समधरणितले एमएं उजायणसयाई तेषामपि चतुर्भिीगे अब्धानि त्रीण्यङ्गबानि ( ३) शेषे चैकअवाहाए अंतरे पम्मत्ते एवं सिहरिकूमस्स वि। स्मिन्नहले यवाः अष्टौ (८) एषु परिधिसत्कयवपञ्चक (५) के बह प्रावार्थों हिमवान् योजनशतोधूितस्तत्कूटं पञ्चशतोधि. जातात्रयोदश यवाः ( १३ ) एषां च चतुर्भािगे सम्धास्त्रयोतमिति सूत्रोक्तमन्तरम्नवतीति.स०। यवाः (३) शेषे चैकस्मिन् ये यकाः अपौ () आसु परिधि(४) गोस्तुभस्य पौरस्त्याच्चरमान्ताद् वरुवामुखस्य पाश्चा सत्कैकयूकाकेपे जाता नव (0) आसां चतुर्भिर्भागे सधे द्वे यूके त्यचरमान्तेऽन्तरम् । (२) शेषस्याल्पत्वान्न विवका । पतञ्च सर्व देशोनमकं गव्यतगाथूलस्स णं भावासपचयस्स पुरचिमिल्लाप्रो चरम मिति जातं पूर्वप्रधगम्यतेन सह देशोनमईयोजनमिति (5०ताओ वलयामुहस्स महापायानस्स पञ्चच्चिमिझे चरमंते श्वक०) "इममेवाथ द्विर्षकं सुबहमिति" अयक सत्रतो बहस एस णं बावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पसत्ते ।। माधवरुचिसत्वानुग्राहकमिति वा गाथयाऽऽह । “कट्टवार पमा [गोथूभेत्यादि ] गोस्तभस्य प्राच्यां लवणसमुषमध्यवर्तिनो। णं, अछारस जोयणाईपरिहाए । मोहियचउहिं विनत्ते, णमो वेलन्धरनागराजनिवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याञ्चरमान्तादपस- दारंतरं हो । अउणासी इसहस्सा, बावराणा अजोयणं तृणं । स्य वमवामुखस्य महापातालकलशस्य पश्चात्यश्वरमान्तो येन | दारस्स य दारस्सय, अंतरमेयं विणिहिटुं"जी०३ प्रति०।स। भवतीति गम्यते [पसणंति] एतदन्तरमध्येऽबाधया व्यवधा [६] जम्बूद्वीपस्य पौरस्यचरमान्ताद् गोस्तुभस्य नलकणमित्यर्थः द्विपश्चाशद्योजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघ पाश्चात्यचरमान्ते अन्तरमाह । टना। भावार्थस्त्वयम श्ह बवणसमुद्रं पञ्चनवतियोजनसहस्रा जंबूदीवस्स एं दीवस्स पुरथिमिला प्रो चरमंताओ, गोथूएयवगाह्य पर्यादिषु दिशु चत्वारः क्रमेण वडवामुखकेतुकयूपकेश्वराभिधाना महापातालकलशा भवन्ति । तथा जम्बूपयन्ताद् । भस्स एणं आवासपब्वयस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते एमवायाचित्वारिंशद्योजनसहस्राएयवगाह्य सहसूविष्कम्भाश्चत्वार | जीसं जोयणसहस्माई अवाहाए अंतर पामत्ते । एवं चनद्दिसिं एव वेलन्धरनागराजपर्वताः गोस्तूभादयो भवन्ति । ततश्च पि दगनासे संग्वोदयसीमे य। पश्चनवत्यास्त्रिचत्वारिंशत्यपकर्पितायां द्विपश्चाशत्सहस्राण्य-1 (पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ त्ति ) जगतीबाहापरिधेरपमृत्य न्तरं भवति स०५१ सम०। गोस्तुभस्यावासपर्वतस्य वेलन्धरनागराजसंबन्धिनः पाश्चात्य[५] जम्बूहाराणां परस्परमन्तरम् । सीमान्तश्चरमविभागो वा यावताऽन्तरेण भवति [एमति ] जंबदीवस्सणं भते! दीवस्म दारस्स य दारस्म य केवइए एतदन्तरं विचत्वारिंशत् योजनसहसाणि प्रज्ञप्तमन्तरशब्देन प्रवाहाए अंतर परमत्ते! गायमा! अनणामीई जाणम- विशेषोऽप्यभिधीयते इत्यत् आद[अबाहाएत्ति ] व्यवधानापेक्वया हस्साई बाबां च जोअणाई देसूणं च श्रद्धजोअणं दारस्स। यदन्तरं तदित्यर्थः । य दारस्म य अवाहाए अंतर पामत्ते जी । (७] जम्बूद्वीपस्य पौरस्त्याद् वेदिकान्तात् धातकीजम्बूद्वीपस्य णमिति प्राग्वत् जदन्त ! हीपस्थ संबन्धिनो नएमस्य पाश्चात्यचरमान्ते अन्तरम। द्वारस्य २ च कियत किंप्रमाणम् ( अबाहाए अंतरप्ति ) बाधा जंबूदीवस्म णं दीवस्स पुरथिमिदाओ वेइयंतामो धायपरस्परं संश्लेषतः पीमनं न बाधा अवाधा तया कियदन्तरं व्य- खंचकवालस्म पञ्चच्छिमिल्न चरमंत सत्तजायणमयसढ़वधानमित्यर्थः प्रज्ञतम् । इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु स्माई अवाहाए अंतरे परमत्त ।। वर्तमानो एस्ततस्तावच्छेदन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमवाधा तत्र लकं जम्बुद्धीपस्य द्वलवणस्य चत्वारि धातकीखरामस्थति ग्रहणम् अत्र निर्वचनं भगवानाह गौतम एकानाशीतियोजन सप्त लक्काएयन्तरं सूत्रोक्तम्भवतीति [ ७०००००]। सहस्राणि हिपश्चाशद्योजनानि देशानं चार्द्धयोजनं द्वारस्य (G) जिनान्तगणि ।। द्वारस्य चाबाधया अन्तरं प्रामम् । तथाहि जम्बूद्वीपपरिधिः प्राग जम्मा जम्मो जम्मा, सिवं सिवा जम्ममुक्खो निर्दियोजनानि तिम्रो लक्षाः पोमश सहस्राणि द्वे शते सप्त मुक्खा | विशत्यधिक ( ३११२२७) क्रोशत्रयम (३) अप्रविंशधन शतं श्य चउनिएतराई, इत्य चनत्यं तु नायव्वं २६ | सत्त० (१२८) त्रयोदशाङ्गाबानि (१३) एकमाङ्गलमिनि । अस्माद- १६५ द्वा० । द्वारचतुष्कविस्तागऽष्टादशयोजनरूपोऽपनीयते यत एकैकस्य सांप्रतं यश्चक्रवर्ती वासुदेवो वा यस्मिनजिन जिनान्तरे वाऽsद्वारस्य विम्नागे योजनानि चत्वारिचत्वारि (४) प्रतिद्वारम।। मीत् तन् प्रतिपाद्यत इत्यनेन मंबन्धन जिनान्तगगमनं तत्राद्वारशाखाद्वयचिस्तारश्च क्रोशत्रयं कांशत्रयम् । अस्मिश्च द्वारस्य पितावत् प्रसंगत पव काल तो जिनान्तराणि निर्पिश्यन्ते "ज Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अनिधानराजेन्षः। अंतर सभाओ कोमिसक्खं, ५० अजियाओ कोमिलक्खं ३०। संभव- । [११] चन्द्रसूर्याणां परस्परमन्तरमाद । प्रो कोमिक्ख १० अभिनंदणओकोडिलक्खं ९ सुमतिकोडी- चंदातो सूररस य, सूरा चंदस्स अंतरं होई । ओ उ णसहस्सेहिं ए०पउमप्पभो कोमीण नव सहस्सेहि परमाससहस्साई, तु जोयणाणं अण्णाई ॥१७॥ ए सुपासो कोमी नवसपदि ए०० चंदप्पभो कोमात्रा णती । १० पुष्पदंतो कोमीउ णवदिओसीयलो कोमीळणाऊणा १०० सूरस्स य सरस्स य, स.सिण ससिणो य अंतरं होई । सा [६६२६०००) बरिसाइंसेजंसो सागरोपमाई५४ वासुपु बही तु माणुसनगस्स, जोयणाणं सतसहस्सं ॥२०॥ जो तीससागराई ३० विमझो सागरोवमाई ४ धम्मो सागरो- मानुपनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहिःसूर्यस्य सूर्यस्य परस्परं वमा ३ कणाईपलियम्भागोर्ह ३ मंतिपनियकं कंघुप- चन्छस्य चम्स्य परस्परमन्तरं भवति योजनानां शतसहलं लियचउम्भारो ४ ऊणाच्यो वासकोडीसहस्सेण १ अरो बास- लकम । तथाहि चबान्तरिताः सूर्या-सूर्यान्तरिताश्चन्द्रा व्यवस्थिकोमीसहस्सं १ मल्ली बरिसक्नचउप्पन्ना ५४ मुणिसुय्यो ताश्चन्द्रसूर्याणां च परस्परमन्तरं पश्चाशद योजनसहस्राणि बरिसलक्वं ६ नम वरिसमक्खं ५ अरिम्नेमि वरिससहस्सं (५००००) ततश्चन्द्रस्य सूर्यस्य च परस्परमन्तरं योजनामां ८३७५० पासा बाससयाई २५० बद्धमाणो जिणंतराई" इह लक्ष भवतीति म०प्र०१५ पादृ०। (द०प०) बासम्मोहाय सर्वेषामेव जिनचक्रवर्तिवासुदेवानां यो यस्मिन् वे जोयणाणि सूरस्स, मंडलाणं तु इवइ अंतरिया। कासेऽन्तरे वा चक्रवती वासुदेवो वा नविष्यति बनूष वा त. ___चंदस्स वि पणत सं, साहीया होइ नायव्वा । स्थानन्तरव्यावर्णितप्रमाणायुःसमन्वितस्य सुखपरिकानार्थमयं प्रतिपादनोपायः। सूर्यस्य सवितुः सत्कानां मएमलानां परस्परमन्तरिका अन्त"पत्तीसं घरयाई, का तिरिया य ताहि रेहादि । रमेवान्तय भष्टजादित्वात् स्वार्थे याप्रत्ययः ततस्त्रीत्वविवक्तायां सखाययाहिं काउं, पंच घराइं तो पढमो । डीप्रत्यये आन्तरी अन्तरमेव प्रान्तर्येव भान्तारका प्रवति द्वे योजने पुनश्चन्छस्य अान्तरिका भवति हातव्या पश्चत्रिंशद्योपन्नरस जिणनिरंतर-सुन्नपुगं तिजिण सुन्नतिगं च । दो जिणमुन्नजिणिदो, मुन्नजिणो सुन्न दोसि जिणा ॥ जनानि साधिकानि पञ्चत्रिंशत् योजनानि पञ्चविंशतिरेकषष्टि[वितीयपंतिढवणा] भागा योजनस्य एकस्य च एकषष्टिनागस्य सप्तधा जिन्नस्य दो चक्कि सुन्नतेरस, पण चक्की सुन्नचक्कि दो सुन्ना । सत्काश्चत्वारोनागा इत्यर्थः ज्यो०१० पाहु०॥ चक्की सुन्नचक्की, सुन्नं चक्की सुन्नं च । [१२] ताराणां परस्परमन्तरम् । (ततीयपंतिट्टवणा) जंबुद्दीवे एंजते 'दीवे ताराए अताराए अकेवा प्रवाहाए दस सुन्न पंच केसव, पण सुन्न केसि सन्नकेसी य । अंतरे पलते गोमा! दुविहे अंतरे पत्ते तंजहा वाघाइए अ दो सुन्नकेसो विय, सुन्नपुगं केसव तिसन्नं ।। ___ स्थापना चेयम् । निव्वाग्याइए अ । निव्वाघाइए जहणं पंचधणुसयाई नकोछ (सा चेहैव सप्त पष्टितमे पत्रे विवियते) . सेणं दोगानआइ। बाघाइए जहणं दोमिलावट जोअणप्रसङ्गादायुः शरीरप्रमाणं च । सए उक्कोसणं वारस जोअणसहस्साई ।दोलिअ वायाले (ए) ऋषभाद् बीरस्य। जाअणसए तारारूवस तारारूवस्स अबाहाए अंतरे परमत्ते उसभस्स भगवओ महावीरस्स य एगा सागरोवमकोडा जम्बूद्वीपे भदन्त !द्वीपे तारायास्तारायाश्च कियदमाधया - कोडी प्रवाहाए अंतरे परमत्ते। म्तरं प्राप्त नगवानाह । गौतम ! द्विविधं व्याघातिक नियाघा. प्राकृतत्वेन श्रीऋपन्न इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः एक- तिकं च । तत्र व्याघातः पर्वतादिस्खलनं तत्र भवं व्याघातिक सागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैः किश्चित्साधिः नियाघातिकं व्याघातिकामिर्गतं स्वानाविकमित्यर्थस्तत्र यनिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति स०। कस्प० । वीर वाघातिकं राजघन्यतः पञ्चधनुःशतानि उत्कृष्टता द्वे गव्यत महापभयोः "चुलसीसहस्साई, वासा सत्तव पंच मासाई। पतच जगत्स्वभावादेवावगन्तव्यं यच्च व्याघातिक तज्जघन्यता बीरमहापउमाणं, अंतरमेयं विणिद्दिष्टं" ति० । द्व योजनशते पट्पटवधिके एतच्च निषधकटादिकमपेक्ष्य दि. [१०] ज्योतिष्काणां चन्द्रमासस्य चान्तरं यथा। तव्यं तथाहि निषधपर्वतः स्वभावतोऽप्युश्चत्वारि योजनशताचंदनमलस्स णं भंते ! चंदममन्त्रस्म चंदमममस्म केवइआए | नि तस्य चोपरि पञ्चयोजनशतोञ्चानि कुटानि तानि च मूल प्रवाहाए अंतरे परमत्तं ? गोयमा ! पणतीसं पणतीसं पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्नाज्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि जोत्रणाई तीमं च एगसहिनाए जोअणस्स एगस-- पञ्चसप्तत्यधिकानि नपरि अर्द्धततीयेद्व योजनशत नेपां चोप ग्तिनभागममणिप्रदेशे तथा जगत्स्वानाव्यादटावणी योजनाडिजागं च एगं सत्तहा बेत्ता चत्वारि चुलिअजाए न्यबाधया कृत्वा ताराविमानानि पग्निमन्ति ततो जघन्यतो व्याचंदमयस्स २ अबाहाए अंतरे पलत्ते। घातिकमन्तरं द्वं योजनशते पट्पष्टयधिके नवतः नरकपतो द्वादचम्धमएमलस्य भदन्त ! चमामलस्य कियत्या अबाधया शयोजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विचत्वारिंशदधिके । पतच अन्तरं प्रशनं गौतम! पञ्चत्रिंशद्योजनानि त्रिंशश्कटिभागान् मेरुमपेक्ष्य अव्यम् । तथाहि मेरो दशयोजनसहस्राणि मेरोयोजनस्य एकं च एकषष्टिभार्ग सप्तधा छिन्वा चतुरश्चूर्णिका- श्चोभयतोऽयाधया एकादशयोजनशतान्येकविंशत्यधिकानि ततः भागान् एतच्च चम्मएकलस्य अबाधया अन्तरं प्राप्तम् अत्र मर्वमंख्यामीलने भवन्ति द्वादश योजनसहस्राणि द्वे च योजने खप्तचत्वारश्चणिका यथा समायान्ति तथाऽनन्तरं व्याख्यातम् शते द्विचत्वारिंशदधिके एतत्तारारूपस्य अन्तरं प्राप्तमिति जं. ७यक जी। चं० प्र० । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसभो | अजिमओ | संभवो अभिनंदणो सुमती |पउमप्पभो| सुपासो | चंदप्पहो | पुप्फदंतो | सीयलो | सेजंसो वासुपुज्जो| विमलो | अणतो | धम्मो भरहो | सागरो सागरो | . . . मघवं तिविट्ठ दुविठू | सयंजू | वंद्र | सांज पुरिसो. त्तमो पुरिस सीहो ४५० । ४०० । ३५० | ३०० | २५० | २०० १०० ७० ४५ - ४२॥ धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं ८४०००००/७२०००००/६००००००००००००/४००००००/३००००००/२०००००००००००००/२००००० १०००००८४०००००/७२०००००/६००००००/३००००००/१००००००/५००००० वरिस | लक्वं वरिस | वरिस | वरिस लक्ख लक्ख लक्खं पुव्वलक्खं पुव्वलक्खं पुन्वलक्खं पुवलक्खं पुज्वलक्खं पुन्वलक्ख पुवलक्ख पुव्वलक्वं पुवलक्खं पुन्वलक्खं| वरिस | वारिस लक्खं लक्ख (६७) अभिधानराजेन्द्रः संती | कुंए | अरो | . . . | मल्ली | मुणिम एम। णेमी पासो | वद्यमाणो सणं कुमारोग संती | कुंथू | अरो सुभूमो | . पउमो हरिसेणो जयनामा . बंभदत्तो . | . | • | पुरिपुंडो . | दत्तो नारायणो || कराहो ४१॥ | २५ । २० | १६ | १५ | १२ | १० | ७ | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं | धनूसतं धनूसतं | धनू | हत्या | हत्था ३०००००। १००००० १५००० ८४०००। ६५००० । ६०००० | ५६००० । ५५००० ३०००० | १२००० १०००० । ३००० | १००० । ७०० परिस वरिस । वरिस | बरिस | वरिस । लक्वं सहस्सं सहस्सं | सहस्स वरिस | वरिस | वरिस । वरिस | वरिस | वरिस | वरिस वरिस सहस्स सहस्स सहस्सं सहस्सं | सहस्सं सहस्स सहस्सं | सहस्सं वरिससतं वरिससतं वरिसं Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अभिधानराजेन्द्रः। अंतर [१३] सूर्याणां परस्परमन्तरम् । हिं अधिया । एवं खलु एते एवाएणं णिक्खममाणा एगे ता केवतियं तं वे सुरिया अमममस्स अंतरं कहु चारं दुवे मूरिया तता णंतरतो तदाणंतरं मंमलातो मंगलं संकचरंति प्राहिताति वदेजा। तत्थ खलु इमातो व परिवत्ति- ममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगश्रो पामत्तानो तत्थ एगे एवमाहंसु ता एगं जोयणसह- हिन्नागे जोयणस्म एगमेगे मंगले असामयस्स अंतरं अभिसंपगं सतेतीसं च जोयणसतं अमममस्स अंतरं कहु बद्रमाणा अभिवट्टेमाणा सव्वबाहिरं मंगलं उबसंकमित्ता सरिया चारं चरंति आहिताति वदेजा एगे एवमाइंसु ।। चारं चरति। ता जयाणं एते दुवे मूरिया सबबाहिरं मंगलं एगे पुण एवमाहंसु ता एगं चउतीसं जोयणसयं अनम उपसंकमित्ता चारं चरंति तता णं एग जोयणसतसहस्सं मस्स अंतरं कह सूरिया चारं चरंति आहितेति वइज्जा| उच्च सद्विजोयणसते अएएमएणस्स अंतरं कह चारं चरंएगे एवमाहंमुशिएगे पुण एवमाहंम् । ता एगे जोयणसहस्सं ति । तता णं उत्तमकट्ठपत्ता उकासिया अट्ठारसमुहत्ता राई पगं च पणतीस जोयणसयं अमममस्स अंतरं कटु सू जवइ जहएणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । एस एं पढरिया चारं चरंति माहितेति वदेज्जा एगे एवमाइंस एग मे उम्मामे एस णं पढमस्स उम्मासस्स पज्जवसाणे ते य वि दीवं एग समुदं अमममस्स अंतरं कहु ।।। दो दीवे दो समाणे दुवे मूरिया दोचे छम्मास अयमीणे पढमंसि अहोसमुद्दे अमममस्स अंतरं कडुसूरिया चारं चरंति ।। ति रत्तंसि बाहिराणंतरं मंगलं उवसंकमित्ता चारं चरति । ता बि दीवे तिन्त्रि समुद्दे अन्नमन्नस्स अंतरं कटु सूरिया चार जया एं एते दुवे मूरिया बाहिराणंतरं मंगलं उवसंकमित्ता चरंति प्राहिएति वदेजा एगे एवमाहंस १६। वयं पुण एवं चारं चरंति तदा णं एगं जायणसयमहस्सं उच्च चनप्पाम बयासी ता पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगहिभागे जोयणस्म एगमेगे मंडल्ले अमममस्म अंतरं अनिवट्टेमा जोयणसते छत्तीसं च एगठ्ठिलाग जायणस्स अप्ठामएणपो वा निवहेमाणे वा मुरिया चारं चरंति आहितेति वदे. स्म अंतरं कडु चारं चरंति आहितेति वदेज्जा । तदा णं जा । तत्य एं को हेओ त्ति वदेजा ता अयणं जंबूदीवे अट्ठारसमुदुत्ता राई भवइ दोहिं एगहिनागमुहुत्तहिं कणा दीवे जाव परिक्वेवेणं पसत्ते ता जदा णं एगे दुवे मूरि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति । दाहिं एगजिनागमुदुत्तेहि या सबब्जंतरं मंझन उवमंकमित्ता चारं चरंति तदा आहिए ते पविसमाणा मरिया दोचंमि अहोरत्तं मि बाहिरं एवणउतिजायणसहस्साई चचत्ताले जोयणसते असमय तच्चं मंगलं उवसंकमित्ता चारं चरंति ता जता णं एते स्म अंतरं कटु चारं चरंति आहितेति वदेजा । तता णं | दुवे मूरिया बाहिरं तच्चं मएडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति । उत्तमकद्वपत्ते नकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे जवति ज. तता णं एग जोयणमयमहस्सं उच्च अमयाले जोयणसते हएिणया पुवामसमुहुत्ता राई भवति ते णिक्खममाणा बावणं च एगहिभागे जोयणस्स अप्पमस्सस्स अंतरं कह मरिया एवं संवचरं अयमिणे पढमंसि अहोरसि अ चारं चरति । तताएं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ । चन जितराणंतरं मंमलं नवसंकमित्ता चारं चरंति । ता ज एगहिनागमुहत्तेहिं मणा दुवालसमहुत्ते दिवसे नवति ता-एं एते ऽवे सूरिया अभिंतराणंतरं मंझलं नवसंकमि चनहिं एगहिभागमुदुत्तेहिं अहिए । एवं खलु एते प्रवात्ता चारं चरंति तदा णं नवननति जोयाणसहस्साई छच एणं पविममाणा एते दुवे सरिया तताणंतरतो तदाणंतरं पणताले जोयणमते पणतीसं च एगहिनागे जोयणस्स मंडलाओ ममलं संकममाणा पंच पंच जायणाई पणतीसं अम्ममाएणस्म अंतरं कट्ट चारं चरंति आहिताति वंदजा । च एगडिजागे जोयणस्म एगमेगे मंडले अप्पमस्मस्स अंतरं तता णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवाति दाहिं एगट्ठिभागम- णिवढेमाणे णिवट्टेमाणे सबन्नंतरं ममलं नवसंकमित्ता हुत्तेहिं कणा दुवालसमुहुत्ता राती जवति । दोहिं एग-| चारं चरति । ता जया एणं एते दुवे सूरियासम्बन्जतरं मंगलं द्विभागमुहुत्तेहिं अधिया ते णिक्खममाणे मूरिया दोच्चंसि | उबसंकमित्ता चारं चरंनि । तताणं णवण उतिजोयणसहस्साअहोरत्तसि अन्भितरं तच्चं मंगलं उवसंकमिना चारं चरं- इंउन चत्ताले जोयणमते अप्समामस्स अंतरं कह चार ति ता जता णं दुवे सूरिया अन्जितरं तचं मंगलं उवसंक- चरंति । तताणं उत्तमं करूं पत्ते नकोसए अहारसमहत्त मित्ता चारं चरंति तया ६ नवनउई जोयणसहस्साई उच्च दिवम भवति जहमिया वाबममुटुत्ता राई नवति । एसकावएिणजोयएमए णव य एगहिभागे जोयणस्स प्राण- णं दोचे छम्मासे एस णं दोच्चस्म उम्मामस्स पन्जवमाणे। मएणस्स अंतरं कह चारं चरति पाहिएति वज्जा । तदा एस णं माइच्चे संवच्चरे एस णं प्राइचसंवच्छरस्स णं अट्ठारममुटुत्ते दिवसे भव चाहिं एगहिभागमुदुत्तेहिं पज्जवसाणे चनत्यं पादुमपाइ ममत्तं । कणो दुवालम मुहत्तागई जव चनहिं एगट्टिनागमुहत्ते- (ता केवयं एए पुर्व सूरिया इत्यादि) ता इति प्राग्यत् Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर (६ ) अनिधानगन्धः । अंतर पतौ द्वावपि सयौँ जम्बूद्वीपगतौ कियत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा | एतानि जम्बूढीपविष्कम्जपरिमाणालकरूपादपनीयन्ते ततो यचारं चरतः चरन्तावाख्याताविति भगवान् वदेत् एवं नगव- थोक्तमन्तरपरिमाणं भवति (तया णमित्यादि) तदा सर्वाभ्यता गौतमेन प्रश्न कृते सति शेषकुमतविषयतत्वबुझिव्युदासार्थ न्तरे द्वयोरपि सूर्ययोश्चरणकाले नत्तमकाष्टां प्रातः परमप्रकर्ष परमतरूपाः प्रतिपत्तादर्शयति । "तत्थ खलु इमाश्री इत्यादि" प्राप्तः जुत्कर्षक उत्कृष्टोऽादशमहों दिवसो भवति जघन्या तत्र परस्परमन्तरचिन्तायां खलु निश्चितमिमा वकमाणस्वरूपाः सर्वजघन्या द्वादशमुहर्ता रात्रिः (ते निषखममाणा इत्यादि ) षट् प्रतिपत्तयो यथास्वरुचिवस्त्वेन्युपगमवकणास्तैस्तैस्तीर्था- ततस्तस्मात्सर्वाभ्यन्तरान्मगडलात्ती द्वावपि सूर्यो निष्कामन्ती न्तयेराश्रीयमाणाः प्रसप्तास्ता एव दर्शयति "तत्थेगे इत्यादि" नवं सूर्यसंवसरमाददानी नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य प्रथम श्रतेषां परमां तत्प्रतिपत्तिरूपकाणां तीर्थकानांमध्ये एक तीर्थान्त- होरात्र (अम्भितराणतरमिति) सर्वाभ्यन्तरान्मरामलादनन्सर रीयाः प्रथम स्वशिष्यं प्रत्येवमाहुः “ता एगमित्यादि" ता इति द्वितीयं ममलमुपसंक्रम्य चारं चरतः (ता जया रणमित्यापूर्ववद्भावनीयम् एकं योजनसहस्रमकं च त्रयस्त्रिंशदधिक दि) ततो यदा पती द्वावपि सूर्यों सर्वाभ्यन्तरमरामनयोजनशतं परस्परस्यान्तरं कृत्वा जम्बूद्वीपे द्वा सूर्यो यारं चर- मुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा नवनवतियांजनसहस्राणितश्चरस्तावाख्याताविति स्वशिष्येभ्यो वदत् । अत्रैवोपसंहार- पद् शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि योजनानां पञ्चत्रिंशतं माह । “ एके एवमाहुरिति " । एवं सर्वत्राप्यकरयोजना कर्त- चैकषष्टिभागान् योजनस्येत्येतावत्प्रमाणं परस्परमन्तरं कृत्वा व्या । एके पुनर्वितीयास्तािन्तरीया एवमाहुरेकं योजनसहस्र- चारं चरतश्चरन्तावाख्याताविति वदत्तदा कथमेतावत्प्रमाणमेकं च चतुर्विंशदधिकं योजनशतं परस्परमम्तरं कृत्वा चारं मन्तरमिति चेदुच्यते । इहैकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डचरतः । एके तृतीयाः पुनरेवमाहुः एक योजनसहस्रमेकं च लगतानाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनस्य अपरे च द्वे पञ्चविंशदधिकं योजनशतं परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः। योजने विकम्प्य सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले चरति । एके पुनश्चतुर्था एवमाहुः एक द्वीपमेकं च समुE परस्परमन्तरं एवं द्वितीयोऽपि ततो द्वे योजने अष्टाचत्वारिंशश्चैकपरिभाकृत्वा चार चरतः। एक पुनः पञ्चमा पवमाहुः द्वौ द्वीपो द्वौ समुखी गा योजनस्येति द्वाभ्यां गुण्यते गुणिते च सति पञ्च योजपरस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः। एके षष्ठाः पुनरेवमाहुःत्रीन् द्वी- नानि पञ्चत्रिंशश्चकपष्टिभागा योजनस्यति भवति एतावपान्त्री सम्हान् परस्परमन्तरं कृत्वा चारंचरताति। एते च । दधिकपर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्र प्राप्यते ततो यथासर्वे तीर्थान्तरीया मिथ्यावादिनोऽयथार्यवस्तुव्यवस्थापनात् । नमन्तरपरिमाणं भवति (तया णमित्यादि )तदा सर्वाभ्यन्ततथा चाह (वयं पुण श्यादि) वयं पुनरासादितकेवलज्ञानलाभाः रानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले अष्टादशमुहतों दिवपरतीर्थिकस्थापितवस्तुव्यवस्थाब्युदासेन एवं वक्ष्यमाणप्रका- सो भवति द्वाभ्यां (एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ति ) मुहर्तकपष्टिभारेण केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तुतत्वमुपलभ्य वदामः । क. गाभ्यामूनः। द्वादशमुहर्ता रात्रिः द्वाभ्यां मुहर्तकपष्टिभागाथं वदथ यूयं जगवन्त श्त्याह (ता पंचेत्यादि) 'ता इति' श्रा भ्यामधिका (ता निक्खममाणा इत्यादि) ततस्तस्मादपि स्तामन्यद्वक्तव्यमिदं तावत्कथ्यते द्वावपि सूर्या सर्वाभ्यन्तरान्म- द्वितीयान्मण्डलानिष्क्रामन्तौ सूर्यो नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य एकलानिष्क्रामन्तौ प्रतिमएमवं पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशतं द्वितीये अहोरात्र अभ्यन्तरस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य कपष्टिभागान् योजनस्य पूर्वपूर्वमामलगतान्तरपरिमाणे अ-1 तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतः (ना जयाणमित्यादि) निवर्कयन्तौ वाशब्द उत्तरविकल्पापेक्कया समुच्चये ( निबुट्टे ततो यदा णमिति पूर्ववत् पतौ द्वौ सूर्यौ अभ्यन्तरतृतीय माणा वा इति ) सर्वबाह्यान्मएमादभ्यन्तरं प्रविशन्तौ प्रति- सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार मएमझं पञ्च पश्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं च एकषष्टिनागान् यो चरतः तदा तस्मिस्तृतीयमण्डलचारचरणकाले नवनवनिजनस्य निर्वेष्टयन्तौ पूर्वपूर्वमएमलगतान्तरपरिमाणात हापय योजनसहस्राणि पट् च शतानि एकपञ्चाशदधिकानि योजन्तौ वाशब्दः पूर्वविकल्पापेक्कया समुच्चये सूर्यो चारं चरतः च नानां नव चैकपष्टिभागान् योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा रन्तावाख्याताविति स्वशिध्येज्यो वदेत् । पवमुक्ते भगवान् गौ चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति वदेत् , तदा कथमेतावतमो निजशिष्यनिःशङ्कितत्वव्यवस्थापनार्थ नूयः प्रश्नयति । प्रमाणमन्तरकरणमिति चेदुच्यते इहाप्यकः सूर्यः सर्वाभ्य(तत्यमित्यादि ) तत्र पवंविधाया वस्तुतत्वव्यवस्थाया अद न्तरद्वितीयमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् योजनगमे को हेतुः का उपपत्तिरिति प्रसादं कृत्वा वदेत् भगवा- स्यापरे च द्वे योजने विकम्प्य चारं चरति द्वितीयोऽपि ततो ढे नाह (ता अयन्नमित्यादि ) दं जम्बूदीपस्वरूपप्रतिपादकं वा- योजनेऽधाचत्वारिंशकपटिभागान् योजनस्येति द्वाभ्यां गुक्यं पूर्ववत्परिपूर्ण स्वयं परिभावनीयम् । (ता जयाणमि- रायते द्विगुणमेव पञ्च योजनानि पञ्चविंशश्चकपटिभागा योजस्यादि) तत्र यदा णमिति वाक्याझंकारे पती जम्बूद्वीपप्रसि- नस्येति भवति । एतावत्पूर्वमण्डलगतादन्तरपरिमाणादत्राको जारतैरावती द्वावपि सूर्यो सर्वान्यन्तरं मएमलमुपसंक्रम्य धिकं प्राप्यते इति भवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणम् (नया चारं चरतः तदा नवनवतियोजनसहस्राणि षट् योजनशतानि णमित्यादि) यदा सर्वाभ्यन्तगन्मण्डलानृतीये मण्डले चारं चत्वारिंशदधिकानि परस्परमन्तरं कृत्वा चार चरतः चरन्तावा चरतस्तदा अष्टादशमुहर्तो दिवसो भवति चतुभिः ख्याताविति वदेत् । कथं सर्वान्यन्तरे मामले द्वयोः सूर्ययोः प- [ एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ति ] प्राकृतत्वात्पदव्यत्यासस्ततोऽरस्परमेतावत्प्रमाणमन्तरमिति चेपुच्यता रह जम्बृद्धापो योज- यमर्थः मुहर्तकपष्टिभागैरूनः, द्वादशमुहर्ता रात्रिश्चतुर्मिनलकप्रमाणविष्कम्नस्तत्रैकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य मध्ये अशी- मुंइतकषष्टिभागैरधिका (एवमित्यादि ) एवमुक्तेन प्रकारण त्यधिक योजनशतमवगाह सर्वाभ्यन्तरे मएमले चारं चरति । खलु निश्चितमतेनोपायेन प्रतिमएममकतोऽप्येकः सूयाँ , द्वितीयोऽप्यशीत्यधिक योजनशतमवगाह्य प्रशीत्यधिकं चश योजने अष्टाचत्वारिंशतं चैकपष्टिभागान् विकम्प्य चारं चरत्यतं ग्राभ्यां गुणितं त्रीणि शतानि पश्चधिकानि (३६० ) जयन्ति | परतोऽप्यपरः सूर्योऽपीत्येवंरूपेण निष्क्रामन्नी पती जम्वृष्टी Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (90) अंतर अभिधानराजेन्दः । अंतर पगती द्वौ सूर्यो पूर्वस्मात्पुर्यस्मात्तदनन्तरामएकवात्तदनन्तरं | शतं चकटिनागान योजनस्य परस्परमन्तरं कृत्वा चार चरतः मामलं संक्रामन्तौ एकैकस्मिन्मरामले पूर्वपूर्वमएमलगतान्तर- प्रागुक्तयुक्त्या पूर्वमएलगतादन्तरपरिमाणादत्रान्तरपरिमाणपरिमाणापेक्कया पञ्च पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिशतं चैकषष्टिनागा- मस्य पञ्चनियाजनैः पञ्चत्रिंशता वैकष्टिनागैर्योजनस्य हीनन योजनस्य परस्परमन्निवर्द्धयन्तौ नवसर्यसंवत्सरसत्के अशी- त्वात् [ तया णमित्यादि] तदा सर्वबाह्यान्मरामलादर्वाक्तनतृती. त्यधिकशततमे अहोरात्रे प्रथमपामासपर्यवसानभूते सर्व- यमएमचारचरणकाजे अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति चतुभिर्मु. बाह्यमामलमुपनक्रम्य चारं चरतः । (ता जया णमित्यादि)। हूत्तरेकपष्टिभागैरूना । द्वादशमुहूतों दिवसश्चतुर्निरकटिनागैततो यदा एता द्वौ सुयौं सर्वबाह्यं मएमसमुपसंक्रम्य चारं मुहृताधिकः [एवं स्वसु इत्यादि ] एवमुक्तप्रकारेण खलु निचरतस्तदा तावेक योजनशतसहस्रं पद शतानि षण्यधिकानि श्चितमेतेनोपायेन एकतोऽप्येकः सूर्योऽभ्यन्तरं प्रविशन् पूर्वपूर्व(१००६६०) परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः । कथमेतदव- मएमजगतादन्तरपरिमाणादनन्तरे विवक्षित मएमने अन्तरपसेयमिति चेत् उच्यतइह प्रति मण्डलं पञ्च योजनानि पञ्चत्रि- रिमाणस्याटाचत्वारिंशतमेकषाष्टिभागान् हेच योजने हापयशचकषष्टिभागा योजनस्यत्यन्तरपारमाणचिन्तायामभिवर्कमा- त्यपरतोऽप्यपरः सूर्य इत्येवंरूपण पती जम्बूद्वीपगती सूयौं तदनं प्राप्यते सर्वान्यन्तराच्च मामलासर्वबाहां मामल त्र्यशी- नन्तरान्मएकलात्तदनन्तरमएमलं संक्रामन्तौ एकैकस्मिन्मगाने त्यधिकशततमं ततः पञ्च योजनानि ध्यशीत्यधिकेन शतेन गु- पूर्वपूर्वमएमलगतादन्तरपरिमाणात् अनन्तरे अनन्तरे विवपयन्ते जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि योजनानामेकप- क्षिते मएमले पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं चकपष्टिनागाविभागाश्च पञ्चत्रिंशत्संख्याख्यशीत्यधिकेन शतेन एयन्ते न योजनस्य परस्परमन्तरपरिमाणं निर्वेष्टयन्ती दापयन्तावित्यजातानि तेषां चतुःषष्टिशतानि पश्चोत्तराणि (६४०५ ) तेषामे- र्थः। द्वितीयस्य पएमासस्य यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सूकपड्या भागे हृते बब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतम् ( १०५ ) र्यसंवत्सरपर्यवसानतते सर्वाज्यन्तरं मएमबमुपसंक्रम्य चार एतत्प्राक्तने योजनराशौ प्रतिप्यते जातानि दश शतानि विंश- चरतः [ता जया णमित्यादि ] तत्र यदाएतौ द्वौ सूर्यो सर्वाभ्यत्यधिकानि योजनानि ( १०१०) पतत्सर्वान्यन्तरमएमलगता- न्तरं मरामलमुपसंक्रम्य चारं चरतः तदा नवनवतियोजनस. तरपरिमाणे नवनवतियोजनसहस्राणि षट् शतानि चत्वारिंश- हस्राणि षट् योजनशतानि चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि दधिकानि ( ६६६0 ) इत्येवंरूपे प्रतिप्यते ततो यथोक्तं सर्व- परस्परमन्तरं कृत्वा चारं चरतः । अत्र चैधरूपान्तरपरिमाणे बाह्ये मएमले अन्तरपरिमाणं भवति (तया णमित्यादि) तदा भावना प्रागेव कृता शेषं सुगमम् । सू०प्र०१पाहु०।००। सर्यबाह्यमएमलचारचरणकाले उत्तमकाष्ठां प्राप्ता परमप्रकर्षप्रा- ज्यो। मं० । जं० । [मन्दरात् कियत्याऽबाधया ज्योतिमा उत्कृश अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति जघन्यश्च द्वादशमुहतों का इत्यादि अवाहा शब्दे ] दिवसः "एसणं पढमे उम्मासे” इत्यादि प्राग्वत् (ते पविसमाणा (१४) धातकीखएकस्य हाराणामन्तरं यथा । इत्यादि) ती ततः सर्वबाह्यान्मएमलादज्यन्तरं प्रविशन्तो हूँ। धायइसंमस्स एंजते! दीवस्म दारस्स य दारस्स य एस सूर्यो हितीयषएमासमाददानौ द्वितीयस्य परमासस्य प्रथमे णं केवतिय प्रवाहए अंतरे पामते ? गोयमा! दस जोयणअहोरात्रे पाह्यानन्तरं सर्वबाह्यान्मएमलादर्वागनन्तरं द्वितीय सतसहस्साई सत्तावीमं च जोयणसहस्साई सत्त य पणमण्डलमुपसंक्रम्य चारंचरतः (ता जयाणमित्यादि) तत्र यदा तीसे जोयणसते तिमि य कोसे दारस्स य दारस्स य आपती द्वी सूर्यो सर्ववाद्यानन्तरमर्वाक्तनं द्वितीयं मएमलमुपसं वाहाए अंतरे पसत्ते। कम्य चारं चरतस्तदा एक योजनशतसहस्तं पद शतानि चतु: धातकीखण्डस्यभदन्त द्वीपस्य द्वारस्य च द्वारस्य च परस्परपञ्चादशधिकानि षट्त्रिंशति चैकपष्टिभागान् योजनस्य परस्पर मेतत् अन्तरं कियत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरितत्वाद् (व्यामन्तरं कृत्वा चारं चरतः चरन्तावाख्याताविति वदेत कथमता घातेन) व्यवधानेन प्राप्तं भगवाना गौतम!दश योजनशतस. बत्तस्मिन्सर्वबाह्यान्मएमलादर्वाक्तने द्वितीये मामले परस्परमन्तरकरणमिति चेत् उच्यते इकोऽपि सूर्यः सर्वबाह्यममलगतान हस्राणि सप्तविंशतिसहस्राणि सप्त शतानि पञ्चविंशानि द्वार स्व परस्परमन्तरमयाधया प्राप्तम् । तथाहि एकैकस्य द्वारस्य वाचत्वारिंशदेकषष्टिनागान् योजनस्यापरे च योजने अभ्यन्तरं प्रविशन्सर्वबाह्यान्मामलादाक्तने द्वितीये मारने द्वारशाखाकस्य जम्बूद्वीपद्वारस्येव पृथुत्वं सार्दानि चत्वारि योजनानि । ततश्चतुर्मा द्वाराणामेकत्र पृथुत्वपरिमाणमीलने सारं चरति अपरोऽपि ततः सर्वबाह्यगतादन्तरपरिमाणादनान्तरपरिमाणं पञ्चनियाजनैः पञ्चत्रिंशता चैकपष्टिनागजिन जातान्यष्टादश योजनानि तान्यनन्तरोतात्परिखापरिमाणात् स्योनं प्राप्यते इति जवति यथोक्तमत्रान्तरपरिमाणम[तयाण (४११०६६१) शोध्यन्ते शोधितेषु च तेषु जातं शेषमिदमेक चत्वारिंशलक्षा दश सहस्राणि नव शतानि विचत्वारिंशदधिमित्यादि तदा सर्वबाह्यानन्तरादाक्तनद्वितीयमएमचारचरणकासे अष्टादशमुहूर्ता रात्रिर्भवति द्वाभ्यां तु मुहुर्तेकषष्टिभागा कानि (४११०६४३) एतेषां चतुर्भिर्भागे हते लब्धं यथोक्तं ज्यामना, द्वादशमुहतों दिवसो हान्यां मुहर्तकपटिनागाज्याम द्वाराणां परस्परमन्तरम् । उक्तंच "पणतीसा सत्त सया, सधिकातिपविसमाणा इत्यादि]ततस्तस्मादपि सर्वबाह्यमयमला साबीसा सहस्स दस लक्खा । धायइसंडे दारं-तरं तु अवर दर्याक्तनद्वितीयमएमलादज्यन्तरं प्रविशन्ती तो हौसूयाँ द्वितीय च कोसतियं" जी. ३ प्रति। स्य पएमासस्य द्वितीये अहोरात्रे (बाहिरतचंति)सर्वबाह्यान्म (१५) नन्दनवनस्याधस्तनाचरमान्तात्सौगन्धिकस्य काण्डपगलादर्वाक्तनं तृतीयं मण्डनमुपसंक्रम्य चारं चरतः(ताज स्याधस्तनचरमान्तस्यान्तरम्। याणमित्यादि ]तत्र यदा एतौ द्वौ सूर्यो सर्वबाह्यान्मएमादी नंदणवणस्स णं हेष्टिवाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंतनं तृतीयं मएमनमुपसंक्रम्य चारं चरतः तदा एक योजनश मस्स हेच्विं चरिमंते एस णं पंचासीई जोयणसयाई अतसहन पद च योजनशतानि अपाचत्वारिंशदधिकानि द्विपक्षा- पाहाए अंतर परमचे ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (02) अभिधान राजेन्द्रः । अंतर नन्दनचनस्य मेरोः पञ्चयोजनशतोतियां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याधस्त्याच्चरमान्तात् सौगन्धिककाण्डस्य रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधान-थमकाण्डस्यावान्तरकाएडभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य सौनन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्चरमान्तः पञ्चाशीतियजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति । कथं पञ्च शतानि मेरोः सम्बन्धीनि प्रत्येकं सहस्रप्रमाणत्वादवान्तरकाण्डानामष्टमकाण्डमशीतिशतानीति । स० । (१६) नरकपृथ्वीनां रत्नप्रभाकाण्डानामन्तरम् । मी से जंते! रयणप्पनाए पुढवीए उब रिक्षातो चरिमंतातो देहिले चरिमंते एस णं केवतियं अवाधार अंतरे प्रमते १ गोयमा ! असी उत्तरं जोयणसतसहस्सं अवाभार अंतरे पाते। इमी से णं जंते ! रयणप्पभाए पुढ बीए उवरिातो चरिमंतातो खरकमस्स छेडिले चरिमंते एस एां केवतियं बाधाए अंतरे पत्ते ? गोयमा ! सोस जोयणसहस्साई अबाधाएं अंतरे पत्ते । इमीसे जंते ! रयणप्पजाए पुढवीए वरियातो चरिमंतातो रयणस्स कंमस्सट्टिले चरिमंते एस णं केवतियं अमाभाए अंतरे पष्यचे? गोवमा एक जोषणसहस्सं अबाधाए अंतरे पत्ते ॥ अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथ मस्य खरकाण्डविभागस्य ( उवरिल्लाओ इति ) उपरितनाच्चरमान्तात् परतो योऽधस्तनश्वरमान्तश्वरमपर्यन्तः (एस सामित्यादि एतत्सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् अन्तरं किय योजनप्रमाणम् अबाधया अन्तरव्याघातरूपया प्रज्ञप्तं भगधानाह गौतम ! एकं योजनसहस्रमेकयोजनसहस्रप्रमाण मन्तरं प्रशप्तम् । हमी से णं भंते 1 रयप्पना पुढवीए रयणकंटम्स वरिलातो चरिमंतातो वरस्य कंमस्स उपरि परिमंत एस णं भंते ! केवतियं श्रबाधाएं अंतरे पत्ते १ गोयमा ! एक जोयणसहस्सं अवाधार अंतरे पत्ते । ( श्मी से णमित्यादि ) भस्या जदन्त ! रत्नप्रज्ञायाः पृथिव्याः रत्नकारामस्य उपरितनाचरमान्तात्परतो यो बज्रकायस्योप रितनश्चरमांन्त एतत् अन्तरं कियत् किंप्रमाणमबाधया प्रकृतं भगवानाद गौतम! एकं योजनसहस्रमबाधया अन्तरं प्रज्ञतं रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वज्रकाएकोपरितनचरमान्तस्य च परस्पर संलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणनावात् । इमी से णं भंते! रयणप्पजार पुढवी उपरिक्षातो - रिमतातो बहस मस्स हेडि परिमंते एस भंते! केवतियं अवाधार अंतरे पत्ते गोयमा ! दो जोयणसहस्साई अवाधार अंतरे पलने एवं नाव रिट्स्स उपरिक्षे पारस जोयणसहस्साइं हेडले चरिमंते सोलस जोयणसइसाई ।। अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाण्डस्योपरितनाकचरमान्तात् वज्रकाएकस्य योऽधस्तनकारमान्त पतत् अन्तरं अंतर कियत् श्रबाधया प्रशतं भगवानाद गौतम ! द्वे योजनसह से अबाधया अन्तरं प्रप्तम् । एवं काएके काराडे द्वौ द्वौ चालापको वक्तव्यौ कारकस्य चाधनस्तने चरमान्ते चित्यमाने योजसदस्रपरिवृद्धिः कर्त्तव्या यावत् रिस्य कारहस्यास्त चरमान्ते चिन्त्यमाने षोडश योजनसहस्राणि श्रबाधया प्रस मिति वक्तव्यम् जी० ३ प्रति० । इसी से रयणप्पजाए पुडीए वारकंदस्सीझाओ चरिमंताओ मोहिम डिले परिमंते एस णं तिन्नि श्रोषणसहस्सा अबाहार अंतरे प (मी से समित्यादि यमिह भावार्थः रामनाथन्याः प्रथमस्य पोशविनागस्य खरकाण्डाभिधानकारकस्य वज्रकाधर्म नाम रत्नकामं द्वितीये बेसूर्यका तृतीयं मंदि एदं चतुर्थ तानि च प्रत्येकं साहसिकारीति प्राण पोकमन्तरं नवतीति स० । इम से भंते! रणप्पा पुरवी अवराम प रिता पंकबहुलस्स कंमस्स उवरि चरिमंते एस पं अवाधार केवतियं अंतरे पत्ते गोयमा ! सोलम जीयणसहस्साई व्यवाहार अंतरे पण छेडिले चरिते एक जोयासस । अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकारकस्योपरितनाच्य रमान्तात् परतो यः पङ्कबलस्य काएकस्योपरितनश्चरमान्तस्तत् कियत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरं प्रप्तं भगवानाह गौतम ! बोमश योजनसहस्राणि श्रबाधया अन्तरं प्रप्तम् । [ इर्मी से णमित्यादि ] श्रस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या रत्नकाएकस्योपरितनात् परमान्तात परतो या पबलस्योपरितनध रमान्त एतदन्तरं कियत् अबाधया प्रहृतं भगवानाह गौतम ! एकं योजनशतसहस्रमबाधया श्रन्तरं प्रप्तम् । पंकबहुलस्स णं कंमस्स उबरिलाओ चरमंताओ हेहिले चरमंते एस णं चोरासी जोयणसयसदस्साई अबाहार अंतरे पत्ते ॥ श्रेयांजिनं पब करमं द्वितीयं तस्य च बाहस्यं चतुरशी तिः सदस्राणीति वचनार्थ इति स० । प्रायबहुलस्स उवरि एक जोयणसय सदस्सं हेहिले चरिमंसी उत्तरं जोयणसयसहस्सं । घणोदधिस्स उवरि असी उत्तरं जोजणसयसहस्सं हे डिले चरिमंते दो जोयएसपसह स्साई | अस्या प्रदन्त ! रत्नप्रनायाः पृथिव्या रत्नकाएक स्योपरितनाचरमान्तात् परतोऽब्बहुलस्य योऽधस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियत् श्रवाधया प्रकृतं भगवानाह गौतम ! अशीत्युक्तरं योजनशतसहस्रं घनोद धेरुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वच नमीत्युत्तरयोजनशतसहस्रम स्तने पृष्ठे इदं निध योजनशतसहस्रे अवाधया अन्तरं प्रप्तम् । ( १७ ) रत्नप्रभादिभ्यो घनवातादेः ॥ इसी से भंत ! रयणप्पनाए पुढवीए घणवातस्स उब-रिचरिते दो ससस्सा देहिचे चरि खेज्जाई जोगणसयसदस्साई इम से णं भंते! स्वप्नाए Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) अभिधानराजेन्द्रः । अंतर goale तवास्स उवरि चरिमंते असंखेजाई जोयलमहमाई अाधार अंतरे देवि संखेजाई भोया मनसस्साई एवं उतरे वि घनवातस्योपरितने वरमाले पृष्ठे इदमेव निवर्त घनोदध्य धस्तन वरमान्तस्य घनवातोपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नत्वात् घनवातस्याधस्तने चरमान्ते एतन्निर्वचनम् । श्रसंयेयानि योजनशतसहस्राण्यबाधया अन्तरं प्रप्तम् । एवं तनुवातस्योपरितने चरमान्ते अवकाशान्तरस्याप्युपरितने चरमा=ते इत्थमेव निर्वचनं वक्तव्यम् । श्रसंख्येयानि योजनशतसह बाधया अन्तरं प्रप्तमिति । सूत्रपाठस्तु प्रत्येकं सर्वत्रापि पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं परिभावनीयः सुगमत्वात् । सकरप्पभाए भंते! पुढी ए उवरिह्नातो चरिमंतातो हेडि चरिमंते एस णं केव तियं बाधाएं अंतरे पत्ते गोयमा ! बीमुत्तरं जोषणसतसहस् अवाधार अंतरे पचे सकर पाए भंते! पुढची उवरि घणोदधिस्स डेट्टिले चरिमंते के लिये अवाहा अंतरे पाप गोमातरं नोयमयसदस्मं भवाचा पनवातस्स अमंलाई जोयणसहस्सा प सचाई एवं जात्र वासंतरस्स वि जाय असचमाए। रावरं सेवा ते घणोदर्ह संबंधेगव्बो बुद्धीए मक्करप्पभाए अणुमारेण घणोदधिमहिताणं इमं पमाणं । वानुयप्पभाए अटवाल मुत्तरं नयनस्सं पंकप्पभाए पुडीए चत्तालीमुत्तरं जोयसतसहस्सं धूमप्पनाए पृढवीए अट्ठतीमुत्तरं जीवनमस्सं समाए पुदीए मृत जो सतसहस्सं अस्सत्तमाए पुढवीए श्रद्वावमुत्तरं जायसतसहस्सं जाव अहंसत्तमाए । एस णं भंते ! पुढत्रीए उरात चरितानो पारस हेडले चरिते केवनियं अवाचार अंतरे पण गोयमा ! असा सोय यसस्साई अवाधार अंतरे पासे || द्वितीयस्या जदन्त ! अस्याः पृथिव्या उपरितनाश्चरमान्तात् परतो योऽधस्तनश्चरमान्त एतत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरं प्रकृतं भगवानाद गौतमद्वा योजनशतसहस्रम् श्रवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं घनोद धेरुपरितने मान्ते पृष्ठपदेय निर्वाच योजनशतसहस्रम अपने चरमान्ते पृठे यं निर्वचनं द्विपञ्चाशतरं] योजनशसस्त्र देवतास्पोपरितनचरान्तपृच्छायामपि धनवातस्यास्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरोरु. परितनाधस्तमचरमान्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा बक्तव्यमसंख्येयानि योजनशतसहस्राएयबाधया अन्तरं प्रशप्तमिति चकव्यमिति ज्ञावः (तचाप णं नंते इत्यादि ) तृतीयस्या नदन्त ! पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् अघस्तनश्चरमान्त एतदन्तरं कियत् अबाधया प्रकृतं भगवानाह । श्रष्टाविंशत्युत्तरम् अ-विशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञतम् । एतदेव घनोद घेरुपरितनचरमान्तपृच्छायामपि निर्वचनम् अधस्तन चरमान्तपृच्छायामष्टचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रमबाधया अन्तरं प्रप्तमिति वक्तव्यम् । एतदेव घनवातस्योपरित अंतर नेचरमान्तपृच्छायामपि अधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवानावकाशान्तरोरुपरितनाधस्तनचरमान्तपृच्छासु च यथा रत्नप्रजायां तथा व्य एवं चतुर्थपत्रममपृथिवीत्रिययसुत्राण्यपि भावनीयानि जी० ३ प्रति छट्ठी पुढी बहुमतदेसभायात्र छट्ठस्स घणोदहिसडि चरमंते एस से एगुणास तिमोयणसहस्साई अपाहार अंतरे पाणये ॥ अस्य नावार्थः पृथिवं हि बाहल्यतो योजनानां न बो मश सहस्राणि भवन्ति । घनोदयस्तु यद्यपि संप्तापि प्रत्येकं विंशतिसहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्यस्य मतेन पष्ठधामसावेसाहित् घनोदधिप्रमाणं चैकविंशतिरित्येव मे कोनाशीतिर्भवति । ग्रन्थारमतेन तु सर्वोदयांनां विंशतियोजन सह क्षपाहयत्वापचमाश्रित्येदं सूत्रमवलेयं यतस्तद्वाहल्यमष्टादशोत्तरं लकमुक्तं यत आह । “पढमा सीइसहस्सा, १ वत्तीसा २ अठवीस ३ वीसा ग ४ । अठार ५ सोल ६ अटु य, ७ सहस्सल खोयरिं कुज्जन्ति " ॥ १ ॥ श्रथवा पष्ठयाः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो विबकित एवमर्थसूत्रकत्वाद्वद्दुशब्दस्येति ॥ १८ ॥ [१८] रत्नप्रभादीनां परस्परमन्तरम् । इस से जंते रायभा पुढवीए सकरप्पनाए य पुवीए के वइयं अवाहाए अंतरे पत्ते ? गोयमा ! असंखेजाई जोअणसमाई बाहार तरे ने सकरपनाए भंते! पुढवी बाप्पा व पुढची केषइय एवं एवं जाब तमाए असत्तमाए व सनमाए भंते! पुढवीए लोगस्स य केवध्यं प्रवाहा अंतरे पाते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोश्रण सदस्साई अाहार अंतरे पत्ते । इमी से णं नंते ! रयणप्पभाए घुवीर जोइसियस्स केवइथं पुच्छा, गोयमा ! सत्तणउजोअएसए अवाहाए अंतरे पात्तं ॥ “ इमी से रामित्यादि " ( अवाहे अंतरेति ) बाधा परस्परं संश्लेषतः पीडनं न बाधा अबाधा तया अबाधया, अबाधया यदन्तरं व्यवधानमित्यर्थः । इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्यधेषु वर्तमानो स्तरव्यवच्छेदेन व्यवधानार्थ परिग्रहार्थ मबाधाग्रहणम् (श्रसंखेजाएं जोयणसहस्साइं ति) इह योजनं प्रायः प्रमाणाङ्गलनिष्पत्रं मायं नगपुचिचिमाणा मिरासुयमासंगुले तु " इत्यन मगादिग्रहणस्योपलक्षणत्यादन्यथा आदित्यप्रकाशादेरपि प्रमाणयोजनाप्रमेयता स्यात्तथा बाधा लोकप्रामेषु तत्प्रकाशाप्राप्तिः प्रात्यात्माहूलस्थानिय तत्वेनाव्यवहाराङ्गतया रविप्रकाशस्योच्छ्रययोजनप्रमेयत्वातस्य चातिलघुत्वेन प्रायोजन प्रमित क्षेत्राणामप्राप्तिरिति । यच्चेषत्प्राग्भारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं तदुच्छ्रयाइलनिष्पन्नयोजनप्रमेयमित्यनुमीयते यतस्तस्य योजनस्योप रितनक्रोशस्य यागे सिद्धावगाहना धनुस्त्रिभागयुक्तत्रयस्त्रिंशदधिकधनुः शतत्रयमानाऽभिहिता भावोच्छ्रययोजनाश्रयणत एवं युज्यत इति उक्तं च "ईसिप्पन्भाराप, उवरिं खलु जोअणस्स जोकोसी । कोसस्स व छम्भाए, सिद्धाणोगाहणा भलियत्ति " भ० १४ श० ७ उ० । 66 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अनिधानराजेन्द्रः। अंतर [१९] निषधकूटस्य उपरितलाच्छिखरतलात्सम- न्तश्वरमविभागो वा यावताऽन्तरेण भवति (एसएंति) पतधरणितलस्यान्तरम् ।। दन्तरं द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि प्रशप्तमन्तरशब्देन विशेनिसढकूमम्स णं उवरिल्लाओ सिहरतलाओ णिसढस्स षोऽप्यभिधीयते इत्यत प्राह (अबाहाएत्ति )व्यवधानापेक्षया वासहरपचयस्स समधरणितले एस णं नवजोयणसयाई यदन्तरं तदित्यर्थः स० १०६ पत्र । प्रवाहाए अंतरे पठात्ते एवं नीलवंतकूडस्स वि ।। मंदरस्स णं पव्वयस्स पचत्थि मिलाओ चरमंतानो गो(निसहकूडस्स णमित्यादि ) इहायम्भावः निषधकूटं पञ्च थूभस्स णं आवासपव्ययस्म पच्चस्थिमिल्ले चरमंत एस एं शतोच्छ्रितं निषधश्च चतु-शतोच्छित इति यथोक्तमन्तरम्भव- सत्ताण उई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पमत्ते एवं तीति । सः। चनहिसि पि। निषधपर्वतस्य रसप्रभाया बहुमध्यदेशभागो यथा । भावार्थोऽयं मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपस्यान्तः पञ्चपञ्चानिमदस्म णं वासहरपन्बयस्स उपरिक्षाको सिहरतलाओ शत् सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशतो गोस्तूभ इति यथोक्तमेइमी से णं रयणप्पनाए पुढवीए पढमस्म कंमस्स बहुम- वान्तरमिति स० १५२ पत्र. । जादेसभाए एस णं नवजोयणसयाई अबाहाए अंतरे प- मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओं गोचजस्म छाते एवं नीलवंतस्स वि । आवासपव्ययस्स पञ्चस्थिमिझे चरमंते एस णं वाण उइं जो(टीका नास्तीति न गृहीता) स०१६२ पत्र. यणसहस्साई अन्बाहाए अंतरे पलत्ते एवं चनाह वि आ[२०] पुष्करवरद्वाराणामन्तरम् । वामपन्बयाणं । पुक्खरवरस्त जंते! दीवस्स दारस्म य दारस्य य एस भावार्थो मेरुमध्यभागात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत् सहस्राणि णं केवतियं अबाहाए अंतर पामते ? गोयमा ! "अमया ततो द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तूभपर्वत इति लसयसहस्सा, बावीसं खल भवे सहस्साई। अगुणात्तराई। सूत्रोक्तमन्तरम्भवतीति । एवं शेषाणामपि म० १४५ पत्र. । चनरा, दारंतरं पुक्खरवरस्स"॥ [२२] मन्दरामौतमस्यान्तरं यथा । प्रश्नसूत्र सुगमं भगवानाह गौतम ! अष्टचत्वारिंशत् योजन मंदरस्स ण पचयस्म पुरथिमिवाओ चम्मंताओ गोशतसहस्राणि द्वाविंशतिसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि यमदीवस्स पुरथिमिझे चरमंते एस णं सत्तसढि जोयणमएकोनसमतिर्वारस्य च परस्परमबाधयाऽन्तरपरिमाणम् । हस्साई अवाहाए अंतरे पत्ते । तथाहि चतुर्मामपि द्वाराणामेकत्र पृथुत्यमीलने अष्टादश यो मेरोः पूर्वान्ताज्जम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगतीयाह्यान्तपर्यवजनानि तानि पुष्करवरद्वीपपरिरयपरिमाणात् (१६२८६८६४) सानः पञ्चपञ्चाशद्योजनसहस्राणि तावदस्ति ततः परं हादशइत्येवंरुपात् शोध्यन्ते शोधितेषु च तेषु जातमिदमेका योज योजनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमझमध्ये गौतमहीपानिधानकोटी द्विनवतिशतसहस्राणि एकोननवतिसहस्राणि अष्टौ नो डीपोऽस्ति तमधिकृत्य सूत्रार्थः सम्नयति । पञ्चपञ्चाशता शनानि पदसप्तत्यधिकानि (१६२८१८७६) तेषां चतुर्भिर्भागे द्वादशानां च सप्तपष्टित्वभावात् । यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गौतमहृते लब्धं यथोक्तं द्वाराणां परस्परमन्तरपरिमाण (४८२२४६६) शब्दो न दृश्यते तथाप्यसौ दृश्यः जीवानिगमादिषु लवणसमिति जी० ३ प्रनि। मुझे गौतमचन्द्ररविद्वीपान् विना द्विपान्तरस्याश्यमाणत्वादि[२१] सन्दराद् गोस्तूभादीनामन्तरम् । ति । स० १२५ पत्र.। मंदरस्स णं पञ्चयस्म पुरथिमिल्लाओ चरमंतानो गो मंदरस्स पव्वयस्त पञ्चस्थिमिवानो चरमंताओ गोयमदीयूजस्म आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमंते एस एं वस्म पञ्चत्यिमिझे चरमंते एस णं एगूणसत्तरि जोयअट्ठासी जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पलने एवं सहस्साई अवाहाए अंतरे पालत्ते ।। च उसु वि दिसामु नेयव्धं म० १४६ पत्र । लवणसमुदपश्चिमायां दिशि द्वादशयोजनसहस्रारायवगाह्य मेरोः पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रमा द्वादशसहस्रमानः सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुडाधिपतेभवनेनत्वातू जम्बूद्वीपान्ताच्च द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्त- नालंकृतो गौतमीपो नाम द्वीपोऽस्ति तस्य च पश्चिमान्तो मेगः भस्य व्यवस्थितत्वासम्य च सहस्रविष्कम्भवाद्यथोक्तः सूत्रा पश्चिमान्तादे कोनसप्ततिसहस्राणि भवन्ति पञ्चचत्वारिंशतो र्थी भवतीति । अनेनैव क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दका- जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्तरसम्बन्धिनां द्वादशानामवं वभासशकदकसीमाख्यान् बेलन्धरनागराजनिवासपर्वताना- द्वीपविष्कम्नसम्बन्धिनां च मीलनादिति । श्रित्य वाच्यमत एवाह एवं चउसु वि दिसासुनेयम्वमिति'स। (२३) मन्दरस्य दकभासस्यान्तरमू। , जंबर्दीवस्स एं दीवस्म पुरथिमित्राओ चरमंताओ गां मंदरस्म एं पव्वयस्स दक्खिणिवा चरमंताओ दगभा. यूभस्म णं आवामपचयस्स पचत्यिमिद्धे चरमंते एस एं सस्स आवासपवयस्स नत्तरिल्ले चरमंते एस एणं सत्तासीई बायालीसं जोयणमहस्साई अवाहाए अंतरे परमत्ते एवं जोयणसहस्माई अवाहाए अंतरे पापात्ते एवं मंदरस्म पञ्चचनदिसि पि दगभासे संखोदयसीमे य । ( पुत्थिामल्लात्ति) जगनीबाह्यपरिधेरपसृत्य गोस्तृभ थिमिल्लाप्रो चरमंताओ मंखस्म वा पुरस्थिमिद्धे चरमंते एवं स्वासपर्यतस्य बेलन्धरनागराजमंबान्धनः पाश्चान्यमीमा- | चेव मंदग्स्स नुनरिक्षामा चम्मंताओ दगसोमस्स आवा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर (७४) अंतर अभिधानराजेन्षः। सपन्बयस्स दाहिणिद्वे चरमंते एम णं सत्तासीई जोयण-1 पंचाणउसहस्साई दुलि य असीए जोयणसए कोसं च सहस्साई प्रवाहाए अंतरे परमत्तेम० १६० पत्र.। दारंतरे लवणे जाव अबाहाए अंतरे पमत्ते ॥ ___ महाहिमवतोऽन्तरं यथा ॥ लवणस्य भदन्त समुषस्य द्वारस्य द्वारस्य [पसणमिति]पतमहाहिमवंतस्स बासहरपब्वयस्स समधरणितले एस एं तु अन्तरं कियत्या अबाधया अन्तरालस्वाद व्याघातरूपया प्राप्त सत्तजोयणसयाई अबाहाए अंतरे पाणते एवं रुप्पि- जगवानाह गौतम ! त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चनवति सहस्राणि अशीतीद्वे योजनशते क्रोशको द्वारस्य द्वारस्यावाकूमस्स वि॥ धया अन्तरं प्राप्तम् । तथाहि एकैकस्य धारस्य पृथुत्वं चत्वानावार्थोऽयं हिमवान् योजनशतद्वयोतिस्तत्कूटं च पञ्च रियोजनानि एकैकस्मिश्च द्वारे एकैव द्वारशाखा कोशवाहल्याद् शतोतिमिति सूत्रोक्तमन्तरम्भवतीति स०१४४ पत्र.। द्वारे चवद्वेशाने ततः एकैकस्मिन् द्वारे सामस्त्येन चिन्त्यमहाहिमवंतकमस्स एं उपरिमंताओ सोगंधियस्स कंग- माने सार्द्धयोजनचतुष्टयप्रमाणं प्राप्यते चतुर्णामपि च द्वारणास्म हेहिले चरमंते एस णं सत्तासीइजायणसयाई अबा- मेकत्र पृथुत्वमीलने जातान्यष्टादश योजनानि तानि लवणसमुहाए अंतरे परमत्त एवं रुप्पिकमस्स वि । रुपरिरयपरिमाणात् पञ्चदशशतसहस्राणि एकाशीतिः महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टौ सिकायतनकूटमहा सहस्राणि एकोनचत्वारिंशद्योजनशतमित्येवं परिमाणादपनीय हिमवत्कूटादीनि फूटानि भवन्ति तानि पञ्चशतोच्छूितानि तत्र च यच्छेषं तस्य चतुर्भिर्भागे हते यदागवति तत् द्वाराणां परमहाहिमवत्कृटस्य पञ्च शतानि शते महाहिमवर्षधरोच्चू स्परमन्तरपरिमाणं तश्च यथोक्तमेव । उक्तं च "असीया दोन्नि यस्य प्रशीतिश्च शतानि प्रत्येकं सहनमानानामष्टानां सौगन्धि सया, पणन सहस्सातन्नि लक्खा य । कोसो य अंतरं सा गरस्स दाराण विनयं" जी०३प्रति । ककारामावसानानां रत्नप्रभाखरकाएमावान्तरकारमानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्नम्नवतीति । (पवं रुप्पिकूमस्सवित्ति) [२६] वमवामुखादीनामधस्तनाश्चरमान्ताद्रत्नरुक्मिणि पशमवर्षधरे यद् द्वितीयं रुक्मिकटाभिधानं कूटं तस्या प्रनाया अधस्तनश्चरमान्तः । प्यन्तरं महादिमवत्कृटस्येव वाच्यं समानप्रमाणत्वाद् द्वयो- वलयामुहस्स पं पायालस्स हिद्विद्वानो चरमंताओ पीति स०१३० पत्र.। इमीसे रयाप्पनाप पुढवीए हटिस्ले चरमंते एस णं महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्यान्तरं यथा। एगणासिं जायणसहस्साई अवाहाए अंतरे पएणते एवं महाहिमवंतस्स एं वामहरपव्ययस्म परिक्षामो चरम के उस्स वि ज्यस्स वि सरस्म वि। ताप्रो सोगंधियस्स कमस्म हेहिल्ने चरमंते एसएं बासीई तत्र [बसयामुहस्मत्ति] वम्वामुखानिधानस्य पूर्व दिग्व्यवजोयणसया प्रवाहाए अंतरे पएणत्ते । स्थितस्य [पायालस्मत्ति महापातालकाशस्याधस्तनचरमामहाहिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतस्य योजनशतद्वयोतिस्य न्ताद्रत्नपनापृथ्वीचरमान्त एकोनाशीत्या सहसेपु जवति । कथं (नवरिद्वाोत्ति) उपरितनाश्चरमान्तात् सौगन्धिककागमस्या- रत्नप्रना हि अशीतिसहमाधिकं योजनानां लकं वाहल्यतो जधस्तनश्वरमान्तो धशीतियोजनशतानि कथं रत्नप्रजापृथिव्यां वति तस्याश्चैक समुझावगाहसह परिहत्याऽधो बक्षप्रमाणाहि त्रीणि कामानि खरकाएमपङ्ककारमा बहुलकारमानि खर- घगाहो बलयामुखपातालकलशो भवति ततस्तचरमान्तात् काए पकाएममबहुलकाए; चेति । तत्र प्रथमं काए पृथिवीचरमान्तो यधोक्तान्तरमेव जयति । एवमन्येऽपि त्रयो पोमाविधं तद्यथा रत्नकाण्डं १ घनकाण्डम् २ एवं वैमूर्य ३ वाच्या इति स०१३६ पत्र.। मोहिताक ४ मसारगन ५ हंसगर्न ६ पुलक सौगन्धिक [२७] विमानकल्पानामन्तरम् । ज्योतीरसाए जना १० जनपुत्रक ११ रजत १२ जातरूप १३ जोसियस्स ते ! सोहम्मीमाणाण य कप्पाएं प१४ स्फटिकर५रिएकाण्डं चेति १६पतानिच प्रत्येकंमहर प्रमाणानि ततश्च सौगन्धिककाएमस्याएमत्वादशीतिशतानि वे केवश्यं पुका? गोयमा! असंखेज्जाई जोअणसहस्साई चशते महाहिमवदुच्चय इत्येवं त्र्यशीतिशतानीति एवं रुक्मि- जाव अतरे पएएचे सोहम्मीमाणाणं भंते ! सणकुमारणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्य वाच्यं महाहिमवत्समानांच्चयत्वा- माहिंदाण य केवश्यं एवं चेव सणंकुमाग्माहिंदाणं भंते ! तस्येति स० १६५ पत्र.। बंभलोगस्स कप्पस्स केवश्यं एवं चेव वंभोगस्स णं ते! __ (७४) लवणसमुच्चरमान्तयोरन्तरं यथा । लंतगस्म य कप्पस्स केवश्यं एवं चेव लंतगस्स " नंते ! लवणस्स णं समुदस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पञ्च महामुक्कस्म य कप्पस्स केवइयं एवं चेव महामुकस्स ग . स्थिमिस्ले चरमंते एन ए पंचायणमयमहस्माई अवा कप्पस्स सहस्सारस्स य एवं सहस्मारस्म आणयपाणयकहाए अंतरे पहाते ॥ तत्र जम्बूद्वीपस्य लकं चत्वारि व लत्रणस्येति पञ्च । स० पाणं एवं आणयपाणयाणं आरणच्चयाण कप्पाणं एवं १६५ पत्र। आरणच्चुयाणं गेविजगविमाणाण य एवं गेविज्जगविमा(२५) लवणसमुद्धाराणामन्तरं यथा। णाणं अत्तरविमाणाण य एवं आपत्तविमाणाणं ते! सवणस्स ण समुहस्स दारस्य य दाररस य केवयं अबा-] इसिप्पभाराए पुढवीए केवइयं पुच्छा ! गोयमा दुवालस हाए अंतरे पासते. गोयमा ! तिथि जोयणसयसहस.ई| जोयणे अवाहाए अंतरे पाने ज०२४ २०८०। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर (७५) अनिधानराजेन्डः। अंतर [रीका सुगमत्वान्न गृहीता] सागरोपमसहस्र संख्येयवर्षाभ्यधिके यावानेव हि प्रसकायस्थ [विवक्षितस्वन्नावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावाप्राप्तिविरहे आनु कायस्थितिकालस्तावदेवैकेन्द्रियस्यान्तरं प्रसकायस्थितिका. पूर्वीद्रव्याणामन्तरम् आणुपुब्बी शब्दे] लश्च यथोक्तप्रमाण पव तथा वक्ष्यति । "तसकाए णं भंते ! [२८] श्राहारमाश्रित्य जीवानामन्तरम् । तसकायत्ति कालतो केवचिरं होई गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहु। छनमत्याहारगस्स णं नंते ! केवतियं कालं अंतरं हो संउकोसणं दो सागरोवमसहस्साई संखज्जवासा अजहियाई" गोयमा! जाएगणं एक समयं उक्कोसेणं दो समया। केव द्वित्रिचतुःपञ्चन्छियसूत्रेषु जघन्यतोऽन्तमुहर्त तच्च पूर्वप्रकारे ण भावनीयमुत्कर्षतः सर्वत्रापि वनस्पतिकालःद्वीन्द्रियादियः निआहारगस्स णं अंतरं अजहएणमणुकामेणं तिएिण स उत्त्य वनस्पतिषु यथोक्तप्रमाणमनन्तरमपि कानमवस्थानात मया छनमत्थअणाहारगस्स अंतरं जहएणणं खुडगभव- यथैवामूनि पञ्चसूत्राएयन्तरविषयाएयौधिकान्युक्तानि तवैव गहणं दुममऊणं उक्कोसेणं अमखज्ज कालं जाव अंगुल- पर्याप्तविषयाणि अपर्याप्तविषयाण्यपिभावनीयानि तानि चैवम्। स असंखेज्जतिभागं । सिचकेवलित्रणाहारगस्स सात "एगिदियअपजत्ते" त्यादि एवं पञ्चपर्याप्तसत्राएपपि वक्तव्या नि । जी. ५ प्रति०।[उत्पादमधिकृत्यान्तरम उववाय शम्दे ] यस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं सजोगिजवत्यकेव [३०] कषायमाश्रित्यान्तरम् । लिप्रणाहारगस जहमेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं वि अंतो कोहकसाई-माणकसाई-मायाकसाई णं भंते ! अंतरं? मुदुत्तं अनागिनवत्यकेवलिअणाहारगस्स नत्यि अंतरं ।। गोयमा! जहमेणं एकं समयं जक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं लोभप्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह गौतम ! जघन्येन क्षुबकभवग्रहणं कमायियस्म अंतरं जहएणणं अंतोमहत्तं नकोसेण वि दिसमयोनमुत्कर्षताऽसंख्ययं कानं यावदङ्गलस्यासंख्येयो भा. गः यावानेव हि छद्मस्थस्याहारकस्य कालस्तदेव छमस्थाना अंतोमुहुतं कसाई तहेव जहा हेवा । हारकस्यान्तरं छद्मस्थाहारकस्य च जघन्यतः कालोऽन्तमहूर्त क्रोधकपायिणोऽन्तरं जघन्येनैकं समयं तपशमसमयानन्तरं मुत्कर्षतोऽसंख्येयाः उत्सपियवसर्पिण्यःकालतः केत्रतोऽनन मरण नूयः कस्यापि तदयात् उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमेवं मानक पायिमायाकपायिसूत्रे अपि वक्तव्ये "लोभकसायियम्स अंतरं स्यासंख्ययो भागः एतावन्तं कालं सततमविग्रहेणोत्पादसंजबा जहमेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं अकसाई तहेव । त् । ततः छमस्थानाहारकस्य च जघन्यत उत्कर्षनश्चैतावदन्तरं । जहा हेट्ठा" । सर्व० जी०४ प्रति० । चेति जो ३ प्रति०।[अधिकं खुडागभवग्गणशदे नवरम] |. सयोगिभवस्थ फेवल्यनाहारकस्यान्तरमभिधिसुराह । “स कायमाश्रित्यान्तरम् । जागिभवत्थकेवलि प्रणाहारगस्सण नंते " इत्यादि प्रश्न सु- पुढवीकाझ्यस्म णं जले ! केवतियं कालं अंतरं होति. गर्म जगवानाह । गौतम ! जयन्येनाप्यन्तर्मुहर्तमुत्कर्षेणाप्यन्त. गोयमा ! जहम्मेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं वणस्सतिकालो मुहर्त समुद्रातप्रतिपत्तेरनन्तरमेवान्तर्मुहर्तेन शैलेशाप्रतिपत्ति- एवं आनतेउवाचकाइयतसकाइयाण विवणस्सइकायियस्स भावान् नवरं जघन्यपदान्कृष्टपदं विशेषाधिकमवसातव्यम पुढविकालो एवं पजत्तगाण विवणस्सतिकालो। वणस्सइन्यथोभयपदोपन्यासायागात् अयोगिभवस्थकेवल्पनाहारकसू. नास्त्यन्तरमयोग्यवस्थायां सर्वस्याप्यनाहारकत्वात् । एवं काइयाणं पुढविकाला पज्जत्तगाण वि एवं चेव वणस्सतिमिकस्यापि साद्यपर्यवसितस्यानाहारकस्यान्तरानाचो भाव कालो पज्जत्ताणं वणस्सतीणं पुद विकालो । मायः जी०३ प्रति०॥ प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह गौतम ! जघन्येनान्तर्मुस पृथिवी[२६] इन्छियमाश्रित्यान्तरम् । कायापुकृस्याऽन्यत्रान्तर्मुहुर्त स्थित्वा भूयः पृथिवीकायिकत्वेन एगिदियस्स णं भंते ! एगिदियस्त अंतरं कालतो केव चिरं कस्याप्युत्पादात उत्कर्षतोऽनन्तं कालं स चानन्तकालः प्रागु क्तस्वरूपो वनस्पतिकात्रः प्रतिपत्तव्यः पृथिवीकायादुकृत्यैताहोति गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं एकोसेएं दो सागरो वन्तं कासं वनस्पतिववस्थानसम्नवात पवमोजोवायुत्रसबमसहस्साई संखज्जवासमभाहियाई। वेदियस्स णं भंते ! | सूत्रापयपि नावनीयानि वनस्पतिसूत्रे उत्कर्षतोऽसंख्येयं कासं अंतरं कालतो केव चिरं हो गायमा ! जहएणणं अंता- "असंखजाओ उस्सप्पिणीयो काबतो खत्ततो असंखेज्जा लोगा" मुहुत्तं उक्कोमेणं वणफतिकानो एवं तदियस्स वि चन- इति वक्तव्यं वनस्पतिकायापुकृत्य पृथिव्यादिष्यवस्थानात् ते रिदियस्स वि णेरझ्यस्म वि पंचिंदियतिरिक्ख जोणियस्स च सर्वप्वप्युत्कर्षतोऽप्येतावत्कालभावात् जी० ६ प्रतिः । वि मणूसस्स वि देवस्म वि सन्चेसिं अंतरं भाणियन्वं ॥ [३१] गतिमाश्रित्यान्तरं यथा । भन्तरचिन्तायामेकेन्जियस्य जघन्यमन्तमहसमुत्कर्पतो सा नेरइयस्स अंतरं जहणं अंतोमुहुत्तं जक्कासेणं वणस्मगरांपममहस्र संख्येयवर्षाच्यधिके द्वित्रिचतुरिन्द्रियनरयिकति तिकालो एवं मन्वाणं तिरिक्खजोणि यवज्जाणं निरिक्षयंपञ्चेनियमनुष्यदेवानां जघन्यतःप्रत्येकमन्तर्मुहर्तमुत्कर्पतो जोणियाणं जहमेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसप्तवनस्पतिकालः[सर्व०जी०८ प्रति] "एगिदियस्सणं ते! अंतरं पुहुत्तं सातिरेगं ॥ कालता केवचिरं डाइ" इति प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह । गौतम! नैरयिकस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहर्त तश नरकासुकृत्तस्य तिर्यजघन्येनान्तर्मुहतं तच्चैकेन्द्रियादुदत्य द्वान्जियादाव-तमहत | ग्मनुष्यगर्न पवााभाध्यवसायन मरणतः परिभावनीयं सानुखित्वा नूय पकेन्ज्यित्व नात्पद्यमानस्य वेदितव्यम्।उत्कर्षतो बन्धकम्मफलमेतदिति तात्पर्याधः । सत्कर्षतोऽनन्तं कालं स Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अभिधानराजेन्द्रः। अंतर चानन्तः कालो वनस्पतिकालो नरकासुकृत्तस्य पारम्पर्येणा अवर पोग्गनपरियट्ट देसणं अन्नाणिस्स दोएह वि आदिमन्तं कासं वनस्पतिध्ववस्थानात तिर्यग्योनिकसूत्रे जघन्यताऽ द्वाणं णत्थि अंतरं सातियस्स सपज्जवसियस्स जहमेणं न्तमहत्तै तन्त्र तिर्यम्योनिकभवावृत्यान्यत्रान्तमुहर्त स्थित्वा नयः तियग्यानिकत्वेनोत्पद्यमानस्य वेदितव्यमन्कर्षतः सागरो अंतोमुदुत्तं उक्कोसेणं गवाह सागरोवमाई सातिरेकाई। पमशतपृथक्त्वं सातिरेकं तिर्यग्योनिकसूत्रे मनुष्यसत्रे मानुषी कानिनो भदन्त ! अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति जगवानाढ मूत्र देवसूत्रे च जघन्यतोऽन्तर्मुहर्समुत्कर्षतो वनस्पतिकालः गौतम! सादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वेन जी० ७ प्रति। सदा तद्भावापरित्यागात् सादिकस्य सपर्यवसित्स्य जघन्येनैरयिकस्य । नान्तर्मुहूर्तमेतावता मिथ्यादर्शनकालेन व्यवधानेन नूयोऽपि नेरक्ष्यमणुस्सदेवाणं य अंतरं जहएणेणं अंतोमुहुत्तं उ झानन्नावात् नरकर्षण अनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसाफकोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेगं ।। एपः कालतः केत्रतोऽपार्द्ध पुजलपरावर्त देसोनं सम्यम्हःसनैरयिकस्य भदन्त ! अन्तरं नैरयिकत्वात्परिभ्रएस्य भूय प्रा. म्यक्त्वात् प्रतिपतितस्य एतावन्तं कालं मिथ्यात्वमनुनूय तदमेरयिकत्वमाप्रपान्तरानं कालतः कियश्चिरं भवति कियन्तं कानं नन्तरमवश्यं सम्यक्त्वासादनात् "अम्माणिस्स णं नन्ते!" इत्यायावद्भवतीत्यर्थः । भगवानाह जघन्येनान्तर्मुहुर्त कमिति चेत् दि प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह गौतम ! अनाद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्यादेवमनादिपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तर उच्यते नरकादुकृत्त्य मनुष्यभवे तिर्यग्नवे वा अन्तर्मुदृर्त स्थि मवाप्तकेवलज्ञानस्य प्रतिपाताभावात सादिपर्यवसितस्य अघस्वा भूयो नरकंकृत्पादात । तत्र मनुष्यभवे भावना श्यं कश्चि न्येनान्तर्मुहूर्त जघन्यस्य सम्यग्दर्शनकालस्य पत्तावन्मात्रत्वात् भरकादुकृत्य गर्भजमनुष्यत्वेगोत्पद्य सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तो विशिष्टसंझानोपतो क्रियाधिमान् राज्याद्याकाङ्की परचक्रा उत्कर्षतः पट्पटिनागरोपमाणि सातिरेकांणि एतावतोऽपिकाग्रुपवमाकर्य स्वशक्तिप्रनावतश्चतुङ्गं सैन्यं विकुर्वित्या सं लादृर्व सम्यग्दर्शनप्रतिपातेसत्यज्ञानभावात् जी.सर्वजी.१प्रति. ग्रामयित्वा महारौषभ्यानोपगतो गर्भस्थ पव कामं करोति मानिनिबोधिकादेरन्तरम् । कृत्वा च कालं नृयो नरकेषूत्पद्यते तत पवमन्सच्दूत तिर्यग्भवे श्रीनिणिवोहियणाणिस्स णं भंते ! अंतर कालो केव नरकादुकृत्तो गर्भव्युत्क्रान्तिकतन्डलमत्स्यत्वेनोत्पन्नश्च महा- चिरं होई गोयमा ! जहणणेणं अंतोमुदुत्तं नकोसणं असध्यानापगतोऽन्तमुहर्त जीवित्या भूयो नरके जायते इति पंतं कालं जाव अवर्ल पोग्गलपरियह देसएं एवं सुगणाउत्कर्षतोऽनन्तं कालः परम्परया च वनस्पतिपत्पादादवसातव्यस्तथाचाह वनस्पतिकालः स च प्रागेयोक्तः तिर्यग्योनिकवि णिस्म वि ओहिणाणिस्म वि मणपज्जवणाणिस्स वि केषयं प्रश्नसूत्रं पूर्ववत् निर्वचनं जघन्येनान्तमुहर्ततच्न कस्यापि वलणाणिस्स णं भंते ! अंतरं सादियस्स अपजवसियनिर्यकत्वेन मुक्त्वा मनुष्यभवेऽन्तर्मुहत स्थित्वा नूयः निर्यक्त्व- स्स पत्थि अंतरं । मति अएणाणिस्स णं भंते ! अंतरं नोत्पद्यमानस्य द्रव्यम उत्कर्षतः सातिरेकं सागरोपमशतपृथ अणादियस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं । अणाइस्त्वं तच नैरन्तर्येण देवनारकमनुप्यनयभ्रमणेनावसातव्यं मनुविषयमपि प्रश्नसत्रं तथैव निर्वचनं जघन्येनान्तर्महतं तच्च यस्स सपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं । सादियस्स सपामनुष्यभवावृत्य तिर्यग्नवेऽन्तर्मुहत स्थिन्वा नूयो मनुष्यत्वेनो वसियस्त जहएणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं लावाहि सागत्पद्यमानस्यावसातव्यम् उत्कर्षतोऽनन्तं कायं सचानन्तकालः रोवमाई सातिरेगाई एवं सुयणाणिस्स वि विजंगणाणिप्रागुक्तो वनस्पतिकात्रः । देवविषयमपि प्रश्नसूत्र सुगम निर्वचनं स्स णं भंते ! अंतरं जहएगणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं वणजघन्येनान्तमुहर्स कश्चित् देवनयादच्युत्वा गर्भजमनुप्यत्वेनोत्पद्य सर्वाभिः पर्यामिभिः पर्याप्नो विशिष्टसंझानोपेतस्तथा स्सइकानो। विधस्य श्रमणोपामकस्य चा धर्मध्यानोपगतो गर्भस्थ एष अन्तरचिन्तायामाभिनियोधिकझानिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुद्रकामं करोति कालं च कृत्वा देवेन्पयते ततः एवमन्तमुहर्स तमुत्कपतोऽनन्तं कालं यावदपापुद्गलपरावर्त देशोनम् । एवं मुकतोऽनन्तं कालंस चानन्तः काझो यथोक्तस्वरूपी वनस्प श्रुतझानिनो मनःपर्यवशानिनश्चान्तरं वक्तव्यम् । केवलज्ञानिनः निकालः प्रतिपत्तव्यः जी०४ प्रतिः । (गुणस्थानकान्याधि साद्यपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरं मत्यज्ञानिनः श्रुतझानिनश्नानाद्यत्यान्तरं गुणहाण शब्द) पर्यवसितस्यानादिसपर्यवसितस्य च नास्त्यन्तरं मादिपर्यवचरिमाणं भने ! चरिमएनि कालतो केव चिरं होति सितस्य जघन्येनान्तमुहर्तमुन्कर्षतः बदष्टिः सागरोपमाणि गोयमा ! चरिमे प्रणादिए सबजनसिए अचरिम दविहे विभज्ञानिनः जघन्यतोऽन्तमुहर्तमुत्करतोऽनन्तं कालं वनस्प तिकालः जी. सर्वजी० ७ प्रनि । पाचू। ।न। अणादिए वा अपजवसिए सातीए वा अपजसिए (३२) त्रसस्थावरनोत्रमस्थावराणामन्तरम । दोएडं पि नस्थि अंतरं ।। तसस्सणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति गोयमानप्रश्नमूत्रं युगमं भगवानाह गौतम ! अनादिकस्य सपर्यवमितस्य नास्त्यन्तर चरमस्यापगमै सति पुनश्चरमत्वायोगात् अचरम हाणेणं अंतोमुहुनं उकोसेणं वणस्मइकालो थावरस्म णं स्यापि अनाद्यपर्यवसिनरय साद्यपर्यवसितस्य वा नास्त्यन्तरम भंते ! केवतियं कालं अंतर होनि गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोविद्यमानचरमत्वात् जी०४ प्रतिक। मुदत्तं उक्कोमेणं असंखेज्जारो ओमप्पिणि उस्माप्पिणीओ। ज्ञानमाश्रित्य जीवानामन्तरम् । सुगम नवरमसंख्येया उत्सर्पिण्यवसापिण्यः कालतः क्षेत्रपाणिम्म अंतरं जहलेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं णनं कालं तोऽसंख्येया लोका इत्येतावन्प्रमाणमन्तरं तेजस्कायिकवायु Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) अंतर अमिधानराजेन्डः। अंतर कायिकमध्ये गमनेनावसातव्यमन्यत्र गतायेतावत्प्रमाणस्यान्तः | ग्दर्शनकासश्च जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावानिति । सम्यग्मिथ्याररस्यासंभवात् "तस्स णं भंते ! अंतरमित्यादि" सुगम नवरं | टिसूत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त सम्यग्मिथ्यादर्शनात् प्रतिपत्त्यान्तम" उकारण बणस्सकालो" इति उत्कर्षतो वनस्पतिकालो हतेन न्यः कस्यापि सम्यग्दर्शनभावात् । उत्कर्षतोऽनन्तं कायं वक्तव्यः स चैवम । “उक्कोमेणं अणंतं कालमणताओ उस्सप्पि- यावदपार्द्ध पुफलपरावर्स देशोनं यदि सम्यग्मिथ्यादर्शनात् प्रकीयो काल तो खेत्सतो अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरिय. तिपतितस्य नूयः सम्यग्मिध्यादर्शनकानस्तत एतावता कालेन हा तेणं पोग्गलपरियट्टा प्रावलिया असंखज्जश्भागो " इति । नियमेनान्यथा तु मुक्तिः जी०२ प्रति० (निर्गन्धानामन्तरं पतावत्प्रमाणं चान्तरं वनस्पतिकायमध्यगमनेन प्रतिपत्तव्यम. निम्गंथ शब्द) न्यत्र गतावतावतोऽन्तरस्थावत्यमानत्वात् जी०१ प्रति०।। (३४) पर्याप्तिमाश्रित्यान्तरम् । तसस्स णं अंतरं वणस्सतिकालो थावरस्स तसकालो नो पजत्तगस्स अंतरं जहप्मेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेण वि अं. तमस्स नो थावरस्म णत्थि अंतरंजी. सर्वजी० श्पतिः। तोमुहुत्तं अपज्जत्तगस्स जहएणणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं दर्शनमाश्रित्य जीवानाम् । चक्खुदंसणस्स अंतरं जहएणणं अंतोमुदत्तं नकोसेणं सागरोवमसयपुदुत्तं सातिरेगं तक्ष्यस्स पत्थि अंबरं अन्तरचिन्तायां पर्याप्तकस्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहसमन्तवणस्सतिकालो अचक्खुदंसणस्म दुविहस्स पत्थि अंतरं रम् अपर्याप्तकान पव दि पर्याप्तकस्यान्तरम् । अपर्याप्तककामभोहिदसणस्स जहएणेणं अंतोमुटुत्तं नकोसेणं वणस्सइ- स्य जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुदतम् अपर्याप्तकस्य जघन्यतोऽन्तकालो केवलदसणस्म णत्थि अंतरं । मदर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेक पर्याप्तककामचक्षुर्दर्शनिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त प्रमाणेन अचक्षुदर्शनन- स्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् नोपर्याप्तनोअपर्याप्त. वन व्यवधानात उत्कर्षतो वनस्पतिकालः स च प्रागुक्तस्वरूपः स्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । अनवदर्शनिनोऽनाचपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वा परीतानामन्तरम् । त् अनादिपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरम् श्रचक्षुर्दर्शनत्वापगमे कायपरित्तस्स अंतरंजहएणणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं वणनयोऽचक्षुर्दर्शनत्वायोगात कोणघातिकर्मणः प्रतिपातासंभवात् स्सतिकाझो संसारपरित्तस्स णत्थि अंतरं काय अपरित्तस्म अवधिदर्शनिनो जघन्येनैकं समयमन्तरं प्रतिपातसमयानन्तरसमय पव कस्यापि पुनस्तल्लाभभावात् कचिदम्तर्मुहूर्तमिति जहएणेणं अंतोमुलुत्तं उक्कोमेणं असंखेज कालं । पुढविपाउसच सुगमः तावता व्यवधानेन पुनस्तल्लाभभाषात् । न कालो संसारअपरित्तस्स प्रणातियस्स अपज्जवसियस्स चायं निर्मूल पागे मूलटीकाकारेणापि मतान्तरण समर्थितत्वा. पत्थि अंतरं । अणादियस्म सपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं त् उत्कर्षतो वनस्पतिकालः तावतः कामादूर्द्धमवश्यमवधिदर्शनसंभवादनादिमिथ्यारष्टेरप्यविरोधात् ज्ञानं हि सम्यक्त्वं स नोपरित्तणोअपरित्तस्स वि पत्थि अंतरं। चैवनदर्शनमपीति नावना केवनदर्शनिनः साचपर्यवसितस्य प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्स साधारनास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात जी सर्वजी०३ प्रति०। णेवन्तर्मुहू स्थित्वा नूयः प्रत्येकशरीरेवागमनात उत्कर्षतो(३३) रष्टिमाश्रित्यान्तरम् ।। ऽनन्तं कासं स चानन्तः कालः प्रागुक्तस्वरूपो वनस्पतिकालसम्मादिहिस्स अंतरं सातियस्स अपज्जवसियस्स णस्थि स्तावन्तं कालं माधारणेष्ववस्थानात् । संसारपरीतविषयं प्रश्न सूत्रं सुगम जगवानाह गीतम! नास्त्यन्तरं संसारपरीतत्यापगमे अंतरं सातियस्स सपज्जवसियस्स जहएणणं अंतोमुदत्तं पुनः संसारपरीतत्वानावात् मुक्तस्य प्रतिपातासंभवात् । उकोसेणं प्रणतं कालं जाव अवई पोग्गलपरिय देसूर्ण कायापरीतसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहर्स प्रत्येकशरीरप्यन्तर्मुहर्स मिच्गदिद्विस्स प्रणादियस्स अपज्जवसियरस पत्थि अं- स्थित्वा यः कायागरीतेषु कस्याप्यागमनसंजवात उत्कर्षतरं प्रणादियस्स सपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं । साइय तोऽसंख्येयं कालं यावत् असंख्येया उत्सपिण्यवपिण्यः कालतः केत्रतोऽसंख्येया लोकाः पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरनवस्म सपज्जवसियस्स जहमेणं अंतोमुदुत्तं उकोसेणं छाव भ्रमणकासस्योत्कर्षतोऽप्येतावन्मात्रत्वात् । तथा चाह । पथिढि मागरोवमाई सातिरेगाई । सम्मामिच्छादिहिस्स जह- बीकानः पृथिव्यादिप्रत्येकशरीरकाल इत्यर्थः । संसारापरीप्रणं अंतोमृदुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवर्क पो- तसने अनाथपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्यादनादिपग्गलपरियह देसू । यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं संसारपरीतत्वापगमे पुनः संसार“सम्मबिंदिस्सणं ते इत्यादि " प्रश्नसूत्रं सुगम नगवाना परीतत्वस्यासंभवात् । नोपरीतनोअपरीतस्यापि साद्यपर्यवगौतम ! साचपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् सा सितस्य नास्त्यन्तरं अपर्यवसितत्वात जी०१प्रति०। दिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहर्त सम्यक्रवात प्रतिपस्यान्त [३५] पुसमाश्रित्यान्तरम। महसेन भूयः कस्यापि सम्यक्त्वप्रतिपत्तेः। उत्कर्षतोऽनन्तंका- परमाणुपोग्गलस्म णं नंते ! सबेयस्स कालो कर सं यावदाई पुनपरावर्स मिथ्याष्टिसूत्रेऽनाथपर्यवसितस्य चिरं अंतरं हो' गोयमा ! सट्ठाणतरं पगच्च जहएणणं भास्थन्तरमपरित्यागात् अनादिसपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्त एक समयं नकोसणं असंखेज काझं । परहाणंतरं पडुच्च रमनादित्वात् अन्यथाऽनादित्वायोगात । सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुदूर्तमुत्कर्षतः षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेका जहएणणं एक समयं उकासेणं एवं चेव । णिरेयस्स केजिसम्यग्दर्शनकास पब रिमिथ्यादर्शनस्य प्रायोन्तरं सम्य- व०सहावांतरं पमुच जहएणेणं एकं समयं उकोमेणं पात्र Jain Education Interational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छीतर लियाए असंखेज्जइनागं, परद्वातरं पमुच्च जहए ऐ एकं समयं नकोेणं असंखेज्जं कालं दुपदेसियस्स गं भते ! खंधस्स देसेस्स केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! सहाणंतरं पकुच्च जहणणेणं एक रुमयं उक्कोमेणं असंखेजं कालं परद्वातरं बच्च जहणणेणं एवं समयं उक्कोसेणं अतं का । सव्वैयस्स केवइयं कालं एवं चेत्र जहा देसेस् । रेियस्स कवयं कालं सट्टाांतरं पकुच्च जहांणं एकं समयं उक्कणं प्रावलियाए असंखेज्जङ्नागं, परांतरं पमुच्च जहमेणं एकं समयं उक्कोसेणं असं काले एवजावतपदेसियस्स । परमाणुपोग्गलाण भते ! सव्याणं वइयं कालं अंतरं होई ? गोयमः ! णत्थि अंतरं शिरेयाण केवश्यं णत्थि अंतरं दुपदे सियाणं अंत ! स्वधा देमेयाण केवतिकानं पत्थि अंतरं सव्वेयाणं केव‍ णत्थि अंतरं पिरेयाणं केवइ एत्यि अतरं एव जाव अणतपदेमियाणं ज० २५ श ४ न० 1 [ टीका नास्तीति न व्याख्याता ] परमाणुपोग्गलस्स णं नंते ! अंतरं कालमो के चिरं होइ ? गोयमा ! जहोणं एवं समय उक्कोसणं असंखेज्जं कालं परसियस्सा अंते ! खंधस्त अंतरं कालओ केन चिरं होइ गोयमा ! जहां एगं समयं उक्कोसण प्रणतं काल एवं जाव प्रणतपएसियो । एगपएसोगादस्स एं ते ! पोग्गलस्स संयस्स अंतरं कालओ केव चिरं हांइ गोमा ! जहरणं एवं ममयं उक्कोसेणं असंखज्जं कालं एवं जात्र असंखज्जपएसोगाढे । एगपएमोगादास जंते ! निरेयस्स अतरं कालओ का चिरं होइ गोयमा ! जहाँ एवं समयं नकोपेणं प्राव लयाए अमखज्जइभागं एवं जावसंखेज्जपएसो गाढे वएणगंधर सफासमुद्र परिणयाणं एएसि जं चेत्र अंतरं पि भाणियव्यं । सद्दपरिण्यस्सा भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालो के चिरं हो ? गोयमा ! जगे एग समय उकोसेणं असंखेज्जं कालं असदपरिणयस्स णं जंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ व चिरं होड़ गायमा ! जहोणं एवं समयं उक्को सेणं प्रावलियाए संसज्जनानं न० श० उ० । ( टीका सुगमत्वान्न गृहीता ) ( 20 ) प्रथम समग्राप्रथमसमयविशेषले नै केन्द्रियाणां नैरयिकादीनां चान्तरं यथा । श्रनिधानराजेन्द्रः | पदमसमयए गिंदियाणं जंते ! केवतियं कालं अंतरं हाति ? गं.यमा ! जसें दो खुड्डाई भवरगहणाई समयोलाई कोशेणं वणस्वतिकालो पढमसमयए गेंदिस्त अंतरं जहां खड्डागभवग्गहणं समयाहियं उक्कोने दोसागरोन महस्साई संखेज्जा वा समन्या हि याई सेसाणं सब्बे For Private अंतर सिं पढमसमइक्कां जहां दो खुड्डाई जवग्गहणाएं समयोणाई ठक्कोसेणं वणस्सतिकालो अपडमसमयियाणं सेसाणं जहां खुड्डागज वग्गहणं समयाहियं उक्कोसे सतिकाओ || प्रथम समयै केन्द्रियस्य नदन्त ! अन्तरं कालतः कियश्चिरं भवति जगवानाह गौतम ! जघन्यतो हे क्षुल्लकनवग्रहणे समय मे ते च क्षुल्लकद्धीन्द्रियादिभवग्रहणव्यवधानतः पुनरेकेन्द्रियवेवोत्पद्यमानस्याव सातव्ये तथा होकं प्रथमसमयान मे के कुलकभवग्रहणमेव द्वितीयं सम्र्पणमेव द्वीन्द्रियाद्यन्यतम कुल कनवग्रहणमिति उत्कर्षतो वनस्पतिकालः स चानन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिरायः कान्नतः क्षेत्रतोऽनन्ताः लोका असंयेयाः पुलपरावर्ता श्राव लक. या असंख्येयो भाग इत्येवं स्वरूपं तथाहि एतावन्तं हि कालं सोऽप्रथमसमयः न तु प्रथमसमयस्ततो द्वीन्द्रियादिषु कजवग्रहणमेवाडवस्थःय पुनरेकेन्द्रियत्वेनोत्पद्यमानः प्रथमे समये प्रथमसमय इति भवत्युत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं प्रथम समयै केन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं तचैकेन्द्रियजगतचरमसनयस्याप्यधिकप्रथमसमयत्वात् तत्र मृतस्य द्वीन्द्रियादिक्षुकनवग्रहणेन व्यवधाने सति भूय एकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे वेदितव्यम् । एतावन्तं कालमप्रथमसमयान्तराजावात् उत्कर्षतो हे सागरोपमसहस्रे संख्येयवर्षाच्यधिके द्वीन्द्रियादिभवग्रहणस्योत्कर्षतोऽपि सातत्येनैतावतं कालं संभवात् । प्रथमसमयधीन्द्रियस्य जघन्येनान्तरं क्षुल्लकrवग्रहणे समयोने तद्यथा एकं धीन्द्रिय क्षुल्लकनवप्रहणमेव प्रथमसमयोनं द्वितीयं सम्पूर्णमेकेन्द्रियत्रीन्द्रियाधन्यतमं क्षुल्लकभवग्रहणम् एवं प्रथमसमयं त्रीन्द्रियलकभवग्रहणमेव प्रथमसन योनं द्वितीयं सम्पूर्णमेचे केन्द्रियस्य जघन्यमन्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं तच द्वं । न्द्रियनवाकृत्यान्यत्र क्षुल्लक नवं स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियत्वेनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रम वेदितव्यम् | उत्कर्षतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिएयवसपिएयः कालतः केोऽनन्ता लोका असंख्येयाः पुरुझपरावती धावलिकाया असंख्येयो भागः एतावांश्च द्वीन्द्रियनवादुकृत्यैतावन्तं कालं वनस्पतिषु स्थित्वा भूयो द्वीन्द्रियत्वनोत्पन्नस्य प्रथमसमयातिक्रमे भावनीयः एवं प्रथम समय त्रिचतुःपञ्चेन्द्रि याणामपि जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यं भावनाऽप्येतदनुसारेण स्वयं जावनीया जा० १० प्रति । पढमसमय रइयस्स एणं भंते ! अंतरं कालतो केव चिरं हो ? गोया ! जहणं दसवाससदस्साई अंतोमुदुत्तमजहियाई कोसेणं वरणस्सतिकालो अपढमसमयणेर:यस्सा भंते! तरं कालतो केव चिरं होइ १ गोयमा ! जहोणं अंतोमृदुत्तं उक्को सेरण वयप्फतिकालो । पढमसमय रिक्खजो लिए भंते ! अंतरं कालओ केव चिरं होति गोमा ! जहणं दो खुड्डाई जवग्गहणाई समोणाई कोसे व फतकालो अपढमध्मयतिरिक्खज ेणियस णं भंते ! अंतरं काल के चिरं होड़ ? गोयमा ! जहां दो खुड्डाई जवग्गणाई रुमयाहियं उक्कोसेलं सागरोत्रमसयपुडुतं सातिरेगं । पढमसमय Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (90) अंतर अमिधानराजेन्डः। अंतर माणुस्सस्स एवं भंते ! अंतरं कालो के चिर होइ ? गो- त्रस्यासंख्ययतमे जागे ये अाकाशप्रदेशास्ते प्रतिसमयमकैकप्रयमा जहरमेणं दो खुड्डायं जनग्गहणं समयूणाई नक्कोसेणं देशापहारे यावतीनिरुत्सपिण्ययसपिणीभिर्निर्देपा भवन्ति वणप्फतिकालो अपढमसमयमाणस्सस्स णं ते ! अंतरं तावत्य इति “सुद्धमपुदधिकाश्यस्सणं भंते" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम जगयानाह गीतम! जघन्येनान्तर्मदत तद्भावना प्राग्वत् जहणं खुड्डायं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं वणप्फति- उत्कर्वतोऽनन्तं कायं"जाव आवबियाप असंखज्जाभागा इति" कालो देवस्म णं अंतरं जहा णरतियस्स । पढमसमयसि- यावत्करणादेव परिपूर्णः पाठः "अणंताओ उस्सप्पिणीश्रोसकस्स एं नंत! अंतरं कालमो केव चिरं होइ? नत्थि अं. णीनो कानतो खेत्ततो अणंता लोगा असंखज्जा पोग्गलपरिसरं अपढमसमयसिचस्मणंनंते!अंतर कालो केव चिरं । यहा तेणं पोग्गनपरियट्टा श्रावलियाए असंखेज्जनागो" अ स्य व्याख्या पूर्ववत् नावना त्वेवं सूक्ष्मपृथिवीकाथिको हिस. होइ? गोयमा!सादियस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं । चमपृथिवीकायिकभवापुछ्त्यानन्तर्यण पारंपर्येण वा वनस्पप्रथमसमयासद्धस्य नास्त्यन्तरं नूयः प्रथमसमयसिम्त्या- तिष्वपि मध्य गच्छति तत्र चोत्कर्षतोऽप्येतावन्तं कालं तिष्ठतीजावाद अप्रथमसमयसिम्स्यापि नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । तिनवति यथोक्तप्रमाणमन्तरमेवं समाप्कायिकतेजस्काधिकजी०१०प्रति। घायुकायिकसूत्राण्यपि वक्तव्यानि । सूक्ष्मवनस्पतिकायिकसूत्र ( ३६ ) बादरसूक्ष्मनोसूक्ष्मनोवादराणामन्तरं यथा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयकालः पृथिवीकालो बक्तअंतरं बायरस्त वायरवनस्पतिकातिस्स णि ओयस्स बाय- व्यः स चैवम् " असंखेज्जाश्रो नस्सप्पिणीोसप्पिणीओ कारणिपोयस्स एतेसिं चउएह वि पुढविकाला जाव असं- सतो खेत्ततो असंखेज्जा लोगा" इति । सदमवनस्पतिकायनखजा लोया सेमाणं वणस्सतिकालो एवं पज्जत्तगाणं वापुरत्तो हि वादरवनस्पतिषु सक्ष्मबादरपृथिव्यादिषु चोअपजत्तगाण वि अंतरं आहे य बायरतरू नस्सप्पिणी त्पद्यते तत्र च सर्वत्राप्युत्कर्षतोऽप्यतावन्तं कानमवस्थानमिति यथोक्तप्रमाणमेचान्तरमेवं सूक्ष्मनिगोदस्याप्यन्तरं वक्तव्यं यथा श्रोसप्पिणीओ एवं बायरनिग्रोए कालमसंखज्जतरंसेसा चेयमौघिकी सप्तसूत्री लक्ता तथा अपर्याप्तविषया च सप्तसूत्री एं वाणस्मतिकालो। वक्तव्या नानात्वानावात् जी० ६ प्रति० । प्रश्नसूत्रं सुगम नगवानाह गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्ष- सहुमस्स अंतरं वायरकालो बायरस्स अंतरं मृदुमकामो तोऽसंख्येयं कानं सममेव कालकेत्राभ्यां निरूपयति असंख्येया | ततियस्स णत्यि अंतरं। सत्सपिण्यवसापिण्यः कामतः केत्रतोऽसंख्ययालोका यदेव हि समस्य सतः कायस्थितिपरिमाणं तदेव बादरस्यान्तरपरिमाणं समस्यान्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त मुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालमसंमृदमस्य च कायस्थितिपरिमाणमेतावति बादरपृथिवीकायिक ख्येया उत्सपिण्यवमर्पिण्यः कालतः केत्रतोऽङ्गलस्य संख्येयमत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहर्समुत्कर्षतोऽनन्तं कालं सचानन्तः कालो भागो बादरकालो जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावत्प्रमाणत्वात् ।या. बनस्पतिकालःप्रागुक्तस्वरूपोवेदितव्यःएवं बादराप्कायिकबाद दरस्यान्तरं जघन्येनान्तर्महुर्तमुत्कर्षतोऽसंख्ययं कालमनन्ता - रतेजस्कायिकवादरवायुकायिकसूत्राएयपि वक्तव्यानि । सामा. सपिण्यवसर्पियः कालतः क्षेत्रतोऽसंख्येया सोका सूक्ष्मभ्यतो यादरवनस्पतिकायिकसूत्रे जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो स्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्काप्रमाणत्वात नोसूक्ष्मनाबादउसंख्ययं कानं स चासंख्येयः कालः पृथिवीकालो वेदितव्यः रस्य साद्यपर्यवसितस्य हेतौ षष्ठी निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा सचैवम् असंख्येया जसर्पिण्यवसापिण्यःकालतः केत्रतोऽसं विजक्तीनां प्रायो दर्शनमिति न्यायात् ततोऽयमर्थः साचपर्यवख्यया लोकाः प्रत्येकयादरवनस्पतिकायिकसूत्रं बादरपृथिवीका. सितत्वान्नास्त्यन्तरमन्यथा अपर्यवसितत्वायोगात् जी०३ प्रतिक यिकसूत्रवत्सामान्यतो निगोदसूत्र सामान्यतो बादरवनस्पतिका प्रबसिद्ध्य भवसिदिनोभवसिद्धयभवसिकिकानामन्तरम यिकसूत्रवत् पादरत्रसकायिकसूत्रं बादरपृथिवीकायिकसूत्रवत् भवसिकियस्स णत्यि अंतरं एवं अभवसिफियस्स वि पधमपर्याप्तविषया दशसूत्री पर्याप्तविषया च दशसूत्री यथोक्त- ततियस्स णत्यि अंतरं । क्रमेण वक्तव्या नानात्वान्नावात् । जी०६अतिः। भभवसिद्धिकोऽनादिसपर्यवसितोऽन्यथा नवसिक्षिकत्यायो[३७] सूदमस्यान्तरम्। गात् । प्रभवसिकिकात् अभवसिलिकस्यानादिसपर्यवसितस्य मुहमस्स णं नंते ! केवतियं कालं अंतर होति ? गोयमा।। नास्त्यन्तरं नवसिद्धिकत्वापगमे पुनर्नवसिद्धिकरवायोगात अहर्षणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं असंखज्जं कालं कालो जी. ३ प्रति । असंखेज्जातों जस्सप्पिणीोसपिणीओ खेतो अंगु नाषामाश्रित्य जीवानामन्तरम् । मस्स असंखेजतिनागो एवं सुदुमवणस्सतिकाइयस्स वि जामगस्स एं नंते ! केवतियं कालं अंतर होति ? गोयमा! मुहमानीयस्स वि जाव असंखज्जतिनागो पुढविकाइया जहएणणं अंतोमदत्तं नकोसेणं अणं कालं वणस्ततिकाणं वणस्सतिकाझो एवं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाण वि। लो अभामगस्स सातिगम अपज्जवानियस्म णत्थि अंप्रइनसूत्र सुगम भगवाना गौतम! जघन्यनान्तर्मुहूर्त सदमा तरं सातियस्स मपन्जवसियस्स जहएणे एक समयं उक्कोदुकृत्य बादरपृथिव्यांदावन्तर्मुहूर्त स्थित्वा नूयः सदमथि- सेणं अंतोमुहुत्तं । कयादौ कस्याप्युत्पादात उत्कर्षतोऽसंख्येयं काझं कालकेत्राच्या प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह गौतम! जघन्येनान्तर्महूर्तमुत्कर्ष निरूपयति असंख्येया उत्सर्पिएयवसर्पिएयः कालत एषा मार्ग-| तो वनस्पतिकालः अनाषककालस्य भाषकान्तगत्वात् अभाखा क्षेत्रतोलस्यासंख्येयो नागः किमुक्तं भवति अन्समात्रके- षकसूत्रे सायपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम अपर्यवसितत्वात सा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) अंतर प्रन्निधानराजेन्दः। अंतर दिसपर्यवसितस्य जघन्येनेक समयमुत्कर्षतोऽन्तर्मुहुर्त माप-] सवेदकत्वाभावात् वेदानां निर्मलकापक्रषितत्वात् । सादिकस्य ककालस्याभाषकान्तरत्वात् तस्य च जघन्यत उत्कर्षतश्चता- सपर्यवसितस्य जघन्यनान्तर्मुदर्तमुपशमणिसमाप्तौ सबैबन्मात्रत्वात् । जी०१प्रति । दकत्वे सति पुनरन्तर्मुहुर्तेनोपशमश्रेणिलाभतोऽवेदकत्वोपपत्तेः [३८] योगमाश्रित्यान्तरम् । उत्कर्षतोऽनन्तं कासम् अनन्ता उत्सर्पिण्यवसार्पण्यः कालतः मणजोगिस्स अंतरं जहएणणं अंतोमुदत्तं नकोसेणं वण केत्रतोऽपाल परावर्स देशोनमेकं वारमुपशमणि प्रतिपय तत्रावेदको जूत्वा श्रेणिसमाप्तौ सवेदकत्वे सति पुनरेताचता कास्सतिकालो तहेव वयजोगिस्स वि कायजोगिस्स जहएणणं लन श्रेणिप्रतिपत्तायवेदकत्वोपपत्तः । जी० सर्वजी ०२ प्रतिका एक समय उक्कोसेण अंतोमुहुत्तं अजोगिस्स णस्थि अंतरं । वेदविशेषविशिष्टानां स्त्रीणां पुंसां नपुंसकानां चान्तरम् । अन्तरमन्तर्मुहुर्त विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्त थिए णं भंते ! केवतिय कालं अंतरं होति? गोयमा ! कश्च यावदेवमन्तMदूत बटव्यमिति (अत्रत्या टीका उस्सुसपरूवणा शब्ने)। जहएणणं अंतोमुत्तं नकोसणं अनंत काळे वणस्मतिकालेश्यामाश्रित्य जीवानाम् । मो एवं सन्नासिं तिरिक्खत्थीणं मणसित्थीणं मणसित्थीकएहलेसस्स एं भंते ! अंतरं कालमो केव चिरं होति ? ए खेत्तं पमुच्च जहएणणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं वणस्मतिगोयमा ! जहएणणं अंतामुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीससागरोव- कालो । धम्मचरणं पमुच्च जहएणणं समो नकोसेणं माई अंतोमुत्तमम्भाहियाई । एव नीलस्म वि काऊलेस- अणंतं कालं जाव अवकृपोग्गलपरिय१ देसणं एवं जाब स्स वि । तेउलेस्स णं भंते! अंतरं कालो केवाचरं होइ ? | पुन्वविदई अवरविदेहियामो । अकम्मनूमगमा सीणं गोयमा ! जहएणणं अंतोमुटुत्तं उकोमेणं वणप्फातकालो भते! केवातयं कान्नं अंतरं होति ? गोयमा! जम्म णं पमुख एवं पम्हलेसस्स वि मुक्कलेसस्स विदोएह वि एवमंतर । जाएणणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमन्नाहियाई उकोसेअनेसस्स णं नवे अंतरंकानतो केव चिरं हो? गोयमा!| णं वणस्सइकानो संहरणं पच्च जहएणेणं अंतोमुदुचं मादियस्स अपज्जवारुयस्स पत्थि अंतरं । उकोसेणं वणस्सकानो एवं जाव अंतरदीवियाओ। देविकृष्णलेश्याकस्यान्तरंजघन्यतोऽन्तर्मुहर्त तिर्यग्मनुष्याणामन्त त्थियाएं सव्वासिं जहएणेण अंतोमुहुर्च कोसेणं वणमुहर्सेन लेश्यापरावर्तनात उत्कर्षतखयरिंशत्सागरोपमाण्य- स्सातकालो। न्तर्मुद्राच्यधिकानि शुक्ल लेश्याकृष्णकालस्य कृष्णलेश्यान्त- खिया भदन्त अन्तरं कालतः कियचिरं नवति खीभूत्वा स्त्रीत्वारोत्कृष्टकालत्वात । एवं नीललझ्याकापोतलेश्ययोरपि जघन्यत तू भ्रष्टा सती पुनः कियता कालेन स्त्री भवतीत्यर्थः। एवं गौतसत्कर्वतश्चान्तरं वक्तव्यम् । तेजःपनशुक्लानामन्तरं जघन्तोऽन्स- मेन प्रश्मे कृते सति जगयानाह गौतम ! जघन्येनान्तमर्स मुरतमुन्कपतो बनस्पतिकालः स च प्रतीत पवेति । अलेश्यस्य कमिति चेत् उच्यते हि काचित नानात्वाम्मरणन न्युत्वा साचपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । भवान्तरे नपुंसकयेदं पुरुषवेदं वाऽन्तर्समनुभूय स्त्रीत्वनी(३५) वेदविशिष्टजीवानामन्तरम् । त्पद्यत तत एवं जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त जयति उत्कर्षतो वनस्पतिसवेद स्मण भंते ! केवतियं कालं अंतर होति? गोयमा! कालोऽसंस्येयपुस्लपरावास्यो वक्तव्यस्तावता कामनामुक्ती प्रणादियस्म अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं अण,दियस्स | सत्यां नियोगतः स्त्रीत्वयोगात् । स च बनस्पतिकाल एवं यत्त व्यः "अणंतानो प्रोसप्पिणिस्सप्पिणीमो कालो खेतो सपज्जवसियम विपत्थि अंतरं । सादियस्स सपज्जव अणंता सोगा असंखेजा पोग्गलपरियडा तेणं पोग्गलपरियहा सियस्स जहमेणं एकं समयं उक्कोसेग्गं अंतोमुदुत्तं । भावलियाए असंखजश्भागो इति" पपामौधिकतियास्त्रीणां अवेदगस्स णं भंते! केवतियं कालं अंतरं होति? गोयमा! जलचरखनचरखचरस्त्रीसामाधिकमनुष्यत्रीणां च जघन्यतः सातियस्स अपज्जवमियस्स णत्थि अंतरं सातियस्स सप सत्कर्षतवान्तरं वक्तव्यमभिसापोऽपि सुगमत्वात स्वयं परिभाजवसियस्स जहम्मेणं अंतोमुत्तं उकासेण । अणतं वनीयः । कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियाः केत्रं कर्मभूमिकेचं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तमार्समुत्कर्षतोऽनन्तं कासं बनस्पतिकासप्रमाणं काल जाव अवर्ल पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण । यावत धर्माचरणं प्रतीत्य जघन्यनैकं समयं सर्वजघन्यस्य सम. प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाद गौतम!अनादिकस्यापर्यवसितस्य स- यत्वात् उत्करणानन्तं कासं देशोनमपा पुमलपराव यावत् घेदकस्य नास्यन्तरमपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात नातोधिकतरश्चरणलन्धिपातकालासंपूर्णस्याप्यपार्टपुलपगभनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्त्यतरम अनादिसपर्यव- वर्तस्य दर्शनलम्धिपातकासस्य तत्र प्रतिषेधात । एवं भरतैसितो खपान्तराले उपशमश्रेणि प्रतिपय प्रावी क्षीणवेदो नच रावतमनुष्यलियाः पूर्वविदेहापरविदेहस्त्रियाच केवतो धर्मकीणवेदस्य पुनःसवेदकत्वं प्रतिपातानावात् । सादिकस्य सपर्य- चरणं वा प्राश्रित्य बक्तव्यम् । अकर्मचूमकमनुष्यस्त्रिया जन्म बसितस्य सवेदकस्य जघन्यनैकं समयमन्तरंद्वितीयं वारमुपश- प्रतीत्यान्सरं जघन्येन दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहाच्यधिकानि मणि प्रतिपन्नस्य वेदोपशमसमयानन्तरं कस्यापि मरणसंनवा. कंथमिति चेपुच्यते वह काचिदकर्मभूमिका स्त्री मृस्वा जघन्यत् उत्णान्तर्मुइत द्वितीयं वारमुपशमश्रेणिप्रतिपन्नस्योपशान्त- स्थितिषु देवेषूत्पन्ना तत्र दशवर्षसहस्राण्यायुः परिपाल्प बेदकस्य श्रेणिसमाप्तरूई पुनः सवेदकत्वभावात् । अवेदकसूत्रे तत्कये च्युत्वा कर्मनमिषु मनुष्यपुरुषत्वेन मनुष्यस्त्रीत्वेन सादिकस्यापर्यवसितस्यावेदकस्य नारस्यन्तरं कोणवेदस्य पुनः घोत्पयतं देवेज्योऽनन्तरमकर्मजूमौ न जन्मेति कर्मभूमिपूत्पा. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर अभिधानराजेन्द्रः । अंतर दिता ततोऽन्तर्मुहुर्तेन मृत्वा नूयोऽप्यकर्मनूमिजस्त्रीत्वेन जायते | सम्प्रति मनुष्यपुरुषत्वविषयान्तरप्रतिपादनार्थमाह । इति भवन्ति जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहान्यधिका- मणुस्मपुरिसाणं भंते ! केवतियं कालं अंतर होतिगीनि उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं संहरणं प्रतीत्य जघन्य तोऽ यमा! खेत्तं पमुच्च जहएणणं अंतोमुदुनं उक्कोसेणं वणस्सन्तर्मुहुर्तम्। अकर्मनुभिजस्त्रियाः (कर्मनामिजस्त्रियाः) कर्ममिषु तिकालो धम्मचरणं पसुच्च जहम्मेणं एक समयं नकोसेणं संहृत्य तावता कालेन तथा विधबुझिपरावृत्त्या नूयस्तत्रैव नयनात उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं तावता कालेन कर्मचम्यु- अपंतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओ जाव अवडं पोग्गलत्पत्तिवत् संहरणमपि नियोगतो नवेत् । तथाहि काचिदकर्म- परियह देसूर्ण कम्मतमकाणं जाव विदेहो जाव धम्मचरणे नृमिका कर्ममा संहता सा च स्वायुःवयानन्तरमनन्तं कालं एको समग्रो सेसं जहत्यीणं जाव अंतरदीवकाणं ॥ वनस्पत्यादिषु संसृत्य तूयोऽप्यकर्मज़मौसमुत्पन्ना । ततः केना बन्मनुष्यत्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव मनुष्यपुरुषाणामपि पि सहतेति यथोक्तं संहरणस्योत्कृष्ट कालमानम् । एवं हैमवत वक्तव्यं तच्चैवं सामान्यतो मनुष्यपुरुषस्य जघन्यतः केत्रमधिहैरण्यवतहरिवर्षरम्यकपर्षदेवकुरुत्तरकुर्वन्तरन्नुमिकामपि ज कृत्यान्तरमन्तर्मुहत्तै तच्च प्रागिव भावनीयम् । उत्कर्षतो धनन्मतः संहरणतश्च प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरं वक्तव्यं सूत्रपा स्पतिकास्रोधर्मचरणमधिकृत्य जघन्यत एक समयं चरणपरिणागेऽपि सुगमत्वात् स्वयं परिजावनीयः। संप्रति देवस्त्रीणामन्त मात्परिभ्रष्टस्य समयानन्तरं भूयोऽपि कस्यचित् चरणप्रतिप. रप्रतिपादनार्थमाह (देवत्थियाणं नंते श्त्यादि) देवस्त्रिया नदन्त! त्तिसंभवात उत्कर्षतो देशोनोऽपार्फपुलपरावर्तः एवं भरतेअन्तरं कानतः कियश्चिरं भवति भगवानाह गौतम ! जघन्ये रावतकर्मजूमकमनुष्यपुरुषस्य पूर्वविदेहापरविदेहाकर्मनूमकनान्तर्मुहूर्त कस्याधित देवनिया देवीभवात च्युताया गर्भ मनुष्यपुरुषस्य जन्म प्रतीत्य चरणमधिकृत्य च प्रत्यकं अघ. व्युत्क्रान्तिकमनुष्येषत्पथ पर्याप्तिपरिसमाप्तिसमनन्तरं तथाध्य न्यत उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यं सामान्यतोऽकर्मनूमकमनुष्यपुरुबसायमरणेन पुनर्देवीत्वेनोत्पत्तिसंनवात उत्कर्षतो वनस्पति षस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तरं दश वर्षसहस्राणि अन्तर्मुहकामः स च सुप्रतीत पवमसुरकुमारदेच्या प्रारभ्य तावदीशान ज्यिधिकानि । अकर्मनूमकमनुष्यपुरुषत्वेन मृतस्य जघन्यवस्त्रिया उत्कृष्टमन्तरं वक्तव्यं पागेऽपि सुगमत्वात् स्वयं स्थितिषु देवेषूत्पद्य ततोऽपि च्युत्वा कर्ममिषु स्त्रीत्वेन पुपरिजावनीयः जी०५प्रति । रुषत्वेन धोत्पद्य कस्याप्यकर्मनमकत्वेन नूयोऽप्युत्पादात देपुरिसस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होति ? गोयमा ! घभवात् न्युत्वा अनन्तरमकर्मभूमिषु मनुष्यत्वेन तिर्यक्सजहमेणं एग समयं उक्कोसेणं नणस्सइकालो तिरिक्खजो सिपश्चेन्ध्यित्वेन सत्पादानावादपान्तराने कर्मनूमिपूत्पादा जिधानमुत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽन्तरं संहरणं प्रतीत्य णियपुरिसाणं जहएणेणं अंतोमुदुत्तं उकोसेणं वणस्सइ जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमकर्मचूमेः कर्ममिषु संहृत्यान्तर्मुहूर्ताकालो एवं जाव खहयरतिरिक्खजोडियपुरिसाणं ।। नन्तरं तथाविधबुद्धिपराव दिन्नावतो तूयस्तत्रैव नयनसंप्नपुरुषाणामिति पूर्ववत भदन्त ! अन्तरं कासतः कियच्चिर वात उत्कर्षतो वनस्पतिकाल एतावतः कालादूर्फमकर्मनूमि त्पत्तिवत संहरणस्यापि नियोगतो भावात् । एवं हैमवतहरभवति पुरुषः पुरुषत्वात् परिभ्रष्टः सन् पुनः कियता कालेन एपवतादिष्वप्यकर्मनूमिषु जन्मतःसंहरणतश्च जघन्यतः उत्कतदवाप्नोतीत्यर्थः । तत्र भगवानाह गौतम ! जघन्यनैकं समयं घेतश्चान्तरं वक्तव्यं यावदन्तरद्वीपकाकर्मचूमकमनुष्यपुरुषत्वसमयादनन्तरं योऽपि पुरुषत्वमवाप्नोतीति जावः । श्यमत्र वक्तव्यता। प्रावना यदा कश्चित् पुरुष उपशमश्रेणि गतः उपशाम्ते पुरुष संप्रति देवपुरुषाणामन्तरप्रतिपादनार्थमाह । घेदे समयमेकं जीवित्वा तदनन्तरं म्रियते तदाऽसौ निय देवपुरिसाणं जहमेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सतिमादेवपुरुषवृत्पद्यते इति समयमेकमन्तरं पुरुषत्वस्य । मनु खानपुंसकयोरपि श्रेणिलाभो भवति तत्कस्माद-- कालो भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो जहनयोरप्येवमेकः समयोऽन्तरं न भवति उच्यते स्त्रिया नपुंसक- मेणं अंतोमुहुत्तं उक्कांसेणं वणस्सतिकालो । आनतदेवस्य च श्रेण्यारूढायवेदकनावान्तरं मरण तथाविधशुभाध्यव- परिसाणंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा!जहमेणं सायतो नियमेन देवपुरुषत्वेनोत्पादात । उत्कर्षतो बनस्पति वासपद्धत्तं नकोसणं वणस्सतिकालो एवं जाव गेवेज्जगदेवपुकालः। स चैवमनिलपनीयः “प्रणंता नस्सपिणिोसप्पिणीमो कालतो खेत्ततो भयंता लोगा असंखजा पुमगलपरिया रिसाण वि अनुत्तरोववातियदेवपुरिसाणं जहमेणं वासपुदुत्तं तेणं पुग्गलपरियहा आवसियाए असंखज्जाभागो इति" तदेवं नकोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाइं अनुत्तराणं अंतरे एको सामान्यतः पुरुषत्वस्यान्तरमनिधाय संप्रति तिर्यक्पुरुषविषय- अामावो॥ मतिदेशमाह " (जं तिरिक्वजोणिस्थीणमंतरमित्यादि ) देवपुरुषस्य जदन्त ! कामतः कियच्चिरमन्तरं प्रवति भगवा: यत्तिर्यम्योनिस्त्रीणामन्तरं प्रागभिहितं तदेव तिर्यग्योनिकपुरुषा- नाह । गौतम! जघन्येनान्तर्मुहर्त देवनवात् च्युत्वा गर्नव्युणामप्यविशेषितं वक्तव्यं तवं सामान्यतस्तिर्यपुरुषस्य जध- कान्तिकमनुष्यपुत्पध पर्याप्तिसमनन्तरं तथाविधाभ्यवसायमरन्यतोऽन्तर्मुहर्त तावत्कालसितिना मनुष्यादिभवेन व्यवधाना- णेन जयोऽपि कस्यापि देवत्वेनोत्पादसंजवात् सत्कर्षतो वनत उत्कर्षतो वनस्पतिकालोऽसंस्येयपुद्रलपराव ख्यः तावता स्पतिकालः पवमसुरकुमारादारज्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं याषकानामुक्तौ सत्या नियोगतः पुरुषत्वयोगात् । एवं विशेषचि-| सहस्रारकल्पदेवपुरुषस्यान्तरम् मानतकल्पदेवस्यान्तरं जघन्तायां जलचरपुरुषस्य स्खलचरपुरुषस्य सचरपुरुषस्यापि प्रत्ये। न्येन वर्ष पृथक्त्वं कस्मादेतावदिदान्तरमिति चेत् उच्यते इट कंजघन्यतः उत्कर्षतश्चान्तरं वक्तव्यम् । यो गस्थःसान्निः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः स भाष्यषसायोपेतो Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) अंतर अभिधानराजेन्डः। अंतर मृतः सन् आनतकल्पादारतो ये देवास्तेपत्पद्यते नाऽऽन- सातत्यनावस्थानमन्तरं चोत्कर्षतः सागरपृथक्वं पदैकदेशै तादिषु तस्य तावन्मात्रकालस्य तागाध्यवसायविध्यभावा- पदसमुदायोपचारात् सागरोपमशतपृथक्वं तथा च प्राभिहित ततो य ानतादिज्यश्च्यतः सन् जयोऽप्यानतादिपूत्पद्यते तं "पुरिसणं ते | पुरिसत्ति कालतो कियश्चिरं ( केव चिरं) स नियमाचारित्रमवाप्य चारित्रं चाष्टमे वर्षे तत नक्तं जघन्यतो हो गायमा ! जहाणं ( जहन्नेणं ) अंतीमुहत्तं उक्कोसणं सावर्षपृथक्त्वमुत्कर्पतो वनस्पतिकालः । एवं प्राणतारणाच्युनक- गरोवमसयपहुत्तं सातिरंग" नपुंसकान्तरोत्कर्षप्रतिपादकं चेल्पग्रैवेयकदेवपुरुषाणामपि प्रत्येकमन्तरं जघन्यतः उत्कर्षत श्व दमेवाधिकृतं सुत्रमिति। तथा सामान्यतो नैरयिकनपुंसकस्यान्तर वक्तव्यम्।अनुत्तरोपपातिककल्पातीतदेवपुरुषस्य जघन्यतोऽन्तरं जघन्यतोऽन्तर्मुहर्त सप्तमनरकपृथिव्या उघृत्य तन्दुलमत्स्यावर्षपृथक्यम् उत्कर्पतः संख्ययानि सागरोपमाणि सातिरे दिलवेप्वन्तर्मुहुर्त स्थित्वा नूयः सप्तमनरकपृथिवीगमनस्य च श्रकाणि तत्र संख्येयानि सागरोपमाणि तदन्यवैमानिकेषु संख्ये वणात प्रतिपृथिव्यपि वक्तव्यम् जी० २ प्रति० । यवारोत्पत्या सातिरेकाणि मनुष्यभवे तत्र सामान्याभिधाना तिरश्चामन्तरम् । प्येतत् अपराजितान्तमवगन्तव्यं सर्वार्थसिके सकृदेवोत्पादतस्तत्रान्तरसंभवात् । अन्ये त्वनिदधति जवनवासिन प्रारज्य | एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जहएणेणं अंतोमुश्रा ईशानादमरस्य जघन्यतोऽन्तरमन्तर्मुहर्त सनत्कुमारादार- हुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्माई संखजवासमभहियाई ज्यासहस्रारात् नय दिनानि भानंतकल्पादारज्याच्युतकल्पं पुढविमाउतेनवाऊणं जहरणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वयावन्नव मासा नवसु प्रैवेयकेषु सर्वार्थसिरूमहाविमानवलेष्व णस्सतिकालो वणस्सतिकाइयाणं जहएणणं भंतोमहत्तं नुत्तरविमानेषु च नव वर्षाणि प्रैवेयकान यावत् सर्वत्रापि उत्कर्षतो वनस्पतिकारः विजयादिप चतुर्ष महाविमानेषु द्वे नकोसेणं असंखजं कालं जाव असंखेजा लोया सेसरणं मागरोपमे उक्तं च "श्रा ईसाणादमरस्स अंतरं हीणयं मुहत्तं दियादीणं जाव खहयराणं जहएणणं अंतोमहत्तं नकोतो आ सहस्सारे अन्चुयणुत्तरदिणमासवासनवथावरकाबुक्को- सेणं वणस्सतिकालो। सो सबवीयो नव उववाभो दो अपरा विजयादिसु इति" तथा सामान्यचिन्तायां तिर्यम्योनिकनपुंसकस्यान्तरं जघन्यतोनैरयिकनपुंसकानामन्तरम् । उन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतः सागरोपमशतपृथक्वं सातिरकम् । अत्रनाअकम्मभूमकमगुस्सणपुंसएण नंते ? गोयमा ! जम्म णं चना प्रागिव विशेषचिन्तायां सामान्यत एकेन्द्रियतिर्यग्यानिकपमुब जहप्मेणं अंतोमुहुत्तं नक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ( अंतामु- नपंसकस्यान्तमहतं तावता द्वीन्द्रियादिकालन व्यवधानात हुत्तपत्तं ) संहरणं पडुन जहाणेणं अंतीमुहुत्तं उक्कोसेणं उत्कर्पतो द्वे सागरोपमसहस्र संख्ययवर्याभ्यधिके त्रसकायस्थि तिकालस्य एकेम्ब्यित्वव्यवधायकस्योत्कर्पतोऽप्येतायत एवं देसूणा पुचकामी सव्वामि जाव अंतरदीवगाणं | ए पुंसग-| संभवात् । पृथिवीकायिकैकेन्धियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जयस्सणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गायमा ! जह न्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्पतो वनस्पतिकात्रः। एवमकायिकतेजस्काएणेणं अंतोमुत्तं नकोसेणं सागरोवमसतपुदुत्तं सातिरेगं यिकवायुकायिकैकन्छियतिर्यग्योनिकनपुंसकानामपि वक्तव्यं व. नेरइयणपुंसगस्स णं नंते ! केवतियं कालं अंतरं होति । नस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकस्य जघन्यतोऽन्तजहएणणं अंतोमुत्तं नकोमेणं तरुकायो। रतणप्पनापुढ महूर्तमुत्कर्षतोऽसंख्येयं कालं यावत् स चासंख्येयः कालोऽसं ख्यया उत्सर्पिएयवसापिएयः कालतः केत्रतोऽसंख्येया लोकाः। विनेरइयणपुंसगस्स जहएणणं अंतोमुटुत्तं नकोसणं तरु किमुक्तं भवत्यसंख्ययोकाकाशप्रदेशानां प्रतिसमयमेकैकापकालो एवं सव्वेसिं जाव अहेमत्तमा तिरिक्खनोणियणपुं. हारे यावत्य उत्सर्पिगयवसर्पिण्यो जवन्ति तावत्य इत्यर्थः। वनसकस्स जहएणणं अंतोमुत्तं उकोसेणं सागरोवममतपुह- स्पतिभवात् प्रच्युतस्यान्यत्रोत्कर्षत एतावन्तं कालमवस्थानससं सातिरेगं । भवात् तदनन्तरं संसारिणो नियमेन भूयोऽपि वनस्पतिकायिणमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! अन्तरं कालतःकियश्चिरं भवति कत्वनोत्पादभावात् । द्वीन्द्रियत्रीन्ज्यिचतुरिन्डियपञ्चेन्धियनपुंसको नूत्वा नपुंसकत्वाद् भ्रष्टः पुनः कियता कालेन नपुंस तिर्यग्यानिकनपुंसकानां जलचरस्थलचरखचरपञ्चन्छियतिर्यग्योको भवतीत्यर्थः भगवानाह । गौतम ! जघन्यतोऽन्तर्महर्तमता निकनपुंसकानां सामान्यतो नपुंसकस्य च जघन्यतोऽन्तर्मुसबता पुरुषादिकालेन व्यवधानात उत्कर्पतः सागरोपमशतपृथ मुत्कर्षतोऽनन्त काल सचानन्तः कालो वनस्पतिकाला यथाकत्वं सातिरकं पुरुषादिकालस्य एतावदेव संभवात् तथा मात्र क्तस्वरूपः प्रतिपत्तव्यः। मनुष्यनपुंसकस्य । संग्रहणीगाथा " इत्थिनपुंसा संचि-ठणेसु पुरिसंतरे य समकओ । पुरिमनपुंसा संचि-हणंतरे सागरपुहुत्तं ॥ १॥" अस्या मणुस्सण पुंसकस्स खत्तं पडुच्च जहमेणं अंतोमुहत्तं उकरगमनिका "संचिष्णा नाम " सातत्येनावस्थानं तत्र स्त्रिया | कासण वणस्मातकाझा धम्मचरण पहुच जहषण एग सनपुंसकस्य च सातत्यनावस्थाने पुरुपान्तरे च जघन्यत एकः स- मयं उकोसेणं अणं कालं जाव अवर पोग्गलपरियट दमयस्तथा च प्रागभिहितम " इत्थीणं भंते ! इत्थीति कालतो मू । एवं कम्ममगस्स वि भण्हेरवयस्स पुन्चविदेहकेव चिरं होई गोयमा ! एगेणं आदिसणं जहणं पगं समयं वरविदेहकस्स वि अकम्मनुमकमाणुस्माणपुंसकस्स णं भंते! इत्यादि " तथा " नपुंसगेणं नपुंसगेरित कालतो केव चिरं होर केवतियं कालं० जम्मणं पडुच्च जहमेणं अंतोमदत्तं उक्कोगोयमा ! जहमेणं एक समयमित्यादि" तथा "पुरिसस्स णं भंते ! अंतरं कालतो केव चिरं होड गोयमा ! जहनेणं एवं सम सेणं वएस्सतिकालो संहरणं पमुच्च जहाणं अंतोमुहुत्तं यमित्यादि " तथा पुरुषस्य च नपुंसकस्य यथाक्रम (संचिटणं)। उक्कोसेणं वणस्सतिकासो एवं जाव अंतरदीवगनि। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर (७३) अनिधानराजेन्द्रः। अंतरकप्प कर्म नमकमनुष्यनपुंसकस्यान्तरं के प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मु. | तोमहत्तं नकोमणं अणतं कालं जाव अवर पोग्गलपरिदृतम् कर्पतो बनस्पतिकात्रः । धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्यत एकं यह देरणं। असंजयम आदि एथि अंतरं साइयस्म समय यावत् चरणलब्धिपातस्य सर्वजघन्यस्य एकसामयिकत्वान् उत्कपतोऽनन्तं कावं तमेवानन्तं कालं निर्धाग्यति सपज्जवमियम जहणेणं एक समयं उकामेणं दमणा " अणंताग्री नस्म स्पिारण प्रामाप्पिणीओ काबतो खेत्ततो अणता पुचकोमी चनत्थगम्स पत्थि अंतरं । मोगा अवई पोग्गल परियट्ट देमृणमिति" एवं नरतैरवतपूर्ववि- संयतस्य जघन्येनान्तरमन्तर्मुहर्न तावता कालेन पुनः कदेहापरविदेहकर्म नूमकमनुष्यनपुंसकानामपि केत्र धर्मचरणं स्यापि संयनन्वभावात् उत्कर्पतोऽनन्त कालमनन्ता उत्सच प्रतीत्य जघन्यत उत्कृष्ट चान्तरं प्रत्येकं वक्तव्यम् । अकर्मभू- पिण्यवसापरायः कालतः क्षेत्रतोऽपास पुलपगवते देशो. मकमनुष्यनपंसकस्य जन्म प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तमदनमेनावता नम् पतावतः कालादृर्द्ध पूर्वमवाप्नसंयमस्य नियमतः संयमगत्यन्तरादिकानेन व्यवधान नावात् उत्कर्षता वनस्पतिकालः लाभात् । संयनस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वाम् । अनादिसपसंहरणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् । तच्चैवं कोऽपि कर्म- र्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरंनस्य प्रतिपातासंभवात् । सादिसभूमकमनुष्यनपुंसकेनाप्यकर्मभूमा संहृतः स च मागधपुरुष- पर्यवसिनस्य जघन्यन एक समयं स चैकसमयः प्राग्यावरान्तबलादकर्म नूमक इति व्यपदिश्यत ततः कियकालानन्त- मिनःसंयतसमय एवमुत्कर्पतो देशांना पूर्वकोटी असंयतत्वरं तथाविधबुद्धिपरावर्तनजावतो भूयोऽपि कर्मभूमी संहृतस्त- व्यवधायकस्य संयतकालम्य संयतासंयतकालस्य वा उत्कत्र चान्तमुहर्त धृत्वा पुनरप्यकर्मनमावानीतः उत्कर्पतो बनस्प- पतोऽप्येतावत्प्रमाणत्वात् संयतासंयतस्य जघन्यतोऽन्तमुहर्न तिकालः । एवं विशेषचिन्तायां हैमवतहरण्यवतहरिवर्परम्यक- तद्भावपाते पतावता कालन तल्लाभसिद्धः । उत्कर्पतः संयतवर्षदेवकुरूत्सरकुळकर्मनमकमनुष्यनपुंसकानामन्तरहीपकमनु- वत् त्रितयप्रतिषेधवर्तिनःसिद्धस्य साद्यपर्यवसितस्य नाम्त्यप्यनपुंसकस्य च जन्म संहरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षत- न्तरमपर्यवसिततया सदा तद्भावपरित्यागात् । जी० स. श्वान्तरं वक्तव्यं तदेवमुक्तमन्तरम् जी०२ प्रति० । पं० सं०। 4जी० ३ प्रति०। (सामायिकादिसंयतानामन्तरं संजय शब्दे) (४०) औदारिकादिशरीरविशिष्टानामन्तरम् । सिद्धासिद्धयोः। ओरालियसरीरस्स अंतरं जहप्मेणं एकं समयं उक्को- सिकस्स एणं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होति ? गोयमा! सेणं तेत्तीस सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्नहियाई वेनन्चि- सातीयस्स अपजव मियस्स णस्थि अंतरं। असिहस्स एणं यसरीरस्स जहएणणं अंतोमुहुत्तं जक्कोसेणं अणं कानं भंते ! केवतियं कालं अंतरं हाति? गोयमा अणातीयस्स वणस्सतिकालो आहारगसरीरस्स जहएणणं अंतोमुहत्तं | अपज्जवसियस्स अणातीयस्स सपजवसियस्स पत्थि उक्कोसेणं अणंतं काझं जाव अवई पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण अंतरं। तेयगकम्मगसरीरस्स य दुविहा णत्यि अंतरं ॥ प्रश्नसूत्रं सुगम भगवानाह गौतम ! सिद्धस्य सादिकस्यापऔदारिकशरीरिणोऽन्तरं जघन्यतः एकः समयः स च द्विसा- यवसिनस्य नास्त्यन्तरम् । अत्र " निमित्तकारणहेतुषु समायिक्यामपान्तरालगतौ भावनीयः । प्रथमे समये कार्मणश- सां विभक्तीनां प्रायो दर्शनमिति" न्यायात् हेतौ पष्ठी तताऽ रोपेतत्वात नत्त त्रयविद्यासागरोपमाणि अन्तर्महाभ्य- यमर्थो यस्मात्सिद्धः सादिरपर्यवसितस्तस्मानास्स्यन्तरमन्यनि नासपो प्रियका इति भावः। वैक्रियशरीरिणोऽन्त-1 थाऽपर्यवसितत्वायोगात् । प्रसिद्धसूत्रे प्रसिद्धस्यानादिकरं जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त सबै क्रियकरणे यावता कालन पुनर्वैकि- 'स्यापर्यवसितस्य नास्ति अन्तरमपर्यवसितत्वादेवासिद्धत्वायकरणात् मानवदेवेषु भावात् । उत्कर्षतो वनस्पतिकालःप्रक | प्रच्युतेः अनादिकस्य सपर्यवसितस्यापि नास्त्यन्तरं भूयोऽ. ट एव माहारकशरीरिणो जघन्येनान्तर्मुदत्त सकृत्करणे पता-| सिद्धत्वायोगात् जी० सर्वजी०१ प्रति। वता कालेन पुनः करणात् उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावदपार्द्ध अंतरंग-अन्तरङ्ग-पुं० अन्तरं सदृशमङ्गं यस्य । अत्यन्तप्रिये, पुमनपरावर्तम् । जी. सर्वजी० ५ प्रति। (संघातपरिशा- बहिरङ्गशास्त्रीयनिमित्तसमुदायमध्ये अम्तर्भूतानि अङ्गानि नि: टकरणयोरन्तरं करण शब्द) मित्तानि यस्य । व्याकरणोक्ते परनित्यबहिरङ्गवाधके कार्यसंझाविशेषणेनान्तरम्। भेदे, तद्बोधके शास्त्रे च वाच० । अन्तरङ्गवहिरडयोरन्तरज संमिस्स अंतरं जहमेणं अंतोमुहत्तं नक्कोसेणं वणस्स- एव विधिबलवान् आम द्विाअभ्यन्तरे, त्रि०सं०। विशे० . इकालो मसंमिस्स अंतरं जहलेणं अंतोमुत्तं नकोसेणं | (काल शब्दे पददुदाहरणम्) मागरोवमसयपुहुतं सातिरेगं ततियस्स पत्थि अंतरं । । | अंतरंजिया-अन्तरञ्जिका-स्त्री० नगरीभेदे, यत्र भूतगृहं चैत्यं अन्तरचिन्तायां संझिनोऽन्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतोऽन बलश्री राजा त्रैराशिकानामुत्पत्तिश्चाभूत् , उत्त०३ अ.वि०। तं कानम् । स चानन्तः कालो वनस्पतिकासः। प्रसंकिकाल- । मामाद्वि० । कल्प० । स्था० प्रा० चू। स्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् । संझिनोऽन्तरं जघ अंतरंगगोलिया-अन्तराएमकगोनिका-स्त्री० अरामकोशान्यतोऽन्तर्मुदर्समुत्कर्षप्तःसागरोपमशतपृथक्त्वं संझिकालस्य ज भ्यन्तरस्य गोलिकायाम, महा०४ अ० । घन्यत उत्कर्षतश्चैतावत्प्रमाणत्वात् नोसंझिनोअसंझिनःसायस-अंतरकंद-अन्तरकन्द- पुं० अनन्तजीवात्मकवनस्पतिभेदे, पर्यवसितस्य नास्त्यन्तरमपर्यवसितत्वात् । जी०सर्वजीरप्रति. | प्रज्ञा० १ पद। (४१) संयमविशेषणेनान्तरम् । अंतर ( रा ) कप्प-अन्तर (रा) कल्प-पुं० चरित्राणामसंजयस्म संजयासंजयस्स दोएह वि अंतरं जहयेणं अं- तरस्वरूपे कल्पभेदे, । तद्वर्णनमित्थम् । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरकप्प जिविसकप्पो एसो, एतो वोच्छामि अंतराकप्पं । संखेवपिकियत्थं, गुरूत्रएसं जहाकमसो || दारं ॥ पंचद्वाणमसंखा, बारसगं वेव तिद्धि वितियाणं । अज्जत्य करणारा - द्वया य एसोंतराकप्पा || सामादिसंजनादी, पंचहचरणं तु तेसि एकेकं । माणसंस्था एकेके तत्य उाणम्मि || होति प्रांताचारि पाताल संखगुणियाण । एकं संजमकरुग- कंडसंखा य छडाणं || ( 0%) अभिधानराजेन्द्रः । या संखेज्जा, संजमसेदी तु होति बोधव्वा । सामान्यजेदसंजम ठाणागं तु असंखेज्जा | परिहार संजमाण, ताहे लग्गति ते असंखागा । गंतु ण होति बिष्ठा, ताहे तत्तो पुणो परता || बहंति जे असंखा, सामाइयछेद संजमडाणा | सामागच्छेदाणा, ताहे बिना भवंती तु ।। तो मग ते विजयं तु वांछिमा । तस्स अपच्चिमाणा अांतगुणवडितं शियमा ।। एकं परमविसुद्धं, होति हक्खाय संजमद्वाणं । पंचमसंस्वतिगं तं, वारस गयारपाकमाओ ।। दारं ॥ सृद्धपरिहारचचरो अणुपरिहार वि वमकप्पनियो । एते तिमिह तिया खल, एतेसिं एकमेकस्स ।। अंतरसंजमवारा, होति असंखासु तेसि सव्वेसिं । होति विहा तु सोही, करणे अव्जत्यतो चैव ॥ तो दो बी कायच्या, गाणकार वहणं । વી एसी अंतरकप्पो पं०भा० ॥ , इयाणि अंतरकप्पो गाहा (पंचद्वारा) अंतरकप्पो नाम पंचविहं चारितं सामाध्यमाइ एक्वेक्कस्स असंखेजारं संजमट्ठासाई अंतरं वारसति वारस भिक्खुपडिमा तासि पितष अंतरं तिष्ठि तिगतिसु च परिहारिणा एव चत्तारि परिहारिया अपरिहारिया बिसारि एसो कप्पट्टियो। पसि असं बेज अंतरा संजमद्वाणारं ते पुरा सम्येसु पि दुबिहा सोही अम्भत्थसोही य करणसोही य । दो वि कायव्वाश्रो माया एवं नायनिमित्तं वा नाणोवउत्तो वा जं करेह तत्थ षि अम्भत्थकरणं पडुश्च निजराविसेसो करणविसोहीए वि बाहिर अन्त्य चैव निज्जराविसेसो एस अंतररूप्यो । पं०० अंतरकरण - अन्तरकरण - न० यथाप्रवृत्तकरणापूर्वकरणानि - वृत्तिकरणभेदभिचे सम्यक्त्वौपयिककरणे, पं० [सं० [१] द्वा० [ तदृषं यथा प्रवृत्तादिशब्देषु करणशब्दे च ] अंतरगय अन्तर्गत त्रि० मध्यगते, प्रश्न० सं० ३ ० । अंतर गिह- अन्तरगृह- गृहान्तर - न० गृहस्य गृहयोर्वा अन्तरं राजदन्तादित्वात् श्रन्तरशब्दस्य पूर्वनिपातः । गृहस्य गृहयो अन्तराले पृ० ३ उ० । गृहयोरन्तराले स्थानादि न कर्तव्यम् " गितरणिसिज्जा यति" अनाचारत्वेन तस्य कथनात् । - अंतरगढ़ (सूत्रम् नोकपति निम्गंचाणं वा निग्गयां वा अंतरा गिम्मि चित्तिए वा निसीयत्तए वा तुट्टत्तए वा निद्दाड़तवा पयसाइत वा असणं वा पाया वाइ वा साम वा आहारं आहारितए उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववित्तए सज्जायं वा करित्तए झाणं वा भारतर कासगं या ठाणं वा छाइए अह एवं जापिज्जा बाहिए जराजुठो तवस्सी दुब्बले किलंते मुवापर वा एवं से कप्पड़ अंतरहिंसि चिह्निउत्तर वा जाव ठाणं ठगइत्तए । मो कल्पते निर्मन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा भन्तरं गृहे गृहस्थ गृहयो अन्तरे मध्ये राजदन्तादित्वादात् अन्तरद स्य पूर्वनिपातः स्थातुं वा निषतुं वा यावत्करणात्त्वम्वर्तयितुं वा निद्रापयितुं वा प्रचलायितुं वा श्रसनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वा आहर्तुमुच्धारं वा प्रस्त्रघणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिष्ठापयितुं स्वाध्यायं वा कर्तुं ध्यानं वा भ्यातुं ( काउस्सभांति ) कार्योत्सगंलणं वा स्थातुं स्थानं कर्तुं सूत्रेणैवापवाद दर्शयति । अथ पुनरेवं जानीयात् ( बार्डि इत्यादि) व्याधितो ग्लानो जराजीर्णः स्यविरस्तपस्वी क्षपको दुर्बलो ग्लानत्वादधुनैवोत्थितोऽसमर्थशरीर पतेषां मध्यादन्यतमस्तपसा भि क्षापर्यटनेन वा क्लान्तः परिश्रान्तः सन् मूर्च्छद्वा प्रपतेद्वा पर्व कारणमुद्दिश्य कल्पते अस्था या याद कायोत्स या कर्तमिति वार्थः । अथ भाष्यविस्तरः | सामसम्भावेगिहाणंतरं तु सम्भावे । पासपुरोह अंगण, मति य होतसम्भावं । गृहान्तरं शिया सायतोऽसावध रं मभ्यं तङ्गागृहान्तरम् । यतु] गृहस्य पार्श्वतः पुरोहने अङ्गणे गृहमध्ये वा तत्सद्भावगृहान्तरं भवति एतस्मिन् द्विषिघेsपि भिकाच निर्गतस्य स्थानादि कर्तुं न कल्पते। कुतरी, क्सियो गिहे तब रत्याए । बायंगणे लहुगा, तत्थ बि लाइणो दोसा || द्वयोः कुरुपयोरन्तरे (नितीपति ) सरितपतितस्याभिनवक्रियमाणस्य वा गृहस्य नित्तौ निवेशितश्चारित्रप्रभृतीनां गृडासामानोगे (मिहित) पारध्यायां प्रतीतायामेतेषु स्वा मेषुतिकाः तत्राप्याकादगो दोषा मन्तव्यस्तमितं प्रायश्चित्तं पृथग्भवतीति भावः । तथा खरिए खरिया सुएहा, एडे वट्टे खरे व किज्जा । लिए अगणिकार, दारे विवि केण तिरियक् ॥ खरको दासः खरिका दासी स्नुषा वधूः वृत्तखरस्तुरङ्गमः एतेषु मष्टेषु साधुः शङ्कचेत यः श्रमणकः कस्ये अत्र गृहान्तरे उपविष्टः आसीत् तेन हृतं भविष्यति । द्वारे वा श्रमणन उद्घाटिते स्तंनः प्रविश्य इतवानिति (शिति केचित् खातं दत्समित्यर्थः अग्निकायो वा केनापि दत्तो भवेत् द्वारेण वा प्रविश्य वृत्तिवाहिन्या [केनापि सुवर्णादिकमपि तं स्यात् तिर्यग्यमीयां या गोमहिषी प्रकृतिको मृतो भवेद तथापि थाकलाइयो दोषा बत पचमतो गृहान्तरे स्वातम्यम् । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) अंतगगिह अभिधानराजेन्द्रः। अंतरगिह अथ सूत्रोक्तं द्वितीयपदं भावयति । शाप्य तत्रानाबाधे अवकाशे अन्तरगृहे वा गृहे वा द्वावपि उच्छुकसरीरे वा, सुव्वलतपसोसिते व जे होज्ज । संघाटकसाधू यतनया विकथादिपरिहारेण तिष्ठतः। थेरे जुम्ममहिने, वीसंभणवेसहतसंके। । प्रत्यनीकद्वारमाह । पमिणीपनिवेपंते, तस्स अंतेनरे गतो फिमिए । इच्छुद्ध रोगाघ्रातं शरीरं यस्य स उच्छशरीरो वाशब्दः उत्तरापेक्षया विकल्पार्थे पुर्वसोऽधुनोत्थितग्लानः तपःशोषितो बुग्गहनिव्वहनावे, वाघातो एवमादीसु ।। था विकृष्टतपोनिष्टतदेहो भवेत् योवास्थविरो जार्णः षधिवर्षा- प्रत्यनीकं समागच्छन्तं दृष्ट्वा यावदसौ प्रतिव्रजति तावदेकान्ते तिकान्तजन्मपर्यायः सोऽपि यदि महान् सर्वेभ्योऽपि वृद्धतर निलीय तिष्ठन्ति नृपो वा सम्मुखेनैति तस्य वा नृपस्यान्त:एते विश्रामग्रहणाथै गृहान्तरे तिष्ठेयुः । इह च व्याधितोदये पुरं गजो वा हस्ती निर्गच्छति ततो यावदसौ स्फिटितो जवउत्सर्गतो निकाटनं न कार्यते परमात्मलब्धिकारणापेक्षया भिक्षा- ति तावत्तत्रैवासते (बुग्गहत्ति) दएिमको द्विजौ वा द्वौ परस्पमटतां प्राकृतस्तत्रावतारो मन्तव्यःसच व्याधितादिर्विश्रम्भण- | रं विग्रहं कुर्वन्तो समागच्छतो निर्वहं यधूवरं ततो महता विवेषः संविग्नवेषधारी हतशङ्कश्च हास्यादिविकारविकलतया अ- छर्देन समायाति श्रादिशब्देन गौष्ठिका गीतं गायन्तः समासंजावनीयव्यत्रीकशङ्कः सन् तत्र स्थानादीनि पदानि कुर्यात् ।। यान्ति एवमादिषु कारणेषु व्याघातस्तत्रैवं प्रतीकणलक्षणो अहवा श्रोसहहे, संखमिसंघामए व वासासु । भवति । तत्र च तिष्ठतामियं यतना ॥ वाघाए वा तत्थ उ, जयणाए कप्पती गर्न । प्रयाणगुत्ता विकहाविहीणा, सूत्रोक्तस्तावदपवादो दर्शितः । अथार्थतः प्रकारान्तरेणाप्यु. अच्छएणछाणे व चिया पविधा। च्यते इत्यत्र वाशब्दार्थः औषधहेतोदातारं गृहे अस्वाधीनं प्र. अत्यंति ते संतमुहा णिविषु, तीक्कते संखएमयां वा यावद्वेला भवति संघाटकसाधुर्वा याव. भति वा सेसपदे जहुत्ते ॥ द्भक्तपानभूतं भाजनं वसतो विमोच्य समागच्चति वर्षासु वा गृहं प्रविष्टानां वर्षे निपतेत वधूवराद्यागमनेन वा रथ्यायां व्या. श्रादानैरिन्जियगुप्तास्तथा विकथया भक्तकथादिरूपया वि. घातो नवेत् तावसत्रैव गृहान्तरे यतनया वक्ष्यमाणया स्थातुं शेषण हस्तसंझादरपि परिहारेण हीनास्त्यक्तास्तत्र गृहान्तरे कल्पते एष द्वारगाथासमासार्थः। अच्छन्ने छन्ने वा प्रदेशे ऊर्द्धस्थिता उपविष्टा वा ते साधवः अर्थनामेव विवरीषुरौषधिसंखमिद्वारे व्याख्यानयति । शान्तमुखा आसते । निवेश्य चोपविश्य शेषारयपि स्वाध्यायः पासंमि अोसहाई, ओसहदाता व तत्य असहीणो। विधानादीनि यथोक्तानि पदानि यथायोगं भजन्ते मच दोष मापद्यन्ते । कथमिति चेदुच्यते । संखमि असती कालो, उहते वा पमिच्छति ॥ थाणं च कालं च तहेव वत्थु, ग्लानस्यौषधानि पेष्टव्यानि तत्र पेषणशिला प्रतिश्रये नेतुं न कल्पते अतस्तेषां चागारिणां गृहान्तरे स्थित्वा तानि पेषन्ति । प्रासज्ज जो दोसकरे तु गणे। ओषधमार्गणार्थ वा कस्यापि गृहं गताः स चौषधदाता त तेणेव अन्नस्म अदोसवंते, दानीं तत्रास्वाधीनोऽतस्तं प्रतीक्षमाणः स्थातव्यम् । संखडी जवंति रोगिस्स व अोसहाई । वा कापि वर्तते तत्र वसेत्कालोऽद्यापि देशकालो न भवति स्थानं च स्त्रीपशुपएमकसंसक्तं भूभागादि काझं च ऋतुबद्धा. गृहस्वामिना चोक्तं प्रतीक्षध्वं क्षणमेकं यावद्वेला भवति तत दिकं तथैव वस्तु तरुणनीरोगादिकं पुरुषऽव्यमासाद्य याम्येस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा गृहे प्रतीक्षणीयम् । अगारिणो वा तदानीं कस्य गृहान्तरे स्थाननिषदनादीनि स्थानानि दोषकारीणि गृहाङ्गणमापूर्य भोक्तुमुपविष्टाः सन्ति ततस्तानुपतिष्ठतः भवान्त तान्येवान्यस्य पूर्वोक्तविपरीतस्थानकाबपुरुषवस्तुसाप्रतीक्षत। चिव्याददोपवन्ति रोगिण इवोषधानि । यथा किन्झ यान्यौषधासंघाटकद्वारमाह । न्येकस्य पिसरोगिणो दोषाय भवन्ति तान्यवापरस्य वातरोगिएगयर नभयो वा, अखंने अहव्य वा उभयलंभे। णोन कमपि दोषमुपजनयन्ति एवमत्रापि भावनीयम् । वसहिं जाणे एगो, ता इअरो चिट्ठई दूरे ॥ अन्तरगृहे धर्मकथा न कथनीया। एकतरस्य भक्तस्य वा पानस्य वा उभयोर्वा अलाभे दुर्ल- [मत्रम् ] नो कप्पति निग्गंधाण वा निग्गयीण वा अंतरभतायामित्यर्थः । [ श्राह] कदाचिदुभयमपि प्रचुरतरं गिहम्मि जाव चउगाहं वा पंचगाहं वा आइखित्तए वा विलब्धं तेन च भाजनमापूरितं ततः संघाटकस्य मध्याद्यावदे- नावित्तए वा किट्टइत्तए वा पवयइत्तए वा ननत्य एगनाकस्तगाजनं वसति नयति तावदितरः साधुरगारिणां दूर एण वा एगवागरणेन वा एगगाहाए वा एगसिनोएण वा भूत्वा तिष्ठति एष चूर्ण्यभिप्रायः। पुनरयं भक्तस्य पानकस्य उभयस्य दुर्लभस्य लाभः समुपस्थितो मात्रकं च तस्मिन् दिने सेविय ठिच्चा नो चेव णं अविच्चा । अनाभोगेन न गृहीतं ततो यावदेको मात्रकं वसतेरानयति नो कल्पते निर्ग्रन्थानांवा निग्रंथीनां वा अन्तरगृहे यावशतुर्गाथं तावदितरस्तत्र गृहिणां दूरे तिष्ठतीति । वा पञ्चगाथं वा विभावयितुं वा कीर्तयितुंधा प्रवेदयितुं वा। एतवर्षाद्वारमाह । देवापबदनाह । “नन्नत्थ" इत्यादि नो कल्पते इति योऽयं निषेधः स एकसाताद्वा एकगाथाया वा एकश्लोकाद्वा अन्यत्र मन्तव्यः । वामासु च वागते, आशुमचित्ताण तत्य णावाहे । मत्र च पञ्चम्यास्स्थाने तृतीयानिर्देशः प्राकृतत्वात् । अपि च अंतरगिहे गिहे वा, जयगाए दो विचिट्ठति ।। एकगाथादिव्याख्यानं स्थित्वा कर्तव्यं नवास्थित्वा भिक्कां पर्यटघर्पासु वा कापि गृहे गतानां वर्ष वर्षति गृहनामिनमनु- ता उपविष्टन वा इति सूत्रार्थः । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतगगिह अभिधानराजेन्द्रः। अंतरगिह अत्र विषमपदानि भाष्यकृढ़ विवृणोति । अकयमुह ! फलयमाणय, जा ते लिक्खं तु पंचगं ।। मंहियकट्टणमादि-कवणं त पर्दछेद मो विजागो उ । पुस्तकप्रत्ययादेव भवता पठितं न गुरुमुखात अतः किमेतन मुत्तन्योकिणया, पर्वतणं तप्फनं जाण ॥ प्रयासन किंवा त्वमेवं रासन्न इव अभिलापं विस्तारमारटसि। इस संहिताया अस्वलितपदोच्चारणरूपाया यदाकर्षणं तदा- यद्वा अकृतमकरसंस्कारेणासंस्कृतं मुखं यस्यासावकृतमुखस्तध्यानमुच्यते तच्चेदं व्रतसमितिकपायाणां धारणरक्कणयिनि- स्यामन्त्रणं हे अकृतमुख! अपठिताशिक्विन एवं भवान्न किमपि ग्रहाः सम्यम्दामेच्यश्चोपरमो धर्मः पञ्चेन्डियदमश्च एवं भिका- मास्यति अतः फलकं पट्टिकामानय येन तव योग्यानि पश्चागते गृहस्थानां धर्मकथनार्थ संहिताकर्षणं करोति । यस्तु पद प्राण्यवराणि विख्यन्तामस्मानिः। एवं निको पर्यटन् यदिविकच्छेदः 'मो' इति पादपुरण मविभागो विनावना जागयत यथा | त्थते तत इदं प्रायश्चित्तम् । बतानां धारणं ममितीनां रकणं कषायाणां निग्रह इत्यादि । सहगादी छग्गुरुगा, तवकालविममिया चळगुरुगा । यन मूत्रार्थ कथन सा कीर्तना सा चेयं व्रतानि प्राणानिपा- अधिकरणमुत्तरुत्तर-एसणसंकाइ फिझियम्मि ।। नादिविरमणरूपाणि नेपां सम्यगप्रमत्तेन धारणं कर्तव्यम् । गाथायामीकारके च चतुर्बघु, पुस्तके चतुर्गुरु, अक्करशिसमितय यासमित्यादयस्तासामेकापचेतमा रक्कणं विधेय- क्षणे पालघु, स्वररटने पम्गुरु, । अथवा तपःकाबविशेपितामित्यादिकस्य धर्मम्य यन्फामहिकामुष्मिकलाभवणं नन्न- चतुलघुकाः तद्यथा गाथासकारकयोस्तपःकालाभ्यां लघुकाः रूपणं प्रवेदनं जानीयात् यथा जगवप्रणीतमम धर्ममनुतिष्टत पुस्तके कालेन गुरुका अक्करेषु तपसा गुरुकाः खररटने तपसा इहैव भुवनवन्दनीयतायशःप्रवादादयो गुणा नपढौकन्ते परत्र कालेन च गुरुकाः । अधिकरणं च कलहस्तेन समं जवान उच स्वर्गापवर्गमौख्यप्रापिनवतीनि एवं इलोकादेराख्यानादिषु त्तरोत्तरा उक्तिप्रत्युक्तीः कुर्वाणस्य च तस्य भिकायां दंशकालः भिकां गतन विधीयमानेषु दोपानाह । स्फिटति तस्मिन् स्फिटित पर्यटनैषणयोः प्रेरणं कुर्यात् अकालएका वि ता महल्ला, किमंग पाण होति पंच गाहाओ। चारिणश्च शठकादया दोषा जवन्ति । । मारण लहगा आणा-दिदामा त चविम अम ।। वागिएहति इय सो जाव, तेण ता गहिय भायणा इयरे । एवं संहितादिविस्तारण व्याख्यायमाना नावदेकाऽपि गा- अत्यंने अंतरा य, एमेव य जो पमिस्मत्ती ।। था महनी महाप्रमाणा भवति किमङ्ग पुनः पञ्च गाथाः। अनो यावदमा तन ममनुत्तरप्रत्युत्तरकां कुर्वन् व्यागृहाति व्याकेयद्यकामपि गाथां कथयति तदा चतुर्लघुका आशादयश्च पेग वेलां गमयति तावदितरे साधयो गृहीतजाजनाः सन्तः दोपगः । नधा चतुरङ्गमादिहतनएशङ्कादयस्त पवान्तरगृहांका आमने नतोऽन्तगयदोषः । एवमेव यो म्लानः प्रतिइममत्वद्योदोषा भवन्ति । इमे च वक्ष्यमाणा अन्ये दोपास्तानेवाह । ग्य प्रायोग्यमद्य मया आनेतव्यमित्यर्थः ततस्तस्मिन्नपि तावन्तं अद्धीकारगपोन्यग-खररमणमक्खग चव । । कालं बुकिने तिष्ठति तस्य साधेोरन्तगयं नवति । माहारणपमिाणत्ने, गिझाणाहुगाइ जा चरिमं ।। कानाइक्कमदाणे, होइ गिनाणस्स रोगपग्वुिमी । भितां पर्यटन कमप्यगारिणमशुद्धां गायां पठन्तं श्रुत्वा प्र- परितावणगाढानि, चउबहुगा जाव चारिमपदं । पीति विनाशिनयं त्वया गाथा। तथा ( श्रीकाग्गत्ति ) गा- कालानिक्रमेण च म्यानस्य नक्तपानदाने रोगपरिवुद्धिर्भवति थाया अर्द्धमहं करोमि अर्द्ध पुनस्त्वया कर्नव्यम । (पुत्धगति) ततश्च यदसावनागाढपरिनापादिकं प्राप्नोति नत्र चतुर्वघुकापुस्तकादेव शास्त्रमधीतं भवता न पुनर्गुरुमुवान । (बहु दिप्रायश्चित्तं यावत् कालगते चरमपदं पागश्चिकम् । द्वितीत्ति ) किमेवं सर इबाग्टनं कगेपि ( अक्खग चंबात ) अ. यपदे गोचरप्रविष्टोऽपि परंण स्पृष्टःसन् कथयत् किं कारणमिवगग्यच नावद्भवान्न जानीत अनः पट्टिकामानयाहं भवन्तं ति चेपुच्यते। नानि शिक्षयामि इत्यादिवाणा यावत्नन्न व्याक्ष कगति ना किं जागनि य चग्गा, हयंजहिताण जे उ पच्चश्या । वत् इमे दोषाः (साहारगति ) माधारणं सर्वेषु मिलिनेषु यन्मगडल्यां भोजनं ननिमित्तमितरे माधवः तं प्रतीक्षमाणा एवंविधो अवएणो. मा होहि तेण कहयंति।। स्तिष्ठन्ति ( पडगित्तित्नि ) नेन साधुना कश्चिन ग्लानः प्रति यदा परेण प्रदिनता अपि न कथयन्ति तदा मचिन्तयनि किमेसमः अद्याहं भवतः प्रायोग्यमानण्यामीति ततस्तन चलावि. ने चरका जानन्ति ये हलं परित्यज्य प्रन जताः पवंविधोवर्णः लम्बन यदमा ग्लानः परितापादि प्राप्नोति तत्र चतुर्लघु प्रवचनम्य मा नृत् तेन कारन कथयन्ति । अथ "पगनापणकादि चरम पागश्चिकं यावन्प्रायश्चित्तमिति द्वारगाथा वा" इत्यादिसूत्रपदव्याधिख्यामयाट। समासार्थः। एग नायं उदगं, वागगामहिंसनकायको धम्मो । सांप्रनमेनामेव ब्याख्यानयति । गाहादि मिलोगेहि वू, ममासतो तंपि विच्चा ॥ जग्गविभग्गा गाहा, भणई हीणा च जा तुमे नगिना। परप्रशिनतन विवकिनार्थममर्थनार्थमकं कानमभिधानव्यं नत्र अह में करोमि अम्हं, तुम मे अझ पमाहे हि ॥ चोदकरयान्नो भवनि व्याकरण निर्वचनं यथा केनचित् धर्मल. माधुर्भितां गतः मुपाख्दिन्यण्यापनार्थ गृहस्थं पटन्तं श्रुत्वा | कणं प्रपम्ननःप्रतियात् हिमालकणो धर्मः । अथवा गाथाभिः प्रवीति येयं त्वया गाथा भगिता सा भग्नविभग्ना इति भनि | श्वाकवी ममामना धर्मकथनं कर्तव्यं नपचस्थित्वा नापविहीना वा कृता । यढ़ा अद्ध (से) तम्या गाथाया अहं क-1 ऐन न चा मिताहिए कमानेनति निर्यान,गाथासमामार्थः। रोमि अई पुनस्त्वं प्रमाधय इत्यवभिनया गाथा क्रियते । अधनामय विवृणानि । पोन्थगपचगपडियं, कि रडमि रामद् च अभिलापं । नजर अगेण अत्ये, पायं दिलुन इनि व एगहुँ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) अंतरगढ़ वागरं पुजा ज-हस धम्मता होति अत्थस्स ।। ज्ञायते श्रनेन दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातं दृष्टान्त इति चैकार्थे व्याक रणं पुनर्या यस्य मोकादेरर्थस्य धर्मता स्वभावस्तस्य निर्वचनम् । अधोदकान्तो भाग्यते यगो सा समनामगभिक्वायरिया अनं गामं वञ्च तत्थ अंतरा गित्यो मिश्रितो ते दो वि वश्चंता - तरपदे उदगं उलिएणा सो श्रगारोगामं पविडो तस्स य भगिणी अस्थि ती घरं पाहुणगो गतो । साहू वि भिक्खं हिंमतो तं घरं गतो गण पुरेकम्मं कथं साडुणा पडिसिद्धं भगिणीए कार्य कीस न गिरहसि। साहू भगइ उदगसमारंजो न वट्टछ । अगारा जणंति जे मप समं पंथे उदगं उत्तिष्ठो से नं किह कपर अटो मायाविणो दुद्दिधम्माणो सि । साहू प्रणश् न वयं मायाविणो न वा दुद्दिधम्माणो किं तु " पप्पं खु परिहरामो अप्पं विवज्जनं विजति हु । पप्पं खलु सावजं, वज्रंतो होइ प्रणवज्जो " प्राप्यमेव परिहर्तुं शक्यमेवं दयं परिहरामः अप्राप्यस्य परिहर्तुमशक्यस्य मार्गक्रमायातोदकवाहकादेर्विवर्जकः परिहर्ता न विद्यते श्रत एव प्राप्यं सावधं पुरःकर्मादिकं वर्ज - यो निर्दोषो भवति । अपि च नायमेकान्ती यदेकान घद्यतया दृष्टं तदन्यत्र प्राप्यमवद्य मेव जवति । तथाहि । अभिधानराजेन्द्रः | चिरपाहुणतो भाग, अवयामितो अदोसवं होति । तुं चेत्र मऊ सक्खी, गरहिज्जइ महिं काले || चिरकालादायातः प्राघूर्णको जगिनं । मवकाशमानः सस्नेहमालिङ्गन् प्रदोषवान् भवति । तथा चात्र त्वमेव मम साक्षी प्रमाणं समं भवता विप्राकतया नगिमपरिष्कृत त्वादिति भावः । तामेव च जगिनीमन्यस्मिन् काले परिष्वजन् गीत निन्द्यते श्रत्रापि त्वमेव प्रमाणमिति । तथा । पाप आकमियतम कीरती अचा । सीम विकिज्जति, मच्चैव चितीकया तविओ ॥ अर्चा प्रतिमा सा यावन्नाद्यापि प्रतिष्ठिता तावदधौतैरपि पा राकस्योपरि दिवाऽपि क्रियते प्रतिमा विकृता थे त्यत्वेन व्यवस्थापिता शीर्येणापि परस् द्भिरपि शङ्का विधीयत इति ज्ञावः । । के सरीरावयवा देहत्था पूइया न पुण विउता | सातवटा मलम्मिं एा सव्वं न ॥ केचित् शरीरावयवा दन्तकेशनखादयो देहस्थाः सन्तः पूजिनाता भवन्त न पुनर्विताः शरीराचाः। तथा मुख्य मंत्र सति न 9 किंतु निवेति । जड़ चल मच्चत्य वि एणामी मोटा मीनो तक फिल्ममा पुणो जुर्म ॥ यदि नाम एकत्र यदुपलब्धं सर्वत्रापि तेन भवितव्यमित्यैवं मोहादज्ञानान मन्यसे ततः कथय भूमीतः कनकमुत्ययमानं ततः सूत्र किन भूमिः सम्यते । तम्हा उ अगंतो ए दिमेगन्य सव्वाहं होति । लोए भवं पितमापन दिहाई ॥ तम्मादनेकान्तो ऽनियमो यः कीदृश इत्याह । नैकत्र दृएं सर्वत्रापि भवतीति । तथाच लोके प्रागयङ्गत्वे समानेोदनप कानादिकं भव्यं मांसवसादिकमभयं तजसादिकं प अंतरगिह मद्यरुधिरादिकमपेयमित्यादीनि पृथक् व्यवस्थोत्तराणि - टानि तथापि उदकसमा मन्तव्यानि गतमेकजातम्। श्रथैकव्याकरणेन यथा धर्मोऽभिधीयते तथा दर्शयति । इच्छतो जंवा इच्छसि अप्प तं इच्छ परस्स वि यं, इत्तियगं जिणसासायं ॥ वदात्मनः स्वजीवस्य सुखादिकमि दुःखादिकमात्मनो नेच्छसि तत्परस्याप्यात्मव्यतिरिक्तस्य जन्तोरिच्छ श्रात्मवत् परमपि पश्येति भावः । एतावत् जिनशासनमियमात्रो जिनोपदेश इति गाथया पुनरित्यं धर्म उपदिश्यते । सम्पारं परिग्गड शिक्षा सव्वभूतसमया । एकग्गमणसमाहा - या ग्रह एत्तियो मोक्खो || सर्वस्प सूक्ष्मवादरायशेषजीवविषयस्यारम्भस्य सर्वस्य च सचित्तान्चित्तमिश्रभेदभिन्नस्य परिग्रहस्य यो निक्षेपः स न्यासो यावत्सर्वभूतेषु समता, या च एकाग्रमनःसमाधानता, श्रथैष एतावान् मोक्क उच्यते । कारणे कार्योपचारादेषो मोक्षोपाय इत्यर्थः । लोकेन यथा । सव्वनूतनूतस्स मम्मे नूताई पासव । " पिहिया सम्मस्स दंमस्स, पार्व कम्मं न बंध ।। - पाठसिद्धः। येतु संस्कृतरुचयस्तेषामित्यं गाथा सकेन चा धर्मकथा क्रियते । "व्रतसमितिकायाणां धारणरक्षणविनिग्रहाः सम्यक् । दण्डेभ्यश्चोपरमो धर्मः पञ्चेन्द्रियदमश्च ॥ यत्र प्राविधो नास्ति, यत्र सत्यमनिन्दितम् । तत्रात्मनिग्रहो दृष्टः स धर्ममपि रोचयेत् " । अथ किं कारणं स्थित्वा धर्मः कथनीय इत्याशङ्कयाह । इरियावहिया, सिद्धं ण गिएहए अतो विचा । नदि पीि अभियोगे च वि परेण ॥ ईर्यापथिकी चंक्रमणक्रिया नां कुर्वन् यदि कथयति तदा लोके भवति धर्माणोऽमी यदेवं गच्छन्तो धर्म कथयन्ति श्रपि च शिष्टमपि कथितमपि धर्ममेवं श्रोता न गृह्णाति । अतः स्थित्वा एकश्लोकादि कथनीयम् । श्रथापवाद उच्यते कश्चिद्भद्वको धर्मश्रद्धालुः ऋद्धिमान् धर्म पृच्छति ततः सत्वानुकम्पया प्रवचनोपग्रहकरच भविष्यतीति कृत्वा तिस्रश्वतस्रः पञ्च वा बहुत्तरा वा गाथा उपविश्व कथयितव्याः । प्रत्यनीको वा कश्चिद् व्यतिव्रजति तं प्रतीक्षमाणस्तावकर्म कधयंत यावदसी व्यतीतो भवति । यद्वा स प्रत्यनीकः सहसा दृष्टो भवेत् ततो यः सन्धिकः स उपशमनानिमित्तं बहुविधमुपदेशं दद्यात् । दकिकस्य वा श्र नियोगो बलात्कारी भवेत् । किमुक्तं भवतिधर्मे पदिकात् कथय कथय मे संप्रति महती श्रावन ततश्चतुर्णा श्लोकानां परतोऽपि कथयेत् । ग्रह कीदृशी पुनः कथा कथयितव्या कीदृशी वा नेति । सिंगाररमुत्तिजिया, मोहमई फुंफुका इसहमेति । जं पुण माणुसक, समण नु सा कयन्त्रा । यां कथां गतः श्रोतुः स्त्रीसुवर्णादिश्रणजनितेरसम्म गृ. झागे नाम रसस्तेनोत्तेजिता सती मोहमयी फुंफुका ( हसदसनि ) जाज्वल्य सा कथं श्रवणेन कथयितव्या । समरोग कयव्वा, तवनियमका विरागमंजुत्ता । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (GG) अभिधानराजेन्द्र अंतरगिह जंसो मसो, बच्च संवेगरिब्वेयं ॥ - तपोऽनशनादि नियमा इन्द्रियनिग्रदास्ताना कथा तपोनियमकथा विरागसंयुक्ता न निदानादिना रामादिसंगता मणेन कथयितस्यायां श्रुत्वा मनुष्यः श्रोता संगनिदं ब्रजति । संगो मोक्षाभिलाषो निर्वेदः संसारवैराग्यम् । महामतानि न गृहान्तर कथनीयानि । (सूत्रम्) नो कप्पर निचाणं वा निषीणं वा अंतरगिम्मि इमाई पंचमहन्त्रयाई सजावणाई आइखितए वा विजावितर या किट्टित या पंचयत्तए वा नन्नत्व एगनाएण वा जाव सिलाएण वा सेविय विच्चा नां चैव द्विच्चा । अस्य व्याख्या प्राकसूत्रवद् द्रष्टव्या । नवरम्-श्मानि स्वयमनुनूयमानानि पञ्च महाव्रतानि सभावनानि प्रतिव्रतं जावनापञ्चायुक्तानि श्राख्यातुं वा विज्ञात्रयितुं वा कीर्तयितुं वा प्रवेदयितुं वा न कल्पते । श्रख्यानं नाम साधूनां पञ्च महाव्रतानि नावनायुक्तानि पकारणसाराणि भवन्ति । विभावनं तु प्राणातिपाताद्विरमणं यावत्परिग्रहाद्विरमणमिति । जावनास्तु "इरियासमिए सया जर इत्यादि" गाथोक्तस्वरूपाः पङ्कायास्तु पृथिव्यादयः कोतेनं नाम या प्रथमव्रतरूपा श्रहिंसा सा जगवती सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पूज्या त्राणं गतिः प्रतिष्ठेत्यादि एवं स वैषामपि प्रश्नव्याकरणाङ्गोक्तान् गुणान्कीर्त्तयति प्रवेदनं तु म ढावतानुपालनात् स्वर्गोऽपवर्गो वा प्राप्यत इति सूत्रार्थः । परः प्राह । ननु पूर्वसूत्रेण गतार्थमिदमतः किमर्थम गहियागहियविसेमा, गाथासुत्ता तु होति वयमुत्ते । णिसकतो व जत्रे, परिमाणकतो व वियो ॥ गाथासूत्रे पतिप्रति विशेष मन्तयः किमुक्तं भवति अनन्तरसूत्रे च उगाहं वा पंचगाहं वा इत्यक्तं ताश्च गाथा प्रथिसा भवन्ति इमानि तु महाशतानि प्रचितानि अग्रथितानि वा भवे चितानि नाम पपाठबन्धेन वा लोकबन्धेन या वानिक थयति अप्रथितानि तु मुकलैरेव वचनैर्यान्यभिधीयन्ते यहा निर्देशः कृतोऽत्र वशेषो भवति अनन्तरसूत्रे चतुर्गाथं पञ्चगार्थ या कथयितुं न कल्पते इत्युद्देशमात्रमेव कृतम् अत्र तु महावतानि सभावनाकानीत्यनेन तस्यैव विशेष निर्देशः क्रियते । परिमाहतो या विशेषो विशेषः । यधस्तनधर्मस्वरूपमु तदेवात्र महाव्रतमञ्चकमिति संख्यया विशेषो निरूप्यते । अधात्रैव दोषानाह । पंचमयतुंगं, जिणत्रयणं जानणापिगं । साहसगा आणाइ-दोस जं वा एिसिज्जा ।। इह जिनवचनं मेरुसद्दर्श पञ्च निर्मातस्तुमुच्छ्रितं पञ्चमहाव्रतमयमित्यत्तस्यैव महाव्रतस्वार्थ भावनाभिः पञ्चविंशति संख्याकाभिः पिनरूं गाढतरं नियन्त्रित मदनमन्तरगृहे उपविश्य कथयतकाः श्रा ह्रादयो दोषाः । यद्धा गृहनिषद्यायां वाहितायां प्रायश्चित्तं यश्च दोषजालं तदापद्यते। तथा महातपञ्चकविषया दोषा भवन्ति । मातृवधमापद्यते प्राण वा शङ्खघते । एवं यावत्परिग्रहमापद्यते देश तथा पाणवहम्पि किसी कपडादाण व संकायो । किरण दाइ कोइ मोममियं संका साणे || अंतरगिह गृहे उपविश्य साधुर्धर्मे कथयति गुर्विणी च तस्यान्तिके - पविश्यशृणोति यायच्या विसितायसदीय गर्भस्यादाव्यवच्छेदेन विपत्तिर्भवति । एवं प्राणवधो लगति । तथा धमैं कथयतः काचिदविरतिका शृएवत्येवापान्तराले कायिकभूमिं गच्छेत् स च पुनस्तत्रैवास्ते ततः सपत्नी छिद्रं लब्ध्वाततनयं मिषेण साधोरग्रतो निपात्य झावयति एवं प्राणातिपातविषयाशङ्का जवेत् । तथा यतीर्थंकरैः प्रतिषिद्धं तन्मया न क व्यमिति प्रतिहप्रतिवाहयतो मृषावाद भव ति । यद्वा स्वमुखेनैव गृहनिषद्यां निषिध्य प भुञ्जानो मृषावादमापद्यते । अथवा स दिने दिने तस्या श्रविरतिकाया अग्रे धर्मे कथयति ततो गृहस्वमिना भणितो मे मम गृहं नायास । रिति । साधुना प्रणितम् । आगमिष्यन्ति ते गृहं पागुनका एवमुक्त्वाऽपि जिह्वाबोलतादिदोषेण तदेव गृह - जन् भणितोऽपि तेन गृहस्थेन वारितोऽपि कश्चिदिति एवं मृषावादमाोति । स च गृहस्थां ब्रूयात् किं पाणशुनकः संवृत्तोऽ स्तीति । गृहस्यो नोजनं कुर्वन् धर्म एवमारी कमप्युत्कएं द्वितीयायात् सा पानात ब्रूयात् जानाम्यहं तं श्वानं येन नक्तिमिति । एवं मृषावादवि[[पय] शङ्कर भवेत् । अथास्था एवं पूर्वाद्धं व्याच खुहिया पिपासिया वा, मंदक्वेणं न तस्स उडे | गन्जरस अंतरायं वालि निरोपेणं ॥ गुर्विणी धर्मकथां शृण्वती क्षुधिता वा पिपासिता वा भवेत् सा च तस्य साधोः संबन्धिना मन्दाक्षेण लज्जमाना ति प्रति ततो गर्भस्यान्तरायं भवति । तेन चाहारयच्छेदसेन संनिरोधेन स गर्भो बाध्यते । ततो व्यापश्चिमप्यसी प्राप्नुयादिति प्राणवधमापद्यते । अथ प्राणवचाविषय दर्शयति । उक्खित्रित सो हत्या, चुचां तस्सग्गतो शिवादिता । सुरते य वियारगते, हाह त्तिस वित्तिणी कुणति ॥ अविरतिकाया अग्रे स धर्मे कथयति सा चापान्तराले कायिकाद्यर्थं निर्गता ततस्तस्यां शृण्वत्यां श्राविकायां विचारभूमी गतायां सपक्षी तदीयं पुत्रं तस्य साधारयतः उत्क्षिप्य भूमी सहसैव निपातयति निपात्य व अहो अमेन धमसेन पुत्रः नदीयहस्ताच्युतो विपक्ष इति महना शब्देन हातिपुकारं करोति । ततो भूयान् लोको मिलितस्तं साधुं तव स्थितं दृष्ट्वा शङ्कां कुर्यात् किमेतत्सत्यमेवेदमिति । मृषावादकाः प्रयमुक्त इति न भूयो भाव्यते । श्रथादसादानमैथुनयोर्दोषानाह । । सयमेव कोइ बुद्धो, अपहरती तं पहुच कम्मकरी । वाणिगिणी मेहुण, बहुसो यच संकाय ॥ कचिती लुद्धः सन् विजनं मत्वा स्वयमेव सुवर्णकलिकां मुद्रिकामपहरति एवमदसादानमापद्यते । तं वा संयतं प्रतीत्य "सारा शष्यिते नामिति" कृत्या कर्मकारी का चिदपहरेत् । वाणिजिका वा काचित्प्रोषितभर्तृका तथा समं मैथुनविषया श्रात्मपरोभयसमुत्था दोषा भवन्ति । श्रथवा यत्र प्रोषितपतिकास्तिष्ठन्ति तत्रासौ बहुशो वारं व्रजति चिरं च ताभिः सह कन्दर्प कुर्वाणस्तिष्ठति ततश्चतुर्थविपये वेत Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) अंतरगिह अभिधानराजेन्द्रः । अंतरदीव अथ परिग्रहदोषमाह ।। নিয়ন্সকৃঙ্কানঘাল নমঘনালधम्म कहेइ जस्स उ, तम्मि उ वीवारए गए संते । म्बन्याम्थतत्वात् ग्राहवतीकुण्डाकिणतारण विनिर्गता अतामारक्वणपरिग्गहो, परेण दिट्टम्मि उहाहो ।। विंशतिनदीसहस्रपरिवारा शीताधिगामिनी सुकन्चमहाकायस्य श्रावकादेरग्रे धर्म कथयति स ब्रूयात यावदहं कायिकी विजययोविभागकारिणी प्राहवती नदी। एवं यथायोग द्वयोई. व्युत्सृज्य अत्र समागच्छामि तावद्भवता गृहं रक्षणीयमेव योर्वकस्कारपर्वतयोविजययोरन्तर क्रमेण प्रदक्षिणया द्वादशा प्यन्तरनद्यो योज्यास्तदद्वित्वं च पूर्ववदिति स्था०२ वा० (पूर्वमुक्त्वा तत्र विचारभूमौ गते स संयतो यावत्तहं संरक्षति तावत्परिग्रहदोषमापद्यते तदेवं गृहं रक्षन् परेण दृपः स शहां पश्चिमाछापकया द्विगुणत्यादिति) कुर्यात् नूनमेतस्यापि हिरण्यं सुवर्ण वा विद्यते उडाहं च स अंतरदीव-अन्तरदीप-पुं० अन्तर शब्दो मध्यवाची अन्तरेलवकुर्यात् अहो अयं श्रमणकः सपरिग्रह इति । यत पते दोषा णसमुहस्य मध्य द्वापा अन्तरहीपाः प्रा० १ पद । अधया अतो नान्तरगृहे धर्मकथा कसा । अन्तरं परस्परं विभागस्तप्रधाना द्वीपा अन्तरा। पाः । पकारद्वितीयपदमाह। कादिषु अष्टाविंशतिविधीपनेदेपु. स्था) ४०। पगं णायं उदकं, वागरणमहिमक्खणो धम्मो । में कितं अंतरदीवया ? अंतरदीवया अहावीसविहा पगाहाहिं सिलोगेहि य, समासतो तं पिच्चिा णं ॥ मत्ता एगोरुया अहामिया साणिया णंगोली ? हयकन्न गतार्थम् । वृ० ३ उ०। गयकन्ना गोकना सक्कक्षिन्ना २ आयसमूहा मेंदमुहा अय. अंतरजाय-अन्तरजात-न० भाषाव्यजातभेद, यानि दव्या मुहा गोमुहा ३ आममहा हत्थिमुहा सहमहा ग्यमुहा णि अन्तराले समश्रेण्यामेव निस्पानि तानि नाषापरिणाम ४ासकन्ना सीहकन्ना अकन्ना कम्मपाउरणा ५ उकानजन्ते तान्यन्तरजातमुच्यते आचा० २ श्रु०४०। मुहा मेहमहा विज्जुमुहा विज्जुदंता ६ घणदंता लट्ठदंना अंतरणई (दी)-अन्तरनदी-स्त्री० पुद्रनदीषु, यत्र यावत्योऽन्तरनद्यस्तत्प्रतिपादयति । गढदंता मुद्धदंना ७ सेत्तं अंतरदीवगा। जंबमंदरस्स पुरछिमेणं सीयाए महार्णए उत्तरेणं से कि तमित्यादि सुगम नवरमणाविंशतिविधा इति यादृशा एवं यावत्प्रमाणा यावदपान्तराना यन्नामानो हिमवत्पर्यन - तो अंतरणईश्रो पमत्ता जहा गाहावई दहबई पंकवाई। परदिव्यवस्थिता अप्राविशतिविधा अन्तरापास्तादृशा एव जंबूमंदरपुरच्छिमेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं तो तावत्प्रमाणास्तावदपान्तरालास्तत्रामान एवं शिखरिपर्वतपापअंतरणईओ पमत्ता तनहा तत्तजला मत्तजला उम्मत्तन रदिब्यवस्थिता अपि ततोऽत्यहसदृशतयाध्यक्तिभेदमनपंक्ष्य अन्तरद्वीपा अष्टाविंशति विधा एव विवक्षिता ति तज्जाता मला। जंबूमंदरपञ्चच्चिमेणं सीओदाए महाणईए दाहिणणं गुप्या अपि अष्टाविंशतिविधा उक्तास्तानेय नामग्राहमुपदर्शतो अंतरणईओ पमत्ता तंजहा खीरोदासीहसोया अंतो- यति " तंजड़ा एगोरुया इत्यादि " ए सप्त चतुष्का अविवाहिणी । जंमंदरपच्चन्जिमेणं सोश्रोदाए महा ईए हातिसंख्यत्वात् एते च प्रत्येक हिमति शिखरिणि तत्र हिमउत्तरेणं तो अंतरणईओ पस्पत्ता तंजहा उम्मिमालिणी याततया तावद्भाव्यन्ते (प्रज्ञा०१ पद.) इह एकोरुकादिनामाफेणमाक्षिणी गंजीरमालिणी। एवं धायइखंडदीवपुरस्टि नो द्वीपाः परं तात्स्थयात्तव्यपदेश इति न्यायान्मनुप्या अप्यको रुकादय वक्ताः यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चामा मद्धे वि । अकम्ममीओ आढवेत्ता जाव अंतरणदीयो इति । जीवा०३ प्रति० । पतषु सप्तसु चतुप्केषु प्रथमश्चतु. ति गिरवसेसं नाणियवं जाव पुक्खरवरदीवरुपच्चचिम- एकः । तथा च एकोरुकमनुष्याणामकारुकद्वीपं पिच्छिषुराह। द्धे तहेव गिरवसेसं जाणिय। काहणं भंते !दाहिणिद्वाणं एगुरुयमणुस्माएं एगुरुयदीवे अन्तरनदीनां विष्कम्भः पञ्चविंशत्यधिक योजनशतमिति णाम दीवे पन्नत्ते ? गोयमा ! जंबदीवे मंदरस्स पन्चयस्स स्था०३ ग० ॥ दाहिणणं चाहिमवंतस्स बासहरपब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिजंवमंदरपुरच्चिमेणं सीयाए महाणदीए उजयकले उ अंत लामो चरिमंताओ झवण पमुई निमि जोयणसयाई नग्गारणईओ पामत्ताओतंजहा गाहावई दहबई पंकवई तत्तनमा हित्ता एत्य ण दाहिणिहाणं एगुरुयमणुस्साएं एगुरुयदीवे मत्तजला जम्मत्त जसा । जबृमंदरपच्चच्छिमेणं सीओयाए महाणईए ननयकूले छ अंतरणईओ पामत्ता तंजहाखीरोदा नामंदीचे पामते तिनि जोयणसया आयामविक्खं लेणं णव साहसोया अंतोवाहिणी उम्मिमाक्षिण। फेनमाक्षिणी गं एकणपणे जोयणसए किंचि विसेमृणे परिक्खेवणं । से णं जीरमालिणी स्या०६०।। एगाए पनमवरवेइयाए एगणं वणसमेणं मब्बो प्रमंता संग्रहेण संपरिक्खेत्ता से एणं पनमवरवेश्या अजोयागं उई उच्चदो गाहावईओ दो दहबईओ दो पंकवईओ दो तत्तजला तेणं पंच धणूसेयाई विखंभे एगोरुयदीवसमंता परिओ दो मत्त जनाओ दो उम्मत जलाओ दो ख गेयानो दो | खेवेणं पन्नत्ता। तीसेणं पनमवरवेश्याए अयमेयारूपे वसीहसोयाओ दो अंतोवाहिणीओ दो गम्ममालिपीओ नावासे पन्नत्ते तंजहा वयगमया निम्मा एवं वेनिया वदो फेजमालिणीओदो गंभीरमालिए।ओ।। न्नो जहा रायपसेपीए तहा भाणियव्वा । सेणं पउम Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरदीव अनिधानराजेन्छः । अंतरदीव वरवेश्या एगेणं वणसंमेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता वेया फलेहिं पुनाविव विसट्ठति कुमविकुसविसुद्धरुक्खमूझा मे एं वणसंमेणं देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खं- | जाव चिट्ठति । एगुरुयदीवेणं दीवे तत्थ बहवे भिंगंगा णाम भेणं वेइया समए परिक्खेवेणं पन्नत्ते से णं वणखमे कण्हे दुमगणा पन्नत्ता समणानसो ! जहा से चारगघडकरगककिएहोवभासे एवं जहा रायपसेणजे वणसंडवन्नोत- ससककरिपायकंचणि उस्खूकवणिमुपइट्ठकविठ्ठा पारावसहेव निरवसेसं भाणियध्वं । तणाण य वन्नगंधफासो सदो गा भिंगारा करोमिसरंगपरंगपत्तीथाणिबगचबलियअतणाणं वा वीओप्पायपव्ययगा पुढविसिला पट्टगा य जा- यपलगवालविचित्तवट्टकमणितट्टकसिप्पिखारपिणद्धकंचणपियवा जाव तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ मणिरयणभत्तिविचित्तविभायण विहिबहुप्पगारा तहेव तेसिं य आमयंति जाव विहरंति । एगुरुयदीवस्स णं दीवस्स जिंगंगेया वि दुमगणा अणेगबहुविविहवोससा परियणअंतो बहुसमरमणिजे मिजागे पन्नत्ते से जहानामए ताए भायणविहीए नववेया फलोहिं पुएणा विव विसदृति आलिंगपुक्खरइ वा एवं सयणीए भाणियब्वे जाव पुढवि कुसविकुस जाव चिट्ठति । एगुरुयदीवे णं दीवे तत्य बहवे सिनापट्टगं ति । तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य तुरुयंगा नाम सुममणा पन्नत्ता समणाउसो । जहा मास्सीओ य आमयंति जाब विहरति । एगुरुयदीने णं दीवे से आलिंगपणवदद्दरपमहमिहिमाभंभातहोरंजकिणियखतत्य तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उद्दानका मोहालका रमुहिमुयंगसंखियपरिसए पञ्चगा परिवायणिध्वंसवेणुवीकोदालगा कतमाला नत्तमाला पट्टमाला सिंगमाला सं गोसुग्घोसगविपंचमहतिकच्छतिरिक्खसतकलाकंसालताखमाला दंतमाला सेलमालगा णाम दुमगणा पन्नता सम सकसंपत्ताओ आतोद्यविधीए (ण उणगंधव्वसमयकुसपाउसो ! कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव लेहिं फदिया तिहाण करणसुछा तहवे ते तुमियंगा वीयमंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य अच्छन्नपमिच्छन्ना सिरीए वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा परिणताए ततविततअईव २ सोभेमाणा ओघसोनेमाणाचिट्ठति । एगुरुयदीवेणं बंधणसिराए चनबिहाए आतोज्जविहीए उववेया फलोहिं दव तत्य तत्य बहवे हेरुयालवणा जेरुयालवणा मेरुया- पुराणा विव विमटुंति कुसविकुसबिसुफरुक्खमूनाओ जाव लवणा सेरुयालवणा मालवणा सरलवणा मन्नपएणवणा | चिट्ठति । एगुरुयदोवे णं दीवे तत्थ बहवे दीवसिहा प्यफनिवणा खज्जरीवणा नालिएरवाणा कुसविकुस जाव णाम दुमगणा पन्नत्ता समणानसो ? जहा से संझविचिट्ठति । एगुरुयदीवे एं दीवे तत्थ बहवे तिलयानउत्ता, रागममए नवनिसीहिपतिणो विदीविया चक्कबान्नचंदे पभ्यनम्गोहा जाव गयरुक्खा एंदिरुक्खा कुसविकुस जाव चि-1 वहिपलित्तकणेहिं विउज्जझिय तिमिरमद्दए कणगनिकरहँति । एगुरुयदीवेणं दीवे तत्य बहुओ पउमलयाओ नागन- कुसुमियपारिजायघणप्पगासे कंचणमणिरयणविमलमहरियाओ जाव मोमलयाओ निच्चं कुसमियाओ एवं झयावन्नओ | हतवाणिज्जुज्जलविचित्तदंमाहिं दीवियाहिं सहसा पज्जाजहा उवाईए जाव पमिरूवाश्रो। एगुरुयदीवेणं दीवे तत्य सिओ सवियणिकतेयदिप्पंतविमलगहगणसमयप्पदाहिं वि बहवे सिरियगुम्मा जाव महाजाइगुम्मा तणगुम्मा दमछ- तिमिरकरकसूरपसरिउज्जोवविावयाहि जालाउजलपहवन्नं कुसुमं कमति जेणं वायविहुलग्गसाला | एगुरुयदी- सियाभिरामाहिं सोनमाणाहिं सोनमाणा तहेव ते दीवसिबस्स बटुसमरमणि जं नूमिभागं मुकपुप्फपुंजोवयारकलियं हा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीसमा परिणयाए उज्जोकोपि गुरुयदीवेणं दीवे तत्य वहुप्रो वणराईओ पन्नत्ता- यविहीए उववेया फलेहिं कुसविकुस जाव चिट्ठति । नायोग वनराई ओ किण्हाओ किएहोवभासाओ जाव एगुरुयदीवे ण दीचे तत्थ बहवे जाइसिया नाम दुमगणा रम्माओ महामेहणिगुरुंवनृयाओ जाव महता गंधधणिं मुयं- पन्नत्ता समणाउसो! जहा से अचिरुग्गयसरयक्रममनताओ पासाईयायो । एगुरुयदीवे णं दावे तत्य बहवे मत्तंगा पतनकामहस्सदिप्पंतविज्जुज्जलनहुयबहुनिज्मजालिनाम दुरगणा पनना समणाउसो! जहा से चंदप्पभमणि सि- निम्तधोयतत्ततवाणिज्जकिंमुया सोगजामुयणकुसुमविमउलागवरसीधपवरवारुणिमुजायफलपुष्फचोणिज्जा संसार- बियपुंजमणिरयणकिरणजचहिंगुक्षयतिरयरूवाइरेगरूवातबहुदव्यजुक्तिसंसारकालसंधियासवमटुमेरगरिहाभट्टजा- हेच ते जोतिसिहा वि उमगणा अणेगबहुविविहवीसमा पसन्नतेनगा स ताो खजरमदियासारका विमायण- परिणयाए उज्जोयविहीए नववेया मुहलेमा मंदलेसा मंदासुपकखोयरसवरसुरावएणरसगंधफरिसजत्तवलबीरियप- तवलेसा कूमागणटिया अन्नोन्नसमोगाहाहिं साहिं साए रिणामा मज्जविधीय बहुप्पगारा तहेव ते मत्तंगया विदम- पभाए तेयसा सवो समंताओ जासंति उज्जावति गणा अणेगवह विविवीससा परिणयाए मजविहीए व पजासंति कुसविकुस वि जाव चिट्ठति । एगुरुयदीवे णं Jain Education Interational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) अभिधानराजेन्द्रः । अंतरदीव दीवे तत्थ बहवे चित्तंगा नाम दुमगणा पन्नत्ता समाउसो ! जहा से पेच्छाघरेव्व चित्ते एमेव कुसुमदाममाला कुलज्जलेसा जातमुकपुप्फपुंजोवयारकझिए विरनियविचितमल्ल सिरिसमुदप्पगारंभे गंथिमवेढिमपूरिमसंघयमेणं मलेणं छेयसिरियविजागरणं सन्चो समंता चेव समणुवच्छे पविरललंबत त्रिप्पइडेहिं पंचवनेहिं कुसुमदामेहिं सोनमाणा वनमालकरगए चैव दिप्पमाणे तदेव ते चित्तंगया विशुमगणा अगवदुविहवीसमा परिणयाए मलविहीए नवया कुसविकुमजाव चिह्नंति । एगुरुपदीवे णं दीवे तत्य बहुवे चित्तरसा नाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधर कलम सान्झितं कुल विसिणिरुवयवुद्धरये सारयवयमं महुमेलिए अरसे परमने देज्जउत्तमेगवन्नगंधमत्ते रमो जहा वावि चक्कवट्टिस्स होज्ज निउणेहिं सूपपुरिसेहिं सज्जिए चाउरकप्पमेयसिते व ओद कलम साक्षिणिव्वतिए विवक्के सेवक मिनविसयसगल सित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा परिपुन्नदव्वक्खडे सुसकए वपगंधरसफरिसजुत्तवझवी रियपरिणामे इंदियवलवणे खुष्पिवासासहणे पहाणगुलक टियखंडमच्छंकि उनणीय व् मोगे सर समितिगन्ने हवेज्जा । परमइट्टगसंजुत्ते जहेव चित्तरसा विदुमगणा अगबहुविविहवीससा परिणया भायणविदीए नववेया कुसविकुम जाव चि ंति । एगुरुयदीवे एणं दीवे तत्य बहने मणिगंगा नाम दुमगणा पणतासमा उसो ! जहा से हारद्धहारवेंटगम उमकुंडलवासुमहेमजालमणिजालक गजागसुत्तगउचितियकडगखड्डयएगावलिकंठमुत्तमगरगनरत्यगे वेज्ज सोणिसृत्तमचूनामणिकगतिलग फुञ्जगसिद्ध त्यियकष्पवालिससिसूरनसन - चकगतल भंगेयतुडिय हत्यमान गवसंखदीनार मालिया चंदसूरमानिया हरिसयकेयूरवन्नियपालंच अंगुलि ज्जगकंचीमेहलाकलावपयरकपाय जालघंटियखखिणिरयणोरुजारिवरने नरवणमालिया कणगलिगमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्तव्वनूस एणविही बहुष्पगारा तहेत्र ते मणियंगा विदुमा गहुविपिहवीससा परिणयाए जूसणविही उवत्रेया कुमविकुस वि जाव चिट्ठति । एगुरुगदीवे णं दीवे तत्य हवे हागारा नाम दुमगणा पन्नत्ता समाउसो ! जहा से पागारागचरियागोपुरपासायागासनलगमंडव एगसालगचाउ साल गगब्जघर मोह घरवल जिघरचित्तसान्नगमालियजत्तिवश्वहतंसं नंदिय । वत्तमंठियावत्तपं मुरतलपुरुमा सदम्मिय अवंधव लहर अद्धसागर्ह विन्भत से अद्ध मेनसंठिकूडारगसुविहिकोडग आरोगघर सरले आवेणविडंगजानचंद निव्वूह अपवरककरोत्तासि चंद सालिविभत्तिकविता जव अंतरदीव बहुविगप्पा तहेव ते गेहागारा विद्रुमगला अगरसिसा परिणयाए गुहारुहासु हो नाराए मुहनिक्खमणपसाए दर सोप णपतिकझियाए परिचाए मुहविहाराए माकूला भणविड़ीए नववेया कुमविक्रम विजाव चि । गुरुपदी गंदीवे तत्य बहने अणिगणा नाम दुमगाए पन्नत्ता ममाउसो ! जहा से अगगग्योमतयकंचलगञ्जको सेज्जकामिय पट्टचा अमृतवन्नावरणातवाग्वा - गपच्छन्नाभरणचित्त स हि गकल्लाए गजिंगमेहलकज्जलबहुवन्नरत्तपीयमृक्किलमर कयमिगल महेमप्फर लग अवरतगसिंउसभदामिलविंगकलिंगनन्त्रिण तंतुमय भत्तिचित्ता वत्यविही बहु पगारा वेज्ज वरपट्टणुग्गता वाणगगकलिया नव ते अणिया विदुमगणा अगबहुविविधवीससा परिणयाए त्यहि उवया कुमविकुस विजाव चिट्ठति ए० | एगुरुपदीचे णं जंते ! दीवे मायाणं केरिसए आगारभाव पडोयारे पत्ते ? गोयमा ! ते मया अणतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा जोगमस्सिरीया सुजायसव्वंसुंदरंगा सुपट्टम्पचारुचलणा रतुप्पलपतमन्यसुकुमालकोमला नगणगरमगरसागरचकंकहरं कलक्ख-चित्रणा अगुव्वसुसाइयंगुलिया उष्यतण्यतंत्र खासंसि लिट्टगुढगुल्फा एण कुरुविंदावत्तट्टापुन्नजंघा सामुग्गनिमुग्गगूढ जाणुगतमसरण सुजात समिभो स्वरवारणमत्ततुञ्जविकमविज्ञासितगती सुजातरतुरगगन्भदेमा आइन्नहतो व णिरुवलेवा पमुइयवर तुरगसीहाइरेगट्टियमी साहयसोणिंद मुसलदप्पणी गरिवरक एगरुस रसवरवरवलित मज्जा जुसमसंहितसुजायजच्चतएकसिणणिरूआदेज्जल उह सुकुमालमन्यरमणि ज्जरोम - राई गंगावत्तयपयाद्दिणावत्ततरंगजंगुर रविकिरणतरुणत्रोधियकोसा तप उमगंजीरविगमणाभा ऊसविहगमृजायपी कुच्छी ऊमोदरा सुइकरणी पम्हविगमणानामन्नतपासा संगतपासा सुंदरपासा सुजातपासा मितमातपीणरइतपासा अकरंडुयकए गरुयगनिम्मल मुजायनिरुव हय देहधारी पसत्थबत्तीसधरा एग सिलात बुज्जलपसत्यसमतल उवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा सिविच्छंकियवच्छा पुरवफलि-हवट्टिया जुयगीसर विपुल जोगमाया एफलिह उच्छृढ़-दीवा जुगसन्निभपीरइयपीवर पट्टसंवियन व चियघणाथिर सुबधसुमविट्टपव्त्रसंधी रचतओवतमउयमंसन पमत्थलक्खण सुजाय अच्छिद्दजालपाणी पीवरवट्टियसजायकोमलवरगुली तंत्रसुतिरतिल (रुचिर) नियुक्खा (नखा) चंदपाणिलेहा सुरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चकपाणिदेहा दिसासोवत्यियपाणिनेहा चंदसूरसंख चक्क दिसासोत्थियपा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) अंतरदीव अभिधानराजेन्द्रः। अंतरदीव णिन्नेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थमुविरइयपाणिलेहा वरम | संठियअजहन्नपसत्थलक्खण अकोप्पजंघजुयला मुणिमिहिसवराहसीहसननसभणागवरविनलगत्तमदखंधा च- यमुगढजाणू मंसनसुबछसंधा कयनिखंजातिरेगसंठिया णिच रंगुलसुणप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा अववितमुविजत्तम- णसुमासमउयकोमअविरक्षसमसहंतसुजातवट्टपावरनिरंतरोजातचित्तमंमुमंसलसंठियपमत्थसहाविउलहणुया उतवित. रुअअट्ठावयदीविषसंठिया पसत्यविच्चिम्मपिटुझसोणिवदसिलप्पवालबिंबफलसन्निनाधरोहा पंडुरससिसगलविम- णायामप्पमाणगुणियविसालमंसलमुबकजहमवरधारिणिलनिम्मलसंखदधिषणगोरवीरफेणदगरयमुणालियाधवन-- जवजविराध्यपसत्थलकखणणिरोदरा तिलियतणुणमियम दंतसेढी अखदंता अफुमियदंता अविरसदंता मुसिणि- ज्जियाओ उज्जुयसमसहियजच्चतणुकसिणाणिकप्रादेजल कदंता सुजातदंता एगदंतासेदि ब्व अणेगदंता दुतवहान- हममुविभत्तकंतमुजायसोनंतरुपलरमणिज्जरोमराई गंगावत्तकंतधोततत्ततवणि जरत्ततज्ञताबुजीहा गानायतज्जुतुंग- कप्पयाहिणावत्ततरंगजंगुररविकिरणतरुण बोधिय अकोसायंणासा अवदानियपोंमरीयणयणा कोकासितधवनपत्त- तपउमगंजीरविगमणाना अणुभम्पमत्यपीणकुच्ची सन्नसंग आणामियचावरइल किएहजराइयसंठियमंगता- यपामा संगयपासा सुजायपासा मियाईयपणिरइयपासा अयतसुजातताकसिणनिफन्नुमया अमीणपमाणजुत्तसव- करंयकणगरुयगनिम्मलसुजायणिरुवहयगायझट्टी कंचणणा सुस्सवणा पीणमंसमकवानदेसभागा अइरुग्गयबामचं- कन्नसपमाणसमसहियमुजायालहचूचुय आमन्नजमझजुगलदसंवियपसत्थविच्छिन्नममणिडाला नमुवइपमिपुनसाम- वट्ठियअच्चुभयरतियसंठियपयोधरानो जंगअणुपुब्बतवयणा उत्तागरुत्तिमंगदेसा घणनिचियमुबलक्खणुन- जयगोपुच्छवट्टसमसहियणमियाएजललियवाहात्रो तंयकूडागाराणनापामयासरा हुतवहनियंतधायतत्ततवाए ज- वणहा मंसलग्महत्या पीवरकोमलवरंगुलीमो णिकपारत्तकमंतकेसनूमिमामनिपोषणणिचियगेडियमिउविसय णिलेहा रविससिसंखचक्कसोत्थियविनत्तमविरतियपाणिपसत्यमुटुमनकखणसुगंधसुंदरनुयमोयगजिंगणीक्षकज्जलप- लहा पीएमयकक्खवक्खवत्थिपदेसा पमिपुस्मगलकबोला हट्टमरगयणिणिकुंरुवणिचियकुचियपयाहिणावत्तसुद्ध-- चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरमरिसगीवा मंसलसंधियपसत्थहसिरिया लक्खण वंजणगुणोववेया सुजायसुविभत्तमृरूवा णुगा दालिमपुष्फपगासपीवरपलंवकंचियवराधरा सुंदरोत्तपामाइया दरिसणिज्जा अनिरूवा पडिरूवा। तेणं माया रोटा दधिदगरयचंदकुंदवासंतिमउलमच्चिदविमलदसणा ओहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सराणंदियोसाहिस्सरा सीह रत्तुप्पलरत्तमउयसुमानताबुजीहा कणयरमउम्रप्रकुमिलघोमा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा निग्घोसा गयानज्जो जग्गयनज्जुतुंगणासा सारयनवकमलकुमुदकुवलयविमुइयंगमंगा वज्जरिसहनारायसंघयणा समचनरंमसंठाणमं कम नलदननिगरसरिसलक्खणअंकियकंतनयणा पत्तलदिया मिणिकरची निरायंका उत्तमपसत्यअइसेमनिरुवम- धवलायततंबोयणाओ आणमितचावरुक्षकिएहभराइसताणू जनमतकलंकसेयरयदोसविविज्जियसरीरा निरुवमले- ग्यिसंगयआययसुजायतणुकमिणनिहनुमया अल्लाणपवा अणुलोमवाउवेगा कंकरगहणी कपातपरिणामा सउनि माणजुत्तसवणा मुस्तवणापीणमट्ठरमणिज्जगंडलेहा चनरंपोमपितरोरुपरिणया विग्गहियनन्नयकुच्छ। पउमप्पक्ष- सपसत्थसमणिमाला कोमुदीरयणीकरविमलपमिपुन्नसोमसरिसगंधनिस्साससुरहियवयणा अट्टधणुसयऊसिया तेसिं वयाणा उत्तमय उत्तिमंगा कुमिनमुसिणिकदीहसिरया मण्याणं च उसद्विपिडिकरंझगा पन्नत्ता समणाउसो ! तेणं उत्तज्झयजूवथूनदामिणिकमंमयुकासवाविसोत्थियपडामणुया पगइभद्दया पगविणीया पगइउवमता पगइपय - गजवमच्चकुम्मरहवरमगरज्झयसुकथालअंकुसहावयवीकोहमाणमायालोजा मिउमद्दवसंपन्ना अक्षीणा भद्दगा वि ईमुपदकम्मकरसिरियाजिसेयतोरणमेइणीउदधिवरनवपीया अपिच्छा असमिहिमंचया अचमा विमिमंतरपत्रि णगिरिवरआयंसलिलयगय उप्तनसाहचमरउत्तमपसत्थक-- मणा जहिस्थियकामगामिणो य ते मणुयगणा पन्नत्ता समणा- तीसलक्खणधरीअो हंससरिसगईओ कोममहुर गिरसुस्सनसो तेसि णं भंते मणुयाणं केवतिकालस्स अहारट्टे समु- रामो कन्नाओं सव्वस्स अणुमयानो ववगयवसिपलियापज्जा ? गोयमा ! चनत्थभनस्स आहारटे समुप्पज एगुरु- बंगबन्नवाही दोभग्गसोगमुकाओ वत्तेणयनराण थोचूणयमाणुणं भंते ! केरिसए आगारभाषपकोयारे पम्मत्ते ! गोयमा! मूसियाओ सन्नावसिंगारचारुवेसा संगतगतहसियभणियनायो णं माणुईओ मुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागु- चिट्ठियविनाससमावनिनणजुत्तोवयारकुसला सुंदरघणजहरोहिं जुत्ता अचंतविसप्पमाणपनमसूमालकुम्मसंधियचिसि- णवयणकरचरणणयणलावन्नवन्नरूबजोवाणविभासकलिया हुचनणा नज्जुमन्यपीवरनिरंतरमुमातचन्नणंगुलीओ अ- नंदणवाणविवरचारिणीअोव्ब अच्छराओ अच्छेरगापिच्च. कन्नुभयरतियतलिए तंवसुसिणिकणवा रोमरहियवट्टल- णिज्जा पासाइतातोदरिसणिज्जातो अजिरूवाओपभिरूवाओ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३) अंतरदीव अभिधानगजेन्जः । अंतरदीव तासिणं नंते ! मणईणं केवतिकामस्म आहारढे समुप्पज्जइ ? सारमावयजे वा हंता: अस्थि णो चेव तेसिं माणुयाणं गोयमा ! चनत्यजत्तस्स श्राहारट्टे समुप्पज्जइ । ते एं भं. तिब्वे ममतिनावे समुप्पज अस्थि णं नंते ! एगुरुयदीवेणं ते! मणुया किमाहारंति ? गोयमा ! पुढवीपुप्फफलाहारा दीवे रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरे वा तनवरे वा सेमणुयगणा पत्रना समणाउमो ! तीसे णं नंते ! पुढ- माईबिएइ वा कोविएइ वा इन्भेइ वा सेट्टिएइ वा सेणावीए केरिसए अस्साए पन्नने ? गोयमा से जहानामए गु- वई वा सत्यवाहेश वा नो इणटे समझे वरगयलिसलेइ वा खंभेश वा सकराइ वा मडिया वा भिसकंदेह काराएणं ते मणुगगणा पन्नत्ता समणाउसो ? अन्थि एं वा पप्पममोततेति वा पुप्पत्तराश् वा पउमुत्तराइ वा भंते! एगुरुयदीवेणंदीचे दासाइ वा पेप्साइ वा सिस्साइ वा अकोसियाति वा विजताति वा महाविजयाति वा पाय- भयगति वा नाश्वगाइ वा कम्मगाराइ वा भोरापुरिसाइ सोचमाइ वा उवमाइ वा एणोकमाइ वा चउरके गोखीरे वा नो इणढे समहे वगयमाभोगिया एं से मणुयगणा चहाणे परिणए गुडखंझमच्चंभिउवणीए मंदग्गिकदिएच. पन्नता समणाउसो ? अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे एवं एणणं उववेए जाव फामेणं नवे एतारूवेसि ता नो इणढे दीवे माताति वा पियाइ वा जायाइ वा जयणी वा समढे। तीसे णं पुढचीए एत्तो इहपराए चेव जाव मणाम- भज्जा वा पुत्ताइ वाध्याश्वा सुएहाइ वा हंता ? अस्यि नो तराए चेव । आमाएणं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए श्रासा- चेवणं तेसि णं मणयाणं तिब्बे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ पय. ए परमत्ते? मोयमा से जहानामए रन्नो चानरंतचकवट्टिस्म एपेम्मबंधणाएं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अन्ति कमाणपवरजोयणे सयसहस्सनिष्फन्न बन्नेणं उबवेए गं- | एं भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे अरोइ वा वेरिए वा घायगाइ घेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उबवेए प्रासायाण- वा वहगाइ वा पडणी वा पच्चामित्ताइ वा णो इण जे वीसायणिजे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे वीहिणिजे मयणि- समढे वनगयवेराणुवंधा णं ते मणुयगणा पन्नत्ता समणाजे सबिदियगायपल्हायणिजे भवे ता रूवे मिया नो इ- उसो ! अत्थि णं नंते ! एगुरुयदावे णंदीचे मित्ताइ वा वयंएटे समढे । तसिणं पुप्फफलाणं इत्तो इतराणं चव जाव माइ वा घमियाति वा सुहीति वा मुहीयाइ वा महाभागाअस्साएणं पन्नत्ते । ते णं भंते ! माया तमाहारेत्ता कहिं ति वा संगतियाति वा नो इणढे समढे वगयपेमाणुरागाणं वसहिं उति ? गोयमा ! रुक्खगेहालयाणं ते म- ते मणुयगणा परमत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! गुयगणा पत्नत्ता समणानसो ! ते णं भंते ! रुक्खा किं एगुरुयदीवे णं दी आवाहाइ वा विवाहाइ वा जनाइवा मंठिया परमत्ता ? गोयमा ! कमागारसंठिया पच्छाघर- सलाइ वा थालिपागाइ वा चोलोवणतणाइ वा सीमंतोसंधिया उत्तागारसंठिया ऊयसंगिया शुभसंगिया तारण वणतणाइ वा पितिपिंडनिवेयणाइ वा नो इणढे समहे वत्रसंगिया गोपुरमंछिया पालगसंछिया अट्टाझगसंठिया पासा- गयावाहविवाहजन्नसथालिपागचोलोवणमीमंतोवण - यसरिया हम्मितलसंठिया गश्वसरिया वानग्गपातिय- तणपितिपिंडनिवेदणाणं ते मणुयगणा पत्ता समणाउसों! संधिया बलभीसंधिया भएणे तत्य बहवे वरनवणसय- अस्थि गण नंते! एगुरुयदीचे णं दीये इंदमहाइ वा रुद्दमहावा णासणविसिट्ठसंगणसंठिया सुभसीतलछाया णं ते दुमग- खंदमहाइ वा सिवमहाति वा वेसमणमहाति वा मुगुंदमहाति णा पत्ता ममणाउसो ! अत्यि णं भंते ! एगुरुयदीवे वा नागमहाइ वा जखमहाइ वा भूतमहाइ वा कूवमणं दौवे गेहाणि वागेहावयणाणि वाणो इणडे समढे रुक्ख- हाइ वा तमागमहाइ वा नंदिमहाइ वा इंदमहाइ वा गेहालया णं मणुयगणा पन्नत्ता समणाउसो! अस्थि णं पन्वयमहाति वा रुक्खमहाश्वा चेतियमहाइ वा यूजमहा भंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे गामाइ वा नगराइ वा जाव | वा णो इगढे समढे वगयमहातियाणं ते मण्यगणा पत्रसन्निवेसाइ वा णो इणटे समटे | जहत्थियकामगामिणो त्ता समणासो! । अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे पं दीवे गण ते मणुयगणा फनत्ता समणानसो ! भत्थि णं नंते ! ए-1 नमपिच्छाइ वा एपेच्छाति वा मतपेच्छाति वा मुष्टियपेगुरुयदीवेणं दीवे अमीइ वा मसीइ वा किसीति वा विवणी. च्छाति वा विझम्बगपेच्छाति वा कहकपेच्छाति वा पवगइ वा पणीइ वा वाणिज्जाइ वानो इणसमडेववगयअपेच्छाति वा अक्खवाइगपेच्छाति वा सासगपच्छाति वा सिमास किमीनिवणिपणियवाणिज्जवज्जा णं ते मणुयगणा संखपेच्छाति वा मंखपेच्याति वा तण इस्सपेच्गति वा पन्नत्ता समणानमो! अस्थि णं भंते ! एगुरु यदीवे गंदीवे तुंबवीणपेच्छाति वा कीवपेच्छाति वा मागहपेच्छाति वा हिरणेवासुव वा कसे वा हूसेइ वा माणीइ वा मुत्तिए जल्लपेच्छा वा कहयापेच्छाइ वा णो इणढे समटे वगवा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवासंत- यकोकहवा गं ते मायगणा पत्ता समणानसो ! अत्यि Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४) अंतरदीव अन्निधानराजेन्द्रः। अंतरदीव ए भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे सगमा वा रहाइ वा जाणा सादाहाइ वा णिग्याइ वा पंसुविधीवा जूयाइ वा जक्खावा गिल्लीति वा पक्षीति वा थिल्लाइ वा पवहणाइ वा सीया- लित्ताइ वा धमियाइ वा माहियात वा रउपायाइ वा चंइ वा संदमाणियाइ वा नो इणढे सम? पादचारविहारिणो | दोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिवेसाइ वा मुरपरिवेएं ते माणुयगणा पन्नत्ता समणानसो! अत्थि णं नंते ! साइ वा पमिचंदाइ वा पमिमूराइ वा इंदवणुआइ वा उएगुरुयदीवेणं दीवे आमाइ वा हत्थीइ वा उट्ठाति वा गोणाइ गमच्चाइ वा अमोहाइ वा कविहसीयाइ वा पाईणवायाइ वा महिसाश्वा खरा वा अयाइ वा एलगाइ वा हंता अस्थि वा पडीणवायाइ वा जाव सुद्धवायाइ वा गामदाहाइ वा नो चेव एं तेमि मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्यमागच्चंति । नगरदाहाइ वा जाव सन्निवेमदाहाइ वा वाणक्खयजणअस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे गावी वा महिसीइ वा क्खयकुमक्खयधणक्खयवसणगृतमणारया वा नो इणढे नहीति वा अयाइ वा एलगा वाहंता! अत्थि नो चेव णं समट्ट । अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे एं दीवे डिंबाइ वा तसिं मणुयाणं परिनोगत्ताए हव्यमागच्छति । अस्थि णं ममराइ वा कलहाइ वा बोझाइ वा खाराइ वा राति वा भंते! एगुरुयदीवे णं दीवे सीहाइ वा वग्याइ वा दीवियाइ विरुद्धरज्जाइ वा नो इणहे समटे वबगबिम्मरकलहबोवा अत्थाश्वा परस्सरा वा सियालाइ वा विडालाइ वा मुण लखारवेरविरुकरज्जविवजिया णं ते मणुयगणा पगाइ वा कोलमुणगाति वा कोंकतियाश्वा ससगाश्वा दित्त न्नत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगुरुयदीवे णं वित्तलानि वाचिखलगाइ वा हता! अस्थि नो चेव णं अन्न दीवे महाजुकाइ वा वा महासंगामाइ वा महासत्थपडणाइ मन्त्रस्मतसिं वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पवाहं ना उप्पायंति विच्छेयं वा कति । पगइभद्दगा णं ते सावयगणा वा महापुरिसपहाणाइ वा महारुधिरपणाइ वा नागवाणापन्नत्ता समणाउसो ! अत्थि णं नंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे ति वा खेलवाणाति वा तामसवाणाति वा दुन्ड्याइ वा सानीइ वा वीहीइ वा गोदमाइ वा इक्खूइ वा तिलाय वा कुझरोगाइ वा गामरोगाइ वा नगररोगाइ वा मंत्ररोगा हंता! अत्थि नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिजोगत्ताए ह वा सीसवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कन्नवेयणाइ वा बमागच्छति । अस्थि णं भंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे गत्ताइ नकवेयणाइ वा दंतवेयणाइ कासा वा सासाइ वा जराइ वा दरी वा पाइ वा घंसी वा जिगृह वा उवाएइ वा वि वा दाहाइ वा कच्छू वा खसराश्वा कोट्ठाइ वा कुमाति समे वा विजलेइ वा धृतीय वा रेणुति वा पंकेइ वा व वा दगोवरा वा अरिसाइ वा अजिरगाइ वा जगंदला लणीइ वा णो णढे समढे । एगुरुयदीवे णं दीवे ब- वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा नागग्गदुसमरमाणिजे जृमिनागे पन्नत्ते समणानसो! अत्थि णं हाइ वा जक्खग्गहाइ वा नूयग्गहाइ वा जब्वेवग्गहा वा नंते ! एगुरुयदीचे णं दीचे खाणुइ वा कंटाए वा करीमहाश धाग्गहाइ वा एगाहियाइ वा वेयाहियाइ वा तेयाहियाइ वा सकराइ वा तणकयवरा वा सत्तकयवरा वा असुश वा चानत्थगाहियाइ वा हिययसलाइ वा मत्थगसूलाइ वा वा पूर्व वा सुन्निगंधाइ वा अचोक्खाइ वा णो णटे स- पाससलाइ वा कुच्छिसूझाइ वा जोणिसूझाइ वा गाममा। मट्टे वगयखाणुकंटकरीसहसकरतणकयवरअसुइपूईय- वा जाव सन्निवेसमारी वा पाणक्खय जाव वसणनूतमब्जिगंधमचोवववज्जिएणं एगुरुयदीवे पन्नत्ते समणानसो! णायरियं वा नो इणडे समढे ववगयरोगायंका णं ते माअस्थि णं नंते ! एगुरुयदीवेणं दीवे दंसा वा मसगाति वा यगणा पन्नता समणानसो ! अत्यि णं नंते ! एगुरुयदीवे पिसुगाइ वा जूयाइ वा लिक्खाइ वा ढिंकुणाइ वा नो इसढे दीवे अश्वासा वा मंदवासाइ वा सुवुढीइ वा मंदबुट्ठी. समढे वगयदंसमसगपिसुगज्यामिक्खादिकुणपरिवज्जिए । ६ वा नदवाहीइ वा पवाहाइ वा दगुब्भेयाइ वा दगुप्पीणं एगुरुयदीवे पन्नते ममणासो ! अत्थि णं ते ! ए- लाइ वा गामवहाइ वा जाव सन्निवेसवहाइ वा पाणक्ख. गुरुयदीवे णं दी अहीइ वा अयगराइ वा महोरगाति वा य जाव वसणभूतमणारियाइ वा नो इणढे समढे ववगयहंता अस्थि नो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसिं वा माया- वगोवदगा णं ते मायगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अत्यि एणं किंचि आवाहं वा पवाह वा छविच्छेयं वा पकरेंति पग- भंते : एगुरुयदीवे णं दावे आयागराइ वा तंबागराइ भदगा णं ते वालगणा पन्नत्ता समणाउसो ! अस्थि थे। वा सीसागरा वा मुवन्नागराइ वा रयणागराइ वा वइराभंते ! एगुरुयदीवे णं दीवे गहदंझाति वा गहमुसलाइ वा गराइ वा वसुहाराइ वा हिरणवासा वा सुवन्नवासाइ गहगज्जियाइ वा गहजुधाइ वा गहसंघाडाइ वा गहअव- वा रयणवासा वा वश्वासाइ वा आजरणवासाइ वा मन्ना अब्जाइ वा अब्जरुक्खाइ वा संझाइ वा गंधव- पत्तं वा पुप्फं वा फलं वा वीयं वा सगंधं वा समल्लं वा गराइ वा गज्जियाइ वा विज्जुयाइ वा उकापयाइ का दि- सवन्नं वा सचुन्नं वा सखीरनुट्ठीइ वा रयणवुडीइ वा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (wvu) अभिधानगजेन्यः | अंतरदीव हिरrease वा सुवन्नं तहेव जाव चुन्नवुची वा कालाइ वा दुकालाइ वा सुभिकखाइ वा दुखाइ वा अपवाद वा महस्या वा कथा वा विक्रया वा मेशिडीचा संचेपाइ वा निधी वा निहाणा या चिरपोरालाइ वा पणमामियाना पासपा का पही एगोत्तागाईं जाईं इमाई गामागरनगरखे कव्वडमंत्र दोहमुइपासमवाहसन्निवेसेसु सिंघारुगतिगच उकचचरचहमारे नगरनिको सुसाए गिरिकंदरसंतिसलोभवगिहे सन्निखित्ता चिडंति नो इण्डे सम एगुरुपदीने भंते दीवे मनुवाणं केवइयं कालं पिता ? गोषमा ! जहए पनि ओमस्स असलेल भागं अमखेज्जति भागेणं ऊणगं उक्कोसेणं पविमस्स असंखेज्जइभागं । ते णं जंते ! मनुया कामासे कालं किच्चा कहिं गच्छेति कर्हि उवनज्जति गोयमा ! ते णं मणुया बमासावतेसाउमा मिहुणाई पसवंति उणासीई राईदियाई मिहुणाई सारक्खति संगोवंति सारखित्ता जस्समिता ऐिसिता कासिता दिदित्ता अकडा अव्वहिया अपरियाविया सुहं सुणं कालमासे कालं किच्चा अम्मयरेसु देवझोर देवताए उपचारो जयंति देक्झोगपरिगहिया ते माप समानमो ॥ एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपं पिपृच्छित्रुराढ । कहिणं भंते! इत्यादि क दन्त ! दाक्षिणात्यानामिह एकोरुकादयो मनुष्याः शिखरिण्यपि पर्वते विद्यन्ते ते च मेरोरुत्तरदिग्वर्तिन इति तद्वधवछेदार्थ दाक्षिणात्यानामित्युक्तम एकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपः प्रकृतः लगवानाह गीतम! जम्बूदीपे मन्दरपर्वतस्यान्यसंवादस्मिन् जम्प इति प्रतिपत्तव्यं मन्दरपर्वतस्य मेरो दिशि हिमपर्वतस्य दणं म हाहिमवद्वर्षधर पर्वतव्यवच्छेदार्थ पूर्वस्मात् पूर्वरूपाच्चरमान्तात् उत्तरपूर्वेण उत्तरपूर्वस्यां दिशि पणसमुद्रं चीणि योजनशसाम्यवाद्याचान्तरे हिमवया उपरि दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणामेकोको नाम द्वीपः प्रप्तः स च त्रीणि योजनशतान्यायामविष्कम्भेन समाहारो द्वन्द्वः श्रायामेन विकम्मेनबेयर्थः । नचैकोनपञ्चाशतान्ये कोनपञ्चाशदधिकानि नवयोजनशतानि (४) परिक्षेण परिक्षेपण परिमा कहिणं ते! दाहपिल्लाणं भासियमयाणं श्रनासिवई। वे नाम दीने पासे ? गोपमा ! जंबूटी दीवे तदेव चुल्लहिमवतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणपूव्वच्छिमिल्लातो चरिमंताओ समुदं तिन्नि नोषणं से जड़ा एगुरुयाणं निरवसेसं सव्वं ॥ [क] भदन्त दाक्षिणात्यानां प्राभाषिकद्वीपानामती म भगवानाह गीतम! जम्मू मन्दरस्य दक्षिणदिशि पे हिमवतो वर्षपरपयेतस्य पूर्वस्माथरमान्तात दक्षिणपूर्वेण दक्षिणपूर्वस्यां दिशि लवणसमुद्रं तुलुहिमवाया उपरि त्रीणि योजनशतान्यवगाह्यान्तरे या उपरि दाक्षिणात्यानामाप्राषिमनुष्याणामा माथिको नाम ः सःशेषता कोका यावत् स्थितिसुषम् । कहि णं भंते! दाहिलाणं बेसानियमा स्थणं पृच्छा? गोयमा ! जंबूदीचे दीवे मंदरस्स पन्त्रयस्म दाहिणेां चुल्ल हिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयला सेसं जहा एगुरुयाणं । “ कहिणं नंते इत्यादि " व भदन्त ! दाक्षिणात्यानां वैशालीकमनुष्याणां वैशालिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः जगवानाह 'गौतम! जम्बूद्वी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि हिम वतो वर्षधरपर्वतस्य पाश्चात्याश्चरमान्तात् दक्षिणपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतान्यवगाह्य अत्रान्तरे दाकिजात्यानां वैशालिकमनुष्याणां शालिको नामी प्र शेषं यथा एकोरुकाणां तथा वक्तव्यं यावत् स्थितिसूत्रम् । कार्ड भंते! दाहिणियाणं नंगोनियमतुस्माणं पुच्छा गोषमा ! मंदीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं वृक्षहिमवंत वासहरपव्ययस्स उत्तरपचमिक्षाओं परि ताओ झवणसमुदं तिग्नि जोयसाई से जहा एगुरुमगुस्सा | क नदन्त ! 66 गणितभावनाविष्कम्भः "वमादददा गुण-करण परिरओ डोइ " इति कारणवशात् स्वयं कर्त्तव्या सुगमत्वात् से णमित्यादि " स एकोरुकनामा द्वीप एकया पद्मवरवेदिकया एकेन मेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु सततः सामन परिक्षितः तत्र पद्मपरवेदिकावको धनवर्षा वक्ष्यमाणजम्बूद्ध पजगत्युपरि पद्मवदिकायनस्वरवर्णक भावनीयः । स च तावत् यावश्चरममासयतीति पदम् । "पगोरुयदीवस्स गं भंते । इत्यादि"एको रुकद्वीपस्य समिति पूर्ववत् भदन्त ! कीदृशः क श्व दृश्यः श्राकारभवप्रत्यवतारः भूम्यादिस्वरूपसम्भवः प्रइप्तः भगवानाह गौतम ! एकोरुकद्वये किमनुष्याणां लकडीपो नाम द्वीपा प्रज्ञप्तः जगवानाह गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि हिमवतो वर्षधरस्य पाश्चात्याश्चारमान्तात् उत्तरपश्चिमेन उत्तरपश्चिमायां दिशि लवणसमुद्राणियांजनशतानि श्रवगाणान्तरे या उपरि नाङ्गोलिक मनुष्याणां नाङ्गोलिकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः शेषमेको रुकवत् वक्तव्यं यावत् स्थितिसूत्रम् । जी० ३ प्रति । स्था० | नं० | कर्म० । द्वितीयश्चतुष्कः । कहिं णं भंते! दाहिशिलाएं हयक्रममणुस्माणं हयकसमरमणीयः प्रभूतसमः सन् रम्यो दुमिभागः प्रकृतः " से | न्नदीचे नाम दीप गोयमा ! गुरुवदी उत्तर ? अंतरदीव जहा मया इत्यादि उत्तरकुरुमस्ताव दनुमनथ्यो यावदनुमज्ञनासूत्रं नवरमत्र नानात्वमिदं मनुष्याः धनुःशताधिकरएमका पृष्ठ वंशा वृहत्प्रमाणानाहिते वडवो भवन्ति एकोनाशीति च रात्रिन्दिवानि स्वापत्यान्युपपालयन्ति स्थितिस्तेषां जघन्येन देशोकः पयेोपमासंख्येयभागः एतदेव स्यापत्योपमा ख्येयभागन्यून उत्कर्षतः परिपृः पत्योपमासंख्येय नागः जी० ३ प्रति० । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरदीव अभिधानराजेन्द्रः। अंतरदीव पुरच्छिमिवाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयण- नशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिकेसयाई उग्गाहित्ता एत्थ णं दाहिणिबाणं हयकन्नमणुस्साणं पाः पूर्वोक्तप्रमाणपनबरवेदिकावनखएममहिमतबाह्यप्रदेशाः ज म्बूद्वीपवेदिकातः पञ्चयोजनशतप्रमाणान्तरा भादर्शमुख १ मेहयकन्नदीवे नाम दीवे पन्नत्ते चत्तारि जोयणसयाई प्रा पदमुख २ अधोमुख ३ गोमुख ४ नामानश्चत्वारो द्वीपास्तद्यथा यामविखंभेणं बारमसया पन्नगट्ठा किंचि विसेमूणाई परि- हयकर्णस्य परतः आदर्शमुखो गजकर्णस्य परतो मेएदमुखः क्वेवणं एगाए पनमवरवेडयाए अवसेसं जहा एगुरुयाणं ।। गोकर्णस्य परतोऽयोमुखः शकुलकर्णस्य परतो गोमुख इति क भदन्त हयकर्ममनुष्याणां हयकर्मद्वीपो नाम कीपः प्राप्तः एवमऽपि नावना कार्या प्रका० १ पद। जीभ कर्म । जगवानाह । गौतम एकोरुकद्वीपस्य पूर्वस्माश्चरमान्तात् उत्त. चतुर्थश्चतुकः। रपूर्वस्थां दिशि बबणसमुहं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्यावा. तेसि णं दीवाणं चठसु वि दिसासु लवणसमुदं जोन्तरे शुल्ब हिमबइंट्रायाः उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि चतुर्यो- यणसयाई प्रोगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा परमत्ता जनशतान्तरे दाक्विणात्यानां हयकर्ममनुष्याणां हयकों नाम संजहा भासमुहदीवे हत्थिमुहदी सीह मुहदीवे बग्धमुहदीवे द्वीपः प्राप्तः स च चत्वारि योजनशतान्यायामविष्कम्भेन द्वादश पञ्चषष्ठानि योजनशतानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिकेपेण तेस णं दीवेसु मणस्सा भाणियव्वा ॥ शेषं यथा एकोरुकमनुष्याणाम् । एतेषां मएयादर्शमुखादीनां चतुणों द्वीपानां परतो नूयोऽपि काहि ते ! दाहिणिलाणं गयकन्नमणुस्माणं पुच्छा? यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्कु प्रत्येकं लवणसमुद्रं षट् योजनशगोयमा प्राजासियदीवस्स दाहिणपूरच्छिमिल्लाओ चरिमं तान्यवगाह्य षट् योजनशतायामविष्कम्नाः सप्तनवस्वधिका टादशयोजनपरिकेपाः पावरवेदिकावनखाएममपिमतपरिसरा ताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकन्नाणं जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् षयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहएवमानाषिकद्वीपस्य पूर्वस्माश्चरमान्तात् दक्षिणपूर्वस्यां दिशि स्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रा खनामानश्चत्वारोवीपा वक्तव्यास्तपचत्वारि योजनशतानि लवणसमुहमवगाह्यात्रान्तरे शुल्हहिमव था श्रादर्शमुखस्य परतोऽश्वमुखःमेएटमुस्खस्य परतो हस्तिमुखः इंमाया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्ताद चतुर्योजनशतान्तरे गजक पायाममुखस्य परतः सिंहमुखः गोमुखस्य परतो व्याप्रमुखः। समनुष्याणां गजकर्णो नाम द्वीपः प्राप्तः आयामविष्कम्भपरिधिपरिमाणं हयकर्मद्वीपयत् । पञ्चमश्चतुष्कः। एवं गोकन्नमणुस्साणं पुच्छा? बेसालियदीवस्मदाहिण तेसि णं दीवाणं चनसु वि दिसामु लवणसमुई सन सत्त पुवच्छिमियाओ चरिमंतानो लवणसमुदं चत्तारि जोय जोयणमयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पएसयाई सेसं जहा हयकन्नाणं । एणत्ता तंजहा आसकरणदीवे हथिकस्मदीवे अकस्मदीये मानसिकद्वीपस्य पश्चिमान्ताचरमान्तात् दक्षिणपश्चिमेन कस्मपाउरणदीवे । तेसु णं दीवेसु मण्या भाणियचत्वारि योजनशतानि लवणसमुषमवगाह्यात्रान्तरे काराहिम- व्या । स्था०४ग। वहंशाया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् चतुर्योजनशतान्तरे गोक एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुर्णाद्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोमनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्राप्तः आयामविष्कम्भ सरादिविदिक्कु प्रत्येकं सप्त सप्त योजनशतानि सघणसमझमपरिधिपरिमाणं हयकरणद्वीपवत् ।। घगाह्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतिमकाले जाणाणं पुच्छा ? गोयमा ! नंगोलियदीवस्स योजनशतपरिरयाः पद्मवरवेदिकावनस्वयमसमवगाढा जम्बूद्वीउत्तरपुच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि पदिकान्तात सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्महस्तिकराजोयलसयाई सेसं जहा इयकन्नाणं । कपर्णकपर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपा याच्यास्तद्यथा - नारोलिकद्वीपस्य पश्चिमाञ्चरमान्तात् उत्तरपश्चिमायां दिशि श्वमुखस्य परतोऽश्वकएणः हस्तिमुखस्य परतो हस्तिकर्णः लवणसमुष्मवगाह्य चत्वारि योजनशतानि अत्रान्तर कावहि सिंहमुखस्य परतोऽकरणः व्याघ्रमुखस्य परतः कएर्णप्रावरणः मवइंट्राया उपरि जम्बद्ध पवेदिकान्ताश्चतुर्योजनशतान्तरे दा जी० ३ प्रति० । प्रज्ञा । कर्मः। किणात्यानां शाकुलीकएणमनुष्याणां शष्कुलीकएर्णद्वीपो नाम षष्ठश्चतुष्कः। छापः प्राप्तः । आयामविष्कम्नपरिधिपरिमाणे हयकएर्णद्वीप- तेसु णं दीवाणं चउसु विदिसासु सवणममुई अट्ठ अ. पत् । पद्मवरवेदिकावनखएममनुष्यादिस्वरूपं च समस्तमेको हजोयणसयाइं प्रोगाहित्ता एत्थ एणं चत्तारि अंतरदीवा रुकद्वीपवत् जी०३ प्रतिः । स्था। प्रज्ञा । कर्म० । तृतीयश्चतुष्कः । परमत्ता तंजहा उक्कामुहदीव मेहमुहदी विज्जुमुहदीव विज्जुतेसि । दीवाणं चउसु वि दिसासु बवणसमुहं पंच पंच दंतदीवे तेसु णं दोवेसु मणुस्सा जाणियव्या स्था० ४ मा जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्य णं चत्तारि अंतरदीवा पा तत एतेषामश्वकार्णादीनां चतों द्वापानां परतो यथाक्रम ता तंजहा आयंसमुहदीवे मेंढगमुहदीचे अोपुहदीने पूर्वोत्तरादिविदिशु प्रत्येकमष्टो अष्टौ योजनशतानि लवणसम जमवगाह्याएयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपश्चगोमुहदीवे । तेमु णं दीवेसु चनीव्यहा माणुस्सा भाणियव्वा ।। विंशतियोजनशतपरिकेपाः पनवरवेदिकावनखएकमणिमतएतेषामपि हयकर्णादौनां परतः पुनरपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादि- | परिसरा जम्बूद्वीपवेदिकान्तादप्रयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्काविदिक प्रत्येक पञ्च पश्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य पम्चयोज- मुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युहन्ताभिधानाइचधारो द्वीपा वक्त Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ) अंतरदीव अभिधानराजेन्द्रः। अंतरदीव व्यास्तद्यथा अश्वकर्णस्य परत उल्कामुखः हरिकर्भस्य परतो वावीसं तेराई, परिक्षेवो होइ आसकरणाण ।। मेघमुखः अकएर्णस्य परतो विद्युन्मुखः कर्णप्रावरणस्य परतो पणवास अउणतीमा, नक्कामुहपरिरो होइ । विद्युइन्तः ।। जी० ३ प्रति०। प्रज्ञा कर्म । तेसु एणं दीवाणं च उसु वि दिसासु लवणसमुदं णव एव दो चेव सहस्साई, अटेव सया हवंति पणयाला॥ जोयण सयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा घणदंता दीवाणं, विसेसमहिमो परिक्खेवो । पएणत्ता तंजहा घाणदंतदीवे लट्ठदंतदीवे गूढदंतदीवे मुक प्रथमद्वीपचतुष्के नित्यमाने त्रीणि योजनशतानि अवगाहना सवणसमुजाबगाई विष्कम्भं च विष्कम्नग्रहणादायामोऽपि दंतदीवे । तेसु णं दीवेसु चनधिहा मणुस्मा परिवमंति गृह्यते तुल्यपरिमाणत्वात् जानीहि इति क्रियाशेषः। शेषाणां द्वीतंजहा घणदंता लट्ठदंता गूढदंता सुखदंता । पचतुष्काणां शतोत्तराणि त्रीणि शतानि अवगाहनाविष्कम्नं पतेषामप्युल्कामुखादीनां चतुराणों द्वीपानां परतो यथाक्रम तावजानीयात् यावन्नव शतानि तद्यथा द्वितीयचतुष्के चत्वारि पूर्वोत्तरादिविदितु प्रत्येक नव योजनशतानि लवणसमजमव- शतानि तृतीये पञ्च शतानि चतुर्थे षट् शतानि पञ्चमे सप्त शगाह्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाटा- तानि षष्ठे अणौ शतानि सप्तमे नव शतानि अत कर दीपानाविंशतियोजनशनपावरवेदिकावनखएमसमवगृढा जम्बूद्वीप- मेकोरुकप्रभृतीनां परिरयप्रमाणं वक्ष्ये । प्रतिकातमेव निर्वाहयवेदिकान्तात् नवयोजनशतप्रमाणान्तराघनदन्तबदन्तगूढदन्त- ति" पढमचकेत्यादि" प्रथमचतुष्कपरिरयात् प्रथमद्वीपचशुरुदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपास्तद्यथा उल्कामुखस्य परतो घ- तुकपरिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्य द्वितीयद्वीपचतुनदन्तः मेघमुखस्य परतो लष्पदन्तः विद्युन्मुखस्य परतो गृढद ध्यस्य परिरयः परिरयपरिमाणमधिकः षोमशैः पोरशोत्तन्तः विद्युहन्तस्य परतः शुद्धदन्तः जी० ३ प्रति। रैत्रिभिर्योजनशतैरेवमेवानेनैव प्रकारेण शेषाणां द्वीपानां द्वीपअन्तरद्वीपप्रकरणार्थ संग्रहगाथाः। चतुकाणां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्वपूर्वचतुष्कपरिरयपरिमा"चुद्धहिमवंतपुवा-वरेण विदिसासु सागरं तिसए । णादवसातव्यमेतदेव चैतेन दर्शयति (एकोरुयेत्यादि ) एकोगंतूणंतरद्वीवा, तिमि सप होति विस्थिमा ॥१॥ रुकपरिकेप एकोरुकोपनिकितप्रथमद्वीपचतुष्कपरिकेपो नव शअणावपनवसप, किंचूणे परिहिपसिमे नामा । तानि एकोनपञ्चाशदधिकानि ततस्त्रिषु योजनशतेषु पोशात्तपगोरुय श्राभासिय, वेसाणी चेव लंगृली ॥२॥ रेषु प्रक्षिप्तेषु “हयकम्माणमिति" बहुवचनात हयकर्णप्रमुखाणां एपसिं दीवाणं, परो चत्तारि जोयणसया। द्वितीयानां चतुर्णा द्वीपानां परिकेपो नवति स च द्वादश योजप्रोगाहिऊण लवणं, स पमिदिसिं चनसयपमाणा ॥ ३ ॥ नशतानि पञ्चपएषधिकानि तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु पोरचत्तारंतरदीवा, हयगयगोकासंकुलीकामा । शोत्तरेषु प्रतिप्तेषु (आयसमुहाणंति ) आदर्शमुखप्रमुखाणां एवं पंच सयाई, सत्त अहे व नव चेव ॥४॥ तृतीयानां चतुराणी द्वीपानां परिरयपरिमाणं भवति तच्च पञ्चभोगाहिकण लवणं, विक्खंभोगाइसरिसया भणिया । दशयोजनशतान्येकाशीत्यधिकानि ततो न्योऽपि त्रिषु योजनचनरो चउरो दीवा, इमेहिं नामेहिं नायम्वा ॥५॥ शतेषु षोडशोत्तरेषु प्रतिप्तेषु (आयसमुहाणंति ) अश्वमुखप्रआयसमेढगमुहा, अओमुहा गोमुहा य चउरते। अस्समुहा इत्थिमुहा, सीहमुहा चेव वग्घमुहा ।। ६॥ नृतीनां चतुर्थानां चतुपर्णा द्वीपानांपरिकेपस्तद्यथा अष्टादशयो. जनशतानि सप्तनवत्यधिकानि तेष्वपि त्रिषु योजनशतेषु षोमतत्तो य अस्सकमा, हथिकमा अकस्मपातरणा। उक्कामुह मेहमुहा, विज्जुमुहा विज्जुदंता य ॥ ७॥ शोत्तरेषु प्रतिप्तेषु ( श्रासकरणाएंति ) अश्वकरणप्रमुखाणां घणदंत लध्दता, निगूढदंता य सुरुदंताय । पञ्चमानां चतुएणी द्वीपानां परिक्षेपो भवति तद्यथा द्वाविंशतिवासहरे सिहरम्मि वि, एवं चिय अध्वीसावि ॥८॥ योजनशतानि प्रयोदशाधिकानि ततो नूयोऽपि त्रिषु योजनशअंतरदीवेसु नरा, धणूसयपद्धसिया सया मुझ्या । तेषु षोमशोत्तरेषु प्रक्तिप्तेषु उल्कामुखपरिरयः उल्कामुखप्रमुखषपालिति मिदुणधम्म, पलस्स असंख नागाश्रो॥ ए॥ ष्ठद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं जवति तद्यथा पञ्चविंशतियोंजनश तानि एकोनत्रिंशदधिकानि ततः पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु षोरचउस िपिट्टिकर-कगाणि मणुयाण वच्चपालणया । शोत्तरेषु प्रक्तिप्तेषु घनदन्तद्वीपस्य घनदन्तप्रमुखसप्तद्वीपचतुभउणासीइंतु दिणा, चनस्थभत्तेण आहारो ति ॥१०॥ कस्य परिक्वेपस्तद्यथा द्वे सहस्र अटो शतानि पञ्चचत्वारिंशस्था०४ वा० । एतेषामेव द्वीपानामवगाहनायामविष्कम्भपरिरयपरिमाणसंग्रहगाथाषट्कमाह । दधिकानि (विसेसमहिओति) किंचिद्विशेषमधिकोऽधिकृतः परिकेपः पञ्चचत्वारिंशानि किचिद्विशेषाधिकानीति नावार्थः । पदमम्मि तिमि न सया, सेसाण सतोत्तरा नवनज्जा च । इदं पदमन्ते ऽनिहितत्वात्सर्वत्राप्यभिसंबन्धनीयं तेन सर्वत्रापि ओगाहण विखंज, दीवाणं परिरयं वोच्छं॥ किंचिद्विशेषाधिकमुक्तरूपं परिरयपरिमाणमवसातव्यम् तदेपढमचउक्कपरिरया, बीयचनक्कस्स परिरो अडियो। धमेते हिमवति पर्वते चतसषु विदिशु व्यवस्थिताः सर्वसंसोमेहि तिहि न जोयण-सएराहे एमेव सेसाणं । स्यया अष्टाविंशतिः एवं हिमवत्तुल्यवपूर्णप्रमाणे पमहदप्रमाणाएगोरुयपरिक्खेवो, नव चेव सयाई अउएणपएणाई॥ यामविष्कम्भावगाहपुएमरीकहोपशोभितशिखरिणयपि पर्वते लवणोदादरार्णवजलसंस्पर्शीदारज्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतबारसपएणहाई, हयकमाणं परिक्खेवो। सुषु विदिक्षु पकोरुकादिनामानोऽनुमापान्तराक्षायामविष्कम्भा पएणरस एक्कसीया, आयसमुहाण परिरओ होइ। अष्टाविंशतिसंख्या द्वीपा वेदितव्याः। अट्ठारसनन्याओ, आसमुहाणं परिक्खेवो । कहि भंते ! नुत्तरिद्वाणं एगुरुयमणुस्साणं एगुरुयदी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) अंतरदीव अन्निधानराजेन्दः । अंतराय वे नामं दीवे पएणत्ता ? गोयमा ! जम्बृदीवे दीवे मंदरस्स | यस्स जासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स या णो अंतरानासं पन्चयस्स उत्तरेण सिहरिस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरपुर करेज्जा" श्राचा० २७० ३०। च्छिमिक्षाओ चरिमंतानो लवणसमई तिन्नि जोयणस अंतराहिय-अन्तर्हित-त्रि० व्यवहिते, " अणंतरहियाए पुढया प्रोगाहित्ता एवं जहा दाहणिवाणं तहा उत्तरियार बीए" प्राचा०२ श्रु०१०नि०पू०।। भाणियवं णवरं सिहरिस्त वासहरपब्वयस्स विदिसामु अंतरा-अन्तरा-अव्य अन्तरेति इण-मा-निकटे, धर्जने, मेदिएवं जाव सुखदंतदीवत्तिजाव सेत्तं अंतरदीवगा। नी-वाच । अन्तराले, सूत्र०१ श्रु०० भ०। विशे। प्राचा। मध्ये, "इच्छाइयारमागंतुं अंतराय विसीय" सूत्र० (०३०॥ "कहिण नंते! एगुरुयत्यादि" सर्व तदेव नवरमुत्तरेण विभा-| अर्वागर्थे च. कल्प"अंतरा विय से कप्पर नो से कप्प" पा कर्तव्या सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः । उपसंहारमा | अर्वागपि कल्पते परं न कल्पते कर्म०५०। ह। सेत्तमन्तरदीवगा ते पते अन्तरद्वीपका इति ॥ जी. ३ प्रति० ।। प्रका०। स्था०प्र०कर्म । पतता मनप्या अप्ये- अंतरा (य) इय-अन्तराय-नपुं० अन्तरा दातृप्रतिप्रातन्नामान उपचाराद्भवन्ति । तात्स्थ्यात्तध्यपदेशो यया पश्चा हकयोरन्तर्भाण्डागारिकवद् विघ्नहेतुतया अयते गच्छतीसदेशनिवासिनःपुरुषाः पश्चामा ति प्रका०१ पद. जी०स्था०।। त्यन्तरायम उत्त०३३ अ० अन्तरा अय-अ-प्रव०१५वा। अंतरदीवग [य] अन्तरद्वीपग [ज-पुं० अन्तरद्वीपेषुगता जीवं दानादिकं वा अन्तरा व्यवधानापादनाय पति गच्छअन्तरद्वीपगाः प्रका० १ पद.। तेषु जाता वा अन्तरद्वीपजाः । सीति अन्तरायम् । अन्तरा-इ-अच्-पं० सं. ३ द्वा० । कर्म। मं० । एकोरुकाधन्तरद्वीपवासिगर्भव्युत्क्रातिकमनुष्यभेदेषु, ते अन्तर्मध्ये दातृप्रतिप्राहकयोर्विचाले श्रायातीत्यन्तरायः। जीच एकोरुकादिनामानोऽष्टाविंशतिदीक्किणात्यौत्तराहभेदेन भि. बस्य दानादिविघ्नकारकेऽष्टमे कर्मभेदे, यथा राजा कस्मैचियमानाः षट्पञ्चाशत कर्म०१ क । स्था० । आ०म० द्वि०। हातुमुपदिशति तत्र भाण्डागारिकोऽन्तराले विघ्नकद भवति (तवर्णकोऽनन्तरमेवअंतरदीवशब्दे दर्शितः) तदन्तरायकर्माऽष्टमम भवति उत्त० ३३ १० । "जह राया अंतरदीववे दिया-अन्तरद्वीपवेदिका-स्त्री० द्वीपान्तरवेदिका-1 दाणाई, न कुणइ भंडारिए विक्लम्मि । एवं जेणं जीवो, याम, तथा अन्तरद्वीपवेदिकायां हाराणि सन्ति न वेति प्रश्ने कम्मं तं अंतरायंति" स्था। जगत्यां धाराणि कथितानि सन्ति अन्तरद्वीपेतु वेदिका जगत्याः __तद्भेदा यथास्थानेऽस्ति अतो वेदिकायामपि द्वाराणि संभाव्यन्ते श्येन०४ अंतराइए कम्मे सुविहे पलत्ते तंजहा पमुप्पामविणाउदा० ३८ प्र०। सिए चेव पिहतिय आगामिपहं स्था०५ग० । अंतरदीविया-आन्तरद्वीपिका-स्त्री० अन्तरे मध्ये समुहस्य | (पकुप्पन्नविणासिएचेवत्ति)प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं लब्धं वस्तु इत्यर्थो छीपा येते तथा तेषु जाता आन्तरहीपास्त एवान्तरद्धीपिकाः। विनाशितमुपहतं येन तत्तथा। पागन्तरेण प्रत्युत्पन्न विनाशयअन्तरद्वीपवास्तव्यमनुष्यत्रीषु, स्था० ३० । जी०1(व. तीत्येवं शीलं प्रत्युत्पन्नविनाशि चैव समुच्चये इत्येकमन्यच पिक्तव्यता चासामंतरदीवशन्ने दर्शिता)। धत्ते च निरुणद्धि च भागामिनो बन्धव्यस्य वस्तुनः पन्थाः अंतरका-अन्तरका-स्त्री० अन्तरकाले, प्राचा० १ श्रु०० अ० आगामिपथः तमिति कचेदागामिपथानिति दृश्यते कचिच्च अन्तर्धा-स्त्री० अन्तर्धाने, “सा अन्तरका" स्मृतभ्रंशोऽन्तर्धानं | (आगमपहंति ) तत्र चलानमार्गमित्यर्थः । स्था० २ ग। किं मया परिगृहीतं कया मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरणमि- | अंतराइए एं भंते ! कम्मे कतिविहे परमते ? गोयमा ! त्यर्थः प्राव० ६ अ०। पंचविहे पामत्ते तंजहा दाएं तराइए जाव वीरियंतराइए अंतरपनी-अन्तरपट्टी-स्त्री० मूल केत्रात्साईकिंगव्यूतस्थे प्रा प्रज्ञा०२५ पद० । मविशेष, प्रव०७ द्वा० । वृ० । अंतरप्पा-अन्तरात्मन-पुं० अन्तमध्यरूप आत्मा शरीररूप इ. तत्र यदयवशात् सति विभवे समागते च गुणवति पात्रस्यन्तरात्मेति भ० २० श०१०। स्वरेऽन्तरश्च । १ । १४ दत्तमस्मै महाफमिति जाननपि दातुंनोत्सहते तद्दानान्तराय शति सूत्रेणान्स्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे लुक् निषिद्धःप्रा । जीव, यथा यदुदयवशाद्दानगुणेन प्रसिझादपि दातुर्गृहे विद्यमानमप्रश्न संब०१द्वा०। अष्ट० । आत्मभेदे, यो हिसकावस्था पिदीयमानमर्थजातं याच्याकुशलोऽपि गुणवानपि याचको न यामपि आत्मनि मानायुपयोगलकणे शुरुचैतन्यलक्षणे महान लभते तालाभान्तरायं तथा यदयवशात सत्यपि विशिणहान्दस्वरूपे निर्विकारामृताव्याबाधरूपे समस्तपरभावमुक्ते श्रा रादिसंभवे असति च प्रत्याख्यानपरिणामे वैराग्ये वा प्रवनस्मबुद्धिः (सः) अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिगुणस्थानकतः क्षीणमो कार्पण्यानोत्सहते नोक्तुं तद्भोगान्तरायमेवमुपभोगान्तरायमपि हं यावत् अन्तरात्मा उच्यते अप० ११ अप। भावनायम् । नवरं जोगोपनोगयोरयं विशेषःसकृत तुज्यते इति अंतरभाव-पान्तरजाव-पुं० परमार्थे, पञ्चा० १८ विव०।। जोगः 'श्राहारपुष्फमाई उ, उवभोगो उ पुणो पुणे। उवभुजश्वअंतरभावविहाण-पान्तरजावविहीन-त्रि० परमार्थवियुक्त, स्थविनयाई तथा यदुदयात्सत्यपि निरुजि शरीरे यौवनिकाया मपि वर्तमानोऽल्पप्राणो नवति यद्वलवत्यपि शरीरे साध्यऽपि पश्चा०१७ विव०। अंतरभासा-अन्तरभाषा-स्त्री० गुरोर्भाषमाणस्य विचालभाषणे, प्रयोजनेऽपि हीनसत्वतया प्रवर्तते तद्वीर्यान्तरायम प्रशा०२३पद. ध०५ अधि। प्राव० । विहरन् साधुः चौरः पृधः " पायरिए दाणे लाभे य भोगे य, जवनोगे वीरिए तहा। उवमाए वा संभालेन्ज वा वियागरेज्ज वा प्रारियउबज्जा- I पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं उत्त० ३३ अ०॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतराय " एतच भाण्डागारिकसममिति दर्शयन्नाह । सिरिहरियस एवं जह परिक्रूत्रेण तेण रायाई । न कुणा दाणाईयं एवं विश्वेण जीवो पि । थियो गृहं श्रीगृहं भाण्डागारं तद्वियते यस्य स श्रीगृहको भाण्डागारिकस्तेन समं तुल्यमेतदन्तरायकर्म पथा तेन श्री गृहके प्रतिकूलेन राजादिः राजा नृपतिः आदिशब्दात् - नोभ्वरतलपरादिपरिग्रह न करोति कर्म व पारयति दानादि आदिशम्याच लाभभोगोपभोगादिग्रहणम । एवममुना श्रगृहकदृष्टान्तेन विघ्नेनान्तरायकर्मणा जीवोऽपि जन्तुरपि दानादि कर्त्तुं न पारयतीति व्याख्यातं पञ्चविधमन्तरायं कर्म । कर्म० १ कर्म० | पं०सं० । श्रा० । ( अनुभागादयोऽस्य अणुभागादिशब्देषु ) ( बन्धादयसत्तास्थानान्यस्य कम्म शब्दे ) विघ्ने, सूत्र० १० ११ अ० । योगस्यान्तरायाः । (y) अन्निधानराजेन्द्रः । प्रत्यूहा बाधयः स्त्यानं ममादालस्य विज्रमाः । संदेहाविरतम्य-लानथाप्यनवस्थितिः ॥ ए ॥ (प्रत्यूहा इति व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालण्यभूमिकत्वानपस्थितत्वानि विविक्षेपास्तेन्तराया इति सूत्रम् । द्वा० १६ द्वा० । विघ्नकरणे, स्था०४ठा०| व्यवच्छेदे "जे अंतराचे" स० । शकयभावे च । नत्थ अंतरापणं परगेहे रिसीयप " सूत्र० १ ० ६ श्र० । अन्तरायिक न० विघ्ने, प्र० सं० ३ द्वा०हुचाये श्राचा० १ ० ६ श्र० । अंतरापड़-अन्तरापय पुं० विषक्षितस्थानयोरन्तरालमार्ग, 66 भ० २ ० १ उ० । अंतरायबहुल - अन्तरायबहुल- त्रि० विघ्नप्रचुरे, तं० । अंतरायवग्ग - अन्तरायवर्ग- पुं० श्रन्तरायप्रकृतिसमुदाये, क०प्र० अंतरास- अंतराल - नन्तरं सीमानमारातिद्धति--- क - रस्य सत्यम् वाच० । मध्ये, विशे० । संकीर्णवर्णे च पुं० तद्वर्तिनि भि० वाच० । अंतरावण-अंतरापण-पुं० अन्तरे ग्रामादीनामर्द्धपथे आपणाः अन्तरापणाः प्रश्न० श्र० ३ द्वा० । राजमार्गप्रनृतिमध्यभागबहिविषा १०३ अ० वीथीषु मार्गेषु कृ० १ उ० ।" अंतरावणाओ घरपडए गिरहंति " परिखोदकमार्गान्तरानवर्तिनो हट्टात् कुम्नकारसम्बन्धिन इत्यर्थः ज्ञा० १२ अ० । अंतरावणागह- अन्तरापणन विशेषे तद्यथा। 1 " अ अंतरावणो पुण, वीहीसा एगओ व हो पा तत्थ हिं अंतरावण-गिदं तु सयमावणो चेव ॥ अग्यानन्तर्ये अन्तरापणो नाम पीथी दमार्ग इत्यर्थः सा पकतो वा एकपार्श्वेन (श्रो वित्ति ) द्वाभ्यां वा पार्श्वभ्यां भवेत् तत्र यगृहं तदन्तरापणगृहमुच्यते वृ० १३० ॥ अन्तरावास अन्तरवर्ष पुं० अन्तरयसवर्षस्य वृषेशासा बन्तरवर्षः । वर्षाकाले, ज०१५ ०१ उ० । अन्तरावास - पुं० अन्तरेऽपि जिगमिषतः क्षेत्रमप्राप्याऽपि यत्र स्वति साधुभिरामापासो विधीयते सोऽन्तरायासः। वर्षाकाले, ज० १५ श०१ उ० । “अठिये गामं नीसाए पढमं अंतरा बासं उवागए" कल्प० । अंतरिवखपासणाह अंतर (लि) क्ख - अन्तरि (री) क्ष- न० अन्तः स्वर्गपृथिव्योमध्ये ईदयते शक् कर्मणि घञ्-अन्तः ऋकाणि अस्य वा पृोदरादित्वात्यके हस्वः ऋकारस्य रित्वं वा वाच० । अन्तर्मध्ये ईका दर्शनं यस्य तदन्तरीकम् भ० १७ श० १० २० | श्राकाशे, विशे० 'अंत बूपा गुज्जा परियत्ति यदश०७० आन्तरिकुन अन्तरिक्रमाकाशं तत्र प्रयमान्तरिक गन्ध नगरादी स्था० वा० उत्त० मेघादिके, ०२० २ to | ग्रहाणामुदयास्तादिपरिज्ञानात्मके, कल्प० । उल्कापातधूमकेतुप्रमुखाणामुदय विचार विद्यासणे ( उस०] १५०) आकाशप्रभवग्रहयुद्ध मेदादिभावफल निवेदिके या चतुर्थे महानिमित्तशास्त्रे, स० । “गढ़ बेहभूअ अहहा सपमुदं जयंतरि "प्रब० २५७ द्वा० प्रहवेधनुताहा सप्रमुखमान्त रिकं निमित्तम् । तत्र प्रवेधो महस्य महमध्ये निर्गमः । ताट्टहासोऽतिमहानाकाशे श्राकिलिकिलारायः यथा " निनास सोममध्येन प्रदेष्यन्यतमो यदा तदा राजन्यं विधाको भं च दारुण " मित्यादि प्रमुखग्रहणान्धर्वनगरादिपरिग्रहः । यथा "कपिलं शस्यपाताय, माजिएं हरणं गवाम् । श्रव्यक्तवर्ण कुरुते बलोभं न संशयः सन्नगरं हे सप्राकारं संतोरम सोम्यां दिशं समाश्रित्य शहस्तजियकरमित्यादि " प्रत्र० २५७ द्वा० । अस्य सूत्रं सहस्रप्रमाणं वृत्तिर्लकप्रमाणा वार्तिक कोटिप्रमाणम स० ७९ पत्र-। आव० । णम । अंतर (ल) क्खनाय अन्तरिक्षजात त्रिः स्कन्धमञ्चक प्रासादादी, भुख उपरिवर्तिपदार्थजाते, प्राचा० २०५० अंतरि (वि) क्लप मिरा - अन्तरिवखमतिपत्र शि० - काशगते, उपा० २ श्र० । जं० । - अंतरि (स) क्वपासणाढ़ अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ पुं० श्रीपुरे अन्तरिक्षस्पार्श्वनाथप्रतिमायाम्, तत्कल्प इत्थम् । 'पय पहाव निवासं, पासं पणमित्तु सिरिपुरं नगरं । कित्ते मि अंतरिक्ख-द्विष्यतष्पकिमाइ कप्पल' पुनि लंकापुरीए द सग्गीवेश प्रचक्षिणा माली सुमालिनामानो निगाओ लग्गा केणावि पेसिया तेसिं बविमारूढाई तह पढ़े वसंताणं समागया अणवेक्षा फावरण चिंतिवं मए ताय अभिपरिमाकरदिया ओसामा परे विसारिना एएच बुएह त्रि पुनवंताणं देवपूयाए अकयाए न कत्य वि भोषणं तच्च देवयावसरकरंमिश्रमदडु ममोवरि पवितिति । तेण विनावले पविचवायुमाए अहि वा भावजिणपासनाहपडिमा निम्मविद्या । मासिमालिहिं तं पूना जोश्रणं करूं तत्र्यो तेसु तह मग्गे पडिएम सा पडिमा आसन्नसरोवरमज्जे अखंमिअरूवा चैव तत्थ लिया। कालकमेण तस्स सरोवरस्स जसे अप्पियभंजनरिख व दीस | तो कालंतरेण विंगवीदेसे विंगइनपरं तत्य सिरपालो नाम नरवई हुत्या । सो अगादको dragonist नरेहिं हऊहिं बाहिं गओ ते तत्थ पि । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंताहार अंतरिक्खपासणाह अभिधानराजेन्द्रः। वासाए अग्गाए तम्मि खड्डक्कमेणं पत्तो तत्थ पाणिग्रंपीअं अंतरिज-अन्तरीय-न० अन्तरे भवं गहादित्वाच्छः " नाभी मुहं हत्था य पक्खालिया । तमो ते अंगावयवा जाया धृतं च यद्वस्त्र-माच्चादयति जानुनी । अन्तरीयं प्रशस्तं त-दनीरोगा कण्यकमलज्जलच्छाया । तो घरं गयस्स रन्नो च्छिन्नमुभयान्तयो" रित्येवंबवणे परिधानयन, वाच।। शय्या या अधस्तने वस्त्रे च ।" अंतरिजं णाम णियंसणं अहवा अंमहादेवी तमच्छरं दट्ठ पुच्चिच्छा सामि कत्थ वि तुम्हहिं तरिजं णाम जं सेज्जाए हडिलं पोतं " नि० ) १५ उ० । अज्ज एहाणाइ कयं राएण जहहियं परमत्तं देवीए चिंतियं। आचा० । नवाद्यर्थे-बुञ् आन्तरीयकः तद्भवे, त्रिी धाच । अहो सामि ! सा दिव्वं तिबीयदिणे राया तत्थ नीओ तीए अंतरिज्जिया-अन्तरीया-स्त्री० स्थविरात्कामद्धनिर्गतस्य वषपासव्वंगं पक्वालियं जाओ पुण णवसरीरावयवो राया, तओ तित (वेसवामिय) गणस्य तृतीयशाखायाम, कल्प० १७१ पत्र.। देवीए बलिप्राइअंकाकण भणिशंजोत्थ देवया विस- अंतरिय-अन्तरित-त्रि0 अन्तर-इण-कर्तरि क्तः । अन्तगत, सो चिट्ठ सो पयमेन अप्पाणं । तो घरं पनाए देवीए अन्तरं व्यवधानं करोतीति णिचि-कर्मणि-क्तः । व्यवधापित , सुमिणंतरे देवयाए नणि इत्थ भावितित्थयरपासनाह. तिरस्कृत, अच्छा दिने, वाचन व्यवहित, विशे। आम द्वि अन्तरिया-अन्तरिका-स्त्रीअन्तस्य विच्छेदस्य कारणमन्तरिपडिमा चिट्ठ तस्स पभावेणं रन्नो आरुग्गं संजायं एअं का स्त्रीलिङ्गशब्दः विवक्कितवस्तुनः समाप्ती, "माणतरियाप पडिमं सगळे आरोविऊण सत्तदिमजाए ति णिज्जुत्तित्ता वट्टमाणस्स" प्रारब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्नणमित्यप्रामसुत्ततंतुमित्तरस्सीए रन्ना मयं सारहिहूएणं सहाणं र्थः ०३ वक०। पश्चाले अघाइमा । जत्थेव निबो पच्छा हुत्थं पलोइस्स आन्तरिका-स्त्री० अन्तरमेवान्तये नेषजादित्वात्स्वार्थेषु अण तत्येव पमिमा ठाहिइ । तो नरनाहेण तं खुड्डगजलमा- ततःस्त्रीत्वविवक्तायां ङीप् प्रत्यये प्रान्तरी प्रान्तस्येव आन्तरिसोइऊण सा पडिमा बका। तेण तहेव काउं पमिमा चा का । अन्तरे, व्यवधाने, सू० प्र० १० पाहु० । लघ्वन्तरे च. रा०॥ सिआ कित्तिअंपि नूमि गएण रन्ना किं पमिमा एप न | अंतरुच्छुय-अन्तरिक्षुक-पुं० इक्षुपर्वमध्ये, प्राचा० १ श्रु० १ प्र०"उभयोपेरुरदियं अंतरुच्छुअं होति" नि० चू०१६ उ० । वित्ति सिंहावलोइअंकयं पमिमा तत्येव अंतरिक्खे वि अंतरेण-अन्तरेण-अव्य० अन्तरेति इण-ण-टवर्गादित्वेऽपि आ। सगमा अग्गा हुत्त नासारा रन्ना पाकमा अ. णस्य नेत्संरकत्वम् । मध्याथें, वाच० । विनार्थे च. उत्त०१ अ) द्धणि अधिइए गया। तत्थेव य सिरिपुरं नाम नयरं नि- | अहारमंतरेण नाम श्रहारानावेन नि० चू० १७०। अनामोवलक्खियं निवेसिअं चेइमं च तहिं कारियं । तत्थ अंतव (1)-अन्तवत्-त्रि० अन्तोऽस्यास्ती अन्तवान् । परिपडिमा अगमहसवपुव्वं गविआ पृयश्तं पुहवि पडति- मिते, "अंतवणिश्य लोए इति धीरोति पासा" अन्तवान लोका कानं अजवि सा पडिमा तहेव अंतरिक्खे चिट्टा । प्रवि सप्तद्वीपाः वसुंधरेति परिमाणक्तेस्ताहपरिमाणेनेत्यर्थः । सूत्र०१ श्रु०१०। किर सा वाहमिश्र धर्फ सिरम्मि वहंती नारी पमिमाए सी भंतवाल-अन्तपाल-पुं० अन्तं तश्चक्रिण आदेश्यदेशसम्बन्धिनं हासणवलोसिं वरिसु कालेण नूमीवेगचमणेण वा मिच्छाइ पालयति उपवादिज्य इत्यन्तपालः। पूर्वदिगादिदेशलोकानां दसिअकालाणुजावेण वा अहो अहो दीसंती जाव संपड | । देवादिकृतसमस्तोपभवनिवारके, जं०३ वक्ष० प्रा०म०। नारी मित्तं पमिमाए हिढे संचरइ पईवपयाहायसीहास- | अंतविकट्ठियंतमाल-अन्तविकर्षितान्त्रमान-त्रि० शृगालादिणजृमिअंतराने दोसइ जया य सा पमिमा सगममारोवि- निरुत्पाटितोदरमध्यावयवे, तं०। श्रा तया देवी खित्तवालो असदेव पमिमाओण सगत्तण | अंतसह-अन्तसुख-न० परिणामसुखे, "मासैरष्टनिरहा व सिद्धबुद्धाणं अन्नयरो पुत्तो अंबाए देवीए गहिरो अ- पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधश्रो अए गविओ तो खित्तवानस्स आणती दिन्ना | त" सत्र० १७०४०।। जहा एस दारो ताए प्राण अन्यो तेणाविउत्तावअंतसो-अन्तशस्-अव्य० अन्त-शस् निरषशेषत इत्यथे. तेण नाणीओ तो देवीप मुंबएण समत्थ अह सो अं- | "सखं कतति अतंसो" सूत्र० १ श्रु०८ ०। विपाककाले इत्य र्थः सूत्र०१ श्रु०८० यावजीवमित्यर्थे, "मणसा वयसा चेव तवालसीसे दीम एवं अंबाए वि खित्तवालोहिं सेवि कायसा चेव अंतसो" सूत्र०१० ११ १० कथञ्चित्कार्यजमाणे धरणिंदपनमावईहिं च कयपमिहेरो सा पमिमा निस्तारे, "भत्तपाणे अ अन्तसो” जक्ते पाने चान्तशः सम्यगसम्वनोएहिं पूज्जइ अंतरिक्खटिअपासनाहकप्पे जहासु- पयोगवता जाव्यमिति सूत्र० १ श्रु०१०। अंकि पि सिरजिणप्पहमूरिहिं लिहिलो सपरोवयारकए अंतावेड (ई)-अन्तर्वेदि (दी)-स्त्री० अन्तर्गता वेदियंत्र अन्तरिक्षपार्श्वनाथकल्पः ती० ५२ क. देशे। दीर्घहस्वी मिथो वृत्तौ । १४ । इति हस्वस्य दीर्घः । अंतरि (नि) खोदय-अन्तरिक्षोदक-न० अन्तरिके उदक ब्रह्मावर्तदेशे, प्रा० । वाच । मन्तरीक्षादकम् । वर्षोदके, नि००१ यज्जलमाकाशा-अंताहार-अन्त्याहार-पुं० अन्त्ये भवमन्त्यं जघन्यधान्यं बधास्पतदेव गृह्यते" उपा० १ ०। दिआहारो यस्य । कतरसपरित्यागे, औ०। सूत्र० । स्था। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) अंति अभिधानराजेन्डः। अंतेवासि अंति (न्) अन्तिन-त्रि० अन्तो जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽ- | परिसवरविप्पिति, कंचुगिपुरिमा महत्तरगा ॥११ ।। स्यास्तीत्यन्ती । जात्यादिभिरुतमतया पर्यन्तवर्तिनि , | दंगहियहत्थो सव्वतो अंतेपुरंरक्खरमा वमण इन्धि पुरिखा०१० ठा। सं या अंतेपुरं जीणेति पवेसेति वा एसदंडरक्खितो।दोवारिअंतिम [य]-प्रन्तिक-न० अन्त्यते संबध्यते सामीप्येन या दारं चेव जं संमेलेति हिकेति ता तप्पिया रणो श्राणसीए अन्त-घम् । वाच । समीपे, तं० । सूत्र० । उत्त० । स्था० ।। अंतेपुरियसमीवं गच्छति । अंतेपुरिया गंतीग वा रप्लो समीविशे०। उत्त० । “बुद्धाणं अंतीए सया" उत्त०१०। वं गच्छति ज रमो समोवं अंतेपुरिया जयंति आणेति चादि. श्रा० म.द्वि०। नि। भ०। रा०पर्यवसाने, "अह भिक्खू एहायं वा कहकहिते कुषियं वा पसादेति कति य रम्या विदिगिलाएज्जा, आहारस्सेष अंतिया" आचा०१७०००। ते कारणे अणुचो वि जे अम्गतो काउं वयंति ते महत्तरगा। पाश्र्वे च " देवाणंदाए माहणीए अंतिए एयमटुं सोचा " अम य श्मे दोसा॥ कल्प० । अन्तोऽस्यास्तीति अन्तिकोऽन्ते वाचरतीत्यन्तिकः।। असो व होति दोसा, आइलो गुम्मरतणइत्थीओ। पर्यान्तवासिनि, सूत्र० २ श्रु०२०।। तमीसाए पवेसो, तिरिक्खमणया नवे दुहा ॥२॥ अंतिम-अन्तिम-त्रि० अन्ते भवमन्तिमम् । चरमे, स्था०१ पूर्ववत् । ठा० । यतः परं न किञ्चिदस्ति विशे। सदादिइंदियत्यो, पयोगदोसाण एस णं सीवे। अंतिमराश्या-अन्तिमरात्रिका-स्त्री० अन्तिमाऽन्तिमभागरू-| सिंगारकहाकहणे, एगतरुजए य बहु दोसा ॥ १३॥ पाअवयवे समुदायोपचारात् सा चासौ रात्रिका चान्तिमरा- तत्थ गीयादिसहोवोगेण इरियं एसणं चा ण सोहेति विका । रारवसाने , स्था० १० ठा० । मः। तहि वा पुच्छितो सिंगारकहं कहेज । तत्थ य आयपरोनयअंतिमसंघयणतिग-अन्तिमसंहननत्रिक-न० अर्द्धनाराचसं समुत्था दोसा एते सघाणत्थे दोसा । श्मे परमाणे । हननकीलिकासंहननसेवार्तसंहननरूपे संहननत्रिके, कल्प। कहिता वहाँति दोसा, केरिसगा कधणगिएहणादीया । अंतिमसारी रिय-अन्तिमश (शा)रीरिक-त्रि०अन्ते भव-| गब्बो पायसिनत्तं, सिंगाराणं व संजरणं ॥ २४॥ मन्तिमं चरमं तच तच्छरीरं चेत्यन्तिमशरीरं तत्र भवा - सज्जाणादिट्ठियासु कोइ साधू कोउगेण गच्छेज्ज ते चेव पु. न्तिमशारीरिकी दीर्घत्वं च प्राकृतशैल्या । चरमदेहभवेषु कि व्ववपिणया दोसा सिंगारकहाकहणे वा गण्हणादिया दोसा यादिषु, स्था०१ ठा। अंतेपुरे धम्मकहाणाणगब्बं गच्छेज्ज भोरालसरीरो वा गब्वं कअंतारि (न्) अन्तश्चारिन्-त्रि• अन्तश्चरति अन्तर् चर। रेज्ज अंतेवरपवेसे ओझातितो मिहह,अत्थे पदादिकणं करते णिनि । तोऽन्तरि८।१।६०॥इति अत एत्वम् । मध्यगामिनि, प्राo| पाउसदोसा भवंति सिंगारे य सोचं पुश्वरयकीलिते सुमरेज्ज अंतेत [पु] र-अन्तःपुर-न० अन्तरभ्यन्तरं पुरं गृहकर्म महवा पाउ ददु अप्पणो पुन्वसिंगारे संभरेज्ज पच्छा पमिगमवाच । तोऽन्तरि ८१६० इत्यन्त शब्दस्वात पत्वम् प्रा० । णादी दोसा हवेज्ज। अवरोधे, राजखीणां निवासगृहे, रा०ाझा "चिय अंतेउर वितियपदमणानोगे, विसंधिपरिखेवसेज्जसंथारे । घरदारपवेसी" औतत्र गमनं निषिद्धम् । हयमादी पुट्ठाणे, संघकुलगणाण कजे व ॥२५॥ [सूत्रम् ] जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसइ पविसंतं वा भणाभोगेण पविट्ठो अहवा अंतेपुरं परमाणत्थं साधुणा जातं साइज्जइ ॥३॥ पयानो अंतेपुरित्ति पुस्वभासेण पविछो प्रयाणतो अहवा इममेव सूत्रं गाथया व्याख्यानयति । साधू मज्जाणादिसु निता रायंतेपुरं च सव्वो समंता आगअन्तेउरं च तिविध, जुएं एव चेय कामगाणं च । श्रो परिवेदिय ठियं भावसहिमभावे यतं वसहि अंतेपुरमएककं पि य दुविधं, सत्थाणत्थं च परत्थाणे ॥१॥ झण अतिति णिति वा । अहवा संथारगस्स पश्चप्पणाणडेयो पविट्रो अहवा सीहवग्घमहिसादियाण मुट्ठाण पमणीयस्स वा रमो अंतेपुरं तिविधं एहंसियं जोवणाओ अपरिभुज्जमा जया रायतेपुरं पविसज्जा अम्मतो णस्थि णीसरणो धा तोकणीनो अत्थति एयं जुम्मतेपुरं । जोषणं पत्तानो परिभुज्जमा ज्जेति कुलगणसंघकज्जेसु वा पविसेज्जा तत्थ देवी दव्यसाणोश्रो जत्थ अत्यति तं गवंतेपुर। अपत्तजोव्वणाणं रायदु-| रायणं नपणति अंतेपुरपविघो रायदब्यो नि० चू० एन०। हियाणं संगो कमंतेपुरं । तं खेत्तो एक्ककं दुविधं सट्ठाणे परटाणे य । सट्ठाणथं रायघरे चेष परट्ठाणत्थं वसंतादिसु अंतेउरपरिवारसंपरिचुड-अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृत-त्रि० अन्तः उज्जाणियागयं । पुरं च परिवारश्च अन्तःपुरलकणो वा परिवारो यः सः । एते सामणतरं, रमो अंतेउरं तु जो पविसे । ताभ्यां तेन वा संपरिवृतः। अन्तःपुरलकणेन परिवारेण अ न्तःपुरेण परिवारेण वा संपरिवृते, ज्ञा०००। सो आणाअणवत्य, मिच्छत्तविराधणं पावे ।। १।। अंतेनरिया-प्रान्तःपुरिकी-स्त्री० अन्तःपुरे विद्या प्रान्तपुइमे दोषाः। रिकी। रोगितागुण्यकारके विद्यानेदे, यया आतुरस्य नाम गृदंगारक्खिगदावा-रिएहिं वरिसवक्खं चुइजेहिं । हीत्वा प्रात्मनोऽङ्गमपमार्जयति आतुरश्च प्रगुणो जायतेसाप्राजिंतेहि अनितेहि य, वाघातो होइ जिक्खुस्स ॥२०॥ न्तःपुरिकी व्य०७० । इमं वक्खाणं। अंतेवासि (न् ) अन्तेवासिन्-' अन्ते समीपे वस्तुंचारित्रदंडधरो दंगरक्खिो , दोवारिजा तु दारिद्वा । | क्रियायां वस्तुं शीलं स्वभावो यस्येस्यन्तेवास।। दशा०४ अग Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासि अभिधानराजेन्द्रः। अंतेवासि अन्ते गुरोः समीपे वस्तुं शीलमस्येत्यन्तवासी। शिष्ये, स्था०। | मणिप्रविसयसोक्खं जलबुब्बुअसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंबं० प्र० । जं। सूर। रा०। भ०। चलं जीवियं च णाकण अवमिणं रययमिव पडग्गाम्ग अन्तेवासिना नेदप्रतिपादनार्थमाह । संविधुणिताणं चश्त्ता हिरमं जाव पवा। अप्पेगआ चतारि अंतेवासी पनत्ता तंजहा नद्देमणंतेवासी नाम ए अफमासपरिाया अप्पेगश्या मासपरिपाया एवं दुमामा गे नोवायणंतेवासी, वायणंतेवासी नाम एगे नो उद्देसणं तिमासा जाव एक्कारस । अप्पेगश्या वासपरिमाया वातेवासी, एगे उद्देमणंतेवासी वि वायणंतेवासी वि, एगे नो स तिवामा अप्पेगश्या अणेगवासपरिाया संजमेणं तवसा उद्देसणंतेवासी वि नो वायणंतेवासी वि। अस्य सूत्रस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाह । अप्पाणं भावमाणा विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं ५मुच्चायरियं होइ, अंतेवासी न मेलणा । समणस भगवो महावीरस्स अंतेवासी बहवे णिग्गंया अंतिगममासमासन, समीवं चेव आहियं ॥ भगवंतो अप्पेगश्या आभिणिबोहियणाणी जाव केवलअधस्तनानन्तरसूत्रे आचार्याः प्रोक्ताः आचार्य च प्रतीत्यान्ते णाणी। अप्पेगइया मणबलिआ वयवलिया कायबलिया वासी भवति ततोऽन्तेवासिसुत्रमित्येषां मेलतः संबन्धः । अ-| अप्पेगइआ मणेणं सावाणुग्गहसमत्था ३ अप्पेगा खेत्रान्तेवासी तत्र योऽन्तशब्दस्तद्याख्यानार्थमेकाथिकान्याह ।। लोसहिपत्ता एवं जयोसहि विष्पोसहि आमोसहि सन्बासाह अन्तं नाम अन्तिकमभ्यास आसन्नं समीपं चाख्यानं तत्र वस- | अप्पेगइया कोहबुद्धी एवं वीअबुद्धी पमबुद्धी अप्पेगइया तीत्येवंशीलोऽन्तेवासी। संप्रति भवनावनार्थमाह । पयाणुमारी अप्पेगइआ संजिन्नसीपा अप्पेगइया खीराजह चेव उ आयरिया, अंतेवासीति होति एमेव । सवा अप्पेगइया महुवासवा अप्पेगइमा सप्पिासवा अअंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो हो । प्पेगइया अक्खीणमहाणसिश्रा एवं उज्जुमती अप्पेगश्श्रा यथा चैव प्राचार्या उद्देशनादिनेदतश्चतुर्दा जवन्ति एवमेव विउलमई विउविणितिपत्ता चारणा विजाहरा आगासाअन्तेवासिनोऽपि यस्मादाचार्यस्यान्ते वसति तस्माद्भवत्याचा- तिवाइणो। अप्पेगइया कणगावलि तवोकम्म पमिवला एवं यवच्चतुर्दान्तवासी । श्यमानावना यो यस्यान्ते उद्देशनमेवा एकावलि खुड्डाकसीहनिकीलियं तवोकम्म पडिवाना अप्पेधिकृत्य वसति वर्तते स तं प्रत्युद्देशनान्तवासी। यस्य त्वन्तेवाबनामेवाधिकृत्य वसति तस्य वाचनान्तेवासी । यश्चोद्देशनं वा गझ्या महालयं सीहानिकीलियं तवोकम्म पडिवला जद्दपचनां वाधिकृत्य यस्यान्ते वसति स तं प्रत्युत्नयान्तेवासी। य डिमं महाभद्दपमिमं सब्बतोनद्दपडिमं आयंबिलवकमाणं स्य स्वन्ते नोद्देशनं नापि वाचनामधिकृत्यान्त वसति किं तु ध- तवोकम्म पस्त्रिया माप्तिअंजिक्खुपडिमं एवं दोमासि अं र्मश्रवणमधिकृत्य स तं प्रत्युभयविकलो धर्मान्तवासी । उद्दे- पमिमं तिमासिधे पमिमं जाव सत्तमासिधे भिक्खुपमिम शनान्तवासी वाचनान्तेवासी वा । तत्र कश्चित्रिभिरपि प्रकारैः पमिवल्मा पढमं राइंदियं भिक्खुपडिमं पडिवमा जाव तचं समन्वितो भवति कश्चिद् द्वाभ्यां कश्चिदे कैकेन । व्य० १० उ०। चत्तारि अंतेवास। पलत्ता तंजहा पचावणंतेवासी को सत्तराईदियं भिक्खुपडिमं पमिवामा । अहोराशंदियं जिक्खुउवट्ठावणतेवासी, उवट्ठावणंतेवासी,णाममेगे णो पव्वावर्णते पढमं पमिवामा इकराइंदिअं भिक्खुपमिमं पडिवमा सत्तवासी, पचावणंतेवासी वि उवट्ठावणंतेवासी वि, एगे णो सत्तमिदं जिक्खुपडिमं अट्ठमिनं भिक्खुपमिमं एवणपन्चावणंतेवासी णो उचट्टावणंतेवासी॥ वमिअंजिक्खपमिमं दसदसमिधे निक्खुपडिमं खुड्डियअन्ते गुरोःसमीपे वस्तुंशीलमस्येत्यन्तेवासी शिष्यः। प्रया मोअपमिमं पविमा महद्वियं मोअपमिमं पमिवामा जबजनया दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः। मज्झं चंदपडिमं पमिवामा वज्जमऊ चंदपमिमं पमित्रला उपस्थापनान्तेवासी महाव्रतारोपणतः शिष्य इति चतुर्थभा- संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति औ०७३पत्र । कस्थः क इत्याह धर्मान्तेवासीति धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यो धर्मार्थितयोपसम्पन्नो वेत्यर्थः । स्था० ४ ठा। (मनोवलिकादीनामर्थः स्वस्वशब्द) वीरान्तेवासिनां वर्णकः । तेणं कानेणं तेलंसमएणं समणस्स भगवो महावीरस्स नेणं कालेणं तेणं मपएणं समणस्स जगवो महावीरस्स अंतेवासी बहवे थे। जगवंतो जातिसंपामा कुलसंपप्ठया अंतेवासी बहवे समणा भगवतो अप्पेगश्या नग्गपब्वश्आ बलसंपएणा रूपसंपएणा विणयसंपएणा णाणसंपण्णा भोगपवझ्या राइमणातकोरव्वखतिअपव्वया भमा दंसणसंपएणा चरित्तसंपएणा लज्जासंपमा लाघवसंपा जोहा सेणावपनत्थारो सेट्ठी इन्भे अमे बहवे एवमाइणो उ अंसीतेअंसी वच्चंसी जसंसी जिअकोहा जियमाणा नत्तमजातिकुलरूवविणयविमाणवाणझावमविक्कमपहाण - जिअमाया जिअनोभा जिअइंदिआ जिअणिहा जिअपसोजग्गतियुत्ता बहधणधणणिचयपरियाझफिमिया णर- रीसहा जीवित्रासमरणभयविप्पसुक्का वयप्पहाणा गुणवगुणाइइजिअभोगा मुहसंपलिया किंपागफलोवमं च | पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहपहाणा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतेवासि अभिधानराजेन्द्रः। अंतोजल निकृयप्पहाणा अज्जवप्पहाणा महवप्पहाणा लाघवप्प- (पदार्थमात्रबिन्यासिनी केति न विन्यस्ता) (तेसि गंज. गवंताणं पते णं बिहारणं विहारमाणा रणं इमेयारूपे अग्निंतरहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विजापहाणा मंतप्प ए बाहिरपतवोवहाणे होत्था तंजड़ा अम्भिंतरप चिहेबाडिरहाणा वेअप्पहाणा बंभपहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहा ए बिहे इत्यादितव आदिशन्देषु प्रदर्शयिष्यते । तेणं कालेणं णा सच्चप्पहाणा सोअप्पहाणा चारुवाला लज्जातवस्सी तेणं समपणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहये प्रणगारा जिइंदिा सोही अणियाणा अप्पमुआ अवहिलेस्सा जगवंतो अप्पेगाया पायारधरा इत्याधणगारशन्दे)। अप्पमिलेस्सा सुसामस्मरया दंता इणमेव णिग्गंथे पावयणं वीरान्तेवासिनः कति सेत्स्यन्तीति पृच्ग । पुरो काउं विहरति तेसि णं जगवंताणं आयवादी विदि तेणं कालेणं तेणं समएणं गहासकानो कप्पाओ महासता भवंति परवादी विदिता नवंति पायावाद जमइत्ता ग्गाओ विमाणाओ दो देवा महहिया जाव महाणुभागा लवणमिव मत्तमातंगा प्रच्छिद्दपसिएणवागरणं रयणकर समणस्म जगवओ महावीरस्म अतियं पानन्तया । तए मगसमाणा कुत्तिश्रावणा परवादिपरमहणा दुवा णं ते देवा समणं भगवं महावीरं मणमा चेव वंदति न. लसंगिणो सम्मत्तगणिपिंमगधरा सव्वक्खरममिवाश्णो मंसंति वंदंतित्ता नमसंतित्तामणमा चेव इमं एयारूवं वागरणं सब्वभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा| पुच्छति । करणं देवाणुप्पियाणं अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंइव अवितहं वा करेमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं नावे ति जाव अंतं करेहिंति ? तए णं समणे जगवं महावीरें माणा विहरति । तेणं कालेणं तेणं समएणं सम- तोह देवहि मणसा पुछे तास देवाणं मणमा चेव इम एणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे अणगारा यारूवं वागरणं वागरेश एवं खबु देवाणप्पिया ममं सत्त भगवंतो इरिआसमिश्रा भासासमिआ एसणासमिश्रा | अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करहिंति तए एणं श्रादाणममत्तनिक्खेवणासमिया उच्चरापासवणखेलसिं- ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेणं मणघाणजलपारिट्ठावणियासमिया मणगुत्ता वयगुत्ता कायगु- सा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरिया समाणा हन्तुट्ठ त्ता गुत्ति दिया गुत्तबंभयारा अममा अकिंचणा दिएणग्गन्था जाव हियया समणं जगवं महावीरं वदंति मंसंति मणलिएणमोत्रा निरुवलेवा कंसपातीव मुकतोया संख व सा चेव सुस्सूसमाणा मंसमाणा अजिमुहा जाव पज्जुनिरंगणा जीवो विव अप्पमिहयगती जच्चकणगं पिच जा- वासंति भ० ५ श० एन० । तरूवा प्रादरिसफलगा विव पगढभावा कुम्मो श्व गुत्ति- दापि टीका प्रसिद्धशब्दार्थमात्रविन्यसिनीति न गृहीता । दिया पुक्खरपत्तं व निरुवलेवा गगणमिव निरालंबणा | अन्तो-अन्तर-अव्य० मध्ये, दशा०२० "अंतो परिम्गदगंअणिलो व निरालया चंद इव सोमलसा सूर इव ते- | सि" प्राचा०२ श्रु० ६ अ० । स्था० । का० । प्रश्नाच० । सेसा सागरो इव गंभीरा विहग इन सबओ विप्पमका मंदर सूत्र० । “पवामेव मायीमायं कट्ट अंतो अंतोकिया" अन्तरइव अप्पकंपा सायरसलिलं व सुकहिया खग्गविसाणं न्तःक्रियया ध्मायन्ति इन्धनैर्दीप्यन्ते स्था०७०। व एगजाया नारंगपक्खी व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडी-अ अंतोअंत-अन्तोपान्त-पुं० सान्तमध्ये, "तुम ष णं संति यंवत्थं अंतोतेण पमिलेहिस्सामि" त्वदीयमेवाहं वनमन्तोरा वसनो इव जायत्थामा सीहो इव मुफारिसा वसुंधरा पान्तेन प्रत्युपेक्तितं गृहीयाम । अन्तःसहितमन्तोपान्तकरपमिश्व सम्बफासविसहा मुहुअहुप्रासणो इव तेअसा जझंता लेह्यादिग्रहणकरे, प्राचा०२ श्रु०१०।। नत्यि एं तेसि णं भगवंताणं कत्थ य पडियंधे । से अपडि-| अंतोकरण-अन्तःकरण-न० कृ-करणे-ल्युट । अन्तरज्यम्तबंधे चउबिहे परमत्ते तंजहा दन्चो खित्तो कालो रस्थं करणं कर्मधा० । तत्तिपदार्थानां सुखादीनां करणं भावनोदवो णं सचित्ताचित्तमीसएम दवेस, खेतो ज्ञानसाधनम् । ज्ञानसुखादिसाधने, अन्यन्तरे मनोबुलिचिगामे वा एगरे वा रमे वाखेत्ते वा खल्ने वा घरे वा अंगणे सादिपदाभिनप्यमाने इन्डिये, वाच । तच्चान्तःकरणं स्मृतिवा, कालओ समए वा आवलिआए वा जाव आयणे वा प्रमाणवृत्तिसंकल्पविकल्पावृत्त्याकारण चित्तबुझिमनोऽह ङ्कारशब्दैर्व्यवहृयते न० । अप्सत्तरे वा दीहकालसंजोगे, भावो कोहे वा माणे वा अंतोखरियत्ता-अन्तःखरिका-स्त्री. नगराभ्यन्तरवेश्यावे, मायाए वा लोहे वा भए वाहासे वा एवं तेसि णं नवइ तेणं विशिष्टवेश्यात्ये च । "दो वि रायगिहे णयरे अतोखरियत्ता. जगवंतो वामावासवजं अट्ठ गिम्हहेमंतिआणि मासाणि । एउववजिहित्ति" ० १५ २०१०। गामे एगराइआ णगरे पंचराश्या वासी चंदणसमाणकप्पा अंतोगिरिपरिरय-अन्तगिरिपरिरय-पुं० गिरेरन्तः परिपे, समनट्टकंचणा समसुहमुक्खा होगपरसोगअप्पमिवका | जी. ३ प्रति। संमारपारगामी कम्मणिग्घायणटाए अन्तुढिा वि-प्रान्तोजल-अन्तर्जल-न जलास्यन्तरे, “अन्तो जले वि एवं हरंति ।। औ० १०१. पत्र. । । गुज्झग कामाणिवते" १० १०॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतोगाय तोणाय अन्तर्नाद - त्रि० हृदये सदुःखमारटात, “छोउं मुदं हत्थेणं तोणायं गले रवं" श्राव० ४ श्र० । तोशियस अन्तर्निवसनी-०० आर्याणामधिकोपधिने दे, तत्स्वरूपम् ॥ " अंतोणियंसणी पुण, बीखतरा जाय श्रद्धजंघातो" । अन्तर्निवसनी पुनरुपरिकटिभागादारज्याधो ऽर्धजहैं। यावत् भवति सा च परिधानकाले लीनतरा परिधीयते मा नृदनावृता जनोपहास्येति" वृ० ३ उ० । नि० चू० । पं० यू० । प्रतोदहसील-अन्तर्दहनशील व हृदयस्य - ( १०४ ) अभिधान राजेन्द्रः | दाइके, "फुंफुया विव अंतोदहणसीलाओ " ( नाय्येः ) फुंफकः करीषाग्निस्तद्वत् अन्तर्दहनशीलाः पुरुषाणामन्तर्दुःखाग्निना ज्वालनत्वात् । उक्तं च " पुत्रश्च मुर्खो विधवा च कन्या, शठं च मित्रं चपलं कलत्रम् । विलासकालेऽपि दरिद्रता च विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति कायम " तं० ४६ पत्र. । तोड-अन्तर्दष्ट पु० सादिदोष तो नही बनायेन सीम्यत्वात् अभ्यन्तरदोषयुते व्रणमेदे, शठतया संवृताकारत्वाद् हृदयदुष्टे पुरुषनेदे च पुं० स्था० ४ ० । तोमन्तमभ्यन्तरधूमे, गुहादिनिरुद्धभूमे आम अंतोमज्झोव साणिय- अन्तर्मध्यावसानिक - पुं० लोकमध्याव सानिकाख्ये अभिनयभेदे, नाट्यकुशले ज्यो ऽयं विशेषतो वेदि तव्यः रा० । अंतोमुह - अन्तर्मुख-न० -न० अभ्यन्तरद्वारे, " अंतोमुहस्स असवी उभयमुहे तस्स बाहिर पिहए " वृ० १ उ० । अंतोदु अन्तर्मुहुर्भ 10 मुहर्त्तस्य परियणस्य का लविशेषस्यान्तर्मध्ये ऽन्तर्मुहूर्त्तम् । निपातनादेवात्र भन्तःशब्दस्य पूर्वनिपातः नं० । भिन्नमुहर्त्ते, श्राव०५ श्र० । अंतोलित - अन्तर्जित - त्रि अन्तमध्ये लिप्तमन्ततिम् । मध्ये ले - पेनोपदिग्धे, " घरिमंतोलितं " वृ० १ ० । अंतोन्तमध्ये वृतसंस्थानसंस्थिते, ते णं णरा अंतोषट्टा बर्हि चसरसा " बादल्यमङ्गीकृत्यान्तर्मध्ये वृत्ता सूत्र २ ० २ ० । अंतोत्ति - अन्तर्व्याप्ति - स्त्री० पकीकृत एवं विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तौ यथाऽनेकान्तात्मकं वस्तु सत्वस्य तथैवोपपतेः र० ६ पत्र । अंतोवाहिणी-अन्तर्वाहिनी - स्त्री०मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे प्रवहन्त्यामन्तरनद्याम, स्था० ३ ० " कुमुए विजय अरजा रायहाणी श्रंतावाहिणी नई " जं० ४ वक्ष० । संतोबीन अन्तविधम्-पुं०] अन्तर्विन रा०स०] | लो न्तरीत्यस्य काचित्कस्यानान्तस्यैत्यम् । विविश्वासे, "अंती वीसननिवेसिवाणं " प्रा० । तो सल्ल-अन्तःशल्य-त्रि० अन्तर्मध्ये शल्यं यस्य अदृश्यमानमित्यर्थः तत्तथा । बहिरनुपलक्ष्यमाणे वणभेदे, स्था०४ वा० अनुसतोमरादी भ० २०५० भन्थे मनसीत्यर्थः। शस्य मित्र शल्यम पराधपदं यस्य सोऽन्तः शल्यः । श्रनिमानादिभिरनालोचितातिचारे, स० ५१ पत्र. । तो समय-अन्तःशल्यसूतक -10 अनुद्धृतभावाज्येषु मध्यवर्त्तिलादिशामृतेषु श्र० २५६ पत्र । अंदोलग अंतोसनमरण - अन्तः शन्यमरण - न० अन्तःशल्यस्य व्यतो नुद्धृततोमरादेषतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तः शल्यमरणम् । वालमरणभेदे, न० २ ० १ उ० । स० । तत्स्वरूपम् लग्नाए गारवेण च, बहुस्सुयमयेण वाचि दुच्चरियं । जेल कहेंति गुरूणं, ण हु ते राहगा होंति । गारवयंक विमा अध्यारं जे परस्स ण कर्हति । दंसणणाणचरिते, ससल्लमरणं हवति तेसिं उत्त० नि० । तत्र लज्जया अनुचितानुष्ठानसंवरणात्मिकया गौरवेण च सातरि समीरचात्मकेन मा तम्ममालोचनामाचार्थमुपसर्पतइन्दनादिना तक्तपोवन सा जायसंभव इति बहुमदेन या तत्कथमस्य भूतोऽयं मम शस्यमुकरिष्यति कथं चाहमस्मै वन्दनादिकं दास्याम्यपचाजना ट्रायं ममेत्यभिमानेन अपि पूरणे थे गुरुकर्माणा न कथय न्ति नालोचयन्ति केषां गुरुणामालोचनार्हाणामाचार्यादीनां किं सरितं तुष्ठितमिति संबन्धः न हुने तेसरमुक् रूपाः श्राराधयनयविकलता निध्यादयन्ति सम्यग्दर्शनाद - नीत्याराधका भवन्ति । ततः किमित्याह । गौरवपङ्क श्व कायुष्यातमा इति प्रत्नम कोमलता अजामदार प्रागुपादाने यदिह गीरवस्यैयोपादानं तदस्वैवातिदुष्टताध्यापनार्थम् अतिचारमपरा परस्याचार्यदेर्न कथयति किं विषयमित्याह दर्शनान चारित्रेदमानचारिविषयं दर्शनविषयं शङ्खादिज्ञानविषयं काळामिमादियारिविषयम्। समित्यन्नुपादिशस्यमिय शल्यं कालान्तरेऽप्यनिष्टफल विधानं प्रत्यबन्ध्यतया सह तेनेति सशल्यं तच्च तन्मरणं च सशल्यमरणं तच्चान्तः शल्यमरणं भवति । तेषां गौरवमन्नामामिति गाथार्थः॥ अस्यैवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापयन् फलमाह । एतं ससलमरणं, मरिज्जण महाभए दुरंतम्मि | सुचिरं भमीत जाना, देही संसारकंतारे ॥ ८९० नि० एतदुक्तस्वरूपं सशल्यमरणं यथा भवति तथेत्युपस्कारः । सुध्यत्ययाद्वा एतेन सशल्यमरणेन मृत्वा त्यक्त्वा प्राणान् जीवा इति संबन्धः किं सुचिरं समन्ति बहुकाल पर्यटन्ति क संसारः कान्तारमिवातिगहनतया संसारकान्तारस्तस्मि - त्रिति संटङ्कः । कीदृशि महद्भयं यस्मिंस्तन्महाभयं तस्मिंस्तथा दुःखेनान्तः पर्यन्तो यस्य तदुरन्तं तस्मिन् तथा दीर्घे - नादी केषांचिदपर्यवसिते येति तत्सर्व्वथा परिहर्त्तव्यमेवेति भाव इति गाथार्थः । प्रव० १५७ द्वा० । 1 - अंत्री श्री० अन्य न० अपभ्रंशे स्वार्थिकप्रत्यये कृते । लिङ्गमतन्त्रम् ८|४|४५ । इति नपुंसकस्याऽपि स्त्रीत्वम् । उदरमघ्यावयवभेदे पाइविलग्गी अंडी " प्रा० । ८८ -अन्-अन्धले पयसेऽनेनेति अवि-कृ-याच० । निगडे, "चंदू सुपक्खिप्पविहन देहे " सूत्र० १ श्रु० ५ ० । अंदेडर अन्तःपुर १०ः४२६० इति शीरसेन्यां तकारस्य दकारः । राजखाणां गृहे, प्रा० । अंदोलग आन्दोलक - पु० यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमान्दोशयन्ति ते आन्दोलकाः । हिण्डोल इति लोकप्रसिद्धेषु, जी० ३ प्रति० । रा० । जं० । दोलनकर्त्तरि, त्रि० याच० । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) आंदोलण अनिधानराजेन्डः। अंधकार अंदोल ( ) - (प्रा)न्दोलन-न० वृक्षशाखादी खे- | तमश्चाक्षुषम् । रूपवरमाच्च स्पर्शवत्वमपि प्रतीयते । शैस्यस्पलने, घ०२ अधि०करणे-घ-हिण्डोल इति प्रसिद्ध आन्दो- । शंप्रत्ययजनकत्वात् । यानि त्वनिविमाययवत्वमप्रतिघातिन्थमबनयन्त्रे, सूत्र०१ श्रु०११ १०। यत्रान्दोलनेन दुर्गमतिलजयते नुद्भतस्पर्शविशेषत्वमप्रतीयमानस्वएमावविषयप्रविभागत्वतस्मिन् मार्गविशेष, सूत्र १ श्रु. ११०। मित्यादीनि तमसः पौलिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यअंध-अन्ध-त्रि० अन्ध-अच-नयनरहिते, द्वा०१२ द्वा षो।। स्तानि तानि प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिषेध्यानि स्य पञ्चा० । सूत्रः । स चान्धो द्विधा जात्यन्धः पश्चाद्वा हीनने सर्वान्यन्तरं मएमसमधिकृत्यान्धकारसंस्थितिं प्रतिघोऽपगतचतुःसूत्र १ श्रु० १२ १० । स चान्धो द्रव्यतो पिपादयिषुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ! भावतश्च । तत्रैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाः द्रव्यभावान्धाः ।च तता णं किंसंगिता अंधकारसंचिती आहिताति वदेजा। तुरिन्द्रियादयस्तु मिथ्यादृष्टयो नावान्धाः उक्नच “एकं हि ता उदीमुहकलंबुतापुप्फगठिता आहितेति बदेजा। अंचक्षुरमलं सहजो विवेक-स्तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम् । तोसंकुमा बाहिं वित्थडा तं चेव जाव ता सेणं दुवे वाहातो एतद् द्वयं भुविन यस्य स तत्वतोऽन्ध-स्तस्यापमार्गचलने खलु अणवद्वितातो भवंति तं सव्वम्भंतरिता चेव वाहा सन्चकोऽपराधः" सम्यग्दृष्टयस्तूपहतनयना द्रव्यान्धास्त एव सचक्षुषो न द्रव्यतो नापि भावतस्तदेवमन्धत्वं द्रव्यभावभेदभि बाहिरिता चेव वाहा । तीसे णं सव्वन्तरिता वाहा मंदरं ममेकान्तेन दुःखजननमधामोतीत्युक्तश्च "जीवशेष मृतोऽन्धो, पव्वयं तेणं कजोयणसहस्साई तिमि य चउच्चीसे जोयस्मात्सर्वक्रियासु परतन्त्रः । निस्यास्त मितदिनकर स्तमो- यएसतेज विदसजागे जोयणस्स परिक्खेनेणं । ता से एणं ग्धकाराणवनिमग्नः" "लोकद्रयव्यसनवहिविदीपिताश-मन्धं परिक्खेवविसेसो कतो आहितेति वदेजा। ता जे णं मंदसमीक्ष्य कृपणं परयएिनेयम् । को नोद्विजेत भयकृज्जननादिवोग्रात, कृष्णाहिनैकनिचितादिव चान्धगर्सात्"प्राचा० १ रस्स पन्चस्स परिक्खेवणं तं परिक्खेवं दोहिं गुणिता दश्रु० २०३ उ० । अन्ध इवान्धः । अज्ञाने, शानरहिते, “ए- सहिं छेत्ता दसहिं नागे हिरमाणे हिरमाणे एम पं परिएणं अंधा मूढा तमप्पविट्ठा" भ०७ श०७ उ० । “तिष्ठतो क्खेवविसेसे आहिताति वदेजा। ता से णं सबवाहिरिता ब्रजतो वापि, यस्य चक्षुर्न दूरगम । चतुष्पदा भुषं मुक्त्वा , वाहा लवणसमुई तेणं तेवहिं जोयणसहस्साई दोलि य परिवाडन्ध उच्यते" इत्युक्तलक्षणे परिव्राम्भेदे, वाचः । पणयाले जोयणसते उच्च दसजागे जोयणस्त परिक्खेवणं पुं० । अन्धयतीत्यन्धम् अन्ध-चु० प्रेरणे-णिन् अन् । अन्धकरणे, अन् वा अन्धकारे, तमसि, अशाने च । जले, न. ता से णं परिक्खेवविसेसो कतो आहितेति वदेज्जा । ता मेदि०। वाच। जेणं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवेण परिक्खेवं दोहिंगुअन्ध्र-पुं० अन्ध-रन्। देशदे, स च देशः जगन्नाथादूजा णित्ता दसहिं छेत्ता दसहिं जागे हिरमाणे हिरमाणे एस गादक श्रीभ्रमरात्मकात् तावदन्ध्राभिधो देश श्त्यक्तावाचा एं परिक्खेवविसेसे आहिताति तामेणं अंधकारे केवतितं तद्देशोत्पने जने च. व्य०७ उ०। सच म्लेच्छत्वेनोक्ता प्रका०१ पदः । प्र० । प्रव० । सूत्राबदेहेन कारावरस्य स्त्रियाम प्रायमेणं आहिताति० ता अट्टत्तरि जोयणसहस्साईतिमि स्पादिते अन्त्यजभेदे, व्याघ्रनेदे इति काश्यपःषाच०। य तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिनागंच आयामेणं आहितति अंधकंटइज्ज-अन्धकएटकीय-न० अन्धस्यावितर्कितकण्टको- घदेजातता ण उत्तमकटे उकासे अचारस मुहुत्तेदिवसे नवति पगमनरूपेऽतर्कितोपगमने, भाचा० १ भु०१०। जहणिया वालस मुहुत्ताराती भवति । ता जताणं सूरिए अंधकड-आन्ध्यकृत-त्रि० स्वरूपावलोकनशक्तिविकले, अष्ट सव्वबाहिरं मंगलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता उच्छीमुह२ अप० । अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदाभ्यन्" अष्टः । कलंबुता पुप्फसंठिया तावक्खत्तसंगिती अंतो संकुमा बाहिं अंधका (या)र-अन्धकार-पुं० न० अन्धं करोति कृ-श्रण उप० । वाच । कृष्णजूतेष्वादिनवे, अरुणभवसमुखोजवत. वित्थमा जाव सम्बन्भंतरिया चेव वाहा सव्वबाहिरिता मस्काये च. तं० ४६ पत्र. । बहुमतमोनिकुरम्बे, अनु० । चेव वाहा । ता से णं सम्बन्जंतरिता वाहा मंदरपवतेणं स्था। ज्ञा० । तच तेजोद्रव्यसामान्यानावरूपमिति नैयायिकाः उ जोयणसहस्साई तिमि य चनव्वीसे जोयणसते कच्च वाचा "कासं मलं तं पिय वियाण तं अंधयारं ति" इस्युक्त- दसजागे जोयणस्स एवं जंपमाणं अनंतरमंडले अंधकासवणः पुलपरिणाम इति समयविदः सूत्र०१७० १० रसंविते तं इमाए वि तावखेत संचिती तव्वा । बाहिरअन्यत्रापि “सबंधयारतज्जोभो,पहागयातवेश्या । धन्नगंधरसाफासा पोग्गलाणं तु लक्षणं" उत्त०२०। नच तमसः मंमले आयामो सव्वत्थ वि एको तया णं किंसंविता पोलिकत्वमसिर्फ चाकुषत्वान्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत् । अंधकरसंठिती आहिताति वदेजा । ता नसीमुहकलंबुता अथ यच्चानुषं तत् सर्व प्रतिनासे आलोकमपेक्वते नचैवं पुप्फसंविता अंधकारसंचिती आहिताति वदेज्जा। अंतो समस्तत्कथं चाक्षुषं मैवम उकादीनामालोकमन्तरेणापि तत्प्र संकुमा बाहिं वित्थमा तं चेव जाव सम्वन्तरिता वाहा तिनासात् । यैस्त्वस्मदादिनिरन्यच्चानुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते तैरपि तिमिरमासोकयिष्यते विचित्रत्वाद्भा सव्यबाहिरिता आहिता चेव वाहा । ता सेणं सचम्भंतघानां कथमम्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या आलोका रिता वाहा मंदरपन्चयं तेणं एव जोयणसहस्साइं चत्तारि पेकदर्शनाः प्रदीपच मादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेका शति सिद्धं य उलसीते जोयणसते व दसभागे एवं जपमाणे अन्नं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) अंधकार अभिधानराजेन्फः । अंधकार तरमंमाठिए सूरिए तावखत्तसंगितीए तं चेव णेयवं संस्थितेः सर्वाज्यस्तराया वाहाया विष्कम्नपरिमाणम् । अधुना जाव प्रातामो ता जता णं उत्तमउक्कोसा अट्ठारसमुहुत्ता सर्वबाह्याया वाहाया आह । “ तासणं इत्यादि" तस्या अन्ध कारसंस्थितेः सर्वचाह्या वाहा लवणसमुशान्ते सवणसमुष्राती नवति जहमए दुवालसमहुत्ते दिवसे भवति । समीपे जम्बूद्वीपपर्यन्ते सा च परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरिरयपतदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले (किं संठिअत्ति) कि रिकेपेणाख्याता त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वेशते पञ्चचत्वारिंशसंस्थितं संस्थानं यस्याः । यद्वा कस्येव संस्थानं संस्थिति घोजनशते पर दशभागायोजनस्य यावत् (६३२४५)(६) पत. र्यस्याः सा किंसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्यातेति वदेत्। देव स्पष्टं स्वशिष्यानयबोधयितुं भगवान् गौतमः पृच्छति "ता. भगवानाह “ता इत्यादि" ता इति पूर्ववत् कीकृतकल- सेणं इत्यादि" ता इति पूर्ववत तस्या अन्धकारसंस्थितेः स म्युका पुष्फसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिराख्यातेति षदेत् । । पतावान् परिकेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिकेपेण (१०) सा चान्तमरुदिशि विष्कम्भमधिकृत्य (संकुडा ) संकुचिता विशेषः कृतः कस्मात्कारणादाख्यातो नानाधिको वति वदेत् भगबहिर्लवणदिशि विस्तृता । तथा अन्तर्मेरोर्दिशि वृत्ता ऊर्दै | वान् बर्द्धमानस्वामी आह "ता जे णं इत्यादि " ता इति पूर्ववलयाकारा सर्वतो वृत्ता मेरुगतौ द्वौ देशभागी व्याप्य तस्या- बत् यो णमिति वाक्यालङ्कारे जम्मूठीपस्य परिकेपः प्रागुक्तवस्थितत्वात् । बहिर्लवणदिशि पृथुला विस्तीर्मा पतदेव प्रमाणस्तं परिक्वेपं द्वाज्यां गुणयित्वा दशनिश्छित्वा दशभिर्विसंस्थानकथनेन स्पष्टयति “अंतो अंकमुहसंठिा बाहिं स. भज्य अत्र च करणं प्रागेवोक्तं दशभिर्नाग हियमाणे यथोक्तस्थिमुहसंठिा" अनयोः पदयोर्व्याख्यान प्राग्वत् वेदितव्यम्। मन्धकारसंस्थितेर्जम्बूद्वीपपरिरयपरिकेपणमागच्चति । तथाहि "उभोपासणमित्यादि" तस्या अन्धकारसंस्थितेस्तापक्षेत्र- जम्बूद्वीपस्य परिक्षेपपरिमाणं त्रीणि सकाणि पोशशसहस्रासंस्थितेविष्यवशाद् द्विधा व्यवस्थिताया मेरुपर्वतस्योभय- णि वे शते अष्टाविंशत्यधिके (३१६२२०) तद् द्वाच्या गुण्यते पार्श्वेन उभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमेकैकभावेन ये जम्बद्धीपगते जातानि पर लक्काणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि चत्वारि शतानि पट्वाहे ते पायामेन आयामप्रमाणमधिकृत्त्यावस्थिते भवतस्त- पञ्चाशदधिकानि (६३२४५६ ) तेषां दशभिन्नागे हते लब्धापथा पञ्चचत्वारिंशत् योजनसहस्राणि (४५०००)द्वे च वाहे नि त्रिषष्टियोजनसहस्राणि द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके षट् विष्कम्भमधिकृत्य एकैकस्या अन्धकारसंस्थितेर्भवतस्तद्यथा च दशभागा योजनस्य (६३२४५) (६) तत एव एतावाननन्तसर्वाभ्यन्तरा सर्वबाहा च एतयोश्च व्याख्यानं प्रागिव द्र रोदितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्षेपविशेषो जम्बूद्वीपपव्यम् । ततः सर्वाभ्यन्तराया वाहाया विष्कम्भमधिकृत्य प्रमा (ररयपरिकेपेण विशेष श्राख्यात इति वदेत् । तदेवमुक्कं सयामभिाधित्सुराह (तासेणमित्यादि )तस्या अन्धकारसंस्थितेः बाह्याया अपि वाहाया विष्कम्भपरिमाणम् । “सम्प्रसर्वाभ्यन्तरवाहा मन्दरपर्वतान्ते मन्दरपर्वतसमीपे सा च | ति सामस्स्येनान्धकारस्थितेरायामप्रमाणमाह " | " तासेणं षयोजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि | इत्यादि" । इदं चायामपरिमाणं तापक्षेत्रसंस्थितिगतायाम(६३२४ ) पर दश भागा योजनस्य (६) यावत् परिक्षेपे परिमाणवद्भावनीयं समानन्नावनिकत्वात् । अत्रैव सर्वाभ्यन्तगाख्याता इति वदेत् । अमुमेवार्थ स्पष्टावबोधनार्थ पृच्छति रे मामले वर्तमानयोः सूर्ययोर्दिवसरात्रिमुहूर्तप्रमाणमाह । (ता सेणं इत्यादि) ता इति पूर्ववत् तस्या अन्धकारसंस्थि- "तया णं इत्यादि" सुगम सर्वाभ्यन्तरे मएमले तापक्षेत्रसंस्थितेर्यथोकः परिसाणपरिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपेण | तिमन्धकारसंस्थितिं चाभिधाय सम्प्रति सर्वबाह्यमण्डले तामविशेषः कृतः । कस्मात्कारणादाख्यातो नोनाधिको वेति भग- भिधित्सुराह " ता जया णमित्यादि" ता इति पुर्ववदेव यदा वान् वदेत् एवं प्रश्भे कृते भगवानाह । ता इति प्राग्वत् । यो सूर्यः सर्वबाह्यमकलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा किंसंस्थिता क्यालङ्कारे मन्दरपर्वतस्य परिक्षेपः प्रागुतप्रमाणः | तापक्केत्रसंस्थितिराख्यातेति भगवान्धदेत् । भगवानाह । “ता तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुणयित्वा कस्माद् द्वाभ्यां गुणनमिति नदीमुदत्यादि" पूर्ववद्याख्येया "ता सेणं त्यादि" तस्याश्च चेदुच्यते इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चारं चरतोः सूर्य तापक्केत्रसस्थितेः सर्वान्यन्तरवाहाऽभ्यन्तरमेरुसमीपे सा च योरेकस्यापि सूर्यस्य जम्बूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र परिक्केपेण मन्दरपरिरयपरिक्षेपणेन षरयोजनसहस्राणि त्रीण तत्र प्रदेशे तत्तचक्रवालक्षेत्रानुसारेण दश भागात्रयः प्र- शतानि चतुर्विशत्यधिकानि ( ६३२४ ) षट् च दशभागा काइया भवन्ति । अपरस्यापि सूर्यस्य त्रयः प्रकाश्या योजनस्य (६) श्राख्यातानि मयेति वदेत स्वशिध्येभ्यः । दश भागास्तत उभयमीलने परदश भागा भवन्ति तेषां "एवं इत्यादि" एवमुक्ते सति कारणे यदज्यन्तरमएमसगतसूर्ये-- त्रयाणां दशानां भागानामपान्तराने द्वौ द्वौ दशनागौ रजनो ऽन्धकारसंस्थितेः प्रमाणमुक्तं तद्वाह्ये बाह्यमएमलगते सूर्येऽस्या ततो द्वाज्यां गुणनं ती च दशनागाविति दशभिर्मागहरणं द- अपि तापक्षेत्रसस्थितेः परिमाण जाणतव्यम् । सञ्चवम "ता स शभिनागहरणे यथोक्तं मन्दरस्य समीपे अन्धकारसंस्थिति- णं परिक्खवविसेसकतो आडिआत्ति । जेणं मंदरस्स पव्वयस्स परिमाणमागच्छति। तथाहि मेरुपर्वतपरिरयपरिमाणमेकत्रिंश- परिक्खेवे तं दोहिं भागेहिं हिरमाणे पस णं परिक्खेवविसेसे द्योजनसहस्राणि षट् शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि ( ३१६२३)। आहित्ति वएज्जा ता जेणं जम्बुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खवं एतानि धान्यां गुण्यन्ते जातानि त्रिषष्टिसहस्राणि शते प- दोहि गुणिता दसहि छित्ता दसहि भागोहिं हिरमाणे एस णं ट्चत्वारिंशदधिके (६३२४६) पतेषां च दशभिर्नागे ते ल- परिक्खेवविसेसे आदिबत्ति वएजा ता से णं तावक्खित्ते धानिषा योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिका- केवयं पायामेणं आहित्ति वएज्जा । तीतेसाई जोश्रणसहनि । पम्दश भागा योजनस्य (६३२४) (६) तत एष पताधान- स्साई तिन्नि अ तेतीसजोअणतिभागं चायामेण आहिआत्त नन्तरोहितप्रमाणोऽन्धकारसंस्थितेः परिक्वेपो मन्दरपरिरयपरि- वपज्जा" इदं सकलमपि सुगमं नवरं मन्दरपरिरयादेर्यद द्वाभ्यां केपेण विशेष आख्यात इति षदेत् । तदेवमुक्तमन्धकार- गुणनं तत्रेदं कारणम् श्ह सर्वमाले सएमखेचारं चरतोःसूर्ययो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंधकार अनिधानराजेन्द्रः । अंधगापिह अम्यूद्वीपगतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र वा प्रदेशे तच्चक्रवालके- कादयस्त्रीन्जियान्ता यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्या । एषां त्रानुसारेण द्वी द्वौ दशभागौ तापक्षेत्रम । पतञ्च प्रांगव नाधितं हिनामयुद्योतोऽन्धकारं चास्ति एफलानाम शुभत्वाद् इह चेयं ततो मन्दरपरिरयादि द्वाच्या गुण्यते गुणयित्वा च दशनि - भावना एतत्क्षेत्रे सत्यपि रविकरादिसंपर्क एषां चढ़रिन्द्रिया. गहरणं तथा सर्वबाह्ये मण्डले सूर्यस्य चारं चरतो हवणस- भावेन दृश्यवस्तुनो दर्शनानावात् । शुभपुलकार्याकरणेनाशुमुद्रमध्ये पञ्चयोजनसहस्राणि तापकेत्रं बर्द्धते ततरुयशीतियो- नाः पुद्गला उच्यन्ते ततश्चैष्णमन्धकार एवेति ( चरिंदियाणं जनसहस्राणि इत्यायुक्तम् । शेषाकरयोजना तु प्राग्वद्भावनीया सुजासुजपोग्गलत्ति) एपां हि चक्कुःसद्भावेन रविकरादिसद्भातदेवं सर्वबाह्य मएमले वर्तमाने सयें तापक्केत्रसंस्थितं परि- वे दृश्यार्थावबोधहेतुत्वात शुजाः पुद्गला रविकराद्यभावे त्वर्यामाणमभिधाय सम्प्रति तत्रैवान्धकारसंस्थितिपरिमाणमाह । वयोधाजनकत्वादशुभा इति न० ५ श० एन० (तयाण किं संठिा इत्यादि) तदा सर्वयार्थी मएमले चारचरण अधोलोकेऽन्यकारः। काले णमिति घाक्यालङ्कार किंसंस्थिताऽन्धकारसंस्थितिरा अहोलोगे णं चत्तारि अंधकारं करेंति तंजहा णग्गा क्यातेति वदत् । नगवानाह " तानसीमुहेत्यादि " सुगम परश्या पावाई कम्माई असुना पोग्गला ।। "ता सेणं इत्यादि" तस्या अन्धकारसंस्थितेः सर्वाच्यन्तरवाहा मन्दरपर्वतान्ते मन्दरपर्वतसमीपे । “ ताव जाव परिक्खेववि “अहेत्यादि" सुगम किन्तु अधोलोके उक्तलकणे चत्वारि सेसे आदि अत्ति वएजा ।ता से ण अंधकारे केवा पाया वस्तूनीति गम्यते नरका नरकावासा नैरायिका नारका पत कमेण श्राहि अत्ति वपज्जा ता तेसीई जोपणसहस्साई तिन्नि प्र ष्णरूपत्वादन्धकारं कुर्वन्ति पापानि कर्माणि कानावरणादीनि तेत्तीसए जोमणस्स जोत्रणतिभागं च पाहित्ति वएज्जा" मिथ्यात्वाझानसक्वणनावान्धकारित्वादन्धकारं कुब्बतीत्युच्यते। श्ह यन्मन्दरपरिरयादेखिनिर्गुणनं हरणं च शेषाकरयोजना तु | अथवाऽन्धकारस्वरूपेऽधानांके प्राणिनामुत्पादकत्वेन पापानां प्राग्वत्कर्तव्या। तदेवं सर्वबाह्येऽपिमएमले तापक्केत्रसंस्थितिः प. कर्मणामन्धकारकर्तृत्वमिति तथा अग्रभाः पुद्गलास्तमिस्रभावेरिमाणं चोक्तमधुना सर्वबाह्ये मएमले वर्तमानयोः सूर्ययो रा न परिणता इति। स्था०४गा तथा स्थानाङ्गे चतुर्भिः कारणों के विन्दिवसमुहूर्तपरिमाणमाह । (ता जया णं इत्यादि ) तदा सा उद्घोतो भवति तथा अन्धकारमपि अर्हन्निर्वाणे ऽहच्छ्रतधसर्वबाह्यमण्डलचारकाले उत्तमकाष्ठां प्राप्ता उत्कृष्टा उशादशमु- मानावे जाततेजस उच्छेदेऽपि तत्र यथाऽर्हतां निर्वाणे लोकाहर्चा गविवति जघन्यो द्वादशमुदत्तों दिनसः तदेवमुक्तं ताप- न्धकारं नवति तथा त्रयाणां नाशे समानमुत कश्चिद्विशेषो वेति केत्रसंस्थितिपरिमाणमन्धकारसंस्थितिपरिमाणं च । चं० प्र० प्रश्ने लोकानुनावादिवाईदादीनां चतुपामध्युच्छेद द्रव्यान्धकार ४ पाहु । सू० प्र०॥ समानम् अग्निविनाशे त्रयोच्छेदे भावान्धकारमधिकं स्यादिति नद्योतान्धकारौ दरामकक्रमेणाह । विशेषः स्यानाङ्गवृत्यनुसारेण ज्ञायत इति १६० श्येन०२ नखा। से गुणं भंते ! दिवा नज्जोए राअंधयारे ? हंता गो- (अर्हति निर्वाणं गच्छति धर्मे व्युच्चिद्यमाने पूर्वगते वा व्यच्छियमा ! जाव अंधयारे से केणढेणं ? गायमा ! दिवा सुभा धमाने लोकान्धकार इत्यर्हच्चन्द ) तमसि, स्था० ३० । अरु णभवसमुद्रोद्भवतमस्काय च० तं० । तमोरूपत्वात्तस्य ना। पोग्गला मुने पोग्गलपरिणामे रातिं असुना पांग्गना स्था०। अाद्यन् अन्धकारवति, त्रि० झा० १० । औ०। असुने पोग्गनपरिणामे । मे तेणटेणं नरइया णं जंत ! अंधका (या) रपक्ख-अन्धकारपद-पुं० कृष्णपके, सूर। किं नज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! नेरइयाणं नो उज्जोए कि ना उजाए। १३ पाहु०॥ अंधयारे से केणटेणं ? गोयमा ! नेरझ्याणं असभा पो- | अंधग-अंन्हिप-पुं० वृक्के, भ० १० २०४ उ० ॥ ग्गमा असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणद्वेग्णं असुरकुमाराणं अंधगवएिड-अंपिवहि-पुं० अव्हिपा वृत्तास्तेषां वहयस्तदाभंते ! किं उज्जोए अंधयारे ? गोयमा ! अमुरकुमाराणं | श्रयत्वेनेत्यन्हिपवह्वयः। वादरतेजस्कायेषु, ज०१७ श० ४ उ०। उज्जोए ना अंधयारे । से केपटेणं ? गोयमा! असुरकु- अन्धकवदि-अन्धका अप्रकाशकाः सुदमनामकर्मोदयाये माराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे से तेणडेणं वयस्ते अन्धकवयः। सूदमतेजस्कायेषु,। जाव एवं वुच्च जाव थणियाणं पुढवीकाझ्या जाव तेइंदिया | जीवइया णं भंते : चरा अंधगवएिहणो जीवा तावड्या जहा नेरइया । चरिंदियाणं भंते ! कि नजाए अंधयारे? परा अंधगवएिहणो जीवा? हंता! गोयमा! मावइया चरा गोयमा ! उजोए वि अंधयारे वि से केणढणं ? गायमा! अंधगवएिहणो जीवा तावक्ष्या परा अंधगवाएहणो जीवा चरिंदियाणं सुभामुभा पोग्गा सुभासुने पोग्गझपरि- सेवं ते ! भंतेत्ति। णामे से तेणद्वेणं एवं जाव मणुस्साणं वाणमंतरजाइसवे- तत्परिमाणाः (परत्ति) पराः प्रकृष्टाः स्थितितो दीर्घायुष माणिया जहा अमुरकमारा। इत्यर्थः इति प्रश्नः हन्तेत्याशुत्तरमिति । भ० १८ श०४ उ० । " से खूण मित्यादि " (दिवा सुहा पोम्पत्ति) दिवा दिवसे यदुवंशजनृपभेदे, “ वारवतीए एयरीए अंधगवरिह णाम भाः पुममा जवन्ति । किमुक्तं भवति शुभपुलपरिणामः स राया परिवसह महया हिमवंत वमो तस्स णं अंधगवचार्ककरसंपर्कात् (रतिति) रात्री (नेरहयाणं असुभा पोग्ग- रिहस्स रमो धारणी णाम देवी होत्था" अन्त० । अन्धका ससि) तरक्षेत्रस्य पुरुसशुनतानिमित्तजूतरविकरादिप्रकाश- बढेर्दश पुत्राः “समुद्दे१ सागरे २ गंभीरे ३ थिमिए ४कवस्तुवर्जितस्वात् । (असुरकुमाराणं सहा पोग्गलत्ति) तवा- | यले ५ कपिल्ले ६ अक्षोभे ७ पसेणई ८ विराहुई। पते मष अयादीनां मास्वरत्वात् ( पुढधिकाश्येत्यादि) पृथिदीकायि- । एतेषां प्रथमो गौतम इति दश-अन्त०१ वगे।"अहं व Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगवरह भोगरायस्स तं च सि अंधगवरिहणो"। त्वं च भवसि श्रन्धकवृनेः समुद्रविजयस्य सुत इति गम्यते " दश०२० | ग० त्र्यंधनम - अन्धतमस - न० अन्धकारे, तत्रान्धतमसस्तेजोरूपा ( १०८ ) अभिधानराजेन् न्तरस्य संक्रमे, "असूरियं नाम महाभितावं अंतमं दुप्पतरं महंत " सूत्र० १० ५ ० । ( अत्र प्राकृतत्वादन्धतम इति ) अंधतमस - अन्धतमम-न० श्रन्धं करोतीत्यन्धयति श्रन्धयतीत्यन्धं तच्च तमश्चेति श्रन्धतमसम् । समवान्धान्तमस इत्यप्रत्ययः । निविडान्धकारे, स्या० ६८ पत्र० । अंधतामिस्म-अन्धतामिस्र २० तमिस्रा तमस्सन्ततिः । तमितामिस्रम अन्य कर्म-स० । निविडान्धकारे, सापासिद्धे भयविशेषविषयके ऽभिनिवेशे, पु० स्या० ३६ पत्र । देहे नऐ अहुमेव नष्ट इत्यशाने च. वाच० । अंधपुर-अन्धपुर-१० नगरभेदे पत्र अन्धो राजाऽन्यम तः वृ० ४ पु० । धपुर-अम्पपुरुष-पुं जात्यन्धे यथा मृगापुचः वि०१० । धन- अन्ध-पुं० प्राकृते " विद्युत्पत्रपीतान्धालः ८ २७३इति स्वार्थे लः प्रा० । चतुर्द्वयहीने, वृ० ४ उ० । नि० चू० (अन्धरशन्तो व्यग्राहितशब्दे - सिक्खाशब्दे ऽप्यन्धदृष्टान्तः ) पारू रूपात सामिया देवी तदा रूपं हुड अंधारूवं पासर " विपा० १ श्र० । अधिया - अन्धिका - स्त्री० चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, उत्त० ३६ श्र० । प्रज्ञा० जी० । अंधि ( ) ल्लग - अन्ध-पुं० श्रन्ध एवान्धिल्लकः । जात्यन्धे, प्रश्न० आश्र० १ द्वा० । चक्षुर्विकले, पिं० प्रश्न० । अंधी-अन्ध-स्त्री० प्रदेशजखियाम्" 93 श्राव० ४ श्र० । लीला चलितं भूतले मुखे । श्रसज्य राज्यभारं स्वं, सुखं स्वपिति मन्मथः बम्ब-पुं० [पञ्चदशासुरनिकायान्तर्वर्तिपरमधार्मिकनि कायानां प्रथमे परमधार्मिके, यो देवो नारकानावरतले नीत्वा नित्यसायम्बध्यते ० ३ ० ० ते चाभिधाः परमधार्मिका चार वेदनां परस्परोदीडुःखं चोत्पादयन्ति तां दर्शयितुमाह । धार्मेति पहार्मेति य, इति विधंति तह णिसुंभंति । विरले, अंगा स्वतत्य शेरश्या ।। ७० ।। धार्मेतीत्यादि ” तत्राम्बाभिधानाः परनाधार्मिकाः स्वभव मान्नरकावासं गत्वा क्रीमया नारकान् श्रत्राणान् सारमेयानिव शूलादिप्रहारस्तुदस्तो पातित] प्रेरयन्ति स्थानात् स्था नान्तरं प्रापयन्तीत्यर्थः । तथा ( पहामेतित्ति ) स्वेच्छयेत तथा उतार्थ मयन्ति । तथाऽम्बरतने प्रक्षिप्य पुसि मुरादन तथा शूलादिना वियन्ति तथा मिस भंतिसि] कृकाटिकायां गृहीत्वा भूमौ पातयन्ति । अधोमुखमथोक्विप्याम्बरतले मुञ्चन्तं । त्येवमादिकया विडम्बनया तत्र नरकपृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्ति सूत्र० १० ५ अ० । आप भा० ०। (अंबरी) 66 अम्म १० मल-तके, रसभेदे पुं० [सद्धति भि० वाच० । ग्राम्ल - त्रि० तकादिसंस्कृते ० ३ ० प्र० श्राम्र - पुं० श्रम गत्यादिषु रन् दीर्घश्च । न्दस्वः संयोगे दी अंब स्य । १ ८४ इति सूत्रेण आदेईस्यत्वम् । प्रा० चूतवृकेादर्श (दोनशे कद न्तः खेत्तशब्दे ) तस्य फलम् अण् तस्य लुक् आम्रफले नपुं. अनु toryकाम्रग्रहणनिषेधो यथा । अह निक्खू इच्छेला अंजोत्तर वा सेज पुण जाणेज्जा सअं जात्र ससंताणं तहप्पगारं बं अफासुर्य जाव णां परिगाडेजा से जिक्लू वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुग्ण व जाणेज्जा अप्पर्क जाय संवाणगं अतिरिच्छचिणं अवोच्च फासूयं जाव णो पडिगाहेजा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संज्जं पुण वं जाणेज्जा अप्पमं जात्र संता तिरिच्य फायं जाव प गाजा । से जिक्खू वा निक्खुणी वा अभिकखेज्जा भगंवा अंत्रपेसिया बोय वा बसाल या बापा जोचर वा पाय वा से पुरा नागोला अंवत्तिगं जाव अंदाल वा समं जाव संतागं फासूयं जाव णो परिगाहेज्जा | से भिक्खू वा निक्खुणी वा सेनं पुण जाणेज्जा अंबजित वा अप्प जात्र संतान अतिरिच्या अफासुर्य जाव णां प मिगाहिज्जा | सेभिक्खूवा निक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणेजा अंमित्त वा अपं जान संतारामं तिरिष्यधिफासू जाय पभिगाजा ॥ से इत्यादि स भिक्षुः कदाचिदाम्रवनेऽवग्रहमीश्वरादिकं याचेत तत्रस्थश्च सति कारणे श्रमूं जोकुमिच्छेत्तश्चामं सामं ससन्तानकमप्रासुकमिति च मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति । किंच 'सेत्यादि' समित्पुनराम्रमापापमय सन्तानकं वा जानीयारिकत्वतिरीच्छिन्नं तिरची नमपादितं तथा व्यवच्छिन्नं न काकं न प्रतिगृहीयादिति । तथा "स्यादि" स भिक्रुरपाएक मल्प सन्तानकं तिरश्चीनच्छिन्नं तथा व्यवच्छिन्नं यावत्प्रासुकं कारणे सति गृह्णीयादिति । एवमात्रावयवसंबन्धिसुश्यमपि नेयमिति नवरम्। "अंवत्तियं""यपेस" (अंबोयरांति ) बीस (रसंडालगति ) श्राम्रशद मखराकानीति । श्राचा०२४०७ ०२३०॥ (सूत्रम् ) जे भिक्खू सचित्तं यं जुजइ त्र्यं भुजंतं वा साइज | ५ | जे जिक्खू सचित्तं अंब विडस विमसंतवा साइज्जइ । ६ । एवं सचित्तपरमिते वि दो सुन्ता । एते चउरो सुखा पतेोसें इमो त्यो। सचि नाम सजीव रसास्वाद ि णामं श्रयं जुज पालनाभ्यवहारयोः इह जोयणे दो प्राणादी चहुं च पच्चित्तं । एवं वितियसुत्तं पिणवरं विरसविवि पगारेद्दि मसति विरुस एवं पट्टिय वि परं मंगो सविते पट्टि पति सचितं अधि सचि आदि दोगे परमे दोस मास लहुं । इमो सुन्तफासो । सचिव, सचिनपटिद्वियं च दुवि तु । जो कुंजे बिम सो, दाअगाढं भोदि तो भवति । ३ । 1 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंब (१० ) अनिधानराजेन्धः। अंबगपेसिया भागाढफरुसमीसग, दममुद्देसम्मि बस्मियं पुव्वं । । एते सुत्तपदा विमसणाए वि छच्चेय एतेसिं इमो अथो अंचं तं चेव बजवत्यो, सो पावति प्राणमादीणि॥ ४॥ संकलं ण केणई ऊणं चोदगाह अदिवस चसु सुत्तसुण पसचित्तं सचित्ते पहियं वा एयं चेव ऽयिहं सेसं कं । संबसंकल्पं चेव भणियं । प्राचार्याह सम्बं किंतु ननं पलंय. अमिलातानिणवं वा, अपकं सचित्तहोति विसं वा।। सणेण पज्जत्तंबंधियं गहियं इमं तु पलंवत्तणं अपजनं अथक हियं अविपकरं सम्यादमकलमवत्यर्थः । प्रेमीदीहागाग अद्धतं चिय मयं मिनातं, रुक्खगयं सचेयणपतिहं ।।५।। भितं बाहिरा छ। साझं जमा । अदाहं वि समचालियागाज अभिणवं रिमं अभियाण तं सचित्तं जयति । जं च रुक्खे रेण जे खमंतं गलं भापति एहरूणिभागारा जे केसरात चोयं चेव द्वितं अच्छिमं वरुध्यिं अवद्धट्टियं वा अपक्कं वा तं पि भम्मति । इमो सुनफासो । गाहा। सचित्तं तं चिय तदेव अंवादियं पलंवरुक्खे चेव यि दुव्वा एसेव गमोनिदा-मंगलेसोनयमिमपं चोए। यमादिणा अप्पणा वा अप्पज्जति भावं मिलणं ते सेवयणपतिहिय भमति । चउसु वि मुत्तेसु भवे, पुन्चे अवरम्भि य पदे न ||| अहवा जं बद्धपियं, बाहिर पक्कं तं विय णपतिटुं। अंबगं पेसिवज्जा चउसु सुत्तेसुत्ति सेसं कं । प्रहबा श्राविविह दमणेय जंवा, अखंदति विडसणे होति ॥६॥ दिलेसु चनसु सुत्तेसु जो गमो भणितो सो चेव गमो अंबगाजं वा पलं बाहिरं काहपक्कं अंतो सचेयणं वीयं तं वा स. दिपसु छसु पदेसु सविमसणसु भाणियव्यो । चोदगाह णणु पढमसुत्तेसु जणिती चव अत्था कि पुणा अंबगादियाणं गहवित्तपतिहियं भमति । अपतीतव्वं अनपतीयव्वं च गुमेन वा णं। आचार्य आह । गाहा॥ सह कप्तरेण वा सह तथान्येन वा लवणचातुर्जातकवासा एवं नाव आभिमे, अस्सेव पुणो इमो भेदो। दिना सह एसा विविहदसणा अक्खुंद इति चक्खि मुंचति अन्योन्यं णहेहि बा अदति नखपदावि ददातीत्यर्थः पसावा मंगलंतु होइ खंडं, सालं पुण बाहिरा नही ॥ १० ॥ विमसणा भन्मति । एवं परिते भणियं अणंते वि एवं च नवरं एवं ताव आदिवसु चमु सुत्तेसु अजिणाणम्गहणं । अहवा चउगुरुपच्छित्तं । सचित्ते सचित्तं पतिहिते य दोसु वि सुत्तेसु श्रादिसुत्तेसु अविसिहं गणं श्ह विसि गहणं कयं । अहश्मो अववातो गाहा । वा मा का वि तिहिनि अनिम्मभक्खणिज्जं भिन्नं अभक्खवितियपदमणप्पन्भे, मुंजे अविकोविए य अप्पन्ना। णिज्जं भिमं पुण नक्खंतण अंबगपेसिमादिगायिणि सिऊ ति । मगलंतु पच्छकं । गाहा। माणं ते वावि पुणो गिलाण अचाणोमेव ॥७|| नित्तं तु होइ अर्क, चोयं जे तस्स केसरा होति । खेत्तादिगो अणप्पम्भो वा नुंजति सेहो वा अविकोवियतराम्रो अजाणतो रोगोवसमणिमित्तं वेज्जं वा दसतो गिलाणो वा मुहपएहकरं हारि, तेण तु अंमेकयं सुत्तं ॥ हुंजे अकाणोमेसु वा असंथरंता मुंजंता विसुझा इमो दोसुवि पुव्यकं कंठ चादगाहा कि अणमाश्रो संपादिया फलानविडवमाणसुत्ते अववातो गाहा। क्खा जण अंबं चेय णिसिमति। प्राचार्य आह । एगगहणागहणं वितियपदमणप्पन्ने, विडसे अवितेव अप्पन्ने। तज्जातीयाणंति सब्वे संगहिया! अंबं पुण सुहपएट पच्चर्क जाणंतेयावि पुणो, गिलाण अद्धाणोमेव ।।८।। अंबेण सुहं पल्हाति पस्पंदते इत्यर्थः। किच हारितं जिह्वन्धिय प्रीतिकारकमित्यर्थः । अनेन कारणेन अंबे सूत्रप्रतिबन्धः कृकंठणवरं चोदगाह-विमसणा बीला तं अरवाते माकरेउ। तः । अन्याचाऱ्यांभिप्रायेण गाथा। प्राचार्य आह । जरटवाहिरकमाहं तं श्रवण खायंतस्स अवयादो ण दोसो। जश् वा पलंबस्स जो उवकार) बवणादिके अंवे केणतिऊणं, मगलचं भित्तगं चनभागो।। तेण सह तं लुजंतस्स ण दोसो। कोमलं जरटं वा इमंति परि चोयणतया नजम्पति, सगलं पुण अक्खयं जाण॥१२॥ पाहे णहमादीहि वि अखुद्देजा। थोवेण ऊणं अंबं भापति मगवं अद्धं भमति भिन्नं चतु(मूत्तम् ) जे भिक्खू सचित्तं अंबं वा अंबपेसियं वा भागादितया चोयण भापति नरकादिभिक्खूण सासं जम्मति । अंबभित्तिं वा अंबसालगं वा अंबचोयगं वायूँजइ लूंजतं अक्बुं अंबसालमित्यर्थः पेसी पूर्ववत् । सञ्चित्तं च फलेटिं, अग्गपदंवा तु सुत्तिता सव्ने । वा साइज्जइ ।।७।। जे निक्खू सचित्तं अंचं वा अंवपे अन्गपवेहि पुणो, मृझं चेव कया सुया य ॥ १३ ॥ सियं वा अंबभित्तिं का अंबसालगं वा अंकमालगं वा अं नि० चू० १५न । वचोयगं वा विमसइ विडसंतं वा साजा ॥॥ जे भिक्खू | अंबक-अम्बक-न० अम्बति शीघ्रं नकत्रस्थानपर्यन्तं गच्च. सचित्तपट्टियं अंबं तुंजइ भुंजतं वा साइज्ज ॥ा जे ति अम्ब गवुन १ मेत्रे, अमन्यते स्नेहेनोपशम्यते घ स्वार्थ भिक्ख सचित्तपइट्टियं अंबं विमसइ विसंतं वा साइज्ज साइज्ज | क-२पितरि, वाचा ॥१०॥ जे निक्ख सचित्तपइट्टियं अंवं वा अंबपेसियं वा अम्लक०० अल्पोम्लः अल्पार्थे कन् बकुचवृत्त वाच । अंबसालगं वा अंबमानगं वा अंबचोयगं वा नजानुंजतं | आम्रक-न० चूतफले, पिं०। वा साइज्जइ ॥१२॥ जे भिक्खू सचित्तपइडियंअंबं या अंध-अवगडिया-आम्रकास्थि--नाम्रकस्य फलविशेषस्यास्थानि पेसियं वा अंवनितिं वा अंबमालगं वा अंबडालगं वा श्रातप दत्तेषु शुष्काम्रफलास्थिषु, अनु । अंबचोयगं वा विमसेइ विडसंतं वा साइज्जइ ॥१२॥ | अवगपेसिया-आम्रकपाशका अंवगपेसिया-आम्रकशिका-स्त्री० आम्रफलखएमे, अनु० । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) निधान राजेन्द्रः | बचोयग बोयम-न० आम्रत्वच स्त्री० श्राम्रच्छयाम, श्राचा० २ श्र० ७ अ० २ उ० । अंबड-अम्बष्ठ पुं० अम्बाय चिकित्सकत्वाय तत्प्रख्यापनार्थ तिष्ठते अभिप्रैति स्था. क. पत्थम् । चिकित्सके, वाच० । ब्राह्मणेन वैश्यायां जातेऽवान्तरजातीये, सूत्र० १ ० ॥ श्र० । श्राचार। श्रयं जात्याऽऽय्र्यत्वेनेज्यजातित्वेन चोपदर्शितः स्था० ६ ० । प्रज्ञा० | देशभेदे, हस्तिपके, च। यूथिकायाम् स्त्री० स्वार्थे कन् अत इत्वे अम्बष्टिकाऽप्यत्र " वामनहामी " इति ख्यातायां लतायाम्, वाच० । अंब (म्म ) म - अम्ब (म्म ) ड - पुं० ब्राह्मणपरिव्राजकभेदे औ० । तद्वरूयता चैवम् । श्रम्वमशिष्याणामनशनेन मृत्वा देवलोके उपपातः । ते काणं ते समएणं अम्मरस्स परिव्वायगस्त सत्त तेवासिसयाई गिम्हका समयंसि जेट्ठामूलं मासंसि गंगाए महानईए उनकूले कंपिलपुरातो गराम्रो पुरिमतालं गर संपछि विहाराए । तरणं तेसिं परिव्वायगाणं ती अगामियाए जिष्णोवायाए दीहमाए श्रमवीए किंचिदेसंतरमणुपत्ताणं से पुव्त्रगहिए उदए अणुपुत्रेणं परिजमाझी तर ते परिव्वाया जीणोदका समाणा तरहाए परिजत्रमाणा परिपरिनदगदातारमपस्समाणा अममां सद्दात्रेति मां सद्दावित्ता एवं वयासी एवं खबु देवापिया म्ह इमीसे गामित्र्याए जाव अडवी एगंवि संतरमणुपत्ता से उदए जावज्जीणे तं सेयं खलु देवापिया म्ह इमी अगामियाए जा अडवीउदगदातारस्स सव्व समता मग्गणं गवेसणं करिता कमसतिए एअमहं परिसुति परिसुतित्ता तीसे अगामियाए जाव अमवीए लदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गगवेसणं करेइ करिता उदगदातारमलभमाणा दोच्चं पि मां सद्दावेइ सदावेइत्ता एवं वयासी देवापिया उद्गदातारो णत्थि । तं णो खलु कप्पइ म्ह दिसां गित्तए अदिष्यं सति जित्तए तं माणं म्हे दाणि आत्र का पि यदि गिएहामो प्रदिष्ां सादिज्जामो माणं म्हं तवलोवे जविस्स । तं सेयं खलु अहं देवाप्पिया तिमयं कुंडियाओ य कंचणि याओ य करोमियाओ य जिसियाओ य उमालए अकुंए म केसरीयाओ य पावेत्तए य गणेत्तिया उत्तय वीणाओ पाउयाओ अ घानरत्ताओ य एते परित्ता गंगामहागाई ओगाहित्ता वालुप्रसंयारए संथरिता संज्ञेहणाज्झायोसियाणं भत्तपाणयाइपञ्चक्खित्ताएं पाइओवगयाणं कालं अणव कखमाणाणं विहरित्तए तिकट्टु अलमणस्स अंतिए एम परिसुति समस्त अंतिए पमिमुणिता तिदंडए य जाव एगंते For Private अंबड पइ पत्ता गंगामहाणई प्रोगाहेइ ओगाहेइत्ता बेलुचासंथारए संघरंति वा@या संचारयं दुरुर्हिति वा दुरुर्हिति सा पुरत्या निमुहा संपलियंकनिसन्ना करयय जाव कट्टु एवं वयासी णमोत्थुरां अरहंताणं जात्र संपत्ताणं नमोत्थूणं समस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविजकामस्स नमोत्थुणं बस्स परिव्वायगस्स अहं धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स पुत्रेणं हे अम्ममस्त परिव्वायमस्स अंतिएथूलगपाणावाए पञ्चकखाए जावज्जीवाए मूसावा दादा पच्चक्खाए जावज्जीवाए सब्बे मेहुणे पच्चकखाए जावज्जीवाए धूलए परिग्गहे पच्चवखाए जावज्जीवाए । इदाणिं अम्हे समणस्स भगवत्र्य महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए एवं जाव सव्वं परिग्गहहं पच्चकखामो जावज्जीवाए सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं कलहं भक्खाणं पेसु परपरिवार्य रइरइमायामोसं मिच्छादंसणस अकरखिज्जं जोगपच्चक्खामो जावज्जीवाए सव्वं असणं पाण खाइमं साइमं चव्विपि श्राहारं पञ्चकखामो जावज्जीवाए पिय इमं सरीरं इहं तं पियं मां मणामं थेज्जं वेसासिंसंमतं बहुमतं मतं भंगकरंडकसमारणं माणं सीयं माणं उहं माणं खुहा माणं पिवासा माणं वाला माणं चोरा माणं दंसा माणं मसगा मारणं वातियं पित्तियं संनिवाइयं विवहा रोगातंकापरीसहोवसग्गा फुसं तु तिकट्टु एतं पिणं चरमेहिं ऊसासणीसासेहिं वो सिरामि तिकट्टु संलेहणा झूसहा झूसिया जत्तपाणा परियाइक्खिया पाचवगया कालं प्रणवखमाणा विहरंति तए एां ते परिव्वाया बहु भत्ता असणए बेतित्ति बेतित्ता आलोश्यपरिक्कतो समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उमा तेहिं तेमिं गई दससागरोबमाई डिई पत्ता प लोगस्स आहगा सेसं तं चैव १३ ॥ ० ॥ एते च यद्यपि देशविरतिमन्तस्तथापि परिव्राजक क्रियया प्रह्मलोकं गता इत्यवसेयमन्यथैतङ्कणनं वृथैव स्याद्देशविरतिफलं त्वेषां परलोकाराधकत्वमेवेति न त्र ग्रह्मलोकगमनं परिवाजकक्रियाफलमेषामेवोच्यते श्रन्येषामपि मिथ्यादृशां कपिलप्रभृतीनां तस्योत्वादिति । श्रौ० । प्र० । अम्बकस्य व्रतग्रहणम् । बहुजणं भंते ! अष्ममष्पस्स एवमाइक्रांति एवं जास एवं परूवे एवं खलु यंत्र के परिव्वायाए कंपिल्लपुरे णयरे घरासते श्राहारमाहारेति घरसतेत्रसहिन ते तीसे कहमेयं भंते! एवं गोयमा ! जहां से बहू जणो मममस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परूवेति एवं खलु त्र्यंबडे परिव्वाए कंपिनपुरे जाव घरसते वसहि उवेइ सव्वेणं समट्ठे श्रहं पिणं गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि एवं खलु अंबमे परिवाया जात्र वसहिं जब से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) अभिधानराजेन्द्रः । अंबड बडे परिव्वाया जान वसहिँ उनेइ गोयमा ! अम्ममस्स एां परिव्वायगस्स पगइजदयाए जाब विणीयाए बहुं बट्टेणं प्रतिक्खित्ते तवोकम्मेणं उ बाहाओ पगिन्निय २ सूराजिमुहस्त यातावणभूमीए श्रातावेमाणस्स सुभेणं परि मेणं सत्थेदि साहिं विसुन्नमाणीहिं अनया कयाइ तदावर णिज्जाणं कम्माणं जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहाथमग्गणगवेसण करेमाणस्स व रियलब्धी ए वेडन्नियल - ओहिणाबद्ध समुप्पच्छा । तए ां से अम्म के परिवायए ताए वीरियलडीए वेडव्वियलदीए ओहिणाणल समुपाए । विम्हावणदेउं कंपिलपुरे घरसते जाव सहि उबे से तेणं गोयमा ! एवं बुच्चई बने परिब्वाrए कंपिलपुरे नगरे घरसए जात्र बसहिं जवेंते । पभूणं जंते ! अंबडे परिव्वायए देवाप्पियाणं अंतिए मुंगे नवित्ता आगाराओ अलगारियं पव्त्रइतर पोतिण्डे समट्ठे गोमा ! अम्मणं परिव्वायर समोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव अप्पा जावेमाणे विहरति वरं ऊसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंते पुरघरदारपवेसीणवं ण बुच्चति अम्ममस्सणं परिव्वायगस्स धूलए पाणातिवाते पञ्चक्रखाते जावज्जीवाए जात्र परिग्गहे वरं सब्बे मेहुणे पच्चक्खाते जावज्जीवाए अम्मडस्स णं णो कप्पड़ अक्खसोतप्यमाणमेतं पि जलं सग्रएदं उत्तएहं उत्तरित्तए । मत्थ प्राणगमणेां श्रम्ममस्सणं णो कप्पर सगमं एवं चैव जाणियव्वं । जाव गछत्य एगा एगं गामट्टियाए बसणं परिव्वायगस्स णो कप्पर आदाकम्मिए वा उद्देसिएका सीसजापति वा अज्जो अरएइ वा पूइकम्मे वा atrina वा पामिचे वा णिणिसिन्दे वा अभिह मेइ वा इत्तर वा रइत्तए वा कंतारन तेइ वा दुब्भिक्खन तेइ वा पाहुणकन तेड़ वा गिलाएर वा बदलियाभत्ते वा नोत्तर वा पाइत्तए वा त्र्यंबकस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्पर मूलजोयणे वा जात्र बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा अंबस्स एणं परिव्वायगस्स चन्त्रिहे - णत्थादंडे पञ्चकखाए जावज्जीवाए तंजहा अवज्झाणायरिए पमादायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवदेसे मस्स कप मागहरा आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए सेविय माणए नो चेत्रां प्रवहमाणए जाव से वि पूए नो चेवणं अपरिपूए से विय सावज्जेत्ति काऊं णो चेवणं अ वज्जे से त्रिय जीवाई कट्ठ यो चैत्र णं अजीवा से विय दिले णो चैव दिले से वि य दंतहस्थपायचारुवमसक्खा हतार पवित्तर वा णो चैव पं सिलाइए अंबइस णं परिव्वायगस्स कप्पर मागहएय आढए जलसपाहित्तर से वियवयमाणे दिने नो चेत्र णं अदिष्स सेव For Private अंबड य सिलाइए णो चेव णं इत्यपादचारुवमसपकखालयणढयाए पवित्तए वा अंमरुस्स परिव्वायगस्स णां कप्पड़ न त्थिया वा अम्मउत्थितदेवयाणि वा श्रत्थितपरिग्गहियाणि वा चेइयाई वंदित्तए वा एमंसित्तर वा जाव पज्जुवासित्तए वा अरिहंते वा अरिहंतचेश्यामि वा । [ गणत्थ अरहंतेदिवसि ] न कल्पते इह योऽयं नेति प्रतिषेधः सोऽन्यत्रार्डदूभ्यः अर्हतो वजयित्वेत्यर्थः । स हि किल परिवाज कवेषधारको ऽतोऽन्ययू थिकदेवतावन्दनादिनिषेध भई तामपि वन्दनादिनिषेधो माभूदिति कृत्वा णपत्येत्याद्यधीतं, श्री० ॥ भ० अम्बमस्य मृत्योपपातः । कालमासे कालं किवा कहिं गच्छहिंति कहिं उनवाजहिंति ? गोयमा ! त्र्यंवडेणं परिव्वायए उच्चावएहिं सीलन्नयगुणवेरमणपश्चक्खाणपोसहोत्रवासेहिं अप्पाणं नात्रेमाणे बहू वासाई समणोवासयपरियायं पाउणित्तए पाउरिणता मासिया संज्ञेहलाए अप्पाणं जूसित्ता सहि जत्ताई असणाई बेदित्ता आलोयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बंभनोए कप्पे देवत्ताए उबवज्जेहिंति तत्य णं अप्पेगझ्याणं देवाणं दससागरोवमाई विती पत्ता तत्थ णं अम्ममस्स वि देवस्स दससागरोवमाई विती । से णं भंते ! अंबडे देवत्ताओ देवलोगाओ आउ क्खणं वक्खणं द्विक्खएणं अांतरं च चत्ता कहिं गच्छहित्ति कहिं उववज्जइचि ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइकुलाई जवंति अढाई दित्ताई विताईं विच्छिष्यविउल्लजवणसयणा सण जाणवाहलाई बहुधएजायरूवरयत्ताई ओगपगसंपत्ता विच्छडियपरभत्तपाणाई बहुदासीदासगोमहिसवेल गप्पनूयाई - दुजणस्स परिजयाई तहप्पगारेसु कुलेसु पुमत्ता पव्यायाहिंति । तए णं तस्स दारगस्स गन्भत्यस्स चैव समाणस्स अम्मपिती णं धम्मेदपतिष्यो भविस्सर से णं तत्थ - वढं मासाएं बहुपमिपुष्माणं प्रमाणराइंद्रियाणं बीतिकंताणं सुकुमालपालिपाए जात्र ससिसोमाकारे कंतं पियदंसणे सुरूवे दारए पयाहिंति । तए णं तस्स दारग्गस्स अम्मापय पढमे दिवसे द्विती परियं कार्हिति तयदिवसे चंदसूरदसणियं काहिंति बडे दिवसे जागरियं काहिंति एक्कारसमे दिवसे वीतिकंति णिव्वते सुइ जावई कम्मं करणे संपत्ते बारसमे दिवसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गुणं गुणणिप्पन्नं सामघेज्जं काहिंति जम्हाणं अम्हं इमं - सि दारगंसि गब्जत्थंसि चैव समाणंसि धम्मे दढपतिमा तं हो म्हं दार दढपइसणामेणं तत्तेणं तस्स दारगस्स अम्मापपणामधेज्जं करेहिति “दढपइसोत्ति" तं दढप दार अम्मापयरो सातिरेगवासजातगं जाणिता सोभ Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) अभिधानराजेन्द्रः | अंबड सि तिहिकरण दिवस एक्खत्तमुहुत्तंसि कलायरियस्स उत्रहिंति । तए गं से कलायरिए तं दढपइमं दारगं लेहातिया गणिय पहाणाच सजणरुयपज्जवसारणाओ बावत्तरिना मुत्ततो य अत्थतो य करतो य सेहाविहिति । यौ० ( कलानामानि कलाशब्दे ) सिक्खावेत्ता अम्मापतीणं उनहिंति तए णं तस्स दढपइसस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कन्नायरियं विपुलेणं असणपाणखाइमेणं साइमेणं वत्यगंधमलालंकारेण य सक्कारेहिंति सम्माणेहिंति सकारता मम्माता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलसति विपुलं विपुलेत्तापमिविसज्जेहिंति तए णं से दढपइमे दारए बाबत्तरिकलापंमिए नवगमुत्तपमिबोहिये अट्ठारसदेसीनासा विसारए गीतरती गंधव्वणकुसले हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमदी वियालचारी साहसिए अ भोगसमत्ये आविजविस्सति तते णं दढप‍ मंदार अम्मापियरो बावत्तरिकलापंडियं जाव अलं जोगसमत्थं त्रियाणित्ता विपुलेहि अपनोगेहिं लेणजोगेहिं वत्यजोगेहिं सयभोगेहिं कामभोगेहिं उवणिमंतेर्हिति । तए णं से दढपले दारए तेहिं विलेहिं अभीगेहिं जाव सयाजोगे हिं यो सज्जिहिंति हो रजिहिंतियो गिन्निहिंति णो अववज्जिर्हिति से जहाणामए उप्पले वा पदमेश वा कुसुमेइ वा नमिलेइ वा सुभगेति वा सुगंधेत्ति वा पोंडरीएत्ति वा महापोंडरीएत्ति वा सत्तपत्ते वा सहस्सपत्तेइ वा सतसहस्सपत्ते वा पंके जाते जत्रे संकुढे गोवलिप्पर पंकरएणं गोवलिप्प‍ जलरएणं एवमेव दढपइसे वि दारए कामेहिं जाते भोगेहिं संबु णो वलिप्पहिंति कामरएणं पोत्रलिप्पहिंति मोगरएणं णोत्रनिष्पार्हति । मित्तणाइलियगमयल संबंधिपरिजणेणं सेणं तदारूवाणं येराणं अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिति । केवलवाहिं बुज्झित्ता अगाराओ अलगारियं पव्वं हित्ति | सेणं जस्सिइ अणगारे भगवंते इरियासमिति जाव गुत्तवं भारी तस्स णं जगवंतस्स एते णं विहारेणं विहरमाणस्स अशंते अत्तरे शिव्याधाए निरावरणे कसिणे पडिपु केवलवरणादमरणे समुप्पज्जेहिंति । तते से इसे केवल दुई बासाई केवल्ली परियागं पाणिहिती पाणिहिता मासियाए संलेहलाए अप्पाणं कुसित्ता सहि जनाई असणं बेपत्ता जस्सहाए की रए एग्गभावे मुंमजावे अन्हाणए अदंतवणए केसलोए बंभचेवासे - अद्भुतकं अणोवाहणकं जूमिसेज्जा फलदसेज्जा कट्टसेज्जा परघरपत्रेसो लालब्धं वित्तीए परोहं हीलाओ खिमाओ दिलाओ गरइणाओ तालणाओ तज्ज For Private बत्तिय लाओ परिजवणाओ पव्वहणाओ उच्चावया गामकंटका बावीस पर सहोवसग्गा अहियासज्जति । तमट्टमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासविस्सा सेहिं सिज्जिर्हिति बुजिकहिंति मुचहिंति परिव्वाहिंति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिंति औ० ० ॥ परिव्राजके विद्याधरश्रमणोपासके च श्रस्य वक्तव्यता । चम्पायां नगर्यामम्बको विद्याधरश्रावको महावीरसमीपे धमुपश्रुत्य राजगृहं प्रस्थितः स च गच्छन् भगवता बहुलत्वोपकाराय भणितो यथा सुनसाश्राविकायाः कुशलवार्ता कथयस व चिन्तयामास पुण्यवतीयं यस्यास्त्रिलोकनाथः स्वकीयकुशलवार्ता प्रेषयति, कः पुनस्तस्या गुण इति तावत्सम्य त्वं परीक्के, ततः परिव्राजकवेषधारिणा गत्वा तेन भणिता सा श्रायुष्मति ! धम्र्म्मो भवत्या भविष्यतीत्य स्मभ्यं भक्त्या भोजनं देहि तथा प्रणितं येज्यो दन्ते भवत्यसौ ते विदिता एव, ततोऽसावकाशविरचिततामरसासनासीनो जनं विस्मापयति स्म, ततस्तं जनो जोजनेन निमन्त्रयामास स तु नैच्छत् । लोकस्तं पप्रच्छ कस्य भगवन् ! भोजनेन भागधेयवतां मासकपणकपर्यंतं संबर्द्धयिष्यसि । स प्रतिभणति स्म सुलसायाः । ततो लोकस्तस्या वर्द्धनकं न्यवेदयत् । यथा तथ हे भिक्षुरयं भुक्षुः तयाऽज्यधायि किं पाखा एकभिरस्माकमिति लोकस्तस्मै न्यवेदयत् । तेनापि व्यज्ञाथि परमसम्यकदृष्टिरेषा या महातिशयदर्शनेनापि न दृष्टिव्यामोहमगमदिति ततो लोकेन सहासौ तफेदे नैषेधिकीं कुर्वन्पञ्चनमस्कार मुच्चारयन् प्रविवेश । साऽप्यभ्युत्थानादिकां प्रतिपत्तिमकरोत् तेनाप्यसाबुपबृंहितेति । स्था०वा० । श्रयमागमिष्यन्त्या मुत्सर्पिएयां देवो नाम द्वाविंशस्तीर्थकृद् भूत्वा धर्मे प्रज्ञाप्य सेत्स्यति यावत्सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । स्था० वा० । ती० आ० म० द्वि० । नि० चू० | ही ० । श्रयं पूर्वोकादम्बर परिव्राजकादन्य एव । तदुक्तम् । यश्चैौपपातिकोपाने महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सन्नाव्यते । इति स्था०ध्ठा० । नि० चू० । अंगमा (दा) लग - आम्रडालक - न० श्राम्र सूक्ष्मखरामेषु, आचा० ६० २ श्र० ७ । अंबत्त - ( आ ) म्लत्व - न० ( अम्लरसवत्वे ) “अंतणेण जीहार, कूविया हो खीरमुदगंमि " विशे० । त्र्यंवदेव-आम्रदेव - पुं० नेमिचन्द्रसूरिकृताऽऽस्थान कम शिकोशस्योपरि टीकाकारके स्वनामख्याते श्राचार्ये, जै० इ० । अंवपलंवकोरव - श्राम्रमलम्बकोरक- न० आम्रचूतस्तस्य प्रल फलं तस्य कोरकं तनिष्पादकं मुकुल माम्रफल कोरकम् कोरकविशेषे, एवं यः पुरुषः सेव्यमान उचितकाले उचितमुपकारकफलं जनयत्यसावान्नप्रलम्बकोरकसमान उच्यते, स्था०४वा० । पलवपविजति आम्रपल्लवम विनक्ति-न. नाट्यविधिनेदे, रा. पेसिया - आम्रपेशी स्त्री०भाम्रस्य पेशीव शुष्कानकोशे, वाच० आम्रपेशी - स्त्री० आम्रफल्याम् । श्राचा० २४० ७ ० ७ । त्र्यंबफल - आम्रफल - न० रसालफले, व्य०९३०१ (सागारिकस्या फलानि आम्रवृकश्वारोपित इत्येतत्कल्पते न वेति सागारीयपिरुशब्दे ) । अंवत्तिय आम्रनित्तक - न० आम्रार्द्धे श्राखा०२ ०१०२० Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबर अन्निधानराजेन्दः। अंबिल भंवर-अम्बर-न० अम्बेव मातेव जननसाधादम्बा जलं तस्य अंबा-अम्बा-स्त्री०अम्ब्यते नेहेनोपगम्यते अम्वा । कर्मणि घना राणादानान्निरुक्तितोऽम्बरम् आकाशे । भ०२ २०२ १०। द्वारा वाचामातरिशउत्त०३ अास्था श्रीनेमिनाथस्य तीर्थाधिष्ठावर, निचू०१ उ० प्रा० म०प्र० सूत्र। श्राव प्रश्न। तृदेवतायां च साच, अम्बादेवीकनककान्तरुचिः सिंहवाहनाचस्वनामख्याते गन्धकाव्ये, अभ्रकधातौ च, वाच । तुर्तुजा आम्रलुम्बिपाशयुतदक्किणकरद्वयासिपुत्रांकुशाधिष्ठितथाअंबरतन-अम्बरतन-न० आकाशतले, रा० । का० । मकरद्वया चाप्रव०२७द्वातस्याः प्रतिमा यथा-अहिच्छत्राया अअंबरतिक्षाय-अम्बरतिक्षक-पुं० धातकीखण्डस्थे पर्यतनेदे, वितुरे (सरूकंत्र पार्श्वस्वामिनश्चैत्यप्राकारसमीपे श्रीनेमिमूर्तिसयत्र मङ्गलावतीविजयवत्तिनन्दिग्रामसनिवेशस्थदरिष्कुलजा हिता सिम्बुरुकलिता आम्रलुम्बिहस्ता सिंहवाहना अम्बादेव। तनिनायिका नाम कन्या मातुः खाद्यमनवाप्य तद्वचनेन गत्वा | तिष्ठति, ती०७ कल्पप्रतिष्ठानपुरपत्तने ऐरवतमेखलायां कृष्णेन पक्कफलानि गृहीतवती ।प्रा० म०प्र०। श्रा००। अम्बादेवीप्रतिमा कृता “तत्थय अंबाए सेण वधासतिगेण" अंबरतिलया-अम्बरतिनका-स्त्री० नगरीभेदे यत्र हप्तारिदर्णः | ती०२ करप । अम्बष्ठानतायां, काशीराजकन्यायां च, वाच विमर्दनो महाराजः । दर्श। अंबाजवख-अम्बायक-पुं० यक्षजेदे, “गोवामि णिरुका, अंबरवत्थ-अम्बरवस्त्र-न स्वच्छतया अम्बरतुल्यानि वस्त्राणि समणा रोसण मिसिमिसाएं ता। अंबाजक्खोय नणति, पथमअम्बरवस्त्राणि स्वच्चवस्त्रेषु । कल्प० । वाहेहि संघंति" ति। अंबरस-अम्बरस-न० अम्बा पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तपो रसो| अंबामग-आम्रातक-पुं० आम श्वातति प्रामात् किश्चिद्धीयस्मानिरुक्तितोऽम्बरसम् आकाशे, न० २० श०२०। नरसफलकत्वात् , अत्-पखुल् (प्रामडा) १ वृक्के २ तत्फले, न. अंबरि (री) स-अम्बरि (री) ष-पुन अम्म्यते पच्यतेऽत्र भामेण तत्फलरसेन तकते प्रकाशते। पा+तक हासे अच् । शुअम्ब अरिष निथ्वा दीर्घःभर्जनपात्रे, अम्बरीसमपि वाचा वाटे, काम्ररसनिर्मिमते (आमद ) व्यभेदे, तत्करणप्रकारः भावन०३ श०६ वाप्रवनकोष्टके, लोहकाराम्बरीषेवा, जी०३ प्रति। प्र० उक्तः । यथा "आम्रस्य सहकारस्य, कटेर्विस्तरितो रसः । अंबरि (री)स ( सि )-अम्बरिष (रीष)ऋषि (र्षि) धर्मशुष्को मुहुर्दत, आम्रातक इति स्मृतः" वाचः । प्रका। अनु० । आचा० । पुं० यस्तु नारकान् निहितान् कल्पनिकाभिः खएमशः कृत्वा अंबाडिय-आमिलत-त्रि० आम्ल इव कृतः स्वरण्टिते, प्रा०म० भ्राष्ट्रपाकयोग्यान करोतीत्यसावम्बरीषस्य भ्राष्ट्रस्य संबन्धादम्बरीष इति द्वितीयपरमाधार्मिकः, प्रव० १८० द्वा० । ना सका द्वि० 'चमढेति खरंटेति अंबाडेत्तित्ति वुत्तं नवति' निश्च०४० ओहयहयेय तड़ियं, णिस्सन्ने कप्पणीहिं कप्पति । अंबातव-अम्बातपस-न० अम्बोद्देशेन कृतं तपः अम्बातपः सौविलगचटुलगजिन्ने, अंबरिसी तत्थ णेरइए ॥७॥ किकफलप्रदे तपोभेदे, तश्च अम्बातपः पञ्चसुपञ्चमीच्येकाशना दि विधेयं नेमिनाथाऽम्बिकापूजा वेति, पञ्चा० १५ विव० । (ोहपत्यादि ) उप सामीप्येन मुझरादिना हता उपहताः | अंबाववी-अम्लबद्वी-स्त्री० अम्लरसंघती वल्ली त्रि० पर्णिकापुनरप्युपहता एव खगादिमा हता उपहतहतास्तानारकान् । तस्यां नरकपृथिव्यां निःसंझकान् नएसंज्ञकान् मूर्णितान्सतः नामकन्दभेदे, वाच० वल्लीभेद, प्रशा०१ पद। कर्पणाभिः कल्पयन्ति चिन्दन्तीतश्चेतश्च पाटयन्ति । तथा द्विद अविश्रा (या)-अम्बिका-स्त्री० अम्बैव । कन् , मातरि, मुर्गायां, बचटुसकचिन्नानिति मध्यपाटितान् खंमश्विनांश्च नारकां- वाचा नेमितीर्थाधिपदेवतायां, तस्याःप्रतिमा मपुरायाम् “इत्थं स्तत्र नरकपृथिव्यामंपिनामानोऽसुराः कुर्वन्तीति सुत्र० ५ कुबेरो नरवाहणी अंबिआ सीहवाहणा" ती०१० कल्प० बज्जश्रु० ५ अ आव० प्रब० । प्रा० चू० । प्रश्न। यन्तशैलशिखरेऽवलोकनशिखरात्प्राक् “आंबियाए भवर्ण दासअंवरिसि--अम्बऋषि (र्षि)-पुं० उज्जयिनीवास्तव्ये ब्राह्मण- " ती०५ कल्प. टिंपुामम्बिकामृतिः “अत्राम्बिकाद्वारसमीपनेदे, यस्य मालुक्या प्रिया निम्बः सुतः (इति विणोयगय शब्दे वर्ती, श्री क्षेत्रपालो चुजषटूभास्वरः। सर्वपादाम्बुजसेबनालिवक्ष्यते) आ० क०। आव० । आ०चू०। नौ, संघस्य विघ्नौघमपोहतः कणात" ती०४४ कल्पा पञ्चअंबवण-आम्रवण-न० आमूस्य बनम् । नित्यं णत्वम् । श्रामवृ मवासुदेवमातरि च । स० । आव० कसमुदायात्मके वने, वाच । आचा। अंबियासमय-अम्बिकासमय-पुं० उज्जयन्तशैले गिरिप्रद्युम्ना. अंबसमाण-अम्बसमान-पुं० "अंबफरिसेहिं अंबो नहिं सिा वतारे स्वनामख्याते तीर्थनेदे। “गिरिपज्जुम्मघयारे, अंबित्रसुववहारो" येषु वचनेषक्तेषु परस्य शरीरं विझविमायते तानि । समए व नामेणं । तत्थ विपीनापुढवी, हिमवाए होइ वरहेमं' अम्बानि अम्नः परुषैश्च वचनर्व्यवहारंनसिम्नियति सोऽम्ल ती०४ कल्प। वचनयोगादम्ल इति इत्युक्तनकणे दुर्व्यवहारिणि । व्य०१०। अंबिणी-अम्बिनी-स्त्री० कोटीनारनगरवास्तव्यसोमवाह्मणअंघसालवण-आम्रसालवन-न० आम्रफले श्राद्मः शाश्वाति- नार्यायाम । ती०५६ कल्प । (कोहंडिदेवकल्पशब्द) प्रचुरतयोपल्लक्षिते बने तद्योगादामसकल्पाया ईशानकोणस्थे| अंबिल-अम्बिल-अ (श्रा) म्ल-पुं० अम्-कः प्राकृते "लात्'' चैत्ये च" आमलकप्पाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दि- | श६ । इति सूत्रेण संयुक्तलकारात्पूर्वमिदागमः, प्रा० । भग्निसीभाए अंघसालवणे णामं चेश्ए होत्था पोराणे जाव पमिरू- दीपनादिकृति अम्बिकाद्याश्रिते रसभेदे, “ अम्लोऽग्निदीप्तिकृत ये" पूर्णरुचैत्यघदस्य वर्णकः। रा। उत्त० । ग०। प्रा०म० | स्निग्धः, शोकपित्तकफावहः । वेदनः पाचनो रुच्यो, मूढवातादि० । आव० । का० । श्रा० चू। नुलोमकः"॥१॥ कर्म० १कर्म० । अनु । जं। अंबहंडि-अम्बएिम-स्त्री० देयीभेदे । महा०२०। एगे अंबिले-आश्रवणक्लेदनकृदम्मः । स्था० १ठा। अम्लरस. Jain Education Interational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) अंबिल अभिधानराजेन्द्रः। अकंप यति, त्रिका तक्रादिसंस्कृते, शा०१७ अ० तक्रारनालकादौ, ल। अश्नु-न० अनते व्याप्नोति नेत्रमदर्शनाय । अश-नन् । प्राकृते। कालिके, स्था०१० ठागसौवीरे,स्था०१०ठावाचा कल्बाल वादावन्तः।१।२६ इति सूत्रेण अनुस्वारागमः, प्रा०। नेत्रजन, घरेसु अंबिलं सानअं" कल्पपायगृहेषु किलाम्नशब्दसमुश्वारि वाच० । “गुरुदुक्खभरकंतस्स अंसुणि बाएण जं जलं गालियं ते सुरा विनश्यति अनिष्टपरिहारार्थमम्झं स्वादूच्यते, अनु० ।। तं अगमतलायणईसमुदमाईसु ण वि होजा" महा० ६ ० । अंबिलणाम-अम्बिलनामन्-न रसनामकर्मभेदे, यदुदयाजी- "अंसुपुराणणयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो"जं २ धक्का। वशरीरमम्लीकादिवदम्लं भवति तदम्झनाम, कर्म०१ कर्म०। 'सुपुष्यहिं णयहिं जरं मे परिसिंचा' उत्त० २० अ०। अंपिलरस-अम्मरस-पुं० क० स० अम्ले रसे, तद्वति, त्रि० | अंसय-अंशुक-न० चीनविषये बहिस्तादुत्पन्ने सूत्रे, अनु० । वाच० अम्लरसश्च तक्रवत् । प्रश्न संव०५ द्वा०। प्रा०म०प्र०“ अभंतरहीरे जं चप्पज्जत्ति तं अंसयं " नि० अंबिलासपरिणय-अम्लरसपरिणत-पुं० अम्लवेतसादिव-! 10 जापाचा । अंशक पहस्तनिष्पकम ६० दम्बरसपरिणाम गते पुफले, प्रज्ञा०१पद। २० । वस्त्रविशेष, ज्ञा०१ अ0 जंग जी०। पत्रे च, अंशु स्वार्थे अंविलिा-अम्लिका-स्त्री अम्व स्वार्थे कन् १ तिन्तिज्याम, | कन् । अंशब्दार्थ, पुंगवाच । अत्राम्लीकेत्यपि सा चपलाशीलतायां ३ श्वेताम्लिकायां अंसोक्सत्स-अंसोपसत-त्रि०। ७ त। अंश (स) योः स्क४ चुजाम्बिकायाश्च, राजनि० । जं० ३ वक्षः। धयोरुपसक्तं बग्नं यत् स्कन्धलग्ने, कल्प० । अंबिलोदग-अम्लोदक-न० काञ्जिकवत्स्वनावत एवाम्लपरि- अकड (ति)-अकत्ति-त्रि० न कति न संख्याता इत्यकति णामे, जश्ने, जी०१ प्रति प्रशा। असंख्यातेषु अनन्तेषु, स्था० ३ गाभ। अंबुणह-अम्बुनाथ-पुं० समुझे, व्य०६ उ०। अक (ति) संचिय-अकतिसश्चित-पुं० न कति न संख्याता अंबुत्थंभ-अम्बुस्तम्ज-पुं० जलनिरोधरूपे प्रयोदशे कला- इत्यकात असंख्याता अनन्ता वा तत्र ये अकत्यकतिअसंख्याता भेद, कल्प। असंख्याता एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव संचितास्ते अकति अंबुभक्खि (ण)-अम्बुजदिन-पुं० जलमात्रभक्तके वानप्र- सञ्चिताः। स्था० ३१ वा० एकसमयेऽसंख्यातोत्पादेनानन्तोस्थभेदे, औ० । नि। त्पादेन च पिण्डितेषु नैरथिकादिषु (अत्र दएमकक्रमेण नैरअंबुवासि (न्)-अम्बुवासिन्- पुं० अम्धुप्रधाने देशे वसति, यिकादीनामकतिसंचितत्वमुपपातशब्दे) ज०२ श० १० उ० । घस-णिनि-कीप् । पाटलावृक्के, जलवासिमाने, त्रिवानः । अकंटग-अकएटक- नि० न० ब० । कण्टकरहितेषु न तेषु वानप्रस्थभेदेषये जलनिमम्ना एवासते । श्री। मध्ये बच्चू शादिवृताः सन्तीति, जी. ३प्रति । पाषाणादिषअंभ-अम्भस-न आप्यते । प्राप्-असुन् । उदके नुम्भी चेति | व्यकण्टकविकनेषु, श्राव० ५१०। प्रतिस्पर्धिगोत्रजे ( राज्ये) जणा० अम्भः शब्दे असुन् वा । वाच । जले, प्रति० । अष्ट । " ओहयकंटयं मलियकंटयं अकंटयं " झा० १ ० । अंस-अंश-(स)-पुं० अंश (श)नावे अन् । विज्ञागे, स्था०३ स्था। सूत्र० । ठाकर्मणि अच नागे,विशे० आ०० प्रतिकामाचा०करणे अकंम-अकाएम-न । न० त० अप्रस्ताये, अनवसरे, पातु। अच् । अवयवे, पञ्चा०७विवादे, विशेगनेदाःविकल्पा अंशा "एत्थ मया अकंमे विणचिया तं कारणंसुणह" आ० म०प्र०। इत्यनर्यान्तरम् । प्रा० म०प्र० श्राव०।पर्याये, विशेनस्कन्धे अकाले, वृ०१०। च, झा० १५ श्रा अकंम्यग-अकएमयक-पुं० न करामूयते श्त्यकएमयकः अंम (मा) गय-अंश (श) गत-त्रि० स्कन्धदेशमागते, विपा० स्था० ५ ठा० । अकएमूयनकारके अभिग्रहविशेषवति, प्रश्न ११०३० । स्कन्धावस्थिते, ज्ञा० १८० संब०१द्वा। अंसलग-अंश-पुं० स्कन्ध, तं०।। अकंत-अकान्त-त्रि० कान्तः कान्तियोगात, स्था० गान काअंमि-अत्रि-स्त्री० । अम-क्रिः। कोटी, स्था०८ ग०। न्तोऽकान्तः । जी०१ प्रति। स्वरूपेणाकमनीय, उपा० अ० । अंसिया-अंशिका-स्त्री० । अंश एवांशिका । स्वार्थे कप्रत्ययः। भ० प्रश्न अकंततर-अकान्ततर-त्रि० स्वरूपतोप्यकमनीयतरे, जी०३ भागे, " सागारियस्स अंसिया अविभत्ता" वृ० ३ ०। प्रति० । वि० " अंसियाओ गामद्धमाईओ" अंशिका तु यत्र ग्रामस्यार्डम् । प्रादिशब्दात् त्रिभागं वा चतुर्भागं वा गत्वा स्थितः स ग्राम अकंतता-अकान्तता-स्त्री० असुन्दरतायाम्, भ०६ श०२ उ०। स्यांश एवांशिका, निचू. ३ उ०। अकंतदुक्ख-अकान्तदुःख-त्रि० अकान्तमनभिमतं पुःखं येषाअर्शस्-न० बसिकाकारे रोगभेदे , " अंसिया अरिसा ता य अ. | न्तेऽकान्तमुक्ताः अनन्निमताशातेषु सूत्र. १ श्रु० १ अ० हिट्ठाणे णासाए वणेसु वा नवंति"नि० चू. ३३० । तस्स (आ "अंकतपखं तसथावरा ही अबूसप" भाचा०२ श्रु०२०। तापयतः ) " अंसिया प्रोसंबर तं चेव विज्जो अदक्खु इसिं| दुःखद्विसु, सूत्र०१ श्रु० ११ १०। पामे पामेश्त्ता ग्रंसियाओ चिंदेज्जा" (अंसियाश्रोत्ति) अ- | अकंतस्सर-अकान्तस्वर-त्रि० ६ ब. अकान्तियुकस्वरे, शासि तानि च नासिकासत्कानीति चूर्णिकारः, न०१६ २०३ स्था0 G 3101 उ)। प्रति० (शेष अणगारशब्द) अकंदप्पि (न्)-अकन्दर्पिन-त्रि० कन्दर्पोद्दीपनजाषितादिअंसु-अंश-पु० अंश मृग-कु किरणे, सुत्रे, सूक्मांशे, प्रकाशे, | विकले, व्य०१ उ०। प्रमायां, वेगे च, याचा अकंप-अकम्प-त्रि० स्वरूपनिष्ठे, अष्ट० । भक्तोज्ये, " नाणंमि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११५) अकंप अभिधानराजेन्द्रः । अकप्प दसणंमि य, तवे चरित्ते य चउसु वि अकंपे" अकम्पोऽहो- अकमसामायारि-अकृतसामाचारि-पुं०३व. अवितथा मण्डज्यो देवैरप्यचाल्य इत्यर्थे, आतु। ल्युपसंपत्सामाचारीमकुर्वति, वृ. ३ उ.एवंविधा (सामाचारीअकंपिय-अकम्पित-पुंजन० त० । श्रीमहावीरस्याएमे गणधरे, शब्दे वक्ष्यमाणां उपसम्पन्नमण्डलीविषयां द्विविधापिसास० ( अस्यागारपर्य्यायादयो गणधरशब्दे ) श्रा० चू० । प्रा० माचारी यो न करोति सोऽकृतसामाचारीक उच्यते, वृ०१८॥ म० वि०। कल्प० । ( अयमकम्पितनामा हिजोपाध्यायो अकहिण-कठिन-त्रि० कोमले, जी०३ प्रति । चीरान्तिकं गतो भगवता नामगोत्राच्यामाभाष्य) वि०॥"श्रा अका-अकर्ण-पुं० सिंहमुखद्वीपस्य नैर्ऋतकोणे (अन्तर्वीहो य जिणेणं, जाजरामरणविप्पमुक्केणं । नामेण य गुत्तेण य, सम्वन्नूसम्बदरिसीणं ॥ किं मन्ने नेरझ्या, अस्थि नत्थित्ति पशब्दोक्त) प्रमाणे अन्तरद्वीपे, तद्वास्तव्य मनुष्ये च, स्था०४ संसओ तुज्ज, वेदपयाणं अत्यं, न याणसी तेसिमो अत्थो" ग। प्रशा। नं0 । कर्णरहिते, वाच । ( इत्यायुक्त इति नारयशब्दे प्रदर्शयिष्यते) अकमगिएण-अकर्णस्तिन्न-अधिन्मकर्ण त्रित न चिन्नौ अककसत्तासा--अकशजाषा-स्त्री. अतिशयोक्त्या ह्यमत्स-| कौँ यस्य स तथा । अकृतश्रवणे, नि० चू०१४ १० । रपूर्वायां भाषायाम, दश०७ अ०। | अकत्तण-अकर्तन-त्रि उच्चस्थं फस कर्नितुं शीतमस्य । कृतअककसयणिज्ज-अकर्कशवेदनीय-न० अकर्कशेन सुखेन | युच न त । उच्चत्वविरोधिहस्वत्ववति सर्वे, कृत-भाये ल्युट वेद्यन्ते यानि तानि अकर्कशवेदनीयानि जरतादीनामिव सुख न.बबेदनकर्तरि त्रि. वाच। वेदनीयेषु कर्मसु ॥ अत्र दएमकः "अस्थि णं भंते जीवाणं अकक्क- | अकत्तिम-अकृत्रिम-त्रिन कृत्रिमः।नरत० कृत्रिमन्निने, स्वन्नासवेयणिज्जा कम्मा कज्जति ? हंता अस्थि कहएणं भंते ! जाचा- वसिके, वाच० "अकत्तिमोहिं चेव कत्तिमेहि चेव" ज०१ वक। णं अककसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ! गोयमा! पाणाइवायवे- प्रकप्प-अकल्प-पुं० कल्पो न्याय्यो विधिराचारश्चरणकरणरमणेणं जाब परिग्गहवरमणेणं कोहविवेगेणं जाव मिच्छादंस- व्यापार इति यावत्। न कल्पोऽकल्पः। तद्रूप इत्यर्थः । १०१ सल्लविवेगेणं एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कस अधि० प्रविधी चरकादिदीवायाम. अग्राह्ये, पंचा०१२ विवा। वेयणिज्जा कम्मा कज्जंति अस्थिणं भंते ! नेरइयाणं अकका आव० । प्रा०० । अकृत्य, अयोभ्य, "अकणं परियाणामि सबेयणिज्जा कम्मा कज्जति णोइणटे समटे एवं जाव चेमा कप्पं उवसंपज्जामि" श्राव.४ अ०। दादौ, व्य० १उ० । णियाणं णवरं मणुस्साणं जं जीवाणं । भ०७ श०६ ३० । अभोज्ये, “जह कम्मं अकप्पं तस्थिळ" पिं०1"अकप्पं पडिगाअकज्ज-अकाव्य-न० अप्रशस्तं कार्य्यम अप्राशस्त्थन त० कुत्सि हेज्ज, चउत्था जहाजोग कप्पं वा । पहिसेहेड उवा-वणं तकाये, निषिद्धकार्ये च। कर्त्तव्यभिन्ने, त्रि० वाचा प्राचा गोयर पचिट्ठो "महा० ७ अ । दृपणीये । नि०० १५ अकजमाण-प्रक्रियमाण-त्रि० न० त० वर्तमानकाले अ- नु अनाचारे, कल्पाअकल्पः मर्यादा अनीतिःअनुपदश निवर्तमाने भ० १० १० उ० । इत्यनान्तरम्, पं० ० । पिएडशय्यावस्त्रपात्ररूपचतुपयेऽकअकज्जमाणकम-अक्रियमाणकृत-त्रि० क्रियमाणं वर्तमान- ल्पनीये, व्य०२ ०"चयनकं कायउक्कं,अकप्पो गिहिनायणं" काले कृतं चातीतकाले तनिषेधादक्रियमाणकृतं ( वर्तमाना- अकल्पः शिक्षकस्थापनाकल्पादिः । दशः ६अ। तत्राकट्यो तीतकालयोरनिर्वय॑मानानां निर्वृत्ते) "अकिञ्च दुक्खं अफु द्विविधः शिककस्थापनाकल्पः अकलास्थापनाकल्पश्च तब सं दुक्खं अकज्जमाणकडं दुक्खं" भ० १ श० १० उ०।। शिक्षकस्थापनाकल्पः अनधीतपिएमनियुक्त्यादिनानीतमाहाअकट्ठ-श्रकाष्ठ-त्रि० न० ब० काष्ठरहिते अनिन्धने, “जसीज- रादिन कल्पते इत्युक्तं च “ अणहीया खलु जेणं, पिमेसलंतो अगणी अकट्ठो” सूत्र०१ श्रु०५ अ.। णसेज्जवत्थपाएसा । तेणाणियाणि जतिणो, कप्पंति न पिम माईणि ॥ नमबर्कमि ण अणसा, यासावासे दो विणो सेहा। अकम-अकृत-वि० न० त० अविहिते । "कर्ड कडित्ति भा दिक्विजंतो पायं, उवणाकप्पो इमो हो " प्रकल्पस्थापसिज्जा, अकडं नो कडित्ति य” उत्त० १ अ. “अकडं करि- नाकल्पं स्वाह॥ स्सामित्ति मममणे" यदपरेण न कृतम् । प्राचा०१ श्रु०१०। जाई चत्तारिनुज्जाइ, इसिणा हारमाइणि । अकमजोगि (न् अकृतयोगिन्-पुं० यतनया योगमकृत ताई विहिणा वज्जतो, संजयं अणुपालए ॥४७॥ वति, व्य०३ उ०।अकृतयोगी अगीतार्थःत्रीन वारान् कल्पमेष सूत्रं व्याख्या-यानि चत्वार्यभोज्यानि संयमापकारित्वेनाकल्पनीणीयं वा परिभाब्य प्रथमवेलायामपि यतस्ततोऽकल्पमनेषणी यानि ऋषीणां साधूनामाहारादीन्याहारशय्यावस्त्रपात्राणि यमपि ग्राही । व्य०१० २०) “अकडजोगत्ति दारं तिगुणं प- तानि तु विधिना वर्जयन् संयम सप्तदशप्रकारमनुपालयेत्। च्छद्धति तिसंखा तिमि गुणीश्रो तिगुणो असंथरातीसु तदत्यागे संयमाभावादिति सूत्रार्थः। एतदेव स्पष्टयति । . तिनि वारा एसणीयं समिसिनो जाता ततियवाराए विण पिंडसेजं च वत्यं च, चउत्थं पायमेव य। लज्जति तदा चउत्थपरिवाडीए अणेसणीयं घेत्तव्वं एवं ति. गुणं जोगं काऊण जोगो व्यापारः वितियवाराएश्चेव अणेस अकप्पियं न इचिज्जा, पमिगाहिज कप्पियं ॥४॥ णीय गेएहत्ति जो सो अकडजोगी भन्नति अकमजोगित्ति पिण्डशय्यां च वस्त्रं चतुर्थ पात्रमेव च । एतत्स्वरूप प्रगटा. गयं" नि० चू०१ उ०। र्थमकल्पिकं नेच्छेत् प्रतिगृह्णीयात् कल्पिकं यथाचितमिति अकडपायच्छित्त-अकृतप्रायश्चित्त-त्रि०न कृतं प्रायश्चितं येन सूत्रार्थः । अकल्पिके दोषमाह । अननुष्ठितविशोधः “जे भिक्खू साहिगरणं अविउसविय जे नियागं ममायंति, कियमुद्देसियाहमं । पाहुडं अकडपायच्छित्तं" नि० चू० १० उ० । वहं ते अणुजाणंति, दुई वुत्तं महेसिणा ॥ ४६॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकप्प अनिधानराजेन्द्रः। अंकप्पद्विय ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणः (नियागंति) जे को कप्पट्टियाणं कप्पड से अकप्परियाणं, नो नित्यमामन्त्रितं पिण्डं (ममायन्तीति) परिगृह्णन्ति । तथा क्रीत कप्पा कप्पट्ठियाणं । जे कडे अकप्पट्ठियाणं नो से कप्पड़ मुद्देशिकाहृतम् । एतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायां यधं त्रस स्थावरादिघातं ते द्रव्यसाध्वादयोऽनुजानन्ति । दातृप्रवृत्यनुमो कम्पट्ठियाणं, कप्प से अकप्पट्टियाणं । कप्प ट्ठिया कप्पदनेनेत्युक्तं च महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः । यस्मादेवम् । | टिया णो कप्पे ट्ठिया अकप्पट्टिया। नम्हा असागपाणार्ड, कियमदेसियाह । यदशनादिकं कृतं विहितं कल्पस्थितानामर्थाय कल्पते वजयंति पियप्पाणी, निग्गंया धम्मजीविणो ॥५०॥ | तदकल्पस्थितानां, न कल्पते कल्पस्थितानां । इहाचेलुक्या दो दशविधे कल्पेऽवस्थितास्ते कटपस्थिता उच्यन्ते पञ्चयामतस्मादशनपानादि चतुर्विधमपि यथोदित क्रीतमौद्देशिक धर्मप्रतिपन्ना इति भावःय पुनरेतस्मिन् कल्पे संपूर्णेन स्थितामाहतं वर्जयति स्थितात्मानो महासत्वा निर्ग्रन्थाः साधयो। स्ते अकल्पस्थिताश्चतुर्यामधप्रतिपत्तार इत्यर्थः। ततः पाश्चयाधर्मजीविमः संयमैकजीविनः इति सूत्रार्थः। उक्तोऽकल्पः। दश मिकान हिश्य कृतं चातुर्यामिकानां कस्पते इत्युक्तं भवति ६ अ0 जीता पं० चूगपं० भा"अपरिग्गहणा अकप्पंमि तथा यदकल्पस्थितानां चातुर्यामिकानामर्थाय कृतं नो स कहारे पलंवादीसलोम मम जिणादि होति उवहीए सेज्जाए द । स्पते कल्पस्थितानां, पाश्चयामिकानां किन्तु कल्पते तदकगसाला अकप्पसेहा य जे अन्ने" पं० क. चू० । पं० भा०। ल्पस्थितानां चातुर्यामिकानामत्रैव व्युत्पत्तिमाह कल्पे आचेलएतो अकप्पं वोच्छामि णिक्वि णिरणकंपो पुप्फफ- क्यादौ दशविधेस्थिताः कल्पस्थिता न कल्पे स्थिता अकल्पलाणं च सारणं कुणतिजं च एह एवमाद। सव्वं तं जाणमु| स्थिताः । एष सूत्रार्थः।। अकप्प जो तु किवं ण करेती दुक्खभेमुं तु सव्वसत्तेसुं अथ नियुक्तिविस्तरः। हिरवेक्खो रीयादिसु पबत्तइ णिकिवो सोतुं सहसा वय कप्पटिपरूवणाता, पंचेव महव्वया चउज्जामा ।। साए ण व परितावणमादिविंदियादणं काऊण नाणु कप्पध्यिाण पणगं, अकप्पचउज्जाम सेहे वि ॥ कल्पस्थितः प्रथमतः प्ररूपणा कर्तव्या । तद्यथा । पूर्वपश्चिमतप्पा गिराकंपो हवति एसो सत्तट्ठमगाणेसु सहाणासे साधूनां कल्पस्थितिः पञ्चमहाव्रतरूपा मध्यमसाधूनां महाविदेहवणाए सवाणं गच्छागादमि तु कारणं मि वितियं भवे गणं साधूनां च कल्पस्थितिश्चतुर्यामलक्षणा ततो ये कल्पस्थितास्ते सत्तहमट्ठाणा न कप्पो चेव तह अकप्पो य ते निक्कार- | षां ( पणगंति) पश्चैव महाव्रतानि नवन्ति अकल्पस्थितानां तु रणसवी यावति सट्ठाणं पच्छित्तं पत्तंमि कारणे पुण रा चत्वारो यामाश्चत्वारि महाव्रतानि जवन्ति नापरिगृहीता स्वं। नुज्यत इति कृत्वा चतुर्थवतपरिग्रहवतामेव तेषां अन्तर्नवतीयमुट्ठादियंमि आगाढे जयाणा य करेमाणो होठियकप्पो | ति भावः। यश्च पूर्वपश्चिमतीर्थकरसाधूनामपि सम्बन्धी सैकस्याघि निद्वाणं दारं । पं० ० ।। पि सामायिकसंयत इति कृत्वा चातुर्यामिकोऽकल्पस्थितश्च "इयाणि अकप्पो गाहा नामाणिो नामणी थंभणीओ विजा-1 मन्तव्यः यदा पुनरुपस्थापितो भविष्यति तदा कल्पस्थित इति श्रो पज अद्धयाली नाम जो उ नेऊण परिपाइ वेयाली | प्ररूपिता कल्पस्थितिः। यह "जे को कप्पध्यिाण" इत्यादिना बवेइ गम्भादाणं परिसामेर समुच्छिय पाडेइ जोणिपाहुडं प्राधाकर्मसूचितमतस्तस्य उत्पत्तिमाह । वा करेइ प्राणमु य एवमाश्सु पावायपणेसु वह गाहा तसए. सालीघयगुलगोर-सावसु बर्दा फलेसु जातेमु । गिदियतसपाणश्मलगाइचिच्चिए वा संसदमे वा संमुच्छावेइ पमढकरणसहा, आहाकम्मे णिमंतणता ॥ माणमरण अभियोगाहिं माहेसरिं वा आहेब्वणं वा पउंजइ कस्यापि दानरुचेरभिगमश्राद्धस्य घानवः शालिः भूयान् गृहे रुद्धा हिवणं बभड वा अगणिकायं थंभइ गाहा निकोवो समायातस्ततःस चिन्तयति पूर्व यतीनामदत्वा ममात्मना पारनाम निग्घिणो निरगुकंपो पुष्फफलयाणि य विमे विज्ञा- जोक्तुं न युक्त इति परिभाब्याधाकर्म कुर्यात् एवं घृते गुझे गोरसश्रो परसुमादि पउंज एवमा कम्मकरी मो यकापो पयाणि नवे यवतुम्ब्यादिवल्लीफलेषु जातेषु पुण्यार्य दानरुचिः श्राद्धः पण आकप्पकप्पाणि निकारणे करतो अहाणपच्चित्तमावज ( करणंति) आधाकर्म कृत्वा साधूनां निमन्त्रणं कुर्यात् । तस्य । पतदर्थ गाहा सत्तहमाणेसु गच्छमाइसु पुण कारणेसु य चाधाकर्मणेऽमून्येकार्थकपदानि। रायपुमाइस असिवाइस य कारणेसु जयणाए करेंतस्स आहा बाहयकम्मे, अत्ताहम्मेय अत्तकम्मे य। योकप्पा कप्पा विभ्यं ठाणं भवति किं पुण तं वितियं गाणं पक ते पुण आहाकम्मं, णायच्वं कप्पते कस्स ॥ प्पा चव सो भवइ एस अकप्पो" प०च० [अपरिणतादेरकल्प प्राधाकर्म, अधःकर्म, आत्मन, आत्मकर्म, चेति चत्वारि स्याग्राह्यताऽपरिणयादिशब्देषु वक्ष्यते] अस्थितकल्पे च,वृ.४ उ.। नामानि तत्रसाधुनामधेयप्राणिघातेन यत्कर्मषम्कायविनाशेनाअकप्पट्ठावणाकप्प-अकल्पस्थापनाकल्प-पुं० अनेषणीयपि शनादिनिष्पादनं तदाधाकर्म । तथाविशुद्धसंयमस्थानेभ्यः मशय्यावस्त्रपाकणेऽकल्पनेदे, जीत। प्रतिपत्यात्मानमविशुद्धसंयमस्थानेषु यदाधः करोति तदधःकर्म। अकापडिया अकल्पस्थित-पु० कल्पे दविधे श्राचेसुक्यादी आत्मानं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं विनाशयतीत्यात्मनः । यत्पाचकासंपूर्ण न स्थिताः अकल्पस्थिताः चतुर्णामधर्मप्रतिपत्तृषु, वृ०४ दिसम्बन्धि कर्म पाकादिलकणं शानावरणीयादिलकणं वा सदा. उ०मध्यमद्वाविंशति जनसाधुपु महाविदेहजेषु च, जीत [कल्प- त्मनः सम्बन्धि क्रियते, अनेनेत्यात्मकर्म । तत्पुनराधाकर्म स्थितानामर्थाय कृतं कल्पते कल्पस्थितानां तदर्थ कृतं कल्पते कस्य पुरुषस्य कल्पते नवा यद्वा कस्यतीर्थ कथं कल्पते न कल्पकरपास्थितानां नेतरथा ] ते वेत्यमानिरतिव्यं, तान्येव दर्शयति । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) अभिधानराजेन्द्रः | अकप्पडिय । संघस्स पुरिममज्झिम- समग्राणं चैव समणीणं च एवं उवस्सयाण, कायव्वा मरगणा होति ॥ धाकर्मकार सामान्येन विशेषेण वा संघस्योद्देशं कुर्यात सामान्ये नाचिरोपित संघमुद्दिशति विशेषेण तु पूर्व वा मध्यमं वा पश्चिमं वा संघं चेतसि प्रणिधत्ते श्रमणानामप्योघतो विनागत निर्देशं करोति, तत्रैौघतो विशेषितश्रमणानां विनागतः पाञ्चयामिकश्रमणानां चातुर्यामिक श्रमणानामेवं श्रमणीनामपि वक्तव्यं तथा चतुपर्णामुपाधयाणामप्येयमेव सामान्येन विशेषेणमागणा कर्तव्या भवति, तत्र चत्वार उपाश्रया इमे पाञ्चयामिकानां अमणानामुपाश्रयमुद्दिशतीत्येकः पाचयामिकानामेव मान द्वितीयः एवं चातुर्यामिकश्रमणश्रमणीनामप्येवं भावयति । संघं समुद्दिशिता, पढमो वितिओ य समणसमणीश्रो । ततिओ स् खलु चचस्यो एगपुरिसस्स । आधाकर्मकार प्रथम दानाकादिः संघ सामान्येन विशेपेण वा समुदाचा कर्म करोति । द्वितीयः भ्रमणश्रमणोः प्रथि धाय करोति । तृतीय उपाश्रयानुद्दिश्य करोति । चतुर्थ एकपुरुबस्योद्देशं कृत्वा करोति । अत्र यथा कल्पकल्पविधिमाह । जदि सव्वं उद्दिसिउं, संघं करेति दोएह वि ए कप्पे । वाससमा समग्री वा तस्य वि तहेब ॥ यदीत्यन्युपगमे यदि नाम ऋषभस्वामिनो जितस्वामिनाथ तीर्थमेकत्र मिलितं जवति पाइर्षस्वामिवर्द्धमानस्वामिनोर्वा तीथे मिलितं यदा प्राप्यते तदा तत्कालमङ्गीकृत्यायं विधिरनिश्रीयते सर्वमास सामान्येनोद्दिस्य यदाघाकर्म करोति । यद्वा द्वयोरपि पाखयामिक चातुर्यामिकसंघयो कल्पते प्रथ सर्वान् भ्रमणान् सत्मान्येनोद्दिशति तथापि भ्रमणानामपि सामान्येनोद्देशेन तथैव सर्वेषामपि पापानिकानां चातुर्या मिकानां न कल्पते एवं श्रमणीनामपि सामान्येनोद्देशे सर्वा सामकल्प्यम् | अथ विभागांदेशे विधिमाह । जं पु पुरिसं संघं, उद्दिशर्ती मज्जिमस्स तो कप्पो । मज्जिमउद्दिट्ठे पुरा, दो पि अकप्पितं होति ॥ यदि पुनः पूर्वस्वामिसत्यं संघमुद्दिशति ततो मध्यमस्याजितस्वामिसंघस्य कल्पते अथ मध्यमं संघमुद्दिशति तदा पोरपि पूर्वमध्यमकल्यं जयति एवं पश्चिमतीर्थकरससंघ मुद्दिश्य कृतं मध्यमस्य कल्पते मध्यमस्य कृतं द्वयोरपि न कल्पते । एमेव समवग्गे, समणी वग्गे य पुण्वमुद्दिट्ठे । मऊिमगार्थ कप्पे, तेसि कटं दोए वि या कप्पं ॥ एयमेव भ्रमणवर्गे भ्रमणवर्गे पूर्वेपासृषभस्वामिसंबन्धिनां श्रमणानां धमणीनां वा ददुद्दिष्मुद्दिश्य कृतं तन्माध्यमिकानां अमीन कल्पते तेषां मध्यमानामर्थाय कृतमुभयेषामपि पूर्वमध्यमानां साधुसाध्वीनां न कल्पते। एवं पश्चिममध्य मानामपि वक्तव्यम् । अधकपुरुषोदेशे विधिमाह । पुरिमाणं एगस्स वि, कथं तु सम्वंसि पुरिमचरिमाणं । चरिमाणं ण वि कप्पे, उत्राणामत्तगहणं तर्हि नत्थि || अकष्पडिय पूर्वेपासृषभस्यामि सत्कानामेकस्यापि पुरुषस्यार्थाय कृतं सर्वेषामपि पूर्वपश्चिमानामकल्यं पश्चिमानामप्येकस्यार्थाय कृतं सर्वेषां पूर्वपश्चिमानामकल्प्यम् । एतच्च स्थापनामात्रं प्ररु पणामात्रं संज्ञाविज्ञानार्थं क्रियते बहुकालान्तरत्वेन पूर्वपश्चि मसाधूनामेकवासंभवात तत्र परस्परं ग्रहणं नास्ति ने घटने मध्यमानां तु यदि सामान्येनैकं साधुमुद्दिश्य कृतं तत एकन गृहीते शेषाणां कल्प्यते अथ किमप्येकं विशेष्य कृतं ततस्तस्वा शेषाणां सर्वेषामपि कल्पं पूर्वपश्चिमानां तु सर्वचामपि तन्न कल्पते । अथोपायोदेशे विधिमाह । एवमुपस्सय पुरिसे, उणिं तुम मझगंतुक सिम पुथ्ये ॥ एवं यदि सामान्येनोपाश्रयाणामुद्देशं करोति तदा सर्वेषामकल्यम् । अथ पूर्वेषामाद्य तीर्थकर साधूनामुपाश्रयानुद्दिशति ततस्तदर्थमुदि पश्चिमानामुपलत्वात्पूर्वे वा साधकः स . र्वेऽपि न भुञ्जते मध्यमानां पुनः कल्पनीयम् । श्रथ मध्यमसाधूनामुपायान् सर्वानुद्दिश्य करोति ततो मध्यमानां पूर्वपथि मानां सर्वेषाम कल्प्यम् । श्रथ क्रियत एव मध्यमोपाश्रयानुद्दिशति ततस्तद्वर्द्धानान्तेषूपाश्रयेषु ये श्रमणास्तान् वर्जयित्वा - पाणां मध्यमभ्रमराभ्रमणीनां कल्पते (उद्दिएसमन्वेति पूर्व साधवः ऋषभस्वामिसत्का भण्यन्ते ते उद्दिष्टसमये साधुमुदिश्य कृततुल्याः एकमुद्दिश्य कृतं सर्वेषामकल्पनीयमिति भाषः । एवं तावत्पूर्वेषां मध्यमानां च भणितम् । अथ मध्यमानां पश्चिमानां वा श्रभिधीयते । सच्चे समा समर्थ, मज्जिमना चैव पच्छिमा चैत्र । ममिसमासमणी, पछिमा समणसमीयां ॥ सर्वे श्रमणाः श्रमण्यो वा यदुद्दिश्यन्ते तदा सर्वेषामकल्प्यं ( मज्जिमगा चैवत्ति ) श्रथ मध्यमाः श्रमणाः श्रमण्यो वा उशिस्ततो मध्यमानां पश्चिमाच सर्वेषामका केवति) पश्चिमानां मुदितेषां सर्वेषामकल्पयं मध्यमानां कल्प्यं मध्यमश्रमणानामुद्दिष्टं मध्यमसाध्वीनां कल्पने मध्यमश्रमणी नामुद्दिष्टमध्यमसाधूनां कल्पते पश्चिमश्रमणीनामुदिऐ पश्चिमसाधुसाध्वीनां न कल्पते मध्यमानामुभयेषामपि कल्पते । एवं पश्चिमश्रमणी नामप्युद्दिष्टे वक्तव्यम् । उवसग यि विभा, उज्जुगजडा य वंकजड्डा य । मज्जिमगनज्जुपक्षा, पेच्छा समाय गागमणं ॥ अघोषयेषु साद] गणितविभाजित करोति गणितानामियां पञ्चादिसंख्याकानां दातव्यं विभाजिता अमुकस्याम्कस्येगि निरिताः अत्र तु गणिता श्रपि विभाजिता अपि १ गणिता न विनाजिता २ विभाजिता न गणिता ३ न गणिता न विनाजिता, ४ अत्र प्रथमन मध्यमानां गणितविभाजितानामेवा शेषाणां कल्पते प्रमाणात सर्वेषाम या ही ते मध्यमानां शेषाणां कल्प्यम् । तृतीयभङ्गं यावत् सदृशनामानस्तेषां सर्वेषां सममकल्प्यं शेषाणां कल्प्यम् । चतुर्थभङ्गे सर्वेषां कल्यं पूर्वपश्चिमानां तु सर्वेषु (खान क उपस्थितत्वात् कल्पस्थितत्वकारणं कप्पशब्दे ) घृ० एतेन कारणेन चातुर्यामिकपाञ्चयामिकानामाधाकर्मग्रहणे विशेषः कृत इति प्रक्रमः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) अन्निधानराजेन्डः। अकप्पद्विय अकप्पिय अथ द्वितीयपदमाह। आयरिए अजिसेगे, निक्खुम्मि गिनाराएं य भयणाओ। भिखुस्सडविपवेसे, चउपरिवठू तो गहणं ॥ प्राचार्यानिकभिकृणामेकतमः सर्वे वा साना भवेयुः तत्र सर्वेषामपि योग्यमुझमादिदोषशुद्धं ग्रहीतव्यम् असत्यमाने पञ्चकपरिहाण्या यतित्या चतुर्गुरुकं यदा प्राप्तं भवति तदा प्रा. धाकर्मणो भजना सेवना भवति अथवा भजना नाम आचायस्याभिषेकस्य गीतार्थभिक्कोश्च येन दोषेणाशुरुमानीतं तत्परिस्फुटमेव कथ्यते । यः पुनरगीतार्थोऽपरिणामको वा तस्य न निवेद्यते । अशिवादिभिर्वा कारणैरटवीमध्वानं प्रवेष्टुमजिलष. ति तत्र प्रथममेव शुकोऽध्यकल्पत्रिकृत्वस्त्रीन् वारान गवेष्यते यदान अभ्यते तदा चतुर्थे परिवर्ते पञ्चपरिहाएयाधाकर्मिकस्य ग्रहणं करोति । अध्वनिर्गतानां चायं विधिः। चउरो चनत्थभत्ते, आयंबिलएगाण पुरिमप॑ । णिवीयगदायव्वं, सयं व पुरोग्गहं कुज्जा । आचार्यः स्वयमेव चतुष्कल्याणकं प्रायश्चित्तं गृह्णाति तत्र च. त्वारि चतुर्थभक्तानि चत्वारि श्राचामामानि चत्वार्यकस्थानानि एकासनकानीत्यर्थः चत्वारि पूर्वार्कानि चत्वारि निवृत्तिकानि च जवन्ति । ततः शेषा अध्यपरिणामकप्रत्ययनिमित्तं चतुष्कल्याणकं प्रतिपद्यन्तै। योऽपरिणामिकस्तस्य पञ्चकल्याणके दातव्यं तत्र चतुर्थनक्तादीनि प्रत्येक पञ्च पञ्च भवन्ति स्वयं चाचार्यः पूर्वमय प्रायश्चित्तस्यावग्रहणं कुर्यात् येन शेषाः सुखेनैवं प्रतिपद्यन्ते यत्पूर्व प्रतिसिद्धं वक्ति एवं भूयोऽनुज्ञायते अनुज्ञातं चेति । अतः किमर्थं प्रायश्चित्तं दीयत इत्याह। कालशरीरावेखं, जगस्स भावं जिणा वियाणित्ता। तह तह दिसंति धम्मं, जिज्जति कम्मं जहा अखिलं ॥ कालशरीरापेक्षं कालस्य शरीरस्य च यादृशः परिणामो बसंवा तदनुरूपं जगतो मनुष्यलोकस्य स्वभावं विवाय जिनास्तीर्थकराः तथा तथा विधिप्रतिषेधरूपेण प्रकारेण धर्ममुपदिशन्ति यथा अखिलमपि कर्म कीयते यच्चानुज्ञाते प्रायश्चित्तदानं तदनवस्थाप्रसंगवारणाय । वृ०४०। अकप्पिय-अकल्पिक-पुं० अर्गातार्थे, " किं वा अकप्पिएणं, गहियं फासुयं ततं होई" व्य०१० अनेषणीये, त्रि"अकप्पिय ण इच्छिज्जा पलिंगाहेज्ज कप्पियं" दश० ५ अ०॥ जं जम्मि देसनाए, अकप्पियं जेण जेण कालेण । बुच्यामि अन्नपाणे, विकारणं सुत्तनिदिहें ॥५॥ मगहाइ मगहसाली-णं ओयणमुबह यं हवा भुज । सीयलगं तु अभुजं, कुंथुममाणं रसजेणं ।।६।। तेसिं तु तंदुलोदं, एगंतणं नवे अप्पिनं तु । पिंकालु य पढ़कं, परिवुच्छा सावि य अभुज्जा ॥७॥ बालग्गको डिसरिसा, उरुपरिसप्पा नहिं सुहुमदेहा। संमुच्चिति अणेगा, दुप्पिक्खा मंसचक्खुणा ॥८॥ तमि य चेव परसे, उएई सालुओं हवइ जखं । सीयलगंमि य जल्लाजा, रसया समुच्छति य अणेगा॥।॥ सरिसवमागं मुग्गेण, मासायां अंबोण जं रकं । एगंतेण अजवं, तहिं मंमुक्का नवे सुहुमा ॥१०॥ मासा मूलपसिचा, परिखच्छा संजयाण पमिसिकं। मच्चाय संमुच्छंति, न सरएणूसंमिश्रा बहे ।।११।। सो पञ्चलजाया? अय-तको उगणियाहिं सिचाओ। परिमुच्छसि य विविहा, सव्वे पंचिंदिया हंति ॥१२॥ प्रामे तके सिके, कुमुंजसुग्गं अकप्पियं निछ । बामसरिसा प्रणेगा, सप्पा समुच्छिमा तत्थ ॥१३॥ जवसागरमनानं परिवुच्छं नेव कप्पियं हो। संमुच्छति अणेगा, मच्छा जलुआ सहस्साई ॥१३॥ एगंतेण अपेयं, खीरं दुरजाइयं तहिं देसे । संसइमं तत्थ जिया, गंडुलया सप्पमंमुक्का ॥२५॥ दहियं तिरन्सिपुव्वं, अक्कप्पयंति जलूयसंघाया। गुलवाणिअं अपेयं, पहरंमि गए तहिं देसे ॥१६॥ गुलवाणियं अपेयं, अंमाअोगजीवसंजयो तत्थ । जवपाणियं अपेयं, सेमाण य नएहतोयाणि ॥१७॥ एगतेण अभक्खा, परिवुच्छा मासपोलिया तस्य । सम्मुच्छंति निगोया, तेहि य जीवा बहुविहा य ॥१८॥ असगपिंडगगन्ना, मंडकाया परनपरिवुच्छा। पुब्बएहे सा कप्पइ, अवरएहे तंतुया जीवा ।।१६।। नक्खा य पंचात्तं, तु मोयगा देसमंडले तम्मि । एगतेण न कप्पर, सीयलकूरो अतुसिणो अ॥२०॥ आयारो पडिसिखो, जीमेतासी ? अलंजई भत्तं । मायारियपरिभट्टा, पाणिवहकरा असाहूआ ॥२१ ।। मूलगट्टा चंचु अ, तत्थ य संसजए मुहुत्तेणं । न हु मूलगसंसत्ता, कंदफलाई उ संसत्ते ॥३॥ सव्वं तिलगयामं, गोरसमासं तु रत्तिपन्जसियं । सहासी नूया, संसज्जए मुहुत्तेणं ॥२३॥ उवरुक्खलगतिगेयं, पत्तेयं तन्निरत्तकालेयं । विजलयणहब्भाइ ? सूहमुहाईसु संसत्ते ॥२४॥ एवं जुज्जं मगहे, विसए तहेव समासओ भणियं । मगहा इव नायव्वं, जाव कलिंगाउ नेपालं ॥ २५॥ दविमं वा विमुवामो? एयंमि य देसमंमले पत्ता। पाणाणि य भक्खाणि य, नायब्वाइं पयत्तेणं ॥६॥ मिरियकुडंगकुसंजी, करमियअग्गे सन्निछकामाया। एसा निगोयजोणी, परिचुच्छा होइ अब्जरवा ।। २७॥ कुद्दवतंदुलजाओ, दगकूलं पंचरत्तिपरिखुच्छं । एगंतेण अपये, जनयरपरिनाण जायंति ॥ २७॥ पूरियमंडूकमिश्रा, मासा क्थुला य देसला जाया। हंति अभक्खा कुंथुप्र-मक्खि अमसगाण सा जोणी॥श्ना Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) अभिधानराजेन्द्रः । xकपिय कुन तंबुल दगं क्रूरो जो होइ रत्तिपरिवुच्छो । एगते अपेयं, बहुविहसत्ताए सा जोणी ॥ २६ ॥ गुलपाणियं तु पेयं, मऊ हे विच्छुपाणियं चेत्र । सेमं काल न पेयं, तेसु वि जीवा अणेगविहा ।। ३० ।। श्राचारसरडीए, करंवगे छगनतकसिद्धो अ । एगते अभक्खो, सो ऊ उएहो सनिनेणं ॥ ३१ ॥ समुच्छंति निगोया, तस्सा पंचिदिया अणेगविहा । सुरुमा जहिं दिट्ठा, तज्जोणीया बहू जीवा ॥ ३२ ॥ सूरणकंदो मीसे-हिंसीसियो ? एगरत्तिपरिवुच्छो । एते अभक्खो, तेसि निगोया य मंडूका ।। ३५ ।। छागलत सिद्धो, उगणेहिं किएहकंगु जीओ | घूलं करिहिं मासो, परिवुच्छो तत्थ बहुवरया ।। ३५ ।। पंचमुत्तकंदा, कप्पिया सिद्धयारिनिच्चं पी । पत्ता कसाणवचयं, सोरट्ठा नारदेसंम्मि ॥ ३६ ॥ चहिं पयारेहिं सया, न कप्पए कंगु तर्हि देसे । जो बलम सो, तत्ययमात्रन्निया जीवा ॥ ३७ ॥ उहे संमुच्छम्मिय, अगजीवा निगोयसंत्राणा । सीयलयंमियमच्छा, रहरेणू संविया दहवे || ३७ ॥ छागल के सिको, कंगुओ खायरे हि कट्ठेहिं । are निगोयजीव, सीयझए तंतुया हुंति ॥ ३७ ॥ तकं विलंमि सिको, मासो लणएयरएनमासम्म । उतिमा जीवा, सोयलए हुंतिय निगोया ॥ ४० ॥ माहिसत्तके छगलेहिं, सिओ जइति कंगु होइ । समुच्छीत गा, सीयलए तंतुचा जीवा ॥ ४१ ॥ चल्लापत्तं तिनं मिसिकयं नहियं च अगिणीए । उप्पज्जति अणेगा, सीयलए किएहया जीवा ॥ ४२ ॥ सिविरात्री, एगंतेणं च सा वि पमिसिका । उम्मतसा जीवा, निगोयजीवा य सीयनए ॥ ४३ ॥ सालासर साकंगु, एए तिनि च उएदया कूरा | परिहरियव्वा निचं सीयलए तंतुआ जीवा ॥ ४४ ॥ arrach सिको, कंगु खायरेहिं कट्ठेहिं । तिल्लयमलूण मिस्सो, निगोय पंचिंदिया हुंति ॥ ४५ ॥ निग्गंथाल अभक्खं, मूलगसागं तिरति रिवुच्छं । कुंयुतसाय निगोया, उष्पज्जंति य बहुय जीवा ।। ४६ ।। मासाविपरिच्छा, एते वि हुँति भक्खा | इंति य निगोयजीवा, तंतुअ पंचिदिया तत्य ॥ ४७ ॥ सतु अक्खा भक्खा, भक्खा परितुच्छजेमुरहदैसम्म | पेला मुहुकुक्कुमिया, पंचिदियजीवजोणी सा ॥ ४८ ॥ एगं जाम जक्खा, पूखरिया कुंथुप्रा भवे पच्छा | एगतेण क्खा, परिवृच्छा मासपोनीया || ४६ ॥ उप्पज्जति निगोया, जीवा पचिदिया बहुविहाय । कम्म दुविसु मोयगे, परिच्छासु तर्हि देसे ।। ५० ।। गोसखाइयाणं, गोणं गोरसेण जं मिस्सं । संसप्प रसएहिं, खणेण वालग्गसरिसेहिं ॥ ५१ ॥ सव्वे विदेमे, परिवुसियाइँ अकप्पणिज्जाएँ । असणं पाणमक्खं, नाणा जीवाण सा जोणी ॥ ५२ ॥ जा परिवृच्छं जड़, एगरसं चजवि पि आहारं । सा बहुविहजीवाएं, करे तं प्रयातो ॥ ५३ ॥ जो नाही पडिवत्ति, सारणादेमेसु सत्तभणिएणं । सो संजम विक, करेइ साहु य परिहरतो || ए४ ॥ कुलघाण, बायानट्ठी जो य इक्खुरसो । मच्छासमुच्छंति, तक्कालं सव्त्रदेमेस || ५ || संसत्तणिज्जुती, एसा साहुहिं चेत्र पढिअव्वा । त्यो पुण सव्वेहि वि, सोयव्नो साहुपासाश्रो ॥ ५६ ॥ सं० नि० । आचा० । अकल्पित त्रि० अयोग्ये, ग० १ अधि० । अकबर - पुं० पारसीकोऽयं शब्दः दिल्लीनगराधिपती, म्लेच्छराजे, स हीरविजयप्रतिबोधितः " यो जीयाजयदानकिंकिममित्रात् स्वीयं यशोमंडिम, परमासान्प्रतिवर्ष मुग्रम खिले चूम एकलेऽवीवदत् । भेजे धार्मिकतामधर्मरसिको म्लेच्छाग्रिमोऽकन्चरः श्रुत्वा यद्वदनादनाविलमतिर्धर्मोपदेशं शुभम् ॥ १ ॥ कल्प० ॥ कम्म अकर्मन् - न० न० त० कर्मकरणानावे, वृ० १ ० आश्रवनिरोधे, सूत्र० १० १२ अ० । न विद्यते कर्मास्येति (क्कीणकर्मणि ) पुं० वा० १ ० ६ श्र० ६ ० ॥ कर्मणो गतिः । प्रत्थि णं भंते ! अम्मस्स गई परणाय हंता अत्थि कहं भंते ! कम्मस्स गई पमायड़ गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गइपरिणामेणं बंधणजेयणयाए निरिंधणयाए पुत्रो कम्मस्स गई परणाय कहएहं भंते ! निसंगयाए निरंगणयाए गड़परिणामेणं प्रकम्मस्स गई प गोमा ! से जहा नामए के पुरिसे सुकं तुंबं निच्छिदं निरुवयं पुत्री परिक्रम्ममाणे २ दब्भेहिय कुसेहिय वेढे हहिं महियाले वेहिं लिंप उएहं दनयइ नूई नई मुकं समा अत्याहमतारमपोरुसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा से नृणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठएहं मट्टियाले वाणं गुरुयत्ताएभारत्ताए गुरुयसंचारित्ताए सलिलतलमश्वइत्ता आहे धरणितलपट्टाणे भवइ हंता हव आहे गं से तुंबे तेसिं अहं मायावाणं परिक्खएणं धरणितलमइवइत्ता उपि सलिलपड्डाणे भवइ हंता भवइ एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए निरंगणयाए गतिपरिणामेणं श्रकम्मरम गइपमा कएदं भंते ! बंधनळेपणयाए कम्मस्स गई पत्ता गोयमा ! से जहा नामए कलसिंगलियाइ वा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्म मुग्गसिबलिया वा मामर्सिसिया वा सिसिलिया वा परं कर्मिजिया वा उपड़े दिएणा का समाणी फुटियाएं एततं गच्छ एवं खलु गोयमा ! कहरहं जंते! निरंधणया अकम्मर गई गोयमा से जहा नाम धूमस्म इंचाविष्णुमुस्स बीससाए निव्यापार गई पर एवं खलु गोयमा ! कई मेते! पुगेणं अकम्पस्स गई पाच गोषमा से जहानामए कंमस्स कोदंमयिकस्स लक्खानिमुनिव्यापाएणं गई पवत्त एवं खलु गोपमा ! पुण्ययोगेणं अकस्मस्म गई ववत्त एवं ख गोपमा ! नीसंगयाए निरंगणयाए जात्र पुत्रप्पओगेणं प्रकम्मस्स गई पत्ता | (गर पचायति ) गतिः प्रज्ञायतेऽयुपगम्यत इति यावत् ( निस्संगधापत्ति) निःसङ्गतया कर्ममत्रापगमेन (निरंगणयापति) नीरागतया मोटापगमेन (परिणामेवंति ) गतिरवभावतया श्रायस्येव (बंणडेयणयापत्ति) कर्मवचन ( १२० ) अभिधानराजेन्द्रः । नए एक फलस्येव (निरंधणयाति) कर्मेन्धनमि चनेन धूमस्येव (पुप्पोगेणंति) सकर्मतायां गतिपरिणामस्वेन बाणस्यैवेति एतदेव विवाद ( कायद (निरुवहति) वाताद्यनुपहतं ( दम्भेहियत्ति ) दर्भैः समूतैः ( कुसेहियत्ति ) कुशैर्दर्नैरेव छिन्नमूलैः ( नूभूत्ति ) नूया तूयः ( अत्थाहेत्यादि ) इह मकारी प्राकृतप्रनवावतोऽस्ताघेत वातरेऽत पापरूपेपेऽपुरुषप्रमाणे (कासिलिया वा ) कलायानिधानधान्यफलका (सिजिति) वृकविशेषः परंम मिडिया वा पति एक इत्येवमन्त निश्चयो यत्रासावेकान्त एक इत्यर्थोऽतस्तमन्तं जागं गच्छति इह च बीजस्य गमनेऽपि यत् कवाय सिम्बलिकादि । तमुक्तं "त तयोरभेदोपचारादिति (ससापति) उसिया स्वावेन (निव्वाघापणंति) कटाद्याच्छादनाजावात, भ०७०१ ४० (कम्मस्स ववहारो ग विज्जति) आचा०१ श्रु०२ २०१३० । न विद्यते कर्मास्येति अकमी कर्मरहिते, पर्यान्तरायजनिते जीवस्य सहजे व "किन्तु वीर वीरतं, कहं देवं पच्च ई । कम्ममेगे पर्वदेति, अकम्मं वा वि सुब्वया" सूत्र ०१ ४०७०। कम्मओ - अकर्मतस् - अव्य० कर्माणि विनेत्यर्थे, “यो अकम्म विभत्तिनावं परिणम" ० १२० ५ उ० । कम्म कमीश-पुं० न विद्यते कर्मा शो यस्य सोमः । कर्मविप्रमु" अप्पत्तियं अकम्मंसे, एयमम्मिगे सुर सूत्र० १ ० १ ० २ ४०। विगतघातिकर्मणि स्नातकभेदे, भ० २५ श० ६ उ० 1 66 1 अकम्पभूमग अकर्मक पुं० कर्म कृषिवाणिज्यादि मोहा नुष्टाने या तकिला भूमिपाले कमाएका वात्समासान्ताप्रति कर्ममिजेषु गर्भकान्तिकमनुष्येषु, प्रज्ञा० १ पद । ते च त्रिंशद्विधाः । से किं तं कम्मभूमिगा ? अक्रम्मभूमिगा तीसति-विहा पाना जहा पंचमिव पंच िडेरवरि पंच िहरिवासेहिं पंच रम्यगवासेहिं पंचाई देवकुरुपि पंचा उत्तरकुरुहिंसेनं अम्मभूमिगा । अथ केते कर्मभूमिका सुरिराह कर्मभिकाशिद्विधा प्रकृप्ताः । तच त्रिंशद्विधत्वं क्षेत्रनेदात् । तथा चाह । "तं जदा पंचम" इत्यादि पञ्चनिर्दे 1 तैः पचभिः पञ्चभिर्देवकुरुभिः प ञ्चभिरुत्तरकुरुनिर्भिद्यमानात्रिंशद्विधा नवन्ति । पञ्चानां संख्यात्मकत्वात्तत्र पञ्चसु मयतेषु मनुष्या गप्मृतिप्र माणशरीषा पथोपमायुषो वर्षभनारायनमः चतुरस्त्रसंस्थानाः चतुष्प टिपृष्ठकर एकाच तुपतिक्रमभोजना एकोनाशीतिदिनान्यपत्यपालकाः । उक्तं च “ गाउयमुच्चापलि ओ माउजरसहसंघयणा हेमयरम दनरा मिषवासी ॥ १ ॥ सट्टीपिट्टकरं याणमपाण तेसिमाहारो । जत्तस्स चचत्थस्से-गुणसिइदिणवश्वपालया " ॥ २ ॥ पचसु हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यकेषु पापमा युपो द्विगव्यतिप्रमाणशरीरोच्च्या वज्रजनाराच संहनानिनः स मचतुरस्रसंस्थानाः पशुभकातिक्रमादारणादिविशत्यधिकशतसंख्यपृष्ठकर का धनुष्य दिनान्यपत्यपालका 1 "रियासम्म आउपमाणे सरीरमसेो] पत्रक्षमाणि दोषिय दोषिय कोरिया भणिया ॥१॥ स्वय आहारो, चउसट्ठिदिणाणि पालणा तेसिं । पिट्टकरंमाणसयं, अ ठावीस मुणेयव्वं ॥ २॥ पंचसु देवकुरुषु पंचस्वत्तरकुरुषु त्रिपल्योपद्मायुषो गतियप्रमाणशरीरोच्छ्रयाः समचतुरस्रसंस्थाना भनारायननिगः पाशदधिकशतद्वयप्रमाणपृष्ठकरएम का श्रष्टमनक्तातिक्रमाहारिण एकोनपञ्चाशद्दनान्यपत्यपालकाः। तचोकंच "दोस विकुरु मया तिपचपरमाउसो तिको सुचा । पिठकरंरूसयाई, दोनप्यन्नाइ माणं ॥ १ ॥ सुसम सुसमानावं, श्रणुभवमाणाणवच्चगोवण्या | श्रवण पादणारं, अनुमनन्तरस आहारो २ ॥ तेषु सर्वेष्वपि क्षेत्रीय मनुष्याणामुपयोगाः कल्पसम्पादिताः नवरमन्तरीयापेक्षया पसु तेषु मनुष्याणामुयान वीर्यादिकं कल्पपादपफलानामास्वादो भूमेर्माधुर्यमित्येवमादिका भाषा पर्यायानधिकृत्यानगुणा ज्योऽपि हरिवर्षेषु पञ्चसु रम्यक वर्षेषु श्रनन्तगुणास्तेभ्योऽपि पञ्चसुदेव. कुरुषु पञ्चसूत्तरकुरुष्वनन्तगुणाः । प्रज्ञा० १ पद । जी० आ० म० फि० एषां कल्पवृक्काः कम्पकारि [न] अकर्मकारिन्- त्रि० स्वभूमिकानुचितक कारिणि, प्रश्न० श्र० २ द्वा० । 66 कम्पग - अकर्मक त्रि० नास्ति कर्म यस्य बहु० कप् । व्याकरणो कम्मराम्ये पाती। "लः कर्मणि भावे याकर्म केल्या" ३।४।१९ इति पाणिनिः] फलव्यापारवाया मकर्मकः " इति हरिः । स्त्रियां टापि कापि श्रत इत्वम् अकस्मिंका "प्रसिद्धेरविवातः कर्म्मणोऽकस्मिका क्रिया" इति हरिः। arao विदितकर्मका अकर्मका भवन्ति । यथा, पश्य मृगो धावति, श्राचा० १ ० १ ० ३ ० । अकम्मनुमग कम्मभूमयाणं माणं दसविहा रुक्खा जवनोगत्ताए नवत्थिया पण्णत्ता | तंजहा मत्तगया य भिंगा, तुमि अंगा दीव - जोइ - चित्तंगा । चित्तरसा मणिअंगा, गेहागारा अणग्गियाय ॥ तथा अकर्मभूमिकानां भोगजिन मनुष्याणां दशविधा ( रुक्खति ) कल्पवृक्काः ( उवभोगतापत्ति ) उपभोग्यत्वाय Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२१) अकम्मन्नमग अनिधानराजेन्द्रः । अकम्मया ( उवत्थियत्ति ) उपस्थिता उपनीता इत्यर्थः। तत्र मत्ताङ्गकाः । निरंभइ वइजोगं निरंजइत्ता कायजोगं निरंभइ कायजोगं मद्यकारणनूताः (जिंगत्ति) भाजनदायिनः ( तुमियंगत्ति)। निरंभश्त्ता प्राणापाणनिरोई करे तुर्याङ्गसम्पादकाः (दीवत्ति) दीपशिखाः प्रदीपकार्यकारिणः आणापाणनिरोहं (जोइत्ति ) ज्योतिरनिस्तत्कार्यकारिण इति ( चिउंगति)चि करेइत्ता इसि पंच रहस्सक्खरचारकाएयणं अणगार समुप्राङ्गाः पुष्पदायिनः चित्ररसाःनोजनदायिनः मण्यङ्गा प्राजर- छिन्नकिरियं प्रणिय मुक्कझाणं जियायमाणे वेयणदायिनः गेहाकाराः भवनत्वेनोपकारिणः अनग्नत्वं सवखत्वं णिज्जं आउयं नामं गोयं च एए चत्तारि विकम्मं से जुगतरतुत्वादनग्ना इति, स०१० सम०।। वं खवेइ ।।७शा तो ओराझियकम्माई च सव्वाहिं विप्पअकम्मनूमि-अकर्मजमि-स्त्री० न० कृष्यादिकर्मरहिताः। क जहणाहिं विप्पनहित्ता उज्जुसेढी पत्ते अफुसमाणगई नई ल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकैरएपवतपञ्चकरूपास्त्रि-- एगसमएणं अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवडत्ते सिज्ज शदकर्मचूमयः । नं० । इत्येतासु जोगनूमिषु, प्रइन0 आश्र० ५ बुज्का मुच्च परिनिव्वाएइ सव्वमुक्खाणं अंत करेइ ।।७३|| द्वा० । स्था० | प्रव०॥ शैलेस्थकर्मताद्वारमर्थतो ब्याचिख्यासुराह (अहेति) केवजंबुद्दीवे दीव मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तओ अकम्म लाऽवाप्त्यनन्तरमायुष्कं जीवितमन्तर्मुहर्तादिपरिमाणं पाल यित्वा अन्तर्मुहुर्तपरिमाणः श्रद्धा कालोऽन्तर्मुहुर्ताद्धा तदशेष भूमीनो पमत्तानोतंमहा-हेमवए हरिवासे देवकुरा जंबूदी मुद्वरितं यस्मिस्तदन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषम् । तथाविधमायुरस्येति वे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं तो अकम्पनूमिश्रो पापनाश्रो अन्तर्मुहर्ताद्धावशेषायुष्कः सन् पाठान्तरतश्चान्तर्मुहूर्तावशेतंजहा-उत्तरकुरा रम्मगवासे एरनवए (स्था०३ गाउ०) पायुकः । पठन्ति च "अंतोमुहुसश्रद्धावसेसा" इति प्राकजम्बुद्दीवे दीवे देवकुरुनत्तरकुरुखज्जाश्रो चत्तारि अकम्मनू- तत्वादन्तर्मुहूर्तावशेषाद्धायाम् (जोगनिरोहं करेमाणित्ति ) मीओ पम्पत्ताओ तंजहा-हेमवए हेरमवए हरिवासे रम्म योगनिरोधं करिष्यमाणः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपतनशीलमप्रति पात्यधःपतनाभावात् शुक्लध्यानं "समुदायेषु हि प्रवृत्ताःशगवासे, स्था० ४ ठा० । ब्दा अवयवेवपि वर्तन्ते" इति शुक्लध्यानतृतीयभेदं, भ्यायसर्वसङ्ग्रहे। स्तत्प्रथमतया तदाद्यतया मनसो योगो मनोयोगःमनोद्रव्यजंबुद्दीवेदीवे उ अकम्मनूमीप्रोपमत्ताओ।जहा-हेमवए साचिव्यजनितो व्यापारस्तं निरुणद्धि । तत्र च पर्याप्तमात्रस्य हेरणवए हरिवासे रम्मगवासे देवकुरा उत्तरकुरा ।धायइखं म- संझिनो जघन्ययोगिनो यावन्ति मनोद्रव्याणि तजनितश्च यादीवपुरच्छिमकेणं न अकम्मलूमीओ परमत्ताओ।जहा हेम- वान् व्यापारस्तदसंख्यगुणविहीनानि मनोद्रव्याणि तद्यापारं वए जहाजंबुद्दीवे तहा जाव अंतरणईओ जाव पुक्खरवस्दीव प्रतिसमयं निरुन्धन् तदसंख्येयसमयैस्तत्सर्वनिरोधं करोति। यत उक्तम् "पज्जत्तमित्तसप्लि-स्सजत्तियाई जहाजोगिस्स । ले पञ्चत्थिमके भाणियव्वं (स्था०६ ग०) कविहेणं नंते ! होति मणोदव्या, तब्वावारो य जम्मत्तो" ॥ तयसंखगुणअकम्मभूमीओ पसत्ताओ? गोयमा ! तीसं अकम्पनू- विहीणे, समए २ निरुंभमाणो सो । मणसो सम्वनिरोहं, कुमीओ पमत्ताओ, तंजहा पंच हेमवयाइं पंच हेरलवयाई । णइ असंखेज्जसमएहिं " तदनन्तरं च वाचो वाचि वा योगो पंच हरिवासाई पंच रम्मगवासाई पंच देवकुराई पंच उत्तर वाग्योगो भाषाद्रव्यसाचिन्यजनितो जीवव्यापारस्तं निरु पद्धि तत्रच पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवाग्योगपर्यायेभ्योऽसं. कुराई एयासु णं भंते ! तीसासु अकम्मनूमीसु अस्थि ख्यगुणविहीनांस्तत्पर्यायान्समये २ निरुन्धनसंख्येयसमयैः नस्सप्पिणीति वा ओस प्पिणीति वाणो णडे समझे। सर्ववाग्योग निरुणद्धि । यत उक्तम् “पज्जत्तमेनवैदिय, जहभ० २० श० उ०। सवइजोगपज्जवाजे उ। तदसंखगुणविहीणा, समए.२६ - अकम्ममिय-अकर्मभूमिज-पुं० अकर्मनमिषु जाता अकर्म- भंतो ॥ सब्बवहजोगरोह, संखादीपहिं कुणइ समपहिं । मिजा गर्भजमनुष्यभेदेषु, नं० । आणापाणनिरोह, पढमसमओयसुहमपणगत्ति" आनापा. अंकम्मन्नूमिश्रा-अकर्ममिजा-स्त्री० अकर्मभूमि गमि- नावुच्चासनिःश्वासौ तन्निरोधं करोति सकलकाययोगनिस्तत्र जाता अकर्मनमिजा नोगनूमिजगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्य रोधोपलक्षणं चैतत्तं च कुर्छन् प्रथमसमयोत्पन्नसूक्ष्मपनक जघन्यकाययोगतोऽसंख्येयगुणहीनं काययोगमेकैकसमये स्त्रीषु, स्था० ३ ग० १ उ०। निरुन्धन् देहविभागं च मुञ्चन्नसंस्येयसमयैरेच सर्व निरुणसे किंतं अकम्मनूमियामो अकम्मन्नमियाओ तीसति-वि द्धि । उक्तं च । “जो किर जहन्नजोगो, संखेज्जगुणहीणम्मि धाओपमत्ताओ। जहा-पंचसु हेमबएमु पंचसु हेरमवएसु इक्किक्के । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचतो. ॥ रंभइ पंचसु हरिवासेसु पंचसु रम्मगवासेसु पंचसु देवकुरुमु पंचमु सकायजोगं, संखाइएहि चेव समरहिं । तो काययोगनिरोहो, उत्तरकुरुषु सेत्तं अकम्मन्नूमगमएस्सीओ। जी०१ प्रति सेलेसीभावणामेति" इत्थं योगत्रयनिरोधं विधाय ( सिअकम्मया-अकर्मता-स्त्री० कर्मणामभावे, अस्याः फलं यथा- त्ति) ईषदिति स्वल्पप्रयत्नापेक्षया पञ्चानां हस्वाक्षराणां प्रश्शलश्त्येवंरूपाणामुथारो भणनं तस्याद्धाकालो यावता अहान्यं पालइत्ता अंतोमुहुत्तावसेसाउए जोगनिरोहं उचार्यन्ते ईषत्पश्च, ह्रस्वाकरोच्चारणाद्वा तस्यां च (णमिति)प्रा. करेमाणे सुहमकिरियं अप्पमिवायं मुक्ककाणं झायमाणे ग्वत् अनगार: समुच्चिन्नोपरता क्रिया मनोव्यापारादिरूपा यतप्पढमयाए मणजोगं निरंभइमणजोगं निरंनइत्ता वइजोगं स्मिस्तत् समुच्छिन्नक्रियं न निवर्तते कर्मकयात् प्रागित्येवंशी. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकम्मया - लमनिवर्ति क्लभ्यानं चतुर्थभेदरूपं ध्यायन् शैलेस्यवस्थाम नुभवन् इति भावः । हस्वाकरोचारणं च न विलम्बितं हतं वा किं तु मध्यममेव गृह्यते, यत आह । " हस्लक्खराएँ मज्जेजेण कालेन पंथ भवंति अच्छति सेोगितो, रातियमि ततो कालं पविचा यः कुरुते तदाह बेदनीयं शातादि युष्यं मनुष्यायुर्नाम मनुजगत्यादि गोषं योगोत्रम् (पपति) पतानि चत्वार्यपि (कम्मं सेति) सत्कर्माणि युगपत् कृपयति एतत्क्षपणन्यायश्च भाष्यगाथाभ्योऽव सेयस्ताश्चैताः “ते संखेज्जगुणा, सेदीप यरश्यं पुरा कम्मं । समए २ खवयं, कम्मं सेलेसिकाग्रेण ॥ खयंख तं पुण, निले किचिदुचरिमसमय किं चिश्च होश चरिमे, सेनेसी पत्तयं वोच्छं ॥ मणुत्रगश्जायतलवा यरं चपजत सुनगमागखं । श्रधायरवेयाणिचं मराठमुखं जसो णामं ॥ संभय जिराणामं नरास्वीयचरिमसमर्थमि। सेला जिणसंतान, दुचरिमसमर्थमि विद्वेति तत इति वेदनीयादियानम्तरम् (श्रोराक्षियकम्माई सि श्रीदारिकका पलकणातैजसं च (सव्वाहिं विप्पजयाहिंति ) सर्व्वाभिरशेषाभिर्विशेषेण विविधं वा प्रकर्षतो दानयस्त्यागो विप्रहाणयो व्यक्त बहुवचने तामिः किमुकं भवति सर्वथा परिक्षाटेन न तु यथापू संघातपरिशाटाज्यां देशत्यागतः (विष्यजहिता) विशेषेण प्राय परिहास्य उर्फ हि "ओलिया सव्वा, चयह विप्पजहवाहि जं भणियं । नीसेसतयाण जहा, देसचारण सोपुवि "शब्दोऽथ श्रविकादिनावनिवृत्तिमस्यामनुक्तामपि समुचिनोति । यत उक्तम् " तस्सोदयियाभावा, जव्व व विणियत्तप जुगवं । सम्मन्तणाणदंसण, सुसि " स्ताणिमोभूणं" ऋजुरवका श्रेणिराकाशप्रदेशपतिस्तां प्राप्त ऋजुश्रेणिगत इति यावत् (अफुलमाणगरन्ति) अस्पृशतिरिति गायम थपथा सर्वानाकाशप्रदेशाच स्पृशत्यपि तु या जीव अवगाढस्तावत एव स्पृशति न तु ततोऽतिरिकमेकमपि प्रदेशसूर्वमुपर्वेकसमयेन द्वितीयादिसमयान्तरा स्पर्शनेनाचिण वक्रगतिरूपविप्रभावेन अन्यस्यतिरेकाभ्यामुतोऽर्थः स्पष्ट तरो भवतीत्यनुश्रेणिप्राप्त यनेन गतार्थत्वेऽपि पुनरभिधानं तत्रेति विषविते मुक्तिपद इति यावत् ( गतेति ) गत्वा साकारोपयुक्त कानोपयोगवान सिध्यतीत्यादि पावदन्तं करोतीत्या दि प्राग्वत् । उक्तं च "ऋजुसेढि पडिवन्नो, समयपपसंतरं अफुरमाणो । एगसमपण सिज्झर, अहसागावतो सो " इति द्वासप्ततिसूत्रार्थः । इह पूर्णता "सेलेसी भंते! जीवे किं जणय‍ अकम्मं जणय अकम्मयाओ जीवा सिज्यंति” इति पाठ पूर्वत्र च कचित् किंचित्पावनेनाल्पा एव प्रा आश्रिताः अस्माभिस्तु भूयसीषु प्रतिषु पचाव्यायापाउद नादित्यमुन्नीतमिति । उत्त० २१ भ० । 33 (१२२) अभिधानराजेन्द्रः । । कम्हा (म्मा ) - अकस्मात् - अव्य० न कस्मात् किञ्चित्कारणाधीनत्वं यत्र । अलुक्समासः । वाच० । 'पदमश्मष्मस्मह्मां म्हः' ८। २ । ७४ । इति सूत्रेण स्मेति भागस्य मकाराक्रान्तो हकारः । प्रा० । अथवा मगधदेशे गोपालाला बलादिप्रसिद्ध करमा दिति शब्दः । स इह प्राकृतेऽपि तथैव प्रयुक्तः । स्था०५ वा० । कारणानधर्धीने, अतर्कितोपनते या बाह्यनिमित्तानपेके, स्था० 9 टा० । श्रनभिसन्धे, प्रश्न० सं० ५ द्वा० श्राचा० कम्डा (म्मा किरिया अकस्मात् किया स्त्री०अन्यस्मै निस्ऐन शरादिनाऽन्यात क्रियास्थाने ३० - महादंवत्तिय अकम्हा (म्मा ) दंड - अकस्माद्दराम ५० अकस्मादमिसन्धिनात्यवधार्थप्रवृत्या दपमोऽन्यस्य विनाशोऽस्मादरामः । स०१३ समः । अन्यवधार्थप्रहारे मुकेऽन्यस्य पधलणे चतुर्ये दण्डे, स्था० ५ ठा० २ ० | प्रब० । प्रश्न० । आव० । अफम्हा (म्मा ) दंमरचिय अकस्मादण्डमत्यधिक जन्मकस्माद्दण्डः प्रत्ययः कारणं यस्य । चतुर्थे दण्डसमादाने, अहावरे चलत्थे दं समादाणे श्रकम्मादं मवति एत्ति श्राहिज्जर से जहाणामए के पुरिसे कच्छंसि वा जाय वणदुग्गंसि वा मियरचिए मियसंकष्ये मियलिहावे मियवहा गंवाए मणि कार्ड अनवरस्स मियस्स बहाए सुं प्रायामेा णं णिसिरेजा स मियं वहिस्सामित्तिक तित्ति रं वा वट्टगं वा चमगं वा लावगं वा कवोयगं वा कवि वा कविलं वा विर्धिता जय इह खलु से अमरस अाए अछ फुसति अकस्मादमे ||१०|| से जहां सामए के पुरिसे साली किया वीडीणि वा कोदवाणि वा कंगूणि वा परगाणि वा लाणि वा शिलिजमाणे अभयरस्स तास्स बहाए सत्यं शिसिरेज्जा से सामर्ग तागं कुमुयुगं बीटीक सियं कलेसुयं तणं बिंदिस्सामित्तिकट्टु सालिं वा वीहिं वा कोहं वा कंगुं वा परगं वा रालयं वा छिंदित्ता भवइ इति स्वलु से अमरस अडाए अनं फुसति प्रकम्माद एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जं हिज्जर चलत्थे दं समादाणे अम्मादमवत्तिए आहिए ॥ ११ ॥ अथापरं चतुर्थ दण्डसमादानमक रुमाह एक प्रत्यधिकमाख्यायते । इह चाकस्मादित्ययं शब्दो मगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालाङ्गदादिना संस्कृत एवोच्चार्यत इति । तदिहापि तथाभूतयच्चारित इति तद्यथानाम कचित्पुरुषो लुन्धकादिकः कच्छे या यावद् धनदुर्गे वा गत्वा मृगेरिरारव्यशुनिर्वृतिवर्त्तनं यस्य स मृगवृत्तिकः स चैवंभूतो मृगेषु संकल्पो यस्यासौ मृगसंकल्पः। एतदेव दर्शयति । मृगेषु प्रणिधानमन्तःकरणवृत्तिर्यस्यासी मृगप्रणिधानः क मृगान्द्रदयामीत्येतद्भ्यय सायी सन् मृगवधार्थ कच्छादिषु गन्ता भवति । तत्र च गतः दृष्ट्वा मृगानेते मृगा इत्येवं कृत्वा तेषां मध्येऽन्यतरस्य मृगस्यबधार्थमिषु शरम (श्रायामेतसि श्रायामेन समाकृष्य सूयमु द्दिश्य निसृजति स चैवंसंकल्पो भवति । तथाऽहं मृगं हनिष्यामीति इषु क्षिप्तवान्। स च तेनेषुणा तित्तिरादिकं पक्षिविशेषं व्यापयिता भवति, तदेवं सत्यायन्यस्यार्थाय निशि दण्डो बदान्यं स्पृशति घातयति तदा 'अकस्माइण्ड' इत्युच्यते ॥ १० ॥ अधुना वनस्पतिमुद्दिश्याकस्माद्दण्ड उच्यते ( से जहेत्यादि ) नयथानाम कमित्युरुषः रुषीयत्वादि शा ल्यादेपन्यजातस्य श्यामादिकं तृणजातमपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणः सन् अन्यतरस्य तृणजातस्यापनयनार्थ शखं दात्रादिकं निसृजेत् स च श्यामादिकं तृणं छेत्स्यामीति कृत्वाsकस्मात्छालि वा रालकं वा विद्याद्रक्षणीयस्यैवासावकस्मात्ता भवति । इत्येवमन्यस्यार्थायाम्यते वा स्पृश तिमि यदि या स्पृशतीत्यनेनापि परितार्थ करोतीति द Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यक्रम्मादंडवत्तिय शयति तदेवं खलु तस्य सत्कर्तुस्ताप्रत्यधिकमकस्मादण्डनि मितं साचयमिति पापमाधीयते संचतेसमादानमकस्मादण्डप्रत्यधिकमाख्यातमिति ॥ ११ ॥ २ ० २ ० । कम्हा (म्मा ) भय - अकस्मान्नय - न० अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं दृदादिष्वेव स्थितस्य राज्यादी भयमकस्माद्धथम्, श्राव० ४ श्र० । स्था० । बाह्यनिमित्तनिरपेके स्वविकल्पाजाते भयभेदे, स०७ सम० । श्रा० चू० नि० चू० । अकस्मात् सहसैव विश्रब्धस्यातध्वनिश्रवणाद्भयम कस्माद्भयम् । यथा हस्त्या- गच्छतीत्यादिश्रवणासनम्, दर्श० । प्रकय-कृत- त्रि० कृ कर्मणि क्तः । न० त० । कृत जिन्ने, अन्यथाहने बलपूर्वकृते ऋपालेष्यपत्रादी, साध्वर्थ दायकेन पाकतोविहिते, प्रश्न० सं० १ द्वा० " अकयमकारियमसंकप्पियमणाहुयं " ज० ७ ० १ ० । ( एकदेशग्रहणेन ग्रहणात् ) अकृकरणे, अगृर्हतप्रायश्चित्ते, व्य० १३० । जावे क्तः । श्रभावार्थे, न० त० करणाभावे, निवृत्तौ वाचः । अफपकरण-अकृतकरण पुं० पष्ठाष्ठमादिनिस्तपोविशेवैरपरिकर्मिशरीरे प्रायश्चियोग्ये पुरुषने ०१० - कयकरणाय विदा, श्रहिगया अणहिगया थ बोधव्वा" व्य० १ उ० तकरण द्विविधाः अधिगता अनधिगताश्च तच ये अतसूत्रारते अनधिगताः गृहीतसूत्रार्थास्तु अधिगताः व्य० १ उ० । ( १२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । ककृत कृतमुपकारं परसंबन्धिनं न जानाती त्यकृतज्ञः, स्था० ४ ठा० ४ उ० । ज्ञा० । क० । असमर्थ स० । तोपकारास्मारके पाच अक्ष्णुया-प्रकृतज्ञता - स्त्री० अकृतज्ञस्य प्रावस्तता । कृतघ्नतायाम्, "च ठाणेहिं संते गुणे णासेज्जा तंजहा- कोहेणं प मिणिवेसेणं प्रकयण्णुयाए मिच्छताहिणिषेसेणं " स्था० ४ ग० ४ उ० । अकषपुष्य-अकृतपुण्य त्रि० अविहितपुण्ये, विपा० १०७ "कपुष्प जणमणो रहा विवचितिजमाणी " झा० एन० । अकवण (ए)-अकृतात्मन् भियतेन्द्रिये "सुखमात्यलिकं ग्राह्यमतं दि मोक्षं विजानीयाद्दुप्रापमकृतात्मनि । अकसाय क्ष्यमाणं कम] पृष्ठवंशास्थिकं यस्य देहस्यासी कररामकः जी० ३ प्रति० मांसलतयाऽनुपादयमपृष्ठवंशा स्थि श्री मांसोपचितत्वादविद्यमान पृष्ठपाश्वास्थिकं तं प्रण अकरंरुयकणगगस्य गणिम्मल सुजायणिरुवहयदेहधारी " जी० ३ प्रति० । 66 9 अकरण - प्रकरण - न० कृ० नावे ल्युट् । अर्थाजावे, न० त० अव्यापारे श्राचा० १श्रु० अ० । १० । अनासेवने, श्राव० । ६ श्र० । पञ्चा० । परिहरणे, आ० चू० १ अ० । अकरणान्मन्दकर णं श्रेयः । अकरणं च न्यायादिमते करणाभावः, मीमांसक वेदान्तिमते निवृत्तिः, अकरणीये मैथुने, “जर सेवतप्रकरणं, पंचएहं विवादिरा इति" प० ३३० संस्कारहीनतारूपे साधन (डेतु) दोषे, यथाऽनित्यः शब्दः कृतकत्वस्मादिति । अत्र कृतकत्वादिति वक्तव्ये कृतकत्वस्मादिति संस्काररहितोऽशुद्ध उक्तः । रत्ना० ८ परि० । अकरणया-प्रकरणता-स्त्री० करणनिषेधरूपतायाम्, भ० १५० १० अडिसन पुनः करिष्यामीत्य पस्यातुमभ्युपगन्तुमिति स्था० २ ० १४० बनासेवनायाम, ध० ३ अधि० । " सज्जायस्स करणयाप उभओ कालं " आव० ४ अ० | अकरणओ-अकरणम्-अन्य प्रकरणमाधित्येत्यर्थः 66 3 इति यावत्, " प्रकरणओ णं सादुक्खा " भ० १ ० १ ३० । अकरण लियम- प्रकरण नियम- पुं० अनासेवननियमे "संप्रज्ञातनामा तु संमतो वृत्तिसंकृयः सर्वतोऽस्मादकरण, नियमः पापगोचरः " ॥ द्वा० २० द्वा० ॥ करणि-भकरणि स्त्री० नम्. आक्रोशे बनिः करणं मानूदित्याक्रोशात्मके सापे, 'तस्याकरणिरवास्तु' इति यात्र० प्र० कर णिज्ज प्रकरणीय स्त्री० न०त० सामान्येनाकर्त्तव्ये, भाव० ४ श्र० । आ० चू० “इच्छामि परिक्कमिडं, अकप्पो श्रविराहिओ अकरणिज्जो " आव० ४ श्र० । अकर्तव्ये, इहलोक परलोकविरुरुत्वादकार्ये, श्राचा० १ ० १ ७ उ० । " अप्पाणं अकर णिज्जं पावकम्मं तं णो अहोस) आचा० १ ० ५ अ० ३ उ० । श्रसत्ये, "मिच्छत्ति वा वितहत्ति वा असचंति वा सच्चयंति वा अकरणीयंति वा एगट्ठा,” आ० चू० १ ० करणोदय-अकरणोदय- त्रि० भाविकालभाश्रित्याकरणस्यैवोदयो यस्मिन्निति तत्तथा ( श्रनागते कालेऽकरणत्वेनोदयं प्रापति) उत्थाने निर्वेदात् करणमकरणोदयं सदैवास्याः " पो० १५ विष० । ० 66 " कयमुह - प्रकृतमुख-त्रि० अकृतमकरसंस्कारेणासंस्कृतं मुखं यस्यासावकृतमुखः अपठितशिहिते, "पोत्थगपचयपढिये किं रमसे एस हुव्व श्रहिलायं । अकयमुहफलगमाणय-जाते बिक्खंतु पंचग्गा " बृ० ३ उ० । 3 · कय समायारीय अकृत समाचारीक पुं० उपसंपदविषयाया मएमली पियायाश्च द्विविधाया अपि समाचार्य प्रकार के वृ० १ उ० । अफयग्रुप-अकृतश्रुत-पुं० [अमीतार्थे ० ६ ० अगृहीतो चितार्थे तदुभये, व्य० ४ ७० करंग - प्रकरएमक- त्रि० करएमको वंशप्रथितः समतलकस्तस्यैवाकारो यस्य तत्करण्मकम् न करएमकमकरएमकम, म० करमका काररहिते दीर्घे, समयतरखे वा" बकरंमयंमि भाणे, इत्थो न जहा न घट्टेति " वृ० ३ उ० मकरं मुय प्रकरएमुक - त्रि० अविद्यमानं मांसलतया अनुपल | अकसाय कषाय-- त्रि० कषायरहिते, “अकषायं श्रहखायं, अकसाइ (न्) - प्रकषायिन् - पुं० कषाया विद्यन्ते यस्यासौ कपाय न कपायी अकपायी, सूत्र० १ ० ६ अ० । आचा०। कषायोदयरहिते, प्रा०३ पद ور अकलंक कझडु-पुं० विद्वद्भेदे, श्रकलङ्कोष्याद- द्विविधं प्रत्यक्षज्ञानम्। सांव्यवहारिकं मुख्यं च, इत्यादि न०त०कङ्करदि ते च, त्रि अक-अकरुण ० नास्ति कस्ता यस्य यत्र या वैन्यये च, वाच० । निर्दये, प्रश्न० आश्र० ३ ६१० । अक-अप ० ० ० धादिकालुष्यते, अ द्वेषवर्जिते, अन्त० ७ वर्गः । - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकसाय छनमत्थस्स जिणस्स वा" । उत्त० २० अ० अकषायाः अशान्त महादयश्चत्वारः सिद्धाश्च स्था० ४ ठा० । अक सिए - अकृत्स्न-- त्रिo अपरिपूर्ण, प्रति० । पञ्चा० । प्रसिपल अनुस्नमवर्तक-मपरिपूर्ण संयमं प्रवर्त्तयन्ति विद्धति ये ते तथा । देशविरते, "अकसिणपवत्तया , विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपय करणे, दयत्थवदितो पञ्चा० ६ विव० । अकसिणसंजय-प्रकृत्स्नसंयम पुं० देशांवरती, प्रति० अकसिणसंजयवंत - प्रकृत्स्नसंयमत्रत् पुं० देशविरतिमति श्रा "कि योग्यत्वमकृत्संयमच पूजा या अप्रति अकसिणा प्रकृत्स्रा स्त्री० चतुर्थे भारोपणामेवे, स्था०पा० २ उ० | यस्यां पाण्मासाधिकं झोष्यते तस्यां हि तदतिरिक्तकाटनेनापरिपूर्णत्वादिति, स्था० ५ ठा० २ उ० व्य० | नि० चू० अकहा-कथा स्त्री० मिध्याटरिना महानिनानि या गृहिणा कथ्यमानायां कथायाम् । तलक्कणम् । मिच्छतं वेतो, जं अन्ना। कई परिकहे | .. U सिंगरयो व गिटी वा मा अफहा देसिया समए ॥ २१५|| मियात्वमिति । मिध्यात्वमोहनी कर्मवेदनाकां चित्र अज्ञानी कथां कथयति नित्यं वास्यमिष्याचादेव यद्येवं नाथोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यावेदकस्याज्ञा नित्वाव्यभिचारादिति प्रदेशानुभवेदन सम्पदा व्यभिचारादिति किंविशिष्टोऽसावित्याह-विङ्गस्थो वा व्यप्रब्रजितोऽङ्गारमर्द्दकादिः गृही वा यः कश्चिदितर एव । सा एवं प्ररूपकप्रयुक्तयुक्त्या श्रोतपि प्रज्ञापयपरिणामनिवन्धना कथा देशिता समये। ततः प्रतिविशिष्टकथाफलानावादिति गाथार्थः ॥२२५॥ दश०३ ० काहय अकाधिक पुं० नास्तिकाय: ( श्रदारिकादि पूि व्यादिपद्कायस्तदन्यां वा ) येषां ते अकायास्त एवाकाधिकाः। सिद्धेषु न० श० २ ० । काम-काम-पुं कमनं काम इच्छा, न कामो ऽकामः। श्रनिच्छायाम, सूत्र० २ श्रु०६ उ० उपरोधशीलतायाम् " तं च हुज्ज कामेणं, चिमणं परिच्चियं " दश०५ अ०। ६ ब० । इच्छामदनकामरहिते, याचा निर्जरानभिज्ञापिणि निरभिप्राये १ श०१ उ० । मोके च तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेः । उत्त० १५० कामारहाण - अकामास्नानक- पुं० अकामस्यानरहिते, "अकामासी याच बसम सगले जनकपरितार्थ " अकामानामस्नानादिभिर्यः परितापः परिदाहः स तथा । अकामायेस्थानकादयस्तेभ्यो यः परिवादः स तथा निर्जरानभिलाषिणामस्नानादिभिः परितापे, श्री० अस्नानादिनि परिवा निरभिप्राये वा भ० १ ० १ ० । अकामकाम अकामकाम त्रि० कामानामदन कामभेदान् का मयते प्रार्थयते यः स कामकामो न तथा अकामकामः न विद्यते कामस्य कामोऽभिलाषो यस्य स अकामकामः कामानिलापरहिते, काममोक्षामित्रापस्तत्र सकलापिनिवृत्ते तं कामयते यः स तथा (मोक्षार्थिनि) " संथवं जहेज्ज कामकामे" उत्त० १५ श्र० । काम किन कामकृत्य- त्रि० कमनं काम इच्छा न कामोSकामस्तेन कृत्यं कर्त्तव्यं यस्यासावकामकृत्यः । अनिच्छाकारिणि । सूत्र० २ श्र० ६ श्र० भ० (१२४) अभिधान राजेन्द्रः | " कामणिगण अकामग-कामक- त्रि०कर्मणि प्रत्ययः । अनभिलषणी ये, प्रश्न ० श्राश्र० १ द्वा० । कर्तरि वुल् । श्रनिच्छति, " अकामगं परिकम्मं, कोड ते घारेठ मरिहति" सूत्र० १० २ अ० २ ० । अनिस्कुन्तं गृहम्यापारस्याहितं पराक्रमन्तं स्वामितानुष्ठानं कुर्वाणं कस्त्वां भवन्तं वारयितुं निषेधयितुमर्हति योग्यो भवति यदि वा (कामगति) वाईक्यावस्थायां मदनेच्छाकामरहितं पराक्रमन्तं संयमानुष्ठानं प्रति कस्त्वामवसरप्राप्तः कर्मणि प्रवृत्तं घारयितुमर्हतीति । सूत्र० १ श्रु०३ अ०२३०। झा० । विषयादि वाञ्चारहिते, तं०। प्रश्न० । अकामछुड़ा-अकामकुपात्री० निर्जराद्यननिमाषिणां प्रथमपरिषद सहने भ० १ ० १ ० । अकामणिगरण - अकामनिकरण - त्रि० अनिच्छाप्रत्यये, तद्यथा । एए अंध मुदा तमप्यविद्या समपकलमोह जालपलिया अकामनिगरणं बेयणं वेदंतीति वत्तव्वं सिया हंता गोयमा ! जेमे असो पणा पुढविकाइया जाव वएस्सइकाइया ST जाव वेयणं वेतीति वत्तव्वं सिया । अस्थि भंते ! पत् वि अकामनिकरणं वेदवेदेव हंता अस्थि कहएवं भंते! पवि अकामनिकरणं वेयरणं वेदे गोयमा ! जेणं नो पन् विणा पदीवेणं अंधकारसि रुवाई जेणं खो पच पुरः श्री रुवाई अणिज्जात्ताणं पासित्तए जे शं नो पन्नू मागा रुवाई प्रणवयक्वित्ताणं पासित्तए जेणं नो पन्नू पासओ रूई अलोएना पासितए एस अकामनिकरणं वेदणं वेदे अस्थि नेते पवि पकामनिकरणं वेणं वेदे हंता कहएहं समुदस्स जाव वेदां वेदे‍ जे गं नाप समुदस्स पारंगमेत्तर जेां नो पनू पारगयाई रुवाई पात्तिए जेां नो पनूं देवलोगं गमित्तए जे गं नो पनू दे - लोगगाई रूपाई पासितए एस ए गोयमाप विपकामनिकरणं वेदणं वेदे | ( अंधति) अन्धा श्वान्धा अज्ञानाः ( मूढत्ति ) मूढास्तत्वकानम्प्रति पत पवोपमयोच्यन्ते तमप्यविवति ) तमः प्रथि समःप्रविष्टः (तममोहजालपत्रिष्यति तमः पटलमिव तमःपटलं ज्ञानावरणं मोहो मोदनीयं तदेव जालं मोहजा ताज्यां प्रतिच्छन्ना आच्छादिता येते तथा ( अकामनिमरणति अकामो बेदनानुभवेऽनिच्छा अमनस्कत्यात्मक प निकरणं कारणं यत्र तदकामनिकरणमज्ञानप्रत्ययमिति भावः । तद्यथा । भवतीत्येवं वेदनां सुखदुःखरूपां वेदनं वा संवेदन वेदयन्त्यनुभवतीति प्राहमित्यादि अस्त्य पोत (वित्त) र संत्वेिन यथाबद् रूपादिज्ञाने समर्थोऽप्यास्तामसंज्ञित्वेनाऽप्रभुरित्यपिशब्दार्थः । अकामनिकरणमनिच्छा प्रत्ययमनाभोगात् । अन्ये त्वाहुः। श्रकामेनानिच्या निकरणं क्रियाया इष्टार्थप्राप्तिलक्षणाया अभावो यत्र वेदने तत्तथा । यद्यथा । भवतीत्येवं वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, उतरन्तु (पति) यः प्राणी संहित्वेनोपायसद्भावेन या दीनां हानादी समर्थोऽपि (मोपति) न समर्थः बिना प्रीपेनान्धकारे रूपाणि ( पाखित्तपत्ति ) घुमेषोऽकामप्रत्ययं Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अकामनिगराण अनिधानराजेन्फः। अकिंचणकर वेदयतीति संबन्धः ( पुरोत्ति) अग्रतः (अणिज्जापत्ताणंति) अकारविंत-अकारयत-त्रि० प्रारम्भकयकारणे परमव्यापार निध्याय चक्रव्यापाये । (मगाउत्ति)। पृष्ठतः (श्रणवय- | यति । "श्रारम्भनियत्ताणं, अकिणंताणं अकारविताणं । ध. क्खित्ताणंति) अनवेदय पश्चाद्भागमनवलोक्येति अकामनिक-| म्मद्धा दायचं".१ उ० । रणवेदनां वेदयन्तीत्युक्तमथ तद्विपर्ययमाह (अत्थीणमित्यादि)। अकारिय-अकारित-त्रि अन्यैरकारिते, प्रश्न संव०१ द्वा०। प्रशुरपि संझित्वेन रूपदर्शनसमर्थोऽपि (पकामनिकरणंति) प्रकाम ईप्सितार्थाऽप्राप्तितःप्रवर्द्धमानतया प्रकृष्टोऽजिलाषः । स अकाल-अकाल-पुं० अप्राशस्त्ये, न० त० अप्रशस्तकाले, विहिएव निकरणमिष्टार्थसाधकक्रियाणामभावो यत्र, तत्र प्रकामनि तकर्मसु पर्युदस्ततयाऽनिहिते, गुरुशुक्राद्यस्तकालादौ,अग्रस्ताकरणम् । तद्यथा भवति एवं वेदनां वेदयतीति प्रश्नः। उत्तरन्तु चे, उत्त०१अाकर्तव्याऽनवसरे, प्राचा०१ श्रु०२१०१ उ० वृक। (जेणमित्यादि) योन प्रतुःसमुनस्य पारं गन्तुं तमतकव्याप्राप्त्य भवर्षासु,"अकाले परिसइ"स्था09 ठा0 अप्राप्तः कालो यस्य थिले सत्यपि तथाविधसत्यवैकल्वादत एव च , यो न प्रभुः "प्रादिभ्योधातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदबोपः" इति वा० असमुषस्य पारगतानि रूपाणि रुष्टुं स तताऽभिलाषातिरेकात् म्त्यलोपश्च । अप्राप्तकाले, अनुचितकाले, पदार्थे । अति काल: प्रकामनिकरणवेदनां वेदयतीति । न०७०७९० कृष्णः, न० त०। कृष्णविरुरूशुभ्रवणे,न० ब० कृष्णत्व विरोधिअकामाणिज्जरा-श्रकामनिर्जरा-खी कामेन निर्जरां प्रत्य शुभ्रत्ववति, त्रि०ाघाच०। नभिलाषेण निर्जरा कर्मनिर्जरणहेतुर्बुभुक्षादिसहनं यत्सा अ अकालपमिबोहि(ण)-अकालप्रतिबोधिन-त्रि० (असमये व्याप्रिकामनिर्जरा । निर्जरानभिलाषेणैव क्षुधादिसहने, स्था० ४ यमाणे )" मिसक्खूणि प्रणारियाणि दुस्समप्पाणि दुप्पावठा०४ उ०। औ० । कर्म०। (अकामनिर्जरया असंयता व्यन्त. णिज्जाणि अकालपमिबोहीणि " अकाबप्रतिबोधीनि । न तेषां रेष्पपद्यन्ते इति 'वंतर' शब्दे व्याख्यास्यामि ) कश्चित् पर्यटनकालोऽस्ति अर्डरात्रावपि मृगयादा गमनसअकामतएहा-अकामतृष्णा-स्त्री०निर्जराद्यनभिलाषिणांसतां | म्भवात् । आचा०२ श्रु०३१०१ उ0निच०। तृषि, भ०१श०१उ०ी० । अकालपढण-अकालपठन-न0 असमयवाचनायाम, पञ्चा। अकामबंभचेरवास-अकामब्रह्मचर्यवास-पुं० अकामानां नि- १५ विव०। जराधनभिलाषिणां सतामकामो वा निरभिप्रायो ब्रह्मचर्येण अकामपरिहीण-अकालपरिहीण-न० परिहाणिः परिहाणं काख्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो रात्रौ शयनमकाम- सविलम्बः न विद्यते परिहीणं यत्र प्रादुर्नवने तत् कानपब्रह्मचर्यवासः। (फलानभिसन्धिनां ब्रह्मचर्यसेवने)ज०१श० रिहीणम् (शीघ्रप्रकटीभवने)" अकालपरिहीणं चेव मूरि१उ० औ०। याजस्स अंतियं पाउम्भवह" रा०। अकाममरण-अकाममरण-न अकामेन अनीप्सितत्वेन नि. नि. अकालपरिभोगि (ण) अकालपरिजोगिन-त्रि० रात्रौ सर्वायतेऽस्मिन् इति अकाममरणम् । बालमरणे, "बालाणं च अ दरेण तुजाने , “अकालपंमिबोहरणि अकालपरिभाषि" कामं तु,मरणं असई भवे" उत्त०५०।('बालमरण' शब्दे नि०० १६ उ० । आचा० । एतद्विवरिष्यते) अकामिय-अकामिक-त्रि० न० ब० निरभिलाषे, "तहेव संता अकालमच्चु-अकालमृत्यु पुं० अकाल एव जीवितभ्रंशे, “पतंतापरितंता प्रकामिया" विपा० १ श्रु० १ अ० । ढमो अकालमच्न्, तहि तालफत्रेण दारकोनहतो"आव०१०। अकामिया-अकामिका-स्त्री० अनिच्छायाम् । “प्रकामियाए अकालवासि (ए) अकालवर्षिन्-पुं० अनवसरवर्षिणि मेघे, चिणंति दुक्खं" प्रश्न आश्र० ३ द्वा० । तद्वदनवसरे दानव्याख्यानादिपरोपकारार्थप्रवृत्ते पुरुषे च । स्था० ४०४ उ०। अकाय-अकाय-पुं० न० ब० पृथिव्यादिषविधकायविरहिते, अकालसज्कायकर (कारिन)-अकालस्वाध्यायकर (कारिन्)स्था०२ ठा०३ उ० । औदारिकादिकायपश्चकविप्रमुक्त (वा) सिद्धे, प्रव०१४६ द्वा०। आव० । राही, तस्य शिरोमात्रत्वेन पुं०असमाधिस्थानविशेषे, "अकावे सझायकारी य कालियसुयं कायशून्यत्वात् देहशून्ये, त्रि०वाच।। | नग्धासपोरुसीए पढश्यंत[?] देवया असमाहिए योजयति" अकारग-अकारक-पुं० (न करोति भोजने रुचिम्) भक्तद्वेषरूपे, श्त्यसमाधिस्थानत्वं तस्य । श्राव ४०स० रोगविशेषे, शा० १ श्रु० १३ अ० । उपा अपथ्ये, औ०। अकासि-देशी-पर्याप्ते, दे० ना। [अकर्तरि ] त्रि० । सूत्र०१ श्रु०१० ।। अकाहन्न-अकाहन-त्रि० अमन्मनाकरे, प्रश्न० संब०२ द्वा०। अकारगवाइ (ए)-अकारकवादिन-पुं० अकारकं वदन्ति | अकिंचण-अकिञ्चन-त्रि० नाऽस्य किञ्चन प्रतिबन्धास्पदं धनकतच्छीलाः, आत्मनोऽमूर्तत्वनित्यत्वसर्वव्यापित्वेभ्यो हेतुभ्यः नकादि अस्तीति अकिञ्चनः। निष्परिग्रहे, उत्त०३ अाश्राव निष्क्रियत्वमेवाभ्युपपन्नेषु, सूत्र०१ श्रु०१०१०। ('णि- प्रा०चा स्था। औ०। प्रश्न० । प्राचाबाहिरण्यादि. कियवाई'शब्दे चैतेषां मतं तत्खण्डनं च कारिष्यते ) मिथ्यात्वादिषव्यजायकिञ्चनविनिर्मुक्ते, दश०६ अ०। "समणाअकारण-अकारण-त्रि नास्ति करणं हेतुरुद्देश्यं वा यस्य हेतुर. भविस्सामो अ, अणगारा अकिंचणा अजुत्ता य" सूत्र०२१०१ हिते,उदेश्यरहिते च । बृ.१०। कारणभित्रे,न० वाचकायदातपः अकादरिजे, वाच० ।। स्वाध्यायवैयावृत्यादिकारणषट् विना बलवीर्य्याद्यर्थ सरसा- | अकिंचणकर-अकिञ्चनकर-त्रि० अकिश्चित्संपादके, अकिञ्चनाहारं करोति तदा पञ्चमोऽकारणदोष इत्येवलक्षण पश्चमे ना साधन प्रयोजनकरे, "ववहारपि वाण्य अकिंचणकरेपरिभोगैषणाया दोषे, उत्त० २४ अ०। | य" योऽपि कश्चित्सधूनां प्रत्यनीकः सोऽपि तेषां राजादि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकिंचणकर अभिधानराजेन्डः। अकिरियावा कुमारप्रवजितानां भयतो किचित् करोति । अथवाऽकिञ्चनानां श्रियायजित, स्था० ७ ठा० । कायिक्यादिक्रियाभिवङ्गवर्जिते, साधूनां यदि कथमपि केनाप्यर्थजाते प्रयोजनमुपजायते तर्हि प्रशस्तमनोविनयभेदे ,भ० २५ श०७ १०। न विद्यन्तेनतत् सर्व लोके प्रायोऽप्रार्थित पष करोति, व्य०२०। भ्युपगमात्परलोकविषयाः क्रिया येषान्तेऽक्रियाः । नास्तिकेषु, अकिंचणया-अकिञ्चनता-स्त्री.न विद्यते किञ्चनजव्यजात- "प्रकिरियराहुमुहदुरूरिस" नं० । नास्य किया सावद्या विद्यमस्येत्यकिश्चनस्तद्भावोऽकिञ्चनता। निष्परिग्रहिताया, "चल- ते इत्यक्रियः। संवृत्तात्मकतया सांपरायिककर्माऽबन्धके, सूत्र० ब्विहा अकिंचणया पमत्ता तंजहा मणअकिंचणया व अकिंच- | २ श्रु.१५० । या कायअकिंचणया उवकरणअकिंचण्या" अकिञ्चनता च अकिरिया-अक्रिया-श्री० नमिह दुः शब्दार्थों यथा प्रशीला मनःप्रभृतिभिरुपकरणापेक्षया च भवतीति चातुर्विष्यमा स्था० दुःशालेत्यर्थः। ततश्चाक्रिया दुष्टक्रिया मिथ्यात्वाइपहतस्यामो४ ठा० ३ ० । चतुर्थस्य द्वितीयोदेशकः भोगसाधनानामस्यी- कसाधके अनुष्ठाने, यथा मिथ्यादृष्टानमप्यज्ञानमिति । एषा मिकारलकणे यमभेदे, द्वा० द्वा० २१। ध्यात्वभेदत्वेन दर्शिता, स्था०३ ग०३ उ० "प्रकिरिया तिविहा अकिंचिकर-अकिश्चित्कर-पुं० हेत्वानासनेदे, स च यथा प्र. पमत्ता तंजहापभोगकिरिया समुदाणकिरिया अन्नाणकिरिया" तीते प्रत्यक्षादिनिराकृते च, साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः प्रतीयते । प्रक्रिया हि अशोभना क्रियवातोऽक्रिया।त्रिविधेत्यभिधायाऽपि यथा-शब्दः श्रावणः शब्दत्वात् प्रत्यवादिनिराकृते । यथानुष्णः प्रयोग इत्यादिना क्रियैवोक्तेति । स्था०३ ग०३ तासूत्रक्रिया कृष्णवर्मा उच्यत्वात् । पत्यावनिता, सेवनीया पुरुषत्वादित्यादि ऽस्तीति रूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी सैव यथा वस्तुषिषर०६परि० (अस्य हेत्वाभासत्वमयुक्तमिति हेनानास'शब्द) यतया कुत्सिता प्रक्रिया नमः कुत्सार्थत्वात् नास्तिक्ये, स्था० अकिच्च-अकृत्य-न० त० । कृ-क्यप् । अप्राशस्त्ये । अकर गानास्तिकवादे, "प्रकिरियं परियाणामि किरिय उव संपज्जामि" ध०३ अधिक योगनिरोधे, स्था० ठा0| "पका णीये, साधूनामविधेये, पञ्चा०१५ विव० । स्था। प्रम अकिरिया" एका प्रक्रिया योगनिरोधसकणा, नास्तिकत्वं था। "भकिच्चमप्पणा कार्ड कयमेएण भासर अकिच्चं पाणा स.१सम० । अभावे, न०ता अपरिस्यन्दे, सूत्र. २७०३ इवायादि अप्पणा काउं कयमेतेण भासद अमस्स उच्छोहे" प्र०सर्वक्रियाविगमे च । ध०२ अधि० । क्रियाया प्रभावे, (समहामोहं प्रकरोति) प्राव०४ मकान कृत्यमस्य । न०प० भ०२ श०२०। कर्मरहिते, त्रि० वाच। अकिरियाप्राय प्रक्रियात्मन्-पुं० अक्रिय भात्मा येषामन्युपअकिच्चगण-अकृत्यस्थान-न० कृत्यस्य करणस्य स्थानमा गमे ते प्रक्रियात्मानः । सांख्येषु, सूत्र० १० १०० श्रयः कृत्यस्थानं तनिषेधोऽकृत्यस्थानम् । मूलगुणादिप्रतिसेवारूपेऽकार्यविशेषे, भ०८ श० ६ उ०। जे केशलोगंमि अकीरियाया, अत्रेण पुट्ठा धुयमादिसति। अनयरं तु अकिच्चं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । प्रारंभसत्तागढिता य लोए, धम्मंण जाणंति विमुक्खहे। ये केचन अस्मिन् लोके अक्रिय आत्मा येषामन्युपगमे तेमूलं व सव्वदेस, एमेव य उत्तरगुणेसु ॥ प्रक्रियात्मानः सांख्यास्तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निअन्यतरदकृत्यं पुनः सूत्रोक्तं मूलगुणे मूलगुणविषयमुत्तर कियः पठ्यते । तथा चोक्तम् । “अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, गुणे वा उत्तरगुणविषयं वा तत्र मूलं मूलगुणविषयं सर्वदेशं आत्मा कपिलदर्शन" इति तुशब्दो विशेषणे, स चैतवा सर्वथा मूलगुणस्योच्छेदे देशतो वेत्यर्थः । एवमेधाने द्विशिनाष्ट । प्रमूर्तत्वव्यापित्वाभ्यामात्मनोऽक्रियत्यमेव बुध्यनैव प्रकारेणोत्तरगुणेष्वपि दैविध्यं भावनीयम् । तद्यथा । उत्त ते, ते वाक्रियात्मवादिनोन्येनाक्रियत्वे सति बन्धमौक्षी न घरगुणस्यापि सर्वतो देशतो वा उच्छेदेनेति तत्रैव व्याख्या टेते श्त्यभिप्रायवता मोकसद्भावं पृष्टाः सन्तोऽक्रियावाददर्शनान्तरमाह। नेऽपि धूतं मोकं तदभावमादिशन्ति प्रतिपादयन्ति । ते तु पचअहवा पणगांदीयं, मासादीयं वि जान जम्मासा । नपाचनादिक स्नानार्थ जलावगाइनरूपेवाऽरम्भे सावधे सक्ता एवं तवोरिहं खल, बेदादिचउएहमेगयरं ॥ अध्युपपना मोके मोकैकहेतुमूवं धर्म श्रुतचारित्राख्यं न आन(अहवेत्ति ) अकृत्यस्थानस्य प्रकारान्तरतोपदर्शने पञ्च- न्ति कुमार्गप्राहिणो न सम्यगवगच्छन्तीति, सूत्र०१ श्रु० १०० कादिकं रानिदिवपञ्चकप्रभृति, प्रायश्चित्तस्थानमकृत्यस्थानं अकिरिय ( या ) वा ( न )-प्रक्रियावादिन-पुं० क्रियदि वा मासादिकं तच्च तावद्यावत्षण्मासाः एतत् खलु अ- या अस्तीतिरूपा सकलपदार्थसार्थव्यापिनी, सैवाऽयथावस्तुकृत्यस्थानं तपोऽहैं तपोरूपप्रायश्चित्ताह यदि वा छेदादीनां विषयतया कुत्सिता प्रक्रिया, नत्रः कुत्सार्थत्वात, तामकियां वचतुर्मा प्रायश्चित्तस्थानमकृत्त्यस्थानम् । व्य०१ उ०। दन्तीत्येवंशीला अक्रियावादिनः। यथाऽवस्थितं हि वस्त्वनेकाप्रकिज-अक्रेय-त्रि क्रेयानहें “सुक्कियं वा सुविक्कीय, किज्जं | तात्मक, नास्त्येकान्तात्मकमेष वास्तातिप्रतिपत्तिमत्सु नास्तिकिजमेव वा" दश ७ अ०। केषु, स्था० ८ गते चाऽष्ट "अह अकिरियावादी पमत्तातं अकिट्ठ-अकृष्ट-नि० अविलिखिते, भ०३ श०२७०। जहा एक्कावादी अणिकवाई मितवादी निमित्सवादी सायवादी अकिवंत-अक्रीणत-स्त्री० वस्त्रादिक्रयमकुर्वाणे, बृ० १ ००। समुच्छेदवादी णियावादी ण संति परलोगवादी " स्था०४ ग०४ उ० (ऐक्यवाद्यादिपदानामयों निजनिजस्थानेषु) अक्रिअकित्ति-अकीर्ति-स्त्री०सर्वदिग्व्याप्याडसाधुवादे,ग०१अधिः यांक्रियाया अन्नावं वदन्ति तब्बीला अक्रियावादिनः म कस्य. दानपुण्यफलप्रवादे, दश०१ त्रिगदानकृताया एकदिग्गामि- चित्प्रतिकणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पत्थन्या वा प्रसिकेरजाघे, और "अकित्ती मे वासिया" स्था०७ ग०।। नन्तरमेव विनाशादित्येवं घदत्सु, मं0 जा तथा बाहुरेके । ककिरिय-अक्रिय-पुं० न० ब० । कायिक्याधिकरणिक्यादि । णिका:सर्वसंस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया “भूतियेषां क्रिया Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२७) अभिधानराजेन्द्रः । अकिरियावाइ सैव कार से चोच्यते नं०] प्रक्रियां जीवादिपदार्थो नास्तीत्या दिकां वदितुं येाऽक्रियावादिनः भ० २६० २४० नास्त्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिषु, सूत्र ०१ ० १२ प्र० । नास्ति माता नास्ति पितेत्येवमादिवादिनि, नास्तिके, उत्त० ३ भ० । श्राचा० । ते चाशीतिः "अकिरियवाई ण दोर चुलसीई " सू० १४० १० प्र० । इह जीवा पयाई, पुष्पं पात्रं विणा ठविज्जति । सिमहोनायम्पि, वज्जिए सपरसद्ददुगं ॥ १०८ ॥ वस्स विभो ब्रिज, फाल नदिच्छाइयडुगसमेयं । निस्सहावईसर, अप्पाचे इमं पपचठकं ॥ २०६ ॥ इहाक्रियावादिभेदानां प्रक्रमे जीवादीनि पूर्वोकानि पुरायचापवर्जितानि नवसप्तपदानि परिपाल्पा पडिकादी स्थाप्यन्ते तेषां च जीवादिपदानामधोमागे प्रत्येकं स्वपरशब्द द्विकं स्थाप्यते स्वतः परत इति द्वे पदे न्यस्येते इत्यर्थः । असत्वादामनो नित्यानित्याविकल्पौ न स्वस्तकर्मिसिकापते । तस्यापि स्वपरशब्दद्विकस्यापरतात कालपापद्वयसमेत मेतन्नियतिस्वभावेश्वरात्मलक्षणं पदचतुष्कं शिरूयते कालपर स्वानियतिस्वभावेश्वरात्मरूपाणि पद् पदानि स्थाप्यन्ते इत्यर्थः इवादिनः सर्वेऽप्यकियावादिन न केसिपि कियाबादिनस्ततः प्राम्यच्छा नोपन्यस्ता। अथ त्रिकल्पाजिसापमाह । पदमे भंगे जीवो, नत्थि सभी कालओ तय बीए । परओ वि नत्थि जीवो, कालाइ य भंगगादोन्नि ॥११०॥ एव इच्छावि, परहिं भंगडुगं दुर्ग पत्तं । मिलियावि ते बालस-संपत्ता जीवतत्तेण ॥ २११ ॥ नास्ति जीवः स्वतः कालत इति प्रथमो नङ्गः । तदनु नास्ति जीवः परतः कालत इति द्वितीयो भङ्गः । एतौ द्वौ च भङ्गौ कालेन लब्धौ एवं यदृच्छादिभिरपि पञ्चभिः पदैः प्रत्येकं द्वौ हौ विकल्पौ जायेते । सर्वेऽपि मिलिता द्वादश। श्रमीषां च विकल्पानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः। नवरं यदृच्छ्रात इति यदृच्छायादिनां मते । श्रथ गाथा के वे यहच्छावादिनः उच्यन्ते रद्द ये भावानां सत्तापकृया न प्रतिनियतं कार्यकारणमिति किन्तु परयाते यच्चावादिनस्तथा तं एवमाहुने हु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणतावस्तथा प्रमाणेनामात् तथाहि शालूकादपि शालूको जायते गोमयादपि, अरण्य - जयते कापि धूमादपि जायते धूमः धनसंप कपि कन्दादपि जायते कली बीज पटादयोऽपि बीजापजायन्ते शासकदेशाच ततो न प्रतिनियतः चिि कार्यकारणाय इति । यदृच्छातः कचित् किंचिद्भवतीति प्रतिपत्तव्यं, न खल्वन्यथा वस्तुसद्भावं पश्यन्तोऽन्यथाऽऽत्मानं प्रेक्षाघन्तः परिक्लेशयन्ति । एते च द्वादश विकल्पा जीवतत्वेन जीव पदेन संप्राप्ता लब्धाः। एवमजीवादिभिरपि षभिः पदैः प्रस्येकं द्वादश विकल्पाः प्राप्ताः । ततो द्वादशभिः सप्त गुणिता जाता चतुरशीतिः। सर्वसंख्यया चाक्रियायादिनामे ने नय न्तीति । प्रव० २०६ द्वा० । सूत्र० । स्था० । ध० । श्रावण । साम्प्रतमक्रियावादिदर्शनं निचिकीर्षुः गाथा पार्कमाह । लवावसंकीपणागहिं णो किरियमा अकेरियनादी । hi कर्म तस्मादपशंकितुमपसतुं शीलं येषान्ते लवापरांकिनो लोकायतिकाः शाक्यादयश्च तेषामात्मैव नास्ति कुतस्तत् अकिरियावा क्रिया तज्जनितो वा कर्मबन्ध इति । उपचारमात्रेण त्वस्ति बन्धः । तद्यथा “बा मुता कम्यन्ते मुनिन्धिकपोतानचान्ये इय्यतः सन्ति मुयिधिकपातकाः" तथा बोकानामयमयुप गमो यथा कणिकाः सर्वसंस्कारा इत्यस्थितानां च कुतः क्रिये पक्रियाबादिम्योऽपि स्कन्धपचकाम्युपगमस्तेषां सोऽपि संवृतमात्रेण न परमार्थेन यतस्तेषामयमभ्युपगमः तद्यथा विद्या र्यमाणाः पदार्थ न कथंचियात्मानं विज्ञानेन समर्पयितुमलम् । तथाह्यवयवी तत्वातस्याभ्यां विचार्यमाणो न घटां प्राञ्चति नाप्यवयवाः परमाणु पर्यवसानतयाऽतिसूक्ष्मस्वाज्कानगोचरतां प्रतिपद्यन्ते विज्ञानमपि याभावेनास्य निराकारतया न स्वरूपं विभर्ति । तथा चोक्तं " यथा यथार्थाश्चिन्त्यन्ते विविध्यन्ते तथा तथा पद्येतत् स्वयमन्यो, ये तथ के बयम् " इति सोकायतिका हि बौद्धास्तत्राऽनागतः कृणैः शब्ददतीतैश्च वर्तमानकणस्यासङ्गतेर्न क्रिया नापि च तज्जनितः कर्मबन्ध इति तदेवमकिवावादिनो नास्तिकवादि [लयावरानि सन्तो न क्रियामास्तथा चक्रिय आत्मा येषां सर्वव्यापित कियावादिनः सांख्यास्तदेोकायतिका सांख्या अनुपसंयया अपरानेनेत्येतत्पूर्वी समुदाहृतवन्तस्तये [[व] तत्त्वहानेने वोदाहृतवन्तः । तद्यथा भस्माकमेवमन्युपगमोasवनासते युज्यमानको भवतीति । तदेवं श्लोकपूर्वार्द्ध काकाहिंगोलकन्यायेनाकियाचादिमते ज्यायोज्यमिति । 9 66 साम्प्रतमक्रियावादिनामज्ञानविजृम्भितं दर्शयितुमाह । सम्मिसभा व गिरा गढ़ीए से मुम्मुई ढोर आणाएवाई। इयं पक्वं इसमे गप, आईसु उद्यायतां चकम् ॥ ५॥ स्वकीयया गिरा वाचा स्वान्युगमेनैव गृह नान्तरीयकतया वा समागते सति तस्याऽयातस्यार्थस्य गिरा प्रतिषेधं कुर्वाणाः संमिश्रीभावमस्त्विं नास्तित्वापगमं ते कायतिकादयः कुर्वन्ति चहान्दा प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति । तथादि । लोकायतिकास्तावत्स्वशिष्येभ्यो जीवाद्यभावप्रतिपादकं शाखं प्रतिपादयन्तो नान्तरीयकतया त्मानं कर्त्तारं करणं च शास्त्रं कर्मतापन्नांश्च शिष्यानवश्यमज्युपगच्छेयुः सर्वशत्याचे त्वस्य तपस्याभावान्मिश्रीभाषा व्य यो वा । बौका अपि मिश्रीनावमेवमुपगताः । तद्यथा, गन्ता च नास्ति कश्चि-प्रतयः षम् बौद्धशासने प्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः स्याच्छ्रुतिः कथं शोभना बौद्धी ॥ १ ॥ तथा कर्मच नास्ति फलं चास्तीत्यसति चात्मनि कारके कथं बम् गतयो का नसन्तानस्यापि सन्तानव्यतिरेकेण संवृतिसत्वात् करणस्य चास्थितत्वेन क्रियाभावान्न नानागतिसम्भवः सर्वाण्यपि कर्मापयबन्धनानि प्ररूपयन्ति स्वागमे तथा पञ्चजातकशतानि च बुद्धस्योपदिशन्तिता"मातापितरी इत्वा बुद्धशरीरे धि रमुत्पाद्य । श्रर्हद्वधं च कृत्वा, स्तूपं भित्वा च पञ्चैते ॥१॥ निरन्तरमावी चिनरकं यान्ति एवमादिकस्यागमस्य सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसङ्गतं स्वाद तथा जातिजरामरणरोगको सममध्यमाधमत्वानि च न स्युः एष एव च नानाविधकर्मविपाको जीवास्तित्वं कर्तृकर्मवावं यावेदयति तथा गन्धर्बनगरतुल्या, मा या स्वप्नोपपातधनसदृशी । मृगतृष्णा नीहारां- बुचन्द्रिकालातच क्रसमा" इति भाषणाश्च स्पष्टमेव मिश्रीभावापगमनं बौद्धानामिति । यदि वा नानाविधकर्मविपाकान्युपगमातेषां व्यत्यय श्वेति । तथा यो "यदि यस्यको मत्पक्ष निवारकः कथं भवति । अथ मन्यसे न शून्य-स्तथापि मत्यक एवासौ" इत्यादि, तदेवं Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२०) अकिरियावाद अभिधानराजेन्द्रः। अकुक्कुय बौद्धाः पूर्वोक्तया नीत्या मिश्रीभावमुपगता नास्तित्वं प्रतिपादय- नापरः कश्चित्सुखदुःखभागात्मा विद्यते। यदि चैतान्यप्यविचान्तोऽस्तित्वमेव प्रतिपादयन्ति । तथा सांख्या अपि सर्वव्यापि-| रितरमणीयानि न परमार्थतः सन्तीति स्वप्नेन्जालमरुमरीतया प्रक्रियमात्मानमयुपगम्य प्रकृतियोगान्मोत्वसद्भाव प्रति- चिकानि च यद्विचन्द्रादितिनासरूपत्वात्सर्वस्येति । तथा सर्व पादयन्तस्तेऽप्यात्मनो बन्धं मोक्षं च स्ववाचा प्रतिपादयन्ति । कणिक निरात्मकं मुक्तिस्तु शून्यता रष्टेस्तदर्थाः शेषभाष. ततश्च बन्धमोक्कसद्भावे सति स्वकीयया गिरा सक्रियत्वे गृहीते ना इत्यादीनि नानाविधानि शास्त्राणि व्युनाइयन्त्यक्रियासत्यात्मनः मंमिश्रीजावं वजन्ति, यतो न क्रियामन्तरेण बन्धमो- त्मानोऽक्रियावादिन इति । ते च परमार्थमबुध्यमाना यदर्शनको घटेते, वाशब्दादक्रियत्वे प्रतिपाद्ये व्यत्यय एव सक्रियत्वं मादाय गृहीत्वा बहवो मनुष्याः संसारमनवदग्रमपर्यवसानतेषां स्ववाचा प्रतिपाद्यते, तदेवं लोकायतिकाः सर्वे नावाभ्युप- मरहट्टघटीन्यायेन भ्रमन्ति पर्यटन्ति । तथाहि लोकायतिकानां गमेन क्रियाभाव प्रतिपादयन्ति । बौकाश्च क्वणिकत्वात्सर्वशून्य- सर्वशून्यत्वे प्रतिपाद्येन प्रमाणमस्ति। तथा चोक्तम्। "तस्वान्युपत्वाच्याक्रियामेवान्युपगमयन्तः स्वकीयागमप्रणयनेन चोदिताः हुतानीति, युक्त्यनावेन सिध्यति । नास्ति चेत्सवानस्तत्वं तत्सिसन्तः संमिश्रीभावं स्ववाचैव प्रतिपद्यन्ते । तथा सांख्याश्चा- द्धौ सर्वमस्तु सत्"न च तत्प्रत्यक्कमेवैकं प्रमाणम । अतीतानागक्रियमात्मानमभ्युपगच्छन्तो बन्धमोक्वसद्भावं च स्वाभ्युपग- तनावतया पितृनिबन्धनस्यापि व्यवहारस्यासिकेस्ततः सर्वसमेनैव संमिश्रीभावं व्रजन्ति । व्यत्ययं चैतत्प्रतिपादितम् । यदि वा व्यवहारोच्छेदः स्यादिति । बौहानामप्यत्यन्तकणिकत्वेन वस्तुबौद्धादिः कश्चित्स्याद्वादिना सम्यग्घेतुदृष्टान्ताकुलीक्रियमाणः त्वाभावः प्रसज्जति । तथाहि । यदवार्थक्रियाकारि तदेव परमासन् सम्यगुत्तरं दातुमसमर्थो यत्किञ्चननाषितया (मुम्मुई हो- थतःसत्। न तणः क्रमेणार्थक्रियां करोति । क्वणिकत्वहान पि इत्ति ) गन्दनावित्वेनाऽव्यक्तभाषी जवति । यदि वा प्राकृतशै- योगपचन तत्कार्याणामकस्मिन्नेव कण सर्वकार्यापत्तन चैतदल्या छान्दसत्वाच्चायमों द्रष्टव्यः । तद्यथा । मूकादपि मूको इष्टमिष्ट वा । न च ज्ञानाधारमात्मानं गुणिनमन्तरेण गुणभूतस्य मूकमूको जवति । एतदेव दर्शयति । स्याहादिनोक्तं साधनम- संकलना प्रत्ययस्य सद्भाव इत्येतच्च प्रागुक्तप्रायम् । यश्चोक्तं नुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी तत्प्रतिषेधादननुवादी सहेतुनि- 'दानेन महाभोग' इत्यादि तदाई तैरपि कथंचिदिप्यत एवेति न याकुलितमना मौनमेव प्रतिपद्यत इति भावः । अनुभाष्य च चाभ्युपगमा एव बाधायै प्रकल्प्यन्त इति ॥६॥ सूत्र०१ १०१२ प्रतिपक्षसाधनं तथाऽदूषयित्वा च स्वपकं प्रतिपादयन्ति। तद्य- अा अक्रियैव परलोकसाधनायाऽनमित्येवं वदितुं शीलं येषाथा । इदमस्मदभ्युपगतं दर्शनम् एकः पक्वोऽस्येति एकपक्कमप्रति- न्तेऽक्रियावादिनः ज्ञानवादिषु अक्रियावादिनो ये ब्रुवते किंक्रिपक्षतयैकान्तिफमविरुकार्थाभिधायितया निष्प्रतिबाधं पूर्वापरा- यया चित्तशुद्धिरेव काा ते च बौद्धा इति, न०३० श०१ १० विरुरुमित्यर्थः । इदं चैवंभूतमपि सदित्याद । हो पक्कावस्येति तेषां हि यथाऽवस्थितवस्तुपरिज्ञानादेव मोकः । तथा चोक्तम् । द्विपक्कं सप्रतिपकमनैकान्तिकं पूर्वापरविरुकार्थाभिधायितया "पञ्चविंशतितत्वको, यत्र तत्राश्रमे रतः। शिखी मुएमी जटीविरोधिवचनमित्यर्थः।यथा च विरोधिवचनत्वं तेषां तथा प्राग्द- वापि, सिध्यते नात्र संशयः" ॥१॥ सूत्र०१श्रु०६०। धर्म शिंतमेव । यदि त्वेतदस्मीयं दर्शनं द्वौ पवावस्येति द्विपक्कं कर्म- धर्मिणोरजेदोपचारात समवसरणविशेष च । भ०२६ श०२ उ० बन्धनिर्जरणं प्रतिपक्षद्वयसमाश्रयणात् । तत्समाश्रयणं चेहामुत्र (अक्रियावादिनः कीदृशा किं किं च प्रकुर्वन्तीति 'वादिसमवसवेदना चौरपारदारिकादीनामिव । ते हि करचरणनासिकादीना- रण' शब्द हश्यं मिथ्याष्टिवर्णके ) "अकिरियवादी विनवति मिहैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणो विलंबनामनुभवन्त्यमुत्र च नरकादौ नो हियवादी नो हियपस्मे नहिय दियनोसम्मावादी णो णिवेदनां समनुभवन्तीति । एवमन्यदपि कर्मोजयवद्यमन्युपग- तियावादी ण संति परलोगवादी" दशा०६०। म्यते । तच्चेदम् । प्राणी प्राणिज्ञानमित्यादि पूर्ववत् । तथेदमेकः अकील-अकील-त्रिन० ब० शङ्करहिते,ध०२ अधिक पश्चा पक्षोऽस्यत्येकपकम, हैव जन्मनि तस्य वेद्यत्वात् । तच्चेदमवि अकुओ (तो) भय--अकुतोजय-त्रिन्न विद्यते कुतः कस्माद् भझोपचितं परझोपचितमीर्यापथं स्वप्नादिकं चेति । तदेवं स्याद्वादिनाभियुक्ताः स्वदर्शनमेवमनन्तरोक्तया नीत्या प्रतिपादयन्ति यं यस्य तत् कुतश्चिदपिभयशून्ये, “चित्ते परिणतं यस्य चारित्र मकुतोभवम् । अखएमझानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो जयम्" तथा स्याद्वादिसाधनोक्तौ ग्लायतनं ग्लं 'नवकम्बलो देवदत्त' अष्ट०१७। न विद्यते कुतश्चिकेतोः केनापि प्रकारेण जन्तूनां भयं इत्यादिकमाहुरुक्तवन्तः । चशब्दादन्यच्च दूषणाभासादिक यस्मात् सोऽकुतोभयः । संयमे, " अणाए अजिसमेचा अरोतथा कर्म च एकपक्वधिपक्कादिकं प्रतिपादितवन्त इति । यदि वा षमायतनानि उपादानकारणानि आश्रवद्वाराणि श्रोत्रेन्द्रियादी भयं" प्राचा० १ श्रु० १ ० ३ ०। नि यस्य कर्मणस्तत्वमायतनं कर्मेत्येवमाहुरिति ॥५॥ अकुंचियाग-अकुञ्चिकाक-त्रि० कुञ्चिकाविरहिते, पिं०। साम्प्रतमेव तद्दषणायाह । अकुंठाइ-अकुएगदि-पुं० सम्पूर्णपाएयादौ, प्रव०६४ द्वा०। ते एवमक्खंति अबुज्कमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई। अकस्य-अक्रच-त्रि०नब० हस्तपादमुखादिविरूपचेष्टारहिजे मायइत्ता बहवे मणूसा, भमंति संसारमाणोवदग्गं॥६॥ | ते। व्य०३ उ०। ईचन्मुखविकाररहिते, प्राचा०१ श्रु०१ अ०३००। (ते एवमक्खंति) ते चार्वाकबौद्धादयोऽक्रियावादिन एव- सुसाणे सुप्पगारे वा, रुक्खमूले व एगओ। माचकते । सद्भावमबुध्यमाना मिथ्यामलपटल नुतात्मानः परमात्मानं च व्युग्राहयन्तो विरूपरूपाणि नानाप्रकाराणि शास्त्रा अकुकुओ णिसीएजा, ण य वित्तासए परं ।। णि प्ररूपयन्ति । तद्यथा । दानेन महानोगो, देहिनां सुरगतिश्च अक्रचोऽशिष्टचेष्टारहितो निषीदेत तिष्ठेत्, यद्वा, अकुकचः शीलेन । भावनया च विमुक्ति-स्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति । | कुन्थ्वादिविराधनानयात् कर्मबन्धहेतुत्वेन कुत्सितं हस्तपातथा पृथिव्यापस्तेजोवायुरित्येतान्येव चत्वारि नृतानि विद्यन्ते | दादिनिरस्सन्दमानो निषीदेत् । उत्त० ३ अ०। Jain Education Interational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) अकुकूज अभिधानराजेन्द्रः। भकुकूज-त्रि० आर्षत्वात्प्राकृते तथात्वम, कुत्सितं कूजति पी- तत्थथि कित्तिचंदो, नरनाहो सुयणकुमयघणचंदो। मितः सन्नाकन्दति कुकूजो न तथेत्यकुकूजः, कुत्सितकूजना | तस्स कणिट्ठो भाया, जुवराया समरविजउ ति ॥२॥ कर्तरि, उत्त० २१ अ०। अह हणियरायपसरो, समियरो मलिणभंवरो सदो। अकौकुच्य-त्रि० नास्ति कौकुच्यं नाएमविटचेष्टा यस्य सोऽकी. अंगीकयभद्दवो, पत्तो सुमुणि ब्व घणसमश्रो ॥३॥ कुच्यः । सम्यक्साधुमुद्रायुक्ते, उत्त० १६ अ० । तंमिय समए नीरं-धनीरपूरेण प्राबहु बहंती । अकुडिल-अकुटिल-त्रि०२० त० प्रमायिनि, व्य० ३२० । भवणोवरिट्टिएणं, दिट्ठा सरिया नरिंदेणं ॥४॥ प्रवके, ०२ वक० । ऋजौ, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ० । तो कोऊहलाउल-हियो बंधवजुश्रो तहिं गतुं । चडा निवो इकाए, तीइ सेसासु सेसजणो ॥५॥ अकुतूहल-अकुतूहल-त्रि० न विद्यते कुतूहलं यस्य स अकुतू जा ते कीलंति तहि, ता उरि जलहरम्मि बुट्ठम्मि । हलः, कुह केन्द्रजालभगतविद्यानाटकादीनामविलोकके।"नी सो कोवि नइपवाहो, पत्तो प्रतिव्ववेगेण ॥ ६ ॥ यावित्ती मचवले, अताई अकुहले" उत्त० १० अ०। निजंति कड़ियाओ, अन्ननदिसासु जेण वेडीओ। अकुमारय-अकुमारजूत-त्रि० अकुमारब्रह्मचारिणि, "अकुमा थोवो वि तत्थ न फुराह, वावारो कत्रधाराणं ॥७॥ रभूए जे केश कुमारनुए तिहंवए" |. ३० सम० । तो सरियामज्झगो, तडट्टिो पुक्करे पुरलोभो। अकुय-अकुच-त्रि० कुचस्पन्दने, न कुचतीत्यकुचः । गुपान्स्य- मह पकुपवणहया निव-दोणी उ असणं पत्ता ॥८॥ सवणः कप्रत्ययः। व्य०८ उछ । निश्चले, नि. च०१०। लम्गा दीहतमाला-भिहाणअडवीए सा कहिं रुक्खे । अकुसन्न-अकशझ-त्रि०अननिश, पं०व०४ द्वा०वक्तव्यावक्तव्य- तत्तो उत्तर निवो, कावयपरिवारबंधुजुभो ॥॥ विजागानिपुणे । प्रइन आश्र०२ का स्थूलमती, "तसथावर- जा वीसमेह संतो, तत्तीरे ताव पिच्छा नरिंदो । हिंसाप, जणा अकुसला उलप्पंति" दश०१ अ० अशोभने च । नश्पूरवणियफुत्तमि-दरपय सुमणिरयणनिहिं ।।१०।। ौ । न कुशसं मालमस्य, मङ्गनविरोध्यमसयुक्त, न त। गंतूण तत्थ सम्म, पासिय दंसह समरविजयस्स। कुशलविरोधिनि मनके, न० वाच०। चलियं च तस्स चित्तं, नासुररयणुच्चयं दई॥ ११ ॥ अकुमझकम्मोदय-अकुशलकम्र्मोदय-पुं० अनकम्मोद चिंत सहावकूरो, मारिच निवं इमं पगिहामि । य, अकर्मानुभावे च । ध०२ अधिः । तं रजं सुहसज्ज, अणिज्यिं रयणनिहिमेयं ॥ १५ ॥ रन्नो मुको घाओ, पुरीइ सोयम्मि पुकरंतम्मि। अाकुसलचिनणिरोह-अकुशलचित्तनिरोध-पुं० आर्तभ्याना हाहा किमियं ति विचि-तिळण वंचाविमओ तेण ॥१३॥ दिप्रतिषेधनाऽकुशलमनोनिरोधे, दश०६० भण य अक्रमणो, निवई बाहार तं धरेऊण । अकुसलजोगणिरोह-अकुशनयोगनिरोध-पुं० अकुशलानां नियकुमश्रणुचियमसमं, कि नायतए इमं विहियं ॥ १४॥ मनोवाकाययोगानां व्यापाराणां निरोधः अकुशलयोगनिरोधः । जह कज्जं रजेणं, निहिणा मिणा व ता तुम चेव । मनादित्रिविधकरणैरायुक्ततायाम, ओघ०। गिहाहि आहिमुक्को, समर धरेमो वयं तु वयं ॥१५॥ अकुसलणिवित्तिरूव-अकुशलनिवृत्तिरूप-त्रि०सपापारम्भो तं सो निसुणिय अमुणिय, कोवविवागो विवेगिपरिमुको। परमणस्वभावे, पश्चा०७ विव०। बिच्चोमिऊण वाहं, प्रोसरिओ निवसगासाओ ॥१६॥ भकुसील-अकुशील-पुं०न कुशीलोऽकुशीलः। कुशीलभित्रे, जस्स निमित्तं अनिमि-त्तवारिणो वंधुणो वि इय हुँति । सूत्र० १ १६०। भलमिमिणा निदिणामे, तं मुत्तु निवो गरो सपुरं ॥ १७ ॥ अकुहय-अकुहक-त्रि० न० तः । इन्द्रजालादिकुहकरहिते, समरो भमरालिसमा, पुनवसाओ पुरट्टियं पितये । "अलोलुए अकुहए अमाई, अपीसुणे प्रावि अहीणवित्ती" रयणनिहाणमदटुं, चिंतह रना धुवं नीयं ॥१८॥ तो जाओ चारहमो, चरमो लुटेर वंधुणो देस । दश०६०५०।। अकू (क) र-अक्रूर-पुं० न० त० । अरौद्राकारे । दर्श। सामंतेहिं धरिङ, कयावि नीओ निवसमीवे ॥१६॥ मुक्को अणेण रज्जे, निमंतिश्रो चितिन गओ एवं । अक्लिष्टाभ्यवसाये, करो हि परच्छिद्रान्वेषणलम्पटः कलुष- गहियव्वं रजमिणं, हरेण नहु दिज्ज मेएणं ॥२०॥ मनाः स्वानुष्ठानं कुर्षपि फलभाग् न भवतीति (अफरवं एवं कया देहे, भंगारे जणवए य सो चुको । पञ्चमः भाषकगुणः) प्रव० २३६ द्वा० । ध। पत्तो निषेण मुक्को, रज्जेण भस्थिो य ददं ॥ २१ ॥ कुरो किलिट्ठभावो, सम्मं धम्मं न साहिउं तरह। तो जाओ अणवाओ, नियह अहो सोयराण सचिसेसं । पगस्स दुज्जणतं, असरिसमन्नस्स सुयणसं ॥ २२॥ इय सो न इत्य जोगो, जोगो पुण होइ अकरो ॥१॥ गुरुवेरग्गो राया, अशविरसे वासरे खिव जाव । करः क्लिष्टभावो मत्सरादिक्षितपरिणामः सम्यक निष्क- ता तत्थ समोसरिओ, पवोहनामा पवरनाण। ॥२३॥ लई धर्म न नैव साधयितुमाराधयितुं (तरपत्ति ) शक्नोति चलिम्रो पमोयकत्रिभो, तनमनधं निको सपरिवारो। समरविजयकुमारषत् । इत्यस्मातोरसौ नैवात्र शुद्धधर्मे निसुणिय धम्म पुच्चय, समए नियबंधवचरितं ॥ २४॥ योग्य उचितः । पुनरेवकरार्थः । ततो योग्योऽङ्कर एव की. जंप गुरूविपेहे-सु मंगले मंगलावई विजए । र्तिचन्द्रनृपवदिति । तयोः कथा चैवम् सोगंधिपुरे सागर-कुरंगया मयणसिदिसुया ॥ २५ ॥ बहुसाहारा पुन्ना-गसोहिया उच्चसालरेहिल्ला । पढमवयसमुचियाहि, कोलाहि ते कयावि कोसंता । बारामभूमिसरिसा, चंपा नामेण अस्थि पुरी ॥१॥ पिच्छति बालगदुग, तह एगं बालियं रम्मं ॥ २६॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) अकू (कू) र अभिधानराजेन्द्रः। अकोविद पुट्ठा य तेहि पए. के तुम्भे ता भणाइ ताणेगो । एवं दव्वनिमित्तं, सहियाओ तेहि वेयणा विविहा । अस्थित्य मोहनामा, निई जगतीतलपसिको ॥ २७ ॥ न य तं कस्सइ दिनं, परिनुत्तं तं सयं नेत्र ॥ ५॥ तस्सत्थि वरिकरिकर-दकसरी रायकेसरी तणो । अह पुब्वभवे काचं, अन्नाणतवं तहाविहं किंपि। तप्पुत्तोऽहं सागर, महासश्रो सागरऽनिहाणो ॥२८॥ जाओ सागरजीवो, तं निव श्यरोउ तुहबंधू ॥ ५३॥ मम तणो फुडविणओ, एसो उ परिग्गहाऽभिलासुत्ति। तुम्हाणवि पच्चक्खो, इओ परं समरविजयवृत्तंतो। वसानरस्स धूया, एसा किर कूरयानाम ।। २९ ॥ सो काही जवसम्ग, इकसि तुह गहियचरणस्स॥५४॥ श्य सुणिय हरिसिया ते, कीसंति परुप्परं तभो मिति । तो करया सहिओ, अहिओ तस्स थावराण जीवाणं । . निम्मे सागरो सह, सिसहि न उ करवाए वि ॥ ३० ॥ सहहदहियदेहो, भमिडीही नवमणतमिमो ॥ ५५ ॥ कुण कुरंगो मिति, तेहि समं कूरयाइ सविससं। अ सुणिन गरुयवेर-गपरिगो गिएडए वयं राया। जयाभितयत्तिकमा, पत्ता ते तारतारुनं ।। ३१॥ नियभाणिज्जहरिकुम-रवसहसंकमियरज्जधुरो ॥५६॥ । अहमित्तपेरियमणा, दविणोवांजणकर गहियानंडा । कमसो अइतव सोसिय, देहो बहुपदिय सुरु सिकंतो। पियरेहि वारिया वि हु, चलिया देसंतरम्मि इमे ॥ ३२॥ अग्भुज्जयं विहारं उज्जयचित्तो पवज्जे ॥ ५७॥ भिवहि अंतरा अं-तरायवसओ य गहियरिधणा । कस्सवि नगरस्स बहि, पक्षबबाह हिश्रो य सो जयवं । नरूरियथोषदव्वा, धवलपुरं पट्टणं पसा ॥३३॥ दि पाविजेणं, समरणं कहिवि गमिरेणं ॥ ५० ॥ दविएण तेण तहिय, गहिन हट्ट कुणंति ववसायं । वरं सुमरंतेणं, हणिो खम्गेण कंधराइ मुणी। दोणारसहस्सगं, दुक्खसहस्सहिं अजंति ॥ ३४॥ गुरुवेयणाभिभूओ, पमिओ धरणीयसे सहसा ॥ ५॥ तो बछियबहुतएहा, कप्पासतिला भंमसालानो। चिंतश्रे जीव! तए, अन्नाणवसा विवेगरहिएण । पकुणंति करिसणं पि हु, उच्चुक्लित्ता कारंति ॥ ३५ ॥ बियणाओ अयणाओ, नरएसु अणंतसो पत्ता ॥६॥ तससंसत्ततिलाणं, निपीक्षणं गुनियमाइ बवहारं । गुरुजरवहणंकणदो-हवाहसीउहखडपिवासाइ। कारंति एव जाया, ताणं दीणारपणसहसा ॥ ३६ ॥ पुस्सहदुइदंदोली, तिरिएसु वि विसहिया बहुसो ॥ ६ ॥ तो तहसगे इच्छा, कमेण सक्खे वि जाय तं मिलियं । ता धीर मा विसीयसु, श्मासु प्रश्अप्पवेयणासु तुम। अद कोहि पूरणिच्य। जाया मित्ताणुनावण ॥ ३७॥ को उत्तरिउ जलहि, निव्वुझए गुप्पई नीरे ॥ ६ ॥ तो गुरुगंतीनिवहा, पहिया देसंतरेसु विविहेसु । वज्जेसु कूरजावं, विसुद्धचित्तो जिएसु सन्वेसु । जनहिम्मि पोयसंघा-यवत्तिया करहमंझलिया ॥ ३५ ॥ बहुकम्मखयसहाओ विसेसओ समरविजयम्मि ॥ ६३॥ गहिया निवकुलाश्रो, पट्टेण बहूणि सुकाणाई। तं लको शह धम्मो, जे न कया कूरया पुरावि तए । विहिया धणगणियाओ, बझा न हयाइ हेडाओ ॥ ३६॥ श्य चितंतो चत्तो, पावेण सम स पाणेहिं ॥६॥ इच्चा पावकोमिहि, जा कोमि वि तेसि संमिलिया । सुहसारे सहसारे, सो उववन्नो सुरो सुकयपुग्नो। तो पायमित्तवसओ, उववना रयणकोडिया ॥४०॥ तत्तो चविय विदेहे, बहिही मुत्ति समुत्तीवि ॥ ६५ ॥ अह खिब्विळण सब्ब, पाऐ ते पत्थिया रयणभूमि। श्रुत्वेत्यशुरूपरिणामविरामहेतोः, ताकूरया विलग्गा, गाद कन्ने कुरंगस्स ॥४१॥ श्रीकीर्तिचन्नरचमचरित्रमुच्चैः । जंपेक्ष हंत हंतु, अंसहरमिमं करेसु अप्पवसं। जव्या नरा जननमृत्युजरादिनीता, सयलं दविणमिणं ज, धणिणो सब्वेवि श्ह सुयणा ॥४२॥ अक्रूरतागुणमगौणधिया दधध्वम् ॥ ६६ ॥ ध० २० । श्य सा जंप निश्चं, तहेव तं परिणयं श्मस्स तो। अकेवल-अकेवल-त्रि० न विद्यते केवबमस्मिनित्यकेवलम् । पक्खिवह सागरं सा-गरम्म लहिळण सो ग्इिं ॥४३॥ असुहकाणोवगो, जलहिजबुप्पीलपीलियसरीरो। अशुके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। मरिऊण तश्यनरग-म्मिनारओ सागरो जाओ ॥४४॥ अकोमहब-अकौतूहल-त्रि० न० ब०स० नटनर्तकादिषु, श्रकाचं मयकिच्चं ना-नुगस्स हिको कुरंगओ हियए । कौतुके, "नो मावर नो वि य माविअप्पा, अकोऊहले य सया जा जाइ किंति दूरं, ता फुटुं पवहणं ऊनि ॥ ४५ ॥ सपुजो" दश० ए ०३ उ० । बुको लोत्रो गलियं, कयाणगं फबइयं लहिय एसो। अकोप्प-अकोप्य-त्रि० अकोपनीये, अदूषणीये, वृ० १ उ० कह कहवि तुरियदिवसे, पत्तो नीरनिहितीरम्मि ॥ ४६॥ "अकोप्पजंघजुयला" अकोप्यमयं रम्यं जलायुगलं यासां अजिणिय धणनोए, भुंजिस्सं श्य विचितिरो धणियं । तास्तथा। प्रश्न आश्र०३ द्वा०। भमिरो वणम्मि हरिणा, हणिओ धूमप्पहं पत्तो ॥ ४७ ॥ अकोविय-अकोपित-त्रि प्रदूषणीये, “आरियं उवसंपज्जे,स. तो भमिय नवं ते दो, वि कहवि अंजणनगे हरी जाया। व्वधम्ममकोवियं”। सूत्र. १ श्रु०८ अ०। इक्कगुहत्थं जुझिय, चनत्थनरए गया मरिलं ॥४॥ तो अहिणो इगनिहिणो, कए कुणंता महत्तयं जुज्ऊ । अकोविद-पुं० श्रुतेन वयसा चाऽप्राप्तयोग्यताके, व्य०१०। विज्कायसुरुकाणा, पत्ता धूमप्पहं पुर्वि ॥ ४ ॥ अपणिमते, सच्चास्त्रावबोधरहिते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ ० "प्राअह बहुभवपज्जंते, एगस्ल वणिस्स नविय जज्जाओ। रंजाईन संकंति, श्रावयत्ता अकोविया" सूत्र०१ श्रु०१ १०३ तम्मि मप विहवकए, जुज्यि मरिउं गया बद्रिं ॥ ५० ॥ उ० । सम्यम्झानानिपुणे, “वणे मूढे जहा जंतू, सूढे णेवाणुगाभमिय नवं पुण जाया, तणया निवश्स्स नवरए तम्मि । मिए । दो वि पए अकोविया, तिब्वं सोयं तियच्च" सूत्र.१ काहंता रजकए, मरि पत्ता तमतमाए ॥५१॥ श्रु०१० ३ ००१ दश० ।पि। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) अकोवियप्प अनिधानराजेन्द्रः। अकोसपरिसह अकोवियप्प (ए)-अकोविदात्मन-पुं० सम्यकपरिकानवि-अकोमण-आक्रोमन-न० संग्रहे, विशे० श्रु०॥ कले, बृ०१ उ० । अक्कोमो-देशी-छागे, देना। अकोहण-अक्रोधन-त्रि०क्रोधरहिते, “एसप्पमोक्यो अमुसे : अकोस-अक्रोश-न० वर्षायोग्यक्षेत्रविशेषे, यस्य मूलनिवन्धा. वर वि, अकोहणे सचरते तवस्सी" सूत्र०१७० १० अ०।। त्परतः षमां दिशामन्यतरस्यामेकस्यां द्वयोस्तिसृषु वा दिक्षु अकंतं-देशी-प्रवृके, देना। अटवीजलश्वापदः सन्ति, तेन पर्वतनदीव्याघातेन च गमनं अकंत-पाक्रान्त-त्रि० श्राक्रम-क्तः। भवष्टम्धे, प्राचा० १९०६ / भिक्षाचर्या च न सम्भवति, तन्मूलनिबद्धमात्रमक्रोशम् । श्र०५०।अभिजूते, स्वोपरिगत्या व्याप्ते, सूत्र० १९०१ व्य०१० उ०। अ०४ उ० भावेक्तः। आक्रमणे, नं० । भ०१० ३ ०। श्रा- आक्रोश-पु० आक्रश-घञ् । दुर्वचने, भ० ८ ० ८ उ०। कान्त, पादादिना नूतलादो जवति । अचित्तवायुकायिकभेदे, | निष्ठरवचने, श्राव०४ प० । असभ्यभाषायाम, उत्त० २ पुं० स्था० ५ ठा0 ३ उ०। | अविरुद्धचिन्तने, शापे, निन्दायां च । वाच०। अकंतदुक्ख-दुःखाक्रान्त-त्रि० भाक्रान्ता अभिभूता सेन अकोसग-प्राक्रोशक-त्रि० दुर्वचनवादिनि, उत्त०२ अ० । शारीरमानसेनाऽसातोदयेन दुःखाकान्ताः (दुःखानिनृतेषु ) सूत्र०१ श्रु०१ भ०४१) । "सब्वे अकंतदुक्खाय, प्रोसवे अक्कोसणा-आक्रोशना-स्त्री० मृतोऽसि त्वमित्यादिवचनेषु, अहिंसिया" सूत्र० १ ०१ भ० ४ उ०। मा० १६०। अकंद-आक्रन्द-पुं० प्राक्रन्द-धम् । सारवे रोदने, वाचः। तदा- | अक्कोसपरि (री) सह-आक्रोशपरि (री) पह-पुं० प्रा. त्मके एकचत्वारिंशे उत्कृष्टाऽऽशातनाभेदे, आनंदरुक्तिविशेष क्रोशनमाकोशोऽसभ्यभाषात्मकः स एव परीषहः माक्रोशपपत्रकलत्रादिवियोगे तं विधत्ते । प्रव०३८ द्वामालाने,शब्दे व, | रीषद द्वादशे परीषहे, उस०२ ०। आक्रोशोनिप्रवचनं, कर्मणि घामित्रे, भ्रातरिच,माधार घञ्।दारुण युके, दुखि तच्छ्रुत्वा सत्येतरालोचनया न कुप्येत् किन्तु सहेताय०४ प्र० नां रोदनस्थाने च। आफन्दयति-अच् पाणिग्राहपाश्चादवर्तिनि "आष्टोऽपि हिनाक्रोशेत, कमाश्रमणतां विदन् । प्रत्युताकोटनृपभेदे, 'पाणिग्राहं च संप्रेक्ष्य तथाऽऽक्रन्दच मारसे' मनु। रियतिश्चिन्तयेऽपकारिताम्"ध०३ भधि०। “माक्कुष्टो मुअकंद-प्राक्रन्दन-न। पा+क्रन्द-ल्युट् । महता शब्देन वि.। निराक्रोशे-सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेकेतोपकारित्वं न तु द्वेष रवणे, आव० ४ अाब्हाने च, वाच । कदाचन " श्राव०१०। प्रा०म० द्वि० । तद्यदि सत्यं, कः अक्तूवरी-अर्कतु (तू) वरी-स्त्री० गुच्छन्नेदे, प्रशा०१ पद । कोपः, शिक्कयति हि मामयमुपकारी,न पुनरेवं करिष्यामीति । अनृतं चेत् सुतरां कोपो न कर्तव्यः । उक्तं च "श्राऋष्टेन मतिअक्कत्थल-अस्थम-न० मथुरास्थस्थलभेदे, ती कल्प। मता, तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः, अक्कम-क्रम-गुं० आक्रम-घम् । अवृतिः। बसेनाऽतिक्रमणे, स्यादनृतं किमिह कोपेन" इत्यादि परिभाव्य न कोपं कुर्यात् । अजिभवे, व्याप्ती, प्राग्रहे चावाचा प्राकृत "आक्रामे रोहावो प्रव००६ द्वा० । "चाएमाः किमयं द्विजातिरथवा शूषोऽथवा चारदा" ॥१॥५६॥ इति सूत्रेणाक्रमेस्त्रय आदेशाः वा श्रोहावड तापसः, किंवा तत्वनिवेशपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा। उच्छावा छंद। अक्कमह आक्रमते,प्राआक्रमणमाक्रमः। परा त्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जनै-नों रुष्टो नहि जय, उच्छेद, आ०म०प्र०बलात्कारे,आव०४ अाक्रम्यते चैव एहृदयो योगीश्वरो गच्चति" पुनर्गाली श्रुत्वेति विपरलोकोऽनेन । करण घम् । परलोकप्राप्तिसाधने विद्याकर्मादी, चिन्तयेत् । "ददतु ददतु गाली गालिमन्तो जवन्तः, षयमपि तकृताक्रमणे, अभिभूते, व्याप्ते, भाग्रहे च । वाच॥ दभावात् गालिदानेऽप्यशक्ताः। जगति विदितमेतद्दीयते विद्यश्रक्कमण-आक्रमण-न० अभिभवने, विशे० । पादेनाक्रीमने, मान, ददतु शशविषाणं ये महात्यागिनोऽपि ॥१॥" इति विआव०४०। चार्य समत्वेन तिष्ठत् । उत्त०२०।"अकोस गहणमारण, अक्कमित्ता-आक्रम्य-अ० आक्रमणं कृत्वेत्यर्थे "भीमस्वेहिं भ धम्मभंसाणबालसुसनाणं । लाभं मन्नइ धीरो, जहुत्तराणं कमित्ता दढदाढा गाद" प्रश्न आश्र०१द्वा। अभावम्मि" सूत्र० १७०० अ०। एतदेव सूत्रकृदाह । अक्कशाला-देशी० बलात्कारे, ईषन्मत्तायां खियाम्, दे० ना। अक्कोसेज परो लिक, अक्का-देशी-भगिन्याम, दे० ना। न तेसिं पमिसंजले। अक्कासीदेवी-स्त्री० व्यन्तरदेवीविशेषे, ती कल्प । सरिसो होइ बालाणं, अकिट्ठ-प्रतिष्ठ-त्रि० न० त० अबाधिते, निवेदने, भ० ३२० तम्हा भिक्खू न संनले ॥ २४॥ २ उ० । स्वशरीरोत्थल्केशरहिते, जी० ३ प्रति । आक्रोशेत्तिरस्कुर्यात् । परोऽन्यो धर्मापेक्कया धर्मवाह्य श्रात्मअक्कुट-देशी० अध्यासिते, देना। व्यतिरिक्तो घानिकुंयति यथा धिमुमकिमिह त्वमागतोऽसी अकम-गम्-धा० गतौ, “गमेरर अइच्छाणुवजावसज्जो- ति (न तेसिति) सूक्तवचनस्य च व्यत्ययान्न तस्मै प्रतिसंज्वलेत निर्यातनं प्रति। ततश्चाक्रोशदानतो न संज्वलेदेतनिर्यातनाम, क्साकस०" ४।१६१। इति सूत्रेण गमेरक्कसाऽदेशः । अक देहदाहलोहितपातप्रत्याक्रोशाभिघातादिभिरग्निवन्न दीप्यत, संसइ, गच्छति, प्रा० न्या। ज्वलनकोपमपि न कुर्यादिति। संज्वलेदित्युपादानं किमेवमुपदिअक्केज (य)-अक्रेय-त्रि० अक्रयणीये, स्था० ६ ठा। श्यत इत्याह सदृशःसमानो भवति संज्वन्निति प्रक्रमः। केषां? अको-देशी-दूते, दे० ना। बालानामझानां, तथाविधवपकवत् । यथा कश्चित कपको देवत. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अको सपरिस या गुणैरावर्जिता सततमनिन्द्यते, उच्यते य मम कार्यमादीयमनचिज्ञातिना स योमायस्तेन यता कामवारी मुवि पातितस्तारितब्ध, रात्री देवतामा याता रूपकस्तूष्णीमास्ते। ततश्वासी देवतयाऽभिहितो भगवन् ! किं मयाऽपराद्धम् । स प्राह । न तस्य त्वया दुरात्मनो ममापकारिणः कचित्कृतम्। सोऽवादीत् न मया विशेष यथाऽयं श्रमणोऽयं धिग्जातिरिति यतः कोपाविष्टौ द्वावपि समानौ संपन्नाविति । ततः सतीप्रेरणेनेति प्रतिपन्नं क्षपकेणेति । उक्तमेवार्य निगम पितुमाद (तदति) यस्मात्सरसो भवति बा लानां तस्माद् भिक्षु संयजेदिति सूजार्थः । त्योपदेशमाह। ( १३२) अनिधानराजेन्द्रः । सोचा णं फरसा नासा, दारुणा गामकंटया | तु सिपी प्रो उवेहिज्जा, ण ताओ मणसी करे ||२५|| श्रुत्वाssकर्य णमिति वाक्यालंकारे परुषाः कर्कशा जाषा गिरः । दारयन्ति मन्दसत्वानां संयमविषयां धृतिमिति दारुणास्ताः ग्राम इन्द्रियग्रामस्तस्य कण्टका इव ग्रामकण्टकाः प्रतिकूलशब्दादयः ककत्वं येषां दुःखोत्पादक मुकिमामदेतुतया तदेकदेशत्वेन च परुषभाषा अपि तथोक्ताः । भाषाविशेषणत्वेअपात्रता तूष्णींशीलेन कापात्प्रतिपुरु भाषी एवंविधश्च । " जो सहद्द उ गामकंटर, नक्कोसपहारतजणापति" प्रत्यागमं परिज्ञाचयन्तु तावचरयेत् । प्र मात्परुषभाषा एवं कथमित्याह न ता मनसि कुर्यादू, जाषिणि द्वेषाकरणेनेति सूत्रार्थः । उत्त० २ श्र० । कम्मा दुभगा चैव थाऽऽहं पुटोजणा ॥ ६ ॥ पृथकजना प्राकृतपुरया अनाकल्पात्येवमाहुरित्येवमु न्तः। तद्यथा । य एते यतयः जलावित्रदेहा लुञ्चितशिरसः कुधादिवेदनास्तास्ते पतेः परितः कर्मतिः स्वकर्मणः फलमनुवन्ति यदि वा कर्मनिः कृष्पादिभिरातस्तमसम यो सन्तो यतयः संवृत्तः इति तथैते पुर्नगाः सर्वेय पुत्रदारादिना परित्यक्ता नितिकाः सन्तः प्रायामयुपगता इति एते स चायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्य मंदा विसीति, संगामंमिव जीरुया || ७ || एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान् तथा चौरचारकादिरूपान् शदान सामन्तो ग्रामनगरादी तद्तराले वा व्यवस्थि ताः तत्र कोशे सति भन्दा प्रकृतयो विपी दन्ति विमनस्क जयन्ति संयमाश्यन्तिं तथा भीरवः संग्रामे रणशिरसि चक्रकुस्ताखिशकिनारामा कुले स्त्रीनादगम्भीरे समाकुलाः सन्तः परुषं परित्यज्या परात्परमङ्गीकृत्य प्रज्यन्ते, एवमाक्रोशादिशब्दा कर्णनादसत्त्वाः संयमेषश्रीदन्ति । सूत्र० १ ० ३ ० १ ० । अत्रार्जुनमायाकारपिकथा । रायगिहे मालारी, अज्जुणओ तस्स भज्ज खंसिर । मोग्गरपाणी गोडी, सुदंसणो वंदप्रणीति ॥ उत्त०नि० । राजगृहे मात्राकार्जुनकस्तस्य नाय स्कंदधी मुरपाणि गोन (बंदीत नार्थ निच्छीत गा थाक्करार्थः, जावार्थस्तु संप्रदायगभ्यः । उत्त० ३ ० । ( स 'अनुराग' शब्दे ) सह दु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जाओ अ । जो अक्ख जयभैरवसदसप्पहासे, सममूह दुक्खसडेय ने सक्खूि | किंच (जो सहइत्ति) यः खलु महात्मा सहते सम्यन्ग्रामकण्टकानू मामा इन्द्रियाणि तद्दुःखहेतवः कण्टकास्तान्, स्वरूपत एवाह, आकोशान् प्रहारान् तर्जनाश्चेति । तत्राक्रोशो जकारादिभिः, प्रडारः कशादिनि, तर्जना अादिनिः तथा भैरवभया अत्यन्त रौषभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तथा तस्मिन, बेतासादिकृतानादाहहास इत्यर्थः अत्रोपस षु सत्सु समयावतिभावः स भिक्षुरिति सुत्रार्थः । ६० १० अ० । अकोसपरि (री) सहविजय आक्रोशपरि (1) पह विजय- पुं० मिथ्यादर्शनादूतोदी रितदुर्वचांसि ज्ञानिदावदाढीनिकोहुतवहोद्दीपन परिष्ठानि शृण्वन्तोऽपि तत्प्रतीकारं कर्तुमपि शक्नुवन्तो 'पुरन्तः क्रोधादिकषायोदयनिमित्तपापकर्मविपाक' इति चिन्तयतः कषायलयमात्रस्यापि स्वहृदयेऽनयकाशदाने पंचा १३ विष० । अकोह-अक्रोप ० ० ० को चोदयविरहिते । विफलीकृतक्रोधे, श्र० । नमः स्वल्पार्थत्वात् स्वल्पक्रोधे, जं०२ वक्ष० । क्रोधमकुर्वाणे. उ० २ अ० । " से णूणं भंते ! कोहत्तं - माणसं श्रमायत्तं प्रलोभन्तं समणाणं निमांथां पसत्यं ? हंता गोयमा ! भकोहत्तं जाव पसत्थं " भ० १ ० ० ० । अखमम्मियं - देशी - तथेत्यर्थे, दे० ना० अक्ख- अक्ष-पुं० जीवे, आ० म० प्र० स्थान उजयत्रापि "मावाविद्यमिकमिहनिकप्यणी" इत्यादिना श्रीणादिकः सप्रत्ययः । प्रा० म० प्र० । 66 roar orat are - व्वावरण भोयगुणाओिए । अस्तावज्जीव उच्यते, केन हेतुनत्याह ( श्रत्थवावणेत्यादि ) श्रर्थग्यापननो जनगुणान्वितो येन तेनाको जीवः । इदमुक्तं भवति" व्याप्ती" अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वार्थान् व्याप्नोतीत्यमादिकनिपातनादको जीयः अथवा "अस भोजने" अश्नाति समस्तत्रियमान्तर्सिनो देवलोकान [पायति मुङ्क्ते वेति निपातनादक्षो जीवः । श्रश्नातेर्जोजनार्थत्वाद्, जेश्च पालनाभ्यवहारार्थत्वादिति भावः । इत्येवमर्थं व्यापनभोजनगुणयुक्तत्वेन जीवस्याकत्वं सिद्धं भवति । विशे० । इन्द्रिये, न० " खमक्कमिन्द्रियं प्रोक्तं हृषकं करणं स्मृतम् " इति वचअक्खस्स पोग्गलमया, जं दब्वेदियमणपरा होति नात् । आ० म० प्र० । प्रज्ञा० । ज्ञा० । विशेण नि० चू० । दश० : अश्नाति नवनीतादिकमित्यक्कः । धुरि, (चक्रनाभौ ) उत्त० १ ० | " अ क्खमंगम्मि सोय" । उत्त० ५ श्र० श्रनु० । श्री० | जं०] न० । चतुर्हस्तै नियमानविशेषे अनु० ज्यो व्यावहारिको कः भवति । स०६६ सम० अत्योपा दानवचेति मपुष्पिकाऽध्ययने, दश.१ ० चन्दनके, आस्मन् दि कारवती साध्याः स्थापन कृत्वाऽपश्यक्रियां कुर्यतः स्थापनाssवश्यकं भवति । अनु० । श्रव । तद्रूपे उत्कृष्टौपग्र कोपविविशेषेावा गमटिको सो । पोत्थगपणगं फलगं, नक्कोसोवग्गहो सवो" ध० ३ अधि० गol पि० । पं० व० । रुद्राकफलविशेषे, अर० ३ वर्गः । पाशके, कप, "जए अपराजिय जहो, अि दीवयं" सूत्र ०१ श्रु०२ ०२४०। विनीतके, रावणसुतभेदे, सर्प, " Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामवश्य जाग, सीसे परिमाणेच न०याच अक्खय-अकृतिक-०" हरि" अकृतिकबीजेन मषेण दुःखहेतुत्य अप्पाण कम्मबंध र्थः । प्रश्न० आश्र० १. द्वा० । अक्खदेव अयोदक वि० सहयं शाश्वतमविनाश्युदर्क ( १३३ ) अभिधानराजेन्द्रः । जलं यस्य सोऽयोदकः । नित्यसन्निलभृते, "जहा से सयंहम उम"उस०] ११० अक्खचम्य-अचमेनन० जापकर्षणकोशे, "अचम्म उठगंडदेसं" झा० ६ श्र० । 3 प्रक्वत्रेनं - देशी- सुरते, प्रदोषे च । दे० ना० । अलबिदा प्रकृनिवाख० गमयाम् पि० । अक्खपाय -पाद-पुं० प्रकं नेत्रं दर्शनसाधनतया जातं पादेऽस्य न्यायसूत्रकारके गौतममुनौ स हि स्वमतदूषकस्य व्यासस्य मुखदर्शनं चक्रुषा न करणीयमिति प्रतिज्ञाय पश्चाद् व्यासेम प्रसादितः पादे ने प्रकाश्य तं वानिति पौराणिकी कथा बाचकपादम किस पोड पदार्था "प्रमाणप्रमेयसंप्रयोजनान्तसिद्धान्ताचययतर्कनिर्णयवादजल्पवित राडा स्वाभासस्यजातिनिग्रहस्थानानां तस्यज्ञानाभिः श्रेयसाधिगमः" इति वचनात् । इत्याद्यन्यत्र प्ररूपयिष्यते । स्या० । अकपादेनोक्ते प्रत्थे च " विशे० । श्रा० म० प्र० । अक्खम- अक्रम - त्रि० मते कमः । अच् । न० त०] असमर्थे, क म-भावे भावार्थे, न० त०] कुमाभावे, ईययामी वाच० । अयुक्तत्वे, स्था० ३ ० ३ ० । अनुचितत्वे असमथेवे, स्था० वा० १३० । अक्खय- अक्षज - न०. अक्काद् इन्द्रियसन्निकर्षाञ्जातः । जन-मः। इन्द्रियविषयसन्निकर्षोत्पन्ने प्रत्यकाने, वाच० । " अक्वव्यापारमाश्रित्य भयदजमिष्यते तदृयापारो न तत्रेति कथम भवं जवेत् " ० म० ६० । अकृत-पुं० [० ताः प्रय पञ्चा०] सस्यमाने न०पयुक्तानि उत्कर्ष रिते, यवे च त्रि० कणभावे, वाच० । परिपूर्णे, स० १ सम० । प्रश्न० | क० न० त० क्षयानावे, न० वाच० । अक्षय-त्रि० ० मास्य कृपोऽस्तीत्ययः नं० अपवसाने, चाव० ४ श्र० । अप्रणाशिनि, पञ्चा० ४ विव० । स० । “ लिवमयल मरमतमतयमप्यापदमावति सिगानामधेयं वाणं संपाविउकामे" अक्कयं कयरहितं साद्यनन्तवत्त्वात् । कल्प० । अनाशंसाद्यपर्यवस्थितिकत्वात् भ० १ ० १ ० 1 विनाशकरणानावात् । जी० ३ प्रति० । रा० घ० । “स पश्नया earerगरे वा, महोदही वा विश्रांतपारे " स भगवान् प्रज्ञयाऽक्कयोऽक्कीणज्ञान इत्यर्थः । सूत्र० १ ० ६ श्र० । क्य लिहि- श्रय निधि - पुं० देवना एकागारे, श्रक्खयणिदि अवस्थामि "विपा० १० अ० । अव्यये भाएकागारे । झा० १० २ अ० ॥ क्याणिहितत्र-य निधितपस् - न० लौकिकफलप्रदेतपोत्रेदे यत्र जिनबिम्बस्य पुरतः स्थापितकलशः प्रतिदिनं प्रहिष्यमाणतरुलमुदिते तन्ति दिना न्येकाशनेनाऽकारि तपोऽक्कयनिधितपः । पञ्चा० ए विव० । अक्वणीच अक्षयनीनि श्री० मा वासी नीविभ 66 अवखयतश्या कपनीविः पो०६ वियये मूलधने येन जस् देवकुलस्योकारः करिष्यते । ० १ ० २ अ० । प्रस्वयतया अक्षयतृतीया श्री० कर्म स० वैशा तृतीयायाम, "वैशाखमामि राजेन्द्र, पके तृतीयका अ सातिथिः प्रोत, कृतिका रोहिता तस्य दानादिकं सर्व मक्कयं समुदाहृतमिति वाच० । तन्माहात्म्यकथा चैवमप्रणिपत्य प्रभुं पार्श्वे श्री चिन्तामणिसंज्ञकम्। अथात्तयतृतीयाया व्याख्यानं लिख्यते मया ॥ १ ॥ एतदेवाह श्रुतकेवली भगवान् भद्रबाहुः । " उसभस्स हु पारणए, इक्सुरसो श्रासि लोग नाहस्स । सेसाणं परमनं, श्रमियरसस्सोवमं श्रासी ॥ १ ॥ अहो दाणं दिव्याणि ग्राहियाणि तुराणि देवा विस विडिया बहारा बेब बुद्धीय ॥ २ ॥ भवणं घरो भुव जसे भयवं रसेण पहिल्यो। अप्पा निरुपत दाणं महग्घविश्रं ॥ ३ ॥ रिसहेण समं पत्तं, निरवज्जं इक्खुरससमं दाणं । सेयंससमो भावो, हविज्ज जइमंगियं हुजा ||४| इति । एतासां गाथानां भावार्थः कथयाऽवगन्तव्यः । तथाहिश्री ऋषभदेवस्वामिनो जीवः सर्वार्थसिद्धविमानात् च्युत्वाऽऽपाढकृष्णचतुर्थी तिथी नामिनाम्नः कुलकरस्य भार्याचा मरु देव्याः कुक्षाचवतीर्णः । नव मासान् चत्वारि दिनानि च तत्रो पित्या चैत्रकृष्णाष्टम्यां निशीथसमये जन्म जगृहे । तदानी विष्टपत्रयं विदिते तं नारकैरपि जीवैः शमध्यगामि । तदनु षट्पञ्चाशद्दिकुमारिकाणामासनानि चकम्पिरे । ताश्चावधिज्ञानेन भगवतो जनिमवगम्य जन्मस्थानमासाद्य च स्वस्वकाव्य संपाद्य निजनिकेतनानि प्रत्यगमन् । ततचतुष्पष्टि व्यकानामिन्द्राणामपि विरालुः । तेऽप्यवधिज्ञानेनैव भगयतो जनुर्भहणं विदित्वा सोधम्र्मेन्द्रव्यतिरिका अन्ये शिय हिरिन्द्रा हेमाई प्रतिजग्मुः । ततः सौधर्मेन्द्रोऽपि जन्मस्थानं समागत्य तत्रयेभ्यो मामुखेभ्यो जनभ्योऽवस्थापन नि दत्त्वा मातृसन्निधौ स्वशक्त्या रचितं भगवत्प्रतिबिम्बं निधाय भगवन्तमुनाभ्यां पाणिभ्यां गृहीत्वा कनकाई समाययीत चतुष्पसंख्यकैरिन्द्रे संभूय स्नात्रमहोत्सवं कृत्वा ततः सौधर्म्मविरहितैरन्यैरिन्द्रैरष्टमो नन्दीश्वरद्वीपो जग्मे । सौधमन्द्रस्तु भगवानन्याः सनिहरे बालकं पूर्ववत् संस्थाप्य अवस्यापिनी निपूर्वनिहितं भगवत्प्रतिविम्बं चापइत्य "नमो रत्नकुतिधारियै" इत्युक्त्वा मातरं प्रणिपत्य ततो भगधन्तं च नमस्कृत्य नन्दीश्वर द्वीपमवाजीत् । तत्र सर्व इन्द्रा अष्टाहिकमहोत्सवं विधाय निजनिजसुरालयं समासदन् । अथ स भगवान् सौधर्मेन्द्रसंचारितामृतवन्तं निजाङ्गुष्टमेव चुचूष मातृस्तन्यपानं न चकार श्राश्राशनात् तीर्थरा तादृशाचरितत्वात् । ततः क्रमेण पिता ' ऋषभ ' इति भगबतो नाम विदथे । इन्द्रस्तु तदानीमिवाश्मतिष्ठित् । विंशतिलपूर्वपर्यन्तं भगवान् कुमारावस्थायामेवातिष्ठत् । वासवो विनीतायां नगरी कारागारा ज्याभिषेकं चाकरोत्। पिलिक्षपूर्ववर्थ महाराजपदवीमनुबभूव । सुनन्दा सुमङ्गला चेति द्वे पत्न्यौ भगवतो बभूवतुः । तयोर्भरतबाहुबलीप्रमुखं सूनुशतमजनिष्ट । तथा श्रादिव्ययशः सोमशः प्रभृतयो बहवः पीचा अभूवन् । ततो भग वान् अभ्याराज्यं ज्येष्ठपुत्राय भरताय ददी बाहुबलिने तक्षशिलाराज्यमदात् । अन्येभ्योऽपि तनूजेभ्यो यथार्ह देशनगरादिरा प्रदाय स्वयं चैत्राष्टम्यां जगृहे आ - " Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४) अक्खयतझ्या अभिधानराजेन्द्रः। अक्खयतइया हारार्थ प्रतिमाम विजहार च, भद्रपुरुषास्तु साधूनामाहार- घेषु पूर्व साधुक्रियामाकीत्, अत एव श्रेयांसकुमारो व्यचिन्तदानं न विदुरतो भिक्षां याचमानाय भगवते मणिमाणिक्या. यत् यत् संसारिजीवानां कीदृशमझानित्वं नवति येन त्रिलोकीदीन्युत्तमवस्तून्येवोपाजहः । भगवता त्यक्त्रपरिग्रहत्वात् प्रलु राज्यपदवीं तृणवत् विसृज्य विषयभोगरूप सांसारिकसुखं दीयमानमपि तत्सर्व न जंगृहे, अतः सर्वतः पर्यटन् चतुर्वि- किंपाकफलमिव विदित्वा साधुत्वं गृहीत्वा च कर्मवन्धनविमोधाहाररहित एव किञ्चिदधिकमेकं वर्षमतिष्ठत् । अस्मिनेवा- चनाय प्रयतमानं रागद्वेषाचनेकानर्थकारणीनूतं परिग्रहं परमावसरे गजपुरनगरे बाहुबलिनः प्रपौत्रः सोमयशःपुत्रः श्रेयां- एमात्रमप्यस्वीकुर्वाणं जगवन्तं नादिषुः । यः सर्वथा निम्रसकुमारोऽभूत्, तत्र भगवान् ऋषभदेव माहारार्थ विहरना- न्यो निष्परिग्रहः स कथं पुनर्हस्त्यश्चकन्यास्वर्णमणिमाणिक्यजगाम । तदा नक्तं श्रेयांसकुमारः " मेरुपर्वतः कृष्णीवभूब, मुक्ताफलादीन परिग्रहान् प्रहीष्यति । एवं बुद्धा स श्रेयांसमया चामृतकलशेश्छालयित्वा स शुक्रीकृतः" इतीदृशं स्वप्न- कुमारो निजप्रासादगवाकात सूर्णमधः समवतीर्य जगवतश्वरमपश्यत् । तस्यामेव निशि तस्मिन्नेव पत्तने सुबुद्धिनामा श्रे- णोपकरावं समायया नगवन्तं त्रिः परिक्रम्य परमानन्दसिन्धु पपि “सूर्य्यस्य किरणसहस्रं भूमौ निपपात श्रेयांसकुमा- निमग्नो ववन्दे च । पुनरआय यद्धा भगवतं तुष्टाव व्यजिज्ञपश्च रस्तु तदुत्थाप्य पुनः सूर्यबिम्बे संयुयोज" इति स्वप्रमद्रा. । । हे स्वामिन् ! मयि कृपा विधीयतामहं संसारतापतप्तोऽस्मि । क्षीत् । पुनः सोमयशा भूपतिरपि “प्रचुररिपुसमवरुद्धो अतो मे संसारानिस्तारः क्रियताम् ।अष्टादशकोटाकोटिसागव्याकुलः कश्चन सुभटो यदा तान् स्वरिपून जेतुं नाशकत्, तदा रोपमपर्यन्तविच्छिन्नो मुनिजनानां प्रासुकाहारदानविधिः प्रकाश्रेयांसकुमारेण तस्य साहाय्यमकारि, येन स तत्क्षणमेव स- इयताम् । मम गृहे उपहाररूपेण समागतान इक्षुरसपूर्णान नि विजिग्ये" इति स्वप्नं निरीक्षाञ्चक्रे । एवं स्वप्नत्रयं प्रयः शुकाहारभूतान् अष्टोत्तरशतघटान् भवान् समाददातु । इति पुरुषा अद्राक्षुः । ततः प्रजाते सर्वे राजसभामुपसंगम्य य- बचो निशम्य ज्ञानचतुष्टयसम्पन्नो भगवान् तमिकरसं व्यक्त्रथास्वं स्वप्नं प्रत्यूचुः। तदवधार्य “श्रद्य श्रेयांसकुमारस्यापूर्व- कालनावानुकूलं निरवद्याहारं समवगम्य श्रेयांसनिकेतनमपत्य लाभो भविष्यति" इति सर्वे सभ्या व्याजहः । एतस्मि- निजहस्ताञ्जली सर्व युगपज्जग्राह । यतो भगवता पाणिपात्रनन्तरे सदाऽप्रतिबकविहार्यप्रमत्तो भगवान् भिक्षार्थ प्र- लब्धिमता तूयते, तेनैव स निखिलोऽष्टोत्तरशतघटरसोऽञ्जलितिगृहं परिचमन् तत्र श्रेयांसकुमारनिकेतनमुपतस्थे । तमाग- प्रविवेश । रसग्रहणसमये चैकविन्पुरपि तमौ न निपपात । छन्तं नगवन्तं समवलोक्य कुमारोऽतीव जहर्ष । अन्ये च जना यद्यप्ययमष्टोत्तरशतघटपरिच्छिन्न एव रसोऽनूत् यदि च शतअदृष्टचरसाधुमुजाः पादाभ्यामेव पर्यटन्तं तमवलोक्य हस्त्यश्व- सहस्रलक्कपरिमितःसमुरूपरिमितो वा स्यात् तथापि प्रविशेत् । प्रभृतीनि विविधवस्तृनि समुपाहरन् । भगवाँस्तु किमपि नो- एवं भगवते विशुझाहारदानस्य महानानन्दःश्रेयांसस्य तनौन पाददे । तेन ते लोकाः कोलाहसं कृत्वा विषममानसा चिन्तय- ममौ । पुनर्व्यचिन्तयत् त्रिलोकीपूज्योऽनन्तगुणनिधिभगवान न्ति स्म, यतो नगवान् अस्मकस्तदत्तं किमपि नोपादत्ते, जातु ऋषनदेवो यन्मे हस्तेनाहारमाददे तन्मयि परमप्रसादं व्यधअस्मासु क्रुरू श्वोपलक्ष्यत इति । ते तु युगतत्वावस्थामचिरण- स। भगवते निर्दोषाहारं ददतो मे सर्वः पापसन्तापः कोणः। पाहासिषुरतः साधुनिक्षादानविधि न विदन्ति । अथ श्रेयांस- यावत् स एवं विचिन्तयति तावर्षनिर्जरा देवाः पञ्च दिव्यानि कुमारो नगवतः साधुमुखां समवलोक्य 'ईदशी मुद्रा मया पूर्व प्रकटीचक्रुः, 'अहोदानमहोदानम्' एवं प्रजल्पन्तो देवदुन्दुभीकुत्रापि निरीकिता' इत्येवमूहापोहौ कुर्वन् तदानीं तस्य मतिज्ञा- न च वादयांचक्रिरे । तिर्यग्जम्भकास्यास्त्रिदशाः सार्धद्वादशनभेदभूतं जातिस्मरणानं समजनि। तेन ज्ञानेन 'भगवता साकं कोटिसुवर्णदीनाराणां रत्नानां च वृष्टिमकार्षुः। तदा श्रेयांसनव प्रवा मे व्यतीताः' इत्यादि सर्व सोऽबुध्यत । तत्र "धण १ गृहं सुवर्णदीनारै रक्षः समृद्ध्यादिभिश्व परिपूर्ण रूमजनि । मिहुण२ सुर ३ महब्बल ४, ललियंग ५ वयरजंघ ६ मिहुणोय विष्टपत्रयं धनधान्यादिभिः परिपूर्णम् । श्रेयांसस्यात्मा निरुप७। सोहम्म ८ विज अच्चुय १०, चक्की ११ सन्वत १२ मसुखजाजनं संजातम् । तदारज्य लोके सर्वे साधूनां भिकानसभा य १३" ॥ इति गाथोक्तानां त्रयोदशनवानां मध्ये प्रथ- दानविधिं विदाञ्चक्रुः। भगवान् यस्मिन् यस्मिन् देशे विहरति मे भवे जगवान् सार्थवाहोऽभूत, द्वितीये युगलिक, तृतीये तस्मिन् तस्मिन् देशे कदापीतयो न भवन्ति स्म, सकलगृहाएयदेवता, चतुर्थे महाबलनामा राजा, पञ्चमे अमिताङ्गनामको पि परमोत्तमाहारपूर्णानि बभवुः, येन अकिञ्चना अपि जगवत देवोऽभवत् । श्रेयांसकुमारस्तु प्रथमे भवे स्त्रीत्वजाती धमि- परमानं प्रयच्छन्ति स्म तस्यातिशयविशिष्टत्वात् । अस्मिन् जीनामिका स्त्री समजनि । एवं क्रमेण ललिताङ्गदेवावतारस्य वैशाख शुक्लतृतीयादिने जगवतः श्रीऋषजदेवस्य पारणा श्रेयांभगवतः स्वयंप्रन्नाख्या देवी बनूव । ततश्युत्वा ललिताङ्गदेव- सगृहे कुरसेन निर्वृत्ता। इदं च दानं श्रेयांसस्याक्कयसुखकाजीवः षष्ठे भवे वज्रन्धराख्यो राजाऽभवत्, स्वयंप्रभा च तस्य रणीनृतं संजातमतोऽस्यास्तृतीयायाः 'अक्कयतृतीया' 'इक्षु. श्रीमतीत्याख्या राजपत्नी बभूव । एवं सप्तमे भवे चोलौ युगलि- तृतीया' वा संझा लोके प्रावर्तिष्ट । अत्र कश्चित् प्रश्नं करोति, की बनूवतुः। अष्टमे सौधर्मदेवलोक उभौदेवी समजनिषाताम्। त्रैलोक्यनाथस्य भगवतो वर्षमेकं नोनान्तरायः कथम् । अत्रोनवमे भगवान् जीवानन्दाभिधो वैद्यः, श्रेयांसजीवस्तु केशवा- च्यते कल्पविवरणे प्रदर्यमानमन्तरायनिदानं कर्म । तथाहि । ख्यः श्रेष्ठिपुत्रः संजातः । तत्रापि द्वयोरतीवमित्रता बनव । ततो पूर्वभवे जगवान् मार्गे गच्छन् खल्ले धान्यानि खादतो वृषनान् दशमे नवेऽच्युतदेवबोक उभौ मित्रदेवौ संजातौ एकादशेन- कृषीवस्ताड्यमानानवलोक्य सजातकरुणस्तान् प्रावोचत्, गवान चक्रवर्ती श्रेयांसश्च सारथिः। द्वादशे चोभी सर्वार्थसिद्ध- अरे रे मूर्खाः कृषाणाः ! एतान् बुनुसून यूयं न तामयत किन्तु विमान देवी । तत आयुषि कोणे सति त्रयोदशे भवे भगवतो मुखबन्धी निर्मायतेषां मुखानि बनीत । तदा नैते किर्माप जीवाध्यमृषभदेवोऽहश्च श्रेयांसकुमारोऽस्मिा एवंस श्रेयांसो जा. | भोक्तुं शक्ष्यन्ति । तदा ते प्रत्यूचुः, वयं न तां निर्मातुं जानीमः। तिस्मरणझानेन प्रासनानां नवभवानां स्वरूपमवेदीत् तेषु भ- । ततो जगवान् तत्रोपविश्य स्वहस्तेन तां निर्माय तया च वृषनमु . For Private &Personal use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) अक्खयतइया अनिधानराजेन्द्रः । अक्खयपूया खं बद्धा तान् प्रादर्शयत् । तया बम्मुखो वृषनो महता कष्टेन पुछो य ायरेणं, पुहवीपालेण सालिया मुत्ति । पष्टधुत्तरशतप्रयकृत्वः श्वासानमुश्चत्, अतस्तत्रोपार्जितमन्तराय. किं इत्थ इमं दीसा, सउणहिं विणासियं खित्तं ॥ ११॥ कर्म दीवाग्रहणसमये प्रादुर्नुयैकवर्षानन्तरमद्योपशमतामवापे. सामिय! इक्को कीरो, गच्छ सो सालिमंजरी घित्तं । ति! अथास्य दानस्य प्रनावेण श्रेयांसो मोक्कपदवीमवाप्स्यति।। रक्खिज्जतो वि ददं, चोरुव कत्ति नासेश् ॥ १२ ॥ भगवांश्चैकसहस्रं वणि उग्रस्थावस्थायामतिष्ठत्। एकसहस्र- प्रणिो सो नरवश्णा, मंमियपासहि तं गहेऊणं । वर्षानबक्कपूर्ववर्षावचिकेवलित्वावस्थायां स्थित्वाऽनेकान् ज- आणेह मज्जपासे, हणेंड चोरुव तं मुटुं॥ १३ ॥ व्यजीवान् प्रतिबोधयन् विचचार । ततोऽष्टापदपर्वतोपरि नश्व. (आणेयब्वो पासे, सहसो चोरुब्व अट्ठो। इतिपागन्तरम) रमिमं लोकमपास्व मोकमवाप । अतोऽकयतृतीयादिने भव्य- अह अन्नदिणे कीरो, रायाएसेण तेण पुरिसेणं । जीवानां सुपादानं, शीलपालन, तपस्याऽचरणं, भावनाजाव. पासनिबको निजइ, सईए पिच्चमाणीए ॥ १४ ॥ नं, देवपूजनं, खात्रमहोत्सवादिकं च कर्म विधीयत इति ॥ पुरविलम्गा धावद, अंसुजला पुन्ननोयणा सूई। गद्यपद्यमयं होतत् पूर्वाचाय्यविनिर्मितम् ।। पत्तादश्पण सम, समुक्खिया रायभवणम्मि ॥१५॥ माहात्म्यं लिखितं सारं मया राजेन्धसूरिणा ॥१॥ अहाणहित राया, विन्नत्तो तेण सालिपुरिसेणं । युगे प्रथमायामकयतृतीयायां केनापि पृष्टम् । के ऋतवः पूर्व- देवेसो सो सूओ, बद्धो चोरुव प्राणीयो ॥ १६ ॥ मतिक्रान्ताः को वा सम्प्रति वर्तते ? तत्र प्रथमाया अवयतृती- तं द?णं राया, खंगं गहिऊण जाव पहणे । यायाः प्राक युगस्यादित प्रारज्य पर्वाण्यतिक्रान्तानि एको- ता संहसश्चिय सूई, नियपइणो अंतरे पमिया ॥ १७ ॥ नविंशतिः । तत एकोनविंशतिर्धियतेधृत्वा च पञ्चदशभिर्गुण्यते पभणइ सूई पहणसु, निस्सको अन्ज मज्क देहम्मि । जाते द्वे शते पञ्चाशीत्यधिक (२८५) अक्षयतृतीयायां किल- मुंचसु सामिय ! एयं, महजीवियदायगं जीयं ॥ १८ ॥ पृष्टमिति पर्वणामुपरि तिम्रस्तिथयः प्रक्तिप्यन्ते जाते द्वे शते तुह सालीए उवरिं, संजानो देव मोहलो मज्ज । अष्टाशीत्यधिक (२८८) तावति च कालेऽवमरात्राः पञ्च न- सो तणसरिसं काउं, नियजीयं महवि ओयम्मि ॥ १६ ॥ वन्ति, ततः पश्चपात्यन्ते जाते द्वे शते यशीत्यधिके (२०३) ते हसिकण जण राया, कीर! तुमं पमित्रोत्ति विक्खाओ। द्वाभ्यां गुण्यन्ते जातानि पञ्च शतानि षट्पष्टधधिकानि (५६६) महिलाकजे जीयं, जो चयसि वियक्खणो कहणु ॥ २० ॥ तान्येकषष्टिसहितानि क्रियन्ते जातानि षट्शतानि सप्तविंशत्य- पत्रण सूई सामिय, अच्चन ता जणणिजणयवित्ताई। धिकानि (६२७) तेषां द्वाविंशतिशतेन जागहरण लब्धाः नियजीवियं पि गइ, पुरिसो महिलाणुरारण ॥१॥ पञ्च ते च षनिर्भागं न सहन्त इति न तेषां षभि गहारः, तं नस्थि जन कीरइ, वसणासत्तेहि कामलुकेहिं । शेषास्त्वंशा नहरन्ति सप्तदश, तेषाम:जाताः साष्टिौ, आगतं, ता अच्छड इयरजणो, हरेण देहटुयं दिग्नं ॥ २२ ॥ पञ्च ऋतवाऽतिक्रान्ताः षष्ठस्य च ऋतोः प्रवर्तमानस्याष्टौ जह सिरिदेवीइ कप, देवतुम जीवियं पिछडेड । दिवसा गता नवमो वर्त्तते इति । सू० प्र०१५ पाहु. तह अन्नो वि हु ग्र, को दोसो इत्थ कीरस्स ॥ २३ ॥ अक्खयपूया-अक्षतपूजा-स्त्री० जिनप्रतिमानां पुरतोऽखण्डत- ती वयणेण राया, चिंता हियएण विलियं इंतो। रामुखसमर्पणे, तन्माहात्म्यविषये शुककथानकं विजयचन्द्र- कह एसा पक्विणिया, बियाणए मज्ज वृत्तते ॥ २४ ॥ चरित्राल्लिण्यते । तद्यथा-- पन्नण राया भहे, दिटुंतो कह का अहं तुमए । अखमफुमियचुक्ख-क्खपहिं पुंजत्तयं जिणिंदस्स । साहसु सव्वं एय, अश्गरुयं कोउयं मऊ ॥ २५ ॥ पुरो नरा कुणतो, पावंति अखंमियसुहाई ॥१॥ पत्रण कोरी निसुणसु, दिॉतो इत्थ जह तुम जाओ । जह जिणपुरओ चुक्ख-क्खएहिं पुंजत्तयं कुणतेणं । शासि पुरा तुह रज्जे, सामिय! परिवायगा एगा ॥ २६ ॥ कीरमिदुणेण पत्तं, अखमियं सासयं सुक्खं ॥२॥ बहुकूडकवमभरिया, भत्ता जा रुहखंददेवाणं । अत्थित्य नरहवासे, सिरिपुरनयरस्स बाहिनज्जाणे। . सा तुह जज्जा चिरं, सिरिया देविए उवयरिया ॥२७॥ रिसहजिणेसरनुवर्ण, देवविमाणं व रमणीयं ॥ ३॥ नरवणोहं जज्जा, बहुभज्जो एस मज्भत्तारो। भवणस्स तस्स पुरओ, सहयारमहादुमुत्ति सच्छाओ। कम्मवसेणं जाया, सब्वेसिं दृहवा अहयं ॥ २० ॥ अन्नुन्ननेहरतं, सुअमिहुणं तम्मि परिवस॥४॥ ता तह कुणसु पसायं, जयवइ जह होमि बल्लहा पश्णो । अह अन्नया कयाई, भणिो सो ती अत्तणो नत्ता । महजीविपण जीवश, मर मरंतीइ किं बहुणा ॥२६॥ आणेह मोहलो मे, सीसं इह सालिखित्तानो ॥ ५ ॥ जणिया पसा वच्चे, गिलाइ तुम ओसहीवलयं । जणिया सो तेण पिए, एयं सिरीकंतराश्णो खित्तं । तं देसु तस्स पाणे, जेण वसे हो तुह जत्ता ॥ ३०॥ जो एयम्मि वि सीस, गिढ़ सीसं निवो तस्स ॥ ६॥ भयवा भवणपवेसो, चि नत्थि कह दंसणं समं तेणं । भणिओ तोप सामिय!, तुह सरिसो नत्थि इधिकापुरिसो। कह ओसहीयवलयं, देमि अहं तस्स पाणम्मि ।। ३१॥ जो भजंपिय मरणं, इच्छसि नियजीवलोहेण ॥७॥ जर एवं ता भहे, गहिऊणं अज्ज महसयासाओ। इय भणिओ सो तीए, नज्जाए जीवियस्स निरुविक्खो। साहुसुपगग्गमणा, मंतं सोहमासंजणणं ॥ ३२॥ गंतूण सालिखित्ते, प्राण सो सालिसीसाण ॥ ७ ॥ भणिऊण सुहमुहुत्ते, दिन्नो पब्वाइयाइ सो मंतो। एवं सो पइदियहं, रक्खंताणं पिरायपुरिसाणं । पृधे काऊण पुणो, तीए वि पमिच्छिो विहिणा ॥३३॥ प्राणे मंजरीओ, भजाएसेण सो निश्च ॥ जा काय सा देवी, तं मंतं पदिणं पयत्तेण । अह अन्नया नरिंदो, समागओ तम्मि सालिखित्तम्मि । ता सहसा नरवडणा, पनिहारी पेसिया भणः ॥ ३४ ॥ पिच्छा सनणविलतं, तं खितं एगदसम्मि ॥१०॥ आणव देवि देवो, जह तुमए अज्ज वासभवणम्मि । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपया अभिधानराजेन्धः। अक्खयपूया आगंतब्वमवस्सं, कुवियप्पो नेव कायव्यो ॥ ३५॥ निक्खागहणेण अहं, संतुझा नयरमम्मि ॥ ६०॥ रयणी-कयसिंगारा, समंतओ रायलोयपरियरिया। गयवरखंधारूदं, काऊणं निययपिययमाराया। करिणीखंधारूढा, समागया रायभवणम्मि ॥ ३६ ।। संपत्तो नियभवणे,आणंदमहसवं कुणः ॥ ११ ॥ नरवरकरसम्माणा, दोहगं देवि सेसमहिलाणं । फनिहमयभित्तघमिश्रा, कंचणसोवाणथंभनिम्मविया । सोहम्गं गहिकणं, संजाया सा महादेवी ॥ ३७ ॥ काराविया निवेणं, मदिया अज्जा तुझणं ॥ ६२॥ ढंजर इच्चियसुक्खं, संतुट्ठा देश इच्चियं दाणं । पब्वश्या सा नरवर-मरिऊणं अट्टमाण दोसेणं। रुट्टा पुण सा जेसि, ताणं च विणिग्गहं कुणः ॥ ३० ॥ संवाया सुहसूई, साहं पत्ता तुह सयासे ॥ ६३॥ अह अन्नादणे पुट्ठा, तीए परिवाश्यां इमा देवी। दट्टणं देव ! तुम, तुह पासपरिध्यिं महादेवि । वच्छे तुह संपन्ना, मणोरहा इच्छिया जे ॥ ३ ॥ जायं जाईसरणं, संभरि तुद मए चरित्रं ॥ ६ ॥ भयव तं नत्थि जए, तुह पयभत्ताण जं न संनवाई। सोऊण ती वयणं, रोवंती भण सा महादेव।। तह बिहु जयवर अज्ज वि, हिययं दोलायए मऊ ।। ४०॥ भयवर कह मरिऊणं, संजाया पक्खिणी तुमयं ॥ १५॥ जह जीव महजीचं, तिया अह मर महमरतीए । मा भूपसि किसोयरि, क्खित्ता अज्जमज्जम्मेण । जा जाणिज्जा नेहो, महनवरि नरवरिंदस्स ।। ४१ ॥ कम्मवसेणं जीवो, तं नथिहं जन पावेद ॥ ६६ ॥ जर एवं ता गिह्वसु, नासं महमूलियाय एयाए। तेण तुमं दितो, दिन्नो नरनाहमहिनिया विसए । जेण तुम मयजीवा, लक्खीयसि जीवमाणा वि ।। ४२॥ सोऊण इमं राया, संतुट्टो सूइगं भणए ॥ ६७ ॥ बीया मूलियाए, नासं दाऊण तुह करिस्सामि । सच्चो दितोह, दिनो तुम पत्थ महिलिया विस्रए । देहं पुणन्नवं चिय, मा भीयसु मज्क पासत्था ॥३॥ ता तुझोहं पत्नणसु, जं तं पणामेमि ॥ ६ ॥ एवंति पभणिकणं, गहिन देवीए मूत्रियावलयं। पत्नण सुई निसुणसु, महश्छो नाह अत्तणो जत्ता । सा वि समप्पिकणं, संपत्ता निययगणम्मि ।। ४४॥ | ता तस्स देस जीयं, न हु कज्ज किं पि अनेण ॥ ६ ॥ अह सा नरव पासे, सुत्ता गहिऊण ओसही नासं । हसिऊण भणश् देवी, देव तुम कुणसु मज्जवयणेण । ता दिवा निश्चिता, नरवश्णा विगयजीवव्व।४५॥ एयाए पीईदाणं, जोयणदाणं च निच्चपि ॥ ७० ॥ एत्तो आकंदरओ, उच्चलिओ कत्ति राणो जयणे । भणिया सा नरवश्णा, वच्चसु नइ जहिच्चियं गणं । देवी मया मयत्ति य, धाहावह नरवई लोगो ॥ ४६॥ मुकोय एस अत्ता, तुटेणं तुज्झ वयणेण ॥ ७१॥ नरवापसेणं, मिलिया बहुमंतविज्जकुसमा य । भणिो य सालिवालो, एयाणं तंमुलाणदाणं च । तह वि य सा परिचत्ता, मइत्ति दट्ठण निश्चिता ॥ ४५ ॥ पइदियहं दायब्वं, रासिं काऊण वित्तंते ॥ ७२ ॥ भणिो मंतीहि निवा, किज्जउ पयाइ अगिसक्कारो। जं आणवेइ देवो, श्य भणिए भण कीरमिहुणं वि। भणिया ते नरवइणा, मझवि किज्जन सह श्माए ॥ ४ ॥ एस पसाओ सामिय, !श्य भणिउं ऊत्ति उहीणं ॥७३॥ चलणविलम्गो लोओ, पभणइ न हु देव परिसं जुत्तं । पुवुत्ते चूमे, गंतूणं पुन्नमोहना सूई । भणइ सुक्खं राम्रो, नेहस्स न कुन्नि मग्गाओ॥ ४६॥ नियनियमम्मि पसूया, निप्पन्नं अंडयगंति ॥ ७४॥ तामा कुणह विवंबं, कह सहु चंदाणधणं पउरं । भह तम्मि चेव समये, तीए सवक्की वि निययनीमम्मि । इय जणिऊणं राया, संचत्रिो पिअयमासहिओ ॥ ५० ॥ तम्मि मुमम्मि पसूया, संपुग्नं अंडगं एगं ॥ ७५ ॥ वज्जिर तूररवेणं, रोविर नरनारिपउरनिवहेण । जा सा चूणि निमित्तं, विणिमाया तं दुमं पमुत्तूणं । पूरितो गयणयलं, संपत्तो पेयवाणम्मि ॥ ५१ ॥ ता मच्छरण पढमा, आणइ तं अंमग तीए ॥ ७६ ॥ जा विरश्कण चित्रयं, राया आरुहर पिश्रयमासहियो । जा पच्छिमा न पिच्चर, समागया तत्थ अत्तणो अंक। ता दूराउ रुयंति, पत्ता परिवाइया तत्थ ॥ ५२ ॥ ता सफरिव विलोडर, धरणियले सुक्खसंतत्ता ॥ ७७ ॥ भणिो तीए तुमय, मा एवं देवसाहसं कुणसु । तं विलवंति य दळं, पगवायेण तवियहिययाए । भणियं तुमए जयवा, महजीयं पिअयमासहियं ॥ ५३॥ पढमाए नेकणं, पुणो वि तत्थेव तं मुक्कं ॥ ७० ॥ . जर एवं तो विसहसु, खणमंगं मा हु कायरो होस् । धरणियले लुलिऊणं, अंबं आरुहा जाव नीमम्मि । जीवावेमि अवस्सं, तुढ दश्नं सोअपच्चक्वं ॥ ५४ ॥ ता पिच्च तं इंसं, सा कीरिय अमयसित्तश्व ॥ ७९ ॥ तं वयणं सोकणं, ऊसप्तियं तस्स राणो चित्तं । बकं च तं निमित्तं, कम्मं पढमाए दारुणविवागं । न दु जीवियस्स लाहे'जह साहे तीर जजाए ॥ ५५ ॥ पायावेण हय, धरिय चिय पगभवदुक्खं ॥ ७॥ जयवर कुणसु पसायं, जीवावसु मज्ज बल्लहं दश्मं । सम्मिय अंडयजयले, संजाया सूहगा य सुप्रगो । तीए वि इ देवीए, दिन्नो संजीवणी नासो ॥ ५६ ॥ कीअंति वणनिगुंजे, समयचित्र जणणिजणगेहिं ॥ १॥ तस्स पनावणं चिय, सा देवी सयनलोयपच्चक्वं । रहए तंडुलकूमे, नरवावयणाउ सालिखित्तम्मि । अज्जीविया य समय, नरवश्णो जीवियासाए ॥ ५७ ॥ चंचुपुडे गहिकणं, वच्च तं कीरमिहुणं ति ॥२॥ तं जीवियंति नान, आणंदजल्ललोयणो लोओ। अह अन्नया कयाई, चारणसमणो समागओ नाणी। नश्च उभियबाहो, बज्जिरबहतलनिवहेण ॥ ५८ ॥ रिसहजिणेसरभवणे, वंदणदेउ जिणिंदस्स ॥ ८३ ॥ सन्चंगानरहिं पाए परिवाश्या पृपणं । पुरनरनारिनरिंदो, देवं पुष्फक्सएहिं पूएउं। पभण अज्जे अज्ज, जे मम्गसि तं पणामेमि ॥ ५ ॥ पुच्च नमिकण मुण, अक्लयपूयाफलं राया.॥४॥ भणिनो तीए राया, सुपुरिसमह नस्थि किं विकरणिज्जं । अखमफुमियचोक्य-क्खपहिं पुंजत्तयं जिणिदस्स। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया पुरो नरा कुणतो, पावंति अखंडियसुहाई ॥ 5 ॥ श्य गुरुवयणं सोडं, श्रक्खयपूआ समुच्छलं लोश्रो । दणं सा सूई, पभणह निभअत्तणो कंतं ॥ ८६ ॥ । विना! पपपुंजसपण जिणनाई । पूरमो अचिरेण सिद्धि न पायेमो ८७ ॥ एवं ती प्रणिण विविध बोक्स जिदपुर, जति कोरमिणेण ॥ भणि अवचजुअलं, जणणीजणपहिं जिणवर्रिदस्स । पुरओ मुंह अक्खे, पावढ़ जेणक्खयं सुक्खं ॥ ८९ ॥ पदिय का जिदिमतीए । आउक्खए गया, चत्तारि वि देवलोगम्मि ॥ ए० ॥ भूण देव, सो भयो पुणेवि संजात्रो हेमपुरे, राया देमप्पहो नाम ॥ ११ ॥ सो वि य सूईजीवो, तत्तो चचिऊण देवलोगाभो । हेमप्यहस्स भज्जा, जाया जयसुंदरी नाम ॥ ६२ ॥ सापच्चिमावि सूई, संसारे हिंमिकण सा जाया । हेमपदस्स रनो, रहनामा नारिया दुश्या ॥ ५३ ॥ अन्नाओ वि कमेणं, पंचसया जान जारिया तस्स । जायाओ पुण श्ट्ठा, पढमा ते भारिया दो वि ॥ ए४ ॥ (संज्ञाया पुणा पदमाचो भारिया दुनि) इति पाठान्तरम् । ग्रह नया नरिंदो दूसहजरतावताविय सरीरो । चंदजलुद्धिश्रो विदु, लोल भूमी अप्पाणं ॥ ६५ ॥ एवं असणविणो विरजा तिथिसत्तर राया। ता मंततंतकुला, विज्जा वि परं मुद्दा जाया ॥ ६६ ॥ लग्यो सय सती, दितिय बहुविदा दाणा । जिणनवणेसु य पुत्रा, देवयचराहणाओ य ॥ ए ॥ रणीय पश्चिम पथमी दोलण रक्खो भगह। किं सुत्तो सिनरेसर, ! भग६ निवो कह ए मढ निद्दा ॥ ९८६ ॥ ओधार करे, अण्णाणं जर नरिंद! तु भा । अणिक तो जी अहानत्थि ॥ २ ॥ भणि नरिंदर नाणं। राधा विहियहियो, ति किं इंदजालु सि ॥ १००॥ किं वा दुक्खत्तेणं, अज्ज मए एस सुविणगो दिट्ठो । हवा न होइ सुविणो, पच्वक्खो रक्खसो एसो ॥ १०१ ॥ इस विनयपसहिया, बोलीणा जामिणं नरिदस्स । ( १३७ ) अभिधानराजेन्द्रः । 3 19 याच चडिओ सो विदुमलिणीनाहो ॥ १०२ ॥ रयणी वृत्तंतो, नरवणा साहिओ सुमतिस्स । तेण वि भणितं किज्जउ, देव! इमं जीयकज्जम्मि ॥ १०३ ॥ परजीपणं नियजी यरक्खणं न हु कुणंति सप्पुरिसा । ता होउं मज्ज विहियं, इय भणिश्रो राइगा मंती ॥ १०४ ॥ सहायिकरण सच्चाउ, मंतिणा नरवइस्स नज्जाओ । कहिओ रसमणिभी, पुरांतो ताण नीसेसो ॥ १०५ ॥ सोऊण मंतिपयणं, सन्याओं नियजियस्व । ars अहोमुहीओ, न दिति मंतिस्स पडिवयणं ॥ १०६ ॥ पफुलवणकमला, उठेउं प्रणइ रई महादेवी । मड जीविएण देवो. जर जीवइ किं न पज्जन्तं ॥ १०७ ॥ श्य भणिए सो मंती, नवणगवक्खस्स हिट्ठभूमीए । काराविरुण, भारोहर अगरकडेहिं ॥ १०८ ॥ साविय कर्यासंगारा, नमिऊ नगर असोक सामिय! मह जीवणं, जीवसु निवडामि कुंरुम्मि ॥ १०६ ॥ अक्खयपूया | जण सदुक्खं राया, मज्भ कए देवि! चयसु मा जीयं । अन्मिए सयमेव पुराकथं कम्मं ॥ ११०॥ पण चत्रणचिन्त्रग्गा, सामिय ! मा भणसु परिसं वयणं । जं जाइ तुझ कज्जे, तं सुलहं जीवियं मञ्झ ॥ १११ ॥ ओश्रारणं करेचं, अप्पा सावला वि नरवणो । भगवा लिए कुमम्मि परिचय ॥ ११२ ॥ असोक्सनाहो, सीसे सरोण सोसिभी सहसा । अप्पत्तं वि य कुंडे, हुयासदूरं समुक्खिवई ॥११३॥ भणिया रक्खसवरणा, तुड्डो हं श्रज्ज तुज्झ सत्तेण । मम्मसु हिवा देमि वरं तुझ कि बहुणा ॥११४॥ जं जणि दिश्रो, हेमपहो महयरो किमले । मग्गसु तह विहु भद्दे, देवाण न दंसणं विहलं ॥११५॥ जर एवं ता एसो, भहं भत्ता देव तुह पसारण । जीवड वाहिहि चिरकालं हो एस वरो ॥१९६॥ एवं ति मणिक दिव्यालंकारभूसियं काउं कंच परमे भुतं, देवो हु श्रदंसणीइओ ॥ ११७॥ जीव तुमं भरा जो, सीसे पुप्फक्लए खिचेऊण । नियजीवियदाषेणं, जीए जीवाविश्रो भत्ता ॥ ११८ ॥ तुझे तुह सत्तेयं धरसु वरं पिए पियं तुझ । भणिया पणा पभणर, देव वरो मह तुमं चेव ॥ ११६ ॥ जीवयमुझेण तु वसीकओ हं सया वि कमलपि । ता अन्नं करणीयं भणसु तुमं भणइ सा हसिउं ॥ १२० ॥ जइ एवं ता चिड, एस वरो सामि ! सयासम्मि | तुद्द अवसरवाडियं एयं पच्छिस्सं तुह सयासाओ ॥ १२१ ॥ अह अनया र भणिया पुत्तत्थिती कुलदेवी । जयसुंदरिपुचेणं, देखि बलि होउ मह पुतो ॥१२२॥ भवियब्वयावसेणं, जाया दुन्हं पि तारा वरपुत्ता । बदुलफ्खपुन्ना, सुजण्या जिल्वाणं ॥ १२३॥ तुट्ठा रई विचिंतर, दिनो कुलदेवमा मह पुत्तो । जयसुंदरिपुचेणं; कह कायव्वा मए पूत्रा ॥ १२४॥ एवं चिती, लदो प्यार सादुसो बाओ । नरचरघरेण रजं, काऊस बसे करिस्सामि ॥१२५॥ इय चिंतिऊण तीए, श्रवसरपत्तार पभणिश्रो राया । जो पुर्वि पडिवन्नो, सो दिज्जउ मह वरो सामि ॥ १२६॥ मासु हिवा देमि वरं जीवि पि किं बहुता जइ एवं ता दिज्जउ, मह रज्जं पंचदियहाई ॥१२७॥ एव्व त्ति पभणिऊणं, दिनं तुह पिये मए रज्जं । पडिवनं तं तीए, महापसाउ त्ति काऊणं ॥ १२८ ॥ पालइ सा तं रज्जं पत्तो रयणीय पच्छिमे जामे । जयसुंदरी पुत्तं, श्रारणावर रोयमाणी ॥ १२६ ॥ 3 हाचिऊण बालं, चंदराफक्स पूएडं । पडलयवार कार्ड, डाबर दासीर सीसम्मि ॥१२०॥ परियणसहिया, उज्जाये देवया भचणम्मि । वज्जिरतूररणं, नश्चिर नरनारिलोपण ॥ १३१ ॥ ग्रह विज्जाहरचरणा, कंचपुरसामिण सुरेश । बच्चतेण नहेणं, दिट्ठो सो दारगो तेण ॥१३२॥ उज्जयंतो गयणं, दिखयरते व निययतेपण | गहिऊण ते अल अमवाल मुनं ॥१३३॥ भणिया सुत्ता भज्जा, अंघोवरिबालगं ठवेण । उहह नई कोपरि पिसु बिदा जाये ।। १२४ ।। " Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) अभिधानराजेन्द्रः । क्खय पूया किं इससि तुमं सामिय! हसिया है निधिणेण वेषेण । किं कइया विसु, बंजापुतं च पसवेइ ॥ १३५ ॥ पण पहसियवयणो, जइ मह वयणेण नत्थि सद्दहणं । तापिच्छेहि सयं चिय, नियपुत्तं रयणरासि व ॥ १३६ ॥ इय संयदियया परमत्यं सादिकण सा भणिया नियपुत्तविरहियाणं, श्रम्हाणं पत्र पुत्तो त्ति ॥ १३७ ॥ पण एवं ओ नपरम्मि सो प प परिय कलाहिं खियाओ मियंकु ॥ १३० ॥ सा वि व रहमययालं, सीसोपरि नामिण देवीए । फाल तं पुरओ, वत्थं वसियायले तुहा ॥ १३९ ॥ तू त भवणे, संपुत्रमणोरदा सुदं यस जयसुंदरी विदिया, सुयविरहे दुक्खिया गमः ॥ १४० ॥ कविजाहरनामो मयणकुमारुति गहियवरविजो । । तो गणयत्रे पितं असणो जणणि ॥ १४१ ॥ भवणगवक्खारूढा, सुयसोयऊरंतनयणसलिलेहिं । મ नेह निम्नरणं, उक्खित्ता मयणकुमरेण ॥ १४२ ॥ पण कुमार, हरिसवसनयजहिलेन सिवंती बलायर, पुणे पुणे निरुदिडी ॥ १४३ ॥ उज्यवादो लोश्रो, घाटावर पुरवश्य मज्जम्मि । एसा दरिजर घरिणी, नरवणो उच्चकंबेणं ॥ १४४ ॥ १४९ ॥ सूरो विहु राया पयचारी किं करेश गयणत्थे । खुद किं कुमर फलै तहिदि चिंतामणी राया, फ्यं खयखारसहिं जायं। पगं सुअस्स मरणं, बीअं पुण जारियाहरणं ॥ १४६ ॥ एवं क्खियहियओ, चिह्न राया नियम्मि नयरम्मि । अहवा घरिणीहरणे, भग कस्ल न जायए दुक्खं ॥ १४७ ॥ भयडिविसरण नाउं पुत्तं तं सुश्गा देवीए । मह नाया नियजणणी, घरिणीबुद्धि‍ अवहरण ॥ १४८ ॥ नियपुरपच्चासने, सरवरपालीह चूयवायाप् 1 जणणीसहिओ कुमरो, जा चि‍ तोव सा देवी ॥ १४९ ॥ वानररूवं तद् वानरी काऊण चूयसाहाए । पण वानररूवी, कामुयतित्थं इमं भज्जे ॥ १५० ॥ तिरिओ वि एत्थ परिओ, तित्थभावेण लहर मणुश्रतं । म वि'हु देवत्तं, पावइ नत्थित्थ संदेहो ॥ १५१ ॥ दोन मिसाएँ देव भूयाएँ । एआइँ मणे काउं, निवडामो इत्थ तित्थम्मि ॥ १५५ ॥ जे तुम मासुखिया, अहं पुन परियो मनुस्मृति । होहामि त्ति प्रभणि, को नामं गिराहर श्मस्स ॥ १५३ ॥ जो परिबुद्ध ने हरिण तस्स वि पावस्स तुमं, सामियस्वम्मि अहिवासो ॥ १५४ ॥ सो वारी व दो विषाणाएं । चिंतंति कहं एसा, मह जणणी सा वि कह पुत्तो ॥ १५५ ॥ नेहेणं हरिए विदु, एसा मह जणइ जणणिवुद्धि ति । साविय चिंतक एसो, मह पुत्तो उमरजाओ ति ॥ १५६ ॥ पुच्छ संसयहियो, कुमरो तं वानरं पयत्तेणं । भद्दे ! कि सच्चमिणं, जं तुमए भासियं वयणं ॥ १५७ ॥ ती मणियं सच्चं जर श्रज्ज वि तुज्झ अस्थि संदेहो । निगुंजे पुच्छ वरना साहुं ॥ १५० ॥ सहसा पानरजुअल श्रद्म्सी । सो विच विदिओ पुरं गं ॥ १५६ ॥ इन व्यवखय पूया भयवं! किं तं सच्चं जं भणियं वानरी मह पुरओ । मुणिवरणा विदु भणिश्रो, सभ्यं तं होर नहु अनि ॥ १६०॥ निमिकम्मल कारण जातो हेमपुरे सबसे साहस देव तु ॥ १६१ ॥ " श्व भणिओ तं नमिउं, सहित्रो जणणी सो गओ गेहं । दि, हरिसिद्दियदि सोमण १६२ ॥ नेणं चलवल पुष्क्रिया जणणं । अम्मो साहेसु फु, कह जणणी मज्ऊ को अणओ ॥ १६३ ॥ चितरसा सविका, किं एसो अज पुच्छप एयं । ! पण पुत्तय । श्रह यं, तुह जणणी एस जणओ ति. ॥ १६४ ॥ अम्मो एयं तद् वि हु पच्छामि जम्मदायारे । तं परमत्थं पुत्तय !, तुड़ जाणइ एस जणन ति ॥ १६५ ॥ तेरा विपरितुणं, कहिलं पलाश्वइयरो तस्स । तह पुन जण पुत्त, विनाओं किंचिन हु सम्मं ॥ १६६ ॥ भणि कुमरेण पुणो, एसा जा ताय श्राणिया नारी । सा वानरी सिठा, एसा तुह जम्मजणंणि ति ॥ १६७ ॥ मुखिया वि हु पुठे, एयं चिय साहिऊण भणिश्रो हं । हेमपुरे गंतू, पुच्छसु तं केवलिं एयं ॥ १६८ ॥ तो ताय तत्थ तुं. पुच्छामो केवलिं निरवसेसं । जेणेसो संदेहो, तुट्ठर मह जुन्नतंतु व्व ॥ १६६ ॥ इय भविकणं कुमरो, चलिओ सह निययजसणिजपहिं । ( इय भणिणं चलिओ सहिओ सह जराणि जरायोि इति पाठान्तरम् ) संपतो हेमपुरे, केवलियो पायमूलम्मि ॥ १७० भत्तिभरनिम्भरंगो केवल पायक नमि उवविध धरणियले सपरियणो सुरकुमारु व्व ॥ १७१ ॥ जयसुंदरी व देवी, बहुदारिसहस्समन्नयारम्भि | नियतेण समेया, निसुगर गुरुभाखियं वय ॥ १७२ ॥ हेमपमो वि व राया, नियपुरनरनारिलोयपरियरियो । उपविषो गुरुमूले निराह गुरुभासियं वय १९७३ ।। पत्थावं लहिऊणं, नरनाहो मगर केवलिं नमिदं । 9 भयवं ! सा मह भज्जा, जयसुंदरि केण श्रवहरिया ॥ १७४॥ भणिओ सो केलो, हरिया नरनाह ! निययते। विहिवहियोपभर भयचे! कह ती पुननि ॥ १७५ ॥ जो आसि ती पुसो, सो पालो व हयकर्त कवलीको महायस, बीश्रो पुत्तो वि से नस्थि ॥ १७६ ॥ लियं न तुम्ह वयणं, बीश्रो पुत्तो वि तिय से वत्थि । इय विहडियकज्जं पिव, संतावं संसश्रो कुराह ॥ १७७॥ भगइ मुणिंदो नरवर ! सच्चं मा कुरासु संसयं एत्थ । भयवं ! कहसु कहं चिय, श्रइगरुश्रं कोउश्रं मज्झ ॥ १७८ ॥ कुलदेवया, तो ताय तस्स परिकहिश्रो । जावेयपुरा, समागत्रो तम्मि उज्जाणे ॥ १७६ ॥ विष्फारयनयणश्रो, जोयइ नरवर तमुज्जाणं । तो विडियसंदेहो, कुमरो वि हु नमह तं जणयं ॥ १८०॥ लिंग तं सुजलभरियलोयलो राया। रोयतो बहुदुक्खं, दुक्खेण य बोहिश्र गुरुणा ॥ १ ८१ ॥ ( रोयतो विहु दुक्खं दुक्खेण विबोहिश्र गुरुणा इति पाठान्तरम् ) जयसुंदरी व पश्णो च गहिती तह Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खयपूया अनिधानराजेन्धः। अक्खर जह देवाण वि परिसा, बहुदुक्खसमाउला जाया ॥ १८॥ अविसुघनयाणमयं, सुघनयाणक्खरं चेत्र । (जह देवाण वि दुक्खं, परिसा मज्जे समावन्नं इत्यपि) 'कर संचलने न परति न चलत्यनुपयोगेऽपि न प्रच्यवत :पुछो य रुयंतीप, भयवं! मह कण! कम्मणा एसो। त्यकरः स च चेतनाभावो जीवस्य ज्ञानपरिणाम इत्ययः। (तथा जाओ पुत्तविभोगो, सोझसवरिसाण अश्दुसहो ॥ १८३ ॥ च तन्मतानुसारिणो मीमांसका नित्यं शब्दमातिष्ठमानाः प्रसोलसमुहुत्तगाई, सइभवे जं सूश्हे नविया । तीता एव । वृ०१ उ०) पतच नैगमादीनामविशुरुनयानां मतं अंमं हरिऊण तप, सुप्रविरहो तेण तुह जाओ ॥१४॥ शुद्धानां तु ऋजुमूत्रादीनां ज्ञानं करमेव नत्वकरमिति । जो सुक्खं व सुरं वा, तिसतुसमित्तं पि देरे अन्नस्स । कुत श्त्याहसो बीअं व सुखित्ते, परखोए बहुफलं लहए ॥ १५ ॥ नवोगे चिय नाणं, सुका इच्छति जन्म तबिरहे। सोउं गुरुणो वयणं, गुरुपच्छायावतावियमणाए । जम्मंतरदुच्चरिय, खमाविया सार तीए ॥ १८६ ॥ उप्पायनंगुरा वा, जं तेसिं सबपज्जाया । तीए वि उभिऊणं, नणिया जयसुंदरी विनमिळणं । यस्माच्चुरूनया उपयोग एव सति ज्ञानमिच्छन्ति नानुपयोगे, . खमसु तुम पि महासर, जं मणियं तुज्ज सुययुक्खं ॥१८७॥ | घटादेरपिज्ञानवत्वप्रसङ्गात् । अथवा यस्मात्तेषां शुरुनयानां जणिया गुरुणा मुन्न वि, जंबई मच्चरेण गुरु कम्मं । सर्वेऽपि मृदादिपर्याया घटादयो भावा उत्पादभरा उत्पत्तितं अज्ज स्वामणाए, खावयं तुम्हेहिं नीसेसं ॥ १८॥ मन्तो विनश्वराश्चत्यर्थः । न पुनः केचिनित्यत्वादकरा शति जण नरिंदो भयवं, ! अन्नभवे किं कयं पावं ।। भावः । अतो ज्ञानमप्युत्पादभगरत्वेन करमेवेति प्रकृतम् । अजेण सह सुंदरीए, कुमरेण य पावियं रज्जं ॥१६॥ शुद्धनयानां तु सर्वभावानामप्यवस्थितत्वाज्ञानमप्यऽक्षरमिजह सुगजम्मम्मि तए, जिणपुरओ अक्खएहि खिविळण । ति । एवं तावदभिलापहेतोर्विज्ञानस्याक्षरतानक्षरता चोक्ता॥ संपत्त देवत्तं, रज्जं तह साहियं गुरुणा ॥ १६० ॥ इदानीं सामिलापविज्ञानविषयभूतानामभिलाप्यार्थाजं जम्मंतरविहियं, अक्खयपुंजत्तयं जिणिदस्स । नामप्यक्षराऽनक्षरते नयविभागेनाह । तस्स फवं तुह अज्ज वि, तश्यनवे सासयं ठाणं ॥ ११ ॥ अभिलप्पा विय अत्या, सव्वे दबट्टयाए जनिच्चा। श्य भगिए सो राया, रज्ज दाऊण रहयपुत्तस्स । पज्जाएणानिच्चा, तेण खरा अक्खरा चेव ॥ जयसुंदरिकुमरजुम्रो, पवश्वं गुरुसमीवम्मि ॥१५॥ पन्वज्जं पासेउं, सदिओ दाई तह य पुत्तेण । अभिलप्या अप्यर्था घटव्योमादयः सर्वेऽपि द्रव्यास्तिकनमरिऊण समुप्पन्नो, सत्तमकप्पम्मि सुरनाहो ॥ १५३ ॥ याभिप्रायेण नित्यत्वादक्षराः, पर्यायास्तिकनयाभिप्रायेण त्व. तत्तो चुओ समाणो, बकूण स माणुसत्तणं परमं । नित्यत्वात् क्षरा एवेति (क्षरा घटादयोऽक्षरा धर्मास्तिकायापाविहिसि कम्ममुक्को, अक्खयसुक्खं गो मुक्वं ॥ १६४ ॥ दयः। ०१ उ०) जह राया तह जाया, कुमरो देवत्तणम्मि जा देवी । अथ परोऽतिव्याप्तिमुद्भावयन्नाह । सत्तारि वि पत्तारं, अक्खयसुक्खम्मि मुक्खम्मि ॥ १६५ ॥ एवं सव्वं चिय ना-णमक्खरं जमविसेसियं मुत्ते । अक्खयायार-अवताचार-पुं०६ ब०। स्थापितादिपरिहारिणि अविसुफनयमएणं, को सुयनाणे महविसेसो ॥ श्राचारवति साधौ,"आहाकम्मुद्देसिय, वियरइयकीयकारियं यदि न क्षरतीत्यक्षरमुच्यते एवं सति सर्व पञ्चप्रकारमपि बेज्ज । उम्भिमाहरूमाले, वणीमगाजीषणणिकाए। परिहरति शानमविशुद्धनयमतेनाक्षरमेव । सर्वस्यापि ज्ञानस्य स्वरूपासणं पाणं, सज्जोवहिपूतिसकिय मीसं । अक्खयमभिमममप, विचलनाद्यतश्चाविशेषितं सूत्रेऽप्यभिहितमित्युपस्कारः। तसंकिलिलं वासए जुत्तो" एतानि (प्राधाकर्मादीनि) योऽशनपा. यथा "सधजीवाणं पियणं अक्खरस्स प्रणंतभागो निच्चुनादिशय्योप(श्च परिहरति। तथा पूर्ति सशंकितं मिश्रम, उप- ग्याडियोत्ति" तत्र ह्यक्षरशब्देनाविशेषितमेव शानमभिप्रेतं लकणमेतत् अध्यवपूरकादिकं च यश्वावश्यके युक्तः सोऽक- न पुनः श्रुतज्ञानमेव अपरं च सर्वेऽपि भावा अविशुद्धनयाताचारः । व्य० ३ १०। भिप्रायेणाक्षरा पव ततोऽत्र श्रुतशाने को मतिविशेषो येनोअक्खयायारया-अक्षताचारता-स्त्री० परिपूर्णाचारतायाम् व्य च्यते 'अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतम्' इति । अत्रोत्तरमाह। अक्खयायारमंपल-अवताचारसंपन्न-त्रि० अक्कतेनाचारेण सं. जवि हुसव्वं चिय ना-मक्खरं तह विरूढिोवनो। पन्नः । अवताचारसंपन्ने, ब्य०३ उ०। जम्मइ अक्खरमिहरा, न खर सम्बं सन्नावानो॥ अक्खर-अक्षर-न०न करतीत्यकरं स्वभावात्कदाचिन्न प्रच्यवतइति कृत्वाकरम् परे तत्त्वे, “ज्योतिः परं परस्तात, तमसो यत्- | यद्यप्यविशुद्धनयाभिप्रायेण सर्वमपि ज्ञानमक्षरंतथा सर्वेऽपि गीयते महामुनितिः। आदित्यवर्णममलं, ब्रह्माद्यैरक्षरं परं ब्रह्म" भावा अक्षरास्तथापि रूढिवशावर्णा एवेहाक्षरं भण्यते इतरषो०१५ विव० । न क्षरति न विनश्यतीत्यक्करम् । केवलज्ञाने, था तुयथा त्वं भणसि तथैवाशुद्धनयमतेन सर्वमपि वस्तुस्व"सव्वजीवाणं पियणं अक्खरस्स अणंतभावणिच्चुग्घाडिओ" भावान्न क्षरत्येवेति । इदमुक्तं भवति । यथा गच्छतीति गौः, विशे०। क्षर संचबने, न करतीति अक्करम् । ज्ञाने, चेतनायाम, पढे जातं पङ्कजम, इत्याद्यविशिष्टार्थप्रतिपादका अपि शब्दा न खल्विदमनुपयोगेऽपि प्रच्यवते ततोऽकरमिति, आ० म०प्र०) | रूढिवशाद्विशेषा एव वर्तन्ते, तथाऽत्राप्यक्षरशब्दो वर्ण एव वर्तते । वर्ण च श्रुतमेवस्यतस्तदेवाक्षरानक्षररूपमुच्यत इति । नक्खरड अणुवोगे, वि अक्खरं सोय चेयणाजावो ।। विशे। नं०। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर ( १४० ) अभिधानराजेन्द्रः । ये व सरह न य जेाक्रवरं तेणं । अर्थानभिधेयान् क्षरति संशब्दयतीति निरुक्तिविधिनार्थका रोपादक्षरम् । अथवा क्षीयत इति क्षरम् । श्रन्योन्यवर्णसंयोगे अनन्तानर्थान् प्रतिपादयति न स्वयं क्षीयते तेनाक्ष रमिति भावः । वर्णे, स च स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भवति । 'विशे० ॥ तत्र रुढिवशादक्षरं वर्ण इत्युक्तम् ॥ तच्च त्रिविधं भवतीति दर्शयति । से किं तं अक्खर २ तिविदं पद्म तं जहा सम क्खरं वंजरपक्खरं लक्खिरं । से किं तं सन्नक्खरं २ - बखरस्सा गई। सेयं समवखरं। से किं तं वंजणवखर वंजणक्खरं अक्खरस्स बनणा जिलावी सेणं मरणस्वरं । से किं तं लक्खिरं लक्खिरं अक्खरल कियस्स अक्खरं समुप्पज्जइ । तं जहा सोइंदियल क्खिरं चक्खि दियल क्खिरं घाणिदियल विक्खरं रसिंदियलद्धिक्खरं फासिंदियल विक्खरं नोइंदियल द्विक्खरं सेत्तं बद्धिअक्खरं तं अक्खरसुयं । 3 ( से किं तमित्यादि ) अथ किं तदक्षररिराह- अक्ष रश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञतं तद्यथा संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरम् । तत्र ' क्षर संचलने ' न क्षरति न चलतीत्यक्षरं ज्ञानम् । तद्धि जीवस्वाभावादनुपयोगऽपि तीन प्रत्ययते । यद्यपि च सर्वज्ञानामेवमविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथापीह श्रुतज्ञानस्य प्रस्तावादतरं ज्ञानमेव द्रष्टव्यं न शेषमित्थंभूतभावाक्षरकार याकारादिवर्णजातम्, ततस्तदप्युपचारादक्षरमुच्यते तत अक्षरं च तच्छ्रुतं च श्रुतज्ञानं चाक्षरभूतं भावभूतमित्यर्थः । तश्च लब्ध्यक्षरश्रुतं वेदितव्यम् । तथा अक्षरात्मकमकारादिवर्णात्मकं मतं इव्यभुतमित्यर्थः । तच संशाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं च द्रष्टव्यम् । श्रथ किं तत् संज्ञाक्षरम् | अक्षरस्याकारादेः संस्थानाकृतिः संस्थानाकारः । तथाहि -संज्ञायते ऽनयेति संज्ञा नाम तन्निबन्धनं तत्कारणमक्षरं संज्ञातरम् संज्ञा च निवन्धनमाकृतिविशेषः । आकृतिषि शेष एव नाम्नः करणात् व्यवहरणाच्च । ततोऽक्करस्य पट्टिकादी संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः संहारमुच्यते । तच ब्रावादित्रिपिभेदतोऽनेकप्रकारस तत्र नागरीबिपिमचित्यमभ्यस्थापित सरेिखासनिवेशविशेषेोकार: | वक्रीभूतश्च सारमेयपुच्छसन्निबेसरोकार इत्यादिदेकर अथ किं तद् व्यञ्जनाक्षरम् । श्राचार्य आह-व्यञ्जनाकरमकरस्य व्यञ्जनाभिलापः । तथाहि व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेन घट इव व्यञ्जननाव्यकार मकारादिकवर्णजातं तस्य विवक्षितार्थाभिव्यञ्जकत्वात् । व्यञ्जनं च तदकरं च व्यञ्जनाकरं ततो युक्तमुक्तं व्यञ्जनाक्करमारस्य व्यञ्जना जिलापः । अक्षरस्याकारादेर्वर्णजातस्य व्यञ्जनेन अत्र नावे श्रनट् । व्यञ्जकत्वेनाभिलाप उच्चारणमर्थव्यव्जकत्वेनोच्चार्यमाणमकारादिवर्णजातमित्यर्थः (से किं तमित्यादि) अथ किं तत् करम् । लब्धिरुपयोगः, स चेह प्रस्तावातू शब्दार्थयोचनानुसारी गुहाते, अधिरूपमकरं कर भावमित्यर्थः । (अक्वरसकियस्सेत्यादि ) अक्षरे करस्थी वारणेsain वा लब्धिर्यस्य सोऽकरलब्धिकस्तस्याकाराद्यकरातिलसमन्वितायतं समुत्य अक्खर द्यते शब्दादिप्रद समनन्तरमिन्द्रियमनोनिमितं शापलोचनानुसारि 'शङ्खोऽयम् ' इत्याद्यकरानुविद्धं विज्ञानमुपजायत इत्यर्थः । मन्दिर संहितामेव पुरुषादीनामुपपद्यते नाहिनामेकेन पामकारादियणीनामवगमे चार बाल भवानां परोपदेो यखं संभवति नकारा वर्णानामवगमादि भवेत् । अथ चैकेन्द्रियादीनामपि भावश्रुत मिष्यते। तथाहि पार्थिवादीनामपि भावश्रुतमुपचर्यते "दव्यसुयानामि विभावसुर्य पत्थिवाण" इति वचनप्रामाख्यात्यतं च शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिविहानं शब्दार्थपर्य लोचनं चाकरमन्तरेण न भवतीति सत्यमेतत् किं यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासंभवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमाभावतः कश्चिदव्यक्तोऽकरलानो नवति यद्वशादकरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते इत्यं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । तथाहि तेषामप्याहारापभिसाप उपजायते, अनिलापका प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि रातो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविदेव, ततस्तेषामपि काचिदन्याकरलधरवश्यं प्रतिपचम्या तत स्तेषामपि लग्भ्यक्करं भवतीति न कश्चिद्दशेषः । तच्च लब्ध्यकरं पोढा । तद्यथा ( श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यकरमित्यादि ) द यत्र ओबेन्द्रियेण शब्दभवणे सति राम्रोऽयमित्याचारानु विषं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि विज्ञानं तत् श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यकरं तस्य ओद्रियनिमित्तत्वात् । यत्पुनषा म्रफलापनभ्याम्म्रफलमित्याद्यकरानुविषं शब्दार्थपर्यालोचनात्मकं विज्ञानं तश्चक्षुरिन्द्रियलब्ध्य करमेव । शेषेन्द्रिय लब्ध्यक्करमपि जावनीयम् (सेत्तमित्यादि ) तदेतत् लब्ध्यकरं तदेतदकरश्रुतम् । नं० ॥ बृ० । कल्प० । श्रा० चू०| विशे० ॥ अत्याभिर्वजगं वं - जरणक्खरं इच्छितेतरं वदतो । रूपं च पगासेणं, विज्जति अथो जो तैणं ॥ पचितिं तदेव यदि वदति यथा अयं भविष्यामीति तदेयं तदा तदीप्सितमम्पद्विवक्षिताऽम्यम्बेस्चरति तदा तिरादतिमीसितमितरं वा वदतो बदम निधानं तद् व्यञ्जनाकरम् । अथ कस्माद्व्यञ्जना करमुच्यते नाभिधानाकरमत आह-रूपमिव घटादिकमिव प्रकाशन दीपादिना तमसि वर्त्तमानम् अर्थो घटादिर्यतो यस्माद्व्यज्यते प्रकटीक्रियते तेन कारणेन व्यञ्जनाक्षरमित्युच्यते । संपुष्ा जहत्यनिपतं अजहत्यं वा वि वंजणं दुविहं । एगमगपरिययं, एमेव य अक्खरे पि ।। तत् पुनर्यजनं द्विविधम यथार्थनियतमयथार्थ च । यचार्थनियतं नामान्वर्धयुकं यथा रूपयतीति कृपणः तपतीति सपन इत्यादि । यथार्थ यथानेन्द्र गोपयति तथापीन्द्रगोपकः । न पलमश्नाति तथापि पलाश इत्यादि । अथवा तद् व्यञ्जनं शिया कपमनेक पर्याय च। एकः पर्यायेोऽभिषेयो यस्य सकम्। यथा लोक स्थरिमलमित्यादि शब्देन हाल एक एव पर्याय निपीय पि स्थनित्यमेकमिति । अनेके पर्याया अभिषेा यस्य तदनेक पर्याथम् । यथा जीव इति जीवशब्देन हि जीवोऽप्युच्यते सम्पोऽपि प्रात्यपि भूतोऽपि च जीवाद प्रतिनियत पाः । तथा चोक्तम् । “प्रारणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, स्मृतीवापद्रयायाः शेषाः सस्या उदीरिताः" ततो भूताश्च तरवः Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर भवति सामान्येन जीवशब्दस्यानेक पर्यायानिधायकत्वमिति । पथमेव एकानेकमेदेनारेष्वपि यम् तद्यथा द्विविधं जनमे काकरमनेाहरं काही श्रीरित्यादि । कारं वीणा लता माला इत्यादि । समयपापपनासा विणिचं देसतो भोगविहं । (१४१) अभिधानराजेन्द्रः | - अनिहाणं अभिधेया-तो होइ भिन्नं अभिनं च ॥ अथवा द्विप्रकारं संस्कृतं प्राकृतभाषाविनियुक्तं च यथा-वृक्षः रुक्खो इति । देशतो नानादेशानाश्रित्य अनेकविधम, यथामागधानामदन लाटानां कुरो मिलानां चोरो भ्राणामिकाकुरिति, तथा तदभिधानं व्यञ्जनाकरमभिधेयात् भिन्नमभिन्न च । तत्र भिनं प्रतीतं, तादात्म्याभावात् । तमेव तादात्म्याभावमाहखुरगमोयगुच्चारणम्मि जम्हाल बसवणार्थं । न विबेओ न वि दाहो, न वि पूरणं तेण जिथे तु ॥ यस्माद सुरशब्दोच्चारणेोचारणे मोदकदोबा रणे च यथाक्रमं वदतो वदनस्य वृएवतः श्रवणस्य न छेदो नापि दाहो माथि पुरणमतो ज्ञायतेऽभिधेयानिधानं मिश्रम, अन्यथा तादात्म्यबन्धनात् तुरादयोऽपि तत्र सन्तीति वदनस्य श्रवणस्य च वेदादिप्रसङ्गः । श्रभिनत्वं नाम संबद्धत्वम् । तथा च लोकेऽप्यभिशब्दः संबद्धवाची व्यवहियते यथाऽयमस्माकं खादनपानेनाभिन्नः संबद्ध इत्यर्थः । ततस्तदेष संवत्वं भाषयतिजम्हार मोपगे अनि हियम्मि तत्थेव परचम होई । न य होइ सोणचे, तेथ अनि तदत्यातो ॥ यस्मान्मोके अहिले सय मोदके प्रत्ययो भवति नान्यत्र न च स नियमेन तत्र प्रत्ययो ऽन्यत्वे ऽसंबकत्वे सति भवति "संघावतो नियामकाजावेनान्यत्रापि तत्प्रत्ययप्रसक्तेः तेन कारणेन ज्ञायते तदभिधानमर्थादभिन्नमर्थेन सह वाच्यवाचकभावसंबकम् । एकेकमक्स्वरस्स ट, सपनाया हति इयरे य संबद्धमसंबद्धा, एकेका ते भवे दुबिहा ।। व्यञ्जनस्य पाम्यराणि तस्थाकरस्यैकैकस्य द्विविधाः पर्याया स्वपयया इतरे च परपर्यायाच तत्र वर्णस्य दीर्घः प्लुतश्च । पुनरेकैक स्त्रिधा उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्च । पुनरेकै को द्विधा-सानुनासिको निरनुनासिकय। एवमादकारोऽवर्णः "स्तत्वाच स्वयपनयेन च अनुनासि कभेदाच्च, संख्यातोऽष्टादशात्मकः” एते अवर्णस्य त्रयः पर्यायाः, तथा ये एकेकाक्षर संयोगतो ऽक्षरसंयोगत यं यावती परते संयोगास्तावतोयेऽवस्थाविशेषा ये च त दर्थाभिधायकत्वस्य नावास्तेऽपि तस्य स्वपर्याचा इतरे तथासन्तः परपर्यायाः । एवमिवर्णादीनामपि पर्यायाः परपर्या , । येऽपि परपर्यायास्तेऽपि तस्येति व्यपदिश्यते। व्यवच्छेद्यतया तेषां तद्विशेषकत्वात् यथाऽयं मे पर इति । ते च स्वपर्यायाः, परंपर्यायाश्च एकैके द्विविधा भवन्ति । तद्यथासंबा असंबकाश्च । एतदेव भावपतिअस्थि संबा, हुति [अकारस्स पज्जया जे उ । ते चैव संबा, नत्यित्ते गं तु सव्वे वि ॥ अक्खर ये अकारस्य पर्यायाः स्वपर्यायास्ते तत्रास्तित्वेन संबद्धा भवम्ति, नास्तित्वेन पुनस्त एव सर्वेऽप्यसंबद्धाः, तत्र तेषां नास्तित्वानावात् । एमे असंता वि छ, नत्यित्ते णं तु होंति संघका । ते चैव असंवधा, प्रस्थित्ते णं अजावत्ता || एवमेव मनेनैव प्रकारेणासन्तः परपर्याया, अपि नास्तित्वेन पपया अस्तित्वनासंघका संपाम स्तित्वस्य तत्रानावत्वात् । अत्रैव निदर्शनमाह घमसदे धमकारा, हवंति संवपज्जया एते । ते व असंपका इति रहमदमाई ।। घटशने ये चकारटकाराकारास्तेषां ये पर्यायापते भवतितस्तित्व संपत विद्यमानत्वात् त ए धकारटकाराकारपर्यायाः रथशब्दादिषु भवन्ति अस्तित्वंनासंबद्धाः तेषां तत्राभावात् । तदेवमस्तित्वेन स्वपर्यायास्तत्र संबद्धा अन्यत्र चासंबद्धा उपदर्शिताः । प्रतदुपदर्शनेनैतदर्थादापत्रम् । ते स्वपर्यायास्तत्र नास्तित्वेनासंबद्धा अन्यत्र तु संबद्धाः । तथा ये रथशब्दस्य स्वपर्यायास्ते तशास्तित्वेन संबद्धास्तेषां तत्र विद्यमानत्वात् घटन बद्धास्तेषां तत्रासत्वात् त एव च रथशब्दे नास्तित्वे नासंबद्धा घटशब्देन संबद्धा इति । तदेवं स्वपर्यायाः परपर्यायाध प्रत्येकं संबद्धा असंबद्धाश्च निदर्शिताः । अधुना स्वपर्यायान दर्शपति संजुत्ता संजुत्तं, श्य लभते जेसु जेसुत्थे । विणिगमक्खरं ते - सिं होंति सभावपज्जाया ॥ इत्येवं घटशब्दरथशब्दादिगतेन प्रकारेण संयुक्तमसंयुक्तं पाक्षरमकारादिकं येषु येष्वर्थेषु विनियोगं लभते ते प स्वभाव पर्यायाः स्वचर्याया भवन्ति अर्थादिदमा अपरे परपर्याया इति । तदेवमभिहितं व्यञ्जनाक्षरम् । तदभिधानाब्वाभिहितं त्रिविधमप्यक्षरम् नृ० १ ० । लब्ध्यक्षरमाह जो अक्खरोवलंभो, सासकी तं च हो विधाएं । इंदियमणोनिमिनं, जो आवरण वरखओवसमो योरस्योपलम्भो लाभः सा लम्भनं लधिः, ताग्य्यक्षरमित्यर्थः । तच्च किमित्याह-इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतमन्धानुसारि विज्ञानं श्रुतज्ञानोपयोग इत्यर्थः । यश्च तज्ज्ञानोपयोगो यच तदाचरणकर्मक्षयोपशम एती द्वापि लभ्यचरमिति भावार्थः । उक्रं त्रिविधक्षरम् । अथात्र किं द्रव्यश्रुतं किं वा भावश्रुतमित्याहदव्य सावं - जणक्खरं नावमुतमिवरं तु मय से सम्मिवि, मोनू दव्यमृतं ति ॥४॥ संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं चैते द्वे अपि भावश्रुत कारणत्वात् द्रव्यश्रुतम, इतरतु लब्ध्यक्षरं भावश्रुतम्। श्रत्र विनेयः प्राह - ननु पूर्व मतिश्रुतभेदविचारे येयं गाथा प्रोक्ता " सोइंदिधोबलद्धी, होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दव्यसुयं अक्खरलंभो यसेसेस सि" अस्यां किमस्य त्रिविधस्याक्षरस्य संग्रहस्ति श्रुताचारस्य तत्रापि प्रस्तुतत्वात्, यद्यस्ति तर्हि दर्श्यतां कथ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२) . अक्खर अभिधानराजेन्द्रः। अक्खर मसौ ? अथ नास्ति तात्रापि किमनेनाप्रस्तुतेन इति । सूरिः | तदित्याद-भणितं च वर्णविज्ञानं श्रुतं तेषामप्येकेन्द्रियाद्यसंकिपूर्वापरग्रन्थसंवादं दिदर्शयिषुस्तत्राप्यस्याक्षरत्नयस्य संग्रह- नाम् “एगिदियाणं मन्नाणी सुयअन्नाणी य" इत्यादि वचमुपदर्शयति (मइसुयेत्यादि) मतिश्रुतविशेषणेऽपि मतिश्रुतभे- नात, न हि श्रुतज्ञानमक्षरमन्तरेण संभवति तदेतत्कयं श्रद्धातदविचारेऽपि “सोइंदिअोवलद्धी" इत्यादिगाथायां "मोत्तूर्ण व्यमिति ? अत्रोत्तरमाहदव्वसुय" इत्यनेन गाथावयवेन किमित्याह जह चेयणमकित्तिम-मसमीण तह होहि नाणं पि। दबसुयं मम्मक्खर-मक्खरखंभोत्ति भावसुयसुत्तं । थोवत्ति नोवलज्जइ, जीवत्तमिव इंदियाईणं ॥ . सोनोवलचिवयणे, ण वंजणं भावसुत्तं च ॥ यथा चैतन्यं जीवत्वमकृत्रिमस्वन्नावमाहारादिसंज्ञाद्वारणासंज्ञाक्षरमुक्तम्, कथंभूतमित्याह-द्रव्यश्रुतं भावकारणत्वात् संझिनामवगम्यते तथा सन्ध्यवरात्मकसमूहज्ञानमपि तेषामद्रव्यश्रुतरूपम् "अक्खरलंभो य सेसेसुत्ति" अनेन त्ववयवेन वगन्तव्यम, स्तोकत्वात् स्पूलदर्शिभिस्तन्नोपलक्ष्यते जीवत्वलब्ध्यक्षरमुक्तामति शेषः । कथंभूतमित्याह-भावश्रुतं विज्ञाना-| मिव पृथिव्यायेकेन्द्रियाणाम् । पकशब्दस्य चेह लोपः, भामा स्मकत्वात् भावश्रुतरूपं “सोइंदिओवलद्धी होइ सुयं" इत्य- सत्वनामेत्यादिदर्शनादिति । यदपि परोपदेशजत्वमकरनेन त्ववयवन श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्य शब्दस्येति बहुब्रीहि- स्योच्यते तदपि संज्ञाव्यञ्जनाकरयोरेवावसेयम् । लग्भ्यक्तरं समासाश्रयणात्, व्यञ्जनं व्यञ्जनाक्षरमुक्तम् । श्रोत्रेन्द्रिय- तु क्षयोपशमन्छियादिनिमित्तमसंगिनां न विरुभ्यते, तदेव स्योपलब्धिर्विज्ञानमिति षष्ठीसमासाङ्गीकरणेन तु पुनरपि । च मुख्यतयेह प्रस्तुतम् । तत्तु संज्ञाव्यअनाकरे श्रुतज्ञानाधिलब्ध्यक्षरं भावश्रुतरूपमभिहितमित्येवं न पूर्वापरविसंवादः।। कारादिति । इष्टन्तान्तरमाहननु लध्यक्षरं कथं प्रमाता लभत इत्याह जह वा समीणमण-खराणं असइ नरवस्मविमाणे । पचक्खमिंदियमणे-हि सभा लिंगेण वक्खरं कोइ । लछक्खरं ति भन्मइ, किमपित्ति तहा असम्सीएं । निंगमणुमाणममे, सारिक्खाई पभासंति ॥ यथा संझिनामपि परोपदेशाभावे नवाकराणां केषांचिदतीव मु. तच्चाक्षरं लब्ध्यतरं कश्चित्प्रत्यक्षं लभते प्रत्यक्षरूपतयैव ग्धप्रकृतीनांपुलिन्दबालगोपालगवादीनामसत्याप नकारादिधकस्यचिदुत्पद्यत इत्यर्थः । काभ्यां कृत्वा इत्याह-इन्द्रियमनो- विशेषविज्ञाने अध्यक्करं किमपीक्ष्यते नरादिवर्णोचारणे तभ्याम, इन्द्रियमनोनिमित्तं यद् व्यवहारप्रत्यक्षं तत्र कस्यचि. वणादनिमुखनिरीक्षणदर्शनाच्च । गौरपि हि सबनाबहुलादिवध्यतरं श्रुतज्ञानरूपमुपजायत इत्यर्थः। अन्यत्तु लिङ्गेन धूमा-| शब्देनाकारिता सती स्वनाम जानीते प्रवृत्तिनिवृत्त्यादि च कुदिना तदुत्पद्यते, धूमादिलिङ्गं दृष्ट्वा अन्यादिज्ञानरूपं तत्क- | ती दृश्यते, न चैषां गवादीनां तथाविधपरोपदेशः समस्ति । स्यचिदुपजायत इत्यर्थः । लिङ्ग किमुच्यते इत्याह-अनुमा- | अथवास्ति बन्ध्याकर मरादिविज्ञानसद्भावात् । एवमसंझिनामपि नमिति । ननु लिङ्गग्रहणं संबन्धस्मरणाभ्यामनु पश्चान्मानमनु- किमपि तदेष्टव्यमिति । तदेव साधितमेकेन्द्रियादीनामपि यत्र मानं लिङ्गजं ज्ञानमुच्यते। कथं लिङ्गमेवानुमानमिति चेत् । यावच्च लब्ध्यक्करम् ॥ सत्यम् , किंतुकारणे कार्योपचारादप्यनुमानम्, यथा प्रत्यक्ष अथैकैकस्याकारायकरस्य यावन्तः पर्याया शानजनको घटोऽपि प्रत्यत्त इति । तदिह तात्पर्य्यम्-लन्यतरं __ भवन्ति तदेतद्विशेषतो दर्शयतिश्रुतज्ञानमुच्यते । तच्चेन्द्रियमनोनिमित्तं प्रत्यत्तं वा स्यादनु एकेकमक्खरं पुण, सपरपज्जायभेयओ जिन।। मानं वा स्यादन्यत, शेषस्यात्मप्रत्यक्षस्यावध्यादिरूपत्वादिति भावः। सादृश्यादिभ्यां जायमानत्वात्तदनुमानं पञ्चविधमिति तं सम्बदब्बपज्जा-यरासिमाणं मुणेयव्वं ।। केचित्प्रभाषन्ते । विशे। इह भिन्नं पृथगेकैकमपि तदकाराद्यक्कर पुनः स्वपर्यायभेदतः सामनविससेण य, दुविहा लकी पढमा अनेया य।। सर्वाणि यानि द्रव्याणि तत्पर्यायराशिमानं ज्ञातव्यम् । इदतिविहा य अणुवलची, उवलकी पंचहा विश्या ॥ मुक्तं नवति-इह समस्तत्रिभुवनवर्तीनि यानि परमाणुद्वषणु कादीन्येकाकाशप्रदेशादीनि च यानि अव्याणि ये च सर्वेऽपि लब्धिलब्ध्यवरं द्विविधं द्विप्रकारम् । तद्यथा-सामान्येन विशे वर्णास्तदभिधेयाश्चार्थास्तेषां सर्वेषामाप पिएमतो यः पर्यायपेण च । सामान्यसन्ध्यवरं विशेषलब्ध्यतरं चेति भावः । तत्र प्राथमिकी सामान्योपलब्धिः। सामान्योपनध्यक्करमन्नेदसामान्ये राशिर्भवति स एकैकस्याप्यकाराद्यक्षरस्य नवति, तन्मध्ये घ कारस्य केचित्स्तोकाःस्वपर्यायास्ते चानन्ताः,शेषास्त्वनन्तगुणाः भेदाजाबात् । इहोपलब्धिरनुपलब्ध्यपेक्कातस्तस्या अपि प्ररूपणा कर्तव्येत्यत आह-त्रिविधा त्रिप्रकारा अनुपलब्धिर्या पु पर्याया इत्यवं सर्वसंग्रहः । अयं च सर्वोप सर्वव्यपर्यायनर्द्वितीया विशेषोपलब्धिर्विशेषोफ्लम्ध्यवरं सा पञ्चधा पञ्च राशिः सद्भावतोऽनन्तानन्तस्वरूपोऽप्यसत्कल्पनया किल लक्ष प्रकारा । वृ०१ उ०। पदार्थाश्चाकारेकारादयो धर्मास्तिकायादयः सर्वाकाशप्रदेशससांप्रतमकरश्रुताधिकारादेव यदुक्तं सूत्रे "अक्खरत्नप्रिस्स हिताःसर्वेऽपिकिल सहस्रं तत्रैकस्याकारपदार्थस्य सर्वव्यगबहिअक्खरं समुपजश्" इति तत्र प्रेर्यमुत्थापयन्नाह तलक्षपर्यायराशिमध्यादस्तित्वेन संबद्धाः किल शतप्रमाणाः अक्खरखंभो समी-ण होज पुरिसाइवमविणाणं । स्वपर्यायाः, शेषास्तु नास्तित्वेन संबकाःसर्वेऽपिपरपर्याया।प. कत्तो न असमीणं, जणियं च सुयम्मि तेसि पि ॥ वमिकारादेः परमाणुद्यणुकादेश्चैकैकस्य द्रव्यस्य वाच्यमिति । पुरुषस्त्रीनपुंसकघटपटादिवर्णविज्ञानरूपोऽक्करलानः संझिनां पाह-क पुनः स्वपर्यायाः के च परपर्याया इत्याहसमनस्कजीवानां भवेच्छूद्दधामहे एतदसंझिनां चामनस्कानां जे लज्जा केवलोम-बमसहिओ व पज्जवायारो। कुत पतद्वर्ण विज्ञानं भवति ? न कुतश्चिदित्यर्थः । अक्षरलालस्य ते तस्स सपज्जाया, सेसा परपज्जया सब्वे ।। परोपदेशजत्वान्मनोविकलानां तु तदसंनयात,मा जूत् तेषांतहियानुदात्तानुदात्तसानुनासिकनिरनुनासिकादीनात्मसमतान् Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर अनिधानराजेन्द्रः। अक्खर पर्यायान केवलोऽन्यवर्णेन संयुक्तोऽन्यवर्णसंयुक्तो वाऽकारोलभ- न च वक्तव्यं घटादिपर्यायाणां घटादौ व्यवस्थितानां नास्तित्वलतेऽनुनपति तस्य स्वपर्यायाः प्रोच्यन्तेऽस्तित्वेन संबद्धत्वात् । ते- कणं रूपकथमकर प्राप्त, रूपिणामन्तरेण रूपायोगात्। अथ तेपि चाऽनन्तास्तद्वाच्यस्य विष्णुपरमाएवादिषव्यस्यानन्तत्वासक- तत्र सन्ति तर्हि विश्वकृत्वमिति घटादिपर्यायाणां घटादीन विहाव्यप्रतिपादनशक्तेश्चास्य जिन्नत्वात, अन्यथा तत्प्रतिपाद्यस्य सर्व- यान्यत्र नास्तित्वेन व्याप्तेरिष्टत्वात् अन्यथा स्वपरभावायोगादत स्याप्यकत्वासनादेकरूपवर्णवाच्यत्वात्। शेषास्त्विकारादिसंब- | एव कथंचिद्विश्वकताऽप्यवाधिकैव । व्यादिरूपतया तदेकत्वधिनोघटादिगताश्चास्य परपर्यायास्तेज्यो व्यावृत्तित्वेन नास्ति- स्याप्यभ्युगमादतो गम्भीरमिदं स्थिरबुद्धिभिः परिभावनीयम, खेन संबन्धात्, पवमिकारादीनामपि नावनीयम् । प्रकरविचा- तस्मात् घटादिपर्याया नास्तित्वेनाकरेऽपि संबका इति तत्पर्यारस्य चेह प्रक्रान्तत्वादकैकमकरं सर्वव्यपर्यायराशिमानमुच्य- या अप्यते अस्तित्वेन घटादावेव संबका न त्वकरे इति परपते, अन्यथाऽन्येषामपि परमाणुयणुकघटादिव्याणामिदमेव यताव्यपदेश इति स्थितमिति । पर्यायमानं अष्टव्यमिति । एवमुक्ते सति परः प्राह यदि घटादिपर्यायास्तत्राकरे असंबकत्वेन परपर्याया जा ते परपज्जाया, न तस्स अह तस्स न परपज्जाया । व्यपदिश्यन्ते तर्हि ते तस्य कथमुच्यन्ते श्त्याहजं तम्मि असंबछा, तो परपज्जायववएसो । चायसपज्जाया वि-सेसाइणा तस्स जमुवउज्जति । इह स्वपर्यायाणामेव तत्पर्यायता युक्ता । ये त्वमी परपर्यायास्ते सधणमिवासंबई, नवंति तो पज्जया तस्स ॥ यदि घटादीनां ताई नाकरस्थ, अकरस्य ते हि न घटादीनाम्, ततस्तस्मात् घटादिपर्याया अपि तस्याकरस्य पर्याया भवन्ति ततश्च यदि पर्यायास्तर्हि तस्य कथं, तस्य चेत्परस्य कथमिति वि. यतोऽतरस्यापि ते उरयुज्यन्ते उपयोगं यान्ति । केनेत्याहरोधः। तदयुक्तमभिप्रायापरिकानात् । यस्मात्कारणात्तस्मिन्नकारे त्यागस्वपर्यायविशेषणादिना त्यागेन स्वपर्यायविशेषणेन चोपकाराद्यक्करे घटादिपर्याया अस्तित्वेनासंबद्धाः, ततस्तेषां परप योगादित्यर्थः । श्दमुक्तं भवति-घटादिपर्यायाः सत्त्वेनाकरे र्यायव्यपदेशोऽन्यथा व्यावृत्तेन रूपेण तेऽपि संबद्धा एवेत्यत असंबद्धा अपि ते स्वपर्याया भवन्ति, त्यांगनानावनोपयुज्यमास्तेषामपि व्यावृत्तरूपतया पारमार्थिक स्वपर्यायत्वं न विरुभ्यते। नत्वात् । यदि हि तत्र तेषामन्नावो न जवेत्तहिं तदक्करं घटाअस्तित्वेन तु घटादिपर्याया घटादिप्वेव संबझा इत्यक्करस्य ते दिन्यो व्यावृत्तं न सिध्येत्तत्रापि घटादिपर्यायाणां नावादिति । परपर्याया व्यपदिश्यन्त इति भावः। द्विविधं हि वस्तुनःस्वरूप- ततोऽकरस्य त्यागेनानावनोपयोगात घटादिपर्यायास्तस्य भवन्ति मस्तित्वं नास्तित्वं च । ततो ये यत्नास्तित्वेन प्रतिबद्धास्ते तस्य तथा स्वपर्यायाणां विशेषणेन विशेषव्यवस्थापकत्वेन परपर्याया स्वपर्याया तुच्यन्ते, ये तु यत्र नास्तित्वेन संबद्धास्ते तस्य परप-| अपि तस्य नबन्ति, नहि परपर्यायव सत्सु स्वपर्यायाः केचिद्रेर्यायाः प्रतिपाद्यन्ते इति निमित्तभेदख्यापनपरावेव स्वपरशब्दौ, देन सिध्यन्ति, स्वपरशम्दयोरापेक्तिकत्वात्प्रयोगः । इत्थं यद्यन त्वेकेषां तत्र सर्वथा संबन्धनिराकरणपरौ, अतोऽकरघटादिप स्योपयुज्यते तद्भदवत्यपि तस्येति व्यपदिश्यते, यथा-देवदत्ता. र्यायाः अस्तित्वेनासंबका इति परपर्याया उच्यन्ते न पुनः सर्व देः स्वधनम् । उपयुज्यतेच त्यागस्वपर्यायविशेषणादिनावेनघथा, ते तत्र संबका नास्तित्वेन तत्रापि संबकान चैकस्योभयत्र टादिपर्याया अप्यतरस्यातस्ते तस्यापि जवन्तीति । एवमकसंबन्धो न युक्त एकस्यापि हिमवदादेरंशद्वयन पूर्वापरसमुका रपर्याया अपि घटादेर्वाच्या इति । एतदेव भावयतिदिसंबन्धात्। यदि ोकेनैव रूपेणैकस्योभयत्र संबन्ध इध्येत तदा स्थाद्विरोधः, एतच्च नास्ति, रूपद्वयेन घटादिपर्यायाणां तत्रान्यत्र सघणामसंबई पिदु, चेयणं पिव नरे जहा तस्स । च संबन्धात् । सत्वेन तत्र संबन्धादसत्त्वेन त्वक्करादिषु। असत्य- उवउज्जइ त्ति सधणं, भस्म तह तस्स पज्जाया । मभावत्यावस्तुनो रूपमेव न भवति खरविषाणवदिति चेदयुक्तम् शह देवदत्तादिके नरे चैतन्यं यथाऽऽत्मनि संबद्धं तथा स्वधखरविषाणकल्पत्वस्य वस्त्वभावेऽसिम्त्वातन हि प्रागभावमध्वं नम, असंबरूमपि स्वधनं तस्य लोके भएयते । कुत उपयुज्यत साभावघटाभावपटाभावादिवस्त्वभावविशेषणवत्खरविषाणा- शति कृत्वा तथाऽकरे असंबका अपि घटादिपर्यायास्तस्याऽकरदिष्वपि विशेषणं संभवति, तेषां सर्वोऽप्याख्याविरहलकणे | स्य पर्याया भवन्ति । अमुमेवाथै दृष्टान्तान्तरेण साधयतिनिरभिलप्ये षष्ठभूतवन्नीरूपेऽत्यन्ताभावमात्र एव व्यवहारिभिः जह दसणनाणचरि-सगोयरा सव्वदचपज्जाया। संकेतितत्वात्। न च षष्ठनूतवद्वस्त्वनावोऽप्यस्मानिन रूपोऽभ्यु सध्यनेयकिरिया-फलोवोगि ति भिन्ना वि॥ पगम्यते, नीरूपस्य निरभिलप्यत्वेन प्राग्भावादिविशेषणानुपपतेः, किंतु यथैव मृत्पिएकादिपर्यायो भाव एव सन् घटाकारादि जइ णो सपज्जया इव, सकज्जनिफाग त्ति सधणं च। व्यावृत्तिमात्रात् प्राग्भाव इति व्यपदिश्यते, यथावा कपासादिप- आणायचायफला, तह सव्वे सव्ववनाणं ॥ र्यायो भाव एव सन् घटाकारः परममात्रात् प्रध्वंसाभावोऽग्नि- इह यथा सर्वद्रव्यपर्याया जिन्ना अपि संयतेरेव भवन्ति यतेः धीयते, तद्वत्पर्यायान्तरापन्नोऽकरादिभाव एव घटादिवस्त्वनावः संबन्धिनो व्यपदिश्यन्ते । कुत इत्याह-स्वकार्यनिष्पादका प्रतिपाद्यत, न तु सर्वथैवाभावस्तथा,सर्वथा न किञ्चिद्रूपस्या- इति हतारतदपि कुत इत्याह-श्रद्धयज्ञयक्रियाफलोपयोगिनो नजिलप्यत्वात् । न च वक्तव्यं खरविषाणादिशब्देन सोऽप्यभिः | यतेरिति कृत्वा श्रद्धेयत्वेनोपयोगात, शेयत्वेनोपयोगात् , त्यालप्यत एवेति निरभिलप्यताख्यापनार्थमेव संकेतमात्रनाविनां गादानादिक्रियारूपं यच्चूसानहानफलं तदुपयोगित्वाचेति । खरविषाणादिशब्दानां व्यवहारिनिस्तत्र निवेशात् । किं च-यदि कथंजूतास्ते सर्वजन्यपर्याया इत्याह-दर्शनशानचारित्रगोचराः घटादिपर्यायाणामकरे नास्तित्वेन संबन्धो नेष्यते तबस्तित्व- सम्यग्दर्शनशानचारित्रविषयजूताः, ते हि सम्यग्दर्शनेन कीनास्तित्वयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वादस्तित्वेन तेषां तत्र संबन्धः यन्ते ज्ञानेन तुझायन्ते चारित्रस्याप्याहारवखपात्राद्युपकरणनेषस्थात्तथा च सत्यक्षरस्यापि घटादिरूपतैव स्यात, एवं च सति | जशिष्यादिद्वारेणोपष्टम्भहेतवो बहवोजवन्ति 'अव्ववहारी उनेसर्वविश्वमेकरूपतामेवासादयेत् , ततश्च सहोत्पत्यादिप्रसङ्गः। रश्या' इति वचनात् । अथवा 'पढमम्मि सब्बजीवा, वीएचरिमे Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर अनिधानराजेन्द्रः। भक्खर य सम्बदब्वाई । सेसा महब्बया खलु, तदिकदेसेण दम्याणं" चिन्स्यन्ते विचार्यन्ते । कथमित्याह-कतिथो भागस्तेषां भवति, इति वचनादेते सर्वेऽपि कानदर्शनचारित्रगोचराः प्रतानां या-1 केषां सर्वधावानां सर्वेषामभिसाप्यानभिसाप्यपर्यायाणां समुदिरित्रात्मकत्वाचारित्रस्य ज्ञानदर्शनाज्यां विनाभावाभावात्।। तानामित्यर्थः । श्वमुक्तं जपति-आभखाप्यं वस्तु सर्वमकरेच्युतपर्वते श्रद्धयेत्वायुपयोगिनमन्तरेण भकानाचयोगाविषयम-1 जोच्यतेऽतस्तदभिधानशक्तिरूपाः सर्वेऽपि तस्याभिमाप्याः न्तेरण विषयिणोऽनुपपत्ते के यथा स्वकार्यनिष्पादकाः सन्तो प्रज्ञापनीयाः स्वपर्याया उच्यन्ते, शेषास्त्वनभिमाप्याः परपयतेवन्तीत्याह-यथा ज्ञानदर्शनादिरूपाः स्वपर्यायाः स्वधनं याया। प्रतस्ते ऽभिलाप्याः स्वपरपर्यायाः सर्वपर्यायाणां कतिबा यथा भिन्नमपि देवदत्तादेर्भवति तथा सर्वेऽपि द्रव्यपर्याया-1 थो भागो प्रवतीत्येवं विचिन्स्यत इति। कथमित्याहस्त्यागादानफलत्वात्प्रत्येकं सर्वेषामप्यकारार्दिवर्णानामुपसक- पसवमिजा जावा, वप्माण सपज्जया तया योवा । णत्वात् घटादीनां भिन्ना अपि भवन्तीति । सेसा परपज्जाया, तो गंतगुणा निरभिलप्पा ॥ न चैतदुत्सूत्रमिति दर्शयति यतः प्रकापनीया अभिसाप्या नावाः सामान्येन वर्णानामकाएगं जाणं सव्वं, जाणं सव्वं च जाणमेग ति । रादीनां स्वपर्यायास्सतः स्तोका अनन्ततमनागवर्तिनः शेषास्तु इय सन्चमजाणतो, नागारं सव्वहा मुणइ ।। निरभिसाप्याः प्रज्ञापयितुमशक्याः सर्वेऽपि परपर्याया इत्यतः इह सूत्रेऽप्युक्तं "जे एगं जाण से सव्वं जाणजे सव्वं जाण- स्वपर्यायेज्योऽनन्तगुणाः सर्वस्यापि हि वस्तुनो लोकालोकाका१ से एगं जाण ति" । किमुक्कं भवति, एकं किमपि वस्तु शं विहाय स्तोकाः स्वपर्यायाः, परपर्यायास्त्वनन्सगुणाः, लोकासर्वैः स्वपरपर्याययुक्तं जाननवबुध्यमानः सर्वलोकालोकगतं लोकाकाशस्य तु केवमस्याप्यनन्तगुणत्वात् । शेषपदार्थानांतुसवस्तु सर्वैः स्वपरपर्यायैर्युक्तं जानाति सर्ववस्तुपरिज्ञाने नान्तरी मुदितानामपि तदनन्तनागवर्तित्वाधिपरीतं अष्टव्यम् । स्तोकाः यत्वादेव वस्तुज्ञानस्य । सबै सर्वपर्यायोपेतं वस्तु जानाति स परपर्यायाः स्वपर्यायास्त्वनन्तगुणाः । अत्र विनेयानुप्रहार्थ स्थाएकमपि सर्वपर्यायोपेतं जानात्येकपरिझानस्य नान्तरियकत्वात पना काचिन्निदयते-तद्यथा-सर्वाकाशप्रदेशराशेरन्ये सपतच प्रागापि नावितमेवस्यतःसर्व सर्वपर्यायोपेतं यस्त्वजानानो घेऽपि धर्मास्तिकायप्रदेशपरमाणुव्यणुकादयः पदार्थाः सङ्गानाकाररूपमकरं सर्वप्रकारैः सर्वपर्णयोपेतं जानाति वस्तु, तस्मा- चतोऽनन्ता अपि कल्पनीयाः किल, देशसर्वाकाशप्रदेशपदामेषसमस्तवस्तुपर्यायैः परिकातरेव एकमकरं कर ज्ञायते | थास्तु केवला अपि किल शतं प्रतिपदार्थ च पञ्च स्वपनान्यथेति भावः । यदि नामैवं तथापि प्रस्तुते घरादिपर्या-1 र्यायाः । एवं च सति धर्मास्तिकायप्रदेशादानां सर्वेषामाप प. याणामकरपर्यायत्वे किमायातमित्याह दार्थानां पश्चाशदेव स्वपर्याय:,ते च ननसः परपर्यायाः स्तोजेसु अनाए तो, न नज्जए नज्जए य नाए। काध-स्वपर्यायाणां तु पञ्चशतानि, बहवश्वामी परपर्यायभ्यस्तकिह तस्स ते न धम्मा, घमस्स रूवाधम्म च ॥ स्मान्छेषपदार्थानां सर्वेषामपि ननसोऽनन्तनागवर्तित्वान्न प्रसस्तु केवसस्यापि तेज्योऽनन्तगुणत्वात स्वपरपर्यायाल्पबतत्तस्मायेषु घटादिपर्यायेवकातेषु यदेकं प्रस्तुतमकरं न का-1 दुत्ववैपरीत्यं रुष्टव्यमिति । मजसोऽन्यपदार्थानां च तेनैष नियते, कातेषु च ज्ञायते ते घटादिपरपर्यायाः कथं न तस्य धर्मा दर्शनेन स्वपर्यायाणां स्तोकत्वं परपर्यायाणां तु बहुत्वं परिभाअपि तु धर्मा पव,यथा घटस्य म्पादयः, प्रयोगः-येषामनुप धनीयम् । तथाहि-किलैकस्मिन् धर्मास्तिकायप्रदेशे पञ्च स्वपलम्धौ यन्नोपलभ्यते उपलब्धौ चोपलभ्यते तस्य ते धर्मा एवं यथा घटस्थ उपादयः नोपनियते च प्रस्तुतमेकमकरं सम र्यायाः, परपर्यायाणां तु पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्च शतानि । स्तघटादिपरपर्याणामनुपसम्धी, उपमन्यते च तपलब्धावि एवमकरपरमाएवादावपि वाच्यमित्यवं विस्तरेणेति । तिते तस्य धर्मा इति । इह चाकरं विचारयितव्यं प्रस्तुत अथ परो प्राध्यस्यागमेन सह विरोधमुद्भावयतिमित्येतावन्मात्रेणैव तत्सर्वपर्यायराशिप्रमाणं साधितं, न चैत- नणु सव्वागासपए-सपज्जया वापमाणमाश्टं। देव केवनमित्थंभूतं कष्टव्यं किं त्वस्ति यत्किमपि वस्तु तं- इह सव्वदव्वपज्जा-यमाणगहणं किमत्य ति॥ सर्वमित्थं जूतमेव, सर्वस्यापि व्यावृत्तिरूपतया परपर्यायास नन्वित्यस्यायाम, सर्वस्य लोकालोकवर्तिन आकाशस्य प्रद्भावादिति। देशास्तेषां मिलिता ये सर्वेऽपि पर्यायास्ते वर्णस्य पर्यायाणां नहि नवरमक्खरं पि, सव्वपज्जायमममम पि। सत्रे मानं परिमाणमादिष्टम् । सर्षाकाशप्रदेशानां यावन्तः स'जं वत्युमत्थि लोए, तं सर्व सव्वपज्जायं। बेंऽपि पर्यायास्तावन्त एकस्याकरस्य पर्याया भवन्ति इत्येतावगताथैव । यद्येवं किमकरमेवाङ्गीकृत्येदं पर्यायमानमुक्तमिति | देवागमे प्रोक्तमित्यर्थः । इह तु "तंसम्बदम्बपञ्जायरासिमाणं भाग्यकार पवोत्तरमाह मुणेयब्ब" इत्यस किमिति सर्षद्रव्यपर्यायमानग्रहणं कृतम् । इह अक्खरा हिंगारो, पनवणिज्जायजेण तब्बिसो । श्वमुक्तं भवति-"सब्वागासपएसगं सव्वागासयएसेहि अ गतगुणियं पज्जवक्सरं निप्पज्जत" नन्दिसूत्रे प्रोक्तम् । पतच ते चिंतिते चं, कइ भागो सबजावाणं ॥ वृत्तौ तत्र व्याख्यातम् । तद्यथा-सबै च तदाकाशं च सर्वाकाशं रहाकराधिकारो यस्मात्प्रस्तुतोऽतस्तस्यैवेदं पर्यायमानमुक्त सोकासोकाकाशमित्यर्थः। तस्य च प्रदेशा निर्विभागास्तेषामग्रं काव्यम् । उपलभ्यते च सर्व वस्त्वित्थमेव, भवत्वेवं किं तु प्र. परिमाणं सर्वाकाशप्रदेशाप्रम, सर्वाकाशप्रदेशैः किमनन्तगुस्तुतस्याकरस्य के स्वपर्यायाः के च परपर्याया इत्यादि नि- णितम् । एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां वेद्यतामित्याह (पन्नवाणिज्जेत्यादि) तस्य सामान्येनाकाराय-1 सद्भावात्पर्यायाकरं पर्यायपरिमाणाकरं निष्पद्यत इति । तदेकरस्य स्वपर्यायो विषयस्तद्विषयो येन यतः । के त्याह-प्र- यमागमे केवलसर्वाकाशप्रदेशपर्यायराशिप्रमाणमकरपर्यायमाझापनीया भत्रिलाप्याः पर्याया न पुनरनजिलाप्याः अतस्ते एवं | नमुक्तम् । भन्न तु धर्माधर्माकाशपुमलजीवास्तिकायकाललक Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर अभिधानराजेन्द्रः । अक्खर णसर्वव्यपर्यायराशिप्रमाणं तदुच्यत इति कथं न विरोध ? संप्रति यथा झानं सर्वाकाशप्रदेशेच्योऽनन्तगुणं इति । अत्रोत्तरमाह भवति तथा दर्शयतिथोच तिन निविट्ठा, पहरा धम्मस्थियाइपजाया । के सपरपज्जयाणं, हवंतु किं होतु वाजावो?॥ जवनकी अगुरुलहु-संयोगसरादिणो य पज्जाया। स्तोका आकाशपर्यायेज्योऽनन्तनागवर्तिन इति कृत्वा नन्दि. एतेण टुंतणंता, सव्वागा सपएमेहिं ।। सूत्रे धर्मास्तिकायादीनां पञ्चव्याणां पर्यायान निर्दिष्टा नाऽनि. चतुर्णामप्यस्तिकायानां पुरुसास्तिकायस्य च ये अगुरुलघव: हिताः साकात् किन्तु य एवं तेज्योऽतिबहवोऽनन्तगुणास्त एव पर्यायाः, उपलकणमेतत् बादरस्कन्धानाम् । अगुरुलघुपर्यायाश्च सर्वाकाशपर्यायाः साकादुक्ताः। अर्थतस्तुधर्मास्तिकायादिपर्या- यावन्तश्चाकरेषु स्वरूपतोऽभिलापभेदतो वा संयोगा यैश्चोदा. या अपि नन्दिसूत्रे प्रोक्ता द्रष्टव्याः। इतरथा यद्येतनायुपगम्य- तादिनिः स्वरैरनिलप्यन्ते भाषाः, श्रादिशब्दाद ये चान्ये शकुनते तदा ते धर्मास्तिकायादिपर्याया मकरस्वपरपर्यायाणां मध्या- रुतादिगताः स्वरविशेषा ये च जीवपुलगताश्चेष्टाविशेषास्ते के भवन्तु?,कि स्वपर्याया भवन्तु परपर्यायावा? ,किंवाऽभावः सर्वेऽपि गृह्यन्ते । एतषां सर्वेषामप्युपवधिर्भवति । न च येन सरविषाणरूपो भवतु ? इति त्रयी गतिः। त्रिनुवने हि ये पयां स्वभावेनैकस्य तेनैवान्यस्य, किन्तु भिन्नेन । तदेतेन प्रकारेण यास्तैः सर्वैरप्यक्करादेवस्तुनः स्वपर्यायैर्वा प्रवितव्यं, परपर्या- ज्ञानस्य स्वभावाः सर्वाकाशप्रदेशेज्योऽनन्तगुणाः। वृ०१०। यैर्वा, अन्यथाऽनावप्रसङ्गात् । तथाहि-य केचन कचित्पर्यायाः प्रकारान्तरेण प्रेरयन्नाहसन्ति तेऽवरादिवस्तुमः स्वपरपर्यायाऽन्यतररूपा नवन्त्येव , तत्थाविसेसयं ना-मक्खरं इह सुयक्खरं पगयं । यथा रूपादयः। ये त्वतरादेः स्वपर्यायाः परपर्याया था न भवन्ति ते न सत्येव, यथा स्वरविषाणतणादयः। तस्मारूमास्तिकाया तं किह केवलपज्जा-यमाणतुवं हविज्नाहि ॥ दिपर्यायाः सूत्रे स्तोकत्वेनानुक्ता अपि जे पगंजाण'श्त्यादि. (तत्त ) "सव्वागासपएसग सव्वागासपएसहि अणंतगुसूत्रप्रामाण्यादर्थतोऽकरस्य परपर्यायवनोक्ता अपच्या इति ।। णियं पज्जवक्खरं निष्पज्जइ" इत्यत्र सूत्रे नन्द्यध्ययने अविशअथान्यत् प्रेरयति पितं सामान्यनैव (नासमक्खरं ति) झानमकरं प्रतिपादितम, किमणंतगुणा जणिया. जमगुरुवहुपज्जया पएसम्मि । अविशेषाऽभिधाने च केवत्रज्ञानस्य महत्त्वात्तदेव तत्राकरं गएके कम्मि आएंता, परमसा वीयरागेहि ॥ म्यते । इह तु श्रुतझानविचाराधिकाराच्छुताकरमकाराद्यवाकननु " सब्वागासपएसेहिं अणंतगुणियं" इत्यत्र किमित्या- रशब्दवाच्यत्वेन प्रकृतं प्रस्तुतम्। ततः को दोष इत्याह-तथाकाशप्रदेशाः सूत्रे अनन्तगुणा भणिताः । अत्रोत्तरमाह-( जमि- कारादिश्रुताकरं कथं केवलपर्यायमानतुल्यं भवेन्न कथंचिदित्यादि ) यद्यस्मात्कारणात एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे, अगुरुवघुप-त्यर्थः । अयमभिप्रायः-कवलस्य सर्वव्यपर्यायवेत्तृत्वाद्भवोया वीतरागैस्तीर्थकरगणधरैरनन्ताः प्राप्ताः प्ररूपिताः। तत- तु सर्वव्यपर्यायमानता, श्रुतस्य तु तदनन्तनागविषयत्वात्कथं श्वायमभिप्रायः-इह निश्चयमतेन बादरं वस्तु सर्वमपि गुरु लघु | तत्पर्यायमानतुल्यतेति । अत्रोच्यते-ननु तत्रापि "अक्खरससदमं चाऽगुरुजघु, तत्राऽगुरुयघुवस्तुसंवन्धिनः पर्याया अप्य- सीसम्म साश्यं खबु" इत्यादिप्रक्रमे ऽपर्यवसितश्रुतं विचागुरुमघवः समयेऽभिधीयन्ते । श्राकाशप्रदेशाश्चागरुमघवोऽत- र्यमाणे “ सव्वागासपएसगं" इत्यादि सूत्रं पठ्यते, अतो यथेट स्त च, तत्पर्याया अप्यगुरुवघवो भपयन्ते । तेषु प्रत्येकमनन्ताः तथा तत्रापि श्रुताधिकारादकरमकाराधेय गम्यते, न केवलासन्यतः सर्वाकाशप्रदेशाग्रं सर्वाकाशप्रदेशरनन्तगुणमुक्तमिति करम् । अथ धे-तत्र द्वितीयमनन्तरं सूत्रं यत् पठ्यते " सव्वभाव शर्त । न केवलमप्यकरं संझाक्करायुच्यते किन्तु ज्ञानम- | जीवाणं अक्खरस्स अणंतनागो निच्चुग्धामियोत्ति" एतस्मा. पि । तत्र शिप्यः प्रश्नयति- कियत्प्रमाणं तदक्करमुच्यते, स- स्केवलाकरं तत्र गम्यते न तु थुताकरं सकमहादशाधिदां सं. काशप्रदेशज्योऽनन्तगुणं कथमेतावत्प्रमाणमुच्यते?। इदै- पूर्णस्यापि श्रुताकरस्य सद्भावात्सर्वजीवानामकरस्याऽनन्तभागी कैक प्राकाशप्रदेशः खल्वनन्तरगुरुमघुपर्यायैः संयुक्तः । ते व नित्योदघाट इत्यस्यार्थस्यानुपपत्तेः। अहो! असमीक्किताभिधासर्वेऽप्यगुरुनघुपर्याया ज्ञाने झायन्ते । न च येन स्वजायनको नं,यत एवं सति केवलिना संपूर्णस्यापि केवलाकरसद्भावात्स. कायते तेनापरोऽपि, तयोरेकत्वप्रसङ्गात्, किन्त्वन्येन स्वनावे- र्वजीवानामकरस्याऽनन्तभागो नित्योद्धाट इत्यस्याऽर्थस्याऽनुपन । ततो यावन्तो गुरुनघुपयांयास्तावन्तो ज्ञानस्वनावाः । पत्तिरेव । अथ मनुप्ये तत्राऽविशषेण सर्वजीवग्रहण सत्यपि उक्तं च- “जावश्य पज्जवा ते, तावक्ष्या तेसु नाणभेया वि।" प्रकरणादपिशब्दाद्वा केलिनो विहायाऽन्येषामेवाकरस्याऽपति भवति सर्वाकाशप्रदेशेज्योऽनन्तगुणः । आद च- नन्तभागो नित्योद्घाट इति केवसावरग्रहणेऽविरोधः । हन्त! बृहद्भाग्य-"अक्खरमुच्च नाणं, पुण होजाहि किं पमाण तदेतच्छ्रुताकरग्रहणेऽपि समानम्, यतस्तत्राविशेषण सर्वजीघतु । भस्म अर्णतगुणियं, सव्वागासप्पएसेहिं ॥ किह होइ अणं ग्रहणे सत्यपि प्रकरणादपिशब्दाद्वा समस्तद्वादशाविदो विदातगुणं, सब्वागासप्पएसरासीतो। भाइ जं पक्केको, आगास. याऽन्येपामेवास्मदादीनामकरस्थानन्तभागो नित्याघाट श्तीस पदसो च ॥ संजुत्तोणं तेहिं, अगुरुलहुपजवेहि नियमेण । हापि शक्यत एव वक्तुम् । तस्मात्तत्रेह च श्रुताकरमकाराव तेण न अणंतगुणियं, सव्वागासप्पएसेहि ॥" पुनरपि शिष्यः प्राह-कथमेतदवसीयत एकैक आकाशप्रदेशोऽनन्तैरगुरुलघु गम्यते । यदि पात्र श्रुताकर, तत्र केवबाकरमपि जयतु, मंच पर्यायैरुपेतः? । उच्यते-इह द्विविधं वस्तु-हपिद्रव्यमरूपिझव्यं | श्रुताकरस्य केवलपर्यायतुल्यमानता विरुद्धयते । कथमित्याहच । तत्र रूपिजन्यं चतुर्दा । तद्यथा-गुरुलघु अगुरुलघु च । सयपज्जवेहि तं के दोण तुलं न होजन परेहिं । एतदप्युच्यते-व्यवहारतो निश्चयतः पुनदिविधमेव-गुरुलघु अगु सयपरपज्जाएहिं, मुझं तं केवलेणेव ॥ रुलघु च । वृ०। स्वकारस्वकीया अकारेकारोकारादयोऽनुगतापर्यायाः श्रुतज्ञान Jain Education Interational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) अक्खर अन्निधानराजेन्द्रः ।। अक्खर स्य स्वपर्याया इत्यर्थः। तैरनुगतैः स्वपर्यायैः, तच्छ्रुताकर केवलेन केवझं झानमकागद्यक्रवत्स्वपरपर्यायभेदतो भिन्नमेव न तु केवलाकरेण तुल्यं न भवेत, सर्वपर्यायानन्तनागवर्तित्वात् । यथोक्तनीत्या स्वपर्यायान्वितमेवेति भावः । कुत इत्याह--येन कारणेन तत्केवलकानं जीवनावः प्रतिनियतो जीवपर्यायो न घ. तच्छूतमानं स्वपर्यायाणां, केवलझानं तु सर्वद्रव्यपर्यायराशि टादिस्वरूपं तन्नापि घटादयस्तत्स्वनावाः किन्तु ततो जिन्ना प्रमाणं, सर्वेष्वपि तेषुब्यापारात् । तथाहि-लोके समस्तद्रव्याणां इति,तेन झायमाना अपि ते कथं तस्य स्वपर्यायानवेयुः, सर्वपिमितः पर्यायराशिरनन्तानन्तस्वरूपोऽप्यसकल्पनया किस संकरैकवादिप्रसङ्गात्। तस्मादमृतत्वाञ्चतनत्वसर्ववेतृत्वाप्रतिलक्कम, एतन्मध्याच्छ्रनझानस्य स्वपर्यायाणां किल शतं, तदून पातित्वनिरावरणत्वादयः केवलज्ञानस्य स्वपर्याया। घटादिपलकं तु परपर्यायाः, केवलज्ञानत्वे तढकमपि पर्यायाणामुपल- र्यायास्तु व्यावृत्तिमाश्रित्य परपर्यायाः। अन्ये तु व्याचक्षत-सज्यते , सर्वोपलब्धिस्वभावत्वात्तस्य । ते चोपलब्धिविशेषाः र्वजन्यगतान्सर्वानपि पर्यायान् केवलनानं जानाति, येन च स्व. सर्वेऽपि केवलस्य पर्यायाः स्वभावाः, झेयोपलब्धिस्वनावत्वात् भावेनैकं पर्यायं जानाति न तेनैवापरमपि,किन्तु स्वन्नावभेदेन,प्र. झानस्य । एवं च सति लकपर्याय केवलं, श्रुतस्य तु शतं स्व न्यथा सवव्यपर्यायैकत्वप्रसकात, तस्मात्सर्वद्रव्यपर्यायराशिपर्यायाणाम, अतस्तैस्तत्केवलपर्यायराशितुल्यं न प्रवदिति तुल्याः स्वन्नावनेदलक्षणाः केवलज्ञानस्य स्वपर्यायाः, सर्वव्यस्थितम् । तर्हि परपर्यायस्तत्तस्य तुल्यं भविष्यतीत्याह-न परै पर्यायास्तु परपर्याया इत्यवं स्वपर्यायपरपर्यायाश्चोजयेऽपि परर्नापि परपर्यायस्तत् केवलेन तुल्यं भवेत् । तथाहि-घटादि स्परं तुल्याः केवलस्यति । एवं च सति किं स्थितमित्याहव्यावृत्तिरूपाः परपर्यायास्तस्य विद्यन्तऽनन्तानन्ताः, कल्पन- अविसेसयं पि सुत्ते, अक्खरपज्जायमाणमाइ8। . या तु शतानलकमानास्तथापि सर्वव्यपर्यायराशिनुल्या न । सुयकेवलक्खराणं, एवं दोएहं पि न विरुवं ।। भवन्ति, सर्वपर्यायानन्तभागेन कल्पनया शतरूपण सद्भावत- एवं सत्यविशिष्टमपि नन्दिसूत्रे यत्सर्वाकाशप्रदेशाग्रमनन्तस्त्वनन्तात्मकेन स्वपर्यायराशिना न्यूनत्वात् केवलस्यतु संपूर्ण- गुणितमक्षरपोयप्रमाणमादिष्टं ततः श्रुतस्य केवलस्य वा न सर्वपीयराशिमानत्वादिति । स्वपरपर्य यैस्तु तत्केवलपर्यायतु विरुद्धं, श्रुताक्षरस्य केवलस्य चोक्तन्यायेनार्थतो द्वयोरपि स. ल्यमेव । केवलवत्तस्यापि सर्वद्रव्यपर्यायप्रमाणत्वादिति। श्राह मानपर्यायत्वात, तथापि श्रुतस्य केवलस्य च स्वपरपर्यायास्तायद्येध केवलेन सहाऽस्य को विशेषः? उच्यते,अस्ति विशेष यतः वनिर्वादं तुल्या एव । स्वपर्यायास्तु 'यद्यप्यन्य तु व्याचक्षते' अविसेस केवलं पुण, सयपज्जाएहि चेव तत्तुन्न । इत्यादिनाऽऽगमेनानन्तरमेव केवलस्य भूयांसः प्रोक्तास्तथापि जम्मेयं पर तं स-ब्वभाववाचार विणिजुत्तं ।। तेभ्यो व्यावृत्तत्ववन्तः श्रुतस्य परपर्याया वर्द्धन्त इति तदेयं उभयत्र सर्वद्रव्यपर्यायराशिप्रमाणत्वे तुल्येऽपि श्रुतकेवल द्वयोरपि सामान्यतः पर्यायसमानत्वमित्युभयोरपि ग्रहण योरस्ति विशेष इत्यवं पुनःशब्दोऽत्र विशेषद्योतनार्थः । कः सूत्रे न किमपि श्यत इति । नन्वेतत्सर्वपर्यायपरिमाणमतरं पुनरसौ विशेष इत्याह- अविशेषेण पर्यायसामान्येन युक्तं किं सर्वमपि शानावरणकर्मणाऽऽवियते न वेत्याहकेवलमविशेषकेवलं स्वपरविंशेपरहितैः सामान्यत एवाऽनन्त तस्स न अणंतनागो, निन्चुग्याडो य मनजीवाणं । पर्यायैर्युक्तं केवलज्ञानमविशेषकेवल मित्यर्थः । तदेवंचूतं कवलं | जणिो सय म्मि केवलि-बज्नाणं तिविहभेश्रो वि ।। स्वपर्यायरेव तत्तल्यं, तेन प्रक्रमानुवर्तमानसर्वन्यपर्यायराशि तस्य च सामान्येनैव सर्वपर्यायपरिमाणावरस्यानन्तभागो ना तुष्ट्यं तत्तव्यं, भूतज्ञानं तु समुदितैरेव स्वपरपर्यायस्तत्तल्य. नित्योद्घाटितः सर्वदेवानावृतः। केवलियर्जानां सर्वजीवानां जमिति विशेष ति भावः। कथं पुनः केवलज्ञानस्य तायन्तः घन्यमध्यमोत्कृष्पत्रिविधनेदोऽपि श्रुत भणितः प्रतिपादित इति । स्वपर्याया इत्याह- ( जाणेयमित्यादि) यद्यस्मात्तत्केवलज्ञान तत्र सर्वजघन्यस्याऽकराऽनन्तभागस्य स्वरूपमाहसर्वव्यपर्यायवकणं यं प्रनि सर्वनापुनिःशेषज्ञातव्यपदार्थ | सो पुगण सचजहनो, चेय नावरिजइ कयाइ । योऽसौ परिच्छेदलकणो व्यापारस्तत्र विनियुक्त प्रतिसमय नकोसावरणम्मि वि, जलयच्छन्नकभासोच || प्रवृत्तिमदित्यर्थः । इदमुक्तं नवति । केवलझानं सर्वानपि स पुनः सर्वजघन्योऽकरान-तभाग आत्मनो जीवत्वनिवन्धनं सर्वव्यपर्यायान् जानाति । ते च तेन शायमाना झानवादिन चैतन्यमा, तञ्च तावन्मात्रमुत्कृष्टावरणऽपि सति जीवस्य कदा यमन तपतया परिणताः,ततो ज्ञानमयत्वात्ते कवलास्य स्वप चिदपि नाबियतेनतिरस्क्रियत, अजीवत्वप्रसङ्गात यथा-सयाया एक जवन्ति,श्रतः केवलानं तैरेव सर्वव्यपर्यायराशि टपि जलदच्छन्नस्यार्कस्याऽऽदिन्यस्य भास:प्रकाशा दिनरात्रितुल्यं भवति । भुनादिझानानि तु सर्वद्रव्यपर्यायराशेरनन्ततम विजागनिवन्धनं किञ्चित्प्रनामानं कदापि नाऽऽवियते, एवं जीमेव जागं जानन्त्यतस्तेषां स्वपर्याया एतावन्त एव भवत्यतान वस्यापि चैतन्यमानं कदाचिन्नाऽऽवियत इति भाव इति । कषां धृतज्ञानं स्वपर्यायस्ततुल्यं, तदनन्तभागवर्तिस्वपर्यायमानत्वा पुनरसौ सर्वजघन्योऽकराऽनन्तभागः प्राप्यत इत्याह-- दिति तवजयोर्विशेषः। अत्र पके केवलस्य परपर्यायविवक्ता थीणद्धिसहियनाणा-चरणोदयो म पत्थिवाईणं । न कृता। ये हि केवलस्य निःशेष यगताविषयभूताः पर्यायास्ते झानातवादिनयमनेन ज्ञानरूपत्वादापत्येव स्वपर्यायाः प्रोक्ता बेदियाइयाएं, परिवठ्ठए कमविमोहीए॥ न तु पर्यायानावः प्रौनः। वस्तुस्थित्या पुनरिदमपि स्वपरपर्या स्थानमिहानिदयसहितोत्कृष्टज्ञानावरणोदयादसौ सर्वयान्वितमेव दर्शयति जघन्यौकरानन्तनागः पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां प्राप्यते, ततः क्रमविशुद्ध्या द्वन्द्रियादीनामसी क्रमेण वर्द्धत इति । तत्कृिणे वत्युसहावं पर तं, पि मपरपज्नायनेयो जिन्न । तं जाण जीवभावो, भिन्ना य त घडाईयं ॥ मध्यमश्चैव केषां मन्तव्य इत्याहवस्तुस्वना प्रति यथावस्थित बस्तुस्वरूपमाश्रित्य तदपि उकोसो उक्कोसय-मुयाणाणविो तो बसेमाणं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खर अक्खर डोइ विमको मज्जे बट्टाएगवाए पाएण | ४७ ॥ स्व एवाकूराऽनन्तनाग उत्कृष्टो भवत्युत्कृष्टश्रुतज्ञानंविदः संपूर्ण श्रुतज्ञानस्येत्यर्थः । अत्राह - नन्वस्य कथमकरानन्तभागो यावता श्रुतज्ञानाकरं संपूर्णमप्यस्य प्राप्यत एव ? | सत्यम् । किन्तु अकारः सानुनासिको निरनुनासिका पुनरेका ह दीर्घः प्लुतश्चेति । पुनरेकैक स्त्रिविधः उदात्तो ऽनुदात्तः स्वरितश्च । इत्येवमकारोऽष्टादशभेदः । एवमिकारादिष्वपि यथासंभवं भेदजालमभिधानीयमिति । तथाऽकराणां संयोगा करसंयोगा संतुलितसामान्य श्रुतके व लाकराऽपेक्षयैवास्याऽङ्गरानन्तनागो विद्वयादयो यावन्तो लोके, यथा-घटः पट इत्यादि, व्याघ्रः स्त्रीत्यादि । वतिः, " केवलिवज्जाणं तिविहभेओवि " इत्यनन्तरवचनात् । अन्यथा हि यथा केवलिनः संपूर्ण के बल रयुकत्वेनारान्तभागस्त्रिविधोऽपि न संजयतीति तर्ज पर्व संपूर्ण लङ्कानिनोऽपि समस्तताक्षर करना करानन्तभागांधिधोऽपि न संभवतीति तद्वर्जनमपि कृतं स्यात्, तस्मान्न संमिलितसामान्या करापेकयैवास्या करानन्तभागः प्रोक्तः, सामान्ये वाsकारापेक्षया श्रुतज्ञानाकरस्य संपूर्णस्याप्य नन्तभागवर्तित्वं युक्तमेव केवलज्ञानस्वपर्यायेच्यः श्रुतज्ञानस्वपर्यायाणामनन्तभागवर्त्तित्वात् तस्य परोक्कविषयत्वेनास्पष्टत्वाश्चेति । यश्च समुदितस्वपरपर्यायाऽपेक्क्या श्रुतकेवलाकरयो स्तुल्यत्वं तदिह न विवचितमेवेति । श्रन्ये तु " सो उण सव्यजनों" इत्यादिगाथायां स पुनरकरलाभ इति व्याच कृते इदं चानेकदोषाऽत्तित्वानिमाणमाश्रमपूज्य टीकायां चाऽदर्शनादसङ्गतमेव लकयामः । तथा हि-" तस्स उ श्रांतभागी निच्चुग्घाको" इत्याद्यनन्तरगाथायाम कराऽनन्तजाग एव प्रकृतः, अक्करला नस्त्वऽनन्तर परामार्शिना तच्छदेन कुतो लब्धः ? किमाकाशात्पतितः ? । किं च यद्यऽकरलाज इतीह प्रवाश्यायते केविषाणं तिषिट ओथिइत्यत्र कि मिति वर्जनं कृतं यथा हि ताराधिक रामः संयतो उयते तथा केवलारमङ्गकृत्योंसोऽपि वज्यत एवं, किं तहर्जनस्य फलम ? | क्षमाधमणपुत्येच "सद्धि" इत्यादिगाथायामित्यं व्याख्यानम स च किल जघन्योऽनन्तनाग इत्यादि । अथ सामान्यमकरं नेह प्रगृप किन्तु तान्मेदेति । तद्युक्तम, चिरन्तन काह येsयक्षरस्य सामान्यस्यैव व्याख्यानात् । किं च विशेषतोऽत्र श्रुताकरे गृह्यमाणं तस्य श्रुताकरस्याऽनन्तभागः सर्वजीयानां निपाद इति व्याख्यानमापद्यते बतथाऽयुक्रम संपूर्णतानिनां ततोऽनन्तनागादिहीनश्रुतज्ञानवतां च श्रुताकनन्नजागवत्वानुपपत्तेः । कि च "सो जण केवलिवज्जाणं ति विभे वि" इत्येतदमेवमेव स्यात्. केवलिनः सर्वथैव श्रुताकरस्यासंजयेन तद्धजनस्याऽनथक्यप्रसङ्गाच्चेति परमार्थ ह चिन्तन्यले प्रयिमध्यममकरानन्तभागमाह - ततस्तस्मात्कृष्टश्रुतज्ञानविदो ऽवशेषाणामेकेन्द्रि संपूर्ण मध्ये वर्तमानानां पदस्थानपतितानामन्य भागादिगतानां प्रायेण थिमध्यां मध्यमाङ्गरानन्तमागां भवति एकस्मदुन निमोऽपशेषाः केचित् नमात्यितुल्या अपि भवन्त्यत उक्तप्रायेणावशेषाणां विमध्यम इति । अयमर्थः ( १४७ ) निधानराजेन्द्रः | " 3 तारमा विशेषाणामपि पांचभुनानां सहभागी भवति न तु 'विमध्यम उत्कृष्ट इत्यर्थः । इति सप्तचत्वारिंशप्राथार्थः । इत्यक्षरथुतं समाप्तम् । विशे० ॥ पत्तेयमकखराई, खरसंजोय जतिया बोए । एच्या सुपनाये, पचमीयो होनि नायव्वा ॥ एकमेकं प्रति प्रत्येकमकराश्य कारादन्यनकभेदानि यथा एवमेते ऽनन्ताः संयोगः ताप्येकः स्वपरपर्यायापेक्षयान पर्यायः श्रत एतावत्यः श्रुतज्ञान प्रकृतयो भेदा ज्ञातव्या इति नियुक्तिगाथार्थः । श्रथ भाष्यम् - संजुताचा तालमेकक्राइम जोगा । होति ता तत्थ वि, एक्केको तपज्जाओ । एकमकरमादिर्येषां द्वपादन साम्येकारादीनि तेषां संयोगा एकाकरादिसंयोगाः, ते अनन्ता भवन्ति । केषां ये एकाकरादिसं योगा इत्याह- तेषामकारककाराद्यकराणाम् । कथंभूतानामित्याह-संयुक्तासंयुक्तानाम् । तत्र संयुक्तै काकरसंयोगो यथा - अधःप्राप्तइत्यादि । यथा-पट पट इत्यादिः । एते चाकरसंयोगा अनन्ताः । एकैकश्च संयोगः स्वपरपर्यायैः पूर्वनिहितन्यायेनाऽनन्तपथीय इति ॥ अथ परमतमाशङ्क्योत्तरमाह संखिज्जक्खरजोगा, होंति अता करूं जमनिधेयं । पंचत्य कायगोवर- मनोविक्खमतं ॥ संस्थेयानि च तान्यकारायक्षराणि तेषां योगाः संयोगाः कथ मनन्ता भवन्ति न घटन्त एवेति भावः । श्रनोत्तरमाह-ययस्मात्संख्येयानामप्यकराणामभिधेयमनन्तम् । कथं ज्ञतमित्याहअन्योन्यचिलवणं परस्परविसदृशम् । किं विपयमित्याह-पञ्चास्तिकायगांव पञ्चास्तिकायगत स्कन्ध परमाणुका दिकम्, अभिधेयानन्त्याच्चानिधानस्याप्यानन्त्यमव सेयमिति । एतदेव भावयति अणुओ पएमटी-ए निन्नरूवा बुत्रमता | जं कममो दवाएं हवंति भिन्नानिढालाई || इहास्मादतः परमाणुनः प्रारज्य क्रमशः प्रदेशच्या पुरु लानिकादेऽपि देवनादिभिरुपाणिणि प्राप्यन्ते भिन्नाभिन्नानि तानि यथा-परमा शुकस्यप्रदेशिक इनिप्रत्ययानेानिधानातानि तद्यथाः परमानिशो निरवयवो निप्रदेश प्रदेश इति तथा द्वणुको द्विप्रदेशिको द्विनेदो द्व्यवयवः। ६त्यादि सर्वद्रव्यपयययोजनीयम् । यस्मामधेयम नन्तं निरूपं जिन्नाभिधानं समकिमियातेरा मिहानमार्ण, अभिपेवानपजवसमाणं । . च सुम्मि विभणियं अनगमपज्जयं सुतं ॥ यतो निम्न जिन्नाभिधानं मेन कारणेनाकरसंयोगरूपाणामनिधानायामानेपामा त दषित कियदित्याह-अभिषेचनेनाऽनिधानस्यापि जेदानहरु घटादिशब्दे अकारादिवर्णा मैंय पण पटादिशनेऽपि निरुप टिनस्पति अतोऽभिवादना नानन्त्यमिति यत्तनः मूत्रे ऽप्यनिहितम् । " अनागमा अनंता पातः स्थिनमनन् " संजुनात्ताणं स्यादीवि माचाचनुष्यार्थः विशे० ॥ " Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्वर उज्जयं भावक्रवरओ, अणक्खरं होज्ज वंजाएकखरओ मनाएं सुतं पुरण, उभयं पि कखरं करउ ॥ मातामह। तब ज्या करं पुस्तकादिन्यस्ता कार्यादिरूपं ताव्यादिकारणजन्यः शब्दो यज्यतेऽनेनेति ते भावार स्वतः स्फुरद कारादियज्ञानरुपमांत जायस श्रो सि) जावाक्षरमाश्रित्य मतिज्ञानं जनेत । कथंभूतमित्याह(उभयं ति) उजयरूपमकरवदनकरं चेत्यर्थः । मतिज्ञाननेदेभावानास्तीति नायि षु तदेतेषु तदस्तीति मतिज्ञान प्रतिपादितमिति भावः । (अक्सर होज लि) रूढत्वात् द्रव्यमतित्वेनाप्रसिद्धत्वादिति ( सुत्तं पुणो त्ति ) सूत्रं श्रुतज्ञानं पुनरुभयमपि द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं चेत्यर्थः । विशे० । अकारादि लब्धकुराणामन्यतरश्मिः कर्म० कर्म न्ये, त्रि० उज्वले, मोके च । न० वाच० । अक्खरगुण- अकूरगुणा पुं० ६ ० ० अकारादीनामणां गुणोऽनन्तागमपर्यायवत्वमुच्चारणं च अन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् । सूत्र० १ ० १ ० १ ० । अक्खरगुणमसंघमणा - अक्षरगुणमतिसंघटना - स्त्री० १० अक्षरगु णेन मतेः ( मतिज्ञानस्य ) संघटना, भावश्रुतस्य व्यश्रुतन प्रकाशनेऽक्षरगुणस्य मत्या संघटनायां बुद्ध्या रचनायां च । सूत्र १ श्रु० १ ० १ ३० अवखरपुडिया-अङ्गरपृष्टिकाखीर्नियमेव - धाने । प्रज्ञा० १ पद । अक्वरलन अकूरलाच पुं० पुरुषस्त्री नपुंसकपटपटादिवर्णविज्ञाने, "अक्खर जो समी- होज पुरिसाश्वाविद्याणं । कत्तो असणं, नणियं च सुयम्मि तेसिं पि" विशे० । सूत्र । अक्खर विकारविशुप० । अक्खर संवन्ध - अक्षरसंवद्ध - पुं० वर्णव्यक्तिमति, स्था०२०३ To | ( अस्य व्याख्या 'मासा' शब्दे ) अक्खरसशिवाय - त्र, न० प्रज्ञा० १६ पद अक्सल देशी प्रतिफलिते दे० ना० १ वर्ग " (१४०) अभिधानगजेन्द्रः । क्ख लिय-अस्खलित-त्रि० न० त० । श्रप्रच्युते, स्वकर्तव्ये श्रप्रमत्ते, वाचर । उपलशकलायाकुलभूनागे, लाङ्गलमिव स्वतालितम् सूत्रगुण, अनु ग० । श्रा० म० प्र० । अक्खामग अक्ख लियचरित-प्रस्खझितचारित्र - पुं० अस्खलितमतिचाररहितं चारिषं मूलगुणरूपं यस्यासी अस्थलितचारित्रः। मि रतिचारचार, ईरशेन सा पिलू" जे सुसंधिमणे, अणाबस्सी दढव्वर । अक्खलियचरिते य रागदोसांजण " ० १ अधि अक्खलियाइगुण जुन अक्खनादिगुणयुत अि तमितमन्यत्यामितमित्यादिगुणयुक्ते, " अस्खलितादिगुणयुमहामतिप्रथितैः "पां० वि० । वाद-पटक पुं० । व्यवहारनिर्णेतरि धर्माय वाचतुरस्रा 66 66 कारे (आम) तेसि बहुमाना पत्ते २ बरा मया क्वागा पत्ता " जी० ३ प्रति० । अक्खमुत्तमाला अकसूत्रमामा श्री० मा शेपास्तेषां सम्बन्धिनं सूत्रमतिका माला आपली या सा तथा संघ गण्यमाननिममितयाऽतिव्यक्तत्वात् । रुाकमालायाम. 'क्वतमाला विव गणिजमाणेहिं " अपृ० ३ वर्ग । अक्वसोय-अक्षस्रोतस न चक्रः प्रवेशरम्धे, ज०७ २०६ उ० स्रोतश्चक्रःप्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणमक्कस्रोतः प्रमाणम् । न०७ ० ६ उ० । चक्रनाभिदिप्रमाणे श्री० अक्वसोयप्यमाणमेन-अक्षसोनःप्रमाणमात्र क्वसोयप्पमाण-कस्रोतःप्रमाण-त्रि , रसभपात अकरा पिता संयोगाः । राय० । अकारादि (वर्ण) संयोग “जिणाचं जिणसंका-साणं सव्वक्खरसशिवायाणं" स्था० ३ ठा०४ ० । अक्खरसम अक्रूरसम - न० (अक्करैः समो यत्र ) गेयस्वरभेदे, पत्र अक्षरे दीर्घे दीर्घस्वरः क्रियते, हस्ये हस्थः प्लुते प्लुतः सानुनासिके सानुनासिकस्तरसममिति, स्था अवश्वरसमास-अक्षरममास-पुं० अकाराद्द्रािणां - दिसमुदाये, कर्म० १ कर्म० । प्रक्वाइयाधिस्सिय-आख्यायिकानिधितन० अध्यापिका प्रतिबद्धे ऽसत्प्रलापे, एष नवमो मृपाजेदः । स्था० १० ठा० । अक्खाया- आख्यायिका श्रीया कल्पितक थायाम, संथा० । यथा तरङ्गवतीमन्त्रयत्रतीप्रभृतयः, बृ० १ ० । न य .9 मक्खवाया - देशी- दिगेत्यर्थे, दे० ना० १ वर्ग । अस्सल-देशी-० (अखरोट) इति प्रसिदे परे तत्फले असा प्रख्यातुम् अन्य स्थानं कर्तुमित्यर्थे दि सूर्य सच्चे क्खिमरिट" दस०० अक्खाग-आख्याक-पुं० म्लेच्छविशेषे, सुत्र० १ श्रु० अ० ॥ अक्खा मग आाखाटक- पुं० प्रेक्काकारिजनासनजूते, स्था० ४ वा० २ उ० । चतुरस्रे लोकप्रतीतेऽर्थे, स्था० ३ ० ३ ० "तेसिणं समरमणिक्षणं भूमिभागानं बहुमयदेखभाए पत्ते २ वइरामए अक्वाडए" राय० । , प्रमाणेन मात्रा परिमाणमवगाहतो यस्य स तथा । (चक्रनानिमाग) ते कोणते समय गंगास महाणतो रहपवित्रा अक्वसोयमाणमेतं जयं बज्जित " भ० ७ ० ६ उ० । अक्खा - ग्राख्यास्त्री० श्राख्यायनेऽनया । आख्या श्रङ् । वाच । श्रभिधाने, " कालो उ दक्खा, " लन्दाख्या इत्यनिधानम् । स कालः प्रतिपत्तव्यः । वृ० ३ ० । अवखाइय प्रारूपातिकन० इत्यादि आयात निष्पन्ने ) यवनेदे श्र० म० द्वि० । विशे० । धावतीत्याख्यातिकम्, क्रियाप्रधानत्वात् । श्रनु० साध्यक्रियापदे, 'यथाकरोत् करोति करिष्यति ' प्रश्नः संब० २ द्वा० अक्वाइयडाण-आख्यायिकास्थान १० स्थान चा० २ ० ११ अ० । সা Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अक्खाण अभिधानराजेन्द्रः। अक्खापारचरित्त अक्खाण-आख्यान-न० । आ-स्या, चक्किछ वा, ल्युट । मा- च ककं च, तं विजं परियाणिया" ॥१५॥ सूत्र० १ १०ए । भिमुख्येनादरेण वा स्थापनं प्रकथनमनिधानं वा । " अ- अक्खिवण-आक्षेपण-नचित्तव्यग्रतापादने,प्रभामाश्र०३० खाणं खावणाभिहाणं वा " आभिमुख्येनाऽऽदरेण वा अक्खिवि-आक्षेप्तुम-अव्य० श्रा-क्तिप्-तुमुन् । स्वीकर्तुमिप्रकथनेऽभिधाने च, विशे० । निवेदने, घ० १ अधि०।भिधाने, पञ्चा०२ विव० । आख्यानकानि धूर्ताऽऽख्यानकादी त्यर्थे, नि। नि । वृ० २ उ० । नि० चू० ॥ दा- | अक्खिविउकाम-आक्षेप्तुकाम-त्रि०स्वीकर्तुकामे, निचू०१उ०। अक्खाय-आख्यात-त्रि० श्रा-ख्या-क्तः । पूर्वतीर्थकरगण- | आक्खवयणा-दिवंदना-स्त्रीनेत्रपीमात्मके रोगनेदे, विपा० धरादिनिः प्रतिपादिते, सूत्र. १ श्रु० ३ अ । आव० । “सं | १ श्रु०४०। ति मे य ऽवे वाणा, अक्खाया मारणंति य" | उत्त०ए । अक्खीण-अक्षीण-त्रि०, नन्त शत्रुटिते, प्रौला क्वयमनुपगते, समन्तात्कथिते, उत्त० २ ०। “सुयं मे पाउसं तेणं भग- प्रशा०२६ पद । "प्रवीणा विरतज्वरा हि गृहिणः" प्रति० "ना वया एवमक्खायं"श्रा मर्यादया जीवाऽजीवल कणासंकी- मगोयस्स वा कम्मस्स अक्खीणस्स अवेश्यस्स" अक्कीणस्य र्णतारूपतयाऽनिविधिना वा समस्तवस्तुविस्तारव्यापनलंकणे- स्थितेरकयेण । कल्पा“अक्खीणव्वसारा" प्रश्न आश्र०३द्वा। न ख्यातं कथितमाख्यातमात्मादिवस्तुजातमिति गम्यते । स्था० अक्खीणपमिभोइ (ए) अलीपपरिजोगिन्-पुं० प्रवीण१ नग० । सूत्र० । दाभणिते, संथा । तिरूपे प्रत्यये, भाव एव साध्यतया लिङादिरभिधीयते न कर्ता “पूर्वापरीभूतं ना मकीणायुष्कमप्रासुकं परिभुञ्जते इत्येवं शीसा अकीणपरिभोगि. वमाख्यातमाचष्टे" इतिवचनात् । सम्म। नः। अप्रासुकपरिभोगिषु, इन्प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद्, अनपग ताहारशक्तिषु, "आजीवियसमयस्स णं अयम पमत्त अअक्खायपव्यज्जा-आख्यातपत्रज्या-स्त्री० आख्यातेन धर्मद- क्खीणपमिजोहणो सव्वसत्ता"०७ श०५०। शेनेन प्राण्यातस्य वा प्रवज्येत्यनिहितस्य गुरुभिर्या साऽख्या | अक्खीणमहाणसिय-अदीणमहानसिक-पुं० महानसमन्नतप्रवज्या । प्रवध्याभेदे, स्था०३० २० । "अखा पाकस्थानं तदाथितत्वाधान्नमपि महानसमुच्यते, ततश्चाकीण याए जंबू धम्म अक्खादिपभवस्स" पं. भा०।" अक्खायाए सुदंसणो सेट्ठी सामिणा संबोहिओ" पं० चू। पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं स्वयमतुक्तं सत् तथाविधल ब्धिविशेषादत्रुटितं,तश्च तन्महानसं च भिकालन्धं भोजनमकीअक्खि-अक्षि-० अश्नुते विषयान्, अग्-क्सि । नेत्रे, वाचा जमहानसं तदस्ति येषां ते तथा। श्री०। अकीणमहानसी नाम "अक्खिहि य णासाहि य जिम्भाई य श्रोटेहि य" विपा० १ सब्धिमुपपत्रेषु, येषामसाधारणान्तरायक्कयोपशमादस्पमात्रश्रु०२ अ०। " ते अंजिप्रक्खितिमप" नि० चू० १००। मपि पात्रपतितमन्नं गौतमादीनामिव पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि अक्खितर-अक्ष्यन्तर-न० ६ त०। नेत्ररन्ध्र, (विपा० )। दीयमानं स्वयमेवाचुक्तं न कोयते ते प्रीणमहानसाः। उक्तं "अक्खितरेसु दुवे" (नाड्यौ) विपा० १ ० १ ०।। च-"अक्खीणमहाणसिनो, निक्खं जेणाणीयं पुणो तेण । परितुत्तं चिय खिज्जर, बहुपहिं विन पुण अन्नेहि" ॥१॥ अक्खित्त-आक्षिप्त-त्रिका प्रा-क्षिप्-क्क । कृतावपे, यस्याकेपः ग०२ अधिक अक्वणमहाणसियस्स निक्वंण अनेण णि?कृतस्तस्मिन् । वाच आकृष्टे, ज्ञा० अ०१६ अा उपलोभिते, । विज्जर, तम्मि जिमिते णिहाति । प्रा०चू०१ अ०। प्रा०म०प्र०। का०१९०२ अ०। आवर्जिते, दश० ३ ० । उपम्यस्ते च, पंचा० १२ विव०। अक्खीणमहाणसी-अक्षीणमहानसी-स्त्री०सधिनेदे, येना नीतं नैकं बहुभिरपि बकसंख्यरप्यन्यैस्तृप्तितोऽपि नुक्तं न अक्खि (क्खे )त-अत्र-नान ताकेत्राभावे, "मग्गणा कीयते यावदात्मना न टुङ्क्ते किन्तु तेनैव मुक्तं निष्ठां याति, तखेत्त अक्खेत्ते" एककेत्रस्थितानां मार्गणा कर्तव्या, कस्य क्षेत्र स्याकोणमहानसी सन्धिः । प्रव० २७० द्वा०। विशे। भवति कस्य वा न भवति क्षेत्रमित्यर्थः । व्य० ४ ० । केत्रभिन्ने बहिरर्थे, " अक्खेत्तुवस्सए पुच्छमाणे दूरावलि अक्खीएमहालय-अक्षीणमहालय-पुं० लब्धिविशेषमवाय मासो" अक्षेत्र स्थितानामुपाश्रये उपाश्रयविषया मार्गणा प्लेषु, ते च यत्र परिमितभूप्रदेशेऽवतिष्टन्ते तत्रासंख्याता अपि कर्तव्या । अक्षेत्र नपाश्रयस्य मार्गणा कर्तव्येत्युक्तं तन देवास्तिर्यञ्चो मनुष्याश्च सपरिवाराः परस्परबाधारहितास्तीर्थतावदकेत्रमाह- " राहाणाणुजाण अद्धा-णसीसए कुलगणे करपर्षदीय सुखमासते इति । ग०२ अधि। चनक्के योगामाइवाणमंतर-महे य उजाणमादीसु । इंदक्कील- | अक्खीरमधु (ह) सप्पिय-अकीरमधुसर्पिष्क-पुं० न००। मणोम्गाहो जत्थराया जेहिं धपंच इमे । अमच्चपुरोहिया सेट्टी, | पुग्धवौधृतवर्जके अग्निप्रहविशेषधारके, प्रश्न संब० १ द्वा० । सेणावति सत्यवाहो य" व्य०४०। जदिसं वाघातो तं दिसं अक्खुजाणं जाव खेत्तं भवति परो अक्खेत्तं"नि० चू०१०। अक्खु-प्रकृत-त्रि. आर्षत्वापुकारः । अप्रतिहते, ध०३ अधि०। अक्खिचणियंसण-प्राप्तिनिवसन-त्रि० ३ ब० । आकृष्टप अक्खाभारचरित्त-अक्षताकारचरित्त-पुं० अक्कत आकार: रिधानवने, “ अक्खित्तणियंसणा मक्षिणडंडिखगवसणा" प्रश्न० आश्र० ३ द्वा। स्वरूपं यस्य अवताकारमतीचारैरप्रतिहतस्वरूपं चरित्रं येषां ते तथा । निरतिचारचरित्रेषु, “अट्ठारस सीखंगधरा अक्खुमाअक्खिराग-अविराग-पुं० अक्षणांरागो रजनम् । सौवीरादि पारचरिता ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण चंदामि" केजने,“प्रासूणिमक्खिरागंच, गिद्धवघायकम्मगं । उच्चगेवणं | ध०३ अधि। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) अक्खुम अभिधानराजेन्द्रः। अक्खुद्द अक्षण-अकुम-त्रि०ान० त०।अमर्दिते, नि० चू०१० उ० । निठुरपहारविहुरं, पिवासियं महियले पडियं ॥ १३ ॥ "अक्बुमेसु पहेसु पुढवी उदगंमि होह पुहो वि" ०१ उ०। तो सरबराउ सविसं, गहिरतु उप्पन्नपुत्रकारुन्नो। अक्खुद्द-भकुष-पुं० न० त०। अनुत्तानमती, ध०१ अधि० ।। तं पाश्त्ता पक्षण-प्पयाणओ कुष्ण पणत[॥१४॥ ध०र०। अकृपणे, रुपणो हौचित्येन व्यव्ययकरणाशक्तत्वान पुच्चा य भो महायस!, कोसि तुमं किं इमा प्रवत्था ते!। तत्साधनाय शासनप्रभावनाय चासमिति तद्भिन्त्रस्य प्रथमश्रा सो प्रण सुयणसिररय-ण!सुणसु सिद्ध ति जोई ॥१५॥ षकगुणवत्वम् । पंचा० ७ विव०। अरे, क्रूरेण हि परोपता बिज्जावलिएण विप-क्खजोश्णा ग्लपहारिणा अहयं । पितत्त्वाज्जनद्वेषेण कृतं तदायतनं तन्मत्सरेण जनद्वेष्यं स्या एयमबत्य नामो, तए पुणो पगुणिो सगुणो ॥ १६ ॥ दिति ( तजिन्नस्य प्रथमश्रावकगुणवत्त्वम) पंचा०२ विव०। तो सो तोसेणं गरुम-मंतर्माप्पत्तु नरवरसुयस्स। तेन निष्पादितं सर्वानन्ददायितया हितं नवति । दर्श०। सहाणं संपत्तो, कुमरो पुण श्थ नयरम्मि ॥ १७ ॥ ___ अस्य विस्तरेण प्रतिपादनम् निसि मयणगिहे खुत्थो, चिटुर जा सुट्ट अग्गिरो कुमरो। खुद्दो ति अगंजीरो, उत्ताणमई न साहए धम्म। वा तत्थेगा तरुणी, समागया पूरा मयणं ॥ १० ॥ सपरोवचारसत्तो, अक्खुद्दो तेण इह जुग्गो ॥८॥ बहिनीहरिवं जप्पा, अम्मो धणदेवया सुणह सम्म। यद्यपि क्षुद्रशब्दस्तुचक्रूरदरिकसघुप्रतिप्वर्येषु वर्तते तथा यह वासवनरवणों, सुहिया कमल सिहं इहिया ॥ १६ ॥ पीद कुछ इत्यगम्भीर उच्यते, तुच्छ ति कृत्वा स पुनरुत्तानम. मणिरहसुयस्स विकम-कुमरस्सुज्जमगुणाणुराएण। तिरनिपुणधिषण इति हेतोर्न साधयति नाराधयति धर्म, भीमवत, दिन्ना पिणा सो पुण, इपिद न नजर कहिं पि गभो ॥२०॥ तस्य सूक्ष्ममतिसाध्यत्वात्। उक्तं च-"सूक्ष्मवरूखा सविडयो, जह मह इह नउ जानो, सो भत्ता तो परत्थ वि हविज्जा। धों धर्मार्थिभिनरैः। अन्यथा धर्मबुद्धधव, तद्विघातः प्रसज्यते श्य पणिभ नवंबर, बझविझविणि जाव सा अप्पं ॥ २१ ॥ ॥१॥ गृहीत्वा ग्लानभैषज्यं, प्रदानाभिग्रहं यथा । तदप्राप्ता त मा कुणसु साहसं श्य, मणिरो छुरिया निंदिउं पासं । दन्तेऽस्य, शोकं समुपगच्चतः॥२॥ गृहीतोऽनिग्रहश्रेष्ठो, ग्ला. कमलं कमलसुकोमस-चयहिं संग्वा कुमरो ॥१२॥ नो जातोन च क्वचित् । अहो ! मे धन्यता कटं, न सिरुमभि- रत्तो तस्सुद्धिकए, जमचडगरपरिषुमो तहिं पत्तो। पाकृितम् ॥ ३॥ एवमेतत्समादान, ग्लानभावानिसन्धिमत् । वासवनिबो वि कुमरं, द हिट्ठो भणइ एवं ।। २३ ॥ साधूनां तत्वतो यत्तद् दुष्ट शेयं महात्मनिः" ॥४॥ इति, एतद्विप- तिलयपुरे अम्मेहि, गपहि मणिरहसमित्तमिलणत्यं । रीतः पुनः स्वपरोपकारकरणे शक्तः समर्थो भवतीति शेषः । तं वायत्ते दिट्ठो, दक्खिन्नसुपुनवर! कुमर ! ॥ २४॥ अकुद्रः सूक्ष्मदर्शी सुपर्यायोचितकारी तेन कारणेनेह धर्मग्रहणे निधणरत्ता एसा, पक्ष कमला कमलिणि ब्व दिणनाहे । योग्योऽधिकारी स्यात, सोमवत् । तयोः कथा चैवम् तुहदाहिणकरमेलण--वसा सुहं बहउ मह उहिया ॥२५॥ नरगणकलियं सुजर-छदं पि व कणयकूमपुरमथि । श्य महुरगहिरभणिई, पत्थिओ वासवेण नरवाणा। तत्थासि वासवो वा-सव्व विबहप्पिओ राया ॥१॥ विक्कमकुमरो कमल, परिणेह तिविकमु व्य तो ॥२६॥ कमला य कमलसेणा, सुलोयणा नाम तिनि तरुणीओ। गोसे तोसेण पुरे, पवेसियो निवश्णा सभज्जो सो। भूमीवडिआओ, दुस्सहपियविरहदुहियाओ ॥२॥ ती समं कीसंतो, चिछा निवदिन्नपासाए ।। २७॥ अनायसरुवाओ, अन्नुनं पि हु तहिं रुयंतीभो। तो किं अग्गे कमसा- जंपिए भणिय रायसेवाए। समदुरदुहिय ति ग्यिा, एगत्य गमंति दिवसाई ॥३॥ समयोति गओ खुजो, वीयदिणे कहइ पुण एवं ॥ २८ ॥ तत्थेगो सुगुणेडिं, अवामणो वामणो उ रुवेण । कश्या वि सुणिय रयणी, कलुणसदंरुयंतरमणीए । सम्म निययकवादि,रंज निवपनिइसयझपुरं ॥४॥ तस्सद्दणुसारेण य, स गओं कुमरो मसाणाम्म ॥ २५ ॥ कश्या वि निवेणुत्तो, सो जह यह विरहषुहियतरुणीओ। दिट्ठा बाहजमाविल-विलोललोयणजुया तहिं जुबई । जर रजिडिही नूणं, तो तुह नजर कलुक्करिसो॥५॥ धोवमिणं ति स भणिरो, रनोऽणुनाइ बहुवयंसजुओ। तीए पुरओ जोई, तह कुंम जलिरजलणजुयं ॥ ३०॥ । पत्तो ताणं जवणे, कहे विविहे कहामाये ॥६॥ होउं लयंतरे पढ--रपवरिसो जाव चिहए कुमरो। एगेण वयंसणं, वुत्तं किमिमाहि मित्त! वत्ताहि। . विसमसरपसरविहुरो, तो जोई भणइ तं बालं ॥ ३१॥ कि पि सुइसुहय चरियं, कहसु तओ कहा श्यरो वि ॥ ७॥ पसिय च्छिय सियसयवत्त-पत्तनयणे ममं करिय दश्य । महिमहिलानालस्थल-तिनयं व पुरं इहत्थि तिलयपुरं । चूलामणि च तं हो-सु सयलरमणीयरमणीणं ॥ ३२ ॥ तत्थ य परियमम्गण-मणोरहो मणिरहो राया ॥ ॥ सा रुयमाणी पभण, किं अप्पमणत्थयं कयत्थेसि । सुरुसुरहिसीलजियविम-लमालाई मान त्ति से दश्या । जसि हरी मयणो वा, तहा वि तुमए न मे कजं ॥ ३३॥ पुत्ता य तुवणअक्कम-विक्कमो विकमो नाम ॥ए॥ अह रुको सो जोई, बला वि जा गिएिहही करेण तयं । नियमंदिरसंनिहिए, गिडम्मि कम्मि विकया वि संजाए। ता पुकरियं तीप, हहा! अणाहा श्मा पुहवी ॥ ३४ ॥ सो सुण सवणसुहयं, केण वि एवं पढिज्जंतं ॥१०॥ जं सिरिपुरपहुजयसे-णनिवाहिया अहं कमलसेणा। नियन्त्रपमाणं गुण-वियष्ठिमा सुजगदुजणविसेसो। दिन्ना पिनणा मणिरह-निवसुयविकमकुमारस्स ॥ ३५ ॥ नजह नेगथपिए-हिं तेण निनणा नियंति महिं ॥११॥ संपर विज्जावलिओ, अहह! अखत्तं करे को वि इमो। तं मृणिय सुणिय मवगणि-य परियणं देसदसणसतएहो। श्य निसुणिय पयमियको-वविभमो भण कुमरो तं ॥३६॥ कुमरो रयणी पुरा-उ निग्गी खभावम्गकरो ॥१२॥ पुरिसो हवेसु सत्थं, करेसु समरेसु देवयं टुं। सो वञ्चंतो संतो, अग्गे मग्गे निए कं पि नरं । परमहिलमहिलसंतो, रे रे पाविट्ठ! नहोति ॥ ३७॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खुद्द अभिधानराजेन्द्रः। अक्खुद्द तो खमभलिभो जोई, भण परित्थीपसंगवारणश्रो । कुमरी पाणिग्रहणं, कारावर हतुटुमणो ॥ २॥ निवडतो नरप, साहु तए रक्तिओ कुमर!॥ ३० ॥ तं सुणिय जाणिलं निय-सुयाइ कमला पिययम हिट्ठो । सवयारभो ति दाळ, स्वपरावित्तिकारिणि विज्जं । पासवराया कारक्ष, महसवं सव्वनयरम्मि ॥ ६३॥ पत्रणा जोगी मन्ने, गुरुविकमसाहसगुणेहिं ॥ ३५ ॥ तत्तो मंतिगिहाओ, नीश्रो नियमंदिरे विनईए । तुह पर श्मीर दिछी, वलणणं तंसि विकमकुमारो। सो सम्वपियाहि जुओ, सुहेण चि सुरु व्य तर्हि ॥ ६४॥ श्यरो वि साहरु अहो, तुहिंगियागारकुसलत्तं ॥४०॥ कश्या वि जणयलेहेण पेरिमो पुछि ससुररायं । तो जोगि परिथमो. तं, बासं परिणितु तं विसजेउं । चाहि वि प्रजाहि समं, कुमरो पत्तो तिमयनयरे ॥ ६५ ॥ सीए जुओ कुमारो, नियभवणुज्जाणमणुपत्तो ॥४१॥ पणो य जणणिजणए, इत्तो उज्जाणपाझपण निवो। ता किं जायं तस्समा-मो त्ति पुटुम्मि कमलसेणाए । विनत्तो सिरित्रक-कसूरित्रागमणकरणेण ॥६६॥ पोखग्गाए वेसत्ति, जंपिउं निग्गओ खुज्जो ॥४॥ तो जासुरभूराजुओ, स कुमारो मारसासणु व्व निवो । अथ तश्यवासरम्मि, प्रागंतुं कहर तत्थ पुण एवं । चनिओ गुरुनमणत्थं, रायपहे नियइ नरमेगं ।। ६७ ॥ कुमरो जावुजाणो, कील सह कमलसेणाए ॥४३॥ अश्सलवलंतकिमिबहु--सजानमचिन्नमच्चियाच्यन्नं । परकजसज्ज! मह कज्ज-मज्ज कुणसु त्ति तावतं को। । निक्किठकुटुसद्विर-सिरहरमश्दीणहीणसरं ॥ ६८॥ माह कुमारो वित्रणा, करेमि जीवियफझं एवं ॥४४॥ तं दहमणिमरिठ-मंमलम्मि व विसायमलिणमुहो । तयणु विमाणारूढो, कुमरो वेयक्लिकणयपुरपहुणो। पत्तो गुरुवपासे, नमिउं निसुणेइ धम्मकहं ॥ ६॥ विजयनिवस्स समीबे, नीनो सो तेण श्य भणिभो ॥४५॥ जीवो प्रणाइतणुक-म्मबंधसंजोगो सया पुहिओ। कुमार! मह अस्थि सतु, भदिसपुरसामिधूमकेसनियो । भम मणाश्वणस्स-मज्झगो शंतपरियट्टे ॥ ७० ॥ तं अक्कमि पारा-हिया कुत्रदेवयाइ मए ॥४६ ॥ तो वायरेसु तत्तो, तसत्तणं कह वि पावए जीवो। तग्विजयक्खमो तं, कुमर! पणिो गिएहता श्मा विज्जा । बहुकम्मो य तो जर, पाव पंचिदियत्तं च ॥ ७१ ॥ पागासगामिणीमा-यास तह चेव सो कुण ॥ ७॥ पुनविहणो य तो, न अजखित्ते बहेश मण्यत्तं । भह साहियबहुविजं, हयगयघडसुहम्कोप्रिमियं । लके वि अज्जसित्ते, न कुलं जाई बलं स्वं ॥ ७२ ॥ कुमरं तं निसुणिय, संखुदो धूमकेचनियो ॥ ४ ॥ एयं पिकवि पावर, अप्पा वा हविज्ज वाहिल्लो । अन्तुच्चलच्छिविय-मंमियं कि गो रजं । दीहाटो निरोगो हविज्ज जर पुत्रजोएण ॥ ७३ ॥ तं गहिय महियसत्तु, पत्तो कुमरो वि सहाणं ॥४॥ पत्ते नीरोगत्ते, दंसणनाणस्स आवरणो य ।। हरिसुक्करिसपरेणं, रन्ना वि सुलोषणं निययधूयं । न य पाव जिणधम्म, विवेयपरिवज्जिो जीयो ॥ ४ ॥ परिणाविप्रो कुमारो, चिटुर तत्थेव का वि दिणे ॥५०॥ लद्धण वि जिणधम्म, दंसणमोहणियकम्मउदएणं । दटुं पुव्वपियाओ, कया वि कुमरो सुलोयणासहियो। संकाश्कलुसियमणो, गुरुवयणं नेव सहहः ॥ ७५ ॥ इत्येव पुणो नयरे, नियभवणुज्जाणमोनो ॥ ५५ ॥ अह निम्मलसंमत्तो, जहाठियं सहहेश गुरुवयणं । सो कत्थ गो त्ति सुलो-यणाइ पुरुम्मि घामणो हसिरो। नाणावरणस्सुदए, संसिज्जं तं न बुझेश ॥ ७६ ॥ नो तुम्हे विव अम्हे, खणिया श्य वुनु नीहरिओ ॥ ५२॥ कह संसियं पि वुज्झइ, सयं पि सहहरु वोहए अनं । नियनियचरियसवणमओ, नियनियतणुनिउणफुरणो ताहि। चारित्तमोहदोसण, संजमं न य सयं कुणः ॥ ७७ ॥ कयरुवपरावत्तो, नियभत्ता तक्कियो खुज्जो ॥ ५३॥ खोणे चरित्तमोहे, विमलतवं संजमं च जो कुणः । अह रायपहे खुज्जो, गच्छतो सुणिय कम्मि विगिहम्मि। सो पावइ मुत्तिसुहं श्य भणियं वीणरागाह ॥ ७० ॥ करुणसरं तो कं पि, पुच्छर रोइज्जए किमिह ? ॥ ५४॥ चुलगपासगधन्ने, जुए रयणे य सुमिणचक्के य । सो जणइ तिलयमंति-स्स पुत्तिया सरसइत्ति नामेण । चम्मजुगे परमाणू , दस दिटुंता सुयपसिका ॥ ॥ भवणावरि कीलंती, मक्का कसिणेण उरगेण ॥ ५५॥ एपदि इमं सवं, मणुयत्ताई कमेण पुखम्नं । चत्ता नरिंदविंदा-रपाई तो ती मायपियसयणा । ल९ करेह सहलं, काऊण जिणिंदवरधम्मं ॥२०॥ उम्मुक्तकंठमुकं-वज्जिया श्य रुयंति बहुं ॥५६॥ अह समए भणह नियो, भयवं किं दुकय कयं तेण? । तं सोउ भणर खुज्जो, गच्छामो भद्द मंतिगेहम्मि । उक्विटुकुट्टिपणं, तो इह जंपेइ मुनिनाहो ॥१॥ पिच्छामि तयं बालं, अहमवि उजेमि तद किंपि ॥ ५७॥ मणिसुंदरमंदिररे-हिरम्मि मणिमंदिरम्मि नयरम्मि । इय वुल्तु मंतिनवण-म्मि बामणो तयणु तेण सह पत्तो । दो सोमभीमनामा, कुलपुत्ता निच्चमवित्ता ॥ २ ॥ पडणेश पोढमंत-प्पभावो कत्ति तं वासं ॥ ५८ ॥ पढमो गुत्ताणमई, अक्खुद्दो भदओ विणीओ य । नियविन्नाणं व तुम, सरुवमविदंससु त्ति सचिवेण । तबिवरीओ बीओ, परपेसणजीविणो दो वि ॥८३॥ सो पत्थिओ खणेणं, नव्व जाओ सहावत्थो ॥ ५५ ॥ अन्नदिणे दिनमणिकिरणभासुरं सुरगिरि व उतुंगे। तस्स पहाणं रूवं, दळं अशविम्हिो तिलयमंत।। कत्थ वि वच्चं तेहि, तेहिं जिणमंदिरं दिटुं ॥ ४ ॥ आ चिट्ठाता पढियं, मागहविदेण पयममिमं ॥ ६॥ सुहममा सोमो नणद, भीम ! सुकय कयं न कि पि पुरा । मणिरहनिवकुलससहर!.हरहारकरेणुधवनजसप्पसर!। अम्हेहि तेण नृणं, परपेसत्तणमिणं पत्तं ॥ ५ ॥ पसरियतिहुयणविकम!, विक्कमवर! कुमर! जय सुचिरं॥६॥ जंतुले वि नरत्ते, एगे पहुणो पयाइणो अन्ने। तो मंती वरकुलरू-बविक्कम विक्रम निएऊण । । तं सुकयदुक्यफलं, अकारणं हवाइ किं कजं ॥८६॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) अक्खुद्द अनिधानराजेन्द्रः। अंक्खोवंजण तो पणमामो देव, देमो य जलजाल दुहसयाणं । अक्खेवणी-आकेपणी-स्त्री० आक्तिप्यते मोहात्तत्वं प्रत्याकृष्यउत्ताणमई बाया-सभावओ भण अह भामो ॥ ७॥ ते श्रोताऽनयेत्याकेपणी, कथाभेदे, सा चतुर्विधा--" अक्खेवणी न य अस्थि नुयपंचगपवं-चअहिओ जिउ च्चिय जयम्मि । कहा चनविहा पामत्ता,तं जहा-अायारक्खेवणी ववहारक्खेवहे सोम! वोमकुसुमं, व तयणु देवाइणो किहणु ॥ ७ ॥ णी पसत्तिक्खेवणी दिट्ठिवायक्खवणी" स्था०४ ग०। पासंमितुंडमरचंड-तंझवाझबरेहि किं मुरू!। देवो देवु त्ति मुहा-कयत्यसे अप्पमप्पमई ॥८६॥ आयारे बवहारे, पन्नत्ती चेव दिहिवाए य । श्य वारिओ वि तेणं, सोमो सोमु व्व सुरुमाजुण्डो । एसा चनविहा खबु, कहा उ अक्खेवणी होइ ।२००। गंतुं जिणभवणे भुव-ण बंधवं नम समियतमो ॥१०॥ आचारो लोचास्नानादिः, व्यवहारः कथंचिदापनदोषन्यपोहागहिलं रुवगकुसुमे, पुए जिणं पराश्नत्तीए । य प्रायश्चित्तलकण, प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापनस्य मधुरवचनैः तप्पुएणवसा अज्जर, स वोहिवीयं नराउजुयं ॥ ११॥ प्रज्ञापना, दृष्टिवादश्च श्रोत्रापेक्कया सूक्ष्मजीवादिनाचकथनम्। मरिउं स एस सोमो, जाओ मणिरहनरिंद ! तुह पुत्तो। अन्ये त्वनिदधति-प्राचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, प्राचारापमिपुनपुनसारो, मारो श्व विक्कमकुमारो ॥१२॥ यभिधानादिति। एषाऽनन्तरोदिता चतुर्विधा ।खबुशब्दो विशेनीमो उण खुद्दमई, जिणानिंदणपरायणो मरिचं । षणार्थः। श्रोत्रापेकयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेत कथा जाओ एसो कुछी, पुरो जमिहि नवमणतं च ।। ६३॥ त्वाकेपणी भवति । तुरेवकारार्थः । कथैव प्रापकेनोच्यमाना अह जायजाइसरणो, कुमरो हरिसुखसंतरोमंचो। नान्येन । आक्विप्यन्ते मोहात्तत्वं प्रत्यनया भव्यप्रार्णात्याक्केपनमिलं गुरुपयकमलं, गिएड गिहिधम्ममरम्मं ॥४॥ णी भवतीति गाथार्थः । इदानीमस्या रसमाहमणिरहनियो वि विक्कम-कुमरे संकमियरज्जपब्भारो। विजा चरणं च तवो, य पुरिसकारो य समिश्गुत्तीओ। गहियवो उप्पामिय, केवलनाणो गो सिस्॥ि१५॥ जिणमंदिरजिणपमिमा-जिणरहजत्ताकरावणुज्जुत्तो। नवइस्सइ खलु जहियं, कहाइ अक्खेवणीइरसो।२०१। मुणिजणसेवणसत्तो, दढसंमत्तो विमलचित्तो ।। ६६ ॥ विद्या ज्ञानमत्यन्तोपकारि भावतमोभेदकं, चरणं चारित्रंससंपुग्नकलो पमिपु-मंगलो हणियदुरियतमपसरो । मप्रविरतिरूपम्, तपोऽनशनादि, पुरुषकारश्च कर्मशत्रून् प्रति विक्कमराया राज-व्व कुवलयं कुण सुहकलियं ।। ६७॥ स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः, समितिगुप्तयः पूर्वोक्ता एव । एतदुपदि. अन्नम्मि दिणे निवई, नियपुत्तनिहित्सगरुयरज्जधुरो । श्यते खलु श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते । एवं यत्र कअकलंकसूरिपासे, पन्नज्ज संपवज्जेह ॥ ६ ॥ चिदसावुपदेशः कथाया आक्षेपण्या रसो निष्यन्दः सार अक्खुद्दो गंजीरो, सुहुममई सुयमहिज्जिलं बहुयं । इति गाथार्थः । दश नि० ३ अध० । गा औ० । हा० (इयं विहिणा मरि पत्तो, दिवम्मि नहिही कमेण सिवं ॥ ९६ ॥ कस्मै कथयितव्येति 'धम्मकहा' शब्द) श्रुत्वेति गंभीरगुणस्य वैभवं, अक्खेवि ( ण )-प्रापिन्-त्रि आक्षिपन्ति वशीकरणामहान्तमुत्तानमतेश्च वै भवं । दिना ये ते ततो मुष्णन्ति ते आक्षेपिणः ( वशीकरणादिना श्रसाधनाः श्रारुजनाः समाहिता | परद्रव्यमुषु) प्रश्न आश्र० ३ द्वा०।। भकुद्रतां धत्त सदा समाहिताः ॥ १०० ॥ध० २० अक्खोम-कृष्-धा० असेः कोशात्कर्षणे, "असावक्खोडः" अक्खपूरि-अक्षपुरि-स्त्री० नगरीभेदे, यत्न सूर्यप्रभो ग्रहपतिः, ८।४।१८७ । इति सूत्रेण असिविषयस्य कृषेरक्खोडादेशः। श्रसूरश्रीस्तस्य जाऱ्या, तस्याः सूरप्रभाद्या दारिकाः सूर्य्यस्य अ. खोडइ। असिंकोशात्कर्षतीत्यर्थः । प्रा। ग्रमहिषीत्वेन जाताः । शा०२ श्रु०। अकोट (म)-पुं० प्रा+अत-प्रोट-मोड-शैलपालुवृत्ते, अक्खेव-आक्षेप-पुं० श्रावेपणमाकेपः, आशङ्कायाम्, आ० म० | 'अखरोट्' इतिलोके प्रसिद्धः। वाचः । तत्फले, न० । ६० । पूर्वपक्के, विशे० । श्रा-क्विप , विप प्रेरणे मर्यादोपदि मयादापदिप्रज्ञा०१७ पद। टमर्थमाक्तिपति न सम्यगेतदिति । किमाक्विपति ?, आह-द्वि ता, आह-द्वि-अक्खोमभंग-अकोटजङ्ग-पुं० खोटभङ्गशब्दार्थे, “खोटभंगो विधमेव सूत्रम् । यत्संकेपकं, यद्वा विस्तारकं । संपकं सामा त्ति वा उक्कोडभंगो त्ति वा अक्खोडभंगोत्ति वा एगटुं" यिकम, विस्तारकं चतुर्दशपूर्वाणि । एवमेष नमस्कारः। नापि व्य०१०। नि० चू० । । संक्केपेणोपदिष्टः, नापि विस्तरतः। एतावती व परिकल्पना तृतीया नास्ति । “नमो सिसाण ति णिवुया गढ़िया णमो साहणं ति अक्खोन-अक्लोन-त्रिशनबक्षोभवर्जिते, "अक्खोभे सासंसारत्था गहिया एवं संखेवो वित्थरो, णमो अरहंताणं णमो गरो ब्व थिमिए" प्रश्न सम्ब०५ द्वा० रामचलितस्वरूपे, सिकाणं णमो पायरियाणं णमो चोद्दसपुवीणं २ जाव णमो "पत्थुस्सग्गो अक्खोभो होह जिणाचिमो" पंचा०४ विव०। आयतरगाणं णमो आमोसहिपत्ताणं एवमादि एत्यंतरे णं काय "अक्खोहस्स भगवो संघसमुदस्स" अक्षोभ्यस्य परी व्यो जेण ण कीरति तेण उट्ठत्ति अक्खेवदारं"। आ चू०१०। षहोपसर्गसंभवेऽपि निष्पकम्पस्य, नं० । अन्धकवृष्णेर्धरि"अक्खेवो सुत्तदोसा पुच्छावा" आकेपो नाम यत्सूत्रदोषा उच्य गयां जाते पुत्रे, स च द्वारावत्यां नगर्यामन्धकवृष्णेर्धरिएयां म्ते, पृच्चा वा क्रियते, वृ०१० परद्रव्याक्षेपस्वरूपे एकोन देव्यामुत्पन्नोऽरिष्टनेमेरम्तिके प्रवजितः शत्रुअये संलेखनां विंशतितमे गौणचौर्य, प्रश्न० आश्र० ३ द्वा । भर्त्सने, अपवादे, कृत्वा सिद्ध इत्यन्तकृदशासु सूचितम् । तद्वक्तव्यताप्रतिआकर्षणे, धनादिन्यासरूपे निक्केपे, अर्थाबकारनेदे, निवेशने, बद्धेऽन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य सप्तमेऽध्ययने च । लपस्थाने, अनुमाने, यथा जातिशक्तिवादिनामापात् व्यक्ते अन्त० १ वर्ग० । स्था० । बोधः। सतिरस्कारवचने च, वाच०। अक्खोवंजण-अतोपाजन-न० शकटधूम्रक्षणे, " अक्खोवं Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) अक्खोवंजण अभिधानराजेन्द्रः। अगडदत्त जणवणाणुलेवणभूयं " अक्षोपाजनवणानुलेपनभूतम् ( आ| अथवा चलस्थिरत्वापेक्वया ते झेया इति । स्था०२ ग०२ उ०। हारम) अक्षोपाञ्जनं च शकटधूम्रक्षणं, व्रणानुलेपनं च शतस्यौपधेन विलेपनम्, अक्षोपाञ्जनवणानुलेपने, ते इव विवत्ति. अगंठिम-अग्रन्थिम-न० कदलीफलेषु, खाएमाखामीकृतेषु वा तार्थसिद्धिरसादिनिरभिष्वङ्गतासाधाद्यः सोऽक्षोपाञ्जन फलेषु, वृ० १०० । अध्यकल्पे, " सक्करघययगुलमीसा खजू. प्रणानुलेपनभूतस्तम, क्रियाविशेषणं वा । भ०७ श०१ उ० । रअगंग्मिा वत्तम्मि"अगंविमा णाम कयनया अम्मे भमति मर. अखंड-अखएक-त्रि० । न० ब० । पौर्णमासीचन्द्रबिम्बवत् हाविसप फलाण कयलंकप्पमाणाश्रो पिमीओ पकम्मि मासे (स्था०५ ठा०१ उ०) संपूर्णावयवे, प्रा०म०द्विशतक शास बहुक्किी भवंताणि फलाणि खंमाखमाणि कयाणि घेप्पंति । धर्मास्तिकायादिकं संपूर्ण देशदैशिककल्पनारहितमखण्डं नि० चू० १६ उ०। वस्तु।विशेा 'सुहगुरुजोगो तव्वय-णसेवणा आभवमखंडा' अगंडिगेहो-देशी-यौवनोन्मत्ते, दे० ना० १ वर्ग । पाभवमखएडा आजन्माऽऽसंसारं वा । ल । पश्चा०। "सं- | अगंडूयग-अकण्ड्य क-पुं० कण्डूयनाकारकेऽभिग्रहविशेष. घनगरभदंते अक्खंडचरित्तपागारा" अखण्डमविराधितं धारके, सूत्र. २ श्रु० २ अ०। चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथा। नं० । अखंमणाणरज्ज-अखएमझानराज्य-त्रि0 अचूर्णितज्ञान अगंध-अग्रन्थ-पुं० न विद्यते प्रन्यः सबाह्याज्यन्तरोऽस्ये त्यग्रन्थः । निर्ग्रन्थे, " पावं कम्मं अकुब्वमाणे एस महं राज्ये, “चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम् । अखएड अगंथे वियाहिए" प्राचा० १७०० अ०३० । ज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम्"। अष्ट०१७ अष्ट। अखंमदंत-अखएमदन्त-त्रि० प्रखण्डाः सकला दन्ता येषां अगंध-अगन्ध-त्रि० नमः कुत्सार्थत्वाद-प्रतीव दुर्गन्धे, ते अखण्डदन्ताः (जी० ३ प्रति० ) परिपूर्णदशनेषु, जं०२ वृ० १०। वक्ष०ा औ०। अगंधण-अगन्धन-पुं० नागजातिन्नेदे, नागानां भेदद्वयम् गन्धअखंडिय-भखरिमत-त्रि० परिपूर्णे, पंचा० १८ विव०। । नोऽगन्धनश्च । तत्र अगन्धना नागा मौराकृष्टाः "अवि मरणमअखंमियसील-अखणिकतशील-त्रि० अजनचारित्रे, पं० चून ज्वस्संति ण य बंतमापिवंति"। "नेच्छांति वंतयं नो कुले जाया अगंधणे" दश० २ अ०। अखिल-अखिल-त्रि० न खिल्यते न कणश आदीयते, खिलकान० त० । वाच । समस्ते, अष्ट. ८ अष्ट० । " अखिले अगच्छमान-अगच्छत-त्रि०ान गच्छत् न० त० पैशाच्या अगि अणिए य चारी" अखिल्लो ज्ञानदर्शनचारित्रैः संपूर्णः । न णत्वम् । अचमात, ग्रा० । सूत्र. १ श्रु०७ अ० । “अखिलगुणाधिकसयो-गसारसग्रह्म- । अगड-अकृत-पुं० प्रकृते, “सम्गामे मा वीसुं, वसेज्ज अगमे यागपरः"। षो०६ विव०। असुले से" च्य०६ उ01 गर्ते, वृ०३ उ०। अखिनसंपया-अखिलसंपद-स्त्री० सर्वसंपत्ती, "प्राधीनां परमौषध-मव्याहतमखिलसंपदां बीजम्" षो० १५ विव०।। अगमतम-अवटतट-पुं० कूपतटे, विशे०। अखेद-अखेद-पुं० अन्याकुलतायाम, “अखेदो देवकार्यादा अगमदत्त-अगमदत्त-पं० शबपुरे सुन्दरनृपस्य सुलसायां वन्यत्राद्वेष एव च" द्वा० २० द्वा० । जातेगडदत्ते पुत्रे, अथ तत्कथा लिख्यते-शपुरे सुन्दरनृपः । अखेम-अक्केम-त्रि० सोपवे मार्ग, तद्वत् क्रोधाद्युपलवसहिते तस्य सुलसा प्रिया । तत्सुतोऽगमदत्तः। स च सप्त व्यसनानि पुरुषजाते च । स्थापग००। सेवते स्म । सोकानां गृहेष्वप्यन्यायं करोति स्म । लोकैस्तअखेमरूव-अक्केमरूप-पुं० आकारेण सोपद्रवे मार्गे, तहत पसम्भा राझे दत्ताः । राक्षा स निर्वासितो गतो वाराणस्यां व्यलिङ्गवर्जिते, स्था० ४ ग०२०। पवनचण्डोपाध्यायगृहे स्थितः। द्विसप्ततिकलावान् जातः । गृहोद्याने कलाभ्यासं कुर्वन् प्रत्यासनगृहगवावस्थया प्रधाअखेयएण-अखेदक-त्रि० अनिपुणे, सूत्र०१ ध्रु०१० अ० । नधेष्ठिसुतया मदनमञ्ज- तद्रूपमोहितया च तया प्रक्तिप्तः अकुशले, आचा०१ श्रु०२ १०३ उ०। पुष्पस्तवकः। सञ्जातप्रीतिस्तन्मय एष जासः। अन्यदा तुरगाअग-अग-पुं० न गच्चतीत्यगः । वृक्के, आ०म०वि०नि०चून रूढःस नगरमध्ये गवन्नस्ति स्म । तावता ईशो लोके कोलाहसः विशे०। पर्वते, कल्पका गमनाकर्तरि शूखादौ, त्रि०ान गच्छति भुतः, यथा-" किंवलिउ व्य समुद्दो, किंवा जमिश्रो हुआसणो वक्रगत्या पश्चिममित्यगः । सुर्ये, तस्य हिं वक्रगत्यभावः ज्यो- धीरो। किं पत्ता रिउसेणा, तमिदंमोनिवमिश्रो किंवा?॥१॥ मं. तिषप्रसिद्धः। वाच०। ण वि परिचत्तो, मारंतो सुमिगोयरं पत्तो। सघडं मुहं चलंत अगअ-असुर-पुं० "गौणादयः" । ७।२७४। इति सूत्रेण अ- कालु ब्व प्रकारणे कुको"॥२॥ तावता तेन कुमारेण अश्व सुरशब्दस्य 'अगत्र' इति निपातः । दैत्ये, प्रा०। मुक्त्वा स हस्ती गजमदनषिद्यया दान्तः पश्चात्तमारुह्य राजकुअगइसमावएण-अगतिसमापन-पुं० प्रगति नरकादि गच्च लासनमायातो राज्ञा हए आकारितो मानपूर्वम् । कुमारेण तं गजमाझानस्तम्भ बदुवा राज्ञः प्रणामः कृतः। राज्ञा चिन्तितम्ति। नैरयिकादी, कश्चिमहापुरुषोऽयम् , यतोऽत्यन्तविनीतो दृश्यते । यत:-"सा. सुविहा रइया पएणता तं जहा-असमावनगा चेव ली भरेण तोये-ण जलहरा फलनरेण तसिहरा । विणपण य अगइसमावन्नगा चेव जाव वेमाणिया । सप्पुरिसा, ममंति नदु कस्स भएण" ॥ ततो विनयरजितेन गतिदएमके गतिसमापनका नरकं गच्छन्तः, श्तरे तु तत्र येगा| राका तस्य कुलादिकं पृष्टम, कियान् कलान्यासः कृतः? इत्यपि ता। अथवा गतिसमापन्ना नारकत्वं प्राप्ताः,श्तरे तुमच्यनारकाम, पृष्टम् । कुमारस्तु सज्जासत्वेन न किञ्चिज्जगौ। उपाध्यायेन तस्प Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) अगमदत्त . अनिधानराजेन्डः। अगडदत्त कुलादिकं सर्वविद्यानैपुण्यं च कथितम् । कुमारवृत्तान्तं श्रुत्वा दोषाः प्रायो निरूपिताः.." माया अलियं सोमो, मूढतं साहस चमत्कृतो नूपतिः। अथ तस्मिन्नेवावसरे राक्षः पुरो नगरलोकः | असोयत्तं । निसत्तिया तह चिय, महिलाण सहावया दोसा" प्राभृतं मुक्त्वा एवमूविवान्-हे देव! त्वन्नगरं कुबेरसदृशं किय- एतस्यास्तु तथाविधचौरभगिन्या विश्वासो नैव कार्य इति हिमानियावदासीत् साम्प्रतं घोरपुरतुल्यमस्ति । केनापि तस्करे| विचिन्त्य कुमारः शय्यां मुक्त्वाऽन्यत्र गृहकोणे स्थितः । सा ण निरन्तरं मुष्यते, अतस्त्वं रक्षां कुरु। राज्ञातसारका प्राकारिता बाहर्गत्वा यन्त्रप्रयोगेण शय्योपरि शिलां मुमोच। तया शय्या चूभृशं वचोजिस्तर्जिताः तैरुक्तम्-महाराज!किं क्रियते, कोऽपि प्र. र्णिता । ततः कुमारेण सा सद्यः साक्रोश केशेषु धृता रामः सचएमस्तस्करोऽस्ति, बहुपक्रमेऽपि न दृश्यते। ततःकुमारेणोक्तम्- मीपमानीता। प्रोक्तः सर्वोऽपि वृत्तान्तःाराका सदमिगृहात राजन् ! अहं सप्तदिनमध्ये तस्करकर्षणं चेन्नकरोमिततोऽग्निप्रवेशं समस्तं वित्तमानाय्य लोकेन्यो दत्तम् । कुमारेण सा जीवन्ती करिष्यामीति प्रतिज्ञा कृता । राज्ञातुपुरोकप्राभृतं कुमाराय दत्त । मोचिता । पश्चान्नृपाग्रहात् कुमारेण नृपसुता कमलसेनानाम्नी म् । कुमारस्तत उत्थाय चौरस्थानानि विचारयति स्म। "वसाणं परिणीता । नृपेण कुमाराय सहस्रं प्रामा दत्ताः, शतं गजा मंदिरेसु, पाणागारेसु जूयाणेसु। कुल्लूरियठाणेसु अ, उज्जाण- दत्ताः, दश सहस्राण्यश्वा दत्ताः,लकं पदातयो दत्ताः। ततःसु. निवाणसालासु ॥ १॥ मनसुन्नदेवलेसु य, चच्चरचनहहसुन्न- खेन कुमारस्तत्र तिष्ठति स्म । अन्यदा कलान्याससमये यया श्रेसालासु।एपसु ठाणेसु जओ पाएणं तकरोहोर" ॥२॥ एवं चौर ष्ठिसुतया सह प्रीतिर्जाताऽऽसीत्तया मदनमञ्ज- कुमारसमीपे स्थानानि पश्यतः कुमारस्य षम् दिनानि गतानि । पश्चात्सप्तमदिने दूती प्रेषिता । तया उक्तम्-तव गुणानुरक्ता तवैवेयं पत्नी नवितुं नगरादहिर्गस्वाधः स्थितः चिन्तयति स्म-"विज्जड सीसं अह वाञ्छति । कुमारेणाप्युक्तम्-यदाऽहं शखपुरं यास्यामि तदा हो-उबंधणं चयन सञ्चहा बच्छी। पडियन्नपालणेसु पु-रिसाणं स्वां गृहीत्वा यास्यामीति तस्यै त्वया वक्तव्यम् । अथान्यदा जं होड तं होल" ॥१॥ एवं चिन्तयन्नसौ कुमार इतस्ततो तत्र पित्रा प्रेषिता नराः कुमाराकारणाय समेताः । कुमारस्तु तेषां दिगवलोकनं करोति स्म । तस्मिन्नवसरे एकः परिहितधातुवस्त्रो वचनमाकर्य पितुर्मिलनाय नृशमुत्कण्ठितः श्वशुरं पृष्ट्वा कममुहिमतशिर कूर्चस्त्रिदरामधारी चामरहस्तः किमपि बुरबुर बसेनया समं चलितः। चलनसमयेच मदनमञ्जरी आकारिता। इति शब्दं मुखेन कुर्वाणः परिव्राजकस्तत्रायातः । कुमारेण दृष्ट- साऽपि कुमारेण समं चलिता। ताभ्यां प्रियाभ्यां सह सैन्यवृतः श्चिन्तितश्च-अयमवश्यं चौरः, यतोऽस्य लकणानीदृशानि कुमारः पथि चलन बहून भिल्लान् संमुखमापततो ददर्श । सन्ति-- “ करिसुएमाढयदएमो, विसालवच्छत्थो पुरुस तदा कुमारसैन्येन तैः समं युकं कृतम् नग्नं कुमारसैन्यं भिलैर्मुवेसो । नवजुम्वणो रद्दो, रत्तच्छा दोहजधो य" ॥१॥ एवं चि. एितमितस्ततोगतम् । निवपतिस्तु कुमाररथे समायातः। उत्पन्तयतः कुमारस्य तेन कथितम्-अहो सत्पुरुष ! कस्त्वमाया नबुझिना कुमारेण स्वपत्नी रथाग्रभागे निवेशिता। तस्या रूपेण तः,केन कारणेन पृथिव्यां भ्रमसि? | कुमारेण भणितम-उज- मोहडतो भिलपतिः कमारेण हतः। पतिते च तस्मिन् सर्वेऽपि यनीतोऽहमत्रायातः दारिष्यभग्नो भ्रमामि । परिव्राजक उवाच जिल्ला नष्टाः । कुमारस्तु तेनैव एकेन रथेन गच्छन्नग्रे महपुत्र! त्वं मा खेदं कुरु, अद्य तव दारिश्चंछिननि, समीहितमर्थ तः सार्थस्य मिलितः।सार्थोऽपि सनाथ श्व मार्गे चलति स्म। ददामि । ततो दिवसं यावता तत्रस्थितौ । रात्रौ कुमारसहितश्चौ. कियन्मार्ग गत्वा सार्थिकैः कुमाराय एवमुक्तम्-कुमार!श्तःप्र. र कस्यचिदिन्यस्य गृहे गतः। तत्र खात्रं दत्तवान् । तत्र स्वयं ध्वरमार्गे भयं वर्तते, ततःप्रध्वरमार्ग विहाय अपरेण मार्गेण गम्यप्रविष्टः। कुमारस्तु बहिः स्थितः। परित्राजकेन अव्यन्नृताः पेटि- ते। कुमारेणोक्तम्-किंजयम् ते कथयन्ति स्म-अस्मिन् प्रध्वरकास्ततो बहिष्कर्षिताः। ताः खात्रमुख कुमारसमीपे मुक्त्वा स्व- मार्गे महत्यटवी समेष्यति, तस्या मध्ये महानेकश्चौरो उर्योधनयमन्यत्र कचिमत्वा दारिन्द्यनग्नाः पुरुषा अनेके आनीताः। तेषां नामा वर्तते, द्वितीयस्तु गर्जारवं कुर्वन् विषमो गजो वर्तते। तृशिरसि ताः पेटिका दत्त्वा कुमारेण समं स्वयं बहिर्गतः। स ता- | तीयो दृष्टिविषसो वर्तते । चतुर्थो दारुणोव्याघ्रो वर्तते।एवं चपसः कुमारं प्रत्येवमुवाच-कुमार!कणमात्र बहिस्तिष्ठामः, निद्रा- त्वारि भयानि तत्र वर्तन्ते। कुमारः प्राह-एतेषां मध्ये नैकस्यापि सुखमनुनवामः। परिवाजकेनेत्युक्ते सर्वेऽपि पुरुषास्तत्रसुप्ताः,कप- भयं कुरुत । चलत सत्वरं मागें । कुशलेनैव शपुरे यास्यामः । टनिध्या परिवाजकोऽपि सुप्तः ।कुमारोप नो तादृशानां विश्वा ततः सर्वेऽपि तस्मिन्नेवाध्वनि चश्रिताः । अग्रे गच्चतां तेषां दुर्योसः कार्य इति कपटनिद्रयैव सुप्तः । तावता स परिव्राजक उत्थाय धनश्चौरस्त्रिदएमभाग मिलितः। सोऽपि पान्थोऽहं शपुरे समेतान् सर्वान् कङ्कपच्या मारयामास । यावत् कुमारसमीपे समा ज्यामीति घदन सार्थेन साऊँ चलति स्म । मार्गे चैकः सन्निवेशः याति स्म तावत् कुमार उत्थाय तं खड्ड्रेनजङ्घाद्वये जघान । चिन्ने समायातः। तदा विदपिकना उक्तम्-मम उपलक्वितोऽयं सनिवेजङ्घाद्वये स तत्रैव पतितः कुमारं प्रत्येवमुवाच-वत्स! अहं तुज शो वर्त्तते। तेनात्र गत्वा मया दध्यादि प्रानीयते, यदि भवद्भ्यो झनामा चौराममेह श्मशाने पातालगृहमस्ति । तत्रवीरपत्नीना- रुचिः स्यात् । सार्थिकैरुक्तम्-आनीयताम् । ततस्तेन तदन्तर्गत्वा नी मम भगिन्यस्ति । अत्र वटपादपस्य मूले गत्वा तस्याः समीपे आनीतं दध्यादि विषमिश्रितं कृत्वा सर्व पायिताः। ततो मृताः शब्दं कुरु। यथा सा शूमिगृहद्वारमुद्घाटयति त्वाञ्च स्वस्वामि- सर्वे सार्थिकाः। अगडदत्तेन नार्याद्वययुतेन न पीतमिति न मृतः नं करोति । सङ्केतदानार्थ मत्खङ्गं गृहाणेत्युक्ते कुमारस्ततखड्गं सः । त्रिदएमी पुनः सनिवेशमध्ये गत्वा कियत्परिवारयुतो गृहीत्वा तत्र गतः। स तु तत्रैव मृतः। कुमारेण सा शब्दिताऽऽ. गृहीतशस्त्रः कुमारमारणायाऽऽयातः । कुमारेण खड्नं गृहीत्वा गता द्वारमुद्घाटयामास । कुमारेण भ्रातुः खई दर्शयित्वा स्व- समुखं गत्वा घोरसंग्रामकरणेन स हतः। परिवारस्तु नष्टः । रूपमुक्तम् । तस्या अन्तः खेदो जातः परं न मुखे खेदं दर्शयामा- नूमौ पतता तेन चौरेणैवमुक्तम्-अहं कुर्योधनश्चौरः प्रसिस । मध्ये श्राकारितः कुमारः पत्यके शायितः। उक्तश्च-तव वि- द्धः, त्वयाऽहं हतो न जीविष्यामि, परं मम बहु व्यं वर्तते, लेपनाद्यर्थ चन्दनादिकमहमानयामीति । ततो निर्गता। कुमारण मम भगिनी जयश्रीनाम्नी चैतद्वनमध्येऽस्ति, तत् त्वया गृहीचिन्तितम्-प्रायः स्त्रीणां विश्वासो न कार्यः । यतः-शास्त्रे इमे| तव्यं साच पत्नी कार्या । कुमारस्तत्र गतः । साहता सामाया. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) अगडदत्त अन्निधानराजेन्द्रः। अगणिकाय ता। रपः कुमार।। ज्ञातस्तया नातृवृत्तान्तः। तया कुमारोऽपि | त्तान्तम् । कुमारस्तच्चरित्रं श्रुत्वा युवतीस्वरूपमेवं विचिन्तगुहामध्ये आकारितः । तत्र गच्छन्मदनमजर्या वारितस्तां यति स्म "अणुरजंति खणणं, जुवो खणेण पुणो विरजंति । तत्रैव मुक्त्वाकुमारोऽग्रे चलितः। कियन्मार्ग यावक्रतेन कुमारेण अन्नुन्नरागनिरया, हलिद्दरागु ब्व चलपेमा"॥१॥ इति विप्रचएमएमादमप्रजग्नतरुकोटिनिघृष्टगिरितटः सवेगं संमुख- चिन्त्य कुमारोऽपि वैराग्यात्प्रवजितः । यथाऽसौ अगडदत्तः मागच्चन् यम इव रौद्ररूपणे गजो रष्टः । ततः कुमारो रथा प्रतिबुद्धजीवी पूर्व द्रव्यासुप्तः पश्चाद्भावासुप्तोऽपि इह लोके दुत्तीर्य गजाभिमुखं प्रचलितः। उत्तरीयवस्वोष्टिकां कृत्वा गजाग्रे परलोके च सुखी जातः । उत्त० ४ ० । इयं कथोत्तराध्यमुमोच । गजस्तत्प्रहारार्थ शुरमादएममधः विपन् यावदीपन- यनस्य बृहकृत्तावपि रश्यते । तत्रायं विशेषः (जितशत्रुनामा तस्तावत् कुमारस्तइन्तद्वये पादौ कृत्वा तस्य स्कन्धेऽधिरूढःवज्र- राजा। तस्य सारथिरमोघरचनामा। अमोघरथस्य स्त्री यशो. करिनाच्या स्वमुष्टियां तत्कुम्भस्थलद्वयं जघान।कुमारेण प्रका- मतिः, पुत्रश्चागडदत्तः । तस्य पितरि मृते माता भृशं रुरोद। ममितस्ततो भ्रामयित्वा स गजो वशीकृतः । पश्चात् स गजो तदाऽगडदत्तो मातरं नितान्तरोदनहेतुं पमच्छ । तदा माता गॉरिव शान्तीकृतो मुक्तश्च। तत्रैव पुनः कुमारो रथे निविष्टोऽने प्रत्युवाच-पुत्र! अयममोघप्रहारी सारथिस्त्वदीयपितृपदचलित कियन्मार्ग यावच्चति कुमारस्तावत् कुएमसीकृतमा- मनुभवति, यदि त्वं कलावित् स्यास्तदा कथमेवं भवेत् । गलः स्वरवेण गिरिप्रतिशब्दान् विस्तारयन् विद्युश्चञ्चनसोचनः पुत्रोऽन्वयुत-को मां कलामध्यापयिष्यतीति?। माता प्रत्यगासोपमा रसनां स्वमुखकुहरनिष्कासयन् सिंहः सामायातः। दीत्-कौशाम्बीनगर्यो रढप्रहारीत्यास्यः कलाचार्यो विद्यते, तेनापि समं कुमारो युकं कृतवान् । कुमारेण कर्कशप्रहारर्जर्जरितः तं त्वमुपतिष्ठखेति । स मातृवचनमभ्युपगम्य तत्र गत्वा क. सिंहस्तत्रैव पतितः । कुमारस्ततोऽग्रे चलितः। सर्वोऽप्युपलवो लामध्यगीष्ट। ततों राजसभा प्रविवेश। तं दृष्ट्वा सर्वे प्रसेदुः। मार्गे विद्ययैव निवारितः। कुशलेन कुमारः खघियसंयुतः शन राजा तु प्रसन्नताविरहित एव केवलमुचिताचारं परिपालपुरे प्राप्तः। प्रवेशमहोत्सवः प्रकामं पितृभ्यां कृतः। सर्वेषां पौरा- यन् तसै किमपि दातुमियेष । स तु राशस्तदनादरदानमवणां परमानन्दः सम्पन्नः। तत्र सुखेन कुमारस्तिष्ठति स्म । अन्यदा गत्य नाहमीदृशं दानं जिघृक्षामि इत्यभिधाय न जग्राह । वसन्ते मदनमजर्या सह कुमार एकाक्येव क्रीमावने गतः । तदानीमनेके नागरिकाः 'चौरोऽस्मान् बाधते' इति राशः पुरी तत्र रात्रौ मदनमञ्जरी सर्पण दष्टा मृतेव सञ्जाता । कुमारस्तु व्यजिशपन् । राजा तलारक्षम [ कोट्टपालम् ] अाह्वय न्यतन्मोहादग्नौ प्रविशन् गगनमार्गेण गच्छता विद्याधरण वारितः। गादीत्-भोस्तलारक्ष! भवता सप्तभिरहोरात्रैश्चौरो निग्रहीविद्याबलेन सा जीविता । विद्याधरस्तु स्वस्थानं गतः। कुमार. तव्यः। इत्याकागडदत्तो राजानं प्रार्थयाञ्चके-महाराज! अहं स्तया समं रात्रिवासार्थ कस्मिंश्चिद्देवकुले गतः। तत्र तां मुक्त्वा | सप्तभिर्दिनैस्तं चौरं निग्रहीतुं प्रभवामीति ) अन्यत्सर्व समा. उद्योतकरणाय अग्निमानेतुं कुमारी बहिर्गतः । तदानीं तत्र नम् । उत्त। पञ्च पुरुषाः पूर्व कुमारहतदुर्योधनचौरभ्रातरः कुमारवधाय अगमददुर-अवटदर्घर-पुं० कूपमण्डूके, मा० ८ ० । पृष्ठ आगताः। इतस्ततो भ्रान्ताः कुमारस्थलमत्रभमानास्समागताः सन्ति स्म । तैस्तु तत्रदीपको विहितः। मदनमञ्जर्या तेषां मध्ये अगममह-अवटमह-पुं० कूपप्रतिष्ठोत्सवे, प्राचा० २ श्रु०१ सधुभ्रातू रूपं विलोकितम् । रूपाक्तिप्ततया तस्यैव प्रार्थना विहि- ०२ उ०।। ता। त्वं मम भर्ता भव, अहं तव पत्नी भवामि । तेनोक्तम्- अगदिय-अग्रथित-त्रि0 अप्रतिबद्धे, आहारे वाऽगृद्धे, "श्रतवन रिजीवति सति कयमेवं नवति । सा प्राह-तमहं मार माए अगZीए अदुढे अदीणे अविमणे" प्रश्न०१ संब० द्वा। यिष्यामि । तदानीमग्नि गृहीत्वा कुमारस्तत्र प्राप्तः। प्रागच्च मुत्कलैरेव वचनैरभिधीयमाने, वृ०३ उ० । न्तं कुमारं दृष्ट्वा तया तत्रस्थो दीपो विध्यापितः । तत्रायातेन कुमारेण पृष्टम्--अत्रोद्योतः कथमजूत् । तया उक्तम्-तव अगणि-अग्नि-पुं० अङ्गति ऊर्व गच्छति । अगि-नि, नलोपः। हस्तस्थस्याम्नेरेवोद्योतः । सरखेन तेन तथैवाङ्गीकृतम् । वाच। वन्हौ, प्रश्न०५ सम्ब० द्वा० । उत्त० । “चत्तारि मदनमञ्जऱ्या हस्ते खड्गं गृहीतम् । कुमारोऽग्निप्रज्वालनार्थ | अगणित्रा समारभित्ता जेहिं करकम्माभितवेति बालं" सूत्र० ग्रीवामधश्चकार । तावता तया कुमारवधार्थ खगः प्रति- १७०१०१3०।"अंगारं अगणि अश्थि, अलायं वासजोकोशानिष्कासितः । तस्याश्चरित्रं दृष्ट्वा चौरलघुभ्रातुई- इयं । ण उजिज्जा ण घट्टिज्जा, नोणं णिव्वावर मुणी"। दश० राग्यमुत्पन्नम् । पश्चादस्या हस्तात्तेन खगोऽन्यत्र पा- ८०। प्रदीपनके, व्य० १ उ०। (अग्नेः सर्वो विषयः 'तेतितः । पञ्चापि भ्रातरस्ततः कुमाराग्लक्षिताः शनैः शनैर्नि उकाइय' शब्दे) र्गताः कस्मिंश्चिद्धने गताः । तत्र चैत्यमेकमुत्तुङ्गं दृष्टम् । तत्र अगणिवाहिय-अग्न्याहित-पुं० अग्निराहि तो यैः । “वाडसातिशयज्ञानी सादृष्टः । तत्समीपे तैः पञ्चभिरपि दीक्षा हिताग्न्यादिषु" २२२२३७। इति वाऽऽहितशब्दस्य पूर्वनिपागृहीता । तदाशां पालयन्तः संयमे रतास्तत्रैव तिष्ठन्ति स्म । तः अग्न्याहिता आहिताग्नयः। कृतवन्याधानेषु, श्रीऋषभजि. कुमारेण नैतत्किमपि शातम्। अथ कुमारस्तत्र मदनमञ्जा नेशचितायामग्निं स्थापितवन्तस्तेन कारणेनाहितामय इति रात्रिमेकामुषित्वा प्रभाते स्वगृहे समायातः। कियद्दिनानन्तर तत एव च प्रसिद्धः। श्रा०म०प्र०।। मश्वापहृत एक पवागडदत्तकुमारस्तस्मिन्नेव बने तत्रैव चैत्ये गतः । तत्र देवान्नमस्कृत्य साधवो वन्दिताः । गुरुणा देशना अगणिकंम्यहाण-अग्निकएमकस्थान-न० अग्निप्रवेशस्थाने, कृता । कुमारेण पृष्टम्- भगवन् ! क एते पश्चापि भ्रातर इव "अगणिकंडयट्ठाणेसु अमयरंसि वा तहप्पगारांस णो उसाधवः,? कथमेषां वैराग्यमुत्पन्नम् ?। कथमेभियौवनभरेऽपि चारं पासवणं व्वोसिरेज्जा" प्राचा० २. श्रु० १० अ०। व्रत गृहीतम् ।। एवं कुमारेण पृष्टे गुरुः प्राह सर्व तदीयं व-अगणिकाय-अनिकाय-पुं० तेजस्काये, भ०७ श०१० उ० । Jain Education Interational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) अगणिकाय अभिधानराजेन्द्रः। अगणिपरिणमिय अनु०(अस्य विषयःसर्व एव तेउअकाइ' शब्दे) नवरम-1 दियजीवसरीरप्पभोगपरिणामिया वि जाव पंचिंदिय अगणिकाए णं भंते ! अहुणोजालिए समाणे महाकम्मत- • जीवसरीरप्पयोगपरिणामिया वि तओ पच्छा सत्याइया राए चेव महाकिरियतराए चेव महस्सवतराए चेव महावेय जाव अगणिजीव वत्तव्यं सिया। पतराए चेव जवइ,अहणं समए श्वोकसिन्जमाणे वोच्चि [ अहत्यादि एएणं ति ] एतानि णमित्यसकारे (किंसरीर ज्जमाणे चरिमकालसमयंसि इंगालनूए मुम्मरजूए गरिय- ति) केषां शरीराणि किंशरीराणि (सुराए य जे घणे ति) जूए तो पच्चा अप्पकम्मतराए चेव किरिया आसव अ- सुरायांद्वे द्रव्ये स्याताम-धनगव्यं द्रवव्यं च । तत्र यद् धनव्यप्पवेयणतराए चेव भवइ । हंता, गोयमा ! अगणिकाए णं म् ,.(पुब्वभावपत्रवणं पमुच्चत्ति) अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गी कृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्व हि ओदनादयो वनस्पतयः (तम्रो अहणोज्जालिए समाणे तं चेव ।। पत्ति)वनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वानन्तरममिजीवशरीराणी(अगणीत्यादि अहुणोजालिए त्ति)अधुनोज्वलितः सद्यःप्र- ति, वक्तव्यं स्यादिति सम्बन्धः । किंभूतानि सन्तीत्याह दीप्तः (महाकम्मतराएत्ति) विध्याप्यमानानलापेक्षयाऽतिशयेन (सत्यातीय त्ति) शस्त्रेणोदूखनमुशनयन्त्रकादिना, कारणनूतेन महान्ति ज्ञानावरणादीनि बन्धमाश्रित्य यस्यासौमहाकर्मतरः। प्रतीतानि अतिक्रान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि ( सत्यएवमन्यान्यपि। नवरं, क्रिया दाहरूपा । पाश्रवो नवकर्मोपादान- | परिणामिय ति) शस्त्रेण परिणामितानि कृताभिनवपर्यायाणि हेतुः । वेदना पीडा । जावना तत्कर्मजन्या परस्परशरीरसम्बन्ध- । शत्रपरिणामितानि । ततश्च ( अगणिज्जामिय ति) जन्या वा (वोक्कसिञ्जमाणे त्ति) व्यपकृष्यमाणोऽपकर्षे गच्छ पन्दिना च्यामितानि भ्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याजनात, तशा न् (अप्पकम्मतराए ति) अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्याल्पशब्दः (अगणिज्फुसियत्ति) अग्निना कोषितानि पूर्वस्वभाषकपणात स्तोकार्थः । कारावस्थायां त्वन्नावार्थः । भ०५ श० ६ ० । भाम्निसवितानि वा जुषी प्रीतिसेवनयोः, इत्यस्य धातोः प्रयोकालोदायिप्रश्न अम्युज्वालकविध्यापकयोः कतरो महाकर्मेति विचारितम् । भ०७ श० १० उ०। गात (भगणिपरिणामिया त्ति)संजाताग्निपरिणामानि,औषय योगादिति । अथवा 'सत्यातीता' इत्यादौ शस्त्रमग्निरव, 'अगअगाणिजीव-अग्निजीव-पुं० अम्नयश्च ते जीवाश्च अग्निजी-| णिज्जामिया' इत्यादि तु तद्याख्यानमेवेति । (नवले तिह वाः तेजस्कायिकेषु, विशे० (अग्निजीवानां परिमाणमवधिः दग्धपाषाणः (कसपट्टिय त्ति) कषपट्टः (अछिज्जामेति) अ. 'ओहि ' शब्द उक्तम्)। स्थिभ्यामं चाग्निना श्यामलीकृतमापादितपर्यायान्तरमिअगणिजीवसरीर-अग्निजीवशरीर-न० तेजस्कायजीवबद्ध- स्यर्थः । (इंगालेत्यादि) अङ्गारो निर्वलितेन्धनम् (छारिप त्ति) शरीरे, जीवान्तरशकीराणामग्निजीवशरीरत्वम् । सारिकं भस्म (बुसे ति) बुसम् ( गोमय त्ति) गणम् । इह बुसगोमयौ भूतपर्यायानुवृत्त्या दग्धावस्थौ प्रायौ, अन्यथा अह भंते!उदो कुम्मासे मुराए एणं किंसरीराइवत्तव्वं सि अग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्यादिति । या। गोयमा उदले कुम्मासे सुराए जे घणे दव्वे एएणं पुन्च- | पते पूर्वभावप्रकापनां प्रतीत्य एकेन्द्रियजीवैः शरीरतया प्रयोजावपएणवणं पमुच्च वणस्सइजीवसरीरा तो पच्छा स- गेण स्वव्यापारेण परिणामिता येते तथा। एकेन्छियशरीराणीस्थातीया सत्यपरिणामिया अगणिज्कामिया अगणिकसि- त्यर्थः। भपिःसमुच्चये। यावत्करणाद् द्वीन्जियजीवशरीरप्रयोगया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीराइवा परिणामिता अपीत्यादि दृश्यम् । दीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणत. वत्तव्वंसिया सुराए यजेदव्वे एएणं पुव्वनावपएणवणं पमुच्च स्वं च यथा सम्भवमेव न तु सर्वपदेविति । तत्र पूर्वमगारो भस्म चैकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्छियादिशरीराणा. आउजीवसर रातो पच्चासत्यातीया जाव अगणिसरीरा| मिन्धनत्वात् । बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामेकेन्द्रियारीइ बत्तन्वं सिया। अहणं भंते! अये तंबे तडए सीसए उबले कस- रम् । गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरीरम्। हीन्द्रियादीपट्टियाए एणं किंसरीराइवत्तव्वं सियागोयमा अयेतंबे तउए| नां तु गवादिनिर्भकणे द्वीन्द्रियादिशरीरमपि।भ०५ श०२० सीसए उवले कसपट्टियाए एणं पुव्वभावपम्पवर्ण पमुच्च | अगणिज्कामिय-अग्निध्यात-त्रि०३ता अग्निना दग्धे, (ज०) पुढवीजीवसरीरा तो पच्छा सत्थाश्या जाव अगणिसरी- अग्निध्यामित-त्रि० अग्निनेषहग्धे, अम्निना स्वकीयवर्णत्याराइवत्तम्ब सिया । अह भंते ! अघी अहिज्जामे चम्मे चम्म- जनाद् ध्यामीकृते, ज०५ श०२ उ० । ज्कामे रोमे २ सिंगे खुरे २ नहे किए णं किंसरीराइ अगणिज्मृसिय-अग्निजोषित-नि० अग्निसेविते , जुषी प्रीवत्तव्वं सिया, गोयमा! अछी चम्मे रोमे सिंगे खुरे नहे| तिसेवनयोः, इत्यस्य धातोःप्रयोगात् । न०५।०२ उ० । एए णं तसपाणजीवसरीरा अडिज्कामे चम्मकामे रोम- अग्निकोषित-त्रि० पूर्वस्वभावक्तपणात् (भ० ५ श०२०) ज्कामे सिंगखुरणहज्झामे एएणं पुन्वभावपएणवणं पमुच | अग्निना कपिते, भ० १५ २० १ ००। तसपाणजीवसरीरा समोपच्छा सत्याईया जाव अगणि-अगणिणिक्खित्त-अग्निनिक्षिप्त-त्रि० अम्नावुपरि निक्किप्ते, त्ति वत्तन्वं सिया । अह भंते ! इंगाले गरिए बुसे गो-| "प्रगणिणिक्खित्तं अफासुयं अणेसणिज्जं लाने संते णोपडिगामए एएणं किं सरीराइ बत्तव्वं सिया। गोयमा! इंगाले हेज्जा" आचा०१श्रु०१ १०४ उ०। गरिए बुसे गोमए एएणं पुचभावपएणवणं एए एमि- अगणिपरिणमिय-अग्निपरिणमित-त्रि० ३ त० औएययो Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि परिणमिय 46 माद् सम्ज्ञाताग्निपरिणामे, भ० ५ ० २.३० पूर्वस्वभावत्या जनेनाSSत्मजावं नीते, भ० १५० १३० अगणिमुद्द अग्निमुख- पुं० निर्मुणमिव यस्य देवे, दि देवैरग्निरूपमद्वारेणैवाश्यते इयं वदति देवानाम् " इति श्रुतस्तत्रैव तात्पर्यात्। " अग्निमुखा वै देवाः" इति च भृतिः इति वेदविदः वाचः षभदेवचितायामग्निकमारा वदनैः खल्वग्नि प्रक्चिप्तवन्तः, तत एव निबन्धनालोके " अग्निमु खा वै देवाः" इति प्रसिक्षम, इति समयविदः । प्रा० म० प्र० । ० चू० । अग्निर्मुखं प्रधानमुपास्यो यस्य । श्रग्निदोत्रिणि द्विजे, घाच० । " 66 66 गत (द) गद-पुं० नास्ति गदो रोगो यस्मात् ५ ब०, श्रीषधे, नि० ० ११ उ० । परमौषधे, पं० व० ३ द्वा० । नकुलाद्यौ. धे नि०० १४०६५० रोगान्ये, श्रि०" गद् भाषणे " छाच्, न० त० अकथके, त्रि० । वाच० 1 अगस्थि-अगस्ति ५० भगं बिन्ध्याचह्नमस्यति। धम्-किन् । शकवादिः । अगस्यनामके मनी, श्रगस्त्यस्यापत्यानि बहुषु यत्रो लुक्, तद्गोत्रापत्येषु य० ब० । तत्सम्बन्धित्वात् दक्षिणस्यां दिशि बृहत्संहितायामस्य गगनमले दक्षिणस्यां तारारूपेण स्थितिरका वकयुके, वाच० अष्टाशीतिमहाग्रहा णां पञ्चचत्वारिंशे महाग्रहे, "दो गी 35 स्था० २ ० ३ उ० | चं० प्र० सू० प्र० । जं० ॥ कल्प० । अगम - अगम - पुं० न गच्छतीति । यम-धच् । न० त० । वृक्षे, श्र गन्तरि, त्रि० । वाच० । श्राकाशे, न०, तकि गमनक्रियारहितत्वेनागमम् । भ० २० श०२४० । 1 अगमियागमिक न० न गमिकमग मिकस प्रायो गाथा कवेष्टकाद्यसदृशपाठात्मके श्रुतनेदे, । तचैवंविधं प्रायः [विशे० ] आचारादिकालिकश्रुतम् असदृशपाठात्मकत्वात् । तथाचाह" श्रगमियं कालियसुयं " नं० । श्र० म० प्र० । कर्म० । बृ० । - त्रि० न गन्तुमर्हति । गम यत् । न० त० । गअगम्म- अगम्यमनानदसु स्नुषादिपु चालाव्यादिकार्यास "फासेजण गमं भणार सुमिणे गओ श्रगम्मं ति" स्पृष्ट्वा कायेनेति ग म्यते । अगम्यां स्नुषां चारकाव्यादिकां या स्त्रियमिति शेषः । व्य० १ उ० । अगम्यगामि () अगम्यगामिन् शि० नगिन्याद्यभिगन्तरि, प्रश्न० २ श्र० द्वा० । अगरजा अगभी-बी० न ब०, सुविनातया धरहस्यायां वाण्याम्, और 66 'अगरनाए अमम्मणाए सव्वक्खरसटिवापाप" (जिनवाराया) रात्र, अगर्नया व्यक्तवर्णघोषयेत्यर्थः । ( १५७) अभिधानराजेन्द्रः | उपा० २ अ० 1 अगर हिय - अगर्हित- त्रि० ( श्राहारविषये) अकृतगर्थे, प्रश्न० १ सम्ब० द्वा० । अ० अनिन्ये " से अगरदिए भने जे समाहिए " श्राचा० १० ८ श्र० ८ ३० । अगरु-अगरु–न० अगरुचन्दनास्ये गन्धिकरूव्ये " कुठं तगरं अगरं संपिठं सम्ममुसिरेणं " सूत्र० १ ० ४ अ० २ चo | प्रश्न० | नि-चू० । उपा० । श्राचा० । “संखतिणिसागुसुचंदणारं " नि० चू० २ ० । अगरुगंधिय-गुरुगन्धित अगुगन्धो धूपनादिप्रकारेण जातोऽस्येति गुरुगन्धितम् । अगुरुचन्दनेन धूपिते, तं० । अगरुलहुय 66 अगरुपुम- अगरुपुट- पुं० ६ ० अगरुनामकगन्धद्रव्यस्य पुरे, 'अगरुपुडाण वा सवंगपुराण वा. वासपुडाण वा" । जं०१वक्व० अगरुल-अगुरुलघु-१० न बिये लघुनी पस्मित बिद्येते गुरुलघुनी दगुरुलघुकम, परिणामोपेतमूर्तरूव्यत्वादगुरुलघुकम् । परतस्थे, 'नित्यं प्रकृतिवियुक्तं, लोकालोकावलोकनाभोगम् । स्तिमिततरङ्गोदधिसम-मवर्णमस्पर्शमगुरुस घु" । षो ० १५ विश्व० । न गुरुकमघोगननस्वभाव न लघुकगमनस्यनावं यद्गुरुघुकम्। श्रत्यन्तसूक्ष्मे भाषामनः कर्मद्रव्यादौ, स्था २०वा. १. । अथ कि गुरुलघु किंवा अनुघु' इति शङ्कायां तत्स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह ओराझियवेड व्विय- आहारगतेय गुरुलहू दव्वा । कम्मणमणभासाई, एयाई मगरलाई । " 1 द्वौ नयौ - व्यवहारनयो निश्वयनयश्च । तत्र व्यवहारनयः प्राह - चतु अन्यं तद्यथा- किंचिद् गुरु किंचिलघु, किंचिद् गुरुलघु, किंचिदगुरुलघु । तत्र यदूर्ध्वं तिर्यग्वा प्रतिमपि पुनर्निसर्गदधो निपतति द्रव्यं तद् गुरु । तद्यथा-लेष्ट्रादि । यस्तु द्रव्यं निसर्गत एवोर्ध्वगतिस्वभावं तलघु । यथा-दीपकलिकादि यत्नगतिस्यनावं नाप्यधोगतिस्वभावं किन्तु स्वभावेनैव समाधिर्मकं सद् गुरुलघु, यथा वायुः । यतुभस्तिर्यग्गतिस्वभावानामेकतरस्वनायमपि न भवति सर्वत्र वा गच्छति तद्गुरुलघु । यथा-व्योम परमाण्वादि । उक्तं चगुरु लहुयं उभयं वि, नोभयमिति वात्रहारियनयस्स । दव्वं बेडुं दीवो, बाऊ वोमं जहासंखं ॥ निश्चयनयः पुनरेवमाह-न सर्वगुर्वेकान्तेन किमपि वस्त्वस्ति, गुरोरपि लेष्वादेः प्रयोगादूर्ध्वादि गमनदर्शनात् । नाप्येकान्तेन सर्वप्यप्यस्ति अतिलधोरपि वाया करतानादिनाऽधो गमनादिदर्शनात् । तस्माद् द्विविधमेव वस्तु तथा-गुरुघु, अगुरुलघु च । तत्र यद् बादरं भृभूधरादिकं तत्सर्व गुरुलघु, शेषं तु भाषाप्राणापान मनोवर्गणादिकं परमाणुद्वधनुकन्योमादिकं च सर्वमगुरुलघु । उक्तं च " - निच्छयतो सव्वगुरु, सव्वलहं वा न विज्जए दव्वं । वायरमिह गुरुवदुषं अगुरुलई सेसयं दवं । तत्रेयं गाथा नियमन पदार्थव्याख्या चैम-श्रीद रिक्रियाहारकतेजसादि अवश्यपि सानि तदाभासानि बादरूपत्वादगुरुपूि वानि । कार्मणमनोभाषाडव्याणि तु श्रादिशब्दत्प्राणापानव्याणि प्रापाव्याववर्तीनि भाषाभासानि अपराध च परमाणुयणुकादीनि, न्योमादीनि चैतानि अगुरुलघुस्वभावानि । वक्ष्यमाणगाथाद्वयसंबन्धः । एवं पूर्व किल क्षेत्रका संबथिनः केवलोलिका संध्येयादिविभागका पर स्परोपनिबन्ध वक्तः । आ० म०प्र० । इदमेव व्यक्तीकुर्वग्राह- जा तेयगं सरीरं, गुरुलदव्वाणि कायजोगो य । मणसा अगुरुलदृणि अरू विदन्याय सवि ॥ श्रीदारिकाज्य वैजसशरीरं यावत् यानि इल्याणि यत्र तेषामेव संबन्धी काययोगः शरीरव्यापारः एतत्सर्व गुरुलघुकमिति निर्देशः । यानि तु मनोनापायेोगात्वा दानपानका मंत्र योगाणि तद्वान्तराप्रपा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) अगरुलहुय अनिधानराजेन्डः। अगरुलहुय निच सर्वाण्यपि धर्माधर्माकाशजीवास्तिकायनकणान्यकाप- व्वाइं पमुच्च ो गुरुए णो बहुए गुरुयलहुए नो अगुरुयलहुद्रव्याणि, तदेतत्सर्वमगुरुलघुकम् । ए, अगुरुयलहुयदव्वाइंपडुच्च नो गुरुएनो लहुए नो गुरुयअहवा बायरबोंदी-कलेवरा गुरुखद नवे सन्यो । लहुए अगुरुयझहुए, समया कम्माणि य चउत्थपएणं । कमुहमाएंतपदेसो, अगुरुल जाव परमाणू ॥ एहलेस्साणं भंते ! किं गुरुया जाव अगुरुयलया। गोयमा! अथवेति प्रकारान्तरद्योतने। बादराबोन्दिःशरीर येषांते बादरबोन्दयो बादरनामकर्मोदयवत्तिनो जीवा इत्यर्थः, तेषां सबन्धी नो गुरुया नो लहुया गुरुयलहुया वि अगुरुयलहुया वि । से नि यानि कलेवराणि यानि वाऽपरास्यपि बादरपरिणतानि त: केणटेणं गोयमा! दबोस्सं पगच्च तश्यपरणं भावसेस्सं त्तदधरादीनि शक्रचापगन्धर्वपुरप्रनृतीनि वा वस्तूनि तानि पमुच्च चउत्थपरणं, एवं जाव मुक्कलेस्सा । दिहीदसणनासर्वाण्यपि गुरुबघून्युच्यन्ते । यानि तु सूदमनामकर्मोदयवर्सि पअन्नाणसम्माओ चउत्थपएणं णेयन्वाई इहिला चत्तारि नां जन्तूनां शरीराणि यानि च सूक्ष्मपरिणामपरिणतानि अनन्तप्रादेशिकादीनि परमाणुपुद्गलं यावत् सन्याणि तानि सर्वा सरीरा नायव्वा, तइएणं कम्मयं चनत्यएणं पएणं मणजोगे एयगुरुलघूनि । वजोगे चउत्थएणं पदेणं कायजोगो तश्यपणं पएसं मागाअथ व्यवहारनयमतमाह रोवोगो अणागारोवोगो चउत्थपएणं सव्वदव्वानो ववहारनयं पप्प उ, गुरुया लहुया य मीसगा चे । सव्वपदेसा सव्वपज्जवा जहा पोग्गलस्थिकाओ। अतीतदा लेट्टपदीवगमारुय, एवं जीवाण कम्माई ।। अणागयद्धा सव्वका यउत्थएणं पएणं । व्यवहारनयं प्राप्याङ्गीकृत्य त्रिविधानि व्याणि भवन्ति । तघथा-गुरुकानि बघुकानि मिश्रकाणि च, गुरुलघुमिश्राणीत्य (सत्तमेणमित्यादि ) शह चेयं गुरुबघुव्यवस्था निच्छयत्रो सम्बगुरुं, सवलहुं वा न विज्जए दव्वं । थः । तत्र यानि तिर्यग्र्द्ध वा प्रक्किप्ताएयपि स्वजावादेवाधो निपतन्ते तानि गुरुकाणि , यथा-बेष्टुप्रनृतीनि । यानि तुग. घवहारओ उ जुज्जर, बायरखंधेमु णासु ॥१॥ तिस्वभावानि तानि लघुकानि , यथा-प्रदीपकादीनि । यानि भगुरुलई चउ फासा, अरूविदव्वा य होति नायब्बा। तु नाधोगतिस्वजावानि नवा कर्द्धगतिस्वभावानि कि तर्हि सेसा उ अ फासा, गुरुवहुया निच्चयणयस्स" ॥२॥ (चउ फास त्ति) सूक्ष्मपरिणामानि (अफास ति) बादराणि तिर्यग्गतिधर्मकाणि तानि गुरुलघूनि, यथा-मारुतो वायुस्त गुरुलघुरुव्यं रूपि मगुरुलघुषव्यं त्वरूपि काप घेति । व्यवहात्प्रनृतीनि । एवं जीवानां कर्माएयपि त्रिविधानि भवन्ति-गुरू. णि लघूनि गुरुवधूनि वा । तत्र यैरमी जीवा अधोगतिं नायन्ते रतस्तु गुर्वादीनि चत्वापि सन्ति । तत्र निदर्शनानि-गुरुलोष्ठो धोगमनात, लघुर्धूम अर्ध्वगमनात्, गुरुनघुर्वायुस्तिर्यगमनात्, तानि गुरुकाणि, यैस्तुत एवोर्द्धगति प्राप्यन्ते तानि लघुकानि, अगुरुलध्वाकाशं तत्स्वभावत्वादिति । एतानि चावकाशान्तरायैः पुनस्तिर्यम्योनिकेषु वा मनुष्येषु वा गतिं कार्यन्ते तानि गुरुसधुकानीति । तदेवं व्यवहारनयानिप्रायेण समर्थितः कर्मणां दिसूत्रारयेतमाथानुसारेणावगन्तव्यानि । तद्यथा-"सवासवाय घणउदाह-पुढधीदीवाय सागरावासा । नेरश्या अस्थिय, सगुरुत्वलघुत्वपरिणामः । बृ० १ उ० । एतदेव सर्वमभिप्रेत्य सूत्रकृदाह मयाकम्मा सानो॥१॥ दिछी दसणणाणे, सन्नसरीरा य सत्तमे णं मंते ! उवासंतरे किं गुरुए लहुए गुरुयलहुए जोगवओगे। दव्वपएसा पजव,तीया अागामिसंबद्ध ति" ॥२॥ अगरुयलहुए। गोयमा! नो गुरुए नो सहए नो गुरुयलहुए (वेउब्धियतेयाई पश्च ति )नारका वैफियतैजसशरीरे प्रतीत्य गुरुकलघुका एव । यतो वैक्रियतैजसवर्गणात्मके ते, ए. अगुरुयलहुए। सत्तमेणं भंते ! तणुवाए य बहुए। गोय ताश्च गुरुकनघुका एव । यदाह-" ओरासियवेउब्विय-आहारमा! नो गुरुए नो लहुए गुरुयलहुए । एवं नो अगुरुयल. गतेय गुरुबहू दवत्ति"। (जीवं च कम्मं च पमुञ्चत्ति) जीवाहुए। सत्तमे घणवाए सत्तमे घणोदही सत्तमा पुढवी उवा- पेक्या कार्मणशरीरापेकया च नारका अगुरुलघुका एव, संतराइं सव्वाई जहा सत्तमे उवासंतरे जहा तणवाए एवं गु जीवस्यारूपित्वेन गुरुलघुत्वात् । कार्मणशरीरस्य च कार्मव गणात्मकत्वात्कार्मणवर्गणायां चागुरुवघुत्वात् । प्राह चरुयलहुए घणवायघणजदहिपुढव दीवा य सागरावासा । ने "कम्मणमणनासाई, पयाई अगुरुल हुयाति" (नारपत्तं जाणिरइयाणं भंते ! किं गुरुया जाव अगुरुवहुया । गोयमा ! नो यवं सरीरेहिं ति) यस्य यानि शरीराणि भवन्ति तस्य तानि गुरुया नो लहुया गुरुयलहुया वि अगुरुनहुया वि। सेकेण- ज्ञात्वा असुरादिसुत्राण्यध्येयानीति हृदयम् । तत्रासुरादिदेवा टेणं ?। गोयमा ! वेउवियतेयाई पमुच्च नो गुरुया नो बहुया | नारकवद्वाच्याः। पृथिव्यादयस्तु औदारिकतैजसे प्रतीत्य गुरुगुरुयनहुया नो अगुरुयलहुया।जीवं च कम्मं च पमुच्च नो लघवः, जीवं कार्मणं च प्रतीत्यागुरुलघवः। वायवस्तु औदा रिकवैक्रियतैजसानि प्रतीत्य गुरुलघवः । एवं पञ्चेन्द्रियतिर्यगुरुया नो बहुया नो गुरुयन्नहुया अगुरुयलहुया, से तेगडे चोऽपि मनुष्यास्त्वौदारिकवैक्रियतैजसाहारकाणि प्रतीत्येति णं एवं जाव वेमाणिया, नवरं णाणत्तं जाणियब्वं सरीरेहिं (धम्मत्यिकाय त्ति) इह यावत्करणात्,"अहम्मत्थिकाए भागाधम्मत्यिकाए जाव जीवत्यिकाए चउत्थपएणं । पोग्गल सत्यिकार" इति रश्यम् (चउत्थपएणं ति) पते अगुरुलघु त्यिकाए णं भंते ! किं गुरुए सहुए गुरुयलहुए अगुरुय इत्यनेन पदेन वाच्याः। शेषाणां तु निषेधः कार्यः, धर्मास्तिकायाबहुए?। गोयमा! नो गरुए नो बहुए गुरुयलहुए वि अ दीनामरूपितया अगुरुलघुत्वादिति। पुस्लास्तिकायसूत्रे उत्तरं नि श्चयनयाश्रितम्, एकान्तगुरुलघुनोस्तन्मतेनानावात्(गरुयलहुय गुरुयत्नहुए वि । से केणटेणं? । गोयमा ! गुरुयाहुयद- दबार्शति) औदारिकादीनि ४(अगुरुवहुयदवाई ति ) कार्म Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरुल दुष दीन ( समया कस्माणि य च उत्थपरणं ति ) समया श्रमकर्माणि च कार्मणवर्गात्मकामीत्यगुरुलघुत्वमेषाम् । ( दग्वलेस पहुच तश्यपरणं ति ) द्रव्यतः कृष्णलश्या औदारि कादिशरीरवर्णः, औदारिकादिकञ्च गुरुलध्विति कृत्वा गुरुलस्वित्यनेन तृतीय विकल्पेन व्यपदेश्यः । नावलेश्या तु जीवपरि गति, तस्यास्यामूर्त्तत्वादगुरुवत्यनेन व्यपदेश इत्यत आह ( भावलेलं पडुच्च वउत्थपरणं ति ) ( दिठीदसणेत्यादि ) यादीनि पर्यायत्वेनागुरुलघुत्वादगुरुपुत्रणेन चतु पदेन वाध्यानि । महानपरं विदानविपयादीतम श्रन्यथा द्वारेषु ज्ञानपदमेव दृश्यते ( डेठिल्ले ति ) औदारिकादीनि । ( तश्यपपणं ति ) - गुरुलघुपदेन गुरुलघुवर्गणात्मकत्वात् । (कम्मणा वत्थपरणं ति ) अगुरुलघुद्रव्यात्मकत्वात् कार्मणशरीराणां मनोयोगधाम्योगी बतुपदेन वाथ्यो, म्याणामगुरुत्वात् काययोगः कार्मणयस्तृतीयेन गुरुबघुया चयाणामिति (दि) साधि मस्तिकायादीनि सर्वप्रदेशास्तेषामेव निर्विभागा अंशाः सर्वपर्यवा वर्णोपयोगादयो व्यधर्माः पते पुत्रलास्तिकायत्रद् व्यपदेइयाः, गुरुलघुत्वेनागुरुलघुत्वेन वेत्यर्थः । यतः सुक्ष्माण्यमूर्तनि च खन्याएयगुरुनघूनि, इतराणि तु गुरुलघूनि । प्रदेश पर्यवास्तु तत्तद्द्रव्यसम्बन्धत्वेन तत्तत्स्वभावा इति । भ० १ ० ९ उ० । संप्रति गुरुलघुरुप्याणामयुखपुण्याणां वायवत्वेन वर्ग णावित्यन्ते तत्र बादरस्कन्धेषु जघन्यमभ्यमोत्कृष् कोत्तररूचा प्रवर्द्धमाना वर्गणा अनन्ता भवन्ति । ताश्च तावद्रष्टव्या यावत्सर्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धः । तत्तोय वग्गणा, सुहमाण जवंत पंतगुणियाओ । परमाणू एका, संखेरपदेमसंखाता । ताभ्यः समस्तवाद्रस्कन्धगताभ्यो वर्गणाभ्यः सूक्ष्माणां सूक्ष्मामन्तप्रदेश कस्कन्धानामनन्तगुणिता वर्गणास्तथा परमानां स मस्तानामेका वर्गणा ( संखेर सि) संक्वेयप्रदेशेषु प्रयादिप्रभूस्युत्कृष्टं संख्यातं यावत् संख्याताः संख्यातस्य संख्यातदभा वात् । इतरस्मिन्नसंस्थेयप्रदेशे असंख्येया वर्गणा मसंख्यातस्य संख्यात भेदभा ( १५५) अभिधानराजेन्द्रः । , - इपोग्लायम्मिय सम्बत्योना उ गुरुलहू दव्वा । उजयपडिसेहिया पुण तप्पा बहुविकप्पा ॥ इति एवमुपदर्शितेन प्रकारेण पुलकाये पुफलास्तिकाये गुरुलघुद्रव्याणि सर्वस्तोकानि उभयप्रतिषेधितानि संज्ञातगुरुलघुप्रतिषेधानि अगुरुलघूनीत्यर्थः । पुनर्द्रव्याणि कल्पानि अनन्तभेदानि । तत्रानन्तभेदत्वं गुरुलघुत्रयेष्व व्यक्ति तत आह-बहुविकल्पानि विकल्पातिशयेन बहुभेदानि संप्रति पर्यायपरिमाणमल्पबहुत्वेन चिन्त्यते--इह पञ्चराशयः क्रमेण । मेस स्थाप्य तथा परमाणुराशिः, संख्यातप्रदेशकक म्यराशिः, असंख्यातप्रदेशकस्कन्धराशिः सूक्ष्मानन्तप्रदेशकस्कन्धराशिः, बादरानन्तप्रदेशकरकन्धराशिध तत्र बादान । प्रदेश कस्कन्धराशी योऽन्तिषदः सर्वोत्कृष्टो बादरस्कन्धस्तत्र बहवो गुरुलघुपर्यायाः सर्वस्तोका अगुरुलघुपर्यायाः इह बादरस्कन्धेष्वप्यगुरुतपचः पर्यायाः सन्ति परमुत्कलिता गुरुलघुपर्याया इति । त एवं तत्र शेषकालं गरायन्ते, संप्रति तु वस्तुस्थितिश्चिन्त्यते । इत्यल्पबहुत्वचिन्तायां ते चिन्तिताः । तत्सर्वोत्कृष्टा बादरस्कन्धाद् येऽधस्तना बादरस्कन्धास्तेषु अगरुणाम गुरुलघुपययाः क्रमेणानन्तगुरुहान्या द्रष्टव्याः । अगुरुलघुपर्यायाः पुनरनन्तगुणपूख्या एवं च तावद् ज्ञातव्यं यावत्स जघन्यो बादरस्कन्धः । उक्तं च- "परमाखा सु माण ताण बायराणं च । एएसिं रासीतो, कमेण सव्वे ठवेछ । तेसि जो अंतिम्रो सम्बुकोसो व बायरो बंधो। तस्स बहू गुरुलहुया, अगुरुलहू पज्जवा थोवा ॥ ततो हिडा हुआ, अतहाणि गुरुली एवं ता जाव जन्नोति " ॥ एतदेवाह गुरुन दुपज्जाया, 'पप्पाच्छेदेण बोगसित्ताणं | जा बायरो जहलो, अनंतहालिए हायंता || ते गुरुलघुपर्यायाः प्रावेदनकेनागुरुलघुपययेभ्यो व्युत्कृष्य पृथक्कृत्वा सर्वोत्कृष्टाद् बादरस्कन्धादधस्तनेषु बादरस्कन्धेवनन्तगुणहान्या हीयमानास्तावद् द्रष्टव्या यावद् जघन्यो बा दरस्कन्धः । अगुरुलघुपर्यायास्तु क्रमेणानन्तगुणा प्रव ईमानाः ततः परं सूक्ष्मानन्तप्रदेशादिषु स्कन्धेषु केवला अगुरुलघुपर्याया एव क्रमेणानन्तगुणया प्रवर्द्धमाना द्रटव्याः । ते च तावत् यावत्परमाणवः । उक्तं च- " तेरा परं सुडुमाओ अतबुद्धिए नबर बहुंता अगुरुलड्डु थिय केवल, जा परमाणू तो नेया" तदेवं पर्यायपरिमाणमप्यल्पबहुत्वेन चिन्तितम्। सांप्रतमरूप यं विन्त्यते तचतुर्द्धा तद्यथाधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, श्राकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायश्च । 9 तेषां किमगुरुलघुपर्यायपरिमाणमत आहकेण हविज्ज विरोहो. अगुरुलहुपज्जवाण उ अमुत्ते । प्रतम जोगो, जहियं पुरा तव्विक्क्खस्स || या धर्मास्तिकायादौ तद्विपक्षस्य गुरुलघुपर्यायजातस्यात्यन्तमेकान्तेनासंयोगोऽघटना तत्रागुरुलघुपर्यायाणां केन विरोधो विनाशनं भवेत् ? नैव केनचित् । ततः केनापि विनाशाभावात्सदैव प्रतिप्रदेशमनन्ता अगुरुलघुपर्यायाः । " तथाचाह 1 एवं तु तेहिं अगुरुलघुपज्जहिं संजुतं । होइ अमुदयं कापाचा ।। एवं तु सति चतुर्णामप्यरूपिकायानामरूपिणामस्तिकायानां धर्मास्तिकायप्रभृतीनामेकैकाव्यं यदसू द्रव्यं तद् भवति प्रत्येकमनन्तैरगुरुलघुपर्यायैः संयुक्तम् । तदेवंभावित एकैक श्राकाशप्रदेशो ऽनन्तैरगुरुलघुपर्यवैरुपेतः । बृ० १४० । अगरुलहुचतगुरु अगुरुलधूपघातप राघातांच्यासलक्षणनामकर्मप्रकृतिचतुष्टये कर्म० १ कर्म । अगरुनदुणाम- अगुरुलघुनामन्- २० नामकर्मभेदे दयादगुरुलघु स्वयं शरीरं जीवानां भवति । स० । अंगं न गुरु न लहु जायद जीवस्स अगरुलहुउदया । अगुरुलघुरयादगुरुलघुनामोदयेन जीवस्य शरीरं न गुरु न लघु जायते भवति किन्तु अगुरुलघु यत एकान्ते गुरुत्वे हि वोदुमशक्यं स्यात्, एकान्तलघुत्वे तु पायुना पहियमाणं धारयितुं न पायेंत यदुदयाखन्तुशरीरं न गुरु न लघु नापि गुरुलघु किन्तु अगुरुलघुपरिणामपरिणतं भवति तद्गुरुलघु मामेत्यर्थः । कर्म० १ कर्म० | प्रब० । श्रा० । पं०सं० । यदु , Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) अगरुलपरिणाम अभिधानराजेन्द्रः। अ (आ) गारधम्म अगरुखहुयपरिणाम-अगुरुलघुकपरिणाम-पं० अगुरुलघुकमे- रायाणं ग्वाविस्सामो! मंती कण तेसिं मंतं नाऊण राइणो विश्नव परिणामः, परिणामपरिणामवतोरभेदादगुरुलघुकपरिणामः । वे । रम्मा वुत्तं-कह मे एहंतो अप्पा रक्स्त्रियव्यो विदेहनारअजीवपरिणामनेदे, स्था०१०ठा0। अगुरुलघुपरिणामस्तु पर दतुम्; हवामंतिणा भणिय-महाराय!अगहिल्लिहिं पि अम्हेडिं माणोरारज्य यावदनन्तानन्तप्रदेशिका: स्कन्धाःसूदमाः। सूत्र० गहिल्लीहोऊण वायव्वं । न अन्नदा मुक्खो।तो कित्तिमगहिनी१ श्रु० १ ० १ उ०। होउं ते रायमच्चा तेसि मज्के निप्रसंपयं रक्त्रंता चिटुंति । अमरुलदुपरिणामेणं भंते ! कतिविहे परमत्ते । गोयमा! तो ते सामंता तुझा, अहो रायमच्या विषम्हसरिसा सजाएगागारे परमत्ते। यत्ति। नवारण तेण तेहिं अप्पा रक्खिओ। तो कालंतरेण सहअगुरुबघुपरिणामो भावादिपुलानां"कम्मणमणभासाईएया-| बुही जाया।नवोदगे पीए सब्वे झोगा पगश्मावमा सुत्था संवु. ई अगुरुनहुयाई" इतिवचनात् । तथा अमूर्तरव्याणां चाकाशा. त्ता । एवं दूसमकाले गीयत्थकुलिंगीहिं सह सरिसो होऊण दीनाम् । अगुरुलघुपरिणामग्रहणमुपलक्षणम्, तेन गुरुबघुप- | वटुंता अप्पणो समय भाविणं परिवालितो अप्पाण निव्वाहरिणामोऽपि द्रष्टव्यः । स चौदारिकादिष्व्याणां तैजसद्रव्यपर्य स्संति । ती०११ कल्प०। न्तानामवसेयः । “ ओरालियवेउब्विय-पाहारगतेय गुरु अगाढ-अगाद-त्रि0 अवगाढे, सूत्र०१०१३०। बहू दवा । " इति वचनात् । प्रज्ञा० १३ पद । अगाढपम्म-प्रगाढमझ-त्रि० अगाढा तत्वनिष्ठा प्रज्ञा बुदिर्यस्य अगरुवर-अगुरुवर-पुं० कृष्णागरी, झा० १७ अ०। सोऽगाढप्रज्ञः । परमार्थपर्यवसितबुझौ, " अगादपम्मेसु विभाअगलंत-अगलत-त्रि0 अस्राविणि, "असती मोयमहीए कय वियप्पा, अन्नं जणं सपन्न परिहवेज्जा।" सत्र० १ ० १३ अग कप्प अगलंत सत्तए जिसिरे" व्य०७०। अ (आ) गार-अगार-न० गृहे, दश०१०। अगै?महअगलिय-अगनित-त्रि० अपतिते, "अगनिअणेहाणवट्टा-ई पदादिभिनिवृत्तमगारम् । दशा० १० अ० । विशे। स्था॥ अनु०। सूत्र० । आचा। प्रव०॥ पश्चा०नि००। प्रा०म०, जोअण लक्खु विजाउ। वरिससरण वि जो मिल- सहि सो द्वि०(अगारनिकेपः) अगारंद्विविधं व्यभावभेदात् । तत्र द्रक्खहंसो ठाउं य"। प्रा०१पाद । व्यागारमगैर्दुमदृषदादिभिनिवृत्तम् । भावागारं पुनरगैर्विपाकअगविह-अगवेषित-त्रि० गवेषणया अपरिभाविते, "अगविठ कालेऽपि जीवविपाकितया शरीरपुदमादिषु बहि-प्रवृत्तिरहिस्म न गहणं, न होइन य अगहियस्स परिभोगो।" पिं० "अ- तैरनन्तानुबन्धादिभिनिवृत्तं कषायमोहनीयम् ।" समरेसु य गविट्ठा य गविट्ठा, णिप्पमा धारणदिसासु" व्य० ४ म०। अगारेसु, संधीसु य महापहे" अगारेषु शुन्यगृहेषु । उत्त. अगहणवग्गणा-अग्रहण वर्गणा-स्त्री० अल्पपरमाणुरूपत्वेन । १०। "अगारमावसंतस्स, सम्वो संविजए तहा" सूत्र०१ स्थूलपरिणामतया च स्वभावाजीवानां ग्रहेऽसमागच्चन्तीषु | श्रु० ३ ०२ उ०। विशे० । अगारंद्विविधम्-खातमुच्छ्रितं च । वर्गणासु, कर्म०५ कर्म० । पं० सं० । (श्रासां स्पष्टं स्वरूपं तत्र खातं नूमिगृहादि, उच्छ्रितमुच्छ्रयेण कृतम, नभयं भूमि'वग्गणा' शब्दे दर्शयिष्यते) गृहस्योपरि प्रासादः। पञ्चा०१ विव० । स्थाने च। " सिंगाराअगहिय-अग्रहीत-त्रि० न० त० अस्वीकृते, पश्चा० १७ विव०।। गारचारुवेसा" औ० । प्रगारं गृहं तद्योगाद् । विशे० । अगारं अगहियगहण-अगृहीतग्रहण-न0 साधुभिरस्वीकृतभक्तादि गृहं तदेषां (वा) विद्यते इत्यादिगणत्वादच्प्रत्ययः।गृहस्थे, दातव्याव्ये, “पडिबंधणिरागरणं, केश अम्ने अम्गहियगइणस्स" पु० । दश १ अगारत्य-अगारस्थ-पुं० अगारं गृहं, तत्र तिष्ठन्तीति भगारपश्चा० १७ विव०। स्थाः। गृहस्थेषु, आचा०१ श्रु० ए ०१० ॥ अगहिझगराय-अग्रहिलकराज-पुं० राजनेदे, (ती.)तत्क अ (आ) गारधम्म-अगारधर्म-पुं० न गच्छन्त्य मा वृक्काथा चैवम्-केश पुण अगहिल्लगरायअक्खाणगविहीए कालाइ दोसो वि अप्पाणं निब्वाहस्संति, तं च अक्खाणयमेवं पन्न स्तैः कृतमा समन्ताजाजत इत्यगारं गृहम् । तत्र स्थितानां ध. वंति पुवायरिया-पुवि किर पुडवीपुरीए पुनो नाम राया । त मोऽगारधर्मः । शाकपार्थिवादित्वान्मध्यमपदसोपी समासः । देशविरतो, प्रा० मा हि०। स्स मंती सुबुक्की नाम। अन्नया लोगदेवो नाम नेमित्तिओ प्रागओ। सो यसुबुकिमंतिणा भागमसिं कालं पुछो । तेण भणियम्- पंच य अणुव्बयाई, गुणव्वयाई च होति तिन्नेव । मासाणंतरे इत्थ जलहरो बरिसिस्स । तस्स जलं जो पाहिश सिक्खावयाइ चउरो, गिहिधम्मो वारसविहो य । १३ । सो सव्वो वि गहलीभूत्रो भविस्स । किात्तए वि काले गए पञ्चाणुव्रतानि स्थूलप्राणातिपातविरत्यादीनि गुणव्रतानि च सुबही जवस्स । तज्जलपाणेण पुणो जणा सुत्थीभविस्संति। भवन्ति, त्रीएपेव दिग्वतादीनि शिक्कापदानि चत्वारि सामायितओ मंतिणा तं राइणो विनतं । रमा विपमहग्घोसेण वारिसं- कादीनि, गृहिधर्मों द्वादशविधस्तु एष एवाणुव्रतादि। अवतागहत्था जणो आश्फो।जणेण वि तस्संगहो कओं।मासेण बुछो दिस्वरूपं चावश्यके चर्चितत्वानोक्तमिति गाथार्थः दशनि०६ मेहो । तं च संगहियं नीरं कालेण निविणं लोएहिं नवोदगं अ० । ध० । तत्र सामान्यतो नाम सर्वविशिष्टजनसाधारणानुष्ठाचेव पाचमाढतं । तो गहिनीनूत्रा सवलोपा सामंता गा-| नरूपः, विशेषात् सम्यग्दर्शनाणुव्रतादिप्रतिपत्तिरूपः, चकार यति नच्चंति सिजाए वि चितो । केवलं राया अमच्चो म नक्तसमुच्चय इति । तत्राचं भेदं दशभिः श्लोकैदर्शयतिसंगहि जलं न निट्टियं ति । तं चेव दो वि सुत्था विति। "तत्र सामान्यतो गृह्य-धर्मो न्यायार्जितं धनम् । तो सामंताईहिं विसरिसं चिके रायअमच्चहि निरिक्खिऊण | वैवाह्यमन्यगोत्रीयैः , कुलशीनसमैः समम् ॥ ५ ॥ परप्परं मंतिनं । जहा गहिरो रायामंती या एए अम्हाहितो वि शिष्टाचारप्रशंसाऽरि--षम्वर्गत्यजन तथा। विसारसीयारा । तओ पए अवसारिऊण अवरे अप्पतुल्लायारे | इन्द्रियाणां जय उपप्तस्थानविवर्जितम् ॥ ६ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) अगारधम्म भनिधानराजेन्दः। अगिलाय सुप्रातिवेशिमके स्थाने, नातिप्रकटगुप्तके । हस्थे च यदि चैकेन्द्रियादौ श्रयतेऽभिधीयते आईते प्रवचने अनेकनिर्गमहार-गृहस्य विनिवेशनम् ॥ ७ ॥ तां च कुर्वन् स गृहस्थोऽपि सुव्रतः सन् देवानां पुरन्दरादीनां पापभीरुकताख्याता, देशाचारप्रपासनम् । लोकं स्थानं गच्छेत् , कि पुनर्यो महासत्वतया पञ्चमहाव्रतधासर्वेष्वनपवादित्वं, नृपादिषु विशेषतः ॥ ८ ॥ री यतिरिति । "सेभो अगारवासो त्ति, इ भिक्खू न चित. आयोचितव्ययो वेषो, विभवाद्यनुसारतः । ए" उत्त०२ अ०। मातृपित्रचनं सङ्गः, सदाचारैः कृतज्ञता ॥ ६ ॥ अगारि (ण) अगारिन्-० गृहस्थे, सूत्र० १ श्रु०१४ अ० । अजीर्णेऽभोजनं काले, नुक्तिः सम्पदलोलता । आचाग का "अगारिणो वि समणा भवंतु, सेवंति उतेवि तह वृत्तस्थज्ञानवृक्षाही, गहितवप्रवर्तनम् ॥१०॥ पगारं" सूत्र०२ श्रु० ६ अ० । भर्तव्यतरणं दीर्घ-दृष्टिधर्मश्रुतिर्दया। अष्टबुद्धिगुणैर्योगः, पकपातो गुणेषु च ॥ ११॥ अगारिकम्प-अगारिकर्मन्-न० अगारिणां कर्माऽनुष्ठानम् । गृसदाऽननिनिवेशश्च, विशषज्ञानमन्वहम् । हस्थानां सावद्य प्रारम्भे, जातिमदादिके च। "णिक्षम्म से से. यथाई मतिथौ साधी, दीने च प्रतिपन्नता ॥१२॥ वइ गारिकम्म, ण पारए हो विमोयणाए" सूत्र०१०१३०) अन्योन्यानुपघातेन, त्रिवर्गस्यापि साधनम् । अगारियंग-अगाय्येडर-न० अगारिणां गृहस्थानामङ्गं कारणअदेशकालाचरणं, बलाबनविचारणम् ॥ १३ ॥ म् । जात्यादिके मदस्थाने, सूत्र० १ श्रु० १३ अ० । यथार्थलोकयात्रा च, परोपकृतिपाटवम् । अगारी-अगारी-स्त्री० गृहस्थस्त्रियाम, व्य० १००। म्हीः सौम्यता चेति जिनैः, प्रज्ञप्तो हितकारिनिः" ॥ १४ ॥ (दशनिः कुलकम् ) अगारीपमिबंध-अगारीप्रतिवन्ध-पुं०अगार्याः प्रतिवन्धोऽगारि. तत्र तयोः सामान्यविशेषरूपयोगृहस्थधर्मयोर्वतमपक्रान्तयोमध्ये प्रतिवन्धः। यत्रागा-विषये श्रात्मपरोनयसमुत्था दोषा इत्येसमान्यतो गृहिधर्म इति अमना प्रकारेण हितकारिभिःपरोपकर- वरूप गृहियोषित्प्रतिबन्धे, व्य०४०। णशीलर्जिनरहद्भिःप्राप्तः प्ररूपित इत्यनेन संबन्धः॥ध०१अधि०। अगाह-गाध-त्रि० गम्नीरे, स्था०४ ग०४०। (न्यायार्जितधनादिपदानामर्थः ‘णायज्जिय' शब्द) अगिज्क-अग्राह्य-त्रि० हस्तादिना ग्रहीतुमशक्ये “तओ अ. अगारबंधण-अगारबन्धन-न० क०स०। पुत्रकाबधानधान्या गिका पामत्ता, तं जहा-- समए परसे परमाणू" स्था०३ दिरूपे गृहपाशे, आचा० १ श्रु० ५ १०४ उ० ॥ “एवं समुट्ठिए ग. १० । अनाश्लेष्ये, “ अणेगणरनुयाऽगिज्जे " औ०। जिक्खू , बोसिज्जा गारबंधणं" सूत्र०१ श्रु० ३ अ० ३ उ०। अप्रमेये, रा०। अगारव-अगौरव- त्रिन बाध्यादिगौरववर्जिते, प्रश्न अगएिहयन-अग्रहीतव्य- त्रिन ग्रहीतव्योऽग्रहीतव्यः। हेये, ५ सम्ब० द्वा। उपेक्वणीय च । उभयोरपि कार्यासाधकत्वात् । “गझो जो कअगारवास-अगारवास-पुं० गृहवासे, " अगारवासमज्के घ जसाहगो हो" इति कार्यसाधकस्यैव ग्राह्यत्वोक्तेः "णायम्मि सित्ता" न०१५ श०१०। गेपिहयवम्मि, अगेण्डियन्वम्मि चेव अथम्मि" उत्त०१०। इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे य ऽहं दुहावहं। आव०। विहंसाधम्ममेव तं, ति विजं कोऽगारमावसे ॥ १॥ अगिछ-अगृत-त्रिका न० त० अनध्युपपन्ने प्रमूर्चिते, “अगि. (इहलोग इत्यादि ) हाऽस्मिन्नेव लोके हिरण्यस्वजनादिकं | के सहफासेसु, प्रारंजेसु अणिस्सिए" सूत्र० १ श्रु० अ० पुःखमावहति. (विक ति)विद्याः जानीहि । तथाहि- "अर्था- "वहिम्मि अमुच्छिए अगिद्धे अमायउंचं पुत्राणप्पुसाए " नामर्जने पुःख-मर्जितानां च रकणे । आये दुःखं व्यये पुःखं, | अगृद्धःप्रतिबन्धाभावेन । दश०१० अ० । धिगर्थ पुखजाजनम् "॥१॥ तथाहि-"रेवापयः किसलयानि च अगिलाइ-अग्लानि-स्त्री० अखेदे, स्था०७०भ०"अगिसल्लकीनां विन्ध्योपकएरविपिनं स्वकुलं च हित्वा । किं ताम्यसि हिप गतोऽसि वशं करिष्याः स्नेहो निबन्धनमनर्थपरम्परा बार प्रणाजीवी, णायब्वो वीरियायारो." पंचा० १५विव०।याः" ॥१॥ परलोके च हिरण्यस्वजनादिममत्वापादितकर्मजं गिलाणामणो मनोवाकापहिं अजज्जरमाणेत्यर्थः" नि० चू०१ उ०। पुःखं जवति, तदप्यपरं कुखमावहति, तपादानकोपादाना- अगिला-अग्लानि-स्त्री० निर्जरार्थमात्मोत्साहे, व्य०४३०1 गिला. दिति भावः। तथैतदुपार्जितमपि विध्वंसनधर्म विशरारुस्वभावं व्याख्यानार्थमाह--"निववेटुिं व कुणतो, जो कुणई एरिसा गिला गत्वरमित्यर्थः, श्त्येवं विद्वान् जानन् कः सकाऽगारवास हो । पहिलेहुवाई, चेयावमियं तु पुवुत्तं" यो नाम नृपष्टिं गृहवासमावसेतू,गृहवासं वाऽनुबनीयादिति?। उक्तंच"दाराः | राजवेष्टिमिव कुर्वन् वैयावृत्त्यं करोति एतादृशी भवति गिला. परिजवकाराःबन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः। कोऽयं जनस्यमोहो?, ग्लानिस्तस्याःप्रतिषेधोऽगिला। तयाकरणीयं वैयावृत्त्यम, किं ये रिपवस्तेषु सुहृदाशा"॥१॥ मूत्र. १ श्रु० २ अ० २२० । तदित्यत आह-प्रतिलेखोत्थापनादिकं भाण्डस्य प्रत्युपेक्षणमु. गारं पिअ आवसे नरे, अणुपुव्वं पाणेहि संजए। । पविष्टस्योत्थापनमादिशब्दात् भिक्षानयनादिपरिग्रहः, एतत्पूसमता सम्वत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे स लोगयं ॥१३॥ वोक्तं वैयावृत्त्यम् । व्य०१ उ० । “अगिलाएणं भत्तेणं पाणणं अगारमपि गृहमप्यावसन् गृहवासमपि कुर्वन् नरो मनप्यः विणएणं वेयावड़ियं करेइ"भ०५श ४ उ० । ( अणुपुब्वं ति ) श्रानुपा श्रवणधर्मप्रतिपत्त्यादिलक्षणया | अगिलाय-अम्लान-पुं० अग्लाने, “ कुज्जा भिक्खू गिलाप्राणिषु यथाशक्त्या सम्यग यतः संयतस्तउपमर्दानिवृत्तः, कि- णस्स, अगिलाए समाहिए" भिक्षुः साधुग्र्लानस्य वैयावृमितिः, यतः समता समभावः प्रात्मपरतुल्यता, सर्वत्र यता गृ- त्यमग्लानोऽपरिश्रान्तः कुर्य्यात, सम्यक् समाधिना ग्लानस्य Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अगिलाय अनिधानराजेन्द्रः। अगुणपहि वा समाधिमुत्पादयेदिति । सूत्र० १ श्रु० ११ अ० । जाए, पत्ता दुक्खपरंपरा तम्हा तं गाउ बुद्धीहि, सब्वभावेण अगीय-अगीत-पुं० अगीतार्थे, व्य० १ उ० । सव्वहा । गीयत्थेहिं भवित्ताणं, कायब्धं निकलुसं मणं" अगीयत्थ-अगीतार्य--पुं० न० ब० । अनधिगताचारप्रकल्पा- (महा०६०)"शाल्यादिबीजयुतोपाश्रये न स्थेयमिति निषेध्य दिनिशीथान्त श्रुतार्थे, जी० १ प्रतिक (अगीतार्थो येन छेदश्रु द्वितीयपदे 'विइयपथकारणम्मि पुदिव वसभा पमज्ज जततार्थो न गृहीतो गृहीतो, वा परं विस्मारितः । वृ०१ उ० । णाए' इत्याद्युक्त्वा, "अगीयत्थस्स न कप्प-इ तिविहं ज यणं तु सो म जाणाइ । अणुनवणाए जयणाए, जयणं सपअथागीतार्थोपदेशः सर्वोऽपि दुःखावहो भवतीत्याह क्सपरपक्वजयणं च" (०२०) इत्यगीतार्थस्य त्रिविधअगीअत्थस्स वयणेण, अमिश्र पि न धुंटए । यतनाज्ञानप्रदर्शनं 'घसइ ' शब्दे । अगीतार्थेन साकं जेण नो तं भवे अमयं, जं अगीयत्थदेसिअं॥४६॥ न विहरेत् । “ गीयत्थो य विहारो, वीनो गीयत्यणिपरमत्यो न तं अमयं, विसं हालाहलं खतं ।। स्सिो होइ " इत्यनेन विहार' शब्दे दर्शयिष्यमाणे न निषेत्स्यमानत्वात्) न तेण अजरामरो हुत्था, तक्खणा निहणं वए ॥१७॥ अणहीयपरमत्था वि, गोयमा ! संजए भवे । अनयोर्व्याख्या-अगीतार्थस्य ( संविग्गए नाम एगे नो गीय तम्हा ते वि विवन्जिजा, दुग्गईपंथदायगे ।। ४३ ॥ स्था १, नो संविग्गा नाम एगे गीयत्था २, संविग्गा नाम एगे गीयत्था वि ३, नो संविग्गा नाम एगे नो गीयत्था वि ४)। हे गौतम ! ये संयता अपि संयमवन्तोऽपि (अणहीयपरमपूर्वोक्तप्रथमचतुर्थभङ्गतुल्यस्य वचनेन अमृतमपि (न घुटए त्थे त्ति) अनधीता अनन्यस्ताः परमार्था आगमरहस्यानि यैस्ते त्ति) नपिबेत् । अगीतार्थोपदेशेनामृतवद् दृश्यमानं सुन्दरम. अनधीतपरमार्थाः, अगीतार्था इत्यर्थः। ते यस्मात् अज्ञातव्यप्यनुष्ठानं न कुर्यादिति परमार्थः । येन कारणेन न तदमृतं भ केत्रकालनावौचित्या नवन्तीति शेषः। तस्मानानगातार्थान् वि. वेत् यदगीतार्थदेशितमगीतार्थोपदिष्टम्। पतदेव विशेषेणाह वर्जयेत् । विहारे एकत्र निवासे वा दूरतस्त्यजेत् । अपिशब्दोऽ परमार्थतः तत्त्वतस्तदमृतं न गुणकारीत्यर्थः । तद् विषं हाला. त्र भिन्नक्रमः, स च यथास्थानं योजित एव । किंभूतान् दुर्गतिपहलं (खु त्ति) निश्चितं, न तेन अजरामरो मोक्षसुखभाग् भ थदायकान् तिर्यनारककुमानुषकुदेवरूपऽर्गतिमार्गप्रापकानित्यचेत् । तत्क्षणादेव निधनं विनाशमनन्तजन्ममरणलक्षणं व. थः। ग०२ अधि०। अगीतार्थेन सह सङ्गोन करणीयः। "अगीजेत् प्राप्नुयात् , अगीतार्थोपदेशेनामृतपानस्यापि अनन्तसं यस्थस्स कुसी हिं, संगं तिविहेण वजई । मोक्खमग्गसिमे सारहेतुत्वात् । उक्तं च-" जय अगीयत्थो, जं च अगी. विग्धे, पहम्मी तेणगे जहा ॥ पज्जबियं हुयवहं दई, णीसंको यत्थनिस्सिो होइ । बट्टावेइ य गच्छं, अणंतसंसारित्रो तत्थ पविसिओ । अत्ताणं पि महिज्जासि, नो कुसीले समल्लिहोइ ॥ १॥ कह उ जयंतो साहू, बट्टावई य जो उ गच्छंतु ।। ५॥ वासलक्खं पि सूलीप, संभिन्नो अच्चियासुहं । अगीयसंजमजुत्तो होउं, अणतसंसारिश्रोभणिो ॥२॥दव्वं खितं स्थेण समं पक्कं, स्वणकं पिन से वसे ॥ विणा वि तंतमतहि, कालं, भावं पुरिसपडिसेवणाओ य । न वि जाणई अगीश्रो, घोरदिछीविसं अहिं । मसंतं पि समल्लीया, णागीयत्थं कुसीलउस्सग्गाववाइयं चेव ॥३॥ जहाठियदव्वं ण जाणइ, सचित्ता- गं॥ विसं खाएज हालाहलं तं, किर मारे भक्षणं । चित्तमीसि चेव । कप्पाकप्पं च तहा, जोग वा जस्स जं ण करेंगीयत्थसंसम्गि, विढवे लक्खं अश तहि ॥ सीहं बग्धं होइ" ॥४॥ इत्यादि उपदेशमालायामिति विषमाक्षरेति गाथा- पिसायं व, घोररूपं भयंकरं। बोगिझमाझं पिबीपज्जा, ण कुसी. छन्दसी । ग०२अधिक महा० । “अबहुस्सुए अगीय-त्थेणि- लमगं गीयत्थे । सत्तजम्मंतरं सत्तुं, भवमग्निज्जा सहायरं । सिरए वा धारए व गणं । तद्देवसियं तस्स, मासा चत्तारि | वयनियमं जो विराहेज्जा, जणयं पिक्खेतयं तिश्रो । महा। भारिया होति" बृ०१ उ० । (इत्यगीतार्थस्य गच्छधारणनि- ६ अ० अगीतार्थस्य स्वातन्त्र्येण विहारेऽनन्तसंसारितैकान्तिधो 'गणहर' शब्द) “अगीयत्थो दायव्वस्स धारेयव्वस्स वा | क्यनाथा बेति प्रश्नः १४ अनोत्तरम्-अगीतार्थस्य स्वातन्त्र्यविअकप्पिो " उच्यते नर्तकीदृष्टान्तेन गाहा-'जह नट्टे जहन- हारेऽनन्तसंसारिता प्रायिकीतिज्ञायते, कर्मपरिणतेवियादिटिया, अयाणंतिया विवजासं । करेइ गिज्झमाणे, नट्टे रणटिया | ति । सेम०१ उहा। य गरहिया य"१॥ भवइ एवमगीवत्थो अगीयत्थी य न सके। | अगुण-अगुण-पुं० दोघे, नं० । गुणविरोधिनि दोष, गुणरहिते, समायरिउं पडिलेहणाइ उवदिसि वा परसुं' पं० चू। बृ. त्रि०ावाचा नि० चू० । (अगीतार्थो गच्छसारणां कर्तुं न शक्नोतीति 'ग अगुणगुण-अगुणगुण-पुं० अगुणे एव कस्यचिद् गुणस्वेन विच्छसारणा' शब्द) अगीतार्थो दुस्त्याज्यस्तत्सङ्गेन दुःखप्राप्तिः परिणममाणे, स वऋविषयः यथा गौर्गबिरसजातकिणस्कन्धो "अगीयत्यत्तदोसेणं, गोयमा ! ईसरेण उ । जपत तं निसा गोगणस्य मध्ये सुखेनैवात्ति ! तथा च " गुणानामेव दोर्जन्यामेत्ता, लहु गीयत्थो मुणी भवे" महा०६ अ०। ('इसरै' शब्दे झुरि धुर्यों नियुज्यते। असंजातकिणस्कन्धः, सुखं जीवति गार्गश्रभिः राजेन्द्र- द्विना पृ० ६४५ तत्कथानकम् ) “सारा निः" ॥१॥ श्राचा०१ श्रु० २ ० १ ०। सारमयाणित्ता, अगीयत्यत्तदोसो।चिंतियमेतेणाविरज्जाए, पावगं जं समज्जियं । तेणं तीए अहं ताए, जा जा होहि नियं अगुणत-अगुणत्व-न० अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावस्तत्त्वम् । तणा! नारयतिरियकुमाणु--सत्तं सोचा को घिई लभे?" (र गुणानावे, “अज्जयणगुणी भिक्खू, न सेस इणो पश्न को ज्जदिया" शब्दे कथानकम् ) "अगोयत्यत्तदोसणं, भावसुद्धि देऊ । अगुणत्ता २ हेक, को दितोसुवामिव" दश०२०७० ण पावए । विणा भावसुद्धीए, सकलुसमाणसोमणी भवे- अगाएपेहि (ए)-अगुणप्रेचिन्त्रि० अगुणान् प्रेक्वते तच्चीगुथोत्रकलुसहियय-त्तं अगीयत्थत्तदोसो। काऊणं लक्खण- 1. सश्च यः । अगुणदर्शनशीले, दश०५०। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६३) अगुणवज्ज अभिधानराजेन्दः । अग्ग अगुणवज्ज अगुणवर्ज-त्रि० अगुणान् दोषान् वर्जयति सतोऽ-1 काग्रं । सेमीसे देसो । उवचियं णाम देसो सश्चित्तो, अवचियं पिन गृह्णाति श्त्यगुणवर्जकः । सतामप्यगुणानामग्राहके, नं०। णाम देसो अश्चित्तो, जढासीयम्गी, सिं दट्टमित्तं रुक्समां च । अगुत्त-अगुप्त-त्रि० गुप्तिरहिते, "केवमेव अगुत्तो, सहसा अचित्तं कुंतग्गं गतं ॥१॥ णाजोगपवयप्पेहिं" व्य०१० । "असमित्तो मित्ती कीस इदाणिं ओगाहणग्गंसहसा अगुत्सो वा" अगुप्तो गुप्तिप्रमत्तः । पञ्चा० १६ विव०।। ओगाहणग्गं सास-तणगाण उस्सुअचउत्थजागोणं। मंदरविवज्जिताणं, जं चोगाई तु जातियं ॥ ५१ ।। अगुत्ति-अगुप्ति-स्त्रीला मनःप्रभृतीनां कुशलानां निवर्त्तनेऽकुश-| अंजणगदहिमखाणं, कुंतलरुयग्रवरमंदराणं च। लानां प्रवर्तन, स्था० ३ ०१ उ०। प्रोगाहो न सहस्सं, सेसा पादं समो गाढा ॥ ५५ ॥ तो अगुत्तीओ परमत्ताओ,तं जहा-मणअगुत्ती वयअगुत्त अवगाहनमवगाहः, अधस्तात्प्रवेश इत्यर्थः । तस्सग्गं अवगाकायअगुत्ती । एवं णेरड्याणं जाव थणियकुमाराणं पंचिं- हणग्गः शश्ववन्तीति शाश्वताः, गा पञ्चता । ते य ज जंबुद्दीदियतिरिक्खजोणियाणं असंजयमास्साणं बाणमंतराएं धे वेयवारणोते घेप्पंति ण सेसदावेसु. तेसि उस्सुअचउत्थभाजोइसियाणं वेमाणियाएं। गो अवगाहो नवति । जहा वेयकेपणुवीसं जोयणाणुस्सुश्रोतेतो इत्यादि कएल्यम्। विशेषतश्चतुर्विशतिदएकके एता अति सिंचनत्थनागण उज्जोयणाणि सणताणि । तस्स चेवावगाहो दिशन्नाह-एवमित्यादि ( एवमिति) सामान्यसूत्रवन्नारका जवति, सोअवगाहो वेयकृस्स भवति । एवं सेसाण विणेयं । मदीनां तिम्रो गुप्तयो वाच्याः , शेष कराठ्यम् , नवरम, इहैकेन्द्रिय. दरो मेरू तं बजेऊण एवं चन्नागावगाहलक्खणं भणितं तस्स विकलेन्द्रिया नोक्ताः, वाङ्मनसयोस्तेणं यथायोगमसम्नवात् । सहस्समेवावगाहो। जंवा अणदिउस्स वत्पुणो जावतिय संयतमनुष्या अपि नोक्तास्तेषां गुप्तिप्रतिपादनादिति । स्था० प्रोगाढं तस्स अगं श्रोगाहणग्गं । गयं ओगाहणगं ॥२॥ ३०.१ उ० । इच्छाया अगोपनरूपे त्रयाविशे गाणपरिग्रहे, इदानीं श्राएसम्गंप्रश्न०५ आश्रद्वा । नि० चू०। श्रादेसगं पंच-गुलादि पच्छिमंतु आदिस्सं। अगुरुलदुचउक्क-अगुरुलघुचतुष्क-न० । नामकर्मप्रकृतिचतुष्टये, तं पुरिसाण व नोजय, भोयणकम्मादिकज्जेसु ।। ५३॥ कर्म०१ क० (व्याख्या चास्य 'कम्म' शब्द) (आदेसम्ांति ) आदेशो निर्देश इत्यर्थः। तेण प्रादेसण अग्गं मादेशम्गं । तत्युदाहरणं-पंचंगुलादि पंचएहं अंगुलिदवाणं अगुरुनहुणाम-अगुरुबाहुनामन्-ना नामकर्मनेदे, कर्म०१ क० कम्मट्टिताणं जदि पच्छिम आदिस्सति तं श्रादेस जवति । (निरूपणमस्य 'अगरुमहुणाम' शब्दे) । प्रादेसकारणं इम-भोयणकाले जहा सत्तहाणे बहुआण कम्मअगुरुखहुय-अगुरुलघुक-न० अत्यन्टसूदमे भाषामनःकर्म द्वित्ताण इमं पहुयं भोजयसुत्ति आदिसति । एवं कम्माइकजेसु व्यादी, स्था०१० म० (स्पष्टमेतद् 'अगरुनहुय' शब्द)। । वि नेयं । गयं मादेसग्गं ॥ ३ ॥ अगुरुनहुयपरिणाम-अगुरुलघुकपरिणाम-पुं० अजीवपरिणा ___ कालम्ग-कमगे एगा गाहा । ते भष्मतिमभेदे,स्था०१०म०(प्ररूपणा चास्य 'अगरबद्यपरिणाम' शब्द)। काबग्गं सव्वद्धा, कमग्गचतुधा तु दव्चमादीयं । अगुरुवर-अगुरुवर-पुं० कृष्णागरौ, झा० १ श्रु० १ ० । खंधोगाहठितीमु य, जावेसु य अंतिमा जे ते ॥५४ ॥ अगोविय-अगोपित-त्रि० प्रकटे, सूत्र०१ श्रु०७०। कलनं कालः तस्स अगं कालगं, सव्वद्धा, कहं ? समयो अगोरसम्बय-अगोरसवत-पुं० गोरसमात्राऽभक्तके, 'पयोव्रतो | भावनिया लवो मुहत्तो पहरो दिवसो अहारत्तं पक्खो मासो न दध्यत्ति,नपयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे, तस्मात्त- उऊ अयणं संवचरा जुगपनिोवमं सागरोवमं प्रोसप्पिणी त्वं त्रयात्मकम्” ॥१॥ श्राव०४ अ०। नस्सप्पिणी पुमगलपरियदो तीतकमणागतद्धासवका एवं सब्वेअम्ग-अग्र-न० अङ्ग-रक् , नलोपः । उपरिभागे, शेषभागे, सिं अगं भवति । बृहत्त्वात् कालगं गयं ॥४॥ इदाणि कमगंआलम्बने, पूर्वभागे, वाच०।। कमो परिवाडी, परिवामीए श्रमगं कमगं, तं चउन्विहं देवक मगं आदिसहातो खेत्तकमगं कालकमम्गं जावकमगं चेति । दाणि अम्गे त्ति दारं दसजेदं भमति पच्छदेण जहासंखेण उदाहरणा-खंध इति दब्बग्गं । ओगाह दब्बो ? गाहण २ श्राए इति खित्तम। गितीसु यत्ति कालम्गं । भावेसु यत्ति जाधग्गं । स ३ काल ४ कम ५ गणण ६ संचए जावे । । पतेसिं चउएह वि अंतिमा जे ते अम्गं भवति । उदाहरणं अग्गं भावो ए तु पहा जहा-दुपएसियो चउपंचवसत्तटुणवदसपपसिओ असंख, बहुय नपचारतो तिविहं १०॥४ ॥ एवं जाव ताणंतपएसितो खंधो । ततो परं अम्मो बृहत्तरोन नवति सो खंधो दव्यम्गं । एवं एगपएसोगाणामठवणाओ गताओ । दवग्गं दुविहं-आगमयो णो आग. दादि जाव असंखेयपदेसावगाढो सुदुमखंधो सबलोगे ततोपमओ य । आगमओ जाणए अणुवनुत्ते, णो आगमो जाणगस रं अपणो उक्कोसावगाहणंतरो न जवति । स एव खेत्तगं । रीरं भवसरीरं जाणगभव्वसरीरवरितं तिविहं तं दिसंति । एवं पगसमयहितियं दब्वं दुसमयहितियं जाव असंखेजतिविहं पुण दव्वग्गं, सञ्चित्तं मीसगं च अञ्चित्तं । समयहितियं जं नो परं अराणं उक्कोसतरट्ठितिजुत्तं ण नषति रुक्खग्गं दस नवचित-अवचित तस्सेव कुंतग्गं ।। ५०॥ तं काबगं । चसद्दा जातिभेयमवेक्ख उदाहरणं, जहा-पुढाब(तिविहं ति)तिनेयं, पुणसद्दो दब्बग्गावधारणत्थं । सञ्चित्तं काइयस्स अंतो मुहत्तादारन जाव वासीवरिससहस्सहिमीसग च अचित्तं । पच्चरणं जहासंखं उदाहरणा-सश्चित्ते वृ. तिओ कालजुत्ता भवात, एवं सससु वि गयं । चित्तसु Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) अभिधानराजेन्द्रः। अग्ग अग्ग सु एगसमयादारम्भ जाव असंखकालट्टिती जाता। परमाणु' चमचूलग्गं ग्वयारम्गं अगं नवति, तेण नम्मति पंचमं अग्गं । द्वितीतो परं अमो परमाणू उक्कोसतरठितीभो ण भवति, तं शिष्य आह-कथम?। आचार्य पाह-(जमिति) यस्मात् कारपरमाणुं जानीत कासगं । एवं जीवाजीवेसु व्यउजं णेयं,पवं च- णात् ( उवचरितु त्ति) उवचरितु गृहीत्वा (ताई ति) चउरो सहो अवक्खेति ,भावांएगगुणकालमा त्ति जाव प्रणतगुणका- अम्गाई (तस्से ति) आचारप्रकल्पस्य उपचारो ग्रहणं । ण इति लग त्ति भावजुतं तं भावगं नवति । ततो परं अम्मो नकोस.| प्रतिषेधे (हरडा तु) तेष्वगृहीतेषु सीसो पुच्चति-पत्थ दससतरोण जवति, पतं भावां। गतं कम ॥ ५ ॥ दाणि गण- विहवक्खाणे कयमेण अम्गणाहिकारो भम्मति ? । णगं-पगादी जाव सीसपहेलिया ततो परं गणणा ण पयति उपचारणे तु पगतं, उवचरिताधीतगमितमेगट्ठा । तेण गणणा ते सीसपहेलिया अग्गं । गतं गणणग्गं ॥६॥ संचय-नावग्गा, दो विनमंति उवचारमेत्तमेयं, केसिंचि ण तं कमो जम्हा ॥ ५ ॥ तणसंचयमादीणं, जं उनरि पहाण खागो जावो । उवचारो वक्खातो। पगतं अहिगारः, प्रयोजनेनेत्यर्थः । तुश ब्दो अवधारणे पादपूरणे वा, उवयारसहसंपञ्चयत्थं एगहिया जीवादिक्कए पुण, बहुयग्गं पज्जवा हाँति ॥ ५५॥ भमंति। उपचारोत्ति वा अहितंति वा आगमियं ति वा गृहीतं तणाणि दजादीणि तेसिं चउपिसनेत्यर्थः । तस्स वयस्स उ-1 ति वा एगळं ( उवचारमेत्तमेयं ति) जमेयं पंचम अम्ग अम्गत्तेवरिं जा पूली तंतणगं भमति, आदिसहातो कट्ठपवालाती णोवनरिज्जत्ति, एतं उपचारमात्र। वचारमेत्तं नाम कल्पनामा. दट्टब्बो । गयं संचणगं ॥७॥ श्दाणिं नावग्गं मूलदारगाहाए । कह?, जेण पढमचूनाए वि अमासहो पवत्तर, एवं वितियचभणियं ॥ ॥ (अगं भावो तु त्ति) तं एवं वत्तव्यं भावो म उसु वि अम्गसद्दो पवत्त त्ति, तम्हा सम्वाणि अग्गाणि । सब्वगागगं । किमुक्तं भवति-भाव एव अग्गं नावगं बन्धानुलोम्यात् । पसंगे य एगगा कप्पणा जा सा उपचारमात्र नवति । केषांचि(अग्गं नावो न ) तं भावग्गं दुविहं-आगमओ णो आगमओय । दाचार्याणामेवमाद्यगुरुप्रणीतार्थानुसारी गुरुराह-(ण तं कश्रागमो जाणए उवउत्ते,णो आगमत्रो। इमं तिविहं-पहाणभा मो जम्हा इति) ण त्ति पमिसेहे (तं ति ) केश् मयकवगं बहुयनावग्ग उवचारनावगं, एवं तिविहे । तुशब्दोऽर्थज्ञाप प्पणा ण घमतीति वक्कससं । कमो त्ति नाम परिवामी, अनुक्रनार्थः । झापयति-जहा पतेण तिविडभावग्गेण सहितो दश म इत्यर्थः (जम्हे त्ति) चउसु वि चूनासहितासु परीय पंचमी विहग्गणिक्खेवो जवति , तत्थ पहाणभावम् उदइयादीण ना चूमा दिजति,तम्हा कमोवचारापंचमी चूडा अग्गं भवति ।उववाण समीवओ पहाणे खातिगो भावो पहाणो त्ति गयं । श्दा चारेण अग्गाण वि अग्गं वक्कसेस दट्ठश्वामिति । गतं मूलग्गदार णि बहुयम्गं भमति ॥ ६॥ १० ॥ नि० चू० १ उ० ।। जीवा पोग्गलसमया, दव्वपदेसा य पजवा चेव । । अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे । थोवा ताणंता, विसेसमहिया दुवे पंता ॥५६॥ अग्रं भवोपग्रादिकर्मचतुष्टयम् । मृनं घातिकर्मचतुष्टयं, यदिवा जीवो श्रादी जस्स ग्क्कगस्स तंजीवाश्कंग , तं चिमं मोहनीयं मूलम् । शेषाणि त्वग्रं, यदि वा मिथ्यात्वं मूलं, शेषं त्वपोग्गला जीवा समयादब्वा पदेसा पज्जया चेति । पयांम नक्कगे प्रम। तदवं सर्वमग्रं मूलं च (विगिंच इति) त्यजापनय पृथकरु । सव्वत्थोवाजीवा जीवेहिंतो पोग्गलाअणतगुणा पोग्गोहितोस. तदनेनेदमुक्तं जवति-न कर्मणः पौगनिकस्यात्यन्तिकक्कयोऽपिमया अनंतगुणासमपहितोदवा विसेसाहिता दब्वेहितोपदेसा त्वात्मनःपृथक्करणम्, कथं मोहनीयस्य मिथ्यात्वस्य च मूलत्वअणतगुणा । जहासंखण तेण भम्मति-बहुयम् पज्जवा हौति बहु मिति चेत्तदशाच्छेषप्रकृतिबन्धः। यत उक्तम्-- "न मोहयति तेण अग्गं बहुपगं बहुत्वेनाग्रं पर्याया भवन्तीति वाक्यशेषः। पुण वृत्त्यबन्ध उदितस्त्वया कर्मणां , न चैकविधयन्धनं प्रकृतिबन्धसदो बहुत्तावधारणत्यो दट्टब्यो।गतं बड्यगं। इयाण स्वचा तो यो महान्। अनादिनवहेतुरेष न च बध्यते नासकृत, त्वयाऽरग्ग-उवचरणं उवचारो नामग्रहणम्, अधिगममित्यर्थः । स च तिकुटिला गतिः कुशलकर्मणां दर्शिता" ॥१॥तथा चागमः-"कई जीवाजीवभावेषु संभवति। जीवाजीवेषु औदयिकादिषु अजी नंते! जीवा अट्टकम्मपगडीओ बंधंति ?। गोयमा ! णाणावरवभावेषु वर्णादिषु । तत्थ जीवाजीवनावाणं पिढिमो जो घेप्प णिजस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्म नियच्चद। सो उवचारम्ग भावगं नवति । इह तु जीवसुत्तभावोवचा दरिसणावरणिज्जकम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज कम्मं नियरगं विहं-सगलसुत्तजावोवचारमगं देससुत्तनावोवचारग्गं च दिसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्चत्तं नियच्छद । च । तत्थ सगबसुयनावोवचारग्गं दिठिवातो दिट्रियातचवा मिच्चत्तेणं उदिएणणं एवं खलु जीवे अध्कम्मपगमीओ बंधर" वा देससुत्तभावोवचारग्गं पाश्च भमति । तं चिमं चैव पक कयोऽपि मोहनीयतयाविनाभावी । उक्तश्च-"णायगम्मि हए प्पज्यणं। कई ?, जो भमति सत्ते, जहा सेणा विणस्सति । एवं कम्मा विणस्सन्ति, मोहपंचण्ह वि अग्गा णं, उवयारेणिदं पंचमं अग्गं । णिजे खयं गए" ॥१॥ इत्यादि । अथवा, मूत्रमसंयमः कर्म वा, जं नवचरितु ताई, तस्सुवयारो ण इहरा तु ॥२७॥ अग्रं संयमतपसी मोको वा, ते मूलाग्रे धीरोऽकोज्यो धीविरा(पंचएह वि इति ) पंच संखा (अग्गाणं ति) आयरग्गाणं ते जितो वा विवेकन दुखसुखकारणतयाऽवधारय । आचा० १ य पंच चूत्रानो । अविसहा पंचग्गावहारणत्थे भएणति । ण-| श्र० ३ ०२ उ० । परिमाणे, नं० । विशे० । सू० प्र० । स्था। गारो देसिवयणेण पायपूरण। जहा-समणे ण रुक्खाणं गुच्चाणं "अगं ति वा परिमाणं ति वा पगा "। श्रा० चू० १ ० । ति। उपचरणं उपचारः, तेण उवचारेण करणभूतेण (दमिति ) उत्ता "भन्ते जेणेव देसमो तेणेव नवागए।देसगं देशान्तम् । अयमाचारप्रकल्पः । (पंचमं अग्गं ति) पंचम अग्गं उपचारण झा० १५ १० उत्कर्षे, समूहे, प्रधाने, अधिके, प्रथमे च । त्रि. अग्गं न भवति । एवं वितियततियचचरग्गा वि भवन्ति । पं.| ऋषि दे, पुं० । वाच०। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) अग्ग अन्निधानराजेन्द्रः । अग्गपिंड श्रय-त्रि० अप्रे नवमभ्यम् । प्रधाने, अन्त०७ वर्ग । पो०। | णेजा, अग्गपिंह उक्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिमं णिनि० चू०भ० । का० । सूत्र० । अत्यन्तोत्कृष्टे च । सूत्र०१ श्रु०२ क्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंम हीरमाण पेहाए, अपि अ० ३ ० । ज०।अग्रे जातो यः । जेष्ठे भ्रातरि, त्रिका याचा परिजाइजमाणं पेहाए, अग्गपिमं परितुजमाणं पेहाए, अअग्गओ-अग्रतम्-अव्य०। अग्ने अग्राद्वा । अग्र-तसिन् । प्राकृते ग्गमिं परिडवेजमाएं पेहार, पुरा अमिणाइ वा अवहा"अतो मो विसर्गस्य"।८।१ । ३७ । इति सूत्रेण अतः स्था राति वा पुरा जत्थो समणमाढणअतिहिकिवणवणिमगा ने मो इत्यादेशः, ड इत् । प्रा० । पूर्ववृत्ती, पूर्वभागावधिके च । वाच। खरू २ नवसंकमंति, से हंता अहमवि खई उवसंकअग्गंथ-अग्रन्थ-पुं० निर्ग्रन्थे, आचा० १ श्रु० ८ ० ३ ०० । मामि, माइट्ठाणं संफामे को एवं करेज्जा । अग्गकेस--अग्रकेश--पुं० अप्रभूतेषु केशेषु, भए श०३३ उ०। (सेभिक्खूि तेत्यादि) स भिकुहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुन रेवं जानीयात् । तद्यथा-अग्रपिएमा निष्पन्नस्य शास्योदनादेग. अग्गक्खंधो-देशी-रणमुखे, दे० ना०१ वर्ग। हारस्य देवताधर्थ स्तोकस्तोकोद्धारस्तमुक्तिप्यमाणं दृष्टा तथा अग्गजाय-अग्रजात-न० । वनस्पतीनामप्रभागे जाते, "अ न्यत्र निक्किप्यमाणं तथा हियमाणं नीयमानं देवतायतनादौ तथा परिजज्यमानं विभज्यमानं स्तोकस्तोकमन्येज्यो दीयमान तथा ग्गजायाणि मूनजायाणि वा खंधजायाणि वा" प्राचा०३ परिनुज्यमानं तथा त्यज्यमानं देवतायतनाश्चतुर्दिसु किप्यमाणं अ० १ ० ८ १०। तथा (पुरा असिणारे वंति) पुरा पूर्वमन्ये श्रमणादयो येषु अअग्गजिब्भा--अग्रजिहा-स्त्री० अग्रनूता जिला अग्रजिह्वा । जिह्वाग्रे, प्रपिएममशितवन्तस्तथा पूर्वमपहृतवन्तो व्यवस्थयाऽव्यवस्थया "सज्ज च अग्गजिम्भाए, नरेण रिसहं सरं"(सज्जमित्यादि) च- वा गृहीतवन्तः । तदभिप्रायेण पुनरपि पूर्वमिव वधमत्र सपस्याकारोऽत्रावधारणे। पम्जमेव प्रथमस्वरलकणं ब्रूयात् । कयेत्या. मह ति । यत्रापिएमादा श्रमणादयः (खद्धं सहति) त्वरितह-अग्रभूता जिह्वा अग्रजिह्वा, जिह्वानमित्यर्थस्तया । इह यद्यपि मुपकामन्ति स भिक्षुरेतदपेकया कश्चिदेवं कुर्यादालोचयेद्यथा हंतेति वाक्योपन्यासार्थः । अहमाप त्वरितमुपसंक्रमामि । एवं परजभणने स्थानान्तराएयपिकावादीनि व्याप्रियन्ते, अग्रजिह्वा च कुर्वन् भितुर्मातृस्थानं संस्पृशेदिन्यतो नैवं कुर्यादिति । च स्वरान्तरेषु व्याप्रियते, तथापि सा तत्र बहुव्यापारवतीति आचा०२०१०५उ। काकपिशाचाम् " प्रगपिडम्मि कृत्वा तया तमेव ब्यादित्युक्तम् । श्दमत्र हृदयम्-पजस्वरोऽग्रे या वायसा संथमा ससिवइया" अग्रपिएमे काकपिएमयां या जिह्वां प्राप्य विशिष्ट व्यक्तिमासादयति तदपेक्कया सा स्वर बहिःक्किप्तायां वायसाः सन्निपतिता नवेयुः । आचा०२ श्रु०१ स्थानमुच्यते । एवमन्यत्रापि भावना कार्या । अनु। अ०५उ०। अग्गतावसग--अग्रतापसक--पुं० । ऋषिभेदे, यद्गोत्रे धनिष्टान. जे भिक्खू णितियं अग्गापमं भुंजइ, मुंजतं वा साइजइ।३१। कत्रम् । “धणिहाणक्खत्ते किंगोत्ते पामते ? । अग्गतावसगोत्ते णितियं धुवं सासतमित्यर्थः । अयं वरं प्रधानं अहया जे पपम्मत्ते"।सू० प्र०१० पाह० । ०।। ढम दिज्जति सो पुण जत्तो भिक्खामेत्तं वा होज्जा। एस सु तत्थो । अधुना नियुक्तिविस्तरःअग्गदारणिज्जामग-अग्रदारनिर्यामक-पुं० अग्रद्वारमूलाव. णितिए तु अग्गपिंडे, णिमंतणो वीलना य परिमाणे । स्थापके, ग्वानप्रतिचारिणि च । प्रव० ७२ द्वा । सानाविए गिही दो, तिमि य कप्पति तु कमेण ।२१३॥ अग्गद्ध-अनार्ध-न० । पूर्वाः, नि० चू०१3०1 णितियग्गा सुत्ते वक्खाया। गिहत्थो णिमंतेत्ति, सादू उ वीसअग्गपनंब--अग्रपलम्ब-पुं० न० । प्रनम्बानामग्रभागे, इमे अ. | णं करेति, सादू चेव परिमाणं करेति. साभावियं गिहत्थो ग्गपलंबा-"तबणाविपरिलोए, कविटुं अंबाड अंबए चेव ।। दो तिम्ति श्राश्वाण कप्पंति, सानाविय कप्पति । णिमंतणो पयं अग्गपलब, णेयब्वं श्राणुपुवीए" ॥ १४ ॥ जणपदसिद्धा पीलणपरिमाणाणं । इमानो तिम्मि वक्खाणगाहातोपते । (आणुपुब्धि त्ति) एसे च तनादिगा। नि० चू०१५ उ० । जगवं! अणुग्गहं ता, करेहि मज्कत्ति जणति आमंति। अग्गवीय-अग्रवीज-पुं० अग्रे बीजं येषामुत्पद्यते ते तथा । तल- किंदाहिसि जेणिहो, गयस्स तं दाहिसि ण व नि।२१। तालीसहकारादिषु शास्यादिषु च अप्रयाएयेवोत्पत्ती कारणतां दाहामि त्तिय जणिते, तं केवतियं व केचिरं वा वि। प्रतिपद्यन्ते येषां कोरएटकादीनां ते अग्रबीजाः। कोरएटकादिषु दाहिसि तुम ण दाहिसि, दिमेऽदिमेव किं तेण? ॥२१॥ बीजप्रकारेषु वनस्पतिषु, सूत्र०२सू० ६अ। स्था०। विशे०। जावतिएणिहो ते, जचिरकालं च रोयए तुम्भा । श्रा० म० द्वि० । अग्गबीया १ मूबबीया श्पोरबीया ३ खंधीया ४इत्यादयो वनस्पतिभेदाः । श्राचा० १ श्रु० १ ० ५ उ०। तं तावतियं तच्चिर, दाहामि अहं अपरिहीणं ॥१६॥ गिही णिमंतेति-भगवं! अणुग्गडं करेड मज्ज, घरे जत्तं गेरहअग्गपिंग-अग्र (ग्य) पिएड-पुं० तत्कणोत्तीदिनादिस्था ह। साइभणति-करेम अम्गह, किं दादिसि ।गिही जणतिल्या अव्यापारितायाः शिखायाम्, (उपरितने भागे) प्रव० २ जेण ने इट्ठो। साहू उ वीलणं करेति, माहणो जणति-घरंगयस्स द्वा० । शाल्यांदनादेःप्रथममुद्धत्य भिक्वार्थ व्यवस्थाप्यमाने तं दाहिसि वा ण वा। गिहिणो दाहामि त्ति यनणिते,साहप. पिण्डे, प्राचा०२ श्रु०१ अ० १ २० । रिमाणं कारवेतो भणति-तं परिमाणो केवतियं केव चिरं या से भिक्खू बा २ जाव पविढे समाणे से जं पुण जा- कालं दाहिसि ?। प्रथमपादोत्तरं साडू आह-दाहिसि तुम Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगापिम अभिधानराजेन्द्रः। अग्गमहिसी ण दाहिसि । दनमा तत् श्रदत्तवद् ऽध्यम्, स्वल्पत्वा तत्र भुवनपतीन्द्राणामग्रमहिप्यःदू। गृहस्थो द्वितीयपादोत्तरमाह-जातिगण भत्तेण स्ट्रो चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररएणो का ने जावतियं या काल तुठिभट्टो, गिही पुणो नणति-कि बहुणा अग्गमहिसीओ पएणत्ताओ? | अजो ! पंच अग्गमभणिएण, जे तुम्नं रोयते दब जावतियं जनिय वा कालं, तमहं हिसीओ पएणत्ताओ, तं जहा-काली रायी रयणी विज्जू अपरिहीण अपरिसंतो दादामिति । णिमंतणो पालणपरिमाणेसु बि मासलहु पच्चित्तं । चोदग आह मेहा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए अटदेवीसहस्सपरिवारो साभावितं च नचियं, चोदगपुच्छाण पेच्छिमो को वि। पएणतो, पभू णं ताओ एगमेगाए देवीए एणाई अट्ठदोसो चतुधिधम्मिणितियम्मि य अग्गपिंडम्मि।।१७।। ट्ठदेवीसहस्साई परिवारं विनवित्तए, एवामेव सपुव्वा वरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा सेत्तं तुमिए । पनू गं भंते ! साभावि णितिय कप्पति, अणिमंतणा बीन अपरिमाणे य । चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए जंवा विय समुदाणी, संनिक्खं दिज साधूणं ॥२१॥ सजाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि तुमिएणं सम् िदिमानावियं ज अपणो हार उचियं दिणे दिणे जतिय ब्वाईजोगनोगाईनुंजमाणे विहारत्तए ? । णो इणढे रखं तं चोक्खो भणति । परिसेसा भाविप णिमंतणापीलणादिहि भिक्खामेति एमवि अकप्पाण्णहा साहूण कष्पोसाभा समढे, से केणद्वेणं झंते ! एवं बुञ्चइ, णो पनू ! चमरे असुचिय नचिए वि णिमंतणादिपहिं श्मे दोसा रिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरिनिप्पो विसअट्टा, उग्गमदोसा उ उचितगादीया। । त्तए। अज्जो चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररएणो चनप्पं जब जम्हा, तम्हा सा य वज्जणिज्जा उ ॥२१॥ मरचंचाए रायहाणीए सजाए सुहम्माए माएवए चेइए अप्पणवा विनिम्पो उम्गमादिदोसा नवन्ति । निकाचितो. खंने वइरामएसु गोलबट्टममुग्गएसु बहूओ जिणसकहमिति अवश्यं दातव्यम् । कुंमगादिसु स्थापयति तस्मानिम- हाम्रो समिखित्ताओ चिटुंति, जाओ णं चमरस्स अतणादिपिएमो वयः। सुरिंदस्स असुरकुमाररणो अणसिं च बहूणं असुरकुमा उकोसण अहि सक्कण, अज्झोयरए तहेव णेकंती। राणं देवाण यदेवीण य अञ्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ णमंसअमत्थ भोयणम्मि य, कीते पामिञ्च कम्मे य ।। २२० ॥ णिज्जाओ पूयाणिज्जाओसकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाश्रो अवस्सदायब्वे अतिप्पए माहुणो आगच्छति वियपुब्वस्स कराणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिजाओ नवंति । उसक्कण करेजा,जस्सूरे आगच्छति अतिहिसकणं करेज,अज्कोयरयं वा करेज । णिकातिश्रोत्ति काउं जतिते अण्णध णि तेसिं पाणहाणे णो पन ! से तेणटेणं अजो! एवं बुच्चइमंतिया तहा वि तदवाए किणेज वा पामिचेज वा अाहाकम्म णो पनू चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए वा करेज । कारणे पुण णिकायणा पिमं गेएहेज। श्मे कारणा-- जाव विहरित्तए पनू एं!अज्जो! चमरे असुरिंदे असुरराया असिवे प्रोमोयरिए, रायढे भए व गेलागे । चमरचंचाए रायहाणीए सन्नाए मुहम्माए चमरांस सीहाअघाणरोहए वा, जयणा गहातु गीतत्ये ।। २२१ ।।। सणंसि चउसट्ठी सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए जाव अअसिवम्गहितो ण लम्मति णिमंतणाश्एसुवि गेलेजाअधवा श्र- मेहिं च बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिसिवे कारणद्वितो असिवगहियकुलाणि य परिहरतो अगहियकु वुमे महयाहय जाव तुंजमाणे विहरित्तए केवलं परियारिलेसु अपाबंतो णिमंतणो वीलणादिसु वि गेलेज, ओमे वि अप्य बीए णो चेव एं मेहुणवत्तियं ।। भ० १० श० एन०॥ बंतो। एवं रायढे जपसु वि अत्यंतो गच्छतो वा गिलाणपानग्गं आसां पूर्वनवःबा णिमंतणातिपसु गेएहेजा । श्रद्धाणे रोहए वा अप्पुव्वंतोगी तेणं काले णं तेणं समए णं रायगिहे णामं नयरी होत्था। तत्थो पणगपरिहाणीप जयणाए जाहे भासल हुं पत्ते ताहे णीयगापिमे गेएहति । नि० चू० १ उग वामओ तस्स-णं रायगिहस्स नगरस्स बहिआ उत्तरपुरअग्गपूया-अग्रपूजा-स्त्री० "गंधवगट्टबाश्य-सवणजवारत्ति जिमे दिसिनागे तत्थ णं गुणसिले चेइए नामं चेए या दीवा। जं किञ्चतं सम्बं, पि अोअर अम्गप्याप" श्त्ये होत्था । वामओ-तणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवं लकणे जिनप्रतिमापुरतः पूजाभेदे, ध० १ अधिक। वओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम थेरा भगअग्गप्पहारि (ण)-अग्रप्रहारिन्-पुं० । पुरः प्रहरणशीले, वंतो जाइसंपन्ना कुलसंपन्ना जाव चउद्दसपुब्बी चउन्नाणो"चोरपालिं गतो तत्थ अगष्यहारिणिसंसो य चोरसेणावति- वगया पंचहि अणगारसएहिं सछि संपरिवुमा पुवाणुमतो" आवर १०। श्रा० महि। पुचि चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमारणा सुहं सुहेणं जेणेअग्गमहिसी-ग्रमहिषी-स्त्री अग्रता प्रधाना महिषी, राजनाव्याम् , स्था ग09 उ०प्रधाननाायाम, उपा०५ व रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जाव संजमेणं तत्रसा श्र०। पट्टराण्याम् , जी० ३ प्रतिः । स्था० । अथ देवेन्डाणा अप्पाणं नावेमाणे विहरति । परिसा निग्गया। धम्मो कमग्रमाहिष्यः प्रदर्श्यन्ते हिनो, परिसा जामेव दिसं पानभूया तामेव दिसि पमि पणिहाण दे असुरनमरे असुन Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) अभिधानराजेन्द्रः । अग्गमहिसी गया। तें काले ते समए अज्जसुहम्मस्स अगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू नामं अणगारे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जणं नंते ! समणे णं जाव संपत्ते स अंगस्म पढमस्स सुयक्खन्धस्स नायज्जयएस्स मट्ठे पाते, दोचस्स एं जंते ! सुयक्खन्धस्स धम्मकहाणं समणे णं जात्र संपत्ते एां के अट्ठे पत्ते, एवं खलु जंबू ! धम्मकहाणं दसवग्गा पएलता । तं जहा-चरमस्स अग्गमहिसीणं : पढमवग्गे || १ || बलियस वइरो - दिस वइरोयरन्नो अग्गमहिसी बीए वग्गे ॥ २ ॥ सुरिंदवज्जियाणं दाहिणिवाणं ईदाणं तइए वग्गे || ३ ॥ उत्तरिवाणं असुरिदवज्जियारणं जवणवासिइंदाणं गमहिसी थेगे || ४ || दाहिणिल्लाणं चाणमंतराणं इंदाणं अगमहिसणं पंचमे वग्गे || ५ || उत्तरिलाणं वाणमंतराणं इंदाणं श्रग्गमहिसीणं बट्टे वग्गे || ६ || चंदसग्गमहिसणं सत्तमे वग्गे || ७ || सूरस्स श्रममहिसीअट्टमे वग्गे || || सक्क्स्म अग्गमहिसीं नवमे ard || || ईसएस अग्गमहिसणं दसमे वग्गे ॥ १० ॥ जहां भंते! समणे णं जाव संपत्ते णं धम्मकड़ा एां दसवग्गा पन्नता । पढमस्स णं जंते ! वग्गस्स समणे णं जाव संपत्ते पणते ? | एवं खलु जंबू ! समणे णं जाव संपत्ते एां पढमस्स वग्गस्स पंच अभयरणा पन्नत्ता । तं जहा - काली १ राई २ री ३ विज्जा ४ महा विज्जा ५ | जइ णं भंते ! समणे णं जाव संपत्ते णं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पन्नत्ता । पढमस्स एणं जंते ! अज्जयां समणे णं जाव संपत्ते के पत्ते ? । एवं खलु जंबू ! तेां काले एां तेणं समए रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, चिल्लरणाए देबीए, सामी समोसारिए, परिसा निग्गया। जाव परिसा पज्जुवासति तेणं काले ं तेणं समएां काली देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालवर्मिंसगजवणे कालंसि सीहासांसि चहिं सामाणियसाहसी हिं चउहिं मयहरियाहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिंयाहितहिं सोलसाईं आयरक्खदेवसाहस्सी हिं हिंय बहुएहिं कालवसिय भवरणवासीहिं असुर कुमारेहिं देवेहिय देव हि यसद्धि संपरिवुमा महयाहय जावविहरड़, इमं चणं केवलकप्पं जंबूद्दीवे दीवे एणं विजले एवं प्रोहिला भोमाणी पास । जत्य समणं जगवं महावीरं जंबी दी जारहे वासे रायगिहे नगरे गुण सिले चेइए अहापभिरूवं प्रोगाह, ओगाहइत्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावमा पास, पासइत्ता हट्टतुट्ठचित्तमादिया पीइमण जाव हियया सीहासणाओ उन्नुट्ठेइ, उन्भुट्ठेत्ता पायपीढा- | For Private अग्गमहिसी ओ पचोरुहः, पञ्चरुहत्ता करयल जाव कट्ट एवं व्यासीनमो अरिहंताणं जात्र संपत्ताणं नमोऽत्यु णं मम स्म भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स | वंदामिणं ! तत्थ गयं इह गया तिकट्टु बंद णमंसड़ सीहासवरगंसि पुरत्या निमुहे सुहनिसने तए तीसे कालीए देवीए इमेया रूवे जाव समुप्पज्जित्था । सेयं खलु समं भगवं महावीरं वंदित्ता जाब पज्जुवासित्तए तिकट्टु एवं मंपंह, संपेहता आभियोग देवं सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया समणे जगवं महावीरे एवं जहा सूरिया तव आणतियं देइ जाव दिव्वं सुरवराजिरामगमणं जागं करे, करेइत्ता जाव पच्चुप्पिलह ते वि तहव करेत्ता जाव पच्चुप्पिांति, नवरं, जोयणसहस्सावित्थिन्न जाणं, सेसं तहेव नाम गोयं साहे, तहेव नदृविहिं नवदंसे‍, उवदंसेत्ता जाव पगिया (जंतेत्ति भगवं गोयमे ! मम जगवं महावीरं वंदड़ नमसइ, एवं क्यासी-कालीए णं नंते ! देवी सादिव्वा देवी ओ कहिं गया कृडागारसालादिहंतो ? | होणं ते! कालीदेवी महष्ट्टिया कालीए णं भंते ! देवीए सा दिव्या देवीए किमा लग्दा किष्मा पन्नत्ता अभिसमन्ना गयाएवं जहा सूरिया जान एवं खलु गोयमा ! तेणं काले ए ते समए एवं इहेव जंबूद्दीवे भारहे वासे आमलकप्पा नाम नयरी होत्था। वो सालवणे चेइए जियसत्तुराया । तत्थ मलकप्पा नए काले नामं गाहावती होत्या । अ जा परिनूए तस्स एां कालस्स गाहावइस्स काल सिरीए नाम भारिया होत्या सुकुमाला जाव सुरूवा । तस्स एां कालस गादावतिस्स या काल सिरीए नारियाए अतया का मंदारिया होत्या । वढा वक्ढकुमारी जुष्पा जुमकुमारी पयित्थी निव्विनवरा वरगपरिवज्जिया विहोत्था | ते काले णं तेणं समए णं पासे अरहा पुरिसा दाणिए आगरे जहा व माणसामी, णवरं, एवुस्नेहे सोबस - हिं समणसाहस्सिहि अत्तीसार अजिप्रासादस्सिहिं सर्फि संपरिवडे जाव सालवणे समोस, परिसा लिगया जाव पज्जुवासति । तते णं सा काली दारिया इमीसे कहाए ला समाणी हड तुट्ठ जाव हियया जेव अम्मापयरो तेणेव वागच्छति, नवागच्छित्ता करयल जावएवं वयासी एवं खबु अम्मयाओ पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरड़ । तं इच्छामि णं श्रमया तुन्भेहिं अन्नाया समाणी पासस्स एवं अरह पुरिसादाणीयस्स पायवंदणगमित्तए । महासू देवाणपिया मा परिबंध करह । तस्स णं सा काली दारि अम्मापहिं अन्भन्नाया समाणी हट्टनुट्ठ जान हियया एहाया कयवनिकम्मा कयको जयमंगल पायच्छित्ता Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) अभिधानराजेन्द्रः । अग्गमहिसी सुखपावेसातिं मंगलातिं वत्थातिं पवरपरिहिया अपमहग्घाभरणालं कि यसरीरा चेमिया चक्कवाल परि किना साओ गिहातो पमिनिक्खमइ, परिणिक्खमता जेणेव बाहिरिया उवट्टाएसाला जेणेव धम्मियजाणपत्ररे तेणेत्र जवागच्छति, उवागच्छित्ता धम्मियजाणपत्ररं दुरूढा । तए णं सा काली दारिया धम्मियं जाणपत्ररं एवं जहा देवादार जहाज्जुवासइ । तए णं पासे अरहा पुरीसादाणीए कालीए दारियाए तीसे मह, महत्ता महालियाए परिसाए धम्मकहाए तए णं सा काली दारिया पासस्स पुरिसादाणियस्स अंतिर धम्मं सोचा पिसम्म हट्ट जाव हियया पासस्स णं श्ररओ पुरिसादाणीयस्स तिक्खुत्तो बंद नस, एवं वयासी सद्दहामि णं ते! निग्गंधं पात्रयां जाव से जहेयं तुन्भे वयह जं नवरं देवापिया मापियरो आपुच्छामि तरणं अहं देवाप्पियातिए जाव पव्वयामि । अहासुहं देवागुप्पि - या मा पडिबंध करेह । तए गं सा कालिदारिया पासेणं अरहा पुरिसादाणी एवं एवं वृत्ता समाणी हट्टतुट्ठ जाव हिया पासं अहं बंदर नमसर, नमसा तमेव धम्मियं जापवरं दुरूहइ, दुरूहइत्ता पासस्स णं रहो पुरसादाणीए अंतिया बसालवणचेश्याओ पकिनिक्खमड़, पडिनिक्खमइत्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव नवागच्छ, नवागच्छत्ता ग्रामलकप्पं नयरिमज्भं मज्जें जेणेव बाहिरिया उवाणसाला तेथेच जवागच्छति, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणपत्ररं ठाव, नावइत्ता धम्मियाओ जाणपवरात्र पचोरुहर, पचोरुहइत्ता जेणेव अम्मापियरोतेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता करयल परिग्गहि एवं बयासी एवं खलु अम्मयाओ मए पासस्स एणं रहाओ अंतिर धम्मं निसंते सेविय धम्मे इच्छिए पाडेच्छिए - free । तर अहं अम्मयाओ संसारभउन्विग्गा जी - या जम्ममरणाएं इच्छामि एां तुब्भेहिं अन्भणुनाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंमा जवित्ता आगाराओ - गगारियं पव्वतए । अहासुरं देवाप्पिया मा परिबंध करेह | तए काले गाहावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं वक्खडावेति, उचक्खडावेतित्ता मित्तनातिनियगसयण संबंधी परियां आमंते । आमंतइत्ता ततो पच्छा एहाए जाव विपु लेणं पुप्फवत्थ गंधमालंकारेणं सकारिता संमाणित्ता तस्सेव मित्तणातिणियगसयण संबंधिपरियणस्स पुरओ कालीदारियं सेयापीएहिं कनसेहिं एहवे, एहवेइत्ता सव्वालंकारविभसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरुह - इ, रुहत्ता मित्तनाति जाव परियणसकिं संपरिवुडे सडीए जाव वेगं ग्रामलकप्पानयरिं मज्भं मज्झेणं नि महिसी गच्छ, निगच्छत्ता जेणेव यंत्रसालवणे चेइए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता बताइए तित्थयराई पासइ २ सीयं उs, वेत्ता कालिया दारिया सीयातो पञ्चोरुहति, पच्चीहता ततेां तं कालीयं दारियं सम्मापियरो पुरओ का जेणेव पासे रहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छति, उari वंदति, एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया काaियदारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमंग! पुण पामयाए एस णं देवापिया संसार जिउब्बिग्गा इच्छा देवाएप्पिया अंतिए मुंडे जवित्ता, जाव पव्वइत्तए तं एयनं देवाणुप्पियाणं सिसिणिं भिक्खं दलयामो परिच्छंतु णं देवाप्पिया सिसिणि भिक्खं । ग्रहासुहं देवाप्पिया मापबंध करेह । तं सा काली देवी कुमारी पासं अरिहं बंद, दत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं वक्कमति, वकमत्ता सयमेव आचरणमाअंकारा सुर्याति, मुयतित्ता समेत्र लोयं करेति, जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणिए तेत्र नवागच्छति, उवागच्छित्ता पासं रहं तिक्खुत्तो वंदति नर्मसंति, एवं क्यासी- आनि ! ते भंते ! बोए एवं जहा देवानंदा जाव सयमेव पव्वावियो तर णं पासे रिहा पुरिसादाणीए कालीए सयमेत्र पुप्फचूलाए अज्जाए सिसिणियत्ताए दलय । तए णं सा पुष्फ़चूला अज्जा कालि कुमारिं सयमेव पव्वावेइ, जाव उवसंपज्जित्ताएं विहरति, तते णं सा काली अज्जया इरिया समिता जाव गुत्तभचारिणी । तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए जाए अंतिए सामाइयमाइयाई एगारस अंगाई अहिज्ज‍, हिज्जता बहुहिं चत्यं जाव विहरति । तए णं सा काली अज्जा अन्नया कयाई सरीरपासिओसिया जाया विहोत्था । क्खिणं अभिक्खणं इत्यं धोव, पाए धोवे, सी धोवे, मुहं धोवेइ, थणंतरा य धोवेश, कक्वंतराय घोवे. गुज्मंतराय धोत्रे, जत्थ जत्थ वियद्वाणं वा सेज्जं वा निसहियं वा चे, तं पुव्वामेव प्रक्खित्ता तो पच्छा आसइ वा, सय वा तरणं सा पुप्फचूला अज्जाका एवं वयासीनो खलु कप्पड़ देवाप्पिया समणीणं निग्गंथी सरीरपाउसीयाण होतए तुमं च एां देवाणुपिया सरीरपाठसिया जाया वि होत्या । श्रभिक्खणं अभिक्खणं हत्या धोत्रसि, जाव आसयाहि वा सयाहि वा, तं तुमं देवाप्पा एयस्स द्वाणस्स आलोएहिं जाव पायच्छितं परिवज्जाहि । तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाअजाए एयम नो आढाइ जाव सुसिलीया संचिघ्इ, त एवं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाश्रो कालिं अज्जं श्रभिक्खणं हीति, निंदंति, खिसंति, गरहंति, अवमाणंति, निक्खणं २ एयमहं निवारेति, तए गं तीसे कालीए अज्जाए समणी हिं Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अग्गमहिसी मभिधानराजेन्द्रः। अग्गमहिसी निग्गंधीहिं अभिक्खणं २ हीलिजमाणीए जाव वि.] खबु गोयमा! तो काले णं तेणं समए णं आमन्त्रकप्पा नयरी हरिज्जमाणीए मेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्या, अंवसालवणे चेइए जियसत्तू राया, राई गाहाई रायसिरी जया णं अहं अगारवासमज्के वसित्ता तया णं अहं सयं- भारिया राईदारिया पासस्स समोसरणं राईदारिया जहेव वसा, जप्पजितिं च णं अहं मुंमा भवित्ता अगाराश्रो कात्री तहेव णिक्खित्ता तहेव सरीरपासिया, तं चेव सव्वं अणगारियं पच्वइया तप्पजितिं च णं अहं परवसा जाव अंतं काहिति,एवंखलु जंबू! वीयज्यणस्स निक्खेवओ जाया । तं सेयं खलु मम कवं पाठ पनायाए ॥॥ जतिणं भंते ! तझ्यस्स अज्यणस्स उक्खेवओ, एवं रयणीए जाव जन्नंते पामिक्कयं उपसंपज्जित्ता णं वि- खबुजंबू रायगिहे नयरे गुणसिझे चेइए०एवं जहेव राई तहेच हरित्तए तिकडु एवं संपेहे, संपेहेत्ता कवं जाव रयणी वि, नवरं, आमलकप्पा नयरी,रयणी गाइावती रयणजलते पामिक्कयं उवस्मयं गेलइ, गेहइत्ता तत्थ णं अणा- सिरी भारिया,रयणीदारिया,सेसं तहेव,जाव अंतं काहिति वारिभा अणोहद्विश्रा सच्चंदमती अभिक्खणं २ हत्थे ॥३॥ एवं विज्जू वि,आमलकप्पा नयरी, विज्जू गाहावती धोवेइ, जाव आसयइ वा सय वा तए एं सा काली | विज्जुसिरीजारिया विज्जृदारिया,सेमंतहंव ।।४।। एवं मेअज्जा पासत्या पासत्थविहारी कुसीना कुसीझविहारी अ- हाव आमनकप्पा नयरी मेहा गाहावती मेहसिरी भारिश्रा हाउंदा अहाबंदविहारी संसत्ता संमत्तविहारी बहणि वा- मेहा दारिआ,सेसं तहेव । एवं खयु जंबूसपणे णं जाव संपत्तेणं साणि सामनपरियागं पाउणित्ता असमासीयाए बेहणाए धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्म अयमद्वे परमते । झा०३श्रु०१वर्ग। अत्ताणं से, सेपत्ता तीसं जताई अणसणाई दित्ता चमरस्स णं नंते ! असुरिंदस्म अमुरकुमाररलो सोमस्स तस्स गणस्स अणामोश्य अपडिकंता काले मासे कालं कि महारमो कइ अग्गमाहिसीनो परमत्तानो | अज्जो ! चाचपरचचाए रायहाणीए काझिं बम्सिए भवणे उववाय- चत्तारि अग्गम हिसीओ पमत्ताओ । तं जहा- कणया सजाए देवसयणिज्जंसि देवमंतरिआ अंगुलस्म असंखेज्जड़ कणगन्नया चित्तगुत्ता वसुंधरा । तत्थ णं एगमगाए देवीए जागमेत्ताए प्रोगाहणाए काली देवी देवित्ताए जववनाए। एगमेगं देवीसहस्सं परिवारोपएण तो। पत्रणं तानो एगमेतए णं सा काली देवी अवहुणोववना समाणी पंचविहा- गा देवी अमं एगमेगं देवीमहस्सपरिवार विउवित्तए ? ए पज्जत्तीए जहा सूरियाभे जाव भासामणपज्जत्तीए । एवामेव सपुत्वावरे णं चत्तारि देवीसहस्सा सेतं तुहिए। तए णं सा काली देवी चनएहं सामाणियसाहस्सीणं जाव | पत्नणं ते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररमो सोमे अनसिं च बहूणं काली वसिगजवणवासीणं असुरकु- महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए सोमंसि माराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाब विहरद, एवं | सीहासणंसि तुमिएणं अवसेसं जहा चमरस्स, णवरं, परिखबु गोयमा! कालीए देवीए सादिव्या देवी लका पन्न- यारो जहा सूरियाभस्स,सेसं तं चेव,जाव को चेवणं महुता अजिसमएणा गया। कालीए णं भंते ! देवीए केवति णवत्तियं । चमरस्स णं जते! जाव रमो जमस्स महारमो यं कालं वित्ती पएणत्ता । गोयमा अाइज्जा तिपत्रिी- का अग्गमाहिसीओ एवं चव, एवरं,जमाए रायहाणीए, वमा विती पन्नत्ता, कानीए णं भंते ! देवी तामओ देवलो सेसं जहा सोमस्सा एवं वरुणस्स वि, णवरं, वरुणाएरायहागाओ अणंतरं नव्वट्टित्ता कहिं गच्छहिंति कहिं उववजि पीए, एवं वेसमणस्स वि, णवर, वेसमणाए रायहाणीए०, हिंति ?। गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिद, एवं | सेसंतं चेव जाव मेहुणवत्तिय । वलिस्म ण नंते ! वश्रोयर्णि। खलुजंबू! समणेणं जाव संपत्ते णं पढमस्स वग्गस्स पढमझ दस्स पुच्छ।। अज्जो! पंच अग्गमहितीश्री पलताओ। यणस्त अयमढे पणते ति वेमि[पढम अज्कयनं सम्मत्तं]१॥ जहा-संभा णिसुंजा रंभा निरंजा मदणा। तत्य एं एगजतिणं भंते! समणे एंजाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स मेगाए देवीए अढ०,सेसं जहा चमरस्स, एवरं,बलिचंचाए वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पाम्पत्ते, वितियस्सणं भंते ! रायहाणाए परिवारो जहा मोओदेनए, सेसं तं चव जाव अकयणस्स समणे णं जाव संपत्ते णं के व सपत्तण कह पएणतं ।।। मेहणवत्तियं । बलिस्स णं भंते ! वइरोयर्णिदस्स बरोयण पएणत्ते ।। एवं खबु जंबू! तेणं काले णं तेणं समए णं रायगिहे नगरे | रमोसोमस्त महारमो कइ अग्गमहिसीओ पसत्तामो?। अगुणसिलए चेइए सामीसमोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जु-| ज्जो!चत्तारि अग्गमाहसीओपएणत्ताओ। तं जहा-मीणगा वासइ । तेणं काझेणं तेणं समए णं राई देवी चमरचंचाए रा- सुभदा विन्जुमा असणी । तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, सेसं यहाणीए, एवं जहा काली तहेव आगया नट्टविहिं बदसेत्ता जहा चमरस्स । एवं जाव बेसमणस्स । भ०१० २०५०। जाव पमिगया भिंते त्ति जगवं गोयमे! पुव्बजवपुच्छा । एवं त्रासां पूर्वभवः Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) अग्गमहिसी अभिधानराजेन्छः । अग्गमहिसी जइ भंते ! समणे णं जाव संपत्ते एं दोच्चस्म दस्स । लोगपालाणं वि, तेर्सि जहा तूयाणंदस्स लोगपालाबग्गस्म उक्खेवओ। एवं खा जब! समणे णं जाव संपत्त ण, णवरं, इंदाणं मवेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य णं दोच्चस्स वग्गस्म पंच अज्मणा पसत्ता । तं जहा-मुंभा | सरिसणामगाणि, परिवारो जहा मोोदेसए, लोगवालाणं १ निमुना रंभा ३ निरंभा ४ मदणा ५ । जइणं ते! सम्वसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि समणे णं जाव संपत्ते गंधम्मकहाणं दोच्चस्म वग्गस्स पंच परिवारो जहा चमरलोगपालाणं । न० १० श० ५ उ०॥ अज्झयणा पत्ता । दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स परमज्क- नूतानन्दसत्रे-(एयमिति) यथा कासपालस्य तथाऽन्येषामपि, यणस्स के अटे पन्नत्ते । एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं नवरं, तृतीयस्थाने चतुर्थों वाच्यः। धरणस्य दक्षिणनागकुमा रनिकायस्य सोकपालानामप्रमहिन्यो यथा २ यनामिकास्तसमए णं रायगिहे गुणसिले चेइए, सामी समोसढे, परिसास था २ तनामिका एव सर्वेषां दाक्षिणात्यानां शेषाणामष्टानां वेजाव पज्जुवासति, तेणं काले ण तेणं समए णं सुंभा देवी ब- णुदेवहरिकान्ताग्निशिवपूर्णजलकान्तमितगतिवेसम्बोषाख्यालिचंचाए रायहाणीए सुनवडिसए जपणे मुंभंसि सिंहास- नामिन्द्राणां य लोकपालाः सूत्रे दर्शितास्तेषां सर्वेषामिति । एंसि कालिगमए णं जाव पट्टविहिं नवदंसेत्ता जाव पडिगया यथा च भूतानन्दस्यौदीच्यनागराजस्य तथा शेषाणामष्टानामौ दीच्येन्द्राणां वेणुवालिहरिसहाग्निमाणवसिष्ठजसप्रभामितयापुन्धनवपुच्चा। सावत्यी नयरी,कोट्ठए चेइए,जियसत्तू राया, इनप्रभजनमहाघोषाख्यानां ये लोकपामास्तेषामपीति । पतंदसुंभे गाहावई, सुजसिरी भारिया, मुंजादारिया, ससं जहा वाह-जहा धरणस्सेत्यादि । कानीए, नवरं, अबुधाति पलिओवमाई ठिती, एवं खबु प्रासां पूर्वभवःजब ! उक्खेवगो पढमस्स अज्जयणस्स, एवं सेसा विचत्तारि उक्खेवो नइयवग्गस्स । एवं खयु जंबू!समणे णंजाव संअज्क्रयणा सावत्थीए, नवरं, माया पिया धूयसिरितिनामया। पत्ते णं तइयस्स वग्गस्स चउप्पना अज्झयणा पनत्ता। तं एवं खसुजंबू! निक्खेवो वीयस्स वग्गस्स । का०२श्रु०१० जहा-पदमे अज्झयणे जाव चनप्पत्तिमे अज्क्रयणे । जाणं धरणस्य भंत! समग एणं जाव संपत्ते णं धम्मकहाणं तध्यस्स वग्गस्म धरणस्सणं भंते ! णागकुमारिंदस्सणागकुमाररएणो कइ चउप्पामा अज्क्रयणा पत्ता पदमस्स णं भंते ! भज्जयाणअग्गमहिसीओपमत्ताओ। अन्जोउ परमत्ताओ। तं जहा- स्स समणे णं जाव संपत्ते णं केअढे पन्नत्ते । एवं खलु जय! अलासका सतेरा सोदामिणी इंदाघणविज्जुया। तत्थणं एग- तेणं काले णं तेणं समए णं रायगिहे नगरे गुणसिले चइए मंगाए देवीए उ उ देवीसहस्सपरिवारो परमत्तो। पनू! णं ताओ सामी समोसदे, परिसा निग्गया जाव पज्जुवासति । तेणं एगमेगा देवी अप्लाईछ उ देवीमहस्साई परियारं विनवित्त कालेणं तेणं समए णं अलादेवी धरणारायहाणीए अमावए, एवामेव सपुवावरेणं उत्तीसं दविसहस्साई, सेत्तं तुहिए। सिए जवणे मयंसि सिंहासणस, एवं कामी गमए णं जाव प! भंते ! धरणे, सेसंतं नेव, एवरं, धरणाएरायहाणीए नविहे उबदसेत्ता पमिगया पुबनवपुच्छा । वाणारसीए धरणंसि सीहासणंसि सो परिवारो, मसं तं चेव । घर- काममहावणे चेइए भले गाहावती अलजसिरी भारिश्राणस्स एंजते णागकुमारिंदस्स कालवालस्स झोगवानस्स लादारिया, सेसं जहा कालिए, नवरं, धरणस्स अगमदिमहाराणो कइ अग्गमहिसीओ पएणत्ताओ?| अज्जो ! सित्ताए उववाओ साइरेगं असपालियोवमं ठिती, सेसं तहेव। चत्तारि अग्गमहिसीनो पएणत्तानो । तं जहा-असोगा एवं खयुनिक्खेवो पढमज्झयणस्स । एवं कमा सका सतेरा विमला सुप्पना सुदंसणा । तत्य णं एगमेगाए देवीए०, सोदामिणी इंदा घणविज्जुया वि,सब्बामो एयामोधरणस्स अवमेसं जहा चमरलोगपालाणं, सेसाणं तिएिह वि। अग्गमहिसीअो । एते छ प्रज्जयणा वेणुदेवस्स अवसेसा भूतानन्दस्य जाणियब्वा, एवं जाव घोसस्स वि एते चव अजयणा । नूयाणंदस्स णं भंते ! पुच्चा। अजो! अगमहिसीओ एए चेव दाहिणियाणं इंदाणं चउप्प प्रज्जयणा भवंति, परमत्तानो। तं जहा-रूया रूयंसासुरूवा रूयगाई रूयकांता सव्वाओ वि वाणारसीए काममहावणे चेइए तक्ष्यवग्गस्स रूपप्पजा। तत्यणं एगमंगाए देवीए०,अवसेसं जहाधरणस्सा निक्खेवओ। चउत्यस्स बग्गस्स उक्खेवो । एवं खलु जंबू! जुयाणंदमणं भंते! णागकुमारस्स चित्तस्स पुच्छा । अज्जो! समणे एं जाव संपत्ते णं धम्मकहाणं चनत्थस्स वग्गस्स चत्तारि अग्गमाहिंसीअो पप्पत्ताओ। तं जहा-सुनंदा सुभद्दा चउप्पना अज्जयणा पन्नत्ता। तं जहा-पढमे ज्य णे जाव सुजाया सुमणा । तत्य णे एगमेगाए देवीएस, अवसेसं जहा चउप्पन्न इमे अज्यणे, पढमस्स अजयणस्स नक्खेवभो। चमरसोगपालाणं । एवं सेमाण वि तिएिह वि लोगपालाणं एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं तहा, दाहिणिहा इंदा, तेसिं जहाधरणस्स । लोगपालाण जाव परिसा पज्जुवासइ । तेणं काले णं तेणं समए णं रूया वि, तेसिं जहाधरणलोगपालाणं। जत्तरिंदाणं जहानूयाण- देवी रूयाणंदारायहाणीए रुयगवासिए जवण रुयगंसि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) अग्गमहिसी अन्निधानराजेन्डः। अग्गमाहिमी सीहासणंसि जहाकालिए तहा, नवरं, पुवनवे चंपाए पुग्न- सीओ पएणताओ । तं जहा-सुघोसा विमझा मुस्मग म. नहे चेइए रूए गाहावती रूयगसिरीजारिश्रारूयादारिया. रस्सई । तत्थ णं, सेमं तं चेव । एवं गीयजसस्स वि। सब्वेसेसं तहेच, नवरं, नयाणंदा अग्गमहिसिताए उववाओ देस- सिं एएसिं जहा कालस्स, णवरं, सरिसनामगाओ रायहाणं पलिअोवमट्टिती निक्खेवा। एवं खलु जंबू सुरूवा णीयोसीहासणाणि य, सेसं तं चत्र | न.१०श०५ उ० । वि रूयंसा वि रूअगावई वि रूअकंता वि स्यप्पना आसां पूर्वभवःवि, एयाए व उत्तरियाणं इंदाणं भाणियव्याभो जाव महा पंचमवग्गस्स उक्खेवो। एवं खल्ल जंबू ! जाव बत्तीसं घोसस्स । निक्खंवा चउत्थस्स वग्गरस । का०२४०१ वर्ग । प्रज्कयणा पत्ता । तं जहाव्यन्तरेन्द्राणां कालस्य कममा कमलप्पभा, अप्पमा य सुदंसणा । कालस्स णं भंते ! पिसायइंदस्स पिसायरलो कर अग्ग- रूबबई बहुरूवा, सुरूवा सुभगा वि य ॥ १ ॥ महिमीओ पसत्ताअो। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पुन्ना बहुपुत्तिया च, उत्तमा तारया वि य । पमत्ताओ। तं जहा-कमला कमलप्पना उप्पला सुदंसा।त पजमावती सुमई, कणगा कणगप्पना ॥२॥ स्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं, सेसं जहाचम वसा केउमई च, रइसेणा रइप्पिया। रलोगपालाणं, परिवारो तहेव, णवरं, कामाए रायहाणीए रोहिणी नवमिया वि, हिरी पुष्फबई इय ॥३॥ कालंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव, एवं महाकालस्स वि । जयगा जुयगावती, महाकच्चा फुडाइया। सुरूपस्य मुघोसा विमला चेव, सुस्सराइ सरस्सई ॥ ४ ॥ सुरुवस्स एंजते ! इंदस्स नूयरमो पुच्छा। अज्जो ! उक्खेवओ पदमज्जयणस्स । एवं खलु जंबू! तेणं काले णं चत्तारि अग्गमहिसीओ पमत्ताओ । तं जहा-रूयवई तेणं समए ण रायगिहे णयरे समोसरणं जाव पन्जुवास । बहुरूवा सुरूवा सुभगा । तत्थ णं एगमेगा, ससं जहा। तेणं कालेणं तेणं समए णं कमला देवी कमलाए रायहाणीए कालस्स, एवं पमिरुवस्स वि। कमलवासिए जवणे कमलसि सीहासणंसि०, सेसं जहा पुण्यभस्य कालीए तहेव, नवरं, पुवनवे नागपुरे गरे सहसंबवणे पुस्मनबस्स णं भंते ! जक्खिदस्स पुच्छा। भजो! च-| उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरी भारिया कमला त्तारि अम्गमहिसीनो परमत्तानो । तं जहा-पुमा बहुपु- दारिया पासस्स एं अंतिए निक्खंता, कालस्स पिसायकुमात्तिया नत्तमा तारया । तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा | रिंदस्स अग्गमहिसीओ अरुपनिओवमट्टिती, एवं सेसावि कालस्स, एवं माणिजहस्स वि। अयणा । दाहिणिवाणं बाणमंतरिंदाणं भाणियन्वानोसजीममहाभीमयोः वामओ,नागपुरे सहसंबवणे उज्जाणे मायापियरोधूयासिरिजीमस्स गंते ! रक्खसिंदस्स पुच्छा भजो ! चचा सनामया ठिती अपलितोवमं । पंचमो वग्गो सम्पत्ती ॥॥ रि अग्गमहिसीओ पप्मत्तानो । तं जहा-पचमा पजमावई छहोवि वग्गो पंचमसरिसो, नवरं, महाकालिंदाणं उत्तरिकणगा रयणप्पभा। तत्थ णं एगमेगा देवी, सेसं जहा शाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ पुन्वनवे साएए गयरे उत्तरकुकालस्स, एवं महानीमस्स वि । किन्नरस्य रुउज्जाणे मायापियरो धूयसिरिणामया सेसं तं चेव । किएणरस्स णं नंते ! पुच्छा। अजो ! चत्तारि अग्गम उहो वग्गो सम्पत्तो । झा०२ श्रु०६ व० । हिसीओ पम्पत्ताभो । तं जहा-वहिंसा केतुमई रइसेणा ज्योतिकेन्डाणाम चंदस्स णं ते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरनो कति अग्ग. रहप्पिया । तत्य एं०, सेसं तं चेव । एवं किंपुरिसस्स वि । सुपुरुषस्य महिसीनो पक्षत्तानो । चत्तारि अग्गमहिसीओ पप्मत्ताओ। सपरिसस्स णं पुच्चा । अजो! चत्तारि अग्गमहिसीओ तं जहा-चंटप्पभा जोसिणाजा शनिमानी भंग परमत्ताओ। तं जहा रोहिणी नवमिया हिरी पुष्फबई । तत्य | एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देवीसाहस्सीओ परिवारो णं एगमेगा देवी, सेसं तं चैव । एवं महापुरिसस्स वि । पएणत्तो। पनू ततो एगमेगा देवी भन्नाई चत्तारि चत्ताअतिकायस्य रि देवसाहस्साई परिवारं विउवित्तए, एवामेव सपब्वाचअइकायस्म णं पुच्छा । अजो! चत्तारि अग्गमहिसाओ। रेणं सोलसदेवीसाहस्सीओ पएणत्ताओ, सेत्तं तुमिए। पप्लत्तानो । तं जहा-नुयगा भुयगवई महाकच्या फुमा । (चंदस्स णं भंते ! इत्यादि) चन्द्रस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य तत्य गं, सेसं तं च । एवं महाकालस्स वि। ज्योतिषराजस्य कति कियत्संख्याका अग्रमहिन्यः प्राप्ताः ? । गीतरतेः लगवानाह-गौतम ! चतस्रोऽप्रमहिन्यः प्राप्ताः । तद्यथा-चगीयरइस्स एंनंते ! पुच्छा । अज्जो! चत्तारि अग्ममहि-| अपना ( जोसिणाभेत्ति) ज्योत्स्नाभा, अचिमाली, प्रभङ्करा । Jain Education Interational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) निधानराजेन्द्रः | महिसी ( तत्थ णमित्यादि) तत्र तासु चतसृष्वप्रमहिषीषु मध्ये एकैकस्या देव्याश्चत्वारि २ देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः । किमुतं भवति । एकैका अग्रमहिषी चतुष्णं चतुराणी देवीसहस्रा पट्टीनामेकैका च सा इत्थंभूताऽग्रमहिषी, परिचारणावसरे तथाविधां ज्योतिष्कराजस्य 'चन्द्रदेवेच्छामुपलभ्य प्रभुरन्यानि आत्मसमानरूपाणि चत्वारि देवीसहस्राणि विकुर्वितुं स्वानाविकानि, पुनरेवमेव उक्तप्रकारेणैव पूर्वापरमीलनेन पाकशदेवीसहस्राणि चन्द्रदेवस्य जवन्ति । "सेत्तं तुमिय" तदेव तावत् शुटिकमन्तःपुरं व्यपदिश्यते । सनायामभोगः पनू ! णं नंते ! चंदे जोतिसिंदे जोतिसराया चंदसिए विमाणे सजाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुकिएए स दिव्वाई भोगभोगाई जुंजमाणे विहरित्तए । गोयमा ! नोइडे सम | सेकेट्टे गं भंते! एवं बुच्चइ ? नो पनू ! चंदे जोइसराया चंदवसिए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसितुकिए एवं सकिं विपुलं भोग भोगाई नुंजमा विहरित्तए १ । गोयमा ! चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोइसरो चंदवसि विमाणे सभाए सुधम्माए माणवर्गसि चेतियखंनंसि वइरामयेसु गोलवहसमुग्गएसु बहुयाओ जिसकहाओ चिति, जाओ एवं चंदस्स जोतिसिंदस्स जोतिसरमो एसि च बहूणं जोतिसयाणं देवाण य देवीय अच्चपिज्जाओ जाव पज्जुवासणिज्जाश्रो तासि परिहाए नो पनू ! चंदे जोइसराया चंदवसिए जाव चंदंसि सीहासांसि जुंजमाणे विहरित्तए, से तेलट्टेणं गोयमा !। नो पनू ! चंदजोतिसराया चंदनसिए विमाणे सभाए सुधम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुकिएण सद्धिं दिव्वाई जोगजोगाई जमाणे विहरित्तए अदुत्तरं च णं गोयमा ! | नोप ! चंदजोतिसिंदे जोतिसराया चंदवर्डिसए विमा सजाए सुहम्माए चंदंसि सीहासांसि चहिं सामाणियसइस्सीहिं जाव सोल्लसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्ने-हिय वहूहिं जोतिसिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे महया हट्टगीय वाइयतंतीतलतालतु मियघण मुगपकुcoarsetai दिव्वाई भोगजोगाई मुंजमाणा विहरितए केवल परियार तू मिए सर्द्धि जोगजोगाई चोसडिए बुद्धिए नो चेव णं मेहुणवत्तियं । ( पनूणं जंते ! इत्यादि) प्रतुर्भदन्त ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिषश्चन्द्राक्तंस के विमाने सजायां सुधर्मायां चन्द्र सिंहासने त्रुटिकेनान्तः पुरेण साई दिव्यान् भोगनोगान् भुब्जमानो विहर्तुमासितुं भगवानाह - गौतम ! नायमर्थः समर्थः । अत्रैव कारणं पृच्छति - ( से केण हेणमित्यादि ) तदेव भगवानाह - गौतम ! चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य चन्द्रावतंसके विमाने सजायां सुधर्मीयां माणवकचैत्यस्तम्ने वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुकेषु ते च यथा तिष्ठन्ति तथा विजयराजधानीगत सुधर्मासभायामिव द्रष्टव्यम्। बहूनि जिनसक्थानि सन्निहितानि For Private अग्गमहिसी तिष्ठन्ति यानि । सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । नन्द्रस्य ज्योतिवेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य अर्चनीयानि पुष्पादिभिर्वन्दनीयानि विशिष्टः स्तोत्रैः स्तोतव्यानि पूजनीयानि वस्त्रादिनिः सत्कारणीयानि आदरप्रतिपत्या सम्माननीयानि जिनोचितप्रतिपस्या क ल्याणं मंगलं चैत्यमिति पर्युपासनीयानि ( तासि पणिहाए ति ) तेषां प्रतिजिया तानि श्राश्रित्य नो प्रभुश्चन्द्रो ज्योतिषराश्चन्द्रावतंस के विमाने यावद्विहर्त्तव्यमिति । ( पनू णं गोयमा ! इत्यादि) प्रभुगतम ! चन्द्रो ज्योतिषेन्द्रो ज्योतिषराइच-द्रायतंस के विमाने सनायां सुधर्मायां चन्द्रे सिंहासने चतुर्जिः सामानिकसहस्रैचतसृभिरप्रमहिषीभिः सपरिवारानिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोमशभिरात्मरककदेवसह सैरन्यैश्च बहुभिज्योतिषैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्धं संपरिवृतो महयाहयेत्यादि पूवद् दिव्यान् भोगभोगान् जानो विहर्तुमिति न पुनमैथुनप्रत्ययं मैथुननिमित्तं दिव्यान् स्पर्शादीन् भोगान् भुञ्जानो विहर्तुं प्रभुरिति । सूर्यस्याप्रमहिष्यः सूरस्स णं भंते! जोतिसिंदस्स जोतिसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पत्ता? । गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पताओ । तं जहा - सूरिप्पना आतपाभा अश्चिमाली पजंकरा । एवं प्रवसेसं जहा चंदस्स, णवरिं, सूरिवर्डिसके विमाणे सूरंसि सीहासांसि तदेव । ( सूरस्स णं भंते ! इत्यादि ) सुरस्य भदन्त ! ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य कति श्रग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? । जगवानाह - गौतम ! चतस्रोऽग्रमहिष्यः प्रशप्ताः । तद्यथा-सूरप्रभा श्रतपाभा श्रर्चिमाली प्रकरा | 'तत्थ णं पगमेगाए देवीप' इत्यादि चन्द्रवत् तावद् वक्तव्यं यावद् नो चेव णं मेहुणवन्तियं, नवरं, सूर्यावतंसके विमाने सूर्यसिंहासने इति वक्तव्यम् शेषं तथैव । जी० ४ प्रति० । स्था० । , अङ्गारकादीनाम् इंगालस एवं भंते ! महागहस्स कति अग्गमहिसीओ ? पुच्छा | अजो ! चत्तारि अग्गमहि सीओ पष्पत्ताओ । तं जहाविजया वेजयंती जयंती अपराजिता । तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, सेसं तं चैत्र, जहा चंदस्स, बरं, गालवडिंसए विमाणे इंगाल गंसि सीहासांसि सेसं तं चैव, एवं वियालस्स वि । एवं सीए वि महागहाणं वत्तब्वया णिरवसेसा भाणियव्त्रा जाव जावकेउस्स, रणवरं, वकिंसगा सीहासणायि सरिसामगाणि, सेसं तं चेत्र । भ० १० श० ५ ० । जीवा ० । स्था० । श्रासां पूर्वभवः सत्तमग्गस्स उक्खेवो । एवं खलु जंबू ! जाव चत्तारि - ज्या पन्नत्ता । तं जहा - सूरप्पभा त्रयंवा चिमाली पकरा । पदमस्स अज्कयणस्स उक्खेव । एवं खलु जंबू ! ते काले तेणं समए णं रायगिदे समोसरणं जाव परिसापज्जुबासति । ते काले एवं तेणं समए णं मूरख्पना देवी सूरंसि विमाणं सि सूरप्पनंसि सीहासांसि सेमं जहा कालिए तहा, नवरं, पुव्वभवो अक्खुपुरीए नगरे सूरप्पभस्स Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) निधानराजेन्द्रः । अग्गमहिसी गाहावइस्स सूरसिरिए भारियाए सूरप्पना दारिया सूरमी पविमं पंचहि वाससए हिं भद्दियं, सेसं जहा कालिए। एवं सेसाओ वि सव्वाओ खुपुरीए नयरीए [सत्तमवग्गो सम्पत्तो ] ||७|| अट्ठमस्स arree उक्खेवो । एवं खसु जंबू ! जाव चत्तारि अजयरा पन्नता । तं जहा - चंदप्पभा दी तिप्पना अश्चिमाली पहुंकरा । पढमस्स अज्जयणस्स लक्खेव । एवं खलु जंबू । तेणं काले णं तेणं समए रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ । ति काले णं तेणं समए एवं चंदप्पा देवी चदप्पनं सि सीहासणांस, सेसं जहा कालिए, नवरं, पुव्वभवे महुराए नयरी मीवसिप उज्जाणे चंदप्पने गाहावई चंदसि - री भारिया चंदप्पा दारिश्रा चंदस्स अग्गमाहिती विती पवमं पन्नासं वाससहस्सेहिं अन्नाहियं, सेसं जहा कालीए, एवं सेसाओ वि महुराए नयरीए मायापियरो यसिंरीनामया [ श्रमो वग्गो सम्मतो ] ज्ञा० १ श्रु० । वैमानिकानां शक्रस्य सक्कर णं भंते! देविंदस्स देवरमो पुच्छा । अज्जो ! अड अग्गमहिसी पत्ता । तं जहा - पडमा सिवा सेवा अंजू मला अच्छरा नवमिया रोहिणी । तत्थ णं एगमेगाए देवीए मोनस २ देवीसहस्स परिवारो पत्तो । पभू ! ताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस २ देविसहस्ताइं परिवारं विव्वित्तए । एवामेव सपुव्वावरणं श्रद्वावीसुत्तरं देव सय सहस्सं परिवारो विजव्वित्तए, सेत्तं तमिए । ज० १० श० ए ० । उपासकदशाङ्गटीकायां कामदेववक्तव्यतायामभयदेवसूरिणा महिष। परिवारः प्रत्येकं पञ्च सहस्राणि सर्वमीलने चत्वारिंशत्सहस्राणति लिखितम् तश्चिन्त्यम् । जंग स्था० । प्रोगः ; भू ! णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहमसिए त्रिमा सजाए सुहम्माए सकस सीहासांसि तुडिए णं सधि, सेसं जहा चमरस्स, गवरं, परिवारो जहा मांस | शक्रलोकपालानाम् सकस्स एवं भंते! देविंदस्स देवरएणो सोमस्स महारएणो कागमहिसी ? पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पणत्ताओ । तं जहा - रोहिणी मदणा चित्ता सोमा । तत्य एगं०, सेसं जहा चमर लोगपालाएं, णवरं, सयंपजे विमाणे सभाए सुहम्पाए सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चैत्र, एवं जाव वेसमणस्स, णवरं, विमालाई जहा तइयसए । ज० १०० ए न० । सक्कस्म णं देविंदस्स देवरनो वरुणस्स महारनो अगमहिसी पत्ताओ। स्था० ७ ० । For Private अग्गमहिसी ईशानस्य ईसाणस्स गं भंते! पुच्छा । अज्जो ! ग्रह अग्गमहि सीओ पत्ताओ । तं जहा कहा कहराती रामा रामरक्खिया सेसं वसू वसुगुप्ता वसुमित्ता वसुंधरा । तत्थ णं एगमेगाए०, जहा सक्कस्स | भ० १० श० उ० । स्था० । ईशानलोकपालानाम् सास ते ! देविंदस्स देवररणो सोमस्स महारमहिसीओ ? पुच्छा । जो ! चत्तारि गमहिसीओ पण्णत्ताओ । तं जहा - पुढवी राई रयणी विज्जू । तत्य गं०, सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं । एवं जात्र वरु सावरं, त्रिमाणा जहा चनत्थसए, सेसं तं चेत्र जाव णो चैत्र णं मेहुणवत्तियं । ज० १० श० एन० । सक्कस्स एं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारएणो व अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ । सक्कस्म णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो छ महिसी परणत्ताओ । स्था० ६ ग०। ईसा सणं देविंदस्म देवरएको सोमस्स महारणो सत्त अग्गमसीओ पत्ता । ईसाणस्स णं देविंदस्स देवरसो जमस्स I महारण सत्त अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ। स्था०७० | ईसाणस्स देविंदस्स देवरणो वरुणस्स महारन्नो नव पन्नताओ । स्था० ए ग० । महिसी आसां पूर्वजवः नवमस्स उक्खेवो । एवं खलु जंबू ! जाव अट्ठ अज्झयणा पत्ता । तं जहा पउमा सिवा सुई अंजू रोहिणी नवमिया इय चला अपच्चरा । पढमज्झयणस्स उक्खेव । एवं खलु जंबू ! तेरणं काले णं तेणं समए णं रायगिहे समोसरणं परिसा जाव पज्जुवा सइ । तेणं काले णं तेणं समएणं पचमावई देवी सोहम्मे कप्पे पमसिए विमाणे सभाए सुहम्माए पठमंसि सीहासणंसि, जहा कालीए, एवं अट्ठ वि अज्जपणे कालीगमरणं नेयव्वा, नवरं, सावत्थिए दो जणीओ इत्थि - णारे दो जीओ कंपिल्लपुरे दो जीओ सासए दो जणी पमे पियरी विजया मायरो सव्वा ओवि पासस्स अंतिए पव्वइया सक्कस्स गमहिसीओ लिई सत्तपलिश्रोत्रमाई महाविदेतं काहिति [नवमो वग्गो सम्मत्तो ] || ए || दममस्स० नक्खेव । एवं खलु जंबू ! जान अड अज्जयणापन्नत्ता । तं जढ़ा-कएहा य कण्हराई रामा तहा रामरक्खिया वसुया मृगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा चैव । ईसा पढमज्जयणस्स उक्खेव । एवं खबु जंबू ! तेां काले ए णं समए णं रायगिहे समोसरणं परिसा पज्जुवासइ । तेलं काले णं तें समए णं कण्हा देवी ईसाणे कप्पे कएहवडिं स से विमा सजाए सुहम्माए कएहंसि सीहासांसि०, जहा कालीए | एवं अट्ट वि अज्जयणा काली Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) अग्गमाहसी अभिधानराजेन्द्रः। अग्गि गमए णं नेयव्वा, नवरं, पुवनवे वाणारसीए नयरीए विष्कम्भमात्रे, रोधकमात्रे, स्त्री०नावाचा "अगला अग्गदो जणीअो रायगिहे नगरे दो जणीओ सावत्यीए दो ज लपासाया य वश्रामस्तो" रा। पीओ कोमंबीए दो जणीओ रामपिया धम्मा माया सव्वा अग्गबीय-अग्रवीज-न० । अने बीजं येषां ते तथा, कोवि पासस्स अरहो अंतिए पवइयाओ पुप्फचूलाए ज-| रएटकादयः । अग्रे वा बीजं येषां ते अग्रबोजाः । ब्रह्मादिषु, स्था०४०१० । जाए सिसिणीयत्ता ईसाणस्स अगमहिसीओ ठिती नव- | अग्गवेओ-देशी-नदीपूरे, दे० ना० १ वर्ग। पलिओवमाई महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ जाव सचमुक्खा- अग्गसिर-अग्रशिरस-न० शिरोऽग्रे, "घणनिचियसुवरूपखएणं अंतं काहि । एवं खल जंबू ! निक्खेवगो [दसमो वग्गो | गुनयकमागारणिनाणरूवमर्पिमियग्गसिरा" तं०। सम्मत्तो ज्ञा०३ श्रु०॥ अग्गसिहर-अग्रशिखर-न० वनस्पत्यादीनां शिखराप्रे, “सो कृष्णस्याग्रमहिष्यः हियवरं कुरगसिहरा" |ौ० । रा०। कएहस्स णं वासुदेवस्स अट्ट अग्गमहिसीओ०, अरहो अग्गसुयक्खन्ध-अग्रश्रुतस्कन्ध-पुं० प्राचाराङ्गस्य द्वितीये श्रुत. णं अरिहनेमिस्स अंतियं मुंमा भवित्ता अगाराओ अणगारि- स्कन्धे, प्राचा० २ ० १ ० १ उ०।। यं पन्नइत्ता सिकाओ जाव सव्वपुक्खप्पहीणाओ । तं | सिपाया जाव सव्वउक्खप्पहाणामा । | अग्गसोएमा-अग्रशमा-नी० शुगकाग्रे, उपा०२ अ०। जहा-पनमावई य गोरी,गंधारी लक्खाणा सुसीमा य । जंबू- अग्गह-आग्रह-पुं० मा-ग्रह-अच् । ममताऽभिनिवेशे, प्रतिः । व सच्चपमा रुप्पिणी अम्गमहिसीओ॥१॥ स्थाग। मिथ्याभिनिवेशे, षो० १२ विव० । आवेशे, प्रासक्ती, आक्रम, अन्यनासो कथानकम् (भासां राजधान्यो ' रश्करपव्वय' अनुग्रहे, ग्रहणे च । वाच । शब्दे दर्शिताः) अग्गहच्छेयकारि ( ण् )-आग्रहच्छेदकारिन्-त्रि० मूर्गविअग्गरस-अय्यरस-पुं० अध्यःप्रधानो रसोयेन्यस्ते अय्यरसाः। च्छेदके, "समाधिराज पतञ्च, ददे तत्तत्त्वदर्शनम् । आग्रहच्छेदशृङ्गाररसोत्पादकेषु रत्यादिषु, गृङ्गाररसे च । उत्त० १४ अ०। कार्येतत, तदेतदमृतं परम्" ॥१॥ द्वा०२५ द्वा० । रसान-नक रसानां सुखानामग्रम् । प्राकृतत्वादप्रशब्दस्य पूर्व- अग्गहण-अग्रहण-न० अनादरे, "भदा पुण अग्गहणं, जाणं. निपातः । सुखप्रधाने, उत्त०१४ अ०। तो वा विपरिणमेजासो" बृ० ३ उ० । अनुपादाने, उत्त०१ "एसणमणेसणिजं, तिएहं अम्गहणभोयणणयाणं"। उस० मुसभिया कामगुणा इमे ते, संपिमिया अग्गरसप्पा नि०१ सं। कीदृशाः कामगुणाः १ । अग्रयरसमजूताः-अग्रधः प्रधानो रसो येज्यस्ते अग्रचरसाः, शृङ्गाररसोत्पादका इत्यर्थः । यमुक्तम्-"र अग्गहणवग्गणा-अग्रहणवर्गणा- स्त्रीवर्गणानेदे, कर्म०६कर्म। तिमाल्याबकारैः, प्रियजनगन्धर्वकामसेवानिः । उपवनगमनवि अग्नहत्थ-अग्रहस्त-पुं० अग्रश्चासौ हस्तश्चेति गुणगुणिनोरहारैः शृङ्गाररसः समुद्भवति" ॥१॥ अग्रधरसाश्च ते प्रजू- भेदात् । क०स० । हस्तस्याग्रभागे, वाच. । हस्तान, अनु०। ताश्च अग्यरसमजूताः, प्रचुरा इत्यर्थः । अथवाऽग्न्यरसेन श. अग्गाह (ण)-आग्रहिन्-त्रि० प्रनिनिवेशिनि, “आग्रह। काररसेन प्रचुरास्तान् कामगुणान् ( अम्गरस त्ति) चशब्दस्य वत ! निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पकपातगम्यमानत्वात् अग्रया रसाश्च प्रधाना मधुरादयश्च प्रभूताः प्रचु- रहितस्य तु युक्तियंत्र तत्र मतिरेति निवेशम्"१॥ सूत्र०१ श्रु०१ राः कामगणान्तर्गतत्वेऽपि रसानां पृथगुपादानमतिगृहिहेतुत्वा- अ० ३ उ०। अदादिष्वपि चैषामेव प्रवर्तकत्वात् । कामगुणविशेषणं वा, अग्गाणीअ-अग्राणी (नी) क-न० अग्रश्च तदनीकं चेति गुणअग्रधा रसास्त एव गृङ्गारादयो वा येषु ते तथा । वृकास्वाहुः गुणिनोरभेदात् । क०स०, णत्वम् । वाचा सैन्याग्रभागे, 'जेणेव रसानां सुखामामग्रं रसाग्रं ये कामगुणाः। सूत्रे च प्राकृतत्वा भरहस्स रएणो अम्गाणि तेणेव उधागच्छति' जं० ३ वक्षः। दग्रयशब्दस्य पूर्वनिपातः । उत्त०१४ अ०। अग्गन-अर्गल-न० षमशीतितमे महाग्रह, सू० प्र० २० पाहु। अग्गा (ग्गे) णीअ-अग्रायणीय-न० भग्रं परिमाणं, तस्याअर्ज-कलन्-न्यवादित्वात् कुत्वम् । कपाटमध्यस्थे रोधके, क यनं गमनं परिच्छेद इत्यर्थः, तस्मै हितमग्रायणीयम् ।सर्वव्याबोत्रे. कपाटे च । वाच० "अगलं फनिहं दारं,कवा वा वि दिपरिमाणपरिच्छेदकारिण द्वितीयपूर्व, तत्र हि-द्वितीयमसंजए । अवकंचिया ण चिट्टिजा, गोपरम्गगो मुण।"॥१॥ अर्ग ग्रायणीयम् । अग्रं परिमाणं तस्य अयनं गमनं, परिच्छेद इत्यसं गोपादिसंबन्धिनम् । दश०५ अ०२ उ०। थः, तस्मै हितमग्रायणीयम्। सर्वव्यादिपरिमाणपरिच्छेदकाअग्गलपासग-अर्गलपाशक-पुं० यत्रार्गला निकिप्यन्ते तेषु , रीति भावार्थः । तथाहि-तत्र सर्वव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते । यत उक्तं चूर्णिकआचा०२ श्रु० १०५०।। ता-"वीश्यं अम्गेणीयं तत्थ सम्वदव्वाण पज्जवाण य सब्बजीअग्गापामाय-अर्गनापासाद-पुं० स्त्री०। यत्रार्गमा निक्किप्यन्ते वाण य अमां परिमाणं वन्निज्जइत्ति"। अग्गेणीयं तस्य पदपरितेषु, जी० ३ प्रति। 50 प्राह च जीवाभिगममूत्रटीकाकार:- माणं पाणवतिपदशतसहस्राणि । नंगसंथा। "अम्गेणीयाअर्गलाप्रासादो यत्रार्गबा नियम्यन्ते । रा०। ब्वस्स णं चोद्दसवत्युवालसचूलिया वत्यू पमत्ता" | नं0 1 अग्गला-अर्गा-स्त्री० अर्ज-कलन् । न्यइक्वादित्वात कुत्वम् ।। अग्गि-अग्नि-पुं० अङ्गत्यूर्द्ध गच्छति, अगि-नि, नलोपः। " ने. कुद्रागले, गौरादित्वाद् ङीय, स्वार्थे कन्, अलिकाऽप्यत्राथे, | हान्यो " ८।२ । १०२ । इति प्राकृतसूत्रेण वाऽनयोर्म Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५) अभिधानराजेन्द्रः । भग्गि " ध्येऽकारः । श्रगणि, अग्गी । प्रा० । वैश्वानरे, पिं० । निर्ग्रन्थानां निर्मन्थीनां योजयेषामपि परस्परदर्शनेन बहवो दोषाभयन्तीति दर्शनादिरूपतः यथादुविहो य होइ अग्गी, दव्बग्गी चैव तह य भावग्गी । दव्यग्गम्पि अगारी, पुरिमो व परं पलीवेंतो ॥ द्विविधध प्रवत्वनिः तथाविभावाद्रिव्यायामाने भवारी अविरतिकापुरुषो वा यथा सर्वस्वं दहति एवं साध्वी वा साधुर्वा सजीवगृहं सद नं सत्त्वाग्निना प्रदापयन् चारित्रसर्वस्वं दहतीति नियुक्तिणा - थासंक्षेपार्थः अथ विस्तरार्थमभिधित्स्यानि विवृणोतितत्थ पुण होइ दव्त्रे, दहरणादिगलक्खणा अग्गी । नामोदयपचयं, दिप्पर देहं समासज्ज ।। प तत्र योग्यमिवायोर्मध्ये ज्यानिः पुनरयं भवति - वा खलु दहनाने कणोऽग्निः, दहनं भस्मीकरणं तचक्षणः । श्रादिशब्दात् पचनप्रकाशनलकणश्च । देहमिन्धनकाष्ठादिकं समासाद्य प्राप्य नामोदय प्रत्ययमुष्णस्पर्शादिनामकर्मोदयाद् दाय सम्पातिरुच्यते । प किमर्थमरारिति चेत आहदव्वाइसन्निकरिसा, उप्पन्नो ताणि चेत्र महमाणो । दव्वग्गित उच्च, आदिमभावाइजुत्तो वि ॥ अव्यमूर्ध्वाधो व्यवस्थितमरणिकाष्ठं, तस्य, आदिशब्दात् पुरुषप्रयत्नादेव यः सन्निकर्षः समायोगस्तस्मात्पन्नः तान्येव का छादीनि प्रयाणि दहन यद्यप्यादिमेनीदधिकलक्षणेन भावेन युक्तोऽग्निनामकर्मोदयेनेत्यर्थः आदिशब्दात्पारिणामिकादिभावेन च युक्तो वर्तते तथापि इयातिः पते द्रव्याणां वा दाहकोऽग्निरिति व्युत्पत्तिसमाश्रयणात् । स पुनः कथं दीप्यत इत्याहसो पुर्णिघणमासज्ज, दिप्पति सीदती य तदभावा । नातं पिय लभए, घणपरिमाणतो चेव || सनईव्यानिरिन्धनं तृणकाष्ठादिकमासाद्य दीव्यते सीदती च विनश्यति, तदभावादिन्धनाभावात् । नानात्वं विशेषस्तदपि जनतः परिमाणतब्ध धनतो यथा गुणाः कालाग्निरित्यादि । परिमाणतो यथा मदति तृणादान्धने महान् भवति, अल्पे चेन्धने स्वल्प इत्युक्तो अव्याग्निः । अथ भावानि नियुक्तिगाथापर्यन्तं व्याचष्टेभावम्मि हो वेदो, इतो तिविहो नपुंसगादी छ । जतासित अस्थि किं पुणा तासि तवं नस्यि ? ॥ जावे नावाग्निवेदाख्य इत ऊर्द्ध वक्तव्यो भवति । स च वेदस्त्रिविधो नपुंसकादिको ज्ञातव्यः अत्र पर प्राद-यदि तासां संव तीन तस्वात् तर्दि युग्मको निरन्तोऽपि स फलः स्यात्, किं पुनः परं तासां तक मोहनीयं नास्ति, अतः कुतस्तासां भावाग्नेः संभवो भवेदिति भावः । एतन्नूत्तरत्र भावयिष्यते । अथानन्तरोक्तभावाग्निस्वरूपं स्पष्टयति 1 , हृदयं पत्तो वेदो, भावग्गी होइ दुवोणं । जाबो चरितमादी, तं महई तेण जावग्गी ॥ वेदः स्त्रीवेदादिरुदयं प्राप्तः सन् तस्य स्त्रीवेदादि संबन्धी य उपयोगः पुरुषामापदि प्रणस्तेन हेतुभूतेन भाषाग्निर्नयति । अग्निम कुत इत्याह- भावश्चारित्रादिकपरिणामस्तं जायं येन कारणेन दहाते तेन नावानियत नायस्य दादको ऽग्निभयाग्निरि तिव्युत्पत्तेः । कथं पुनर्दहतीति चेदुच्यते जह व साहीरपणे, जवणे कस्म पमायणं । मति समादि, अनिच्यमाणस्म त्रिमूणि । इस संसंभा-सोहि संदरियो मयणवन्ही । नाद गुगरणे, महा अनिच्छस्स वि पमाया ॥ यथा वा स्वाधीनरने पद्मरागादियमकलियनेप्रमा देन दर्पेण वा समादीप्ते प्रज्वालित सति कस्यचिदिज्यादेरनिच्छतोऽपि वसूनि रत्नानि दह्यन्ते (श्य प्ति) एवं संदर्शनमचग्रोकनं संभाषणं मिथकथा, वायां संतो मदनवह्निरनिच्कृतोऽपि साधुसाध्वीजनस्य ब्रह्मादिगुणरत्नानि ब्रह्मचर्यतपःसंयमनृतयो ये गुणास्त पत्र द दारितया रत्नानि प्रमादादहति भस्मसात्करोति । श्रमुमेवार्थ प्रढयति सुर्विखधणवाजवला - भिदीवितो दिप्पते ऽहियं वन्ही । दिडिंधणरागानिल- समीरितो वि इय जावग्गी ॥ केन्धनेन वायुवलेन पाप्रभेदी पितो यथा बहिरधिकं दीप्यते (इ) एवं रूपं यदिधनं यक्ष रामरूपोऽनलो वायुस्ता ज्यां समीरित उद्दीपितो भृशं भावाग्निरपि दीप्यते । बृ० १ 9 ० । कल्प० । ( श्रग्नेर्वर्णको 'वीर' शब्दे ) ( श्रग्नेः प्र धमोत्पादक उस शब्दे) पहिनामके सोकान्तिक ' देवे, आ० म०प्र० कृतिकाननस्य देवायाम, स्थान ४ ठा० २०|" कत्तिया श्रग्गिदेवयाए" ज्यो० ६ पाहु० । सू० प्र० । "दो अग्गीश्रो" स्था० २४० ३ ० | "चत्तारि भगी जाव जमा " । श्रग्निरिति कृत्तिकानक्षत्रस्य देवता यावद्यम इति । स्था० ४ ठा० २ ४० । आग ( अ ) प अग्निक-पुं० यमशिष्ये यमदग्निनामके तापसे, "यमाख्यस्तापसस्तत्र, सतत्पार्श्वेऽग्निको ऽगमत् । प्रपश्नस्तस्य शिष्यत्वं, सघोरं तप्यते तपः ॥ यम शिष्योऽग्निक इति यमदग्निरिति श्रुतः " श्र० क० । आव० आ० म० द्वि० ० चू० । (अस्य कथानकं ' कोह 'शब्दे ) देशी-शेमन्दे दे० ना०१ वर्ग अगिकन अग्निकार्य १० यागादिविधी, स्था० । अग्निकारिया - अग्निकारिका स्त्री० अम्निकर्मणि, साधूनां इम्यानिकारिकाभ्युदासेन भावानिकारकेचानुहाता। प्रति० ( 'अग्निहोत' शब्दे चैतद् दृश्यम् ) अग्गिकुमार अधिकुमार- अनिवासी कुमाराराध कुमारव मान इति हुवनपतिदेव प्रा० १ पद (अन्तराग्रमहिच्यादवस्तत्तच्छब्द एव दृश्याः ) ('जुवणवश ' शब्दे चाऽस्य वर्णादिकम) अग्निकुमाराहवण- अग्निकुमारादान १० तेजसदेव तैजसदेवसंकीर्तने, "अग्निकुमाराहवणे धूर्व पति पा० २० अरिगच्च आग्नेय - पुं०। उत्तरयोः कृष्णराज्ययोर्मध्ये आग्नेयाभविमानवास्तव्येऽमे लोकान्तिकदेवे, स्था० वा० ३ उ० । प्र० । ० | झा० । ( 'लोगतिग' शब्देऽस्य सर्वे वृत्तम् ) Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्गिनू ( १७६) अग्गिच्चाभ शनिधानराजेन्द्रः। अग्गिच्चाल-आग्रेयाज-न। उत्तरयोः कृष्णराज्ययोर्मध्ये वर्तमा नासियो जिगणं, जाइजरामरणविप्पमुकेणं । ने आग्नेयनामलोकान्तिकदेवविमाने, स्था०पठा०३०मासा नामेण य गोनेण य, सव्वएणू सम्बदरिसीणं ॥ अम्गिजस-अनियशस्-पुं० छीपसमुरूविशेषाधिपती, द्वी० ।। आभाषितश्च संलपितश्च जातिजरामरणविप्रमुक्तेन सर्पले. अग्गिजोय-अग्निद्योत-पुं० श्रीवीरस्याष्टमे नवे विप्रनेदे, श्री- न सर्वदर्शिनाच जिनेन। कथं?, नाम्नाच हे अग्निभूते! गोत्रेण वीरस्याष्टमे भवे चैत्यसनिवेशे च । पष्टिलक्कपूर्वायुष्कोऽग्निद्योतो च हे गौतमसगोत्र! इति । इत्थं च नामगोत्राभ्यां संलपितस्य नाम विप्रस्त्रिदएमीभूत्वा मृतः। कस्प० । प्रा००। तस्य चिन्ताऽभूत् । अहो!नामापि मम विजानाति,अथवा जअग्गिदत्त-अग्निदत्त-पुं० जरतकेत्रजपार्श्वजिनसमकालजाते गत्प्रसिद्धोऽहं,कः किल मां न वत्ति ? यदि हि मेहतं संशयं मास्यत्यपनेष्यति वा तदा भवेन्मम विस्मय इति चिन्तयति ऐरवतकेवजे तीर्थकरे, तिः। भद्रबाहोर्द्वितीये शिष्ये, कल्प० । तस्मिन् भगवानाहअग्गिदहण-अग्निदहन-न० वह्नौ शरीरभस्मीकरणसवणे शा किं मन्ने अत्थि कम्म, उयाहु नत्थि त्ति संसओ तुज्क । रीरदएमे, प्रश्न० १ श्राश्र0 द्वा० । वेयपयाण य अत्यं, न याणियो तेसि मोअत्थो॥ अग्गिदेव-अग्निदेव-पुं० द्वीपसमुजविशेषाधिपती, दी। हे अग्निभूते गौतम ! त्वमेतन्मन्यसे चिन्तयसि यदुत क्रिअग्गिनीरु-अग्निभीरु-पुं० चण्डप्रद्योतनृपतेः रथरत्ने,मा०का यते मिथ्यात्वादिहेतुसमन्वितेन जीवेनेति कर्म ज्ञानावरअग्गिजूद-अग्निजूति-पुं० मन्दरसन्निवेशजाते ब्राह्मणनेदे, श्री-| णादित णादिकं तत्किमस्ति न वेति? नत्वयमनुचितस्तव संशयः । वीरस्य दशमभवे, मन्दरसन्निवेशे षट्पञ्चाशल्लक्कपूर्वायुष्कोऽग्नि- अयं हि भवतो विरुद्धवेदपदनिबन्धनो वर्तते, तेषां च वेदपतिर्नामा ब्राह्मणस्त्रिदण्डीनूत्वा मृतः। कल्पाश्रा० चू० प्रा० दानां त्वमर्थन जानासि तेन संशयं करोषि । तेषां च वेदपदाम०प्र०ा श्रीमतो महावीरस्य द्वितीये गणधरे, (अस्याऽऽयुरादिः नामयं वक्ष्यमाणलक्षणोऽर्थ इति । विशे(इति विरुद्धवेदपदा'गणहर' शब्दे, नवरमिन्द्रनूतौ प्रबजिते) नामर्थव्याख्यापुरस्सरमसौ यथा ज्ञानावरणादिकं कर्म ग्राहित स्तथा चास्मिन्नेव प्रन्ये 'कम्म' शब्दे तृती० २४६ पृष्टे वच्यते) तं पन्चइ सोउं, वीओ आगच्छई अमरिसेणं । तं च प्रव्रजितं श्रुत्वा, दध्यौ तद्वान्धवोऽपरः। वञ्चामि माणेमि, पराजिणित्ता ण तं समणं ॥ अपि जातु द्रवेदधि-हिमानी प्रज्वलेदपि ॥१॥ तमिन्द्रर्ति प्रवजितं श्रुत्वा द्वितीयोऽग्नितिनामा तत्सोदर्यबन्धु- वह्निः शीतः स्थिरो वायुः, संभवेन्न तु बान्धवः। रत्रान्तरेऽमर्पणाकुलितचेताः समागच्चति जगवत्समीपम् । केना हारयेदिति पप्रच्छ, लोकानश्रद्दधद् भृशम् ॥२॥ भिप्रायेणेत्याह-विचामिणमिति) व्रजाति णमिति वाक्यासकारे। ततश्च निश्चये जाते, चिन्तयामास चेतसि । भानयामि निजभ्रातरमिन्द्रनतिम् । तत इति गम्यते, णेत्ययमपि गत्वा जित्वा च तं धूर्त, वालयामि सहोदरम् ॥ ३॥ वाक्यालङ्कारे । तं श्रमणमिन्द्रजालिकं कमपि पराजित्येति । सोऽप्येवमागतःशीघ्र, प्रभुणा जाषितस्तथा । पुनरपि किं चिन्तयन्नसावागत इत्याह संदेहं तस्य चित्तस्य, व्यक्तीकृत्यावदद्वितुः॥४॥ गलिओ छलाणा सो, मन्ने माएंदजासिओ वा वि । हे गौतमाग्निभूते! का, संदेहस्तव कर्मणः ?। को जाणइ कह पत्तं, ताहे वट्टयाणी से ॥ कथं वा वेदतत्त्वार्थ, विभावयसि न स्फुटम् ? ॥५॥ पुर्जयस्त्रिभुवनस्यापि मचातेन्द्रसूतिः, केवलमहमिदं मन्ये स चायं " पुरुष एवेद १ सर्व यद्तं यच्च भाच्यग्लादिना बलितोऽसौ तेन धूतन छलजातिनिग्रहस्थानग्रहण-1 म्" इत्यादि । तत्र हूँ इति वाक्यालङ्कारे, यद् भूतनिपुणेन, येन केनापि ऽपेन भ्रामितो मदन्धुरित्यर्थः । अथवा मतीतकाले, यच्च भाव्यं भाविकाले , तत्सर्वमिदं पुरुष मायब्रजाबिकः कोऽपि निश्चितमसौ, येन तस्यापि जगरोर्म- एव आत्मैव । एवकारः कर्मेश्वरादिनिषेधार्थः । अनेन च द्भातुमित चेतः। तस्माकि बहुना, को जानाति तद्वादस्थानक वचनेन यनरामरतिर्यकपर्वतपृथिव्यादिकं वस्तु दृश्यते तत्सतयास्तत्र कथं वृत्तं, मत्परोकत्वात् । श्त ऊर्द्ध पुनर्मयि तत्र गते र्चमात्मैव । ततः कर्मनिषेधः स्फुट एव । किं च । प्रम(से)तस्य तदिन्द्रजालव्यतिकरभ्रमितमानसस्य खचरनरामरवा तस्यात्मनो मूर्तेन कर्मणानुग्रह उपधातश्च कथं भवति? । तवन्दनमात्रवृहितचेतसः श्रमणकस्य (वट्टमाणि त्ति) या का यथा आकाशस्य चन्दनादिना मण्डनं खगादिना खण्डनं च चिहार्ता वर्तनी वा भविष्यति, तां द्रक्ष्यत्ययं समग्रोऽपि लोक न संभवति; तस्मात् कर्म नास्ति इति तव चेतसि वर्तते। परं इति । किं च तेन तत्र गच्छता प्रोक्तमित्याह हे अग्निभूते! नायमर्थः समर्थः । यत इमानि पदानि पुरुष स्तुतिपराणि । यथा-त्रिविधानि वेदपदानि-कानिचिद्विधिसो पक्खंतरमेगं, पि जाइ ज मे तओ मि तस्सेव । प्रतिपादकानि। यथा-"वंगकामोऽग्निहोत्रं जुहुयात्" इत्यादीनि। सीसत्तं होज्ज गओ, तत्तो पत्तो जिणसगासे ।। कानिचिदनुवादपराणि । यथा-"द्वादश मासाः संवत्सरः" इ. को जानाति तावदिन्भूतिस्तेन कथमपि तत्र निर्जितो न । त्यादीनि । कानिचित् स्तुतिपराणि । यथा-"इदं पुरुष एव" किंतु एकमपि पक्षान्तरं पक्षविशेषं मे स यदि यात्यवबुध्यते, इत्यादीनि । ततोऽनेन पुरुषस्य महिमा प्रतीयते न तु कर्माद्यमद्विहितस्य सहेतूदाहरणस्य पक्षविशेषस्य स यद्युत्तरप्रदा- भावः । यथा 'जले विष्णुः स्थले विष्णु-र्विष्णुः पर्वतमस्तके। नेन कथमपि पारं गच्छतीति हृदयम्। ततः, मीति वाक्याल- सर्वभूतमयो विष्णु-स्तस्माद्विष्णुमयं जगत्॥१॥ अनेन हि कारे । तस्यैव श्रमणस्य शिष्यत्वेन गतोऽहं भवेयमिति निश्चयः। वाक्येन विष्णोर्महिमा प्रतीयते, नत्वन्यवस्तूनामभावः। किंच, तत इत्यादिवाग्गर्जितं कृत्वा जिनस्य श्रीमन्महावीरस्या- अमूर्तस्यात्मनो मूर्तेन कर्मणा कथमनुग्रहोपघातौ ? । तदन्तिकं प्राप्त इति । ततः किमित्याह प्युयुक्तम, यदमूर्तस्यापि झानस्य मद्यादिनोपघातो ब्राया Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) अग्गिनूइ अभिधानराजेन्द्रः। अग्निहोत्त द्यौषधेन चानुग्रहोरष्ट एव । किं च । कर्म विना एकः सुखी,अ- | अग्गिसिह-अग्निशिख-पुं० । अग्नेरिव अग्निरिव पा शिखा न्यो दुःखी, एकः प्रभुः,अन्यः किङ्कर इत्यादि प्रत्यक्षं जगद्वैचित्र्य यस्य। कुहमवृक्के, कुमुम्नवृत्त च । वाचका अवसर्पिण्याः सप्तमकथं नाम संभवतीति श्रुत्वा गतसंशयःप्रनजितः। इति द्वितीयो दत्तनामकवासुदेवमन्दननामकबलदेवयो। पितरि, ति० । गणधरः। कल्पा०म०प्र. (अन्यद् 'गणहर'शब्दे इष्टव्यम) स. । श्राव० । औत्तराणामग्निकुमाराणामिन्द्रे , स्था० २ पावकविभूत्यां, वीर्ये च । स्त्री०६०। वह्निसम्भवे, विभावाचा ग० । ज्वलनशिखनाम्नो राज्ञो मित्रे च । उत्त० १३ अ० । अग्गिमाणव-अग्निमानव-पुं० दाकिणात्थानामग्निकुमाराणा- | अग्नितुल्यजटावति, त्रि०। अग्निशिखेव शिखाग्रमस्य बाजनिमिन्द्र, स्था०२ ग०३ २०ाजा(अप्रमाहिषीलोकपालादयश्चा- | कावक, स्त्री । अग्नितुल्याग्रभागे , त्रि० । स्वर्णे, कुसुम्भपुष्पे स्थ 'अम्गमहिसीलोगशालादि' शब्देषु निरूपिताः) च । न । ६० । अग्निज्वालायाम, स्त्री० । वाच । स्था। माग्गिमानी-अग्निमाली-स्त्री.रतिकरपर्षतस्योत्तरेण स्थि-भग्गिसिहाचारण-अग्निशिखाचारण-पुं० अग्निशिखामुपाताया शक्राप्रमाहिन्याम, द्वी०।। दाय तेजस्कायिकानविराधयत्सु स्वयमदद्यमानेषु पादविहा-अग्निमित्रा-स्त्री०। पोसासनगरवास्तव्यस्याजीविका रनिपुणेषु चारणभेदेषु, प्रब० ६० द्वा० । मतोपासकस्येभ्यकुम्नकारस्य सदालपुत्रस्य भार्यायाम्, स-अग्गिण-मग्निषेण-पुका वर्तमानायामवसर्पिपयां भरतक्षेत्र. पा०७० ('सहामपुत्त' शब्देऽस्या वक्तव्यता) जसम्भवजिनसमकालिकैरवतजे तीर्थकरे, “ भरहे य संजअग्गिमेह-अग्निमेघ-पुं०ा अनिवदाहकारिजले मेघे, ०७| वजिणो, पेरवए अम्गिसेणजिनचंदो" ति. नारतजारिष्टनेश०६०। मिसमकालिकैरवतजे तीर्थकरे च, "प्ररहे अरिहणेमि, पेरअग्गिय-अग्निक-पुंजिस्मकाभिधाने वायुविकारे, विपा०१ १०१ | घर अग्गिसणजिणचंदो" ति० । प्रव०। मा इन्द्रदतेन राका स्वमन्त्रिसुतायामुत्पादितस्य सुरेन्दत्त-अरिंगहात्त-आग्नहोत्र-न०। अम्नय यतऽत्रा हु-बा४ तामस्य दास्यां जाते पुत्रे, ('मणुस्स' शब्दे चैतविवृतिः) श्रा० ०१ / न्त्रकरणवाहिस्थापनानन्तरं तदुद्देश्यकडोमे, वाचण तत्स्वरूपं च अ०। भा० का वत्सगोत्रावान्तर्गतगोत्रे, स्था० ७ ग०। समये वर्णिताद् लौकिकप्रतिदिनकृत्यादवगन्तव्यम् । यथा 'सिव' अग्गिलिय-अग्रिम-पुoा अग्रे भवः। अप्र-डिमच् । ज्येष्ठनातरि | शम्दे शिवराजर्षिचरित्रोपाख्याने पर्पितम् । तच नित्यं काम्य श्रेष्ठ, बाप । “अग्गिलिया पच्छिलिया सेसं साहूण पाउम्"। च यावजीवमग्निहोत्रं जुहोति । वान। 'जरामर्थ्य वा एतत्सर्व ५० ब०२ द्वा० । यदग्निहोत्रं,तज्जरामर्यमेव, यावज्जीचं कर्तव्यमिति [श्रा०म० अग्गिवय-अग्नि-पुं० । पञ्चपञ्चाशत्तमे महाप्रहे, सू०प्र०२० द्वि० । विशे०] श्रुत्या, 'नित्यस्य उपसद्भिश्चरित्वा मासमेकमपाहु । ०प्र०।"दो अगिहा" स्था०२०।१०। ग्निहोत्र जुहोतीति' श्रुत्या च, काम्यस्य विधानमुक्तम् । वाच। अग्गिवेस-अग्निवेश-पुं० । लोकप्रसिद्ध ऋषिनेदे, नं०। पतञ्चाकिञ्चित्करभिति सिकान्ते दर्शितम्अग्निवेश्म-पुं० पक्षस्य चतुर्दशे दिने, जं०१ वक्षा कल्प। हुएण एमे पवयंति मोक्खं ॥ १ ॥ जो दिवसस्य द्वाविंशतितम मुहूर्त, चं० प्र०। १० पाहु। एके तापसम्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति । ये किल अग्गिवेसायण-अग्निवेश्यायन-पुं० । प्रनिषेशस्यापत्यमग्निवे स्वादिफलमनाशंस्य समिधा घृतादिनिहव्यविशेषैर्युताशनं तर्पयन्ति ते मोकायाग्निहोत्रं जुह्वति, शेषास्त्वत्युदयायेति । श्यः । गर्गादेयमिति यप्रत्ययः । तस्याऽपत्यमग्निवेश्यायनः ।। युक्ति चात्र त माहुः-यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनामलं दहत्येवं दअग्निवेशर्षिपौत्र, नं० । तमोप्रजाते च यथा-सुधर्मा गणधरः। हनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति । प्रा० महि० । कल्प० । गोशालस्य मालिपुत्रस्य पञ्चमे दि. इति पूर्वपकमुद्भाव्य-. कचरे,भ०१५० १२० द्वाविंशे दिवसमुहसे, स० ३०समा हवेण जे सिचिमुदाहरांति अम्गिसकार-अग्निसंस्कार-पुं०। भग्निना संस्कारो मन्त्रपूर्वक सायं च पायं अगाणं फुसंता । दादः। विधानेन अग्निकृतदाहे, बाच० "कावण्या भग्गिसकारो" ध्यापना नामाग्निसंस्कारः, सच नगवत ऋषनस्य एवं मिया सिद्धि हवेज्ज तम्हा निर्वाणप्राप्तस्याऽन्येषां च साधून्ममिक्ष्वाकुनामितरेषां च प्रथम अन्गि फुसंताण कुकम्मिणं पि॥१॥ त्रिदशैः कृतः पश्चाबोकेऽपि संजातः। प्रा० म०वि०। "अग्निहोत्र जुहयात स्वर्गकामः" इत्यस्माद्वाक्या ये केचन अम्गिमप्पना-अग्निसमभा-स्त्री० । अवसर्पिण्यां द्वादशतीर्थ मृदा हुतेनाऽनी हव्यप्रक्केपेण सिदि सुगतिगमनादिकां स्व. करस्य वासुपूज्यस्य दीकासमय उपयुक्तशिधिकायाम, स०। गांवाप्तिलक्षणामुदाहरन्ति प्रतिपादयन्ति । कथंभूताः, सायम परापहे विकाले वा,प्रातः प्रत्यूषे वाऽग्नि स्पृशन्तो यथे?अम्गिसम्म (ए) अग्निशर्मन्-०। तीप्रकोपाम्बिते ऋषि ईव्यैरम्नि तर्पयन्तस्तत एव यथष्टगतिमभिलपस्ति । आहुश्चैवं भेदे, चास । यमुपहसता गुणसेनेन नवभवानुषति वैरं वर्कि ते-यथा अग्निकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति । तत्र च ययेवमग्नितम् । स्वनामस्याते ब्राह्मणनदे, प्राचा०१७० ३ ०२ उ०। स्पर्शन सिर्जिवेत, ततस्तस्मादम्नि स्पृशां कुकर्मिणामना(अस्यकथानकं 'सीोसणिज'शकण्यम) रदाहककुम्नकारायस्कारादीनां सिकि। स्यात् । यदपि च अम्गिसाहिय-अग्मिसाधिक-वि० । अग्नेयभाक्त्सेन साधा- मन्त्रपूतादिकं तैरुदाहियते तदपि च निरन्तराः सुहृदः प्रत्येप्यरणे, यथा-"हिरवे य सुषमे य जाव सावजे अग्गिसाहिए | न्ति, यतः कुकर्मिणामप्यग्निकार्य जस्मापादनमनिहोत्रिकाबोरसाहिए रायसाहिए मन्खुसाहिए" इत्यादि । भ० ए ० । दीनामपि जस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुकर्मियोऽग्नि३३३011 होत्रादिकं कर्मेति । यदप्युच्यते-अग्निमुखा वै देवाः, पतदपि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) अग्निहोत्त अभिधानराजेन्द्रः। अग्निहोत्त युक्तिबिकलत्वाद् वाल्मात्रमेव । विष्ठादिभक्कणेन चाग्नस्तेषां | चेद "कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सद्भावना हुतिः । धर्मध्यानाबहुतरदोषोत्पत्तरिति । सूत्र०१ श्रु० अ० । यदप्यनिहितम्-दे। मिना कार्या, दीक्वितेनाग्निकारिका"॥१॥ इत्यादिरूपा परिगृह्यते । बताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादकत्वाद् वेदविहिता हिंसा न दोषाय तदेव मुखं प्रधान येषां तेऽग्निहोत्रमुखा बेदावेदानां हि ध्याइति। तदपिवितथम् । यतो देवानां संकल्पमात्रोपनताभिमता- देरिव नवनीतादि आरण्यकमेव प्रधानम् । उक्तं हि-"नवनीत हारपुद्रसरसास्वादसुहितानां क्रियशरीस्वाद युप्मदावर्जि- यथा दन-श्चन्दनं मलयादिव । औषधेन्योऽमृतं यव-वेदप्यारतजुगुप्सितपामांसाद्याहुतिप्रतिगृहीताविच्छैव पुःसंभवा, औ- एयक तथा"|| तत्र च दशप्रकार एव धर्म उक्तः। तथा च तद्दारिकशरीरिणामेव तपादानयोग्यत्वात् । प्रक्वेपाहारस्वी- चा-" सत्यं तपः संतोषः संयमश्चारित्रमार्जवं कमा धृतिः श्रद्धा कारे च देवानां मन्त्रमयदेहत्वान्युपगमबाधः। न च तेषां मन- अहिंसेत्येतद्दश विधमिह धामति" । तत्रच धामशब्देन धर्म मयदेवत्वं भवत्पक्के न सिम्म् । “चतुर्थ्यन्तं पदमेव देवता" इ. एव वियक्तिः । एतदनुसारि चोक्तरूपमेवाग्निहोत्रमिति । - ति जैमिनिवचनप्रामाण्यात् । तथा च मृगेन्कः- “शब्देतरत्वे १० २५ प्रा युगप-द्भिनदशेषु यएषु । न साप्रयाति सान्निध्यं, मूर्त्तत्वादस्स एतदेव प्रपञ्चितं हारिभद्राष्टकेदादिवत्"॥१॥इति । सति देवता। इयमानस्य च वस्तुनो भस्मी कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सनावनाऽऽहुतिः । नावमानोपलम्नात् तदुपनोगजनिता देवतानां प्रीतिः प्रला धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीवितेनाग्निकारिका ॥१॥ पमानम् । अपि च । योऽयं त्रेताऽग्निः सनस्त्रिशत्कोटिदेवता. नां मुखम, " अग्निमुखा वै देवाः" इति श्रुतेः । ततश्चोत्तम कर्म ज्ञानावरणादिकं मूलप्रकृत्यपक्कयाऽटप्रकार, तदेव दाह्यमध्यमाधमदेवानामेकेनैव मुखेन नुजानानामन्योन्योधि त्वादपनेयत्वादिन्धनमिवन्धनं कर्मेन्धमं तत्समाश्रित्याङ्गीकृत्याएभुक्तिप्रसङ्गः । तथाच ते तुरुष्केन्योऽप्यतिरिच्यन्ते । तेऽपि निकारिका कार्येति योगः किंविधा?, दृढा कर्मेन्धनदाई प्रति तावदेकौवामत्रे नुञ्जते , न पुनरेकेनैव वदनेन । किंच । प्रत्यक्षा। तथा सद्भावना शुजरूपा या जीवस्य वासना सेवाएकस्मिन् वपुषि वदनबाहुल्यं कचन भूयते, यत् पुनरनेकशरी हुतिघृतादिप्रक्वेपलक्कणा यस्यां सा तथा । केन करणभूतेनेत्यारेप्वेकं मुखमिति महदाश्चर्यम् । सर्वेषां च देवानामेकस्मिन्नेव ह-धर्मध्यानाग्निना धर्मध्यानमुपलक्कणत्वाच्छक्लध्यानं तश्चाग्निरिमुखेऽङ्गीकृते यदा केनचिदेको देवः पूजादिनाऽऽराछोऽन्यश्च नि घाग्निधर्मध्यानं च तदग्निश्च धर्मध्यानाग्निस्तन कार्या विधेया। न्दादिना विराद्धस्ततश्चैकेनैव मुखेन युगपदनुग्रहनिग्रहवाक्यो. केनेत्याह-दीक्कितेन प्रवजितेन । काऽसौ?,अग्निकारिका अग्निकधारणसंकरः प्रसज्यते । अन्यच्च । मुखं देहस्य नवमो भागस्त मेति । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्-दीक्वितस्य व्याग्निकारिका दपि येषां दाहात्मकं तेषामेकैकशः सकलदेहस्य दाहात्मक अनुचिता, तस्या नृतोपमर्दरूपत्वात् , तस्य च तनिवृत्तत्वेन त्वं त्रिनुबननवननस्मीकरणपर्यवसितमेव संभाव्यते, इत्यल तत्रानधिकारित्वात् ।अधिकारिवशाच धर्मसाधनसंस्थितिरिति ति चर्चया । यश्च कारीरीयशादौ वृष्यादिफलाव्यभिचारस्त प्रागुक्तम् । गृहस्थस्य तु सर्वथा नृतोपमर्दानिवृत्तत्वेनाधिकाप्रीणितदेवताऽनुग्रहहेतुक उक्तः । सोऽप्यनकान्तिकः । कचि रित्वात्तां करोत्यपि । अत एव धूपदहनदीपप्रबोधादिना प्रकायभिचारस्यापि दर्शनात । यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न रेण न्याग्निकारिकामपि कुर्वन्त्याहतगृहस्था इति । अनेन तदाहिताहुतिभोजनजन्मा तदनुग्रहः, किं तु स देवताविशेषोऽ श्लोकेनेदमुक्तं भवति-यदि हे कुतीथिकाः! यूयं दीक्वितास्तदा तिशयज्ञानी स्वोदेशनिवर्तितं पूजापचारं यदा स्वस्थानावस्थि कर्मलकणाः समिधः कृत्वा धर्मध्यानलकणमग्निं प्रज्वास्य तः सन् जानीते तदा तत्कारं प्रति प्रसन्नचेतोवृत्तिस्तत्तत्का सद्भावनाहुतिप्रकपतोऽग्निकारिका कार्या, नत्वन्या, तस्या दीर्याणीच्यवशात्साधयति । अनुपयोगादिना पुनरजानानो जाना क्वितानामनुचितत्वात् । यदि तु हन्त ! गृहस्थास्तत्तुल्या या, नोऽपि वा पूजाकर्तुरभाग्यसहकृतःसन्न साधयति, अन्यक्केत्रका ततः कुरुध्वं द्रव्याग्निकारिकामिति ॥ १॥ लनावादिसहकारिसाचिन्यापेकस्यैव कार्योत्पादस्योपत्नम्भात। अथ ध्यानाम्निकारिकैव कार्या दीक्षितेनेति परसिसच पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः प्रकारान्तरैरपिसुकरः, दान्तेनैव प्रसाधयन्नाहतत्किमनया पापैकफलया शौनिकवृत्या ?। यश्च उगबजामलहो दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता, ज्ञानध्यानफलं स च । मात् परराष्ट्रवशीकृतिसिद्ध्या देव्याः परितोषानुमानम् । तत्रका शास्त्र उक्ता यतः सूत्र, शिवधर्मोत्तरे ह्यदः॥॥ किमाहाकासांचित् तुरुदेवतानां तथैव प्रत्यङ्गीकारात् । केवलं दीका प्रव्रज्या, मोकार्थ सकलकर्मनिर्मुक्तिनिमित्तमाख्याता त. तत्रापि तद्वस्तुदर्शनशानादिनैव परितोषो न पुनस्तक्त्या । नि- स्वरूपनिंगदिता । यत एवं ततस्ता प्रतिपन्नेन मोक्कसाधकम्बपत्रकटुकतैलाऽऽरनालधूमादीनां हृयमानच्याणामपि तद्- मेवानुष्ठानमाश्रयणीयं न पुनर्डव्याग्निकारिकेति हृदयम् । 5भाज्यत्वप्रसनात् । परमार्थतस्तु तसत्सहकारिसमवधानसचि- व्याग्निकारिकैव साधनं मोकस्येत्याशङ्कप निराकरणायाहपाराधकानां भक्तिरेव तत्तत्फलं जनयति,अचेतने चिन्तामण्यादौ (ज्ञानभ्यानफलं स चेति) स पुनर्मोको विज्ञप्तिशुनैकाप्रत्वयोः तथा दर्शनात् । स्या०११ श्लो० ॥ ननु "न विजाणसिबेयमुहं न साध्यो वर्तते न पुन:व्याप्तिकारिकाया शत भावना। कथामवि जन्माण जं मुहं ति"जयघोषेण पृष्टये विजयघोषोऽशक्क - दमवसितं प्रत्यवाद्यगोचरत्वात्तस्येति चेदत आह-शास्त्रे उक्तः सरदाने "बेयाणं च मुहं खूहि, बूहि जम्माण जंमुहं ति" जयघोष- आगमे ज्ञानभ्यानफलतयाऽभिहित इत्यर्थः । यद्यपि हि प्रत्यक्कामेवं जिज्ञासमानः “ अभिाहोत्तमहावेया जन्मही वेयसां मुहं"। नुमानयोरसायतीन्द्रियत्वेनागोचरस्तथाऽप्यागमानिहितत्वात् इति तभ्ययुत्तरमवाप्तो विजयघोषः प्रववाज । उत्त.१५ अ० ।। झानफलतयाऽसौ प्रतिपत्तव्यः। आगमश्व प्रमाणतया सर्वमोक्तश्त्यग्निहोत्रस्य सिद्धान्तेऽपि कर्तव्यत्वमन्युपगतं कथं ष्यते? | वादिजिरज्युपगत एष । यद्यपि च बौद्धैः स तथा नेष्यते, तसत्यम् । न तत्र प्राणिवधप्रधानं व्याग्निहोत्रं गृह्यते, किं तर्हि थापि संशयविशेषनिबन्धनतया प्रवृत्तिनिवृत्तिहेतुत्वात् तैः क. ध्यानाग्निहोत्रम् । तथाच तट्टीका-अग्निहोत्रमग्निकारिका, सो | थंचिदन्युपगत पवेति । अथ कथमवसितमिदं यदुत शास्त्रेऽसौ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निहोत्त (१७) भनिधानराजेन्द्रः। अग्निहोत्त तत्फलतयानिहित इत्याशङ्कयाह-यतो यस्मात्कारणात् सूत्र- शेषः । इह च यन्मिध्यादृष्टेरपि व्यासस्य महात्मत्वानिधानमर्थसूचकं वाक्यं शिवधमोत्तरे शिवधर्माभिधाने परानिमते माचायण कृतं, तत्परसंमतानुकरणमात्रमात्मनो माध्यस्थ्याशेवागमविशेष, हिरिति वाक्यालंकारे । अद पतद्वदयमाण- विष्करणार्थमिति न दृष्टम् | संमतश्च परस्य माहात्म्यतया व्यामिति। अतो भवदन्युपगतशास्त्रे मोक्षस्य ज्ञानादिफलतयोक्त- सः। अत एव च तद्वचनं खपके परप्रीतिजननायोपन्यस्तमिति ॥५॥ त्यान्न मांकार्थिना दीक्तिनानधिकृता द्रव्यामिकारिका का तदेवाहयति जावार्थ इति ॥२॥ धर्मार्थ यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीयसी। तदेव सूत्रं दर्शयन्नाह प्रदालनाचि पडुस्य, दरादस्पर्शनं वरम् ।। ६ ॥ पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपदः। धर्मार्थ धर्मनिमित्तं,यस्यपुंसः, वित्तेहा द्रव्योपार्जनचेष्टा कृषिवातपः पापविशुद्धयर्थ, शानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥३॥ णिज्यादिका, तस्य पुरुषस्य,अनीहा अचेष्टा वित्तानुपार्जनमेव,गपूजया देवतायाः पुष्पार्चनबवणया न तु तदन्यया, तदन्य- रीयसी श्रेयसितरा,साततरेत्यर्थः। अयमभिप्रायः-वित्तार्थ चेष्टास्यास्तपोज्ञानरूपत्वेन पापविशुस्मिोक्योरेव संपादकत्वाद् । वि. यामवश्यं पापं भवति, तथोपार्जितवित्तवितरणेनावश्यं शोधपुत्रं विस्तीम राज्यं राजभावो भवति,तत्कारकस्यति गम्यते । नीयं जवति। एवं च वित्तार्थमचे दैव वरतरा, वित्तवितरणविशोतथा अग्निकार्येण अग्नावग्निना या कार्य कृत्यमग्निकार्यम, तेन ध्यपापानावात, परिप्रहारम्नवर्जनात्मकत्वेनचेष्टाया एव च धर्मद्रव्याग्निकारिकयेत्यर्थः, न नावाग्निकारिकया, तस्या ध्यानरूप- त्वादिति। अत्रार्थे रष्टान्तमाह-प्रकालनाकावनात सकाशादहियस्वेन मुक्तिसाधकत्वात् । संपदः समृख्यो जवन्तीति गम्यम् । स्मात,पङ्कस्याशुचिरूपकर्दमस्य दूरादविप्रकर्षादस्पर्शनमश्लेषण तथा तपोऽनशनादि , पापविशुद्धयर्थमशुभकर्मक्वयाय भवति । मेव, वरंप्रधानमिति । इदमुक्तं भवति-यदिपकरचरणादिरवयतथा ज्ञानमवबोधविशेषः, ध्यानं च शुभचिसकाग्रतालवणम, च पःक्षिप्वाऽपि प्रकासनीयस्तदावरमक्किप्त एव, एवं यद्यग्निकारिशब्दः समुश्चये, मुक्तिदं मोकप्रद जवतीति शिवधर्मोत्तरप्रन्थ- कांविधायसंपद उपार्जनीयास्तजन्यपातकंचपुननेन शोधनीसूत्रार्थ इति ॥ ३॥ यं, तदा सैवाग्निकारिका वरमकृतेति। प्रयोगश्चेह-न विधेया मुमुएवं तावत् पराज्युपगमेनैव द्रव्याग्निकारिकाकरणं दीक्षितस्य कुणा द्रव्याग्निकारिका, तसंपाद्यस्य कर्मपङ्कस्य पुनः शोदृषितम , अथ तस्यैव पूजां पुनरग्निकारिकां च प्रकारान्तरण धनीयत्वात, पादादेः पङ्ककेपवदिति । एवं तर्हि गृहस्थेनापि पु. दूषयमाहपापं च राज्यसंपत्सु, संभवत्यनघं ततः। जादिन कार्य स्यात, नैवम, यतो जैनगृहस्था न राज्यादिनिमित्वं पूजां कुर्वन्ति । न च राज्याद्यावर्जितमवद्यं दानेन शोधयिष्याम न तद्धत्वोरुपादान-मिति सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥३॥ इति मन्यन्ते, मोकार्थमेव तेषां पूजादौ प्रवृत्तः । मोकार्थितया च न केवलं मुमुक्कोरग्निकारिकाकरणमपार्थकम, पापंचाशुभं कर्म | विहितस्यागमानुसारिणो वीतरागपूजादेमोक्ष एव मुख्यं फलम्, च, राज्यसंपत्सु नरपतित्वसमृहिषु पूजाग्निकारिकाकरणान- राज्यादि तु प्रासङ्गिकम । ततो गृहिणः पूजादिकं नाबि. न्तरं फलभूतासु सतीषु, संभवति संजायते । यत एवं ततस्त- धेयम, दकितेतरयोश्च अनुष्ठानस्यानन्तर्यपारंपर्यत पव फसे स्मादनघं निरवा ते नैव भवति, तद्धत्वोः राज्यसंपत्कारणयोः विशेष इति ॥ ६॥ पूजाग्निकारिकारूपयोरुपादानमाश्रयणमिति । एतदनन्तरं पू. दीकितस्यापि संपदार्थत्वे सात युक्ता द्रव्याग्निकाजाग्निकारिकोरुपादानस्य सपापत्वं सम्यक् स्वमिसान्तावि रिकेत्याशङ्कानिराकरणायाहरोधेन विचिन्त्यतां पर्यासोच्यतामिति । सुपर्यालोचितकारिणो मोक्षाध्वसेवया चैताः, प्रायः शुभतरा जुधि । हि भवन्ति मुमुक्कव इति ॥ ४ ॥ जायन्ते बनपायिन्य-इयं सच्चाखसंस्थितिः॥७॥ राज्यसंपत्सु पापं भवतीत्युक्तं तदेवाश्रित्याक्केपः क्रियते, मोको निर्वाणम, तस्याध्या मार्ग:सम्यग्दर्शनशानचरणलक्षणननु राज्यसंपद्भावे भवतु नाम पापम, दानादिना तु स्तस्य संवाऽनुष्ठानं मोक्काध्वसेवा, तया, चशब्दः पुनःशब्दार्थः। तस्य शुफिनविष्यतीत्याशङ्कयाहविशुषिश्वास्य तपसा, न तु दानादिनेव यत् । ततश्चाग्निकारिकायाः कार्यभूताः संपदः पापहेतुतया अशुभाः, मोकाश्वमेवया पुनः शुभतरा जवन्तीत्यों बज्यते । अवधारतदियं नान्यथा युक्ता, तथा चोक्तं महात्मना ।।५॥ णार्थों वा चशब्दः, तेन मोकाध्वसेवयव, नाग्निकारिकाकरविशोधनं विशुभिः, सा पुनरस्य राज्यादिजन्यपापस्य तपसा, णत एता अनन्तरोदिता अग्निकारिकाफलभूताःसंपदः,प्रायो अवधारणस्यह संबन्धात्तपसैव अनशनादिनैव, तपः पापवि. बाहुल्येन । प्रायोग्रहणं च कस्यापि मोकाभ्वसेवानव एव निशुद्ध्यर्थमिति वचनात, न तु दानादिना न पुनदानहोमादिना, र्वाणभावान जायन्त एवेति ज्ञापनार्थम् । शुजतरा अग्निकारिदानेन जोगानाप्नोतीति वचनात् । तत् कथं दीक्वितस्य पूजाग्नि- काकरणेभ्यः सकाशात्प्रशस्ततरा भुवि पृथिव्यां, जायन्ते भवकारिके युक्ते इति । इह च द्रव्याग्निकारिकाया एव मुण्यं दृषणं, न्ति । हिशब्दो यस्मादर्थः, अनपायिन्यः पापवर्जिताः । यस्मापूजायास्तु प्रासनिकमित्यग्निकारिकाया एव निगमनमाह-ति- मोक्काध्वसेवया प्रशस्ततराः, अनपायिन्यश्च संपदो जायन्ते,त. दिय नान्यथा युक्तेति) यस्मात् मुमकोयर्थयं पापसाधनसंप- स्मादियमग्निक्रिया नान्यथा युक्तेति प्रक्रमः । मोकाश्वसेवया आतुरताच, तत्तस्मादियमग्निकारिका, नैव, अन्यथा धर्मध्याना- शुभतरा पता भवन्तीति कथमिदमवसितमित्याशङ्कायामाहग्निकाारकायाः प्रकारान्तरापन्ना, ज्याग्निकारिकेत्यर्थः, युक्ता सं. डेयमनन्तरोदिता सच्चास्त्रसंस्थितिराविसंवादकागमव्यवस्था; गतेति । विशोधनाई पापसंपादकसंपनिमित्तत्वेन द्रव्याग्निका- यदाह-"मांकमार्गप्रवृत्तस्य, महान्युदयसम्धयः।संजायन्तेऽनुरिकाया प्रकरणीयत्वं व्यासस्यापि न्यायतः संमतमिति दर्शय- षनेण, पलावं सत्कृषाविव" ॥१॥ मुमुकूणां च शासं प्रमाणमाह-तथा चोक्तं महात्मनेति । तथा च यथाऽस्मतार्थसंवादो| मेव । यदाऽऽह-"नमानमागमादन्यदू, ममुक्षणां हि विद्यते । भवति, तथैव उक्तमनिहितं, महात्मना परमस्वभावेन, व्यासेनेति । मोक्षमार्गे ततस्तत्र, यतितव्यं मनीषिभिरिति"॥७॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निहोत्त अभिधानराजेन्डः। अघाइरस अथ परसमयसमाश्रयणेनैव च्याग्निकारिकाकरणं भाव मत्स्यभेदे, “सवणसमुह अस्थिय धरंति या जागनिराकुर्वनाह राया अग्धसिंहा विजावा" अर्धादयो मत्स्यकनपविशस्टार्स न मोक्षा, सकामस्योपवर्णितम् । पाः । जी० ३ प्रति०। भकामस्य पुनर्योक्ता, सेव न्याय्याऽग्निकारिका ॥७॥ । अर्ड-करणे घ, न्यकादित्वात् कुत्वम्। पूजोपचारे दूर्वाकइज्यते दीयते स्मेतीष्टम्, पूर्यते स्मेति पूर्तम, श्ष्टं च पूर्त चे. तादा, वाच । पुष्पादिषु पूजाद्रव्येषु, मा० १६० । तीष्टापूर्समिति समाहारद्वन्द्वः छान्दसत्वाचेष्टापूर्तम् । ततस्वरूपं प्रय॑-त्रि० अर्घाय देयं यत्तदभ्यम् । पूजार्थे देये जमादी, प्रवेदम-"भन्तर्वेद्यां तु यहत्तं, ब्राह्मणानां समकतः। ऋत्विग्भिर्म- र्धव्याणि च "प्रापः कीरं कृशानं च, दधि सपिः सतरामुखम् । प्रसंस्कार-रिष्टं तदभिधीयते ॥वापीकृपतडागानि, देवतायत. यवः सिकार्थकश्चैव अष्टानोऽधः प्रकीर्तितः" ॥१॥ वाच । मानि च । अन्नप्रदानमारामाः, पूर्त तदभिधीयते ॥२॥" तदेवमुक्त अग्यार-पूर-धा० पूर्ती, प्रीणने चादिवा०,प्रात्म०, सक०, स. स्वरूपमिशपूर्तम, न नैच, मोकार मुक्तिकारणम् । इदायमानि राखुरा,तभ०,सक०, सेट् । वाचा प्राकृते "परेरग्घाडोग्ययोद्धप्राय:-अग्निकारिका न मोकामिष्टकर्मरूपत्वात्। तस्या यतोऽन्त मांगुमाहिरमाः"८।४।१६७। शति परेरग्घामादेशः। अग्धावेद्यामाहुतिप्राधान्येन काणीप्यन्त इति । कुतस्तन मोक्षामि मह, पूर्यते, पूरयति वा । प्रा। स्याह-सकामस्याभ्युदयानिसाषिषः, यस्मात्तदित्येष वाक्यशे. पोरश्यः। उपवर्णितमुपदिष्टम, भवदीयसिकान्त एव यतः धू अग्धामग-भाघातक-पुं० गुचवनस्पतिकायभेदे, प्रका०१ पद। यते-"स्वर्गकामो यजेत" इत्यादि श्रुतिवचनम् । तथा “इष्टापू अग्यामो-देशी, अपामार्ग, दे० ना० १ वर्ग। से मन्यमाना वरिष्ठ, नान्यच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः । नाकस्य | अग्याण-दशी, तृप्तपणे, ना० १ वर्ग० । पृष्ठे सुकतेन भूत्वा, मं लोकं टीनतरं या विशान्ति" इति । अग्याय-माघ्राय-अध्यानासिकया गन्धं गृहीत्वेत्यर्थः। “सुरअथाकामस्य का वातेत्याशङ्कयाह-अकामस्य स्वर्गपुत्राद्यनाशं निगंधाणि वा अग्घाय से तत्थ प्रासाय वमियाए मुधि" सावतो मुमुक्कोः, पुनःशब्दः पूर्ववाक्यार्थस्य विशेषाभिधायकः। आचा०२ श्रु० १ अ०० उ० । आ० म०प्र०। योक्ता कर्मेन्धनमित्यादिना प्रतिपादिता, सैव, नान्या परान्युपगता,न्याय्या न्यायादनपता।न्यायश्च दर्शित पवा अग्निकारिका: अग्यायमाण-आजिघ्रत्-त्रि० । नसिहति गन्धं नासिकया गृग्निक्रियेति ॥८॥इति चतुर्थाधकविवरणम् ॥ डा० अ० ।। द्वाति, "महया गंधरणि मुयंतं अग्धायमाणीओ दोडसं घिणि. अग्निहोत्रसम्बन्धित्वाद् इविषि, वही चावाच०। ति"ज्ञा०प्र० आ०म०वि०।। । अग्निहोत्तवाइ (ण) अग्निहोत्रवादिन-पुं०। अग्निहोत्रादेव | ना अग्घिय-अर्धित-त्रि० । प्रघं-त, अर्घः संजातोऽस्य इतन्या। स्वर्गगमन मिति सि बहुमूल्ये, “ अन्धियं नाम बहुमोल्लं" नि० चू०२२० । सवादी जससोय जे य इच्छंति" इत्यग्निहोत्रवादिना कुशील अघ-अघ-न० । अघ-भावऽन् । पापे, वाच । "ब्राह्मणो लिस्वं दर्शितम् । सूत्र० १७०७ अ०। प्यते नाध-नियागप्रतिपत्तिमान" अष्ट०२० अष्टा कसरि अच् । अग्गुज्जाण-अयोद्यान-न। नगरादेहिः प्रधानोद्याने,“ ह- पापकारके, त्रि० । व्यसने, असे वान० । पूतनावकासुरयोथिसीसे जम्स जयरस्स बहिया अगुजाणे सत्थसस्सिवेसं क. तरि असुरजेदे, पुं० । वाच । ति" झा०१७ अप्रा०म० द्वि०। प्रा००। अषण-अघन-त्रि० । न० त० । अरडे, प्रो० । विरले, पिं०। अम्गे-आग्नेय-त्रि० अग्नेरिदम, अग्निर्देवतास्य पादक । अ प्रघाणी-अघातिनी-स्त्री. ज्ञानदर्शनादिगुणानां मध्ये न किग्निदेवताके हविरादौ, वाच. शास्त्रभेदे च । न०। सूत्र. १ श्विद् गुणं प्रतीत्येवंशिला अघातिन्याशानादिगुणानामधातनामभु०००। करणशीलासु कर्मप्रकृतिषु, अघातिन्यः प्रकृतयो कामादिगणं न अग्गः (णी) भाग्नेयी-सी अग्निर्देवता यस्याः सामाग्ने प्रन्ति, केवलं यथा स्वयमतस्करस्वभाधोऽपि तस्करैःसह वर्तयो । दकिणपूर्वस्यां विदिशि, ('दिसा' शब्दे वक्तव्यता)ज. मानस्तस्कर इव इयते, एवमेता अपि घातिनीभिः सह विद्यमा. मास्तदोषा श्व भवन्ति । यदाहुःश्रीशिवशर्मसूरिप्रवरा:-"अवसे२००१००। स्थाप्रा०म०वि० । सापयमोमो,अघाश्याहि पन्नियभागा"पलियभागति। सारश्य अम्गणीय-अग्रायणीय-०ाबतुर्दशपूर्वाषांमध्ये द्वितीयपूर्वे, घातित्वं च प्रकृतीनां रसविशेषाद् विज्ञेयम (ताश्च पासप्ततिसं(मस्य विस्तरस्तु 'अग्गाणीय' श) नं0 । स्था। स्याका अभिधीयन्ते, इत्यादि कम्म' शम्दे तृतीयभागे २६५ अम्गेत (य)-अग्रेतन-त्रिका अग्रे भवति, अने-टपु । पोर- पत्रे प्रतिपादितम) स्स्ये, प्रा. म०प्र०। अघाइरस-अघातिरस-पुं० झानादिगुणस्य स्वकार्यसाधनं प्रअग्गादप-अग्रोदक-न०। उपरितन उदके, "लवणस्स समु. स्यसामर्थ्याकारके रसस्पर्द्धकसङ्घाते, पं० २०३० इस्स सहिणागसाहस्सीनो अम्गादयं धारेति " अम्गोदयंति प्रघातिरसस्वरूपमाहपोरशसहस्रोछूिताया बेलाया यदुपरि गयतिद्वयमानं वृधि- माण न विसो घाइ-तणम्मि ताणं पि सव्वधारसो। हानिस्वजावं तदनोदकम् । जीया०३ प्रतिः । माया पाइसगासे-ण चोरया देव चोराणं ।।३।। अग्ध-राज-पा० दीप्ती, स्वादि०, भा, भक०, सेट, फणादिः। यासां प्रकृतीनां धातित्वमधिकृत्य न कोऽपि विषयो न किमपि वाच । “राजेरग्घराजसहरीररेहाः" । ४ । १०० । इति कामादिगुणं घातयतीत्यर्थः, तासामपि घातिसकाशेन सर्वघाराजेरग्घः। अग्घर, राजति, राजते । प्रा। तिप्रकृतिसंपर्कतो जायते सर्वघातिरसः । अत्रैव निदर्शनमाहभय-पु० अर्ह-घम् । रजतादिव्यरूपे मूल्ये, बाच० । संथा। यथा यमचौराणां सतां चौरसंपर्कतश्वीरता । पं०सं०३वा०। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अघुणित त्र्यचरम प्रबलकोपरहिते, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वा० । स० । सौम्ये, "मा श्रचंडालियं कासी " उत्त० १ श्र० । । 66 अणित (य) अति०ि पुरीरवि यचं ( ) कारियभट्टा - श्रचङ्कारितभट्टा - स्त्री० महायज्ञायामुत्पादितायामुपाय साचादतिखेहनन केनचिकि (ए) चक्रिन् पुं न चकी । नमः पर्युदासयादेवा चङ्कारयितव्येति स्वनामख्यातायां सुतायाम, ग०२ अधि० अ- चकत्वेन सदृशग्राहकत्वात् सामान्यपार्थिवे, बृ० १ ३० । मानफले अकारितभट्टोदाहरणम् । यथा-खितिपतिट्टियं नगरं चकित अत्रासिते, समुहगंभीरसमा दु । । - त्रिश " शिवरायाधारिणी देवी सुयुद्ध थियो साथ नगरे चण रासया, अचक्किया केराइ दुप्पहंसया " उत्त० ११ श्र० । नाम सेट्ठी । तस्स जट्टा णाम भारिया । तस्स य घ्या जट्टा । साय अचक्ख - दृश्- धा० चाक्षुषज्ञाने, भ्यादि०, पर०, सक०, श्रमापियभायाण य चवायलका मायपितादि य सव्यपरिजणं निद् । वाच० । 'दृशो निश्रच्छपेच्छावयच्छावयज्भचलप्रणति - एसा ण य केण वि किंचि चकारेयव्वति । ताहे सचदेवलो अक्खाका ४१८० इत्यादिना सूत्रेणाच खोगेश से कयं णामं भयंकारियभट्ट सि साथ अतीव रूपवती क्वादेशः । श्रचक्वइ, पश्यति । प्रा० । बहुजियकुले जितिय सेट्टी भण-जो पण यं कारेदिति तस्सेसा दिवहिति त्ति, एवं वरगे परिसेहति । श्रएण याए सचिवेण वरिया। धणेण भणियं-जह ण किंचि चि अवराढं चकारेहिसि तो ते पयच्छामो । तेण य पमिसुयं । तस्स दिला भारिया।सो तं न बंकारेति । सोय श्रम राती जाये गए रा-अचरा-प्रदर्शन-२० अर्जेन्द्रियचजाणि समाउं आगच्छति सा तं दिसित समा नागसि । तो सवेला पतुमतो अारा चिंताजाया कि मंत्री सहा गच्छति । रोकिहिये एस जारियार आणाजगंण करेति न्ति । अष्णया रक्षा भणियं इमं परिसं तारिसं च कज्जं सवेलाए तुमे ण गतः । सो वस्तुयतुतो यावर तो सायरुहा दारे बन्देवं विश्राम मध्यो आगो। उस्सूरो दारमुग्धा डेडि सि बहुये बिज हे उपादेति ता तेण चिरं भणिया-तुम थे ताहे श्रत्थिऊण ण व सामिणी ढोज्जासि सि । अहो ! मे श्रालो अंगीकओ, तांडे सा अमाहोदिति भणिया दारादि पिउधर गया सम् कारविभूसिया अंतरा चोरेहिं गहिया तो सम्यालंकारे तीसे घेत्तु बोरो संवावतिस्स या तेरा सा भणिया-मम महिला होहि ति । सोनं बलेण ण जुंजति । सा वि तं णेच्छति । ताहे तेण वि स्वा जगज्जसहाये विडिया तेण विसा प्रशिया-ममन ज्जा भवाहिति । तं पि णिच्छंती तेणावि रूसियण भणिया-पा णीयातो जलूगा गेरहहित्ति । सा अप्पाणं णघणीपण मंखिउं जवाहर एवं जगाओ गिरोहति। सा तं श्रणरूपं कम्मं करेति ण य सीलभंगं इच्छति । सा तेरा रुहिरसावेण विरूवजाया तो य तस्स भाया दूयार्क सतत्यागच ते सा सरिसित्ति । सरसा पुच्छिया तीए कहिये ते दज्ये मोयाविया आणिया यमविरेयहि पुराणवसरीरा जा या भ्रमण पायिघरमालिया, सत्यसामिली चिया ता कोहपुरस्सरस्व मानस्स दोस रहुं अभिग्गहो गरियो। ण मए कोहो माणो वा कायव्वो । तस्स घरे सयसहस्सपागं तेजमस्थितं च साहुखा पण संरोहणत्वं ओसहं मग्गियं । तीये । दासनेडी आणता आरोहि सि । तीए श्राणंतीय सह तेल्लागं भाषणं भयं एवं तिम्ति भावसालि मिचाणि ण व सा रुट्ठा तिसु सबसहसेसु विससु चत्यवारा अपणा उडेक दिवं । जइ तीए कोहपुरुसरो मेरुसरिसो माणो निजिश्रो । साहादि तर्हितज्योति ०२ अि अपलम्वनीतेन्द्रिये प्रच० ६४० - चल' शब्दे प्रतिपादयिष्यमा चञ्चलविपरीते अनुयोगव गार्डे, बृ०१ न० । अर्थ-अण्ड०न०० अतीकोपे तं० । निष्कार तुष्टयेन मनसा वा दर्शनं यत्तदचतुर्दर्शनम् । स्था० ६ ठा चतुर्वशेषेन्द्रियमनोभिः स्वयविपयस्य सामान्यग्रहणस्वरू दर्शनभेदे, पं० सं० १ द्वा० । कर्म० । स्था० । ( " दंसण" शब्दे वयते सर्वम् ) प्रचपदसणावरण-सुदर्शनावरण ०र्शनस्यावरणम् । दर्शनावरणकर्मभेदे, स्था० ६ ठा० । अचक्खुफाम-प्रचतुःस्पर्श-पुं० अन्धकारे, “पुर पचाए पिओ रिभर अक्फासो मज्झे सराषि ति " ज्ञा० १ ० १४ श्र० । । सु-अक-झिन्थे, “अव्यक्ओवनेयारं, बुद्धि सर गिरा " व्य० १ ३० । 1 अचरत्रिमय अपतुर्विषय पुं० ६ ० गोचरे, "अ चक्खू विसओ जत्थ, पारणा दुप्पडिलेहया" श्रचक्षुर्विषयो यत्र न चक्षुषो व्यापारो यत्रेत्यर्थः । दश० ५ श्र० ४ उ० । अथवन-चाप त्रिषये - त्रिणचक्षुषाऽदृश्ये, । - ०१०० ०३४० I चक्स-अचकुष्मन श्रि० । अपगंत अशमुवत् भि० असमर्थ, “खोइया भरिया अचयंता जवितए " सूत्र० १ ० ३ श्र० २३० । अवर-अचर ० ० ० पृथिव्यादिषु स्थावरेषु दर्श० । चलन ज्योतिषोकवृपसिंहवृधिककुम्भराशिसंज्ञेषु स्थिरराशिषु, वाचः । अचर-अचरक अनुपभोक्करि, "यारिचरकसंजीविय परकचारणविधानतर" पो० ११ वि० । । कर (रि) म-अचरम त्रि० १० १० प्रान्तिममध्ययर्द्धिनि, । ', तचापति, तस्य वरमापेताभावात् । यथातथाविधान्य शरीरापेक्षया मध्यशरीरमचरमशरीरम् । प्रज्ञा० ६ पद० । (सर्वे चरमचरमत्वं 'बम' शब्दे दर्शयिष्यते परमभि नेषु नरकादिषु वैमानिकपर्य्यन्तेषु जीवेषु ते हि श्रचरमाः येषां भव्यत्वे सत्यपि चरमो भवो न भविष्यति, न निर्वास्यन्तीत्यर्थः । स्था० २ ठा० २३०।" दुविहा सव्वजीवा प पत्ता-चरमा चेव अचरमा चेव " स्था० २ ० ४ ० । - ( १०१ ) अभिधान राजेन्द्रः | ० १४० १ धन्य श्रेष्ठो अचक्खु श्रचक्षुप्-न० । न० त० । चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टये, मनसि च । कर्म० १ कर्म० । जी० । उस० । न० ब० चतुर्दशेनवर्जितं कर्म ०४ कर्म० । - Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) अभिधानराजेन्द्रः | अचरम अरिमे दुविहे पत्ते । तं जहा - अणादिए वा अपज्जवसिए, सादिए वा अपज्जबसिए । अवरमो द्विविधः धनाद्यपर्यवसितः सायपर्यवसितथ सत्रानाय पर्यवसितोऽभव्यः, साद्यपर्यवसितः सिद्धः । प्रज्ञा० १६ पद । अचर (रि) मनपएस - नरमान्तप्रदेश-पुं० श्रचरम एव क स्याप्यपेक्षयाऽनन्तवर्त्तित्वादन्ते, प्रज्ञा० ए पद । ('चरम' शब्देऽचरमान्तप्रदेशत्वपृच्छा कारिष्यते ) । अचर (रि) मसमय - अचरमममय- पुं० चरम समयादन्यस्मिन् यावच्चैश्यवस्थाचरमसमये, नं० । अवर (रि) मात्र - अचरमावर्त्त - चरमपुल परावर्तीदक् समये, अ०१८ श्र० । अच (य) - अचल-त्रि०न० त० । निष्प्रकम्पे, “अयले भवभैरवाणं" कल्प० । “अणिहे श्रचले चले अवहिस्से परि ए"।न चलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवारितोऽपि । श्राचा० १४० ६०५३० | " अत्रत्रे जे समाहिए" यद्यप्यसाचितिप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाप्यभ्युद्यतमरणाश्न चलतीत्यचलः । श्रचा० १० ८०० | "अत्रले नगवं ! इजा " आचा० १३० ६०३३० । 'चले जह मंदरे गिरिवरे' अचलो निश्चलः परीष हादिभिः । प्रश्न०५ संघ० द्वा० । “सिवमय लमरुय मक्खयमणंतमन्त्रावाहमपुणरावित्ति सिरुगणामधेयं गणं संपत्ताणं अचल स्वाभाविकप्रायोगिक या जी०३ प्रति । स० । ल० भ० श्र० । स्पन्दनादिवर्जितत्वात् । प्रश्न ४०००दशाणां पठे दशाई पुरुष अन्त०९वर्ग जीवस्य महायानाम् बालवयस्य, स च तेन सद प्रजितो विपुलं तपः कृत्वाऽनशनेन मृत्वा जयन्तविमाने उपपदेशनानि २० सागरोपमाथि स्थिति परिपालयतः प्रतिबुद्धानामेवाकुराजेो जातः । मल्लिनाथेन च सह प्रवज्यां १० 'मी' शब्दे विस्तरंग refer प्रथमे बलदेवे, प्रव० २०० द्वाए | आव० । स) । ( स च प्रजापतेर्भज्ञानामन्यां भार्य्यायां जातः, तस्य भांगनी मृगावती । तां तस्य पिता प्रजापतिश्चक्रमे, इति जापान कल्पयित्वा तस्यां त्रिविपनामा दशमं वासुदेवं जनयामास । अचलश्व माहिष्मती नाम पुरी सह माssव्यया मात्रा गतः । इति 'वीर' शब्दे न्यकेण दर्शर्शयिप्यते ) गृह, दे० ना० १ वर्ग । तद्वक्तव्यता समासेन पुतो पावनिस, जदा यो विकुविन्। गेरुपडिम, तिबिंडु अपलो निदो विजणा 921 वलं तर दोन वि संगमे सिदोष पाएं | अंतू सन्नदादि ण, दाहिर अनि ॥ ७३ ॥ उप्पर बिना कोमिमिलाए वनं तुतेकणं । अरहादिसे अह अपल निविको पत्ता ॥ ७४ ॥ चदरिस मे खोए पंचजम्मनामो नि नंदनामोसी, सोयिमंमितो आसी ।। ७५ ।। मालाप जयंती, विचित्र वसोडियारेना । सारिखा जा जाए, घणसमए इंदरायस्स ॥ ७६ ॥ अचल सत्तुजणस्स जयकरं जावं दवियारिजीवनच्छावं । जीवानियोसेणं, सत् सहसा पमड़ जस्त | 99 ॥ कोस्तुभमणीय दियो, बच्चो तिविस्स । अच्छी परिगहियो, रवमस्मरसंगांई भो। ८६ ॥ अमरपरिगहियाई, संत वि रयणाइ ग्रह तिविट्ठस्स । अमरेन्स य एयाई अभिनाई || ७ || वह डली विहलं जो पाय व तिक्ववरवर्ज । पवरं समरमहाभम - वित्तकिती जीवहरं || Gol सादं वा दियासं पिय सत्तुमुक्कसययदनं । मुसलं से ने महपुर-जंजरासनं बरसारं ॥ ८१ ॥ सच्चो पंचमा, कुसमारोप्ययं चिडलं । मणिकुंमचा कुबेरपर आमरारामं ॥ ८२ ॥ अवि अमरपरिग्गहाई एवाई परस्यलाई । सत्तूर्ण अजियाई, समरगुणपडा पाई || ८३ ॥ बद्धमा निच्चं, रज्जथुरवहणधोरवसजाएं । जोइनरिदानाएं सोलसराती सहरमाई ॥ ८४ ॥ बायानी लक्खा, हयाण रहगयवरील पेडिशुम्भ । सहस्सा अभिगा सकतेसु ॥ ८५ ॥ डयाला कोडीओ, पाइकमया रणसमत्याणं । सोलसहस्सा उ तहा, सजणत्रयाणं पुरवराणं ॥ ८६ ॥ पणास विलाहरनगरा सजाई रम्माणं । पतरावासी, नेगो य फणग्गधरमउमो || ८७ ॥ गाईं सहस्साई, गामागर नगर पट्टणादीणं । दाहिने छ, पुण्यावर अंतरात्रियाणं ॥ ८८ ॥ रियानुमाणमहणं, असे समाणइतु नरवणो । दाहिणभरहं सयलं, भुंजति तिझाए परिवक्खा ||८| सोलससाहसीतो नरवतया रूपकलियाएं । तवे यच्चिय एव-कल्लाणीतो तिविट्ठस्त | ० || इस बत्तीसहस्सा चारुप तातिविहस्स धारिणयायोक्खा य, असहस्सा अयलस्स ॥ ६१ ॥ सियमगरवाणं विदिवरदत्तवालाविया । सोलसगणियसहस्सा, वसंतसेणापदापाणं ॥ ६२ ॥ एवं मयिं अतिविद्वाण दोएहाच जलाएं। ति०॥ "श्रयले बलदेवे, असा धई उ उच्चतेणं होथा " स० ० समममोपुत्रे स चापरविदेहे वीतशोकायां नग जितशत्रोः राज्ञो मनोहर। भार्यायामुत्पन्नो यत्रदेव जातः पितुरमान प्रगृत्वा मृतायां लान्तक देवपाया गया साये विभीपणनामिना सुनेत्यरूपं विकु देवरू पया मात्रा मिलित उक्तश्चानित्यां मनुजकि ज्ञात्वा परलोकहितं मृग्या अलिको देवो जात त एतत्सर्वं व्यासेनाऽऽत्मनोऽज्यसम्बन्धं प्रारूपयत् श्रेयांसः, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचल अभिधानराजेन्द्रः। अचल इति उसन' शम्नेहि०भा० ११३३ पृष्ठे वक्ष्यति) मा० ०१ श्य भणिय गयो अमरो, अग्लो वि विसिध्देहत्वावन्नो। प्र० आ० म०प्र० निर्भयपुराधीश्वरस्य रामचन्द्रस्य सामन्ते, निययावासे पत्तो, निञ्चितो लहर निहं च ॥ २४॥ सच स्वगवेषितकपटयोगिनो षधं दृष्ट्वा संवेगमापद्य प्रवजितो ववगयनिहो अयलो, पए पिसाएण पत्नणिो जह!। मुनीश्वरोजातः । तश्चरितं चैवम् तं तकरवुतंतं, निसुणसु सो आह कहसु फुमं ॥ २५ ॥ भयरहिए निभयपुर-म्मि पुग्नजणविहियगरुपहरिसो वि । एयस्स पुरस्स बहिं पुन्वदिसाआसमे वसा जोगी। रायासि रामचंदो, सलक्षणो रामचंब्य ॥१॥ पव्वयत्रो से सिद्धो, कविलक्खो चेमो अस्थि ॥ २६ ॥ तस्स गुरुगउरवपयं, अयसो नामेण अस्थि सामंतो । तेणं हर नयरे, सो सारं रमा निसि जहिच्याए । नयसबसोयसोमा-रयाश्गुणरयणरयणनिही ॥२॥ काऊण जोगिरुवं, दिवसे पुण कहइ धम्मकहं ॥१७॥ कश्या वि सो नरिंदो, सभागो नूरिसारपरिवारो। तस्सासमनुमिहरे, चि अवहारर्यदब्बसवासं। दुक्खजरसगाए, गिरा पउरेहि श्य नणिो ॥ ३ ॥ मा काहिसि इह संसय-मिय भणिय तिरोडिनो देवो ॥२८॥ देव! नदीस चोरो, न य खत्तो नविय चरणसंचारो। अह काउ गोसकिन्चं, अयो करवयजणाणुगो पत्तो। केण वि तह वि मुसिज्जर, अविरूषण पुरमेयं ॥४॥ सुरकहियासमेत-त्थ तेण दिछो कवमजोगी ॥२६॥ तं सोउ कुविएणं, भणियं रन्ना अहो सुहडसंघा!। गऊण य तत्थ खणं, अयस्रो पत्तो नरिंदपयमूले। किं को वि तकरं तं, निग्गहिउं भे समत्थु ति ? ॥५॥ निवपुझो एगंते, कहेहतं चोरवुत्तंतं ॥३०॥ जो किंपिन बिति भमा, ता अयनो प्राह देव! मह देसु। को इत्थ पच्चो श्य, नरवरपुट्ठो पयंपए अयसो । पाएसं नणु कित्तिय-मित्तं पलो वराओ त्ति॥६॥ तस्सासमनूमिगिह-म्मि मोसजायं सयलमस्थि ॥ ३१ ॥ रना सहत्थतंबो-बदाणपुव्वं पयंपिनो स श्मं । तो सिरवियणामिसबस-विसज्जियासेसपरियणो राया। तह कुणसु जद्द ! सिग्छ, जह सम्भा तक्करो एसो ॥ ७॥ सुत्तो तयणु जणणं, पारद्धा विविहउवयारा ॥ ३२॥ जर पक्खंतो चोरं, न लहेमि अहं विसामि तो जलणं । जाओ न य को वि गुणो, पाहूया मंतवाश्पमुहजणा। इय कान पश्न सो, विणिग्गो रायन्नघणाश्रो ॥ ॥ ते वि अकयपमियारा, गया विलक्खा साणेसु ।। ३३ ।। परिजमिश्रो पुरमज्के, सिंघारगतिगचठक्कमाईसु । तो सुविसन्नमणण व, सो जोगी वाहराविमो रना । लकोन को वि चोरो, नोहरिओ तयणु नयरात्रो॥९॥ संभासिउमारद्धो, सायरदिनासणो य तयं ॥ ३४॥ करकझियखम्गदंडो, निविडीकयपरियरो दढपश्नो । पुरिसे य पेसिळणं, खणाविभो तस्स प्रासमो ऊत्ति । सो रयणिपढमपहरे, पत्तो कुंडाभिहमसाणे ॥१०॥ निग्गयमसेसमोसं, माणीयं रायनवणम्मि ॥ ३५ ॥ तत्थ अश्कायकक्ख-मरमंतध्यमकुटुंबदुप्पिच्छे । आइओ तब्वेलं, महायणो दंसियं तय मोसं । भल्नुक्कचक्कपरिक्क-पिक्कपिक्कारवे व रुद्दे ।। ११ ।। उवलक्खिकण जंज-स्सासि तं तस्स उवणीयं ॥ ३६॥ पगत्थ कारबेया-अजाबसंजणियकिनकियारावे। अह बुत्तो सो जोगी, रेरे पासंमियाहम! अणज्ज!। अन्नत्थ मुक्कपुट्ट-ट्टहासपरिजमियभूयउल्ले॥१२॥ को एसो बुसंतो, सो भीओ जंपर न कि पि ॥ ३७॥ जा खुहिनो अयलो, अयस्रो श्व जाकिं पि नूभागं । चेमो दूरीहनो, सिस्वजम्मि पुजणु ब्व लहुँ। ता साहगगहणपरं, पिसायमेगं स पिच्छे ।। १३ ।। सुबहुं विडंविदं सो, जोगी माराविश्रो रना ॥ ३८॥ तं पर भणह महायस! साहगपुरिसं हणेसि किं एयं । श्य दछ तम्स मरणं, अयलो चिते फुरियरग्यो। भाह पिसाओ मिणा, पसाइओ हं दिणे सत्त ॥१४॥ हा! कह जीषा धणनव-विमोहिया जंति वह निहणं ॥३॥ संपद अहिपणं, मए श्मो मम्गिो महामंसं । धणलोनेणं जीवो, हणे जीवे सया मुसं वह । न तर दाउं खुदो, ता एयं लहु इणिस्सामि ॥१५॥ पियपुत्तमित्तसुकल-तपमुहलोयं पि वंचे ॥४॥ पर नवयारपहाणो, अयलो पच्चाह मंच नरमेयं । श्ह लोश्यतुच्छपो-यणस्थमित्थं अकिश्चमक्सं पि। तुह देमि महामंसं, अहमियं मन्नइ पिसाओ वि॥१६॥ काउं कंखर जीवो, न य पिच्च तक दुक्खं ॥४१॥ तो रियाए छित्तुं, नियमसं स तस्स वियरेर । अगरुयलोहमुग्गर-पहारभरगाढविहुरियसरीरा। असा पिसाओ वि अहो ! , अभुतपुब्वं ति जपतो ॥१७॥ हा! किह णु सुगमगर अब निवमंतिमे जीधा ?॥४२॥ उकित्तिकण जह जह, अयलो से देह मंसखंझाई। ता सयलरोहसंखोह-निविमसरधोरणाखलणदक्खं । तह तह दिब्बोसहिविहि-कयं ब्व बुद्धिं बुढा जाय ॥१८॥ कवयं पिव पब्वज्जं, संप गिएहामि ददसत्तो ॥४३॥ नीसेसमंसवियत्रं, निए विसयलं कलेबरं अयलो । श्य जा अचलो अचसिय-संवेगनरो विचितए चित्त । अह जीवियनिरविक्खो, सीसं पि हु चित्तुमारको ॥१५॥ ता तत्थ समोसरिओ, सूरी गुणसुंदरो नाम ॥४४॥ धरिऊण पिसाएपं, दाहिणहत्थेण सत्सतुण । सुब्बा गुरुपो तक्खण, स आगमो भागो गुरुसगासे । भणिओ सो असमेए-णं साहसेणं वरेसु वरं ॥२०॥ पणमियतप्पयपउमं, आसीणो उचियदेसम्म ॥ ४५ ॥ अयझो भणेश साइग-श्टुं पकरेसु जइसि तुट्ठो मे । तयष्णु जवपरमनिब्वेय-कारिणी लोहमोहनिम्महिणी । एवं कयं चिय मए, मग्गसु अन्नं पि आह सुरो॥१॥ विसयागुरागपायव-करिणी संवेयसंजणणी ॥ ४६॥ अयलो जंप तुक वि, किं सीसइ अमरमुणियकज्जस्स । संसारसमुत्थसमस्य-वत्युविगुणत्तपयमणपहाणा । ना प्रोहिचलेणं, तं करज आह इय अमरो ॥ २२ ॥ सुहसुहकरेहि वयणे-हिं देसणा सूरिणा विहिया ॥४७॥ तं अयल! गच्न सगिहे, वीसत्थो होसु मुंचसु बिसायं । तं सोउ पमिबुको, अयलो पुच्चे वि कह वि नरनाहं । एसो चोरपबंधी, गोसे सयलो फुमो होही ॥ २३ ॥ गुरुणो तस्स समीवे, संविमो गिएहए दिक्खं ॥४॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अचल अभिधानराजेन्द्रः। प्रचलिय पमिवनविहसिक्खो, गुरुणा संह विहरप महीघलए। तुट्ठो राया पवयण-पभावगो सावत्रो जाओ ॥७४॥ अरहते अरिहंते आराह सम्ममरुहंते ॥ ४॥ अयलो वि अतिप्पंतो, चरणाइसु काउ अणसणं सुमणो। पवयणवच्चलपरो, कायइ सिके सया सुहसमिक सोहम्मे उववन्नो, तत्तो य चुश्रो विदेहम्मि ॥७॥ सिवफलतरुणो गुरुणो, सेवर दंसविणयजुत्तो ॥५०॥ कच्छाविजए, सिरिजय पुरीहरन्नो पुरंदरजसस्स। सुयवयपज्जायधरे, थेरेसबहस्सुप तबस्सीय। देवी सुदंसणाप, चउदसवरसुमिणकयसूत्रो ॥७॥ जह उचियं पाराहरु, अनिक्खनाणोवओगपरो ॥५१॥ गम्भे पाउन्भूत्रो, समुचियसमए य जम्ममणुपत्तो। सीलब्वपसु आव-स्सएसु परिहर दूरमश्यारे। अहिसित्तो ससुरासुर-वग्गेण सुमेरुसिहरम्मि ॥७७॥ अपुचनाणग्गहणं, सुयभत्तिपरायणो कुण ॥५२॥ कयजयमित्तभिहाणो, उचिए समयम्मि पब्बाउकामते । तवसा निकाश्याण, कम्माण खउत्ति कुणइ गरुयतवं । लोगंतियतियसेहि, सविसेसवुहिउच्छाहो ॥७८॥ खणलवफ्राणवउत्तो, मुणीण भत्ताइ वियरे ॥ ५३॥ लोगाणं संवच्छर-मच्छिन्नविदिनविहवसंभारो। पमिभम्गस्स मयस्स व, नासश्चरणं सुर्य अगुणणाए । चउसविसुरेसरविहिय-गरुयनिक्खमणवरमाहिमा ॥७॥ नहु वेयाषचचिय, सुहोदयं नासए कम्मं ॥ ५४॥ तिजयं एगजयं पि व, एगत्थागयसुरासुरनरेहि । श्य चितंतो वेया-वचं पकुणइ अतिप्पमाणमणो। कुणमाणो पडिवन्नो, निस्सामन्नं ससामन्नं ॥२०॥ पवयणपत्नावणपरो, कुण समाहिं च संघस्स ॥ ५५॥ तो सुकमाणानल-समूलनिद्दद्धघाइकम्मदुमो । एवमणुत्तरदसण-नाणचारते अतिप्पमाणस्स। उप्पत्रकेवलालोय-लोइयासेसतइलुको १८१॥ सम्गतवकारिणो सु-ज्जमाणसुपसत्थलेसस्स ॥५६॥ सीहासणोवविडो, सिरउरि धरिय सेयछत्ततिगो। अज्जियतित्थंकरना-मकम्मणो तस्स अचलसाहुस्स । नियदेहदुवालसगुण-महल्लकंकिल्लिकयसोहो ॥२॥ सम्बोसहिपमुहाओ, जायाओ विविहलकीओ ॥५॥ चाम्लियसियवरचमरो, पुरओ पक्खित्तकुसुमवरपयरो। इसो निभयपुरे रामचंदरन्नो विसिहविजेहिं । निज्जियादणयरमंगल-भामंम्सखंमियतमोहो ॥ ०३ ॥ पयडिज्जंतेसु वि स बहुभेसज्जो सहपोगेसु ।। ५८॥ सुरपयउंदुहिस्सर-पयमियदुज्जेयभावरिउविजनो। बहुमंततंतवाई-हिं कारमाणासु अवि सुकिरियासु। सव्वसनासाणुगदि-व्ववाणिहयतिजयसंदेहो।। ८४ ॥ रोगेण मरंति करी-तो आदन्नो निवो जाओ ॥ ५॥ पायमियमगइमग्गो, पमियोहियभूरिजावभवियजणो । अह गुरुणा गुन्नाओ, अचलमुणी तत्थ प्रागो तइया । विदरित्ता चिरकालं, अणंतसहसंपयं पत्तो ॥५॥ पत्तो निवो मणि तं, नमिय निसन्नो चियदेसे ॥ ६॥ श्रीजनशासनवनीनवनीरदस्य मुणिणावि निवजुम्गो, सईसणथूलमूलपरिकलिओ। श्रुत्वेति वृत्तमचलस्य मुनीश्वरस्य । पंचाणुव्वयसंधो, तिगुणन्वयगरुयसाहीयो ॥ ६१ ॥ सज्ञानदर्शनतपश्चरणादिकेषु सिक्खावयपमिसाहो, निम्मलबहुनियमकुसुमसंकिन्नो। भ्रद्धामतृप्तमनसो मुनयो विधत्त ॥६६॥२०॥ सुरमणुयसमितिफलो, कहियो गिहिधम्मकप्पतरू ॥ ६२॥ अच (य) सहाण-अचलस्थान-नाअचयो निष्प्रकम्पः परमा. इय सोच निवो जंप, पटु ! धम्ममिमं समाहिमो कार्य। एवादिर्भवति, तस्य स्थानमचनस्थानम्। निरेजःकाले, भचलंच किं तु अकाझे सिंधुर-संदोहं दा मरमाणं ॥ ६३ ॥ तत्स्थानं चावस्थानमचनस्थानमिति व्युत्पत्ता । निरजःकालच न गिहे न बहि न जणे, न काणण न य दिणे न रयणीए । परमारवादीनामयम्-" परमाणुपोग्गले णं नंते !णिरेए काममह संप संपज्जर, रई मणागं पि मुणिपवरा!॥ ६४ ॥ प्रो केव चिरं हो ?। गोयमा ! जहम्मेणं एक समय उकोसणं तो कहसु किं पि जेणं, सुत्थमणो हं करेमि धम्ममिमं । असंखेज कालं असंखेज्जाओ उसप्पिणी प्रोस्सप्पिणीतो" व्य० इय रन्ना पुणरुत्तं, वुत्तो वि हु सुमुणिसइलो ।। ६५ ।। १ उ० । नि०० । अचलस्थानं तु चतुर्धा, सादिसपर्यवसानभेसावज्जकज्जवज्जी, सन्नाणो वि ह न कि पिजा भणह । दात् । तद्यथा-सादिसपर्यवसानं परमाएवादेव्यस्यैकप्रदेशाता मुणिसमीवठियखे-यरेण एवं निवो वुत्ती : ६६॥ दाववस्थान जघन्यत एक समयमुत्कृष्टतश्चासंख्येयकालमितिः बहुलद्धिसमिद्धिसम-नियस्स एयस्स समणसीहस्स । साद्यपर्यवसानं सिद्धानां भविष्यदकारूपम्, अनादिसपर्यत्रसापयरेणूर्हि संफुसि-य कुणसु सज्जं करिसमूहं ॥ ६७ ॥ नमतीताद्धारूपस्य शैलेश्यवस्थान्त्यसमये कार्मणतैजसशरीतं सुणिय निवो तुट्ठो, मुणिपयसंफुसियरेणुनियरेण । रजन्यत्वानां चेति; अनाद्यपर्यवसानं धर्माधर्माकाशानामिति । करिनियरं सब्वं पि हु, आमरिसावेइ तिक्खुत्तो ॥६॥ आचा० १ श्रु०२ अ०१ उ०। विसमिव पीऊसहयं, तमं व दिवसयकिरणपडिरुद्धं । वेगेण रोगजाय, तं नटुं कुंजरकुलाओ ॥६६॥ अच (य)लपुर-अचलपुर-न०। आजीरदेशास्तर्गते ब्रह्महीते पिच्छि वि अच्छरियं, अणंतहरिसो इमं भगद राया। पासन्ने पुरजेदे, कल्प० । ( 'बंभदीविया' शब्दे कथा चास्य) भयवं ! वारणवाही, केण निमित्तण संजाओ?॥७॥ "अयसपुरा णिक्खेत, कालियसुयाणुओगिए धीरे"। नं० । मुणिणा भणियं नरवर ! जो जोई धाइश्रो तया तुमए । श्रच (य) लगाया-अचलभ्राता-पुं०। श्रीमहावीरस्य नवमरिउ अकामनिजर-बसेण सो रक्खसो जाओ ॥७॥ मे गणधर, विशे० । प्रा०म० द्वि० । कल्प० । (तस्य पुरादिक सरिऊण पुब्ववहरं, स तुह सरीरम्मि अप्पभवमाणो । 'गणहर' शब्दे वदयते) एयं पि होउ दुक्ख, ति कासि दंतीण रोगभरं ॥७२॥ मह चरणरेणुपुट्ठा, संपइ ते वाहिणो समुवसंता । अच (य)ला-अचल्ला-स्त्रीशक्रस्य देवेन्द्रस्य सप्तम्यामग्रहिसो रक्खसो पणट्ठो, सज्जं जायं करिकुडंबं ॥७३॥ च्याम,झा०२ श्रुज (तत्कथा प्रजा०१७३ पृष्ठे 'अम्गमहिसी'शब्द) मुणिमाहप्पमणप्पं, दहणं गहियसुद्धगिहिधम्मो। अच ( य ) लिय-अचक्षित-न०। वस्त्रं शरीरं वा न चालतं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) अभिधानराजेन्द्रः । अचलिय कृतं यत्र तचलितम प्रमाणभेदे स्था०६ डा० ध० । श्रघ० । श्रत्र चतुर्भङ्गी यथा-"वत्थं अचलियं अप्पाणं अयं तथा पार्थ चलिये अप्पार्ण अनियं तथा वा चलियं अप्पाणं चलि; तथा वत्थं अचलियं अप्पाणं चलिश्रं । पत्थ पद्रमो भंगो सुको” । ६ त० | अनारब्धचनक्रिये, त्रि० । "अचयिभावो पवतो य" । प० ० ४ द्वा० नि० चू० । श्रचवचव- चवचवव- त्रि० । चवचवेति शब्दरहिते, प्रश्न० १ संब० द्वा०|" असुरसुरं श्रचवचवं श्राहारमाहारे" । प्र० ७ श० १३० । अचल-अचल-त्रि० न० त० । स्थिरस्वभावे, व्य० ३३० । "ताणाभावादिपरिवि कुपति चलतं तु गाये गणिताण भवे, अचवलो सोउ मुणे यच्वो " पं० भा० पं० चपला चतुधी नवति गत्याचपलः १, स्थित्या चपलः २, भाषया चपलः ३, भावेनाऽचपलः ४ । गत्याऽचपलः शीघ्रचा चू० 1 66 न भवति । स्थित्याचपन्नातिष्ठन्नपि शरीरहस्तपादादिकमचालयन् स्थिर स्तिष्ठति २ । प्राषयाऽचपलेोऽसत्यादिजात्री न स्यात् ३ । भावेनाऽचपलः सूत्रे ऽर्थेऽनागतेऽसमाप्ते सत्या वृद्धात ४ ( एवंभूतः शिष्यः) "जीयाविती अचवले, अमाई अकुतूहले " उत्त० १० प्र० । कायिकादिचापल्यरहिते, प्रश्न० ४ श्र० द्वा० | चतुरि हपोतियं पडिले "मान सचापल्यरहितम् । भ० २ ० ५ ० " अर्तितिणे श्रचवले, अप्यासी मियासणे अपलो भवेत् सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । दश० श्र० । विशे० रा० । 6 अचवलाए' गत्या कायचापल्यवर्जितया । कल्प० । 39 अचवला अचपला मनोवाक्काय स्थैर्य्यात् । स० । श्रचाश्य- अशक्त - त्रि० । श्रसमर्थे सूत्र० १० १३ श्र० । 'जहा दियापोतमपसजातं, सावासगा पविउँ ममाणं । तमचायं तस्मपत्तजातं ढंकार अन्यत्तगमं हरेला " ||१४|| सूत्र० १ ० १४ श्र० । 33 66 श्रचाएंत - शत्रुवत् - त्रि० । श्रसमर्थे, “अव्वाबाध अचाएंतोनेच्छ अप्पचेत एए व्य० ३ उ० । सूत्र० । अचाग-त्याग त्यागपरिहारे, ०२ अधि 39 अचारुया - अचारुता - स्त्री० । असुन्दरत्वे, “बुधविशेयं त्वचारुतया " षो० १ विव० । अचालणिज- अचालनीय त्रिदशनीये, “अभि गयजीवाजीवा, श्रचालणिज्जाउ पवयणाश्रो " दर्श० । अचिंत - अचिन्त्य - त्रि० । चिन्तयितुमनुमापक हेत्वभावेन तर्कयितुमशकये, शक्यार्थे कर्मणि यत्न० त० वाच० अनिपंचमी ० १६ द्वा० । अचिंतगुणसमुदय-अचिन्त्यगुणसमुदय - न० । श्रचिन्त्यो गुणसमुदयो ज्ञानादिसमुदयो यस्य तदचिन्त्यगुणसमुदयम् । परतत्वे, "तनुकरणादिविरहितं तच्चाचिन्त्यगुणसमुदयं सूक्ष्मम" पो० १५ विव० । चितचिंतामणि- अचिन्त्य चिन्तामणि- पुं० । चिन्ताऽतिक्रान्ताऽपवर्गविधायकत्वेन चिन्तामणिरत्न कल्पे तीर्थकरे, पं००० अचिंत - चिन्तन - न० न० त० चिन्तनाभावे, यत्कदाचिद् अचित्त रूपादिकं दई तस्य चेतसि न स्मरणपरिभावनमित्यर्थः । श्रचितं चैव श्रकित्तणं च 33 उत्त० ३२ श्र० । अर्थितसचि-अचिन्त्यशक्ति - श्री अनिर्वचनीयस्ववीय्या से, "अचिन्त्यशक्तियोगेन, चतुथों यम उच्यते" द्वा० १६ द्वा०| अचिट्ठ - प्रचेष्ट- त्रि० । श्रविद्यमानचेष्टे, श्राव० ३ श्र० । चित्त-अचित्त-त्रि० । न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तमचेतनम । जीवरहिते, श्राचा० १ ० १ श्र० ८ उ० । श्राव० । अनु० । नि० चू० । सूत्र0 सचिताचित्तमिश्रव्यक्तिःप्रायः सर्वाणि धान्यानि । धानकजीराऽजम कविरहालीसुधाराईचसखसप्रभृतिसर्वकथाः सर्वाणि फलपत्राणि लवणखारीक्षारकः रक्त सैन्धवसूञ्चलादिरकृत्रिमः क्षारो मृत्खीवर्णिकादि श्रादन्तकाष्ठादि च व्यवहारे सचित्तानिजले निवेदितात्कगोधूमादिकायरकमुदिदालयथ किया अपि कचिन्नविकासंभवान्मिश्राः तथा पूर्व लवसादिदानं पापादिदानं बालूकादि या बिना सेकिताएका गोधूमयुगंधर्व्यादिधानाः सारादिप्रदानं विना लोलितिला ओलकषिकाः पृथुकसेकितफलिका पर्यटकादयो मरिवर जिकावधारादिमात्रसंस्कृत चिटिकादीनि सचिता जानि सर्वपकफलानि च मिश्राणि यदिने तिलकुट्टि कृता दिने मिश्रा मध्ये उससेदिकादिक्षेपे तु तदनुप्रासु का दक्षिणमाबादी प्रभूततरगुडपेण तहिनेऽपि तस्याः प्रासुकत्वव्यवहारः । वृक्षात्तत्काल गृहीतं गुंदलाचाछाल्यादि, ताकालिको नालिकेर निम्बूक निम्बादवादीनां रसस्तात्कालिकं तिलादितले तत्कालभनं निर्बीजीकृतं नालिकेराकपूगी फलादि, निर्बीजीकृतानि पकफलानि, गाढमर्दितं निष्कणं जीराजमकादि च मुमुहतु प्रासुका नीति व्यवते । अन्यदपि प्रचलनियोग बिना परमासुकी कृतं स्यात्तन्मुहूर्तावधि मिश्रं, तदनु प्रासुकं व्यवह्रियते । यथा प्रासु मीरादि तथा कच्चफलानि कच्च चान्यानि गाई मि तमपि लवणादि च प्रार्थऽन्यादिमयशखं बिना नाकानियोजनशतात्परत आगतानि हरतिकीलारिकीकिसमि सिद्राज्ञाखरमरीचपिप्पली जातिफलबदामयायमात्तोकनमिजापिस्ताचिणी कवावस्फटिकानुकारिसैन्धवादिनिसर्जिकाविम्लवणादिः कृत्रिमः क्षारः कुम्भकारादिपरिकर्मितमृदादिकम एलालबजावित्री शुष्कमुस्ताको दिपकदलीक लाम्युत्कलितशृङ्गाटकपूगादीनि च प्रासुकानीति व्यवहारो दृश्यते । उक्तमपि श्री कल्पे " जोसयं तु गंतुं, अणहारेणं तु भंमसंकंती | बायागशिपमेण विकस्थं होड़ लोणाई ॥ १ ॥ य, अवणादिकं तु स्वस्थानाद गच्छत् प्रत्यहं वटुबतरादिकमेण विध्वस्वमान योजनापरतो त्या सर्व विध्वस्तमचित्तं भवति भावे योजनशतमनमात्रेणेव कथमचीजयतीत्याह--अनाहारेण यत्पत्तिदेशादिकं साधारणं तत् ततो वास्थितं सोपएम्भकार विच्छेदादविन्यस्यते। तथ ल वणादिकं भयात्या पूर्वस्मात् २ जाजनाद परभाजनेषु । यद्वा । पूर्वस्या भएमशासाया अपरस्यां भाण्डशालायां संकम्यमाणं विध्वस्थते तथा वातेन वा श्रग्निना वा महानसादी धूमेन वाणादि विध्यतं यति लोखाइति श्रादिशब्दादमी इष्टव्या:-- 6 " Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) निधानराजेन्द्रः | ग्रचित्त हरियालमणो सिलपि-पक्षी खजूर मुद्दिच्या अजया । आइमाइला ते विहु एमेव नायन्या ॥ २ ॥ · हरितालं मनःशिक्षा पिप्पलो च खर्जूर एते प्रसिकाः, मृषीका डाका, श्रभया हरीतकी, एतेऽप्येवमेव लवणमिव योजनश तगमनादिभिः कारणैरचित्तीभवन्तो ज्ञातव्याः । परमेकेऽत्राचीर्णा अपना चीर्णाः । तत्र पिप्पलीदरीतकीप्रभृतय श्रचीर्णा इति गृह्यन्ते । खर्जूरीकादयः पुनरनाचीर्णा इति न गृह्यन्ते |२| अथ सर्वे सामान्येन परिणमनकारणमाद हो ओरुहणे, णिसि गोलाइणं च गाउम्हा | भोमाहारच्छे, उबकमेणं च परिणामो || ३ | शकटादिषु रानां यदि यो आरोप तथा यत् तस्मिन् शकटादौ लवणादिनारोपरि मनुष्या निषीदन्ति तेषां गवादीनां न यः कोऽपि पिष्टादिगाश्रोष्मा, तेन वा परिणामो भवति । तथा यो यस्य भौमादिकः पृथिव्यादिक श्रा हारस्तद्व्यवच्छेदे तस्य परिणामः, उपक्रमः शस्त्रम्, तच्च त्रिधास्वकाय परकायतदुभयरूपम् । तत्र स्वकायशस्त्रं यथा-लवणोदकं मधुरोदकस्य कृष्णाय परकाया यथाअग्निरुदकस्य, उदकं नाग्नेरिति । तदुभयशस्त्रं यथा-उदकं द्युकोदकस्येत्यादि । एवमादीनि सचित्तवस्तूनां परिणमनकारणानि मन्तव्यानि ॥ ३ ॥ उप्पल उमाई पुण, उहे दिहाई जाम न धरिति । मोग्गरगजू हिओ, उहे बूढा चिरं हुंति || ४ || मगर्दति अपुप्फाई, उदकढाई जाम न धरिति । उप्पलमाई पु उदा चिरं ति ॥ ५ ॥ उत्पलानि पद्मानि च उदकयोनिकत्वादुष्णे आतपे दत्तानि यामं प्रहरमात्रं कालं न धियन्ते गावतिष्ठन्ते, किन्तु प्रहरादवगेबाजियन्ति मुरकानि-मगदन्तिका पुष्याणि यूथिकापुण्यासिउष्णयोनिकत्वादुष्णे क्षिप्तानि चिरमपि का भवन्ति, सचितान्येव तिष्ठन्तीति मावः । मगदन्तिका पुष्पाणि उदके कितानि याममपि न प्रियन्ते, उत्पलपद्मानि पुनरुद के विप्तानि चि रमपि भवन्ति ॥ ४५॥ पत्ताणं पुप्फाणं, सरडफलाणं तहेव हरियाणं । विंटेमि मिलाणम्मिय, शायन्वं जीवविप्पजढं ।। ६ ।। त्राणां पुष्पाणां शरकुफलानामपदास्थिकफलानां वास्तुला दीनां सामान्यतस्तरुणवनस्पतीनां वृत्ते मुलना माने सति ज्ञातव्यं जीवविप्रयुक्तमेतत्पत्रादिकमिति ( श्रीकल्पवृत्तौ शाल्यादिधान्यानां तु श्रीपञ्चमाने पतसप्तमोदेश के सचित्ताचि विभागमुक्त सण दर्शकस स्याचितानन्तरं स्यात् । यदुकं - सेमु तिरिसाइ निति " विस्वकल्पः क पस इति । तद्वृत्तौ पिष्टस्य तु मिश्रताद्येवमुक्तं पूर्वसूरिभिः' पणदिनमी सो बुट्टो, अचानिश्रो सावणे अ भद्दवए । चउ आसोए कति मगसिरपोसेसु तिन्नि दिणा ॥ १ ॥ पणपहर माह फग्गुण, पहरा चत्तारि चेत्तवेसाहे । जिहासाढे तिपहर, तेण परं हो अति ॥ २ ॥ चालितस्तु मुदुमचितः तस्य चाविशीभूतानंतर निनामानं तु शास्त्रे न दृश्यते अचित्त परं व्यादिविशेषेण वर्षादिविपरिणामभवनं यावत् कल्पते । नीरं तु मित्कलितायधि मिश्र यदुकं पिकनि उसिणोदगमवते, दंगे वासे व पडा मित्तम्मि | मोत्तूरगादेसतिगं, चाउलउदगं बहुपसनं ।। अनुकृतेषु त्रिद एनेषूत्कालेषु जलमुष्णं मिश्रं ततः परमन्त्रितम तथा वर्षे वृष्टीपतितमात्रायां प्रामादिषु प्रभूतमनुष्यप्रचारभूमी या सद्यावर परिणमति तावन्मिश्रम् परस्यभूमी तु यत् प्रथमं पतति पतितमात्रं मिश्र, पश्चाभिपतत्सवित देशकिं मुफ्त मिश्रम, अतिस्व त्वचितम् । अत्रत्रय श्रादेशाः । यथा केचिद्वदन्ति तरकुलोद के तण्डुलप्रक्काल नजारामादन्यत्र नारामे किप्यमाणे त्रुटित्वा नापार्श्वे लग्ना विन्दवो यावन्न शाम्यन्ति तावन्मिश्रम् । अपरे तथैव याता यावद्द्द्द्दा न शाम्यन्ति तावत् । श्रन्ये तु यावन्त खान सिद्धयन्ति तावत् पते यो उपदेश कराडपचनाम्मिसम्भवादिभिः, एषु काढनियमस्याभावात् ततोऽतिस्वच्छीभूतमेवा चित्तम । तिब्वोदगस्स गहणं, केइ जासु असइ पडिसेहो । गिडिजाणेस गहणं, विमासे मीरागं द्वारो ॥ २ ॥ सीमोदक हि धूमकृत दिनकर करसम्पर्क सेोमती सम्प म्हणे काचिराधना के बिदाइ स्प भाजनेषु तद् ग्राह्यम् । अत्राचार्यः प्राह-अचित्यात्स्यपात्रेषु ग्रहणप्रतिषेधः ततो गुरुभाजने कुश्मिकादी ग्राम वर्षति मे घे च तन्मिश्रम, ततः स्थिते वर्षेऽन्तर्मुदृतादूर्ध्वं ग्राह्यम् । जलं दि के प्रीतमपि प्रहरवा भूयः सवित्तं स्या इतस्तन्मध्ये हारः क्षेप्यः, पचं स्वच्छताऽपि स्पादिति पिएमनिदुधावनोदकानि प्रथमद्वितीयतृतीयाम्यचिरकृतानि मिश्राणि चिरं तिष्ठन्ति स्वचितानि चतुर्थादिधावनानि चिरं स्थितान्यपि सचित्तानि । प्रासुकजन्नादिकाल मानमेवतु मुकं प्रवचन सरोकारादी "सिणोगं तिदंडुकालि फा जलं जर कप्पं नयरि मिलागास्कर, पहरतिगोबार विवर अवं ॥ १॥ जाय खचितपासे, गिम्हासु उपहरपंचगस्वरं । च परुवार सिसिरे, वासासु जलं तिपद रुवरिं " ॥ २ ॥ तथाऽचेतनस्यापि कङ्करुकमुद्री तकी कुलिकादेरविनष्टयोनिरक्षणार्थे निःशुकतादिपरिहारार्थे च न दन्तादिनिर्भज्यते । यमुक्तं श्रनिर्युषितमगाथा --चित्तानामपि केा द्विनस्पतीनामविनष्टा योनिः स्याद् गृहची मुदनाम तथा हिमुखी शुष्कापि सेादरम् भजतीति ते एवं कङ्कमुकमुप्रादिरपि, अतो योनिरक्षणार्थमचेतनयतना न्यायवत्येवेति । ५०२ अधि० । वृ० । नि० पिं चू० । एतदेवाऽन्यदेषअह पयागं जं जं, कालपमाणं भणामि सब्बेसि । सिद्धं विष से हिंगुसदियं जं ॥ ६२ ॥ पुण्फफलसा बहाली विणा व म मंडाश्यं जल लपसी वडीयपप्यस्वा ॥ ६३ ॥ चपहरमाणमखि, श्रवणमंगवारजामजगराए । राहत दिवं परिमाणमा बुसं६४ ॥ दहितकरराईणं, कयसागाण सोलजामं च । यासासु पक्ख हेमंत मासुसितिमाणं ॥ ६५ ॥ पाल विविध कुलिको प " Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचित्त अभिधानराजेन्द्रः। प्रचित्तदव्वचला घासासु एगदिणं वा, चाबियरसं जत्थ जं जा ॥ ६६ ॥ परकडजई ण कप्पर, न कप्पा अम्ममरुदसे ॥८६॥ निविगयं पक्कन्न, असणजयं तस्सिमेव परिमाणं । नस्सेश्म संसेश्म, तंअतितुसजवाण नीरं च । उच्चुवियारगयाणं, चलियरसे तं तहा जाण ॥ ६७॥ आ जाम सोवीरं,सुकं वियर्फ जलं नवहा ॥१०॥ घयतिबगुमाईणं, वारसगंधपमुहपज्जासे। तिहला तमालपतं, मुत्थयकुटुं च खयरमाईदि। कालपरिमाणमुत्त, जाणिज्जा नो तहा पायं ॥ ६७ ॥ फासुकयं खजाहि, कारणओ कप्पणिज्जं तु ||१|| इत्थ य चझियरसम्मि, जीवा वेइंदिया समुच्छति। जिस तवे भत्तट्टे, परिमुवहासु अभिम्गहायामे । पुफिर पगिदिया, वटुंति दुवे वि समगं वा ॥ ६६ ॥ सट्राणं जियकप्पर, उपहजो अगसणे वि तहा ॥२॥ अचित्तजले सचित्ती-जवणे पंगेदिया समुच्छति । फलचिचोदगमिगजा-ममाजामं धमनीर मुदुत्ततिगं । अरणं सुज्ऊियमिलिए, पणिदी समुचिमा हुंति ॥ ७० ॥ सच्चुरसे सोबारे जामदुर्ग घोयणं तिमुह ॥ १३ ॥ तिसमुग्गमसूरचवलय-मासकुवत्थयकलायतुबरीणं । धम्मरसगंधपउजव-भेयविमिस्सं खुदवा फासुजलं। बल्लाण वट्टचणयाण, पंचगवरिसप्पमाणं च ॥ ७१ ॥ सकरगुरूखंडावं, वत्पुविनेएहि परिणमियं ॥ ए४॥ सालिविहिजवजुगंधरि-गोहुमतिणधमतिसकपासाणं । गोपनगमहिसाणं, खीरं पण अट्टदसदिणाणुवरि सुकं । वासतियं परिमाणं, तत्तो विऊसए जोणी ॥७२॥ तिदिणाणुवरि बलकी, नवप्पसूयाण एमेव ॥ ५ ॥ मुट्टा कंगू अयसी, सणकोमुसगवरसिद्धत्था । चउपहरोवरि जाय, ददि सुद्धं हवा कप्पणिज्जं च। एवयकुद्दवमेही, मूलगवीया चवडा य ॥ ७३ ॥ तक्करजयवीरेयी, वीयदिणे होइ वा कप्पा ॥ ५६ ॥ पहियाणं बत्ताण, उक्कोसहिई सत्तवासाई । निम्मीरं तिलमिस्सं, संधाणं तह वियारियफनाणं । हो जहोण पुणो, अंतमुहुत्तं सममगाणं ॥ १४ ॥ अाचित्तनोइणो पुण, कप्पड़ तक्करमणुभगलियं ॥ ७ ॥ पिप्परिखज्जूर मिरी-मुहय अभया बदाम खारिका । निव्वल्लिनिच्चियफलं, जामगमामुहत्तमुवरि कयं । पना जाइफ.सं पुण, कंकोखं चारु कुप्रिया य ॥ ७ ॥ वियलं तकरमिस्सं, न कप्पमुसिणीकरण विणा ।। ९० ॥ विरंसिज्जर जोणी, एपर्सि जलथलोवभोगहि । मोयाफलं पोलो, घोसामोलं च रुक्खगुंदाई। संघामयजलफलाइ, घाण जोणी तहा चित्ता॥ ७६ ॥ तणमित्तकं जं नो, हवर तं देवडीचिही. जायणसयं जल म्मि, थलम्मि सही भंगसंकंती। सक्किहजहममज्झिम-नेएहिं होइ तिविहमनत्त । वायागणिधूमेह, पविद्धजोणी हवइ तोर्स ॥ ७७ ॥ चउहा सचित्तपरिचाएणुक्टुिन्जेपण ॥ १० ॥ हरियालवणमणसिख-पूगसेवालनाबिकेरा य । तिविहम्मि अभिगहे खद्, न कप्प सचित्तवाचारो। एमेव अणाइमा, विरूत्था अवि मुणेयव्वा ॥ ७ ॥ तत्थाणाहारवत्यू, कप्पर सब्वावि रयणी ॥ १०१ ॥ सीयासिंधवपासक-रणीकहिंगुलजाइगिनागाई। आयंबिलमवि तिविहं, उकिज्जहमममिवाहि । अच्चित्तजोणिया कं-दासणोहयमिढलमजिहा ॥ ॥ तिविहं जं वियलं पु-याई पकप्पर वि तत्थ ॥ १० ॥ पिटुं मिस्समसुकं, पणचवतियदिणपमाणमापक्वं । सियसिंधवसुंगिमिरी, मेही सोबच्चलं च विडसवणं । सावणासोयपासे-सु जुयनम्मि वए अणुओगो ॥२०॥ हिंगुसुगंधिया य, पकप्पर सामं वत्यू ॥१०३॥ पाचनतियजामाण, मादुग चित्तजुयलजिपुगे। कारण जापण जश् ण, असणे सिर्फ इविज्ज निमियं वा । तह नजियधमाण, दालीण विपज्जए पायं ॥ १ ॥ पिटुं जलेण रकं, घुग्घेरिट्ठा सिकेणं ॥ १०४॥ चालियरमियतुसरहिय, सुकं जा ताव मिस्सियं नेयं । पप्पडवळ्या रुक्खा, सिद्धा तिगपीकया हव कप्पा। सोणजुयं जे सागं, भजियतलिएण तं सुखं ।। ७२॥ भज्जियधणं तिणधम कट्टदसं सिणेहवियलं जं ॥ १०५॥ असे जणंति भज्जिय-धमाणं पक्कतनियमिव कालो। सवाणं धमाणं, पि हु या पुछेण सिकिसाश्मयं । सत्तपणदसदसदिणं, वासाइसु मिस्सलोणस्स ॥७३॥ वेसम्मत्थाए ह, लिट्टया तीइ अकप्पं च ॥ १०६ ॥ ल० प्र०। अंतमुहुत्तं मोद-स्स चोचीसजाम धाउपत्तगयं । अचित्र-त्रि० अर्बुरे, वृ०५ उ० । गोमुत्तं जर केवल-महिसा श्मं रसविवज्जासे ।। ८४ ॥ अचित्तदवियकप्प-अचित्तव्यकल्प-पुं०। अचित्तप्रव्याणास्वमितले विच्चासे, तिचनुपामजामसुसिणनीरस्स। माहारादीनामुपयोगविधिविशेषे, “अस्चित्तदवियकप्पं, एत्तो वासाश्सु प्पमाणं, फासुजन्नस्सावि एमेव ॥ ५ ॥ नस्सेइम १ संसश्म,२ घोच्छ समासेणं । आहारे नवहिम्मि य, ओवसणे तह य पस्सा तंदुबनीरं ३ तिलोदगं ४ चा वि। वणे ॥१॥पयसं निसज्जगणे, दमे मे चिसमिक्षिणी अवले हणिया बन्नाणं सो-चणे दंतसोहणे चेव ॥२॥ पिप्पलगसूतिणतुस ५ जव ६ आयामं ७ चा क्खा-णदणे चेव सोलसं मका। हारो खलु द्विविहो लो-इयलो. सोवीरं ८ सुरुवियमं च ए॥८६॥ उत्तर णायवो ॥३॥तिविहो तु लोइनो खलु, तत्थ श्मो होति अंब १० कविट्ठा ११ मनगं १२, णायब्वो"।पं० ना०। पं० चू० ('आहार'प्रभृतिशब्देषु विवृतिः) अंबामग १३ माउसिंग १४ खज्जूरं १५ । दक्खा १६ दामिम १७ कैरं १८, अचित्तदव्वखंध-अचित्तव्यस्कन्ध-०। अविद्यमानचित्तोड चिंचा १९ नारिअर २० कोयजलं २१ ॥८॥ चित्तः, स चाऽसौ व्यस्कन्धः। द्विप्रदेशिकादिपुलस्कन्धरूपे पुवातयं भत्तके, ब तिबतुसजवादगं भणियं । अचेतने व्यस्कन्धभेदे, अनु० । श्रा जामं सोवीरं, अटुमे उसिणं नीरं च ॥ ८॥ अचित्तदवचूला-अचित्तव्यचूला-स्त्रीला मामणिकुन्तानमत्थमसित्थं गलिवं, तियदमुकलियपरिमियमलवं । । सिंहकर्णप्रासादपादपाद्यने, नि०० १००। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अचित्तमंत अनिधानराजेन्डः। अचेल अचित्तमंत-अचित्तवत-त्रिः । न विद्यते चित्तमुपयोगो ज्ञान | आह-यद्येवं ततः कथममी अचेला भण्यन्ते?, सत्यम् । सति यस्य । कनकरजतादाबचेतने, सूत्र० १श्रु० ११०१३० । 'चि. च चेलचेलकत्वस्यागमे लोके च रूढत्वात् । समंतमचित्तं वा एव सयं अदिन्नं गिएहेज्जा' । दश०४०।। एतदेवाहपा० । आचा० सदसंतचेलगोऽचे-लगो यजं लोगममयमंसिको। अचित्तमहाखंध-अचित्तमहास्कन्ध-पुं० । उत्कृष्टावगाहनेऽ तणाचेन्ना मुणिो , संतेहि जिणा असंतेहिं ।। नन्तप्रदेशिके स्कन्धे, (तत्स्वरूपं 'खंध' शब्दे वक्ष्यते) विशे० । सच्चासच्च सदसती चेले यस्यासौ सदसच्चेलो यद्यस्माअचिनसोय (ग)-अचित्तस्रोतस (क)-न० । जीवरहित- लोके समये चाऽचेलकः संसिद्धः प्रसिद्धः। चशब्दः प्रस्तान्द्रेि, (अचित्तस्रोतसो भेदास्तत्र शिश्नं प्रवेश्य गुफपुलनि- वनायाम् , सा च कृतैव । तेन तस्मादिह मुनयः सामान्यसाकासनं च 'अंगादाण' शब्देऽदर्शि) ॥ नि००१ उ०। धवः सद्भिरेव चेलैरुपचारतोऽचेला भण्यन्ते । जिनास्तु तीअचियत-देशी-त्रि० अप्रीतिकरे, 'अचियांत वा अणियतंति वा एग र्थकरा असद्भिश्चेलैर्मुल्यवृत्त्या अचेला व्यपदिश्यन्ते । इदमुक्तं है' इति वचनात् । व्य०२ उ० । पिं0 अप्रीती च । व्य०११०। भवति-इहाचेलत्वं द्विविधम्-मुख्यमुपचरितं च । तदानी मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारि न भवत्यत औपचारिकं गृह्यते, सूत्र० । देशीपदमेतत् । बृ०१ उ० । स्त्री० अप्रीतिमत्याम, मुख्यं तु जिनानामेवासीदिति । व्य० ७ उ०। इदमेवौपचारिकमचेलत्वं भावयतिअचियंतेउरपरघरप्पवेस-अचियतान्तःपुरपरगृहप्रवेश-पुं० परिसुफ जुन्नकुत्थी-यं थोवाऽनिययभोगभोगेहिं । अचियतोऽनभिमतोऽन्तःपुरप्रवेशवत् परगृहप्रवेशोऽन्यतीर्थ मुणिओ मुच्छारहिया, संतेहिं अचेझया होंति ॥ कप्रवेशो येषां ते तथा। अनभिमतपरमतप्रवेशेषु सम्पक्त्विषु, मुनयः साधवो मूमरहिताः सद्भिरपि चे रुपचारतोऽचेयथा राक्षामन्तःपुरे गन्तुं नेप्यते, एवं परतीर्थिकेष्वपि यैः प्र. लका नवन्ति । कथम्भूनैश्चरित्याह-परिसुति लुप्तविन्नक्तिवेशो नेष्यते, ते श्रावकाः। सूत्र० २ श्रु०२०। “कसियफ कदर्शनात परिशुद्धरेषणीयैः,तथा जोर्गबहुदिवसः,कुत्सितैरसालिहा अवंगुयदुवारा अचियंतेउरपरघरप्पधेसा चाउद्दस रैः स्तर्किगणनाप्रमाणतोहीनैस्तुच्छ अनियतन्नोगभोगहि ति) ट्ठमुहिट्ठपुममासिणेसु पडिपुमं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा | अनियतभांगेन कादाचित्कसेवनेन भोगः परिभोगो येषां तानि विहरंति " सूत्र० २ २ २ अ०। तथा तैरेवनूतैश्चलैः सद्भिरप्युपचारतोऽचेलका मुनयो नण्यअचु ( चो) क्ख-अचोक्ष-त्रि० । न त । अशुद्धे, तंजी न्ते। तथा 'अननोगनोगेहिं ति' इत्येवमपि योज्यते, ततश्च लोकअचिट्ठण-अचेष्टन-न । न त । चेष्टाभावे, सर्वथा चेष्टा- रुढप्रकारादन्यप्रकारेण भोगः प्रासेवन,प्रकारलकणस्य मध्यमपनिरोधे, ध० ३ अधि। दस्य लोपादन्यभोगः,तेनान्यभोगेन भोगः परिजोगा येषां तानि तथा तैरप्येवभूतेश्र चेत्रकत्वं लोके प्रसिकमेव, यथा कटीभचेयकम-अचेतस्कृत-त्रि०ा अचैतन्यकृते. भ०१६ श०२ उ. वाससा वेष्टितशिरसो जबावगाढपुरुषस्य साधोरपि कच्छाव(जीवानामचेतस्कृतकर्मकत्वं चेयकड' शब्द) ग्धाभावात्कृर्पराज्यामग्रभागः, एवं चोझपट्टकस्य धारणान्मस्तअचेयण-अचेतन-त्रि० । न० त०। चेतनाविकले, आव० ४ | कस्योपरि प्रावरणाद्यभावाच लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण चेलप० । 'अचेयणा' नराधमाः, विशिष्टचैतन्याभावात् । नोगो इष्टव्यः । तदेवं' परिशुद्धजुन्नकुत्थिय' इत्यादिविशेषप्रश्न०२ श्राश्ना द्वा णविशिः सद्भिरपि चेलेस्तथाविधवस्त्रकार्याकरणात्तषु मूअचेयम-अचैतन्य-न । न० त०। चेतनावैकल्ये, “अचैत- र्गनावाच मुनयोऽचेनका व्यपदिश्यन्त इतीह तात्पर्यम् । न्यमजीवता" द्रव्या० ११ अध्या आह-ननु चेनस्यान्यथापरिजोगण किमचे प्रत्यव्यपदेशः अचेल-अचेल-नग अव्यः । चेलस्याभावोऽचेलम् । जिनक- क्वापि रष्ट इत्याशङ्कय तदुपदर्शनार्थमाहल्पिकादीनामन्येषां सुयतीनां भिन्ने स्फुटितेऽल्पमूल्ये च चले, जह जलमवगाहंतो, बहुचेस्रो विसिरवेढियकाडियो । प्रव०११३ द्वा० । वस्त्राणां वासगन्धनवीनावदातसुप्रमाणानां भमा नरो अचेस्रो, तह मुणिो संतचेझो वि ।। सर्वेषां वा भावे, स०२२ सम० ।। जीर्णादिनिरपि वरचेवकत्व बोके रूढमेवेति भावयतिअचेन (ग)-अचेल (क)- पुं० । न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासावचेलकः । स्था० ५ ठा० ३ उ० । नञ् कु तह थोच जुन्नकुत्थिय-चेोहिं विजनए अचेलो त्ति । साथै, कुत्सितं वा चेलं यस्यासावचेलकः । प्रव० ७८ द्वा०। जह तुर सेलिय ! अप्पय, मे पोति नग्गिया वत्ते ।। अल्पकुत्सितचेले, जिनकल्पिके च । श्राचा०१ श्रु० ६ ०२ श्यमपि सुगमा, नवरं, जह तुरेत्यादिदृष्टान्तः । यथेढ क्वापि उ० । सदसञ्चलत्वेन तस्य बैविध्यम् योषित कटीवेष्टितजीर्णबहुन्ट्रैिकशाटिका कश्चित्कोलिकं वदसुविहो होति अचेलो, संताचलो असंतचेलो य। ति-स्वरस्व नोः शैल्पिक ! शीघ्रो भूत्वा मदीयपोत्तां शाटिका तिस्थगर असंतचेबा, संताचेना भवे सेसा ॥ निर्माय्य ददस्व समर्मच, नम्निका वर्तेऽहम, तदिह सवस्त्राया मपि योषिति नान्यवाचकशब्दप्रवृत्तिः। विश। द्विविधो भवत्यचेलः-सदचलो असदचेलश्च । तत्र तीर्थकरा असदचेला देवदूष्यपतनानन्तरं सर्वदैव तेषां वस्त्राभा अथ तत्रैवोपनयमाहवात् । शेषाः सर्वेऽपि जिनकल्पिकादिसाधवः सदचेलाः, जुलेहि खंमिराहि य, असव्वतणुपाउतेहि ण य णिचं । जघन्यतोऽपि रजोहरणमुखवत्रिकासम्भवात् । वृ० १७०।। सताह वाणग्गथा, अचलगा हाति चलाह Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००१) अनिधानराजेन्द्रः । अचेल एवं जः पुराणेः खरितै सतनुप्रावृतेः स्वल्पमाणतया सर्वस्मिन् शरीरे अपावृतैः प्रमाणेः ह । नैरित्यर्थः । न च नित्यं सदैव प्राभृतैः किन्तु शीतादिकारणसद्भावे एवंविधैधेलैः सद्भिरपि विद्यमानैरपि, निर्ग्रन्था अचेला नवन्ति । परानिमायमाशय परिहरति एवं दुग्गतपहिया, अचेलगा होति ते जवे बुछी । ते लघु असंतती पारंति या धम्मबुद्धीए ॥ यदि जीर्णतादिभिर्वः प्रावृतः साधयेोऽयेाकास्तत एवं दुर्गाका दरिद्राः पथिका पान्या दुर्गताधिकारतेऽप्यचेसकाभवन्तीति ते भवेद्बुद्धि से दुर्गतथिका सत्या नवव्यूत सदशकादीनां वस्त्राणामसम्पत्या परिजीवी नि वासांसि धारयन्ति न पुनधर्मा प्रतो भावत तद्वयम् परिणामस्यानिवृत्यान्नैतेऽसावस्तु सति लाभे महाधनादीनि परित्व जीवमादीनि धर्मयुया धारयन्तीत्यत्रेला उच्यन्ते । यद्येवमलास्ततः किमित्याह आचलक्को धम्पो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मक्किमगारा जिलाएं, होति प्रक्षो समेलो वा ॥ अलकस्य नाव श्रावेलक्यम्, तदस्यास्ती त्याचे लक्यः । अभ्रादेराकृतिगणत्वादप्रत्ययः । एवंविधो धर्मः पूर्वस्य व पश्चिमस्य च जिनस्य तीर्थे जवति । मध्यमकानां तु जिनानामचेलः सचेलो वा नवति । इदमेव भावयति पमिमाए पाउचा, पातिकमंते उ मज्जिमा समणा । पुरिमचरिमाण मह - दाइ जिम्मा मोमातुं ॥ मध्यमा मध्य तीर्थकर सत्काः साधवः प्रतिमया वा लग्नतया प्रावृता वा प्रमाणातिरितमह। मूल्यादिभिर्वासोभिराच्छादितयपुषो नातिक्रामन्ति नागवतमाहामिति गम्यते चरमाणां तु प्रथमपश्चिमतीर्थंकरसाधूनाममहाधनानि स्वल्पमूल्यानि भिनानि या स्नानि प्रमाणोपेतान्यदशकानि चेत्यर्थः । परमिमानि कारणानि मुबा ताम्वाद शासज्ज खेचकप्पं, वासावासे अजावितो अस | काले प्राणम्मिय, सागरि तेणो व पाचरणं ॥ क्षेत्रकल्पं देशविशेषाचारमासाद्याभिन्नान्यपि प्रात्रियन्ते यथा सिन्धुविषये ताशानि प्रावृत्य हिदमन्ते वर्षावासे या वर्षाक पं प्रावृत्य हिरामन्ते । अभावितः शक्तः कृत्स्नानि प्रावृत्यो डिएमसेयाद्भावित प्रति असहिष्णुः शीतमुष्णं वा नाधिसो शक्नोति ततः कृत्स्नं प्रावृयात् । काले वा प्रत्यूषे भिक्कार्थ प्रविशन् प्रावृत्य निर्गच्छेत् । अध्वनि वा प्रावृता गच्छन्ति । यत्सागारिकप्रतिबद्धप्रतिश्रये स्थितास्ततः प्रावृताः सन्तः कायिकादित, स्तेना या पथि वर्तन्ते तत उत्कृष्टोपाध स्कन्धे कक्कायां वा विष्टिकां कृत्वोपरि सर्वाङ्गीणप्रावृता गच्छ ति । एतेषु कारणेषु कृत्स्नस्योपधेः प्रावरणं कर्त्तव्यम् । तथानिस्वयलिंगभेदे, गुरुमा कति कारणमाए । गेलोयरोगे, सरीरवेतावनियमादी ॥ " निरुपहतो नाम नीरोगस्तस्य लिङ्गभेदं कुर्वतधनुर्गुरुकाः । अथवा निरुपहतं नाम यथाजातलिङ्गं तस्य भेदे चतुर्गुरु तस्य च लिङ्गभेदस्येमे भेदा: अचेलगधम्म खंधे 5वार संगति, गरुलद्धंसे य पट्टलिंगडुवे | लदुगो लदुगो पतिवि, चउगुरुयो दोसु मृनं तु ॥ स्कन्धे कल्प द्वारिकायां करोति मासलघु संपती प्रावर करोति तु गरुडपाक्षिक प्रावृणोति, अर्धाकृतं करोति, कडीपट्टकं बध्नाति एतेषु त्रिष्वपि चतुर्गुरु गृहस्थल पर लिङ्गं वा करोति, द्वयोरपि मूलम् । द्वितीयपदे तु कारणजाते लिङ्गभेदोऽपि कर्तुं कल्पते। यह ग्लानत्वं कस्यापि विद्य ते । तस्योद्वर्त्तनमुपदेशन मुत्थापनं वा कुर्वन् कटीपट्टकं बध्नीयात् । लोचं वा श्रन्यस्य साधेाः कुर्वाणः पट्टकं बध्नाति । (रोगिल) कस्यापि रोगियोऽशसि सम्बन्ते, द्वीवृपणी वा शूनी, सकटीपट्टकं बध्नीयात् । गृहलिङ्गान्यलिङ्गयोरयमपवादःसोमोरिए, रायदुट्टे व वादिदुट्ठे वा । आगाढ अलिंग, कालवखेव व गमणं वा ॥ स्पपक्षप्रान्ते प्रगाढे अशिवे अन्यलिङ्गं कृत्वा तत्रैव कालपं कुर्वन्ति, अन्यत्र या गच्छन्ति एवं राजद्विष्ठे राहिला. धूनामुपरि द्वेषमापत्रे, बादिद्विष्टे वा वादपराजिते कापि बा दिनि व्यपरोपणादिकं कर्तुकामे एवंविधे कारणे आगा अन्यलिङ्गमुपलाल कृत्या कालक्षेपो या गमनं वा विधेयम् । बृ० ६ उ० । पं० भा० । पं० चू० । पंचा० पं० सं० । श्राव० । कल्प० । जीत० । प्रव० ! स्था० । ( तिन्कोद्याने केशीकुमारेण चातुर्यामपञ्चयामधर्मभेदहेतुप्रकारकेण " अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। देसिश्रो वद्धमाणेणं, पासेण य महायसा (उ०२३०) त्यावेलस्य धर्मस्य कथं वीरतीयें सायं पार्श्व तीर्थेऽसत्त्वमिति पृष्टो गौतमो विभेदकारणं ' गोयम केसि - ज' शब्दे वक्ष्यते ) महापद्मस्य भविष्यत्प्रथमतर्थिंकरस्य समयेऽप्यचेलकधर्मो भविष्यति । स्था० एठा० । पञ्चभिः प्रकारैरचेलकः प्रशस्तो भयति-पंचहि गणेहिं अचेल पसत्थे जवइ । तं जहा - अप्पापडिलेहा, ला विए पसत्ये, रूवे वेसासिए तत्रे अणुछाए, चिउले इंदिय निम्महे || 23 (पञ्च हीत्यादि) प्रतीतम, नवरं, न विद्यन्ते चेलानि वासांसि यस्यासायला स च जिनकहिपक विशेषतावादेव त था स्थविरकल्पिक चाल्पाल्पमूल्य सप्रमाणजी रामनिवसत्या दिति प्रशस्तः, प्रशंसितस्तीर्थ करादिभिरिति गम्यते । श्रल्पा प्र त्युपेक्का अचेलकस्य स्यादिति गम्यं प्रत्युपेक्षणीयं, तथाविधोपधेरजावात् । एवं च न स्वाध्यायादिपरिमन्थ इति । तथा लघोनांवो लाघवं तदेव प्रावि, इज्यती भावतोऽपि रा शस्तमनिन्द्यं स्यात् । तथा रूपं नेपथ्यं वैश्वासिकं विश्वासप्रयोज नम लिप्सुतासूचकत्वात् स्यादिति । तथा तप उपकरण संलीनतारूपमनु जिनानुमतं स्यात् तथा विपुलो महानिन्द्रियनिग्रहः स्वात उपकरणं विना स्पर्शप्रतिकूल शीतवातातपादिसदनादिति। स्था०पा०३५०। (प्रतिमां प्रतिपन्नो वस्त्रत्रयधान् चतुर्थ वस्त्रमन्वेषयन् लब्ध्वा च तद् हेमन्ते तस्मिन् जीर्णे, "अडवा एगसामे अडुवा अचेले लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमागते भवति त्ति" 'मरण' शब्दे दर्शयिष्यते) | (वेलस्य निर्ग्रन्थस्य साभिनिन्थीतिः संवासः 'संवास' शब्द अलग-अलकधर्म० श्रविद्यमानानि जनकल्य Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) अभिधानराजेन्द्रः । अचेल गधम्म | 1 कविशेषापेक्षा असस्यादेव स्थविरकल्पितु जीमलिनदिन पत्राणि यस्मिन् स तथा धर्मधारित्रम् स यास धर्मयात्रेकधर्मः आयेयाये द्वाविंशतिराजतीर्थसम्म साध्वाचारे, खा० ठा०] (यथा चैष धर्मस्तथा ऽनन्तरम् 'अलग' शब्दे दर्शितः) वेलपर (1) सह अन्नपरि (1) षह - पुं० 1 अ लं वेलाभावो जिनकल्पिकादीनाम्, अन्येषां तु भिन्नमल्पमूल्यं च मध्यम अपनाशीलयत् त पोस परीवहः । उत्त० २ श्र० । अचेतायां जीर्णापूर्णमल्लिनादिचेसत्ये यदाऽऽकाकाद्यकरणेन परिपह्यमाणत्यादिति । भ० श० उ० । षष्ठे परहे, प्रश्न०५ संब० द्वा० स० अमहासल्यानि खण्डितानि जीनिवासांसि येत्य ४ श्र० । न च तथाविधवस्त्रः सन् मम प्राकू परिगृहीतं यत्रं नास्ति, नापि तथाविधो दातेति दैन्यं गच्छेत अन्य लाभसम्भा ater प्रमुदितमानसश्च न भवेदिति । प्र० ८६ द्वा० । यथा"नास्ति वासोऽशुभं तव तत्साध्यसा या नाम्न विप्लुतो जानन्, लाभालाभविचित्तम्" ॥१॥ घ० ३ अधि० । " शीताजितापेऽपि यति-स्त्वग्वस्त्रत्राणवर्जितः । वासोऽकल्पं न गृह्णीयादग्निं नोज्ज्वालयेदपि " ॥ १ ॥ भव० १ ० एतदेव सूत्रकार श्राहपरिमेहिं वत्येहि होक्खामिति । किंवा सचेन होक्खं इह निवू या चिंतए | परिजीर्णे समन्ताद] हानिमुपगतैः शाटकादिनि० ( दोक्यामिति) इतिर्भिन्नक्रम, ततो भविष्याम्यप्रकविको उपदिनमा विवादेषामितिभिर्न बिसयेत्। अथवा सचेनकलान्वितो भविष्यामि, परिजीर्णवस्त्रं हि मां दृष्ट्वा कश्चित् श्रा का सुन्दराणि यदि दास्यतीति मिथुनं चिन्तयेत्। श्वमु तं भवति - जीर्णवाः सन्नसमः प्राक् परिगृहीतं न परं वस्त्रम स्ति न च तथाविधानि गच्छे नचान्यलाभसंधाननया प्रमुदितमानसेो भवेदिति सूत्रार्थः । इत्थं जीर्णादिवतयावेलं स्परिकल्पिकमाश्रित्याचेलपरीषद् उक्तः । संप्रति तमेव सामान्येनाह एगयाऽचेल होई, सचेले वा वि एगया । 9 एयं धम्महियं गया, खाणी णो परिदेव ॥ १३ ॥ एकदेकस्मिन्काले जिनकल्पप्रतिपत्ती स्थविरकल्येऽपि - भवासी वा सर्वथा चेाभावेन सति वा ये बिना वर्षादीमितमप्रावरणेन जीवित वा अलकत्रो भवति । पठ्यते च ' अचेलए सयं होति ' तत्र स्वयमेवात्मनैत्र न परानियोगतः सचेलः सवस्त्रश्चाप्येकदा स्थविरकल्पित्वे तथाविधानम्यनेनार सति यद्येवं ततः किमित्याह तदि व्यवस्थौचित्येन सचेल धर्मो यतिधर्मस्ती हि तमुपकारकं धर्महितं त्या युध्यतकरयस्य धर्महितस्परपुकादिभिः यथोक्तम्"पंचापुरमपच्चिमाणं अरहंताणं भगवंतां अचेल पसत्थे भवति । तं जा-बापडे बेखाखिए ये १ त २३ ला सत्ये ४ बिउले इंद्रियणिग्गहे । ति"। सचेलत्वस्य तु धर्मोपकारित्वमन्याद्यारम्भनिवारकोन संयमफलत्वात् । ज्ञानी नम्ना एवं प्रायस्तिर्यग्नारकास्तद्भवजयादेव च मया सत्यापि वासांस्यपास्यन्त इत्येवंबोधत्वान्न परिदेवयेत् । किमुक्तं भवति अपरिसह श्रवः सन् किमिदानीं शीतादिपीमितस्य मम शरणमिति न दैन्यमालम्बेत इति सूत्रार्थः । उत्त० २ अ० । श्रत्र एवं धम्महियं णश्चेति' सूत्रसूचितं दृष्टान्तमाहवीतजये देवदत्ता, गंधारं सावगं पमियरिता । लन सयंगुलियाणं, पज्जोतेणाणि उज्जेणिं ॥ दद्दू मरणं, पभाव पचतु कालगया । पुक्रकरणं ढणं, दस पुरपज्जोय च || माया य रुहसोमा, पिया य ामेण सोमदेवो ति । नाया व फरगुरक्खिय, तोसलिपुत्ताय आयरिया || सीदगिरिनदगुत्ते, वरक्खमणा पढिसु पुत्रगयं । पत्रावितोय जाया रक्खियमोहि जलोय ॥ उत्त० नि० ॥ गाथाचतुष्टयम् । वीतनये देवदत्ता गन्धारं श्रावकं प्रतिजागलते शतालिकानां, प्रद्योतेनानी तो उज्जयिनीं दृष्ट्वा चेटीम रणं प्रजावती प्रवज्य कालं गता, पुष्करकरणं, ग्रहणं, दशपुर प्रद्यो तमोचनं च माता च रुसोमा, पिता च नाम्ना सोमदेव इति, भ्राता च फल्गुरहितः सिंहरिभद्रगुप्तायां वज्रक्रमणः पवित्वा पूर्वगतं प्रवाजितश्च भ्राता रक्षितक्षमण जनकश्चेति गाथाचतुष्टयाकरार्थः । नावार्थस्तु वृद्धसं प्रदायादवसेयः स चायं जीवितस्वामिप्रतिमाम्यता श्र सुरिणां दशपुरमागमनावचि 'रशिय ते उ०३० अारतिरिणा तत्र स्वमातृभ सर्व सांसारिक दीक्षां ग्राहितः । पिता तु प्रतिबोधितोऽपि साधुलिङ्गं न गृह्णाति । स्वज्ञातीयजनानां लज्जां च वदति । आचार्य दीक्षाग्रहणाय तस्य बहु कथयन्ति । ततः स कथयति पृयुगलहोपवीतकर त्रिकोपानद्भिः सम चेद्र दीक्षां ददासि तदा लामि । ततो लाजं दृष्ट्वा तादृशमेव तं गुरुः प्रब्राजितवान् । ग्राहितश्चरणकरणस्वाध्यायम् । श्रन्यदा चैत्यवन्दनार्थे गता श्राचार्यास्तत्र साधुशिक्षिता गृहस्थ किम्नका वदन्ति - एनं त्रियं मुक्त्या सर्वान् साधून् बन्दामहे । ततः वृद्धो वक्ति-मम पुत्रनप्त्रादय पते वन्दिताः, श्रहं कस्मान्न वन्दितः किं मया दोक्का न गृहीता । त आहुः किं दीक्षितस्य त्र कमण्डल्वादीनि स्युः । ततो गुरुष्यागतेषु स वृद्धो वक्ति-पुत्र ! मम पहसति रातो न कार्येण एवं प्रयोगेण क्रमतो धौतिकवस्त्रं मुक्त्वा सर्वे त्याजितः। बहुशस्तथा प्रयोगकरखेऽपीति न मुनिस्म अन्यदा एकः साधु 3 स्वर्गं गतः । तत श्राचार्यैर्वृषस्य धौतिकत्याजनाय साधून प्रत्येवमुकम् य एनं मृतसाधुं व्युत्पृएं स्कन्धेन वदति तस्य महत् पुरायम् । ततः स स्थविरो वक्ति-पुत्राऽत्र किं बहुनिर्जरा ? । श्राचार्या आहुः वाढम् । ततः स वक्ति-अहं वहामि । आचार्या वदन्तिभोपाल दि ता वरं यदि होभो भविष्यति तदा शुभमस्माकं भविष्यति [प] [] स तत्र नियोजितः साधुसाध्वीसमुदायः पृष्ठे स्थितः पायसेन साधुवं स्कन्धे समारोप्य वोदुमारब्धं तापस स्य धौतिकं गुरुशिक्षितमिम्नकै कर्थितम, स लज्जया यावमुखमा मुख्य २, एकेन चलको दवरकेन कृत्वा कटौ बरूः। स तु लज्जया तत्साधुश Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) अचेलपरिमह अभिधानराजेन्द्रः । अचेलपरिसह वं द्वारभूमि यावदूह्य तत्र व्युत्सृज्य पश्चादागतो वक्ति-पुत्र ! दभवति, यथा परिजीण मे वस्त्रं सच्चिद्रं पाटितं चेत्येवमादिवअद्य महानुपसर्गो जातः । प्राहुराचार्या:-प्रानीयतां धीतिक, रगतमपध्यानं न भवति, धीमणोऽभावाद्धाभावः । सति च परिधाप्यताम् । ततः स वक्ति अथाऽलं धौतिकेन, यदू बटव्यं धर्मिणि धर्मान्वेषणं न्याय्यमिति सत्यं वचस्तयेदमाप तस्य न तद एमेव । अथ चोलपट्ट एवास्तु । पूर्व तनाऽचेलपरीषहो न भवत्येव । यथा परं वस्त्रमहं यात्रिय इत्यादि पूर्वयन्नेयम् । योसोढः, पश्चात् सोढः । उत्त०२०।। ऽपि निद्रपाणित्वात्पात्रनिर्योगसमन्वितः कल्पत्रयान्यतरयुक्तोएतदेवाचेलतासहनं प्रत्यपादि यथा ऽसावपि परिजीणादिसद्भावे तद्तमपध्यानं न विधत्ते, यथा कृतस्यास्पपरिकर्मणो ग्रहणात् सूचिसूत्रान्वेषणं न करोति । एयं खु सुणी आयाणं सया सुक्खायधम्मे विधूतक तस्य चाचेलस्थाल्पचेझस्य वा तृणादिस्पर्शसद्भावे यद्विप्पे णिज्कोसइत्ता, जे अचेले परिवासिते तस्स णं भिक्खु- धेयं तदाह-(अदुवा इत्यादि ) तस्य ह्यचेलतया परिवसतो स्स णो एवं जवति, परिजुएणे मे वत्थे वत्यं जाइस्सामि मुत्तं जीर्णवस्त्रादिकृतमपच्यानं न भवति, अथवैतत् स्यात्तत्राचेलत्वे जाइस्सामि सूई जाइस्सामि संधिस्सामि सीविस्सामि उक पराक्रममाणं (शुजो) पुनस्तं साधुमचेलं कचिद् प्रामादौ त्य. सिस्सामि वोकसिस्सामि परिहिस्सामि पानणिस्सामि, कुत्राणाभावात् तृणशय्याशायिनं तृणानां स्पर्शाः परुषास्तृण वो जनिताः स्पर्शा पुःखविशेषाक्तृणस्पर्शास्ते कदाचित् स्पृ. अदुवा तत्थ परिक्कमनं जुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति शन्ति, तांश्च सम्यगदीनमनसाऽतिसहत इति संबन्धः। तथा सीयफासा फुसति तेउफासा फुसति दंसमसगफासा फुसंति शीतस्पर्शाःस्पृशन्त्युपतापयन्ति,तेजनुष्णस्पर्शाःस्पृशन्ति, तथा एगयरे भएणयरे विरूवरूवे फासे अहियासेत्ति अचेले | दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति । तेषां तु परीपहाणामेकतरे विरुका दंशमशकतृणस्पर्शादयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णादिपरीपहाणां माघवं आगममाणा, तवे से अभिसमएणगए नवति, जहेयं वा परस्परविरुझानामन्यतरे प्रादुःप्युः । प्रत्येकं बहुवचननिर्देभगवता पवेदितं, तमेव अजिसमेच्चा सव्वतो, सम्वत्ताए शश्च तीवमन्दमध्यमावस्यासंसूचक इति। एतदेव दर्शयति-विरूप सम्मत्तमेव समभिजाणिया, एवं तेसिं महावीराणं चिरराई बीभत्सं मनोनयनानाहादि विविधंवा मन्दादिभेदादूपं येषां ते विपुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं रूपरूपाकेते?, स्पर्शा दुःखविशेषास्तदापादकास्तृणादिस्पर्शा आगयपएणाणाणं किसा बाहा भवंति । पयणुए मंससोणिए पा, तान् सम्यककरणेनापभ्यानरहितोऽधिसहते, कोऽसौ?, अ. विस्सापिं कह परिएणाए एस तिप्ले मुत्ते विरए वियाहि चेनोऽपगतचेस्रोऽस्पचेस्रो वाऽचेनस्वरूपो वा सम्यक् तितिकते। किमभिसभ्य परिषहानधिसहत इत्यत आह-(लाघवमित्यादि) ए ति वेमि। लघोनीयो साघवं, व्यतो भावतश्च, कव्यतो छुपकरणमाघवं, पतयत् पूर्वोक्त वक्ष्यमाणं वा, खुर्वाक्याबारे, श्रादीयत इत्या | जावतःकर्मनाघवम् । बागमयन्नवगमयन्नबुध्यमान इति यावददानं कर्म, मादीयत इति वाऽनेन कर्मोत्पादनं कर्मोपादानम् । धिसहते परीपहोपसर्गानिति । नागाजुर्नीयास्तु परन्ति-" एवं तब धर्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुनिर्दोषयितेति खयु से उबगरणनाधवियं तवं कम्मस्वयकारणं करेति" एवसंबन्धः किंभूतः ? सदासर्वकालं सुष्टाख्यातोधर्मोऽस्येति स्वा- मुक्तक्रमेण जावनाघवार्थमुपकरणाघवं तपश्व करोतीति भास्यातधर्मा संसारजीरुत्वाद्यथारोपितलारवाहीत्यर्थः, तथा वि- वार्थः । किञ्च (तवे इत्यादि) (से) तस्योपकरणलाघवेन कर्मधूतःक्षुम्मः सम्यक् स्पृष्टः कल्प आचारोयेन स तथा, स पवंचूतो साघवमागमयन्तं कर्मलाघवेन चोपकरणलाघवमागमयतस्तृ. मुनिरादानं झोषयित्वा प्रादानमपनेष्यति । कथं पुनस्तदादानं णादिस्पर्शानधिसहमानस्य तपः कायक्लेशरूपतया बाह्यमभिसवस्त्रादि स्याद्येन तद् कोषयितव्यं भवेदित्याह-(जे अचेले श्त्या- मन्वागतंत्रवति।सम्यगाभिमुस्खेन सोदं भवतिाएतचनमयोच्यदि) अल्पार्थे नञ् , यथा-अयं पुमानकः स्वल्पज्ञान इत्यर्थः। यः | तश्त्येतदर्शयितुमाह-(जहेयं इत्यादि) यथा येन प्रकारेणेदमिति साधुनास्य चेलं वस्त्रमस्तीत्यतोऽचेलोऽल्पचेल इत्यर्थः। संयमे यदुक्तं वक्ष्यमाणं चैतद्, जगवता वीरवर्धमानस्वामिना, प्रकर्षे. पर्युषितो व्यवस्थित इति तस्य भिक्को तद्भवति नैतत्कस्पते ।। णाऽऽदौ वा वेदितं प्रवेदितमिति। यदि नाम भगवता प्रवेदितं ततः यथा परिजीर्ण में वस्त्रमचेलकोऽहं नविष्यामि, न मेऽत्र त्वक्त्रा. किमित्याह-(तमेव इत्यादि) तपकरणमाघयमाहारलाघवं वाणं नविष्यति, ततश्च शीताधर्दितस्य किं शरणं मे स्याद् धनं अभिसमेत्य कात्वा, पवकारोऽवधारणे, तदेव लाघवंशात्वेत्यर्थः। विनेत्यतोऽहं कञ्चन श्रावकादिकं प्रत्येत्य वखं याचिये, तस्य कथमिति चेमुच्यते-सर्वत इति व्यताकेत्रतः कालतो भावतश्च । वा जीर्णस्य वस्त्रस्य संधानाय सत्रं याचिये, सूची याचिये तत्र द्रव्यत आहारोपकरणादौ, केत्रतः सर्वत्र प्रामादौ,कालतोवा, आप्ताज्यां सूचीसूत्राच्या जीर्णवस्त्ररन्धं संधास्यामि, पाटितं ऽहनि रात्रौ बा, कुर्भिक्कादौ वा। सर्वात्मनेति । भावतः कृत्रिमसीविष्यामि, लघु वा सदपरशकललगनत उत्कर्षयिष्यामि, कल्काद्यभावेन, तथा सम्यक्त्वमिति । प्रशस्तं शोजनमेकसतं दीर्घ वा सत् ख एमापनयनतो व्युत्कर्षयिष्यामि । एवं च कृतं स. वा तत्त्वं सम्यक्त्वम् । तदुक्तम्-"प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकःसंत्परिधास्यामि, तथा प्रावरिस्यामीत्याद्यार्तध्यानोपहतः सत्यपि गत एव च। इत्येतैरुपसृष्टस्तु, भावः सम्यक्त्वमुच्यते"॥१॥ तदेवजीर्णादिवत्रसद्भावे यद्भविष्यत्ताभ्यवसायिनो धर्मकप्रवणस्य जूतं सम्यक्त्वमेवधा समभिजानीयात सम्यगाभिमुख्येन जामीतु भवत्यन्तःकरणवृत्तिरिति । यदि वा जिनकल्पिकाभिः प्राये- यात परिजिन्द्यात् तथा घचेलोऽप्येकचेलादिकं नावमन्येत, यत गैवेतत् सूत्रं व्याख्येयम्। तद्यथा-(जे अचेले इत्यादि) नास्याचेसं उक्तम-"जो विऽवत्थ तिवत्यो,एगेण अचेनगो व संघरहाण हुते वस्त्रमस्तीत्यचेनः छिरूपाणित्वात्पाणिपात्रः । पाणिपात्रत्वात्पा- हीमोतिपरं, सब्वे वि हुते जिणा णाए ॥१॥तथा-"जेखमु विसप्रदिसप्तविधतन्नियोगरहितोऽनिग्रहविशेषात त्यककल्पत्रयः। रिसकप्पा, संघयणधियादिकारणं प्रणियं । पप्पणवमणयहीणं, कवलं रजोहरखमुलबलिकासमन्वितस्तस्याचेलस्य मिलोमत- अप्पाणं मबई तेहि ॥१॥सव्ये वि जिणा जाए, जहाविहि कम्म Jain Education Interational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अचेलपरिसह अभिधानराजेन्द्रः। अचेलिया खवणमट्ठाप । विहरंति रज्जुया खलु , सम्म अभिजाई एवं "] संजमजोगनिमित्त, परिजुन्नादीणि धारयंतस्स । ॥२॥ इति । यदि वा तदेव लाघवमनिसमेत्य सर्वतो व्यादिना कह न परीसहसहणं, जहणो स निम्ममत्तस्स ॥ सर्वात्मनादिना सम्यक्त्वमेव सम्यगमिजानीयात् तीर्थकर पाचेसक्यमुक्तप्रकारेण तावदौपचारिकं ततस्तथारूपाचेसक्यागणधरोपदेशात सम्यक कुर्यादिति तात्पर्यार्थः । एतच्च नाश. सेवन परीषहसहनमप्यौपचारिकमेव स्यात् । तथा च सति कुतो क्यानुष्ठानम् । ज्वरहरतककडासाररत्नोपदेशवद् नवतः मोक्तावाप्तिरुपचरितस्य निरुपचरितार्थक्रियाकारित्वायोगात्, न केवामपन्यस्यते , अपि त्वन्यबहुभिश्विरकासमासेवितमित्येत हिमाणवको दहनोपचारादाधीयते पाके इति यद्येवंतर्हि कल्पनीदर्शयितुमाह-( एयमित्यादि ) एवमित्यचेलतया पर्युषितानां यमाहारमपि तुजानस्य न सम्यक् कुत्परीषडसहनं भवेत् भवतृणादिस्पर्शानधिसहमानानां तेषां महावीराणां सकललोकचम दुक्तन्यायन सर्वथा आहारपरित्यागत एव तत्सहनोपपत्तेः । स्कृतिकारिणां चिररात्रं कालं यावजीवमित्यर्थः । तदेव एवं च सति जगवानप्यहन क्षुत्परीषहजेता न भवेत् । सोऽपि विशेषतो दर्शयति-पूर्वा- प्रभानिरीयमाणानां संयमानुष्ठाने ग हि भगवान् ग्नस्थावस्थायां नवमतेनापि कल्पनीयमाहारमुउता, पूर्वस्य तु परिमाणं व सप्ततिः कोटिमकाः पमं वा श पक्के । न च स तथा कम्पनीयमाहारमुपज्जानोऽपि तकोटिसहस्रास्तथा प्रनूतानि वर्षाणि रीयमाणानां तत्र नाभेया क्षुत्परीषहजेता नेष्टः, ततो यथाऽनेषणीयाकल्पनीयभोजनप. दारभ्य शीतलं दशमतीर्थङ्करं यावत्पूर्वसंख्यासनावात् पूर्वाणी रित्यागतः कुत्परीषहसहनमिएं, तथा महामूल्यानेषणीयाकत्युक्तम् । तत प्रारभ्य श्रेयांसाहारज्य वर्षसंख्याप्रवृत्तेर्वर्षाणीत्यु स्पनीयवनपरित्यागत आचेवक्यपरीषहसहनमेव्यमान च क्तमिति । तथा ज्याणां नव्यानां मुक्तिगमनयोग्यानां पश्याव वाच्यम्-एवं तर्हि कमनीयकामिनीजनपरिनोगपरिहारतः काधारव, यत्नृणस्पर्शादिकं पूर्वमभिहितं,तदनिषोढव्यमिति सम्यक करणेन स्पर्शातिसहनं कृतमेतदवगच्छति । एतच्चापि सहमा क्षणविरूपवामनेत्रापरिभोगमपि कुर्वतः स्त्रीपरीषद सहनप्रनानां यत्स्यात्सदाह-(भागय इत्यादि) भागतं प्रज्ञानं पदार्थावि सङ्ग इति, स्त्रीपरिभोगस्यान्यत्र सर्वात्मना सूत्रान्तरेण प्रतिषिर्भावकं येषां ते तथा, तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परीषहातिसह कत्वातून चैवं परिजीर्णाल्पमूल्यवनपरिन्नोगः सूत्रान्तरण नेन च कृशा बाहवो भुजा भवन्ति। यदि वा सत्यपि महोपस प्रतिषिकः, ततो नातिप्रसङ्गावाप्तिः, कृतं प्रसङ्गेन । विस्तरेण तु परीषहादाववगतप्रज्ञानत्वाद्वाधाः पीमाः कृशा नवन्ति, कर्मक धर्मसंग्रहणीटीकायामपवादः प्रपश्चित इति तत पवाबधार्यः । पणायोत्यितस्य शरीरमानपीमाकारिणः परीषहोपसर्गान् सहा. पं० सं०४ द्वा। यानिति मन्यमानस्य न मनापामोत्पद्यत इति। तदुक्तम्-"नि- चेलिया-अचेमिका-स्त्री०। वस्त्ररहितायां खियाम, निम्रमाणेद परोब्बिय, अपाणओ नवियणं सरीराणं । भप्पाणोश्चि. न्थ्याऽचेलिकया न भवितव्यम् । वृ० ५ ० । य हियस्स, न उण दुक्खं परो वेत्ति" ॥१॥ इत्यादि । शरीरस्य तु पीमा नवत्येवेति दर्शयितुमाह-(पयांप इत्यादि) प्रतनुकेच, नो कप्प, निग्गंथीए अचेलियाए हुंतए । मांसंच शोणितंच मांसशोणिते, द्वे अपि। तस्य हिम्काहारत्वा- नो कल्प्यते निर्ग्रन्ध्या अचेलिकया वस्त्ररहितया जवितुमेषदल्पाहारत्वाच प्रायशः खलत्वेनैवाहारः परिणमति,नरसत्वेन सूत्रार्थः। कारणानावाश्च प्रतनुकं च शोणितं तत्तनुत्वात् मांसमपीति, अथ भाष्यम्ततो मेदोऽस्थ्यादीन्यपि । यदि वा प्रायशो रूकं वातनं भवति वुत्तो अचेन्नधम्मो, इति काइ अचेलगतणं ववमा । घातप्रधानस्य च प्रतनुतव मांसशोणितयोरचेलतया च तृणस्पदिप्रादुर्भावेन शरीरोपतापात्प्रतनुके मांसशोणिते भवत इति जिनकप्पो वजाणं, निवारिओ होइ एवं तु ॥ संबन्धः । तथा संसारभेणी संसारावतरणी रागद्वेषकापायसंत- अचेसको धर्मो भगवता प्रोक्त इति परिभाव्य काचिदतिस्तां कात्यादिना विश्रेणि कृत्वा तथा परिकात्वा च समत्वनाव- चेलकत्वं व्यवस्थेत कर्तुमनिलषेत्, अतस्तनिषेधार्थमिदं सूत्र नया। तद्यथा-जिनकस्पिकः कश्चिदेककस्पधारी द्वौत्रीन वा कृतम, अचेबकत्वप्रतिषेधेन आचार्याणां जिनकल्पोऽप्येवमविभर्ति, स्थविरकल्पिको वा मासार्दमासकपकस्तथा वि- नेनैव सूत्रेणैव निवारितो मन्तव्यः । कुत इत्याहकृष्टाविकृष्टतपश्चारी प्रत्यहं भोजी कूरगडको वा । पते सर्वेऽपि अजिअम्मि साहसम्मि, इत्थीण वए अचेलिया हो। तीर्थकवचनानुसारतः परस्परानिन्दया संस्तृणन्ति सम्यक्त्व. दर्शन इति । उक्तं च- " जो वि दुवत्थतिवत्थो, एगेण साइसमन्नं पि करे, तेणेव अइप्पसंगणं ॥ अचेलगो व संथरह । न हु ते होवेति परं, सब्बे विहुते जिणा कुलभाविताविणेच्छति, अचेलयं किमु सई कुले जाया। णाए"॥१॥तथा जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नो वा कश्चित्कदाचि धिकारदुकिाणं, तित्युच्छेओ दुलभावित्ती॥ त्वमपि मासानात्मकल्पेन निकांन सनेत तथाऽप्यसौ करगडुकमपि यथोदनमुएमस्त्वमित्येवं न होसयति तदेवं समत्वदृष्टिप्र. साभ्वसे भये तरुणादिकृतोपसर्गसमुत्थे अजिते सति अचे. या विश्रेणीकृत्यैष उक्तलक्वणो मुनिस्तीर्णः संसारसागरम,एष निका भवितुं स्त्री निर्घन्धी न शक्नुयात् । अथ जयति ततस्तेनैपव मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विरतःसर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो व्याख्यातो वातिप्रसङ्गनाचेलतालकणेनान्यदपि चतुर्थसेवादिकं साहसं नापर इति बवीमि। इतिशब्दः पूर्ववत् । प्राचा०१७०६०२७०। कुर्यात, तथा कुलटाऽपि तावद् नेच्चत्यचेलताकिं पुनः कुझे जाता अचेलपरि(री)महविजय-अचेलपरिरी)षहविजय-पुंग उत्तम सती साध्वी । अचेलता प्रतिपन्नानांचार्यिकाणां(धिक्कारकिआ. धृतिसंहननादिविकलानामिदानीन्तनसाधूनां तृणग्रहणानझसे. ण ति ) लोकापवादजुगुप्सिताना तीर्थोच्छेदः, दुर्लभा च वृत्तिवापरिहारतः संयमस्फीतिनिमित्तं स्खण्डितापमुख्यपरिजीर्णा भवति,न कोऽपि प्रवजति, न वा नक्तपानादिकं ददातीत्यर्थः ॥ सर्वजीर्णानि वस्त्राणि धारयतामाचेवक्यपरीषहसहने, पं० सं० गुरुगा अचेलिगाणं, समलं व दुगंबियं गरहियं च। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) अचेलिया भनिधानराजेन्षः। प्रचणा होइ परपत्थणिज्जा, विश्यं अकाणमाईसु ॥ अच्चंतभावसार-अत्यन्तजावसार-त्रि०। अतीव प्रशस्ताभ्यव. अत एव यथाथिका अचेमिका न भवन्ति, यतस्तासांचतुर्गुरुका | सायप्रधाने, पञ्चा० १४ विव० । आझादयश्च दोषागतथा चेलरहितां संयती समां मबदिग्धदेहां दृष्ट्वा लोको जुगुप्सितं जुगुप्सां कुर्यात् । श्राः कष्टमिहरोक एता-1 अचंतविमुक-अत्यन्तविश-त्रि०। सर्वथा निर्दोषे, स्था. दृश्यवस्था, परलोके तु पापतरा भविष्यति । गर्हितं च गहीं ए । “प्रच्चंतबिसुम्दीहरायकुलवंसप्पस्य " अत्यन्त प्रवचनस्य कुर्यात्-असारं सर्वमेतदर्शनमिति । अचेसिका च विशुरूः सर्वथा निर्दोषो दीर्घश्च पुरुषपरम्परापेक्षया यो राज्ञां परस्य प्रार्थनीया भवति । अत्र द्वितीयपदमावादिषु विविक्ता- भूपालानां कुललकणों वंशः सन्तानस्तत्र प्रसूतो जातो यः स ना मन्तव्यम् । अपि च तथा । स्था० ए ग०। पुणरावित्तिनिवारण-उदिप्यमोहो व ददु पेलेजा। अच्चंतसंकिलेस-अत्यन्तसंक्वेश-पुं० मतिनिविडतया राग:पडिबंधो समणाई, मिमियदोसा य नगिणाए । पपरिणामे, ध०१ अधि० । अचेसामार्या दृष्ट्वा प्रव्रज्याभिमुखानामपि कुलस्त्रीणां पुनराधतिनवति, प्रवज्यां न ग्रहीयरित्यर्थः । अन्यो बा कधिनिवार । | मच्चतमुपरिसुद्ध-अत्यन्तसुपरिश-त्रि० । भतिनिर्मसतरे, पं कुर्यात, किमेतासां कापालिनीनां समीपे प्रव्रजितेनेति । यहा पञ्चा० १४ विव०। कश्चिदुदीर्णमोहस्तामप्रावृतां ा कर्मगरुकतया प्रेरयेत, अच्चतमाह (ए)-अत्यन्तमुाखन् अच्चंतसुहि (ए)- अत्यन्तमुखिन्-त्रि० । निरतिशयसुखासापि तत्रैव प्रतिबन्धं कुर्यात्, प्रतिगमनादीनि वा विदयात् । अप्नुते, "तो हो अच्चंतसुही फयत्थो" उत्त० ३३ अ०। मिरिममदोषाश्च भवेयुः, यत एते नग्नाया दोषा अतोऽचेलया न भवितव्यम् । ब्तिीयपदे संयत्या अध्वनिस्तेनैर्विविक्तायास्ततो | अच्चंताजाव-अत्यन्तानाव-पुंगअत्यन्तोऽन्तमतिक्रान्तो नित्योsन किमपि वस्त्रं भवेत् । प्रादिशब्दात् क्षिप्तचित्ता यशाविष्टा वा भावः । क० स०। नास्तीति वाक्याभिलप्यमाने नाशप्रागभाववस्त्राणि परित्यजेत्, एवमचेबाप भवतीति। वृ०५ उ०नि०चू०। निने संसर्गाभावे, वाच । अत्यन्तानाधमुपादशान्त- कालअचोय-अचोदित--वि० । अप्रोरते, "वित्तो अचोयो णिचं, प्रयापेक्विणी तादात्यपरिणामनिवृत्तिगत्यन्ताभाव इति । अतीखिप्पं हवा सुचोए" उत्त०१०। तानागतवर्तमानरूपकासत्रयेऽपि याऽसौ तादात्म्यपरिणामअचोप्पमा-अचोपडा--स्त्री० । निस्तुपाख्ये प्रलेपकृते पेयद्रव्ये, निवृत्तिरकत्वपरिणतिव्यावृत्तिः सोऽत्यन्ताभावोऽभिधीयते । ध० ३ अधिक। निदर्शयन्ति-यथा चेतनाचेतनयोरिति, न खलु चेतनमात्मतअचोरिय--अचौर्य--10 । अव्या चोरताभावे, "अचारियं करें- स्वमचेतनपुफलात्मकतामचकलत्कलयति कलयिष्यति वा, तरीतं" अचौर्य कुर्वन्तं, चौरतामकुर्वाणमित्यर्थः। प्रश्न०२भाश्र द्वारा तन्यविरोधात नाप्यचेतनं पुलतत्त्वं, चेतनस्वरूपमचेतनत्वधिअच-अर्च-धा० पूजायाम, उभ०,वादि०,सक०, सेट् । अर्च- रोधात् । रत्ना० ३ परि० । ति, अर्चते, आनर्च, आनर्चे, आर्चीत, आर्चिष्ट । चुरा०, उन०, । अचंतिय-आत्यन्तिक-त्रिका प्रत्यन्त-भषार्थे उ अतिशयम सक०, सेट । अर्चयति, अर्चयते । चाचा " अधे मुत्तेमहाभागा, एति किंचण अच्चिमो” उत्त०१२ अ०। जाते, वाच । सर्वकालनाविनि, “गतणचंतिय ऊरए वं, अर्च-त्रि०ा अर्चति यःसः। अर्च-अच्। “कगचजतदपयां प्रायो वयंतिते दोवि गुणोदयम्मि" सूत्र-२ श्रु०६ असोऽत्यन्तिको लुक" ।। ७७ । श्त्यसंयुक्तस्यैव मुग्विधायकत्वेन न दुःखचिगमः सोऽपवर्गः। अत्यन्तं सकलपुःखशक्तिनिर्मूलनेन मुक । पूजके, प्रा० । कालविशेषात्मकनवभेदे च, यस्मिन् जवतीत्यात्यन्तिको पुःखविगमः । ध० १ अधि० । हि श्रमणो भगवान महावीरो निर्वृतः । कल्प। . अच्चतोसम्म-अत्यन्तावसन-पुं० अषसनेप्येष प्रघ्राजितेषु,संअर्य-त्रि०। पूज्ये, स्था० ३ म०१ उ० । विग्नैः प्रवाजितमात्रेम्वेवाबसन्नतया विहतेषु च । "अश्चंतोसमेअचग-अत्यग-10 भातशाायषु कारणषु, " वज्जणमणतगुः सुय, परलिंगफुगे य मूलकम्मे या भिक्खुम्मिय विहियतवोऽवरि, मच्चंगाणं च भोगो माणं"। अत्यनानीत्यतिशायीनि | णवढपारंचियं पत्तं ॥" जीत। जोगस्य कारणान्यवयवा मधुमद्यमांसादीनि रात्रिनोजतनक- वर-प्रत्यक्षर-बिलाएकादिभिरकरैरधिके,"अनत्यकचन्दनाङ्गनादीनि च । पश्चा०१विव०। रत्वं हि सूत्रगुणः " इत्ययं दोषः । अनु० । विशे०। प्राव० । अचंतकाल-अत्यन्तकाल-त्रि० । अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तः , त' प्रा० म० प्र० । प्रा० चू० । ध० । अत्यन्तः कालो यत्र सोऽत्यन्तकासः। असीमकालिके, "अच्चंत. कालस्स समूझयस्स , सर्वस्स मुक्खास्स उ जो पमोक्यो " | प्रचण-अचन-ना प्रचण-अर्चन-ना पुष्पादितिः सत्करणे, “अधणं सेषणं चेव, उत्त०३२ अ०। मणसा वि ण पत्थए "। उत्त० ३५ अ०। अचंतथावर-अत्यन्तस्थावर-पुं० स्त्री०। अनादिस्थावरे, “मह- अचणा-अर्चना-स्त्री० अंर्च-युन् । पूजायाम, वाच० "गन्धैदेवा अच्चंतथावरा सिका" मरुदेवा अत्यन्तस्थावरा प्रमादि- मौल्यैर्विनिर्यदहापरिमलैरवतेधूपदीपैः, सामाग्यः प्राज्यभेदैवनस्पतिराशेरुद्धत्य सिकाः । मा०म०वि०।। धरुनिरुपहतैः पाकनुतैः फलैश्च । अम्भःसम्पूर्णपात्रैरिति हि श्रच्चंतपरम-अत्यन्तपरम-त्रिका अधिकोत्कृष्टे, “श्रच्चंतपरमो जिनपतेरचनामष्टभेदां, कुर्वाणा वेश्मनाजः परमपदसुखस्तोमभासी, अउलो रूवविम्हिो " उत्त०२०१०। मारालनन्ते"॥१॥ ध० ३ अधिक। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) अच्चणिज्ज भभिधानराजेन्द्रः । अच्चिय अच्चणिज-अर्चनीय-त्रि० । अर्च-अनीयर् । चन्दनगन्धादितिः दीर्घत्वं च प्राकृतत्वात् । प्रमाणाधिकनोजने, स्था० १ ग01 सत्करणीये, “अच्चणिजे वंदणिजे कल्लाणं मंगल देवयं चेह- अचासम्प-प्रत्यासन्न-त्रिका प्रतिनिकटे, "णचासो णाश्दूरे सुयं।" औ०प० । जी०। भाज्ञा० । स्सूसमाणे" भ० १ २०१०ारा। सू०प्र०। अच्चणिश्रा-अर्चनिका-स्त्री० सिकायतने जिनप्रतिमाद्यर्चने, | अच्चासाइत्तए-प्रत्याशातयितुम-अध्यागयाया दंशयितुमिभ०४ श०१ उ०। त्यर्थे, "तं इच्गमि णं देवाणुप्पिया सकं देविदं सयमेव भच्चाअच्चत्य-प्रत्यर्थ-न०। अतिक्रान्तमर्थमनुरूपत्वरूपम् । प्राशि- साश्तए । ०३ श०१००। ये, तद्वति च त्रि०ा प्रत्यये, अव्य० स०अर्थाभावे, अव्य०स०। अच्चासाइय-प्रत्याशातित-त्रि०1 उपसमिते, “से य मच्चावाच० । " अंगारपलित्सककप्पप्रच्चन्थसीयवेयणा" प्रभ०| साश्य समाणे परिकुविए" स्था० १० ग०।। २आश्रद्वा०। मच्चासाएमाण-प्रत्याशातयत्-त्रि०। उपसर्ग कुर्वति, स्था० अच्चत्थत्त-अत्यर्थत्व-०। महार्थत्वाऽपरप-ये परिपुथा १०गा। जिधायिताम्पेऽष्टमे सत्यवचनातिशये, रा०। अच्चासायणा-प्रत्याशातना-स्त्री०1 साचादीनां जात्याधुदअञ्चय-अत्यय-पुं०। अति-गण-अच्। अतिक्रमे, अभावे, विना- | घाटनादिदीलारूपायाम, कर्म० १ ० । आत्यन्तिक्यामाशाशे, दोष, कृच्छ्रे, अतिक्रम्य गमने, कार्यस्याऽवश्यनावाभावे, तनायाम्, स्था०१० 101 वाच० । प्रत्यवाये, वृ० ३ उ० । प्रात्यन्तिके विनाशे च । जे जिक्खू नदंत! एणयरीए अच्चासायणाए अचावृ० ४२० साइए अच्चासाएंतं वा साइज्जइ ति । नि० चू०१० नम्। अचल्लीण-अत्यालीन-त्रि0अतीवात्यर्थमालीने प्रासमे, प्रा० | (अ० रा०२ जा० ४७८ पृष्ठे 'पासायणा' शब्द वदयते) अच्चसण-अत्यशन-न० । अतिशयितमशनम् । भतिभोजने, अच्चाहार-अत्याहार-पुं०।प्रभूताऽऽहारे, “अच्चाहारेण सवाच । प्रतिपदादीनां पञ्चदशदिवसानां (तिथीनां ) लोको- हइ अणिण विसया उज्जति"। श्राव० ४ अ०। तरसंशया द्वादशे दिवसे, पुं० । चं० प्र०१० पाहु। | अच्चि-अर्चि-स्त्री० अर्च-इन् । अर्चिष्-न । अर्च-इसि । अच्चा-अर्चा-स्त्री० अर्यतेऽसावाहारालङ्कारादिभिरित्यर्चा || वाच । किरणे, रा० । झा० । शरीरस्थरत्नादितेजोज्वालायाम् , देहे, प्राचा० १ श्रु०१ अ०६ २०॥ सूत्र०ा स्था०। “दुविहच्चा प- " अच्चीए तेएणं लेसाए दसदिसाए उज्जोएमाणे " न. झिमेयरसम्मिहितेतर अचित्तसञ्चित्ते" अची द्विविधा । तद्यथा- २०५ उ० प्रज्ञा० । जी० । उपा० ० । शरीरनिर्गततेजोसचित्ता अचित्ता च। तत्राचित्ता द्विविधा-प्रतिमा इतरा च । ज्वालायाम, स्था०८० लेश्यायाम. सूत्र०१ श्रु०१०१०। इतरानाम स्त्रीशरीरं निर्जीवम् । एकैकं पुनधिा -सन्निहिता,श्र दाह्यप्रतिबद्ध ज्वालाविशेषे, आचा०१ श्रु०१ १०४ ३०।का. सन्निहिता च । ज्य०६ उ० । “एगच्चाए पुण एगे भयंतारो स्था अनलविच्छिन्नायां ज्वालायाम, जी०३ प्रतिः। “एष भवंति" पके पुनरेकयाऽर्चयकेन शरीरेणैकस्माद् भवात् सि- बादरतेजसो भेदः" प्रका० १ पद । दश० । दीपशिखायाम, किंगति गन्तारो जवन्ति । सूत्र०२ श्रु०२०। क्रोधाभ्यवसा. उत्त० ३ ०। प्रथमकृष्णराजेरज्यन्तरपूर्वयोरवकाशान्तरे यात्मिकायां ज्वालायाम, आचा०१ ० ८ ०६ उ० स्थान। स्थिते लोकान्तिकविमाने, ज०६ श०५०। लेश्यायाम, "इओ विरूंसमाणस्स , कृणो संवाहिदल्लहा । अच्चिमालि (0) आर्चमोलिन्-त्रि० । अचीषि किरणाउल्लभाश्रो तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे" अर्चा लेश्याऽन्तः | स्तेषां माला, सा अस्यातीति अचिर्माली । सर्वतः किपरिणतिः, अर्चा मनुष्यशरीरम् । सूत्र.१ श्रु०१५ ० । रणमालापरिवृते, " अच्चिमालिभासरासिवन्नामे" (सौधपूजायां च, "मध्यान्हे ऽी सत्पात्र-दानपूर्वन्तु भोजनम् " मकल्पः) जी०४ प्रति । रा०प्रका० । आदित्ये, पुं० । सुत्र ध० ३ अधि। १ श्रु०६ 10 । स०। पूर्वयोः कृष्णराज्योरवकाशान्तरे (स्थिते) अच्चाइम-अत्याकर्णि-त्रि० । जनसंकुलत्वादतीवाकीणे., लोकान्तिकविमानन्नेदे, न० ६ श० ५०० । "अच्चाइमा वित्तो णो परस्स णिक्खमणपवेसाए" आचा० २ श्रु० ३ अ० १ उ०। अच्चिमालिप्पभ-अर्चिालिमन-त्रि० । अचिर्माली आदित्यअच्चानर-अत्यातुर-त्रि०ा नृशं म्याने, “ अच्चारं वा विस-| स्तद्वत्प्रभान्ति शोजन्ते यानि तानि अर्चिालिप्रभाणि सूर्यवत् किरणैः शोजमानेषु, स०। मिक्खिऊणं, सिप तो घेत्तु दलिनु तस्स" बृ० १०।। ञ्चिमालिणी-अचिर्मालिनी--स्त्री०। सूर्याचन्द्रमसोस्तृतीयाअच्चागाढ-अत्यागाढ-न। अत्यन्तम्लेच्छादिभये, "अच्चागाढे यामग्रमहिघ्याम् , न० १० श० ५ उ० । सू०प्र० । ज० । वसिया, णिक्खित्तो जब व होज्ज जयणाए" बृ.२ उ०। जी० । स्था। ( अनयोर्भवत्रयकथाऽत्रैव १७२ पृष्ठे 'अग्गअच्चावेढण-अत्यावेष्टन-ना अतीवाऽवेष्टनेन परितापने, नि०| महिसी' शब्द प्रोक्ता ) दक्विणपौरस्त्यरतिकरपर्वतस्य पयू० १२ १०। | श्चिमदिशि, शक्रस्य सेवानाम्न्यास्तृतीयाया अग्रमाहप्या लकअच्चासणया-अत्यासनता-स्त्री० । अत्यन्तं सततमासनमु- योजनप्रमाणायां राजधान्यां च । स्था० ४ ०१ उ०। पवेशनं यस्य सोऽत्यासनस्तद्भावस्तत्ता । सततमपवेशने, अच्चिय--अर्चित-त्रिका चन्दनादिना चचित, ज्ञा०१२०१ मा स्था०९ ठा। महाध्ये, वृ० ३ उ० । प्रमाणीकृते, नि० चू० २ उ० 1 मान्ये, अत्यशनता-स्त्रीला अतिमात्रमानमत्यशनं तदेवाऽत्यशनता। "जं जस्स अच्चियं तस्स पूणिजं तमस्सिया लिंगाना Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अच्चिय अंभिधानराजेन्द्रः। अच्छ वेतप्रत्यय इति चिन्त्यम, भावप्रत्यये सिङ्गविशेषणानुपपत्तेः। गेबामरायदुवो, वेरज्जविरुफरोहमदाणे । व्य० १० । “अर्चितं यत् तत् पूर्व निपतति। यथा-मातापितरौ, वासुदेवार्जुनाविति" नि० चू० १००। उवमुज्कावाणणिक्रवम-णुवएसकजसत्येसु विय ॥२०॥ अच्चिसहस्समाणिज-अर्चिःसहसमाननीय-त्रिका भर्चि- एतेहिं कारणेहिं, अच्चीकरणं तु होति कातन्वं । षां किरणानां सहस्रैर्माननीय परिवारणीयम् । का० १ ०। रायाराक्खियणागर-पोगमसव्वे वि एस गमा ॥ १ ।। रा० । मणिरत्नप्रभावामानां सहस्रैः परिवारणीये, किमुक्त । नि० चू० ५ उ०। भवति। एवं नाम अत्यन्तैमणिरत्नप्रभाजाराकलितमवभा | अच्चुक्कम-अत्युत्कट-त्रि०ा अत्यन्त उत्कटः। मत्यन्तोग्रे, वाचा ति, यथा-नूनमिदं न स्वानाविकं किन्तु विशिष्टविद्याशक्ति अन्युन्नते, प्रा० म०प्र। मत्पुरुषप्रपश्चप्रभावितमिति ।"अचिसहस्समालणिजं स्वगसहस्सकलिय भिसमाणं भिभिंसमाणं चक्षुहोयणलेस्सं " अच्चुग्गकम्म-अत्युग्रकर्मन्-नाकर्कशवेदनीये कर्मणि, प्रव० प्रा०म० प्र०ारा। जी। २२४ द्वा०। अच्चिसहस्समाला-अचिःसहस्त्रमाला-स्त्री०। दीप्तिसहस्राणा अच्चुग्गकम्ममहण-अत्युग्रकर्मदहन-त्रिका प्रत्युग्रं कर्कशवेद नीयं यत्कर्म तस्य दहनोऽपनायकः। कर्कशवेदनीयस्य कर्मणोमावलीषु, ज०१० २०५२० । उपनायके, “संकेपान्निरपेक्वाणां, यतीनां धर्म ईरितः । मत्युअञ्चिमहस्समालिणीया-अर्चिःमहस्नमालिनका-सोनामाचा प्रकर्मदहनो, गहनोप्रविहारतः" ॥१॥ध०४ अधि०। सहस्रमाला दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति यस्यां सा तथा । अच्चुचिय-अत्युचित-त्रिका लोकानामतिश्लाघनाये, "गर्भयोगेस्वार्थिककप्रत्यये च अर्चिःसहनमालिनिका।दीप्तिसहस्रपरिवारात अयोध्यमिता फ्रिया" दादा ।। तायाम, न०१० श०५०। अच्चीकरण-अर्चीकरण-ना अकर्तव्या अर्चा अनर्चा, अनचाया-| अचट्टिय-अत्युत्थित-त्रि० । अतीवाकार्यकरणं प्रत्युस्थिते, सीकरणमर्चीकरणम् । अनूततद्भावे चिः । राजादीनां "दासीन्येनाऽत्यन्तमुस्थिता" इति ।दास्या अपि दास्याम, स्त्री गुणवर्णन, नि चू० ४ ० । "अच्चुहियाए घम्दासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिम्गि" सूत्र० १७० १४ अ०। । जे जिक्खू रायरक्खियं अच्चीकरे अच्चीकरतं अच्चुण्ड-प्रत्युषाग-वि०। अतीवोष्ण उष्णधर्मो यत्र सोऽत्युवा साइज जे भिक्खू णगररक्खियं अच्चीकरे अच्छी पणः। श्रतिशयितोष्णस्वभावे, स्था०५ ग० ३ १०।। करतं वा साइजइ ।। जे भिक्खू णिगमरक्खियं अच्चीकरे | अच्चदय-अत्यदक-न०। महामहति वर्षे, “सभए वा सत्ताणं, अच्चीकरतं वा साइज । जे भिक्खू सव्वारक्खियं - अच्चुदय सुक्खतरण वाणे" प्रोगप्रतजले,जी०३ प्रति च्चीकरे अच्चीकरतं वा साइज।६।(नि० चू०) जे भिक्खू अच्चुय-अच्चुत-पुं०। सौधर्मावतंसकादिसकअविमानप्रधानागापर क्खियं अञ्चीकरेइ अच्चीकरतं वा साइज्ज। जे भि- | च्युतावतंसकानिधानविमानविशेषोपलविते हादशे देवलोके, . क्व देमरक्खियं अच्चीकरे। अच्चीकरतं वा साइज्जइ । जे | अनु० । दर्श० । निचू० । प्रवास०। श्रारणाच्युतयोरेका दशद्वादशयोः कल्पयोरिन्द्र च । स्था०२० ३००। भिक्खू सीमरविखयं अच्चीकरे अच्चीकरतं वा साज्जा। अच्चुया-अच्युता-स्त्री० । श्रीपप्रजस्य शासनदेव्याम् , सा जे निवस्व रमो रक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरतं वा सा च मतान्तरेण श्यामा ( नाम्नी) देवी श्यामवर्णा नरवाहना इज्ज जे जिक्खू रनोरक्खियं अत्यीकरेइ अत्यीकरतं वा चतरंजा वरदवाणान्वितदक्विणकरद्वया कार्मुकाजययुतवामपासाज्जा । नि० चू०५ उ०। णिद्वया च । श्रीकुन्धोः शासनदेव्यां च, सा च मतान्तरण अच्चीकरणं रम्लो, गुणवयणं तं समासओ दुविधं । बलानिधाना कनकच्चविर्मयूरवाहना चतुर्तुजा बीजपूरकशमा न्वितदविणपाणिवया भुशुएिकपचान्वितवामपाणिघ्या च । संतमसंतं च तड़ा, पञ्चक्खपरोक्खमेकेकं ।। १५॥ प्रव०२७ द्वा० । रमो अच्चीकरणं किं गुणवपवणं सौन्दर्यादितं दुविधं संतं अच्चम्चाय-अत्यात-त्रि०। अतीवोद्वातः परिधान्तः । तृश असंतं च पक्केक पच्चक्खं परोक्खं । भान्ते, "अच्चवाया वसुर्वेत्ति" वृ०३० । नि००। एत्तो एगतरेणं, अच्चीकरणेण जो तु रायाणं । अच्चुसिण-अत्युष्ण-त्रिका अतीव तप्तेश्रोदनादिके, "अच्चुअच्चीकरेति भिक्खू, सो पावति प्राणमादीणि ॥१६॥ सिणं सप्पेण वा जाव फुमाहि वा" प्राचा० २७०१ ०७७०। श्म गुणवयणं अच्छ-पास-धा० उपवशने । अदादि०, प्रा०, अक०, सेट् । एकत्तो हिमवंतो, अस्मतमो साझवाहणो राया। प्राकृते "गमिध्यमासाः "८।४। १४ । इति प्राकृतसूत्रेण समभारतरोकंता, तेण ण वस्हत्थए पुहरे ॥ १७ ॥ अन्त्यस्य सः। अच्चक, प्रास्ते। प्रा०।"अच्चति अवलोएति य गया रायसुद्दी वा, रायामित्ता अमित्तमुहिणो वा । लहुगा"। अच्चतित्ति) प्रतीकते। व्य०१3०1"अच्छेज बाचि ज्ज वा" आसीत सामान्यतः। तं० । भ०ा अधिपूर्वः अधिरोहणे, भिकास व संबंधी, मबंधे सही तवं सोच्चा ॥ १८ ॥ सक० । गगनमध्यमध्यास्ते, वाच । संजमविग्यकरे वा, मरी रवाधाकरे व निक्खुस्स । अच्च-अव्य०। न उयति इटिं, सम्मुखत्वात् । छो-क । न०. अणुनोमे पडिलोमे, कुज्जा दुविधे व नवसग्गो ॥१६॥ अभिमखे, "अच्च गत्यर्थवदेषु" वा६९ । इति पाणिनिसूत्रे Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छ अगत्य त्युदाहत्य, अनिमुसंगत्या अभिमुखम् कत्वेति व्याकृतम् । सि० कौ० त० स० । अच्छ-त्रि० । न यति दृष्टिम् । बोक । न० त० । भाकाशस्फटिक रत्नवंइतिस्वच्छे, प्रज्ञा० २ पद। जी० । श्रा० म०प्र० । भ० । औ० । स्था० रा० । जं०। निर्मले, ज्ञा० १ ० १२ श्र० । पञ्चा० ॥ भ० । अनाविले, जी० ३ प्रति० । स्फटिकवद्वहिर्निर्मलप्रदेशे, जी०३ प्रति०। " श्रच्छा सरहा बडा नीरया पिंका" मेरो पुं० । सुनिर्मलजाम्बूनदरत्नबहुलत्वात्तस्य " ता अच्छंसि णं पवयंसि" चं० प्र०५ पाहुन सू० प्र० जी० । श्रार्यदेशभेदे, स्फटिके च । पुं० प्र० २७८ द्वा०रान च्छति भक्षयति नाशितसत्वम् । गभणे—क | न० त० । वाच० । ऋके, आचा० २ श्रु० १ ० ५ उ० । प्रति० जी० । प्रज्ञा० । प्र० । पष सनखपदभेदः । प्रज्ञा० १ पद । अप्स - त्रि० श्रपः सनोति । सन-मा प्राकृते "हस्वात् ध्यश्चसप्सामनिश्चले ८ । २ । २१ । इति प्लभागस्य चकुः । प्रा० । विशेषगुणीभूते रसे वाच० । अच्छे-देशीय दे० ना० १ वर्ग । अच्छंद -अच्छन्द- त्रि० । नास्ति बन्दो यस्याः । अस्ववशे । " अ च्छंदा जे ए जंति ण से चाइति वुच्चई " दश० २ अ० । श्र भिप्रायशुन्ये च । वाच० । अच्छंदग-अच्छन्दक - पुं० । मोराकप्रामसन्निवेशस्ये पाखमिनि, "मोरार सकारं सको अदि कुवियो " ० ० (स प्रदिप मोराके समन्धतो लोकपूजितस्तत्र समागतस्तत्र समागतस्य श्रीवीरस्य पुरतः सिकार्थव्यन्तरेणाऽच्छेद्यमिदमिति प्र तिज्ञाय गृहीतं तृणं छिन्दन् शक्रेण वज्रं प्रविप्य विन्नदशाङ्गुलीतो जनैरुपहसित इति 'वीर' शब्दे वदयते ) भा० चू० । आ० म० द्वि० । अच्छा आसन न० अवस्थाने, ग०२ अधि० । झा० पर्युपासने, बृ०३ ४० प्रतिश्रवणे, "अच्छण अवलोगणे वा" व्य०१ उ० । कुण सायाम, दश०म० । अच्छणघरग-आसनगृहक-न० श्रवस्थानगृहकेषु येषु यदा तदा यागाय बहवः सुखा सिकयाभ्यतिन्ते। जी०३प्रति० ॥ जं० अच्छणजोष-अक्षणयोग हारे, "तेसिं । जोयणं णिच्चं होयग्वं" तेषां पृथिव्यादीनामक्षणयोगेनाहिंसाव्यापारेण नित्यं भवितव्यम् । दश० ० ० । अच्छाणत्थ- श्रच्छन्नस्थ - त्रि० । अच्छन्नप्रदेशे स्थिते, वृ०३ उ० । (द) ताच्छादित त्रिनिमजे, "संणद्भवका 33 छतित व्व प्रश्न० ४ संव० द्वा० । अच्छत्तय अच्छत्रक नि० उत्ररहिते, वीरमदापद्मयो - ( १९६) अभिधानराजेन्द्रः । को धर्मो मतः अनंतवणे श्रच्छत्तवप अणुवा हप" स्था०ए० अच्छवच्छद्र - पुं० स्वच्छोदके, पं० ० २ द्वा० । अच्छी-अच्छी-त्रि०६० मिली, विष्णुः - - 61 प्रातः नरया साक्षादस्वी" मा० क० अच्छभल्ल अच्छन - पुं० ऋके, व्य० १० ० । व्याघ्रविशेषे च । प्रश्न० १ आश्र० द्वा० । अच्छमाण आसीन शि० तिष्ठति, " सुचिरम पं०च० ३ द्वा० | झा० । अच्छरगण संघसं विल-अप्सरोगणसंपविकि प्सरोगणानां संघः समुदायस्तेन सम्यक् रमणीयतया विकीणी व्याप्ता अप्सरागेणसंघसंविण अप्सरोधपरिते "म चरणसंघसंविकिष्ठा दिव्वतुमियमधुरसद्द संपश्या " । जी० ३ प्रति०। प्रज्ञा० रा० । 66 अच्छरस- अच्छरस - त्रि०। अच्छो रसो येषां ते अच्छरसाः। प्रत्यासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधार जुते ययाऽति निर्मषु जी०३प्रति०। i .अच्छरसा - अप्सरस्- स्त्री० 1 ब० व० अदूभ्यः सरन्ति उ च्छन्ति । सृ असन् । अप्सरसः हस्वात् थ्यञ्चत्सप्सामनिश्चले " । २ । २१ । इति सूत्रेण प्राकृते 'प्स' भागस्य ' च्छ ' आदेशः । प्रा० । “श्रायुरप्सरसोर्वा" । १ । २० । इति सूत्रेण च श्रन्त्यव्यञ्जनस्य वा सः। प्रा० । देवीमात्रे, रूपेण देवीकल्पायां स्त्रियां णंदवणविवरचारिणीश्रो अठरा उतर कुरुमाणसी पेशियाओ तिथि पनिओवमाइं परमाउं पालयिता ताम्रो वि उवणमंति मरणधम्मं” प्रश्न०४ आश्रo द्वा० औ०। (आसां वर्णकम् 'उत्तरकुरु' शब्द वक्ष्यामः) अच्छरसाकुल- अच्छरसतपटुल १० अच्छी रसो ते प्रस्ताः प्रत्यासन्नवस्तु प्रतिविम्वाधार निर्म र्थः । अच्छरसाश्च ते तरकुला अच्छरसतएमुबाः । पूर्वपदस्य तेषु दिव्यकुलेषु रा० । “अच्छेदि परिणामपरि असदुद अमंगळे आलिहइ" रा० जी० आ० म०प्र० । अच्छरा अप्सरा- श्री शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्व पा मग्रमहिष्याम, स्था०८ ग० भ० | ती० । ( तस्याः पूर्वा परभवकथा एतस्मिमेव नागे ९०३ पृष्ठे 'असामहिस' शब्देऽदर्शि अच्छराशिवाय अप्सरोनिपात-पुंकियां, सरकरण अच्छा काले च । यावता कालेन चप्युटिका क्रियते तावान् कालोऽप्यप्सरोनिपातशब्देन चीयते "रानवा " असुपरियाणं यमागच्छे " जी० ३ प्रति । सूप्र० प्र० । अच्छवि-अच्छवि- ० ० ० योगनिरोधेनाविद्यमानशरीरे स्नातकाव्यनियमे अत्र चत्वारोऽनुवादार्थाः अन्य थक' इत्येके । वियोगाच्छविः शरीरं तद्योगनिरोधेन यस्य नात्यसैौ ' अच्छविक' इत्यन्ये । कृपा सच्छेदो व्यापारस्तस्या अस्तित्वात् धापी' इत्यन्घातिक यक्षपणानन्तरं वा तत्कपणाभावादकपीत्युच्यते । भ० २५ श० ६ ० । अच्छविकर-अकृषिकर पुं० न कृषिः सपरयोरायासो यः स तत्करणशीलो न भवति सोऽकपिकरः ज० २५ ० ७ ० । व्यथाविशेषस्याऽकारके प्रशस्तमनोविनयले स्था अच्छ विमलसलिल पुणच्छविमलसलिलपूर्ण त्रि० च्छेन स्वरूपतः स्फटिकवच्छुद्धेन विमलेन |गन्तुकमलरहितेन सलिलेन एफ टेक कल्पस्वच्छ निर्मज्ञराज अच्छा-अच्छा श्री० वरुणदेशप्रतिबद्धे पुराने आदेश नायां वरुणा अच्छा। वरुणा नगरी, अच्छा देशः । अन्ये तु वरुणादेशः, अच्छा पुरीत्याहुः । प्रव २७५ द्वा० | सूत्र० । मात्र पो जलानि सति ददाति सजिल दातरि, वाच० । - Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९७) भनिधानराजन्यः। प्रच्छिज्ज अचादणा अचादणा-आच्छादना-खीला स्थगने,"संतस्स अच्छायणाए तभेदा:भग्गस्स"। व्य०३० अघोज पि यतिविह, प य सामी य तेणए चेव । अच्चि-अति-न०। प्रश्न विषयान् । अश्-क्सि । “गेऽक्या अच्छेज परिकुटुं, समणाण न कप्पए घेत्तुं ॥ दो" ८।२।२१७ । इति सूत्रेण संयुक्तस्य क्षभागस्य सः। प्रा० । आद्यमपि प्रागुक्तशब्दार्थ त्रिविधं त्रिप्रकारमा तद्यथा-प्रभा "द्वितीयतुर्ययोरुपरिपूर्वः"11शा ति द्वितीयस्योपरि प्रविषय प्रनुरूपकाश्रितमित्यर्थः । एवं स्वामिनि स्वामि-' प्रथमः । प्रा० । लोचने, तं। दशा । "वाऽक्ष्यर्थवचनायाः" विषय, स्तनकविषयं च । पतञ्च त्रिविधमप्याचे तीर्थकरग८1१।३३ इति वा पुंस्त्वम्"अज्ज वि सासते अच्छी नचावि णधरैःप्रतिकुष्ट निराकृतमतःश्रमणानां तत्सद् गृहीतुं न कल्पते । भारतणम्ह अच्छाई"प्रजल्यादिपागदकिशब्दःखालिङ्गेऽपि। तत्र प्रथमतः प्रविषयं भावयतिप्रा।"पसा अच्छी उपा०२०।। भक्ष्णोऽप्राप्यकारिस्थम गोवालए य जयए-ऽखरए पुत्ते य धूय सुएहाए । 'इंदिय' शम्दे द्वि०भा० ५५७ पृष्ठे कष्टव्यम् ) अचियत्तसंखमाई, केइ पनस्सं जहा गोवो । अच्छायणा-याच्छादना-स्त्री० । स्थगने, ( 'अच्छादणा' प्रनुकर्तृकमाच्छे गोपालके गोपालविषयं, तथा भृतकः कर्म. शब्दसमानार्थः) करस्तहिषयम् । अक्करकोछकरको धक्करकानिधानो दास इ. त्यर्थः, तद्विषयम् । पुत्रविषयं, दुहितृविषयं, स्नुषाविषयम् । उपअ (प्रा)उिदण-आच्छेदन-नाएकवारमीपद वादने, लक्षणमेतद् भार्यादिविषयं च । अत्रैव दोषमाह-अचियत्ते. "एक्कसि ईषद् वा प्राचिदण" नि० चू० ३ १०। "पायपु- त्यादि) अचियत्तमप्रीतिः, संख कलहः, प्रादिशब्दादाग्णमादिइवा" प्राचिनत्ति बलादुद्दालयतीति। स्था०५ ० त्मपोतादिपरिग्रहः । केचित् पुनः प्रद्वेषमपि साधी गच्चन्ति । १०"मागिदिहि त्ति-ईषच्छेत्स्यतीति। भ०१५ श०१००। यथा-गोपो गोपालकः। अ (आ) छिदित्ता (य)-प्राच्छिद्य-अन्य० । श्रा एतमेव दृष्टान्तं गाथाद्वयनाहनिद-ल्यप् । हस्ताऽदालनेनापहृत्येत्यर्थे, उपा०७०।" अधि गोवपयं अच्छेत्तुं, दिन्नं तु जइस्स भइ दिणे पहुणा । दिय ज भिश्वसामिमादीण" पञ्चा० १३ विव० । आचा। पयजा गुणं दढे, खिंसह नोई रुखे चेमा । पमियरण पोसे , जावं ना जइस्स पालावो । अ (आ)च्छिदमाण-आच्छिन्दत-त्रि०। ईषत्सकद् था। निन्दति ( "सत्यजाए णं आदिमाणे"न श० ३००। तभिव्यंधा गहियं, हंदि उ मुक्कोसि मा वीयं ॥ अच्छिक-देशी-अस्पृहे, “अच्चिकोवहिपेहे" व्य० १००। वसन्तपुरं नगरम् । तत्र जिनदासोनामश्रावकः। तस्य भार्या रु. क्मिणी । जिनदासस्य गृहे वत्सराजो नाम गोपालः। स चाअच्चिचमढण-अक्षिचमढन-न० । चक्षुषोर्मलने, वृ०२ उ एमेऽष्टमे दिने सर्वासामपि गोमहिषीणां मुग्धमादत्ते , तथैव अधिज्ज-अच्छेद्य--न । न० तात्तुमशक्ये, (स्था) तस्य प्रथमतो धृतत्वात । अन्यदा च साधुसंघाटको भिक्षाय तओ अच्छेज्ना पाणत्ता । तं जहा-समए पएसे परमाणु । तत्रागमत् । इतश्च तस्मिन् दिने गोपालस्य सर्वपुग्धादानवा. एवमलेन्जाअमज्का अगिज्मा अणद्धा अमज्जा अपएसा रकः, ततस्तेन सर्वा अपि गोमहिष्यो पुग्वा महती पारिर्दु ग्धेनाऽऽपूर्णा । जिनदासश्च जिनवचननावितान्तःकरणतया तो अविभाइमा । साधुसघाटक परमपात्रभूतमायातमवलोक्य भक्तितो यथेच्च छेसमशक्या बुद्ध्या रिकादिशस्त्रेण घेत्यच्छेद्या , अच्छे- भक्तपानादिकं तस्मै दत्तवान् । ततो मुग्धान्तानि नोजनानीति चत्वे समयादित्वायोगादिति । समयः कालविशेषः , परिजाव्य प्रक्तितरलितमनस्कतया गोपालस्य दुग्धं बसेनाहि. प्रदेशो धर्माधर्माकाशजीवपुगलानां निरवयवोऽशः पर- ध कतिपयं ददौ । ततः स गोपालो मनसि साधोरुपरि मनाक माणुरस्कन्धः पुफल इति । नक्तं च-"सत्येप सुतिक्खेण वि, प्रद्वेषं ययौ, परं प्रनुभयात् नकिमपिछक्तुं शक्तः। ततस्तत्पयोनाच्छे भेनुं च ज किरन सक्कं । तं परमाणु सिका, वयंति आई जनं कतिपयन्यून स्वगृहे नीतवान् । तच तथाभूतं न्यूनमवसोपमाणाणं"॥१॥ एवमिति। पूर्वसूत्राभिसापसूचनार्थ ति, अभेद्याः क्य भार्या सरोष पृष्टपती-किमिति न्यूनमिदं पयोभाजनमिति। सूच्यादिना, अदाह्या अग्निकारादिना, अग्राह्या हस्तादिना, न ततो गोपेन यथाबस्थिते कथिते सापिसाधूनाकोएं प्रावर्तत। विद्यते अर्दै येषामित्यनर्धाः,विनागच्याजावात,अमरूपा विभा. चेटरूपाणि च पुग्धं स्तोकमवलोक्य किमस्माकं नविष्यतीगत्रयाभावात् । अत पवाह--अप्रदेशा निरवयवाः, अत एवा- ति रोदितुं प्रवृत्तानि। तत इत्थं सकलमपि स्वकुटुम्बमाकुलमवे. विभाज्या विजक्तमशक्या अथवा विभागेन निर्वृत्ता बिनागि- त्य स गोपः संजातसाधुविषयमहाकोपः साधून व्यापादयितुं मास्तनिषेधादविभागिमाः। स्था० ३ग०२१०। "सोगे अच्चि-चलितवान् । इष्टश्च निवार्थ परिभ्रमन् कापि प्रदेश साधुः। ततः जभेजो" वेधः शमादिना, तनिषेधादच्छेपः। व्यपरमाणी, प्रधावितो लकुटमुत्पाट्य साधो पृष्ठतः । साधुरपि कथमपि भ.२०श० ६ उ० । पश्चादवलोकन तं गोपंतथाभृतं कोपारुणनयममालोक्य परिभा. आच्छेद्य-न। प्राच्छिद्यते अनिष्यतोऽपि भृतकपुत्रादेः सका वयामास-नूनमतस्य पुग्धं घनादाधि जिमदासेम मा नंद, शात् साधुदानाय परिगृह्यते यत्तदाच्छेद्यम् । पिं०1"अच्छेज तेन मारणार्थमव कुपित एष समागच्छन्नुपत्रक्ष्यते । ततः साधु. वा निंदिय, जे सामी भिश्चमाईणं " | आद्यं चाऽऽच्या- विशेषतः प्रसन्नवदनो नत्वा तस्यैव संमुखं प्रत्यागन्तुं प्रवतस्यः पुनर्दोषः। आच्चिद्यापहृत्य यद् भक्तादिकं स्वामी प्रभुः ते स्म ।बभाण च-यथा भो जोः कीरगृहनियुक्तक ! तव भृत्यादीनां कर्मकरादीनां सत्कं ददाति तादति । पञ्चा० १४ प्रनिर्बन्धेन मया तदानीं दुग्धमा गृहीतम् , संप्रति तु विव० । चतुर्दशोद्गमदोषदुष्टे, तदभेदोपचारात चतुर्दशे गृहाण स्वमात्मीयं दुग्धमिति । एवं चोक्ते सत्युपशान्तकोपः उद्गमदोषे च । ग० १ अधिः। साधु प्रति स्वस्वभावं प्रकटितवान्-यथा भोः साधो ! Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१ ) अच्चिज्ज अभिधानराजेन्जः । अच्छिज्ज सुविहित! तव मारणार्थमहामिदानीमागतः, परं संप्रति त्वद्वच- परिजोगहानिः कृता भवति । तथा इत्थं साधूनामाददानानां नामृतपरिषेकत उपशशाम मे सर्वोऽपि कोपानलः। ततो गृहाण स्तेनाहृतं भवति, दीयमानवस्तुनायकेनाननुज्ञातत्वात् । तथा त्वमेवेदं पुग्धम, मुक्तश्चाकृतप्रापणो मया, परंभूयोऽप्यवमाच्चे. येषां संबन्धि स्वामिना बनादाच्चिद्य दीयते ते कदाचित प्रद्धिद्यं न ग्रहीतव्यमिति निवृत्तो गोपः स्वस्थानं च गतःसाधुरिति । टाः सन्तोऽपि तस्यैकस्य साधोक्तपानव्यवच्छेदं कुर्वन्ति, सूत्रं सुगम, नवरं (पयन्ना णूणं ति) विघ्नक्तिलोपात् पयोजाज- यथा-अनेन संप्रति बलादस्माकं भक्तादि गृहीतं ततः कालान्तनं न्यूनं दृष्ट्वा ( भोई इति) भोग्या जार्या इत्यर्थः (रुवेत्ति) रेऽप्यस्मै न किमपि दातव्यमस्मानिरिति । अथवा सामान्यतः रुदन्ति । हंदीत्यामन्त्रणे। तनिबन्धात तदीयजिनदासाख्यप्र. प्रद्वेषमुपयान्ति, यथा-अनेन संयतेन बलादस्माकं भक्तादि गृह्यनिबन्धाद् गृहीतम् । ततः प्रत्याह-मुक्तोऽसि संप्रति माहितीयं ते तस्मात् कालान्तरे न कस्मायपि संयताय दातव्यमित्यनेकवारमेवं गृहीथाः। साधूनां भक्तादिव्यचच्छेदः । तथा ते रुष्टाः सन्तो यः पूर्वमुपासंप्रति गोपालविषय एघ 'अचियत्तसंखडाइ' इत्येतद्या- श्रयो दत्तः तस्मानिष्काशयन्ति । श्रादिशब्दात् स्वरपरुषाणि चिख्यासुराह भाषन्ते इति परिगृह्यते । तथा तस्योपाश्रयस्याऽलाभे यत्किमनानिबिटुं लब्जय, दासी विन तुज्जए रिते जत्ता । पि कष्टं प्राप्नुवन्ति तदप्याच्छेद्यादाननिमित्तमिति दोषः। दोन्नेगयर पोसं, जे काही अंतराय च ।। संप्रति स्तेनाच्छेद्यं जावयतिप्रचणा बलादाविद्यमाने दुग्धे कोऽपि गोपो रुष्टः प्रभोः तेणा व संजयट्ठा, कलुणाणं अप्पणो व अढाए । समुखमेवमपि ब्रुवाणः संभाव्यते । यथा-किमिति मदीयं दुग्धं तेय पोसं जं वा, न कप्पई कप्प गुन्नायं ।। बलादागृह्णासि न खस्यनिर्विष्टमनुपातिमिह किमपि सत्यते, इह स्तेना अपि केचित् संयतान् प्रति नद्रका जयन्ति । संततो मया स्वशरीरायासबलेनेदं दुग्धमुपार्जितम, अतः कथमत्र यता अपि क्वापि दरिसार्थेन सह व्रजन्ति । ततस्तान् जिप्रभवसि ?। न हि दास्यपि, आस्तामुत्तमवेश्यादिकमित्यपिश कावेलायां निकामप्राप्नुवतो दृष्ट्वा संयतार्थाय संयतानामर्थाय, ब्दार्थः । नक्तमृते नक्तदानमृते भरणपोषणमृत इत्यर्थः। नुज्यते यद्वा-वस्थात्मनोऽर्थाय तेषां करुणानां कृपणस्थानानां दरिकभोक्तुं लज्यते। ततो मदीयं जोजनमिदमतो न ते तत्र प्रचत्वा सार्थमानुषाणां सकाशादाच्छिद्य यद्ददति स्तेनास्ततस्तेनाच्छेवकाशः । एवं चोक्ते सति कदाचित् द्वयोरपि प्रजुगोपालकयोः | धं घटव्यम्। तच्च साधूनां न कल्पते, यतस्तस्मिन् गृह्यमाणे येषां परस्परमेकस्य द्वितीयस्योपरि प्रद्वेषो वर्तते । प्रद्वेषे प्रवर्धमाने संबन्धि तद् द्रव्यं ते पूर्वोक्तप्रकारेण एकानेकसाधूनां नक्तव्ययत् करिष्यति धनहरणमारणादिक तत्स्वयमेव आच्छेद्यादाने वच्छेदं कुर्वन्ति । यद्वा-प्रद्वेषं रोषमुपयान्ति । तथा च सति सादोषत्वेन विज्ञेयम् । तथा यश्चान्तराय गोपालकस्य तत्कुटुम्बस्य | निष्काशनम, कालान्तरेऽपि तेषां पार्श्व उपाश्रयाप्रतिसम्भ च, तदपि दोषत्वेन विकेयमिति । तदेवं 'गोवालए' इत्यादि इत्यादयो दोषाः।यदि पुनस्तेऽपि सार्थिका वक्ष्यमाणप्रकारणाव्याख्यातम् । पतदनुसारेण च नृतकादावपि यथायोगमप्री-| नुजानते तर्हि कल्पते।। त्यादिकं संभावनीयमिति ।। एतदेव गाथाद्वयेन स्पष्टं भावयति____ संप्रति स्वामिविषयमाच्छेद्यं विनावयिषुराह संजयभद्दा तेणा, आयंते वा असंथरे जणं । सामी चारजमा वा, संजय दट्टण तेसि अट्ठाए । जइ देंति न घेत्तव्वं, निच्चुभ वोच्छेउ मा होज्जा ॥ कलुणाणं अच्छेज्जं, साहरण न कप्पए घेत्तुं ।। घयसत्तु यदिढतो, समणुनाया व घेत्तुणं पच्छा। वह स्वगृहमात्रनायकः प्रभुः, ग्रामादिनायकः स्वामी । चारजटा वा स्वामिनटावा, तेऽपि स्वामिग्रहणेन गृह्यन्ते । संयता देंति ज गतेसि वि य, समगुन्नाया य मुंजति ॥ न दृणा तेषां संयतानामर्थाय करुणानां कृपास्थानानां दरिद्र- इह स्तेना अपि केचित संयतभका जवन्ति , साधवश्व ककौटुम्बिकादीनां संबध्याच्चिय यद्ददाति तत्साधूनां न कल्पते । दाचित् दरिषसार्थेन सह क्वापि व्रजन्ति । ततस्तेषां साधूनां एतदेव व्यकं भावयात भिवावेलायामसंस्तरे अनिर्वाहे ते स्तेनाः स्वग्रामाभिमुखं प्रआहारोवहिमाई, जइ अट्टाए उ के अजिज्जे । त्यागच्छन्तः, वाशब्दात् स्वग्रामादन्यत्र गच्छन्तो वा, यदि तेसंखमिअसंखडीए, तं गेएहते इमे दोसा॥ षां दरिसार्थमानुपाणां बलादाच्चिद्य भक्तादि प्रयच्छन्ति, यदि कोऽपि स्वामी जटो वा यतीनामर्थाय केषांचित्संचन्धि तर्दिन ग्राह्य, यद् मा भूत निकोजः सार्थानाम् . पकानेक साधूनां तेन्यो भक्तादिव्यवच्छेदो था । यदि पुनस्तेऽपि सार्थिआहारोपध्यादिकं संखड्या कलहकरणेन,असंखड्या अकलहजावेनाकोऽपि हि तत्संबन्धिनि बलादाविद्यमाने कलदं करोति, काः स्तेनैर्बलाद्वाध्यमाना एवं ब्रुवते-यथाऽस्माकमिह घृतशक्तुकोऽपि स्वामिभयादिना न किमपि वक्ति । तत उक्तं संखड्या दृष्टान्त उपातिष्ठत । धृतं हि सक्तुमध्ये प्रक्प् िविशिष्टसंयोगाय जायते, एवमस्माकमप्यवश्यं चौरैर्गृहीतव्यम्, ततो यदि चौरा असंखड्या वेति । बलादाच्छिद्य यतिज्यो यद् ददाति तद्यतीनां अपि युष्मन्यं दापयन्ति ततो महानस्माकं समाधिरिति । तत न कल्पते । यतस्तद्गृह्यतामिमे दोषाः। तानेवाह एवं सार्थिकैरनुज्ञाताः साधवो दीयमानं गृहन्ति । पश्चाश्चौरव पगतेषु नूयोऽपि तद् व्यं गृहीतं ते समर्पयन्ति । तदानीं अचियत्तमंतरायं, तेनाह एगणेगवोच्छेत्रो। चौरप्रतिभयादस्माभिर्गृहीतं संप्रति ते गतास्तत एतदात्मीयं द्रनिच्चरणाई दोसा, तस्स असंने यजं पावे ॥ व्यं यूयं गृथि इति । एवं चोक्ते सति याद तेपि समनुजानते। येषां सत्कमाच्छिद्य बलात् स्वामिना दीयते तेषामचियत्त- यथा-युप्मन्यमेतदस्माभिर्दत्तमिति तर्हि तुञ्जते, कल्पनीयत्वामप्रीतिरूपं जायते । तथा तेषाम् ( अंतरायं) दीयमानवस्तु- दिति । अनेन कप्प गुन्नायमित्यवयवो व्याख्यातः। पि० । निo Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१ ) अच्छिज्ज अन्निधानराजेन्जः। अर चू०। आच्छेद्ये प्रायश्चित्तम्-'अच्छिज्जे अणिसि य चउसहूं'पं० | अच्छिद्दपमिणवागरण-अच्छिद्रप्रश्नव्याकरण-पुं० अन्छिद्राचू। सर्वस्मिन्नासेये प्राचामाम्लम् । जीता दशा०॥ध० । प्र एयविरलानि निर्दूषणानि वा प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा । भ० । दर्श०। बृ०। पं0 101 व्या पंचा० । स्था० । सूत्र० । अत्त०। आचा०। (अाच्छेद्याहारग्रहणनिषेधः 'एसणा' शब्दे, आच्छेद्य अविरलप्रश्नोत्तरेषु, निर्दुष्टप्रश्नोत्तरेषु च । भ०२श०५००। पात्रग्रहणनिषेधः 'पत्त' शब्द, प्राद्यवसतौ स्थाननिषेधो अच्छिद्दविमलदसण-अच्चिाविमलदशन-पुंस्त्री०। अच्छि'वसइ'शब्दे अष्टव्यः) द्रा विमला दशना यासां तास्तथा । अविरलस्वच्छरदनाअच्छि जंती-आखिद्यमाना-स्त्री० । तुम्बबीणादिवादनप्रकारेण याम, जे०१ वक्त। वाद्यमानायाम्, "तुम्नकाणं तुंबवीणाणं वाजंताणं"प्राव०१०। अच्छिपत्त-अतिपत्र-न०। अक्षिपदमणि, भ०१४ श०८ उ० । अच्चिगणमीलिय-अधिनिमीलित-न० । अक्किनिकोचे, जी०३] अच्छिवेहग-अक्षिवेधक-पुं० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त) प्रति०। ३६ अ० । जीवा०। अच्छिणिमीलियमेत्त-अक्षिनिमीलितमात्र-न। अक्षिनिको-| अतिमल-अक्षिमत-पुंग दूषिकादौ, तं०। नेत्रमले,"अच्छिचकालमात्रे, "अच्छिणिमीलियमेतं, णत्थि सुहे दुक्खमेव अणुबद्धं । णरए गरयाणं, अहोणिसं पच्चमाणाणं" ॥१॥ | च्छिरोग्य-अतिरोडक-पुं० । चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्स. जी० ३ प्रति। ३६ अ० जी०। अच्छिम्म-अचिन-त्रि०। छिद-कर्मणि क्त। अपृथग्भूते, स्था० अनिल-अकिल-पुण चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० ३६ अ०। १०म०। अस्खलिते, अनवरते च । पं०व०१द्वा०। (छि- अळिवडयां देशी-निमीलने, देना०१ वर्ग। नमच्छिन्नं चेत्यौदेशिकस्य भेदद्वयं कृत्वाच्छिन्नस्य व्याख्या-1 नम् 'उदेसिअ' शब्दे द्विाना०८१६ पृष्ठे अष्टव्यम् ) अच्छिविप्राचि-देशी-परस्परमाकर्षणे, दे० मा०५ वर्ग। आच्छिन्न-त्रि० । श्रा-छिद्-क्त । बलेन गृहीते, सम्यक् अच्छिवेयणा-अक्षिवेदना-स्त्री० । ७त । लोचनयोःखाछिन्ने च । वाच । प्रतिनियतकालविवक्षारहिते. वृ० १ उ० । नुभवने, उत्त०२ अ०"षोमशानांरोगानांद्वादशोऽयम्" उपायअचिपच्छेदणय-अनिच्छेदनय-पुं०। सूत्रमच्छिन्नं छेदेने ४ अ०। झा। च्छति। नयभेदे, यथा 'धम्मो मंगलमुक्कि' इति श्लोकोऽर्थतो अचिहरुद्वो-देशी-द्वेष्ये, वेषे च । दे० ना.१ वर्ग । द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणः । स०२२ सम० । अच्छी-अच्छी-खी । अच्छनामकदेशोदनवायां खियाम, अच्छिप्पच्छेदणइय-अच्चिनच्छेदनयिक-नाच्छिन्नच्छे- प्रशा० ११ पद । दनयवति सूत्रे, " अच्छिमच्छेयणइयाई श्राजीवियसुत्तपरि-| अच्चुय-अप्सुज-त्रि०ा अप्सु जले तद्हेतौ अन्तरिके वा जायवाडीए" स०२२ सम०। ते। जन-ड, अलुक स०। जलजाते, वाच । अचित्तिणय-अच्छित्तिनय-पुं० । नित्यवादिनि व्यास्तिके, आस्तृत-त्रि-आच्गदिते, झा० १ १० ८ ०। विशे। प्रव० । अच्युरण-आस्तरण-न०। प्रस्तरणे, नि० चू०१५ उ०। दाषाअच्छिह-अधिष-त्रि०ान छिद्रं तत्तत्कार्येषु प्रमादादिना| | ननादिभये, यद भूमावास्तीर्यते प्रलम्बादिवितरणाय वा यत्तस्खलन रन्ध्र वा यत्र । प्रमादादिना स्खलनरहिते, "अच्छिद्रं दास्तरणम्। एतत्प्रायश्चर्ममयं जवति। साधूनामौपग्रहिकोपधाच भवत्वेत-त्सर्वेषां च शिवाय नः" रन्ध्ररहिते, वाचा -| वन्तर्भवति । ०३ उ०। विरले, जं० २ वक्ष० " गोशालस्य मङ्खलिपुत्रस्य षमा अररिय-श्रावरित-ना -बुर-क्ता सशब्दहास,नखादिकचराणां चतुर्थे दिक्चरे, पुं० भ०१५ श०१०। घाते, नखवाद्ये च । आस्तीणे, वृ०१ उ० । अच्छिद्दजाब-अच्चिद्रजाल-न । अविवरे, यत्किश्चिदवस्तु अच्चुल्लूट-अच्छोन्लूढ-त्रि० । स्वस्थानं त्याजिते, २०१००। समूहे, प्रश्न०४ आश्र द्वा० । अच्छेज-अच्छेद्य-न। छेत्तुमशक्ये, स्था० ३ ० २२० । अच्छिद्दजालपाणि-अच्छिमजालपाणि-पुं० अच्छिद्रजालौ अच्छेद-अच्छेद-न०। “जम्हा तु अब्वोचित्ती,सो कुणतीणाविवत्तिताङ्गल्यन्तरालसमूहरहितौ पाणी हस्तौ यस्य स तथा। अविवराडलिसमुदयवदहस्तके, “अच्छिद्दजालपाणी पीव णचरणमादीण । तम्हा खलु अच्छेद,गुणप्पसिद्धं दवति णाम" रकोमलवरांगुली" इति करयोः सुलक्षणम् | औ० । प्रश्न । ॥१७ ॥ गौणानुझायाम, पं० भा०। भच्छिद्दपत्त-अच्छिद्रपत्र-त्रिशच्छिद्राणि पत्राणि यस्य सः। अच्छेर (ग)-आश्चर्य-नाया विस्मयतश्चर्य्यन्तेश्वगम्यन्ते बीरन्ध्रपणे, मा०१४०१ अगौला "प्रच्छिदपत्सा अविरल- इत्याश्चर्याणि । आ-चर-यत् ; सकारः कारस्करादित्वात । पत्ता प्रवाईणपत्ता अणईइपत्ता णिकुयजरढयंपत्ता" (इति स्थामा प्राकृते “हस्वात् थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले" |२|२१॥ पत्नवर्णनाद् वृक्षवर्णकः) अच्छिद्राणि पत्राणि येषां ते अच्छि- इति श्वभागस्य ग, तुकच प्रा०ागेत्तरस्याऽकारस्य वा पत्वउपत्राः। किमुक्तं भवति। न तेषं पत्रेषु वातदोषतः कालदोष- म । तत "आश्चर्य" ।। ६६ । ति पतःपरस्यर्यस्य रस, तो वा गडरिकादिरीतिरुपजायते, येन तेषु पत्रेषु छिद्राण्यभ- अच्चरं । एत्वान्नावे "अतो रिआररिज्जरीअं" ॥८।६७॥ इति विष्यन्, इत्यच्छिद्रपत्राः । अथवा एवं नामान्योन्यशाखाप्र अकारात् परस्य यस्य रिअर रिजरीभश्त्येत आदेशाः भि. शास्त्रानुप्रवेशात्पत्राणि पत्राणामुपरि जातानि येन मनागप्य च्चरिअं, अच्छअरं, अच्चरिजं, अचरीप्रा०। अनुतेषु, "रि. पान्तरालरूपं छिषं नोपलक्ष्यत इति । तथा चाह-"अविरल- कत्थामयसमिकं, भारदवासं जिणिदकालम्मि । बहुप्रच्छरय पत्ता ति"रा। जी। अं०। पुण्णं,उसनामोजाव वीरजिणो" || दससु विवासे सेवं, दस Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) अच्छेर अनिधानराजेन्द्रः। अच्चर दस अच्छेरगाइ जाया। उस्सप्पिणिए एवं , तित्पुम्गाली | पुण्यानुभावाद्राज्यं प्राप्तम, ततो हरिवर्षजातहरिनाम्नः पुरुषायो भणियाई" ॥१॥ ति॥ वंशः स तथेति ॥ ७ ॥ तथा चमरस्यासुरकुमारराजस्योत्पतदस अच्छेरगा परमत्ता । तं जहा-" नवमग्ग गब्भहरणं, नमूर्ध्वगमनं चमरोत्पातः, सोऽप्याकस्मिकन्वादाश्चर्यमिति । इत्यो तित्यं अभाविया परिसा। कएहस्स अवरकंका, श्रूयते हि-चमरचञ्चाराजधानीनिवासी चमरेन्द्रोऽभिनवोत्पन्नः सन्नमवधिनाऽऽयोकयामास । ततः स्वशीर्षोपरि सौधर्मव्यवउत्तरणं चंदमुराणं ॥१॥ हरिवंसकुशुप्पत्ती, चमरुप्पात्रो स्थितशक्रं ददर्श । ततो मत्सरामातः शऋतिरस्काराहितमतिय अट्ठसय सिका। अस्संजएमु पूया, दस वि अणंतण रिहागत्य जगवन्तं महावीरं उमस्थावस्थमेकरात्रिकी प्रतिमा कालेणं" ॥३॥ प्रतिपन्नं सुसुमारनगरोद्यानवतिनं सबहुमानं प्रणम्य जगवस्त्वउपसृज्यते तिप्यते च्याव्यते प्राणी धर्मादरित्युपसर्गाः, देवादि त्पादपङ्कजवनं मे शरणमरिपराजितस्येति विकल्पविरचितघोकृतोपवाः। तेच भगवतो महावीरस्य उद्मस्थकाले केवलिका ररूपो लकयोजनमानशरीर: परिघरत्नप्रहरणं परितो म्रामयन् ले च नरामरतियकृता अनूवन् । इदं च किम न कदाचित गर्जनास्फाटयन् देवांस्त्रासयन्नुत्पपात। सौधर्मावतंसकविमान वेदिकायां पादन्यासं कृत्वा शक्रमाक्रोशयामास । शक्रोऽपि पूर्वम् । तीर्थकरा हि अनुत्तरपुण्यसंभारतया नोपसर्गभाजनम, कोपाज्जाज्वल्यमानस्फारस्फुलिङ्गशतसमाकुवं कुलिशं तं प्रति अपि तु सकननरामरतिरश्चां सत्कारादिस्थानमेवेत्यनन्तकाल मुमोच । स च जयात्प्रतिनिवर्त्य भगवत्पादौ शरणं प्रपेदे । शभाव्ययमयों लोक ऽद्भुतोऽनूद इति ।श तथा गर्भस्य उदरसत्वस्य कोऽप्यवधिज्ञानावगततव्यतिकरस्तीर्थकराशातनाभयाच्चीघ्रहरणमुदरान्तरसंक्रामणं गर्नहरणम्। एतदपि तीर्थकरापेकयाऽ. मागत्य वज्रमुपसंजहार । बभाण च-मक्तोऽस्यहो! नगवतः नूतपूर्व सद्भगवतो महावीरस्य जातमा पुरन्द्रादिष्टेन हरिनगमे प्रसादान्नास्ति मत्तस्ते जयमिति ॥ ८ ॥ तथाटाभिरधिकं विदेवेन देवानन्दाभिधानब्राह्मण्युदरात्रिशलाऽभिधानाया राज शतम प्रशतम, अष्टशतं च ते सिका निर्वृत्ता अष्टशतपल्या उदरसंक्रामणात्ाएतदप्यनन्तकासनावित्वादाश्चर्यमेवेति२ तथा स्त्री योषित. तस्यास्तीर्थकरत्वेनोत्पन्नायास्तीथ द्वादशाङ्गं, सिद्धाः । इदमयनन्तकालजातमित्याश्चर्यमिति तथा असं यता असंयमवन्त प्रारम्भपरिग्रहप्रसक्ना अब्रह्मचारिणसहो वा, स्त्रीतीर्थ हि पुरुषसिंहाःपुरुषवरगन्धहस्तिनलिनुवनेऽप्यव्याहतप्रजुन्नावाःप्रवर्तयन्ति । इह त्ववसर्पिण्यां मिथिला स्नेषु पूजा सत्कारोऽसंयतपूजा।सर्वदा हि किल संयता एव नगरीपतेः कुम्भकमहाराजस्य दुहिता मवधानिधाना एकोनविं पूजार्हाः, अस्यां त्ववसर्पिण्यां विपरीतं जातमित्याश्चर्यम् ।१०। शतितमतीर्थकरस्थानोत्पन्ना तीर्थ प्रवर्तितवतीत्यनन्तकालजा श्रत पवाह दशाप्येतानि अनन्तेनं कालेनानन्तकालात्संवृत्तातत्वादस्य नावस्याश्चर्यतेति । ३ । तथा अजव्या अयोग्या चा न्यस्यामवसर्पिण्यामिति । स्था० १० ठा। रित्रधर्मस्य, पर्षत् तीर्थङ्करसमवसरणश्रोतृलोकः । श्रयते हि- से भयवं!अस्थि केई जेण मिणमो परमगुरूणंपि अलंघभगवतो वर्द्धमानस्य जृम्जिकग्रामनगराद बहिरुत्पन्नकेवलस्य णिजं परमप्तरणफुमं पयमं पयडपयर्ड परमकवाणं कसितदनन्तरमिसितचतुर्विधदेवनिकायविरचितसमवसरणस्य न णकमट्ठदुक्खनिट्ठवणं पवयणं अश्क्कमेज वा पइक्कमेज वा क्तिकुतूहलाकृष्टसमायातानेकनरामरविशिष्टतिरश्चां स्वस्वनाषानुसारिणाऽतिमनोहारिणा महाध्वनिना कल्पपरिपालनयव खंडेज्ज वा विराहिज्ज वा आसाइज वा से मणसा वा व. धर्मकया बभूव, यतोन केनापि तत्र विरतिःप्रतिपन्ना, न चैतत् यसा वा कायसा वा जाव णं वयसि गोयमाणं तेणं कातीर्थकृतः कस्यापि भूतपूर्वमितीदमाश्चर्यमिति ॥ ४ ॥ तथा लेणं पखित्तमाणे ण सयं दस अच्छरगे जविसु । तत्य एं कृष्णस्य नवमवासुदेवस्य 'अपरकङ्का' राजधानी गतिविषया असंखेजे अभब्वे असंखेज्जे मिच्छादिहे असंखेज्जे सासाजातत्यप्यजातपूर्वत्वादाश्चर्यम् । श्रूयते हि-पाएमवभार्या बौपदी धातकीखएमन्नरतकेत्रापरकङ्काराजधानीनिवासिना पद्म यणदवसिंगं मासीय सदृत्ताए। मंभेणं सक्कारिज्ज ते ए. राजन देवसामध्येंनापहृता । द्वारावतीवास्तव्यश्च कृष्णो वासु त्थए धम्मे गत्ति काऊणं बहवे अदिट्ठकल्लाणे जाणं पवयदेवो नारदादुपलब्धतहातिकरः समाराधितसुस्थिताभिधानस- णमन्भुवगमंति । तत्युवगमियं रसोलुत्ताए विसयलोलुत्तावणसमुद्राधिपतिदेवः पञ्चनिःपाएमवैः सह द्वियोजनलक्कप्रमा- ए इंतियदोसेणं अणुदियेहिं जहडियं मग्गं निट्ठवंण जलधिमतिक्रम्य पद्मराजं रणविमर्दन विजित्य द्रौपदीमानीतवान् । तत्र च कपिलवासुदेवो मुनिसुव्रतजिनात् कृष्णवासु ति । नम्मग्गं च ऊसप्पियंति सच्चे तेणं काले णं इस देवागमनवातामुपलज्य सबहुमान कृष्णदर्शनार्थमागतः। कृष्ण परमगुरूणं पिअलंवणिज पवयणं जाव णं भासायंति। श्च तदा समुद्रमुल्लङ्घयति स्म। ततस्तेन पाश्चजन्यः पूरितः। से भयवं! कयरेणं तेणं काले एं दस अच्छेरगेजविस । गोकृष्णेनापि तथैव ततः परस्परं शङ्खशब्दश्रवणमजायतेति ॥५॥ यमाणं इमे तेणं कालेणं दस अच्छेरगे जवति । तं जहातथा भगवतो महावीरस्यवन्दनार्थमवतरणमाकाशात्समवसर तित्ययराणं उवसग्गा,गन्जसंकमणे,वामा तित्थयरे, तित्थणभूम्यां चन्द्रसूर्ययोः शाश्वतविमानोपेतयोर्बभूव । इदमप्याश्चयमेवेति ॥ ६॥ तथा हरेः पुरुषविशेषस्य वंशः पुत्रपौत्रादिपर यरस्स णं देसणाए अभन्नसमुदाए णं परिसा, वंदियसविम्परा हरिवंशस्तवकणं यत् कुलम् । तस्योत्पत्तिकुलं घनकेधा, माणाणं चंदाइच्चाणं तित्ययरसमवसरणे, आगमणं वाततो हरिवंशन विशेष्यते । एतदप्याश्चर्यमेवेति । श्रूयते हि-भर सुदेवाणं, संखेज्जणीए अनयरेणं वा रायकउहेणं परोतकेत्रापेक्वया यततृतीय हरिवर्षाख्यं मिथुनककेत्र, ततः केनापि | प्परमेलावगो । इह इंतु भारहे खेत्ते हरिवंसकुटुप्पत्तीए, व्यन्तरसुरण मिथुनकमेकं जरतकेत्रेक्किप्तम् , तब चमरुप्पाए एगसमए णं अहसयासिफिगमणं, असंजयाणं Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) श्रच्चेर अभिधानराजेन्द्रः। अजससयविसप्पमाणहियय पूया कारगे ति। महा०५ अ कल्प० । प्रव० । पं० कारणि, " अजयणकारिस्सेब, कजे परदव्वादिंगकारिस्स" व० । धम्मो णाम सत्यवाहो, तस्मय वे अच्छेरगाणि अजयणं जो करेत्ति सो भणत्ति अजयणकारी "णिक्कारणप मिसवी, अजयणकारी व कारणे साह" नि००१ उ० । चउसमुद्दसारनूया मुत्तावली, धृया । आ० म० द्वि०।। अच्छेरपेच्चणिज्ज-आश्चर्य्यप्रेक्षणीय-त्रिका अहो! किमिद- | अजयणा-अयतना-स्त्री०। यतनाऽनाये र्याद्यशाधने, “अजमिति कौतुकेन सौष्ठवाइर्शनीये, जी०२ प्रतिः। यणाए पकुव्वंति, पाहुणगाणं अवच्चला" ग०३ अधिः । अजयदेव-अजयदेव- पुंदाउलताबादनामका म्लेच्चनगरादाअखेरवंत-आश्चर्यवत-त्रि०। चमत्कारवति, " वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ” अष्ट० ४ अष्ट। गच्छतां जिनप्रभसूरीणां जट्टारके राज ति प्रतिष्ठितनामदातरि त्रयोदशशतनवाशीतितमवर्षकालिके नरेश्वरजेदे, ती०४६कल्प। अच्छोमण-प्रास्फोटन-न । श्रा-स्फुद-ल्युट्-पृ० । अगुलिमोटने, वाचण वस्त्राणां रजकैरिव शिलायामास्फालने, पिं० अजयभाव-अयतनाव-त्रि०। ६ ब० । असंयताध्यवसाय, "परस्स तं देह सबग्गे होश् अहिगरणमजयनावस्स" अयअच्छोमणं-देशी-मृगयायाम् , दे० ना० १ वर्ग। तभावस्य प्रयतोऽशुद्धाहारापरिहारकत्वन जीवरक्वणरहितो अलोदग-अच्छोदक-न। स्वच्छपानीये, रा। भावोऽध्यवसायो यस्य स तथा । पि० । अच्छोदगपमिहत्य-अच्छोदकमतिहस्त-त्रि० स्वच्छपानीय- अजयसेवि ( ण् )-अयतसे चिन्-त्रिका अयतनया प्रतिसेवके, परिपूर्णे, " ताउ णं पाइयो अच्छोदगपडिहत्थानो" रा० " बोयं गमियंमि य अजयसेविम्मि" व्य० १३० । अजंगम-अजङ्गम-त्रि०ा गमनशक्तिविकले, व्य० १ उ०। ज-| अजर-अजर-पुं० । नास्ति जरा यस्य । देवे, जराशन्ये, त्रि० । डावलपरिहीने, “बुद्धो खलु समधिगतो, अजंगमो सो य | वाच । “नम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगया " सिजंगमविसेसो" व्य०८ उ०। का अजराः, वयसोजावात् । औ० नास्ति जराऽस्याः, घृतअजजर-अजर्जर-त्रि०। जरारहिते, जी०३ प्रतिः। । कुमारीवृक्के, तस्य जराऽभावात्तत्वम् ! वाच०। वृछदारकवृक्ष, अजणियकलिया-अजनिकन्यिका-स्त्री० । केनचिदजनि- पुं०। गृहगोधिकायाम, स्त्रीशन विद्यते जरा यस्य तदजरम। आ० म०प्र०। तस्य प्रवज्यायाम, "उद्दायणसंबोही, पउमावती देवसराहत्ति; बच्च अणुबंधी मणको; कन्नाए अंजणिो तु केणइ वि अजरामर-अजरायर-ना जरा वयोहानिः, मरणं मरः, स्वरापुत्तो जाय त्ति; जो तूसो होति अजणियकन्नी तु णिवति- | -स्तत्वादचूप्रत्ययः। न विद्यते जरामरी यत्र तदजरामरम् । मोक्के. सुतात्ति दोन्नि वि निक्खंता तु भातुभमा। अन्नदारायसुश्रो विश० । जं० । तं0 । ६ ब० वार्धक्यमृत्युरहिते, त्रि) “अहोयतु णिसाए लोयप्पणो कुणति गइहामि पभाते चलणाहो कातुं राओं परितप्पमाणे, अहे सुमूढ अजरामरे ब्व" अजरामरवकालपमियरत्तीपोग्गलभेदागमण | अहणिवतिपसु बालेसु वी. द्वानः, क्लिश्यते धनकाम्यया" सूत्र०१ श्रु०१० मा "रणस्थि कोश सरिया, ते तस्स य सिरोरुहा तमि नेत्र ठाणंमि। तत्थ य पव- जगम्मि अजरामरो " । महा० ७ ० । मम्मणाख्ये चणित्तिणीए य अहागता गार्म गंतुमणा। अह तीए रायपुहिया न वं. ग्भेदे, पुं०। (तत्कथा 'मम्मण' शब्दे अष्टव्या) दितुंसपदेसे । श्रह तम्मि उवचिटणवरितीए पमोत्तुगंसह समो. अनस-अयशम्-नाविरोधे, न००। अश्लाघायाम, असदवृत्तगा तजाए सह स घेत्तुं तेसिं रज्जे सुक्कपोग्गलाएहे तुज्झम्मि तया निन्दायाम् , सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ग० । सर्वदिम्गामिन्याः प्र. सनिवेसे । अह सुकं जोणिमोगाढंतो गम्भो आनूतो । अद पोट्टे सिद्धरभावे, जर एश० ३३ ज० अपराक्रमकृते, न्यूनत्वे च । वंदिउं पयत्तं च सुणिया य सुविहिया हि पुछा वेती तु न वि "इहेध धम्मो अजसो अकित्ती " | दश०१चूलि० । अवर्णजाणे अतिसयणाणी थेरा य पुच्चित्ता तेहिं सिट्ठा जहाबुत्तं होही जुगप्पहाणो रक्खहणं अप्पमादेणं ज म सस्कुलेसु संव बादलाषायाम, नि० चू० ११ 30। ठितो गोत्तणामकतकेसीए । सा तु अजणकमी पवजा होति अजसकारग-अयशःकारक-त्रि० । सर्वदिग्गामिन्याः प्रसिके णायव्या" पं० भा०। पं० चू। प्रतिषेधके, भ० ए श०३३ न०। अजमेरु-अजमेरु-पुंग प्रियग्रन्थसूरिप्रतिष्ठाधिष्ठानसुभटपालनू. अजस कित्तिणाम-अयश-कीर्तिनामन्-न० । नामकर्मनेदे, यपालपालितहर्षपुरनिकटस्थे 'अजमेर' श्तीदार्नी प्रसिके नगर- दयाद्यशःकीती न भवतस्तदयश-कीर्तिनाम । कर्म०१ कम। जेदे, कल्प० । यऽदयवशान्मध्यस्थजनस्याप्यप्रशस्यो भवति तदयश-कीर्ति. अजय-भयत-पुंगगन विद्यते यतं यतिर्यस्येति सर्वसावधविर- नाम! कर्म०६कर्म०। प्रव० श्रा०। तिहीने, कर्म० ४ कर्म । गृहस्थकल्ये साधी, ग० १ अधि० । अजसजणग-अयशोजनक-त्रि०ा निन्दनीयतादिकारके, ग०२ अविरतसम्यग्दृष्टी, कल्पल। कर्मा द०। अयत्नवति च, ओ। अधिः । यतनाऽभावे, नं0 1 " अजय चरमाणो य प्राण नूया हिंस" अजसवहल-अयशोवहन-त्रि। अयशोऽश्लाघाऽसवृत्ततया प्रयतमनुपदेशं न सूत्रायेति क्रियाविशेषणमेतत् , चरन् निन्दा तबहुलः, यानि यानि परापकारभूतानि कर्मानुष्ठागच्छन् । दश०४० । नानि विधत्ते तेषु तेषु कर्मसु करचरणच्छेदनादिषु अयशोअजयचउ-अयतचतुर-पु० अविरतसम्यग्दृष्टिनोपाक्तेिषु श्र-| जाजि, “णियडिबहुले साइबहुले अजसबहुले, उस्सम्मतसविरतसम्यम्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणेषु चतर्ष तृतीयादि- पाणघाती" सूत्र०२ श्रु०२ अ० । गुणस्थानवसिषु, “ मिच्च अजयचउपाऊ" कर्म० ५ कर्म । अजससयविमपमाणहियय-अयशःशतविसपेरुदय-त्रि० । अजयणकारि (ण)-अयतनकारिन्-पुंश्रयतनया कार्य: । न यशःशतानि अयशःशतानि, तेषु विसर्पद् विस्तारं गच्छद् ain Education International Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अजससयविसप्पमाहियय अभिधानराजेन्द्रः+ प्रजिअसेण हृदयं मानसं यस्य स तथा, प्रसूताश्लाघाविस्तृतमनस्के, “अ. शत्रावेव। तथा च 'गौणे कर्मणि उह्यादेः' इत्युक्तेः, गौणकर्मण जससयविसप्पमाणहिययाणं कश्यवपात्तीणं" (स्त्रीणां) तं०। पवानिधाननियमात् तस्यैव जयकर्मतायां तेनाऽभिधातुं योग्यअजस्स-अजस्त्र-नान००। जस्-र अनवरते, "अामरणंतम- त्वम्, न च नास्त्येषामजितो देश इत्यादी गौणकर्मणोऽविधत. जस्सं, संजमपरिपालणं विहिणा" पश्चा०८ विवात्रिका यैव जयप्राप्तदेशादौ जितशब्दप्रयोगात् ततो नसमास बावस्थायिनि वस्तुमात्रे, त्रि०। वाच । इति नेदः । रागादिभिर्जितत्वाभावात् शिवे, विष्णौ, बुद्ध च । अजहम्पकोस-अजघन्योत्कृष्ट-त्रि०ा न जघन्योत्कृष्टा स्थितिर्यस्य वाच । परीषदादिभिरनिर्जितो गर्नस्थे भगवति जननीते सा, एवं स्थितिशब्दसोपात्तथा । मध्यमायां स्थिती वर्तमाने, राज्ञा नजित इत्यजितः। ध०२अधि।अवसर्पिण्याद्वितीये तीर्थकप्रा०म०क्षिा रे, “अक्खेसु जेण अजिया, जणणी अजितो जिणे तम्हा" अके. अजहाकोसपएसिय-अजघन्योत्कर्षपदेशिक-पुं० । जघन्या षु अकविषयेण कारणेन भगवतो जननी अजिता गर्नस्थे भगश्रोकर्षाश्च जघन्योत्कर्षाः, न तथा ये तेऽजघन्योत्कर्षाः, मध्यमा वत्यभूत्तस्मादजितो जिनः । अत्र वृद्धसंप्रदाय:- "जगवतो - म्मापियरो जूयं रमंति, पढमं राया जिणिया इतो जाहे भयवं इत्यर्थः, ते प्रदेशाः सन्ति येषां ते अजघन्योत्कर्षप्रदेशिकाम पायाश्रोताहे देवी जिणाइन्नोराया ततोश्रक्वेसुकुमारप्रभावात ध्यमप्रदेशनिष्पन्नषु, स्था०१०१ उ० । देवी अजिय त्ति, अजिनो से नाम कयं" श्राम द्वि० प्रा० अजहत्थ-अययार्य-न0 । पनाशादावयथावदर्थ के नामभेदे, चू०। ध० स० कल्प० । (अन्तरायुरादिकमस्य 'तित्थयर' शब्द स्था०१ ग०१०। वक्ष्यते ) भाविनि द्वितीये बलदेवे, ती० २१ कल्प० । श्रीसुविअजाइय-अयाचित-त्रि० । अयाप्रया सम्धे, अदत्तादाने च ।। धिजिनस्य यके च। स च श्वेतवर्णः कर्मवाहनश्चतु“जो मातु"मुसावायं बहिच , उग्गाहं च अजाश्यं । सत्था दाणाइ सो-। लिङ्गाक्षसूत्रयुक्तदक्विणपाणिद्वयो मकुमकुन्तकलितवामपाणिगंसि, तं विज्जं परिजाणिया" ॥१॥ अयाचितमित्यननादत्तादानं द्वयश्च । प्रव०२७ द्वा०॥ गृहीतम् । सूत्र १ श्रु० अ० अजिअदेव-अजितदेव-पुंगमुनिचन्द्रसूरः शिध्ये, विजयसिंहस्य अजाणंत-अजानत्-अजानान-त्रि० । अनवबुध्यमाने, “अ- गुरौ, "जातौ तस्य (गुरुचन्द्रस्य ) विनयौ, सूरियशोभद्रनेमिजाणंता मुसंबदे" मूत्र.१ श्रु०१०३०। कल्पाऽकल्पम चन्डाहौ। ताज्यां मुनीन्छचन्छः श्रीमुनिचन्डो गुरुः समजानति अगीतार्थ, पुं०1 वृ० ३ उ० । नूत् ॥ १ ॥ श्रीअजितदेवसूरिः प्राच्यस्तस्माद नूव शिष्यअजाणाय-अऊ-त्रि०। न जानाति । प्रा-काम० त० स्वल्प. वरः । वादीति देवमूरिद्वितीयशिष्यस्तदीयोऽभूत् ॥॥ झाने, प्राचा० १ श्रु०६ अ० २० । " एवं विप्पमिवनगे, तत्राऽऽदिमाद् बभासे गुरुर्विजयसिंह इति मुनिपसिंहः"1ग०३ अधिक अन्योऽप्येतनामा (वि०सं०१२७३ वर्षे) आसीत् । सच अप्पणा उ अजाणया" सूत्र० १८०३ अ०। ज्ञानशून्ये, मूर्ख, वेदान्तिमतसिद्धाज्ञानरूपपदार्थवति च । वाच । भानुप्रभसूरेः शिष्यः, योगविधिनाम्नो ग्रन्थस्य कर्ता। जे०६० प्रजिअपभ-अजितप्रथ-पुनस्वनामख्याते गणिनि । स च (वि० अनाणिय-अज्ञात्वा-अव्या अधिज्ञायेत्यथे, नि० चू० उ० सं०१२०२वर्षे) गुर्जरधरियां विद्यापुर (बीजापुर)प्रान्ते व्यहार्षीअजाणिया-श्राइका-खान-शका, झकाविलकणाया स- त् , धर्मरत्नश्रायकाचारनामानं प्रन्थं च व्य रचत् । जै० ३०। म्यक् परिज्ञानरहितायां पर्षदि, "अजाणिया जहा जा होइ | अजिअबला-अजितबला-स्त्री० श्रीअजितस्य शासनदेव्याम, पगश्महुरा मियगवयसीढकुकुमयन्या रयणमिव असंग-| सा च गौरवर्णा लोहासनाधिरूढा चतुर्भुजा वरदपाशकाधिविया अजाणिया सा नवे परिसा" या ताम्रचूमकएजीरवकुर- ष्ठितदक्विणकरद्वया बीजपूरकाशालङ्कृतवामपाणिद्वया च । पोतवत्प्रकृत्या मुग्धस्वभावा असंस्थापितजात्यरत्नमिवान्तर्गु- प्रव.२७ द्वा०।। णविशिष्टगुणसमृद्धा सुखप्रज्ञापनीया पर्षत सा अझिका । -अजिमसीह-अजितसिंह-पुं० । स्वनामख्यातेऽश्चलगच्चीये तंच-"पगई सुद्धप्रयाणिय, मिगगवगसीहकु कुमगनूया । सरी.सच (वि० सं० १२८३ वर्षे) जिनदेवेन पित्रा जिनदेव्यां रयणमिव असंगविया, सुहसरणप्पागुणसमिका"॥१॥नं० । नाम मातरि जन्म लम्वा सिंहप्रनसूरिपादमूले प्रववाज, देवेअजाण-प्रज्ञा-स्त्रीला अज्ञस्य हिंसादेई तुखरूपफनाविदुषो ज्ञा न्द्रसिंहनामानं च शिष्यं प्रावाजयत् । जै० ३० । नाद व्यावृती, स्था०२ ग०४० अजाय-अजात-त्रि० । न० त० । अनिष्पन्ने, श्रुतसम्पदनुपेतत अजिअसेण-अजितसेन--पुं० ।जम्बूद्वीपे नारतवर्षेऽतीतायायाऽअब्धात्मनाभे साधौ, तव्यतिरेकात्कल्पभेदे च । पुं० ।। मुत्सर्पिण्यां जाते चतुर्थे कुलकरे, स्था० १००। कौशाम्या "गीयत्थ जायकप्पो, अगिओ खलु भवे अजाओ अ" अगीतः । अधिपती धारणीवल्लन्ने नृपतिभेदे, " कौशाम्बीत्यस्ति पृस्तत्राखल्वंगीतार्थयुक्ते विहारः पुनर्भवेदजातोऽजातकल्पः, अव्यक्तत्वे. जितसेनो महीपतिः । धारणीत्यभिधादेवी, तत्र धर्मवसर्गुरुः" न जातत्वात् । ध० ३ अधिः । पञ्चा० । ॥१॥ आ० क० । प्राव । आ००। (तत्कथा 'अण्णाय' शब्ने अजायकप्पिय-अजातकल्पित--पुं० । अगीतार्थे, “एगविहारो | वक्ष्यते) श्रावस्तीनगरी समवसृते यशोभायाः कीर्तिमत्याम इत्तरिकायाः प्रवाजके आचार्यदे, ('अलोद' शब्दे कथा इष्टअजायकप्पिो जो भवे उवणकप्पे" ग०१ अधिक। व्या) श्रा०चूल आधा दर्श। अजितसेनो नाम अजयदेवसूरिप्रजिअ--अजित- त्रिन ता अपराजिते, "अजिय महत्थं" शिष्यःराजगच्चीयवादमहार्णवनाम्नो ग्रन्थस्य कर्ता, यत्समये ( जिनानाम् ) अजितामशेषपरप्रवचनाशानिरपराजिताम, (वि० सं० १२१३ वर्षे) अञ्चबगच्छः समजनि । जै०३० । दर्श० । आव० । जिधासोर्द्विकर्मकत्वादनिर्जितशत्रौ, अ. प्रा० क0 । भाहिलपुरनगरे नागस्य गृहपतेः सुलसानान्यां पराजितदेशादौ चास्य प्रवृत्तिः, एकस्य कर्मणोऽविवक्ताया- भाया॑यामुत्पन्ने पुत्रे, स चाऽरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये मन्यस्य विववायां, तत्रैव कर्मणि क्तः। भूरिप्रयोगस्तु-अनिर्जित-I सिकः। अन्त०४ वर्ग। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) अजिया अभिधानराजेन्द्रः । अजीव अजिबा-अजिता-स्त्री० । अवसर्पिण्याश्चतुर्थस्याभिनन्दनजि- अजियसीह-अजितसिंह-पुं० । स्वनामख्यातेऽश्लगच्चीये नस्य प्रवर्तिन्याम्, "अनिणंदणस्स अजिआ, कासवी सुमती- सूरौ, ('अजिअसीह' शब्दोऽत्र अष्टव्यः) जिणिदस्स"तिका अजियसेण-अजितसेन-पुं० । जम्बूद्दीपस्थचतुर्थे कुलकरे , दय-अजितेन्धिय-त्रिनिजतानि श्रात्रादानान्।ि (स्पष्टोऽयं 'अजिसेण' शब्दे) याणि येन स तथा। इन्द्रियावशे, “अजिइंदियसोवहिया, व-अजिया-अजिता-स्त्री०। अवसर्पिण्याश्चतुर्थस्यानिनन्दनहगा जर ते णाम पुजंति" दश०नि०१०। असर्वचत्वे, जिनस्य प्रवर्तिन्याम,(अस्मिन् विषये 'अजिश्रा' शब्दो द्रष्टव्यः) स्था० ५ ठा० । अजीर-अजीर्ण-नायाहारस्याऽजरणे, तद्भावेच रोगोत्पत्तिः। अजिण-अजिन-नाजति क्षिपति रज आदि प्रावरणेन ।। व्य०१ उ०। । शावि०। उपा। अज-इनच्, न व्यादेशः। वाच० । मृगादिचर्मणि, उत्त० ५ अजीब-अजीव-पुंगन जीवा अजीवाः । जीवविपरीतस्वरूश्र०। आचा० । सूत्र० । चर्मधारित्वे,"चीराजिणं नगिणिणं, जडीसंघाडिमुंडिण" उत्त०५ अन जिनोऽजिनः । न० त०। पेषु धर्माधर्माकाशपुछलास्तिकायाद्धासमयेषु, प्रशा०१ पद । अवीतरागे, भ० १५ श.१ उ० । असर्व , पुं०। "अजिणा ते च चतुद्धा, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् । द्रव्याजीवाः, जिणसंकासा जिणार वाऽवितहं वागरेमाणा" । औ० । यदा पुलद्रव्यमजीवरूपं सकलगुणपर्यायविकलतया ककल्प० । स्था। लप्यते, तदा तद्यतिरिक्तो द्रव्याजीवः, भावे चाजीवद्रव्यस्य पुलस्वरूपस्य दशविधपरिणामोऽजीव इति प्रक्रमः । ततः अजिस्म-अजीर्ण-ना अजरणे परिपाकमनागते, त्रि०ा. शब्दादयः पश्च शुभाशुभतया भेदेन विवक्षिताः। तथाच संजीर्णेऽभोजनम् । एतदपि गृहिभिर्धर्मोऽयमस्माकमिति बु प्रदाय:-शब्दस्पर्शरसरूपगन्धाः शुभाश्चाशुभाश्चेति । उत्त० या कार्यम् । तथाऽजीर्णेऽजरणे पूर्वभोजने, अथवाऽजीर्णे प ३५ अ०। रिपाकमनागते पूर्वभोजनेऽर्धजीणे इत्यर्थः । अभोजनं भोज एतेषां व्यतः केत्रतः कालतो भावतश्च व्याख्यानत्यागः। अजीर्णभोजने हि सर्वरोगमूलस्य वृद्धिरेव कृता रूविणो य अरूवी य, अजीवा दुविहा बने । भवति । यदाह-"अजीर्णप्रभवा रोगाः" इति । तत्राजीणे चतुर्विधम्-“श्राम विदग्धं विष्टब्धं, रसशेषं तथा परम् । श्रा अरूची दसहा वुत्ता, रूविणो विचबिहा ॥४॥ मे तु अवगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता ॥१॥ विष्टब्धे गात्रभ अजीवा विविधा भवेयुः, एके अजीवा रूपिणो रूपवन्तः, च कोऽत्र, रसशेष तु जाम्बता" वगन्धित्वमिति । द्रवस्य गूथ पुनरन्ये अजीवा अरूपिणोऽरूपवन्तः । तत्र रूपं स्पर्शाद्याश्रयस्य कुथिततक्रादेरिव गन्धो यस्यास्ति तत्तथा, तभावस्तत्त्व नूतं मूत तदस्ति येषुते रूपिणः, तद्यतिरिक्ता अरूपिण इत्यर्थः। मिति। "मलवातयोर्विगन्धो, विस्जेदो गात्रगौरवमरौच्यम् । तत्रारूपिणोऽजीवा दशधा उक्ताः, रूपिणोऽजीवाश्चतुर्विधाः अविशुद्धश्चोदारः, षडजीर्णव्यक्तिलिङ्गानि"१॥"मूच्र्छाप्रलापो प्रोक्ताः ॥४॥ वमथुः, प्रसेकः सदनं भ्रमः । उपद्रवा भवन्त्येते, मरणं वाs . पूर्व रशविधत्वमाहप्यजीर्णतः"॥१॥प्रसेक इत्यधिकनिष्ठीवनप्रवृत्तिः,सदनमित्यङ्ग- धम्मत्थिकाए तद्देसे, तप्पएसे य माहिए। ग्लानिरिति । ध०१ अधि० । “जिन्नाजिम्मे अभोयणं बहुसो" अहम्मे तस्स देसे य, तप्पएसे य ाहिए॥५॥ जीर्णाजीणे च भोजने बहुशः एष आयुष उपक्रमः । अस्माद नियन्ते प्राणिन इत्यर्थः । आव०१०जी० । एतत्प्रती भागासे तस्स देसे य, तप्पएसे य ाहिए। कारो यथा-" भवेदजीर्ण प्रति यस्य शङ्का, स्निग्धस्य जन्तो- अकासमयए चेव, अरूवी दसहा भवे ॥ ६॥ लिनोऽनकाले । पूर्व स शुण्ठीमभयामशङ्कः, संप्राश्य भु- अरूपी अजीव एवं दशधा भवेदिति द्वितीयगाथायामन्वयः। जीत हितंहि पथ्यम"॥१॥ इति चक्रः। "अजीर्णे भोजने वारि, । प्रथम धर्मास्तिकायः-धरति जीवपुलौ प्रतिगमनोपकारिणति जाणे वारि बलप्रदम्" इति वैद्यके । कत्तरि क्तः । जीर्णो- | धर्मस्तस्याऽस्तयः प्रदेशसद्भावास्तेषां कायः समूहो धर्मावृद्धः, तदभिन्ने, त्रि०। वाच । स्तिकायः, सर्वदेशानुगतसमानपरिणतिमद् व्यमिति भाषः अजिम्मकंतणयणा-अजिमकान्तनयना-स्त्री अजिह्मेऽमन्दे ॥१॥ पुनस्तद्देशस्य धर्मास्तिकायस्य कतमो विभागो देशमद्रभावतया निर्विकारचपल इत्यर्थः, कान्ते नयने यासां स्तृतीयचतुर्थादिनागस्तहेशो धर्मास्तिकायदेशः ॥२॥ तथा तास्तथा । सुभगत्वयतत्वसहजचपलत्वभाजनलोचनासु, पुनस्तत्प्रदेशस्तस्य धर्मास्तिकायविनागस्य अतिसूक्ष्मो नि"अजिम्मकतणयणा पत्तलधवलायतश्रायतंबलोणाओ " रंशोऽशः प्रदेशो धर्मास्तिकायप्रदेशस्तीर्थकरराख्यातः कजं. २ वक्षः । थितः ॥ ३॥ एवमधर्मो जीवपुलयोः स्थिरकारी धर्मास्तिअजिय-अजित-त्रि०अपराजिते,('अजिअ'शब्देऽस्य विस्तरः) कायाद्विरुद्धोऽधर्मास्तिकायः॥ ४॥ पुनस्तस्य अधर्मास्तिकाअजियदेव-अजितदेव-पुंगमुनिचन्द्रसूरेः शिष्ये, (निरूपणमस्य यस्यापि देशस्तदेश एकः कश्चिद्भागोऽधर्मास्तिकायदेशः ॥५॥ एवं पुनस्तस्याधर्मास्तिकायस्य प्रदेशोऽशस्तत्प्रदेश 'अजिप्रदेव' शब्द) आख्यातोऽधर्मास्तिकायप्रदेश इत्यर्थः ॥ ६ ॥ इत्यनेन पर अजियप्पन-अजितप्रज-पुंज स्वनामख्याते गणिनि, (विशेषो. नेदा अरूपिणोऽजीबद्रव्यस्य । अथ शेषाश्चत्वार उच्यन्ते-आकाऽस्थ 'अजिअप्पम' शब्दे) श इति सप्तमोभेदः। माकाशमाकाशास्तिकायः, जीवपुलयोअजियबला-अजितबला-स्त्री० । श्रीअजितस्य शासनदेव्याम, रवकाशदायि प्राकाशम॥ ७॥ तस्याऽऽकाशस्य देशः कसमो ('अजिभवला' शम्देऽस्य विस्तरः। विजाग आकाशास्तिकायदेशः॥८॥ तस्य आकाशास्तिकाय Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) अजीव अनिधानराजेन्द्रः । अजीव स्य निरंशो देशस्तत्प्रदेश प्राकाशास्तिकायप्रदेशः ॥ ६ ॥ ख्यवृत्त्या परमाणुद्रव्यस्य द्वौ भेदी-परमाणवः स्कन्धाश्च । देदशमो भेदश्चाद्धासमयः; असा कालो वर्तमानलकणस्तद्रूपः शप्रदेशयोः स्कन्धेष्वेवान्तर्भावः ॥१०॥ समयोऽझासमयः। अस्यैक एव दो निर्विनागत्वात् । देशप्रदे अथ स्कन्धानां परमाणूनां लक्षणमाहशावपि कालस्य न सम्भवतः ॥ १० ॥ एवं दशभेदा अरूपिणो एगत्तेण पहुत्तेण, खंधा य परमाणुओ। झेयाः ॥६॥ लोएगदेशे लोए य, भइन्वा ते उ खित्तो ।। एतान् अरूपिणः क्षेत्रत आह-- इत्तो कालविभागं तु, तेसिं बोच्छ चरब्बिई ॥११॥ धम्माधम्मे प दो एए, लोगमित्ता वियाहिया । पते स्कन्धाश्च पुनः परमाणवः, एकत्वेन पुनः पृथक्त्वेन स्रोगालोगे य आगासे, समए समयखित्तिए ।। ७॥ लोकैकदेशे च पुनर्लोके क्षेत्रतो भक्तव्याः। तत्र केचित् स्कन्धाः धौधौ धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ, एतौ द्वावपि लोक- परमाणवश्व एकत्वेन समानपरिणतिरूपेण लक्ष्यन्ते। अथ च मात्रौ व्याख्यातौ । यावत्परिमाणा लोकास्तावत्परिमाणौ धर्मा- स्कन्धाः परमाणषश्च पृथक्त्वेन परमारवन्तरैरसकातरूपेण स्तिकायाधर्मास्तिकायौ।चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकंव्याप्तावित्यने- लक्ष्यन्त इत्यध्याहारः । इति द्रव्यतो लक्षणमुक्तम् । अथ च नालोके धर्माधर्मों न स्तः। प्राकाशं लोकालोके वर्तते इत्यनेना- क्षेत्रत आह-ते स्कन्धाः परमाणवश्चेति तत्स्कन्धपरमाणूनां 55काशास्तिकायः चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकं व्याप्य स्थितः, ततो ग्रहणेऽपि परमाणूनामेवैकप्रदेशावस्थानत्वात् ते परमाणवः बहिर्लोकमपि व्याप्याऽऽकाशास्तिकायः स्थित इत्यर्थः । स- स्कन्धेषु लोकैकदेशे लोके सर्वत्र भक्तव्या भजनीया दर्शनीया मयः समयादिकः काबः समयकेत्रिको व्याख्यातः । समयोप- इति यावत् । ते हि विचित्रत्वात्परिणतेर्बहुप्रदेशे तिष्ठन्ति । सक्तितं केत्र सार्द्धद्वयद्वीपसमुद्रात्मकं समयकेत्र, तत्र भवः इतः क्षेत्रप्ररूपणातोऽनन्तरं तेषां स्कन्धानां परमाणूनां चतुसमयकेत्रिकः। सार्कद्वयद्वीपेन्यो पहिस्तु समय श्रावलिका- विध कालभेदं वक्ष्ये, साधनादिसपर्यवसितापर्यवसितभेदेन दिवसमासादिकालनेदो मनुष्यलोकाभावान्न विवक्तितः ॥७॥ कथयिष्यामि । इदं च सूत्रं षट्पादं गाथेत्युच्यते ॥११॥ पुनरेतानेव कालत आह--- संतई पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिया वि य। धम्माधम्मागासा ति-नि वि एए अणाइया । लिई पमुच्च साईया, सपज्जवसिया वि य॥१॥ अपज्जवसिया चेव, सव्वळं तु वियाहिया ॥८॥ । ते स्कन्धाः परमाणवश्व सन्ततिमपरापरोत्पत्तिप्रवाहरूपां धर्माधर्माकाशानि एतानि त्रीएयपि सर्वाः इति सर्वकालं प्राप्याऽनादय आदिरहितास्तथाऽपर्यवसिता अन्तरहिताः सर्वदा स्वस्वरूपापरित्यागेन नित्यानि अनादीनि च पुनरपर्य स्थिति प्रतीत्य क्षेत्रावस्थानरूपां स्थितिमङ्गीकृत्य सादिकाः, वसितानि अन्तर्हितानि व्याख्यातानि ॥७॥ सपर्यवसिताश्च वर्तन्ते ॥१२॥ सादिसपर्यवसितत्वेऽपि कियत्कालमेषां स्थितिरित्याहअथ कालस्वरूपमाह---- समए वि संतई पप्प, एवमेव वियाहिया। असंखकालमुक्कोसं, इक्कं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं, लिई एसा वियाहिया ॥१३॥ आएसं पप्प साईए, सपज्जवसिए वि य ।। स्कन्धानां परमाणूनां चोत्कृष्टाऽसंख्यकालं स्थितिः जघसमयोऽपि कालोऽपि, एवमेव, यथा धर्माधर्माकाशानि अना- | न्यिका एकसमया स्थितिः। एषाऽजीवानां रूपिणां पुसलानां द्यनन्तानि तथा कालोऽपि अनाद्यनन्त इत्यर्थः । किंकृत्वा ? स्थितिर्व्याख्याता ॥१४॥ सन्तति प्राप्य, अपरापरोत्पत्तिरूपप्रवाहात्मिकामाश्रित्य, अथ कालतःस्थितिमुक्त्वा तदन्तर्गतमन्तरमाहकोऽर्थः?, यदा हि कालस्योत्पत्तिर्विलोक्यते तदा कालस्याऽऽदिरपि नास्ति, अन्तोऽपि नास्तीत्यर्थः । पुनरादेशं प्राप्य का. अणंतकालमुक्कोसं, कं समयं जहन्नयं । र्यारम्भमाश्रित्य कालः सादिक आदिसहितः, तथा सपर्यव अजीवाण य रूवीणं, अंतरे यं वियाहिया ॥१४॥ सितोऽवसानसहितो व्याख्यातः । यदा च यत् किश्चित् कार्य अजीवानां रूपिणां पुसलानां स्कन्धदेशप्रदेशपरमाणूनामयस्मिन् काल प्रारभ्यते तदा तत्कार्यारम्भवशात् कालस्या- न्तरं विवक्षितक्षेत्रावस्थिते प्रच्युतानां पुनस्तत्क्षेत्रप्राप्तेर्व्यवप्युपाधिवशादादिः, एवं कार्यारम्भसमाप्तौ कालस्याऽप्यन्तो धानमन्तरमुत्कृष्टमनन्तकालं भवति । जघन्यकमेकसमयं याव्याख्यात इत्यर्थः ॥६॥ वद्भवति । इदमन्तरं तीर्थकरैर्व्याख्यातम्-पुलानां हि विव. अथ रूपिणोऽजीवाश्चतुर्विधाश्चतुर्भेदा उच्यन्ते क्षितक्षेत्रावस्थितितः प्रच्युतानां कदाचित्समयावलिकादि. खंधा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य। संख्यातकालतो वा पन्योपमादेर्यावदनन्तकालादपि तत्केत्र. त्वावस्थितिः सम्भवतीति भावः ॥ १४॥ परमाणवो य वोधव्वा, रूविणो वि चउब्विहा ॥१०॥ अथ भावतः पुरुहानाहरूपिणोऽप्यजीवाश्चतुर्विधाश्चतुःप्रकाराः केते भेदास्तानाह- वो गंधमो चेव, रसमो फासो तहा। स्कन्धाः-यत्र पुजे परमाणवो विचटनाट् मिलनाच न्यूना- संगणो य विन्नेओ, परिणामो तेसि पंचहा।। १५ ॥ अधिका अपि भवन्ति, एतारशाः परमाणुपुजाः स्कन्धाः१, तेषां पुलानां परिणामो वर्णतो गन्धतो रसतः स्पर्शतस्तथा स्कन्धदेशाः २, तथा तत्प्रदेशा:-तेषां स्कन्धानां निर्विभागा संस्थानत पञ्चधा प्रञ्चप्रकारो झेयः । यतो हि पूरणगलनधअंशाः स्कन्धप्रदेशाः ३, तथैवेति पूर्ववत् च पुनः परमाणवो | र्माणः पुमास्तेषामेव परिणतिः सम्भवति । परिणमनं स्वस्व. बोद्धव्याः, परमाणव एव परस्परममिलिता इत्यर्थः।४ा एवं रूपावस्थितानांपुजलानांवर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानादरन्यथाभचत्वारो कपिणश्चतुर्विधा वोद्धव्या इति भावः । अत्र च मु.। वनं परिणामः । स पुसमानां पञ्चप्रकार इत्यर्थः। ( उत्त) Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) अजीव अनिधानराजेन्षः। अजविपञ्जव पुफलानां वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानानां वेदान् वक्ष्ये। अथ तेषां अजीवकायअसमारंज-अजीवकायासमारम्न-पु० । पुस्तक्रमेण प्रत्येक संख्यां वदति । तद्यथा-एकस्मिन्नेकस्मिन् पुद्ग-| कादीनां प्रहणपरिजोगतस्तदाश्रितजीवानां परितापकरणे, साश्रितवर्णे गन्धौ द्वौ, रसाः पञ्च, स्पर्शा अष्टौ, संस्थानानि पञ्च, स्था०७ ग०। एवं सर्वेऽपि विंशतिर्विशतिर्भदा जवन्ति । कृष्णनीललोहितपीत बाक्लानां पञ्चवर्णानां प्रत्येकं २ विंशतिभेदमीसनात् शतं अजीवकायप्रारंभ-अजीवकायारम्भ-पुं०। पुस्तकादीनां प्रहभेदा वर्णपुद्गलस्य । अथ गन्धयोर्द्वयोः षट्चत्वारिंशद्भदाः नव णपरिभोगतस्तदाश्रितजीवानामुपवणे, स्था० ७ ठा० । न्ति। तद्यथा-वर्णाः पञ्च,रसाः पञ्च, स्पर्शी अष्टी, संस्थानानि | अजीवकायसंजम-प्रजीवकायसंयम-पुंगपुस्तकादीनामजीवपश्चा एवं सर्वे त्रयोविंशतिसंख्याकाः। ते च सुगन्धर्गन्धतत्र- कायानां प्रहणपरिभोगोपरमे, स्था०७ ग० । आव० । प्रश्न । योविंशतित्रयोविंशतिप्रमिताः । उन्नयमीलने षट्चत्वारिंशद्भवन्ति । अथ रसपुद्गलानां शतं भेदा जवन्ति । तद्यथा | अजीवकिरिया-अजीवक्रिया-स्त्री० । जीवस्य पुमलसमुदायवर्णाः पञ्च, गन्धौ द्वौ, स्पर्शा अष्टौ, संस्थानानि पञ्च । एवं वि स्य यत्कर्मे-पथ्यं तया परिणमनं साउजीवक्रिया । "अजीवशतिभेदाः । प्रत्येक २ तिक्तकटुकषायाम्समधुरादिपञ्चभि किरिया ऽविहा पराणत्ता । तं जहा-रियावहिया चेव, संपप्रक्ताः सन्तः शतं दा नवन्ति । अथ स्पर्शभेदाः राश्या चेव" स्था०२०१०। षत्रिंशदधिकशतम । तद्यथा-वर्णाः पञ्च, गन्धौ द्वौ, रसाः भजीवाणिस्सिय-अजीवानःश्रित-त्रि०ाअजीवाश्रिते, स्थाग। पञ्च, संस्थानानि पञ्च । एवं सप्तदश नेदाः। ते च खरमृगुरु अजीवनिःसत-त्रि० । अर्जावेज्यो निर्गते, स्था० ७ ग० । लघुरूवस्निग्धशीतोष्णपुद्गरष्टाभिर्गुणिताः षट्त्रिंशदधिकं शतं भेदा भवन्ति । प्रज्ञापनायां स्पर्शपुद्गलानां चतुरशी अजीवदव्वविजत्ति-अजीवषव्यविज्ञक्ति-स्त्री०। अजीवाव्यात्यधिकशतं भेदा उक्ताः सन्ति। तद्यथा-वर्णाः पश्च, रसाः पञ्च, णां विजागरूपे विभक्तिभेदे, अजीवाच्यविनक्तिस्तु रूप्यरूपिगन्धौ द्वौ, स्पर्शाः षट्, एवं गृह्यन्ते । यतो हि यत्र खरस्पर्शः पु. अन्य नेदाद् द्विधा । तत्र रूपिलव्यविनक्तिश्चतुर्धा । तद्यथा-स्कदूगलो गएयते, तत्र तदा मृः पुदगझोन गएयते । यत्र स्निग्धो न्धाः, स्कन्धदेशाः, स्कन्धप्रदेशाः, परमाणु पुलाश्च । अरूपिगएयते, तदा तत्र रूको न गण्यते । परस्परविरोधिनी हि एक- व्यविभक्तिर्दशधा । तद्यथा-धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य अन तिष्ठतः, तस्मात् स्पर्शाः षट्, संस्थानानि पञ्च, एवं सर्वे देशो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः । एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येक माक्षतास्तूयाविशातनवान्त । ते त्रयाविशतिभेदाः प्रत्येकं खर- त्रिनेदता रुष्टव्या । अकासमयश्च दशम इति । सूत्र० १ मदुगुरुलघुस्निग्धरूकशीतोष्णाद्यष्टाभिः पुद्गलैर्गुणिताः चतुः श्रु० ५ ० १ ०। रशीत्यधिकशतं भेदा भवन्ति । वीतरागोक्तं वचः प्रमाणम्, जीवनिट्रिया-अजीवधिका (जा)-स्त्री०।अजीवानां चित्र. येन यारशंशातं तेन तादृशं व्याख्यातम् , तत्त्वं केवली येद। कर्मादीनां दर्शनार्थ गच्चतो गतिक्रियारूपे रष्टिकायाः क्रियाया अथोपसंहारेणोत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह-- नेदे, स्था० २ ० १ उ०। एसा अजीवविभत्ती, समासेण वियाहिया । अजीवदेस-अजीवदेश-पुं० । धर्माधर्मास्तिकायादिदेशेषु, भ० एषाजीवविभक्तिः समासेन संकेपेण व्याख्याता। उत्त० ३६ १६ श० ७ उ०। अकादशगजा प्रशा। जी। श्रा० । आ०चूनं० सूत्रः। | अजीवधम्म--अजीवधर्म-पुं० । अचेतनानां मूर्तिमतां द्रव्याणां दर्श। स्था०1"णस्थि जीवा अजीवा वा,णेवं समं णिसए" वर्णगन्धरसस्पर्शेषु, अमूत्तिमतां द्रव्याणां धर्माधर्माकाशानां ग. सूत्र०। ('अस्थिवाय' शब्दे व्याख्यास्यामः) त्यादिकेषु धर्मेषु, सूत्र० २ श्रु० १ अ०। अजीवाणवणिया-मजीवाझापनिका-स्त्री०। प्राज्ञापनिका | अजीवपज्जव-अजीवपर्याय-jo अजीवानां पर्यायेषु, प्रज्ञान जन्यः कर्मबन्धोऽप्याज्ञापनिका । अजीवनिषयाऽऽझापनिका अ पाया गुणा विशेषा धर्मा इत्यनर्थान्तरम् । प्रज्ञा० ५ पद । जीवाशापनिका। अजीवमाज्ञापयत' इत्यादेशनरूपाया आज्ञापनिक्याः क्रियाया भेदे, स्था०२ वा० १ ०।। अजीवपज्जवा णं नंते !कइविहा परमत्ता? | गोयमा! अजीवानायनी- स्त्रीजीवविषया आनायनी, "अजीवमाना सुविहा परमत्ता । तं जहा-रूविअजीवपज्जवा य अरूयनम् । भानायनरूपायाः क्रियाया नेदे, स्था०२ ग० १३० ।। विजीवपज्जवा य । अरूविअजीवपजवा णं नंते ! अजीवप्रारंजिया-अजीवारम्निका-खी । या चाजीवान् कतिविहा पहाता? | गोयमा! दसविहा पएणता? । जीवकलेवराणि पिष्टादिमयाजीवाकृतींश्च वस्त्रादीन् वाऽऽर- तं जहा-धम्मत्थिकाए, धम्मस्थिकायस्स देसे, धम्पत्थिकाभमाणस्य सा अजीवारमिनका । प्रारम्भिक्याः क्रियाया दे, यस्म पदेसा । अधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकायस्स देसे, स्था०२०१०। अधम्मस्थिकायस्स पदेसा । आगासत्थिकाए, अागास अजीवकाय-अजीवकाय-पुंग अजीवाश्च तेऽचेतनाः कायाश्च स्थिकायस्स देसे, आगासत्थिकायस्स पदेसा। अद्धासमए । राशयोऽजीवकायाः । जीवविपरीतेषु धर्माधर्माकाशपुलेषु, रूविअजीवपज्जवा णं नंते ! कतिविहा पएणता ? । गोभ०७ श०१० उ०। यमा ! चनधिहा पएणता । तं जहाखंधा, खंधदेसा, अजीवकायअसंजम-अजीवकायासंयम-पुं०। पुस्तकादीनामजीवकायानां ग्रहणपरिभोगानुपरमेण तत्समाश्रितजीवविधाते, खंधपदेसा, परमाणुपोग्गला। तेणं भंते : किं संखेज्जा, अस्या०७० संखज्जा,अणंता गोयमा! नोसखिज्जा, नो असंखिज्जा, Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) अजीवपज्जव शनिधानराजेन्द्रः। अजीवभिस्सिया अणंता । से केरण गते! एवं बुच्चइनो संखिज्जा, नो क्त्यनुपाति वक्तव्यमित्यवं प्रसङ्गेन । प्रकृतोपसंहारमाह-(सेत असंखिज्जा, अणंता? गोयमा! अणंता परमाणुपोग्गला, अरूविअजीवपन्नवणा) सैषा अरूप्यजीवप्रज्ञापना। पुनराह विअपंता दुपरासिया खंधा, जाव अनंता दसपएसिया खंधा, नेयः (स किंतमित्यादि) श्रथ का सारूप्यजीवप्रकापना ?। सरि राह-रूप्यजीवप्रज्ञापना चतुर्विधा प्राप्ता। तद्यथा-स्कन्धाः-स्कअणंता संखिज्जपदेसिया खंधा, अनंता असंखिज्जपदोस न्दन्ति शुष्यन्ति, धीयन्ते च पुष्यन्ते पुजलानां विचटनेन चटनेन या खंधा, अणंता अणंतपदसिया खंधा, से तेणढे णं गो- वेति स्कन्धाः । पृषोदरादित्वाद् रूपनिष्पत्तिः । अत्र बहुधा यमा एवं वुच्च; ते णं नो संखेजा, नो असंखिज्जा, अ- वचनं पुनस्कन्धानामानन्न्यस्यापनार्थम् । नचानन्स्य मनुपपणंता । प्रा० ५ पद। श्रम, आगमेऽभिधानात् । तथाचाजीवशब्दे उक्तम्-“दव्वतो णं पुग्गथिकाए णता दवा" इत्यादि । स्कन्धदेशाः स्कन्धानामेव अजीवपमवणा-अजीवप्रज्ञापना-स्त्री० अजीवानां प्रज्ञापनाऽ स्कन्धत्वपरिणाममजहन्तो बुछिपरिकल्पिता घ्यादिप्रदेशात्मजीवप्रज्ञापना । प्रज्ञापनाभेदे, प्रज्ञा०।। का विभागाः । अत्रापि बहुवचनमनन्तप्रादेशिकेषु तथाविधेषु से किंतं अजीवपएणवणा?। अजीवपएणवणा विहा स्कन्धेषुप्रदेशानन्तत्वसम्नावनार्थम् । स्कन्धानां स्कन्धत्वपरिपएणता । तं जहा-रूविअजीवपएणवणा, अरूविअजी- णामपरिणतानांबुद्धिपरिकल्पिताः प्रकृष्टा देशानिर्विभागानागाः, विपण्णवणा य । से किंतं अरूविअजीवपएणवणा । अ परमाणव इत्यर्थः, स्कन्धप्रदेशाः । अत्रापि बहुवचनं प्रदेशा नन्तत्वसम्भावनार्थम् । (परमाणु पुद्गला ति) परमाश्च ते प्रणवश्व रूविअजीवपमवणा दसविहा परमत्ता । तं जहा-धम्मत्यि परमाणवी निर्विनागव्यरूपाः, ते च ते पुद्गलाश्च परमाणुपुमला: काए, धम्मत्यिकायस्म देमे, धम्मत्थिकायस्म परसा। अध- स्कन्धत्वपरिणामरहिताः केववाः परमाणव इत्यर्थः। (ते समाम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्यिकायस्स सओ इत्यादि ) ते स्कन्धादयो यथासम्नवं समासतः सने पेण पएसा । आगासत्थिकाए, आगामत्यिकायस्स देसे, आगा- पञ्चविधाः प्राप्ताः। तद्यथा-वर्णपरिणता वर्णतः परिणताः, वर्णसत्यिकायस्त पदेसा, अघासमए । सेत्तं अरूविअजीवप भाज इत्यर्थः । एवं गन्धपरिणताः, रसपरिणताः, स्पर्शपरिण ताः, संस्थानपरिणताः । परिणता इत्यतीतकालनिर्देशो एणवणा । से किंत रूविअजीवपण्णवणारूविअजीव वर्तमानानागतकालापलक्षणम् । वर्तमानानागतत्वमन्तरणातीपामवणा चउब्विहा पएणता । तं जहा-वंधा, खंधदेसा, तत्वस्यासम्नवात् । तथाहि-यो वर्तमानत्वमतिक्रान्तः सोखंधप्पएसा, परमाणुपोग्गना । ते समासो पंचविहा प- ऽतीतो भवति । वर्तमानत्वं च सोऽनुनवति योऽनागतत्वमप्सत्ता । तं जहा-वएणपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, तिक्रान्तवान् । उक्तश्च-" भवति स नामातीतो, यः प्राप्तो नाम फामपरिणया, संगणपरिणया। जे वएणपरिणया ते समा वर्तमानत्वम् । एज्यश्च नाम स जवति , यःप्राप्स्यति वर्तमान त्वम्" ॥१॥ ततो वर्णपरिणता इति वर्णरूपतया परिमओ पंचविहा पामता । तं जहा-कालबएणपरिणया, नी. णताः परिणमन्तीति परिणमिष्यन्तीति वा द्रष्टव्यम् । एवं गन्धलवएणपरिणया, लोहियवएणपरिणया, हालिदवएणप- रसपरिणता इत्याद्यपि परिभावनीयम् । प्रशा० १ पद। रिणया, मुक्किदवएणपरिणया। अनीवपरिणाम-अजीवपरिणाम-पुं०।६ त० । पुसलानां परिअमीषामित्थंक्रमोपन्यासे कि प्रयोजनम् ?। उच्यते-इह धर्मास्ति- णामे, “दसविहे अजीवपरिणामे पाते। तं जहा-बंधणपरिणा. काय इति पदं मङ्गलभूतम, आदी धर्मशब्दान्वितत्वात्। पदार्थप्रक- | मे, गश्यपरिणामे, ठाणपरिणामे, नेदवन्नरसपरिणामे, गंधपरिपणा च सम्प्रति प्रथमत उरिकप्ता वर्तते, ततो मङ्गलार्थमादौ धर्मा- | णामे, फासपरिणाम, अगरुयलहुयसहपरिणाम"! (बन्धनपरिस्तिकायस्योपादानम्।धर्मास्तिकायप्रतिपकनूतश्चाधर्मास्तिका- णामादीनां व्याख्याध्यत्र) स्था० १० ग०। यस्ततस्तदनन्तरमधर्मास्तिकायस्य । द्वयोरपिचानयोराधारनू-अजीवपाउसिया-अजीवप्रादेषिकी-स्त्री०। अजीचे पाषाणादौ तमाकाशमिति तदनन्तरमाकाशास्तिकायस्य । ततःपुनरजीव- स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकी । स्था० २ना०१ उ० । साधम्यादकासमयस्या अथवा शह धमाधमास्तिकायो विनून भ- अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्याः क्रियाः, प्रद्वेषकरणमेव वा।प्राषिवतस्तद्वित्वे तत्सामर्थ्यतो जीवपुलानामस्खलितप्रचारप्रवृ. क्याः क्रियाया भेदे, भ० ३ श० ३ उ० । तौलाकाखाकव्यवस्थाऽनुपपत्तेः। अस्ति च लोकालोकव्यवस्था; अजीवपामचिया-अजीवमातीतिकी-स्त्री०। अजीव प्रतत्यि यो तत्र तत्र प्रदेश मंत्र साकाद्दर्शनात्। ततो याचति केऽवगाढा (ध रागद्वेषोद्भवस्तज्जो यो बन्धः सा अजीवप्रातीतिकी । प्रातीतिधिमौ)तायत्प्रमाणो लोकः, शेषस्त्वत्रोक इति सिद्धम्। उक्तं च-| क्या: क्रियाया भेदे, स्था०२ ठा०१ उ०। " धर्माधर्मविभुत्वात, सर्वत्र च जीवपुत्रविचारात् । अजीवपुट्टिया-अजीवप्रष्टिका (जा) (स्पृष्टिका)-स्त्री० । नायोकः कश्चित्स्यात्, न च सम्मतमेतदार्याणाम् ॥१॥ अजीवं रागद्वेषाच्यां पृच्छतः स्पृशतो वा क्रियात्मके, पृष्टिकातस्मार्माधर्मा-ववगाढी व्याप्य लोक सर्वम् । एवं हि परिच्छिन्नः, सिरूचति लोकस्तदविनुत्वात् " ॥२॥ (जा) (स्पृष्टिका ) याः क्रियाया नेदे, स्था० २ ठा० १ २० । नत एव लोकालोकव्यवस्था हेतू धर्माधर्मास्तिकायावित्यनयो- अजीवमिस्सिया-अजीवमिश्रिता-स्त्री०सत्यमृषानेदे, यदायदा रादावुपादानम् । तत्रापि माङ्गलिकत्वात प्रथमतो धर्मास्तिका- प्रभूतेषु मृतेषुस्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्कादिषु एवं यस्य, तत्प्रतिपक्वत्वात्ततोऽधर्मास्तिकायस्य, ततो लोकालोक-| वदति-अहो! महानयं मृतोऽजीवराशिरिति तदा सा अजीवमिव्यापित्वादाकाशास्तिकायस्य, तदनन्तरं लोके समयासमयके- श्रिता, अस्या अपि सत्यमृषात्वम्, मृतेषु सत्यत्वात् , जीवत्सु अन्यवस्थाकारित्वादकासमयस्य । एवमागमानुसारेणान्यदपि यु- मृषात्वात् । प्रज्ञा० ११ पद । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) अजोवराासे अनिधानराजेन्डः। अजोगि अजीवरासि-अजीवराशि-पुं० । राशिभेदे, स०। अजुगवि-अयुगनित-त्रिण असमश्रोणिस्थे,"अजुगलिया, अजीवरासी दुविहा पन्नत्तातं जहा-ख्वी अजीवरासी, अतुरंता, विगहरहिया वयंति पढमं तु" ध०५ अधिक। अरूवी अजीवरासी य । से किंतं अस्वी अजीवरासी। जीवामी पं०व० । श्रो। अरूबी अजीवरामी दस विहा पन्नत्ता। धम्मस्थिकाए जाव अजुम्मदेव-अजीर्णदेव-पुं० । असावुद्दीनाऽऽगमनसमयात्प्राअघासमए । रूबी अजीवरासी अणेगविहा। ग्भाविनि जैननरेन्द्रभेदे, ती०२७ कल्प। अजुत्त-अयुक्त-त्रि० । युज-त । न० त० । विषयान्तरासक्ततनत्राजीवराशिद्धिविधः, रुप्यरूपिभेदात् । तत्रारूप्यजीवराशिर्दशधा-धर्मास्तिकायस्तद्देशस्तत्प्रदेशश्चेति । एवमधर्मास्ति या कर्तव्येवनवाहिते, अनुचिते, आपते, असंयुक्ते, "अयुक्तः कायाकाशास्तिकायावपि वाच्यौ । एव नव। दशमोऽद्धासमय प्राकृतः स्तब्धः" अयुक्तोऽनवहितः । अयोग्ये, बहिर्मुख, यक्तिइति । रूप्यजीवराशिश्चतुर्की-स्कन्धाः,देशाः,प्रदेशाः,परमाणव शून्ये, अनियोजिते च । वाच । बुध्या चिन्यमाने अनुपपत्तिश्चेति । ते च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदतः पश्वविधाः । सं कम सूत्रदोषविशेषपुष्टे, न० । यथा-" तेषां कटतम्र-गंजानां योगतोऽनेकविधा इति । स० । मदविन्मुनिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी" ॥१॥ अजीवविजय-अजीवविचय-पुं० न० । धर्माऽधर्माकाशका इत्यादि । विशे० प्रा० म०द्वि०। अनु० । वृ०।। अजुत्तरूव-अयुक्तरूप-त्रि० । न० ब० । असंगतरूपे, अनुचितलपुलानामनन्तपर्यायात्मकानामजीवानामनुचिन्तने, स वेषे, स्था० ४ ग. ३ १०। म्म०४ख०। अजीववेयारणिया-अजीवदारणिका-अजीववैक्रयणिका अजूरणया-अजीर्णता-(अजरणता)-स्त्री.शरीरजीर्णत्वाऽअजीववैचारणिका-अजीववैतारणिका-स्त्री। अजीवं वि विधाने, पा० । ध० । शरीरापचयकारिशोकानुत्पादने, “व हणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयण्याए अजूरदारयति स्फोटयति, अजीवमसमानभागेषु विक्रीणाति, द्वैभा. | णयाए"। भ०७ श०६ उ०। पिको विचारयति, पुरुषादिविप्रतारणबुख्याऽजीवं भणत्येता अजोग-अयोग-पुंगन० त० शैलेशीकरणे, सकलयोगचापल्यदृशमेतदिति यत्सा तथा । अजीववैदा-(वैक्रय-) ( वैचा.) (वैता-) रणिक्याः क्रियाया भेदे, स्था० २ ठा० १ उ० ।। रहिते योग चा" प्रीतिजक्तियचोसङ्गैः, स्थानाद्यपि चतुर्विधम् । तस्मादयोगयोगाप्तेमोक्तयोगःक्रमाद् भवेत्"॥१॥ अ०२० अजीवसामंतोवणिवाश्या--अजीवसामन्तोपनिपातिकी-स्त्री०। "तत्रायोगाद्योगमुख्याद, भवोपनाहिकर्मणाम् । कयं कृत्वा प्रकस्यापि रथोरूपवानस्ति, तं च जनो यथा यथा प्रलोकयति यात्युञ्चः, परमानन्दमन्दिरम्"॥१द्वा-२५द्वा० "अतस्त्वयोगो प्रशंसति च, तथा तथा तत्स्वामी हृष्यतीति । रथादी हृष्यतः योगाना, योगः पर उदाहृतः। मोक्षयोजननावेन, कर्मसंन्यासक्रियात्मके सामन्तोपनिपातिक्याः क्रियाया भेदे, स्था० २ ठा०१०। सक्षणः" ॥२॥ ल०। अव्यापारे,द्वा०२५ द्वा० असम्भवे च । द्वा० अज वसाहत्थिया-अजीवस्वास्तिका-स्त्रीण स्वहस्तगृही १० द्वा० । अप्राशस्त्ये, न० त० । ज्योतिषोक्त तिथिवारादीनां मुटे योगे, " अयोगः सिरियोगश्च, द्वावती भवतो यदि । श्रतेनैवाजीवेन खङ्गादिनाऽजीवं मारयति सा अजीवस्वाहस्तिकी, स्वहस्तेनाजी ताडयतोऽजीवस्वाहस्तिका । स्वाह योगी हन्यते तत्र, मिहियोगः प्रवर्तते"॥१॥राजमार्तएमः न. ब। विधुरे, कूट, कचिनोदये, सुश्रुतोक्ते वमनापशमनीय रोग. स्तिक्याः क्रियाया भेदे, स्था०२ ठा०१ उ०। नेदे च । यत्राध्मानं हृदयग्रहस्तृष्णामूळ दाहश्च भवति तमयोअजीवापञ्चक्खाणकिरिया-अजीवाप्रत्याख्यानक्रिया-खी। गमित्याचवते, तमाशु वमयेदिति । वाच । अजीवेषु मद्यादिषु अप्रत्याख्यानाकर्मबन्धनरूपेऽप्रत्याख्या अजोगया-अयोगता-स्त्री०। योगनिरोधोत्तरं शैलेशीकरणात्प्रा. नक्रियाभेदे, स्था०२ ठा० १३०।। वर्तमानायामवस्थायाम् , औ० "योगणिरोहं करेश, करश्त्ता अजीवाभिगम-अजीवानिगम-पुंगतः। गुणप्रत्ययावध्या. अजोगत्तं पाउण, अजोगत्तं पानणित्ता सिं रहस्स" औ०। दिप्रत्यक्षतः पुमलास्तिकायाद्यभिगमे, स्था०३ ठा०२ उ०। “से | अजोगरूव-अयोगरूप-त्रि०।६ ब० । अघटमानके, “ अजोगकिंतं अजीवाभिगमे। अजीवानिगमे दुविहे पन्नत्ते । तं जहारूविअजीवाभिगमेय, अरूविश्रजीवाभिगमे य ।से किंतं अरू रूवं इह संजयाणं, पावं तु पाणाण य संझकाउं " सूत्र०२ विअजीवाभिगमे । अरूविअजीवाभिगमे दसविहे पन्नते। तं श्रृ०६अ। जहा-धम्मत्थिकाए एवं जहा पन्नवणाए जाव । सेत्तं अरूवि अजोगि (ण )-अयोगिन-पुंगन सन्ति योगा यस्य । स्था०२ अजीवाभिगमे"। जी०१ प्रतिः । ठा०१ उ० । बहुवीहेमत्वर्थीय इति । यथा-सर्वधनी । सर्वधअजीब्भव-अजीबादजव-त्रि०। अजीवप्रभवे, दश०१ अ०। नादेराकृतिगणत्वात् । दर्श० । न योगीति वा योऽसावयो गी। स्था०२ ठा०१उ० । निरुद्धयोगे, स्था०४ ठा०४ उ० । अजु-अयु-त्रिका युक मिश्रणे इत्ययं परैरमिश्रणे चेत्यभिधी शैलेश्यवस्थायम् सूत्र० २ ०३ अाअावा कर्म०। कथमयोयते । अतो यौति पृथग्भवति इति यु-विचि , छान्दसत्वाद् गित्वमसावुपगच्छतीति चेत् ?, उच्यते-स भगवान् सयोगुणाभावः। न युरयुः । अपृथग्भूते, " धियोऽयो नः प्रचोद गिकवली जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुकृष्टतो देशानांपूर्वकोटि विहृत्य यात्" जैनगायत्री। अजुअलवस्मा-देशी-अम्लिकावृक्के, दे० ना० १ वर्ग। कश्चित्कर्मणां समीकरणार्थ समुद्घातं करोति, यस्य वेदनी यादिकमायुषः सकाशादधिकतरं भवति, अन्यस्तुन करोति । अजुअन्नवालो-देशी-सप्तच्छदनामके वृक्षविशेषे, देना०१वर्ग। (केवलिसमुग्घाय' शब्दे चैतद वक्ष्यामः) भोपनाहिकर्मअजुनो-देशी-सप्तच्छदवृक्षविशेषे, दे० ना० १ वर्ग। क्षपणाय लेश्यातीतमत्यन्ताप्रकम्प परमनिर्जराकारणं भ्यानं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजोगि प्रतिपित्सुर्योगनिरोधार्थमुपक्रमते । तत्र पूर्व बादरकाययोगेम बादर मनोयोगं निरुयदि, ततो वाम्योगम् । ततः सूक्ष्मकाययोगेन वादकाययोगं तेनैव सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मयाग्योगं सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्ति क्रव्यानं ध्यायन् स्वावष्टम्भेनैव निरुणदि अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्त रस्य तदाऽखायात्। तद्ध्यानसामर्थ्याच वदनोदरादिविवररणेन संकुचितदेहविभागवर्तिप्रदेशो भवति। तदनन्तरं सम्त्सनक्रियमप्रतिपाति शुध्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपत्या स्व पञ्चाक्षरोद्रिरणमात्रकालं शैलेशीकरणं प्रविशति । कर्म०२ कर्म० | अनोगिकेवलि (ए)- अयोगिकेवलिन अयोगी बासी केवली प्रयोगकेवली निरुद्ध मनःप्रभृतियोगे शीते ०१४ सम० विगतकियानिवर्ति शुध्यानं ध्यानधा योगिकेवली निःशेषितम लकलको बासशुद्धनिजस्वभाव ऊ. र्ध्वगतिपरिणामः स्वाभाव्यानिवातप्रदेश प्रदीप्तशिखावदूर्ध्वं गच्छत्येकसमयेनाऽऽलोकान्तात् । सम्म०५ खं०। कर्म० । श्रयं च शैलेशीकरणं चरमसमयानन्तरमुच्छिन्नचतुर्विधकर्मबन्धनत्वादमृत्तिकालेपि लिप्ताधोनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलमदोवं गामि तथाविधातावुचद्भर्वलोकान् गच्छ ति, नापरतोऽपि मत्स्यस्य जलकल्पं गत्युपष्टम्भकधर्मास्तिकायाभावात् । स चोर्ध्वं गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत् स्वाका शप्रदेशेष्यवगादस्तायदेय प्रदेशार्थमवगाहमानो विवक्षितसमग्राच्च समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति तदुक्रमावश्यकन्तु च - " जत्तिए जीवो श्रवगाढो तावइयाए श्रोगाहणाए ठकुं उज्जुगं गच्छ नवकं वीयं च समयं न फुसइ त्ति" । दुःषमान्धकारनिमग्रजिनप्रवचनप्रप्रतिमाः श्रीजिनभद्रगणिपूज्या श्रप्याहु:-"उजु सेढीपडिवो, समये समयंतरं श्रफुलमाणो । एगसमयेण सिज्झइ, श्रह सागारोवउत्तो सो" ॥ १ ॥ कर्म० २. कर्म० | प्रब० । ( २००) अभिधान राजेन्द्रः | 2 जोगिन गुणवाण - अयोगिकेवलिगुणस्थान- न०६० गुरुकर्म कर्म न योगी अयोगी, अयो गीचासौ केवली च प्रयोगिकेवली । तस्य गुणस्थानमयोगिकीलगुणस्थानमधि वर्तमानः कर्मक्षपणाय व्युपरत क्रियमनिवृत्ति ध्यानमारोहति । श्रह च- " स ततो देहत्रयमोक्षार्थमनिवृतसर्ववस्तुगतम् उपयाति समुच्छि क्रियमतमस्कं परं ध्यानम् |१| एवमसावयोगिकेवली स्थितिघातादिरहितो यान्युदयवन्ति कर्माणि तानि स्थितिक्कयेणानुभवन् कृपयति । यानि पुनरुदयवन्ति तदानीं न संभवन्ति तानि वेद्यमानासु प्रकृतिषु तिबुकसंक्रमन् वेद्यमानप्रकृतिरूपतया वा वेदना याति यावदन्यवखाद्विक चरमसमयः तस्मिमये देवगतिदेवानुपूर्वी चकसंघातपञ्चकसंस्थानपटु पात्र व संहननपटूवर्णादिविश तिपराधातोपघातागुरुप्रशस्ता प्रशस्त विहायोगतिस्थि रास्थिरगुजाशुभसुस्वर दुःस्वर दुर्भगप्रत्येकानादेयायशः कीर्तिनिर्माणापर्यासकी गषसातासातान्यतरानुदितवेदनस्वरूपा विहसन्ततिसंख्यानमधिकृत्यं कयमुपगच्छन्ति । चरमसमये स्तिबुकसंक्रमेणोदयवतीषु प्रकृतिषु मध्ये संक्रम्यमा त्यात संक्रम सर्वोपयुक्तस्वरूप मत्यभिषा पर तिषु यः । " मूलप्रकृत्यभिन्नाः, संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृ ती:" इति वचनात् । चरमसमये च सातासातान्यतरवेद्यमनु प्रज्ज व्यंगतिमनुष्यानुपूर्वीमनुष्यायुःपञ्चेन्द्रियजातित्रस सुन्नगादेययशः कीर्ति पर्याप्तवादरतीर्थकरोबैगोत्ररूपाणां त्रयोदशप्रकृतीनां सताव्यवच्छेदः । अन्ये पुनराहुः मनुष्यानुपूज्य द्विरमसमये व्यवच्छेद- उदपाभावात् उदययतीनां हि स्तियुकसंक्रमाभावात् स्वस्वरूपेण चरमसमये दलिकं दृश्यत एवेति युक्तस्तासां चरमसमये सत्ताव्यवच्छेदः । श्रानुपूर्वीनाम्नां तु चतुणामपि क्षेत्रविपाकतया प्रचापान्तरागताः तेन म वस्थस्य तदुदयसंभवः, तदसंज्ञवाश्चायोग्यावस्था द्विचरमसमये च मनुष्यानुपूर्व्या सत्ताव्यवच्छेद इति तन्मतेन रमसमये त्रितिकृतीनां साम्यवच्छेद, चरमसमये शाद शानामिति । ततोऽनन्तरसमये कोराबन्धमोकलकारि समुत्थस्वनावविशेषादेशारुफलमिन भगवानपि कर्मि 1 कणसहकारिसमुत्थस्वभावाविशेषादूर्द्ध लोकान्ते गच्छ ति । स चोर्द्ध गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्स्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावदेव प्रदेशानुर्द्धमप्यवगाहमानो विवक्तिमाचान्यत्समयान्तरमस्पृशन् गच्छति । उक्तं चाऽऽवश्यकचूर्णी- “जतिए जीवो श्रवगाढो तावश्याए श्रोगाहणार ठकुं वज्जुगं गच्बर, नवकं वीयं च समयं न फुसइत्ति " तत्र च गतः सन् भगवान् शाश्वतं कालमवतिष्ठते । पं० सं० १ द्वा० । अजोगिनदत्य- प्रयोगिजवस्थ-पुं० । प्रयोग चासो भवस्थ थायोगभयस्थः शैलेश्ववस्थामुपगते, नं० अजोगिनवात्यकेवलणाण-प्रयोगवस्थ केवल ज्ञान-गण० शैलेशीकरणव्यवस्थितस्य मं० शब्दे व्याख्याऽस्य प्रष्टव्या ) अभोगिसंतिगा-अयोगिताका स्त्री० प्रयोगकेवलिसि । सायासां ता अयोनिसत्ताका चतुर्दशगुरुस्थानिनि लग् सत्ताकासु प्रकृतिषु, पं० सं० १ द्वा० । अजोग्ग-अयोग्य अनुपा १० वि० अजोणिनूप- अयोनिजून १० विश्वस्तयोनी प्ररोहासमर्थे, " दश० । अजोशिय-प्रयोनिक - पुं० न० ब० सिके, स्था०२०१ ३०१ जोसिय- अजुष्ट-त्रिण असेविते, “जे विश्वणा अजोसिया” सूत्र० १०२ अ०१ ३० । अज्ज अर्ज-घा० प्रतियले । भ्वादि०, पर०, सक०, सेद् "अर्जेविद्रवः " ८।४।१०८ । इति प्राकृतसूत्रेण विढवादेशानावे, अजर, अर्जति । श्रानर्ज । श्राजत् । प्रा० । श्रजिज्जर, श्र यते । प्रा० अर्ज संस्कारे, चुरा०, उन०, सक०, सेट् । श्रजयति-तेर्जिज- अनुवाद पितृ अमेण यदुपा र्जयेत्" स्मृतिः । वाच० । अ - त्रि० । न० त० । “ ज्ञो ञः” ८ । २ । ८३ । इति लोपे द्वित्वं जस्य । ज्ञानराहते मूर्खे, प्रा० । अय-अव्य० अस्मिन्नहनि इशब्दस्य निपातः सप्तम्यर्थे । उत्त० ३० । सूत्र। वर्तमानदिने, नि० खू० एड०] " श्रखो ! अ. ज्जम्ह सफलं जी" प्रा० । अद्यतया वाऽधुनातनतया वर्तमानकाल इत्यर्थः । भ० १४ श० ए उ० । वैनारपर्वतस्याऽधःस्थे हदे, पुं० भ० २ ० ५३० । अब्ज - न० अप्सु जायते । जन-म। ७ त०] पदूमे, सहे, पुं०न० 66 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ज ( २०१७ ) अभिधानराजेन्द्रः | न " तस्य जलप्रायप्रयत्वात् तथात्वमचन्द्र धन्यन्तामगंग-आर्यगट्ट पुं० शिवमियमकेनाचार्य ( पुं०) तयोः समुद्रजातत्वात् तथात्वम् । चन्द्रनामके कर्पूरे, भेदे, “उल्सुकाली रक्षेत्रे महागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम । अस्यापि पुं० जलजातमात्रे (त्रि०) वाच० दशार्बुद संख्यायां शतको शिष्य आर्यगङ्गो नामाऽऽचार्यः । श्रयं च नद्याः पूर्वतटे, तदारिसंख्यायां तत्संख्येये च ( न०, ) कल्प० । परत ततोऽन्यदा शरत्समये दिमा अर्थ-वि० यत्। "अर्यः स्वामियो" ३ २ १०३ गच्छन् गङ्गानदीमुत्तरति स्म । स च खल्वाटः । ततस्तस्योपइति पाणिनिसूत्रात् स्वामिनि वैश्ये च वाच्ये एयतोऽपवादो रिष्टादुष्णेन दह्यते स्म खल्ली, अधस्तातु नद्याः शतिलजलेन यत् । स्वामिनि, भ०३ श० २ उ० । शैत्यमुत्पद्यते स्म । ततोऽन्तरे कथमपि मिध्यात्वमोहनी पो यादसौ चिन्तितवान् श्रहो ! सिकान्ते युगपत्क्रियाद्वयानुभवः किल निषिकः । अहं त्वेकस्मिन्नेव समये शैत्यमप्यं न वे तिरुत्वामागमोक्षं शोविनय गुरुयो निवेदयामास तनस्तैद यमाणयतिभिः प्रा पितोऽसौ यदा स्वाग्रहग्रस्त बुद्धित्वान किंचित्प्रतिपद्यते स्म तदा उद्घाटय बाह्यः कृतः । स विहरन् राजगृहनगरमागतः । तत्र च महातपस्तीरप्रभवनाम्नि प्रस्रवणे मणिनागनाम्नो नागस्य चैत्यमस्ति । तत्समीपे च स्थितो गङ्गः पत्युरःसरं युगप याद्वपचेदनं प्ररूपपति तथा प्रकुपितो मणिनागस्तमबादीत् श्ररे दुष्ट शिष्यक ! किमेवं प्रज्ञापयसि ? यतोऽत्रैव प्रदे शे समय श्रीमद्धमानस्थामिना एकस्मिन् समये एकस्था एव क्रियाया वेदनं प्ररूपितम् तखेद स्थितेन मयाऽपि श्रुतम्। तक्कि रातोपि लघुतर प्ररूपको भवान् येथे युगपत्किपाद्वय वेदनं प्ररूपयति ?; तत्परित्यजैनां कूटप्ररूपणाम; अन्यथा नाशयिष्यामोत्यादि । यवाय प्रबुद्धोऽसी मिष्यादुष्कृतं दत्त्वा गुरुमूलं गत्वा प्रतिक्रान्त इति । अत्र प्राष्यम् - "नइमुखमुरो, सपरसीय गंगस्स सुगजितसिरसा उ वयोम लो॥१॥ (अ) माहो गये, उनकरि या भोगोलि । जं दो वि समयमेव य, सीओ सिणवेपणाओ मे " ॥ २ ॥ गतार्थैव | विशे० । ( 'दोकिरिय' शब्दे एतन्मतम ) अज्जघोस-आर्यघोष-पुं० । पार्श्वनाथस्य द्वितीये गणधरे, स्था त्रिचारातू सर्वदेयधर्मेच्यो यातः प्राप्तो गुणैरित्यार्थः। प्रशा० १पद | नं० श्राष० । पापकर्मबदिर्भूतत्वेनापापे, स्था० ४ ग०२ उण० साधी, कल्प वृ० | "अणायरियनज्जाणं, श्रासइतु सन्तु वा "दश० ६ श्र० । चारित्रा, श्राचा०१ ४०५ श्र० २ कर्मकारिणि अजुगुप्सितकारिणि व्य०१० सुजने मृ०१३०| आमन्त्रणे श्रार्यशब्दप्रयोगः “अज्जो ! सामाइयं जाणामो" दे !, श्रीकारान्तता सम्बोधने प्राकृतत्वात् भ०१० ६उ० । “एस णं अजो करदे वासुदेवे" अज्जो ति श्रामन्त्रणवचनम् । भगवान् महावीरः किल साधूनामन्त्रयति-हे श्रायः !। स्था० वा० " श्रज्जो ति समणे जगवं महावीरे गोयमाइसम - णे णिग्गंथे आमंतिना एवं वयासी " । स्था० ३ ० २ उ० । मातामहे, नि० । पितामहे, शा० ८० । गोत्रप्रत्र केषमे पुं० पगोजी "बंदे संकि अ ब्जजीयधरं " शाण्डिल्यस्यापि शिष्य श्रर्यगोत्रो जीतधरनामासुरिरास मं०। अज्ज सिवालिया र्षिपालित- पुं० [स्त्री०। आर्यशान्तिश्रेणिकस्य मातरसगोत्रस्य तु यथापत्येन्तेवासिनि कल्या पितातियां शाखायाम स्त्री० "चेरेहिंतो बस वालिहितो इत्थ णं श्रजइसिवालिया सादा णिग्गया" : कल्प०। श्रज्जउत्त - आर्यपुत्र- पुं० । ६ त० । अपापकर्मवतोर्मातापित्रोः पुत्रे, स्था 3 #f अज्जन- देशी- सुरसगुरेटयोस्तृपदयोः ३० ना० १ अलकण्ड प्रार्थकृष्णा पुं०] दिगम्बरमतप्रवर्तकस्य शिवजूतेरौ, आ० म० द्वि० । उत० । विशे० । श्रा० चू० । ( ' बोकिय ' शब्दे किश्चित विशेषयामा प्रज्जकम्म-आर्यकर्मन् - - न० श्रायै देयधर्मज्यो नृशंसतादिज्यो दूरयातं कर्म शिष्टजनोचितेने जति भोष प असतो श्रजाई कम्माई करेह राय" उल० १३ श्र० । अज्ञकालग - आर्यकालक-पुं० । स्वातिशिष्ये हारीतगोत्रे श्या मापरनामके श्राचाय्यै, नं०। ( 'सम्मवाय' शब्देऽस्य तत्का रित्वं रुष्टव्यम् ) आ० म० ६ि० । मा० चू० जखमाखपुट-५० विद्यासिद्धे आचार्यने म० द्वि० आ० चू० । ( 'विज्जासिक' शब्देऽस्य वक्तव्यता ) अज्जग - श्रार्यक- पुं०| पितामहे; व्य० १ उ० । झा० ॥ श्र० म० प्रo | "अज्जर पज्जए वा वि वप्पल पिउ तिय। माउला भा इणिजे चि पुतो नत पतिय " ॥ १ ॥ दश० ७ अ० । "अजय पजयपिउपायागप य बहुहिरहणे य सुवणे य भ० ६ श० ३३ उ० । ० -- आपक० भूणे, नि० ० ११४० । अज्जचंदा। ८० कल्प० । अज्जचंदरणा - आर्यचन्दना - स्त्री० | भगवतो महावीरस्य प्रथमशिष्यायाम्, कल्प० । आ० चू० आ० म० प्र० । अन्त० । तद्वक्तव्यता चैवम् 66 इतक्ष नगरी चम्पा नरेन्द्रो दधिवाहनः । सामदानी, नीम ॥ २४ ॥ किया गतधस्पा-प्रवेश्यदचिन्तिताम । चम्पापति पाचि तदानीं दधिवाहनः ॥ २५ ॥ या घोषितस्तत्र शतानीकमही तदनीकभटाचम्पां, स्वेच्छया मुमुचुस्ततः ॥ २६ ॥ औष्ट्रिकः कोऽपि जग्राह दधिवाहनवल्लनाम् । वसुमत्या समं पुत्र्या, नश्यन्तीं धारिणीं तदा ॥ २७ ॥ कृतकृत्यः शतानीको, निजं नगरमागमत । मौष्ट्रिका लोकानां पन्येषा मे भविष्यति ॥ ५० ॥ विशेष्ये कम्यां तां राज्ञीति दुःखिता। मृता हृदय संघट्टात्, स्वशीलभ्रंशशङ्कया ॥ २ ॥ दानीको कमिदं मया । सुताऽथ रुदती तेन नीता संबोध्य चाटुभिः ॥ ३० ॥ चतुष्पथेऽथ विक्रेतुं दाणिं ताम कन्यामनन्यसामान्यां दृष्ट्वा श्रेष्ठी धनावहः ॥ ३१ ॥ दध्यौ राङ्गः सुता कस्या पीश्वरस्याथवा जवेत् । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) अभिधानराजेन्द्रः । अज्जचंदणा सुपाश्विनयशीला तन्माऽऽपदापदमसौ, कापि हीनकुलं गता ॥ ३२ ॥ वायं स्वजनेतु मिलेस्मद्दे स्थिता। पत्यर्थितमथ व्यं, दत्त्वा तामग्रहीरूनः ॥ ३३ ॥ नासा स्वगृहं पृष्टा, कन्ये ! काऽसीति नावदत् । सुतेत्यथ प्रपन्ना सा, श्रेष्ठिना मूलयाऽपि च ॥ ३४ ॥ विखे स्वेच्छा - वेश्मनी सा हलोको वशीकृतः ॥ ३५ ॥ लोकतां ततोऽथात् गुणेनेत्यसौ । ततो द्वितीयमंत्रैतन्नामाद्विश्वविश्रुतम् ॥ ३६ ॥ श्रमेयदा मध्यमा, ही मन्दिरमागमत् । कोको नासीत तदाऽडो किए चन्दना ॥ २७ ॥ श्रेष्ठिना वार्यमाणाऽपि बनादकालयत् पदौ । काल्लयन्त्यास्तदा तस्याः, बुटिता केशवरी ॥ ३८ ॥ पतन्ती पाणियष्टचैव धृत्वा श्रेष्ठी बबन्ध ताम् । सायां मा पतेद् भूमौ मूलैकत गवाकगा ॥ ३९ ॥ अचिन्तयत्ततो मूला, , मया कार्य विनाशितम् । यद्येतामुद्वहेत् श्रेष्ठी, तदाऽहं पतिता बहिः ॥ ४० ॥ व्याधिर्वावसुकुमारस्तावदेनं निघ गते नापितं ताममुरडयत् ॥ ४१ ॥ निगमैर्यन्त्रयित्वाऽङ्घ्री, किप्सा कापि गृहान्तरे । श्रेष्ठिनोsवारि कथयन् सर्वः परिजनोऽनया ॥ ४२ ॥ मूला मूलगृहे ऽयासीद्, भोक्तुं श्रेष्ठी गृहाऽऽगतः । क्व चन्दनेति पप्रच्छ, मूलाभीतो न कोऽप्यवक् ॥ ४३ ॥ सोझासीममाणा सा भविष्यत्यथवोपरि । पृष्ठा निश्यपि नाऽऽख्याता, ज्ञातं सुप्ता भविष्यति ॥ ४४ ॥ । साम ऊचे श्रेष्ठी न यो जानन्नाख्याता स हनिष्यते ॥ ४५ ॥ ततः स्थविरया दास्यै-कया मज्जीवितेन सा । जीवित्वाचस्य चन्दमाचारकक्रियाम् ॥ ४६ ॥ पदा तालकं भत्वा तद्द्वारमुद्द्घाटयत् । क्षुत्तृषात्ती निरीक्ष्यैता-माश्वास्याथ धनावहः ॥ ४७ ॥ पश्यन्, भोज्यं कृते तस्याः, नापश्यत् किंचनापि सः । कुल्माषान् वीच्य दत्त्वाऽस्यै, सूर्यको विधाय तान् ॥४८॥ निगडानां भञ्जनाया - ऽगात्कर्मारगृहे स्वयम् । तदा सा कुलमस्मार्षीद्, दुःखपूरेण दुःखिता ॥४६॥ क मे राजकुलं तादृग्, दुर्दशा केयमीदृशी ? | किं मया प्राकृतं कर्म विपाकोऽयं यतोऽभवत् १ ॥५०॥ स्वीकसियानव्यापि तपसः पारसादिने । साधर्मिकाणां वात्सल्यं कृत्वा पारणकं व्यधाम् ॥५१॥ कस्याप्यदत्त्वा किमपि षष्ठं पारणके कथम् ? । अनामीत्यतिथेर्मार्गे, पश्यन्त्याऽऽस्तेऽन्ति सा न तु ॥ ५२ ॥ मध्येऽहमेकं देहल्या वहिष्कृत्वा द्वितीयकम द्वारशाखावितास्ते रुदती मन्दमुन्नाः ॥४३॥ तदाऽगाद्भगवान् वीरो, भिक्षार्थे तमवेक्ष्य सा । श्रहो ! पात्रं मया प्राप्तं किञ्चित्पुण्यं ममास्त्यपि ॥५४॥ नोचितं वः प्रभो ! देयं परं कृत्वा कृपां मयि । कल्पते चेदाददीध्वं ज्ञात्वाऽथावधिना प्रभुः ॥५५॥ यामि इति पाणिपात्रमधारयत् । कुल्माषांस्तान् ददी सर्वान् धन्यं मत्वाऽतिभक्तितः ॥५६॥ सार्द्धद्वादशकोट्यस्तु, पतन्स्वर्णस्य तगृहे । अज्जण चेलोत्क्षेपः पुष्पगन्ध-वृष्टयो दुन्दुभिध्वनिः ॥ केशपाशस्तथैवाभू-निगडानि च पादयोः । स्वर्णपुरतां मेर्वपुः कान्तिर्नवाऽभवत् ॥४८॥ तत्क्षणाचन्दना च सुरैः सर्वाङ्गभूषिता । आयी देवराद शक्रः प्रमोदभरनिर्भरः ॥५६॥ दुन्दुभिध्वनिमाकर्ण्य, ज्ञात्वा पारणकं प्रभोः । शतानीकः सपत्नीको प्यागमनवेश्मनि ॥१०॥ धाग्यानीतः संपुलांऽभूद्दधिवाहनकञ्चुकी। सोऽप्यगात् तत्र तयांचय तद्धः प्रणिपत्य च ॥ ६१ ॥ मुकण्ठं रुदन् सोऽथ कैपेत्यमच्छि भूभुजा ? | सोsवकू चम्पेशपुत्रीयं, वसुमत्यभिधानतः ॥ ६३॥ सादृश्यपि कथं प्रेष्य-भायं प्राप्त्रेति रोदिमि है। मृगावती तदाकर पोचमेऽखीखसुः सुता ॥६३॥ अमात्योऽपि सपत्नीक स्तवैत्यान्द प्रभुम पञ्चाहन्यूनषणमास्याः, कृत्वा पारणकं प्रभुः ॥ ६४ ॥ निर्ययौ कनकं गृह्णन्, भूपः शक्रेण वारितः । यस्मै दास्यत्यसी वर्दमेतस्य भविष्यति ॥६५॥ सा पृष्टा मत्पितुः स्वर्ण, ततः श्रेष्ठी तदाददे । शक्रेणाऽभाणि राजाऽथ, स गोप्या चन्दना त्वया ॥६६॥ स्वामिकानमेषा यत् शिष्याचा भाविनीतोः। चन्दनाऽस्थागृहे राज्ञः, शक्राद्याः स्वालयं ययुः ॥६७॥ लोक निन्द्याऽनवन्मूला, स्तुता चन्दनया पुनः । प्रर्दशैवं न चेन्मे स्यात्, कथं स्यात्पारणा प्रभोः ? ॥६८॥ धन्याऽहं कृतपुण्याऽहं. पारणाकारणात् प्रनोः । बभूव दुर्दशाऽपीयं मम सर्वोत्तमा दशा ॥ ६६ ॥ श्र० क० । स्था० । श्रनयैव काली (अन्त०८ वर्ग) देवानन्दाप्रभृतयः प्रव्रा जिताः । भ० श० ३३ उ० । उपालम्भे, दश० १ श्र० अनं आजम्बू- सुधर्मस्वामिनः शिष्ये " ब्रजसु हम्मं अंतेवासी श्रज्जजंबू जाव पज्जुवासति " अन्त० १ वर्ग । अग्नमक्खिणी अर्पयक्षिणी खी० अरिने प्रथमशिव्यायाम्, कल्प० । अज्जयंत ये, कल्प० । अज्जजयंती - थाजयन्ती - स्त्री० । स्थविरादार्य्यरथान्निर्गतायां शास्त्रायाम, " घेरेहिंतो जरदेहित 1 जयन्तु पुं० यज्ञसेनस्य तृतीये शि ज्जजयंती सादा णिग्गया " कल्प० । श्रार्य जयन्तान्निर्गतायां शाखायां च । 'थेराश्रो श्रजजयंताओ अज्जजयंती साहा जिम्गया" । कल्प० । अज्जीय (ह) र C जीतधर पुं० [प्रारात्सर्वदेवयोग्यतमाम जी समिति सूत्रमुच्यते। जीतं स्थितिः कल्पः मर्यादा, व्यवस्था इति हि पययाः मदार सूत्रमुच्यते पूत्र धारणे 'भियंते, धारयतीति वा लिहा ज्य इत्यच्प्रत्ययः । श्रार्य्यजीतस्य घर आर्य्यजीतधरः । सूत्रसम्पन्ने, श्राय्र्यश्वासौ जीतधरः । श्रार्य्यगोत्रे शाण्डिल्य शिष्ये जीतधरनामके सूरी " कोसियगुणं संडिलं जी" इत्यत्राऽऽजीतधशब्दस्य प्रदर्शितार्थद्वयपरतया व्याख्यानात् । नं० । अज्जण - अर्जन – न० । अर्ज - ल्युट् । ग्रहणे, विशे० । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) अज्जण अभिधानराजेन्द्रः। अज्जमंगु श्राव । सम्पादने, स्वामित्वसंपादके व्यापारभेदे च । वाच । | खायाम, "थेरेहिंतो अजपउमेहिंतो इत्थ णं अजपनमा साहा अज्जणक्रवत्त--आर्यनक्षत्र--पुं०। आर्यनस्य झिप्ये, कल्प। णिग्गया" कल्प०। अज्जदिल-बायनन्दिल-पुं० आर्यमकोः शिष्ये आर्यना- अज्जपुंगन-आर्यपुत्र-पुं०। बोरूपरिभाषितेषु बाह्यार्थानावात् गहस्तिगुरौ, केवलबुख्यात्मसु अर्थेषु, अने० ४ अधिक। नाणम्मि दंसम्मि य, तवविणयणिच्चकालमुज्जत्तं। । अज्जपूसगिरि-आर्यपुष्पगिरि-पुं०। प्रार्यरथस्य शिष्ये, कल्प अजानंदिलखमणं, सिरसा बंदे य संतमणं ।। अज्जपोमिल-आर्यपोमिल-पुं०। प्रायवज्रसेनस्य द्वितीये शिमार्यमकोरपि शिष्यमार्यनन्दिलकपणं प्रसन्नमनसं शमरिक्त ध्ये, कल्प। द्विष्टान्तःकरणं शिरसा वन्दे । कथं नूतमित्याह-शाने श्रुतका | अज्जपोमिला-आर्यपोमिया-स्त्री० । आर्यपोमिमानिर्गताया नदर्शने, सम्यक्त्वे, चशब्दाचारित्रेच, तथा तपसि यथायो शाखायाम, "थेरानो प्रजपोमिलाओ अज्जपोमिला साहा णिगमनशनादिरूपे,विनये ज्ञानविनयादिरूपे, नित्यकालमुद्युक्तमम ग्गया" कल्प। मादिनम् । नं। अनेनैवार्यनन्दिलेन धरणेन्द्रपल्या नागेन्छाया अजप्पभव-आर्यमभव-पुं०। प्राय॑जम्बूनाम्नः काश्यपगोत्र'नमिऊण त्ति' शब्दादि स्तोत्रं कृतम् । जै०१०। स्य शिष्ये, कल्प० । ('पभव' शब्दे वक्तव्यता चास्य) अज्जणाइल-प्रायनागिन--01 आर्यवज्रसेनस्य प्रथमेऽन्ते 1- अजप्पनिइ-अयप्रति-अव्य० । इतो वर्तमानदिनादारवासिनि, कल्प। ज्येत्यर्थे, " णो खन्नु मंते ! कप्पर, अजप्पनि अध्यात्थियां अज्जणाइला--आर्यनागिला-स्त्रीवास्थविरादायनागिलान्नि- | वा" उपा० १ ०। प्रति० । र्गतायां शाखायाम, "थेरानो अज्जणाश्लामो अजणाना सा- अज्जफग्गमित्त-आर्यफल्गुमित्र-पुं० । आर्यपुष्पगिरेः शिष्ये हा णिमाया" कल्प। आर्यधनगिरेगुरौ, कल्प अज्जणाइली-आर्यनागिली-स्त्री० । आर्यवज्रसेनानिर्गतायां अज्जम ( ण् )-अर्य्यमन्-पुंग अयं श्रेष्ठ मिमीते ।मा-कनिन् । शाखायाम, "थेरेहिंतो अज्जवइरसेणिपहिंतो इत्थ णं अज्ज- | सूर्ये, आदित्यनेदे, पितृणां राजनि, वाच० । अर्यमनामके देवणाली साहाणिग्गया" कल्प। विशेष, ज०७ वक० । अनु० । उत्तरफाल्गुनीनक्वत्रस्यार्यमा दे. अजाणता--अर्जयित्वा-अव्या उपादायेत्यर्थे, " एगतदुक्खं वतेति । ज्यो०६ पाहा यमदेवोपक्तिते उत्तरफाल्गुनीनभवमजाणित्ता, वेदंति उक्खी तमणतयुक्त्रं " सूत्र० १ श्रु०५ | कत्रे, ज्यो० १५ पाहु० । चं० प्र० । सू०प्र० । ग० । “दो अज्जअ०२०। मा" स्था० २ ग० ३ उ०। अज्जतावस--आर्य्यतापस-पुं०। प्रार्य्यवज्रसेनस्य चतुर्थेऽन्तेवा अजमंगु-आर्यमङ्गु-पुं० । आर्यसमुत्रस्य शिष्ये, सिनि, कल्प। भणगं करगं ऊणगं, पभावगं णाणदसणगुणाणं । अज्जतावसी--आर्य्यतापसी--स्त्री० । आर्यतापसानिःसृतायां बंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं ।। ३०॥ शाखायाम , "थेरानो अज्जतावसानो अज्जतावसी साहा णि नणगमित्यादि । आर्यसमुत्रस्यापि शिष्यमार्यमई बन्दे । किनूगया" कल्प। तमित्याह-नणकं कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति प्रतिपादअज्जत्ता अद्यता--स्त्री०। वर्तमानकालतायाम् ,," अज्जका- यतीति भणः, भण एव भणकः । "कश्च" इति प्राकृतलवणसुलिना अज्जत्तया वा"कस्प० । त्रातू स्वार्थ कप्रत्ययः, तम्।तथा कारकं कालिकादिसूत्रोक्तमेवोप्रार्यता-स्त्री०। पापकर्मबहिर्भूततायाम , " जे श्मे अजताए पधिप्रत्युपेक्वणादिरूपक्रियाकलापं करोति कारयतीति वा कारसमणा जिग्गंथा विढरंति" अष्ट० २ अष्ट। कल्प० । भ०। कः, तम् । तथा धर्मध्यानं ध्यायतीति ध्याता , तं ध्यातारम् । इह यद्यपि सामान्यतः कारकमितिवचनेन ध्यातारामिति वि. अज्जथूलभद्द-आर्यस्थलमा--गार्यसंचूतविजयस्य शि शेषणं गतार्थम, तथापि तस्य विशेषतोऽभिधानं ध्यानस्य प्रधाध्ये महागिरिसुहस्तिनोगुरौ, कटप० । आव० । । नपरलोकाङ्गताख्यापनार्थमिति । यत एव जणकं कारकं ध्यातारं अज्जदिम--आर्य्यदत्त--पुं०। पार्श्वनाथस्य प्रथमगणधरे, स०। वा, अत एव प्रभावकम् ज्ञानदर्शनगुणानाम, एकग्रहणे तज्जाती"पासस्स अज्जदिएणो पढमो अठेव गणहरा" ति० । इन्द- यग्रहणमिति न्यायात् चरणगुणानामपि परिग्रहः । तथा धिया त्तस्य काश्यपगोत्रस्य शिष्ये च । तस्य शान्तिश्रेणिकः सिंह- राजते इति धीरः, तम् । तथा श्रुतसागरपारगम्। नं0 "तेन प्रगिरिश्च । कल्प। मादेनातिलोभतो यक्वत्वं नावाप्तम् " ध०र०। अज्जद्दय-आर्डिक-पुंग आर्याईकनाम्नि वीरशिष्ये, ('अहय' श्ह अजमंगुसूरी, ससमयपरसमयकणयकसवट्टो। शब्द कथा चास्य ) सूत्र०२ श्रु०६अ। बहुत्तिजुत्तसुस्सू-ससिस्ससुत्तत्थदाणपरो॥१॥ अजधम्म-आर्यधर्म-पुं०। आर्यमङ्गो शिष्ये नागुप्तगुरौ, " वं- सद्धम्मदेसणाए, पमिवोहियनवियसोयसंदोहो। दामि अजधम्म, तत्ती वंदे य जहगुत्ते य"। नं०। प्रायसिंहस्य कश्या वि विहारेणं, पत्तो महुरा नयरीए ॥२॥ सो गाढपमायपिसाय-गहियाहयया विमुक्कतवचरणो । शिष्ये प्रार्यशारिमल्यस्य गुरौ, कल्प० । गारवतिगपरिबको, ससु ममत्तसंजुत्तो ॥३॥ अजपनम-आर्य्यपद्म-पुंगआर्यवज्रस्य शिष्ये द्वितीये, कल्प। अणवरयभत्तजणदि-जमाणरुश्रन्नवत्थसोनेण । अज्जपठमा-आर्यपद्मा-स्त्री०। आर्य्यपनाद् विनिःसृतायां शा वुत्थो तर्हि चिय चिरं, दुरुसज्जियउज्जयविहारो॥४॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जमंग ददसिढिलयसामन, निस्सामयं पमायमचश्ता | काले मरिय जाओ, जखो तत्थेव निद्धमणे ॥ ५ ॥ मुणितं नियनाणेणं, पुम्बजषं तो विचितप एवं । हा हा पावे मर, पमायस्यमत्तविशेष ॥ ६ ॥ पमिपुनपुनवग्भ, दोगवटरं महानिहाणं व लपि जिणमयमिणं, कहं नु विहलन्तमुपणीयं ? ॥ ७ ॥ माणूसविता-म हा हा पमायन इतो कत्तो लहिस्ामि ? ॥८॥ डा जीव ! पाव तझ्या इवीरसगारवाण विरसतं । सुतत्थजाणगेण बि, इयासन है लक्खियं तझ्या ॥ ७ ॥ चउदसपुष्वधरा भि डु, मायो अंति णंतकारसु । पयपि ह हा हा पावं जीवनतए तथा सरियं ॥ १० ॥ fa) मरहम, चिद्धी गारवपमापडियम्मं । विदीप ११ ॥ एवं पमायडुविल- सियं नियं जायपरमनिव्येश्रो । निदतो दिवसाई, गमे सो लिखित व ॥ १२ ॥ श्रह तेण परसेणं, विदारभूमी गच्चमाणा ते । दण नियतेसि पनियहणनिमित्तं ॥ १३ ॥ जखपमिमामुहाओ दो निस्सारखं विभो जी सं च पश्य मुनियो, प्रासोति १४ जो कोई इत्थ देवो, जक्खो रक्खो व किनरो वा वि । सो पथमं चिय पणउ, न किंपि पयं वयं मुणिमो ॥ १५ ॥ तो सविसाये जो पर भो भो सबस्त्रो ! सोहं । तुन्द गुरु किरियाप, सुगम अज्जमंगु १ि६ ॥ साहू दिवि पनि विहिप हा सुपनिहाण ! फिट देव! मिमं पतोसि अहो! महरियं १७ ॥ जक्खो विग्रह न धर्म, बुद्धं छह साणो महाभागा ! | यस च्चिय होइ गई, पमायत्रससिदितचरणानं ॥ १८ ॥ ( २१२ ) अभिधानराजेन्ऊः । बिहारी, रससायगावगुणं । 1 सम्मुकसामु किरिया जरा अम्हारिक्षाण कुरु ॥ १०५ ॥ श्य मज्ज कुदेवतं, भो भो मुणिणो ! वियाणिवं सम्मं । जग जाभीया कुमगमणा ॥ २०॥ ता गयसयलपमाया, विहारकरगुज्जुया चरणजुत्ता। गारवरदिया अममा, होह लया तिब्बतवकलिया ॥ २१॥ भो भो देवाय सम्मं परिवोदिया तर आहे इय जंपिय ते मुणिखो, परिवन्ना संजमुज्जोयं ॥ २२ ॥ इति सूरिरार्यम-मेल फलमसभत प्रमादवशात् । तद्यतयः शुजमतयः !, सदोद्यता भवत चरणनं ॥ २३ ॥ (इस्यार्थमकथा ) दर्श० ० ० ० ० ० । अजमणग- आध्येमणक-पुं० श्रीराग्यनवसूरिपुत्रे, बहि मासेहिं हि प्रजयामि तु अजयमेवं । मासा परिया, अह कालगो समाहीए ||३|| निर्मासैरधीतं पठितमध्ययनमिदं तु श्रधीयत इत्यध्ययनम् मेवाकाव्यं शास्त्र केनाम केन नावाराधनयोगात् चाराद्यातः सर्वदेवधर्मेभ्य इत्यर्थः। आर्यश्चासौ मणकश्चेति विग्रहः । तेन परमासाः पर्याय इति, तस्यार्यमणकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकालः श्र स्पजीवितत्वात् । श्रत एवाह अथ कालगतः समाधिनेति यथेोकशास्त्राभ्ययनपर्यायानन्तरं कालगतः । आगमोक्तेन विधिना , " अज्जरक्खिय मृतः समाधिना शुभाननेति गाथार्थः । अयं वृकपाद-यथा तेनैतायता नाराधितम् पमन्येऽप्येतदा राधनानुष्ठानत आराधका भवन्त्विति । सुपायं कासी सिज्जनवा तहिं थेरा । जसरस्तव पुच्छा कहा थ विभासणासं ॥४०॥ आनन्दापातमहो! भाराधितमनेनेति हर्षाभ्रमणमाः कृतवन्तः शय्यम्नवाः प्रागू व्यावर्णितस्वरूपाः। तत्र तस्मिन् कालगते स्थविरा: श्रुतपर्यायवृष्ाः प्रवचनगुरबः । पूजार्थे बहुवच नमिति । यशोजस्य सव्यम्भाधान शिष्यस्य गुर्वपातद दोन किमेतार्थमिति विस्मितस्य सतः पृष्ठा-भगवन! पूर्वमित्येवंभूता कथना गनः संसारोह ईशः स्वतो ममाश्रमित्येवंरूपा । चशब्दादनुतापश्च यशोभाहीना- अहो! गुराविव गुरुपुत्र के वर्तितव्यमिति, न तत् कृतमिदमस्मामिरित्युक्तप्रतिबन्धशेषपरिहारार्थे मया न कथितं मात्र नय दोषो गुरुपरिसंस्थापनं च विचारणासह इति शुननास्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं निर्व्यूढं किमन युक्तमिति निवेदिते विचारणासह कालहा सदोषात् प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्येतदित्येवंता स्थापना देति गाथार्थः । अज्जमहागिरि मार्श्वमहागिरि पुं० श्रस्मस् ऐनपत्यसगोषे शिष्ये, मं० अय जिनकल्पिकपद्वारा पिण्डोपभोजिन गुरुशिष्यादपि सः वि संभोगमुत्पाद्य पृथमाच्वं कृत्वा विजहार । तदाप्रनृत्येष गच्छपृथक्त्वमासीत् । ( 'संभोग' शब्दे चैतद् वक्ष्यामि ) अज्जरक्ख श्राय्र्यरक्ष-पुं०|आर्यनक्षत्रस्य शिष्ये, "थेरस्स णं - रक्तस्स कासवगुत्तस्स अजरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगोसे" अयं रक्षिता भोजन वेत्य कल्पसूत्र सुयोधिकाटीकाकृतां विप्रतिपत्तय:-' थेरे अज्जरक्ख प्ति 'अहो ! वत फिर बीकारस्य बहुजनवसितम यतो येन श्रीतोसलिषाचार्यशिष्याः श्रवखामिपार्श्वेऽधी साधिकवपूर्ण नाना श्रीश्रीभार्यरक्षितास्ते नाते श्रीवामिन्यः शिष्यप्रशिष्यादिगणनया नवमस्थानमाविनो माता वार्यरका इत्ययमनयोरार्यरहितार्ययोः स्फुरंद विस्मृत्याssereriने आर्य रक्षितव्यतिकरं लिखितवान् । कल्प | अश्रविखय-प्रारक्षित-० सोमदेहि जेन सोमाय प्रायामुत्पादितोपुषाचार्यशिष्ये स्वामिसमीपेऽधीताधिकनपूर्वे स्थविर मेरे पंदामि अजरविषय, मणे चिसियो रयकरंग ओग श्री जेहिं " ॥ १॥ नं० | तदुत्पत्तिस्त्वेवम् 46 माया य रुदसोमा, पिभा य नामेण सोमदेषु ति । प्राया य फग्गुरविलय, तोसबिपुता य आयरिश्रा ॥ २४ ॥ निमणभद्गुणे, बी पढणं च तस्स पुरबन । पव्वावियो अ भाया, रक्खिमणेहि जणश्रो ति ॥ २३५॥ " श्रास्ते पुरं दशपुरं सारं दशदिशामिव । सोमदेवो द्विजस्तव, रुद्रसोमा च तत्प्रिया ॥ १ ॥ तस्यार्यजितः तः सूनुरनुजः फल्गुरक्षितः " । ( दशपुरोत्पत्तिः 'दसउर' शब्दे रुष्टव्या ) भ० क० । उत्पन्नो रचितस्तत्र, शास्त्रं यावदनूत्पितुः । तत्रैवाधीतवांस्ताव दथागात् पाटलीपुरम् ॥ ७६ ॥ 66 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -(२१३) अम्जरक्खिय अन्निधानराजेन्डः। अज्जरक्खिय चतुर्दशापि तत्रासौ, विद्यास्थानान्यधीतवान् । स तत्प्रतिश्रृणोति स्म, नोवध्यं गुरुशासनम् ।। १०२॥ अथागच्छदशपुरं, राजाऽगात्तस्य संमुखम् ॥ ७७॥ कालं कुर्वद्भिरूचे ते र्मा वात्सीर्वजसंनिधौ। उत्तम्भितपताकेत्र, ब्रह्मोत ब्राह्मणैः स्तुतः। वसेद्यस्तैः सबैकाम-प्युषां तैः सह तन्मृतिः॥ १०३ ॥ अधिरूढः करिस्कन्धे, प्रविवेशोत्सवेन सः ॥ ७० ॥ पर्भिन्नाश्रयस्थस्त-तथेति स्वीचकार सः । स्वगृहे बाह्यशालायां, स्थितो लोकार्थमग्रहीत् । तेषां स्वर्गमने सोऽगात, श्रीवजस्वामिसंनिधौ ॥ १०४ ॥ पुरोधसः सूनुरिति, न वा कैः कैरपूज्यत? ॥ ७९ ॥ दृष्टश्च तैरपि स्वप्नः, किंचित् किन्तूद्धतं पयः। सुवर्णरत्नवस्त्राद्यै-स्तद्गृहं प्राभृतैर्तृतम् ।। सावशेषश्रुतग्राही, तत्प्रतीच्च समेष्यति ॥ १०५ ॥ अथान्तवनं गत्वा, जननीमन्यवादयत् ॥ ७॥ इति यावद्विमृष्टं तैः, रक्तितस्तावदागतः। वत्स! स्वागतमित्युक्त्वा, मध्यस्येव स्थिता प्रसूः । पृष्टस्तोसलिपुत्राणां, किं शिष्योऽस्म्यार्यरक्तितः॥ १०६ ॥ सोऽवदत् किं न ते मात-स्तुष्टिमंद्विद्ययाऽनवत् ? ॥ १॥ एवमुक्तेऽवदद्वजः, स्वागतं तव वत्स! किम्?। सत्वानां वधकृद्धत्सा-धीतं बलपि पाप्मने । कस्थितोऽसि बहिःस्वामिन , बहिःस्थोऽध्येप्यसे कथम् ? १०७ तुष्याम्यहं दृष्टिवाद, पवित्वा चेत्वमागमः ॥ ८२॥ स ऊचे भगवन् ! भज-गुप्ताऽऽदेशाद्वहिः स्थितः। सदभ्यो तमधीत्याम्बां, तोषये किं ममापरैः?। बज्रस्वाम्युपयुन्योचे, गुरूक्तं युक्तमाचर ॥ १० ॥ दृष्टिवादस्य नामापि, तावदाहादयत्यसम॥७३॥ ततोऽभ्येतुं प्रवृत्तो डाक्, नव पूर्वाण्यधीतवान् । अस्य काभ्यापका मातः!, साऽऽस्यदिक्षुगृहे निजे । सन्ति तोसलिपुत्राख्याः, प्राचार्याः श्वेतवाससः॥४॥ प्रारेभे दशमं पूर्व-मार्यवज्रस्ततोऽभणत् ॥ १० ॥ तं प्रगेऽध्येतुमारप्से, मातर्मवाधृति कृथाः।। यविकानि विशत्युक्त-परिकर्मसमान्यहो!। अथोत्थाय प्रभातेऽपि, नत्वाऽम्बां प्रस्थितः सुधी॥५॥ पगऽऽदौ जिनसंख्यानि, कष्टात्तान्यथ सोऽपत् ॥ ११०॥ इतस्तन्मातापितरौ, शोकार्ताविति दध्यतुः । रवितं द्रष्टुमागच्चत, प्रामाप्रियसुहृत्पितुः । उद्योते कर्तुमिष्टे चे-दन्धकारान्तरं द्यदः ॥ १११ ॥ नवेष्टिकाः साळ, विभ्रत्प्रानृतहेतये ॥ ८६ ॥ यन्नत्य द्यापि नः पुत्रोऽ-थाहूतोऽप्यागमेत्तु सः। पुरस्तं प्रेक्ष्य सोऽप्राकीत, कस्त्वं भोः रक्तिोऽस्म्यहम् । तमथालिङ्गय सस्नेह-मूचे त्वां द्रष्टुमागमम् ॥ ७॥ अथानुजं तमाह्वातुं, प्रादेष्टां फल्गुरवितम् ॥ ११ ॥ सोऽवदद्याम्यहं कार्या-द्यायास्त्वं मद्गृहे पुनः । सोऽज्यधाशातरागच्छ, व्रतार्थी ते जनोऽखिनः। रक्षितः प्रैकतादौ मा--मिति मातुर्निवेदयेः ॥ ८ ॥ स ऊचे सत्यमेतच्चे-तत्त्वमादौ परिवज ॥ ११३ ॥ तेन तत्कथितं गत्वा, मातादध्याविदंततः। .. लग्नः प्रव्रज्य सोऽध्येतु-मधीयन् रवितोऽग्रतः । यविकैयूंहितोऽप्राकीत, शेषमस्य कियत्प्रभो!? ॥ ११४॥ नवपूर्वाणि सानि, मत्पुत्रोऽध्येष्यते स्फुटम् ॥८॥ सोऽपि दध्यौ नवाऽध्यायान्, शकलं दशमस्य तु । स्वाम्यूचे सर्षपं मेरो- र्विमन्धस्त्वमग्रही। अध्येप्ये दृष्टिवादस्य, ज्ञायते शकुनादतः ॥१०॥ ततो दध्यौ विषमात्मा, उष्प्रापं पारमस्य मे ॥ ११५ ॥ ततः सेकुगृहे यातो, दध्यौ यामि किमवत् ?। अथापृच्चत्प्रभो! यामि, नाता मामाह्वयत्यलम् । पतद्भक्तन केनापि, समं गत्वा नमामि तान् ॥ १॥ पाहुस्तेऽधीव तस्याथ, पौनःपुन्येन पृच्चतः ॥ ११६ ॥ इत्ति यावद् बहिः सोऽस्थात, तावदागाउपाश्रयम् । उपयुज्य गुरुर्जज्ञे, पूर्व स्थास्यत्यदो मयि । ढकुरश्रावको गाढं. व्यधान्नषेधिकीत्रयम् ॥ १२॥ व्यसृजत्तं दशपुरं, सानुजः सोऽथ जग्मिवान् ॥ ११७॥ दिवंदनं सर्व, सचकार खरस्तरम् । वज्रस्वामी तु याति स्म, विहरन् दक्षिणापथम् । अनुगस्तस्य तत्सर्वे, मेधावी सोऽपि निर्ममे ॥ ए३॥ श्लेष्मार्त्याऽऽनायितां शुएबी-मेकदा श्रवणे न्यधात् ॥ ११ ॥ श्रानावन्दि तेनेति, कातो नव्यः स सूरिभिः। मुख्ने केप्स्यामि नुक्त्वेति, भोजनान्ते स्मृता न सा । पृष्टोऽथ भोः! कुतो धर्मा-5ऽप्तिस्ते सोऽब्रवीदिति ॥ ४॥ विकाले च प्रतिक्रान्ती, मुखपोतीहताऽपतत् ॥ ११६ ॥ साधुभिः कथितं पूज्याः!, रक्तितः श्राविकासुतः। उपयोगादथ ज्ञात-माः ! प्रमादोऽन्तिके मृतिः ॥ घः प्रवेशोऽभवास्य, विमर्दैन महीयसा ॥ १५ ॥ प्रमादे संयमो नास्ति, युज्यतेऽनशनं ततः॥ १२०॥ प्राचार्याः स्माहुरस्माकं, दीवयाऽधीयते हि सः। द्वादशाब्दं च पुर्भिक, तदा सन्नवहाः पथाः । परिपाट्या च सोऽवादी-दस्त्वेवं नाहमुत्सुकः ॥ १६॥ विद्यापिएडं तदानीय, वजःसाधूनभोजयत् ॥ ११ ॥ किं त्वत्र स्थान मे पूज्याः!,प्रवज्या यन्नृपादयः । अथोचे तान्न भिकाऽस्ति, विद्यापिण्डेन वर्तनम् । बलान्मो मोचयेयुस्तां, यामो देशान्तरं ततः॥ ७॥ ऊचुस्ते व्रतहान्या किं, क्रियतेऽनशनं न भोः!? ॥ १२२ ॥ अथाऽस्यक्तितस्तेषां, जनन्या प्रेषितःप्रनो!। वज्रसेनोऽन्तिषद् ज्ञात्वा, प्राक् प्रैषीत्यनुशिष्य तु । युष्माकं संनिधौ दृष्टि--वादमध्येतुमागमम् ॥८॥ यत्र त्वं लभसे भिकां, अवजान्नात्तदा मुने!॥ १२३ ॥ सोऽदीक्ष्यत तथा कृत्वा, पाठ्याऽसौ शिष्यचौरिका । गतं पुर्भिकमित्येत-द्विशाय स्थानमाचरेः।। तेनाथैकादशाङ्गानि, परितान्यचिरादपि।। ६६॥ वज्रस्वामी पुनर्भक्त, विमोक्तुं सपरिच्छदः ॥१४॥ रष्टिवादो गुरोः पार्श्व, योऽनुत्तमपि सोऽपग्त । लघुः कुल्लक एकस्तु, तिष्ठत्युक्तोऽपि साधुभिः। सोऽथाध्येतु दशपूर्वी, वजस्वाम्यन्तिके चलत् ॥१०॥ नास्थादाख्याय भव्याना-पथ व्यामोह्य तं गतः॥ १२५ ॥ याते तेनान्तराने च, श्रीभद्रगुप्तसूरयः। शैलमेकमथारुकत्, कल्लकोऽप्यनु तत्पदैः। अवन्त्यां वन्दितास्तैःस, धन्य श्त्युपबृंहितः॥१०१॥ नितम्ब तद्रेिः स्थित्वा, पादपोपगम व्यधात् ॥ १२६॥ तैरुकं मम निर्यामो, नास्त्यन्यस्त्वं ततो जव। तापेन तु कणमिव, विवीय द्यां स जग्मिवान् । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) अभिधानराजेन्द्रः | अज्जरक्खिय " १३२ ॥ सुरैस्तन्महिमा चक्रे, किमिदं मुनयोऽवदन् १ ॥ १२७ ॥ आचख्युर्गुरवस्तेषां कुलः स्वार्थमसाधयत् । ऊचुस्ते दुष्करं तर्हि, नास्माकं स्वार्थसाधनम् ॥ १२८ ॥ प्रत्यनीका मरी तत्र, श्राविका रूपनाग् मुनीन् । न्यमन्त्राः पारणं कियतामिति ॥ १२६ ॥ प्रत्यनीकेति तां वा, गुरवोऽन्यं गिरिं ययुः । कायोत्सर्गमधिष्ठायै च सागत्य तावन् ॥ १३० ॥ पूज्याः सन्तु सुखेनात्र, ततस्तत्र समाधिना । चक्रुः कालं रथेनैत्य, शक्रस्ताननमत् ततः ॥ १३१ ॥ प्रदक्षिणां रथस्थोऽदानामवद । ते तर सतत् ॥ (तम्मि जगवंते अद्धनारायं दसपुब्वा वुद्धिना । श्रा० म० द्वि०) वज्रसेनस्तु यः प्रेषि, स सोपारं पुरं गतः । धान्यमादाय लकेणा - पाकीसत्रेश्वरी तदा ॥ १३३ ॥ दभ्यो चात्र विषं किस्वा, स्मृत्वा पञ्चनमस्कृतम् । कुर्मः समाधिना काल - मिति तत्प्रगुणीकृतम् ॥ १३४ ॥ स चागाद्गृहे साधु-स्तेन तं प्रतिलाज्य सा । स्वमाख्याश्चिन्तितं तस्य सोऽववीन्मा कृथा श्दम् ॥ १३५ ॥ यत्र लकान्अभिक्षाप्तिः स्यात्रा सुनिता वज्रस्वामीदमूचे मां, नान्यथा भावि तद्वचः ॥ १३६ ॥ खानां देवास-पीतास्तत्र समागमन् । सुकिं सहसा जातं, कुटुम्बं प्रत्यवोधितत् ॥ १३७ ॥ चन्द्रनागेन्द्रवादसुरेः सममीवरी श्रसेनस्तेयोऽन्ततिः ॥ १३० ॥ इब्ध रहिताचा गतिदेशपुरं तदा । प्रवाज्य स्वजनान् सर्वान्, सौजन्यं प्रकटीकृतम् ॥ १३६ ॥ स्नेहा पिताऽपि तैः साईमास्ते गृह्णाति तद् व्रतम् । ते सुतास्नुषादीनां पुरो नाव सरस्त्रपे ॥ १४० ॥ उकः पुत्रेण सोऽवादी जियाम्प परम् उपानत्कुसिडकाच्चत्र-वस्त्रयुग्मोपवीतत् ॥ १४१ ॥ ददिरे पितुराचार, प्रपद्येदम स च तत्पालयामास, ब्रह्मवेषं तु नामुचत् ॥ १४२ ॥ शिक्षित मनाः सर्वान् बन्दाम मुनीन् । मुक्त्वा त्रिणमेकं तु तत्पराभवतोऽथ सः ॥ १४३ ॥ ऊचे पुत्रेण पुत्राऽलं, गुरुरप्याह साम्प्रतम् । तापे दया पी माझा येषं सर्वापमोच्यत ॥ १४४ ॥ अन्यदोपगते साधी, साधवः पूर्वसंहिताः । अपूर्वा गुरुमुपस्थिता ॥ १४५ स्थविरोऽप्यविवान् पुष श्रेयसाम्पदम् । गुरुः स्माहोपसर्गः स्यात् स सह्यो मेऽन्यथा हितिः ॥ १४६ ॥ तत्रकिप्ते स संघानां गच्छतां पथि डिम्भकैः । " " के दृते ऽप्यस्थात्, तूष्णीं माऽनुद् गुरोः क्वितिः ॥ १४७॥ साधुभि तदेवास्य वरुपः पुरः । अथाऽऽगतानां गुरवः, शाटकानायनेऽवदन् ॥ १४८ ॥ द्रष्टव्यं दृष्टमेवेदं स्याचोलपट एव तत् । पितुर्निकाटनार्थे च गुरुः साधून् रहोऽज्यधात् ॥ १४९ ॥ मामानीय मुखी मा दत्त पितुर्मम । नकिः कार्यापि साचा मुनीनिति ॥ १५० ॥ आचार्यमगाद् ग्राम-मागन्तास्मि पितः ! प्रगे । सर्वेऽप्यार्न तस्यादु-विहृत्यै केकशोऽथ ते ॥ १५१ ॥ अज्जरविग्वय दपी रूपोऽच संप्राप्ते सुनावाक्यास्यतेऽम् । श्राचार्याः प्रातरायाताः, पृष्टस्तातोऽखिलं जगी ॥ १५२ ॥ किं च त्वं नाजविष्यको न्नाजी विष्यम हो ऽप्यहम् । ततः सर्वेऽपि गुरुनि - निरभर्त्स्यन्त साधवः ॥ १५३ ॥ पात्रमानय तातान-मामेष्यामि स्वयं तव । श्रहमप्येतदानीतं, नोदये नैवाऽय हे पितः ! ॥ १५४ ॥ सोऽथ दयी लोकपूज्यो, निशां यास्यत्यसी कम है। ततोऽहमेव पास्वामी स्युक्त्या मेध्याय सोऽगमत् ॥ १५५ ॥ सोऽयैकत्र गृहेऽविक्षन्दपद्वारेऽवदद् गृही | साधो ! फारेण किं नैषि सोऽवदद मूर्ख! वेत्सि वो ॥१५६॥ किं द्वारं किमपकारं प्रविशन्या धियः। तं गृही शकुनं मत्वा ददौ स्थालेन मोदकान् ॥ १५७ ॥ आगत्यानोचतान् स तत्संस्यानवीय सूरयः । शिष्या भविष्यति निजिसन्तती ॥ १५८ ॥ कुटुम्बमिति साधूनां लानं स प्रथमं ददौ । श्रानीयादात्स्वयं पश्चात्, सखण्डाज्यं सपायसम् ॥ १५६ ॥ स एवं लब्धिसम्पन्नोऽजूद बालाद्युपकारकः । तदा दुर्बलका पुष्पः, पुष्पौ च घृतवस्त्रयोः ॥ १६० ॥ गुर्विया धिग् यया पनि सर्यन्तं घृतम् । घृतपुष्पस्य तद्दद्यात्, साऽपि तलब्धिरीदृशी ॥ १६१ ॥ निर्वाय काऽपि कहेन कर्तनात् शतकं व्यधात् । वस्त्रपुष्पस्य तद्दद्यात्, साऽप्यन्येषां किमुच्यते ? ॥ १६२ ॥ तत्र पुर्वकापुण्यो-भिगतां नयपूर्विकाम् । डोऽभूत्यमरक्षित्यं विस्मारयति चास्मरन् ॥ १६३ ॥ सौगते भवितास्तस्य, सजना गुरुमूचिरे । अस्माकं जिको ध्यान-परा न ध्यानमस्ति वः ॥ १६४ ॥ भ्यानाद पुर्बलिकापुष्पो र्बोध्यं गुरुर्जगी। तान्याहवसे, स्निग्धादारादसी बसी ।। १६५ ।। न स वोऽस्ति गुरुः स्माह, घृतपुष्पाद्वदुः स नः । प्रत्ययो नीत्वा खगृहे पोष्यतामयम् ॥ १६६ ॥ ततस्तैः पोषितवन्तं पूर्वध्यानाचैव सः। अथाध्यानः कृतः पूज्यैः, प्रान्तभोज्यो ऽप्यनृद् बली ॥ १६७ ॥ ततस्तानि प्रवुकानि श्रावकत्वं प्रपेदिरे । रात्र गच्छे व बरवारो मुख्यातिन्ति साधवः ॥ १६८ ॥ माद्यो दुर्बकापुष्पो, द्वितीयः फल्गुरक्षितः । विन्ध्यस्तृतीयको गोष्ठा माहिलश्च चतुर्थकः ॥ १६६ ॥ विन्ध्यस्तेष्वपि मेधावी, सूत्रग्रहणधारणे । गुरूनुवाच मएकल्या मालापाऽऽप्तिश्विरान्मम ॥ १७० ॥ गुरुर्बनापुष्पं ततोऽस्यालापकं ददौ । दिनानि तवा वाचनां तस्य सोऽज्यधात् ॥ १३१ ॥ वाचनां ददतोयुष्य पूर्व मे नचमे प्रनो ! विस्मरिष्यत्यतः पूज्या देशोऽस्तु मम कीदृशः १ ॥ १७२ ॥ अथैवं दयुराचा पद्यमुयापि विस्मृतिः ॥ भविष्यति ध्रुवं प्रज्ञादीनां हानिरतः परम् ॥ १७३ ॥ मनुष्ये के कसूत्रार्थ रूपाने स्वात्कोऽपि नमः । सोनुष पार्थक्येन व्यधात् महः ॥ १७४ ॥ चतुर्विध्यमाह "काभित्रमा सिचाई तो सूरी। सज्योदिया बडत्य हो भोग" । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) अज्जरक्खिय अनिधानराजेन्द्रः। अज्जव कालिकश्रुतमेकादशाङ्गरूपं करणचरणानुयोगः,ऋषिजाषितानि विधायानशन शुद्ध, स्वर्गलोकमगाद गुरुः ॥ १४॥ उत्तराध्ययनानि धर्मकयानुयोगः, सूर्यप्राप्त्यादीनि गणितानु- तद् गोष्ठामाहिलेनापि, श्रुतं यद् द्यामगाद् गुरुः । योगः, दृष्टिवादश्च, सर्वोऽपि च्यानुयोगः ; दृष्टिवादामुद्धत्य निष्पावकुटदृष्टान्तात्, पुष्पश्च स्वपदे कृतः॥ १५ ॥ ऋषिभिर्भाषितत्वात् । कल्पादीनामाप तर्हि धर्मकथाऽनुयोग- स गोष्ठामादिलोऽथैत्य, पृथक् तस्थौ तदाश्रयात् । त्वम् । तन्नेत्याह कर्मबन्धविचारेऽभू-निवः सोऽन्यथोक्तितः॥१६६॥ आएका "जं च महाकप्पसुअं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि । देविंदवंदिपहि, महाणुभावेहि रक्खियजेहिं । चरणकरणाणुओगो-त्ति कालिनत्थे नवगयाणि" ॥१॥ जुगमासज्जविभत्तो, अोगो तो को चउहा ॥ यव महाकल्पश्रुतमेकादशातरूपम् , यानि च शेषाणि निशी देवेन्द्रवन्दितैर्महानुभावैरायरक्तैिर्दुबलिकापुष्पमित्रप्राइमप्यथादीनि बेदसूत्राणि, चरणकरणानुयोग इति चरणकरणानु तिगुपिलतयाऽनुयोगस्य विस्मृतसूत्रार्थमवलोक्य युगमासाद्य योगसकणे कालिकार्थे कालिकश्रुतसक्तेऽर्थे उपगतानि सम्ब प्रवचनहिताय विजक्तः पृथग् व्यवस्थापितोऽनुयोगः, ततः द्धानीत्यर्थः । कृतश्चतुर्धा, चतुर्यु स्थानेषु नियुक्तः चरणकरणानुयोगादिरिति। अथार्यरक्षिताचार्याः, मथुरा नगरी गताः । मा० म०वि० । उत्त० । प्रा० चू० । ध०र० । दर्श० । ती०। तत्र यकगुहायां च, व्यन्तरायतने स्थिताः ॥ १७५ ॥ विशे० । स्था० । अश्चलगच्चस्थापके प्राचार्ये च । अयं च ततःशको विदेहान्तः, श्रीसीमन्धरसन्निधौ । (विक्रमसं० ११३६ वर्षे ) दन्ताणीनामनामे द्रोणश्रेष्टिनो देदीनानिगोदजीवानमावी-द्भगवान् व्याचकार तान् ॥ १७६ ॥ म्न्यानार्यायाः जानः , (विक्रमसं० ११४२ वर्षे) प्रवजितः, (वि. अथोचे भरतेऽप्येवं, निगोदान बक्ति कश्चन । क्रमसं०११६५ वर्षे) विधिपक्क-(अञ्चल.) गच्छमस्थापयत् , जगवानूचिवानार्य-रविताः सन्ति सुरयः ॥ १७७ ॥ (विक्रमसं०१२२६ वर्षे) ए१ वर्षजन्मपर्यायो मृत्वा देवलोकं भिवागे साधुवृन्दे च, वृष्ब्राह्मणरूपनाक। गतः। जै०३०। शकोऽज्यागत्य पप्रच्छ, कियदायुःप्रभो! मम ॥ १७ ॥ अज्जरक्खियमीस-आर्यरक्षितमिश्र-पुं०। अनुयोगचातुर्विध्य. जाणतं यवकेष्वायु-ज्याथ प्राप्तेषु तेषुते । कारके रविताचार्ये, सूत्र० १ अ० १ उ० । यावत्तदायुरीक्षन्ते, तावदू वे सागरे गते ॥ १७६ ॥ अथोत्पाट्य नुवाबूचे, शक्रस्त्वं सोऽववीत्ततः। अजरह-आर्यरथ-joआर्यवज्रस्वामिनस्तृतीये शिष्ये,कल्प०। हेतुं स्वागमने तेऽथ, निगोदान् स्वामिवज्जगुः ॥ १८ ॥ अजन-आद्या-पुं० । मेच्चभेदे, प्रशा० १ पद । ततस्तुष्टः प्रणम्योचे, शक्रो यामीति तेऽभ्यधुः। अज्जव-आर्जव-न०। ऋजोः रागद्वेषवत्त्ववर्जितस्य सामायिकतावदागमयस्व त्वं, यावदायान्ति साधवः ॥११॥ वतः कर्म भावो वा आर्जवम् । संवरे, स्था० ५ ग० १७०।ये चना निश्चन्नास्ते स्यु-र्येन त्वां वोदय दीक्विताः। जुभाव आर्जवम् । आव० । मनोवाकायविक्रियाविरहे मायारास ऊचेऽल्पाः करिष्यन्ति, निदानं वीक्ष्य माममी ॥ १८॥ हित्ये, ध०८ अधिकाप्रवनव्या पंचा०।आचाo। कल्प०ी आवा तेऽभ्यधुः कुरु तच्चिद-मथ यक्कगुहामुखम् । का। परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्यागे, दश० १० १० । शकोऽन्यथा विधायागा--दाजग्मुश्च तपोधनाः ॥ १८३॥ पतश्च वीरेणान्यनज्ञातम् । स्था० ५ठा०१०। एतत्तृतीयते चहारं न वीकन्ते, गुरवस्तानथाज्यधुः । भ्रमणधर्मः । स्थानग०१० दशमो योगसंग्रहः । स० शको हारं व्यधादित्थ-मित एव ततोऽधुना ॥ १४ ॥ ३१ समः । श्राव।"चंपाए कोसिप्रज्जो, अंगरिसी रुहए अ लचुस्ते किं मुहूर्त न, धृतोऽस्माकं निरीकितुम। आणत।। पंथगजो जसा वि अ, अम्भक्खाणे असंवोही "॥१॥ शक्रोक्तमथ ते तेषा-माख्यन् फुःखमय स्थिताः॥१५॥ चम्पायां कौशिकार्योऽभू-उपाध्यायो महामतिः । अथान्यदा दशपुरं, यान्ति स्म गुरवः क्रमात् । तस्याद्योऽऋषिः शिष्यो, ग्रन्थिच्छिद्रुषकोऽपरः ॥१॥ मयुगं नास्तिकस्त्वागात, सर्वे नास्तीति स खुवन् ॥ १८६॥ उपाध्यायेन दार्वर्थ, द्वावपि प्रेषिती बने । साः सङ्काटकं प्रैषीद , गुरुं झापयितुं ततः। दारुभारं गृहीत्वैति, सायमङ्गऋषिर्वनात ॥२॥ तैर्गोष्ठामाहिलः प्रेषि, न्यग्रहीतं स वादिनम् ॥ १८७ ॥ रुद्रो रन्त्वा दिवा सायं, स्मृत्वा बहिरधावत । श्रावकैरथ तत्रैव, चतुर्मासी स कारितः।। दभ्यो वीचय तमायान्तं,गुरुनिःसारयाम्यमुम् ॥ ३ ॥ श्तश्चायुर्निजं ज्ञात्वा, गुरवो गच्चमूचिरे ॥ १८ ॥ श्तो ज्योतिर्यशा वत्स-पाली नीत्वाऽनमात्मनः । प्राचार्यः कोऽस्तु वः स्माहुः, स्वजनाः फल्गुरक्किता। पुत्रस्य पञ्चकस्याथै, चलन्ती दारुकाष्ठलुत् ॥ ४॥ स्यामोष्टामाहिलो वाऽपि, पुष्पस्त्वनिमतो गुरोः ॥१६॥ रा तेनाथ तां हत्वा-दाय तदारुभारकम् । शब्दयित्वा च निःशेषान्, गुरुदृष्टान्तमूचिवान् । शीघ्रं मार्गान्तरेणैत्य, गुरोरने करी धुनन् ॥५॥ निष्पावतैलहव्यानां, क्रियन्तेऽधोमुखाः कुटाः॥ १० ॥ आख्यतः प्रियशिष्येण, ज्योतिर्यशा व्यनाश्यत । सर्वे नियान्ति निष्पावा--स्तैलांशाः सन्ति केचन । आगतः सोऽथ गुरुणा, ययौ निस्सारितोऽटवीम् ॥ ६॥ तिष्ठत्याज्यं पुनः प्राज्य--मेवमेतेश्वहं त्रिषु ॥११॥ तत्र शुद्या मनोध्यानात, जातजातिस्मृतिव्रतम् । पुष्पं प्रति श्रुतेनाहं , निष्पावकुटसभिभः। सोऽवाप केवलं चाथ, महिमानं व्यधुःसुराः॥७॥ घृतकुम्भः पुनर्गोष्ठा-माहिलं मातुलं प्रति ॥ १२ ॥ देवैः कथितमेतस्या-उभ्याख्यानं प्रददेऽमुना । फल्गुरक्तितमाश्रित्य, तैनकुम्भसमस्तथा। रुरुको हालितो लोके, दभ्यो सत्यं मया ददे ॥८॥ तदाचार्योऽस्तु वः पुष्प-स्तैरपि प्रत्यपद्यत: १५३॥ प्रत्याख्यानमिति ध्यायन, सोऽगात्प्रत्येकबुद्धताम् । नवाऽऽचार्य तथा साधून-नुशिष्य यथोचितम् । उपाध्यायः सपत्नीका, प्रव्रज्य प्राप केवलम् ॥ ९॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) अज्जव अजिधानराजेन्धः । अज्जवइर चत्वारोऽपि ययुः सिद्धि-मेवं कर्त्तव्यमार्जवम् । प्रा०क०। तपःकृया अपि वयं, न शक्नुम इतः परम्। श्रा०चू० । आव। गौतमस्तावदोशू-निश्रां कृत्वाऽऽरुहोह तम् ॥२१॥ अज्जवइर-आर्यवजू-( वैर )-पुं० श्रारात्सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः तवृत्तविस्मितास्तेऽथ, दध्युर्यद्येवमेष्यति । प्राप्तः सर्वैरुपादेयगुणरित्यर्थः, सचासौ वजश्च प्रा०म०वि०। ततोऽमुष्य वयं शिष्याः, नविष्यामो महाऋषेः ॥२२॥ धनगिरेःसुनन्दायां नार्यायामुत्पादितेपुत्रे आसिंहगिरेः शिष्ये। नत्वाऽईतः प्रजुश्चैश्यां, दिश्यशोकतरोस्तले । के ते आर्यवैरा ति स्तवद्वारेण तदुत्पत्तिमाह तत्र पृथ्वीशिलापट्टे, तामवात्सीविनावरीम् ॥ २३ ॥ तुंबवणसंनिवेसा-न निग्गयं पिनसगासमझीणं । आगादष्टापदं नन्तुं, तत्र वैश्रवणस्तदा। उम्मासि उसु जुधे, माक असमत्रि बंदे ॥१॥ जम्नकेण समं सख्या, नत्वा सर्वान् जिनानथ ॥ २४ ॥ नुम्बधनसनिवेशानिर्गत पितृसकाशमालीनं पाएमासिकं षट् स्वाध्यायध्वनिना ज्ञात्वा-उज्येत्य गौतममानमत् । सु जीवनिकायेषु युतं प्रयत्नवन्तं मात्रा च समन्वितं वन्दे । एष. कुर्वाणः स्वाम्यपि व्याख्यां, सुधामधुरगीयधात् ॥२४॥ गाथाऽक्षरार्थः। भावार्थस्तु कथाdोऽवगन्तव्यः । अन्ताहारपन्ताहारे-त्यादिकं साधुवर्णनम् ।। कथा चेयम् तच्छ्रुत्वा मुखमालोक्य, मिथस्ता हसितौ सुरौ ॥ २६ ॥ शक्रस्य लोकपः श्रीद-स्तस्य सामन्तिकः पुनः । एवं साधुगुणानाह, स्वयमीटक पुनः प्रभुः। अनूद्वज़विभोर्जीवः, प्राग्भवे ज़म्भकामरः ॥२॥ झात्वाऽऽर्यस्तन्मनः पुएम-रीकाध्ययनमृचिवान् ॥२७॥ इतश्च पृष्ठचम्पायां, श्रीवीरः समवासरत् । न दौर्बल्यं बलित्वं वा, सात्य किंतु नावना । सुभूमिभाग उद्याने, शालस्तत्र नृपः पुरि ॥ ३॥ श्रीदोऽथ ध्यानविज्ञानात्, प्रीतो नत्वा प्रतीयवान् ॥ २८॥ युवराजो महाशाल-स्तयोर्यामिर्यशोमती । जम्नकस्तु प्रतिबुद्धः, शुरूं सम्यक्त्वमाददे। पिरो रमणस्तस्याः, गागलिस्तनयः पुनः॥४॥ सर्वच प्रज्ञया पुएक-रीकाध्ययनमग्रहीत् ॥२६॥ शालः श्रुत्वा प्रनोधर्म, व्रतायानुजमूचिवान् । गौतमस्तु द्वितीयेऽध-टापदारवातरत् ।. राज्ये त्वं विश सोऽवादीद् , न व्रतेऽप्यस्मि ते नु किम् ? ॥ ५॥ भीतास्ते प्रनुमाहुर्नः, शिष्यं कुरु गुरुर्भव ॥ ३० ॥ समानीयाथ काम्पिल्या, गागझिं स्वस्वसुः सुतम् । स्वाम्यथादाद् व्रतं तेषां, वेशान् शासनदेचताः । राज्ये ऽभिषिच्यते तो द्वी, पाश्वे प्रावजतां प्रजोः ॥६॥ पारणे वोऽस्तु किं वस्तु, पृष्टास्ते प्रतुमच्यधुः ॥ ३१॥ साऽपि तद्भगनी जाता, श्रमणोपासिका ततः । इष्टाप्तिश्चेत्तदस्त्वद्य, पायसं घृतखएमयुक । तावप्येकादशाङ्गान्य- ध्यगीषातां महाऋषी ॥७॥ तदेवानीय तत्स्वामी, तानूचे जोक्तुमास्यत ॥ ३२ ॥ विहरन्नन्यदा स्वामी, ययौ राजगृहे पुरे । दध्युस्ते नो भविष्यन्ति, नेयतां तिलकान्यपि । ततोऽपि चम्पां नगरी, प्रति प्रातिष्ठत प्रनुः ॥ ८॥ परं गुरुवचः कार्य, न विचार्य नृपोक्तवत् ॥ ३३॥ मुनी शालमहाशाली, प्रर्नु पप्रच्छतुस्तदा । आसीनास्तेऽथ सर्वेऽपि, स्वाम्यक्तीणमहानसः । आवां यावः पृष्ठचम्पां, कोऽपि स्यात्तत्र धर्मवान् ॥९॥ मातृप्तिं नोजयित्वा ता-ननाति स्म स्वयं ततः ॥ ३४॥ झात्वाऽववोध तौ तेत्र, त्रैषयगौतमान्वितौ । शतानां तेषु पञ्चानां जुञ्जानानां महाशिनाम् । ततः स्वामी यया चम्पा, पृष्टचम्पां च गौतमः ॥१०॥ ध्यायतां गौतमी लब्धि, जो केवलमुज्ज्वलम् ॥ ३५ ॥ समातापितृकस्तत्र, गागलिौतमान्तिके । गच्चतां च प्रनुपान्ते, विलोक्य प्राभवीं श्रियम् । श्रुत्वा धर्म सुतं राज्ये, निवेश्य व्रतमग्रहीत् ॥११॥ पञ्चशत्या द्वघहशुजां, समजायत केवलम् ॥ ३६॥ यातां मार्गेऽथ चम्पायां, स्वजनवतहर्षतः। एकान्तनुजां चासोत्, श्रीवीरजिनदर्शने । प्राप्ती शालमहाशाली, निधानमिव केवलम् ॥१२॥ गौतमस्तैः समं भर्तु-र्ददौ तिम्रः प्रदक्षिणाः ॥ ३७ ॥ समातापितृकस्याथ, गागलेराप केवलम् । नवीनाः साधवस्तेऽथ, जग्मुः केवलिपर्षदम् । अत्रामुत्रार्थदावेतो, ममेति ध्यायताऽभवत् ॥ १३ ॥ गौतमः स्माह तानेवं, नमत त्रिजगत्पतिम् ॥ ३८ ॥ अथ चम्पां ययौ स्वामी, गौतमस्तत्परिच्छदः । स्वाम्याहाशातनामिन्द्र-नूते ! केवनिनां व्यधाः। . प्रचुं प्रदक्विणीकृत्य, प्रणिनंसुः पुरोऽनवत् ॥ १४ ॥ नत्वा प्रतुं ददौ मिथ्या-दुष्कृतं तेषु गौतमः ॥ ३५ ॥ श्त एव प्रतुं नन्तुं, तानित्याचष्ट गौतमः। गौतमेऽथाधृति सुष्टु, प्रपन्ने स्वाम्यवोचत । प्रन्नुर्गीतममूचे मा, केवळ्याशातनां कृथाः॥ १५ ॥ अन्ते तुल्या भविष्यामो, मा कार्षीगौतमाऽधृतिम् ॥ ४० ॥ गौतमोऽथ प्रजें नत्वा, कमयामास तान् क्षमी। तृणद्विदनचर्मोर्णा-कटवत्कस्यचित्पुनः। गौतमं केवलाऽऽनाप्ति-खिन्नं मत्वाऽदिशत्प्रनुः॥१६॥ कोऽपि क्वापि भवेत्स्नेहो, मेषोर्णाकटवतु ते ॥ ११ ॥ अष्टापदं तपोलण्या-रोहेद्यः स्यात्स केवली। तत्र स्नेहे चिरजवे, प्रावृषीव व्यपेयुषि । नगच्छदार्सयदेव-मुखात् श्रुत्वाऽथ तां गिरम् ॥१७॥ केवलज्ञानहंसस्ते, हृत्सरस्यां स रंस्यते ॥ ४५ ॥ अष्टापदोपकारस्था-स्तापसास्तपसा कृशाः।' उद्दिश्य गौतम लोक-प्रतिवोधकृते तथा। कौधिमन्यदत्तशवाला, एकद्वियन्तरेऽहनि ॥ १८॥ आदिशट्ठमपत्रीया--ध्ययनं भगवांस्तदा ॥४३॥ आईकन्दशुष्ककन्द-शुष्कशैवालभोजनाः । श्तश्चावन्तिदेशोर्वी-दृदि हारतटोपमः। पारुवन् पदिका एक-द्वित्रास्तेऽपि तपःक्रमात ॥१६॥ सनिवेशस्तुम्बवन-नामा धामाद्नुतश्रियाम् ॥ ४४ ।। गौतमोऽपि प्रतुं पृष्ट्वा-अष्टापदाडिमुपेयिवान् । तत्रेयसूर्धनगिरि-व्रतार्थी पितरौ पुनः । दृष्ट्वा ते तं मिथः प्राहुः, स्यूमोऽप्येषोऽधिरोदयति ॥२०॥ तत्कृते वृणुतः कन्यां, यस्य तं संन्यषेधयत् ॥ ४ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) अभिधानराजेन्द्रः | अज्जवइर स्वयम्बराऽथ तस्यातूत, सुनन्दा धनपालसूः । विवाहिताऽथ सा तेन, तथा रुकोऽथ स व्रतात् ॥ ४६ ॥ अथान्यदा स्वतः स्थानात् स व्युत्वा जृम्भकामरः । सुनन्दाकुक्षिकासारे वातरत्कलहंसवत् ॥ ४७ ॥ तवाधारोऽभवद्भावी त्युक्त्वा धनगिरिः प्रियाम् । असद गिरेः शिष्यः शाखकारमितादनु ॥ ४८ ॥ जाते च तनये जन्मो-रये स्फूर्जति काव्यव पिता चेत् प्रावजिष्यन्ना-स्यानविष्य घरं तदा ॥ ४६ ॥ स संझी तद्वचः श्रुत्वाऽङ्गासीन्मे पिता । एवं चिन्तयतस्तस्य, जाता जातिस्मृतिः शिशोः ॥ ५० ॥ अहर्निशं ततोऽरोदीत्, माता निर्विद्यते यथा । प्रव्रज्यानिमुखं पश्चा - देवं षण्मासिकाऽगमत् ॥ ५१ ॥ अन्यदा समासात् तत्र सिंहगिरिगुरुः । समितौ धन गिरिश्व, पश्यावः स्वजनानिति ॥ ५२ ॥ या गुरुं पृड्डा, कुचचिवान्। ततस्ती सुरयोयोचन, नावी लाभोग्य वां महात् ॥ ५३ ॥ सचित्तं वाप्यचितं वा, ग्राह्यं तत् तौ ततो गतैौ । सुनन्दा ससखीवृन्दा, दृष्ट्वा तावित्यनोचत ॥ ५४ ॥ कान्तेयन्ति दिनान्यर्भः पाल्यते स्म मया तव । स्वमेनं गोपयेदानी रुदतोचादिसामना ॥ ५ ॥ तेनाचे माऽस्तु ते पश्चात्तापः सोचेऽत्र निःस्पृहा । उत्पाऽथ साकियोऽग्राहिन् ।। ५६ ।। रोनाविरराम सा अथातो मुनेदानीतोऽचः करं गुरुः ॥ ५७ ॥ प्रतिज्ञारात्तथाऽऽ हैवं, साधो ! वज्रं किमानयः १ । आकृष्यालोक्य तं बालं, बाल्यमाप्तमिव स्मरम् ॥ ५८ ॥ भावेष शासनाधारो, बज़स्वामी गुरुस्ततः। साम्यशयातरीणां माय ॥ ५६ ॥ प्रहृष्यन्प्रासुकाहार खानमण्डनखेलनैः । तत्रापि सा गुरुमनोरथैः ॥ १० ॥ बहिर्व्याहार्षुराचार्याः, सुनन्दाऽमार्गयत्सुतम् । उचुस्ता एष निक्केपो, गुरूणां नार्थ्यते परैः ॥ ६१ ॥ श्रगमन्गुरवस्तत्र, वज्रे जाते त्रिवार्षिके । सुनन्दायाचते सूनुं गुरववयन्ति ॥ ६२ ॥ विवादोऽथाभवखाज - कुले जातश्च निर्णयः । यदग्रतः सुतस्तस्याऽऽहूतो याति यदन्तिके ॥ ६३ ॥ ससंघो गुरुरेकत्र, नन्दाऽन्यत्र सनागरा | अदिति भूपं वज्रस्तु नृपतेः पुरा ॥ ६४ ॥ राजाचे शब्दयत्वादी, पिता स्त्री पाक्षिका जगुः । स्वामिनम्बाऽऽद्वयश्वादी, दयास्थानमियं चक्तः ॥ ६५ ॥ प्राराोकाऽद्वयन्माता, वाद्यवामि । वयवां परं सोऽस्थात्, नाचालीत्किमवचिन्तयत् ॥६६॥ पास्वोऽतिकादशाङ्गकः । सोऽहं मोहं जनभ्याः किं यामि सङ्घं विवहृत्य तत् १ ॥ ६७ ॥ व्रतस्थे मयि माताऽपि, व्रतमङ्गीकरिष्यति । राज्ञा प्रोक्तः पिताऽवोचत् वचस्तं प्रति तद्यथा ॥ ६८ ॥ "जसे वाओ, धम्मजयसि मे वरं । गिन्द लहुं रयहरणं, कम्मरयप्पमजणं धीर !” ॥ ६९ ॥ कणादेत्य स रजोइतिमाददे । 1 देवदीकि गुरुणा, सपौरोऽप्यबुधन्नृपः ॥ ७० ॥ प्रज्जवइर दध्यावथ सुनन्दाऽपि भ्राता भर्त्ता सुतब्ध मे | प्रावजनिक ममान्येन, साऽपि प्रवजिता ततः ॥ ७१ ॥ पतं तत्रैव संस्थाप्य साधुभिः पञ्चषैर्वृतम् । व्यहार्षुर्गुरवोऽन्यत्र यतैकत्र यतिस्थितिः ॥ ७२ ॥ श्रथाष्टवर्षो वज्रर्षिर्व्यहरद्गुरुभिः समम् । जग्मुश्च गुरवोऽवन्त्यां वृष्टिश्च प्रावृतत्तदा ॥ ७३ ॥ तस्य प्राग्नमित्राणि वजन्तो जृम्भकामराः । दृष्ट्वा तं तत्र तैः सार्द्धं कृत्वा तस्युः परीक्षितुम् ॥ ७४ ॥ त्रायमा बिपो वीक्ष्य संस्थिता । पुनराहर स्थिते वर्षे गतस्तत्रोपयुक्तवान् ॥ ७५ ॥ यः क्षेत्रतस्तुायन्यसी । कानतः प्रथमं वर्षा, भावतो दायकाः पुनः ॥ ७६ ॥ अस्पृशो निर्मिमेवा, देवा इत्यादेन तत् । तेच तुष्टा निवेद्य विद्यां वैदिः ॥ 30 ॥ भूयोऽवन्त्यां पुरि ज्येष्ठे, वज्रे बाह्यवं गते । प्रावद्विधाय साईं ते, घृतपूर्णैर्न्य मन्त्रयन् ॥ ७८ ॥ द्रव्यादिकोपयोगेन ज्ञात्वा नान्तेषु तेष्वपि । तस्याकाशगमां विद्यां दत्वाऽगुः स्वं निरूप्य ते ॥ ७७ ॥ निष्येतदेवाह "जो कोहि बालो, निति वासं । विविओ, तं वयरशिर्सि नमसामि " ॥ १ ॥ गुह्यकैर्देवैः वासंते वर्षति नेच्छति विनीतविनयोऽभ्यस्तविनयः । तथा " जेनी जो जं-ममहि । महानसि सोहगिरिपसंसि दे" ।। १ ।। आणि परीमति विद्यादानेन । तच्छिष्यान् पठतः श्रुत्वैकादशाङ्गी स्थिराऽभवत् । तं पूर्वगमध्यान्तं, यत्किञ्चित्परता श्रुतम् ॥ ८० ॥ पोप नित्यं तमेवालापकं मुड़ः । अपरान्पठतः श्रुएचन्, गृह्णानश्च ततः श्रुतम् ॥ ६१ ॥ निक्कार्थमन्यदा साधु -वाते याते हि मध्यमे । हिमौ गुरौ प्राप्ते, तस्थौ वज्रः प्रतिश्रये ॥ ८२ ॥ प्रधान्यस्य स मएकल्या, मध्ये त्रियतिवेष्टिकाः । मध्ये स्थितः स्वयमदात् क्रमेणाङ्गादिवाचनाम् ॥ ८३ ॥ आयाताः सूयो दभ्यु- र्मुनयो द्राक् किमाययुः १ । स्वरमा गम्भीरं तं वज्रम्भतम् ॥ ८४ ॥ स्थित्वा व्यथिनम् । अपत्य यथास्थानेऽपि मुक्त्वा ताः, प्रामाक्कीत्स गुरोः पदौ ॥ ८५ ॥ ज्ञातं त्वमुं श्रुतधरं माऽवजानन्तु साधवः । इत्याचार्या विहारार्थे, चलिताः पञ्चषान् दिनान् ॥ ८६ ॥ योगिनः स्मरस्माकं भावी कोपाचागुरु गुरयो दस्ते तथेति प्रपेदिरे ॥ ८१ ॥ साधवोऽपि गुरुं वज्र-मासयित्वाऽऽसने प्रगे । योगानुष्ठानमाधाय, वाचनार्थमुपाविशन् ॥ ८० ॥ वाचनां स तथाऽऽदन्त, मन्दा अप्यपठन् यथा । अधीनमपि तैः स्पीक पूर्व स शिवा ॥4॥ सादगुरु बहवो दिनाः।' चेलगन्ति तदाऽस्माकं श्रुतस्कन्धः समाप्यते ॥ ९० ॥ गुरोरधीयतेऽहाय तत्वयाऽपि वज्रतः। इत्येवं सर्वसाधूनां वज्रो बहुमतोऽभवत् ॥ ९१ ॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१७) अज्जवइर अन्निधानराजेन्द्रः। अज्जवइर झापितास्ते वजगुणा-नित्याचार्याः समाययुः । भगवान् धर्ममाचल्यो, सोकः सर्वोऽपि रजितः। आमाधुर्यतिनो जड़े, स्वाध्यायो वस्त ऊचिरे ॥ २ ॥ दथ्यौ चास्य यथाऽनेके, गुणा रूपं न तादृशम् ॥ ११५॥ जझे किं त्वेष एवास्तु, स्वामिन् ! नो बाचनागुरुः । मात्वा तदाशयं स्वामी, सहस्रदलमम्युजम् । गुरुरुचेऽमुनोपात्तं, कर्णाघातात् श्रुतं ततः ॥ १३ ॥ कृत्वाऽन्याः स्वरूपस्थः, केवलीवोपविष्टवान् ॥ ११६॥ युज्यते वाचनां दातु, नास्य स्वयमतद्ग्रहे। तं वीदयोवाच लोकोऽस्य, सहज रूपमीदृशम् । ज्ञातुं वो वज़माहात्म्य, वाचनावाप्यपीयती ||४|| प्रायोऽजनानां मा नूव-मित्यास्ते मध्यरूपन्नाक् ॥ ११७ ॥ यत्स्वस्याऽऽसीद् गुरुः सर्व, श्रुतं वजस्य तहदः । नृपाऽपि विस्मितः स्माद, शक्तिरेषाऽपि वोऽस्ति किम् ?। विहरनन्यदाऽऽयासीत, पुरंदशपुरावयम् ॥१५॥ लन्धीरनेकाः साधूनां, तदाख्यन्नृपतेर्गुरुः ॥ ११७ ॥ वृझावासे सन्त्यवन्त्यां, श्रीभगुप्तसूरयः। श्रेष्टिना मन्त्रिपुच्याथै-स्तानुपास्थज्जगौ च सः। तेभ्योऽन्यश्रुतमादातुं, वजः प्रैषि द्विसाधुयुक् ।। १६॥ ममता चेतिन्यस्तु, जगृहे साऽपि तद्वतम् ॥ ११६ ॥ तदा च भद्रगुप्तार्याः, स्वऽपश्यन् यथा मम । अमुमेवार्थमाहपतदूप्रहं कीरभृतं, पीत्वाऽऽगन्तुः समाश्वसीत् ॥७॥ " जो कन्ना धणेण य, निमंतिम्रो जुव्वणम्मि गिहवरणा । साधूनां प्रातराचस्यु-स्तेऽन्योन्यफसमूचिरे। नयरम्मि कुसुमनामे, तं वयररिसिं नमसामि" ॥ १२० ॥ गुरुरूचे प्रतीच्छोमे, सास्यत्येत्याखिलं श्रुतम् ॥ १० ॥ पदानुसारिणा तेन, स्वामिना प्रस्मृता सती। बजोऽप्यस्थादहिनत-मदर्यायात एव हि । महापरिज्ञाध्ययना-द्विद्या ननोगमा ॥१२॥ ज्ञात्वोदेशाद्गुरुर्वज, माहात्म्ये तव गढवान् ॥९॥ "जेणुकारआ विज्जा, आगालगमा महापरिमानो। तेषां पार्वेऽथ बजार्षि-दशपूर्वीमधीतवान् । वंदामि अजवरं, अपच्छिमो जो सुत्रहराणं ॥ १२॥ यत्रोद्देशस्तत्रानुक्के-त्यागाशपुरेऽनु सः ॥१०॥ प्रणमाहिमिज्जा, जंबुद्दीवं श्मा विज्जाए । तत्रानुयोगानुशायां, वयस्यैस्तस्य जुम्भकैः । गंतूण माणुसनगं, विज्जाए एस मे विसओ ॥ १२३ ॥ इन्प्राद्यैर्गीतमादीना-मिव चके महान्महः ॥ १० ॥ जण अधारेअन्या, न हु दायव्या मए श्मा विजा । अमुमेवार्थ ग्रन्थकदाह अप्पलिआ य मात्रा, होहिंति मश्रो परं अने" ॥१२४ ।। " जस्स अणुनाए वा-यगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि । वनोऽथाऽगात् पूर्वदेशा-द्विहरन्नुत्तरापथम् । देवेहि कया महिमा, पयाणुसार नमसामि" ॥१॥ अतूच्च तत्र दुर्जिकं, पन्थानोऽपथिकाः स्थिताः ॥ १२५ ॥ यस्याऽनुज्ञाते वाचकत्वे प्राचार्यत्वे, शेषं स्पष्टम् । ततः सा उपागत्याऽ-बादीनिस्तारयेति तम् । अथान्यदा सिंहगिरि-दत्वा यजमुनेर्गणम् । पटेऽथ विद्यया सा-मारोप्य प्रस्थितः प्रतुः ॥ १२६ ॥ विधायानशनं धीमान्, ययौ स्वर्ग समाधिना ।। १०२॥ शय्यातरस्तु चार्यथै, गतोऽज्यायाद्विलोक्य तान् । वजस्थाम्यध संयुक्तः, साधूनां पश्चभिः शतैः। शिखां नित्वाऽवदवणं, प्रभो!साधर्मिकोऽस्मि वः ॥ १७ ॥ सर्वतः प्रसरत्कीर्तिर्व्यहरदोधयन् जनम् ॥ १०३ ॥ अथेदं स्मरता सूत्र, सोऽप्यध्यारोपितः पदे। श्तश्च पाटलीपुत्रे, श्रेष्ठः श्रेष्ठी धनी धनः।। ("साहम्मिअवचल्ल-म्मि सज्जया य सज्काए । तत्पुत्री रुक्मिणी नाम्नी, रूपापास्तपुझोमजा ॥ १०४ ॥ चरणकरणम्मि अतहा, तित्थस्स पभावणाए य" ॥१॥) साव्यस्तद्यानशामास्था-श्वकुर्घजगुणस्तुतिम् । . पश्चात्पतितः स्वामी, प्राप्तो नाम्ना पुरी पुरीम् ।। १२० ॥ वज्रमेव पतीयन्ती, श्रुत्वा तं रुक्मिणी स्थिता ॥ १०५ ।। सुन्निकं वर्तते तत्र, श्रावकास्तत्र भूरयः । आगच्छतोऽप्यनेकान् सा, बरकान् प्रत्यषेधयत् । तत्र ताथागतः श्राको, राजा तेऽहं यवस्ततः ॥१२॥ साभ्योऽज्यधुर्न हे नके, प्रती परिणयत्यसौ ।। १०६ ।। आर्हतानां च तेषां च, चैत्येषु स्पर्धया पुनः । सावदत् मान बजर्षिः, परिणेष्यति चेत्ततः। कुर्वतां नात्रपूजादि, जैनेज्यस्तत्पराभवः। १३०॥ प्रवजिष्याम्यहमपि, खियो हि पतिवर्मगाः ॥ १०७॥ न्यवार्यन्ताथ तैः पुष्पा-पईता राजवर्चसा । विदरन् पाटलीपुत्रे, वज्रोऽप्यन्येयुरागमत् । श्राकाः पर्युषणायां च, पुष्पाभावं गुरुं जगुः ।। १३१ ॥ निर्ययौ संमुखस्तस्य, नगरेशः सनागरः ॥ १०८ ॥ प्रनो ! अत्रेषु युष्मासु, शासनं वोऽभिजूयते । हाऽऽयातो वृन्दवृन्दै-दिव्यरूपान् यहन्मुनीन् । अथोत्पत्य ययौ बजः, कणान्माहेश्वरी पुरीस् ॥ १३२ ।। राजांचे सैष वजस्ते-ज्यधुस्तस्यैकशिष्यकः ।। १०४॥ हुताशनवने तत्र, पुष्पकुम्भः प्रजायते । मा भूत्पारजनकोभः, इति वजगुरुस्तदा । भगवत्पितृमित्रं च, तरुितस्तस्य चिन्तकः ॥ १३३॥ कृत्वा वपुःपरावृत्ति-मागच्छन्नस्ति शस्तधीः ॥ ११ ॥ प्रचुं रवाऽवदत्तोषा-कि वोऽत्रागमकारणम् ?। पश्चिमस्याके रष्टो, बजः स्वल्पपरिच्छदः । स्वाम्यूचं पुष्पसम्प्राप्तिः, स स्माहानुग्रहो मम ॥ १३४॥ सानन्दं बन्दितो राशा, तत उद्यानवेश्मनि ॥ १११ ॥ स्वाम्यूचे सुमनसोऽभि-मेलयेर्यावदम्यहम् ।। धर्ममाख्यत्प्रनुः कीरा-श्रवसन्धिर्जिनोदितम् । तुझे हिमवति स्वामी, ययौ श्रीसन्निधौ ततः ॥ १३५ ॥ तेनाक्तिप्तमनाः मानृत, नाऽविदत् कुनृपं तथा ॥ ११२ ॥ देवाार्थोपात्तपा, पना पद्मदात्तदा । अन्तःपुरे तदाचख्यौ, वन्दितुं तं तदप्यगात् । प्रेक्ष्य प्रतुं प्रमोदेन, प्रणुन्ना प्राणमत्प्रधीः ॥ १३६ ॥ श्रुत्वा श्रेष्ठिसुता लोकात्, रुक्मिणी जनकं ययौ ॥ ११३ ॥ ऊचेऽधादिश्यतां स्वामी, सोऽवदत्पनमर्पय । आयातोऽस्त्यत्र वजः सः, तात! तस्मै प्रदेहि माम् । साऽर्पयत्तं गृहीत्वा स, हुताशनगृहेऽगमत ॥१३७॥ सोऽथ शृङ्गारयित्वा तां, निन्य साई स्वकोटिभिः ॥ ११४ । । विमानं तत्र निर्माय, पुष्पकुम्भ निधाय च । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अज्जवर अन्निधानराजेन्डः। अजसेणिय जम्नकैः कृतसंगीतः, पञ्चमूले स्वयं स्थितः॥ १३॥ ॥ . काउज्जुययं जासुज्जुययं अविसंवायणं जणय अविव्योम्ना पुर्या उपर्यागा-दूचिरे सौगतास्ततः। संवायणसंपामयाए जीवे धम्मस्स आराहए भवs ४२ अहो ! अस्मत्प्रातिहार्य, देवा अप्याययुर्दिवः ॥ १३५॥ लोजाविनाजाविनीच मायेति तदभावेऽवश्य नावाजवमतस्ततद्विहारमथोखमय, गतास्ते चैत्यमहतः। दाह-(अज्जवयाए त्ति) सुत्रत्वाऋजुरवस्तद्भाव पार्जवम, तन तन्माहात्म्यं नृपः प्रेक्ष्य, सारोऽप्याहतोऽभवत् १३६ ॥ मायापरिहाररूपेण कायेन, ऋजुरेव ऋजुकः कायऋजुकस्तद्भाउक्तमेवार्थमाह वस्तत्ता, कुब्जादिवेषभ्रविकाराद्यकरणतःप्राअनिता, ताम तथा "माहेसरीउसेसा, पुरिअं नीश्रा हुआसणगिहारो। जावोऽभिप्रायस्तस्मिस्तेन वा ऋजुकता भावऋजुकता, यदन्यगयणतलमश्वश्त्ता , बहरेण महाणुनावण" ॥१॥ दविचिन्तयन् लोके भक्त्यादिनिमित्तमन्यद्वाचा कायेन वा समाहेश्वर्या नगर्याः सकाशात सस्वामिकातू नत्वरण्यादेरखामिकात्प्रस्तावात्पुष्पसंपदिति शेयम् । वज्रेण महानुभावेन हुताशन माचरति तत्परिहाररूपा, एवं भाषायामृजुकता भाषर्जुकता, य दुपहासादिहतोरन्यदेशभाषया भाषणं तत्परित्यागात्मिका, व्यन्तरगृहभूताऽऽरामात् गगनतलमसिव्यतीत्य अतिशयेन उल्लवध पुरिकापुरीनाम्नी नगरी नीता, एवं विहरन् वजस्वामी श्रीमा तथाऽविसंवादनं पराविप्रतारणं जनयति, तथा विधिश्चा विसंवादनसम्पन्नतयोपलकणत्वात् कायर्जुकतादिसम्पन्नतया लपुरं गतः । इयन्तं कालं यावदनुयोगस्यापृथक्त्वमासीत, ततः। च जीवो धर्मस्याराधको भवति, विशुकाध्यवसायत्वेनान्यजपृथक्त्वमदित्याह मन्यपि तदवातेः । नस०२० अ०। "अपुहसे अनुरोगो, चत्तारि दुवारभासए एगो। पुहत्ताणुप्रोगकरणे, ते अत्थ तओ अवच्छिन्ना" ॥१॥ अजविय-आजैव-न । मायावक्रतापरित्यागात् (आचा०) आक० । प्रा०म०।०चूविशेपंचा। ओघाध० ०। अमा का प्रमायित्वे, सूत्र०५ श्रु०१०। कल्पतं०। (अस्य वनस्वामिनोऽनशनं कृत्वा देवलोकगमनं | अज्जवेमय-आय्येवेटक-न० । श्रीगुप्ताकारीतसगोत्रानिःसृतस्य 'अजरक्खिय' शब्देऽत्रैवन्नागे २१२ पृष्ठे उक्तम् अस्य वजस्वामिनो चारणगणस्य षष्ठे कुले, कल्प० । जन्म (वि०सं०१६) (सर्वायुःज्) (वि०सं०११४ वर्षे) स्वर्गगतः अज्जसमिय-आर्यसमित- पुंआर्यवजूस्वामिमातुः सुनन्दाया जै० इ०।। अत्रकाव्यानि-"मोहाधिश्चुमुकीचक्रे, येन बालेन ली- 'प्रातरि आर्यसिंहगिरिशिष्ये, कल्प० । प्रा० म०वि० प्रा० नया स्त्रीनदीस्नेहपूरस्तं बजर्षि प्वावयेत्कथम्?" ||१||श्रा०क। चू०। येन योगप्रभावादचनपुरासन्नब्रह्मद्वीपे पादलेपेन जलो"बंदामि अजधम्म, तत्तो वंदे य जगुत्तं च । तत्सो य अजव- परि गच्छन्तं तापसं जित्वा तं सानुगं प्रव्राज्य ब्रह्मद्वीरं, तबनियमगुणेहिं क्यरसम"।नं।" समजनि वनस्वा- पिका शाखा निर्गमिता । कल्प० ।('बंभदीविया' शब्द मी, जृम्भकदेवार्पितस्फुरदूविद्यः । बाल्येऽपि जातजाति-स्मृतिः वक्ष्यामि ) प्रतुश्चरमदशपूर्वी" ॥१॥ ग० ४ अधि०। अस्याचार्यस्य शिष्य अजसमुद्द-आर्यसमुघ-पुंग उदधिनामनि प्राचार्यभेदे जसम्पद-"थेरस्सणं अज्जवश्रस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी | धावलपरिक्षीणानामुदधिनाम्नामार्यसमुद्राणामपराक्रममा धेरे अजवरसेणे उक्कोसियगोचे"।"थेरे अजपलमे थेरे मज्ज रणमभूदिति वृद्धप्रसिद्धिः। प्राचा० १ श्रु० ८ ० १ उ० । रहे" । कल्प० । (तीर्थोशालिकमत एतन्मरणे स्थानाङ्गन्युच्छेदः) अज्जसाम-आर्यश्याम-पुं० । श्रारात् सर्वहेयधर्मेभ्यो यातः "तेरसवरिससरहिं, परणासासमहिएहि वोच्छेदो। प्राप्तो गुणैरित्यार्य्यः, स चासौ श्यामश्च आर्यश्यामः । अजवश्रस्स मरणे, गणस्स जिहिं निहिटो" ॥१॥ ति। प्रशापनाकृतिकालकाचार्य्यनामके प्राचार्य, प्रज्ञापनासूत्रकअजवरसेण-भार्यवजूसेन-पुं०। प्रार्यवजस्य शिध्ये, कल्प० । रणप्रयोजनादि तदुपक्रम एवोक्तम्-“वायगवरवंसाओ, तेअजवइरी-आर्यवती-स्त्री० । आर्यवजानिःसृतायां शाखाया- पास इमेण धीरपुरिसेण। दुद्धररयेण मुणिणा, पुषसुयसमिम्, “थेरेहितोणं अज्जवश्रेहिंतो गं गोयमसगोत्तेहिंतो इत्य सुबुद्धीणं" ॥३॥"सुयसागरा वि एक-ण जेण सुयरयणमुण अज्जवहरी साहा णिग्गया" । कटप० । तमं दिख । सीसगणस्स भगवश्रो, तस्स एमो अज्जसाअज्जवट्ठाण-आर्जवस्थान-न०। आर्जवं सम्बरस्तस्य स्थाना- | मस्स" ॥४२॥ ('पमवणा' शब्दे चैतद् व्याख्यास्यते) नि भेदा आर्जवस्थानानि । साध्वार्जवादिषु सम्बरभेदेषु, अज्जमुहत्थि (ए)-आर्यसुहस्तिन्-पुं० । आर्य्यस्थूलभपंच अजवाणा पसत्ता । तं जहा-साहुअज्जवं साहुमहवं स्य शिष्ये स्थविरे, आव०४०। यैरायंसुहस्तिभिर्दीक्षितो साहुलाघवं साहुखंती साहुमोती।। द्रमको मृत्वा सम्प्रति नामा राजाऽभूत् । कल्प०। ('संपर' साधु सम्यग्दर्शनपूर्वकत्वेन शोभनमार्जवं मायानिग्रहस्ततः शब्देऽस्य कथानकम) . कर्मधारयः, साधोर्वा यतेरार्जवं साध्वार्जवम् । एवं शेषाण्यपि। अज्जसुहम्म (ए)-आर्यसुधर्मन्-पुं० । श्रमणस्य भगवतो स्था०५ ग०१०। महावीरस्य पञ्चमे गणधरे, तत्स्वरूपं चेदम-कुल्लागसन्निवेशे अज्जवप्पहाण-आर्जवप्रधान-त्रि०ा मायोदयनिग्रहप्रधाने, और धम्मिल्लविप्रस्य भार्या भहिला, तयोः सुतश्चतुर्दशविद्यापात्र म। पञ्चाशद्वर्षान्ते प्रवजितः। त्रिंशद्वर्षाणि वीरसेवा कृता धीरअजवभाव-आर्जवनाव-पुं० । प्रशस्तायाम् , “मायं चज. निर्वाणाद द्वादशवर्षान्ते जन्मतो द्विनवतिवर्षान्ते च केवलम् । वभावणं" ६०८ अ०। ततोऽष्टौ वर्षाणि केवलित्वं परिपाल्य शतवर्षायुषं जम्बूखाअजवया-अजेवता-स्त्री० । मायावर्जनात्मके श्रमणभेदे, पा० मिनं स्वपदे संस्थाप्य शिवं गतः । अन्त०१ वर्ग। अणु०स०। अस्याः फलम | अज्जसेणिय-आर्यसैनिक-पुं० । आर्यशान्तिसैनिकस्य द्विअजवयाएणं भंते! जीवे किंजणय अकिंचणाएणं तीये शिष्ये, कल्प० । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) निधानराजेन्द्रः । अज्ञसेणिया अजसे लिया सैनिकी श्री आर्यसैनिकाभितायां शाखायाम्, “ थेरेहिंतो णं श्रज्ज सेणिएहिंतो इत्थ णं श्रजसेणिया साहा सिग्गया " कल्प० । 66 अज्जा-श्राद्या स्त्री० । श्रादौ भषा, दिगादित्वात् यत् । वाच० 'गवि ' इति केचित् । अम्बिकायाम, दे० मा० १ वर्ग० । आर्या-बी० यत्प्रशान्तकायां दुर्गायाम, ००० 1 1 ० सप्तचतुष्क लगणाविव्यवस्थानिय मात्राबास ०२ बक्क० । प्राय्यैष संस्कृततरभाषासु गाथासंज्ञा । ग० १ अधि० परचमं हि एकविंशतिरूपायां कायां गतकला शब्दे तृ० ना० पृष्ट ३७७ द्रव्यम् ) झा० १ ० । साध्याम्, ग०३ अधि० । सामान्यां सुयनिकामात्रमत्र दश्यते विस्तरस्तु यथास्थानम् ('पाणि' शब्द कानिषेधोपयते) श्रीया गृडिसम पृष्टभाषणे दोषमाह - जत्य जयारमयारं, समणी जंप गिहत्थपञ्चवस्वं । पचक्रवं संसारे, अज्जा पक्खिव अप्पाणं ॥ ११० ॥ यत्र गच्छे (जयारमपारमिति ) अवाच्यगालिरूपं कार मकारसहितं वचनं या श्रमणी गृहस्थप्रत्यकं गृहिसमकं जल्पति । हे गौतम! तत्र गच्छे सा आर्या आत्मानं संसारे प्रत्यक्कं सापतीत ११० (गारधियययणशब्दे दोषं प्रायश्चित्तं च वक्ष्यामः ) , अधार्याया विविश्यपरिचाने दोषमाहगणि! गोम ! जा उचियं से अवत्थं विवज्जि । सेवए चित्तरूत्राणि, न सा अज्जा विश्राहिया ।। ११२ ।। हे गणिन् गौतम ! या चित्रं विषय चित्रक पाणि विविधवर्णानि विविधानि चत्राणि वाचते उपलक्षणात्पात्रदण्डाद्यपि चित्ररूपं सेवते सा भार्या न कथितेति । विषमाक्षरेति गाथाबन्दः ॥ ११२ ॥ 3 अधार्याया गृहस्थादीनां सीवनादिकरणे दोषमाद-सविणं तुमणं जरणं, गिहत्थाणं तु जा करे । तिणं चापि अपणो व परस्स व ।। ११२ ।। या आर्या गृहस्थानां शब्दादम्यतीर्थिकादीनांच चीनांशुकादिसंबन्धि सीवनं, तुझनं, [ जरणमिति ] भरणं करो ति, तथा या आत्मनश्च स्वस्य परस्य च गृहस्थ किम्भादेः (तिलंतितैाङ्गति) सुरभिचूर्णादिन] अपीतिशब्दान्नयन (जनमुखप्रक्षालनमएमनादिकं च करोति, नसा श्रा यो व्याइति पूर्वगाचात आकर्षणीयम् । तस्याः पार्थस्यादि त्वसमासादनात् । ग० ३ अधि० (अत्र सुनका काली चेत्युदादरणे ' बहुपुत्तिया " काली ' शब्दयोः गच्छप्रत्यनीकाऽऽर्य्या) अथ गाथात्रयेण गच्छप्रत्यनीकाऽऽर्याः दर्शयतिगच्छ सजिलाऩगई, सपर्णीयं तुलिश्रं सविधेयं । उन्हे सरीरं, सिणाणमाईणि जा कुरा | ११४ ॥ गेहेसु गिहत्याएं, गंतृण कहा कहे काही आ । तरुणाई अविमंते, माजा साह परिशीया | ११| miss विवोकं यथा स्यात्तथा सविलासा गतिर्यस्याः सा सविलासगतिर्गच्छति, तथा शयनीयं पल्यङ्कादि वा तूलिकां संस्कृततादिभृनामतूलादिभृतां वा तथा वा शरीरमु द्वर्तयति, तथा या स्नानादीनि च करोति । श्रथवा सविलास अज्जा गतिर्गच्छति तथा शयनीलिकां च सवियोति उच् ते शेषं तथैव तथा गृहस्थानां उपलक्षणत्वात् उपाश्रयेऽपि स्थिता संयमयोगान् मुक्त्वा या काशिका कधिलक्षणोपेता भयो कथा धर्मविषयाः संसारव्यापार विषया वा कथयति, तथा या तरुणादीन् पुरुषान् अनिपतत अभिमुखमाच्छतोऽनुजानाति सुन्दरमागमनं जयां पुनराग मनं विधेय कार्याप्यमित्यादिप्रकारेण 'ईजेाः पादपूरणे' ८२२१७ इति प्राकृतसूत्रोक्तेरकारः पादपूरणार्थः । गच्छस्य प्रत्यनीका शत्रुतुल्या स्यात् भगवदरहा विराधकत्वादिति ॥ १५ ॥ बुड्ढा तरुणाणं, रति अज्जा कहे जा धम्मं । सागणिणी गुणसागर परिया होई गच्छस २१६ वृकानां स्थविराणां तरुणानां यूनां पुरुषाणां रति ति) "सप्तम्या द्वितीया " ८।३।१३७। इति प्राकृतसूत्रेण सप्तमीस्थाने द्वितीयाविधानात् । रात्रौ या श्रार्या गणिनी ( धम्मं ति ) धर्मकयां कथयति सपलक्षणाद् दिवसेऽपि या केवलपुरुषाणां धर्म्मकथां कथयति हे गुणसागर! हे ! सा गणिनी गच्छस्य प्रत्यनीका भवति । अत्र च गणिनीग्रहणेन शेसाध्वीनामपि तथाविधाने प्रत्यनीकत्वमवसेयमिति ॥ २१६ ॥ अथ यथा श्रमणीभिर्गच्छस्य प्रधानत्वंस्वात् तथा दर्शयति जत्यय समणीएम-खमाइँ गच्छम्मि नेव जायंति । तं गच्छ गच्छबरं, गित्यमासाठ नो जत्य ।। ११७ ।। यत्र च गणे श्रमणीनां परस्परम् ( श्रसंखमानि ) कला नैव जायन्ते नैवोत्पद्यन्ते, तथा यत्र गणे गृहस्थानां जाषाः 'मामा आई बाप जाई' इत्यादिका अथवा गृहस्थैः सह सावद्यनापा गृहस्थनापास्ता नोच्यन्ते, स गच्छः गच्छबरः सकल गच्छ्प्रधानः स्यादिति ॥ ११७ ॥ अथ स्वच्छन्दाः श्रमण्यो यत् प्रकुर्वन्ति ताथापञ्चकेन प्रकटयति जो जन्तो वा जाओ, नाss लोइ दिवसपक्खियं वा वि । सच्छन्दा समणी, मबहरिआए न ठायंति ॥ ११८|| यो पावान् वा अतिचार इति शेषः । जातः सत्पन्नः तं तथा देवसिकं पाक्षिकं या अपिशब्दाचातुर्मासिकं सांवत्सरिकं aisaiचारं नाऽऽलोचयन्ति । अत्र वचनव्यत्ययः प्राकृतत्वात् । स्वेच्छाचारिण्यः श्रमएयः, तथा महत्तरिकाया साध्या माझायामिति शेषः । न तिष्ठन्ति इति ॥ ११८ ॥ विंडलियाथि पजति मिलाणसेही मेव तर्पति । अणगाडे आगावं, करंति आगाडि अगादं ।। १२५ ।। बिटलिकामिनिमितानि विषनिमिताही त्योधन स्यादौ व्याख्यानात् । तानि प्रयुज्जते। अत्रापि वचनव्यत्ययः प्राकृतत्वादेव । तथा नानाध रोगिएयः शैक्ष्यश्च नवदीक्षिता इति द्वन्द्वः। प्रस्ताव तर्पयन्ति औषचभेषजवखपाषानदानादिना नैय प्रीणयन्तीत्यर्थः । अत्र सूत्रे च द्वितीया ३१३४ इति प्राकृतसूत्रेण द्वितीयास्थाने पष्ठी यथा-"सीमाधरस्स वंदे लि" तथा आगादमवश्यकर्त्तव्यं ग्लानप्रतिजागरणादिकं न आगाई अनागाढं तस्मिन् अनागादे, कार्य इति शेषः आगाढमवश्य कर्त्तव्यमिति कृत्या कुर्वन्तीत्यर्थः तथा भागादे ऽवश्यक सं कार्येगा कार्य येन कृतेन विना सरति तत्कार्य कुर्वन्ती 33 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) अज्जा अभिधानराजेन्द्रः। प्रज्जा त्यर्थः । अथवा अनागाढयोगानुष्ठाने वर्तमाने आगाढयोगानुष्ठानं अथ या आर्या न भवन्ति ता गाथात्रयेण दर्शयतिकुर्वन्ति, तथा आगाढयोगानुष्ठानेऽनागाढयोगानुष्ठानं कुर्वन्ति, | धोअंति कविपात्रो, पोभंतीतह य दिति पोत्ताणि । स्वच्छन्दाः श्रमण्य ति कर्तृपदं पूर्वप्रथात आकर्षणीयम् । गिहिकज्जचिंतगारो,न ह अज्जा गोश्रमाताओ।१२।। एवमप्रेतनगाथात्रिकेऽपीति ॥११५ ॥ कण्ठिका गलप्रदेशान् धावन्ति नीरेण क्षालयन्ति, तथा अजयाए पकुव्वंति, पाहुणगाण अवच्चला। (पोअंति त्ति) मुक्ताफलविद्रुमादीनि प्रोतयन्ति, गृहस्थानामिचित्तलयाणि असेवंति, चित्ता रयहरणे तहा।।१२०॥ ति गम्यते । तथा च (पोत्ताणि त्ति) बालकाद्यर्थ वस्त्राणि ददअयतनया र्याद्यशोधनेन प्रकुर्वन्ति गमनादिकमिति शेषः । ति, चकारादीषद् धजटिकादिकमपि ददति । अथवा पोता. तथा प्राघूर्णकानां प्रामान्तराद्यागतसाध्वीमामवत्सला निर्दो- णित्ति'जलाद्रीकृतवस्त्राणि ददति,मलस्फोटनाय शरीरे घर्षपिशुनानपानादिना भक्तिन कुर्वन्तीत्यर्थः। तथा चित्रलानि, सूत्रे | यन्तीत्यर्थः। तथा गृहिकार्यचिन्तिका अगारकृत्यकारणतत्प. चकप्रत्ययः स्वार्थिकः, प्राकृतलकणवशातायकार:समुचये। राः, हे इन्द्रभृते. ता आर्या 'न हुनैव भवन्तीति गाथार्थः।१२४॥ विचित्राणि वस्त्राणि शति शेषः। सेवन्ते परिदपति, तथा चित्रा- | खरघोमाइहाणे, वयंति ते ना वि तत्थ वच्चंति । णि पञ्चवर्णगुल्लादिरचनोपेतानि रजोहरणानि सेवन्ते धारयन्ति । वेसत्थीसंसम्गी, उबस्सयाओ समीवम्मि ॥१२॥ स्वच्छन्दाश्रमण्य ति, विषमाकरेति गायाच्छन्दः ॥ १२०॥ । गाविब्भमाइएहि अगार-बिगार तह पयासंति। स्वरागर्दभाः, घोटकास्तुरङ्गमाः मादिशब्दाद् हस्यादयः, तेषां स्थाने या बजन्ति । उक्तं च व्यवहारभाष्यसप्तमोद्देशकेजह बुगाण मोहो, समुइरह किं तु तरुणाणं॥११॥ "तह चेव हथिसाला,घोडगसालानचेष प्रासखा। जंति तह स्वग्न्दाः श्रमण्यो गतिविभ्रमादि (अगारविगारसि)अत्र वि जंतसाला, कोहीयत्तं च कुवन्ति"।। अथवा खरत्तिखरका भक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । तत प्राकारं मुखनयनस्तनाद्याकृति, दासाः,घोटा भट्टाः, अयं चानयोःशम्दयोरर्थः, आदिशब्दात् विकारं च मुखनयनादिविकृति, यद्वा-याकारस्य स्वाभाविकाकृ द्यूतकारादयः, तेषां स्थाने व्रजन्ति,ते वा गर्दभाश्वादयो दासभ. तेर्विकारो विकृतिस्तं तथा प्रकाशयन्ति प्रकटयन्ति यथा वृ ट्टादयो वा, तत्राऽऽर्यिकोपाश्रये ब्रजन्ति समायान्तीत्यर्थः। श्री. कानाम, अपेर्गम्यमानत्वात् स्थविराणामपि, मोहः कामानुरागः, व्यवहारभाष्यसप्तमोद्देश के विदं प्रथमपदस्य पाठान्तरम्-'थसमुदीर्यते समुत्पद्यते, किं पुनस्तरुणानाम् ?,तेषां सुतरां समुत्प लिघोडाइट्ठाणे तितत्रस्थाल्या देवद्रोण्यः, तत्रघोटा मिङ्गराः, धत एवेत्यर्थः । तुः पुनरर्थे ॥११॥ अत्रादिशब्दस्तेषामेव देवडिङ्गराणामनेकभेदण्यापनार्थः, तेषां बहुसो उच्चगवंती, मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ। । स्थाने व्रजन्ति । तथा स्थलीघोटादेवडिङ्गरापरपर्यायास्तत्रागिएहे रागममल, सोइंदिअ वह य कबढे ॥ १२॥ र्यिकोपाश्रये व्रजन्ति । तथा वेश्यास्त्रीसंसर्गी पुमान् सदैव मुखनयनानि हस्तपादककाश्च बहुशो वारं वारं सच्चालयन्ति यासां समीपे वसति, यदि वा वेश्यागृहसमीपे यासामुपास्वगन्दाः श्रमएयः, तथा रागमएकलं वसन्तादिरागसमूहं अ- श्रयः, ता आर्यिका न भवन्तीति शेषः ॥ १२५ ॥ प्रेतनं 'तह यत्ति'पदस्य 'गिएहाशतिपदेन सह संबन्धात् (तह य सज्झायमुक्कजोगा, धम्मकहाविकहपेसण गिहीणं । गिपहेश त्ति) तथैव गृहन्ति तथैव कुर्वन्तीत्यर्थः । यथा (कव- गिहिनिस्सिज्जं वाहिं-ति संयवं तह करतीश्रो ।१२६। हेति) कल्पस्थाः समयपरिभाषया बाझकास्तेषामपि श्रोत्रे- स्वाध्यायेन मुक्तो योगो ब्यापारोयासां ताः स्वाध्यायमुक्तयोन्द्रियं भवणेन्द्रियम् , 'गिरहे' ति क्रियाया अत्रापि संबन्धा गाः। 'छक्कायजोग त्ति' पाठे तु षट्कायेषु मुक्को योगो यतनालद गृहन्ति हरन्तीत्यर्थः । अथवा कारणे कार्योपचारात् रागो क्षणो व्यापारो याभिस्ताः षट्कायमुक्तयोगास्तथाभूताः सत्यो रागोत्पत्तिहेतुर्वस्तु, यथा-मुखे शृङ्गारगीतादि, नयनेऽञ्जनादि, म गृहिणा धर्मकथानामाख्याने, विकथानां च स्त्रीकथादीनां कस्तके सीमन्तादि, बलाटे तिबकादि, कएने कुसुममालादि, अधरे रणे, प्रेषणे प्रेरणे च नानारूपे गृहिणामुक्ताः, तथा या गृहिनिताम्बूवरागादि, शरीरे चन्दनलेपादिः तस्य मएमलं समूह षद्यां वाधन्ते गृहे निषद्यामुपविशन्तीत्यर्थः। तथा याः संस्तवं तथा गृहन्ति यथा बालानामपि श्रोत्रेन्धियमुपलकणत्वादन्यदि. परिचयं गृहस्थैः सह कुर्वन्त्यो वर्तन्ते, ताः साध्व्यो न भव. छियचतुष्कं मनश्च गृह्णन्ति हरन्ति । अत्रोत्तरा पानान्तरम् । न्तीति ॥ १२६ ॥ ग०३ अधिक। यथा-"गण्हण रामण मंडण, भोयंतिव ताडकब?"। अस्यार्थ: अथ गाथात्रयेण वचनगुप्तिमाश्रित्य साध्व्याचारं दर्शयतिगृहस्थबालकानां ग्रहणं कुर्वन्ति, रामणं मचाक्रीमन, मएमनं वा जत्युत्तरपडिउत्तर, बुढिया अज्जा उ साहुणा सकि। प्रसाधनम:यदि वा ताः कल्पस्थान् गृहस्थवालकानूनोजयन्ति। अत्रापि गाथायां विनक्किलोपविभक्तिव्यत्ययवचनव्यत्ययाः पलवंति मुरुट्ठा वा, गोयम ! किं तेण गच्चेण?।१२। प्राकृतत्वादेवेति ॥ १२२॥ यत्र गणे प्रार्या साधुना सामुत्तरं प्रत्युत्तरं वा ( वुद्धिा अथ साध्वीनां शयनविधि दर्शयन्नाह त्ति) वृक्षा अपि ताः, अप्यर्थस्यान योजनात् , तथा सुरुष्टा जत्थ य थेरी तरुणी, थेरी तरुणी य अंतरे सुई। अपि भृशं सरोषा अपि प्रश्नपन्ति प्रकर्षेण वदन्तिा हे गौतम! तेन गोअम ! तं गच्चवरं, वरनाणचरिताहारं ॥ १३॥। गच्छेन किम् ?, न किमपीत्यर्थः ॥ १० ॥ यत्रच गणेस्थविरा, ततस्तरुणी, पुनःस्थविरा, ततस्तरुणीत्ये जत्थ य गच्छे गोयम!, उप्पले कारणम्मि अज्जाओ। वमन्तरिताःसाध्व्यः खपन्तीति भावार्थः। तरुणीनां निरन्तरश- गणिणीवसिविआओ, नासंती मउअसद्देण ॥१३॥ यने हि परस्परजाकरस्तनादिस्पर्शनेन पूर्वक्रीमितस्मरणादि-| हेगौतम ! यत्र च गरके ज्ञानादिकारण उत्पन्ने (प्रज्जाओ दोषः स्यादतः स्थविरान्तरिता एव ताः शेरते। हे गौतम! वर- ति) आर्या साध्यो गणिनीष्टिस्थिता मृकशब्देन भाषन्ते झानचारित्राधारं तं गच्चवरं जानीहीति ॥ १२३ ॥ | स गच्छः स्यादिति शेषः ॥ १३ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) अज्जा अनिधानराजेन्द्रः। अज्जा माऊए मुहियाए, मुएहाए अहव नराणिमाईणं । तं निच्चयो गोयम ! जाणिज्जा मूलगुणवाहा ।। जत्थ न अज्जा अक्खइ, गुत्तिविभेयं तयं गच्छ॥१३॥ मूलगुणेहि उ खलियं, बहुगुणकालयं पिलफिसंपन्न । यत्र गच्छे पायर्या मातुः पुहितुः स्नुषाया अथवा भगिन्यादीनां उत्तमकुळे वि जायं, निद्धामिज्जइ जहि तहिं गच्चं ॥ सबन्धि (गुत्तिविनेयं ति) गुप्तेर्वचनगुप्तर्नेदो भङ्गो यस्मात्तदू जत्थ हिरमसुवएणे, जणधने कंसदोसफलिहाणं । गुप्तियिनेदम्, नात्रकोद्घाटकमित्यर्थः । वचनमिति शेषः । नाख्याति । इदमुक्तं भवति-हे मातः ! हेस्नुषे! हे भगिनि!श्त्य सयणाण आसणाण य, नयपरिभोगो तयं गच्चं ॥ दिनात्रकोद्घाटकवचनेन मात्रादीनालापयति। यदुक्तं श्रीदशवै- जत्थ हिरमसुवर्ण, हत्येण परागयं गिनोच्चिप्पे। कानिके सप्तमाध्ययने-" अज्जिए पज्जिए वा वि, अम्मो माउ- कारणसमप्पियं पि हु, खणानिमिस पि तं गच्छं ।। सिय त्ति । पिउस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए ननुणियत्तिय"॥१॥ उद्धरबंजवयपाल-ण अज्जाण चवलचित्ताणं । ॥ १५ ॥ तथा-"प्रज्जए पज्जए वा वि, वप्पचुछ पिन त्ति अ। सतसहस्सं परिहरे-ज्जए वी जत्यत्थितं गच्चं ॥ माउसा भायणिज्जत्ति, पुत्ते नत्तुणियत्तिय"॥१०॥ अथवा ममेयं जत्युत्तरचम्पमिउ-त्तरोहि अज्जा उ साहुणा सम्।ि माता ममेयं हितेत्यादि, अहमस्या वा माता अहमस्या वा दुहिता अहमस्या वा वधूटीत्यादि वा मात्रकोद्घाटनवचनं पलवंति सकुन्छा वि य, गोयम ! कि नेण गच्छेण?।। कारणं विना न जल्पति । अथवा मात्रादीनामपि 'गुत्तिविभे- जत्य य गोयम ! बहुवि-प्पकझोनचंचलमणाणं। यंति' गोपनीयमर्थ न कथयति; स गच्छः स्यादिति ॥१३१॥ अज्जाणमणहिजइ, नणियं तं करिसं गच्छ॥ अथ गाथात्रयेण साधीस्वरूपवक्तव्यताशेषमाह जत्थ खंगसरीरो, साहू अणसाहु णिच्च हत्यमया । दंसणियारं कुणई, चारित्तनासं जणेइ मिच्छत्तं । उद्धं गच्छेज बहि, गोयम ! गच्चम्मि का मेरा।। दुएण वि वग्गाणऽज्जा, विहारभेयं करेमाणा ।।१३।। जत्थ य अजाहि सम, संलावुझावमाइ ववहारं । दर्शनातिचारं करोति, चारित्रनाशं, मिथ्यात्वं च जनयति, द्वयोरपि वर्गयोः साधुसाध्वीरूपयोः, आर्याः किं कुर्वाणाः?, विहार मोत्तुं धम्मुवएसं, गोयम ! तं केरिसं गच्छं?" आगमोक्तविधिना विचरणम, तस्य भेदो मर्यादोलनम्, तं भवमणियत्थविहारं, णिययविहारं ए ताव सादणं । कुर्वाणाः॥१३२|| ग०३ अधि०। कारणनीयावासं, जो सेवे तस्स का बत्ता ॥ आर्याणां नाषणप्रकार:तम्मूलं संसारं, जणेइ अज्जा वि गोयमा! नूणं । निम्मम निरहंकारे, उज्जुत्ते नाणदंसणचरित्ते । तम्हा धम्मुवएस, मुत्तुं अन्नं न भासिज्जा ।। १३३ ॥ सयलारंभविमुक्के, अप्पमिबके सदेहे वि ॥ तद् धर्मोपदेशव्यतिरिक्तं वाक्य, मूत्रं कारणं यत्र संसारजनने आयारमायरंते, एगखेत्ते वि गोयमा ! मुणियो। तत्तन्मलं, नद्यथा स्यात्तथा हे गौतम ! आर्याऽपि साध्यापि नूनं वाससयं पि वसंते, गीयत्थाराहगे जणिए । निश्चितं संसारं जनयति विवईयात, यस्मात् इति शेषः। तस्मा- जत्थ समुद्देमकाले, साहूणं मममी अज्जाओ। कमोपदेशं मुक्त्वा अन्यदर्थमार्या न नाषेत ॥१३३॥ गोयम ! उर्वति पादे, इत्थीरज्जं न तं गच्छं । मासे मासे ऊ जा, अज्ना एगसित्येण पारए कलहे। जत्थ य हत्थसए वि य, रयणीवारं चउण्हमृणाओ। गिहत्थानासाहिं, सव्वं तीइ निरत्ययं ॥ १३४ ।। उतुं दसएहमसई, करेत्ति अज्जाउ णो तयं गच्छं ।। 'मासे मासे ऊ' इत्यत्र “क्रियामध्येऽश्वकाले पञ्चमीच" इति अववाएण वि कारण-वसेण अजा चउएहमृणाओ। सूत्रेण सप्तमी । वीप्सायां विचनम् । तुश्चैवकारार्थः । ततश्च गोयम ! वीपरिसकं-ति जत्थ तं केरिसं गच्छं।। मासे मासे एव नवमासादौ या प्रार्या साध्वी एकासक्थेन एककणेन पारयेत पारण कं कुर्यात् । ( कलहे त्ति ) कसहयेच जत्य य गोयम ! साहू, अजाहि समं पहम्मि अजाण । कलहं कुर्यात् गृहस्थनाघाभिर्मोद्घाटनशापप्रदानजकारम- अववाएण वि गच्छे-ज तत्थ गच्चम्मि का मेरा।। कारादिवचनैरित्यर्थः। अथवा कलहे राटौ गृहस्थजाषाभिः कि जत्थ य तिसाहभेयं, चक्खूरागग्गुदीराणं साहू । यमाणे सतीति शेषः। सर्व तपः प्रतिधर्भानुष्टानं तस्याः निरर्थक निष्फमिति। विषमाक्वरोत गाथाच्छन्दः ॥१३४॥ ग०३अधिः। अजाओ निरिक्खेज्जा, तं गोयम ! केरिसं गच्छं॥ अन्यश्च साध्वीनामनाचरितम् जत्थ य अज्जालद्धं, पडिग्गहमादि विविह उवगरणं । जत्थ य तेरसहत्थे, अज्जाओ परिहरंति नागधरे । परिझुंजइ साहूहिं, तं गोयम ! केरिसं गच्छ॥ मणसा सुयदेवमिव, सव्वमवि त्यी परिहरति ।। अश् दुलहं जेसज्ज, बलवुद्धिविवणं वि पुष्टिकरं । इतिहासखेड्डुकंद--प्पणाहवादणं कीरए जत्थ । अज्जालद्धं भुंजइ का मेरा तत्थ गम्मि ? ॥ साऊण गश् सुकुमालि-याए तह ससगनसगजइणीए । धावणवणलंघण-मयारजयारउच्चरणं ।। ताव न वीसमियव्वं, सेयही धम्पिओ जाव ।। जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरिय कारणे वि नष्पन्ने । दढचारित्तं मोतं, आयरियं मयहरं च गुणरासिं । दिट्टीविसदित्तग्गी, विसं व वज्जिज्जइ स गच्छे । अज्जा बजावेई, तं अणगारं न तं गच्छं । जत्थित्थीकरफरिसं, लिंगी अरहाविसयमनिकरेज्जा।। घणगज्जिय कुहुकुद्य, बिज्जुद्गेज्ज मृदहिययामो । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जा होज्ज वावारिया, इत्थीरज्जं न तं गच्छं || पचक्रखा सुयदेवी, ते च अच्छी सुराहि अणुयावि । जत्य परिसर कुन्ना, इरथौर न तं गच्छ ॥ गोयम ! पंचमहन्वय-गुत्तीणं दसविहस्त धम्मस्त । एक कह विखन, इस्थी रज्जं न तं गच्छं ॥ दिदिक्खियस्स दमग-रस अभिमुहा अज्जवंदना अज्जा । निच्छर आसणगडणं, सो विषय समजणं ॥ बाससदिखाए अलाए अन्जदिक्खियो सानू । नत्तिभर निन्नराए, वंदण विएण सो पुज्जो || महा०५अ. ( उपध्यादिकम् ' वहि ' श्रादिशब्देषु (६० ना० १०६० पृष्ठेष्टव्यम् ) नि० चू० । ० । परपोकपणामेव साध्यीनामेयक. स्पते इत्यार्थ्याकल्पः साध्यानीताऽऽहारे, प० । अधार्थ्याव्यतिकरेण गच्यस्वरूपमेव गाथादशकेनाहजत्य व अज्ञाकप्पो, पाशच्चार विरोरम्भिक्त्रे । नय परिजुन सहसा, गोयम गच्छंतयं भणियं ।। ६१ ।। यत्र च गणे श्राय्र्याणामेव साध्वीनामेव कल्पते इत्यार्यीक रूपः सायानीताहार इत्यर्थः प्राणत्यागेऽपि मरणागमनेअप, रोदुर्भिचे दारु परिभुज्यते साधुमि रिति शेषः कथमः सहसेति अविमृश्य संयमस्य विराधनाविराधने, यतः सर्वत्र संयममेव रचेत् संयमे च तिष्ठति आत्मानमेव रक्षेत्, श्रात्मानं च रक्षन् हिंसादिदोषाद मुच्यते । मुक्रस्य च प्रायश्चितप्रतिपत्या विशुद्धिः स्यात् तेन हिंसा दिदोषप्रतिसेवन कालेऽप्यविरतिः तस्याशये विशुद्धतया विशुद्धपरिणामत्वात्। उवीघनिकी गाथायाम "सम्यस्थ संजम सं जमाउ अप्पाणमेव रक्खंता । मुच्चर वायाश्रो पुणो विसोही न पारिई ॥१॥ ततो विमृश्य परिभुज्यतेऽपि निकापुत्राचार्यैरिव । वदाह- 'अन्नियपुत्तायरिश्रो, भत्तं पाण पुष्कलानीयं भुजतो, बंभवर्षण सो अलंगा ॥१॥ हे गौतम! स गच्छो भणितः । सूत्रे नपुंसकत्वं प्राकृतत्वादिति ॥ ६१ ॥ ० २ अधि (अधिकायुषाचार्यसंवन्ध अ मिश्राउत्त' शब्दे वक्ष्यते ) अजादिप्रानन्दिल पुं० श्रार्यमङ्गोः शिष्ये प्रार्थनाहस्तिनं०] (व्याख्यास्य 'अज्जगदिल' शब् अज्जाल - आयलब्ध- त्रि०। साध्वीं प्राप्ते, ग० २ अधि० । जत्य व अम्मालक, पढिगहमाई व विविहडवगरणं । परिशु साहू, गोयम ! फेरि गच्छं ? ।।१।। यत्र च गणे आयलब्धं साध्वीप्राप्तं पतदूग्रहादिकं विविधमुपकरणमपि किं पुनराहारादिकमित्यपिशब्दार्थः । कारणं विना साधुः परभु गौतम सफीदो गन । नन्वत्रायलब्धत्वं पतदूग्रहाद्युपकरणस्य कथं संभवति?, प्राय स्थास्यंास्यैव ग्रहणे च प्रायश्चित्तम्, अनेके दोषाश्च । उक्तं च यतिजीतकल्पप्रकरणे - "गुरुचहिअ पमिलेडे, उप्पश्यअसोहि कमिततम्गणे । बहुगा गुरुगजाणं, सयमेव वत्थपायगिहे " ॥ १ ॥ अस्याः किंचिदूतिलेो यथा आर्याणां संयतीनां गृहस्थसकाशात् स्वयमेव चमपात्रणे चतुर्गुरका यतः संप J - (२१३) अभिधान राजेन्द्रः । " अज्जालक तीनां गृहस्थः स्वयमेव खाद उनके दोषाः संभवन्ति । तथाहि संयंती गृहस्थाद्वस्त्राणि गृह्णन्तीं दृष्ट्रा कोऽप्यनिवथाको मिथ्यात्वं गच्छेत् नियोपि भाटी गृहासीति शङ्क वा गुदस्थो या बादानमा प्रतिमेवखाणि न करो कुर्यात्। खी स्वभावे नाल्पसस्वा ततो येन तेन वा वस्त्रादिनाऽल्पेनापि लोजेन बाजिता चाकार्यमपि करोति, बहुमोहा च स्त्री, ततः पुरुषैः सह संलापं कुर्वन्त्या वस्त्राणि गृहया तस्याः पुरुषसंपर्कती मोही दीप्यते, उदाररूपां वा संयतीं दृष्ट्रा कार्मणादिना कश्चिद्वशीकु यत्ता चार करोति तम्माथीमि गृहस्थेच्या स्वयं वस्त्राणि न ग्राह्यादि, किन्तु तानि गणपण दातव्यानि । तत्रायं विधिः संयती प्रायोग्यमुपधिमुत्पाद्य सप्तदिनानि स्थापयति, ततः कल्पं कृत्वा स्थविरं स्थविरां वा परि धापयति, यदि नास्ति विकारस्ततः सुन्दरम् । एवं परीक्काम यदि ददाति तदा चतुर्गुरुकमच परीक्षितमुपधिमा चार्यो गणिन्याः प्रयच्छति, गणिनी च संयतीनां विधिना ददाति । अथाचार्यः स्वयं न तासां ददाति तदा चतुर्गुरुकम्, यतः कामिदमातरं दशं रोनेपाऽस्येापीयस्था चमस्थाने स्थापपतिताचार्येण प्रयसिंया एव रस्ते दातव्यमित्यादि । तस्य निशचदशदेशक चूर्णावपि सचि स्तरमस्तीति । अत्रोच्यते यदुक्तं भवता, तत् सत्यं परं संजत्येव, धमणाजावादी धात्वमुपकरणस्य धमणासङ्गावादी निधीनामपि स्थचिरादिक्रमेण स्वयमेत्र वस्त्रग्रहणस्यानुज्ञानातू । उक्तं च निशीथपञ्चदशोदेशक चूर्णावेव यथा चोयग आह-यद्येवं, सूत्रस्य नैरर्धक्यं प्रसज्यते । श्रायरियो आह'असर समणाण चोग ! जायते निमंतणे तह चैत्र । जायंति थेरिय सती, व मीलगा मोतुमे गणो' ॥ १ ॥ हे चोगमा सति पेरिया जान चत्वा तिजदा साहू वहा ताओ व असति तरुणी यति मिस्सा जाति हमे प्राणे मोमित्यादि । अत्र वस्त्रग्रहणवत्पात्रग्रहणमनुक्तमपि श्रमणाभावादावनुज्ञातं संभाव्यते ॥ ६१ ॥ बह-सज्जं, बलबुद्धिविवणं पि पुट्ठिकरं । 3 जाल मुंज, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? || २ || यत्र गणे अपिशब्दस्य प्रतिविशेषणं संबन्धात् प्रतिभमपि प्रतिशत प्राप्यमपि । अत्र विनकिलोपः प्रकृत्या तू समासो वा भैषज्यशब्देन सह तथा बविवर्धनमथि जब शरीरसामध्ये बुधा तथा पुष्टिकरमपि शरीरोप कार्यपि, पत्यभीषमाभिरिति शेषः । हे गौतम ! ( का मेरा ) का मर्यादा तत्र गच्छे ?, न काचिपत्यर्थः मेरेति मर्यादायाची देशीशब्दः ॥ ६२ ॥ 1 एगो एगि थिए सकि, जत्य चिह्निश्न गोथमा ! | संजईए विसेसेण, निमेरं तं तु नासिमो ||६३ || एक एकाकी साधुरेका किन्या स्त्रिया साधे हे गौतम! यत्रतिठेवतं गच्छे निर्भर निर्मयाद जापामहे वयम् संस्थापकाकिया एका पत्र साधुतिष्ठेत्तु विशेषेण निरं भाषामहे इति । श्रत्र एकाकिन्या स्त्रिया साध्या च सार्धमेकाकिनः साधोदेकत्र खानयर्जनं राजेपामेकान्ते परस्परमप्रत्यङ्गादिदर्शन 55 लापादिकरणतो दोषी संभवात् । किं Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२४) अज्जालक अभिधानराजेन्द्रः। अज्जुणग च-प्रतीतमेकान्तेऽपिणिकचेलणयोःरूपादिदर्शनेन श्रीमन्महा- योऽयं तपस्विनामिति अनिकापुत्रमाचार्वा व्यदिशन्त्यालधीरसाधुसाध्वीनां निदानकरणादिदोषोत्पत्तिःसंजातेति श्रीद-| म्बनत्वेनेति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ शाश्रुतस्कन्धे तथोपसम्भादिति।अनुष्ट्रप्पन्दः ॥ए३॥ग०२अधिक। कथम् ?महा0 । आव०। ('अस्मिाउत्त' शब्दे तत्कथा वक्ष्यते) अभियपुत्तायारो, भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए । अज्जावेयच्च-आझापयितव्य-त्रि०ाआज्ञाप्ये समाझापयितव्य, उवणीयं लुंजतो, तेणेव भवेय अंतगडो ॥ ११८॥ "अहंणं अज्जावेयन्धो अप्ले अज्जावेयवा" सूत्र०२ श्रु०२ अ०। अकरार्थो निगदसिकः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः (तच अज्जासंसग्गी-आर्यासंसगी-स्त्री०। साध्वीपरिचये, ग०। 'अनियाउत्त' शब्दे वक्ष्यते) तेन मन्दमतय श्दमालम्बनं कुआर्यासंसर्गवर्जने कारणमाह धन्तः सन्तः , श्दमपरं नेकन्ते । किमत आहवज्जेह अप्पमत्ता, अज्जासंसम्गि अग्गिविससरिसी। गयसीसगणा ओमे, भिक्खायारा अपञ्चनं थेरं । अज्जाणुचरो साह, सह अकिति खु अचिरेण ॥६॥ निगमंति सहो विसढो, अज्जिअलाभं गवसंता॥११॥ वर्जयत मुश्चत प्रप्रमत्ताः प्रमादवर्जिताः सन्तो नोः साधवः! गतः शिष्यगणोऽस्यति समासस्तम, (ओमे) सुर्भिक्के निक्कायूयम् का?, प्रा-संसर्गीः साध्वीपरिचयान् । अत्र शसो लोपः प्राकृतत्वात् । उपसर्गेऽग्निविषसरशीरुपलकणत्वात् व्याघ्रविष चायाम् , (अपचलो) असमर्थः, निक्काचर्यायामपञ्चम अस मर्थस्तं स्थविरं वृरूमेवंगुणयुक्तं न गणयन्ति नामोचयन्ति, सधरादिसरशीच, खुर्यस्मादर्थे। ततोऽयमर्थः-यस्मात्कारणात हा विसढा समर्थाः, अपिशब्दात् सहायादिगुणयुक्तस्वेपि सनप्रार्यानुचरः साधुर्मुनिर्जभते प्रामोति अकीर्तिमसाधुवादमचि मायाविन आर्यिकालाभं वेषं गवेषयन्ति अन्वेषन्त इति गाथारेण स्तोककालेनेति ॥ ६३॥ थेरस्स तवस्सिस्स, बहुस्सुअस्स व पमाणनूयस्स। र्थः ॥ १९६ ॥ आव० ३०। अज्जासंसग्गीए, जणपणयं हविजाहि ॥ ६४॥ अज्जिआ-आर्थियका-स्त्री० मातुर्मातरि, दश०७ अपितास्थविरस्य वृरूस्य तपखिनो वा तपोयुक्तस्य बहुश्रुतस्य वाऽ. मह्याम, वृ०१०ग साध्व्यां च। "जानीते जिनवचनं, श्रद्धत्ते चार्यिकासकलम् । नास्यास्त्यसम्भवोऽस्या-नाविरोधीतबह्वागमस्य प्रमाणनूतस्य वा सर्वजनमान्यस्य एवंविध धगतिरस्ति" ॥१॥ध०२ अधिक। स्यापि साधोः प्रायसंसर्या साध्वीपरिचयेन ( जणपणयं ति) जनवचनीयता जनापवाद इत्यर्थः, भवेदिति ॥६॥ अज्जु-अद्य-अव्यः। अपनूंश उकारान्तत्वम् । अस्मिन्नहनि, अथ यद्येवंविधस्या-संसा जनापवादः स्यात्तर्हि- । "विप्पिययारत जशवि, पिडतो वि तं प्राणही अज्जु " प्रा० । एतद्वीपरीतस्य का कथेत्याह अज्जुण-अर्जन-पुं० । अर्ज-उनन् । ककुभपर्याये, औ० । बहुकिं पुण तरुणो अवहु-स्सुअ न य विगिट्टतवचरणो। बीजकवृक्कनेदे, प्रज्ञा०१पद० । ज्ञा० राणतत्पुष्पे, तच्च सुअज्जासंसग्गीए, जणवंचणयं न पाविजा ।। ६५ ।। रनि भवति। ज्ञा०१श्रु०ए० तृणविशेष, प्रज्ञा०१ पदापातरुणो युवा अबहुश्रुतश्चागमपरिज्ञानरहितः, न चापि बहुवि- चा। स्वनामख्याते पाएपुरस्वर्णे, जं० ३ वक्क० । गोशालस्य कृष्टतपश्चरणो न दशमादितपःकर्ता; एवंविधो मुनिरार्यासंसा मलबिपुत्रस्य षष्ठे गौतमपुत्रे दिक्चरे, भ०१५ श०१ उ०।"जनवचनीयतां किं पुनर्न प्राप्नुयात् ?, अपि तु प्राप्नुयादेवेत्यर्थः | ज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि"न०१४ २०१ । ६५ । ग० २ अधि। उ०। हैहयवंश्ये कृतवीर्याऽपत्ये नृपनेदे, भूतावमानी हैहयवाअज्जासाढ-मार्यापाढ-पुं० । श्रीधीरसिके चतुर्दशाधिकव- र्जुनः। ध०१ अधि० । पाण्डुराजस्य तृतीये आत्मजे, ज्ञा० १ र्षशतद्वयेऽतिक्रान्ते उत्पन्नाव्यक्त राष्टीनां गुरौ, ते चाऽाषाढा- श्रु०१६ अ०। (विवाहादि चास्य 'दोवर' शब्दे इष्टव्यम् ) निधा प्राचार्याः श्वेताम्न्यां नगर्यो समवसृत्य तत्रैव हृदयशू- "अज्जुणगुटुं व तस्स जाण" उपा०२०। लरोगतो मृत्वा सौधर्मे उपपद्य पुनः शरीरमधिष्ठाय कश्चित्स्व- | अज्जुग-अर्जुनक-पुं० मालाकारजेदे, अन्ततत्कथा चैवम्शिष्यमाचार्य कृत्या दिवं गता इति । तनिष्याश्चाव्यक्तदृष्टयोऽन तेणं काले णं ते णं समएणं रायगिहे पयरे गुणसिनए चेइधन् । मा०क० । उत्तामा('अभ्यत्तिय' शब्देऽस्य विस्तरः) प्रजिअ-अर्जित-त्रि० ! उत्पादिते; उत्त०१० । उपार्जिते, ए, सेणिए राया, चेरणा देवी, तत्य णं रायगिहे णयरे "धम्मज्जियं च ववहारं, बुरहायरियं सया" उत्स०१०। अज्जुणए नामा मालागारे परिवसति । अके जाव मञ्चिते, "अट्ठविहं कममूलं, बहुपहि भवेहि अज्जियं पावं" अपरिजूते तस्स णं अज्जुणयस्स मालागारस्स बंधुमतीसंथा। नि००। उत्तम नामंजारिया होत्था। सुमालस्स तस्स णं अज्जुणयस्स माअजिमनान-आर्थियकालान-पुं० । भायिकाभ्यो सान लागारस्स रायगिहस्स नगरस्स बहिया। एत्थ णं महं एगे प्रायिकालानःसाध्न्यानीतवापात्रादौ, आव०। पुप्फारामे होत्था, किन्हे जाव निकुरुंबनूते दमकवमकुमुअजिअलाभे गिद्धा, मरण लानेण जे असंतुट्ठा । मेइ पासा ते तस्स णं पुप्फारामस्स अदूरमामंते एत्थ णं जिक्वायरियाजग्गा, अमियपुत्तं वासंति ॥ ११७॥ अज्जुण्यस्स मालागारस्स अज्जयपज्जयपिइपज्जयागते अआर्यिकान्यो लाजः तस्मिन् गृका आसक्ताः, स्वकीयेनात्मीये. न लानेन ये असन्तुष्टा मन्दधर्मा भिक्षार्चयया भन्नाः निक्षा: ऐगकुलपरीसं परंपरागते मोगरपाणस्स जक्खाययणे होटनेन निर्विष्मा इत्यर्थः। ते हि सुसाधुना चोदिताः सन्तः भभ- स्था, पोराणे दिवे सच्चे सच्चवातिए जहा पुमभद्दे तत्थ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) अभिधानराजेन्द्रः । अज्जुगाग मालागाराए सर्फि विजलाई भोगजोगाई झुंजमाणा विहरति, तस्स अज्जु यस्स मालागारस्स अयं अप्पसत्थीए । एवं खलु श्रहं बालप्पाभिति चेव मोग्गरपाणिस्स भगवतो कलाकलिंजाब कप्पेमा विरामि तं जयणं इदं सम्मिहिते सुब्बते एस कट्ठे तत्ते से मोग्गरपा जिक्रखे श्रज्जुणयस्स मालागास यमेयारूवं अवत्थियं जाव वियाणित्ता अज्जु यस्स मालागारस्स सरीरयं अणुपत्रिसति, प विसतित्ता तमतमतडसंबधाई छिंदति, विंदतित्ता तंपलसहस्त निष्फलं मयं मोग्गरं गेएहति, ते इत्थ सत्तमे छ पुरिसे घाएइ तसे अज्जुपए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेण णाडे समाणे रायार्गिहस्स रागरस्स परिपेरं तेणं कलानि इथिसत्तमे पुरिसे घायमाणे विहरति, तए रायगियरे सिंघमग जाब महापदेसु बहुजणो असममस्स एवमाइक्खति०४ । एवं खलु देवाणुप्पिय ! अज्जुए मालागारे मोग्गरपालिया अणाइडे समाणे रायगिहे णयरे वहिया छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घायमाणे विहरति, तत्ते सेलिए राया इमी से कहाए बद्धट्टे समाणे को मुं विए सदावेति, सहावे तित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाप्पिया ! सं अज्जुणमालागारे जाव घाएमाणे विहरति, तं माणं तुज्भे के इकट्टस्स वा तपस्स वा पाणियस्स वा पुप्फफलाणं वा अट्ठार संतिरं निग्गच्छ माणं तस्स सरीरयस्स बाबती भविस्मति, तिकट्टु दोचं पि तच्च पि घोसणघासेहति, घोसणघोसे हतित्ता खिप्पा मम एयं माणत्तियं पच्चप्पियंति, तए णं कोकुंबिय जाव पच्चपिति, तत्थ एवं रायगिहे सागरे सुदंसणे नामे से परिवसति, अड्डे तस्से सुदंसणे समणो वासए या विहोत्या, अगियजीवाजीवे जाव विहरति । ते णं काले पं ते समए समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव वि हरति, तं रायगिहे एयरे सिंघा मगबहुजणो ममस्स एवमाइक्aति जाव किमंग ! पुण विपुलस्स श्रट्टस्स गहरणताए ते तस्स सुदंसस्स बहुजणस्स अंतिए एयमहं सुधा निसम्म भत्थिते ० ५। एवं खलु समणे णं जाव विहरति, तं गच्छा मि, वंदामि, एवं संपेहेति, संपेहे तित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता करयल० एवं वयासीएवं खलु मया समणे जाव विहरति, तं गच्छामि सं समयं भगवं महावीरं वंदामि, जाव पज्जुवासामि, तत्तणं ते सुदंसणं सेट्टी अम्मा पियरो एक वयासी एवं खलु पुत्ता अज्जुपए मालागारे जात्र घाएमाणे विहरति, तं माणं तुम तासमणं जगवं महावीरं बंदंति, पज्जुवासंति, निग्गबाहि मारणं तवसरीरस्त वा विति भविस्सति,तुमणं इह गए चैव सभगवं महावीरं वंदादि, तए एवं से सुदंसणे सेडी अम्माप अज्जुणग णं मोग्गरपाणिस्स एवं महं पन्नसहस्स निप्पल श्रोमयमोरंगहाय चिट्ठति, तस्सेव अज्जुणए मालागारे बालप्पानेतिं चैत्र मोग्गरपाणिजक्खस्स नत्तेया वि होत्या, कल्लाकलिं पच्छियपमिया ति गेएहोवेति, गेएहोवेतित्ता रायगिहात गरा मिनिक्खमति, पडिनिक्खमइत्ता जेणेव पुफारामे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, जवागच्छतित्ता पुफचयं करोति, करेतित्ता अम्गाई वराई पुप्फाइ गहाय जेव मोग्गर पाणिस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता मोग्गरपाणिजक्खस्स महरिह पुप्फच्चणं करोति, करेतित्ता जाणुपाते पकिते पणामं करेति, करेतित्ता ततो पच्छा रायमगंसि विति कप्पेमाणे विहरति, तत्थ णं रायगिहे नगरे ललितनामं गोट्ठी परिवसति, अड्डा जाव परिभ्रया जकयकया या वि होत्या, तं रायगिदे यरे या कयाई पमोये घुट्टे या वि होत्या, तस्सेव अज्जुए माझागारे कल्लपभुयतराएहिं पुप्फेहिं कज्जमि तिकट्टु पच्चूस कालसमयंसि बंधुमतीए जारियाए सद्धिं पच्त्रिय पडियाई गेएहति, गेएहतित्ता स्याउ गिहातो पमिनिक्खमति, मिनिक्खतित्ता रायगिहं यरं मज्भं मज्जेणं निगच्छर, निगच्छत्ता जेणेव पुप्फारामे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, नवागच्छतित्ता बंधुमतीए जारियाए सद्धिं पुप्फच्चयं करोति, तीसे ललियाए गोठी; तत्थ गोहिल्ला पुरिसा जेणेव मोग्रपणिस्स जक्खायतणे तेणेव उवागया अनिरममाणा चिह्नंति, तस्सेव अज्जुणए मालागारे बंधुमती ए नारियाए सद्धिं पुप्फच्चयं करेति, करेतित्ता पच्छीयं भति गाई पुफाएँ मिहाई जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्वस्स जक्खायत्रणे तेणेव उवागच्छति, नवागच्छतित्ता ते छ गोपुरसा अज्जु मालागारे बंधुमतीनारियाए सि एज्जमानं पासंति, पातित्ता एएमएणं एवं बयासी-एस णं देवाप्पिया ! अज्जुणमालागारे बंधुमतीए जारियाए सहिव्वमागच्छति हव्वमागच्छतित्ता तं सेयं खलु देवा पिय! अहं अज्जुरणयं मालागारं अउरुयबंधणयं करेति, करेतित्ता बंधुमतीए भारियाए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाई मुंजमाणाणं विहरित्तए तिकट्टु एयमहं अएण - मणस्स पडिसृति, पडितृणतित्ता कवातरेसु निलुक्कति, निचला निष्कंदा तुसिणि एया पन्ना चिह्नति, तस्से अज्जु ए मालागारे बंधुमतीए जारियाए सद्धिं जेणेव मोग्गरजक्खायतणे तेथेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता आलोए पणामं करोति, करेतित्ता महरिहं पुप्फञ्चणं करोति, जाणुपायं परणामं करोति, तत्ते णं ते छगोहिल्ला पुरिसा दवदव्वस्म कवाडंतरेहिंतो निग्गच्छंति, निग्गच्छंतित्ता अज्जुरणयं मालागारं गेएहति, गेरहंतित्ता अवरुगं बंधणं करोति, बंधुमती Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जुणग अनिधानराजेन्धः। भज्जुणग यरोएवं वयामी-किरणं अम्मयातो समणं भगवं महावीरं शह- व दिसिं पानजाते तामेव दिसि पमिगते । तए णं अज्जुणए मागते इह पत्तं इह समोसढंह गते चेव बंदिस्सामि, तं गच्छा- मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं विष्पमुक्किस्समाणे धमि, एणं अहं अम्मयाउ तुज्झहिं अन्जणुनाते समाणे समणं | सति धरणीयतलसि, सव्वं गेहं निवार्डए ते सुदंसणे समणो भगवं महावीरं वंदति,तं मुदंमाणं सेडी अम्मापियरोजा से नो वासए निरुवसग्गम्मि तिकट्ठ पमिमं पारेति, तत्ते णं से संचाएति, बहुहिं आघवणेहिय ४ जाव परूवेहिं संता तंता | अज्जुणए मालागारे ततो मुहुरंतरेण आसत्ये समाणे उटेति, परितंता तीहे एवं बयासी-अहामुहं तत्ते णं से सुंदसणे अ- | उतित्ता सुदंसणं समणो वासयं एवं बयासी-तुझणं म्मापितीहिं अजणुमाते समाणे एहाति, सुच्या वेसाईजाब देवाणुप्पिया ! कहिं वासं पथिया । तत्ते णं से मुदंसणे समणो सरीरे सयातो गिहातो पडिनिक्खमति, पमिणिक्खमतित्ता वासए अज्जुण्यं मालागारं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपायावहारचारेणं रायगिह एयरं मऊ मज्मेणं निग्गच्छति, । प्पिया! अहं सुदंसणे नाम समणो वासए अनिगयजीवाजीवे निगच्छतित्ता मोग्गरपाणिस जवस्स जक्वायतणे अकर- गुणसिले चेहए समणं जगवं महावीरस्म वंदते, सपथिए सामंते णं जेणेव गुणसीलए चेतिए जेणेव समणे जगवं तेणेव तसे अज्जुणए मामागारे सुदंसणं समणो वासयं एवं वया पाहिरेत्थगमणाए तणं से मोग्गरंपाणी जक्खे सुदंसणं स- | सी-तंइच्छामिणं देवाणुप्पिया अहमवि तुमए सकिं समणं मणो वासयं अदूरसामंते णं वीयीवयमाणे पासति, पासतित्ता | जगवं महावीरस्सवदिए जाव पज्जुवासिए। अहासुहं देवाणु. आमुरुते तं पलसहस्सनिष्फलं अशोमयमोग्गरं नहानेमाणे प्पिया! तत्ते णं से सुदंसणे समणो वासए मज्जुणएणं मालाजेणेव मुदंसणे समणो वासए तेणेव पहारेत्थगमणाए तत्ते | गारेणं सकिं जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे जगवं णं से सुदंसणे समणो वासए मोग्गरपाणिं जक्खं एज्जमाणं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उबागच्चितित्ता अज्जुणएणं पासति, पासतित्ता अनीते अतत्थे अणुब्बिग्गे अक्खुमिते मालागारेणं सक्रिसमणं भगवं महावीरं तिकबुत्तोजाव पज्जुअचलिए असंभंते वत्थंतेणं नूमी पमज्जति, पमज्जतित्ता वासति । वत्तेणं से समणे भगवं महावीरे मुदसणं समणो वाकरयन एवं वयासी-णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं; सए अज्जुणयस्स मालागारस्स तिसयद्धम्मकहासुदंसणे समनमोत्यु णं समणस्स भगवं जाव संपाविउकामस्स पुव्वं पि | पोवासए पमिगते तसे अज्जुणए मालागारे समणस्स भगवतो णयए समणस्स जगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा हडतुहा सद्दहामि, ण नंते ! पाणातिवातं पचक्खाए जावजीवाए धूलए मृसावाए निग्गयं पावयणं जाव अन्तुडूमि, अहासुहं तसे अज्जुणए थूलए अदिएणादाणे सदारसंतोसे करे जावजीवाए तं नत्तरपुरच्चिमे य सयमेव पंचमाढयं लोय करेति, करेतित्ता दाणि पिण तस्सेव अंतिअं सव्वं पाणातिवायं पच्च- जाव अणगारे जाते जाव विहरात, सत्तेणं से अज्जुणए प्रक्खामि जावजीवाए, मूसावायं अदत्तादाणं मेहुणपरिग्गरं णगारे जं चेव दिवसं मुंमे०जाव पब्बइए तं चेव दिवसं समपच्चक्खामि जावजीचाए, सव्व कोहं जाव मिच्छादसणस णं जगवं महावीरं महावीरस्स बंदति, वंदतित्ता इमं एयालं पञ्चवखामि जावजीचाए, सव्वं असणं पाणं खाश्म रूवं नग्गहं नग्गिएहेति, कप्पात, मं जावजीवाए छ8 छोण साइमं चउब्विहं पि आहारं पच्चक्खामि जावजीवाए, जति अनिक्खित्तेण तवोकम्मेणं अप्पाणं नावेमाणस्स विहरित्तए णं एत्तो नवमयातो मुच्चिस्सामि, तो मे कप्पई पारे तत्ते । तिकड अयमेयारूवं नग्गरं नगिएहेति, जावजीवाए विहअहणं एत्तो नवसग्गातो न मच्चिस्सामि, तो मे तहा पच्चक्खाए वि तिकडु सागारं पमिमं पडिवज्जति । से रति, तत्ते णं अज्जुगए अणगारे हक्खमणपारणयसि मोग्गरपाणी जक्खे तं पक्षसहस्सनिफएणं अोमयं मोग्ग पदमपोरसीए सम्झायं करेति, जहा गोयमसामी जाव अरं उद्घालेमाणे २ जेणेव सुदंसाणे समणो वासए तेणेव मति, तत्ते णं से अज्जुणयं अणगारं रायगिहे ण यरे उच्चनवागते नो चेव णं संचाएति सुदंसणं समणोवासयं तेयसा नीचं च जाव अममाणं बहवे इत्थी उ य पुरिसा य महरा समजिपडिताते। तत्ते णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं सम य महला य जुवाणा य एवं वयासी-इमेणं मे पितामातरा णोवासयं सन्चो समंताओ परिघोलमाणेश्जाहे नो संचा इमेणं मे मा मारिया जायनगिणीनज्जा पुत्ते धृया सुराहामा एति सुदंमणं समणो वासयं तेयसा समजिपडितते ताहे सुदं मारिया,इमेणं मे अप्ले यसयमसंबंधे परियणं मा मारेति,तिसणस्स समणो वासयस्स पुरतो सपक्खिं सपमिदिसिं विच्चा | कड अप्पेगइया अक्कोसंति,अप्पेगइया ही अंति,अप्पेनिदंति, सुदंमणं समोवासयं आणमिसाए दिट्ठीए सचिरं निरिक्ख- अप्पे० खिंसति, अप्पेगइया गरहंति, अप्पे० तज्जेति, तत्तेति,निरिक्खितित्ता अज्जुणयस्स मात्रागारस्स सरीरं विप्प- णं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहुाहैं पुरसेहिं महवे जहाति । तं पलसहस्सनिप्फणं अनोमयं मोग्गरंगहाय जामे- य जाव अकोसिज मा जाव तालेणेते संमणसा वि अ पन Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जुणग समाणे समं सहाते, समं क्खपाते, तितिक्खश, हिज्जमाया सर्व सहमा क्खमतो तितिक्खति, अहियासेति, रायगि एयरे ऊंचनीचमज्जिमकुलाई अरुमाणे ज‍ भतं सन्नति, तो पाएं न समति, जइ पार्थ सभा, तो जत्तं नसभा, तसे ते अजुर अणगारे अदीम अकलुसे अणाले वीसादी अपरितत्तजोगी अमति, अतिचा रायगिहातो नगरातो पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमतिचा, जेणेव गुणसिलए चे‍ जेणेव समो भगवं महावीरे जदेव गोतमसामी जाव परिदंसेते २ समणं भगवं महावीरे अन्ते समाणे अहिते ४ विलमित्र पागनृते अप्पाणेण तमाहारं आहारेति, आहारेतित्ता तत्ते णं सम भगनं महावीरे अनया कयानि कवातित्ता रायगिहाओ पडिणिक्खमति, पमिणिक्खमतित्ता वहिया जण विहं विहारं विहरति, तत्ते णं से अज्जुलए अणगारे तेणं उरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएवं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं अप्पा भावेमा बहुपडिपु उम्मासे सामापरियागं पाउणति, अरूमासियाए संज्ञेहणार अप्पाणं कुसेति, तीसं ताई अनसार उदेति वेदेतित्ता जसहाये कीरति, फीरतेचा जाब सिके । अंतः ६ वर्ग० ३ ० । ( २२७ ) अभिधानराजेन्धः । स्वनामख्याते तस्करभेदे, श्राचा० १०३ अ०१ उ० । (तस्य शब्दासक्कत्वात् 'सद् ' शब्दे कथा वक्ष्यते ) अज्जुणसुत्रम - अर्जुन सुवर्ण-न -न० । श्वेतकाञ्चने, औ० । जोग - प्रयोग - पुं० । “सेवादा वा ॥ ८|२| ६६ ॥ इति प्राकृतलकाजस्य वा घित्वम् । योगवर्जित, पं० सं० १ द्वा० । जोगि (‍ ) - योगिन् पुं० । सेवादित्वाद् जद्वित्वम् । अ योगिकेवमिनि "भगो भोगी, संतसजोगंमि होति जोगाउ " पं० सं० १ द्वा० । प्रज्झश्रो- देशी - प्रातिवेश्मिके, दे० ना० १ वर्ग० । अज्जत - अध्यात्म - न० । अधि आत्मनि वर्त्तते इत्यध्यात्मम् । चेतसि, दश०१ अ० श्रचाण प्रवण स्था०| ध्याने, आव०५०। सम्यग्धमभ्यागादिभावनायाम, सूत्र०१० अ० श्रात्मानमधिकृत्य यद्वर्त्तते तदध्यात्मम्। सुखदुःखादौ, "जे अज्भ (तं) त्यं जाण इसे वहिया जाण, जे वहिया जाणर से अज्कत्थं जाण" श्राचा०१ ०१ अ०७३०। ( श्रात्मनि इति अध्यात्मम, 'अव्ययं विन०' ॥२२६॥ इति पाणिनिसूत्रेण समासः आत्मनीत्यर्थे उत्स०अ०]] अध्यात्मस्य न० । अध्यात्मं मनस्तस्मिन् तिष्ठत्यध्यात्मस्थम्, प्राकृतत्वाद्वा संयोगानि संयोगादिहेतुभ्यो जाते दुःखादी उत० "अरचं सम्यो दिमा पियाय " उत्त० ६ ० । भोग मध्यात्मयोग - पुं०] सुप्रणिहितान्तःकरणतायाम्, . धर्मध्याने च । सूत्र ०१ ४०१६०/ योगभेदे च तल्लक्षणम्-तत्रानादाय श्रीकिनारीधर्मत्येन तत् हेतु क्रियां कुर्वन् श्रधर्मे धर्मवृत्या इच्छन् प्रवृत्तः स एव निरामयनिःसंगशुद्धात्मभावनानावितान्तःकरणस्य स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्याऽध्यात्मयोगः । श्रष्ट० ८ अष्ट० । " अत्तवत्तिय औचित्याद् वृत्तयुक्तस्य वचनात्तत्वचिन्तनम् । मैत्रयादिनाव संयुक्त मध्यात्मं तद्विदो विदुः ॥ २ ॥ (भौचित्यादिति ) श्रीचित्याचितवृत्तिलक्षणा वृतयुक्तस्याऽणुव्रत महाव्रतसमन्वितस्य वचनाजिनागमात्तत्वचिन्तनं जीवादिपदार्थसार्थपर्यालोचनं मैत्र्यादिभावैमैत्री करुणामुदितो अक्षयैः समन्वितं सहितमन्यात् द्विदो ऽध्यात्मातारो विदुजार्नते । द्वा० १८ द्वा० । " अशओगे गयमाणसइस आचा० १० 59 - । 2 प्रोगमाह-अध्यात्मयोगसाधनयुक्त-पुं० अध्यात्मं मनस्तस्य योगा व्यापारा धर्मध्यानादयस्तेषां साधनान्येकाग्रतादीनि तैर्युक्तोऽध्यात्म योगसाधनयुक्तः । चित्तैकाप्रताऽऽदिभाजि उत्त० २६ ० " निम्बिकारे संजीव गुरो अन्तयोगसाहसहते या विभय" उत० २६० अञ्जलयोगमुद्रादाय - आध्यात्मयोगशुकादान- भि० अभ्या त्मयोगेन सुप्रणिहितान्तःकरणतया धर्मध्यानेन शुद्धमवदातमादानं चरित्रं यस्य स तथा । शुभचेतसा विशुद्धचारित्रे, " अन्तयोगसुद्धादाणे उपडिए म्रिया संचार परदसभोई भिक्खुति बच्चे " सूत्र० १० १६ अ अश्मत किरिया-अध्यात्म क्रिया स्त्री० केनापि कथञ्चनाव्यपरिभूतस्य दीर्मनस्यकरणरूपेऽहमे फियास्थाने, स्था० ४ ठा० २ उ० | कोङ्कणसाधोरिव यदि सुताः सम्प्रति क्षेत्रवल्लराणि संज्वलयन्ति तदा भव्यमित्यादि चिन्तनमध्यात्मक्रिया । ध० ३ अधि० । । प्रज्झत्तज्जाणजुत्त-अध्यात्मध्यानयुक्त - त्रि० । अध्यात्मना शुभमनसा ध्यानं यत्तेन युक्तो यः स तथा प्रशस्तध्यानोपयुक्ते, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वा० । | । अलग-अध्यात्मदयम- पुं० शोकाद्यभिभवेऽष्टम कियास्थाने, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वा० । अग्झतदोस-अध्यात्मदोष-पुं० कपाये, सूत्र० कोहं च माणं च तदेव मायं, लोभ पत्यं अम्भत्यदोसा | आणि वंता रहा महेसी, कुम्बई पात्र ण कारवेह ||२६|| ( कोहं चेत्यादि ) निदानोच्छेदेन हि निदानित उच्छेदो भवतीति न्यायाद संसारस्थिते क्रोधादयः कार णमत एतानध्यात्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् याचा परित्यज्यासी भगवानस्तीर्थ जातः । तथा म हर्षिश्च । एवं परमार्थतो महर्षित्वं भवति यद्यध्यात्मदोषान भचन्ति नान्यथेति तथा न स्वतः पापं सावधमनुष्ठानं करोति नाप्यन्यैः कारयतीति । सूत्र० १ ० ६ श्र० । मत्तमयपरिक्खा - अध्यात्ममतपरीक्षा - स्त्री० | नामानुरूपाभिधेये, शतधन्थीकृता नयविजयशिष्येण यशोविजयपाचकेन कृते प्रन्थविशेषे, प्रति० । द्वा० । अत्तरय-अध्यात्मरत जि० प्रशस्तन्यानासने, दश० १० अ० । अजलयचिय- अध्यात्ममत्ययिक (पुं०) आध्यात्मिकप्रत्ययिक- न० | आत्मनि अघि अध्यात्मम् । तत्र भव आध्यात्मिको द Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२०) अज्जत्तवत्तिय अनिधानराजेन्द्रः। अत्तविसीयण एडस्तत्प्रत्यधिकम् । अष्टमे क्रियास्थाने, तद्यथा-निर्निमित्तमे- त्यत आदाय रष्टान्तमाह-यथा कश्चिद्भीरुरकृतकरणः संव दुर्मना उपहतमनःसंकल्पो हृदयेन द्वियमाणश्चिन्तासागरा | प्रामकाले परानीकयुकाऽवसरे समुपस्थितः पृष्ठतःप्रेक्कते आदा. वगाढः संतिष्ठते । सूत्र०२ श्रु०१२ अ०। वेवाऽऽपत्प्रतीकारहेतुनूतं मुर्गादिकं स्थानवमलोकयति । तदेएतदेव सूत्रकारो न्यस्यन्नाह व दर्शयति--(वनयमिति) यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितअहावरे अट्ठमे किरियाठाणे अज्कत्तवत्तिए त्ति प्राहि- मुदकरहिया वा गर्ता दुःस्वनिर्गमप्रवेशास्तथा गहनं धवादिवृ. ज्जइ से जहा णामए केइ पुरिसे णस्थि णं के किं विस क्षैः कटिसंस्थानीयम(णमंति)प्रच्छन्नं गिरिगुहादिकम् । किमि त्यसावेवमवलोकयति । यत एवं मन्यते तत्रैवंचूते तुमुले संग्रामे वादेति सयमेव होणे दीणे पुढे मुम्मणे ओहयमणसंकप्पे सुन्नटसडूखे को जानाति कस्यात्र पराजयो भविष्यतीति। यतो चिंतासोगसागरसंपविढे करतलपल्हत्यमुहे अट्टकाणाव दैवायत्ताः कार्यसिद्धयः स्तोकैरपि बहवो जीयन्त शति ॥१॥ गए भूमिगयदिट्ठिए झियाई तस्त एं अज्झत्थया आसं किश्चसध्या चत्तारि गणा एवमाहिज्जइ, तं कोहे माणे माया मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसो। लोहे अज्त्य मेव कोहमाणमायामोहे एवं खयु तस्स त पराजिया वसप्पामो, ति नीरू अवेहई ॥शा पनिय सावजति पाहिज्ज अट्टमे किरियाठाणे अज् मुहूर्तानामेकस्य वा मुहर्तस्यापरो मुहूर्तः कालविशेषलक्ष. णोऽवसरस्तारम्भवतिं यत्र जयः पराजयो वा संभाव्यते, तत्यवत्तिए त्ति आहिए ॥ १६॥ त्रैवं व्यवस्थिते पराजिता वयमपसर्पामो नश्याम इत्येतदपि अथापरमटम क्रियास्थानमाध्यात्मिकमित्यन्तःकरणोद्भवमा संभाव्यते, अस्मद्विधानामिति भीरुः पृष्ठत आपत्प्रतीकारार्थ ख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषचित्तोपेक्वाप्रधानस्तस्य च शरणमपेक्षते ॥२॥ नास्ति कश्चिद्विसंवादयिता न तस्य कश्चिधिसंवादेन परिजावे श्लोकद्वयेन दृष्टान्तं प्रदय दाान्तिकमाहन वा सद्भूतोद्भावनेन वा चित्तपुःखमुत्पादयति, तथाप्यसौ स्वयमेव वापसदव हीनो पुगतवद्दीनो दुश्चित्ततया दुष्टो दुर्म एवं तु समणा एगे, अवलं नच्चा ण अप्पगं । नास्तथोपहतोऽस्वच्छतया मनःसंकल्पो यस्य स तथा । चिन्त अणागयं जयं दिस्स, म विकंपति मं मुयं ॥३॥ व शोक ति सागरश्चिन्ताप्रधानो वा शोकश्चिन्ताशोकः सागर यथा सग्रामं प्रवेणुमिच्छुः पृष्ठतोऽवलोकयति किमत्र मम श्व चिन्ताशोकसागरः । तथासूतश्च यदवस्थो जवति तदर्शय- पराभग्नस्य वलयादिकं शरणं त्राणाय स्यादिति, एवमेव ति-करतले पर्यस्तं मुखं यस्य स तथा अहर्निशं भवति, तथाऽऽ श्रमणाः प्रवजिता एके केचनाऽदृढमतयोऽल्पसत्वा आत्मातध्यानोपगतोऽपगतसद्विवेकतया धर्मध्यानदरवर्ती निनिमित्त- नमबलं यावज्जीवं संयमभारवहनाक्षम शात्वा अनागतमेव मेव द्वन्द्वोपहतवख्यायति । तस्यैवं चिन्ताशोकसागरावगाढस्य भयं दृष्ट्वोत्प्रेक्ष्य । तद्यथा-निष्किञ्चनोऽहं किंमम वृद्धावस्थायां सत आध्यात्मिकान्यन्तःकरणोद्भवानि मनःसंसृतान्यसंशयि- ग्लानावस्थायां दुर्भिक्षे वा त्राणाय स्यादित्येवमाजीविकाभतानि वा निःसंशयितानि वा चत्वारि वक्ष्यमाणानि स्थानानि यमुत्प्रेक्ष्य विकल्पयन्ति परिकलयन्ति मन्यन्ते, इदं व्याकरणं, प्रवन्ति, तानि चैवं समाख्यायन्ते तद्यथा-क्रोधस्थानम्, मान गणितं, ज्यौतिष्कं, वैद्यकं, होराशास्त्र, मन्त्रादिकं या श्रुतमस्थानम् , मायास्थानम, लोजस्थानमिति । ते चावश्यं क्रोधमान- धीतं ममाऽयमादौ त्राणाय स्यादिति ॥३॥ मायामोभा श्रात्मनोऽधि भवन्त्याध्यात्मिकाः, एभिरेव सद्भिर्दुष्टं पतञ्चैते विकल्पयन्तीत्याहमनो भवति । तदेव तस्य दुर्मनसःक्रोधमानमायालोभवत एव- को जाणइ विनवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । मेवोपड़तमनःसङ्कल्पस्य तत्प्रत्ययिकमध्यात्मनिमित्तं सावधं क- चोइज्जता पवक्खामो, ण णो अस्थि पकप्पियं ॥॥ माऽऽधीयते संबध्यते । तदेवमेतक्रियास्थानमाध्यात्मिकायमा अल्पसत्त्वाः प्राणिनः, विचित्रा च कर्मणां गतिः, बहूनि प्रमादख्यातमिति ॥१६॥ सूत्र०२ श्रु० २ अ०। स्थानानि विद्यन्ते, अतः को जानाति का परिचिनत्ति व्यापातं अज्जत्तवयण-अध्यात्मवचन-न। आत्मन्यधि अध्यात्मम्, संयमजीविता भ्रश्यन्तम् । केन पराजितस्य मम संयमाद् चशः सच तद्वचनम् । हृदयगते वचननेदे, षोमशवचनानां सप्तममि- स्यादिति। किंस्त्रीतःस्त्रीपरीषहाद् उतोदकात स्नानाद्यर्थमुदकादम् । प्राचा०२ श्रु०४०१०। प्रात्मन्यधि अध्यात्मंद- सेवनानिलाषादित्येवं ते वराकाःप्रकल्पयन्ति,न नोऽस्माकंकियं तं तत्परिहारेणान्यदू भणिष्यतस्तदेव । सहसा पतिते वचने, चन प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितव्यजातमस्ति, यत्तस्यामवस्थायाविशेष । आचा। मुपयोगे समेत्य यास्यति, अतश्चोधमानाः परेणापन्यमानाःहअत्तबिंदु-अध्यात्मबिन्दु-पुं०। यथार्थनामधेये ग्रन्थभेदे, "ये स्तिशिकाधनुर्वेदादिकं कुटिलविएटलादिकंवा प्रवक्ष्यामः कथयावन्तोऽध्वस्तबन्धा अनूवन, नेदज्ञानान्यास एवात्र मूत्रम्।ये यिष्यामः प्रयोदयाम इत्येवं ते होनसत्त्वाः संप्रधार्य व्याकरणायावन्तो ध्वस्तबन्धा भवन्ति, जेदशानाभाव एवात्र बीजम् "॥१॥ दौ श्रुते प्रयतन्त इति।न च तथापि मन्दभाग्यानामभिप्रेतार्थावाइति तद्वचनम् । अष्ट०१४ अष्ट०।। प्तिनवतीति । तथा चोक्तम्-" उपशमफलाद्विद्यावीजात्फलं अत्तविसीय-अध्यात्मविषीदन-न० । संयमकष्टमनुन्जय धनमिच्छताम्, भवति विफलो यचायासस्तदत्र किमद्त्ततम् । मनसि विषमीनवने, सूत्र। न नियतफलाः कर्तुर्जावाः फलान्तरमीशते, जनयति स्खलु बीहे. जहा संगामकानम्मि, पिट्ठतो नीरु वेहद।। चीज न जातु यवाडुरम्" ॥१॥ वनयं गहणं णूम, को जाणइ पराजयं ? ||१॥ उपसंहारार्थमाह(जहेत्यादि ) इप्पान्तेन हि मन्दमतीनां सुखेनैवाषिगतिर्भव- इच्छेवं पमिलेहंति, वलया पामलेहिणो। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) अभिधान राजेन्द्रः । अत्तविसीयण वितिगच्छसमाना, पंथाणं च अकोत्रिया ॥ ५ ॥ इत्येयमिति पूर्वप्रकान्तपरामर्शार्थः यथा भीरवः संग्रामे प्रवि विशेष वलयादिकं प्रत्यपोक्षणी भजता मन्दभाग्यतया श्रल्पसत्त्वा श्राजीविका भयाध्याकरणादिकं जी मनोपायस्यन्ते परिकल्पयन्ति किंभूताः विविधिसाविकमेनं संयमभारमुकसमस्तं नेतुं वयं सम थः उत तताः । तथा चोक्तम्-"लुक्यमदमणिययं, कालाश्क्कंत भोयणं विरसं । भूमीसयणं योश्रो, श्रमिणाणं बंजरं च " ॥ १ ॥ तां समापन्नाः समागताः । यथा पन्धानं प्रत्यकोविदा निपुणा: किमयं पन्था विवक्षित भूभागं या स्पत्युतनेति इत्येयं कृतयोभयन्ति तथा पि संयमभारवहनं प्रति विचिकित्सां समापन्ना निमित्तगणितादिकं जीविका प्रत्यपेक्षन्त इति ॥ ५ ॥ साम्प्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टान्तमाहजे न संगामकालाम्मि, नाया सूरपुरंगमा । यो तेपि किं परं मर सिया है ।। ६ ।। ये पुनर्महासत्वाः, तुशब्दो विशेषणार्थः, संग्रामकाले परानीकयुकावसरे हतारो लोकविदिताः, कथम् ?, शूराणामग्रगा मिनो युद्धावसरे सैन्याप्रस्कन्धवर्तिन इति, एवंभूताः संग्रामं प्रविशन्तो न पृष्ठमुत्प्रेक्कन्ते न दुर्गादिकमापत्राणाय पर्यालोचयन्ति तेायस्येवं मन्यन्ते किमपरमश्रास्माकं भविष्यति, यदि परं मरणं स्यात्, तश्च शाश्वतम्, यशः प्रवा मिच्छतामस्माकं श्लोकं वर्तत इति । तथा चोक" विश राभिरविनश्वर-मतिः स्थास्तुविशदम् प्राणे. यदि च सुराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् ? " ॥ ६ ॥ तदेवं सुदृष्टान्तं प्रदर्श्य दान्तिकमाह-एवं समुट्टिए भिक्खू पोसिज्जाऽगारपणं । आरंजं तिरियं कट्टु, आतत्ताए परिव्त्रए ॥ ७ ॥ एवमित्यादि । यथा-सुभटा हातारो नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षालय तथा सचिवद्धपरिकराः करगृहीतः प्रतिभ समितिभेदिनो न पृष्ठतोऽवलोकयन्ति । एवं भिक्षुरपि साधु रपि महासत्वः परलोकप्रतिस्पर्द्विनमिन्द्रियकषायादिकमरिय जेतुं सम्यक संयमत्यनेनोत्थितः समुत्थितः। तथा चोकम्"कोहं माणं च मायंच, लोहं पंचेंद्रियाणि य । दुज्जयं चेत्रमप्पा. समज जयं॥१॥ किं कृत्वा समुत्थितः इति दर्शयतिव्युत्सृज्य त्यक्त्वा, अगारबन्धनं गृहपाशम् तथा श्रारम्नं सावयादुष्ठानरूपं तिर्यक कृत्वाऽपहस्तथित्वमनोज्ञाय श्रात्मत्वमशेष कर्म कलङ्करहित्वं तस्मै श्रात्मत्वाय । यदि वा श्रात्मा मोक्तः, संयमो वातावस्तस्मै त परि समता प्रजेद संयमानुष्ठान यायां दत्तावधानो भवेदित्यर्थः ॥ ७॥ सूत्र० १ श्रु०३ श्र०३ उ० । अझतविमुद्ध-अध्यात्म विशुद्ध-त्रि०सुविसुकान्तःकरणे, सूत्र० १ ० ४ श्र० २ उ० । अज्झतभिसोहित-अध्यात्मविशोधियुक्त शि० ३ त विशुरुभावे "जा जयमाणस्स भये, चिराहना सुविहसमा इस सा होइ विजरफला, अविसोदियुत्तस्स ॥१॥ श्रो अज्यत्तत्रे ( ण् ) - अध्यात्मवेदिन् - त्रि० । सुखदुःखादेः स्वरूपतोऽवगन्तरि, श्राचा० १ ० १ श्र० ७ उ० । अज्जत्तसंवुम-अध्यात्मसंवृत - त्रि०| अध्यात्मं मनस्तेन संवृतः। अज्जत्थज्माण जुत्त श्रीनोगाद समनसि सुषार्थीपयुक्तमिरुरूमगोपोगे च "बगुले अज्झत्त संबुडे परिवजप सया पाव" श्राचा० १० ५० ४ उ० । सुब० । अज्झत्तसम-अध्यात्मसम - त्रि० । अध्यात्मानुरूप परिणामानुसारिणि, व्य० २३० ॥ । अनसुइ-अध्यात्मधुति स्त्री० विजयोपायप्रतिपादनशास्त्रे, प्रश्न० १ सम्ब० द्वा० । 66 ऊत्तमुद्धि - अध्यात्मशुद्धि-स्त्री० । चेतःशुद्धौ, अध्यात्मशुकिरेव फलदान करण हरणादेरभावेऽपि अध्यात्मगुरूदेव केवलोत्पत्तेः स्वचाणतोय आज्यन्तरकरणचिकस्य सप्तमधिश्रीप्रायोग्य कर्मबन्धात् श्रध्यात्म मोमनात् । श्र० चू० १ श्र० । अऊतसोहि अध्यात्मशोपि त्रिश चेतःशुकी आ००१ अ० । ( वर्णनमस्य 'अत्त सुद्धि' शब्दे कृतम् ) अकचिय-आध्यात्मिक आत्मनि अधि-अध्यात्म रात्र भव आध्यात्मिकः । श्रात्मविषये, आ० म० प्र० । भ० वि० । हा नि "अम्भसि चितिए" आत्मनि क्रियमाणे " पर किरियं अन्तियं संसेइयं णो तं सातिए " आचा० २०१३ अ० श्रान्तरोपायसाध्ये सुखदुःखादी आध्यात्मिकः द्विविवस शारीरं मानसं च शारीरं वातपित्त पनि मित्तल मानसं कामक्रोध लोभमोडे याविषयादर्शन निबन्धनम् । सर्व [चैतान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखमिति साङ्गाः । स्या० । अध्यात्मनि मनसि भव आध्यात्मिकः । बाह्यनिमित्तानपेने शोकाभिः "अमेमियास्थानमेतत् "स० । अज्जत्तिय वीरिय-प्राध्यात्मिक वीर्य न० । आत्मन्यधि इति अध्यात्मम, तत्र जवमाध्यात्मिकम् । आन्तरशक्तिजनितं साहित्यकमित्यर्थः । तच्च वीर्य चेति । " उज्जमधितिधीरतं; सोमीरतं खमा य गंजीरं । उवश्रोगयोगतव सं-जमादि य होइ अज्जुयो युक्तेः उद्यमत्या ० अज्जत्य - अध्यात्म- न० । अधि आत्मनि वर्तत इत्यध्यात्मम् । सम्यग्धर्मध्यानादिनावनायाम, सूत्र० १० ० ० अत्ययोग अध्यात्मयोग पुं० । सुप्रणिहितान्तःकरणता याम, धर्मध्याने च । सूत्र०१ ४०१६ श्र० । (निरूपणमस्य 'श्र ओग' शब्दे कृतम् ) अत्ययोगसारण हुत-अध्यात्मयोगसाधनयुक्त पुं०। विरो काजि उत० २९ ० अत्यभोगमुकादास - अध्यात्मयोगशुकादान जि० भचेतसा विशुद्धचारित्रे, सूत्र० १ ० १६ श्र० । अत्यनोग अध्यात्मयोग पुं० [योगमेदे, अ०६ अ० । ( वक्तव्यताऽस्य 'अज्यत्तश्रोग' शब्दे ) अस्थजोगसाह जुन-अध्यात्मयोगसाधनयुक्त - काप्रतादिनाजि, उत० २६ अ० । अम्भस्यजोगमुदादाण अध्यात्मयोग का दान -०अविचारि०१० १६० अमात्यश्काणच-अध्यात्मध्यानयुक्त शिस्तभ्य मो पयुक्त, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वा० । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्झत्थदंड अन्निधानराजेन्द्रः। प्रज्झप्पिय अन्त्य दंड-अध्यात्मदएम-पुं०। अणमे क्रियास्थाने, प्रश्न | अज्कप्पभोगसुखादाण-अध्यात्मयोगशुखादान-त्रि० । शु. ५ सम्ब० द्वा०। अचेतसा विशुमान्तःकरणे, सूत्र० १६० १६ अ०। अन्त्य दोस-अध्यात्मदोष-पुं०। कषाये, सूत्र.१९०६ अ० अप्पकिरिया-अध्यात्मक्रिया-स्त्री० । अष्टमे क्रियास्थाने, अजात्यबिंदु-अध्यात्मविन्दु-पुं० । स्वनामख्याते प्रन्थभेदे, | स्था०५ वा० २२० । राष्ए० १४ अए। अप्पजागे-अध्यात्मयोग-पुं० । सुप्रणिहितान्तःकरणतायां अज्कत्थमयपरिक्खा-अध्यात्ममतपरीक्षा-स्त्री० । यशोविज- धर्मध्याने, सूत्र० १७० १६ अ०। यवाचकेन कने ग्रन्थविशेष, प्रतिः । अज्कप्पजोगसाहणजुत्त-अध्यात्मयोगसाधनयुक्त-पुं० चितैअज्जत्थरय-अध्यात्मरत-त्रिगप्रशस्तभ्यानासक्ते,दश०१०अ० | काग्रतादि नाज, उत्त० २०१० अत्यवत्तिय--अध्यात्मप्रत्ययिक--पुं० । अष्टमे क्रियास्थाने, | अप्पजोगमुद्धादाण-अध्यात्मयोगशक्षादान-त्रि० । राज. सूत्र०२ श्रु० १२ । भावेन विशुद्धचारित्रे, सूत्र० १७० १६ अ० । अजकत्थवयण-मध्यात्मवचन--न० । षोमशवचनानां सप्तमे | अझप्पकागजुत्त-अध्यात्मध्यानयक्त-त्रि० । प्रशस्तध्यानाबचने, आचा०२ श्रु०४ अ० १ उ०। पयुक्ते, प्रश्न०५ सम्बद्वा०। अत्यविसीयण-अध्यात्मविपीदन--न० । संयमकष्टमनुनूय | अप्पदम-अध्यात्मदएम-पुं०। शोकाद्यनिनवरूपे अष्टमे किमनसि विषमीभवने, सत्र०१ १०३ १०३ ३०(विवृतिरस्य | यास्थाने, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वारा 'अत्तविसीयण' शब्द निरूपिता) अज्कप्पदोस-अध्यात्मदोष-पुंग कषाये, सुत्र०१ १०६०। अज्थविसुम-अध्यात्मविशुक-त्रि०। सुविशुशान्तःकरणे, अप्पबिंदु-अध्यात्मविन्दु-पुंग यथार्थनामाभिधेये स्वनामसुत्र. १ श्रु० ४ अ० २ ० । ख्याते ग्रन्थे, अष्ट० १४ अष्ट। अत्यविमोहिजुत्त-अध्यात्मविशोधियुक्त-त्रि० । विशुरू अप्पमयपरिक्खा-अध्यात्ममतपक्किा-स्त्री०। यशोविजयनावे, प्रो। कृते ग्रन्थविशेषे, प्रति०। अत्यवे ()-अध्यात्मवेदिन-त्रि०। सुखदुःखादेः स्व अप्परय-अध्यात्मरत- त्रिप्रशस्तभ्यानासक्ते,दश०१० रूपतोऽवगन्तरि, आत्रा० १ श्रु० १ ०७ ३० । अज्कप्पवत्तिय-अध्यात्मप्रत्ययिक-पुं० । अष्टमे क्रियास्थाने, अमत्थसंकुम-अध्यात्मसंवत-त्रि० । स्त्रीभोगाऽदत्तमनसि, सूत्र०२ श्रु० २ ०। सूत्रार्थोपयुक्तनिरुकमनोयोगे च । आचा० १७० ५ ० ४ ०० अज्कप्पवयण-अध्यात्मवचन-नादयगते वचननेदे, पोकअज्झत्यसम-अध्यात्मसम-त्रि० । अध्यात्मानुरूपे परिणामा शवचनानां सप्तममिदम् । प्राचा०२ श्रु०४०१ उ०। नुसारिणि, व्य०१३० अझप्पविसीयण-अध्यात्माविषीदन-न० । संयमकष्टमनुस्य अमत्थमुह-अध्यात्मश्रति-स्त्री०चित्तजयोपायप्रतिपादनशा मनसि विषयीभवने, सूत्र १ श्रु० ३ १०३ उ०। वं, प्रश्न १ सम्ब० का अप्पविमुक-अध्यात्मविशक-त्रि० । सुविशुद्धान्तःकरणे, अज्त्य मुधि-अध्यात्मशुचि-स्त्री० । चेतःशुझौ, मा० चू० सूत्र०१ श्रु० ५ अ०१०। १०। अकत्यसोहि-अध्यात्मशोधिन्-स्त्री० । श्वेत-शुद्धौ, पा० चू० अज्झप्पविसोहिजुत्त-अध्यात्मविशोधियुक्त-त्रि विशुद्धभा१०। वे, मोघ०। अत्थिय-आध्यात्मिक-त्रि०। आत्मविषये, प्रा०म०प्र० अज्झप्पवेइ ( प )-अध्यात्मवेदिन्-त्रि०। सुखदुःखादेखकप्रान्तरोपायसाध्ये सुखदुःखादा, स्या। पतोऽवगन्तरि, प्राचा० १७० १ अ०७०। अकत्यियवीरिय-माध्यात्मिकवीर्य-ना मद्यमधृत्यादी, सू- अप्पसंवुड-अध्यात्मसंवृत-त्रिशास्त्रीभोगावत्तमनसि, सूत्रा१०१ श्रु०००। ोपयुक्तनिरुकमनोयोगे छ । आचा०१० ५ ०४। अज्फत्थोवाहिसंबन्ध-अध्यस्तोपाधिसम्बन्ध-पुं० । आत्मनि अज्जप्पसम-अध्यात्मसम-त्रि० । अध्यात्मानुरूपे परिणामानुप्राप्तपुजलसंसर्गजकर्मोपाधिसम्बन्धे, “निर्मनस्फटिकस्येव, स-1 सारिणि, व्य० २००। दशं रूपमात्मनः । श्रभ्यस्तोपाधिसम्बन्धो, जमस्तत्र विमुह्य- कप्पसह-अध्यात्मश्रति-त्रि०॥वित्तजयोपायप्रतिपादनशाले, ति" ॥१॥ अgo४ अष्ट। प्रश्न०१ सम्ब० द्वा०। अप्प-अध्यात्म-नाचेतसि, दश १ अ । भ्याने, प्राव. अज्झप्पमुकि-अध्यात्मशुद्धि-स्त्रीयेत शुद्धौ,मा०यू०एम०) ' ५०। अप्पोम-अध्यात्मयोग-पुं० । अन्तःकरणशुद्ध धर्मध्या- अज्मप्पसोहि-अध्यात्मशोधि-त्रि० । भावणुकी, भा० चू० ने. सूत्र. १७०१६अ। १५०। अप्पागसाहणजुत्त-अध्यात्मयोगसाधनयक्त-पुं० । शुभ-अकप्पिय-आध्यात्मिक-त्रि०ा भात्मनि क्रियमाणे प्रान्तरोपाचेतसा विशुरुचारित्रे, सूत्र.१ शु०१६ ० । यसाध्ये सुखपुःखादौ, भाचा०२७०१३ म०। Jain Education Interational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) अभिधानराजेन्धः । अप्पिथवीरिय पियबीरिय- श्राध्यात्मिकवीर्ध्य- न० । उद्यमधृत्यादौ, सूत्र० १ ० ८ श्र० । अपण अध्ययनमा भिरित्यययनानि दिसत नामसु (पाचशब्देषु), "ता कथं देवताचं "चं० प्र०१ पाहु० सू० प्र० । अधीयते विनेयादिक्रमेण गुरुसमीप यच्यवनम्। विशिष्टाध्वनिसंदर्भ दे. जी० १ प्रतिo | "अज्झयणं पिथ तिविहं, सुत्ते अत्थेय तदुजप चेत्र" विशे० सन्निपो पथा 9 से किंवं यणे। अपने चपाते तं जहा मज्जयो, उवखज्जयणे, दब्बज्यो, भावज्जयले । लामहत्रणाम्रो पुण्यवधिआओ से फिलं दबयणे । दबायदुविहे पते । तं जहा- आगमप्र अ णोआगमओ अ । से किं भागमो दम्बपये है। आगमच्यो दम्बज्जपणे जस्स अपि सिविखतं तं जितं मितं परिजित जाव एवं जावमा उत्ता आगमओ ताबड़आई दब्बायणा । एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स णं एगो वा अगो वा जात्र से आयपी दरपणे से कितं णो आगमचो दब य? णो आगो दम्यपणे तिविहे पत्ते तं जहा जागसरीरदण्पणे, भविसरणे, जाग सरीरजविसरीरवरिचे दव्ययो से किस जाएगसरीरदयो? जाणगसरीरदबज्जपणे अजय पदस्याहिगारजाणयस्स जे सरीरं वनमयनुचाविश्यचतदेहं जीवविपदं नाव मेवं सरीरसमस्सरणं जियादि भावेणं अज्जयति पदं आघविवं जाव उवदंसितं जहा को दि तो- अर्थ पपकुंसी, अयं मदुकुंभे आसी सेचं जागसरीरव्वज्यणे । से किंतं भावयसररिदव्वज्झयणे । भवियस - रीरव्वज्यणे जे जीवे जोणिजम्मा निक्खंते इमेणं चेव आदत्तणं सरीरसमस्मरणं जिएदिट्ठेणं जावेणं अज्जयत्ति पद से काले सिक्खिसति, न ताव सिक्खति, जहा को दितो- अयं मदुकुं भविस्सर, अयं घयकुंभे जविस्सइ, सेतं भविसरणे से किलं जाणगसरीरजविसरीरवरिसे दब जाएगसरीरभविवसर वरितं दब्बऊ यो पचपपोत्ययलिखितं सेचं जागमरीरभविश्यसरीरवरिचे दव्वज्यणे । सेतं णो आगमश्र दव्त्रज्य णे से किंतं भा वज्जयले ? | भावज्जय थे डुविहे पन्नत्ते । तं जहा आगमओ अ आगम से किंतं नो आगमओ भावज्झयणे ? । प्र ज्झष्पस्सारणयां, कम्माणं वचो उवचित्राणं । अणुबच न बियाणं, तथा अरऊपण मिच्छा ।। १ ।। सेतं नी आगमओ भामऊपणे, सेचं भाव सेचं अजयणे । ( से किंतं भवणे इत्यादि) नामस्थापना मेदात् । चतुर्विधो ऽप्यध्ययन सदस्य निशेषः। तत्र नामादिविचारः स पूर्वीयावश्यकानुसारेण वाच्यः योगमा वाध्ययने । अज्ऊप्पस्तायणमित्यादिगाथा व्याख्या अस्य सवित आध्ययणं, इह निरुक्तविधिना प्राकृतस्वाभाव्याचा पकारस अज्जयणकप्प कारा 55 कारण कारण कृणमन्यगतवर्ण चतुष्टयोपेपणमिति भवति, अध्यात्मं चेतस्तस्यायनमध्ययनमुच्यत इति भावः। श्रा नीयते च सामाधिकाद्यययने शोभनं वेतोऽस्मिन् सत्यक मैन्धमात् भय एवाद-कर्मणामुपचितानां प्रागुपनिकान तोपयो द्वासोऽस्मिन् सति विद्यते नयनां चानुपयो - यो यस्तस्मादीदं वचोकदार्थप्रतिपत्ते कृत भाषायामिवान् सूरयः संस्कृते विदमध्ययनमुच्यत इति । सामायिकादिकं चाध्ययनं ज्ञानक्रियासमुद बात्मकम् ततश्चागमस्यैकदेशत्तित्वान्नो आगमतोऽध्ययनमिदमुक्तमिति गाथार्थः । अनु० | "जेल सुहप्पज्झयणं, श्रज्झष्पाणयण महियणयणं वा । बोइस्स संगमस्स व मोक्स व जंतम केन विधिना प्राकृतस्वानान्याच्च सिद्धम् । विशे० । श्रा०म० द्वि० । निरुक्त्यन्तरेणैतदेव व्याख्यातुमाह अधिगम्यंति व अत्था, अणण अधिगंव गयणमिच्छंति । अवि साहू गच्छति तम्हा अजयमिच्छति । उस०नि० धन्वा परिष्विद्यन्ते वाऽथ जीवदयमाधिकं या नयनं प्रापणं मयात्मनि कामादीनामनेनेतच्छन्ति विद्वां स इति शेषः । अधिकमनर्गलं शीघ्रतरमिति यावत्, वा सर्वत्र विकल्पार्थ: । ( साहुति ) साधयति पौरुषेयभिर्विशिष्टक्रियानिरपवर्गमिति साधुर्गच्छति यानर्थान् मुक्तिम, अनेनेत्यत्रापियांउयते यस्मादेवमेव च ततः किमित्याह तस्मादव्ययनमिष्ठ तिनिधिनाऽर्थनिर्देश परस्वाद या अस्थाय पूर्वस्याध्ययनमिच्छन्तीति वाभिधानम् । सर्वत्र सुत्राधा वया व्याध्याविकल्पानां पूर्वाचार्यसंमतत्वेनाचण्यापनार्थमिति गाथार्थः । उत्त० १ ० । अनु० । श्र० म० । दश० स्था० । सुत्र० । श्रधीयत इत्यध्ययनम् । कर्मणि ल्युट् । पठ्यमाने, श्राव० ४ श्र० । धर्मप्रज्ञप्तौ दश० ४ ० । “अध्ययनानि लोकतानि 39 चोपालीसं अपणा इसिजासिया दियाझोगया भासिया । ८. पद्मसा चत्वारिश (इसिभासियत ) भि कालिक विशेषतानि (दियालोपाभासियस) देवलीकच्युतः ऋषीराभाषितानि देवलोकयुताभाषितानि | क चित्पाठस्तु देोधनुवाणं सोपाली इसिमासियाणा | सम० ४३ सम० । अधि- इङ् - नावे ल्युट् । पुनः पुनर्मन्थान्यासे, विशे० । स्वाध्याये, बो० १३ विव० । पठने, गु रुमुखो धारणानुसारिरी उच्चारणे च वाच० । (पवनवक्तव्यताs खिला 'उद्देस' 'वारणा' 'त्वसंपया' इत्यादिशब्देषु द्रष्टव्या अज्जयण कप्प-अध्ययनकल्प- पुं० । योग्यताऽनुसारेण वाचनादानसामाधाम, पं० भा० । मक्खाती तप्पो, एतो वोच्छामि अपक दाय जेल विहिणा, जग्गुणजुत्तस्स वा तं तु ॥ जोए परियाए - रिहे रहे य त्रिलयपमिवभे । सुत्तस्य तदुपसुं, ने अपने अभागा ॥ जस्सागाढो जोगो, तं प्रगाढे ण चैव दायव्वं । गाढे अगाढं, तो वोच्छामि परियागं ।। जं संखपरमाणं, जणितं सुत्तम्मि तिवरिसादीयं । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) मज्जयणकप्प अनिधानराजेन्द्रः। अज्जावय तं तेणं माणेणं, उदिसियवं नवे सुत्तं ॥ अवसाणाणवत्तिय-अध्यवसाननिर्वर्तित-त्रि० । मनःपखुधियविसाणयविन-त्तिमादि दीहे च यमायाए । रिणतिसाध्ये, “ अवसाणणिब्वतिषणं करणोवाएणं से य पवि दिज्जत अणरिहे. अपरिहत्ते तु इमो होंति ॥ काले तं गणं विप्पजहित्ता" अध्यवसाननिर्तितेन उत्प्लो तव्यं मयेत्येवंरूपाभ्यवसायनिर्वर्तितेन । भ० २५ ० ० उ०। तितिणिए चलचित्ते, गाणं गाणिए य मुम्बलचरिते । अवसाणावरणिज्ज-अध्यवसानावरणीय-न । अध्यपायरिय पारिभावी, वामायट्टे य पिमुणे य ।। वसानस्याऽवरणरूपे कर्मभेदे, भ. श०३१ उ०। श्रादी अदिहभावे, अकमसमायारिए तरुणधम्मे । अज्जवसाय-अध्यवसाय-पुं०। अधि-अव-षो-घन । श्दमेवेति गन्वितपइण्हणिएह बेदमुत्ते वज्जितो अबंमहरो॥ विषयपरिच्छेदे निश्चये, स चात्मधर्म शति नैयायिकाः। बुहिधर्म अकुलीणो ति य दुम्मे-हो दमगे मंदबुछित्ति । शति वेदान्तिनः । उपात्तविषयाणामिन्द्रियाणां वृत्तौ सत्यां बुके अवियप्पलाभलकी, सीसो परिजवा पायरिए ।। रजस्तमोऽभिभवे सतियःसत्त्वसमुद्रकः सोऽयमध्यवसाय इति वृत्तिरिति कानमिति चाऽऽख्यायत इति साजधाः । उत्साहे, सो वि य सीसो दुविहो, पव्वावियतो य सिक्खवउ चेव । बाच०संकल्पे, श्राव०३० सदमेषु आत्मनः परिणामविशेषेषु, सो सिक्खितो वि तिविहो, सुत्ते अत्थे य तदुजयणं । आचा०१ श्रु०११०२० । अनुभागबन्धस्थाने, “अनुभागएतसिं अणरिहाणं, जे पमिवक्खान हॉति सम्बेसि । बंधगणं, प्रज्जक्सायाच पगा" पं०सं०२वा०। पं० चू। परिणामगा य जे तु, ते अरिहा होति णायव्वा ॥ अफवसायट्ठाण-मध्यवसायस्थान-नका परिणामस्थाने, तानि एतारिसे विणीतो, सुत्ते अत्थे य जत्तिया भेदा । करणत्रयेऽसंख्यानि प्रष्ट ५ टन('करण' शब्द तृ० ना० ३६१ पृष्ठे दृश्यानि चैतानि) अज्यणा वेसजुया, सेणा असेसए देजा ॥ पंजा।। अज्वसि-निवापिते, मुख्ये च । दे० ना.१ वर्ग । (सुय' शब्देऽस्य विस्तरोअष्टव्यः) अज्कयणगुणणि उत्त-अध्ययनगुणनियुक्त-त्रि० । प्रक्रान्तशा अज्जवसिय-अध्यवसित-नाअध्यवसाये, अनु०। स्त्रनिष्पन्दनूते प्रक्रान्ताध्ययनानिहितगुणसमान्वते, दश० ए| अज्कस्सं-देशी-आष्टे, दे० ना० १ वर्ग। अ०४ ३०। अज्कहिय--आत्महित-न । आत्मनां हितमात्माहतम् । अज्जयणगुणि (ण)-अध्ययनगणिन्-त्रि० । प्रक्रान्ताध्यय स्वहिते, प्रश्व०१ संबद्वा०। नोक्तगुणवति, दश०१० अ०। अज्का-देशी-असत्याम, शुभायाम, नववध्वाम, तरुण्याम, अज्यागछक-अध्ययनपटक-न । आवश्यकनामश्रुते, तस्य | एतस्यां च । दे. ना० १ वर्ग । सामायिकादिषमभ्ययनकलापात्मकत्वात् । विशे०। अज्काय--अध्याय-पुं० । आ मर्यादया प्रवचनोक्तेन प्रकारेण अज्यानकवग्ग-अध्ययनषदकवर्ग-पुं०। आवश्यके, षडध्य पउनमध्यायः । स्वाध्यायकरणे, प्रव० । अध्ययने,आव० ४ अ०॥ यनकापात्मकत्वात्तस्य । विशे। अनु। स्था० । कर्मणि घन । वेदादिशास्त्रस्यैकार्थकविषयसमाप्तिअजवसाण-अध्यवसान-न। अतिहर्षविषादाच्यामधिकम- | द्योतके विश्रामस्थानरूपे अंशविशेषे, वाच० । वसानं चिन्तनमध्यवसानम् । विशे०। रागस्नेहभयात्मकेऽध्य अज्कारुह-अध्यारुद-पुं०उपर्युपर्यध्यारोहन्तीति अध्यारुहाः। वसाये, स्था०७ ठा। रागभयस्नेहभेदात् त्रिविधमध्यवसानम् । वृक्कोपरिजातेषुवृत्तानिधानेषु कामवृत्ताभिधानेषु वा वनस्पतिषु, (तनिमित्तक आयुजेदो दि० भा० १० पृष्ठे 'आउ' शब्दे वक्ष्यते) सूत्राते च बल्लीवृतानिधाना इति वृताणां शाखाप्ररोहे च । सूत्र अन्तःकरणप्रवृत्ती, सूत्र. २ श्रु० २ ० । मानस्यापरिणती, । २ श्रु०३ अ०। प्रज्ञा आचा० (अध्यारुहतयोत्पन्नानां जीवाका०१७०१401 उत्त०। "मणसंकप्पत्ति वा अफवसाणं- नामाहारशरीरवर्णादिव्यवस्था 'वणस्साई' शब्दे पदयते ) ति वा एगट्टा" नि०चू०१० उ०प्रकर्वतोऽपि प्रयत्ननेद, अनु। अकारोव-अध्यारोप-पुं० । अधि-श्रा-रुह-णिचू-पान्ता. विशे० । औ०। देशः-घञ् । अतस्मिन् तबुद्धौ, यथा-रजौ सर्पधीः । वाचा परइयाणं ते ! केवतिया अज्कवसाणा पम्मत्ता ?।। भ्रान्तौ, पो०४ विव। गोयमा ! असंखिजा अकबसाणा पसत्ता। ते णं नंते !| अज्कारोवण-अध्यारोपण-ना अधि-रुह-णिन् । पान्तादेशः, किं पसत्या, अपसत्या ?। गोयमा! पसत्या वि अपसत्था | ल्युट् । अतिशयेनाऽऽरोपणे धान्यादेवपने, वाच० । पर्य्यनुवि। एवं जाव वेमाणियाणं । योजने, विशे। अध्यवसायचिन्तायां प्रत्येकनैरयिकादीनामसंख्येयास्यवसाना- | अज्कारोवसमक्ष-अध्यारोपमएडल-न। अध्यारोपो भ्रान्तिनि प्रत्येक प्रायोऽन्यान्याध्यवसायन्नावात् । प्रज्ञा० ३४ पद । स्तया मएडलं मण्डलाकारमा मिथ्याज्ञानेन वृत्ताऽऽकाराss अन्तःकरणे, आम.द्वि० । उपा० । प्रका० । प्राव० । रोपणे, " आगमदीपेऽभ्यारोपमण्डलं तत्त्वतोऽसदेव " अवसाणजोगणिव्वत्तिय-अध्यवसानयोगनिर्वतित-त्रिका षो०४ विव। अध्यवसानं जीवपरिणामः, योगश्च मनःप्रभृतिव्यापारस्तान्यां अज्कारोह-अध्यारोह-पुं०। वृक्षाणां शाखागरोहे, सूत्र० २ निर्वतितो यः स तथा । परिणामेन मनोयोगादिना चासाधिते, श्रु० ३१०। भ०२५ श०८ उ०। । अज्जावय-अध्यापक-पुं० । अध्यापयति । अधि-ह-णिच, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) अभिधानराजेन्द्रः । अज्जावय 66 स्था०५ ठा० ३ उ० । एषुब् । अध्ययनकारयितरि, वाच० । उपाध्याये च, "अज्झाबयाणं पडिकूलभासी ” उत्त० १२० । श्रा० म० । ०० अज्जावसत - अध्यावसत् - त्रि० मध्ये वर्त्तमाने, “गिहमज्यावसंतस्स " गृहमध्यावसतः गृहे वर्तमानस्य । उपा० १ श्र० । अजावसिता-प्रभ्युष्य य० मध्ये वर्तयित्येत्यर्थे पंच तित्थगरा कुमारवासमज्भावसित्ता अधिष्ठायेत्यर्थे च । वाच० । अज्जासणा - अध्यासना-स्त्री० सहने, उत्त० २ श्र० । (परीपहाणामध्यासहना ' परीसह ' शब्दे ऽष्टव्या ) अज्जाहार - अध्याहार - पुं० । अध्यारुह्यते ज्ञानायाऽनुसन्धीयते । अधि-आ-हृ-घञ् । श्राकाङ्क्षाविषयपदानुसन्धाने, ऊहे, तर्के, अपूर्वोत्प्रेक्षणे च । वाच० । व्याख्याऽङ्गमेषः । श्रचा० १ ० १ ० ४ उ० । अकी-महीयम अर्थिभ्यो ऽनवरतं दीयमानमपि पर्यंत एच, न तु व्रत इत्यीम मधया व्यवनियमन सर्वदेव व्यवच्छेदावलीकयदतीयम् विशे० अ०म० सामयिकचतुर्विधतिस्तयात्मक अध्ययने, अनु०। अस्य निक्केपः अकोयस्य अत्रापि तथैव विचारा, या तु (सप्यागाससेठी ति) सर्वाकाशं लोकालोकनभः स्वरूपम्, अस्य संबन्धश्रेणिः प्रदेशापहारतो ऽपहियमाणाऽपि न कदाचित् क्षीयते श्रतो श शरीरभव्यशरीरव्यतिरिकद्रव्यातणितया प्रोच्यते इव्यता चास्याssकाशव्यान्तर्गतत्वादिति । अत्र वृद्धा व्याचक्षतेयस्माच्चतुर्वपूर्वविद आगमोपयुक्रस्यान्तगृह से मात्रोपयोग काले येऽथोंपलम्भोपयोगपर्यायास्ते प्रतिसमयमेकैकापहारेणानन्ताभिरप्युत्सर्पिणीभिर्नापहियन्ते श्रतो भावाक्षीणतेहा यसेवा नो आगमतस्तु भावाचीता शिष्येभ्यः सामायिकांदिदानेऽपि स्वात्मन्यनाशादित्येतदेवाह (जह दीवा ) यथा दीपादवधिभूताद्दीपशतं प्रदीप्यते प्रवर्त्तते, स च मूलभूतो दीपस्तथापि तेनैव रूपेण प्रवर्तते, न तु स्वयं क्षयमुपयाति । प्रकृते संबन्धयन्नाह एवं दीपसमा आचार्या दीप्यन्ते स्वयं विवतितत्वेन तथैवावतिष्ठन्ते, परं च शिष्यवर्ग दीपयन्ति श्रुतसम्पदं लम्जयन्ति । अत्र नो आगमतो भावाकीणता श्रुतदायका चायोगस्यागमत्वा वाकाययोगयोगमत्यायनीति काव्यायते इति गाथार्थः। अनु यथा दीपा दीपनं प्रदी प्यते ज्वलति सोऽपि च दीष्यते दीपः, न पुनरन्यान्यदीपोत्पत्तावपि कीयते । तथा किमित्याह- दीपसमा श्राचार्या दीप्यन्ते समस्तशाखार्थविनिश्वयंप्रकाश, परच शिष्यं दीपपन्ति शास्त्रार्थप्रकाशन शक्तियुकं कुर्वन्ति या पदेशाचा शोक भावाणस्य प्रस्तुत त्वात्, तस्यैव चाकयत्व संभवादिति गाथार्थः । उत्त० १ ० । अज्जी त्रि० | कंप-मक्षीणऊजाक- बि० अकल " 1 आव० ४ श्र० । अज्जुववष्य-अध्युपपन्न- त्रि० । अधिकमत्यर्थमुपपन्नस्तच्चित्तस्तदात्मकः । विषयपरिभोगायतजीविते, श्राचा० १४० १ ० ७ ४० | स्था० भ० । अधिकं तदेकाग्रतां गते, शा० २ अ० वि० । भ० । जातानुरागे, व्य०२ ३० । मूर्चिते, आचा०२ ०१ ०० o गृद्धे, सूत्र० २ ० ६ श्र० । “मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्जुवो य " इति एकार्थाः । वि० । “ अज्जोववक्षा कामेहिं, चोजंता गया गिहं" अभ्युपपन्नाः कामगतिचित्ताः । सूत्र० १ श्रु० ३ ० २ ० | अज्जेोववचा कामेहिं मुनिया " अभ्युपपना गृद्धाः । सूत्र० १० २ श्र० ३ ० । पौनःपुन्येनाभिलषमाणे, सूत्र० १ ०१० अ० । अधिक्येन भोगेषु लब्धे, सूत्र० २ श्रु० १ अ० । स्था० । अज्जुसिर - अशु पिर- त्रि० । न० ष० । ऋणमुपिररहिते, रा० । अज्जुसरं जत्थ कोट्टरं नत्यि " नि० चू० २ ४० । तृणाद्यनव ०३ अधि० कुशवनतृणादी संस्तारकमेनि $6 चू० २ ० । अकुसिरत - अनुरितृ०दनदरि । से कि ? अज्जीने चढविहे पसे । तं जहाणामी, उबी दबी जावीपणे नामत्रवा पुत्रं वमित्राओ । से किंतं दव्त्रज्जीऐ ।। दब्बज्जीणे दुविपचे जड़ा-आगम अयोधागमओ से कि । तं आगमओ दी है। दो जस्त पदं सिमित परिजितं जायचं आगमओ दव्यजी से किं नो आगमओ दी है। नोआ दव्यजीणे तिविहे पत्ते । तं जहा जाएगसरीरदव्वज्जीणे, नवि असरीरदव्वज्जीणे, जाएगसरीरजविसरीरवइरित्ते दव्वश्री से कितं जाएगसरी रदबजी हैं। जाणगसरीरदम्बजी अज्जीणपयत्था हिगारजाणयस्स जं सरीरयं वत्रगयचुअचावित्र्यचतदेहं जहा दव्वज्यो नहा जाणिव्वं जाव सेतं जाएगसरीरदव्वज्जी से किंतं नविसरीदव्वज्भी ० 9 | विसरीरदव्वज्झणेि जे जीवे जोणिजम्मणि निक्खंति जहा दब्बञ्जणे जात्र सेतं नविसरीरदब्बज्जीणे । से किंतं जाणगसरीर नविसरीरवरचे दव्वज्भीले १ । दन्वज्जीणे सव्वागाससेढी सेत्तं जारणगसरीरजवि असरीरहरले दस नो मोदी से दव्वज्जणे । से किंतं नावज्जीणे ? । भावी विदे मष्यते । तं जहा श्रागमओ अ, नो आगमओ अ । से किंतं या गमतो भावज्जीणे। जावरको जाए उपर से । सेचं आ गमओ भावज्जीऐ । से किंतं नो आगमन्त्रो भावज्जीणे ? । जह दीवा दीनसतं, पप्पर दीप्पर सो दीवो दीवसमा म आयरिया, दिव्यंति परं च दीवंति ।। १ ।। सेतं नो आ यमओ नाणे सेचं नाव से अजीऐ ॥ ↑ , " -- च । जीत० । अज्जेमणा- अध्येषणा- स्त्री०। अधि- इष्- यच्-टाप् । सत्कारपूर्वकनियोगे, सम्म० श्रधिका एषणा प्रार्थना । अधिकमर्थने, स्त्री० ॥ वाय० । । अज्जो पश्य-अध्यवपूरक-पुं० । अधि अधिकवेनाभ्यवपूर स्वार्थदत्ताधिश्रयणादेः साध्वागमनमवगम्य तद्योग्यभक्तसि वर्थ प्राचुर्येण भरणमध्यवपूरः । स एव स्वार्थिककप्रत्ययविधानादध्यवपूरकः, तद्योगाद्भक्ताद्यप्यध्यवपूरकः । प्रव० ६७ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ट (२३४) अज्जोयरय अभिधानराजेन्द्रः। द्वा० स्वार्थमूलाद ग्रहण कृते साध्वाद्यर्थमधिकतरकणप्रक्षेपणे- गृहीतं तत्तावमात्र स्थाव्याः पृथक्कृतं. दत्तं वा पापाड्यादि. न भक्कादौ संपादिते मति, तत्र सम्भवति षोडशे उद्गमदोष, न्यस्तथापि यत् शेष, तन्न कल्पत इति . भ० श. ३३ उ० "सहापण मूलग्गहणे, अझोयर होहप- 'जातिए विसोही ' इत्यवयवं विशेषतो व्याख्यानयतिक्खेवो" स्थाबाद। १०। प्राचा०पंवा पंचा।। छिन्नम्मि तओ नक्क-हियम्मि पुहक्कए कप्पा सेसं । अधुनाऽध्यवपूरकद्वार माह आहवणाए दिन्नं, व तत्तियं कप्पए सेसं ॥ अज्कोयरओ तिविहो, जावत्तिय सघरमीस पासंडे ।। विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिकेऽध्यवपूरके यावदर्थिक पश्चात् मूलम्मिय पुच्चकए, ओयाई तिएह अह्राए । प्रकिप्तं ताबन्मात्रे गिन्ने पृथक्कते, तत्र दो रेखयाऽपि नवति, अध्यवपूरकत्रिप्रकारः। तद्यथा-(जावत्तिय इति ) स्वगृह- ! तत आह-(तयो उकाछियम्मि) तत्स्वस्थापुत्कर्षित नरपाटिते, मिश्रयोःशब्दयोरत्रापि संबन्धनात् स्वगृहयावदर्थिकमिश्रः (स डोत्कर्षितं स्वस्थानादुत्पाट्य शेषभक्तस्योपरि निक्तिप्तमपि भ. घरमीसत्ति) पत्र साधुशब्दोऽध्याहियते, स्वगृहसाधुमिश्रः। एयते, ततो विशेषणान्तरमाह-पृथक्कृते स्थाल्या बहिनिष्का( पासंडे इति) अनापि यथायोग स्वगृहमिश्रशब्दसंबन्धः। शिते, शेष यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते । अथवा आनवनया उद्देस्वगृहपापराममिश्रः। स्वगृहश्रमणमिश्रः स्वगृहपापण्डमिश्रे- शेन, न तु शिक्थादिपरिगणनेन यदि तावन्मानं कार्पटिकादिभ्यो उन्तर्भावितः पृथगू नोक्तः । त्रिविधस्यापि सामान्यतो लक्ष- दत्तं स्यात् ततः शेष कल्पते । पितत्र प्रायश्चित्तं प्रत्येक णमाह-( मूलम्मीत्यादि मूले प्रारम्भेऽग्निसंधुक्षणस्थालीज. मासगुरु । वृ० १० । “ यावतियअज्कोयरए मासाहु, सघलप्रक्षेपादिरूपे, पूर्व यावदर्थिकाद्यागमनात् प्रथममेव स्वार्थ रपासंगकोयरए मासगुरु"। पं००। अध्यवपुरकान्तर्भेदद्वये निष्पादिते पश्चात् यथासंभवं त्रयाणां यावदर्थिकादीनाम- | एकाशनकम् । जीतः । पंचा० । ायावतारयति, अधिकतरान् तरामुलादीन् प्रक्षिपति, ए- अज्झोसिपा-देशी-क्रोडाभरणे, दे० ना० १ वर्ग०।। षोऽध्यवपूरकः अत एव चास्य मिश्रजातानेदः । यतो मिश्र- अज्कोववज्जणा-अध्युपपादना-खी० । कचिदिन्छियार्थेऽध्युपजातं तदुच्यते-यत् प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थ च पत्ती, अभिष्यने च । “तिविदा अमोववजणा-जाणू, अजाणू, मिश्रं निष्पाद्यते, यत् पुनरारभ्यते स्वार्थ, पश्चात्प्रभूतार्थिनः वितिगिच्छा" तत्र जानतो विषयजन्यमर्थ या तत्राध्यपपत्तिः पावण्डिनः साधून वा समागतानवगम्य तेषामर्थायाधिकतर- सा जाणू या स्वजानतःसा अजाणू। या तु संशयवतः सा विचिजलतरामुलादि प्रक्षिप्यते, सोऽध्यवपूरकः, इति मिश्रजाता- कित्सा। स्था० ३ ०४ उ० । दस्य भेदः। ' अमुमेव भेदं दर्शयति अझोववा-अध्युपपन्न--त्रि० । विषयपरिजोगायतजीविते, प्राचा० । तंदुल जन्न अायाणे, पुष्फफले सागवेसणे लोणे । अकोववाय-अध्युपपात-पुं० ग्रहणकाग्रचित्ततायाम, "परपरिमाणे नाणतं, अकोयर मीसजाए य ॥ स्स अज्कोववायलोभजणणाई " पात्राणि परस्यान्यस्य अइह व्यत्ययोऽप्यासाम्' इति वचनात् सप्तमी यथायोगं पष्ठयर्थे भ्युपपातं च ग्रहगैकाग्रचित्ततां बोभं मृच्छौं जनयन्ति यानि तृतीयार्थे वेदितव्या। ततोऽयमर्थः-अध्यवपूरकस्य मिश्रजातस्य तानि अध्युपपातलोभजननानि । प्रश्न०५ सम्ब० द्वा०। च परस्परं नानात्वं हि तरामुलपुष्पफलशाकवेशनलवणादान अञ्च-कृष-धा० श्राकर्षणे, विलेखने च । तुदा०,आत्मसक०, काले यद् विचित्रं परिमाणं तेन द्रष्टव्यम् । तथाहि-मिश्रजाते प्रथमत एव स्थाल्यां प्रभूतं जलमारोप्यते, अधिकतराश्च त. अनिट् । "कृषेः कटुसाहाञ्चाणच्चायगइञ्छाः"01४१०७॥ एमुलाः करामनादिनिरुपक्रम्यन्ते, फलादिकमपि च प्रथमत एव इति कृषेरश्चादेशः । अञ्चइ, कृषते । प्रा०। प्रनूततरं सरज्यते । अध्यवपूरके तु प्रथमतः स्वार्थ स्तोकतरं अञ्चिअ-अञ्चित-त्रि० । अञ्च-क्त । वर्गेऽन्त्यो वा । । । तएमुलादि गृह्यते, पश्चाद्यावर्थिकादिनिमित्तमधिकतरं ताम- ३०। श्त्यनुस्वारस्य वा परसवर्णः। पूजिते, आकुञ्चिते च । प्रा०। लादि प्रविष्यते, तस्मात्ता मुलादीनामादानकाले यद् विचित्रं | अञ्च-अ-त्रि० । “न्यायज्ञञ्जां अः" ॥८।४।२६३ ॥ इति सूत्र परिमाणं तन्मिश्राध्यवपूरके विशोधिकादौ नानात्वमवसेयम् । मागध्यां इस्य , हिरुक्तो प्रकार इत्यर्थः । मूर्ख, प्रा०। संप्रत्यध्यवपूरकस्य कल्पविधिमाह अन्य-त्रि० । न्यस्य स्थाने द्विरुक्तो प्रकारः। जिन्ने, सरशेचाएजावंतिए विशोही, सघरपासंमिमीसए पूई। वमेतद्घटिता अप्युदाहााः । प्रा० । लिने विसोहि दिन्न-म्मि कप्पा न कप्पई सेसं ॥ अलि-अजनि-पुं० । अङ्ग्-अलि, "न्यण्यां नः" ।। याचदर्थिके स्वगृहयावदर्थिकमिश्रेऽध्यवपूरके शुरुभक्तमध्य ४ । २६२ । इति मागध्यां अ इतिभागस्य अः । संयुतकरपतिते यदि तावन्मात्रमपनीयन्ते ततो विशोधिर्भवति । अतएव स्वगृहयावदर्थिकमिश्रोऽध्यवपूरको विशोधिकोटौ वक्ष्यते। पुटे, प्राo स्वगृहपापएिडमिधे, उपलकणत्वात् स्वगृहसाधुमिश्रे च शुरू अट्ट-अट-धा० गतौ । ज्वा०, सक०, पर०, सेट । “शकादीनां भक्तमध्यपतिते पूतिर्भवति,न कल्पते तद्भक्तम्, पृतिदोषपुष्ट जन द्वित्वम् " ||४|२२६॥ इति टद्वित्वम् । परिदृश, पर्यटति। प्रा। वतीत्यर्थः। तथा विशोधौ विशोधिकोटिरूपे यावदर्थिकाध्यब अट्ट-क्वथ-धा० निपाके। न्या, पर०, सक०, सेट्। "क्वथैरट्टः" पूरके चिने यावन्तः कणाः कार्पटिकाद्यर्थ पश्चात क्षिप्तास्ताव मा४११६॥ इति क्वथेरट्ट इत्यादेशः । अदृश. क्वथति । प्रा०। न्माने स्थाल्याः पृथक्कृते, कार्पटिकादिभ्यो वा दत्ते सति, शेष- अट्ट-अट्ट-पुं० । अट्टयति नायितेऽन्यद् यत्र । अह-आधारे मुद्वरितं यद्भक्तं तत्साधूनां कल्पते। शेषं पुनः स्वगृहपाखण्डि- घम् ।प्रासादस्योपरि गृहे, प्राकारोपरिस्थसैन्यगृहे च। यत्र स्थिमित्रस्वगृहसाधुमिश्राध्यवपूरकं न कल्पते । किमुक्तं भवति। ता हि नरा अन्यान् हीनतया नाडियन्ते । यस्मिन् वसतश्चा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) अट्ट अभिधानराजेन्द्रः। अट्टज्माण म्योत्कर्षेऽनादरः । वाच० "अट्टाणि चा अट्टालयाणि वा " | "अट्टकाणे चउबिहे पामते" चतस्रो विधा भेदा यस्य तत्तथा। आचा०२ श्रु० १२ अ० । अट्यतेऽतिक्रम्यतेऽनेनेत्यः । प्राका अमणुनसंपयोगसंपत्ते तस्स विप्पोगसितिसमम्यागए दो, ज०२० श०२ उ०॥ प्रति-त्रिका अतिः शारीरमानसी पीमा, तत्र नव प्रातः । यावि भव॥ आचा० १ ० २०५०। पीमिते, सूत्र० १ श्रु०१० अ०। अमनोझस्यानिष्टस्य 'असमणुमस्स त्ति' पाठान्तरे अस्वमनो ज्ञस्यानात्मप्रियस्य शब्दादिविषयस्य, तत्साधनवस्तुनो वा सं. सु:खिते, प्राचा० १ श्रु०४०२ उ० । मोहोदयेन आतं, प्रयोगः संबन्धस्तन संप्रयुक्तः संबद्धोऽमनोझसंप्रयोगसंप्रयुक्तोआचा०१ श्रु० ६ अ०१० । शरीरतो पु:खिते, औ० । ऽस्वमनोइसंप्रयोगसंप्रयुक्तो वा, य इति गम्यते । तस्येति, अमोहोदयादगणितकार्याकार्यविवेके च । आचा०१श्रु०६ अ० मनोज्ञस्य शब्दादविप्रयोगाय वियोगार्थ स्मृतिचिन्ता, तां सम१ ० । अस्य निकेपः-" अट्टे लोए परिजुम्मे ऽस्संवोहे न्वागतःसमनुप्राप्तो भवति यःप्राणी,सोऽभेदोपचारादातमिति। अविजाणए" । आचा०१ श्रु० १ अ०१ उ०। ('पुढविकाय' शब्दे वाऽपीतिशब्दः विकल्पापेक्वया समुच्चयार्थः । अथवा मनोज्ञसंएतत्सूत्रव्याख्यानं वक्ष्यते) प्रयोगसंप्रयुक्तो यः प्राणी, तस्य प्राणिनः विप्रयोगे प्रक्रमादमनोअट्टे चनविहे खयु, दवे नदिमादि जत्थ तणका। शब्दादिवस्तूनांचियोजने, स्मृतिश्चिन्तनम, तस्याः समन्यागतः आवत्तंते पमिया, से व सुवमादि आवहे ।। समागमनं समन्वाहारो विप्रयोगस्मृतिसमन्वागतं वाऽपीति प्रातः खलु चतुर्विधः। तद्यथा-नामातः, स्थापनार्तः, द्रव्यातः, तथैव जवति, आर्तध्यानमिति प्रक्रमः। अथवाऽमनोइसंप्रयोभावार्तश्च । तत्र नामस्थापने सुप्रतीते । द्रव्यातॊऽपि नोआगम- गसंप्रयुक्ते प्राणिनि, तस्येति अमनोझशब्दादेविप्रयोगस्मृतितो शरीरव्यतिरिक्तो यत्र नद्यादेःप्रदेशे तृणकाष्ठानि पतितानि | समन्वागतमार्तध्यानमिति। आवर्तन्ते, यच्च धा सुवर्णाद्यावर्तते, स एव्यः। प्रा सर्वतः प. रिभ्रमणेन शतानि गतानि यत्र यो वा स आर्त इति व्युत्पत्तेः । अमानाणं सद्दा-इविसयवत्थूण दोसमश्वस्स । अहवा अत्तीतूतो, सचित्तादिहि होइ दबम्मि । धणि विओगचिंतण-मसंपोगाणुसरणं च ॥६॥ अमनोज्ञानामिति । ममसोऽनुक्सानि मनोकानि, श्टानीत्यर्थः। न जावे कोहादीहिं, उ अनिनूतो होति अट्टो उ ।। मनोझानि अमनोज्ञानि,तेषाम, केषामित्यत-शब्दादिविषयव. अथवा सचित्तादिभिव्यैरसंप्राप्तः प्राप्तवियुक्तैर्वा य आर्तः स स्तूनामिति । शब्दादयश्चैते विषयाश्च, आदिकालन्दावर्णादिपरिग्रद्रव्यातः, द्रव्यैराततॊ ऽव्यात इति व्युत्पत्तेः । क्रोधादिभिरनि- | हः। विषीदन्त्येतेषु सक्ताः प्राणिन इति विषय अन्त्रियगोचराः, भूतो नो आगमतो भावात्तः। तदेवमातशब्दार्थ उक्तः। व्य०४ वस्तुनि तु तदाधारजूतानि रासभादीनि । शब्दादि. १०। प्राचा० । ऋतस्य पीमितस्येदं वचनमिति कृत्वा घोमशे | विषयाश्च, वस्तुनि चेति विग्रहः। तेषाम, किसना मालमताम? गौणालाके, प्रश्न०२ पाश्र० द्वा० । ऋतं पुक्खं, तत्रभवमार्तम् ।। धणियमत्यर्थम, वियोगचिन्तनं विप्रयोगचिनि योगः । यदि वा अर्तिःपीमा, पातनं च, तत्र नवमातम्"ध० २ अधि०। कथं नु नामैनिर्वियोगः स्यादिति नाथः । अनेन वर्तमानकालप्रव० । क्लिष्टे, आव०४ अा विषयानुरजिते, ध० ३ अधिः । ग्रहः। तथा सति चवियोगेऽसंप्रयोगानुस्मरण, कथमेभिः सहेव इएविषयसंयोगाभिलाष, प्रश्न०४ सम्ब० द्वा०। एतदात्मके शो संप्रयोगाभाव इत्यनेन वाऽनागतकानग्रहावयापूर्वमपि विकाक्रन्दविलेपनादिलकणे वा ध्यानभेदे, श्राव०४ अ०। झा०। युक्तासंप्रयुनयोहमतत्वेनातीतकाअग्रहति । किविशिष्टस्य अटुं-देशी-कृशे, दुर्बले, गुरौ, महति, शुकपक्विणि, सुखे, सौ सत इदं वियोगचिन्तनादि । अत आह-हेषमलिनस्य, जन्तो. ख्ये, धृष्टे, विपाते, अलसे, शीतके, शब्दे, ध्वनौ, असत्ये च ।। रिति गस्यते । तत्राप्रीतिलकणो द्वेषः, तेन मसिनस्य, तदाक्रान्तदे० ना० १ वर्ग। मूर्तिरिति गायार्थः । इति प्रथमो भेदः । अट्टइ-देशी-कथने, दे० ना० १ वर्ग। साम्प्रतं द्वितीयमभिधित्सुराहअट्टक-अट्टक-पुं० ( आटमो) कुट्टितोपरूतरूपे पात्रहिमपूर- | तह मूलसीसरोगा-श्वेअणाए विप्रोगपणिहाणं । के अव्ये, बृ०१ उ०। तयसंपओगचिंता, तप्पडिआरानलमणस्स ||७|| अट्टज्माण-अतिध्यान-न। ऋतं पुःखम् । उक्तं हि-ऋतशब्दो तथेति धणियमत्यर्थमेव । शूत्रशिरोरोगादिवेदनाया इत्यत्र दुःखपर्यायवाच्याश्रीयते । ऋते नवमासम् , उत्त०३० अ०। शलशिरोरोगी प्रसिहौ। श्रादिशब्दाच्चेषरोगातङ्कपरिग्रहः।तऋतं फुःखं, तस्य निमित्त, तत्र वा भवम् । झते वा पीमिते भवमा-| तश्च शूत्रशिरोरोगादिन्यो वेदना। वेद्यत इति वेदना । तस्याः सम् । स्था०४ ग०१ उ०। आवा तच्च तद् ध्यानं च । आर्तभावं किम्?, वियोगप्रणिधानम्, बियोगे रढाध्यवसाय इत्यर्थः अनेन गत पार्सः, आर्तस्य वा ध्यानमार्तध्यानम् । आ० चू०४०। वर्तमानकालग्रहः। अनागतमधिकन्याह-तदसंप्रयोगचिन्तति, मनोझामनोशवस्तुवियेागसंयोगादिनिवन्धनचित्तविप्लवलक्षणे तस्या वेदनायाः कथंचिदभावे सति श्रसंप्रयोगचिन्ता, कथं ध्यानभेदे, स०१ सम । “ राज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, पुनर्ममानयाऽऽयत्या संप्रयोगो न स्यादिति चिन्ता चार्तध्यानमेव स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छानिलापमतिमात्रमुपैति गृह्यते । अनेन वर्तमानानागतकासग्रहणेनातीतकालग्रहोऽपि मोहा-कचानं तदातमिति संप्रबदन्ति तज्ज्ञाः" ॥१॥दश०१ अ०। कृत पव घेदितव्यः। तत्र नावनाऽनन्तरगाथायां कृतव । किं विशि" भवकारणमट्टरुद्दा " । भार्तध्यानं स्वविषयलवणनेद- एस्य सत श्द वियोगप्रणिधानादि । अत आह-तत्प्रतीकारे वेदतश्चतुर्धा । उक्तं च भगवता वाचकमुख्येन-आर्तममनो- नाप्रतीकारे चिकित्सायामाकुल व्यग्रं मनोऽन्तःकरणं यस्य स कानां संप्रयोगे, तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः, वेदना- तथाविधस्तस्यावियोगप्रणिधानाचार्तध्यानमिति गाथार्थः। याश्च विपरीतम्, मनोज्ञानां निदानं चेत्यादि । श्राव०४०।| उक्तो द्वितीयो नेदः । आव०४०। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६). अट्ठकाण अनिधानराजेन्द्रः। अट्टज्जाण अधुना तृतीयमुपदर्शयन्नाह एवं चनविहं रा-गोसमोहंकिमस्स जीवस्स । पाबंकसंपभोगसंपउत्ते तस्स विषयोगसितिसममाग अट्टज्माणं संसा-रवणं तिरिअगइमूलं ॥१०॥ ए यावि भव ॥ पतदनन्तरोदितं चतुर्विधं चतुःप्रकारंरागद्वेषमोहम, किं तस्य?, प्रातको रोगः इति । स्था०४ ग०१०॥ रागादिलाभितस्येत्यर्थः। कस्य!,जीवस्य आत्मनः। किम्?, श्राइहाणं विसयाई-ए वेभणाए अरागरत्तस्स । संध्यानमिति । तथा चतुष्टयमपि किं विशिष्टम, इत्यत आहअविनोगज्जवसाणं, तह संजोगाजिसासोप्रा संसारवर्कनम, ओघतस्तिर्यग्गतिमूलं विशेष इति गाथार्थः। आह-साधोरपि शूलवेदनानिभूतस्यासमाधानादा-ध्यानप्रा. इष्टानां मनोकानां विषयादीनामिति । विषयाःपूर्वोक्ताः। श्रादि प्तिरित्यत्रोच्यते, रागादिवशवर्तिनो भवत्येव, न पुनरन्यस्ये. शब्दावस्तुपरिग्रहः। तथा वेदनायाश्च श्ष्टाया शति वर्तते। किम्?, अवियोगाध्यवसानमिति योगः । अविप्रयोगदाध्यवसाय इति ति । प्राह च ग्रन्थकार:जावः । अनेन च वर्तमानकालग्रहः, तथा संयोगानिलाष मज्जत्थस्स उ मुणियो, सकम्मपरिणामत्राणिअमेअंति। ति, तत्र तथेति धिणियत्तमित्यनेनात्यर्थप्रकारोपदर्शनार्थः । वत्थुस्सहावचिंतण-परस्स सम्मं सहवस्स ॥ ११ ॥ संयोगानिलाषः कथं ममैभिर्विषयादिभिरायत्यां संबन्धः', इ. मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, रागद्वेषयोरिति गम्यते । तस्य मध्यतीग। अनेन च अनागतकालग्रह इति वृका व्याचक्कते। चश स्थस्य,तुशब्द पवकारार्थः, स चाऽवधारणे। मध्यस्थस्यैव नेतर. ग्दात्पूर्ववदतीतकासग्रह इति । किंविशिष्टस्य सत इदमवियो स्य । मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः,तस्य मुनेः,साधारिगाभ्यवसानादि । अत आह-रागरक्तस्य, जन्तोरिति गम्यते । त्यर्थः। स्वकर्मपरिणामजनितमेतत् ग्लादि, यश्च प्राकर्मविपरिणातत्राजिवङ्गलकणो रागः, तेन रक्तस्य तद्भावितमूरिति गा. मिदैवादशुभमापतति न तत्र परिताप्या जवन्ति सन्तः। उक्तं च थार्थः । उक्तस्तृतीयो नेदः। श्राव०४०। परममुनिभिः-"पुवि च खलु नो कमाणं कम्माणं विनाणं साम्प्रतं चतुर्थमभिधित्सुराह सुप्परिकताणं वेइत्ता मोक्खो नत्थि, श्रवेश्ता तवसा वा कोस. परिसिय कामजोगसंपओगसंपउत्ते तस्स अविप्पो श्ता" इत्यादि । इत्येवं वस्तुस्वन्नावचिन्तनपरस्य सम्यक्शोभगसितिसमलागए यावि भव ॥ नाध्यवसायेन सहमानस्य सतः कुतोऽसमाधानम?, अपितु ध. (परिझुसिय त्ति) निषेविता ये कामाः कमनीया नोगाः ममनिदानमिति वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥११॥ परिहताऽऽशशब्दादयः । अथवा कामौ शब्दरूपे, नोगा गन्धरसस्पर्शाः। का, गतः प्रथमपक्कः। कामभोगाः कामानां वा शब्दादीनां यो भोगस्तैस्तेन वा द्वितीयतृतीयावधिकृत्याहरांप्रयुक्तः । पागन्तरे तु तेषां तस्य वा संप्रयोगस्तेन संप्रयुक्तो कुणओ व पसत्यालं-बणस्स पडिआरमप्पसावज्ज । यः स तथा । अथवा (परिमुसिय त्ति) परिक्कीणो जरादिना, स चासी कामनोगसम्प्रयुक्तश्च यस्तस्य,तेषामेवाविप्रयोगस्मृतेःस तवसंजमपमिश्रारं, च सेवओ धम्ममणिपाणं ॥ १ ॥ मन्वागतं समन्वाहारस्तदपि नवत्यार्तध्यानमिति । स्थाग० कुर्वतोवा, कस्य?, प्रशस्तं ज्ञानाद्युपकारकम्, पालम्यत इत्या म्बनं प्रवृत्तिनिमितं शुभमध्यवमानमित्यर्थः । उक्त च-"कोहं देविंदचकवाट्ट-तणाइ गुणरिछिपत्थरणामड्यं ।। अचित्तिमित्यादि " प्रशस्तमासम्बनं वृत्तं यस्यासौ प्रशस्तालअहमं निभाणचिंतणमन्नाणाणुगयमन्चतं ॥६॥ म्बना,तस्य। किं कुर्वतः?,इत्यत पाह-प्रतीकारं चिकित्सालक्षणम्, दीच्यन्तीति देवा भवनवास्यादयस्तेषामिन्छाः प्रभधो देवे-1 किंधिशिष्टम्?, अल्पसाबद्यम्, अवयं पापं, सहावन सावधम् । न्छाश्चमरादयः। तथा चक्र प्रहरणं, तेन विजयाधिपत्ये वर्तित अल्पशब्दोऽभाषवाचकःस्तोकवचनो वा । अस्पं सावधं यस्मि. शीलमेषामिति चक्रवर्तिनो नरतादयः । श्रादिशन्दादबलदेवा असावल्पसावधस्तं धर्ममनिदानमेवेति योगः कुतः?, निर्दोष. दिपरिग्रहः । अमीषां गुणर्कयो देवेन्द्रचक्रवादिगुणयः । स्वात् । निर्दोषत्वं च वचनप्रामाण्यात् । सक्तं च-"गीयत्थो जयतत्र गुणास्तु रूपादयः, ऋफिस्तु वितिः, तत्प्रार्थनात्मकं णाप कडजोगी कारणाम्म निहोसो"।इत्याद्यागमस्योत्सर्गापवा. तद्याच्यामयमित्यर्थकित, अधम जघन्यं, निदानचिन्तनं नि दरूपत्वात् । अन्यथा परलोकस्य साधयितुमशक्यस्वात्, साधु दानाभ्यवसायः, अहमनेन तपस्यागादिना देवेन्द्र स्यामित्यादि. चैतदिति तथा तपःसंयमप्रतीकारं च सेवमानस्येति । तपःसंयरूपः। श्राह-किमिति तदधममुच्यते?,तस्मादज्ञानानुगतम, अत्य मावेव प्रतीकारः,सांसारिकःखानामिति गम्यते । तंच सेवमान्तम, तथा च नाशानिनो विहाय सांसारिकसुखेऽन्येषामाभलाष नस्य, चशब्दात पूर्वोक्तप्रतीकारं चाकिम?,धर्म धर्मध्याममेव भ. उपजायते । उक्तं च." अज्ञानान्धाश्वटलवनितापाङ्गविकेपि- वति,कथम्?,सेवमानस्यानिदानमिति क्रियाविशेषणम् देवेन्द्रातास्ते, कामे सक्तिं दधति विनवानोगतुङ्गार्जने वा । बिञ्चित्तं | दिनिदानरहितमित्यर्थः। माह-कृत्स्नकर्मक्षयान्मोको भवत्विती. भवति हि महन्मोक्काकतानं, नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यं- दमपि निदाममेव उच्यते, सत्यमा तदपि निश्चयतःप्रतिषिद्धमेव। मभित्ति गजेन्ड:"॥२॥ इति गाथार्थः। उक्तश्चतुर्थो नेदः। श्राव कथम?,"मोके नवे च सर्वत्र, निस्पृहो मुनिसत्तमः । प्रकृत्यभ्या४० द्वितीयं धनुभधनादिविषय, चतुर्थ तत्संपाचशमादि- सयोगेन, यत उक्कोजिनागमे"॥१॥ इति। तथापितु भावनायामपजोगविषयमिति लेदोऽनयोर्भावनीयः । शास्त्रान्तरे ( अावश्य रिणतं सत्त्वमङ्गीकृत्य व्यवहारत दमदुष्टमेव । अनेनैव प्रकारेण के) तु द्वितीयवतुर्थयोरेकत्वेन तृतीयत्वम, चतुर्य तत्रनिदानमु. तस्य चित्त शुद्धः, क्रियाप्रवृत्तियोगाश्चेत्यत्र बहु वक्तव्यम, तम तम। उक्तंच-"अमणुप्माण सहाणं" इत्यादि । स्था०४ ग०१३० नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः॥१२॥ अन्ये पुनरिदं गा. साम्प्रतामिदं यथाभूतस्य भवति यद्वर्धनं चेदमिति तदेतदन्नि- थाद्वयं चतुर्भेदमप्यातध्यानमधिकृत्य साधोः प्रतिषेधरूपतया धातुकाम आह व्याचकते. न च तदत्यन्तसुन्दरम, प्रथमतृतीयपक्कद्धये सम्यगाश Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) अट्ठज्माण अनिधानराजेन्द्रः। अट्टज्माणवेरग्ग काया एवानुपपत्तेरिति । आह-उक्तं भवता मार्तभ्यानसंसारख- त्यर्थः । तथा प्रार्थयते अभिलपति, परविभूतीरिति। तथा तासु नमिति, तत्कथमुच्यते !, बीजत्वात । रज्यते-तास्विति प्राप्तासु विनूतीषु रागं गच्छति, तथा तदर्जबीजत्वमेव दर्शयन्नाह नपरायणो भवति-तासां विनतीनामर्जन उपादाने परायण उरागो दोसो मोहो, जेणं संसारहेअवो जणिया। धुक्तस्तदर्जनपरायण इति । ततो यश्चैवनूतो भवत्यसावप्यात ध्यायतीति गाथार्थः॥१६॥ अट्टमि अ ते तिनि वि, तो तं संसारतरुबीअं ॥१३॥ किञ्चरागो हेषो मोहश्च येन कारणेन संसारहेतवः संसारकारणा. सदाविसयगिद्धो, सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो। नि भणिता सक्ताः, परममुनिभिरिति गम्यते । आत्त चातभ्यानेच प्रयोऽपि ते रागादयः संनवन्ति यत पवं, ततस्तत्संसारतरुर्वाज भ जिगमयमणविक्खंतो, बट्टइ अट्टम्मि काणम्मि ॥ १७ ॥ ववृककारणमित्यर्थः । श्राह-ययेवमोघत एवं संसारतरुबी शब्दादयश्च ते विषयाश्च शब्दादिविषयास्तेषु गृको मूतिः , जं ततश्च तिर्यग्गातिममिति किमर्थमनिधीयते । उच्यते-तिर्य कालवानित्यर्थः। तथा सद्धर्मपराङ्मुखः प्रमादपरः। तत्र दुर्गती गतिगमननिबन्धनत्वेनैव संसारतरुबीजमिति। अन्ये तु व्याच प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, संश्चासौ धर्मश्च सद्धर्मः, कते-तिर्यग्गतावेव प्रसूतसत्त्वसंजवास्थितिबहुत्वाच्च संसारो कान्त्यादिकश्चरणकरणधर्मो गृह्यते, तत्परामुखः। प्रमादपरो पचार इति गाथार्थः ॥१३॥ मद्यादिप्रमादासक्तः, जिनमतमनपेकमाणो वर्तते बातें ध्यान दानीमाभ्यायिनो लेश्याःप्रतिपाद्यन्ते इति।तत्र जिनास्तीर्थकरास्तेषां मतमागमरूपम्, प्रवचनमित्यर्थः। कावोअनीलकामा, असाओ पाइसंकिलिट्ठायो। तदनपेक्कमाणस्तनिरपेक्कइत्यर्थः किम्?, वर्तते, आतध्याने । इति गाथार्थः॥१७॥ अट्टज्माणोवगय-स्स कम्मपरिणामजणियाओ॥१४॥ साम्प्रतमिदमार्तध्यानसंजवमधिकृत्य यदनुगतं यदई च कापोतनीलकृष्णा बेश्याः किंजूताः?,नातिसंक्लिष्टारोऽध्यानले. वर्तते तदेतदभिधित्सुराहश्यापेक्षया नातीवाशुन्नानुभावाः, भवन्तीति क्रिया । कस्येत्यत तयविरयदेसविरय-पमायपरसंजयाणुगकाणं । श्राह-आतध्यानोपगतस्य, जन्तोरिति गम्यते । किनिबन्धना सव्वं पमायमूलं, वजेअव्वं जइजणेणं ।। १८ ॥ पता:, इत्यत आह-कर्मपरिणामजनिताःतत्र-"कृष्णादिषव्य तदातध्यानमिति योगः । अविरतदेशविरतप्रमादपरसंयतानसाचिव्यातू, परिणामो यात्मनः । स्फटिकस्येव तत्राय, ले गतमिति । तत्राविरता मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृयश्व, देशविरता श्याशब्दः प्रयुज्यते" ॥१॥ एताश्च कर्मोदयायचा ति गाथार्थः ॥ एकद्याद्यणुवतधरभेदाः धावकार, प्रमादपराः प्रमादनिष्ठाश्व, १४॥ आव०४०। पाह-कथं पुनरोघत एवार्त ध्यायन् कायत इत्युच्यते, लिङ्गे ते संयताश्च, ताननुगच्चतीति विग्रहः । नैवाप्रमत्तः संयताज्या; तान्येवोपदर्शयन्नाह नामिति भावः । इदं च स्वरूपतः सर्व प्रमादमूलं वर्तते, यत श्चैवमतो वर्जयितन्यं परित्यजनीयम् केन?, यतिजनेन साधुबोकेन, अदृस्स णं झाणस्स चत्तारि सक्खणा पन्नता। तं जहा उपलकणत्वात् श्रावकजनेन च । परित्यागार्हत्वादेवास्येति गाकंदणया, सोयणया, तिप्पणया, परिदेवणया। थार्थः ॥ १८ ॥ प्राव० ४ ० । ध० । प्रव० । ग०। हा० । लक्ष्यते निर्णीयते परोक्कमपि चित्तवृत्तिरूपत्वात् आर्तध्यानमे | अट्टज्माणवियप्प-आत्तेध्यानविकल्प-पुं० । अशुभध्यानभेदे, भिरिति बकणानि। तत्र क्रन्दनता-महता शब्देन विरवणम्, शो. "जो पत्थ अभिस्संगो, संतासंतेसु पावहे उ ति । अट्टज्माणचनता-दीनता, तेपनता-तिपःकरणार्थत्वादश्रुविमोचनम, परि वियप्पो, स इमीए संगो रुवं" ॥१॥ पं० १द्वा०। देवनता-पुनः पुनः विष्टभाषणमिति । एतानि चेष्टवियोगानिष्टसंयोगरोगवेदनाजनितशोकरूपस्येवार्तस्य सतणानि । अट्टज्माणवेरग्ग-आर्तध्यानवैराग्य-न । आध्यानं च तद् (स्था०४ ग०१ उ०) यताह वैराग्यम् । वैराग्यनेदे, हा० । तवकणम्तस्स कंदणसोअणपरिदेवणताडणाः सिंगाई। इष्टेतरवियोगादि-निमित्तं प्रायशो हि यत् । इटापिट्टविनोगा-विभोगविणानिमिचाई ॥१५॥ यथाशक्त्यपि हेयादा-वत्यादिवर्जितम् ।। तस्याभ्यायिनः, माक्रन्दनादीनि लिङ्गानि।तत्राक्रन्दनं महता नद्वेगकृद्विपादाव्य-यात्मघातादिकारणम् । छाम्देन विरवणम्, शोचनं त्वश्रुपारपूर्णनयनस्य दैन्यम्, परिदेव- आध्यानं ह्यदो मुख्यं, चैराग्यं लोकतो मतम् ।। ३ ।। नं पुनः२ क्लिष्टभाषणम, तामनमुर:शिरस्कुट्टनकेशलुचनादि, प्रतानि सिङ्गानि चिहानि, अमूनिच इष्टानिष्टवियोगावियोगवद पश्च प्रियः, इतरवानिष्टः,ऐतरौ विषयाविति गम्यते। तार्यनानिमित्तानि । तत्रेवियोगनिमित्तानि, तथाऽनिष्टावियोगान थासङ्खघेन यो वियोगादिविरहसंप्रयोगी, स निमित्तं कारणं यस्य तदिऐतरवियोगादिनिमित्तम, प्रायशो बाहुल्येन न पुनरिऐमित्तानि, वेदनानिमित्तानि चेति गाथार्थः॥१५॥ तरवियोगादिनिमित्तमेव, स्वविकल्पनिमितस्यापि तस्य संभकि चान्यतूनिंदा नि प्रयकयाई, पसंमई विम्हिो वात् । हिशब्दो यस्मादर्थे । तत्प्रयोगं च दर्शियिष्यामः । यविभो । दिति वैराग्यमद पतदातध्यानमेवेति संबन्धः । कुतस्तदातपत्थेइ तासु रज्जइ, तयज्जणपरायणो होई ॥ १६ ॥ ध्यानमेव न पुनर्यथावराग्यामित्याह-यस्माद्यथाशक्यप निन्दति च कुत्सति च निजकृतानि श्रात्मकृतानि अल्पफ़लधि- सामर्थ्यानुरूपमप्यास्तां श्रकाऽतिशयाच्चत्ततिक्रमतः हेयादी फलानि, कर्मशिल्पकलावाणिज्यादीन्येताम्यते । तथा प्रशंसति | हेयोपादेयवस्तुविषये क्रमेणाप्रवन्यादिवाजत निवतन स्तौति बहु मन्यते सविस्मयः साश्चर्यः विनूतीः परसंपद - यत्किल यथावद्वैराग्यं भवति तहीन्द्रियार्थपूपादे गेषु च तपोध्या Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) अट्टज्माणवेरग्ग अभिधानराजेन्द्रः। अदुहवसह मादिषु यथाशक्ति निवृत्तिप्रवृत्तियुक्तं भवति, तत्स्वरूपत्वात्। यिनीमतत्रविमुक्तयुरूव्यापारःस्वगृहे तिष्ठति स्म परं जराक्रान्त इदं तु तद्वर्जितं यस्मात तस्मादासध्यानमेवेति भावः। तथा उद्वेगं | इति न कस्मैचित कार्याव कम इति स्वजनः पराजूयते स्म।अन्यदा मनःस्वास्थ्यचखनं करोतीति उद्वेगकृत, तथा विषादो दैन्यं, तेना- स्वजनापमानं दृष्टा ताननापृच्छचैव कौशाम्बी नगरींगतः। तत्र वर्षऽयं परिपूर्ण विषादात्यम्, अनेन मनोदुःखहेतुताऽस्योक्ता ।। मेकं यावद्रमायनं भक्तिवान्।ततोऽत्यन्तबनवान् जातः। उज्जयिअथ शारीरपुःखहेतुतामस्यैवाह--आत्मेह रूढितः स्वशरीरम, न्यां राजपर्षदि मल्लमहे प्रवर्त्तमाने पुनर्नवागतयौवनेन अट्टनमल्लेन तस्य घातादि हिंसनताडनादि, तस्य कारणं हेतुरात्मघातादि- समागत्य राज्ञो नीरङ्गणनामा महामल्लो जिताराका तुमदीयोऽयं कारणम,आर्तध्यानम्। हिशब्दस्यैवकारार्थत्वादातध्यानमेव श्रद भागन्तुकेनानेन जित इतिकृत्वान प्रशसितः। लोकोऽपि राजप्र. इति संबन्धितमेव । किंभूतमित्याह-मुखे जवं मुख्य प्रधानम, नि- शंसामन्तरण मौमनाक जातः। अट्टनस्तु स्वखरूपकापनाय सभारुपचरितमित्यर्थः । ननु यद्यार्तध्यानमतत्तदा कस्माद्वैराग्यतयो- पक्विणः प्रत्याह-नोजोः पक्षिण,भूत-अट्टनेन नीरतणो जितः। तमित्याह-वैराग्यमुक्तनिर्वचनं लोकती, लोकं पृथग्जनमाश्रित्य । ततो राजा उपलवितामदीय एवायमट्टनम इतिकत्वा सत्कृतः। सबूढयेत्यों न पुनस्तस्यतो मतं समतं तत्त्वविषामिति ।। बहु द्रव्यं चासै राका दत्तम् । स्वजनस्तं तथाभूतं श्रुत्वा सम्मुहा० १० अष्ट। समागत्य मिशितः। सत्कारादि चकार । अट्टनेन चिन्तितम-द्रभट्टकाणोकगय-प्राध्यानोपगत-त्रिका अपगतसद्विवेकतया व्यसोभादेते मम साम्प्रतं सत्कारं कुर्वन्ति, पश्चाग्निव्यं मामपधर्मध्यानदुवर्तिनि आर्सध्यानध्यायिनि, " अहज्जाणोवगए, नू. मानयिष्यन्ति, जरापरिगतस्य मे न कश्चित् त्राणाय भविष्यति, यावदहं सावधानबमोऽस्मि तावत्प्रवजामीति विचार्य गुरोः मिगयदिहिए कियाई" सूत्र २ श्रु०२०। समीपेऽट्टनेन दीका गृहीतेति । “जरोवणीअस्स हुनस्थि अट्टहास-अट्टहास-पुं०। उचहसनरूपे हासविशेषे, उपा०२ ताणं" उत्त०४०। आ० चू०। प्राव १०। जीमं अट्टहासं मुयंतो श्रीहावे" प्रामाद्वि० श्राव। अटन-10 । गमने, ध० ३ अधिo | व्यायामे, मौ०। अटो-देशी-याते, दे ना.१ वर्ग। अट्टणसाला-अहनशाला-स्त्री०व्यायामशासायाम, का० । अट्टण-अट्टन-०। अट्यते परिजूयते रिपुरनेन । प्रह-करणे तद्वर्णकाल्युट । चक्राकारफलकास्ने, जावे ख्युर । अनादरे, न० । वाच । जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्चइ, उबागच्छश्त्ता स्वनामख्याते मछे, पुं०। उत्त०४० तत्कथा चैवम्-उज्जयिन्यां जित शत्रुनृपस्य अट्टनमडो वर्तते स्मासच प्रतिवर्ष सोपारके गत्वा अट्टणसालं अणुप्पविसति, अणेगवायामजोगवग्गणवामहसिंहगिरे राज्ञः सभायां मल्लान् विजित्य जयपताका लाति स्म। णमवयुचकरणेहिं संते परिसते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंअन्यदा राक्षा एवं चिन्तितम----परदेशीयोऽयमट्टनमलो मत्स धवरतेल्लमाईएहिं पीयणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं छप्पणिज्जेहिं नायां जित्वा बहुव्यं प्राप्नोति,मदीयः कोऽपि महान जयति, माणिज्जेहिं विहणिज्जेहिं सबिदियगायपन्हायणिज्जेहिं नैतरम, पवं हि ममैव महत्त्वतिर्जायते। इति मत्वा कश्चिदलवन्तं मस्स्यानरं दृष्ट्वा स्वमद्धं चकार । तस्य त्वरितमेव मल्लविद्या अभिगेहिं अभिगिए समाणे तेलचम्मंसि पमिपुमापाणिसमायाता । मत्स्थी मनु' इति नाम तस्य कृतम् । अन्यदा पायसुकुमालकोमलतलहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पठेहिंय अट्टनमः सोपारके समायातस्तेन समं राहा मत्स्यीमवस्य कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं निनणसिप्पोवगतेहिं जियपयुद्धं कारितम, जितो मत्स्यीमन्तः । अट्टनः पराजितः स्वनगरे रिस्समेहिं अभिगणपरिमाणुञ्चन्नहुकरणगुणनिम्माएहिं भ गत एवं चिन्तयति स्म-मत्स्यीमल्लस्य तारुण्येन बलवृद्धिः, मम तु वार्द्धक्येन बलहानिः, ततोऽन्यं स्वपक्कपातिनं मलं करोमि।ततो हिसुहाए मंसमुहाए तयासुहाए रोममुहाए चनबिहाए ऽसौ बलवन्तं पुरुषं विलोकयन् जगुकच्छदेशे समागतः । तत्र संवाहणाए संचाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिंदे अट्टहरिणीग्रामे एकः कर्षक एकेन करेण हलं वाहयन् द्वितीयेन फ- णमालातो पमिनिक्खमेति।ज्ञा०१ अ० प्रा० चूगो महीमुत्पादयन् दृष्टः। स नोजनाय स्वस्थानके साईनीतः। त अणियट्टियचित्त-प्रार्तनिवर्तितचित्त-त्रि० । आर्त निवर्तितं स्य बहु भोजनं दृष्टम् । उत्सर्गसमये च सुदृढमल्पं पुरीषं दृष्ट्वा मव चितं यैस्त वार्तनिवर्सित्तचित्ताप्रार्ताद्वानिवर्तितं चित्तं यैस्ते विद्या प्राहिता। फ्लहीमल्ल' इति तस्य नाम कृतम्। अनः सो| मार्तनिवर्तितचित्ताः। क्लिष्टाध्यवसायिषु, औ०। "मणियट्टिपारके फलहीमवं गृहीत्वा गतः राज्ञा मत्स्यीमल्लेन समं फल यचित्ता, जह जीवा पुखसागरमुवेति" भ. श०१०। होमवस्य युद्ध कारितम् । प्रथमे दिवसे इयोः समतैब जाता । प्रातनिरर्दितचित्त-त्रि० । निष्परिणामे, मातेन नितरामर्दिअट्टनेन सोपारके फाहीमद्धः पृष्टः-पुत्र! तवाङ्गे क प्रहारासग्ना? तेन स्वाङ्गप्रहारस्थानानि दर्शितानि । अट्टनेनौषधिरसेन | तमनुगतं चित्तं येषां ते तथा । औः। तानि स्थानानि तथा मर्दितानि यथाऽसौ पुनर्नवीभूतः। मत्स्यी- अट्टतर-मार्ततर-न० । अतिशयिते प्राध्याने, “ पज्जिज्जम हस्यापि राझा पृष्टम्-क्व तवाले प्रहारा लग्नास्तथा तान द- माणाऽमृतरं रसंति" सूत्र.१ श्रु० ५ ० १ उ०। शय?, फहीमबः पुनर्नवीनूतः श्रूयते । मत्स्थीमल्लोऽभिमानात् | अट्टहट्ट-आदर्घट-त्रि०। ६तः । आर्तनाम्नो भ्यानविशेषस्य स्वस्थाने न दर्शयति स्म, वक्ति स्म च-श्रहं पुनर्नवीभूतः फलही. पितरं जयामि । द्वितीयदिवसे पुनयुद्धासरे द्वयोरपि साम्यमेव मुस्थग, उपा०२०। जातम् । तृतीयदिवसे मत्स्यीमल्लो जितः फलहीमल्लेन । प्र वार्तपुःखार्त-त्रि०।३० । पातेन पुःखपीडिते, उपा०२ हनेन स्वपराजयः स्मारितः। ततो मत्स्यीमल्सेनान्याययुद्धाचर । प्रार्तश्चासौ दुःखातः । मनसा देहेन च दुःखिते, विशे। गेज फहीमल्लस्य मस्तकं विनम्। खिन्नोऽनमल्सो गत उज्ज- अहदहवसट्ट-पातेदुघेटवशाते-त्रि० । पार्सस्य ध्यानविशेष Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) अट्ठदुहट्टवसट्ट अभिधानराजेन्द्रः। अटुंगणिमित्त षस्य यो ऽघंटो दुःस्थगो दुनिरोधो वशः पारतन्यं, तेनातःपी- नाविप्रयोजने, " अटुं वा हे वा समणस्सल विरहिए कहेमो" डित आतपुर्घटवशातः । असमाधिप्राप्ते, ज्ञा० अ०। व्य०२०। धर्मविषयेऽर्थित्वे, उत्त० ३ ०। कायें, स्था०५ प्रति दुःखार्तवशात-त्रि० । आर्तेन दुःखार्स पार्सदुःखार्तस्त- मा०२ उ० । मोके, तत्कारणनूते संयमे च ।" अ परिहायती था वशेन च विषयपारतन्त्र्येण भृतः परिगतो .वशातः । बहु, अहिगरणं न करेज पंमिए' सूत्र०१ श्रु०अ० १७० । निवृत्ती, ततः कर्मधारयः । क्लिष्टाध्यवसायेन विषययन्त्रणया च झा०१०। सूत्राभिधेये, प्राकृतत्वाद् नपुंसकत्वमप्यर्थशब्दस्या दुखिते, उपा० २० । श्राों मनसा खितः, दुःखातों पा० अनिधेये (वाच्ये), सूत्र०१ श्रु०६० स्था० । वस्तुनि, देहेन, वशार्तस्तु इन्द्रियवशेन पीमितः । ततः कर्मधारयः। " से नूणं कामदेवा अठे समठे हंता! अट्टि" अस्त्येषोऽर्थ इत्यविपा०१७०१० । मनसा, देहेनन्छियवशेन च पीमिते, र्थः । अथवा मयोदितं वस्तु समर्थः संगतः। उपा० २ ० । "जहा णं तुणं अट्टदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरो "विहे अ पन्नत्ते । तं जहा-संसयअछे, बुग्गहअद्वे, अणुजोगी, विरजा" उपा०२०। प्राणुसोमे, तहणाणे, अतहणाणे" स्था०६ वा(टीकाऽस्य प?' अट्टदुहट्टियचित्त-भातदुःखादितचित्त-- त्रिआर्तेन पुःखार्दि शब्दे कष्टब्या) अर्थ्यते गम्यत इत्यर्थः । अारोणादिकः थन् । तं चित्तं येषां ते तथा।जिष्टाध्यवसायतोऽखितमनस्केषु,औ०। हेये उपादेये वा वस्तुनि, उन्नयस्याप्यर्थ्यमानत्वात् । उत्स० १ अट्टहहोवगय-आर्तदुर्घटोपगत-त्रि०। पार्तमार्तध्यानं, दुर्घटं अ० प्रा०यू० । नि। विषयनोगादिके, प्राचा० १ श्रु० ३ दुःस्थगनीयं दुर्वाय॑मित्यर्थः, उपगतः प्राप्तो यः स तथा । अ०३ उ०। सूत्र०। (अध्वरूपतामप्राप्तस्यार्थशब्दस्य अर्था 'अदुर्निवासिध्यानवति, विपा० १ श्रु०२०। त्थ' शब्दे वक्ष्यन्ते) अष्टन-त्रि०प० व० । अग्-व्याप्ती कनिन्, तुद च । सस्याअट्टमश्य-आर्तमतिक- पार्सपार्सम्याने मतिर्येषां ते पार्स भेदे, तत्संख्यान्विते च । वाच० । प्रज्ञा० । . मतिकाः । आत्तभ्यानोपयुक्ते, पातु। अटुंग-अष्टान-त्रि०ाअष्टावङ्गानि यस्य तदष्टाङ्गम् । यमनियमाअवस-आर्तवश-पुंगार्सध्यानवश्यतायाम्, झा०१श्रु०१०। दावशङ्गयोगे, वाच। अवसदृह-प्रार्तवशातदुःखात-त्रिकामार्तवशमार्तध्यान अटुंगणिमित्त-अष्टाङ्गनिमित्त-न । भौमम १, उत्पातम् २, वश्यतामृतो गतो, मुखार्तश्च यः स तथा । आर्तध्यानषिवशी. जूतदुःखिते, “ अवसट्टहट्टे काले मासे कालं किच्चा" स्वामः ३, आन्तरिकम ४, प्राङ्गं ५, स्वरं ६, लक्षणं ७, ध्यानम् 0; श्त्येवं नयमपूर्वतृतीयाचारवस्तुनिर्गते सुखःखादिसूचके झा० १६०१०। । निमित्ते, सूत्र। अट्टवसट्टोवगय-आवशालॊपगत-त्रिकामार्तवशारीश्वसनपगतश्चेति समासः । आर्तध्यानसामयेनार्ते, श्रा। संवच्छरं सुविणं लक्खणं च, अस्सर-आर्तस्वर-त्रि०। सुखेन शब्दायमाने,“ अस्सरे ते निमित्त देहं च उपाश्यं च । कमुणं रसते" सूत्र.१ श्रु० ५ ० १ उ०। अटुंगमेयं बहवे आहत्ता, अट्टहास-अट्टहास-पुं० । अट्टनातिशयेन हासः। ३ त। हस लोगसि जाणंति अणागताई ॥ ए॥ घञ् । उनहासे, वाच० " अट्टहासन्नीसणो" आव० ४ सांवत्सरमिति ज्योतिषम्, स्वप्नप्रतिपादको ग्रन्थः स्वप्नः, तमअट्टालग-अट्टालक-पुंन । अट्ट श्व प्रासादगृहमिव अलति धीत्य । लक्षणं श्रीवत्सादिकम् । चशब्दादान्तरबायभेदनिपर्याप्तो प्रवात । अल-अच् । वाचा प्राकारोपरिवाश्रयत्रि- नम् । निमित्तं वाक्प्रशस्तशकुनादिकम् देहे भवं देहम, मषकशेष, प्रश्न.१आश्र द्वा० । जं0 । सः। जी० । ज्ञा० । नि० तिनकादि । उत्पात नवमौत्पातिकमुल्कापातदिन्दाहनिर्घातभूचून प्रज्ञा प्राचा० । रा० । अनु०।प्राकारकोष्ठकोप- मिकम्पादिकम् । तथाऽष्टाङ्गं च निमित्तमधीस्य । तद्यथा-जौमरिवर्तिनि मन्दिरे, “पागारं कारवित्ता ण, गोपुरट्टालगाणि य" मुत्पातमान्तरिकमाझं स्वर लक्कणं व्यञ्जनमित्यरूपम् । नवमपू तृतीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखःखजीवितमरणलानाऽलाभाउस०६० दिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेऽस्मिन्नतीतानि वस्तूनि अनाअहि-आर्ति-स्त्री०। शरीरमानस्यां पीमायाम, प्राचा०१ श्रु०१ गतानि च जानन्ति परिच्चिदन्ति । न च शून्यादिवादेष्वेतद् घअ०५ उ० । यातनायाम, ध० २ अधिक। टते, तस्मादप्रमाणिकमेव तैरभिधीयत इति । एवं व्याख्याते अट्टियचित्त-श्रार्तितचित्त-त्रि०। आर्तिना श्राद् वा ध्यान- सति प्राह परः-ननु व्यनिचार्यपि श्रुतमुपलभ्यते । तथाहिविशेषादाकुत्रं चित्तं येषां ते आर्तितचित्ताः । शोकादिपीमिते, चतुर्दशपूर्नविदामपि षट्स्थानपतितत्वमागमे घुष्यते, किं "अट्टा अट्टियचिना" उपा०२०। .. पुनरष्टाङ्गनिमित्तशास्त्रविदाम् । अत्र चाङ्गवर्जितानां निमित्तशा खाणामानुएजेनच्छन्दसा त्रयोदशशतानि सूत्रम, तावन्त्येव सहअट्ट-अर्थ-पुं० । भावकर्मादौ यथायथमच । “स्त्यानचतुर्थार्थे स्राणि वृत्तिः, तावत्पमाणलकणा परिजाषेति । अङ्गस्य त्रवा" =1२१२३ । इति संयुक्तस्य वा प्रा० । प्रयोजने, योदशसहस्त्राणि सूत्रम, तत्परिमाणलक्वणा वृत्तिः, अपरिमित निचू०१४० कल्प० । सूत्रः। उत्त०। प्राचाo/ स्था०। का वार्तिकमिति ॥ आव।" अम्हं अपणो अट्राई वेश्याई नवंति" प्राचा तदेवमष्टाङ्गनिमित्तदिनामपि परस्परतः षट्स्थानपतितत्वेन श्रु०२०१०। प्रयोजन एव, यदा तु धनमुच्यते तदा । व्यनिचारित्वमत दमाह-- वो न स्यात् । अत्थो धनम् । आये तु जवति-" अहा वयं न केई निमित्ता तहिया नवंति, सिक्खिज्जा, वेहाश्यं च णो वए"स्यत्र अर्थ्यत इत्यों धनधान्यहिरण्यादिक प्रति व्याख्यानात् । सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ० केसि च तं विप्पमिएति गाणं । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणिमित्त 46 तेजमाया, सुविज्जापरिमोक्खमेव ॥ १० ॥ बान्दसत्वात्प्राकृत शैल्या वा सिङ्गव्यत्ययः । कानिचिनिमित्तानि तथ्यानि सत्यानि जयन्ति । केषांचित्तु निमित्तानां निमित्त वेदिनां वा वैकल्यात्तथाविधक्कयोपशमाभावेन तन्निमित्तज्ञानं पर्यात्ययमेनतानामपि निमिराम्यभिचारा स मुपलभ्यते, किं पुनस्तीर्थिकानाम है तदेवं निमित्तशाखस्य व्यभिज्यते । अक्रियावादिनो विद्यासायमानाः सन्तो निमित्तं तथा वान्यथा च भवतीति मत्वा, ते ( हंसु विज्ञापरिमोक्खमेव ) विद्यायाः श्रुतस्य व्यभिचारेण तस्य परिमोकं परित्यागमाद्दुरुक्तवन्तः । यदि वा क्रियाया विद्यया ज्ञानेनैव मोक्कं सर्वकर्मच्युतिलकणमाहुरिति । कच्चिच्चर मपादस्यैवं पाठ: जागसि वयांत मंसि" विद्यामनी स्वयमेव प्रोफमस्मिन्ना ओ माया स्वयं जानीमः एवं मन्दा जडान निमित्तस्य तथ्यता तथाहि कस्यचिक चित्कुतेऽपि गच्छतः कार्यसिमिदर्शनात्, कचित् शकुन सद्भावेऽपि कार्यविघातदर्शनात्, अतो निमित्त बलेना देशविधायिनां मृषावाद एव केवलमिति नैतदस्ति नहि सम्यगीतस्य धृतस्यायें विसंवादोऽस्ति यदपि पदस्थानपतितत्वमुच्यते तदपि पुरु पापमपशेन न च प्रमाणाभासम्यभिचारे सम्यक प्रमाणयभिचारा यज्यते । तथाहि--मरमरीचिकानिचये जनप्रादि प्रत्यक्षं व्यभिचरतीति कृत्वा किं सत्यजलग्राहिगोऽपि प्रत्यक्षस्य व्यभिचारी युक्तिसंगतो भवति । न हि मश कवत्तिरग्निसिकावुपदिश्यमानाव्यभिचारिणीति सत्यधूमस्यापि व्यभिचारः । न हि सुविवेचितं कार्यकारणं व्यभिचरतीति । ततश्च प्रमातुरयमपराधो न प्रमाणस्येव सुविचितं निमि मनिव्यभिचरतीति । यथ कुतेऽपि कार्यसिद्धिदर्शन शङ्कते सोऽनुपपन्नः। तयादि कार्या कार्यः सायरशोधननिमित बलात्संजातेत्येवमवगन्तव्यम् । शोभननिमित्त प्रस्थितस्यापीतरनिमितबलात्कार्यव्याघात इति । तथा च श्रुतिः--किल बुरू: स्वशिष्यनादृयोक्तवान् यथा-द्वादशवार्षिकमनि भविष्यतीत्यत देशान्तराणि गच्छत यूयम् । ते तद्वचनाच्छन्तस्तेनैव प्रतिषिद्धा: । यथा मा गच्छत यूयमिहाद्यैव पुण्यवान् महासत्त्वः संजातस्तत्प्रनावासुकिं भविष्यति। न तदेवमन्तरापरनिमित्तसद्भा तयभिचाराशङ्केति स्थितम् ॥ १० ॥ सूत्र० १० १२० पनि अनिमित्तंगाई, दिप्पातं लिख भीमं च । अंगं सरलवण वं-जणं च तिविदं पुणे के कं" ॥१॥ भ०११ २०११४० अगतिक्षय-अष्टाङ्गतिलक-पुं० । अष्टस्वङ्गेषु पुरेषु, न० ११ (२५०) अभिधानराजेन्द्रः । श० ११ उ० । गमहाणिमित्त अष्टाङ्गमहानिमित्त न० अष्टाङ्गानि यत्र, एवंविधं यदू महानिमित्तं शास्त्रम् । श्रङ्गस्वप्रेत्याद्यष्टावयवे नाविदा स्वप्नादिफलव्युत्पाद के प्रत्येक इंगमहाणि मित्तसुत्तत्यधारय- अष्टाङ्गमहानिमित्तसूत्रार्थधा - रक - त्रि० । श्रष्टाङ्गमष्टावयवं यन्महानिर्मितं परोकार्थप्रतिपत्तिका रणयुत्पादकं महाशास्त्रम् तस्य श्री सुभार्थी ती धारयन्ति ये ते तथा अर्थाताष्टभेदमहानिमित्त शास्त्रसूत्राभिधेये ० १ अ०म० । 3 गुणोववेय अहंगिया - अष्टाङ्गिकी - श्री अष्टभिरङ्गैर्निर्वृत्तायाम, "प्रवृतिरष्टाङ्गिकी तस्खे” बो० १६ विष० । अटुकप्रिय अष्टकार्मिक त्रि० । ब० स० । अष्टकोणविभाग, स्था० ० ठा० । श्रकम्मगंठी विमोयग-अष्टकर्मग्रन्थिविमोचक - त्रि० । अएकमरूपो यो ग्रन्थिस्तस्य विमोचकः । ज्ञानावरणीयादिकर्मणां कपके, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वा० । कम्मर्तपणबंध अष्टकर्मतन्तुपनबन्धन १०३.४० अकर्म कणैस्तन्तुभिर्घने बन्धने, “वेढंता कोसिकारकीडो व्व अप्पगं अट्टकम्मतंतुबंधणेणं” प्रश्न० ३ आश्र० द्वा० । अट्टकम्मसुमरणतव - अष्टकर्मसूदनतपस् न० । अष्टानां कर्मणां ज्ञानावरणादीनां सूदनं विनाशनं यस्मातदृष्टकर्मसूदनं तपः । तपोभेदे, प्रव० २७१ द्वा० | पंचा० । अडकर-अर्थकर यांन हिताहितमा सिपरिहारा राजादीनां दिग्यात्रादी तयोपदेशतः करोतीति अर्थकः । मन्त्रिण, नैमित्तिके च । स्था०४ ० ३ ० । अट्टग-अक- न० अटी परिमाणमस्य प्रत्येकमभ्यायात्मके ग्वेदांशनेदे, पाणिनरष्टाध्यायीसूत्रे व । वाच० अष्टपद्यात्मके प्रकर घटिते ग्रन्थ च यथा द मष्टकम्, तस्य जिनेश्वराचार्यकृता तच्छिष्य श्रीमद भयदेवसूरिप्रतिसंस्कृता वृतिःकानि तेषु प्रथमं महादेवाष्टकम्, द्वितीयं स्नानाष्टकम, तृतीयं पूजाष्टकम्, चतुर्थमग्निकारिकाष्टकम्, पञ्चमं भिक्षाष्टकम, षष्ठं पिएम विशुद्यष्टकम, सप्तमं भोजनाष्टकम्, अष्टमं प्रत्याख्यानाष्टकम्, नवमं ज्ञानाष्टकम्, दशमं वैरात्म्याष्टकम एकाद पोद्वाद बादामयोदशं धर्माष्टकम चतुर्दशं द्रव्यातिकाटकम, प याष्टकम्, श्रोमशमनेकान्तवादाष्टकम्, सप्तदशं मांसभक्षणाष्टकम, अष्टादशं मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, एकोनविंशं मद्याष्टकम, विशतितमैथुनाएकम, एकवि सूक्ष्ममा मा कम्, त्रयोविंशं शासनमालिन्याष्टकम्, चतुर्विशं पुण्यापुण्यविचाराष्टकम, पञ्चविंश मौचित्यप्रवृत्यष्टकम, षक्शिं तीर्थकरदानाष्टकम, सप्तविंशं तीर्थकृतां महादानयुक्तत्वाष्टकम, भ टाविंशं सीतां राज्याष्टकम, एकोनत्रिंशं सामायिका कम त्रिंशकर्म केलाएकीकृतां धर्मदेशनामात्रिंशं सिकाष्टकम्, अन्ते च "अष्टकाख्यं प्रकरणं, कृत्वा यत्पुष्यमर्जितम् । विरहातेन पापस्य भवन्तु सुखिनो जनाः " ॥ १ ॥ हा० । यथा वा श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायेन ज्ञानसाराख्यो द्वाविशदकप्रमाणो प्रन्थो विरचितः तस्य देवचन्द्रगणि ना ज्ञानमञ्जरी नाम टीका कृता, तस्य च द्वात्रिंशतोऽष्टकानां नामाभिधेयतवान् दर्शिती" पूर्णो मम्मः स्थिरो मोहा, ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो, निर्लेपो निस्मृतो मुनिः ॥ १ ॥ विद्यानिधेको मध्यस्थो भयवर्जितः । अनात्मशंसकस्तस्व-- दृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकाना - मुद्विम्नो प्रववारिधेः । लोकसंज्ञा विनिर्मुक्तः, शास्त्रह निष्परिग्रहः ॥ ३ ॥ ” अष्ट० ३२ अष्ट० | अगुणावत्रेय अगुणोपयेत १० - - निर्गुरुपपेतमणोपेतम् । पूर्णादिगुणाएते ज्ञेये । ते बारावी गुणाःपूर्ण मतं व्यकम चिपुरं मधुरं समं सखितं । तथा Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) अट्ठगुणोववेय अन्निधानराजेन्डः। अटूजाय चोक्तम्-“पुग्मं रत्तं च अल-कियं च वत्तं तहेव अविपुटुं। महु- वकः पुरुष आलपितः संभाषितः । श्रालप्य च स्वगृहमानीरं समं समलियं, अगुणा होति गेयस्स" ॥१॥ जी० ३ प्रति० । तः। सा अर्थजाता सती तं पुरुषमतिरागेणाऽतिरागवशाअहचकवानपइहाण-अष्टचक्रवाल प्रतिष्ठान--त्रि० । अष्टचक्र- त्प्रणयते प्रसादयति । अन्यदा सा गणिका रूपिणी अतिशयेन प्रतिष्ठिते, " पगमेगणं महाणिही अठचक्कवासपश्ाणे अज रूपवतीति कृत्वा राज्ञा स्कन्धाचारेण कटकेन गच्छता प्रात्मना अह जोप्रणा उहं उच्चत्तणं" जी० ३ प्रतिः। सहानीता । स्तरोऽपि च सेवकपुरुषस्तया गणिकया वियुक्तो अट्ठजाय-यष्टजात-न०। जातशब्दो भेदवाचकः अर्थभेदे, नि० पुःखार्तः । प्रियाविप्रयोगपीमितो निष्क्रान्तस्तथारूपाणामन्तिके चू०१०। धनार्थिनि, प.१०। प्रवज्यां प्रतिपन्नः । सा च वेश्या राज्ञा सह प्रत्यागता तं पुरुषं सूत्रम् न पश्यति स्म, गवेषयितुमारब्धः। ततः कस्यापि पार्वे निष्क्रान्त अट्ठजायं जिक्तुं गिसायमाणं नो कप्पा । तस्स गणाच ध्रुत्वा यत्र स तिष्ठति स्म, तस्यां वसतो गत्वा तान् स्थविरान् व्रते-बहुकं प्रभूतं मम तुजव्यमनेनोपयुक्तमात्मोपयोग नीतम्, - च्छेदयस्स निहित्तए अगिलाए करणिज्ज वेयावाडेय नमित्यर्थः। तद्यदि दीयते ततो विसृजामि ॥ जाव रोगातकातो विप्पमुके, बतो पच्छा अहा लहुस्सगे एवमुक्ते यत् कर्तव्यं स्थविरैस्तदाहनाम ववहारे पट्टवियव्व सिया ॥ सरजेयवस्मन्नेयं, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि। साम्प्रतमर्थजातं भिचुं ग्लायन्तमित्यत्र योऽर्थजातशब्दस्त- वरधामयवेस पुस्स-भूती कुसस्रो सुहुमे य झाणाम्मि ।। त्पत्तिप्रतिपादनार्थमाह गुटिकाप्रयोगतस्तस्य स्वरभेदं वर्णभेदं वा स्थविराः कुर्वन्ति, अत्येण जस्स कज्ज, संजातं एस अट्ठजातो य। यथा सा तं न प्रत्यनिजानाति, यदि वा सामान्तरादिपणेनासो पुण संजमभावा, चालिज्जतो परिगिलाई ।। न्तर्कानं व्यवधानं क्रियते । अथवा तथाविधौषधप्रयोगतो विरेअर्थेनार्थितया जातं कार्य यस्य । संबन्धविवक्षायामत्र षष्ठी, चन कार्यते येन स ग्लान इव अक्ष्यते, कृच्छ्रेणैष जीवतीति कायेनेत्यर्थः । सोऽर्थजातः । गमकत्वादेवमपि समासः । उपल त्वा सा तं मुश्चति । अथवा शक्तौ सत्यां यथा ब्रह्मदत्तहिण्ड्यां क्षणमेतत् । तेनैवमपि व्युत्पत्तिरवसातव्या-अर्थः प्रयोजनं धनुःपुत्रेण वरधनुना मृतकवेषः कृतस्तथैव निश्चलो निरुच्चासः जातोऽस्येत्यर्थजातः। पक्षद्वयेऽपि तान्तस्य परनिपातः, सु सदममुच्चसन् तिष्ठति, येन मृत इति ज्ञात्वा तया विसृज्यते । खादिगणे दर्शनात् । स पुनः कथं ग्लायतीति चेदत आह-स यदि वा पुष्पनूतिराचार्यः सूदमे ध्याने कुशल:सन् ध्यानवशाद पुनः प्रथमतः प्रथमव्युत्पत्तिसूचितः संयमभावाद चाल्यमानः निश्चलो निरुच्यासोऽप्यतिष्टत् तथा तेनापि सदमध्यानकुशलेन निष्कास्यमानः परिग्लायति । द्वितीयव्युत्पत्तिपक्षे प्रयोजना तथा स्थातव्यं येन सा मृत इत्यवगम्य विमुश्चति । निष्पत्त्या ग्लायति, तस्योभयस्यापि अगिलया प्रागुक्तस्वरूपया एषां प्रयोगाणामभावेवक्ष्यमाणं वैयावृत्यं करणीयम, यावद् रोगातकादिव रोगात. अणुसिटि उच्चरती, गति णं मित्तणायगादीहिं । कात् संयमभावचलनात् प्रयोजनानिष्पादनाच्च विप्रयुक्तः एवं पि अहजायं, करेंति मुत्तम्मि जं वुत्तं ।। स्यात् । ततः पश्चाद्यत्किमप्याचरितं भीषणादि, तद्विषये यथा तस्या गणिकाया यानिमित्राणि,येच ज्ञातयः, श्रादिशब्दात्तदलघुस्वको व्यवहारः प्रस्थापितः स्यादिति । न्यतथाविधपरिग्रहः। तैः स्थविरास्तां गमयन्ति बोधयन्ति, येनासम्प्रति नियुक्तिकृत् येषु संयमस्थितस्याप्यर्थजातमुत्पाद्यते, नुशिष्टिमुच्चरति, मुत्कलनं करोतीति भावः । एवमपि अतिष्ठतान्यभिधित्सुराह त्यां तस्यां यदुक्तं सूत्रे तत्कुर्वन्ति, “स मोचयितव्यः " सेवगपुरिसो श्रोमे, श्रावन अणत्त बोहिगे तेणे । । इति सूत्रे मोचनस्याभिधानात् । तथा चोक्तम्-"ताहे सो मोएएहि अट्ठजातं, उप्पज्जइ संजमठियरस ।। क्खेयब्यो एवं सुत्ते भणियं" इति । गतं सेवकपुरुषघारम । सेवकपुरुषे सेवकपुरुषविषये, एवमत्रमे दुर्भिते, तथाऽऽपन्ने अधुनाऽवमद्वारमाहदार बं समापन्ने, तथा विदेशान्तरगमने उत्तमर्णेनानाप्ते, तथा मुकुटुंबो निकवतो, अव्वत्तं दारगं तु निविस्वविओ। बोधिकैरपहरणे, स्तेनैरपहरणे च । बोधिकाः-अनार्यम्लेच्छाः , मित्तस्स घरे सो वि य, कालगतो तोऽवमं जायं । स्तेना आर्यजनपदजाता अपि शरीरापहारिणः । एतैः कारण तत्य प्रणादिजतो, तस्स उ पुहि सो तो चेमो। रर्थजातं प्रयोजनजातमुत्पद्यते, संयमस्थितस्यापीति । एष नि. युक्तिगाथासंकेपार्थः॥ घोलतो आवमो, दासत्तं तस्स आगमणं ।। साम्प्रतमेनामेव विधरीतुकामः प्रथममाह मथुरायां किस नगर्या कोऽपि वणिक अव्यक्तं बालं,दारकं पुत्रं, अपरिग्गहगणियाए, सेवगपुरिसो उ कोइ पालत्तो। मित्रस्य गृहे निक्तिप्य सकुटुम्बो निष्क्रान्तः, सोऽपि च मित्रनूसा तं अतिरागेणं, पणयए दु अजाया य॥ तः पुरुषः कालं गतः। (तो त्ति) तस्मासस्य कालगमनादनन्त रमवमं दुर्तिकं जातम् । तत्रच दुर्भिके तस्य मित्रस्य पुत्रः सचसा रूविणि त्ति काऊं, रमाऽऽणीया न खंधवारेण । मोऽनाजियमाणोऽन्यत्रान्यत्र घोलति परिभ्रमति, सच तथा इयरो तीए विनतो, दुक्खत्तो चेय निक्खंतो॥ परिचमन् कस्यापि गृहे दासत्वमापन्नः। तस्य च पितयथातिपञ्चागय तं सोउं, निक्खंतं वेइ गंतु ण तहियं । हारक्रम विहरतस्तस्पामेव मथुरायामागमन जातम् । तेन च वयं मे नवनुत्तं, जइ दिज्जइ तो विसज्जामि ।। सर्व तज्ज्ञातम्। न विद्यते परिग्रहः कस्यापि यस्याः साऽपरिग्रहा, सा चा सम्प्रति तन्मोनने विधिमन्निधित्सुराहसो गरिसका च अपरिग्रहगणिका, तया, कोऽपि राजादीनां से- अणुशासन भीसा ववहार लिंग जे जस्थ । Jain Education Interational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अजाय अभिधानराजेन्धः । अडजाय दूराभोग गवेसण, पंथे जयणा य जा जत्थ ॥ व्यवहारेणाकृष्यतेः तत्र च गत्वा वक्तव्यम्-यथाऽयमृषिपुत्रो पूर्वमनुशासनं तस्य कर्तव्यम, ततो धर्मकथाप्रसङ्गेन कथनं प्रतं जिघृचः केनापि कपटेन धृतस्तं न वर्तते, यूयं च धमंध्यास्थापत्यापुत्रादेः करणीयम् । एवमप्यतिष्ठति यनिष्कामता पारनिषप्यास्ततो यथाऽयं धर्ममाचरति, यथा चामीषामृषीणां स्थापित व्यं तद गृहीत्वा समर्पणीयम, तस्यानावनिजकानां समाधिरुपजायते तथा यतध्वमिति । अस्यापि प्रकारस्याभावे तस्य वा भीषणमुत्पादनीयम्, यदि वा राजकुले गत्वा व्यवहा. यद्यत्र विङ्गमर्चितं तत्परिगृह्य दापनार्थम, विवक्तितवासकमांच. रः कार्यः । एवमप्यतिष्ठति यतो यन लिङ्गं पूज्यते, ततस्तत्र परि- मार्थमित्यर्थः । ताबनधारिणां मध्ये ये महान्तस्तेषां प्रक्षापना गृह्य स मोचनीयः। पतस्यापि प्रयोगस्याभावे रेणोधिनस्वा- कर्तव्या, येन ते मोचयन्ति। मिकतया, दूरदेशव्यवधानेन वाल्यन्निधानं तस्याभोगः कर्तव्यः, सम्पति दूराभोगेत्यादि व्याख्यानार्थमाहनदनन्तरं तस्य गवेषणया च गमने पथि मार्गे यतना यथौधनि- पुट्ठा व अपुछा बा, चुयसामिनिहिं कहिंति ओहाई । युक्तावुक्ता तथा कर्तव्या । या च यत्र यतमा साऽपि तत्र विधे. घेत्तृण जावदहा, पुणरवि सा रक्खणा जयणा ॥ या यथासूत्रमिति द्वारगाथासंकेपार्थः। यदि वा अवध्यादयोऽवधिज्ञानिनः । श्रादिशब्दाद्विशिष्टश्रुसाम्प्रतमनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनुशासनकथनद्वारं प्राद तज्ञानिपरिग्रहः । पृष्टा वा अपृष्टा वा तथाविधं तस्य प्रयोजन निस्थिलो तुझघरे, रािसपुत्तो मुंच होहिई धम्मो। ज्ञात्वा च्युतस्वामिकं निधिमुत्सन्नस्वामिकं निधि कथयन्ति, धम्मकहापमंगेण, कहणं थावच्चपुत्तस्स ॥ तदानीं तस्य तेषां तत्कथनकस्योचितत्वात् । ततो यावदर्थः, एष ऋषिपुत्रस्तव गृहेऽवमादिकं समस्तमपि निस्तीर्णोऽधुनाव- यावता प्रयोजनं तद् गृहीत्वा पुनरपि तस्य निधिसंरकणं कर्ततग्रहणार्थमुद्यत इत्यमुं मुञ्च, तवापि प्रभूतो धर्मो नविष्यतीति । | व्यम् । प्रत्यागच्यता च यतनाविधिर्या, सा चाले स्वयमेष प. एतावता गतमनुशासनद्वारम् । तदनन्तरं धर्मकथाप्रसङ्गेन च क्ष्यते। कयनं स्थापत्यापुत्रस्य करणीयम, यथा स स्थापत्यापुत्रो व्रतं सोकण भट्ठजायं, अष्टुं पमिजग्गए य मायरियो । जिघृकुर्वासुदेवेन महता निष्कमणमहिम्ना निष्काश्य पार्श्वस्थि- संघामयं विदेति य, पडिजग्गह णं गिलाणं पि ॥ सेन व्रतग्रहणं कारितः, एवं युष्माभिरपि कर्तव्यम् । निधिग्रहणार्थ मार्गे गच्छन्तमर्थजातं साधुं श्रुत्वा सांभोगितह विय अते गवयं, जीसण ववहार निक्खमंतण । को वाऽऽचार्योऽथ प्रनिजागर्ति उत्पादयति । यदि पुनस्तस्य तं घेत्तूणं देज, तस्सासइए इमं कुज्जा । द्वितीयः संघाटको न विद्यते, ततः संघाटकमपि ददाति । अप तथापि च, अनुशासने कथने च कृते इत्यर्थः । प्रतिष्ठति स्था. कथमपि ग्लानो जायते ततो ग्लानमपि जागतिं न तूपेक्षते, जि पित देयम्, नीषणं या करणीयम्, व्यवहारे वा समाकर्षणीयः। नाङ्गाविराधनप्रसक्तः॥ तत्र स्थापितंजावयति-तेन पित्रा निष्कामता यत्किमपि स्थापि- यदुक्तमनन्तरं यतना प्रत्यागच्छता कर्तव्या, तामाहतं कन्यमस्ति तद् गृहीत्वा तस्मै दातव्यम् । उपनक्षणमेतत् । काउं निसीहियं जा-जायमावेयणं च गुरुहत्थे । लेनैतदपि द्रष्टव्यम्-अजिनवः कोऽपि शिष्यक उपस्थितस्तस्य य दाऊण पमिकमणं, मा पेहंता मिगा पेसो ॥ त्किमप्यर्थजातं स्थापितमस्ति, यदि वा गच्चान्तरे यः कोऽपि यत्रान्यगणे स प्राघूर्णक मायाति, तत्र नैवेधिकी कृत्वा, 'नमः दैविक उपस्थितस्तस्य हस्ते यद् भव्यमवतिष्ठते, तद् गृहीत्वा कमाश्रमणेभ्यः' इत्युदित्वा च मध्ये प्रविशति । प्रविश्य च यदतस्मै दीयते, तस्य व्यस्यासत्यभावे इदं वक्ष्यमाणं कुर्यात् । र्थजातं तद्गुरुभ्य आवेदयति कथयति । अावेद्य च तदर्थजातं तदेवाह गुरुहस्ते दत्त्वा प्रतिकामति।न स्वपार्श्व एष स्थित इति वेदयनीयबगाण तस्स व, जीसणं रायउने सयं वावि । तपाह-मा प्रेकमाणा मृगा श्व मृगा भगीतार्थाः कुल्लकादयः अविरिकामो अम्हे, कहं व लज्जा न तुज्क ति। पश्येयुगुरुहस्तेऽवस्थितं तद् निरीकन्ते, अस्मद्गुरूणां समर्पित. पवहारेणं अहयं, जागं पेच्छामि बहुतरागं भे। मिति विरूपसंकल्पेऽप्रवृत्तेः॥ सम्प्रति 'जयणा यजा जत्थेति' तम्बाख्यानार्थमाहअच्चियलिंगं च करे, पपवणा दावणहाए । निजकानामात्मीयानां स्वजनानां, तस्य वा जीषणं कर्तव्यम् । सनी व सावको वा, निरूविए देज्ज अट्ठजातस्स । यथा वयमविरिक्ता अविभक्तरिक्था व महे,ततो मोचयत मदी- पच्चुप्पमनिहाणे, कारणजाए गहणसोही । यं पुत्रं, कथं वा केन युष्माकं न लजाउनूद्यदेवं मदीयपुत्रो दास- यत्र सही सिम्पुत्रः श्रावको वा वर्तते तत्र गत्वा तस्मै स्व. त्वमापन्नोऽद्यापि धृतो वर्तन ह । अथैवमुक्ते ते व्यं न प्रय- रूपं निवेदनीय, प्रज्ञापना च कर्तव्या । ततो यत्तत्र तेन प्रत्युत्पचन्ति तत इदमपि वक्तव्यम्-राजकुलं गत्वा व्यवहारेणाप्यह नं तब निधानं गृहीतं वर्तते तस्यार्थजातस्य मध्यात्कतिपभागं बहुतरकं प्रभूततरकं प्रदीप्यामि (भे) जयतां पार्वे; तद्बर. यान नागान् दद्यात् । स्वयं तदानी प्रज्ञापनातो वा गीतार्थमिदानी स्तोकं प्रयच्यथ । एवं तेषां भीषणं कर्तव्यम। यदि या त्वात् । अस्य प्रकारस्थानावे यन्निधानं दरमवगादं वर्तते, तत. येन गृहीतो वर्त्तते तस्य भीषणं विधेयम, यथा यदि मोचनीय स्तेन उत्खन्य दीयमानमधिकृते कारणजाते गृहानोऽपि शुका, ताई मोचय, अन्यथा भवतस्तं शापं दास्यामि येन न स्वस, नेदं भगवदादावर्तनात् । गतमवमद्वारम्। था तब कुटम्बकमिति । एवं भीषणेऽपि कृते यदि न मुश्चति, यदि या ते स्वजना न किमपि प्रयच्चन्ति, तदा स्वयं राजकुझे इदानीमापनद्वारमाह-- गत्वा निजकैः सह व्यवहारः करणीयः, व्यवहारं च फत्वा योवं पिधरेमाणो, कप्पइ दासत्तमेव अदवंते । माग आत्मीयो गृहीत्वा तस्मै दातव्यः । यद्वा स एव राजकुले परदेसम्मि वि लन्भति, वाणियधम्मो ममेस त्ति ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४३) अभिधानराजेन्द्रः । अट्ठजाय स्तकिमार्प ऋणं शेषं धारयन् कचिदेशे कोऽपि पुरुषः, ततः (दलते चि) अददानः कालक्रमेण प्रवृद्ध्या, दासत्यमेव प्रतिपद्यते । तस्यैव दासत्वमापन्नस्य, स्वदेशे दीक्का न दातव्या । अथ कदाचित्परदे गतः विदितस्वरूपोऽशियादिकारणतो ना दीतिो भवेत् । तत्र च वणिजा वाणिज्यार्थं गतेन टो नवेत् । तत्रायं किल न्यायः- परदेशमपि गता वणिज आत्मीयं लभन्ते, तत एवं वणिग्धर्मे व्यवस्थिते स एवं ग्रूयात् ' मम एप दास इति मुच्येऽमुमिति । 1 तत्र यत्कर्त्तव्यं तत्प्रतिपादनार्थे धारगाथामाह-नाहं विदेसादर - णमाइ विज्जा य मंत जोगा य । नमित्त राय पम्मे पासंद गणे भले चैव ।। परदय दासत्वमा बनसोड, किं सम्यस्मिन्दि देशे जातः, त्वं तु सहकृतया विप्रलब्धोऽसि, श्रथ सम्भूतजनविदितो वर्तते तत एवं न वक्तव्यं, किं तु स्थापत्यापुत्राद्याहरणं कथनीयम, यद्यपि कदाचित तच्णतः प्रतिबुद्धो मुकलयति शब्दात् गुटिकाप्रयोगतः स्वरभेदादि कर्त्तव्यमिति महः। तेषां प्रयोगाणामभावे विद्या मन्त्री या प्रयो व्याः या परिगृहीतः सन् मुकलयति । तेषामप्यभावे निमि नातीतानागतविषयेण राजा, उपलक्षणमेतत्, तदन्यो वा नगर प्रधान आवर्जनीयः, येन तत्प्रभावात्स प्रेर्यते, धर्मो वा कथनीयो राजादीनाम, येन त आवृताः सन्तस्तं प्रेरयन्ति । एतस्यापि प्रयोगस्यानावे पावरकान् सहायान् कुर्यात् । यद्वायो गणः सारस्वतादिको बसीयान्तं सदायं कुर्यात्। तदभा ये दूरामोगादिना प्रकारेण धनमुत्पाद्य तेन मोचयेद द्वारगाथासंक्के पार्थः । एष साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुराह-सारवखरण जंपासे, जातो असत्य से वि आमंति बहुजविणाम्म उ यानवनुयादिप्रहरणं ॥ यदि प्रभूतजनविदितो न भवति यथा वयं तदेशे जात इति, तत एवं ब्रूयात् । अहमन्यत्र विदेशे जातस्त्वं तु सारश्येण विप्रलब्ध एवम समञ्जसं जल्पसि । एवमुक्ते तेऽपि तत्या आमेषमेतद् यथाऽयं वदतीति साक्षियो जाप अथ तदेशजात तथा प्रजनविदितो ते ततस्तस्मिम्ब जनविज्ञाते पूर्वो न वक्रव्यम, किन्तु प्रबोधनाय स्थापत्या श्राद्याहरणं कथनीयम् । विज्जा मंता जोगा, अंतद्धाणं विरेयणं वा वि । वरधणु य पुरसभूती, गुलिया सुडुमेय काणम्मि | विद्यायो विद्यामन्त्रयोगाः प्रयोक्तव्याः येन तैरभियोजित सन् मुक्कलयति । आहरणमादीत्यत्रादिशब्दव्याख्यानार्थमाहगुटिका प्रयोगतः स्वरभेदेन । उपलक्षणमेतत् । वर्णनेदं कारयेत यदि वा अन्तर्कानं ग्रामान्तरप्रेषणेन व्यवधानम्, विरेचनं या ग्लानतोपदर्शनाय कारयित विसृज्यते । यदि वा वरधनुरिव गुटिकाप्रयोगतः, पुष्पभूतिराचार्यश्व सूक्ष्मभ्यामवशतो निलो निरुष्वासः तथा स्याद् येन मृत इति ज्ञात्वा परित्यज्यते । असती रिती, रायाणं सो व डोज भ निभो । तो से कहिज धम्मो प्रशिच्चमाणा इमं कुजा ॥ तेषां प्रयोगाणामसति श्रभावे राजानं विज्ञापयन्ति । यथा अहजाय तपस्विनमिद परलोकनिःस्पृहमेनं मताद्यापयतीति प्रथासी राजा तेन भिन्नो व्युद्धाद्दितो वर्तते । ततः स तस्य राज्ञः प्रतिबोधनाय धर्मः कथ्यते, अथ स धर्मे नेच्छति, ततस्तस्मिन् धमनिच्छति, उपलक्षणमेतत्, निमित्तेन वाऽतीतानागतरूपेणा'वार्यमाणे इदं वक्ष्यमाणं कुर्यात् । तदेवाह पामे व सहाए, गेहर तुझं पि एरिसं हुज्जा । होहामोह सहाया, तुम्ऊ बिजो या गणो बलिओ ॥ पाप मानू या सहायान् गृह्णाति । अथ ते सहाया न भवन्ति, तत इदं तान् प्रति वक्तव्यम् युष्माकम प्रयोजनं भवेद् भविष्यति तदा युष्माकमपि वयं सहाया भविष्यामः । एवं तान्सहायान् कृत्वा तद्बलतः स प्रेरणीयः, यदि वा यो गणो बलीयान् तं सहायं परिगृह्णीते । एएस असती, संता विजया न होंति उ सहाया । उपथा दूराभोगे, लिंगण व एसितं देति ॥ तेषां पापानां गणानां वा यति श्रभावे ये खन्तः शिष्टशस्ते सहायाः कर्त्तव्याः । यदा तु सन्तो वा सड़ाया न जवन्ति तदा (ठवण त्ति ) निष्कामता या द्रव्यस्य स्थापना कृता तद्दानतः समोचातयः । यदि वा दूराभोगेन प्रागुक्तप्रकारेण अथवा यद्यत्र सिङ्गमर्चितं तेन धनमेोषित्वा उत्पाद्य ददति, तस्मै वरवृ षभाः । गतमापनद्वारम् । इदानीमनाद्वारमाद- एमेव प्रणतस्स विणा नगरिए ना। जं जस्स होइ भंमं, सो देति ममंतिगे धम्मो ॥ एवमेव अनेनैव दासत्वापन्नगतेन प्रकारेण अनाप्तस्यापि प्रागुशब्दस्य मोकणे यतना द्रष्टव्या, नवरम्, अत्र धनदानचिन्तायां नानात्वम् । किं तदित्याह--तपस्तुलना कर्त्तव्या । सा चैवं यते साधयस्तपोधना हिरोकेऽपि यद्य स्य नारा प्रवति स तस्मै उत्तमर्णाय ददाति। अस्माकं ज पार्श्वे धर्मस्ततस्त्वमपि धर्म गृहाण | मुसा जो कतो धम्मो, तं देउ न एलियं समं तुलइ । ही जावेताहिं, तावइयं विज्जयंभरणया || योऽनेन तो धर्मः सर्व मां ददातु एवमुक्ते साधुनिर्वकायम, नैताम यतो नैतावत्समं तुलति। स प्राह-केन हीनं प्रयच्छत, तदपि प्रतिषेधनीयं खेद् द्वाभ्यां संवत्सराज्यां हीनं दस । एवं तावत् विभाषा कर्तव्या - यावदेकेन दिवसेन कृतां योऽनेन धर्मस्तं प्रयच्छत । ततो वक्तव्यम् - नाज्यधिकं दमः किन्तु मुदिते पण तोयमानं समं तुझ ति तावत्प्रयच्छामः । एवमुक्ते यदि तोलनाय ढोकते, तदा विद्यादिनिस्तुला स्तम्भनीया, येम ऋणमात्रकृतेनापि धर्मेण न समं तोलयतीति । धर्मतोलनं च धर्माधिकरणिकनीतिशास्त्रप्रसिकमस्ति ततोऽवसातव्यम् । " जाने तवं वाणियधम्मेण ताहे को छ । को पुण वाणियधम्मो, सामुद्दे संजमे इमो ॥ वत्थाणाचरणाणि य, सव्वं बड्डित्तु एगविंदेश | पोषम्म नियमित वाणियधम्मे हवइ सुको ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४) प्रहजाय अनिधानराजेन्डः। अट्ठपएसिय एयं इमो वि साहू, तुकं नियगं च सारमुत्तूणं । उपलकणमेतत् । तेनैवमपि व्युत्पत्तिः कर्तव्या । अर्थः प्रयोजन निक्खंतो तुक घरे, करेइ इएिंह तु वाणिज्जं ॥ जातमस्या इत्यर्थजाता । कथं पुनरस्या अवलम्बनं क्रियत :यदि पुनरुक्कप्रकारेण क्षणमात्रकृतस्यापिधर्मस्यालामेन नेच्छे त्याह-तां पुनः प्रथमव्युत्पत्तिसूचितां, संयमनावाच्चाल्यमानाम। द्वितीयतृतीयव्युत्पत्तिपक्के तु द्रव्याभावेन प्रयोजनानिष्पस्या वा त् तपो ग्रहीतुम । ततो वक्तव्यम्-चणिग्धर्मेण वणिग्न्यायेन एष शुद्धः। स प्राह-कः पुनर्वणिग्धर्मो यनैष शुद्धः क्रियते। साध सीदन्ती समवलम्वेत-साहाय्यकरणेन सम्यग्धारयेतः उपबो वदन्ति-समुझे संन्तम गमनेऽयं वक्ष्यमाणः। तमेवाह-(वत्था लक्षणत्वाद् गृह्णीयादपि । वृ०६ उ०(संयमस्थिताया निर्ग्रन्ध्या णाभरणेत्यादि) यथा वणिक ऋणं कृत्वा प्रवहणेन समुद्रमव अर्थ जातवक्तव्यता निरवशेषा निर्ग्रन्थस्येव भावनीया, केवलं गाढः, तत्र पोते प्रवहणे विपन्ने आत्मीयानि परकीयानि च प्रज्जू स्त्र्यभिझापः कार्यों भवतीति बृहत्कल्पोक्ता साधनोपन्यस्ता)। तानि वस्त्रारायाभरणानि, चशब्दाच्छेषमपि च नानाविधं फ्रया अट्ठजुत्त-अर्थयुक्त-त्रि०। अर्थेन हेयोपादेयात्मकेन युक्तान्यन्विणकं सर्व दयित्वा परित्यज्य,एकवृन्दन,जावप्रधान एकशब्द:- तानि अर्थयुक्तानि । हेयोपादेयाभिधायकेषु आगमवचनादिषु, एकतैव वृन्द, तेनैकाकी उत्तीणों, वणिग्ध वणिग्याये शुद्धो अर्थो मोकस्तत्र युक्तान्यन्वितानि अर्थयुक्तानि । मोके उपादेयभवति, न ऋण दाप्यते । एवमयमपि साधुस्तव सत्कमात्मीयं तया सकतेषु वचनादिषु, “अजुत्ताणि सिमझा, रिणि च सारं सर्व तव गृहे मुक्त्वा निष्कान्तः संसारसमुद्रादुत्तीर्ण उ बजए " उत्त०१०। इति शुरूः, न धनिका ऋणमात्मीयं याचितुं सभन्ते, तस्मान्न अहमिका-अष्टाष्टमिका-स्त्री० । अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां किश्चिदन तवाऽऽदेयमस्तीति । करोत्विदानीमेष स्वेच्छया त- साऽष्टाएमिका । यस्यां हिं अष्टौ दिनाष्टकानि भवन्ति तस्यामपोवाणिज्यम, पोतभ्रएवाणिगिव निर्ऋणो वाणिज्यमिति। गतम- टौ अष्टमानि जवन्त्येवेति । चतुष्पष्टिदिननिष्पन्नायां निक्षुप्रतिनाप्तद्वारम् । मायाम, स०। अधुना बोधिकस्तेनबारप्रतिपादनार्थमाह अहमियाणं निक्खूपडिमा चनसट्ठीए राईदिएहिं दोबोहियतेणेहि हिए, विमग्गणा साहुणो नियमसो य।। हि य भट्ठासीएहिं, भिक्खास एहिं अहासुतं जाव भवइ । अणुसासणमादीतो, एसेव कमो निरवसेसो ॥ भिक्षुप्रतिमाऽभिग्रहविशेषः । अष्टाषटकानि यतोऽरी भवन्स्य' बोधिकाः स्तेनाश्च प्रागुक्तस्वरूपाः, तैर्हृते साधौ नियमशो तश्चतुष्षष्टया रात्रिंदिवः सा पालिता नवति, तथा प्रथमेऽष्टके नियमेन साधोर्विमार्गणं कर्तव्यम, तस्मिश्च विमार्गणे कर्तव्ये - प्रतिदिनमेकैका भिक्का, एका दत्तिनोंजनस्य पानकस्य च, एवं नुशासनादिकोऽनुशिटिप्रदानादिको धनप्रदानपर्यन्त एष एवा- द्वितीये वेढे यावदष्टमे अष्टावधाविति संकलनया द्वे शते निक्कानन्तरादितः कमो निरवशेषों बेदितव्यः । णामष्टाशीत्यधिके भवतः। अत उक्तं द्वाज्यांचेत्यादि यावत्करणासंप्रत्युपसंहारव्याजेन शिक्कामपवादं चाह त् । “अहाकप्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोहिया तीरिया तम्हा अपरायते, दिक्खिज्जाडणारिएण वजेजा। कित्तिया सम्म प्राणाए बाराहिया वि भव" इति रइयम् । अशाण अणानोगा, विदेस असिवादिसुं दो वि ॥ स०६४ सम० । स्था० । अष्टाष्टकिकायामष्टक आदिरटक न. यस्मात्परायत्तदोवणेऽनार्यदेशगमने चैते दोषास्तस्मादपरा तरमएको गच्छः । तत्राष्टलकणो गच्च उत्तरेणाष्टकेन युतः क्रियत्तान दीक्कयेत, अनार्याश्च देशान् वर्जयेत् । अत्रैवापवाद यते, जाता चतुष्षष्टिः, सा उत्तरहीना आदियुता क्रियते, तथापि माह-(अझाण त्ति ) अध्वान प्रतिपन्नस्य ममोपग्रहमेते करि सैव चतुष्पष्टिः। एतदष्टमेऽष्टके भिकापरिमाणम्, पतदादिनाऽप्यन्तीति हेतोः परायत्तानपि दीयेत। यदिवाऽनाजोगतः प्र केन युतक्रियते, जाता द्वासप्ततिः ७२।सा गच्छान चतुष्केण ब्राजयत् । विदेशस्थान वा स्वरूपमजानतो दीक्कयेत । पुनरशि गुण्यते, जाते देशते अष्टाशीत्यधिके । व्य०एउ० प्रव०। भन्तका वादिषु कारणेषु (दो वित्ति) द्वे अपि परायत्तदीकणानार्यदे अडाण-मष्टस्थानक-न० । प्रज्ञापनाया अष्टमे स्थाने, “एवं शगमनेऽपि कुर्यात् । किमुक्तं जबति-अशिवादिषु कारणेषु स. जहा भट्ठट्टाणे" स्था० १० ग०। . मुपस्थितेषु परायत्तानपि गच्चोपग्रहनिमित्तं दीक्वयेत, अना- अट्ठणाम-अनामन्-१० । अष्टविधपदार्थनामनि, " से किंतं र्यानपि देशान् विहरेदिति । व्य०२ उ०। एतत्पुरुषस्यार्थजात- अट्ठणामे ? । अट्ठणामे अविहा वयणविभत्ती" अनु० (वयत्वमुपदर्शितम्। णविभत्ति' शब्दे निरूपितमेतत् ) अथ संपत्याऽर्थजातत्वमुच्यते अहदसिण-अर्थदार्शन्-त्रि० । यथावस्थितमर्थ यथा गुरुसअट्ठजायं णिग्गंथे णिग्गंथि गिएहमाणे वा अवलंबमाणे काशादवधारितमर्थ प्रतिपाद्य टुं शीअमस्य स भवत्यर्थदशी । वाणाइक्कमइ ॥ सत्पदार्थवेत्तरि, " समावेजा पमिपुन्नभासी, निसामिया अर्थः कार्यमत्प्रवाजनतः स्वकीयपरिणेत्रादेर्जातं यया सा सामिय अट्ठदंस)" सूत्र० १ ० १४ अ०। थजाता पतिचौरादिना संयमाचाल्यमानेत्यर्थः । स्था० ५ अट्ठदुग्ग-अर्थऽर्ग-त्रि० । अर्थतः परमार्थतो पुर्ग विषमम् । ०२ उ०। सूत्र० १६० १० अ०। परमार्थतो विचार्यमाणे गहने दुर्विये, हगाथा सूत्र० १ ०५ ०१ उ० । परमार्थतो दुरुत्तरे, “इओ चुतेसु अटेण जायकज्ज, संजायं एस अट्ठजाया । उहमट्ठदुगं" सूत्र०१ श्रु०१० म० ए उ०। तं पुण संयमभावा, चालिजंती समवलंबे ॥१॥ अट्ठपएसिय-अष्टपदेशिक-नि० । अष्टा प्रदेशा यस्मिन्नित्यष्टप्रन अर्थेनार्थितया संजातं कार्य यया। यद्धा-अर्थेन द्रव्येण जातमु-देशिकः । स्वार्थिककप्रत्ययविधानादिति । प्रदेशाष्टकनिष्पन्ने, त्पन्नं कार्यं यस्याः सा अर्थजाता । गमकत्वादेवमपि समासः।। "एत्थ णं अहपएसिए रुयगे" स्था० १० ग० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) अट्ठपदचिंतण अभिधानराजेन्द्रः। अहपष्फी अट्ठपद (प) चिंतण-अर्थपदचिन्तन-न । अर्यमाणं विचा- अहपुप्फी-अष्टपुष्पी-स्त्री०ाअष्टौ पुष्पाणि पूजात्वेन समाहतान्य. र्यमाणं यत्पदं वाक्यादि पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति व्युत्पत्तेः। तस्य | एपुष्पी। पूजार्थके पुष्पाष्टके,पुष्पाष्टकनिष्पाद्यायां पूजायांचाहा। चिन्तनं आयनं विचारणं, स्वविषये स्थापनमिति यावत् । विचार- __ अष्टपुष्पी समाख्याता, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। णीयस्य वाक्यादेरर्थप-सोचने,ध0अयं नाव-सूक्ष्मतिकया जा अशुचेतरनेदेन, द्विधा तत्वार्थदर्शिनिः॥१॥ बनाप्रधानेन सताऽर्थपदं विचारणीयं, विचार्य च बहुश्रुतसकाशा. अष्टौ पुष्पाणि कुसुमानि यस्यां पूजायां साऽष्टपुष्पी। नदादिस्वविषये स्थापयितव्यमाअर्थपदचिन्तनं विना सम्यग्धर्मश्रकानमेव दर्शनास ईप्रत्ययः । इयं च जघन्यपदमाश्रित्योच्यते, न द्वित्रिच. न घटते । तथा च परमार्षे "सुच्चा य धम्मं अरहंतनासिग्रं, तुःपुष्पाण्यारोपणीयानि। यद्वक्ष्यति-"स्तोकैर्वा बहुनिर्वाऽपि" समादियं अपोवसुद्ध" इत्यादि । तस्मादर्थपदं विचार्य स्वविषये स्थापयितव्यम् । तद्यथा-यदि सूदमोऽप्यतिचारो ग्रा. इति । अष्टपुष्य्याश्च देवपूजने कारणत्वं वक्ष्यति । द्विधेत्यस्यह संबन्धात् द्वान्यां प्रकारान्यां द्विधा द्विप्रकारा समाख्याता स. हीसुन्दर्यादीनामिव स्त्रीभावहेतुस्तदा प्रमत्तानां साधूनां म्यगभिहिता, तत्त्वार्थदर्शिभिरितीह संबध्यते । तत्वतता अर्धा कथं चारित्रं मोकहेतुत्वेन घटते?, प्रनूतातिचारवत्त्वात् । अत्रेयं समाधानन्नावना-यः प्रवजितः सकामप्यतिचारं करोति, त जीवादयस्तान्, तत्वेन वा परमार्थवृत्त्याऽर्थान् पश्यन्तीत्येवंस्य विपाकोऽतिरोध एव, परं प्रतिपक्वाध्यवसायः प्रायस्तस्य शीलास्तत्त्वार्थदार्शनस्तैः । कथं द्विधेत्याह-अशुरूतरजेदेन, प्र. शुझाच सावद्यतया, श्तराच निरवद्यतया, अशुरुतरे,ताभ्यां कृकपणहेतुर्ना लोचनादिमात्रम्:म्रा यादीनामपि तद्भावात। प्रतिप त्वा तयोर्वा दो विलकणता अगुरुतरभेदस्तन, इद चेतराशकास्यवसायश्च-क्रोधादिषु कमादिःसंवरभावनोक्ता एवं च प्रम ब्दस्य पुम्बद्भावः, "वृत्तिमात्रे सर्वादीनां वद्भाषः" इति वचत्तानामपि प्रत्यतिचारं तुल्यगुणाधिकगुणप्रतिपक्काध्यवसायवतां नात् । फलतस्तां निरूपयन्नाह-स्वर्गमाकप्रसाधनी; श्राद्या धर्मचरणमविरुरूम, सम्यकृतप्रतीकारस्य विषस्येवातिचा देवांकसाधनी, द्वितीया त निर्वाणसाधनीत्यर्थः । पावान्तरे रस्य स्वकार्याकमत्वात् । नन्वेवं प्रतिपक्षाध्यवसायस्यैवातिचारप्र. तु-स्वर्गमोकप्रसाधनातोद्धिय । एतदेव कथम्?,अकेतरजेदन तोकारत्वे प्रायश्चित्तादिव्यवहार उच्छिद्यतेति चेन्न । प्रायश्चित्ता इत्येवं पदयोजना कार्येति ॥१॥ दियतनाव्यवहारे तुल्यतामप्राप्नुवति प्रतिपक्काध्यवसायस्य वि अशुझां श्लोकद्वयेन तावदाहशेषणस्य धौव्यात्। तत्कर्षकेणैव चविशेष्यस्य साफल्यात् । वि. शुद्धागमैर्यथालानं, प्रत्यग्रेः शुचिभाजनैः । शेप्यविशेषणनावे विनिगमनाविरदस्तु नयभेदाऽऽयत्तो पुष्परि स्तोकैर्वा वहभिर्वाऽपि, पुष्पैर्जात्यादिसंभवैः॥॥ हर एव । तथाप्यसकृप्रमादाचरणकृतमतिक्रमजातं प्रतिपक्काभ्यघसायन कथं परिहियेत?, असकृत्कृतस्य मिथ्यादुष्कृतस्याप्य. अपाय विनिर्मुक्त-तदुत्यगुणसूतये ।। विषयत्वादिति चेन्मैवम् । अत एव तुल्यगुणाधिकगुणाध्यघसा- दीयते देवदेवाय, या सा शुकेत्युदाहृता ॥ ३ ॥ यस्यैव ग्रहणात् । एकेनापि बसवता प्रतिपक्षण परिनूयते बहु- शुद्धो निर्दोष आगमः प्राप्त्युपायो येषां तानि शुद्धागमानि, लमप्यनर्थजातं, कर्मजनिताश्चातिचारादरात्मस्वभावसमुत्थस्य न्यायोपात्तवित्तेनाचौर्येण वा गृहीतानीत्यर्थः । पुष्पैदीयते देवस्तोकस्यापि प्रतिपक्काभ्यवसायस्य बलवत्त्वमुपदेशपदादिप्रसि- देवाय या सा शुद्धत्युदाहृतेति संबन्धः । कथं दीयत इत्या. कमेव । स्यादेतत् । मनसो विकाराः प्रतिपक्काध्यवसायनिवा ह-लाभस्थानतिक्रमेण यथालाभं, प्रवचनप्रभावनार्थमुदारनाप्रवन्तु, कायिकप्रतिसेवनारुपा अतिचारास्तु कथं तेन निवर्तेरन् वेन मालिकाद्यथालानगृहीतैर्देशकालापेक्या चोत्तममध्यमज इति चेन्मैवम, संज्वलनोदयजनितत्वेनातिचाराणामपिमानस- घन्येषु यानि लब्धानि तैः पुष्पैरिति भावना । प्रत्यग्नरपरिम्बानः, विकारत्वात् , व्यरूपकायिकप्रतिसेवनादीनां तु अदूरविप्रक- शुचिभाजनः पवित्रपटसकाद्याधारैः, इतरथा स्नानादिशौचपि घेणैव निवृत्तिरितिदिक । ध० ३ अधि०। ममनोनिवृत्तिमापादयदितिःस्तोकैरल्पैः,प्रत्यपायापगमं पुष्पदाअट्ठपद ( य )परूवणया-अर्थपदप्ररूपणता-स्त्री०।अर्थव्य-| नादष्टनिरित्यर्थः । बहुभिर्भूरिभिस्तदुद्देशनादानात् । वाशब्दो णुकस्कन्धादि, तयुक्तं तद्विषयं वा पदमानुपूर्व्यादिक, तस्य स्तोकबहुपुष्पपूजयोबहुमानप्रधानस्य फलं प्रत्यविशेषप्रतिपादप्ररूपणं कथनं, तद्नावोऽर्थपदप्ररूपणता । श्यमानुपादिका नार्थी । अपिशब्दस्तु समुच्चयार्थ इति । पुष्पैः कुसुमः,जात्यादिसंज्ञा, अयश्च तदनिधेयरूपणकादिर्थः सही, इत्येवं संझा संनवैर्मालतीप्रभृतिप्रभवः, आदिशब्दाहिचकिलादिपरिग्रहः । सविसंबन्धकथन "से किंतं गमववहाराणं अणोचणिडिया वह कश्चिदाह-जात्यादिग्रहणं सुवर्णादिसुमनसा निषेधार्थम । दुव्वाणुपुब्बी। पंचविहा पमना । तं जहा-अपदपरूवणया" जात्यादिकुसुमानि हि सकदारोपितानि निर्माल्यमिति कृत्वा न (इत्यादि सर्व हितीयभागे १३१ पृष्ठे 'आणुपुब्बी' शब्दे व पुनः पुनर रोप्यन्ते, सौवर्णादीनि तु पुनः पुनरारोपणीयानि भवन्ति, निर्माल्यारोपणदोषश्चैवं प्रसज्यत इति । पतश्चायुक्तमक्ष्यामः ) अनु। " कंचणमोनियरयणा-इदामपहिं च विविहहिं " इत्यनेन अट्ठपदोवसुद्ध-अर्थपदोपद-त्रि०अर्थपदानि युक्तयो हेतयो तेषामनुज्ञातत्वात् । पुनरारोपणनिषेधे तु कः किमाह!। किन्तु वा तैरुपशुरुमवदातम् । सयुक्तिके, सकेतुके च । अथैरभिधेयः यदा नोत्तार्यन्ते तदा निर्माल्यारोपणदोषोऽपि न स्यात् । पदैश्च वाचकैरुप सामीप्यन शुरूं निदोषम् । निर्दोषवाच्यवाचके, जास्यादिकुसुमानि हि काझातिक्रमेण विगन्धानि भवन्तीत्यय "सोच्चा य धम्म अरहतभासिनं, समाहितं अपदोबसुरूं" श्यमुत्तारणीयानि स्युः । सौवर्णादीनि तु न तथेति नावश्यमुसूत्र०१ श्रु०६०। त्तारणीयानि, तथाविधविगन्धत्वाभावादेव । तेषां पुनरारोपणेअपिट्टणिहिया अष्टपिष्टनिम्भुिप्ता-स्त्री०। अभिः शास्त्रप्रसि ऽपि न तथाविधो दोष इति मन्यते । यदपि कैश्चिमुच्यतेकैः पिष्टैनिष्ठिताऽपिटनिष्ठिता। प्रा० १७ पद० । अष्टवारपि- असतारारोपणमयुक्तं, वीतरागाकारस्थानावप्राप्तेः । तदपि न प्रदाननिष्पन्ने सुराभेदे, जी०३ प्रतिः। युक्तम् । पुष्पारोपणेऽपि तथाप्रसङ्गात् । यथा हि आमरणानि Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अपुप्फी atarस्य नोपपद्यन्ते, एवं पुष्पाण्यपि, उजयेषामपि सरागेराचरितत्वादिति । अष्टपुष्पी विधाने कारणमाह-अपायोऽनर्थस्तद्धेतुत्वादपाया ज्ञानावरणादयः, अष्टावपायाः समाहृताः अष्टापायम, तस्माद्विशेषेण प्रकारान्तरेणैव, दग्ध रज्जुकल्पकरणतः जयोपग्राहिभ्यश्चतुर्भ्य इत्यर्थः । नितरां निःसन्ताकतया चतु एवातिकर्मम्यो मुक्तः भपेतः । धात्वर्थमावृत्ती वा विशद निःशब्दाविति । विनिर्मुक्त इव विनिर्मुक्तः, श्रष्टापाययिनिर्मुकस्तथा तादापायविनियोज्ञात्या उत्थानं यस्याः साता, गुन्तानदर्शनादयस्तेषां प्रादुर्भाव एवा भूमिले इमीगुणभूतिः तदुत्था गुणनृतिर्यस्य स तथा । अष्टापायविनिमुक्तस्तदुत्थगुणभूतिश्च यः स तथा, तस्मै । यद्यपीह गुणीभूतं विमोचनं प्रत्ययार्थस्यैव प्रधानात् तथापि तदेतदेय पर मुश्यते वक्त्रा तथैव विि चायं न्याय: । यथा-- सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिरिति तदूव्युत्पाद्यत इत्यादाविति । दीयते वितीर्यते देवदेवाय स्तुत्यस्तुत्याय, याऽष्टपुष्पी सा शुकाऽसावद्या, उदाहृता सर्वज्ञैरमिहिति । नष्टापायविनिर्मुकोत्था एतद्विनियाँ कणांचा गुण तिर्यस्येत्यनेनैया पुष्प निबन्धनस्याय संयमत्याि दोपादानेनेति । नैवम्, अष्टापायविनिर्मुक्ताय दीयते इत्यनेनाष्टपुष्पीनिबन्धनमाह । तत्थगुणनूतये इत्यनेन चतुः पुष्पिकाया अनन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्य चतुष्टरूपयाद एकर्मविनिर्मुनिय गुणानाम्, अष्टापायविनिर्मुक्तायेत्यनेनैवावसितमिदमिति चेन्न, सिद्धानां हि कैश्चित् प्रकृतिवियोगाद् ज्ञानाभावः, शरीरमनसोरनावाशीषीभावः विपपाजावाच सुखानाको भाष्यते, सन्मासार्थत्वादित्यमुपन्यासः तद्वदिषां न्यायप्राप्तत्वात् । यद्येवं ज्ञानावरणपञ्चककये केवलिनो ज्ञानपञ्चक प्रसङ्गः न चेष्यते, " नटुम्मि बावमत्थिए नाणे इतिवचनः दिति। नैवम केनैवशेषज्ञानयस्य प्रकाशि तत्वेन तेषामर्थात्यपदिश्यतइति । एतेन तु पूर्व ये मन्यन्ते जिनबिम्बप्रतिष्ठायामवस्थात्रयम, कल्प्यते तेन बालायस्याश्रयं स्नानम् निष्क्रमणावस्थोचितं रथारोपणपुष्पपूजादि कम्, केव व्यवस्थाश्रयं च वन्दनं प्रवर्तत इति, तन्मतमपाकरोति । नाष्टापायविनिर्मुक्तिद्वारेण पूजा क्रियमाणा गृहस्थावस्थां विपयीकरोति, किन्तु केवल्यवस्थमिव । नतु चिन्तनीयमिदं यदपायविनिर्मुकमालम्ब्य केवल्यवस्थायां पूजा कार्येति यतो न चारित्रिणः नानादो घटनामा सके। न च तच्चरितं सताऽऽलम्बनीयम, अन्यथा परिणता कायादिपरिहार आचरणनिषेधार्थः कथं स्यात् ? । श्रूयते हि एकदा स्वजावतः परिणतं तडागोदरस्थाप्कायं तिनराशि स्थण्डिलदेशच टा पिनगवान् महावीरस्तत्प्रयोजनवतोऽपि साधून तत्सेवनार्थ न प्रवर्तितवान् । मा एतदेवास्मश्चरितमालम्ब्य सूरयोऽन्यांस्तेषु प्रवर्तयन्तु साधवश्च मा तथैव प्रवर्त्तन्तामिति । सत्यम्, किन्तु बि स्वकल्पोऽन्य इति मन्यते, यथैव जावाईति च वर्तितव्यं न तथैव स्थापनार्हत्यपीति नायः। अत एव भगवत्समीपे गौतमादयः साधयस्तिष्ठति स्म तदुबिम्ब समी पावस्थाने तु तेषां निषेध उक्तः । यदाह "ज‍वि न आहाकम्मं, जविककयं तह वि वजयंतहिं । जसी खलु होइ कया, शहरा आसायणा परमा ॥ १ ॥ तथा - "दुभिगंधमनस्सावि, तगुरपि सहाणि य । सभओ - वहो चेव, ते णति न चेइए" ॥१॥ तेनैवार्थिका दमकं स्थाप'नाचार्य स्थापयन्ति । अन्यथा यथा भावाचार्यसमीपे नावश्यकं मपुपी कुर्वन्ति तथा स्थापनाचार्यसमीपेऽपि न कुर्युः, न च ताः प्रधतिनीं स्थापयन्तीति वाच्यम् । प्रतिक्रमणकाल एव चैत्यन्दनाबसरे महावीरादेरवश्यं कल्पनीयत्वेन तद्दोषस्य समानत्वातू, नयाचार्य एव पुरुषो न भगवान् । नच कीतरागत्वेऽपि भगवत्समीपे चन्दनाद्यार्थिका रात्री तस्युः । ननु प्रतिक दिनां क यवन्दने क्रियमाण प्रशासनाद प्रसङ्ग इति । नैवम् | जिनायतनेऽपि चैत्यवन्दनस्यानुज्ञातत्वात् । यदाह-" निसकरमनिसकडे वा, वि वेश्य सहि थुई ति वेबवेश्याणि व, नाउं एक्केक्किया वा वि " ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसति ॥ ३ ॥ अष्टपुष्पी स्वरूपत उक्ता, सैव स्वर्गप्रसाधनी सि पक्कं तदधुना प्रदर्शया-संकीषा स्वरूपेण, द्रव्याद्भावप्रसत्तितः । पुण्यबन्धनिमित्तत्वा-ज्ञेिया स्वर्गसाधनी ॥ ४ ॥ संकीर्ण अवधेन व्यामिश्रा, एषाऽनन्तरोक्ताऽष्टपुष्पी, स्वरूपेण स्वभावेन कथमित्याह-पुष्यादेः सकाशाद् भावभूमितो भगवति प्रसादोत्पत्तेः प्रतिपादि पयोगादवद्यं, शुभभावश्च स्यातामिति संकीर्णत्वम् । इदं च न क निमम तु पुरयबन्धनिमित्तमेवेत्यता पुण्यस्य शुनकर्मणो बन्धो बन्धनं तस्य निमित्तं कारणं पुण्यन्यनिमि सद्भावता तस्मात्पुण्यबन्धनिमित्तस्व र्गसाधनी देवलोक प्राप्तिहेतुः । नृपलक्षणत्वात् सुमानुषत्वसा धनी पारंपर्येण भाषपूजानिबन्धनां प्रतिपद्य मोसाघनी चेति रूपुव्यमिति ॥ ४ ॥ " अथ युवामष्टपुष्पमभिधातुमाहया पुनर्जीवजैः पुष्पैः, शास्त्रोक्तिगुणसङ्गतैः । परिपूर्णत्वतोऽम्ला-रत एव सुगन्धिभिः ||५|| थाऽष्टपुष्पी, पुनःशब्द वयमाणार्थयोर्विशेषद्योतमार्थः । नायजेरात्मपरिणतिभविष्यमाणर धर्मविशेषि किं चिगुणसंग शाश्रमागमस्तस्यां क्तिर्नणितिरात्यर्थः । अथवा शास्त्रोक्तिरेव गुणो दवरकस्तत्संगतैः। एतेनैषां मानारूपतोक्ता, तथा च द्रव्यपुष्पाण्यपि यदा माझां कृत्वाऽऽरोप्यन्ते तदाऽष्टावपायापगमान् स्मृत्वा रोपणीयानीति दर्शिनमान्तरे तु शारिति तथा शास्त्रीयस मित्यादिगुणोपेतैरित्यर्थः । पुनः किंनूतैस्तैरित्याह- परिपूर्णत्वतो परिपूर्णता सकलजी वमृपावादादिविषयत्वेन निरतिभारतया वासाने परिपूर्णत्वादेव सुगन्धितिः सन् परिताधर्म मानिसुगन्धि तालक्षणी पुष्पचमी प्यावित्यर्थः विधीयते रूपः श्लोकावसाने वाक्यशेषो द्रष्टव्य इति ॥ ५ ॥ नामतस्ताम्यवाद 1 " हिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुक्तिस्तपो ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥ ६ ॥ प्रमसतायोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा, तद्भासा पुष्पम् । तथा सद्भद्यो हितं सत्यम, अनृताभावो द्वितीयम । तथा स्तेनस्य चोरस्य कर्म भावो वा स्तेयं चौर्य तदभावोऽस्तेयमि ति तृतीयम् । तथा ब्रह्म कुशलं कर्म तदेव चर्यते सेव्यत इति चर्यम्। ब्रह्मचर्य, मनोवाक्कायैः काम सेवनवर्जनमित्यर्थः तच्चतुर्थम् । तथा नास्ति सङ्गोऽभिष्वङ्गो यस्य सोऽसङ्गस्तद्भायो Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) प्रहपुप्फी अन्निधानराजेन्षः। अट्टमी उसनता, धर्मोपकरणातिरिक्तपरिग्रहपरिवर्जनम, धर्मोपकरण- प्रकर्षः पुमान कदाचिदकल्याणमामोति, एते च बुरुिगुणा यथा स्यापरिप्रहत्वात् । यदाह- "जं पि यत्यं व पायं वा, कंबल | सम्नवं ग्राह्याः। ध०१ अधि०। पायपुंग्णं । तं पि संजमलज्जा , धारंति परिहरति य ॥१॥न अनाध्या-अष्टभागिका-स्त्री०। अष्टमे भागे वत्तेत श्त्यष्टनासो परिगहो खुत्तो, नायपुतण ताश्णा । मुच्चा परिगहो वुत्तो, । पुतण ताश्णा । मुच्चा पारगहा कुत्ता, गिका । षट्पञ्चाशदधिकशतवयपलमानायां माणिकायाम, मा. इवतं महेसिणा ॥२॥" इतरथा शरीराहारायपि परिग्रहः याया सभागवन्तिात .. स्यादिति पञ्चमम् । तथा गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः । श्राह त्पलप्रमाणे रसमानविशेषे, अनुभ०। च-“धर्मको धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः। सत्त्वेन्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यत" ॥१॥ तस्य भक्तिः सेवा, बहुमान अट्ठमश्य-अष्टमदिक-त्रि० । अष्टौ मदस्थानानि येषां तेऽएमभ, गुरुभक्तिरिति षष्ठम् । तथा तापयतीति तपाऽनशनादि ।। दिकाः । अष्टसु मदस्थानेषु प्रमत्तेषु, "जे पुरण अहमईओ, प. प्राह च-" रसरुधिरमांसदो-ऽस्थिमज्जशुकाएयनेन तप्यन्त ।। नियपसमाऽपसमा य" प्रातु। कर्माणि वा शुभानीत्यतस्तपोनाम नरुक्तम" इति सप्तमस अट्ठमंग-अष्टमङ्गल-न०। अपगुणितानि अष्ट वा मनमानि । तथा शायन्तऽ अननेति शानम, सम्यक्प्रवृत्तिनिवत्तिहेतजता स्वनामख्यातेषु श्रीवत्सादिषु, " तस्स ण असोगवरपायवस्स बोध इत्यएमम् । इह समुच्चयानिधायी चशब्दो व्यः । नवरि बहवे अट्ठमंगनगा पम्मत्ता तिं जहा-सोचत्थिय१सिरिसतपुष्पाणि अत्यन्तमेकान्तेन च विवक्तितार्थसाधकतया व्य वत्था २ दियावत्त ३ बरूमाणग ४ जहासण ५ कसस ६ पुष्पापेक्कया सन्ति शोभनानि पुष्पाणीव पुष्पाणि, भावपुष्पा मच्छ ७ दपण ।" तत्र अष्टावष्टाविति वीप्साकरणात प्रत्येक णीत्यर्थः प्रचक्वत शुद्धाष्टपुप्पीस्वरूपशाः प्रतिपादयन्तीति॥६॥ तेऽष्टाविति वृद्धाः। अन्ये त्वष्टाविति संख्या, अष्टमङ्गलानीति उनमेषार्थ वाक्यान्तरेणाह च संझा । भी।का। प्रा००। आ० म०प्र० भ० ज०। एभिर्देवाधिदेवाय, बहुमानपुरस्सरा। रा०। लोकेऽपि च-"मृगराजो वृषो नागः, कलशो व्यजनं तथा।वैजयन्ती तथा भेरी,दीपश्त्यष्टमङ्गलम् ॥१॥लोकेऽस्मिन् दीयते पालनाद् या तु, सा वै शुक्षेत्युदाहृता ॥ ७॥ मङ्गलान्यप्टौ, ब्राह्मणो गौर्हताशनः । हिरण्यं सर्पिरादित्यएभिरनन्तरोदितै वपुष्पैः, देवानां पुरन्दरादीनामधिको देवः पापो राजा तथाऽष्टमः" ॥२॥ वाच०। पूज्यत्वाद् देवाधिदेवः प्रागुक्तो महादेवस्तस्मै,बहुमानःप्रीतियोगः पुरस्सराप्रधानो यत्र सा बहुमानपुरस्सरा, दीयते वितीयते। अट्ठमभत्त-अष्टमजक्त-न। एकैकस्मिन् दिने द्विवारं भोजनाकथमित्याह-पालनादहिंसादिपुष्पाणां परिरक्षणहारेण, तत्पा चित्येन दिनत्रयस्य षमा जक्तानामुत्तरपारणकदिनयोरेकैकस्य लने हि देवाधिदेवाज्ञा कृता भवति । आज्ञाकरणमेव च सर्व. भक्तस्य च त्यागेनाष्टमनक्तं त्याज्यं यत्र तत्तथा, इति व्युत्पत्त्या था कृतकृत्यस्य तस्य पूजाकरणम्; नह्याझा विराधयता शे समयपरिजाषया वा उपचासत्रये, "तएणं से जरहे राया अट्टपपूजोचतेनाप्यसाचाराधितो नवति, आक्षेश्वरमहाराजवदिति । ममतंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्षम" या तु यैवाष्टपुष्पी, सावै सैव, शुधा निरवद्या, इतिरेवंप्रकारा जं०३ वक० । पंचा०।। र्थः, उदाहृता तत्त्ववेदिनिरनिहितेति ॥ ७॥ अट्ठमन्नत्तिय--अमनक्तिक-त्रिका दिनत्रयमनाहारिणि, जं. अथ शुरूाया एव मोकसाधनीयत्वं दर्शयन् विशेषण ३ वक्षः। सत्संमतत्वं प्रतिपादयन्नाह अट्ठमयमहण-अष्टमदमथन-त्रि० । अष्टमदस्थाननाशके, प्रभा प्रशस्तो ह्यनया भाव-स्ततः कर्मयो ध्रुवः । ५ सम्ब० द्वा०। कर्मक्षयाच निर्वाण-मत एषा सतां मता ।। ८॥ अट्ठमहापामिहेर-अष्टमहापातिहार्य-1०।अर्हतां पृजीपयिकेप्रशस्तः प्रशस्यः शुद्धः, हिशब्दो यस्मादर्थे, ततश्च यस्मात्प्र- षु अशोकवृकादिषु, "अशोकवृत्तः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनिशस्तोऽनयाऽनन्तरोदितत्वेन प्रत्यक्कासन्नया शुद्धायपुण्या, भाव चामरमासनं च । जामएमलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्यातिहायोणि आत्मपरिणामो भवतीति गम्यते, न पुनर्डब्याटपुष्प्या जीवो जिनेश्वराणाम् ॥१॥ नं0। पमर्दाश्रितत्वात्तस्याः। ततः प्रशस्तनावात, कर्मक्कयो ज्ञानाव- अहमिपोसहिय-अष्टमीपौषधिक-त्रि० । अष्टम्याः पौषध उपरणादिकर्मविलयो जवति, ध्रुवोऽवश्यंभावी, कर्मक्कयाञ्चोक्त- वासादिकोऽहमीपौषधः, स विद्यते येषां तऽमीपौषधिकाः। स्वरूपात् । चशब्दः पुनरर्थः । निर्वाणं मोक्षो भवतीति मोक्का अष्टम्याः पौषधव्रते क्रियमाणेषत्सवेषु, आचा० ५ श्रु० १ साधनीयमतः प्रशस्तनावजन्यकर्मवयसाध्यनिर्वाणसाधनत्वा. अ० २ उ०। देषा शुझाउटपुष्पी, सतां विदुषां, यतीनामित्यर्थः, मता विधेयत्वे अट्ठमी-अष्टमी-स्त्री० । अष्टानां पूरणी पोमशकलात्मकचन्छनेष्टा, न पुनर्जन्याष्टपुष्पी । ततो हे कुतीर्थिकाः! यदि यूयं यत स्याटमकला। क्रियारूपायां स्वनामख्यातायां तिथी, वाच । यस्तदा नावपूजामेव कुरुतेत्युक्तं नवति । अथवा यतो अन " चाउहसि पनरसिं, बज्जेज्जा अछाम च णवर्मि च । ग₹ च या निर्वाणमतः सतां विदुषामेषा संमतेति ॥ ७॥ इति तृतीया चउस्थि बा-रसिंच सेसासु देजाहि॥१॥"विशेष वृद्धवैयाकरणप्रकविवरणम् । हा० ३ अष्ट । संमते विभक्तिभेदे, "अहमी आमंतणी भवे" अटमी संबुकिअबाकिगुण-अष्टवुछिगुण-पुं० ।क० स० । शुश्रुषादिषु अ- रामन्त्रणी भवेत,आमन्त्रणा) विधीयत इत्यर्थः । अनुoा"एम्या सु बुद्धिगुणेषु, तैरष्टबुद्धिगुणैर्योगः समागमः कर्तव्यः । मन्त्रणी भवेत्" इति । सु औ जसिति प्रथमाऽपीय विभक्तिरामना. (एष सामान्यगृहिधर्मः ) बुद्धिगुणाः शुश्रूषादयः, ते स्व- णकस्यार्थस्य कर्मकरणादिवत् लिङ्गार्थमात्रातिरिक्तस्य प्रतिमी-"शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । उहोऽपोहोऽर्थ-| पादकत्वेनाप्टम्युक्ता। स्था०1०1"आमंतणे भावे अट्टमी उजडा विज्ञानं, तत्वज्ञानं च धीगुणाः" ॥१॥ शुश्रूषादिनिर्हि पहित- हे जुवाण!ति" आमन्त्रणे भावे अष्टमी तुयथा-हे युवन्निति,. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) अहमी अनिधानराजेन्द्रः । अट्ठादंडवत्तिय खवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गएयते, ऐदयुगानां त्वसौ प्र. | संख्यायाम, " अटुहत्तरीप सुवएणकुमारदीवकुमारावाससय. थमैवेति मन्तव्यमिति । अनु० अष्टसंख्यापरण्यांच, अग्-क। सहस्साणं " स०। अष्ट संघातं व्याप्ति वा माति, मा-क्त, गौरा-डी । कोटामता- अट्ठा-अष्टा-स्त्री० । प्रववजिषोः स्तोककेशग्रहणे, " गिराहा याम, वाच। गुरुवउत्तो, अट्ठा से तिनि अच्छिन्ना"।पं०५०१द्वा०। मुष्टी, अट्ठमुत्ति-अष्टमूर्ति-पुं० । अष्टौ जूम्यादयो मूर्तयोऽस्य । शिवे, "चउहि अाहि लोय करेइ" २ वक्ष०।। " कितिजलपवनहुताशन--यजमानाऽऽकाशचन्नसूर्याख्याः । आस्था-स्त्री० । प्रास्थानमाया । प्रतिष्ठायाम, सूत्र०२ श्रु०१ ति मर्सयो महेश्वर-सम्बधिन्यो नवन्त्यष्टी" ॥१॥ स्था०९ ठा0) प्र० । मा-स्था-अङ् । पालम्बने, अपेक्षायां, श्रद्धायां, अट्ठरससंपनत्त-अष्टरससंप्रयुक्त-त्रि० । ३ त । अष्टन्निः शृङ्गा- स्थिती, यत्ने, आदरे,सभायाम्, प्रास्थाने च । वाच०। रादिभी रसैः सम्यक् प्रकर्षण युक्ते, जी० ३ प्रतिः। अट्ठाण-प्रस्थान--ना अनुचिते स्थाने, स्था०६ ठा0। वेश्याअट्ठविह-अष्टविध-त्रि० । अष्ट विधाः प्रकारा यम्य । अष्ट- | पाटकादौ कुस्थाने, व्य०२ उ० । प्र० । अयुक्ते, “अट्ठाणप्रकारे, भ०१५ श०१०।१०। पञ्चा० । "अविहकम्मत मेयं कुसला वयंति, दगेण जे सिद्धिमुदाहरंति" सूत्र० १ श्रु० मपडलपमिच्छम" अष्टविधकमैव तमापटलमन्धकारसमूहस्तेन ७०1 प्रत्यवच्छिन्नानि तथा " विशे०। अट्ठाणहवणा--अस्थानस्थापना-- स्त्रीगुर्वषग्रहादिके प्रस्थाअट्ठसझ्या--अर्थशतिका-त्रि० । अर्थशतानि यासु सन्ति ता ने प्रत्युपतितोपधेः स्थापनं निक्षेपोऽस्थानस्थापना । प्रमादअर्थशतिकाः । अथवा-अर्थानामिष्टकार्याणां शतानि याभ्यस्ता | प्रत्युपेक्षणाभेदे, स्था० ७ ठा०। अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः । स्वार्थ कप्रत्ययः । अर्थशतोत्पा- | अट्ठाणमंमव--आस्यानमण्डप--पुं०। उपस्थानगृहे, स्था०५ठा० दिकासु वागादिषु, " अपुणरुत्ताहिं असक्ष्याहिं वर्हि अण. १उ०। घरय अनिणंदंता य” जं० २ वक्क० । भ० । अट्ठाणिय-अस्थान (नि) क-न० । अभाजने, अनाधारे, अट्ठसंघाम-अष्टमाट-पुं०। क० स० । अष्टसु प्रायश्चित्तखता. "अाणिए होइ बह गुणाणं, जेएणाण संकार मुसं वएजा" सु, “संघामो त्ति वा लयत्ति वा पगारो त्ति वा एगटुं” इति सूत्र०१ श्रु०१३ । वचनात् । बृ०१ उ०। अट्ठादम-अर्यदएड-पुं० । अर्थेन स्वपरोपकारलकणेन प्रयोजअट्ठमय-अष्टशत-न० । अष्टाजिरधिकं शतम् । अष्टोत्तरशते, नेन दएमो हिंसा अर्थदएमः । स० ए सम० । प्रसानां स्था० १० ठा। स्थावराणां वाऽऽत्मनः परस्य वोपकाराय हिंसायाम्, स्था० ५ भट्ठसयसिद्ध-अष्टशतसिक-पुं० । अष्टशतं च ते सिहाच नि- ग०२ उ०। वृत्ता अष्टशतसिद्धाः । एकस्मिन् समये ऋषनस्वामिना सह अट्ठादमवत्तिय-अर्यदएकात्यय-पुं० न० आत्मार्थाय स्वप्रयोनिवृत्ति गतेष्वष्टोत्तरशतेषु सिकेषु । श्दश्चाऽनन्तकाबजातमित्ति जनकृते दामोऽयंदामः पापोपादानम, तत्प्रत्ययः। प्रथम क्रियानवममाश्चर्यमुच्यत इति । स्था०१०गा करप० । अत्र गुण स्थाने, सूत्र। तत्स्वरूपं चविजयगणिना कृतस्य प्रश्नस्य हीरविजयसरिदत्तमुरत्तम। ऋष- पढमे दंमसमादाणे अट्ठाईमवत्तिए त्ति आहिजड़, से जहा जस्वामी अष्टाप्रशतेनैकस्मिन्नेव समये सिद्धः । इदं चाश्चर्यम्-तत्र णामए केइ पुरिसे प्रायहेरं वा णाइहे वा आगारहे बाहुबल्याणयुराश्रिता का गतिः । इदं च तम्प्रतिपादकग्रन्था वा परिवारहे वा मित्तहे वाणागहेडं वा नृतहेउं वा नामप्रसाधनपूर्व निर्मयकारि प्रसाध्यमिति ॥५॥ उत्तरम्-अत्र 'अट्टसयसिद्धा' अस्मिन्नेवाश्चर्ये बाहुबलेरायुषोऽपवर्तनमन्तर्भ जक्ख हे वा तं दम तमथावरेहिं पाणेहि सयमेव णिसिवति । यथा-हरिवंसकुलपति"त्ति, आश्चर्ये हरिवर्षकेत्रानीतस्य रिति, अमेण वि णिसिरावेंति, प्रमेण विणिसिरितं समयुगस्यायुरपवर्तनं शरीरबघुकरणं नरकगमनादि चान्तर्भव. गुजाण,एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजति, आहिज्जइपतीति ॥५॥ही। दमे दमसमादाणे अहा अट्ठादंडवत्तिए ति आहिज्जइ ॥५॥ अहसहस्स-अष्टसहस्र-न० । अणोत्तरसहस्रसाधेषु, "धाराम यत्प्रथममुपातं दएकसमादानमर्थाय दएममित्येवमाख्यायते, यवत्थणिउणजोइयग्रहसहरसंवरकंचणं सलणिम्मिएण"औ०। तस्यायमथः-तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः, पुरुषग्रहणमनुत्तो अट्ठसामइय-अष्टसामयिक-त्रि० अष्टौ समया यस्मिन्सोऽष्टसम- पलवणार्थम् । सर्वोऽपि चातुर्गतिका प्राण्यात्मनिमित्तमात्मार्थ यः, स एवाएसामायिकः । समयाष्टकोद्भवे, स्था०० ग० । तथाऽनिझातिनिमित्तं स्वजनाद्यर्थ तथाऽगारंगृहं तनिमित्तं, तथा " केवलिसमुग्धाए अटुसामश्ये पम्मत्ते" औ०।। परिवारो दासकर्मकरादिकः परिकरो वा गृहादेभृत्यादिकअट्ठसेण-अष्टसेन-पुं० । वत्सगोत्रजे पुरुषभेदे, तदपत्येषु च । स्तनिमित्त, तथा मित्रनागभूतयक्काद्यर्थ, तथानृतं स्वपरोपघात. स्था० ७ ग०। रूपं दरा सस्थावरेषु स्वयमेव निसृजति निक्षिपति, दण्डअर्थसेन-पुं० । पुरुषविशेपे, स्था०७०। मिव दण्डमुपरि पातयति, प्राण्युपमर्दकारिणी क्रियां करोतीअट्टसोवणिय-अष्टसोवर्णिक-त्रि० । षोडशाकर्षमावारमकसु त्यर्थः । तथाऽन्येनापि कारयत्यपरं दएकं निसृजति, निसृजन्तं समनुजानीते । एवं कृतकारितानुमतिभिरेव तस्याऽनामास्य वर्णमानाष्टकमिते, "पगमेगस्स णं रनो चानरंतचक्कवहिस्स तत्प्रत्यायिक सावधक्रियोपात्तं कर्माधीयते संघभ्यत इति । अटुसोवनिए काकिणिरयणे" स्था० 10। एतत्प्रथमदण्डसमादानमर्थदएम्प्रत्यायकमित्याख्यातामिति ॥५॥ अहहत्तरि-अष्ट (श) सप्तति-त्रि० । अष्टाधिकायां सप्तति- सूत्र.२ श्रु)२ अ० प्रा० चू०। आव। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायमाय अडायमाणप्रति माणं गोणं " पञ्चा० १६ विष० । अट्ठार- अष्टादशन् शि० प्राकृतत्वाद्य शोषः अष्टाध ( २४७५ ) अभिधानराजेन्द्रः । स्थितिमकुवत, "सद विधाय एप सव्वे वि महारा" पञ्चा० ३ विव० । अहारस- अष्टादशन् त्रि० । अष्टौ च दश च, अष्टाधिका वा दश शाह) सङ्ख्यायां तत्येये च वाचन" पदमे नम्मासे अथि प्रहारसमुडुताराती” सु० प्र० १ पाहु० । अट्ठारसकम्पकारण-अटादशकर्मकारण १० दशची रप्रसूतिदेती, प्रश्न० ३ अभ० द्वा० । अट्ठारसट्ठाण - अष्टादशस्थान- न० क० स० । प्रतिसेवनीयेषु अदशसु स्थानेषु दश० । इह खलु भो पचणं उप्पधादुक्खेणं संजमे असमा वाचिणं श्रहाणुप्पे हिला अरणोहाइएणं चेव इयर रिसगयंकुमपोयपकागाभूआई इमाई अहारसठाणाई सम्म संपमिहिव्वाई हवंति । तं जहा- हंजो दुस्समाई 5 | १ | खोजन, स्टेति जिनमथने दोधारणे । स च भिन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः । नो इत्यामन्त्रणे । किंविशिष्टेनेत्याह-उत्पन्न दुःखेन संजातप्रव्रजितेन साधुना, शीतादिशास्त्रीनिषद्यादिमानसदुखेन संयमेव्यातिस्वरूपे भरतसमापनविनगताभिप्रायेण संयमनिर्विद्यावेनेत्यर्थः। स एव विशेष्यते श्रवधावनोत्प्रे विणा - अवधावनम पसरणं, संयमाल्येन प्रतुिं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन, उत्पति भाषा धनवधावितेने सूनि वयमाणान्यष्टादशानानि सम्पन्नावसा पहितानि सुनीयानि जयन्तीति योगः। भवधावितस्य तु प्रत्युकणं प्राकमिति । तान्येव विशेष्यन्ते इयरश्मिजाडुरापोतपताकाभूतानि अश्वखली नगजाङ्कुशबोहित्यसितपटतुल्यानि । एतदुक्तं भवति यथा यादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामामां रश्म्यादको नियमनहेतवस्तयेतान्यपि संयमायुमार्ग चिकामानां भावसस्थानामिति तचैवमतः सम्प सम्प्रत्युपे * क्षितव्यानि भवन्ति । खसुशब्दावधारणयोगात् सम्यगेव सम्प्रत्युपेकितव्यान्येवेत्यर्थः । ( तं जहेत्यादि ) तद्यथेत्युपन्यासार्थः । भोमाचिन इति 'हंजो शिष्य ःपमायामथमकामायायां कालदोषादेव प्रकर्षेणोदारोगापेक्षया जीवितुं शीलं येषां ते दुपजीविनः प्राचिन इति गम्यते, नरेन्द्रादीनामप्यनेकः खप्रयोगदर्श नातू उहारभोगरहितेन च विनाप्रायेण कुगतिदेना कि गृद्दाश्रमेणेति सम्प्रत्युपेचितव्यमिति प्रथमं स्थानम् | १ | । अगा इवरिया गिट्टी कामभोगा । २ । जो अ सायमा इमे मे बखे न चिरकाओट्टाई भविस्सई | ४ श्रोममणपुरकारे एवंतस्य परिपायणं । ६ । अहरगइवासोव संपया । ७ । हे खलु भो गिदी धम्मे गिहिपासमज्जे वसंताएं १८ । आयंके से वहाय होइ । । संकप्पे से वहाय होइ | १० | सोकेसे गिवासे | ११ | निरुवकेसे परिआए " अ अहारसहाण |१२| बंधे मवासे । २३। मुके परिआए। १४ सावळजे गिढ़वासे । २५ । अणवज्जे परिश्राए । १६ । बहुसाहारया गिट्टी कामभोगा | १७| पत्तेचं पुम्रपानं । १८ अखिये लघु भो मस्साएं जीविए कुसम्गजल बिंदुचंचले, बहुं च खलु भो पावं कम्मं पगडं, पावाणं च खलु जो कमाणं कम्माणं पुचि बुद्धिभाणं दुष्परिकताएं बेहता, मुक्खो नत्यि अवेत्ता, तवसा वा जोसइता अट्ठारसमं पर्य जब | भवद अ सिसोगो तथा , गृहिणां कामभोगाः, मायामिति वर्त ते । सन्तोऽपि वस्तुच्छाः प्रकृत्यैव तुपम् ष्टिवसाराः इत्यरा अल्पकालाः गृहिणां गृहस्थानां कामभोगा मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषयाः विपाककट में देवानामिव विपरीताः अतः किं गृहाश्रमेणेति सम्प्रत्युपक्तिव्यमिति द्वितीयं स्थानम् । २ । तथा नूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः; दुःषमायामिति वर्त्तत एव । पुनश्च स्वातिबहुला मायाप्रचुराः, मनुष्या इति प्राणिनः न कदाचिम्भितोऽमी लहितानां कीदृशे सुखम् ?, तथा मायाबन्धहेतुत्वेन दास्यतरो बन्धइति कि गृदाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीय स्थान ३ तथा ध्वं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि प्रविष्यति, इदं चानुयमानं मम भ्रामण्यमनुपालयतो दुःखं शारीरमानसं कर्मफलं परीषदजनितं न भविष्यति धामध्यपानेन परीषदनिराकृतेः कर्मनिर्जरणात्संयम राज्यप्राप्तेः इतरथा महानरकादो विपर्ययः किं गृहाश्रमेणेति । संघसुपेचितमिति चतुर्थ स्थानम् ४ तथा ( ओमजण सि) म्यूनजनपूजा, प्रब्रजितो हि धर्मप्रभावाद्वाजामात्यादिभिरन्युस्थानासनानिमदादिनि पृज्यते । जितेन तु न्यूननस्या पि स्वय्यनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्यम् अधार्मिक राजविषये या यो कर्मो नियम्यत एव दैवेदमधर्मप्रमतः किं गृदाश्रमेणेति सत्युपेतव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ५ किया योजनीया । तथा वान्तस्य प्रत्यापानम्, भुक्तो ज्जित परिभोग इत्यर्थः । श्रयं च श्वशृगालादिक्रुषसाचाचरितः सतां निन्द्यो व्याचिदुःखजनकः वान्ताश्च नांगा मस्याङ्गीकरणेनैतत् प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् | ६| तथाऽधरगतिवासोपसंपत्, अधोगतिर्नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः, एतनिमित्तभूतं कर्म गृह्यते, तस्योपसंपासामीप्येनाङ्गीकरणं पदेजनमेवं चिन्तनयिमिति सप्तमं स्थानम ॥ ७ । तथा दुर्लभः खलु भी हि धर्म इति प्रमादत्याद् दुर्लभ एव, 'भो' इत्यामन्त्रणे । गृहस्थानां परमनिर्वृतिजन को धर्मः कविशिष्टानामित्याह गृहपारामध्ये बसतामित्यत्र गृहपाशशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये वसतामनादिभवाभ्यासादकारणं स्नेहबन्धनमेतचिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानम् ।८। तथाऽऽतङ्कस्तस्य वधाय भवति; " " 1 सोपाती विसूचिकादिरोगः, तस्य गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य, वधाय विनाशाय भवति । तथा वधश्वानेकवधहेतुरेवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानम् । ६ । तथा संकल्पस्तस्य वधाय भवति; संकल्प इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानस श्रातङ्कः, तस्य गृहिणः तथाचेष्टायोगाद् मिथ्याविकल्पाभ्यासेन ग्रहादिमातेचाच भवत्येतचिन्तनीयमिति " Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) अट्ठारसट्ठाण अनिधानराजेन्सः। महारसपावट्ठाण दशमं स्थानम् । १० । तथा सोपक्लेशो गृहवास इति; सहो- नप्रायश्चित्तादिना या विशिष्टक्कायोपशमिकाभभाषरूपेण तपक्लेशैः सोपक्लेशो गृहबासो गृहाश्रमः । उपक्लेशाः-कृषि- पसा प्रलयं नीत्वा,श्हच घेदनमृदयप्राप्तस्य व्याधेरिवानारग्धोपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगताः पण्डितजनगर्हिताः शी- पक्रमस्य क्रमशोऽनन्यनिबन्धनपरिक्लेशेन, तपःकपर्ण तु सम्यतोष्णश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेत्येवं चिन्तनीयमि- गुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषकपणवदन्यनिमित्तम्, अकर्मणापत्येकादशं स्थानम् । ११॥ तथा-निरुपक्लेशः पर्याय इति,पभि- रिक्लेशमित्यतस्तपोनुष्ठानमेव श्रेय इति, न किंचिद् गृहाश्रमेणेति रेयोपक्लेशैः रहितः प्रवज्यापर्यायोऽनारम्भी कुचिन्तापरिव. संप्रत्युपक्तिव्यमित्यवादशं पदं नवति-अष्टादशं स्थानं नवति । र्जितः ग्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशंस्था- प्रवति चात्र इलोकः, अत्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकर उक्तानुनम् । १२। तथा-बन्धो गृहवासः, सदा तद्धत्वनुष्ठानात् कार्थसंग्रहपर श्त्यर्थः । श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः । ततः कोशकारकीटवदित्येतश्चिन्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानम् ॥१३॥ श्लोकजातिरनेकदा भवतीति प्रस्तश्लोकोपन्यासेऽपि न तथा-मोक्षः पर्यायोऽनवरतकर्मनिगडविगमनादू मुक्तवदित्येवं बिरोधः। चिन्तनीयमिति चतुर्दशं स्थानम् । १४ । अत एव सावधो जया य चयइ धम्मं, अणज्जो नोगकरणा । गृहवास इति; सावद्यः सपापः, प्रणातिपातमृषावादादिप्रव. से तत्थ मुखिए बाले, पाय नावबुज्का॥१॥ सेरेतश्चिन्तनीयमिति पश्चदशं स्थानम्।१॥ एवमनवद्यः पर्याय यदा वैवमप्यष्टादशसु व्यावर्तनकारणेषु सत्स्यपि त्यजति इति,अपाप इत्यर्थः;अहिंसादिपालनात्मकत्वादेतचिन्तनीयमिति जहाति,धर्म चारित्रलकणम, अनार्य इत्यनार्य इवानार्यो म्यपोमशं स्थानम् ।१६। तथा-बहुसाधरणा गृहिणां कामभोगा इति; चेष्टितःाकिमर्थमित्याह-भोगकारणात् शब्दादिमोगनिमित्तं सद् बहुसाधरणाचौरजारराजकुत्रादिसामान्याः, गृहिणां गृहस्थानां, कामनोगाः पूर्ववदित्येतश्चिन्तनीयमिति सप्तदशं स्थानम् धर्मत्यागी, तत्र तेषु भोगेषु, मूधितो गृद्धो, बालोकः, यति।१७। तथा प्रत्येकं पुण्यपापमिति; मातापितृकलत्रादिनिमित्त मागामिकालं, नावबुध्यते न सम्यगवगच्यतीति सूत्रार्थः॥१॥ मप्यनुष्ठितं पुण्यपापं प्रत्येकं पृथग् २, येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेव एतदेव दर्शयतितदिति भावार्थः, एवमष्टादशं स्थानम् ।१८। एतदन्तर्गतो वृक्षा. जया श्रोहाविप्रो होई, इंदो वा पमित्रो में । भिप्रायेण शेषप्रन्थःसमस्तोऽत्रैव ॥ मन्ये तुव्याचकते-सोपक्ले- सबधम्मपरिन्नहो, स पच्छा परितप्पइ ।।॥ शो गृहवास इत्यादिषु षदसु स्थानेषु सप्रतिपक्केषु स्थानत्रयं यदाचावधावितोऽपस्तो भवति संयमसुखविनूते, उत्प्रवजित गृह्यते । पयं च बहुसाधारणा गृहिणां कामनोगा इति चतु. इत्यर्थः । इन्द्रो वेति देवराज श्व, पतितः मां गतः, स्वविभत्रदश स्थानम् । प्रत्येकं पुण्यपापमिति पश्चदशं स्थानम् । शेषा- चंशन भूमौ पतित इति भावः । दमा भूमिः । सर्वधर्मपरिम्रष्टः ण्यभिधीयन्ते-तथानित्यं खल्बनित्यमेव नियमतः, 'भो' सर्वधर्मेन्यः कान्त्यादिन्यः प्रासेवितेभ्योऽपि यावत प्रतिकामइत्यामन्त्रणे, मनुष्याणां पुंसां, जीवितमायुः। एतदेव विशेष्यते- मनुपालनात, सौकिकेन्योऽपि वा गौरवादिज्या, परिभ्रष्टः सर्वतः कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमत्यादनेकोपवविषयत्वादत्य- च्युतः, स पतितो नूत्वा पश्चान्मनार मोहावसाने,परितप्यते,कि. तासारम, तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्तितव्यमिति पोमशं मिदमकार्य मयाऽनुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः।दश०१ लानम् । तथा-बहुच स्त्रमु भोः पापं कर्म प्रकृतं; बहु चेत्यत्र चश- चूलिका(अवेतनमाथा तृना०१३५पृष्ठे मोहावण'शब्द विन्यस्ता) मात कितएं, 'ख' शब्दोऽवधारणे, बढेव, पापं कर्म चारित्र- समणेणं जगवया महावीरेणं समणाणं निगंयाणं समोहनीयादि, प्रकृतं निर्वर्तितं,मयेति गम्यते। श्रामण्यप्राप्तावप्ये कम्खुड्य वियत्ताणं अट्ठारसट्ठाणा पएणत्ता । तं जहा-"वयवं कुष्बुद्धिप्रवृत्ते, नहि प्रजूताक्लिएकमरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किंचिद् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपक्कितव्यामिति छक्कं कायनक, प्रकप्पो गिहिनायणं । पलियंकानसेन्जा य, सप्तदशं स्थानमा तथा-पापानां चेत्यादि पापानां चापुण्यरूपा- सिणाणं सोभवज्जणं" ॥१॥स०१७ सम। णां चशदात्पुण्यरूपाणां च, खमुनोः कृतानां कर्मणाम् समुश- (तषटकादीनि विस्तरतोऽन्यत्र स्वस्वस्थाने लिखितानि) एष दःकारितानुमतविशेषणार्थ:; 'नो' इति शिप्यामन्त्रणे, कृता- बतषदक, शोभावर्जन चेति विधेयं, शेषं प्रतिषेधनीयम् । व्य०नां मनोवाकाययोगैरोघतोनिवर्तितानां कर्मणां कानावरणीया १० उ० घसातवेदनीयादीनां,प्राकपूर्वम्, अन्यजन्मसु दुश्चरितानांप्रमाद अट्ठारसहिं गणेहिं जो होति अपतिहितो नसमत्यो कवायजपुश्चरितजनितानि पुश्चरितानि, कारण कार्योपचारात्। पुश्चरितहेतूनि वा पुश्चरितानि, कार्य कारणोपचारात् । एवं तारिसो होइ ववहारं ववहरित्तए । अट्ठारसहिं ठाणेहिं जो दुष्पराक्रान्तानां मिथ्यादर्शनाविरतिजपुष्पराक्रान्तजनितानि होति पतिहितो अलमत्थो तारिसो होइ ववहारं वहरित्तए। दुप्पराक्रान्तानि, हेती फमोपचारात । दुष्पराक्रान्तहेतूमि वा. "व्य० १० उ० । (इति व्यवहारिलकणं 'वषहार' शम्दे पुष्पराकान्तानि, फो हेतूपचाराता ह च इचरितानि-मद्य वक्ष्यते) पानाश्लीनानृतनाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि-बधबन्धनादीनि । अट्ठारसपावट्ठाण-अष्टादशपापस्थान (क)-10। पापहेतूनि तदमीचामेवंभूतानां कर्मणां वेदयित्वाऽनुत्य फलमिति वाक्य- | स्थानकानि पापस्थानकानि, अष्टादश च तानि स्थानकानि । शेषः। कि मोको भवति, प्रधानपुरुषार्थो भवति, नास्त्यवेदयि- प्राणातिपातादिषु अष्टादशसुपापोपादानहेतुषु स्थानेषु, प्रथः । स्वान नवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोकव्यवच्छेदमाह । इष्यते च स्थापकर्मेपेतानां कैश्चित सहकारिनिरोधस्तत्फला-- सव्वं पाणाइवायं, अलियमदत्तं च मेहुणं सब्बं । दानवादिनिः, तत्तदपि नास्त्यवेदयित्वा मोवस्तथारूपत्वात्कर्म सम्वं परिग्गडं तह, राईजत्तं च बोसिरिमो ॥ १ ॥ णः स्वज दाने कर्मत्वायोगात, तपसा वा कपपित्या, अनश- सव्वं कोई माणं, मायं लोनं च रामदोसे य । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५१) अट्ठारसपावट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः। अट्ठारससीलंगसहस्स कलहं अन्जक्खाणं पेसुधे परपरीवायं ॥ २ ॥ वतांसमवात् । अथवा भावेन श्रमणानां न तु व्यश्रमणानाम्, तेषामपि किंविधानामित्याह-अखएमचारित्रयुक्तानां सकलचरमाया-मोसं मिच्छा-दसणसवं तदेव बोसिरिमो। णोपेताना, नतु दर्पप्रतिसंवयाखएिमतचरणांशानाम् । नन्वखानअंतिमऊसासाम्म य, देहं पि जिणाइपच्चक्खं ॥३॥ चरणा एव सर्वविरता जवन्ति, तत्खएमनेऽसर्वविरतत्वप्रसंगासर्व सप्रनेदं प्राणातिपातं, तथा-सर्वमलाकं मृषाचादं, तथा- त, तथा 'परिवर अश्कम पंच' इत्यागमप्रामाण्यात सर्वसर्वमदत्तमदत्तादानं, तथा-सर्व मैथुनं, तथा सर्व परिग्रहं, विरतः पञ्चापि महाव्रतानि प्रतिपद्यतेऽतिक्रामति च पञ्चातथा-सर्व रात्रिभक्तं रजनिभोजन, व्युत्सृजामः परिहरामः ।। प्येन, नैककादिकमिति कथं सर्वविरतर्देशखामनमिति। अत्रीतथा-सर्व क्रोधं, मानं, मायां, लाभं च, रागषौ च, ज्यते-सत्यमतत, किंतु प्रतिपत्त्यपेकं सर्वविरतत्वं, परिपालतथा-कादं, अभ्याख्यानं, पैशुन्यं, परपरिवाद, मायां, नापेक्या त्वन्यथापि संज्वानकषायोदयात्स्यात् । अत एवोक्तम्भूषा, मिथ्यादर्शनशल्यं च, तथैव सप्रतिकं व्युत्सृजामः । "सब्वे वि य अश्यारा, संजलणाणं उदयो होति" इति । अएतान्यष्टादशपापहेतूनि स्थानकानि पापस्थानकानि, न कंवन- तिचाराहि चरणदेशस्त्रएसनरूपा एवेति। तथैकवतातिक्रमे सर्वामतान्येव किन्तु अन्तिमे उच्चासे, परलोकगमनसमय इत्यर्थः, तिक्रम इति यदुक्तं, तदपि वैवक्किम । विवका चेयम्-"यम्स देहमपि निजशरीरमपि, व्युत्सृजामः, तत्रापि ममत्वमोचनाद् जाव दाणं, ताव अश्वमश्चेव एग पिाएगं अश्वमंतो, अश्क्कजिनादिप्रत्यकं दीर्थकरसिकानां सममिति । प्रव० २३७१1०। मे पंचमूलेणं"॥१॥ पवमेव हि दशविधप्रायश्चित्तविधानं सफल महारसवंजणाउल-अष्टादशव्यञ्जनाकुल-त्रि०ा अष्टादश- स्यात् । अन्यथा मूलागेव, तस्माद्यवहारनयतश्चातिचारसंनवा, भिलोकप्रतीतैर्व्यञ्जनैः शालनतक्रादिभिराकुलं सङ्कीर्ण यत्त- निश्चयतस्तु सर्वविरतितया जलपवेत्या प्रसंगनेति गाथार्थः।। तथा ! अथवा अष्टादशभेदं च तद् व्यञ्जनाकुलम, शाकपा- कथं पुनरेकविधस्य शीलस्यानानामटादशसहस्राणि र्थिवादिदर्शनाद्भदशब्दलोपः । सूपाद्यष्टादशव्यञ्जनसङ्कीणे, भवन्तीत्याह-- चं०प्र०। अष्टादश च भेदाइमे-“सूत्रो १ दणो २ जवस, ३ति जोए करणे सम्मा-इंदियनुमादि समणधम्मे य। वि य मंसाह ६ गोरसो ७ जूसो भक्खा गुललावणिया, १० मूलफला ११ हरियगं १२ डागो १३ ॥१॥ होइ रसालू सीसंगसहस्साणं, अट्ठारसगस्स णिप्पत्ती ॥३॥ य १४ तहा, पाण १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ अंधारसमो योग व्यापारे विषयनूते, करणे योगस्यैव साधकतमे, संज्ञादीसागो १८, णिरुवहनो लोइनो पिंडो" ॥२॥० प्र० २० नि चत्वारि पदानि द्वन्द्वकत्ववन्ति । तत्र संझासु चेतनाविशेषपाहु० । स्था० । भ०। तूतासु, इन्द्रियचक्केषु, नूम्यादिषु पृथिव्यादिजीवकायेवजीवभट्टारसविहिप्पयारदेसीभासाविसारय-अष्टादशविधिमका काये च,श्रमणधर्मे च क्वान्त्यादौ,शीलासहस्राणां प्रस्तुतानाम, रदेशीजापाविशारद-पुंस्त्रीगअष्टादशविधिप्रकाराः, अष्टा अष्टादशपरिमाणमस्य वृन्दस्येत्यष्टादशकं, तस्य, निष्पत्तिः सि किर्भवतीति गाथार्थः॥३॥ दशभिर्वा विधिभिभैदैः प्रचारः प्रवृतिर्यस्याः सा तथा, तस्यां देशीभाषायां देशभेदेन वर्णावलीरूपायां विशारदः पण्डितो ___ योगादीनेव व्याख्यातुमाहयः स तथा । अष्टादशधाभिन्नदेशीभाषापण्डिते, “ अधार- करणादि तिमि जोगा, मणमादीणि उ हवंति करणाई। सविहिप्पयारदेसीभासाविसारए गीयररगंधषणकुसले आहारादी समा, चड सम्मा इंदिया पंच ॥ ४॥ हयजाही" शा०१ श्रु०१०। भोमादी व जीवा, अजीवकाओ य समणधम्मो न । महारससलिंगसहस्स-अष्टादशशीलाइसहस्र--न० । शी खंतादि दसपगारो, एवं दिए जावणा एसा ॥ ५॥ लभेदानामष्टादशसहस्रेषु, पश्चा। तानि चैवम् (करणा ति) सूत्रत्वात्करणादयः, करणकारणानुमतयत्रयो नमिळण वकमाणं, सीझंगाई समासओ वोच्छ । योगा भवन्तिा तथा मन आदी नितु मनोवचनकायरूपाणि, पुन वन्ति स्युः, करणानि त्रीरयेव तथा भाहारादयः भादारभसमणाण सुविहियाणं, गुरूवएमाणुसारेण ॥१॥ यमैथुनपरिग्रहविषयाः वेदनीयभयमोहवेदमोहलोनकषायोदनत्वा प्रणम्य, वर्द्धमान महावीरं, शीलानानि चारित्रांशरू- यसंपाचाभ्यवसायविशेषरूपाःसंज्ञाः,(चउत्ति)चतनःसंहा नष पाणि, तत्कारणानि वा,समासतभसंक्षेपेण, वक्ष्ये भणियामि। न्तिातथा-श्रोत्रादीनि श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानान्द्रियाणि पश्च केषां संबन्धीनि इत्याह-श्रमणानां यतीनां,सुविहितानांसदनु भवन्तीति तथा भूम्यादयः पृथिव्यप्तेजोवायुषनस्पतिद्वित्रिचतु:ष्ठानानां, गुरूपदेशानुसारेण जिनादिवचनानुवृत्त्येति गा- पञ्चेन्द्रिया नव जीवा जीवकायाः, अजीवकायस्तु अजीवराशिः थार्थः॥१॥ पुनर्दशमो यः परिहार्यतयोक्तः स च महाधनानि वनपात्राणि शीलाङ्गानां तावत्परिमारामाह विकटाहरण्यादीनि च, तथा पुस्तकानि तूलाचप्रत्युपक्कितानि सीलंगाण सहस्सा, भट्ठारस एत्थ हॉति णियमेणं । प्रावारादिप्रत्युपेक्कितानि. कोषवादितृणान्यजादिचर्माणि नावेणं समणाणं, अखंचारित्तजुत्ताणं ॥३॥ चागमप्रसिकानीति । तथा-श्रमणधर्मस्तु यतिधर्मः। पुनः कान्स्याशीलाजानां चारित्रांशानां सहस्राण्यष्टादश, अत्र-श्रमणधमें, दिः कान्तिमार्दवार्जवमुक्तितपःसंयमसत्यशौचाकिञ्चन्यग्रह्मचप्रवचने वा, भवन्ति स्युः। नियमेनावश्यतया,नन्यूनान्यधिकानि र्यरूपो दशप्रकारो दशविध इति । ( एवं ति ) पवमुक्तन्यायेन, वेति भावः। कथमित्याह-भावेन परिणामेन, बहिर्वृत्या तु कल्प- स्थिते औत्तराधर्येण पट्टकादौ व्यवस्थिते, विभिचतुष्पश्चदशप्रतिसेवया न्यूनान्यपि स्युरिति भावः । केषामित्याह-श्रमणा-| संख्येयमूलपदकलापभावना भङ्गकप्रकाशना, पपा अनन्तरवनां यतीनां न तु श्रावकाणां सर्वविरतानां चैव तेषामुक्तसंख्या-च्यमाणलक्षणेति गाथाद्वयार्थः ॥ ५॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) अट्ठारससीसंगसहस्स अभिधानराजेन्छः। प्रहारससीसंगसहस्स तामेवाह भत्र पषु शीलानेषु, इदं वक्ष्यमाणं, विशेयं ज्ञातव्यमा (माइदंपज्ज ण करति मणेण आहा-रसमविप्पजदगो उणियमेण । । ति)इदं परं प्रधानमतीदंपरं,तद्भाव ऐदंपर्य तत्वमातुशय्यः पुसोइंदियसंवुडो पु-दविकायारंज खंतिजुभो ॥६॥ नःशम्पार्थः। तद्भावना चैवम्-शीलासहस्राण्यष्टादश भव न्तिाऐदंपर्य पुनरेप्पिदं आय,बुद्धिमद्भिर्बुधैः। किंतदिस्याह एकन करोतीति करणलकणः प्रथमयोग उपात्तः। मनसेति प्रथ मपि। अपिशब्दादू बहून्यपि,सुपरिबानिरतिचारं,शीमाङ्गं चरमकरणम् । (आहारसम्मविप्पजढगो उत्ति) आहारसंक्राषिप्रदी पांशः,शेषसद्भावे तदन्यशीलाङ्गसत्तायामेव,तदेवं समुदितान्येणः। अनेन च प्रथमसंका । तथा-नियमनावश्यतया श्रोत्रेन्द्रियसं पैतानि नवन्तीति नचादिसंयोगभङ्गकोपादानमपि तु सर्वपदावृतो निरुकरागादिमत्श्रोत्रेन्द्रियप्रवृत्तिः, अनेन च प्रथमेन्द्रियम। न्स्यभास्येयमष्टादशसहस्रांशतोक्ता यथा त्रिविधंत्रिविधेनेत्यस्य एवंविधः सन् किं करोतीत्याह-पृथिवीकायारम्नं पृथ्वीजीव नवांशतेति । इह च सुपरिशुरुमिति विशेषणाद्यवहारनयमतेहिंसाम, अनेन च प्रथमजीवस्थानम् । कान्तियुतः कान्तिसंपन्नः, मापरिशुद्धानि पासनायामन्यतरस्याभावेऽपि स्युरिति दर्शितम्। अनेन प्रथमश्रमणधर्मभेद ति । तदेवमेकं शीसानमावि वित एवं हि संज्वलनोदयश्चरितार्थो नवेदिति; चरणैकदेशभहतुमिति गाथार्थः॥६॥ त्वात् तस्य । अत एव यो मन्यतेसवणं भक्कयामीति तेन(मुनिना) अथ शेषाणि तान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह मनसानकरोत्याहरसंहाविहीनोरसनेन्द्रियसंवृतः पृथिवीकायइय मद्दवादिजोगा, पुढवीकाए जति दस नेया। समारम्भमुक्तिसंपन्न इत्येतदेकं तद्भगम। तद्भतेच प्रतिक्रमणादिप्रानकायादीसु वि, इय एते पिंमियं तु सयं ॥७॥ प्रायश्चित्तेन शुकिः स्यातं,अन्यथा मूझेनैव स्यादिति गाथार्थः।१०। सोइदिएण एयं, सेसेहिं वि जे इमं तो पंचो।. अनन्तरगाथाथै समर्थयन्नाहआहारसम्मजोगा, श्य सेसाहिं सहस्सगं ॥ ७॥ एक्को वाऽऽयपएसोऽसंखेयपएससंगओ जह तु। एवं मणेण वइमा-दिएसु एयं ति बस्सहस्साई। एतं पि तहाणेयं, सतत्तचाओ शहरहा उ ॥ ११ ॥ ण करई सेसेहिं पि य, एए सव्वे वि श्रद्वारा ॥७॥ एकोऽपि,प्रास्तामनेकारात्मप्रदेशो जीवांश,असंख्येयप्रदेशसंइत्यनेनैव च पूर्वोक्ताभिलापेन, मार्दवादियोगान् मार्दवावा गत एष संख्यातीतांशसमन्वित एव भवति, तस्य तथास्वन्नावत्वादिपदसंयोगेन,पृथिवीकाये पृथिवीकायमाश्रित्य, पृथिवीकाय. तू। यथा यवत् ,तुशब्द एषकारार्थः। तत्प्रयोगश्चदर्शित एव । एतसमारम्भमित्यभिलापेनेत्यर्थः भवन्ति स्युः,दश भेदा दश शील दपि शीलाङ्गमापि,तथा तच्चेषशीसारसमन्वितमेव,झेयं ज्ञातध्यविकल्पाः, अप्कायर्यादिष्वपि नवसु स्थानेषु, अपिशब्दो दशे म, शबानपेकत्ये तस्य को दोष श्याह-स्वतत्वत्यागः सर्वविरत्यस्येहसंबन्धनार्थ इति । अनेन क्रमेण पते सर्वेऽपि भेदाः । तिलकणशीलामहानिः स्यात् । इतरथा तु पकताय पुनरित्यर्थः। (पिडियं तु सि) प्राकृतत्वात्पिण्डिताः पुनः सन्तः, अथवा पि समुदिताम्येतानि सर्चविरतिशीलतामापद्यन्ते । अन्यथा पुनः गिडतं पिरिडमाभित्य,शतं शतसंख्याः स्युरिति,श्रोत्रेन्द्रियेणैत सर्वविरतिशीमातां त्यजन्तीति नावनेति गाथार्थः ॥११॥ च्छतं लब्धम, शेषैरपि चक्षुरिन्द्रियादिभिः,यद्यस्मादिदं शतं प्र श्वमेव समर्थयत्राहत्येकं लभ्यते, ततो मीलितानि पञ्चशतानि स्युः। एतानि चाहा जम्हा समग्गमेयं, पि सव्वसावज्जजोगविरई उ । रसंशायोगालब्धानि इति। एवं शेषाभिस्तिभिः पञ्च पञ्चश- तत्तेणेगसरूवं, ण खंमरूपत्तणमुवेइ ॥ १ ॥ तानि स्युः,एवं च सर्वमीलने सहस्रद्वयं स्थादिति । एतत् सह- यस्मात् कारणात्सम परिपूर्ण मेव,सदा देशिकमित्यर्थः। एतहस्रद्वितीय मनसा लब्धं ( वइमाइपसु सि) वागाद्योर्वचन- दपि शीलं, न केवलमात्मा समग्रः सनात्मा स्यात् । सर्वसावद्यकाययोःप्रत्येकमेतत् सहस्रदयम, इति एवं,षट्सहस्राणि न क- योगविरतिःसमस्तपापव्यापारनिवृत्तिर्भवति,तत्स्वभावमित्यर्थः। रोतीति अत्र करणपदे स्युः शेषयोरपि च कारणानुमत्योरि. तुशब्द एवकारार्थः। योजितश्व-तथा च-तत्त्वेन सर्वनिवृत्तिरूपत्यर्थः । षट् षट् सहस्राणि स्युः । एते अनन्तरोक्ताः, सर्वेऽपि त्वेन हेतुना एकस्वरूपमष्टादशसहस्रांशमेव । अन्यथा सर्वविशीलभेदाः पिण्डिताःसन्तः,(अट्ठार ति)प्राकृतत्वावष्टादशस- रतित्वायोगाद्न खएमरूपत्वमेकाचंशबैकस्यम, उपैत्युपयातीहस्राणि भवन्तीति गाथात्रयार्थः ॥६॥ नन्कयोग एवाष्टादश- ति।प्रयोगोऽत्र-यादपेक्षया स्वतत्त्वलनते तत् तम्यूनतायां तन्न सहस्राणि स्युर्यदा तुद्यादिसंयोगजन्या इह क्षिप्यन्ते तदाबहु- भवति। यथा-प्रदेशहीन भास्मा, यथा वा शतमेकाद्यन्नावे, सभतराः स्युः। तथाहि-एकवादिसंयोगेन योगेषु सप्त विकल्पाः, तेच सर्वस्वापेक्वया सर्वविरतिः स्वतत्त्वम, अत एकादिशीएवं करणेषु, संझाषु पञ्चदश,इन्द्रियेवेकत्रिंशद, भौम्यादिषुत्र- मानविकमोऽसौ न नवतीति गाथार्थः ॥ १२ ॥ योविंशत्यधिकं सहस्रम, एवं क्षमाविष्वपि । श्स्येषां च राशीनां सक्तार्थ एव विशेषाभिधानायाहपरस्पराभ्यासे द्वे कोटिसहने,त्रीणि कोटीशतानि, चतुरशीति- एयं च एत्थ एवं, विरतीनावं पच्च दहव्यं । कोटीनामेकपञ्चाशलक्षाणि, त्रिषष्टिसहस्राणि,द्वेशते,पश्चषष्टि- नन बज्झं पि पवित्ति,जं सा जावं विणावि भवे ॥१३॥ श्चेति [२३८४५१६३२६५ ] ततः किमष्टादशैव सहस्राराय- एतच्च एतत् पुनः शीलम, अत्र शीलानप्रक्रमे, एषमखतानि । उच्यते-यदि श्रावकधर्मवदन्यतरभनकेन सर्वविरति एडरूपं, विरतिभावं सावद्ययोगविरमणपरिणाम,प्रतीत्याश्रि. प्रतिपत्तिः स्यात, तदा युज्येत,तद्भनेन तत्रैवमेकतरस्यापिशी त्य, द्रष्टव्यं शेयम्। न तु न पुनः,बाह्यमपि कायबाक्संबन्धिनी. लाङ्गकल्पस्य शेषसद्भाव एष भावात् । अन्यथा सर्वविरतिरेष मपि, अपिशब्दः समुच्चये, प्रवृत्ति चेष्टाम् ; कुत एतदेवन स्यादित्येतदेवाह मित्याह-यद् यस्मात् सा बाह्या प्रतिपत्तिः,भावमध्यवसायं,वि. एत्थ इमं विलेयं, अइदंपज्जं तु बुषिमतेहिं। नाऽपि अन्तरेणापि अपिशब्दाद्भावेन सहापि,भवेत् स्यादिति एकंपि मुपरिसुच, सीलंग सेससम्भावे ॥२०॥ गाथार्थः॥१३॥ पंचा-१४ विवं० श्रावधा पं० ब०। द०। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) अट्ठारससेणि अभिधानराजेन्द्रः । अठावय अट्ठारससेणि-अष्टादशश्रेणि-स्त्रीला कुम्भकारादिषु अष्टादश- समयकेन शिवमगुः, स जयत्यापदगिरीशः॥४॥ सु राशःप्रजासु,जंग अष्टादशश्रेणयश्चेमाः-"कुंजाररपट्टाला२, रत्नत्रयमिव मूर्त, स्तूपत्रितयं चितित्रयस्थाने ! सुवम्मकारा य ३सूचकारा य४|गंधब्बा ५ कासवगा ६, मा. “यत्रास्थापयदिन्द्रः, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ५ ॥ लाकारा य ७ कजकरा ८ ॥१॥ तंबोलिभाय एए, नवप्प सिकायतनप्रातम, सिंहनिषद्येति यत्र सुचतुर्का । यारा य णारा भणिया । अह णं णवप्पयारे, कारुअवम भरतोऽरचयश्चैत्यं, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ६॥ पवक्खामि ॥२॥ चम्मयर १ जंतपीलग २, गंछित्र३ छिप यत्र विराजति चैत्यं,योजनदीर्घ तदर्कपृयुमानम् । य ४ कंसकारा यासीवग६ गुनार ७भिल्ला ८, धीवण कोशत्रयोश्चमुचैः, स जयत्यमापदगिरीशः ॥ ७॥ चम्याइ अदस":३॥ चित्रकारादयस्तु एतेम्वेवान्तवन्ति । यत्र भ्रातृप्रतिमाः, व्यधाचतुर्विशतिर्जिनप्रतिमाः। "तए ण तामो अट्ठारससेणिप्पसेणीओ भरहेणं रना एवं वु. जरतः सारमप्रतिमाः, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ ८॥ त्ता समाणीमो हट्ठाओ" जं० ३ वक्षः। स्वस्वाकृतिमितिवर्णाङ्क-वर्णितान् वर्तमानजिनबिम्बान् । भरतो वर्णितषानिह, स जयत्ययापदगिरीशः ॥६॥ अचारसय-अष्टादशक-त्रि० । अष्टादशवर्षप्रमाणे, "तेवरिसा सप्रतिमा नवनवति, वन्धुस्तूपांस्तथाई तस्तूपम् । होणवा, अट्ठारसिया उ हरिया होइ" अष्टादशिका अष्टा यत्रारचयच्चकी, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १० ॥ दशवर्षप्रमाणा । व्य०४ उ० । ('उसन' शब्दे वि०भा०११५१ पृष्ठे वक्तव्यताऽस्य वक्ष्यते) प्रहालोजि (ए)-अर्यालोमिन-त्रि० । अर्थोऽत्र कुप्यादि जरतेन मोहसिंह, हन्तुमिवाष्टापदः कृताएपदः । स्तत्र मा समन्तालोभः अर्थलोभः स विद्यते यस्येति समन्त शुशुभेऽष्टयोजनीयः, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥११॥ तो धनलुब्धे, "अहोयराम्रो परियप्पमाले कालाकालसमुट्ठा- यस्मिन्ननेककोट्यो, महर्षयो जरतचऋवाद्याः । ई संजोगट्ठी अट्ठालोभी" प्राचा० १ ०२ १०३ उ० । सिद्धि साधितवन्तः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥१२॥ अघावम-अष्ट (टा) पञ्चाशन-स्त्री भ्रष्टाधिका पश्चाशत् ('जरह' शब्देऽस्य वत्त.व्यता धयते) अष्टपञ्चाशत; अष्ट च पश्चाशच्च अष्टपत्राशदिति वा ।' सगरसुताने सर्वा-शिवगतीन भरतराजवंशर्षीन् । ट्ठावन' इति प्रसिद्धायां संख्यायां, तत्संख्येये च। "पढमदो यत्र सुबुद्धिरकथयत, स जयत्यष्टापद गिरीशः॥ १३ ॥ च्चपंचमासु तिसुपुढवीसु अट्ठावणिरयावाससयसहस्सा" परिखासागरमकर-स्त सागराः सागराऽऽशया यत्र । स०५८ सम। परितो रक्ततिकृतये, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥१४॥ अट्ठावय-अर्थपद-न० । अर्यत इत्यर्थो धनधान्यहिरण्यादि कालयितुमिव स्वेनो, जैनो यो गइया श्रितः परितः। कः, पचते गम्यते येनार्थस्तत्पदं शास्त्रम्, अर्थाथै पदमर्थपद संततमुद्घोलकरैः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥ ५॥ म। चाणक्यादिकेऽर्थशास्र, सूत्र०१ श्रु०६अ। ('गंगा' शब्द कथाऽस्य व्या) अष्टापद-न० । द्यूतक्रीडाविशेष, सत्र०१०प्र०ातफन यत्र जिनतिक्षकदाना-दमयन्त्याऽऽपे कृतानुरूपफलम् । के, २ वकाप्रसाद्वासप्ततिकलासु चेयं प्रयोदशी कला। जालस्वन्नावतिलकं,स जयत्यष्टापद गिरीशः ॥१६॥ का०१०१०। सः। तसामान्ये, ज० २बना । नि ('दमयंती' शब्दे कथैषा निरूपयिष्यते) चू०। “अहावयंण सिक्खिज्जा" सूत्र०१७०६० अथवा-अष्टा अष्टी पदानि पङ्कायस्य ।वृत्तौ संख्याशब्दस्य वीप्सार्थत्वानी यमकूपारे कोपात्, विपन्नलं बालिनाऽघ्रिणाऽऽक्रम्य । कारः, भात्वम, अर्चादिः । शारीफलके, अपसु धातुषु पवं पारावि रावणोऽरं, स जयत्यष्टापदागरीशः॥१७॥ प्रतिष्ठा यस्य, स्वर्ण, उपचाराव स्वर्णमयेऽपि, शरभे, लूतायां च। गुजतच्या जिनमहक लन्छोऽवाए यत्र धरणेन्डात । (०) तयोरष्टपदत्वात् । अष्टं यथा स्यात्तथा पद्यते, कृमौः विजयामोघां शक्ति, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ १० ॥ अष्टसु दिचु श्रापद्यते, कीलके, अष्टाभिः सिद्धिनिरापद्यते । (आ ('रावण' शम्दे कथेयं प्ररूपयिध्यते) पद-अप् । ३त०) अणिमाद्यष्टसिभियुक्तत्वे, कैनासे च। पुं०। चतुरश्चतुरोऽष्टादश, द्वौ प्राच्यादिदिक्षु जिनयिम्बान् । वाच । स्वनामस्याते पर्वतविशेषे, यत्र ऋषभदेवः सिकः । यत्रावन्दन गणभृत, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥१५॥ पा०१५ विवा० म०प्र०। कम्प० । "अहावयम्मि अचलेऽत्रोदयमचलं, स्वशक्तिवन्दितजिनो जनो सनते। सेले, चउदसमत्तेण सो महरिसीणं । दसहिं सहसेहि समं, धीरोऽवर्णयदिति यं, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥ २० ॥ शिवाणमणुत्तरं पत्तो" ॥१॥प्रा० क०। जं०। संथा०।०। प्रनुभणितपुरमरीका-ध्ययनाध्ययनात सुरोऽत्र दशमोऽनून् । (गौतमस्याष्टापदगमनं तत्र तापसप्रवाजनम् अज्जवहर' शब्द दशपूर्षिपुएरीका, स जयत्यष्टापदगिरीशः ॥२१॥ व भागे २१६ पृष्ठे द्रष्टव्यम्) आ० क० । भ० । भा० म० यत्र स्तुतजिननाथो-दीक्षत तापसशतानि पंचदश । वि.। एतस्मादेव चास्य तीर्थत्वम् । तन्माहात्म्यं यथा श्रीगीतमगणनाथा, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥२२॥ वरधर्मकीर्तिऋषतो, विद्यानन्दाधितः पवित्रयुतः ।। ('प्रज्जवर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे११६ पृष्ठे कयेयं निरूपिता) देवेन्द्रवन्द्रितो यः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥१॥ इत्यष्टापदपर्वत इव योऽष्टापदमपि चिरस्थायी । ऋषभसुता नवनवतिर्बाहुबलिप्रभृतयः प्रवरयतयः। व्यावर्णि महातीर्थ, सजयत्यष्टापदगिरीशः।२३।ती०१८कल्प यस्मिनभअमृत, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥२॥ भरतचक्रवर्तिकारितचैत्यानामिदामी सत्वे प्रश्नोत्तरेप्रयुजभिवृत्तियोग, वियोगभीरव इव प्रनोः समकम । नन्वष्टापदपर्वते भरतचक्रवर्तिकारिताःसिंहनिषद्याप्रमुखप्रासायत्रर्षिदशसहसाः, स जयत्यष्टापदगिरीशः॥३॥ दास्तातबिम्बानि चाद्ययावत्कथं स्थितानि सन्ति,तथा श्रीशत्रुअपत्राष्ट पुत्रपुत्राः, युगपद् वृषभेण नवनवतिपुत्राः। यपर्वतऽपि नरतकारितनि तान्येव प्रासादबिम्बानि कथं न स्थिता Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) अभिधानराजेन्द्रः । अडावय नि ? | यतस्तत्राऽसंख्याता उद्धारा जाताः श्रूयन्ते, तेनाष्टापदे कस्यसांनिध्यं, शत्रुञ्जये च कस्य न ?, यदेतावान् भेद इति व्यक्त्या प्रसाभ्यमिति । उत्तरम् अष्टापद पर्वते भरतचक्रवर्तिकारित प्रासा दादीनां स्थानस्य निरपायत्वाद्, देवादिसान्निध्यात् च "केवश्यं पुण कालं श्राययणं श्रवसिज्जिस्सइ ? । तसो तेण श्रमेण भणिअं जाव इमाओ ओसप्पिणिति मे केवलिजिणाण मंतिए सुयं" इत्यादि वसुदेवहि एज्य कर सद्भावाच्चाद्य यावदवस्थानं युक्तिमदेव शत्रुञ्जये तु स्थानस्य सापायत्वात्, तथाविधदेयादिसानिध्याभावाच्च भरतकारितप्रासादादीनामद्ययाव दवस्थानाभाव इति संभाव्यते । तत्त्वं तु तत्त्वविद्वेद्यमिति । ही०४ प्रका० । किञ्च अष्टापदपर्वते प्रतिमाप्रतिष्ठा केन कृता ?, कुत्र वासा कथितास्तीति विष्णुच्चपिगणिनः। तदुत्तरम अत्र प्रतिमाप्रतिष्ठा श्रीषभदेव शिष्येण कृतेति श्रीशत्रयमाहात्म्यमध्ये कथिनमस्तीति । (ही०) अष्टापद गिरी वकीलया थे जिनप्रतिमां बन्दन्ते ते सांगा. मिन इत्यक्षराणि सन्ति, तथा च सन्ति ये विद्याधरयमिनस्तथा राचसवानरवारणमेदमिश्रा अनेके थे तपस्विनस्तत्र गन्तु शक्तास्तेषां सर्वेषामपि तद्भवसिद्धिगामित्वमापद्यते, ततः सा का लब्धिः, यया तत्र गम्यते, तथा गौतमादिवचद्भवसिद्धिगामिनो भवन्तीति । तथाऽष्टापदगिरौ ये तपःसंयमोत्थलब्ध्या यात्रां कुर्वन्ति तद्भवसिद्धिगामिन इति संभाव्यते व्यक्काक्षरानुपलम्भात् । ही० १ प्रका० । अडावयवाइ (ए) - अष्टापदवादिन् पुं० इन्द्रभूतिना सह वीरजिनसमीपं समागते विप्रभेदे, कल्प० । अट्ठावीस अष्टाविंशति-स्त्री० । अष्टाऽधिका विंशतिः । अष्ट विंशतिवाविशति अास अधिकविंशतिसंख्यायाम्, “तिमि य कोसे अठावीसं धणु सयं" जं०१ बक्ष अट्टाह- अष्टाहन० । अष्टानामहां समाहारे, शा०१ ०८ श्र० । अट्ठाहिया - अष्टाहिका - श्री० अष्टाना नहां समाहारोऽष्टाहम्, त दस्ति यस्यां महिमायां साहाहिका महिमामाचे व्युत्पत्तेः प्रदर्शनमात्रफलरवेन महिमामात्रस्यैव प्रवृतिनिमित्तत्वात् । शा०१ श्रु०८ श्र० । अष्टदैव सिक्यां च । “अठाहिया य महिमा, सम्मं अणुबंधसाहिगा केद्र" पञ्चा० ८ विष० । श्रा० म० प्र० । (अष्टाहिकाया रथयात्रायाः स्वरूपम 'अणुजाण' शब्दे बक्ष्यते) अहि-अस्थि-न अस्यते । अस-स्थिन्। "डोऽस्थिविसंस्तु ले" || ८ | २ | ३२ ॥ इति संयुक्तस्य धस्य ठः । प्रा० । कीकरो. प्रश्न०१ आश्र० द्वा० औ०] कुलके, श्राचा०२ ०१ अ० उ० । कुल्ये पञ्चमे धातो. तं० । स्था० । सास्थिके सरजस्के कापालिखित "०१० अट्ठि (ल् ) -अर्थिन् - त्रि० । अर्थोऽस्याऽस्तीत्यर्थी । प्रयोजनवति, प्राचा० १ ० ६ ० ४ उ० । अहिअगाम-अस्थिकग्राम-पुं० । स्वनामख्याते प्रामभेदे, तत्र घीरजिनः समवासरत् । तदेतत्सर्वमुक्तम्'अस्थिकप्राम' इत्याख्या, कथं जातेति कथ्यते । प्रामोऽयं वर्धमानोऽन्ते, वेगवत्यस्य नद्यभूत् ॥ १२ ॥ मण्यादिपत्यपूर्णाना-मनसां पञ्चभिः शतैः । धनदेवो वणिक तत्रा-यातः प्रेदय महानदीम् ॥ १३ ॥ महोक्षमेकं सर्वेषु, शकटेषु नियोज्य सः । वामतो दक्षिणनाभ्यां स्तां नदीमुदतारयत् ॥ १४ ॥ महिग अतिभाराकर्षन सोऽथान्तरपुटितो वृषः । तस्य छायां विधायाथ, ग्राम्यानाकार्य तत्पुरः ॥ १५ ॥ चारिवारिकृते तस्य तेषां यत्। पाल्योऽयमिति चोक्त्वा तान्र, साश्रुक् स वणिग् ययौ ॥ १६ ॥ ग्राम्या विभज्य तद् अव्यं, सर्वे जगृहिरे स्वयम् । तस्यासौ निर्दयो ग्राम-श्वारिं वारि न कोऽप्यदात् ॥ १७ ॥ आस्तां किंचित्करिष्यन्ति दयया मे प्रतिक्रियाम् । मत्स्वामिदत्तद्रव्येणाप्येते किंचिन कुर्वते ॥ १८ ॥ ततः प्रद्वेषमापन्न - स्तदूग्रामोपरि सत्वरः । सोऽकामनयोगात् नुषावाधितो वृत्तः ॥ १६ ॥ भूतलपाश्याक्यो, ग्रामे जैव पुरो बने । उपयुक्तोऽथ सोऽशासीत्, तद्वपुः स्वं ददर्श च ॥ २० ॥ मारि तहामलोकस्य स विचके ततः कुधा । लोको ममाभूवंस्तैरस्थिसंचयाः ॥ २१ ॥ कारितैरपि रहायै- मरिनोपशशाम सा । ग्रामान्तरेष्वगुर्लोकाः, स तांस्तत्राप्यमारयत् ॥ २२ ॥ अचिन्तयंस्ते तत्रस्थैः कोऽप्यस्मा निर्विराधितः । यास्तव सत्प्रसादन देतवे ॥ २३ ॥ अथागतास्तदर्थे ते, प्रचक्रुर्विपुलां बसिम । समन्ततः क्षिपन्तोऽथ, ग्रामस्याज्यधुरुन्मुखाः ||२४|| देवो वा दानवो वाऽपि कः कश्चित्कुपितोऽस्ति नः । शरणं नः स एवास्तु, काम्यत्वागः प्रसीदतु ॥ २५ ॥ यो सोऽबादी कामां कुरुताचुन सिनेनापि तदा गोर्मणाः २६ ॥ सत्या. पाणिः सुरोऽभवम् । तेन वैरेण वः सर्वान्, मारयामि ततोऽधुना ॥ २७ ॥ तेऽथ तं भक्तिनम्राङ्गाः, देम्यात् प्रपयप्रदः । कृतोऽस्माभिरवं मन्तु, शामये कर्त्तव्यमादिश ॥ २८ ॥ तद्दैन्यात् सोऽपि शान्तस्ता - नूवे मन्मारितास्थिभिः । कृत्वा कूटं तपरि, कुरुतायतनं मम ॥ २६ ॥ मध्ये विधाय में मूर्ति, श्वेतः पूजयेयुर्ममस्येयुस्ततो मारिः शमिष्यति ॥ २० ॥ तथैव विधुस्ते च मारियापि न्यवर्त्तत । इन्द्रशर्मा भर्ति दवा, प्रास्यैस्तस्थार्थकः कृतः ॥ ३१ ॥ वीयास्थिकूटं पथिकै रस्थग्रामस्तीरितः । ' अस्थिकप्राम ' इत्यास्या प्रामस्यास्य तदायभूव ॥ ३२ ॥ आ० क० | कल्प० । श्रा० न्यू० । श्रা० म० द्वि० । स्था० । अडिकच्छन- अस्थिकच्छप-पुं० । अस्थिबहुले कच्छपभेदे, प्रका० १ पद । अट्टिकठिण अस्थिकठिन- त्रि० । अस्थिभिः कठिनम् । कीकशरमुनि सं - - 66 कवितास्थिक ०ि कतिमानि अस्थिकानि यत्र तत्तथा । गृकीक, "अट्टिकडि सिरपहारु"० अडिग - अस्थिक न० 1 हरुके, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वा०] कापालिके, पुं०। व्य० २ उ० । अवरूबीजे अनिष्पने फले, न० । पृ० १४० । आ (अ) थिंक-१० मोकः स प्रयोजनमस्येत्यार्थिकम् " तदस्य प्रयोजनम्" इति उक् । अथवाऽर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्यास्तीति अर्थिकम "अत इनिवनौ" ५|२| ११५ । इति ग्नू । उस १ अ० मोक्कोत्पादके, "पसन्ना सा " Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५) प्रढिग अभिधानराजेन्द्रः। अद्वियकप्प प्रश्स्संति, विसं अट्ठियं सुयं" उत्त०१०। प्रभिलाषिणि नां मध्यमजिनानां, तत्साधूनामित्यर्थः धियो ज्ञातव्यः । कुतोसूत्र०१ श्रु०२० ३००। ऽस्थितोऽयमित्याह-नो नैव, सततसेवनीयः सदाविधेयो, अडिग (य) कछुट्टिय-अस्थिककाष्ठोत्थित-त्रि० । अस्थि- दशस्थानकापेक्कया । एतदपि कुत इत्याह-अनित्यमर्यादाकान्येव काष्ठानि, काग्न्यिसाधात, तेभ्यो यत्थितं तत्तथा। स्वरूपोऽनियतव्यवस्थास्वन्नाव इति कृत्वा । ते हि दशानां स्थाकनिकीकशेभ्यः समुस्थिते देहे, न०६ श० ३३ उ० । नानां मध्यात् कानिचित स्थानानि कदाचिदेव पालयन्तीति अहिचम्मसिरत्ता-अस्थिचमेशिरावत्ता-स्त्री० । अस्थीनि च भाव शति गाथार्थः ॥ ७॥ चर्म च शिराश्च स्नायवो विद्यन्ते यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता। षट्स्ववस्थितः कल्प इत्युक्तमय तानि दर्शयन्नादअस्थिवर्मशिरामात्रशालित्वे, (धनानगारस्य ) 'अहिचम्म श्राचेलककुद्दे सिय-पमिक्कमणरायपिंगमासेसु । सिरत्ताए परमायंति णो चेव ण मंससोणियत्ताए धणं अणगारं, पज्जुसणाकप्पम्मि य, अट्ठियकप्पो मुणेयव्चो ॥ ८ ॥ अस्थिचर्मशिरावत्तया प्रज्ञायते तमुत्पादावेताविति, न पुनर्मा- आचेनक्योदेशिकप्रतिक्रमणराजपिएडमासेषु प्रतीतेषु विषसशोणितवत्तया, तयोःकीणत्वादिति ।अणु०२ वर्ग। यनूतेषु, पर्युषणाकल्पे च वर्षाकालसमाचारे, चः समुच्चये । भट्ठिचम्मावणछ-अस्थिचर्मावनक-त्रि० । अस्थीनि चर्माव- प्रस्थितकल्पोऽनिहितार्थो ( मुणेयव्यो ति ) ज्ञातव्य इति नकानि यस्य सोऽस्थिचर्मावनकः । कृशत्वाचर्मलग्नकीकशके, गाथार्थः॥७॥ "अविचम्मावण के किमिकिडिनए किसे धम्मणिसंतए यावि एषामपि शेषपदापेकया स्थितकल्प एवेति दर्शयन्नादहोत्था" न. २ श०१३० । सेसमुडियकप्पो, मजिकमगाणं पि होइ विलेो। अद्विजुक-आस्थियुक-न० । योधप्रतियोधयोरस्थिभिः संप्र चउमुचिता उसु अपिता, एत्तोच्चिय भणियपेयं तु ॥६॥ हारे, का० १(०१०। शेषेषु तु प्रागुक्तेभ्यः पम्न्योऽन्येषु पुनः शल्यातरपिएडादिषु, अडिज्काम-अस्थिध्याम-न० । मस्थि च तदू ध्यामं चाग्निना स्थितकल्प उतार्थः, मध्यमकानामपि द्वाविंशतिजिनसाधूनामपि श्यामलीकृतम् । मापादितपर्यायान्तरेऽस्थिनि, भ०५२०२०।। न केवलमाचचरमाणां, भवति स्याद्, विकेयो ज्ञातव्यः। उक्कमेवाअहिदामसय-अस्थिदामशत-न० । हङ्मालाशते, तं०। । मागमेन समर्थयमाह-चतुषु स्थानकेषु शय्यातरपिण्डाषु, लि. महिषमणिसंताणसंतय-अस्थिधमनिसन्तानसन्तत-वि० अ- | ताः परिहारादितोऽवस्थिताः, घट्सु आचेमक्यादिषु अस्थिता स्थिधमन्यः सन्तानेन परम्परया सन्ततं व्याप्तं यत्तदस्थिधम- | अनवस्थिताः कादाचित्कपरिहारादितो मध्यमजिनसाधवः, निसन्ततम । अस्थधमनिपरम्परया व्याप्ते,"अद्विधमणिसंतान अत एव पूर्वोक्तार्थवशादेव, जणितमुक्तमागमे, एतत् श्दम, संतयं सम्बओ समंता परिसमंतं च" तं०। अनन्तरोक्तम् । तुशब्दः पूरणे, इति गाथार्थः ॥६॥ अद्विजण-अस्थिभञ्जन-न। कीकशनम्जनरूपे शरीरदएमे, शेषेषु स्थितः कल्प इत्युक्तमथैतदेव स्पष्टयनाहप्र०१आश्रद्वारा सिजायरपिंमम्मि य, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य । अष्टिमिजा-अस्थि मिजा-स्त्री० अस्थिमध्यरसे, स्था० ३ ग० कितिकम्मस्स य करणे, ठियकप्पा मज्झिमाणं पि ।१ ४००। शय्यातरपिएमे च प्रसिके, तथा चतुर्णी परिग्रह विरत्यन्तअद्धिमिजासारि(ण)-अस्थि मिजानसारिन-त्रिका अस्थि- तब्रह्मचर्यत्वेन चतुःसंख्यानांयामानां प्रतानां समाहारश्चतुर्यामम, मिक्षान्तधातुज्यापके, स्था०६ ग! ताच, पुरुष एव ज्येष्ठः पुरुषज्येष्ठस्तत्र च, कृतिकर्मणश्व वन्दनअद्विमिजापेमाणुरागरत्त-अस्थिमिञाप्रेमानुरागरक्त-त्रि० । कस्य चशम्दा:समुच्चयार्थाः। करणे विधाने,स्थितकस्पःप्रतीतः, मध्यमानामपि द्वाविंशतिजिनसाधूनामपि न केवममाघचरमाअस्थीनि च कीकशानि मिआच तन्मध्यवर्तिधातुरस्थिमिआ. णामिति गाथार्थः ॥१०॥ पंचा०१७विव०। ५० भा० । पं०चू०। स्ताः प्रेमानुरागेण सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्नादिरागेण रक्ता ('अचेन्न' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १० पृष्ठे अस्थितकल्पो इवरता येषां ते तथा । अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रमानु व्यक्तविस्तरः) रागेण रक्ता येते तथा।भ०१श०५० सम्यक्त्ववासितान्तश्चे ..........."अहुणा वोच्छामि अद्वितं कप्पं । तासु, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। "अयमानुसोणिग्गंथे पाययणे अटे अयं परम सेसे अण" इत्येवमुल्लेखेन सम्यकत्विषु, ज्ञा० ५ संखेवपिडियत्यं, जह जणियमणंतणाणीहिं ।। अ० दशादर्श०:001 पत्थे पाए गहणे, उक्कोसजहणगम्मि अविओ तु । भट्टिय--अर्थित-त्रि० । वाचिते, उत्त० १ अ0। ठियमट्टिते विमेसो, परूविता सत्त कप्पाम्म । अस्थित-त्रि० । अव्यवस्थिते, प्रभ० ३ आश्र० हा०। वत्याणि य पाताणि य, मज्किमतित्थंकराण कप्पम्मि । अद्वियकप्प-अस्थितकम्प-पुं० । क०स० । अनमस्थितसमा बत्यप्पमाण वेगे, अडियकप्पो समक्खाओ। चारे, पश्चाता मांगरूयं पि वत्यं, श्रघारमपन्नतं रूवगजेहम्मं । अस्थितकल्यानिधानायाहउसु अडियो उ कप्पो,एत्तो मजिकमजिणाण विराणेश्रो। एत्तो य सतसहस्सं, उक्कोसमावं तु णायव्यं ॥ हो सययसेवणिजो, अणिच्चमेरासरूवो त्ति ॥ ७॥ जहणग अट्ठारसगं, वत्थं पुण साहुणो अणुएणातं । षट्स दर्शयिष्यमाणरूपेषु पदेषु, अस्थितस्तु अनवस्थितः,पुनः एतो अतिरित्तं पुण, णाणुमातं भवे वत्यं ।। कम्पः समाचारः,(एत्तोति) एतेभ्य एव दशज्या पदेभ्यो, मध्या- जिम राणं कप्पं, अहुणा वोछामि आशुपुब्बीए। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५६) अट्ठियकप्प अभिधानराजेन्द्रः। अडडंग अंजत्थ जहा णिवयति, समासतो तं जहा सुणसु ॥ जग्गहणं परमपयत्तणंमयमाणो, पढम संथरमाणो तसपाणवीजिणथेराणं कप्प, जम्हा उहितम्मि अहिए चेव । यरहिया कंदमूलरहिप गेराहा, अंतरंतोपुण तसपाणसहिए वा बीयकंदमूलसहिएषा गएडा, किंकारणं?, तेण विणा पासु पाठितअद्वितकप्पाणं, तम्हा अंतग्गता पते ॥ णक्खओ डोजा,तरमाणो सुरूंगेराहेजा,अतरंतो पेवेजा। गाहाजो तु विसेसो एत्य, तं तु समासेण वरि बक्खामि । 'सत्त दुय तिलिपिमेसणपाणेखणामोदसए'ति । दस.एसणाजिणयेराणं कप्पे, जिणकप्पे ता इमं वोच्चं॥ दोसा। 'अणेगहाणेत्ति' उमामाश्यं न दस सोलस । एसो त्ति' दुयसत्तगे तियचउ-ककेगस्स असएगदेणं । गादिरिसं नाम उम्गमउप्पायणपसणासुरूं,तविवरीय जपतेहि क्षेव उग्गमाईहिं असुकं, तं गेहेजा गच्चसारक्खणहउँ, गच्चअवि होज्ज कानकरणं, पुणरावत्तीण वि य तेसि ।। वासीहिं भणिय नामकारण कप्पड़,श्यरहान कप्पाएस घेरकपिझसणा उ सत्त न, हवंति पाणेसणा न सत्तेव । प्पो।पं०चू।(अस्थितकल्पप्रसङ्गाद् जिनस्थविरकल्पावप्युक्ती) चउ सेज्ज वत्थ पाते, तिले ते चनकगा होति । अट्टियप्प (ण) अस्थितात्मन्-त्रि०। चञ्चलचित्यतयाऽस्थिरदोल्लादिमान सत्तसु, अवणेउं सेसमायं च । स्वनाव, “ अध्यिप्पा भविस्ससि" उत्त०१३०। असद्ध होति बेदो, दो दो अवणे चउक्केसु ॥ अडिसरक्ख-अस्थिसरजस्क-पुं०। कापालिके, न्य० ७३० । गेएहंति उपरिमासु, तत्थ अवि घेत्तु अपतरियाए । अद्विसुहा-अस्थिसुखा-स्त्री०प्रस्तां सुखहेतुत्वादस्थिसुना। हेट्ठिला पुण गेएहति, जदि विकरे कालकिरियं तु ।। औ०। अस्थनां सुखकारिएयां संवाधनायाम्, कल्प० । अणजिग्गहेण णविता,गिएइंति विही तु एस जिणकप्पे। | अदुत्तर-अष्टोत्तर-त्रि०।६वा अष्टाभिरधिके, "अहत्तर सयस- . हस्सं पीइदाणं दलयंति" अष्टोत्तरं शतसहस्त्रं मरजतस्य अहुणा उ थेरकप्पो, वोच्छामि विहिं समासेणं ॥ तुधिदानं ददाति स्मेति । औ०। गहणे चउन्विहम्मि, वितिए गहणं तु परमजत्तेणं । अद्दुत्तरसयकूड-अष्टोतरशतकूट-पुं० शत्रुजयपर्वते, तस्य ता. जं पाणवीयरहियं, हवेज तरमाणए सोही।। वत्प्रमाणकूटत्वात् । ती०१कल्प। गहणं चउव्विहंती, वत्थं पातं च सेज्न आहारो। अट्टप्पत्ति-अर्थोत्पत्ति-स्त्री०। अर्थस्योत्पत्तिर्यस्मात् । व्यवहारे, एतसिं असतीए, गहणं पढमं तु बीयस्स ॥ अर्थो व्यवहारादुत्पद्यते इति तस्य तथात्वम् । व्य० २ २० । वितियं पातं जमति, किं कारणं तस्स गहण पदम तु। | अदुस्सास-अष्टोच्चास-पुंग पञ्चनमस्कारे, सहस्सासे अहवा तण विण वामिपडिमा-गिहिभायणभोगहाणी य॥ | अणुग्गहाई उडापज्जा" पं०व०२द्वा०। अहवा चनविहं तू, असणादी तत्थ भोज्जगहणं तु । अहुस्सह-अष्टात | अहस्सेह-अष्टोत्सेध-त्रि० । अष्टौ योजनान्युत्सेध उच्छ्यो ये. तत्थ तु वितियं पाणं, तस्स तु गहणं पढमताए । षां ते तथा । अष्टयोजनोथे, "चकटपठाणा अदुस्सेहा य" स्था० ६ ठा। अमतीए फासुयस्स, वसहिए एकं विय सहिए वा। अम-अट-धा० गती, । ज्वादि०, सक०, पर०, सेट् । पाच०। किं कारण तेण विणा, आसुं पाणक्खभो होज्जा ।। 'अति संसारे' प्रश्न १० घा० । तरमाणे गेएहंती, मुहं अतरो प्रेझेय संथरे । अट-पुं० लोमपविभेदे, जीव०१ प्रति०। प्रशा। संथरं तो तु गएहति, पावति सहाणपच्छित्तं ॥ अवट-पुं० । अव-अटन् । “ यावत्ताबजीवितावर्तमानाबटसेत्तं दुए दसए व, भणेण गणण वा भवग्गहणं । प्राचारकदेवकुलैवमेवेवः" ८ । १।२७शइति सूत्रेण अन्तर्वर्सएत्तो ति गादिरित्तं, जग्गमनप्पायणेसणासुकं ॥ मानस्य वस्य लोपः । कूपे , प्रा० । जणियं ति कम्पति त्ती, तस्स असतीए असुकं पि । अमनझिअं-देशी-पुरुषायिते , विपरीतरते च । दे० ना० एसो तु थेरकप्पो, पं० भा०॥ १ वर्ग । श्याणि अट्ठियकप्पो। तस्थगाहा-'वत्थे पाए'ति । वत्थाणि सय. सहस्समोल्लाणि वि घेप्पंति,मज्जिमाणं तित्थगराणं, सेसं पुण जं अमझ-अदाब-त्रि० । अग्निकारादिना भश्मवदकरणीये, यिकप्पियाणं भणियं तं भाणियब्वं । जहा-सत्तविहकप्पे तामो "तो अच्छेजा पम्मत्तातं जहा-समय परसे परमाणु" स्था०२ चेव, गो एस म्यिकप्पो।इयाणि जिणकप्पो।तत्थ गाहा-'दुय ग०४ उ० । “अमज्जकुच्छे अट्ठसुवो य गुणा भणिया" सत्तगे' ति।सत्स पिसणामो, सत्त पाणसणाओ अहवा पि दश०१०अ०॥ मचउग्गहपमिमाश्रो य, तियचनक्के सेजपमिमानो य ४ वरथप- अमम-अटट-न०। चतुरशीतिलक्षगुणितेष्टटाने, स्था०२० डिमाओ४पायपमिमाओ४पयासि अरुकोदो श्रावणे- उ० । “चरासीइंश्रममंगसयसहस्सा से एगे असले" कणं ससाहिए संति आहागह पयासु एसमाणा जइन सनंति तो अविकालकिरिया होजा, न य हेक्ष्विासुगएईति, पस जि अनु० । जी० भ० ज० कर्मः। णकप्पो।इयाणि धेरकप्पो।गाहा-'गहणे चम्विहम्मि'ति। वत्थं अममंग-अटटाङ्ग-ना चतुरशीत्या लकैर्गुणिते श्रुटिते,"चनपायं प्राहारो सेजा चराहावे असइ, पढम पार्य घेप्पा, किंका-| रासी तुझियसयसहस्साई से एगे अममंगे" अनु वाचनारणं?,तेण वि पमिमा चेत्र, अहवा असणाई पढम,तत्थ विश्यं पा- न्तरमतेन चतुरसीतिलवगुणिते महात्रुटिते, ज्यो०२पाहुभका Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण श्रमण- टन- न० चरणे, गमने च । स्था०६ ठा० | आम० ध० मी- देशी मार्गे दे० ना० १ वर्ग अमपचाण- -देशी - न० । झाटेषु स्थनामप्रसिद्धेऽन्यत्र विद्धिरिति ख्याते वाहनभेदे, जी० ३ प्रति० । अनमाण प्र०ि गच्छति "अण्णासो संयमसि श्रममाणे " श्र० म० प्र० । अमया-देशी-अत्याम, दे० ना० १ वर्ग । अमादेशी असत्या दे० ० १ वर्ग - ( २५७ ) अभिधानराजेन्द्रः 1 टपाल भट्ट (ट) चत्वारिंशदि अष्टाधिका वा चत्वारिंशत् । ( भडतालिस) द्वघूनपञ्चाशति, भय० । श्रमयालदेशी - प्रशंसायाम्, प्रज्ञा० २ पद । जं० । स० । जी० । प्रय० । अमयालयवमाल-अष्ट (1) त्वारिंशत्कृतवनमाल-चि अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्ना विच्चितयः कृता वनमाला येषु तानि प्रश्वत्यारितवनमानानि चत्वारिंशद माला ०३ प्रति 1 - देशी-' अरुयाल ' शब्दो देशीवचनत्वाअभयालकृतवनमालस्पर्शखावानुमेय निति तेन कृता वनमाखा येषु तानि । प्रशस्तकृत वनमालेवु, जं० ३ प्रति० । प्रा० अटवालको गरइय-भट्टचत्वारिंशत्कोठुकरचित-त्रि स्वाभिप्रविधिको अपरका रविता स्वयमेव रचनां प्राप्तायेषु तानि सुखादिगणे दर्शनात्पाचिक मिष्ठान्तस्य परनिपाता" अरुया ल" शब्दो देशीवचनत्वात्प्रशंसावाची वा । प्रज्ञा० २ पद । वारिशद्भेदभिन्नविचित्रच्छन्दो योपुररचितेषु अरुयालकोटूरश्या अमयाल कयवणमाला स० [ जं० । जी० । 66 विवि (बी) स्त्री० भरन्ति मृगयानि यत्र अट्-अवि, वा डीपू । कान्तारे, स्था०५ ठा०२ ४० । श्ररवे, तंol तद्भेदाः सव्याख्याकाः" अमर्षि सपन्ववायें, वोलेडं देसिश्रोवरसेणं । पाविति जहिष्ठपुरं, भवाकवि पी वहा जीवा ॥ १ ॥ पार्किति निरपुरं जियोवण येष म एवं शिदा ॥२॥ शहाटवी द्विधा व्याटवी, नावाटवी च । तयोः कथाइहास्ति हास्तिकाश्वीय रथपादातिसंकुलम् । पुरस्थ-मध्यथाकारि पहियः ॥ १ ॥ सार्थवाहो धनस्तत्र, गन्तुं देशान्तरं प्रति । प्रस्थितः कारयामास, घोषणां पुरि सर्वतः ॥ २ ॥ यः कोऽप्यस्ति यियासुः स, सर्वोऽप्येतु मया सह । मिलितानां च सर्वेषामाख्यन्मार्गगुणागुणान् ॥ ३ ॥ तत्रैकः सरलोऽभ्वाऽन्यो, वक्रश्चेत्तेन गम्यते । मनसुखेन किं विराधिराद्भवे ॥४॥ सः पुनः सरलः पन्था, अन्ते मिलति सोऽपि च । गम्यते सत्वरं तेन, कष्टेन महता परम् ॥ ५ ॥ तत्रादितोऽपि मार्गे स्तः, सिंहव्याघ्रौ विनाषणौ । भीतानां वकमार्गाणां तावनर्थाय नान्यथा ॥ ६ ॥ पूर्वर्शनं यात्र ताबी चानुधावतः । तत्रैके तरबः सन्ति, पत्रपुष्पफलाद्धृताः ॥ ७ ॥ तवायास्वपि विश्रान्ति-र्न कार्या मृत्यवे हि ताः । ये जीर्णशीर्णपर्णाख्याः, स्थेयमीपतदाश्रये ॥ ८ ॥ मनोरूपलावण्या, मनोहरगिरो नराः । त्र्यांसो मार्गपार्श्वस्था-स्तत्राऽऽह्नयन्ति वत्सलाः ॥ ए॥ श्रव्यं न तद्वचो मांच्या, न मच्छिका कदाचन । दावाग्निः प्रज्वलन मार्गे, विध्याप्यः सततांद्यतैः ॥ १० ॥ श्रविध्यातः पुनः सर्वे, नियमान्निर्दहत्यसौ । अति दुर्गः शलोऽस्ति सोपयोगः स लक्ष्यते ॥ ११ ॥ अन्यथा लङ्घने तु स्यात्, स्थलनाद्यैर्मृतिः कचित् । पुरस्तादस्ति पिल-गरा पंशजाधि ॥ १२ ॥ सावित्रया भगित्येव तत्रस्थानां महापदः । श्रपीयानस्ति गर्त्तोऽग्रे, सर्वदा तत्समीपगः ॥ १३ ॥ द्विजो मनोरथामियो, ये पुरवेति सः । वचस्तस्याचमन्तत्र्यं, पूर्यः स्तोकोऽपि नैव सः ॥ १४ ॥ वर्द्धते पूर्यमाणः स खनित्रैः खन्यमानवत् । तथा पञ्चप्रकाराणि, स्निग्धमुग्धानि वर्णतः ॥ १५ ॥ न प्रेक्ष्याणि न भक्ष्याणि, किंपाकानां फलानि च । द्वाविंशतिः करालास्तु, घेताना विषवन्ति च ॥ १६ ॥ न गण्यास्ते तथासारा, आहारास्तत्र दुर्लभाः । ही यामी निश्यपि पापः सर्वदाऽपि प्रयाणकम् ॥ १७ ॥ गच्छद्भिरेवमश्रान्त--मटवी लगते लघु । प्राप्यते पुरमिष्टं च तत्र चाऽऽसाद्यते सुखम् ॥ १८ ॥ तत्र केचित् समं तेन, प्रवृत्ताः सरलाध्वना । इतरेण पुनः केचित् प्रशस्ते निर्ययी १८ ॥ पृष्ठानुगामिलोकानां शिवादी धर्म वेदितुम गतागताध्वमानं च, लिखन् वर्णान् जगाम सः ॥ २० ॥ ब्रितानुये। अडविजम्म ते सर्वेऽपि समं तेन, संप्राप्ताः पुरमीप्सितम् ॥ २१ ॥ friesकारिणो ये च, याता यास्यन्ति वा न ते । जिनेन्द्र सार्थवादोन घोषणा धर्मदेशना ॥ २२ ॥ पान्थाः संसारियो जीवा, भवो जावाटवी पुनः । ऋजुमार्ग साधुधमों, हिस्तो पर सिंहामी रागद्वेषी, वासनार्थानुगामिनी ॥ २३ ॥ वसत्यः रूयादिसंसक्ताः, सद्वृध्यायया समाः । जरदूवृकोपमानास्तु, निरवद्याः प्रतिश्रयाः ॥ २४ ॥ पावस्थायाः पुनः पार्थ-स्थातुपुरुषोपमाः । ज्वलद्दावानलः क्रोधो, मानो दुर्गमहीधरः ॥ २५ ॥ जानिर्माया, मोनो गर्नरः । फलप्रायाश्च विषया, वेतालास्तु परीषहाः ॥ २६ ॥ ध्यानं डी प्रहरी निधि । प्राथमो नित्यं मोहन २७ ॥ खिलाड़ी वर्णनं सिकान्तग्रन्थनिर्मितिः । पधानाविमुनीन्द्राणां गतयस्याध्यसंविदे ॥ २० ॥ प्रतिसादाच्या सार्थ पथा । 3 एवं मोरावायुपकारी नम्यते जनः ॥ २९ ॥ ० ० अनविजम्मण-प्रटविजन्यन्नः कान्तारम प्रक्ष० १ भाभ० द्वा० । 9 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) अडविदेसदुग्गवास अभिधानराजेन्द्र प्रणइवरसोमचारुरूव अडविदेसमुग्गवासि(ण)-अटविदेशदुर्गवासिन्-पुंग अटवीदेशे पस्य एकदेशस्य वा. एकादिपदात्मकस्यापक्रमणमवस्थानं, शे जलस्थत्रदुर्गरूपेषु दुर्गेषु वसति चौरादौ, प्रभ०३ शानद्वारा पस्य तु सादिपदसनातरूपस्यैकदेशस्योर्दै गमनं यस्यां रच. अडवि (वी) वास-अटवि (वी) वास-पुंगअरण्यवसने, नायां सा समयपरिभाषया पक्रान्तिरुच्यते। इत्युक्तनिकाक्तिम" उब्धिम्गअप्पया असरणा प्रमयीवासं उचेति " प्रम | त्यां तपोरचनायाम, विशे० । प्राधा प्रज-मान्यत्व-न । धनपतित्वे, तस्य सुखकारणत्वात अमसहि-अष्ट (ष्टा) षष्टि-खी अष्ट च षष्टिश्च, अष्टाधि- सुखभेदे च । स्था० १० ना०। का वा षष्टिः । ( अमस ) अष्टाधिकपटिसंख्यायाम, "विम- प्रादयेज्या-साराभायः क्रियमाणा ज्या पूजा आयेज्या,प्रा. सस्सणं अरहो श्रमसाहसमणसामस्साओ"स०६एसमा कृतत्वात 'अकेज' ति। धनिकतसत्कारे, स्था०१० ग०। अमाडो-देशी-तथेत्यर्थे, दे० ना० १ वर्ग। अहोरुग-प्रर्दोरुक-पुं० । अर्ध करुकाद विभजतीति निरक्तादअमित-अटिल-पुं०। चर्मपकिनेदे, प्रशा०१ पद । जी। कोरुक। साध्वीनामौपग्रहिकोपधिविशेषे, ध०३ अधिक। "अडो-देशी-कूपे, दे० ना० १ वर्ग। कोरुगो उ दोरिह वि गिपिहउ गदए कमीभागं" भोरुकोअडोलिका-अटोलिका-स्त्रीयवनाम्नो राज्ञः पुत्र्यां गर्दभराज- पि तौ द्वावपि अवप्रडानन्तकपडावुपरिष्टाद् गृहीत्वा सर्व क. स्य नगिन्याम, वृ०१०। टीभागमासादयति। सच मझचसनाकृतिः केवलमुपरि ऊरुद्धये प्रहक्ख-विप-धा प्रेरणे, तुदा०, उभ०, सक०, अनिद “विपे च कशाबद्धः। वृ० ३ उ० । नि० चू। पं0 40। गंजत्थाडपख" ॥ET१४ात . अण-अव्यानर्थे, "श्रण णाई ममर्थे"IG||१०|एतो अक्खड़, विपति । प्रा०। नप्रर्थे प्रयोक्तव्यौ ।"अण चितिश्रममुणंति" प्रा०। अड़िया-अडिका-स्त्री० उपदेशमात्ररूपे शास्त्रानिबद्ध महानां अण-अण-न० । कुत्सिते, कुरिसतत्वादणन्ति कुत्सितानि करकरणविशेषे, विशे। श्रा० म०। णानि शब्दयन्ति; अणन्स्यनेनेति व्युत्पत्ती। पापे. विशे० आ. अल-अर्ध-न० ऋध-धम् । "श्रद्धमूर्धाधेऽन्ते या" ।।२। म०। प्रणवणेति दण्डकधातुः । अणति गच्चति तासु तासु यो. ४१॥ इति सूत्रेण संयुक्तस्य वा ढः । प्रा० । निषु जीवोऽनेनेति । पापे, आ० म०वि० भ० । शब्दकरणगाआदय-त्रि०। श्रा-प्यै-क; पृषोगयुक्त, विशिष्टे च । वाच० । ऋ. ल्यादिमदाने, तं०। अणत्यनेन जन्तुश्चतुर्गतिकंसंसारामित्यणम् । कर्मणि, आना०१ श्रु०५१०१ उ०। शब्दे, गतौ च । विशे। अण संग परिपूर्णे, नि । औ० । धनधान्यादिभिः परिपूणे, भ०२ रणेत्यादि दएककधातुः । अणन्तीवाऽविकलहेतुत्वेनासातवेद्य ०५० समृरु, न. २० ३२ उ०। स्था० । धनवति, नरकाद्यायुक शब्दयन्तीत्यणाः । क्रोधादिषु चतुर्यु कषास्थाएगा मइतिचा संथा। येषु, विशे। प्रकृअक्कली-देशी-कट्यां हस्त (पाणि) निवेश, दे० ना०१ वर्ग । अन-न० । एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्यादनन्तानुवन्धिषु अक्खेत्त-अर्धकेव-न। अहोरात्रप्रमितस्य केत्रस्य चशेण क्रोधादिषु चतुर्यु कषायेषु, विशे० । “अण दस नपुंसित्थी-वेयं सहयोगमश्नुवत्सु नक्षत्रषु, चं० प्र०) अमकेत्राणि नकत्राणि षट् । नक्कं च पुरिसवेयं च" विशे० । मा० म०प्र० । तद्यथा-नुसरानाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराऽऽपाढा, रोहि- अनस-नाशकटे, अन श्व अनःशरीरे, तस्याऽन्तरात्मसारथिणी, पुनर्वसु, विशाखा चेति। चं०प्र० १० पाहु। ना प्रवर्तनीयत्वात् । जै० गा० । अग-अाढ्य-त्रि०। युक्ते, परिपूर्ण च । पंचा०१२ विव० "सं ऋण-नाव्यवहारकदेयद्रव्ये, का० १ श्रु०१८ अ०। अष्टप्रकारे जमतबगस्स उ, अविगप्पेणं तहकारो"प्रा०म०वि०। । कर्मणि, उत्त०१०। श्राप । अकरत-अर्वरात्र-पुंग अर्द्ध रात्रे, अन् समा० । निशीथे, “अ- अणड-अनति-अन्य० । अतीति अव्ययमतिकमाथे, न अति कुरते मागतो दारं मग्गर" प्रा० म०द्वि० । अनति । अनतिक्रान्ते, तं०। अवाज-अतृतीय-त्रिकाब० ब०।अर्क तृतीयं येषां तेऽई अणकमणिज-अनतिक्रमणीय-त्रि०। व्यजिचारयितुमशतृतीयाः । अवयवेन विग्रहः, समुदायः समासार्थः। (अढाई ) क्ये, “अणकमणिलाई वागरणा" भ० १५ श०१०। सायोः , जी० १ प्रति० । प्रज्ञा ।"अवारजंगुन्नम्गहणमुस्सेहं" मं०रा०। प्रा०म०। अणइप्पगम-अनतिप्रकट-नि० । अनतिप्रकाशे, ध०१अधिक। प्राइजदीव-पर्वतृतीयद्वीप-पुं०म तृतीयं येषां ते तृती- अबइवत्तिय-अनतिपत्य-अब्य० । अनतिक्रम्यत्ययें, "अणश्वयाः, ते च ते द्वीपाश्चेति समासः। अतृतीयद्वीपाः। जम्बूद्वीप- तिय सबसि पाणाणं" प्राचा०१७.६ अ०५०। धातकीखण्डपुष्करालकण साडीपट्टये,भ० ९ श० ३००। अणश्वर-अनतिवर-न० । प्रधाने, न विद्यतेऽतिबरं यस्मात्तप्राइजदीवसमुदतदेकदेसजाग-अतृतीयद्वीपसमुफ्तदे- दनतिवरम् । सर्वश्रेष्ठ, प्रौ। कदेशभाग-पुंग जम्बूद्वीपधातकीखएकपुष्कराद्वीपलवणस अणश्वरसोमचारुरूव-अनतिवरसोमचारुरूप-नि० । अतीव मुबकासोदधिसमुषाणां विवक्विते भागे, "साहारणं पञ्च मा अतिशयेन सोम रष्टिसुभगं चारु रूपं येषां ते तथा । यहा-- वाजादीवसमुदतदेकदेसजाए होज्जा" भ० एस० ३ ०।। तीति अव्ययमतिकमार्थे, न अति मनति, सौम्यं च तच्चारुच . प्रजापति- पक्रान्ति-स्त्री० । अर्द्धस्याऽसमप्रधिभागरू- सौम्यचाक, सौम्बचारुचतपंच सौम्यचाररूपम्, बरं च तत्सौ. II सौखमाari a rm - Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५ ) अणइवरसोमचारुरूव अनिधानराजेन्द्रः। श्रांतकित्ति म्यचारुरूपं च परसौम्यचारुरूपम् । भनतीति अनतिक्रान्तं वर- प्रभृतिभिराचार्यरुपनिवखे प्रावश्यकनियुक्त्यादौ भुतविशेष, सौम्यचारुरूपं येषां ते प्रतिवरसौम्यचारुरूपाः । देवमनुष्या- प्रा० माना ०। विशे०। ('अंगप्पवित' शबय मागे दिमिः स्थलावण्यगुणादिभिरजितरूपेषु, तं० । “तेणं माया | ३० पृष्ठेऽस्य विशेषस्वरूपमुक्तम) अणइबरसोमचारुरुवा भोगुत्तमा " ० ० । अणंगमंजरी-अनगमञ्जरी-स्त्री० । पृथिवीचूमनरनाथस्य प्रणवाएमाण-अनतिपातयत-त्रि। प्राणायतिपातमकुर्वति, रेखायां सुतायाम, दर्श। .. "भणयकंत्रमाणा प्रणश्याएमाणा" प्राचा०१०८०३उ० प्रणंगमण-अनहगसन-पुं० । सुवर्णकारभेने, 'कुमारनन्दी' श्रणइविलंबियत्त-अनतिविलम्बितत्व-न० । अधार्विशे सत्य इति तस्य नामान्तरम् । वृ०४ ३०। (तत्कथा 'दसवर' शर्ष वचनातिशय, रा. दर्शयिभ्यत) ग०५ अधिनि । तं। प्रणइसंधाण-अनतिसन्धान-न । न अतिसन्धानमनतिस सिन्धानमनातस-| अणंगसेणा-अनङ्गमना-स्त्री०। कृष्णवासुदेवसमये द्वारवतीजाग्धानम् । दर्श०। प्रवचने, “भियगाऽणसंधाणं सासयबुढी य | तायां प्रधानगणिकायाम, प्रा०नि० अन्तलाश्रा०म०। जयणा य" पश्चा० ७विव०। अपंत-अनन्त-त्रिका नाऽस्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः। निरन्वयमाशअणं-देशी-ऋणे, दे० ना.१ वर्ग । नानश्यमाने, अपरिमिते, निरवधिके चा" प्रणेते णिए लोए भणंग-अन-न । नास्ति अङ्गमाकारो यस्य । प्राकाशे,चिचे सासए ण विणस्सति" नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः।न निरम्बयनाचावाच० । अगानि मैथुनापेक्या योनिमेंहनं च, तद् व्यतिरि- छोन नश्यतीत्युक्तं जवतीति । सुत्र०१ श्रु०१०४ उ०म०। तान्यनानि । कुचककोरुवदनादिषु, पञ्चा० १ विव० । आहा- अकये, प्रश्न०३ आश्रद्वा० । अपर्यवसाने, दर्श० । सूत्र० । ये सिङ्गादा, स्था०५ ०२ उ० । मोहोदयोदनूततीवमैथुना- नाऽस्यान्तो विद्यत इत्यनन्तम् । केवमात्मनोऽनन्तत्वात् । स०। भयवसायापये कामे, आव० ६ ० । स च पुंसा-स्त्रीपुंनपुंसक- रा०प्र०। अनन्तार्थविषयत्वाद् वाऽनन्तमन्तरहितम, अपसेबनेग, हस्तकर्मादीच्या वा, वेदोदयात् । तथा-खियोऽपि पुरु- य॑वसितत्वात् । दशा०१० भ० । स्था। अनन्तार्थविषयकानपनपुंसकत्रीसेवनेच्चा, हस्तकर्मादीच्या बा। नपुंसकस्यापि-नपुं. स्वरूपत्वात् । स०१ सम० । अविनाशित्वात् । जं. २ वक०। सकपरुपस्त्रीसेवना, हस्तकादीगधा । प्रथ०६द्वा०।१०। केवमकान,हा.१६०००आकाशेच, (न.)तस्यान्तवकामदेवे, पुं०। एका० कोश । आनन्दपुरे नगरे जितारिराजस्य र्जितत्वात । भ०१२०१० उ०। भरतकेत्रजे अवसर्पिण्याचविश्वस्तायां भाव्यां जाते पुत्रे, ग०२ अधि० । बृ० । तुर्दशे तीर्थकरे, अनन्तकौशजयादनन्तः । अनन्तानि वा का. अणंगकिडा (कीमा)-अनङ्गक्रीडा-स्त्री० । भनङ्गानि कु- नादीनि अस्येति । “सब्वेहि वि अणंता कम्मंसा जिया सबसि चककोरुबदनादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा। योनिमेहनयोरन्यत्र चमणताणि जाणादीणि वि रयणविचित्तमणंतं दामं सुमिणे रमणे, पश्चा० ३ विव० । आव० । अनको मोहोदयोद्भुतस्तीको ततो प्रणतो" रत्नविचित्रं रत्नखचितमनन्तमति महाप्रमाणं दाम मैथुनाध्यवसायाख्यः कामो भएयते, तेन तस्मिन् वा क्रीमा स्वप्ने जनन्या रहमतो मतोऽनन्त इति । प्रा. म. वि. । अनअनङ्गक्रीमा । समाप्तप्रयोजनस्यापि स्वलिलेनाऽऽहाय्यः काष्ठ- न्तान् कौशान् जयति, अनन्तर्वाज्ञानादिभिर्जयतिअनन्तजित्। पुस्तफलमृत्तिकाचर्मादिघटितप्रयोजनैयौषिदवाच्यप्रदेशासेव- तथा गर्भस्थे जनन्याऽनन्तरत्नदाम्नि रष्टे जयति च त्रिवनेऽप्यने, श्राब० ६ ०। पञ्चा० । स्वसिङ्गेन कृतकृत्योऽपि योषि- नन्तजित् , भीमो श्रीमसेन इतिवदनन्त इति । ध० २ अधिक। तामबाच्यदेशं यो यः कुनाति । केशाकर्षणप्रहारदानदन्तन- (अनन्सक्रियाऽन्तरादि 'तित्थयर ' शये पक्ष्यते) साधारखकदर्थनादिप्रकारैश्च मोहनीयकर्मघशात्तथा क्रीमति यथा| जीये, प्रश्न १ आमा० । प्रबको रागः समुज्जृम्भते इति तत्यम् । प्रव०६ द्वा० । ६० ।। अणंत-अनन्तजित्-पुं०। अवसर्पिण्याचतुर्दशे तीर्थकरे, अनः कामस्तत्प्रधाना क्रीमा, परदारेषु अधरदशनालिजना ध०२ अधिo। दिकरणे, वात्स्यायनाद्युत्त.चतुरशीतिकरणासेदने च । ध० २ अधि० । अनङ्गक्रीमनमप्यत्र । पश्चा०१ विव० । अयं च स्वदार अणतंस-अनन्तांश-पुं०॥ अनन्ततोऽशो भागोऽनन्तांशः।म. संतुष्टस्तृतीयश्चतुर्थो वाऽतिचारः श्रावकेण न समाचरितव्यः । नन्ततमे भागे, विझे। अतिचारताऽस्य स्वदारेज्योऽन्यत्र मैथुनपरिहारेणानुरागादा- अणंतकर-मनन्तकर-त्रिका संसारपारगमनाऽसमय, "तेलाति सिङ्गनादि व्रतमालिन्यादिति ! उपा०१०। ध० र० श्रा० । संजोगमविप्पहाय, कायोवगा अंतकरा नवंति" कायोपगास्तअस्यादावर्थक्रियालकणे सम्प्राप्तकामभेदे, प्रथ. १६९ द्वा०। उपमर्दारम्भप्रवृत्ताः संसारस्यानन्तकराः स्युः, संसारस्थान्त'अष्टावः गा राज्यस्ता यस्याः साऽनङ्गक्रीमा' इत्युक्तलकणे करा न भवन्तीत्यर्थः । सूत्र०२ ०७०। मात्रावृत्तभेदे, वाच। अणंतकाइय-अनन्तकायिक-पुं०। अनन्ताः कायिका जीवा यत्र श्रणंगपमिसेविणी-अनड्गपतिसेविनी-स्त्री०। मैथुने प्रधान- तदनन्तकायिकम् । अनन्तजीवे वनस्पतिजेदे, ध० २ मधिः । मङ्गं मेहनं भगश्च, तत्प्रतिषेधोऽनङ्गम,तेनाऽनङ्गेनाहायंलिङ्ग.दि. पं०व०। (लकणादि चास्य 'अणंतजीव 'शब्दे बध्यते ) ना, अन वा मुखादी, प्रतिवाऽस्ति यस्याः। अनऊं या काम- अणंतकाय-अनन्तकाय-पुं०। अनन्तजीवे वनस्पती,पं०व०द्वा मपरापरपुरुषसंपर्क तोऽतिशयेन प्रतिसेवत इत्येवंशीला अनछप्रतिसेविनी तथाविधवेश्यावत् पाहायलिङ्गादिना, मुखादी वा, । भणंतकाल-अनन्तकाल-पुं० । अपर्यावसितकाले, प्र० ३ बहुपुरुर्वा मैथुनप्रतिसेवमानायाम, एतादृशी स्त्री गर्भ न धार-| प्राधा प्राधाद्वा०। यत्ति। स्था०५ ग०२०। अणंतकित्ति-अनन्तकीर्ति-पुं०।धर्मदासगण्यपरनामके उपदे. श्रणंगप्पविद्ध-अनङ्गमाविष्ट-नात सास्थविरजबाहुखामि | शमालाकृति प्राचार्य, जै००। . Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतखुत्तो अनंत खुतो - अनन्तकृच्वसू - अत्र्य० । अनन्तवारानित्यर्थः । " अद भंतेजी हंस गोषमा असत अदुवा प्रणतक्त्तो " ० १२ श०६ उ० । अांतग (य) अनन्तक - न० | गणनासंख्याभेदे, स्था० । (२६०) निधानराजेन्द्रः | तश्च पञ्चधा- पंचवि अनंतर पत्ते । तं जहा-नामागंतए, ठवणातर, दव्यात गाथाएं तर, परसात ॥ अडवा पंचविहे तपते । तं जहा एगणंतर, दुहश्रतए, देरित्यात सव्वावश्याराांतर, सासयातर पंचविहेत्यादिप्रतीताना अनन्त के नामा नन्तकम, अनन्तकमिति यस्य नाम यथासमयन्नापयाश्वस्थमिति | स्थापनैव स्थापनाया वा अनन्तकं स्थापनाऽनन्तकम्, अनन्तकमिति कल्पनयादिग्यास शरीरादिव्यतिरिक्तम्. ज्वालामादीनां गणनीयानामनन्तकं प्रत्यनन्त गणना संख्यानमनन्तकमधिवहिताऽस्वादिसंख्येपविषयः संक्याविशेषो गणनानन्तकम्, प्रदेशानां संख्येयानामनन्तकं प्रदेशानन्तकमिति । एकत एकेनांशेनायामल कुणेनानन्तकमेकतो ऽनन्तकम्-यक के क्षेत्रम द्विधा यायामविस्ताराभ्यामन्तकं द्विधा उनन्तके अतर क्षेत्रमापयतरदिग्सक्षणो देशस्तस्य विस्तारो विष्कम्भस्तस्य प्रदेशांपेक्क्याऽनन्तकं देशविस्तारानन्तकम्य दनन्तकं च शाश्वतानन्तकमनाद्यपर्यवसितं यजीवादिव्यम, अनन्त समयस्थितिकत्वादिति । स्था० ५ ठा० ३ उ० । दसविन पण ते तं महाणामा १ तर, दन्त्राांतर, गगणाांतर, परसाणंतए, एमओतर, दुहओंतर, देसवित्थाराांतर, सव्ववित्यारातर, सासयानंतर । नामानन्तकम् अनन्तकमित्येषां नामभूता वर्णानुपूर्वी यस्य, वा सचेतनादेर्वस्तुनोऽनन्तकमिति नाम तन्नामानन्तकम् | स्थापनानन्त कं यदक्षादावनन्तकमिति स्थाप्यते । ग्यानन्त कं जीवव्याणां त्रयाणां वा यदनन्तकम्, गणनाऽनन्त कं यदेको द्वौ त्रय इत्येवं संख्याता श्रसंख्याता अनन्ता इति संख्यामानव्यपेरुं संस्थामाननया संख्यामात्रं व्यपदिश्यत कृति प्रदेशानन्त कम आकाशप्रदेशानां दानमिति पतन्तम, अतीताडका अनागताऽद्धा वा द्विधाऽनन्तकम्, सर्वाद्धा देशबिस्तारानन्तकम् एक श्राकाशप्रतरः । सर्वविस्तारानन्तकं सर्वाकाशास्तिकाय इति । शाश्वतानन्तकमकयं जीवादि द्रव्यमिति । I स्था० १० वा० ॥ से किंतं अंतए । अतए तित्रिहे पत्ते । तं जहापरित्ताणंतर, जुत्ताणंतए अता रंगतए । से किंतं परित्तानंतर ? | परिचाणंतर तिविहे पत्ते । तं जड़ा-जहा ए, कोस, अजमको से किं नार्थत ? । जुत्तांतर तिविहे पाते । तं जहा जहए एए, टक्कोसए, अजहएणमणुकोसए । से किंतं श्रणं नाणंतए ? । अनात दुवि पणने से जहा महणणए, अजह एमको सए । मतग अनन्तकमपि परीत्तानन्तकं, युक्तानन्तकम् अनन्तानन्तकम् । अत्राद्यनन्तभेदद्वये जघन्यादिभेदात् प्रत्येकं त्रैविध्यम् । अनन्तानन्तकं तु जघन्यमजघन्योत्कृष्टमेव जयतीति । उत्कृष्टानन्तानन्तकस्य काव्यसंवादिति सम " जायं परिचातयं के बड़ होड़ है। जहसा संखेज्जासंखेज्जगमेत्ताणं रासीणं मन्भामो परिपुपो जयं परिचात होइ, अहया उकोस असंखेनासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहमयं परित्ताणंतयं होइ, ते परं अजहएएम कोसयाई वाणाई जाव उक्कोसयं परिचा वा पाव उक्कोसयं परिशा सर्व केवड हो जसवं परिचाणं तयमेत्ताणं रासीले मन्त्रासो स्थूणो छक्कोसवं परिचाणत होई, अहया जयं जुत्तातयं स्वूर्ण नक्कोसयं परित्ताणंतयं होइ । जहम्पयं जुत्तातयं केवयं होइ ? जावं परितातयमेनारासी भासो परिपुष्ठो जहा जुत्तागतयं होइ, श्रहवा उक्कोमए परित्ताणंतर रूवं पक्खित्तं जहम्ायं जुत्तातयं होइ, अभवसिद्धिक्रा वि तत्तिया होइ, ते परं प्रजमामकोसयाई जाव उकोसयं सुत्तातयं या पाव उकोसयं तावतयं केनड़ अं होइ है। हमार जुनात अजयसिद्धिमा गुणिता अम्मासो स्वणो कोस जुत्तार्थ हो, अडवा जय अर्थातयं स्पूर्ण उकोस जुत्तातयं होई । जहायं श्रणंताणंतयं केव होणं तात अनवसिकिआ गुशिया अन्नासो परिपुसो जायं अणंताणंतयं होइ, प्रहवा उकोस जतात रूवं पतिं जातातयं होइ, तेण परं अजहरणमएको सपाई ठगाई । जघन्यपरीतानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावत्संख्येयानां राशीनां प्रत्येकं जघन्यपरीतामन्तकप्रमाणानां ज्या परीसामन्तकं भवति । 'भद्रा द सातयमित्यादि' स्पष्टम् । 'जायं जुत्ताणंतयं केलियमित्यादि' व्याख्यातार्थमेव 'अया परिसरांत' इत्यादि सुबोधम् । जघन्ये च युक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि नवन्त्यभव(सका श्रपि जीवाः केवलिना तावन्त एव दृष्टान्तः 'तेरा परमित्यादि' कण्वधम् । 'उक्कोसयं जुत्ताणंतयं केत्तियमित्यादि; जघन्वेन युक्तानन्त केनाभव्यराशिर्गुणितो रूपोनं सन्नुस्कृएं युक्ता • नन्तर्क जवति, तेन तु रूपेण सह जघन्यमनन्तानन्तकं सम्पद्यते । अत एवाह- 'अहवा जायं अणंताणंतयमित्यादि' गतार्थम् । 'जहायं अनंताणंतयं केन्तियमित्यादि' जावितार्थमेव । श्रहवा उक्कोस र जुत्ताणंतर इत्यादि' प्रतीतमेव । ' तेण परं श्रजहासम कोसयाहूं इत्यादि' जघन्यादनन्तानन्तकात्परतः सर्वाण्यपि अज धन्यकृन्यानामन्तकस्य स्थानानि भ सन्तकं नास्येवेत्यभिप्रायः । अन्ये त्याचा प्रतिपादयन्ति श्रजघन्यमनन्तानन्तकं वारश्रयं पूर्व वर्ग्यते, ततश्चैते षडनन्तकाः प्रज्ञेषाः प्रतिष्यते । तद्यथा 1 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६१) अणंतग अभिधानराजेन्द्रः। अांतग "सिका निगोयजीवा, वणस्सई काल पुम्गला चेव । नन्तकादिस्वरूपाणां त्रयाणां जघन्यानन्तकनेदानां च स्वरूपमसवमसोगागास, गप्पेतऽणंत पक्खेवा" ॥१॥ तिदेशतः प्रतिपिपादयिषुराहअयमर्थः-सर्वे सूक्ष्मवादरनिगोदजीयाः प्रत्येकानन्ताः, सर्वे विति चउ पंचम गुणणे, कमा सगासंख पढमचनसत्ताबनस्पतिजन्तवः सोऽप्यतीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः, ऽणता ते रूवजुया, मझा रूवृण गुरु पच्छा ।।७६|| सर्वपुलव्यसमूह, सांसोकाकाशप्रदेशराशिः। एतेच प्रत्ये- श्ह 'संखिळेगमसंखमित्यादि' गाथोपन्यस्तमुत्कृष्ट संख्यातकम् १ कमनन्तस्वरूपाः षट् प्रक्षेप्याः, एतैश्च प्रक्तिप्तर्यो राशिर्जायते, स उत्कृष्टसंख्यातकादिमौलसप्तपदापेक्कया संख्यातकाधनेदविकपुनरपवारत्रयं पूर्ववद्वय॑ते, तथाऽप्युत्कृष्टमनन्तानन्तकं न जब परी०सं० शयुक्तासं० शप्रसंख्यासंघालानि यानिपति; ततश्च केवलकानकेवलदर्शनपर्यायाः प्रतिप्यन्ते । एवं च | परी०प्र०युक्तानं० ६ अनन्तानन्त०७ रीतासंख्यातसत्युत्कृष्टमनन्तामन्तकं सम्पद्यते, सर्वस्यैव वस्तुजातस्य संगृ कादीनि षट्पदानि तानि परीत्तासंख्यातकानन्तानन्तकभेदध्यहीतत्वात् । अतः परं वस्तु सर्वस्यैव संख्याविषयस्थानाधादि विकलानि द्वित्रिचतुःपञ्चसंख्यात्वेन प्रोक्तानि, ततो द्वित्रिचतु:तिनावः । सूत्राभिप्रायस्तु-इत्थमप्यनन्तानन्तकमुस्कृष्टं न प्रा. पचमगुणने द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपदवाच्यराशेरन्योन्याज्या. प्यते; अजघन्योत्कृष्टस्थानानामेव तत्र प्रतिपादितत्वात् इति।त से सति, क्रमात् क्रमेण, (सगासंख त्ति) प्राकृतत्वात् सप्तमास. त्वं तु केवलिनो विदन्तीति नावः। सत्रे च यत्र कुत्राऽपि अन ख्यातम् । स्थापनापेकया जघन्यासंख्यातासंख्यातकम् । (पदमन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्राजघन्योत्कृष्टं एव्यम, तदेवं प्ररू चउसत्ताऽणत त्ति) प्राकृतत्वात प्रथमचतुर्थसप्तमान्यनन्तकानि, पितमनन्तकम् । अनु०। तत्र प्रथमानन्तकं जघन्यपरीत्तानन्तकं चतुर्थानन्तकं जघन्ययुश्दानी नवविधमसंख्येयकं नवविधमेव चानन्तकं कानन्तकंसप्तमानन्तकं जघन्यानन्तानन्तकं नवतीति। शह जघन्य निरूपयितुमिच्छुर्गाथायुगमाह जघ० सं०१मध्य० स०२ उत्कृ० सं०३ मध्यमोत्कृएजेदरूवजुयं तु परित्ता-संखं लहु अस्स रासि अब्भासे । परी०अ०ज०१ परी०अ०म०प०अ० उ०३| तोऽसंख्येयानजुत्तासंखिज्जं लहु, आवलिासमयपरिमाणं ।। ७० ।। यु० अ० ज०४ यु०प्र०म०५ यु० अ० ज०६/न्तकयोः प्रत्येपूर्वोक्तमेवोत्कृष्ट संख्येयकं, रूपयुतं तु रूपेणैकेन सर्षपेण पुन- अ०अ० ज०७/०अ०म० अ०अ००ए|नवविधत्वात युक्तं सल्लघु जघन्यं परीत्तासंख्य परीत्तासंख्येयकं भवति। श्द- प०अ००१ प०अ० म०२ प०अ० उ०३] प्रदर्शितभेदानां मत्र हृदयम्-इह येनकेन सर्षपरूपेण रहितोऽनन्तरोहियो राशि- यु० अ० ज०४] यु०अ०म०५ यु०अ० उ०६| सप्तमप्रथमादिरुत्कृष्टसंख्यातकमुक्तं तत्र राशौ तस्यैव रूपस्य निक्केपो यदा क्रियते अ०अज०७/अमानअनु०९ संस्थान संगतदा तदेवोत्कृष्ट संख्यातकं.जघन्यं परीत्तासंख्यातकं भवतीति। चत एव । श्दमत्रदंपर्यम्-द्वितीये युक्तासंख्यातकपदवाच्ये ज. इहच जघन्यपरीत्तासंख्येयकेऽनिहिते यचपि तस्यैव मत्यमोत्कृ- घन्ययुक्तासंख्यातकसकणे राशी विवृते सति यावन्ति रूपाणि एभेदप्ररूपणावसरस्तथापि परीतयुक्तनिसपदप्नेदतस्त्रिदाना- | तावत्सु प्रत्येकं जघन्ययुक्तासंख्यातकमाना राशयोऽज्यसनीमप्यसंख्येयकानां मध्यमोत्कृष्टनेदौ पश्चादल्पवक्तव्यत्वात्प्ररूप- यास्ततस्तेषां राशीनां परस्परतामने यो राशिर्भवति, तत् यिष्यते । अतोऽधुना जघन्ययुक्तासंख्यातकं तावदाह-(अस्स सप्तमासंख्येयकं मन्तव्यम् । तृतीये त्वसंख्येयकासंख्येयकरासि श्रजासे इत्यादि) अस्य राशेजघन्यपरीत्तासंख्येयकगतरा- पदवाच्ये जघन्यासंख्येयकासंख्येयकरूपे राशी यावन्ति रूशेः, ज्यासे परस्परगुणने सति, लघु जघन्यं, युक्तासंख्येयकंभ- पाणि तावतामेव जघन्यासंख्येयकासंख्येयकराशीनामन्योचति, तच्चावलिकासमयपरिमाणम् । प्रावलिका-"असंखिजाणं न्यगुणने सति यो राशिः संपद्यते तत्प्रथमानन्तकं जघसमयाणं समुदयसमिइसमागमेणं" इत्यादिसिद्धान्तप्रसिका, न्यपरीत्तानन्तकमवसेयम् । चतुर्थे तु परीत्तानन्तकपदवाच्ये तस्याः समया निर्विभागाः कासविभागाः, तत्परिमाणमावनि- जघन्यपरीत्तानन्तकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तावत्संख्यानां कासमयपरिमाणमा जघन्ययुक्तासंख्येयकतुल्यसमयराशिप्रमा- जघन्यपरीत्तानन्तकराशीनां परस्परमभ्यासे यावान् राशिवणा आवलिका इत्यर्थः । एतदुक्तं नवति-जघन्यपरीत्तासंख्येय- ति तचतुर्थमनन्तकं जघन्ययुक्तानन्तकं भवति । पञ्चमे युक्तानकसंबन्धीनि यावन्ति सर्षपक्षणानिरूपाणि तान्येकैकशः पृथ- तकपदवाच्ये जघन्ययुक्तामन्तकरूप राझी यावन्ति रूपाणि क पृथक् संस्थाप्य तत एकस्मिन् रूपे जघन्यपरीत्तासंख्यात- तत्प्रमाणानामेव जघन्ययुक्तानन्तकराशीनां परस्परगुणने यावान् कप्रमाणो राशिर्व्यवस्थाप्यते । तेषां च राशीनां परस्परमच्यासो राशिः संपद्यते तत्सप्तमानन्तकं जघन्यानन्तानन्तकं भवति । विधीयते । हैवं जावना-असत्कस्पनया किस जघन्यपरीत्तासं. आह-परीत्तासंख्यातक १ युक्तासंख्यातक २ असंख्यातासं. ख्येयकराशिस्थाने पञ्च रूपाणि कल्प्यन्ते तानि विधियन्ते-जाता ख्यातक ३ परीत्तानन्तक ४ युक्तानन्तक ५ अनन्तानन्तक ६ पञ्चैककाः १११११ एककानामधः प्रत्येकं पञ्चैव वाराः पञ्च व्य- सक्कणाः षमापि राशयो जघन्यास्तावनिर्दिष्टाः, मध्यमा उत्कृष्टावस्थाप्यन्ते । तद्यथा-१११११.. -प्रत्र पञ्चनिः पञ्च गुणिता चैते कथं मन्तव्या श्त्याह-(ते रूवजुया इत्यादि) ते अनन्तरोहि ष्टा जघन्याः षमपि राशयो रूपेणैककलकणेन युताः समन्विजाता पञ्चविंशतिः । सापि पञ्चभिरभ्यासे जातं पञ्चविशं ताः । रूपयुताः सन्तः किं भवन्तीत्याह-मभ्या मध्यमाः, ज. शतम् । इत्यादिक्रमेणामीषां राशोनां परस्पराभ्यासे जा- घन्योत्कृष्टा इति यावत् । तत्र यः प्राग्निर्दिष्टो जघन्यपरीतातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकशिच्छतानि ३१२५ । पर्व कल्प- संख्यातकराशिः स एकस्मिन् रूपे प्रतिप्त मध्यमो भवति । उनया तावदेतावन्मात्रो राशिर्भवति, सद्भावतस्त्वसंख्येयरूपो । पलकणं चैतत्-नैकरूपप्रक्केप एवं मध्यमनणनं, किन्त्वकैकजघन्ययुक्तासंख्यानकतया मन्तव्य इति ॥ ७८॥ रूपनिक्केपेऽयं तावन्मध्यमो मन्तव्योयावत्कृष्टपरीत्तासंख्येयकसम्प्रति शेषजघन्यासंख्यातासंख्यातकनेदस्य जघन्यपरीत्ता.] राशि प्रवतीत्येवमनया दिशा जघन्ययुक्तासंख्यातकादयोऽपि Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अणंतग अनिधानराजेन्डः। अणंतजीव राशय एकैकस्मिन् रूपे निविते मध्यमाः संपद्यन्ते, तदनु चै- जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसए । कैकरूपवृद्ध्या तावामध्यमा अवसेया यावत् स्वस्वमुत्कृष्टपद अपंतजीवे उसे मूले, जे यावर तहाविहा ॥१॥ नासादयन्तीति। तोते षमपि किंस्वरूपाःसन्त उत्कृष्टा भवन्तीत्याह-(रूवेण गुरुपच्छत्ति) रूपेणककवकणेनोना न्यूना रूपोनाः जस्स कंदस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसई। सन्तस्ते पव प्रागभिहिता जघन्या राशयः, तेशब्द आवृत्येहा- अर्थतजीवे ज से कंदे, जे यावन्ने तहाविहा॥ ॥ पि संबन्धनीयः । किं भवतीत्याह-गुरव उत्कृष्टाः, पाश्चात्याः जस्स खंदस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसई । पश्चिमराशय इत्यर्थः । इयमत्र नावना-जघन्ययुक्तासंख्यात. अणंतजीवे उसे खंधे, जे यावन्ने तहाविहा ॥ ३ ॥ कराशिरेकेन रूपेण न्यूनः, स एव पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तासंख्येयकस्वरूपो भवति । जघन्यासंख्यातासंख्यातकराशिस्तु एकेन जस्स तयाए भग्गाए, समो भंगो य दीसई। रूपेण न्यूनः सन् पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तासंख्यातकस्वरूपोभवति । अणंतजीवा तया सा उ, जे यावन्ना तहाविहा ।।४।। जघन्यपरीत्तानन्तकराशिः पुनरेकेन रूपेण न्यूनः पाश्चात्य उ- जस्स सामस्स भग्गस्स, समो नंगो य दीसई । कृष्टसंख्यातकस्वरूपो भवति । जघन्ययुक्तानन्तकराशिस्त्वेक- अणंतजीवे उसे साले, जे यावरे तहाविहा ॥५॥ स्पोनः पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तानन्तकस्वरूपो भवति । जघन्यानन्तानन्त्रकाशिरेकरूपरहितः पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तानन्तकस्वरूपो जस्स पबालस्स जग्गस्स, समो नंगा य दीसई । भवतीति ॥ ७ ॥ अणंतजीवे पवाले से, जे यावन्ने तहाविहा ॥ ६ ॥ श्वं च संख्येयकानन्तकभेदानामित्थंप्ररूपणमागमाभिप्रायत जस पत्तस्स भग्गस्स, समो नंगो य दोसई। उक्तम् । कैश्चिदन्यथाऽपि चोच्यते, अत एवाह अणंजीवे उ से पत्ते, जे यावने तहाविहा ॥७॥ इय सुनुत्तं अने, वग्गियमिकसि चउत्थयमसंखं । जस्स पुप्फस्स भग्गस्स, समो भंगो य दीसई । होइ असंखासखं, लहु रूवजुयं तु तं मऊ || G०॥ अणंतजीवे न से पुप्फे, जे यावन्ने तहाविहा ॥ ७॥ इति पूर्वोक्तप्रकारेण यदसंख्यातकानन्तकस्वरूपं प्रतिपादितं,त जस्स फलस्स जग्गस्स, समो भंगो यदीसई। सूत्रेऽनुयोगद्वारबकणे सिद्धान्ते उक्तं निगदितम्। कर्म०४कर्म (अत्र मतान्तरम 'असंखिज' शब्दे व्याख्यास्यते) मृताच्गदनसमर्थे अणंतजीवे फले से ज, जे यावन्ने तहाविहा । ए वस्त्रे, आव०४अा नवप्रवचनप्रसिके अनन्तकाये, पंचा०४ विव०॥ जस्स बीयस्स भग्गस्स, समो भंगो य दोसई । अनन्तग-त्रि० । अन्तं गच्छतीत्यन्तगः , नाऽन्तगः अनन्तगः । अणंतजीवे उसे बीए, जे यावने तहानिहा ॥ १० ॥ भविनाशिनि, “चिचा अणंतगं सोयं, निरवेक्खो परिव्वए" तृणमूलं कन्दमूलं यच्चापरं वंशीमूबम, एतेषां मध्ये क्वचिसत्र०१ श्रु० अ०। ज्जातिभेदतो देशभेदतो वा सहयाता जीवाः, कचिदसंख्याताः, अणंतगुणिय-अनन्तगुणित-त्रि० । अनन्तगुणिते, विशे०। । कचिदनन्ताश्च ज्ञातव्याः । (सिंघामगस्सेत्यादि) शुकाटकस्य प्रणतघाइ (ए)-अनन्तघातिन्-पुं०। अगन्तविषयतया अन- | यो गुच्चः सोऽनेकजीवो नवतीति ज्ञातव्यः; त्वक्शावादीन्ते शानदर्शने हन्तुं विनाशयितुं शीतं येषां तेऽनन्तघातिनः । नामनेकजीवात्मकत्वात् । केवलं तत्रापि यानि पत्राणि तानि प्रकानदर्शनविनाशनशीलेषु ज्ञानावरसीयादिकर्मपर्यवेषु, “पस त्येकजीवानि,फले पुनः प्रत्येकमेकैकस्मिन् द्वौ जीवौ भणिती। त्थजोगपमिवने यणं अणगारे अणंतघाश्पज्जवे स्ववे" उत्त. (जस्स मूखस्सेत्यादि) यस्य मूलस्य नमस्य सतः सम पका२६ अा न्तरूपश्चक्राकारो भङ्गः प्रकर्षेण रश्यते, तन्मूलमनन्तजीवमवअणंतचकावु-अनन्तचक्षुष-पुंग अनन्तं रेयानन्ततया नित्यतया सेयम् । (जे यावन्ने तहा इति) यान्यपि चान्यानि अभमानि पाचकुरिव चनुः केवलं ज्ञानं यस्य, अनन्तस्य वा लोकस्य पदा तथाप्रकाराणि अधिकृतमूलभग्नसमप्रकाराणि तान्यप्यनन्सजीयंप्रकाशकतया वा चकुर्भूतो यः स भवत्यनन्तचक्षुः । सुत्र० यानि ज्ञातव्यानि । एवं कन्दस्कन्धत्वक्शाखाप्रबालपत्रपुष्पफल१४०६ अग अनन्तमपर्यवसानं नित्यं शेयानन्तत्वाद्वाऽनन्तं बीजविषया अपि नव व्याख्येयाः ॥१०॥ प्रज्ञा०१पद । चक्षुरिव केवलज्ञानं यस्य स तथा। केवलज्ञानिनि, "तरिडं स. अधुना मूलादिगतानां वल्कसरूपाणां छल्लीनामनन्तमुहंचमहाभवाघ,अन्नयंकरवीर अणंतचक्खू" सूत्र०१ भु०६अ। जीवत्वपरिकानाथै बकणमाहप्रणंतजिण-अनन्तजिन-पुं० अनन्तश्चासौ कानात्मतया नित्य- जस्स मूलस्स कट्ठामो, छल्ली बहलतरी नवे । तया वा जिनश्च रागद्वेषजयनादनन्तजिनः। अवसर्पिण्याश्चतु अणंतजीवा उ सा छबी, जा याऽवमा तहाविहा ॥२॥ दशे तीर्थकरे, आचा। कल्प० । प्रव०। जस्स कंदस्स कहाओ, बड़ी बहलतरी भवे । अणंतजीव-अनन्तजीव-पुं० । अनन्तकायिके वनस्पतिजेदे, खा० ३०१०। अणंतजीवा उ सा बबी, जा याऽवमा तहाविहा ॥२॥ अनन्तजीवस्य भेदास्तबकणं चेत्थम् जस्स खंधस्म कहाओ, गल्ली बहलतरी नवे । तणमूलकंदमूलो, वसीमृति त्ति याऽबरे उ। अणंतजीवा उसा नही, जा याऽवमा तहाविहा ॥३॥ संखेजमसंखिज्जा, बोधब्बा एंतजीवा य ॥ । जस्स सालाइ कट्ठामो, छबी बहलतरी भवे । सिंघाडगस्स गुच्छो, अणेगजीवो न हीति णायचो। । प्रांतजीवा उ सा गल्ली,जा याऽवमा तहाविहा॥ ४॥ पत्ता पत्तेय जीवा, दोणि य जीवा फले भणिया ॥२॥ | यस्य मूलस्य काष्ठाद् मध्यसारात ग्ली बल्कमरूपा बहसतरा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६३) अणंतजीव अन्निधानराजन्नः। अणंतजीव भवति, सा अनन्तजीवा ज्ञातव्या । (जा याऽयमातहति) याऽपि अनन्तजीवात्मका:, नवरं कन्के नजनाः स हि कोऽपि चान्या, अधिकृतयाअनन्तजीवत्वेन निश्चितया समानरूपा रही । देशविशेषादनन्तोऽनन्तजीवो भवति, कोऽप्यसंख्येयजीवात्मक साऽपि तथा विधा अनन्तजीवात्मका, ज्ञातव्या । एवं केन्दस्कन्धः | शति ॥ १३॥ शाखाविषया अपि तिस्रो गाथा: परिभावभीयाः। प्रज्ञा०१ पद । किं बीजजीव पव मूलादिजीवो नवति, नतान्यस्तस्मिन्नपक्रान्ते यदुक्कं जस्स मूखस्स भमास्स समो भगो य दीई' इत्यादि उत्पद्यते इति परप्रश्नमाशङ्कयाहतदेव लकणं स्पष्टं प्रतिपिपादयिषुरिदमाह जोणिब्जूए बीए, जीवो वकमा सो व अल्लो वा । चक्कागं भन्जमाणस्म, गंगी चुमघणो नवे । जो विअमूले जीवो, सो वि हु पत्ते पढमयाए ॥१४॥ पुढवीसरिसभेदेण, अपंतजीवं वियाणाहि ॥१॥ बीजे योनिभूत योन्यवस्थां प्राप्ते, योनिपरिणाममुजहतीति भाचक्रकं चक्राकारमेकान्तेन समं भङ्गस्थानं यस्य भज्यमानस्य वः।बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था। तद्यथा-योन्यवस्था, अयोन्यवस्था मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखापनपुष्पादेर्भवति, तमूत्रादिकमनन्त- चातत्र यदा बोजं योन्यवस्थानं जहाति, अथ चोज्जितं जन्तुना जीवं विजानीहि इति सम्बन्धः। तथा 'गंजीचुमघणो नवे' इति । तदा तत् योनिनूतमित्याभिधीयते । सज्झितंच जन्तुना निश्चय. प्रन्धिः पर्व सामान्यतो भास्थानं वा स यस्य नज्यमानस्य चूर्णे- तो नावगन्तुं शक्यते, ततोऽनतिशायिना सम्प्रति सचेतनमचेन रजसा घनो व्याप्तो नवति, अथवा यस्य पत्रादेर्भज्यमानस्य तनं वा अविध्वस्तयोनि योनिनृतमिति व्यवन्हियते । विश्वस्तचक्राकारं नगरजसा प्रन्थिस्थाने व्याप्तिं च विना पृथिवीसहशे- योनि तु नियमादचेतनत्वादयोनिभूतमिति । अथ योनिरितिकिनभेदेन जास्थानं भवति,सूर्य करनिकरप्रतप्तकेदारतरिकाप्रतरख. मभिधीयते। उच्यते-जन्तोरुत्पत्तिस्थानमविश्वस्तशक्तिकं तत्रएमस्येव समोभङ्गो भवतीति जावः तमनन्तकायं विजानीहि ।। स्थजीवपरिणमनशक्तिसम्पन्नमिति भावः। तस्मिन् बीजे योपुनरपि लवणान्तरमाह निलूते जीवो व्युत्क्रामति उत्पद्यते, स एव पूर्वको बीजजीवोऽन्यो गृढसिरागं पत्तं, सच्चीरं जंच होइ निच्छीरं । वा आगत्य तत्रोत्पद्यते । किमुक्तं भवति-तदा बीजनिवर्सकेन जं पिय पणट्ठसंधि, अणतजीवं वियाणाहि ॥ २॥ जीवेन स्वायुषः क्या बीजपरित्यागः कृतो भवति । तस्य च बीजस्य पुनरम्बुकालाऽवनिसंयोगरूपसामग्रीसम्भवस्तदा कयत्पत्रं सकीरं निकीरं वा गूढसिराकमलक्ष्यमाणशिराविशेष, दाचित् स एवं प्राक्तनो बीजजीवो मूलादिनामगोत्रं निबद्ध्य यदपि च प्रणष्टसन्धिः सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणपत्रालयसन्धिः | तत्रागत्य परिणमति; कदाचिदन्यः पृथिवीकायिकादिजीवः। तदनन्तजीव विजानीहि ॥२॥ 'योऽपि च सूने जीव इति य एव मूलतया परिणामते जीवः सम्प्रति पुष्पादिगतं विशेषमभिधित्सुराह 'सोऽपि पत्रे प्रथमतयति' स एव प्रथमपत्रतयाऽपि च पपुष्फा जलया थझया, विंटबछा य णालिबका य । रिणमते, प्रत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । आह-यद्येवं संखिज्जमसंखेज्जा, बोधब्बा पंतजीवा य ॥ ३ ॥ " सम्वो वि किसनो खलु, सग्गममाणो अणंतो भपुष्पाणि चतुर्विधानि, तद्यथा-जनजानि सहनपत्रादीनि,स्थल णिभो " इत्यादि वक्ष्यमाणं कथं न विरुध्यते ? । उच्यजानि कोरएटकादीनि, एतान्यपिच प्रत्येकं विधा। तद्यथा-कानि ते-हबीजजीवोऽन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तदुचनावस्था चिद् वृन्तबकानि-अतिमुक्तकप्रभृतीनि, कानिचिन्नासबानि- करोति, ततस्तदनन्तरं भाचिनी किसलयावस्थां नियमतो जातिपुष्पप्रभृतीनि, अत्रैतेषां मध्ये कानिचित्पत्रादिगतजीवापे- ऽनन्ता जीवाः कुर्वन्ति । पुनश्च तेषु स्थितिकयात्परिणतेषु श्रपया सबजीवानि, कतिचिदसधेयजीवानि, कानिचिदन- सावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं स्वशरीरतया परिणमय्य तावतजीवानि यथागमं बोधव्यानि ॥३॥ हर्कते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचक्कते-प्रअत्रैव किश्चिद्विशेषमाह थमपत्रमिह याऽसौ बीजस्य समानावस्था, तेन एकजीवकजे केइ नालिया बदा, पुष्फा संखेजजीविया । र्तृके मूसप्रथमपत्रे इति । किमुक्तं नवति-मूलसमुचूनावस्थे णिहुया अणंतजीवा, जे याऽवप्ने तहाविहा ॥३॥ एकजीवकर्तृके, पतच नियमप्रदर्शनार्थमुक्तम् । मूलसमुच्चूनाव स्थे एकजीवपरिणमिते एव । शेषं तु किसलयादिनाऽवश्यं मूलपनमुप्पलिणी कंदे, अंतरकंदे तहेव मिलीय। जीवपरिणामावि वितमिति । ततः सब्यो वि किसलो खलु, एते अणंतजीवा, एगो जीवो भिस मुणाले ॥ ५॥ उग्गममाणो अणंतत्रो नणिओ' इत्यादि बक्ष्यमाणमविरुद्धम्। यानि कानिचिद् नालिकाबद्धानि पुष्पाणि जात्यादिगतानि तानि मूलसमुच्चूनावस्थानिर्वर्तनाऽरम्भकाले किसलयत्वाभावादिति । सर्वाण्यपि सख्यातजीवकानि नणितानि तीर्थकरगणधरैः । पाह-प्रत्येकशरीरे वनस्पतिकायिकानां सर्वकालशरीरावस्थालिहू स्निपुष्पं पुनरनन्तजीवम, यान्यपि चान्यानि मिहूपुष्पक- मधिकृत्य किं प्रत्येकशरीरत्वमुत कस्मिंश्चिदवस्थाविशेषेऽनन्त पानि तान्यपि तथाविधानि अनन्त जीवात्मकानि ज्ञातव्यानि । जीवत्वमपि सम्भवति । तथा साधारणवनस्पतिकायिकाना(पउमुप्पलिनी कंदत्यादि) पद्मिनीकन्द, उत्पसिनीकन्दः, श्र- मपि किं सर्वकालमनन्तजीवत्वमुत कदाचित्प्रत्येकशरीरत्वमन्तरकन्दो जलजवनस्पतिविशेषः कन्दः, फिल्लिका वनस्पतिविशे- पि भवति । परूपा,एते सर्वऽप्यनन्तजीवाः,नवरं पग्निन्यादीनां विशे, मृणाले तत पाहच; एकजीवात्मके विशमृणाले ति नावः॥५॥ प्रज्ञा०१पद । सव्यो विकिसलोखा,नग्गममाणोणतओजणिो । सप्फाए सज्काए, नब्बेहलिया य कुहणकुंदुक्के । सो चेव विवतो, होइ परीत्तो अणंतो वा ॥१५॥ एए अणंतजीचा, कुंदुक्के होइ जयणाओ॥ १३॥ | इह सर्वशब्दः परिशेषवाची । सर्वोऽपि बनस्पतिकायः प्रत्येपते कुहनादिवनस्पतिविशेषा लोकतः प्रत्येतव्याः । पते च । शरीर साधारण एव किसलयावस्थामुपगतः सन् अनन्त Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) निधानराजेन्द्रः | मतजीव कायस्तीर्थकरगणधरैर्भणितः । स एव किसलयरूपः अनन्तकायिकः प्रवृद्धिं गच्छन् अनन्तो वा भवति परीतो वा । कथम ? । उच्यते-यदि साधारणं शरीरं निर्वर्त्यते तदसाधारण एव भवतिच प्रत्येकशरीरं ततः प्रत्येक इति कियतः प्र त्येको भवति इति तेन्दुः तथाहि निगोदानामुत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्त कालं यावत् स्थितिरुक्ता, ततोऽन्तर्मुहूर्त्तात्परतो विवर्त्तमानः प्रत्येको भवतीति । प्रा० १ पद । निमोदादिशन्देः सहास्य साविषयत्वादनन्तजीवस्य च अनन्त जन्तुसन्ताननिपातननिमित्बाद भवतः नृज्यो नैरयिकाः सुराश्च निखिलाः पञ्चाकतिर्यग्गणो, द्वाक्काया ज्वलनो यथोत्तरममी संख्यातिगा भाषिताः। तेज्यो नूजलवायवः सअधिकाः प्रोक्ता यथानुषर्म सर्वेभ्यः शिवमा अनन्तगुणितास्तेज्योऽप्यनन्ता नगाः ॥ १ ॥ तानि श्रार्यदेशप्रतिकानि द्वात्रिंशत् । तदाहु: 99 | सच्चा य कंदजाई, सूरणकंदो अवज्जकंदो छ । अहलिदा पता अनंत अकच्चू ॥ १ ॥ सत्तावरी विराली, कुँआरि तह थोहरी गलोई अ । लसुणं वंसकरिल्ला, गज्जर लूणो अ तह लोढा ॥ २ ॥ गिरिकणि किसलिपत्ता, खरं येग अन मुत्या य तह सूक्खबल्ली, खिल्लह को अमयवल्ली य ॥ ३ ॥ मूला तह भूमिरुहा विदा तह पत्यु पदमो सूरवल्लो तहा, पल्लंको कोपलंबिसि ॥ ४ ॥ आलू न पिंडालू इति एए अर्थतनामे त्र्यन्नमतं नेयं, लक्खणजुत्तीइ समयाओ ॥ ए ॥ सर्वे कन्दजातिरनन्तकायिका इति सम्बन्धः । कन्दो नाम भूमध्यगोवृक्कावयवः । ते चात्र कन्दा अनुष्का एव ग्राह्याः, शुकाणां तु निर्जीवत्वादनन्तकानि सम्यति । श्रीम रिरप्येवमेव 'आर्द्रः कन्दः समग्रोऽपि, आर्द्राऽशुष्कः कन्दः शुष्कस्य तु निर्जीवत्वादनन्तकायित्वं न सम्भवति' इति योगशास्त्रसूवृत्योराह । श्रथ तानेव कांश्चित्कन्दान् व्याप्रियमाणत्वानामत आदरणकन्द कविशेषः १ वज्रकन्दोपकन्दवि शेष एव २, आफ अशुष्का, हरिद्रा प्रतीतैव ३, आईकं शृङ्गवे रम् ४. आईच्यूरस्यषिषः प्रतीत व ५ शतावरी ६ रात्रि 9 वल्लीभदौ । कुमारी मांसल प्रणानाकारपत्रा प्र तीतैव, शोहरी स्नुहीतरुः ६, गुरुची वलीविशेषः प्रतीत एव १० विशेषः ११. वंशकरला कोमलशावयवविशेषाः प्रसिका एव १२, गर्जरकाणि सर्वजनविदितान्येव - १३, लवणको वनस्पतिविशेषः-येन दग्धेन सर्जिका नि१४ मोडक पनि १४ गिरिकर्णिका१६ किलरूपाणि पत्राणि मेंढपादक बीजस्योच्छूनावस्था कणानि सर्वाण्यप्यनन्तकायिकानि, न तु कानिचिदेव १७, खराः कन्दभेदा १०, गोप कन्दविशेष एव १६, आर्द्रा मुस्ता प्रतीता २०, सवणापरपर्यायस्य भ्रमरनाम्नो २१डो लोक कन्दः २२, अमृतवली वझीविशेषः २३, मूखको लोकप्रतीतः २४ महाणि जाकाराणि वर्षाकालभवानि भूमीस्फोटकानीति प्रसिद्धानि २४, विरुदारितानि धान्या नि २६, ढङ्कवास्तुलः शाकविशेषः, स च प्रथमोद्गत एवानन्त 3 प्रांतजीव कायिको न तु च्छिन्नप्ररूढः २७, शूकरसंशको वलः, स एवानन्तकायिको न तु धान्यवज्ञः २८, पल्ल्यङ्कः शाकभेदः २६, कोमलाम्लिका श्रबद्धास्थिका विश्चिणिका ३०, आलुक ३१, पि३२ कन्दभेदी। एते पूर्वोका पदार्था द्वात्रिंशत् क्याका अनन्तकायनामभिर्भवन्तीत्यर्थः । न चैतावन्येयानन्तकायिकानि किन्त्वन्येऽपि तथाऽऽह- 'अन्यदपि' पूर्वोक्तातिरिक्तमनन्तकायिकम, लक्षणयुक्त्या वक्ष्यमाणलक्षणविचारणया, समयात् सिद्धान्ततः ज्ञेयम् । तान्येवानन्तकायानि यथा घोसकरीरंकुर विंदुयं कोमलंरगाईरिण । बरुणनमानंबाई- अंकुराई अर्थताई ॥ १ ॥ घोषातकीकरयोरङ्गराः, तथाऽति फोम साम्यच द्वास्थिकानि तिन्दुकाफलानि तथा स्वादीनामरा अनन्त कायिकाः । श्रनन्तकायलक्षणं वेदम- "गूढासरसंधिपव्वं, स मभंगमहिरुहं च छिनरुहं । साहारणं सरीरं, तव्विवरीचं व पत्तेनं ॥ १ ॥ एवं लक्षणयुक्ता अन्येऽपि अनन्तकायाः स्युः, ते हेयाः। यतश्च - "चत्वारो नरकद्वाराः, प्रथमं रात्रिभोजनम् । परस्त्रीसंगमचैव, संधानानन्तकायिके " ॥ १ ॥ उक्तमनन्तकायिकम् । ध० २ अधि० । ( अनन्तकायिकस्यादाने प्रायश्वितं 'पलंच शब्दे प्रदर्शयिष्यते । 3 ! यह जैसे आए मूलए सिंगवेरे हरिल सिरिली सिसिली किट्टिया निरिया बीरविरालिया कएह कंदे वकंदे सूरणकंदेखेछूटे अमुल्य मिलिए लोहाणि हूथिहूविजागा अस्सकपी सीहकली सादगी मुसुंमी जे याऽत्रणेतहप्पगारा सव्वे ते अांतजीवा विविहसत्ता ? | हंता गोयमा ! आलुए मूलए जाव प्रांतजीवा विहिता ॥ भ० ७ ० २ उ० । मज्ञा० । जे भिक्खू प्रांत काय संमिस्सं जुत्तं प्रहारं आहारेर, आहारतं वा साइज्जइ ए । जे निक्खु श्रणंतिकातो मूलकंदो अलगफमादि वा एवमादि संमिस्सं जो भुंजति तस्स चउगुरु ॥ जे भिक्खू सणादी, भुंजेज्ज प्रांतकायसंजुतं । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ ५३ ॥ श्राणादिया दोसा हवंति इमे दोसातं कायपरिव्यय, तेण य वत्तण समं वयति । प्रतिस्वकं आए चित्ते, ह य विसूतिकादीणि आधार | ४५ ॥ मा भायविराहणारा अति वि सूतिकादी भवेमरेज वा भजीरंतो या अक्षत रोगको भये ज एवं श्रायविराहणा, जम्हा एते दोसा तम्हा ण भोतव्यं; कारणे तु सिवे प्रोमोरिए, राहुडे भए च गेलले । प्राण रोहए वा, जयला इमा तत्थ कायन्वा ||२५|| पूर्ववत् इमे वक्खमाणजयणाप्रोतिभागम विभाग आयंबिले चढत्यादी । निम्मिस्से मिस्सेया, परित्तणं ते य जा जतणा ॥ ५६ ॥ जह णव सुप्ते वक्खमाणो जड़ा वा पेढे भणिया तहा वन्तन्वा । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६५) मतजीव अनिधानराजेन्द्रः। अणंतरसमुदागकिरिया इमो से अक्वरत्थो-ओमं एसणिज्ज हुँजति, तिजागेण वा ऊणं त्यक्त्वा, च्यवनं वा कृत्वा । विपा०१ श्रु०१०ान विद्यते. पसणिज्जं नुजति, अकंवा एसणिज्जं, तिभागं या एसणिज्ज, आ-] ऽन्तरं व्यवधानमस्येत्यनन्तरः । वर्तमानसमये, स्था०१० ग०। यंबिलेण वा अत्यति । चउत्यं वा करेति,ण य अणंतकायं तम्मि- | अणंतरखेतोगाढ-अनन्तरक्षेत्रावगाढ-त्रि० । प्रात्मशरीरास्सं भुजति जाहे णिम्मिसं लम्जति, जाहे णिम्मिस्संण सब्जति | वगाढकेत्रापेकया यदनन्तरं केलं तत्रावगाढे, 'नो भणंतरसेताहे परीसकायमिस्सं गेएहति, जाहे तं विन लम्भति ताहे तोगाढ पोग्गने अत्तमायाए आहारैति'।०६।० १०००। अणंतकायमिस्सं गेएहति, जाय पणगादिजयणा सा दब्या। नि० चू० १००। अणंतरखेदोवामग-अनन्तरखदोपपत्रक-त्रि० । अनन्तरं स. मयाद्यव्यवहितं खेदेन मुखेनोपपन्नमुत्पादकेत्रप्राप्तिलकणं येअणंतजीविअ-अनन्तजीविक-पुं० । अनन्तकायिकवनस्पती, षां तेऽनन्तरखेदोपपन्नकाः। खेदप्रधानोत्पत्तिप्रथमसमयवर्तिषु भ० ८ ० ३१०। नैरयिकादिषु, ज० १४ श०१ उ01 (अत्र दरामकस्तषामायुर्वन्धश्च अणंतणाण-अनन्तज्ञान-न० । अनन्तं स्वपरपायापेक्कया | | 'पा' शब्दे द्वि० भा० १४ पृष्ठे वयते) वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानम् । केवलज्ञाने, दश०२०। अतरगंठिय-अनन्तरग्रन्थित-त्रि०३ त०। प्रथमग्रन्थीअणंतणाणदंसि-(ण)अनन्तज्ञानदर्शिन--पुं०। अनन्तं ज्ञानं दर्श नामनन्तरव्यवस्थितैफेन्धिजिः सह अथिते, न० ५ श० ३ ०० मंच यस्यासावनन्तज्ञानदर्शी । केवलज्ञानिनि, सूत्र०प०अ० विनन्तकानदशा । कबलझाानान, सूत्र०१श्रु०६० | अणंतरच्छेय-अनन्तरच्छेद-पुं० । स्थानव द्वैधीकरणे, "णहअणंतणाणि (ण) अनन्तझानिन्-पुं० । अनन्तमविनाश्य-1 दंतादि अणंतरं णडेहिं दंतेहिं वा जं छिदति तं अणंतरच्यो नन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान विशेषग्राहकं यस्यासावनन्त- जम्मति" नि० चू०१०। झानी। सूत्र० १ श्रु० ६ अ० । उत्पन्न केवलझाने तीर्थकरे, | अतरणिग्गय-अनन्तरनिगेत-त्रिनिश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या ज्यो०६ पाहु० । स०। गतं गमन निर्गतम् । अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं अणंतदंसि (ण) अनन्तदर्शिन्-पुं० । अनन्तमविनायनन्त- येषां तेऽनन्तरनिर्गताः। प्रथमसमये नगरादेरुच्छूितेषु स्थानान्तपदार्थपरिच्छेदकं दर्शनं सामान्यार्थपरिच्छेदकं यस्य स रप्राप्तेषु, भ० १४ श०१ उ०। (अत्र दएककस्तेषामायुर्घन्धश्च अनन्तदशी । उत्पन्नकेवलदर्शने, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। 'आउ' शब्दे द्वि० भा० १४ पृष्ठे वदयते) अणंतपएसिय-अनन्तप्रदेशिक-पुं० । अनन्तपरएवात्मके | अणंतरदिहतय-अनन्तरदृष्टान्तक-पुं० । यः खल्वनन्तरप्रयुक्तोस्कन्चे, ज० श०२ उ०। ऽपि परोक्कत्वादागमगम्यत्वाद् दान्तिकार्थसाधनायालं न अणंतपार-अनन्तपार-स्त्री० । अनन्तः पारः पर्यन्तो यस्य | नवति तस्मिन् दृष्टान्तभेदे, दश० १ अ० । कालस्य स अनन्तपारः । अन्तविरहितपर्यन्ते, “केण अणतं | अणंतरपज्जत्त-अनन्तरपर्याप्त-पुं० । न विद्यते पर्याप्तत्वेऽन्तर पारं. संसार हिंमई जीवो? " आतु। “से पन्नया अक्खयसा- येषां तेऽनन्तराः,तेच ते पर्याप्तकाश्चेत्यनन्तरप-प्तकाः। प्रथगरेवा, महोदही वा वि अणंतपारे" सूत्र० १ श्रु० ६ ०। मसमयपर्याप्तकेषु नैरयिकादिषु, स्था० १० ग०। अणंतपासि (ए) अनन्तदर्शिन-पुरवते भविष्यति वि. अणंतरपच्छाकम-अनन्तरपश्चात्कृत-त्रि० । अनन्तरं व्यवधानेशतितमे तीर्थकृति, ति०।। न पश्चात्कृतोऽनन्तरपश्चात्कृतः । व्यवधानेन पश्चात्कृते, चं० भणंतमिस्सिया-अनन्तमिश्रिता-स्त्री० । मूलकादिकमनन्त- प्र०७ पाहु। कार्य, तस्यैव सत्कैः परिपाणपत्रैरन्येन वा केनचित् प्रत्ये- अणंतरपरंपरअणिग्गय-अनन्तरपरम्परानिर्गत-पुं०। प्रथमसमकवनस्पतिना मिश्रमवलोक्य सर्वोऽप्येषोऽनन्तकायिक इति याग्निगतेषु, ये हि नरकादुद्वृत्ताः सन्तो विग्रहगतौ वर्तन्ते नतावबदतः सत्यमृषालाषाभेदे, प्रशा० ११ पद । ध०। दुत्पाद क्षेत्रमासादयन्ति,तेषामनन्तरजावेन परस्परजावेनचोत्पाप्रणंतमीसय-अनन्तमिश्रक-म० । अनन्तविषयकं मिश्रक- दकेत्रप्राप्तत्वेन निश्चयेनानिर्गतत्वात् । न०१४ श०१०। (अत्र मनन्तमिश्रकम् । सत्यमृषाभेदे, यथा मूलकन्दादौ परीतपत्रा- दएडफस्तेषामायुर्बन्धश्च 'पाउ' शब्दे द्वि०भा०१५पृष्ठे वदयते) दिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधतः । स्था० १० ग० । अणंतरपरंपरअणुववप्लग-अनन्तरपरम्परानुपपन्नक-पुं० । अणंतमोह-अनन्तमोह-त्रि० । अनन्तोऽपर्यवसितस्तदभावा- अनन्तरमव्यवधानं परम्परं च द्वित्रादिसमयरूपमविद्यमानमुप पत्रमुत्पादो येषां ते तथा । विग्रहगतिकेष, विग्रहगती हि द्विवि. पेकया प्रायस्तस्याऽनपगमादू मुह्यते येनाऽसौ मोहो कामावरणदर्शनमोहनीयात्मकः । ततश्चानन्तो मोहोऽस्येत्यनन्त । धस्याप्युत्पादस्याविद्यमानत्वादिति । ज० १४ श० १ उ० । मोहः । उत्त० ४ ० । अविनाशिदर्शनावरणमोहनीयकर्मणि, अर्णतरपरंपरखंदाणुववमग-अनन्तरपरम्परखेदानुपपन्नक'दीवप्पणठेव अखंतमोहे, नेयान यं दहमदध्मेव' उत्त०४०। पुं० । अनन्तरं परम्परं खेदेन नास्ति उपपन्नकं येषां ते तथा। विग्रहगतिवर्तिषु, भ०१४ श०१०। प्रणंतर-अनन्तर-त्रि० । न विद्यतेऽन्तरं व्यवधानं यस्य।६ प० । अव्यवहिते, नं० । पश्चा० । निर्व्यवधाने, " अणं- आणंतरपुरक्खड-अनन्तरपुरस्कृत-त्रि० । स्थाव्यवहितोत्तरव. तरं देवलोए अणंतरं मणुस्सए भवे किं परं " । भ. तिनि, “अणंतरपुरक्खडे कालसमयसि" अनन्तरमव्यवधानेन १४ श० ७ उ०। कल्प० । “अणंतरं चयं चश्ता" अव्य- पुरस्कृतोऽग्रे कृतो यः सोऽनन्तरपुरस्कृतः । अनन्तरं द्वितीय इ. वहितं च्यवनं कृत्वेत्यर्थः। (शा० अ०) देवनवसम्बन्धिनं । त्यर्थः । सू० प्र०७ पाहु । चं० प्र० देहं त्यक्त्वेत्यर्थः । अथवाऽनन्तरमू-आयु कयाधनम्तरं (चयं | अतरसमुदाणकिरिया-अनन्तरसमुदानक्रिया-स्त्री० । नाति) च्यवनं ( चश्त ति) व्युत्या, महाधिदेहे अनन्तरं शरीरं । स्त्यन्तरं व्यवधानं यस्याः सा अनन्तरा, अव्यवहिता । साच Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) भणंतरसमुदाणकिरिया अभिधानराजेन्द्रः। अणंताणबांध समुदानक्रिया च । क० स०। प्रथमसमयवर्तिसमुदानक्रियाया- | अणंतविजय-अनन्तविजय-पुं०। भरतकेत्रे भविष्यति चतुर्विम, स्था० ३ ठा०२०।। | शे तीर्थकरे, साति० । युधिष्ठिरशो, वाच। अणंतरसिक-अनन्तरसिद्ध-पुं०। न विद्यते ऽन्तरं व्यवधान- अणंतविष्याण-अनन्तविज्ञान-पुंज अनन्तमप्रतिपाति, विशिमर्थात् समयेन येषां तेऽनन्तराः, तेच सिद्धाश्चानन्तरासद्धाः। | टं सर्वव्यपर्यायाविषयत्वेनोत्कृष्टं, केवलाख्यविज्ञानं ततोऽनन्तं सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमानषु सिद्धेषु, प्रज्ञा० १ पद । स्था। विज्ञानं यस्य सोऽनन्तः । केवलिनि, स्या० १ श्लो० । अणंतरहिय-अनन्तरहित-त्रि०ा अव्यवहिते, आचा०१ श्रु०१ | अणंतवीरिय-अनन्तवीर्य-पुं० । जमदग्निनाव्या रेणुकाअ०३ उ०।सचित्ते, आव०३ अ०। “जे भिक्खू माउग्गामस्स याः स्वसुःपत्यौ कार्तवीर्यपितरि, प्रा०चू०१०। प्रा० मा मेहुणवडियाए अणंतरहियाए पुढवीए णिसियावेज वा" अन- प्राक० । दर्श०। भरतकेत्रे भविष्यात त्रयोविंशे तीर्थन्तरहितया, अनंतरहिया णाम सचित्ता । नि० चू०७ उ० । करे, ती०११ कल्प। अणंतरागम-अनन्तरागम-पुं० श्रागमभेदे, अर्थापेक्षया गण- | अणतससारिय-अनन्तससारिक-पु० । अनन्तश्चासा अणंतसंसारिय-अनन्तसंसारिक-पुं० । अनन्तश्चासौ संसारधराणामनन्तरागमः । सूत्रापेक्षया गणधरशिघ्याणामनन्तरा श्वानन्तसंसारः, सोऽस्यास्तीत्यनन्तसंसारिकः । 'अतोऽनेकस्वगमः । सूत्र०१ श्रु०१०१ उ०। रात' इतीकप्रत्ययः। अपरिमितसंसारे, रा०। प्रति०। नैरश्रणंतराहारग-अनन्तराहारक-पुं० । अनन्तरानव्यवहितान यिकादिवैमानिकपर्यन्तेषु, स्था० २ ग०२ उ०। अथ केनार्जितमनन्तसंसारित्वम् ? इति प्रश्न उत्तरमाहजीवप्रदेशराफ्रान्ततया स्पृष्टतया वा पुमलानाहारयन्तत्यिन जे पुण गुरुपामिणीया, बहुमोहा ससबला कुसीझा य । न्तराहारकाः । जीवप्रदेशैः स्पृष्टानां पुलानामाहारकेषु नैरयिकादिषु, स्था० १० ठा0। अनन्तरमुपपातक्षेत्रप्राप्तिसमयमेव असमाहिणा मरंति न, ते इंति अणंतसंसारी ॥५६॥ आहारयन्ति इत्यनन्तराहाराः। प्रशा० ३४ पद । प्रथमसमया (जे पुण) ये पुनः, गृणात्याभिधत्ते तत्त्वमिति गुरुः, तं प्रति, का. हारकेपु, स्था०१० ठा०। ('आहार' शब्दे अनन्तराहारग्रहण नाद्यवर्णवादनाषणादिना प्रत्यनीकाः प्रतिकूलाः, तथा बहुमोहा. शरीरस्थ निष्पत्तिरित्येवमादिक्रमो द्वि० भागे बदयते) स्त्रिंशन्मोहनीयस्थानवर्तिनः, सह शबलैरेकर्षिशत्या शबलस्थाअणंतरिय-अनन्तरित-त्रिन० त०।अव्यवहिते, विशे। नैर्वर्तन्ते ये ते सशबलाः, कुत्सितं शीसमाचारो येषां ते कुशी लाः। चः समुच्चये । एवंविधा येऽसमाधिनाऽऽर्तरोनावे वर्तअणंतरोगाढग-अनन्तरावगाढक-पुं०। अनन्तरं संप्रत्येव स- माना म्रियन्ते, तेऽनन्तसंसारिणो भवन्तीति । आतु० । मये क्वचिदाकाशदेशेऽवगाढा आश्रितास्त एवानन्तरावगा- अणंतसमयसिक-अनन्तसमयसिक-पुं० । अनन्तेषु समयेषु ढकाः। प्रथमसमयावगाढकेषु विवक्षितं क्षेत्रं द्रव्यं वाऽपेक्ष्या- | एकैकसिके, स्था० १० १०।। व्यवधानेनावगाढेषु नैरयिकादिजीवेषु, स्था० २ ठा० १ उ०। अणंतसेण-अनन्तसेन-पुं० । तृतीयायामवसर्पिण्यां जाते चअतरोपणिहा-अनन्तरोपनिधा-स्त्री। उपनिधानमुपनिधा, | तुर्थकुलकरे, स० । भगिलपुरवास्तव्यस्य नागगृहपतेः सुधातूनामनेकार्थत्वान्मार्गणमित्यर्थः। अनन्तरेणोपनिधाऽनन्त रसानाम्न्यां नार्यायां जाते पुत्र, तत्कथा अन्तकृदशायास्तृतीरोपनिधा।अनन्तरयोगस्थानमधिकृत्य उत्तरस्य योगस्थानस्य ये वर्गे द्वितीयाध्ययने सूचिता, तत्रैव प्रथमाध्ययनोक्ताऽणीयमार्गणे, पं० सं०५ द्वा० । क० प्र० । स्येव जावनीया (अन्त०)। अस्य द्वात्रिंशद्भार्याः, द्वात्रिंशरक एव अणंतरोववएणग-अनन्तरोपपत्रक-पुं०। न विद्यतेऽन्तरं व्यव दानम, विंशतिवर्षाणि पर्यायः, चतुर्दशपूर्वाणि श्रुतम, शत्रुजये सिद्धिः । वस्तुतस्तु अयं वसुदेवदेवकीसुतः । अन्त०४ वर्ग । धानमस्येत्यनन्तरः वर्तमानः समयः । तत्रोपपन्नकाः, स्था० अणंतसो-अनन्तशस्-अन्य० । बहुवारमित्यय, निरवधिक१० ठा० । न विद्यतेऽन्तरं समयादिव्यवधानमुफ्पन्ने उपपाते येषां ते अनन्तरोपपन्नकाः । प्रथमसमयोत्पन्नेषु, भ० १३ श० कालमित्यर्थे च । सूत्र०१७० १ ०३ उ०1" गब्नमेस्सं१ उ० । येषामुत्पन्नानामेकोऽपि समयो नातिक्रान्तस्ते एते। ति गंतसो” इति । अनन्तशो निर्षिच्छेदमिति वृत्तिकारः । स्था० १० ठाएकस्मादनन्तरमुत्पन्नेषु नैरयिकादिषु वैमानि सूत्र०१७०१ ०२२० । कपर्यन्तेषु, स्था० २ ठा० २ उ०। अणंतहियकामुय-अनन्तहितकामुक-त्रिका मोककामुके, दश. अणंतवग्गभइय-अनन्तवर्गजक्त-त्रि० । अनन्तवर्गापवर्तिते, | अ०२ उ०। " सोऽणंतवग्गभाओ सब्वागासेण मीपज्जा" औ०। । अणंताणंत-अनन्तानन्त-त्रि० । अनन्तेन गुणिता अनन्ताः । अणंतवत्तियाणुप्पहा-अनन्तवृत्तितानुपेक्षा-स्त्री० । अनन्ता अनन्तगुणितेषु अनन्तषु, भ० १४ श०२२० । अत्यन्तं प्रभूता वृत्तिर्वर्तनं यस्यासावनन्तवृत्तिः, तस्या अनु- अणंताणुबधि [ए]-अनन्तानुबन्धिन-पुं० । अनन्तं संसारं प्रेक्षा अनन्तवृत्तिताऽनुप्रेक्षा। भवसन्तानस्यानन्तवृत्तिताऽनु- जवमनुबध्नाति अविच्छिन्नं करोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुवन्धी। प्र. चिन्तनरूपायां शुक्लध्यानस्य प्रथमानुप्रेक्षायाम, यथा-'एस अ. नन्तो वाऽनुबन्धो यस्येत्यनन्तानुबन्धी। सम्यग्दर्शनसहभाषिणाई जीवो, संसारसागरो व्य दुत्तारो।नारयतिरियनरामर- क्षमास्वरूपोपशमादिचरणलवनिवन्धिनि क्रोधादिकपाये,स्था० भवेसु परिहिंडए जीषो' ॥१॥ स्था० ४ ठा० १७० औ० भ०। ४म०१ उ०। यदवाचि-"यस्मादनन्तं संसार-मनुबनन्ति देहिअनन्तवर्तितानुमेक्का-खी। अनन्ततया वर्तते इति अनन्तव-नाततोऽनन्तानुबन्धीति, संका तेषुनिवेशिता"॥१॥ ते ती, तद्भावस्तत्ता, भवसन्तानस्येति गम्यते; तस्या अनुप्रेका ।। क्रोधमानमायालोभाः । यद्यपि चैतेषां शेषकषायोदयरहितानाशुक्रध्यानभदे, स्था०४ ग०१०। | मुदयो नास्ति, तथाऽयवश्यमनन्तसंसारमूलकारणमिथ्यात्यो Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तबंधि दयाऽपकामिषानानुपधत्यन्यदेशपा हावदयं मिध्यात्योदयमा पन्त्यतस्तेषामुपसत्यपि नायं व्यपदेश इत्यसाधारणमेवेत सामेति । कर्म० १ कर्म० । ''शब्देऽपि ०३७भावितमेतद् विस्तरतः ) श्रताणुबंधिविसंजोयणा अनन्तानुब न्धिविसंयोजना- स्त्री० अनन्तानुबन्धिनां कषायाणां विषमयोजनायाम्, (विनाशे)। अन मानुबन्धिनां कषायाणामुपशमनास्थाने विसंयोजना भवति । क०प्र०(तत्प्रकार ना०२-२० पृष्ठे यते) पति--अनन्तक-न अतिकमासनं तपेादन्तिकम्. नमोऽल्पार्थत्वात् । श्रनासन्ने भ० ५ ० ४ उ० । " अदमाण- अनन्दमत्- - त्रि० सौख्यमनुजाते, तं० । अदि-अनन्दित- त्रि० । अधोलोकवासिन्यामष्टम्यां दिकुमार्थ्याम् श्र० क० । अध--अनन्य अन्धपुरनगरेश्वरे राहि "अंधपुरं नगरं तत्थ अणंधी राया " बृ० ४ उ० । नि०यू० । प्रणविल-- अनाम्ल - त्रि० न० त०] स्वस्वादादचलिते, आचा० २ ० १ ० ७ ४० सी जीवितविप्रमुळे पानकादी, नि० चू० १९ ० । अमुवाद [ ए ]-अनधुपातिन् पुं० न अपातयतीति मार्गादिवेदेष्वपि अश्रुपातनशीले शुभाश्वादी, "जं अरपाकि अरुपाकि अवा" ० ३ ० अनकम्म अनःकर्म-अः कम तत्कर्म धनाकर्म क कटाघटनटनविषयादी, च० एतच्च पापकृतीनां कारणमि ति कृत्वा श्रावकेण त्यक्तव्यम् । यदाह-" शकटानां तदङ्गानां घटनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटा-जीविका परिकीर्तिता ॥१॥ तत्र शकटानामिति चतुष्पदवाह्यानां वाहनानां तदांचा दीनां घटनं स्वयं परेण वा निष्पादनं, खेटनं वाहनं च शकटानामेव सम्भवति, स्वयं परेण वा विक्रयश्च । शकटादीनां तदङ्गामदं कर्मापि सफलतम जननं गवादीनां च बधबन्धा दिहेतुः । ध० २ अधि० । प्रणकर - ऋणकर - पुं० ऋणं पापं करोतीति ऋणकरः । चतुर्विशे गौणप्राणातिपाते, प्रश्न० १ श्राश्र० ३० । [ [ [ख] अन पुं० [लेभेदे ०१ ०० अणकजिए-अनासाभिन्न-त्रि० । अनस्तिते बलीवदांदी 1 ( २६७ ) अभिधान राजेन्द्रः । 66 , अणिलंबाई अणक्क भिजेहिं गोणेहिं तसपाणविवज्जिपहिं विसोई विशि कप्पेमाणा विहति " भ० श० ५ ० । क्खरसूय-अनकूरत-म० एमितशिरः कम्पनादिनिमिले मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपे अभिप्रापपरिकाम स्वरूपेऽक्षरश्रुतविपचभूते श्रुतभेदे, कर्म० १ कर्म० । से किं ते खरसूर्य है। अक्खर योगविहं पातं । तं जहा- "उससि नीससिये, निच्छूखानि च दी निसारं अक्खरं जे लिवाईं" || १ || सेनं अक्खरसुयं || अथ किं तदनकरतम् श्रनकरात्मकं श्रुतमनकरश्रुतम्। आचा ये श्राह श्रनकरतमनेकविधम्- अनेकप्रकारं प्रप्तम् । तद्यथा(ससियमित्यादि) सितम भावे निष्ठत्य अणगार " यः । तथा निःश्वसनं निःश्वसितम, निष्ठीवनं निष्ठधूतम, काशन काशितम् । वशब्दः समुच्चयार्थः । छिक्का कृतम् एषोऽपि चशब्दः समुचयार्थः, परमस्य व्यवहितः प्रयोगः । से टिकादिकं चेत्येवं द्रष्टव्यम् । तथा निःसिङ्घितम् । अनुस्वारवत् अनुस्वारमित्यर्थः । तथा सेटितादिकं चानकरं श्रुतम् नं० अथ प्राप्यम् ऊससिपाई दव्यमुपमेतमा सुयोवउत्तस्स | सव्वो वियवावारो, सुयमिह तो किं न चेट्ठा वि १ ॥ इहोखितादि जनकर यक्षतमात्रमेवायन्तव्यम शब्दमात्रत्वात् । शब्दश्च नावश्रुतस्य कारणमेव यश्च कारणं तद्रव्यमेव भवतीति भावः । नयति च तथाविधोच्छ्रुसितनिःश्य सितादिवणे शाकोऽयमित्यादि ज्ञानम् । एवं विशिष्टानिसन्धिपूर्वक निष्ठधूत का सितश्रुतादिश्रवणे ऽप्यात्मज्ञानादि ज्ञानं वाच्यमिति । अथवा श्रुतज्ञानोपयुक्तस्यात्मनः सर्वात्मनैवोपयोगाऽप्युपखितादिको व्यापारः श्रुतमेवेद प्रतिप मित्युसितादयः धृतं भवत्येवेति आह यद्येवं ततो गमना गमनचअनस्पन्दनादिरूपाऽपि चेष्टा व्यापार पय, ततः श्रुतोपयुक्तसंबन्धिनापि किं नयति है। उच्यते कः किमाह है। प्राप्नोत्यनेन न्यायेन साऽपि श्रुतं, किन्तु - रूदी सुइ ति चेट्ठा न सुबह कयाह । अमिया वरणा इव जमास्सारादओ तेां ॥ उतन्यायेन तत्प्राप्ती समानायामपि तदेवादितं न शिरोधूननकरचलनादिचेष्टा ; यतः शास्त्रलोकप्रसिका रूढिरियं तत उच्छू सिताद्येव श्रुतं रूढं न चेष्टेत्यर्थः । श्रूयते इति श्रुतमिति चान्वर्थवशात् । तदेवोच्वसितादि श्रुतम्, न चेऐत्येवं शब्दः पान्तरसुचको मिश्रक्रमयं । यत्वात्कदापि न भूयत इति कथमसी भूतं स्यात् इत्यर्थः । अनुस्वारादयस्त्वकारीदिवर्णा श्वार्थस्याधिगमका, एवेति तेन कारणेन ते निर्विवादमेव श्रुतमिति गाथार्थः । इत्यनकर तमि ति । विशे० । टिट्टि ति नंदगोव-स्स बालि वत्थे निवारेइ | टिट्टित्तिय मुदडए, सेसा लट्ठीनिवारण || नन्दगोपस्य बालिका केशादिकं रकुन्ती वत्सकान् बालगोरुपान टिट्टि हानुकरणानुरूपमनुकार्यमुचरन्ती निवारयति तथा ये मुग्धा हरिणादयस्तानपि दिहि इत्येवं निवारयति । शेषास्तु सएकप्रभृतीन् यष्टिनिपातेन निवारयति । अत्र टिट्टि इत्येतदनकरमपि वत्सादन] प्रतिषेधार्थप्रतिपत्तिहेतुरूपं जायते इत्यनक्करश्रुतम् | बृ० १३० । कर्म० । विशे० । । सेवि भएगरीय प्रगति त्रिः परममुनिभिर महापुरु तत्वात् सामायिके, आ० म० द्वि० । अणगार अनगार- पुं० । अनगारशब्दो व्युत्पन्नोत्प व्युत्पन्नः साधौ, “अनगारो मुनिर्मौनी, साधुः प्रब्रजितो व्रती । श्रमणः कृपणश्चैव यतिश्चैकार्थवाचकाः ॥ १ ॥ इति । उप्त०॥ व्युपगारशब्द द्विधान्यनायनेदात रात्र प्यागारम मपदादिनिर्निवृत्तम, भावागारं पुनर गैर्विपाककालेऽपि जीवविपाकितया शरीरपुद्गलादिषु बहिः प्रवृत्तिरहितैर सकता मुद याविनिर्मित पायमोहनीयम तयार तु निषेधे विद्यमानगृद्धेः माचागार हे स्वल्पायमोहनीचे; - Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) अभिधानराजेन्द्रः । अणगार कषायमोहनीयं हि कर्म । न च कर्मणः स्थित्यादि भूयस्त्वे विरतिसम्भवः । यत श्रागमः “ सत्तएहं पयकीयं, अग्भितरओ य कोडकोमीए । काकण सागराणं, जर लहर चउरमायरं” ॥१॥ इत्यादि । उत्त० १ अ० । (१) तपः अणगारे निक्खेवो, चउत्रिहो दुत्रिहो होइ दव्वम्मि | आगम नोआगमती, आगमतो होइ सो तिविहो । जागसरीरभविष, तम्बर यहिवाईसु । जाने सम्मदिट्टी, अगारवासा विशिम्मुको । उत्त०नि० स्पष्टमिदं गाथाप्रथम नवरं तद्व्यतिरि निवादिषु, आदिशब्दादन्येष्वपि चारित्रपरिणामं विना गृहाजाववत् । निर्द्धारणे सप्तमी । ततश्च यस्तेषु मध्ये अनगारत्वेन लोके रूढ इत्युपस्कारः स तद्व्यतिरिक्तो व्यानगारो, भावे सम्यग् दृष्टिः सम्यग्दनवा तो परममिति चारित्र व अगावासेनानगारवासेन वा, प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे पञ्चमी । विशेपेण तत्प्रतिबन्धपरित्यागरूपेण, निर्मुक्तस्यता, विनिर्मुकोनगार इति प्रक्रमः । उत्त० ३४ अ० भ० प्रज्ञा० स० । सूत्र० । नि० चू० । द्वा० | सु० प्र० । रा० ॥ जं० | आचा० । परित्यक्तद्रव्यनावगृहे, नं० । सामान्यसाधौ, भ० १५ श० १३० । गृहरहिते, सूत्र० २ ० १ श्र० । त्यक्तगृहव्यापारे श्राचा० १ ० ६ श्र० २० द्वा० पुत्रदुहितृस्नुपाज्ञातिधान्यादि आचा० १ श्रु० २ अ० ५ उ० । भिकौ, स्था० ६ वा० १० उ० । (२) अनगारत्वं वीरान्तेवासिनां वर्णकः - ते काले एां तेणं समए णं समस्स जगवओो महावीरस्स बहवे अणगारा जगवंतो अप्पेगड़आ आयारधरा जाव वित्रागसूत्राधरा (तत्य तत्य) ताई ताई देसे देते गच्छागच्छं गुम्मागुम् फुड्डाफु अप्पेगा वायंति, अप्पेगइया पडिपुच्छति, चप्पेगया परियहंति अप्पेगइया अप्पेहंति अप्पेगइया अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवअणीओ गिव्वेणीओ चनव्विदाओ कहाओ कति अप्पेग जाणू अहो सिरा जाणकोडोव गया संजमेणं तवसा अप्पा नावे माणा विहरति संसारजग्गा जीओ जम्मण नरमरकर गंभीरक्खपक्खुजि प उरसझिलं संजोगविओोगवीचीचितापसंगपरिवह बंधमहाविजल कोल कलुणाविलावे अलोचकफोलच अनमाण फेला विव्यवसण पुलंपुलप्यन्यरोगणपरिभयविणिवायकरुपरिसासमावडि " अकठिणकम्मपनत्थतरतरंगरंगत निच्चमच्चुजयतो अप कसापायासंकुलं भवसयहरू कजलसंचयं पतिजयं परिमिअमहित्यकलुसमतिवाउगे उम्ममाणद्गरपरर्थधन्यारवर फेण परसापिवासपवले मोहमहावन जोगभममाणगुप्पमाणुच्छलंतपच्चोणिपत्तपाणियपमायचं मवदुदु हसासमायुकायमाणपञ्जारपोरकंदियमहारयरवंतनेश्वरवं अण्णाण भमंतमच्दपरिहत्य आणि हुतिंदितमहा मगरतुरिअचरखोभमानत चल चल चलतपुम्बं तजलसमूह अरतियवसाययोगमिच्छतसेससंक अणासंतानकम्म - अणगार बंध किलेस चिक्खिलदुत्तारं अमरासुरनरतिरियनिरयगगमणकुडिलपरिमसलिलं परंतमहंतमणग्गदसंसा रसागरं श्रीमदरिसणिज्जं तरंति, पीई अनिष्पकंपेण तुरियं चवलं संवरवेरग्गतुरंगवयमुपणं शाशासितगिलमूसिएणं सम्मत्तविसुकलकणिज्जामरणं धीरा संजमपोएए सोनकलिया पसत्यापन वायपणोद्धिहाविष्ण अमयवसायग्गद्वियणिज्जरण जयए उन भोगणाणदंसण वि सुद्धवय मरिप्रसारा जिणवरवयणोवदिट्ठमग्गेण श्रकुमिले सिद्धमहापट्टणाभिमुद्दा समणवरसत्यवाहा सुमुह सुभासपएहसास गामे गामे एगरायं गरे एगरे पंचरायं दूइज्जया जिइंदिया ब्भिया गयजया सचित्ताचित्तमी सिएस दव्त्रे विरागरंगया संजया विरया मुत्ता बहुआ णिरवखा साहू णिहुआ चरंति धम्मं ॥ 'अप्येया आधारघरेत्यादि प्रतीतम् कचित् श्यते (तस्थ तत् ति) उद्यानादी (हि त ति शक्रमेवाहदे देशे श्रवग्रहभागी वीप्साकरणं वाऽऽधारबाहुल्येन साधुबाहुल्यप्रतिपादनार्थम् (गच्छागच्छेति) एकाचार्य परिवारो गच्छ गच्छे गच्छे गत्वा गच्छागच्छ, वाचयन्तीति योगः। दण्डादयादिवदसिद्धि एवं सुम्माशुम्मि फुड्डा न वरं, गुल्मं देशः उपाध्यायाधिष्ठितः फुकं लघुतरो गच्छदेश एव गणावच्छेदिकाधिष्ठित इति । अथ प्राकृतवाचना - ( वायंति ) सूत्रवाचनां ददति ( पडिपुच्छंति ति सूत्रार्थ पृच्छन्ति ( परियति) परिवर्तयन्ति तावेव ( श्रगुप्पेहंति सि ) अनुप्रेक्षन्ते तावेव चिन्तयन्ति ( श्रमेयो) तिष्यते मोदातीता काभिरित्याक्षेपयः (विषयति विशिष्यते कुमा विमुख विधीयते श्रोता यकाभिस्ता विक्षेपण्यः संवेशीश्रोत्ति ) संवेद्यते मोक्षसुखाभिलाषी विधीयते श्रोता यकाभिस्ता संवेदन्यः (स) नियते संसारनि णि विधीयने श्रोता बकाभिस्ता निर्वेदन्यः तथा वर्ष जा अहो सिर सि) शुद्धथिव्यासनयनादपग्रहति-द्याया अभावाच कुटुकासनाः सन्ताऽपदिश्यन्ते ऊ जानूनी येषां ते ऊर्द्धजानवः, अधः शिरसोऽधोमुखाः, नोद्धुं तिर्यया विचिरय इत्यर्थः (भागकोचिगय थि) ध्यानरूपो यः कोस्तमुपगता येते तथा ध्यानकोष्ठप्रवेशनेन संय मनोवृत्तिध्याना इत्यर्थः संयमेन तपसाऽमानं भावयन्तोषि हरन्तीति । प्रकारान्तरेण स एवोच्यते- (संसारभगि सि) प्रतीतम् (जम्मणजरमरणेत्यादि) जन्मजरामरणान्देव करणानि साधनानि यस्य तत्तथा तच तगम्भीरदुःखं च तदेव प्रक्षुभितं प्रचुरं सलिलं यत्र स तथा; तं संसारसागरं तरन्तीति योगः । ( संजोगवियोगेत्यादि ) संयोगवियोगा एव बीचयस्तरङ्गा यत्र स तथा चिन्ताप्रसङ्गश्चिन्तासातत्यमित्यर्थः, स एव प्रसृतं प्रसरो यस्य स तथा बधाः हननानि, बन्धाः संयमनानि तान्वेय महान्तो दीर्घा विपुला विस्तीर्ण क लोला महोर्मयो यत्र स तथा, करुणानि विलापितानि यत्र स तथा, स चासौ लोभश्च स एव कलकलायमानो यो बोलो ध्वनिः स बहुलो यत्र स तथा ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयः। श्रतस्तम् (श्रवमाणणेत्यादि) अपमानमेवा पूजनमेव, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) अागार अन्निधानराजेन्सः। प्रागार फेनो यत्र स तथा। तीनखिसनं चात्यर्थनिन्दा, पुलुम्पुलप्रभूता निष्प्रकम्पस्तेन त्वरितं,चपलमतित्वरितं यथा नवतीत्येवं तरन्ति। अनवरतोद्भता या रोगवेदना । पाठान्तरे-तीवखिसनप्रलुम्पि- (संवरवरग्गेत्यादि) संवरः प्राणातिपातादिविरतिरूपः, वैराग्यं तानि च, प्रभूतरोगवेदनाश्च; परिभवविनिपातश्च पराभिभव- कषायनिग्रहः,एतबकणो यस्तुङ्ग नच्चः कृपकस्तम्नविशेषस्तेन, सम्पर्कः । परुषधर्षणाश्च निष्टरवचननिर्भत्सनानि, समापति सुष्ट संप्रयुक्तो यः स तथा, तेन [णाणेत्यादि ] ज्ञानमेव सितः तानि समापन्नानि बद्धानि यानि कठिनानि कर्कशोदयानि, सितपटः स विमल उच्छुितो यत्रस तथा तेन: णकारश्वेह प्राकृ. कर्माणि ज्ञानावरवादीनि, तानि चेति द्वन्द्वः ततः एतान्येव तशैलीप्रभवः [ सम्मत्तेत्यादि] सम्यक्त्वरूपो विशुको निर्दोषो ये प्रस्तराः पाषाणाः, तैः कृत्वा तरङ्गैः रिङ्गद्वोचिभिश्चल, नित्यं सब्धोऽवाप्नो निर्यामकः कर्णधारो यत्र स तथा,नेन,धीराः अक्कोध्रव, मृत्युभयमेव मरषभीतिरवे, तोयपृष्ठ जलापरितनभागा जाः, संयमपोतेन शावकविता इति च प्रतीतम् । (पसत्थेत्यादि) यत्र स तथा. ततः कर्मधारयः।अथवा अपमानफेनमिति तो- | प्रशस्तं ध्यानं धम्मादि तपं यत्तपः स एव वातो वायुम्तेन यपृष्ठस्य विशेषणमतो बहुव्रीहिरेवास्तु, तम, [कसायेत्यादि] यत् प्रणोदित प्रेरण तेन प्रधावितो वेगेन चवितो यः स तथा, कषाय एव पातालाः पातालकषायास्तैः संकुलो यः स तथा तेनासयमपोतेनिति प्रकृतम्। (उज्जमववसायेत्यादि)उद्यम अनातम, भवसयसहस्सेत्यादिभवशतसहस्राण्येव कलुषा जला- लस्य, व्यवसायो वस्तुनिर्णयः, सद्व्यापारो वा, ताज्यां मूबकनां संचयो यत्र स तथा तम्, पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य स- रूपाच्यां यद् गृहीतं कीतं निर्जरणयतनोपयोगज्ञानदर्शनविशुद्धलिलतोक्का, इह तु भवानां जननादिधर्मवतां जनिविशेषस- वतरूपं भाएमक्रयाणकं तस्य भरितः संयमपोतभरणेन पिशिमतः मुदायतोक्नेतिन पुनरुतत्वमिति पइभयं तिव्यक्तम,[अपरिमि- सारो यैस्ते तथा; श्रमणवरसार्थवाहा इति योगः। तत्र निर्जयेत्यादि अपरिमिता अपरिमाया या महेच्छा वृहदभिलापासा रणं तपः, यतना बहुदोपत्यागेनाल्पदोषाश्रयणम, उपयोगः सावयेषां ते लोकास्तेषां कलुषा मलिना या मतिःसैव वायुवेगस्तेन धानता, ज्ञानदर्शनाच्यां विशुद्धानि व्रतानि, अथवा ज्ञानदर्शने च 'उगुम्ममाणं उद्भुबमाणं वा' उत्पाट्यमानं यदुदकरज उदक- विशवतानि चेति समासः।व्रतानि च महावतानि । पागन्तरेरेणुसमूहः, तस्य रयो वेगस्तेनान्धकारो यः स तथा, वरफे- (णाणदंसणेत्यादि)तत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव विशुसंवरभाराम, नेनेव प्रचुराशापिपासाभिः, तत्र प्रचुरा बह्वध श्राशाः अप्राप्ता- तेन भरितः सारो यैस्ते तथा। [जिणवरेत्यादिव्यक्तम्। (सुसुह इत्या र्थानां प्राप्तिसम्भावनाः, पिपासास्तु-तेषामेवाकाङ्काः, अतस्ता ! दि)सुश्रुतयः सम्यक्श्रुतग्रन्थाः,सत्सिकान्ता वा, सुशुचयो वा,सुभिर्धवल इव धवलो यः स तथा, ततः कर्मधारयः, अत- खः सम्भापो येषां, सुखेन वा सम्भाष्यन्त इति सुसम्भाषा:, शोजस्तमः [मोहमहावत्तेत्यादि] मोहरूपे महावर्ते भोगरूपं भ्राम्य- नाःप्रश्नाः,सुखेन वा प्रश्यन्ते येते सुप्रश्नाः, शोजना आशाः वाचा न्मएडलेन भ्रमद् गुप्याकुलीभवत्,उच्छलत् उत्पतत्,प्रत्यव- येषां ते स्वाशाः । अथवा सुखेन प्रश्न्यन्ते शास्यन्ते च शिक्ष्यन्ते निपतच्चाधापतत्, पानीयं जलं यत्रस तथा,प्रमादा मद्यादय- ये ते सुप्रश्नशास्याः, शोजनानि वा प्रश्नशस्यानि पृच्चाधान्यानि स्त एव चण्डबहुदुष्टस्वापदाः रौद्रभूरिक्षुद्रव्यालास्तैर्ये समाह- येषां ते तथा, अथवा सुप्रश्नाः शस्याश्च प्रशंसनीयाः, ततः कर्मताःप्रहता उद्धावन्तश्च उत्तिष्ठन्तो वा विविधं चेष्टमानाः, समु- धारय इति । (दूरज्जय त्ति) ज्वन्तो वसन्तः, अनेकार्थत्वाकाद्रपक्षे मत्स्यादयः, संसारपले पुरुषादयः, तेषां प्राग्भारः पूरो वा तूनाम् । (णिभय त्ति) भयमोहनीयोदयनिषेधात् । (गयभयत्ति) समूहो यत्र स तथा, तथा घोरो यः ऋन्दितमहारवः स एव र. उदयविफलताकारणात् । (संजय त्ति) संयमवन्तः । कुत वन् प्रतिशब्दकरणतःशब्दायमानो भैरवरवो भीमघोषो यत्रस इत्याह-(विरय त्ति) यतो निवृत्ताः हिंसादित्यः, तपसि वा वि तथा,तत्पदत्रयस्य कर्मधारयः,ततस्तम,[प्रमाणभमंतेत्यादि] शेषेण रता विरताः 'विरया' वा निरौत्सुक्याः विरजसो वा अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्याः (परिहत्थं ति)दका यत्र स तथा, अपापाः । 'संचयाओ विरय त्ति' क्वचिद् दृश्यते, तत्र सन्निधेअनिभृतान्यनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येव महामकारा- निवृना इत्यर्थः । ( मुत्तत्ति) मुक्ताः ग्रन्थेन, (बहअत्ति)बघुका स्तेषां यानि त्वरितानि शीघ्राणि चरितानि चेषितानि तैः (खो- अल्पोपधित्वात् , (गिरवकलं ति) अप्राप्ताकालावियुक्ताः खुब्जमाणे ति)नृशं कुन्यमाणो, नृत्यन्निव नृत्यंश्व चपनानां मध्ये (साहु मोकसाधनात, (णि हुश्रा)निनृताः प्रशान्तवृत्तयः,चरन्ति। चञ्चलश्चास्थिरत्वेन, चवंश्च स्थानान्तरगमनेन, घूमश्च नाम्यन् [धम्मति व्यक्तम् । अत्र साधुवर्ण के जितेन्ज्यित्वादीनि विशेजलसमूहो जनसंघातः, अन्यत्र जमसमूहो यत्र स तथा; ततः षणानि बहुशोऽधीतानि, तानि च गमान्तरतया निरवद्यानि, कर्मधारयः,ततस्तम्,[अरतिजयेत्यादि] अरतिभयविषादशोकमि- यत् पुनरत्रैव गमे पुनरुक्तमवजासते,तत् स्तवत्वान्न दुष्टमायदाहथ्यात्वानि प्रतीतानि, तान्येव शैलास्तैः संकटो यःस तथा, तम्। "सकायकाणनवओ-सहेसु उवएसथुपणामेसु । संतगुण( अगाइसंताणेत्यादि ) अनादिसन्तानमनादिप्रवाहं यत् कर्मब- कित्तणासु य, न हुति पुनरुत्तदोसाओ"॥१||ौ।"तिहि नाणेहि न्धनं तच्च, क्लेशाश्च रागादयस्तवकणं यश्चिक्खिवं कर्दमस्तन संपन्ने अरणगारे श्रणाईयं श्रणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारसुष्ट दुस्तारो यः स तया,तम्, अमरासुरल्यादि)अमरासुरतियक कतारं विईवएज्जा । तं जहा-अणिदाणयाए दिठिसंपन्नयाए जोनिरयगतिषु यमनं तदेव कुटिलपरिवीवर्तपरिवर्तना विपुला गवाहियाए" स्था० ३ ग०। (सर्वेषां पदानां व्याख्या स्वस्वव विस्तीर्घा वेला जयवृफिलकणा यत्र स तथा,तम, (चरंत स्थाने द्रष्टव्या) महंत त्ति) चतुर्विभागं दिग्भेदगतिन्जेदान्यां महान्तं च महाया (३) पृथिवीकायिकादिहिंसकानामनगारत्वं न भवतिमम् , प्रणवदग्गं ति) अनवदग्रमनन्तमित्यर्थः, विस्तीर्ण संसार- पश्यति य अरणगारा, ण य तेसिं गुणेहि जेहि अणगारा । सागरमिति व्यक्तम। (भीमदरिसणिज्जति) भीमो दृश्यत शति- पुढवि विहिंसमाणा, न होंति वायाइ अणगारा ॥८॥ भीमदर्शनीयस्तं, तरन्ति लक्क्यन्ति संयमपोतनोत योगः । कि- अणगारवाणो पुढ-विहिंसगा निग्गुणा अगारिसमा । म्भूतेन (धीईणिप्रणिपकंपेण त्ति) धृतिरज्जुबन्धनेन, धनिक निदोस त्ति य मश्ला, विरइ उगुंछाइ मसतरा ॥१०॥ मत्पर्य; निष्प्रकम्पोऽविचलो यःस,मध्यमपदलोपादधतिधनिक- आचा०नि० । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) अणगार अभिधानराजेन्द्रः। अणगार होके कुतीथिका यतिवेषमास्थाय एवञ्च प्रवदन्ति-वयम- कथश्चिदभावदिति शिथिलबम्धनबद्धाः । एताश्चाशुजा एवं नगाराः प्रवजिताः। न च तेषु गुणेषु निरवद्यानुष्ठानरूपेषु वर्तन्ते द्रष्टव्याः, असंवृतभावस्य निन्दाप्रस्तावात् । ताः किमित्याहयेवनगराः । यथा चानगारगुणेषु नवर्तन्ते तदर्शयति-यतस्तेऽह- [धणियबंधणवझाओ पकरेशत्ति] गाढतरबन्धनवकावस्था वा, निशं पृथिवीजन्तुविपत्तिकारिणो दृश्यन्ते गुदपाणिपादप्रकास- निधत्तावस्थावा,निकाचितावस्था वा प्रकरोति । प्रशब्दस्यादि. नार्थम्, अन्यथाऽपि निलेपनिर्गन्धत्वं कर्तुं शक्यम्। अतश्च ते गुण. कर्मार्थत्वात्कर्तुमारज्यते, असंवृतत्वस्य शुभयोगरूपत्वम गाढकापशून्याः, न बास्त्रात्रेण युक्तिनिरपेकेणानगारता नवतीत्यनेन तरप्रकृतिबन्धहेतुत्वात्। आह च-'जोगायपडिपएसंति' पौन:प्रयोगःसूचितः। तत्र गाथापूर्वार्धन प्रतिका, पश्चार्धन हेतुः,उत्त- पुन्यजावे स्वसंवृतत्वस्य ताः करोतीत्येवेति । तथा-हस्वकास. रगाथार्धन साधर्म्यदृधान्तः । स चायं प्रयोगः-तीथिका यत्य. स्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, तत्र स्थितिरूपासस्य मिधानवादिनोऽपि यतिगुणेषु न वर्तन्ते, पृथिवीहिंसाप्रवृत्तत्वा- कर्मणोऽवस्थानं, तामल्पकाला महतीं करोतीत्यर्थः असंवृतत्, वह ये ये पृथिवीहिंसाप्रवृत्तास्ते ते यतिगुणेषु न वर्तन्ते, गृ- त्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात। श्राहच-'ठिश्मणुहस्थवतासाम्प्रतं दृष्टान्तगनिगमनमाह-[प्रणेत्यादि] अनगा- मागं कसायनो कुणात्ति'। तथा [मंदाणुनावत्यादि] इहानुभारवादिनः-वयं यतय इति वदनशीबाः पृथिवीकायविहिसकाः यो विपाकः, रसविशेष इत्यर्थः। ततश्च मन्दानुभावाः परिपेलसन्तो निर्गुणाः, यतोऽगारिसमा गृहस्थतुल्या जवन्ति । वरसाः सतीर्गादरसाः प्रकरोति । असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वाअभ्युश्चयमाह- सचेतना पृथिवी' इत्येवं ज्ञानरहितत्वेन त- देवानुभागबन्धस्य च कषायप्रत्ययत्वादिति । [अप्पपपसेत्यासमारम्भवतिनः सदोषा अपि सन्तो वयं निर्दोषा इत्येवं | दि] अल्पं स्तोकं प्रदेशाग्रं कर्मदनिकपरिमाणं यासांतास्तथा, मन्यमानाः स्वदोषप्रकाविमुखत्वात्मलिनाः कबुषितहृदयाः, ताः बहुप्रदेशाप्राः प्रकरोति प्रदेशबन्धस्यापि योगप्रत्ययत्वादपुनश्चातिप्रगल्भतया साधुजनाधिताया निरवद्यानुष्ठानात्मिका- संवृतत्वस्य च योगरूपत्वादिति। [श्राव्यं चेत्यादि ] श्रायुः, या विरतेः जुगुप्सया निन्दया मलिनतरा भवन्ति । अनया च पुनः, कर्म, स्यात कदाचिद्, बन्नाति,स्यान्न बध्नाति।यस्मात्र. साधुनिन्दयाऽनन्तसंसारित्वं प्रदर्शितं भवतीति । आचा०१ श्रु० नागाद्यवशेषायुषः परजवायुः प्रकुर्वन्ति, तेन यदा त्रिनागादि१०२०० । “अणगारे पासंडी, चरगे तह बंभणे चेव " स्तदा बन्नाति, अन्यदा न बध्नातीति तथा । [असाए इत्यादि] इति । दश०१०१०। “वुकः प्रवजितो मुक्तो-उजगारश्वरकस्त- असातवेदनीयं च पुःखवेदनायं कर्म पुनर्भूयोभूयः पुनरुपचिथा"।द्वा०२७द्वा०। नोति उपचितं करोति । ननु कर्मसप्तकान्तवर्तित्वादसातवेद(४) क्रियाऽसंवृतोऽनगारो न सिध्यति, किन्तु संवृत इति नीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव तपचयप्रतिपत्तः किमेतदसावतारमाह-ननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शन एव यति- ग्रहणेन ? । इत्यत्रोच्यते--असंवृतोऽत्यन्त दु:खितो भवतीतिसध्यम, तस्यैव मोकहेतुत्वात् । यदाह-"भट्टेण चरित्ताओ, सु- प्रतिपादनेन भयजननाइसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यपुष्यमिति । ट्ठयरं दसणं गहेयब्वं । सिझंति चरणरहिया, दसणरहिया ण [अणाश्यं ति] अनादिकं विद्यमानादिकम्, अझातिकं वा सिझंति" ॥१॥ इति यो मन्येत तं शिक्कयितुं प्रश्नयनाद- विद्यमानस्वजनम, ऋणं वा अतीतम,ऋणजन्यदुःस्थताऽतिअमवुमे णं जंते ! अणगारे सिकति बुज्झति मुञ्चति क्रान्तःस्थतानिमित्ततयेति ऋणातीतम् । अणं वा अणकं पापमतिशयेनेतं गतम्-प्रणातीतम [अणवयग्गं ति] 'अवयपरिणिवाति सव्वमुक्खाणमंतं करोति । गति' देशीवचनोऽन्तवाचकस्ततस्तभिषेधात् 'अणवयम्ग ' प्रश्नसुत्रं सुगमम् । सत्तरमाह अनन्तमित्यर्थः । अथवा अवनतमासनमग्रमन्तो यस्य तसथा, गोयमा !णो इणढे समटे । सेकेणडेणं ते ! जाव तनिषेधादनवनताप्रमेतदेवर्णनाशादनवताप्रमिति । अथवा मनअंतं न करेति। गोयमा! असंवमे अणगारे पाउयवज्जा वगतमपरिटिनम परिमाणं यस्य तत्तथा । श्रतएव [दहिम कंति ] दीर्घाई दीर्घकालं, दीर्घाभ्यं वा दीर्घमार्गम्। [चाउरंत श्रो सत्तकम्पपगडीओ सिढिनबंधणवछात्रो धणियबंध ति]चतुरन्तदेवादिगतिजेदात्पूर्वादिदिग्भेदाच चतुर्विनागं तदेव गावकाओ पकरेइ, हस्सकालाहितीयाओ दोहकालद्विती-1 स्वार्घिकापप्रत्ययोपादानाचातुरन्तम् । [संसारकंतारं ति] यानो पकरे, मंदाणुभावाओ तिव्वाणुनावाओ पकरे, जवारण्यम् [ अणुपरियहात्ति ] पुनःपुनर्जमतीति ॥ अप्पपदेममाी बहुपदेसगाओ पकरेइ । प्राग्यं च णं असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्य तु यत्स्यात्सदाहकम्म मिय बंधश, सिय नो बंधइ, असायावेयाणिज्जं च णं | संधुढे एं नं ! अणगारे सिज्मइ ? | हंता सिक कम्मं भुज्जो नुज्जो नवाचणा, अणाइयं च णं अणव जाव अंत करई । सेकेण्डेणं भंते ! एवं बुरच | गोयमा ! यगं दीहम चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियति, से ते संवुमे णं अणगारे भाजयवज्जामो सत्तकम्मपगडीमो पढेणं गोयमा ! असंवरे अणगारे णो सिज्झा ॥ धणियबंधणवकानो सिदिलबंधणवकाओ पकरेड,दीहएतदपि काव्यम् । नवरं ( नो इणट्टे समटे त्ति) नो नैव, कामहितियाभो हस्सकासहितियानो पकरेइ, तिवाणुभाअयमनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यकोऽर्थो भावः, समर्थो बनवान्, पदय- वाओ मंदाणुजावाओ पकरेइ, बहुपदेसगाओ अप्पपदेसगामाणदूषणमुझरप्रहारजर्जस्तित्वात् । [श्राउयवग्जाओ ति] श्रो पकरेइ, अाउयं च णं कम्मं न बंधइ, असायावेयणिज्ज यस्मादेकत्र भवग्रहणे सकृदेव अन्तर्मुहर्तमात्रकास पव, श्रायुषो बन्धः, तत उक्तम्-आर्युवर्जा इति । सिदिमबंधणवद्धानो ति] च णं कम्मंणो भुज्जो तुज्जो नवचिण, अणादीयं च ण लयबन्धनं स्पृष्टता वा, वरूता वा, निधत्तता वा, तेन वसा प्रणवदग्गं दीहम चाउरंतसंसारकंतारं वीईवयइ । से तेणमात्मप्रदेशेषु सम्बन्धिताः, पूर्वावस्थायाम शुमतरपरिणामस्य हेणं गोपमा! एवं संवुडे अणगारे सिज्जाव अंतं करेक Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) अणगार अभिधानराजेन्डः। अगागार (संयुमे णमित्यादि) व्यक्तम, नवरं, संवृतोऽनगारःप्रमत्तसंय- | इत्यर्थः । प्रमूर्च्छितादिविशेषणविशेषित पाहारमाहारयति,प्रतादिः, स च चरमशरीरः स्यादचरमशरीरो वा, तत्र यश्चरम शान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः अत्रोत्तरम्हंतागोयमेत्यादि] शरीरस्तदपेक्वयेदं सूत्रम्,यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्वया परम्परया अनेन तु प्रभार्थ एवान्युपगतः,कस्यापिजतप्रत्याख्यातुरेवंतसूत्रार्थोऽवसेयः । ननु पारम्पर्येणासंवृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्या- भावस्य सद्भावादिति। भ०१४ २०७उ० । घश्यंभावः, यतः शक्यपाक्तिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंजावी, तदेवं [७] शैलेशीप्रतिपन्नस्यानगारस्य एजनासंवृतासंवृतयोः फलतो जेदानाव एवेति । अत्रोच्यते-सत्यम्, सेलेसिपमिवायए णं भंते ! अणगारे सया समियं एकिन्तु यत्संवतस्य पारम्पर्य तमुत्कर्षतः सप्ताष्टनवप्रमाणम् । यति वेयति जावतं तं जावं परिणम । णो इणटे समढे, णयतो वक्ष्यति-"जहनियं चारित्ताराहणं पाराहित्ता सत्तहनव णत्थेगेणं परप्पओगेणं ।। भगहणहि सिज्झइत्ति"। यच्चाऽसंवृतस्य पारम्पर्य तत्कर्षतोऽपार्द्धपुमलपरावर्तमानमपि स्यात,विराधनाफलत्वात् तस्यति। (नो श्ण सम ति ) योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्मात्परप्रयो(वीश्वयत्ति) व्यतिबजति, व्यतिक्रामतीत्यर्थः। भ०१श०१० गादेजनादिकारणेषु मध्ये परप्रयोगेणवैकेन शैलेश्यामेजनादि (५) अनगारस्य भावितात्मनोऽसिधारादिष्ववगाहना-- जवति, न करणान्तरेणेति जावः । भ०१७ श० ३ ०। रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारेणं नंते !जाविय [-] अनगारो भावितात्माऽऽत्मनः कर्मवेश्याशरीरं जानाति अणगारे णं नंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्संग प्पा असिधारं वा खुरधारं वा श्रोगाहेज्जा । हंता ओगाहेज्जा । से णं तत्थ छिज्जेज्ज वा भिज्जेज वा । णो इणहे जाणइ, ण पासइ, तं पुण जीवसरूवि सकम्मलेस्सं जाणइ, समढे, णो खलु तत्थ सत्यं कमइ । एवं जहा पंचमसए पास ? हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पास। परमाणुपोग्गले वत्तव्वया जाव । अणगारे णं नंते ! भावि (अणगारे णमित्यादि ) अनगारो भावितात्मा संयमनापनया यप्पा उदावत्तं वा जाव । णो खल्ल तत्थ सत्थं कमइ । वासितान्तःकरणः, आत्मनः संबन्धिनी कर्मणो योग्या वेश्या [रायगिहे इत्यादि ] श्ह चानगारस्य कुरधारादिषु प्रवेशो | कृष्णादिका, कर्मणो वा लेश्या, "लिश श्लेषणे" इति वचनाबैक्रियसब्धिसामर्थ्यादवसेयः। [एवं जहा पंचमसपश्त्यादि] | त्। संबन्धः कर्ममेश्या, तां न जानाति विशेषतो न पश्यति च, अनेन च यत्सूचितं तदिदम्-'अणगारेणं भंते!भावियप्पा अग सामान्यतः कृष्णादिश्यायाः, कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मणिकायस्स मऊ मज्झेणं वीश्वरजा ?, हंता वीईवज्जा , से त्वेन ध्वास्थज्ञानागोचरत्वात् । (तं पुण जीवं ति)। यो जीवः गं तत्थ कियाएज्जा ? । नो श्ण समठे, नो खसु तत्थ सत्य कर्मलेश्यावांस्तं पुनर्जीवमात्मानं ( सर्विति) सह रूपेण कई" इत्यादि । भ०१८ श०१० उ० । रूपरूपवतोरनेदोपचाराच्चरीरेण वर्तते योऽसौ [समासान्तवि. [६] अनगारस्य जक्तप्रत्याख्यातुराहारः धिः] सरूपी, तं सरूपिणम्-सशरीरमित्यर्थः। अत एव सकजत्तपच्चक्खायए एं भंते ! अणगारे मुछिए अज्कोव- मलेश्यं कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चकुर्लाह्यवामे आहारमाहार, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तो त्वाद् जीवस्य च कथंचिच्चरीराव्यतिरेकादिति "सरुर्वि सकम्मपच्छा अमुच्छिए पागके जाव अणकोववएणे आहार- लेसं ति" ज०१४ श०ए 801 (अनगारस्य अनायुक्तं गच्चतः महारोति । हंता गोयमा ! जत्तपञ्चक्खायए णं अणगारं तं क्रियाः 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे वदयते) चेव । से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ जत्तपच्चक्खायएणं तं (ए) अनगारस्य नावितात्मनः क्रिया रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारस्स णं नंते ! भाचव। गोयमानत्तपच्चक्खायएणं अणगारे मुच्छिए जाव वियप्पणो पुरओमुहओ जुगमायाए पेहाएरीयंरीयमाणस्स अज्कोववएणे आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ, नओ पच्छा अमुछिए जाव प्राहारे भवइ,से तेणड्ढे ८ जाव पायस्स अहे कुक्कुमपोते वा वट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियावजेजा, तस्स एं जंते ! किं इरियावहिया किरिया माहारमाहारेइ ॥ (भत्तस्यादि ) तत्र (भत्तपश्चक्खाए णं ति) अनशनी मूधि कम्जइ,संपराइया किरिया कज्ज ?। गोयमा! अणगारस्स तः संजातमू: जाताहारसंरक्षणानुबन्धस्तदोषविषये वा णं नावियप्पणो जाव तस्स णं शरियावाहिया किरिया कमूहः 'मुच्र्छा मोहसमुन्याययोः' इति वचनात् । यावत्करणा- ज्जा, णो संपराइया किरिया कजइ । से केणढे णं भंते ! विवं रश्यम-(गढिए) ग्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः स एवं बुखा। जहा सत्तमसए संमुद्देसए जाव अट्ठो णिदार्भतः, 'प्रन्थ श्रन्थ सन्दर्ने' इति वचनात् ।(गिक) गृशः प्राप्ताहार आसक्तः, अतृप्तत्वेन वा तद' काडावान् , 'गृथु'प्र क्खित्तो सेवं भंते ! नंतेत्ति जाव विहर। तए णं समणे भिकायाम्' इति वचनात् । (अज्कोवषमे ति) भभ्युपपत्रोप्रा. जगवं महावीरे जाव विहरइ ।। साहारचिन्तायामाधिक्येनोपपन्नः । आहारं वायुतैलाच्यादि- (पुरओ ति) अग्रतः (दुहओ सि) द्विधाऽन्तराऽन्तरा पार्श्वतः कम,मोदनादिकंवाऽज्यवहार्य तीवखुवेदनीयकर्मोदयावसमाधी पृष्ठनश्वेत्यर्थः (जुगमायाए ति) यूपमात्रया रया (पेहाए सि) सति तपशमनाय प्रयुक्तमाहारयत्युपभुक्ते (अहे वंति)प्रथा- प्रेक्ष्य (रीय ति) गतं गमनं, (रीयमाणस्सत्ति) कुर्वत इत्यर्थः । हारानन्तरं विनसया स्वभावत एष, (काहं ति) कालो मरणं, (कुखुम्पोप ति) कुक्टाझिम्नः ( बट्टापोए ति) वर्तका कानश्व कालो मारहास्तिकसमुद्रातः, तं करोति यानि तिम्रो पक्षिविशेषः । (कुसिंगाए वत्ति) पिपीलिकादिसरशः (पपचि) ततो मारवान्तिकसमुद्घातारपश्चात् तस्मारि रियावज्जति)पर्यापोत नियेत, (एवं जहा सत्रामसएश्त्या Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७२) अणगार अभिधानराजेन्द्रः। अणगार दि ) अनेन च यत्सुचितं तस्यार्थवेश एवम्-अथ केनार्थेन भ- यमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोना एवं जहा सत्तमसए दन्तवमुच्यते ? गौतम! यस्य क्रोधादयो व्यवचिन्ना भवन्ति पढमुद्देसए जाव से णं नस्सुत्तमेव रीयऽ । से तेणटे णं जाव तस्यर्यापथिक्यय क्रिया नवतीत्यादि। [जाव अहो निक्खित्तो ति] "से केणणं ते!" इत्यादिवाक्यस्य निगमनं यावदित्यर्थः। संपराइया किरिया कज्जइ । संवुमस्स एं भंते ! अणगातश्च [सतेणणं गायमेत्यादि] इति प्राम्गमनमाश्रित्य विचार: रस्स अवीइपंथे चिच्चा पुरओ रूवाइं निझायमाणस्स कृतः । अथ तदेवाश्रित्यान्ययूथिकमतनिषेधतः स एवोच्यते- जाव तस्स एणं नंते : किं शरियावहिया किरिया कज्जा, [तएणमित्यादि ] भ० १० श० ० उ०। पुच्छा। गोयमा ! संवुमजाव तस्स एं इरियाव हया किअणगारस्स णं नंते ! नावियप्पणो उढे उट्टेणं अणि रिया कज, णो संपराध्या किरिया कज्जा । से केणहे गं क्खित्ते । जाव आयावेमाणस्स तस्म णं पुरच्छिमेणं अ नंते ! जहा सत्तमसए सनमुद्देसए जाव से णं अहामुत्तमेव वर्क दिवसंणो कप्पड़, हत्यं वा पादं वा जाव करुं वा आऊं रीय, से तेणढे णं जान णो संपराश्या किरिया कज्जइ । हावेत्तए वा पसारेत्तए वा पञ्चच्छिमेणं अवह दिवसं कप्पइ, (रायगिहे इत्यादि ) तत्र ( संबुमस्सत्ति ) संवृतस्य सामाहत्थं वा पादं वा जाव करुं वा आम्हावेत्तए वा पसारेत्तए न्येन प्राणातिपाताद्यानवद्वारसंवरोपेतस्य (वीपंथे विच्च त्ति) वा तस्स य अंसिओ लंबइ तं चेव विज्जे अदक्खु, इसिं बीनिशब्दः सम्प्रयोगे । स च सम्प्रयोगो द्वयोवति । ततश्चह पामेइ, पामेइत्ता अंसियाओ चिंदेज्जा, सेणणं नंते ! जे डिं- कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः, ततश्च वीदेजा,तस्स कइ किरिया कज्जइ ?, जस्स छिज्जइ णो तस्स चिमतः कषायवतः,मतुष्प्रत्ययस्य षष्ठयाश्च लोपस्य दर्शनात । अथवा "विचिर् पृथग्भावे" इति वचनाद् विविच्य पृथकिरिया कज्जइ ?, णणत्थेगणं धम्मंतराइएणं ?। हंता ग्भूय यथाख्यातसंयमान्कषायोदयमनपवायेत्यर्थः । अथवा गोयमा दिइ जाच धम्मंतराइए णं सेणं भंते ! भते त्ति। विचिन्त्य रागविकल्पावित्यर्थः । अथवा विरूपा कृतिः क्रि(पुरच्छिमेणं ति) पूर्वभाग पूर्वाह्न इत्यर्थः । ( अधळं ति ) अ- या सरागत्वाद् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं पगतामढदिवसं यावद न कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं, का- स्थित्वा (पंथे त्ति) मार्ग (अवयक्खमाणस्स त्ति) अवयोत्सर्गव्यवस्थितत्वात् । ( पञ्चच्छिमेणं ति ) पश्चिमभागे कान्तोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वाद(अवर दिवसं ति) दिनार्द्ध यावत् कल्पते हस्ताद्याकुण्टायि. न्यत्राप्याधारे स्थित्वेति द्रष्टव्यम् । (नो इरियावहिया किरि. तुं,कायोत्सर्गाभावात् । तदेतञ्च चूर्ण्यनुसारितया व्याख्यातम् । या कज्जा त्ति ) न केवलयोगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया भव[तस्स यत्ति ] तस्य पुनः साधोरेवंकायोत्सर्गाभिग्रहवतः ति, सकषायत्वात्तस्येति(जस्स णं कोहमाणमायालोभा) इह( अंसियाओ त्ति)। अर्शििस, तानि च नासिकासत्कानीति एवं जहेत्याद्यतिशयादिदं दृश्यम्-(वोच्छिन्ना भवन्ति तस्स चूर्णिकारः। (तं च त्ति) तं चानगारं कृतकायोत्सर्ग लम्ब- णं इरियावहियाकिरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाणमायालोमानार्शसम, (अदक्खु त्ति) अद्राक्षीत् । ततश्चार्शसां छेदार्थम भा अचोच्छिम्मा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ, (इसिं पाडेइ त्ति) मनागनगारं भूम्यां पातयति, नापातित- अहासुत्तं रियंरीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्यार्शच्छेदः कर्तुं शक्यत इति । (तस्स त्ति) वैद्यस्य, क्रिया स्सुत्तं रीयं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जा सि) व्यापाररूपा, सा च शुभा धर्मवुझ्या । छिन्दानस्य लोभा- व्याख्या चास्य प्राग्वदिति । (से णं उस्सुत्तमेव त्ति) स पुनदिना क्रियेत त्वशुभा भवति ( जस्स छिज्जइत्ति) यस्य सा- रुत्सूत्रमेवागमातिक्रमणत एव (रीयइ त्ति) गच्छति 'संवुडस्सेधोरीसि छिद्यन्त नो तस्य क्रिया भवति, निर्व्यापारत्वात् । त्यादि' इत्युक्तविपर्ययसूत्रम्, तत्र च[अवीइ त्तिअवीचिमतोऽ किं सर्वथा क्रियाया अभावः?, मैवम् । अत श्राह-(नन्नत्थेत्या- कषायसम्बन्धवतोऽविविच्य वा अपृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयदि) न इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्माद्धर्मान्तरायाद्ध- मात् अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः । अविकृति मान्तरायलक्षणा क्रिया, तस्यापि भवताति भावः । धर्मा- यथा भवतीति । भ० १० श० २ उ० । न्तरायश्च शुभध्यानविच्छेदादर्शश्छेदानुमोदनाद् वेति । भ० संयुमस्स णं भंते ! अणगारस्स आनत्तं गच्छमाणस्स १६श०३उ०। (१०) संवृतस्यानगारस्य क्रिया जाव उत्तं वत्यपमिग्गहं कंबलं पायपुच्छणं गेएहमाणरायगिहे जाव एवं वयासी-संवुमस्म णं भंते ! अणगा सस वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं इरियारस्म वीइपंथे चिच्चा पुरो रूवाइंनिज्झायमाणस्स मग्ग वहिया किरिया कन्जद, संपराइया किरिया कज्जइ । ओ रूवाई अवयक्खमाणस्स पासओ रूवाई अवलोएमा- संवुडस्स णं अणगारस्म जाव तस्स णं इरियाबहिया णस्म उई रूवाई उझोएमाणस्म अहे रूवाई आलोए- किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । से केमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जा, पढे णं ते ! एवं बुच्चइ संवमस्स एणं जाव नो संपसंपराया किरिया कजा ?। गोयमा ! संवुमस्स अणगा- राइया किरिया कज्जा ? । गोयमा ! जस्स णं कोहरस्स वीइपये ठिचा जाब तस्स णं णोरियावाहिया कि- माणमायामोजा वोच्चिएणा भवंति तस्स णं इरियावरिया कजइ, संपराश्या किरिया कज्जा से केणटेणं भंते!| हिया किरिया कज्जइ, तहेव जाव नस्सुत्तं रीयमाणस्स एवं वृच्चइ, संबुमजाव संपराझ्या किरिया कज्जइ । गो- संपराश्या किारया कज्जइ, से पां अहामुनमेव रीयइ, से Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) अणगार अभिधानराजेन्डः । प्रागार तणणं गोयमा! नाव नो संपराश्या किरिया कज्जइ । (१२) असंवृतस्यानगारस्य विकुवर्णाज०७श०७ न। अमंचूमे एं नंते ! अणगारे वाहिरए पग्गिझे अपरिया(११) अनगारस्य गत्युपपादौ इत्ता पभू एगवणं एगरूवं विउवित्तए ? । गोयमा ! रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे ए भंते ! जावियप्पा इणद्वे समझे । असंबुडे एवं जने ! अणगारे वाहिरए पो. चरम देवावासं वीइकते परमं देवावासं असंपत्ते एत्थ एणं ग्गने परियाइत्ता पनू ! एगवराणं एगरूवं जाव । हंना । पन् ! अंतरालं कालं करेज्जा, तस्स णं नंते ! कहिं गई कहिं से भंते ! कि इह गए पोग्गने परियाऽत्ता विनम्बइ, तन्य उववाए पन्नत्ते ?। गोयमा! जे से तत्थ परिस्सो तल्लेस्मा गए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वड, अम्मन्य गए पोग्गले देवावामा तहिं तस्स गई, तहिं तस्स उववाए पएणत्ते । से य परियाइत्ता विनव्व ?। गोयमा ! इह गए पोग्गले परितत्थ गए विराहेजा, कम्मलेस्मामेव पमित्रमद, से य तत्थ थाइत्ता विनव्वइ, नो तन्य गए पोग्गने परियाऽत्ता विनगए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपजित्ताणं विहरइ । व्वर, नो अप्पत्य गए पोग्गले जाव विनुब्बइ, एवं एगवान अणेगरूवं चनजंगो जहा उसए नवमे नद्देमए तहा [चरम देवावासं वीइकते परमं देवावासं असंपत्त ति] चरममर्वाग्भागयतिनं स्थित्यादिनिर्देवावासं सौधर्मादिदेवलोक इहावि भाणियव्यं, नवरं अणगारे इह गए य पोग्गझे परिव्यतिक्रान्तो लघितस्तापपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षया याइत्ता विनव्व, सेसं तं चेव नाव सुक्खपोग्गलं पिछपरमं परजागवर्तिनं स्थित्यादिनिरेव देवावासं सनत्कुमारा- पोग्गलत्ताए परिणामेत्ताए। हंता । पभू. से नंते ! कि इह दिदेवलोकमसंप्राप्तोऽप्राप्तस्तपपातहेतुनूतलेश्यापरिणामापे गए पोग्गझे परियाइत्ता जाव नो अप्तास्थ गए पोग्गले वयव । इदमुक्तं भवति-प्रशस्तवध्यवप्तायस्थानेषत्तरोत्तरेषु वर्तमान आरागिस्थितसौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयो परियाइत्ता विनव्व। ग्यतामतिक्रान्तः परभगवर्तिसनत्कुमारादिगतदेवस्थित्यादिव असंवृतः प्रमत्तः (श्ह गए त्ति) इह पृच्छको गौतमः, तदेपक्रया न्धयोग्यतां चाप्राप्तः । [पत्थ णं अंतर त्ति] इहावसरे [ कानं इडशब्दवाच्यो मनुष्यलेोकस्ततश्च श्हगतान् नरलोकव्यवस्थित करेजत्ति ] म्रियते यस्तस्य कोत्पाद प्रति प्रश्नः। उत्तरं तु-[जे तान् (तत्थ गए ति) वैक्रियं कृत्वा तत्र यास्यति तत्र व्यवसे तत्थात्ति अथ ये तत्रेति तयोश्चरमदेवावासपरमदेवावासयोः स्थितानित्यर्थः। (अमत्थ गए त्ति) नक्तस्थानद्वयव्यतिरिक्तस्थापरि पार्श्वतः समीपे मौधर्मादेरासन्नाः सनत्कुमारादेर्वा आ नाश्रितानित्यर्थः। (नवरं ति) अयं विशेषः-(यह इति) इह शत, सन्नास्तयोर्मध्यभागे ईशानादौ इत्यर्थः। [तवेस्सा देवावास ति] अनगार इति , हगतान् पुलानिति च वाच्यम् : तत्र तु देयस्यां बेश्यायां वर्तमानः साधुम॒तः सा लेश्या येषु ते तलेश्या वति, तत्र गतानिति चोक्तमिति । भ०७ श० उ० देवावासाः [तहिं ति ] तेषु देवाचासेषु तस्यानगारस्य गति- [१३] केयाघटिकालकणकृत्यादिविकुर्वणार्भवतीति, यत उच्यते-'जल्लस्से मरशजिए, तब्वेस्से चेव उववजे' रायगिहे जाव एवं बयासी-से जहाणामए के पुरिमे इति। [से यत्ति ] स पुनरनगारस्तत्र मध्य जागवर्तिनि देवा केयाघडियं गहाय गच्छेजा,एवामेव अणगारे विनावियप्पा वासे गतः [विराहेज्ज ति येन बेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत् तदा [ कम्मलेस्सामेव त्ति कर्मणः केयाघमिया किञ्चहत्यगएणं अप्पाणेणं उर्फ़ वेहामं उप्पएज्जा। सकाशाद्या लेश्या जीवपरिणतिः सा कर्मवेश्या, नावलेश्यत्य- हंता गोयमा ! माव समुप्पएजा | अणगारे ८ नंते ! भाविर्थः । तामेव प्रतिपतति-तस्या एव प्रतिपतति अशुजतरतां या- यप्पा केवइयाई पनू ! केयाघमियं किच्चहत्थगयाइं रूवाई ति, न तु द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति । सा हि प्राक्तन्येवास्ते विनवित्तए । गोयमा ! से जहाणामए जुवतिं जुवाणे व्यतोऽवस्थितलेश्यात्वाइवानामिति पकान्तरमाह--[ से य तत्थेत्यादि ] सोऽनगारस्तत्र मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि हत्थेणं हत्थं एवं जहा तइयसए पंचमाद्देमए नाव णो चेव न विराधयेत् तं परिणाम, तदा तामेव वेश्यां ययोत्पन्न न पसं. णं संपत्तीए विउनिमु वा विउब्धिति वा विनाधिस्संति वा पद्याश्रित्य विहरत्यास्त इति। इदं सामान्यं देवावासमाश्रित्या. से जहाणामए केइ पुरिसे हिरण्यपेगिहाय गच्छेजा, एवा. मेव अणगार विभावियप्पा हिरमपमि हत्थकिच्चगएणं अप्पाअथ विशेषितं तमेवाश्रित्याह-- णेणं संतं चेव । एवं सुवमपेमि एवं रयणपोभं वयरपेडिं वत्थअणगारे णं जंते ! जावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं पेमि आचरणपमि, एवं वियझकिमसुंवकिम चम्मकि कंववीइकते, परमं असुर० एवं चेव एवं जाव थणियकुमारा- लकिडं, एवं अयनारं तंबनारं तउयभारं सीसगनारं हिरवासं जोइसियावासं एवं वैमाणियावासं जाब विहरति ।। प्रभार सुवास नारं वजारं से जहाणामए वग्गुली सिया ननु यो भावितात्माऽनगारः स कथमसुरकुमारेषुत्पत्स्यते, दोवि पाए उलंबिय जलविय नई पाया अहो सिरा चिरेविराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति ? | उच्यते-पूर्वकालापेकया जजा, एवामेव अणगार विनावियप्पा वग्गुली किञ्चगएणं भावितात्मत्वमन्तकाने च संयमविराधनासद्भावादसुरकुमारादितयोपपाद इति न दोषः । बालतपस्वी वापं भावितात्मा अप्पाणेणं न वेहासं । एवं जलो वश्यवत्तव्वया भाणिदृष्टव्य इति । भ०१४ २०१ उ० । यच्या जाव विउब्धिस्संति वा से जहाणामए जलोया सिया Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) अभिधानराजेन्ड अणगार " उदास कार्य व उन्निहिय उन्निहि गच्छेला एनामेन से जहा वस्गुलीए से जहाणामए वीयं वियगस उणे सिया दोत्रि पाए समतुरंगेमाणे समतुंरगेमागे गच्छेज्जा, एवामेत्र अगारे से तंत्र से जहाणामए पविश्वविरालर मिया रुक्खा रुक्खं मेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चैव से जहाणामर जीवं जीवस सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेत्र अणगारे, सेसं तं चैव । से जहाणामए हंसे सिया तीराओ तीरं अनिरममाणे अभिरममा गच्छेन्ना एनामेव गारे इसकचअण्णा मे तं चैव से जहाणामए समुदायस सिया बीईओ बीई मेमा गच्छेज्जा, एवामेव हेच से जहाणामए केइ पुरिसे चकं गढ़ाय गच्छेजा, एयामेन महा गारे जाविया पनिहत्य एवं अप्याखेणं, मेसेजहा केयामिषाए एवं उत्तं, एवं चम्मे से जड़ा के पुरिसे स्वर्ण गहाय गच्छेता एवं देव एवं पाए वेलियं जाव रि एवं उप्पलहत्थगं पन महत्यगं कुमुदहत्यगं एवं जात्र । से जहाणामए केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं चैत्र । से जहाणामए के पुरिसे जिस अवदालिय अवदालिय गच्छेज्जा, एवामेत्र अणगारे वि जिसं किचगएणं अ प्याणं तं चैव से जहाजावर मुणाक्षिया सिया उदगंसि कार्य उम्मति उम्मज्जि चिजा एवामेव से जहा बस्सी से जहाणामर डेसिया किडे किल्डोभासे जान निकुरुंबनूए पासादीए ४, एवामेव अणगारे भाविया वखंचिग अप्पाने नई वेदास - पज्जा, सेसं तं चेत्र । से जहाणायए पुक्खरिणी मिया चटकोणा समतीरा अपुजायजा सवय महुरसरणादिया पासांदीया ४ एवमेव अणगारे विज्ञान पोखरि चिगए अप्पाणं उटुं बेहासं उप्पएज्जा ? । हंता उप्पएज्जा असागरेण भंते! जावियप्पा पाईप ! पोक्खरिणी किचगयाई रुवाई विछवित्तए । सेसं तं चैव विस्तवा से जंते मायी अमावी हि । गोषमा ! मायी दिसम्बर को मी विव्व, मायीणं तस्स वाणस्स प्रणालोइय एवं जहा तइयसए चत्युदेसए जाव अत्यि तस्स राहणा || ( रायगित्यादि) (केषापरियं ति) रज्जुप्रान्तबाटिका के हिरणं ति) के वाटिका ये तस्ते गतं यस्य स तथा तेनात्मना [वेहासं ति] विनक्तिविपरिणामाद्विहायस्याका केपायरिया [किच हत्य गया ति ] केयाघटिकालकणं कृत्यं हस्ते गतं येषां तानि तथा [ हि[स] हिरण्यम (विमलं तिलानशार्द्धानां यः कटः स तथा तं ( संबुकिडं ति ] वीरणकटं [चकिमंत] चर्मम्यूतं खादिकं [ ] अणगार ! मयं कंबलं जानादि [ति ] धर्मः पक्तिविशेषः । [विश्वगति] वग्गुलीलऋणं कृत्यं कार्यं गतं प्राप्तं येन स तथागत त्यर्थः [एवं अवयव नीय [] इत्यमेतम् "दंता उप्पा अणगारे भावियप्पा केवइया पलू ! वम्गुलिरुवाई विउचित ? । गोयमा ! से जहानामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थं गिरहज्जेत्यादि [ जलोय ] जलीका जलजीव विशेषः[विडिय ] उद्व्यूह्य २ उत्प्रेर्य २ इत्यर्थः । [वीयं वीयग उणे ति] वीजं बीजकाभिधानः शकुनिः स्यात् [दोवि पाप ति] धावपि पादौ । [ समतुरंगेमाणे ति ] समौ तुल्यौ तुरङ्गस्याश्वस्य समुत्पणं कुर्वन् समतुरङ्गयमाणः समकमुत्पाटयनित्यथेः । (पक्खिविरापत्ति ) जीवविशेषः [डेवेमाणे ति] अतिकामनित्यर्थः [ईओ बी]म्पेरुवियम इद यावत्करणादिदं दृश्यम् - "लोहियक्खं मसारगल्लं हंसगन्जं पुलगं सोगंधियं जोईरसं अंकं अंजण रयणं जायरूवं अंजणपुलगं फसिहं ति” । कुमुदहत्थगं' इत्यत्र तु एवं यावत्करणादिदं दृश्यम् - " नत्रिणहत्थगं सुजगहत्थगं सोगंधियहत्थगं पुंरुरीयहत्थगं महापुंरुरीय हत्थगं सयवत हत्थगं ति" । [भिसं ति ] विशं मृणालं [ श्रवदालियत्ति ] अवदार्य दारयित्वा [ मुणालय ] [ सम्मझियति ] कायमुन्मज्य उम्म कृत्वा [ किएढे किएहो जाते ति ] कृष्णः कृष्णवर्णो जनवत्स्वरूपेण कृष्ण एवावनासते घृणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः। घ्ह् यावत्करणादिदं दृश्यम्-"नीले नीलोभासे हरिए हरिश्रोभासे सीए सश्रोभासे निके निजासे तिब्वे तिब्वोनासे किएहे किएहच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीधे सीयच्छाय सिणिकडिनाए रम्मे महामेहनिबस तत्र च [ नीले नीलोनासे त्ति ] प्रदेशान्तरे, [हरिए हरिओमा सेति] प्रदेशान्तर पष । नीलश्च मयूरगलवत्, हरितस्तु शुकपिच्छयत दरितालाभ इति वा सीप सीयोजा शि] शीतः स्पर्शापेकया, वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः [निद्धे निदोभासेति ] स्निग्धो रूक्कत्ववर्जितः [ तिब्वेतिवोनासेति ] ती वर्षादिगुणप्रकर्षवान् [ किएहे किएइच्छापत्ति ] इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता । तथाहिकृष्णः सन् कृष्णच्छायः, बाया चादित्यावर जन्यो वस्तुविशेषः । एवमुत्तरपदेष्वपि [घणकमियच्छाए त्ति ] अन्योन्यं शाखानुप्रवेशाद्वहलनिरन्तर काय इत्यर्थः । 'श्रणुपुव्य सुजाय' इत्यत्र यावकरदेयम्"पुण्यसुजापयप्पीसीज आनुपूर्येण सुजाता वप्रा यत्र, गम्भीरं शीतलं च जलं यत्र सा तथा स्यादि [सद्ग्राश्य महूरसरणादिय सि] हदमेवं यमसुयवरहिणमयालुको कोस्कनिगारक कोडलकजीय जीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खगकारंडचकवाय कलहंससार- 66 गणगणमिडसविरश्य सदश्यमदुरसरणश्यति " तत्र शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनमिथुनविचितं शब्दोशतिकं मधुरं नासि पितं यस्याः सा तथेति । न० १३ श० ६ ० । [१४] अनगारस्य भावितात्मालापर्या दानपूर्वकं स्त्रीरूपस्य - ते! जानियप्पा बाहिरए पोग अपरिएवं महं इत्थवं वा जाय संदमा रहयवं अणगारे णं याहता प्रभू Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) अणगार अभिधानराजेन्द्रः। अणगार बा विकुन्धित्तए । गोयमाणो इण? समटे | अणगारेणं गमित्तए? हता। फ्लू से नंते ! किं आइडीए गच्छइ, परिभंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता प्रजू ! एगं किए गच्छइ । गोयमा आयीए गच्च नो परिक्रीए । एवं महं त्थिरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विकुम्बित्तए । पायकम्मुणा परकम्मुणा आयप्पनोगेणं परप्पयोगेणं उस्सिहंता ।पजू अणगारे णं भंते ! नावियप्पा केवइयाई पभू ! | ओदयं वा गच्छद,पयोदयं वा गच्छद । से णं भंते ! किं अइत्थिरूवाई विनावित्तए । गोयमा! से जहानामए जुवा णगारे आसे ?। गोयमा! अणगारे णं से नो खल से आसे, जुवाणे हत्येण हत्थे गेरणेजा, चक्कस्स वा नानी अर- एवं जाव परासररूवं वा। संभंते ! कि मायी विकुबड, अमायी गा उत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा वेउब्धिय- विकबड? गोयमा!मायी विकव्वा, नो अमायी विकव्वा । समुग्धाएणं समोहणइ जाव पनू !णं । गोयमा ! अणगारे | मायीणं नंते ! तस्स गणस्स प्रणालोइयपमिकते कानं करेइ णं भावियप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूव- कहिं नववज्जा। गोयमा ! अस्मयरेसु आभियोगेसु देवमोगसु हिं प्रायन्नं वितिकिरणं जाव एस ए गोयमा! अणगा- देवताए नववज्जइ । अमायीणं तस्स ठाणस्स पासोइय परस्स नावियप्पाणे अयमयारूवं विसए विसयमंत्ते बुझ्ए डिकंते कालं करे, कहिं उववज?। गोयमा! अप्पयरेसु अनो चेव णं संपत्तीए विकुब्बिसु वा ३, एवं परिवामिए णाजियोगिएसु देवलोएसु देवत्ताए नववज्जइ, सेवं भंते ! नेयव्वं जाव संमाणिया । से जहानामए केइ पुरिसे असि जंतत्ति । गाहा -" इत्थी असीपमागा, जमोवइए य होइ चम्मपायं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भाविय बोधव्यो । पल्हत्थि य पलियंके, अभियोगचिकुव्वणा माया प्पा असिचम्मपायं हत्यकिच्चगएणं अप्पाणेणं उर्फ़ वे ॥१॥" तइयसए पंचमोदसो सम्पत्तो। अणगारे एं भंते ! हासं उप्पएज्जा। हंता नप्पइज्जा । अणगारे णं भंते। भावियप्पा मायी मिच्छदिघी वीरियनबीए वेउब्बियनचीजावियप्पा केवइयाई पन अमिचम्महत्थकिच्चगयाई रूवा. | ए विभंगनाणमसीए वाणारसिं नगरिं समोहए समोहणिइं विउवित्तए ? । गोयमा ! से जहानामए जुर्वई जुवाणे त्ता रायगिहे नगरे रूवाई जाणइ पास। हंता जाण पासहत्येण हत्ये गेएकहज्जा तं चेव जाव विम्बिसु वा ३, इ। से जंते ! किं तहाभावं जाणइ पासइ.अमहानावं जासे जहानामए के पुरिसे एगो पडाग काउं गच्छेज्जा, ए णइ पास। गोयमाणो तहाजावं जाणापासइअत्यहावामव अणगारे नाविअप्पा एगो पमागा हत्थकिच्च जावं जाणइ पास । से केणढे णं नंते ! एवं वुच्च-नो तहा. गएणं अप्पाणेणं नळं वेहास उप्पएज्जा। हंता गोयमा!। भावं जाणइ पास, अहाहानावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! अणगारेणं भंते ! नावियप्पा केवघ्याणं पन ! एगो प तस्स णं एवं जवइ,एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए मागा हत्यकिच्चगयाई रूवाई विउवित्तए, एवं जाच वि समोहाणत्ता वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणामि पासामि, कुब्बिसु वा ३, एवं दुहओ पमाग पि से नहानामए के सेसे दंसण विवच्चासे भवइसे तेणढे णं जाव पास,अणपुरिसे एगो जएणोवइ तं काउं गच्छेज्जा । एवामेव अ गारेणं नंते ! मायी मिच्छदिघी जाव रायगिहे नगरे समोहए णगारे वि भावियप्पा एगो जएणोवइ य किच्चगएणं समोहणित्ता वाणारसीए नयरीए रूवाई जाण पासइ?। हंता अप्पाणेणं नई वेहासं उप्पाएजा । हंता नपाएजा। जाण पासइ,तं चव जाव तस्स णं एवं होइ,एवं खलु अहं वाअणगारेणं भंते ! जावियप्पा केवइयाई पन्नू ! एगो जमा णारसीए नयरीए समोहए समोहणित्ता रायगिहे नगरे स्वाई वइयं किच्चगयाई रूवाई विनवित्तए, तं चेव जाब विकु जाणामि पासामि, सेसे दंसणे विवञ्चासे भवइ, से तेण्टेणं बिमु वा ३ । एवं दुहओ जमोवश्यं पि । से जहानामए के पुरिसे एगो पल्हत्थियं काउंचिन्ता,एवामेव अण जाव अपहाभाचं जाणइ पासइ, अणगारेणं ते! भाविगारे भावियप्पा तं चेव जाव विनबिसु वा ३। एवं दुहओ यप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरियलकीए वेद-पीए विपत्थियं पि, से, जहानामए के पुरिसे एगो पनियकं काउं जंगलकीए वाणारसिं नगरिं रायगिहं च नग, अंतारए चिटेजा, तं चेव विकुबिसु वा ३ । एवं दुहओ पलियंक पि। एगं महं जणवयवग्गं समोहए समोहएत्ता वाणारासिं नगरि अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता रायगिहं तं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणइ पास। पन एग महंासरूवं वाहत्यिरूवं वासीहरूवं वा वग्धव- हंता जाणइ पासइ । से नंते ! किंतहाभावं जाणइ पामइ, म्गदीविय अच्छतरच्चपरासररूवं वा अभिजुजित्तएणो अमहाजावं जाणइ पासइ । गोयमाणो तहाभावं जाण इणढे समझे । अणगारे णं एवं बाहिरए पोग्गले प- पास,अमहाभावं जाणइ पासइ । से केणढे णं जाव पारियायत्ता पन ! अणगारे णं भंते ! जावियप्पा एग| सइ। गोयमा! तस्स खलु एवं जवइ,पस खलु वाणारसीए महं आसरूवं वा अनिजित्ता अणेगाई जोयणाई नथरीए एस खबु रायगिहे नगरे एस खबु अंतरा एगं महं Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७६) अणगार अनिधानराजेन्षः। अणगार जाणवयवगं नो खल एस महं वीरियलची वेउब्वियनकी गपणं अप्पाणेणं ति ] असिचर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा कृत्यं संघादिप्रयोजनं गत श्राश्रितः कृत्यगतः; ततः कर्मविभंगनाणलद्धी इसकी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसकारपर धारयः । अतस्तेन प्रारमना । अथवा असिचर्मपात्रं कृत्यं कमे के पत्ते अभिसममागए, सेसे दंसणे विवच्चासे भवइ, हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्यकृतः, तेन, प्राकृसे तेण्डेणं जाव पाम एगारे णं भंते ! भावियप्पा श्र- तत्वाचैवं समासः। अथवा असिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्यं हस्त करणं गतः प्राप्तो यः स तथा, तेन । [पलियंकं ति] श्रासनमायी सम्मदिट्ठी बीरियलकीए वेबियलकीए प्रोहिनाण विशेषः प्रतीतश्च [विग त्ति ] वृकः । [दीविय ति] चतुष्पदससीए रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए | विशेषः । [अच्छत्ति । ऋक्षः। [तरच्छत्ति ] व्याघ्रविशेषः । नयरीए रूबाइजाएइ पासइ?। हंता जाणइ पास से भंते ! [परासर ति शरभः। तथाऽन्यान्यपिशृगालादिपदानि वाकिं तहानावं जाएइ पास, अहाहानावं जाण पास। चनान्तरे दृश्यन्ते । [अभिजुंजित्ताए ति] अभियोक्तं विधाss गोयमा! तहाभावं जाणइ पास, नो अमहालावं जाणइ दिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुं यश्च स्वस्यानुप्रवेशनेपासइ । से केवढे भंते ! एवं बुञ्चइ ? । गोयमा तस्स णं नाभियोजनं तद्विद्यादिसामोपात्तबाह्यपुद्गलान् विनान स्याएवं जवा, एवं खनु अहं रायगिहे नगरे समोहए समो-| दिति कृत्वोच्यते [नो बाहिरए पोग्गले अपरियारत्त ति] [श्रहणित्ता वाणारसीए नगरीए स्वाइं जाणामि पासामि । णगारेण से ति अनगार एवासौ तत्त्वतोऽनगारस्यैवाऽश्यासेसे दसणे अविपच्चासे नवद, से तेणढे णं गोयमा ! एवं धनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात् [मायी अभिजुंजइत्ति] कषायबुच्चइ। वीश्रो वि पालावगो एवं चेव, णवरं वाणारसीए वालभियुक्त इत्यर्थः । अधिकृतवाचनायां 'मायीविउब्वइति' दृश्यते (तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्षणेति मन्तव्यम, विक्रियारूनयरीए समोहणा णेयव्यो । रायगिहे नयरे रूवाई जा पत्वात्तस्येति । [अन्नयरेसुत्ति] श्राभियोगिकदेवा अच्युतान्ता पाइ पासइ अणगारे णं भंते ! जावियप्पा अमायी स- भवन्तीति कृत्वा अन्यतरेग्वित्युक्तम्, केषुचिदित्यर्थः । व्युत्पम्मदिट्ठी वीरियलबीए वेउब्बियनद्धीए ओहिनालछी- चते चाभियोगभावनायुक्तःसाधुराभियोगिकदेवेषु करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावनाम् । यदाह-मंता जोगं ए रायगिहे वाणारसिं नगरिं च अंतरा एगं महं जणवय काउं, भूईकम्मं तु जे पति | सारसरहिह, अभियोग वग्गं समोहए समोहएत्ता रायगिहं नगरं वाणारसिं च न जावणं कुणः ॥१॥" इत्थीत्यादिसङ्ग्रहगाथा गतार्था (ति गरिं तं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणइ पासइ । तृतीयशतके पञ्चमः) विकुर्वणाधिकारसम्बक एष षष्ठ उद्देहंना जाए पासइ । से भंते ! कि तहानावं जाण पा- शका, तस्य चाद्यसूत्रम् । (अणगारे णमित्यादि) अनगारो गृहसह, प्राणहानावं जाण पास । गोयमा ! तहानावं चासत्यागाद्भावितात्मा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिर्मायीत्यु पल कणत्वात् कषायवान् । सम्यग्दृष्टिरप्येवं स्यादित्याह-मिथ्याजाएइ पासइ, नो एपहाजावं जाणापासइ । से केएढे रष्टिरन्यतीथिक इत्यर्थः। वीर्यलम्यादिभिः करण नूताभिराएं। गोयमा तस्म णं एवं नवर, नो खलु एस रायगिहे णसी नगरी ( संमोहए त्ति) विकुर्वितवान् राजगृहे नगरे रूपापो खलु एस वाणारसी नगरी नो खयु एस अंतरा एगे णि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि जानाति पश्यति विभज्ञानलब्ध्या जाणवयवग्गे एस खलु ममं वीरियलद्धी बेउब्धियलदी (नो तहा भावं ति) यथा वस्तु तथा नावोऽनिसंधिर्यत्रज्ञाने श्रोहिणाणलद्धीकी जुत्ती जसे बसे वीरिए पुरिसकार तसयाभावम् । अथवा यथैव संवेद्यते तथैव भावो बाह्यं वस्त यत्र तत्तथाभावम, अन्यथा भावो यत्र तदन्यथानावम् । क्रिया. परक्कमे लद्धे पत्ते अजिसमएणागए सेसे दंसणे अविवच्चासे विशेषणे चमे । स हि मन्यतेऽहं राजगृहं नगरं समवहतो वाराजवइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चर, तहानावं जाण णस्या रूपाणि जानामि पश्यामीत्येवम् । (सेत्ति)तस्याऽनगारस्य पासइ, नो एणहाजावं जाणइ पासइ । अणगारे एं| [ससि] असौ दर्शने विपर्यासो विपर्ययो भवतिः अन्यदीयभंते ! जावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पनू ! कराणामन्यदीयतया विकल्पितत्वात् । दिनोहादिव प्रामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति कचित् [ सेसे दसणे विवरीए विचाएग महंगामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा सत्ति] श्यते तत्र च तस्य तदर्शनं विपरीतं केत्रव्यत्ययनात विकुन्धितए ?। गोयमा! णो णटे समझे। एवं वितिम्रो कृत्वा विपर्यासो मिथ्येत्यर्थः । एवं द्वितीयसूत्रमपि । तृतीये तु वि पालावओ, नवरं वाहिरए पोग्गले परियाश्त्तापिन् । [बाणारसी नगरी रायगि नयरं अंतराए पगं महं जणवयग्गं भणगारे भंते ! केवश्याई पन गामरूवाई विकुवित्तए समोहर सि] वाराणसी राजगृहं तयोरेव चान्तरालचतिनं जन१। गोयमा ! से जहानामए जुबई जुवाणे हत्थेण हत्थे गे पदवर्ग देशसमूह समवहतो विकुर्वितवान्, तथैव च सानि एहेजा तं चेव जाव विकुचिति वा ३ । एवं जाव साप विभतो जानाति पश्यति केवसं नो तथानावम,यतोऽसौ वैशि याण्यपि तानि मन्यते स्वाभाविकानीति [ जस्से ति] यशोहे. वेसरू वा ३ । तुत्वाद्याः [नगररूवं वा]इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-"निगम[असिचम्मपायं गहाए त्ति ] असिचर्म पात्रं स्फुरकः ।। रूवं वा, रायहाणिरुवं वा, खेडरूवं चा, कवरूवं वा, मझव. अथवा असिश्च खड़, चर्मपात्रं च स्फुरका, खड़काशको वा, रूवं वा, दोणमुहरुवं वा, पट्टणरूवं वा प्रागररूवं वा, आसमअसिचर्मपात्रं तद् गृहीत्वा । [ सिचम्मपायहत्यश्चि- वं वा, संवाहम्यं वत्ति" ०३ श६००। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) अभिधानराजेन्धः । अणगार [१५] अनगारस्य भावितात्मनो वृक्षमूलस्कन्धादिदर्शनम् - अणगारे ते जावियप्पा स्क्वस्स कि अंतो पासा, बाहिं पास चनुजंगो ?, एवं किं मूलं पासइ, कंदं पामइचउजंगो, मूलं पास, खंधं पास चउजंगो । एवं मृलेणं वीजं संजोएयन्वं । एवं कंदेण वि समं जोएयव्वं जावबीयं । एवं जात्र पुप्फेल समं बीयं संजोएयव्वं । अणगारे णं जंते ! भावियप्पा रुक्लस्स किं फलं पास, बीयं पास चनभंगो ॥ प [तो ति] मध्ये कासारादि [ याहि ति] सञ्चयादि । [ एवं मूत्रेणमित्यादि ] एवमिति मूलकन्द सूत्राभिलापेन मूलेन सह कन्दादिपदानि वाच्यानि यावद् बीजपदम् । तत्र च मूलं १, कन्दः २, स्कन्धः ३, त्वक् ४, शाखा ५, प्रबालं ६, पत्र ७, पुष्पं ८, फलं ९, बीजं १० चेति दश पदानि । पपांच प ञ्चचत्वारिंशदृद्विक संयोगाः । एतावन्त्येवेह चतुर्भङ्गी सूत्राण्यध्येयानीति एतदेव दर्शवितुमादरणीत्यादि ] भ० ३ श० ४ उ० । [१६] अनगारस्य भावितात्मनो वाह्यादानपूर्वके उपनल धन अणगारे णं ते! नावियप्पा बाहिर पोग अप रिपाइला प! बेजार येन वा पपेन वा ? | गोवमा ! गो इाडे सम अलगारे यांनं बाहिरए पोगले परिवाहना पनू ! वैभारपण्ययं उ पलंग्रेत्तए वा ? | हंता । पनू ! अणगारे णं नंते ! भावियप्पा बाहिरए पोगले अपरियाना जावइयाई रायगि नगरे रूपा एवयाई रिययं तो अप्पविसित्ता पभू ! समं वा विसमं करेत्तए, विसमं वा सम करेत्तए ? । गोयमा ! नो इट्ठे समट्ठे, एवं चेव विवि अलावगो, एवरं परियाइत्ता । पनू ! से भंते ! किं मायी विकुव्वर, अमायी विकुव्वइ ? । गोयमा ! मायी विकुवर, यो अमायी विकुब्ब से केण णं जंते 1 एवं वच्चइ जाव नो अमायी त्रिकुव्वइ ? । गोयमा ! मायीर्ण परणीयं पाणोषणं नोच्या भोच्या पामे तस्स ते परणीं पाए भोगणे णं ऋद्धि अट्टि मिंजा बहली अवंतिपय सो भव, जेनियसे अहा वायरा पोग्गला ते विय से परिणमति । सोइंदियत्ताए जाव फासिंदपणा अडि अहि मिनकेसमंसूरोमनहताए कतार सोणियत्ताए अमायणं ब्रूहं पाणनोयं भोच्चा भोच्चा यो वामेइ, तस्स णं तेणं बृहणं पाणतोयणे अडिट्ठेजापति बदले मंसमणि जे विय से अहाबादरा पोला वि व से परिणमति । तं जहा उच्चारतार जाब सोणियत्ताए से तेणट्ठे णं जाव नो मायी विकुब्वः । मायी तस्स द्वारस अालोइय परि का करे, अणगार नत्थ तस्स राइरणा, अमायीणं तम्स ठाएस्स आलोइय पति का करेड, अस्थि तस्म आराहणा से वं जंते ! जंतेति । [बाहिरपति] औदारिकशरीरव्यतिरिक्तान् वै क्रियानित्यर्थः । [ भारं ति] वैनारभिधानं राजगृहकी द्वापर येत्यादि ] सकृत्प्रलङ्घनं पुनःपुनरिति [मो डे समस ] वैयिनपर्यादानं विना वैक्रियकरजस्यैवामांया मापाने तु सति पर्वतस्योचनादी प्रभुः स्यात्, महतः पर्वतातिक्रामिणः शरीरस्य सम्भवादिति । [ जावश्या इत्यादि ] यावन्ति रूपाणि पशुपुरुषादिपाणि [ एवश्याई ति ] एतावन्ति [ विचवित्त प्ति ] वैक्रियाणि कृत्वा वैभारं पर्वतं समं सन्तं विषमं विषमं तु समं कर्तुमिति सम्बन्धः किं कृत्येत्याद अन्तर्मध्ये येनारस्वामी ति ] मायावानुपल करणत्वादस्य सकषायप्रमत्त इति यावत् । प्रमत्तोहिन वैक्रियं कुरुत इति । [पणीयं ति] प्रणीतं गल्लत्स्नेहविन्दुकम् [भोच्चा २ वामेश त्त] वमनं करोति विरेचनं वा करोति, वर्णबलाद्यर्थं यथाप्रणीतभोजनं तद्वमनं च विक्रियास्वभावं मायामपि वैक्रियकरणमपीति तात्पर्य बीनवति त्ति ] घनीवन्ति. प्रणीतसामर्थ्यात [पयए ति ] श्रध नम् [हावार ति] यथोचितबादरा आहारपुफला इत्यर्थः । 'परिसमंत' या अन्यथा शरीरदासंजया तू [] ति] रुक्षमणीय [ णो वामेति ] पातिया विक्रियायामनार्थत्वात् 'पासवणत्ताए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - "खेलत्ताए सिंघाणत्ताप वंतत्ताए पित्तताए पूयताए तिलोजिन उच्चारादिवादारादिः परिणमन्ति अन्यथा शरीरस्यासारतानापतेरिति । माय्यमायिनोः फलमाह[माणमित्यादि]] [[नस्थ हा ति] तस्मात् स्थानात विणाकरणात, प्रणीतभोजनल कणाद् वा [श्रमायणमित्यादि] परममायित्वाद्वैक्रियं प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाद् जातानुतापोऽमायी सन् तस्मात् स्थानात् श्रालोचितप्रतिक्रान्तः सन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति । भ० ३० ४ उ० । [१७] वैकियसमुद्घातेन कृतरुपमा जानाति न वेति - गाणं भंते! जावियप्पा देवं वेडान्विय समुग्याए णं समोहय जाणायमा जाइपास है। गोयमा ! त्थे देवं पास, नो जाणं पासइ १ । अत्येगइए जाणं पास, नो देवं पासइ २ । प्रत्येगइए देवं पि जाणं पि पास ३ । प्रत्येगइए नो देवं पासइ नो जाएं पासइ ४ । अणगारे भंते ! जावियप्पा देविं विव्विय समुग्धाए समोहय जाण जायमाथि जाइ पास है। गोयमा ! एवं चैव गागारे णं भंते! जावियप्पा देवं सदेवियं समुग्धा णं समोहय जाणरूवे एां जायमाणं जायह पास है। गोयमा प्रत्येगइए देवं संदेवियं पास, नो जाणं पास एएवं अनिसावेणं चत्तारि भंगा || तत्र भावितात्मा संयमतपोज्यामेवंविधानामनगाराणां हि प्रा. योग्यचापि भत्ताम विहितोत्तर किवशरीरमित्यर्थः । येन प्रकारेण शिक्षिकाद्याका - Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगार रयता, वैकियविमानेनेत्यर्थः तं गच्छन्तं हानेन दर्शनेन । उत्तरमिह चतुर्भङ्गोविचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति ॥ भ० ३ ० ३ उ० । [ श्रगारस्य भावितात्मनः केवलीसमुद्घातसमवहतस्य, मारणान्तिकसमुद्धात समता या चरमा सर्वो स्पृष्ट्वा तिष्ठन्ति इति 'केवलिसमुग्धाय' शब्दे तृतीयनागे वक्ष्यते ] (१) अनगारस्य निकेपः । (२) अनगावं दीपिक (३) पृथ्वीकाधिकादिसिकानामगारत्वं न भवति । (४) क्रियाऽसंवृतोऽनगारो न सिद्ध्यति । (५) अनगारस्य भावितात्मनोऽसिधारादिष्ववगाहना । ( ६ ) अनगारस्य भक्तप्रत्याख्यातुराहारः । (७) शैलेश प्रतिपन्नस्थानगारस्य एजना | (८) अनगारो भाविकर्मसेवाशरीरं जानाति। ( ६ ) अनगारस्य भावितात्मनः क्रिया । (१०) संवृतस्यानगारस्य क्रिया । (११) अनगारस्य गत्युपपादौ । (१२) संस्थानगारस्य विकुर्वणा । (१३) ( २७० ) अन्निधानराजेन्द्र , पापडकालहत्यादिधर्षणा । (१४) अनगारस्य भावितात्मनः स्त्रीरूपस्य बाह्यपुफलादापूर्वकं विणा । (१५) अनगारस्य भावितात्मनो वृतमूलस्कन्धादिदर्शनम् । (१६) अनगारस्य भावितात्मनो वाहापुलादानपूर्वकमुख लड़ने । I (१७) वैक्रियसमुद्घातेन कृतरूपमनगारो जानाति न वेति । ऋणकार पु० मित्र कालान्तरानुभयहेतुतया मप्रकारं कर्म, तत्करोतीति का अर्थ तथा २ गुरुबचनविप प्रतिभिरुपचिनोतीति ऋणकारः । दुःशिष्ये, उत्त० [अ०] अणगारगुण- अनगारगुण- पु० ६ ० साथी के न्द्रियनिग्रहादिषु सप्तशतिगुणेषु उत३१० [मत्तावीस गारगुणा से जहा-पाणाइवायाबेमसाबादार अदिमादायाओ बेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिणहाम्रो रमणं सोइंदियनिम्गहे विदयनिम्ग पानिदिषनिगडे निम्ति दियनि हे फासिंदियनिग को हविरेगे माविवेगे मायाविवेगे सोवियेगे भाव कराये जोगसच्चे समावि गया मणसमाहरण यसमाहरणया कायसमाहरणया संपन्नया दंसण संपन्नया चरित्तसंपन्नया वेयणग्राहियाया मारतियमहियासावा || अनवाराणां साधूनां गुणाधारित्रविशेषाः अनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्च (५) पञ्चेन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च ( १० ) कोधादिविवेकाथार (१४) सत्यानि त्रीणि तत्र भावसत्यं शुद्धान्तरात्मना करण् सत्यं यत्प्रतिलेखनादिकिया; । तां यथोतं सम्यगुपयुक्तः कुरुते । योगसत्यं योगानां मनःप्रभृतीनाम[१७] समानमिव्यक्रोचमानस्वरूपस्य इंप जितस्याप्रीतिमावस्याभावः अथवा क्रोधमानयोरुदयनिरोधः क्रोधमानविवेकदाभ्यां तदप्राप्तयोर्निरोधः प्रागेवा मिहिन इति न हताऽपीति (२८) विरागता अभि मात्रस्य भावः । अथवा मायालो भयोष्नुदयो मायालोभविदे शब्दाभ्यां अणगारगुण प्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्रागभिहित इतीहास न पुनरुक्तेति (१६) मनोवाक्कायानां समाहरणता, पाठान्तरतः - 'समत्वाहरणता' अकुशलानां निरोधात्रयः (२२) ज्ञानादिसंपन्नतास्तिस्रः (२५) वेदनाऽतिसहनता शीताद्यतिसंहनम (२६) मारणान्तिकति सहनता कल्याणमयुद्ध्या मा रणान्तिकोपसर्गसहनमिति (२७) स० २७ सम० उत्त० । प्रश्न० । जीत० । श्राः चू० । संथा० । पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणादर्शयितुमाह से जहाणामए अणगारा भगवंतो इरियासमिया नासासमिया सणासमिया आयाममा सिमिया उचारपासवण खेल सिंघाणमपरिद्वाय निवासमिया मरासमिया वयसमिया कापसामेया मागुता वयगुक्त्ता कावगुप्ता गुप्ता गुसिंदिपा गुणभचारी कोहा अमाणा प्र माया अलोजा संता पसंता उबसंता परिणिन्बुका आणासदरा अम्यासोया निरूवलेया सपाइ मुकतोया सव व शिरंजण जो इस प्रकियगती नगण पिव निरालंबणा वाउरिव अपरिबंधा सारदसलिल इक सुकड़िया पुखरपत इव निरूवलेवा कुम्मो इवादिया विहग व विमुक्का खग्गिविसाणं व एगजाया भारंडपक्खी व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंकीरा वसनो इव जातत्थिमासी इडुकरसा मंद इव अष्पकंपा सागरी व गंजीस चंदो इव सोमलेसा सुरो इव दिसतेया मध्यकचएगंच इव जातरूवा वसुंधरा इव सम्यकासविमहामुदु यावतेयसा जयंता त्यि ह ।। ७० ।। तेि जगवंताणं कल्यवि परिबंधे भवइ, से पडिबंधे चनबिहे पचे से नहा- अंडप वा (बोमजे वा) पो पण्ड वा उमाहेश वा पगडेर वा जर्म जर्म दिसं तत दिसं अपविका जया अप्पन हुन्या अप्पमांथा संजमेणं तवसा अप्पाणं जावेमाणे विहरति ।। ७१ ।। ते सिणं भगवंताणं इमा एताख्वा जाया माया वित्ती होत्था । तं जहा पये भत्ते बहे जसे अहमे भदसमे दुवालसमे मुझे उसमे ते अमासिए जसे मासिए भने दोमासिए तिमासिए चाउम्मासिए पंचमासिए बम्मासिए अदुत्तरं चणं उविखतचरया निक्खिनपरया उक्खतणिक्खित्तचरगा अंतचरगा पंतचरगा बूहचरगा समुदाणचरगा संसइचरगा असंसट्टचरगा तज्जातसंसचरगादिलाभिया दलाभिया पुलानिया अपुलाभिया जिक्खुलाभिया अभिक्खुलानिया अन्नायचरगा अनायसोगचरमा उननिहिया संखादत्तिया परिमितमित्रा या वृद्धेशिया अंताद्वारा पंताहारा अरसाहारा विरसाहारा लूहाहारा तुच्छाहारा अंतजीवी पंतजीवी आ विसिया पुरिमडिया बिगड़या अमजसा ससिणो शोनियामरसनोइडालाइया पमिमाठाणाइया लक्कडुग्रास Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) अणगारगुण अनिधानराजेन्द्रः। अणगारमगगगइ पिया ऐसज्जिया वीरासणिया दंमायतिया नगंमसाणो ब्बयाए त्ति सर्वतः-द्रव्यतो नावतश्चत्यर्थः । सर्वात्मना सअप्पानमा अगत्तया अकंडया अणिगुहा धुतकेसमंसरोमन- | र्वान् क्रोधादीनात्मपरिणामानाश्रित्येत्यर्थः। एते च मुण्टीभू स्वेत्यस्य विशेषण, अनगारिता प्रवजितस्येत्यन्तस्य वा [अयहा सव्वगा य पडिक्कमविप्पमुक्का चिटुंति ॥७२॥ तेणं मानसोति] अयमायुष्मन् ![अणगारसामए त्ति] अनगाराणां एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहई वासाइं सामनपरियागं समये समाचारे, सिमान्ते वा नवोऽनगारसामयिको, अनगारपानणंति बहु बहु आवाहंसि नप्पनंसि वा अणुप्पमंसि | सामयिकं वा [सिक्खाए त्ति शिकायामभ्यासे [प्राणाए त्ति] वा बदुई जत्ताई पञ्चक्खाइ, पञ्चक्खाइत्ता बहुई वासाई - आझाया विहरन् आराधको भवति ज्ञानादीनाम् । अथवा प्रा झाया जिनोपदेशस्याराधको नवतीति । औ० । एणसणाई दिति, अणसणाई छेदित्ता जस्सहाए कीरति साधुधर्ममाहनग्गजावे मुंम्भावे अएहाणनावे अदंतवणगे अछत्तए अ खंती य मद्दवजव, मुत्ती तवसंजमे अबोधव्वे । पोवाहणए नूमिसेजा फलगसेज्जा कट्ठसेज्जा केसझोए बन सचं सोयं आकिं-चणं च वनं च जधम्मो ॥ १४ ॥ चेरवासे परघरपवेसे लछा अलछमाणा अमाणणाश्रो ही क्वान्तिश्च, मार्दवम्, आर्जवम, मुक्तिः, तपःसंयमौ च बोकव्यौ; लणालो निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाश्रो ता सत्यं, शौचम, आकिश्चन्यं, ब्रह्मचर्य च यतिधर्म इति गाथाकलणामो उच्चावया गामकंटगा वावीसंपरीसहोवसग्गं अहिया | रार्थः॥ १४ ॥ दश.नि.६अ। सिजति, तमटुं पाराहंति, तमटुं पाराहित्ता चरमेहिं उस्सा- सापेको निरपेकश्च, यतिधर्मो द्विधा मतः। सनिस्सासेहिं अणंतं अणुत्तरंनिव्वाघातं निरावरणं कमिणं सापेक्कस्तत्र शिकाय, गुवन्तेवासिताऽन्वहम् ॥ यतिधर्म उक्तलकणः मुनिसंबन्ध्यनुष्टानविशेषः, द्विधा द्वाज्यां पामपुमं केवलवरणाएदसणसमुप्पाति, समुप्पाडेतित्ता प्रकाराभ्यां, मतः प्ररूपितः, जिनैरिति शेषः। द्वैविध्यमेवाहततो पच्छा सिज्कंति वुति मुचंति परिणिव्वायंति सव्वा सापेको निरपेक्तश्चेति । तब गुरुगच्छादिसाहाय्यमपेक्वमाणो यः यंति सबमुक्खाणं अंतं करोति ॥ ७३ ।। प्रवज्यां परिपालयति स सापेक्षः। श्तरस्तु निरपको यतिः, गतद्यथा नाम केचनोत्तमसंहननधृति लोपेता अनगारा भगव- जाद्यपेकारहित श्त्यर्थः। तयोधर्मोऽपि क्रमेण गच्चवासलक्षणा न्तो जवन्तीति। ते पञ्चलिः समितिभिः समिताः, एवमित्युपदर्श- जिनकल्पादिलकणश्च सापेक्षो निरपेकश्चोच्यते, धर्मधर्मिणोने । औपपातिकमाचाराङ्गसंबन्धिप्रथममुपाङ्गं तत्र साधुगुणा: रभदोपचारात् । तत्र तयोः सापेकनिरपेक्तयतिधर्मयोर्मध्यात् प्रबन्धेन ब्यावर्यन्ते, तदिहापि तेनैव क्रमेण अष्टव्य मित्यतिदे. अयं सापेकयतिधर्मो भवतीति क्रियासंबन्धः । एवमग्रऽपि योशः । यावद्भूतमपनीतं केशश्मश्रुनोमनखादिकं यैस्ते, तथा ज्यम् । स च यथा शिकाया इत्यादि । तत्र शिक्षा अत्यासः । सर्वगात्रपरिकर्मविप्रमुक्ता निष्पतिकर्मशरीरास्तिष्ठन्तीति ॥७॥ सा च द्विधा-ग्रहणशिक्काऽऽसेवनाशिका चेति । तत्र ग्रहण॥ ७१ ।। ७२ ॥ ते चौविहारिणः प्रव्रज्यामनुपाव्य वाधारूपे शिका---प्रतिदिनसूत्रार्थग्रहणाच्यासः। प्रासेवनाशिका-प्रतिरोगातले समुत्पन्नेऽनुत्पन्ने वा भक्तप्रत्याख्यानं विदधति, किंबहु- दिनक्रियाऽभ्यासः । तस्यैतदर्थ न तूदरपूर्त्याद्यर्थमिति भावः । नोक्तेन-यत्कृत ऽयमयोगोत्रकवनिरास्वादः करवालधारामार्गव- ध०२ अधिक। दूरध्यवसायाश्रमणभावोऽनुपादयते, तमर्थ सम्यग्दर्शनझान- अणगारमग्गगइ-अनगारमार्गगति-स्त्री०१६ त । सम्यग्दृष्टेचारित्राख्यमाराध्य, अव्याइतमनन्तं मोककारणं केवलज्ञानमा स्तत्प्रतिबन्धपरित्यागरूपेण निर्मुक्तस्य सम्यग्दर्शनशानचारित्रेषु, प्नुवन्ति, केवलझानावाप्तेयं सर्वपुःखविमोक्कलकणं मोक्कम- सिफिगतौ च । उत्त। वाप्नुवन्तीति । सूत्र०२७० २१०। एषां चोत्तराध्ययनानां पञ्चत्रिंशेऽध्ययने दर्शितानि सूत्राणि. श्रणगारचरित्तधम्म-अनगारचरित्रधर्म-पुं० । अगारं नास्ति मुणेह मेगग्गमाणे, मग्गं युद्धेहि देसियं । येषां तेऽनगाराःसाधवः, तेषां चारित्रधर्मः। महावतादिपालनरूपे जमायरंतो निक्खू य, उक्स्वाणंतकरो जवे ।। १॥ चारित्रधर्मनदे, “अणगारचरित्तधम्मे विहे पाते। तं जहा शृणुत आकर्णयत, मे मम, कथयत इति शेषः। एकाग्रमनसः सरागसंजमे, वीयरागसंजमें" स्था०२म०१ उ०। [व्याख्या कोऽर्थः-अनन्यगतचित्ताःसन्तः, शिष्या इति शेषः। कि तदित्याहचास्य स्वस्वस्थाने अष्टव्या] मार्गमुक्तरूपं प्रक्रमान्मुक्तैरवगतयथास्थितवस्तुतत्वैरुत्पन्नअणगारधम्म-अनगारधर्म-पुं०। ६ त । सर्वविरतिचारित्रे य केवलरहद्भिः श्रुतकेवलिनिर्गणधरादिभिर्वेन्युक्तं भवति । देशितिधर्म, औ० । तं प्रतिपादितम् । अर्थतः सूत्रतश्च । तमेव विशेषयितुमाह-[जअणगारधम्मो ताव इह खलु सन्चो सव्वयाए मुंमे | मिति] मार्गमाचरन् अासेवमानो, भिनुरनगारो, पुःखानां शा. भवित्ता आगाराअो अणगारियं पव्वइस्पं सवाओ पाणा- रीरमानसानामन्तः पर्वन्तः तत्करणशीलोऽन्तकरो, भवेत वायाओ वेरमणं मुसावायअदिनादाणमेहुणपरिग्गहराई स्यात्, सकलकर्मनिर्मूलनत इति नावः । तदनेनामेव्यामेवक संबन्धेनाऽनगारसंबन्धिमार्ग, तत्फलं च मुक्तिगतिरिति भोषणाओ बेरमणं अयमानमो ! अणगारसामइए धम्मे दर्शितम्। ततश्चानगारमार्ग, तजति च श्रुत इत्यर्थ उलं भवपत्मत्ते । ए अस्स धम्मस्स सिक्खाए उचट्ठिए निग्गंथे वा नि- तीति सूत्राधः ॥१॥ ग्गंथी वा विहरेमाणे आणाए पाराहए नवति ।। ___ यथाप्रतिज्ञाठमाहअथाधिकृतवाचना-इह ख-इहैव, मर्त्यलोके, (सचओ स गिहवासं परिच्चज्ज. पबज्जामस्सिओ सुपी। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अणगारमग्गगइ अनिधानराजेन्द्रः। अणगारमग्गगइ इमे संगे रियाणिज्जा, जेहिं सज्जति माणवा ॥२॥ वा पादपसमापे, एकदेत्येकस्मिस्तथाविधकाले । पठ्यते चैवमगृहवासं गृहावस्थानं, यदि वा गृहमेव पारवश्यहेतुतया पा वि-'एगगोत्ति' एकको रागद्वेषवियुक्तोऽसहायोवा,तथाविधयोशो गृहपाशस्तं, परित्यज्य परिहत्य, प्रव्रज्यां सर्वसनपरि ग्यतायां,पारक्ये वा परसम्बन्धिान तथाविधप्रतिबन्धेनास्वीकृते । त्यागल कणां भागवती दीवाम्,आश्रितः प्रतिपन्नः, मुनिः, इमान् पाचगन्तरतः- "पतिरिके " देशीभाषयैकान्ते रूयाद्यसंकुले, प्रतिप्राणिप्रतीततया प्रत्यकान्, सङ्गान् पुत्रकात्रादींस्तत्प्रति परकृते-परैरन्यैर्निप्पादित, स्वार्थमिति गम्यते । वा समुच्चये । बन्धान वा, विजानीयाद् भवतवोऽमीति विशेषेणावबुध्येत. वासमवस्थान, तत्र श्मशानादौ, अभिरोचयेत् प्रतिनासयेत् । निश्चयतो निष्फलस्याऽसत्त्वात झानस्य च विरतिफलत्वात् । अर्थादात्मनो निकरित्युत्तरेण योगः ॥६॥ प्रत्याचकीतेन्युक्तं भवति । संगशब्दव्युत्पत्तिमाह- [जेहिं ति] फायम्मि अणावाहे, इत्थीहिं अणनिहुए । सुव्यत्ययाद् यषु,सज्जन्ते प्रतिवध्यन्ते, अथवा ये संगैः सजन्ते तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए ।। ७ ॥ संबध्यन्ते, ज्ञानावरणादिकर्मणति गम्यते । के ते? | मानवा प्रासुके अचित्तीभृतभूनागरूपे,तथा-अविद्यमाना बाधा, आत्ममनुष्याः, नपन्नकणत्वादन्ये ऽपि जन्तवः ॥२॥ नः परेषां वाऽऽगन्तूकसत्वानां गृहस्थानां च यस्मितत्तथा तहेव हिंसं अनियं, चोज्ज अवजसेवणं । तस्मिन, तथा-स्त्रीजिरङ्गनाभिः, उपलक्कणत्वात पएमकादिनिइच्छाकामं च लोहं च, संजो परिवजए ॥ ३ ॥ श्चानभिद्रुते, तपज्वरहित इत्यर्थः। एतानि हि मुक्तिपथप्रतिप. तथति समुच्चये । पवेति पुरणे । हिंसा प्राणव्यपरोपणम, न्धित्वेन तत्प्रवृत्तानामुपज्वहेतुभूतानीत्येवमभिधानम् । तत्रति अधीकमनृतभाषणम् , चौर्यमदत्तादानम् , अब्रह्मसेवनं मैथु प्रागुक्तविशेषणविशिष्ट श्मशानादौ सम्यक्स्पयेत कुर्यात् । किम? नाचरणम्,श्च्चारूपः काम इच्छाकामस्तं चाप्राप्तवस्तुकानारूप, वासम, भिवणशीलो निकुः। स च शाक्यादिरपि स्यादत आहलाभं च लब्धवस्तुविषयगृध्यात्मकम, अनेनोभयेनापि परिग्रह परमः प्रधानः, स चेह मोक्तस्तदर्थ सम्यक् यतते परमसंयतः, नक्तः । परिग्रहं च संयतो यतिः, परिवर्जयत् परिहरेत् । अनेन जिनमार्गप्रतिपन्न इत्युक्तं भवति । तस्यैव मुक्तिमार्ग प्रति वस्तुमुत्रगुणा उताः । एतदस्थितस्यापि च शरीरिणोऽवश्यमाश्र तः सम्यग् यत्नसंभवात् ।प्राग्वासं तत्रानिरोचयदित्युक्ते, रुचि. याहाराभ्यां प्रयोजनं, तयोश्च तदतिचारहेतुत्वमपि कयोश्चि-- मात्रेणैव कश्चित्तुष्यदिति। तत्र संकल्पयेद्वासमित्यभिधानम् ॥७॥ स्यादिति मन्वानस्तत्परिहाराय सूत्रषट्केन तावदाश्रयचिन्तां ___ ननु किमिह परकृत इति विशेषणमुत्तमित्याशङ्कयाहप्रतियतते ॥३॥ न सयं गिहा कुव्वेज्जा, नेव अन्नहि कारए । मागोहरं चित्तबरं, मल्लवण वासियं । गिहकम्मममारम्ने, नूयाणं दिस्सए वहो ॥ ७ ॥ सकराम पंमुरुल्लोयं, मणमा वि न पत्यए ॥४॥ न स्वयमात्मना, गृहाणि उपाश्रयरूपाणि,कुर्वीत विदधीत, नै वाऽन्यैर्गृहस्थादिनिः, कारयेद्विधापयेत्, उपलक्कणत्वान्नापि कुर्व[मनोहरं ति] चित्ताकपकं, किं तत् ,चित्रप्रधानं गृहाम। तदापि कीदृशम् ?, माल्यग्रंथितपुष्पैधूपनैश्च कात्रागुरुतुरुष्कादिसम्ब म्तमनुमन्यत् । किमिति?, यतो गृहनिष्पत्त्यर्थ कर्म गृहकर्म, इष्ट कामृदानयनादि, तदेव समारम्भः,प्राणिनां परितापकरत्वात् । विनिर्वासितं सुरलीकृतं, माल्यधूपनवासित, सह कपाटेन वर्तत उक्तं हि-'परितावकरो भवे समारंनो त्ति'। यद्वा-तस्य समारइति सकपाटम् , तदपि पागमुरोल्लोचं श्वेतवस्त्रविभूषितं, मनसा म्भः प्रवर्तन गृहकर्मसमारम्नः, तस्मिन् , नूतानामेकेन्द्रियादिप्रापि, आस्तां वचसा , न प्रार्थयत् नाभिलषत् , किं पुनस्तत्र णिनां, रश्यते प्रत्यक्षत एवोपन्यते, कोऽसौ?,वधो विनाशः।। तिष्ठेदिति भावः ॥४॥ नूतानां वध इत्युकं तत्र मा भूत् केषांकिं पुनरेवमुपदिश्यत इत्याह चिदेवासावित्याशङ्कयाहइंदियाणि न भिक्खुस्स, तारिसम्मि उवस्मए । तसाणं थावराणं च, सुहुमाणं बायराण य । मुक्कग निवारे उ, कामरागविवरणे ॥ ५ ॥ तम्हा गिहसमारंभ, संजओ परिवज्जए । ए॥ इन्द्रियाणि चकुरादीनि , तुरिति यस्माद्, निकारनगारस्य त्रसानां द्वान्छियादीनां, स्थावराणां पृथिव्याद्य केन्द्रियाणाम, तादृश तथाभूते उपाश्रये, दुःखेन क्रियन्ते-करोतेः सर्वधात्वर्थ चः समुच्चये। तेषामपि सूक्ष्माणामतिश्लक्ष्णानां शरीरावाच्छक्यन्त दुष्कराणि, दुःशकानीत्यर्थः। तुरेवकारार्थः। पुष्क पक्कया; जीवप्रदेशापेक्कया तस्यामूर्ततयैवं प्रायो व्यवहारायोगाद, राण्यवधायितुमुन्मार्गप्रवृत्तिनिषेधतो माग एवं व्यवस्थापयि. बादराणां चैवमेव, स्थूलानाम् । यद्वा-सदमनामकर्मोदयात्सूतुम। पठ्यते च-'दुकराणि निवारिउ ति। तत्रापि निवारयितुमि- दमाणां, नेषामपि प्रमादता भावहिंसासंजवात् । बादरनामकति नियन्त्रितुं, स्वस्वविषये प्रवृत्तरिति गम्यते। कीदृशीम?, काम्य- मोदयाच्च बादराणाम् । उपसंहर्तुमाह-[तम्ह सि] यस्मादेवभूतमानन्यात कामममनोझा इन्द्रियविषयास्तेषु रागोऽभियास्त बधस्तस्माद गृहसमारम्भं संयतः सम्यहिसादित्य चपरस्य विने विशेषण वृद्धि हेतो कामरागविवर्धने, तथाविध- तः, अनगार इत्यर्थः । परिवर्जयेत परिहरेत् ॥॥ चित्तव्याकपसंभवात् । कस्यचिन्मूलगुणस्य कथंचिदतिचार इत्थमाश्रयचिन्तां विधायाहारचिन्तामाहसन्नये दाप इत्यवमपदिश्यत इति भावः ॥ ५॥ तहेव नभपाणेसु, पयणे पयावणेसु य । पयं तर्हि व कादशं स्थातव्यम् ? - पाणयदयहाए, न पए न पयावए ॥ १० ॥ ससाणे मुन्नगारे वा, रुक्रवमूले व एगए । तथैव तनैव प्रकारण, भक्तानि च शाल्योदनादीनि, पीयन्त इपहरिके परक वा, वासं तत्याभिरोयए ॥६॥ ति पानानि च पयःप्रनतानि, भक्तपानानि; तेषु पचनानि च श्मशाने प्रेतममा, यन्यागारे उद्यसितगृहे, वाचिकल्पे, वृत्तमूले । स्वयं यिकेदापादनकथनानि, पाचनानि च ताभ्येवान्यैः पचन Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) अणगारमग्गग अभिधानराजेन्द्रः। अगागाग्मग्गग पाचनानि, तेषु च भूतवधो दृश्यत इति प्रक्रमः । ततः किमि तत्र च कयविक्रयविषये विरत इति-विरातिमानित्यर्थः ॥ १३ ॥ त्याह--प्राणा द्वीन्डियादयः, जूतानि पृथिव्यादीनि, तेषां दया किमित्येवमत श्राहरकणम्, प्राणभूतदया। तदर्थम्-तद्धेतोः। किमुक्तं जीत-पचन- किणंतो कइओ होइ, विक्कणंतो य वाणिो । पाचनप्रवृत्तानां यः संभवी जीवोपधातः स मा नूदिति न पचे कयविक्कयम्मि वस॒तो, भिक्खू न हवइ तारिसो ॥ १४ ॥ तू, स्वतो भक्कादीनिति प्रक्रमः। नापि पाचयेत, तदेवान्य क्रीणन् परकीय वस्तु मूल्येनाददानः, क्रयोऽस्यास्तीति ऋयिको रिति ॥१०॥ नवति, तथाविधेतरओकसरश एव भवति । विक्रीणानश्च स्वअमुमेवार्थ स्पटतरमाह कीयं बम्त तथैव परस्य ददद् वरिणग्नवति, वाणिज्य प्रवृत्तत्वाजलधन्ननिस्सिया जीवा, पुढवीकट्टनिस्सिया। दिति भावः, अत एव क्रयविक्रय उक्तरूपे, वर्तमानः प्रवत्तमानो, हामति जत्तपाणेमु, तम्हा भिक्खू न पयावए ॥११॥ भिक्षुर्न तादृशो भवति, गम्यमानत्वा यादृशः सूत्रालिहितो जल च पानीय, धान्यं च शाव्यादि, तन्निःश्रितास्तत्राम्यत्र च भावभिक्षुरिति ॥१४॥ उत्पद्य ये तन्निःश्रयाः स्थिताः-पृतरकनुजगेलिकापिपीलिका किमित्याहप्रनृतयः । उपलकणत्वात् तदूपाश्च जीवाः प्राणिनः । एवं भिक्खियव्वं न केयव्वं, भिक्वाणा जिक्खुवित्तिणा। पृथ्वीकायनिाश्रता एकेन्न्यिादयो इन्यम्ते, भक्तपानेषु प्रक्रमात कयविको महादोसो, निक्खावित्ती मुहावहा ।। १।। पच्यमानादिषु । यत एवं तस्मात् भिदान वाचयेत् । अत्र अपेगे निकितव्यं याचितव्यम्, तथाविधं पस्त्विति गम्यते । न नैय, म्यमानत्वात् पाचयेदपि न, कि पुनः स्वयं पचेत् । अनुमतिनि केतन्यं मूल्येन ग्रहीतव्यम, केन?, भिक्षुणा । कीरशा?,निवयैव षेधोपलक्षणं चैतत् ॥ ११ ॥ वृत्तिवर्तनं निर्वहणं यस्यासौ भिक्षावृतिस्तेन । नक्तं हि-'सवं अपरं च से जाश्यं होश, नत्थि किंचि अजाध्यं”। क्रयविक्रयवद् भिक्काऽपि विसप्पे सव्वो धारे, बहपाणिविणासणे | सदोवैव भविष्यतीति मन्दधीर्मन्येत, तत आह-क्रयश्च विक्रयश्व नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई न दीवए ॥ १॥ क्रयविक्रयम, व्यवच्छेदफलत्वादस्य,नदेव महादोषः उक्तन्यायतः, विसर्पतीति विसर्पस, स्वल्पमपि बहु भवति । यत उक्तम्- विव्यत्ययश्च प्राग्वत् इति। निकाया वृत्तिः शनमिहलोकपर"अणथोव वणथोव, अग्गीथोवं" इत्यादि । सर्वतः सर्वासु लोकयोः कल्याणं, सुखं वा तदाबहति समन्तात् प्रापयतीति दिक्षु, धारेव धारा जीवविनाशिका शक्तिरस्यति सर्वतो धारम, शुभावहा, सुखावहा वा।पतेन क्रीतदोषपरिहार उक्तः,सचासबंदिगवस्थितजन्तूपघातकत्वात् । तं च-" पाणपणं चा शेषविगुरु कोटीगतदोषपरिहारोपलक्षणम् ॥ १५॥ वि" इत्यादि । अतएव बहुधा प्राणविनाशनमनेक जीवजीवि- निवितव्यमित्युक्तं, तच्च दानश्रद्धादिवेश्मनि कचिदेकत्रैव तव्यपरोपकंनास्ति न विद्यते,ज्योतिःसमम्-अग्नितुल्यम,शस्यन्ते स्यादत आहहिंस्यन्तेऽनेन प्राणिन इति शस्त्र प्रहरणम्, अन्यदिति गम्यते । समुयाणं मेसेजा, जहासुत्तमणिं दियं । तस्याविसर्पित्वादसर्वतोधारत्वादल्पजन्तूपघातत्व श्चेति नावः। लाभालाभम्मि संतुटे, पिमवायं चरे मुणी ॥१६॥ सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राग्वत् । यस्मादेवं तस्मादू, ज्योतिर्वैश्वान समुदान भैदयम, न त्वेकभिक्कामेव,तच्चेमियोचम्-अन्यारस, नदीपयेत् न ज्यालयेत् । अनेन च पचनस्याग्निज्वानाऽबि न्यवश्मनःस्वल्पस्वल्पमात्राणां मीलनान्मधुकरवृत्त्या हि भ्रमत नाभावित्वात् तत्परिहार एव समर्थितः। इत्थं च विशेषप्रक्रमेऽपि हगेव भवतीत्येवमुक्तम, एषये प्रवेपयेत् । एतच्चोत्सूत्रमपि सामान्याभिधानं प्रसङ्गतःशीतापनादादिप्रयोजनेनापि तदारम्भ स्यात्। अत पाह-सूत्रमागमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्रमागमाभिनिषेधार्थम, आधाकर्मादिका विशुद्धकोटिरनवार्थतःपरिहार्यो हितोमैपणाद्यबाधात् । इत्युक्त जवति-तत एवानिन्दितं शिष्टाता, तदपरिहारहावश्यंभाविपचनानुमत्यादिप्रसङ्ग इति ॥१२॥ निन्द्येन स्वपरप्रशंसादिहेतुनोत्पादित जात्यादिजुगुप्सितजनसंनन्वेवं जीववधनिमित्तत्वमेव पचनादेनिषधे निबन्धनम्, तब बन्धिवान् भवति । तथा नाजश्व असाभश्व मानाझाभ, तस्मिन्, नास्ति क्रयविक्रययोरिति, युक्तमेवाच्यां निर्वहणमिति कस्यचि संतुए प्रोदनादेः प्राप्ताप्राप्तौ च संतोषवान् , न तु वाम्बाविधुदाशङ्का स्यात, अतस्तदपनोदनाय हिरण्यादिपरिग्रहपूर्वकत्वात्त. रितचित्त शति जावः । इह च लाभेऽपि वाचा-नुसरोत्तरवस्तुयोस्तनिवेधपूर्वकत्वे सूत्रत्रयेण तत्परिहारमाह विपयत्वेन भावनीया । पिण्ड्यत इति पिरामो निक्का, तस्य हिरन्नं जायरूवं च, मणसा वि न पत्थए । पातः पतनम्, प्रक्रमात पात्रेऽस्मिभितिपिएमपातं भिक्षाटनम, तद समझेकंचणे भिक्खू, विरए कयविक्कए ॥ १३ ॥ चरेदासेवेत, मुनिरिति तपस्वी । पावान्तरता-पिरामस्य पात: हिरण्यं कनकम,जातरूपं रूप्यम्।चकारोऽनुक्ताशेषधनधान्यादि पिरामपातस्तं गवेषयेदन्वेषयेत् । उभयत्र च वाक्यान्त रविषसमुच्चये।मनसाऽपि चित्तनापि,आस्तांबाचा,नप्रार्थयेद-ममा यत्वादपौनरुक्त्यम् ॥ १६॥ मुकं स्यादिति । अपेर्गम्यमानत्वात्प्रार्थयेदपिन,किं पनः परिगृही इत्थं च पिएममवाप्य यथा शुञ्जीत तथाऽऽहयात् । कीदृशःसन्?,समे कोऽर्थः-प्रतिबन्धाभावतस्तुल्ये, मेष्टका अलोले न रमे गिके, जिन्नादंते अमुच्चिए। चने मृतपिएकखालकनकेऽस्येति समले पुकाश्चनः,एवंविधवसन् न रसहाए लुंजेज्जा, जवणटाए महामुणी ।।१७।। भिकुर्विरतो निवृत्तः, स्यादिति शेषः। कुतः?, ऋयो-मूल्यमान्य. अलोन: सरसान्ने प्राप्ते लाम्पट्यवान् न, रसे स्निग्धमधुरादा संबन्धेन तथाविधवस्तुनः स्वीकारः, विक्रयश्च-तस्यैवात्मीयस्य गृको प्राप्तावनिकाक्वावान्, कथं चैवविधः? । यतो [जिम्भादते तथाविधवस्तुजातेनान्यस्य दानम् ,क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रय- ति] प्राकृतत्वादान्ता वशीकृता जिह्वा रसना येनासौ दान्तमिति समाहारः, तस्मात् । पञ्चम्यर्थे सप्तमी, विषये सप्तमी वा। जिल, अत एषामूचितः सन्निधेरकरणेन तत्काझे चानिवडा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारमग्गगइ भावे हो बामाताओं दाणिं वा वामं संचाल ” एवंविधश्च सन् नैव [ रसाए ]ि रसार्थ सरसमिदमहमास्वादयामीति विशेष या रस स च शेपधातू पलकणं, ततस्तदुपचयः स्यादित्येतदर्थं न जुञ्जीत नाभ्यपहरेत्। किमर्थ पापना निर्वाह साय मस्य, तदर्थं महामुनिः प्रधानतपस्वी । अनेन पिएकविशुद्धि - रुक्ता । तदेवमादौ मूलगुणान् विधेयतयाऽनिधाय तत्प्रतिपाबनार्थमाश्रयाहारचिन्ताद्वारेण उत्तरगुणाइच उक्ताः ॥ १७ ॥ संप्रति तस्यात्मनपुरपयमानः कश्चिदयेनादि प्रार्थयेदिति तनिषेधार्थमाह-अथ से चैव बंदणं पूर्ण तहा इही सकारसम्पाएं, मणमा वि न पत्थर ॥ १८ ॥ अर्चनां पुष्पादिभिः पूजाम्, सेवनां निषद्यादिविषयां, स्वस्तिकादिन्यासात्मक वा समुचये पवोऽवधारणे नेत्यनेन संभन्त्स्यते । वन्दनं नमस्तुभ्यमित्यादि वाचाऽभीष्टवचनम्, पू. जनं विशिष्टवस्त्रादिभिः प्रतिज्ञाजनम् । तथेति समुच्चये । ऋकिश्च आयकोपकरणादि संपदापचयादिसत्कार श्वार्थप्रदानादि, संमानश्च अभ्युत्थानादि, ऋषिसत्कारसंमानम्, ततो मनसाऽपि श्रास्तां वाचा नैव प्रार्थयेत्-ममैवं स्यादित्यनिषेत् ॥ १८ ॥ , ( २०२ ) अभिधानराजेन्द्रः । " किं पुनः कुर्यादित्यादसुकाणं क्रियाएज्जा, अनियाले अकिंचणे । बोडका बिरेना, जाव कालस्स पओ ॥ १९ ॥ शुक्रभ्यानमुकरूपं यथा भवत्येवं ध्यायन्ति निदान विद्यमाननिदानः, अकिञ्चनः प्राग्वत्, व्युत्सृष्टश्वव्युत्सृष्टः का यः शरीरं येन स तथा विहरेत् अप्रतिबद्धविहारतयेति गम्यते । यावदिति मर्यादायाम्, कालस्येति मृत्योः, [ पज्जओ ]ि पर्यायः परिपाटी, प्रस्ताव इति यावत् । यावन्मरणसमयः क्रमप्राप्तो भवतीति जावः ॥ १९ ॥ J विधानारगुणस्यश्च पाषाहित्य मृत्युसम यत्कृत्वा यत्फलमवाप्नोति तदाहनिज्जूहिकण आहारं कामम्मे बडिए । चरक माणूस वर्दि, पहू दुक्खे विमुच्चइ ॥ २० ॥ () परियारमनादि तत्परित्याग श्यामेव उगिति तत्करसे बहुतोषसंवात्। तथा चागम:-" देहम्मि असंनिहिए, सहसा धादि खिज्जमाहि । जायर भट्टज्जाणं, सरोरिणो चरिमकालम्मि” ॥ १॥ कदा?; कालधर्मे श्रायुःकयशकणे मृत्युस्वनाचे, उपस्थित प्रत्यासनीतू[म] मानुषी मनुष्यसम्बन्धी वोदि शरीरम्, प्रभुः- वीर्यान्तरायक्यतो विशिष्टसामर्थ्यवान्, [[]]]:] शारीरमानसे, विमुच्यते विशेषेण मुच्यते, तबिन्धनकर्मीपगत इति भावः ॥ २० ॥ कीदृशः सन्नित्याह-निम्मो निरहंकारो, बीयरागो अशासनो। ', संपतो केवलं नाणं मास परिनिन्दु मे ।।२१-त्ति बेमि ।। निर्ममोऽपगतममकारः, निरहंकारोऽहममुकजातीय इत्याद्यहं काररहितः, ईदृग् कुतः ?, वीतरागः प्राभ्वद्विगतरागद्वेषः, तथाऽनाकर्मान मियादिना संप्राप्तः केय अणच उक्क @शानम् उक्तरूपम् । शाश्वतम्, कदाचिदव्यवच्छेदात् । परिनि तोsस्वास्थ्यकमनावतः सर्वथा स्वस्थता का तिसूत्रभावार्थः ॥ २१ ॥ उत्त० ३५ श्र० । स० । अणगारमहोस- अनगारमहर्षि - पुं० । अनगाराश्च ते महर्षयश्चेति । अनगारगुणविशिष्टेषु महर्षिषु, स० । अणगारवाइ (ण् ) अनगारवादिन -पुं० । यतिवेश्मास्थितेषु अ नगारगुणरहितेषु अनगारंमन्येषु शाक्पादि ०१०१ २०२ [४०] ['अनगार' शब्दे भागे २७० पृष्ठे भावितं चैतद्र यस शाक्यादयो नानगाराः ] अणगारसामाइय-अनगारसामायिक निगराणां स मये भव इति । अनगाराणां समाचारे सिद्धान्ते वा भवे, औ० स्था० । अनगारसीह अनगारसिंह - पुं० । मुनिसिंहे, “ एवं थुणिताण स रायसीहं परमार प्रतीप " उत्त० २० अ० । अनगारसूय-अनगारश्रुत - न०। आचारश्रुतापरनामके सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे पञ्चमाऽध्ययने, सुत्र० ( 'आयारसुय' शब्दे ०० ३६१ पृष्ठेऽस्य प्रवृत्तिनिमित्तम्) | अणगारि ( ण्) - अनगारिन् पुं०। अगारी गृही असंयतस्तत्प्रतिषेधानगरी संपते, प्र० अणगारिब- अनगारिकन समारं यस्येत्यनार साधुस्तस्येदमिति । अनगार सम्बन्धिनि सर्वविरतिसामायिकाअनगारिया-अनगारिता श्री० [अगारी ही असंयतः - दौ विशे० तिषेधादनगारी संयतः, तद्भावस्तता । साधुतायाम्, स्था ४ ० १ ० अणगाल - अनगाझ पुं०। पुष्काले, बृ० ३ ० । अगिण - अनग्न- पुं० सुमसुमायां नरतवर्षे कर्ममिषु सदा भवति कल्पति बननेषु कल्पपादयेषु अत्यर्थ बहुराणि पाणि विश्वसा त यामकुमा देवमानुकाराणि मनोहराणि निर्मलानि उपजायन्ते । तं । जी० । अदिगम्बरे, आच्छादनविशिष्टे च । वाच० । प्रणम्य-नये श्री० सर्वोत्तमत्वादविद्यमानमूल्ये ४ श्र० । अर्धगोचरातीते, संधा० । “सध्वे वि य सिद्धता, सादव्वरयणामया सतेलोक्का। जिरावयणस्स भगवश्रो, न तुल्लमियतं अणग्धेयं ॥१॥ यथाऽवस्थितार्थप्रकाशकत्वेन सकलपप्रणेतृशापविद्यमानमूल्यमन मिति तत्र ऋणं पूर्वजवपरम्परोपात्तमष्टप्रकारं कर्म, तद् हन्ति यतत् ऋणनम् । दर्श० । अग्घरय ए चूल - अनर्घरत्रचूड - पुं० । भृगुपतने श्रीमुनिसुव देवे, बस श्रीमती अघ - अनघ - भि० नास्ति अघं पापं दुःखं व्यसनं कालुष्यं वा यस्य । पापशून्ये, मलशून्ये, स्वच्छे, वाच० शोभने. पं०व० १ द्वा० । दर्श० । व्यावृत्त तत्वप्रतिपत्तिबाधकमिथ्यात्वमालिन्ये, 33. "संविग्नस्तच्छ्रुतेरेवं ज्ञाततत्त्वो नरानघः ध० १ अधि० । श्ररणघमय - अनघमत - त्रि० ६ ० अवदातबुक, पं०व०४ द्वा०। अणचटक्क - अनन्तानुबन्धिचतुष्क- न० । अनन्तानुबन्धिको धमानमायाला भास्ये कषाये, कर्म० २ कर्म । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) अण चंतिय अभिधानराजेन्छः । प्रगाढग अणचंतिय-अनात्यन्तिक-पुं०। सदायिनं मुक्त्वाऽप्रतिनिधर्ति- क्षेपन कारयेत्" ॥१॥स्वनिवाहा क्षमतया ऋणदानाशक्तेन तूत्त. प्यति सहायभेदे, वृ०४ उ०।। मर्णगृहे कर्मकरणादिना इपिऋणमुच्छेद्यम, अभ्यथा भवान्तरे अणचक्खर-अनत्यकर-न० । एकादिभिरकरैरधिकमत्यक्कर, तगृहे कर्मकरमहिषवृषभकरभरासभादित्वस्यापि संभवात। न तथा अनत्यकरम् । अनुगएकनाप्यकरणानधिके, प्रा०म०प्र० उत्तमळेनाऽपि सर्वथा ऋणदानाशक्तो न याच्यः,मुधाऽऽर्तध्याअणचाविय-अनर्तित-न० । वनमात्मानं या न नर्तितं न नृत्य- नक्लेशपापवृष्यादिप्रादुर्भावात्, किन्तु यदा शक्कोपि तदा वदिव कृतं यत्र तदनर्तितं प्रत्युपेकणम् । अप्रमादप्रत्युपेकणाभेदे, दद्याः नो चेदिदं मे धर्मपदे भूयादिति वाच्यः,न तुणसंवस्था० । वखं नर्तयत्यात्मानं चेत्येवमिह चत्वारो भङ्गा:-" वत्थे न्धश्चिरं स्थाप्यः, तथा सत्यायुःसमाप्ती भयान्तरे दयामिधःअप्पाणम्मि य चनहं अणच्चावियं" स्था०६ ग०१ उ०। पं० संबन्धवैरवृध्याद्यापत्तेः। ध०५ अधि० । व0 औला "णचण सरीरे वत्थे वा, सरीरे उक्कंपणं, पत्थे वि अणज-अनार्य-पुं० । बाराद्यातं सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यार्य्यम, विकारा करेंति, ण णच्चावियं अणच्चावियं" नि०चू०८२० न आर्यमनार्य्यम् । आव०४०। आर्येतरे, करे च । प्रश्न अपच्चासायणासील-अनत्याशातनाशील-पुं० । अतीघायं ४ाश्र० द्वा०। पापकर्मणि, प्रश्न०२ आश्र द्वारा अनार्य इसम्यक्त्वादिलाभं शातयति विनाशयति इत्याशातना, तस्याः वानार्यः । म्लेच्छचेष्टिते, दश०१ चूका अनार्यलोककरणात्, शीलं तत्करणस्वभावात्मकमस्येत्याशातनाशीलः, न तथाs प्रश्न०१आश्र द्वा० । अनार्यप्रयुक्ते, प्रश्न २ सम्ब० द्वा० । नत्याशातनाशीलः गुरुपरिवारादिकृतिः। प्राचार्यादीनामभ अन्याय्य-त्रि०ा अन्यायोपेते, प्रभ०१आश्र द्वा०। क्लिनिन्दाहीलावर्णवादाद्याशातनानिवारके, उत्त० २६ अ०। अणज्जधम्म-श्रानार्यधर्म-पुं०। अनार्याणामिव धर्मः स्वभा. अणच्चासायणाविणय-अनत्याशातनाविनय-पुं० । अत्या- वो येषां ते तथा, अनार्यकर्मकारित्वात् । सूत्र०२ श्रु० ६ अ०। शातनं शातना, तनिषेधरूपो विनयोऽनत्याशातनाविनयः।भ० क्रूरकर्मकारिषु, “इश्वमाहंसु अणज्जधम्मं, प्रणारिया बाल२५ श० ७ उ० । दर्शनविनयभेदे, औ० । रसेसु गिद्धा" सूत्र० २ श्रु० ६ ०। से किं तं पच्चासायणाविणए । अणच्चासायणा-अणजनाव-अनायनाव-पुं०। क्रोधादिमति पुरुषजाते,वाo ४ ठा०२ उ०। विणए पणयालीसविहे परमत्ते । तं जहा-अरहताणं अण अणज्जवसाय-अनध्यवसाय-पुं०। आलोचनामाने अभ्यषचामायणया अरहंतपमत्तस्स धम्मस्स अपच्चासायणया सायाभावे, रत्ना०। आयरियाणं मणच्चासायणया उवज्कायाणं अणच्चासा अथानध्यवसायस्वरूपं प्ररूपयन्तियणया थेराणं अणचासायणया कुझस्म अणच्चासाय- किमित्यालोचनमात्रमनध्यवमायः ।। १३ ॥ गया गणस्स अपञ्चामायणया संघस्स अपञ्चासायणया अस्पृएविशिधविशेष किमित्युल्लेखनोत्पद्यमानं ज्ञानमात्रमनकिरियाए अणच्चासायणया संजोगस्स अणच्चासाय ध्यबसायः । प्रोच्यते-समारोपरूपत्वं चास्यौपचारिकम, अत स्मिस्तदभ्यवसायस्य तालकपस्याभावात् । समारोपनिमित्त गया आभिणिबोहियणाणस्स अणच्चासायणया जाव तु यथार्थापरिच्छेदकत्वम् । सदाहरन्तिकेवझणाणस्स अणच्चासायणया एएसि चेव भत्तिबहु __ यथा-गजतस्तुणस्पर्शझामम् ॥ १४ ॥ माणे णं एएसिं चेव वमसंजलणया, सत्तं अणच्चासाय- गच्छतः प्रमातुस्तृणस्पर्शविषयं ज्ञानमन्यत्रासक्तचित्तत्वादेवं. णया विणए, सेत्तं दंसणविणए ॥ जातीयकमेवनामकमिदं वस्त्वित्यादिविशेषानुल्लेखि किमपि (किरियाए अणचासायणय त्ति) इह क्रिया-अस्ति परलो- मया स्पृषमित्यालोचनमात्रमित्यर्थः । प्रत्यक्कयोग्यविषयचायकोऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादि मनध्यवसायः। एतदुदाहरणदिशा च परोक्कयोभ्यविषयोऽप्यनप्ररूपणात्मिका गृह्यते । ( संभोगस्स अपच्चासायणय ति) ज्यवसायोऽवसेयः। यथा-कस्यचिदपरिकातगोजातीयस्य पुंसः सम्भोगस्य समानधार्मिकाणां परस्परेण भक्त्यादिदानग्रहण- कचन वननिकुम्जे सास्नामात्रदर्शनात् पिएममात्रमनुमाय को नु रूपस्यानत्याशातनाविपर्यासवत्करणपरिषर्जनम् (भत्तिबहु- समु अत्र प्रदश प्राण। स्यादित्यादि । रत्ना० १ पारा माणे णं ति)ह कारोवाक्यालङ्कारे, भक्त्या सह बहुमानो | अणज्कोवाम-अनध्युपपन्न-त्रि० । अमूच्यते, प्राचा० ३ भक्तिबहुमानः , भक्तिश्चेह बाह्या परिजुष्टिः; बहुमानश्चान्तरः | ध्रु० १ अ० १ उ०। प्रीतियोगः (वसंजलणय त्ति) सद्भूतगुणवर्णनेन यशोदी-अणट्राकित्ति-अनातकीर्ति-त्रि०ा अनार्ता कीर्तिर्यस्य । सकलपनम् । भ०२५ श०७ उ० । दोषविगमतोऽवाधितकीर्तिके, " तहेव विजओ राया, अणहाअणच-कृष्-धारा आकर्षणे, विलेखने च । तुदा०, आत्म०, कित्तिपब्बए " आर्यत्वादनात वार्तभ्यानविकलः । कादिसक०, अनिट् । भ्वादि०, पर०, सक०, अनिट् । “कृषेः ककुसा- नाऽनाथादिदानोच्या प्रसिम्योपलक्वितः । उत्स० १०४० अवाश्चाणच्छायचाइञ्छाः " ॥८।४।१८७ ॥ इति कृषेरण- | अणट्ट-अनर्थ-पुं०। अनर्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति च्छादेशः । अच्छा -कृषते, कर्षति वा । प्रा० । पर्यायाः। अर्थस्याभावोऽनर्थः। अ० अप्रयोजने, आव०६अ। अणच्चिार-देशी-अच्छिन्न, दे० ना० १ वर्ग । निष्प्रयोजने, नि० चू० १२० । सूत्र० । गुणहानी, काम अणच्छेय-ऋणच्छेद-पुं० । उत्तमर्णाद् गृहीतद्रव्यस्योच्छेदे, उपघाते, प्रश्न० २ आश्र द्वा० । स्था। ध०।ऋणच्छेदे च न विलम्बनीयम् । तदक्तम्-"धर्मारम्भे | अणट्ठग-अनथेक-पुं० । अधविश गोणपरिग्रहे, तस्य परमाऋणच्छेदे, कन्यादाने धनागमे । शत्रुघातेऽग्निरोगे च, काल- र्थवृत्या निरर्थकत्वात् । प्रश्न.१ सम्ब० वा। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाटुकारग अट्टकार - अनर्थकारक - त्रि० । पुरुषार्थोपघातके. प्रश्न २ श्राश्र० द्वा० । अनार्ते, पुं०। श्रार्तध्यानरहिते, उत्त० २ श्र० । पगड - अन्यार्थ प्रकृत- त्रि० । साधुनिमित्ते निवर्तिते, “अ नहं पंगडं लेणं, प्रजसयणासणं " दश०८ श्र० । अण्डा अनर्थदक अर्थ प्रयोजनं गृहस्थस्य क्षेत्र वास्तु धनधान्यं शरीरपरिपालनादिविषयं तदर्थ प्रारम्भो नूतोपमर्दोऽर्थदः। दमो निग्रहो यातना विनाश इति पर्य्याया || श्रर्थेन प्रयोजनेन दण्डोऽर्थदण्मः स चैवंभूत उपमर्दनलकण दण्डः केादियेोजनमपेमाराम उच्यतेनर्थदण्डः । आव० ४ श्र० । निष्प्रयोजनं हिंसादिकरणे, भातु० । इहलोकप्रयोजनमङ्गीकृत्य निष्प्रयोजननृतोपमर्देनात्मनो निग्रहे, पंचा० १ विव० । स च व्यतः यकारणे राजकुले दण्ड्यते । जावतस्तु निष्कारणं ज्ञानादीनां हानिः । वृ० १ उ० । आव ० जो पुण सरडाईणं, थावरकायं च वणलयाई मारेतुि दिऊ ण व मे एसो श्रणाए " ॥ १ ॥ प्रध० २५४ द्वा० । अहावरे दोच्चे दंमसमादाणे अण्डामात्तिए नि आहिज्जड़, से जहाणामए के पुरिसे जे इमे तसा पाला भ बंति ते यो अचार को निहार को मंगाए हो सोलियाए एवं हिययाए पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए बालाए सिंगाए बिसारणाए दंताए दादाए पढ़ाए एडारुणि अटी अमिंत्रा को हिंसंमेति णो हिंसितमेति णो हिंसिस्मतिमेत्ति को पुत्तपोसणाए को पसुपोस 16 यारो अगारपरिवृताए को सपनमा हलवणाहेर्ड को तस्स सरीरगस्स किंचिपिपरिया दिना भवंति से हंता बेता नेता पत्ता विलुंपइसा उद्दवत्ता उज्जिनं बाले वेरस्स आभागी भवंति अण्डादंगे || ६ || से जहालामए केइ पुरिसे जे इमे थावरा पाणा भवति, तं जहाइकडा वा कडाइ वा अनुगाइ वा परगाड़ या मोबाइ बा ताड़ वा कुसाइ वा कुच्छगाइ वा पप्पगाइ वा पलालाई वा ते णो पुत्तपोसणार को पसुपोमलाए को आगारपमियाए पो समएमाहणपोसण्याए णो तस्स सरीरगस्स किंचि विपरिपाइसा जयंति से हंता बेला भेला - पता विलुपता वाले वेरस्स भागी अणद्वाददे ||3|| से जहाणामए के पुरिसे क च्छंसि वा दहंसि वा उदगंसि वा दवियंसि वा बलयंसि वा मंसि वा गहांसि वा गहणविदुग्गंसि वा वसि या विसिया पव्वयंसि ना पन्चयनिवा ताई ऊसविय सयमेव अगणिकायं णिसिरिंति, अक्षेविगणिकार्य णिसिराति पि अगणिकार्य शिसिरिंतं समजा अएकादं मे एवं खलु तस्स तप्पतियं सावज्जैति आदिज्जइ, दोचे दंमसमादाणे अणद्वादंपलिए आहिए ||८|| अयापरं द्वितीयं - समानमर्थवत्यधिकमित्यभिधी - ( २०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । - दंडरगा यते । तदधुना व्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषो निर्निमिलमेव निर्विवेकतथा प्राणिनो दिनशिल देवदर्शनुमा [जे श्मे इत्यादि ] ये केचनामी संसारान्तर्वर्तिनः प्रत्यक्का अम्बष्ठादप्राणिनां हिंस शरीरं नयनिस्त तथाऽजिनं चर्म, नापि तदर्थमेव, नैत्र मांसशोणितहृदय पित्तवसा - पिपुच्छवालात नम दिकं कारणमुपमै सिर्मा हिंसयति मि कारणमुद्दिश्य तथा पुत्रषणायेति पुत्रादिकं पोषविष्यामीत्ये तदपि कारणमुद्दिश्वव्यापादयति तथा नापि पशु पोषणय तथाऽणारं गृहं तस्य परिबृंहणमुपन्यस्तदर्थं वा न निस्ति, तथा न भ्रमणमाह्मणवर्तनाहेतु तथा नेपा शरीरस्य किमपि परित्राणाय तत्प्राणव्यपरोपणं भवति इत्येवमादिकं कारणमनपेक्ष्यैवासौ क्रीमया तच्छं । लतया, व्यसनेन वा प्राणिनां हन्ता भवति दस्मादिभिः । तथा बेत्ता भवति क नासिका विकर्तनतः, तथा नेता गुलादिना तथा पतिम्यतराङ्गावयवविकर्तनतः तथापता युत्पाटन किर्तनकरपादादिच्छेदनतः परमधार्मिकत्प्राणिनां निर्मि मितमेव नानाविधोपायैः पीमोत्पादको भवति, तथा जीवितादप्यपावधिता भवति स च कामा परित्यज्य, बालवद्वालोऽज्ञो ऽसमीक्तिकारितया जन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्य भागी भवति ॥ ६ ॥ तदेवं निर्निमित्तमेवं पञ्चेन्द्रियप्राणिपीनतो यथाऽनर्थदएको भवति, तथा प्रतिपादितम् । अधुना स्थावरामवित्योच्यते से याद) यथा पुरुषो निर्विकः पथि गच्छन् वृकादेः पल्लवादिकं द एलादिना प्रध्वंसयन् फलनिरपेक्कस्तच्चत्रितया व्रजति । एतदेव दर्शयति(जे इमे इत्यादि) ये केचनामी प्रत्यक्काः स्थावरा वनस्पतिकायाः प्राणिनो भवन्ति । तद्यथा शक्कमादयो वनस्पतिविशेषा उत्त नाथः; तरिका ममानया प्रयोजनमित्येवमभिसंधाय न बिमति के तत्पुष्पादिनिरपेक्षता तिरस र्वत्र योजनीयमिति । तथा न पुत्रपोषणाय, नो पशुपोषणाय, नागारप्रतिबृंहणाय, न श्रमण ब्राह्मणप्रवृत्तये, नापि शरीरस्य किं चित् त्राणं जविष्यतीति केवलमेवासौ वनस्पतिहन्ता बेलेत्यादि याच जन्मान्तरानुबन्धिनो वैरस्य भागी भवति । श्रयं वनस्प त्याश्रयो ऽनर्थइ एकोऽनिहितः ॥ ७ ॥ सांप्रतमग्न्याश्रितमाद( से जहेत्यादि ) तद्यथा नाम कचित्पुरुषः सदसद्विवेकाधिक लतया कच्त्रादिकेषु दशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्वतेषु तृणानि कुशेपकादीनि पीनाकार्य हुतभुजं निस्सृजति प्रक्केपयति, अन्येन वाऽग्निकार्य बहुसथापकारी दवानियति यति पनि समनुज्ञाते त देवं योगणितकारितानुमतिभिस्तस्य यत्किंचनकारिण स्तत्प्रत्ययिकं दवदाननिमिष्ठं सावधं कर्म महापातकमाख्यातं, द्वितीयमनर्थदकसमादानमाख्यातमिति ॥ ८ ॥ सूत्र० २ ० २ श्र० । श्रा० चू० । अण्डादंडवेरमण - अनर्थदमविरमण-म० श्रर्थः प्रयोजनम, तत्प्रतिषेधो ऽनर्थः घरमा कोहिन न दामोऽनर्थदएकः । इह लोकप्रयोजनमङ्गीकृत्य निष्प्रयोजनभूतोपमर्देनात्मनो निग्रह इत्यर्थः । तस्मात्तस्य वा विरमणं विरतिः । तृतीये गुणवते, पंचा० १ विव० । उपा० । “तया गतरं व णं श्रत्थदंडे चउब्धिहे पते । तं जहा श्रवज्जाणायरिए पमायायरिए दिसप्पयारो पावकम्मोवपसे । तस्स रां अण 9 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । महादंडबेरमगा दंडवेरमणस्स समोवासगस्स पंच अश्वारा जाणिवन्या न समायरियव्त्रा । तं जहा - "एहाणावट्टणवन्नग - विलेवणे सह वरसगंधे । बन्धासण ग्राभरणे, पक्रिकमणे देवस्सियं सम्बं ||१|| कंद १ कुकुर २, मोहरिए श्रसंजुताहिकरणे ४य । उभोगपरिभोगातिरित्ते " । उपा०१ श्र० स्थानर्थदण्डविरमणः स्य श्रमणोपासकेन श्रमी पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरि तव्याः | आव०६ ० । (व्याख्या 'कंदष्प' आदिशन्देषु द्रष्टव्या महाधि-अनर्थबन्धिन्- पुं० [पकमध्ये अनर्थकं निष्प्रयोजनमेवारोपरि द्वी श्री चतुरो वा वारान् सुन्त चतुरुपरि बनि कानि वा बच्नाति तथा स्वायायवि पलिमन्थादयो दोषाः, यदि वैकाक्रिकं चम्पकादिपदे लभ्यसे तदा तदेव ब्रहम बन्धनादिनिमन्धपरिहारात् प० । प्रणमण - अनटन - न० 1 श्रभ्रमणे, पंचा० १३ विव० । अणमो - देशी । जारे, दे० ना० १ वर्ग अणणिपित्त-अन- श्रव्य०। प्रतीपमनप्येत्यर्थे, “अपमिहसंपतियतीत्य र्थः । नि० ० २३० । योग - अननुयोग- पुं० । अनुयोगविपर्यस्ते अमनुरूपे योगे, विशे० । नामादिभेदात्सप्तविधमनुयोगं व्याख्याय तद्विपकभूतमननु योग विभसिकोपसंहार प्रस्तावनांचाह एसोपोगो, गोऽणुओगो इओविजयं । जो सो भोगो, तस्थे मे होंति दिता ॥ १ ॥ तदेवं गतो भणित एषोऽनुरूपयोगोऽनुयोगः सप्तविधोऽपि । अथ विपर्यस्तमेतद्विपर्ययेण योऽयमनुयोग, स उच्यते, तत्र चैते वक्ष्यमाणदृष्टान्ता भवन्तीति ॥ १ ॥ के पुनस्तेऽनुयोगशन्ता इत्याह-बच्छगगोणी खुज्जा, सज्जाए नेत्र बाहिरुतावे । गामलए य वयणे, सत्ते यं होंति भावस्मि ॥ २ ॥ सावगनज्जा सत्तव - इए य कोंकणगदारए नउले । कमलामेला संचस्स साइर्स सेशिए कोवा ॥ ३ ॥ यथाऽनुयोगो नामादिभेदात्सप्तविधस्तथाऽननुयोग यथासं भवं वक्तव्यः। तत्र नामस्थापने सुगमे, इव्यानुयोगस्तत्प्रसंगतः। द्रव्यानुयोगे च वत्सगौरुदाहरणम् । केत्रे त्वननुयोगानुयोगयोः कुब्ज उदाहरणम् | काले स्वाध्यायः । वचने पुनरुदाहरणद्वयम, तद्यथा-बधिरोद्वाप या जावे तु सोदाहरणानिय न्ति, तद्यथा-- श्रावकभार्या १ साप्तपदिकः पुरुषः २ कोङ्कणकदारकः ३ नकुलः ४, कमलामेला ५, शम्यस्य साहसम, ६ - विककोच श्रेति निपार्थः॥२॥ अथ विस्तरतो वत्सगाण्युदाहरणं भाष्यकारः प्राहवीरं न देइ सम्यं परवच्छनिय जहा गावी । छड्डेज्ज व पर, करेज्ज देहावरोहं वा ।। यथा काविध्यलादिका गीरन्यस्था बहुआादिकायाः संबन्धि निगोदोटके सत्यनुयोगोऽयमिति कृत्याि गतः कीरें दुग्धं सम्यग् न ददाति । अथवा न तावता तिष्ठेत् किन्तु पर डुग्धम् अन्यस्या अपि गोः सत्कं दुग्धमप्रेऽपि गोदोहनिकार्या व्यवस्था यदि वा देहोप प्रभोग सत्ताप्रहारादिभिर्जीन ड्रादिना देवाधामपिं कुर्यादित्य तथा किमित्या 1 तह न चरण पसूते, परपजायदिव्वं । पुव्यचरणोवपार्थ करे देहोरो वा ॥ जिवयसायलाओ, उम्मायातंकमरणसणाई । पावे सो सभावा ।। दव्यत्रिवज्जासाओ, साहणभेओ तम्रो चरणभेओ । तत्तो मोक्खाजावो, मोक्खाजावेऽफला दिक्खा || तथाsत्रापि व्याख्या-यदा जीवादिद्रव्यम जीवादिधर्मैः प्ररूपयति जीवादि या जीयादिधः प्ररूपयति तदिन्यं प्ररुय्यमाणं तद्रूप्यमनोगत स्थानीय पराि न प्रसूते परपर्यायविनियोगतो पिसात भ सीत्यर्थः । न चैतावता तिष्ठति, किन्निवत्थमननुयोगं कुर्वतः पूर्वप्राप्त चरणोपघातं च करोति, नथेत्थमवधिप्ररूपणप्रवृतस्य ये परोधाचां वियाति जन वचनाशातनात्प से हम्मादातङ्कम राज्य सनान्यपि प्राप्नुयात्, तथा सर्वव्रतलोपं, बोधिज्ञानोपघातं च प्राप्नुयादिति । ननु कथंविपर्यायरूपणामाचादेतान्तो दोषास्युरित्यादाव वजासत्यादि) विपरीतप्ररूपणे हि इव्यस्य विपर्यासो भवति, तथा च सति साधनस्य सम्यग्ज्ञानादेर्भेदोऽन्यथाभावो जायते, ततः साधनभेदाच्चरणनेदस्तद्भेदात् तत्साध्यस्य मोकस्यानावप्रसङ्गः, उपायाभावे उपेयासिकेः । ततो मोकाभावे निष्फलैव दीक्षा, मोक्कार्यमेव तत्प्रतिपत्तिस्ततस्तदभावे निरर्थकैव सेति । तदेवं व्याननुयेागे निर्दिष्टा दोषाः । अथ द्रव्यस्य सम्यगनुगुणा सम्पतविधियोग जहा पेण । तह सयपज्जवजोया, दव्वं चरणं तत्रो मोक्खो || यथा परवत्सपरिहारेण स्ववत्सविनियोगतो गौः सम्यक् पयः प्रयच्छति तथा स्पकपर्याययोगाद्यं कारणं ततो मोकः प्रा प्यत इति। तदेवं त्र्याननुयोगे च दोषगुणयोर्यत्स गोदृष्टान्त उक्तः। अथ केत्राद्यननुयोगे दोषांस्तदनुयोगे तु गुणान्सोदाहरणामतिदिशन्नाह एवं ताई व सपम्याणि गोयोग नि । faair विवरी, सोदाहरणोतन्त्र || '" एवमुक्तानुसारेण क्षेत्रकालवचनभावेष्वपि स्वधर्मविनियोगतः आत्मोचितधर्म योजना अनुयेोगः पि योनियोगः सोदाहरणः स्या अन्धान्तराद्वाऽनुगन्तव्य कायः । तत्रेत्थमतिदिष्टेऽपि मुग्धविनेयानुग्रहार्थं किञ्चिदुच्यते तत्र क्षेत्रतोऽनुयोगे ऽनुयोगे च कुब्जोदाहरणमभिधीयते प्रतिष्ठाननगरे शालिवाहनो नाम राजा । स च प्रतिवर्ष समागत्य भृगुको मनोबाद रवि मनुकाले तत्र स्थित्वा वर्षासु स्वनगरं गच्छति स्म | अन्यदा च रोक समागते तेन राज्ञा स्वनगरं जिगमिषुणा श्रास्थानसभाम एक पिकायां पतड्रहकमन्तरेणापि भूमौ निष्टतम् । तस्य चराशः पतनधारिणी कुब्जा समस्ति स्म । तथा चातीवभावतया अतिमनू परिजिहारस्थानं नरपतिमा स्वनगरं तेनेत्यमिह निष्ठीवतीति संचिनय निगदितं कथ , Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग 1 मध्यात्मपरिचितस्य यानशानिकस्थ ततस्तेन प्रगुणीकृत्य यानान्यगच्छत एवं राज्ञः पुरतोऽपि प्रवर्तितानि, तत्पृष्ठतश्च सर्वोऽपि स्कन्धावारः प्रवृत्तां गन्तुम् । व्याप्तं च नजीम एक कटक धूत्रिनिकरेण । ततश्चिन्तितं विस्मितमनसा नराधिपेन ननु कम्यापिनकथितं भू वा सैन्यस्य पुरत पव यास्याम्येतच्च विपरीतमापन्नम्, तत्कथमिदं कटकवोकेन विज्ञानमिति । परम्परया शोधयता विज्ञाता कुब्जा। पृया च तया कथितं सर्वमपि यथावृत्तम्। तत्र सनाएमपिकादिकेत्रेण निीयनस्य अननुयोगः, निष्ठीवनादिरकमानोपनादिकस्वनुयोगः मेानित्यमेकम चाकाशं प्ररूपयतोऽननुयोगः स्याद्वाद लाञ्चितं तु तदेव प्ररूपयतोऽनुयोग इति । कालानुगानुयोगयोः स्वाध्यायन्तः तथा सा भुः प्रादोपिककालग्रहणानन्तरं कालिक श्रुतमतीतामपि तद्गुणनवे नाम जानानः परावर्तयते स्म । ततः सम्यग्दृष्टिदेवतया चितितम-पोषपाम्यम् मा नृम्मियादेिवस्ततो मथितारूपेण मथितभृतमेव घटं मस्तके निधाय तस्यैव सा धोरन्तिके गतागतानि कुर्वनी 'मथितं सज्यते' इति महता शब्देन पुनः पुनवी परिभ्रमति ततोऽयुजिनेन साधुना प्रोक्तम श्रहो ! नवत्यास्तऋविक्रयवेला ? । ततो मथितकारिकयायोचि श्रहो ! तवापि स्वाध्याय वे ना ?। ततो विस्मितः सा घुरुपयुज्य मिथ्यादुष्कृएं ददाति स्म। ततोऽकाज स्वाध्यायाविधामेन मियादेवावितिला भवन्तःपुरमा का स्त्वमित्यादि माधुदेवतयाऽनुशासितः । इत्येष स्वाध्यायस्य कालानुयोग का पतस्तदनुयोगः, प्रस्तु ( २८६ ) अभिधानराजेन्द्रः । " वैपरीत्यवैपरीत्यप्ररूप अननुयोगानुयोगौ वाच्याविति । अथ वचनविषयमनुयोगाननुयोग योरुदाहरणद्वयमुच्यते तत्र प्रथमं धाम ग्रामे वरिपरि ति स्म । स्थविरः, स्थविरा, पुत्रो. वधूश्च । श्रन्यदा च पुत्रः क्षेत्रे ह वाहयन् पथिकैर्मार्ग पृष्टो बधिरतया ववीति-गृहजातैौ मम बत्रीवर्दाविमौ न पुनरन्यस्य सत्कौ । ततो बधिरोऽयमिति विज्ञाय गताः पधिकाः ततो नक्तं गृहीत्वा वधूः समायाता । शृङ्गितौ पार्थ दावित्यादि निवेदितं तेन तस्याः। तया च प्रोक्तम्-कारमन्त्रवर्ण वेति न जानाम्यहम् एतत्वदीयजनन्यैव हि संस्कृतम् । ततो गृहं गतया तयाऽपि कारादिभगनव्यतिकरो निवेदितः । स्थविरयाच कर्तयन्त्या प्रोक्तम्-स्थूलं सूक्ष्मं वा भवत्विदं स्यविरस्थ प रिचानं भविष्यतीतिस्थिविरवा गृहमागतस्य स्थविरस्य । तेनाऽपि विज्यता प्रोक्तम्-तव जीवितं पिवामि महंत मेकवचनादिकम प्युक्तम् | द्विवचनादितया यः शृणोति तथैव चान्यस्य प्ररूपयति, तस्याननुयोग यथास्वनुयोग इति ॥ वचननृयोगस्यैवेह प्राधान्यख्यापनाये वचनविषयमेव विनीयं प्रमेयकोदाहरणमुच्यते तचैकस्मिकस्याधिमहिला नती मृतः नलादिकमवाधितानिदन्ती अनाज नयेन सह ग्रामं गताऽसौ । ततो वृद्धिं गतेन पुत्रेण सा पृष्ठा-मदीयपितुः का जीविका श्रासीत् । तया प्रोक्तम्- राजसेवा । तेनोक्तममकरोमि तया प्रोम पुत्र पुष्करासी महता विश्वेन कियते कीदृशः पुनरस विनयः । यम-सर्वस्यापि रस्सामः कार्यः नी सर्वस्यापि प्रवर्तितस्यम पूरच्छन्दानुवृत्तिपरैश्च सर्वत्र भवितव्यम् । एवं करिष्यामीत्य " ज्युपगम्य चलितोऽयं राजधानीम् । सम्मुखे मांगेंच हरिणेष्वा गच्छत्सु वृकमलेष्वाकृष्टधनुर्यथ्र्यो निलीना व्याघ्रा दृष्टाः । तेषां तेन महता शब्देन योत्कारः कृतः, ततस्त्रस्ताः प्रपलाय्य गता - रिणाः। ततो व्याधैः कुट्टयित्वा बद्धोऽसौ । ततस्तेनोक्तम्- जनन्या शिक्षितः दृस्य सर्वस्यापि यत्कारः कर्तव्य इत्यादि । ततश्च ऋ जुरयमिति वा मुस्ते शिक्षित शब्दनियम्यते तदज्यु गम्य पुरतो गन्तुं प्रवृत्तोऽसौ । दृशश्च वस्त्राणि कालयन्तो रजकाय तरकरैर्नित्यमपयिन्ते स्म दिने गुमादिव्यपाणयो रजकाः प्रन्नोपविष्टा हेरयन्तस्तिष्ठन्ति स्म । श्रागतश्चाजल्पन्नवनतगात्रो निलीयमानः शनैः सः तत्र ग्रामयकः। स एष चौर इति कृत्वा कुट्टयित्वा बकोऽसौ रजकैः। सद्भावे च कथिते मुक्तस्तैः शिकितश्च यथेशे कस्मिंश्चिद् दृष्टे एवमुच्यते, यथा- ऊपकारोऽत्र पततु, शुद्धं च भवत्विति । इदं चान्युपगम्य प्रवृत्तः पुरतो गन्तुम तो एंका मे बहुभिः प्रथमं हलवाहनस्य दिवसकरणं क्रियमाणम् । तत उक्तम्-उषेत्यादि । ततस्तैरपि कृषीवलः पिता सद्भावे हा मुक्ता, शिकितश्च यथेशे कापि दृष्ट प्रोच्यते, यथा-गन्योऽत्र प्रियन्तां, भवतु सदैव वेश्मस्यति भयुपगतं च तेनेदम् । अन्यत्र च मृतक बहिनयमाने प्रोक्तमिदम् । तत्रापि कुट्टितो बरूमुक्त शिति यथेदमावत क दाचिदकिवियोगश्चेद्दशो नास्त्विति । एतश्चान्यत्र विवाहे प्रोक्तम्तत्रापि तथैव बद्धः, सद्भावे परिज्ञाने मुक्तः, शिकितश्च यथेशे प्रोच्यते सदैवं पश्यन्त्वीदृशानि भवन्तः, शाश्वतश्च भवत्वेतत्संवन्ध मा जूदिह वियोग इति । इदं चाऽन्यत्र क्वचिनिगमबद्ध राजानमवलोक्य वास्तव दर्शयित्वा मुक्ता, शिथि यो वियोगः भवत्यनेन एवं मादपीत्यभिधीयते । एतच्चान्यत्र कचिद्राज्ञां संधी जयमाने प्रोक्तं, तततथैव एवं स्थान २ को स्यापि विभवत: प्रमुक्तस्य वक्कुरस्य सेवां विधातुमारब्धः, तत्र चान्यदा गृहे श्राखत्रिकायां सिद्धायां ग्रामसभाजनसमूहमध्ये उपविषस्य उक्कुरस्य तिलभूत पानोयोग्या भविष्यतीति जार्यया तदाकारणाय प्रेषितो ग्रामेयकः । तेनापि तस्य जनसमूहस्य भूगवतो महता शब्देन प्रोकम आगच्छ aeकुर ! शीघ्रमेव गृहं, जुइदव, श्राम्बखलिका शीतलीनवति स्थिताऽसौ ततो लज्जितकुरो गृहं गतस्ततो वाढ तामयित्या किसी थानानि भयन्ते किं तु वस्त्रेण मुखं स्थगयित्वा कर्णाभ्यर्णेव स्थित्वा शनैः कथ्यन्ते । ततोऽन्यदाहिजे हे तो ग्रामसभायां शनैरतः स्थित्वा वस्त्रं च मुखद्वारे दत्त्वा कथितं तत्तस्य कर्णे । ततः संभ्रमाद् धावितो गृहानिमुखः कुरो, दग्धं च सर्वस्वं सर्वमणि ततः पिपासामिती उकरण, णितरच नि कृष्ण प्रथमंमंत्र धूमं निगते जनाचाभूमिस्मादिकमिति त्वया न निक्षिप्त, महता च शब्देन किमिति त्वया न पृत्कृतम् ? | मोम पदार्थ करिष्यामीति ततः कदाचिद्विहितान धूपनायोपविष्टः क्कुरः, निर्गतां च प्रच्छादनपटस्यापरि अरुमाशां प्राप किया चोत्पातदुपा तमहास्थात्री, जलधूलीनस्मादिकं चः तथा च पूत्कृतं महद्भिः शनैरिति । ततोऽयोग्योऽयमिति निष्कासितो गृहात् । एवं शिष्योsपि यावन्मात्रं वचनं गुरुः कथयति तावन्मात्रमेव स्वयं इव्य - - Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७ ) अभिधानराजेन्द्रः । अग क्षेत्रकाल पराभिप्रायवित्यपरिज्ञानशून्यो यो पनि तस्य वचनामनुयोगः वस्तु अन्य केचित् तस्य तदनुयोग इति । भावाननुयोगानुयोगयोः सप्तोदाहरणानि - प तत्र धावकमायोदाहरणमाह-एकेन गृहीतवतेन तरुणआवकेवकार्यात कृपा या पत्र सखी कदाचिदू दृष्टा । गाढमभ्युपपन्नश्च तस्यां परं जादिना किमपि वक्तुमशक्नुवंस्तत्प्राप्तिचिन्तया च प्रतिदिनम सर्बलो भगवे पूर्व कारणं स्वनायकथितं क कथमपि तेन । तया चातीवदकतया प्रोक्तम् एतावन्मात्रे ऽप्यर्थे किं खिद्य से? प्रथममेव ममैतत्किं न कथितम् ?, स्वाधीना हि मम सा, श्रानयामि सत्वरमेवेति । ततोऽन्यदिने भणितो भर्ता तया श्रज्युपगतं सहर्षया तथा युष्मत्समीहितं, प्रदोष एवागमिष्यति, परंलजामुतयावास भवनप्रविष्टमात्राऽपि प्रदीपं विध्यापयिष्यति । तेनोकम्-एवं जवतु, किमित्थं विनश्यति, ततो वयस्यायाः सकाशार्तिकनिािप्य पावितानि तथा निर्याण प्रधानवस्त्राण्याभरणानि च ततो गुटिकादिप्रयोगतो विहितसस्वीसदृशस्वरादिस्वरूपा तथैव कृतशृङ्गारा तत्सदृशवलितेन विनासैश्वान्विता तस्यैव श्राकस्य भार्या सन्निहितवर कुसुमताश्रीगुरुप्रेर कस्तूरिकादि समस्त मांगा विहिताम प्रदीप मी वासवने सविता सोत्कण्ठविस्फारितशा त्रिदशकल्लोलिनीपुलिनप्रतिस्पर्धिपस्योपविष्टेन ऊमित्येव नयनमनसोऽमृतवृष्टिमिवादधाना तेनैपा । तया च दृष्टमात्र या विध्यापितः प्रदीपः । क्रीमितं विविधगोप्रबन्धपूर्वकं तथा सह निर्भरं तेन । गतायां च तस्यां प्रत्युषसि चिन्तितमनेन - "सयलसुरासुरपयमिय चलगोहिं जिरोहि जंहियं खियं । तं परजव संचलयं, अहह ! मए हारियं सीलं " ॥ १ ॥३स्यादिसंवेगवशोत्पन्नपश्चात्तापमहानलप्लुष्यमानान्तःकरणः प्र तिदिनमधिकतरं दुर्बली अपत्यखी तो विना यस्यसमेत बितरालानुपार्जितखर्गाप वर्गनिबन्धनमनेनामुना कृतं मया तदप नामप्यविधेयम् । ततः कृशी भवाम्यहमनया चिन्तया । ततो भार्यया संवेगवशीभूतं व्यावृत्तंच तच्चेतो विज्ञाय कथितः सर्वोऽपि यथा सः सद्भावनिहानपनादिभिश्व समुत्पादिततत स्य, ततः स्वस्थीको ऽयमिति । तदेवं स्वकलत्रमपि परकलत्राभिप्रायेण नस्य तस्य प्राचाननुयोग याताय जावानुयोगः । एवमौदयिका दिभावान् स्वरूप वैरीत्येन प्ररूपयसो प्रायानुयोग यथावस्थितपणे तु भावानुयोग इति । सप्तभिः पयवहरति साम्रपदिकस्तदुदाहरणमुच्यतेएकस्मिन्प्रत्यन्तग्रामे कोप सेवकपुरुषो वसति स्म । स च साध्यादिदर्शनियां संबन्धि कदाचिदन गुणोति म न च तदन्तिके काचिदपि न कस्याप्युपादा ति तदा परपरागुणप्रति चैते उपदेश्यन्ति, नत्र पात्रयितुमहं शक्नोमीति । अन्यदा व वर्षा सन्नसमायातास्तत्र कथमपि साधवः, तेषां च तत्र वसतिमन्वेषयसेतो म त्यादिना कि क्रुष्यं करिष्यति तच्छत तत्रेतिः कृतं तत्तथैव तैः। स च तेषां पुर तो स्थानमा सा धुना शेषसाधूनामानमुखमुक्तम् स एष न भवति, प्रवञ्चिता वा तैप्रमेय कैर्ययम् । ततस्तेन संभ्रान्तेनोक्तम्- किं किं भणथ यूगम् ? । चतात ततस्तैः कथितं सर्वमपि भाषितम ततस्तेन चिन्तितम दो ! ये तमाम म चतदुपहासपात्रम् अतोऽनिष्टमपि करोम्येतदिति विचिन्त्यो कम्तिष्ठत मन निराकुप्रशालायामेतस्याम परं मम धर्मान थनीयम् | प्रतिपन्नमेत तैः स्थिताश्च सुखेन तत्र चतुर्मासकात्ययं यावत्। ततो विजिडी मिस्तैरनुवजनार्थमागतस्य शय्यातरस्य कल्पोऽयमिति मनुशास्ति ततो मद्यमांसीवादिविरति कर्तुमशक्नुवतस्तस्यातिशयज्ञानितयाऽग्रे प्रतिवोधगुणं प गुरुः सातपदिकं व्रतं दत्तम् । किंचित्प जिघांसुना यावता कालेन सप्तपदान्यवप्वष्यन्ते तावन्तं कालं प्रतीक्ष्य हन्तव्योऽसाविति । प्रतिपन्नमेतत्तेन । गताश्च साधवोऽन्यत्र । अन्यदा चासौ सेवकनरवीर्यार्थ गतः कापि ततोऽपशकु मादिकारनस्वययेनैव कालेन प्रतिनिवृतः क मदीयगृढे समाचार इति जिज्ञासुनिशीथे प्रच्छन्न एव प्रविष्टो निजगृहे, तस्मिंश्च दिने तदीयजगिनी ग्रामान्तरादागता, तथा " केनचि हेतुनाविदितपुरुषनेपथ्यया नटा यस्तो निरीक तातो प्रचलनिकृतपुरुषयेचैव प्रातृजायायाः स मीपे प्रदीपालोकादिरस्यवासभवनगत पल्यङ्क एव निर्भरं प्रसुप्ता । तेनाऽपि च तद्बन्धुना अकस्मादेव गृहप्रविष्टेन दृष्टं तत्तादृशम् । ततश्चिन्तितमनेन श्रहो ! विनष्टं मद्गृहम् । विटः कोऽप्ययं मद्भा समीपे प्रसुप्तस्तिष्ठतीति कोपावेशादात्तकृपाणः, ततः स्मृतं व्रतं विलम्बितं च सप्तपदापसरणकालम् । अत्रान्तरे तद्भगिनीबालिका विद्रावशेन तद्भायेचा मस्तकेनाकामता ततः पी यमानया तद्भगिन्या प्रोक्तम-हल्ले! मुञ्च मम बाहूं, दूयेऽत्यर्थमदम्। ततः श्रविशेषज्ञानेन भगिनी हो मनागेव मया न कृतमिदमकार्यम् । तत उत्थिते ससंभ्रमं भगिनीभायें। कथितश्च सर्वैः स्वव्यतिकरः परस्परम् । ततो यधोकादिमात्रस्याप्येवं फलसाविति स्वभगिनीमपि परपुरुषाभिप्रायेण जिघांसोत प्राचाननुयोगः यथाप्यस्थितावगमे तु भावानुयोगः प्रस्तुतयोजना तु श्रावकभार्योदाहरणवदिति । कोकदारकोदाहरणम् ६ यथा कोणकविषये एकस्य पुरुषस्य प्रघुदारको मा तुमृतायां परिणेतुमिच्छतोऽपि सपानास्तीति न कोपि ददाति स्म । श्रन्यदा च सदैव तेन दारकेणासावरण्ये का ष्टानां गतः, तत्र च कस्यापि पित्रा काण्डं मुक्तं, तदानयनाय न दारकः प्रेषित गतधाम अत्रान्तरे दुष्पि यदस्य दारकस्य सत्ककारणेनान्यां जार्यो मम न कोपि ददाति । ततोऽन्यत्काण्डं किवा विकोऽसौ दारकः, ततो महता स्वरेणोकं बालकेन तात ! किमेतत्काएवं त्वया मुक्तम, विको नेनादम् । ततो निर्घृणेन पिनाऽन्यत् काएक मुक्तम् । ततो ज्ञातं दा रकेण दन्त मारयत्येष मामिति विस् मारितोऽसाविति पूर्वमन्यस्वा मुखापिनोगत वा वि त्येवमवयुज्यमानस्य नानाननुयोगः पचाद्यथावस्थिता वगमे तस्य जावानुयोगः अथवा संरामपि तं बालकं मारया मध्यस्थतः पितुर्भवाननुयोग साध्यवसायेावायोगा एवं विपरीतपणे भवाननुयोग अधिपरीतभावप्ररूपणे तु भाषानुयोग इति । अथ नकुत्रोदादरणय यथा पदातेः कस्यचिद् भार्या गुर्बिणी जाता, नकुमिका व Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७०) अणणोग अभिधानराजेन्द्रः। अणणुप्रोग काचिद् गृहवृत्त्याचाश्रिता गुर्विणी, पदातिनायर्या सह एकस्यां ने पितृश्वसुरपाक्तिकैश्चान्वेषयद्भिदृष्टा कृतविद्याधररूपा नवपरिर जन्यां प्रसूता। तस्या नकुलो जाता, इतरस्यास्तु पुत्रः, ततोऽस्य | गीतवेषधारिणीच क्रीमन्ती कमलामेला। विद्याधरैरपहृत्य प. समीऐ नकुलः सदैव तिष्ठति स्म । अन्यदाच पदातिना- रिणीता कमलामे लेति कथितं तेर्वासुदेवस्येति । निर्गतश्च विद्यापया द्वारे कराडयन्त्या मध्ये मञ्चिकायां स्थापितो बालकः स- धरोपरि कुपितः सबलवाहनोऽसौ, सनं च महदायोधन ताचपण दटो मृतश्च ततो मश्चिकाया उत्तरं नकुलेन दृष्टो विषधरः द्यावत्पश्चाच्चम्बः परिहतक्रियरूपः पतितो जनकस्याघ्रियुग्मे । खरामाः कृत्वा मारिलचा सतोहार पदातिभार्यायाः सनीप गया ततश्चापमहतः सलामः: दत्ता च कृष्णेन कमलामेमा सागरचसमतोर्ण अप्तवाश्ययोऽता बानि कर्तुमारब्धः, दृष्टश्च म्स्यै व । गताय सर्व स्वस्वस्थानम् । तत्र सागरचन्द्रस्य शम्बं कमतया तो जून मदीरयु मारयित्वा भहितोऽनेनेति विचिन्त्य लाममां मन्यमानस्य नावाननुयोगः, यथावस्थितावगमे तु नाकापावेगान्मुशंजन हत्वा मारितो नकुलः । गता च वानुयोगः । विपरीतादिप्रकपणयोजना तु प्रस्तुता पूर्ववदिति । दुशमनी प्रश्न पुत्रेण मह धिनष्टः सर्पः, शातं च शम्बसाहसोदाहरणमिति वचनान्तरे शम्बस्योदाहरणम्-वासुयशाल पो निहनस्तनो हलत्य निरपराधोऽप्युपकार्यपि मया नि- देवाच्येषजाश्च सदैव शृणोति जाम्बवती-समस्तानामप्यालीनां कृपया हता वराको नकुलः इति विचिन्य द्विगुणतरं शोकमापना। मन्दिरं स्वत्पुत्रः शम्ब पति । ततो जाम्बवत्या विषण र भिहितापूर्वमपराधिनं विज्ञाय नकुवनन्त्यास्तस्या नावाननुयोग इति: य- मया पुत्रप्सत्का पकाऽप्याबिन दृष्टा । विष्णुना प्रोक्तम्-श्रागच्च थावस्थितावगमे स्वनुयोगः । प्रस्तुतयोजना त्वनन्तरोक्तवदिति।। येगाध दर्शयामि । ततो जाम्बवती सत्कृष्टलावण्यमानीरीरूपं अथ कमलामेझोदाहरणम कारिता, स्वयं पुनराभीररूपं कृत्वा दरामहस्तःस्वयं पृष्ठे व्यवनत्र वारावत्यां नगर्या बलदेवपुत्रो निषधः,तस्यापि सूनुःसाग स्थितः। अग्रतस्तु मस्तकन्यस्तदधिहपिमका जाम्बवती कृता, रच.., स च रूपेणातीवोकृष्टः, शम्बादीनां च कुमाराणां सर्वे प्रविष्टोऽथ दधिविक्रयार्थ नगरीमध्ये । रष्टा चशम्बेन माता। पामध्यतिप्रियः, तस्यामेव च द्वारावत्यां नगर्यामन्यस्य राको 5. तदुत्कृष्टरूपा आभीरीति विज्ञाय प्रोक्ता शम्बेनैषा-आगच्च मगृहं हिता कममा नाम समस्ति स्म। साचोग्रसेनतनयस्य नभःसनक सर्वस्यापि त्वदीयदध्नो यावन्मानं मूल्यं याचसे तदहं दास्यामारस्य दत्ता वृता च तिष्ठति स्म । अन्यदाच तत्र नारदः सागर मीत्यग्रतः स्वयं पृष्ठतस्त्वाभीरी पश्चात्त्वाभीर। स्वतः शून्यदेवचन्ऽस्य समीपं गतः । तेनाप्युत्थाय उपवेश्य प्रणम्य च पृथ: कुलिकायामेकस्यां गत्वा प्रोक्ता शम्बेनामीरी-प्रविश पतन्मभगवन् ! आश्चर्य किमवि कापि? नारदेनोक्तम्-दृष्टं कमला. ध्ये,मश्च दधि । तया च विरूपानिप्रायन विज्ञायप्रोक्तम्-नादमत्र मेलानिधानराजपुत्रिकाया न खलु ममैव किन्तु भुवनत्रयस्या प्रविशामि, द्वारस्थिताया एवं गृहाण दधि, प्रयच्छ मूल्यम् । प्याश्चर्यकारि रूपम् । सागरचन्द्रेणोक्तम-कि दत्ता कस्यचिरसा? बलादपि प्रवेशयिष्यामीस्यभिधाय गृहीता शम्बेन सा बाह।, नारदेनोक्तम् दत्ता परं नाद्यापि परिणीता। कथं पुनर्मम सा संप ततो धाधित्वा द्वितीयवाही लग्न आभीरः। द्वयोरपि चाकर्षण त्स्यते? ति सागरचन्डेणोक्ते, न जानाम्येतदहमित्यनिधाय गतो विकर्षणं कुर्वताजग्न भागमम । ततः कृतं सहजरूपमात्मनो, नारदः । सागरचन्डस्तु तहिनादारभ्य न शयानो नाप्यासीन: जाम्बवन्याच विष्णुना। तच्च दृष्ट्वा लज्जितो नष्टः शम्बः, नागकापि रति लभते, तामेय कन्यकां फलकादिवालिखन, तन्नाम यति चावसरेऽपि लजया राजकुले । ततोऽन्यदिने विषामात्रजापं चानवरतं कुर्वनास्त स्मानारदोऽपि कमलामेलाऽन्तिकं नियुक्तबृहत्पुरुषैः कष्टेनानीयमानः कृरिकया पंशकीसकं घट्टयगत तयाऽपि तथैवाश्चर्य किमपि दृष्टम् ?, ति पृष्टः कलहवर्शन मागच्चत्यसौ । प्रणामे च कृते पृष्टो वासुदेवेन शम्बः-किमेतत् प्रियतयास प्राह-दृष्टमाश्चर्यद्वयं मया-सागरचन्द्रे सुरूपत्वं,नमः क्षुरिकयाघट्यते । तेमोक्तम्-कीसकोऽयम् । किमर्थं पुनरसौ? यः सेने तु कुरूपत्वम्। ततो गित्येव सा विरक्ताननःलेने, अनुरक्ता पर्युषितामतीतजरुपान्धादिष्यति तन्मुखे आहननार्थ मिति । तदच सागरचने। तत्प्राप्तिचिन्ताऽऽतुरा च समाश्वासिता नारदेन पशम्यस्य मातरमायाजीरी मन्यमानस्य भावाननुयोगः, पश्चासा-वत्स!स्थिरीभव संपत्स्यते अचिरादेव तवायमित्युक्त्वा गतः द्यथावरगमे तु जावानुयोगः। प्रस्तुतयोजना तुपूर्ववदिति । सागरच इसमीपे । इच्छति त्वां सत्यभिधाय गतः।ततो विरहा अथ श्रेणिककोपोदाहरणम्वस्थाव्यथिते प्रलपतिच सागरचन्के,आर्तःसर्वोऽपि मात्रादिस्व राजगृहे नगरे समवस्तस्य भगवतः श्रीमन्महावीरस्य भेणिकजनवर्गः: खिद्यन्ते यादवाः, तदत्रान्तरे समायातः कथमपि साग मराधिपो राझ्या चेल्लणया सह माघमासे हिमकणप्रवर्षिणि रचन्छसमीपे शम्बकुमारः, रएश्व तेनासौ तदवस्थः, ततः पृतस्त महाशीते पतति वन्दनार्थ गतः । ततो निवर्तमानस्य च तस्य, स्थ स्थित्वा इस्तद्वयेनाच्छादिते तदक्षिणी शम्बेन | सागरचन्द्रेणो राश्या चेवणया मार्गासन्नः तपःकर्षितशरीरःसर्वथाऽप्यनापरक्तम-किकमनामेबा? शम्बेनोक्तम् नाईकमन्नामला,किन्तु कमसा णो मेरुशिखरमिव निष्पकम्पःप्रतिमाप्रतिपन्नोऽनिनवकायोत्संग मंत्रोहमा ततः सागरचन्द्रेण शम्बोध्यमितिकात्वा प्रोक्तम्-सत्य स्थितः संध्यायां दृष्टः कोऽपि तपस्वी।गताऽसौ तद्गुणानेवमनमेव कमलसमदीर्घलोचना कमन्नामेलां मेनायिच्यास, कोऽत्रार्थेऽ- सिध्यायन्ती गृहम, सुप्ता च रजन्यामनेकशीतापहर्तृप्रावरणप्रान्यः समर्थ इतिाततोऽभ्यर्यकुमारः पीतमयः परवीनतः शम्बो वृता पल्यः, निर्गतश्च प्रावरणेत्यो बहिस्तात्कथमप्येकः करः, माहितस्तद्दापनप्रतिकामा उत्तीर्णेच मदभावे विचिन्तितं शम्बन- | शीताभिनूतश्वायमतीव स्तम्धीनूतः,तदनुसारेण च समस्तमपि अहो!अलं मयाऽज्युपगतम्, अशक्यं तवस्तु,कथमियं प्रतिका शरीरं तथा व्याप्तं शीतेन यथा निहारपि जागीरतं तया । निर्वादयिष्यते,ततःप्रद्युम्न पात्प्राप्तिविद्यायाचिता दाम्बेन । तता क्वितो इस्तः प्रावरणमध्ये, स्थितश्वरदये स तथा कायोविवाहदिषसे च बहुनिर्यादयकुमारैः परिवृतेन तेन सुरक पा- स्सर्गस्थायी महामुनिः, तद्गुणोत्पनातुच्छबहुमानया विस्मितया सर्गस्थायी महामुना, तद्गुण तांयत्वा पितृगृहादाकृष्य नीता बहिरुद्याने कमलामझा। नारदं चोकं तया-स तपस्वी किं करिष्यतीति, यचकनाप्यावरणच साक्विणं कृत्वा कारितस्तत्पाणिग्रहणसंबन्धः सागरचन्द्रस्य बहिनिर्गतेन हस्तेनाहमेतावती शीतबाधां प्राप्ता,तबरण्ये निराततः सर्वेऽपि कृतविद्याधररूपाः क्रीमन्तस्तिष्ठन्ति स्म । उचा. बरणे सकतपःकषितम्चवविधमहाशीतषाधितः स तपस्खी कि Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) अणणुओग अभिधानराजेन्डः। प्रणत्त करिष्यतीति तस्याश्चित्तानिप्रायः, अयं चालुतया श्रेणिकनृप- कणान्मनो यस्य सो ऽनन्यमनाः । एकाग्रचित्त, संथा। भगस्थान्यथापरिणतः-नूनमनया कस्यापि सङ्केतो दत्तस्तदन्तिके वन्मनसि, औ०। च मयि सन्निहिते गन्तुमशक्ता, ततस्तश्चित्तखेदं चेतसि निधा अणमहावाइ (ए) अनन्ययावादिन-पुंगसत्यवक्तार, "अ. य पतदुक्तम् । ततो महता खेदेन तस्य विभाता रजनी। चलितः णुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जगप्पवरा । जिभरागश्रीमन्महावीरस्यान्तिकम्। गच्छता चातिकोपावेशानिरूपितोऽ दोसमोहा, अननहावाइणो तेण" ॥ १॥ प्राव०४०। भयकुमार:-सर्वाभिरेवान्तःपुरिकानिःसह प्रदीपय सर्वाण्यन्त: अस्माराम-अनन्याराम-त्रि०ामोक्षमार्गादन्यत्रारममाण, आ. पुरगृढाणि । ततोऽभयकुमारेण चिन्तितम्-केनाप्याभनयोत्पन्नकोपावेशनैवमसौ वक्ति, प्रथमकोपे च यदुच्यते तक्रियमाणं चा०१ श्रु.२१०१३०। म खलु परिणता सुखयति । अथवाऽनुवर्तनीय गुरूणां वचनमतः अणएहय-अनाश्रव-पुं० न० त०। नवकर्मा उनादाने, प्रश्न शन्यां हस्तिशालामेकां प्रदीप्य प्रस्थितः सोऽपि भगवन्दना- १ आश्र0 द्वारा स्था। थम् । श्तश्च भगवान्पृष्टः श्रेणिकराजन-जगवन् ! चेवणा किमे- अणएहयकर-अनाश्रयकर-पुं०। प्राणातिपाताद्याश्रवकरणर. कपत्नी, अनेकपत्नी वा? । भगवता प्रोक्तम्-एकपत्नीति । ततो हिते पञ्चमे प्रशस्तमनोविनयभेदे, न०५५ श०७ उ० । स्था। निवृत्तः सत्वरमेव गृहाभिमुखमभयकुमारनिवारणाय । मार्गे चागच्छन्वीक्तितोऽसौ पृष्टश्व-दिग्धमन्तःपुरम। तेनोक्तम्-दग्धम् । अणण्य त्त-अनंहस्कत्व-न० । न विद्यते अंडः पापं यस्मिन राशा प्रकुपितेनाऽन्यधायि-त्वमपि तत्रैव प्रविश्य किंन दग्धोऽ तत् अनंहस्कम, तस्य भावोऽनंहस्कत्वंम् । अविद्यमानकमत्वे, सि?। कुमारेणोक्तम्-किं ममाग्निप्रवेशेन?, वतमेव ग्रहीष्याम्यह "संजमेणं अणराहयत्तं जणय" उत्त०१० म, ततो मा नृदस्य महान् खेद इति कथितं यथावदेवेति। तदत्र अणतिक्कमणिज-अनतिक्रमणीय-त्रि। न० त० । चालसुशीलामपि चेल्लणां कुशीलां मन्यमानस्य राको भावाननुयोगः, मीये, भ० २ श० ५ १० । दश। यथावदवगमने च तदनुयोगः। एवमौदयिकादिभावान विपरीत-| दायकादिभावान् विपरीत- | भणतिकमणि जवयण-अनतिक्रमणीयवचन-त्रिका अनतिकस्वरूपान् प्ररूपयतो भावाननुयोगः, यथाऽवस्थितस्वरूपांस्तु । मणीयं वचनं येषां ते । वचनानतिक्रामकेषु, "अम्मापिउणं अतान् प्ररूपयतो भावानुयोग इति । विशे० । विपा०। णकमणिज्जवषणा" अम्बापित्रोः सत्कमनतिक्रमणीयं वचनं मणणुचीइय-अननुचित-त्रि० । शास्त्रानुझाते, " जो तु श्र येषां ते तथा । औ०। कारणसेवा सा सम्वा अणणुचीयातो होति,जा अकारणतो प- श्रणतियार-अनतिचार-त्रिका न विद्यन्ते अतिचारा यस्मिन् । मिसेवा गुणदोसे अचिंतिकण सा अणणुचीति" नि०यू०१० अतिचाररहिते, ध० ३ अधिः । अणणुपालण-अननुपालन-नान० त० । अनासेवने, आव० अणतिवाइ(ण)-अनतिपातिन-पुं० अतिपतनमतिपातःप्राप्यु६ अ० । पंचा० ।" पोसहोववासस्स सम्ममणोपालणया" | पमर्दन, तद्विद्यते यस्यासावतिपातिकस्तत्प्रतिषेधादनतिपापोषधोपवासातिचारः । उपा०१०। तिकः। अहिंसके, सूत्र०२ श्रु० १ अ०। अणणुवाइ (ण )-अननुपातिन-त्रि०ासिकान्तेन सहाऽघट अणतिविलंबियत्त-अनतिविलम्बितत्व-ना अतिविलम्बरामानके, व्य०१ उ०। हित्यरूपे वचनातिशये, औ०। अणुवाय-अननुपात-पुं०। अनारामने, पंचा० ७ विव०। अणत्त-ऋणान-पुं० स्त्री०। राजादीनां हिरण्यादिकधारक, श्रणासासणा-अननुशासना-स्त्री० । शिकाया अभावे, का. ग०१ अधिः । ऋणपीमिते, स्था० ३ ०४ उ०। स न दी. १ श्रु० १३ अ०। कणीयः । ध०३ अधि०। पं. भा० । पं००। श्रणम-अनन्य-त्रि० । अभिन्ने, विशे० । “अणम् अभिम " | अनात्त-अपरिगृहीते, ध०२ अधि०। स्था। अपृथगित्यर्थः । नि० चू० १ ०। मोकमार्गादन्योऽसंयमः, ना श्याणि अणत्तेन्योऽनन्यः । ज्ञानादी, "प्रणय चरमाया से ण कृ ण छणा सञ्चित्तं अञ्चित्तं, वा मीसगजायणं तु धारेति । वए" आचा० १ श्रु० ३ अ०२३०।। अणमणेय-अनन्यनेय-त्रि०। अन्येन नेत्राऽनेतव्ये, "णेतारोप- समणाण व सपणीण व, न कप्पती तारिसं दिक्खा ४११ श्रेसि अणनणेया बुझा हु ते अंतकमा हवंति" न च स्वयं बुद्ध कंठा । इमे दोसास्वादन्येन नीयन्ते तत्वावबोधं कार्यन्ते इत्यनन्यनेयाः, हिता- अथ सो य अकित्ती या, तम्मूला गंतहिं परयणस्स । हितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । अणपोव्वम्झंझमिया, सब्वे एयारिसा मम्मा ४१२॥ सूत्र०१६० १२ अ०। अणं रिणं. पोव्य मलं, चक्कवरायपरिजवे अराणापावडा, अणमादंसि ( ए ) अनन्यदर्शिन्-पुंसामन्यद् अटुं शीलमस्ये. (कंजभिए त्ति) झऊमिया रिणे श्रादजंति पनिएहि अणेत्यन्यदी यस्तया, नासावनन्यदर्शी । यथावस्थितपदार्थजट- गप्पगारे रोउ मुब्वयणहिं मडियाझंझाडियालत्तकसादिपहि रि, आचा० १ श्रु० २ १०१ उ०। वा ऊमित्ता सव्ये पारिसा । एते गेराहणकट्टणादिया दोसा। अणणपरम-अनन्यपरम-पुकान विद्यतेऽन्यः परमः प्रधानो य इमं वितियपदं गाहास्मादित्यनन्यपरमः । संयमे, " अणमपरमं णाणी, णो पमाए दाणेण से तोसितो, अहवा वीसज्जितो पहणं । कयाइवि" प्राचा०१ श्रु०३० ३ ०। अहाणपराविदेसे, दिक्खा से उत्तमाऽध्वदो॥४१३।। अपममण-अनन्यमनस- त्रित विद्यते अन्यद् धर्मध्यानल-1 अट्रपदचे दाणेण तोसिएण धणिएण विसज्जितो (पभु त्ति) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) प्रणात अभिधानराजेन्धः। प्रणभिवंतसंजोग धणितो सम्वम्मि अदिने तण विसज्जितो पन्चाविज्जति, सेसं| यति । विष्णौ, शशवे हि विष्णुना चरणेन शकटं पर्यस्तमिति कं। अणत्ते गतमिति । नि० चू० ११०० । श्रुतेः । " धियो योऽनः प्रचोदयात् " जै० गा० । श्रणतं-देशी। निर्माट्ये, दे० ना०१ वर्ग । अणप ( प ) ज-अनात्मक-त्रिकाममात्मयशे ग्रहगृहीते, अणत्तट्टिय-अनात्मार्थिक-त्रि०। नात्मार्थ एव यस्यास्त्यसाव-| क्षिप्तचित्तादौ च । नि० चू० १ उ०। नात्मार्थिकः । परमार्थकारिणि, प्रश्न०१ सम्ब० द्वा० । |अणधिकारि(ण)-अनधिकारिन-पुं० अधिकारिविरुद्ध, लगा अणत्तपएण-अनात्मप्र-त्रिका भात्मने हिताय प्रक्षा येषां ते अपक-अनई-त्रि० । न विद्यतेऽई येषामित्यनर्धाः । निर्विअनात्मप्रशाः । व्यर्थवुफिषु, "एगे विसीयमाणे अगत्तपणे" | भागेष, “समयः प्रदेशः परमाणव एते अनर्धाः" स्था०३ प्राचा० १ श्रु० ५०६उ01 ठा०२ उ०॥ अणत्तव-अनात्मवत-वि० अकषायो ह्यात्मा भवति, स्वस्व अणपनिय-अप्राप्तिक-पुं० । व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनिव्य. रुपावस्थितत्वात् , तद्वान भवति यः सोऽनात्मवान् | सकपा- न्तरमेदे, प्रश्न०१ आश्र द्वा० । स्था। औ० । ते च रत्ननये, स्था०६ ग०। भाया उपरितने रत्नकाण्डसपे योजनसहने अध उपरि च आपत्तागमण-अनातागमन-नाअनानाअपरिगृहीता-वेश्या, शयोजनशतरहिते वसन्ति । प्रव०१९४ा । स्वैरिणी, प्रोषितनर्तृका, कुलाङ्गना वाऽनाथा, तस्यां गमनम। अणप्पग्गंथ-अनर्यग्रन्य-त्रि०ाअनोऽनर्पणीयोऽढीकनीयः अपरिगृहीतागमने स्वदारसन्तोषातिचारे, ध०२ अधि०। । परेषामाध्यात्मिकत्वाद् ग्रन्थवद् द्रव्यवत् ग्रन्थो ज्ञानादिर्यस्य श्रणत्य-अनर्य-पुं० । अनर्थहेतुत्वान् गौणे एकविंशे परिग्रहे, सोऽनर्यग्रन्थ इति । परेभ्योऽदातव्यज्ञानादिके,स्था ठा। प्रश्न० ५ प्राश्र0 द्वा० ।। अनल्पग्रन्थ-त्रि० । न० ब० । बबागमे, औ०। मणत्यक-अनर्यक--पुं० । परमार्थवृत्या निरर्थके अष्टाविंशे अनात्मग्रन्थ-त्रि० । अविद्यमानो वा आत्मनः सम्बन्धी गौणपरिग्रहे, प्रश्न ५ श्राश्र द्वानिष्प्रयोजने, पंचा०६विव०। प्रन्थो हिरण्यादिर्यस्य । अपरिग्रहे, औ० । सूत्र। अगत्यकारग-अनर्यकारक- त्रि० । पुरुषार्थीपघातकारके , अगप्पिय-अनर्पित-न० । अविशेषिते , यथा जीवाव्यं संप्रश्न. ३ आश्र0 द्वा०। सारी,संसार्यपि त्रसरूपं, सरूपमपि पश्चेन्द्रियं, तदपि नररू. अणत्यंतर-अनर्थान्तर-न०। अन्योऽर्थोऽर्थान्तरम, न विद्यतेऽ पमित्यादि तु अर्पितं विशेषितं विशेषः । स्था० १० ठा। र्थान्तरं यस्य पर्याये। एकार्थे शब्दे, “योग्यमहमित्यनान्तरम्" | अणप्पियणय-अनर्पितनय-पुं० । अनर्पितमविशषितं सामाप्रा० म०द्वि० । न्यमुच्यते, तवादी नयोऽनर्पितनयः। सामान्यमेवास्ति न वि. अणत्यगंय-अनर्यग्रन्य-पुं० न० त० नावधनयुक्ते, प्रौ० । शेष इत्येवं वादिनि आगमप्रसिद्ध नयभेदे, विशे० प्रा०चू। अपत्थचूल-अनर्यचूम-पुं० । निजगुणोपार्जितनामके रत्नव अगवल-ऋणबल-पुं०। ऋणे ग्रहीतव्ये बलं यस्येति । बलवस्याः सुते, दर्श। त्युत्तमणे, प्रश्न०२ आश्र द्वा०। अपत्यदंडाण-अनर्थदएमध्यान-न०। अनर्थदएको निष्ण अणवलनणिय-ऋणबलभणित-पुं० । उत्तमणेनास्मद द्रव्यं योजनं हिंसादिकरण तस्य ध्यानम् । पुर्दान्तमत्ततया द्वापायनं देहीत्येवमभिहिते अधमणे, प्रश्न०२ श्राश्र0 द्वा। रुष्टीकुर्वतां शाम्बादीनामिव, वक्रमएडनी सर्पविशेषरूपां नतो गङ्गादत्तस्येव, विष्णुश्रीदेवीस्वर्गसंदेशकथननिपुणस्य वा बाल अपन-अनभ्र-त्रि० । अभ्ररहिते. द्वा० २४ द्वा०। स्येव, ध्यान, पातु। अणब्भय-अनभ्रक-त्रि० । अभ्रकरहिते, तं० । अणत्यफलद-अनर्थफलद-त्रिका स्वपरयोरपकाररूपफलदा अणब्भुवगय-अनभ्युपगत-त्रि० । श्रुतसंपदानुपसंपन्ने अनि यके, पञ्चा० ३ विवः । वेदितात्मनि, प्रा० म०प्र०। अणथमियसंकप्प-अनस्तमितसंकल्प-पुं०। अनस्तमिते सूर्ये अणभंजग-ऋणजनक-पुं०। ऋणं देयं द्रव्यं भजन्ति न ददति संकलपो भोजनाभिलाषी यस्य । अनिष्टरात्रिभोजने दिवानो | ये ते। उत्तमणेभ्य ऋणं गृहीत्वाऽदायकेषु, प्रश्न०३ आश्रद्वारा जिनि, वृ०१ उ०। अणनियोग-अनभियोग-पुं० । न अभियोगोऽनभियोगः । अगत्यवाय-अनर्थवाद-पुं० । निष्प्रयोजने जल्पे, प्रश्न अनभियोक्तव्ये, औः। २ सम्बद्वा। अणजिकंत-अननिक्रान्त-त्रि० । न अभिक्रान्तो जीवितादमात्थादम-अनर्यदएड-पुं०। निष्प्रयोजनहिंसाकरणे, पातु।। नभिक्रान्त इति। सचेतने, प्राचा०२श्रु०१ १०१०। अनतिल। 'अणाडंड' शब्दे त्रैव भागे २८४ पृष्टे चास्य विवृतिः), प्राचा १००० अन्यरनभित्र अणत्थादंडवरमण-अनर्थदण्डविरमण-नः । तृतीये गुणवते, क्लायां दोषविशेषविशिष्टायां वसतो,स्त्री|ग०१अधिप्राचा पंचा०विव० ( 'अणट्ठादंडवरमण' शब्देऽत्रैव जागे २८५ अणभिकंतकिरिया-अननिक्रान्तक्रिया-स्त्री०। चरकादिनिरपृष्ठेऽस्य विस्तरः) नवसेवितपूर्वायां वसतौ , सा चाननिकान्तत्वादेवाऽकल्पनीअणधारग-रणधारक-पुं०। ऋणं व्यवहारकदयं द्रव्यं, तद्यो| या। प्राचा० २ श्रु.२ अ० २२० । धारयति । अधमणे, शा० १७ श्र) । अगानिससंजोग-अनजिक्रान्तसंयोग-पुं० । अननिकान्तोऽनअशाप्पचीद-अनःप्रचोद-पुं० । अनः शकटं प्रचोदयति प्रेर- | तिमलितः संयोगो धनधान्यहिरण्यपुत्रकअत्रादिकृतोऽसंयम. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१) अणभिवंतसंजोग अनिधानराजेन्षः। प्रणवकंखवत्तिया संयोगो या येनाऽसावनभिकान्तसंयोगः । परिग्रहप्रस्तेऽसंयते, स्य, दुःखं समुदायमार्गनिरोधलकणं, चतुरार्यसत्यादानातिरिआचा०१ श्रु०१०४०। तं वा बौद्धस्येत्यादि । अनु०। भा० म०दि० । विशे०।। श्रण निगम-अनभिगम-पुं० न० तक विस्तरबोधानावे, भ०२ अणराय-अराजक-न । राज्ञोऽभाव, प्राक्तनस्य राको मरणे श०१०। सम्यगप्रतिपत्ती, ध० ३ अधिः ।पा। संजाते सति यावदद्यापि राजा युवराजश्चैती द्वापि नाभिषिश्रणभिग्गहिय-अनभिग्रहिक-न० । अभिग्रहः कुमतपरिग्रहः स ती तावदराजकं भएयत, पृ०१उ०। ('विहार'शब्द व्याख्या) यत्रास्ति तदभिग्रहिक, तद्विपरीतमनभिग्रहिकम् । मिथ्यास्व- प्राणरिक्क-देशी-न । दधिक्कीरादो, नि० चू०१६ २०। जेदे, स्था०२ ग०१०। तच प्राकृतजनानां सर्वे देवा बन्द्यान प्रणल-अनल-पुंगनास्ति अलः पर्याप्तिर्यस्य, बहुदायदएनेनिन्दनीयाः, पवं सर्वे गुरवः, सर्वे धर्मा इत्याद्यनेकविधम् । ध०२ अधिo "अणभिग्गहियमिच्छगदंसणे विहे पाते। तंजहा-सप ऽपितृप्तेरभावाम् । न.पा वन्ही, अनलदेवतत्वात् कृत्तिकानजवसिए चेव अपज्जवसिए चेव" अनजिनहिकं भव्यस्य सपर्य कत्रे, चित्रकवृक्त, पुंगतस्य सर्वतः पर्याप्तत्वेऽपि पर्याप्तेः सी. वसितमितरस्यापर्यवसितमिति । स्था० १ग०१उ०। माभावात्तत्त्वम् । भल्लातके वृत्त च । वाच० । प्रश्न० । स्था। अनभिग्रहित-पुं०। अभिमहिकमिथ्यात्वरहिते , वृ० १ उ० । श्रावन अलोऽननः। अप्रत्यले अपर्याप्ते अयोग्ये, निच. ११ उ०। असमर्थे, प्रा०म० द्वि०। अणभिग्गहियकुादट्ठि-अननिगृहीतकुदृष्टि-पं० । अननिगृहीता अनलमित्यस्यअनङ्गीकृता कुरष्टिवौद्धमतादिरूपा येन सोऽनभिगृहीतकुदृष्टिः । काम खलु अलसद्दो, तिविहो पज्जत्तहिं पगतं । संतपरुचौ , येन मिथ्यात्विनां कुमतमजीकृतं नास्तीत्यर्थः । श्रणलो अपच्चलो तिय, होति अजोगो व एगट्ठा १११ उत्त०२० अ०। अणभिग्गाहयसिज्जासणिय-अननिगृहीतशय्यासनिक-पुं०। चोदक पाह-ननु अलशब्दः त्रिवर्थेषु हएः, तद्यथा-पर्याप्त, भूषणे, वारणे च । प्राचार्य पाह-यद्याप विध्यप्यर्थेषु हरः न अजिगहीते शय्यासने येन सोऽननिगृहीतशय्यासनिकः । तथापि अर्थवशादत्र पर्याप्ते कष्टयः, न असोऽनमः, अपचनः स्वार्थ इकप्रत्ययः । शय्यासनविषयकाभिग्रहरहिने, “नो क अयोग्यश्च पते एकार्थाः । नि० चू० ११ उ० । प्प निग्गंथाण वा निम्गंधाण वा अणभिग्गहियसिज्जासहिएजं हुत्तए " कल्प। अणलंकिय-अनलईत-त्रिका न० त०।मुकुटादिभिरविषिते, श्रणभिग्गहीयपुापाव-अननिगृहीतपायपाप-त्रि०। अनधिग भ०२ श०१ उ०। तपुण्यपापे, अविदितपुण्यपापकर्महेतौ च । प्रश्न०२ अाश्र द्वारा अणलंकियविनसिय-अनलकृतविषित-त्रि०ानता. अणभिग्गाहिया-अनभिगृहतिा-स्त्री० । अर्थानभिग्रहेण कि सस्कृतं मुकुटादिभिः, विनूषितं वस्त्रादिभिः, तनिषेधादनन कृतं वितषितम् । मुकुटादिभिर्वस्त्रादिभिर्वा शोभामप्रापिते, स्थादिवदुच्यमानायां भाषायाम, " प्रणाभग्गहिया भासा, ज०२ श० १ उ० । भासा य अभिग्गहं निवोधवा" | भ०१० श० ३ उ०। अणनिणिवेम-अनजिनिवेश-पुं०। अतत्त्वेऽभिनिवेशाभावे, अ अणागिरि-अनागरि-पुं०। चण्डप्रद्योतनूपतेईस्तिरत्ने, ननाभोगे च । पंचा०११ विव०। भनिनिवेशराहित्ये, अभिनिवेश. स० ९ अ० । “ स्त्रीरत्नं च शिवा देवी , गजोऽनलगिरिः | पुनः" | आ० क०।। श्व नीतिपथमनागतस्यापि पराभिभवपरिणामेन कार्य्यस्यारम्भः । ध०१ अधि०। अणलस-अनलस-त्रिका उत्साहवति, दश० १ अ01 अणनिप्पेय-अनानिप्रेत-पुं० । अननिप्रेतार्थविषये संयोगे, - अणमाणितणवणस्सइगणणिस्मिय-अनलानिलतृणवनस्पस०१०। पं० सं०। तिगणनि:श्रित-त्रि अनस्तेजस्कायोऽनिलोवायुकायस्तृणश्रणजिजय-अनभिजूत-त्रिका नाभिनूतोऽननिनृतः । अनुक- | वनस्पतिगणो बादरवनस्पतीनां समुदायः , एतन्निःश्रिताः । लप्रतिकूलोपसर्गः परतीथिकैर्वाऽजातानिभवे, आचा० १ श्रु' तेजस्कायापजीवकेषु त्रसेषु, प्रश्न०१आश्रद्वा०। १०। अणलिय-अनलीक-ना सत्य, वृ० १ उ० प्रणभिलप्प अनजिलाप्य-त्रि० 1 प्रज्ञापनायोगे, प्रा० म०प्र०।। अणद्वियाणिज्ज-देशी-त्रि० । अनाश्रयणीये अयोध्ये, " घि"पालवणिज्जा लावा, अणतभागो उ अणनिलप्पाणं " सूत्र०१ सवल्लीअणल्लियणिज्जाओ" I स्त्रियः विषवल्लीवद हालाहलअ० १०१ उ० । श्रा० चू०। विषमतावत् अनाश्रयणीयाः सर्वथा सङ्गादिकर्तुमयोग्या: प्राणजिस्संग-अनभिष्वङ्ग-पुं०। निष्प्रतिबन्धे, पंचा०१४विका तनकाबप्राणप्रयाणहेतुत्वात् । पर्वतकस्य राज्ञो नन्दपुत्रीविषकश्रणभिय-अनजीत-पुं० । श्रण वणेति दएमकधातुः , प्रगति न्यावत् । तं। गच्छति तासु तासु योनिषु जीवोऽनेनेत्यणं पापं, तस्माद नीतः। अणव-ऋणवत-पुं० । दिवसस्य षविंशे लोकोत्सरमुहृत्त. असावद्ययोगे, प्रा० महि० । कल्प० । चं० प्र०। अणानिस्संगो-अनभिष्वदन्तम-अव्य० । अनिष्वङ्गाभावादि- अण्वकंखमाण-अनवकाढत-त्रि० । विहर्तुमिच्नति, कत्यर्थ, पंचा० ४ विव०। ल्प। स्था। अणभिडिय-अननिहित-न। आत्मन एवेच्चयाऽभणितलक- | श्रणवखवत्तिया-अनवकाङ्कमत्यया-स्त्री० । अनधकाड्डा ण, वृ०१० । स्वसिद्धान्तानुपविष्टरूपे सूत्रदोषनेदे, यथा. स्वशरीराद्यनपेक्षत्वं सैव प्रत्ययो यस्याःसाउनयकाबप्रत्यया मप्रमः'पदार्थो वशषिकस्य, प्रकृतिपुरुषात्यधिकं वा साइख्य- | इहलोकपरलोकापायानपेक्षस्य क्रियाभदे, स्था०२ ठा०१ उ. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) भणवखवत्तिया अनिधानराजेन्डः। प्रणवठ्ठप्प अणवखवत्तिया किरिया मुविहा पता। आयशरीर- रम् । श्रा० म० द्वि० । निर्दोषे, भ० ५ श० ६ उ० । उत्त० । अागवखवत्तिया चेव, परसरीरअणवखवत्तिया चेव । पापाभावे कर्मोपचयाभावे, “अणवज्जमतहं तेसिं" कुतोऽपि तत्रात्मशरीरानवकाङ्गप्रत्यया सा स्वशरीरक्षतिकारिकर्मा हेतोः केवलमनसः प्रद्वेषेऽपि अनवद्यं पापाभावः , कोपच्चणि कुर्वतः , तथा परशरीरक्षतिकराणि तु कुर्वतो द्वितीयेति । याभावो वा नवतीति । सत्र०१०१०१3० । कामादिस्था २ ठा०१ उ०। "अणवखवत्तिया इहलोगे परलोग य । पापव्यापाराप्ररूपके, विशे० । गुणविशेषविशिष्टे सूत्रे, अनवद्य. इहलोगे अणवकंखवत्तिया लोगविरुद्धाणि विचोरिकादीणि मगहमर्हिसाप्रतिपादकम् । यतः "घशातानि नियुज्यन्ते, पशूनां करेति जेण वहबंधादीणि इहेव पावति, परलोगे श्रणवकंख मध्यमेऽहनि। अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः" ॥१॥ पत्तिया अट्टरुद्दज्झाती इंदियपराभूतो हिंसादिकम्माणि करे इत्यादिवचनमिव न हिंसाप्रतिपादकम् । आ० म० द्वि०। अनु० । माणो परलोग नावकंखति" प्रा० चू०४०। पीमानुत्पादके, अपापे वाक्ये "सचेसु वा श्रणवां वयंति" अणवकंखा-अनवकाङ्गा-स्त्री० । अनाकाङ्क्षायां स्वशरीराद्य सूत्र १ श्रु० ६ ० । ('सच्च' शब्द ऽस्य विवृतिः ) नपेक्षत्वे, स्था०१ ठा०१ उ०। अणवज्जगी-अनवद्याकी-स्त्रीसुदर्शनापरनामिकायां भगवतो अवगय-अनवगत-त्रि। अपरिझाते, स्था०४ ठा०४ उ०। महावीरस्य दुहितरि जमालिगृहिण्याम, विशे० । उत्त० । अण्व जजोग-अनवद्ययोग-पुं०। कुशलानुष्ठाने, “प्रणयजजो. अणवगल्ल-अनवकल्प-पुं० । जरसा पीडिते, अनु० । अत्य गर्मग" अनवधं योगं कुशवानुष्ठानमकं सकलकुशलानुष्ठानानामन्तवृद्धे, पं० २०१द्वा०। ध०। नवद्ययोगत्वाव्यभिचारात् । पा० । अणवजय-अनवयुत-त्रि० न० त० अपृथग्भूते, प्य०७३०। प्रणवज्जया-श्रणवज्यता-खी। अणस्य पापस्य बज्यो ऽणध. श्रणवज-अनवद्य(अणवर्य)-न० । अवयं पापं, नास्मिन्नव ज्यस्तद्भावोऽणवय॑ता । संवरे, श्रा० म० द्वि० । द्यमस्तीत्यनवद्यम् । सामायिके, विशे० । प्रा० चू० । सावद्य अणवट्ठ-अनवस्थ-पुं०। अनवस्थाध्ये, व्य०१ उ० । योगप्रत्याख्यानात्मकत्वात्तस्य। श्रा०म० द्वि० । अणवठ्ठप्प-अनवस्थाप्य-न०अवस्थाप्यत इत्यवस्थाप्यस, तनिपावमवज्ज सामा-इयं अपावं ति तो तदणवज्ज । षेधादनवस्थाप्यम् | दुष्टतापरिणामस्याऽकृततपोविशेषस्थ बता. पावमणंति व जम्हा, बज्जिज्जतेण तदसेसं ॥ नामनारोपणे, ध० ३ अधि० । ग0 औला यो हि आसेविता. अणशब्दस्य कुत्सितार्थत्वादणन्ति कुत्सितानि करणानि श- तिचारविशेषः सन्ननाचरिततपोविशेषः, तद्दोषोपरतो महाव. ब्दयन्ति, अणन्त्यनेनति व्युत्पत्तेर्वा, अणं पापमुच्यते। तदशेष तेषु नावस्थाप्यते नाधिक्रियते इति तदतिचारजाते तच्छुकि. सर्यमपि वय॑ते परिहियते यस्मात्तेन सामायिकेन अणं वर्ज- रूपे, नवमे प्रायश्चिते च । स्था० ३ ०४३०। यत्र प्रतियतीति वा, ततः सामायिकमणवर्ण्यमुच्यते इति शेषः । । सेवते उत्थापनायामप्ययोग्यत्वेन यावदनाचीर्णतपाः पश्चाचीविशे० । तपाःपुनर्महावतेषु स्थाप्यते तत् । जीत० । व्यः । इदानीमनवद्यद्वारम्। तत्र कथानकम् वसन्तपुरे नगरे जिय अनघस्थापनीयाःसनू राया। धारिणी देवी । तीसे पुत्तो धम्मई । सो य राया ततो अणवट्ठप्पा पन्नत्ता तं जहा-साहम्मियाणं ते करेमाणे। थेरो । अन्नया तावसो पब्वइउकामो धम्मरुइस्स रज्जं दाउ. अनधम्मियाणं तेम्मं करेमाणे, हत्थादालं दस्रमाणे।। मिच्छह । सो मायरं पुच्छइ-कीस तातो रज्जं परिव्वयइ ?। त्रयोऽनवस्थाप्यास्तरकणादेव व्रतेष्वनवस्थापनीयाः प्राप्ताः। सो भणइ-रज्ज संसारवणं । सो भणइ-मम वि न कजं । तद्यथा-सामिकाः साधवस्तेषां सत्कस्योत्कृष्टोपधेः शिष्याततो सो वि सह पियरेण तावसो जाओ । तत्थ अमावसा देर्वा स्तैन्यं चौर्य कुर्वाणः । अन्यधार्मिकाःशाक्यादयो गृहस्था होहि त्ति गडओ घोसे आसमसु-कलं अमावसा होहि इ वा, तेषां सत्कस्योपध्यादेःस्तैन्य कुर्वन् । तथा हस्तेन तामनंहतो पुप्फफलाणं संगहं करेह । कलं नट्टइ छिदिउं । धम्मई स्तातासं,सूत्रे चतकारस्य दकारथुतिः,आर्षत्वात, तंदनमाणो व. चिंतेइ-जइ सव्वकाल नछिदिज्जा तो सुंदरं होजा। अमाया दन् यष्टिमुष्टिल गुमादिभिरात्मनः परस्य वा प्रहरनिति भावः । साहू अमावसाए तावसासमस्स अदूरण बोलति । ते धम्म अथवा हस्तासम्बेतिपावा हस्ताझम्ब हव हस्तासम्बोऽशिवादि. रुई पेच्छिकण भणति-भयवं! किं तुम्भे अणाकुट्टी नस्थि तो प्रशमनार्थमनिचारकमन्त्रादिप्रयोगस्तं दत्रमाणः कुर्वन्। यद्वा-'ह. श्रमवि जाह । ते भगति अम्हं जावज्जीव अणाकुट्टी । सो स्थादाणं दलमाणे त्ति'पा। सूत्रार्थादानमर्थोपादानकारणमटा. संभंतो चिंतिउमारद्धोन्साह वि गया जाईसंभरिया पत्ते य ङ्गनिमित्तं ददत्प्रयुञ्जानः। एष सूत्रसकेपार्थः । वृ०४ न०। जीता। धुसो जाती। अमुमेवार्थमभिधित्सुराह अथ विस्तरार्थ विनणिषुराह--- सोऊण अणानहि, अणनित्तो पन्जियाण अरणगतुं । । आसायणपमिसेवी, अणवठ्ठप्पो वि होति दुविहो तु । आगवजय उवगतो, धम्मरुई नाम अणगारो । एक्केको विय दुविहो, सचरित्तो चेत्र अचरित्तो॥ श्रुत्वा आकर्ण्य , प्राकुट्टनमाकुट्टिः छेदनं हिंसेत्यर्थः । न | आशातनाऽनवस्थाप्यः, प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्चेत्यनवस्थाप्यो पाकुट्टिरनाकुट्टिः, तां सर्वकालिकीमाकार्य प्रणभीतः अण | द्विविधो भवति । न केवलं पाराश्चिक इत्यपिशब्दार्थः। पुनवणति दरडकधातुः, अणति गच्छति तासुतासु योनिषु जीवो रेकैकोऽपि विविधः--सचारित्रोऽचारित्रश्चेति । पतौ द्वावपि अननति अणं पापं, परित्यज्य सावद्ययोगमित्यर्थः । श्रणस्य दौ पाराश्चिकपद्वक्तव्यौ । वयं अणवयंस्तद्भावस्तामणवय॑तामुपगतः प्राप्तः साधु अथाशातनाऽनवस्थाप्यमाह-- संवृत इति भावः । धर्मरुचिर्नाम अनगारः। गतमनवद्यद्वा. तित्यपरपवयणसुत्ते, आयरिये गणहरे माहहीए । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) अणवठ्ठप्प अन्निधानराजेन्धः । अगावट्टप्प एते आसादेते , पच्चित्ते मग्गणा होई ॥ अथ 'सेहे मून' इत्यादि पश्चाधं व्याख्यानयतितीर्थकरप्रवचनं श्रुतम, प्राचार्यः, गणधरः, महर्द्धिकश्चेति। | अंतो वहिं निवेसण-वामगमज्जाएसीमतिकते । पतानाशातयतः प्रायश्चित्तमार्गणा भवति । अमीषां चाशातनाः मास चन च्छ लहु गुरू, छेदो मूखं नह गं वा ।। पाराश्चिकवद्भावनीयाः। अन्तः प्रतिश्रयाच्यन्तर साधर्मिकाणामुपधिमाएं शैकः स्तेनप्रायश्चित्तमार्गणा पुनरियम् यति तदा मासलघु, घसतेबहिरदृष्टमेव स्तेनति तदा मास. पढमवितिएम नवम, सेसे एक्कक्क चनगुरू होति । गुरु, निवेशनस्यान्तर्मासगुरुकं,बहिश्चतुर्वघुकं, वाटकस्यान्तश्च. सव्वे आसादेतो, अव उप्पो उ सो होइ ॥ तुलघुकम, बहिश्चतुर्गुरुकम, उद्यानस्थान्तः पट्यघु, बहिः परप्रथमद्वितीयायास्तीर्थकरसहाशातनायारुपाध्यायस्य नवम | गुरु, सीमाया अन्तः षट्गुरु , अतिक्रान्तायां तु तस्यां बहि: मनवस्थाप्यं भवति , शेषेषु श्रुतादिषु प्रत्येकमेकैकस्मिनाशा. नेदः (मूलं तह दुर्ग व त्ति) मृलं, तथा द्विकं वा-अनवस्थाप्यत्यमाने चतुर्गुरवो भवन्ति । अथ सर्वाणि चतुर्थेष्वपि श्रुतादी पाराश्चिक युगम्। नि आशातयति, ततोऽसावनवस्थाप्यो नवति । उक्त आशात एतदेव भावयतिनाऽनवस्थाप्यः। एवं तात्र अदिटे, दिढे पढमं पदं परिहवेत्ता। अथ प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यमाह तं चेव असेहे बी, अदिड दिढे पुणो एकं ॥ पमिसेवणअणवट्ठो, तिविहो सो होइ आपुबीए। । एवं तावदष्टे स्तन्ये क्रियमाण शैक्कस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् । रष्ट साहम्मियऽमधाम्मय, हत्थादालं वदलमाण ।। तु प्रथमं मासस घुलवणं पदं परिहाप्य परिहत्य मासगुरुकायः प्रतिसेवनाऽमवस्थाप्यः सूत्रे साकादुक्तः स प्राडा त्रि दारब्धं मूलं यावद्वक्तव्यम् । अशक उपाध्यायस्तस्यापि अर विधो भवति-साधर्मिकस्तैन्यकारी, अन्यधार्मिकस्तैन्यकारी, तान्येव मासगुरुकादीनि मूलान्तानि प्रायश्चितस्थानानि जबहस्तातालं ददत् । न्ति । दृष्ट पुनरकं मासगुरुलकणं पदं हसति, चतुर्वघुकादारतत्र साधर्मिकस्तैन्यं तावदाह ग्धमनवस्थाप्य निष्ठां यातीत्यर्थः । प्राचार्यस्याप्यरऽनवस्थासादम्मि तम उवधि-वावारणकामणा य पट्ठवणा । प्यान्तमेव । दृष्ट तु चतुर्गुरुकादारब्धं पाराश्चिके तिष्ठति । गतं साधर्मिकोपधिस्तैन्यद्वारम् । सेहे आहारविही, जा जहि आरोवणा जणिता ॥ अथ व्यापारणाद्वारमाहसाधर्मिकाणामुपधेर्वरपात्रादिलक्वणस्य स्तैन्यं करोति [वा- वावारिय अण्हा, बाहिं घेदुण उबहि गिएहति । वारण त्तिगुरुनिरुपधेरुत्पादनाय व्यापारणा प्रेषणा कृता, अत लहु णा आदात लहगा, अगवट्ठप्पो य आदमा ।। स्तमुत्पाद्य गुरूणामनिवेद्यान्तराख्ने स्वयमेवाधितिष्ठति [कामणा व्यापारिता नाम गुरुभिः प्रेषिताः, यथा-[ आणेह त्ति] चपयत्ति ] उपकरणं सद्भावनाऽसद्भावन वा ध्यामितं दग्धं भ धिमुत्पद्यानयत । ते चैवमुक्ता अनेकविधमुपधि गृहियो गृह।वेत, तव्याजेन श्रावकमन्ययं वस्त्रादिकं गृहीत्वा स्वयमेव स्वोत्पाद्य बहिरेवाचार्यसमीपमप्राप्ता उपधि गृहन्ति-दंतव,दं तुङ्ग [पवण त्ति ] कनाप्याचार्येण कस्यापि संयतस्य हस्ते ममेति विजज्य स्वयमेव खं कुर्वन्तीत्यर्थः । एवं गृहतां मासलउपराचार्यस्य ढोकनाय प्रतिग्रहःप्रेषितस्तमसावन्तगस्वयमेव घु, आगता आचार्यस्य न ददति, तदा चतुर्लघवः। प्रस्तुतसूत्रास्वीकरोति [ सेह ति] शैक्षविषयं स्तैन्यं करोति [आहारवि देशाद्वा स स्वच्छन्दवस्तुग्राहकः साधुवाँऽनवस्थाप्यो भवहित्ति दानश्रमादिषु स्थापनाकुलेषु गुरुनिरननशात पाहार तिगतं व्यापारणाद्वारम् । विधिमशनादिकमाहोरेप्रकरं गृह्णाति । एतेषु स्थानेषु साधर्मि अथ ध्यामनाद्वारम-सा च ध्यामना द्विविधा-सती, असती कस्तैन्यं जवति। अत्र च या यत्र स्थाने आरोपणा प्रायश्चिसाप च । तत्र सती तावदाहरपाया भणिता,सा तत्र वक्तव्या। एष नियुक्तिगाथासंकेपार्थः। दछ निमंतण लुचो-ऽणापुच्छा तत्थ गंतु तंजणति । साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराहउबहिस्स आसियावण सेहमसे हे य दिढदिढे य । कोमिय उवधी अहमर, तेहिँ पेसितो गहित जातो य ।। सेह मूलं जणितं, अणवट्टप्पा य पारंची। आचार्याः केनापि विरूपरूपैर्वस्वैर्निमन्त्रितास्तैश्च तानि प्रति षिद्धानि, एकश्च साधुस्तां निमन्त्रणां श्रुत्वा तानि च सुन्दहोपधेः, 'आसियावणं' स्तैन्यमित्यकार्थातच शैको वा कुर्या राणि वस्त्राणि दृष्ट्वा लुब्धो लोभं गतः । तत श्राचार्यमनादशैको वा। सनावपि-दृष्टं वा स्तन्यं कुर्यात्, अदृष्टं वा। तत्र शैक्के पृच्छय (तमिति ) तं श्रावकं तत्र गत्वा भणति-अस्माकमुलं यावत्प्रायश्चित्तं भाणतम् । उपाध्यायस्यानवस्थाप्यपर्यन्त मुपधिामितो दग्धः, ततोऽहं तैराचार्ययुष्माकं सकाशे म् ; आचार्यस्य पाराश्चिकान्तम् । वस्त्रार्थ प्रेषितः, एवमुक्ते दत्तस्तेनोपधिः, स च गृहीत्वा गतः, एतदेव भावयति अन्ये च साधव आगताः। श्राद्धन भणितम्-युष्माकमुपधिसेहो त्ति अगीयत्थो, जो वा गीतो अणिसिंपन्नो। दग्ध इति कृत्वा यो भवद्भिः साधुः प्रेषितस्तस्य नूतनोपधिउवही पुण वत्थादी, सपरिग्गह एतरो तिविहो । दत्तो विद्यते, यदि न पर्याप्तं ततो भूयोऽपि ददामीति । साशैक्क तिपदनागीतार्थो नण्यते । यो वा गीतार्थाऽपि अनृ. धवो ब्रुचते-नास्माकमुपधिर्दग्धः, नवा वयं कमपि प्रेषयामः, हिसंपन्न प्राचार्यपदादिसमृफिमप्राप्तः, सोऽपि शैक होच्यते। एवं स लोभाभिभूतः साधुस्तेन श्रावकेण शातः यथा-गुरुणां नपधिः पुनर्वस्त्रादिकः, श्रादिशब्दात्पात्रपरिग्रहस्ततूपरिगृहीतः पृच्छामन्तरेणायं गृहीतवान् । स्यात, इतरो वाऽपरिगृहीतः स्यात् । पुनरेकैकस्त्रिविधः ततश्च किं भवतीत्याहअघन्यो माया बकाश । बहुगा अणुग्गहम्मी, गुरुगा अप्पित्तियम्मि कायव्बा। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९०४ ) अनिधानराजेन्द्रः । पणवट्टप्प मूलं वा जणमज्झे, वोच्छेद पमज्जणा सेसे || एवं तेन साधुना सैन्येन वप्रेषु तेषु यद्यप्यसी - श्राद्धोनुग्रहं मन्यते यथापि तथापि ददामीति साधव इति, तथापि चतुर्लघवः । अथवाऽप्रीतिकं करोति, ततश्चतुर्गुरवः प्रायविसं कर्तव्याः । अथासौ स्तेनोऽयमिति शब्द जनमध्ये विस्तारयति तदा मूलम पश्च शेषव्याणां शेपसाधूनां वा व्यवच्छेद ( पसज्जण ति ) प्रसंगतः करोति; तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम। अथ सती ध्यानां दर्शयतिमुब्वतका मिथोऽवधि - पेसण गहिते य अंतरा बुद्धो । लगो अदेत गुरुगा, अप्पो य प्रदेसे ॥ अथ सुव्यक्तं सत्यमेव ध्यामितोपधिर्गुरुभिस्तथैव प्रेषणं कृतम, प्रेषितश्च सन् येनाचार्या निमन्त्रितास्तस्मादन्यस्याद्वा श्राया वस्त्रादिकमुपधि त्या अन्तरालुब्धो सोभाभिभूतो यदि गृहाति, तदा लघुको मासः । श्रागते यदि गुरूणां न प्रयच्छति तदा चतुर्गुरवः । तेऽयादेशा अनवस्थाप्य भयग्नि । गतं ध्यामनाद्वारम् । अथ प्रस्थापनाद्वारमाह उकोस सनिजोगो, पमिग्गहो अंतरा गहण लुद्धो । बहुगा अति गुरुगा, अवटुप्पो व आदेसा ॥ केनाप्याचार्येण कस्यापि संयतस्य हस्ते अपराचार्यस्य डीकनहेतोः प्रतिग्रहः प्रेषितः । स चोत्कृष्ट उत्कृष्टोपधिरूपः यद्वा-वृत्तसमचतुरस्रवर्णाढ्यतादिगुणोपेतः, तथा सह निर्योगेन पात्र कबन्धादिना यः स सनिर्योगः । एवंविधस्य प्रतिग्रहस्यान्तराल एवासौ लुग्धी ग्रहणं स्वीकरणं करोति, तत्र चतुर्लघु । तत्र गतस्तेषां सूरीणां तं प्रतिग्रहं न प्रयच्छति, नदा चतुर्गुरवः । तत्रादेशेन वा अनवस्थाप्योऽसौ द्रष्टव्यः । गतं प्रस्थापनाद्वारम् । अथ शैक्षद्वारमाह " पार्टि उवे भिक्खु अतिगते सं सेहस्स आसिवावण, अभिचारतेय पावयणी ॥ कोsपि साधुः प्रव्राजनीयं सशिखाकं शैक्षं गृहीत्वा प्रस्थितः, भिक्षाकालेापि मां वहिः स्थापयित्वा तार्थमतिःप्रविधः प्रविष्टे च सनि मि पर साधुतार्य च तस्य 'आसियावणं' अपहरणं करोति, साधुविरहितो या एकाकी कमपि साधुमभिधावन् शैक्षो यजेत् तमपरः साजित पती द्वापि यदा प्रावधानकी जाती सदा द्वापि शैली स्वयमेवात्मनो विपरिच्छेदं कुरुत इति संग्रहगाथासमासार्थः । अथैनामेव विवृणोतिसम्पादिगओ अद्धा ोि व वणदणग पुच्छ से होमि । सो कत्थ मज्ज फन्ने, छातपिवासिस्स वा अडति । संक्षाभूमिगत आदिशब्दाद्भकादिपरिष्ठापनिकार्य निर्गतः कोsपि साधुः शैक्षं दृष्टवान् श्रथवा श्रध्वनिकः पथिकोऽसैौ साधुस्ततः पथि गच्छन् शैक्षं दृष्टवान् । तेन च वन्दनके कृते सति साधुः पृच्छति कोऽसिं त्वं कुत आगतः क्व वा प्रस्थितः ? । शैक्षः शतः प्राह अनुफेन खाधुना सार्द्धं प्रस्थितः प्रवजितुकामः, शैक्षोऽस्म्यहम् । साधुः पृच्छति स साधुः संप्रतिक गतः ? । अवटुप्प शैलो भणति स मम कार्ये बुभुतितस्य पिपासितस्य वा भ पानार्थ पर्यटति । मझममा उपजीवपणा य को छ । पुट्टमपुट्ठे कहणा, एमेव य इहरहा दोसो | ततः स साधुयमिदन्नपानमुपजीवति कुण यदि साधकोऽयमित्यनुकम्पया ददाति तदा पृष्टो श्रपृष्टो वा यद्ययमेवानुकम्पया धर्मकथां करोति, तदा शुद्धः । इतरथा अपहरणार्थ नक्तपानं ददतो धर्म च कथयतो दोषः, चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम् । अपहरण प्रयोगानेव दर्शयति जसे पहणरण निगूहणा य वावार ऊपणा चैव । पत्यावण सयहरणा, सेहे अव्वत्त वत्ते य ॥ अपहरणार्थे नक्तपानं ददाति, धर्मे वा तस्य पुरतः प्रज्ञापयति । तत्र स शक श्रादतः सन् प्रणति-नवत एव सकाशेऽहं प्रत्रजामति किन्तु न शक्रोमि येनामीतस्तत्पुरतस्ततो म गुपिले प्रदेशे निगूहतु । ततोऽसौ तं व्यापारयति श्रमुक निल्लीय तिष्ठेति । ततस्तं तत्र निम्तीनं साधुः पलालादिना ऊम्पयति, स्थमयतीत्यर्थः श्रन्यैः सार्धमन्यं ग्रामं प्रस्थापना प्रेपयति, अमुक ग्रामादी व मन्दियसे भागमिष्यामि । अथवा स्वयमेव गृहीत्वा तमपहरति पतानि पट् पदानि भवन्ति । तद्यथा - नक्तप्रदानं १, धर्मकथा २, निगूहनावचनं ३, व्यापारणं ४, ऊम्पनं ५, प्रस्थानं स्वयंहरणं ६ वेति । पोऽध्य के प्रायश्चितमिदं भवतिगुरु चल गुरु बलड उगुरुगमेन बेदी । निक्खुगणायरिया, अव पारंच ॥ भिक्षुर्य यव्य कशैकस्यापहरणार्थे भक्तं ददाति तदा मासगुरु; धर्मप्रज्ञापनायां चतुर्लघु निगूहनवचने चतु व्यापारणे मूलघु, ऊम्पने षगुरु, प्रस्थापने स्वयं हरणे वा बेदः । एवमव्यक्त के भणितम् । अन्यको नाम-यस्याद्यापि श्मश्रु न संजातम् । यस्तु व्यक्तः संजातश्मश्रुः, तस्य चतुर्लघुकादारब्धं मूलं यावत् भिक्षोः प्रायश्चित्तम्, गणिन उपाध्यायस्य चतुर्लकादारब्धमनवस्याप्यं तिष्ठति । श्राचार्यस्य चतुर्गुरुकादाधं पाराञ्चिकं पर्यवस्यति । एवं ससहाये के भणितम् । यः पुनरसहायोऽमधारयन् प्रजति त विधिमाहनिधारं पवतो, पुच्छो पव्वामहं श्रमुगकुलं । पण्णवजत्तदाणे, तहेव सेसा पदा | | कोऽपि कमप्याचार्यमभिचाराभिमुखो जति, तेन क्वचिदू ग्रामे पथि वा साधुं दृष्ट्वा वन्दनकं कृतम् । साधुना पृष्टः स स प्रादप्रमुकस्याचार्यस्य पादसू जनार्थ बजाएवमुके यदि निरण्यकरी कस्य क्तदान करोति गुरु व्यक्तस्य न कहने बन पायांउपाध्यायाचार्याक गुरुकं च भवति । अधस्तनमेकैकं पदं हसतीति भावः । शेषानां तु निगूदनम्यापारण उपमादीनि पदानि सन्ति असहायत्वात् । तदभावात्प्रायश्चितमपि नास्तीति । पाइप दोषा आणादांत संसा-रियत्तं बोहियदुल्लनत्तं वा । साहम्मियतेमम्मी, पमत्त ब्रह्मणाऽधिकरणं च ॥ - Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) अगावट्ठप्प अभिधानराजेन्द्रः। प्रणयप्प शैक्कमपहरत आशाभङ्गादयो दोषा जवन्ति, अनन्तसंसारिक- निष्कारणे अपहृतः स एकस्मिन्निष्पन्ने नियमात्पूर्वषामन्तिके त्वं च भगवतामाज्ञाननाद्भवति । बोधेश्च संभत्वं जायते, | गच्छति । स तस्यात्मीयेति भावः । गतं शैकद्वारम् । सार्मिकस्तैन्यं च कुर्वाणः प्रमत्तो भवति, प्रमत्तस्य च प्रान्ते अथाहारविधिहारमाहदेवतया उलना नवति । यस्य च संबन्धी सोऽपहियते, तेन ठवणाघरम्मि लहुगो, पायी गुरुगो अणुग्गहे लहुगा । सममधिकरणं कलह उपजायते । एवं तावत्पुरुषविषयादयो घोषा उक्ताः। अप्पित्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे ॥ अथ स्त्रीविषयांस्तानेयातिदिशति दानश्रद्धादिकुलं स्थापनागृहं नण्यते, तस्मिन् य आचारसं. एमेव य इत्यीए. अनिधातिए तह वयंतीए । विष्टोऽननुज्ञातो वा प्रविशति,तस्य मासलघु। अथवा प्राघूर्णक म्खानार्थमहमिहायात इति तेषां श्राकानां पुरता मायां करोति, वत्तवत्ताए गम, जहेव पुरिसस्स नायव्वा ॥ ततो मायिनो मासगुरुकम, एवमुक्ते यदि ते श्राद्धा अनुग्रहो - एवमेव स्त्रिया अपि शैककाया अभिधारन्त्याः ,तथा (वयंतीए यमिति मन्यन्ते, तदा चतुलघु अथाप्रीतिकं कुर्वन्ति,ततश्चतुति) ससहायायाः प्रव्रजितुं वजन्त्याः, व्यक्ताया अव्यक्तायाश्च गुरवः, यञ्च तद्न्य व्यवच्छेदादि शषदोषाणांप्रसज्जनाप्रसङ्गात् गमः स एव ज्ञातव्यो यथा पुरुषस्योक्तः । तान्निष्पन्न प्रायश्चित्तम् । अथ प्रावचनिकपदं व्यासष्टे-- इदमेव व्याच - एवं तु मो अवहिनो, जाहे जाओ सयं तु पावयणी । अज अहं निहिटो, पुट्ठोऽपुट्ठो व साहई एवं ।। निकारणे य गहिरो, पवयति ताहे पुरिद्वाणं ।। पाहुणगगिलाणहा, तं च पोजेति तो वितियं ॥ एक्मनन्तरोक्तैः प्रकारैः स शैकोऽपहतः सन् यदा स्वयमेव कश्चिदाचारसंदिएः स्थापनाकुलेषु प्रविश्य पृष्टोऽपृष्टो वादं प्रावचनिको जातः , अन्यो वा निष्कारणे यः केनापि गृहीतः, नणति-अद्याहं गुरुनिः संदिषः प्रेषित इति, ततो मासलघु । स आत्मनो दिक्परिच्छेदं कृत्वा भूयोऽपि वोधिनाभाभावात यदि च पूर्व संदिष्टसंघाटकप्रविष्ट आसीत, श्रादच तस्यासंदिष्टपूर्वेषामेवाचार्याणामन्तिके प्रव्रजति । स्याग्रे इदं भणितं भवेत्-संदिष्टसंघाटकस्य दत्तमिति। ततो यदि अमस्त व असतीए, गुरुम्मि अब्भुजएगतरजुत्तो । यात्-प्राघूर्णकाथे ग्लानाथै वा साम्प्रतमहमागत इति, एवं तं धाति तमेव गणं, जाव हमो कारणज्जाते ।। श्राद्धजनं मायया यदि प्रसोनयति; ततो द्वितीय मासगुरु । ते यंन स शैको निष्कारणमपहृतस्तस्यार्थे अपरः कोऽप्याचार्यः च श्राका विपरिणमेयुः, विपरिणताश्चाचार्यादीनां प्रायोग्यं न पदयोग्यो न विद्यते , ततोऽन्यस्याभावे, यद्वा-गुरावाचार्येऽ दधुः, ततः शुरूं शुकेनाप्येतत्प्रायश्चित्तं भाव्यम् । ज्युद्यतस्यैकतरण युक्त अन्युद्यतमरणमन्युद्यतविहारं वा "आयरिगिलाण गुरुगा, बहुगा य हवंति खमणपाहुणए। प्रतिपन्न इत्यर्थः। ततो यदि कोऽपि शिष्यस्तेषां निष्पन्नो ना गुरुगो य बालवुश्वे, सेसे सव्वेसु मासलहु ॥ स्ति तदा तमेव गणमसी धारयति , यावत्कोऽपि तत्र निष्पन्न इति । यश्च कारणजाते केनाप्याचार्येण हतः , सोऽपि तमेव आचार्यस्य ग्लानस्य च प्रायोग्यमददानेषु श्राचषु चतुर्गुरवः। गणं धारयति । कपणकस्य प्राघूर्णकस्य च प्रायोग्यमददानेषु चतुर्सघवः। बाल. किं पुनस्तत्कारणमित्याह वृद्धानां प्रायोग्ये अलभ्यमाने गुरुमासः । शेषाणामेतद्व्यतिनाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुओगे णं । रिक्तानां सर्वेषामाप प्रायोग्ये अलज्यमाने मासअघु । गतं साध. अज्जा कारण जाते, कप्पति सेहाऽवहारो उ ॥ मिकस्तैन्यम् । | স্মঘমল্যমাकोऽप्याचार्यों बहुश्रुतः, तस्य पूर्वगते किंचिस्तु प्राभृतं वा, परधम्मिया वि दुविहा, लिंगप विट्ठा तहा मिहत्था य । कालिकानुयोगेऽपि श्रुतस्कन्धोऽध्ययनं वा, विद्यते, तश्चान्यस्य नास्ति, ततो यद्यन्यस्य नसंक्राम्यते,तदातव्यवच्छिद्येता एवं तोस तेमं तिविहं, आहारे उपधि मच्चिने ॥ पूर्वगते कालिकानुयोगेच व्यत्रच्छेदं ज्ञात्वा तं च संप्रस्थितं शैकं परधार्मिका अन्यधार्मिका इत्येकोऽर्थः। ते च द्विविधा-बिङ्गग्रहणधारणसमर्थ विज्ञाय भक्तादानधर्मकथादिभिर्विपरिणा- प्रविष्टाः, गृहस्थाश्च। त्रिङ्गप्रविष्टाःशाक्यादयः, गृहस्थाः प्रतीमझम्पनादीन्यपि कुर्वाणः शुरुः । यद्वा-तस्याचार्यस्य नास्ति ताः, तेषामुनयेवामपि स्तैन्यं त्रिविधम्-आहारविषयमुपधिकोऽप्यार्याणां प्रवर्तकस्ततस्तासामपि कारणजाते शैकमपह- विषयं सचित्तविषयं चति । रत् , एवं कल्प्यते शैक्कापहारः कर्तुम् । तत्राहारविषयं तावदाहतस्य च कारणे ऽपहृतस्य को विधिरित्याह निक्खूण संखमीए, विकरणरूवेण हुंजई बुक्छे । कारणजाए अवहि अ, गण धारेतो तु अवहरंतस्स। | आभोगणमुरसण-पवयणहीला दुरप्पाओ । जा एगो निष्फल्मो, पच्छा से अपणो इच्ग । भिक्कयो वौद्धास्तेषां सखयां कश्चिल्लुब्धो विकरणरूपेण यः कारणजातेऽपहृतः स तदीये गणे धारयन् अपहरत एव विङ्गविकेन भुले, तदीय लिङ्गं कृत्वेति भावः । पथं तुम्जानं विनेयो जवति । अथ येन कारणेनापहृतस्तत्कारणं न पूरयति यदि कोऽप्याभोगति उपलवयति, तदा चतुल घयः । एवमुपतदा पूर्वेषामेव भवति, नापहरतः। स च कारणापहृतस्तस्मि- लक्ष्य यद्यसावुधर्षण कोऽर्थः निर्भर्त्सनं करोतिप्तचतुर्गरुकाः। म्गणे तावदास्ते यावदेको गीनाओं निष्पन्नः, पश्चात्तस्यात्मीया प्रवचनहीलां वा ते कुयुः- यथा दुरासानाऽमा भोजननिमिइन्चा-तत्र वा तिष्ठति पूर्वेषां वा सकाशे गच्छति । यस्तु | तमय प्रमिता ति । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवटुप्प ( २०६ ) अभिधानराजेन्द्रः | अपि च गिहवासेवि वरागा, धुवं क्खु एते अदिकलाणा । गए पावर जवलितां, एएसं सत्युषा चैव ॥ गृहवासेऽप्येते वराका घुषं निश्चितमेवादृट्रकल्याणाः, एतेषां यता रितामाहारसुध्यादिचर्यामुपदि एव नवरं न वलितः, शेषं तु सर्वमपि कृतमिति ज्ञावः । गतमा हारविषर्थ स्तैन्यम् । अयोषधिविषयमा उपस्सए उपदि वे गतभिक्खुम्मि गिएहती लहूगा । गेरह एक बवहा रपच्छकदडणणिविस ॥ उपाये नवे उपधिकरणं खापयित्वा को बीको भिकां गतस्तस्मिन् गते यदि तपा घवः । स भिक्षुकः समायातः स्वकीयमुपकरणं स्तेनितं मत्वा राज्य संपतस्य ग्रहणं करोति तदा चतुर्गुरचा राजकुलान समाकर्ष पर गुरवः । व्यवहारं कारयितुमारब्धे छेदः । पाकृते सति सूत्रम् उड्दनेऽनवस्थाप्यम् निर्विषयाकापने पाराधिकम् । अथ सवितविषयं स्तेभ्यमाद समिते खुट्टादी, चउरो गुरुगा व दोस अयादी | गेएहण कट्टरणववहा - रपच्छकट्टड्डाह निव्त्रिसए | स्तन्यविश्यमा सम्बन्ध आदि शब्दाद कुल्लकं वाद्यपहरति, तदा चत्वारो गुरुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः । ग्रहणकर्षणव्यवहार पश्चात्कृतोड्डा हनिपियाज्ञापनादयच दोषाः प्राग्वन्मन्तव्याः । अथ तेष्वेव प्रायश्चितमाह गहणे गुरुगा मास, कट्टणे छेओ होइ ववहारे । पच्छा कमम्मि मूलं चिरंगणे नयमं ॥ १ ॥ उद्दावणनिव्विसए, एगमगे य दोस पारंची । पादप दोसुल पारंचिओ होइ ॥ २ ॥ गाथा गतार्थम् । , , खुडं व खुट्टियं वा ति अवत्तं प्रपुच्द्धियं तं । वत्तम्मि णत्थि पुच्छा, खेत्ताणं च नाऊणं ॥ रुका कृतिका या योऽयका सदस्य शाक्यादेः सम्बन्धी, तमपृष्ट्वा यदि तं कुलकं कुलिकां वा नयति, ततः स्तनः अन्यधार्मिकस्तैन्यकारी समन्तव्यः, चतुर्गुरुकं च तस्य प्रायश्चित्तम् । यस्तु व्यक्तस्तत्र मास्ति पृच्छा । तामन्तरेणापि स प्रव्रजनं यः किं सर्वथैवानेनेत्याशङ्क्याद क्षेत्रस्थानं च ज्ञात्वा । किमुक्तं भवति यदि विवचितं क्षेत्रं शाक्यादिभावित राजवल्लमनादिकं वा तेषां तत्र बनं तदा पृच्छामन्तरेण व्यक्तोऽपि प्रत्राजयितुं न कल्पते, अन्यथा तु कल्पत इति । एवं तत्र लिङ्गप्रविटानां स्तैन्यमुक्तम् | अथ गृहस्थानां तदेवाह एमेव होंति ते, निविहं गारस्थियाण जं वृत्तं । गडगादिगाय दोसा, सविमेतरा जयेते ॥ पयमेवागारस्थानामपि त्रिविधम्-प्राहारादिमेदारिकार तैन्यं भवति बदतरमेव परम अणवटुप्प षु आहारादिकं स्तेनयतां ग्रहणादयः दोषाः सविशेषत युः । ते हि राजकुले करादिकं प्रयच्छन्ति, ततस्तद्वलेन समधिकतरान् प्रहणाकर्षणादीन् कारयेयुः । कथं पुनरमीषामाहारादिकं स्तेनयतीत्युच्यतेआहारं पिट्ठादी, तंतुण खुड्डादियं भणितपुव्वं । पिडम्म य की संभण पसिना ।। आहारे, पिष्टादिकं बहिर्विरल्लितं दृष्ट्वा कुलकः स्तेनयति, उपधौ, [तंतु [] सूत्राष्टिकास उपलक्षणत्वाद्वत्रादिकं बा, अपहर ति, सचिवा स्तंनयति एव यदेव पूर्व परीक प्रणितं, तदेवात्रापि मन्तव्यम् । कथं पुनः पिष्टां स्तेनयति- (पिठमीत्यादि काकुलिका भिकामः किं वि एवं प्रशिस्त श्रच बहिः पिष्टं विसारितमास्ते, तश्च दृष्ट्वा तासां मध्यादेका कल्पस्थिका पिष्टपfessां गृहीत्वा पतदूग्रहे प्रप्तिवती । साचाविरतिकया दृष्टा । ततो नणितम् एनां पिष्टपिण्डिकामत्रैव स्थापय ततस्तया शुद्धिका कुशलत्वेनान्यस्याः संघटिकाया अन्तरे प्रति एवं सूत्राष्टिकामपि दकत्वेनापहरेत् । अथ सवित्तविषयं विधिमाहनीपहिं अविदिषं, अप्पत्तवयं मं ण दिविखी । परिग्गहो उ कप्पति, विजढो जो सेसदोसेहिं ॥ निर्मातृपतिभिः स्वजनरवितीर्णमथ तमप्राप्तवयस मव्यक्तं पुमांसं न दीकयति । यदि पुनरपरिगृहीतोऽव्यक्तः स शेपलाथितादिनिर्विमुक्तस्ता प्रायितुं अपरिग्गहा उ नारी, एए जवति तो साए कप्पति प्रदिष्या । सावियहु काचि कप्पति, जह पउमा खुड्डमाता य ॥ नारी स्त्री साप्रायेणापरिग्रहा न चतिः पितृपतीनाम न्यतरेण परिगृहीता नवतीति भावः । ततो नामावदत्ता सती कल्पते प्रवाजयितुम् । साऽपि च काचिददत्ताऽपि कल्पते । यथा पद्मावती देवी- करकरकुमाता प्रवाजिता यथा वा क्षुल्लककुमारमाता योगसंग्रहानिहिता यशोभा नाम्नी प्रवाजिता । अथ द्वितीयपदमाह 4 वियपये आहारे, प्रकाणे हंसमादिणे उवही | उवज्जिऊण पुत्रि, होहिंति जुगप्पहाल ति ॥ द्वितीयपदमाहारादिषु त्रिष्वप्यभिधीयते । तत्राहारेऽध्वानं प्रवेष्टुकामास्ततो वा उत्तीर्ण उपलक्षणत्वादशिवादी वर्णमाना असंस्तरणे अदत्तमपि प्रक्तपानं गृह्णीयुः । श्रागादे कारणे उपधिमपि हंसादे: सम्बन्धन प्रयोग सचित्तविषयेऽपि भविष्यन्त्यमी युगप्रधाना इत्यादिकं दृढालम्बनं पूर्व प्रथममेवोपयुज्य परिभाव्य गृहका अन्य तीर्थककान् वा हरेत । इदमेव भावयति असि मम विहं वा पविउकामोतो व हतिया नियलिंगप्रतिरथग, जायद आदि तु मेएहति ॥ शिवगृहीतेविषये स्वयं वा साधवोऽशिवगृहीतामा नलाभाभावान्न संस्तरेयुः । श्रवमं दुर्भिक्षं तत्र वा भक्तपानं न लभेरन् । हिमध्वानं वा प्रवेष्टुकामास्ततो वा उत्तीर्णा न संस्तरेयुः । ततः स्थलिङ्गिना या स्थलका देयोणितस्यां याच न्ते. यदि ते न प्रयच्छन्ति तदा बलादपि गृरहन्ति । अथ बल Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) अगवट्ठप्प अभिधानराजेन्द्रः। अणवठ्ठप्प चन्तस्ते, दारुणप्रकृतयो वा, ततोऽन्यतीथिकानामपि स्थलीषु। शिक्षाप्रणत्योरिति । ततोऽयमर्थः-विनयस्य ग्रहणशिक्षायां याच्यते, यदि न प्रयच्छन्ति ततः स्वयमेव प्रकटं, प्रच्छन्नं वा श्रासेवनाशिवायां या कर्णामोटकेन खडुकाभिश्चपटान्निी गृह्णीयुः । एवं गृहस्थेष्वपि याचितमलभमानाः स्वयमपि गृ- सापेको जीवनापेकां कुर्वन्, अत एव मर्माणि स्फेटयन्-येषु प्र. हन्ति । असंस्तरणे उपधिरप्येवमेव स्तन्यप्रयोगेण ग्रहीतव्यः।। देशेग्वाहताः सन्तो नियन्ते तानि परिहरन् आचार्यः कुखकस्य नाऊण य वोच्छेदं, पुबगए कानियाणु अोगे य । हस्तातालं ददाति । अत्र परः प्राह-नन परस्य परितापे क्रियगिहि अप्मतित्यियं वा, हरेज्ज एतेहिँ हेतूहिं ।। माणे अशातवेदनीयकर्मबन्धो नवति तत्कथमसावनझायते ? । उच्यतेपूर्वगते कालिकानुयोगेवा व्यवच्छेदं ज्ञात्वा यो गृहस्थक्षुल्लकोऽन्यतीर्थिकक्षुल्लको वा ग्रहणधारणमेधावी, स याचितो कामं परपरितावो, असायहेतू जिणेहि पहात्तो। यदा न लभ्यते तदा स्वयमपि गृह्णीयात् । पतैरेवमादिभिहें- आत-परहितकरी पुण, इच्छिज्जा इस्सले खलु उ॥ तुभिः कारणहस्थमन्यतीर्थिकं वा हरेत् । मतमन्यधार्मिक- काममनुमतमस्माकं परपरितापो जिनैरशातहेतुः प्राप्तः, परं स्तैन्यम्। परपरितापो पुःशले मामवके शिक्कया दुर्ग्रहे दुर्धिनीते शिष्ये खत्रु अथ 'हत्थादालं दलमाणे' इत्यादिपदयं विवरीषुराह- निश्चितमिष्यत एव । कुन इत्याह-(प्रातपरहियकरो त्ति) हेहत्याताले हत्था-लंबेऽत्यादागे य बोधयो उ । तो प्रथमा,भावप्रधानश्च निर्देशः । ततोऽयमर्थः-श्रात्मनः परस्य एतेसिंणाणतं, वोच्छामी आणुपुवीए । च हितकरत्वान् , तत्रात्मनः शिष्यशिकां ग्राहयतः कर्मनिजरा लानः । परस्य तु सम्यगगृहीत शिकस्य यथावश्चरणकरणानुहस्तातालो हस्तालम्बोऽर्थादानं चेति त्रिधा पाटोऽत्र बोद्धव्यः। एतेषां त्रयाणामपि नानात्वं वक्ष्यामि यथानु पूयोऽहम् । पालनादयो भूयांसोगुणाः पुनःशब्दो विशेषणम् । स चैतद्विशि नधि-यो दुभ्यवसायतया परपरितापः क्रियते स एवाशात. __तत्र हस्तातालं तावद्विवृणोति-. जकिमम्मि य गुरुगो, दंमो पडियम्मि होइ जयणा उ | हेतुः प्राप्तः, यस्तु शुकाध्यवसायेन आत्मपरहितकरः क्रियते स नेवाशातहेतुरिति । एवं खु लोइयाणं, लोउत्तरियाण वोच्छामि ।। असुमेवार्थ दृष्टन्तेन ऽढयतिइह हस्तेन, उपलक्षणत्वात् खङ्गादिभिश्च यदाताडनं,स हस्ता सिप्प नणियहा, पाते वि सहति लोइया गुरुणो । तालः । स च द्विधा-लौकिको लोकोतरिकश्च । तत्र लौकिके हस्ताताले पुरुषवधाय खड्गादावुत्काणे गुरुको रूपकाणाम ए य मधुराणिच्या ते, ण होति एसेविहं उवमा । शीतिसहस्रलक्षणो दण्डो भवति। पतिते तु प्रहारे यदि कथ- शिल्पानि रथकारकर्मप्रभृतीनि, नैपुण्यानि च शिपिगणितामपि न मृतस्तदा भजना देशे देशे अपरापरदण्डलक्षणा भयति। दिकलाकौशलानि, तदर्थ लौकिकाः शिक्कका गुरोराचार्यस्य घाश्रथ मृतस्तदेवाशीतिसहस्रं दण्डः । एवं खुरवधारणे, तान् परिमहन्त, नत्र तथा ते, तदानी दारुणा अपि मधुर्रानलौकिकानां दण्डो भवति । लोकोतरिकानां तु दण्डमतः श्चया, तैः सुन्दराः क्रियन्ते, लेनेवापरिणामा न जवन्ति, किन्तु परं वक्ष्यामि । शिल्पादिपरिझाने वृत्तिलाभजन पृजनीयतादिना परिणामस्तेहत्येण व पादेण व, अणवठ्ठप्यो न होति नग्गिहो। पां मुन्दरो जवतीति भावः। एषयोपमा इह प्रस्तुताथै मन्तव्या, पमियम्मि होति जयणा, नदवणे होति चरिमपदं ।। यथा तेषां ते घाता हितास्तथा प्रस्तुतस्थापि इविनीतरय शिष्यस्येति भावः। हस्तेन वा पादेन वा उपलक्षणत्वाद् र्याप्टमुष्टचादिभिर्वा यः अत्राय बृहकाध्ये उक्तः सोपमेयोऽपरोधान्त:साधुः स्वपक्षस्य परपक्षस्य च प्रहारमुभिरति सोऽनवम्थाप्यो अदवा वि रोगियस्सा, श्रोसह विज्जेहि दिजए पुब्धि। भवति, पतिते तु प्रहारे भजना, यदि न मृतस्ततोऽनवस्थाप्य पच्चा तासेतुमवी, देहाहियता पडिज्जर से ॥ एव । श्रथापनावणे मृतस्तदा चरमपदं पाराश्चिकं भवति । इय नवरोगिणस्स वि, अणुकृलं ण तु सारणा पुचि। अत्रेदं द्वितीयपदम् पच्छा पमिकृलेण वि, परतोगहिय कायया ॥ आयरिय विणयगाहाण, कारणजाते व वोधिकादीमु। (ोसह त्ति ) विभक्तिलोपादौषधमिति मन्तव्यम् । श्रत करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदोपममण वा ॥ एव साधुरेवंविधो नवेतप्राचार्यः क्षुल्लकस्य बिनयग्राहणं कुर्वन् हस्तातालमपि दधात् । कारण जाते वा गुरुगच्प्रभृतीनामात्यन्तिके विनाशे संविग्गो मद्दविओ, अमुई अणुवत्तो विसेसन्न । प्राप्ते, वोधिकस्तेनादिष्वपि हस्तातालं प्रयुञ्जीत । पश्चार्द्धन ह उज्जुत्त अवहितंतो, इच्छियमत्यं सहइ साहू ।। स्तालम्बमाह-(करण वा इत्यादि ) अशिवपुरावरोधादी त. संविग्नो मोकाभिलाषी, मार्दषिकः स्वभावकोमलः, अमोची प्रशमनार्थ प्रतिमां पुत्तलिकां करोति, तत्र अभिचारिकमन्त्रं गुरूणाममोचनशीबः, अनुवर्तकस्तेषामेव उन्दोऽनुवर्ती, विशेषपरिजपन् तत्रैव प्रतिमाया भेदं करोति; ततस्तस्योपद्रवस्य झो वस्त्ववस्तुविभागवेदी, उद्युक्तः स्वाध्यायादौ, अपहृतान्तो प्रशमनं भवति । एषा नियुक्तिगाथा। वैयावृत्त्यादी, एवंविधः साधुरीप्सितमर्थमिह परत्र च लभते। श्रत एनां विवृणोति श्रथ कारस जाते घोहिगाश्मुत्ति ' पदं व्याचलेविषयस्स न गाहण्या, कमामोडएखड्डगचवेमाहैिं। चोहिकतणनयादिसु. गणस्स गणिणोष अञ्चए पने । सावेक्ख हत्थतानं, दवाति मम्माणि फेमंतो ।। चंति हत्थतालं, कालातिचरं च सज्जं वा ।। इह विनयशब्द शिक्षायामपि वर्तते । पत उकम्-'विनयः बोधिकरतेनभये, श्रादिशब्दातू श्वापदादिभयेषु षा यदि Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) अण्वट्टप्प अभिधानराजेन्द्रः। प्रणवठ्ठप्प गणस्य गच्चस्य गणिनो वा आचार्यस्य प्रत्यय आत्यन्तिको । द्वितीयेऽब्दे स तैर्द्रव्य-प्रदः पृच्छन्ननएयत । विनाशः प्राप्तः, तदा कालातिचारं वा कासातिकमेण, मद्यो वा। क्रीणीहि तृणकाष्ठानि, स्थापयेश्च पुरादू बहिः॥ ६ ॥ तत्कालमेव, हस्ततामिमन्ति, गीतार्थी इति गम्यते। द्वितीयकस्तु तैरुक्तः क्रीत्वा स्नेहं गुडं कणान् । अथ हस्ताबम्ब व्याख्यानयति वस्त्रकासकाष्ठादीन् , पुरमध्ये निधेहि भोः!॥७॥ असिवे पुरोवरोधे, एमादी वइससेसु अनिता । वर्षारम्भे समस्तेषु, च्यादितेष्वथ वेश्मसु । संजायपचया खलु असु य एवमादीसु ॥ दग्धं सर्व पुरं जझे, तृणकाष्ठमहर्घता ॥ ७ ॥ प्राज्यं तदाऽर्जयद्वित्तं, गुरुजामेयवित्तदः । मरण भयेणऽभिजूते, ते पातुं देवतं बुवासंते । दग्धं सर्व द्वितीयस्य, सोऽथान्येत्यावदद् गुरुम् ॥ ६॥ पमिमं कालं मफे, विंधति मंते परिजवंतो।। किं न ज्ञातमिदं पृज्याः, गाढं प्युरोऽहमैषमः। शिवेन लोको भूयान म्रियते, परवलेन वा पुरंसमन्तादुपरु- निमित्यूचे निमित्तं नः शकुनी हदतेऽत्र किम् ?॥१०॥ द्धं, तत्र बहिः कटकयौधेराजगन्तराणां कटकमदः क्रियते, तथाऽन्यथाऽपि वा किंचित, स्यात्कथंचन मे धनम् । अन्न कयाद्वा कुधा म्रियते, अादिशब्दाद गलगामादिभिर्वा रो ततो रुएं गुरुं ज्ञात्वाऽत्यर्थ कमयति स्म सः॥ ११॥ जीत। गार्दितः प्रभूतो जनो मरणमश्नुते । एवमादिभिशसैर्दुःखरभि उजेणीअोसम, दो वणिया पुच्चियं ववहरति । नूतास्ते पारजनाः संजातप्रत्यया योऽत्र पुरे आचार्यों बहुश्रुतो गुणवांस्तपस्वी सशक्तो वैशममिदं निरोद्धं नान्यः कश्चिदिति । जोगाजिलास तव्वय, मुंचंति ण रूवए सनणी ॥१॥ ( समिति ) सम्यगू जातः प्रत्ययो येषां ते तथा, न केवलमत्रव एगो कण नलदायण, वितिएणं जत्तिए तहिं एको। किन्तु अन्येष्वप्येवमादिषु संजातप्रत्ययास्ते सन्तय तमाचार्यमु- अपम्मि हायणम्मि य, गेएहामो किंति पुच्छंति ॥शा पासते-शरणमुपगताः प्राञ्जलिष्टाः पादपतितास्तिष्ठन्ति । ततः स एवाचार्यस्तान पौरजनान् मरणनयनाजिनृतान् देवतामिवा तणकट्टनेहधमे, गिएहह कप्पाससगुनमादी। स्मानं पर्युपासीनान झात्वा तदनुकम्पापरीतचित्तःप्रतिमां कृत्वा अंतो बहिं च वणा, हग्गी सउणी ण य निमित्तम् ॥३॥ तत अभिचारिकमन्त्रान् परिजपन तांप्रतिमांमध्यन्नागे विध्यति, इति तिस्रोऽपि व्याख्यातार्थाः, नवरं, मित्रकेण वणिजा भमगिनेय नतो नष्टा सा कुलदेवता, प्रशमितः सर्वोऽयुपद्रवः। पवंविधह नच्यते-[जत्तिए तर्हि पक्को त्तियावन्तो युष्मन्यं रोचन्ते तावतो स्ता लम्बदायी. यदा अत्युत्तिष्ठति तदा तत्कालमेव नोपस्थाप्यते नवलकान् गृहीत, एवं द्वितीयेन वणिजा भणितम् । तत्र तेषां किन्तु कियन्ताप काझं गच्छ एव बसन् व्यामर्दन कार्यते । मध्ये एको नवनको गृहीतः । अन्यस्मिन् हायने वर्षे इत्यर्थः । टूप्यं वस्त्रमुच्यते , ( सउणी न य निमित्तं ति ) न च नैव मम अथायदानमाह-- शकुनिका निमित्तं हदते ।। अणकपणा निमित्तं, जायण पमिसेहणा सगण मे वा । एयारिमो य पुरिसो, अण्वटुप्पो उ सो सुदेसम्मि । वणिय पुच्छा य तहा, सारण नब्जावणविणासे ।। नेत्तण अपदसं, चिट्ठ नवजावणा तस्स ।। कस्याप्याचार्यस्य भागिनेयो व्रतं परित्यज्य मुत्कबापयति। तत्र एतादृशोऽथी दानकारी यः पुरुषोऽभ्युत्तिष्ठत स स्वदेशेऽननश्राचार्यस्य अनुकम्पा-कथमय द्रव्यमन्तरेण गृहवासमध्यासि स्थाप्यो न महावतेषु स्थाप्यते, किं तु तमन्यदेशं नीत्वा तस्य प्यते इत्येवेबकणा बनूय । स च निमित्तऽतीवकशन इति च तत्र तिष्ठत नपस्थापना कर्तव्या । तेनैवावार्जेतयोद्धयोवणिजोरन्तिके भागिनेयं रूपकयाचनाय कृत इति चेदुच्यतेप्रेषितवान्, सच तत्रकन वणिजा-कि मम शकुनिका रूपका पुबब्जासा नासे-ज किंचि गोरवासिणेहनयतो वा। न हदते, एवमुक्त्वा निषिद्धः, द्वितीयेन तु रूपकनबलकानां दर्शना कृता । द्वितीये च वर्ष घाभ्यामपि वणिग्यां पृच्ना न सहा परीसह पि य, णाणं कंमुच्च कच्छहो ।। कृता, तत आचार्येण सारणा क्रयाणकग्रहणविषया शिक्का दत्ता, तं नैमित्तिक लोकः पूर्वाज्यासानिमित्तं पृच्छेत्, सोअप ऋद्धिततो येन रूपका न दत्तास्तस्य सर्वस्वविनाशः समजनि, येनत गौरवतः स्नेहाद्वा नयाद् वा किंचिदानादिकं तत्र स्थितो जायते । दत्तास्तस्याद्भावनं महर्थिकतासंपादनं कृतवान् । एष नियु अपि च स ज्ञानविषयं परीषहं तत्र न सहते, सोढुं न शक्नोतीत्यक्तिगाय:Sरार्थः । बृ०४ उ०। थः । यथा कच्चूः पामा तद्वान् पुरुषः, करा: खर्जितं विनाशित भावार्थस्तु कथानकादवलेयः । तश्चेदम् न शक्नोति । एवमेषोऽपि तत्र निमित्तकथनमन्तरेण न स्थातं “वणि जावुजयिन्यां द्वा, प्रायः पृष्टा गुरुं सदा । शक्त इति भावः ।। पणायमानौ पण्यौधेः, परमामृद्धिमीयतुः ॥१॥ अथ पूर्वोक्तमप्यर्थ विशेषज्ञापनार्थ भूयोऽप्याहऔज्झदु गुरूणां जामेयो, नोगार्थी व्रतमन्यदा । तश्यस्स दोन्धि मोत्तुं, दव्वे जावे य सेस जयणा उ। ततस्तैः कृपयोचे स, विनाऽर्थैः किं करिष्यसि?॥२॥ पमिसिद्धलिंगकरणं, करणा अम्मत्य तत्थेव ॥ तथाहि वणि जो तो त्वं, भणार्थ में प्रयच्चतम् । यह 'साधम्मियतेमियं करेमाणे' इत्यादिसूत्रक्रमप्रामाण्येन ह. गुादेशात्ततः सोऽपि, गत्वा तो भणति स्म तत् ॥ ३॥ त्थातालतस्तृतीय उच्यतासच त्रिधा-हस्ताताला हस्तासम्बोश्रथैका स्माह जोः!कस्मा-दस्माकं द्रव्यसंचयः। दानं चेति। तत्राद्ये द्वे पदे मुक्त्वा यच्छेषमादानाख्यं तृतीय शाकनी रूपकान् भा!, कुत्रापि हदतेऽत्र किम् ?॥४॥ पदं तत्र व्यतो भावतश्च लिङ्गप्रदाने भजना भवति । कथमिअढीकयद् द्वितीयस्तु. तस्याग्रे मानणं बहु । त्याह (पमिसिक श्त्यादि) उत्तरत्र कारणे इत्यभिधास्यमानत्वाऊचे देव! गृहाण त्वं, यथेच्छ सोऽपि वाग्रहीत ॥५॥ दिह निकारणमिति मस्यते। ततो निष्कारणे पतिषिमादा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) अणवठ्ठप्प अभिधानराजेन्द्रः। अणवठ्ठप्प नकारिणो लिङ्गकरण द्रव्यलिङ्गस्य भावलिङ्गस्य वा तत्र केत्रे स्थाप्यमेव दीयते, न पाराश्चिकम् , गुरोराचार्यस्य पुनस्तदेव पा. प्रदानम् , कारणं तु भक्तप्रत्याण्यामप्रतिपत्तिलकणे अन्यत्र पा राश्चिकं दीयते, ततो यद्यपि सूत्रे सामान्य नानवस्थाप्यमुक्तं ततत्र वा अनुज्ञातमेव । एषा पुरातनी गाथा ॥ थापि तत् पुरुषविशेषापेकं प्रतिपसव्यम, यता-अभीक्षणसेषाअत एनां विवरीषुराह निष्पन्नम् । तथा चाहहत्थातालो जणिओ, तस्स उ दो आइमे पदे मोत्तुं। । अहवा अजिक्खसेवी, अणुवरयं पावई गणी नवमं । अत्यायाणे लिंगं न दिति तत्थेव विसयाम्म । पावंति मूलमेव उ, निक्खपमिसेविणो सेसा ।। हत्थातालमूत्रक्रमप्रामाण्यात् तृतीयम, अर्थात् तस्य द्वे आदिमे अथवा साधर्मिकस्तैन्यादरभीक्ष्णसेवी पुनः २ प्रतिसेवां यः हस्तातालहस्तालम्बसवणे पदे मुक्त्वा यदर्थादानाख्यं पदं करोति स ततः स्थानादनुपरमन् अनिवर्तमानो गणी उपाध्यातत्र वर्तमानस्य तत्रैव विषये देश लिङ्गं न ददति । सच यो नवमं प्रानोति । शेषास्तु ये उपाध्यायत्वमाचार्यत्वं या न अर्थादानकारी गृही लिङ्गी वा । तत्र-- प्राप्तास्ते अभीक्ष्णप्रतिसेविनोऽपि मूलमेव प्राप्नुवन्ति, नानवगिहिलिंगस्स उ दो वि, आसन्नेन दिति जावलिंगंतु। स्थाप्यम् । दिति दोवि लिंगा, ओवत्यि य उत्तमट्ठस्स ॥ अत्थादाणो ततिओ, अणवट्ठो खेत्तओ समक्खायो । यो गृहिलिङ्गी प्रवज्यार्थमन्युत्तिष्ठति तस्य द्वे अपि-व्यन्नाव- गच्चे चेव चसंतो, निज्जूहजंति सेसाभो॥ . लिने तास्मिन्देशे न दीयते । यः पुनरवसन्नस्तस्य व्यलिङ्गं अपाङ्गनिमित्तप्रयोगेणार्थ अव्यमादत्त इति अर्थादानाख्यो य. विद्यत एव , परं भावलिङ्गं तत्र तस्यैव ददति । यदा पुन-1 स्तृतीयोऽनवस्थाप्यः,स केत्रतः समाख्यातः, तत्र के नोपस्थारसावृत्तमार्थस्य प्रतिपत्त्यर्थमुपतिष्ठते तदा तस्मिन्नपि देशे द्व- प्यत इत्यर्थः। शेषास्तु हस्तातालकारिप्रभृतयोगच्च एष वसन्तो योरपि गृहस्थावसन्नयोर्दै अपि बिङ्गे दीयेते । निर्गृह्यन्ते आलोचनादिभिः पदेबहिः क्रियन्ते इत्यर्थः। पृ०४० अथवेदं करणम् उक्कोसं बहुसो वा, पउदृचित्तो व तेणियं कुणा । ओमासिवमाईहि व, सप्पिस्सति तेण तस्स तत्येव । पहर जोय सपक्खे, निरवेक्खो घोरपरिणामो ॥ न य असहायो मुच्चइ, पुट्ठो य भणिज वीसरियं ।। अनिसेमो सव्वेसु वि, बहुसो पारंचियाऽवराहेस । अवमाशिवराजद्विादिषु वा समुपस्थितेषु गच्चस्य प्रतिस अणवढप्पावत्तिमु, पसज्जमाणो अणेगासु ।। पिंष्यति नपग्रहं करिष्यति, तेन कारणेन तत्रैव केत्रे तस्य विज उत्कृष्ट वस्तुविषयं बहुशो वा पौनःपुन्येन प्रदुधचित्तो या संकिप्रयच्छन्ति । तत्रचेयं यतना-[नय असहाओ इत्यादि] स तत्रा टमनाः क्रोधलोभादिकलुषितमनसो यतस्तैन्यं साधर्मिकस्तैन्यरोपितमहावतः सम्नसहाय एकाकीन मच्यते, लोकेन च नि मन्यधार्मिकस्तैन्यं वा करोति। जीता एवंविधार्थीपादानका। मित्तं पृटो जणति-विस्मृतं मम सांप्रतं तन्निमित्तमिति । प्राचार्यः स्वस्य महावतान्यारोपयितुमभ्यर्थयमानो तहोषकरणअथ साधर्मिकादिस्तैन्येषु प्रायश्चित्तमुपदर्शयति-- निवृत्तोत्रिवेन महामतेषु स्थाप्यते,तथा हस्तालम्बाइप साहम्मिय अप्पधम्मिय-तेणेमु उ तत्थ होति(s)मा जयणा । हस्तासम्बस्तं ददानः, अशिवे पुररोधादौ तत्पशमनार्थमनिचाचउलढुगा चन गुरुगा, अपवढप्पो य आएसा ॥ रमन्त्रादीन्प्रयुआन इत्यर्थः। तथा हस्तेन तामनं हस्ततालस्तं साधर्मिकस्तैन्यान्यधार्मिकस्तैन्ययोस्तावदियं नजना प्रायश्चि- ददानः यएिमुष्टिबगुडादिनिरात्मनः परस्य च मरणभयनिरपेतरचना भवति-श्राहारं स्तेनयतश्चतुर्लघु, सचित्तं स्तनयतश्च- कः,स्वपके,चशब्दात्परपके च, घोरपरिणामो निर्दयो यःप्रहरतुर्गुरवः; श्रादेशेन वा अनवस्थाप्यम् । ति । एते त्रयोऽप्यनवस्थाप्याः क्रियन्ते । यदि वाऽऽचार्यादीन् अहवा अणुवकाओ, एएसु पएम पावती तिविहं । कोऽपि हिनस्ति ततस्तन्मारणेनापि तान् रक्षेत् । यदाह-"श्राय रियस्स विणासे, गच्छे अहया बि कुझगणे संघे । पंचिंदियव. तेसुं चेव पएसुं, गणिप्रायरियाण एवमं तु ॥ रमणं, का नित्थारणं कुज्जा ॥१॥ एवं तु करितेण, अअथवा अनुपाध्यायो य उपाध्यायो न भवति किंतु सामान्य- व्युच्चित्ती कया उतित्थं म्मि । ज विसरीराघाओ, तहविय भिक्षुः स पतेषु आहारोपधिसचित्तरूपेषु यथाक्रमं त्रिविधं स- आराहो सो उ ॥२॥" यस्तु समथे। ऽप्यामाढेऽपि प्रयोजन घमासं चतुघु चतुर्गुरु वक्ष्यमाणं प्रायश्चित्तं प्राप्नोति । तेष्वेव | न प्रगल्भते स विराधका श्हाजिषेक उपाध्यायः स येषु येवचाहारादिषु पदेषु गणिन नपध्यायस्याचार्यस्य च नवममनव- पराधेषु पाराश्चिकमापद्यते तेषु बहुशः पाराश्चिकापराधेषु सस्याप्यं भवति । अत्र परः प्राह-ननु सुने सामान्येनानवस्थाप्य बेष्वपि शुद्धिनिमित्तमनवस्थाप्यः क्रियते । यथा भिकारनवएव भणितो न पुनर्लधुमासादिकं त्रिविधं प्रायश्चित्तं, तत्कथ स्थाप्यपाराश्चिकेऽपि प्राप्तस्य सूबमेव चरमं प्रायश्चित्तं भवति, मिदमथेनानिधीयते । उच्यते-आईतानामेकान्तवादः क्वापि एवमुपाध्यायस्याप्यनवस्थाप्यमेव परमं, तथा अनवस्थाप्यापननवति । तथाहि त्तिषु उपचारादनवस्थाप्याख्यप्रायश्चित्तापत्तिकारिणीष्वतितुचम्मि वि अवराहे, तुक्षमतुलं व दिज्जए दोएहं। चारप्रतिसेवाग्वनेकासु प्रसज्जनं प्रसक्ति कुर्वाणाऽनवस्थाप्यः पारांचके पि नवम, गणिस्स गुरुगो न तं चेव ।। क्रियते। तुल्यः सदृशोऽपराधो द्वाच्यामपि प्राचार्योपाध्यायान्यां से स चानवस्थाप्यः क्रियमाणः कस्मिन्क स्मिन्विषये क्रियते इत्याह-- वितः, तत्र वयोरपि तुल्यमतुल्यं वा प्रायश्चित्तं दीयते,तत्र तुल्यः | दानं प्रतीतमेव । अतुल्यदानं पुनरिदम-पाराश्चिके पायश्चिकाप कीर अणवढप्पो, सो लिंगखित्तकालो तवतो।। तियोग्येऽप्यपराधपदे सेविते गणिन उपाध्यायस्य नवम्मानव- लिंगण दबजायो, जणि ओ पव्वावणावारिहो।। एह। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) अनिधानराजेन् अणऋटुप्प 9 क्रियते तथाविधापराधकारित्वान्महाव्रतेषु लिने वा नाऽवस्था य इत्यनवस्थाप्यः । स चतुर्धा-लिङ्गतः क्षेत्रतः कालतः, तपोविशेषतश्चेति । लिङ्गं द्विधा-द्रव्ये च नावे च । तत्र व्यि क्रं रजोहरणादि, भावलिङ्गं महाव्रतादि । अत्र चतुर्भङ्गी - द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चानवस्थाप्य इत्येको नङ्गः । द्रव्यलिङ्गेनावयस्याच्या भावनेति द्वितीयः । प्रावलि नापस्थाप्यो न द्रव्यलिङ्गेनेति तृतीयः । उज्ञाज्यामप्यनवस्थाप्य इति चतुर्थः। st sव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चाऽनवस्थाप्यः प्रथमभङ्गस्थः प्रव्राजना नहीं भणितः । लिङ्गानस्थाप्यादियानुर्वियमेव विवाहअपमिविरतोस, न भावलिंगारिको टुप्पो । जो जत्य जेण दूसर, पडिसिको तत्थ सो खित्तो ॥ अतिरितः साधर्मिकाम्य धार्मिकस्तन्य एचित्येनानिवृतः स्वपपरपहरणोंच निरपेक्षानुपशायः स द्रव्यभावलिङ्गाज्यामनवस्थाप्यो ऽनवस्थाप्यप्रथमभङ्गवर्ती कियते । हस्तादाची अधानको वासनादिकधराहोपानिवृत्तो न नावलिङ्गार्हः । श्रयं भावः स इव्यलिङ्गी भव नामभावस्थाय जयतीत्यर्थः द्वितीयचतुर्थ संभवतः केोऽनवस्था यो यो यत्र क्षेत्रे येन कर्मणा दृष्यते स तद्दोषकरणानिवृत्तोऽपि क्षेत्रे प्रतिमानेषु स्थापने निराकृतार्थादानका महास्थाप्यते यतः खातं लोको निमित्तं पृच्छेत् स च तं निमितज्ञानजमृद्धिगौरवं सोदुमक्षमः कदाचित कथयेत् स्थाप्य समार्थप्रतिपनस्य पुनस्तत्रापि स्वस्थानेऽपि स्थितस्य महाघृतारोपः कार्य एव । उक्तौ लिङ्गक्षेत्राऽनवस्थाप्यौ । जीत० । जत्तियमित्तं कालं, तवसा उ जहन्नएण छम्मासा | संवरको घासावह जो निशाणं ॥ १ ॥ " यो यावन्तं कालं दोषानोपरमते तावन्तं कालमनवस्थाप्यः क्रियते । तपसा त्वनयस्थाप्यो द्विधा - आशातनाऽनवस्थाप्यः, प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्च । तत्र जिनादीनां तीर्थकर श्रुता महराणामाशायः यथा-तीर्थकरे: चार पावत्यागादिकाइतिकर्कशा देशा यदि च गृहवासो न श्रेयान् ततः किमिति स्वयं गृहवासे वस न्ति स्म, जोगांश्च चुक्तवन्त इत्येवं कृतोऽधिकेपः । स च वा ऽचया वदेत्-हुं २ दृष्टा मयाऽरण्येऽपि सङ्घाः शृगालश्वानवृकचित्रकादीनामिति । श्रुतं चैवमधिक्किपति यथा- " कायाववाय तिच्त्रियः पुणो वितिच्चिय पमायपया मुक्खस्स देणार, जोकि "आचार्य जात्यादिभिरायि पनि मागणी माया ये यानि युगे प्रधा नमृताः तान् ऋद्धिरसा गौरवप्रसक्ताः कथका श्व लोकावर्जमीना यादवचक्षिपति आशावाद तनतपोऽनवस्थाप्यः स जघन्येन षण्मासान् उत्कर्षतः संवत्स रं यन् तपः कुर्वन् कर्तव्यः तावता च तपसा पिताऽऽशामहास्थाप्यते प्रतिसेयमानव 3 स्थाप्यश्चोत्तरगाथायां वदयते । सा चेयम् वा वारसवासा, परिसेवी कारण यो वि योवं थोवतरं वा, वहिज्ज मुचिज्ज वा सव्वं ॥ ए‍ ॥ प्रतिसेवी प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यः साधर्मिकान्यधार्मिकस्तेनादस्तातालादिनि संचति स जघन्यवर्षम ादश वर्षाणि तदनन्तरं व्रतेषु स्थाप्यते । स चानवस्थाप्यः संहननादिगुणयुक्त एव क्रियते, अन्यस्य तु मूलमेव दीयते । अवटुप्प अथ कीदृशगुणयुक्तस्यानवस्थाप्यं दीयत इत्याह-"संहणणविरिय आगम-सुत्तत्थविहीर जो समग्गो य । तवसी निग्गहतो, पवयणसारे य गहियत्थो ॥ १ ॥ तिलतुसमविभागमितं वि जरस असुनो नाभावो निज्जूहणारिहो सो, सेसे निज्जूहणा नत्थि ॥ २ ॥ गुणसंपवतो, पाव अणवहमुत्तमगुणो हो । पश्यगुष्पिणे, तारिम्मी भवे सूजं ॥ ३॥" [ तपसी ] तपश्चरणवान् [ निमाह ] जितेन्द्रिय [निज्जूरणारिहो ] गच्छात् पृथक्करणार्हः श्रपवादतस्त्वनन्य साध्य कुलगणस कार्यकारी बहुजनसाध्यं च कार्यवादितमुच्य ते, तत्साधकश्चायमित्यतः कारणात्सव/प द्विप्रकारोऽपि श्राशातनैनावस्थाप्यते । प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्च गुरुमुखात् सङ्घादेशात् स्तोकं स्तोकतरं वा, मासद्वयं मासैकमात्रं वा अनवस्थाध्यतपो वहेत् । सङ्घघो वा सार्थोपष्टम्भादिकं नैवायमनवस्थाप्यशोध्यमतीचारमनं कालयिष्यतीति सर्वे मुश्चेत्, अनवस्थाव्यतपो न कारयेदित्यर्थः जीत० पृ० यस्त्वनवस्थाप्यतपः प्रतिपद्यते तद्विधिमाहप्रसारणा महणे, उम्मको वारस उ मासा | वा पारसमासे पनि कारण मणि ॥ इत्तिरियं निक्खेवं, काउं वन्नं गणं गमित्ताणं | दव्वा हे विकण, निरुवस्सग्गह उवसग्गो || अध्यथय निम्भयया आणाभंग या सग | परगणे न होंति एए, आरणा थिरया जयं चैव ॥ गाथापकं यथा पाराश्चिके व्याख्यातं तथैवात्र मन्तव्यम, नवरं, [स] य क्षेत्रका लनायेषु पू जावतः प्रशस्तेषु चन्द्रतारादिवलेपु, गुरूणां विकटनामालोचनां ददाति । तत श्राचार्य भणन्ति " एय साहुस्स अणवट्टप्पतवस्व निरुवसम्गनिमित्तं गमि काउसभां ति । श्रश्नत्थूस लिए"इस्थादिसमीति यावत्तविंशतिवा चार्या भणन्ति एष तपः प्रतिपद्यते, ततो न भवद्भिः सार्धमात्रापादिक विचारयति स्वयमप्येतेन सार्थमासापादिकं परि मिति । बृ० ४ उ० । " वंदना बंदिल, परिहार सुपरं चरम् । संवासों से कप्पर, नासपाणि साणि ॥ ३॥ 9 अनवस्थाप्यतपश्चरणकरणकालं यावत् स्वगणं गीतार्थे निहिप्याचार्य उपाध्यायो वा प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालजावेषु, ततो वरादी जीवतः शाकुसु मिताहादिषु काल पूर्वा भावतः प्रशस्तेषु चन्द्रताराबलेषु, संध्यागतादिनत्र जमालोचनां प्रयुङ्क्ते स्वातिचारं प्रकाशयति । श्राह्मअपत्यंगमासतः परमासादयस्था 3 प्यतपः प्रपद्यमाने आलोचनादायकः कायोत्सर्ग करोति । "एयस्स आयरियस्स अणत्र टुप्पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं गमि . Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्प्प या अभिधानराजन्ः। प्रणवट्टिय काउस्सग्गं अन्नत्य उस्ससिएणं, इत्यादि वोसिरामि'इति यावत तदनवस्थाप्यताऽर्हत्वानदवस्थाप्यता प्रायश्चित्तम् । यहा-यथोचतुविशतिस्तवमनुचिन्त्य पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवमुश्चा-- तं तपो यावन्न कृतं तावन्न व्रतेषु लिङ्ग वाऽवस्थाप्यत इत्यनवऽऽचार्यों बक्ति-"एस तवं पमिवज्ज, न किंचि आसवर मार स्थाप्यस्तस्य भावोऽनवस्थाप्यता । नवमप्रायश्चित्ते, प्रय०९७ मालवह । अत्तचितगस्स उ, वायाो भे न कायव्यो।" एष द्वा०। आव०। पंचा। युष्मानालपिष्यति, युष्माभिरपि नालाप्या, एष सूत्राथै शरीर- अणवट्टप्पारिह-अनवस्थाप्याई-नगनवमप्रायश्चित्ते,स्था०। यवाती वान प्रक्ष्यति , युष्माभिरपि न पृच्छ्यः । खेलमल्लकमा- मिनासेविते कञ्चन कासं व्रतेष्वनवस्थाप्यं कृत्वा पश्चाचीर्णतया त्रादिकं वा नास्य ग्राह्यमर्पणीय वा, उपकरणं परस्परं न प्रति- तहोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्याम् । स्था०१० नगा लेख्यं,भक्तपानं परस्परं न ग्राह्यम् । संघाटकोऽस्य न मेलनीयः। श्रणवठ्ठप्पावत्ति-अनवस्याप्यावर्ति-स्त्री० । ( उपचारात् ) अनेन सहकमाल्यां न भोक्तव्यम, किमप्यनेन साध न कार्य कार्यमिति । अधुना गाथाऽतरार्थ:-प्रतिपन्नाऽनवस्थाप्यत अनवस्थाप्याख्यप्रायश्चित्तापत्तिकारिणीषु प्रतिसेवासु, जीता पःशवादीनपि वन्दते, न चासौ वन्द्यते । परिहारतपश्च पारि अणवट्ठाण-अनरस्थान-न। न० त०। सामायिककालावधेहारिकसाधूनां तपः ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाटमानि, शिशिरे षष्ठाटमद- रपूरणे यथा कथञ्चिद्वाऽनादृतस्य करणे, एप सामायिकस्य शमानि, वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि, पार- पञ्चमोऽतिचारः। उपा० १ ०। धर्म। णके च निलेपः, भक्तमित्येवं रूपं सुदुश्चरं चरति । संवासः स- अणवडिय-अनवस्थित-त्रि।अनियतप्रमाणे, " अणवष्ठिहवासो गच्छेनास्य एककेत्रे एकोपाश्रये एकस्मिन् पावें शेष त्ताणं तत्थ खलु राइंदिया पत्ता" ०प्र०८ पाहु०। अस्थिरे साधुपरिभोग्यप्रदेशे कल्पते, नालपनादीनि शेषाणि; इत्येष कल्पानुयोगाश्रवणानहभेदे,बृ०। संपतोऽनवस्थाप्यविधिः । उक्तमनवस्थाप्याहम । जीत। तत्रानवस्थितं तावदाहएवंविधं तपः प्रतिपद्य यदसौ विदधाति तदुपदर्शयतिसेहाई वंदंतो, पग्गहियमहातवो जिणो चेव । दुविहो लिंगविहारो, एक्केको चेव होइ दुविहो न । विहर वारसवासे, अणवठ्ठप्पो गणे चेव ॥ चनरो य अग्याया, तत्थ वि आणाणो दोसा ॥ शैक्कादीनपि वन्दमानो जिनकल्पिक श्व प्रग्रहीतमहातपाः अनवस्थितो द्विविधः । तद्यथा-लिङ्गानवस्थितो विहारानपारणके निर्लेपं भक्तपानं ग्रहीतव्यमित्याद्यनेकानिग्रहयुक्तं वस्थितश्च । एकैकः पुनरपि द्विविधो भवति । तदुभयमपि चतुर्थषष्ठादिकं विपुलं परिहारतपः कुर्वन्निति भावः । एवंवि द्वैविध्यमनन्तरगाथायां वक्ष्यते । चत्वारश्च मासा अनुद्वाता धो ऽनवस्थाप्यो गण एव गच्चान्तर्गत एवोत्कर्षतो द्वादश। गुरवः, उपलक्षणत्वाल्लघुमासादिकं वा अत्र यत् प्रायश्चित्तं वर्षाणि विहरति । भवति, तनु यथास्थानमेव भावयिष्यते । तत्राऽपि लिङ्गानवइदमेव नावयति स्थितविहारानवस्थितयोरप्याज्ञादयो दोषा प्रष्टव्याः। अणवई वहमाणो, बंद सो सेहमायिणो सव्वे । अथैनामेव गाथां व्याख्यानयतिसंवासो से कप्पइ, सेसा न पया न कप्पंति ॥ गिहिलिंग अन्नझिंगं, जो न करेइ स लिंगो ऽविहो । परगणेऽनवस्थाप्यं वहमानः स उपाध्यायादिः शैतादीनपि चरणे गाणे अ अथिरो, विहार अणवडिओ एसो । सर्वान् साधून वन्दते, तस्य च गच्चन सार्धमेकत्रोपाश्रये पकस्मिन् पार्श्व शेषसाधुजनापरिनोग्ये प्रदेशे संवास कर्तुं क गृहिलिङ्गं गृहस्थानांवेषम् , अन्यलिङ्गमतीर्थिकानां नेपथ्यम्। स्पते । शेषाणि तु पदानि न कल्पन्ते । यः साधुः, तुशब्दो विशेषणे । किं विशिनष्टि ? दर्पण यो लि. ङ्गद्वयं करोति, स एष लिङ्गतो द्विविधोऽनवस्थितः। अस्य च कानि पुनस्तानीत्याह--- द्विविधस्यापि मुलं यथा चोलपट्टकं वस्नत एकत उभयतो वा श्रानावणपमिपुच्छण-परियाणवंदणग मत्ते। स्कन्धोपरि कल्पाञ्चलानामारोपणरूपं गरुडपाक्षिकं प्रावृण्वपमिलेहणसंघाडग-भत्तदाणसं जणा चेव ॥१०॥ त उत्सरासङ्गरूपम सन्यासं कुर्वतः प्रत्येक चत्वारो गुरुश्रासापनं स साधुभिः सह न कार्यते , सर्वेषामपि स करो- मासाः, द्वावपि बाह छादयित्वा संयती प्रावरणमातन्वानस्य ति, तस्य पुनः साधवो न कुर्वन्ति, (मत्ते त्ति) खेलमात्रादिप्रत्य- चत्वारो लघवः, कल्पेन शिरस्थगनरूपां शीर्षद्वारिकां कुर्वतो पेणं तस्य न क्रियते, सोऽपि तेषां न करोति । उपकरण परस्प- मासलघु, चतुष्कलं मुकलं वा कल्पं स्कन्धोपरि कृत्वा गोरंन प्रस्थपेक्वन्ते, संघाटकेन परस्परं म भवन्ति । भक्तदानम- पुच्छ्वदधोलम्बमानं कुर्वतो मासलघु । एतेऽपि लिङ्गाऽनव. न्योन्य न कुर्वन्ति । एकत्र मएमव्यां न संभुष्जते । यश्चान्यत किं- स्थितेऽन्तर्भवन्ति। तथा चरणे चारित्रे अस्थिरो यः पुनः पुनचित्करणीयम्, तत्तेन साधै न कुर्वन्ति । 'संघो न लभर कज' चारित्रात्प्रतिपतति , तस्य यदि सूत्रं ददाति तदा चतुर्लघु, इत्यादिगाथाः पाराश्चिकवद्रष्टव्याः। बृ०४ स०। (अनवस्थाप्य- अर्थ ददाति तदा चतुर्गुरु, गणे गच्छे अस्थिरः पुनर्गणाणं स्य गृहिभूतस्यागृहिभूतस्य चोपस्थापना 'उवधावणा' शब्दे संक्रामति । एष द्विविधोऽपि विहारानवस्थितः। एतद्विपरीतस्य वि०भा००ए० पृष्ठे वक्ष्यते) तपोऽनवस्थाप्यश्च चतुर्दशपूर्वधरे स्थलिङ्गावस्थितस्य संविग्नविहारावस्थितस्य च दातव्यं यदि श्रीभवाहुस्वामिनि व्युच्चिन्नः। “अणवठप्पो तषसा, तथ म ददाति, तदा तथैव सूत्रे चतुर्लघु, अर्थ चतुर्गुरु । गतमनवपारंचिय दोवि बुध्विना । चउदसपुग्वधरम्मि, धरति ससाउ स्थितद्वारम् । वृ०१ उ० । स्था०।(श्राचेलक्यादयः पडनवजा तित्थं" ॥१॥ जीता। स्थितकल्पाः 'कप्प'शब्द तृ० ना०२२६ पृष्ठ वक्ष्यन्ते)"श्रप्रणवछप्पया-अनवस्याप्यता-स्त्री० । येन पुनः प्रतिसेषितेन | णवट्रियस्स करणया" अनवस्थितस्याल्पकालीनस्यानियसत्थापनाया अप्ययोग्यः सन् कश्चित्कालं न तेषु स्थाप्यते । तस्य सामायिकस्य करणमनवास्थितकरणमल्पकालकरणान Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) अनिधानराजेन्द्रः । अपायट्टिय न्तरमेव त्यजति यथाकथञ्चिद् वा करोतीति भावः । उपा० १ श्र० । पेचा० । श्रा० । श्राच० । अवपिचित-अनवस्थितथित त्रिएकत्र स्थापिताकरवरहिने नि००१० अगाडि (न) संत्राण- अनवस्थितसंस्थानन० सतत चारप्रवृत्त्या सम्यगवस्थाने, जी० ३ प्रति० । अणवरणीयत - अनपनीतत्व-न० | कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेततारूपे पञ्चविंशे सत्यवचनातिशये, ०३५ स्वप्र० । रा० । श्र० । गवतप्पया अननत्राप्यता स्वी० अपनापि तुमर्हः शक्यो वा श्रपत्राप्यो लङ्घनीयः, न तथाऽनवत्राप्यस्तद्भावो ऽनवत्राप्यता । हीनसर्वाङ्गत्वे, उत्त० १ ० | अलजनीयाङ्गतायाम्, स्था० ८ ठा० । अणवतारण- अनवतारण न० । न० त० । अनुपस्थापने, ध० २ अधि० । T अणवत्या अनवस्था स्त्री० । श्रव-स्था-श्रङ् । श्रवस्थितिः । न०० अवस्थाभावे तर्कदो विशेष उपपायस्य समर्थ नाय उपपादकस्यानुसरणं तर्कः, यत्र तर्फे उपपाद्योपपादकयोधान्तरित तारातर्कयानस्थादोषः। तत्र स तक न ग्राह्यः । वाच० । अनवस्था तु पुनः पुनः पदद्वयावर्तनरूपा प्रसिद्धैय इह तु अनवस्थाचक्रयोनांमकृत एवं विशेषो लभ्यते न पुनरर्थकृतः। कचिदति सामान्यविशेषवाचकमनवस्थानिवृत्तेरिति । श्रत्र हि चक्रके साध्ये अनवस्थानिवृत्तिलक्षणो हेतुरुपन्यस्तः । अतो ज्ञायते ऽनवस्थैव चक्रवत् पुनः पुनभ्रमणाच चक्रकमित्युच्यते इति । श्रने ०१ अधि० ॥ क्वचिदप्यस्थानविशेः अनायासे । किञ्चिदकार्य कुर्वन्तं दृष्ट्वाऽन्येषामपि तथाकरणे, व्य० ७ उ० । यथा किमयमेव करोति हि करिष्यामीत्येवंरूपा तर रूपं च पव' शब्दे चयते । अणवदग्ग-अनवताग्र- त्रि० । अवनतमासन्नमग्रमन्तो यस्य त तथाचिदनवनताय तदेव वर्णामिति । श्रासन्नाग्रे अवगतमपरिचिन्नमयं परिमाणं यस्य तत्तथा । अपरिचिन्नान्ते भ० १ ० १ ३० । अनवद्य पर्यन्तो यस्य सोऽयमनयद्म इति । अपर्यन्ते श्रनन्ते, सूत्र० १० २० सम० ज्ञा० । न० 1 प्रश्न० । अपर्यवसाने, सूत्र० २ श्र० ५ अ० । अपरिमिते, नि० चू० २ उ० । सूत्र० । प्रश्न० । वयक्खित्ता-अनवेक्ष्य- अव्य०। पश्चाद् नागमनवलोक्येत्य"मग वाचयाणं पति ए" भ० 9 ० ७ उ० । 1 देशी- प्रथम इति देशीयनोऽतवाचकः ततस्तन्निषेधादणवयमां । अनन्ते भ० १ ० १ ३० । प्रणवयमाण- अनपवदत् - त्रि० । श्रपवदन् अन्यथैव व्यवस्थि तं वस्त्वन्यथावदनपवदन् न अपवदन् श्रनपवदत् । प्राकृतत्वादात्वाद् वा पकारलोपः । मृषावादमकुर्वति व्य०३ उ० । प्रणवरय- अनवरत त्रि० श्रव-रम-जावे क्तः । अवरतं विरामस्त नास्ति यस्य । घ० । निरन्तरे, विश्रामशून्ये च । वाचः । अणसण निरन्तरे, कल्प० । सतते भ० श० ३३ उ० । पंचा० । श्राचा० | जं० | सकलकाले आ० म० वि० । अणवास-अनादित्व १० अपम्योत्तममध्यमदेषु जन्तुषु अपवादमश्लाघां करोतीत्येवं शी लोऽपवादी, नापवादी अनपवादीति । न० त० । तस्य भावस्तत्त्वम् । श्रपवादभाषणे, परापवादे हि बहुदोषः। यदाह वाचकचक्रवर्ती - " परपरिजपरिवादा-दारमोत्कर्षा बभ्यते कर्म नप्रतिय-म नेकनवक्रोमियम् ॥१॥ इति । तदेयं सकजनगोचरोऽप्य वर्णवादो न श्रेयान् किं पुनर्नृपः मात्यपुरोहितादिषु बहुजनमान्येषु नृपार्णवादात प्राणनाशादिदोषादिति ०१ 1 अणवाय अनपाय - त्रि० । अपायरहिते निर्दोष, आगमवचनपरिणति--र्भवरोग सदौषधं यदनपायम्" षो० ५ विव० । अवविवया अनपेक्षता खी शिकार ०१ अधि अणवेकखमा अनपेक्षमाण- त्रि० शरीरनिरपे, “पुणेरामाणे विश्वासो अणवेषाचे" सूत्र १ श्रु० १० अ० । अवे (वि) वखा अनपेक्षा खा० । स्वपरविशेषाकरणे, व्य० ३ उ० । असण-अनशन - न० । श्रश्यते भुज्यते इत्यनशनम् । श्रशेषाहारप्रत्याख्याने, उत्तः । एकस्मादुपवासादारज्य पाएमासिकपर्यन्ते, उत्त० ३० अ० पा० । आहारत्यागरूपे वाह्यतपोदे, स्था० ६ वा । ग० । - 61 से किं तं इरिए य, । प्रणये विहे ते तं जहा काहिए य । से किं तं इत्तरिए ? । इतरिए विहे पत्ते । तं जहा- चनत्ये भत्ते, बट्ठे भत्ते, अमे भत्ते, दसमे भत्ते, 5वानसमे जते, चउद्दममे भत्ते, श्रद्धमासिए मजे, मासिए भत्ते, दोमासिए जते, तिमासिए जाते, जान बम्मा सिए जत्ते, सेत्तं इत्तरिए । से किं तं आवकहिए । कहिए विहे पण ते । तं जहा- पाओत्रगमेल य, जतपच्चक्खाणेण य । ० २५ श० ७ ० । अनशन द्विधात्वरं यावत्कधिच सत्यरं चतुर्थादिप रामासान्तमिदं तीर्थमाश्रित्येति यावत् कथिकं त्वाजन्मनावि पापमङ्गितमरण मतपरिमेदात् । एतच प्रायो व्याख्यातमिति । स्था० ६ ० तत्रेत्वरं परिमितकालम, तत्पुश्री महावीरतीयें नमस्कारसहितादिपरमासान्तं श्रीमती र्थङ्करतीर्थे संवत्सरपर्यन्तं मध्यमतीर्थकरतीर्थे श्रौमासानू, यायाधिकं पुनराजन्मभाविनयेनेोपचिविशेषत था यथा पादपोपगमनम इङ्गितमरणम, भक्तपरका चेति । प्रव० ६ द्वा० । इत्तरिय मरणकाला य, अणसा दुविहा जवे । इसरिया सारखा निरवर्कखड बेइज्जिया ॥ ५॥ (उत्तरियत्ति) इत्वरमेव इत्वरकं स्वल्पकालं नियतकालावधिकमित्यर्थः मरणावसानः कान्तो यस्य तन्मरणकालम् । प्राग्वन्मध्यमपदलोपी समासः । यावज्जीवमित्यर्थः । यद्वा-मरणं का 1 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०३) अगसण अभिधानराजेन्द्रः। प्रासण सोऽवसरोयस्य तन्मरणकालमा चःसमुच्चये। अश्यतेनुज्यत इ- पलवितं तपो बर्गतपः, ततश्च वर्गतपसाऽनन्तरं वर्ग२ इतिवर्ग२ त्यशनम, अशेषाहाराभिधानमेतत् । उक्तं हि-"सब्यो वि य प्रा- तपः,तुः समुच्चये। पञ्चमं पञ्चसंख्यापूरणम्, अत्र वर्ग एव यदा हारो, असणं सब्बो विवुच्चए पाणं सब्यो विखाइम चिय,सब्वो वर्गेण गुप्यते तदा वर्गे वर्गो भवति, तथाच चत्वारि सहस्राणि वि य सामं हो"॥१॥ ततश्चाविद्यमानं देशतः सर्वतो वाऽशन- षष्मवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि जातैककोटिः, सप्तपतिमस्मिन्नित्यनशनं, द्विविधं द्विः प्रकारं भवेत्, तत्र [इत्तरिय ति] लकाः, सप्तसप्ततिसहस्राणि, द्वेशते षोडशाधिके । अङ्कतोऽपि श्वरकं सहावकाङ्गया घटिकायायुत्तरकानं भोजनाभिलाष- १६७७७२१६ । एतदुपनक्तितं तपो वर्गवगतप इत्युच्यते । एवं रूपया धर्तत इति सावकाशम, निष्क्रान्तमाकाङ्गातो निराकाङ्क- पदचतुष्टयमाश्रित्य श्रेण्यादितपोदर्शितम् । एतदनुसारेण पञ्चाम, तज्जन्मनि जोजनाशंसाभावात्, तुशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् । दिपदेष्वप्यतत्परिजातना कार्या । षष्टकं प्रकीर्णकतपो यत् थेद्वितीय पुनर्मरणकालम् । पागन्तरतश्च निरवकाङ्क्ष द्वितीयम् । एयादिनियतरचनादिरहितं स्वशक्त्यपेक्कं यथा कथंचिद्विधीयते, तच्च नमस्कारसहितादि पूर्वपुरुषचरितं यवमध्यवज्रप्रतिमादि जो सो इत्तरियतबो, सो समासेण गबिहो । च । इत्थं भेदाननिधाय उपसंहारमाह-(मणइच्छियचित्तत्थोसेढितवो पयरतवो, घणो य तह होइ बग्गे य ॥१०॥ त्ति) मनसश्चित्तस्य ईप्सितं इश्चित्रोऽनेकप्रकारोऽर्थः स्व. तत्तो य वग्गवग्गो, पंचम बढो पश्नतवो। र्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादिर्वा यस्मात् तन्मनईप्सितचित्तार्थ मणच्चियचित्तत्थो, नायव्यो होइ इत्तरिओ ॥ १२ ॥ ज्ञातव्यं भवतीत्वरकं प्रक्रमादनशनाख्यं तपः। उत्त० ३ ० । यथोद्देशं निर्देश इति न्यायतः इत्वरकानशनस्य दानाह ( कियत्कालिकेनाऽनशनेन कियती निर्जरा नवतीति ' अक्षा इलाय' शब्दे वक्ष्यते) यत्तदित्वरकं तपः श्वरकानशनरूपमनन्तरमुक्तं तत्समासेन संकेपेण षनिधं विस्तरेण तु बहुतरभेदमिति भावः । षनिध संप्रति मरणकालमनशनं वक्तुमाहत्वमेवाह-(सेदितवो इत्यादि) अत्र च श्रेणिः पङ्किस्तपत्र- जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया। क्वितं तपः श्रेणितपस्तच्चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणमिह परमासान्तं परिगृह्यते, तथा श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, त सवियारमवीयारा, कायचेट पई भवे ॥ १५ ॥ दुपलक्वितं तपः प्रतरतपः, श्ह चाव्यामोहाथै चतुर्थषष्ठाटमद- ( जा सा अणसणाश त्ति) प्राकृतत्वादत्र स्त्रीत्वम्, यदनशनं शमाख्यपदचतुष्टयात्मिका श्रेणिर्विवक्ष्यते। साच चतुर्निर्गणिता मरणे मरणावसरे द्विविध, तद्विशेषणाख्यातं कथितं व्याख्यातं, षोमशपदात्मकः प्रतरो भवति । अयं च आयामतो विस्तरत- तीर्थकृदादिभिरिति गम्यते। द्वैविध्यमेवाह-सह विचारेण श्व तुल्य इति । अस्य स्थापनोपाय उच्यते चेष्टात्मकेन वर्तते यत्तत्सविचार, तद्विपरीतमविचारम् । विचा" एकाद्याद्या व्यवस्थाप्याः, पङ्कयोऽत्र यथाक्रमम् । रश्च कायवाङ्मनोभेदात् त्रिविधमिति। तद्विशेषपरिज्ञानार्थमाहएकादींश्च निवेश्यान्ते, मात्पति प्रपूरयेत्" ॥ कायचेष्टाम, नद्वर्तनपरिवर्तनादिकं कायप्रविचारं प्रतीतिमाधिअस्यार्थः-एकः आदिर्येषां ते एकादयः एककधिकत्रिकच- | त्य, नवेत् स्यात् । तत्र सविचारं भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च । तथाहि-जक्तप्रत्याख्याने गच्छमध्यवर्ती गुरुदत्तालोचनो तुकास्ते श्राद्या यासु ता एकाद्याद्याः, व्यवस्थाप्या न्यसनीयाः, मरणायोद्यतो विधिना संलेखनां विधाय ततस्त्रिविध चतुर्विध पतयः श्रेणयो, यथाक्रम क्रमानतिक्रमेण,कोर्यः-प्रथमा एकाद्या चाऽऽहारं प्रत्याच); स च समास्तृतमृसंतारकं समुत्सृज्य पककादारज्य संस्थाप्यते, द्वितीया द्विकाद्या विकादारज्य,तृती. या त्रिकाद्या,त्रिकादारज्य, चतुर्थी चतुष्काद्या चतुष्कादारज्य । शरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोड़ाहितनमस्कारः समीपवर्ति साधुदत्तनमस्कारो वा सत्यां शक्तौ स्वयमद्वर्तते, परिवर्तते च, आह-पवं सति प्रथमपतिरेव परिपूर्णा भवति,द्वितीयाद्यास्तु न शक्तिविकलतायांचापरैरपिकिंचित्कारयति । यत उत्तम "विपूर्यन्त एव,तत्कथं पूरणीया:? उच्यते-एकादींश्च निवेश्य व्यव यमणमन्भुकाणं, चियं संलेहणं च काऊणं । पश्चक्खति आस्थाप्य,अन्त इत्यग्रे,क्रमादिति क्रममाश्रित्य,पङ्खिमपूर्यमाणां श्रेणी, हारं, तिविहं च चविहं वा वि॥ उब्वत्त परयत्त, सयमपूरयेत् परिपूर्णी कुर्यात् । तत्र च द्वितीयपतौ द्वित्रिकचतु णावि कारए किंचि । जत्थ समथो नवरं, समाहिजणयं अपकानामग्रे एकक, तृतीयपतौ त्रिकचतुष्कयोः पर्यन्ते एकको मिवद्धो ॥” इङ्गिनीमरणमप्युक्तन्यायतः प्रतिपद्य शुरूस्थएिकद्विकश्च; चतुर्थपती चतुष्कावसाने एकदित्रिकाः स्थाप्यन्ते । सस्थानामेकाक्येव कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानस्तत्स्थतिमनस्थापना चेयम्चतुर्थ० षष्ठ | अ.द. स्थानच्चायात उष्णमुष्णावस्थायां स्वयं संक्रामति । तथा चाहप्रक्रमाद घन इतिघनतपः,चःपू. "इंगियमरणविहाणं, आपध्वज तु वियमणं दाउं । सलेहणं च रणे,तथेति समुच्चये,भवतीति काचं,जहासमाहीमहाका ॥२॥पच्चक्षति आहार, चउब्विहं क्रिया प्रतितपोनेदं योजनीया। | ३ | ४ नियमो गुरुसगासे। इंगियदसम्मि तहा. चिटुंपिड इंगियं अत्र च वोमशपदात्मकः प्रतरः |४१| | कुण ॥ उन्बत्तइ परियत्त, काश्यमाईसु होइन विलासो । पदचतुष्टयात्मिकया श्रेण्या गु किच्चं पि अप्पणश्चिय, हुंज नियमेण धीवलिओ " ॥ णितो घनो भवति आगतं चतुः अविचारं तु पादपोपगमनं तत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो षष्टि ६४, स्थापना तु पूर्विकैव,नवरं, बाहुल्यतोऽपि पदचतुष्टया- द्विनेदेऽपि पादपवनिश्चेष्टतयैव स्थीयते । तथा च तद्विधिःस्मकत्वं विशेष पतदुपल्लवितं तपो घनतप उच्यते । चःसमुच्च- "अभिवंदिळण देवे, जहाविदि सेसए य गुरुमाइ । पच्चक्खाइत्तु ये। तथा भवति वर्गश्वेतीहापि प्रक्रमाद्वर्ग इति वर्गतपः, तत्र तो, तयतिए सबसमाहारं ॥ सम्भावम्मि ठियप्पा, सम्म च घन एव घनेन गुणितो वर्गो नवति, ततश्चतुष्पष्टिश्चतुष्पष्टयेव सितमणियमग्गेणं । गिरिकंदरंतु गंत, पायवगमणं श्रह गुणिता जातानि पनवत्यधिकानि चत्वारि सहस्राणि , पतदु-| करेति ॥ सम्वत्थापमिबद्धो, दमो य पमायवाणमिह माउं। Jain Education Interational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणसण जावजी चिट्टर निबिट्टो पायवसमाणो ॥ " पुनरपि द्वैषिड्यं प्रकारान्तरेणाह हवा सपरकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया । नीहारिमनीहार, आहारच्छेओ य दोसु वि ॥ १३ ॥ अथवेति प्रकारान्तरसुचने, सह परिकर्मणा स्थाननिष तेनादिना विश्रामणादिना च वर्तते यासपरिकर्म, अपरिकर्मच तद्विपरीतमाख्यातं कथितम् । तत्र सपरिकर्म नतप्रत्यास्थानमिङ्गिनीमरणं चत्र स्वयमनेन वा कृतस्य अन्यत्र तु स्वयं विहि तस्य उद्वर्तनादि चेष्टात्मकपरिकर्मणोऽनुज्ञानात्तथादाय परपरिकम्मं, भत्तपरिन्नाइ दो अणुमाया । परवज्जिया य ईगिनि विहाहारविरती य ॥ निषीय तुपहर, तिरि याहिं जहा समादीय। सयमेव य सो कुणइ, उवसमा परीसहहिया से " । परिकर्म च पादपोपगमनम्, निष्प्रतिकर्मताया एव तत्राभिधानात् । तथा चागमः - "समविसमम्मिय पडिओ, श्र जह पायवोय निकंपो । निश्चत्रनिप्पडिकम्मो, निक्खिवर जं जहिं अं तं विथ दो सशिय वरं चणं परप । वायाहि तस्स व पमिणीयाइर्हि तर्हि तस्स" ॥ यक्ष परिकर्म संलेखना सा यत्रास्ति तत्सपरिकर्म, तद्विपरीतमपरि कर्म तत्र च व्याघाते पमप्येतत्सूत्रार्थोभयनिष्ठतो निष्या दिवशिष्यः संलेखनापूर्वकमेवविध अन्यथा मार्तध्यानसंज वाचा असा मा जायति अट्टज्झाणं, सरीरिणो चरिमकालम्मि"| इति सपरिकर्माच्यते । यत्पुनर्व्याघाते गिरिभित्तिपतनाभिघातादिरूपे संलेखनामविष न तदपरिकर्म उक्त चा गमे प्रभिघाउ वा गिरि-मितिकोणगाव वा होगा। संहत्थपाया, दायावारण होज्जाहि ॥ एहि कारणेहिं, वा घातिममरण होइ नायव्यं । परिकम्मम काठणं, पञ्चकखाती तो भयानि एवं मिगिरिकन्दरादिगमनेन ग्रामादवैदिनिगमनं तद्विद्यते यत्र झिदिन्यदनिहरि त्था तुकामेन वृजिकादौ विधीयते एतच्च प्रकारद्वयमपि पादपोपगमनविषयम्, तत्प्रस्ताव एवागमे ऽस्यानिधानात् । तेषां चागमः "ती कार्ड, यव्वं जाय दोष वीि पंचतले यसोपा परिणां ॥ तं विहं नायम्यं महारि देव तह अणहारि । बहिया गामादीणं, गिरिकंदरमाइ नीहारि ॥ बइयाश्सु जं श्रंतो, उद्वेश्रो मणाणवाइ अणहारिं । तम्हा पायवगमणं, जे उचमा पाययेत्थं" आहारोऽनादिस्तद ( ३०४ ) अभिधानराजेन्डः । " करणमाहारच्छेदः । गुरुयोरपि सपरिकर्मा परिकर्मणोर्नहार्यनिहरिणोश्च सम इति शेषः । उभयत्र तदूव्यवच्छेदस्य तुल्यत्वादिति सूत्रपञ्चकार्थः । उक्तमनशनम् । उत्त० ३० अ० । स्था० औ० ( अनशनविधानं येन येनाऽनशनं कृतं तत्तच्छ ब्देऽपि दृश्यम्, यथा 'खंदग' शब्दे 'मेघकुमार' शब्द 'मरण' शब्दे च विशिष्ट विधिः ) अपरिभोगे, सूत्र० १ ० ७ ० । तथा दाघज्वरी कश्चिदनशनं कृत्वा रजन्यामपि जलपानं विधत्ते । यद्वाद्वियाननमेव न करोत्र रात्र सर्वथा नाहारत्यागरूपमनशनं तु विधेयमेवेति ज्ञातमस्ति । तथाऽनशनिना श्राद्धेनाऽचितमेव जलं पेयं, तदप्युष्णमेवेति ही०१ प्रका० । "देन सुनदेय व पुत्रेऽणस करे " इति सम्मुहुर्तम्) गणि० प्र० । एसियनशितनि अनिशितः अनुके, “न ही परमत्थ यवं पदीणमणसो, संवच्बरमणसिभ विहरमाणो " श्र० म० प्र० । " अणसूझ-देसी-आस दे० ० १ वर्ग अणहुअनप-नियमस्यास्तीति अनयः राष् नि० - यिनि, सूत्र० १० २ अ० २ उ० । अपापे, श्राव० ४ भ० । निदोषे, औ० । प्रश्न० । अकते, सू० प्र० २० पाहु० चं० प्र० । अहप्पण्यं देशी- श्रनष्टे, दे० ना० १ वर्ग । शीय-अनधवीज-पुं० अनएवीजे ०० चू० । अहसमग्ग-अनपसमग्र त्रि० । अधमर्त में पुरान्तराले केनापि चोरादिना समयं नायकोपकरणादि यस्य स तथा तस्करादिना सर्वस्व ००२० पा निपणे, महीनपरिचारे, " असममणि वर्ग घरं माग" अनपत्यं निषणतया समग्रत्वमहीनन परिवारतया । ज्ञा० १ श्रु० ८ अ० । अणहार- देशी-खल्ने, दे० ना० १ वर्ग । अहिक्खट्ट - अनधिखादनार्थ- पुं० । श्रविषमसमुद्देशनार्थे, " तासि पच्चयदेउं अणिहिक्खा अ कलहो ” पृ० १३० । अडिगय-अनभिगत-० असा व्य०१० अन न्तरभाविनि विशे० । अविज्ञाते, व्य० १३० । अहिगयपुसपात्र-अनधिगतपुण्यपाप- प्रि० । सूत्रार्थकथने - पुण्यपापे “अणहिगयपुछपाचं उचडावंतस्स पढ गुरू होति " व्य० ४ उ० । 66 हिज्नमाण - अनधीयमान- त्रि‍ । अपठति, " ते विजमाणा अजिमाणा, आहंसु विज्जा परिमोक्खमेव " १ श्रु० १२ अ० । सूत्र● अादिशिवि-अनजिनिविष्ट १० तस्वाभिनिवेश वर्जित, पंचा० ३ विष० । अब दियास- अनधिसह पुं० असहिष्णों, पृ० १४० ॥ अलिपा (वा) मगण पर अनहिलपाटकनगर-१०। गुर्जरधरित्र्यां सरस्वती नदीतीरे 'पाटण' इतीदानीं ख्याते नगरे, यत्रारिष्टनेमिः पूज्यते । “पणमि श्र अरिहनेमी, अणहिलपुरपट्टणावयंसस्स | यंत्राण गच्छणिस्सिय अरिष्टनेमिस्स कितिमो कप्पं " ती० २६ कल्प । [ 'अरिठणेमि' शब्दे दर्शयिच्यतेऽयं कल्पः ] यत्र अजयदेवसूरिभिर्ब्रथा विरचिताः। यथोकं पञ्चाशके-“चतुरधिकविंशतियुते, वर्षसहस्रे शते च सिकेयम् । धवलकपुरे वमत्यां धनपायो कुरा चन्द्रिकयोः। अणहिलपानगरे, सहवर्तमानयुधमुख्यैः । श्री द्रोणाचार्य-बिं , 33 शोधतात" पञ्चा० १३ वि० भगवतीवृपते"अष्टाविहातियुक्ते वर्षसहस्रे शतेन चान्यधिके महिलाकनगरे कृतेयमती ०४२० १४० अणही अनधी-स्त्री० । पालितानकनगरे कपर्दिनामधेयस्य ग्राममहत्तरस्य भार्थ्यायामू, ती० ३३ कल्प | अणहीय- अनीत जि० अनभ्यस्ते ग०१ अधि० । अग्रहीय परमस्थ-श्रमर्षीतपरमार्थ पुं० श्रनधीता अनभ्यस्ता Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 (३०५) अणहीयपरमत्थ अभिधानराजेन्द्रः । प्राणाइय परमार्था आगमरहस्यानि यैस्तेऽनधीतपरमार्थाः । अगी अथैतदेव विवृणोतितार्थे, " जे अणहीयपरमत्थे गोयमा ! संजए प्रवे " वकंतजोणि धमिल-अतसा दिना विई अवि नुहाई। ग०१अधिक। तह विन गेएहसु जिलो, माहु पसंगो असत्यहए ॥ प्रणाइ-अनादि-त्रि०ान विद्यते आदिः प्राथम्यमस्येत्यनादिः। यत्र नगवानावासितस्तत्र बहूनि तिबशकटान्यावासितान्यासत्त०१०। अप्राथम्ये, हा० ३० अष्टा । पं० सं०। श्रादि सन्, तेषु च तिला व्युक्रान्तयोनिका अशस्त्रोपहता अप्यायुःसंकविकले, उत्त०१ अ० व्या०ा आ० मा नास्याऽऽदिरस्यना येणाचित्तीभूताते च यद्यस्थएिको स्थिताभवेयुस्तता न कल्पेदिः। संसारे, सूत्र०२ श्रु०२० । प्रादिरहिते, स्था० ३ रनित्यत अाह-स्थाएमले स्थिताः। एवंविधा अपि त्रसैः संसग०१3०। ताभविष्यन्तीत्याह-अत्रसास्तद्भवागन्तुकबसविरहिताः,तिअणाइज्जणाम अनादेयनामन्-न०। नामकर्मभेदे; कर्म० १ लशकटस्वामिभिश्च गृहस्थैर्दताः। एतेन चाऽदत्तादानदोषोऽपि कर्म। प्रवाश्रा०। यदयवशायुपपन्नमपि भ्रवाणो नोपादेयव- तेषु नास्तीत्युक्तं नवति । अपिच-ते साधवः क्षुधापीमिता आयुषः चनो जवति, नाप्युपक्रियमाणोऽपि जनस्तस्यान्युत्थानादि समा- स्थितिक्षयमकार्युः तथापि जिनो वर्कमानस्वामी नाग्रहीत, मा चरति । पं० सं०३द्वा० । भूदशस्त्रहते प्रसङ्ग तीर्थकरेणापि गृहीतमिति मदीयमालम्बन श्रणाइ (ए)ज्जवयणपञ्चायाय-अनादेयवचनप्रत्याजात- कृत्वा मत्सन्तानघर्तिनः शिप्या शस्त्रोपहतमग्रहीषुरिति त्रिका अनादेये बचनप्रत्याजाते येषां ते तथा । अनुपादेयवचन- भावः । युक्तियुक्तं चैतत् प्रमाणस्थपुरुषाणाम् । यत उक्तम्जन्मसु, ज०७ श०६ उ०। "प्रमाणानि प्रमाणस्थेः, रक्षणीयानि यत्नतः। विषीदन्ति प्रमाअणाइणिहण-अनादिनिधन-त्रि०।आदिःप्रथमं निधनं प णानि प्रमाणस्थैर्विसंस्थुवैः" ॥१॥ य॑न्तः, ततश्च ते प्रादिनिधने, न विद्यते प्रादिनिधने यस्य स एमेव य निजीवे, दहाम्म तसवन्जिए दए दिन्ने। अनादिनिधनः । दर्श० सम्म । अनाद्यपर्यवसिते, अनुत्पन्न- समनोमे अ अवि रिती, जिमिताऽऽसन्ना न याणुन्ना ।। शाश्वते च । श्राव०४०। एवमेव च हदे निर्जीवे यथाऽऽयुष्ककयादचित्तीनूते अचित्तअणाइम-अनाचीर्ण-त्रि० । अनासेविते, महापुरुषैरनाचीर्णम् पृथिव्यां च स्थिते त्रसवर्जिते च उदके पानीये इदस्वामिना च [नाऽऽचरणीयम् ] पृ० १०॥ तदेवाशङ्कय परः प्राह-यदि दत्ते तृषार्दितानां स्थितिकयकारणेऽपि जगवान्नानजानीते स्म,मा यवत्प्राचीनगुरुन्निराचीण तत्पाश्चात्यैरप्याचरितव्यं, तर्हि ती- नृत्प्रसंग इति, तथा स्वामी तृतीयपौरुष्यां जिमितमात्रैः सार्थकरैः प्राकारत्रयछत्रत्रयप्रनृतिकाप्राकृतिका तेषामेवार्थाय सु धुनिः सार्द्धमेकामटवीं प्रपन्नः सन्नतिसंझाया आवाधा, यद्वारैर्विरचिता यथा समुपजीविता, तद् वयमपि अस्मन्निमित्तकृत [आसन्न ति] नावासन्नता साधूनां समजनि। तत्र समभौम गर्तकिं नोपजीवामः ? । सूरिराह गोष्पदबिलादिवर्जितं यथास्थितिवयं व्युत्कान्तयोनिकपृथिवीक त्रसप्राणविरहितं स्थण्डिलं वर्तते, अपरं च शस्त्रोपहतं स्थगिक. काम खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह विहुन सव्वसाहम्मा। लं नास्ति न प्राप्यते, अपि च ते साधवः संझावाधिताः स्थितिगुरुपो जंतु अइसए, पादुमियाई समुपजीवे ।। कयं कुर्वन्ति, तथापि भगवान्नानुझां करोति, यथाऽत्र व्युत्सृजकाममनुमतं खल्वस्माकं यदनुगुरवो धर्माः, तथापि न सर्वथा. तेति, मा भूदशस्त्रहते प्रसङ्गः, श्त्येषोऽनुधर्मःप्रवचनस्येति ससाधाच्चिन्त्यन्ते किन्तु देशसाधादेव । तथाहि-गुरव- पत्र योज्यम् । वृ०१ उ०नि० चू[फसविषयाऽऽचीर्णताssस्तीर्थकराः, यत्तु यत्पुनरतिशयान् प्रातिकादीन कोऽर्थः प्रा-] नाचीर्णता च 'पलम्ब' शब्दे वक्ष्यते] ऋतिका सूरेन्बादिकता समवसरणरचना, प्रादिशब्दादवस्थि-प्रणाश्बन्ध-अन.दिवन्ध-पुं० । यस्त्वनादिकालात् सन्ताननातनखरोमाधोमुखकण्टकादिसुरकृतातिशयपरिग्रहः, तान्, समु- वेन प्रवृत्तो न कदाचिद् व्यवचिन्नः सोऽनादिबन्धः । कर्मबपजीवति, सतीर्थकरो जीतकल्प इति कृत्वा न तत्रानुधर्म- धनेदे, कर्म०५ कर्म० । ता चिन्तनीया, यत्र पुनस्तीर्थकृतामितरेषां च साधूनां सामा- अणाश्भव-अनादिभव-पुं०।निष्प्राथम्यसंसारे, पंचा०३विव०। न्यधर्मत्वं तत्रैवानुधर्मता चिन्त्यते, सा चेयमनाचीति दृश्यते। अणाइभवदव्यलिंग-अनादिजवजव्यलिङ्ग-न।अनादिनवे निसगमद्दहसमभोमे, अवि अविसेसण विरहियतरं से। | प्राथम्यसंसारे यानि व्यलिङ्गानि भावविकलत्वनाप्रधानप्रवतह वि खलु अणानं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स ।। जितादिनेपथ्यचरणलवणानि तानि तथा । संसारे परतीर्थक प्रवजितेषु, "एतो उ विभागो अणाभवदवलिंगओ चेव " यदा स भगवान् श्रीमन्महावीरस्वामी राजगृहनगरादुदा पंचा० ३विव०। यननरेन्जप्रवाजनार्थ सिन्धुसौवीरदेशावतंसं वीतभयं नगरं प्र. स्थितस्तदा किलापान्तराले बहवः साधवः दुधातस्तृषार्दिताः अणाश्य-अझातिक-त्रि०। अविद्यमानस्यजने, भ०१श०१ उ०। संझाबाधिताइच बनूवः,यत्र च भगवानावासितस्तत्र तिल नृता श्रणातीत-त्रि०। अणमणकं पापमतिशयेनेतं गतमणातीतम् । नि शकटानि, पानीयपूर्णश्च हृदः,समन्नौमंच गाविलादिवर्जि पापं प्राप्ते, भ०१२०१ उ०। तं स्थफिलमनवत् । अपि च-विशेषेण तत्तिलोदकस्थएिकल जा. अनादिक-त्रि०। अविद्यमानादिके, ज०१श०१२० स्था। तं विरहिततरम, अतिशयेनाऽऽगन्तुकैश्च जीवर्जितमित्यर्थः । नास्यादिः प्रथमोत्पतिविद्यते इत्यनादिकः। चतुर्दशरज्वात्मके तथापि खलु भगवताऽनाचीम, नानुज्ञातं च, एवोऽनुधर्मः प्रवच लोके, धर्माऽधर्मादिक वा अन्ये, सूत्र०२ श्रु० ५ ०। स्य तीर्थस्य, सर्वैरपि वचनमध्यमध्यासीनैः शस्त्रोपहतपरिहार. ऋणातीत-त्रि०। ऋणमतीतम, ऋणजन्यदुःस्थतानिमित्ततया मकण एष च धर्मोऽनुगन्तव्य इति भावः । संसारे, भ०१.२०१०। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाइल । । अाइल अनाविल "नावा असा मुझे सक्के देवाहिवरे जुर्रमं " यथां चासौ सागरोनाविलोकलुषजनपगवानपि तथाविधानाचादपानइति । सूत्र० १ ० ६ ० " णीवारो वणलोपज्जा, छिन्नलोप - णाविले | अणाइले सया दंते, संधि पत्ते श्रणेविसं " यथाऽनाविलोलुप रागद्वेषाऽसंपृक्ततया मलरहितोऽनाकुलो वा, याप्रवृत्तेः सू० १ ० १ ० भादिनिरपे, “यो तुच्छपणो य विकंपइजा, अशाश्लेया अकसाइ भिक् नाचिलो सोनादिनिरपेक्कः । सूत्र० १४० १४ श्र० । याऽसंजुत्तय-अनादिसंयुक्त पुनद्यादिः प्रायम्यमस्येत्यनादि सहयोग मिले, "अणोराणापाणं च तं यतिविनयणमतं त्याम गावेन युक्तः सोऽनादिसंयुक्तः स पचावादिसंयुक्तः यद्वा-संयोगः संयुक्तस्ततोऽनादिसंयुक्तमस्येत्यनादिसंयुक्तकम् । कर्मसंयुक्ते जीवे उत० १८० अणासंता - अनादिसन्तान पुं० अगादिवाहके, बी० "श्रणाताणकम्मबंधन कवितारं "अनादिः सन्तानो यस्य कर्मबन्धनस्य तत्तथा । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वा० । रणाइसित - अनादिसिद्धान्त पुं० | अमनमन्तो वाच्यवाच करूपतया परिच्छेदोऽनादिसित सायन्तनादिसिद्धान्तः। अनादिकालादारज्येदं वाचकमिदं तु वाच्यमित्येवं सिके प्रति । 1 G (३०६ ) अनिधानराजे : 93 थ अनु F अणा- अनावृष-पुं० न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भयत्यायुः कर्म जत्वेन पुनरुत्पतिविरहे जिने, अ त्तरे सव्वजगंसि विज्जं, गंधा अतीते अजप श्रणाऊ " सूत्र० १ ० ६ ० अपगतायुः कर्मणि सिद्धे " तं सद्दहाणा य जया अणाऊ, इंदा व देवाहिव श्रागमिस्सं " सूत्र० १ ० ६ अ० । जीवनेदे, स्था० २ ० १ ३० । अाजही धनकुट्टी-पुं० कुदानमा विद्यालायाकुट्टी, नाकुट्टी नकुट्टी आहंसायाम आचा स १ श्रु० एअ० १ ० आ० म० द्वि० " जाणं कारण णानट्टी, अहो जंच हिंसति । पुठो संवेद‍ परं, अवियत्तं ऋतु सावज्जं" सूत्न० १ श्रु० १ अ० २ ० । ( 'कम्म' शब्दे चैतद् तृतं योग २३० पृष्ठे स्पष्टीजविष्यति ) । अणाट्टिया अनाकुट्टिकाखी० अनुपेत्य करणे, पंचा १६ विव० । राउत - अनायुक्त - त्रि० न० त०] । श्रनाभोगवति अनुपयुक्त, स्था० २ वा० १ ० | उत्त० । श्रसावधाने, औ० । श्रालस्यभाजि प्रत्युकाऽनुपयुक्ते, उत्त० १७ अ० । अणाउतआइया अनायुक्तादानवाखी० । अनायुक्तोऽनाजोगवाननुपयुक्त इत्यर्थः । तस्यादानता अनायुक्तादानता । अनायुक्तस्य वस्त्रादिविषये ग्रहणतायाम्, अनाजोगप्रत्ययक्रियाभेदे, स्था० २ ० १ उ० ॥ अरणा उत्तपम लाया अनायुक्तममार्जनता स्त्री० ६ २० अपामार्जन त्या नेदे, वह द्वयोः शब्दयोः ताप्रत्ययः स्वार्थिकः । प्राकृतत्वेन अनादीनां भावविवयैवति । स्था० २ ० १ उ० । अणाउल अनाकुलमुकादिभिः परीषोप अणागतकालगण रकुज्यति, " जत्थरथमिए अणाजले, समविसमाई मुणी हिया सए " सुत्र० १ श्रु० २ श्र० २ ० | सूत्रार्थादनुत्तरति, “सम्वे अण परिवजयंते, असा भिक्खु" सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । " गवंपि श्रणानलो संवदारखमणांस म० प्र० । अन्त० । क्रोधादिहिते, दश० १ ० । श्रौत्सुक्यरहिते, बृ० १ ० । " आण ॥ प्रणालया अनाकुलता स्त्री० निराकुलताया, "सर्वतानाकुलता यतिनावाध्ययपरसमासेन " पो० १३ विव० । असाम-अनादेश पुंग माङिति मर्यादाविशेष मात्मिकादिश्यते कथ्यते इत्यादेशो विशेष आदेश देशः। सामान्ये, उच०१० (सोदासोऽयं 'संजोग' राज्ये एव प्रदर्शविष्य ) असागर- अनागति- खी० ० ० अनागमने भशेषकर्मच्यु तिरूपायोकाकारादेशस्थानरूपाय वासि न० ॥ 66 33 च जो जाणर जागई च सूत्र० १ श्रु० १२ अ० । अपागंता - अनागत्य-अन्य आगमनमकृत्येत्यर्थे स्था० ३ ग० २ उ० । । न अणागत (प)- अनागत-२० आगतोऽनागतः। वर्तमा नत्वमप्राप्ते प्रविष्यति, स्था० ३ वा० ४ उ० । समयादौ पुगलपरावर्तन्ते काले भविष्यत्काल सम्बन्धिनि, सम्म० । सूत्र० "अणागमपस्ता, पच्प्पन्नमचेगा ते पच्छा परितप्यंति जोय "नायकामानि कादियातनास्थानेषु मदादुःखमपश्यन्त उपयोषन्तः सूत्र० १ श्रु० ३ अ०४ उ० । “ तेतिय उत्पन्नमणागयाई, लोगस्स जारांति तहागयाई” अनागतानि च भवान्तरभावानि सुखदुःखादीनि । सूत्र० १० १२ श्र० । 'जे य बुद्धा अतिक्कंता, जे य बुका अणागया" अनागता भविष्यदनन्तकालभाविनः । सुश्र० १ श्रु० ११ अ० । 66 66 66 तं वर्तमान 1 अथागत (य) काल अनागतकाल पुं० समयमवधीकृत्य भाविनि समयराशौ, ज्यो० १ पाहु० अणागतच्छा - अनागताका स्त्री० । श्रागामिषूत्पन्नपुफलपरा पर्तेषु कर्म० कर्म० । अागत (य) कालग्गढ़ण- अनागतका लग्रह एन० | - विध्यालयाास्य वस्तुनः परिच्छेदात्मके विशेषानुमान भेदे, अनु० । १ से कि तं अणामयकाल ? प्रागयकालग्गहभस निम्मत्तं कसिलायगिरी सविज्जुत्रा मेहा । यि पाउनामो, सज्जारसापाय || १॥ वारुणं वा महिंदं वा यरं वा उप्पायं पसत्यं पासिता ते साहिल जहा नविस्स से अणागयकालग्गहणं || गाथा सुगमा, नवरं स्तनितं मेघगर्जितं (वाउ भामो ति) तथाविधो दृष्टव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वातः (वारुणं ति) आमूलादिनवत्रप्रनवं, माहेन्द्ररोहिणीज्येष्ठादिनवत्रसंभयम, अन्यतरमुत्पात मुल्कापातदिन्दाहादिकं प्रशस्त दृश्यव्यभिचारिणं यथाष्टर भविष्यति त व्यभिचारिणाम निर्मलत्वादीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्श Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणागतकालग्गहगा अनिधानराजेन्द्रः। अगागार नाद्यथाऽन्यवदिति । विशिष्ठा ह्यत्र निर्ममत्वादयो वृष्टि न व्यनि- तं दिठिविसं सप्प संघट्टेति" । भ०१५ श०१ जा उपासका चरन्ति, भतः प्रतिपत्रैव तत्र निपुणेन भाव्यमिति । अनु०। अणागाढ--अनागाढ-त्रि० । अनभिगृहीतदर्शनविशेष, घृ० १ प्रणागम-अनागम-पुंगमनागमने,आचा०१श्रु०२०३२॥अपी. १० । आगाढभिन्न कारणे, व्य० ३ ० ['आगाट' शब्द द्वितीरुषेयादी भागमे, आगमनक्कणविहीनत्वात्तस्य । स्था०१० मा यन्नागे ८६ पृष्ठे व्याख्यास्यते] अथ किमिदमागाळे किंवा प्रप्रणागमणधम्म-अनागमनधर्मन्-त्रि०ा अनागमनं धर्मों येषां नागाढम् ? । उच्यते-"अहिदह्रविसविस्श्य-सज्जक्खयसूलमाते यथाऽऽरोपितप्रतिहाभारवाहित्वात् । न पुनर्गृहप्रत्यागमने- गाढं।" अहिना सण दष्टः कश्चित, विषं वा केनचिद् भक्ताप्सुषु, प्राचा०१ श्रु०६ ०२०० दिमिधं दत्तं, विसूचिका वा कस्यापि जाता, सद्यः कयकारि अणागयपच्चक्खाण-अनागतप्रत्याख्यान-न०। प्रत्याख्यान- वा कस्यापि शूलमुत्पन्नम, एवमादिकमाशुघाति सर्वमप्यागाभेदे भविष्यति प्रत्याख्याने, आवाअनागतकरणादमागतपर्यु ढम् । पतविपरीतं तु चिरघाति कुब्जादिरोगात्मकमनागाढम् । षणादावाचार्यादिवैयावृत्त्यकरणान्तरायसद्भावाहारत एव त वृ०१०। नि० चू० । अनागाढे योगे भवे उत्तराध्ययनादौ सत्सपाकरणे, स्था। श्रुते, नि० चू०४ उ०। नक्तं च प्रणागार-अनाकार-न० । अविद्यमाना आकारा महत्तराकाहोही पज्जोसवणा, ममयतया अंतराश्यं होज्जा । रादयो विच्छिन्नप्रयोजनत्वात् प्रतिपक्षुर्यस्मिंस्तदनाकारम् । गुरुवेयावञ्चणं, तवस्सिगेललया एवं ॥ ५॥ स्था १० ठा। अविद्यमानमहत्तराद्याकारे, प्रव०१३ द्वा०। सो दाइ तवोकम्मं, पडिवज्जइ तं अणागए काले । अविद्यमानाकारे प्रत्याख्यानन्नेदे, यष्ििशष्टप्रयोजनसम्भवा. एवं पञ्चक्खाणं, अणागय होइ नायव्यं ॥ ६ ॥ नावे कान्तारदुर्जिवादी महत्तराद्याकारमनुचारयदनिर्विधीभविष्यति पर्युषणा मम च तदाऽन्तरायं भवेत्। केन हेतुनेत्यत यते तदनाकारमिति केवलमनाकारेऽपि अनाभोगसहसाकागश्राह-गुरुवैयावृत्त्येन तपस्विग्नानतया वेत्युपलक्कणामति गाथा वुच्चारयितव्यावेव काष्ठाङ्गल्यादेर्मुखे प्रक्वेपणतो नङ्गो मा नृदि. समासार्थः। (सोदाइत्ति)स श्दानीं तपःकर्म प्रतिपद्यते तदनागते ति । अतोऽनाभोगसहसाकारापेक्षया सर्वदा साकारमेव । भ० काले एतत्प्रत्याख्यानमेवभूतमनागतकरणादनागतं ज्ञातव्यं नव ७ २०२०म० प्र० । अनाकारं नाम तत् किन्तु केवल मितीति गाथासमासार्थः॥६॥ "श्मो पुण पत्थ जावत्थो-अणा हानाकारेउपि अनाभोगः सहसाकारश्च द्वावाकारी भणितब्यौ, गयं पच्चक्खाणं , जहा अणागयं तवं करेज्जा पज्जोसवणा येन कदाचिदनाभोगतोऽज्ञानतः सहसा वा रभसेन तृणादि गहणेण पत्थ विगिट्टे कीरक्ष,सवजहन्नो अहम, जहा पज्जोसव मुखे किपेनिपतेहा कुतोऽपि इति कृताकारठिकमाप शेर्पमहत्त. णाप तहा चाउम्मासिए ग्टुं पक्विए अम्भत्त अमेसु य राकारादिभिराकारैः रहितमनाकारमभिधीयते । इदं चानाकार एहाणाणुजाणादिसु तर्हि ममं अतराइयं होज्जा, गुरुपायरिया कदा विधीयते । अत्राह-"दुभिक्खवित्तिकंता-रगाढरोगाए तेसिं कायव्वं, ते कि ण करेति असदू होज्जा अहवा अन्ना का कुजा" मिक्के वृष्यभावे हिएममानैरपि भिक्का न लज्यते, आणत्तिया होज्जा कायच्चिया गामंतरादि सेहस्स वा आणे तत इदं प्रत्याख्यानं कृत्वा म्रियते । वृत्तिकान्तारे वा, वर्तते यव्वं सरीरबेयावमिया बा ताहे सो उववासं करेश, गुम्वेया शरीरं यया सा वृत्तिनिकादिका तद्विषये कान्तारमिय कान्तारं वच्चं न सके जो अन्नो दोराइवि समत्थो सो करेल, जो चा तत्र यथाऽटव्यां जिका न लज्यत तथा सिणवल्ल्यादिषुस्थनाअन्नो समत्थो उपवासस्स सो करेन नत्थि न वा लभेजा ग वाऽऽदातृद्विजाकीर्णेषु शासनद्विष्टेऽधिष्टितेषु भिक्कादि नाऽऽयणि जाव विधि ताहे सो चेव पुवं उबवासं काऊणं पच्छा त. साद्यते, तदेदं प्रत्याख्यानम् । तथा वैद्यायप्रतिविधये गाढतरविसं भुजेज्जा तवस्सी नाम खामो तस्स कायव्वं होज्जा रोगे सति गृह्यते । श्रादिशब्दात् कान्तारे केशरिकिशोरादिज. तो किं तदान कर सो तीरं पत्तो पज्जोसवणा ऊसारिया न्यमानायामापदि कुर्यादिति । प्रव०४ द्वा० । अविद्यमाम श्रा(असहुत्ति) वा सयं पाराविओ ताहे य सयं हिंडिलमसमत्थो कारो भेदो ग्राह्यस्यास्येत्यनाकारम् । सम्मः । अतिक्रान्तविशेष जाणि अम्भासे ताणि वच्चो नधि सभा सेसं जहा गुरुम्मि सामान्यालम्बिान दर्शने, “साकारे सेणाणे अणागारे दंसणे" विभासा गेअन्नं जाण जहा तहिं दिवसे असहू होइ विज्जेण सम्म । “ मइसुयवहिमणकेवल-विहंगमश्सुयणाणसागारा" चा भणियं अमुर्ग दिवस (कारहत्ति) अहटा सयं चेव जाणाति सह आकारण जातिवस्तुप्रतिनियतग्रहणपरिणामरूपेण "श्रासगरोगादिहिं तेहिं दिवसहि असह हो (सामित्ति)सेसे वि गारो उ बिसेसा" इति वचनाद् विशेषेण वर्तन्त इति साकाभासा जहा गुरुम्मि कारणकुलगणसंघनायरियगच्छे वा तहेव | राणि । अयमर्थः-चक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनानि अनाकाविभासा पच्छा सो अणागते काले काऊण पच्छा मुंजेज्जा राणि, अमुनि च पञ्च ज्ञानानि साकाराणि । तथाहि-सामान्याय पज्जासवणादिसु तस्स जा किर निरा पज्जोसवणादिदि त शेषात्मकं हि सकनं शेयं वस्तु । कथमिति चेपुच्यते-दूरादेव हेव सा अणागते काले भवति ॥ गतमनागतद्वारम् । आव. हि शालतमालवकुलाशोकचम्पककदम्बजम्बूनिम्बादिविशिएडय. ६अ। आतु० । ध० । ल प्रा क्तिरूपतयाऽवधारितं तरुनिकरमवलोकयतः सामान्येन वृक्ष प्रणागलिय-अनर्गलित-त्रि०) अनिवारिते, भ०१५ श०१ उ० मात्रप्रतीतिजनकं यदपरिस्फुटं किमपि रूपंचकास्ति, तत्सामाअनाकलित-त्रिणा अप्रमेये, भ० १५ श०१ उ० । नपा। न्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते, 'निविंशयं विशेषाणामग्रहो दर्शन मुच्यते' इति वचननामाण्यात् । यत्पुनस्तस्यैव निकटीभूतस्य अणागलियचंमतिब्वरोस-अनर्गलितचामतीवरोष-त्रि० । तालतमालशालादिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं, तमेघ महीरुहमुत्पभनिवारितचएमतीवक्रोधे, भ० १५ श०१०। श्यता विशिव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभानि, सहिशअनाकलितचएमतीव्ररोष-त्रि० । अनाकलिताप्रमेयचएमती परुप साकारं झानमप्रमेयम् । प्रमा च पारमेश्वरप्रवचनवक्रोधे, “अनागलियचंतिब्बरोसं समुहरियं च वलं धम्म प्रवीणचेतसः प्रतिपादयन्ति, सह विशिष्ट्राकारेण वर्तत इति Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) व्यनिधानराजेन्द्रः | अथागार एवं ते मा होउ एयं कुसलस्स दंसणं । कृत्वा । तदेषं प्रतिप्राणिमसिक प्रमाणावाधितप्रतीतिवशात्सर्वमपि वस्तुजातं सामान्य विशेषरूपद्वयात्मकं भावनीयमिति । कर्म० ४] कर्म० ख ओही केवलसणगारा" दर्श | अचक्खू श्रोही नयन्दस्य प्रत्येक संवधान १२ बाधिद शेन केवलदर्शनरूपाणि कारि दर्शनानि चतुषा प स्तुसामान्यांशात्मकं ग्रहणं चतुर्दर्शनम् १, अचक्षुषा चक्षुर्वर्ण्यशेबेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद्दर्शनं सामान्यांशात्मकं ग्रहणं तदन] अवचिता मियांदादर्शनं सामान्यांशारकम ३ ग्राहक शेष रूपेण यद्दर्शनं सामान्यांशग्रहणं तत्केवल दर्शनमिति । किंरूपायेतानि दर्शनान्यत आह- अनाकाराणि सामान्याकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टव्यक्त श्राकारो येषु तान्यनाकाराणि इति । कर्म० ४ कर्म० । इह तीर्थङ्करगणधरादिनोपदेशगोचरीभूतो विनेयोऽभिधीयतेयदि वा सर्वभावसंभावित्वाद भाषस्य सामान्यतोऽनिधानम अ नानुपदेशः स्वमनीषिका परितोऽनाकारस्याऽनाइया तस्यां बा केन्द्रियवशगा दुर्गतिं जिगमिषयः स्वाभिमानप्रद प्रस्ताः । सह उपस्थानेन धर्मरणानासोमेन वर्ततइतिसपस्थाना किल पथमपिताः सदसकर्मविशेषविधविकलः साथरम्भातुन मायासितान्तःकरणाः किन्तु आस्थावर्णस्तापहरू ग्रहाय तीर्थकरोपदेशगीते सदाचारे निर्गतमुपस्थानमुद्यमो येषां ते निरुपस्थानाः, सर्वप्रणीत सदाचारानुष्ठान विकलाः पतत्कुमामागीदमपि ते तच गुरुविनेयोपगतस्य दुर्गतिहेतुत्वान्मा सूदिति सुधर्मस्वामी स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह- (एवमित्यादि । एतद्यत्पूर्वोकं यदि वा अनाशायां निरुपस्थानत्वमाहाय सोपस्थात्वमित्येतत्कुशल तीनप्रायः, यदि वैतद् वक्ष्यमाणं कुशलस्य दर्शनम् । श्रचा० १ अणाजीव अनाजी विक-पुं०। निःस्पृहे, दश० ३ श्र० । “श्रगिलाइ अणाजीवे नायव्वो सो तवायारो " ग० १ अधि० । माजीवि (ए) - अनाजीविन् नि आजीची अनाज पी अनाशंसिनि नि० ० १ ४० । ० ५ ० ६ उ० । प्रणामो देखी जारे, दे० ना० १ वर्ग अणाणत्त - अनानात्व-न० । भेदवर्जिते, स्था०१ ग० । अणादायमा अनाप्रियमाण- त्रि० । अनादरयति, श्राचा०२ अणालय- अनाइक-तीर्थकरोपदेशशून्ये स्वैशिरी, आचा० १ श्रु० १ ० २३० ॥ अनादिय- अनाहत न००० भावेका अनादरे सं भ्रमरहिते, आव०३ अ०] "आयरकरणं आढा, तव्विवरीयं अणादियं हो" । आदरः संभ्रमस्तत्करणमादतता, सा यत्रन नवति सदनादमुच्यते । इत्येवंरूपे वन्दवदोषाणां प्रथमे दोषे, १०३ Tol आव० आ० चू० । ध० आदरः संभ्रमः, तत्करणमाहतम् । श्रार्षत्वादादियं तद्विपरीतं तदितमनादृतं नवति । प्रव०२द्वा०| अनादरेण वन्दने, एष वन्दनकस्य प्रथमदोषः । ००३ अ० । तिरस्कृते त्रि० काकन्दीनगरीवास्तध्ये गृह पति ० थानिरयावल्याः ३ वर्गे १० अध्ययने सूचिताऽस्ति । तत्रैव पञ्चमायो पूर्ण नावनीया सारार्यस्तु प्रणादियप तिः काकन्यां नगयौ समयमृतानां स्थविराणामस्तिके यां गृहीत्वा श्रुतमधीत्य तपः कृत्वा श्रामण्यमनुपालय अनशनेन काकृत्वा सोधक अणादिपविमाने द्विसागरोपमायुष्कसया देवत्वेनोपपन्नः, ततयुत्वा महाविदेहे सेत्स्यति नि० । भारता आदरक्रियाविषयीकृताः, शेषा जम्बूहीपगता देवा येनात्मना इत्यद्भुतं महर्द्धिकत्वमीकमाणेन सोऽनाहृतः । जी०३ प्रति० ॥ अनफिक पुं० जम्बूदीपाधिष्ठातृदेवे उ० ११० म्बूदीवादिवई प्रणादिओ" द्वी० जी० । स्था० । ( 'जंबूसुदंसण' शब्देऽस्य वक्तव्यता ) - अरणादिया- अनाहता स्त्री० अनादृतादनादराधा सा अनाहता, नन्दिषेणयेव श्रनारतस्य वा शिथिलस्य या सा तथा । स्था० १०० रोगनिसादला अादिया रामकपुच्चये पं० नाग पं० चू० । अनादृतस्य जम्बूद्धी पाधिपतेः राजधान्याम, जी० ३ प्रति० । -- " अणा - अनाज्ञा स्त्री० । श्राज्ञाप्यते इत्याज्ञा दितादितप्राप्तिप रिहारया सर्वोपस्तद्विपर्ययो नाका तीर्थकरानुपदि स्वमनीषिकया भाचरितेऽनाचारे, श्राचा० । अनाणार पगे सोढाणा आणणार एगे निस्वाणा, अागामि श्रु० २ अ० ६ उ० । प्रणाणुमामिय- अनानुगामिक-त्रि० न अनुगच्छति इति कालान्तरमुपकारित्वेनाननुयातरि स्था० डा० १४० अशु नानुबन्धे, स्था० ६ वा न अनुगामिकमनानुगामिकम सत्राप्रतिबरूप्रदीपसदृशे गच्छन्तमननुगच्छति अवधिज्ञानविशेघे, नं० | तथा से किं तं अाशुगामिषं ओहिनाएं है। अनागामियं ओहिना से जहानामए के पुरिसे एगं महंतं जोडाणं का तस्सेच जास्स परि पेरतेहिं २ परिघोलेमाणे परिघोलेमाणे तमेव जोइट्ठाणं पास, श्रएणत्थगए नो पास, एवामेत्र अशाणुगामियं ओहिनाएं जत्थेव सुप्पज्ज‍, तत्येव संखिजाणिवा असंखिजाणि वा संबाशिवा संवाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ अणत्थगए न पासर, सेतं अश्णाणुगामियं ओहिनाणं । अथ किं तत् अनानुगामिकमवधिज्ञानम् १ | सूरिराह श्रनानुगामिकमवधिज्ञानं स विवक्षितः, यथा नाम- - कश्चित्पुरुषः पूर्णः सुखदुःखानामिति । पुरुषः पुरि शयनाद्वा पुरुष एकं महज्ज्योतिः स्थानमन्निस्थानं कर्यात कविकुलम प्रीया स्यामुत्पादयेदित्यर्थः। ततस्तत्कृावा तस्यैव ज्योतिःस्थापनस्य परि पर्यन्तेषु २ परितः सर्वासु दिनु पर्यतेषु परिपूर्णान् परिभ्रमन्यये तदेव ज्योतिनं ज्योतिःस्थानप्रकाशित क्षेत्रं पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति । एष दृष्टान्तः । उपनयमाह-एवमेव अनेनैव प्रकारेणानानुगामिकमचधिज्ञानं यत्रैव क्षेत्रे व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यस्थितः सन्सथानि अयेयानि वा योजनानि स्वायगा दत्रेण सह संबद्धानि असंबानि वा अवधिऋषिकोऽपि जायमानः स्वावगाढदेशादारज्य निरन्तर प्रकाशयति कोऽपि पुन रपान्तरात्रे अन्तरं कृत्वा परतः प्रकाशयति, तत उच्यते-सम्ब Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) निधानराजेन्जः । पाशुगामिय कान्यसंबद्धानि यति जानाति विशेषाकारेण परिनिनि पश्यति सामान्याकारणानुयते, अन्यत्र देशान्तरमेव पश्य तिः अवधिज्ञानावरणहषोपमस्य तत्त्रमुममानुगामिकम्। मं० कर्म० जान म अणा-मनानुगुरू वि० धनाशते से णेसणं च श्रनस्स पाणस्स श्रणासु गिडे' सूत्र०१ श्रु०१३ श्र० । अाता ( ) अनानुतापिन् पुं० । अपवाद पदेन कायानामुइयेष ते पचादनुतापरहिते व्य० २३० भुतहा ! मित्यादि पश्चातापप्रकृति निःशङ्क निईये च प्रवर्तमाने, पृ० ३३० । अणाकृताविति दारम्वितियपदे जो तु परं तावेतातप्यते पच्छा। सो होति तावी, किं पुरा दप्पेण सेवित्ता ? ।।४७२|| वितियं प्रववातपदं तेण अच्चापदे जो साहू परा पुढधिकाया तेजो संघट्टण परितावण उद्दवणेण वा तापणं करेात पति जहाद कथं से होति अता-पता 1 र्थः । कारण वितियपदेण जयणाए परिसेविऊण अपच्चत्तावियाणो अणावी परिसेवा नवति, किं पुण जो दप्पेण परिसेविता नानुतप्यते इत्यर्थः । अणासुतापि स गतम्। नी० ०१ ४० प्रणाणुपुव्वी अनानुपूर्वी स्वी० न श्रानुपूर्वी अनानुपूर्वी, श्रानुपूयपस्यानुपुर्वी रूपप्रकारद्वयातिरिकरूपयामपरिपाटी, अनु (अमानुष अनुपयों सह सम्मिलित विषय '' शब्दे बिना १३१ पृष्ठे ते लोकालोकानां पूर्वपथाद्वितीयनागे वक्ष्यते, द्भावोऽननुपूर्वीत्यादि च ' रोहा ' शब्दे वक्ष्यते ) । बंधि (ए) ननुबन्धिन्- न०। नानुबन्धोऽननुबन्धः, सोयस्मिन्निति । न विद्यतेऽनुबन्धः सातत्यं प्रस्फोटकादीनां यत्र तदनुबन्धि, इन् समासान्तोऽत्र दृश्यः । नानुबन्धि अननुबन्धि । स्था० ६ ठा० । अप्रमादप्रत्युपेक्षण विधिजेदे, प्रत्युपेक च न निरन्तरमाखादि, किं तहिं सान्तरसविच्छेदमिति तस्यम धर्म० ३ अधि० । औ० । नि० चू० । उत्त० । शाणुवति [ए] - अननुवर्तिन् प्रकृत्यैच निष्ठुरे वृ०१४०० अणावा [ ]-अनुवादिन् पुं० [पादिकं साधनमनुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी, तत्प्रतिषेधादननुवादी । व्याकुलममनुवादमपि कर्तुमशके, "सेोभाबाई सूत्र० १ ० १२ श्र० । प्रणादी- अननुविचिन्त्य अव्य० पश्चादविचाय्यैश्य, - । सूत्र १ श्रु० १२ अ० । प्रणतावय-अनावापक त्रि० संस्तारकपाचादीनामातदातरि, [ साधौ ] कल्प० । अणातीय अतीत पुं० [आसमन्तादती तो गोनाथन न्तसंसारे श्रातीतः, न श्रातीतोऽनातीतः। संसारार्णवपारगामि नि, आचा० १० ० ० ६ ० । अणादि-अनादि वि० [प्रयादापेकृपाऽऽदिरहिते, उस० ४ ० आ० म० द्वि० । प्र० । अणादिय-अनारत पुं० अपाचित व्यन्तर उत्त० १० अ० । 33 अणाजोगकिरिया अनादिक-पुं० नास्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते इत्यनादिकः। चतुईशरथात्मके धर्माधर्मादिके या द्रव्ये, सूत्र० २५० ५५० । दोषविशेषे पृ० ३ ० [ व्युत्पत्तिस्तु 'प्रणाडिय' शब्द निरूपिता] प्रवादापेकयाssदिरहिते, । त्रि० न० ब० प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वा० । अणादिक-त्रिणं पापकर्म आदिकारण यस्य सोध्णादि कः । पापका प्रश्न० १ श्राश्र० द्वा० । तीत शि० श्रधमन देवव्यमतिक्रान्ते, "पंचविदो पक्षो जिहिं रह रहवो अणादियो " प्रश्न० १ श्रध० द्वा० । अापुच्यिचारि (ए) - अनापृचपचारिन् पुं० | गणमनाचरति क्षेत्रान्तरक्रमादि करोतीत्येवंशोऽपृच्छपचा री । नो आपृच्छ्च चारिणि पञ्चमं विग्रहस्थानं प्राप्ते, स्था० १ ० १० । अवाद-अनावाप पुं० प्रकाशे ०३४० याचाच । । जिंते, दश० ६ श्र० । न विद्यते श्रावाधा जन्मजरामरणकुत्पिपासादिया पत्र सदनावाचम् । स्वाभाविकबापत म स्था०१० ठा० । स्वाध्यायाद्यन्तरायकारणरहिते, उत्त० ३५२० "होइ प्रणायानिमित्त प्रवेषणमाउलो नि" बनावाचा निमितमनाया था काम, निमित्त कार्यान्यकः तथा श्रो के वक्तारो भवन्ति श्रनेन निमित्तेन अनेन कारणेन मयेदं कार्य्यमारन्धमनेन कारयेणेत्यर्थः । आ० म० द्वि० । " । अवाहमुहाजिखि (ए) नावाधमुखानिकान् पुं० अनावाधसुखानिकाङ्क्षिन्–पुं०। मोकसुखाभिलाषिण, दश० १ ० । जिगह अनभिग्रह-न० न विद्यते अभिग्रह इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यदित्येवंरूपो यत्र तदभिग्रहम् । मिथ्यास्वदेशात्सर्याण्यपि दर्शनानि शोभमानीत्येवमत्सा धर्म्यमवलम्बते । पं० सं० १ द्वा० । अणाभोग - अनाजोग-पुं० । श्रभोगनमाभोगः, न आभोगोऽनाभोगः । पं० व० २ द्वा० । अत्यन्तविस्मृतौ, श्रातु०। पंचा०| जीत० नि० ० ० एकान्नविस्मृती आ० ० ६ श्र० । अज्ञाने, नि० ० २ श्र० । श्राभोगनमाभोगः, उपयोगविशेष इत्यर्थः । अनुपयोगे, श्राव० ४ श्र० । श्रसावधानतायाम, ध० २ अधि० । न विद्यते श्राभोगः परिभावनं यत्र तदनाभोगम् । तच्चै केन्द्रियादीनामिति । पं० सं० ३ द्वा० । विचारशून्यस्यैकेन्द्रियादेषां विशेषज्ञानविकलस्य भवति । इदं सर्वशविषयान्यबोधस्वरूपं विवचितं किञ्चिदशाय बोधस्वरूपं चेत्यनेकविधम् । ध० २ श्रधि० । दर्श० । कर्म० । अणाजोगकाण- अनाभोगध्यानन० अनाभोगोऽत्यन्त। विस्मृति, तस्य ध्यानम् विस्मृतवतप्रखचन्द्रस्येव ध्याने, अनु० [पसाचंद शब्दे तत् कथानक ] अणा भोगरूप अनाभोगकृत न० अगाभोगेन कृतं जनितम प्रशानते, कर्म० ५ कर्म० । श्रणाभोगकिरिया - अनाभोगक्रिया स्त्री० । श्रनाभोगप्रत्यये क्रियाभेदे, अनाभोगक्रिया द्विविधा आदानपभोग क्रिया, उत्क्रमणानाभोगक्रिया च । तत्राऽऽदानं रजोहरणपात्रश्रीचरादिकानामप्रत्युपेक्षिता अप्रमार्जितानामनाभोगेनादाननिक्षेपः । उत्क्रमणानाभोगक्रिया-लङ्घनप्लवनधावनासमीक्षागमनागमनादि । श्रा० चू० ४ श्र० । - Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाजोगणिव्यत्तिय अणाजोगणितिय अनाजोग निर्वर्तित-पुं० [अह्नाननिर्द तिते, स्था० । अणाजोगपणा अनाभोगप्रतिसेवना-श्री० 1 अनाभोगो विस्मृतिस्तत्र प्रतिसेवना प्रतिसेवनाभेदे स्था० १० ठा० । ( अनाभोगप्रति सेवनायाः स्वरूपं ' पडिसेवणा' शब्दे दर्शयिष्यते ) 66 अणाजोगभव - अनाभोगनव-पुं० । विस्मरणसद्भावे, “ इय चरणम्मि दिवाणं होणाभोगभावथो बल "पंचा० १७ विव० । अणाभोगया - अनाजोगता स्त्री० । श्रभोगरा हततायाम्, कर्म० ५ कर्म० । अणाभोग - अनाजोगवत् - त्रि० । अनाभोगोऽपरिज्ञानमात्रमेव केवलं धाचीदिषु सूक्ष्मबुद्धिगम्येषु स विद्यते यस्य स तथा तार्थापरिज्ञातरि " योनिदोषादोनाभोगवान् पूजिनमी " पो० १२ विष० । संमूर्च्छना अज्ञानिनि, द्वा० १० द्वा० । अशा जोगवचिया-नागा-श्री० अनाभोगोऽथानादि । प्रज्ञानं प्रत्ययो निमित्तं यस्याः सा तथा । स्था० २ ठा० १ उ० । पात्राद्याददतो निक्षिपतो वा सम्भवति क्रियाभेदे, स्था० ५ ठा० २ उ० । “ श्रणाभोगवत्तिया किरिया दुबिहा पाता। तं जहा- श्ररणाउत्तश्रायण्या वेव, श्रण उत्तपमजण्या चेव " स्था० ५ ठा० २ उ० । श्रा० चू० | श्रावण | अणामंतिवनामरूप-अव्य० अनापृच्छत्यर्थे श्राचा० 66 २ ० १ ० एन० । अणमियाबाड़ी अनामिकव्याधि नामरहिले न्या धौ, अनामिको नामरहितो व्याधिरसाध्यरोगः । तं० । अणादि-अनायामाल श्राचामाम्लविरहिते, श्रव० ६ श्र० । ( ३१० ) अनिधानराजेन्ध: । - अणायग - अनायक - पुं० । न विद्यतेऽन्यो नायकोऽस्येत्यनायकः । स्वयंप्रभे चक्रवर्त्यादौ सूत्र० १० २ ० २ उ० । अज्ञातक - त्रि० । अस्वज्ञने, नि० चूः ८ उ० । अप्रज्ञापने, नि० चू० ११ उ० । अरणाययण - अनायतन- न० न श्रायतनमनायतनम् | अस्था ने वेश्यासामन्ताविरुद०१० साधूनामना प्रक्ष , ४ सम्ब० द्वा० । नाट्यशालायाम्, अश्वपतितजन्तुगुणशालायाम, पं० | पार्श्वस्थाद्यायतने, श्राव ३ श्र० । पशुपचू० एडकसंसक्ते वा स्थाने, ओ० । इदानीमनायतनस्यैव पर्यावदान प्रतिपादयश्रादसावनमायणं असोदिया सीनसंसरिग । एगा होंति पया, एए विवरीय आययणा ।। १०८६ ।। साथ मनायतनमशोधानं कशीला ताकाधिका नि पदानि भवन्ति । एतान्येव च विपरीतानि श्रायतनं भवन्ति । कथम् ?, श्रसावद्यमायतनं शोधिस्थानं सुशीलसंसगति । अत्र चानायतनं वर्जयित्वा आयतनं गवेषणीयम् । एतदेवाह- जित्तु प्राययणं, आययणगवेसणं सदा कुज्जा । तंतु पुराणाय नायव्वं दव्यनापेण ॥१०८७ ॥ " अणाययण वर्जयित्वा अनायतनमायतनस्य गवेषणं सदा सर्वकालं कुर्या त् । तत्पुनरनायतनं इव्यतो जावतश्च विज्ञेयम् । तत्र द्रव्यानायतनं प्रतिपादयन्नाह-दवे रुदाइ अापणं भावओ दुविमेव । लोइय लोडसरियं तत्या ओवं इणमो ।। १०८० ।। ये द्रव्यविषयमनायतनं दमदानी प्रायोमा यतनमुच्यते । तत्र जावतो द्विविधमेव-लौकिक, लोकोत्तरंच । तत्रापि लौकिकमनायतनमिदं वर्तते खरिया तिरिक्खजोशी, तालावर समण माहरा मुसाले । वारिय वाह गुम्मिय-हरिएस पुलिंदमच्छिबंधा य । १०८६ । खरिकेति व्यकरिका यत्राऽऽस्ते तदनायतनम्, तथा तिर्यग्योनयश्च यत्र तद्यनायतनम्, तासाचराश्चारणास्ते यत्र तदनायतनम्, श्र मणाः शाक्यादयस्ते यत्र, तथा ब्राह्मणा यत्र तदनायतनं, श्मशा चना तथा वागुरिका व्यापारिक युवाला हरिसा पुलिन्दा मत्स्यबन्धाश्च यत्र तदनायतनमिति । एतेष्वनायतनेषु कृणमपि न गन्तव्यम्, तथाचाहखणमत्रि न खमंगंतुं, अणाययण सेवा सुविहियाणं । जं गंध हो वर्ण, वं गंध मारुओ का ।। १०० ॥ समपि न कर्मयोग्यायन्तु तथा सेवनाचनायतनस्य सुविहितानां कर्तुं न कमा न युक्ता । यतोऽयं दोषो नवति" जं गंध होइ वणं तं गंध मारुम्रो वाइ" । सुगमम् । जे अत्र एकमाई, योगम्मि दुजिया गरदिया । समणाण व समणीव न कप्पई तारिसी वासो१००७१। येsये एवमादयः लोके जुगुप्सिता गर्हिताश्च द्व्यकरिकाद्यनायतनविशेषाः, तत्र श्रमणानां श्रमणीनां वा न कल्पते तादृशो वास इति । उक्तं लौकिकं भावानायतनम् । , इदानीं लोकोत्तरं जायानायतनं प्रतिपादयनादअह लोगुतरियं पुरा अशाययण भावप्रमुयन् । जे जमलांगाणं करिति हाणि समत्या नि ।। १०२ ।। श्रथ लोकोत्तरं पुनरनायतनं भावत इदं ज्ञातव्यम् । ये प्रत्रजियाः संयमयोगानां कुर्वन्तिद्वानि समय अपि सन्त राम्रोको तरमनायतनम्। तैश्च एवंविधः संसर्गो न कर्तव्यः । ( कुशीलसं[सर्गे दोषाः फिकम्म शब्दे तृतीयभागे नाणस्स दंसणस्स य, चरणस्स य जत्य होइ उवघाओ । बज्जिजवज्जभीरू, अणाययावज्जओ खिष्पं ।। ११०० || ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य च यत्रायतनं भवति उपघातस्तं वजयेद वद्यभीरुः साधुः, किंविशिष्टः १, अनायतनं वर्जयतीति अनायतनचर्जकः स एवंविधः प्रिं अनायतनमुपघातरूपं वर्जयेदिति । इदानीं विशेषतोऽनायतनप्रदर्शनायाह-जत्य साहम्मिया बहवे, निचिता अलारिया । मूलगुणप्पमिसेवी, अणाययणं तं वियालाहि ११०१ ॥ मुगमा गयरं मूलगुणाः प्राणातिपातादयस्तान्प्रतिसेय इति मूलप्रतिसेविनस्ते यत्र निवसन्ति तद्मायतममिति । जत्य साम्यिया बहने, चित्रवित्ता प्रणारिया । उत्तरगुणपमिसेवी, अणाययां तं त्रियाणाहि ।। ११०२॥ , f Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) अणाययगा अभिधानराजेन्द्रः। अणायार सुगमा, नवरं, उत्तरगुणाः 'पिंडस्स जा विसोही' इत्यादि तरगुणाः पडस्स जा विसाह। 'श्त्यादि | प्रणायाण-अनादान-न० अकारणे, "श्रणायाणमेयं अभिग्गतत्प्रतिसेविनो ये। हियसिज्जासणियस्स" कल्प० । जत्थ साधम्मिया बहवे, भिन्नचित्ता प्रणारिया। अणायार-अनाचार-पुं० । आचरणमाचारः, श्राधाकर्मादिप. लिंगवेसपडिच्छन्ना, अणाययणं तं वियाणाहि ॥११०३।। रिहरणपरिष्ठापनरूपोऽनाचारोऽनाचारः । आधाकर्मादिग्रहणे, सुगमा, नवरं, लिङ्गवेषमात्रेण प्रतिच्छन्ना बाह्यतः, प्राज्यन्तरतः आतुका साध्याचारस्य परिभोगतो ध्वंसे, व्य०१ उ० श्राव। पुनर्मूलगुणसेविन उत्तरगुणसेविनश्च, ते यत्र तदनायतनमिति । ध०। (अनाचारव्याख्याऽऽधाकर्माऽश्रित्य 'अइक्कम' शब्दे अत्रैव उक्तं लोकोत्तरं भावानायतनं तत्प्रतिपादनायोक्तमनायतनस्वरू- भागे २ पृष्ठे कृता) आचरणीयः श्रावकाणामाचारः, न आचापम् । ओ०। रोऽनाचारः। अनाचरणीये" अणायारे अणिच्छियव्वे" ध०२ अणाययणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । अधिशास्त्रविहितस्य व्यवहारस्याभावे, ग० ५ अधि० । होज वयाणं पीला, सामनम्मि य संसओ ।। १० ॥ अथ साधूनां यद्यदनाचरितं तत्तत्समासेन व्यासेन च अनायतने अस्थाने वेश्यासामन्तादौ, चरतो गच्छतः, संसर्गेण _प्रदर्शयामः । तत्र दशवैकालिके द्वितीयाध्ययनेसम्बन्धेन, अभीक्ष्णं पुनः॥किमित्याह-भवेदूव्रतानांप्राणाति संजमे सुहि अप्पाणं, विप्पमुक्काण तारणं । पातविरत्यादीनां पीमा, तदा किप्तचेतसो भावविराधना,श्राम- तेसिमेयमणाइएणं, निग्गंयाण महे सिणं ॥१॥ एये च श्रमणभावे च व्यतो रजोहरणादिधारणरूपे नूयो इह संहितादिक्रमः क्षुण्णः । भावार्थस्त्वयम-संयमे तुमपुष्पिभाववतप्रधानहेती संशयः कदाचिदुनिष्क्रामत्येवेत्यर्थः । तथा काव्यावर्णितस्वरूपेशोजनेन प्रकारेणाऽऽगमनीत्या स्थित प्रात्मा च वृरुव्याख्या-"वेसादिगयभावस्स, मेहुणं पीडिज्जा, अणुव- येपांते सुस्थितात्मानः, तेषाम् ।त एव विशेष्यन्ते-विविधमनेकैः ओगेणं पसणाकरणे हिंसा, पदुप्पायणे अन्नपुच्छणप्रवलवणा- प्रकारैः प्रकर्षण भावसारेण मुक्ताः परित्यक्ता बाह्याभ्यन्तरेण प्रऽसञ्चवयणं, अणणुमायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे न्थेनेति विप्रमुक्ताः, तेषाम त एव विशेष्यन्ते-त्रायन्ते आत्मानं पपरिगहो, एवं सव्ववयपीमा । दव्वसामन्ने पुण संसो गणि-| रमुनयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः, परं तीर्थकराः, स्वक्खमणेण ति" सूत्रार्थः । दश०५ अ०१ उ०। तस्तीर्णत्वाऽभयं स्थविरा इति। तेषामिदं वदयमाणलकणमनाअणाययणपरिहार-अनायतनपरिहार-पुं० । आयतनं पार्श्व- चरितमकरूपम् । केषामित्याह-निर्ग्रन्धानांसाधूनामभिधानमेत. स्थादिकुतीर्थिवेश्याविट्खङ्गादिकुस्थानवर्जने, दर्श। त् ।महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयोयतय इत्यर्थः। अथवा महान्तअणाययणसेवण-अनायतनसेवन-न । पार्श्वस्थाद्यायतनन मेषितुं शीलं येषां ते महेषिणस्तेषाम । इह च पूर्वपूर्वजाव एधो सरोत्तरभावो नियतो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यः । यत एव जने, आव० ३ अ.। संयमे सुस्थितात्मानः अत एव विप्रमुक्ताः। संयमसुस्थिता55. अणायर-अनादर-पुं० । तिरस्कारे, को ! अनुत्साहात्मिके त्मनिबन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः । एवं शेषेष्वपि भावनीयम् । अन्ये तु सामायिकवतातिचारभेदे, स च प्रतिनियतबेलायां सामायि- पश्चानुपूर्ध्या हेतुहेतुमद्भावमित्थं वर्णयन्ति-यत एव महर्षयः कस्याकरणं, यथाकथंचिछा करणानन्तरमेव पारणं च । यदा- अत एव निर्गन्थाः । एवं शेषेष्वपि अष्टव्यमिति सूत्रार्थः । हु:-"काऊण तक्खणं चिय, पारे करे वा जहिच्छाए । अणवधि साम्प्रतं यदनाचरितं तदाहअसामाश्य-अणायराओ न तं सुद्धं"॥१॥धर्म०५ अधि०। प्रव उद्देसियं कीयगळं, नियागमजिहमाणि य । अणायरंत-अनाचरत-त्रि० । विवर्जयति, “पावमणायरंते" राइजत्ते सिणाणे य, गंधमद्धे य वीयणे ॥ २ ॥ पापमागमनिषिकं कर्म, अनाचरन् विवर्जयन् । पंचा०११ विव अणायरणजोग्ग-अनाचरणयोग्य-त्रि० । आसेवनाऽनहे, । ( नदेसिय ति) उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्नस्येत्युहेशः, "सिक्खावेउ अणायरणजोग्गो" पञ्चा० १० विव० । तत्र भवौद्देशिकम् (१), ऋयणं क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः । साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते । तेन कृतं निर्वर्तितं क्रीतकृतम अणायरणया-अनाचरणता-स्त्री० । गौणमोहनीयकर्मणि, (२), नियागमित्यामन्त्रितस्य पिएमस्य ग्रहणं नित्यं तत्वनामसम्म। त्रितस्य (३), (अनिहमाणि यत्ति) स्वग्रामादेः साधुनिमित्तअणायरिय-अनार्य-पुं०। पाराद याताः सर्वहेयधर्मेन्य इ. मनिमुखमानीतमन्याहतम, बहुवचनं स्वग्रामपरग्रामानशाथात्या- तद्विपय्येयादनायो। ऋरकमेसु, आचा०१ श्रु०४० टिभेदण्यापनार्थम् (४), तथा रात्रिभक्तंरात्रिनोजनं दिवसगृही२० । शकयवनादिदेशोद्भवेषु, सूत्र० २ श्रु० १ अ०। तदिवस नुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणम् (५), स्नानं च देशसर्वनेदअणायस-अनायस-त्रि० । अलोहमये, नि० चू०१०। । जिन्नं देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्विपदमप्रक्वालनमपि । अणाया-अनात्मन-पुंजन प्रात्मा अनात्मा। घटादिपदार्थ पो सर्वस्नानं तु प्रतीतम् (६), तथा गन्धं माव्यं च, गन्धग्रहणा स्कोष्ठपुटादिपरिग्रहः । माल्यग्रहणाच प्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य अणाया' सप्रदेशार्थतयाऽसंख्येयानन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैक (७),वीजन व्यजनं तात्रवृन्तादिना धर्म एव, इदमनाचरितम् परिणामरूपद्रव्यार्थापेकया एक एव, सन्तानापेक्यापि, तुल्य (0),दोषाश्चाद्देशिकादिष्वारम्नप्रवर्तनादयः स्वधियाऽवगन्तरूपापेक्वया तु अनुपयोगलकणैकस्वभावयुक्तत्वात्कथञ्चिद्भिन्नस्वरूपाणामपि धर्मास्तिकायादीनामनात्मनामेकत्वमवसेयाम व्या इति सूत्रार्थः ॥२॥ ति। स०१ सम०। परस्मिश्च “ अण्णायाए अवकम" भ. संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंमे किमिच्छए। १०४ उ01 संवाहणं दंतपहावणं य, संपुच्चणे देहपलोयणाय ॥३॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१२) अगायार अभिधानराजेन्द्रः। अणायार इदं चानाचरितमित्याह-(संनिहि त्ति ) संनिधीयतेऽनेनाऽऽ| तम् । तथाऽतुरस्मरणानि च कुधाद्यातुराणां पूर्वोपभुक्तस्मरस्मा पुगताविति संनिधिः । घृतगुमादीनां संचयक्रिया (६), णानि च अनाचरितानि । श्रातुरशरणानि वा दोषाऽऽतुराश्रगृह्यमत्रं गृहस्थभाजनं च (१०), तथा राजपिण्डा नृपाहारः यदानानि ( ३०), इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ (११),किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छका राजपिएडो. मूलए सिंगबेरे य, उच्चुखेमे अनिव्वुडे । ऽन्यो वा सामान्येन (१२), तथा संवाधनमस्थिमांसत्वग्रोम कंदे मूले य सच्चित्ते, फले बीए य आमए ॥ ७॥ सुखतया चतुर्विधं मर्दनम् (१३), दन्तप्रधावनं चाङ्गल्यादिना किञ्च ( मूलए त्ति) मूलको लोकप्रतीतः ( ३१), शृङ्गबेरं क्वालनम् (१४), तथा संप्रश्नः सावधो गृहस्थविषयः, राढा चाईकम् (३२), तथेतखएक च लोकप्रतीतम ( ३३), अनिवृथै कीशो वाऽहमित्यादिरूपः (१५), देहप्रलोकनं चादर्शादी। नग्रहणं सर्वत्रान्निसंवध्यते । अनिवृतमपरिणतमनाचरितमिति ; (१६), अनाचरितम्। दोषाश्च सन्निधिप्रभृतिषुपरिग्रहप्राणाति इकुस्खाम चापरिणतं द्विपर्वान्तं यतते; तथा कन्दो वज़कन्दापातादयः स्वधियैव वाच्या इतिसूत्रार्थः ॥३॥ दिः (३४), मूलं च सट्टामूलादि सचित्तमनाचरितम (३५), अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारण हाए । तथा फलं त्रपुष्यादि (३६), बीजं च तिलादि [३७], प्रामक तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो ॥४॥ सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ अष्टापदंद्यूतम् , अर्थपदं वा गृहस्थमधिकृत्य निमित्तादिविषय सोवच्चले सिंघवे लोणे, रोमालोणे य आमए । म (२७),अनाचरितम् । तथा नाविकाचेति शूनविशेषलक्षणा,यत्र सामुद्दे पंसुखारे य, कासालोणे य आमए ॥ ८ ॥ माऽभूत्कनयाऽन्यथापाशकपातनमिति नालिकया पात्यन्त इति । किश्च (सोवच्चले त्ति) सौवर्चलम् (३८), सैन्धवम् (३९), श्यं चानाचरिता श्रष्टापदेन सामान्यतो छूतग्रहणे सत्यभिनिवेश- लवणं च साँभरलवणम (४०), रुमालवणं च (खानिलवणम) निबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ नेदत उपादानम; (४१), श्रामकमिति सचित्तमनाचरितम् । सामुद्रं लवणअर्थपदमेवोक्तार्थ तदित्यन्ये अभिदधते । अस्मिन् पक्ष सका. मेव (४२), पांसुतारश्चोषरलवणम् (४३), कृष्णलवणं च तोपलक्षणार्थ नाविकाग्रहणमष्टापदद्यूतविशेषपके चोजयोरिति (४४), सन्धवलवणं पर्वतैकदेशजम, आमकमनाचरितमिति (१८), तथा ग्त्रस्य च लोकप्रसिकस्य धारणमात्मानं परं सूत्रार्थः॥८॥ प्रति चाऽनायेत्यागाढग्लानाद्यासम्बनं मुक्त्वाऽनाचरितम् । प्रा- धूवणे त्ति वमणे य, बत्थीकम्म विरेयणे । कृतशेल्या चात्रानुस्वारखोपोऽकारनकारलोपी च अष्टव्यौ, तथा श्रुतिप्रामाण्यादिति (१६), तथा(तेगिच्छति) चिकित्साया भा. अंजणे दंतवले य, गायान्नंग विनूसणे ॥ ५ ॥ वश्चकित्स्य व्याधिप्रतिक्रियारूपम् [२०] , तथोपानही पाद किश्च (धूवणे त्ति) धूपनमित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् । प्राकयोरनाचरिते । पादयोरिति साभिप्रायकम् । न वापत्कल्पप तशैल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते रिहारार्थमुपग्रहधारणेन[२१], तथा समारम्भश्च समारम्भ (४५), वमनं मदनफलादिना (४६), बस्तिकर्म पुटकनाधि ष्ठाने स्नेहदानम् (४७), विरेचनं दन्त्यादिना (४८), तथा णं च ज्योतिषोऽग्नेः [२२] , तदनाचरितम् । दोषा अष्टापदा जनं रसाञ्जनादिना (४६), दन्तकाष्ठं च प्रतीतम् (५०), दीनां कुम्मा एवेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ तथा गात्राभ्यङ्गस्तैलादिना (५१), विनूषणं गात्राणामेवेति सिज्जायर पिमं च, आसंदी पलिअंकए । (५२), सूत्रार्थः॥९॥ गिहतरनिसिज्जा य, गायस्सुव्वट्टणाणि य ॥५॥ - क्रियासूत्रमाहकिञ्च--शय्यातरपिएडोऽप्यनाचरितः । शय्या वसतिस्तया सबमेयमणाइन्नं, निग्गंधाण महेसिणं । तरति संसारमिति शय्यातरः साधुवसतिदाता, तत्पिरामः [२३], | तथा आसंदकपर्यो अनाचरिती । पतौ च लोकप्रसिद्धावेव संजमम्मि अ जुत्ताणं, लहुनूय विहारिणं ॥ १० ।। [२४], तथा गृहाम्तरनिषद्याऽनाचरिता। गृहमेव गृहान्तरं गृहयो. (सब्वमेयं ति) सर्वमेतदौद्देशिकादि यदनन्तरमुक्तं तदनावा अपान्तरालं, तत्रोपधेशनं, चशब्दात्पाटकादिपरिग्रहः [२५] चरितम् । केषामित्याह-निर्ग्रन्थानां महर्षीणां साधूनामित्याह । तथा गात्रस्य कायस्योर्तनानि चानाचारितानि । उद्वर्तनानिप- त एव विशेष्यन्ते-संयमे चशब्दात्तपसि युक्तानामभियुक्ताथापनयनसतणानि । चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः [२६], इति नां, सघुभूतविहारिणां-बघुभूतो वायुः, ततश्च वायुनूतोऽप्रतिवसूत्रार्थः ॥ ५॥ तया विहारो येषां ते लघुनूतविहारिणस्तेषाम् । निगमनक्रिगिहिणो वे आवमिश्र, जा य आजीववत्तिया । यापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १०॥ तत्तानिवुमभोइत्तं, आनरस्सरणाणि य ।। ६ ।। किमित्यनाचरितं यतस्त एवंचूता भवन्तीत्याहतथा ( गिहिणोत्ति) गृहिणो गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं ब्यावृत्तस्य | पंचासव परिमाया, तिगुत्ता छसु संजया । भाचा वैयावृत्त्य, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः [२७], एत- | पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ ११ ॥ दनाचरितमिति। तथा चाजीववृत्तिता जातिकुलगणकर्मशिल्पा- (पंचासव ति.) पञ्चाश्रवा हिंसादयः परिझाता द्विविधया नामाजीवनमाजीवस्तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता । जात्या- परिजया-झपरिकया, प्रत्याख्यानपरिजया च । परि समन्ताद शाघाजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः [२८], इयं चानाचारता। तथा तप्ता- ता यैस्ते पश्चाधवपरिज्ञाताः । श्राहिताग्न्यादेराकृतिगणत्वान्न निवृतभोजित्वं-तप्तं च तदनिर्वृतं च अत्रिदण्मोद्धृतं चेति वि- निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव । परिज्ञातपश्चाश्रया ग्रहः । उदकामति विशेषणमन्यथाऽनुपपत्या गम्यते । तद्भोजि- इति वा । यत एव चैवंभूता अत एव त्रिगुप्ता मनोवाकायगुत्वं मिश्रसचित्तोदकभोजित्वमित्यर्थः [२६], इदंचानाचरि- तिनिः । षट्संयता: पदसु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु साम Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३) अभिधानराजेन्द्रः । अणायार सत्येन यताः [पंच निम्गणा इति ] निगृहन्तीति निग्रहणाः, क फेरि । पञ्चानां निग्रहाः पञ्चानामतीन्द्रियाणाम् चीरा ब्युड् बुकिमन्तः स्थिरा वा । निर्ग्रन्थाः साधवः । ऋजुदर्शिन इति । प्रतिवाद संयमः तं पश्यन्युपाति दर्शिनः संयमप्रतिबका इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ दर्शिनः कालमहित् यथाशक्ताकुर्वन्तिआयावर्यति गिम्हेस, हेमंतेसु अवासमा । वासासु पडिलीणा, संजया सुसमाहिया ॥ १२ ॥ ( आयावयं तित्ति) आतापयन्त्यूर्द्धस्थानादिना श्रातापनां कुर्वन्ति, तथा हेमन्तेषु शीतकप्रावृता इति प्रावरणरतिस्तिष्ठन्ति तथा वर्षासु वर्षाकालेषु प्रतिसंीना इत्येकाश्रयस्था भवन्ति । संयताः साधवः सुसमाहिता ज्ञाना. दिषु यत्नपराः । श्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्ष करणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ।। १२ ।। परीमहरिक दंता, भमोहा जिदिया । दुखरीडा, पमंति महोमियो ।। १३ ।। 9 ( परीसहति) मार्गच्यवननिर्जराऽर्थे परिषोढव्याः कुत्पिपासादयः, त एव रिपवस्त तुल्यधर्मत्वात्परं षहरिपवः, ते, दान्ता उपशमं नीता वैस्ते परीषदरिपुदान्ताः । समासः पूर्ववत् । तथा मोटा इत्यर्थः मोहोकानम् । तथा जितेन्द्रि या शब्दादि रागद्वेषरहिता इत्यर्थः स सर्वदुःखप्रकृपार्थ शारीरमानसाशेप दुःखयनिमित्तं प्रति प्र संकिता महर्षयः साधव इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इदानीमेतेषां फलमाहदुकराई करिता, दुस्सहाई सहित्तु य । के स्प देवलोपसु केइ सिजति नीरया ॥ १४ ॥ ( रा ति ) पवं पुष्कराणि कृत्वाहेशिकादियागादीनि तथा दुत्सदावि सहिया तापनादीनि केचन तंत्र देवलोकेषु सौधर्मादिषु गच्छन्तीति वाक्यशेषः । तथा केचन सिद्ध्यन्ति तेनैव भवेन सिद्धि प्राप्नुवन्ति वर्तमाननिर्देशः स्या पनार्थः नीरजस्का इत्यविधकर्मनिर केन्द्रिय कर्मयुक्त पवेति त्रार्थः ॥ १४ ॥ येऽपि विधातो देवलोकेषु ि ता श्रार्यदेशेषु सुकुत्रे जन्मावाप्य शीघ्रं सिद्ध्यन्त्येवेत्याहखवित्ता पुत्रकम्मा, संजमेण तत्रेण य । सिद्धिमग्गमणुष्पत्ता, ताइको परिन् मे । १५ त्ति वेमि । लोकच्युताः पत्या पूर्वकर्माणि सा वशेषाणि । केनेत्याह-- संयमेनोक्तणेन तपसा च; एवं प्रवाहेण सिद्धिमार्गे सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः सन्तस्त्रातारः अरमान परिनियन्ति सर्वथा सिर्फ प्रयन्तु पठन्ति ( परिनिबुडति ) तत्रापि प्राकृतशैल्या बान्दसत्वाश्चायमेव पाठी उपायानिति । मीति पूर्ववदिति वार्थः ॥ १४ ॥ दश०३५० उक्तं समासतोऽनाचरितम् । अथ विशेषतस्तदुच्यते"आसूणी रागं च मिपाम्म उच्छोलणं च ककं च तं विजं परिजाणिआ " ।। १५ ।। सूत्र० १ ० ६ श्र० । ( अस्या व्याख्या 'धम्म' शब्दे इष्टव्या ) आदर्शाद मुखदर्शनादि करोति जे जिप मंतर अप्पा देहं देनं या साल ||२५|| अणायार जे भिक्खू अदाए अप्पाणं देह, देवनं वा साइज्ज६ ॥ ३० ॥ जे भिक्खू असाए अप्पाणं देहइ देतं या साइज ।। ३१ ।। जे निक्खु मणीए अप्पाणं देहइ, देहं तं वा साइज्जइ ||३२|| जे भिक्खु उडयालाए अप्पाणं देहइ, देतं वा माइज्जइ ॥ ३३ ॥ जे जिव ते अप्पाणं देह देईनं वा माइज्ज ||१४|| जे निक्खु फागिए अप्पारणं देह, देहं तं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥ जे बसाए अप्पाणं देहइ, देहंतं वा साइज || ३६ || मत्तगो दष्पणस्स भरितो तत्थ अपणो मुहं पलोयति जो, एतस्स आणादिया दोसा चहुं या से पतिं । एवं परिग हादिसु विसेसपदार्थ मागणी माहा- ततयु 3 दप्पण मणि जरणे, सत्यु दए नायतर व ते महु सप्पि फाणित-मज्ज वमा सुत्तमादीसु ॥ ५६ ॥ दपर्णमादर्शः, स्फटिकादि मणिः, स्थानकादि श्राभरणं, खरुगा दि शस्त्रं, वर्क पानीयम, तञ्च अन्यतरे कुण्डादिभाजने स्थितं, तिलादिजं तैलं मधु प्रसिद्धं सर्पिर्घृतं फाणितं बिइगुमो, मज्जं मत्यादीनं, वसा, सुशं मज्जति इषर वा गुडिया सु सच्चे सुतेसुजदासंभवं विसपाथायनादिया देहावयवा पल्लो कोऽर्थ::- तत्थ स्वरूपं पश्यति । चोदक आहकिं तत् पश्यति । श्राचार्य आढ-आत्मच्छायां पश्यति । पुनरप्याह चोदकः कथमादित्यादिनास्वराजदि प्रमुक्त्वा अन्यतोऽपि दृश्यते ?। आचार्य श्राढ़-अत्रोच्यते यथापद्मरागेन्नप्रदीपशिखानामात्मस्वरूपानुरूपा प्रभा गया स्वत एव सर्वतो भवति, तथा सर्वपुत्रव्याणामात्मप्रज्ञाऽनुरू पाया सर्वतो जवत्यनुपलक्का वा इत्यतोऽन्यतोऽपि दृश्यते । पुनरपि चोदक आह-जति अप्पणो च्छायं देहति, तो कई अपणो सरीरसरिसं वरणरूपं पिच्छति ? । अत्रोच्यते भासा तु दिया गया, अभासरगता शिसि तु कालामा । से सव्वे भासरगत, सदेहाच्या ।। ६० ।। आदित्येनावज्ञासितो दिवा भास्वरे अतिमति नृत्यादिके निपतिता जाया जाय ताऽवयवा वर्णतः श्यामाऽऽन्ना तस्मिन्नेवानास्वरे इव्ये भूम्यादि रात्रौ निपतिता बाया वर्णतः कृष्णा भवति । जया पुण सवे व छाया दीप्तिमति दर्पणादिके इव्ये निपतिता दिवा रानौ वा तदा वर्णतः शरीरवर्णतः शरीरवर्णव्यञ्जितावयवा च दृश्यते । साच बाया सदृशी न भवति । चोदक श्राह-यदि बाया सदृशी न भवति सा कथं न भवति, किंवा तत्पश्यन्ति । अयोध्यते हज्जोयमम्मि तु दप्पणम् संयुजते जया देहो । होति तथा डिवि छाया नइ जाससंजोगो ।। ६१ ।। उज्जयकुमो दर्पण: निर्मलः श्यामादिविरहितः तम्मि जदासरीवा किंचिचादिसंयुते तदा स्पष्प्रतिविम्बं प्र तिनिभं जयति घटादीनाम, यदा पुण स दर्पणो सामए आवरितो, गगणं वा श्रगादिहिं आवरितं तदा तम्मि चेव आयरिसे एसट्टिने देदादिसंजुते गयामादिस्सर । दाल बीसो पुच्छति तं परिबिंबं बायं वा को पासति ? । तत्थभातिससमय पर समयवक्तव्यया-.. Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) अगायार अन्निधानराजेन्द्रः । अणायार आदरिसपमिहयाओ-बलभंति रस्सी सरूवमन्नेसि ।। रूवेण हरिसिउं, विरूवो वा विसादेण खित्तादिचित्तो भवेज्जतं नं तु न जुन्नति जम्हा, पस्तति अत्ता ण रस्सीओ।।६।। कम्मखयणवेज्जियं निरत्थक सागारियं दिट्रे उडाहो ण एवं श्रात्मनः शरीरस्य या रश्मयः पदिशं विनिर्गताः तासां या तस्सी कामीए स अजिदिउ त्ति उड्डाहं करेज्जा। वितीयगाहाआदर्श अधःकृताः प्रतिहता रश्मयः, ता रश्मयो बिम्बादिस्व वितियपदमणप्पज्झो, सेहो अवि कोवितो च अप्पको। रूपमुपलभन्ते । गयोऽभिप्रायोऽन्ये परतन्त्राणाम् । जैनतन्त्र- विस पायंका मज्जण-मोहातिगिच्चाए नाणमात्र ॥६॥ व्यवस्थिता पाहुः-न युज्यते एतत्, यस्मात्सर्वत्रमाणानि प्रात्मा- अणपझो पराधीणतणं ते, सेहो अवि कोवितो अजाणतणतो धीनानि तस्मादात्मा पश्यति न रश्मयः। श्दानी पराजिमाये जो पुण अप्पको जाणगो से इमेहि कारणेहि अप्पाणं आदरिसे तिरस्कृते स्वपकः स्थाप्यते-उज्जोयफुमम्मि त्ति' गाहा । देहति, सप्पादिविसेण अन्निनूते जाबागद्दभतातके वा उवाहिते पपोऽर्थस्तस्यार्थस्य स्थिरीकरणाथै पुनरप्याह श्रादरिसविज्जाए मज्झियब्वं, तत्थ आदरिसे अप्पणा पमिबिवं जुज्जति हु पगासफुके, पमिवि दप्पणम्मि पस्संतो। गिट्टाणस्स चान मज्जति, ततो पम्मपति मोहतिगिचाप वा देहजसेव जया चरणं, सो गया होति विवं वा ॥ ६३॥ ति । अहया श्मे कारणाजुजते घटते फुडप्पगासे दप्पणे अप्पाणं पस्रोएतो पामिबियं पुप्फग गलगंडं वा, मंडल दंतरोय जीह उढे य ।। प्रतिरूप णिब्बंजितावयचं पस्सति । तं च पस्संतस्स जया ऽचक्खुब्बिसयट्ठिय वु-हिहासि जाएट वा पेहो॥६॥ अभादहि अप्पगासीनुतं भवति तदा तमेव बिवं मचाया दी-- अक्सिम्मि फुल्लगं गोवा गळं पसुत्ति मंगलं वा दंते या कोसति [बिवत्तियं वा पेक्वतस्स अभादी प्रावरणावगमे नमेव तिघुणदंतगादिरोगो अहवा जिब्जाए उठेवा किंचि उध्यिं छायं विवं पस्सति णिजितावयवं प्रतिरूपमित्यर्थः। पिलगादि एवमादि अचक्खुविसयट्रियं अपिक्खंतो तिगिच्चासीसो पुच्छति-कम्हा सब्बे देहावयवा श्रादरिसे ण पेच्छति णिमित्तं बुकिहाणि जाणनिमित्तं वा उदाए देहति अप्पअतो भन्नति सागारिए ण दोसो । नि० चू० १३ उ० । जे आदरिसंवत्ता, देहावयवा हवंति णयणादी। उपानहादिधारणम् "पाणहाश्रो य बत्तं च, णालीअं बालवीअणं । नेमि तत्युरलची, पगासजोगा ण इतरोसें ।। ६४ ॥ परकिरियं अनमन्नं च, ते विजं परिजाणिपा" ॥१॥ छद्दिमि सरीरलेयरस्सिसु पधावितासु जं दिसि आदरिसो सूत्र०१ श्रु० अ०। ('धम्म शब्देऽस्या व्याख्या') चितो ततो जे गरणहत्थाद। सरीरावयवादो । जे य आदरि कपाटोद्धाटनादिकरणम्से पवमिया तेसिं तम्मि आदरिसे ण उबलद्धी जवति।जदिय " णोप्पिहे ण यावपंगुणे, दारं सुराणघरस्स संजए । आदरिसो अभावगो सब्यागासेण संजुतो न अंधकारज्यवस्थित पुण उदाहरे वयं, ण समुत्थे णो संथरे तणं" ॥१३॥ इत्यर्थः । [स्तरेसिति] जे आदरिसेण सह न संजुना ते न तत्रो सूत्र०१श्रु०२ अ०२ उ०। ('ठाणहिय' शब्दे व्याख्याऽस्या एलच्यन्ते। वक्ष्यते) (अचित्तप्रतिष्ठितं सचित्तप्रतिष्ठितं वा गंधं जिघ्रति एमेव य परविवं, जे पादरिसे ण होइ मंजुत्तं । शति 'गंध' शब्दे वक्ष्यते) तत्थ विहो उनकी, पगासजोगा अदिढे वि ।। ६५ ।। गात्रप्रमार्जनमएवमित्यवधारणे। किम्हं अवधारयितव्यम?, यदेतदुपलब्धि- जे जिक्ख लदुसयं सीओदगवियडेगा वा उसिणोदगविकारणमुक्तम् । अनेन उपलब्धिकारणेन यद् व्यज्यते घटादि यडेण वा हत्थाणि वा पायाणि वा कामाणि वा अच्छीरूपप्रतिविम्बमादर्श सेयुज्यते । तत्रानुपलब्धिर्भवत्यात्मनोऽप णि दंताणि नहाणि मुहााण वा नच्छोलेज वा पोलेश्यतोऽपि घटादिकम् । एवं मणिमादिसु विभावेयध्वं , णवरं, तेल जमादिस जारिसं विचं पागासमंतरेति तारिसमेव दीसत। ज्ज वा नुच्छोझंतं वा साइज्जइ ॥ २०॥ एणसामाणतरे, अप्पा ने उ देहते भिक्ख । लहुसं स्तोक याव तिन्नि य सती सीतोदकं सीतलं उलिणो दगं नरहं वियम पयगतजीवं एत्थ सीतोदगवियमेहि सपडिमा आणा अणवत्थं, मिच्छत्तपिराहणं पावे ।। ६६ ॥ वक्खेहि चनभंगसु, ते य पढमततिया नंगा गहिया, दो हत्था दप्पणमणिमादीयाणं अम्पायरे जो अप्पाणं जोएति तस्स हत्थाणिवा,दो पादा पादाणि वा,वत्तीसं दंता दंताणिवा, श्राप्रागादिया य दोसा, च उपहुं वासेपच्छित्तं । प्रायसंजमं विरा-| सए पोसए य अ य इंदियमुहा मुहाणि वा, मच्छोलणं धोहणा य भवति, इमे य अ य दोसा। वणं । तं पुण दोसे सब्वे य णिज्जुत्तिवित्थारा श्मोगमगादीया रूपम-रूवंतु कुजा पिदाणमादीणि। तिमि य मतीय लहुसं, वियमं पुण होति विगतजीवं तु । वानस-मारवकगणं, खित्तादि निरत्यगुड्डाहो।। ६७॥ उच्छोलणा तु तेणं, देसे सब्वे य णायवा ||८|| श्रादरिसादिसु अप्पाणं स्वतं दटुं विसए मुंजामित्ति पमि गतार्था। गमणं करेति, अम्मतिथिपसु वा पविसति', सिद्धपुत्तो भवति. आइप्युमणाश्या, दुविधा देसम्मि होति णायव्वा । सिद्ध पुतिया सर्वात,सब्रिगेण वा संजति पडिसेयति धिरुवं वा आयमं वि य दुविदा, णिकारण या य कारणया ।। ७१॥ अप्पाणं दद्रं णियाण करेज्जा । श्रादिसहातो देवतारोहणादि देसे उच्चोत्रणा विहा-प्राइमा अणामा य । साधुभिराचवीकरण जोगादि वा अधिजेज, सरीरपाउसत्तं वा करेजा। यते या सा प्राचीर्णा, इतरा तद्विपरीता। अणाश्या विहाआरसे वा अप्पणो रूवं दहूं सोभामि ति गारवं करेज्जा कारणे शिकारणे य । जा कारणे सा दुविधा Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) अणायार अभिधानराजेन्मः। श्रणायार भत्ता मासे लेवे, कारण णिक्कारणे य विवरीयं ।। इदाणी पश्चमादिभङ्गप्रदर्शनार्थ गाथामणिबंधादि करेसु, जत्तियमित्तं ति लेवेणं ॥८॥ श्राइन बहुएणं, कारण णिक्कारपो वि तत्थेव। तत्य जत्ता मासे मणिबंधामो करेसुंति असणाणालेवाडेण अणाइम देससव्वे, बहुणा सहि कारणं णस्थि ।।६।। इत्था लेवामिया ते मणिबंधातो जाव धोवति, एसा भत्ता, मा- पंचमे बहुएणं आम कारण तत्थेव त्ति प्राइम बटु पस से श्मा, लेवे-जत्तियमेत्तं तु वेवणं तिअप्सज्का तिय मुत्तपुरीसा- अणुवट्ठमाणेसु ग्वै निक्कारणं द्रष्टव्यमिति । पंचमछडेसु देस. दिणाजति सरीराऽववेवणादि गातं लेवामितं तस्स तत्तियमेत्तं मिति अर्थाद् द्रष्टव्यमिति । सप्तमाष्टमेषु प्रणाइस सप्तमे देशम, धावे, एसा कारणो भणिता । णिक्कारणे तम्विधरीय त्ति। अष्टमे सर्व बहुसमित्यनुवर्तते, कारणं नास्त्यवेत्यर्थः । ' एतं खबु आइन्न, तबिवरीतं भवे प्रणाछ । प्रथमभङ्गानुशानार्थ शेषभङ्गप्रतिषेधार्थ चेदमाहचलणादी जाव सिरं, सव्वं चिय धोतिऽणावं ॥३॥ प्राइम बहुसएणं, कारणतो देसतं अणुागतं । भत्ता मासे लेवे य इमं आइएणं, तन्विवरीयं देसे सब्वे वा सेसाणाणुमाया, उवरिया सत्त वि अदातुं ||१|| सब्वं अणा । प्राइमलहुसएणं कारणे देसे एस भङ्गो अणुमातो उवरिमा मुहणयणचलणदंता-णकसिरा बाहवत्थिदेसो य। । सत्त वि पडिसिद्धाभंगा। परियट्ठाह दुगुंगे, पत्तय गच्छोलणा देसे ॥ ४॥ द्वितीयादिभङ्गप्रदर्शनार्थमिदमाहमुहणयणादिया ण केसि वि गुंगप्रत्ययं वा देसे सब्वे वा आश्मनहुसएणं, णि कारणदेसओ नवे वितिउँ । उच्छोलणं करोतीत्यर्थः । वक्ष्यमाणषोमशभङ्गमध्यादमी अष्टौ | णाइपलहुसएणं, णिकारणदेसओ तो 18२|| घटमानाः, शेषा अघटमानाः । णामयदुमपणं, णिकारणसव्यतो चउत्यो उ । आइएण लहुसरणं, कारण णिकारणे वऽणाइयो। एवं बहुणा वि अहो, नंगा चत्तारि हायव्वा ।। ३|| देसे सव्वे य तहा, बहुएणमेव अट्ठ पदा ।। ५ ।। पढमं सुद्धो लहुगा, तिसु लहु उपाहू य अहमए । आश्मल हुसपणं देसे एप प्रयमः । एष एवं णिक्कारणसहितो द्वितीयः, अणाचीर्णग्रहणात् तृतीयचतुर्थी गृहीती, पत्थित्ते परिवामी, अहम भंगेमु एएमु || लहुसणिक्कारणदेसेत्यनुवर्तते । चतुर्थे विशेषः सर्वमिति वक्त दुगं पाइपलहुसे णिक्कारणे सव्वतो चउत्थभंगो, एवं बहुणा व्यम; जहा लहुस पदे चतुरो भंगा तहा बहुएण वि चउरो वि अम्मे चउरो भंगा णायव्वा । पढमभंगो सुद्धो, सेसेसु सब्वे अठा एवशब्दग्रहणात् तृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठभङ्गविप इमं पच्छित्तर्यासः प्रदर्शितः । वक्ष्यमाणषोमशजङ्गक्रमेण घटमानाघटमान सुत्तणिवातो बितिए, ततियपदम्मि पंचमे चेव । अङ्गप्रदर्शनार्थ लक्षणम् । उढे य सत्तमे वि य, तं सेवंताणमादीणि ।। जत्थाऽऽ सव्वं, जत्थ व करणे प्रणाइएणं । वितियततियपंचमछसत्तमेसु भंगसु सुत्तणिवातो मास. नंगाण सोलसएह, ते वज्जा सेसगा गेजमा ॥ ६॥ लहु, चउत्धहमेसु चउलहुं तमिति । नि० चू० २301 "परयस्मिन् भने प्राचीर्णग्रहणं दृश्यते तत्रैव यदि सर्वत्र ग्रहणं दृश्यते मत्ते अन्नपाण, ण भुंजिज्ज कयाइ वि। परवत्थमयेलो बि, तं ततः पूर्वापरविरोधान्न दृश्यते घटते अमौजङ्गः। यत्र वा का विजं परिजाणिया" ॥२०॥ सूत्र. १ श्रु. ६० । (अस्या रणग्रहणे दृष्टे अनाचीर्ण दृश्यते असावपि न घटते । एतान् ब व्याख्या 'धम्म' शब्दे द्रष्टच्या) जयित्वा शेषा ग्राह्याः । मद्यमांसादिसेवनम्-- सोलसभंगरयण गाहा इमा अमजमंसासि अमच्चरी य, प्राइम लहुस कारण, देसेतरे जंग सोलस हवति । अभिक्खणं निव्विगयं गया य । एत्यं पुण जे गेझा, ते पुण वोच्चं समासेणं ॥८॥ अनिक्खणं काउस्सग्गकारी, इतरग्रहणात् प्राइमबहुसणिकारणसम्वमिति-पते पदाद- सिकायजोगे पयो हविज्जा ॥ ७॥ हव्वा अमी ग्राह्याः। अमद्यमांसाशीभवेदिति योगः,अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात्। पढमे तति एकारो, वारो तह पंचमो य सत्तमयो। एते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव । ततश्च यत् केचनाभिपन्नर सोलसमो वि य, परिवामी होति अट्ठएहं॥ll दधत्यारनालारिष्टायपि संधानादोदनाधपि प्राण्यङ्गत्वात् पढमो ततिओ एक्कारसो वारसो पंचमो सत्तमो य दो चरिमा | त्याज्यमिति । तदसत् | अमीषां मद्यमांसत्वायोगात।लोकशाय यथोद्दिष्टक्रमेण स्थापयित्वा इमं ग्रन्थमनुसरेजा। स्त्रयोरप्रसिद्धत्वात् , संधानप्राण्यङ्गतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी, श्राइमलहमएणं, कारण णिकारणे व तत्येव । अतिप्रसङ्गदोषात् , द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमआइम देससव्वे, लहुसे तहिँ कारणं णस्थि ।।GUN | नादिप्रसङ्गात, इत्यलं प्रसड़ेन अक्षरगमनिकापात्रप्रक्रमात् । प्राइमलहुसरण कारणे इति प्रथमः । निक्कारणे तत्थेवेति तथा श्रमत्सरी च न परसंपदुद्वेषी च स्यात् । तथा अभीदणं प्राइमलहुसे अनुवर्तमाने निक्कारणं द्रष्टव्यं द्वितीयो भङ्गः। पुनः पुनः पुटकारणाभावे, निर्यिकृतिकश्च निर्गतविकृतिपरिपढमबितीपसु देसम्मि अर्थो जटव्यः पश्चार्धन तृतीयचतुर्थ- भोगश्च भवेत् । अनेन परिभोगोचितविकृतीनामप्यकारण भङ्गो गृहीती । अणाइमं तृतीये देसे,चतुर्थे सर्वे बहुसमित्यनु:] प्रतिषेधमाह-तथा अभीषणं गमनागमनादिषु विरुतिपरिभो. वर्तते, ततियचउत्थेसु कारणं पत्थि । मेऽपि चान्ये । किमित्याह-कायोत्सर्गकारी भयेत् । इपिंथ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१६) प्रणायार अनिधानराजेन्छः। अयायार प्रतिक्रमणमरुत्वा न किञ्चिदन्यत्कुर्यात् , तदशुद्धतापत्तेरिति । रित्रं सामायिकं छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धीयसूक्ष्मसंपतथा स्वाध्याययोगे वाचनाद्युपचारव्यापारे श्राचामाम्लादी| राययथाऽख्यातरूपं पञ्चधैव। मूलोत्तरगुणभेदतो वाऽनेकधेप्रयतोऽतिशयप्रयत्नपरो भवेत् तथैव तस्य फलवत्त्वाद्विपर्यय- त्येवं व्यवस्थिते मौनीन्द्रप्रवचनेन कदाचिदनीदृशं जगदिति सन्मादादिदोषराङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ कृत्वाऽनाद्यपर्यवसाने लोके सति दर्शनाचारप्रतिपक्षभूतमनाकिश्व चारं दर्शयितुकाम प्राचार्यों यथावस्थितलोकस्वरूपोद्घाटनएपमिनविजा सयणामणाई, पूर्वकमाहसिज्ज निसिनं तह भत्तपाणं । प्रणादियं परित्राय, अणवदग्गेति वा पुणो । गामे कुल्ने वा नगरे व देसे, सासयमसासते वा, इति दिहि न धारए ॥२॥ ममत्तनावं न कहिं वि कुज्जा ॥८॥ (अणादियमित्यादि) नास्य चतुर्दशरज्वात्मकस्य लोकस्य ण पडिमा विज्जेत्तिन प्रतिज्ञापयेन्मासादिकल्पपरिसमाप्तौ | धर्माधर्मादिकस्य वा व्यस्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्यते इत्य. गच्छन भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीतिन प्रतिमा का | नादिकस्तमेवंचूतं परिझाय प्रमाणतः परिच्चिद्य, तथाऽनवदग्रमरयेद् गृहस्थम्। किमाश्रित्येत्याह-शयनाशने शय्यांनिषद्यां तथा पर्यवसानं च परिक्षायोभयात्मकन्युदासेनैकनयदृष्ट्याऽवधारणाभक्तपानमिति । तत्र शयनं संस्तारकादि, आसनं पीठकादि, श- स्मकं प्रत्ययमनाचारं दर्शयति-शश्वतनवतीति शाश्वतं नित्यम, य्या वसतिः,निषद्या स्वाध्यायादिभूमिः,तथा तेन प्रकारेण तत्- सांण्यानिप्रायेणाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावम् । स्वदर्शने चानुकालावस्थाचित्येन भक्तपानं खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादिन प्र- यायिन सामान्यांशमवलम्य धर्माधर्माकाशादिष्वनादित्वमतिशापयेत् । ममत्वदोषात् सर्वत्रैतनिषेधमाह । ग्रामे शालिग्रा- पर्यवसानत्वं चोपलभ्य, सर्वमिदं शाश्वतमित्येवंतां दृष्टि नामादी, कुले वा श्रावककुलादौ, नगरे साकेतादौ, देशे वा म. पधारयेदिति, एवं पकं न समाश्रयेत् । तथा विशेषपक्वमाधिभ्यदेशादौ, ममत्वभावं ममेदमिति स्नेहं मोहं नक्कीचदुपकर- त्य वर्तमाननारकाः समुत्सेत्स्यन्तीति एतच सूत्रमङ्गीकृत्य यत्तणादिप्यपि कुर्यात् , तन्मूलत्वाद दुःस्वादीनामिति सूत्रार्थः॥८॥ सर्वमनित्यमित्येवंजूतबारूदर्शनाभिप्रायेण च सर्वमशाश्वतमदश०२चूलिका(रोमकृन्तनम् रोम' शब्दे निषेत्स्यते)"सीसे परो नित्यमित्येवंचूतां च रष्टिं न धारयेदिति । किमित्येकान्तेन दीहाइ बालाई दीहाइ रोमाइंदीहाइभमुहाई दीहाइ कक्स्वरोमा शाश्वतमशाश्वतं वाऽस्तीत्येवंतूतां दृष्टिं न धारयेदित्याह-- इंदी हाइवत्थिरोमाई कप्पेज वा संठवेज वाणोतं साइए णोतं एएहिँ दोहिँ गणेहिं, ववहारो ण विजानि । नियमे"प्राचा० (वमनविरेचनादिकरणं वमन शब्दे वक्ष्यते) एपहिँ दोहिँ गणेहिं, अणायारं तु जाणए ॥३॥ वखधावनादिकरणम्"धोअणं रयणं चेव, वत्थीकम्म विरेयणं । (एतेहिं दोहिमित्यादि ) सर्व नित्यमेवानित्यमेव चैतान्यां वमणं जणपलीमथं, तं विज्जं परिजाणिश्रा ॥१२॥ द्वान्यां स्थानाज्यामभ्युपगम्यमानाभ्यामनयोर्वा पक्रयोळवगन्धमलसिणाणं च,दंतपक्खालण तहा। परिग्गहित्थिकम्मं च, तं विज्जं परिजाणा" ॥१३॥ रणं व्यवहारो लोकस्यैहिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्तिनिवृत्तिसूत्र०१७० अ०। (अनयोाख्या 'धम्म' शब्द) लक्वणो न विद्यते। तथाहि-अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावं सर्व विपर्ययदर्शने नित्यमित्येवं न व्यवाहियते । प्रत्यकेणैव नवपुराणादिनायेन प्र. आदाय बंजरं च, आसुपन्ने इमं वयं । विंसाभावेन वा दर्शनात्तथैव च लोकस्य प्रवृत्तेरामुष्मिकेऽपि नित्यत्वाम्मनोबन्धमोक्षाद्यनावेन दीक्षायमनियमादिकमनर्थअस्सि धम्मे अणायारं, नायरेज कयाइ वि ॥१॥ कमिति न व्यवहियते , तथैकान्तानित्यत्वेनापि न लोको धनधाश्रादाय गृहीत्वा, किं तद् ?,ब्रह्मचर्य सत्यतपोभूतदयन्द्रियनि- न्यघटपटादिकमनागतनोगार्थ संगृह्णीयात् । तथाऽमुमिकेरोधलक्षणमा तश्चर्यते अनुष्ठीयते यस्मिस्तन्मौनीन्प्रवचनं ब्रह्म- ऽपिकणिकत्वादात्मनःप्रवृत्तिर्न स्यात् । तथा च दीवाविहाराचर्यमित्युच्यते।तदादायाऽऽशुप्रज्ञः पटुप्रशः, सदसद्विवेकशश्च। दिकमनर्थकम् तस्मानित्यानित्यात्मकस्याद्वादेसर्वव्यवहारप्रवृयत्वाप्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षित्वात् तामाह-इमां सम- तिः,अतएव तयार्नित्यानित्ययोरेकान्तत्वेन समाश्रियमाणयारहि स्वाध्ययनेनाभिधीयमानां प्रत्यक्षासन्नभूतां वाचमिदं शाश्व कामुष्मिककार्यविध्वंसरूपमनाचारमौनीन्द्रागमबाह्यरूपं विजातमेवेत्यादिकां कदाचिदपि नाचरे नाभिदध्यात्, तथाऽस्मिन् नीयात् । तुशब्दो विशेषणार्थः। कथञ्चिन्नित्यानित्ये वस्तुनि सधर्म सर्वक्षप्रणीते व्यवस्थितः सन् अनाचारं सावधानुष्ठान ति व्यवहारो युज्यत इत्येतद्विशिनष्टि। तथाहि सामान्यमन्वयिरूपन समाचरेत्र विदध्यादिति संबन्धः । यदि वा ऽऽशुप्रज्ञःस. नमंशमाश्रित्य 'स्यान्नित्यम्' इति जवति । तथा विशेषांश प्रतिघंशः प्रतिसमय केवलज्ञानदर्शनोपयोगित्वात् तत्सम्बन्धिनि क्षणमन्यथा च नवपुराणादिदर्शनतः 'स्यादनित्यम्' इति भवधमें व्यवस्थित इमां वक्ष्यमाणां वाचमनाचारं च कदाचि. ति । तथोत्पादव्ययधौच्याणि चाहद्दर्शनाश्रितानि व्यवहाराणि दपि नाचरेत् । इति श्लोकार्थः। तत्रानाचारं नाचरेदित्युक्तम् । भवन्ति । तथा चोक्तम्-"घटमौबिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिः अनाचारश्च मौनीन्द्रप्रवचनात् अपरोऽभिधीयते । मौनीन्द्रप्र. स्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ॥" :वचनं तु मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकम, स. त्यादि । तदेवं नित्यानित्यपक्कयोर्व्यवहारो न विद्यते, तथा उनयोम्यग्दर्शनं तु तत्त्वार्थश्रद्धानुरूपं, तत्वं तु जीवाजीवपुण्यपापा रेवानाचारं विजानीयादिति स्थितमिति । श्रवबन्धसंबरनिर्जरामोक्षात्मकम् तथा धर्माधर्माकाशपुलजीवकालात्मकं द्रव्यं नित्यानित्यस्वभावं, सामान्यविशेषा तथाऽन्यमप्यनाचार प्रतिषेद्धकाम आहस्मकोऽनाद्यपर्यवसानश्चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकस्तत्त्वमिति । समच्छिहिंति सत्थारो, सव्वे पाणा प्रणेलिसा । शानं तु मतिश्रुतावधिमनापर्यायकेवलस्वरूपं पञ्चधा । चा. गंठिगा वा जविस्संति, मासयं ति य णो वदे ॥४॥ Jain Education Interational | Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) अभिधानराजेन्द्रः । अणायार [] सम्यगिरवशेषतयोस्त्या स्पति कति सामनासि किं यास्यन्ति । के ते?, शास्तारस्तीर्थकृतः सर्वज्ञा:, तच्चासनप्रतिपन्ना वा सर्वे निरवशेषाः सिगमन - भव्यं जगदिति शुष्कत को भिमानगृहीतां युि ति । जीवसद्भावे सत्यप्य पूर्वोत्पादाभावादजव्यस्य न सिकिंगमनसंभवात् कामस्य चानन्त्यादनाचारता सिरिगमन संजवेन तद्यथोपपतेरपूर्वाभावादनयोच्छेद इत्येयं नो वदेत् तथा सर्वेऽपि प्राणिनो जन्तवोऽनोदशा विसदृशाः सदा परस्परचित्रणाचि सारश्यमस्ती येवमप्येकान्तेन मो यदि वा सर्वेषां भय्यानां सिसिद्धाचे विशिः सं चारेऽनीशा अभव्या एव भवेयुरित्येवं च नो वदेत् । युक्ति चोत्तरत्र वक्ष्यति । तथा कर्मात्मको प्रत्थो येषां विद्यते ते प्रन्धिका इति प्रधिक सर्वे प्राणिनः कर्मप्रताप भवि यन्तीत्येवमपि नो वदेत् । इदमुक्तं भवति - सर्वेऽपि प्राणिनः सेत्स्यत्येव कर्मावृता वा सर्वे नविष्यन्तीत्येवमेकमपि पक्षमेकान्तिकं नो वदेत् । यदि वा ग्रन्थिका इति । ग्रन्थिकवा भ विध्यन्तीतिप्रथिनेदं कर्तुमसमर्था भविष्यतीत्ययं यो व देत् । तथा शाश्वता इति । शास्तारः सदा सर्वका स्थायि गस्तीकरा प्रविष्यन्ति न समुच्छेत्स्यन्ति नोच्छेदं यास्य गोदिति | तदेवं दर्शनाचारवादनिषेधं वाङ्मात्रेण प्रदर्श्याधुना युक्ति दर्शयितुकाम श्राह एहिं दो गोहिं, बहारो ण विज्जति । एएहिँ दोहिँ ठाणेहिं, अरणायारं तु जाणए ॥ ५ ॥ (पादपोरन सरोज याईयोः स्थानयोस्तद्यथा शा स्तारः कथं यास्यन्तीति शाश्वता वा भविष्यन्तीति । यांदे वा सर्वे शास्तारस्तद्दर्शनप्रतिपन्ना वा सेत्स्यन्ति शाश्वता वा भविष्यन्ति । यदि वा सर्वे प्राणिनो हानीदृशाः विसदृशाः सदृशा वा, तथाग्रन्धिकस्यास्तपहिता या विषमतोः स्थानपोचटर व्यवहारस्तदस्तिये युकेर भावाच विद्यते। तथाहि यत्तावदुक्तं, सर्वे शास्तारः कयं यास्यन्त्येव इति । एतदयुक्तम । कयनिबन्धनस्य कर्मणो भावात्सिकानां क्याभावो न भवस्थ केवल्यपेकयेदमभिधीयते । तदप्यनुपपन्नम्। यतोऽनाद्यनन्तानां केवलिनां सद्भा धातू प्रवाहापेक्षया तदजावानावः। यदप्युक्तम् अपूर्वा या भावे सिद्विगमनवद्भावेन च सवाद्भयशून्यं जगत् स्यात् इत्ये सदपि सिकान्तपरमाधवेदिनो वचनम्। यतो भग्यराजन्ते प्रविष्यत्कालस्य वाध्यस्यमुक्तम तचैवमुपपद्यते यदि कयो न जयति सति च तस्मिन्नानत्यं न स्यात् नापि चावश्यं सर्वस्यापि भव्यस्य सिद्धिगमनेन भाव्यमित्यानन्त्यानव्यानां तत्सामध्यभाचाद् योग्यदलिकप्रतिमावत्तदनुपपत्तिरिति । तथा नापि शाश्वता एव, जवस्थकेवलिनां शास्तॄणां सिद्धिगमनसद्भावात् प्रवाढापेका शाश्वतत्वमेव । अतः कथञ्चित् शाश्वताः कथञ्चिदशाभ्वता इति । तथा सर्वेऽपि प्राणिनो विचित्रकर्मसद्भावान्नानातिज्ञातिशरीराङ्गोपाङ्गादिसमन्वितत्वादनीशा विसराः, व थोपयोगासंख्येयप्रदेशत्वार्तत्यादिभिर्धर्मः क ति । तथोल्लसित सद्वं । तया केचिद्भिन्नग्रन्थयोऽपरे च तथाविधपरिणामाभावाद् ग्रन्थिकखत्वा एव भवन्तीत्येवं व्यवस्थिते नैकान्तेनैकान्तको भवतीति प्रतिषिद्धः । तदेवमेतयोरेव प्रयोः अणायार स्थानयोर्मामानाऽऽचारं विजानीयादिति स्थितम् अपि च । श्रागमेऽनन्तानन्तास्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु भव्यानामनन्तभाग एव सिध्यतीत्ययमर्थः प्रतिपाद्यते । यदा चैवंभूतं तदाऽऽनन्त्यं तत्कथं तेषां यः । युक्तिरप्यत्र संबन्धिशब्दावेतौ मुक्तिः संसारं बिना न भवति, संसारोऽपि न मुक्तिमन्तरंग, भग्यो संसारस्याप्यभावः स्थाइतोऽभियतेनानोबहारो युज्यत इति । अधुना चारित्राचारमङ्गीकृत्वाह जे के खुद्दगा पारणा, अदुवा संति महालया । सरिसं सरिसं ती य को बदे ।। ६ ।। (जे के इत्यादि) ये केचन कुडकाः सत्त्वाः प्राणिन एकेन्द्रियन्द्रियादयोऽल्पकाया वा पञ्चेन्द्रियाः । अथवा महालया महाकायाः सन्ति विद्यते काणानां कुन्या मां महानालयः शरीरं येषां ते महालयाः हस्त्यादयः तेषां च, व्यापादने सहमति कर्मविरोध स मानं तुल्यप्रदेशत्वात्सर्वजन्तनामित्येवमेकान्तेन नो वदेत् । तथा विसदृशमसदृशं तद्व्यापत्तौ वैरं कर्मबन्धो वा इन्द्रियविज्ञानकायरवमपि नो वदेत् । यदिह वध्यापक एव कर्मबन्धः स्यात्ततः तत्तद्वशात्कर्मणोऽपि सादृश्यमसादृश्यं वा वक्तुं युज्यते, न च तद्वशादेव बधः, अपि त्वभ्यवसायवशादपि । ततश्च तवाध्यवसायनोऽल्पकायस्वच्यापादनेऽपि महद्वैरम्, अकामस्य तु महाकाय सत्य व्यापादनेऽपि स्वरूपमिति । मतदेव सूत्रेण दर्शयति-हि वनहारी ण विज्ज । एहिं दोहिं एहिँ दोहिँ ठाणेहिं, अणायारं तु जागए ॥ ७ ॥ ( एप इत्यादि ) आभ्यामनन्तरोकायां स्थानाभ्यामनयायो स्थानयोग्य कायमहाकाय सावध्यापादनापादितकन्धसदृशत्वा सदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्न युज्यते । तथाहि न बध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं वैकमेव कर्मबन्धस्य कारणम्, अपि तु वधकस्य तीव्रभावो मन्दभावो ज्ञानभा बोझानभाषा महाचैत्येतदपि तदेवं बध्यवचकोषात् कर्मबन्धविशेषइत्येयं व्यवस्थि ध्यमेवाश्रित्य सदृशत्वा सदृशत्वव्यवहारो न विद्यते इति । तथा सारे स्थान प्रारं जानीयादिति । तथाहिन्य जीवाम्यात्कर्मयन्यसदृशत्वमुच्यते । तदयुक्तम । यतोनदि जी. त्या दिसते तस्य त्वेन व्यापादयितुमशक्यत्वात् अपि त्वन्द्रियादिव्यापस्या । तथा चोक्तम्- "पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा ।। " इत्यादि । अपिच नायव्यस्य कर्मबन्धोऽयुपेतुं युक्तः तथाहियेस्यागमसाध्यस्य क्रियां कुर्वतो यद्यप्यारविपत्तिर्भवति त थापि न वे नवेद, दोषाभावात् । अपरस्य तु सर्पबुद्ध्या रज्जुमपि प्रतो नावदोषात्कर्मबन्धः, तद्रहितस्य तु न बन्ध इति । उक्तं चागमे “उच्चानियम्मियाप” इत्यादि । तन्डुलमत्स्याख्यानकंतु सुप्रसिकमेव । तदेवं विद्यवयवभावापेक्षा स्यात् सदृशत्वं स्यादसदृशत्वमिति, अन्यथाऽनाचार इति । पुनरापचारित्रीकरणाद्वारविषयानाचाराचा प्रतिपाद Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) अभिधानरा जन्ः | प्रणायार । यितुकाम आह-आहाकम्याणि सुनंति सकम् उवलितेति जाणिज्जा, अरणुत्र लित्तेति वा पुणो || ८|| साधुप्रधानकारणमादायात्यि कर्मायाधकमणि तानि भोजनवत्यादन्याचाणि " कुर्वन्ति योन्यं परस्परं तावकीन कर्म बिदेन सचानुपलानिति वा प एतदुकं नवति - श्रधाकमपि श्रुतोपदेशेन शुरूमिति कृत्वा भुञ्जानः कर्मणा नोपविष्यते, तदाऽऽघाकर्मोपोगेनावश्यतया कर्म नो देव तथा तदार गृद्ध्याऽऽघाकर्मभुञ्जानस्य तन्निमित्तकर्मबन्धसदृशत्वासत्वयोहर व्यवहारो नितिका कुज्यते । तथादिन कमस्य सत्यासत्यहरणं हा निति व्यवहारो नियुक्तिकत्वान युक्तं सत्यम, अतोऽनुलिप्तानपि नो वदेत् । यथाऽवस्थितमौनी-ड्रागमस्य त्वेवं युज्यते वक्तुमाधाकर्मोपभोगेन स्यात्कर्मबन्धः स्यान्नेति । यत उक्तम्-" किञ्चिबुद्धं कल्पम कल्पं वा स्यादकल्पमपि कल्पम् । पिएकः शय्या वस्त्रं, पात्रं वा भेषजायं वा ॥ १ ॥ तथाऽन्यैरप्यनिहितम् - "उत्पद्येत हि साssवस्था, देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य कर्म कार्ये च वर्जयेत् ॥ २ ॥ इत्यादि ॥ ८ ॥ " स्यात्, किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यते इत्याहएएहि दोहि ठाणेहिं, ववहारो ए विज्जई । ए दोहिं गोहं अवारं तु जाख ॥ ६ ॥ (पाद) यां द्वाभ्यां स्थानमाश्रितान्या मनयोर्व्यवस्थानयोरा धाकमोपभोगेन कर्मबन्धानावाभावभूतयो " बहारो न विद्यते तथाहि श्यामोपभोगने का कर्मयुपगम्येत एवं बाहानावेनापि कचित रामनयादयः स्यात् तथादिति न सम्यपथं शोधयेत् ततश्च व्रजन् प्राप्युपमर्दमपि कुर्यात् । मूर्च्छा दिसायला देते सति श्नवीकालमरणे वावरतानि यानातिमा तिरिति । श्रागमश्च सव्वत्थ संजमं संजमाम्रो अप्पाणमेव रक्वेज्जा" इत्यादिनाऽपि तदुपनोगे कर्मबन्धाभाव इति । त थाहि श्रधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने पजीवनिकाय वधः, त प्रतीतः कर्मन्यतोऽनयोः स्थानयोरेकालेनामनोहर व्यवहारो न युज्यते तथाऽऽभ्यामेवस्थाना समाश्रिताभ्यां सर्वमविजानाति स्थितम्। पुनरप्यन्यथा दर्शनं प्रति चागमानाचारं दर्शयितुमाहयदि वा योऽयमनन्तरमाहारः प्रदर्शितः स सति शरीरे भवति शरीरं पञ्चारिकाः शरीरस्य भेदानेद प्रतिपादयितुकामः पूर्वपक घारेणाह जमिदं उरालमाहारे, कम्मगं च तदेव व सव्वत्य वीरियं अत्थि, रात्थि सव्वत्य वीरियं ॥ १०॥ ( जमिदमित्यादि ) यदिदं सर्वजनप्रत्यकमुदारैः पुत्रैर्निर्वृत्तमौदारिकमेतदेव विस्तारत्यात्। तथ विमनुष्याणां भवति । तथा चतुर्वविदा कचित्संशयादायि त्याहारकम् । एतद्ग्रहणाच्च वै क्रियोपादानमपि द्रयम् । तथा क र्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् एतत् सहस्रारितं तेजसमपि ग्राह्यम् । औ अणायावाइण् दारिकयक्रियाहारकाणां प्रत्येक तेजसकार्मणा सह युगप उपलब्धः कस्यचिदेकस्वारा स्वादतस्तमप्रायादेवतयदेवीदारिकं शरीर त एव जसकार्मण शरीरे । एवं वैक्रियाहारकयोरपि वाच्यम् । तदेवंभूतां संज्ञां नो निवेशयेदित्युत्तरश्लोके क्रिया । तथैतेषामात्यन्तिको भेद इत्ये तामसिंहांनो निवेशयेत् । युक्तिधात्र योकानामे एव तत इदमैौदारिकमुदारपुफलनिष्पन्नं, तथैतत्कर्मणा निर्व र्तितं कार्मणं, सर्वस्यैतस्य संसारचक्रवालस्य भ्रमणस्य करण तेज तेज एवं तेजस, भार जसबन्धिनिमित्तं चेत्येवं नेदेन संज्ञा निरुक्तं कार्ये च न स्यात् । अथात्यन्तिको भेद एप ततो घटोदेशकालोलब्धिः स्यात् । न नियता युगपडुपलब्धिरित्येवं च व्यवस्थिते तदेवमीदारिकादीनां शरीराणां भेदाभेदी यांना सर्वपरमेदः का संततम्। प्रदधुना स्यैव यस्य भेदाभेदी प्रदर्शकाः पूर्वपथन दर्शयितुमाह-- (सव्वत्थ वीरियमित्यादि ) सर्व सर्वत्र वि द्यत इति कृत्वा साङ्ख्याभिप्रायेण सत्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यैकत्वात्तस्य च सर्वस्यैव कारणत्वात्, अतः सर्व सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते घटपटाद्यवयवस्य व्यक्तस्य वीर्य शक्तिविंधते । सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्कार्यकारणयोश्चैकत्वाइतः सर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं संको तपाय व भागे नामनियुक्तिः वक्ष्यते) सूत्र ०२ श्रु०५ अol ("णत्थि लोए अलोए वा, ऽणेवं सरणं पिवेद" इत्यादि सूत्राणि अथवा शब्दे प्रदर्श श्रतोऽभोगामागवितार्थमाह " से य जालमजाणं वा, कहुं आहम्मियं पयं । संचरे विप्पमप्पाणे, वीयं तं न समायरे ॥ ३१ ॥ साधुजनानन् वा अनोगतोऽमाभोगतत्यर्थः कृत्वा अधार्मिक पदम कथचिपामूली त्तरगुणविनाम ति नावः। संचरेत्किमात्मानं भावतो निवर्त्यालोचनादिना प्रका रेण, तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेद नुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः । वादअणायारं परकम्प नेव गृहे न निन्हवे । सुई सया वियमभावे, असंसत्तो जिदिए ॥ ३२ ॥ अनाचारं साद्ययोग पराक्रम्य गुरुका आ येन निपीत नं किञ्चित्कथनम एकान्ताऽपलापः । किंविशिष्टः सन्नित्याह-शुचिरकलुषमतिः, सदा विकटभावः प्रकटनावः, असंसक्तोऽप्रतियकः क्वचिजीतेन्द्रियो जितेन्द्रिय प्रमादः सन्निति । दश००अ०] ( सिकान्तपाकी न कदाचिदयनाचारीति 'मंदिसेष' शब्दे उदारत तथा त्रिविधो 'किस' शब्द यते अरणायारज्जाण अनाचार ध्यान- न० न श्राचारोऽनाचारः । नत्रः कुत्सार्थत्वाद् दुष्टाचारस्य ध्यानमनाचारः । दुर्ध्याने, वरदावं ध्यायतः कोसापोरिव देवानामनागमनजितुकामस्या पाठसूरेवि वा कुभ्याने, श्रातु० । अशावावाइ (ए) अनात्मवादिन- पुं०] आत्मानं वदितुंशी समस्त भूमापन दो मनपरि मस्तिके सर्वव्यापिनं नित्यं णिके वाSSत्मानम ज्युपगन्तरि, आचा० १ ० १ ० १३० । - " Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणायाविण अणावादि (ण) अनातापिन् पुं० न आतापा पनां शीतादिसहनरूपां करोतीत्यनातापी । मन्दश्रद्धत्वात्परीषदासहिष्णौ, स्था० ५ ० २ उ० । अणारं अनारम्भ० जीवानुपघाते भ० श०१० जीवानुपद्रवे, "सत्तविहे अणारंभे परणन्ते । तं जड़ा-पुढविकाश्यणारंभ जाव अजीवकायभणारंजे " स्था० ७ वा० । न विद्यते सावद्य श्रारम्भो येषां ते तथा । सावद्ययोगरहितेषु, " अपरिग्गदो श्रणारंजा, भिक्खू ताणं परिवए " सूत्र० १ श्रु० १ ० ४ ० । अारंभी (ए)- अनारम्नजीविन् पुं० आरम्भसा वयानुष्ठानं प्रयोगों था, तद्विपर्ययेण वनारम् तेन जीवितुं येषां ते अनारम्नजीविनः समस्तारम्भनिवृतेषु यतिषु श्राचा० । ( ३१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । आतिए आवंतिलोयांस अणारंजजीविए तेतु चैवमारंभजवी एत्योवर तं झोसमाणे । यावन्तः केचन लोके मनुष्यलोके अनारम्भजीविनः आरम्भः सायानुप्रमयोगोवा या ि जासु सोयागमयादि । सन्यो पमग, समणस्स वि हो" ॥१॥ तद्विपर्ययेण वनारस्तेन जीवितुं शीलमेघामित्यनारम्भजी पिनो यतयः समस्तारम्भानवृत्तास्ते ध्वेव गृहिषु पुत्रकलत्रस्वशरीराद्यर्थमा रम्नप्रवृत्तेष्वनारम्भजीविनो भवन्ति । एतदुक्तं भवति - सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तेषु गृहस्थेवेदसाधनार्थमनस्यारम्भजीविनः साधयः पङ्काधारपि लेपा एव भवन्ति । यद्येवं ततः किमित्याह - ( पत्थोवर इत्यादि ) त्रास्मिन्सावद्यारम्भे कर्त्तव्ये उपरतः संकोचितगात्रः । अत्र चाईते धर्मे व्यवस्थितः उपरतः पापारजात् किं कुर्यात् स तरसावधनुष्यान्तकर्मको पनि भावं भजत इति । श्राचा० | प्रारंभहाण - अनारम्नस्यानन० असायचारम्भस्थाने, एतमिच्छे असाहू तत्थ णं जा सा सव्वतो विरई पसाणे श्रारंभ ठाणे श्रारिए " सूत्र० १० २ अ० । अधारक- अनारम्० केवनिनिशिएगिभिर्वानाचीर्णे, "आरं जं चडणारंभ अणारद्धं च ण आरभे" आचा० १ श्रु० २ अ० १ ० । अणाराहय-अनाराधक- त्रि । विराधके, अणायावी अस्समिप धम्मस्स अणाराहर नव" । स्था० ४ ० ३ उ० । अखारिय-अनार्य-५० न माय्यों नायः अहानावृतत्वादसदनुष्ठायिनि सूत्र० १ ० १ अ० २ उ० । पापात्मके, भ० ३ श० ६ उ० । सूत्र० । अकार्थ्यकर्मकारिणि, नि० ० १७ उ० । धर्मसंहार, शिष्टसंमतनिखिलम्यवहारे वा क्षेत्रे, सूत्र० १ श्र० ५ ० १ ० [ तच " 66 सग जवण सबर बब्बर- काय मुरुंड्डगोडपकरणया । अरवागारामय पारसखसखासिया चैव ॥ १ ॥ डुंविलयल कुमवोकस - निबंध पुलिंद कोंच मररुया | कात्रोयचीणचुंचुय- मालवदविमा कुलत्थाय । केक किराययमुद्ध स्वरम्हगयतुरगमिंडयमुद्दा य कायका विप्रणारिया बहवे ॥ ३ ॥ अणारिय शकाः, यवनाः, शबराः, बर्बराः, कायाः, मुरुएमाः, बड्डाः, गोड्डाः, पक्कणकाः, अरवागाः, हुणाः, रोमकाः, पारसाः, खसाः, खासि कालिका, लकुशा कसा मिठ्ठा, चन्द्रा पुग्दा कौञ्चाः, भ्रमरस्ताः, कापोतकाः, चीनाः, चुञ्चुकाः, मालवाः, अविडाः, कुत्रार्थाः, कैकेयाः, किराताः, इयमुखाः, खरमुखाः, गजमुखा तुरङ्गमुखा, मिष्टकमुखा: इर देशा अनार्याः । श्रन्येऽपि देशा श्रनार्याः । प्रव० २७४ द्वा० । न केवलमेत एव किन्त्व परेऽप्येवं प्रकारा बहवोऽनार्या देशाः प्रश्नव्याकरणादिधन्धोका विशेषाः । तथाच सूत्रम्- बहने मिलजाई, किं ते सका जवा सरबरगा योजनमित्तिय पकाणिया कुलक्खा गौमसिंहलपारसकोंच अंधदविलचिल पुलिंद आरोस डोवपोकाणगंध - हारगवलीयजना रोसा मासा वनसमलया य चुंचुया य यूलियों कगामेयपटुवमालवमहुरयाजासिया - कचीणलासियखसखासिय नेहरमर हि ययामविस कुणकेरोमगरुरुमा चिल्लायासयवासी व पाव मणो । हमे बह मिजार सिम्लेच्छजातीयाः किं ते इति है। तद्यथा - शंकाः १, यवनाः २, शबराः ३, वर्बराः ४, कायाः ५, मुरुएमाः ६,उड्डाः ७, भएका ८, जित्तिकाः ६, पक्कणिकाः १०, कुल्लाकाः ११, गौमा : १२, सिंहलाः १३, पारसाः १४, क्रौञ्चाः १५, भन्धाः १६, इविडा १७ विश्वलाः १० पुलिन्दा १२ आरोप २० २१, पोक्काणाः २२, गन्धहारकाः २३, बहल्लीकाः २४, जल्लाः २५, रोसाः २६, माषाः २७, बकुशाः २८, मलयाश्च २६, चुञ्चुकाश्च ३०, चूलिकाः ३१, कोङ्कणगाः ३२, मेदाः ३३, पहवाः ३४, मालवाः ३५, मदुराः ३६, श्राभाषिकाः ३७, अणक्काः ३८, चीनाः ३६, लासिकाः ४०, खसाः ४१, खासिकाः ४२, नेष्टराः ४३, (मरहट्ट त्ति) महाराष्ट्र. ४४ (पाठान्तरे पामुट्टी ४४.) मीट्रिका ४६, धारचा: ४७, डोम्बिलिकाः ४८, कुहणाः ४६, केकयाः ५०, हुणाः ५१, रोमकाः ५२, रुरवः ५३, मरुकाः ५४, इति । एतानि च प्रायो लुप्तप्रथमाबहुवचनानि पदानि तथा बिलातविषयवासनाले देशवासिनः । एते च पापमतयः । प्रश्न० १ श्रश्र० द्वा० । अथ सामान्यतोऽनादेशस्वरूपमाह पादाय चमकम्मा, अणारिया निग्विणा शिरनुतापी । धम्मो क्राई, सुइणे वि न नज्जए जेसु ।। एते सर्वेऽनादेशाः पापाः पापमपुण्यप्रकृतिरूपम नत्वात् पापाः । तथा चण्डं कोपोत्कटतया रौद्राभिधानरसविशेषप्रवर्तितत्वादतिरौद्रं कर्म समाचरणं येषां ते चण्डकर्माणः, तथा न विद्यते घृणा पापजुगुप्सालक्षणा येषां ते नि खा:, तथा निरनुतापिनः सेवितेऽप्यकृत्ये मनागपि न पक्षातापभाज इति भावः । किञ्च येषु ' धर्मः ' इत्यक्षराणि स्वप्रेsपि सर्वथा न ज्ञायन्ते केवलमपेयपानाभक्ष्यभक्षणागम्यगमनादिनिरताः शाखाप्रतीतवेषभावादिसमाचाराः सर्वे:यमी अनार्या अनार्यदेशा इति । प्रव० २७४ द्वा० । श्रार्यनार्य क्षेत्रव्यवस्था चेत्थम्जत्थुष्पत्ति जिणाएं, चक्कीणं रामकहाणं ! Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२०) श्रणारिय अभिधानराजेन्द्रः । प्रणाबिलप्पण यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य, शेषमनार्यमिति। श्राव- सतप्रगुणतामात्रेण तदविसंवादित्वेन च समानोऽनासम्बनो योश्यकचूर्णी पुनरित्थमार्यानार्यव्यवस्था उक्ता-" जेसु केसु वि गः,यदा तु तस्य वाणस्य विमोचनं लक्ष्याविसंवादि पतनमापएसेसु, मिहुणगाणि पट्टिपसु हक्काराइया नाई पारूढा ते त्रादेव लक्ष्यवेधकं तदा पालम्बनोत्तरकालभावी तत्पातकल्प: पायरिया,ससा अनारिया" इति । प्रव०२७५ द्वा०। (अनार्य- सासम्बनः केवाक्षानप्रकाश इत्यनयोः साधर्म्यमङ्गीकृत्य निदक्षेत्रे न विहर्तव्यमिति — विहार' शब्दे वक्ष्यते ) "भयंसिधा शनम् । षो०१५ विवाअष्ट। महत्ता वा प्रणारिएहिं " विभक्तिव्यत्ययादनार्मेच्छादि- अणानंबणपश्टाण-अनासम्बनप्रतिष्ठान-त्रिकाअविरामानमाभिर्जीवितचारित्रापहारिभिरभिभूतानामिति शेषः । स्था०५ सम्बनं प्रतिष्ठानं त्राणकारणं यत्रस तथा। पालम्बनरककरहित, ठा०२ उ० । सः। अनाया म्लेच्छास्ततश्च साधुनिन्दा- प्र० ३ प्राध० हा० । दिना अनार्या इव अनार्याः। साधुप्रत्यनीकेषु. उत्त०३०। प्रणालत्त-अनालपित-त्रि० । प्रभाषिते, "पुब्धि प्रणामसेणं अागारियट्ठाण-अनार्यस्थान-न० । सावद्याऽऽरम्भाश्रये, पालवित्तए वा संबवित्तए वा" प्रति० । उपा०। सूत्र०२ श्रु०२०। अणामस्स-अनालस्य-न। अनुत्साहे, तं० । 40 स० । कृतोअणारोहग-अनारोहक-त्रि० । न० ब०।योधवर्जिते, "प्रणा दयमे, व्य०७ उ०। सप अणारहिए अणारोहए" भ० ७ ० ९.००। प्रणालम्सलिय-अनालस्यनिवय-पुं०। अनालस्यमुत्साहश्रणानंबण-अनालम्बन-न न विद्यते पालम्बनं यस्य तद स्तस्य गृहम् , अकार्यादौ सादरं प्रवृत्तिहेतुत्वात् । योषिति, २०॥ नालम्बनम् । स्वोपादानकणमात्रादुत्पद्यमाने कस्यापि विषय श्रण लाव-अनानाप-पु० । नमः कुत्सार्थवादशीसेत्यादिवत स्याऽनवगमके बुरूझाने, अने०४ अधि०। कुत्सित आलापोऽनालापति। वचनविकल्पजेद, स्था०७ मा०। प्रणालंबणजोग-अनासम्बनयोग-पुं०। परतत्त्वविषये ध्यान प्रणालिछ-अनाश्लिष्ट-त्रि० । अकृताऽऽश्लेषे , प्रय० २ द्वा०। विषये, षो। आव०। कः पुनरनालम्बनयोगः कियन्तं कालं भवतीत्याह अणालोझ्य-अनालोचित- त्रिनता अनिवेदिते, न०५०। गुरूसामर्थ्ययोगतो या, तत्र दिवेत्यसङ्गशक्त्यादया । नांसमीपेऽकृतालोचने,औलासादरमवीक्किते,"मूर्तिः स्फूर्तिमती साऽनासम्बनयोगः, प्रोक्तस्तददर्शनं यावत् ।।।। सदा विजयते जैनेश्वर। विस्फुर-मोहोन्माद घनप्रमादमदिराम(सामयेत्यादि) शास्त्रोक्तातू कपकश्रेणीद्वितीयाऽपूर्वकरण- तैरनामोकिता" अनालोकितासादरमवीक्वितेत्यर्थः अनामोकिभाविनः सकाशात् । सामर्थ्य योगस्वरूपं चेदम्-“शास्त्रसंदर्शि- तपदस्य सादरमनासोकितत्वेऽर्धान्तरसंक्रमिततया वाच्यत्वाद, तोपाय-स्तदतिकान्तगोचरः । सरधोका द्विशेषेण, सामा- अन्यथा चकुप्मतःपुर:स्थितषस्तुनोऽनालोकितत्वानुपपत्तेः,प्रतिक ख्योऽयमुत्तमः"सायातत्र परतत्वे द्रमिच्या दिहका इत्येवस्व प्रणालोश्यअपमिकंत-अनालांचिताप्रतिक्रान्त-त्रिकाअनारूपा, असला चासौ शक्तिश्च निरभिध्वजानवरतप्रवृत्तिस्तयाऽऽ- लोचितवासी अप्रतिक्रान्तश्च । गुरूणां समीपेऽकृतालोचने दोव्या परिपूर्णा,दिक्का,मा परमात्मविषये दर्शनेच्या अनासम्बन- पाच्चानिवृत्त, और। योगःप्रोक्तः,नद्वेदिभिस्तस्य परतत्वस्यादर्शनमनुपलम्भः,तद्य अणालोइयभासि ( ए )-अनालोचितनापिन्-पुं०। सम्यग्थावत् परमात्मस्वरूप दर्शने तु केवलज्ञानेन अनासम्बनयोगो कानपूर्वकमपर्यालाध्य भाषके, प्रव०७२ द्वा०। न भवति, तस्य तदालम्बनत्वात् । कथं पुनरनालम्बनोऽयमित्याह अणाझांय-प्रमानोक-पुंजन० त०।अझे, "चुलिसी जोणितत्राप्रतिष्ठितोऽयं, यतः प्रवृत्तश्च तत्त्वतस्तत्र । सयसह-स्स गुषिलं अणालोकमंधयारं ति" ( संसारसागर वर्णकः ) अनालोको नामाज्ञानान्धकारो यस्य स तथा । प्र०४ सर्वोत्तमानुजः खलु, तेनानालम्बनो गीतः ।।६।। श्राश्र० द्वा०। (तत्रेत्यादि ) तन परतस्पेऽप्रतिष्ठितोऽलब्धप्रतिष्ठितः अयम प्रणावाय-अनापात-नान प्रापातोऽज्यागमः परस्य मन्यस्य नालम्बनः, यतो यस्मात्प्रवृत्तश्च ध्यानरूपेण तवतो वस्ततस्तत्र स्वपरपक्वस्य वा यस्मिन् स्थएिको तदनापातम् । प्रव. ए. परतस्ये सर्वोत्तमानुजः खलु सर्वोत्तमस्य योगस्यानुजःप्रागन द्वा०। जनसंपातरहिते, बर्जिते,भ००श०६०।०। पं०व०॥ स्तरवर्तिना कारणेनानालम्बनो गीतः कथितः॥६॥ किं पुनरनालम्बनावतीत्याह बिजने, प्राचा०२१०१०५उ० बोकानामुपागमनरहिते, उत्स० २४० रुयाद्यापातरहिते स्थगिमसे, आव०४०।३० । द्रागस्मात्तदर्शन-मिषुपातझानपात्रतो झेयम् । अणाबन-धानाविन-त्रि०ान००। अकलुषे, रागद्वेषासंपृक्तएतच्च केवलं तद , ज्ञानं यत्तत्परं ज्योतिः।।१०।। तया मलरहिते, सूत्र०१ श्रु०१५ ० । (जागित्यादि )जाक शीप्रमस्मात्प्रस्तुतादनालम्बनात्तदर्शनं ऋणाबिल-त्रि०।ऋणेन कमुषे, पातु० । परतत्वदर्शनमिषोः पातस्तद्विषय हातमुदाहरणं तन्मात्रादिषु पातज्ञानमात्रतो इयं तदर्शनम् । एतरुच परतत्वदर्शनं केवलं प्रणाविक्षज्काण-अनाबिनध्यान--10 । अणमृणं तेनाऽऽविनः संपूर्णम् । तदिति तत्प्रसिकं ज्ञानं केवलज्ञानमित्यर्थः । यत्तत्के- कमुषः ऋणाविनः, तस्य ध्यानम् । तैयकर्षलाया यतिनगिन्या वलझानं परं प्रकृष्टं ज्योतिः प्रकाशरूपम् , घुपातोदाह- व दुर्ध्याने , अातु। रणं च यथा- केनचिनुर्धरेण लक्ष्याभिमुने वाणे तद- अणाबिलप्प (ए)-अनाबिलात्मन्-पुं० अनाविलो विषयमिसंवादिनि प्रकलियने यावत्सस्य वागास्य न विमोचनं वाव. कपायैरनाकुल प्रारमा यस्यासावनाविलात्मा । निष्कषायिनि, Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाविलप्पण अन्निधानराजेन्द्रः। प्रणाह "अभयंकरे भिक्खू भणाबिसप्पा " सूत्र०१ ध्रु० ७ ०। सूत्रत्रयम्-एतेषां तु प्राणियधधिरत्यादीनां समित्यादीनां चानाअणावुद्धि-अनावृष्टि--स्त्री०। वर्षणाऽभावे, स० । वहेतूनां (विवच्चासे त्ति) विपर्यासे प्राणियधादावशमिप्रणासंसि ( ण् )-अनाशंसिन-- पु ताश्रोतृत्यो वस्त्रा- तत्वादी च रागद्वेषाज्यां समार्जितमुणार्जितरागद्वेषसमार्जितं, धनाकाङिणि प्रवचनसारपरिकथनयोग्ये, वृ०१ उ० । प्राचा. कर्मेति गम्यते, तन्मे कथयतेति शेषः। एकमेकत्र वस्तुनि अभिर्याचाराधनाशंसारहिते, सांसारिकफलानपेके वा,मालोचनाप्र निवित्वेन मनो यस्याःसा एकमनाः,रिवति शिष्याभिमुखीदानयोग्ये, आशंशिनो हि सममातिचारालोचनासंजवात् पाश करणम, सनिरुले पाल्यादिना निषेद्ध्ये, जलागमे जलप्रवेशे,(7साया पवातिचारत्वात् । धर्म० २ अधिः ।ग० । प्रव०। पश्चा०। स्सिचणाए ति ) सूत्रत्वात्सेचनेनारघट्टघटीनिवहादिनिरुदअणासग-अनश्वक-त्रि। भश्वरहिते, ज०७ श०६ उ०। श्चनेन (तवणाए त्ति) प्राग्वत्तपनेन रविकरनिकरसन्तापरूपेण क्रमेण परिपाट्या शोषणा जलाभावरूपा भवेत् । पापकर्मनिरा. प्रणासच्छिन्न-अच्चिननाम-त्रि०। अकृत्तघ्राणे, नि०चू०४१०। धवे पापकर्मणामाश्रवाजावे, भावकोटीसश्चितमित्यत्र कोटिनअणासम-अनासन्न-त्रि० । अनिकटवर्तिनि, उत्त० २० अ०। हणमतिबहुत्योपलकणम, कोटिनियमासंभवात,कर्म तपसानिअणासत्ति-अनासक्ति-स्त्री० । अप्रतिबद्धतायाम, स्वजनादिषु जर्जीयते आधिक्येन कयं नीयते,शेष स्पष्टमितिसूत्रत्रयार्थः । उत्त. नेहानावे, भ०१ श० उ०। ३० अ० । पञ्चत्रिंशे गौणप्राणातिपातविरमणे, तस्य कर्मबन्धनिश्रणासय-अनाशय-त्रि० । न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो रोधोपायत्वात् । प्रश्न०१ सम्ब० द्वा०। प्रा समन्तात एवन्ति यस्यासावनाशयः । अव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके गुरुवचनमाकर्णयन्तीति आश्रवाः । न तथा प्रतिनाषाविषयस्य जावतोऽनास्वादके तीर्थकृति , तद्गतगार्यानावात् । सूत्र. १ तस्याश्रवणादनाश्रवः । गुरुवचनेऽस्थिते, "अणासवा थूलवया श्रु० १५ अ०। कुसीता, मिउंपि चंमं पकरेंति सीसा" इति दुर्विनीतसवणम् । मणासव-अनाश्रव-पुं० । न विद्यन्ते पाश्रवा हिंसादयो यस्य। उत्त०१०। आश्रवः व्रतविशेषे , आचा० । ३४ पापकर्मबन्धरहिते हिंसाद्याश्रवद्वारविरते , क.प्र.। श्रणासाइज्जमाण-अनास्वाद्यमान-त्रि० न०त० । केवलं रसउत्तः । प्राणातिपातादिरहिते, औ० । “अणासवे श्रममे अकि नेन्ज्यिविषये, भ०१ श० १००। चणे" औ० । अविद्यमानपापकर्मबन्धे, श्री०। आश्रवति तानू२ अपासाएमाण-अनाशयमान-त्रि० । आशाविषयमकुर्वाणे , शोजनत्वेन अशोभनत्वेन वा गृहातात्याश्रवः, नाऽऽश्रवोऽना उत्त० ए ० । भ्रवः । मध्यस्थे रागद्वेषरहिते, १०।। अनास्वादयत-त्रि० । अभुजाने, उत्त० २६ अ० । सदाणि सोच्चा अदुजेरवाणि, अणासवे तेसु परिवएज्जा। अणासायणा-अनाशातना-स्त्री०म० त० । तीर्थकरादीनां शब्दान् वेणुवीणादिकान्मधुरान् श्रुतिपेशलान् , श्रुत्वा स- सर्वथाऽहीलनायाम, दश० ६ ० १ उ०। द्वा० । मनोवाकायैः माकर्य, अथ भैरवान् भयावहान्, कर्णकटूनाकर्य, तेष्वनुकू- प्रतीपवर्जने, उत्त० १ अ०। सेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपागतेषु शब्देश नाश्रवो मध्यस्थो अणासायणाविणय-अनाशातनाविनय-प० । अनुचितक्रियारागद्वेपरहितो नूत्वा परि समन्ताद् व्रजेत्परिव्रजेत्, इति । वृ०३ | निवृत्तिरूपे दर्शनविनयभेदे, अयं च पञ्चदशविधः। आह चउ० । नवकर्मानुपादाने, प्रश्न १ श्राश्र0 द्वा० । "तित्थगरधम्मायरि अ-चायगे थेरकुलगणे संघे । संभोगिअनाश्रवणैव सर्वथा कर्मकय इति यथाऽसौ भवति तथाह- अकिरियाए, मश्नाणाईण य तहेव" सांभोगिका एकसमाचापाणवह मुसावायं, अदत्त मेहण परिग्गहाविरआ। रिका क्रिया आस्तिकता । अत्र भावना-तीर्थकराणामनाशातराईभोयण विरो, जीवो होई अणासवो ।। नायां तीर्थकरप्राप्तधर्मस्यानाशातनायां च वर्तितव्यमित्यवं सपंचसमिओ तिगुत्तो, अकसानो जिइंदिओ। वत्र व्यमिति । "कायवा पुण भत्ती, बहुमाणो तह य चमवा. आगारवो य निस्सहो, जीवो होइ प्रणासवो ॥ श्री य । अरहतमाश्याणं, केवलनाणावसाणाणं"॥२॥ स्था० ७० धाद सूत्रद्वयं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरं, विरत इति प्राणवधादिभिः अणासिय-अनाशित-त्रि० । बुभुक्किते, “अणासिया णाम मप्रत्येकमन्निसम्बध्यते । तथा नवत्यनाश्रव इति अविद्यमानकमोपादानहेतुः । द्वितीयसूत्रेऽप्यनाश्रवः समित्यादिविपर्ययाणां हासियाला, या गम्भिको तत्थ सयासको वा" सूत्र० १ १० कोपादानहेतुत्वेनाथवरूपत्वात, तेषां चाविद्यमानत्वादिति ५ अ० २ उ०। सूत्रद्वयार्थः । एवंविधश्च तादृशं कर्म यथाऽसौ क्पयत्या श्रणासेवणा-अनासेवना-स्त्री० । आसेवनाधिरहे, प्राचाo राधनाय । १ श्रु००अ०३० । पुनः शिष्यानिमुखीकरणपूर्वकं दृष्टान्तद्वारेण तदाह अपह-अनाथ-त्रि०ा अशरणे, नि० चू०३ उ०। निःस्वामिनि. एपर्सि तु विवच्चासे, रागदोससमज्जियं । विपा० १७०७ अयोगमकारिविरहिते, प्रश्न० १ आश्र. द्वा० रहे, शा०८० श्रात्मनोऽनाथत्वपरिनाचयितरिमखबई तवसा जिक्खू, मएगग्गमणो सुणो॥ निनेदे, पुं०। यथा मुनिना श्रेणिकं प्रति आस्मनोऽनाथतादर्शिजहा महातलायस्स, समिरुके जलागमे । ता-कोऽर्थः?, अनाथत्वसनाथत्वे च विचारिते। तथोक्तम्नस्सिचाणाए तवणाए, कम्मण सोसणा नवे ॥ मिकाणं नमो किच्चा, संजयाणं च भावो। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरस्सयो । अत्यधम्मगई तत्यं, अणुसहि मुह मे ॥ १ ॥ जवकोमीसंचयं कम्म, तवमा णिज्जरिजइ ॥ जोः शिष्याः ! मे मम अनुशिष्टिं शिक्षा यूयं श्रुणुत । कि Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) अनिधानराजेन्द्रः अणाह कृत्वा ? सिकान् पञ्चदशप्रकारान् नमस्कृत्य च पुर्ननावतो - कितः संयतान् साचून आचार्योपाध्यायादिसर्वसाधून नमस्कृयी मे अनुशिषि । अधर्मगतामा धर्मात्मभिःपरित अर्थसास मे अर्थधर्मस्तस्य तिनं यस्यां सा चेचगतिः तो दुष्चाप्यो धर्मस्तस्य धर्मस्य प्राप्तिकारिकाम, क्या मम शिकया दुर्लभधर्मस्य प्राप्तिः स्वादिति प्रायः पुनः कीदृशीं मं यांस त्याम् । अथवा 'तश्चं' तस्वरूपां वा, इह चानुशिष्टिरभिधया, अर्थधर्मतिः प्रयोजनम् अनोख परस्परमुपाजायल सम्बन्धः सामर्थ्यादुक्त इति सुत्रार्थः ॥ १ ॥ सम्प्रतिधर्मकथाऽनुयांगत्यादस्य धर्मकथाकथनम्याजेन प्रतिज्ञातमुपक्रमितुमाद पयरयणो राया, सेणि मगदाहिवो । बिहारजतं निजाओ, मंरिद्धिसि चेइए ॥ २ ॥ श्रेणिको नाम राजा एकदा मालितकुक्षिनाम्नि दैत्ये उद्याने विहारयाश्या उद्यान निर्माता नगरा की मस्तिकुयितइत्यर्थः कीदृशः राजा मगधाधिपः म गधानां देशानमधिपो मगधाधिपः । पुनः कीदृश: ?, प्रभूतरत्नः प्रचुरप्रधान गजाश्वमणिप्रमुखपदार्थधारी ॥ २ ॥ तदेव विशिनष्टि नागकुमलगायं नाशापविनिसेवियं नालाकुसुमसंनं, उज्जाणं नंदणोत्रमं ॥ ३ ॥ अथ ममितकुक्किनाम उद्यानं कीदृश वर्त्तते तदाह । कीदृशं सनम है, नानामविविधपीतम्। पुनः कशिम ?, नानापक्तिनिषेवितं विविधविहङ्गैरतिशयेनाश्रितम् । पुनः कीशम, नानाकुसुमपुष्यैर्व्याप्तम । पुनः कीदृशं तत् उद्यानम् ?, नागरिकजनानां क्रीमास्थानम् । नगरसमीपस्थं चममुद्यानमुच्यते पुनः कीडम, नन्दनोपन न्दनं देववनं तपमम् ॥ ३ ॥ तत्य सोपसई साहू, संजय सुसमाहियं । निस रुक्खमूलरिम, सुकुमाल सुहोश्यं ॥ ४ ॥ तत्र यने सश्रेणिको राजा साधुं पश्यति । कीदृशं साधुम ?, संयतं सम्यकप्रकारेण वर्तयत्नं कुर्वन्नम्। पुनः कीदृशम, सुसमा सुतरामतिशयेन समाधियुक्तम् । साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते, दार्थ संयतमित्युक्तम, सोऽपि च बहिः संमान् नि हवादिरपि स्यात् इति सुष्ट समाहितो मनःसमाधानवान् सुसमाहित स्तमित्युक्तम्। पुनः कीदृशम, वृक्षमूले निणं स्थि सम् । पुनः कीदृशम् ? सुकुमात्रम् । पुनः कीदृशम् ?, सुखचितं सुखयोग्यम्, शुनोचितं वा ॥ ४ ॥ तस्स रूवं तु पासिता राइलो तम्म संजए । अयंतपरमो आसी, अलो रूविडिओ ॥ ५ ॥ राज्ञः श्रेणिकस्य तस्मिन् संयते साधौ श्रत्यन्तः परमोऽतिशयमानोऽधिकोत्कृष्टः, अतुल्लो निरुपमो ऽनन्यसदृशो रूपविस्मयो रुपमा कृत्वा तस्या तुरादोवाक्यालङ्कारे ॥ ५ ॥ अहो ! वो अहो ! रूवं, अहो ! अजस्स सोम्मया । अहो ती अहो! मुनी, अहो ! जोगे असंगया ॥ ६ ॥ तदा राजा मया विन्तयति स्मोकरी अणाह अस्य शरीरस्य वर्णों गौरत्वादिः । अहो ! श्राश्चर्यकृत, श्रस्य साघोरूपं ब्रायसहितम् । मदो ! आर्यकारिणी अस्य प्रायस्व सौम्यता चन्द्रवन्नेत्रप्रियता । अहो ! श्राश्वर्यकारिणी अस्य कामिनः कमा । अहो ! आश्चर्यकारिणी वास्य मुक्तिर्निलाभता । अहो ! आधर्यकारिणी अस्वषये पिता ॥ ६॥ तस्स पाए उ वंदित्ता, काऊल य पयाहिणं । नाइदूरमणासत्रे, पंजली परपुच्छ ॥ 3 ॥ 1 तस्य साधोः पादौ वन्दित्वा पुनः प्रदक्षिणां कृत्वा, राजा नातिदुरं नात्यासन्न को अर्थ, नाति, नातिन या पृष्ठति प्रकरोति ॥७॥ तरुणासे अज्जो ! पव्वओो, जोगकालम्मि संजया ! ओ सामने, एयमहं सुखामि ते । ॥ ताण किंपृच्छति सोऽसि युवाइस संयत साधो तस्माद भोगकाले सम गृहीतदीकः, तारुण्यं हि भोगस्य समयोऽस्ति न तु दीक्षायाः स मयः । हे संयत ! तारुण्ये भोगयोग्य काले त्वं श्रामण्ये दीकायासुपस्थितोऽसि आदरसहितोऽसि तदर्थं तनिमित्तं त्वत्तः कितीकायाः कारणम ? कस्मानिमित्त दीका त्वया गृहीता ?, तत्कारणं त्वन्मुखात् श्रोतुमिच्छामीत्यर्थः । ( पाईटी का ) तरुणेत्यादिना प्रश्नस्वरूपमुक्तम् । इह च यत एव तरुणोऽत एव प्रब्रजितो जोगकाले प्रत्युच्यते. तारुण्यस्य भोगकालत्वात् । या रोगादियोगका स्थाि धान खोकामे त्वं पुनरुपस्थि तथ्य पति-उप निमित्तं येनानमीयामप्यवस्थायां प्रव्रजितः शृणोमि, 'ता' इति तावत, श्वात्तु यत्वं जणिष्यसि तदपि श्रोष्यामीति भावः । इति श्लोकसप्तकार्थः ॥ ८ ॥ 71 इत्थं राशो के मुनिराह - शाहोमि महाराय !, नाही मऊ न विज्ञ | कंप कंची शाह तुमे महं ॥ एए ॥ अनाथस्वामिकोऽस्मीत्यहं महाराज! प्रशस्यते किमित्येवम् । यतः-नाथो योगक्रेमविधाता, मम न विद्यते । तथा ( अणुकंपयंति ) श्रार्यत्वादनुकम्पको यो मामनुकम्पते ( सुहिति ) तत एव सुहृत् (कंचित्ति ) कश्चिन्न विद्यते, ममेति सम्बन्धः [ नाहि त्ति ] प्रक्रमादनन्तरोक्तमर्थ जानीहि [तुमेति ] त्वस् । पठ्यते " किंच णाभिसमे महं " किंचिनुकम्पर्क सुदं वापि नाभिसने नामिसंगच्छामिनदनुकम्पनेन, सुहृदा च संगतोऽहमित्यादिनाऽर्थेन तरुणेऽपि प्रत्रजित इति जावः । इति सुत्रार्थः ॥ ए ॥ एवं मुनिनांचेपहसिओ राया, सेणि मगहाहिवो | एवं ते मंतस्स कहं नाहो न विज्जई १ ॥ १० ॥ होमि नाहो जयंताणं, भोगे जु॑जाहि संजया ! | मिनाईपरिमो माझ ॥ ११ ॥ [] ततस्तदनन्तरं श्रेणिको मगधाधिपो राजा प्रहसितः । हे महाजाग ! एवं मितस्य कथं नाथन मिनिका 1 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगाड स्मयनयपतिमतः कथमिति केन प्रकारेण नाथो न विद्यते ?, तत्कालापेया सर्वत्र वर्तमाननिर्देशः । " यत्राकृतिस्तत्र गुणा चयन्ति तथा गुणवति चनम्, ततः श्री श्रीमत्वा ततो राज्यम्" इति हि लोकप्रवादः। तथा च न कथञ्चिदनाथत्वं भवतः संजय नाथभतिपत्तिहेतुः यतः हे पूज्या ! हे (भयंताणं इति ) दन्तानां पूज्यानां युष्माकं नाथो जवामि, यदा भवतां कोऽपि स्वामी नास्ति तदा अभवत स्वामी भवामि यदा अनाथत्वा युध्मानिका 5 ता ता नाथोस्मीति नायः हे संयत! साधो भोगा दृश्य कीडशः सन् मित्रातिभिः परिवृतः सन् खाधो ! इति नियमानुष्यं मं वर्तते तस्मान्मनुष्यर नं प्राप्य जोगान् क्त्वा सफीकुरु । ॥ १० ॥ ११ ॥ मुनिराह - अण्णा त्रिप्रणाहोस, सेणिया । मगहाडिया ! | अप्पा अणाहो संतो, कस्स लाहो अविससि १ ॥ १२ ॥ हे राजन् ! श्रेणिक ! मगधदेशाधिपत्यमात्मानोऽसि श्रात्मना श्रनाथस्य सतस्तवापि अनाथता, तदा श्वमपरस्य कथं नाथो भविष्यसीति ? ॥ १२ ॥ एवं मुनिनोएवं वृत्तो नरिंदो सो, सुसंतो सुविहिओ । वय अस्य पुत्रं, साहुणा विम्हयं निम्रो ।। १३ ॥ स नरेन्द्रः साधुना एवमुक्तः सन् विस्मयं बति आचार्य प्रापि तः कमरे सोऽत्यन्तं व्याकुल प्राप्तः पुनः कीदृशः, सुविस्मितः पूर्वमेव तद्दर्शनात् संजाताश्चर्यः पुनरपि तद्वचनश्रवणात् विस्मयवान् जातः, यतो हि तद्वचनमश्रुतपूर्व, श्रेणिकाय अनाथोऽसि त्वमिति वचनं पूर्वकेनापि भा तम् ॥ १३ ॥ यदुक्यांस्तदाहअस्सा इस्वी मस्सा मे पुरं हरं च मे । (३२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । जामि माणुसे भोए, आणा इस्सरियं च मे ॥ १४ ॥ एरिसेपयमि सव्वकामसमप्पिए । 1 क अणाड़ो जवर मा हु भेते ! मुखं पर १।। १५ ।। द्वाभ्यां गाचाज्यां वेणिको राजा पति दन्त पूज्य हु ! 1 इति निश्चयेन, मृषा मा ब्रूहि असत्यं मा वद । एतादृशे संपदये सति सम्पत्प्रकर्षे सति, अहं कथमनाथो जवामि ?, कीट सोऽहम सर्वकामसमर्पितः सर्वे च ते कामाथ सर्व कामाः, तेभ्यः सर्वकामेभ्यः समर्पितः शुनकर्मणा ढौकितः । अथ राजा स्वयं वर्णयति-सभ्या घोटका बहवो स्त्रसंपत्प्रकर्षे मम खन्ति पुनस्तिनोऽपि मथुराः सन्ति, तथा पुनर्म सुप्याः सुना सेवका पयो विद्यन्ते तथा मम पुरं न गरमप्यस्ति च पुनर्वे मम अन्तःपुरं राशी वर्तते। पुनरहं मानुष्यान् भोगान् मनुष्यसम्बन्धिनो विषयान् भुनज्मि । च पुनराशैश्वर्ये वर्त्तते श्राशा अप्रतिहतशासनस्वरूपं प्रभुत्वं वर्त्तते, यतो मम राज्ये कोऽपि मदीया माझां न ख एमयतीत्यर्थः । पतिस्तमुवाच न तुमं जाणे अणाहस, प्रत्थं पोत्थं च पत्थिवा ! । जहा अथाहो वह सखाहो वा नराहिया ! ।।२६।। हे पार्थिव ! हे राजन् त्वम् 'हाइस' अनाथ अर्थम अणाद अभिधेयम्, चशब्दः पुनरर्थे च पुनरनाथस्य प्रोत्थां नजानासि प्रकपेोत्यानं मूलोत्पत्तिः प्रोस्था तोराम, केनाभिप्रायेणायमनाथशब्दः प्रोक्त इत्येवंरूपां न जानासि । हे राजन् ! यथाऽनाथोऽथवा सनाथो भवसि तथा न जानासि, कथमनाथो भवति, कथं वा सनाथो भवति ? ॥ १६ ॥ सुणेह मे महाराय !, अव्यक्तेण चेयसा । जहा अणाहो जगह, जहा मे य पवत्तियं ॥ १७॥ हे महाराज ! मे मम कथयतः सतः स्वमव्यातिप्तेन स्थिरेण चेतसा शृणु । यथाऽनाथो नाथरहितो भवति, तथा मे ममानाथत्वं प्रवर्त्तितम् । अथवा (मेय इति) मे एतदनाथत्वं प्रवतितं तथा त्वं श्रृणु इत्यनेन स्वकथाया उट्टङ्कः कृतः ॥ १७ ॥ कोसंबी नाम नयरी, पुराणपुरजेवण ।। तत्य असी पिया मऊ, पन्यपणसंच ॥१८॥ हे राजन् ! कौशाम्बी नगरी श्रासीत् । कीदृशी कौशाम्बी ?, पुराणपुरभेदिनी जीनगर मेदिनी, पारशानि जीर्णनगराणि भवन्ति तेभ्योऽधिकशोभावती कौशाम्बी हि जीर्णपुरी वर्त्तते जीपुरस्था हि लोकाः प्रायशधतुरा धनवन्तश्च बहुझा विवे कवन्तश्च भवन्तीति हार्दम् । तत्र तस्यां कौशाम्ब्यां मम पिताssसीत् । कीदृशो मम पिता, प्रभूतधनसञ्चयः। नाम्नाऽपि धनसंचय, गुणेनाऽपि बहुलधनसंचय इतिवृद्ध संप्रदायः ॥ १८ ॥ पढमे व महाराय !, असा मेऽत्थित्रेयणा । होत्या विउलो दाहो, सव्वगत्तेसु पत्थिवा ! ॥ १७ ॥ हे महाराज ! प्रथमे वयसि यौवने एकदा श्रुतुनोत्कृष्टश, अस्थिवेदना अस्थिपीमा ( अहोत्या इति ) श्रत् । अथवा 66 अत्रेयणा " इति पाठे किवेदना नेत्रपोमा अभूत् । ततश्च हे पार्थिव । हे राजन! सर्वगात्रेषु विदान् ॥ १५ ॥ सत्यं जहा परमातिक्खं, सरीरविवरंतरे । पाविसिन अरी कुष्ठो एवं मे अस्थिवेषणा ॥ २० ॥ हे राजन् ! यथा कचिदरिः कुध्यन् कुद्धः सन, शरीरविवरान्तरे नासाकवः प्रमुखांमध्ये परमतीदणंशखं प्रदद गाढमवगाहयेत्, एयं मे ममाथि वेदनाऽनूत् (शरीरविवरतरेति) ( पाईटीका ) 3 शस्त्रवद् 1 3 शरीरचित करादीनि तेषामन्तरं मध्ये शरीरविव रान्तरं तस्मिन् पाविज्जि चि ) प्रवेशयेत् प्रक्षिपेत् । शरी रविकुमारस्यादान्तरत्वं वागावेनोपलक्षणम् । पठ्यते च शरीरवीर्यान्तरेण "श्रावलिज्ज ति " पाठान्तरे शरीरवीर्ये सप्त धातवस्तदन्तरे तन्मध्य आपीमयेद् गाढमवगाहेयत्। एवमित्यापीयमानस्य शस्यपद मे ममादिना कोऽर्थः यथा तदत्यन्तापयिषति ॥ २० ॥ तियं मे अंतरिच्छं च उत्तमं च पीमई । इंदासलिसमा घोरा, वेयणा परमदारुणा ॥ २१ ॥ हे राजन् ! सा परमदारुणा वेदना मे मम त्रिकं कटिपृष्ठयिभागम् । च पुनरन्तरिच्छाम- अन्तर्मध्य इच्छा अन्तरिच्छा, तामन्तरिच्छाम् । भोजनपानरगणाभिलाषरूपाम । च पुनरुत्तमाङ्गं मस्त पांडयति की दशी वेदना, इन्द्राशनिसमा घोरा, इन्द्रस्या शनिर्वज्रं तत्समाऽऽतिदाहोत्पादकत्वात् तुल्या, घोरा जयदा|२१| किं न प्रतिकृतवानित्याहबधिया मे आयरिया, विज्ञातविमिच्छा । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२४) प्रणाह अनिधानराजेन्द्रः। प्रणाह अधीया सत्यकुसला, मंतमूलविसारया ॥ २॥ अंसुपुलेहि नयणेहिं, नरं मे परिसिंच ॥ २० ॥ हे राजन् ! तदेत्यध्याहारः । प्राचार्या वैद्यानां शास्त्राच्या- अन्नं पाणं च एहाणं च, गंधमल्लविवेवणं । सकारकाः मे उपस्थिताश्चिकित्सा कर्तुं लग्नाः, कीरशा आचा. मए नायमनायं वा, सा बाला नोवढंजइ ॥ २० ॥ याः १, विद्यामन्त्रचिकित्सकाः विद्यया मन्त्रेण च चिकित्सन्ति खणं पि में महाराय !, पासाओ विन फिट्ट । चिकित्सा कुर्वन्तीति विद्यामन्त्रचिकित्सकाः, प्रतिक्रियाकर्तारः। न य मुक्खा विमोयंति, एमा मज्म प्रणाहया ।। ३० ।। पुनः कीदशा प्राचार्याः?, अधीताः सम्यक् परिताः । अबीया' इति पाये न विद्यते अन्यो द्वितीयो येज्यस्तेऽद्वितीया अ हे महाराज! मे मम नार्या कामिन्यऽपि पुःखन्मान मेचिय. साधारणाः। पुनः कीदृशास्ते !, शास्त्रकुशक्षा शास्त्रेषु विचक्क ति स्म । कथम्भूता नार्या ?, अनुरक्ता अनुरागवती । पुनः कणाः। पुनः कीदृशास्ते, मन्त्रमूलविशारदाः, मन्त्राणि देवाधि- थम्जूता?, अनुव्रता पतिवता पतिमनुनक्कीकृत्य व्रतं यस्याःसा ठितानि, मूलानि जटिकारूपाणि, तत्र विचवणाः मन्त्रमूमिका- अनुबता । एतादृशी भार्या मे ममोरो हृदयमश्रुपूर्णाभ्यां सोचनां गुणज्ञाः॥१२ ॥ नाच्यां सिञ्चति स्म। (पाईटीका) ते मे तिगिच्छ कुवंति, चानुपायं जहाहियं । अपरञ्च भार्या पत्नी अनुरक्ताऽनुरागवती [अणुव्वय ति] अन य सुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया ॥२३॥ न्विति कुलानुरूपं व्रतमाचारोऽस्या अनुप्रता; पतिव्रतति यावसे वैद्याचार्या मम चिकित्सा रोगप्रतिक्रियां यथा हितं भवेत्त तू, वयोऽनुरूपा वा । पठ्यते च-(अणुत्तरमणुव्यय त्ति )ह था कुर्वन्ति । कीदृशं चैकित्स्यम्, चातुष्पादं चत्वारः पादाः च मकारोऽलाकणिकः। अनुत्तरा अति प्रधाना (उरं ति ) प्रकारा यस्य तच्चतुष्पदम, तस्य भावः चातुष्पादम्, चातुर्विध्य- नरो वकः, परिषिञ्चति समन्तात् प्यावयति ॥ २० ॥ मित्यर्थः। घेद्य औषध २ राग ३ प्रतिचारक रूपम् । पुनः सा बाबा मत्कामिनी अन्नमशनं मोदकादिकं भक्ष्य, अथवा-वमन १ विरेचन २ मर्दन ३ स्वेदन ४ रूपम् । अथवा- पानं शर्करोदकादिक, पुनः स्नानं कुङ्कमादिपानीयैरनितलबीअञ्जन १वन्धनरलेपन ३मर्दनरूपम् । शास्त्रोक्तं गुरुपारंपर्यागतम्। वकमेदजवाधिप्रमुखैर्गात्रार्चनं मया हातं वा अशा स्वभावेनैचक्ररित स्थाने प्राकृतत्वात्कुर्वन्तीत्युक्तम् , ते वैद्या मां पुःखान्न व एतत्सर्वं भोगाङ्गं नोपत्तुङ्क्ते नानुनवति । मम दुःखात्सर्वाविमोचयन्ति स्म । प्राकृतत्वाद्भतार्थे वर्तमानार्थःप्रत्ययः, एषा एयपि नोगाङ्गानि त्यक्तानि।। ममानाथता वर्तते ॥२३॥ (पाईटीका) अन्यश्च स्नानं स्नात्यनेनेति स्नानम्-गन्धोदकादि,मया ज्ञातमझातं घेपिया मे सब्बसारं पि, देजाहि समकारणा। त्यनेन सद्भावसारतामाह । पठ्यते च "तारिस रोगमावमे त्ति' न य दुक्खा विमोयंति, एसा मज्क अणावया ॥२४॥ तादृशमुक्तरूपं रोगमक्षिरोगादिकम, 'आवस' प्राप्ते मयीतिहे राजन् ! मम पिता मम कारणे सर्वमपि सारं गृहे यत्सारं गम्यते । (से ति) भार्या बालेव बालाऽभिनवयौवना नोपसारवस्तु तत्सर्वमपि वैद्योज्योऽदात, तथापि वैद्या मां दुःखाद् भुङ्क्ते नासेवते ॥२६॥ न विमोचयन्तिं स्म । एषा मम अनाथता झेयेति शेषः ॥ २४ ॥ (खणं वित्ति) पुन महाराज! सा बाला मम पानिमाया वि मे महाराय !, पुत्तसोगउहट्टिया। कट्यात् ( न विफिट्टति ) न अपयातीत्यर्थः । परं दुःखान्मां न मोचयति, एषा ममानाथता झेया । न य दुक्खा विमोयंति, एमा मजा अणाहया ॥२शा [पाईटीका ] [पाईटीका] [पासाश्रो वि ण फिट्टइत्ति ] अपिश्चशब्दार्थः, ततः पार्थ्याच तथा माताजप पुत्रविषयः शोकः पुत्रशोकः, हा कथमित्थं नापयाति सदा सन्निहितैवाऽऽस्ते ॥ ३० ॥ दुःखी मत्सुतो जात इत्यादिरूपः, ततो पुःखम, तेन [अट्टियति] _ अनेन तस्या अपि वत्सलत्वमाहप्रातः। अथवा [ अद्दिय त्ति] अर्दिता, उभयत्र पीमितेत्यर्थः । तो हं एवमाहंमु, दुक्खमा हु पुणो पुणो । सतः पुत्रशोककुःखार्ती पुत्रशोकःखार्दिता वा झेया ॥ २५ ॥ भायरा मे महाराय !, सगा जिट्ठ कणिढगा। बेयणा अणुभवि जे, संसारम्मि अणंतए ॥३॥ ततोऽनन्तरं प्रतीकारेषु विफलेसु जातेषु अहमेवमवादिन य सुक्खा विमोयंति, एसा मज्क अणाहया ॥३६॥ पम् । एवमिति किम् ?, हु इति निश्चयेन या वेदना अनुभवितुं हे महाराज ! मे मम भ्रातरोऽपि स्वका आत्मीयाः, ज्येष्ठक दुःक्षमा भोक्तुमसमर्थास्ता वेदनाः संसारे पुनः पुनर्भुक्ता इति निष्ठका वृछा लघवश्व मां न च दुःखाद्विमोचयान्त स्म । एषा शेषः । वेद्यते दुःखमनयेति वेदना । दुःखेन क्षम्यते सहपते ममानाथता शेया। (पाश्टीका) इति दुःक्षमा दुस्सहा, कीदृशे संसारे ?, अनन्तकेऽपारे । [सग ति] सोकरूढित सौदर्याः स्वका वा आत्मीयाः॥२६॥ _ [पाईटीका] जइणी मे महाराय !, सगा जिट्ठ कपिढगा। तत इति रोगाप्रतिकार्यतान्तरमहमेवं वक्ष्यमाणप्रकारेण [आहंसुत्ति ] उक्तवान्, यथा [ दुक्खमा हुत्ति] हुरेवका. न य मुक्खा विमोयंति, एसा मज्झ अणाहया ॥३॥ रार्थः । ततो दुःक्षमैव दुःसहैव पुनःपुनर्वेदना उक्तरूपा हे महाराज! मे मम भगिन्योऽपि स्वका एकमातजाः। ज्ये- रोगव्यथा अनुभवितुम्, 'जे'इति निपातः पूरणे ॥ ३१॥ ठाः कनिष्ठाश्च मां दुःखान्न विमोचयन्ति स्म,एषा मम अनाथता सईच जइ मुञ्चज्जा, वेयणा विउलान मे । केया ॥ २७ ॥ खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइए अणमारियं ॥३शा भारिया मे महाराय !, अणुरत्ता अणुव्वया । अहं किमवादिषम?, तदाह-यदि सकृदप्येकवारमप्यहं घेद Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) अभिधान राजेन्द्रः | अणाह माया विमुच्ये तदाऽहं शान्तो भूत्वा पुनर्दान्तो जितेन्द्रियो भूत्वा निरारम्भः सन् अनगारत्वं साधुत्वं, प्रव्रजामि दीक्षां गृह्णाभीति भावः । कथम्भूताया बेदनाया, विपुलाया विस्तीर्णा या [ पाईटीका ] तधियमतः [सचति] वशब्दोऽपिशब्दार्थः ततः स दध्येकदापि यदि मुच्येाहमिति सभ्यते कुत:, [वयसति ] वेदनाया] [[चिडल सि] विदुलाया विस्तीर्णावा इत्यनुभूय मानायाः । ततः किमित्याह- क्षान्तः क्षमावान्, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन [प मारिति शेषं गृहानिष्कामेयम् । ततस्याऽनगारितां भावभिक्षुतामङ्गीकुर्यामिति शेषः यद्वा-प्र ब्रजेयं प्रतिपद्येयानगारित म पेन संसारोचितो मूलत एव न वेदनासंभवः स्यादिति भावः ॥ ३२ ॥ एवं च चिंताएं, पसचोमि नराहिया ! परितिय राई, नेपणा मे स्वयं गया ॥ ३३ ॥ एवं पूर्वोक्तं चिन्तनं चिन्तयित्वा हे नराधिप ! गावदहं सुप्तोSऽस्मि तावत्तस्यामेव रात्री प्रवर्त्तमानायाम् अतिकामस्यां मे मम, वेदना कयं गता ; वेदना उपशान्ता इत्यर्थः ॥ (पाटीका ) पच चिन्तयित्वा जयन्ति न केवलमुक्त्वा चिन्तयित्वा चैवं ( पसुत्तमिति ) प्रसुप्तोऽस्मि ( परियदृति यत्ति ) परिवर्तमानायामतिक्रामन्याम् ॥ ३३ ॥ तकले भायम्पि, आपुच्छित्ता बंधवे । खंतो दंतो निरारंभो, पव्वइओ अणगारियं ॥ ३४ ॥ (पाटीका ) ततो वेदनोपशमनानन्तरं (कल त्ति) कल्यो नीरोगः सन् प्रभाते प्रातः । यद्वा- [ कति ] चिन्ताऽऽदिनाऽपेक्षया द्वितीयदिने प्रतिः प्रजित कोऽर्थः प्रतिपरि मिति । यतो बेदनाया उपशाम्तेरनन्तरं (कल्येति नीरोगे जाते सति प्रभातसमये बान्धवान् स्वज्ञातीना पृच्छधाहमनगारित्वं साधुत्वं प्रव्रजितः, साधुधर्ममङ्गीकृतवान् । कीदृशोऽहम?, कान्तः पुनर्दान्तः, पुनरहं निरारम्भः ॥ ३४ ॥ तो नाही जाओ, अप्पणो व परस्स य सव्वेसिं चेत्र नूयाणं, तसाण थावराण व ॥ ३५ ॥ हे राजन ! ततो दीक्षा ग्रहणानन्तरमात्मनश्च पुनः परस्य नाथो योगकेमकरत्वेन स्वामी जातः । आत्मनो हि नाथः, शुद्ध प्ररूपणत्वात् । अपरस्य च, हितचिन्तनात् । एवं निश्चयेन सर्वेषां भूतानाम्, त्रसानां च पुनः स्थावराणां नाथो जातः ॥ ३५ ॥ किमिति प्रज्याप्रतिपस्यनन्तरं नाथवं जातः पुरा तुत्पादअप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कृमसामली । अप्पा कामपा पेण, अप्पा मे नंदवणं ।। ३६ ।। (आत्मेति व्यवच्छेदवाक्यस्यास्य नान्यः कश्चिदि त्याह--नदी सरित् । वैतरणीति नरकनद्या नाम । ततो महानर्थहेतुतया नरकनदी वा । अत एव आत्मैव कूटमिव जन्तुयातकृशानरको गया तथा आय कामानभिलापान दोग्धि प्रापकतया प्रपूरयति कामदुघा, धेनुरिव धेनुः श्यं रूढित उक्ता । पतदुपमात्वमभिलषितस्वर्गापवर्गवासिद्धेतुतया आरमेव मे मम वन्दनन्दननामकं वननुद्यानम् । धनदीपा चास्य वि अगाह यथा चैतदेवं तथाss अप्पा कत्ता विकत्ता य, उदारण य सुहाण य । अप्पा मिसममितं च दुष्पडिय मुपद्विप्रो ।। ३७ ।। आय की विधायको दुःखसुखानां देतियोग माच आत्मन एव विकर्ता च विशेषकश्वात्मैव तेषामेव । अथ धार्मिय मित्रमुपकारिता (श्रमिश्रं चेति) अमि , कारितया दुई कीटक (पुष्प सुपहितोचि ) दुष्ट प्रस्थितः सकलहेतुरिति विपादिकस्यः सुप्र स्थितथ सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वादिपः । तथा च प्रव्रज्याऽवस्थायामेवमुपस्थितत्वेन श्रात्मनोऽन्येषां च योगमकरणे समर्थत्वान्नाथत्वमिति सूत्रगर्भार्थः ॥ ३७ ॥ पुनरन्यथा नाथत्वमाह - मा नो विवाहया निवा !, हु तमेकचित्तो नि सुहि । निगह पम्मं लभियाण वी जहा सीदति एगे बटुकायरा नरा ॥ ३८ ॥ ( पाईटीका ) इयमनन्तरमेव वक्ष्यमाणा । दृ पूरणे, श्रन्या परा, अपिः समुच्चय अनाथनास्वामिना भावना जात इत्याशयः । निवृत्तिरूपतामित्य नाथतामेकचित्त एकाग्रमनाः, निभृतः स्थिरः शृणु । का पुनरसावित्याह-निर्ग्रन्थानां धर्म आचारी नियचस्तम] [मनियाण विति] पि यथेत्युपदर्शने। सीदन्ति तदनुष्ठानं प्रति शिथिलो भवन्ति । एके केचन, ईषदपरिसमाप्ताः कातरा निःसत्वा बहुकातराः। "विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु ॥ पाणि०-५।३।६८ ॥ इत्यतः प्राग् बहुच्प्रत्यये हि सर्वथा निःसत्वाः, ते मृअत एव न निर्ग्रन्यमार्ग प्रतिपद्यन्त इत्येवमुच्यते । यदि वा कातरा एव बहवः संवन्तीति, बहुशब्दो विशेषणम् । नराः पुरुषाः सीदनश्च नात्मानमन्यांश्च रकयितुं कमाः । इतीयं सीदनलक्षणा पराऽनाथतेति भावः ॥ ३८ ॥ जो पन्ना मध्यमाई, सम्मे च ना फासह से पमाया । हाय रस निके, न मूलओ जिंद बंधणं से ॥ ३७ ॥ हे राजन् ! यो मनुष्यः प्रव्रज्य दीक्कां गृहीत्वा महाव्रतानि प्र मादात् सम्यग्विधिना न स्पृशति न सेवते, [ से इति ] स प्र मादवशवर्ती बन्धनं कर्मबन्धनं रागद्वेषलक्षणं संसारकारणं लोलाइ नमिति मूलतो मोरपारयति सा रागद्वेषौ न निवारयतीत्यर्थः । [ पाईटीका ] मोनासेवते प्रमादानादेरनिग्रहेोऽविद्यमान विषय नियन्त्रणे श्रात्मा यस्य सोऽनिग्रहात्मा । अत एव रसेषु मधुद्धिमान् बध्यतेऽनेन कर्मेति बन्धनम रागद्वेषात् [ से इति ] सः ॥ ३० ॥ आउचया जस्स य नत्थि काई, हरियाई भासाह बसणार । प्रयाण-निक्खेव - दुगंलाए, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगाह न धीरजायं प्रणुजाइ मग्गं ॥ ४० ॥ हे राजन! यातं मार्ग नानुपाति परिहापुरु स्तीथकरेण वरैश्व पातं प्राप्तम भर्थान्मोकमार्ग न प्राप्नोति । स कः?, यस्य साधोरी र्यायां गमनागमन समिती, तथा भाषायां, तथापणायामाहारणसमिती, पुनरादानपिन समिती, वस्तूनां ग्रहणमनविधी तथा [दुगंणाय इति] उच्चारप्रधयपाणानां परिष्वापनसमिताबाऽऽयुक्त का चिन्नास्तीति ।। ४० । " तथा च चिरं पिसे मुंबई वित्ता, थिरन्वए तव नियमेहिँ नट्टे । चिरं पि प्रयाण किलेसइना, न पारए होइ दु संपराए ॥ ४१ ॥ ( ३२६ ) अभिधानराजेन्ड स पूर्वोक्तः पञ्चसमितिरहितो मुन्याभासश्चिरं मुण्डरुचिर्भूस्वात्मानमपि चिरं क्लेश पातयित्वा इति निवेन सं परापे संसारे पारगो न भवति । कीदृशः सः १ अस्थिरवतोऽस्थिराणि व्रतानि यस्य सोऽस्थिरव्रतः । पुनः कीदृशः सः, त पो नियमः कदापि तपो न करोति तथा पुनर्नियममभि महादिकं न करोति योजयति स संसारस्य पारं न प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ ४१ ॥ स चैवंविधःपोछे मुड़ी जह से असारो, तिए कूरुकहावणे वा । ढाणी वेरुवियपगासे, tear होइ हु जाएएसु ॥ ४२ ॥ स पूर्वोको मुद्दविरसारो नयति अन्तःकरणे धर्माजाचा रिक्तोऽकिञ्चित्करो भवति । स क इव ?। पोल्लो मुष्टिरिव । यथारिको मुदिरसा मध्ये सुषिर पत्र तथा मुकूटका पण श्वासत्यनाकमियायन्त्रितो जवति, नयन्त्रितोऽयन्त्रितोनादरणीयो निर्गुणत्वाडुपेकरणीयः स्यादित्यर्थः । उक्तमर्थमर्था न्तरन्यासेन कढयति-हु यस्मात्करणात् राढामारीः कान्रमणिः [[]] मणिपरीक्षक नरेषु वैर्वप्रकाशो 3मर्पको भवति बहुमूल्य न भवति वै प्रकाश स्प सवैदूर्यमप्रिकाश बैर्वमसितेजा महान व यस्य स महार्घः महात्र एव महार्घकः । न महार्घकोऽमदाधकः । अबहुमूल्य इत्यर्थः । यथा - मणिशेषु वैसूर्यमणिबहुमूल्य स्थात् तथा काचमपिमूल्यो न स्वादेवं धर्मनो मुनिः साधुर्गुणशेषु यथा सद्धर्माचारयुक्तः साधुर्वन्दनीयः स्यात्तथा स मुकरुचिर्वन्दनीयो न स्यादिति भावः ॥ (पाटीका ) "पोरी" सुषिरा असारत्वं चोभयोरपि सदर्थशून्यतथा ॥ ४२ ॥ कुसीलिंगं धारविना, इसिजी पिता । असंजये संजय क्षप्यमाणे, विणिडायमागच्छ से चिरं पि ।। ४३ ।। 9 अगाह I ( से इति ) स साध्वाचाररहितः, इह संसार चिरं चिरकालं यापत्रिघातमागच्छति पीकां प्राप्नोति किंकृत्या, कुल पार्श्वस्थादीनां चिह्नं धारयित्वा । पुनर्जीविकायै आजीविकार्थसुषिरजोहरणमुखपोतिकादित्याद्धि प्रापय विशेषेण निघा विनिपातं विविधपीकाम म कि कुणा असंयतः सन् अहं संयत इति बालप्यमान:- असाधुरपि साधुरमिति ब्रुवाणः ॥ ४३ ॥ अत्रैव हेतुमाह-चिमं तु पीयें जह कालकूर्म, हाइ सत्यं जह कुग्महीयं । एमेव धम्मो विसोवणो, हाइवेया इवाविवणो ॥ ४४ ॥ हे राजन् ! यथा कालकूटो महाविषः पीतः सन् [ हणाइति ] दति पुना कुतं विपरीत का इम्ति यमेनेष्टान्तेन विषयेरिन्द्रियविषय खाभिशापयुक्त धमपि दन्ति पुनः स विषयो धर्मोऽविष बेताल इव हन्ति । मन्त्रादिभिरकीतिः । यथा स्फुरदूबलो मन्त्रयन्त्रैरनिवारितयो बेताल महाविद्यायो मारवार्त तथा विषयसदितो धर्मोऽपि मारयतीत्यर्थः ॥ [ पाटीका ] [वेयाल श्वाविवो ति ] चस्य गम्यमानत्वाद्वेतान वाविपन्नोऽप्राप्तविपत्, मन्त्रादिनिरनियन्त्रित इत्यर्थः । पठ्यते च[ बेयान श्वाविवंधणो त्ति ] श्ह वा विबन्धनोऽविद्यमान मन्त्रादिनियन्त्रणः । उभयत्र साधकमिति गम्यते ॥ ४४ ॥ जे लक्खणं सुवर्ण पर्वजमाणे, निमित्तको हल संपगाढे । कुहेम विज्जासवदारजीवी, न गई सरणं तम्म कासे || ४५ ।। यः साधुकणं प्रयुञ्जानः सामुद्रोक्तं स्त्रीपुरुषशरीरचिह्नं शुनासुप्र गृहस्थानां पुरतो बति । यः पुनः साधुः सु विणं स्वमविद्यां प्रयुआनो भवति-स्वमानां फलाफलं वक्ति । पुनः साधुमिल सम्प्रादो नयति-निमितं व कोतुहलं च निमित्तीतुसे तयोः सम्प्रगाढो ऽत्यन्तकः स्यात् । तत्र निमित्तं भुकम्पोल्कापातकेतुदयादि । कौतूहलं कौ दयान नेपजीपचादिप्रकाशनम उजयत्र संर कोवति पुनः साधु कुदेरविद्यावद्वारजीवी भवति कु हेटका विद्या कुटकविणः। अलीका कार्यविधायिमन्त्र यन्नकानात्मिकारता द्वाराणि तैर्जीवितुमजीविक शीलं यस्य स कुटक विद्याऽऽभवद्वारजीवी, पतादृशो यो भवति । हे राजन् ! परं तस्मिन् काले लक्षणस्वप्रनिमित्त कौतूहल- ' कुडेटावद्वारोपार्जितपातकफलोपलोग काले स साधुः शरणं गच्छति प्राोति तं साधुं कोऽपि दुःखारतिये योन्यादौ न त्रायत इत्यर्थः ॥ ४५ ॥ प्रमेयाचे भावयितुमाहतमंतमेव न से असीले, सवा दुही विप्यरिया समुबेह संधावर नरयं तिरिक्खजोशी, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणाह मोणं विराहितु असावे ॥ ४६ ॥ 9 पुनः सइयारूपो मौनं विराध्य साधुधर्म - दित्वा नरकतिर्यग्योनिं संधावति सततं गच्छति पुनः अशीछः कुशलो विपर्यासमुपैति स्वेषु वैपरीत्यं प्राप्नोति मिध्यास्वमूढो भवतीति नाथ सः समस्तमसेव सदा दुःखी अतिशयेन तमस्तमस्तम:, तेन तमस्तमसैव श्रज्ञानमहान्धका संयमविराधनाजनित दुःखसदितः ॥४६॥ कथं पुनविराज्य कथं वा नरकतियंगाती सन्धावतीत्याद atसियं कीयगमं नियागं, न मुबई किंचि प्रथिनं । ग्गीवासी भविता, (३२७) अभिधानराजेन्ऊ: ओ ओ गच्छ कट्टुपावं ।। ४७ ।। पुनः साधुः उद्देशिके दर्शन कृतं उद्देशिकमा हारम पुनः साधुनिमि की मोनीत पुनरा सामुमानी साधुखान एव गृहस्थेन मानीतं तदाहृतम् । पुनर्यदाहारं नित्यकं नित्यपिएडं गृहस्थगृहे नियत पिएममतादर्श सदोषमादारमेषणीयं साधुना जायं न मुखतिजामास्पटयेन किमपि न त्यजति, सर्वमेव गृह्णाति । सोऽग्निरिव सर्वमीनू हरितष्कको वैश्वानरश्याप्रकारे मुक्या तो मनुष्याच्युतः कुगति जति कि त्या पापं कृत्वा संयमविराधां विधाय ॥ ४७ ॥ न तं रीकंता करेइ, से करें अपशिष दुरयया । से नाहई मच् ति पत्ते, पछतावेण दयाविणो ॥ ४० ॥ (पाटीका ) तैरेव दुर्गतिमाप्तिः प्रतोऽनेनैव समिति ) प्रस्तावादनयेकमत्ता प्राणहत्ती (से) तस्य (दुरण्ययेति प्राकृ तत्वाद् दुरात्मतां दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपां नचैनामाचरन्नपि जन्तुरत्यन्तमूढतया 'वेति । तत्किमुत्तरकालमपि न वेत्स्यतीत्याहस दुरात्मा कर्त्ता ज्ञास्यति । प्रक्रमाद् दुरात्मतां मृत्युमुखं तु मरसमयम, पुनः प्राप्तः पश्चादनुतापेन हा दुष्टं मयाऽनुष्ठितमिति, एवंरूपेण या संहिंसा वा हिन सन् । मरणसमये हि प्रयोऽतिमन्दस्यापि धर्मानियोत्तिरेवमनिधानम् । यतश्चैवं महानर्थहेतुः पश्चात्तापहेतुश्च दुरात्मता तदादित एव मूढतामपहाय परिहर्तव्येयमिति भावः॥ ४८ ॥ यस्तु मृत्युमुखं प्राप्तोऽपि न तं वेत्स्यतीति तस्य का वाह निरडिया निप्परुई तस्स, ने उमड़े जिसमे । इमे वि से नत्थि परेवि लोए, सेभ तत्य लोगे ॥ ४६ ॥ (पाईटीका) निर्थिका तुशब्दस्यैवकारार्थस्येह सम्बन्धान्निरर्थकैव निफलैव । नाग्न्ये श्रामध्ये रुचिरिच्छा नाम्यरुचिस्तस्य [ जे उसमति ] गुन्यत्ययादपेश्ध गम्यमानत्वासमार्थेऽपि पर्वतमान भारत पूर्वमित्यपदार्थ पि अणाह पर्यासं दुरात्मायामपि सुन्दरात्तापरिज्ञानरूपमेति गच्छति, इतरस्य तु कथञ्चित्स्यामिति भावः किमं च्यते ?, यतः [श्मे वित्ति] अयमपि प्रत्यक्षो लोक इति सम्बन्धः । [ से इति] तस्य नास्ति न विद्यते । न केवलमयमेव परोऽपि लोको जन्मान्तरलक्षणः। तत्रेह बोकाऽभावः शरीरक्लेश देतुलोचनादि सेवनात परलोकाभावश्च कुगतिगमनतः शारीरमानसदुःखसम्भवात् । तथाच [ दुहओ विसि] द्विधाऽप्यैहिकपारत्रिकाभावेन [ झिज्जर त्ति ] स ऐहिकपारत्रिकार्थसंपत्तिमतो जमानवलोक्य धिग्मामपुरूष माजन मुनय तयेति ताकी यते। काभावे सति लोके जगति ॥ ४६ ॥ हास्यति पश्चादनुतापेनेति तत्र यथासी परितप्यते तथा दर्शयन्नुपसंहारमाह एमेव हा बंदकुसीलरूवे, मगं विराहित्तु जित्तमाणं । कुररीचिव भोगरसा पुगिद्धा, निरसोया परितावमे ॥ ५० ॥ (पाटीका ) एवमेवोक्तरूपेणैव महाव्रतस्पर्शादिना प्रकारेण यथाबन्दाः स्वविविरचितायाः कुशलाः कुत्सितशी जास्तपस्तरस्वभा वाः कुरुरीव पक्षिणीव [निरहसोय ति] निरर्थो निष्प्रयोजनः शोको यस्याः सा निरर्थशोका, परितापं पश्चात्ताप रूपम, पति गच्छति । यथा चैषाऽऽभिपापान्तरेज्यो विशोधन ततः कत्तीकार इत्येवमादि भोगर पहिकामध्मिकानामी ततोऽस्य स्वपपरित्राणासमर्थत्वेनाथ मिति नावः ॥ ५० ॥ एतच्छ्रुत्वा यत्कृत्यं तदुपदेषुमाहसोच्चारण मेहात्रि ! सुजासियं इमं, अनुसास नागुणोत्रेयं । मग्गं कुसीनाए जहाय सव्वं, महानिहाय पर पड़ेणं ।। ५१ ।। मेघाव दे पति के राजा सुष्ठु भाषि तं सुभाषितम अनुशासनम्-उपदेशवचनं त्या सर्व कुशलानां मार्गम [ जहाय इति ] स्वस्य महानिधानां महासाधूनां पथि मार्गे, चरेत् व्रजेत् । कीदृशमनुशासनम् ? ज्ञानगुणोपेतं ज्ञानस्य गुणाः ज्ञानगुणाः तैरुपपेतं ज्ञानगुणोपपेतम् ॥ ५१ ॥ ततः किं फलमित्याइ - चरितमायारगुणासिए तत्रो, अणुसरं संजयपालियाणं । निरासवे खरियाल कम्मे, पुर्व ॥ ५२ ॥ ततस्तस्मात्कारणान्महानिन्यमार्गगमा विरा तपालकः साघुर्विपुत्रमनन्तसिद्धानामवस्थानाद संकीर्णमुत्तमं सर्वोत्कृ] पुनर्भुवं नियमेादमानमुपति प्रोति कीशः साधु, चारित्राचारगुणान्विताचार चारित्राचारश्चारित्र सेवनं, गुणा ज्ञानशीलादयः, चारित्राचार गुणाश्च चारिचारगुणस्तर विधारित्र बारगुणान्वितः अत्र Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ ) प्रणाह अभिधानराजेन्द्रः। प्रणाह मकारः प्राकृतत्वात् । किं कृत्वा साधुर्मोक्षं प्राप्नोति ?; अनुत्त- अनुशासयितुं शिवयितुमात्मानं जयतेति गम्यते ॥ ५६ ॥ रं प्रधानं नगवदाझाशुरूं संयम सप्तदशविधं पालयित्वा । पुनः पुनः कमणामेव विशेषत आहकिं कृत्वा ?, कर्माण्यष्टावपि संकेप्य वयं नीत्वैतायता चारित्रा पुच्छिऊणं मए तुऊ, ज्माण विग्यो य जो कत्रो । चारज्ञानादिगुणयुक्तः, अत एव निरुद्धाश्रवः प्रधानसंयमं प्रपाव्य, सर्वकर्माणि सवयं नीत्वा मोहं प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ ५५ ॥ निमतियो य नोएहिं, तं सव्वं मरिसेहि मे ।। ५७ ।। अथोपसंहारमाह हे महर्षिन् ! मया तुज्यं पृष्ट्वा प्रश्नं कृत्वा यस्तय ध्यानविनः एवुग्गदंसे वि महातवोहणे, कृतःच पुनगैः कृत्वा निमन्त्रित:-भोः स्वामिन् ! भोगान महामुणी महापइसे महायसे । तुक्क्ष्वेत्यादिप्रार्थना तव कृता तं सर्वे मे ममापराधं वन्तुममहानियंज्जिमिणं महासुयं, हसि, सर्व ममापराधं कमस्वेत्यर्थः ।। ५७।। सकसाध्ययनार्थोपसंहारमाहसे कहिए महया वित्यरेणं ।। ५३ ॥ पवममुना प्रकारेण, श्रेणिकेनराशा, पृष्टःसन् स महामुनिर्महा एवं थुणित्ताणं स रायसीहो, साधुः, महता विस्तरेण वृहता व्याख्यानन, महानिर्ग्रन्थीयं म अणगारसीहं परमाइ जत्तिए । हाश्रुतमकथयत, महाम्तश्च ते निर्ग्रन्थाश्च महानिर्ग्रन्थास्तेज्यो सावरोहो सपरियणो सबंधवो, हित महानिर्ग्रन्थीय, महामुनीनां हितमित्यर्थः । कीदृशः सः?, धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा ॥ ५० ॥ जनः कर्मशत्रुहनने बमिष्टः । पुनः कीदृशः सः?, दान्तो जिते राजसिंहः श्रेणिको राजा । एवममुना प्रकारेण, तमनगाडियः। पुनः कीदृशः?, महातपोधनः महश्च तत्तपश्च महातपः रसिंहं मुनिसिंह परमया उत्कृष्टया भक्त्या स्तुत्वा, विमलेन महातपो धनं यस्य स महातपोधनः। पुनः कीदृशः?,महाप्रतिज्ञा निर्मलेन चेतसा धर्मानुरक्तोऽनूदिति शेषः। कीदृशःश्रेणिकाः?, व्रते दृढप्रतिज्ञाधारकः । पुनः कीदृशः ? , महायशाः महा सावरोधः अन्तःपुरेण सहितः। पुनः कीदृशः, सपरिजनः सहकीतिः ॥ ५३॥ परिजनवर्तते इति सपरिजनो नृत्यादिवर्गसहितः । पुनः कीदृततश्च शः?, सबान्धवः सह बान्धवैातृप्रमुखैर्वर्तत इति सबान्धवः। तुछो य सेणिो राया, इणमुदाहं कयंजली। पुराऽपि वनवाटिकायां सर्वान्तःपुरपरिजनबान्धवकुटुम्बसहित प्रणाहत्तं जहा जूयं, सुठु मे उवदंसियं ॥ ५४॥ एव कामां कर्तुमागात् , ततः मुनेक्यिश्रवणात्सर्वपरिकरयुश्रेणिको राजा तुटः। हु इति निश्चयेन । इदम, 'बदाई' इदमवा तो धर्मानुरक्तोऽदित्यर्थः ।। ५८॥ दीत् । कीदृशः श्रेणिक, कृताअग्निः बद्धाञ्जलिः इद मिति किम्?, उस्ससियरोमकूवो, काऊण य पयाहिणं । हे मुने ! यथानतं यथावस्थितमनाथत्वं, मे मम, सुष्ठपदार्शतं अभिवंदिगण सिरसा, अश्याओ नराहियो । सम्यग्दर्शितम, त्वयेति शेषः ॥ ५४॥ नराधिपः श्रेणिकोऽतियातो गृहं गतः। किंकृत्वा ?, शिरसामकिं श्रेणिक आह स्तकेन, अभिवन्द्य मुनि नमस्कृत्य । पुनः किं कृत्वा ?, प्रदकिणां तुज्कं सुलकं खु मगुस्सजम्मं , कृत्वा प्रदक्विणां दत्त्वा । कथम्नूतो नराधिपः, (नस्ससियगेलाना मुलद्धा य तुमे महेसी। मकूयो ति) उच्चसितरोमकूपः साधोदर्शनाद्वाक्यश्रवणादुलतुम्हे सणाहा य सबंधवा य, सितरोमकूपः ।। जंभे ट्ठिया मग्गजित्तमाणं ।। ५५ ॥ (पाईटीका) हे महर्षे! खु इति निश्चयेन सुलब्धं सफलं त्वदीयं मानुषं ज अच्चसिता श्वोच्नुसिता उद्भिना रोमकूपा रोमरन्ध्राणि यस्य न्म । हे महर्षे! तवैव लानाः रूपवर्णविद्यादीनां लानाः सुख स उच्चसितरोमकूपः । (अश्याओ त्ति) अतियातो गतः स्व. जाः रूपलावण्यादिप्राप्तयः सुप्राप्तयः । हे महर्षे! यूयमेष स स्थानमिति गम्यते ॥६॥ नाथा आत्मनो नाथत्वात् नाथसहिताः च पुनर्ययमेव सबाम्ध झ्यरो वि गुणसमिको, वा झातिकुटुम्बसहिताः । यस् यस्मात्कारणात् (भे इति) न. तिगुत्तिगुत्तो तिमविरोय। वन्तः जिनात्तमानां तीर्थकराणां मार्ग स्थिताः ॥ ५॥ विहंग इव विप्पमुक्को, तं सि पाहो अणाहाणं, सव्वजूयाण संजया। विहरइ वसई विगयमोहो॥६०॥ तिमि ॥ खामेमि ते महानागा!, इच्छामि अणुसासि ॥ ५६॥ अथेतरोऽपि श्रेणिकापेक्वयाऽपरोऽपि मुनिरपि वसुधां पृथिवीं हे संयत!त्यम, अनाथानां सर्वनूतानां त्रसानां स्थावराणांच विहरति विहारं करोति। कीदृशःसन्?,विमोहः सन् मोहरहितः जीवानां नाथोऽसि। हे महाभाग! हे महाभाम्ययुक्त!(ते इति) सन्-अर्थात् केवली सन् कीदृशो मुनिः, गुणसमृरुः सप्तविंशत्वामहं कमामि, मया पूर्व यस्तवापराधः कृतः स कन्तव्य इत्य- तिसाधुगुणसहितः। पुनः कीरशः,त्रिगुप्तिगुप्तः गुप्तित्रयसहितः। थेः। अथ भवतोऽनुशासयितुं त्वत्तः शिवयितुमात्मानमिच्छा पुनः कीदृशः?, त्रिद एमविरतः त्रिदएमेन्यो मनोवाकायानामशुमि। मदीय प्रात्मा तवाज्ञाऽनुवर्ती भवत्वितीच्छामीत्यर्थः। जव्यापारेभ्यो विरतः। पुनः कीदृशः', विहन श्व विप्रमुक्तः (पाटीका) पक्कीष कचिदपि प्रतिबन्धरहितो निष्परिग्रह इत्यर्थः । इति (तं सीति ) पूर्वान रूपबृंहणा कृप्ता , उसरा:न तु कमणो- सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिन प्रति वदति, अहमिति प्रयीमीति पसंपन्नता दर्शिता । ह (तुम्ने त्ति) त्वम (श्रण सासयं ति)| ॥६०॥ उत्त०२०अ०। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) अपाहपव्वज्जा अनिधानराजेन्मः। अणाहारग अणाहपबज्जा-अनाथप्रव्रज्या-स्त्री. विंशतितमे उत्तराध्य- यद्वा-न्यबुनुक्काऽऽर्तस्य संक्रमतो प्रसमानस्य कम्बलप्रपंकुयने, स०३६ सम० । तच्च महानिर्ग्रन्थीयामति नाम्ना प्रसि- चंत इत्यर्थःआस्वाद रसनाद्वादकं स्वादं प्रयच्छति स सर्व माखम् । उत्त०२०प्र०। हारः। यत्पुनरकाममन्यवहामीत्येवमनभिलषणीयम् , अनिष्ट श्रणाहरण-अनाधरण-न0 श्राध्रियतेऽनेनेत्याधरणमाधारः।। च जिवाया अरुच्या, ईशं सर्वमनाहारो भएयते । तनिषेधोऽमाधरणम् । श्राधर्तुमक्कमे , न०१८ श० ३००। तश्चानाहारिममिदम्श्रणाहसाला-अनाथशासा-खी० । प्रारोग्यशालायाम , अणहार मोय उल्ली, मूलं च फलं च होति ऽणाहारो। व्य०४ उ०। सेस तय नूइतोयं, विंऽम्मिव च उगुरू आणा॥ अणाहार-अनाहार-पुं० न० त०। श्राहार विपरीतेऽज्यव- मोकं कायिकी,छल्ली निम्बादित्वक, मूत्रं च पञ्चमूलादिकं, फलं हाये, तल्लकणं चाऽऽहारजिनस्वमित्याहारानाहारयोः स्वरूप- चाऽऽमलकहरीतकबिभीतकादिकमेतत्सर्वमनाहारो भवतीति मत्रैव प्रदर्यते चूर्णिः । निशीथचूर्णौ तु या निम्बादीनां दी त्वक् तच,तेषामेव परिवासियाहार-स्स मग्गणा को भवेश्रणाहारो?।। निम्बोलिकादिक फलं, यञ्च तेषां मूलम, एवमादिकं सर्वमएगंगिोचविहो, ज वा अप्पमश्जाइ तहिं ।। प्यनाहार शति व्याख्यातम् । वृ०५०। नि० चू० । चनहारे रयणीए, कपिज्जर जाणि माणि वत्यूणि । परियासितस्याहारस्य मार्गणा विचारणा कर्तव्या । तत्र समभागकया तिहला, नूनिंबोसीरचंदणयं ॥५६॥ शिष्यः प्राह-वयं तावत् एतदेव न जानीमःको नाम प्राहारः गोमुत्त का रोहिणि, बग्घी अभया य रोहिणी तुग्गा। को वा अनाहारः इति । सूरिराह-एकाङ्गिका शुद्ध पव या क्षुधा मुग्गावया करीरय, लिंबं पंचंगभासगणो ॥ ५७ ॥ शमयति स श्राहारो मन्तव्यः । स च अनशनादिकश्चतुर्विधः। नह आसगंधि बंभी, चीड हलिहा य कुंदरू कुडा । यद्वा-तत्राहारेऽन्यत् लवणादिकमतियाति प्रविशति, तदप्या विसनाई य धमासो, बोलयबीया अरिट्ठा य ॥॥ हारो मन्तव्यः। अथैकाङ्गिक चतुर्विधमाहारं व्याचष्टे मिमलमैं जिकके-लिकमारिक थेर बेर कुट्ठा य । कप्पास वाय पत्तय, अगुरुतुरुक्का य तंतुवडा ॥५६॥ कूरो नासे बुहं, एगंगि तक्कउदगमज्जाइ। धवखयरपत्रासाई, कंटकरुक्खाण उल्लिया साणा । खाइम फनसंसाइ, साइम महुफाणियाईणि || जं करुयरसपरिगयं, आहारपि हुश्रणाहारं ॥ ६०॥ श्रशने कूर एकाग्निकः शुरू एव क्षुधं नाशयति । पाने तक्रोद- इच्चाइ जं अणिई, पंकुवमं तं भवे अणाहारं । मन्दादिकमेकाह्निकमपि तृपं नाशयति, आहारकार्य च करोति, जं इच्छाए हुंजर, तं सव्वं हवा आहारं ॥ ६१॥" ल० प्र०। खादिमे फलमांसादिकं,स्वादिमे मधुफाणितादीनि केवलान्य- यथा पञ्चाङ्गनिम्बगुडूचीकम किरिआतुं' 'अतिविसचीमि'प्याऽऽहारकार्य कुर्वन्ति । 'सुकमि'-रका-हरिका- रोहिणी 'ऊपत्रोढ' बज-त्रिफला'ज वा अई तर्हि ति' [मूत्रसूत्रस्थं ] पदं व्याख्यानयति- वाउबग्द्वीत्यन्ये धमासो-नाहि.प्रासंधिरिंगणी-एलीओ-गुग्गुजं पुण खुहापसमणे, असमत्थगंगि होइ लोणाई। ब-हरमां-द-चणि -बदरी-कंथरि-करीर-मृदं--पूँवाम-मतं पि होइ आहारी, आहारजुयं व विज्जुतवा ।। जीउ बोलविप्रो-कुंपारि-चित्रक-कुन्दरुप्रभृतयोऽनिपाण्यानि रोगाद्यापदि चतुर्विधाहारेऽप्येतानि कल्प्यानीति।ध.२ अधिक। यत्पुनरेकाङ्गिक क्षुधाप्रशमनेऽसमर्थ परमाहारे उपयुज्यते तद- त्रिफनाद्यनादारवस्तुमव्यमध्ये गण्यते, न वा तत्रैव प्रतिनातिप्याहारेण संयुक्तमसंयुक्तं वाऽऽहारो भवति, तच्च स्रवणादि यदनाहारवस्तु प्रायो द्रव्यमध्ये गएयते, यदि च प्रत्याख्यानावकम् । तत्राशने लवणहिङ्ग-जीरकादिकमुपयुज्यते । सरे तदगणनमव विवक्कितम्, तदान गरायतेऽपि । यथा सचित्तउदए कप्पूराई, फल सुत्ताईणि सिंगवर गुझे। विकृत्योर्डव्यमध्ये ग्रन्थेऽगणनेऽनिहितेऽपि संप्रति बहवो जनाः न य ताणि खर्विति खुहं, नवगारिता उ आहारो॥ | प्रायस्तयोव्यमध्ये गणनां कुर्वाणा उपलभ्यन्ते इति । ही०३ उदके कर्पूरादिकमुपयुज्यते , आम्रादिफलेषु सूक्तादीनि 5 प्रकाशन विद्यते आहारो यस्येत्यनाहारः । प्राचा०१ श्रु०८ व्याण, शृङ्गवर च शुध्यां गुरु उपयुज्यते । न चैतानि कर्परा अ०८ उ० । अविद्यमानाहारे, दश १ अ० । दीनि दुधां कपयन्ति , परमुपकारित्वादाहार उच्यते, शेषः ऋणाधार-पुं०। ऋणधारके, विपा० १ श्रु०१०। सर्वोऽप्यनाहारः। अणाहारग-अनाहारक-पुं० । न० त०। आहारमकुर्वति विग्रअहवा जं नुक्ग्युत्तो, कद्दमनवमा पक्खवह कोहे। । हगत्यापन्ने समुद्घातगतकेवलिनि, अयोगिसिके च । न०६ सव्वो सो आहारो, ओसहमाई पुणो जइतो । श०३ नु०। “परश्या दुविहा पत्ता । तं जहा-आहारगा अथवा बुभुक्या प्रार्ताय कर्दमोपमया गृहादिक कोठे प्रक्ति- चेव अणाहारगा चेव एवं जाव वेमाणिया" स्था०२ ठा० पति । कर्दमोपमानामपि कर्दमपिएमानां कुर्यात कुकिं निरन्तरं २०० भ०। स सर्वोsध्याहार उच्यते । औषधादिक पुनर्नक्तं विकल्पित अनाहारकाश्चत्वारःकिञ्चिदाहारः किश्चिचानाहार श्त्यर्थः । तत्र शर्करादिकमोषध विग्गहगमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य । माहारः, सर्पदधादे मृत्तिकादि औषधमनाहारः। सिका य अणाहारा, सेसा पाहारगा जीवा ।। जं वा जुक्खु तस्स उ, संकममाणस्स देइ अस्सादं । विग्रहगतिर्भवाद् जवान्तरे विश्रेण्या गमनम्, तामापन्नाः सर्वेसन्चो सो आहारो, अकामणिटुं चणाहारो ॥ । ऽपि जीवाः, तथा केवलितः समुहताः कृतसमुद्घाता, तथा5 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) प्रणाहारग अभिधानराजेन्द्रः। अणिएप्रवास योगिनः शलेस्यवस्था प्राप्ताः, तथा सिकाः वीणकर्माष्टकाः। केवलिपरिवर्जिताः संसारस्था जीवा एको द्वौ वा अनाहारका सर्वेऽप्येतेऽनाहाराः, पतव्यतिरिक्ताः शेषाः सर्वेऽप्याहारकाः। भवन्ति । ते च द्विविग्रह त्रिविग्रहोत्पत्तौ त्रिचतुःसामयिकायां इह परनवे गच्छतां जन्तूनां गतिधा-जुगातः, विग्रहगति- द्रष्टव्याः । चतुर्विग्रहपश्चसमयोत्पत्तिस्तु स्वस्पसत्याश्रितेति न श्च। तत्र यदा जीवस्य मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं समशेण्यांप्रा- साकापाता । तथाऽन्यत्राप्यनिहितम्-एको द्वौ वाऽनाहारजलमेव जयति तदा जुगतिः सा चैकसमया समश्रेणिव्यव- कः । वाशब्दाचीन वा श्रानुपूर्व्या अज्युदन उत्कृष्टतो विग्रहगतौ स्थितत्वेनोत्पत्तिदेशस्याद्यसमय एव प्राप्तो नियमादाहारकश्चा- चत्वारः समया नाऽऽगमेऽभिहिताः। ते च पश्च समयोत्पत्ती बस्या हेयग्राह्यशरीरमोकग्रहणान्तरालाभावेनाहाराद्यवच्छेदात् । भ्यन्ते,नान्यत्रेति । भवस्थकेवलिनस्तु समुद्धातमप्येतत्करणोपयदा तुमरणस्थानादुत्पत्तिस्थानं वकं भवति तदा विग्रहगतिः, संहारावसरे तृतीयपञ्चमसमयौ द्वौ लोकपूरणचतुर्थसमयेन चक्रपयामन्तरारम्भरूपेण विग्रहेणोपलक्षिता गतिर्विग्रहगति- सहितात्रयः समया भवन्तीति ।। ७॥ रिति कृत्वा तत्र विग्रहगत्यापन्ना उत्कर्षतस्त्रीन समयान याव. पुनरपि नियुक्तिकारः सादिकमपर्यवसानं कालमनाहारकं बनाहारका तथाह्यस्यां वक्रगतौ स्थितो अन्तुरेकेन द्वायांत्रि- दर्शयितुमाहनिश्चतुर्जिा वरुत्पत्तिदेशमायाति, तत्रैकवायां ही समयौ अंतो मुहत्तमर्क, सेलेसीए जवे अणाहारा । तयोश्च नियमादाहारकः। तथाह्याद्यसमये पूर्वशरीरमोकस्तस्मिसमये तच्छरीरयोम्याः केचित् पुलाः जीववीर्ययोगालोमाहा सादीयमनिहणं पुण, सिद्धायणाहारगा होति ।। शैलेश्यवस्थाया आरभ्य सर्वथाऽनाहारकः सिमावस्थाऽप्राप्ताराःतत्सम्बन्धमायान्ति । औदारिकवैक्रियाहारकपुझादीनांचाहारः, तत आद्यसमये आहारकः, द्वितीये च समये उत्पतिदेशे वनन्तमपि कालं यावदिति पूर्व तु कावनिकाख्यव्यतिरेकेण प्रति समयमाहारकः । कावनिकेन तु कदाचित्क इति । सूत्र०२ ० तद्भवयोग्यशरीरपुलादानादाहारकः, द्विवकायां गतौं त्रयः स ३ ० । नि० । श्रा० । कर्म० । [कं समयमनाहारकः "जीवे मयाः। तत्रायेऽन्त्ये च प्राग्वदाहारको मध्यमे त्वनाहारका त्रिचक्रायां चत्वारःसमयाः, ते चैवं प्रसनाच्या बहिरधस्तनन्नागा ण नंते ! समयमणाहारए भवति " 'आहार' शब्दे द्विदूर्ध्वमुपरितननागादो वा आयमानो जन्तुर्विदिशो दिशि दिशो तीयत्नागे ५०० पृष्ठे वक्ष्यते ] वा विदिशि यदोत्पद्यते तदैकेन समयेन बिदिशो दिशि याति,द्वि- अणाहारिम-अनाहारिम-न० । अनाहायें, नि० ० ११००। तीयेन त्रसना प्रविशति, तृतीयेनोपर्यधो वा याति, चतुर्थेन अणाहारिय-अनाहत-त्रि० । अतीताहरणक्रिययाऽपरिणाबहिरुपद्यते। दिशो विदिशि उत्पादे प्रसनामीं प्रविशति, तृती. मिते, भ०१ श० ११०।। येनोपर्यधो वा याति, चतुर्थेन बहिरुत्पद्यते; दिशो विदिशि उ- प्रणाहिट-अनाधृष्ट-पुं० । वसुदेवस्य धारण्यां जाते पुत्रे, तत्पादे त्वाद्ये समये असनारी प्रविशति, द्वितीये उपर्यधो वा या वक्तव्यता गजसुकुमारस्येवेत्यन्तकृद्दशानां तृतीये वर्गे त्रयोदति, तृतीये बहिर्गति, चतुर्थे विदिशि उत्पद्यते । अत्राचन्तयोः शाध्ययने सूचिता । अन्त०३ वर्ग। प्राग्वदाहारको मध्यमयोस्त्वनाहारकः। चतुर्वक्रायां पञ्च समयाः, अणिइय-अनितिक-पुं०। इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपरः, ततेच प्रसनाच्या बहिः, एवं विदिशो दिश्युत्पादे प्रागवद्भावनीयः। अत्राप्याद्यन्तयोराहारस्त्रिषु त्वनाहारका प्रव०२३३द्वा०। तश्च न विद्यते इतियंत्रासावनितिकः । अविद्यमाननियतस्वरूपे, चतुःसमयोत्पत्तिश्च भवति-त्रसनाड्या बहिरुपरिधादधोऽध ईश्वरादेरपि दारिश्यादिभावात् संसारे, भ० ए ० ३३ १०। स्ताद्वा पर्युत्पद्यमानो दिशो विदिशि विदिशो वा दिशि यदुत्पद्य अपिपत्त-अनीतिपत्र-त्रि० । ईतिविरहितच्छदे, का० १ ते तदा लभ्यते। तत्रैकेन समयेन प्रसनामीप्रवेशः,हितीयेनोप-1 श्रु०१० यधो वा गमनम.तृतीयेन च बहिनिःसरणम,चतुर्थेन तु विदिशू- अणि ( 3 ) तय-अतिमुक्तक-10। मुचो-भावे-क्त । अत्पत्तिदेशप्राप्तिरिति । पञ्च समयास्त्रसनाड्या बहिरेव विदिशो| तिशयेन मुक्तं बन्धनं यस्य । प्राकृते ' गर्जितातिमुक्तके णः' विदिगुत्पत्ती लज्यन्ते । तत्र च मध्यवर्तिषु अनाहारक इस्यवग ८।१।२०७। इति तस्य णः। प्रा०। 'यमुनाचामुण्डाकामुकातिन्तव्यम् । आद्यन्तसमययोस्त्वाहारक इति । सूत्र. २ श्रु० ३ मुक्तके मोऽनुनासिकश्च ॥ १।१।१७८ ॥ इति मस्य लुक, तत्स्थाअतथा केवझिनः समुदातेऽष्टसामायिक तृतीयचतुर्थपश्चमरू ने चाऽनुनासिकः । प्रा० ।' वादावन्तः॥८॥१॥२६॥ इति पात केवलकार्मणयोगयुतांस्त्रीन्समयान् अयोगिनः शैलेश्यव तृतीयस्याऽनुस्वारः। प्रा०। तस्य णत्वेऽकृते-'अश्मंतयं अश्मुस्थायां हस्वपञ्चाकरोच्चारणमात्रम् । सिद्धास्तु सादिमपर्यवसितं त्तय' इति रूपक्ष्यम् । तिन्दुकवृक्षे तालवृक्के च । प्रशा०१ पद। कालमनाहारका इति । प्रव०२३३ द्वा० । केवलसमुद्घातेऽपि कार्मणशरीरवर्तित्वात् तृतीयचतुःपञ्चसमयेध्वनाहारको अष्ट अणिउण-अनिपुण-त्रि० । न निपुणोऽनिपुणः । अकुशले, व्यः । दोषेषु त्वौदारिकादितन्मिश्रशरीरवर्तित्वात आहारक आव०४०। नि०० । दर्श। इति । ( मुहत्तमहं च त्ति) अन्तर्मुहर्त गृह्यते । तमच केवली अणिएअचारि (ए)-अनियतचारिन्-पुं० । बानियतमप्रम्यायुषः क्वये सर्वयोगनिरोधे सति इस्वपञ्चाकरोकिरणमात्र- तिबद्धं परिग्रहायोगाश्चरितुं शीसमस्याऽसावनियतचारी । अप्रकासं यावदनाहारक इत्येवमवगन्तव्यम् । सिम्जीवास्तु शले- तिबरूविहारिणि, सूत्र०१ श्रु०६ अ० । “स भूश्पी अणिए श्यवस्थाया आदिसमयादारभ्यानन्तमपि कासमनाहारका इति। अचारी, प्रोईतरे धीर अगंतचक्खू" सूत्र०१ श्रु० ६ अ०५ साम्प्रतमेतदेव स्वामिविशेषविशेषिततरमाह ज० । "अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खु अणा विज्ञप्पा" सूत्र० १७०७ अ०। एकं च दो व समए, केवग्निपरिवज्जिया अणाहारा।। अणिएअवास-अनियववास-पुं० । मासकल्पादिनाऽनिकेतपंचम्मि दोषिलोए, य पूरिए तिथि समयाओ॥७॥| वासे अगृहे उद्यानादौ वासे, " अणिपयवाससमुयाण चरि Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३१) मणिएप्रवास अभिधानराजेन्छः पिञ्चभावगा या, अण्णाय बच्चं पर तिरिक्या य" दश०२०। हितेऽगोपिते बलवीरये देहप्राणचित्तोत्साहरूपे येन स तथा । अणिग-अनियोग-पुं० । नियोगादन्योऽनियोगः । विपर्यः | पंचा० १५ विव० अनिलतबाह्याज्यन्तरसामर्थ्य, ग०१ अधिः । यानियोगे, पं० सू०४ सू० । दश० । प्राचा० । पं.चू“अणिमूहियबलवीरित, परिकमा अणिंगाल-अनङ्गार-त्रि० 1 रागपरिहारेणाङ्गारदोषरहिते, प्र- | जो जहुसमाउत्तो। जे जश्व जहा थाम, नायव्वो बीरियायारो" न०१ सम्ब० द्वा०। दश० ३ ०। पं० चू० । पञ्चा० । अणिंद-अनिन्छ-त्रि० 1 नास्तीन्द्रो यस्मिन् सोऽनिन्द्रः। - अणिग्गह-अनिग्रह--पुं० । अविद्यमानो निग्रह इन्द्रियनोविरहिते प्रजास्वामिके, न०३ श०१उ० । इनिध्यनियन्त्रणात्मकोऽस्येति । उत्त०१७ अ० अवशीकृतेन्द्रिअनिन्द्य-त्रि० । अजुगुप्सिते, सामायिके च। श्रा० म०वि० । ये, उत्त०११ श्र० स्वैरे, प्रश्न.आश्र० द्वा० । उच्चपखले, आ० चू। दश०८ अाएकादशे गाणब्रह्माण, तत्राऽनिग्रहाऽनिषेधो अणिंदणिज-अनिन्दनीय-निक । गीतार्थादि जनादृष्ये , जी. मनसो विषयेषु प्रवत्तमानस्येति गम्यते । एतत्प्रभवत्वाचास्या ऽनिग्रह इत्युक्तम् । प्रश्न०४ श्राश्र० द्वा० । १ प्रति०। अणिदिय-अनिन्दित-त्रि०। शुभानुबन्धितयाऽगर्हणीये,ध.अणिव-अनित्य-त्रि०ानता नित्यभिन्ने सर्वदास्थायिनि,प्राचा. १ अधि० । सप्तमकिन्नरेषु, प्रज्ञा० १ पद । १ श्रु० १०५० । प्रत्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतया कूटस्थं अनिन्दिय-पुं० । सिके, अपर्याप्तके , उपयोगतः केवलिनि, नित्यत्वेन व्यवस्थितं सन्नित्यं नैवं यत्तदनित्यम् । अच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावं हि नित्यमतोऽन्यत्प्रतिक्कणविशरारु अनित्यम् । स्था० १००। “रश्या दुविहा पमत्ता । तं जहा-सिईदिया आचा०१ श्रु०५अ५०१० । अनु० । उत्त० अशाश्वते, उत्त०२ चेव, अणिदिया चेव जाव वेमाणिया" स्था०म०२उ० । अ० । अनित्यमस्थिरत्वात् । प्रइन०५ श्राश्र० 50 । अणिदिया-अनिन्दिता-स्त्री० । षष्ठयामूर्ख लोकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम, स्था०८ गापा० चू० । आ०म० अणिच्चजागरिया-अनित्यजागरिका-स्त्री० । अनित्यचिन्ताप्र० । ति। याम् , “ अणिञ्चजागरियं जागरेंति" भ. १५ श० १ उ० । अणिक्खित्त-अनिक्षिप्त-नक । अविश्रान्ते, प्रौ० भ० । अणिचभावणा-अनित्यभावना-खी० । अनित्यत्वचिन्तनाअणिकंप-अनिष्कम्प-त्रि०। अनिश्चले, आचा०२श्रु०२०३७०। स्मके प्रथमभावनानेदे, प्रयः । तत्स्वरूपं चअणिकाम-अनिकाम-न०। परिमिते, बृ०१०। "ग्रस्यन्ते वज्रसाराङ्गा-स्तेऽप्यनित्यत्वरक्सा। किं पुनः कदबीगर्भ-निःसारा नेह देहिनः? ॥१॥ अएिकाय-अनिकाय-पुं० । लघुमृषावादे, नि० चू०१०। विषयसुखं दुग्धमिव, स्वादयति जनो विमान श्व मुदितः। ('मुसाबाय' शब्देऽस्य विवृतिः)। नोत्पाटितगुरुमिवो-त्पश्यति यममहह ! किं कुर्मः ?॥२॥ अणिकय-अनिकेत-पुं० । न विद्यते निकेतो गृहं यस्य । उत्त. धराधरधुनीनीर-पूरपारिप्लवं वपुः । २० । अविद्यमानगृहे, अनेकत्र बद्धास्पदे, उत्त० १० । जन्तूनां जीवितं वात-धूतध्वजपटोपमम् ॥ ३ ॥ अणिक-अनिष्कृष्ट-त्रि० । न० त०। द्रव्यतोऽकृशशरीरे, ना- लावण्यं ललनासोक-लोचनाञ्चलचश्चलम् । वतोऽवशीकृत कषाये, स्था०४ ग०४ उ01 यौवनं मत्तमातङ्ग-कर्णतानचलाचलम ॥४॥ अणिकावाइ (ण)-अनेकवादिन-। सत्यपि कथाश्चिदेक- स्वाम्यं स्वनावबीसाम्यं, चपलाचपलाः श्रियः। त्वे भावानां सर्वधाऽनेकत्वं वदतीत्यनेकवादी । परस्परवि. प्रेम त्रिकणस्थेम, स्थिरत्वविमुखं सुखम् ॥५॥ सक्कणा एव भावाः, तथैव प्रतीयमानत्वात् । यथा रूपं रूपत सर्वेषामपि भावानां, जावयन्नित्यनित्यताम् । येति । अभेदे तु भावानां जीवाजीवबरूमुक्तसुखितपु:खिता प्राणप्रियेऽपि पुत्रादौ, विपन्नेऽपि न शोचति ॥ ६॥ दीनामेकावप्रसाद दीकादिवैयर्थ्यमिति । किश्व-सामान्य सर्ववस्तुषु नित्यत्व-ग्रहग्रस्तस्तु मूढधी। मङ्गीकृत्यैकत्वं विवक्तितं परैः । सामान्यं च भेदेन्यो जिन्नाभि जीर्णतणकुटीरेऽपि, जम्ने रोदित्यहर्निशम् ॥ ७ ॥ नतया चिन्त्यमानं न युज्यते । एवमवयवेच्योऽवयवी धर्मेज्यश्च ततस्तृष्णाविनाशन, निर्ममत्वविधायिनीम् । धर्मी इत्येवमनेकवादी। इत्युपदर्शितस्वरूपे अक्रियावादिनि, शुरुधीभीवयेन्नित्यमित्यनित्यत्वनावनाम्" प्रव०६०) स्था०० ठा०। तत्रानित्यत्वनावनवम्अणिक्खित्त-अनि विस-त्रि०। अनुज्झिते ऽप्रत्याख्याते, न. " यत्प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्मध्याहेन तनिशि । १७ श०२०। अविश्रान्ते, औ०। निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि, पदार्थानामनित्यता ॥१॥ अणिगामसोक्ख-अनिकामसौख्य-त्रि० । अपकृष्टसुखे तुच्छ शरीरं देहिनां सर्व-पुरुषार्थनिबन्धनम्। प्रचएमपवनोद्धृत-घनाघनविनश्वरम ॥२॥ सुखे, उत्त० १४ श्र कद्घोचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वमसंनिनाः। अणिगण-अनग्न-पुं० । न विद्यन्ते नग्नास्तत्कालीना जना वात्याव्यतिकरोकिप्त-तूबतुल्यं च यौवनम् ॥३॥ येभ्यस्तेऽनग्नाः । जं० २ वका । सवस्त्रत्वहेतुषु कल्पवृक्केषु, तथा ध्यायन्ननित्यत्वं, मृतं पुत्रं न शोचति । स०१० सम। नित्यतां गृहमूढस्तु, कुख्यानङ्गेऽपि रोदिति॥४॥ आणिग्रहण-अनिगृहन-न । अगोपने, पंचा० १५ विव० । एतच्चरीरधनयौवनबान्धवादि, आणिगहियबलवीरिय-अनिगृहितबलवीये--पुं० । अनिगू-1 तावन्न केवनमनित्यमिहाऽसुभाजाम् । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष (३३३) अणिचनावणा अनिधानराजेन्द्रः। अणिञ्चया विश्वं सचेतनमचेतनमप्यशेष तच्च पश्य यस्तीर्थिकों विवेक परित्यागं गृहस्थ परिज्ञानं मुत्पत्तिधर्मकमनित्यमुशन्ति सन्तः ॥५॥ षा संसारस्याऽऽश्रित्योत्थितः प्रवज्योत्थानेन । स च सम्यइत्यनित्यं जगत्, स्थिरचित्तः प्रतिक्षणम् । परिज्ञानाभावादवितीर्णः संसारसमुद्रमतितीर्घः केवल मिड तृष्णाकृष्णाहिमन्त्राय, निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥६॥ध०३अधि०।। संसारे प्रस्ताघे घा शाश्वतावाद ध्रधो मोक्षस्तं तपाय था प्रश्चिया-अनित्यता-खी। अनश्वरतायाम, सूत्र। संयम नापत एव न पुनर्विधते, तत्परिज्ञानाभावादिति भावः । अधुना सर्वस्थानाऽनित्यतां दर्शयितुमाह तन्मार्ग प्रपन्नस्त्वमपि कथं कास्यास! भारमिहनचं, कुतो षा परं परलोकम् । यदि धा प्रारमिति गृहस्थत्वं, परमिति प्रवदेवा गंधब्बरक्खसा, असुरा मिचरा सरीसिवा । ज्यापर्यायम्।अथवा प्रारमिति संसारं, परमिति मोक्कम, एवंभूराया नर सेहिमाहणा, ठाणा ते वि चगंति दुक्खिया।। तश्चाऽन्योऽप्युभयभ्रष्टः (घेहासि सि) अन्तराले उभयानाचतः देवा ज्योतिष्कसौधर्मायाः, गन्धर्वराकसयोरुपयक्षणत्वादष्ट- स्वकृतैः कर्मभिः कृत्यते पीड्यत इति ॥ ८॥ प्रकारा व्यन्तरा गृहमन्ते तथा-असुरा दशप्रकारा जवनपतयः।। ननु च तीथिका अपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निधये चाऽन्ये भूमिचरा सरीसृपाद्यास्तिर्यञ्चः। तथा-राजानश्च-- तदेहाश्च तत्कथं तेषां नो मोवावाप्तिरित्येतदाशङ्कघाहऋतिनो बलदेववासुदेवप्रभृतयः । तथा-नराः सामान्यमनुः जविय णिगणे किसे चरे, ध्याः, श्रेष्ठिनः पुरमहत्तराः, ब्राह्मणाच, पते सर्वेऽपि स्वकीयानि जइ विय तुंजिय मासमंतसो। स्थानानि पुखिताः सन्तस्त्यजन्ति । यतः-सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरित्यागे महद् दुःखं समुत्पद्यत इति ॥५॥ जे इह मायादि मिज्जइ, किश्च आगंता गन्नाय ऽणंतसो ॥ ७ ॥ कामेहि य संथवेहि य , यद्यपि तीर्थिकः कश्चित्तापसादिस्त्यक्तबाह्यगृहवासादिपरिणगिका कम्मसहा कालेण जंतवो। हत्वाद् निष्किञ्चनतया नग्नस्त्वक्त्राणानावाश्च कृशश्चरेत् ; स्वकीयप्रव्रज्याऽनुष्ठानं कुर्यात् । यद्यपि च षष्ठाष्टमदशमद्वादशाताले जह बंधणच्चुए, दि तपोविशेष विधत्ते। यावदन्तशो मासंस्थित्वा भुङ्क्ते, तथाएवं आउक्खयम्मि तुट्टति ॥६॥ ऽपि आन्तरकषायाऽपरित्यागान्न मुच्यते इति दर्शयति-यकामरिच्छामदनरूपैः, तथा संस्तवैः पूर्वापरभूतैः,गृका अभ्यु- स्तीर्थक शह मायादिना मीयते, उपलक्कणार्थत्वात् कषायैर्युक्त इपपन्नाः सन्तः (कम्मसह त्ति) कर्मविपाकसहिष्णवः । कालेन त्येवं परिचिद्यते अप्तौ गर्भाय गर्नार्थमा समन्ताद् गन्ता यास्यकर्मविपाककालेन जन्तवः प्राणिनो भवन्ति । श्दमुक्तं भवति त्यनन्तशो निरवधिक कालमिति । एतदुक्तं जवति-अकिञ्चनोभोगेप्सोविण्याऽऽसेवनेन तदुपशममिच्छत इहामुत्र क्लेश पव ऽपि तपोनिष्प्तदेहोऽपि कषायाऽपरित्यागानरकादिस्थानात केवनं न पुनरुपशमावाप्तिः । तथाहि- "उपभोगोपायपरो, वा तिर्यगादिस्थानं गर्भार्भमनन्तमपि कालमग्निशर्मवत् संसारे कति यः शमयितुं विषयतृष्णाम् । धावत्याक्रमितुमसा पुरो पर्यटतीति ॥६॥ उपराढे निजच्छायाम्" ॥१॥ न च तस्य मुमूर्षोः कामः संस्तवैश्च यता मिथ्यारध्धुपदिष्टतपसाऽपि न पुर्गतिमार्गनिरोधोऽतो प्राणमस्तीति दर्शयति-यथा तालफडं बन्धनाद्वन्तात् च्युतम मयुक्त एव मागे स्थयमेतर्भमुपदेशं दातुमाहप्राणमवश्यं पतति, एवमसावपि स्वायुषः क्वये त्रुट्यति जावि पुरिसोपरम पावकम्मणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं । तात् च्यवत शति ॥ ६॥ जे या वि बहुस्सुए सिया, सन्नाह काममुच्छिया, मोहं जंति नरा असंवुडा॥१०॥ धम्मियमाहणनिकखए सिया। हे पुरुष ! येन पापेन कर्मणा असदनुष्ठानरूपेण त्वमुपल किअनि णूमकडेहि मुछिए, तस्तत्रासकृत प्रवृत्तत्वात् तस्मादुपरम निवर्तस्व । यतः पुरु षाणां जीवितं सुबह्वपि त्रिपल्योपमान्तं,संयमजीवितं वा पल्योतिव्वं से कम्महिँ किचती ॥७॥ पमस्यान्तर्मध्य वर्तते, तदाऽप्यूनां पूर्वकोटिमिति यावत् । अथ ये चापि बहुश्रुताः शास्त्रार्थपारगाः तथा धार्मिका धर्माचरण वा-परि समन्तात् अन्तोऽस्येति पर्यन्तं सान्तमित्यर्थः। तचैव शीलाः । तथा ब्राह्मणाः, तथा भिवका भिकाटनशीar, स्युर्भ तमतमेवाऽवगन्तव्यम् । तदेव मनुष्याणां स्तोकं जीवितमवगचेयुः, तेऽव्यानिमुख्येन (णूमं ति) कर्म माया वा तत्कृतैरसदनु-। म्य यावत्तन्न पर्येति तावकर्मानुष्ठानेन सफलं कर्तव्यम् । ये पु. छानच्छिता गृद्धास्तीवमत्यर्थम् । अत्र च गन्दसत्याद बहुव नर्भोगस्नेहपोऽवसन्ना मना रह मनुष्यभव संसार वा कामेचि. चन एव्यम् । एवम्नूताः कमभिरसद्वेद्यादिभिः कृत्यन्ते विद्य छामदनरूपेषु मूञ्छिता अध्युपपन्नास्ते नरा मोहं यान्ति,हिन्ते पीज्यन्ते इति यावत् ॥ ७॥ साम्प्रतं ज्ञानदर्शनचारित्रमन्तरण नाऽपरो मोकमार्गोऽस्तीति ताहितप्राप्तिपरिहारे मुह्यन्ति मोहनीयं वा कर्मोपचिन्वन्तीति त्रिकालविषयत्वात सूत्रस्याऽगामितीर्थकधर्मप्रतिषेधार्थमाह संभाव्यते । एतदसंवृत्तानां हिंसादिस्थानभ्यो निवृत्तानामसं. यतेन्द्रियाणां चेति ॥१०॥ अह पास विवेगमुहिए, एवं च स्थिते यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाहअवितिन्ने इह नासई धुवं । जयवं विहराहि जोगवं, अणुयाणा पंया मुरुत्तरा । पाहिसि प्रारं को परं, अणसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं च समं पवेइयं ।। ११॥ बेहासे कम्मेहि किच्चती॥७॥ स्वल्पं जीवितमवगम्य विषयांश्च क्लेशप्रायानवबुद्धय लि. अथेत्यधिकारान्तरे बहादशे एकादेश इति । अथेत्यनन्तरं ए- त्वा गृहपाशबन्धनं यतमानो यत्नं कुर्वन् प्राणिनामनुपरोधेन Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३) प्राणच्चया अभिधानराजेन्मः। अणिएहवण विहर युक्तविहारी जव। एतदेव दर्शयति-योगवानिति-संयम- । सङ्केपनिमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरनुवृते, ज० १ श० एच० योगवान्, गुप्तः समितिगुप्त इत्यर्थः। किमित्येवम् ?,यतोऽणवः अणिट्ठ-अनिष्ट-त्रि० । इष्यते स्मेति प्रयोजनवशात् श्टम, सूक्माः प्राणाःप्राणिनो येषु ते । तथा चैवं नूताः पन्थानोऽनुपयुकैर्जीवानुपमर्दन दुस्तरा दुर्गमा श्त्यनेन समितिरूपा किप्ता। न टमनिष्टम् । भ० १ ० ५ उ० । 'स्यानुष्टेष्टासंदष्टे' ॥ अस्याश्चोपलकणार्थत्वात अन्यास्वपि समितिषु सततोपयु ।२।३४॥ इति सूत्रेण ट्रस्य छः। प्रा० मनस इच्गमतिकाकेन नवितव्यम् । अपि च-अनुशासनमेव यथाऽऽगममेव सूत्रा ग्ते, जी०१प्रति । उपा० । स्था० । भ० । अवान्छिते, भ. । ऽनुसारेण संयम प्रक्रमेत् । पतच्च सर्वैरेव वीरैरहद्भिः स श० ३३ उ०। सतामनभिलषणीये, “सदारविसयसाहण-धण म्यक् प्रवेदितं प्रकर्षेणाऽऽख्यातामति ॥ ११ ॥ संरक्खणपरायणमणि" आव०४०।" अणिहा, अकंता, अथक पते वीरा श्त्याह अप्पिया, अमणुन्ना, अमणामा, पते एकार्थाः । विपा०१ श्रु०१ विरया वीरा समुट्ठि-या कोहकायरियाइपीसणा। अ०।" अणिहा नवंति णादिजे दविणीया" अनिष्टा जनस्ये ति गम्यते । प्रश्न०३ आश्रद्वा० । इष्टस्य सुखादेविरोधिनि पाणे ण हणंति सनसो, पाचाप्रो विरिया अनिनिव्वुमा १३ नानघुमा ५ प्रतिकृलवेदनीये दुःखे, तत्साधने पापे, विषादी, अपकारे च । हिंसाऽनृताऽऽदिपापेच्यो ये विरताः, विशेषेण कर्म प्रेरयन्तीति | नागवलायाम, स्त्री० । यज-क्त । न० त० । अकृतयागे देवावीराः, सम्यगारम्नपरित्यागेनोत्थिताः समुत्थिताः,ते, एवंभूता- | दौ, वाच० । स्था। श्व क्रोधकातरीकादिपीषणाः, तत्र क्रोधग्रहणादमानो गृहीतः, अणिइतर-अनितर-त्रि०। अतिशयेन कममीये, जी० ३ कातरीका माया, तग्रहणावाभो गृहीतः। श्रादिग्रहणात् शेष- TANT मोहनीयपरिग्रहः । तत्पीषणास्तदपनेतारः, तथा प्राणिनो जीवान् सूक्ष्मतरभेदभिन्नान् सर्वशोमनोवाकायकर्मभिन नन्ति न अणिफल-अनिष्टफल-नः। अशुभे कर्मणि, उपा०२ अ01 व्यापादयन्ति । पापाच सर्वतः सायद्यानुष्ठानरूपाद्विरता निवृ अनभिमतफले दुर्गतिप्रयोजने, पञ्चा० ११ विव० । अननिमसाः, ततश्चाऽनिनिवृत्ताः क्रोधाद्युपशमेन शान्तीभृताः । यदि तप्रयोजनेऽनर्थफले, पञ्चा० ३ विव०। बाऽनिनिवृत्ता मुक्का इव द्रष्टव्या इति ॥ १२ ॥ सूत्र०१ श्रु० अणिट्ठवयण-अनिष्टवचन-न० । आक्रोशवाचि, " अणिट्टवय२ अ० १ उ० । णेहिं सप्पमाणा" प्रश्न० ३ आश्र द्वा० । अणिचाणुप्पेहा-अनित्यानुप्रेक्षा-स्त्री० । “कायः सन्निहिता- | अणिछविय-अनिष्ठापित-त्रि० । असमापिते, " अणिहावियपायः, सम्पदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः, सर्वमुत्पा- सम्वकालसंउप्पयं" अनिष्ठापिताऽसमापिता सर्वकालं सदा दि भङ्करम्" ॥१॥श्त्येवं जीवितादेरनित्यस्यानुप्रेक्का । धर्मरूपे | संस्थाप्यता तत्कृत्यकरणं यस्य तत्तथा । भ० एश० ३३ उ०। धर्मध्यानस्यानुप्रेकानेदे, स्था० ४ ग०१७०। अणिट्ठस्सर-अनिष्टस्वर-पुं० । प्रयोजनवशादपीच्चाऽविषये, अणिच्छा-अनिच्छा-स्त्री० । इच्गभावलवणायामात्मपरिण स्था०८1०। तो, " अनिच्छा ह्यत्र संसारे, स्वेटालाभादनुत्कटा ।” द्वा०६ अणिटिनच्चाह-अनिष्ठितोत्साह-पुं० । अहतोत्साहे, "स द्वा०। पं० सू०। च सर्वसक्तयाऽनुष्ठानेषु यथाशक्त्योद्यमं करोति" दर्श०।। अणिच्छियत्ता-अनीप्सितता-स्त्री। प्राप्तुमवाचितत्वे, भ० | | अनिछर-अनिष्ठर-त्रि० । प्रस्तरागमनवत्कार्कश्यरहिते, ग०५ ६ श० ३ उ01 अधि०। अणिच्चियन-अनेष्टव्य-त्रि० । मनागपि मनसाऽपि अप्रार्थनीये, आव०४०।३०। “दुञ्चितिओ अणायारो अणि अणिह-अनिष्ठीवक-त्रि० । मुखश्लेष्मणाऽपरिष्ठापके, प्रश्न०१ लियम्वो" श्राव० ४ अ०। सम्ब० द्वा० । सूत्र। अणिजिस्म-अनिजीर्ण-त्रि० । जीवप्रदेशेज्यः परिशटितप्रदे- अणितिपत्त-अनुचिप्राप्त-पुं० । पामर्षीषभ्यादिलक्षणामूर्ति शे, औ० कल्प। प्राप्ते, नं। प्रशा अणि (लि) जमाण-अन्वीयमान-त्रि०। अनुगम्यमाने, अणिमंत-अनुचिमत्-त्रि० । अनृस्प्रिाप्ते, " गविहा अ. विपा०१ श्रु०१ अ०। णिमिता मणुस्सा पम्पत्ता । तं जहा-हेमचंतगा हिरहावंतगा हरिवंसगा रम्मगवंसगा कुरुवासिणो अंतरदीवगा" स्था। अणि (लि) जमाणमग्ग-अन्वीयमानमार्ग-त्रि०। अनुग ६०। म्यमानमार्ग, “ मच्चिया चमगरहपहकरेणं अणिजमाणमम्गे शाणिमिय-अनधिक-पुं० । अनीश्वरप्रमाजते, प्रा० मियागामे णयरे" इत्यादि । विपा०१ श्रु० १ ० अणिजहिता-अपोह्य-अव्य० । अदत्त्वेत्यर्थे, "वत्थं अणिजू गिएहव-अनिन्दव-पुं० । न ता अनपलापे, ग०१ अधिन ___ ध० । व्य० ।दश।(निदवशब्दे वक्ष्यमाणेन) निहवत्वेनरहिता" अपोह्य दत्वा हस्ताथावृतमुखस्य । प्रति० न०। हिते, वृ०११०। अणिज्जाएत्ता-अनिर्धारर्य-अव्य०। चकुरव्यापार्येत्यर्थे, भ० अणिएहवण-अनिहवन-न० । निहवनमपलपनम्, न निल श०७०। बनमनिधनम् । यतोऽधीतं तस्याऽनपलाप, पप ज्ञानाचाअणिज्जायणत्तिया-अनिर्यापणात्मिका-स्त्री० । वाचनासंपद् रस्य पञ्चमो विषयः । यतोऽनिवेनैव पागदिसूत्रादेर्षिधेयं, न जेदे, उत्त०१०। पुनर्मानादिवशादात्मनो साघवाद्याशङ्कया श्रुतगुरूणां श्रुतस्य अणिज्जूद-अनिद-त्रि० । महतो ग्रन्थात् सुखावबोधाय | वाऽपसापेनैति । प्रव०६वा ।।दाग। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणिहवण free अलावो करस सगाने अति चहगुरुता । हावित विरघर, दारा दिंडे ऽणिएव ।। १६ ।। कोष साबिर मसादितो तो श्रोण साहुणा पुओि-कस्स सगासे श्रहीयं १, सागारहि गाराणं संधिप्पोगेण आगारो लग्भति, ततो अहीतं भवति तेण य जस्स सगास सिक्खियं सो गुण सुतक सहसितेसुपवीणो, जच्चादिसु वा होणतरी तो तेज लज्जति । श्रं जुग्गप्प दाणं कहयन्ति तगारणगाराणं संधिप्यभोग सम्भति, तेण भामिति भवति । एवं गिएढवणं भवति । इत्थं से पया वाणायरियं विरहतरह परसो यणस्थि कल्लाणं उदाहरणं " मि० चू० १ उ० । गृहीतश्रुतेनानिवः कार्यः । यद्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यः, वितकालुष्यापत्तेरिति । (22) अभिधानराजेन्द्रः । अत्र दृष्टान्तः 4 पगस्स एहावियस्स खुरभंगविज्जासामत्थेण भागा से अच्छ· सिंगो परिवागो बहुद्ध उपजा उपसंप ज्जिऊण, सेण सा विज्जा लका, ताहे अनत्थ गंतुं तिदमेणागासगरण महाजण पूज्जति त्ति । रनाय पुच्छि श्रो- भगवं ! किं मे स विज्जातिसम्र तय तथातिसश्रो । सो भणति-वि ज्जातिसम्रो। कस्स सयासाओ गहिश्रो ?। सो भराति हिमवंत फलाहारस्स रिसिणो सयासे अधिज्जियो । एवं तुबुत्ते समा णे संकिले सदुयाए तं तिमं खमसि पमितं । एवं जो अप्पागर्म आयरिय नियम कहति तस्स चित्तसंकि सदोसेण सा विज्जा परसोरण दर्याति सि, अनिएषण ति गतं । दश० ३ ० । अरिहनमाण अनिदान व अनपजपति ०१ श्रु० १ ० । अणितिय प्रनिश्व शि० रहितः सुपरिभ्रजेत्। यदि वा प्रभूतान्य निदानकल्पानि ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत् । अथवा-निदानं हेतुः कारणं दुःखस्यान्तो नितः कस्यचिद्दुःखमनु पादयन् संयमे पराक्रमेदिति । सूत्र० १० १० ० । अणिदा (या) अनिदानताखी निदायते ते ज्ञानाद्याराधना लता श्रानन्दरसोपेतमोक्षफला येन परशुनेव देवेन्द्रादिना उपयसानेन निदानमनिदानं तद्यस्य सोऽनिदानः, तद्नावस्तत्ता । निरुल्सुकतायाम्, एतस्याश्च फलमागमिष्यतया कर्मप्रकरणम् । स्था० १० ठा० । निदानं भो प्रार्थनास्वभावमध्यानं तितामिदानता जोग विप्रार्थनायाम्, एतस्याः फलं संसारख्यतिव्रजनम् | स्था० ३ ग० १ ० । सत्थ भगवया अणिदणता पसत्था स्था० ६ ० ! । अणिरि अनिर्दिष्ट त्रि० मानिदेशे नि० सू० १० अणिरेस-अनिर्देश० उ० २ ० । अनिर्देश्य - त्रिo | केनाऽपि शब्देनाऽनभिलप्ये, विशे० । अणिद्देसकर--निर्देशकर पुं० । श्रप्रमाणकर्त्तरि, “ श्राणाणिदेसकरे. गुरूण वायकारए" उत्त० १ ० । अनिष्पण-अनियतकाले निष्यसि रहिते औश अमितमा अनियन्यवि० निमन्त्रणमति प्रा० मणिदा (या) निदा-श्री० निदानं निदान निदानिया, प्राणिहिंसा नरकादिदु हेतुरिति परिज्ञानपिकलेन सता कि या प्राणिनिले स्वपुत्रादिकमन्यं वा विभागमाथि विषय सामान्येन विधीयमाने, श्रजानतो वा व्यापाद्यस्य स - स्वस्य व्यापादने च । “जाएं तु श्रजातो. तहेब उहिसिय उ अणिमा अलिमन् पुं० । परमाणुरूपतापत्तिरूपे सिकिभेदे, बहवो वा वि । जाएग अजारागं वा, बहेद श्रणिवा निया २ ० २ अ० ३ ४० । डा० २६ द्वा० । " प्रात्यस्थिरेकस्वभाव तया कूटस्थ नित्यत्वे माऽव्यवस्थिते, आबा ०१ श्रु०॥ अ०२ उ० | अनित्यंच-अनित्यस्थ-५० प्रकारमामित्यम तिष्ठतीति इत्थंस्थम, न इत्थं स्थमनित्थंस्थम । केनचिलौकिकेन प्रकारात औ० आय० पं० सू०] परिमादिसंस्था नरहिते, भ० २४ श० १२ ४० । श्रनियताकारे, जी० १ प्रति० । अशिस्यसंवासंत्रि-प्रनित्यस्थसंस्थानसंस्थित त्रि इत्थं तिष्ठतीति इत्यस्थम न इत्थंस्थमनित्थंस्थम, अनियता कारमित्यर्थः । तख तत्संस्थानम तेन संस्थानेन अनियत संस्थानसंस्थिते, जी० १ प्रति० । प्रणित्वंघसंगण-अनित्यस्थसंस्थाना स्वी० अस्थिं संस्थानं यस्या अरूपिण्याः सतायाः सा । श्रनियताकारायां सत्तायाम्, पं० सू० ५ सू० । अणिमा एसा " पिं० । अनिर्द्धारणायाम, "पुढषिकाइया सब्बे, अस विभूया अणिदार वेयणं वेदेति " भ० १ ० २ उ० । चिस विकलायां सम्यग्विषेकविकलायाम, प्रशा० ३४ पद । श्रनाभोगवत्यां हिंसायाम् भ० १६ श०५ उ० । " शिदा (या) अनिदान चि माऽस्य स्वर्णावाच्या दिनिदानमस्तीत्यनिदानम् । सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । न विद्यते निदानमस्पेस्वनिदानः निराका अशेषकर्मक्षयार्थिनि, सूत्र० १० १६ अ० । निदानरहिते, द्वा० ५ द्वा० । निदानवजिते, प्रातुः । प्रार्थनारहिते, भ० २ श० १ उ० । पञ्चा० । श्राया० । भाषिफलाशंसारहिते, " अणियाणे अकोउहले य जे स भिक्खू " दश० १० अ० । पश्चा० । प्रश्न० । ध० स्वगाप्यादिनिदानरहिते, सू० १५० २०१० न विद्यते निदानमारम्भरूपं भूतेषु जन्तुषु यस्यासावनिदानः । सावधानुष्ठानरहिते अनाशवे, सूत्र० १ ० १० अ० । भोगर्द्विप्रार्थनास्वभावमाध्यानम् तद्धर्जितेऽनिदान स्पा० ३ ठा० १ ३० । अणिदा (या) नूय-अनिदाननृत-त्रि० । सावधानुष्ठानरहितेनाश्रवभूते कर्मोपादानरहिते अनिदानकल्पे शानादी, सूत्र० । अप्पमा भिक्खू समाहिपते अभियाणजूते सुपरिष्वजा न विद्यते निदानमारम्भूस्वानाः । सवस्तृतः सावधानुष्ठानरहितः परि समन्तात्संयमानुष्ठाने दितिपहिया निदाना .. -- , Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणिमिस अणिमसनिमिष ० ० ० वेबपो दश०० निवसनयने, माझं अणिमि बहु आय० ५ ० । प्रणिमिसाय अनिमिषनयन- पुं० । न विद्यते निमेषो येषां तानि अनिमेषाणि, अनिमेषाणि नयनानि येषां तेऽनिमेषनयनाः । देवेषु मुदामा, अणिमिसणया य नीरजसरी रा। सरंगुषेण जुमिं, न छिवंति सुरा जिलो कहइ" व्य० १ ० । आ० म० द्वि० । निर्निमेष लोचने, पचा० १० विष० । प्रशियनीक - न० । सैन्थे, कल्प० । ( ३३५ ) निधानराजे 46 देवेन्द्राणां सानीका धनीकाधिपतयःचमरस्त अर्रिदस्स असुरकुमाररको सच अशिया, सन अभियादिव पणता तं जहा-पावचाहिए, पीटालिए, कुंजरालिए, महिसालिए, रहाणिए, नट्टाणिए, गंधन्वाणिए, दुमे पायाणियाहिवई । एवं जहा पंचट्ठाणे जाव किनरे रहाणियाहिवई रिट्टे नट्टाणियाहिवई गीयरई गंधय्याणियाहिवई । बलिस णं यइरोयदिस्स बहरोगणरो सत्त अणिया, सत्त अशियाहिवई पलत्ता । तं जहा पायचा शियं जान गंवायं महदुमे पायताणयादव जारि रहाणिया हिवई महारिके यहायिविई गीयजसे गंधव्वाणियाहिवई । धरणस्स एं नागकुमारिंस्त्र नागकुमाररह्यो सच आशिया, सच आशियाहिवई पत्ता । तं जहा - पायत्तालिए जाव गंधव्वाणिए । सेने पापचाणियाहिनई जान आदे रहाणियाहवाई पहने पट्टानिया हिवई तेतले गंधाणियाहिवई भूषाणंदस्त सत्तणिया, सत्तणियादिवई पत्ता । तं जहापायचानिए नाव गंधव्याणि दवखे पायतानियाहि सत्त जादुत्तरे रहाणियाहिवई रई हालिया हिवई मासे गंवायाविई एवं जान घोसमहाघोसाणं थेयवं । सकस्न णं देविंदस्स देवरणो सत अशिया, सत्त प्रणयादिवई पत्ता । तं जहा- पावसाशिए जाय गंधव्वाणिए । हरिणेगमेसी पायत्ताणियाहिवई जात्र माढरे रहाणियाविई सेए पट्टा लियाहिवई तुंबरूगंधव्वालिया हिवई । ईसाणस्स नं देविंदस्स देवरण सत्त अणिया, सत्त प्रणयादिवई पष्मता । तं जहा - पायत्तालिए जाव गंधव्त्रालिए लडुपरको पापचाथियाहिवई जाब महासेए कहाशियाहिवई शारए गंपाणिगाडियई से नहा पंचडाणे एवं जात्र अस्सेति नेयव्वं । स्था० ७ ठा० । नृत- न० । वितथे मिथ्यावितथमनृतमिति पर्यायाः । स्था० १० ठा० आ० म० द्वि० । विशे० । श्राष० । अणिय अनिवर्त्त पुं० [ मोठे श्राचा० १०५० १४० । अणिमामि श्रनिवर्त्तवागिन् पुं० । श्रनियत पोक्षस्तव 1 प्रणियत गन्तुं शीलं यस्य स तथा । निर्वाणयायिनि आचा० १ श्रु० ५ ० ३ ३० । अपि अनिवर्तिन् नननिय इत्येवंशीलमनिवर्तितपरिणामावनशीले "समकिरिचणियही " इति ध्यानस्य तृतीये मेवे, स्था०४ ठा० १ उ०। सूत्र० । अशीतितमे महाग्रहे, चं० प्र०१० पाडु० । आगमिष्यन्त्यामुत्सपिण्यां नविष्यति विंशतितमे तीर्थकरे, स० । अणिय ट्टिकरण - अनिवृत्तिकरण न० । निवर्त्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिवर्ति श्रसम्यग्दर्शनसामा निर्तत इत्यर्थ न निवर्तते नाति मोतस्वबीजकत्वं सम्यकमासात्येवं शोलमनिवर्ति पञ्चा० ३ वि० अनिवृत्तिकरणमित्यन्योन्य नातिवर्तन्ते परिणामा अमिमित्यनवृतिकरणम् श्राचा० १ श्रु०६ श्र० १३०] तथा तत्करणं च श्रनिर्वृत्तिकरणं सम्यक्त्वाधनुगुणे विशुद्ध तराध्यवसायरूपे भव्यानां करणभेदे, “श्रणियट्ठीकरणं पुण, सम्प्रतपुरक्खडे जीवे" प्रा० म० वि० । - अणियहिवायर अनिवृतिवादर । न विद्यते अन्योऽस्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृतिर्यस्यासावनिवृत्तिः । स चासो बादरचेति । कर्म० २ कर्म । नवमगुणस्थाने वर्त्तमाने जीवे, स व कषायाष्टकक्षपणारम्भान्नपुंसक वेदोपशमने यावद् भ धति निवृत्तिबादरसमयादूर्ध्वं लोभखण्डवेदनां यावदनिवृत्तिबादरः । श्राष० ४ श्र० । अवाप्ताणिमादिभावे, पं० ०१ द्वा०| अणिपट्टिवायरसं पर। यगुणद्वाण अनिवृतिवादरसंपरायगुणस्थान- मं०]नयमगुणस्थाने, व्यायामयुगपदस्था नकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामम्योन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृतिनयस्पेति अनिवृत्तिः समगुणस्थान कमारूढस्थापरस्य यदध्यवसायस्थानं विवक्षितोऽन्योऽपि कश्चित्तद्वत्येवेत्यर्थः। संपरैति पर्यटति संसारमनेनेति संपरायः क पायोदयः पादः सूक्ष्मकृपया यस्य स बादरपरायः अनिवृत्तिवासे बाइपराय स्य गुणस्थानमनिवृत्तिवाद संपयगुणस्थानमध्य मुँह प्रमाणमेव तत्रान्यान्तःसमस्य नां तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि नवन्ति । एकसमयप्रविशना मेकस्यैवाध्यवसायस्थानस्यानुवर्तनादिति स्थापना००००० प्रथमसमयादारज्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यव सायस्थानं भवतीति वेदितव्यम् । स चानिवृतिवादगे द्विधाकपक उपशमकश्च । कृपयति उपशमयति वा मोहनीयादि क मेति या कृत्वा । कर्म० २ कर्म । प्रव० । श्रा० चूर । अयि " - " नग्न- पुं० । विचित्रवस्त्रादायित्वान्न विद्यन्ते नम्ना निवासिनो जना येज्यस्ते ऽनग्नाः । संज्ञाशब्दो वाऽयमिति । वि शिष्टवस्त्रदायिषु कल्पनेदेषु, स्था० 9 ग० | प्रब० श्राष० । अलियत ( य ) -अनियत त्रि० । श्रप्रतिबद्धे, ५० १ ० ६ अ० । उत्त० । श्रनिश्चिते, अ० अ० अनेकस्वरूपे, दशा १०प्र० न०त अनियमवति श्रनवस्थिने, प्रश्न०२ श्र० द्वा अवश्ययाप्रापिते श्रात्मपुरुपेश्वरस्तावकम विकृते सुखादिके, “निययानिययं संतं प्रयाता अबुडिया" सूत्र०१ श्रु०१ अ०२०] "अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि दिवि Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) अणियत अभिधानराजेन्द्रः। अणिसिद्ध वेद च । देवासुरमनुष्याणा-मृद्धयश्च सुखानि च।" सूत्र.१] अणिव्वत-अनित-त्रिकान० त० कदाचिदनुपशान्ते, "अ. अ० अ०। इदं शरीरमनियतं सुरुपादेरापि कुरूपादिदर्शनादू ह- णिवते घातमवेति बाले" सूत्र०१०४ अ० २उ० । अपिितलकराजसुतविक्रमकुमारशरीरवत् । २० । " अणियो रिणते, दश०१०। बासी" अनियतो घासो नानादेशपरिभ्रमणम् । व्य०१ उ०।। अणिव्वाणमादि-अनिर्वाणादि-त्रि० । अनिवृत्यर्थहान्यर्थाप्रणियत (य) चारिण-अनियतचारिन्-पुं०।अनियतमप्रतिवर्क सिद्धिप्रभृतिषु दाषेषु, पञ्चा०७ विव० । परिग्रहयोगाश्चरितुं शीलमस्यासायनियतचारी । अप्रतिवरू आणि वाणि-अनिर्वाणि-पुं० । असुखे, व्य० १ उ० । विहारिणि, सूत्र०१ श्रु०६०। अणियत (य)प्प ()--अनियतात्मन्-पुं० । असंयते, अणिवु-अनिनि-स्त्री० । पीडायाम. श्रा०म० द्वि० । अनिश्चितस्वरूपे च । अष्ट०८ अष्टः । अणिबुम-अनिद्रेत-त्रि० । अपरिणते, दश० ३ ० । प्रणियत (य) वहि-अनियतवृत्ति-पुं० । अनियतविहारे, | अणिब्वेय-अनिर्वेद-पुं० । उद्योगावनुपरमे, दश० ३ ० । उत्स०१०। | ( तद्विषया अर्थकथा 'अत्थकहा' शब्देऽत्रैव भागे वक्यते) अणियत (य)वास--अनियतवास--पुं०। मासकल्पादिना- अणिसिह-अनिसृष्ट-त्रिः । न निसृष्टं सर्वैः स्वामिभिः साधुऽनिकेतवासे गृहे, उद्यानादौ पासे, दश०२ चलिग "अणिय. दानार्थमनुज्ञातं यत् तदनिसष्टम् । पिं० । एकेनैव दीयमाने श्रो वासो णिप्पत्तियविहारो"अस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शिष्य- बहुसाधारणे,"अणिसिहं सामनं गोट्ठियभसाइ देइ एगस्स" स्यानियतो वासः क्रियते । ग्रामनगरसन्निवेशादिष्वनियतवासे. प्रश्न सम्ब० द्वा०। पञ्चा० दशा | स्था०। अनिसृष्टं स्वान । विशे० । देशदर्शन कार्यते ततः स आचार्यपदे स्थाप्यते । मिनाऽनुत्संकलितं निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम् । श्राचा०२ वृ०१०। श्रु०२१०१३०। यदा द्वित्राणां पुरुषाणां साधारणे आहारे श्वणियत (य) वित्ति-अनियतवृत्ति--पुं० । अनियतचारिणि | एकोऽन्याननापृच्छय साधये ददाति तदा पश्चदशोऽनिस्टो अनियतविहारे, स्था०८ ग० । व्य० । अनियताऽनिश्चिता वृ दोष उद्गमस्य । उत्त० २४ १०। त्तिय॑वहरण बिहारो वा यस्य सोऽनियतवृत्तिः । “गामे पगराई अथानिसृष्टद्वारमाहनगर पंच राई" इत्यादिप्रकारेण । दशा०४ ०। अणिसिटुं पमिकुटुं, नायं कप्पए सुविहियाणं । अणियत्त-अनिवृत्त-त्रि० । अनिवृत्ते, नस०५०। लग चोरग जंते, संखमि खीराऽऽवणाईस ।। अणियत्तकाम-अनिवृत्तकाम-त्रि०ा अनुपरतेच्छौ, उत्स०१४ अ० निसृष्टमुक्तमनुज्ञातं, तहिरीतमनिसृष्टमननुज्ञातमित्यर्थः। तत्प्र. तिकुष्टं निराकृतं तीर्थकरगणधरैरनुज्ञातं पुनः कल्पते सुविहिअणियाहवइ--अनीकाधिपति-पुं०।६ त०। गजादिसैन्यप्र तानाम्। तच्चानिसृष्टमनेधा । तद्यथा-लड़कविषयं मोदकविधाने ऐरावतादौ, स्था० ३ ग० १ ०। रा०। (यस्य याघनत्य षयं, तथा चुल्लकविभोजनविषयम् । ( यन्त्र इति) कोल्हफादिनीकानि अनीकाधिपतयश्च ते सर्वे 'अणिय' शब्दे उक्ताः) प्राण कविषयं, तथा संखमिविषयं विवाहादिविषय, तथा कीअणिरिक्ख-अनिरीक्ष्य-अव्य० । चक्षुषाऽज्ञात्वत्यर्थे, श्रा० । रविषयं दुग्धविषयं, तथा आपणादिविषयम् । श्रादिशब्दात प्रणिरुक-अनिरुक-त्रिका काचिदप्यस्खलिते, सूत्र०१ श्रु०१२ गृहादिविषयमवसेयम् । श्यमत्र भावना-दह सामान्येनानिम० । कृष्णवासुदेवपुत्रस्य प्रद्युम्नस्य वैदामुत्पन्ने पुत्रे, सच सष्ट द्विधा । तद्यथा-साधारणानिसृष्टं, भोजनानिसृष्टं च । तत्र अरिष्टनेमेरन्तिके प्रवज्य शत्रुजये सिकः। अन्त०४ वर्ग। प्रश्न नोजनानिसष्टं चुल्लकशब्देनोक्तम्, साधारणानिमृष्ट तु शेअणिरुद्धपएण-अनिरुघमझ-त्रि० । अनिरुका कचिदप्यस्ख षभेदैरिति । लिता प्रज्ञा, प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा ज्ञानं, येषां तीर्थकृतां तेऽनिरुक तत्र मोदकविषयं साधारणानिसृष्टोदाहरणं गाथाचतुष्टयेनोप्रकाः। कचिदप्यस्खलितकानेषु तीर्थकृत्सु, सत्र०१ शु०१२० पदर्शयतिअपिल-अनिल-पुं०। घाया, प्र० १ आश्र द्वा० । कर्मः । बत्तीसा सामन्ने, ते कहि एहाउं गय त्ति इइ वुश्च । दश । भाष० । एकोनविंशे भारतातीतजिने, द्वाविंश- परसत्तिएण पुन्न, न तरसि का ति पच्चाऽऽह || जिनस्य प्रवर्तिम्यां च । स्त्री०प्रधद्वाति० । अवि य हु वसीसाए,दिन्ने हि तवेगो मोयगो न भवे । प्रणिलामइ (ए)-अनिनामयिन-त्रि० । वातरोगिणि, अप्पवयं बहुआय, जइ जाणसि देहि तो मज्झं ।। वृ०२ 301 साजिय निंतो पुट्ठो, किं लकं पेच्छ मोदाए । अणिन-देशी-प्रभाते, दे० ना० १ वर्ग। इयरो वि अहो नाहं, देमि त्ति सहोढवोरतं ।। अणिवंछिय-अनिर्माछित-त्रि०ा भवर्धितके प्रखण्डीकृते, | गेएहणकट्ठणववहा-रपच्छकफुड्डाढ़ तहय निविसए । भ०८ श०५ उ01 मायम्मि भवे दोसा, पहुम्मि दिने नन गहणं॥ प्रणिवारिय-अनिवारित-त्रि० । निषेधकरहिते, विपा० १ रत्नपुरे माणिभप्रमुखा द्वात्रिंशष्यस्याः,ते कदाचिद्यापना०२० निमित्तं साधारणान् मोदकान् कारितवन्तः । कारयित्वा च अणिवारिया-अनिवारिका-स्त्री० । मास्ति निवारको मैवं समुदायेनोद्यापनिकायां गताः। तत्र चैको मोदकरक्कको मुक्तः कार्षीरित्येचं निषेधको यस्याः सानिवारिका । प्रतिषेधकर- शेषासवेकत्रिंशत् नद्यां स्नातुं गताः। अत्रान्तरेच कोऽपि लोलुहिसायाम, शा० १ श्रु०१६ १०॥ पसाधुभिवार्थमुपातिष्टत,दृष्टाश्च तेन मोदकाः, ततो जातलाम्प. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७) प्रणिसिद्ध अनिधानराजेन्द्रः। अणिसिह ट्यो धर्म लालयित्वा तं पुरुषं मोदकान् याचितवान् । स प्राह- स्कृतम् । तत्र गुरुस्तीर्थकरादिर्वर्णयति प्ररूपयति यथा स भगवन् ! न ममैकाकिनोऽधीना एते मोदकाः किन्त्वेन्येषामप्ये | चुनको द्विधा । तद्यथा-स्वामिनो हस्तिनश्च । कत्रिंशजनानां, ततः कयमहं प्रयच्यामि। एवमुक्त साधुराह तत्र प्रथमतः स्वाम्यनिर्दिएं चुल्लकमाह-- ते (कहिं ति) कुत्र गताः । समाह-नणं स्नातुमिति । तत एव- छिन्नमछिन्नो दुविहो, होइ अबिन्नो निसिहअणिसिहो। मुक्ते जूयोऽपि साधुस्तं प्रत्याह-परसत्केन मोदकसमूहेन त्वं पु. एयं कर्तुं न शक्नोषि?, यदेवं याचितोऽपिन ददासि । महानुना छिन्नम्मि चुनगम्मि य, कप्पा घेत्तं निसिहम्मि ।। षमुढस्त्वं यः परसस्कानपि मोदकान मह्यं दत्त्वा पुण्यं नोपा इह द्विधा चुकः । तद्यथा-छिन्नोऽछिन्नश्च । इयमत्र भावनाजयसि । अपि च-द्वात्रिंशतमपि मोदकान् यदि में प्रयच्छसि इह कोऽपि कौटुम्बिकः क्षेत्रगतहालिकानां कस्यापि पार्श्वे तथापि तव नागे एक एव मोदको याचितः। एवमल्पव्ययं प कृत्वा भोजनं प्रस्थापयति । स यदा एकैकहालिकयोग्यं पृथक हाय दानं यदि जानासि सम्यग् हृदयेन तर्हि देहि मे सर्वा पृथक भाजने कृत्वा प्रस्थापयति, तदा सचुल्लकश्छिन्नः, यदातु नपि मोदकानिति । एवमुक्त दत्तास्तेन सऽपि मोदकाः, भृतं सर्वेषामपि हालिकानां योग्यमेकस्यामेय स्थाल्यां कृत्वा प्रेषसाधुजाजनम्, ततः संजातहर्षः साधुस्तस्मात् स्थानादू धिनि यति, तदा सोऽछिन्नः। एवमन्यत्राप्युदापनिकादी छिन्नाछिर्गन्तुं प्रवृत्तः। अत्रान्तरे च सर्वे समागच्छन्ति स्म माणिभकादयः। सत्वं चुलकस्य भावनीयम्। अच्छिन्नोऽपि द्विधा । तद्यथा-निपृष्टश्च तैः साधुः-जगवन् ! किमत्र स्वया लब्धम् । ततः साधु सृष्टोऽनिसृष्टश्च । तत्र निसृष्टः कौटुम्बिकेन येषां च हालिकानां ना चिन्तितम्-यथा एते मोदकस्वामिनस्ततो यदि मोदका योग्यः स चुल्लकस्तैश्च साधुभ्यो दानाय मुत्कलितः । इतरस्तु लब्धा ति बक्ये तर्हि भूयोऽपि ग्रहीयन्ति । तस्मान्न किम. मुत्कलितोऽनिसृष्टः । तत्र यस्य निमित्तं छिन्न. स एव चेत्तपिलब्धमिति धीमीति । तथैवोक्तवान् । ततस्तैर्माणिभप्र स्यात्मीयस्य छिन्नस्य दाता तर्हि तस्मिन् छिन्ने चुम्लके तत्वामुखै राक्रान्तं साधुमवलोक्य संजातशद्वैरभाणि-दर्शय निज' मिना दीयमाने साधूनां ग्रहातुं कल्पते, दोषाभावात् , तत्तथा जाजनं साधो!येन प्रेकामहे ।साधुश्च न दर्शयति । ततो बलात्प्र छिन्नेऽपि सर्वैरपि तत्स्वामिभिरनुज्ञाते तं ग्रहीतुं कल्पते, तलोकितम । एटा मोदकाः। ततः कोपारुणलोचनैः साधिक्षेपंरक प्रापि दोषाभावात्। कपुरुषः पृष्टः न्यथा कि भोः त्वयाऽस्मै सर्वेऽपि मोदका दत्ता। एनमेवार्थ सविशेषितमाहसजयेन कम्पमानोऽवदत्-न मया दत्ताः। एवं चोक्ते माणिभ छिन्नो दिट्ठमदिट्ठो, याय निसिहो इबिन्नो य। जादिनिः साधुरूचे-चौरस्त्वं पापः साधुवेषविम्बक ! सहोढ सो कप्पइ इयरो न ण, अदिदृदिट्ठो अणुनाओ। इति श्दानी प्राप्तोऽसि, कुतस्ते मोक इति गृहीतो वस्त्राश्च- यइचुल्लको यस्य निमित्तं छिन्नः स तेन दीयमानो मूलस्थासे कर्षितो बाहुना । ततः पश्चात् कुट्टित इति गृहीत्वा सकल- | मिना कुटुम्बिकेनारष्टो दृष्टो वा कल्पते । तथा यश्चाछिन्नः मपि पात्ररजोहरणादिकमुपकरणं गृहस्थीकृतः, तत उड्डाह इ. योऽपि च यस्य निमित्तं छिन्नः स स्वस्वामिभिरनुशातोऽन्येन ति।नीतो राजकुलम्, कथितो धर्माधिकरणिकानाम्। पृष्टश्च तैः। दीयमानः स्वस्वामिभिरदृष्टो दृष्टो वा कल्पते ( इयरो उण साधुश्च न किमपि लजया वक्तुं शक्तवान् । ततः परिभावितम् त्ति) इतर पतव्यतिरिक्तः, तुः पुनरर्थे । छिन्नोऽछिनो वा नूनमेप चौर इति, परं साधुवेषधारीति कृत्वा प्राणमुक्तो नि- स्वस्वामिभिरननुज्ञातोऽदृष्टो दृष्टो वा न कल्पते,प्रागुक्रग्रहणाविषयश्चाऽऽज्ञापितः । एवमानावनायके दातरि एतेऽनन्तरोक्ता दिदोषसंभवात् । अयं च विधिः साधारणाऽऽदिसृष्टेऽपि प्रहणकर्षणादयो दोषा भवन्ति । (पहुम्मित्ति) तृतीयाथै सप्तमी।। वेदितव्यः। यथा-" तिसु अझंकियपुहवी " इत्यत्र । ततोऽयमर्थः-तस्मात्प्र तथा चैतदेव गाथार्द्धन प्रतिपादयतिभुणा नायकेन दत्ते सति साधुना ग्रहणं जक्तादेः कर्तव्यम;त. प्राप्याच्छेद्यादिकं सम्यक् परिहर्त्तव्यमिति । उक्तं सोदाहरणं अणुसिट्ठमाणुनायं, कप्पइ घेत्तु तहेव अदिहे। मोदकद्वारम्। गजयस्स य आनसिहूं, न कप्पई कप्पा अदि। अधुना शेषाएयपि द्वाराण्यतिदेशेन व्याख्यानयति अनिस्ट पूर्व स्वस्वामिभिःसर्वैरननुज्ञातमपियदि पश्चादनुशा. एमेव य जंतम्मि वि, संखमि खीरावणाइसु। तं नवति तर्हि कल्पते तद ग्रहीतु, तेषामनुशातं सर्वैः स्वामिभिसामन्नं पमिकुटुं, कप्पइ घेत्तुं अन्नायं ॥ रन्यत्र गतत्वादिना कारणेनादृएमपि प्रहीतुं कस्पते, तद्दोपाभाएवमेव मोदकोदाहरणप्रकारेण यन्त्रेऽपि संखड्यामपि कोरे | वात् । संप्रति हस्तिनश्चुतकानिसृष्टे गाथोत्तराद्धेन जावयतिच आपणादिषु च यत् सामान्य साधारण तत् स्वामिभिः (गजयस्स त्ति) हस्तिनो नक्तं मिएठेनानुज्ञातमपि राज्ञा गजेन बानिसृष्टमझातं न कल्पते, वदयमाणादिदोषसंन्नवात । तथा. सर्वैरप्यनिसृष्टं,तत् प्रतिष्टं तीर्थकरगणधरैः अनुज्ञातम, पुनः मिगन स्वलज्यं भक्तं दीयमानं गजेनाएं करपते, गजरष्टसर्वैरप्यस्वामिभिः कल्पते ग्रहीतुस, तत्र दोषाभावात्।। ग्रहणे तु वक्ष्यमाणोपाश्रयभङ्गादिदोषप्रसङ्गः। संप्रति चुल्लकद्वारस्य प्रस्तावनां चुलकस्य भेदं च अस्यैव विधेरन्यथाकरणे दोषानाहप्रतिपादयति निवपिमो गजनतं, गहणाईयंतराइयमदिन । चुन ति दारमहुणा, बहुवत्तव्यं ति तं कयं पच्छा। सुवस्स संतिए विदु, ऋभिक्ख वसहीइ फेडण्या॥ वन्नेई गुरु सो पुण, सामिय हत्याण विन्यो । इह यद् गजस्य नक्तं तत् राज्ञः पिएको राज्ञो भक्तं ततो अधुना चुल्लकद्वारं व्याख्ययम् । अथोच्यते मूलगाथायां द्वि- राशा अननुज्ञातस्य ग्रहण ग्रहणादयो प्रहणाकर्षणादयो दोषा तीये स्थाने निर्दिष्टमपि कस्माद व्याख्यावेलायां पश्चात्कृतम्। भवेयुः, तथा अन्तरायिकम अन्तरायनिमित्तं पापं साधोः तत पाह-बहुवतव्यमिदं द्वारम, अतः व्याख्यावेलायां पश्चा- प्रसज्जते । राजा हि मदीयाशामन्तरेणैव साध पिएक Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) अणिसिट्ट अभिधानराजेन्दः । अणिस्सियावहाण ददातीति रुपः सन् कदाचिद् मिएवं स्वाधिकारादू चंशयति, | तत्तथेति क्रियाविशेषणम् । सर्वथा पक्कपातरहितत्वेन यथावादिततो मिएतस्य वृत्तिच्छेदः साधुनिमित्त इति साधोरान्तरायि- त्यर्थः । इह पूज्यव्याख्या-"रागो य हो निम्सा, उवस्सिओ कं कल्पते । तथा (अदिन्नं ति) अदत्तादानदोषः, राजाऽननुशा- दोससंजुत्तो । अहवण आहाराई, दाही मऊं तु एस निस्सातत्वात् । तथा मुम्बस्य मिपठेन स्वयं दीयमानेऽभीक्ष्णं प्रति।। श्रो ॥१॥ सो सो पडिच्चए वा, होश उवस्साकुलादी यत्ति।" दिवसं यदि साधुस्तं पिएकं गजस्य पश्यतो गृह्णाति, तदा मदी-। भ. ८ श० ० ० । यकवसमध्यादनेन मुरमेन पिएको गृह्यते इत्येवं कदाचित रुष्टः | अणिसिसोवहाण-अनिधितोपधान-न। न निश्रितमनिधित सन् यथायोगं मार्गे परिभ्रमन् उपाश्रये साधुंद्रष्टा तंसुण्डं प्र- अव्योपधानम्-उपधानकमेव, भावोपधानं तपः। श्राव०४ अ० । सार्य स्फोटेत साधं च कथमपि प्राप्य मारयेत्, तस्मान गज आ०० । शुजयोगसनहाय परसाहाय्याऽनपेके तपसि, स० स्य पश्यतो मिपस्यापि सत्कं गृह्णीयात्, तदेषमुक्तमनिसृष्टद्वा ३२ सम। ऐहिकफलाउनपेक्षतपःकारितायाम्, एष चतुर्थी रम । पि०। प्रव० । आचा०। जीत०। पं० २०ा 'अणिसिटे चउ योगसङ्ग्रहः। सहुँ' पं० चू० । वृ० । सूत्रः । ( अनिसृष्टं रजोहरणादि शब्देवेष दृश्यम् )"प्रणिसिटुं ण कप्पति अण्णायं " नि०चू० इह परत्र च केन कृत इत्यत्रोदाहरणम्१४ उ०। शय्यातरेणाननुशातप्रवेशे, निसृष्टो नाम यस्य शय्या "पामलिपुत्त महागिरि, अजमहत्थी अ सेट्ठि वसुई। तरेण प्रवेशोऽनुशातः, तदितरोऽनिसृष्टः । वृ०२ उ० । च दिसि सज्जेणीप, जिणपडिमा एलकच्छं च" ॥१॥ अणि सिक-अनिषिद्ध-त्रि० । अनुमते, कल्प० । सायद्यानु शिष्यो द्वौ स्थूलनजस्य, महागिरिसुहस्तिनौ। छानानिवृत्ते, पश्चा० १२ विष०। महागिरिमहासत्त्वो, गणं दत्त्वा सुहस्तिनः ॥१॥ अणिसीह-अनिशीथ-न० । प्रकाशपागत्प्रकाशोपदेशाद् वा जिनकल्पे व्यवचिन्न-ऽप्यभ्यासे तस्य वर्तते । विहारेणान्यदाऽगातां, पाटलीपुत्रपत्तनम् ॥२॥ निशीथमिति श्रुतभेदे, प्रा० म०। तत्र श्रेष्ठी वसुतिः, सुहस्तिप्रतिबोधितः। सांप्रतमनिशीथनिशीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह श्रावकोऽनूदथावादी-दोध्यन्तां स्वजना मम ॥ ३ ॥ नूआपरिणयविगयं, सद्दकरणं तहेव मानिसीहं। ततः सुहस्ती तोडे, गत्वा धर्ममुपादिशत् । पच्छन्नं तु निसीहं, निसीहनामं जयज्जयणं ॥ महागिरिस्तदा तत्रा-यासीदिक्षाकृतेऽथ तान् ॥४॥ नूतमुत्पन्नम्, अपरिणत नित्यं, विगंतं विनष्ट, नूतापरिणतवि- दृष्ट्वोत्तस्थौ सुहस्ती दाग, वसुजूतिरथाब्रवीत् । गतम्, समाहारत्वादेकवचनम्। किमुक्तं भवति ?-'उप्परणेश् वा गुरवो वोऽप्यमी तेऽथ, चकुस्तद्गुणसंस्तवम् ॥५॥ विगमेह पा धुवेश्वा' इत्यादि । किविशिष्टम् ?-शब्दकरणं- पवमावेद्य तेषां ते, प्रदायाणुव्रतान्यगुः । शब्दः क्रियते यस्मिन् तत् शब्दकरणम् । नक्तं च-"उत्तील स. वसुत्तूतिर्वितीयेऽह्नि, स्वजनानूचिवानिति ॥६॥ हकरणं, पगासपा व सरविसेसोवा" स निशीथो भयति । तदोकका भवेताने, दृष्ट्वाऽऽयान्तं महागिरिम् । श्यमत्र भावना-यदुत्पादाद्यर्थप्रतिपादकः, तथा महताऽपि शब्देन दृष्ट्वा तमुज्झनारम्भ, महागिरिरथागतः ॥ ७॥ प्रतिपाय, तत् प्रकाशपागत प्रकाशोपदेशाद्वा निशीथ इति । तद गुरुमिति ज्ञात्वा, बलित्वोचे सुहस्तिनम् । आ० म०वि०॥ अन्युत्थानगुणाख्यान-रशुद्धिर्विदधे त्वया ॥ ८॥ अणिस्तकम-अनिश्राकृत-न0 । सर्वगच्छसाधारणे चैत्ये, "णि अथ द्वावपि वैदेशी, सगच्छौ जम्मतुर्गुरुम् । स्सकम जं गच्छ, संति अतदिअरं अस्सिक । सिद्धाययणं तत्राजितप्रतिनिधि, वन्दित्वा श्रीमहागिरिः ॥६॥ चश्म, चेश्यपणग विणिदि।" ध० २ अधिः । ये रजो गजाप्रपदवन्दारु-रेलकच्छपुरे ययौ । हरणादिवेषधारिणो मत्पितृतुल्यास्तेच्यो दास्यामीति संकल्प तइशार्णपुरं पूर्व-मासीत् त्वस्मिन्नुपासिका ॥ १० ॥ विनैवाऽवढौकनाय, वलिनिष्पादने, स्वपित्रादिनक्तिमात्रकृते चक्रे वैकालिकं नित्यं, प्रत्याख्याति स्म चाथ सा। भक्ते च । पिं० । सपाहसत्पतिस्तस्याः, सायं नुक्तपरोऽपि किम् ? ॥ ११ ॥ अणिस्सिोवस्सिय--अनिश्रितोणाश्रित--पुं० । निश्रितं रागः, | निश्यद्यात् सोऽपि तुक्त्वाऽऽह, प्रत्याख्याम्यहमप्यतः । उपाश्रित द्वेषः। अथवा-निश्रितमाहारादिलिप्सा, उपाश्रितं शि-| भक्ष्यसि त्वं तयेत्यूचे, न नयामीति सोऽवदत् ॥ १२॥ देवताऽचिन्तयच्छ्राद्धा-मसावुपहसत्यदः। ध्यकुलाद्यपेक्का, तवर्जितो यःसोनिश्रितोपाश्रितः।रागद्वषव-1 जैनेन, आहारशिष्यकुमाद्यपेकाराहित्येन च मध्यस्थजावं गते, निशीथे स्वसृरूपणाऽऽ-न्यागादादाय लाभनम् ॥ १३ ॥ "साहम्मियाणं अहिगरणंसि उपमंसि तत्थ अणिस्सिो खादन्निषिकः पत्न्योचे, किमेतलिजालकैः ।। पस्सिओ अपक्लगाही" स्था० ग०।। देवता तं प्रहत्याथ, हम्गोलौ च व्यपातयत् ॥१४॥ मा नून्ममायशः श्राद्धाः, कायोत्सर्गेऽथ सा स्थिता । अणिस्सिओपस्सियं, सम्म ववहरमाणे समणे णिग्गंथे, देवता स्माह तां श्राद्धाऽ-प्युवाचैवं ममायशः ॥ १५ ॥ प्राणाए आराहए जवइ । साऽथानीयादधौ सद्यो, मारितैमस्य चकुषी । अनिशितैःसर्वाशंसारहितैरपाभितोऽजीकृतोऽनिधितोपाश्रित- एडकाकस्ततः ख्यातः, स श्रारा प्रत्ययादनत् ॥१६॥ स्तम् । अथवा-निश्रितश्च शिष्यत्वादिप्रतिपना, उपाश्रितश्च स लोकः समेति तं ष्टु-मेरकादं कुतूहलात् । पष वैयावृस्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ । अथवा-निधितं एकादं पुरमपि, तन्नाम्ना तदतूत् ततः ॥ १७ ॥ रागः, उपाश्रितश्च द्वेषस्तम् । अथवा-निश्रितश्चाहारादिलि- गजानपदतोत्पत्तिः, शैक्षस्यैवमनूत् पुनः। प्सा, उपाश्रितं च शिध्यप्रतीच्छुककुलाचपेक्षा, ते न स्तो पत्र गर्व दशार्णजस्य, हर्नु शकः समागतः ॥१८॥ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणि विहा गजेन्द्रारूढ एवाथ षिः प्राणियम् । ततो दशार्णकूट। ख्ये, तत्पदान्युत्थितान्यगे ॥ १७ ॥ देवानुभावात् ख्यातोऽथ, गजेन्द्रपद इत्यसैौ । तस्मिन् महागिरिभक्तं, प्रत्याख्याय दिवं ययौ ॥ २० ॥ सुहस्तियोऽन्येद्युर्जग्मुरुदिनीपुरीम सुभद्रा यानशालायां, विशालायां च ते स्थिताः ॥ २१ ॥ एकदा गुरुमध्ययनं पर्यवर्तयन्। सुनषादुतावन्तिसुकमाखो महर्किकः ॥ २२ ॥ पत्नीद्वाविशता सार्द्धं, सोचे समझे। [ जातजातिस्मृतिः क्षणात् ॥ २३ ॥ गत्वाऽयोचान्ति कुमाओसहं प्रभो ! । अभूवं नलिनीगुल्मे, देवः प्राच्यतमे भवे ॥ २४ ॥ कथं तत्यि सूर्य किं, यूयमभ्यागतास्ततः । गुरवोऽप्यन्य! तो वयमागमात् ॥ २५ ॥ तत्कथं जयते स्वमिन्नूयुस्ते मऊ ! संयमात् । सोऽवक् न संयमं कर्ते, चिरं शक्तोऽस्मि किं पुनः १ ॥ २६ ॥ ? तदर्थी व्रतमादाय, करिष्यामीङ्गिनीमृतिम् । अनोखं सोऽथाकृत स्वयम् ॥ २७ ॥ गुरुर्ददौ सोऽगात्, ततः कन्थारिकावने । तस्थौ प्रतिमया तत्र स्मशानेऽनशनी मुनिः ॥ २०॥ स्फुटत्पादन्येना-कृष्ट तशिवा एकतः सा शिवाऽखादत्, तदपत्यानि चान्यतः ॥ २६ ॥ प्रथमे प्रहरे जानू, ऊरुस्तम्भौ द्वितीयके । तृतीये जठरं तुर्ये, मृत्वा स्थानेऽजनीप्सिते ॥ ३० ॥ गन्धाभ्यपुष्पवर्षाणि तस्योपरि सुरा व्यधुः । जिगुः ॥ ३१ ॥ सुना सस्नुषा तत्र, वीक्ष्य तं कृतदुष्करम् । प्रवव्राज स्थितका तु, गुर्विणी तत्सुता ततः ॥ ३२ ॥ करदेवकुलं श्मशानेऽद्भुतमुच्छ्रितम् । ( ३३ ) अभिधानराजेन्धः । " तदिदानीं महाकालं जातं लोकपरिग्रहात् ॥ ३३ ॥ श्रार्यमहागिरीणाम निश्रितं तपः । आ० क० । आस्सिय प्रनिधित- बिना निधितः न निधितो कवि " १४० १६ सूत्र० स्थवि समय अणिस्मिर अशियाने श्र० । " अगिद्धे सद्दफासेसु श्रारंजेस अणिस्सिए " आरतेषु सानुष्ठानरूपेप्यनिश्रितोऽसम्बोधइत्यर्थः । , सूत्र० १ श्रु०६ श्र० । श्राचा०| कुलादिष्वप्रतिबद्धे, दश०१ श्र० इहपरलोकाssसाविप्रमुक्ते जाव जीवार अणिसिश्रो 66 1 - अनित पुं० नियेन निहन्यत इति निहतः । निहियोऽनिहतः भाषरिपुभिरिन्द्रियकपाय कर्मभिरनिहते, " श्रगिहे एगमप्पाणं संपेहार धुणे सिरीरं " श्राचा० १ ० ४ श्र०४ उ०] सर्वत्र ममत्वरहिते, सूत्र० १० २ श्र० २३० । धितो अनियनत्र अन्तरहिते, अष्ट अट 1 निश्वयेनाऽऽधिक्येन च आणि । ७ । । शितय-अनिहतक - वि० निरुपमायुकत्वात् उ युद्धे च भूम्यामपातित्वाद् धातमप्रापिते, स० । अनियरिङ अनितरिपु-पुं० महिलपुरवास्तव्यनागगृहपतेः सुलसानाम्म्यां जार्यायां जातेऽन्यतमे पुत्रे, तत्कथाऽन्तकृद्दशासु ३ वर्गे ४ अध्ययन सूचिता । तत्रैव प्रथमाध्ययनोक्ताऽयसकुमारस्यय भावनीया यथा द्वात्रिं तक एव दानम्, विंशतिवर्षाणि पर्यायः, चतुर्दशपूर्वाणि श्रुतम, शत्रुजये सिद्धिः, तत्त्वतस्त्त्रयं वसुदेवदेवकीसुतः । अन्त ३ वर्ग० ४ अ० । 66 । ३ श्रा प्रणित (प्रति०ि अनुपशान्ते प्र श्र० द्वा० । श्र० । त्रिदणिमनि, वृ० ३ उ० । अणिहुआ य संखाया "ता संज्ञापा गुर्वादिनाऽपि निठुरवको क्त्यादयः । पं० ० ४ द्वा०| प्रज्ञा० । ० । प्रशित (य) परिणाम- अनितपरिणाम वि० अनिभृतोऽनुपशमपरः परिणामो येषां ते अनुपशमपरपरिणामेषु, प्रश्न ०१ श्रश्र० वा० 3 द्वा० I हं नेव सयं पाणे अश्वापज्जा पा० । ध० ज० । अव्यभावनिश्रया रहिते प्रतिबन्धविप्रमुक्ते, दश० ए ०१ ० । कीर्त्या दिनिरपेक्के वैयावृत्त्यादौ प्रश्न० १ सम्ब० श्रलिङ्गे अवग्रहे, “ अणिस्सियमोगिरहद्द " निभितो लिङ्गप्रमितोऽभिधीयते यथा यूथिकामानामत्यन्तशीत स्निग्धादिरूपः प्राह स्पऽनुभूतस्तेनाऽनुमानेन लिन तं विषयमपरिच्छिन्दत् यदा ज्ञानं प्रवर्तते तदाऽनिधितमलिङ्गमवगृह्णातीत्यभिधीयते । स्था० ६ ठा० । अनिश्रितं नाम पुस्तकादिनिरपेक्षमेवावद्धाति च । अथवा एकवारं भुतं पुन यंदा दिनूय यति तदेव बनुं समर्थो नान्यदा । एवं विधाने किन्तु स्मरणनिरपेक्ष एव भवतीति । दशा० ४ श्र० । अतिपरिणाम निश्रारहिते, कस्याऽपि साहाय्यमवाञ्छति, उत्त० १० अ० अणिस्सियकर - अनिश्रितकर - त्रि० । रागद्वेषपरिहारतो यथाऽवस्थितव्यवहारकारिणि, व्य० ३ उ० । अस्सिप्प (ण) अनिषितात्मन् पुं०। अनिदाने, "अ रिस्सियप्पा अपडिबद्धा " श्राव० ६ श्र० । आणि स्त्रियवयणानिधितवचन त्रि० । रागादिना वाक्यकालुप्यवर्जिते, दशा० ४ ० । अभिविणया अनितरचना श्री निश्चितं फोधादीनाम, अथवा रागद्वेषाणां निधामुपगतम् । न निमितमनिश्रितम् । व्य० ३ उ० । मध्यस्य वचनतायाम्, स्था० ८ ठा०| रागाद्यकलुषवचनतायाम्, उत्त० १ श्र० । विहारि ( ण् ) - अनिश्रित व्यवहारिन् - पुं० । निश्री रागः, निश्रा संजाता श्रस्येति निश्रितः । न निश्रितोऽनिश्रितः । स चाऽसौ व्यवहारश्चाऽनिश्रितव्यवहारः, तत्करणशीला अनिश्रितव्यवहारिणः । श्ररागेण व्यवहारका - रिणि, व्य० १३० । 1 " अणि अनिह-० निहन्यत इति निहः। न निहोउनिहः। क्रोधादिभिरपीडिते तपः संयमसहने वा, निगूहित बलवीय्यै च । "अणि से पुढे श्रहियासए" सूत्र० १० २ ० १ उ० । परीसहोपसर्गे, निहन्यत इति निहः । न निहोऽनिहः । उपस गैरपराजिते, सूत्र० १० २ ० २ उ० । श्रणिए सहिए सुसंबुडे, धम्मही उपहासपीरिए " सूत्र० १५० २०२ ॐ० । निहन्यन्ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा माया । न विद्यते सा यस्याऽसावनिहः । मायाप्रपञ्चरहिते, सूत्र० १० ८ श्र० । दश० । “ असि सुविधा अणि चरेजा " सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । - Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) अणिहुतिदिय अनिधानराजेन्द्रः। अणुप्रोग अणिडातिंदिय-अनिततेन्धिय-त्रि० । अनुपशान्तरियेषु दे. ब्वए मासियाप संवेहणाए सिद्ध एवं खल्विति सुगमम् । श्रहेछु, ब० स०। प्रम ५ सम्ब० द्वा० । त०३ वर्ग० ४ ० । अणीपत्त-अनीतिपत्र- त्रिम विद्यते इतिगहरिकादिरूपा अणीसम-अनिमष्ट-त्रिकाहस्तप्रमाणावग्रहादस्फोटिते, पृ. येषु तान्यनीतीनि । भनीतीनि पत्राणि येषां ते तथा । ईतिवि-| प्रणीसाकड-अनिश्राकत-नासर्वगघसाधारणे चैत्ये, घ. रहितध्वदेषु, जं०१ वक्व०। २ अधि। अणीय-अनीक-नादस्त्यश्वरथपदातिवृषभनर्सकगाथकजन- अणीहड-अनित-त्रि० । अनिष्कासिते, पृ०१०। अहिको सैन्ये, औ०। निगते, अनास्मीकृते च । आचा०१०१०१०। अणीयस-अपीयस-पुं० । भदिनपुरवास्तव्यनागगृहपतेः सु- | अणीहारिम-अनिरिम-ज० । गिरिकन्दरादौ विधीयमाने पाससानाम्न्यां भार्यायां जातेऽन्यतमे पुत्रे, अन्तः । दोपगमनमरणे , कलेवरस्यानिहरणीयत्वात् तस्वम् । न० १३ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं भदिलपुरे | पाम गरे होत्या। वपओ । तस्स णं भदिलपुरस्स उत्तर अणु-अण-त्रि०। प्रमाणतः स्तोके, प्रम० ३ सम्ब० द्वा० । पुरच्चिमेणं दिसिभाए सिरिवणे णाम उज्जाणे होत्या। व पं० वा०म०द्विसूत्रसूक्ष्मे लघौ, विशे। आतुस्था लघीयसि, प्राचा०११०१०१० परमाणी, आव०४०। सो। जियसत्तू राया, तत्थ णं नदिलपुरे एयर नागे नाम अणुःपरमाणुर्निरशो निरवयवो निष्पदेशोऽप्रदेश इति । विशे। गाहावती होत्या अक्के जाव अपरिजूए तस्स एं णागस्स अनु-अव्यापश्चाचदार्थे, प्राचा०१ श्रु०५ १०५ उ०पश्चा. गाहाव तिस्स सुलसा णामं भारिया होत्था । सुकुमाला ज्जाते, त्रिणस्था० १ ठा० । अनुरूपे, उत्त०१२ अ समीपे, १० जाव सुरूवा, तस्स एं णागस्त गाहावतिस्स सुन्नसाए ३ उ०। अवधारणे, बृ०१०।। जारिगए अत्तए अणीयसे नाम कुमारे होत्या । मुकुमाले अणुअ-अणुक-त्रि० । तनुके, "अणुअसुकुमाललोमणिविं " जाव सुरूवे पंचधातिपरिक्खित्ते । तं जहा-खीरधाती जहा अणुकानां तनुकानामतिसूक्ष्माणां सुकुमालानां लोम्नां स्निग्धा दढपइमोजाव० [गिरिकंदरमवीणे व चंपगवरपायवे मुहं सु. विर्यत्र तत्तथा। जं०३ वकामिणचवाख्ये धान्यभेदे, इति है महाश्रयवृत्तिः । युगन्धर्याम, स्त्री० । ध०२ अधिक वृ०।। हेणं परवदृते । तते णं से अपीयसं कुमारं] सातिरेगा अ अणुअतंत-अनुवर्तमान-त्रि० । उत्तरदेशकासमागते, मि० हवासजायं अम्मा पियरो कलायरियाअो जाव भोगस चू०५०। मत्थे जाते यावि होत्था । तते णं ते अणीयसं कुमारं उ- अणुअल्लं-देशी-क्षणरहिते, निरवसरे च। दे० ना०१ वर्ग। म्मुक्कबालनावं जाणित्ता अम्मापियरो सरिसयाणं जाव | अणा -देशी-यष्टी, दे० ना०१ वर्ग। वत्तीसाय रायवरकसगाणं एगदिवसेणं पाणी गिराहाविति। अणुओ-देशी-चणके, दे० ना० १ वर्ग । ततेणं से नागे गाहावती अणीयस्स कुमारस्स इमे एया- | अण-अनुचीर्ण-त्रि० । भागते, “कायसंफासमणचिमार' रूवे पीइदाणं दलयति । तं जहा-बत्तीसं हिरणकोमीता कायः शरीरं तत्संस्पर्शमनुचीर्णाः कायसंगमागताः। प्राचा०२ जहा महब्बलस्स जाव उपि पासा फुझ विहरति । तेणं श्रु. ३चू०। अणुउद-अनूत-पुं०। अस्वकाले, "विसमं पवामिणो परिणकामेणं तेणं समएणं अरहा अरिटनमी जाव समोमढे सि मंति अणुसुदेति पुप्फफ" स्था०५ ग०३ उ० । रीवणे नजाणे अरहा जाब विहरति, परिसाणिग्मया । अणुप्रोश्य-अनुयोजिन-त्रि०। प्रवर्तिते . नं0। तते णं तस्म अणीयस्स कुमारस्स । तं जहा-गोयमा ! | अणुओग-अण(नु)योग-पुं० माणुसूत्रं महानर्थस्ततो महतोऽतहा णवरं सामाइयमाझ्याति चोहसपुबाई अहिमजति । र्थस्थाणुना सूत्रेण योगोऽणुयोगः । अनुयोजनमनुयोगः । अनुवीसं वासानि परियानो सेसं तहेव । जाव सत्तुजए पच्चए रूपो योगोऽनुयोगः। अनुकूलो वा योगोऽनुयोगः । श्री० । मासियाते सलेहणाते जाव सिकि एवं खलु जम्ब समणेणं व्याख्याने विधिप्रतिषेधाज्यामर्थप्ररूपणे, विशेषका मिजेना भिधेयेन सार्धमनुरूपे सम्बन्धे , स० ।जी० । स्था० । भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं । अनुप्रा० म०प्र० भाव० । यथा ( दढपश्म त्ति ) दृढप्रतिको राजप्रश्नकृते यथा पणित- (१) अनुयोगाधिकारे द्वारनामनिदर्शनम् । स्तथाऽयं वर्णनीयो यावत 'गिरिकंदरमल्लीणो व्व चंपगवरपाय- (२) निक्केपद्वारम्। घे सुहं सुहेणं परिवर, तएणं तमणीयसं कुमारं' इत्यादि सर्व- (३) सप्तविधानुयोगे नामस्थापनानुयोगौ। मज्यूह्य वदाव्यम् ; अभिमानमात्ररूपत्वात् । पुस्तकस्य सरि- (४) द्रव्यानुयोगः। सियाणमित्यादौ यावत्करणात् 'सरिसवाणं सरिसलावल- (५) द्रव्यानुयोगभेदस्वरूपनिरूपणम् । कवजोवणगुणावधेयाणं सरिसहिंतो कुलेहिता अणिपल्लियाण- (६) क्षेत्रानुयोगनिरूपणम् । मिति दृश्यम् । 'जहा-महव्वलस्स त्ति'भगवत्यभिडितस्य तथा (७) कालानुयोगप्ररूपणम् । तस्यापि दानं सर्व वाच्यम् । 'प्पि पासावरगप फुटमाणेहि (८) बचनाऽनुयोगकथनम् । मुझंगमयपदि भोगभोगाइं जुजमाणे विदरमसि''मजयप-| ) भावानुयोगस्य षमा प्रकाराणां प्रदर्शनमा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग अभिधानराजेन्द्रः। अणुप्रोग (१०) एषां चानुयोगविषयाणां द्रव्यादीनां परस्परं यस्य पो योगः संबन्धः स नामानुयोगः, नाम्ना सहानुरूपोऽनुकूलो यत्र समावेशो भजना वा तन्निरूपणम् । योगो नामानुयोग इति व्युत्पत्तेः । यथा-दीपस्य दीपमाम्ना (११) एकाधिकानां वक्तव्यता। सह, तपनस्य तपननाम्ना सह, ज्वलनस्य ज्वलननाम्ना सह (१२) अनुयोगशब्दार्थनिर्वचनम् । श्त्यादि । एवं स्थापनाया अनुयोगो व्याख्यानं स्थापनानुयोगः। (१३) अनुयोगविधिः। अथवा अनुयोगं कुर्वन्नाचार्यादिर्यत्र काष्ठाद। स्थाप्यते तत्स्था(१४) प्रवृत्तिद्वारम् । पनानुयोगः । यावदिहानुयोगकर्तुराचार्यादेस्तदाकारवति से(१५) गुरुशिष्ययोश्चतुर्भङ्गीनिरूपणम् । प्यकर्मादौ योग्याऽनुरूपा स्थापना क्रियते, स स्थापनानुयोगः । (१६) केनानुयोगः कर्तव्यः । स्थापनाया अनुरूपोऽनुकूलो योगः संबन्धः स्थापनानुयोग इति (१७) कस्य शास्त्रस्यानुयोगः कर्तव्यः। व्युत्पत्तेः । इति निकेपद्वारम् । विशे० । (१८) पञ्चशानेषु श्रुतज्ञानस्यानुयोगः । (४) अथ द्रव्यानुयोगमाह(१६) तद्वारे ऽनुयोगलक्षणम् । सामित्त करण अहिगरण, एहिँ एगत्ते य बहुत्ते य । (२०) यथोक्नगुणयुक्तस्य कोई इत्यनेन संबन्धेन तदर्हद्वारम्।। नाम ग्वणा मोत्तुं, इति दवादीण बन्भेया ॥ (२१) कथाधिकारः। (२२) चरणकरणाद्यनुयोगचातुर्विध्यनिरूपणम् । स्वामित्वं संबन्धः, करणं साधकतमम्, अधिकृतम, अधिक(२३) अनुयोगानां पृथक्त्वमार्यरक्षितात् । रणमाधारः, पतैःप्रत्येकमेकत्वेन बहुत्वेन च पञ्चानां द्रव्यादी. (१) अथाऽनुयोगाधिकारः, स चैतैरिरनुगन्तव्यः नामनुयोगो वक्तव्य इति । एवं नामस्थापना मुक्त्वा द्रव्यादी. नामनुयोगस्य प्रत्येक षरभेदा भवन्ति । वृ०१ उ०। निक्खेवेगमणिरुत्त-विहि पवित्तीय केण वा कस्स। तथाहितदारयलक्खण-तदरिह परिसा य सुत्तत्यो॥ दबस्स जोडणुओगो, दव्वे दव्वेण दब्बहेनस्स । अनुयोगस्य निकेपो नामादिन्यासो वक्तव्यः , तदनन्तरं तस्यैकार्थिकानि, तदनु निरुक्तं वक्तव्यम् । ततः को विधिरनुयोगे दम्बस्स पज्जवेण व, जोगो दव्वेण वा जोगो । कर्तव्य इति विधिर्वक्तव्यः। तथा प्रवृत्तिः प्रसवोऽनुयोगस्य बहुवयाणओ वि एवं, नेओ जो वा कहेव अणुवउत्तो । वक्तव्यः। तदनन्तरं केनानुयोगः कर्तव्य इति वक्तव्यम् । ततः परं दवाणुओग एसो, एवं खेत्ताश्याएं पि॥ कस्य शास्त्रस्य कर्तव्य इति । तदनन्तरं तस्यानुयोगस्य द्वारा- द्रव्यस्य योगो व्याख्यानमेष व्यानुयोग इति द्वितीयगाएयुक्रमादीनि वक्तव्यानि । तत्र तेषामेव भेदः, ततः परं सूत्रस्य | थायां संबन्धः । तथा व्ये निषद्यादावधिकरणभूते स्थितलकणम् , तदनन्तरं सूत्रस्याही योग्याः , ततः परं परिषत् , स्यानुयोगो द्रव्यानुयोगः । द्रव्येण वा क्षीरपाषाणशकलाततः सूत्रार्थः । एष द्वारगाथासंकेपार्थः । व्यासार्थस्तु प्रति द्वारं दिना करणभूतेनानुयोगो द्रव्यानुयोगः । द्रव्यहेतोर्वा शिष्यवक्ष्यते । बृ० १ उ० । स्था। अनु०। आ० म०प्र० । श्रा० चू व्यप्रतिबोधनादिनिमित्तमनुयोगो द्रव्यानुयोगः । अथवा (२)तत्र प्रथमतो निक्केपद्वारमाह जन्यस्य वस्त्रादेः कुसुम्भरागादिना पर्यायेण सह य इह योनिक्लेवो नासो त्ति य, एगई सो उ कस्स निक्खयो। गोऽनुरूपो योगः संबन्धः,स द्रव्यानुयोगः । अथवा द्रव्येणाअणुओगस्स जगवओ, तस्स इमे वानिया नेया । म्लीकादिना कृत्वा यस्यैव वस्त्रादेस्तेनैव कुसुम्भरागादिना निकेपो न्यास इत्येकार्थः । पर ाह -स निकेपः कस्य कर्त पर्यायेण सह योगोऽनुरूपो योगः संबन्धः स द्रव्यानुयोगः । व्यः ? । सूरिराह-अनुयोगस्य भगवतः, तस्य च निवेपस्य इमे एवं बहुवचनताऽपि शेयो द्रव्यानुयोगः। तद्यथा-द्रव्याणां द्रवक्ष्यमाणा वर्णिता भेदाः । बृ०१० । व्येषु द्रव्यैर्वाऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, तथा द्रव्याणां हेतोरनुअथानुयोगस्यैव संभवन्तं नामादिनिकेपमाह यांगो व्यानुयोगः, द्रव्याणां पर्यायैः सह व्यैर्वा करणभूतैरनाम ग्वणा दविए, खेत्ते काने यवयणनावे य । नुरूपो योगो द्रव्यानुयोग इति ॥ यो वाऽनुपयुक्तः कथयत्यनु पयुक्तोऽनुयोगं करोति, स च्यानुयोगः। एवं क्षेत्रादीनामपि एसो अणुओगस्स उ, निक्खेवो होइ सत्तविहो ॥३८ए!! क्षेत्रकालवचनभावेष्वपि यथासंभवमित्थमेवायोज्य इत्यर्थः । नामानुयोगः, स्थापनानुयोगः, व्यानुयोगः, केत्रानुयोगः, तद्यथा-क्षेत्रस्य क्षेत्रेण क्षेत्रे क्षेत्राणां क्षेत्र क्षेत्रेष्वनुयोगःकालानुयोगः , वचनानुयोगः , भावानुयोगः । एषोऽनुयोगस्य त्रानुयोगः, तथा क्षेत्रस्य क्षेत्राणां वा हेतोरनुयोगः क्षेत्रानुशासप्तविधो निक्केपः। शति नियुत्तिगाथार्थः। पनाय देवेन्द्रचक्रवादीनामनुयोगो व्याख्यान यत्कियत इ(३) विस्तरार्थ स्वभिधित्सुनाष्यकारो नामस्थापनानुयोग- त्यर्थः । तथा क्षेत्रस्य क्षेत्राणां वा क्षेत्रेण क्षेत्रैर्वा करणभूतैः स्वरूपं तावदाह पर्यायेण पर्यायैर्वा सहानुरूपोऽनुकूलो योगःक्षेत्रानुयोगः। एवं नामस्स जोऽणुोगो, अहवा जस्साभिहाणमणुोगो । कालवचनभावविषयेऽप्येकवचनबहुवचनाभ्यां सुधिया यथानामेण व जो जोओ, जोगो नामाणुओगो सो॥ संभवं वाच्यम्, नवरं, कालादिष्वभिलापः कार्य इति द्रव्यठवणाए जोऽणोगो-ऽणुअोग इति वा नविज्जए जं च । स्यानुयोगो व्याख्यानं द्रव्यानुयोग इत्यादाभिहित विशेष जावह जस्स ग्वणा, जोग इवणाणुोगो सो।। (५) तत्र कतिभदं तद्रव्यं किस्वरूपश्च तस्यानुयोग इत्याशङ्कयाहनाम्न इन्वादेर्योऽनुयोगो व्याख्यानमसौ नामानुयोगः । अथवा यस्य वस्तुनोऽनुयोग इति नाम क्रियते तन्नाममात्रेणानुयोगो दव्यस्त उ अणोगो, जीवदव्वस्स वा अजीवदम्बस्स। नामानुयोग इत्युच्यते। यदि वा नाम्ना सह यः कश्चिद्योगोऽनुरू एक्ककम्मि य भेया, हवंति दवाइया नउरो । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) अणुप्रोग अभिधानराजेन्द्रः । अणुओग द्रव्यस्यानुयोगो द्विधा-जीवद्रव्यस्य वा अजीवद्रव्यस्य वा, अक्वेहि तु दव्धेहि, अहिगरणे बहुमु कप्पेमु॥ एकैकस्मिन् योगे द्रव्यादिकाश्चत्वारो भेदा भवन्ति । किमुक्तं वर्तिनाम खटिका, तत्र या कृता शलाका तया, अक्केण वा, कभवति ?-जीवद्रव्यानुयोगोऽजीवद्रव्यानुयोगो वा प्रत्येक राङ्गल्या षा, आदिशब्दाप्रसेपकादिनावा यः क्रियतेनुयोगास द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च भवति।। अन्येणानुयोगः। द्रव्यैरनुयोगो यद बहनिरकैः क्रियतेऽनुयोगः। तव जीवद्रव्यानुयोग द्रव्यादित श्राह अधिकरणे एकस्मिन् द्रव्ये ऽनुयोगो यदा एकस्मिन् कल्पे स्थिदवेणेकं खेते, संखातीतप्पदेसमोगाढं । तोऽनुयोगं करोति, यदा तु बहुषु कल्पेषु स्थितस्तदा व्येषु काले अनादिनिहणं, नावे नाणाइया ऽयंता ॥ । अनुयोगः । सक्तो व्यानुयोगः षम्नेदः। वृ०१ उ०। विशे० । अव्यतो जीवद्रव्यमेक, क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढं, काल-| स्था0 1 ( 'दशविहे दवियाणुओगे' ति 'दब्वानुओग' शब्दे तोऽनाद्यनिधनं, भावतो ज्ञानादिकाः पर्याया अनन्ताः । तथा व्याख्यासहितं सुत्रम) अनन्ता शानपर्याया अनन्ताश्चारित्रपर्याय अनन्ता दर्शनप (६) सम्पति केत्रस्य केत्राणां वाऽनुयोगमाहर्याया अनन्ता अगुरुलघुपर्यायाः । पएणति-जंबूदीवे, खेत्तस्समाइ होइ गोगो । अधुना द्रव्यादिभिरजीवद्रव्यस्यानुयोगमाह खेत्ताणं माणुरोगो, दीवसमुद्दाण पप्पती ॥ एमेव अजीवस्स वि, परमाणू दवमेगदव्वं तु । केनस्याप्नुयोगः क्षेत्रानुयोग एवमादिको भवति । क इत्याह ?खेत्ते एगपएमे, ओगाढो सो नवे नियमा॥ [पएणतिजम्बूदोवे त्ति ] जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरित्यर्थः। जम्बूद्वीपनसमया ठिति असंखा, ओसप्पिणिो हवंति कालम्मि || कणकवेत्रव्याख्यानरूपत्वात्तस्याः। बहूनां तु केत्राणामनुयोगो द्वीपसागर प्राप्तिर्भवति । बहूनां द्वीपसमुषकेत्राणां तत्र व्या-- वामादि जावऽयंता, एवं दुपदेसमादी वि ॥ ख्यानादिति । तदेवं केत्रस्य केत्राणामनुयोग इत्युक्तम् । पवमेव अनेनैव प्रकारेण,अजीवद्रव्यस्याप्यनुयोगो वक्तव्यः, अथ केत्रेण कैौरनुयोग इत्येतदाहतद्यथा-परमाणुव्यत एक अन्यम् , केत्रतः एकप्रदेशावगाढम जंबूदीवपमाणं, पुढविजिवाणं तु पत्थयं का । कालतो जघन्यतः स्थितिः समयादिरेको छौ.त्रयो वा । समयानुकर्षतोऽसंख्याबगाढम् । असंख्येया उत्सर्पियोऽवसर्पि एनमसंखिज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेज्जा ॥ एयश्च भवन्ति । नावतो अनन्तम वर्णादिपर्यायाः। तद्यथा-अनन्ता खेत्तेहिं बहुदीवे, पुढविजिवाणं तु पत्थयं का । वर्णपर्यवाः, अनन्ता गन्धपर्यवाः, यावदनन्ताःस्पर्शपर्यवा इति । एवमसंखिज्जमाणा, हवंति लोगा असंखेज्जा ।। एवं हिप्रदेशादेरपि । द्विप्रदेशकस्य यावदनन्तप्रदेशिकस्योपयु- इह जम्बूद्वीपप्रमाणं प्रस्थक पल्यं कृत्वा पुनस्तद्भरणविरेचनकज्य वक्तव्यम् । तद्यथा-द्विप्रदेशकः स्कन्धो ऽव्यतः एकं व्यं, मेण यदा सर्वेऽपि सूदमबादरपृथ्वीकायिका जीवामीयन्ते तदा केत्रतः एकप्रदेशावगाढः, द्विप्रदेशावगाढो वा । कालतो ज असंख्येयलोकाकाशप्रदेशसंख्योपेता जम्बृद्धीपप्रमाणाः प्रस्था धन्यतः स्थितिः, समयादिरुत्कर्षत असंख्या उत्सपिएयोऽ भवन्तीत्येष केत्रण जम्बूद्वीपरूयेणानुयोगोऽभिधीयत इति ।केवसार्पण्य एव इत्यादि । त्रैस्त्वनुयोगोऽयं द्रपन्यः। तद्यथा-बहुद्वीपप्रस्थकं कृत्वाऽजीणं त. अथ व्याणामनुयोग इत्येतद् व्याचिख्यासुराह द्भरणविरेचनक्रमेण समस्तपथ्वीकायिकजीवा मीयमाना असदवाणं अणुअोगो, जीवमजीवाण पजवा नेया। कुख्ययनोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणा बहुद्वीपमानप्रस्था जय न्ति । एतदसंख्ययकं पूर्वस्माल्लघुतरं अष्टव्यम् । प्रस्थस्यह बृतत्य वि य मग्गणाओ, णेगा सहाणपठाणे । हत्तरत्वादेष बहुद्वीपलकणैः केत्ररनुयोग इति । द्रव्याणामनुयोगो द्विधा-जीवनव्याणामजीवाव्याणां च । किं अथ के केत्रेषु चानुयोगमाहरूपोऽसावित्याह ?-पर्यायाः प्ररूप्यमाणा केयाः । तथाहि खेत्तम्मिन अणुोगो, तिरियं सोगम्मि जम्मि वा खेत्ते । कतिविधा भदन्त ! पर्यायाः प्रसप्ताः ? । गौतम ! विविधाः । अमाइयदीवेमुं, अचवीसाइ खत्तेसुं ॥ तद्यथा-जीवव्याणामजीवऽव्याणांच। तत्राप्यनेकाः स्वस्थाने च परस्थाने च मार्गणाः । ताश्चैवम्-नैरयिकाणामसुर के पुनरयमनुयोगः, तथा तिर्यग्नोकोत्रे योऽनुयोगः प्रवर्तते कुमाराणां च कति पर्यायाः प्राप्ताः ?। गौतम ! अनन्ताः। अथ यत्र वा ग्रामनगरादौ व्याख्यानसभादौ वा क्षेत्रे स्थितोऽनुयोगकेनार्थेनेदमुच्यते ? गौतम ! नैराय कोऽसुरकुमारस्यव्यार्थतया कर्ताऽनुयोगं करोत्यष केत्रेनुयोगः केत्राऽनुयोग उच्यते ।के।तुल्यः, प्रत्येकमेकाव्यत्वात, प्रदेशार्थतयाऽपि तुझ्यः, प्रत्येक ध्वनुयोगः क श्त्याह-योऽतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्तिकंत्रेषु वर्तते, सोकाकाशप्रदेशत्वात्। स्थित्या चतु:स्थानपतितः, भावतः बट सार्द्धषविंशतिजनपदरूपेषु वा आर्यकेत्रेष्विति । उक्तः परिधः स्थानपतितः, ततो भवन्ति नरयिकाणामसुरकुमाराणां प्रत्येक क्षेत्रानुयोगः । पर्याया अनन्ताः। एवमजीवाव्याणां पर्याया अपि, एवं स्व. (७) अधुना कालस्य कालानां चानुयोगमाहस्थाने परस्थान च मार्गणा । ('परमाणुगोगाणं ते!' इत्या कालस्स समयरूवण, कालाण तदाऽजाव सबका। दि पजाव' शब्देऽभिधास्यते) ततो भवन्ति द्वयानामपि प्रत्ये- कालेणनिलऽवहारो, कालेहिँ न सेसकायाणं ॥ कमनन्ताः पर्यायाः। एवमनेकधा जीवद्रव्याणामजीवद्रव्याणां कालस्यानुयोगः, क इत्याह ?-(समयरूयण त्ति) उत्पलपत्रशचाऽनुयोगः , सूत्रे तत्र तत्र प्रदेशेऽभिहितो नायनीयस्तदेवं तनेदपशाटिकापाटनादिदृष्टान्तैः समयस्य प्ररूपणेत्यर्थः । का. व्याणां चेति स्वामित्वं गतम् । लानां स्वनुयोगः-(तदार जाव सम्बद्ध त्ति) समयमादौ कृत्या इदानी करणे एकत्वबहुत्वान्यामनुयोगमाह यावत् सर्वाद्धायाः प्ररूपणेत्यर्थः। कालेणानुयोगोऽनिझापहारः। बतीए अक्खेए ब, करंगुलादीण वा वि दम्वेण । | इदम जयति-बादरपर्याप्तवायुकायिका वैक्रियशरीरे वर्तमा Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३४३) अणुओग अन्निधानराजेन्धः। अणुओग ना अर्धपल्यापास्यासंख्येयभागेनापन्हियन्त इत्येवं प्ररूपणा, 'तिविहं तिविहेणमिति' संग्रहमुक्त्वा पुनर्मणेणमित्यादिना तिवि स कासेनानुयोगति कोट्याचार्यटोकायां विवृतम । अन्यत्र स्व. हेण त्ति विवृतमिति क्रमनिन्नम्, क्रमेण हि तिविहमित्येतन करो. नुयोगद्वारादिषु वैक्रियशरीरिणो वायवः केवपल्योपमासंख्येय. मीत्यादिनाविवृत्य ततस्त्रिविधेनेति विवरणीयं भवतीति । अस्य भागप्रदेशपरिमाणा दृश्यन्ते । तत्त्वं तु केवझिनो विदन्ति। शेषा- च क्रमभिन्नस्यानुयोगोऽयम, यथा-क्रमाविवरणे हि यथासंख्य जां तु पृथिव्यादिकायानां यथासंनवं कालरनुयोगः। तद्यथा- दोषः स्यादिति तत्परिहारार्थ क्रमो भेदः। तथाहि न करोमि मन"पजत्तवायरानल-असंखया होति प्रावलियवम्ग ति"। सा न कारयामि वाचा कुर्वन्तं नानुजानामि, कायेनेति प्रसज्यते, प्रावलिकायां यावन्तः समयास्तेषां वर्गः क्रियते-तथाविधेषु अनिष्टं चैतत् ,प्रत्येकपक्कस्यैवेष्टत्वात्। तथाहि-मनःप्रभृतिभिन कचासंख्यातेषु वर्गेषु यावन्तः समयास्तत्प्रमाणाः बादरपर्याप्ततेज- रोमि, तैरेव न कारयामि, तैरेव नानुजानामीति। तथा कालतो स्कायिका भवन्ति, तथा प्रत्युत्पन्नत्रसकायिका असंख्येयाभिरु- नेदोऽतितादिनिर्देश प्राप्ते वर्तमानादिनिर्देशः । यथा-जम्बूद्वीसर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते । एवं पृथिव्यादिष्वपि यथासं- पप्रज्ञप्त्यादिषु ऋषभस्वामिनमाश्रित्य 'सक्के दविंदे देवराया भवं वाच्य मिति। वंदानमंसात्ति' सूत्रे । तदनुयोगश्चायं वर्तमाननिर्देशः, त्रिअथ काले कालेषु चानुयोगमाह कालनाविष्वपि तीर्थकरेवेतन्यायप्रदर्शनार्थ इति । इदं च कालम्मि वीयपोरिसि, समासु तिसु दोमु वा वि कालेसु । दोषादिसूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीय, गम्भीरत्वादस्येति वागप्रथमपारुष्यां किल सूत्रमध्येतव्यम, द्वितीयौरुष्यां तु तस्यानु- नुयोगतस्त्वर्थानुयोगः प्रवर्तत इति । स्था० १० ग०। योगः प्रवर्तते, अत इह कालस्य प्राधान्येन विवक्वणात्काले [ए] सम्प्रति भावानुयोगं षट्प्रकारमाहहितीयपौरुषीलकणेऽनुयोगः कालानुयोग इत्युच्यते । तथाऽ- जावेण संगहाई-ण ऽनयरेणं दुगाइजावेहिं । वसर्पिपयां सुषमाषमादुःषमसुषमापु:षमारूपासु तिसृषु जावे खओवसमिए, जावेसु उ नत्यि अणुओगो ॥ (समासुत्ति) त्रिवरकेषु अनुयोगः प्रवर्तते नान्यत्र । उत्सर्पिण्यां अहवा आयाराइसु, भावेसु वि एस होइ अणुओगो । तु दुषमसुषमासुषमदुम्षमारूपयोद्धयोः समययाईयोरेकयोरनुयोगःप्रवर्तते नान्यत्र । अयं च कालेष्वनुयोगः कालानुयोगी- सामित्तं आसज व, परिणाममुं बहुबिहेमुं वा ।। ऽभिधीयते । तदेवं जणितः पद्धिः कालानुयोगः। संग्रहादीनां पञ्चानामध्यवसायानामन्यतरेण चित्ताध्यवसा. () संप्रति वचनस्य वचनानां चाऽनुयोगमाह येन योऽनुयोगः क्रियते स भावनानुयोगः । ते चामी पञ्चानिवयणस्सेगवयाई, वयणाणं सोबसएहं तु । प्रायाः । यदाह स्थानानेजनक भवत्येवंनतं वा दिव- "पंचहि ठाणेहिं सुयं वापज्जा । तं जहा-संगहट्टयाए नवग्गचनमोहशं वा बहुवचनमवस्वरूप एकवचनाद्यन्यतरवचनस्य हघ्याए निज्जरट्ठयाए सुयपज्जवजापणं अव्वोच्कृितीप"॥ योऽनुयोगः, स च वचनस्यानुयोग उच्यते । वचनानां त्वनुयोगः अयमर्थः-कथं नु नामैते शिष्याः सूत्रार्थसंग्रहकाः संपत्स्यषोमशवचनानुयोगः[ षोमशवचनानि 'वयण' शब्दे वक्ष्यन्ते ] न्ते?, तथा कथं नु नाम गीतार्थीनूत्वाऽमी वस्त्राद्युत्पादनेन गव बनानामनुयोगः-प्रथमैकवचनादीनामेकविंशतिवचनानां व्या चस्योपग्रहकरा नविष्यन्ति?, ममाप्येतां वाचयतः कर्मनिर्जरा ख्येति वचनानामित्युक्तम् । भविष्यति?,तथा श्रुतपर्यवजातं श्रुतपर्यायराशिर्ममाऽपि वृद्धिं याअथ वचनेन वचनैर्वचनेऽनुयोग इत्येतदाह स्यति?, श्रुतस्य वाऽव्यवचित्तिनविष्यतीत्येवं पञ्चभिरभिप्रायः क्यणेणायरियाई, एकेणुत्तो बहूहि वयणेहिं । श्रुतं सूत्रार्थतो वाचयेदिति । एषामेव संग्रहादिभावानां मध्याद् वयणे खोवसमिए, क्यणे पुण नत्यि अणुअोगो । द्विव्यादिभिर्भावैः सर्वाऽनुयोगं कुर्वतो भावैरनुयोगः । कार्यावचनेनानुयोगो यथा-कश्चिदाचार्यादिः साध्वादिना सकृदेके पशमिके भाव स्थितस्य व्याख्यां कुर्वतो भावानुयोगः । नावेषु नापि वचनेनान्यर्थितोऽनुयोगं करोति।वचनैस्त्वनुयोगो-यदास पुनर्नास्त्यनुयोगः, कायोपशमिकत्वेन तस्यैकत्वात । अथवा एपवासकृद् बहुभिर्वचनैरभ्यर्थितस्तं करोति । कायोपशमिकेव कोऽपिकायोपशमिको जाव आचारादिशास्त्रलकणविषयभेदाचने स्थितस्यानुयोगो वचनानुयोगः। वचनेषु पुनर्नास्त्यनुयोगः, द्भिद्यते, ततश्च आचारादिशास्त्रविषय नेदभिम्नेषु कायोपशमिवचनस्य क्षायोपशमिकत्वेनैकत्वासनवात् । अन्ये तु मन्यन्ते-च्य- कभावेषु श्रप्येषु जवत्यनुयोगो न कश्चिद्विरोधः। वा इत्यथवा क्तिविबक्कया तेष्वेव कायोपशमिकेषु बहुषु वचनेष्वनुयोग इत्य- | स्वामित्वमासाद्यानुयोगकर्तुःस्वामिनो बहन् प्रतीत्य कायोपशप्यविरुद्धमेवेति । तदेवं पञ्चविधः षट्विधो वा निर्दिष्टो वचनानु मिकपरिणामेषु बहुष्वनुयोगप्रवृत्ते वेष्वनुयोगो म विहन्यते। योगः । वृ०।१३० श्त्युक्तः निधो भावानुयोग इति । शुरुवागनुयोगः [१०] एषां चाऽनुयोगविषयाणां जन्यादीनां परस्परं यस्य दमावहे सुझावायाणुजोगे पलत्ते । तं जहा-चंकारे में यत्र समावेशो भजना वा तदेवाहकारे पिंकारे सेयंकारे सायंकारे एगत्ते बहुत्ते संजूहे सं- दव्वे नियमा भावो, न विणा ते यावि खेत्तकाहिं । कामिए भिन्ने । खत्ते तिम वि भयणा, कालो जयणा तीसुं पि ।। शका अनपेक्तिवाक्यार्था,या वाक् वचनं, सूत्रमित्यर्थः,तस्या अ- द्रव्ये तावनियमाद् भावः पर्यायोऽस्ति, पर्यायविरहितस्य द्रव्य. नयोगो विचार: शुष्वागनुयोगः । सूत्रे चाऽघुम्बद्भावःप्राकृतत्वा- स्य कापि कदाचिदप्यभावात्। तौ चापि द्रव्यत्नावौ केत्रकालाभ्यां त, तत्र चकारादिकायाः शुक्ष्वाचो योऽनुयोगःसचकारादिरेवा विना न संभवतः । व्यनावयोहि नियमवान् सहनाबो दव्यपदेश्यः। (तत्र चकारादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने वच्यते) (भि- र्शित एव, व्यं चावश्यक क्वचिकेत्रेऽवगाढमन्यतरस्थितिमदेनमिति) क्रमकालभेदादिनिर्भिन्नं विसदृशम् । तदनुयोगो यथा-1 वनवति, अतः सिद्धमिध्यभावावपि केत्रकालाभ्यां विना Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग अनिधानराजेन्दः । अणुप्रोग काऽपि न भवतः । के तु त्रयाणामपि व्यकामनावानां | योग इत्यर्थः । अथवा-योऽनुरूपोऽनुकूलो वा घटमानः संवष्यभजना विकल्पना , काऽपि तत्र ते प्राप्यन्ते काऽपि नेत्य- मामो व्यापारःप्रतिपादनलकणः सत्रस्य निजार्थविषयेऽयमनुर्थः लोककेत्र त्रयाणामपि भावात् , भलोककेनेऽभावादिति । योगः। अथवा-यद्यस्मादर्थतोऽर्थात् सकाशादणु सूक्ष्म लघु सूत्रआह-अलोककेत्रेयाकाशलक्षणं प्रव्यमस्ति, वर्तनादिरूपस्तु काभ्यामित्याह ।स्तोकंपश्चाद्भावाभ्यामेकस्यापि सूत्रस्यानन्तोऽर्थ कालोऽगुरुलघवधानन्ताः पर्यायाः सन्त्येव, तत्कथं तत्र ध्य. इत्यर्थात्स्तोकत्वम् । तथा प्रथममुत्पादब्ययनौयसवणं तीर्थककालजावानामभावः? सत्यम् , किन्त्वाकाशनकणं द्रव्यं यत त. रोक्तमर्थ चेतसि व्यवस्थाप्य पश्चादेव सूत्रं रचयन्ति गणधराः त्रोच्यते। तदयुक्तम,तस्य क्षेत्रग्रहणेनैव गृहीतत्वात,कालस्यापी- इत्येवमर्थात्पश्चाद्भावाच सूत्रमएवेति भावः । तस्मात्तस्याणाः हसमयादिरूपस्य चिन्तयितुं प्रस्तुतत्वात,तस्य चसमयक्षेत्राद- सूत्रस्य यः स्वकीयस्याऽभिधेये योगो व्यापारस्तेन चाऽशुना सून्यत्रानावावर्तनादिरूपस्य स्वत्राविवक्षितग्रहणेनैव तत्र तस्य त्रेण सह यः सबन्धो योगोऽसावनुयोग इति । विशे० । गृहीतत्वाचा पर्यायाश्चेह धर्माधर्मपुशलजीवास्तिकायद्रव्यस तत्र सामान्येन प्रागुक्तमपि विशेषोपदर्शनार्थमाहम्बन्धिनो विवक्तिताः,तेखालोके नसन्ति। एवमाकाशसम्बन्धि. अण्णा योगोऽणुयोगो, अणु पच्छाभावो यथोवे य । नस्त्वगुरुनघुपर्यायाः केत्रग्रहणेनैव गृहीतत्वाह विवक्वितारस्पतो सोकत्रयाणामपि द्रव्यकामभावामामनावः । (कामो जय जम्हा पच्छाऽभिहियं, सुत्तं थोवं च तेणाणु ॥ णातीसुवित्ति) द्रव्यक्षेत्रभावेषु त्रिवपि कालो भजनया शह अणुयोग इति वा शब्दसंस्कारः, तत्र अनुना पश्चादूनूतेविकल्पनया नवति, समयकेशन्तर्वर्तिषु तेषु तस्य भावात, न योगोऽनुयोगः, अथवा अणुना स्तोकेन योगोऽणुयोगः । ताहिस्त्वभावादिति । एवं च स्थितानाममीषां द्रव्यादीनां तथा चाह-अणु शति पश्चाद्भावे,स्तोकेच । यस्मात्पश्चादभिहितं यथासंभवमनुयोगः प्रवर्तत इति । कृतं सूत्र स्तोकं च, तेन अणु' इति भएयते । अर्थः पुनरननुः, अपरमपि व्यादिगतं किञ्चित् स्वरूपं प्रसङ्गतः प्राह पूर्वमुक्तत्वात, बादरश्च, बहुत्वात्। एवमाचार्येणोक्ते शिष्यः प्राहआहारो आहेयं, च होइ दव्वं तहेव जावो य । पुव्वं सुत्तं पच्छा-य पगासो लोश्या वि इच्छति । खेत्तं पुण आहारो, कालो नियमान आहेओ ॥ पेलासरिसे सुत्ते, अत्थपया इंति बहुया वि।। द्रव्यमाधारोभवति पर्यायाणाम, आधेयं च भवति केत्र तथा ननु पूर्व सूत्रं पश्चात्प्रकाशोऽर्थः, तान् तान् भावान् प्रकाशयनावश्वाधारो जवति, कालस्य कालवर्णादीनां समयादिस्थि तीति प्रकाश इति व्युत्पत्तेः।सूत्राभावे तुस कस्य स्यात् ।। श्रतित्वादिति प्राधेयश्च जवति व्य; केत्रमाकाशं पुनः सर्वेषामपि पिच-लौकिका अप्येवमेवेच्छन्ति । तथा चोक्तं तैरेव- " पूर्व धर्माधर्मपुमलजीवकालव्याणामगुरुबघुपर्यायाणां घाऽऽधार सूत्रं ततो वृत्ति-वृत्तरपि च वार्तिकम् । सूत्रवार्तिकयोर्मध्ये,ततो एष न त्वाधेयम, सर्वस्यापि वस्तुनस्तत्रैवाषगाढत्वात, तस्यच भाष्यं प्रवर्तते"॥१॥ ततो यद्वदथ यूयं-पूर्वमर्थः पश्चात् सूत्रमिति स्वप्रतिष्ठितत्वेनान्यत्राऽऽधेयत्वायोगादिति । (कालो नियमार तत्र घटां प्राश्चति । यदपि च बूथ-सूत्रमणु अर्थों बादर इति।तआहेो त्ति) कालो नियमादाधेय एव भवति, नत्वाधारः, तस्य दपि न सम्यक । यत एकस्यां पेटायां बहूनि वस्त्राणि सन्ति , कव्यपर्यायववस्थितत्वात् , तत्र चान्यस्यास्थितत्वादिति । तदेवं तत्र पेटाया एव बादरत्वं युज्यते,तरशाद बदनि वस्त्राणि मान्ति व्याख्यातो नामादिभेदतः सप्तविधोऽप्यनुयोगः। विशे। ('व- स्म । एवमत्रापि पेटासदृशे पेटास्थानीये सूत्रे बहन्यर्थपदानि वछगगोणीत्यादि'गायानिर्यान्यनुयोगाऽननुयोगसाधारणान्यदा- र्तन्ते , तत्र सूत्रमेव बाबरीनवितुमर्हति नार्थ इति । हरणानिदत्तानि तानि अत्रैव भागे २८५ पृष्ठे 'भणणुओग' शब्दे न च महत्वमेकान्तेनार्थस्य; कस्मादित्याहस्माभिर्दर्शितानि) इकं वा अत्थपयं, सुत्ता बहुगा वि संपयंसंति । [११] संप्रत्येकार्थिकानि वक्तव्यानि-तानि द्विधा सूत्रस्याऽर्थस्य च । (तत्र सूत्रस्य 'सुय' शब्ने वक्ष्यन्ते) उक्खित्तनाश्मासु, अयमवि तम्हा अणेगंतो।। साम्प्रतमथकार्थिकान्याह एकमर्थपदं, बहुनि सूत्राणि संप्रदर्शयन्ति । यथा-उरिकप्तकाते अणुयोगो य नियोगो, जास विभासा य बत्तियं चेव । अनुकम्पा कर्तव्यत्यर्थे बहुन्निःसर्वर्णितः,श्रादिशब्दात संघटा. विषु कातेषु न बलहेतोराहारयितव्यमित्यादिपरिग्रहः । तस्माएए अणुओगस्स उ, नामा एगहिया पंच। दयमनेकान्तः यदर्थो महानिति । मनुयोगो,नियोगो, जाषा, विभाषा, वार्तिक च,एतानि पञ्चानु प्राचार्यः प्राह-यत्वयोक्तं पूर्व सूत्रं पश्चादर्थ ति, तन्न भव. योगस्यैकार्थिकानि । तत्रानुकूलः सूत्रस्यार्थेन योगोऽनुयोगः,नि- ति, कथमित्याहश्चितो योगो नियोगः, अर्थस्य भाषा , विविधप्रकारेण भाषणं । मत्थं भास अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी । विभाषा, वृत्तौ भवं वार्तिकम् । यदेकस्मिन् पदे यदर्थापनं तस्य अत्यं च विणा सुत्तं, प्राणिस्सियं केरिस होइ ? ॥ सर्वस्यापि नाषणम् । उक्तान्येकाथिकानि । वृ०१३ उ० । विशे। अनु। आ० म०वि०। प्रा०यू०।। अर्थ भाषतेऽर्हन,तमेवाहद्भाषितमर्थ सूत्रीकुर्वन्ति गणधारिणः। [१२] अनुयोग इति का शब्दार्थः१, श्त्याह अर्थ च विना सूत्रमिति अनिश्रितं निश्रारहितंकीरशंस्यात् ?, अणुओयणमणुप्रोगो, सुयस्स नियएण जमनिहेरण। असंबकं दश दाझिमेत्यादि' वाक्यवदिति भावः । अपि च-सौ. वावारो वा जोगो, जो अगुरूवोऽणुकुलो वा ॥ किका अपिशास्तारःप्रथमतोऽयं दृष्ट्वा सूत्रं कुर्वन्ति, अर्थमन्तरण अहवा जमस्थ ओ थो-व पच्छ नावेहिँ सुयम तस्स । सूत्रस्यानिष्पत्तः। यदप्युक्तम्-पेटावद्वादरं सूत्रमर्थोऽपुरिति।सद प्यश्लीलम् । यतस्तस्या एव पेटाया एकं वस्त्रमादाय तेनानेकाः अनिधेये वावारो, जोगो तेणं च संबंधो ॥ पेटा बध्यन्ते, तथैकस्मादाद बहूनि सूत्राण्यर्वाक तेनैव बयत् सूत्रस्य निजेनाभिधेयनाऽनुयोजनमनुसंबन्धनमसावनु- ध्यन्ते । एवं वस्त्रस्थानीयस्यास्यामहत्त्वम्, पेटास्थानीयस्य तु Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४५) अणुयोग अभिधानराजेन्द्रः। अणुप्रोग सूत्रस्याणुत्वमेव । यदप्युक्तम्-न च महत्वमेकान्तेनार्थस्येत्यादि, रानतिपरिणामकान् परिदरतश्च द्वेषः । एतेषां ग्रहणधारणातदप्यपरिभावितपरिजाषितम् । यत्तिप्तशातादिषु सत्त्वानुक- समर्थासमर्थानां परिणामकादीनां च यथानुपूर्व्या क्रमेण म्पादिकोऽर्थस्तावन्मात्रस्य सूत्रस्य,अशेषस्य तु शेषोऽर्थः। उ- नानात्वं वक्ष्ये, तत्र प्रतिझातमेव निर्वाहयेत ।। तोऽनुयोगः। वृ०१ उ० स्वाभिधायकसूत्रण सहाथस्यानुगीयते- प्रथमतो ग्रहणधारणासमीसमर्थान्प्रति रागद्वेषावाहऽनुकुलो वा योगोऽस्येदमभिधेयमित्येवं संयोज्य शिष्यज्यः प्रति मच्छरया अविमुत्ती, पूया सकार गच्छद अखिन्नो। पादनमनुयोगः, सूत्रार्थकथनमित्यर्थः । अथवा एकस्याऽपि सू- दोसा गहणसमत्थे, इयरे रागो न वुच्छेयो । त्रस्यानन्तार्थ इत्यर्थो महान, सूत्रं त्वणु, ततश्चागुना सु- ग्रहणधारणासमर्थ शिष्यं तिसृभिः परिपाटीभिहयत पताश्रेण सहार्यस्य योगोऽणुयोगः । तमुक्तम्-" निययाणुकू वन्ति कारणानि स्युः-एष बहुशिवितो मम प्रसन्नो भविष्यति लजोगो, सुत्तस्सऽत्येण जो य अणुप्रोगो सुत्तं च अणुं तेन, ततो मत्सरतया परिवारत्वेन वर्तत इत्यविमुक्तिकारणम् । प्रजोगो अत्थस्स अणुोगो" अनु० । दश । नं० । श्रा०म० थवा-गृहीतसूत्रार्थस्यास्य पूजा सत्कारो भविष्यति । खिन्नो वा प्र० । जं०। प्राचा (१३) अधुना विधिद्वारायसर, तत्र येन विधिना परिश्रान्तोऽन्यगणं गमिष्यति । (वुच्छेय त्ति) मद्वसतौ वाऽनुयोगअनुयोगः कर्त्तव्यस्तमाह स्य व्यवच्छेदो भविष्यात, अन्यस्य तथाविधशिष्यस्यानावात् । एवं कारणानि संजाव्य ग्रहणधारणासमर्थे तिसृन्निः परिपाटीसुत्तत्यो खलु पढमो, विइओ निज्जुत्तिमीसियो भणिओ। निरनुयोगं बदतो द्वेषः । इतरस्मिन् जडे रागः, यथा-तदवबा. तो य निरवसेसो, एस विही भणिय अणुप्रोगे॥ धमनुयोगस्य प्रवर्तनात् । अत्राचार्य पाहप्रथमस्य श्रोतुः प्रथमं तावत् सूत्रार्थः कथनीयः निरवयवो नहु सको, समं पयासो न संपयंसे । यथा नो कप्पक्ष निग्गंयाणं वा निग्गंधीणं वा आमे __ कुंजजले विदु तुरि न-ज्जियाम्मि नहु तिम्म पमिन्ना॥ तालपखंवे अजिन्ने, पमिगाहित्ताए । नहु नैव सूत्रस्य प्रकाशोऽर्थः सकृदेकया परिपाट्या निरवयवः अस्यार्थ:-नो इति प्रतिषेधे, न कल्पतेन वर्तत इत्यर्थः।नैषांग्र- समस्तः संप्रदर्शयितुं शक्यः, तस्य प्रहणधारणासमर्थो नैकया न्थो विद्यते इति निर्ग्रन्थाः, तेषां, वा विभाषायाम् , निम्रन्थीनां वा, परिपाट्याऽवधारयितुमीश इति तिसृभिः परिपाटीभिरनुयोगआममपकं, ताझो वृक्तस्तालनवंतालं, तालफसमित्यर्थः । प्रनम्बं कथनमित्यदोषः। मूलं, तदपि तस्यैव तालवृक्तस्य प्रतिपत्तव्यम् । ततः समाहा- सांप्रतमतिपरिणामकानपरिणामकान् परिहरतो द्वेषानावमाहरः। अभिन्नमव्यपगतजीवं, प्रतिग्रहीतुमिति । एवं तावत् कथ- सुत्तत्थ कहयंतो, पारोक्खी सिस्सनावमुवालई । यितव्यं यावदध्ययनपरिसमाप्तिस्ततो द्वितीयस्यां परिपाट्यां अणुकंपाइ अपत्ते, निज्जूहइ मा विणिसिज्जा ।। नियुक्तिमिश्रितः पीठिकया सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या च समन्वितः, पारोकी परोक्कज्ञानोपेतः शिष्येज्यः सूत्रार्थो कथयन् विनयाधिसोऽपि यावदध्ययनपरिसमाप्तिस्तावत्कथनीयः । तृतीयस्यां नयकरणादिना तेषां शिष्याणां जावमाभप्रायमुपलत्य, अपात्रा. परिपाट्यामनुयोगो निरवशेषो वक्तव्यः, पदपदार्थचासनाप्रत्यव णि अपात्रभूतान् शिष्यान् अनुकम्पया नियूहयति अपवदति । स्थानादिभिः सप्रपञ्चं समस्तं कथयितव्यमिति नावः। एष वि. न तेन्यः मूत्रार्थी कथयति । श्रुताशातनादिना मा विनश्येयुधिरनुयोगे ग्रहणधारणादिसमर्थान् शिष्यान् प्रति वेदितव्यः । रिति कृत्वा । मन्दमतीन्प्रति प्रकारान्तरेणानुयोगविधिमाह अत्रैवार्थे दृष्टान्तमाह-- मूर्य हुंकारं वा, वाढक्कार पडिपुच्च मीमंसा । दारुं धानं वाही-वीए कंकमुय लक्खणं सुविणं । तत्तो पसंग पारा-यणं च परिणिट्ठ सत्तमए । एगतेण अजोग्गे, एवमाई उ उदाहरणा।। प्रथमतः शृणुयात् । किमुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संयतगात्र- एकान्तेनायोम्ये अपरिणामके च दारु धातुाधिवीजानि कां. स्तूष्णीमासोत, ततो द्वितीये श्रवणे हुंकारं दद्यात, वन्दनं कुर्या- करुको लकणं स्वप्न इत्येवमादीनि उदाहरणानि दृष्टान्ताः। दित्यर्थः। तृतीये वाढङ्कारं कुर्यात्, वाढमेवमेतदू नान्यथेति प्रशं तत्र दारुदृष्टान्तमाहसेदित्यर्थः । चतुर्थे गृहीतपूर्वापरसूत्रानिप्रायो मनाक प्रति. . को दोसो एरंमे, जं रहदारुं न कीरए तत्तो। पृच्नं कुर्यात, यथा कथमेतदिति ?। पञ्चमे मीमांसां प्रमाणजि. को वा तिणिसे रागो, नवजुज्जइ जं रहंगेसु ॥ झासां कुर्यात् । षष्ठे तपुत्तरोत्तरगुणे प्रसङ्गः, पारगमनं चाऽस्य भवति । ततः सप्तमे परिनिष्ठां गुरुवदनुन्जायत इत्यर्थः। यत एवं एरएम एरण्डद्रुमे को द्वेषः?, यत्तस्मात् रथयोम्यं दारु न क्रिमन्दमेधसां श्रवणपरिपाट्या विवक्तिताऽध्ययनार्थावगमः, तत. | यते?,को वा तिनिशे रागो यफुपयुज्यते स रथाङ्गेषु ?। स्तान प्रति सप्त वारान् अनुयोगो यथाप्रतिपत्ति कर्त्तव्यः।। जंपिय दारूं जोग्गं, जस्स उ वत्युस्स तं पि हुन सका। अत्र परावकाशमाह जोएउमणिम्मचिनं, तच्छणदलवेहकुस्सहिं॥ चोइए रागदोसा, समत्य परिणामगे परूवणया । यदपि वस्तुनोऽकादेयोग्यं दारु तदपि तकणदलवेधकुशीरैर एएसि नाण. वोच्छामि अहाणुपुबीए । निर्माप्य योजयितुमशक्यम्, किंतु निर्माज्य, एचमिहापि योम्योशिष्ये नोदयति प्रश्नयति समर्थे ग्रहणधारणासमर्थे , तथा अपि यावदर्वातनःसुत्रैःन परिकार्मतस्तावन्न कल्प व्यवहारं वाऽ. परिणामके । उपत्रकणमेतत्-ग्रहणधारणासमर्थेऽतिपरिणा-ध्यापयितु योग्यः। तत्र तकणं प्रतीतम, दयानि द्विधा त्रिधा वा मके च या प्ररूपणा तया युष्माकं रागद्वेषौ प्रसज्यतः। तथाहि काष्ठस्य पाटनं, वेधः प्रतीतः, कुशो यो बेधे प्रोतः प्रवेश्यते । तिसृभिः परिपाटीनिरकान् ग्राहयतो रागोऽपरान् सप्तभिः परि संप्रति धातुदृष्टान्तमाहपाटीभिाहयतो द्वषः। तथा परिणामकान् ग्राहयतो रागः, इत- एमेव अधाउं उ-झिजण कुणइ पाऊण आयाणं । Jain Education Interational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६) अणुप्रोग अभिधानराजेन्द्रः। अणुप्रोग न य अक्कमेण सक्का, धानम्मि वि शाछियं काउं ॥ सक्का सो पज्जलिमो, सबस्स वि पच्चलो पच्छा। एवमेव रागद्वेषौ विना अधातुं त्यक्त्वा धातूनामादानं करोति।। यथा अरणिनिर्मापितः स्तोको वहिर्विपुलमिन्धनं न दग्धुं श. न च धातानप्यक्रमेपेप्सितं कर्तुं शक्यम, किन्तु क्रमेण । एव- क्नोति, स एव पश्चात्प्रज्वलितः सर्वस्यापीन्धनजातस्य दहने मिहाप्ययोग्यानपि क्रमेण ग्राहयतो न द्वेषः । प्रत्यनः समर्थः। अधुना व्याधिपान्तमाह एवं खु थूलबुकी, निउणं अत्यं अपच्चलो घेत्तुं । मुहसको जत्तेणं , जन्नासज्जो असफवाही न । सो चेव जणियबुकी, सन्चस्स वि पञ्चलो पच्छा ।। जह रोगे पारिच्छा, सिस्ससजावाण वि तहेव॥ एवमग्निदृष्टान्तेन प्रथमतः शिष्यः स्थूलबुद्धिः सन् निपुणमयथा रोगे वैयेन परीका क्रियते, यथा-एष सुखसाध्या, एष य- यै ग्रहीतुमप्रत्यनः पश्चात् स एव शास्त्रान्तरैर्जनितबुझिरुत्पालेन साध्या, एष वाऽसाध्यव्याधिर्यत्नेनाप्यसाध्यः।परीवाऽनन्त- दितबुद्धिः सर्वस्यापि शास्त्रस्य ग्रहणे प्रत्यलो नवति । रंच रागद्वेषौ विना तदनुरूपा प्रवृत्तिः । एवं शिष्यस्वजावानामपि बालदृष्टान्तमाहतथैव रागद्वेषानावेन परीक्का क्रियते, तदनुरूपा च प्रवृत्तिः। देहे अभिवते, बासस्स उ पीहगस्स अजिवुकी। अधुना बीजदृष्टान्तमाह अबहुएण विणस्सइ, एमेव हुणुट्टियागलाणे ॥ वीयमबीयं नान, मोत्तुमबीए न करिसओ सालि । । बासस्य देहे अग्निवर्द्धमाने तदनुसारेण दातव्यस्य पीथकववइ विरोहणजोग्गो, न यावि से पक्खवाओ न ॥ स्याहारस्यापि फिर्भवति । देहवृद्ध्यनुसारतः पीथकमपि यथा कर्षको बीजमबीजं च ज्ञात्वा अबीजानि मुक्त्वा शालिं क्रमशो वर्द्धमानं दायत इति नावः । यदि पुनरतिबहु दीयते शाशिबीजानि वपति, न च तस्मिन् विरोहणयोग्य बीजे (से) तदा स विनश्यति । ग्नानदृष्टान्तमाह-एवमेव बालगतेन प्रकारतस्य कर्षकस्य पक्षपातो रागः । पवमत्रापि भावनीयम् । ण अधुनोत्थितेऽपि ग्लाने वक्तव्यम्, यथा-ग्लानोऽप्यधुनोत्थितः संप्रति कामुकद्दपान्तमाह क्रमेणाभिवर्द्धमानमाहारंगृह्णाति , एकवारमतिप्रसूतग्रहणे विनाको कंकफुए दोसो, ज अग्गी तं न पायय दित्तो ।। शप्रसङ्गात् । एवं शिष्योऽपि क्रमेण योग्यताऽनुरूपं शास्त्रमादत्ते, को वा श्यरे रागो , एमेव य अत्थ नाविजा॥ प्रथमत एवातिनिपुणार्थशास्त्रग्रहणे बुझिनङ्गप्रसक्तेः । सिंहादिदृष्टान्तानाहको द्वेषोऽनेः कांकमुके ('कोरम्' इति ख्याते) यदग्निर्दीप्तोऽपि तं न पचति, को वा इतरस्मिन् रागो यत्पाचयति ?, नैव खीरमिउपोग्गोहिं, सीहो पुट्ठो न खाइ अट्ठी वि। कश्चित् । एवमवापि भावनीयम् । रुक्खो दुपत्तो खल, वंसकरिबो य नहविज्जो ।। अधुना बक्कणदृष्टान्तमाह तं चेव विवढुंता, हुंति अछेजा कुहाममाईहिं। जेज अलक्खणजुत्ता, कुमारगा ते निसिहिउं इयरे । तह कोमलाजिबुद्धी, नजर गहणेसु अत्येसु ॥ रजरिहे अणुमनाइ, सामुद्दो नेय विसमो उ॥ सिंहः प्रथमतः कीरमृठपुद्गलैः स्वमात्रा पोप्यते,ततः पुष्टः सन् यथा सामुनक्कणपरिज्ञाता राझो व्यपगते तस्य ये कुमारा अस्थीन्यपिस खादति। तथा वृक्को द्विपों , वंशकरीसम् , एतौ अबक्कणयुक्तास्तान निषिध्य इतरान् लक्कणोपेतान् राज्यानि द्वावपि प्रथमतो नखच्छेद्यौ, ततः पश्चादनिवर्कमानौ यतस्ततः नुमन्यते ।न च स तयाऽनुमन्यमानो विषमो रागद्वेषवान् । कुठारादिभिरच्छेद्यौ भवतः। प्रथमतः कोमला बुद्धिर्भवति, ततः एवमत्रापि अष्टव्यम्। सा गहने ध्वर्थेषु नज्यते नजमुपयाति ;क्रमेण तु शास्त्रान्तरद. ___ स्वप्नदृष्टान्तमाह र्शनतोऽनिवर्कमाना कठोरात्कगेरतरोपजायते इति न कचिदपि जे जह कहे सुमिण, तस्स तह फलं कहेइ तनाणी ।। भनमुपयाति । रत्तो वा दुट्ठो वा, नया वि वत्तव्ययमुवेइ ॥ एतदेवोपदिशन्नाहयो यथा स्वप्नं कथयाति तस्य तथा तज्ज्ञानी स्वप्नफलं निउणे निउणं अत्यं, थूलत्यं थुलवुचिणो कहए । कथयति, न च स तथा कथयन् रक्त इति वा द्विष्ट ति वा वुच्चीविवकृणकरं, होहिइ कालेण सो निउणो। वक्तव्यतामुपैति । एवमत्रापि पकान्तेनायोग्या ये शिष्याः तेषां। निपुणे निपुणमर्थ कथयेत, कथंभूतमित्याह बुधिविवर्जनकरम् । परिहारे रागद्वेषानावे दृष्टान्ता अभिहिताः । एवं सति स कालेन निपुणो जवति । अन्यथा बुकिजङ्गप्रससंप्रति कालान्तरयोग्यानपरिणतान क्रमेण परिणामयतो तो न स्यात् । रागद्वेषाभावे दृष्टान्तमाह सांप्रतमादिशब्दसूचितान हस्त्यादीन् दृष्टान्तानाहअग्गी बाल गिलाणे, सीहे रुक्खे करीलमाश्या। सिछत्थए वि गिएहर, हत्थी यलगहणे सुनिम्मायो । अपरिणए जह एए, सप्पमिवक्खा उदाहरणा ।। सरवेहपत्तचिज्ज-पव घमपडचित्त तह धमए ।। अपरिणते जातकालान्तरयोग्ये, एतानि सप्रतिपक्षाणि, पूर्व- हस्तीस्थूलग्रहणे सुनिर्मातःसन् पश्चासिकार्थकानपि गृहाति। मयाम्यतायां पश्चाद्योग्यतायामित्यर्थः । उदाहरणानि, तद्यथा-| तथाहि-नवको हस्ती शिष्यमाणःप्रथमं काष्ठानि ग्राह्यते,तदनन्तरं अग्निर्वानो बानः। सिंहो वृकः । करी बंशकरीलम् । आदि कुखकान पाषाणान् , ततो गोलीका, ततो बदराणि, तदनन्तरं शब्दाद् वक्ष्यमाणहस्त्यादिदृष्टान्तपरिग्रहः । सिकार्थकानपि, यदि पुनःप्रथमत एव सिद्धार्थकान् ग्राह्यते, ततो तत्र प्रथममग्निदृष्टान्तमाह-- न शक्नोति ग्रहीतुमिति एवं स्वरवेधपत्रवेद्यप्अवकघटकारकपजह अरणीनिम्मविओ, थोवो विनलिंधणं नवा दहि।। टकारकचित्रकारकधमकाच दृष्टान्ता नावनीयाः। ते चैवम-प्रथम Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग धानुष्कः स्थूलं प्रव्यं व्यद्धुं शिक्षति, पश्चात् सचालं पटुत्वादतिसुनिपुणमतिः स्रावयति तथा पत्रकार्य प्रथममकिञ्चित्करैः पत्रैः शिक्ष्यते, ततो यदा निर्मातो भवति तदा ईप्सितं पत्रच्छेद्यं कार्यते, तथा प्लवकोऽपि प्रथमं वंशे लगयित्वा लाव्यते, ततः पश्चादद्भ्यसन् आकाशेऽपि तानि तानि करणानि करोति । घटकारोऽपि प्रथमतः शरावादीनि कार्यते, पञ्चच्छिि तो घटानपि करोति । पटकारोऽपि प्रथमतः स्थूलानि चीवराणि शिक्ष्यते, ततः सुशिकतः शोजनानापे पटान् व्यति । चित्रकारोऽपि प्रथमं मुलकं चित्रयितुं शियते ततः शेषानवयचा नू, पश्चात् सुशिक्षितः सर्वे चित्रकर्म सम्यक् करोति । धमकोऽपि पूर्व शृङ्गादीन् धमयते, पश्चात् शङ्खम् । योनयमा जय मई श्रोगाहर, जोगे नं जस्स तस्स तं कहए। परिणामागमसरिसं संवेगकरं सनिन्देयं ॥ , ( ३४७ ) अभिधानराजेन्द्रः यथैते हस्त्यादयः क्रमेण निर्माप्यन्ते, एवं शिष्यस्यापि यत्र मतिरवगाहते, यस्य च यद्योग्यं शास्त्रं तस्य तत्कथयति । कथंभूतमित्याह - परिणामागमसदृशं यस्य यादृशः परिणामो यस्य च यावानागमस्तत्सदृशं यथेदृशपरिणामस्येद मेतावदागमस्य पु नरिदमिति । पुनः किंविशिष्टं कथयितव्यमत आह-संवेगकरंसिलिकः कुलोत्पत्तिरियादेरभिलाषा संवेगः, तत्कर शीलं संवेगकरं, तथा नरकस्तिर्यग्योनिः कुमानुषत्वमित्यादेर्विरक्तता निर्वेदः, तत्करणशीलं निर्वेदकरम् । तदेवं योग्येऽपि क्रमेण दाने रागद्वेषाभाव का संप्रति शिष्येप्याचार्येण परिनामक परीयानुयोगः कर्त्तव्यः शिष्यैरप्याचार्य परीक्ष्य तस्य सकाशे श्रोतव्यमिति । शिवाचार्ययोः परस्परविधिमतिदेत बाहगत गाइगाणं, आइएस विधि समक्खायो । सा चैव य होइ इयं, उज्जोगो वन्निश्रो नवरं ॥ गृह्णतां शिष्याणां ग्राहकस्याचार्यस्य आदिसूत्रेषु सामायिकादिन यो विधिः समाख्यातो मोत्यादिणः स निरवशेषोपचयः । यस्तु-शिष्याणामनुयेागकथनं उद्योग उद्य मोपपातिभिः परिपाटीमिरथवा सप्तन्निः कर्त्तव्यः सः नय प्रपञ्चमूपतिः । पृ० १४० इदानीमनुयोगविधिरुच्यते तनुयोग यमाशब्दार्थः स यदाऽधीत सूत्रस्याचार्यप्रस्थापन योग्यस्य शिष्यस्यानुज्ञायते, तदाऽयं विधिः, प्रशस्तेषु तिथिनक्षत्रकरणमुहूर्त्तेषु प्रशस्ते च जिना - नदीमा एका गुरूणामेका शिष्याणामिति नि पद्याद्वयं क्रियते, ततः प्राभातिककाले प्रवेदिते निषद्यानिषस्य गुरोश्चलपट्टकरजोहरणमुखवस्त्रिकामात्रोपकरणो विनेयः पुगुरुशिष्य मुखतः पुनस्तथा च समयं शरीरं प्रत्युपेक्षयत ततो विनेयो गुरुणा सद् द्वादशार्तचन्दनकं दत्वा पतिष्ठाकारेण संदिशत स्वाध्यायं प्रस्थापयामि । ततश्च द्वावपि स्वाध्यायं प्रस्थापयतः, ततः प्रस्थापिते स्वाध्याये गुरुर्निषीदति । ततः शिष्यो द्वादशावर्तवन्दनकं ददाति । ततो गुरुरुत्थाय शिष्येण सहानुयोगप्रस्थापननिमित्तं कार्यात् करोति ततो गुरुर्निपतितः स शिष्यद्वादशाननन्ते ततो गुरुरज्ञानमिनो तिष्ठत्युत्थाय च निषद्यां पुरतः कृत्वा वामपार्श्वीकृतशिष्यश्चैत्यबन्दकं करोति ततः समाप्ते वैत्यवन्दने विस्कस्थित 81 3 " भोग एव नमस्कारपूर्व मन्दिगुच्चारयति तदन्ते पानिपते- मां साधोरनुयोगमनुजानीत, कमाश्रमणानां दस्तेन ज्यगुणपर्यायैरनुज्ञातस्ततो विनयस्थो वन्दनकेन वन्दते । उत्थितश्च ववीति-संदिशत किं भणामि ? । ततो गुरुराह-वन्दित्वा प्रवे दय । ततो वन्दते शिष्यः । उत्थितस्तु ब्रवीति - नव निर्ममानुयोगोडा म्यनुशास्तिम्। ततो गुरुदति सम्यगधारय, अन्येषां च प्रवेदय; अन्येषामपि व्याख्यानं कुर्वित्यर्थः । ततो वन्दते असो, वन्दित्वा च गुरुं प्रदक्षिणयति, प्रदक्षिणान्ते च भवद्भिर्ममानुयोगोऽनुज्ञात इत्याद्युक्तिप्रत्युक्तीः करोति । द्वितीप्रदक्षिणा च तथैव पुनस्तृतीयाऽपि तथैव ततस्तृतीयप्रि शान्ते गुरुवदति तत्पुरःस्थित विनेयो यति-युष्माकं प्रवेदितं संदिशत साधूनां प्रवेदयामीत्यादिशेषमुद्देशविधिय कायम यावदनुयोगानुतनिमितं कायोत्सर्ग करोति । तदन्ते च सनिषयः शिष्य गुरुं प्रणयति तदन्ते वन्द ते पुनः प्रदक्षिणति एवं श्री वारान् ततो गुरोदक्षिणा ssन्ने निषीदति । ततो गुरुपारंपर्य एतानि मन्त्रपदानि गुरुः श्रीन् वारान् शिष्यस्य कथयति, तदनन्तरं प्रवर्द्धमानाः प्रवरसुगन्धमध्धारितोऽमुददाति । ततो द्याया गुरु कत्थाय शिष्यं तत्रोपवेश्य यथासन्निहितसाधुनिः सह तस्मै वन्दनकं ददाति । ततो विनेयो निषद्यास्थित एव " नाणं पंचवि इत्यादि सुत्रधार्य यथाशकिव्वा क रोति स च साधुभ्यो बन्दनकं ददाति ततः शिष्यो निषद्यात उत्तिष्ठति । गुरुरेव पुनस्तत्र निषीदति । ततो द्वावप्यनुयोगविसर्गार्थं कालप्रतिक्रमणार्थ व प्रत्येकं कायोत्सर्ग कुरुतः । ततः शिष्यो निरुद्धं प्रवेदयति, निरुद्धं करोतीत्यर्थः । अनु० । शिष्यं प्रति प्राचार्येण एवं समणार्थ बनिया समासेणं । गगनं परं परखामि ॥ ३१ ॥ एवमुक्तेन प्रकारेण व्रतेषु स्थापना श्रमणानां साधूनां वर्णिता समासेन संकेषेण गगणानुगुहिमतः परमः किमित्यादयामि सुश्रानुसारतो प्रीमीति गाथार्थः ॥३१॥ किमित्ययं प्रस्ताव इत्याह जम्हा पयसंपना, कालो चिप्रमहिअसयलमुत्चत्या । ओगाणुभाए, जोगा नथिया मिनिदेहिं ॥ १२ ॥ यस्माद् व्रतसंपन्नाः साधवः कालोचितगृहीतसकल सूत्रार्था[स्तदनुयोगवन्त इत्यर्थः । अनुयोगानुकाया आचार्यस्थापनापाया योग्या भणिता जिनेन्द्रैर्नान्य इति गाथार्थः ||३२|| फस्मादित्याहइहराओ मुसायाओ, पवयणखिसा य होइ लोगम्मि । सिरसा व गुणहाणी, तित्युच्छेओ अजावे ||३३|| इतरथा अनीदृशानुयोगानुज्ञायां मृषावादः, गुरोस्तमनुजानतः प्रवचनखिसा च भवति लोके, तथानृतप्ररूपणात् ततः शिव्याणामपि गुणहानिः सम्नाय काभावात् । तीर्थोच्छेदश्च नवेत् ततः सम्यग्ज्ञानाद्यप्रवृत्तरिति द्वारगाथार्थः ॥ ३३ ॥ व्यासार्थे त्वाह 3 , अणुोगो वक्खाएं, जिएवरवयणस्स तस्मऽणुमान । काव्यमि जना, विड़िया सह अप्पमने ॥३४॥ अनुयोगो व्याख्यानमुच्यते जिनपर चनस्यागमस्य तस्यामु Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) अनिधानराजेन्द्रः । अयोग अणुयोग ज्ञा पुनरियम, यडुत कर्तव्यमिदं व्याख्यानं भवता विधिना, तोऽपि बहुभूतादसावरतां प्राप्तिकरोति तेषु । कुत इत्याह-मि. न यथाकथञ्चित् सदाऽप्रमत्तेन; सर्वत्र समवसरणादिति थ्याऽभिमानादहमप्याचार्य एव, कथं मच्छिष्या श्रन्यसमीपे गाथार्थः ॥ ३४ ॥ एवन्तीत्येवंरूपादिति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ ; तो ते वि तहानुआ, कासेण वि होंति नियमय चैव । सीमा विगुणहाण, इस संतायेण विक्रेआ ||४२॥ ततस्तेऽपि शिष्यास्तथाभूता मूर्खा एव कालेन बहुनाऽपि भवन्ति एव विशिष्टसंपकाभावादिष्याणामप्यगीताशिष्य सत्त्वानां गुणहानिरियम, एवं सन्तानेन प्रवाहेण विशेयेति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ नाणाईणमजा होइ चिसिडाणऽणस्थगं सम्बं । सिरमा वि, विजयाओ जहऽसि ॥ ज्ञानादीनामभावे सति भवति विशिष्टानाम। किमित्याह-अनथेकं सर्वे निरवशेषम् । शिरस्तुण्डमुण्डनाद्यपि, श्रादिशब्दाािनादिपरिग्रहः कथमनर्थकमित्याह विपर्ययात्कारा द यथाऽन्येषां वराकादीनामिति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ य समविमप्येणं, जहा तहा कमि दे अवि गमावाया, रोगतिमिच्छाविहाणं व ॥ ४४ ॥ न च स्वमतिविकल्पेनागमशून्येन यथा तथा कृतमिदं शिरस्तुएकमुण्डनादिफलं ददाति वर्गापवर्गल क्षणम् अपि यागमानुपातादागमानुसारेण कृतं ददाति । किमिवेत्याह-रोगचिकित्साविधानवत्, तदेकप्रमाणत्वात् परलोकस्येति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ इय दव्वलिंगमित्तं, पायमगीयान जं अणत्थफलं । जाय ता विनेश्रो, तित्यच्छेश्रो य भावे ||४५॥ (च) एवं द्रव्यलिङ्गमा भिक्षाटनादिफलं प्रायोगीतार्थाद गुरोः सकाशाद यद्यस्मादनफलं विपाके जायते तत्तस्मा द्विज्ञेयस्तीर्थोच्छेद एव, भावेन परमार्थेन, मोक्षलक्षणतीर्थफलाभावादिति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ कालोचि चत्ये, तम्हा सुनिणिचियस्य प्रयोगो । निअमाजाणि अच्वो, न सवणओ चेव जह भणिअं । ४६ । कालोचितसूत्रार्थे अधिये तस्मात्सुविनिश्चितस्य ज्ञा तत्वस्यानुयोग उक्तलक्षणः नियमादेकान्तेनानुज्ञातव्यः, गुरुणा न श्रवणत एव श्रवणमात्रेणैव । कथमित्याह-यतो भणितं संमत्यां सिद्धसेनाचार्येणेति गाथार्थः ॥ ४६ ॥ किमित्याह कालोभाने वय निव्वियमेवमेति । 5ग्गयसुम्मि जहिमं दिज्ज इमाएँ रयणाई || ३५ ॥ कालोचिततदभावे अनुयोगाभावे, वचनं निर्विषयमेवैतदिति । तदनुज्ञावचनदृष्टान्तमाह-दुर्गतसुते दरिद्रपुत्रे यथेदं वचनम् - 'यदुत दद्यास्त्वमेतानि रत्नानि रत्नाभावानिर्विषयं तथेदमध्यनुयोगाभावादिति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ असत्प्रवृत्तिनिमित्तापहावाह किंपि अपि इमं यलवण नो गुणेहिं गुरुप्राणं । एत्यं कुसाइतु, अप्पसंगा मुसावा || ३६ || किमपि यायावरचीतमित्येतदालम्बनं न तत्यतो भवति गुरीगुरूणाम्। अत्र व्यतिरे कुशादितुल्यमनालम्बनमित्यर्थः । कस्मात् ?, अतिप्रसङ्गात् । स्वल्यस्य धावकादिभिरप्यधीत्या दतो मृषावाद गुरोस्तान इति गायार्थः ॥ ३६ ॥ ओगी लोगाणं किल संसवणासभी दर्द हो । तो ते पाये सलाहिगमहेयो ||१७|| अनुयोगी आचार्यः लोकानां किल संशयनाशको दृढमत्यर्थ भवंति । तम्, 'अल्लियंति' उपयान्ति ततस्ते लोकाः प्रायः। किमर्थमित्याह- कुशलाधिगमहेतोः धर्मपरिज्ञानायेति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ ततः किमित्याह सो थोयो म पराओ, गंभीरपयत्यनणिइमम्मम्मि । एगणाकुसलो, किं तेसिं कट्ठे हुमपयं ? ॥ ३८ ॥ सस्तोको पराकायत इत्यर्थः गम्भीरपदार्थ भणितिमार्गे बन्धमोतत्ववचनलक्षणे एकान्तेनाऽकुशलोऽनभिज्ञः किं तेभ्यः कथयति लोकेभ्यः तस्य सूदपदं यन्धादि चरमिति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ ततश्व जं किंचि भास तं दण वृहाण होइ अवण ति । पण तम्मी, इयं पवयणमिणः श्रा ।। २० ।। यत्किञ्चिद्भार्क तम संवाद प्रलापिनमित्यर्थः बुधानांच दुषां भवत्यवशेति । कथं वेत्यत्राह - प्रवचनधरोऽयमिति कृत्वा तस्मिन् प्रवचने य एवं प्रवचनखिसना श्रवज्ञा शातव्याअहो! असारोग्यम समादेति गाथार्थः सीमाण कुछ कह सो, महानिदो हंदि ! नाणमाईणं । " हित्र्यादिप्रसंपत्ति, संसारुच्छेअणं परमं ॥४०॥ शिष्याणामिति - शिष्येषु करोति । कथमसौ ?, तथाविधोऽशः सन् हंदीत्युपदर्शने, ज्ञानादीनां गुणानां ज्ञानादिगुणानामधिकाधिक संप्रति वृद्धिमित्यर्थः किंभूतामित्याह संसारोच्छेदिनीं संप्राप्ति, परमां प्रधानामिति गाथार्थः ॥ ४० ॥ तथा पत्तो पार्य, आइविवेगविरहिओ वा वि न अन्न विसोतं, कुणइ अ मिच्छाऽनिमाणाओ | ४१ | अल्पत्वात् तुच्छ्रुत्वात्कारणात् प्रायो बाहुल्येन न हि तुसती पद्मारोपयति । तथादिविवेक हितो वाऽपि । हेयोपादेयपरिज्ञानाभावत इत्यर्थः । न हान्य जह जह बहुस्सु सं-मत्रो असीसगणसंपरिवुडो । विरिणच्चियो समये, तह तह सिद्धं पडीओ ॥। ४७ ।। यथा यथा बहुतः तथाविचोकस्य शिष्यगण संपरिवृतश्च बहुमूढपरिवारका भदानां तथाविचाप रिपणात् अविनिश्चिताज्ञातस्य समये सिकान्ते तथा तथाऽसौ वस्तुस्थिस्यासिद्धी सिद्धान्तविनाशक तलाघवापादनादिति गाथार्थः ॥ ४७ ॥ एतदेव भावयतिसव्वमूर्ति पवि, सो उनममसरण गंभीरं । " तुच्छकहणार हिट्टा, सेसा विकु सितं ॥ ४० ॥ सर्वः प्रणीतं सोविनिश्धित उत्तमं प्रधानमतिशयेन गम्भीरंजापार्थसारं तु कथनयाऽपरिचतदेशनयाऽधः शेषाणामपि सिका तानां करोति तथाविधकं प्रति सिद्धान्तमितिगाथार्थः ॥ ४० ॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) अयोग अनिधानराजेन्द्रः। अणुप्रोग तथा च संपूर्णग्रन्थपद्धतिमिति गाथार्थः ॥५६॥ अविणिच्छियो ण संमं, उस्सग्गाववायजाणो होइ।। इअरो विसिओ संतो, सुणे पोतीइ इअमुहकमलो। अविसयपोगो सिं, सोसपरविणासोनियमा॥४॥ संविग्गे उवउत्तो, अचंतं सुद्धपरिणामो ।। ५७ ॥ अविनिश्चितः समये न सम्यगुत्सर्गापवादशो नवति सर्वत्रैव. इतरोऽपि शिष्यः स्थितः सन्न स्थानेन श्रृणोति मुखवत्रिततश्चाविषयप्रयोगतोऽनयोरुत्सर्गापवादयोः, तथाविधः स्वपर- कया विधिगृहीतया स्थगितमुखकमलः सन्निति । स एव विशेविनाशको नियमात्, कूटवैद्यवदिति गाथार्थः॥४॥ प्यते-संविज्ञो मोवाथीं उपयुक्तः सूत्रकाग्रतया, अनेन प्रकारेणा ता तस्सेव हिट्ठा, तस्सीसाणमणुमोअगाणं च । । त्यन्तं शुरूपरिणामः शुद्धाशय इति गाथार्थः ।। ५७ ॥ तह अप्पणो अधीरो, जोग्गस्सऽणुजापाई एवं ।।२०।। तो कठिकण नंदि, जणइ गुरू अहमिमस्स साहुस्स । तत्तस्मात् तस्यैवाधिकृतानुयोगधारिणः हितार्थ परलोके, तथा| अाओगं अणुजाणे, खमासमणाण हत्येणं ॥ ५० ॥ तच्छिष्याणां भाविनामनुमोदकानां च तथाविधाऽसप्राणिनां, तत आकृष्य पठित्वा नन्दी भणति गुरुराचार्य:-अहमस्य तथाऽऽत्मनश्च हितार्थमाशाराधनेनं धीरो गुरुयोग्याय विनेयाय साधोरुपस्थितस्यानुयोगमुक्त लवणमनुजानामि क्वमाश्रमणानां अनुजानाति एवं वक्ष्यमाणेन विधिनाऽनुयोगमिति गाथार्थः ॥५०॥ प्राकृतऋषीणां इस्तेन, न स्वमनीषिकयेति गाथार्थः ॥५॥ तिहिजोगम्मि पसत्ये, गहिए काले निवेइए चेव । कथमित्याहओसरणमह णिसिज्जा-रयणं संघट्टणं चेव ॥ ५१॥ दव्वगुणपज्जवेहि अ, एम आन्नान वंदिउं सीसो। तिथियोगे प्रशस्ते संक्रान्तिपूर्णिमादौ, गृहीते काले, विधिना संदिसह किं लग्णामो, बंदणमिह जहेव सामइए ।एण निवेदिते चैव गुरोः समवसरणम्।अथ निषद्यारचनमुचितभूमा- व्यगुणपर्यायाख्याङ्गरूपैरेषोऽनुज्ञात इत्यवान्तरे वन्दित्वा वपि गुरुनिषद्याकरणमित्यर्थः। संघट्टनं चैवाऽनिकेप इति गा- | शिष्यः-संदिशत यूयं किं भणामीत्यादि वन्दनं जातं यथैव साथार्थः॥५१॥ मायिके तथैव द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ।। ५९॥ ततो पवेइआए, उवविसइ गुरुओ णिनिसिज्जाए। यदत्र नानात्वं तदभिधातुमाहपुरो चिट्ठइ सीसो, सम्म जहाजायउवकरणो ॥५२॥ नवरं सम्मं धारय, अन्नसिं तह पवेयह भणाइ । ततस्तदनन्तरं रचकेन साधुना प्रवेदियां कथितायां सत्यामुपविशति गुरुराचार्य एव,न शेषसाधवः। केत्याह?-निजनिषद्यायां इच्छामणुसहीए, सीसेण कयाइ आयरिओ ॥ ६०॥ यातदर्थमेव रचितति । पुरतश्च शिष्यस्तिष्ठति प्रक्रान्तः, सम्यगसं- नवरम, अत्र सम्यग्धारय, प्राचारसेयनेनेत्यर्थः। अन्येज्यस्तभ्रान्तः , यथाजातोपकरणो रजोहरणमुखवस्त्रिकादिधरः, इति था प्रवेदय सम्यगेवेति नणति । कदेत्याह-इच्गम्यनुशास्तौ गाथार्थः ॥ ५॥ शिष्येण कृतायां सत्यामाचार्य इति गाथार्थः ॥ ६०॥ पहिंति तो पोतिं, तीए अस सीसगं पुणो कायं । तिपयक्खणीकए तो, उवविसए गुरु कए अनुस्सग्गे । बारसवंदण संदिस, सज्झायं पट्टवामो त्ति !॥ ५३॥ । सणिसज्जे तिययक्खिण, वंदण सीसस्स वावारो॥६१॥ प्रत्यवेक्वते तदनन्तरं मुखवत्रिका द्वावपि, तया च मुखव त्रिः प्रदकिणीकृते सति शिष्येण तत उपविशति गुरुः, अत्रान्तरे स्त्रिकया स शिरः पुनः कायं प्रत्यवेकेते इति । ततः शिष्यो। उनुझाकायोत्सर्गः, कृते च कायोत्सर्गे तदनु सनिषद्ये गुरौ त्रिःप्रदद्वादशावर्तवन्दनपुरस्सरमाह-सदिशत यूयं स्वाध्यायं प्रस्था क्षिणं वन्दनं जावसारं शिष्यस्य व्यापारोऽयमिति गाथार्थः॥६॥ पयामः, प्रकर्षण वर्तयाम इति गाथार्थः॥५३॥ नवविसइ गुरुममीवे, सो साहइ तस्स तिनि वाराओ। पट्टवणाऽणुण्णाए, तत्तो दुअगा वि पट्टवेइ त्ति । आयरियपरंपरए-ण आगए तत्थ मंतपए ॥ ६ ॥ तत्तो गुरू निसीअइ, अरो विणिवेअई तं ति ।। ५५|| उपविशति गुरुसमीपे तनिषद्यायामेन दक्विणपावें शिष्यः प्रस्थापयेत्यनुज्ञाते सति गुरुणा, ततो द्वावपि गुरुशिष्या प्रस्था स गुरुं कथयति। तस्य त्रीन् वरान् । किमित्याह-प्राचार्यपारम्पयत इति । ततस्तदनन्तरंगुरुर्जिषीदति स्वनिषद्यायाम, इतरोऽपि येणागतानि पुस्तकादिष्वलिखितानि तत्र मन्त्रपदानि विधिना शिष्यो निवेदयति तं स्वाध्यामिति गाथार्थः ॥५४॥ सर्वार्थसाधकानीति गाथार्थः ॥११॥ तथातत्तो वि दोवि विहिणा, अगुप्रोगं पट्टविति उवउत्ता। दे तो मुट्ठीओ, अक्खाणं सुरभिगंधसहिआणं । वांदत्तु तो सीसो, अणुजाणावेइ अणुओगं ।। ५५॥ ततश्च द्वावपि गुरुशिष्या विधिना प्रवचनोक्तंनाऽनुयोग प्रस्था वळूत सोविसीसो, उवउत्तो गिएहई विहिणा ।। ६३ ॥ पयतः उपयुक्ती सन्ती वन्दित्वा ततस्तदनन्तरं शिष्यः किमि ददाति तत् त्रीन् मुष्टीनाऽऽचार्योऽकाणां चन्दनकानां सुराभित्याद ?-अनुशापयत्यनुयोगं, गुरुणेति गाथार्थः॥ ५५ ॥ गन्धसहितानां वर्द्धमानान् प्रतिमुष्टिं सोऽपि च शिष्य उपयुक्त अभिमंतिकण अक्खे, बंदइ देवं तो गुरू विहिणा। सन् गृहाति विधिनेति गाथार्थः ॥ ६३॥ एवं व्याख्याङ्गरूपानवान दत्वाविम एव नमोकारं, कहा नंदि च संपुग्नं ।। ५६ ॥ अनिमन्त्र्य आचार्यमन्त्रेणावांश्चान्दनकान वन्दते देवांश्चैत्यानि | नहेति निसिजाओ, आयरियो तत्थ नवविस सीसो। ततो गुरुविधिना प्रवचनोकेन । ततः किमित्याह-स्थित एवो तो वंदई गुरू तं, सहिओ सेसेहि साहहिं ॥ ६ ॥ स्थानेन नमस्कारं पञ्चमङ्गलकमाकर्षयति, त्रिः पति नन्दी उत्तिष्ठति निषद्याया आचार्योऽत्रान्तरे तत्रोपविशति शिष्योऽ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) अणओग अनिधानराजेन्द्रः। अणुभोग नुयोगी, ततो वन्दते गुरुस्तं शिष्यसहितः शेषसाधुभिः सन्नि- ___ मध्यस्थाः सर्वत्रारक्तद्विष्टाः, बुधियुक्ताः प्राकाः, धम्माधिनः हितैरिति गाथार्थः ॥ ६४ ॥ परलोकभीरवः, श्रोषतःसामान्येनेते योभ्यासिकान्तभवणस्य। जणइ अकुरु वक्खाणं, तत्थ ठिओ चेव सो तो कुणइ।। तथैव प्रशस्तादयो योग्याः आदिशब्दात्परिणामकादिपरिग्रहः, एंदाइ जहासत्ती, परिसं नाऊण वा जाग्गं ॥६५॥ । सूत्रविशेषमङ्गचूनादिरूपं समाश्रित्येति गाथार्थः ॥ ७३ ॥ मध्यस्थादिपदानां गुणानाह-- भणति च-कुरु व्याख्यानमिति तमनिनवाचार्य, तत्र स्थित एव ततोऽसौ करोति नव्याख्यानमिति नन्द्यादि यथाशक्त्यति महत्याऽसग्गाहं, एत्तो वि अ कत्थई न कुब्बति । तद्विषयमित्यर्थः । पर्षदं चहात्वा योग्यमन्यदपीति गाथार्थः।। सुखासया य पायं, होति तहाऽऽसनलब्वा य ॥७४ ।। आयरिअनिमज्जाए, जबबिसणं बंदणं च तह गुरुणो। मध्यस्थाः प्राणिनः असद्ग्राहं तत्वावबोधशत्रुम, अतएव कतुझगुणखावणहा, न तया पुढे दुविएहं वि ॥६६॥ चिद् वस्तुनि न कुर्वन्ति, अपि तु मार्गानुसारिमतय एव भवन्ति, तथा शुझाशयाश्च मायादिदोषरहिताःप्रायो जवन्ति मध्यस्थाः, आचार्यनिषद्यायामुपवेशनम,अनिनवाचार्यस्य वन्दनं च तथा तथाऽऽसन्नजव्याश्च, तेषु सफलः परिश्रमः, इति गाथार्थः ।७४। गुरोः, प्रथममेमाचार्यस्य तुल्यगुणस्यापनार्थ लोकानां, न तदा दुष्टं द्वयोरपि शिष्याचार्ययोर्ययोर्यातमेतदिति गाथार्थः॥६६॥ बुषिजुमा गुणदोसे, मुहुमे तह वायरे य सम्वत्थ । वदंति तो साहू, उत्तिइ अतो पुणाणिसिज्जाओ। संमत्तकामिसुके, तत्तट्टिईए पवज्जति ।। ७५ ॥ तत्य निसीअइ अ गुरू, नवबूहण पढममयं न ॥६॥ बुद्धियुक्ताःप्राका गुणदोषान् वतुगतान् सदमांस्तथा चादरांश्च सर्वत्र विषये सम्यक्त्वकोटिशुरूान् कषच्छेदतापमुद्धस्तित्त्वबन्दन्ते ततः साधवः, व्याख्यानसमनन्तरमुत्तिष्ठति च ततः पुनर्निपचाया अभिनवाचार्यः, तत्र निषद्यायां निषीदति च गुरु स्थित्याऽतिगम्नीरतया प्रपद्यन्ते साध्विति गाथार्थः ॥ ७५ ॥ }ौला , उपबृंहणमत्रान्तरे प्रथमम् । अन्य तु व्याख्यानादिति धम्मत्थी दिहत्य, दढा व पंकाम्म अपमिबंधाओ । गाथार्थः ॥ ६॥ नत्तारिजति सुहं, धन्ना अन्नाणसानिमामो ॥६॥ धम्मोऽसि तुमं णायं, जिणवयणं जेण सम्बदुक्खहरं। धर्मार्थिनः प्राणिनः दृष्टार्थ एहिक दृढ श्व पड़ेऽप्रतिबन्धासं सम्ममियं भवया, पोजिअव्वं सयाकासं ।। ६५॥ कारणा दुत्तार्यन्ते पृथक क्रियन्ते सुख, धन्याः पुण्यभाजः। धन्योऽमित्वं सम्यग शातं जिनवचनं येन भवता सर्वपुःख कुतः ?, अज्ञानसलिझान्मोहादिति गाथार्थः ।। ७६ ॥ हरं मोकहेतुस्तत्सम्यगिर्द जवता प्रवचननीत्या प्रयोक्तव्यं । पत्तो अकप्पिो इह, सो पुण श्रावस्समाइसुत्तस्स । सदा सर्वकालमनवरतमिति गाथार्थः ॥ ६ ॥ जा सूअगम् ता जं, जेणा ऽधीअंति तस्सेत्र ।। ७७॥ इहरा नरिणं परमं, असंमजोगे अजोगओ अवरो। प्राप्तश्च कल्पिकोऽत्र नएयते, स पुनरावश्यकादिसूत्रस्ययावन ता तह इह जइअव्वं, जह एत्तो केवलं होइ ।। ६० ।। सूत्रकृतं हितीयमङ्गं तावद्ययेनाधीतमिति पवितमित्यर्थः । तइतरथा तरिणं परममेतदसम्यगयोगे सुखशीतया। असम्य- | स्यैव तान्यस्येति गाथार्थः ॥ ७ ॥ म्योगच अयोगतोऽप्यपरः पापीयान् जटव्यः। तत्तथेह यतितव्यम असुआईएसु अ, ससमयनावे वि भावजुत्तो जो । पयोगतो यथाऽतः केवलं नवति, परमज्ञानमिति गाथार्थः ।६९। पिअधम्मऽवज्जनीरू, सो पुणपरिणामगाणेओ ||७|| परमो म एस हेक, केवलनाएस्स अन्नपाणीणं । दसूत्रादिषु च निशीथादिषु स्वसमयभावेऽपि स्वकालभावमोहावणयणओ तह, संवेगाइसयभावेणं ॥ ७० ॥ ऽपि भावयुक्तो यः विशिष्टान्तःकरणवान् प्रियधर्मस्तीवरुचिपरमधैप जिनवचनप्रयोगहेतुः केवत्रज्ञानस्य,अवन्य इत्यर्थः। रवद्यभीरुः पापभीरुः स पुनरयमेवंभूतः परिणामको झेयः, उकुत इत्याह-अन्यप्राणिनां मोदापनयनान्मोहपसरणकारणात्, त्सर्गापवादविषयप्रतिपत्तरिति गाथार्थः॥ ७८ ॥ तथा संवेगातिशयभावेनोनयोरपीति माथार्थः ॥ ७० ॥ एतदेवाइएवं उन्हेवं, अणुभोगविसज्जणट्ठमुस्सम्गो । सो नस्सम्गाईणं, विषयविभागं जहट्टियं चेव । कास्स पडिक्कमणं पवेअणं संघविहिदाणं ॥ ७१॥ परिणामेइ हियं ता, तस्स इम हाई वक्खाणं ।। ७ए। एवमुपह्य तमाचार्यमनुयोगविसर्जनार्थमुत्सर्गः कियते ।। सपरिणामकः,उत्सर्गापवादयोर्विषयविनागमौचित्येन यथाऽकालस्य प्रतिक्रमणं, तदात्वे प्रवेदन, निरुम्स्य संघविधिदानं वस्थितमेव सम्यक परिणमयत्येवमेव हितं तत्तस्मात्कारणात्तयथाशक्ति नियोगत इति गाथार्थः ॥७॥ स्येदं भवति व्याख्यानं सम्यग्रोधादिहेतुत्वेनेति गाथार्थः ॥७॥ पच्चाय सोऽणुप्रोगी, पवयणकज्जम्मि निच्चमुज्जुत्तो । अश्परिणामगऽपरिणा-पगाण पुण चित्तकम्मदोसणं । जोगाणं वक्खाणं, करिज सिकंतविहिणा न ॥७॥ उदियं विमेयं दो-मुदए अोसहसमाणं उ॥ ७० ॥ पश्चाश्च सोऽनुयोगी आचार्यः प्रवचनकार्य नित्यमुयक्तः सन् अतिपरिणामकापरिणामकयोः पुनः शिष्ययोचित्रकर्मदोषण योगेन्यो विनेयेच्या व्याख्यानं कुर्यादू गुर्यादेशाझासिद्धान्त हेतुनोदितमेव विज्ञेयं व्याख्यान, दोषोदये औषधसमानं विपर्यविधिनैवेति गाथार्थः ।। ७३ ॥ यकारीति गाथार्थः ॥७॥ योग्यानाह तेसिं तच्चिय जायइ, जयो अणत्यो तओ ण मइमं । मज्कत्था बुद्धिजुआ, धम्मत्यी श्रोघो इमो जोग्गा । तेसिं चेव हियट्ठा, करिज पुज्जा तहा चाहु ॥८१॥ तह चेद पसत्थाई, मुत्तबिसेमं समासज्ज ॥७३ ।। तयोरतिपरिणामकाऽपरिणामकयोः तत एव व्याख्यानाज्जायते Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५१ ) निधानराजेन्द्रः । यतोऽनर्थो विपर्यययोगात्, ततो न तयाख्यानं मतिमान् गुरुस्तयोरेवातिपरिणामका परिणाम कयोर्द्वितायानर्थप्रतिघातेन कुर्यात्। नेति वर्तते, पूज्याः पूर्वगुरवः तथा चाहुरिति गाथार्थः ॥ ८१ ॥ मे घडे निहितं, जहा जलं तं घर्म विणासे । इत्र सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विलासेइ ॥ ८२ ॥ श्रमे घटे निकितं सद् यथा जलं तं घटमामं विनाशयति, इत्येवं सिद्धान्तरहस्यमप्यल्पाहारं प्राणिनं विनाशयतीति गाथार्थः ॥ न परंपरया वितो, मिच्छाभिनिवेसनाविमईयो । अन्नेसिं पिजाय, पुरिसत्थो मुद्धरूप्र अ ॥ ८३ ॥ न परम्परयापि ततोऽतिपरिणामका देर्मिथ्याऽभिनिवेशनावितमतेः सकाशादन्येषामपि श्रोतॄणां जायते पुरुषार्थः, शुरूरूपो बा, मिथ्याप्ररूपणादिति गाथार्थः ॥ ८३॥ एतदेवाह वित्तो वि पायं, तब्जावोऽलाइमं ति जीवाणं । इअ मुणिकण तयत्थं, जोगाए करिज्ज वक्खाणं ॥ ८४ ॥ अविवर्तक एव श्रतिपरिणामादिक एव, प्रायो मिथ्याऽजिनिव शभावितमतेः सकाशात् तस्य च भावः तद्भावो मिथ्याऽभिनिवेशभावोऽनादिमानिति कृत्वा जीवानां भावनासहकारिविशेषादियमेवं मत्वा तदर्थे तद्विनाशायैव योगेज्यो विनेयेज्यः कुर्याद् व्याख्यानं विधिनेति गाथार्थः ॥ ८४ ॥ नवसंपणारा जहा - विहाण एवं गुणजुश्राणं पि । सुत्तत्या कमेणं, सुविणिच्छ्रिामप्पणा सम्मं ॥ ८५ ॥ उपसंपन्नानां सतां यथाविधानतः सूत्रनीत्या, एवं गुणयुक्तानामपि नान्यथा तदपरिणत्यादिदोषात् । कथं कर्तव्यमित्याह-सूत्रार्थादिक्रमेण यथावोधं सुविनिश्चितमात्मना सम्यक्, न शुकप्रबापप्रायमिति गाथार्थः ॥८५॥ पं० ० ४ द्वा० । ( श्रङ्गाद्यनुयोगविधिः 'जोगविहि ' शब्दे वक्ष्यते ) (१४) अधुना प्रवृत्तिद्वारं वक्तव्यम् प्रवृत्तिः, प्रवाहः, प्रसृतिरित्येकार्थः । प्रथममनुयोगः प्रवर्त्तते इति । साच प्रवृत्तिर्द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः प्रवृत्तिमाहअणिडत्तो आणिउत्ता, आणिडत्तो चेद होइन निउत्ता । नीउत्तो अणित्ता, निउत्तो चेत्र उनिउत्ता ॥ निउत्तोऽणिउत्ताणं, पवत्तइ अहव ते वि उ निउत्तो । दम्म होइ गोणी, जावम्मि जिलादयो हुंति || व्यतः प्रसवे गौर्डष्टान्तो भवति भावे जिनादयः, तत्र गवि गो. दोहकेन सह चत्वारो भङ्गाः, तद्यथा दोहकोऽनियुक्तो गौरव्यनियुक्ता । दोहको नियुक्तो गौर्नियुक्ता २ । दोहको नियुक्तो गौरनियुक्ता । दोहको नियुक्तो गौरपि नियुक्ता ॥ एवमाचार्यशिष्येवपि चतुष्टयं योजनीयं तचाग्रे योक्ष्यते। तत्र तृतीये भङ्गे नियुक्त श्राचार्यो बलादप्यनियुक्तानां शिष्याणामनुयोगं प्रवर्त्तयति । अथवा द्वितीये न तेऽपि शिष्या नियुक्ता श्रनियुक्तमाचायमनुयोगे प्रवर्त्तयन्ति एवं हि तृतीये द्वितीये च जङ्गेऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः । प्रथमे तु सर्वथा न जवति । चतुर्थे प्रवृत्तिर्निष्प्रतिपक्षैष । तत्र गोदृष्टान्तविषयं प्रङ्गचतुष्टयं व्याख्यानयतिपहुयाय गोणी, नेव य दोघा समुज्जो दोद्धुं । खीरस्स कुओ पसवो, जइ वि य सा खीरदा घेणू ॥ बीए विनत्थि खीरं, थोवं च हविज्ज एव तइए वि । For Private अग अस्थि चतुत्थे खीरं, एसुवमा आयरियसीसे || गौरप्रस्नुता नैव च दोग्धा वा दोग्धुं समुद्यतः, ततो यद्यपि सा क्षीरदा धेनुस्तथा ऽप्यस्मिन् प्रथमनङ्गे कुतः कीरस्य प्रसवः ?, नैव कुतश्चित् । द्वितीयेऽपि भङ्गे दोहे को नियुक्तो गौर्नियुक्तेत्येवं रूपे नास्ति कीरम, दोहकस्यानियुक्तत्वात्; अथवा गौः प्रस्नुतेति स्तनेषु गलत्सु स्तोकं कीरं भवेत् । एवं तृतीयेऽपि जने दोहको नियुतो गौरनियुक्तेत्येवं लकणे नास्ति कीरप्रसवः, स्तोकं वा स्याहोहकगुणेन । चतुर्थे पुनर्भङ्गे गौरपि प्रस्नुता दोहकोऽपि नियुक्त इत्यस्ति कीर प्रसवः । एषा उपमा जङ्गचतुष्टयात्मिका अ चार्यशिष्ययोरप्यनुयोगस्य प्रसवे वेदितव्या । तथाहि आचाastrनियुक्तः, शिष्या अपि अनियुक्ता इति प्रथमजने नास्त्यनुयोगस्य प्रवृत्तिः । अनियुक्त आचार्यः शिष्या नियुक्ता इति द्वितीयेऽपि नङ्गे नानुयोगः, प्राचार्यस्यानियुक्तत्वात् । अहवा अणिच्छ्रमाणं, अवि किंचि उज्जोगिणो पवत्तंति । तइए सारिंते वा, होज्ज पवित्ती गुरिंणते वा ॥ श्रथवा श्रनियुक्तमाचार्यमनिच्छन्तमपि उद्योगिनः शिष्याः किश्चित्प्रवृत्तिपृच्छादिनिरनुयोगं कर्तुं प्रवर्तयन्ति, ततो भवति द्वितीयेऽपि भङ्गेऽनुयोगस्य प्रवृत्तिः । तृतीये- आचार्यो नियुक्तः, शिष्या अनियुक्ता इत्येवंरूपे नास्त्यनुयोगस्य संभवः, अथवा पुनः पुनः सारयत्याचार्ये, अथवा श्रोतुमनिच्छन्तमपि शैलसमानं किञ्चित् श्रोतारं पुरतो विन्यस्यमानस्य त्वनुयोग इति गुयति गुणननिमित्तमनुयोगं कुर्वति भवेदनुयोगः । अत्र दृष्टान्तः कालिकाचार्य:, तमेवाहसागारियमप्पाहण - सुवन्नसुय सिस्स खंतलक्खेण । कहणा सिस्सागमणं, धूली पुंजोवमाणं च ॥ १ ॥ उज्जयणीए नयरीए अज्जकालगा नामं आयरिया मुत्तत्योववेया बहुपरिवारा विहरंति, तेसिं अज्जकान्नगाणं सीसस्स सीसो सुत्तत्थोववेओ सागरो नामं सुत्रन्नभूमीए विहर, ताहे अज्जकाक्षया चिंतेंति - एए मम सीसा ओगं न सुणंति, तत्र किमेएसि मज्जे चिहामि, तत्यजामि जत्थ अणुओगं पवत्तेमि, त्र्यविय पए वि सिस्सा पच्छा लज्जिआ सोच्चिहिंति, एवं चिंतिऊण सेज्जारमापुच्छंतिक अन्नत्थ जामि, तओ मे सिस्सा सुहिंति, तुमं पुण मा तेर्सि कहेज्जा, जइ पुए गाढतरं निब्बंध करिज्जा, तो खरंटेड साहेज्जा, जहा सुवन्नभूमीए सागराणं सगासं गया, एवं पाहित्ता (संदिश्य) रतिं चैत्र पसुत्ताणं गया सुभूमिं तत्थ गंतुं खंतलक्खेण पविद्या सागरां गच्छं, तो सागरापरिया खंत त्ति काउं तं नाढाइआ - न्नुट्ठाईल, तओ अत्य पोरिस वेलाए सागरायरिएवं भणिया खंता तुभं एवं गम ? । आयरिया भांति - आमं तो खाई सुहात्त एकहिया गव्वायंता य कर्हिति । इयरे विसीसाए पाए संते संता आायरियं अपस्संता सव्वत्य मग्गिओ, सिज्जायरं पुच्छंति, न कहेइ, जाइ य तुब्भं अप्पणी आयरन कहे, मम कहं कहेइ १, तत्र आजरीनूए-. Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) प्रणयोग अनिधानराजेन्डः । अणुओग हिं गाढनिबंधकए कहियं-जहा-तुम्भ निव्वेएण सुवन्न- सो समुद्देशो अणुप्मा अणुओगो पवत्त' तत्रादावेवोद्दिष्टस्य जूमीए सागराणां सगासं गया, एवं काहत्ता ते खरिंटिया। समुद्दिष्टस्य समनुज्ञातस्य च सतोऽनुयोगो भवतीति । तो नियुक्तिकारेणान्यधायि श्रुतझाने अनुयोगेनाधिकृतमिति । तो ते तह चेव उच्चलिया सुवन्ननूमि गंतुं, पथे लोगो (१६) इदानीं केनाऽनुयोगः कर्त्तव्य इति द्वारमाहपुच्चइ एस कयरो आयरिओ जाइ। ते कहिंति-अज्जकाल देसकुलजाइरूबी, संहणणी धिजुत्रो अणासंसी । गा, तो सुवन्न नूमीए सागराणं लोगेण कहियं-जहा अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवामी गहियवक्को ।। अजकालगा नाम आयरिया बहुस्मुया बहुपरिवारा इहा जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्यो देसकालजावन्नू । गंतुकामा पंथे वट्टति- ताहे सागरो सिस्साणं पुर भण आसन्नबद्धपश्नो, नाणाविहदेसजासन्नू ॥ ति-मम अज्जया इंति, तेसिं सगासे पयत्ये पुच्छीहामि त्ति । पंचविहे आयारे, जुत्तो मुत्तत्य-तमुनयविहिन्नू । अचिरेणं ते सीसा आगया, नत्थ आग्गल्लेहिं पुच्चिज्जति आहरण हे उवयण-नयनिनणो गाहणाकुसलो ॥ किं इत्थ पायरिया भागया चिट्ठति, नत्थि, नवरं अन्ने ससमयपरसमयविओ गंजीरो दित्तिमं सिवो सोमो। खंता आगया, केरिसा वंदिए नायं एए आयरिया?,ताहे साग गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेनं ।। रोमज्जिो बढुं,मए इत्थं पलावियं-खमासमणाय वंदाविया, युतशब्दः प्रत्येकमाभसंबध्यते । देशयुतःकुलयुत इत्यादि । तत्र ताहे अवरएहवेझाए मिच्छामुक्कम करेइ, आसाइय त्ति । यो मध्यदेशे जातो यावदर्द्धनिंशतिषु जनपदेषु स देशयुतः, भणियं चाणेण-केरिसं खमासमणो अहं वागरेमि आय स वार्यदेशनणितं जानाति, ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्या रिया नणंति-सुंदरं, मा पुण गव्वं करिज्जासि। ताहे धूली अधीयते इति । तदुपादानम्, कुलं पैतृकं, तथाच लोके व्यवहारः, इक्ष्वाकुकुलजोऽयं,नाग (शात) कुलजोऽयमित्यादि । तेन युतःप्रपुंजदिह्रत करेंति, धूनी हत्येण धेत्तुं तिसट्ठाणेसु उयारांत, तिपन्नार्थनिर्वाहको जवति । जातिमातृकी तया युतो विनयादिगुजहा-एस धूली विजमाणी ओखिप्पमाणी ५ सम्वत्थ णवान् भवति । रूपयुतोलोकानां गुणविषयबहुमानभाग जायते, परिसमइ एवं अत्यो वि तित्थगरोहितो गणहराणं गणह- " यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति" इति प्रवादात् । संहननयुतो रोहिंतो जाव अम्हें पायरियं नवजमायाएं परंपरएण व्याख्यायां न श्राम्यति।धृतियुतो नाऽतिगहनेष्वर्थेषु भ्रममुपया ति, अनाशंसी श्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकाङ्की। अविकत्थनो नातिआगयं, को जाण कस्स केइ पज्जाया गलिया ?, तो मा बदुभाषी । स्थिरोऽतिशयेन निरन्तराच्यासतः स्थैर्यमापन्ना गव्वं काहिसि, ताहे मिच्चाउक्कम करित्ता पाढत्ता अज्ज-| अनुयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटी, तस्य हि सूत्रमों कालिया सीसपसीसाणं अणुप्रोगं कहे । या न मनागपि गलति । गृहीतवाक्य उपादेयवचना, तस्य ह्यसंप्रत्यक्करगमनिका-सागारिका शय्यातरस्तस्य 'अप्पाहणं'सं. रूपमपि वचनं महार्थमिव प्रतिनाति । जितपरिषत् महत्यामपि देशकथनं, स्वयमाचार्याणां सुवर्णभूमौ श्रुतशिष्यस्यापि शिष्य पदि न कोभमुपयाति । जितनिद्रो रात्रौ सूत्रमर्थ वाचयन प. रिजावयन् वा न निद्रया वाध्यते। मध्यस्थः सर्वेषु शिष्येषु समस्य सागराभिधानस्य 'खंतलक्खण' वृकव्याजेन गमन, पश्चात शिष्याणां सागरिकेण कथना-यथाऽऽचार्याः सुवर्णनूमौ सा चिनः । देशं कालं भावं च जानातीति देशकालभावकः । स गरस्यान्तिकं गताः, ततः शिष्याणां तत्राऽऽगमनं, सागरं गर्वमु. हि देश कालं जावं च लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति, शिदहन्तं प्रति धूनीपुओपमानमिति । ज्याणां वाभिप्रायान् ज्ञात्वा तान् सुखेनानुवर्त्तयति । आसन्न सधप्रतिभः परवादिना समाक्षिप्तः शीघ्रमुत्तरदायी । नानाचतुर्थभङ्गमधिकृत्याह विधानां देशानां नाषां जानातीति नानाविधदेशनाषाशः , स निउत्तो जनयकालं, भयवं कहणा वचमाणाओ। हि नानादेशीयान् शिष्यान् सुखेन शास्त्राणि प्राहयति । पञ्चधिगोयममाई विसया. सोयव्वे हुँति न निउत्ता ।।१।। ध भाचारो ज्ञानाचारादिरूपस्तस्मिन् युक्तः स्वयमाचारेवस्थिनियुक्त उभयकालमनुयोगं करोति , नियुक्ता उभयकालं तस्यान्यानाचारेषु प्रवर्तयितुमशक्यत्वात् । सूत्रार्थग्रहणेन चशुपवन्ति । अत्र कथनायां दृष्टान्तो नगवान् पर्वमानस्वा- तुर्भङ्गी सूचिता। एकस्य सूत्रं नार्थः ।। द्वितीयस्यार्थो न सूत्रम् मी, श्रोतव्ये सदा नियुक्ता दृष्टान्ता नवन्ति गौतमादयः। २। तृतीयस्य सूत्रमप्यर्थोऽपि ३। चतुर्थस्य न सूत्रं नाऽप्यर्थः ('चायणा' शब्दे चैतद् विस्तरतो वक्ष्यते ) गतं प्रवृ- ४।तत्र तृतीयभन्नग्रहणाथै तभयग्रहण सूत्रार्थ तदुभयविधीन तिद्वारम् । बृ०१०। अनु । जानातीति सूत्रार्थतनयविधिः । श्राहरणं रटान्तः । हेतुश्च(१५) उद्यमी मूरिरुद्यमिनः शिष्याः, उद्यमी रिरनुद्यमिनः तुर्विधो झापकादिर्यथा-दशवैकालिकनियुक्ती, यदि वा द्विविधो शिष्याः, अनुद्यमी सूरिरुद्यमिनः शिष्याः, अनुद्यमी सूरिरनुध- हेतुः-कारको ज्ञापकश्च । तत्र कारको-घटस्य कर्ता कुम्भकारः। मिनः शिष्याः, इति चतुर्भङ्गी। कापको यथा--तमसि घटादीनामनिव्यञ्जका प्रदीपः । अत्र प्रथमन्नने अनुयोगस्य प्रवृत्तिर्भवति, चतुर्थे तु न भव- उपनय उपसंहारः, नया नैगमादयः, एतेषु निपुण थाहरणहेति, द्वितीयतृतीययोस्तु कदाचित्कथश्चिद्भवत्यपि । अनु०। तूपनयनिपुणः , स हि श्रोतारमपेक्ष्य तत्प्रतिपस्यनुरोधतःक"पत्थं पुण अहिगारो, सुयणाणणं जो सुपणं तु। चित् दृष्टान्तोपन्यासं क्वचिकेतूपन्यासं करोति । नपसंहारनिपु. सेसाणमप्पणो वि य, अणुओगपश्वदिटुंतो॥ णतया सम्यगधिकृतमुपसंहरति । नयनिपुणतया नयवक्तव्यता. श्रुतस्य चोद्देशादयः प्रवर्तन्त इति । उक्तंच-'सुयणास्स रहे । यसरे सम्यकप्रपञ्चं वविक्त्येन नयानभिधत्ते । ग्राहणाकुशल Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५३) अणुभोग अभिधानराजेन्द्रः। अणुओग प्रतिपादनशक्त्युपेतः, स्थसमयं परसमयं वेत्तीति स्वसमय- सुयखंधे निक्खेवो, इक्केके चनविहो होई ॥ परसमयविदः स च परेणाक्तिप्तः सुखेन स्वपक्कं परपकं च | अनुयोगे अनादेः पृच्या वक्तव्या, तदनन्तरं कस्पस्य षटू निके निर्वाहयति । गम्भीरोऽतुच्छस्वन्नाव। दीप्तिमान् परवादिनाम पः, ततः श्रुतस्कन्धे च पकैकस्मिन् निकेपश्चतुर्विधो भवतीति नुवर्षणीयः । शिवोऽकोपनः। यदि वा यत्र तत्र बा बिहरन क वक्तव्यः । एष द्वारगाथासमासार्थः । स्याणकरः। सोमः शान्तहाष्टिः । गुणा मूलगुणा उत्तरगुणाच, साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतोऽनुयोगे प्रजादे पृच्चामाहतेषां शतानि तैः कसितो गुणशतकसितः। युक्तः समीचीनप्रवच जइ कप्पाइडणुप्रोगो, किं सो अंग उयाहु सुपखंधो । मस्य द्वादशाङ्गस्य सारमर्थ कथयितुम् । कस्माद् गुणशतकलित इभ्यते इति चेदत पाह अज्मयणं नसो, पडिवखंगादियो बहवो ॥ यदि कल्पादेरादिशब्दाद् व्यवहारस्य प्रहणमनुयोगस्ततः गुणमुट्ठियस्स बयणं, घयपरिसित्तु व पावो भाइ । किं सोऽमुताहो श्रुतस्कन्धोऽध्ययनमुद्देशो वा । अमीषां चाला. गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविद्रणो जह पईवो ॥ नां प्रतिपक्का बहवोऽनादयो अष्टव्याः । श्यमत्र भावना-यदि यो मूलगुणादिषु गुणेषु सुस्थितस्तस्य वचनं घृतपरिसिक्तपा- नामैताशेनाऽऽचार्यणानुयोगः कल्पस्य व्यवहारस्थ च कर्तवक श्व जाति दीप्यते । गुणहीनस्य तु न शोनते वचनम् , व्यः, स कल्पो व्यवहारो वा किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतयथा स्नेदेन विहीनः प्रदीपः। उक्तंच-“श्रायारे घडतो, आया- स्कन्धाः , अध्ययनमभ्ययनानि , उद्देश उद्देशाः । रपरूवणाअसकतो। आयारपरिभट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइ-| अत्र सुरिराहश्रो॥" गतं केन चेति द्वारम । सुयखंधो अज्झयणा, उद्देसा चेव हुंति निक्खिप्पा । (१७) अधुना कस्येति द्वारमाह सेसाणं पडिसेहो, पंचएह वि अंगमाईणं ॥ जइ पवयणस्स सारो, अत्यो सो तेण कस्स कायव्यो । श्रुतस्कन्धोऽध्ययनानि उद्देशा पते त्रयः पक्का नवन्ति निकेप्याः एवं गुणन्निएणं, सव्वसुयस्सा न देसस्सा॥ स्थाप्या आदरणीया इत्यर्थः। शेषाणां पश्चानामप्यङ्गादीनां प्र. यदि प्रवचनस्य सारोऽर्थस्तर्हि स तेनैवंगुणान्वितेन कस्य क-1 तिषेधः । तद्यथा-कल्पो व्यवहारो वा-नाझं नाङ्गानि , श्रुतस्कसंव्यः १। किं सर्वश्रुतस्य, नत देशस्य श्रुतस्कन्धादेरिति । न्धो नो श्रुतस्कन्धाः, अध्ययनं नाध्ययनानि, नो उद्देश उद्देशाः। अत्र सूरिराह तम्हा न निक्खिविस, कप्प ववहार सो सुयक्खधं । को कद्वाणं नेच्छ, सव्यस्स वि एरिसेण वत्तव्यो। अज्झयणं उद्देशं, निक्खिवियव्यं तु जं जत्थ ।। कप्पव्यवहारेण न, पगयं सिस्साण थिज्जत्थं ॥ यस्मादेवं तस्मात्कल्पं निवेप्स्यामि,व्यवहारं निवेप्स्यामि,स्कको नाम जगति कल्याणं नच्चति । ततः सर्वस्यापि श्रुतस्या- न्धं निकेप्स्यामि, अध्ययनं निवेप्स्यामि,उद्देशं निवेप्स्यामि, यश नुयोग ईरशेन वक्तव्यः, केवलं कल्पो व्यवहारश्चापवादबहुल- यन्त्र निकेतव्यं नामादिचतुम्प्रकारं षट्प्रकारं च तत्र वक्यामि,तत्र स्तेन तयोरनुयोगे विशेषत एतादृशेन प्रकृतमधिकारः, एवं गुण- कल्पस्य षडियोनामादिको निकेपः। यत उक्तं प्रारद्वारगाथायामयुक्तेनैव कल्पव्यवहारयोरनुयोगः कर्त्तव्य इत्यर्थः । कस्मादेवमु- 'कप्पकनिक्लेवो' व्यवहारस्य चतुर्विधो नामादिनिक्षेपः। च्यते?-शिष्याणां स्थिरीकरणार्थम् । एतयोः स्वस्थानमाहतदेवं स्थिरीकरणं भावयति आश्वाणं दुएह वि, सहाणं होइ नामनिष्फने। एसुस्सग्गठियप्पा, जयणाऽणुन्ना ता दरिसंयतो वि । अज्झयणस्स चउबिहे, उद्देसस्सऽगमे भीणो॥ तासु न बट्टइ नूणं , निच्चयोता विश्रकरिज्जा॥ | पाययोदयोः कल्पव्यवहारयोर्यथाक्रमं षटूस्य चतुष्कस्य नियदा नाम यथोक्तगुणशतकलितः कस्पव्यवहारयोरनुयोगं क- केपस्य स्थानं भवति नामनिष्पन्ने निक्केपे , ततःस तत्र वक्तव्यः रोति तदा शिया एवमेव बुध्यन्ते-पष स्वयमुत्सर्गस्थितास्मा , तत्र कल्पस्य पश्चकल्पे , व्यवहारस्य पीठिकाया अध्ययनस्य अथ च कल्पे व्यवहारे च यतनया पञ्चकादिपरिहाणिरूपया चतुकारो निकेप ओघनिष्पन्ने निक्केपेऽनिधास्यते । उद्देप्रतिसेवनाः अनुज्ञाताः प्रदर्शयति । ततः प्रतिसेवनायतनया अनु- शस्य चानुगमे उपोद्घाते निर्युक्यनुगमे भणितः ।। काता अपि प्रदर्शयन् स्वयं तासुन वर्तते, किंतु केवलमुत्सर्ग- संप्रति 'सुयखंधे निक्लेवो' इत्यादिव्याख्यानार्थमाहमाचरति, तदेवं कायते नूनम, निश्चयेनैता यतनया अनुज्ञाता अपि नाममुयं उवणसुयं, दध्वसुयं चेव होइ जावसुयं । प्रतिसेवना भकरणीया न समाचरितव्याः। एमेव होइ खंधे, पनवणा तेसिँ पुन्बुत्ता ॥ श्रुतस्य चतुष्पकारो नामादिको निक्षेपः । तद्यथा-नामभुतं जो उत्तमेहि पहो, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं । स्थापनाश्रुतं द्रव्यश्रुतं भावभुतं च । एवमेव अनेनैव प्रकारेण, आयरियम्मि जयंते, तदणुचराकेण सीइज्जा ॥ स्कन्धेऽपिचतुषकारोनिक्केपः। तद्यथा-नामस्कन्धः,स्थापनास्कय उत्तमर्गुरुनिः प्रहतः कुलो मार्गः पन्थाः स शेषाणां दुर्गमो न्धः, व्यस्कन्धः, भावस्कन्धश्च । एतेषां प्रज्ञापना पूर्वमावम भवति, किं तु सुगमः तत्र आचार्य यतमाने यथोक्तसूत्रनीत्या श्यके मुक्ताऽवधारणीया ॥ गतं कस्यति द्वारम् ॥०१०। प्रवनवति,तदनुचरास्तदाश्रिताः शिष्याः केन हेतुना सीदेयुः?, (१८) इदमेव सप्तमं द्वारं चेतसि निधाय सूत्रकृदाहनैव सादेयुरिति भावः । तत पतेन कारणेन कल्पव्यवहारयोर. नाणं पंचविहं पएणतं । तं जहा-आनिणिवाहियनाणं. नुयोगे विशेषत एतादृशेन प्रकृतम् । सुयनाणं, प्रोहियणाणं, मणपज्जवणाणं, केवलनाणं ।। अणुओगम्मि य पुच्छा, अंगाइ अ कप्पकनिक्खेवो। यदि नाम झानं पञ्चविधं प्रझप्तं ततः कि.मित्याह Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुओग (३५४) अभिधानराजेन्द्रः। अणुयोग तत्य चत्वारि नाणा उप्पाई विणिज्जाइंपोउहिस्स- स्सगवितिरिसस्स अणुयोगोश्रावस्मगस्स वि अणुमोति, पो समुहिस्संति, णो अणुप्मविज्जति । सुयनाणस्स गो, श्रावस्सगवितिरित्तस्स वि अणुप्रोगो ॥ नरेसो समुदेसो अणुएणा अणुअोगो य पवत्त ॥ (यदीत्यादि) ययुक्तक्रमेण भुतकानस्योदेशः समुद्देशोऽनुका (तत्थेत्यादि) तत्र तस्मिन् मानपके भाभिनियोधिकाबाधिमनः | मनुयोगध प्रवर्तते तहिं किमसावजमविष्टस्य प्रवर्तते, सतापर्यायकेवलाल्यानि चत्वारि ज्ञानानि (ठप्पा ति) स्थाप्यान्य- अबाह्यस्येति। तत्रानेषु प्रविष्टमन्तर्गतमप्रविधभुतमाचारादि, संग्यवहार्याणि । व्यवहारनये दियदेव लोकस्योपकारे वर्तते तराह्यमुत्तराध्ययनादि । भत्र गुरुनिर्वचनमाह-(भंगपषिटुतदेव संव्यवहार्य मन्यते । सोकस्य च हेयोपादेयेप्वर्येषु निवृ- स्स बीत्यादि) अपिशम्दौ परस्परसमुच्चयायौँ । अङ्गप्रविष्टस्यासिप्रवृत्तिहारण प्रायःभुतमेव साकादत्यन्तोपकारि । यद्यपि के- प्युद्देशादि प्रवर्तते, तबाह्यस्यापि । इदं पुनःप्रस्तुतं प्रस्थापन बलादिष्टमर्थ भुतमनिधत्ते तथापि गौणवृत्या तानि स्नोकोप- प्रारम्भं प्रतीत्याश्रित्याबाह्यस्य प्रवर्तते नेतरस्थ, मावश्यकं यत्र कारीणीति नावः । याक्तन्यायेनासंव्यवहार्याणि तानि ततःकि- व्याख्यास्यते तमामबाह्यमेवेति भावः । अत्राबाह्यस्येति सामित्याह-(ग्वणिजाई ति)ततः स्थापनीयानि पतानि तथाविधो- मान्योको सत्यां संशयानो विनेय माह-जाभंगवाहिरस्येपकाराभावतोऽसंव्यवहार्यत्वात्तिष्ठन्ति, नतैरिहोदेशसमुद्देशाच- त्यादि] यद्यमबाह्यस्योदेशादिः, किमसौ कासिकस्य प्रवर्तते - घसरेअधिकार इत्यर्थः। अथवा स्थाप्यान्यमुखराणि खस्वरूपप्रति- स्कालिकस्य वा; विधाऽप्याबाह्यस्य संजयादिति जावः। तत्र पादने ऽप्यसमानि,नाहि शब्दमन्तरेण स्वस्वरूपमपि केवलादी- दिवसनिशाप्रथमचरमपौरुषीक्षणे कालेधीयते नान्यत्रेति नि प्रतिपादयितुं समर्थानि । शम्दवानन्तरमेव अतत्वेनोक - कानिकमत्तराध्ययनादि । यन कासवेसामात्रवर्जशेषकालानिति स्वपरस्वरूपप्रतिपादने अतमेव समर्थम,स्वरूपकथनं चेदम, यमेन पठ्यते तदुत्कासिकमावश्यकादि । अत्र गुरु प्रतिवचनभतः स्थाप्यानि प्रमुखराणि यानि चत्वारि ज्ञानानि तानीहानु- माह-(कालियस्स वीत्यादि) कासिकस्याप्यसौ प्रवर्तते, ह. योगहारविचारप्रक्रमे । किमित्याह--अनुपयोगित्वात्स्थापनीया- कालिकस्यापि । श्वं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्नं प्रतीत्य न्यनधिकृतानियत्रैव हघुदेशसमुद्देशानुकादयः क्रियन्ते तत्रैवाऽ उत्कालिकस्य मन्तव्यम् । आवश्यकमेव खत्र व्यास्यास्यते, तनुयोगस्तद्वाराणि चोपक्रमादीन प्रवर्तन्ते । पवंचूतं त्वाचा- बोत्कासिकमेवेति हृदयमा सत्कालिकस्येति सामान्यवचने वि. रादिभुतानमेवेत्यत उद्देशाविषयत्वादनुपयोगीनि शेष शेषजिज्ञासुः पृच्चति-[ज सकामियस्सेत्यादि] यद्युत्कालिस्योज्ञानानि इत्यतोऽत्रानधिकतानि । अत्राह-अनुयोगो व्याख्यानम्। देशादिस्तत्किमावश्यकस्यायं प्रवर्तते?, अथवाऽवश्यकव्यतिताशेषशानचतुष्टयस्यापि प्रवर्तत एवेति कथमनुपयो- रिक्तस्य ? सभयथाऽप्युत्कालिकस्य संत्रवादिति । परमार्थस्तत्र गित्वम'। ननु समयचर्याऽनमितासूचकमेवेदं वचः, यत- श्रमणैः श्रावधोनयसभ्यमवश्यंकरणादावश्यकं सामायिस्तत्रापि तज्ज्ञानप्रतिपादकसूबसंदर्भ पर व्याख्यायते, सत कादिषमध्ययनकझापः । तस्मात्तु व्यतिरिक्तं जिन्नं दशवकालिभुतमेवेति, तस्यैवानुयोगप्रवृत्तिरिति । अथवा स्थाप्यानि गुर्व- कादि । गुरुराह-[भावस्सगस्स बीत्यादि] वयोरप्यतयोः सानधीतत्वेनोद्देशाधाविषयसूतानि । एतदेव विवृणाति-स्थापनी- | मान्येनोदेशादिःप्रवर्तते किन्विदं प्रस्तुतं प्रस्थापनं प्रारम्भ यानीत्येकार्थी द्वावपि । श्वमुक्तं भवति-अनेकार्थत्वादतिगम्भी- प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोगो नेतरस्य, सकलसामाचारीमूलत्वादरत्वाद् विविधमन्त्राचतिशयसम्पनत्वाथ प्रायो गुरूपदेशापेकं स्यैवेद शेषपरिहारेण व्याख्यानादिति भावनीयम् । उद्देशभुतकानम् , तथ गुरोरन्तिके गृह्यमाणं परमकल्याणकोशत्वापुढे समुद्देशानुकास्त्यावश्यके प्रवर्तमाना अप्यत्र नाधिकृताः , अनुयोशादिविधिना गृह्यत इति । तस्योद्देशादयः प्रवर्तन्ते, शेषाणि तु | गावसरत्वात् । अतस्तत्परिहारेणोक्तम्-(अणुप्रोमो त्ति) अनु०॥ चत्वारिकानानि तदावरणकर्मवयोपशमाज्यां स्वत एव जाय. इमं पुण पट्टवणं पमुच्च आवस्सगस्स अणुओमोजियामानानि नोद्देशादिप्रक्रममपेक्वन्ते । यतश्चैवमत पाह-'नो नदिसिज्जंतीत्यादि'नो उद्दिश्यन्ते नो समुद्दिश्यन्ते नो अनुझाय वस्सगस्स अनुप्रोगो, किं अंग अंगाई सुअखंधो सुअखंधा न्ते । अनु० एवं श्रुतस्यैव उद्देशादयःप्रवर्तन्ते न शेषकानानाम् । अज्झयणं अज्जयणाइ नद्देसो उद्देसा? आवस्सयस्स'णं नो अत्र चाऽनुयोगेनवाधिकारो न शेषैः, अनुयोगद्वारविचारस्यैवे- अंग नो अंगाईनो सुअखंधो नो मुअखंधा नो अज्क्रयणं हप्रक्रान्तत्वात् । मत्र यथाऽनिहितमुपजीव्याह शिष्या- नो अज्जयणाईनो उद्देसो नो उद्देसा। जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो प्रणमा अणुभोगो य | इदं पुनःप्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोग इति पुनरपि पाहपवत्त, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो अणुप्या अणुओगो य प- (जर आवस्सगस्सेत्यादि) यद्यावश्यकस्य प्रस्तुतोऽनुयोगस्तहि बत्तइ,किं भंगवाहिरस्स नहेसो समुद्देसो भणुप्मा अणुयोगो । किमाणमिति वाक्यालङ्कारे, किमिति परिप्रमे, किमेकं हादशापपत्तइ ?। अंगपविधस्स वि उद्देसोजाव पवत्त, अणंगप कान्तर्गतमङ्गमिदमुत बहुन्यजानि । अथैकः श्रुतस्कन्धो बढ्यो वा श्रुतस्कन्धाः, अभ्ययनं चैकं बहनि वाऽध्ययनानि उद्देशको विहस्स वि.नद्देसो जाव पवत्तइ । इमं पुण पडवणं पहुच्च अ बाएको बहवो वा उद्देशकाः?,श्त्यष्टौ प्रमाः। तत्र श्रुतस्कन्धोऽश्यणंगपविट्ठस्स अणुप्रोगो। जइ अणंगपविट्ठस्स अणुओगो, यनानि चेदमिति प्रतिपत्तव्यम् । षमभ्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपकिं कालिअस्स अणुअोगो, उक्कालिअस्स अणुओगो। का- त्वादस्य। शेषास्तु षट् प्रश्ना अनादेयाः,अनादिरूपत्वात्। श्येलिअस्स वि अणुभोगो, उकालिअस्स वि अणुओगो । इम तदेवाह-(श्रावस्सयस णमित्यादि) अत्राह-नन्नावश्यक किम अमानीत्येतत् प्रश्नवयमत्रानवकाशमेव,नन्द्यभ्ययन एवास्यानपुण पठ्ठवणं पमुच्च उक्कालिअस्स अणुप्रोगो। ज उका अप्रविष्टत्वेन निर्णीतत्वात् । तथात्राऽप्यक्यायोत्कालिकक्रमेणाननिमस्स अणुभोगो, किं श्रावस्सगस्स अणुओगो, आव- न्तरमेवोक्तत्वादिति । अत्रोच्यते-यत्तायदुक्तं नन्यभ्ययन एथे . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुप्रोग अनिधानराजेन्डः । अणुप्रोग स्यादि । तदयुक्तम् । यतो नावश्यकनन्द्यध्ययनं व्याख्याय तदिदं स्थानीयं रजोहरणादि लिङ्गं दीयते , तदनन्तरं मिथ्यात्वस्य व्याख्येयमिति नियमोऽस्ति , कदाचिदनुयोगधारव्याख्यानस्यैव ज्ञानस्य च कचवरस्थानीयस्य शोधनं, ततः शोधयित्वा मिप्रथमं प्रवृत्तेः। अनियमझापश्चायमेव सूत्रोपन्यासः, अन्यथा ध्यात्वं समूलमुत्खन्य स्थिरीकरणानिमित्तं सम्यक्त्वगुणैर्यच्छेघाबाह्यत्वेऽस्य तत्रैव निश्चितः, किमिहानामङ्गप्राविचिन्तासू- षमवतिष्ठd मिथ्यात्वपुजनात्मकवत् कुकृयित्वा भस्मच्चमानिबोपन्यासेनेति । मिव कृत्वा । तत तपरिश्ष्टकास्थापननिभानि व्रतानि दीयन्ते,तत अधुना तद्द्वारं वक्तव्यम् । यदाह श्रावश्यकमादित्वा यावत् सूत्रकृतं तावत्पी प्रवति, ततो तस्स णं मे चत्तारि अणुप्रोगदारा भवंति । वं जहा यकाभ्यां प्रकृतं तो कल्पव्यवहारौ प्रासादस्थानीयौ दीयेते,तत्राउपक्कमे १ णिक्खेवे ३ अणुगमे ३ गए ४॥ अनु । र्थपदानि यानि तानि रत्लनिनानि । गतं तदद्वारम् । १०१००। तथा तस्यैवानुयोगस्य परिषद् वक्तव्या । (साच 'सेलघणकुरस्दानी भेदद्वारं तेषामेव द्वाराणामानुपूर्वी नाम प्रमाणादिको: ग'इत्यादिष्टान्तः परीवितव्येति 'सीस' हाम्दे , ज्ञापिकाका वोकस्वरूपो दो वक्तव्यः । चत्रिविधा पर्वत परिसा' शब्दे वक्ष्यते) (१६) तथाऽनुयोगस्य लक्षणं वाच्यम्- यदाह (२१) संप्रति कयाऽधिकार इति प्रतिपादयति“संधियायपदं चेव, पयत्थो पयविभाहो। उत्ततिाए पगयं, जइ पुण सा होजिमेहिँ उववेया। खालणा य पसिकीय, विहं विद्धि लक्षणं"। तो देति जहिँ पगयं, तदभावे गणमादीणि ।। प्रश्ने कृते सति (पसिद्धि ति) चालनायां सत्यां प्रसिद्धिः अत्र ग्त्रान्तिकया पर्षदा प्रकृतमधिकारः, शेषाः पर्षद नचरिसमाधानम, (विकिति)जानीहि । व्याख्येयसूत्रस्य च "अलि- तसरशा इति प्ररूपिताः। तत्र यदि सा ग्त्रान्तिका पर्षद पनियमुग्धायजणयमित्यादि" द्वात्रिंशद्दोषरहितत्वादिकं सक्कणं व- पंक्यमाणैर्गुणैरुपेता भवति तदा यकाभ्यामत्र प्रकृतं तवको कव्यम् । अनु। ग्यवहारीसूरयो ददति, तदनाचे वक्ष्यमाणगुणाभावे स्थानादी(२०) यथोक्तगुणयुक्तस्य सूत्रस्य कोई इत्यनेन संबन्धन नि, आदिग्रहणेन प्रकीर्णकानां परिग्रहः । तदहंघारमापतितम् । तत्र सोऽहं उरिककादिष्टान्त अथ के ते गुणा श्त्यत आहस्योपनयभूतस्तत पाह बहुस्सुए चिरपन्चइए, कप्पिए य अचंचलो। उडिय नूमी पेटिय, पुरिसरगहणं तु पढमश्रो काउं। अवहिए य मेहावी, अपरिजाविमो विउ ।। एवं परिक्खिपम्मी, दायव्यं वा न वा पुरिसे ॥ पने य अणुमाते, भावतो परिणामगे । नवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमत सएिमकापातस्य योग्या भूमि एयारिसे महाभागे, अणुओगं सोउमरिहइ ॥ स्तस्य तत्पदानार्थमुखा पात्यते,ततो नूमिशोधनं, तदनन्तरं पीठिका; एवमत्रापि प्रथमतःपुरुषग्रहणं कृत्वा तदनन्तरं परीक्षा बहुश्रुतश्विरप्रवजितः, कल्पिकोऽचञ्चत्रः, अवस्थितो, मेधावी, कर्तव्या-किमयमपरिणामकोऽतिपरिणामकः,परिणामको वेति। अपरिभावी, यश्च विविद्वान् प्रभूताशेषशास्त्रपरिमलितबुकिः, एवं पुरुषे परीकिते दातव्यं, न वा अपरिणामके अतिपरिणाम. (पत्ते यत्ति) पात्रं प्राप्तो वा तथाऽनुज्ञातः सन् भावतश्च परिके वा न दातव्यम, परिणामके दातव्यमिति गाथासंकेपार्थः। णामका , एतादृशोमहाभागोऽनुयोग श्रीतुमर्हति, सामर्थ्यात् कल्पव्यवहारयोः। एष हारगाथाद्वयसंक्षेपार्थः । वृ० १ उ०। सांप्रतमेनामेव विवरीषुराह (बहुश्रुतादीनां तिन्तिणिकादीनां च व्याख्या स्वस्वस्थाने भनिनवनगरनिवेसे, सममिविरेयणऽक्खरविहिन् काव्या) एतत्सर्वमभिधाय ततःसूत्रार्थो वक्तव्यः । पाडेइ लंमियाश्रो, जा जस्स हाणसोहणया । (१२) सोऽनुयोगश्चतुर्विधोभवतिखणणं कुट्टण ठवणं, पीई पासाय रयण मुहवासो। सुयनाणे अणुअोगे-हिंगयं सो चउब्धिहो होइ। इस संजमनगरुंमिय-लिंग मिच्चत्तसोहणम् ॥ चरणकरणानुयोगे, धम्मं काले य दविए य॥ वरि इटगठवणनिना, पेदं पुण होइ जाव सूयगडं । कथम,चरणकरणानुयोगः, चर्यत इति चरणं प्रतादि, यथोक्तम्पासाय जहिं पगयं, रयणनिजा हुँति अत्यपया ।। "वय समणधम्म संजम, बेयावच्चं च बंन गुत्तीरो ।णाणादि अभिनवे नगरे निवेश्यमाने प्रथमतो मिः परीक्ष्यते, परीक्ष्य तियं तवको-दनिग्गहादी चरणमेय" ॥१॥ क्रियत इति करणच तस्याः सममिविरेचन विधीयते । तदनन्तरमकरविधिको पिएमविशुद्ध्यादि । उक्तं च-"पिंमविसोही समिई, भावणपडिया यस्य योग्या तू मिस्तस्य तस्याः प्रदानार्थमुएिमका अकरसं- मादियनिरोहो ॥ पमिनेहणगुत्तीओ, अभिग्गहा चेष करणं हिताः मुखिकाः पातयति । ततः स्वस्थानस्य शोधनता-शोधनम्। तु"॥१॥ चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः। अनुरूपो ततः स्वस्याः १ भूमेः स्खननं, तदनन्तरं घणरिएकाशकलानि योगोऽनुयोगः-सूत्रस्यार्थेन साईमनुरूपः संबन्धो व्याख्यानप्रक्विप्य तेषां कुहनं, ततस्तस्योपरिएकानां स्थापनं, तदनन्तरं मित्यर्थः । पकारान्तः शब्दः प्राकृतीच्या प्रथमाद्वितीयान्तोऽपि यावत सूत्रं तावत् पीठं,ततस्तस्य पीकस्योपरि प्रासादकरणं, अव्यः । यथा “कयरे आगच्छा दिसावे" इत्यादि । धर्मति तदनन्तरं तेषां प्रासादानां रत्तरापरणं,ततः सुखेन वासः परि धर्मकथानुयोगः । काले चेति कालाऽनुयोगश्च गणितानुयोग. घसनम् । पप रशन्तः। अयमर्थोपनया-तूमीग्रहणस्थानीयं पुरुष. वेत्यर्थः । द्रव्यं चेति द्रव्यानुयोगश्च । तत्र कालिकश्रुतं चरणकर. प्रहणं, शुरूं पुरुषं परीक्ष्य तस्य प्रवज्यादानमित्यर्थः। तत इति' णानयोगः, ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुएवमुक्तप्रकारेण नगरस्थानीये संयमे स्थाप्यते, तत उरिमका- योगः, सूर्यप्राप्त्यादिगणितानुयोगः, दृष्टिवादस्तु द्रव्याऽनुयोगः Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) अणुप्रोग अभिधानराजेन्द्रः। अणुभोग इति । उक्तंच-"कालियसुयं च इसिभा-सिया तश्यो यसूरपन्न- तथा चरणपदं भिन्नया विभत्त्या किमर्थमुपभ्यस्तम, धर्मगणिसी। सब्यो य दिहिवाओ, चउत्थरो होश अणुशोगो" इति तानुयोगौ तु एकयैव विजक्तचा, पुन:व्यानुयोगो भिन्नया विभगाथार्थः । वह चौघतोऽनुयोगो विधा-अपृथक्त्वानुयोगः पृथ- क्त्येति,तथाऽनुयोगशब्दश्च एक परोपन्यसनीयः,किमर्थं द्रव्याक्वानुयोगश्च । तत्रापृथक्त्वानुयोगी यौकस्मिमेव सूत्रे सर्व एष नुयोग इति भेदेनोपन्यस्त इति । अत्रोच्यते-पत्तावदुक्तं चतुचरणादयःप्ररुप्यन्ते, अनन्तागमपर्यायत्वात्सूत्रस्य । पृथक्त्वानु- ग्रहणंन कर्तव्यं,विशिष्टपदोपन्यासात् । तदसत् । यतोन विशियोगश्च यत्र कचित् सूत्रे चरणकरणमेव, कचित्पुनर्धर्मकथा वे- एपदोपन्यासे विशिष्टसहपाश्वगमो नवति,विशिष्टपदोपन्यासे. त्यादि । दश०१०। चरणकरणाद्यनुयोगाः “ोहेण उणि. ऽपि कुतश्चरणधर्मगणितव्यपदानि सन्तीति , अन्यान्यपि स. ज्जुर्ति, वोच्चं चरणकरणाणुओगाओ "इति नियुकिगाथाया- न्तीतिसंशयो मा भूत्कस्यचिदित्यतश्चतुर्ग्रहणं क्रियत इति । तथा श्वरणकरणस्येति वक्तव्ये शैली त्यक्त्वा पञ्चम्या निर्देशं कुर्वन्ना- पञ्चोक्तम्-भिन्नया बिजक्त्या चरणपदं केन कारणेनोपन्यस्तं, चार्य पतवापयति-सन्स्यन्येऽप्यनुयोगा इति। तदत्राह'चरण- तत्रैतत् प्रयोजनम, चरणकरणानुयोग एवाध्याधिकृतप्राधाकरणानुयोगाद्वदये नान्यानुयोगेन्यः' इति । तथा षष्ठी द्विविधा न्यख्यापनार्थ भिन्नया विनक्त्या उपन्यास ति । तथा धर्मगरष्टा-भेदषष्ठी, अभेदषष्ठी च। तत्र भेदषष्ठी यथा-देवदत्तस्य णितानुयोगौ एकविभक्त्योपन्यस्तोः अत्र प्रक्रमे अप्रधानावेगृहम् । अभेदषष्ठी यथा-तैलस्य धारा, शिन्नापुत्रकस्य शरीरक- ताविति। तथा द्रव्यानुयोगे च निन्नविनत्योपन्यासे प्रयोजनम्। मिति। तद् यदि षष्ठया उपन्यासः कियते ततो न ज्ञायते, किंच. अयं हि एकैकानुयोगमीलनीयः, न पुनलौकिकशास्त्रवाक्तिभिरणकरणानुयोगस्य भिन्नामाघनियुक्ति बदये, यथा-देवदत्तस्य विचारणीय इति । तथाऽनुयोगे शब्दद्वयोपन्यासे प्रयोजनमुच्यगृहमिति, पाहोखिदभिन्नां वदये, यथा तैलस्य धारेत्यस्य संमो- ते । यत् त्रयाणां पदानामन्तेऽनुयोगपदमुपन्यस्तं तदपृथक्ताऽनुहस्य निवृत्त्यथै पञ्चम्या उपन्यासः कृत इति । एवं व्याख्याते स- योगप्रतिपादनार्थम: या द्रव्यानुयोग इति तत्पृथक्त्वानुयोगत्यपरस्त्वाह-अस्तीत्येकचनम् , अनुयोगाबहवश्च , तत्कथं बहु- प्रतिपादनार्थमिति । एवं व्याख्याते सत्याह पर हगाथाः, तत्र त्वं प्रतिपादयति । उच्यते-अस्तीति तिङन्तप्रतिरूपकमव्ययम् । पर्यायत श्दमुक्तम्-'यथाक्रमं ते महर्टिकाः' इति। एवं तर्हि चरणअव्ययं च-"सरशं त्रिषु लिष, सर्वासु च विभाक्तिषु । बच्च करणानुयोगस्य सघुत्वं, तकिमर्थं तस्य नियुक्तिः क्रियते !, अपि नेषु च सर्वेषु, यन्न व्यति तदव्ययम्"।ततो बहुत्वं प्रतिपादयत्ये. तु द्रव्यानुयोगस्य युज्यते कर्तुम् , सर्वेषामेव प्रधानत्वात् । एवं वेत्यदोषः। अथवा-व्यवहितःसंबन्धोऽस्तिशनस्य,कथमिदमी, चोदकेनाकेपे कृते सत्युच्यतेचोदकवचनम् । षष्ठी सम्बन्धे किमिति न भवति विभक्तिः। श्री- सविसयबलवत्तं पुण, जुज्जइ तह विय महाढियं चरणं । चार्य पाह-अस्ति षष्ठीविभक्तिः । पुनरप्याह-यद्यस्ति ततः प. चारित्तरक्खणहा, जेणियर तिनि अणुओगा ॥ ७॥ श्चमी भणिता किम् । प्राचार्य पाह-अन्येऽप्यनुयोगाश्चत्वास, स्वश्चासौ विषयश्च स्वविषयः, तस्मिन् स्वविषये, बनवत्वं पुनमतः षष्ठी विद्यमानाऽपि नोक्तेति भावना पूर्ववत् । युज्यते घटते । पतयुक्तं नवति-प्रात्माऽऽत्मीयविषये सर्व पर अन्ये ऽपि अनुयोगाः सन्तीत्युक्तम, न च ज्ञायन्ते बलवन्तो वर्तन्त इति । एवं व्याख्याते सत्यपरस्वाह-यव सर्वेषाकियन्तोऽपिते इत्यत्र प्रतिपादयत्राह मेव नियुक्तिकरण प्राप्तम,प्रात्मात्मीयविषये सर्वेषामेव बलवत्याचत्तारिन अणोगा, चरणे धम्मगणियाणुप्रोगे य। ततथापि चरणकरणानुयोगस्य न कत्तव्येति । एवं चोदनाsदवियऽणुओगे य तहा, जहकमं ते महतीया ॥ ७॥ शक्षिते सत्याद गुरु:-( तह वि य महष्ट्रिय चरण) तथाऽप्येव. चत्वार ति संख्यावचनः शब्दः, अनुकूबा अनुरूपा वा योगा मपि स्वविषये बलवत्वेऽपि सति महर्डिक चरणमेव, शेषानुयो. अनुयोगाः । तुशब्द एवकारार्थः । चत्वार एव ते । अन्ये तु तु- गानां चरणकरणानुयोगार्थमेवोपादानतः पूर्वीऽत्यन्तसंरकणाशब्द विशेषणार्थ व्याख्यानयन्ति । किं विशेषयन्तीति चत्वा- थै पूर्वप्रतिपत्त्यर्थं च । शेषाऽनुयोगा अप्यैवंवृत्तिभूताः। यथा हि रोऽनुयोगाः, तुशब्दाद् द्वौ च, पृथक्ने दात् । कथं चत्वारोऽ करिखएमार्थ वृत्तिरुपादीयते,तत्र हि कर्पूरखएप्रधानं न पुननुयोगा इत्याह-(चरणे धम्मगणियाणुनोगे य)चयत तिच.| वृत्तिः । एवमत्रापि चारित्ररकणार्थ शेषाऽनुयोगानामुपन्यासः। रणं, तद्विषयोऽनुयोगश्चरणानुयोगस्तस्मिन् चरणानुयोगे । पत्र तथा चाद-[चारित्तरक्खणा जेणियरे तिन्नि अणुश्रोगा] चोत्तरपदसोपादित्थमुपन्यासः,अन्यथा चरणकरणानुयोगश्त्येवं चरित्रमेव चारित्रं, तस्य रकणं, तदर्थ चारित्ररकणार्थ, येन धक्तम्यम सच एकादशाङ्गरूपः। (धम्मे ति ) धारयतीति धर्मः कारणेन इतर शति धर्मानुयोगादयत्रयोऽनुयोगा इति ॥ दुर्गतौ प्रपतन्तं सत्वमिति,तस्मिन् धम्म, धर्मविषयो द्वितीयोऽनु- एवं व्याख्याते सत्याह-कथं चारित्ररकणमिति चेत् तदाहयोगो भवति । स चोत्तराध्ययनप्रकीर्णकरूपः। (गणियाणुयो चरणपमिवत्तिहेक, धम्मकहा कालदिक्खमाईया। गेयत्ति)गण्यत इति गणितम्, तस्यानुयोगो गणितानुयोगः, तस्मिन्, गणितानुयोगविषयस्तृतीयो भवति । स च सूर्यप्रज्ञप्त्या दविए दंसणसुखी, सणसुखी अचरणं तु ।। ६ ॥ दिरूपः। चशब्दः प्रत्येकमनुयोगपदसमुच्चायकः। (दरियाणुयो. चर्यते इति चरणं व्रतादि, तस्य प्रतिपत्तिः चरणप्रतिपत्तिः । गेयत्तिद्रवतीति व्यम-तस्यानुयोगो व्यानुयोगः, सदसत्पर्या- चरणप्रतिपत्तः हेतुः कारण निमित्तमिति पर्यायाः । किं तदा यासोचनारूपः,स च दृष्टिवादाचशब्दादनार्षःसम्मत्यादिरूपश्च ह-धम्मकथा, दुर्गती प्रपतन्तं सर्वसंघातं धारयतीति धर्मः, ततयति क्रमप्रतिपादकः, आगमोक्तेन प्रकारेण यथाक्रमं यथापरि- स्य कथा कथन , कथाचरणप्रतिपत्तिहेतुः धर्मकथा । तथाहिपाट्येति चरणकरणानुयोगाद्या महार्द्धकाःप्रधाना इति यदुक्तंभ- पाकेपण्यादिधर्मकथाऽऽक्षिप्ताःसन्तो भव्यप्राणिनश्चारित्रं प्राप्नुवति। एवं व्याख्याते सत्याह-(चरणे धम्मगणियाणुप्रोगेयदवि- वन्ति (काले दिक्खमादी यत्ति) कलनं कालः, कलासमूहो वा यऽणुभोगे यत्ति) यद्येतेषां देनीपन्यासः क्रियते तत्किमर्थ च. | कालः,तस्मिन कामे,दीक्षादया-दीकणं दीका प्रवज्याप्रदानम,प्रा. त्यार इत्युध्यते?, विशिष्टपदोपन्यासादेवायमों ऽवगम्यत इति। दिशब्दादुपस्थानादिपरिग्रहः। तथा च शोजनतिथिनकत्रमुहूर्त. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुभोग ( ३५७) अणुयोग अन्निधानराजेन्द्रः। योगादौ प्रवज्याप्रदानं कर्तव्यम् । अतः कालानुयोगोऽप्यस्यैव | नार्थ गाथामाहपरिकरभूत इति (दविय त्ति) कव्ये द्रव्यानुयोग किं भवती एवं चरणम्मि विप्रो, करेइ गहणं विहिय इयरेसिं । त्यत पाह-(दसणसुकित्ति) दर्शनं सम्यग्दर्शनमनिधीयते, तस्य शुकिनिर्मलता दर्शनशुद्धिः। एतदुक्तं नवति-द्रव्यानुयोगे एएण कारणेणं, चरणाणुओगो महडीओ।। १३ ॥ सति दर्शनशुक्रिनवति, युक्तिभियथावस्थितार्थपरिच्छेदात । एवमित्युपनयग्रन्थः (चरणम्मिति) चर्यत इति चरणं,तस्मिन्, व्यवस्थितः करोति विधिना ग्रहणमितिरेषामिति रुन्यानुयोतदा चरणमपि युक्तचनुगतमेव प्रहीतव्यं न पुनरागमादेव केवलादित्याह-दर्शनशुध्वैव । कि तदाह -दर्शनशुद्धस्य-दर्शनं शुरू गादीनां, तदनेन कारणेन भवति चरण मदाकिम, तुशब्दादन्येयस्थाऽसौ दर्शनशुद्धस्तस्य, चरणं चारित्रं भवतीत्यर्थः । तु षां च गुणानां समर्थो भवतीति । ।दश। शब्दो विशेषणे। चारित्रशुद्धस्य दर्शनमिति । अथवा-प्रकारान्त (२३) कियन्तं कावं यावत्पुनरिदमपृथक्त्वमासीत् , कुतो रेण चरणकरणानुयोगस्यैव प्राधान्यं प्रतिपद्यते । मादितूत वा पुरुषविशेषादारज्य पृथक्त्वमदित्याहस्याऽपीति । जावंति अज्जवश्रा, अपहत्तं कालियाणुओगस्स । तम रसान्तबलनाचलं भवति नान्यथेत्यतो रष्टान्तद्वारेणाह- तेणारेण पुहत्तं, कालियमुयदिहिवाए य ।। ३७७ ॥ जह रबो विसएसुं, वश्कणगरययलोहे य ।। यावदार्यवैरागुरुवो महामतयस्तावत्कालिक श्रुतानुयोगस्यापृ. चत्वारि आगरा खयु, चनएह पुत्ताण ते दिना ॥१०॥ थक्त्वमासीत, तदा व्याख्यातृणां श्रोतृणां च तीक्ष्णप्रकत्वात् । यथेत्युदाहरणोपन्यासे,राझो विषयेषु जनपदेषु (वर ति) व कालिकग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थम,अन्यथोत्कालिकेऽपि सर्वत्र जाकरो नवति, बज्राणि रत्नानि तेषामाकरः खनिर्वजाकरः। 'चि. प्रतिसूत्रं चत्वारोऽपि अनुयोगास्तदानीमासन्न वेति तदाऽऽरततासोहागरिए' इत्यतः सिंहावलोकितन्यायेनाऽऽकरग्रहणं सं स्त्वार्यरक्तितेच्यः समारज्य कालिकश्रुते दृष्टिवादे वाऽनुयोगानां बध्यते । एतेन कारणेन 'होर हुंति' स्याद् भवति क्रिया सर्वत्र पृथक्त्वमनूदिति नियुक्तिगाथार्थः ॥२७७॥ मीलनीयेति । कनकं सुवर्ण तस्याऽऽकरो भवति तथा द्वितीयः। भाध्यमरजतं य॑ तहिषयश्च तृतीय आकरो भवति । चशब्दः स अपुहत्थमासि वश्रा, जावंति पुहत्तमारोऽनिहिए। मुच्चये। अनेकभेदभिन्नरूपानाकरान् समुचिनोति (लोहे य सि)| के ते पासि कया वा, पसंगो तेसिमुप्पत्ती ॥ ७० ॥ सोहम-प्रयः, तस्मिन् लोहे,लोहविषयश्चतुर्थ आकरोनवति।च- आर्यवैराद्यावदपृथक्त्वमासीत, तदाऽऽरतस्तु पृथक्त्वमुक्तम्। शब्दो मृदुकग्निमध्यलोहसमुच्चायकः 'चत्तारि' इति संख्या।। पतस्मिश्चाभिहिते क पते आर्यवैराः कदा च ते श्रासमिति प्राक्रियन्त पतेष्वित्याकरा, तथा च मयोदया अभिविधिना वा | विनेयपृच्गयां प्रसङ्गत आर्यवैराणामुत्पत्तिरुच्यते । इति गाथाक्रियन्ते बजादीनि येविति । खलुशब्दो विशेषणे । किं विशिन-| थैः ॥ २७८ ।। (एतचरितं तु मज्जवर' शम्देऽत्रैव भागे ?-सविषयाः सहस्रादयश्चातः पुत्रेन्यो ददतवतुमी पुत्राणां ११६ पृष्ठे कष्टव्यम्) सुतानां त श्त्याकराः, दत्ता विनका इत्यर्थः ॥१०॥ सविशेषमाहअधुना प्रधानोत्तरकालं यत्तेषां तमुच्यते अपहत्ते अणुओगो, चत्तारि वार जासई एगो । चिंता लोहागरिए, पमिसेहं कुणइ सो उ लोहस्स। पहत्तभोगकरणे, ते य तोवावि वोच्चित्रा॥२७॥ वरादीहिँ य गहणं, करेंति लोहस्स ते इतरे ॥११॥ आर्यवैराद्यावदपृथक्त्वे सति सत्रव्याख्यारूप एकोऽप्यनुयोगः लोहाऽऽकरोऽस्यास्तीति लोहाकरिकः तस्मिन् लोहाकरिके क्रियमाणः प्रतिसूत्रं चत्वारि द्वाराणि नापते; चरणकरणादींश्च. चिन्ता भवति-'राज्ञा परिभूतोऽहं येन ममाप्रधान आकरो दत्त, ।। तुरोऽप्यर्थान् प्रतिपादयतीत्यर्थः । पृथक्त्वानुयोगकरणे तु ते एवं चिन्तायां सत्यां सुबुद्ध्यभिधानेन मन्त्रिणाऽनिहितः-देव! चरणकरणादयोऽर्थाः ततोऽपि पृथक्त्वानुयोगकरणादेव, व्यव. मा चिन्तां कुरु , भवदीय एव प्रधान आकरो न शेषा पाकरा छिन्नाः, तत्प्रनृत्येक एव चरणकरणादौनामन्यतरोऽर्थः प्रतिसत्र इति।कुत पतदवसीयते। यदि जवत्संबन्धिलोहाकरो न भवति व्याख्यायते,नतु चत्वारोऽपीत्यर्थः। इति नियुक्तिगाथार्थः॥२९॥ तदानीं शेषाकराप्रवृत्तिः-सोहोपकरणाभाधान प्रवृत्तिरिति। ततो अथ यैरनुयोगाः पार्थक्येन व्यवस्थापितास्तेषामार्यरक्तिसूरीनिर्वाहं भवान् कारयतु कतिचिहिनानि , यावदुपक्कयं प्रतिपद्यते णामुत्पत्तिमभिधित्सुर्भाग्यकारः सम्बन्धगाथामाहतेषूपकरणजातं, पुनः सुमहाधमाप ते लोहं प्रहीयन्ते इत्यत किंवश्वहिँ पुहत्तं, कयमह तदनंतरेहिँ जणियम्मि । भाह-[पभिसेहमित्यादि प्रतिषेधोदाहरणा प्रतिषेधं करो- तदणंतरेहिँ तदनिहि-यगहियसुत्तत्थसारोह ॥२०॥ त्यसी, लोहं प्रतीतमेव, तस्य लोहस्य । तुशब्दो विशेषणेन विनेयः पृच्चति-नन्वयवैराद्यावदपृथक्त्वमित्युक्तं ततः किमार्यकेवलमनिर्वाहं करोति, अपूर्वोत्पादानरोधं च । ततश्चैवंकते। वैरैरेव कृतं तत्, किंवा तदनन्तरैरार्यरक्तितसूरिभिरित्येवमुन्नयशेषाकरेषूपस्करः कयं प्रतिप्रश्नः, ततस्तेऽवकादिभिः प्रहणं थाऽपि यावच्छब्दार्थोपपत्तः। इति शिष्येण भणिते गुरुराह-तदनकुर्वन्ति । कस्येत्यत आह-लोहस्य। के कुर्वन्ति । इतरे बजा न्तरैरेवार्यरक्तिसूरिभिरनुयोगानां पृथक्त्वमकारि।कथंचूतैस्तैः। करिकादयः चशब्दात केवलं वज्रादिभिहस्त्यादिभिश्च । अत्र प्रायवरेणानिहितःप्रतिपादितो गृहीतः सूत्रार्थसारो यैस्ते सकथानकं स्पष्टत्वान लिखितम् । अयं रष्टान्तः। सांप्रतं दार्शन्तिकयोजना क्रियते-यथाऽसौ लोहाकर आधारनूतःशेषाकराणाम, था, तैरायवैरसमीपेऽधीतसूत्रोभयरित्यर्थ इति गाथार्थः।२०। तत्प्रवृत्ती शेषाणामाप प्रवृत्तेः । एषमन्यत्रापि, चरणकरणानु पुनरपि कथं नूतैः किंनामकैश्च रित्याहयोगे सति शेषानुयोगसद्भावः । तथाहि-चरणव्यवस्थितः देविंदवंदिएहिं,महाणुभावेहि रक्खियजेहिं । शेषानुयोगग्रहणे समर्थो भवति, नान्यथेत्यस्यार्थस्य प्रतिपाद- जुगमासज्ज विभत्तो, भोगो तो को चउहा॥२१॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रमनुविरहितः दुर्बलपुष्यमित्र माह व्यक्तिपिताऽनुयोगार्थमवलोक्य वर्तमानका कर्ण युगे वासाच प्रायानुयोगो विभक्त-पृथक २ व्यवस्थापितः । लब्धसुकृतानि कम इति नियुक्तिमाचार्थः ॥ २८९ ॥ "माया यसोमा" इत्यादि पूर्व आवश्यकटीकायादा कामवशेयमिति । (तथ'अरविन्द जैव जागे २१२ पृष्ठे विन्यस्तं द्रष्टव्यम् ) भाग्यकारोऽपि "देविदचंदियहिमित्यादि" गाथाभावार्थमाद नाऊण रक्खियज्जो, मइमेढाधारणासमगं पि । किच्छेण धरेमाणं, सुयावं पूसमित्तं पि ॥ असययोगो ममेदाधारखापरिक्षीणो । नाऊ - मेसपुरिसे, कालागुरूवं च ॥ सागडोगे, बी कासी व सुयविभागेण । सुहगणाइनिमित्तं नए वि मुनिगृहिय बिजागो । स देवेन्द्रवन्दितः श्रीमानार्यशक्तिसूरिनिज शिष्यं दुर्बलिकापुष्पमित्रमपि चारयन्तं विनेया नुग्रहो वक्ष्यमाणकालिकादिश्रुतविभागेन विष्वक् पृथक चरणकरणाद्यनुयोगानकार्षीदिति सम्बन्धः । कथंभूतं दुर्बलिकाष्यमित्रम् मतिमेधायारणासमग्रमपि तत्र मनुबोधने' मननं म तिरेव, बोधशक्तिः मेधा, धारणा अवधारणाशक्तिः, ताभिः समग्र युक्तमपि तथाऽतिशयज्ञानकृतोपयोगतया एध्यान् भविष्यतः पुरुपांश्च ज्ञात्वा कथंभूतान् ?, मतिमेधाधारणादिपरिहीणात्र, तथा क्षेत्रका या न केवल मनुयोगान् पृथगात् तथा नयांश्च नैगमादीन् अकार्षीदिति वर्तते । कथंन्तान् ? सुष्वति शयेन निगृहितो पानीकृत विभागापा दानरूप येते विभागास्तता मि सुयग्रहणादिनिमित्तम् आदिशब्दाकारादिपरिग्रह कि शे० । (चरणकरणाद्यनुयोगभेदेनानुयोगचातुर्विध्यमाय्य रक्षितसूरिनि कृतमिति शब्देऽचैव मागे २१४ पृष्ठे दर्शितम्, इहापि उपयुक्तो जागो दर्शितः ) अनुरूप - ऽनुकूलो वा योगो ऽनुयोगः । सूत्रस्य स्वेनाभिधेयेन सामनुरुपसंबन्धे तदृषे दृष्टिवादान्तर्गते ऽधिकारे, स० । स्था० । स चधिमेकिंगे। भओगे बिहे पते । नं जहा- मुझ पाओगे, मंमिषाणुयोगे य ॥ सद्विधा मनुयोग गरिनु ग लयनाराने प्रथमं सम्यावासिनादो परोऽनुयोग मूलयमानुयोगः कादीनां पूर्वापरपष्ट श्री मध्यभागी गरिमामाधिकाराप्र T तरित्यर्थः तस्यानुयोगो महिमानं स प्रथमानुयोगायोगा स्वस्वस्थाने) योग- अनुयोगगन- पुं० । अनुयोगः प्रथमानुयोगः-तीकवि नवा दिव्याख्यानग्रन्थः, गएिडकाऽनुयोगश्च भरतननिर्वानुमानमा " ( ३५० ) अभिधानराजेन्द्रः । , स्यानन्ययोगे मतोऽनुयोगद देहधकारे समुदायोपाराष्टि वादे च स्था० १० ० दा अनुभोगगणाखा अनुयोगगणानुज्ञा श्री अनुयोगोऽर्थ व्याख्यानम्, गणो गच्छः, तयोरनुज्ञाऽनुमतिः । घ० ३अधि० । श्र योगगणयोः प्रथमो विधिना अयोगतसिल अनुयोगतृप्त कि० बृ० १ ० । अणु भोगस्थ - अनुयोगार्थ पुं० [व्याख्यान - अनुयोगग्रह नि ० १ ० १ उ० । सुधर्मस्वामि - अयोगदायय-अनुयोगदायक पुं० [स्त्री० प्रभृतावनुयेोगायिनि, दिवस, जिणे व प्रणुओ गदायए सब्वे । आयारस्स जगवनो, निज्जुलि कि सरसामि" ॥ १ ॥ आचा० १ ० १ ० १ ३० । अशुभगदार-अनुयोगद्वार -२००० अध्ययनार्थकथनविधियो द्वाराीय द्वाराणि महापुरस्येव समाधिस्था ऽनुयोगार्थ व्यापानार्थ द्वाराश्वनुयोगद्वाराणि उपक्रमादिषु व्यायामप्रकारे अत्र नवरान्तं वर्णयत्याचा उत्त० । यथा हि अकृतद्वारं नगरं नगरमेव न भवति; कृतैकद्वारमपि जनसंवाद संचार कार्यातिपतये जायते तचतुर्मूलप्रतोद्वारं तु प्रतिद्वारं मुखनिर्गमप्रवेशं कार्यातित सामाधिकपुरमप्यर्थाधिगमोपायद्वारशून्यक्याधिगमं भवति, कानुयोगद्वारमपि कृष्ण शर्मासा च कालेनाधिगम्यते; विहितसप्रभेदोपक्रमादिद्वारचतुश्यं सुखाधिगममपयसा च कालेनाधिगम्यते ततः फलवानबुयोगद्वारोपन्यासः । उच"अणुश्रोमहाराएं, महापुरस्सेव तस्स चत्तारि । 1 गोति तदस्थो, दाराई तस्स उ मुहाई ॥ अकपदारमनगर, कदापि संचारं । 66 शाखा० १ मूलद्दारं पुण, सप्पडिदारं सुहाहि गमं ॥ सामाश्यपुरमेवं, कयद्दारं तहेगदारं वा ॥ दुरद्दिगमं चउदार, सम्पदिदारं सुहाहिंगमं" ॥ ० म० प्र० । विशे० । स्था० । श्राचा० । ( चत्वारि अनुयोगद्वाराणि 'अणुओग' शब्दे ३४५ पृष्ठे ऽनुपमेोकानि ) नन्वादी उपक्रमः, तदनन्तरं निशेषः, तदनन्तरं चानुगमः, ततोऽप्यनन्तरं नयइत्यमीषामनुयोगद्वारा खामियंकमोपन्यासे कि प्रयोजनमित्याशय कमप्ययोलाई च वच्छहत्यमं क्रमप्रयेोजनद्वारमनिधित्सुराह " 1 दारकमऽयमेव च निक्खिप्पड़ जेा नासमीवत्थं । अणुगम्म नाणत्वं नागमो नयमयत्रो ।। संबंधोत्रमथ्यो, समीनमाणीय नत्यनिक्स्वेवं । मस्त गम्म नहिं नाणाविणो ॥ एषामनुयोगद्वारा णामयमेवेोपन्यासक्रमः येन नासमीपस्थमनुपक्रान्तं निचिप्यते, न च नामादिनिरनिक्षिप्तमर्थतोऽनुगम्यते. नापि नलिनुगमनियता संबन्धरूप उपक्रम संच न्धोपक्रमस्तेन संबन्धकत्र उपक्रमेण समीपमानीय न्यासयोग्य विधाय न्यस्तनिकेपं विहितनामस्थापनादिनिकेपं सच्छास्त्रं ततोऽर्थतोऽनुगम्यते व्याख्यायते नानाविधानैर्नानाभेदे नये स्त स्मादयमेवानुयोगद्वारकम इति कमप्रयोजनद्वारं समाप्तमिति । औ० | नं० | पृ० । नि० यू० । व्य० । श्रा० म० द्वि० | स्या० Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) अणुयोगदार अभिधानगजेन्द्रः । एकंप कर्म । सत्पदप्ररूपणतादिषु, विशे० । ' संतपयपरूवणया छायाशतप्रचुरनिर्वृतजव्यजन्तुः ॥ ५॥ दव्वपमाणं च ' इत्याद्यनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोग- झानादिकुसुमनिचितः, फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः । द्वारमुच्यते । कर्म०१ कर्म० । तत्स्वरूपप्रतिपादकाध्ययनवि- कल्पद्रुम इव गच्छ, श्रीहर्पपुरीयनामाऽस्ति ॥६॥ शेषोऽभेदोपचारादनुयोगद्वाराणीत्युच्यते । पा० उत्कालिक- एतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिर्गाम्भीर्यपाथोनिधिश्रुतविशेषे, नं। स्तुत्वानुकृतवमाधरपतिः सौम्यत्वतारापतिः । अस्यादावेतट्टीकाकृत् सम्यम्झानविशुरूसंयमतपःस्वाचारचर्यानिधिः; " सम्यक्सुरेन्द्रकृतसंस्तुतिपादपन शान्तः श्रीजयसिंहसरिरभवनिःसङ्गचूमामणिः ॥ ७॥ मुद्दामकामकरिराजकठोरसिंहम् । रत्नाकरादिवैतस्मा-विष्यरत्न बन्य तत्। सद्धर्मदेशकवरं वरदं नतोऽस्मि, स वागीशोऽपि नामाऽन्यो, यद्गुणग्रहणे प्रभुः॥८॥. वीरं विशुद्धतरबोधनिधि सुधीरम् ॥१॥ श्रीवीरदेवविबुधैः, सन्मन्त्राद्यतिशयप्रवरतोयैः । अनुयोगभृतां पादान , वन्दे श्रीगौतमादिसूरीणाम् । दुम श्व यः संसिक्तः, कस्तद्गुणवर्णने विबुधः ? ॥५॥ निष्कारणबन्धूनां, विशेषतो धर्मदातृणाम् ॥ २॥ तथाहि-आज्ञा यस्य नरेश्वरैरपि शिरस्यारोप्यते सादरं, यस्याः प्रसादमतुलं, संप्राप्य भवन्ति भव्यजननिवहाः। यं रवाऽपि मुदं बजन्ति परमां प्रायोऽपि दुष्टा अपि । अनुयोगवेदिनस्तां, प्रयतः श्रुतदेवतां वन्दे ॥३॥" यद्वकाम्बुधिनियंदुज्वलवचापीयूषपानोवतैइहातिगम्भीरमहानीरधिमध्यनिपतितानय॑रत्नमिवातिदु- गीर्वाणरिव दुग्धसिन्धुमथने तृप्तिन लेने जनैः ॥१०॥ लभं प्राप्य मानुषं जन्म ततोऽपि लभ्वा त्रिभुवनैकहितश्री- कृत्वा येन तपः सुदुष्करतरं विश्वं प्रबोध्य प्रभो.. मन्जिनप्रणीतबोधिलाभं समासाद्य विरत्यनुगुणपरिणामं प्र. स्तीर्थ सर्वविदः प्रभावितमिदं, तेस्तैः स्वकीयैर्गुणैः । तिपद्य चरणधर्ममधीत्य विधिवत् सूत्रं समधिगम्य तत्पर- शुक्लीकुर्वदशेषविश्वकुहरं भव्यैर्निबरूस्पृहै-- मार्थ विशाय स्वपरसमयरहस्यं तथाविधकर्मक्षयोपशमसं- यस्याऽऽशास्वनिवारितं विचरते श्वेतांशुगौरं यशः ।। १६ ।। भाविनी चावाप्य विशदप्रज्ञां जिनवचनानुयोगकरणे यतित- यमुनाप्रवाहविमल-श्रीमन्मुनिचलरिसंपर्कात् । व्यम; तस्यैव सकलमनोऽभिलषितार्थसार्थसंसाधकत्वेन य- अमरसरितेव सकलं, पवित्रितं येन भुवनतलम् ॥१२॥ थोक्नसमग्रसामग्रीफलत्वात् । स चाऽनुयोगो यद्यप्यनेकग्रन्थ- विस्फूर्जत्कलिकालदुस्तरतमःसंतानलुप्तस्थितिः, विषयः संभवति, तथाऽपि प्रतिशास्त्रं प्रत्यध्ययनं प्रत्युद्देशक सूर्येणेव विवेकिनूधरशिरस्यासाद्य येनोदयम् । प्रतिवाक्यं प्रतिपदं चोपकारित्वात्प्रथममनुयोगद्वाराणामसी सम्यग्ज्ञानकरैश्चिरन्तनमुनिशुम्मः समुयोतितो, विधेयः। जिनवचने ह्याचारादिश्रुतं प्रायः सर्वमप्युपक्रमनिक्षे. मार्गः सोऽभयदेवमूरिरजवत्तेन्यः प्रसिको नुवि ।। १३ ।। पानुगमनयद्वारैर्विचार्यते । प्रस्तुतशास्त्रे च तान्येवोपक्रमादि- तच्चियलवप्रायै-रवगीतार्थाऽपि शिष्यजनतुष्टथै । द्वाराण्यभिधास्यन्ते, अतोऽस्यानुयोगकरणे वस्तुतो जिनव- श्रीहेमचन्द्रसूरिनि-रियमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः ॥ १४ ॥ अनु। चनस्य सर्वस्याप्यसौ कृतो भवतीत्यतिशयोपकारित्वात्प्रक-प्रणोगदारसमास-अनयोगदारसमास-पुंगअनुयोगद्वाराणां तशास्त्रस्यैव प्रथममनुयोगो विधेयः । स च यद्यपि चूर्णिटी. धादिसमुदाये, कर्म०१ कर्म। काद्वारेण वृद्धैरपि विहितस्तथापि तवचसामतिगम्भीरत्वेन 'दुरधिगमत्वाद् मन्दमतिनाऽपि मयाऽसाधारणश्रुतभक्तिज. अणुभोगधर-अनुयोगधर-पुं० अनुयोगिके, व्य०३ ला "अ. नितौत्सुक्यभावतोऽविचारितस्वशक्लित्वादल्पधियामनुग्रहार्थ णुप्रोगधरो अप्पणो गारवाणि रिहरणत्थं सो ताराण य लत्वाच कर्तुमारभ्यते । अनु। जाणि रिहरणत्थं" आह अनुयोगकथाम् । नि० चू०२० उ०। "सोलससयाणि चतुरु-त्तराणि होति स श्मम्मि गाहाणं ।। अणुभोगपर-अनुयोगपर-त्रि० । सिद्धान्तव्याख्याननिष्ठे, जी0 दुसहस्समणुभ-दवित्तप्पमाण प्रो भणियो ॥१॥ १ प्रति। णगरमहादाराई, चउवकमाणुप्रोगवरदारा । अणुप्रोगाणुमा-अनुयोगानुशा-स्त्री० । आचार्यपदस्थापनाअक्खराबमत्ता, लिहिया सुक्खक्खयहाए ॥२॥ याम, पं०व०४ द्वा०। ('अणुप्रोग' शब्देऽत्रैव जागे ३४७ गाहा १६०४, अनुष्टुपन्दसा ग्रन्यसंख्या २००५। पृष्ठे चैतद्रूपं व्याख्यातम् ) ग्रन्थान्ते च टीकाकृत् अणुओगि ( ण् )-अनुयोगिन्-पुं० । अनुयोगो व्याख्यानं प्रायोऽन्यशास्त्ररष्ठः, सर्वोऽप्य मयाऽत्र संकलितः। प्ररूपणेति यावत, स यत्राऽस्ति। व्याख्यानार्थ क्रियमाण प्रश्नन पुनः स्वमनीषिकया, तथापि यत्किञ्चिदिह वितथम् ॥१॥ भेदे, यथा-"चउहि समपहिं लोगो" इत्यादिप्ररूपणाय 'क. सुत्रमतिलक्ष्य लिखितं, तच्चोध्यं मय्यनुग्रहं कृत्वा । इहि समपहि' इत्यादि । स्था०६ ठा। प्राचार्ये, "अणुओपरकीयदोषगुणयो-स्त्यागोपादानविधिकुशलः ॥२॥ गी लोगाणं, किल संसयणासो दढं होइ"पं०व०४ द्वा०। बनस्थस्य हि बुद्धिः, स्खलति न कस्येह कर्मवशगस्य ?।। अणुयोगिय-अनुयोगिक-त्रि०। प्रवजिते, नं० । “अणुप्रो. सदबुद्धिविरहितानां, विशेषतो मद्विधासुमताम् ॥ ३॥ गियवरवसभे, नाइलकुलवंसनंदिकरे" नं। कृत्वा यत्तिमिमां, पुण्यं समुपार्जितं मया तेन । मुक्तिमाचरेण लभतां, कपितरजाः सर्वनव्यजनः ॥४॥ अणुंधरी-अणुधरी-स्त्री० । द्वारवतीवास्तव्यस्याहन्मित्रस्य श्रीप्रश्नवाहनकुवाम्बुनिधिप्रसूतः, भार्यायाम , यस्याः पुत्रस्य जिनदेवस्य प्रात्मदोपोपसंहारे क्षोणीतसप्रधितकीर्तिरुदीर्णशाखः । कथा । आव० ४ ० । श्रा० चू। विश्वप्रसाधितविकल्पितवस्तुरुच्चै अणुकंप-अनुकम्प-त्रि० । अनुशब्दोऽनुरूपार्थे, ततश्चानुरूपं Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) अणुकंप अभिधानराजेन्द्रः । अणुकंपादाण कम्पते चेष्टत इत्यनुकम्पः। अनुरूपक्रियाप्रवृत्ती, उत्त०१२१०।। स्वेटोद्धारप्रतियोगिदुःखाश्रयत्वरूपमनुकम्प्यत्वं तत्राप्रामाणिअनुकम्प्य-त्रि० । अनुकम्पनीये, वृ०६ उ० । कमेवेति न दोषः । अपरे त्याहुः-तत्र प्रागुक्तं निविशेषण मनुकम्प्यत्वं प्रतीयमानं साहचर्यादिदोषेण यदा होनत्वार्थ अणुकंपण-अनुकम्पन-न० । दुःखार्तानां बालवृद्धा सहायानां जनयति तदेवातिचारापादाकंनान्यदा, अन्यथाधियोहीनोत्कृष्टयथादेशकालमनुकम्पाकरणे, व्य०३ उ० । योरुत्कर्षाकर्षमाधानद्वारैव दोषत्वात् । अत एव नचानुकअणुकंपधम्मसवणादिया-अनुकम्पाधर्मश्रवणादिका-स्त्री० । म्गादानं साधुषु न संभवति । "आयरियऽणुकंपाए , गच्छो जीवदयाधर्मशास्त्राकर्णनप्रभृतिकायाम् , पञ्चा० १० विव०। अणुकंपिओ महाभागों" इतिवचनादित्यष्टकवृत्त्यनुसारणाचार्याअणुकंपय-अनुकम्पक-त्रि० । भगवतो भक्ते, अनुकम्पायाश्च दिवप्युत्कृष्टत्वधियांप्रतिरोधेऽनुकम्पाऽव्याहतेति । पतये व भक्तिवाचित्वम्, “पायरियऽणुकंपाए , गच्छो अणुकंपित्रो सुपात्रदानमपि ग्रहीतृदुःखोहारीपायत्वेनेष्यमाणमनुकम्पादा: महाभागो" इति वचनात् । कल्प० । आत्महिते प्रवृत्ते, स्था० नमेव, साक्षात्स्वेष्टोपायत्वनेष्यमाणं चान्यथेति बोध्यम् ॥२॥ ४ ठा०४०। तत्राद्या दुःखिना दुःखो-दिधीर्षाऽल्पासुखश्रमात । अणुकंपा-अनुकम्पा-स्त्री० । अनुकम्पनमनुकम्पा । दयायाम, प्रथिव्यादौ जिनाऽर्चादौ, यथा तदनुकम्पिनाम् ॥३॥ नि० चू०१०। अनुकम्पा, कृपा, दयेत्येकार्थाः। मो०।- (तत्रेति) तत्र भक्तपनुकम्पयोर्मध्ये आद्याऽनुकम्पा दु:खिमा नुकम्पा कृपा । यथा-सर्व एव सत्त्वाः सुखार्थिनो दुःखप्रहा. दुःखातानां पुंसां दुःखोदिधीर्षा दुःखोसारेच्छा अल्पानामणार्थिनश्च , ततो नैषामल्पाऽपि पीडा मया कार्येति । ध०२ सुखं यस्मादेताशो यः श्रमस्तस्मात् । इत्थं च वस्तुगत्या बलअधि० । अनुकम्पा दुःखितेवपक्षपातेन दुःखप्रहाणेच्छा स- बदनिधाननुबन्धी यो दु:खिदुःखोकारस्ताद्विषयिणी स्वस्येच्छाऽ. म्यक्त्वलिङ्गम् । पक्षपातेन तु करुणा पुत्रादौ व्याघ्रादीनाम- नुकम्पेति फलितम् । उदाहरति, यथा-जिनार्चादौ कार्ये पृथिप्यस्त्येवेति न तारश्याः कृपायास्तत्वम् । सा चानुकम्पा द्र- म्यादी विषये तदनुकम्पिनामित्थंनूतभगवत्पूजाप्रर्दशनादिना व्यतो भावतश्चेति द्विधा । द्रव्यतः सत्यां शक्तौ दुःखप्रतीका- प्रतिबुकाः सन्तः षटकायान् रक्षन्त्विति परिणामवतामित्यर्थः। रेण । भावतश्चाद्रहृदयत्वेन । यदाह-"दहण पाणिनिवहं, भीमे यद्यपि जिना दिकं भक्त्यनुष्ठानमेव, तथापि तस्य सम्यक्त्व. भवसागरम्मि दुक्खतं । अविसेसोऽणुकंप, दुहा वि साम- शुस्वार्थत्वात्तस्य चानुकम्पालिकत्वात्तदर्थकत्वमप्यविरुरूमेस्थो कुणह"॥१॥ध०२ अधि० श्रा० | प्रवादर्श संथा। वेति पञ्चलिङ्गवादावित्थं व्यवस्थितेरस्माभिरप्येवमुक्तम् ॥३॥ अन्नादिदानरूपायाम् , ध० २ अधि० । भक्तौ, प्रा० क०। अल्पासुखश्रमादित्यस्य कृत्यमाह - (अनुकम्पया श्रुतसामायिकलाभे उदाहरणानि 'धवंतरि' स्तोकानामुपकारः स्या-दारम्नापत्र नूयसाम् । शब्दे पक्ष्यन्ते) भक्तपानादिमिरुपष्टम्भे च , भ०८ श०८ उ०। तत्रानुकम्पा न मता, ययेष्टापूर्तकर्मसु ॥४॥ 'अनुकम्पाऽनुकम्प्ये स्यात्' अनुकम्पाऽनुकम्ये विषये, द्वा०१ (स्तोकानामिति)स्पष्टम, नवरम्, इष्टापूर्तस्वरूपमेततू-"ऋत्विद्वा० स्था। भिर्मन्त्रसंस्कारै-ह्मिणानां समवतः । अन्तर्वेद्यां हि यहत्तअमुकंपं पमुच्च तमो पमिणीया परमत्ता । तं जहा-तव- मिष्टं तदभिधीयते ॥१॥ वापीकूपतमागानि, देवताऽऽयतमानि स्सिपमिणीए गिलाणपरिणीए सेहपडिणीए॥ च । अन्नप्रदानमेत, पूर्त तत्वविदो विदुः" ॥२॥ अनुकम्पामुपष्टम्भं प्रतीत्याश्रित्य तपस्वी तपकः,ग्लानोरोगा- नन्वेवं कारुणिकदानशालादिकर्मणोऽप्युच्छेदापत्तिरित्यत दिभिरसमर्थः, शैतोऽभिनवप्रवजितः,पते बनुकम्पनीया भष- पाहन्ति , तत्करणाकरणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति । अनुकम्पातो पुष्टासम्बनमाश्रित्य, दानशानादि कर्म यत । यहानं तदनुकम्पैवोपचाराद् । दानभेदे , उक्तं च वाचकमुख्यैरु. तत्तु प्रवचनोभत्या बीजाधानादिनावतः।।५।। मास्वातिपूज्यपादैः-"कृपणेऽनाथदरिद्रे, व्यसनप्राप्ते च रोग (पुष्टालम्बनमिति)पुथासम्बनं सद्भावकारणमाश्रित्य यहानशाशोकहते । यहीयते कृपा-दनुकम्पात् तद्भवेदानम् " सादि कर्म प्रदेशिसंप्रतिराजादीनां , तत्तु प्रवचनस्य प्रशंसादिस्था०१० ठा। नोनत्या बीजाऽऽधानादीनां भावतः सिकेलोंकानाम् ॥५॥ अणुकंपादाण-अनुकम्पादान-न० । अनुकम्पया कृपया दानं बहूनामुपकारेण, नानुकम्पा निमित्तताम् । दीनानाविषयमनुकम्पादानम् । स्था०१० ठागारदाने, प्रतिका अनुकम्पादानं जिनैरप्रतिक्रुष्टम अतिक्रामति तेनाऽत्र, मुख्यो हेतुःशुभाशयः।। ६॥ अनुकम्पाऽनुकम्पे स्या-शक्तिः पात्रे तु संगता। (पहनामिति) ततो निर्वृतिसिद्धबहूनामुपकारणानुकम्पा निामअन्यथाधीस्तु दातृणा-मतिचारप्रसञ्जिका ॥२॥ सतां नातिकामात, तेन कारणेनात्रानुकम्पोचितफले, मुख्यः (अनुकम्पति)अनुकम्पाऽनुकम्प्ये विषये, भक्तिस्तु पात्रेसावादी। शुनाशयो हेतुः । दानं तु गौणमेव, वेद्यसंवेद्यपदस्थ एव संगता स्यात् समुचितफलदास्यात् । अन्यथाधीस्तु-अनुकम्प्ये | तारगाशयपात्रं, तारगाशयानुगम एच च निश्चयतोऽनुकम्पति सुपात्रत्वस्य, सुपात्रे चानुकम्प्यत्वस्य बुरुिस्तु दातृणामति फलितम् ॥ ६॥ चारप्रसम्जिकाऽतिचारापादिका । अत्र यद्यपि सुपात्रत्वधियोऽ एतदेव नयप्रदर्शनपूर्व विवेचयतिनुकम्प्ये संयतादौ मिथ्यारूपतयाऽतिचारापादकत्वं युज्यते। क्षेत्रादिव्यवहारण, दृश्यते फनसाधनम् । सुपात्रेऽनुकम्प्यत्वधियस्तु न कथंचित् , तत्र ग्लानस्वादिद- निश्चयेन पुनावः, केवनः फलनेदकृत ॥७॥ शायामन्यदाऽपि च स्खेष्टोद्वारप्रतियोगिदुःखाश्रयत्वरूपाउन- व्यवहारेण पात्रादिमेदारफलमेदो, निश्चयेन तु नाववैचिच्याकम्प्यस्वाधयः प्रमात्वात् । तथाप स्वापेक्वयाऽहनिम्बे सति देवेति तत्त्वम् ॥७॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६१) अणुकंपादाण अभिधानराजेन्द्रः। अणकप्प कालाअम्बनस्य पुष्टत्वं स्पष्टयितुमाह दाणं आणुकंपाए, दीणाणादाण सत्तिोणेयं । काझेऽल्पमपि लानाय, नाकाले कर्म बदपि । तित्यकरणातणं, साहूण य पत्तबुछीए ।। ६ ।। वृष्टौ वृद्धिः कणस्यापि, कणकोटिस्थाऽन्यथा ॥८॥ दानं वितरणमन्नादरनुकम्पया दयया दीनानाथेभ्यः, तत्र दी. (काल इति) स्पष्टम् ॥ ८॥ नाः तीणविनववाद दैन्यप्राप्तास्त एव सानाथ्यकारिरहिता अअवसरानुगुण्येनानुकम्पादानस्य प्राधान्यं जगवदूदृष्टान्तेन स- नाथाः, अतस्तेन्यः शक्तितो वित्तगतं सामर्थ्यमाश्रित्येत्यर्थः, मर्थयितुमाह शेयं ज्ञातव्यम् । अथ दीनादीनामसंयतत्वात् तदानस्य दोपधर्माङ्गत्वं स्फुटीकत, दानस्य जगवानपि । पोषकत्वादसंगतं तद्दानमित्याशइक्याह-तीर्थकरझातेन जिअत एव वतं गृह्णन्, ददौ संवत्सरं वसु । ए॥ नोदाहरणन । तथाहि-संगतं दीनादिदानं, प्रभावनाङ्गत्वादू जि नस्यैव । अथवा तीर्थकरन्यायन निर्विशेषतयेत्यर्थः,तीर्थकरप्रमा (धर्माङ्गत्वमिति ) अत एव कासेऽल्पस्यापि लाभार्थत्वादेव, णतो वा। तथाहि-न दीनादिदानमविधेयं, जिनाचरितत्वाद, मदानस्यानुकम्पादानस्य, धर्माङ्गत्वं स्फुटीकर्तुं जगवानपि व्रतं गु हावतानुपासनवदिति । दीनादीनामनुकम्पया तावद्दानम् । अथ हुन् संवत्सरं वसु ददौ । ततश्च महता धर्मावसरे तुष्टितं सर्व साधूनामपि किं तथैवेत्याशङ्कायामाह-साधूनांच संयतेभ्यः पुनः स्याप्यवस्थौचित्ययोगेन धर्माङ्गमिति स्पष्टीनवतीति भावः । पात्रबुब्या ज्ञानादिगुणरत्नजाजनमेतदिति धिया भक्त्येति गाथातदाह-" धर्माख्यापनार्थ च, दानस्यापि महामतिः। अवस्थौ र्थः॥६॥ पश्चा०६ विव०। चित्ययोगेन, सर्वस्यैवानुकम्पया" इति ॥ ए॥ अणुकंपासय-अनुकम्पाशय-पुं०। अनुकम्पाप्रधानमाशयोऽनुनन्वेवं साधोरप्येतदापत्तिरित्यत श्राह कम्पाशयः । अनुक्रोशप्रधाने चित्ते, सा“अणुकंपासयप्पोगसाधुनाऽपि दशानेदं, प्राप्यैतदनुकम्पया । तिकालम विसुद्धनत्तपाणाई" अनुकम्पा अनुक्रोशस्तत्प्रधान दत्तं झानानगवतो, रङ्कस्येव सुहस्तिना ॥१०॥ आशयश्चित्तं तस्य प्रयोगोव्यावृत्तिरनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन स०॥ साधुनाऽपि महाव्रतधारिणाऽपि दशानेदं प्राप्य पुष्टालम्बन- | अणुकंपि (ण)-अनुकम्पिन्-स्त्री० । अनुकम्पयमाने तच्चीले. नमाश्रित्यैतहानमनुकम्पया दत्तं सुहस्तिनेव रङ्कस्य तदाऽऽह । सूत्र०१ श्रु० ३ ० ३ ० । कृपावति, प्रति। श्रूयते चागमे-आर्यसुहस्त्याचार्यस्य रङ्कदानमिति । कुत इत्याह अणुकमि-अनुकृष्टि-स्त्री०। अनुकर्षणमनुकृष्टिः । अनुवर्त्तने, पं0 भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनो ज्ञानात् । तदुक्तम्-"शापकं चात्रजगवान्, निष्क्रान्तोऽपिद्विजन्मने । देवदृष्यं ददहीमा-ननुकम्पादि सं०५ द्वा०। (अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानां तीवमन्दताशेषतः"॥२॥ इति। प्रयोगश्चात्र-दशाविशेषे यतेरसंयताय दानम परिझानार्थमनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानामनुकृष्टिः 'बन्ध' दुष्टम, अनुकम्पानिमित्तत्वाद्, भगवद्विजन्मदानवदित्याहुः१०॥ शब्दे वक्ष्यते) न चाधिकरणं ह्येत-धिशुद्धाशयतो मतम् । अणुकमाण-अनुकर्षत-त्रि० । अनु पश्चात् कर्षन् अनुकर्षन् । अपि त्वन्यद गुणस्थानं, गुणान्तरनिबन्धनम् ।। ११ ॥ पृष्ठतः पश्चात् कृत्वा समाकर्षति, नं। (न चेति)नचैतत्कारणिक यतिदानमधिकरणं मतम् । अधिक्रि अणुकप्प-अनुकल्प-पुं० । ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवृद्धानां पूर्वायते प्रात्माऽनेनासंयतसामर्थ्य पोषणत इत्यधिकरणम् । कुत इ चार्याणां झानग्रहणेन च तपोविधानेषु च अनुकृतिकरणे, त्याह?-विशुद्धाशयतोऽवस्थौचित्येनाऽऽशयविशुकः, भावभेदेन पं० चू। कर्मन्नेदात् । अनर्थासंनवमुक्तार्थप्राप्तिमप्याह-अपि त्विति अन्यु ............ .......... एनो वो अणूकप्पं । गये । अन्यदधिकृतगुणस्थानकाद् मिथ्याष्टित्वादेरपरमविर अणुसद्दो नूतहियं, पच्छाभावे मुणेयव्यो । तसम्यगृदृष्टवादिकं गुणानां झानादीनां स्थानं मतं, गुणान्तरस्य णाणचरणहगाणं, पुवायरियाण अणुकित्तिं ॥ सर्वविरत्यादोर्निबन्धनम् ॥ ११ ॥ द्वा०१द्वा०। नेव दारं पिहावेश, भुंजमाणो सुसावओ। कुणई अणुगच्छा गुण-धारी अणुकप्पं तं वियाणाहि । गुणसयसहस्सकलियं, गुणंतरं च अनिलसंताएं । अणुकंपा जिणिदेहिं, सहाणं न निवारिआ॥१॥ दहण पाणिनिवहं, भीमे जवसायरम्मि दुक्खत्तं । जे खेत्तकालजावा, आसज्जा जोगहाणिनवे । गुणसतकालिप्रसंजमो, मोक्खो य गुणंतरो मुणेयब्यो । अविसेसोऽणुकंप, दुहा वि सामथो कुणई॥ ॥ ( हा वित्ति) व्यभावाभ्यां द्विधा । व्यतो यथा-अ नाणासु परिहाणी, तुजोगहाणी मुणेयव्यो ।। नादिदानेन, भावतस्तु धर्ममार्गप्रवर्तनेन, श्रीपञ्चमाङ्गादावपि खेत्ताण संति अछा-ए उच्चक्खेत्तम्मि काल दुम्भिक्खे। श्राद्धवर्णनाधिकारे 'अचंगुदुवारा' इत्युक्तम् । श्रीजिनेनापि सांव- भावे गेलएहादी, सुघानावे उ जदसुम् ।। सरिकदानेन दीनोहारः कृत एव, म तु केनापि प्रतिषिद्धः ॥२॥ गेएहेजाऽऽहारादी, णाणादिसु उज्जमण कुज्जा । सव्वेहिं पिजिरोहिं, मुज्जयतियरागदोसमोहेहिं । अणसणमादी य तवं, अकरेमाणस्स साहुस्स ।। अणुकंपादाणं स-कृयाण न कहिं वि पमिसिकं ॥३॥ एगंतणिज्जरा से, जह जणिता सासणे जिणवराणं। न कस्मिन सूत्र प्रतिषिर्क, प्रत्युत देशनाद्वारेण राजप्रश्नीयो जोगनियुत्तमतीणं, सुडसीलाणं तवोच्छेदो॥ पाने केशिनोपदेशितम् । तथाहि- "माणं तुमं पएसी पुब्वि रमणिज्जे भविता पच्ग अरमणिज्जे भविज्जासि" इत्यादि । ध० सुहसील मुट्ठसीला, तेसिं अफ्फासु गेएहमाणाणं । अधि०। जं आवज्जे तहियं, तवं च दं च तं पावे ॥६० ना। Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६५) अणकप्प अनिधानराजेन्दः। अणुगम श्याणि अणुकप्पो-(गाहा) (नाणचरणकृति) जो नाणद- अणकपायिन्-त्रि० । अणवः स्वल्पाः संज्वलननामान इति रिसणचरित्ततवऽऽमृगाणं पुवायरियाणं नाणभाहणेण य तबोविहाणेसु य अणुकिरं करे, सो अणुकप्पो। (गाहा)(गु यावत् । कषायाः क्रोधादयोऽस्येति सर्वधनत्वादिनिप्रत्ययेऽणुणसयत्ति) जा पुण गुणसयसहस्सकबियाणं, अलंकृतानामि कपायी । प्राकृतत्वात् ककारस्य द्वित्वम् । संज्वलनकषायवित्यर्थः । गुणंतरं चेष अभिलसंताणं नाणाइसु परिदाणी होज्जा, शिष्टे, उत्त०१५ ०। बेते प्रमाणाश्सु, काले ओमाश्सु, नावे गिलाणाश्सु । (गाहा) अनुत्कषायिन्-त्रि० । उत्कवायी प्रबलकषायी, न तथा अनुपगतनिजरा तहेव तेर्सि एगंतनिजरा चेषा यथा-नगवद्भिरुप- कषायी । अप्रवनकषाये, उत्त० १५ १०। सत्कारादिना वर्षदिएं प्रणीतमित्यर्थः । जो पुण संजमजोगनियतमई चंददात्ति रहिते, "अणुक्कसाई अप्पिच्छे अनाए सीअलोलुए"उत्त०२० या सिरी सुहसीलोहसीलो त्तिभणइ तेसिं तवोच्छेत्रो वा। अणुकस्स-अनुत्कर्षवत्-पुं० । अष्टमदस्थानानामन्यतमनाऽप्युत्से. एस अणुकप्पो॥ कमकुर्वति, सूत्र० १ ० २ ० १ ० "श्रणुकस्से अप्पलीणे, अपकरण-अनुकरण-नकासीवनलेपनादिकुर्वन्तं राष्ट्रवाछूते-इच्छा मज्मेण मुणिजावए" सूत्र०१६०२०१०। कारेण तवेदमहं करिष्यामीत्युक्त्वा तथाकरणे, व्य०१०। अणुक्कोस-अनुत्कर्ष-पुं० । आत्मनः परेभ्यः सकाशादू गुणैरुअणुकरणकारावणणिसग्ग-अनुकरणकारापणनिसर्ग-पुं० [अ. कर्षणमुत्कृष्टतानिधानम् । गौणमोदनीयकर्मणि, भ० १५ २०५ नुकरणं नाम यत्सीवनलेपादि कुर्वन्तं दृष्ट्वा ब्रूते-पच्यकारेण त. 10 । स०। प्रात्मगुणानिमाने, स्था० ४ ठा० ४ ०। घेदमहं करिष्यामि, कुरुते च, कारापणं तद् यत्स्वयं करणे कुशलोऽन्यानपीच्छाकारेण कारापयति, तस्मिन् निसर्गः स्व अनुक्रोश-पुं० । दयायाम, स्था०४ ग० ४ मा भावो यस्य सोऽनुकरणकारापणनिसर्गः , इत्थंनृतस्तस्य स्व- | अणुक्खित्त-अनुक्ति-त्रि० । पश्चादुत्पाटिते, “प्राक्सिसि मावो यदि अनभ्यर्थित एव करोति कारयतीति नावः अनत्य- | धूगंसि"हा०८ ०। र्थननैव कुर्वन्ति कारयन्ति च । नावसङ्गविशेष, व्य० ३१०।। प्रागंतव्व-अनुगन्तव्य-त्रि० । अनुसत्र्तव्ये, स्था० ५ ०१ अणुकहन-अनुकथन-न । भाचार्य्यप्ररूपणातः पश्चात कथ ने, सूत्र०१ श्रु०१३ भ०। अणुगच्छण-अनुगमन-नागच्यतःप्रत्युझमनरूपे कायअपुकारि [ए]-मनुकारिन्-त्रि० । अनुकरोति । अनुकि विनयभेदे, दश०१०।। णिनि स्त्रियां की। गुणक्रियाऽऽदिभिःसरीकारके, वाच । विवक्तिवस्तुनः सटशे, अष्ट०७ अष्ट। आगच्छमाण-अनुगच्छत-त्रिका अनुवर्तमाने, “अणुगच्चअणुकुश्य-अनुकुचित-वि० । अनुद्धि; नि००००। माणे वि तह विजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसणं" सूत्र.१ अणुकुड-अनुकुड्य-अव्यः । अनुशब्दस्य समीपार्थद्योतकत्वा भु०१४ ०। प्राचा०॥ तु, अनुकुज्यमुपकुड्यम् । वृ० ३ उ० । कुख्यसमीपत्तिनि प्रदे अणुगम-अनु (णु) गम-पुं० । अनुगमनमनुगमः, अनुगम्यशे, वृ०३००। तेऽनेनास्मिनस्मादिति वाऽनुगमः । सूत्रानुकूल परिच्छेदे, श्रणकूल-अनुकूल-त्रिकाअनुलोमे, आचा० १ श्रु०३०४३०। स्था०१ ठा०।निक्किप्तसूत्रस्य अनुकूले परिच्छेदे, अर्थ, कथने च। स्था० । नि० अनुरूप, आ०म०प्र० । “अणुकोणं धमे कुमार-| जं०१ वक्षः। सूत्रस्यानुरूपेऽर्थाख्याने, व्य०१०। आ० म० बंभचारी" आव.४०। अप्रतिकूले, प्रश्न०४ सम्ब० द्वा० । प्र०। आचासंहितादिव्याख्यानप्रकारप्ररूपे, सदेशाशनिर्गप्राचार्याणामन्येषां वा पूज्यानां वैयावृत्यादिना हितकारिणि मादिद्वारकलापके वा। स०अनुयोगद्वारे, अनु०। उत्सारकल्पिकयोग्यतावति , वृ० १२० । अथाऽनुगमनिक्तिमाहअाकूनवयण-अनुकूलवचन-न० । अप्रतिकूलवचने, यथा अनुगम्मइ तेण तहिं, तो व अणुगमणमेव वाऽणुगमो। हे महानाग ! नेदं तवोचितं वक्तुं कर्तुं वेति । दर्श०। अणुणोऽणुरूवो वा, जं सुत्तत्थाणमणुसरणं ॥ अणुकूलवाय-अनुकूलवात-पुं० । आनायकविवक्तिते पुरुषाणां अनुगम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेनाऽस्मिन्नस्मा इत्यनुगमः, पवन, जी०१ प्रति०।। धाच्याविवक्ता तथैव । अथवा अनुगमनमेवानुगमः। अणु नो वा सूत्रस्य गमो व्याख्यानमित्यनुगमः । यदि वा अनुरूपस्य घटप्राकन-अनुक्रान्त-त्रि० । अनुष्ठिते आसेवनापरिक्षया सेविते, मानस्यार्थस्य गमनं व्याख्यानम नुगमः । सर्वत्र किमुक्तं भवतीप्राचा० । “एस विही अणुकते माहणेणं मई मया बहुसो"। प्राचा०१ श्रु०ए०४ उ०।। त्याह-यत्सूत्रार्थयोरनुकूल सम्बन्धकारणमित्यनुगम इति । अन्नाक्रान्त-त्रि० । अनुचीणे, प्राचा० १ श्रु० ए ० ३ ००। विशे०। श्रणकम-अनुक्रम-पुं० । अनुपरिपाट्याम, आ००। प्रानुपूर्वी अनुगमभेदाःअनुक्रमोऽतुपरिपाटीति पर्यायाः । अनु० । प्राचा० । “अणु से किं तं अणुगमे ? । अणुगमे दुविहे पप्पत्ते । परिवामित्ति वा अणुक्कमेति वा एगट्ठा"। प्रा० ० १० अा तं जहा-सुत्ताणुगमे अनिज्जुत्तिअणुगमे अ॥ अणुकसाइ (D)-अनुत्कशायिन्-पुं०। उत्क उत्कण्वितः स- | ( से किं तं अणुगमे इत्यादि ) अनुगमः पूर्वोक्तशब्दार्यः । स त्कारादिषु शेते इत्येवंशीन उत्कशायी, न तथा अनुत्कशायी। च द्विधा-सूत्रानुगमः सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः । नियुक्त्यनुगमश्च प्राकृतत्वाद्वाऽनुकषाय।।सर्वधनादित्वादिनिः। सत्कारादिकम- नितरां यक्ताः सूत्रेण सह लोलीभावेन संबका निर्युक्ता अर्थास्ते. कुर्वते कुप्यति, तत्संपत्ती वाऽनहंकारयति, उत्त० ३ ०। । षां युक्तिः स्फुटरूपताऽऽपादनम् , एकस्य युक्तशब्दस्य लोपानियु Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६३) अणुगम अभिधानराजेन्द्रः। अणुग्धाइय क्ति मस्थापनादिप्रकारैःसूत्रविभजनेत्यर्थः । तद्रूपोऽनुगमस्तस्या तिविहे अणुग्गहे पप्पत्ते । नं जहा-आयाणुग्गहे, पराणुवा अनुगमी व्याख्यानं निर्युक्त्यनुगमः। अनु०।(सूत्रानुगमनिर्युक्त्यनुगमयोाख्या स्वस्वस्थानेद्रएव्या) व्याण्याने,संगृहीते, ग्गहे, तदुभयाणुग्गहे य ।। सर्वव्यक्तिषु अनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादने च। विशे० । यत्र तत्र आत्मानुग्रहोऽध्ययनादिप्रवृत्तस्य, परानुग्रहो वाचनादिसाधनं तत्र साध्यमित्येवंत्रतणे साध्यस्य साधनेन सहान्वये, | प्रवृत्तस्य , तदुभयानुग्रहः शास्त्रव्याख्यानशिष्यसङ्ग्रहादिप्रवृ. विशे० । पश्चामने , सहायीजवने च । चाचा सस्येति । स्था०३ ठा० ३ उ०। पश्चा०1"सर्वशोक्नोपदेशेन, अणुगम्म-अनुगम्य-अव्य० । बुद्धेत्यर्थे, सूत्र० १ श्रु० १४ अ०। यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति दुःखतप्तानां, स प्राप्नोत्यचि. राच्छिवम्" आ० म०प्र०। प्रज्ञा०। यो०वि०। अनुपघाते, अणुगय-अनुगत-त्रि० । पूर्वमवगते , विशे० । अव्यवच्छिन्नतः | उज्जालने, नि०यू० १ उ० । देहस्य स्रक्चन्दनाङ्गनावसनायाऽनुवृत्ते, प्रश्न. ३ आश्र द्वा० । 'मतिसहित ति वामतिअणु दिभि गैरुपष्टम्भे, ध०१ अधिक। गतंति वा एगहा' प्रा० चू०१ अपितृविनत्याऽनुवाते पितृ अणुग्गह-अनुग्रहार्य-पुं० । अनुग्रह उपकारस्तम्लक्षणो यो. समे पुत्रे , पुं० । स्था० ८ ० ३ उ० । आनुकूल्ये , न० । स०। ऽर्थः पदार्थः प्रयोजनं वा । अनुग्रहप्रयोजने, “सपरेसिमणुः अणुगवेसेमाण-अनुगवेषयत-त्रि० । सामायिकपरिसमाप्त्य ग्गहटाए " स्वपरयोरात्मतदन्ययोरनुग्रह उपकारस्तल्लक्षणो नन्तरं गवेषयति, "तं भंडं अणुगवेसेमाणे किं सय भंडं अ- योऽर्थः पदार्थः प्रयोजनं वा सोऽनुग्रहार्थः, तस्मै अनुग्रहागुगवेसह ?" भ० ८ श०५ उ० । र्थाय । तत्र स्वानुग्रहः प्रावचनिकार्थानुवादे निर्मलबोधभावात् आणुगा (ग्गा ) म-अनुग्राम-पुं० । अनुकूलो ग्रामोऽनुग्रामः। परोपकारद्वारा यौनकर्मक्षयावाप्तेश्च । परानुग्रहस्तु परेषां व्य.२ 30 । विवक्षितग्राममार्गानुकले ग्रामे लघुग्रामे, एक निर्मलबोधतत्पूर्वकक्रियासंपादनात्परम्परया निर्वाणसंपादस्माद् प्रामादन्यस्मिन् प्रामे, उत्त० ३१० । एकग्रामाल्लघुप नात् । पञ्चा०६ विव०।। श्वाभावाभ्यां स्थिते ग्रामे, स्था०५ ठा०२ उ०। विवक्षित- | अणुग्गहता-अनुग्रहता-स्त्री० । अनुगृह्यत इति अनुप्रहः।कप्रामादनन्तरे प्रामे , “गामाणुगा (ग्गा) मं दइज्जमाणे" | मण्यनट् । तस्य भावोऽनुग्रहता । अनुग्रहणे, व्य० १ उ० । औ० । ध०। अणुग्गहतापरिहार-अनुग्रहतापरिहार-पुं० । अनुग्रहतया अणुगामि (ए)-अनुगामिन-त्रि०। साध्यमसाध्यमग्न्या परिहारोऽनुग्रहतापरिहारः । खोटादिभङ्गरूपे परिहारभेदे, दिकमनुगच्छति, साध्याभावे न भवति योधूमादिहेतुः सोऽनु- व्य० १ उ०। गामी । अदुष्टहेती, स्था० ३ ठा० ३ उ. अनुयातरि, आव० ५० । मोक्षायाऽनुगच्छति, व्य०१० उ०। भाग्याइम-अनुदधातिम-न० । उद्घातो नागपातस्तेन नि वृत्तमुदातिम अचित्यर्थः । यत उक्तम्-“ अद्धण जिन्नसेसं, पुअणुगामिय-अनुगामिक-त्रि०। उपकारिसत्कालान्तरमनु व्वरेणं तु संजुयं काओ । दिजाइ बहुयदाणं, गुरुदाणं तत्तिय याति तदनुगामिकम । स्था०५ ठा०१उ० । अनुगमनशीले | चेच" इति । ('उग्धाश्त्र' शब्देऽस्या व्याख्या द्वि०भा०७३० भवपरम्परानुबन्धिसुखजनके, पा० स्थाअनुगमनशीलेड- पृष्ठे द्रष्टव्या) पतनिषेधादनुवातिमम् । तपोगुरुणि प्रायश्चित्ते, वधिज्ञाने, सूत्र०२१०२ १०२ उ० गच्छन्तमनुगच्छतीति तद्योगात् तदषु साधुषु च । स्था० ३ ग०४ उ०। अनुगामिकः । अनुचरे , सूत्र०२७०२ १०२ उ01 अकर्त अपग्याइय-अनुद्घातिक-पुं० । न विद्यते उद्घातो मधुकर. व्यहेतुभूतेषु चतुर्दशस्वसदनुष्ठानेषु, सूत्र-२ श्रु०२ १०३ उ०। णसवणो यस्य तपोविशेषस्य तदनुरातम्, यथाश्रुतदानमित्यअणुमामियत्त-अनुगामिकत्व-10। भवपरम्परासु सानुबन्ध. र्थः, तोषां प्रतिसेवाविशेषतो ऽस्ति तेऽनुद्घातिका स्था० ५ सुखे, औ०। ग० ३१० । सघातो नाम भागपातः, सान्तरहान बा, स धिअणुगिद्ध-अनुगृद्ध-त्रि० । प्रत्याशक्ने, सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ०। चते येषु तेन्द्घातिका, तद्विपरीता अनुद्घातिकाः। तपोगुरुप्रा यश्चित्ताहेषु, वृ०४ उ०। अणुगिधि-अनुगृषि-स्त्री० । अभिकाजायाम, उत्त०३० प्रयोऽनुद्घातिकाःअणुगिलइत्ता-अनुगीर्य-अव्य० । भक्षयित्वेत्यर्थे, मा०७० तो अणुग्घाइया (मा) पामत्ता । तं जहा-हत्थकम्मं कअणुगीय-अनुगीत-त्रि०। मूलाचार्योत्पाश्चात्यशिष्यैः कृते रेमाणे, मेहुणं सेवमाणे, राइजोयणं नुंजमाणे। स्था० ३ प्रन्थे,“ महत्थरूवा वयणप्पभूया, गाहाणुगीया नरसंघमझे" ग०४ उ०। अन्विति तीर्थकृदूगणधरादिभ्यः पश्चाद् गीता अनुगांता । त्रयस्त्रिसंख्याका अनुद्घातिकाः । उद्धातो नाम-'अखेण चिकोऽर्थः-तीर्थकरादिभ्यः श्रुत्वा प्रतिपादिता , स्थविरैरिति नसेसं' इत्यादिविधिना जागपातः, सान्तरदानं वास विद्यते शेषः । अनुलोमं वा गीताऽनेन श्रोत्रानुकूलैव देशना क्रियते येषु ते उद्घातिकाः, तद्विपरीता अनुदूघातिकाः, प्रसप्तास्तीर्थकइति ख्यापितं भवति । उत्त०१३ अ०। रादिनिः प्ररूपिताः, तद्यथोपदर्शनार्थः। हन्ति हसतिया मुखमावृ त्यानेनेति हस्तः शरीरैकदेशो निकेपादानादिसमर्थः,तेन यत्कम अणुगुरु-अनुगुरु-त्रि०। यद्यथा पूर्वगुरुभिराचरितं तत्तथैव क्रियते तद्धस्तकर्म, तत् कुर्वन् ; तथा स्त्रीपुंसयुग्मं मिथुन च्यते, पाश्चात्यैरपि आचरणीयमिति गुरुपारम्पर्ये व्यवस्थया व्यव. तस्य नावः कर्म वा मैथुनं, तत्प्रतिसेवमानः, तथा रात्रौ भोजहरणीये, वृ० १ उ०। नमशनादिकं भुञ्जानः । एष सूत्रार्थः । बृ०४ उ० । मिक्केपपुरप्रयागह-अनग्रह-पुंज उपकारे, श्री ज्ञानाद्युपकारे,स्था | मां विडोषव्याख्यानम Jain Education Interational Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६४) ग्राणग्घाश्य अभिधानराजेन्द्रः। अणुग्धाश्य अथानुद्घातिपदं व्याख्यातुमाह रुकाणि प्रायश्चित्तानि भणितानि तैरेवाधिकारः। शेषाणि पुनरुनग्यातमणुग्याते, निक्खेतो छविहो उ काययो । च्चारितार्थसहशानि शिष्याणां विकोपनार्थमुक्तानि । वृ०४ उ० । लद्घातिके अनुदातिकमनुदातिके वा उद्घातिक पश्चानुनामं ग्वणा दविए, खेत्ते काले य जावे य ।। द्वातिकाः । “पंच अग्घाश्मा पराणत्ता । तं जहा-हत्थकम्मं कइह हस्वत्वदीर्घत्वमहत्त्वादिकादनुघातिकस्य प्रसिद्धिरिति J रेमाणे महणं पमिसेवमाणे राईभोयणं नजमाणे सागारियपि कृत्वा द्वयोरुघातिकानुद्घातिकयोः परिधो निक्केपः कर्तव्यः । मुंजमाणे रायपिंडं जमाणे" स्था०५ ग०२०। उद्घातिके अतद्यथा-नामनि स्थापनायां सव्ये क्षेत्रे काले भावे चेति । तत्र नुदातिकमनुदातिके उद्घातिकं ददतः प्रायश्चित्तम् । नामस्थापने गतायें। जे भिक्खू नग्याइयं सोचा णच्चा संहुंजा संलुजंतं वा व्यादिविषयमुद्घातिकमनुद्घातिकं च दर्शयति साइज्जइ ॥ १७ ॥ जे निक्खू उग्याइयहेनं सोचा णच्चा नग्यायमणुग्घाया, दवम्मि हलिद्दराग किमिरागा। संजुजा संजुजतं वा साइज्जड़ ॥१ए। जे जिक्खू उग्घाश्यखेत्तम्मि काहनूमी, पत्थरजूमी य हन्नमादी ॥ संकप्पं सांच्चा णचा संतुंज संजुजंतं वा साइज्जइ ॥२०॥ कव्ये व्यत उद्घातिको हरिधारागः,सुखेनैवापनेतुं शक्यत्वात् । अनुद्घातिकः कृमिरागः,अपनेतुमशक्यत्वात् । केनत उद्धा. जे जिक्खू नग्याश्यं वा नग्धाइयहेउं वा उग्घाश्यसंकणं तिका कृष्णभूमिः अनुदातिका प्रस्तरभूमिः । कुत इत्याह-(हस वा सोच्चा गच्चा संतुजा संभुजंतं वा साइज्जइ ।। १ ।। मादित्ति) हलकुलिकादिनिः कृष्णनूमिरुद्धातयितुं कोदयितुं जे निक्खू अपुग्याश्यं सोचा गच्चा संभुंज संजतं वा शक्या , प्रस्तरभूमिरशक्या । साइजइ ॥ २२ ॥ जे निक्खू अणुग्घातियहेलं सोचा तथा-- कालम्मि संतर पिरं-तरं तु समयो व होतऽणुग्यातो। णच्चा संतुंज संभुंजतं वा साजा ॥ २३ ॥ जे भिक्खू अणुग्याइयसंकप्पं सोचा गच्चा संझुंजइ संजूंजतं वा नबस्स अट्ठ पयमी, उग्याति पएतरा इयरे ।। कालत उद्घातिक सान्तरप्रायश्चित्तस्य दानम, अनुदातिक निर साइज्ज॥ २४ ॥ जे भिक्खू उग्घा तयं वा अणु ग्याइयं न्तरदानं, तुशब्दात् बघुमासादिकमुदातिकं, गुरुमासादिकमनु वा सोच्चा णचा संलुंजइ संजुजंतं वा साइज्जइ ।।२।। द्वातिकम् । अथवा-कालतः समयोऽनुद्धातिको भवति, खामशः जे भिक्खू नग्घातियहेउं अपग्धाइयहेनं पा सोच्चा णच्चा कर्तुमशक्यत्वात् । श्रावझिकादय उद्घातिकाः, खमितुं शक्य. संलुंजइ संजतं वा साइज्जइ ॥ २६ ॥ जे जिक्व उग्धात्वात् । नावत उद्घातिका भव्यस्याही कर्मप्रकृतयः, नद्धातयितुं तियसंकप्पं वा अणुग्धाइयसंकप्पं वा सोच्चा एच्चा शक्यत्वात, इतरस्याजव्यस्य नक्तास्ता पदेतरा अनुदातिकाः। कुत ? इति चेदुच्यते संलुंजइ संतुजंतं वा साइज्जइ ॥ २७ ॥ जे जिक्खू उग्याइयं वा अणुग्धाइयं वा उग्याइयहेनं वा अणुग्या-- जेण खवणं करिस्मति, कम्माणं तारिसो अन्नव्वस्स । श्यहेर वा नग्घाश्यसंकप्पं वा अणुग्याइयसंकप्पं वा सोगा ण य उपज्जर जावो, इति भावो तस्सऽणुग्घातो ॥ येन गुभाध्यवसायेन कर्मणां झानावरणादीनां कपणमसा क णचा संभुंजइ सं जंतं वा साइजः ॥ २० ॥ जे निक्खू रिप्यति स तादृशो भावोऽभव्यस्य कदाचिदपि नोत्पद्यते, इ. अणग्याइयं वा उग्याइयं वा सोच्चा णच्चा संतूंजइ त्यतस्तस्य नावोऽनुरातः कर्मणाऽनुद्घातं कर्तुमसमर्थः। अत संनुंजतं वा साइज्जइ ॥ २७ ॥ जे भिक्खू अणुग्याश्यहेलं एव तस्य कर्माणि अनुद्घातिकानि जण्यन्ते । वा उग्याइयहेनं वा सोचा णचा संजुजर संजुजतं वा अत्र च प्रायश्चित्तानुद्घातिकेनाधिकारः । तञ्च कुत्र नवती साइज्जइ ॥ ३० ॥ जे भिकाव अणुग्याइयसंकप्पं वा त्याहहत्थे य कम्म मेहुण, रत्तीभत्ते य होतऽणुग्घाता। उग्याइयसंकप्पं वा सोचा एचा संलुंजइ सं जंतं वा एतेसिं तु पहाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं । साइज्ज ॥ ३१॥ जे जिक्खू अणु ग्याश्यं वा अणु ग्याइदस्ते हस्तकर्मकरणे, मैपुनसवने, रात्रिभक्ते पतेषु त्रिषु सूत्रो यह वा अणुग्घाश्यसंकप्पं वा नग्घाश्यं वा नतपदेषु अनुद्घातिकानि गुरुकाणि प्रायश्चित्तानि नवन्ति । तत्र ग्याइय हे वा उग्याझ्यसंकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ हस्तकर्मणि मासगुरुकं , मैथुनरात्रिनयोश्चतुगुरुंकाः । एतच्च संजुजतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥ प्रायश्चित्तं यदा यत्र स्थाने भवति तत्पुरस्तादू व्यक्तीकरिष्यते। एवं अणुग्घातिए वि सुसं । नग्घाताणुग्घायदेउप वि दो १०४ उ० । ( अर्थतेषां हस्तकर्ममैथुनरात्रिभोजनानां व्याख्याऽन्यत्र स्वस्वस्थान एव रूटच्या)। सुत्ता। उग्घायागुग्घायसंकप्पे विदो सुत्सा। उपसंहरन्नाह एते छ सुत्साअत्थं पुण अधिकारो-ऽणुग्याता जेसु जेमु गणेमु। । उग्यातियं वदंते, आवमम्घायहे उगे होति । उच्चारियसरिसाई, सेसा विकोवणहाए ।। नग्यातियसंकप्पिय-सुके परिहारियं तहेव ।।२६०॥ प्रत्र पुनः प्रस्तुतसूत्रे हस्तकर्ममैथुनरात्रिनक्तविषयैः स्थानरधि- उग्घातियं णाम ज संतरं वहति, लघुमित्यर्थः अणुग्घातियं कारः प्रयोजनम्। कैरित्याह-येषु येषु स्थानेषु अनुरातानि गु- | णाम जंणिरंतरं वहति, गुरुमित्यर्थः । सांचं ति अमासगा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१५ ) अनिधानराजेन्द्रः । अणुग्धाइय सानो, चं तिसयमेव जाणित्ता संभुजेति एगो भोजनम उग्धाय संकप्पाण अणुग्धातियाण तिरिह वि इमं वक्खाणं । उग्धातियं पायच्छितं वहतस्स पायच्छित्तमावास्स जाव मालोद ताव हेरं भवति, आलो तुम् सिंकपियंत दुविधं पि विदं वहति-सुद्धतवेण या परिहारतवे वा सविसुद स्स तबस्स वा परिहारतवस्स वा संकप्पियं पिसुद्धतवेण वा परिहारतवेण सुधावदेहे संकप्पा अणुग्धातियाण तिरह इमं वक्वासं । अघातियं वहंते, आवाग्घात हे उगे होति । अघातियसंकप्पिय-सुके परिहारियं तव ।। २६१ ।। पूर्ववत्, णवरं, अणुग्धातिए त्ति वप्तव्वं, जे सगच्छे सुद्धपरिहारतवाण अरुह ते राज्जंति चेव । जे परगच्छातो आगता ते पुति को भने ! परियाओं, सुचत्यअजिगहो तो कम्या । कक्खमक्खमएस य, मुदतवे मंडवादोति || २६२ ।। इमा पढमा पुच्छा । गमगीओ गीओ, महतिकं वन्यु कस्स वसि जोगो ? | तिमणि थिरमथितवे प कपजग्गां ॥ २६३ ॥ सो पुच्छिज्जति किं तुमं गीयत्थो अगीयत्थो ? । जदि सो राति गीतोऽमिति, तो पुणो जति कि आरि उभाओ ? यो रोग ? नेता ? बसभी है। पतेलि एगंतरे अक्खाए पुच्छ्रिज्जति कयमस्स तवजोग्गा सुइस्स परिहारस्स, श्रह सौ श्रगीतोऽहमिति भणिज्जति तम्रो जतिथि अथिति थिये दढो तबरबा नित्यर्थः । श्रथिरो अन्तर एव भज्जते, नान्तं नयतीत्यर्थः । पुरा थिरो अधिरो वा जति ताप कमजोगो तय कारणेनाभ्यस्ततयो । सगणम्म नत्थि पुच्छा, गणादागयं च जं जाणे । परियायजम्मदिवखा उतीसा मीसकोमी वा ।। २६४ ।। सगणे या उ णत्थि पुच्छा उ, जो सगणवासिणी सव्वे णज्जति। जो जारिसो श्रन्नगणागतं पि जं जाणे तं नो पुच्छे अ भंते ! श्रामंतणवयं परियाए ति । परियाओ दुविहो- जम्मपरियाध पारिपाचो य जम्मपरिवाओ जजस्थ एगूणतीस वीसा कहं ? जम्मठवरिसो पव्वति । तो एवमवरिसो पव्वति, तो णत्रमवरिसे पष्वति, तो ते एवमवरिसे प सीओ विसतिघरिसस्स वरिसेण सम्मतो। एवं वरिसेण सम्मतो | एवं वरिसेण समत्ती । एते च उणतीसं वीसो उक्कोसेण देखा पुचकोडी पण्यजा उपसस्स दिट्टियात दिले बरिसेण सम्मत्तो । एते वीसं उक्कोसेण देसूणा पुष्व कोडी । इदाणि सुतत्यमिति नवमस्स ततियवत्थू, जहानको सनूरणग दसतं । सुतस्य जिगहे पुए, दव्बादितवो रयणमादी ||२६|| एबमरस पुण्यजहां ततिधावारयन्काले पि ज्जति, जाहे तं अधीयं उक्कीसेण जाहे ऊणगा दसपुव्वा अधीता संमदपुण्विको परिहारतयो दिजति सुत्रस अणुग्धाइय एवं पमार्थ (अभिष्मति) अभिहायक से कालभाषे हि तो तोमं पुरा ( रयणमादिति) रावल प्रादिहातो कणगावली, 'सीहविक्कीलियं जवमज्भं वहरमज्यं वंदाणयं' कक्खडेसु य पच्छद्धं । श्रस्य व्याख्या सुद्धपरिहारतया कतमो वडो रुपमो वा क्यो? एत्य सेल मंडपेड दितोति । जं मायति तं मति, सेलमए मंगवे ण एरंडे । उभयलियम एवं परिहारो दुब्बले सुन्यो || २६६ ॥ सेलमंड माय शुम्भति सो भजति, एरंडम पुजापतियं सुम्भति एवं उभयलिए विविध संघ वजुता जं श्रवज्जति इमेरिसाणं सव्वकालं सुद्धतघो तं परिहातवेण दिज्जति सो पुरा विति हि दुबलोऽतिहीणो तस्स सुद्धतवो वा ही तरं पि दिज्जति । सीसो पुच्छति किं सुद्धपरिहारतवाण एगायली उत भिक्षा है। उच्यतेअविसिडा प्रवत्ती, सुकतवे संहयणपरिहारे । वत्थु पुप्रासज्जा, दिज्जते तत्थ एगतरो ॥ २६७ ॥ सुद्धपरिहारतवाण अविसेसी श्रावती धारियादिवती । संघोष जाणं परिहारतयो दिजति इतरो या सुन पगे एगरा दिजति मेरिसायं सव्वकालं सुद्ध यो दिज्जति । तो अजाणं, अनियत्वे दुबले संघले । धितिय लिए समंता - गए य सब्बेसि परिहारो | २६८ | अजा गयाथरस वितीययस्स संघद सुद्धतव दिज्जति, धितवलजुत्तो संघयणसमझिए य पुरिले परिहारे त पडिवते मी विड़ी विसग्गो जाणट्टा, ववणाजीए य दोसु वी तेसु । आगम व दीपराया, हिंतो जीव आत्ये ॥ २६७ ।। परिहारवं पडिव दयादि अप्पत्ययज्जेता पसत्येसु दन्यादिसुकाउसो कीर, सेससा जागा - लावणादिपदान पाउविज्जति तेषु विजदि भीता तो श्रासासो कीरद्द ति इमेहिं से वीहे पायच्छित्तं सुप्रति महती जरा भवति कप्पट्रियसुपरिहारिया दो सहाया पिता हमेहिं अगडतिराइदिनेहि भीतरस आसासो कीरह, अगडे पडियस्स आसासो कीरति, एस जो जति अधिरा उतारे मा वि सादं गेहसु, एवं जतिणा सासिज्जति, तो कयातिभारण तस्य चेच मारे, दीपूरगेण हीरमा भगति अवल बाहिर सत्तारगो इतिगादि पेतुमतरियां मुसारेहिसि मा वि सादं गेहसु । रायगहियो विभवति एस राया जदि वि दुट्ठो तहवि विष्वविज्जंतो पुरिमादिपसु श्रायारं पस्सति, अइमंड न करेति पर्व आसासिज्जता आससास; दढयेतो व नवति । काउस्सग्गो य किं कारणं कीरह ?, उच्यतेनीसम्मणिमितं भयजणाद्वा य सेसगाणं तु । तरसोय गुरुणो, पसाहए होति परिवत्ती २७० Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .अणुग्धाइय धानिधानराजेन्द्रः। अणुग्धाइय सास्स णिरुयसम्पणिमिसेससाण य भयाजणणाका- कप्पध्यि अणुचिति अन्तुट्ठाणति किरियं सुत्तमं करेति । उस्सम्गो कारक, सोय दम्वत्रो वडमादि खीररुखेत्तो जिण- समादिगछंतो प्रत्थर पुच्छितो कप्पट्ठियेण ओदंत इति सरीरघरादिसु कामो पुम्वसूरे पसत्यादिदिणेसु य भावतो चंदता- हमाणी कहतिरावलेसु तस्सऽप्पणो य गुरुणो य साहएसु पवित्ती भवति । सो उहिज णिसीएजा, मिक्खं गेएहज्ज भंगगं पेहे । य जहन्नेण मासो, उकोसेण उम्मासा, तम्मि परिहारतवं परिवजंति। पायरियो भणति-एय साहस्स णिरुवसम्गणिमित्तंग कुविए पि बंधयस्सव,करेति नरोचतुसिणी।।३७७।। मिकाउम्सगं जाव पोसिरामि, सोगस्सुजोयगरं अणुपत्ता परिहारितो तवकिलामितो जर बुखमयाय उद्वेण सकेर, णमोऽरिहंताणं ति पारेत्ता लोगुस्सवं करं कहिता पायरि- ताहे अपरिहारियस्स अंगतोनहाति। जामिणिसीपजायो भणति मि निक्खं हिंडिकण सक्केमि,तोष्णुपरिहारिओ परिहारियनायकापट्टिो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीभो। हिं हिंमिनुं देति । जा सके नंगं पडिसेहताहे अणुपुलिंब कयपरिहारो, तस्म य सयणो विदढदेहो ॥२७१॥ । परिहारितो से पमिलेहमियं करे, जण सकेति सम्राकापायरियो पायरिया णिउत्तो वा नियममीयस्थो तस्स प्रा. | श्यनूमि गंतु, तत्थ परिहारिओ भणति-कायसमा मि गयरियाय पदापालगो कप्पाहतो भमति । सो प्रणति-अहं खामि, ताहे असे अणुपरिहारिओ करेति । ते कप्पद्विती परिहारियं गच्छतं सव्वत्थ अणुगच्छति जो सो ___ मुत्तणिवाओ इत्थं, परिहारतवम्मि होति दुविधम्मि । अपरिहारितो सो विणियमा गीयत्यो। सो से विज्जति एस ते सोचा वा णचा वा, संतुंअंतस्स प्राणादी ॥ २७ ॥ भापरिहारी,सो पुण पुवकयपरिहारियस्स असति भमो वि अकषपरिहाराविति संघयणजुत्तो दढदेहो गीयत्थी अपरि पत्थ सुत्तं निवाओ,जो परिहारतवं दुविधं नग्धार्य अणुग्घायं वहारिता विज्जति । पर्व दोसु विएसु श्म भष्मति हर तं सोचाणवावा जो संनुजति तस्स प्राणादिदोसा जवंति। एस तवं पडिववति, ण किंचि आजवति मा हुभानबह । वितियपदे साहुवंद-ण नभनो गेलपथेरअसती य । प्रात्तवचितगस्सा, वाघाओ ने न कायचो ।। २७५ ॥ आलोयणादि तु पए, जयणाए समायरेजिक्खू॥२७॥ पस आयविसुरुकारो परिहारतवं पडिवञ्जनि । एस तुके साधुवंदणत्ति अणत्थं साधुसंगिता अण्णो साधू ते दटुं भण किंचि पालवति , तुज्के वि एयं मा श्राझवह । एस तुज्के मुत्तत्येसु मरीरं वट्टमाणी वा ण पुच्चति, तुज्के वि एयं मा पु णति-अमुगसाहुस्स बंदणं करेजा, सो परिहारतवं पडिवमो कछह । एवं परियणादिपदा सव्ये जाणियव्वा । एवं पालव जस्स परिजाति यं हत्थो ते पायाणंतो बंदिउंदणकयं कथति खादिपदे आत्मार्थ चिन्तकस्य ध्यानपरिहारक्रियाव्याघातो न तस्सणं दोसो, भोगेल वि कप्पट्ठिय अपरिहारिय परि हारिओ य पते जदि तिषिण वि गिलाणा, ताहे गच्छेल्लया सर्व कर्तव्यः । श्मा ते त्रासवमादिपदा जयणाए करोत । का जयणा भएणति गच्छिल्लया परिहारिआलावणपडिपुच्छण-परियाणवंदणगमत्तो । यमाणेहिं हिंडित्ता कप्पटियस्स पणामति । सो अणु परिहारिपमिलेहणसंघामग-भत्तदाणसचुंजणे चेव ॥ २७॥ यस्स पणामति,सोवि परियस्स पणामेति । सो वि परिहारयकभासावो देवदत्तादिपुच्छादिपसु पुज्या घीतसुतस्स परियट्ट- प्पष्ट्रिय अणुपरिहारिया पणामे विपवति ।सोयमेव गच्चिगं कालनिक्खादियाण उहा। सओ सुतुहितेहिं खमणमादी- लया सव्वे गिलाणा तो ते कप्पध्यिा दिया तिनि जयणाप यंया बंदणं खेलकाश्यसमाससत्तो मत्तगोवाण सोहिति तस्स सर्व पिकरेजा, परिहारिवं गलियभायणेसु आणिो अणुतिभाषा घेप्पति उधकरणं,परोप्परं जपमिलेहेति संघाममा परिहारियस्स पणावेति,सो कप्पट्टियस्स, सो विगछिल्लयाणं परोपरं जबति, प्रत्तदा परोप्परं णा करेंति । पर्व मडलीय थेरप्रसतीए थेरा पायरिया तेर्सि वेयावच्चकरस्स असत। जति। यच्चान्यत्किश्चित्करणीयं तेन साईन कुर्वन्तीत्य- वेयावच्चकरवाघाए वा अपणोय सलद्धीमो मात्थ, ताहे परि. र्थः। श्मं गच्छवासी पत्ति हारिओ वि करेज जयणा, एसो भायणेसु हिडिवं अणुपरिहासंघाडगतो जो वा, लहुगों मासो दसएह तु पदाणे। रियस्स पणावति। कप्पहियस्स वासो अायरियाणं देति, पवमालहुगा य जत्तदाणे, सझुंजणे होतऽणुग्याया ॥२७॥ दिकजेसु पालावणादिपदे जयणाए भिक्खू समाचरेदित्यर्थः । सुत्ताणि हुश्दाणि एतेसिं चेव ग्रहं सुत्ताणं दुगादिसंगसुत्ता जदि गचिल्लगा परिहारियं पालवंति तो ताणं मासाहु । वत्तव्या । तत्थ दुगसंजोगे पम्मरस सुत्ता नवंति । तत्थ पढम. एवं जाव संघामगपदं अहम सव्येसु मासलहूं । जदि गच्छ दसमं च पते तिमि दुगं संजोगसुत्ता सुत्तं व गहिया। या प्रतं गेएहम तो चउनहुँ, एगहुं हुंजताण चमगुरु, परि ससा वारसऽत्थतो वत्तव्वा । तिगसंजोगेण धीसं सुत्ता भहारियस्स अहमु पपसु मासगुरूं, जत्तदाणसभुंजणेसु चउगुरु, वंति । तत्थ छह पन्नरसमं च होति सुत्ता सुत्तेणव गहिता । कप्पहियस्स अपरिहारियस्स दोरह वि एगसंभोगो, एते दो. विगछिपहिं समाणं श्राबावं करति । बंदामोत्ति य भणंति ससा अट्ठारस अत्थेणेव वत्तव्वा । चउसंजोगेण पत्ररस, ते ससंण करेति । कप्पठियपरिहारियाण श्मं परोप्परं करणं अत्थण बत्तव्वा । छक्कगसंजोगे एक्के तं सुत्तेणेव भणियं । एवं पते सत्तावणं संजोगसुत्ता भवंति । एतेसिं अत्थो पुब्बसमो कितिकम्मं च पडिच्छति, परिम पडिपुच्चगं पि से देति । दुगसंजोगेण उग्धातियं अणुग्घातियं वा कहं संभवति । भसोवि य गुरुमुद चिट्ठति,नदंतमवि पुच्छितो कहति।।१७६।। मति-आवत्ती से उग्धातिया कारणे उ दाउंअणुग्धातियं, एवं कप्पहिती परिहारियवंदणं पमिच्छति , परिष्मति पश्चक्खा-] उग्धाय अणुग्घायसंभवो। अहवा तवेण अणुग्धातकालतो पं देति । सुत्तत्येसु पडिपु दित्ति, सो विपरिहारियो- उग्घातियं एवं वज्जिमणं भावेतब्वं । नि० चू०१० उ०॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुग्धाय भनिधानराजेन्द्रः। अणुजाण प्राणग्याय-अनुघात-पुं० । न विद्यते उद्घातो लघुकरण- मो विद्यते यस्य स अनुचाकुचिकः । मीचसपरिस्पन्दशग्याके, लक्षणो यस्य तदनुयातम् । यथाश्रुतदाने, स्था० ५ ठा० २ कल्प। उ०। प्राचारप्रकल्पभेदे, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ० । अणुजाइ (ण)-अनुयायिन् पुं० । सेवके, को। अग्मायण-अणोद्घातन-न । अणत्यनेन जन्तुगणश्चतु अणुजाण-अनुयान-न । रथयात्रायाम्, पृ.१००। गेतिकंसंसारमित्यणं कर्म, तस्योत्प्राबल्येन घातनमपनयनमणोद्घातनम् । कर्मण उद्घातने, “से मेहावी जे अणुग्घाय तविधिश्वयम्एस्स नेयणे जे य बंधए मोक्खमधेसी कुसले पुण णो बद्ध नमिऊण बद्धमाण, सम्म संखेवभो पवक्खामि । यो मुक्के" आचा० १ श्रु०२ अ० ६ उ० । जिणजत्ताएँ विहाणं, सिछिफलं सुत्तणीतीए ॥१॥ अणुग्यासंत-अनुग्रासयत्-त्रि०ात्मना गृहीत्वा पश्चाद् प्रासं| नत्वा प्रणम्य, वर्धमानं महाधीरं, सम्यग्भावतः, संक्षेपतः सददति, " जे भिक्खू मा जग्गामस्स मेहुणवमियाए अणुग्घा- | मासन, प्रवक्ष्यामि भणिष्यामि, जिनयात्राया अहंदुत्सवस्य चि. संज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासंतं वा अणुपायंतं वा सा-| धानं विधि, सिरिफलं मोकप्रयोजनं, सूत्रनीत्या आगमन्याये जा" नि० चू०७०। ('मेहुण' शब्दे ऽस्य व्याख्या) | नति गाथार्थः ॥१॥ अणुच (य) र-अनुचर-त्रि० । अनुचरन्ति । अनु-घर-ट। जिनयात्राविधि प्रवल्पामीत्युक्तम, अथ तत्प्रस्तावनायैवाहस्त्रियां कीए । सहचरे, पश्चानामिनि च । वाच । अनुपरिहा- दंसणमिह मोक्खंगं, परमं एयस्स अट्टहाऽऽयारे । रिकपदस्थितानां यावत् पाएमासकल्पस्थितानां सेवाकारके, णिस्संकादा जणितो, पत्नावणंतो जिणिंदेहिं ॥३॥ उत्त० २० अ०। दर्शन सम्यक्त्वम्,इह प्रवचने, मोक्तानं सिडिकारणं, परमं प्रअणुचरित्ता-अनुचर्य-त्रि० । प्रासेव्ये, स.। धानम, आदिकारणत्वात्, तस्यानन्तरकारणतया तु परमं चाअणुचिंतण-अनुचिन्तन-न० । पालोचने, आव० ४ ० । रित्रमेव, 'सारो चरणस्स निव्वाणमिति' वचनादिति । एतस्य अणुचिंता-अनुचिन्ता-स्त्री० । अनुचिन्तनमनुचिन्ता, मनसै दर्शनस्य, पुनरएधाऽष्टाभिः प्रकारैः, आचारो व्यवहारो यः स म्यग्दर्शनिनामाचारःस दर्शनस्याचार उच्यत, गुणगुणिनोरभेदाबाविस्मरणनिमित्त सूत्रानुस्मरणे, भाव०४०।। त्। तमेवाह-शङ्का संशयः, तदभावो निःशको निःशङ्कितत्वं, तअणुचिऊण-अनुच्युत्वा-अभ्य० । पश्चारुच्युत्वेत्यर्थे ," अणु- दादियस्य स निःशङ्कादिः, नणितोऽभिहितः, प्रभावनान्तो जिनचिकणेहागओ तिरियपक्खीसु" महा०६ अ०। शासनोद्भावनाऽवसानः, जिनेन्द्रैस्तीर्थकरैः। तथाहि-"निस्सं. अणुचिप्लवं-अनुचीर्णवत्-त्रि० । अनुष्ठितवति, प्राचा० १ श्रु० कियनिकखिय, निबितिगिच्छा अमूढदिट्टी य । नवव्हथिरीअ०६०। करणे वच्छल्लपभावणा अट्टा" इति गाथार्थः ॥२॥ अणुचिय-अनचित-त्रि० । अनावितशके, वृ०१०। अयो __ ततः किम् ?, अत अाह-- ये, षो० ७ विव०। पवरा पभावणा इह, असेसभावम्मि तीऍ सन्नावा । श्रणची-अनुचिन्त्य-अव्य० । औत्पत्तिक्यादिनेदभिन्नया बुद्ध्या जिणजत्ता य तयंग, जं पवरं ता पयामोऽयं ॥३॥ पर्यालोच्येत्यर्थे, आव० ४ अ०जी० । सूत्र० । " अणुचीह प्रवरा प्रधाना, प्रनावना जिनशासनोद्भावना, रहाटप्रकारे स. भासए सयाणमझे लह पसंसणं" अनुविचिन्त्य पर्यास्रोच्य म्यग्दर्शनाचारे । कुत एवमित्याह-अशेषाणां समस्तानां नि:भाषमाणः सतां साधूनां मध्ये लभते प्रशंसनम । दश ७ काङ्कितादिसम्यग्दर्शनाचाराणां भावः सत्ता अशेषभावस्तस्मिन् अ० सुत्र। सति, तस्याः प्रभावनायाः, सद्भावात् संभवानिःशाङ्कितादिभणुचीइभासि (ण)-अनुविचिन्त्यभाषिन-त्रि० । अनुवि- गुणयुक्त एव हि प्रजावको नवतीति । ततोऽपि किमित्याहचिन्त्य पर्यानोच्य भाषते इत्येवं शीमोऽनुविचिन्त्यभाषी व्य० जिनयात्रा च जिनोद्देशमहः, पुनस्तद जिनप्रवचनप्रन्नावना१०। आलोचितवक्तरि, दश ६अ। कारणं, यद्यस्माकेतो, प्रवरं प्रधानं, तत्तस्माकेतो, प्रयासः प्रयअणुचरिय-अनुचरित-त्रि० । भशब्दिते, महा० १ चू। नोऽयमेघ वक्ष्यमाणस्वरूपो जिनयात्राविषय इति गाथार्यः ॥३॥ अनुच्चार्य-अव्य० । निन्द्यत्वाचारयितुमयोग्ये, “अभिग्गहि- ___अथ जिनयात्रेति कोऽर्थ इत्यस्यां जिज्ञासायामाहयमिच्चदिही अणुच्चरियणामधेजे सुज्जसिवे" महा०१ चू०। जता महसवो खलु, उहिस्स जिणे स कीरई जोउ । अणुचसह-अनुचशब्द पुं०। अनुच्चस्वरे, "तं पुण अणुवसई सो जिजत्ता जणई, तिए विहाणं तु दाणाइ ।।४॥ चोच्छिन्नमियं पभास" न विद्यते उच्चः शब्दः स्वरो यस्य तद. यात्रा केत्याह-महोत्सवः खलु महामह एव, नतु देशान्तरगमनुश्चशब्दः, तद्व्यवच्छिन्नं शब्दं विविक्तममिनिताकरमित्यर्थः; नम् । ततः किमत श्राह-वहिश्याश्रित्य जिनानतः स इति मतस्मिन् । व्य०१० होत्सवः 'जिणे उ' इत्यत्र तु पाठान्तरे जिनांस्तु जिनानेवेति व्याअणुचाकुइय-अनुच्चाकुचिक पुं० । उचा हस्तादि यावत् येन ख्येयम, क्रियते विधीयते । यस्तु य पव सश्त्यसावेव महोत्सवो पिपीलिकादेधो न स्यात् सादेर्वा दंशो न स्यात; अकु- जिनयात्रेति भण्यते अभिधीयते, तस्या. जिनयात्राया विधान चाकुचपरिस्पन्द इति वचनात् । परिस्पन्दरहिता निश्चेलेति तु कल्पःपुनर्दानादिविश्राणनप्रतिः। आदिशब्दात्तपःप्रनृसिनद यावत् । ततः कर्मधारये उच्चा कुचा शय्या कम्बादिमयी सा। इति गाथार्थः ।। Jain Education Interational Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६७) मणुजाण निधानराजेन्द्रः। अणुजाण एतदेवाह तामि योग्यानि । किंविधानीत्याह-गम्भीरैरतुच्छत्वात्सूक्ष्मबुद्धिदाणं तवोवहाणं, सरीरसक्कारमो जहासत्तिं । गम्यैः पदार्थैः शब्दानिधयविरचितानि विहितानि गम्भीरपदाउचितं च गीतवाश्य, युतियोत्तापच्चणादीय ॥५॥ र्थविरचितानि, यानि तु यान्येव तान्यपि संवेगवृतिजनकानि मोकाभिलाषातिशयकारीणि , समानि च तुस्यानि च अविषदानं वितरणं, तथा तपउपधानं तपःकर्म , तथा शरीरसत्का माणि वा सुबोधानीत्याह-प्रायेण बाहुल्येन सर्वेषां स्तोतृणारो देहतूषा, मशब्दः प्राकृतशैलीप्रभवः, यथाशक्ति सामर्थ्यान मतुल्यादिस्तोत्रादिपाने हि कोलाहल एवेति न पुनस्तच्चगेतृणां तिक्रमेण, श्दं च क्रियाविशेषणम, प्रत्येकंदानादिषु संबध्यते । उ भावोत्कर्ष इति गाथार्थः॥१०॥ उक्तं स्तुत्यादिद्वारम् । चितं योग्यम् । चशब्दः समुच्चये । गीतं च गेयं, धादितं च अथ प्रेकाणकादिद्वारमाहपटहादिनादितं , गीतवादितम् । अनुस्वारलोपश्चात्र कष्टव्यः, पेच्छणगाविणमादी, धम्मियणामयजुआई शह उचिया। प्राकृतत्वात् । तथा स्तुतिस्तोत्राणि एकानेकरलोकरूपाणि, प्रेक्कणादि च प्रेक्कणकप्रनृति च । श्रादिशब्दात्काव्यकथारथचम- पत्थावो पुणणेओ, मेसिमारंभमादीओ ॥११॥ णादिपरिग्रहो जिनयात्राविधानं च भवतीति प्रक्रमः, इति द्वारगा- प्रेकणकान्यपि प्रेकाविधयः। अपिशब्दः स्तुत्याद्यपेक्कया समुथासंक्षेपार्थः ॥ ५॥ पश्चा०वि०। (यात्राविषयं दानद्वारम् बये। किं स्वरूपाणि नमाति नटः शलूषः तत्प्रवर्तितं यत्प्रे. 'भएकंपा' शब्देऽत्रैव भागे ३६० पृष्ठे उक्तम् )। कणकं तन्नट एवोच्यते-भटप्रेक्षणकमित्यर्थः; तदादि येषां प्रेकअथ तपोद्वारमाह-- णकाणां तानि नटादीनि । आदिशब्दातदितरपरिग्रहः । तानि एकासणाइ णियमा, तवोवहाणं पि एत्थ कायव्वं । । चेह किंविधान्युचितानीत्याह-धार्मिकनाटकयुतानि जिनजतत्तो जावविमुच्ची, णियमा विहिसेवणा चेव ॥ ७॥ माज्युदयभरतनिष्कमणादिधर्मसंबरूनाटकोपेतानि, इह जिन यात्रायामुचितानि योग्यानि, भव्यश्रोतृणां संवेगोत्पादकत्वात् । एकाशनादि एकभक्तप्रन्नति, आदिशब्दाश्चतुर्थादिपरिग्रहः, नि- | प्रस्तावोऽवसरः। पुनःशब्दो विशेषणार्थः । यो सातव्यः, एषां यमादवश्यतया , उपधीयते अनेनेत्युपधानं चरिशीपष्टम्भनहे. प्रेक्षणकानामारम्भादिर्यात्रारम्भादिरादिशब्दाद्यात्रामध्यादिरितुः, तप एवोपधानं तपउपधानं, तदपि न केवलं दानमेव । अत्र जिनयात्रायां कर्त्तव्यं विधेयं भवति । कस्मादिदं कर्तव्यमित्या ति गाथार्थः ॥ ११ ॥ प्रेक्वणकानामारम्नादिप्रस्ताव उक्तः । ह-ततस्तपउपधानादू भावविशुद्धिरध्यवसायनैमल्यं नियमा अथ दानस्य का प्रस्ताव इत्याशङ्कायामाहदवश्यतया जवति, भावविशुकिरेव धर्मार्थिनामुपादेयेति, तथा प्रारंने चिय दाणं, दीणादीणमणतुहिजणणत्थं । विधिसेवनाजिनयात्रानीत्यनुपालना चैवेति समुच्चयार्थः। इति रमाऽमाघायकारण-मणहं गुरुणा स सत्तीए ।। १२ ॥ गाथार्थः ॥ ७ ॥ उक्तं तपोद्वारम् । (आरंभे चिय) यात्रारम्नकाल एव, दानं वितरणं विधेयं अथ शरीरसत्कारद्वारमाह भवति । किमर्थमित्याह-दीनादीनां प्रतृतीनां मनस्तुष्टिः पत्थविलेवणमझा-दिएहिँ विविहो सरीरसकारो। दिनानाथचित्ततोषविधानाय तथा राका नृपेण मा सचमी । सा कायन्बो जहसत्ति, पवरो देविंदणाण ॥॥ चवेधा-धनलक्ष्मीः प्राणलक्ष्मीश्च; अतस्तस्या धातो हननं तस्यावस्त्रविलेपनमाल्यादिनिर्वासोऽनुखेपनपुष्पप्रतिनिरादिशब्दा. जानोऽमाघातोऽमारिरहव्यापहारश्चेत्यर्थः । तस्य करणं विदलकारपरिग्रहः। विविधो बहुविधः, शरीरसत्कारो देवभूषा, धानममाघातकरणमनघं निर्दोषं बधवृत्तभोजनवृत्तिमात्रसंपाकर्तव्यो विधेयो, यथाशक्ति शक्त्यनतिक्रमेण, प्रधरः सर्वोत्तमः। दनेन, अन्यथा तकृत्युच्छेदापत्तगुरुणा प्रावचनिकेन स्वशक्त्या कथम् । देवेन्शातेन सुरराजोदाहरणेन,यथाहि-जगवतामह स्वसामर्थ्येनेति गाथार्थः ॥ १२ ॥ तां जन्ममहाविषु सुरेन्द्रः सर्वविनुत्या सर्वादरेण च शरीरस प्रस्तुतविधिसमर्थनायागमविधिमाहकारं विधत्ते , तद्वदन्यैरप्यसौ विधेय इति गाथार्थः ॥ ७ ॥ विसयपवेसे राणो, उ दसणमोग्गाहादिकहणा य । उक्तः शरीरसत्कारः । अणुजाणावणविहिणा. तेणाणुएणायसंवासो ॥१३॥ अथोचितं गीत्याद्याह विषयप्रवेशे मण्डलप्रवेशने,राको नृपतेः,तुशब्दःसमुच्चयार्थः। उचियमिह गीयवाहय-मुचियाण वयाइपामाह रम्म । तेन तदभावे तन्मान्ययुवराजमहामात्यावश्च वर्शने मीसका जिणगुणविमयं सक-म्मबुद्धिजणगं अणवहास ।। || कार्यः, दर्शने च सति किमागमनकारणम् ?' इति च तेन पृष्टे उचितं योग्यमिह जिनयात्रायां, गीतवादितं गेयवाद्यम । कि- अवग्रहस्य 'देविंदरायगहवा-सागरसाहम्मिो गहो चेव' विधमित्याह-चितानां योग्यानां स्वनूमिकापेक्या वय आदिकैः इत्येवंविधस्य , आदिशब्दादाजराक्वतास्तपस्विनो भवन्सीत्यादेकालकृतावस्थाप्रतिभिवयोवैवकण्यरूपसौनाम्यौदार्थश्वर्या-. । यदाह-"कुद्रसोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते?। कान्तविभिनायर्यप्रम्यं रमणीयं जिनगुणविषयं वीतरागत्वावितीर्थ- दान्ताऽरिहन्तारस्तांचेद्राजा न रकतीति" कथना प्ररूणा अबकरगुणगोचरं न राजादिगुणविषयं , तदपि सकर्मवृषिजनक ग्रहादिकथना , चशब्दः समुच्चये, कार्येति शेषः । ततश्चासुन्दरधर्ममत्युत्पादक, तदप्यनुपहासमविद्यमानोपहासमनुप-| नुज्ञापनं मुस्कानं कार्यम,अवग्रहस्य विधिनाऽऽगमनीत्या,ततस्तेन हासमिति गायार्थः ॥॥ राशा राजसंमतेन वा अनुज्ञाते मुत्कलितेऽवग्रहे संचासो निवास्तुतिस्तोत्रद्वाराभिधानायाह सातदेशे विधेय इति गाथार्थः।।१३।। थुइयोत्ता पूण ओचिय , गंजीरपयत्थविरइया जेन । कस्मादेवं विधीयते इत्याहसंवेगवुमिजणगा, समा य पाएण सबसि ।। १० ॥ एमा पवयणणीती, पंवसंताण.णिज्जरा विउला । स्तुतिस्तोत्राणि प्रतीतानि, पुनःशब्दो विशेषद्योतनाथः। उचि। इहलोयम्मि वि दोसा, ण होति णियमा गुणा होति।।१४।। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६९) प्रणुजाण अन्निधानराजेन्डः । अणुजाण पयाऽनन्तरोक्ता प्रवचननीतिरागमन्यायो वर्तते । अथानया निमित्तत्यादेवधर्मः, उचितार्थापादनेनानुरूपवस्तुसंपादनेन,सको गुण इत्याद-एवमनन्तरोक्कनीत्या वसतां तदेशे निवसतां वस्य समस्तजनस्य । हैव विशेषमाह-'जत्ताए' इत्यादि ।कानिर्जरा कर्मक्षयः, विपुला बढी, अदत्तादानवतस्य निरतिचार- का चेदमवधेयम-यात्रोत्सवेन, पुनर्यात्रायां वा नचितार्थापाद. स्थानुपासनादाशाराधनाच्च । नचेतावदेवात्र फलमित्याह-इह नेनेति प्रकृतम् । केषाम् ,वीतरागाणां जिनानां,विषयसारत्वतः लोकेऽप्यत्रापि जन्मनि, आस्तां परलोके, दोषाः प्रत्यनीककृतो. प्रधानगोचरत्वात् । वीतरागा एव हि निखिलनुवनजनातिशापद्रवनक्षणाः,न जवन्ति न जायन्ते। नियमादवश्यंभावेन गुणाः यिगुणत्येन यात्रागोचरोऽनुपवरितो जवतीति प्रवरःप्रधानतरः पुना राजपरिग्रहालोके मान्यतादयो, भवन्ति जायन्ते । यदाह- शेषजनोचितार्थसंपादनोद्भवधर्मापेक्वया एष जायत इति प्रकृ"गन्तव्यं राजकुले , द्रष्टव्या राजपूजिता लोकाः। यद्यपि न तमिति गाथार्थः ॥१९॥ प्रवन्स्यर्थाः, जवन्त्यनर्थप्रतीधाताः" ॥१॥इति गाथार्थः ।१४। अधिकृतराजानुशासनविधौ यो नावस्तं प्रकटयन्नाहये गुणा.भवन्ति तानेवाह एतीऍ सव्वसत्ता, सुहिया खु अहिसि तम्मि कालम्मि। दिवो पवयणगुरुणा राया अणुसासिनो य विहिणा उ ।। एपिंह पि आमघाए-ण कुणसु तं चेव एतेसिं ॥ २० ॥ तं नत्थिजंण वियर,कित्तियमिह प्रामघाश्रोत्ति॥१५॥ पतया चीतरागयात्रया पतस्या वा,सर्वसत्त्वाः समस्तदाहिना, दृष्टोऽवलोकितः, प्रवचनगुरुणा प्रधानाचार्येण, राजा नृपतिः, अ. सुखिता एवानन्दवन्त एव, 'ख' शब्दोऽवधारणार्थः। ( अहिनुशासितोऽनुशिष्टश्च,विधिना तुप्रवचननीस्यैव तत्प्रकृत्यनुवर्तना सि त्ति) अनूवः, तस्मिन् काले तदा यदा, जिनानां जन्माद्यदिलकणया। यदाह-"बाबादिभावमेवं,सम्यग्विज्ञाय दोहिनां गुरु जवत् । ततश्चदानीमप्यधुनाऽपि,यथाऽतीतकाल इत्यपिशब्दार्थः। णा। सद्धर्मदेशनाऽपि हि,कर्तव्या तदनुसारेण" ॥१॥एवं चासो [आमघाएणं ति] प्राकृतत्वादमाघातेन,अमारिप्रदानेन, कुरुष्व प्रमुदितमना तद्वस्तु नास्ति न विद्यते यन्न वितरति न ददाति, विधेहि, त्वं महाराज!देय! मुखितत्यमेव । पतेषां सर्वसत्स्वाना नामिति गाथार्थः॥ २० ॥ सर्वमेव ददातीत्यर्थः। कियत् किंपरिमाणम, अल्पमिति कृत्वा अथाचार्यों न भवेत्तत्र तदा को विधिरित्याहददात्येवेत्यर्थः । इह यात्राऽवसरे अमाघातःप्राणिघातनिवारणम, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः । इति गाथार्थः॥ १५ ॥ तम्मि असंते राया, दहव्वा सावहिँ वि कमेण । अनुशासित इत्युक्तमतस्तदनुशासनविधिं प्रस्तावयन्नाह कारेयव्यो य तहा, दाणण विश्रामघाश्रोत्ति ॥२१॥ एत्थमणुसासणविही, नणिो सामएणगुणपसंसाए । तस्मिन् प्रवचनगुरावसत्यविद्यमाने, उपलकणवाडाजदर्शनागंभीराहरणेहिं, उत्तीहि य जावसाराहिं ।। १६ ॥ घसमर्थ वा , राजा नरपतिद्रष्टव्यो दर्शनीयः, श्रावकैरपि श्रमणोपासकैरपि, न तु न अध्य इत्येतदर्थसंसूचनार्थोऽपि. अत्र राजविषये , अनुशासनविधिरनुशास्तिविधान, भणित शब्दः। क्रमेण नीत्या तकाजकुलप्रसिद्धया, कारयितव्यो विधासक्तः, सूरिनिः कथम्?, सामान्यगुणप्रशंसया लोक लोकोत्तरा पयितव्यो राज्ञा । चशब्दः समुच्चये । तथेति वाक्योपक्केपमाविरुद्धविनयदाक्किण्यसौजन्यादिगुणस्तुत्या, तथा गम्भीरोदा त्रार्थः । तथा कारयितव्यश्चेत्येवं चास्य प्रयोगः। इति नेच्छति हरणरतुच्छझातः, महापुरुषगतैरुक्तिभिश्च जणितिनिश्च, भाव-| चेडाजातं कारयितुं तदा दानेनापिषव्यबितरणतोऽपि न केवलं साराभिर्भावगर्भाभिर्नतु तद्विकलाभिरिति गाथार्थः ॥ १६॥ वचनेनेत्यपिशब्दार्थः। (श्रामघात्ति) अमाघातःप्राणिनामअनुशासनविधिमेवाह-- मारिः, शतिशब्दः समाप्त्यर्थ इति गाथार्थः ॥ २१ ॥ सामएणे मणुजत्ते, धम्माओ णरीसरत्तणं णेयं । किं चान्यत्इय मुणिकणं सुंदर !, जत्ता एयम्मि कायव्यो ।। १७॥ तेसि पि धायगाणं, दायव्वं सामपुव्वगं दाणं । सामान्ये बहूनां प्राणिनां साधारणे मनुजत्वे नरत्वे धर्मादू तत्तियदिणाण नचियं, कायव्वा देसणा य सुहा ।।२। कुशलकर्मणो नरेश्वरत्वं नृपत्वं भवतीति केयं ज्ञातव्यम् । इति तेषामपि न केवलममाघात एव कारयितन्य इत्यपिशब्दार्थः । एतद् ज्ञात्वाऽवगम्य, सुन्दर!नरप्रधान ! यत्न उद्यमाऽत्र धर्मे घातकानां प्राणिवधोपजीविनां मत्स्यबन्धादीनां, दातव्यं देयं, कर्तव्यो विधेयो भवतीति गाथार्थः ॥१७॥ सामपूर्वकं प्रेमोत्पादकवचनपुरस्सर, दानमन्नादिवितरणं, तावशहीण मूलमेमो, सव्वासि जणमणोहराणं ति। हिनानां यात्रापरिणामदिवसानामुचितं योग्यमकर्तव्या विधेया, एसो य जाणवतं, णेप्रो संसारजलहिम्मि ।। १० ।। देशना च धर्मदेशना च शुभाऽनवद्या । यथा-भवतामप्येवं धर्मा वाप्तिर्भविष्यतीत्यादिरूपा, इत्यनेन च परोपतापपरिहारो धर्माअद्धीनां संपदा मूत्रमिव मूलं कारणम् , एष धर्मः। सर्वासां निां श्रेयानित्युक्तमिति गाथार्थः ॥ २२ ॥ नरामरसंबन्धिनीनां जनमनोहरणां लोकचेतोहारिणीनाम् । इति एवं क्रियमाणे को गुण इत्याहशब्दो लोकप्रसिकस्य संपदां जनमनोहरत्वस्योपदर्शनार्थः । अनेन च सांसारिकफलसाधुत्वमस्यापदार्शतम् । अथ निर्वाण तित्थस्स वमवाओ, एवं लोगम्मि बोहिलानो य । फलसाधकत्वमस्याह-एष चायमेव यानपात्रं बोधिस्थ इव शे केसि वि होइ परमो, अभासि वीपलानो त्ति ॥ २३॥ यो ज्ञातव्यः, संसारजलधौ नबोदधौ तरंतव्य इति गाथार्थः। तीर्थस्य जिनप्रवचनस्य, वर्णवादः श्लाघा, एवममुना प्रकारेण कथं पुनरेष भवतीत्याह दानपूर्वकामाघातकारणलकणेन, लोके जने, भवति । ततश्च जायइ य मुही एसो, चियत्यापायणेण सव्वस्स । किमित्याह-बोधिलाजः सम्यग्दर्शनप्राप्तिः, चशब्दः पुनरों भिन्नकमश्च । केषांचिवघुकर्मणां प्राणिनांजवति जायते, परमः जत्ताए वीयरागा-ए विसयसारत्तो पवरो ॥१॥ प्रधानोऽपण मोक्कसाधकत्वादन्येषां पुनरपरेषां, पुनबाजलानः जायते संपद्यते, चशब्दः पुनरर्थः, शुनः कुशलानुबन्धः, शुभ-1 सम्यग्दर्शनवी जस्य जिनशासनपक्कपातरूपाभाध्यवसायलक Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुजाण णस्य प्राप्तिः । इतिशब्दः समाप्तौ । इति गाधार्थः ॥ २३ ॥ कथं तीर्थवर्णवाद एव बोधिबीजं जवत्यत आहजच्च गुणवती समय होइ पनिसुद्धा साविव जायति बोर्डी-ए तेा धारण चोराणं ॥ २४ ॥ निशब्द एवकारार्थः स चापिशणार्थः । ततश्वापि का चि दल्पाऽपीत्यर्थः । गुणप्रतिपत्तिर्गुणाभ्युपगतिः, सर्वज्ञमते जिनशासन भवति जायते परिशुद्ध भावगभी, वाऽपि गुणप्रतिपत्तिः, जायते संपद्यते, बीजदेतुबोधये, सम्यग्दर्शनप्रतिपतेः तेन ज्ञातेन, चौरोदाहरणेन तच प्रागुक्तमिति गाथार्थः ||२४|| यदि आपका अपि राजदर्शनासमर्थास्तदा को विवाहसामत्याभावे दोहि विवहिं पुण्यपुरा । सामत्यचाणं माणो होति काययो ।। २५ ।। इत्युक्तरूपे राजदर्शनद्वारेणामाघातकारणे यत्सामध्ये वलं तस्य योsनावः स तथा तस्मिन्द्र, द्वाभ्यामपि, आस्तामेकेन, वर्गाय समुदायाज्य, प्रवचनगुरुश्रावक लक्षणाभ्यां पूर्वपुरुषानामतीतमानपानाम् इतिसामध्ययुतानाममाघातकार मनःप्रीतिविशेषी भवति ववव इति गाथार्थः ॥ २५ ॥ (३७० ) अभिधानराजेन्द्रः । " बहुमानमेव स्वरूपत आइ ते घमा सप्पुरिसा, जे एयं एवमेव णीसेसं । किरिं, जानचाए विहाणणं ॥ २६ ॥ ते पूर्वपुरुषाः धन्याः च्या सत्पुरुषा महापुरुषाः सन्ते ये पतदनन्तरोकं कृत्यमिति योग येनैव निःशेषं सर्वे, पूर्वका (क)माघात जिन २६ अम्हेउ तह, धन्पा उरण एतिएस जं तेसिं । यो परियं हा धम्मपुराणं ।। २७ ।। वयं तु वयं पुनस्तथा तेन प्रकारेण जिनयात्रादिसमयविधानसंपादन] सामर्थ्याभावचक्षणेनाऽधन्या अश्लाध्याः, धन्याः पुनः पुनरितातायता यत्तेषां पूर्वपुरुषाणां बहु मन्यामदे पपातविषयं कुर्मः चरितं चेष्टितं सुखावहं सुखकारणं शुभावहंवा धर्मपुवायां धर्मप्रधानराणामवीरपुरुषाणामिति च पावन्तरमिति गाथार्थः ॥ २७ ॥ एतदूबहुमानस्य फलमाह " इय वहुमाणा तेसिं गुणाणमणुमाया पियोगेण । तत्तो तत् विय, होड़ फलं त्रासयविसेसा ॥ २८ ॥ प्रत्यादिचमानादनन्तरोकपक्षपाता तो तेषां पूर्वपुरुषाणां सगुणानां धर्मरणादीनामनुमोदनाऽनुमतिर्नियोगेनाच इयंता भवति (तत्तोति) ततश्च गुणानुमोदनातः, तत्तुल्यमेव पूर्वपुरुषानुष्ठानसममेव जयति । जायते । फलं कर्मकयादिको गुणः। यदाह-अमितोय सम्म रहका राणअणुमो यगो मिगो जह य बत्रदेवो" ॥१॥ अथ कथं कलानुष्ठानवतां सकलानुष्ठानवद्भिस्तुल्यं फलं भवतीत्याहश्राशय विशेषादध्यवसायजेदात् । अध्यवसाय एव हि परं का रणं मायादि प्रति यदाह-परमरहस्स मिली, सम्मतगविधिमगरिया परिणामियंपा वयमाणा " ॥ १॥ इति गाथार्थः ॥ २८ ॥ प्रणुजाण 'मारमेशिया' इत्यादिकं तदुपसंहराकयमेत्य पसंगेणं, तत्रोवहाणादिया विणियसमए । पुरूवं कायव्वा, जिलाण कला दियहेसुं || २६ ॥ कृतमलमन्त्र दानामाघातप्रसङ्गेन प्रसक्त्या तप उपधानादिका अपि तपःकर्मशरीरसत्कारप्रभृतिका अपि जाया न केव मित्यपिशब्दार्थः । मिस याचसरे रुदिगम्ये अनुरूपम् थियन कर्त्तव्या विधेया कल्या-जिनामामसां कल्याणदिवसेषु पञ्चमहाकल्याणी प्रतिबद्ध दिनोष्वति गाथार्थः ॥ २० ॥ कल्याणान्येव स्वरूपतः फलतश्चाह पंच महाकझाणा, सम्मेसि जिसाथ होति शिपमेण । भुवणच्छेरयतृषा, कल्लाणफला व जीवाणं ॥ ३० ॥ गन्ने जम्मे य तहा, क्खिमणे चैत्र पाणणिव्वाणे । वणगुरू जिणं, कवाणा होंति णायन्वा ॥ ३१ ॥ पञ्श्चेति पश्चैव महाकल्याणानि परमश्रेयांसि सर्वेषां सकलकालनिखिलदरलोकभाविनां भवति नियमेनावश्यंभा येन तथावस्तुस्वभावत्वा भुवनानि निना तानि त्रिभुवनजनन हेतु तथा कल्याणानि निःश्रेयससाधनानि च समुच्चये जी पानां प्राणिनामिति। गर्भे गर्भाधाने, जन्मभ्युत्पत्ती शब्दः समुचेति वाक्योप केपे । निष्क्रमणे अगारवा सान्निर्गमे चैवेति समुच्चयावधारणावित्युत्तर संत्स्येते । ज्ञाननिर्वाणे समाहारद्वन्द्वत्वात्केवलज्ञाननिवृत्योरेव च केषां गर्भादि गुरूणां जगत्स्ये ष्ठानां जनानामर्हताम् । किमित्याह - कल्याणानि श्वःश्रेयसानि प्रवन्ति वर्तन्तेयानि पानीति यथाज्ञयार्थः ॥ ३०-३१ ॥ ततश्व ते व दिपा देविंदाई करिति नतिया जिजत्तादि विहाणा, कलाणं अपणो चैव ॥ ३२ ॥ ( तेसु यत्ति) तेषु च दिनेषु दिवसेषु येषु गर्भादयो बनूवुर्धन्या धर्मधनं लब्धारः, :, पुण्यभाज इत्यर्थः। देवेन्द्रादयः सुरेन्द्रप्रभृतयः कुर्वन्ति विदर्भात, भक्तिनता बहुमाननम्राः किमित्याहनियात्रादि-नृतिम् कुत याद विधानाद्विचिना अथवा जिनवादिविधानानि कि जिनयात्रादीत्याह-कल्याणं श्वःश्रेयसम् । कस्येत्याह श्रात्मनः स्वस्थ, चैव शब्दस्य समुच्चयार्थत्वेन परेषां वेति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ यत एवम् इय ते दिणा सत्याना सेसेप तेस काय | जिजतादि महरिसं ते य इमे प्रमाणस्स ॥। ३३ ।। इत्यतो तो पूर्वोकीयानां कल्याणफलत्वादिणा ति येषु जिनगनांधानादयो भवन्ति, दिना दिवसाः, दिनशब्दः पुंलि होऽप्यस्ति । प्रशस्ताः श्रेयांसः। ततः किमित्याह - ( ता इति) यस्मादेवं तस्मात् शेवैरपि देवेन्द्रादिष्यतिरिकैर्मनुष्य न के चलमिन्द्रादिभिरेवेत्यपिशब्दार्थः । तेषु गर्भादि कल्याण दिनेषु, कर्त्तव्यं विधेयं जनयात्रादि वीतरागोत्सव पुजा नृतिकं वस्तु सह सप्रमोदं ययाभवति । कानि च तानि दिनानीत्यस्यां जिज्ञासायां सर्वजिन संबन्धिनां तेषां च वक्तुमशक्यत्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतित्वेन प्रत्यासन्नत्वादेकस्यैव महावीरस्य, तानि धिवराह - (ते यत्ति ) तानि पुनर्गर्भादिदिनानि इमानि वक्ष्यमा , Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाण माणानि वर्तमानस्य महावीरस्य भवन्तीति गाथार्थः॥३३॥ तान्येवादतह करसी चैव । ( ३७१ ) अभिधानराजेन्द्रः । , प्रसादही मग सिर किएहदसमी, बसाई सुदसम य || ३४ ॥ कत्तियकिहे चरिमा, गन्भाइदिणा जहकमं एते । इत्युतरोषणं परो तह साविणा चरमो ॥ ३५ ॥ आषाढशुरूषष्ठी श्राषाढमासे शुक्लपकस्य षष्ठी तिथिरित्यकं दिनम् । एवं चैत्रमासे । तथेति समुच्चये । शुरूत्रयोदश्येवेति द्वितीयम् । चैत्रेत्यवधारणे । तथा मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीति तृतीयम् । वैशाखं गुरूदशमीति चतुर्थम् । चशब्दः समुच्चयार्थः । कार्त्तिककृष्णे चरमा पञ्चदर्शीति पञ्चमम् । एतानि किमित्याहगर्भादिदिनानि गर्भ जन्म निष्क्रमणे ज्ञानविधीणदिवसाः यथाक्रमं कसे जैव, एतान्यनन्तरोक्तानि एषां च मध्ये हस्तोत्तरयोगेन हस्त उत्तरो यासां हस्तोपलक्षिता वा उत्तरा हस्तोत्तरा उत्तराफाताभिर्योगः संबन्धश्चन्द्रस्येति हस्तोत्तरायोगः, तेन कर लगुन्यः तेन चत्वार्यायानि दिनानि भवन्ति । तयेति समुच्चये । स्वातिना स्वातिनक्षत्रेण युक्तः । ( चरमो त्ति ) चरमकल्याणक - दिनमिति तस्यादिति गाथाद्वयार्थः ॥ ३४-३५ ।। " अथ किमिति महावीरस्यैवैतानि दर्शितानीत्यत्राह - धियतित्यविहाया, भगवं ति णिदंसिया इमे तस्स । सा वि एवं विय, यिणियतित्येस विलेया ।। ३६ ।। अधिकृततीर्थविधाता वर्त्तमानप्रवचनकर्ता, भगवान्महावीर इति हेतोर्निदर्शितान्युक्तानि, इमानि कल्याणकदिनानि, तस्य वर्षमानजिनस्य, अथ शेषाणां ताभ्यतिदिशन्नाह शेषाणामपि न वर्तमानस्यैव ऋषभादीनामपि वर्तमानावसर्विखीभरतषापेया एवमेवेह तीर्थे वर्द्धमानस्यैव, निजनिजतीर्थेषु स्वकीवचनावसरेषु विविधेषतयेति नदिदिनानि जम्बूदीपनरतानामृनादि जिवानां साम्य सर्वभारतानां सर्वैरावतानां च धान्येव पतेषामस्वामवस पियां तान्येव च व्यत्ययेनोत्सर्पिण्यामपीति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ अथ किमेवं कल्याणकेषु जिनयात्रा विधीयत इत्याहतित्यगरे बहुमाणो, अन्नासो तह य जीतकप्पस्स | देविंदाय किती गंभीरपणा लो || ३७ || वय पत्रयणस्सा, इय जत्ताए जिलाए यिमेण । माणुसारिभावो, जावद एतो विववियुको ॥ ३८ ॥ तीर्थकरे जिनविषये बहुमानः पक्षपातः तदिदं दिनं यत्र भगचान् अजनीत्यादि विकल्पितः कृतो भवतीति सर्वत्र गम्यमिति यात्रयेत्यनेन योगः । राधेति वाक्योपक्षेपार्थोऽत्र - व्यः । अन्यासोऽज्यसनम् । शब्दः समुच्चये । जितकल्पस्य पूर्वपुरुषाचरितलकणाचारस्येति । तथा देवेन्द्राद्यनुकृतिः दे वाधिपदेवदानवप्रनृत्याचारानुकरणम् । तथा गम्भीररूपणा गम्भीरं साभिप्रायमिदं यात्राविधानं न यान्त्रिकमित्यस्य प्ररूपणा प्रकाशना गम्भीरप्ररूपणा कृता भवतीति तथा लोके जनमध्ये; वर्णः प्रसिद्धिर्जायत इति योगः । चशब्दः समुच्चये । कस्य चनस्य जिनशासनस्यादितियाया अनन्तरोक्तविधानोत्सवेन, क्रियमाणयेति गम्यम् । केषाम् ? जिनानां वीतरागाणां नियमेन नियोगेन (एसोधि यत्ति) यत 2 अणुजाण एव कल्याणकयात्रया तीर्थकर बहुमानादिकं कृतं भवत्यत पत्र तोरामोपाध्यवसाय श्रागमानुसारी या जायते । असी किंभूतः विशुनद्यः खतो विशु द्धोऽसौ जायते, विशुद्ध्यतीत्यर्थ इति गाथाद्वयार्थः ॥ ३७-३८ । पचसी जायते ततः किमित्याहतत्तो सगलसमीहिय-सिद्धी अविफलं से। कारणमिती ऍ भरिओ, जिरोहिँ जियरागदो सेहिं ॥ ३६ ॥ ततो विशुद्धगानुसारभावासिकल सम लेप्सितार्थनिष्पत्तिर्नियमेन नियोगेन कुतः पुनरेतदित्याह-विकलमबन्ध्यं यद् यस्मात्कारणं हेतुः अस्याः सकलसमीहितोऽनिहितो, जिनेरङ्गिः जिनाच नाम जिनादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-जितराम पेर्विगतासत्यवान दकारर्थइति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ अथ कथमसी मार्गानुसाराभावः सकलसमाहितसि का रणं भणित इत्यत्रोच्यते, शुभचेष्टानिमित्तत्वेन; एतदेव दर्श यन्नाह मग्गासारखो खलु तत्तामसा चैव । होइ समत्ता चेट्ठा, असुभा वि य शिरणुबंध ति ॥ ४० ॥ मार्गानुसारियो मोक्षपधानुकूल भावस्य जीवस्प लङ्करे, यति संबन्धः एवमित्याह तत्वाभिनये रातो वस्तुस्वरूपनिनीपातिशयात शुभैव प्रशस्ते, नेतरा चैवोपचारार्थः भवति जायते, समस्ता निःशेषाचे एा क्रियाशुना किं सर्वथा न भवतीत्यस्यामाशङ्कायामाह अशुभाऽपि चाप्रशस्ताऽपि च । चेष्टेति वर्त्तते । श्रपि चेति समुचये । भवति केवलं निरनुबन्धा अनुबन्धनरहिता पुनः पुनरभाविनीत्यर्थः । इतिशब्द समाप्ताविति वार्थः ||४०|| कुतो नराखेसो कम्मपारतंता, वह तीए ण जावओ जम्हा इय जत्ता इय वीयं एवंभूयस्स जावस्स ॥ ४१ ॥ समानुसारी जीवः कर्मपारनपाचारित्रमोहनीयकशादेव वर्ण वर्तते तस्यामशुभायां न भायतो न पुनर्भावेनान्तःकरणेन तस्यानिनिवेशादेव यस्मात्कारणात स्माद् निरनुबन्धेति प्रकृतमिति । कल्याणकयात्राफल निगमबायाहरति वाचाऽनन्तरोक कल्याण कजिनोत्सव , येन शुभचेाहेतुलक्षणेन बीजं कारणम एवंभूतस्यानन्तरो कस्य सफलसमीहितासिदिकारणस्य भावस्य मार्गानुसार परिणामस्य, पूर्वोकस्येति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ उत्सवविशेषस्यान्यस्यापि कल्याणकदिने वि. धेयतां दर्शयन्नाह ता रहणिक्खमादिदि एते दिखे पमुय कायव्यं । जं एसो व्विय विस, पहाणमो तीऍ किरियाए ।४२। तदिति यस्मात्तीर्थकरवहुमानादयोऽनन्तराभिहितगुणाः क स्यादिनेषु जिनयात्रायां भवन्ति तस्माद्वयस्य जिनविस्वाधिष्ठितस्य स्यन्दनस्य, जिनगृहान्निष्क्रमणं निर्गमो नगरपरथनिष्कदापि तत्यभूतिकर्म आदि Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) अणुजाण अभिधानराजेन्धः। अणुजाण म्दाच्छिविकाचित्रपटनिष्क्रमणादिग्रहः । न केवलं यात्रेत्यपि एवं विचिंतियव्वं , गुणदोसविहावणं परमं ।। ४६॥ शब्दार्थः । एतेषु च तान्येव कल्याणकरूपाणि दिवसान् प्र. इतरथाऽन्यथा उत्तमा तदकरणे । अथवोसमयात्राया प्रकतीत्याश्रित्य, कर्तव्यं विधेयं भवति । कस्मादेवमित्याह-यय- रणे तत्र यात्राविशेषानिधायके उत्तमश्रुते उत्तमनिदर्शनेषु या स्मात्कारणादेष एव कल्याणदिनलक्षणो विषयो गोचरःप्र बहुमानः प्रीतिस्तबहुमानस्तत्पतिषेधोप्तद्वहुमानः स भवति । धानः शोभनः । मकारस्तु प्राकृतशलीप्रभवः । तस्या रथनि तदुक्तयात्राविशेषस्याकरणात तथाऽवज्ञा प्रावधारणा च कृता कमणादिकायाःक्रियायाः चेष्टायाः, इदं चावधारणमनागमो भवति । अस्यामुत्तमयात्रायामिति निपुणबुवा सूहमधिया। कदिनव्यवच्छेदार्थमेव द्रष्टव्यम, आगमोक्तदिनानां त्वागम एतदनन्तरोक्तमनर्थद्वयं विचिन्तयितव्यं परिजाबनयिम, यतो गु. प्रामाण्यादेव प्रधानत्वात् । अभिधीयतेचागमे- "संवच्छरचा. णदोषविनावनमर्थानालोचनं सर्वस्यानुष्ठानस्य परमं प्रधानम, उम्मा-सएसुहाहियासु यतिहीसु ।सब्बायरेण लग्गइजि ततः प्रवृत्तिनिवृत्तिभावादिति गाथार्थः ॥ ४६॥ णवरपूया तवगुणेसु"॥१॥ तथा प्रतिष्ठानन्तरमष्टाहिकाया उत्तमभुतोक्कयात्राऽवज्ञानेन सोकरूढ़ेर्यानाकरणमयुक्तमितिइहैव विधेयतयोपदिष्टत्वादिति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ दर्शयन्नाहननु कल्याणकदिनेष्वेव यात्रायाः कथं प्राधान्यम, बहुफलत्वादिति घूमः , एतदेवाह जेडम्मि विज्जमाणे, उचिय अणुजेट्टपूयण मजुत्तं । विसयप्पगरिसभावे, किरियामेत्तं पि बहुफलं होई । लोगाहरणं च तहा, पयमे जगवंतवयणम्मि ।। ४७ ॥ ज्येष्ठे वृरूतरे पुत्रायपेक्वया पित्रादौ विद्यमाने सतिचिते निर्दोषसकिरिया विहुण तहा, श्यरम्मि अवीयरागिव्य ||४३॥ त्वेन पूजायोग्ये,अनुज्येष्ठस्य अघोः पुत्रादेः, पूजनं सत्कारोऽयुक्तविषयस्य क्रियाविशेषगोचरस्य प्रकर्षभाव उत्कृष्टताविषय- मसंगतम, यथेति शेष इति दृष्टान्तः । दाष्टान्तिकमाह-(लोगाप्रकर्षभावः, तत्र, क्रियामात्रमपि विशेषवत् क्रियापि,प्रास्तां हरणं च ) सोकोदाहरणमपि पित्रााद्देशेनामुष्मिन् वा मासादौ विशिष्टा, बहुफलं प्रभूतेष्टफलं भवति जायते । एतस्यैव व्यतिरे- अमुना च क्रियते यात्राऽतस्तथैव सा नो विधेयत्येव लक्षणं,तथा कमाह-सत्क्रिया विशिष्टचेष्टाऽपि प्रास्ता क्रियामात्रम् | दुश- तवदयुक्तमेवानुज्येष्ठपूजनवत्,प्रकटे स्पले भगवद्वचने जिनागमे ब्दोऽलङ्कृता । न तथा न तत्प्रकारा,न बहुफलाजवति । इत- सकल जगज्जनज्येष्ठे सतीति गाथार्थः ॥४७॥ रस्मिन् विषयस्य प्रकर्षाभावे, उक्तमर्थ दृष्टान्तेन समर्थयन्नाह अयुक्तत्वमेव लोकोदाहरणस्य भावयन्नाहअवीतरागे इव पुरुषमात्रवत् । यथाऽस्य वीतरागे गुणोत्कर्षाभावेन विषयप्रकर्षानावेन महत्यपि पूजादिका चेष्टा बहुफला लोगो गुरुतरुगो खल, एवं सति जगवतो विश्हो ति । न भवति, तथा कल्याणकदिनेज्योऽन्यत्रेति गाथार्थः ॥४३॥ मिच्छत्तमो य एयं, एसा आसायणा परमा ।। ४० ॥ अथ कल्याणकयात्रामेव पुरस्कुर्वन्नुपदेशमाह लोक एव सामान्यजन एव, गुरुतरको गरीयान् । खसुरवधा रणे, तस्य च दर्शित एव प्रयोगः । एवमुक्तनीत्या, जगवद्वचनलकूण मुलई ता, मायत्तं तह य पवयणं जपणं । सद्भावेऽपि लोकप्रमाणीकरणलकणे वस्तुनि सति, भगवतोऽपि उत्तमणिदसणेमुं, बहुमाणो होइ कायव्यो । ४४॥ सकसजगज्ज्येष्ठजिनादपि सकाशादिष्टोऽभिमतः । इतिः सम्भ्वा प्राप्य,पुर्खभमसुननं (ता ति) यस्मादिकादिनिः कृता | समाप्तौ । ततः किमित्याह-मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टित्वम् । श्रोकारो बहुफला च कल्याणकयात्रा तस्मारकारणान्मनुजत्वं नरत्वम् । निपातः पूरणार्थः। चशब्दः पुनरर्थकः। एतद्भगवदपेकया लोकतथाचेति समुच्चयार्थः । प्रवचनं शासन , जैनं सर्वरचितं, स्य गुरुतरत्वाभिगमनं विपरीतबोधत्वात् , तथा एगा लोकस्य जिनमतप्राप्तियुक्तस्यैव विशिष्टोपदेशयोग्यता तत्सफलताकरणे | गुरुतरत्वानिगमनलक्षणा, पाशातना सर्वज्ञावमानना , परमा सामर्थ्य च भवतीति कृत्वा मनुजत्वमित्याद्युक्तम । उत्तमनिद- प्रकृष्टा,अनन्तसंसारावेहत्यर्थः। सर्ववचनमेव प्रमाणतयाऽङ्गीशनेषु प्रधानसत्वज्ञातेविन्द्रादिलकणेषु । तद्यथा कल्याणक- कर्तव्यम् । लोकस्तु तद्विरद्धानुष्ठान एवेति गाथार्थः ।।८।। यात्रा विधेया देवप्रसुप्रनृतिप्रवर्तितेयं , यत इति बहुमानः पक्क __ अथ सर्वमुपदेशमाहपातो, भवति जायते,कर्तव्यो विधेयो, न तु मोहोपहतसत्त्वनिदर्शनेष यथा यथाऽमनाऽमना वाऽस्मत्पितृपितामहादिना इय अध्यत्थ वि सम्मं, णानं गुरुलाघवं विसेसेण । ऽन्येन चेदं विहितमिति विधेयमिति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ इके पयष्ट्रियव्वं, एसा खस जगवतो आणा॥४६॥ अधिकृतयात्रागतमेवोपदेशान्तरमाह इत्येवं कल्याणकयात्रावत,अन्यत्रापि यात्राव्यातिरिक्त दानादा बपि, सम्यगवपरीत्येन , ज्ञात्वा विज्ञाय , गुरुग्लाघवं सारतरत्वं, एसा उत्तमजत्ता, उत्तममुयवएिणश्रा सइ बुहेहिं । विशेषेण परस्परापेक्याधिक्येन, इष्टे ऽनिमते वैयावृत्यादी, प्रथसेसा य उत्तमा खबु, नत्तमरिछी' कायन्या ।। ४५॥ तितव्यं यतितव्यं, यत एषा खमु इयमेवानन्तरोक्तभगवतो जिपषाऽनन्तरोक्ता कल्याणकयात्रा उत्तमयात्रा प्रधानयात्रा,तद. मस्याज्ञा आदेश इति गाथार्थः॥४६॥ न्यस्याः का वात॑त्याह-नत्तमश्रुतवर्णिता प्रधानागमाभिहिता या अथोपसंहरमाहसा, शेषा च कल्याणकव्यतिरिकाऽपि,उत्तमा स्वमु प्रधानवाउ. समश्रुतवर्णिता तु, लोकरूढिकृता तु नेति । अतश्चोत्तमस्वारसदा जत्ताविहाणमेयं, णाकणं गुरुमुहान धीरेहिं । धर्विद्वद्भिरुत्तमा प्रधानविनयेन , म यथाकथंचित्कर्तव्या एवं वि य कायब्वं, अविरहियं भत्तिमंतेहिं ।। ५० ॥ विधेयेति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ यात्राविधानं जिनोत्सवविधिः, एतदनन्तराक्तं ज्ञात्वा विझाय, उक्तव्यतिरेके यदापद्यते तदाह गुरुमुखात सूरिवदनाद् ,धीरैर्धामद्भिः,(एवं वियक्ति)एवमेवोक्तइयग वाऽवतुमाणो ऽवमा य इमीए णिनणबुद्धीए । | विधिनैव,कर्तव्यं विधेयमूअविरहितं सन्ततं भक्तिद्भिबहुमान Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७३) अणुजाण अभिधानराजेन्छः । अणुजाण वनिरिति गाथार्थः॥ ५० ॥ इति यात्राविधिप्रकरणं विवरणतः एमेव नाईया, सविन्भमा नञ्चिगीयाए । समाप्तम् । पश्चा०६ विवा(अथानुयाने यथा साधवोऽकल्पं प स्त्री विकुर्विता वस्त्रविलेपनादिनिरलङ्कताः दृष्ट्वा भुक्तानां दोषाः रिहरन्ति तथा 'एसणा' शब्द तृतीयनागे ७० पृष्ठे दर्शयिष्यते) भयानुयानविषयो विधिरुच्यते स्मृतिकौतुकानवाः नवन्ति । एवमेव नाटकीया नाटधयोषितः, सविनमाः सविलासाः, नर्तितगीतयोः प्रवृत्ता विलोक्य, श्रुत्था आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमप्पाए। च तुक्ताभुक्तसमुत्था दोषा विझेयाः । एवं ता बच्चते, दोसा पत्ते अणेगविहा ॥ संस्पर्शनद्वारमाहनिष्कारणेऽनुयानं गत आझादयश्च दोषाः, विराधना च | इत्थिपुरिसाण फासे, गुरुगा बहुगा सई य संघट्टे । संयमात्मनो भवति । एवं तावद व्रजतो मार्गे दोषाः, तत्र प्रा अप्पासजमदोसा-ऽणुभावणं पच्छकम्मादी । प्तानां पुनरनेकविधा दोषाः। तत्र संयमात्मविराधनां भावयति समवसरणे पुष्पारोपणादिकौतुकेन भूयांसः स्त्रीपुरुषाः समामहिमा नस्सुयत्तए, इरियादी न य विसोहए तत्थ । यान्ति, तेषां संमर्दन स्पर्शो जवति, ततः स्त्रीणां स्पर्श चत्वारो गुरवः, पुरुषाणां स्पर्श चत्वारो लघवः, स्मृतिश्च संघ जुक्तभो. अप्पा वा काया वा, न सुत्तं नेव पमिलेहणा ।। महिमा नाम प्रगवतः प्रतिमायाः पुष्पारोपणादिपूजात्मकः गिनां भवति, चन्दादनुक्तनोगिनां कौतुकम् । आत्मसंयमवि राधनादोषाश्च नवन्ति । आत्मविराधना संभदें सति हस्तपासातिशय उत्सवः, तस्य दर्शनार्थमुत्सुकतूत र्यादिसमितिर्न दाद्युपघातः। संयमविराधना समर्दे पृथिव्यां प्रतिष्ठिता षटकाया विशोधयति। श्रादिशब्दादेषणादिपरिग्रहः। तत्र चर्यादिनामशो नावलोक्यन्ते, न च परिहर्तुं शक्यन्ते ) अनुनावणपच्छकम्माधने आत्मा च कायाश्च विराध्यन्ते। आत्मावराधना कण्टकस्थाएवाद्युपघातेन, संयमविराधना षमा कायानामुपमर्दादिना, दी त्ति) साधुना कोऽपि शौचवादी पुरुषः स्पृष्टः संस्नायात, संस्नानं निरीक्ष्यापरः पृच्छति-किमर्थ स्नासीति । स प्राह-सतथा त्वरमाणत्वादेव न सूत्रं गुणयति, उपलकणत्वादर्थ च नानुप्रेक्कते, नैव प्रतिलेखनां वस्त्रपात्रादेः करोति, अथवा अकाले यतेन स्पृष्ट इति । एवं परम्परया साधूनां जुगुप्सोपजायते-यथा 'अहो! मसिना पते' पवमनुभावना, पश्चातुकर्म च भवति । आऽविधिना स करोति । एवमेव मार्गे गच्छतां दोषा अभिहिताः ।। दिशब्दादसंखमादयो दोषाः। अथ न तत्र प्राप्तानां ये दोषास्तानभिधित्सुद्धारगाथामाह अथ तन्तुद्वारमाहचेइय आहाकम्म, जग्गमदोसाय सेह इत्थीओ। खूयाकोलिगजाझग-कोत्यलकारी' उवरि गेहे य । नामगसंफासणतं-तुखड्डनिकम्मकजा य॥ सांमितमसांमिते, लडुगा गुरुगा अजत्तीए । चैत्यानां स्वरूपं प्रथमतो वक्तव्य, तत प्राधाकर्म, तत उझम असमाय॑माणे चैत्ये भगवत्प्रतिमाया उपरिष्टादेता नाम भदोषाः, ततः शक्काणां पार्श्वस्थेषु गमने, ततः स्त्रीदर्शनसमुत्था वेयुः, बूता नाम कोलिकपुटकानि । कोलिकजालकानि तु जादोषाः, ततो नाटकावलोकनप्रभवः, ततः संस्पर्शनसमुत्था, बकाकाराः कोलिकानां बालातन्तुसंतानाः, कोत्थबकारी तुमतदनन्तरं तन्तवः कोलिकजालं तद्विषयाः, तदनु (खुड्ड त्ति) पा- री, तस्याः संबन्धि गृहोपरि नवेत् । यद्येतानि बूतादीनि शाटयवस्थादिकुल्लकदर्शनसमुत्थाः, ततो निर्धर्मणां लिङ्गिनां यानि ति तदा चत्वारो लघवः । अथ न शाटयति ततो भगवतां न. कार्याणि तत्थिताश्च दोषा वक्तव्याः । ति द्वारगाथासमा- क्तिः कृता न भवति, तस्यां चाजक्तयां चत्वारो गुरुकाः॥ सार्थः । वृ०१०। (चैत्यव्याख्या 'चेश्य' शब्द द्रएव्या ) अथ कुल्लकद्वारं, निर्धर्मकायद्यारं च व्याख्यानयति(वसतिविषयमाधाकर्म 'आधाकम्म' शन्दे हि० भाग २३० घट्ठाइ श्यरखुडे, दई प्रोगुंठिया तहिं गच्छे । पृष्ठे अष्टव्यम्) नकट्ठघरधणाई, ववहारा चेव ति लिंगीणं ।। अथोममदोषशनद्वारद्वयमाहठविए संबोजादी, दुसोहया होति जग्गमे दोसा । चिंदंतस्स अणुमई, अमिसंत अविंद नक्खिवणा । छिद्दाणि य पेहंती, नेव य कज्जेसु साहिजं ॥ वंदिजते द8, इयरे सेहा तहिं गच्छे । श्तरे पार्श्वस्थास्तेषां ये कुखका घृष्टा, आदिग्रहणाद् 'महामुबहवः संयताः समायाता इति कृत्वा धर्मश्रद्धावान् लोकः प्पेट्टा पंमुरपमवावरण' इत्यादि, तानित्थंभूतान् दृष्टा संविग्नसंयतार्थ स्थापितं भक्तपानादेः स्थापनां कुर्यात् । गृहमाग. कल्वका अवगुण्ठिता मलादिग्धदेहाः परिजम्नाः सन्तः, तत्र तेषां तानामकेपेणैव दास्याम ति कृत्वा (संभ त्ति) यानि गृहाणि लिङ्गिनामन्तिके गच्छेयुः,तेषां च तत्र मिलितानां परस्परमुत्कृष्टसाधुनिरनेषणीयदाने अशङ्कनीयानि तेषु शाल्योदनतएल गृहधनादिविषया व्यवहारा विवादा उपोकन्ते,ते च व्यवहारभावनादिकं भक्तपानं, मोदकशोकवर्तिप्रनृतीनि वा खाद्यक च्छेदनाय तत्र संविग्नान् श्राकारयन्ति, ततो यदि तेषां व्यवहाविधानानि मिक्किपेयुः, साधूनामागतानां दातव्यानीति । आदि रश्विद्यते तदा भवति स्फुटस्तेषां गृहधनादिकं ददतः साधोशब्दात कीतकृतप्रावृतिकादिपरिग्रहः । एते उगमदोषाः, तत्र रनुमतिदोषः । नपत्रकणमिदम्, तेन येषां यद् गृहधनादिकं न दुशोभ्या दुष्परिहार्या भवन्ति तथा श्तरान् पार्श्वस्थादीन ब. हुजनन वन्द्यमानान् पूज्यमानांश्च दृष्ट्वा शैक्कास्तत्र पार्श्वस्था दीयते तेषामप्रीतिकप्रद्वेषगमनादयो दोषाः। अथ लिङ्गिनामे तदोषजयात प्रथमत एव न मिलन्ति, न वा व्यवहारपरिच्छे. दिषु गच्छेयुः। स्त्रीनाटकद्वारद्वयमाह दं कुर्वन्ति, तत उत्तपणा उद्घाटना साधूनां भवति, संघाटाद हिष्करणमित्यर्थः । ग्जिाणि च दूषणानि, ते आकारिताः सन्तः इत्यी विनन्निया वि दु, जुत्ताणं दहु दोसाओ। साधूनां प्रेक्वन्ते, नैव च ते कार्येषु राजद्विएग्लानत्वादिषु साहाय्यं Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७४) अणुजाण अनिधानराजेन्दः । अणुजाण तन्निस्तरणकममुपष्टम्भं कुर्यते, यत पते दोषाः, अतो निष्कारणे बना लाघवं परप्रवादिना परतीथिकानां भवति, तेषां मध्ये ईम प्रवेष्टव्यमनुयानमिति स्थितम, कारणेषु च समुत्पनेषु प्रवेष्ट- शानां तपस्विनामनावात् । श्राद्धाश्चिन्तयन्ति-यदि तावदीशा व्यं, यदि न प्रविशति तदा चत्वारो लघवः। अपि जगवन्तोऽस्मानिः क्रियमाणां महिमा चैत्यपूजां कटुमाकानि पुनस्तानीत्युच्यते यान्ति, तत त का विशेषत एतस्यां यत्नं विधास्याम इति चेश्यपूया राया-निमंतणं सनि वाइ धम्मकहा । प्रवर्षमानश्रकाका महिमां कुर्वन्ति कारयन्ति च । संकिय पत्त पभावण, पवित्ति कजाइ नड्डाहो ॥ अथ काथिकद्वारमाहअनुयानं गच्चता चैत्यपूजा स्थिरीकृता भवति; राजा वा प्रायपरसमुत्तारो, तित्थविवक्की य होइ कह यंते । कश्चिदनुयानमहोत्सवकारकः संप्रतिनरेन्द्रादिवत् तस्य निमन्त्र अन्नान्नाभिगमणे य , पूयाथिरया य बहुमायो । खं भवति, सही श्रावकः, स जिनप्रतिष्ठायाः प्रतिष्ठापनां चिकी- कीराश्रवादिलब्धसंपन्न पाकेपणीविकेपणीसंवेगजनीनिवेदपंति, तथा वादी कपको, धर्मकथा च तत्र प्रजावनाऽर्थ गति, नीनेदाचतुर्विधां धर्मका कथयन् धर्मकथेत्युच्यते । तस्मिन् शङ्कितयोश्च सूत्रार्थयोस्तत्र निर्णयं करोति , पात्रं वा तत्राव्य- धर्म कथयति मात्मनः परस्य च संसारसागरात समुत्तारो बाच्चत्तिकारकं प्रामोति, प्रभावना वा राजप्रवजितादिभिस्तत्र- निस्तरणं भवति , तीर्थविक्षिश्च भवति, प्रनूते सोकस्य गर्भवति, प्रवृत्तिवाचार्यादीनां कुशलवारूपा तत्र प्राप्यते, प्रवज्याप्रतिपत्तेः । तथा देशनाधारण पूजाफसमुपवान्यान्याकार्याणि च कुलादिविषयामिसाधयिष्यन्ते । उडाहश्च तत्रगतै- भिगमने अन्यान्यश्रावकवोधने च पूजायां स्थिरता बहुमानका निवारयिष्यते। इत्येतैः करणगन्तव्यमिति द्वारगाथासमासार्थः। __ कृतो भवति। भय विस्तरार्थ विनणिषुश्चैत्यपूजाराजनिमन्त्रणद्वारे अथ शक्तिपात्रघारे व्याख्यातिविवृणोति निस्संकियं च काहिइ, उजए जं संकियं सयहरे वि। सम्दावुसी रणो, प्याए थिरचणं पभावणयं । अह वोचित्तिकरं वा, सम्भिात्ति पत्तं दुपक्खाओ । पमिघातो य अपत्थे, अत्था य करावई तित्थे। उनये सूत्रे अर्थे च, यत्तस्य शङ्कितं तत्तत्र भुतधरज्यः पार्थाकोऽपि राजा रथयात्रामहोत्सवं कारयितुमनास्तनिमन्त्रणे | निःशङ्कितं करिष्यति । अथ व्यवञ्चिसिकरवा पात्रं द्विगद्भिः तस्य राज्ञः श्रद्धावृतिः कृता भवति , चैत्यप्रजायां । पकात् लप्स्यते। द्वौ पक्की समाहतौ विपकम, गृहस्थपक्षःसंयस्थिरत्वं, प्रभावना च तीर्थस्य संपादिता नवति, ये च जैनप्र. तपतश्चेत्यर्थः। वचनप्रत्यनीका: शासनावर्णवादमाहिमोपघातादिकमनर्थ कुर्व अथ प्रभावनाद्वारमाहन्ति, तस्य प्रतिघातः कृतो भवति, तीर्थे च प्रास्था स्वपरपक- जाकुलरूवधणवल-संपन्ना इमिंत निक्खंता । योरादरबुद्धिरूत्पादिता नवतीति। जयणाजुत्तो य जई, समेञ्च तित्यं पभाविति ।। __ अथ संझिद्वारं चाह जातिर्मातृकपकः, कुछ पैतृकपा, रूपमाकृतिः, धनं गणिमधएमेव य सत्रीण वि, जिणाण पमिमामु पदमपट्ठवणे। रिममेयपारिच्छेद्यजेदाचतुर्द्धा भवति । प्रभूतं गृहस्थावस्थायामा परवाई विग्घ, करिज वाई अमओ विसई ।। मासीत, बलं सहस्रयोधिप्रभृतीनामिव सातिशयं शारीरवीसंशिनः श्रावकाः केचित् जिनानां प्रतिमासु प्रथमतः ( पव यम् , एतैर्जात्यादिभिर्गुणैः संपश्चाः,ये च ऋकिमन्तः निष्कान्ता ण ति) प्रतिष्ठापनं कर्सकामाः, तेषामप्येवमेव, राशइव प्रका राजप्रवजितादयो, ये च यतनायुक्ता यथोक्तसंयमयोगकलिता वृस्वादिकं रुतं भवति, तथा मा परवादी प्रस्तुतोत्सवस्य | यतयः, ते समेत्य तत्रागत्य तीर्थ प्रनाक्यन्ति । विघ्नं कार्षांदतो वादी प्रविशति । अपि चपरवादिनिग्रहे च क्रियमाणे गुणानुपदर्शयति जो जेण गुणेण हिओ, जेणविणावान सिज्कए जंतु । नवधम्माण थिरत्तं, पभावणा सासणे य बहुमायो । | सोतेण तंम्मि कजे, सम्बत्थाणं न हावे ॥ अभिगच्छति य विदुसा, अविग्यपूया य सेयाए॥ य आचार्यादियेन प्रावचनिकत्वाविना गुणेनाधिकः सातिशयः, नयम्मिणामभिनवश्रावकाणां स्थिरत्वं स्थिरीकरणं, शास येन वा विद्यासिद्धयादिना विना यत्प्रवचनं प्रत्यनीकशिक्षणादिनस्य च प्रभाबना भवति।यथा पाह-"प्रतिपत्तिपारमेश्वरं प्रव-| कार्य न सिद्ध्यति,स तेन गुणेन तस्मिन् कार्ये सर्वस्थानं सकलचनं यशा वादनधिसंपन्ना" इति। बहुमानश्चान्येषामपि शा-1 मपि वीर्य न हापयति, किंतु सर्वया शक्त्या तत्र गत्वा प्रवचनं सने भवति, तथा च वादिनमनिगच्छन्ति अभ्यायान्ति विद्वांसः | प्रनावयतीति जावः। उक्तं च-"प्रावचनी धर्मकथा, वादी नैमिसहृदयाः तहादिनः कौतुकाकृष्ठचित्ताः, तेषां च सर्वविरत्यादि- त्तिकस्तपस्वी च। जिनवचन:श्च कविः, प्रवचनमद्भावन्त्येते'। प्रतिपन्या महान् सानो भवति, परयादिना च निगृहीतेन - प्रवृत्तिद्वारमाहविघ्नं निष्प्रत्यूहं पूजा कृता सती स्वपकपरपक्कयोरिह परत्र च साहम्मिवायगाणं, खेमसिवाणं च लम्भिइ पवित्तिं । श्रेयस भवति। गच्छिहिति जाहिं तीइं, होहिंति न वा वि पुच्चति सो ।। अथ कपकतारमाह तत्रान्येषां साधम्मिकाणां चिरदेशान्तरगतानां वाचकानां आयाति तबस्सी, ओभावना गया परपवाईण । था आचार्याणां तत्र प्राप्तः प्रवृत्ति लप्स्यते, तधा केम परचक्राजइ एरसा विमहिम, उविंति कारिति सध य॥ पप्लवाभावः, शिवं व्यन्तरकृतोपजवाभावः , तयोरुपलकणतत्र तपस्विनः षष्ठाटमादिकपका पातापयन्ति, ततश्चापभा- स्वात् सुभिक्कमुर्भिक्षादीनां चागामिसंवत्सरभाविनां प्रवृत्ति Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७५) अणुजाण अभिधानराजेन्सः । अणुजाण तत्र नैमित्तिकसाधूनां सकाशाल्लप्स्यते । यदि वा यत्र देशे स्वयं | निरस कमे चेइए गुरु, कइवयसहिए य एयरावसहिं । गमिष्यति तत्र तानि केमादीनि भविष्यन्ति नवेति साधर्मि: जत्थ पुण भानिस्सकड, पूरिति तहिं समोसरणं ॥ कादीन् पृच्छति । कार्योडाहद्वारद्वयमाह निश्राकृते चैत्ये गुरुराचार्यः कतिपयैः परिणतसाधुभिः सहिकुलमाई कज्जाई , साहिस्सं हिंगिणो य सासिस्सं । तैश्चैत्यमहिमावलोकनाय तिष्ठति । इतरे शक्कादयस्ते मा पार्श्व स्थादीन नूयसा लोकेन पूज्यमानान् दृष्टा तत्र गमनं कार्युरिति जे सोगविरुदाई, करिति लोगुत्तराई च ॥ कृत्वा गुरुभिरनुहाता वसतिं व्रजेयुः । यत्र पुनः क्षेत्रे अनिश्राकुलादीनि कुलगणसंघसत्काणि, कार्याणि तत्र गतःशाधयि- | कृतं चैत्यं तत्राऽऽचार्यः समवसरणं पूरयन्ति, सन्नामापूर्य धर्मप्यामि लिङ्गिनश्च तत्र गतः शासिष्यामि हितोपदेशदानादिना कथां कुर्वन्तीत्यर्थः। शिकायष्यामि । ये लिडिनो लोकविरुद्धानि लोकोत्तरवि-| आह-किं संविग्गैस्तत्र धर्मकथा, आहोरुकानि च प्रवचनोट्टाहकराणि कार्याणि कुर्वन्तीति । श्विदसंविग्नेरपि ?, उच्यतेमाह-यद्येतानि कारणानि भवन्तिाततः किं कर्तव्यमित्याह । संविग्गेहि य कहणा, श्यरेहिं अपच्चो न ओवसमो। एएहिँ कारणेहिं, पुव्वं पडिसेहिऊण अइगमणं । पन्चज्जालिमुहा वि य, तेसु वए सेहमादीया ॥ अद्धाणनिग्गयादी, लग्गा सुका जहा खपओ। संविग्नेरुद्यतविहारिभिः कथना धर्मस्य कर्तव्या । कुत इत्याहएतैश्चैत्यपूजादिभिः कारणैरनुयानं प्रवेष्टव्यमिति निश्चित्य पूर्व श्तरे असंविनास्तैर्धर्मकथायां क्रियमाणायां श्रोतृणामप्रत्ययो प्रत्युपेक्ष्य ततोऽतिगमनं कार्यम् । अथावनिर्गतास्ते अध्वानम- भवति, नैते यथा वादिनस्तथा कारिण इति । नच तेषामुपशमः तिलहुच सहसैव तत्र प्राप्ताः। आदिशब्दादपूर्वोत्सवादिवदय- सम्यग्दर्शनादिप्रतिपत्तिर्नवति । अपि च। प्रवज्यानिमुखाः शक्कामाणकारणपरिग्रहः । एवंविधैः कारणैः प्रत्युपेक्वितेऽपि केत्रे दयो वा अद्याप्यपरिणतजिनवचनाः तेऽपि तेषु बजेयुः; शोभनं गताः सन्तो यथोक्तां यतनां कुर्वाणा अपि यदि अग्ना अशुद्ध- खत्वेतेऽपि धर्म कथयन्तीति । भक्तादिग्रहणदोषमापन्नास्तथापि शुकाः , यथा कपकः पिएड- आह-निश्राकृतचैत्ये यदि तदानीमसंविना न भवन्ति ततः कोनियुक्ती प्रतिपादितचरितः शुद्धं गवेषयन्नपि निगूढबाह्याकार- विधिरित्याहया तथाविधधाद्धिकया नलितः सन्नाधाकर्मण्यपि गृहीते शुको- पूरिति समोसरणं, अन्नासनिस्सचेइएसुं पि । ऽशठपरिणामत्वादिति नियुक्तिगाथासमासार्थः । इहरा लोगविरुफ, सकागो य सहाणं ॥ अयैतदेव भाव्यते अन्येषामसंविग्नानामसतिनिश्राकृतेवीप चैत्येषु समवसरण नाऊण य अश्गमणं, गीए पेसिति पहिलं कजे । पूरयन्ति, इतरथा लोकविरुकं लोकापवादो भवति-अहो! मनवसय जिक्खाचरिया, वाहिं नब्भामरादीया ॥ मी मत्सरिणो यदेवमन्यदीय चैत्यमिति कृत्वा नात्रोपविश्य सम्भाविक इयरे विय, जाणंती मंमवाइणो गीया । धर्मकथां कुर्वन्ति, कानङ्गश्च श्राद्धानां भवति, तेषामन्यार्थमसेहादीण य थेरा, वंदणजुत्ति बहिं कहए ॥ ज्यर्थयमानानामाप तत्र धर्मकथाया अकरणात् । चैत्यपूजादिके कार्य समुत्पन्ने अनुयानवेत्रं प्रत्युपवितुं गीता अथ निकाचर्यायां यतनामाहनि प्रेषयति,ततो ज्ञात्वा सम्यग् केत्रस्वरूपमतिगमनं कर्तव्यम् । पुवपविठेहि समं, हिंमंती तत्थ ते पमाणं तु । किं पुनस्तत्र प्रत्युपेक्ष्यमित्याह-मौलग्रामे उपाश्रयो बहिर्बाह्य- साभाविकनिक्खाओ, विदंतऽपुवा य वियादी। ग्रामेषु च उद्मामकाका भिक्काचर्या । श्रादिशब्दात्तस्यां गच्छ- पूर्वप्रविष्टानामपूर्व ये केत्रप्रत्युपेकणाथै प्रहितास्तैः सम भितामपामन्तराले विश्रामस्थानं, मौलग्रामे चभिक्षाविचारभूमिप्र. कां हिरामन्ते, तत्रच भिक्कामटतांत एवं प्रमाणं गन्तुं कैस्तत्र नृतिक प्रत्युपेक्ष्यम्, तथा सद्भाविका नितरांश्च मएम्पादीन् गी- शुझाशुरूगवेषणा कर्तव्या, ते च पूर्वप्रविष्टा इदं विदन्ति-यदेताः तार्था जानन्ति । यथा अमी सद्भावतः स्वार्थ मण्डपाः कृताः, स्वाभाविकभिक्काः स्वार्थनिष्पादिताः, एतास्तु अपूर्वाः संयताअमी तु संयतार्थ परं कैतवप्रयोगेणास्मानित्थं प्रत्याययन्ति , | थे स्थापिता निक्किप्तादयः । आदिग्रहणात् पीधिकादिपरिग्रहः । इत्थं तैः प्रत्युप्रेक्विते सूरयः स्त्रीसंकुसनाटकशीतयोर्यतनामाहसबाबवृरुगच्चसहिता अनुयानक्केत्रं प्रविशान्त । स्थविराश्च वंदे ण ति तंति य, जुवमज्झ थेर इत्थिो तेणं। बहिरेव वर्तमानाः शहादानां वन्दनयुक्ति पाश्वस्थादिवन्दन-- चिति ननामपसं. अह तंति न पेट रागादी॥ विधि कथयन्ति, मा भूदन्यथा तद्वन्दने तेषां विपरिणाम शत । स्त्रीसंकुलवृन्दे नायान्ति निर्गच्छन्ति च, ये च युवानस्ते मध्ये अथ चैत्यवन्दनाविधिमाह क्रियन्ते, यतः स्त्रियस्तेन पार्श्वन स्थविरा वृका भवन्ति, मा भू. निस्सकममनिस्सकमे, वि चेइए सम्बोहिँ युई तिनि। वन् टुक्ताभुक्तसमुत्था दोषा शति । यत्र नाटकानि निरीक्ष्यन्ते वलं व चेहपाणि य, नानं इक्किक्किया वा वि ॥ तत्र न तिष्ठन्ति । अथ कारणतस्तिष्ठन्ति, ततो (म पेह त्ति) ननिश्राकृते गच्चप्रतिबके, अनिश्राकृते च तस्पिरीते, चैत्ये सर्व- | सक्यादिरूपाणि न प्रेक्वन्ते, सहसा दृष्टिगोचरागतेषु रागादीन प्रतिस्रः स्तुतयो दीयन्ते । अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयमाने न कुर्वन्ति, तेज्यश्च प्राग् दृष्टिं निवर्तयन्ति । बेलाया अतिक्रमो भवति नूयांसि वा तत्र चैत्यान, ततो वेला तन्तुजासादिषु विधिमाहचैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकाऽपि स्तुतितव्येति । सीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादीसु । अथ समवसरणविषयं विधिमाह अभिजोजयत्ति तिमु य, आणिच्चि फेहतध्दीसंता ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६) अणुजाण अभिधानराजेन्द्रः । अणुहाण इतरे असंविग्ना देवकुलिका इत्यर्थः, तान् तन्तुजालबूताकोलि- दिदोषसंनयात् । शेषेषु कुलेषु पर्यटन्तो ( दम्यादी पेदंत ति) कादिषु सत्सु, ते साधयो नोयन्ति-यथा शीलयत परिकर्मयत भव्यतः केत्रतः कासतो जावतश्व शुरुमन्वेषयन्तो, यद्यपि किमफलकानीव मफलकानि । मलो नाम चित्रफनकव्यग्रहस्त- मपि स्थापनादिकं दो सगन्ति प्राप्नुवन्ति, तथा शुद्धाः क्वपस्तस्य च यदि फलकमुज्वलं भवति, ततो लोकः सर्वोऽपि तं कवदशम्परिणामतया श्रुतझानोपयोगप्रवृत्तत्वादिति । गतं परिपूजयति । एवं यदि यूयमपि देवकुसानि नूयो भूयः संमार्जना- हरणानुयानद्वारम् । ०१ उ०।। दिना सम्यगुज्वालयत, ततो नूयान सोको नवतां पूजासत्कार | अणुजाणण-अनुज्ञापन-न० । अनुमोदने, सूत्र० १ ० ए कुर्यात् । अथ ते देवकुलिकाः सवृत्तिकाश्त्यप्रतिबरुगृहकेत्रा-| म०। स्था। दिवृत्तिनोगिनस्ततस्ताननियोजयन्ति निर्क्सयन्ति-यथा एकं अणुजाणावणा-अनुज्ञापना-स्त्री० । मुत्कलने, पञ्चा०विव०। तावदेवकुलानां वृत्तिमुपजीवथ द्वितीयमेतेषांसंमार्जनादिसारामपि न कुरुथ। इत्थं युक्ता अपि यदि तन्तुजानादीन्यपनेतुं नेच्छ अजाणाहिगार-अनुयानाधिकार-पुं० । रथस्य पृष्ठतोऽनुन्ति ततो अदृश्यमानाः स्वयमेव स्फेटयन्ति, अपनयन्तीत्यर्थः। वजनेन प्रतिष्ठाधिकारे, जी०१ प्रतिः। कुम्बकविपरिणामसंभवे यतनामाह अणुजाणित्तए-अनुज्ञातुम्-अन्य० । तथैव सम्यगतदारया:उज्जलवेसे खुडे, करिति तब्बट्टणाइ चोक्ले य। न्येषां च प्रवेदयेत्येवमनिधातुमित्यर्थे, स्था० २ ग० १ उ० । नो मुञ्चतऽसहाए, दिति मान्ने य आहार ।। अणुजात ( य)-अनुयात-त्रि० । अनुगते, प्रम २ प्रा० कुखकान नज्ज्वलवेषान पाएरपट्टचोलपट्टधारिणः उद्वर्तन- द्वा० । “सरिसे षसभाणुजाए" अनुजातशब्दः सदृशवचनः । प्रकासनादिना च चोक्वान् शुचिशरीरान् कुर्वन्ति । न च ते चु- वृषभस्य भनुजातः सशो वृषभानुजातः। सू० प्र०१२ पाहु। मका असहाया एकाकिनो मुच्यन्ते, वृषभाश्च तेषां मनोज्ञान् । अनुरूपः सम्पदा पितुस्तुल्यो जातोऽनुयातः, अनुगतो वा स्निग्धमधुरानाहारानानीय ददति । उरभ्रष्टान्तेन च प्रज्ञाप- पितृविनूत्याग्नुयाता पितृसमे सुतन्नेदे, यथा महायशाः, आदियन्ति । वृ०१०। ( स च दृष्टान्तः 'चरम्भ 'शब्दे वि० जा० | त्ययशसा पिना तुल्यत्वात् । स्था०४ ग० १ ००। ५१ पृष्ठे वक्ष्यते) अजुत्ति-अनुयुक्ति-स्त्री० । अनुगतयुक्तौ, “सव्वाहि अणुअथ निर्द्धर्मकार्येषु यतनामाह जुत्तीहि, अचयंता जवित्तए" सर्वानिरर्थानुगताभिर्युक्तिभिः न मिलंति सिंगिकजे, अत्यति च मेलिया उदासीणा ।। सवेरेव हेतुदृष्टान्तैः प्रमाणभूतैरशक्नुवन्तः । सूत्र०१ श्रु० ३ विति य निबंधम्मि, करेसु तिव्वं खु ने दंमं ।। भ०३ उ०। “सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, मतिमं पमिले हिया" यत्र सिङ्गिनामाकृष्टगृहधनादिकार्याण्युपढौकन्ते तत्र प्रथमत सर्यायाः काश्चनानुरूपाः पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेनानुएव न मिलन्ति । अथ तैर्बला मोटिकया मील्यन्ते ततो मेलिता कूला युक्तयःसाधनानि, यदि वा सिद्धविरुद्धानकान्तिकपरिहा. भप्युदासीना आसते । अथ ते ब्रुधीरन्-कुरुतास्मदीयस्य व्यव रेण पक्कधर्मत्वसपक्कसत्त्वविपक्षव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसंगता हारस्य परिच्छेदम् । तत एवं निर्बन्धे तैः क्रियमाणे साधवो ब्रुवते. युक्तयस्ताभिर्मतिमान् । सूत्र० १७०४०१०। । यद्यस्माकं पार्वे व्यवहारपरिच्छेदं कारयिष्यथ तत नभयेषा- अणुजेट्ट-अनुज्येष्ठ-त्रि० । अनुगतो ज्यष्ठम् । प्रा० । स० । षामपि भवतां तीबदएकमागमोक्तप्रायश्चित्तलकणं कुर्मः क- ज्येष्ठानुरूपे ज्येष्ठानतिक्रमे च । वाच० । पश्चा० । जेष्ठसमीपे रिष्याम इति । वर्तमामे यथा एको द्विकस्य ज्येष्ठः त्रिकस्यानुज्येष्ठः; चतुष्का'अद्धाणनिम्गयादी' इति पदं व्याख्यानयति दीनां तु ज्येष्ठानुज्येष्ठः। आ० म०प्र० । अनु०। अकाणनिग्गयादी, ठाणुप्पाइयमहंसवो कुणगो । अणुज्जया-अनूद्यता-स्त्री० । उद्देश्यतारूपे विषयताविशेषे, गेलन्नसत्थवसगा, महानई तत्तिया वा वि॥ ध०१ अधि०। अवनिर्गता अध्वानमतिलय सहसैव तत्र प्राप्ताः । आदिश- | अणुजियत्त-अर्जितत्व-न० । बराकत्वे, वृ०३ उ० । ग्दादन्यदप्येवंविधं कारणं गृह्यते, स्थानोत्पातिकमहोत्सवं | अणुज्जुय-अनजुक-त्रि० । असरले कथश्चित सरवं कर्तुमनाम तत्रापूर्वः कोऽप्युत्सव विशेषः, सहसैव श्राद्ध कर्तुमारब्धः शक्ते, सत्त० ३४ अावके, प्रश्न०२ आश्र0 द्वा०। तं पा श्रुत्वा, यदि वा केत्र प्रत्युपेक्वितुं प्रेष्यन्ते, तदानी ग्लाना. अणुज्झाण-अनुध्यान-न चिन्तने, अट० २४ अए। ग्मानप्रतिचरणव्यापृता वा । अथवा सार्थवशगास्ते तत्र सार्थमन्तरेण गन्तुं न शक्यन्ते । महानदी वा काचिद्दपान्तराले, ताम अपुज्झाबित्ता-अनुध्याय-अव्य० । चिन्तायित्वेत्यर्थे, "कम्मभीक्ष्णमुत्तरतां बहवो दोषाः, तावन्मात्रा एव वा ते साधवो गरसालाए अणुज्झावित्ता पमिमवित्तो" प्रा०म०वि०। यावतां मध्यादेकस्याप्यन्यत्र प्रेषणं न संगच्यते, अत पतैः कार-प्रएट्ठाण-अनुष्ठान-न0 श्राचारे, स्था०७०। चत्यचन्दनागैरप्रत्युपेकितेऽपि प्रविशतां न कश्चिदोषः । दिके आचरणे, पञ्चा०३ विव० आचा० क्रियायाम, पञ्चा० अत्र यतनामाह १६ विव० क्रियाकलापे, ग०१ अधि० । कालाध्ययनादी, समणुन्ना सह अन्ने, वि दहिउंदाणमाइ वज्जति । भ०५श०१ उ०। दबाई पेहंता, जश् लग्गती तहवि सुका ॥ फलबद्रुमसदीज-प्ररोहसदृशं तथा । यदि समनोज्ञाः सांभागिकाः पूर्वप्रविष्टाः सन्ति ततस्तैः सह साध्वनुष्ठानमित्युक्तं, सानुबन्धं महर्षिभिः ॥२४॥ साध्वनुष्ठानामत्युक्त, सानुबन निकामटन्ति । अथ न सन्ति समनोझास्ततोऽन्यानप्यन्यमांनो- फलवतः फसप्राग्जारभाजो हमस्य न्यग्रोधादेः सदबन्य गिकानपि दृष्ट्वा दानश्राद्धकादिकुमानि पर्जयन्ति ते, प्राधाकर्मा- यद्वीजं, तस्य यः प्ररोहोऽडरोद्भेदरूपस्तेन सदृशं समं यत्त Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७७) अणुहाण अनिधानराजेन्द्रः। अणुहाण सथा, तथेति वक्तव्यान्तरसमुच्चये, एतेषां योगाधिकारिणां, तत्त्वाभिः परमं, पदसाधनं सर्वमेतत् ॥ ॥ साधु सुन्दरमनुष्ठानं यमनियमादिरूपमित्यनेन प्रकारेणोक्तं, शा-1 यत्रादरोऽस्ति परमः, प्रीतिश्च हितोदया भवति कर्तुः। स्त्रेषु सानुवन्धमुत्तरोत्तरानुबन्धवद् महर्षिभिः परममुनिभिः, शुकाधिकारिसमारब्धत्वात्तस्य ।। २४३ ।। शेषत्यागेन करो-ति यच्च तत् प्रीत्यनुष्ठानम् ।। ३॥ अत एव गौरवविशेषयोगाद्, बुद्धिमतो यद्विशुद्धितरयोगम् । अन्तर्विवेकसंनूनं, शान्तदान्तमविप्लुतम् । क्रिययेतरतुल्यमपि, हेयं तद् भक्त्यनुष्ठानम् || ४॥ नाग्रोजवलतापायं, बहिश्चेष्टा धिमुक्तिकम् ॥ ४॥ (सदनुष्ठानमित्यादि सदनुष्ठानं प्रागुक्तमतः खलु बीजन्यासादअन्तर्विवकसंभूतम, अन्तर्विवेकेन तत्वसंवेदननाम्ना संभूतं स्मात् पुण्यानुबन्धिपुण्यनिक्केपात्, प्रशान्तवाहितया प्रशान्तं वोप्रवृत्तं, शान्तदान्तं, शान्तदान्तपुरुषारब्धत्वादू, अत पवाविप्लुतं ढुंशीसं यस्य तत् प्रशान्तवाहि, तद्भावस्तया चित्तसंस्काररूसर्वथा विप्लवरहितम् । व्यवच्छेद्यमाह-न नैव, अग्रोवलताप्रा-1 पया, संजायते निष्पद्यते । नियोगाग्नियमेन, पुसा मनुष्याणां, पुयम-प्रमाकप्रान्तादुद्भवो यस्याः, सा चासौ लताच तत्प्रायम्। एयोदयसहायं पुण्यानुन्नावसहितम् ॥१॥ तदेव नेदकारेणाहसाहिलता अग्रोद्भवत्वेन न लतान्तरमनुबद्धं कमा। इदं चानुष्ठान (तदित्यादि ) तत् सदनुष्ठानं प्रीतिश्च भक्तिश्च वचनं चासङ्गमनुत्तरोत्तरानुबन्धप्रधानमित्यत उक्तं नामोद्भवन्त्रताप्रायमिति । चैते शब्दा उपपदमपोच्चारिपदं यस्य सदनुष्ठानस्य तत्तथा, च. तथा बहिश्शायां चैत्यवन्दनादिरूपायामधिमुक्तिः एका यत्र तुर्विधं चतुर्नेद,गीतं शब्दितं, प्रीत्यनुष्टानम् ॥२॥ आदरःप्रयत्नातत्तथा।। २४४ ॥ तिशयोऽस्ति परमः,प्रीतिश्चाभिरुचिरूपा, हितोदया हित नदयो इत्थं विषयस्वरूपानुबन्धयुरुिप्रधानमनुष्ठानत्रयमनिधाय यस्याः सा तथा भवति । कर्तुरनुष्ठातुः, शेषत्यागेन शेषप्रयोजसाम्प्रतं अयस्याप्यवस्थानेदेन संमतत्वमाविश्चिकीर्षुराह नपरित्यागेन, तत्काले करोति यच्चातीव धादरात् । तदेवं नूतं प्रीत्यनुष्ठानं विझेयम् ॥३॥ द्वितीयस्वरूपमाह-गौरवत्यादि। इष्यते चैतदप्यत्र, विषयोपाधि संगतम् । गौरवविशेषयोगात, गौरवं गुरुत्वं पूजनीयत्वं तद्विशेषयोगात निदर्शितमिदं तावत् पूर्वमत्र। क्षेशतः ।। २४५॥ तदधिकसंबन्धात्, बुद्धिमतः पुंसो यदनुष्ठानं विशुद्धतरयोग इष्यते मन्यते मतिमद्भिः। चः समुच्चये । एतदपि प्रागुक्तमत्र विशुद्धतरब्यापारं, क्रियया करणेन, इतरतुल्यमपि प्रीत्यनुष्ठायोगचिन्तायां, विषयोपाधिर्विषयशुद्धमनुष्ठानं, किंपुनः स्वरूप नतुल्यमपि, झेयं तदेवंविधं जक्त्यनुष्ठानम् ॥ ४॥ शुद्धानुबन्धशुद्धे इत्यपिशब्दार्थः। कीदृशामत्याह-संगतं युक्त आह-कः पुनः प्रीतिजक्योर्विशेषः? , उच्यतेभेव, निदर्शितं निरूपितमिदं संगतत्वम, तावच्छन्दः क्रमार्थः, पूर्व अत्यन्तवल्लना खलु, पनी तद्वच्छिता च जननीति । प्रागत्रैव शास्त्रे बेशतः सकेपेण" मुक्ताविच्छाऽपि या श्लाघ्या, तुख्यमपि कृत्यमनयो-तिं स्यात प्रीतिभक्तिगतम् ॥५॥ तमःक्षयक। मता" इत्यादिना ग्रन्थेन । विस्तरतस्तु विशेषनन्थावसेयमिति॥१४५ ॥ [अत्यन्तेत्यादि] अत्यन्तवबन्ना खबु अत्यन्तवल्लभैव,पत्नीलार्या, अथ प्रस्तुतमनुष्ठानं यस्य भवति तमधिकृत्याह तहतू पत्नीवदत्यन्तेष्टेव हिता च हितकारिणीति कृत्वा जननी अपुनर्बन्धकस्यैवं, सम्यग्रीत्योपपद्यते । प्रसिद्धा, तुल्यमापसदृशमपि, कृत्यं नोजनाच्छादनादि, अनयोतत्तत्तन्त्रोक्तमखिल-मवस्थानेदसंश्रयात ॥ २४६॥ जननीपल्योौतमुदाहरणं स्यात्, प्रीतिनक्तिगतं प्रीतिनक्तिवि. षयमिदमुक्तं भवति, प्रीत्या पत्न्या क्रियते, नक्त्या मातुरितीकापिलसौगतादिशास्त्रप्रणीतं ममकुजनयोग्यमनुष्ठानमखिल यान् प्रीतिभक्त्योर्विशेषः ॥५॥ समस्तम् । कुत इत्याह-अवस्थाभेदसंश्रयात् । अपुनर्बन्धक तृतीयस्वरूपमाहस्यानेकस्वरूपाङ्गीकरणात् । अनेकस्वरूपान्युपगमे हि अपू. बन्धकस्य किमप्यनुष्ठानं कस्यामप्यवस्थायामयतरतीति वचनात्मिका प्रवृत्तिः, सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु । ॥२४६॥ यो वि०। वचनानुष्ठानमिदं, चारित्रवतो नियोगेन ॥ ६ ॥ प्रीतिनक्तानुष्ठानादिन्नेदाः (वचनेत्यादि वचनामिका पागमात्मिका,प्रवृत्तिः क्रियारूपाम. सूक्माश्च विरलाश्चैवा-तिचारा वचनोदये । वत्र सर्वस्मिन् धर्मव्यापारे कान्तिप्रत्युपेक्षादी, औचित्ययोगतो स्थूलाश्चैव घनाश्चैव, ततः पूर्वममी पुनः ॥ ७॥ या तु देशकालपुरुषव्यवहाराद्यौचित्येन वचनानुष्ठानमिदमवं प्रवृत्तिरूपं चारित्रवतः साधोर्नियोगेन नियमनं नान्यस्य जसूक्ष्माश्चेति) सदमाश्च लघवः,प्रायशः कादाचिकत्वात्।विर वतीति ॥६॥ लाव सन्तानाभावात् । अतिचारा अपराधा वचनोदये भवन्ति; तुर्यस्वरूपमाहततो वचनोदयात् । पूर्वममी अतिचाराः पुनः स्यूसाश्व बादराव, घनाश्च निरन्तराश्च जबान्त । तदुक्तम्-"चरमाथायां सूक्ष्माः यत्चच्यासातिशयात, सात्मीभतमिव चेष्टयते सनिः। , भतिचाराः प्रायशोऽतिविरलाश्च । प्राद्यत्रये स्वमी स्युः, स्थू. तसङ्गानुष्ठान, जवति त्वेतत्तदा वैधात् ॥ ७॥ लाश्च तथा घनाश्चैव" ॥ ॥ द्वा० २८ द्वा०। (यत्त्वित्यादि यत्तु यत् पुनरभ्यासातिशयादभ्यासप्रकर्षाद्भूयो सदनुष्ठानमतः खलु, बीजन्यासात् प्रशान्तवाहितया। भूयस्तदासेवनेन , सांत्मीभूतमिवात्मसादतूतमिव, चन्दनगन्ध न्यायेन चेचते क्रियते, सद्भिःसत्पुरुषैर्जिनकल्पिकादिभिस्तदे. संजायते नियोगात् , पुंसां पुण्योदयसहायम् ॥ १॥ चंविधमसङ्गानुष्ठानं नवति त्वेतज्जायते, पुनरेतत्तदा वैधायचतस्मीतिभक्तिवचना-संगोपपदं चतुर्विधं गीतम् । नवैधादागमसंस्कारात् ॥७॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) अणुट्ठाण अनिधानराजेन्द्रः। अणुमा वचनासङ्गानुष्ठानयोर्विशेषमाद प्रतिरूपशब्दकारके, “गम्भीरेणानुनादिना" वाच । “गज्जियचक्रनमणं दएमा तनावे चैव यत् परं भवति । सहस्स प्रणुणाश्णा." अनुनादिना सरशेन । कल्स। वचनासङ्गानुष्ठा-नयोस्तु तद्द्वापकं ज्ञेयम् ॥ ॥ | अणुणाइत्त-अनुनादित्व-ज०। प्रतिरवोपेततारूपे सत्यवचना(चक्रेत्यादि)चभ्रमणं कुम्नकारचक्रपरावर्तनं, दएकाइएलसं-| तिशये, स. ३५ सम । रा० योगात, तदभावे चैव दगमसंयोगालाये चैव, यत्परमन्यद्भवति, अण्णाय-अनुनाद-पुंगामेघस्वनादौ, "अणुणादेपयाहिणजसे बचमासङ्गानुष्ठानयोस्तु तयोस्तु, ज्ञापकमुदाहरणं हेयम् । यथा | जिणघरे वा" प्रा०म० द्वि०। सकभ्रमणमेकंदरमसंयोगाजायते प्रयत्नपूर्वकमेवं वचनानुष्ठानमायागमसङ्गात प्रवर्तते । तथा चान्यचक्रभ्रमणं दएमसयोगा अणुणास-अनुनाश-पुशअनु-नश-घम् । अनुमरणे, अदूरदेशाजावे केयहादेव संस्कारापारक्षयात् संनयति । एवमागमसं दावर्थे । संकाशादित्वात् ण्यः। वाचन स्कारमात्रेण वस्तुतो वचननिरपेक्कमेव स्वानाविकत्वेन यत् प्रव- भानुनाश्य-त्रि० । तददूरदेशादौ, वाच अनुनासिके नासातते तदसङ्गानुष्ठानमितीयान् नेद ति नावः ॥ ८ ॥ कृतस्वरे, स्था०७ ग० । नासा विनिर्गतस्वरानुगते गेयदोषनेदे, पषामेव चतुर्णामनुष्ठानानां फझविनागमाह जं७ वक। अनु० जी०। अत्युदयफले चाये, निःश्रेयससाधने तथा चरमे । अणणिज्जमाण-अननीयमान-त्रि० । प्रार्थ्यमाने, “मह एवं एतदनुष्ठानानां, विज्ञेये इह गतापाये | | पि अणुणिज्जमाणे णेच्छति" नि० चू०१०। अज्युदयफले चान्युदयनिर्वतके च, आधे प्रीतिभक्त्यनुष्ठाने, निःश्रेयससाधने मोकसाधने, तथा चरमे पचनासङ्गानुष्ठाने, अणुप्मत (न्य ) अनुन्नत-त्रि० । अनुच्छूिते मदरहिते, "एत्थ एतेषामनुष्ठानानां मध्ये, विझेये, रह प्रक्रमे, गतापाये अपायर. वि भिक्खू अणुनए विणी" न उन्नतोऽनुनतः। शररिणीतिः , हिते निरपाये। ए भावोन्नतस्त्वभिमानग्रहग्रस्तः, तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरामदमपि न विधत्ते । सूत्र० १० १६ अ०। “अणुन्नए नावणए अपहिएतेच्चेव चतुर्ण्यनुष्ठानेषु पञ्चविधतान्तियोजनमाह के अणावझे" अनुन्नतो व्यतो मावतश्च । व्यतो नाकाशदउपकार्यपकारिविपा-कवचनधर्मोत्तरा मता क्षान्तिः। । शी, भावतो न जात्यायनमानवान् । दश०५ अ० १ १० । प्रायद्वय त्रिलेदा, चरमाद्वितये विभेदेति ॥ १०॥ अणुलवणा-अनुज्ञापना-स्त्री० । अनुमोदने, "प्रायम्पमाणमि(उपेत्यादि) सपकारी उपकारवान्, अपकारी अपकारप्रवृत्तिः। तो, चउहिसि होइ उम्गहो गुरुणो। अणणुनायस्स समा, न विपाकः कर्मफबानुभवनमनर्थपरम्परा वा, वचनमागमः, धर्मः कप्पर तत्थ पविसेब" इदानीमनुझापना, साऽपि नामादिभिः प्रशमादिरूपः, तत्तरा तत्प्रधाना मता संमता पञ्चविधा, क्षा षमेदेव । नामस्थापने सुगमे । ब्याऽनुज्ञापना त्रिधा-लौकिकी, न्तिःकमा, आद्यद्वये श्राद्यानुष्ठानद्वये,क्रिनेदा त्रिप्रकारा। चरम लोकोत्तरा, कुपावचनिकी च । तत्र लौकिकी सचित्ताचित्तामद्वितये चरमानुष्ठानद्वितये, द्विमेदेति द्विविधा, तोपकारिणि का अभेदैनिधा-अश्वाचनुशापना प्रथमा । मुक्ताफलवैडूर्याद्यनुतिरुपकारितान्तिः,तमुक्तदुर्वचनाद्यपि सहमानस्य, तथा अप कापना द्वितीया। विविधानरणवितषितवनिताद्यनुज्ञापना तृतीकारिणि क्षान्तिरपकारिवान्तिः, ममऽर्वचनाद्यसहमानस्यायम या । लोकोत्तराऽपि सचित्ताकिलेदात त्रिधा-शिष्याद्यनुक्षा पकारी भविष्यति इत्यभिप्रायेण क्षमां कुर्वतः । तथा विषाके प्रथमा । वस्त्रायनशा द्वितीया । परिहितवस्त्रादिशिष्याय नुक्षा कान्तिः विपाककान्तिः, कर्मफलविपाकं नरकादिगतमनुपश्य तृतीया । एवं कुप्रावचनिक्यपि धाऽवगन्तव्या। केत्रानुकापना तो दुःखजीस्त या मनुष्यनावमेव वा अनर्थपरम्परामालोचयतो यावतो केत्रस्यानुज्ञापनं विधीयते,यस्मिन्वा केनुका व्याख्यायविपाकदर्शनपुरःसरा संभवति । तथा वचनकान्तिरागमेवावल ते वा एवं कालानुशापानावानुज्ञा आचाराद्यनुज्ञा, एषा चात्र म्यनीकृत्य या प्रवर्तते न पुनरुपकारित्वापकारित्वविपाकास्य- ग्राह्या । प्रव०२द्वान (अवग्रहविषयाऽनुज्ञापना 'उम्गह' शब्दे मासम्बनत्रय सा वचनपूर्वकत्वादन्यनिरपेकत्वात्तयोच्यते । ध.] द्वि० ना०६६८ पृष्ठे; वसतिविषयाच 'वसई' शब्दे द्रष्टव्या) मोत्तरातु कान्तिश्चेदनस्येव शरीरस्य बेददाहादिषुसौरभादि-अणमवणी-अनकापनी-स्त्री० । अवग्रहस्यानुज्ञापनीयायां स्वधर्मकल्पा परोपकारिणी न क्रियते, सहजत्वेनावस्थिता । भाषायाम, स्था०४ वा० ३२०।। सा तथोच्यते॥१०॥षो०१०विष । अष्टदेवपूजनादिके, द्वा०१३ द्वा० फर्मणि, श्रा०म०वि०। अणुप्मवित्ता-अनुज्ञाप्य-अन्य० । अनुमाद्येत्यथे, “जिणवर याटिय--अनष्ठित--त्रि० । अनुक्रान्ते, आचा०१श्रु० एol मणुप्मवित्ता, अंजणघणरुयगविमवसकासा" प्रा०म०वि०। च० ग्रा०म०प्र०ा आसेविते, पञ्चा०६ विवः । "अहवा अ- | अणुमवियपाणजोयणभोइ(ण)-अनुशाप्यपानभोजक्नोमिन्वितहं णो अणुठिअं" सूत्र०१ श्रु० २०२ उ०। पुं०। आचार्यादीननुज्ञाप्य पानभोजनादिविधातरि, अदनादाअनुत्थित--त्रि० । द्रव्यतो निषएणे, भावतो ज्ञानदर्शनचारित्रो. नविरतेर्द्धितायां प्रावनां प्रतिपन्ने, आचा०२ श्रु०२ अ०६ उ०। घोगरहित, प्राचा० १ श्रु० ४ अ०१०। भाव। अणुणंत--अनुनयत्-त्रि० स्वाभिप्रायेण शनैः २ प्रज्ञापयति, | अणुध्यवेमाण-अनुज्ञापयत्-त्रि० । अनुज्ञां ददति, स्वजनादीन् "पुरोहियं तं कमसोऽपुणतं, णिमंतयंतं च सुए धणेणं." तत्कालगतसार्मिकपरिष्ठापनायामनुशापयतो नातिकामउत्त०२४ अ०। न्ति" स्था० ६ ग०। अणुणाइ(ए)--अनुनादिन्-त्रि० । अनुनति । अनु-नद-णिनि। अणध्या-अनुहा--स्त्री० । अनुसानमनुज्ञा । अधिकारदाने, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुमा अनिधानराजेन्धः। श्रणला स्था० ३ ० ३३० । अनुमोदने, सूत्र०५७०३० । का० । दंसियं निदंसियं उबदमियं जहा। को दिलुतो?। अयं घयनिपोऽस्य कुंभे प्रासी,अयं महकमे आसी, सेत जाणगसरीरदब्दासे किं तं ना?। अणुना छबिहा पत्ता। तं जहा गुमा । से किं तं भवियसरीरदवाणुन्ना। जे जीवजोणीनामाणुम्मा १, ठवणाणुष्मा २, दवाणुष्मा ३, खेत्ताणुसाध, जम्मनिक्खंते इमेणं चेव सरीरसंमुस्सएणं आश्तेणं कालाणुमा ५, जावाणुमा ६ । से किं तं नामाणुप्मा ? | जिणदिहोणं भावो णं अण्णाति पयंसियकाले सिनामाणुमा जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं क्खिस्सइ, न ताव सिक्ख जहा । को दिहतो । अयं घयकुंने वा जीवाणं वा तदुभयस्त वा तदुजयाणं वा अणुएण भविस्सइ, अयं महुकुंजे नविस्सइ, सेत्तं भवियसरीरदब्बाति नाम कीर, सेतं नामाणुना । से किं तं उवणाणुला पुराणा । से किं तं जाणगसरीरभवियसरीरवारत्ता द१। उवणाणुमा जेणं कठुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चि ब्वाणुएणा । जाणगसरीरजवियसरीरवइरित्ता दन्वाणुतकम्मे वा गंठिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाश्मे वा अ- णा तिविहा परमत्ता। तं जहा-लोश्या, कुप्पावणिया य, लोकखए वा वरामए वा एगो वा अणेगो वा, सन्जा नुत्तरिया । सेकिंतं लोश्या दवाणुएलोइया दन्वाणुवट्ठवणाए वा असम्भावग्वणाए वा अणुएणत्ति उवा मा तिविहा पहाता । तं जहा-सचित्ता अचित्ता मीसिया । विजइ, सेत्तं ग्वणाणुगणानामढवणाणं को पइविसेसो?। से किं तं सचित्ता १ । सचित्ता से जहा णामए रायाश् वा नामं प्रावकहियं, वणा इतिरिया वा हुज्जावकाहिया जुवरायाइ वा ईसरे वा तनवरे वा मामलिएइ वा कोडबिए वा, सेत्तं उवणाणुएणा । से किं तं दवाणुगणा ? । द वा सेट्ठीइ वा इन्भेश् वा सेणाई वा सत्यवाहेइ वा कस्सइ ब्बाणपणा दुविहा पएणतातं जहा-आगमोय,नोप्रा कम्मि कारणे तुटे समाणे आसं वा हत्यि वा जट्ट वा गमओ य । सेकि तं आगमओयदव्याणमा | आगमोद गोणं वा खरं वा घोडयं वा एलयं वा चायं वा दासं वा व्वाणुएणा जस्त णं अणुएण त्ति पयं सिक्खियं धियं जियं दासिंवा अणुजाणिज्जा, सेत्तं सचित्ता । से किं तं अमियं परिजियं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणचक्खरं चित्ता। से जहा नामए रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरेइ अब्बाइडक्खरं अक्खलियं अमिलियं अविचामेत्रियं पमि- वा तलवरेइवा कोडंबिएइ वा माडंलिएइ वा इन्लेइ वा सेट्ठी पुन पडिपुन्नघोसं कंगोहविप्पमुक्कगुरुवायोवगयं से एं| वा सेणाई वा सत्यवाहे वा कस्सइ कम्मि कारणे तटे सतत्य वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए नो अणु- माणे आसणं वा सयणं वा उत्तं वा चामरं वा पडं या प्पहाए कम्हाए अणुचउगो दवमिति कट्ठ नेगपस्स एगे मउमं वा हिरणं वा मुवएणं वा कंसं वा मणिमुत्तियसंखअणुवनुत्ते आगमोय इक्का दव्वाणुन्ना दुन्नि अणुव उत्ता सिलप्पवालरत्तरयणमाश्यं संतसारसावजं जाणिज्जा, आगमयो दुन्नि दवाणुएणामो तिमि अणुवनत्ता आगम- | सेत्तं अचित्ता दवापाणा।से कि तं मीसिया दवाणुओ तिषिण दब्याणुएगाओ, एवं जावत्या अणुवउत्ताओ एणा ? | मीसिया दवाणुएणा से जहा नामए रायाइवा तावश्याओ दवाणुएणाप्रो । एवामेव ववहारस्स वि संग- जुबरायाइ वा ईसरे वा तलवरेइ वा मामंखिए वा कोहूंहस्स एगो वा अणेगो वा उवउत्ता वा अणुवउत्ता वा द. विएइ वा इब्ने वा सेट्टीइ वा सेणावईवा सत्यवाहेइ वा व्वाणुणा वा मा एगा दव्वाणुमा नजुसुयस्स एगे अणु- कस्सइ कम्मि कारणे तुटे समाणे हत्यिं वा मुहमंझणमंवउत्ते आगमओ एगा दवाणुएणा पुहत्तं नस्थि इतिएहं मियं आसं वा घासगं वा मरमंमियं सकंमियं दासं सहनयाणं जापाए अणुवउत्ते अवत्वकम्हा जइ जाएए | वा दासिंवा सव्वालंकारक्निसियं अणुजाणे जा, सेत्तं मीअणुबउत्ते न भवइ, जइ अगुवनत्ते जाणए या भवइ, सेत्तं सिया दवाणुमा । मेलोड्या दबाऽगुण्णा । से कितं कुआगमो दवाणुन्ना । से किं तं नो मागमओ दवाणुस्मा प्पावणिया दवाणुमा । कुप्पावणियादव्वाणुम्मा तिविहा ? नो पागमश्री दब्बाला तिविहा पएणत्ता । तं जहा-जा- पएणत्ता। जे जहा-सचित्ता अचित्ता मीसिया। से कि तं णगमरीरदवाणुएणा, भवियसरीरदब्बाणुएणा, जाण- सचित्ता? । मे जहा नामए आयरियाए वा उवज्झाइए गसरीरभवियसरीरवइरित्ता दवायुमा । से किं तं जाणग- वा कस्सइ काम्म कारणे तुझे समाणे आमं घा सरीरदवाणुएणा ?। जाणगसरीरदबाणुन्ना अपएण हत्थि वा उहि वाणाणं वा खरं वा घोम वा अयं वा एल. त्ति पयत्याहिगारं जाणगस्त जं सरीरं ववगयचुयचाविय- गेवा चलयं वा दामं वा दासि वा अशुजाणिज्जा, सेत्तं चत्तदेहं जीवविप्पजदं सिज्जागयं वासंथारगयं वा निसी- सचित्ता कुप्पावणिया दवाणुस्मा । से किं तं चित्ता ? । हियागयं वा सिद्धसिलागयं वा अहोणं इमेणं सरीर- अचित्ता से जहा नामए मायरिएइ वा नबज्काएइ स समुस्सएणं अपत्ति य पयं भापवियं पन्नवियं परूवियं । कस्सइ काम्म कारणे तुढे समाणे आसणं वा सयणं वा Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) अणुमा अभिधानराजेन्द्रः। अणुमा छत्तं वा चामरं वा पट्टे वा मनडं वा हिरम वा सुवमं वा आयरिए वा जाव कम्मि कारणे तुढे समाणे कालोचिय कंसं वा दूसं वा मणिमुत्तियसंखसिलप्पबालरत्तरगणमाश्य नाणा गुणजोगिणो विणयस्स खमाइप्पहाणस्स सुसीलसंतसारसावजं अपुजाणिज्जा, सत्तं चित्ता कुप्पावणि- स्स सीसस्स तिविहेणं तिगरणविसुकेणं भावणं आयारं या दवाणाणा। से किं तं मीसिया ? | मीसिया से जहा वा सयगमं वागणं वा समवायं वा विवाहप्पमत्ती वा नामए आयरिएइ वा नवज्झाएइ वाकस्सइ कम्मि कारणे तुट्टे णायाधम्मकहाणं वा नवासगदसा न वा अंतगमदसा नवा समाणे हत्यि वा मुह डगमंडियं वा प्रासंवा घासगंवा चाम- अणु त्तरोववाश्दसा उ वा पएहा वागरणं वा विवागसुयं वा रमंमियं वा सकमियं वादासंवा दासिं वा सव्वालंकारविन- दिहिवायं वा सव्वदव्वगुणपज्जवहिं सव्वाणु श्रोगं वा सिय अणुजाणिज्जा,सेत्तं मीसिया कुप्पावणिया दवाणुष्मा। अणुजाणिज्जा, सेत्तं सोगुत्तरिया भावाला ॥ सत्तं कुप्पावणिया दवाणुमा।से किं तं झोउत्तरिया दव्या किमणुस कस्सऽणुमा, केव काझं पवित्तिाऽणुप्ता । गुण्णासोनुत्तरिया दवाणमा तिविहा परमत्ता । तं जहा- श्राइगरपुरिमताले, पवत्तिया सहसेए स्स ॥१॥ सचित्ता प्रश्चित्ता मीसिया । से किं तं सच्चित्ता । सञ्चित्ता अणुण उणमणी णमणी, नामणि उवणा पत्नावो य । से जहा नामए पायरिएइ वा उवज्काएर वा पन्चत्तएइ वा | पभवण पयर तमुनयं, मज्जाया नान मगो कप्पो य॥२॥ थेरेइ वा गणी वागणहरे वागणावच्चेयएइ वा सीसस्स संगहसंवरनिज्जर, विइकारणं चेव जीवबुड्डिपयं । वासीस्सिणीएइ वा कम्मि कारणे तुढे समाणे मीसंवा सि- पय पवरं चेव तहा, वीसमणापाइँ नामाई ॥ ३ ॥ नं॥ स्सिणीयं वा अणुजाणिज्जा, सेत्तं सच्चित्ता से किं तं अ. अणावइत्तऽणुएणा, उरणामि य जस्मियं वि उप्लमणी । चित्ता । अच्चित्ता से जहा नामए आयरिएइ वा उवज्झा- गिहिसाधूहिँ णमिज्जति, तम्हा जा होति णमण त्ति ।। एइ वा पव्वत्तएइ वा थेरेइ वा गणी वा गणहरे वा गणाव- सुतधम्मचरणधम्मो, णामयती जेण णामती तम्हा । च्छेदए वा सीसस्म वा सिस्सिणीए वा कम्मि य कारणे तुट्टे वित्रो य आरियत्ते, जम्हा ती तेण उवण ति ।। समाणे वत्थं वा पायं वा पमिग्गहं वा कंवलं वा पायपुच्च. वितो गणाधिवत्ते, होति पत्नतेण पत्नयो य । एं वा अणुजाणिज्जा, सेत्तं अच्चित्ता । से किं तं मीसि- सव्वेसि णामादी-ण होति पनवो पसूइ ति ॥ या। मीसिया से जहा नामए आयरिएइ वा नबज्काए एगट्ठा पायरिया-दीणं रूपं पत्नावित्ते । वा पवत्तएर वा थेरे वा गणावच्छेइएइ वा सिस्सस्स वा जेणविणाणो सिज्जति,तेण वियारोतु जिजति गणो से। सिस्सिणीए वा कम्मि कारणे तुट्टे समाणे सिस्सं वा सि- तदुभयहियंति जम्पति, शह परसोगे य जेण हितं ।। स्सिणीयं वा सममत्तोवगरं अणुजाणिज्जा,सेत्तं मीसिया। गणधरमेव वरेती, जम्हा जत्तेण होति मज्जादा। सेत्तं लोगोत्तरिया। सेतं जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता करणेज्जी कप्पोत्ति य, कप्पो गणकप्पकरणेणं ।। दवाणुमा सेत्तं नो आगमोदवाणुप्या । सेत्तं दवाणु- णाणादिमोक्खमग्गो,सो तम्मि ठितो त्ति तो नवति मग्गो। मा। से किं तं खेत्ताणुना। खेत्ताणुना जो णं जस्स खत्तं | जम्हा तु णायकारी, णाश्रो वा एस तो णातो। अणुजाणइ जत्तियं वा खेत्तं जम्मि वा खेत्ते, सेत्तं खेत्ता- दबे जावे सग्गह, दवे आहारवत्थमादीहिं ।। गुणा । से किं तं कामाणमा ? कामाणुएणा जो णं ज- नावे णाणादीहिं, संगेएहति संगही तेणं । स्स कालं अणुजाण जत्तिया वा काझं अपुजाण जम्मि दुविहेण संवरेणं, इंदिय-गोइंदिएसु जम्हा न॥ वा काले अणुजाणइ,तं तीतं पमुप्पन्न वा अणागतं वा व. अप्पाण गणं व नहा, संवरयति संवरो तम्हा ।। संतहेमंतपाउस वा अवत्यणहे,मेतं कालाणुमा । से कि गणवारणमागिनाए, कुणमाणे णिज्जरेति कम्माई । तंजावाणुप्मा नावापुस्मा तिविहा पप्पत्ता । तं जहा-सोग. अन्ने य णिजरावे, तम्हा तो णिज्जरा होति ।। श्या, कुप्पावणिया, मोगुत्तरिया। सेकिं तंसोगश्या भावाशु- वातेरिता णई इव, एक पमाणाण तरुणमादीणं । सा से जहानामए रायाइ वा जुवरायाश्वा जाव रुटे स हात्ति थिरा वहतो, तरुन्च थिरकरणतेणं तु ॥ माणे कस्मइ कोहाइभावं अणुजाणिज्जा, सेत्तं लोइया भावा- जम्हा तु अवोच्चित्ती, सो कुणती पाणचरणमादीणं । गुप्मा । से किं तं कुप्पावणिया नावाणुएणा । कुप्पावणिया तम्हा खसु अच्छदं, गुणपसिर्फ हवति णामं तु ।। से जहा नामए केइ पायरिए वा जाव कस्म वि कोहाइभावं तित्थकरहि कयमिणं, गणधारीणं तु तेहिँ सीसाणं । अणुजाणिज्जा, सेत्तं कुप्पावणिया। से किं तं लोगुत्तरिया तत्तो परंपरेणं, आयमिणं तेण जीयं तु॥ भावाणुमा ? लोगुत्तरिया जावाणुन्ना से जहा नामए वह य णाणचरण, गणं तु तम्हा न तेण वुट्टिपदं । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणमा अभिधानराजेन्द्रः। अणुराणाकप्प पवरं पहाणमेतं, सबसि रायदेवाणं ।। अधवा एणं गहणं, नस्सग्गो चेव होइ सो ताहे ॥ एस अणुमाकप्पो, जहाविही वएिणतो समासेणं । पं०भा०। गेएहंतस्स तु करणे, सुकी तह चेव बोधवा । तिविहाऽणुना पपत्ता । तं जद्दा-पायरियत्ताए, उव जह गेएहतुवसग्गे. मुछीओ बहिस्स एव वितिएणं । फायत्ताए, गणित्ताए । स्था० ३ ग०२ उ०। गेएहतस्स विसछी, सहाणं एवमक्खायं । परं प्रति सूत्रार्थदानानुमती, जी० प्रतिक। सूत्रार्थयोरन्यप्र- अहवा वि इमे एणे, एव तु हाणा वियाहिता॥ दानं प्रत्यनुगमने, व्य०१ ०० । गुरोर्निवेदिते, सम्यगिदं धारया- दबादीया श्णमो, वोच्छामी आणुपुची सो । ऽन्याँश्चाऽध्यापयेति गुरुवचनविशेष, अनु० । अन्त०। अनुशावि- दव्वे खेत्त काले, वसही भिक्खमंतरे णेयं।। धिस्तु योगोरकेपकायोत्सर्गवर्जः सर्वोऽप्युद्देशविधिवद्वक्तव्यः, सेज्झाई गुरुजोगी, एते ठाणा णिवोहित्ता। नवरं, प्रवेदिते गुरुर्वदति-सम्यग् धारयान्येषां च प्रवेदय, अन्यानपि पाठयेत्यर्थः। आवश्यकादिषु तरामुलविचारणादिप्रकी- दन्वाणाहारादी-णि जाति मुलना' तम्मि खेत्तम्मि । केष्वपि चैष एव विधिः, नवरं, स्वाध्यायप्रस्थापनं योगोत्केप- खेत्तं वित्थिएहं खलु, बत्तंत मुणंत गगणस्स | कायोत्सर्गश्च न क्रियते । एवं सामायिकाद्यध्ययनेषद्देशकेषु च वत्तणपरियटुंती, मुऐति अत्थं गणो तु बालादी ।। चैत्यवन्दनप्रदक्किणात्रयादिविशेषक्रियारहितसप्तवन्दनकप्रदानादिकः स एव विधिरिति तावदियं चूर्णिकारनिखितासामा- तस्स पहुचति खेत्त, आहारादीहिँ संथरणं । चारी । सांप्रतं पुनरन्यथाऽपि ताः समुपलज्यन्ते, न च तथो-| तत्तियकाले चेलो, वसही जाग्गा तु तिक्खुमु लति । पलभ्य संमोहः कर्तव्यः, विचित्रत्वात्सामाचारीणामिति । अ न विगिट्ठमंतांती, सज्काउ सुज्झ जहिं च मुलभं च । नु । अन्त । प्रा० म० कि०। (व्यतिकृष्टदेशकालादौ उद्देशनिषेधः द्वि०भा० ११ पृष्ठे 'उद्देस' शब्दे पञ्चानां ज्ञानानां आयरिण जागं, विएणेयं चेव णियमणं । मध्ये श्रुतस्यैवाऽनुज्ञा प्रवर्तत इति 'अणोग' शब्दे ऽत्रैव भागे एते ते णव गणा, जहिँ नसग्गेण गहण तु ।। ३५३ पृष्ठे समुक्तम् ) धनिष्ठाशतभिषकस्वातीश्रवणपुनर्वसुषु उस्सग्गण विहारो, संथरमाणेण वसु खेत्तम् । अनुज्ञा कार्या । द० ५०। ते स वृधदुवहीणं, विपेल्लिया वि दगघट्टे य । एणुप्पा-अनुझात-त्रि०। जिनानुमते, स्था० ३ ग.४| णवि दूरं गच्छंती, एवमस्स असंनवे वितियगणं । उ० । दत्ताई, उत्त०२३ अ० । प्रा० क०। दगघट्टे बहुए वी, पेढ्ने दृरं पि गच्छेज्जा ॥ अपुराणकप्प-अनुशाकम्प-पुं० । कस्मिन् काले वनाधनु दुलहम्मि वत्यपादे, ऊण वि एमु वि एवम् गच्छेज्जा । ज्ञातमित्येवंविधा, पं० भा०।। एमेव विहारो वि हु, खेत्ताण सती मुणेयचो । ..........' 'अहुणा वोच्चं अणुसकप्पं तु । मालवणे विसुके, गुणं तिगुणं चनग्गुणं वा वि । कएही काले गहणं, वत्थाईणं अपुष्पातं ॥ खेनं कालातीयं, समणुाणातं पकप्पम्मि । वत्थप्पायग्गहणे, वासावासामुणिग्गमो सरदे। एस अणुएणाकप्पो ॥ पं० जा॥ तिण पणग सत्त तदुगा, उयम्मि कप्पोदगं जाणो ॥ श्याणि अणुराणाकप्पो-(गाहा)(वत्ये पाए)अणुण्णायम्मि काले बत्थादीणं गहणं, पुराणातं होति वासामु । वत्थपायाणि घेसब्वाणि वासरत्ते गयं तेसु घेत्तवाणि, पच्गवासादीऍ परेणं, दुमास एणेसु गिएहति ॥ ग्याणं नाणुनायाणि निम्गयाणं पुण सरए अत्तेसु खेत्तसु, जत्थ तसि पुण ताणं, सरदे जदि दोहगा उयाणतो । गीयत्वसंविग्गेसु वासो न को तत्थ गोहंति, जत्थ वा गीय त्यहिं संविग्गेहिं की तेहिं गएहि वीरे पच्चा गएहंति, तेसि दगसंघट्टजहाले, ण तिण्हि यं चेव मज्झिमगा। पुण निगच्चत्ताणं जर अद्धं जोयणस्स अंतो तिएिह पंच सत्त सत्ते चन नकोसा, गिम्हम्मि तिएिण पंच हेमंते ।। दगसंघट्टा, दगसंघट्टो नाम जाणहेट्टा तहवि अषणाय परेण घासासु य सत्तल, परेण खत्तं णऽणुएणातं । नानाय जति अप्पोदगा मम्मतिरियाएनणिय जाव सत्तसंघ. अप्पोदग त्ति मग्गा, जं तीरीयासु वएिणतं पुमि ।। हा,एवं अद्धे जोयणे (गाहा)(वत्थे पाए) एवं वत्थपायग्गहणे वा तणसंथारए य पढमगणं तु जसग्गेण गहणं नवसु गणेसु तं अघद्धजोयणे, दगघट्टा जाव सत्ते वा। पढमढाणांत उस्सग्गेण वुतं हारे नवगणवश्कमे पुण सट्ठाणवत्यापायग्गहणे, ण व संथरणम्मि पढमाणम्मि ।। विसीह। भव उहिमा। किंच । तं सहाणं आवाए गए एत्तोऽवतिकमम्मि तु, सट्ठाणा सेवणा सुकी । उस्सग्गो ताहे अववायो ग़हणं । काणि पुण ताणि नव गणापढमं ताऽगुस्सग्गो, तेणं तू णवम होति खत्तेसु ॥ णि?-तत्थ (गाहा)(दव्वे खेत्ते) दवाणि जहाहारोवकरणा णि सम्भंतितम्मि खत्त जग्गमाइ मुखाणि (खेत्तत्ति) खेत्तं विच्छि. पत्यादीणं गहणं, तत्येव य होति न विहारो। सं महाजणपाचग्गं अन्नं च तारिसं नस्थि खेत्तं (काले त्ति)त. एवगणातिकमे पुण, हवई सट्ठाणतो विसुद्धोतु ॥ याए पोरिसीए भिक्खवेला (वसिहिति) वसहिया जग्गा हेमंतकिं पुण तं सट्ठाणं, अपवादो असति ते होति । गिम्हवासपातम्मा नस्थि नपुंसगाए दोसरहिया भिक्खा सुख 4 . Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२) अगुमाकप्प अनिधानराजेन्द्रः। अणुत्तरपरक्कम भा, गुरुमाश्या उग्गा भिक्खा गामंतराणि अविकिहाणि अम केवलिनो दशानुत्तराणिस्थ असाझाश्य गुरुण सुबग्नं पाचग्गं जोगीण व अगाढेतराणं केवलिस्स णं दस अणुत्तरा पसत्ता। तं जहा-अणुसरे सुखनं पाचग्गं, पयाणि णव सुणेति, अत्थं सुणति, साहवो म. भिणवं गुणेति वा सादेति वा कृज्जुयारिति वा सुत्तं गेराहति नाणे, अत्तरे दंसणे, अणुत्तरे चरित्ते, अणुत्तरे तवे, परियट्टेति उज्जुयारेति वा सबासबुट्टाउलस्स वा गच्चस्स न- अणुत्तरे वीरिए, अणुत्तरा खंती, अणुत्तरा मुत्ती, अणुस्थि तारिस भएणं खेतं कारगं बहुव्वतिसंथरंताण चेव विसो. त्तरे प्रज्जवे, अणुत्तरे मद्दवे, अणुत्तरे लाघवे ॥ हिहाणं पलंति वा न दूरं गच्छति मासकप्पं करता चेव यदि नप्पाययति अह पुण दव्वं वत्थं पायं पुखनं खेतं वा न पहुचा, तत्र मानावरणक्षया शानमनुत्तरम, एवं दर्शनावरणक्षयाद्दताहे बहुए वि दगसंघट्ट पेवर, दूरं पि गच्च, अरुजायणपरण र्शनम,मोहनीयक्षयाद्वा दर्शनं, चारित्रमोहनीयक्षयाचारित्रं,चावि(गाहा)(प्रासंवणे)ते च आलंवणे विसुके सव्वं पि अणुशणायं रित्रमोहक्षयादनन्तवीर्यम, अनन्तवीर्यत्वाश्च तपः शुक्लध्यानापुगणं खेत्तकालं दुगुणतिगुणचउगुणबहुगुणे वा खेत्तकालाइ दिरूपं, वीर्यान्तरायक्षयाद्वीर्यम, इह च तपातान्तिमुक्त्यार्जवकमाणुमाया पकप्पम्मि । एस अणुमाकप्पो। पं० चू० । मादवलाघवानि चारित्रभेदा एवेति चारित्रमोहनीयक्षयादेव भवन्ति । सामान्यविशेषयोश्च कथंचिद्भेदाद्भेदेनोपात्तानीति । अणुएहसंवट्टियककसंग-अनुषणसंवर्तितकर्कशाङ्ग-त्रि०ाभि स्वा० १० ठा। वृद्धिरहिते च । आचा०१ श्रु०११०१३०। क्षापरिभ्रमणाभावादुष्णलगनाभावेन संवर्तितानि वर्तुलीभू नास्त्यस्योत्तरं सिद्धान्त इत्यनुत्तरम् । यथाऽवस्थितसमस्तनानि अत एवाऽकर्कशानि अङ्गानि पाणिपादपृष्ठोदरप्रभृती. वस्तुप्रतिपादकत्वादुत्तमे, आव० ४०। सूत्र० । सर्वोत्कृष्टे नियेषां ते अनुष्णसंवर्तितकर्कशालाभिक्षाणामभावादुष्णसं. श्रीजिनधर्मे, सूब०१ ०५१०१ उ०। बन्धाभावेन शीतीभूतानेषु, “अणुएहसंवट्टियकक्कसंगा, गिगहंति जं अनि न तं सहामो" वृ० ३ उ०। अणुत्तरगइ-अनुत्तरगति-निः । सिद्धिगतिप्राप्ते, “ एस क रेमि पणाम, तित्थयराणं अणुत्तरगईणं" । द० ५०४ प० । अणुतमलेद-अनुतटजेद-पुं० । वंशस्येव द्रव्यभेदे, स्था० १० ठा। अणुत्तरग्गा-अनुत्तराण्या-स्त्री० । अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमअणुतडियालेय-अनुतटिकाभेद-पुं०। इक्षुत्वगादिषद् द्रव्य त्वादत्र्याच लोकाप्रव्यवस्थितत्वादनुत्तराध्या। ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्याम, सूत्र०१६०६०। भेदे, प्रशा० ११ पद । (तद्भेदाः 'सहदब्वभेय' शब्दे वक्ष्यन्ते) प्रशुत्तरण-अनुत्तरण- नन विद्यते उत्तरणं पारगमनं यअणुतप्पि ( ए )-अनुतापिन्-त्रि० । अकल्पं किमपि प्रति. स्मिन् सति इत्यनुसरणः। पारगमनप्रतिबन्धक, उत्त०१०। सव्य अनु पश्चाद् हा! दुष्ठु कारितमित्यादिरूपेण तपति सतापमनुभवति, इत्येवंशीलोऽनुतापी । प्रकल्पप्रतिसेवनान अगुत्तरणवास-अनुत्तरवास (पाश )-पुं० । न विद्यते उत्तन्तरं पश्चात्तापविशिष्टे, व्य०१ उ०। रणं पारगमनमस्मिन् सतीत्ययुत्तरणः। स चाऽसौ वासश्चा वस्थानमनुत्तरणवासः । अनुत्तरणवासहेतुत्वाद् आयुर्घतअणुताव-अनुताप-पुं० । पश्चात्तापे, आव०४० सा०। मित्यादिवदनुत्तरणवासः। यद्वा-प्रात्मनः पारतन्त्र्यहेतुतया अणुतावि ( ण् )-अनुतापिन-पुं० । पुरः कर्मादिदोषदुष्टाहा. पाशयतीति पाशः, ततोऽनुत्तरणश्चासौ पाशश्वाऽनुत्तरणपाशः। रग्रहणात् पश्चादू 'हा! दुष्टु कृतं मया' इत्यादिमानसिकता उभयत्र च सापेक्षत्वेपि गमकत्वात्समासः। संसारावस्थिती, पधारणशीले, वृ० ३ उ०। पारवश्य वा । एतच्च सम्बन्धनसंयोगस्यार्थतः फलम् । अणुताविया-अनुतापिका-स्त्री० । अनुतापयतीति अनुता उत्त०१ अ पिका । परस्यानुतापकारिकायां भाषायाम, "अणुतावियं | अणुत्तरणाणदंसणधर-अनुत्तरझानदर्शनधर-त्रि० । कथञ्चिद् खलु ते भासं भासंति" सूत्र० २ श्रु०७ अ०। भिन्नशानदर्शनाधारे, “ एवं से उदाहु अणुत्तरदंसी अणुत्तर. अणुतप्पया-अनुप्रियता-स्त्री० पूषल जायाम् 'उत्पायल्येन | नाणदसणधरे" सूत्र. १ श्रु० २ १०३ उ०।। अप्यते लज्ज्यते येन तत् उत्तप्यं, न उत्त्रप्यमनुत्त्रप्यमलज्जनीयं अणुत्तरणाणि ( ण् )-अनुत्तरज्ञानिन्-त्रि० । नास्योत्तरं प्रयथा च शरीरशरीरमतारभेदमधिकृत्य। अहीनसर्वाङ्ग शरीर. धानमस्तीत्यनुत्तरम, तच्च तज्ज्ञानं च अनुत्तरमानम, तदसंपर्कोदे, “वपुलज्जाए धाऊ, अलज्जणीश्रो अहीणस- | स्यास्तीत्यनुत्तरक्षानी। केवलिनि, सूत्र०१ श्रु०२ १०३ उ० । व्वंगो।होई अणुतप्पे सो, अविगलइंदियपडिप्पुमो"त्ति । व्य० अणुत्तरधम्म-अनुत्तरधर्म-पुं० । नास्योत्तरः प्रधानो धर्मो २उ०। उत्त०।०। विद्यते इति अनुत्तरः । सूत्र०१ श्रु० ६ ०। श्रुतचारित्राख्ये प्रात्त-अनुक्त-त्रि० । अकथिते, ध०३ अधि० । अभाषिते, धर्म, सूत्र.१ ० २ ०२ उ०। पं० सं०५द्वा०। अणुत्तरपरकम-अनुत्तरपराक्रम-पुं० । परे शत्रवः। ते च द्विअगुत्तर-अनुत्तर-त्रि० । उत्तरः प्रधानो नास्योत्तरो विद्यते धा-व्यतो मत्सरिणः, भावतः क्रोधादयः । इह भावशभिः इत्यनुत्तरः । स्था० १० ठा० । सूत्र० । अविद्यमानप्रधानतरे, प्रयोजनं, तेषामेवोच्छेदतो मुक्तिभावात् । आक्रमणमाक्रमः,पभ० श. ३३ उ० । अनन्यसदृशे, श्रा० मद्वि० । आचा। राजय उच्छेद इति यावत् । परेषामाक्रमः पराक्रमः । सोऽनुध० अनुपप्रधाने, विशे० सर्वोत्कृष्टे, अष्ट०१४ अष्टा प्रश्न सरोऽनन्यसदृशो यस्येति, "जिने तित्थयरे भगवंते अणुजरकल्प० । आ० म०प्र० । दशा । उत्त०। औ० । परक्कमे अमियणाणी"। अत्र श्राह-ये खल्वैश्वर्यादिभगवन्तःते Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०३) मणुत्तरपरक्कम अनिधानराजेन्दः । अणुत्तरोववाइयदसा अनुत्तरपराक्रमा एव, तमन्तरेण विवक्षितभगासंभवात् ,ततोऽ- स्थितस्यैकम, अपरं तिर्यकस्थितस्य, अन्यद्गुणोन्नतिरूपम् । स्था० नुत्तरपराक्रमानित्येतदतिरिच्यते । नैव दोषः-अस्य अनादि- १ ग० । विजयादिविमानेष्पपत्तिमत्सु साधुषु, स्था० प्वा० । सिद्धेश्वर्यादिसमन्वितपरमपुरुषप्रतिपादनपरनयवादनिषधपरत्वात् । तथाहि-कैश्चिदनुत्तरपराक्रमत्वमन्तरेणैव हिरण्यग अत्तरोववाश्या णं नं ! देवा केवइएणं कम्मावमेसणं भीदीनामनादिविवक्षितभगयोगोऽभ्युपगम्यते । उक्नं च-"शा. अणुत्तरोववाइयदेवताए उबवला ? । गोयमा ! जावइयं नमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, | बट्टनत्तिए समणे णिगंथे कम्मं णिज्जरेश, एवइएणं सह सिद्धं चतुष्टयम्" ॥ १ ॥ इत्यादि । अ०म० प्र० । कम्मावसेसेणं अणुत्तरोवाइयदेवताए उववामा ॥ अणुत्तरपुस्मसंचार-अणुत्तरपुण्यसंचार-पुं० । अनुत्तरः सर्वो- (जावइयं उडभत्तिए इत्यादि) किल षष्ठभक्तिकः सुसाधुत्तमहेतुत्वात् तत्काात्पुण्यसभारः तीर्थकरनामकर्मलक्कणो र्यावत्कर्म कपयति, पतावता कर्मावशेषेणानिर्जीणेनाऽनुत्तरोपयेषां ते तथा । तीर्थकृत्सु , पं० सू०४ सूत्र । पातिका देवा उत्पन्ना इति । भ० १४ २०७१०। अणुत्तरविमाण-अनुत्तरविमान-न० नेपामन्यान्युत्तराणि विमा अणुत्तरोववाइयदसा-अनुत्तरोपपातिकदशा-स्त्री० । ब० व० । नानि सन्तीत्यनुत्तरविमानानि । चतुर्दशदेवलोकवास्तव्यानुत्त- अनुत्तरोपपातिकवक्तव्यताप्रतिबका दशा दशाऽध्ययनोपसक्किरोपपातिकदेवविमानेषु,अनु०(अत्र वक्तव्यं विमान'शब्दे यक्ष्यते) तादशाध्ययन प्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशा प्रन्यविशेषोऽनुत्तरोप"कह ण नंते ! अणुत्तरविमाणा पत्ता? । गोयमा ! पंच अणु- पातिकदशा । स्था० १०० अनु०। नवमेऽने, नं० पास01 तरविमाणा पमत्ता । तेण नंते! किं सखेज्जवित्थमा असंखज से किं तं अणुत्तरोववाश्यदसाओ अत्तरोवाइयदवित्थमा य? | गोयमा! संखज्जविस्थमा य असंखेज्जवित्थमा | य"भ०१३ श०२ उ०। "करणं भंते! अणुत्तरविमाणा पम्म सासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराई उज्जाणाई चश्याई सा? गोयमा! पंच अणुत्तरविमाणा पामत्ता । तं जहा-विजए, वणखंडाई रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिवेजयंते,जयंते,अपराजिए, सबसिके य" । भ०६श०६ उ० । या धम्मकहाओ इहलोगपरलोइया इविविससा भोगपरिच्चाअणुत्तरोववाश्य-अनुत्तरोपपातिक-पुं० । अनुत्तरेषु सर्वोत्त- या पव्वजाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागो पमेषु विमानविशेषेषु उपपातो जन्मानुत्तरोपपातः ; स विद्यते मिमाओ सोहणाओ जत्तपाणपञ्चक्खाणाई पाओवगमयेषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः । अ०। उत्तरः प्रधानः । नास्योत्तरो णाई अणुत्तरोववाओ सुकुलपच्चाओ पुण वोहिलाहो अं. विद्यते इत्यनुत्तरः । नपपतनमुपपातो जन्मत्यर्थः, अनुत्तरश्वासा तकिरियाओ आपविजंति अणुत्तरोंववाइयदसामु णं तिखुपपातश्चेत्यनुत्तरोपपातः ; सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः। सर्वाधिसिकादिविमानपञ्चकोपपातिषु, । स्था०१०म० । विज स्थकरसमोसरणाईपरममंगलजगहियाइंजिणातिसेसा य बयाद्यनुत्तरविमानवासिनि, स०.१ समः। दुविसेसा जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणं थिअनुत्तरोपपातिकानामनुत्तरोपपातिकत्वम् रजसाणं परिसहसेमरिउवापमद्दणाणं तवदित्तचरितणाअस्थि णं ते! अणुत्तरोववाइया देवा । हता! अस्थि । ण सम्पत्तसारविविहप्पगारपसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमसे केणढे णं नंते ! एवं बुच्च अणुत्तरोववाइया देवा?। हरिसीणं अणगारगुणाण वमो उत्तमवरतवविसिष्णाण गोयमा! अणुत्तरोववाश्याणं अणुतरा सदा अणुत्तरा| जोगजुत्ताणं जह य जगहियं भगवओ जारिसा इमिविसे-- रूवा जाव अपात्तरा फासा, से तेगडे णं गोयमा ! एवं सा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउन्जायो य जिणसमीचं बुच्चइ जाव अणु त्तरोववाइया देवा ।। जह य नवासंति जिणवरं,जह य परिकहति धम्म, लोगगु(अस्थि णमित्यादि ) ( अणुत्तरोववाश्यत्ति ) अनुत्तरः रू अमरनरमुरगणाणं सोऊण य तस्सनासियं अवसेसकम्मसर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगादुपपातो जन्मानुत्तरोपपातः, सोऽस्ति येषां ते अनुत्तरोपपातिकाः ।भ०१४ श०७ उ॥ विसयविरत्ता नरा जहा अनुवंति, धम्ममुदाल संजमं तवं वा भेदा अनुत्तरोपपातिकस्य विवहविहप्पगारं जह वहणि वासाणि अणुचरिता आराहिसे कि त अत्तरोववाश्या । अगुत्तरोववाझ्या पच यनाणदसणचारतजोगा जिणवयणमाणुगयमाहियसुभासिय. विहा पप्मत्ता । तं जहा-विजया, वैजयंता, जयंता, अप त्ता जिणवराण हिययेण मणुणेत्ता जे य जहि जत्तियाराजिया, सबढसिका। ते समामो दुविहा पाता। णि जत्ताणि अश्त्ता सण य समाहिमुत्तमज्काजोतं जहा-पज्जत्तगा य अपजत्तगा य । प्रज्ञा० १ पद । गजुत्ता नववन्ना मुणिवरोत्तमा, जह अणुत्तरएसु पावंति (अन्तक्रियादयोऽस्य स्वस्थान एव दृश्याः) जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं तो य चुआ कमेण का. उच्चत्वम् हिंति संजया जहा य अंतकिरियं एए अन्ने य एवमाश्त्था अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं एगा रयणी उहं नच्चत्ते- | वित्थरेण ॥ एं पन्नत्ता । अनुसरोपपातिकदशाम तीर्यकरसमवसरणानि । किनृतानि? (एगा रयणि त्ति) हस्तं यावत् ,कोश कौटिल्येन नदी इतिव- । परममाङ्गल्यजगहितानि , जिनातिशेषाश्च बहुविशेषाश्च"देहं दिह द्वितिया। (नहुँ नच्चत्तेणं त्ति) बस्तुनो ह्यनेकधोचवमूर्य-1 विमलसुयं" इत्यादयश्चतुखिशदधिकतरा वा, तथा जिनशि Jain Education Interational Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुत्तरोववाइयदसा श्रभिधानराजेन्द्रः। अणुदहमाण ध्याणां चैव गणधरादीनाम। किंभूतानामत आह-श्रमणगणप्रव. या धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इहिविसेसा भोगपरगन्धहस्तिनां, श्रमणोत्तमानामित्यर्थः। तथा स्थिरयशसां, तथा रिचाया पन्धज्जाओ परियागा सुयपमिग्गहा तबोवहाणाई परीषहसैन्यमेव परीषहवृन्दमेव, रिपुवलं परचक्रं, तत्पमर्दनानां पमिमाओ उपसग्गसंलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगतथा दववदावाग्निरिव,दीप्तान्युज्ज्वशानि, पागन्तरेण तपोदीनानि' यानि चारित्रज्ञानसम्यक्त्वानि, तैः साराः सफलाः, विविध- मणाई अणुत्तरोववाइ त्ति उवक्त्तीसुकुझपञ्चायाइओ पुण बोप्रकारविस्तारा अनेकविधप्रपश्चाः। प्रशस्ताश्च ये क्षमादयो गु-| हिलाभा अंतकिरियाअोय आघविज्जति अणुत्तरोववाश्यदणातैः संयुतानाम् । कचिद् 'गुणध्वजानामिति' पाम तथा अ. साणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुप्रोगदारा संखिज्जावेका नगाराश्च ते महर्षयश्चत्यनगारमहर्षयः, तेषामनगारगुणानां वर्णकः श्लाघा, पाख्यायत इति योगः।पुनः किंभूतानां जिनशि. संखिज्जा मिलोगा संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ संखिज्जाओ प्याणाम् ?, उत्तमाश्च ते जात्यादिनिर्वरतपसश्च तेच से विशिष्ट- संगहणीश्रो संखिज्जाओ पमिवत्तीश्रो से णं अंगठ्याए नज्ञानयोगयुक्ताश्चेत्यतस्तेषामुत्तमयरतपोविशिष्टज्ञानयोगयुक्ता- वर्म अंगे एगे सुयखंधे तिन्नि वग्गे तिन्नि उद्देसणकाला तिन्नि नाम । किंच। अपरे यथा च जगतिं भगवत इत्यत्र जिनस्य शा समुद्देसणकाला संखिज्जाई पयसहस्साई पयगेणं संखिसनमिति गम्यते । यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा देवासुरमानुषाणां, रत्लोज्यसकयोजनमानविमानरचनं सामानिकाद्यनेकदेवदेवी ज्जा अक्खरा आएं ताऽऽगमा अणता पज्जवा परित्ता तसा कोटिसमवायनं, मणिखराकमरिमतदएकपटुप्रचलत्पताकाश अणंता थावरा सासयक मनिबद्ध निकाइया जिणपात्ता तोपशोभितमहाश्वजपुरःप्रवर्तिन, विविधाऽऽतोद्यनादगगनाभो. नावा आपविजंनि पन्नाविनंति परूविज्जति दंसिर्जति गपूरणं, चैवमादिबक्कणाः, प्रतिकल्पितगन्धसिन्धुरस्कन्धारोहणं निदंसिज्जति नवदंसिज्जंति, से एवं आया एवं नाया एवं चतुरङ्गसैन्यपरिवारणं छत्रचामरमहाध्वजादिमहाराजचिह्न विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जप, सेत्तं अणुप्रकाशन, चैवमादयश्च सम्यग्विशेषाः समवसरणगमनप्रवृताना, वैमानिकज्योतिषकाणां भवनपतिव्यन्तराणां, राजादि त्तरोववाइयदमाओ॥ मनुजानां च । अथवा अनुत्तरोपातिकसाधूनाम , किवि- | (अणुत्तरोववाइयदसासुणमित्यादि पाठसिद्धं यावभिगमनम, शेषा देवादिसम्बन्धिनस्तादशा 'श्राख्यायन्ते ' इति क्रियायो. नवरम, अध्ययनसमूहो धर्ग-। वर्गे च वर्गे च दश दशाध्ययनानि, गः । तथा पर्षदां ' संजयवमाणित्थी संजश्पुब्वेण पविसिओ वर्गश्च युगपदेवदिश्यते इति। त्रय पव उद्देशनकालाः, त्रय एव वीर' इत्यादिनोक्तस्वरूपाणां प्रार्भावाश्च प्रागमनानि , क ?- समुद्देशनकालाः, संख्येयानि च पदसहस्राणि, सहस्राष्टाधिक(जिणवरसमीर त्ति) जिनसमापे, यथा च येन प्रकारेण, पञ्च- | षट्चत्वारिंशवकप्रमाणानि वेदितव्यानि ॥ नं। विधाभिगमादिना (नपासमीवति) उपासते सेवन्ते राजा अणुदत्त-अनुदात्त-पुन उदात्तः , विरोधे नम्। 'नीचर - दयः, जिनवर तथा 'स्यायते' इति योगः । यथा च परिकथय दात्तः'पा०॥१२॥३०॥ इति लक्षितेतास्वादिषु सभागेषु स्थानेषर्जुति धर्म, लोकगुरुरिति जिनवरः , अमरनरासुरगणानां श्रुत्वा च भागे निष्पन्ने स्वरभेदे, यथा नीचैःशब्देन 'जे भिक्खू इत्थकम्म 'तस्येति' जिनवरस्य भाषितं, अवशेषाणि कीणप्रायाणि, कर्मा करे' इत्यादि । वृ०१०। णि येषां ते तथा । ते च ते विषयविरक्ताश्चेति, अवशेषकर्मविपयविरक्ताः?,नराः किम्? , यथा अभ्युपयन्ति धर्ममुदारम् । | अपदय-अनुदय-पुं० । वेलाप्राक्काले, द्वा०७ द्वा० । किस्वरूपमत आह-संजमं तपश्चापि । किम्भूतमित्याह-बहुविध- अणुदयबंधुक्किट्ठा-अनुदयबन्धोत्कृष्टा-स्त्री०। यासां विपाको. प्रकार तथा, यथा बहूनि वर्षाणि ( अणुचरिय त्ति ) अनुचर्य दयाभावे बन्धादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिः; तासु कर्मप्रकृतिश्राव्य, संयमं तपश्चेति वर्तते । तत आराधितज्ञानदर्शनचा षु, पं0 सं. ३ द्वा० । ताश्च 'नारयतिरिउरलदुगुं' इत्यादि. रित्रयोगाः। तथा (जिणवयणमणुगयमहियभासियत्ति) जिनव गाथया 'कम्म' शब्द तृ० भा० २७६ पृष्ठे दर्शिताः ) चनमाचारादि , अनुगत संबळ नादवितर्दमित्यर्थः ; महितं पूजितम, अधिकंवा भाषितं यरध्यापनादिना ते तथा । पागन्तरे प्राणुदयवई-अनुदयवती-स्त्री० । " चरिमसमयम्मि दलिय, जिनवचनमनुगत्याऽऽनुकूल्येन सुष्टुभाषितं यैस्ते जिनवचनानुगा जाास अन्नत्थ संकमे ताओ । अणुदयवई" यासां प्रकृतीनां तिसुभाषिताः। तथा [जिणवराण हियएण मपुराणेन ति] इति दलिकं चरमसमयेऽन्यसमये, अन्यत्राऽन्यप्रकृतिषु, स्तिबुकसंपठी द्वितीया) । तेन जिनवरान् हृदयेन मनसा अनुनीय प्राध्य क्रमेण संक्रमयेत् , संक्रमय्य चान्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभावतः ध्यायेति यावत् । ये च यत्र यावन्ति च भकानि वेदयित्वा ल स्वोदयेन तावत्युदय योऽनुदयवती संझा । इत्युक्तलक्षणासु रवा च समाधिमुत्तमध्यानयोगयुक्ता उपपन्ना मुनिवरोत्तमाः कर्मप्रकृतिषु, पं० सं० ३ द्वा० । यथा अनुत्तरेषु, तथा 'ख्यायते' इति प्रक्रमः । तथा प्राप्नुव- अणुदयसंकमुकिट्ठा-अनदयसंक्रमोत्कृष्टा-खी० । यासामनुन्ति यथाऽनुत्तरं (तस्थ त्ति) अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं, तथा | दयसंक्रमत उत्कृष्ठस्थितिलान्नः तासु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ स्यायन्ते ( तत्तो यत्ति) अनुतरविमानेभ्यश्च युताः क्रमेण करि. द्वा०। ('कम्म'शब्दे तृ०भा०३३०पृष्ठे चासां स्वरूपमावेदयिष्यते) प्यन्ति, संयता यथा वान्तः क्रियन्ते तथा ख्यायन्ते । सः॥ अणुदरंभरि-अनुदरंभरि-पुं० । अनात्मम्जरौ, द्वा० ६ द्वा० । से किं तं अशुतरोधाश्यदसायो ? । अत्तरावेवाइयद- अणुददि-देशी-कणरहिते, निरवसरे च । देना०१वर्ग । साएमणं अत्तरोववाश्याएं नगराई नजाणाई चेइया प्रादहमाण-अनुदहत-त्रि० । निसर्गानन्तरमुपतापयति, वणखमाइं समोसरणाई रायाणो अम्मापियरोधम्मायरि- | स्था० १० वा०। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०५) अणुदिन अनिधानराजेन्डः । अपायकिरिया अणुदिएण-अनुदीर्ण-ना न० त० । अनागतकाले दीरणा- मावर्तः पौनःपुन्यन्नवनमनुपरिवर्तते, दुःखावर्तावमग्नो बम्भ्रम्य. रहिते चिरेण भविष्यदुदीरणेऽभविष्य दुदीरणे वा कर्मणि, भ. ते । भाचा० १ श्रु०२० ३ उ० । १२०३० अनुपर्यटन--न0 । भूयोन्यस्तत्रैवागमने, “संमारपारखी ते अणुदिसा-अनुदिक-स्त्री० । माग्नेयादिकायां विदिशि, कल्प। संसारं अनुयट्टति" । संसारमेव चतुर्गतिकसंसरणम्पम, अनु. माचा० । “पारणपनिमय वा वि, उहुं प्राणु दिसामषि" दश. पर्यटन्ति । सूत्र०१९०१०२ उ० । ६अ। प्राचार्योपाध्यायपदवितीयस्थानवतित्वे, व्य. २००। देवे णं ते ! माहि किए जाव महेमक्खे पन्नु सवणसमदं ('उद्देश' शब्दे वि० मा०८०८ पृष्ठे तदुदेशो वक्ष्यते) अणुपरियट्टित्ताणं हव्यमात्तिए । हता। पत्नु ! देवणं अणुट्ठि-अनुद्दिष्ट-त्रि० । यावन्तिकादिनेदार्जिते, प्रश्न नंते ! महिहिए एवं धाय संमदी जाव हंना पत्तू ! एवं सबा द्वा०। जाव रुयगवरं दीवं जाव हंता पनू ! तेण परं वीऽचएन्जा अणुफरिकुंथु-अनुदरिकुन्यु-पु०-स्त्री० । अनुशारिनामके पो चेव एं अणुपरियहिज्जा ॥ कुन्थुजीवे, वृ०१ उ. । स्था० । स हि चवन्नेव विभाज्यते न स्थितः, सूक्ष्मत्वादिति । स्था०० ग० "जं रयिणं च णं समणे ( वाईवरूज्जत्ति ) एकया दिशा व्यातक्रामेत् ( नो चेवणं भगवं महावीरे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे तं रयणि चणं कुंघु अपरियट्टिजति ) नैव सर्वतः परिभ्रमेत, तथाविधप्रयोजनाअणुद्धरीनाम समुप्पन्ना, जा दिया अचलमाणा णिग्गंधाण य भावादिति सनाव्यते । न० १८ श०७ उ०। णिग्गंधीण य नो चाखुप्फास हव्वमागरकर , जा ग्यिा चल. अणुपरियट्टमाण-अनुपरिवर्तमान-त्रि०ा एकेम्झियादिषु परयंटमाणा छ उमत्थाणं निग्गथाण य निमगंधाण य चक्षुप्फास ति, जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुन्नवति । सूत्रः श्रु०७०। इब्वमागच्छ" । कल्प० । ('वीर' शब्द व्याख्यास्यते चैतत्) अरघट्टघटीन्यायेन वर्तमाने, आचा०१ श्रु. २५० ३ उ०जी०। अणुछुय-अनुरूत-त्रि० । अनुरूपेण वादनार्थमुस्किप्तोऽनुभू यमुास्कप्ताऽनु- अणुपरियट्टित्ता-अनुपरिवर्त्य-अध्यका सामस्त्येन परिभ्रम्यति तः । वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ते मृदनादौ, का० १ अभाविपा। | प्रादविण्येन परिचम्येति वाथे, जी. ३ प्रतिः । जं.। " अशुद्धअमुअंगा" अनुभृताऽनुरूपेण वादनार्थमुस्किप्ता, अ (न) परिहारि ( )-अ ( प ) नपरिहारिन-पुंग अनुभूता वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता, मृदङ्गा मर्दला यस्यांसा परिहारिणः अणु स्तोक प्रतिलेखनादिषु साहाय्यं करोतीति तथा । ज्ञा० १ ० विपा० । भ० । कल्प० । यत्र मानुरूप्येण अणुपरिहारी । यत्र यत्र भिक्षादिनिमित्तं परिहारी गच्छति यथामार्दशिकविधिरुद्भूता वादनार्थमुरिकप्ता मृदा मर्दताः तत्र तत्र अनु पश्चात् पृष्ठतो अग्नः सन् गच्चतीत्यनुपरिहारी। सान्त । जं. ३ वक०। व्य०१ उ० । पारिहारिकाणामनुचरे, विशे० । ( यथा च अनुअणुधम्म-अणुधर्म-पुं० । बृहत्साधुधर्मापेकयाऊपुरल्पो धो. पारिवारिकाणां पारिहारिकसेवा कर्तव्या तथा परिहार अाधर्मः । देशविरतौ, विशे० । प्रा. म. द्वि०। शब्दे वक्ष्यते ) निविष्टे, प्रासेवितविवक्तितचारित्रे व । स्था० अनुधर्म-पुं० । अनुगतो मोकं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः। भाहि ३०४ उ०। सालक्षणे, परीषहोपसर्गसहनबनणे वा धर्मे, “एसोडणुधम्मो अणुपविसंत--अनुप्रविशत-त्रि० । अनु पश्चादूनावे चरकादिषु मुणिणा पवेदिओ" सूत्र०१ श्रु०२०१०। भनु पश्चाद् सबा | निवृत्तेषु पश्चात्पाककरणकालतो वा पश्चाद् भिकार्य प्रवेश धर्मोऽनुधर्मः । तीर्थकरानुष्ठानादनन्तरं चर्यमाण धर्मे, "एसो | ऽणुधम्मो वह संजयाणं" सूत्र २ श्रु०६० । नि० चू। कुर्वति, नि० चू० २२० । ( स यथा पूर्वैराचीर्ण तथाऽनुचरणीयमिति 'अणाश्य' शब्द अणुपविसित्ता-अनु (णु) प्रविश्य-अन्य० । भनुकूलं स्तोक वा व जागे ३०५ पृष्ठे उक्तम्) प्रविश्येत्यर्थे, नि०चू०७ ३० । अणुधम्मचारि ( ए )-अनुधर्मचारिन्-पुं०। तीर्थकरप्रणीत- अणुपवस-अनु (ण) प्रवेश-पुं० । नुकले स्तोके वा प्रवेशे, धर्मानुष्ठायिनि, "जंसी बिरता समुट्टिया, कासवस्स अधम्म- | निचू० ७ उ० । चारिणो" काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वमानस्वामिनो वा अणपस्सि (ए)-अनुदर्शिन-पुं० । अनु द्रष्टु शीलमस्येत्यसंबन्धी यो धर्मः, तदनुचारिणस्तीर्थकरप्रणीतधर्मानुष्ठायिन नुदी । पालोचके, "एयाणपस्सी णिज्झोसइसा" पतइत्यर्थः । सूत्र.१ श्रु०२ ० २ ००। दनुदर्शी भवति, अतीतानागतसुखाभिलाषी न भवतीति अणुपंथ-अनुपथ-पुं० । मार्गाज्यणे, पृ० २ ००। यावत् । प्राचा०१९०३ १०३१०। अणुपस्सिय--अनुश्य-श्रव्य० । पासोच्येत्यर्थे, सूत्र०१ अणुपत्त-अनुमाप्त-त्रि०। पश्चात्प्राप्ते, उत्त०३ अ०। श्रु०२०२०। अणुपयाहिणीकरेमाण-अनुप्रदक्षिणीकुर्वाण-त्रि० । प्रानुकू | अणुपाण-अणुपाण-त्रि० । अण्वः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनी ल्येन प्रदकिणीकुर्वाणे, रा०। येषु ते अपप्राणाः । सूक्ष्मजन्तुयुक्ने, "जययं विहराहि जोगवं, अपरियट्टण-अनुपरिवर्तन-न० । पौनःपुन्येन चमणे,भ०१ अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा" सूत्र.१०२.१ उ० । शए उ० । पाश्र्वतो भ्रमणे, सूत्र०१ श्रु०६ अाघटीयन्त्रन्या- मापा ( वा ) यकिरिया-अनुपातक्रिया-त्रा । प्रमत्तसंययेन चमणे, आचा०१७०५०१० नं0। "दुषवाण- तानामापन्नपातं प्रत्येवंगुणसंपातिमसत्वानां विनाशात्मके मेव प्रावहूं अपरियहरसि"। स्वानां शारीरमानसाना- क्रियाभेदे, प्रा० चू०४ अला Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अणुपायण् अणुपा (वा) य - अनुपालन - न० । अनु-पत- खिच् - ल्युट् । अवतारणे, ध० २ अधि० । अणुपात - अनुपालयत्- त्रि । अनुभवति, " साया सोक्खमपालते " शातं सुखमनुपालयता ऽनुभवता । सुखासकमनसेत्यर्थः । पा० । प्रतिपालयति, आचा०१ ४०५०२३०| प्रणुपा (वा लग - अनुपालन - न० | शिष्यगणरक्षणे, तचाकुर्वतो दोषः । ध०३ श्रधि० । श्रननुपालने तु शासनप्रत्यनीकत्वादिदोषा एव । यतः पञ्चषस्तुप्रकरणे -" इत्थं पमायखलिया, पु. वग्भासेल कस्स व ण होति । जो तेरा देह सम्मं, गुरुचणं तस्स सफलं ति ॥१॥ को णाम सारहीणं, सहोज जो भहवाइणो दमए। हुडे वि जे आसे, दमेह तं श्रसि विति ||२|| जो आयरेल पढमं पुब्वा वेऊण नानुपाले । सेहे सुलविहीर, सो एक्सपच्चणीश्रोति ॥३॥ श्रवि को वि अपरमत्था, विरुमिह परभवे असेवं वा । जं पाविति श्रत्थं, सो खलु तप्प. वो सब्यो ति ॥४॥ घ० ३ अधि० । छुपा (वा) लाकप्प - अनुपालनाकल्प - पुं० । आचाय्यें कथञ्चिद् विषले गरपुर चराविधौ, पं० भा० ॥ स चैवम् "अहुणा अणुपालाकप्पं । संखेवमुडिं, वोच्छामि ग्रहं समासेणं ॥ मोहतिमिच्छाऍ गते, पट्टे खेत्तादि ग्रह व कालगते । आयरिए तम्मि गणे, पालमदीरक्खणद्वार ॥ कोषिगणी वणिज्जो, सन्नति जंति तस्ल कोदि सीसो तु । सुत्तत्थतदुभएदि, सिम्मा सो वयन्वो ॥ सती य तस्स ताहे, वायव्वा कमेण मेणं तु । पव्वज्ज कुले पाणे, खेने हिदुक्खसुतसीसो ॥ गुरु गुरुणं तं तू बा, गुरुसज्जित व्व तस्स सीसो तु । पत्रज्ज एगपक्खी, एमादी होति पायो || असतीऍ कुलबोवी, तस्स सतीएस एमक्खीश्रो । खेत्ते संपन्ने, तस्स सतीए उत्रेयन्यो । सुहदुक्खियस्स असती, तस्स सतीए सुतोव संपन्नो । एवं विया तेहि, सीसम्म तु मग्गरणा पत्थि ॥ पामिच्छ गणधरे पुष, विए तहियं तु मग्गणा इमो । सुत्तत्यमहिज्जेते, प्रणहिज्जेते इमे जागा || साहारणं तु पढमे, वितिए खेतम्पि ततिऍ सुहदुक्खे | अवहिते सीसे, सेसे एकारम विभागा ॥ पुष्बुद्दि गणस्स तु, एत्युद्दिहं पवाइयतस्स । पुत्रं पच्छुदिडे, सीसम्म तु जं तु होति सच्चित्तं ॥ संववरम्मि पढमे, तं सव्वगणस्स आहवति । पुदिगणना, पच्छुदिपवाइयंतस्स || संच्रम्मि वितिए, सीसम्पि तु जं तु सच्चित्तं । पुत्रं पच्छुद्दिडे, सौसम्म तु जं तु होति सच्चित्तं ॥ संबच्छरम्मि ततिए, एवं सव्वं पवाइयंतस्स | अणुपालक पुब्वदिहं गच्छे, पच्छुदिष्ठं पवाइयंतस्स || रम्म पढमे, सिस्सिरिणए जं तु सञ्चितं । रम्म वितिए, तं सव्वपवाइयंतस्स ॥ पुण्वं पच्छुद्दिडे, पाच्छियाए उ जं तु सचिचं । संवस्तरम्मि पढमे, तं सव्वपवाइयंतस्स || खेत्तुवसं पारिश्रो, सुहदुक्खी चैव जति तु सो ठबिओ । कुञ्जगणसंघिचो वा, तस्स वि स होति उ विवेगो || बच्चराणि तिथि न, सीसम्मि परिच्तियम्मि तद्दिवसं । एककुलञ्चगणिचे, संवच्छर संघ उम्मासो ॥ 'तत्येव य णिम्माए, प्रशिए विग्गए इमा मेरा । स्कुले तिहि तियाई, गणे दुगं वच्छरं संघे ॥ श्रमादिकारणेहिं, डुम्मेहतेण वा ए हिम्मातो । काउण कुलसम्मायं, कुलयेरे वा उबर्हेति ॥ एव हायलाइँ ताहे, कुनं तु सिक्खाबए पयते । णय किंचितेसि एहति, गणो दुगं एगसंघो तु ॥ एवं तु दुबालसा, समाहिँ जदि तत्थ कोवि लिम्मातो । तो लिति श्रपिम्मा, पुरण वि कुलादी उबट्टाणा ॥ तेरो कमेणंतु, पुणे समाओ हवांत वारस तू । पिम्मा विहरंती, इहरकुलादी पुणोवडा || तह वि य वारसमासो, सीसस्स वि गणधरो हो । ते परमनिम्माए, इमा बिही होइ तेसिं तु ॥ छत्तीसातिकंते, पंचविदु व्त्र संपदा पत्तो । पच्छा पत्तं तुवसं - पदे पत्रज्जएस एगपक्खम्मि || पव्वज्जाऍसु तेरा य, चउभंगो होति एगपक्खम्मि । पुव्वाहित वीसरिए, पढमा सति ततियजंगेणं ॥ सव्वस्स वि कायव्वं, रिणच्छ्रयओ कंकुलं व कानसमात्रममते, गारवज्जाऍ काहिति ॥ एसपान्नणकच्पो | पं० भा० । कुलं वा ॥ आयरिया णट्टावर, आयरिए नट्टे वा, मोतिगिच्या वा, प. वित्तचित्ते' वा कालगर घा, तस्स य सबालबुडाच तस्स ग छुस्स को गणधारी कायन्त्रो ?, तत्थ (गाहा) (पव्वज्जा) जो जस्स सीसो निम्माम्रो तस्स सर जो पब्वजेगपक्तिओ पित्तिय श्रो पित्तियन्तो वा तस्स सः कुब्वओो तस्स सइ नाणेगपविओ एगवायणिश्रो तस्स जो तम्मि खेत्ते वसंपन्न भा सुदु वा सुयनिमित्तं वा जो तत्थ एगल्लो पछि पसि ठवियाणं श्रहिज्जंताणं कस्स किंवा नवर, सीसे ताव विपल्लय का कहा ?, सेसेलु अणहितेसु परिचकूप उत्रिए श्रयरिएण निम्मविपद्वप कुञ्जगणसंघत्तिए वा जो सो आयरिश्रविश्रो नाऊण य वोच्छेयं सो कुलिव्व पाइन्तम्मि अत्यं ते चैव आयरिया कालगया ते वि आयरियेण तं निमित्तं चैव सीसवावरं तम्मि ममत्तं करंता एस श्रम्हं सज्यंतिश्रो सो वि पए मम सज्ऊंति एसि काउण ममतं करे, एवं सो निम्मा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०७) अणुपालणाकप्प अभिधानराजेन्डः। अणुपालणाकप्प भोपायरिया कामगया सो तं गच्छंन मुयक्ष, एत्था भवंतं वन्ने जो उज्जोग न कुणति, चरणे सो होति मंदधम्मो तु । हं, तस्य जे ताव पायरियस्स पडिण्या तेसिं तदिवसमेव गे अणिहुयनल्लावादी, सरीरकिरिश्रा य कंदप्पी । एहर, सचित्ता जे पायरियसीसा तेन सज्झायति तस्स सका णिकारणे अणदा, संजति वसही तु वच्चए जो तु । से तेण चोश्यव्वा तेसु अणहिजंते सुतं तत्थ लभा सचित्तातं सामएहं पढमवरिसे, विईप खत्तोवसंपन्नभोज सम्भा ते णिकारणमविहीए, जो देती गिएहती वा वि ॥ तं न लभंति । खेतोषसंपयाए नाश्वग्गं विहं मेत्तवए स य एयारिसे तु अज्जा-ए परिकली तु ण कप्पत्ति । लनंति । तप वरिसे जं सुहपुक्खोवसंपन्नी बनातं तेसि कारणहिं इमेहिं तु, गम्मत जाणवस्सयं ॥ साभं सुहदुक्खियस्स लानो पुव्वसंथवो पच्छा संथयो य च उत्थे वरिसे सव्वं गेपहा । एवं भणहिजंते पुण श्मे एकारस वि उवस्सए य गेन्नएहे , उवही संघपाहुणे । नागा-तस्सायरियस्स सीसा सीसियाओ पमिच्चियाओ जं सेहवणुसे, अणुनानंडणे गणे।। जीवं तेणायरियजणस्स उद्दिष्टुं अज्झायं तस्स पढमवरिसे स. अणपज्अगलियाओ, वीयारे पुत्तसंगमे। चित्तमचितं वा लभर, तं सम्वं गुरुणो कासगयस्स वि एगो संञहणवोसिरिणे, वोसट्टाणिहिए तेहिं॥ विभागो भह इमेण उदिएं पढमवरिसे, तो पवाश्यंतस्स जं स अरिहो रिहो वा वी, परिगट्टी एवमाहियो । पं०भा०। चित्ताइ वितिओ विभाओ विइए वरिसे पुग्वं उद्दिढ़, पच्चोवदिवा, सवं पवाश्यतस्स तो विनाओ, एयं परिचए श्याणि अणुपाबणाकप्पो (गाहा ) (परियट्टियब्वयं) परि यतब्वओ भाणियब्यो परियट्टतो ताव श्रायरियउवमानो सीसस्स पढमवरिसे प्रायरिएण या उद्दिष्टुं तेण वा परिचपण उद्दिटुंत सव्वं गुरुणो विनामो, विश्ए वरिस अायरिपण साहणं संजाणं आयरिय उवज्काओ पवत्तिणी परियट्टियव्ययं उहितं पढंतस्स सचित्तचित्तं सम्भइ । तं सन्वं गुरुणो वि दुविहं साहू सादुणीओ जतीणं पुण पकको दुविहो विहि परियट्टिओ अविहिपरियट्टिो य तत्थं संजहों नियमा जाओ पंचमो इमेण उहित पवाश्यतस्स ग्छो विभाओ , परियट्टियव्वाश्रो, किं कारणं बढ़वसम्गं तारिसिं तेयाणि तए वरिसे आयरिएण वा उद्दिष्टुं इमेण वा सव्वं पचाइयंतो गेपद वा पयंतो पविभागो सत्तमो, सीसणीयाए जहा पहि सुखेत्साणि य दुसंचाराणि कासवसेणं संपयं पॉच लोगोपतो जाओ, पयानो जरहाभि पुग्यपरिपाझियाओ ते दुद्वेनियारेति । यस्स तिषिह गमा एए दस गमा, पडिच्च्याए । आयरिपण तम्हा नियमा परिपालेयवाओ। साहू भश्या केरिसो पुण परिया उद्दिष्टुं श्मण वा पढमवरिसे चेव गेएहर वाययंतो, एए ए यतो ? (गाहा)(अबहुस्सुए अबहुस्सुपण)न कप अगीयस्थ कारस विभागा। एवं जगहे नणियं । पं० चू० । ण वागीयस्थो जो तरुणी मंदधम्मो वा नाणुशाओ धम्मसक्तिसंयतिपाननं वित्थम् ओ विजो कंदप्पसीलो सोविणाणुमायो अणट्टाए जा संज..............."वोच्च अणुवालणाऍ कप्पं तु ।। णं वसहिं अविहिदायगो'नाम निकारणे देश, गिएडवा, अणुपालंति सुविहिगा, गच्छ विहिणा न जेणं तु ।। परिसोन कप्पर गणधरो अज्जियाणं [गाहा][उवस्सए] अण छागमओ नाम जो श्मा कारणाई मोनूण जाई काई पुण ताई परिकही परिककं, तो य दुविहो पुणो वि एक्कको । कारणाई उपस्सए य गेत्रएहे उवस्सो संजयिणं संजपति उवसग्गखेत्तकान-बसेण अज्जाण परिवठ्ठी ।। पडिलेहेत्तु दायचो तमुवस्सय गणधरो दाउ बज्जेज्जा, निहोसो परियट्टियव्ययं खल, परियट्टी चेव होत एगटुं । गिताणाह अज्जाए प्रोसहो सज्जपत्यनोयणं वा दान बच्चेज्जा समणा समणीओ वा, दुविहं परियट्टिव्वं तु ॥ जयदिसि वा , जहा वा अगिलाणियाए गिनाणियाए संजाए ओहनिज्जुत्तिगमए ण उवस्सए वा चिलिमिणिह अंतरीए वसंत समणपरियट्ट दुविहो, आयरिश्रो वीयो नवजाओ। निहोसो कयही लस्सग्गेण संजणंगणधरोग्गम पवित्तिणीसंजतिपरियट्टो पुण, तिविहो तु पवत्तणी तझ्या ॥ ए दान पच्चेजा संघपाहुणए कुलथेराया गया मिंतो वा समणिपरियाहि दुविहा, विहिपरियट्टीय अविहिते चेव ।। पवनो रायसेणाई अमञ्चसेहिगणनायगगामाउमरओम्मा जतिणि परियट्टियव्या, नियमेण य कारणा णिमिणा ।। ए तज्जणनिमित्तं सेज्जायराश्परहवणानिमित्तं विहिणा बच्चजा ताओ बस्वसग्गा, तेणादिदुसंचराणि खेत्ताणि । सेहध्वणं वा रायपुत्तो पवश्नो मोयपडणीपहिं निच्छुगाशाह कहिओ मा एएसि महिलियो होउत्ति अमच्चाईण मम्गंताण कालबसेण य संजति, जायति बोगस्स जं तत्तं ॥ कहिए ताहे पाहावेति दबदब्वस्स ताहे अंतहाणिए जाए तम्हा सव्वपयत्ते-ण रक्खियव्वा उ तान णियमणं ॥ पत्रावति, असवेजाए गेत्रएहनियमि काऊण संजईण पमिस्सण विसरती सोतव्या, मा होज तासि तु विणासो य। यमुर्वेति, ताहे तत्थ अमएमसंघाझीए कंजियाइपमियाश्परि. संवेगगतिपरिणतो, तासिं परियो सेयं काऊण सराहाओ आसढे संति अपहारो अद्धिई करोति । अणुमातो ।। जहा संजश्पमित्रम्गति खरकम्मार आगयाणं मा बोख करेहानि, होति पुण अणरिहो खलु, परिकही तू इमो तासि । पमिसहं करेंति ; एवं नाश्क्कम उद्दिसि वा गणधरो अंगसु. अवहुस्सुए अगीय-त्ये तरुणे य मंदधम्पिए ।। यखंधज्झयणं बच्चेजा समुद्दिसिडं अणुजाणिय वा विवच्चेजा कंदप्पसीनणट्ठा, अविही दोणे य गहणे य ।। बरं खुडियागोरवेणं आयरिपण उहिति काऊण भंगणे वा बहमुयगीतजहएणो, आवासगमादि जाव आयारो । संजईण उप्पाणे गणधरो उवसामेडं वच्चेजा पवत्तिणी वा काझगया तत्थ अशुसासणनिमित्तं, असं' वा पथसिणि नवे तेयग्गी य बहुस्सुय-तिल्दसमाणा रतो तरुणे ॥ बच्चेज्जा अणुप्पज्जए वा खित्तचेत्तजक्खाइ गप पुचणानि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३00) प्रणापालगाकप्प अभिधानराजेन्द्रः । अणुप्पाश्ण मित्तं ओसद वा दाउं बच्चेजा, अगणिकाए वा उडिभो संहयंगुलीए " भानुपूव्येण क्रमेण बर्द्धमाना हीयमाना था संजण उवस्सो मा उज्झिहिश, उज्झे वा अन्न- इति गम्यते । औ० जी०। पूर्वस्या अनु, लघष इति गम्यन्ते, नवस्सयं का पञ्जा , पाउकाए वा नरिए उट्रिपसुं जय- अनुपूर्वाः । किमुक्तं भवति-पूर्वस्या उत्तरोत्तरा नवं नखेन णं उवकरण संजइभो वा मा बुझज्जा, पाउकारण बालमाए हीनाः, 'णह पहेण हीणाउ' इति सामुद्रिकशास्रवचनात । वसहि संठवे अन्नं वा दाउ वश्चेज्जा, वियारभर्मि या एण- अथवा--आनुपूर्येण परिपाट्या वर्द्धमाना हीयमाना या इति भग्गा उखा वा संग्वे अन्नं वा दानं ववेज्जा, सुतो भाया गम्यते, सुसंहता अविरला अङ्गल्यः पादामाधयया येषां ते पा अज्जाए पव्वरो, सो य अमदेसं गंतूण पुधगए कालि- तथा । अत्रानुपूत्येति विशेषणात्पादाङ्गलांग्रहणं, तासामेष याणु श्रोगे व निम्माओ आगो तं गणधरो घेत्तुं वच्चेम्जा, सं- नखं, नखेन हानत्वात् । ०२ वक्षः। सेहं वा करेनकामो तत्थेव पसं दाउं संसीढाए वा घोसिरणे| अणुपब्वसो-अनपूर्वशम-अव्य० । अनुक्रमेणेत्यर्थे, प्राचा०१ घोसाए वा अणुसहिदाउं बच्चेज्जा, एसा विही, तविव-| | शु० ६ ० १ उ०। गया अविही। पं० चू०। अणुप्पइय-अनुत्पतित-त्रि० । उडीने, “पागासेऽणुप्पामो थापा (वा) लणासुक-अनुपालनाक-नका प्रत्याख्या ललियचवलकुंडलतिरीडी" उत्त०६अ। नजेदे, श्राव। अणुप्पगंथ-अनु (णु ) प्रग्रन्थ-पुं० । अनुरूपतयौचित्येन कंतारे दुन्निक्खे, आयके वा महइ समुप्पने। विरतेन त्वपुण्योदयाद, अणुरपि वा सूक्ष्मोऽप्यल्पोऽपि प्रगतो जं पालिअंन जग्गं, तं जाणऽणुपालणासुचं ॥३॥ अन्धोधनादिर्यस्य यस्मादू वाऽसावनुप्रग्रन्थः । अपेर्वृत्त्यन्त - कान्तारे परराये, दुर्भिक्षे कालविभ्रमे, श्रातङ्के महति समुत्पन्ने तत्वादणुप्रग्रन्थो घा। परिग्रहविरते, स्था०६ ठा० ।। सति यत्पासितं न भग्नं तज्जानीह्यनुपालनागुरुमिति । "पत्थ | अणुप्पण-अनुत्पन्न-त्रि० । वर्तमानसमयेऽविद्यमाने, निक उम्गमदोसा सोलस, उपायणाए वि दोसा सोलस, एसणाए दोसा दस, एए सब्वे वायालस दोसा निच्चपमिसिद्धा; एए चू० ५ उ० । अलब्धे, ग० १ अधि० । ( ' नमोकार ' शब्दे तदुत्पन्नानुत्पन्नत्वं दर्शयिष्यते) कतारदुग्जिक्वाइसु न नंजलि" इति गाथार्थः ॥३२॥ श्राव० ६ अ०। स्था० । आ० चू० । अणुप्पदान-अनुप्रदातुम्-अध्य० । पुनःपुनातुमित्यर्थे, प्रअणुपामित्ता-अनुपाल्य-अन्य०। यथा पूर्वैः पालितं तथा ति० । उपा०। पश्चात्परिपालयेत्यर्थे, कल्प० । अणुप्पदा (या) ण-अनुप्रदान-न० । पुनःपुनर्दाने, आव० भणुपालिय-अनुपालित-त्रि० । आत्मसंयमानुकूलतया पा ६अ। आचा० । परम्परकेण प्रदाने, व्य० २ उ० । गृहलिते, स्था० 0 0 1 दशा। स्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां पा संयमोपघात के दाने, अणुपासमाण-अनुपश्यत्-त्रि० । भूयः पश्यति, " किं मे जेणेह णिव्यहे भिक्खू , अप्पपाणं तहाविहं । परो पासक किं च अप्पा, किं वा हु खलियं न विवज्जयामि ।। अणुप्पयाणमनसि, तं विजं परियाणिया ।। प्राचा वेव सम्मं अपपासमाणा, अणागयं नो पमिबंध कुज्जा " | श्रु० ए ०। देश० श्च। ('धम्म' शब्दे अस्या व्याख्या) अणुपिट-अनुपृष्ठ-न० । श्रानुपूर्ध्याम, 'अणुपिकसिकाई' समा अणुप्पनु-अनुप्रभु-पुं०। युवराजे, सेनापत्यादौ च । निक अणुपुन-अनुपूर्व-न०। क्रमे, प्राचा० १७०६०३ न० स्थान चू०२ उ०। आनुपूर्व्य-न। मूलादि परिपाट्याम, औ० । “अणुपुव्वसुजा- अप्पवाएत्ता-अनुप्रवाचयित-त्रि० । पावयितरि, ग. १ यदीहलंगुसे " अनुपूर्वेण परिपाट्या सुष्ठ जात उत्पनो यः अधिः । स्था। "प्रायरियउवज्झाए गणंसि सम्म अणुप्प. सोऽनुपूर्वसुजातः । स्वजात्युचितकासक्रम जातो हि बलरूपा- | पाएत्ता नव" तृतीयं संग्रहस्थानम् । ग०१ अधिः। दिगुणयुक्तो भवति, स चासौ दीर्घत्राश्गूलो दीर्घपुच्चश्चेति स अप्पवाएमाण-अनुभवाचयत-त्रि० । वर्णानुपूर्वीक्रमेण पठतथा, अनुपूर्वण वा स्थूल सूक्ष्मदमतरलकणेन सुजातं दीर्घसा ति, जे०३ वक्षः। गलं यस्य स तथा। "मधुगुत्रियपिंगलक्खो, अणुपुखसुजायदोडलंगसो" स्था०४ ठा०४०।" अपुचसृजायरलव अणुप्पवाय-अनुवाद-पुं० । अनुप्रवदति साधनानुकूल्येन दृमावपरिणया" आनुपूर्ध्या मूलादिपरिपाट्या सुष्ट जाताः श्रा मिद्धिप्रकर्षण प्रवदतीति । नं। नवमपूर्वे, स्था० ए ग०। विशे० । मा0 म० द्विा 'विद्याऽनुप्रवादम्' इत्यपरं नाम । नं०। नुपूर्वीगुजाताः, रुचिराः स्निग्धतया देदीप्यमानच्यविमन्तः, नया वृत्तनावपरिणताः । किमुक्तं भवति-एवं नाम मां अपुष्पवसण-अनुप्रवेशन-न । मनसि लब्धाऽऽस्पदीभवने, मुदितुच शाम्बाभिश्च प्रसृता यथा वर्तुलाः संजाता इति । उत्त० ३ श्रा भानुपूर्वीमुजाताच तेरुचिगश्च प्रानुपूर्वीसुजातरुचिराः वृत्त | अणुप्यवेसेत्ता-अनुप्रवेश्य-अन्य० । "अन्नयरंसि अचितंसि भावपरिणताः । ग0 I सारा जी० । “अपुव्यमुजायवप्प सोयगसि अणुप्पवेसेत्ता" नि० चू०१०। गम्भीरसीयालजलाश्रो" आनुपयेण कमण नीचस्तरां भावरूपेण मुष्ट अतिशयेन यो जातवप्रः केदारो जलस्थानं तत्र अणुप्पसूय-मनुप्रसूत-त्रि० । जाते, प्राचा०१ श्रु०१ १०८ १०॥ गम्भारमलम्धतलं शीतल जल यासु ताः श्रानुपूर्व्यसुजात अणुप्पाइ (ग)-अनुपातिन्-पुंग अनुपततीत्यनुपाती । घटमाने चप्रगःभीरशीतल जलाः । रा०शा जी0 "अणुपुव्वसु- युज्यमाने, नि०यू०१ उ० । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिय अङ्कयि अनुशिय-त्रिप्रियानुकूले, "अस्स पारा सि लोयस्स, अप्पिय भासति सेवमाणे" अनुप्रियं भाषते यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनु पश्चाद् भाषते अनुभाषते । सूत्र० १ ० ७ प्र० । अणुप्पेहा - अनुमेा - स्त्री० । अनुप्रेकूणमनुप्रेक्का । चिन्तनकायाम, स्थाou ar० ३ ० । अर्थचिन्तने, ध० ३ अधि० । प्रन्थार्थानुचिन्तने, ग० २ अधि० । सूत्रानुचिन्तनिकायाम्' उत० २ श्र० । दश० । अनुप्रेक्का स्वाध्यायविशेषः । स तु मनसस्तत्रैव नियोजनाद् भवति । उस० २० प्र० । प्रव० । अवधाने, प्रति । तद् विधिरसौ- " जिणवरणवयणपायमपण गुरुचपण सुविपुण्ये एगम्यमी पनि विशे चिंते सुयवियारे" ॥ १ ॥ घ० २० । " || एतस्याः फलमूअप्पेाणं भंतेजीचे किं जाय ? अप्पेहा १ आयवज्जाओ सत्त कम्मप्पयडीओ धारणयवंधणवकाओ सिसिंधणदका पकरे, दहिकालडियाच्यो इसका माओ परे तिव्वाणुभावाच्य मंदापुजाबाओ करे बहुपसग्गाओ अप्पपरसम्गाओ पकरे, आ उयं च णं कम्पं सिय बंधड़, सिय नो बंधइ, असायावेयणिज्जं च कम्मं नो भुज्जो जुज्जो उवचिणाइ, अणाइयं च णं णबद दीमक चाउरंतसंसारकंतारं विप्यामेव बीईव हे दन्त स्वामि अनुमेया सूत्रार्थचिनिया, जीवः कि जनयति । गुरुराह दे शिष्य ! अनुमेया कृत्या जीवः सप्त कर्मप्रकृती शनावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयनामगोत्रान्तरायरूपाणां सप्तानां कर्म्मणां प्रकृतयः एकशतचतुःपञ्चाशत्प्रमाणाः प्रकृतयस्ताः सतकर्मप्रकृती गाढबन्धनवकाः, निकाचितबडाः, शिथिल बन्धनबद्धाः प्रकरोति । यतो हि अनुप्रेक्का स्वाध्याय विशेषः, स तु मनसस्तत्रैव नियोजनाद्भवति स चानुप्रेका । स्वाभ्यायो हि श्रभ्यन्तरं तपः, तपस्तु निकाचितकर्मापि शिथिलीकर्तुं समर्थ नयत्येव कथंभूताः सप्तकर्मती, आयुर्वज महभावहेतुत्वेन प्रायुजयन्ती त्यायुर्वजः । पुनर्हे शिष्य ! अनुप्रेक्कया कृत्वा, जीवस्ता एव कर्मप्रतदीर्घकाल स्थितिकाः शुभाध्यवसाययोगात स्थिति नामपदारेण स्वास्थितिकाः प्रकरोति प्रयुकालभोग्यानि कर्मणि स्वल्पकालभोग्यानि करोतीत्यर्थः । पुनस्तीवानुभावाः कर्मप्रकृती मन्दानुभावाः प्रकरोति, तीघ्रः उत्कटो ऽनुभावो रसो यासां तास्वानुभावाः, ईदशीः कर्मप्रकृती मेन्दो निखनायो वा मन्दानुभाषाः प्रकरोति तादृशीः प्रणवदा ति प्रदेशमा मध्यप्रदेशामाः प्रकरोति। बहुप्रदेशाकर्म युकिप्रमाणं यासां ताः बहुप्रदेशाघ्राः एतादृशीः कर्मप्रकृतीअल्पप्रदेशामाः प्रकरोति ने अनुयायुधतुर्विधोऽपि बन्धः प्रकृतिषन्धः स्थितिषन्नुमगन्ध " परिणमतीत्यर्थः अत्र च आयुर्वमित्युरुतत्तु एकस्मिन भवे सकृदेव अन्तर्मुहूर्त्तकाले एव आयुर्जीवो बध्नाति । च पुनः श्रायुःकर्माऽपि स्पा बज्नाति स्यान्नबध्नाति संसारमध्ये कृतिभिमायुर्नबध्नाति जीवन तृतीयमादिशेषा धान बयते तेन कर्म निश्चयो नोक्तः, इत्यनेन मुक्तिं व्रजति तदा श्रायुर्न बनातीत्युक्तम् । " ( ३८५ ) अभिधानराजेन्द्रः । " 1 - पुनरनुमेया कृत्वा जीवोऽसातावेदनीय कम्मे शारीरादिदुःखदेतु च कर्म शब्दादन्यथाऽशुभप्रकृतीनों भूयो सूप उपचि नोति । अत्र भूयोज्योग्रहणेन एवं ज्ञेयम- कश्विद्यतिः प्रमादस्थानके प्रमादं भजेत् तदा बध्नात्यपि इति हार्दम् । पुनरनुपेक्षया कृत्वा जीवधातुरन्त संसारकान्तारं किप्रमेव ( बीईयर इति) व्यतिव्रजति । चत्वारश्चतुर्गतिलक्षणा अन्ता श्रवयवा यस्य तत् चतुरन्तं तदेव संसारकान्तारं संसारारएवं तत् शीघ्र मुयति की संसारस्यम्, अनादिकमादेरभावा द् श्रादिरहितम् । पुनः कीदृशं संखारकान्तारम् ?, अनवदग्रम नागच्छत् अग्रे परिमाणं यस्य तद् अनवदग्रम्, अनन्तमित्यर्थः । प्रवाहापेक्षया अनाद्यनन्तम् । पुनः कीदृशम् ?, दीर्घाध्वं दीर्घकालं, 'दीडमरूम्' इत्यत्र मकारो लाकणिकः, प्राकृतस्यात् ॥ उत्त० २० अ० । तत्रानुप्रेक्षा चिन्तनिका तया प्रकृष्टनभावोत्पन्तिनिबन्धनतया प्रायुष्यजः कर्मती:, (घणियं ति) वाढं बन्धनं श्लेषणं तेन बद्धाः, निकाचिता इत्यर्थः शिथिल बन्धनान्मुक्ताको प मादिकरणयेोग्याः प्रकरोति तपोपावादस्या तपसा विका चितकर्मकृपणेऽपि हत्या उकं हि तपसा निका पावतिदीर्घकाल स्थितिका कालस्थतिका रोति, शुभाभ्यवसायवशात्। स्थितिखरामकापहारेणेति भावः। एतचयं सर्वकर्मणामपि स्थिरत्वादयत उकम" स स्यापिडित सुभासुभाष पि हौति असुभाष माणूस तेरिच्छदेवा उयं च मोत्तूण सेसाओ" ॥१॥ तीव्रानुभावाश्चतुःस्थानिकरसत्वेन मन्दानुभावास्थिस्थानिकरवत्वाद्यापादनेन प्रकरोति । इह चाशुभप्रकृतय एव गृह्यन्ते । शुजभावस्य मासु मानावा उदिपमीण वि हिऍ तिव्वमभाण संकिलेसं ति " श्रत्र हि 'बिसोहिए सि' शु ननावेन तीब्रमित्यनुनाग बध्नातीति प्रक्रमः । क्वचिदिदमपि - श्यते 'बहुमाओ पकरेति ननु केनाभिप्रायेणायुष्कवजः सप्तेत्यभिधानमायुक एव संवतस्य संभाव कातास्विकी । नच शुभजावेन शुभप्रकृतीनां शिथिलतादिकरणं, कलेशहेतुत्वात् तस्यादनाची उपस्थाः किंनफ लमुकम् उच्यते-आयुष्कं च कर्म स्वानाति स्यान्न बच्नाति । सस्य त्रिभागादिशेषायुष्कतायामेव बन्धसंभवात् । तर्क दि “सिय तिभागतिनागे ” इत्यादि । ततस्तस्य कादाचित्कत्वेन विवचितत्वात् । तद्वतच कस्यचिद् मुक्तिप्राप्तेः तद्बन्धाननिधानमिति भावः । अपरं चाशातावेदनीयं शरीरादिदुःखहेतुं कर्म । चन्दादन्यथाशुभों ने उपस्थिति भूयो भूयग्रहणं त्वन्यतमप्रमादतः प्रमसंवतगुणस्थानपतियां तबन्धस्याऽपि संभवात् । अन्ये त्वेवं पठन्ति - "सायावेयणिज्जं च णं कम्मं जुज्जो भुज्जो उवचिणोति" इह च शुभप्रकृतिसमुच्चयार्थशब्दः शेषं स्पष्टम् अनादिकारसंभ वात् । चः समुच्चयार्थी योदयते । ( श्रणवदग्गति ) अन बनच्छद परिमाणं यस्य सदाऽवस्थितानन्तपरिमाणत्वेन सोऽयमनवदनोऽनन्त इत्यर्थः, तम् । प्रवाहापेक्षं चैतत् । अत एव ( दीहमति ) मकारो लाक्षणिकः । दीर्घाध्वं दीर्घ कालं दीर्घोबाच्या तत्परिभ्रम हेतुकर्मरूपो मार्गो वास्त तथा । चत्वारः चतुर्गतिलक्षणा अन्ता श्रवयवा यस्मिंस्तच्चतुरन्तम्, संसारकान्तारं क्षिप्रमेव ( वीईवयइत्ति ) व्यतिव्रजति, " " 9 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) अभिधानराजेन्द्रः | अप्पेदा विशेषेणातिक्रामति । किमुतं भवति मुक्तिमवाप्नोति । उत २६ अ० । अनु पश्चात् प्रेक्षणमनुप्रेक्षा । धर्मध्यानादेः पञ्चात्पर्य्यालोचने, भ० २५ श० ८ उ० । स्था० । श्राव० । उस० । ( " धमस्स से भावस्थ बसारि प्रसुप्पेहाओ " इत्यादि धर्मध्या नादिशब्देष्वेव दृश्यम् ) अर्हद्गुणानां मुहुर्मुहुरनुस्मरणे च । "अप्पेहार बहमासी नामिका ०२ अपि आचू। तत्त्वार्थानुचिन्तायाम, ल० । - पेय-अनुसितव्य त्रि० अन्यान्यानविधिना प रिभावनीये, पं० सू० १ सू० । अणुफास-भनुस्पर्श-पुं० [ अनुभावे "लोहस्सेवगुफासो म अभयरामवि " दश० ६ श्र० । अणुबंध- अनुबन्ध-पुं० | सातत्ये, स्था० ६ ठा० । अनुबन्धः संतानः प्रवाहोऽविच्छेद इत्यनर्थान्तरम् । षो० १ विव० । श्रव्यवच्छिन्नसुख परम्परया देवमनुजजन्मसु कल्याणपरम्परापे सन्ताने, पो० १३ चिच तत्परिणामाविच्छेदना प्रकर्ष यापितायाम, पञ्चा० १६ चि० अनुबंध-अनुयनुष्क-१०। प्रयोजनादिकारिसंबन्धाभित्रेयचतुष्टये, तच्च ग्रन्थादावभिधातव्यम् । श्राष० १ अ० । अत्र कश्चिदाह- नन्वधिगत शास्त्रार्थानां स्वयमेव प्रयोजनादिपरिज्ञानं भविष्यतीति निरर्थक एप शास्त्रादौ प्रयोजनाद्युपन्याइति चेद् अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुतया सफ सत्यात् । अथ प्रेतायां प्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका भवति । न च प्रयोजनादायुक्रेऽपि अतिशाखार्थानां धियोपपत्तिः वचनस्य बाह्यार्थ प्रति प्रामाण्याभावात् । न च संशयतः प्र सिरुपपना प्रेक्षायाः कथं सार्थकता अधिकृतप्रयोजनानुपन्यासस्य तदेतदपरिनोदितभाषितम । वचनस्य बाह्यार्थे प्रति प्रामाष्याभावात्, अन्यथा सकलव्यव. दाद विनितं चात्र तो धर्म सीटी कादाविति ततः परिभावनीयम् । अथ यदि वचनस्य बा सामान्यं प्रतिपादयति विशेष विशेषतो वचन प्रामापवादधिकृतप्रयोजना चुपन्यासवाक्यतः सामान्येन प्रयोज नादिकेऽधिगते कथं तु नामास्माकं सविशेषं सामायिकादिपरिविशेषपरिज्ञानाय भवति । धन्यच्च यदि वचनस्य न प्रामाण्यमभ्युपगम्यते तथापि न काचिद्विवहितार्थ कृतिः । श्र० म०प्र० । अणुबंधच्छेयणाइ अनुबन्धच्छेदनादि पुं० । अनुबन्धं बिनीत अनुबन्धच्छेदनः तदादिः निरनुबन्धनाऽऽपादनादी कर्म पाये, "वित्ताणं कम्माणं, चित्तोत्रिय हो६ सवएवाओ बि । अगुबन्धयणाई, सो उण एवं ति णायव्वो' ॥ १ ॥ पञ्चा०१८चिव ०५ अबंधभाव - अनुबन्ध जीव- पुं० । अनुभावस्य लत्तायाम्, पश्चा०५ विष० । - अनुबन्धनावविधि-पुं० प्रत्याख्यातपरि यामाविच्छेदभावस्य विधाने ०५०। प्रबंधपरछेद- अनुबन्धव्यवच्छेद- पुं० [भवान्तरारम्भका णामितरेषां च कर्मणां बन्ध्यभावकरणे, द्वा० १० डा० । प्रबंधमुकनाय अनुबन्ध शुद्धिभाव-पुं० साताकर्मकोपशमेनात्मनो निर्मलत्वसद्भावे, पञ्चा०वि० - अणुबंधावरणयण - अनुबन्धापनयन- न० | धनभावजातकर्मापञ्चा० १५ विष अणुबन्धिदेशीदिकानाम् ००१ वर्ग । - अणुबंधि (न्) - अनुबन्धिन्- त्रि० । अनुबन्ध - णिनि । हेती, ध० २ अधि० । प्रस्फोटकादीनां सातत्यविशिष्टे अननुबन्धिदोषरहिते प्रतिलेखने, स्था० ६ ग० । - अनु०ते जी०३ प्रति । प्रा० म० गृहीतेनिप्पू० १० निरन्तरमुपचिते जी० ३ प्रति । सतते, प्रश्न० १ सम्ब० द्वा० स्था० । अध्न्यव ने, प्रश्न० १ प्रा० द्वा० । प्रतिबडे, झा० २ श्र० 1 व्याप्ते, शा० २ ० । पूर्वोपार्जितद्वेषबन्धनवडे, उत्त० ४ श्र० । अयुबद्धकुहा - अनुत्रट तुघ्--₹ -स्त्री० । सततबुद्धुकायाम, " अणुदारववेषणा दुपट्टघटियविवगणमुदविच्वविया" प्रश्न० ३ श्रश्र० ३० । युवक निरंतर अनुकनिरन्तर निरन्तरे "अब निरन्तरवेयनासु" अनुबनिरन्तराः पतन्ति वेदना येषु ते तथा । प्रश्न० १ आश्र० द्वा० | अणुबरू तिब्ववेर - अनुवती क्रौर - त्रि० । अव्यवच्छिनाकबैरभावे, "अगुबद्ध तिब्ववेरा, परोप्परं वेयणं उदीरौते प्रश्न० १ आश्र० ३ro | धर्मध्यानमाज्ञाविनयादिलक्षणं येषां तेऽनुरूधर्मध्यानाः । सततप्रवृत्तधर्मध्याने, प्रश्न० १ सम्ब० द्वा० । 1 ह्यार्थ प्रति प्रामाख्येतहोत एवं सम्यगभिधेयादिपरिक्षामा धम्माण अनुवधर्मध्यान० धनुष स पाभिरर्थिका शाधे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः फलाभावात् । प्रवृती हि फलमभिधेयादिपरिज्ञानं तच्चाधिकृतप्रयो जनाद्युपन्यासत एव सिकमिति । तदेतद्वालिश विजृम्भितम् । न हि प्रयोजनापवासेन प्रयोजनादीनामधिगतिर्भय ति सामान्येन नाशेषविशेषपरिज्ञानपुर सरायोज नानुपन्यासस्य सामान्येन प्रवृत्तत्वात् । सामान्यनिष्टं हि वचः बरोसप्पसर-अनुपसर । समय रोपस्य प्रसरो विस्तारो यस्य सोऽनुकरो सरः । निरन्तर कुळे, ग० २ अधि० । अवकविग्गह अनुषविग्रहः सदा कहीले ० - 3 व० ३ द्वा० । " निष्यं विगहझीलो काऊ व नागुतप्पर पच्छा । न यखामि पसीय सपक्लपरपक्वओो वा वि ॥ नित्यं सततं विग्रहशीलः कलहकरणस्वनावः कृत्वा च कलहं नानुतप्यते पश्चात् । यथाह किं कृतं मया पापेनेति । तथा क्षमितोऽपि, क्षम्यतां ममायमपराध इति भणितोऽपि स्वपक्कपरपक्कयोरपि न च नैव, प्रसीदति प्रसन्नतां नजति, तीव्रकषायोदयत्वात् । अत्र च स्वपक्के साधुसाध्वीवर्गः, परपक्के गृहस्थवर्गः । एषोऽनुबद्धविग्रह चच्यते । वृ० १ स० । अणुवेलंधर- अनुवेलन्धर पुं० । महतां वेवन्धराणामादेशप्रती Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कानुन्धरा अनुसन्धराः स्वनामध्यातेषु नागराजेषु, जी० ३ प्रति० । (३०१) अभिधान राजेन्द्रः | सहने तायापायचा कहि णं जंते ! वेलंधरणागरायाणो पत्ता ? । गोयमा चतारे अणुवेलंरणागरायाणो पच्छता । तं जड़ाककोडर, कदम, कलासे, अरुणप्पने । एतेसिंह भंते! चढं अरणागराई कति आवासपब्वया पएणता ?। गोयमा ! चत्तारि श्रावासपव्वया पण्णत्ता । तं जहा फोड, कदम, कडलासे, रुप्प कहि भेने कफोमगस्त अलंचरराइस्स ककोडए णामं आवासप बनेपा । गोषमा ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पन्चयस्स उत्तर पुरच्त्रिमेणं लवणसमुदं वायालीसं जोयणसयाई उगाहिचा एस्य णं कोटयस्स गरायस्स ककोदर णाम आवासे पत्ते, सत्तरसएकवीसाई जोयणसयाई, तं चेत्र पमा गोयूनस्स, वरिं सम्बरणाम अच्छे नाव निरवसेसं जाव सीहासणं सपरिवारं अहो स बहूई उप्पलाई कको बगपभाई से तं देव णवरिं कको मगपव्यस उत्तरपुर छिमेणं, एवं चैव सव्वं कदमगस्स वि सो चैत्र ग म अपरिमेसियो, वरिं दाहिणपुरच्त्रिमेणं आवासो विज्जू जिज्भावी राहाणी, दाहिणपुर चिकमेणं कनि जा सेन एवं चैव वरं दाणि कलामा वि रायहाणी, ताए चैत्र दिसाए अरुणप्प वि उत्तरपुरच्छिरायद्दाली विताए चैत्र दिसाए चत्तारि वि एगपमा , , " या सव्वरयणमया य ।। कहि मियाद) कति मदन्त अनुबन्धरराजः प्रता भगवानाह - गौतम! चत्वारोऽनुवेलन्धर राजाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथाकर्कोटकः, कर्दमकः, कैलासः अरुणप्रभश्च । (पसि णमित्यादि ) दमनुवेम्परजानां कति श्रावासपर्व! ताः प्रज्ञप्ताः !! जगवानाह - गौतम ! एकैकस्य एकैकभावेन च स्वारोऽनुजानामावास तथा टकः, विद्युत्प्रभः कैलासः, श्ररुणप्रभश्च । कर्कोटकस्य कर्कोटक, कमस्य विज कैलासस्य कैलासा, घरमा रुणप्रभ इत्यर्थः । 'कहि णं भंते!' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह - गौतम ! जम्बूद्वीपे दीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरपू दिशिणसमुरारिंशतं योजना अत्र एतस्मिन्नवकाशे कर्कोटकस्य भुजगेन्द्रस्य जगराजस्य क कीटको नाम आवास पर्वतः प्रज्ञप्तः । (सत्तरस एक्कची साइं जोयणसपा) इत्यादिका गोस्तपस्यावासपर्वता ता, संवेदापि हीनातिरिक्ता प्रणितव्या । नवरं सर्वरत्नमय इति वक्तव्यं नामनिमित्तचिन्तायामपि, यस्माश्च कुलासु कुल्लिकासु वापी, याबद् विलपङ्किपु, बहूनि उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि कर्कोटप्रभाणि कर्कोटकाकाराणि ततस्तानि कर्कोटकानीति व्यवह्रियन्ते । तद्योगात्पर्वतीऽपि कर्कोटकः । तथा कर्कोटकनामा देवस्तत्र पल्योपमस्थितिकः परिवसति । ततः कर्कोटस्वामिवान् कर्कोटक राज पान्यपि स्यावासपर्यन 1 1 , - स्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि तिर्यगवान द्वीपसमुधान् यतिवयान्यरिमन् प्रणसमुद्देशयोजनाक काम राजधानी, विजया राजधानीय प्रतिपत्तव्या पर्व कर्दमकद कम्यताऽपि भावनीया नवरं जम्बूद्वीप मन्दस्य पर्वतस्य लवणसमु दक्षिणपूर्व दक्षिणापरस्यां कैनाशः, अपरोत्तरस्यामरुणप्रनः । नामनिमिचिन्तायामपि यस्मात् कर्दम के आवास पर्वते उत्पलादीनि क प्राणि ततः कर्दमक भावना प्रागिय अन्यस्म द्युत्प्रनो नाम देवः पस्योपमस्थितिकः परिवसति, स च स्वनाबाद मंत्रियः बक्कमो नाम कुङ्कुमागुरुकर्पूरकस्तूरिका मेलापकः कुङ्कुमगुरुक 1 चन्दनानि च महात्मनामी क्षमः ॥ ततः प्रायुर्वेदकमनवादी पूर्वपदसोपे सत्यमेतद कदम मुच्यते। केाशे कैलाशमभाणि उत्पलानि के कैलाशनामा च तत्र देवः पच्योपमस्थितिकः परिवसति, लाशः । एवमरुणप्रभेऽपि वक्तव्यम् । कर्दमका राजधानी कर्दमकस्याऽऽयासपर्वतस्य दक्षिणपूर्वया कैलासा, कैारास्थायासपर्वतस्य दक्षिणाsपरया अरुणप्रभा अरुणप्रभस्यावासपर्वतस्यापरोत्तरायां तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिन् लवणसमुळे विजया राजधानीव वक्तव्या । जी०३प्रति० ॥ अनु०जी०३ प्रति अभि मानरहिते, उत्त० २ श्र० । - ततः अब्ज मपसत्यकुक्खि-अनुकट प्रशस्त कुक्षि- त्रि० । अनुद्भटोsनुल्बणः प्रशस्तः प्रशस्तलक्षणः पीनः कुक्रिर्यासां ताः अनुप्रशस्तपः ०२० समुद्भवेष-पुं० [जिनोचितमेपथ्यप स च तृतीयश्रावकगुणविशिष्ट इति । संप्रत्यनुद्भटवेष इति तृतीयं नेदं प्रविकटयिषुर्गा थापूर्वाईमाह सदर पसंतो धम्मी, उभमवेसो न सुंदरी तस्स । " ( सहर त्ति ) राजते शोजते, प्रशान्तः प्रशान्तवेषो धर्मी धर्मवान् धार्मिको, नावधावक इत्यर्थः । श्रतः कारणादुद्भटवेषः षिगजनोचितनेपथ्यः । " लंखस्स व परिहाणं, गसर व चंगे त हंगिया गाढा । सिरवेढो ढमरेणं, वेसो एसो सिडंगाणं ॥ १ ॥ लिहिणेण मभ्गदेसो, उग्घाको नाहिभंगलं तह य । पासाय अ पहिया, कंचुयओएस येसा ॥२५॥ इत्यादिरूनसुद नैव शोभाकारी तस्य धार्मिकस्य । स हि तेन सुतरामुपहासस्थानं स्यात् । “नाकामी मण्डनप्रियः" इति लोको करिह लोकेऽपि कदाचिदर्थं प्राप्नुयाद्, बन्धुमतीवत् । अन्ये पुनराहु:"संतलयं परिठाणं, जलं च चोवाइयं च मज्झिमयं । सुसिलिमुत्तरीयं, धम्मं लच्छि जसं कुराई ॥ १ ॥ परिहारामणुभरवल-एकोडिमज्झाय मरणुसरंतं तु । परिहाणमकमंती, पोहोर सुसिल इत्यादि एतदपि संगतमेव किन्तु कचिदेव देशे कुले या पटते धावकास्तु नानादेशेषु च संभवन्ति तस्माद्देश कुलविरुद्धोष इति व्याख्यानं व्यापकमिह संगतमिति । बन्धुमतीज्ञानं त्वेवम्अन्य नामलिनी, न परिभूया न Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुब्भडवेस (३२) अनिधानराजेन्छः। अणुभव अगरुयाविहवभारो, सिट्ठी तत्थासि रासारो॥१॥ सा ठविय भोयणं सि-कगम्मि पुतमन्नथा पत्ता । सारयससिनिम्मलसी-लबंधुला बंधुला पिया तस्स । कस्स गेहे कम्म-स्थमागो तम्मि जामाऊ॥१६॥ ताणं धूया रूया-गुणजुया बंधुमइ नाम ॥२॥ सा तस्स तप्पणएहा-णमाइकम्मसु निउत्सया पदम । सा पुण कंचणचूमय-मंडियबाहा अलंकियसरीरा । पच्ग खमणपीसण-रंधणदलणाइकारविया ॥२७॥ पगईए उम्भडवे-सपरिगया चिसया वि ॥३॥ जाया महई वेला, तेण गिहत्थेण बाउलत्तणो। अन्नदिणे सा पिउणा, भणिया वयणेहिं पणथपवणेहिं । नहु सा जिमाविया तो, नुक्खियतिसिया गया सगिह ॥२८॥ एवं उम्भमवेसो, बच्चे! पच्चो न सघाण ॥४॥ तं ददु सुरण बुहा-इएण नणिया सनिहरं एसा । वपुक्तम् किंतत्थ तुम खिसा-सुझाए जंन बह पत्ता ॥२६॥ "कुलदेसाण विरुको, बेसो रनो वि कुण नहु सोहं । तीह वि अणत्यभरिया- जंपियं किंकरा तुहं जिन्ना । वणियाण विसेसणं, विसेसओ ताण इत्थीणं ॥५॥ जं सिक्कगाउ गहिऊ--ण नोयणं नेव जुत्तोसि ॥३०॥ भइरोसो अश्तोसो, अश्हासो पुजणेहिँ संवासो। श्य फरुसवयणजाणेय, कम्मं दोहिँ बि निकाश्यं तेहिं । भरउम्भमो य वेसो, पंच वि गरुयं पि बहुयंति" ॥६॥ अनिविमजमिमभावे-ण नेव आलोश्यं तं च ॥ ३१॥ श्चाइजत्तिजुत्तं, वुत्ता विन मन्त्रए श्मा किंपि। तेसिं दाणरयाणं, संजमरहियाण मज्झिमगुणाणं । चि तदेव निश्चं, पिनपायपसायऽवनिया ॥७॥ किंचि सुहन्नावणाए, बटुंताण गलियमाउं ॥३॥ प्रयवासिणा वि-मलसिद्धिपुसेण बंधुदत्तेण । तो सो बालो जाओ. जामाऊ तुज बंधुदत्त त्ति। सा गंतु तामवित्ति, महाविनूई परिणीया ॥८॥ सा पुण दुग्गयनारी, बंधुमई तुह सुया जाया ॥ ३३॥ मुत्तूण जणयत्नवणे, बंधुम बंधुपरियणसमेत्री। भवियब्वया नियोगा, विचित्तयाए य कम्मपगईए । जलहिम्मि बंधुदत्तो, संचलिओ जाणवत्तेण ॥६॥ माया जाया जाया, पुत्तो भत्ता य संजाओ ॥ ३४॥ जा किंचि मिनागं, गच्छर ता असुहकम्मउदएणं । तकम्मविवागणं, बंधुमई पाविया करच्छेयं । पमिकूलपवषत्रहरी-पणुल्लियं जनहिमज्झम्मि ॥१०॥ पत्तो य बंधुदत्तो, सुलापक्खिवणवसणमिणं ॥ ३५ ॥ सत्य व विणयहीणे, बियलियसीले विसुरूदाणं व । श्य सो रइसारो, सिही संजयगरुयसंबेओ। तं पवहणं विणटुं, घणधएपहिरएणपमिपुरणं ॥११॥ गिएिहय गुरूण पासे, दिक्खं सुहभायणं जाओ ॥ ३६॥ सो कहकहमवि फलहे-ण दुत्तरं उत्तरितु नीरनिहि। इत्युद्भरं वेषमतिश्रयन्त्याः , जा पियक्ष दिसिचकं, ता तं निच्छे ससुरपुरं ॥१२॥ श्रुत्वा विपाकं खलु बन्धुमत्याः। तो अप्पं जाणाव, केण वि पुरिसेण निययससुरस्स। भव्या जना निर्मलशीलनाजतं सुणिय हा, किमयं ति, जंपिरो उट्टिो सो वि ॥ १३ ॥ स्तद्धत्त देशाद्यविरुद्धमेनम् ॥ ३७॥ध००। अश्वम्जडवेसविसे-सरयणशंकारसारभूसाए । अणुब्भामग-अनुभ्रामक-पुं०। मौलग्रामे भिक्षापरिमाणशीबंधुमईए सहिनो, जा से पासे स मल्लिप ॥ १४ ॥ ले, वृ० १ उ०। पररयणकणयमय-विनृसियं ताव रुश्रकरजयझं । अणुजव-अनुभव-पुं० । अनु-भू-अप् । स्मृतिभिन्ने झार्ने, वि. बंधुमईप छिन्नं, केण वि तयारचोरेण ॥ १५ ॥ षयानुरूपभवनाच बुद्धिवृत्तेरनुजवत्वम् । अनुभवश्व-प्रत्यक्षानुतत्तो सो भारक्खिय-जीयो नासिनु फसि संपत्तो। मानोपमानशाब्दभेदेन चतुर्विध इति नैयायिकादयः। वेदान्तिपहपरिसमवससुत्त-स्स बंधुदत्तस्स पासम्मि ॥१६॥ नो मीमांसकाश्च अर्थापत्त्युपलब्धिरूपमधिकं दद्वयमुररीच. तेणं च धुत्तयाए, चितिय मिणमेव पत्तकाझं मे। कुः। वैशेषिकाःसौगताश्च प्रत्यक्वानुमानरूपमेवानुभवद्वयं स्वीश्य मुत्तु तस्स पासे, करजुयलं तकरो नही ॥१७॥ चकुः, अन्येषां सर्वेषामनयोरमतर्भावात् । सांख्यादयः प्रत्यक्कापच्या गयतसवरतुमु-ससवणबुको सलुइओ रखो। नुमानशाम्दा एवेति भेदत्रयीमङ्गीचकुः। चार्वाकाः प्रत्यकमात्रचोरुति काउ तेर्दि, सूझाए झत्ति पक्वित्तो ॥१८॥ मिति भेदः । वाच । स्वसंवेदने, पञ्चा० ५ विव० । श्रा० । अह इसारो सिठी, नियपुत्तिए निश्तु तमवत्थं । आव०। प्रश्न। बहु कूरिकण पत्तो, जा जामाउयसमीर्य पि ॥ १५॥ अनुभवलकणं च योगदृष्टिसमुच्चयानुसारेण लिख्यतेतात सलाजिनं, सहसा पिच्छित्ति बहु च पसचित्ता । यथार्थवस्तुस्वरूपोपलब्धिपरभावारमणस्वरूपरमणतदास्थाअंसुभरपुत्रनयणो, दुहियो से कुणश् मयांक ॥२०॥ दकत्वमनुभवः। इत्तो य सुजसनामा, चउनाणी तत्थ आगो तं च । तदएकमममिउं पत्तो सिझी, गुरुवि य कहर से धम्मं ॥ २१॥ संध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवलश्रुतयोः पृथक् । प्रो भविवा! उम्भमवे-सवाजणं कुणह चयह परुसगिरं । चितह जवस्म रूवं, जेण न पाचेह दुक्खाई ॥२२॥ बुधैरनुजवो दृष्टः, केवलार्कारुणोदयः ॥१॥ ती सोन संचिगी, सिही पणमितुं पुच्छर जयवं!। व्यापारः सर्वशाखाणां, दिमदर्शनमेव हि । मह जामा चयडहिया-हि किं क्रयं मुक्कयं पुचि ॥ २३॥ । पारं तु प्रापयत्येकोऽ-नुज वो जववारिधेः॥॥ भणा गुरु अभिरामे, साम्गिामं पि शत्थया पगा। अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुखानुजवं विना । आसि अडवि व्व बदमय-बावसुया घुम्गया विहवा ॥२४॥ सा उयरकंदरापू-रणथमीसरगिहेसु निच्चं पि । शास्त्रयुक्तिशतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥ ३ ॥ कम्मं करे पुत्तो, चारए वच्चरुवाई ॥ २५ ।। झायेरन हेतुवादन, पदार्था यद्यतीन्धियाः । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र०२ (३५३) अणुभव अनिधानराजेन्द्रः । अणुभाग कालेनैतावता प्राः, कृतः स्यात्तेषु निश्चयः ॥ ४ ॥ अन्येषां तु प्रयुत्तरशतरसभागयुक्तानामणूनां समुदायश्चतुर्थी केषां न कल्पनादवी, शास्त्रकीरानगाहिनी। वर्गणा । एवमनया दिशा एकैकरसभागवृकानामणूनां समुदा यरूपा वर्गणाः सिकानामनन्तभागेऽनव्येभ्योऽनन्तगुणा घाविरलास्तधसास्वाद-विदोऽनुन्नवजिह्वया ॥५॥ च्याः। पतासां चैतावतीनां वर्गणानां समुदायः स्पर्द्धकमित्यपश्यन्तु ब्रह्म निईन, निन्दानुभव विना । भिधीयते । परन्त श्वोत्तरोत्तररसवृद्ध्या परमाणुवर्गणाः। श्रकथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमय ॥६॥ प्रेति कृत्या पताश्चानन्तरोक्तानन्तकप्रमाणाः । अथ सरकल्पनया न सुषुप्तिरमोहत्वा-त्रापि च स्वापजागरौ । षट् स्थाप्यन्ते-१०५ दमेकं स्पर्ककम् । श्त ऊर्द्धकोत्तरया कल्पनाशिल्पविश्रान्ते-स्तुयों वाऽनुजवो दृशा ॥ ७॥ निरन्तररस-१०४/ वृद्ध्या, वृको रसो न झज्यते, किं तर्हि सर्वजीवानन्त-१०३/ गुणैरेव रसन्नागैर्वृद्धोलभ्यते।इति तेनैव अधिगत्याखिलं शब्द-ब्रह्म शास्त्रशा मुनिः । क्रमेणारभ्यते। | ततस्तेनैव क्रमेण तृतीयमित्यादि यावदस्वसंवेद्यं परं ब्रह्माऽनुभवेनाधिगच्छति ॥८॥ नन्तानि रस-110 स्पर्ककानि उत्तिष्ठन्ते । अष्ट० २६ अष्टछ । तीव्रमन्दतया द्विविधोऽनुभागःस्वेन स्वेन रूपेण प्रकृतीनां विपाकतो वेदने, विशे। अयं चानुभागः शुभाशुन्नभेदेन द्विविधानामपि प्रकृतीनांतीअणुभवण-अनुजवन-न० । कर्मविपाकवेदनेऽनुनाचे, आव० व्रमन्दरूपतया द्विविधो भवति । ___अतोशुभशुभप्रकृतीनां येन प्रत्ययेनासौ तीवो ४०॥ __ वभ्यते, येन च मन्दः तन्निरूपणार्थमाहअणुभविउं-अणुलवितुम्-अव्य० । नोक्तमित्यर्थे, " वेयणा तिब्बो असुहसुहाणं, संकेस विसोहिओ विरज्जयो । अणुभविउ जे संसारम्मि अणंतए" उत्त० १० अ० । अणुभवित्ता-अनुनय-श्रव्य०। अनुभवं कृत्वेत्यर्थे, प्रश्न १ मंदरसो गिरिमहिरय-जलरेहासरिकसाएहिं ॥६३।। आश्र द्वा। तत्र प्रथमं तावत्तीवमन्दस्वरूपमुच्यते पश्चादकरार्थः । इह घो षातकीपिचुमन्दाद्याभवनस्पतीनां सम्बन्धी सहजोऽर्जीवों अणुनाग (व)-अनुनाग(व)-पुं०। चैक्रियकरणादिकायामचि द्विमागावों भागत्रयावतैश्च यथाक्रम कटुकः कटुकतरः कटुत्यशक्ती, स्था०२ वा ३ उ०। ज्ञा० श्रावकाचप्रामाहात्म्ये, कतमोऽतिशयकटुकतमश्च; तथेचतीरादिद्रव्याणां सम्बन्धी सूत्र०१ श्रु० ५०१ उ० । वर्णगन्धादिगुणे, विशे०। शापाद्य- सहजोऽवित्तों द्विन्नागावों जागत्रयावर्तश्च यथासंख्य नुग्रह विषये सामर्थ्ये, प्रशा० २ पद । अनु पश्चाद् बन्धोत्तर- मधुरो मधुरतरो मधुरतमोऽतिमधुरतमश्च रसो जसाद्यसम्बकालं जजन सेवनमनुजजनम्,अनुभागः। कर्म०६ कर्म । कर्मणां म्धाद्यथा तीवो भवति तथतेषामेव पिचुमन्दादीनां वीरादीनां विपाके, सूत्र०१ श्रु०५०१ उ० । दये, रसे च । स्था०७ च द्रव्याणां सम्बन्धी सहजो रसो जललवविन्द्वर्द्धचुलुकचुमुवा० । दर्शातीवादिभेदे रसे, स०।"अनभागो रसः प्रोक्ता, कप्रसृत्यजलिकरककुम्भद्रोणादिसम्बन्धाद्यथा बहनेदं मन्दप्रदेशो दलसंचयः" कर्म० ५ कर्म० । अनुभागः, रसः, अनुन्नाव तरादित्वं प्रतिपद्यते तथा अर्कावर्तादयोऽपि रसाः । यथा जइति पर्यायाः। सलवादिसम्बन्धान्मन्दमन्दतरमन्दतमादित्वं प्रतिपद्यन्ते तथैअनुनागस्य किश्चित्तावत् स्वरूपमुच्यते वाशुनप्रकृतीनां शुभप्रकृतीनां च रसास्तारशतारशकपायवशाछह गम्नीरापारसंसारसरित्पतिमध्यविपरिवर्ती, रागादिसचि. तीव्रत्वं मन्दत्वं चानुविद्धतीति । अकरार्थोऽधुना विवियते. वो जन्तुः पृथकसिद्धानामनन्तनागवर्तिभिरजव्यज्योऽनन्त - तीबोरसो भवति । कासामित्याह-(असुहसुहाणं ति) अशुभाश्च गुणैः परमाणुभिर्निष्पन्नान् कर्मस्कन्धान प्रतिसमयं गृह्णाति । शुजाश्चाशुभशुजाः, तासामशुभशुभानाम्, अशुनप्रकृतीनां शुभतत्र च प्रतिपरमाणुकषायविशेषान् सर्वजीवामन्तगुणान् अनुन्ना. प्रकृतीनां चेत्यर्थः। कथमित्याह?- संकेसविसोहिश्रोत्ति)संक्लेशगस्याविनागपलि (रि) च्छेदान् करोति । केवलिप्रज्ञया विद्यमानो श्व विशुक्रिश्च संकेशविशुझी,ताभ्यां संक्लेशविशुफितः, आद्यादेयः परमानकृष्टोऽनुनागांशोऽतिसूक्ष्मतयाऽर्द्धनददाति सोऽविना राकृतिगणत्वात् तस्प्रत्ययः। यथासंख्यमशुभप्रकृतीनां संक्वेगालिच्छेद सच्यते । उक्तं च-“बुढी निजमाणो, अणुभार्ग सो शेन शुभप्रकृतीनां विशुकेत्यर्थः । श्दमत्र हृदयम्-अशुभप्रकृतीनां नदेश जो अद्धं । अविभागपबिच्छेत्रो, सोहि अणुभागबंधम्मि"। नशीतिसंख्यानां संक्लेशेन तीव्रकषायोदयेन तीव उत्कटोरसो तत्र चैकैककर्मस्कधे यः सर्वजघन्यरसः परमाणुः सोऽपि के नवति। सर्वाशुभप्रकृतीनां तद्वन्धविधायिनां जन्तूनां मध्ये यो य वनिप्रया विद्यमानः किल सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान् रसन्नागान् उत्कृष्टसंक्लेशो जन्तुः स स तीवरसं बजातीत्यर्थः। शुभप्रकृती. प्रयच्छति ; अन्यस्तु परमाणुः तानविभागपलिच्छेदानेकाधिका नांविशुद्धया कषायविशुद्ध्या तीनोऽनुभागो भवति। शुन्नप्रकृतिप्रयच्चति अपरस्तु तानपि अधिकान् अन्यस्तु तानपि चतुर बन्धकानां मध्ये यो यो विशुद्धयमानपरिणामः स स तासां धिकमित्यादिवृद्ध्या तावन्नेयं यावदन्य उत्कृष्टरसः परमाणुमौल तोत्रमनुभागं बनातीत्यर्थः । उक्तस्तीवरसस्य बन्धप्रत्ययः । राशेरनन्तगुणानपि रसभागान् प्रयच्छति । अत्र च जघन्यरसा सम्प्रति स एव मन्दरसस्याभिधीयते-(विधजयो मिंदरसो ये केचन परमाणवस्तेषु सर्वजीवानन्तगुणरसन्नागयुक्तेष्वप्य- त्ति) विपर्ययेण विपर्ययत उक्तवपरीत्येन मन्दोऽनुत्कटो रसो सत्कल्पनया शतरसांशानां परिकल्प्यते । एतेषां न समुदायः नवति । भयमर्थः-सर्वप्रकृतीनामशभानां विशुद्ध्या मन्दो रसो समानजातीयत्वादेका वर्गणेत्यभिधीयते । अन्येषां त्वेकोत्त- | जायते, शुभानां तु मन्दः संक्शेनेति । उक्तः संक्नेशविशुद्धिरशतरसभागयुक्तानामानां समुदायो द्वितीया वर्गणा अपरे- वशादशुभ शुनप्रकृतीनां तीब्रो मन्दश्चानुभागः । (पकस्थाविषां तु वधुत्सातरसांशपुक्तानामपूनां समुदायस्तृतीया वर्गणा।। कीदकश्चतुर्विधोऽनुनावः) अयं चैकद्वित्रिचतुःस्थानिकभेदा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) अणुभाग अभिधानराजेन्द्रः। अणभाग चतुर्का भवत्यत एकस्थानिकादिरसो यैः प्रत्ययैर्यासा प्रकृती बध्यते, न तु शेषासु , यतोऽशुभप्रकृतीनामेकस्थानिको रसो नां नवति तदाह-(गिरिमाहरय इत्यादि) गिरिश्च पर्वतः, मही यदि खन्यते तदाऽनिवृत्तिवादरसंख्येयनागेभ्यः परत एव। तत्र चपृथिवा, रजश्च वासुका, जलं च पानीयं, गिरिमहीरजोजला- च सप्तदश प्रकृतीवर्जयित्वा शेषाणामशुभप्रकृतीनां बन्ध एव नि,तेषु रेखाराजयस्ताभिः सरशास्तुल्यगिरिमहीरजोरेखासह- नास्यतः शेषाणामशुजामामकस्थानिको रसो न नवति । येशास्तेच कषायाश्चसम्परायास्त रसो भवतीति प्रक्रमः ।६३। ऽपि केवलज्ञानकेवनदर्शनावरणलकणे वे प्राप प्रकृती तत्र कोहगित्याह बध्येते तयोरपि सर्वघातिवाद द्विस्थानिक एव रसो निर्वय॑ते, चउगणार असुहसुद-बहा विग्घदेसघाइआवरणा । । नैकस्थानिक इति । शुभानां तु सर्वासामप्येकस्थानिको रसो पुमसंजमणिगदुतिचन-गणरसा सेसदुगमाई ॥६॥ न भवति , यत इहासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाने संक्लेचतुःस्थानिक आदिर्यस्य रसस्य, त्रिस्थामिकतिस्थानिकपञ्च शस्थाननि जवन्ति । विशुक्रिस्थानान्यप्येतावन्त्येव,यथा यान्येस्थानिकपरिप्रहः । स चतुःस्थानादिः। कासामित्याह-(असुभ व संक्लेशस्थानान्यारोहति तेष्वेव विशुामानोऽवतरति, सि)इह षष्ठघय प्रथमा । ततःशुभानामशुजप्रकृतीनाम् । श्यम ततश्च यथा प्रासादमारोहतां यावन्ति सोपानस्थानान्यषतरप्रभावना-मह रेखाशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धादू गिरिरेखाशब्देन तामपि तावन्त्येव तथासपीति जावः। केवलं विगुचिस्थानाप्रभूतकालव्यपदेशादतितीवत्वं कषायाणांप्रतिपाद्यते ततश्च गि निविशेषाधिकानि।कथामति चेदच्यते-कपको येवभ्यवसायरिरेखासरशैः कषायैः,अनन्तानुबन्धिभिरित्यर्थः। सर्वासामशुभ स्थानकेषु कपकोणकामारोहति न तेषु पुनरपि निर्वतते, तस्य प्रकृतीनां चतुःस्थानिकरमबन्धो भवति प्रातपशोषिततमागम संक्वेशाभावात्, अतस्तानि विशुक्रिस्थानान्येव नवन्ति न संक्लेहीरेखासरशैः कषायैरप्रत्याख्यानावरणर्मनाग्मन्दोदयैरशुन शस्थानानीति, तैरभ्यवसायस्थानर्विशुकिस्थानान्यधिकानि । एवं च स्थितेऽत्यन्तविशुद्धौ वर्तमानः शुभप्रकृतीनां चतु:प्रकृतीनां त्रिस्थानिकरसबन्धो भवति। वामुकारेखासहशैःकपायैः प्रत्याख्यानावरणैरशुनप्रकृतीनां द्विस्थानिकरसबन्धः ।। स्थानिक रसमभिनिवर्तयति । अत्यन्तसंक्लेशेऽनुवर्तमाजलरेखासरशैः कषायैरतिमन्दोदयः संज्वलनाभिधौर्वघ्नपश्च नस्य शुभप्रकृतयो बन्ध एव नागच्छन्ति । या अपि वैक्रियतैजकादिवत्यमाणसप्तदशाऽशुभप्रकृतीनामेवैकस्थानिकरसबन्धो सकार्मणाद्याःशुभा नरकप्रायोग्याः संक्लिष्टोऽपि बध्नाति नवति, नशेषाणां शुभप्रकृतीनामशुजप्रकृतीनामिति हि वक्ष्यामः। तासामपि स्वभावात्सर्वसंक्लिष्टोऽपि द्विस्थानिकमेव रसं विउक्तोऽशुभानां रसस्प बन्धप्रत्ययः । इदानीं शुभानां रसप्रत्यय दधाति । येषु तु मध्यमाध्यवसायस्थानेषु शुभप्रकृतयो बध्यन्ते विभागमाह-सुबह सि) शुनप्रकृतीनाम्-अन्यथाक्तवैपरीत्ये. तेषु तासां विस्थानिकपर्यन्त एव रसो बध्यते नैकस्थानिकः, न हेतुविपर्ययाश्चतुःस्थानिकादिरसस्य बन्धो भवति । तत्र वा मध्यमपरिणामत्वादेवेति न क्वापि शुभप्रकृतीनामेकस्थानिकलुकाजलरेखासदृशः कषायैश्चतुःस्थानिको रसबन्धो जवात । रससंभव इति कृता चतुर्विधस्यापि रसस्प प्रत्ययप्ररूपणा।६४। महीरेखासरशैः कषायखिस्थानिको रसबंधो जवति । गिरि सम्प्रति शुभाऽशुभरसस्यैव विशेषतः किश्चित् स्वरूपमाहरखासदृशः कषायतिस्थानिको रसबन्धः शुभप्रकृतीनां नवति । निंबुच्छरसो सहजो, तिचउभागकइिक्कभागंतो। शुभप्रकृतीनां त्वकस्थानिको रस एव नास्तीति पूर्वमेवोक्तम् । गठाणाई असुहो, असुहाणं सुहो सुहाणं तु ॥६॥ अथ यासां प्रकृतीनामेकद्वित्रिचतुःस्थानिकनेदाश्चतुर्विधोऽपि इहैवमक्षरघटना-अशुभानामशुभप्रकृतीनां रसोशुभः, अशुरसबन्धः संप्रवति, यासां चैकस्थानिकवर्जस्त्रिविध एवेत्येतश्चि- भाध्यवसायानष्पन्नत्वात् । क इवेत्याह-निम्बवत्पिचुमन्दवत् । न्तयन्नाह-विम्घदेसघाआवरणा इत्यादि) विनानि दानयाभ- वत्शब्दस्य लुप्तस्यह प्रयोगो द्रष्टव्यः । तथा शुभानां शुभप्रकभोगोपभोगवीर्यान्तरायनेदादन्तरायाणि पश्च । देशघात्यावरणा तीनां रसाःशुभा,शुभाध्यवसायनिष्पन्नत्वात्।क इवेत्याह-इदेशधात्यावारिकाः सप्त प्रकृतयः । तद्यथा-मतिझानश्रुतका- चुवत् इचुयष्टिवत् । तथा डमरुकमणिन्यायाग्निम्बेक्षुरसशब्द नावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानावरणाश्चतस्रः। चक्षुर्दर्शनाचतुर्दश- एवमप्यावय॑ते,यथा निम्बरस एव इक्षुरस एव सहजः स्वभानावधिदर्शनावरणास्तिस्रः, इत्येताः (पुम ति) वंदः। संज्वल- वस्थ एकस्थानिकरस उच्यते, स एवैकस्थानिकरसो द्वित्रिनाश्चत्वारः क्रोधमानमायालाभाः, इत्येताः सप्तदश प्रकृतयः। कि- चतुर्भागाश्च ते पृथग्विभिन्नेष्वाश्रयेषु कथितकभागान्तो द्वि. मित्याह-(इगदुतिचउगणरस ति) स्थानशब्दस्य प्रत्येक स्थानिकादिर्भवति । कोर्थः-द्वौच त्रयश्च चत्वारश्च द्वित्रिचसम्बन्धात् एकस्थानद्विस्थानत्रिस्थानचतुस्थाना रसा यासां। त्वारस्ते च ते भागाश्च द्वित्रिचतुर्भागाः, द्वित्रिचतुर्भागाश्च ता एकद्वित्रिचतुःस्थानरसाः। पताः सप्तदशापि प्रकृतयः ए- ते पृथविभिनेष्वाश्रयेषु कथिताश्च द्वित्रिचतुर्भागकथिताकद्वित्रिचतुःस्थानिकरूपेण चतुर्विधेनापि रसेन संयुक्ता बध्य- स्तेषामेक एकसंख्यो भागोऽन्तेऽवसाने यस्य सहजरसस्य स्त ति तात्पर्यम् । तत्रानिवृत्तिबादरे गुणस्थाने संख्येयेषु स द्वित्रिचतुर्भागकथितैकभागान्तः। स किमित्याह-एकस्थाभागेषु गतेप्यासा सप्तदशानामपि प्रकृतीनामेकस्थानिको रसः निकादिः। श्रादिशब्दाद द्विकस्थानिकत्रिस्थानिकचतुःस्थानिप्राप्यते, शेषस्थानिकास्तु रसास्त्रयोऽप्यासा संसारस्थान् जीया- करसपरिग्रहः। इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-ह यथा निम्बनाश्रित्य प्राप्यन्त इति । शेषाः प्रकृतयस्तार्ह किंरूपा भवन्ती- घोषातकीप्रभृतीनां कटुकद्रव्याणां सहजोऽक्कथितः कटुको त्याह-(सेसदुगमाइत्ति शेषाः नणितसप्तदशप्रकृतिज्य सरि.! रस एकस्थानिक उच्यते, स एव भागद्वयप्रमाणः स्थाल्यां ताः, सर्वाः शुजा भशुभाश्च प्रकृतयो वध्यन्ते । 'दुगमाइत्ति' सूच-1 कथितोऽर्द्धावृत्तितः कटुकतरो द्विस्थानिकः, स एव भागत्रनारसूत्रमिति न्यायाद् द्विस्थानादिरसा, आदिशब्दात् त्रिस्था-1 यप्रमाणः स्थाल्यां कथितस्त्रिभागान्तः कटकतमस्त्रिस्थानिक. नरसाश्चतुःस्थानरसाश्च । शेषाः प्रकृतयो द्विस्थानिकत्रिस्था-1 स एव भागचतुष्टयप्रमाणो विभिन्नस्थाने कथितश्चतुर्थभानिकचतुःस्थानिकरसयुक्ता भवन्ति, न त्वेकस्थानिकरसयुक्ता गाम्तोऽतिकटुकतमश्चतुःस्थानिकः । तथा इक्षुक्षीरादीनां सशक्ति नावः । अयमत्राशया-सप्तदशप्रकृतिवेवैकस्थानिको रखो। हजो मधुररस एकस्थानिक उच्यते, स एव सहजो भाग Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगुनाग "" प्रमाणः पृथग्भाजने कथितोऽद्धावर्त्तितो मधुरतरो द्विस्थानिकः, स एव भागत्रय प्रमाणः पृथक्स्थाल्यां कथितस्त्रिभागान्तो मधुरतम स्थानिक स एव भाग चतुमवि भिक्षस्थाने कथितधतुर्थभागान्तोऽतिमधुरतमधतुःस्थानिकः । एवमशुभानां प्रकृतीनां तादृशतादृशकषायनिष्पाद्यः कटुकः कटुकतरः कटुकतमोऽतिकटुकतमश्च । शुभप्रकृतीनां मधुरो मधुरतरो मधुरतमो ऽतिमधुरतम रसो यथासंयमेकाद्वत्रिचतुःस्थानिको भवति। एवं च रसोऽशुभमतीनामशुभा शुभप्रकृतीनां शुभ इति । तुशब्दो विशेषणे । स चैवं विशिनष्टि-यथा सप्तदशा शुभप्रकृतीनामेकस्थानिकरसस्पर्द्धकान्य (३०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । | पेक्षिकत्वादसंख्येयानि भवन्ति । तत्र च सर्वजयम्यस्पर्द्धकरसस्येयं निम्याद्युपमा । तदनु चानन्तेषु रसपलि च्छेदेष्वतिक्रान्तेषु तदुत्तरं द्वितीयस्पर्द्धकं भवति । एवमुततरक्रमेण प्रवृद्धतररसोपेतानि शेषस्काम्यपि भ यन्ति एवं शेषाः शुभप्रकृतीनामपि द्वित्रिचतुःस्थानिकरसस्पर्द्धकान्यसंख्येयव्यक्तिव्यक्तानि प्रत्येकम संख्येयानि भवन्ति । तान्यपि यथोत्तरमनन्तरसपलिच्छेदनिष्पन्नत्वात् परस्परमनन्तगुणरसानि । अत उत्तरोत्तरस्पर्द्धकान्यप्यनन्तगुणरसा. नि. किं पुनरशुभानां द्वित्रिचतु स्थानिकासा इति । तथाहिशुभानां निम्बोपमवीर्यो य एकस्थानिको रसस्तस्मादनन्तगुसवय द्विस्थानिकस्तो यन्तगुणवीर्यत्रिस्थानिकस्तस्मा दप्यनन्तगुणवीर्ययस्थानिक इति परस्परं सुप्रतीतमेवान न्तगुणरसत्वमिति । शुभप्रकृतीनां पुनरेकस्थानिको रस एव नास्ति । यश्च शुभानामिक्षूपमो रसोऽभिहितः स द्विस्थानिकरसस्य सर्वजघन्यस्पर्धक एवं रसदुत्तरस्पर्ककेषु चान णा रसा भवन्ति । एतत्सर्वं पञ्चसंग्रहानिप्रायतो व्याख्यातम् । विज्ञानावरणादिरूपणां सर्वघातिनीनां शतख्यानां प्रकृतीनां सर्वाण्यपि रसस्पर्द्धकानि सर्वघातीन्येव | देशघातीनां पुनतिज्ञानावरणप्रभृतिपञ्चविंशतिर सम्पर्ककानि कानिचित्सर्वपानि कानिविदेशघातीनि । तत्र यानि चतुःस्थानिकरखानि त्रिस्थानिकरसानि वा रसस्प कानि तानि नियमतः सर्वानि द्विस्थानिकरसानि पुनः कानि विदेशघानि कानिचित्सर्वघातीनि एकस्थानिकानि तु सर्वाश्यपि देशघातीय उतं च-रसस्पदेकानि सकलमपि स्वघात्यं ज्ञानादिगुणं घ्नन्ति । तानि च स्वरूपेण ताम्रभाजनवन्निस्द्रिाणि घृतमिवातिशयेन स्निग्धानि, प्राज्ञानत् अनुदेशोपचितानि स्फटिकाती निर्मलानि । उ च" - जो घार नियगुणं, सयलं सो होइ सव्वधारसो । सो निधि निको, तो फलितम्भहरविम" ॥ १ ॥ यानि च देशपाती रसस्पर्ककानि तानि स्वादणं देशतो घ्नन्ति तडुदयेऽवश्यं कायोपशमसंभवात् । तानि स्परूपेणानेकविश्वचिचरसंकुप्रति तथाहि कानिचित्कर इवातिस्थूर विकशतसंकुलानि कानिचित् च मध्यमवरशतसंकुलानि कानिचित्पुनरतिसूक्ष्मविचरनिकरसंकुलानि, यथा वासांसि । तथा तानि देशघातीनि रसस्पर्द्धकानि स्तोकस्नेहानि भवन्ति, वैमल्यरहितानि च । उक्तं च- "देसविधाकमलं सुकास वि अप्पसिणेहो अ विमलो य ॥ १ ॥ इति प्ररूपितः सप्रपञ्चमनुनागबन्ध शर्त । कर्म० ५ कर्म० । ( श्रघातिरसस्वरूपमत्रैव मागे १८० पृष्ठे ' अधारस' शब्देऽभिहितम् ) " , अणुभाग इदानीं तु अनुभागः कस्य कमणः कतिविध इत्यभिचित्राददानावरणीयस्य नाणावर णिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बस्स गुस्स बद्धफासपुस्स संचियस्स विवस उपस्ि आचागपचस्य विवागपत्तस्य फलपत्तस्म उदयपचस्स जीdi area जीवेणं निव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस सयं वा दिन्नस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएक वा उदीरिज्जमाणस्स गतिं पप्प टिई पप्प जब पप्प पो परिणामं पप्प फतिविद्धे अजाये पछ ? गोषमा ! नाणावर णिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पम्मत्ते । तं जहा- सोतावरणे सोयविमाणावरणे नेसावरणे नेचनिभाणावरणे पा णावर घाण विभाणावर रसावरणे रसविन्भाणावर ऐ फासावरणे फामविभाणावर वेदेति पोल वा पो गले वा पोग्गलपरिणामे वा बीससा पोग्गला परिणाम तेसिं वा उदरणं जाणियव्वं न जारण, जाणिउ कामे न जाइ, जाणिता दिन जावरा, मुष्वनाणीया विजयति नाणावर छिन्नस्स कम्पस्स उदपणं, एस गोयमा ! नाणावर पिज्जे कम्मे, एस णं गोयमा ! नाणावर लिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बस्स जान पोरगसपरिणामं पप्य दसविहे अणुभावे पत्ते ॥ ज्ञानावरणीयस्य । णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! जीवन बद्धस्य रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पष्टस्यात्मप्रदेशैः सह संक्लेशमुपगतस्य (बद्धफासपुहस्सेति) पुनरपि गाढतरं बद्धस्यातीव स्पर्शेन स्पृष्टस्य च । किमुक्तं भवति श्रावेष्टन परिवेष्टनरूपतयाऽतीव सोपचयगाढतरं च बद्धस्येति संचितस्य श्राबाधाकालातिक्रमेणोत्तर कालवेदनयोग्यतया निषिक्कस्य चितस्य उत्तरोत्तरस्थितिषु प्रदेशहान्या र सवृद्ध्याऽवस्थापितस्य उपचितस्य समानजातीयप्रकृत्यन्तरदलिककर्मणोपचयं मीतस्य प्रापाकप्राप्तस्य ईपत्याकाभिमु श्रीभूतस्य विपाकप्रातस्य विशिष्टपाकमुपगतस्य, अत एव फलप्राप्तस्य फलं दातुमभिमुखीभूतस्य । ततः सामग्रीवशादुदयप्रासत्वादयः कमधर्माः, यथा आम्रफलस्य । तथाहि श्राम्र फलं प्रथमत पल्पाकाभिमुखं भवति ततो विशिष्टं पाकमु पागतं, तदनन्तरं तुप्रिमोदादिफलं दातुमुति ततः सा मग्रीयादुपयोगप्राप्तं भवति। एवं कर्माऽपीति । ततः पुनर्जी चेन कथं बद्धमित्यत आह-( जीवेणं कयस्स) जीवेन कर्म बधनवर्द्धनेति गम्यते कृतस्य निष्पादितस्य जीवोपयोग स्वभावस्ततोऽसी रागादिपरिणतो भवति शेषः रागादिपरि तथ्य खन्फर्म करोति सा वरादितः कर्मन कस्य भवति, न तद्वियोगे; अन्यथा मुक्तानामप्यर्व । तरागत्यप्रसक्तेः। ततः कर्मबन्धनबद्धेन सता जोबेन कृतस्येति प्रष्टव्यम् । उक्तं - "जीवस्तु कर्मबन्धन बद्धो वीरस्य भगवतः कर्त्ता । संतत्यान नाथं च तदिष्टकर्मात्मनः कर्तुः " ॥ १॥ तथा जीवन निर्वार्तितस्य प्रथमो विशिस्तपातिक Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुनाग भनिधानराजेन्षः। अणुनाग पुशलान् गृहन् अनाजोगिकेन वीर्येण तस्मिन्नेव बन्धसमये यदा तदा तन्छियोपघातजननद्वारेण ज्ञानपरिणतावुपहतायां ज्ञानावरणीयादितया व्यवस्थापनं तनिर्वतनमित्युच्यते । तथा- ज्ञातव्यम् । एकेन्द्रियः किमपि सद्वस्तु न जानाति,बानपरिणजीवेन परिणामितस्य विशेषप्रत्ययैः प्रद्वेषनिहवादिनिस्तत- | तेरुपहतत्वात् । अयं सापेक्ष उदय नक्तः । निरपेक्वस्य तु विषये स्तमुसरोत्तरं परिणाम प्रापितस्य स्वयं वा विपाकप्राप्ततया पर- सूत्रमिदम-(तेसि वा उदएण ति) झानावरणीयकर्मद्गलानां निरपेक्कमुदीर्णस्य उदयप्राप्तस्य, परेण वा नदीरितस्य उदयमु. विपाकप्राप्तानामुद येन ज्ञातव्यं न जानाति । (जाणिकामे न पनीतस्थ, तदुजयेन स्वपररूपेणोजयेन उदीयमाणस्य उदयमुप- जाणा ति) ज्ञानपरिणामेन परिणमितुमिच्नापि ज्ञानपरिणनीयमानस्य गति प्राप्य किंचिद्विकर्म काश्चिद गति प्राप्य तीवानु- त्युपघातान जानाति । (जाणित्ता वि न जाणत्ति) प्राग् भावं भवति। यथा नरकगति प्राध्याऽसातवेदनीयम्। असातोदयो कात्वाऽपि पश्चान्न जानीते, तेषामेव ज्ञानावरणीयकर्म पद्गलाहि यथा नारकाणां तीवो भवति ,न तथा तिर्यगादीनामिति । नामुदयात् (उच्चभनाणीया विजवर इत्यादि) ज्ञानावरणीयस्य तथा स्थिति प्राप्य सर्वोत्कृष्टानुभावमिति शेषः। सर्वोत्कृष्टां हि कर्मण उदयेन जीव सच्चनझान्याप भवति । उच्छन्नं च तज्ज्ञानं स्थितिमुपगतमशुनं कर्म तीवानुनावं भवति । यथा मिथ्यात्वं चनच्छन्नशानं , तदस्यास्तीति उच्छन्नशानी, सर्वधनादिपाभवं प्राप्य इह किमपि किश्चिद्भवमाश्रित्य स्वविपाकप्रदर्शनसम- गभ्युपगमादिनिः। यावत् शक्तिप्रच्छादितज्ञान्यपि भवतीत्यर्थः। र्थम् । यथा निद्रा मनुष्यनवतिर्थग्भवं प्राप्येत्युक्तम् । एतावता "पस गं गोयमा!नाणावरणिले कम्मे" इत्याधुपसंहारवाक्य किल स्वत उदयस्य कारणानि दर्शितानि । कर्म हि ता तां कपठ्यम् । प्रा०नि०। गति स्थिति नवं वा प्राप्य स्वयमुदयमागच्छतीति । सम्प्रति दर्शनावरणीयस्यपरत उदयमाह-पुलं काष्ठलेवखडादिलकणं प्राप्य । तथा- दरिसणावरणिज्जस्स णं मंते ! कम्मस्स जीवेणं हि-परेण किप्तं काष्ठलेष्ठुखड़ादिकमासाद्य भवत्यसातवेदनी- वकस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प कातिविहे नावे यम् । क्रोधादीनामुदयस्तथा पुद्गलपरिणाम प्राप्य इह किश्चित्क- पामते ?। गोयमा! नवविहे अजाये पप्पत्ते । तं जहामें कमपि पुदलमाश्रित्य विपाकमायाति । यथाज्यवहृतस्या निद्दा निद्दानिद्दा पयला पयसापयला थीणछ। चखुदंसऽऽहारस्याजीपत्वपरिणामस्वमाश्रित्य असातवेदनीयम् ज्ञानावरणीयं तु सुरापानमिति । ततः पुशलपरिणाम प्राप्यत्युक्तम् । यावरणे अचक्दसणावरणे भोहिदसणावरणे केवलदंसकतिविधोऽनुभावाप्राप्तः,श्त्येष प्रश्नः। अत्र निर्वचनम्-दशवि. णावरणे जं वेदेइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पुग्गलपरिणाम वा धोऽनुभावः प्राप्तः। तदेव दशविधमनुभावं दर्शयति-(सोयाब. वीससा वा पोग्गलपरिणाम तेसिं वा नदएणं पासियवं रणे इत्यादि)ह श्रोत्रशब्देन श्रोत्रेन्द्रियविषयः कयोपशमः परि वा न पासइ,पासिउकामे न पास, पासित्ता विन पासइ, गृह्यते (सोयविनाणावरणे इति) श्रोत्रविज्ञानशब्देन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगः, यनु निर्वृत्युपलकणं भव्येन्द्रियं यदङ्गोपाङ्गं नाम नामकर्म नच्छन्नदसणीया विनवा दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स निर्वत्यै न कानावरणविषय इति, न श्रोत्रशब्देन गृह्यते । एवं उदए णं, एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिजे कम्मे, एस नेत्रावरणे श्स्यायपि भावनीयम् । तत्रैकेन्द्रियाणांरसनघ्राणच- णं गोयमा ! दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स जीवेणं शुःश्रोत्रविषयाणां सभ्युपयोगानां प्राय श्रावरणम् । प्रायोग्रहणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प नवविहे अणुनावे पाते। व वकुलादिन्यवच्छेदार्थम् । बकुझादीनां हि यथायोग पश्चाना प्रश्नसूत्रं पूर्ववत् । निर्वचनमाह-गौतम!नवविधः प्रशप्तः। तदेव मपीन्द्रियाणां सन्ध्युपयोगाः फलतः स्पष्ट उपलक्ष्यन्ते। भागमे नवविधत्वं दर्शयति-निदा' इत्यादि । निकाशब्दार्थमग्रेवपिच प्रोच्यन्ते-"पंचिदियो ब्व बउलो, नरो ब्व पाचदिनोवा क्ष्यामः। नावार्थस्त्वयम्-"सुहपमिवोहा निहा, दुहपमिवोहाय गाओ। तद विन जन्नइ पचि-दिश्रोत्ति दविदिया नावा" ॥१॥ निहनिहा य । पयला हो पियस्सा. पयशापयमा य चकमश्रो तथा-"जह सुहुमं भावेदिय-नाणं दविदियावराहे विदव्य ॥१॥थीणद्धी पुण अश्स, किबिठकम्माण यणे होइ । महस्सु य भावम्मि वि, भावसुयं पत्तिवाईणं " ॥१। ति। ततः निहादि णचिंतिय-वावारपसाहणी पायं "॥२॥ चक्षुर्दशनाप्राय इत्युक्तम् । द्वीलियाणां प्राणचक्कःश्रोत्रेन्द्रियविषयाणां चरणं चतुःसामान्योपयोगावरणम । एवं शेषेष्वपि नावनीयम् । सम्भयुपयोगानां त्रीझियाणां चक्षुःश्रोत्रविषयाणां चतुरि (जं वय इत्यादि) यं वेदयते पुद्गसमृदयनीयादिकं (पुम्गले छियाणां श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्युपयोगावरणं स्पर्शनेन्डियलग्भ्यु वा इति ) यान् पुद्वान् बहन् मृदशयनीयादीन् चेदयते पयोगावरणं कुष्ठादिव्याधिजिरुपहतदेहस्य कष्टव्यम् । पोन्छि पुद्रसपरिणाम माहिषदध्याद्यभ्यवहताहारपरिणाममित्यर्थः,(वीयाणामपि जात्यन्धादीनां पश्चाद्वा अन्धबधिरीजूतानां चकुरादी- ससा वा पोग्गलाण परिणामामति) वर्षास्वनसंसृतननोरूपं, न्द्रियलभ्युपयोगावरण भावनीयम् । कथमेवमिन्द्रियाणां च धाराम्बुनिपातरूपं वा यं वेदयते तेन निद्राद्युदयावेपतो दर्शसभ्युपयोगावरणमिति चेत् ?। उच्यते-स्वयमुदीर्णस्य परण वा | नपरिणत्युपघाते । एतावता परत उक्तः। सम्प्रति स्वत उदयउदीरितस्य ज्ञानावरणीयस्ये कर्मण उदयेन । तथा चाह- माह-(तेर्सि वा उदएणत्ति) तेषां वा दर्शनावरणीयकर्मपुमला. (जं वेएइ इति ) यवेदयते परेण क्षिप्त काष्ठलेटवडादिनक्षणं नामुदयेन परिणतिविघातेन द्रष्टव्यं न पश्यात । तथा कश्चिद्दर्शपुल तेनाभिघातजननसमर्थेन (पुग्गले वा इति) यावद् यह नपरिणामेन परिणमितुमिच्छन्नपि जात्यन्धत्वादिना दर्शनपरिणन पुद्गलान काष्ठादिनक्कणान् परेण किप्तान् वेदयते, तैरभि- स्युपघातान पश्यति-प्राग् दृष्ट्वाऽपि पश्चान्न पश्यति , दर्शनाघातजननसमर्थः पुद्गलपरिणाममभ्यवहताहारपरिणामरूपं वरणीयकर्मपुरलानामुदयात् । किंबहुना?, दर्शनावरणीयस्य पानी यरसादिकमतिपुःखजनक वेदयते; तेन वा ज्ञानपारणत्यु- कण सदयेन जीव उच्छन्नदर्शन्यपि यायचक्तिप्रच्छादितपहननात् ! तथा (वीससा वा पोग्गलाण परिणाममिति विन- दर्शन्यपि नवति । "पस णं गोयमा!दरिसणावरणिजे कम्मे" सया यत्पुद्गलानां परिणामं शीतोष्णातपादिरूपत्वं वेदयते । इत्याद्युपसंहारवाक्यम् । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७) अणुन्नाग अनिधानराजेन्द्रः । अणुभाग सातासातावेदनीयस्य त्यादि ) यं वेदयते पुलं विषयप्रतिमादिकं पुस्लान् वा यान सातावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बच्चस्स जाव वेदयते बहुन प्रतिमादान यं पुलपरिणाम देशाधनुरूषाहार पोग्गलपरिणाम पप्प कतिविहे अणुलावे पणते । गोयमा ! परिणामं कर्म पुलविशेषोपादानसमर्थ भवति, आहारपरि णामविशेषादपि कदाचित्कर्मपुतलविशेपो यथा-ब्राह्मघोषधासायावेयणिज्जस्स कम्मस्स जीवेण बच्चस्स जाव अहवि चाहारपरिणामात् ज्ञानाबरणीयकर्मपुजनानां प्रतिविशिष्टःहे अणुनावे पलते । तं महा-मणुन्ना सद्दा, मणुन्ना रू- योपशमः । उक्तञ्च- "उदयक्णयखळबसमो-वसमाविजयं च वा, मणुन्ना गंधा, मणुन्ना रसा, मणुन्ना फासा, मणोसु- | कम्मणो प्रणिया। दव्वं खेतं कालं, भवं च भावं च संपप्पे" हता, वयसुहता, कायसुहता। जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले ॥३॥ विस्रसया वा यत् पुगतानां परिणाममनविकारादिकं य दर्शनादेवं विवेक उपजायते-"आयुः शरजनधरप्रतिम नराणां, वा पोग्गनपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम ते. संपत्तयः कुसुमितद्रुमसारतुल्याः। स्वप्नोपनोगसरशा विषसिं वा नदएणं सातावेदणिज्ज कम्मं वेदे । एस णं गोयमा ! योपत्नोगाः, संकल्पमात्ररमणीयमिदं हि सर्वम्"॥१॥ इत्यादि । सातावेणिज्जे कम्मे, एस एं गोयमा! सायावयणिज्ज- अन्यं वा प्रशमादिपरिणामनिबन्धनं यं वेदयते तत्सामर्थ्यास्स जाव अविहे अणुलावे परमत्ते । असायावेयणिज्ज न्मोहनीयं सम्यक्त्ववेदनीयादिकं वेदयते,सम्यक्त्ववेदनीयादि. कर्मफझं प्रशमादि वेदयते इति भावः । एतावता परत उदय स्स णं ते ! कम्मस्स जीवेणं तहब पुच्चा, उत्तरं च, नव उक्तः। सम्प्रति स्वतस्तमाह-(तेसि वा उदएणं ति) तेषां रं अमणुन्ना सदा जाव वयहिता एसणं गोयमा! असा च सम्यक्त्ववेदनीयादिकर्मपुमलानामुदयेन प्रशमादि वेदयते तावेयणिज्जस्स जाव अट्टविहे अणुजावे ॥ 'एस णं' श्त्याद्युपसंहारवाक्यम् । प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् । निर्वचनमाह-गौतम ! अपविधोऽनुभावः आयुषःप्राप्तः । अष्टविधत्वमेव दर्शयति-(मणुना सद्दा इत्यादि ) आनयस्स णं भंते ! कम्मरस जीवेणं तहेव पुच्छा । गोयमनोझाः शब्दा आगन्तुका वेणुवीणादि संबन्धिनः । अन्ये 'आ- यमा! श्रानयस्स एं कम्मस्स जीवेणं बच्चस्स जाव चनस्मीया' इत्याहुः। तदयुक्तम् । प्रात्मीयशब्दानां वाक्सुखेनेत्यनेनैव विहे अनाचे पामते । तं जहा-नेरइयाए तिरियानए गृहीतत्वात् । मनोज्ञा रसा श्वरसप्रभृतयः, मनोहा गन्धाः कर्पूरादिसम्बन्धिना, मनोझानि रूपाणि स्वगतस्वस्त्रीचित्रादिग मणुयानए देवाउए जं वेदेइ, पोग्गझं वा पोग्गले पोग्गलपतानि, मनोझाः स्पीः हंसतूल्यादिगताः, (मणोसुहया ति) रिणाम वा वीससा वा पोग्गनाणं परिणामं वा, तेसिं वा मनसि सुखं यस्यासी मनःसुखस्तस्य भावो मनःसुखिता, सु- नदएणं आउयं कम्मं वेदेइ, एस णं गोयमा ! प्रानयस्स खितं मन इत्यर्थः । वाचि सुखं यस्यासी वाकसुखस्तस्य नावो कम्मस्स जाव चउविहे अणुभावे पप्पत्ते ॥ वासुखिता। सर्वेषां धोत्रमनःप्रह्लादकारिणी वागिति तात्प प्रश्नसूत्रं प्राग्वत । निर्वचनम्-चतुर्विधोऽनुनावः प्रज्ञप्तः। र्यार्थः । काये सुखं यस्यासौ कायसुखस्तद्भावः कायसुखिता, तदेव चतुर्विधत्वं दर्शति-(नेरश्यानए इत्यादि) सुगमम् । 'जवे. सुखितः काय इत्यर्थः । एते चाष्ट पदार्थाः सातावेदनीयस्योदयेन प्राणिनामुपतिष्टन्ते । एइ पुग्गलं वा 'इत्यादि, यं वेदयते पुसलं शस्त्रादिकमायुरपवर्त्तमोहनीस्य नसमर्थ बढून पुसलान् शस्त्रादिरूपान् यान् वेदयते यं वा पुद्ग लपरिणाम विषान्नादिपरिणामरूपं विस्रसया वा यं पुनपरिमोहणिजस्स णं भंते ! कम्मरस जीवेणं बफस्स जाव | णामं शीतादिकमेवायुरपवर्तनकम तेनोपयुज्यमानन्नवायुषोकाविहे अणुनावे पएणते ? गोयमा ! मोहणिज्जस्स क- पवर्तनान्नारकाद्यायुःकर्म वेदयते । एतावता परत उदयोऽभिम्मस्स जीवेणं बच्चस्स जाव पंचविहे अणुभावे पएणत्ते । हितः । स्वत उदयस्य सूत्रमिदम-तेसिं वा उदए णं ति] तेषां तं जहा-सम्मत्तवेयणिजे मिच्छत्तवेयणिज्जे सम्मामिच्छत्त घा नारकायुःपुलानामुदयेन नारकाद्यायुर्वेदयते, 'पस गं' इत्याधुपसंहारवाक्यम्। वेयणिज्जे कसायवेयणिजे नो कसायवेयणिज्ने जं वेदेइ तत्र नामकर्म द्विधा-शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म च । तत्र पोग्गने वा पोग्गलपरिणाम वा वीससा वा पोग्गलपरि शुमनामकर्माधिकृत्य सूत्रमाहणामं तेसिं वा उदएणं मोहणिज्जं कम्मं वेदेश, एस एं सुभणामस्स णं ते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा | गोयमा! गोयमा ! मोहणिज्जकम्मे, एस णं गोथमा ! मोहणिज्जस्स सुभनामस्स कम्मस्स जीवेणं बछस्स जाव चन्दसबिहे जाव पंचविहे अणुनावे पएणते । अणुनावे पत्ते। तं जहा-इट्वा सद्दा इट्टा रूवा इहागंधा प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् । निर्वचनम्-पञ्चविधोऽनुन्नावः प्राप्तः । त इका रसा स्ट्ठा फासा श्हा गई इट्ठा लिई इ8 लावनं हा देव पञ्चविधत्वं दर्शयति-सम्यक्त्ववेदनीयमित्यादि । स- जसोकित्ती इडे नहाणकम्मबलवीरियपुरिसकारपरकमे म्यक्त्वरूपेण यद्वा तत्सम्यक्त्ववेदनीयम् । एवं शेषपदेष्वपि हस्सरता कंतस्सरता पियस्सरता मणुनस्सरता जं शब्दार्थो जावनीयः । नावार्थस्त्वयम्-यदिह वेद्यमानं प्रशमादिपरिणामं करोति तत्सम्यक्त्ववेदनीयं, यत् पुनरदेवादिबुद्धि वेदे पोग्गलं वा पोग्गले वा पुग्गलपरिणामं वा वीससा हेतुस्तन्मिथ्यात्ववेदनीय मिश्रपरिणामहेतुः सिम्यमिथ्यात्व वा पोग्गलाणं परिणामं तसिं वा उदएणं मुजनामं कम्म वेदनीयं क्रोधादिपरिणामकारणम् । कषायवेदनीय हास्यादिप-| वेदेइ, एस णं गोयमा ! मुननामकम्मे, एस णं गोयमा ! रिणामकारणम् । नो कषायवेदनीयस् । (जं वेदेश पुग्गलमि- सुभनामस्स कम्मस्स जाव चन्दसविहे अणुभावे पाते ।। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) अणुभाग श्रभिधानराजेन्द्रः। अणुभाग प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् । निर्वचनस-चतुर्दशविधोऽनुभावः। तदेव च- इति ] अन्नव्या वागिति जावार्थः [कायदुहिया इति ) काये तुर्दशविधत्वं दर्शयति-(छा सहा इत्यादि ) एते शब्दादय मुख यस्यासी कायदुःखस्तद्भावः कायदुःखिता, दुःखितं काय आत्मीया एव परिगृह्यन्ते, नामकर्मविपाकस्य चिन्त्यमानत्वात्।। इत्यर्थः [ जंघेए श्त्यादि] यं वेदयते पुन्नं विषशस्त्रकण्टनत्र वादिषाधुत्पादिता इत्येके। तदयुक्तम। तेषामन्यकमोदयनि- कादि [ पुम्गले वा इति ] यान् वा पुलान् बहून् विषशस्त्रकरूपाद्यत्वात् । इष्टा गतिमत्तवारणाद्यनुकारिणी शिविकाद्यारोहण- एटकादीन वेदयते यं वा वेदयते पुत्रपरिणाममत्याहारलकणं तश्चेति पकेटा स्थितिः सहजा सिंहासनादौ च अन्ये,इथंला- विस्रसया चा चं वेदयते पुत्रपरिणाममकालेऽनभिलषितं वण्यं गयाविशेषलवणं कुङ्कुमाद्यनुलेपन जमिति अपरे,श्ष्टा य- शीतोष्णादिपरिणाम तेन मनसोऽसमाधानसम्पादनात असाशाकीर्तिर्यशसा युक्ता कीर्तिः । यशकीयोश्चायं विशेषः- तवेदनीयं कर्मानुभवति । असातवेदनीयकर्मफलमसातं वेदयदानपुण्यकृता कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः, (छे उट्ठाणकम्म- त इति भावः । पतेन परत उदय उक्तः । सम्प्रति स्वत उदयबलवारियपुरिसकारपरिक्कमे इति) उत्थानं देहचेष्टाविशेषः, माह-[तसि वा उदएणं ति] तेषां वा असातवेदनीयकर्मकर्म रेचनच्चमणादि, बवं शारीरसामर्थ्यादिविशेषः, वीर्य जी- पुलानामुदयेनासातं वेदयते ' एस णं गोयमा ' इत्याएपप्रजवः, स एव पुरुषाकारोऽभिमानविशेषः, स एव निष्णा- पसंहारवाक्यम् । दितस्वविषयपराक्रमः । इष्टस्वरता वल्लभस्वरता । तत्र इटाः अशुननाम्नःशब्दाः इति सामान्योक्तावियं विशेषोक्तिस्तदन्यब हुमतत्वापेक्का- दुहनामस्स णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! एवं चेव, नवरं अऽवगन्तव्या । कान्तस्वरतेति । कान्तः कमनीयः सामान्यतो- णिहा सद्दा जाबहीणस्सरता दीणस्सरता आणिट्ठस्सरता ऽभिषणीय इत्यर्थः । कान्तः स्वरो यस्य स तथा तद्भावः कान्तस्थरता । प्रियस्वरतेति । प्रियो भूयोऽभाषणायः प्रियः अकंतस्सरता जं इ. सेसं तं चेव जाव चउद्दसविहे अस्वरो यस्य स तथा तद्भावः प्रियस्वरता ( मान्नस्सरया गुनाके पएणते ॥ इति) उपरतभावोऽपि स्वालम्बनप्रीति जनको मनोज्ञः स स्व- प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्। निर्वचनसूत्रं प्रागुक्तार्थयैपरीत्येन भावनीयम् । रो यस्य स मनोइस्थरता (जं वेएइ इत्यादि ) यं वेदयते पुद्ग- गोत्रं विधा-वर्गोत्रं वा नीचैोत्रं वा । तत्रोचगांत्रविषयं सं वीणावर्णकगन्धताम्बूलपट्टशिविकासिंहासनकुङ्कमदानराज सूत्रमाहयोगगुलिकादिनकणम् । तथा च वीणादिसम्बधाद् भवन्तीष्टाः उच्चागोयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्चा । गोयमा! शब्दादय इति परिभावनीयमेतत् सूक्ष्मधिया मार्गानुसारिण्या। (पुग्गले वा इति ) यतो बहून् पुत्रान् वेणुवीणादिकान बंदय उच्चागोयस्स कम्मरस जीवेणं बच्चस्स जाव अट्ठबिहे अतो यं पुद्गलपरिणामं ब्राह्मवाद्याहारपरिणामं विस्रस्रया वा यं गुलावे परमत्ते । तं जहा-जातिविसिद्वता कुलविसिठ्ठता पुद्गलानां परिणामं गुजजलदादिकं तथा चोन्नतान् कज्जनसम- बलविसिट्ठता स्वविसिट्ठता तवविसिद्धता सुयविसिट्टता प्रनामेघानवलोक्य प्रदर्षमनसो गायन्ति मत्तयुचतयो रेल्नुका- लानविसिध्या इस्सरियविसिट्ठया जं वेदे पोग्गलं वा निष्टस्वरानित्यादि, तत्प्रभावात शुजनामकर्म बेदयते शुनना पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं मकर्मफलमिष्टस्वरतादिकमनुभवतीति जावः । एतायता परत उक्तः । श्दानी स्वतस्तमाद-[तेसि वा उदएणं ति] तेषांचा परिणाम तेसिं वा उदएणं जाव अढविहे अभावे शुभानां कर्मपुलानामुदयेन इटशब्दादिकं वेदयते "एस ण पएणत्ते ॥ गोयमा!" इत्याद्युपसंहारवाक्यम्। उक्तोऽपविधसातवेदनीय- प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् । निर्वचनम्-अष्टविधोऽनुभावः प्राप्तः । स्यानुनावः । परतः सातवेदनीयस्योदयमुपदर्शयति-[ज बेए तदेवाप्टविधत्वं दर्शयति-[जाइविसिट्ठया इत्यादि ] जात्यापुमालमित्यादि ] यद् वेदयते पुसलं म्रक्चन्दनादि यान् वा दयः सुप्रतीताः । शब्दार्थस्त्वेवम्-जात्या विशिष्टो जातिवेदयते पुद्रलान् बहून् स्रक्वन्दनादीन य या वेदयते .पुलप विशिष्टस्तद्भावो जातिविशिष्टता इत्यादिकम् । वेदयते पुलं रिणामं देश कालवयोवस्थाऽनुरूपाहारपरिणामम [वीससा या बाद्यव्यादिलकणम् । तथाहि-व्यसम्बन्धाजाजादिविशिपुग्गलाण परिणामं] विस्रसया वा यं पुद्वानां परिणामकामे प्रपुरुषसम्परिग्रहाद्वा नीचजातिकुलोत्पन्नोऽपि जात्यादिस. भिलषितं शीतोष्णादिवेदनाप्रतीकाररूपं तेन मनसः समाधान म्पन्न श्व जनस्य मान्य उपजायते । बलविशिष्टताऽपि मसम्पादनात् सातवेदनीय कर्मानुभवति । सातवेदनीयकर्मफत्र खानामिव लकुटिनमणवशाद । रूपविशिष्टता प्रतिविशिष्टवसात वेदयते इत्यर्थः । नुक्तः परत उदयः। सम्प्रति स्वत उदय- स्त्रालङ्कारसम्बन्धात् । तपोविशिष्टता गिरिकूटाद्यारोहणेनातापमाह-[तेसि वा नदरण ति] तेषां वा मातवेदनीयपुद्गानामुद. नां कुर्वतः । श्रुतविशिष्टता मनोभूदेशसंबन्धात् स्वाध्यायं कुयेन मनोकशब्दादिव्यतिरेकेणापि कदाचित्सुखं बंदयत,यया नेर- तः। लानविशिष्टता प्रतिविशिष्टरत्नादियोगात् । ऐश्वर्यवियिकास्तीर्थकरजन्मादिकासे। "एसणं गायमा!" इत्यापसंहा- शिएता धनकनकादिसम्बन्धादिति । ( पुग्गले वा इति ) यान रवाक्यम् । प्रश्नसूर्य सुगम, निर्वचनं पूर्ववत् । तथा चाह-"तहेव बहून् पुशलान् वेदयते पुद्गलपरिणामं दिव्यफलाद्याहारपरिणापुग, उत्सरंच,नवरं" इत्यादिना पूर्वसूत्रादस्य विशेषमुपदर्शय- मरूपं विस्रसया वा यं पुद्गलानां परिणाममकस्मादभिहितजति-[अमणुन्ना सदा इत्यादि ] अमनोशाः शब्दाः खगेष्टाश्या- लदागमसंवादादिलक्षणं तत्प्रभावापुगोत्रं वेदयते उगोत्र दिसम्बधिन अागन्तुकाः, अमनोझा रसाः स्वस्याप्रतिभासिनो कर्मफलं जातिविशिष्टत्वादिकं वेदयते । पतेन परत उदय - दुःख जनका, अमनोझा गन्धा गोमहिषादिमृतकलेवरा दिगन्धाः । तः । सम्प्रति स्वतस्तमाह-[तेसिं वा उदएणं ति] तेषां वा अमनोझानि रूपाणि स्वगतस्त्रीगतादीनि, अमनोझा स्पर्शाः क- उपचौत्रकर्मपुद्गलानामुदयेन जातिविशिष्टत्वादिकं भवति केशादयः [मणोदुहया इति ] पुखितं मन इति [ वयहिया | "एस गोयमा!" श्त्यायुपसंहारवाक्यम् । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) अभिधानराजेन्द्रः । अणुभाग नीचैर्गोत्रस्यनागोय ते पुच्छा। गोयमा ! एवं चैव नवरं जातिविहीणता जाव इस्सरियविहीणता जे वेदे पो भगवा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पांग्गलाणं परिणामं तेसि वा उदए जाव विहे अणुभावे पत्ते ॥ प्रसू प्राम्यत् निर्यचनम् विधो ऽनुभावः तमेवाविधम भावं दर्शति - [जाविहीणया इत्यादि ] सुप्रतीतम् । [ जं देश पुग्गलमिति ] यं वेदयते पुलंनीच कर्म सेवनरूपं, नीचपुरुषसम्बन्धकथं वा तथाहि - उसम जातिसम्पन्नपि - कुलोत्पन यदि नीचैः कर्मवशा यथा जीविका रूपमा सेवते, चाएमाझीं वा गच्छति तदा भवति चारमालादिरिव जनस्य निन्द्यः । बलहीनता, सुखशयनीयादिसम्बन्धात्। तपोविहीनता पार्श्वस्थादिसंसर्गात्तविहीनता विकथापर सायामासादिसंत सावता देशका अनुचित क्रियायां सम्पर्कतः ऐश्वर्यविहीनता कुग्रह कुकलत्रादिसम्पर्कत इति । [ पुग्गले या इति ] वान् बहून् पुत्रान् वेदयते यथा परिणा वृन्ताक फनं ह्यज्यवहृतक एमूत्युत्पादनेन रूपविनितामापादयतीत्यादि विश्वसया वा पुलानां परिणाममभितजलदागमविचाणं यते तत्रभवानीचैः कर्म वेदयतेनीचैः कर्मफलं जात्यादिविहीनतारूपं वेदयते इत्यर्थः । एतावता परत उदय उक्तः । सम्प्रति स्वत उदयमाह - ( तेर्सि वा नदवा यंत्रकर्मफखानामुदयेन जात्यादिधिहीनतामनुभवति । "एस णं गोयमा !" इत्याद्युपसंहारवाक्यम् । अन्तरायस्य अंतराइयस्सणं ते! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा । गोयमा ! अंतराइयम्स कम्मस्स जीबेणं बद्धस्स जाव पंचावना पाने तं नादानंतर लातराए भोगंतराए उवनोगंतराए वीरियंतराए जं वेदेति पो गनं वा जाव वीससा वा तेसिं वा उदरणं अंतराइयं कम्मं वेदेश, एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे, एस णं गोयमा ! जाव पंचविहे । प्रसू प्राम्यत् निरादेव पञ्चविधत्वं दर्शयति- ( दाणंतराण इत्यादि) दानस्यान्तरायो विघ्न दानान्तरायः । एवं सर्वत्र भावनीयम् । तत्र दानान्तरायो दानान्तरायस्य कर्मणः फलस। लाभान्तरायो बाभान्तरायादिकर्मणामिति । जंगलं वा इत्यादि यंद 1 विविविशिरत्नादिसम्बन्धादृश्यते ये दामा मलरायोदयः खच्छेदनायुपकरण सम्बन्धाञ्जाभान्तराय कमीदयः प्रतिविशिाहारसम्बन्धादन सम्बन्धाद्वातो भो गान्तरायोदयः । एवमुपभोगान्तरायकर्मोदयोऽपि नावनीयः । तथा लकुटाद्यभिघाताद् वीतरागकमय इति लान् या बहून् तथाविधानसान बेदयते यं वा पुलपरि सामं तथाविधाहारौषध्यादिपरिणामरूपम् । तथाहि दृश्यते तथाविचाऽऽदारीचच परिसरायकमयः मन्त्रीपालमा भोगान्तरायोदयः । यथा विस्य विमाया गानां परिणाम विशीतालिम् । तथादिश्यन्ते वस्त्रादिकं दातुकामा अपि अणुभागबंधाण शीतादिनमा झोक्य दामान्तरायोदयात् तस्थादातारः इति तत्प्रभावात् एष परत उदय उक्तः । स्वतस्तमाह - ( तेसिं दात) तेषां या अन्य कर्ममानामुदयेन अन्तरायक मैफलं दामान्तरायादिकं श्यते "एस" त्यापसंहारा क्यम् । प्रज्ञा० २३ पद । तम्हा प स कम्माणं श्रनागे वियाहिए । एएसिँ संवरे चेव, खवणे य जए बुहे " ॥ १ ॥ उत्त० ३३ अ०। कर्मणः स्वभावे, तदुक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णै- "श्रणुभागोसि सहाओ" क०प्र० । ( कर्मणां करणानां बन्धन संक्रमादीनामनुभागबन्धादिभेदाः बन्धादिशब्देषु दृश्याः ) । अनागमप्यावय- अनुभागात्पबहुत्व-२० अनुभागं प्रत्य पचये बच्चा " सम्परथोपा अर्थगुणवुडिठाणानि अ अगुिण संसि णाणि असं खिज्जगुणाई जाव श्रणंतभागवुद्धिप्राणाणि श्रसंखि ज्जगुणाणि " प्रदेशास्पबहुत्वं यथा- "अविहबंधगस्स य आउभागो घोषो नामगोपाल बिसेसाहिओ नाणावर परायाणं तुलो विसेसाहियो मोहस्स विसेसादिश्रो वेषणिज्जस्स बिसेसाहिओ त्ति " । स्था० ४ ० २ उ० । अणुभाग उदीरणोवकम- अनुनागोद । रणे[पक्रम- पुं०। प्राप्तोदय रसेन सहाप्राप्तोदयस्य रसस्य वेदनाऽऽरम्ने, स्था० ५० १०० अनागकम्प - अनुज्ञागकर्मन - न० । अनुभागरूपं कर्मानुभाकर्म । रसात्मके कर्मभेदे, भ० १ ० ४ ० । अनागामनिहाय अनुभागनामानिषत्तायुष अनुनाग आयुष्कर्मद्रव्याणादिदो रसः स एयनयवा नाम परिणामो ऽनुभागनाम अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुजागरूप नुनागाम तेन सह विभागनामनिधारित आयुर्वन्यनेदे स० प्र० । स्था०| न० । अणुभाग (व) बंध - अनुभाग (व) बन्ध - पुं० । अनुभागो विपाकादिदो रस इत्यर्थः तस्य वन्धोऽनुज्ञागबन्धः च धनदे, स्था० ४ ठा० २ उ० । ( 'बंध' शब्दे ऽस्य व्याख्या ) अणुभागबंधनसायट्ठाण - अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान-न० । कृष्णादिलेश्यापरिणामविशेषे, कर्म० १ कर्म० । सकपायोदयाहि कृष्णादिलेापरि माविशेषाः अनुग इतिवचनात् । क० प्र० । (ब) अनुभाग (मपधस्थान- ० त्यस्मिन् जीव इति स्थानम, अनुभागबन्धस्य स्थानमनुनागवन्धस्थानम् । एकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुमानवसमत रससमुदायपरिणामेादकं चौदयरूपेषु श्रध्यवस्यविशेषेषु प्रय. १९२० । एगसमयम्मि लोए, सुदुमगाएजिया न जे न पविसंति । ते नलोपसा असंखेा ॥ " तत्तो असंखगुणिया, अगणिकाया उ तेसि काय | ततो भागबंधद्वाणखाणि वा ॥ बोकेर जगति एकस्मिन् पृथिवोकायिकादयो जीवा (मगणिजिया उति सम्यर्थत्यात्ममायाः सुश्माप्री Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४००) अणुभागबंधहाण अनिधानराजेन्डः। अणुमत घेषु सत्मनामकर्मोदयवर्तिषु तेजस्कायिकजीवेषु प्रविशन्ति र सं०(वरणा' शम्दै दि० भा० ६५८ पृष्ठेऽस्य व्याख्या) त्पद्यन्ते । संश्येयत्वमेवाद-असंख्यलोके प्रदेशतुल्या असं- अणुभागोदय-अनुनागोदय-पुं० । अनुभागविषये कर्मणामुरुयेयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः । हब विजातीयजीवानां वये,पं० सं०५वा क० प्र०। ( 'उदय' शब्दे वि० भा० जात्यन्तरतयोत्पत्तिः प्रदेश उच्यते । इत्यमेव प्रज्ञप्ती प्रवेशनक ७७६ पृष्ठेऽस्य व्याख्या) शब्दार्थस्य व्यास्यातत्वात । ततस्ते जीवाः पृथिव्यादिन्योऽप्कायेभ्योषादरतेजस्कायभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायतयोत्पद्यन्ते, शह गृह्य- अणुभाव-अनुभाव-पुं० । शुमानां कर्मप्रकृतीनां प्रयोगकर्मणोन्ते, ये पुनः पूर्वमुत्पन्नाः तेजस्कायिकाःपुनर्मृत्वातेनैव पर्यायेणो- | पात्तानां प्रकृतिस्थितिप्रदेशरूपाणां तीवमन्दानुभावतयाऽनुनत्पद्यन्ते न गृह्यन्ते, तेषां पूर्वमेव प्रविएत्वात् । ततः सर्वस्तोका | घने, भाचा०व०२०१० स०। प्रचिम्स्यायां वैक्रियकरणाएकसमये समुत्पन्नसूदमानिकायिकाः । (तत्तो ति) ततस्तेज्य | दिकायां शको च। स्था० ३ ग०३३० । प्रभाष च । व्य०२२० । एकसमयोत्पन्नसूदमाऽनिकायिकेन्योऽसंख्येयगुणिता असंख्ये अणुनावकम्म-अनुनागकर्मन्-न० । अनुभागतो घेद्यमाने कयगुणा अनिकायाः पूर्वोत्पन्नाः सर्वेऽपि सूदमाग्निकायिकजी मणि, यस्य हि मनुभावो यथा बसरसा वेचते । स्था० २ वाः। कथमिति चेत् ? उच्यते-एकः सूदमानिकायिको जीवःस ग०३ उ०। मुत्पनोऽन्तर्मुहूर्त जीवति, एतावन्मात्रायुष्कत्वात् । तेषांतस्मिश्चान्तर्मुहूर्ते ये समयास्तेषु प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रमा- अणुजावग-अनुभावक-त्रि० । चिन्तापके, प्रा० म०वि० । णाःसूक्ष्माग्निकायिकाः समुत्पद्यन्ते, अतः सिकमेकसमयोत्पन्न प्रजासण-अनुभाषणं-न० । प्राचार्यभाषणात्पश्चाद नासूक्ष्माग्निकायिकेन्यः सर्वेषां पूर्वोत्पन्नसदमानिकायिकानामसं. षणे, प्राचार्येण प्राषिते पश्चात् मापणं न पुनः प्रधानीनुयास्येयगुणत्वम् । तेभ्योऽपि सर्चसूक्ष्मानिकायिकेन्यस्तेषामेव प्र. चार्यभाषणादन नाषते । “साहूणं अणुनासर, आयरिएणं तु त्येकं कायस्थितिः पुनः पुनस्तत्रैव काये समुत्पत्तिलकणा सं. जासिए संते।" व्य० ३ १०। प्रा० चूछ। ख्यातगुणा पकैकस्यापि सूक्ष्माग्निकायिकस्य संख्येयोत्सर्पिणीप्रमाणायाः कायस्थितेरुत्कर्षतः प्रतिपादितत्वादिति । तस्या आणुभासण (णा) सुक-अनुनाषण ( णा) शुध-न। अपि कायस्थितः सकाशात् संयमस्थानान्यनुभागबन्धस्था- गुरुच्चारितस्य शनैः शुशोच्चारणरूपे भावविशुभिनंदे, प्रा. नानि च प्रत्येकमसंख्येयगुणानि कायस्थितापसण्येयानां चू० ६ ० । अनुनाषणाशुद्धं यथास्थितिबन्धानां भावादे कैकस्मिश्च स्थितिबन्धे असंख्येयाना- "अनुभास गुरुघयणं, अक्सरपयवंजणेहिँ परिसुरूं। मनुभागबन्धस्थानानां सद्भावादिति । संयमस्थानान्यप्यनु पंजलिउडो अभिमुहो, तं जाणऽणुभासणासुझं"॥१॥ भागबन्धस्थानस्तुल्यान्येवेति । तेषामुपादानं तत्स्वरूपं चाऽग्रे नवरं गुरुर्भणति-( बोसिरत्त ति ) शिष्यस्तु-( घोसिपायामः । अथाऽनुनागबन्धस्थानानीति कः शब्दार्थः । रामि ति) स्था० ५ ० ३ उ० । कृतकृतिकर्मप्रत्याउच्यते । तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानम् । अनुभागवन्ध क्यानं कुर्वन् अनुभाषते गुरुवचनं लघुतरेण शब्देन भणस्य स्थानमनुभागबन्धस्थानम् । एकेन काषायिकेणाध्यवसा तीत्यर्थः । कथमनुभाषते, प्रकरपदव्यजनैः परिशुरुमननायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्तिकसमयबरससमु नुनाषणायनमाद । नवरं गुरुर्मणति-(वोसिरहति) इमो विभदायपरिमाणमित्यर्थः । तानि चानुभागबन्धस्थानान्यसंख्येय पति-(वोसिरामि त्ति)सेसं गुरुभणियसरिसंभाणियब्वं' किंमोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तेषां चाऽनुभागबन्धस्थानानां नि भूतः सन् ? कृतप्राञ्जलिरनिमुखस्तज्ञानादि अनुभाषणाशुरूपादकाः कषायोदयरूपाः अभ्यवसायविशेषास्तेऽप्यनुनाग मिति । माव०६०। बन्धस्थानानीत्युच्यन्ते, कारणे कार्योपचारात् । तेऽपि चानु-अणुत्त-अनुति-नीका अनुजवनमनुनूतिः। अनुजवे, विशे। भागबन्धाध्यवसाया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति । प्रा० म०प्र० । दश । प्रव० १६२ द्वा० । क० प्र० । पं० सं०।" अभाभागवं. धहाणा अज्जवसायट्ठाणा व पगडा" पं०सं०५द्वा० .. अणुमइ-अनुमति-स्त्री० । अनुमोदने ,आव० ४ अ० । सूत्रः। अणुभाग (व) संकम-अनुभाग (व) संक्रम-पुं०। भनुन्ना. तत्स्वरूपं च-"का सयं परिणते, अणुधारणअनुमती हीति गविषये संक्रमभेदे, क० प्र०। एवं भणति तुम अप्पणो य एणस्स वा इत्थंकम्मं करे हिंति" । आत्मव्यतिरिक्तस्य परस्यैवम्-“इच्चस्स चा अणितत्स्व रूपं च" तत्थऽपयं सम्ध-हिया व ओवटिया व अविनागा । कस्स वा बलानिमोगा इत्थकम्म कारावयतो फारायणा अनुभागसंकमा ए-स अभपगई निया या वि" ॥१॥ति।। जएणति" नि० चू० १३० । प्रानुकूल्ये , प्रव०६ द्वा०। ( अपयं ति ) अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम् । प्र- अणुमश्या-अनुमतिका-स्त्री० । उज्जयिन्यां देवलासुतस्य विभाग ति ) अनुभागाः (निय त्ति) नीता इति । क. प्रण राझो पार्याया अनुरक्तलोचनाया दास्याम, प्रा० चू० ११००। पं० सं० । ( 'संकम' शब्द चास्य विस्तृता व्याख्या) आव०। अणुजागसंसकम्प-अनुनागसत्कर्मन्-न । अनुनागविषयायां अणुमणण-अनुमनन-न० अनुमोदने , प्रति०। (द्रव्यस्तवाकर्मणः सत्तायाम्, क० प्र०। पं० सं०। ('सत्ता' प्रकरणे व्या- नुमोदनं साधो कल्पत इति 'चेइय' शब्दे वदयते) . ख्यास्यामि) अणुमत (य)-अणुमत-त्रि । अणोरपि मन्तरि , " अणुमअणुलागुदीरणा-अनुभागोदीरणा-स्त्री० । प्राप्तोदयेन रसेन | याई कुनाई नवंति" अणुराप कुल्लकोऽपि मतो येषु सर्वसासहापाप्तादये वेद्यमाने रसे, स्था०४०२०।कमा साधारणत्यान्न त मुखं रवा तिलकं कुर्वन्तीति । कल्प० । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०१) अणुमत श्रभिधानराजेन्सः । अगुष्माण अनुमत-त्रि० । अत्रीष्टे , आ० म० द्वि० । दानमनुझाते, क- प्युचारयितुं नोचितम्। ततःतूणीभाव एवास्य श्रेयान,दूरे प्रामाल्प० । अनु पश्चादपि मतोऽनुमतः। झा०१०। विप्रियकरण- णिकपरिषदिप्रविश्य प्रमाणोपन्यासगोष्ठी वचनं हि परप्रत्यायनास्यापि (ज्ञा०१०) वैगुण्यदर्शनस्याऽपि (औ०) कार्यविधा- य प्रतिपाद्यते, परेण चाप्रतिपित्सितमर्थ प्रतिपादयनसौ सतामतस्य (का०१०) पश्चादपि मते, भ०५ श०१००।- घधेयवचनो न भवतीत्युन्मत्तवत्। ननुकथमिव तूष्णीकतैवाऽस्य भिप्रेते, बृ०१०। अनिरुचिते, पथ्ये च । भौ०। प्रानुकल्येन श्रेयसी ?,यावताचेष्टाविशेषादिना प्रतिपाद्यस्यान्निप्रायमनुमाय सम्मते, जी०१ प्रति० । बहुमते, पश्चा० ६ विव०॥ सुकर मेवानेन वचनोचारणमित्याशङ्कयाह-"क चेष्टा क दृष्टमात्र च"इति केति बृहदन्तरे,चेष्टा इङ्गितं परानिप्रायरूपस्यानुमेयस्य अणुमहत्तर-अनुमहत्तर-पुं० । मूलमहत्तराभावे तत्कार्यका लिङ्गम्। कच दृएमात्रम्-दर्शनं दृष्टं,नावे के,दृष्टमेव दृष्टमात्रम,प्रत्यरिणि, “मूलमहत्तरे असएिणहिते जो पुगंणज्जो धुरे गय कमात्रम, तस्य लिङ्गनिरपेकप्रवृत्तित्वात् । अत एव दरमन्तरमेति सो अणुमहत्तरः। नि० चू०६ उ० । मूलमहत्तरे असनिहिते तयोगनहि प्रत्यकेणातीन्द्रियाः परचेतोवृत्तयः परिक्षातुं शक्या, यस्तत्र सर्वैरपि प्रच्चनीयः, धुरि च प्रथमं तिष्ठति सोऽनु-| तस्यैन्छियकत्वात् । मुखप्रसादादिचेष्टया तु लिङ्गभूतया पराऽ. महत्तरः । वृ०२०० जिप्रायस्य निश्चयेऽनुमानप्रमाणमनिच्छतोऽपि तस्य बलादापतिअणुमाण-अणुमान-पुं० । भाइचासौ मानः । स्तोकाहारे, तम। तथाहि-मचनश्रवणाऽभिप्रायवानय पुरुषस्ताहमुख प्रसूत्र० १ श्रु०८ अ । “ अणुमाणं च मायं च तं पमियाय पं- सादादिचेष्टाऽन्यथाऽनुपपत्तेरिति । अतश्च 'हहाप्रमादः 'हदा मिए" चकवादिना सत्कारादिना पूज्यमानेनाणुरपि स्तोको- इति खेदे, अहो! तस्य प्रमादःप्रमत्तता,यदनुभूयमानमप्यनुमानं ऽपि मानोऽहङ्करोन विधेयः, किमुत महान् ?। यदि वोत्तममर- प्रत्यकमात्राङ्गीकारेणापडते । अत्र चसंपूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एणोपस्थितेनोग्रतपोनिष्प्तदेहेन वा, 'अहो ! अहमित्येवंरूपः | वात्मनेपदम,अत्रतु कर्माऽस्ति, तत्कथमत्रानश्?। अत्रोच्यते-पत्र स्तोकोऽपि गो न विधेयः । सूत्र० २ श्रु०६० । संवेदितुंशक्तःसंविदान इति कार्यम्, वयाशक्तिशीवे' ।।२।२४॥ अनुमान-न० । अनु इति लिङ्गदर्शनसंबन्धानुस्मरणयोः प. इति शक्तौ शानविधानात् । ततश्चायमर्थोऽनुमानेन विना पराभिइचान्मानं ज्ञानमनुमानम् । स्था०४ वा० ३ ० । अविनाजाव संहितं सम्यम्वेदितुमशक्तस्येति। एवं परबुद्धिज्ञानाऽन्यथाऽनुपपनिश्चयाल्लिङ्गाबिङ्गिकाने , आ० चू० १ अ० । नं० । अनु स्याऽयमनुमानं हादङ्गीकारितः। तथा प्रकारान्तरेणाप्ययमपश्चाद् सिङ्गसिभिसंबन्धग्रहणस्मरणानन्तरंमीयते परिच्चिद्य ङ्गीकारयितव्यः। तथाहि-चार्वाकः काश्चिज्झानव्यक्ती संवादिते देशकालस्वन्नावविप्रकृष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषेणेत्यनुमानम् । त्वेनाव्यनिचारिणीरुपनज्याऽन्याइच विसंवादित्वेन व्यानिचास्या० ना अनु० । “साध्याविनानूतसिङ्गात, साध्यनिश्चायक रिणीः, पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां झानव्यक्तीनामवश्य स्मृतम् । अनुमानं तदनान्तं, प्रमाणत्वात् समक्ववत" ॥१॥ इति प्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् । न च सहितार्थबलेनोत्पद्यमान सवणनक्विते प्रमाणभेदे, स्था० ४ ग० ३ ० । अनुमानस्य पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक पूर्वापरकालनाविनीनां ज्ञानव्यक्तीप्रामाण्यम्-( अनुमानं न प्रमाणमिति सिषाधयिषया प्रत्यक्स्येवै नां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्वयितुं क्षमते। कस्य प्रामाण्यमङ्गीकृल्याह चार्वाक रति 'आता' शब्दे द्वितीय. न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञानव्यक्तीनां परं प्रति जागे १८१ पृष्ठे द्रष्टव्यम्) प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद् साम्प्रतक्रियावादिनां मौकायतिकानां मतं सर्याधमत्वादन्ते यथारष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानींतनशानव्यक्तीनां प्रामा ण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमाउपन्यस्यन् तन्मतमूलस्य प्रत्यकप्रमाणस्यानुमानादि नरूपमुपासीत , परलोकादिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः प्रमाणान्तरानङ्गीकारे अकिश्चित्करत्वप्रदर्शनेन कर्तुम् , संनिहितमात्रविषयत्वात्तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिषिध्य तेषां प्रज्ञायाः प्रमादमादर्शयति नाऽयं सुखमास्ते ; प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति मिम्भहेवाकः। विनाऽनुमानेन पराजिसंधि किञ्च-प्रत्यकस्याप्याव्यभिचारादेव प्रामाण्यम् । कथमितरथा मसंविदानस्य तु नास्तिकस्य । स्नानपानावगाहनाधर्थक्रियासमर्थे मरुमरीचिकानिच्चयनुम्बिनि न साम्प्रतं वक्तुमपि क चेष्टा, जलझाने न प्रामाण्यम् । तच्चार्थप्रतिबकलिङ्गशब्दद्वारा समु न्मज्जतोरनुमानागमयोरप्याव्यनिचारादेव किं नेष्यते । व्यक दृष्टमात्रं च हहा ! प्रमादः॥२०॥ निचारिणोरप्यनयोर्दर्शनादप्रामाण्यमिति चेत्, प्रत्यक्वतस्याऽपि प्रत्यक्कमेवैकं प्रमाणमिति मन्यते चार्वाका तत्र संनह्यते-अनु. तिमिरादिदोषोनिशीथिनीनाथयुगलावलम्बिनोऽप्रमाणस्य दर्शश्वाधिलिकिसंबन्धमहणस्मरणानन्तरं मीयते परिच्छिद्यते । मात सर्वत्राप्रामाण्यप्रसङ्गः । प्रत्यक्कानासं तदिति चेत् , शकालस्वजावविप्रकृष्टोऽर्थोऽनेन ज्ञानविशेषेणेत्यनुमानम् । प्रस्ता- इतरत्रापि तुल्यम् , एतदन्यत्र पक्कपातात् । स्या० । वात्स्वार्थानुमानम् तेनानुमानेन लैङ्गिकप्रमाणेन विना पराभिसं- ये तु तथागताः प्रामाण्यमूहस्य नोहाश्चक्रिरे, तेषामशधिपरानिप्रायमसंविदानस्य सम्यगजानानस्य, तुशब्दः पूर्ववादि- पशून्यत्वपातकाऽऽपत्तिः । श्राः किमिदमकाएमकृष्माण्डाभ्यो नेदद्योतनार्थः। पूर्वेषांवादिनामास्तिकतया विप्रतिपत्तिस्थाने- डम्बरोडामरमभिधीयते ? । कथं हि तर्कप्रामाण्यानुपगमेषु कोदः कृतः। नास्तिकस्य तु वक्तुमपि नौचिती, कुत पय तेन सह मात्रेणेहशमसमञ्जसमापनीपोत ? । शृणु , श्रावयामि कोदः, इति तु शब्दार्थः। नास्ति परलोकः पुण्यं पापमिति वाम- किल, तर्कामामाएये तावन्नानुमानस्य प्राणाः, प्रतिवन्धप्रतिरस्य"नास्तिकास्तिकदैष्टिकम् ॥६॥६६॥इति हैमसूत्रेण निपा-| तिपत्त्युपायापायात् । तदभावे न प्रत्यकस्यापि । प्रत्यक्केण हि तनानास्तिकः । तस्य लोकायतिकस्य वक्तुमापन साम्प्रतं, वचनम- पदार्थान् प्रतिपद्य प्रमाता प्रवर्तमानः कचन संवादादिदप्रमा lain Education International Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०२) अणुमाण अभिधानराजेन्दः । अणुभाण णमिति, अन्यत्र तुविसंवादादिदमप्रमाणमिति व्यवस्थाग्रन्थिमाय-| अनुमानं द्विप्रकार, स्वार्थ परार्थ च ॥॥ भीयात् । न खलुत्पत्तिमात्रेणैव प्रमाणाप्रमाणविवेकः कतु शक्यः, नन्यनमानस्याध्यक्तस्येव सामान्यलक्वणमनाण्यायैव कथमादितरशायामुभयोः सौसदृश्यात् । संवादविसंवादापकायां च त एव प्रकारकीर्तनमिति चेत् । नध्यते-परमार्थतः स्वार्थस्यैवानन्निइचये निश्चित एवानुमानोपनिपातनचेदं प्रतिबन्धप्रतिप नुमानस्य नावात, स्वार्थमेव हनुमानं कारणे कार्योपचारात्परासौतर्कस्वरूपोपायापाये अनुमानाध्यकप्रमाणानाये च प्रामाणि' थे कथ्यते । यद्वक्ष्यन्ति तवजयन्त:-"पक्कडे तुबचनात्मकं परार्थकमानिनस्ते कौतुस्कुती प्रमेयव्यवस्थाऽपीत्यायाता त्वदीयहद- मनुमाममुपचारात्" शति । न हि गोरुपचारितगोत्वस्य च बाहीयस्येव सर्वस्य शून्यता । साऽपि वानप्रामाति,प्रमाणमन्तरेण कस्यैकंबवणमस्ति, यत्पुनःस्वार्थेन तुल्यककतयाऽस्योपादानम, तस्या अपि प्रतिपनुमशक्यत्वादिति । अहो! महति प्रकट- तद्वादे शास्त्रे चाउनेनैव व्यवहाराझोकेऽपि च प्रायेणास्योपयो. कष्टसंकटे प्रविष्टोऽयं तपस्वी किं नाम कुर्यात् ।। अथ गात्तद्वत्प्राधान्यख्यापनार्थम । तत्र अनु हेतुग्रहणसंबन्धस्मरण"धूमाधीन्हिविज्ञानं, धूमज्ञानमधीस्तयोः। प्रत्यक्षानुपलम्भा- योः पश्चान्मीयते परिच्छिद्यते ऽर्थोऽनेनेत्यनुमानम् । स्वस्मै प्रभ्या-मिति पञ्चनिरन्धयः॥१॥"निर्णेष्यते, अनुपलम्भोऽपि, मातुरात्मने इदं, खस्य वाऽर्थों ऽनेनति सार्थम, स्वाधबोधनिब. प्रत्यक्तविशेष पवेति प्रत्यकमेव व्याप्तितात्पर्यपालोचनचातुर्यवर्य म्धनमित्यर्थः । एवं परार्थमपि । अत्र चार्वाकश्वर्चयति-नाकिं तापक्रमेणेति चेत् ?, न तु प्रत्यकं तावन्नियतधूमाग्नि- ऽनुमानं प्रमाणम्, गौणत्वात् । गौणं हनुमानम, उपचरितपगोचरतया प्राक प्रावृतत् ; तद यदि व्याप्तिराप तावन्मात्रैव कादिलक्षणत्वात् । तथाहि-"ज्ञातव्य परधर्मत्वे , पक्षो धर्म्यस्यात्तदाऽनुमानमपि तत्रैव प्रवर्ततेति कुतस्त्यं धूमान्मही- निधायते । व्याप्तिकाले भवेद् धर्मः, साध्यासको पुनस्यम्" धरकन्धराधिकरणाशुशुक्षणिलकणं तलावान्विकल्पः ।। ॥१॥ इति । अगौण हि प्रमाणं प्रसिरूम, प्रत्यकवदिति । तसार्वत्रिकी व्याप्ति पर्याप्नोति निर्णतुमिति चेत् , को नामैव नाम- त्रायं वराकश्चार्वाकः स्वारूढां शाखां स्खएमयभियतं भौतमस्त तर्कविकल्पस्योपलम्भानुपलम्जसम्नवत्वेन स्वीकारात् । नुकरोति । गौणत्वादिति हिसाधनमभिदधानो ध्रुवं स्वीकृतकिन्तु व्याप्तिप्रतिपत्तावयमेव प्रमाणं ककीकरणीयः। अथ तथा वानेवायमनुमानं प्रमाणमिति कथमेतदेव दलयेत् । न च प्रवर्तमानोऽयं प्राक प्रवृत्तप्रत्यकव्यापारमेवाऽनिमुखयतीति पक्वधर्मत्वं हेतुलवणमाचदमहे, येन तत्सिद्धये साध्यधर्मविशितदेव तत्र प्रमाणमिति चेत् । तीनुमानमपि लिङ्गमाहिप्रत्यक्ष. ऐ धर्मिणि प्रसिमषि पकत्वं धर्मिण्युपचरेम; अन्यथाऽनुपपस्यैव व्यापारमामुखयतीति तदेव वैश्वानरवेदने प्रमाणं, नानु- त्येकक्षणत्वाद् हेतोः। नापि व्याप्तिं पक्केणैव महे, येन तत्सिमानमिति किं न स्यात? अथकथमेवं वक्तुं शक्यम्?,बिङ्गप्रत्यकं द्धये धर्मे तदारोपयमहि, साध्यधर्मेणैव तदभिधानात्। नन्वाहिलिङ्गगोचरमेव , अनुमानं तु साध्यगोचरमिति कथं तत्तद् नुमानिकप्रतीतौ धर्मविशिष्ट धर्मी, व्याप्ती तु धर्मः साध्यमित्यव्यापारमामुखयेत्?,तर्हि प्रत्यकं पुरोवर्तिस्वाकणेवण कुएणमेव। निधास्यत इत्येकत्र गीणमेव साध्यत्वमिति चेत् । मैवम् । अन्नतर्कविकल्पस्तु साध्यसाधनसामान्यावमर्शमनपिपीत कथं सोऽ यत्र मुख्यतल्लक्षणनावेन साध्यत्वस्य मुख्यत्वात् । तस्किमिड वि तह्यापारमुद्दीपयेत् । अथ सामान्यममान्यमेव , असत्यादि- द्वर्य साधनीयम् सत्यम् । न हि व्याप्तिरपि परस्य प्रतीता, ततति कथं तत्र प्रवर्तमानस्तर्कः प्रमाण स्यादिति चेदनुमानम- स्तत्प्रतिपादनेन धर्मविशिष्टं घर्मिमयं प्रत्यायनीय इत्यसिर्फ पि कथं स्यात् ? ,तस्यापि सामान्यगोचरत्वाऽव्यनिचारात्। गाणत्वम् श्रथ नोपादीयत पवतात्सकों कोऽपि हेतुः, तर्हि कथ" अन्यत्सामान्यलक्षणं सोऽनुमानस्य विषयः " इति मप्रमाणिकाप्रामाणिकस्यटेसिफिः स्थादिति नानुमानप्रामाण्यधर्मकीर्तिना कीर्तनात् । तत्वतोऽप्रमाणमेवैतद् , व्यवहारेणै- प्रतिषेधः साधीयस्तां दधाति। "नानुमानं प्रमेत्यत्र हेतुःसचेत, पास्य प्रामाण्यात् :सर्व पवायमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्या- क्वानुमामानतायाधनं स्यात्तदा । नानुमानंप्रमेत्यत्रहेनन चेत,कानरूढेन धर्मधर्मिन्यायेनेति वचनादिति चेत् , तोऽपि तथा- मामानताबाधनं स्यात्तदा ॥१॥” इति संग्रहश्लोकः। कथं वा प्रत्यऽस्तु । श्रथ नाऽयं व्यवहारेणापि प्रमाणम् , सर्वथा वस्तुसं. क्वस्य प्रामाण्यनिर्णयः? यदि पुनरर्थक्रियासंवादात्तत्र तनिर्णय. स्पर्शपराङ्मुखत्वादिति चेत्,अनुमानमपि तथाऽस्तु । अवस्तुनि- स्तहिं कथं नानुमानप्रामाण्यम् । प्रत्यपीपदाम च-"प्रत्यवेऽपि भौसमपि परम्परया पदार्थे प्रतिबन्धात् प्रमाणमनुमानमिति | परोक्कलवणमते-येन प्रमारूपता । प्रत्यक्केप कथंलविष्यति चेत,कि न तोंऽपि। वस्तुत्वं च सामान्यस्याद्याऽपि केशरि- मते, तस्य प्रमारूपता॥१॥" इति ॥५॥ किशोरवक्रोमदंयाङ्कराकर्षणायमानमस्ति । सशपरिणामरू तत्र स्वार्थ व्यवस्थापयन्तिपस्यास्य प्रत्यक्कादिपरिच्छेद्यत्वादिति तत्वत पवानुमानम् , त- तत्र हेतुग्रहणसंबन्धस्मरणकारकं साध्यविज्ञानं स्वाके.श्च प्रमाणे प्रत्यक्वयदिति पाषाणरेखा ॥७॥ थमिति ॥ १० ॥ अत्रोदाहरन्ति दिनोत्यन्तनावितणिजर्थत्वाद् गमयति परोक्कमर्थमिति हेतुः, यथा यावान् कश्चिमः स सर्वो वह्नौ सत्येव जवतीति अनन्तरमेव निर्देक्ष्यमाणलकणस्तस्य ग्रहणं च प्रमाणेन नितस्मिन्नसत्यमौ न जवत्येव ॥ ७॥ र्णयः। संबन्धस्मरणं च यथैव संबन्धो व्याप्तिनामा प्राक तर्केअत्राद्यमुदाहरणमन्वयव्याप्ती, द्वितीयं तु व्यतिरेकव्याप्ताविति णातार्क, तथैव परामर्शस्ते कारणं यस्य तत्तथा। साभ्यस्यास्यामा रत्ना०३परि० सम्म (प्रामाण्यमनुमानतोन ग्रहीतुं शक्य. स्यमानस्य विशिष्ट संशयादिशून्यत्वेन ज्ञानं स्वार्थमनुमानं मतस्य प्रमाणन्याऽसंभवादिति प्रमाण'शब्दे वक्यतेपिरलोकसि मन्तव्यम् ॥ १०॥ रत्ना० ३ परि० । द्वावध्यनुमानप्रामाण्यखानम, अनुमानप्रमाएयव्यवस्थितिः, अधुना परार्थानुमान प्ररूपयन्तिशावरमतानुमाननिरासश्च सम्मतिप्रकरणप्रन्धतोऽवसेयः ) अथाऽनुमानस्पलकणार्थ तावत्प्रकारी (स्वार्थपरार्धानुमाने) । पकहेतुवचनात्मकं परायोऽनुमानमुपचारात् ।। २३ ।। प्रकाशयन्ति पाहतुवचनात्मकत्वं च परार्थानुमानरपव्युत्पन्नमतिप्रतिपा Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०३) अणुमाण अभिधानराजेन्द्रः। अणुमाण चापक्षयात्रोक्तमतिव्युत्पन्नम्। अतिप्रतिपाद्यापेक्षया तु धूमोऽत्र मत्पुत्रोऽयम, अनन्यसाधारणकतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गोपलदृश्यते इत्यादि हेतुवचनमात्रात्मकमपि तद्भवति। बाहुल्येन त- ब्धेः,इति साधर्म्यवैधय॑दृष्टान्तयोः सत्त्वेतराभावादयमहेतुरिति प्रयोगाभावात् तु नैतत्साक्षात्सूत्रे सूत्रितम्, उपलक्षितं तु द्र- चेत् । नैवम् । हेतोः परमार्थेनैकलक्षणत्वात्तवेनैव गमकत्वोपलव्यम्, मन्दमतिप्रतिपाद्यापेक्षया तु दृष्टान्तादिवचनात्मकमपि धेः। उक्तं च न्यायवादिना पुरुषचन्द्रेण-अन्यथाऽनुपपन्नत्वमात्रं तद्भवति । यद्वक्ष्यन्ति-" मन्दमतीस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तोप- हेतोःस्वारुणम, सत्वाऽसत्त्वे हितधौ । इष्टान्तद्वयवक्कणे । न नयनिगमनान्यपि प्रयोज्यानि" इति । पक्षहेतुवचनस्य च चम्मिसत्तायां धर्माः सर्वेऽपि सर्वदा नवन्त्येव, पटादेः शुक्लजडरूपतया मुख्यतः प्रामाएगायोगे सत्युपचारादित्युक्त्रम्, स्वादिधम्मैयनिचारात् । ततो दृष्टान्तयोःसत्वाऽसत्त्वधर्मो यद्यकारणे कार्योपचारादित्यर्थः । प्रतिपाद्यगतं हि यत् ज्ञानं तस्य पि क्वचिद हेतौ न दृश्यते तथापि धम्मिस्वरूपमन्यथाऽनुपपन्नं कारणं पक्षादिवचनम, कार्य कारणोपचाराद्वा । प्रतिपादक- भविष्यतीति न कश्चिद्विरोध इति भावः । यत्राऽपि धूमादौ गतं हि यत्स्वार्थानुमानं तस्य कार्य तद्वचनमिति ॥ २३॥ दृष्टान्तयोः सत्त्वाऽसत्वं हेतोदृश्यते,तत्रापि साध्यान्यथाऽनुपप संप्रति व्याप्तिपुरस्सरं पक्षधर्मतोपसंहारं तत्पूर्विकां वा नत्वस्यैव प्राधान्यात् , तस्यैवैकस्य हेतुबकणताऽबसेया तथा व्याप्तिमाचक्षाणान् भिक्षून्पक्षप्रयोगमङ्गीकारयितुमाहुः- चाह-"धूमादेर्यद्यपि स्यातां, सत्त्वाऽसत्ये च लक्षणे । अन्यथा साध्यस्य प्रतिनियतधर्मिसंबन्धिताप्रसिझये हेतोरुपसं- ऽनुपपन्नत्व-प्राधान्यावकणैकता"॥१॥ किं च-यदि दृष्टान्ते हारवचनवत्पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्रयितव्यः॥२४॥ सत्वाऽसावदर्शनाकेतुर्गमक इष्यते, तदा लोह लेख्यं वज्र,पार्थि चत्वाकाष्ठादिवदित्यादेरपि गमकत्वं स्यात् । अभ्यधायि चयथा यत्र धूमस्तत्र धूमध्वज इति हेतोः सामान्यनाऽधारप्र "दृष्टान्ते सदसत्वाज्यां, हेतुः सम्यम्यदीप्यते । लोह लेण्यं तिपत्तावपि पर्वतादिविशिष्टधर्मिधर्मताऽधिगतये धूमश्चात्रे. जवेतन, पार्थिवत्वाद् द्वमादिवत्" ॥२॥ इति । यदि च पक्वध. त्येवंरूपमुपसंहारवचनमवश्यमाश्रीयते सौगतैः। तथा साध्य- मत्वसपकसत्त्वविरका ऽसत्त्ववकणं हेतास्त्रैरूप्यमन्युपगम्यापि धर्मस्य नियतधर्मिधर्मतासिद्धये पक्षप्रयोगोऽप्यवश्यमाश्र यथोक्तदोषजयात्साध्येन सहान्यथाऽनुपपन्नत्वमन्वेषणीय,तहियितव्य इति ॥ २४ ॥ तदेवैक लवणतया वक्तुमुचितम; कि रूपत्रयणति । आह चअमुमेवार्थ सोपालम्भं समर्थयन्ते "अन्यथाऽनुपपन्नत्वं,यत्र तत्र त्रयेण किम् ?। नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्रतत्रत्रयण किम् ? ॥२॥ इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, ग्रत्रिविधं साधनमभिधायैव तत्समर्थनं विदधानः न्यगहनताप्रसङ्गात्, अन्यत्र यत्नेनोक्तत्वाचेति । श्राह-प्रत्याविकः खलु न पक्कमयोगमङ्गीकुरुते ? ॥२५ ।। पयत्वादेवात्रानुमानप्रवृत्तिरयुक्ता । नैवम् । पुरुपपिएममात्रप्रत्रिविधं कार्यस्वभावानुपलम्भभेदात्। तस्य साधनस्य सम स्यकतायामपि मत्पुत्त्रो न वेति ? संदेहाद् युक्त एवानुमानोर्थनमसिद्धतादिव्युवासेन स्वसाध्यसाधनसामोपदर्शनम् । पन्यास इति कृतं प्रसङ्गेन । नासमर्थितो हेतुःसाध्यसिद्धयङ्गम,अतिप्रसङ्गात्। ततः पक्षप्र से किं तं सेसवं? । सेसवं पंचविहं पहात्तं । तं जहा-- योगमनङ्गीकुर्वता तत्समर्थनरूपं हेतुमनभिधायैव तत्समर्थन __ कजेछ कारणेणं गुणेणं अवयवणं आसएणं ।। विधेयम्-"हन्त हेतुरिह जलप्यते न चे-दस्तु कुत्र स समर्थ- 'से कि सेसवमित्यादि' पुरुषाधापयोगिनः परिजिझासिनाविधिः? तर्हि पक्ष इह जल्प्यते न चे-दस्तु कुत्र स समर्थ. तात तुरगादेरादन्यो हेषितादिरर्थः शेष होच्यते । स गमा नाविधिः?॥१॥ प्राप्यते ननु विवादतः स्फुट, पक्ष एष किमत कत्वेन यस्याऽस्ति तच्नेषवदनुमानम् । स्तदाख्यया । तर्हि हेतुरपि लभ्यते ततोऽनुक्त एव तदसौस तच पश्चविधम, तद्यथामर्थ्यताम् ॥२॥ मन्दमतिप्रतिपत्तिनिमित्त, सौगत ! हेतुमथा से किं तं कजेणं ?। कजेणं संखे सद्देणं नेरि ताडिएणं भिदधीथाः । मन्दमतिप्रतिपत्तिनिमित्तं, तर्हि न किं परिजल्पास पक्षम? ॥३॥"॥॥॥ रत्ना०३ परि० । तथानुमान | वसनं दक्किएणं मोरं किंकाइएणं हयं हसिपणं गयं त्रिविधम्-पूर्ववत्, शेषवत् , अदृष्टसाधर्म्यवञ्चेति गुग्गुलाएणं रहं घणघणाइएणं, सेत्तं कजेणं ।। से किं तं पुव्यवं ?। पुंधर्व-माया पुत्तं जहा नहुँ, जुवाणं पु ( कजेणत्यादि ) तत्र कार्येणाऽनुमानम् । यथा इयमश्वं हेवितेन, अनुमिनुते इत्यध्याहारः । हेषितस्य तत्कार्यत्वाणरागयं । काई पच्चानिजाणेज्जा, पुन्वरिंगण केणइ ।।१।। त्, तदाऽऽकर्ण्य हयोऽत्रेति या प्रतीतिरुत्पद्यते तादह कार्येण तं जहा-खत्तेण वा वणेण वा संगणेण वा मसेण वा कार्यधारणात्पन्नं शेषवदनुमानमुच्यते शति भावः । क्वचित्त तिझएण वा, सेत्तं पुनवं ।। प्रथमतः शङ्खशब्देनेत्यादि दृश्यते, तत्रोक्तानुसारतः साविशिष्टं पूर्वोपलब्धं चिह्नमिह पूर्वमुच्यते, तदेव निमित्तरूप- दाहरणेषु भावना कार्या ॥ तया यस्यास्ति तत्पूर्ववत् , तद्द्वारेण गमकम नुमानं पूर्वव. से किं तं कारणणं ?। कारगणं तंतवो पमस्स कारणं, ण दिति भावः । तथा चाह-'मायापुत्तं' इत्यादिश्लोकः । यथा पमो तंतुकारणं, वीरणा कमस्स कारणं, ण कमो वीमाता स्वकीय पुत्र बाल्यावस्थायां नष्टं युवानं सन्त कालान्तरेण पुनः कथमप्यागतं काचित्तथाविधस्मृतिपाटववती रणाकारणं, मिप्पिमो घमस्स कारणं, ण घमो मिम्पिन सर्वा पूर्वदृष्टेन लिङ्गेन केनचित् क्षतादिना प्रत्यभिजानी- मकारणं, सेत्तं कारणं ॥ याद् , मत्पुत्रोग्यमिति अनुमिनुयादित्यर्थः। केन पुनर्सिङ्गेनेत्याह- ( से किं तं कारणेणमित्यादि ) इह कारणेन कार्यमनुमी(खत्तेण वेत्यादि) खदेडोद्भवमेव कतम, आगन्तुकस्त-श्वर्दष्टा-| यते । यथा विशिष्मेघोन्नतिदर्शनात कश्चित् वृष्तषनुमान कदिकतो वणः, लाभनमपतिलकास्तु प्रतीताः। तदयमत्र प्रयोगः- रोति । यदाह-"रोझम्बगवलव्याल-तमालमशिनत्विषः । वृणि Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४ ) अभिधानराजेन्द्रः । अणुमा 1 व्यभिचरन्तीह नैवं प्रायाः पयोमुखः " ॥ १ ॥ इति । एवं चन्द्रोदालमियते विकास मिश्रारुह प्रयोधः, एकमदमोक तथाविधयर्पणात्सस्य निष्पतिः - श्रीबलमनःप्रमोद देवं कारणमेवेापायस्य नाकारणम् । तत्र कार्यकारणभाव एव केषांचिद्विप्रतिपति पदैस्तमेव तावत्रियस्य कारणम्, न तु परस्तन्तूनां कारणम् पूर्वमनुपलब्धस्य तस्यैव राज्ञाय उपल म्भात् । इतरेषां तु पटाभावेऽप्युपलम्भात् । श्रबाट ननु यदा कश्चिनिपुणः पटनावेन संयुक्तानपि तन्तून् क्रमेण वियोजयति, तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं नवत्येव । नैवम्। सनोपयोगाभामायदेवता सत् स्वस्थितिमान कार्य तदेव तस्य कारणयेनोपदिश्यते यथा मूल्पिए घटस्तु तन्तु वियोगतोऽभावीजवता पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, न हि ज्वराऽजावेन भवत श्रारोगितासुखस्य ज्वरः कारणमिति शक्यते वक्तम् । यद्येवं पटेऽप्युत्पद्यमानेोऽसीति कारणं न स्युरिति चेत् । नैवम् । तन्नुपरिणामरूप एव हि पटः, यदि च तन्तवः सर्वथाऽ भावीवेयुस्तथा मृद्भावे घटस्येव पटस्य सर्वथैवोपलब्धिर्न स्यात्, तस्मात्परकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सखेनोपयोगात् ते पटस्य कारणमुच्यन्ते । पटवियोजनका ले त्वेकैकतन्त्यवस्थायां पटो नोपलभ्यते । श्रतस्तत्र सत्वेनोपयोगाभावान्नास तेषां कारणम् । एवं वीरणकटादिष्वपि जावना कार्या । तदेवं यद्यस्य कार्यस्य कारणत्वेन निश्चितं तत्तस्य यथासम्भवं गमकत्वेन वक्तव्यमिति । " से किं तं गुणं गुणेषां निकसे, पुष्कं गंधेणं, ल वरसे महरं आसायां वत्थं फासेां से चं गुणं ॥ ( से किं तं गुणेणमित्यादि ) निकषः कषपट्टगता कषितसुवखमनुमीयते यथा पञ्चदशादिवर्णको सुवर्ण तथाविधनिकोपात पूर्वोप एवं पत्रकादिपुष्पमत्र, तथाविधगन्धोपलम्भात पूर्वो पन्धवस्तुवत् । एवंत्रण मदिरावस्त्रादयोऽनेकनेद संभवतोऽनियतस्वरूपा अपि प्रतिनियततथाविधरसास्वाद स्पर्शादिगुलोपलब्धेः इति नियतस्वरूपाः साधयितव्याः । " से किं तं देशं । अयमहि सिंगे कुकुमं त्र्अवयवेणं ? अवयवेणं-महिसं सिहाणं हल्थि विसायं वाराहं दादाए, मोरं पिच्छे णं, आसं खुरे, वग्धं नहेणं, चवरिं बालग्गेणं, दुपयं मणुस्सादि, चप्पयं गवमादि, बहुपयं गोमिश्रामादि, सहं केसरे, वसहं कुक्कुहेणं, महिला वलयवाहाए । परिअरबंधे भरं, जाणिज्जा महिलि निवसणेणं । सित्थेषदोपागं, कविं च एकाऍ गाहाए ||१|| सेत्तं श्रवयवेणं ॥ ( से किं तं श्रवयमित्यादि) अपयचदर्शनेनावयव नुमीयते यथा महिषोऽतविनाभूत पूर्वोप लोभयसंमतप्रदेशयत अयं व प्रयोगो वृतिवरण्डकाय न्तरितत्वादप्रत्यक्ष एवाधयविनि एव्यः, तत्प्रत्यक्षतायामध्यएसजे अनुमानययश्वंप्रसङ्गादिति । एवं दादर सान्यपि भावनीयानि नवरं द्विपदं मनुवादीत्यादि मनुष्यो यमाभूपोपलम्भात् पूर्वमनुष्यवत् । एवं । अणुमा 66 चतुष्पद बहुपदेष्वपि गोम्ही, कर्णशृगाली । 'परियरबंधेल भडं " इत्यादिगाथा पूर्व व्याख्यातैव । तदनुसारेण भावाप्यूथ इति । से किं तं असणं । आसणं-अरिंग धूमेणं, सलिलं बन्नाणं, बुद्धिं प्रव्यविकारेणं, कुलपुत्तं सीलमायारेणं, सेतं आमपूर्ण सेणं सर्व ॥ 1 ( से किं तं श्रासरणमित्यादि) श्राश्रयतीत्याश्रयो धूमबलाकादिस्तत्र धूमादन्यनुमानं प्रतीतमेष आकारेङ्गितादिभिश्चाप्यनुमानं भवति । तथा चोक्तम्- "आकारैरिङ्गितैर्गत्या, चे श्या भाषन थ। नेत्रविकार लक्ष्यते अन्तर्गतं मनः ॥१u अत्राह ननु धूमस्याद्मिकार्यत्वात् पूर्वानुमान स्थारिकमहोपन्यासः । सत्यम् किन्त्वयाश्रयत्वेनापि लोके तस्य रूढत्वादत्राप्युपन्यासः कृत इत्यदोषः । तदेतद् दृष्टवदनुमानम् । से किं तं दिवसा हम्म १ दिवसाहम्पवं दुविहं पात्तं । तं जहा सामादि च विसेसदिहं च ॥ [ से किसे दिसावमित्यादि ] पूर्वोपलब्धेनार्थेन सहसा समविद्यते यत्रा धम्वत् । पूर्वरथार्थ चित्सामान्यतः तु विशेषतो स्पादादिसामान्यतीर्थयात् माम्यहम् विशेषतो योगा द्विपम् ॥ से किं तं सामादिहं है। सामनहिं जहा एगो पुरिसो तदा वढवे पुरिसा, जहा बढ़वे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा पगो करिसावणो तहा बहने करिसावला, जहा बहने करिसावा तहा एगो करिमाणो सेचं सामादिहं ॥ [ से किसे सामविमित्यादि ] तत्र सामान्य यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषा इत्यादि । इदमुक्तं भवति-नालिकेरही पादायातः कश्चित् तत्प्रथमतया सामान्यत एकं कञ्चन पुरुषानुमानं करोति यथा-अयमेकः परिदृश्यमानः पुरुष मतदाकाराविशिष्टस्तथा बहवोऽयापरिश्यमाना अ पुरुषा एतदाकारसम्पन्ना एव पुरुषत्वाविशेषात् श्रन्याकारत्वे तेयेवमनुमनोति यथाध्म परिदृश्यमानाः पुरुषा पत पुरुषत्व हानिप्रसङ्गाद्, गवादिवत् । बहुषु तु पुरुषेषु तत्प्रथमतो दाकारवन्तस्तथाऽपरी येकः कचित्पुरुषः तदाकाराने पुरुषत्वा अपकार श्यादिवत् । इत्ये कार्षापणादिष्वपि वाच्यम् । " विशेषता दृष्टमाह से किं तं विसेसदि ? । बिसेसदिहं से जहा गाम के‍ पुरुसे, बहूणं पुरिसाणं मध्ये पुन्त्रादिहं पञ्चभिजाणेज्जा यं से पुरिसे बहूणं करिसावणाणं मज्जे पुण्वदिट्ठं करिसावणं पञ्चभिजाणिज्जा-यं से करिसावणे || ( से जड़ा नाम इत्यादि) अत्र पुरुषाः सामान्येन प्रतीता एव के कतिकति कति पुरुषविशेष दर्श तसंस्कारोऽसज्जाततत्प्रमेयः समयान्तरे बहुपुरुष समाजमध्ये त मे पुरुष विशेषमासीनमुपलभ्यमानयति यः पूर्वमयोप स एवायं पुरुषः, तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् उभयाजिमतपु Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) अणुमाण अनिधानराजेन्दः । अणुमागा रुपवतान्त्येतत् तदा विशेषदृष्टमनुमानमुच्यते, पुरुषविशेषधि- अनिप्पल वासव्यं वा मेणी सकाणि कुंडमरनइदीहिमाषयत्वात् । एवं कार्षापणादिष्वपि वाच्यम् । तमागाइं पामित्तातेणं साहिजइ, जहा कुवट्ठी आस।। सेत्तं तदेवमनुमानस्य त्रैविरुधमुपदय साम्प्रतं तस्यैव कालत्रय अतीयकालग्गहणं । से किं तं पमुप्पासकालग्गहणं ?। पमुप्प. विषयतां दर्शयन्नाह पकानग्गहणं माहगोयरग्गगयं निक्खं अनभमाणं पासित्ता तस्स समासो तिविहं गहणं जवइ । तं जहा-अतीय तेणं साइज्जइ, जहा दुभिक्खे वट्ट । सेत्तं पमुप्पाकालग्गकालग्गहणं, पमुप्पाकालग्गहणं, अणागयकालग्गहणं ।। हएं। से किं तं अणागयकालग्गहणं । अणागयकालग्ग(तस्मेति) सामान्येनानुवर्तमानमनुमानमात्र संबध्यते, तस्या हणम्-धूमायति दिसायो, संवि अमेहणीअपमिवद्धा । वाऽनुमानस्य त्रिविधं ग्रहणं भवति । तयथा-अतीतकालविषयग्रहणं ग्राह्यस्य वस्तुनः परिच्चेदोऽतीतकालग्रहणम् । प्रत्युत्पन्नो व. या नेरइया खल, कुवुहिमेवं नियंति ॥१॥ अग्गयं र्तमानः कालस्तद्विपयं ग्रहणं प्रत्युत्पन्नकासग्रहणम् । अनागतो वा वायव्वं वा अपयरं वा अप्पसत्यं उप्पायं पासित्ता तेणं भविष्यत्काल स्तद्विषय ग्रहणमनागतकालग्रहणम । कालत्रयव- । साहिज्जइ, जहा कुट्टी भविस्तर से अणागयकालग्गहतिनोऽपि विषयस्यानुमानात्परिच्छेदो नवतीत्यर्थः । णं, सेतं विससदिटुं, सेत्तं तिटसाहम्मवं, सेचमणमाणे । से किं तं अतीयकालग्गहएं। अतीयकालग्गहणं उत्त (एएसि चेव विवज्जामे इत्यादि ) पतेषामेवोनृणवनादीनामपाणि वणाणि निप्पणं सव्वं वा मेइणि पुधाणि अकुं तीतवृषवादिसाधकत्येनोपन्यस्तानां हेतूनां व्यत्यासे व्यत्यये साभसरणदीहिआतडागाई पासित्ता तेणं साहिज, जहा भ्यस्यापि व्यत्ययः साधयितव्यायथा कुवृधिरिहासीन्निस्तृणवनामुट्ठ। प्रासी, मेतं अतीयकाबग्गहणं ।। दिवशनादित्यादिव्यत्ययः सूत्रासिकः । नवरम-अनागतकानतत्र (उत्तिणा ति) नुकतानि तृणानि येषु धनेषु तानि तथा । ग्रहणे माहेन्द्रवारुणपरिहारणानेयवायव्योत्पाता उपन्यस्ता'ते. अबमत्र प्रयोगः-सुवृष्टिरिदाऽऽसीद, तृणवननिप्पन्नसस्यपृ पां वृष्टिविघातकत्वात, इतरेषां सुप्रितुत्वादिति । "सत्तं विध्वीतबजलपरिपूर्णकुण्मादिजलाशयप्रभृतितत्कार्यदर्शनाद्, अ. सेसदि,सेत्तं दिसाहम्मवं"इत्येतभिगमनद्वयं एसाधर्म्यत्रिमतदेशवत्, त्यतीतस्य वृष्टिलकणविषयस्य परिच्छेदः।। क्वणानुमानगतभेदत्रयस्य ममर्थनानन्तरं युज्यते। यदि तु सर्व वाचनास्वत्रैव स्थाने दृश्यते तदा दृष्टसाधर्म्यवतोऽपि सभेदसे किं तं पसुप्पन्नकालग्गहणं । पमुप्पन्नकालग्गहणं सा- स्यानुमानमविशेषत्वात् कालत्रयविषयता योजनायैव । अतस्ताहुगोरगगयं विच्छमियपनरभत्तपाणं पासित्ता, तेणं सा-1 मप्यभिधाय ततो निगमनद्वयमिदमकारीतिप्रतिपत्तव्यम् । तदेहिजइ, जहा सुभिक्खे वट्ट । सेत्तं पडुप्पन्नकामगहणं ।। तदनुमानमिति । अनु।। साधु च गोचराग्रगतं भिक्काप्रविष्टं विशेषण नर्दितानि गृह- तथ क्वचित्पञ्चायययेन वाक्येन, क्वचिदशाध्यययेन वाक्येन स्थैर्दत्तानि प्रचुरभक्तपानानि यस्य स तथा तं तादृशं दृष्टा क. परं प्रति दश्यते-तत्र पञ्चाऽवयवाः-"प्रतिज्ञाहतदाहरणापनश्चित् साधयति । सुभिकमिह वर्तते, साधूनां तद्धेतुकप्रचुरभ यनिगमनानि"अत्र च-"धम्मा मंगलमा. अहिंसा संजमा तपानलाभदर्शनात, पूर्वदृष्टप्रदेशवदिति । तयो । देवा वि तं णमसति, जस्स धम्मे सया मणो " ॥२॥ से कितं अणागयकालग्गहणं। अणागयकालग्रहणम्-अ इति अक्ष्यमधिकृत्य निदर्यतेभास्स निम्मलत्तं, कसिणाय गिर। सविज्जुआ मेहा । थणि कत्था पंचावयवं. दसहा वा सव्वहा न पमिसिद्धं । अं वानगलामो, संझारत्ता पणिहा य ॥१॥ वारुणं वा | न य पुण सव्वं लन्नइ, हंदी सवियारमक्खायं ।। ५१ ।। महिंदं वा अपयरं वा पसत्यं उप्पायं पासित्ता तेणं साहि- धोनारमेवाङ्गीकृत्य कचिम्पञ्चावयवं, रशधा घेति-क्वचिद्दजइ, जहा सुवुट्टी भविस्स। सेत्तं अणागयकासग्गहणं ॥ शाक्ययम्। सर्वथा गुरुश्रोत्रपक्या न प्रतिषिद्धमुदाहरणाभि धानमिति वाक्यशेषः । यद्यपि च न प्रतिविद्धं तथाऽप्यविशेष(अनस्स निम्मतं ति) गाथा सुगमा, नवरं स्तनितं मेधगर्जितं (वाजम्भामो त्ति) तथाविधी दृष्ट्यव्यभिचारी प्रद गैव च न पुनः संर्य भएयते उदाहरणादि । किमिन्यत आह (हंदी सधियारमक्खायं नि) हंद युपप्रदर्शने । किमुपदर्शयक्षिणं दिक भ्रमन् प्रशस्तो वातः (धारुणं ति) आर्भामूदादिनकत्रप्रभवं माहेन्द्ररोहिणीज्यष्टा दिनक्कत्रसम्भवम् । अन्यतरमु ति?, यस्मादिहान्यत्र शास्त्रान्तरे सविचार सप्रतिपकमाख्यात म, साकल्यत उदाहरणाद्यभिधानमिति गम्यते। पञ्चावयवाश्च त्पातमुल्कापातदिग्दाहादिकं प्रशस्तं वृष्ट्यन्यभिचारिणं grsनु प्रतिझादयः । यथोक्तम-"प्रनिझाडेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवमीयते-यथा-सुवृष्टिरत्र भविष्यति, तदव्यभिचारिणामलनिर्म यवाः" । दश पुनः प्रतिकाविभक्त्यादयः । वत्यति च-"तेज लत्यादीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्शनादू, यथाऽम्यवदिति । विशिष्टा ह्यत्र निर्मलत्वादयो वृष्टि न व्यभिचरन्त्यतः पापण विभत्त। हेतुविनत।" इत्यादिप्रयोगांश्चैतेषां लाघवाप्रतिपत्त्रैवं तत्र निपुणेन भाव्यामिति ।। थमिव स्वस्थाने दर्शयिप्याम इति गाथार्थः । दश० १ अ)। एएसिं चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ । तं जहा अती दशावयवाः पुनरिन्थम प्रतिज्ञा : विभक्तिः २ हेतुः ३ विभाक्तः ४विपकः ५प्रतिषेधः यकालग्गहणं, पमुप्पाकालग्गहाएं, अणागयकालग्गहणं ।। लमहा ६ दृष्टान्तः ७ श्रादाङ्का तत्प्रतिषेधः । निगमनम १०। इह च से कितं अतीयकासग्गहणं अतीयकालग्गहएं नित्तिणाई दशावयवाः प्रतिकादिशुद्धिम् हिता भवन्ति । अवयत्रत्वं च Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६ ) अभिधानराजेन्द्रः | अणुमाण तीनामधिकृतवाक्यपकारकत्वेन प्रतिभावनीयमित्यत्र । बहु वक्तत्र्यं, तन्तु नोच्यते, गमनिकामा प्रत्वात्मारस्येति । दश० १० प्रतिकादीनां स्वरूपं सोदाहरणं स्वस्वस्थाने हृदयम् ) इदानीं भूयोऽपि भङ्ग्यन्तरनाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं ध्याय नियुक्तिकार: ने उपविभक्ती, उनि पसेो । दिडंतो आसंका, तप्पडिसेहो निगमणं च ॥ ४२ ॥ (त इति) अवयवाः । तु पुनः शब्दार्थः । ते पुनरमी प्रतिज्ञादयः । रात्र प्रतिकानं प्रतिहा यमाणस्वरूपेत्ये कोऽयययः । तथा निजनं विभक्तिः, तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः । तथा हिनोति गमयति जिज्ञाधर्मविशिष्टानिति हेतुस्वसीय तथा विभजनं कथाविस शः पविच साच्यादिति पञ्चम तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः, विपकस्येति गम्यत इत्ययं षष्ठः । तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः । तथा आष्टाङ्कनमाशङ्का, प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैव इत्यष्टमः । तथा तत्प्रतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः । तथा निश्चितं गमनं निगमनम्, निश्चितोऽवसाथ इति दशमः । चशब्द उक्तसमुच्चयार्थ इति गाथासमासार्थः । व्यासार्थे तु प्रत्ययवर्थ वक्ष्यति ग्रन्थकार एव ॥ १४२ ॥ तथा चाहू धम्मो मंगलमति पावणनिदेसो । सो य इहेब जिए, नवपद्मपविजत्ती ॥ १४३ ॥ धर्मो मङ्गलमिति पूर्ववदियं प्रतिभा के प्रति त्युच्यते ?, आप्तवचननिर्देश इति । तत्राप्त अप्रतारकः । श्रप्रतारकञ्चाशेषरागादिकयाद्भवतीति । उक्तं च-" आगमो ह्याप्तवचन मानं दोषाः। बीतरागोऽमृतं वाक्यं न व्यायसं भवात् ॥१॥ तस्य वचनमाप्तवचनम्, तस्य निर्देश प्राप्तवचननिदेशः । श्रह - 'अयमागम' इति । उच्यते विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वेनेष एव प्रतिशेति नैष दोषः पाठान्तरं वा 'साध्यवचननिर्देश, इति । साध्यत इति साध्यम्, उच्यते इति वचनमर्थः यस्मात्स एवोच्यते । साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनम्, साध्यार्थ इत्यर्थः । तस्य निर्देशः प्रतिज्ञेत्युक्तः प्रथमोऽवयवः । अधुना द्वितीय उच्यते सतः किमिव जिनशासने अ स्मिथने नान्यत्र कपिलादिमतेषु तथाहिप्रकृतयोपलभ्यन्तेोकापनोमे परिवा प्रभृतयः प्राण्युपमर्दं कुर्वाणाः, ततश्च कुतस्तेषु धर्म ?, इत्याद्यत्र बहु वक्रव्यम, तत्तु नोच्यते, प्रन्थविस्तरभयाद्भावितत्वाच्येति प्रतिज्ञा प्रमिरियम-प्रतिज्ञाविषयविभागकथनेति गाथार्थः । उक्तो द्वितीयोऽवयवः ॥ १४३ ॥ 1 शुमा स्थिताः। तुरयमेषकारार्थः स चावधारणे, अयं चोपरिष्टा किया सह योदयते । यद्यस्मात्, किंभूते धर्मस्थाने?, परमे प्रधाने, किम, सुरादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः इति तृतीयोग्य ययः अधुना चतुर्थ उच्यते तुभिरिषविभाग कथनम् । अथ क एते धर्मस्थाने स्थिता इत्यत्राह - निरुपधयः। उपरि माया इत्यनर्थान्तरम अयं च कोपलक्षणम्। ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषायां येभ्यस्ते निरुपधयो निष्कषायाः जीवानां पृथिवीकाचिकादीमा नापीडा चशब्दातपश्चरणादिना च हेतुभूतेन जीवन्ति प्राणान् धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिता नान्य इति गाथार्थः ॥ १४४॥ अधुना तृतीय उच्यते । तत्रसुरपूओ निऊ, धम्महाणे लिपा छ नं परमे । उविती निरुवहि-जिवारण प्रवण य जियंति | १४४| सुरा देवाः पूजितः सुरपूजितः सुरमिन्द्राद्युपलक्ष यइति शब्द उपदको पूर्ववर्थवकं चेदं वाक्यम् । हेतुस्तु सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्यः । दर्शयति-धर्मः पूर्ववत्यस्मिन्निति स्था नं, धर्मश्वासौ स्थानं च धर्मस्थानम्, स्थानमालयः, तखिन् उक्तश्चतुर्थोऽवयवः । अधुना पश्चममभिधित्सुराहजिपट्टे विहू, समुराईए अधम्मको वि मंगलधी जणो, पम इदुय विवक्खो ।। १४५ ।। इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम् । स चायम् प्रतिज्ञाविभक्त्योरिति । जिनास्तीर्थकरास्तेषां वचनमागमलक्षणं तस्मिन् प्रद्विष्टा श्र प्रीता इति समासः तान् । अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि । हु इत्ययं निपातोऽवधारणार्थः । अस्थानप्रयुक्त स्थानं दर्शया च मश्रा श्लोकाः- आदिशदारादिपरिग्रहः । न विद्यते धर्मे विषां ते अधस्ताद् अपि शब्दादूधर्मस्वनपि । किम ?, मङ्गलख्या मङ्गलप्रघानयाधिया महलबुद्धी नाम लघुये पकारो धारयर्थः किम जनो लोकः । प्रकर्षेण नमति प्रणमति । श्राद्यद्वयविपक्ष इति । अमाद्यद्वयं प्रतिज्ञा व विपक्ष पर्य इत्याद्यद्वयविपक्षः। तत्राधर्म्मरुचीनपि मङ्गल बुद्ध्या जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह नेपांम धर्मव्यतिरेका, जिनव ननिपीत्यनेन तु तब्बुद्धेस्तथाऽपि हेतुप्रयोगप्रवृस्था धम्मसिद्धेरिति गाथाः ॥ १४० ॥ विश्यsयस्स विक्खो, सुरेहिँ पुज्जंति जलजाई वि । बुबाई विसुरनया, वृश्चंते णायमक्ख ।। १४६ ॥ द्वयोः पूरणं द्वितीयम्, द्वितीयं च तद्वयं च द्वितीयद्वयम्-हेतुस्तयुवं च प्रायायाद्वितीयमुच्यते तस्यापि क्षः इह सुरैः पूज्यन्ते यक्षयाजिनोऽपि । इयमत्र भावना-यक्षवाजिनो हि मङ्गलरूपा न भवन्ति, अथ च सुरैः पूज्यन्ते तत सुरपूजितत्वमकारमित्येव हेतुविपक्ष तथा अजितेन्द्रियाः सोपचयश्च यतस्ते वर्तते येनास्थ सापरम हत्यादिकार उज्य इति दाहरणे विपक्षमधिकृत्याह युद्धादयोयादिशब्दात् का लामा उच्यते तच्छासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपक्ष इति गाथार्थः। अहन्ननु - शन्तमुपरि षत्येयं तत तत्स्यरूपे उके रायप स्वप्रतिषेधव गुफा, तत् किमर्थमिह विपतप्रतिषेध श्रभिधीयते ? । उच्यते विप्रक्कसाम्यादधिकृत एव विपकद्वारे ला पवार्थमन्निधीयते अन्यथा स्यात्तथै घोsपि द्वारान्तरं प्राप्नोति, तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते । त स्माचार्थमवैवोच्य दोष तो आका किसेहो "ति वचनात् उत्तरत्र दृष्टान्तमभिधाय पुनराशङ्कां तत्प्रतिषेधं च वक्त्येव । तदाशङ्का च तद्विपक एव । तत्किमर्थमिह पुनर्विकप्रतिषेधावभिधीयेते । । उच्यते-अनन्तरपरम्परादे Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०७ ) निधानराजेन्द्रः । अणुमाण नवभ्यस्यापनार्थम प्रयुक्तोऽपि परोक्षस्वादागमगम्यत्वादा कार्यसाधनभ ये विपकसिको योऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः । तथा च तीर्थंकरास्तथा साधवश्च द्वावपि भिन्नावेतावुत्तरत्र दृष्टान्ताव भिधास्येते । तत्र तीर्थकुलरुणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येह विपक्षप्रतिषेवायुको साथ सबैचाशद्वासरतिषेधी दर्शवि ते यदोषः स्वात्मसंवार्थमनुक्स दृष्टान्तः, उच्यतां काममिद्वैव दृष्टान्तविपक्कस्तत्प्रतिषेधश्च सव रात किमित्युत्तरपदश्यते येन तुषिरमिदैव रायते ? । तथाह्यत्र दृष्टान्ते भयमाने प्रतिज्ञादीनामिव द्विरूपस्यापितरपाखाकृष्णस्यैतादेषविपत्प्रतिषेधापयेते ततश्च साधुत्रणस्य दृष्टान्तस्याशङ्का तत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग्वक्कन्यौ भवतः । तथाच सति प्रन्थलाघवं जायते । तथा प्रतिदेदाहरणरूपाः सपिया कमेणाभ त्योहान्तस्य प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमात्प्रतिषेधी यस्तः तथा च सत्यवयवत्वे दृष्टान्तस्य वा प्रतिज्ञादीनामिव विपकतत्प्रतिषेधान्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधो न वक्तव्यौ स्याताम् । एवं सति दशावयवा न प्राप्नुवन्ति दाद वेदं वाक्यं मयन्तरेण प्रतिपिपादाय पितमस्या न्यायस्य प्रदर्शनार्थमत एव यदुकं साधुकण दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्रन पृथग्वक्तव्यौ स्यातामिस्यादि, तदपाकृतं वेदितव्यमित्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विषोऽनिहितः ॥१४६॥० अधुनाऽयमेव प्रतिज्ञादिविषः पञ्चमोऽयवर्तत शानदार एवं तु अवयवाप्यं च एह पभित्रक्खु पचमोऽवयवो । एतो apsaraो, विपक्खपभिसेह तं वोच्छं !! १४७ ॥ एवमित्ययमेव कार उपप्रदर्शने । तुरवधारणे । अयमेवाऽवयवा नां प्रमाणाऽङ्गलक्षणानां चतुषी प्रतिज्ञादीनां प्रतिपक्षो विपक्षः पञ्चमोऽवयव इति । श्रह-दृष्टान्तस्याप्यत्र विपत्त उक्त एच, तकिमर्थं चतुमित्युकं । उच्यते तो सपक्षविपाभ्या मनुवृत्तिप्यावृत्तिरूपत्वेनान्धर्मत्वापि एच चास्या न्तर्भावाददोष इत्युक्तः पञ्चमोऽवयवः । श्रधुना षष्ठ उच्यतेतथा चाह- इत उत्तरत्र षष्ठोऽवयवो विपक्षप्रतिषेधस्तं वदयेऽभिधास्य इति गाथार्थः ॥ १४७ ॥ इत्थं सामान्येनाभिधायेदानामाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधमभिधातुकाम ग्रह सायं सम्मत पुमं, हासरई आउनामगोयहं । धम्मफलं आइडुगे, विपक्खपमि सेह मो एसो ॥ १४८ ॥ ( सायंति ) सातवेदनीयं कर्म ( सम्मति ) सम्यक्त्वं स उपभावः सम्यक् मोहनीय कर्मैच ( पुमं ति) पुंवेदमोहनीयम ( हासं ति) हस्यतेऽनेनेति हासस्तद्भावो हास्यम्; हास्यमोहनीयम् । रम्यतेऽनयेति रतिः, क्रीडाहेतू रतिमोहनीयं कर्मैव । (आउ नामगोयसुति) अशुभ प्रत्येकमभिसंबध्यते - चनात् । ततश्च श्रायुःशुभं, नामशुभं, गोत्रशुभम, तत्रायुः शुभंती करादिसंबन्धि, नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः। तथाहि यशोनामादि शुभं तीर्थकरादीनामेव भवति । तथोगात्रं तदपि शुभं तेषामेवेति (धम्मफलं ति) धर्मस्य फलं 1 अणुमाण धर्मफलम धर्मेण वा फलं धर्मफलम हिंसादेर्जनोस्पे व धर्मस्य फलम् । श्रहिंसादिना जिनोक्तेनैव च धर्मेणैव फलमवाप्यते । सर्वमेव तत् सुखहेतुत्वाद् हितम् । अतः स एव धर्मो मङ्गलं न श्वशुरादयः । तथाहि मङ्गयते हितमननोत मङ्गलम् । तच्च यथोक्तधर्मणैव मङ्गधते मान्येन तस्मादसावेव मङ्गलं, न जिनवचनबाह्याः श्वगुरादय इति स्थितम् । आह-मङ्गलमेव जनः प्रथमत्युकं सत्यम बुद्ध्याऽपि गोपालाऽङ्गनाऽऽदि मोहतिमिरोपप्लुत बुद्धिबोचनो जनः ममपि न मङ्गलत्वनिश्चयायात तथादिन मिरिकद्विच द्रोपदर्शनं सचेतसां चतुष्यतां किराया प्रतीतेः प्रत्य यतां प्रतिपद्यते तद्रूप एव तदूपाध्यारोपद्वारे सत्यतेरिति । (आगे ति) चाण्यं प्रयुकं तमि प्रतिषेध || मो इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः । एष इति यथा वर्णेित इति गाथार्थः । इत्थमाद्यष्यविपक्वप्रतिषेधः प्रतिपादितः ९४८ ॥ संप्रति देनोपप्रतिषेधप्रतिषिपादविषयेदमाह अनिदिय सोबहिया, वहगा नह से वि नाम पुज्नंति । अग्गी विहोज्ज सीओ, हेलावन ती परिसेहो ।। १४६ ।। न जितानि श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते । उपधि , मायेत्यनर्थान्तरम्। उपधिमा सह वर्त्तन्त इति सोपयो मायाविनः, परव्यंसका इति यावत् । अथवा उपदधतीत्युपधिवस्त्राद्यनेकरूपः परिग्रहः तेन सह वर्तन्ते ये ते तथाविधाः, महा परिग्रहा इत्यर्थः । ( वहगा इति ) वधन्तीति वधकाः प्रत्युपमकर्त्तारः ( जर ते विनाम पुति त्ति ) यदीति पराभ्युपगमसंसूचकः, त इति याशिकाः । श्रपिः संभावने । नाम इति निपातोरा बेजिनेदिषयो वर्तते यदि तेचि नाम पूज्यन्ते एवं झिरपि भवेच्छतः दीर कदाची शपथ पोरशनामानमादियो यस्येदमपीति मन्यते । अथापि कालदोर्गुण्यात्कर्याचद चिकनापन्ते तथापि न सिर कापसाचे अर्थ वस्तुमि तपाध्यारोपेण प्रवृत्तेः धियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तां गमयति । तथाभूते वस्तुनि तद्यतेषामतेः सुविशुश्च दैत्यान्द्रादयः ते माहिमादिलणं धर्ममेवाजिनः तस्मा दैत्यमरेन्द्रादिपूजितत्वाद्धर्म एवोत्कृष्टं मङ्गलं, न याशिका इति सीत) एप हेतुत सिप्रतिषेधः चिपशब्द दानुकेऽपि प्रकरणा भ्य इति गाथार्थः । पदर्शितः । प्रतिषेधं दर्शयन्नाद बुकाई उपयारे, पाठाणं जिला उ सम्भावं । दिते पमिसेहो, बडो एमो अवयवो उ || १५० ॥ बुद्धादयः, आदिशब्दात्कापिलादिपरिग्रहः । उपचार इति सुपां सुप भवन्तीति न्यायादुपचारेण किश्चिदतीन्द्रियं कथयम्तीति कृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् । जिनास्तु सायं परमार्थमधिकृत्येति शेषः सर्वत्या [यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति भावनादृतषेधविशब्दोपादान्तविप्रतिषेधः किम् ? षष्ठ पो शेष विशन, सर्वोऽध्ययम सरोदे प्रति Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०८ ) अभिधानराजेन्थः । अणुमाण शादिविपक्कप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक पवेति गाथार्थः ॥ १५०॥ पचमचमभिषायेदानी सप्तमं तमामानमनि धातुकाम आह अरहंत मग्गगामी, दिहंतो साहुणोवि समचित्ता । पागरएस गिल, एसते अवरमाणा च ॥ १५१ ॥ पूजामा नीति कम ? स्त इति सम्बन्धः । तथा मार्गगामिन इति । प्रक्रमात्तदुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एव गृह्यन्ते । के च ते ? इत्यत आहसापयः साधयन्ति सम्यग्दर्शनादियों गैरपवर्गमिति साधयतेsपि दृशन्त इति योगः । किंभूताः ?, समचित्ता रागद्वेषरहितचित्ता इत्यर्थः । किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति । श्रहिंसादिगुण[आहे] पाकरतेयात्मार्थमेव पासषु सुव गारवेषन्ते गवेपयन्ति पिएमपातमित्यध्याहारः । किं कुर्वाणा इत्यत श्राह - ( अवहमाणा उत्ति ) न घ्नन्तोऽघ्नन्तः । तुरवधारणार्थः ततश्चाजन्त पत, आरम्भाकरणेन पीमामकुर्वाणा इत्यर्थः । एवं द्विविधोऽपि दृष्टान्त उक्तः । दृष्टान्तवाक्यं चेदम् । स तु संस्कृत्य कर्त्तव्यो ऽर्हदादिवदिति गाथार्थः ॥ १५१ ॥ उक्तः सप्तमोऽवयवः । सांप्रतमष्टमम भिधित्सुगढ़तत्थ जवे आसंका, उद्दिस्स जई त्रि कीरए पागो । तेज र जिसमे नायं वासतणा तस्स पमिसेदे ।। १५२ ।। - रात्र ते मवेदभाषः पची द्दिश्याऽङ्गीकृ स्य यतीनपि संयतानपि । अपिशब्दादप्रत्याऽऽदान्यपि । क्रियते निर्वर्त्यते पाकः । कैः ?, गृहिभिरिति गम्यते । ततः किमित्यत आह-तेन कारणेन । र इति निपातः किलशब्दार्थः । विषममतुल्यम्, ज्ञातमुदाहरणं वस्तुतः पाकोपजीवियेन साधूनामनधवृत्यभावादिति भाचितमेवैतत् पूर्वमित्यष्टमोऽवयवः । इदानीं नवममधिकृत्याह वर्षातृणानि तस्य प्रतिषेध इत्येतच्च भाष्यकृता प्राक्प्रपञ्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः ॥ १५२॥ उक्तो नवमोऽवयवः । साम्प्रतं चरममभिधित्सुराह-तम्हाज सुरनराणं, पुज्जत्तं मंगलं सया धम्मो । इसम एस अप पश्चडेक पुछो वर्षणं ।। १५३ ।। यस्मादेवं तस्मात् सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यस्तद्भावस्तस्मात् पूज्यत्वान्मङ्गलं प्राग्निरुपितशब्दार्थे सदा सर्वका लं धर्मः प्रागुक्तः । दशम एषोऽवयव इति संख्याकथनम् । किंशिऽभिताप्रति पुनर्वचनं पुनर्हेतुप्रति ज्ञावचनमिति गाथार्थः । उक्तं द्वितीयं दशावयवम् । साधनाSङ्गना चावयवानां विनेयाऽयेकया विशिष्टप्रतिपत्तिजनकत्वेन भावनोऽनुगमः ॥१५३॥००१ ० परमपि न टा मनपा पचनात्मकं परार्थमनुमानमिति प्रागुकं समर्थकपहेतुवचनमय न्तादिवचनम् || २० || आदिशब्देोपनयनिगमनादिग्रहः । एवं च यद्व्याप पतोपसंहाररूपं सोगतैः पदे तुरन्तस्वरूपं भा भाकरकाप, पदे तुलोपनयनिमाि कवैशेषिकाच्या मनुमानमाम्नायि । तद्पास्तम् । व्युत्पन्न मतीन्प्रति अणुमाण पक्कहेतुवचमेोरेवोपयोगात् ॥ २८ ॥ प्रयोगप्रति हेतुप्रयोगप्रकार दर्शयतिहेतुमयोगस्तयोपपन्वन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारः |२६| तथैव साध्यसंमयप्रकारेयोपस्तियोपपत्तिः । अन्यथा साध्यानावप्रकारेणानुपपत्तिरेवान्यथाऽनुपपत्तिः ॥२६॥ अमू एव स्वरूपतो निरूपयन्ति सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तयोपपत्तिः, असति साध्ये हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः ॥ ३० ॥ निगान ॥ प्रयोगतोऽपि प्रकटयन्ति यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः, सत्येव कृशानुमत्त्वे धूमस्वोपपत्तेः सत्वनुपपत्तेर्वा ॥ ३१ ॥ " एतदपि तथैव ॥ ३१॥ मुयोः प्रयोग नियमपतिअनयोरन्यतरमयोगेन साध्यमतितो द्वितीयमयोगस्यैकत्रा अनुपयोगः ।। ३२ ।। यमर्थ:- प्रयोगयुग्मेऽपि वाक्यविन्यास एव विशिष्यते, नार्थः । स चान्यतरयोगेणैव प्रति किमप्रयोगोण? इति ॥३२॥ अथ यदुक्तं " न दृष्टान्तादिवचनं परप्रतिपत्तेरङ्गम् " इति तत्र दृष्टान्तवचनं तावन्निराचिकीर्षयस्त किं परप्रतिपत्यर्थ परयते ? किंवा हेतोरन्यथाऽनुपपत्तिनिर्णीतये है, पठा विनाभावस्तये इति विकल्पं प्रथमं विकल्पयन्ति न दृष्टान्तवचनं परप्रतिपत्तये प्रन्नवति, तस्यां पदहेतुवचनयोरेव व्यापारोपलब्धेः ॥ ३३ ॥ प्रतिपक्ष विस्मृतसंन्यस्य हि मातुरनिमान देश घूमस्वान्यथानुपपतेरिस्तावयवत्व साध्यसीति ॥३३॥ द्वितीय विकल्पं परास्यन्ति नच हेतोरन्ययाऽनुपपत्तिनिर्णीतये यथोक्ततर्कप्रमाणादेतदुपपत्तेः ॥ २४ ॥ दृष्टान्तवचनं प्रभवतीति योगः ||३४|| यस्यारमुपवर्णयन्ति नियतविशेषस्कनाये च दृष्टान्ते साकल्येन व्याप्रयोगतो विप्रतिपत्त तदन्तरापेक्षायाममवस्थिते दुर्निवारः स मवतारः ।। ३५ ।। प्रतिनियतव्य द्वि व्याप्तिनिश्चयः कर्तुमहत्तो क्त्यन्तरेषु व्याप्त्यर्थे पुनर्दृष्टान्तान्तरं मृग्यम् । तस्याऽपि व्यक्तिरूपश्येनाऽपरदृष्टान्तापे क्कायामनवस्था स्यात् ॥ ३५ ॥ तृतीयधिक पराकुर्वन्ति नाप्यविस्मृत पतिपन्नमतिबन्धस्य व्युत्पन्नमतेः पक्षहेतुमदर्शनेनैव तत्म सिकेः ।। ३६ ।। दृष्टान्तवचनं प्रभवतीति योगः ॥३६॥ अमुमेवार्थ समर्थयन्ते अन्तर्थ्याच्या हेतोः साध्यमत्यायने शक्तावशक्ती च ब हिप्प्रेरुद्धावनं व्यर्थम् ॥ ३७ ॥ अयमर्थः साध्यसिद्धान Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) अणुमाण अन्निधानराजेन्बः। अणुरुंधिजंत बन्ध्यमेव । अन्तर्व्याप्तेः साध्यसंसिध्यशक्ती,बाह्यव्याप्तेर्वर्णनं वा| अणुयत्तणाजुत्त-अनुवर्तनादियुक्त-त्रि० । श्रानुकूल्याऽनुपनयमेव"॥१॥ मत्पुत्रोऽयं बहिर्वक्ति,पवंरूपस्वरान्यथानुपपत्ते, त्यत्र वहिास्यनावेऽपि गमकत्वस्य ‘स श्यामः,तत्पुत्रत्वात, इत· | १ प्रतिः । पत्ता घातसहिते, " अणुयत्तणाश्जुत्तो, पासस्थाईसु ता खित्ते" जी. रतत्पुत्रवत, इत्यत्र तु तनावेऽप्यगमकत्वस्योपलब्धेरिति ॥ ३७॥ रत्ना०३परि(धर्मिणं साधयन्नेकान्तवादीसाधर्म्यतोवैधयंत- अणुयत्तमाण-अनुवर्तमान-त्रि०। अनुगच्छति, विशेष "सहधन शक्कोतीति 'अणेगंतवाय' शब्देऽत्रैव भोगवदयते) अनुमिते हर समत्येव य, कुण करावे गुरुजणाभिमयं । दमणुयत्रसाध्याविनाभूतहेतुजन्यत्वेनाऽप्युपचाराद् हेतुविशेषे,स्था.४1०३ माणो, गुरुजणाराहणं कुणई ॥१॥ श्रा० म०प्र० । सा ननु सिङ्गग्रहणं संबन्धस्मरणान्यामनुपश्चान्मानमनुमानम्, | अणुयरिय-अनुचरित-न। प्रासेविते, ज्ञा०१ श्रु०१०। मिजं कानमुच्यते । कथं लिङ्गमेवानुमानमिति चेत्, सत्यम्, किन्तु कारणे कार्योपचारादप्यनुमानम्। यथा-प्रत्यककान अण्या -अनुझा-स्त्री०। अनुमोदने, सूत्र. २ श्रु० १५०। जनको घटोऽपि प्रत्यक इति । विशेष दृष्टान्ते , आकाशपटानु-अण्यास-अनकाश-पुं०। विकाशप्रसरे, ज्ञा० १७०१ भ०। मानादत्राऽनुमानशब्दो रष्टान्तवचनः । शा०१०। मण्माणइत्ता-अनुमान्य-अन्य० । अनुमानं कृत्येथे, व्य. अणुरंगा-अनुरङ्गा-स्त्री० । गन्च्याम , घसिकायां च । “अनासघुतरापराधनिवेदनेन मृदुदण्डादित्वमाचार्यस्याकल पुरंगाइ जाणे" वृ० १२० । ग्यत्यर्थे,०२ अधि० भ०। अणुरंजिएल्लय-अनुरञ्जित-त्रि० । अनु-रज-क्त । प्रारुते अणुमाणणिराकिय-अनुमाननिराकृत-त्रि० । अनुमानबाह्ये, | स्वार्थिक इकप्रत्ययः। संप्रदायक्रमरञ्जिते. जं० ३ वक० । यथा नित्यः शब्दः। वस्तुदोषविषये विशेषे, स्था० १००। अणुरत्त-अनुरक्त-त्रि० । अनुरज्ये , औ० । प्रातु० । अत्यन्तअणुमाणाजास-अनुमानाभास-पुं०। पकानासादिसमुत्थे झा- स्नेहनाजि, उत्त०१४ अशा | अनुरागवत्याम, भ० १५ नेऽयथार्थाऽनुमाने , रत्ना०६ परि०। श०६ उ०। पतिरक्तायां भर्तारं प्रति रागवत्याम, झा० १६ अ० स्त्रियाम, " अणुरत्ता अविरत्ता, श्छे सहफरिसरसरूवअणुपाय-अणुमात्र-त्रि० । स्तोकमात्रे, दश०५ अ०२ उ०। गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पच्चएन्जवमाणी विहर-- अणुमिइ-अनुमिति-स्त्री०। अनु-मा-क्तिन् । अनुमाने व्याप्तिवि ति" अनुरक्ताऽविरक्ता अनुरज्या भर्तरि प्रतिकूले सत्यपि, न शिष्टस्य पक्षधर्मताकानाधीनेऽनुनवभेदे, अनुमोदने च । प्रतिका विप्रियेऽपि विरक्ततां गतेत्यर्थः। श्री०। वर्णवादिनि प्रतीच्छके, अणुमु (म्मु) क-अनुमुक्त-त्रि०। अविमुक्ते, प्रश्न०४ आश्रद्वा०। "....."अणुयत्ततोबिसेसएहोउज्जुत्तमपरितंतो,इच्छति मत्थं लनति साधू। जो तु अवाजतो,ण रूसती जद ममंण वा पति॥ अणुमोश्य-अनुमोदित-त्रिका अनु-मुद्-णिच् । कर्मणि क्तः। कृता सो होति अगरत्तो............." पं०ना। ऽनुमोदने स्वानुमतत्वज्ञापनेन प्रोत्साहिते, “भवता यद् व्यव अणुरत्तलोयणा-अनुरक्तलोचना--स्त्री० । उज्जयिनीपुरीश्वसितं तन्मे साध्वनुमोदितम् । प्रार्थ्यमानोऽधिना यत्र, ह्या नैव विघातिताः ॥१॥ दानकालेऽथवा तूष्णी, स्थितः सोऽर्थानुमो रस्य देवतासुतस्य राज्ञोऽयमहिष्याम, प्रा० क० । आव०। दितः" इति । उक्तेऽर्थे च , वाच०। यत् त्वया शत्रुहननादि- अणरसिय-अनुरसित-न० । शब्दायिते, ज्ञा०६ अ० । कार्य भव्यं कृतमित्यादिवदने , आतु०। अणुराग-अनुराग-पुं० । अनु-रज-घञ् । प्रीतिविशेषे, श्राप अणुमोयग-अणुमोदक-त्रि० दानस्य ग्रहणपरिमोगाच्या प्र-। परस्परस्यात्यन्तिक्यां प्रीतिमत्याम् , बृ० १ उ० । (त्रिविशंसके संप्रदाने, विशे० । धोऽभिष्वङ्गरूपः, तद्यथा-दृष्टयनुरागो,विषयाऽनुरागः,स्नेहाप्रणमोयण (णा)-अनुमोदन (ना)-न०-स्त्री० । अ नुरागश्चेति 'राग' शब्दे वक्ष्यते)विशेा यथावस्थितगुणो. नुमती, पञ्चा० । विव० । आव० । अनुझाने , सूत्र० १ श्रु० ८ कीर्तने तदनुरूपोपचारलक्षणे तीर्थकरनामकर्मबन्धकारणे, श्र० । प्रश्न । प्राधाकर्मप्रभृतिकर्तृप्रशंसायाम , अप्रतिषेधने प्रव० १० द्वा०। च। अप्रतिषिमनुमतमिति विद्वत्पवादात् । पिं०। "हणंतं णागुजाण" नन्तं मानुजानाति । अनुमोदनेन तस्य वा दीयमा अणुरागय-अन्वागत-त्रि०। अनु श्रा-गम्-क्क । रेफ आनस्याप्रतिषेधनेनाप्रतिषिकमनुमतमिति वचनाननप्रसङ्गजन गमिकः । अनुरूपे प्रागमने, भ० २ श०१ उ०। नाश्च । आह च-"कामं सयं न कुब्व, जाणतो पुण तहा वित अणुराहा-अनुराधा-स्त्री० । अनुगता राधां विशाखाम् । गाही बट्टई तप्पसंग, अगिराहमाणो उबारे"॥१॥ स्थाए, वाच। मित्रदेवताके नक्षत्रभेदे , अनु० । जं० । स्था। जिनपूजादिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिलक्षणायामनुमतौ,पश्चा० "अणुराहाणक्खसे चउतारे" पं० सं० । सू० प्र०। ज्यो। ६ विव०। ('णक्खत्त' शब्देस्यास्तत्त्वं व्याख्यास्यामः ) अणमोयणकम्मजोयगप्पसंसा-अनुमोदनकर्मनोजकप्रशंसास्त्री० । अनुमोदनादाधाकर्मभोजकप्रशंसायाम, अकतपुण्याः अणुरुज्झत-अनुरुध्यमान-त्रि० । अनु-रुध्-यक्-शानन् । सुसन्धिका पते , ये इत्थं सदैव लभन्ते यतेतेत्येवंरूपा । पिं०। प्राकृते “ समनुपाद् रुधेः"॥४॥२४८॥ इति अनोः परस्व रुधेः कर्मभावे ज्झो वा । अपेक्ष्यमाणे, प्रा। अणुयत्तणा-अनुवर्तना-स्त्री० । प्रानुकूल्याऽनुपघाते , जी०१ प्रति० । ग्यानोपचारे, पृ०१०। (ग्लानस्यानुवर्तना गि- अरुधिजंत-अनुरुध्यमान-त्रि० । अनु-रुध्-यक् शानच् । लाण' शब्दे अव्या ) अपेक्ष्यमाणे, प्रा.! Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूव - ६ । ( ४१० ) निधान राजेन्द्रः । अपुरूप अनुरूप त्रि० । अविपमै स्था० ठार अनुकूले ० म० प्र० । घटमानेऽर्थे, विशे० । सदृशे, उत्त० १ अ० । उचिते, श्र० । उचि ० १६० अनुरिति भावः । स्वस्वभावसदृशे सम्म० । - । अवउत्त अनुपयुक्त श्रि० हेयोपादेयपरीक्षाधिकले प्रष्ट १४ श्रष्ट० | उपयोगशून्ये, नि० । | सादृश्यरूपमिति-अस-अनुपदेश-पुं० [स्वनावे, निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरम् [स्था० २ ० १ ४० नमः कुखार्थयात् कुत्सितोपदेशे भागमा चितार्थानुशासने, १० १२० अणुवयोग- अनुपयोग-पुं० । श्रनर्थे, अनर्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतेति पर्यायाः आय ६ अ० शकेनुपयोजने व्यापारने, पञ्चा० १४ विव० । उपयोजनमुपयोगो जीवस्य बोधरूपो व्यापारः। स चेह विहिताऽर्थे चित्तस्य विनिवेशस्वरूपो गृह्यते, न विद्यते स यत्र सोऽनुपयोगः पदार्थः । उपयोगाविषये "योगो वं "प्राथन्यतायां अनु अणुवकय अनुपकृत० उपकृतमुपकारो न विद्यते उप येषां ते । कृतोपकारिषु, बो० ए विष० । परैरवर्तितेषु श्राय० ४ 3 अणुलाव - अनुलाप - पुं० । पौनःपुन्यभाषणे, “ अनुलापो मुहुभाषा " इति वचनात् । स्था० ७ ठा० । शा० । लिप-अनुलेपन - न० । सकृल्लिप्ताया भूमेः पुनर्लेपने, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा० । अणुसित - अनुलिप्त - त्रि० । चन्दनादिना कृतानुलेपे, औ० । अलित्तगत अनुलिप्तगाल- त्रि० । श्रन्विति श्रतिशयेन लिप्तं विलेपनरूपकृतं गात्रं शरीरं यस्य स तथा । कृतानुरूपशरीरे, तं० । अणुलित - अनुलिखत् - त्रि० । श्रभिलङ्घयति, “ गगणतलम. सिहंसिहरे" सू०प्र०१० पाहु० रा० [सं० स० जी० । । । चं० प्र० । - अलेवण - अनुलेपन-१० श्रीखण्डादिविलेपने स्था ठा० । ज्ञा० । प्रव०] सकृल्लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपने, प्रज्ञा०२पद । अणुले वणतन्त्र - अनुलेपनतल - न० । अनुलेपनप्रधाने तले, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । पुनरुपलिप्त भूमिकाया, " मेयवसापूरुधिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवरणतला " प्रज्ञा० २ पद । अनुलोम अनुलोम-०ि अविपरीते पं० पू० अनुले श्र० [० । सूत्र० । श्राचा० । ज्ञा० । अनुकूलतया वेद्यमाने, जं० २ प०। मनोहारिणि, दश०१० अनुलोमनार्थन्यानुयोगोनुलोम अनुलोमे, अनुकृलकरणाय परस्य यो विधी यते यथा क्षेमं भवतामित्यादिरूपे द्रव्यानुयोगभैदे, स्था०६ठा० अएसोमा अनुलोम्प-अव्य० विवादाऽभ्यतान सामनीत्यानुलोमान् कृत्या प्रतिपन्थिनमेव वा पूर्व उत्पक्षाभ्युपग मेन अनुलोमं कृत्वेत्यर्थे, "अयुलोमइत्ता पडे " स्था० ६ ठान अणुलोमवाउवेग - अनुलोमवायुवेग-त्रि० । अनुलोमोऽनुकूलो वायुवेगः शरीरात वातजयो येषां तेऽनुलोमयायुवेगाः । वायुगुल्मरहितो मध्यप्रदेशेषु सं० जी० । युगलमनुष्या दिषु । आह च टीकाकार:- उदरमध्यप्रदेशे वायुगुल्मो देषां से तथा तदभावाच्च तेषामनुलोमो भवति वायुवेग मिथुना नाम इति । जी० १ प्रति० । " अपुलोमविलोम अनुलोमविलोम पुं० गतेप्रत्यागती, पञ्चा० १६ विव० । । अधुलग-अनुहस्त्रक-पुं० । कन्दविशेषे जीवने व । द्वीन्द्रियजीवभेदे उत्त० ३ श्र० । अणुञ्ज - अनुस्वण - त्रि० । श्रगर्विते, वृ० ३ उ० । अणुझाव - अनुल्लाप - पुं० । कुत्सिते काका वर्णने, स्था० ३ ठा०| 3 लोय - अनुलक - पुं० । द्वीन्द्रियर्जावविशेषे, उत्त० ३६ श्र० । अवा-अनुपदिष्ट त्रिचापरम्परानागते, “छ सुत्तमरणुवइटुं नाम जं तो आयरियपरंपरागयं मुक्तव्याकरणवत्" । नि० चू० ११ उ० । व्य० । अणुवत्तणा अ० । - । 1 अणुवक्रयपराय अनुपकृतपरहित कि० पान विद्यते उपकृतं येषां ते मे अनुपहताः अकृतोपकारा इत्यर्थः । ते ते परातेो दितं तस्मिन् रतो भिरतःप्रवृतोऽनुप तपरहितरतः । निष्कारणवत्सले, पो० १ विव० । अणुवसंत - अनुपक्रान्त–त्रि० । अनिराकृते, औ० । गतायति, ०१४० अववल अनुपाख्य अपक्खम-अनुपस्कृत-वि० [अकृतोपस्कारे " हिमादिसमास परिषदेस " नि० ० १ न० । अवगरण-अनुकरण न० उपाये ०७७० अणुवचय-- अनुपचय - पुं० । अनुपचीयमानतायाम्, अनुपादाने च । उत्त० १ अ० । पच्चंत अनुव्रजन् वि० [अनुवशत्। अनुगच्छति प्रा० (ए) अणुवजीवि ( ण् ) – अनुपजीविन् — त्रि० । अनाजी बिके, पचा० १५ विव० । - वन-गम्-धा० गती ज्यायनिर्गमेर । । वो ४ १६२ ॥ इत्यादिसुधारएवज देशः। अणुवजइ-गच्छति । प्रा० । पुत्र ज्जि - देशी - प्रतिजागरिते, दे० ना० १ वर्ग । अणुव मनु ०ि द्वितीयार प्रमु - 66 अच्छा तयवहारा t 'अणुवत्तो जो पुणो वित्तीयवार " व्य० १ ८० । अल-अनुवर्तक त्रिसर्वमनोऽनुवृत्तिकर्तरि २०३ प्रथि० भाषानुकूल्येन सम्परिपालके पं० ०० शिष्याणां छन्दोऽनुवर्तिनि वृ० ४ ० | चित्रवन्नावानां प्राणिनां गुणान्तराधानचिषानुवृत्तिले शिष्याणामनुप्रा ०३ अधि० "मारगिदिय त्थितं उवविति । गुरुवयणं अनुलोमे, एसो अणुवत्तओ नाम पं० ब० २ द्वा० । अनुलोममविपरीतमित्यर्थः । पं० चू० । अनुरूप व्याख्या (०मा०३०५ पृष्ठे 'आयरिष' शब्दे बहते अवणा-अनुवर्तना-श्री० [शिष्यानुपालनायाम् ०१० 39 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवत्ति अनिधानराजेन्द्रः। अणुवलद्धि अणुवत्ति-अनुवृत्ति-स्त्री० । इङ्गितादिना गुरुचित्तं विज्ञाय त- ६। अशक्यत्वात्स्वकर्णकाटिकामस्तक पृष्टादीनाम् ७। आवरदाऽऽनुकूल्येन प्रवृत्ती, विशे० । आ० म०वि०। णाद्वखादिस्थगितलोचनायाः, कटकुट्यावृतानांचा भनिनभणुवलोज-अनुपभोज्य-त्रि०। साधूनामुपभोक्तुमयोग्ये, वृ० वात्प्रमृतसुरतेजसि दिवसे तारकाणाम् । सामान्यात्सुपर क्वितस्यापि माषादेः समानजातीयमाषादिराशिपतितस्थाऽप्र३०। त्यभिज्ञानारसतोऽप्यनुपलब्धिः २०। अनुपयोगादूरोपयुक्तस्य अणुवम-अनुपम-त्रि० । उपमारहिते, श्राव०५ अनि विद्यते शेष विषयाणाम् ११॥ अनुपायाच्चाग्यादिन्या गोमहिष्यादिपयःउपमा शरीरसन्निवेशसौन्दर्यादिनिर्गुणैर्यस्य तदनुपमम् । षो. परिमाणजिज्ञासोः १२॥ विस्मृतेः पूर्वोपलब्धस्य १३। दुरागमाद १५ विव०। दुरुपदेशात्तत्प्रतिरूपकरीतिकादिविप्रलम्भितमतेः कनकादीनां अणुवमसिरिय-अनुपमश्रीक-त्रि०ा निरुपमदेहकान्तिकल्पिते, सतामप्यनुपलब्धः १४। मोहात्सतामपिजीवादितस्वानाम १५॥ श्रा० म०प्र०। विदर्शनात्सर्वथाऽन्धादीनाम् १६ । बाक्यादिविकारादूबहुशः पूर्वोपलब्धस्य सतोऽप्यनुपलब्धिः १७ प्रक्रियातो भूस्खननाअणुवमा-अनुपमा-स्त्री० । खाद्यविशेषे, जी. ३ प्रति। दिक्रिया उन्नावाद् वृक्तमूलादीनामनुपलब्धिः १७ । अनधिगमाअणुवयमाण-अनुवदत्-त्रि० । पश्चाद् वदति , “ प्रारंभट्ठी । च्याखाश्रवणात्तदर्थस्य सतोऽप्यनुपलब्धिः१काविप्रकर्षाअणुवयमाणे हणपाणे घायमाणे " ( आचा०१ श्रु० ६० दुनूतभविष्यहषभदेवपद्मनाभतीर्थकरादीनामनुपलब्धिः २०. ४ उ०)" असीला अणुवयमाणस्स वितिया " अनुवदतोऽनु- स्वन्नावविप्रकर्षानजापिशाचादीनामनुपलम्भः २१ । तदेवं पश्चाद्वदतः पृष्ठतोऽपृष्ठतोऽपवदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्टयादिना सतामप्यर्थानामेकविशतिविधाऽनुपलब्धिः। विशे० प्रा० चूल। कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पार्श्वस्थादेः। श्राचा० १ श्रु०६ त्रिविधा वा, अत्यन्तास् सामान्यादविस्मृतेश्चअ०४301 अचंता सामना, य विस्सुत्ती होइ अणुवलदीतु । अपवरय अनपरत-त्रि०ा अविरते, स्था० २ ठा०१उ० ।। अनुपलब्धिरेव त्रिधा भवति । तद्यथा-अत्यन्तादकोन्तनोनुपपापानुष्ठानेज्योऽनिवृत्ते, आचा० १०५०१०। अवि लब्धिः। सामान्याद्विस्मृतेश्च । च्चिने, स०। तत्र प्रथमतोऽत्यन्तानुपलब्धिमाहआवस्यकाय किरिया-अनुपरतकायक्रिया-स्त्री० । अनुपरत अत्थस्स दरिसणम्मि वि, लदी एगंततो न संभव । स्याविरतस्य साबधान मिथ्यादृष्टः सम्यग्दृऐर्वा कायक्रियोस्के- दहूं पि न जाणतो, वोहियपंमा फणससत्तू ।। पादिलकणा कर्मबन्धनमनुपरतकायाक्रिया। कायिक्या:क्रिया- श्रर्थस्य दर्शनेऽपि कस्यचित्तदर्थविषया लब्धिरकान्ततो न या भेदे, न०३ श०३०। संभवति । तथा च वोधिकाः पश्चिमदिग्वर्तिनो म्लेच्छाः पनअणुवरयदएक-अनुपरतदएक--पुं० । मनोवाकायलकणदएका. | सं दृष्ट्वाऽपि 'पनस'श्त्येवं न जानते ; तेषां पनसस्या ऽत्यन्तविरते , आचा० १ श्रु०४ १०१ न० । परोक्तत्वात् । न हि तदेशे पनसः संभवति तथा पण्डाः मथु रावासिनः सक्तून् दृष्ट्वाऽपि 'सक्तवोऽमी' इति न जानते, तेषां हि अणुवरोह--अनुपरोध-पुं०। व्यापादने, “प्रायोऽन्याऽनुपरोधेन'। सक्तवोऽत्यन्तपरोक्काः । ततो न तद्दर्शनेऽपि तदक्करबानः॥ व्यस्नानं तदुच्यते"। अप्रतिषेधे च, ध०५.अधिः। ___संप्रति सामान्यतदनुपलब्धिमाहअवलचि-अनुपसब्धि-स्त्री० ! उप-बन्-क्तिन् । न० त०। अत्थस्सुबग्गहम्मि वि, लदी एगंततो न संभव । साभाऽभावे , प्रत्यक्ताऽनावे च । वाचः । सामन्ना बहुमज्के, मासं पमियं जहा दहूं। सा च अर्थस्यावग्रहे ऽपि तदन्येनाऽर्थन सामान्यात् सादृश्यादेकादुविहा अणुवलघीयो। सो असोय । । न्ततो लब्धिरक्षरलब्धिर्न संभवति । यथा बहुमध्ये पतितं खरसंगरस वितीया, सभी विदराइजावोऽनिहिया।। माष रवाऽपि तदन्येन सामान्यान्न तदक्षरं लभते । सुहमा सुत्तत्तणो, कम्माणुगयस्स जीवस्स ॥१॥ विस्मृतेरनुपलब्धिमाह अत्थस्सऽवि नवसंभे, अक्खरलछीन होइ सव्वस्स । सा च अनुपलब्धिरेका असतो प्रवति , यथा-खरशृङ्गस्य । पुबोवनचमत्थे, जस्स उ नाम न संसर३ ॥ द्वितीया तु सतोऽप्यर्थस्य भवति । कुत प्रत्याह-(दूरादिभा. वादिति) दूरात् सन्नप्यर्थो न दृश्यते, यथा-स्वर्गादिः१ । प्रा अर्थस्य पूर्व पश्चाच्चोपलम्भेऽपि सर्वस्याऽक्षरलब्धिस्तद्विषनिशब्दादतिसंनिकर्षादतिसौदम्यान्मनोऽनवस्थानादिन्द्रियापा याऽक्षरलब्धिर्न संभवति । कस्य न भयतीस्यत पाह-यस्यार्थे टवान्मतिमान्द्यावशक्यत्वादावरणादभिभवात्सामान्यादनुपयो विवक्षार्थविषयं पूर्वोपलब्धं नाम न संस्मरति । तदेवमुक्ता गादनुपायाद्विस्मृतेर्दुरागमान्मोहाद विदर्शनाद्विकारादक्रियातोऽ त्रिविधाऽप्यनुपलब्धिः । बृ० १ उ० । विशे०। नधिगमात्कालविप्रकर्षात्स्वभावविप्रकर्षाश्चेति। तचाउतिसन्नि. सम्प्रत्यनुपलब्धि प्रकारतः प्राहु:कत्सिनप्यों नोपलज्यते।यथा-नेत्रदूषिकापदमादिः। ति अनुपलब्धेरपि द्वैरूप्यम् ,अविरुद्धानुपलब्धिर्विरुक्काऽनुपसौम्यात् परमाएवादि:३। मनोऽनवस्थानात्सतोऽप्यनुपलब्धिः, - लब्धिश्च ।। ६३॥ यथा नष्टचेतसामाजियापाटवात किंचिद् यधिरादीनाम् ५। । अविरुखस्य प्रतिषेध्येनार्थेन सह विरोधमप्राप्तस्थानुपलमतिमावादनुपनन्धिः , सतामपि सूक्ष्मशास्त्रार्थविशेषाणाम् | धिरविरुद्धाऽनुपलब्धिः। एवं विरुद्धाऽनुपलब्धिरपि । ६३॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवल (४१२) अभिधान राजेन्द्रः । सम्प्रत्यविरुद्धानुपलब्धेर्निषेधविदो प्रकार संख्यामायान्तितत्राऽविरुद्धाऽनुपलब्धिप्रतिषेधाऽवबोधे सप्त प्रकाराः ॥६४॥ असूनेव प्रकारान् प्रकटयन्तिप्रतिषेध्येनाऽविरुष्कानां स्वनावव्यापककार्यकारण पूर्वपरीचरचरसहचराणामनुपलब्धिः ||५|| एवं च स्वभावानुपधा, व्यापकानुपलब्धि कार्यानुपलब्ध कारणानुपलब्धिः पूर्वचरानुपलब्धि उत्तरचरानुपलब्धिः सहचरानुपलब्धिश्चेति ॥ ए५॥ क्रमेणानूरुदाहरन्ति - वजावानुपलब्धिया- नास्त्यत्र नूनले कुम्न उपलधिलक्षणप्राप्तस्य तत्स्वभावस्याऽनुपलम्भात् ॥ ७६ ॥ (उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्येति) उपलब्धनः तस्य लक्षणानि कारणानि चचुरादीनि लक्ष्यिते जन्यतइति थावत् । तानि प्राप्तः; जनकत्वेनोपलब्धिकारणान्तर्भावात्स तथा इत्यर्थस्तस्याऽ TSनुपलम्भात् ॥ ९६ ॥ दृश्य व्यापकाऽनुपल तब्धिर्यया- नास्त्यत्र प्रदेशे पनसः, पादपानुपलब्धः |||७|| कार्याऽनुपलब्धिर्वया नास्त्वायलिनश क्रिकं पीनमहकुरा नवलोकनात् ||१८|| अप्रतिहतशक्तिकत्वं हि कार्य प्रति अप्रतिबद्धसामर्थ्यत्वं कथ्यते । तेन बीजमात्रेण न व्यभिचारः ॥ ए८ ॥ कारणानुपलब्धिर्यथा- न सन्त्यस्य पशयमभृतयो भात्रास्तच्चार्थश्रद्धानाऽजावात् ||६६॥ ( प्रशमप्रनृतयो भावा इति) प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणजीव परिणामविशेषाः । तस्वार्थधकानां सम्यग्दर्शनं तस्यायाः कुतोऽपि पापकर्मणः सका शारिसद्धस्तत्त्वार्थानानां प्रथमादीनामागम यति ॥ ५ ॥ पूर्वपराऽनुपलब्धिर्वया नोमिति स्वातिनक्षत्र चित्रोदयादर्शनाद ॥ १०० ॥ उत्तरवराऽनुपलन्धिर्वथा-नोदगमत्पूर्वपदामुहूर्तात्पूर्वमुचरन पदोमाय मात् ।। १०१ ।। सहचराऽनुपलब्धिर्षया नास्त्यस्य सम्पज्ञानं सम्यग्दर्शनानुपलब्धेः ॥ १०२ ॥ श्यं प्राप्यनुपधिः साद पारण परम्पर या पुनरेषा संचयत्रेयानवमीया तथादि-नासका न्तनिरन्वयं तत्वस्, तत्र क्रमाक्रमानुपलब्धेरिति या कार्यव्याप निरन्तस्य कार्यस्यार्थक्रियापस्य यव्यापकं क्रमाक्रमरूपं तस्यानुपलम्नसद्भावात् सा व्यापकानुपलब्धाषेच प्रवेशनीया । एवमन्या पे यथासंजयमास्वेव विशन्ति ॥ १०२॥ विरुद्धाऽनुपलधि विधिसिद्धौ दतो नाषन्ते-विरुद्धाऽनुपलब्धिस्तु विधितीनी पञ्चधा ।। १०३ ।। सानेव नेदानाहु:विरुद्ध कार्यकारणस्वनावव्यापक सहचरानुपलम्नभेदातु ।। १०४ ।। विधेयेनाऽर्थेन विरुद्धानां कार्यकारणस्वभावव्यापक सहचराणामनुपलम्भा अनुपस्दा विशेषस्तस्मात् तत प्रणुवलद्धि कार्या विरुद्ध कारणानुपलब्धिः, विरुद्धवावा पलब्धिः, विरुरूव्यापका ऽनुपलब्धिः, विरुद्ध सवराऽनुपलब्धिश्वेति ॥ १०४॥ क्रमेणैतासामुदाहरणान्याहुः विरुद्धार्या पर्ययाऽथ शरीरिशि रोगातिशयः कार्यानुपलब्धिर्यथाऽ समस्ति, नीरोग्यापारा अनुपलब्धेः ।। १०५ ।। विधेयस्य हि रोमातिशयस्य विरुद्धमारोग्य तस्य कार्य वि शिष्यापारः तस्यानुपश्यम् ॥१०५॥ विरूद्धकारणानुपलधिया विद्यते प्राणिनि कष्टमिष्टसंयोगानाबाद || २०६ ।। अत्र विधेयं कखितस्य कारणमिसंयोगा तस्यानुपलब्धिरेषा ॥ १०६ ॥ विरुकस्वनावाऽनुपलब्धिर्यथा वस्तुजातमनेकान्तात्मकमेकान्तस्वभावाऽनुपलम्भात् ॥ १०७ ॥ वस्तुजातयन्तरो बदिर विश्ववर्त्तिपदार्थसार्थः अभ्य ते गम्यते निश्चीयते इत्यन्तो धर्मः, न एको ऽनेकः श्रनेकश्वासावन्तश्चानेकान्तः; स श्रात्मा स्वनाचो यस्य वस्तुजातस्य तदन कान्तात्मकम्; सदसदाद्यनेकधर्मात्मकमित्यर्थः । अत्र हेतुः एकान्तस्वभावस्य सदसदाद्यन्यतरधर्मावधारणस्वरूपस्यानुपलस्वादिति । यत्र विधेसह विदा कान्तस्वभावः, तस्यानुपलब्धिर सौ ॥१०७॥ विरुकन्यापकानुपलब्धिर्षया अस्त्यत्र छापा श्रौष्ण्याअनुपम्पेः || १०८ ॥ विधेयया छायया विरुरूस्तापः तद्व्यापक मौध्यम्, तस्याऽनुपलब्धिरियम् ॥ १०८ ॥ विरुकसहचरानुपलब्धिर्वथा अस्पस्य मिथ्याज्ञानं, सम्यग्दर्शनानुपलब्धेः ॥ २० ॥ विधेयेन मिथ्याज्ञानेन विरुद्धं सम्यग्ज्ञानं तत्सहचरं सम्यग्दर्शनं, तस्याऽनुपलब्धिरेषा ॥ १०६ ॥ रत्ना० ३ परि० । अनुप्रमापयविचारः 66 33 " " यदपि - प्रत्यकादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सामनोऽपरिणामो वा पिकानं वात्यवस्तुनि ॥ १॥ ( सेति ) प्रत्यकानुत्पत्तिः आत्मनो घटादिग्राहकतया परिणामाभावः प्रम पर्युदासपनघटविविता वस्तुभावे घनास्तीति विज्ञानमित्यभावप्रमाणमभिधीयते । तदपि यथासंभवं प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतमेव । तथाहि - " गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्कानपेक्क्या ॥१॥ " इतीयमनाप्रमाणजनिका सामग्री । तत्र च भूतसादिकं वस्तु प्रत्यकेण घटादिभिः प्रतियोगिभिः संसृष्टमसंसृष्टं वा गृह्येत ?| नाथः पक्षः। प्रतियोगिसंसृष्टस्य भूतलादिवस्तुनः प्रत्यकेण प्रहणे तत्र प्रतियोग्यजावग्राहकत्वेनाऽभावप्रमाणस्य प्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्तौ वा न प्रामाण्यम्, प्रतियोगिनः सत्वेऽपि तत्प्रवृत्तेः । द्वितीयपक्षस्वभावप्रमाणचैव प्रत्यक्षेणैव प्रतियोगिनां कुम्नादीनाममावप्रतिपत्तेः । श्रथ न संसृष्टं नाऽप्यसंसृष्टं प्रतियोगिभिर्भूतलादिवस्तु प्रत्यकेण गृह्यते, वस्तुमात्रस्य तेन ग्रहणाभ्युपगमादिति चेत् ? । तदपि पुटम् । संसृष्टत्वाऽसंसृष्टत्वयोः परस्परपरिहारस्थितिकत्वेनैक निषेधे अपरविधानस्य परिहर्तुमशक्य 3 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवल स्वादिति । सपयस्तुग्रहणप्रवणेन प्रत्यायेद्यते । कपि तु तदमिति स्मरणेन समपरं भूतलमिति प्रत्यनिज्ञानेन, योऽग्निमान् न भवति नासौ धूमवानिति तर्केण, नात्र धूमोरित्यनुमानेन, गृहे गर्गे नास्ति इत्यागमेनाभावस्य प्रतीतेः, क्वाऽभावप्रमाणं प्रवर्तताम् ।। रत्ना०२ परि० । अर्थस्यासन्निकृष्टस्य सिद्ध्यर्थ प्रमाणान्तराप्रमानावमभावाख्यं वर्णय न्ति । तथाऽपरे प्रभाषोऽपि प्रमाणाऽनायो नास्तीति, अर्थस्था सनिष्टस्येति वचनात् अन्ये पुनरभावाक्यं प्रमाणं त्रिया वर्णयन्ति । प्रमाणपञ्चकाऽभावलक्षणो ऽनन्तरोक्तो नावः । प्रतिषिभ्यमानाद्वा, तदन्यज्ञानमात्मा वा विषयरूपेण तन्निवृत्तस्वनाय भस्यनेन च भावप्रमाणेन प्रदेशादी घटादीनामनाथ गम्यते । तदुक्तम् "प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपेण जायते । वस्तुसन्ताऽववोधार्थे, तत्राऽनायप्रमाणता ॥ १ ॥ प्रत्यकादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते । सात्मनोऽपरिणाम वा, विज्ञानं वाऽम्यवस्तुनि " ॥ २ ॥ ( ४१३ ) अभिधानराजेन्द्रः | न च प्रत्यक्षेणैवाभावोऽवसीयते, तस्थान्नावविषयत्वविरोधात् । भावांनैवेन्द्रियाणां संयोगात् । तदुक्तम्-"न तावदिन्द्रियेणैषा, वास्तत्पद्यते मतिः। नावानेव संवेद्या, योग्यत्वादिन्द्रिय स्य हि ॥१॥ माऽप्यनुमानेनासी साप्यते, हेयभावात् । न च प्रदे श एव हेतु:, तस्य साध्यधर्मित्वेनाभ्युपगमात् । न चैवमपि हेतुः प्रतिज्ञा, अर्धकदेशताप्राप्तेः न च प्रदेशविशेषो धर्मस्तत्सामान्यतुः, तस्य घटानावव्यभिचारात् । न हि सर्वत्र प्रदेशघटानावः शक्यः साधयितुम्, सघटस्यापि प्रदेशस्य संजवात् । अथ घटाऽनुपलब्ध्या प्रदेशे धर्मिणि घटाऽभावः साध्यते । श्रसदेतत् । साभ्य साधनयोः कस्यचित् संबन्धस्याभावात् तस्मादभावोऽपि प्र माणान्तरमेवान चाऽभावस्य तद्विषयस्याभावादनावप्रमाणान्तस्वैयव प्रागभावादिभेदेन चतुर्विधस्य वस्तुरूपस्याज्ञायय भावात् । अन्यथा कारणादिविभागतो व्यवहारस्य लोकप्रतीतस्याभावप्रसङ्गात् । " न च स्याद् व्यवहारोऽयं, कारणादिविभागतः। प्रागज्ञावादिभेदेन, नाऽजावो यदि भिद्यते” | १| अज्ञावस्य च प्रागभावादिभेदाऽन्यथानुपपत्तेरर्थापत्त्या वस्तुरूपताऽवसीयते । तदुतम् - "न चावस्तुन पते स्युः सदा तेनाऽस्य वस्तुता। कार्याद' नामभावः स्यादित्येवं कारणं विना ॥ १ ॥ इति । अनुमानप्रभाषाया बाभावस्य वस्तुरूपता । यदाह" यज्ञानुष्या सि-बुद्धिग्राह्यो यतस्वयम् । तस्माद् गवादिवद वस्तु प्रमेयत्वाच गृह्यताम् ” ॥१॥ अभावस्य चतुकी व्यवस्था प्रागभावः, प्रध्वंसाइतरेतराभावः अत्यन्ताभावश्चेति । तत्र " भावः, " "कीरे दद्ध्यादि यन्नास्ति, प्रागभावः स उच्यते । नास्तिता पयसो दध्नि, प्रध्वंसाभावलक्षणम् ॥ १ ॥ गवि योऽश्वाद्यभावस्तु सोऽन्योऽन्यानाय उच्यते । शिरसोऽवयवा निम्नाः, वृद्धिकाठिन्य वर्जिताः ॥ २ ॥ शशे शृङ्गादिरूपेण, सोऽत्यन्ताभाव उच्यते " । यदि चैतद् व्यवस्थापकमभावाख्यं प्रमाणं न भवेत्, तदा प्र तिनियतवस्तुव्यवस्था [रोत्सारितैव स्यात् तदु" क्षीरे दधि नवेदेवं दध्नि कीरं घटे पटः । पृथिव्यादयमिनि ॥ १० अन्धो रानी, वायी रूपेरा तो सह व्योम्नि स्पर्शता तें च, न चेदस्य प्रमाणता तु 3 ॥२॥ अणुवह निरंशभावैकरूपत्वाद्वस्तुनस्तास्वरुपमादिणा उपपदेष तस्य सर्वात्मना ग्रहणादगृहीतस्य चापरस्यासदेशस्य तत्राभावात् कथं तद्व्यवस्थापनाय प्रवर्तमानमनावास्यं प्रमाणं प्रामाण्यं तमस्तु इति वकल्पम यतः सदसदात्मके वस्तुनि प्रत्यज्ञादिना तत्र सदंशग्रहणेऽप्यगृहीतस्यासदंशस्य व्यवस्थापनाय प्रमाणाभावस्य प्रवर्तमानस्य न प्रामाण्यव्याहतिः । तदुक्तम् " स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके । वस्तुनि ज्ञायते किञ्चित् केचित् कदाचन ॥ १ ॥ यस्य यत्र यदोद्भूति- जिंम्रिका चोपजायते । वद्यतेऽभवस्तस्य तेन च व्यपदिश्यते ॥ २ ॥ तस्योपकारकत्वेन वर्तते । उभयोरपि संचिन्त्यो- रुभयानुगमोऽस्ति तु ॥ ३ ॥ प्रत्यकाचवतारस्तु भावांशो गृह्यते यदा । व्यापारस्तदनुत्पत्तेरभावांशे जिघृतिः " ॥ ४ ॥ नसभायांशादभिनत्वादभावांशस्य तद्ग्रहणे तस्यापि ग्रह इति, सदसदंशयोर्धर्म्यभेदेऽपि भेदाऽभ्युपगमात् । उक्तं चननु माबादभावात् संप्रयोगोऽस्ति तेन च। नान्यत्वमभेदोऽस्ति, रूपादिवदिहापि न ॥ १ ॥ धर्मयोदरोऽपि ध नि स्थिते । उद्भवानिवात्सत्त्वात् ग्रहणं चावतिष्ठते ॥ २ ॥ इत्यादि । तदेवमगृहीतप्रमेयाऽभावग्राहकत्वात् प्रमाणभावस्य प्रमाप्रत्यक्का दिष्यनन्तर्भावात् । प्रमाणान्तरत्वं च व्यवस्थितम् । सम्म० । ( सम्मतितर्के ग्रन्थेऽस्मिन् विषये विशेपोहण्या) 66 त्वम् و अणुवन्नमाण अनुपलज्यमान- त्रि० अस्यमाने "अणुनमो विदुक्खमाहिं" दश० १ ० अणुववायकारग अनुपपातकारक- समीपे प नमुपपातो दविषयदेशात्रस्थानम्, तत्कारकस्तदनुष्ठाता तदुद्भिन्नो गुर्वादेशादिभीत्या तदव्यवहितदेशस्थायिभिन्नः गुरूणां दृग्विषये खित्यकारकः तस्मिन् चत्त. १. आदेश याहू तिष्ठति । उस. १ अ. अणुवसंत-अनुपशान्तउपशान्तो जितकषायः न उपशान्तोऽनुपशान्तः । सकषाये, उत्त० १० अ० । उपशमप्रधाने, सूत्र० २ ० २ ० । निर्विकारे स्थान । अणुपसमेत अनुपशमयत्-त्रि अनुपशमं कुर्वेति व्य० १३० ॥ वसु-अनुवसु पुं० वसु धन्यं तद्भूतः कषायकालिका दिमागमा वीतराग स्यर्थ तद्विपर्ययेणाऽनुवसुः संरांगे, " 3 1 , साधुः अनुतिरागोज वा संयतोऽथवा । सरागोऽहानुवसुः प्रोक्तः, स्थावरः श्रावको 5थवा " ॥ १ ॥ “वसु वा श्रणुवसु वा जाणित्तु धम्मं जहा तहा " श्राचा० १ श्रु० ६ ० २ उ० । अणुव स्त्रियववहारकारि (श्) - अनुप तिव्यवहारकारिन्-त्रि० । निश्रा रागः, निश्रा संजाता अस्येति निश्रितः, न निश्रितोऽनिधितः स चासौ व्यवहारश्च अनिश्रितव्यवहारः, तकरणशीला अनितिव्यवहारकारिणः । रागेण व्यवहारकारिणि, व्य० १ उ० । , अणुवह अनुपय-अव्य० पथः समीपे वसथो भवतां वर्त्तत । श्राचा० १ ० ८ ० १ उ० । अनुपथमेवास्मद Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१४) अणुवह अनिधानराजेन्द्रः। अणुवास अनुपध-त्रि.नावत उपधा ऽयुक्ते, पं० सं०२ द्वा। तीयहिगारो एत्यं, सा होज्जा सुद्धऽमुखो वा ।। अणुवहय-अनुपहत-त्रि० । न० त० । अग्न्यादिभिरविध्व- पट्टीवंसादीहिं, सगकरणादिपहिँ तह चेव । स्ते, पिं०। होति अमुछा वसही, मूलगुण उत्तरगुणे य तहा ।। अणुवहयविहि-अनुपहतविधि-पुं० । अनुत्पन्नमुत्पाद्य दाने, कालफुयातिरित्तं, अविसुधासु च तासु वसमायो । गुरुभिर्दत्तस्य अन्यस्य गुरुननुज्ञाप्य दाने वा। अनुपहतविधि- पावति पायच्चित्तं, मोत्तणं कारणमिमेहिं ॥ र्यदनुत्पन्नमुत्पाद्य ददाति। अन्ये तुव्याचकते-यत्पुनस्तस्य गुरुभि- असिवे प्रोमोयरिए, रायदुट्टे भए व आगाढे । दत्तं तत्सोऽन्यस्य गुरुनननुज्ञाप्य ददाति "अणुवहियं जं तस्स गेलएह उत्तमहे, चरित्तसज्कातिए असती॥ उ, दिन्नं तं देह सो उ अन्नस्स" यत्तस्य दत्तं सोऽन्यस्म गुरूननुज्ञाप्य ददाति । कमाश्रमणैस्तुज्यमिदं दत्तमित्येषोऽनुपहतवि वाहिं सव्वत्थ सिवं, तेण सया कालदुयगाम्म । धिः । व्य०१०। पुणो वि य णहु णिगुच्छे, अणुपच्या नाव अणुवासी। अणुवहास-अनुपहास-त्रि० । अविद्यमानोपहासे, पञ्चा०६ आझवणे विसुद्धे, मुकदुतं परिहरे पयत्तेणं । विव०॥ आसज तु परिभोग, भयणा पडिसेवसंकमणे ॥ अणुवहुभा-देशी-नववध्वाम , दे० ना० १ वर्ग । असिवादीहिँ वसंतो, सुद्धाए वसही' बसे साहू । अणुवाइ(ण)-अनुपातिन-त्रि०अनुपतत्यनुसरतीत्येवंशीलः। सुच्चासतीऍ जतती, विसोहिकोमीऍ पुव्वं ति॥ स्था० ६ 10 । योग्ये, “ अणुवाइ सव्वसुत्तस्स" पं० व० २ जयणत्ती जं जणितं, पुव्वत्ताए तु जेतु जे दोसा । द्वा० । अनुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी । अनुवादशीले, सूत्र०१ | ते ते पुच्वं सेवे, कम्मरणे वी श्मा जयणा ।। श्रु० १२ अ०। अप्पावहं तु लेऊ, जत्थ गुणा तू भवेज बहुतरगा। आणुवाएज्ज-अनुपादेय-त्रिम हेये अग्रहीतव्ये, प्रा०म०द्विन गच्छं गच्छंताण व, तं चेव तहिं करेजा तु ।। अणुवाणहय-अनुपानत्क-त्रि० । न विद्यते उपानहीं यस्य असिवादिनिहिए पुण, अव्वक्खेवेण संकमे तत्तो। सोऽयमनुपानकः । उपानहोरधारके, षो०१ विव०। सत्थं तु पमिच्छंतो, जइ अत्ये तत्थ सुन्छो तु॥ वाय-अनुताप-पुं० । संयोगे, भ०१२ श०४ उ० । एतं णयरविहूणं, अणुवासियं जेतु अणिवसे कप्पं । अनुपात-पुं०। अनुसरणे, प्रज्ञा०१७ पद । अनुपतनमनु कालकुयावराहे, संवलितमोऽवराहाणं ।। पातः । शब्दोच्चारणरूपानुदर्शनादौ , उपा०१०। संवकृितावराहे, नवोवदो तहेव मूलं वा । अनुवात-पुं० । आघ्रायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते, पायारपकप्पे जं-पमाणणेमाण चरमम्मि ॥ जं.१ वक्ष० । रा०। अनुकुलो वातो यत्र देशे सोऽनुवातः । अणुवासियाऍ कप्पो,एमे सो वमितोसमासणं । पंजा। यस्मादू देशाद् वायुरागच्छति तत्र, भ० १६ श०६ उ० । अनुवाद-पुं० । विधिप्राप्तस्य वाक्याऽन्तरेण कथने , वाच०। इयाणि अणुवासकप्पो-तत्थ(गाहा)[अणुवासम्मि उ] अणुवासो नाम वासावासो उवद्धे वा वसित्ता तत्व अणुवसइ, उवद्धे "द्वादश मासाःसंवत्सरोऽग्निरुष्णोऽग्निर्हिमस्य भेषजम्" इत्या मासनहु,वासे चउसहु । तत्थ पुण बहुविहासुत्तत्था ।जहा पत्थे दीनि तु वेदवाक्यान्यनुवादप्रधानानि, लोकप्रसिद्धस्यैवार्थ व कप्पे लिए मासकप्पसुत्ते पत्थ पुण अहिगारो अणुवासिज स्यैतेष्वनुवादात । विशे० । तीति । अणुवासिया का पुण सा?, वसही सुका य,असहाय । अण्वायवाय-अनुपायवाद-पुं० । पष्ठे मिथ्यात्ववादे, नयो। असुद्धा पहावं सोवंसग्गकरणो वंगणादि (गाहा) [असिवे] अ. अणुवालय-अनुपालक-पुं०। आजीविकोपासकभेदे, भ०२४ सिवाइस कारणेसु असुझाए वि वसति रायदुट्टे कोप्परपट्टी वा सोयाणि वा तत्थ तत्थि जाणि बाहिरएहिं खेतोह संजयाणि अणुवास-अनुवास-पुं० । वर्षावासे ऋतुबद्धे वा उषित्वा पुन- दोसकरणाणि नए व बोधिगादिसुगेलमउत्तिम चरिस इत्थिस्तत्रैव पश्चाद् बसने , अशिवादिकारणेषु वृद्धादिवासे वा दोस एसणा दोसा असज्झाए वा अस वा गुणाणं जे तम्मि वसहीए (गाहा) [आलंवणे]एवं आसंवणविसु सत्तए परिवसने च । तत्र कल्पः हरेजा जुत्तेण परिभोगं पुण मासज्ज गुणपरियट्टित्ति नणिय होश ............."अहुणा अणुवासणापकप्पं तु । जणिया पडिसेहसंकमणे गुणवुकिनिमित्तं अच्छेजा न सकेजा वोच्छामि गुरूवदेमा, अग्गहट्टा सुविहियाणं ।। अमं वसहिं खेत्तं वा पपसु पुण कारणेसु विणासो अणुवासिअणुवासम्मि तु कप्पो, पन्नवग पञ्च बहुविहा अत्या। यं परिवस तस्स संघट्टियावराहे, एस अणुवासणाकप्पो ॥ अणुवासणए पगतं, सुधा य तहा असुद्धा य । पं० चू०। अणुवासत्थो बहुहा, उनवासे वण अहव असिवादि । 'अहुणा वोच्छंऽणुवासणाकप्पं । बुनादी वासो वा, अहवा अणुवसणमणुवासो ॥ गावासमासकप्पो, वासावासो इमेमुं तु ॥ वनितं पुणो वि वसती, अणुवासिगवसहिममइगीसराहा। जिपथेर अहालंदे, परिदारितअजमासकप्पो तु । श०२० उ०। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१५) अभिधानराजेन्द्रः | अणुवास खेते काल मुवस्सय - पिंडग्गहणे य णाणतं ॥ एएसं पंचह वि, एणोमस्स चउपदेहिं तु । तादीहि विसेसो, जह तह वोच्छं समासेणं ॥ त्थि न खेत्तं जिक--प्पियाण उनबद्धमासकालो तु । वासासुं चनमासो, वसही ममत्त अपरिकम्मा ॥ पिंमोतु अलेकडो, गहणं तु एसणा उवरिमादि | तत्थ वि कानमभिरगढ़, पंचएहं अतरियाए । थेरा अस्थि खत्तं तु उग्गहो जाव जोयसकोस । गरं पुरण वहीए, विकाल उनबन्धमासो तु ॥ उस्सग्गेणं जाणो, अववाणं तु होज्ज अहिओ वि । एमेव य वासासु वि, चनमासो होज्ज अहियो वि ।। ममत्त अपरिकम्मो उवस्सओ एत्थ जंगचउरो तु । उग्गणं पढमो, तिहि उ सेसाऽववादेणं || मत्तं वकरं वा, सेवकर्म वा वि ते तु गेएहंति । सतहिँ वि एसपाहिं, सावेक्खो गच्छवासोति ॥ हलं दिया गच्छे, अप्पमिवाण जह जिलाणं तु । वरं काल विसेसो, उनवासे पणगचनमासो || गच्छे पडिवाएं, अहलंदियां तु ग्रह पुरा विसेसो | हो जो सिं तू, सो प्रायरियाण आजवति ॥ एगवसहीऍ पण, बच्चि वत्रगाम कुव्वंति । दिवसे दिवसेति विही य पियमेणं ॥ परिहारविमुखीणं, जहेव जिरणकवियाण एवरं तु । आयंबिलं तु जत्तं, गेएहंति य वासकप्पं च ॥ प्राण परिग्गाहयाण, उग्गहो लोतु सो तु आयरिए । काने दो दो मासा, उनबच्चे तासि कप्पो तु ॥ सेसं जह थेराणं, पिंमो य जवस्सओ य तह तासि । सो सोविय विहो, जिसकप्पो थेरकप्पो य ॥ जिणकप्पि महानंदी, परिहारविसुवियाण जिणकप्पो । धेरा अजाण य, बोधव्वो येरकप्पो तू ॥ विहो य मासकप्पो, जिणकप्पो चैत्र येरकप्पो य । पिरणुग्गहो जिणाणं, थेरा अणुभ्गहपवत्तो । नवास कालऽतीते, जिएकप्पीणं तु गुरुगा य | होति दिएम्मि दिएम्मि वि, थेराणं तेच्चिय लहू तु । ती पदावराहे, पुट्ठो अणुवासियं असंतो ॥ जे तत्थ पदे दोसा, ते तत्थ तगो समावयो। पारसुग्गमदोसा, दस एसा एऍ पुरण वीसं ॥ संयोजलादि पंचय, एते तीसं तु वराहा ! एतेहिं दोसेहिं, जदि संपत्ति लग्गती तह वि । दिवसे दिवसे सो खबु, कालातीते वसंतो तु ॥ वासावा सपमाणं, आयारे उप्पमाणितं कप्पं । एयं णुमोतो, जासु वाकप्पं तु ॥ अणवास तं आयारपकप्पम्मी, जह जयिं तीत संवसंतो वि । होति अणुवासकप्पो, तह संवसमाणदोसा तु ॥ दुवि विहारकाले, वासावासे तहेव उबद्धे । मासात अणुवाह, वासातीते जवे वही ।। बद्धि, तीतेसुं वास तत्थ ग तु कप्पो । तू वह खलु वासातीतेसु कप्पति तू || वास उ अहालंदे, इत्तिरिसाह पुहत्ते य । उग्गहसंकमणं वा, अपोछासकासहिज्जतो || वासासु चउम्मासो, उउवछे मासलंद पंचहिणा । इत्तिरि रुक्खमूले, वीसमणडा वि ताणं तु ॥ साहारणा तु एते, समट्टिताणं बहूण गच्छाएं । एकेण परिग्गहिता, सव्वे पोहत्तिया होंति ।। संकमणमनस-स्स सकासे जदि तु ते ग्रहीयते । सुत्तत्य तदुनयाई, संघे हवा विपढिपुच्छे || ते पुण मंगलियाए, प्रावलियाए व तं तु गेरहेज्जा । मंझियमहिज्जंते, सच्चित्तादी तु जो लाजो | सो तु परंपरएणं, संक्रमती तात्र जाव संठाणं । जहियं पुलिया, तहियं पुण अंतर गति ॥ पुठितएकाए, बसहीए अब पुष्फकिमाओ | हवा वितु संकमणो, दव्त्रस्सिएमो विही अणो ॥ सुत्तस्य तदुभयविसा - रयाण योवे असंतती भोए । संकमणदव्वमंगल-प्रावलियाकप्पवासे || पुण्वद्विता खेत्ते, जदि आगच्छेज अस आयरिश्रो । बहुसु य बहु आगमिओ, तस्स सगासम्म जादे खेत्तो ॥ किंचि हिज्जेज्जाही, थोवं खेत्तं च तं जदि हवेज्जा । ता ते संथता, दोपि वि साहू विभजेंति ।। मोस्स सगासे, तेर्सि पि य तत्थ धिज्जमा लेणं । भवणा तह चैव य, जह जणियमणंतरे सुत्ते ॥ एवं शिव्याघाते, मासचउमासतो न थेराणं । कप्पो कारणतो पुण, अणुवासो कारणं जाव || एसऽणुवास कप्पो' । पं० ना० । इयाणि वाकप्पो- ( गाहा ) [ जिथे र ] सो पुण अणुवासकप्पो जिणथेरग्रहादि य परिहारविसुद्ध । य श्रजाति एगेगा एगस्स बहुं गणेहिं खेत्तकान्नवस्यपिंडगडणे य नातं जिस ताव खेत्तं नत्थि काले उउबद्ध मासो वासारत्ते चाउम्मासो उवस्तश्रो श्रममत्तो अपमिकम्मो भिक्खा - लेवाडा खेत्तोग्गहो थेराणं श्रत्थि सक्कोसं जोयण नगरे वसहि हो सिको मासं वा मासाश्यं वा उउम्मि कारणमकारणे वासासु चाउमासं वा निक्कारणे कारणे दुण ऊणाहिये उबस्स उ उस्सग्गेण श्रमत्तो अपरिकम्मो यत्रयवारण सस मतो सपरिकम्मो य पिंको सेवामो अलेवामो यहादियाण गच्छे अपविकारां जहा जिणाणं नरि काले नागे गामो कीर एगेगो नागे पंचदिवलं भिक्वं हिमंति, तत्थेव वसति For Private Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुवास अभिधानराजेन्द्रः। अणुव्वये वासासु एगत्थ चउम्मासो एवं परिहारियाण वि जहा जिणाणं धा। "अणुवासगो वि नायगमनायगो य" पतस्य द्विविधस्याणवरि आयवित्रेण मासो सब्बो वि विहो जिणकप्पो येरक- ऽपि प्रवाजने चतुर्गुरु, प्राज्ञादयश्च दोषाः । नि० चू० ११ उ०। प्पो य, जिणअहासंदिपरिहारविसुफियाणं जिणकप्पो अजाणं उपासकः श्रावक स्तरोऽनुपासकः । अश्रावके, नि० चू००००। थेराण य थेरकप्पो गच्छपमिवरूअहालंदियाणं पायरि अणुवासणा-अनुवासना-बी०। चर्मयन्त्रप्रयोगेणाऽपानेन जयाणं चेव सो खित्तोग्गहो संजयणगीयस्थपरिग्गहियाणं उरे तैलविशेषप्रवेशने, झा० १३ अ० विपा० । व्यवस्थापनाअस्थि खेत्तं सो पायरियाणं चेव जिणकप्पो निरणुग्गहो याम, प्राचा०१७० ६ ०१०। असिवादो कारणा नत्थि थेरकप्पो साणुग्गहो असिवासु कारणेसु कालाइए उउम्मि जिरगाण गुरुओ मासो दिणे दिणे अणुवि(बि)ग्ग-अनुद्विग्न-त्रि० । न० त० । प्रशान्ते, "चरे मंद. थेराण बहुओ मासो दिणे दिण तम्मि खेत्ते अत्यंताणं चउम्मा- मणु विग्गे, अविक्खित्तेण चेयसा" दश० ५ ० १ उ०। भनुसाश्य जिणाणं तम्मि चव खत्त दिणे दिणे च गुरूं थेराणं दि- द्विग्नः क्षुधादिजयात प्रशान्त इति । वृ० १3०। णे दिणे चनलहुं (गाहा) [तीसपयाऽवराहे ति] सोलस उग्ग- अणुविरइ-अनुविरति-खी० । देशविरती, कर्म०१ कर्म०। मदोसा, संजोयणा पंचदस पसणा दोसा, लामपरिवामीए पन्नरस उम्गमदोसा पंच संजोयणमाइ तत्थ बढा पसा बीसा अण्वीइ-अनुविचिन्त्य-अव्य० । अनु-वि-चिति-स्यए । पर्यादल एसणा दोसा एए तीसपयावराहेति तेसिं अहवा दिवसे लोच्येत्यर्थे, प्रश्न०२ सम्ब० द्वा० । आलोच्येथे, दश०७ अ० । दिवसे अवराहो तीस दिणामासो जम्मि प्रावज्जइ जयमाणो वि केवलज्ञानेन ज्ञात्वेत्यर्थ, सूत्र०१ श्रु० १० अ०। अत्यंतो निकारणे तेण नग्गइ(गाहा)[वासावासपमाणं]वासावा- अनुवाच्य-अव्य० । आनुकूल्यं वाचयित्वेत्यर्थे, सूत्र.१ श्रु०४ सपमाणं च एयं आयारकप्पे भणियं तम्मि अश्कतो उग्गह काले अ०१ उ०। अणुवसंतस्स अणुवासिया नव (गाहा)[दुविहे विहारकाले] अश्कते अट्टहिं मासेहिं अश्पर्हि वासंपभिवज्ज तत्थोवही न अणुवीइनासि(ण)-अनुविचिन्त्यनापिन्-पुं० । अनुविचिघेप्पइ वारे अश्ए घेप्पक्ष (गाहा) [वास नउ] पपसि चियाणं जर न्त्य पर्यासोच्य भाषते श्त्येवंशीसोऽनुविचिन्त्यन्नाप।। व्य० १ बहृया पक्काम्म खेत्ते दिया होज्जा वासासु उम्मि वा अहावं. उ० । स्वालोचितवक्तृरूपे वाचिकविनयभेदे, दश० १ अ०।। दिपंच दिवसा जाव साहरणा पुहुत्ते वा इरित्तिए वा रुक्खा अणुवीइस मिइजोग-अनुविचिन्त्यसमितियोग-पुं० । अनुविसंकमणं एगो एगस्स मूले दस वेयानिधे उज्जुयारेइ तस्स पुण चिन्त्य पर्यालोच्य नाषणरूपा या समितिः सम्यक्प्रवृत्तिः सादस वेयात्रिय उज्जुयारेतस्स मूत्रे अन्हो उत्तरज्झयणाणि इनविचिन्त्यसमितिस्तयोर्योगः संबन्धस्तपो वा व्यापारो वाईपढ ज उत्तरज्जयणाश्त्तो सचित्ता लम्भर तं दसवे- नुचिन्त्य समितियोगः। भाषासमितियोगे, प्रश्न०२ सम्ब० द्वा। यालिया तस्स देश दोसो उत्तरज्झयणं उज्जयारे तस्स मुले अभ्नो बंभचेरे उज्जुयारे जाव विवागसुयं जहो अण्वहण-अनुव्यूहन-न० । प्रशंसने, कल्प० । तरापलिया सहाणंचेव पदसवेयाबियश्त्तस्स अत्थे पुण एगो अणुवेदयंत-अनुवेदयत-त्रिका अनुभवति,सूत्र०१ श्रु०५१०१३०॥ एगस्स मूले आवासगाहाओ पढ अन्नो पुण आवम्मकस्स अनुवेहमाण-अनुप्रेक्षमाण-त्रि० । अनुप्रेक्कां कुर्वति, "धुणे - अत्यं कहेइ अत्थाइत्तो ववित्रो वा एगो दसधेयालियस्स सुत्ते वाएइ एगो अत्थं कहे अत्थश्त्ता वलिओ एगो उत्तरज्जयणा राल अणुवेहमाणे, विश्वाण सोयं अणवेक्खमाणे" सूत्र०१० अ०। वाएर एगो अत्थं कहेइ अस्थइत्ती वशिनी एवं जाव विवाग- अण्वो देशी-तथेत्यर्थे, दे० ना० १ वर्ग । सुयं सन्वत्थ अत्थो वलिओ एगो पन्नत्ति वाएइ एगो दसवेया अणुच्चय(अ)-अणुव्रत-न० । अणूनि लघूनि प्रतानि अणुनलियाश्यं जाव कप्पयवहाराणं अत्थं कहे३,अत्थश्नो वलिओ तानि । लघुत्वं च महावतापेक्वयाऽल्पविषयत्वादिनेति प्रतीतएवं जाब विवागसुयं एगो कप्पञ्चवहारे कहे एगो दिघ्यिाश्सु. मेवेति । उक्तं च- "सब्वगयं सम्मत्तं, सुए चरित्तेन पज्जवा से वाए सुत्तइत्तो बनिओ सम्वत्थ पुथ्वगयरत्तो वनिो जत्थ सधे । देसविरई पमुच्च, दोएह वि पमिसेवण कुजा"॥१॥इति । वा मंझली जिइ हेटिल्लाण तत्थ पाव सच्चित्ताइ ते पुण अथवा सर्वविरताऽपेकयाऽणोलेघोर्गुणिनो व्रतायव्रतानि । पगए वसहीए चिया पुष्कावकिन्ना वा (गाहा)[सुत्तत्थ ] अहवा | स्था० ५ ० १ ००। एगाम्प गामे पगो खारिओ सुत्तत्थविसारो पुव्याहिओ तस्स अन्ने पासे पढ़ति, तं च खत्तं थोवं अपज्जत्ते भत्तपाण दो वि अनुव्रत-न०। अनु महाव्रतस्य पश्चादप्रतिपत्तौ यानि प्रतानि जणा पढंतपो वेऊणं संजप विसजेति अराणं खेत्तं माह तेसिं कथ्यन्ते तान्यनुव्रतामि इति । उक्तं च-"जइ धम्मस्स समत्थे, अन्नगामं गयाणं परोप्परस्स पढ़ताणं तहेव संकमणहाणं सचि- जुञ्ज तहसणं पि साहणं । तदहिगदोसनिवत्ती, फसंति का-. त्ता दवे जाव आवलिया सहाणगयंति (गाहा)[एसो उ]काल- याणुकंपटुं" ॥१॥ इति । स्था०५ ग०१० श्रा०। आतु। कप्पो निव्याघापण वासामु चानम्मासे नउम्मि अट्ठमासे कार- | ध० । श्रावकयोग्यषु देशविरतिरूपेषु स्थूलप्राणातिपातविरण पूण थराण जाहे अणुवासी जवा जावतं कारण समत्तं मणादिषु ; असिवाश्ताप एवासंता वि जयंता सुद्धा, एस अणुवास तानि चकप्पा । ५००। पंचाणुव्वया पामत्ता । तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ अावामग-अनुपासक-पुं०। न नपासकः श्रावकोऽनुपासकः।। वेरमाणं, थूलाओ मुसावायायो वेरमणं, थूलामो अदिनामिथ्यादृष्टी, स च ज्ञातकोऽझातकश्च, नायकोडनायकश्चेति दि- दाणामी वैरमणं, सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण्व्वय ( ४१७ ) अभिधानराजेन्द्रः । स्यूसाइन्द्रियावा स्थूलत्येतेषां सकलौकिकाम वास्तविषयत्यात्स्तस्मात्प्राणापा त् । तथा स्थूलः परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिष्टो विवकासमुङ्गवः, तस्मात् मृषावादाद् । तथा परिस्थूलवस्तुविषयं चौर्यारोपणहेसुप्रसिद्धमभ्यवसाय पूर्वकं स्यूतं तस्माददशादानात् । तथा स्वदारसन्तोषः ; आत्मीयकल त्रादन्येच्छानिवृत्तिरित्युपक्षकणात्परदारवर्जनमपि ग्राह्यम् । तथा इच्छाया धनादिविषयस्पाभिलाषस्य परिमाणं नियमनापति परिग्रहविरतिरित्यर्थः । स्था० ५ ० १ ० । श्राच० । उपा०| ( सातिचाराणां प्राणातिपातादीनां व्याख्या स्वस्थाने ) अस्य ग्रहणविधिःतस्मादभ्यासेन तत्परिणामदादर्थे यथाशक्ति द्वादशव्रत स्वीकाराः, तथासति सर्वाङ्गीणविरतः संभवाद्विरतेश्च महाफलत्वात्, अभ्येऽपि च नियमाः सम्यक्त्वयुक्त द्वादशान्यतरवतसंबद्धा एव देश विरतित्वाभिव्यञ्जकाः। अन्यथा तु प्रत्युत पार्श्वस्यत्वादिभाषाधिकात् 'उपदेशरक्षा करे' सम्यपातादियाधर्मरहिता नमस्कारगुणनजिनानन्दनाथ ति काभासाः श्राद्धधर्मस्य पार्श्वस्था इति । इत्थं च विधिग्रहणस्यैव कर्त्तव्यत्वात् संग्रहेऽस्य प्रवर्तत इत्यत्र धर्मस्य सम्यग्विधिना प्रतिपचौ प्रवर्तत इत्येवं पूर्व प्रसिसत्याश्च तद्ग्रहणविधिमेव दर्शयतियोगयन्दननिमित्त-दिगाकारविशेयः । योग्योपचयेति विधि-र ।। २३ ।। इह विशुशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणत्वात् । ततो योगगुरुवन्दनशुद्धिर्निमित्तशुद्धिर्दिकशुद्धिराकारशुकिश्वेत्यर्थः । तत्र योगाः कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणाः, तेषां शुसोपयोगान्तरगमननिरययापण गुरुप दलित निपातादिक सारणासंचालका-योगोदर निर्मित का बादिनावपूर्ण जन्माष्जयाम राधय लोकन जगन्धाघ्राणादिस्वभावा, दिक्शुकः प्राप्युदीची जिन चैत्याद्यधिष्ठिताऽऽशासमाश्रयणस्वरूपा, श्राकारशुद्धिस्तु राजाभियोगादि. प्रत्याख्यानापवादमुक्कलीकरणात्मकेति तथा योग्यानां देवगुरुसाधर्मिकस्वजनदीनानाथादीनामुचिता उपचयां धूपपुष्प वस्त्रविलेपनाssसनदानादिगौरवात्मिका चेति विधिः । स च कुप भवतीत्याह ( अनुव्रतेति ) असुत्रतानि मुखे यादी येषां तानि मुखानि साधुधावकविशेषधर्माचरणानि तेषां ग्रहे प्रतिपत्तौ भवतीति सद्धर्मग्रहणविधिः । विशेषविधिस्तु सामाचारीतोऽवसेयः। तत्पाठश्चायम् - "पसत्थे खित्ते भिसा पसत्सु तिहिरनल परिक्खियगुणं सीसं सूरी श्रग्गओ काउं खमासमणदाणभगाबे कारि भगवन् ! तुम्हे असम्पत्वसामायिक सामायिक देशविरतिसामायिकम् आरोचाथ मंदिरावयं देवं यंदावे। तभी सूरी सेहं वामपासे वित्ताहि सिंघण समं देवे देव जय म दिसंतु । ततः श्रीशान्तिनाधाराधनार्थं करेमि काउस्सगं, 'वंदणवत्तियाए' इत्यादि सत्तावीसुस्सासं काउस्सगंग करेइ, ' श्रीशान्ति' इत्यादिस्तुतिं च भगति । ततो द्वादशाङ्गधाराअनार्थ करेमि काउसम्म बंदणवति श्राइत्यादि कायोत्सर्गे नमस्कार चिन्तनम्, ततः स्तुतिः, तो सुयदेवयाए करेमि अणुव्वय काउस्लग्गं, अन्नत्थ ऊससिएण मिश्चाह, ततः : स्तुतिः, एवं शासनदेवयाप करेमि काउस्सग्गं, श्रन्नत्थऊ०|'या पाति शासन जैनं, सद्यः प्रत्यूहनाशिनी । साऽभिप्रेतसमृद्ध्यर्थे, भूयाच्छाशनदेबता" इति स्मृति समस्तवैयावृत्य करा स्तुतिः नमस्कारं पवित्योपविश्य च शक्रस्तवपाठः परमेष्ठिस्तयः 'जय' इत्यादि । एवं प्रक्रिया सर्वविधिया, तक्षाम धारकृतो विशेषः। ततो बंद सीसो नकार भ गयन तुम्हे सम्यक्त्व सामायिकं भूतसामायिक सामायिकम, आरोवावणीयं नंदिकरावणीयं काउस्सगं करेह । सीओ गुरू सामायिक सामायिक देश विरतिसामायिकं रोवावणीयं नंदिकरावणीयं करोम काचसम्मान सतायी मुसासचितचरण कमा० नमस्कारत्रयरूपनन्दिश्रावणं, ततः पृथक् नमस्कारपूर्वकं वारत्रयं सम्यक्त्वद एककपाठः । स चायम् - "मंते! तुम्हा समीमा परिमामि म उपसंपतिं जड़ा-का भावमो णं मितकारणारं पचयामि सम्मकारणा संपा मि, नो मे कप्पर अज्जप्पनिई अन्नउत्थिए वा अन्नलत्थियदेवयाविधियपरिगडियाणि या अरिहंताण दि नमसत्तपत्रा पुचि अणालत्तर णं श्राह्मवित्त वा सलवितएवा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउँ वा श्रणुप्पया वा खित्तओ गं इत्थ वा अन्नत्थ वा कालओ णं जावजीवाए जाव णं जाव गढेणं न गहिज्जामि, जाव बलेणं न छलिज्जामि, जाव संनिवारणं नाजिभविज्जामि, जाव अत्रेण वा केण रांगायंकाइणाइ एस परिणामो न परिवर ताव मे एवं सम्मद्दसणं गाथाभियोगे गाभियो लामो देवयामि योगेणं गुणं वितिकता बसिरामि तत "अरिहं तो महदेवो जाव" इत्यादिगाथाया वारत्रयं पाठः । यस्तु सभ्यपत्वप्रतिपत्यनन्तरं देशविरति प्रतिपद्यते तस्य प्रताधार तो बंदिता सीसो भइ इच्छुकारि भगवन् ! तुम्हे अम्हंसम्यक्त्व सामायिकं श्रुत सामायिकं, देशविरतिसामायिकम्, आरोयो गुरुराह श्रारोमि पुणो वंदिता भरा-संदिस किं भणामिः। गुरु दापयेदित्ता तुम्हे अ समत्तसमाइयं सुयसामाश्यं दे सविरइसामाश्यं श्रारोवियं इच्छा मिस गुरु भइ आरीवियं श्वमासमणाएं हत्थे णं सुत्तेणं अन्तसम्म पारिजा गुरुर्हिरिया पारगा होह । सीसो भण्इ-इच्छं ३। तो वंदित्ता भाइ-तुम्हाणं पवेयं संदिसह साहूणं पवेपमि गुरु भरण-पवेह ४| तो वंदित्ता एगनमुकारमुच्चरंतो समोसरणं गुरुं च पर्यावणे, एवं तिनि वेला तो गुरु निसिजाए उवविसइ । खमासमणपुदि सीखो भइ झाप साह पवेद संहिसह काउस्सगं करेमि गुरु भगइ करे ह६ त वंदिता भगाइ-स सामायिकं ३ स्थिरीकरणार्थं करेमि काउस्सग्गमित्यादि, सत्तावीसुस्सासचिंतणं चउवीसत्थयभणनं । ततः सुरिस्तस्य पञ्चोदुम्बदि ३ यथायोग्यमभिददाति तह "अह मंते! तुम्हारां समीये हमे अभिमगि हामि तं जहाय्य निओ कालओ भाषओ। दब्यश्र इमे अभिग्गहे गिएहामि, खित्तणं इत्थ वा श्रन्नत्थ वा. का अजयपार भाषणं अहागहियभंगपणं अरिहंतस क्खियं सिद्धसक्खियं सादृ०देव अप्प अन्नत्थऽणाभोगेगं सह Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) अणुव्वय भनिधानराजेन्कः। अणुय्यय स्सागारेणं महत्तरागारेणं सब्यसमाहियत्तिभागारेणं वोलिरा- धम्मे असमत्थो, जुज्जा तहेसणं पिसाहुं ति"। तानि कियमि" तत एकाशनादिविशेषतपः कारयति, सम्यक्त्वादिदुर्व. न्तीत्याह-(पञ्चेति) पञ्चसंख्यानि, पञ्चाणुव्रतानीति बहुवचनभताविषयां च देशनां विधत्ते । देशविरत्यारोपणविधिरप्येवमेव । निर्देशेऽपि यद्विरतिमित्येकवचननिर्देशः स सर्वत्र विरतिसामाबतानिलापस्त्वेवम-"अहन्नं नंते! तुम्हाणं समीये थूलगं पाणा- न्याऽपेक्वयति । शनवस्तीर्थकराः,आहःप्रतिपादितवन्तः। किमवि. श्वायं संकप्पो निरवराह पच्चक्खामि जावज्जीचाए 5- शेषेण विरतिः?, नेत्याह-बूतभङ्गेनेत्यादि । केचिद् द्विविधत्रिधिविहं तिविहणं मणेणं चायाए कापणं न करेमि न कारवेमि, धादीनामन्यतमेन वतनङ्गेन व्रतप्रकारेण बाहुल्येनहि श्रावकाणां तस्स नंते ! पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरा- द्विविधत्रिविधादयः षमेव भङ्गाः संभवन्तीति तदादिलङ्गजासमि १ अहनं नंते ! तुम्हाणं समीये शूनगं मुसाबायं जीहा - प्रहणमुचितमिति जावः। ते च नता एवम्-श्राका बिरताः, अभाइहे कन्नाऽलीयाई पंचविहं पञ्चक्खामि दक्खिन्ना अधि- चिरताश्च । ते सामान्येन द्विविधा अपि विशेषतोऽष्टविधा भवसए जावजीवाए दुविहमित्यादि।अहानं नंते! तुम्हाणं समी- स्ति। यत आवश्यके-“साभिग्गहाय णिरनि-गहाय ओहेण सावे थूलगं अदत्तादाणं खेत्तखणणाश्चोरंकारकर रायनिम्गहक- घया विहा। ते पुण विभजमाणा, अट्टविहा हुंति णायव्या" ॥१॥ रंसञ्चित्ताचित्तवत्थुविसयं पच्चक्खामि जावज्जीवाए विह- साभिग्रहा विरता आनन्दादयः, अनभिग्रहा अधिरताः कृष्णसामित्यादि अनं भंते!तुम्हाणं समीवे पोरालियवेउब्धियभे त्यकिश्रेणिकादय इति । अष्टविधास्तु द्विविधत्रिविधादिभनेयं यूलगं मेहुणं पश्चक्खामि, तत्थ दिव्यं दुविहंतिविहेणं तेरिच्छ देन भवन्ति । तथाहिएगविहं तिविदेणं मणुप्रथदागहियभंगएणं, तस्स नंते! पहिकमामिनिंदामीस्यादि अहनं नंते! तुम्हाणं समीवे अपरिमि "बिह तिविहेण पढमो, दुविहं विहेण वीप्रश्रो होइ । यपरिग्गरं पञ्चक्खामि धणधनाइनवविहवत्थुबिसयं इच्छाप सुविहं पगविहेणं, पगविहं चेव तिविहेणं ॥१॥ रिमाणं उवसंपज्जामि जावज्जीवाए अहागहियनंगएणं, तस्स एगविहं विहेणं, पगेगविहेण पट्टओ हो। अंते ! पमिकमामीत्यादि "। एतानि प्रत्येकं नमस्कारपूर्व वा उत्तरगुणसत्तमो, अविरओ वि चेव अहमश्रो" ॥२॥ रत्रयमुच्चारणीयानि । विविधम् कृतं कारितं च । त्रिविधेन-मनसा वचसा कायन, यथा "अहन्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे गुणव्वयतिए उडाहो तिरि- स्थूहिसादिकं न करोत्यात्मना, न कारयत्यन्यमनसा वचसा यगमणविसयंदिसिपरिमाणं परिवज्जामि। उवभोगपरिभोग- कायेनेत्यनिग्रहवान् प्रथमः अस्य चानुमातःप्रतिविका,अपत्यावए भोयणो अणंतकायबहुवीयराइभोयणाइ परिहरामि । दिपरिग्रहसद्भवातू, तहसादिकरणे तस्यानुमतिप्राप्तेः। अन्यथा कम्मो णं पत्ररसकम्मादाणाई इंगालकम्माइयाई बहुसाव परिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रवजिताऽप्रवजितयोरभेदापत्तेः । ज्जा खरकम्माई रायनियोगं च परिहरामि। श्रणत्थदंडे श्रव- त्रिविधत्रिविधादयस्तु भङ्गा गृहिणामाश्रित्य जगवत्युक्ता अपि ज्माणाइयं चउब्विहं अणत्थदंडं जहासत्तीए परिहरामि । | क्याचिकत्वान्नेहाधिकृता,बाहुल्येन पमिरेव विकल्पैस्तेषां प्रजावज्जीवाए अहागहियभंगपणं तस्स भंते इत्यादि " | त्याख्यानग्रहणात्; बाहुल्यापेक्कया चास्य सूत्रस्य प्रवृत्तेः। क्वाचित्रीएयपि समुदितानि वारत्रयम् । कत्वं तु तेषां विशेषविषयत्वात् । तथाहि-यः किल प्रविवाज"अहनं भंते ! तुम्हाणं समीवे सामाइयं देसावगासियं षुः पुत्रादिसंततिपासनाय प्रतिमाः प्रतिपद्यते, यो वा विशेष पोसहोववासं अतिहिसंविभागवयं विभागवयं च जहासत्तीए स्वयं नूरमणादिगतं मत्स्यादिमांसं दन्तिदन्तचित्रकचादिक पडिवज्जामि जावज्जीवाए आहागहियभंगएणं, तस्स भंते ! स्थूनहिंसादिकंवा क्वचिदवस्थाविशेषे प्रत्याख्याति, स एव त्रिइत्यादि " १२ चत्वार्यपि समुदितानि वारत्रयम्। विधत्रिविधादिना करोतीत्यल्पविषयत्वानोच्यते ॥ तथा द्विवि"इच्चेइयं संमत्तमूलं पंचाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवा-| धं द्विविधेनेति द्वितीयो भङ्गः । अत्र चोत्तरभङ्गास्त्रयः,तत्र द्विलसविहं सावगधम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरामि" वा- | विधं स्थूल हिंसादिकं न करोति न कारयति द्विविधेन मरत्रयमिति। नसा वचसा १, यद्वा मनसा कायेन २, यद्वा वाचा कायेनेति ३। अथाणुव्रतादीन्येव क्रमेण दर्शयन्नाह तत्र यदा मनसा वचसा न करोति न कारयति तदा मनसास्थूनहिंसादिविरति-व्रतभङ्गेन केनचित् । भिसंधिरहित पव वाचापि हिंसादिकमनुवन्नेव कायेन पुश्चे ष्टितादि असंझिवत्करोति शयदा तु मनसा कायेन न करोति न अणुव्रतानि पञ्चाहु-रहिंसादीनि शंजवः ॥२४।। कारयति तदा मनसाऽन्निसन्धिरहित एव कायेन दुश्चेष्टितादि शह हिंसा प्रमादयोगात्प्राणव्यपरोपणरूपा । सा च-स्थमा परिहरनवानाभागाहाचैव हन्मि घातयामि चेति बूते २ । सदमा च । तत्र सूक्ष्मा-पृथिन्यादिविषया। स्थूला-मिथ्यादृष्टी- यदा तु वाचा कायेन न करोति न कारयति तदा मनसैमामपि हिंसात्वेन प्रसिका या सा। स्थूलानां वा प्रसानां हिंसा | धाभिसन्धिमधिकृत्य करा वाभिसन्धिमधिकृत्य करोति कारयति ३ । अनुमतिस्तु विनिः स्यूलहिसा । आदिशब्दात् स्थूलमृपावादाऽदत्तादानाऽब्रह्मपरि- सर्वत्रैवास्ति । एवं शेषविकल्पा अपि भावनीयाः ॥ द्विधिप्रहाणां परिग्रहः। एज्यः स्यूत्रहिंसादिन्यो या विरतिनिवृनि- धमेकविधेनेति तृतीयः । अत्राप्युत्तरभङ्गास्त्रयः । द्विविधं करणं स्ताम् ।( अहिंसादीनीति) “ अहिंसासूनृताऽस्तेय-ब्राह्मचर्याप-1 कारणं च, एकविधेन मनसा, यद्वा-वचसा, यद्वा-कायेन ॥ रिग्रहान" अणूनि साधुवतेज्यः सकाशालघूनि, बतानि नि एकविधं त्रिविधेनेति चतुर्थः । अत्र च द्वौ भनी,एकविधं करयमरूपाणि अणुव्रतानि, अणोर्वा यत्यपेकया लघुगुणस्थानि- णम , यद्वा-करणं, त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन ॥ एकविध नो व्रतान्यणुव्रतानि । अथवा-अनु पश्चान्महावतप्ररूपणाप. द्विविधेनेति पश्चमः । अत्रोत्तरभेदाः षट्, एकविध करणं, यद्वाकया प्ररूपणीयत्वाद् वतानि अनुवतानि । पूर्व हि महाव्रतानि कारणम.द्विविधन मनसा वाचा, यद्वा-मनसा कायेन, यद्वा वाचा प्ररूप्यन्ते ततस्तत्प्रतिपत्त्यसमर्थस्यानुनतानि । यदाद- “ज-कायेन ॥ एकधिधमेकविधेनेति षष्ठः । अत्रापि प्रतिनङ्गाः पद, ए. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१ ) अणुव्वव अभिधानराजेन्द्रः। अणुव्वय कविधं करणं,यद्वा-कारणं,एकविधेन मनसा,यद्वा-वाचा,यद्वा- य" ॥१॥ (दुरग्ग त्ति) प्रतिमाधुत्तरगुणाऽविरतरूपभेदद्वयाकायेन । तदेवं मूलभङ्गाः षट् । पक्षामपि च मूलभङ्गानामुत्तर- धिका पतावन्तश्च द्वादश नतान्यश्रित्य प्रोक्ताः। पश्चाणु प्रतान्यानङ्गाः सर्वसंख्ययैकविंशतिः। तथा चोक्तम्-"विह तिविहा श्रित्य तु १६००६ प्रवन्ति । तत्राप्युत्तरगुणाऽविरतमीलने य कृच्चिा , तेसिं भेश्रा कमेणिमे हुँति । पढमिक्को दुन्नि तिश्रा, १६८०८ भवन्ति । अत्र चैकद्विकादिसंयोगा गुणकाः षट् षट्दुगेग दोगक्क गवीस" ॥१॥ स्थापना चेयम्-शशशशश त्रिंशादयो गुण्यास्त्रिंशदादयश्चागतराशयो यन्त्रकादवसेयाः । एवं च षानिनङ्गैः कृताभिग्रहः षट्विधः श्रारूः, सप्त-२२३२१ श्यमन भावना-कश्चित्पश्चात्पश्चाणुव्रतानि प्रतिपद्यते । तथा मश्चोत्तरगुणः प्रतिपन्नगुणव्रतशिकावताधुत्तरगु-२३/३/२६६ किन पञ्चककसंयोगाः एकैकस्मिँश्च संयोगे द्विविधत्रिविधाणः। अत्र च सामान्येनोत्तरगुणानाश्रित्यैक एव भेदो विवक्तिः । दयः षर नङ्गाः स्युः । तेन षट् पश्चभिर्गुण्यन्ते, जाताः ३०। अविरतश्चाष्टमः । तथा पश्चस्वप्यणुवतेषु प्रत्येकं पनङ्गीसं पतावन्तः पश्चानां व्रतानामेककसंयोगे भङ्गाः। तथा एककभवेन उत्तरगुणाऽविरतमीसनेन चहाशद्भिदा अपिधाकानां स्मिन् द्विकसंयोगे ३६ भङ्गाः। तथाहि-आद्यव्रतसंबन्धाद् भवन्ति । यदुक्तम्-"विहा विरयाऽविरया, दुविहतिविहाइ- यो भङ्गकोऽवस्थितो मृषावादसत्कान् पर भक्कान् लभते । एवणऽgढा हुति । वयमेगगनश्चिअ, गुणिनं उगमिनिबत्तीसं " माद्यवतसंबन्धी द्वितीयेऽपि यावत्षष्ठोऽपि नङ्गोऽवस्थित एवं इति ॥१॥ अत्रं च द्विविधत्रिविधादिना भङ्गनिकुरम्बेन श्रावका मृषाचादसत्कान् षम् भङ्गान् लनते। ततश्च पम्, पनिर्गुणिहपश्चाणवतादिवतसंहतिजङ्गकदेवकुलिकाः सूचिताःताकै- ताः३६, दश चात्रहिकसंयोगा। अतः ३६ दशगुणिताः ३६० एकवतं प्रत्यनिहितया पाया निष्पद्यन्ते, तासु च प्रत्येकं त्रयो तावन्तः पञ्चानांव्रतानां द्विकसंयोगे भङ्गाः। एवं त्रिकसंयोगादिराशयो भवन्ति । तद्यथा-श्रादौ गुण्यराशिमध्ये गुणकराशिरन्ते ध्वपि भङ्गसंख्याभावना कार्या । पञ्चमदेवकुलिकास्थापनाचागतराशिरिति । तत्र पूर्वमेतासामेव देवकुलिकानां पाया ६ ||३० एवं सर्यासामपि (पूर्वोत्तराणां) देवकूविवक्तिवतनङ्गकसर्वसंख्यारूपा एवंकारराशयश्चैवम् ३६ १०/३६० |लिकानां निष्पत्तिः स्वयमेवाबसेया। श्यं च प्ररूपणाऽऽवश्यकनियुक्तभि" एगवर उम्भंगा, निहिछा सावयाण जे सुत्ते । तिच्चित्र २१६ |१०|२१६० १२६६५ |६४८० प्रायेण कृता, भगवत्यभिप्रायेण तुनपयवुहीप, सत्त गुणा उज्जुआ कमसो"॥ १॥ सर्वभङ्ग ७७७६१७७७६ राशि जनयन्तीति शेषः । कथं पुनः पर भङ्गाः सप्तभिर्गुण्य वनङ्गी | सापि प्रसङ्गतः प्रदश्यते । तथाहि-हिंसां न करोति-मनसा न्ते इत्याह-पदवृध्या मृपावादाद्येकैकवतवृद्ध्या एकवतजङ्ग १, वाचा २, कायेन ३,मनसा वाचा४,मनसा कायेन ५, वाचा राशेरवधी व्यवस्थापितत्वाद्विवक्तिवतेच्यः एकेन होनाचारा कायेन ६,मनसा वाचा कायन ७, एतत्करणेन सप्त भङ्गीः। एवं इत्यर्थः। तथाहि-एकवते षड्यनाः सप्तभिर्गुणिताजाता द्विचत्वा कारणेन २ अनुमत्या ३ करणकारणाभ्यां ४ करणानुमतियां ५ रिंशत,तत्र षद् तिष्यन्ते, जाता अष्टचत्वारिंशत् । एषोऽपि स कारणानुमतियां ६ करणकारणानुमतिग्निः । एवं सर्वमिलिता तनिर्गुण्यते, षट् च तिप्यन्ते, जाताः३४श एवं सप्तगुणनषट्पक्के एकोनपश्चाशद्भवन्ति। एते च त्रिकालविषयत्वात् प्रत्याख्यानपक्रमेण तावद यावदेकादश्यां वेशायामागतम्१३८४१२०७२०३ स्य कालत्रयेण गुणिताः सप्तचत्वारिंशच्छतं भवन्ति । यदाहएते च षष्टचत्वारिंशदादयो द्वादशाप्यागतराशयोऽधोभागेन "मणवयकाइयजोगे, करणे कारावणे अणुमई अ। व्यवस्थाप्यमाना अर्द्धदेवकुलिकाकारां भूमिमावृण्वन्तीति ख इक्कगगतिगजोगे, सत्तासत्ते व गुणवन्ना ॥१॥ रामदेवकुलिकेत्युच्यते । स्थापना पढमिको तिन्नि तिश्रा, उनि नवा तिन्नि दो नवा चेव । संपूर्णदेवकुलि. १२ |६ कालतिगेण य सहिश्रा, सीपालं होश भंगसयं ॥२॥ कास्तु प्रतिव्रतमेकैकदेवकुत्रि सीबासं भंगसयं, पच्चक्खाणम्मि जस्स उवा। ३४२ कासद्भावेन ष- सो खयु पञ्चक्खाणे, कुसलो सेसा अकुसलाओ"॥शात्ति। ४६५/१२६६ २४०० काङ्गयां द्वाद. ७६२/७७७६ १६८०६ त्रिकालविषयता चातीतस्य निन्दया, सांप्रतिकस्य संवरणेन, श देवकुलि६२४४६६५६ ११७६४७ अनागतस्य प्रत्याख्यानेनेति। यदाह-"अश्यं निंदामि परुप्पानं काः संभव७१२/२७६६३६ ८२३५४२ न्ति । तत्र द्वा संवरेमि प्रणागयं पच्चक्खामित्ति"। एतेच भङ्गा अहिंसामाधि. ४६५|१६७९६१६ ५७६४८०० दृश्यां देवकु-- स्य प्रदर्शिताः३३३||२|२१|१|| २२० १००७७६६६ ४०३५३६०६लिकायामक - ६६ |६०४६६१७६ ध्वपि झेयाः। २०२४७५२४० द्विकाहिसंयो तत्र पञ्चा829९७०४६ १६७७३२६७४२ णुवतेषु प्रत्येक ३२१३२१३/२/१ मा गणकरू. |२१७६७८२३३६ १३८४१२७२०२पाश्चवम् तत्र अकभावाद् |१|३|३| |३|३|||७३५ नेच गुण्यराशयस्त्वमी। एतेषां च पूर्वस्य पूर्वस्य षस्गुणने ऽग्रेत- दाःश्रावकाणां भवन्ति । उक्तंच-'ऽविहा अट्टाविहावा,वत्तीसवि. नो गुण्यराशिरायातीत्यानयने बीजम् । एते च षट्-वार्षिशदा- हा व सत्त पणतीसा। सोल सय सहस्स नवे, अट्ठसयऽत्तरा दयो द्वादशापि गुगधराशयः क्रमशो द्वादश-पदाधिप्रनातिभि- चरणों' ॥१॥ इदं तु ज्ञेयम्-परुभक्लीवपुत्सरजङ्गरूपैकविंशतिनगुणकराशिभिर्गुणिता आगतराशयः ७२ श्रादयो नवन्ति, ते दे. अचा, तथा नवभङ्गधा ३, तथैकोनपश्चाशदूभङ्गया ४, द्वादश चकुलिकागततृतीयराशितो केयाः स्थापना चाग्रे-(पभमयां द्वादश देवकुलिका निष्पद्यन्ते । यदुक्तम्द्वादशवतदेवकुलिकायाः) अत्राप्युत्तरगुणा अविरतसंयुक्ताः "गवीस खलु नंगा, निद्दिछा सावयाण जे सुत्ते। १३०४१५८५२०२ भवन्ति । उत्तरगुणाश्चात्र प्रतिमादयोऽभिप्र- ते चित्र बावीस गुणा, गवीसं पक्खवेअध्वा ॥१॥ हविशेषा झेयाः । यदुक्तम्-"तेरसकोडिसया, चुनसीरजुआई एगवए नव भंगा, निहिछा सावयाण जे सुत्ते । वारस यसक्खा । सत्तासी असहस्सा, दो असया तह दुरगा तेचि दसगुण काउं, नव पक्खेवस्मि कायया ॥२॥ ६६ ३६ ४८ २२० २२/२१वतान्तरे Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२०) अणुव्यय अनिधानराजेन्फः । अणुसट्ठी पगुणवन्नं नंगा, विट्ठा खलु साचयाण जे सुते । अणुसट्ठी-अनुशिषि-स्त्री० । अनुशासनमनुशिष्टिः। उपदेशप्रसे चित्र पंचासगुणा, गुणवन्नं पक्खिवेअव्वा ॥३॥ दानरूपे स्तुतिकरणे , सकणे वा वैयावृत्यनेद, व्य०१ न०। सीभासं भंगसय, ते चि अड्यालसयगुणं का। नि० ० । पं०व० । शिकणे, दर्श० । इहलोकाऽपायप्रदर्शने, सीयालसपण जुधे, सब्वग्गा जाण अंगाण" ॥४॥ वृ०१उ०। 'तिविहा अप सही पन्नत्ता । तं जहा-प्रयाशुसही एकादश्यां वेलायां द्वादशवतभङ्गकसर्वसंख्यायामागतं क्रमेण पगणुसही तदुभयाणुसही' स्था० ३ ० ३३० । तत्र यदु खरामदेवकुलिकातो शेयम् । तत्स्थापनाश्चेमाः-(* द्वादशनतदेव- आत्मानमात्मना अनुशास्ति सा आत्मानशिष्टिः, यत्पुनः परस्य कुलियांपरू नय च भङ्गा यन्त्रतोऽवसेयाः) एवं संपूर्णा देवकुलि- परेण वाऽनुशासनं सा पराऽनुशिष्टिः, एवं तदुनयस्मिन् तदुनयका अपि पकविंशत्यादिजहादिषु द्वादश द्वादशनाचनीयाः।स्था विषयानुशिष्टः। व्य०१०। तनाऽऽत्मनो यथा-"चायासीसपना क्रमेण यथा-(द्वादशवतदेवकुलिकायामेकविंशत्येकोन सणसं, कमम्मि गहणम्मि जीव ण हु निमो। इशिह जहण हु पञ्चाशतसप्तचत्वारिंशच्छतं भला यन्त्रतोऽवसेयाः) इति प्रसङ्गतः बलिज्जसि, चुंजतो रागसेहिति" ॥ १ ॥ तथा विधेयमिति शेष प्रदर्शिता भङ्गप्ररूपणाः । बालेन च द्विविधत्रिविधादिषम्नक- इति । स्था० ३ वा०३ उ० । व्य। ग्यवोपयोगिनीत्युक्तमेवायसेयमित्यलं विस्तरेर । धर्म० २ दंझसुलनम्मि लोए, मा अमतिं कुणह दंडितो मित्ति । अधि०। पंचा० । प्रव० । एस पुनहो उ दंमो, नवदंडनिवारओ जीव !॥ अणुव्यजंत-अनुव्रजत-त्रि० । अनुकूलं साध्वभिमुखं व्रजति, अवि यहु विसोहिओतं, अप्पाणायारमालिश्रो जीव। सूत्र.१७०४०१ उ०। अप्पपरे ननए अनु-सट्ठी य थुइ त्ति एगट्ठा ।। अणुव्वयपणग-अनुव्रतपञ्चक-न० । अणुव्रतानां पञ्चकं यत्र सोऽनुव्रतपञ्चकः । प्राकृतवशाच्चान्यथा निदेशः । पञ्चानुवतिके, दएमः सुलनो यत्रासौ दण्डसुलभस्तस्मिन् लोके , हे जीव! दश। मा एवं रूपाममति कुमतिं कुर्याः। यथाऽहमाचार्येण प्रायश्चित्तदा नतो दधिमतोऽस्मीति, यत एष प्रायश्चित्तदानरूपो दण्डो - अणुव्वयमुह-अणुव्रतमुख-त्रि० । अणुवतानि मुखे आदी येषां | संनः। कम्माद् दुर्लभः?,इत्याह-भवद एमनिवारकः। "निमित्तपतानि । साधुश्रावकविशेषधर्माचरणेषु, ध० २ अधि। र्यायप्रयोगे सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति वार्तिकश्राव्यया-अनुव्रता-स्त्री०। अन्विति कुलाऽनुरूपं व्रतमाचारो- न हेतौ प्रथमा । ततोऽयमर्थः-यत एष दरामो नव एव संसार ऽस्या अनुव्रता । पतिव्रतायाम, उत्त०२० अ०। पव दुःसहःखात्मकत्वाद् दमस्तस्य निवारको भवदण्डअणुव्वस-अनुवश-त्रि० । वशमुपागते, “एवं तुब्भे सरागत्था, निवारकस्तस्माद् दुर्लनः। अपि चाहु निश्चितं हे जीवते अात्मा अन्नमन्त्रमणुव्वसा" । अन्योऽन्य परस्परतो वशम्पागताः पर अनाचारमलिनः प्रायश्चित्तप्रतिपस्या विशोधितो जवति, तस्मास्परायत्ताः । सूत्र०१ श्रु०३ अ० ३ उ०।। द्न दपिडतोऽस्मीति बुकिरात्मनि परिभावयितव्या। किन्तआणविवाग-अनुविपाक-पुं० । अनुरूपे विपाके, “ एवं तिरि पकृतोऽहमनुपकृतपरहितकारिभिराचारिति चिन्तनीय मि ति । एवममुना नल्लेखन आत्मनि परस्मिन् नभयरमश्वानुक्खे मणुयासुरेसु, चतुरत्तणतं तयणुब्बिवागं" सूत्र०१९०५ शिष्टिरवगन्तव्या । आत्मनि साक्षादि यमुक्ता,पतदनुसार प. अ०२ उ०। रस्मिन्नुन्जयस्मिन्नपि च मा प्रतिपत्तव्येति नावः : अनु. अणुसंगई-असङ्गति-स्त्री० । आकाशादिव्यस्य परमाणुसं. शिष्टिः स्तुतिरित्येकार्थो । अत्रापिशब्दः सामर्थ्याद् गम्यते, एयोगे, व्या० १२ अध्या। तावपिशब्दावेकार्थो । किमुक्तं जबति-अनुशिष्टिः स्तुतिरित्यअणुसंचरंत-अनुसञ्चरत्-त्रि० । बम्नम्यमाणे, सूत्र० १ श्रु0 पि द्रष्टव्यमिति । व्य१ना परानुशिWिथा-"ना तंसि भा. १० अ० । पश्चात् सञ्चरणे, प्राचा० १ श्रु. १ अ० १ उ०। ववेजो, भवदुक्खनिपीमिया नुहं एते। हंदि सरण पवना,मो. एयब्वा पयत्तेणं" ॥१॥ तमुनयाऽनुशिष्टियथा-"कह कह वि मा. अणुसंधाण-अनुसन्धान-न०। बुद्ध्योपादाने, सूत्र०१श्रु०१२अ०। सत्ता- पावियं चरणपवररयणं च । ताभो! इत्थ पमाओं, विस्मृतस्य ग्रहणे उपादाने,'तस्सेव पएसतरणटुस्सऽणुसंधाणघ कश्या विन हुज्जए अम्हं "॥२॥ स्था०४ ग०२००नि० चू। डणा'तस्यैव पूर्वगृहीतसूत्रादेः प्रदेशान्तरनष्टस्य क्वचिद्देशे विस्मृ. हितोपदेशरूपायां शिकायाम, "सिकाण णमो किच्चा, संजयातस्य च या घटना साऽनुबन्धना अनुसन्धानमित्युच्यते । पञ्चा० णं च भावो । अत्थ धम्मगई तचं, अणुसट्रि सुणेह में "॥१॥ १२ विव। इत्याद्यनाथमुनिता श्रेणिक प्रत्यनुशिष्टिः कृता । उस० २०० अणुसंधियं-देशी-अविरते , हिक्कायां च। दे० ना०१घर्ग। व्य० । सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहण साऽविधेयेति यत्रोपदिश्यते अणुसंवेयण-अनुसंवेदन-न० । पश्चास्संवेदने, अनुभवने च । साऽनुशास्तिः (“ जिणकप्प" शब्दे जिनकल्पं प्रतिपद्यमानेन आचा० १ श्रु०५ १०५ ३०। साधूनामनुशिष्टिवदयते) बाहरणत देशभेदे च, यथा गुणवन्तो. अणुसंसरण-अनुसंसरण-न० । दिग्विदिशां गमनस्य नावदि. ऽनुशासनीया जयन्ति । यथा साधुलोचनपतितरजःकणापनयनेन लोकसम्नावितशीलकलङ्का, तरकालनायाराधितदेवताकृतप्रागागमनस्य वा स्मरणे, आचा० १ ० १ अ०१०। तिहार्याचाल निव्यवस्थापितोदकाच्छोटमतोद्घाटितचम्पागोपु-- अणुसज्जणा-अनुसज्जना-खी० । अनुषक्ती, व्य० १ ० ।। रत्रया सुजका अहो!शीलवतीति महाजनेनानुशासितेति । इह ('तित्थाणुसजणा' शब्द तीर्थस्यानुसज्जनां व्याख्यास्यामः)। च तथाविधवैयावृत्याकरणादिनाऽप्युपनयः संभवति , तत्या. मणुमजिज्जत्या-अनुषक्तवत-त्रि०। पूर्वकाक्षात्कालान्तरमनु-| गेन च महाजनानुशास्तिमात्रेणोपनयः कृत इत्याहरणतद्देशते. वृत्तवति, भ०६श०७०। तिापवमननिमतांशत्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरेष्वपि नाव. Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) अणुसट्ठी अन्निधानराजेन्डः । अणुस्सरित्ता नीयमिति । स्था० ४ ग०३ उ० । 'धर्मकथां कुर्वन्ति' इत्य- 'एतत्तव कृत्यमिति' रुष्टत्वादनुशास्ति पतदनुशासनम् । संग्रहस्याथै, बृ०१०। नेदे, व्य० ३ उ० । 'अणुसास'- अनुशास्ते । वृ० १२० । भणुसमय-अनुसमय-श्रव्य० । समय समयमनुसक्कीकृत्येत्य-| अणुसासणविहि--अनुशासनविधि-पुं०। अनुशास्तिविधाने, नुसमयम् । वीप्सायामव्ययीजावः । कर्म०५ कर्म । सततमि-| पश्चाईविव०। त्यर्थे, उत्त० ५ ०। प्रतिसमयमित्यर्थे, क०प्र०। प्रति०। प्रतिक्वणमित्यर्थे, चं० प्र०६ पाहु० । “अणुसमयं अविरहियं णिरं. अणुसासिज्जंत-अनुशास्यमान-त्रि० । तत्र तत्र चोद्यमाने, तरं नववज्जति” । अनुसमयमित्यादिपदत्रयमेकार्थम् । भ० ४१ "अणुसासिजंतो सुस्म्सा " | दश०१ १०४ १०। सूत्रः। श०१०। अणुसासिय-अनुशासित-त्रि०युक्तानि शिक्ष्यमाणे कथञ्चिअणुसमवयणोपवत्ति-अनुसमवदनोपपातिक-त्रि० ।- त् स्वलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्या शिक्षिते-गुरुनिः कोरबा नुरूपा समाऽविषमा वदनोपपत्तिारघटना येषां ते तथा । अ-] चनैस्तर्जिते, उत्त० १ अ० । अभिहिते, सूत्र० १ श्रु० १४ अ०। नुलोमाऽविषमद्वारघटनाके, “ससिसूरचक्कसक्खण-अणुसम- | अणु सिट्ट-अनुशिष्ट-त्रि । शिक्षा गृहीते, “तत्तेण अणुसिवयोववत्तिमा" जं. ३ वक। ट्ठाते, अपडित्रेण जाणया" सूत्र.१६० ३ ० ३ उ० । अणुसय-अनुशय-पुं० । गर्वे, पश्चात्तापे च । अनु० । प्रश्न | अणु सिट्ठी-अनुशिष्टि-स्त्री० । तद्भावकथनपुरस्सरं प्रशापश्रणसरण-अनस्मरण-न० । सदसत्कर्तव्यप्रवृत्तिहेतुनूते-! मायाम, ब०१उ01('श्रणमती शटपकरर्शिता नुचिन्तने, पञ्चा० १ विव० । “णाणानयाणुसरणं, पुव्वगय शिकायाम, उत्त० १० अ०। मुयासारेणं" आव० ४ अ०। स्मृती, विशे। अणमुत्ती-देशी-अनुकूले, दे० ना.१ वर्ग। अणुसरियन-अनुसर्तव्य-त्रि०ा अनुगन्तव्ये, स्था०५ ग०१० | अणुसूयग-अनुसूचक-पुं० । नगराभ्यन्तरे चारमुपलभमाने, अनस्मर्तव्य--त्रि० । अनुचिन्तनीये, “ अणुसरियव्यो सुहेण सूचककथितं श्रुतं दृष्ट वा, स्वयमुपलब्धं च प्रतिसूचकेभ्यः चित्तण एसव नमोक्कारा कयन्नुयं मन्नमाणेणं" प्रा० म० द्वि। कथयति, सामन्तराज्येषु वसतिकृतवृत्तिके अमात्यपुरुष, अणुसरिस-अनुसदृश-त्रिका अनुरूपे, “अणुसरिसोतस्स हो- तादृश्यां कृतवृत्तिकायां चैव महिलायाम्, “स्यग तहाऽणुसूउवज्झाश्रो" व्य०२ उ०। यग-पडिस्यग सम्बसूयगा चेव । पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु ॥१॥ महिला कयवित्तीया वसंति सामंतणगअणुमार-अनुसार-पुं० । अनु-सृ-भावे घञ् । अनुगमने, सह रेसु" व्य०१ उ०। शीकरणे च । वाच । “विउसासु अलक्खणाणुसारेणं" - त्यादि । प्रा०। पारतत्र्ये, विशे०।। अणुमू (स्सु) यत्ता-अनुस्यूतत्व-न० । अपरशरीराश्रितता यां परनिश्रायाम, " अचित्तसु वा अणुसूयत्ताए वि उटुंति" अनुस्वार--पुं०। स्वराश्रयेण उच्चाय॑माणे बिन्पुरेखया व्यज्य सूत्र०२ श्रु० ३ अ०। माने अनुनासिके वर्णभेदे, वाच० अनुस्वारो विद्यतेऽस्येति श्र. वादिच्य शति मत्वर्थीयोऽत् प्रत्ययः । अनुस्वारवत्वेनोच्चार्यमा अणसोय-अनश्रोतस-न० । प्रवाहे, “अणुसोयपठिए बहु, जणेऽनकरश्रुतविशेषे, प्रा० म० द्वि० । नं० । “अणुस्सारं णाम णम्मि पडिसोयलद्धलक्खेण । पडिसोयमेव अप्पा, दायब्वो पम्हढे अच्चे सत्तं वा संभरिते अनेण वा संभारिते ज अक्त्र- होउ कामेणं ॥१॥ अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोश्रो पासमो रविरहितं सद्दकरणं तमणुस्सारं जन्नति” । प्रा० चू०१ अ०। सुविहियाणे । अणुसोश्रो संसारो, पडिसोओ तस्स उत्ताअणुसासंत-अनुशासत्--त्रि० । शिकयति-शिकां प्रयच्छति, रो" ॥२॥ अष्ट० २३ अष्टा । पं० सू०। उत्त०४ अ०॥ अणुमोयचारि (ण)-अनुश्रोतश्चारिन्-त्रि० । अनुश्रोतसा अणुसासण-अनुशासन-न० । अनुशास्यन्ते सन्मार्गेऽवतार्य- चरतीति अनुधोतवारी। नद्यादिप्रवाहगामिनि मत्स्ये, एवं न्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तदनुशासनम् । धर्मदेशनस भिक्षाके च । यो हि अभिग्रहविशेषादुपाश्रयसमीपात् कमेण न्मार्गाऽवतारणे," अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु ते" कुलेषु भिक्षते सोऽनुश्रोतवारी । स्था० ४ ठा०४ उ०। सूत्र०१ श्रु०१५ अ० जगवदाझारूप-श्रागमे च । “सोच्चा अणुसोयपट्ठिय-अनुश्रोतामस्थित-त्रिका नदीपूरप्रवाहपतितप्रगवाणुसासणं, सच्चे तत्थ करेज्जुवकमे" सूत्र०१ श्रु०२ काष्ठवद् विषयकुमार्यद्रव्यक्रियानुकल्यन प्रवृत्ते, "अणुसोयअ० ३ ० शासनमनु-अव्ययीभावः। यथागममित्यर्थे। सूत्रानु पट्टिए बहु, जणम्मि पडिसोयलद्धलक्खेणं । पडिसोयमेव अ. सारेणेति यावत् । “अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहि समं पवे. प्पा, दायव्वो होउ कामेणं "॥१॥ दश०२चू। यं" सूत्र.१ श्रु० २०१०। शिकायाम, झा० १३ अ० ।। उत्तः । जी०। राजविराझोऽनशासन वयामिपा अणुसोयसुह-अनुश्रोतःसुख-त्रि० । उदकभिन्नाभिसर्पणवत् विव० । पुःस्थस्य सुस्थतासंपादने, स० । अनुकम्पायाम्, “अ. | प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखे, दश०१०। "अणुसोयसुहो पुणुकंपत्ति वा अणुसासणंति वा पगहा " पं०० । अनुशास लोगो" दश०२ चूल। मंजण्यमाने या दृष्टे वा, किमुक्तं नवति?-सामाचारीतःप्रतिन अणुस्सग्ग-अनुत्सर्ग-पुं० । अपरित्यागे, दर्श० । ज्यमानान् कथञ्चिद् रुष्टत्वादनुशास्ति तदनुशासनम् । यदि वा या यथोक्तकार्येऽपि सन् कथञ्चिन्न कुरुते, तत्कस्यचिच्चिकणम, अणुस्प्तरिचा-अनुसृत्य-अव्य। अनुसारं कृत्वेत्यर्थे, “अंध व Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) अणस्सरित्ता अभिधानराजेन्धः। अपोक (ग) णयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा" सूत्र० १ | "अणेगणरवाममुप्पसारियअगिज्झघनविपुजयखंधी" अश्रु०७०। नकैनरव्यामैः पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैरग्राह्योऽप्रमेयो घनो नि. अणुस्सव-अनुश्रव-पुं० । अनुभूयते गुरुमुखादित्यनुश्रवः । बे विमो विपुलो विस्तीर्णो वृत्तः स्कन्धो येषां ते-अनेकनरव्यामदे, द्वा० ० द्वा०। सुप्रसारिताग्राह्यघनविपुलवृत्तस्कन्धाः रा० । झा० । “अणेग नूयभावभविएविअहं" अनेके भूता अतीता भावाः सत्त्वाः प. अगस्मुय-अनश्रत-त्रि० । अवधारिते गुरुनिरुच्यमाने, उत्त०५ रिणामा वा नव्याश्च भाविनो यस्य स तथा । ति शुकं प्रतिअ० । श्रवणपथमायाते. सूत्र १ श्रु० २ ० २ उ०। भारतादौ स्थापत्यापुत्रः । स्था०१०१०। "अणेगमणिरयणविधिपुराणे श्रुते, सूत्र० ११० ३ ०४ ० । न उत्सकोऽनुत्सुकः ।। हणिज्जुत्तविचित्तचिंधगया"अनेकानि बहूनि मणिरत्नानि प्रतीसूत्र० १ श्रु० ए ० । औत्सुक्यरहिते, पं० सू० ४ सू० । तानि विविधानि बहुप्रकाराणि नियुक्तानि नियोजितानि येषु अगुम्मयत्त-अनुत्सुकत्व-न० । विषयमुखेऽनुत्तालत्वे, "सुह- तानि तथा, तानि विचित्राणि चिह्नानि गताः प्राप्ताः येते तथा। सारणं अणुस्सुयत्त जणय३ । नत्त० २ए अ० । (सुपुरुषवर्णकः ) औ० । प्रश्न । “अनेगमणिरयणविवि हसुविरश्यनामचिंध " अनेकर्मणिरत्नैर्विविधं नानाप्रकार अणुहवसिछ-अनुजवसिछ-त्रि । स्वसंवेदनप्रतीत, पञ्चा० सुविरचितं नाम चिह्न निजनामवर्ण पक्तिरूपं यत्र स तथा । ३ विव०। जं. ३ वक० । " अणेगमणिकणगरयणपहकरपरिमंझियअग्रहविजं--अनुनय-अव्य० । संवेद्येत्यर्थे, पञ्चा०२ विव० । भागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणजणियपेखोलमाणवरललिअहियासण-अन्वध्यासन-न० । अविचलकायतया सहने, यकुंममुज्जत्रियअहियाजरणजणियसोभे" अनेकमणिरत्नक०२ वक। नकनिकरपरिमरिमतभागे नक्तिचित्रे विच्छित्तिविचित्रे विनिय ते कर्णयोर्निवेशिते गमनगुणेन गतिसामथ्येन जनिते कृते प्रेसअणुहूअ-अनुजूत-त्रि०ा अनु-भू-क्त । प्राकृते "ते हुः"॥ माने चश्चने येवरललितकुएमले ताज्यामुज्वत्रितेनोद्दीपनेनाधि४। ६४ ॥ भुवः क्ते प्रत्यये हरादेशः । अनुजयविषयीकृते , प्रा० । काच्यामाजरणाभ्यामुज्ज्वबिताधिकैर्वाऽऽन्तरणैश्च कुएमलव्यतिश्रण-देशी-शालिनेदे, दे० ना० १ वर्ग। रिक्तर्जनिता शोभा यस्य स तथा । झा०१०। "अणंगरहसगमप्रणव-अनुप-त्रि। अनुगता आपो यत्र । ब० स० । अनस- जाणजुम्गगिल्लिथिल्लिसिवियपमिमायणा” अनेकेषां रथशकटामा० । अत उत्वम् । जलप्राये स्थाने , वाचा नद्यादिपानीयब दीनामधौविस्तीर्णत्वात् प्रतिमोचनं येषु ने तथा! रा० । “अणेगहुले , बृ० १ उ० । विशे० । व्य० । रायवरसहस्सागुआयमग्गे" अनेकेषां राजवराणां बद्धमुकुटराज्ञां सहस्रैरनुयातोऽनुगतो मार्गः पृष्ठं यस्य स तथा । जं०३ वक्त० । आणूवदेस-अनूपदश-पुं० । जलदेशे , व्य०४ उ०। "अणेगवंदाए" अनेकानि वृन्दानि परीवारो यस्याः सा तथा अणेक(ग) अनेक-त्रि० । बहुत्वे, सुत्र०१ श्रु० १२ अ० । अनेक- तस्याः (पर्षदः)रा अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकर(सहकर) शनचरितप्रयोगा यथा-"अणेगगणनायकदमनायकराईसर. सीयसंदमाणीयामजाणजुग्गा' अनेकैवरतुरगैमत्त कुरैः(रहतलवरमामंविधकोमंविअमंतिमहामंतिगणकदोबारिअअमच्च- पहकरेत्ति)रथान करैः (रहसहकरेत्ति वा)रधानांसहकारैःसलाचेमपिचमहनगरनिगमसेट्टिमेणावस्सन्यवायदतसंधिवालसस्ि तैः शिविकाभिः स्यन्दमानी निराकीर्णा व्याप्ता यांनषुभ्यश्च या सा संपरिखुमे " अनेक ये गणनायकादयस्तेषां द्वन्द्वस्ततस्तैरिह तथा । आकीर्णशब्दस्य मध्यनिपातः प्राकृतत्वात् । अथवा अनेतृतीयाबहुवचनलोपो ऽष्टव्यः । सहिं ति ) साई सहेन्यर्थः । के वरतुरगादयो यस्यामाकोनिच गुणवन्ति यानादीनि यस्यां न केवलं तत्सहितत्वमेव, अपि तु तैः समिति समन्तात् परि- सा। औ"प्रणेगवर सक्खणुत्तमपसत्थसुश्रश्यपाणिनेहे"अनेघृतः परिवारित इति । "अणेगजाजरामरण जोणिवेय- कँवरलकणैरुत्तमाःप्रशस्ताः शुचयो रतिदाश्च रम्याः पाणि लेखा ण" अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा । यस्य स तथा। औ०।"अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणमन्त जु (संसार इति विशेष्यम्) औ० । “अणेगजातिजरामरणजोणि- ककरणेहि " अनेकानि यानि व्यायामनिमित्तयोग्यादीनि तानि संसारकलंकलिभावपुरणम्भवगम्भवासवसहीपवंचसमकंता- तथा तैः तत्र योग्या गुणनिका वल्गनमुल्लङ्घनं व्यामर्दन परस्परसासयमणागयसिर्फ " अनेकैतिजरामरणे जन्मजरा मृत्यु- स्याङ्गमोटनं मल्लयुद्धं प्रतीतं करणानि चाङ्गभङ्गविशेषा गल्लभिर्यश्च तासु योनिषु मसारः संसरणं तेन च यः कलङ्कली- शास्त्रप्रसिकाः । आँ० । झा । " अणेगवाससयमा जयंतो" भावः कदर्यमानता यश्च दिव्यसुखमनुप्राप्तानामपि पुनर्भवे अनेकवर्षशतायुष्मन्तः । प्रश्न०४ श्राश्रद्वा० ।" अगससंसार गर्भवसतिप्रपञ्चः, तो समतिक्रान्ती, अत एव शाश्वत- णिगणमिहुणपवियरिए" अनेकशकुनिमियुनकानां प्रविचरितमनागतं कालं तिष्ठन्ति । (सिद्धा इति विशेष्यम् प्रज्ञा०२ पद । मितस्ततो गमनं यत्र तत्तथा (प्रयातकुरामम् ) ०४ वक्व०। अनेकजातिसंश्रयाद् विचित्रत्वम् । सर्वभावानुव्यापितचित्ररू- रा० । “अणेगसंकुकीजगसहस्सवितते" अनेकैः शङ्कप्रमाणैः पता । रा० । इह जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि ।स। कीलकसहमहनिर्हि का कैस्तामितप्राया मध्यकाः संभव" अणेगणमकमगवियर उज्झरपवायपम्नारसिहरपजरे" - न्ति । तथारूपतामाऽसंभवादतः शङ्कग्रहण, विततं विताना कृतं कानि नटानि कटकाश्च गरमशैला यत्र स तथा । विवराणि , ताडितमिति भावः । रा०। जी । "अणेगसयाए " अनेकानि अवझराश्च निर्फरविशेषाः, प्रपाताश्च भृगवः, प्राग्भाराश्च ईष- | पुरुषाणां शतानि संख्यया यस्याः सा अनेकशता, तस्याः। राम व्यनता गिरिदेशाः, शिखराणि च कृटानि, प्रचुराणि यत्र स "अणेगसाहप्पसाहथिमिमा" अनेकशाखाप्रशाखाविटपयस्तन्मतथा। ततः कर्मधारयः (पर्वत ति विशेष्यम् । झा०४०।। ध्यानागो वृक्षविस्तारो वा येषां ते ( वृक्काः)। औ । ज्ञा०। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२३) अगोक्कागांतरसिद्ध केवलनाण अन्निधानगजेन्द्रः। अणे गंतवाय अणेकाणंतरसिझकेवलनाण-अनेकान्तरसिकेवलझान- एटके स्याद्वादमहानरेन्छे तदीयमद्रां सर्वेऽपि पदार्था नातिन । आनिनिवोधिकझानभेदे, स्था- २ ठा० १ ०। क्रान्ति तदुल्लङ्घने तेषां स्वरूपव्यवस्थाहानिप्रसनः । सर्वच स्तूनां समस्वभावत्वकथन च पराभीष्टस्यक वस्तु व्योमादि अणेगंगिय-अनेकाङ्गिक-पुं। अनेकपट्टकृते, नि० चू० १ उ०। नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपादि अनित्यमेवेति तादस्य प्रतिक्षेपकन्थिकाप्रस्तारात्मके संस्तारभेदे च । व्य०२ उ० । बीजम् । स हि भावा द्रव्याथिकनयापक्षया नित्याः, पर्याअणेगंत-अनकान्त- त्रिन एकान्तो नियमोऽव्यनिचारी यत्र । याथिकनयादेशात् पुननित्याः । तत्रैकान्ताऽनित्यतया परअनियमे, अनिश्चितफलके च। वाच । अनिश्चये, विशे० । एकाग्र्ये, रङ्गीकृतम्य प्रदीपस्य तावन्नित्यानित्यत्यव्यवस्थापन दिनात्रप्रव० ३८ द्वा। मुच्यते। तथाहि-प्रदापपर्यायाऽऽ पन्नातजसाः परमाणयः स्वर - अणेगंतजयपमागा-अनेकान्नजयपताका-स्त्री। हरिजासूरि सतस्तलक्षयाद्वाताभिघाताद्वा. ज्योतिःपर्यायं परित्यज्य नमाविरचिते स्वनामख्याने ग्रन्थभेदे, यबृत्तिविवरण मुनिबन्डेणा रूपं पर्यायान्तरमासादयन्तोऽपि नैकान्तेनानित्याः,पुफलद्रव्य रूपतयाऽवस्थितत्वात् तेषाम् । न तावतैवाऽनित्यत्वं यावना कारि । तदुपक्रमे "शेषमतातिदायानां, यस्यानेकान्तजयपताकेहै। हर्तुमशक्या केनाऽपि वादिना नौमि तं वारम् ॥१।। कतिपयवि. पूर्वपर्यायस्य विनाशः, उत्तर पर्यायस्य चोत्पादः। न खलु मृद्षमपदगतं, वक्ष्येऽनेकान्तजयपताकायाः । वृत्तेविवरणमहम द्रव्यं स्थासककाशकुशूलशिवकघटाद्यवस्थाऽन्तगण्यापद्यमाल्पबुद्धिबुद्धयै समासेन" ॥२॥ अनेकान्तजयपताकावृत्तिविव० । नमप्येकान्ततो विनष्टम, तेषु मृद्रव्यानुगमस्याऽऽबालगोपालं प्रतीतत्वात्। न च तमसःपौलिकत्वमसिद्धम् :चाक्षुषत्वाऽअणेगंतप्पग-अनेकान्तात्मक-न) । अभ्यते गम्यते निश्चीयते न्यथाऽनुपपत्तेः, प्रदीपालोकवत् । अथ यच्चानुपं तत् सर्व इत्यन्तो धमः । न एकोऽनेकः । अनेकश्चाऽसावन्तश्चानेकान्तः । स्वप्रतिभासे आलोकमपेक्षते. न चैवं तमः, नत् कथं चाक्षुषम!! स आत्मा स्वभावो यस्य वस्तुजातस्य तदनेकान्तात्मकम् । स. नैवम् । उलूकादीनामाबोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभासात् । येम्त्वदसदाद्यनेकधर्माऽऽत्मके, रत्ना०३ परि०। स्मदादिभिरन्यच्चाक्षुषं घटादिकमालोकं विना नोपलभ्यते , अणेगंतवाय-अनेकान्तवाद-पु० । स्याबादे, स च यथा युक्त- तैरपि तिमिरमालोकयिष्यते.. विचित्रत्वाद्भावानाम् । कथमतामञ्चति, तथा स्यादवादमअर्यादिग्रन्थेच्यः संगृह्यते । न्यथा पीतश्वेतादयोऽपि स्वर्णमुक्ताफलाद्या श्रालोकापेक्षदशं. (१) एकान्तवाददूषणपुरस्सरमनेकान्तवादिमतम् । नाः। प्रदीपचन्द्रादयस्तु प्रकाशान्तरनिरपेकाः। इति सिर्फ तम(२) प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तबादं येऽवमन्यन्ते श्वाकुषं, रूपवत्वाच्च स्पर्शवत्वमपि प्रतीयते, शीतस्पर्शप्रत्ययजतेषामुन्मत्तताऽऽविर्भावनम् । नकत्वात् । यानि त्वनिधिमावयवत्वमप्रतिघातिन्यमनुभूनस्प(३) उत्पाद विनाशयोरैकान्तिकताऽज्युपगमनिषेधः । शविशेषत्वमप्रतीयमानखएमावयविषयविनागत्वामत्याद।नि (४) वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वम् । तमसः पौझिकत्वनिषेधाय परैः साधनान्युपन्यस्तानि. तानि (५) वस्तुन एकान्तसदरूपत्वं स्वीकुर्वतः सांख्यमतस्य प्रदीपप्रभादृष्टान्तेनैव प्रतिध्यानि, तुल्ययोगमवात । नच परासने युक्तिः । वाच्यं तेजमाः परमाणवः कथं तमस्त्वंन परिणमन्त इति ?:पु(६। कालाद्येकान्तवादोऽपि मिथ्यात्वमेव । झानां तत्तत्सामा सहकतानां विसदृशकार्योत्पादकत्वस्याऽपि (७) साधर्म्यतो वैधयंतश्च साध्यसिद्धिः। दर्शनात । दृष्टो ह्याद्रेन्धनसंयोगवशाजास्वररूपस्याऽपि बढेर(८) अनेकान्तवाद पब सन्मार्गः । भास्वररूपधमरूपकार्योत्पादः:प्रति सिको नित्यानित्यः प्रदीपः। (९) एकान्तवादिनोऽज्ञाः । यदाऽपि निर्वाणादाग देदीप्यमानो दोपस्तदाऽपि नवनवपर्या(१०) अनेकान्तवादस्वीकाराऽस्वीकारयोः सम्यमिथ्यात्यम। योत्पादविनाशनावात् प्रदीपत्वान्ययाच्च निन्याऽनिन्य (१) तत्रैकान्तवाददूषणपुरस्सरमनेकान्तवाद्याह- एव । पवं व्योमापि उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकन्यान्नित्याऽनित्यमेव । प्रादीपमाव्योम समस्वनावं, तथाहि-अवगाहकानां जीवपुद्यानामवगाहदानोपग्रह एव स्थाकादमुघाऽनतिभेदि वस्तु । तल्लकणम, “अवकाशदमाकाशमिति " वचनान । यदा चावगाहका जीवपुद्गलाः प्रयोगतो विनसातो वा एकतन्नित्यमेवैकमनित्यमन्य स्मानजःप्रदेशात्प्रदेशान्तरमुपसर्पन्ति, तदा तस्य व्योम्नस्तेदिति त्वदाऽऽझाद्विषतां प्रलापाः ॥ ५॥ रवगाहकैः सममेकस्मिन् प्रदेझो विनागः, उत्तगम्मिश्च प्रदेशे श्रादीपं दीपादारभ्य, आव्योम ब्योममर्यादी कृत्य, सर्व वस्तु प. संयोगः । संयोगविनागी च परस्पर विरुधौ धौ । तद्भेदे चादार्थस्वरूपं, समस्वभावम्-समस्तुभ्यः स्वभावः स्वरूपं यस्य त. वश्य धर्मिणो नेदः । तथा चाहुः-"अयमेव हि भेदो भेदहेतुबा, तथा । किश्च-वस्तुनः स्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमिति बृमः । यद्विरुरुधर्माध्यासः कारणलेदश्चति" । ततश्च नदाका पूर्वसं. तथा च वाचकमुख्यः-"उत्पादव्ययव्ययुक्तं सत्" इति । योगविनाशलकणपरिणामापत्त्या विनष्टम, उत्तरसंयोगोत्पादा. समस्वभावत्वं कुतः ?, इति विशेषणद्वारेण हेतुमाह-(स्याद्वाद- ख्यपरिणामानुभवाचोत्पन्नम्। नन्नयत्राऽऽकाशद्रव्यस्यानुगतम्या. मद्राऽनतिभेदि) स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम्। ततःस्याद्वा- धोत्पादव्यययोरेकाधिकरणत्वम् । तथा च "थदप्रच्युतानुत्पन्न दोऽनेकान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबकवम्त्वभ्युपगम | स्थिरैकरूपं नित्यम्" इति नित्याल कणसाचक्षते । तदपास्तम् । एवं. इति यावत् । तस्य मुद्रा मर्यादातांनातिभिनत्ति नातिक्रामतीति विधस्य कस्यचिद्वस्तुनोऽभावात्। तद्भावाव्ययं नित्यम्' इति तु स्थाद्वादमुद्राउनतिभेदि । यथाहि-न्यायकनिष्ठे राजर्जान राज्य-| सत्यं नित्यशक्षणम् । उत्पादयिनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भाबादम्य. श्रियं शासति सति सर्वाः प्रजास्तन्मुद्रां नातिवर्तितुमीशत, यिरूपाद्यन्न व्येति तन्नित्यम, इति तदर्थस्य घटमानत्वात् । यदि दि तदतिकम तासां सर्वार्थहानिभावात् । एवं विजायनि निष्क-! अप्रच्युताऽऽदि लक्षणं नित्यमिप्यते,तदोत्पादव्यययोनिराधारत्व. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४) अगोगंतवाय अभिधानराजेन्छः। अणेगंतवाय प्रसङ्गः। न च तयोर्योगे नित्यत्वहानिः। “व्यं पर्यायवियुतं,पर्या- तर्हि तस्य सामर्थ्यम् अपरसहकारिसापेक्तवृत्तित्वात्। “सापेकया अव्यवर्जिताः। ककदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा?" | मसमधम्" इति न्यायात् । न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते, अपितु ॥१॥ इति वचनात् । न चाकाशं न व्यं, लौकिकानामपि घटा- कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वमवत् तानपेक्कत इति चेत्, तरिक ऽऽकाशं पटाऽऽकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धराकाशस्य नित्यानि- सनावोऽसमर्थः?,समर्थों वा। समर्थश्चेरिक सहकारिमुख प्रेकत्ययम्।घटाऽऽकाशमपि हि यदा घटापगमे फ्टेनाक्रान्तं, तदा प- णदीनानि तान्युपेक्कते, न पुनर्कटिति घटयति । ननु समर्थमपि टाऽऽकाशमिति व्यवहारः। न चाय मौपचारिकत्वादप्रमाणमेव ? बीजमिलाजलाऽनिनादिसहकारिसहितमेघाङ्करं करोति, नान्यउपचारस्याऽपि किश्चित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । था। तत्कि तस्य सहकारिभिः किंचिपक्रियेत?,न वा । यदि ननसो हि यत्किल सर्वव्यापकत्वं मुख्यं परिमाण, तत्तदाधेयघ. नौपक्रियेत तदा सहकारिसन्निधानात् प्रागिव किं न तदा टपटादिसम्बन्धिनियतपरिणामवशात्कल्पितंभदं सत प्रतिनिय. ऽप्यर्थक्रियायामुदास्ते ?। उपक्रियेत चेत् , स तर्हि तैरुपकारो तदेशव्यापितया व्यवह्रियमाणं घटाकाशपटाकाशादि तत्तठ्यप- भिन्नोऽजिन्नो चा?क्रियत इति वाच्यम् । अभेदे स पथ क्रियते, देशनिबन्धनं भवति । तत्तद्घटादिसंबन्धे च व्यापकत्वेनाव- इतिहाममिच्छतो मूझक्षतिरायाता, कृतकत्येन तस्यानित्यत्वाऽऽस्थितस्य व्योम्नोऽवस्थान्तरापत्तिः, ततश्चावस्थाभेदेऽवस्थाव- पत्तेः । भेदे तु स कथै तस्योपकारः, किंन सह्यविध्यारोरपि? तोऽपिनेदः, तासांततोऽविध्वगन्नावात्। इति सिद्धं नित्यानित्य- तत्संबन्धात तस्यायमिति चेत् , उपकार्योपकारयोः कःसंबन्धः। त्वं व्योम्नः। स्वायम्नु वा अपि हि नित्यानित्यमेव वस्तु प्रपन्ना। न तावत्संयोगः, व्ययोरेव तस्य भावात् । अत्र तु अपकार्य तथा चाहस्ते-त्रिविधः स्वस्वयं धर्मिणः परिणामो धर्मक्षकणा- द्रव्यम,उपकारच क्रियेति न संयोगः। नाऽपि समवायः, तस्यैकवस्थारूपः। सुवर्ण मि,तस्य धर्मपरिणामो वर्कमानरुचकादिः, त्वाद्,व्यापकत्वाच्च। प्रत्यासत्तिविप्रकर्षानावेन सर्वत्र तुल्यत्वान धर्मस्य तु बक्षणपरिणामोऽनागतस्वादिः । यदा खल्बये देमका- नियतः संबन्धिन्निः संबन्धो युक्तः। नियतसंबन्धिसम्बन्धे चाङ्गी. रोवर्द्धमान मयत्वा चकमारचयति, तदा वर्षमानको वर्त- क्रियमाणे तस्कृत उपकारोऽस्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः. तथा मानतालकणं हित्वाऽतीततासकणमापद्यते, रूबकस्तु-अनागत- च सत्युपकारस्य भेदाऽन्नेदकल्पना तदवस्थैव । नपकारस्य समतानकणं हित्वा वर्तमानतामापद्यते । वर्तमानताऽऽपन्न एव रुचको वायाददे समवाय एव कृतः स्यातानेदे तु पुनरपि समवायस्य न नबपुराणनावमापद्यमानोऽवस्थापरिणामवान् भवति । सोऽयं नियतसंबन्धिसंबन्धत्वम् । तन्नकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां त्रिविधः परिणामोधर्मिणः।धर्मबकणाऽवस्थाश्च धर्मिणो मिन्ना- कुरुते । नाप्यक्रमेण । नोको भावःसकसकालकत्राकलापप्राविश्वामिन्नाश्च। तथा च तेधय॑भेदात्तन्नित्यत्वेन नित्याभिदायोत्प-| नीर्युगपत्सर्वाः क्रियाः करोतीति प्रातीतिकम् । कुरुतां वा, तथापि त्तिविनाशविषयत्वमित्युप्रथमुपपन्नामिति ॥अथोत्तराईविवियते | द्वितीयकणे किं कुर्यात् । करणे वा क्रमपक्कनावी दोषः। प्रकरएवं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वे सर्वभावानां सिकेऽपि तप्स् ए- णे त्वर्थक्रियाकारित्वाऽभावाद वस्तुत्वप्रसङ्गः । इत्येकान्तनित्यात कमाकाशाऽऽत्मादिकं नित्यमेव, अन्यश्च प्रदीपघटादिकमनित्यमे- क्रमाक्रमाज्यां व्याप्ताऽर्थक्रिया व्यापकानुपलब्धिबलाद् व्यापवेति। एवकारोऽत्रापि संबध्यते। इत्ये हि पुर्नयबादापत्तिः,अनन्त- कनिवृत्ती निवर्तमाना स्वव्याप्यमर्थक्रियाकारित्वं निवर्तयति । धर्मात्मके वस्तुनि स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मसमर्थनप्रवणाः शेष. अर्थक्रियाकारित्वं च निवर्तमानं स्वव्याप्यं सत्वं निवर्तयतीति। धर्मतिरस्कारेण प्रवर्त्तमाना दुर्नया ति ननुक्षणात् । इत्यनेनोल्ले- शति नैकान्तनित्यपक्को मुक्तिकमः । एकान्तानित्यपक्वोऽपि न कखेन त्वदाशाद्विषतां भवत्प्रणीतशासनविरोधिना,प्रलापाः प्रज्ञाप- कीकरणाईः । अनित्यो हि प्रतिक्षणविनाशी । स च न क्रमेताऽन्यसंबरूवाक्यानोति यावत् । अबचप्रथममादीपमिति परप्रा। णार्थक्रियासमर्थः, देशकृतस्य कालकृतस्य च क्रमस्यैवाभावासिद्ध्या अनित्यपको खेऽपि यदुत्तरत्र यथासंख्यपरिहारेण पूर्वतरं तू । क्रमोऽहि पौर्वापर्यम् , तश्च कणिकस्यासंभवि । अवस्थितस्यैनित्यमेवैकामत्युक्तं तदेवं ज्ञापयति-यदनित्यं तदपि नित्यमेव व हि नानादेशकालव्याप्तिर्देशक्रभा, कालक्रमश्वाभिधीयते । न कथञ्चित,यच्च नित्यं तदप्यनित्यमेव कथाञ्चित् । प्रक्राम्तवादिनिर- चैकान्तविनाशिनि साऽस्ति । यदाहु:-“यो यत्रैव स तत्रैव, यो प्येकस्यामेव पृथिव्यां नित्यानित्यत्वाऽभ्युपगमात्। तथा च प्रश. यदैव तदैव सः। न देशकाबयोाप्ति-नावानामिह विद्यते ॥१॥ स्तकारः-सा तु द्विविधा नित्यानित्या च । परमाणुसकणा नि- न च सन्तानापेक्वया पूर्वोत्तरवणानां क्रमः संनयति, सन्तानस्या,कार्यनकणा त्यनित्येति । न चात्र परमाणुषव्यकार्यलकणवि. स्यावस्तुत्वात् । वस्तुत्वेऽपि तस्य यदि कणिकत्वम?, न तर्हि षयद्वयनेदान्नैकाधिकरण नित्याऽनित्यत्वमिति वाच्यम, पृथि- कणेयः कश्चिद्विशेषः। श्रथाऽवणिकत्वम्, तर्हि समाप्तः क्वणघीत्वस्योभयत्राव्यन्निचारात् । एवमबादिष्वपीति । आकाशेऽपि भजवादः । नाप्यक्रमणाक्रियाकाणके संप्रवति, स हि पको संयोगविभागाङ्गीकारात्तैरनित्यत्वं युक्त्या प्रतिपन्नमेव । तथा बीजपूरादिक्षणो युगपदनेकान् रसादिकणान् जनयन् पकेन स्वच स एवाह-" शब्दकारणत्ववचनात्संयोगविनागौ " इति भावेन जनयेत् ?, नानास्वभावैर्वा ? यद्येकेन, तदा तेषां रसादिनित्यानित्यपक्कयोःसंवलितत्वम् एतश्च लेशतो नावितमेवेति। कणानामेकत्वं स्यात्, एकस्वनावजन्यत्वात् । अथनाना स्वमाप्रलापप्रायत्वं च परवचनानामित्थं समर्थनीयम, वस्तुनस्ता- वैर्जनयति किञ्चिद्रूपादिकमुपादानभावेन, किश्चिासादिकं सहवदर्थक्रियाकारित्वं लक्वणम, तश्चैकान्तनित्याऽनित्यपवयोर्न | कारित्वेनेति चेत्, तर्हि ते स्वभावास्तस्यात्मजूताः?, अनात्मजूताघटते। अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः । स च क्रमेणा- घा?अनात्मनूताश्चेत्,स्वन्नावत्वहानियद्यात्मतूतास्तर्हि तस्यानेकियाँ कुवात १, अक्रमेण वा?; अभ्योऽन्यव्यवच्छेदरूपाणां कत्वम,अनेकस्वजावत्वात् । स्वजावानां वा एकत्वं प्रसज्येत,तप्रकारान्तराऽसंभवात् । तत्र न तावत् क्रमेण । स हि काला- | दव्यतिरिक्तत्वात् तेषाम, तस्य चैकत्वात् । अथ य एव एकत्रोपान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसा कुर्यातदानभावःस एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद इष्यते, समर्थस्य कालकेपायोगात, कालकेपिणो वाऽसामर्थ्य प्राप्तः । तर्हि नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः, समर्थोऽपि तत्चत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थे करोतीति चेत्,न । कार्यसाय च कथमिप्यते क्षणिकवादिना ?। अथ नित्यमेकरू Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंतवाय पत्वादक्रमम्, अक्रमाच्त्र क्रमिणां नानाकार्याणां कथमुत्पत्तिः ? इति चेत् अहो! स्वपती देवानांप्रियः पापमेकरमा भिशापादिकात्कारणादनेक कारणसाध्यान्यनेककार्यरायङ्गीकुर्वाणोऽपि परपक्के नित्येऽपि वस्तुनि क्रमेण नानाकार्यकरणेऽपि विरोधमुद्भावयति । तस्मात् कणिकस्यापि भावस्यादुर्घटना क्रमाक्रम योर्नदृश्यैव व्यायार्थािसी च सत्यमपि व्यापकानुपले निवर्तते इत्येतानिया पिनमणीयः स्वाद्वा तु पूराकारपरिहार स्वीकारस्थितिलपरिणामेन भावानामर्थक्रियोपपत्तिरवि । न चैत्र वस्तुनि परस्परविरुधर्माध्यासा योगासन् स्थाद्वाद इति वाच्यम् ? । नित्यानित्यपकविलक्षणस्य पक्कान्तरस्याङ्गीक्रियमाणत्वात् तथैव च सर्वैरनुभवात् । तथा च पठन्ति - " जागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थो नागद्वयात्मकः । तमभागं विनागेन, नरसिंहं प्रचक्षते " ॥ १ ॥ इति । वैशेषिकैरपि चित्ररूपस्यैकस्याऽवयविनोऽभ्युपगमात् । एकस्यैव पटादेश्वलाञ्चलरक्ताऽरक्ताऽऽ वृताऽनावृतत्वादिविरुद्धधर्माणामुपलधेः सीगतैरप्येकत्र निरोधका रात् । अत्र च यद्यप्यधिकृतवादिनः प्रदीपादिकं कालान्तराज्यस्थानिय सम्परायः सत्ताया एवाऽनित्यतालक्षणात्। तथाऽपि बुद्धिसुखादिकं तेऽपि क्षणिकतयैव प्रतिपक्ष इति तदधिकारे ऽपि ना Sनुपपन्ना । यदाऽपि च कालान्तरावस्थायि वस्तु तदाऽपि नित्यानित्यमेव कृणोऽपि न सोऽस्ति स्तूपादययश्री व्यात्मकं नास्तीति काव्यार्थः ॥ ५॥ स्या० । ( अनेकान्तज्ञानस्य यथार्थत्वं मोक्खशब्देवयते ) (२) साम्याद्यविद्यायासनाचासितसम्मतयः प्रत्यकोपसक्ष्यमाणमन्तवादं येऽयमन्यन्ते तेषामुन्य सामायित्री वयन्नाह - 6 " ( ४२५ ) अभिधानराजेन्द्रः । 19 प्रतियोत्पादविनाशयोगि, स्थिरैकमध्यमपीक्षमाणः । जिन ! वाममन्यते प , सवानकी नाथ ! पिशाचकी वा ? ।। २१ ॥ प्रतिक्षणं प्रति समयमुत्पादे नोत्तराकार स्वीकाररूपेण, विनाशेन च पूर्वाऽऽकारपरिहारलवणेन, युज्यत इत्येवंश) प्रतिकणोत्पाद विनाशय किं तव स्पर्मास्थिरमुत्पादविना योरनुयायियात् त्रिकाल स्थिरेकम् एकशब्दोऽत्र साधारणवाच। । उत्पादे विनाशे च तत्साधारणमत् यथा वैमेोरेका जननी साधारत्यर्थः । प्रथमेव हि तयोरेकाधिकरणता पर्यायाणां कि पि तस्य कथञ्चिदेकत्वात् । एवं प्रयात्मकं वस्तु अध्यक्कमपीकमाणः प्रत्यकमवलोकयन्नपि, हे जिन ! रागादिजैत्र! त्वदाज्ञाम, आसामपनाऽनन्तशालेय पदार्थों यया सा आज्ञा, आगमः, शासनम्; तवाज्ञा त्वदाशा, तांत्वदात्तस्याद्वाद दिय जानाति । जात्यपेकमेकवचनम्, श्रवज्ञया वा । स पुरुषपर्वा तिकी, पिशाच की या । वातो रोग विशेषोऽस्यास्तीति वातकी, बातकी शासकीय विशायीभूताबि इत्यर्थः। अत्र वाशब्दः समुच्चयार्थ उपमानार्थो वा । स पुरुषा दो वातपिशाचयादिति सामर्थः पणे गंतवाय तातीसारपिया (२०११) ने हमस] मत्वर्थीयः कश्चान्तः । एवं पिशाचकीत्यपि । यथा किन वातेन पिशाचेन वाऽन्तर्वस्तुत्यं कुर्वपि तावेशएवमयमध्ये कान्तवादापस्मार परवश वशादन्यथा प्रतिपद्यते इति । अत्र च जिनेति साभिप्रायम् रामादिजेतृत्वादिनि । ततश्च यः किल विगलितदोष कालुष्यतयाऽवधेयवचनस्यापि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः । नाथ ! हे स्वामिन्! अलब्धस्य सम्यग्दर्शनादेर्लम्भकतया लब्धस्य तस्यैव निरतिचारपरिपालनोपदेशदायितया योगकरवोपपतेर्ना, तस्थामन्त्रणमवस्तुतस्त्र व उत्पादव्ययत्रीच्या त्मकम् । तथाहि सर्वे वस्तु द्रव्यात्मना नोत्पद्यते, विपद्यते वा; परिस्फुटमन्वयदर्शनात् । लूनपुनजतनखादिष्वन्वयदर्शनेन व्यभिचार इति न वाच्यम्, प्रमाणेन वाध्यमानस्यान्वयस्यापरि प्रस्तुतोऽन्वयः प्रमाणविरुः सत्यप्रत्यभिकानसिद्धत्वात् । सर्वव्यक्तिषु नियतं कणे क्षणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः। "सम्बोधित्यपत्योरा कृतिज्ञातिव्यवस्थानात्" इति वचनात् । ततो ऽव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः, पर्यायात्मना तु सबै विपद्यते यः स्वानुभवद्भा चालून पायानुनयेन व्यभिचारःस्य स्खलद्रूपत्वात् । न खलु सोऽस्खलद्रूपो येन पूर्वाऽऽकारविनाशाहोराकारोत्यादायिनाभाची भवेत् न जीवादी वस्तुनि हर्षामर्षोदासीन्यादिपर्याय परम्पराऽनुभवः स्खलद्रूपः, कस्यचिद्वाधकस्याज्ञावात् । ननूत्पादादयः परस्परं भिद्यन्ते ?, न वा ? | यदि भिद्यन्ते, कथमेकं वस्तु ज्यात्मकम् ? । न भिद्यन्ते चेतथापि कथमेकं स्यात्मक तथा दयनि कथमेकं त्रयात्मकम् ? । अथोत्पादादयोऽजिन्नाः, कथमेकं प्रयात्मकम् ? " ॥ १॥ इति चेत् । तदयुक्तम् । कथञ्चिणित्वेन तेषां कथञ्चिद् भेदाच्युपगमात् । तथाहि उत्पादविनाशधाव्याणि स्यादू निम्नानि भिन्न कृणत्वाद् रूपादिवदिति । न च निलक्षणत्वमसिद्धम् ; असत आत्मलाभः सतः सत्तावियोगः, व्यरूपतया नुदानां परस्पर निसानि सक लोकसाकिकाण्येव । न चामी भिन्नलक्षणा अपि परस्परानपेज्ञा सपुष्पचरस्यापतेः तथाहि उत्पादः केवलो नास्ति, स्थितिविगमरहितस्यात कर्मवत्तथाविनाशः केवलोनास्तिस्त्त्पित्तिरहित स्थित केला नास्ति विनाशयत्यात् तदेव इत्यन्योऽयाणामुपादा नां वस्तुनि सत्यं प्रतिपत्तव्यम् । तथा चोक्तम्- “घटमौलि सुवर्णाथी नात्यादस्थितिः स्वयम् शोकप्रमोदमध्यस्थ्यंजनो याति सहेतुकम् ॥ १ ॥ पयोव्रतो न दध्यति, न पयोऽति दधिव्रतः । अगोरतो नोजे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् " ॥ २ ॥ इति काव्यार्थः ॥ २१ ॥ श्रथाऽन्ययोगव्यवच्छेदस्य प्रस्तुतत्वाद्, श्रास्तां तावत्साक्काद्भवान् ; जवदीयप्रवचनावयवा श्रपि परतीर्थिकतिरस्कारबरूकक्का इत्याशयवान् स्तुतिकारः स्याद्वादव्यवस्थापनाय प्रयोगमुपन्यस्यन् स्तुतिमाह - अनन्तधर्मात्मकमेव तव मतोऽन्यथा समसूपपादम् । इति प्रमाणान्यपि ते कुत्रादि- कुरङ्गसंत्रासन सिंहनादाः। २२ । तवं परमार्थभूतं वस्तु, जीवाऽजीव व कणम्, अनन्तधर्मात्मकमेव, अनन्तादिपरिमिता धर्माः सहभावना Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणेगंतवाय निधानराजेन्द्रः । प्रणेगंतवाय भाविनश्च पर्यायास्त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्तधर्मात्मकम् ।। न पटादेरुत्पादसमय एव विनाशः, तस्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः । नापि एवकारः प्रकारान्तरव्यवच्छेदार्थः। अत पवाद-[अतोऽन्यथेत्या- तहिनाशसमय तस्यैवोत्पत्तिः,अविनाशोत्पत्तेन च तत्प्रादुर्भादि] अतोऽन्यथा नक्तप्रकारवैपरीत्येन, सरपं वस्तुतस्वमसूपपाद- बसमय एव तस्थितिः, सपेणैवाऽवस्थितस्याऽनवस्थाप्रमाक्तम्-सुखेनोपपाद्यते घटनाकोटिसंटकमारोप्यत इति सूपपादम्, तःप्रादुर्भावायोगात् । न च रूपघटरूपमृत्स्थितिकाले तस्य विनान तथाऽसूपपादसा दुर्घटमित्यर्थः । अनेन साधनं दर्शितम् । तथा- शः,तपणावस्थितस्य विनाशस्य एव ध्वंसोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गत पर हि-तत्वमिति मि,अनन्तधर्मात्मकत्वं साध्यो धर्मः,सस्थाऽन्यथा- युक्तः। ततस्त्रयाणामापभित्रकानत्वात्, तद्रव्यमर्थान्तरम् । नाना ऽनुपपत्तेरिति हेतुः, अन्ययाऽनुपपत्त्येकाकणत्याहेतोः। अन्ता- स्वभावादनेकान्तानावप्रसाक्तिः। यतोनिनकालाश्चोत्पादादयः, न प्यैव साध्यम्य सिरुत्वाद् दृष्टान्तादिनिन प्रयोजनम्। यदनन्तध- हि कुशूनविनाशघटोत्पादयोभित्रकालता,अन्यथा विनाशात्कामात्मक नभवति,तत्सदपिन जवति । यथा-बियदिन्दीवरम्। इति योत्पत्तिः स्यातः । घटायुत्तरपर्यायानुत्पत्तावपि प्राक्तनपर्यायकेवव्यतिरेकी हेतुः,साधर्म्यदृष्टान्तानां पक्षकुक्तिनिक्किप्तत्यनान्व- ध्वंसप्रसक्तिश्च स्यात् । पूर्वोत्तरपर्यायविनाशात्पादक्रियाया नियाऽयोगात् अनन्तधर्मात्मकत्वं चाऽऽत्मनि तावत्-साकागनाका- धीरायोगात् । तदाधारभूतद्रव्यस्थितिरपि तदाऽभ्युपगन्तव्या । रोपयोगिता,कर्तृत्व,नोक्तृत्व,प्रदेशाटकनिश्चलता, अमूर्तत्वमस- न च क्रियाफलमव क्रियाः, तस्य प्रागसत्त्वात् , सत्त्वे घा क्रिप्रघातप्रदेशात्मकता,जीयत्वमित्यादयः सहनाबिनोधर्माः। हर्षवि. यावफल्यात् । ततस्त्रयाणामाप निन्नकालत्वाद् तव्यतिरिक्तं पादशोकसुखदुःखदेवनरनारकतिर्यक्त्वादयस्तु क्रमनाविनः । अव्यमभिन्न नचानावघटोत्पादविनाशापक्कया जिन्नकालतयाs धर्मास्तिकायादिष्वप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वं गत्यायुपग्रहकारित्वं ान्तरत्वम् , कुगूलघटविनाशोत्पादापेक्कया ऽभिन्नकालत्वेनामत्यादिज्ञानविषयत्वं तत्तदवच्छेदकाचच्छेद्यत्वमवस्थितत्यमरू- न्तिरत्वादेकान्तर इति वक्तव्यं तव्यम् । द्रव्यस्य पूर्वावस्थापित्वमेकद्रव्यन्वं निष्क्रियत्वमित्यादयः। घटे पुनरामत्वं, पाकज- यां निन्नानिन्नतया प्रतीयमानस्योत्तरावस्थायामपि भिन्नाभित्ररूपादिमत्त्वं,पृथुबुनोदरत्वं,कम्बुग्रीयत्वं,जलादिधारणाऽऽहरणा- तयैव प्रतीतेरनेकान्तोऽव्याहतः । न चाबाधिताध्यक्वादिप्रतिपदिसामर्थ्य, मत्यादिज्ञानोयत्यं, नवत्वं, पुराणत्वमित्यादयः । एवं त्तिविषयस्य तस्य विरोधायुद्भावनं युक्तिसंगतम,सर्वप्रमाणप्रमसर्वपदार्थेष्वपि नानानयमताभिझेन शाब्दानार्थीश्व पर्यायान् प्र. यव्यवहारविलोपप्रसङ्गात्। अत एवार्थान्तरमनर्थान्तरं चोत्पादातात्य वाच्यम्। अत्र चात्मशब्देनानन्तत्रापि धर्मेष्वनुवर्तिरूप- दयो जव्यात्तदवापो वा तेज्यस्तथेति शेयम् । च्यात् तथाभूतमन्वयि व्यं ध्वनितम्। ततश्च उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्'शति व्य- तग्राहकत्वपरिणततादात्म्यशक्षणात्प्रमाणादिस्यपिव्याख्येयम्। वस्थितम् । एवं तावदथेषु शब्देष्वपि उदात्ताऽनुदासस्वरितवि- न हि तथानुतप्रमाणप्रवृत्तिः तथानृतार्थमन्तरेणोपपन्ना; धूमध्यवृतसंवृतघोषवदघापताऽल्पप्राणमहाप्राणतादयस्तत्तदर्थप्रत्या- जमन्तरेण सयेद्यते च । तथासूतग्राह्यग्राहिकरूपतया ऽनेकान्तायनशक्त्यादयश्चावसेयाः। अस्य हेतोरसिद्धविरुकाउनैकान्तिक- स्मकं स्वसंवेदनतः प्रमाणमिति र तदपनापः कर्तुं शक्यः,अन्यस्वादिकण्टकोद्धारःस्वयमज्यूह्यः। इत्येवमुझेखशेखराणि ते तव, थाऽतिप्रसङ्गात् । यद्वा-देशादिविप्रकृष्ठा उत्पत्तिविनाशस्थितिप्रमाणान्यपि न्यायोपपत्रसाधनवाक्यान्यपि । श्रास्तां तावत्सा स्वभावा जिन्नाभिन्नकाला अर्थान्तरानान्तररूपा द्रव्यत्वाद, द्रकात्कृतद्रव्यपर्यायनिकायो भवान्, यावदेतान्यपि कुवादिकुर- व्याद्रव्यातिरिक्तस्वादित्यर्थः। अन्यथोत्पावादीनामभावप्रसक्तेः। असंत्रासनसिंहनादा:-कुवादिनः कुत्सितवादिन एकांशग्राहक- तेभ्यो वा द्रव्यमर्थान्तरमनन्तरम् , द्रव्यत्वात् । प्रतिज्ञार्थंकनयाऽनुयायिनोऽन्यतार्थिकाः,त एव संसारवनगदनवसनव्यस- देशता च हेता शङ्कनीया, अन्यविशेष साध्ये द्रव्यसामान्यस्य नितया कुरका मृगाः, तेषां सम्यक्त्रासने सिंहनादा श्व सिंह-| हेतुत्वेनोपन्यासात् ॥ १३२ ।। नादाः । यथासिंहस्य नादमात्रमण्याकर्य कुरङ्गास्त्रासमासूत्र अत्रैवाथे प्रत्यकप्रतीतमुदाहरणमाहयन्ति, तथा भवत्प्रणीतेवंप्रकारप्रमाणवचनान्यपि श्रुत्वा कुवादि जो आनंचणकानो, चेव पसारिस्स विणिजुत्तो। नत्रासमश्नुवते, प्रतिवचनप्रदानकातरतां बिभ्रतीति यावत् । एकैकं त्वदुपई प्रमाणमन्ययोगव्यवच्छेदकमित्यर्थः। अत्र प्रमा- तसिं पुण पमिवत्ती-विगमे कालंतरं नस्थि ॥ १३३ ॥ णानीति बहुवचनमेवंजातीयानां प्रमाणानां भगवच्चासने याकुञ्चनकालोऽङ्गुल्यादेव्यस्य,स एव तत्प्रसारणस्य न युमानन्त्यज्ञापनार्थम; एकैकस्य सुत्रस्य सबोंदधिसनिमसर्वस क्तः, भिन्नकालतयाऽऽकुञ्चनप्रसारणयोः प्रतीतस्तयोर्भेदः । अन्य रिद्वालुकाऽनन्तगुणार्थत्यात, तेषां च सर्वेषामपि सर्वविन्मूलतया था तयोः स्वरूपाभावापत्तेरित्युक्तं तत्तत्पर्यायाभिन्नस्याङ्गल्यादिप्रमाणत्वात् । अथवा इत्यादि वहुवचनान्ता गणस्य संसूचका व्यस्यापितथाविधत्वात,तदपि भिन्नमन्युपगन्तव्यम् । अन्यथा भवन्तीति न्यायात्, इतिशब्देन प्रमाणबाहुल्यसूचनात्पूर्वक तदनुपलम्भात् । अभिन्नं च, तदवस्थयोस्तस्यैव प्रत्यनिझायमाएकस्मिन्नपि प्रमाणे उपन्यस्ते नचितमेव बहुवचन मिति नत्वात्। तयोःपुनरुत्पादविनाशयोः। प्रतिपत्तिश्च प्रादुर्भावो,विगकाव्याधः ॥२२॥ (सप्तनङ्गीनिरूपणं 'सत्तभंगी' शब्दे यक्ष्यते) मश्चविपत्तिा प्रतिपत्तिविगमम,तत्राका सान्तरं जिन्नकालत्वमङ्ग( उत्पादव्यययोस्पैविध्यं स्वस्थाने) लिफव्यस्य च नास्ति पूर्वपर्यायविनाशोत्तरपर्यायोत्पत्यष्टलिद(३)न चोत्पादविनाशयोरैकान्तिकतपताऽज्युपगमे 5 व्योत्पत्तिस्थितीनामन्निन्नकानताऽनिन्नरूपता च प्रतीयते। एकनेकान्तयादव्याघातः ?, कश्चित्तयोस्तद्रूपताऽज्युपगमात् । स्यैव तथाविवर्तात्मकस्याध्यक्तःप्रतीतेः। अथवा कालान्तरंनातदाह स्तीत्यत्राऽऽकारप्रश्लेपात्ततश्चोपादानात् प्रतिषेधद्वयन प्रकृतातिमि वि उप्पायाई, अजिन्नकाला य जिनकासा य ।। र्थगतेः कालान्तरं कालन्नेद उत्पादादेईव्यस्य वास्तीति कथ श्चिभेद इत्यर्थः । कथञ्चिद् भेदेनापि प्रतिपत्तेस्तेनोत्पत्तिवि. अत्यंतरं अगत्यं-तरं च दवियाहिँ पायव्वा ।।१३।। नाशस्थितीनां परस्पररूपपरित्यागप्रवृत्तप्रत्येकञ्यात्मकरूपत्वे. प्रयोऽप्युत्पादविगमस्थितिस्वभावाः, परस्परतोऽन्यकालाः। यतो। नापि वर्तमानपर्यायात्मकस्यैवातीतानागतकालयोः सत्त्वम, व Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२७) प्रणेगंतवाय अनिधानराजेन्दः। अणेगंतवाय स्तुनख्यात्मकत्वान्युपगनात्।अतीतानागतकालयोरपि तदपेण | दव्वंतरसंजोगा-हिँ केवि दवियस्स विति नप्पायं । सस्वे उत्पादविनाशयोरजावेन कथं ध्यात्मकत्यं तस्य?, अतीता नप्पायत्था कुशला, विजागजायं न इच्छति ॥१३॥ भागतकालयोरजाये कथं नित्यत्वमिति वाच्यम् । कथश्चित्तस्या समानजातीयव्यान्तरादेव समवायिकारणात् तत्संयोगासभ्युगमात्, त्यक्तोपादित्स्यमानपूर्वोत्तरपर्यायस्यान्यान्यवेशपरि मघायिकारणात्, तत्संयोगासमवायिकारणनिमित्तकारणादिस. त्यायोपादानकनटपुरुषवद् द्रव्यस्य व्यावतात्मकत्वात्, सर्वथाऽनित्यत्वे पूर्वोत्तरव्यपदेशानावप्रसक्तेः । सर्वथा नित्यत्वेऽप्युभ व्यपेक्कादवयवि कार्यव्यं भिन्न कारणव्येय वत्पद्यत इति यत्रैकप्रतिनासव्यपदेशादिव्यवहारानावश्च स्यात् । नचैकत्वप्र व्यस्योत्पादं केचन बुयते । ते चोत्पादार्थाननिशा विभाग जोत्पादं नेच्छन्ति । तिभासो मिथ्या, ततो यदेव विनष्टं शिवकरूपतया तदेवोत्पन्न कुतः पुनर्विनागजोत्पादानभ्युपगमवादिन उत्पादामृदयं घटादिरूपतया, अवस्थितं च मृत्वनोत ध्यात्मकं तत् सर्वदा व्यमवस्थितं यथोत्पादव्यवस्थितम् । यथोत्पादव्य नभिज्ञाः । यतःपस्थितीनां प्रत्येकमेकैकरूपं त्र्यात्मकं, तथा नूतवर्तमानभधि- अणु अाएहिं दब्बे, आरके ति अणुयं ति ववएसो। ध्वद्रिप्येकैकं रूपं त्रिकालतामासादयाति । तत्तो य पुण विभत्तो, अणु त्ति जाओ अणु होई॥१३६।। श्त्येतदेवाह द्वाभ्यां परमाणुज्यां कार्यद्रव्ये प्रारम्धेऽणुरितिव्यपदेशः,परमाणु द्वयारब्धस्य नाणुकस्याणुपरिमाणत्वात्।त्रिनिद्वणुकैश्चतुभिनप्पज्जमाण कालं, अप्पमं ति विगयं विगच्छंत ।। र्वाऽरब्धे ध्यणुकमिति व्यपदेशः। अन्यथोत्पन्नानुपअधिनिमित्तस्य दवियं पप्पवयंतो, तिकालविमयं विसेसे ॥ १३४॥ महत्वस्याभावप्रसक्तः अत्र किन त्रिभिश्चतुर्भिर्वा प्रत्येकं परमा णुभिरारब्धमणुपरिमाणमेव कार्यमिति । श्रादिपरमाणुनाऽरम्जउत्पद्यमानसमय एव किञ्चित्पटव्यं तावदुत्पन्नं योक कत्वे प्रारम्भवैयर्यप्रसक्तिरिति द्वाज्यां तु परमाणुज्यां रावणुकतन्तुप्रवेशक्रियासमये न व्यं तेन रूपेणोत्पन्न त त्तरत्रापि त. मारज्यते। ध्यणुकमपिन द्वाभ्यामणुभ्यामारज्यते,कारणविशेषप घोरपत्रमित्यत्यन्तानुत्पत्तिप्रसक्तिस्तस्य स्यात् । न चोत्पत्तिप्रस- रिमाणतोऽनुपनोम्यत्वप्रसक्तेः, यतो महत्वपरिमाणयुक्तं तदुपत्रक्तिः,उत्तरोत्तरक्रियाकणस्य तावन्मात्रफलोत्पादन एव प्रक्कयादप | ब्धियोग्यं स्यात् । तथा चोपनोग्यकारणबहुवमहत्वाचयजन्यं च रस्य फलान्तरस्यानुत्पत्तिप्रसक्तेः । यदि च विद्यमाना एकतत- महत्वमान च द्वित्रिपरमाएवारब्धे कार्ये महत्त्वंतत्र महत्परिमाणा स्तुप्रवेशाक्रियान फलोत्पादिका,विनष्टा सुतारांनभवत् असत्वा भावातेषाम गुपरिमाणातदुपलब्धियोग्यं स्यात्,तथा चोपभोग्य त उत्पत्त्यवस्थावत्। नानुत्पनविनष्टयोरसत्त्वे कश्चिद्विशेषः ततः कारणत्वात् प्रचयोऽप्यवयवाजावान संत्रवति,तेषामपि द्वाज्याप्रथमक्रियाकणः केनचिद् रूपेण तमनुत्पादयति, द्वितीयस्त्वसौ मणुज्या कारणबहुत्वाभावात्।नच त्रयोऽपि, प्रशिथिलावयवसंतदेवांशान्तरेणोत्पादयति। अन्यथा क्रियाक्षणान्तरस्य वैफल्यप्र- योगाजावान् । उपलज्यतेच समानपरिमाणखिभिः पिएमरारब्धे सक्तेः । पकेनांशेनोत्पन्नं सपुत्तरक्रियावणफलांशेन यद्यपूर्वम- कार्ये महत्त्वं, न द्वाभ्यामिति महत्परिमाणाभ्यां तान्यामधारब्धं पूर्व तदुत्पद्यते तदोत्पन्नं भवेद्, नाऽन्यथेति । प्रथमतन्तुप्रवेशा- महत्त्वं, न त्रिजिरल्पपरिमाणैरारब्ध इति । समानसंख्यातुनापदारभ्यानस्यतन्तुसंयोगावधि यावदुत्पद्यमानं प्रबन्धन तद्रूपतयो- रिमाणाच्यां तन्तुपिदमाच्यामारग्धे पटादिकायें प्रशिथिलावयस्पन्नमभिप्रेतानिष्टरूपतवा चोत्पत्स्यत इत्युत्पद्यमानमुत्पत्स्यमा- वतन्तुसंयोगकृतं महत्त्वमुपलभ्यते, न तदितरत्रोत । नन्वेवं यदि मं च भवति । एवमुत्पनमध्युत्पद्यमानमुत्पास्यमानं च भवति । कार्यारम्नस्तदा व्याणि न्यान्तरमारजन्ते, द्विबहुनि बासतथोत्पत्स्यमानमप्युत्पद्यमानमुत्पन्नं चेत्येकैकमुत्पश्चादिकालत्र- मानजातीयानीस्यभ्युपगमः परित्यज्यतामा यतो न परमाणु बयेण यथा त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते, तथा विगच्छदादिकालत्रयेणाप्यु एकादिनामाप त्यक्तजनकावस्थानामनमीकृतस्वकार्यजननस्व. त्पादादिरकैकः त्रैकाल्यं प्रतिपद्यते । तथाहि-यथा यदैवोत्य भावानांच सणुकच्यणुकादिकार्यनिर्वर्तकत्वम् अन्यथा प्रागघते न तत्तदैवोत्पन्नमुत्पत्स्यते । यद्यदैवोत्पन्नं न तत्तदैवात्प पितत्कार्यप्रसङ्गात । अथ न तेषामजनकावस्थात्यागतो जनकस्थयते उत्पत्स्यते च । यद्यदैवोत्पत्स्यते तत्तदैवोत्पद्यते उत्पन्नं च। भावान्तरोत्पत्तौ कार्यजनकत्वम, किन्तु पूर्वस्वनावव्यवस्थितानातथा तदेव तदैव यदुत्पद्यते तत्तदैव विगतं विगच्छद्विगमिप्यश्च। मेव संयोगलवणसहकारिशक्तिसद्भावात् तदा कार्यनिवर्तकत्वं तथा यदेव यदेवोत्पन्नं तदेव तदैव विगतं विगच्चद्विगमिष्यश्च । प्राक्तनतदनावान्न कार्योत्पत्तिः। कारणानामविचलितस्वरूपत्वेऽपि तया यदेव यदेवोस्पत्म्यते तदेव तदेव विगतं विगच्छद्विगमिष्यश्च । नच संयोगेन तेषामनतिशयोव्यावर्तते,अतिशयो वा कश्चिदुत्पाएवं विगमोऽपित्रिकालमुत्पादादिना दर्शनीयः। तथा स्थित्याऽपि द्यते,अजिनो भिन्नो वा, संयोगस्येवातिशयत्वात् । न च कथमन्यः त्रिकाल एव सप्रपञ्चं दर्शनीयः एवं स्थितिरप्युत्पादविनाशाच्या संयोगस्तेषामतिशय इति,वाच्यस्याप्यतिशयत्यायोगात् । नदि प्रपश्चाभ्यामेकैकाज्यां त्रिकालदर्शनीयेति। व्यमन्योन्यात्मकत. स एव तस्यातिशय श्त्युपलब्धम, तस्मात्तसंयोगे सति कार्यमुथाभूतकालत्रयात्मकोत्पादविनाशस्थित्यात्मकं प्रज्ञापयखिकान पलभ्यते, तदनावे तु नोपलयत शत संयोग एव कार्योत्पादने विषयप्रादुर्नवकर्माधारतया तद्विशिनएि । अनेन प्रकारेण त्रि तेपामतिशय इति, न तदुत्पत्ती तेषां स्वनावान्तरोत्पत्तिः, संयोकालविषयं व्यस्वरूपं प्रतिपादितं भवति । अन्यथा द्रव्यस्या: गतिशयस्य तेज्यो जिन्नत्वादिति । असदेतत् । यतः कार्योत्पत्ती भावात त्रैकाल्यं दूरोत्सारितमेवेति; तद्वचनस्य मिथ्यात्यप्र. तेषां संयोगाऽतिशयो नवतु, संयोगोत्पत्ती तु तेषां कोऽतिशयः? साक्तिरिति नावः । सर्वथाऽन्तर्गमनलकणस्य विनाशस्यासंज शति वाच्यम्। न तावत्स्य ण्व सयोगः, तस्याद्यानुत्पत्तः। नापिस. वाद विनागजस्य चोत्पादस्य तत्तद्वयाभावे स्थितेरप्यभावात्। योगान्तरं तदनभ्युपगमात् ।अभ्युपगमेऽपितदुत्पत्तावप्यपरसंया. तत् त्रैकाल्यं दूरोत्सारितमेवेति मन्यमानत्वाद्वादिनः प्रति | गातिशयप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः। न च क्रियातिशयः, तदुपतदन्युपगमदर्शनपूर्वकमाह त्तावपि पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात्। किं चादृष्टापेक्कादात्माणुसंयोगात्पर. Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२० ) निधानराजेन्खः । गंतवाय मागुषु क्रियोत्पद्यत इति श्रभ्युपगमादात्मपरमाणु संयोगाज्ञावेऽप्यपरोऽतिशयो वाच्यः । तदेव च तत्र दृपणम् । किञ्चासी संयोगो यकादिनिवर्त्तकः किं परमाण्वाद्याश्रितः, उत तदन्याश्रितः, आहोस्विदनाश्रित इति । यद्यायः पक्षः, तदा तदुत्पत्तावाश्रय उपनयते तदा परमानामपि कार्य तत्संयोगवत् । अथ नोत्पद्यते, तदा संयोगस्तदाश्रितो न स्यात्, समवायस्याभावात्। तेषां च तं प्रत्यकारकत्वात् । तदकारकत्वं तु तत्र तस्य प्रागभावानिवृत्तेः, तदन्यगुणान्तरवत्। ततस्तेषां कार्यरूपतया परिणतिरज्युपगन्तव्या । अन्यथा तदाश्रितत्वं संयोगस्य तस्मादन्याधित्वेऽपि पूर्वोत्तु निर्दे कोत्पत्तिप्रसक्तिः । अथ संयोगों नोत्पद्यत इत्यभ्युपगमः, तदा वक्तव्यं किमसी सन्वाऽसन् ? यदि संस्तदा तन्नित्यत्वप्रसक्तिः, सदकारणवन्नित्यमिति जवतोऽभ्युपगमात् । तथा चासौ गुणो न भवेद् नियमानातिपातपायोगात् अपरतन्त्रस्य चागुगासति तदा कार्यानु सङ्गः तदभावे प्राग्वशिष्टपरिमाणोपेतार्यपा चात् । तथा च जगतोऽदृश्यताप्रसक्तिगित संयोगकत्वसंरूपापरिमाणमहस्वाद्यनेकगुणानां तत्परिज्युपेश कार गुण पूर्वप्रक्रमेण कार्योत्पत्यभ्युगमादिष्टमेवैतदिति चेत ननु तेषांक आश्रयः ? इति वक्तव्यम् । न तावत् कार्यम्, तदुत्पत्तेः सावधान न णमेव कार्यगुणोत्पत्तेः प्रागस्तीति वक्तव्यम् । गुणसंवत् सतासंबन्धस्याद्यणे श्रभावः, तत्सत्त्वासंभवात् । न चोत्पत्तिसत्तासंबन्धयोरेककालतयाऽऽयण एवं सत्वम्, तदा रूपादिगु समवायाभावतो ऽनुपलम्ने ततस्तत्सत्तासंबन्धव्यवस्थापनासंभवान्महिम्नमन्तरेण तदा तस्यासंबन्ध सत्त्वं वा व्यवस्थापयितुं शक्यम् । न च महत्त्वादेर्गुणद्रव्येण स होत्पादतदूव्याधेयना नद्रव्यस्य वा तदाऽऽधारता; श्रकारणस्पाश्रयत्वायोगात् । न कालो कार्यकारणभावः सम्येवर गोविपाणयोरिव भवत्य के युक्तः, सन् न कार्य तदाश्रयः। अथाणवस्तदाश्रयाः, तर्हि कार्यद्रव्यस्यापि त एवाश्रय इत्येकाश्रयौ का गुणा ज्युपगमेऽपि तापोस्तयोः कु दयावाभाव, अर्थकारणा अयुतसिद्ध्याधवाश्ववि " नभेदनिषेधः प्रतिपाद्यते समवायाभावेऽभ्यस्यार्थस्याप्रासंभवातू आधाराधेयभाव इत्यनेन चैकत्वनिषेधः क्रियत इति कथमनयेोरेकत्र सद्भावः । अथान्यत्राधाराधेयभावः तर्हि तेषां सत्वमुतासत्वमिति वक्तव्यम् ? यद्याद्यः पक्कः, तदा संयोगादिगुणाकारपरमाणव एव तथाभूतकार्यमिति जैनपक्क एव समा निः स्यात् । द्वितीयदि परमाणवः स्वरूपापरित्यागतः कार्यद्रव्यमारभन्ते स्वात्मनो व्यतिरिक्तम, तदा कार्यद्रव्यानुत्पत्तिप्रसक्तिः। न हि कार्यव्यपरमास्वरूपा परित्यागे स्थूलत्वस्य सद्भावः, तस्य तद्भावात्मकत्वात् । तस्मात्परमाणुरूपता परित्यागेन मृदृव्यं स्थूलकार्यस्वरूपमासादयतीति यत् स्यपरिणतः आदिरन्तो वा न विद्यते इति न कार्यद्रव्यं कारणेज्यो भिन्नम्। न चार्था न्तरावगमनं विनाशोऽयुक्तः, इति तद्रूपपरित्यागोपादानात्मकस्थितिस्वभावस्य द्रव्यस्य त्रैकाल्यं नानुपपन्नम् । यथा च एकसंख्या विभागाल्पपरिमाणपरत्वात्मकत्वेन प्रादुर्भावात्परमाराया सोप्या कारणान्य अणे गंतवाय यव्यतिरेकानुविधानोपलम्भात् कार्य ताव्यवस्थानिबन्धनस्यात्रापिसावमर्थः ततो य) स्वादिना गाथापश्चान प्रद शितः तस्मादेकपरिमाण , स्पन्नः ( अणुरिति ) अर्जातो भवति एतदवस्थायाः प्राक्तदसस्यात् । स वा इदानीमिव प्रागपि स्थू रूपकार्याभाय प्रसङ्गात् । इदानीं वा तद्रूपाऽविशेषात् प्राक्तनावस्थानमिव स्या तू । एवं चतुर्विधकार्यद्रव्यान्युपगमे संगतः । न च य एव काप्रारम्भका परेकस्यविरोधात रागभावसा भावमृत्पिण्मकपालयत् । न च प्रागभावप्रध्वंसानावोत्थरूपतया विरूपत्वमसि तुष्यरूपस्याभावस्थामाणत्वासजनक तविषयत्यतो व्यवस्थापयितुमशक्यस्वादिति प्रतिपादनात् न च कपालसंग पजायते तद्विभागाच्य विनश्यतीति मुस्ि समवायिकारणत्वानुमानमन्य बाधितक निर्देशानन्तरस्वेनास्यामि न चाश्यपरिमाणन्तु महत्यरिमाणं परार्थयमिति घटादिकमपि तदप नेककारण कल्पयितुं युतमविपर्ययेणापि कल्पनाया प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । अध्यक्कृबाधस्तु तदितरत्रापि समानः । किञ्च । परमाणूनां सर्वदेकं रूपमन्युपगमायमेव तेषामयुपगच्छेतू ; अकारकत्वप्रसङ्गात् । तच्च प्रागभावप्रध्वंसाभावविकल्पवेनामधेयातिशयत्यात् वियत्तदश्य का र्यव्यस्याप्यनावः, तस्यासस्यात् । तदनावे च परापरत्वादिप्रस्वायोगात् कालादेरप्यद्रव्यस्याभावइतिभाव प्रतिपादनाय प्रतिपादक पालपर्यन्तघटविनाशोपलम्ने तस्य व्यापारोपलब्धेः । नानुमानमपि प्रत्यासी तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः तस्य व्यावर्णनात् । श्रागमस्य चात्रार्थे अनुपयोगात् । परमापर्यन्ते च विनाशे घटादिध्वंसे न किञ्चिदप्युपलभ्येत, परमाणूनामपत्वेनाभ्युपगमात् घटेन पाकनिन वा तेनानेकान्त इति चेत् । न । सर्वस्य पक्ककृतत्वात् । श्रवयविनि तस्य च नित्यदुपति परमाणुषु तदसंजवात् । पाकान्यथाऽनुपपत्त्या परमाणुपर्यन्तो विनाश: परिकल्पत इति विशिष्टमा द्विशिष्टवर्णस्य घटादेव्यस्य कयचिद् विनाशेऽप्युपपत्ति भयात् परमाणूपर्यन्त विनाशात्युपगमे च तदेशस्यत संख्यात्वतत्परिमाणत्वोपर्यवस्थापितकर्पराद्यपात प्रत्यक्षोपत्रभ्यत्वादीनि पच्यमाने घटे न स्युः । सूच्यग्रविद्धघटेनानेकान्तः परिहृत एव । नपाला घटे भिचादपरमाण्यन्तेन ततः प्रतीतिविरुद्धत्वान्नासावभ्युपगन्तव्य इति प्रस्तुतमेवापद्वारेोपसंहत्याचार्य: बहुषाण एगस, जइ संयोगाहिं होइ उप्पाओ । विभागम्पिवि, जुज्जइ बहुयाण उपाओ ! १३७ । कादीनां सतिसंयोगे यद्येकस्य पादे कार्यय यादो भवति, अन्यथैकाभिधानप्रत्ययव्यवहारायोगात् । नहि व हुष्वेको घट उत्पन्न इत्यादिव्यवहारो युक्तः। नन्वित्थं क्षमायामेकस्य कार्यव्यस्य विनाशेऽपि युज्यत एव बहूनां समानजा तयानां सत्कार्यव्यविनाशात्मकानां प्रभूविभात्मना मुत्पाद इति तथाहि घटयिनाशाद्यनि कपालानि उप । , Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२५) अयोगंतवाय अभिधानराजेन्धः। अणेगंतवाय मानीत्यनेकाभिधानप्रत्ययव्यवहारो युक्तः, अन्यथा तदसंभ- | येऽनेकान्तसद्वादपक्के द्रव्यास्तिकायाऽन्युपगमपदार्थाच्युपगमे पात् । ततः प्रत्येक व्यात्मकास्त्रिकाचोत्पादादयो व्यवस्थिता | शाक्यौबूक्या दोषान् वदन्ति, सांख्यानां क्रियागुणव्यपदेशोपलइत्यनन्तपर्यायात्मकमेकं व्यमा तत्त्वनन्ते काले भवत्वनन्तप- ध्यादिप्रसङ्गादिलकणाः, ते सर्वेऽपि तेषां सत्या इत्येवं संबन्धः यांयात्मकमेकं द्रव्यम् । एकसमये तु कथं तत्तदात्मकमवसी- कार्यः । ते च दोषा एवं सत्याः स्यः यद्यन्यनिरपेकल्या5यते । प्रदर्शितदिशा तदात्मकं तदवसीयत इत्यादि ज्युपगतपदार्थप्रतिपादकं तच्छास्त्रं न मिथ्या स्यात्, नाऽन्य. एगसमयम्मि एगद-वियस्स बहुया वि होति उप्पाया । था प्रागपि कार्यावस्थात एकान्तेन तत्सत्त्वनियन्धनस्वास्तेषा म् । अन्यथा कथञ्चित्सत्वेऽनेकान्तवादापत्तेदोषान्नाव पव उप्पायसमा विगमा, ठिई उ उस्सग्गो पियमा ।।१३८।।। स्यात् । सम्म। एकस्मिन्समये एकद्रव्यस्य बहव उत्पादा भवन्ति, उत्पादस (४) वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वम्मानसंख्या विगमा अपि तस्यैव तदैवोत्पद्यन्ते, विनाशमन्तरेणात्पादस्यासंभवात् । न हि पूर्वपर्यायाविनाशे उत्तरपर्यायः अनन्तरं जगवदर्शितस्यानेकान्तात्मना वस्तुनो बुधरूपवेद्यत्वप्रादुर्भवितुमर्हति । प्रादुर्भावे चा सर्वस्य सर्वकार्यताप्रसक्तिः, मुक्तम् । अनेकान्तात्मकत्वं च सप्तभङ्गीप्ररूपणेन सुखोन्नेयं स्यादितदकार्यत्वं वा कार्यान्तरस्य च स्यात् । स्थितिरपि सामान्यरू तिसाऽपि निरूपिता, तस्यां च विरुद्धधर्माध्यासितं वस्तु पश्यपतया तथैव नियता: स्थितिरहितस्योत्पादस्याभावात् । भावे न्त एकान्तवादिनोऽबुधरूपा विरोधमुद्भावयन्ति । तेषां प्रमाणबा शशशुङ्गादेप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् ॥ १३८ ।। मार्गाच्च्यवनमाहएतदेव दृष्टान्तद्वारेण समर्थयन्नाह उपाधिभेदोपहितं विरुई, कापमणवयण किरिया-रूवाइ गई विरोसो वा वि।। नार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च । संजोगजेयो जा-णणाय दवियस्स उप्पाओ ।।१३।। | इत्यप्रबुष्यैव विरोधजीताः, यदैवानन्तानन्तप्रदेशिका हावभावपरिणतपुझनोपयोगोप जमास्तदेकान्तहताः पतन्ति ॥१४॥ जातशशरुधिरादिपरिणतवशाविर्भूतशिरोऽङ्गल्याद्यङ्गोपाङ्ग-| अर्थेषु पदार्थेषु चेतनाऽचेतनेष्वसत्त्वं नास्तित्वं न विरुकं न भावपरिणतस्थुरसूचमतरादिभेदभिन्नावयवात्मकस्य कार्योत्प-| विरोधावरुद्धम्, अस्तित्वेन सह विरोधं नानुन्नवतीत्यर्थः । न त्तिः,तदैवानन्तानन्तपरमाणपचितमनोवर्गणापरिणतिलभ्यमा. केवलमसत्वं न विरुद्धम्, किन्तु सदवाच्यते च । सञ्चाऽयाच्यं च न उत्पादोऽपि, तदैव वचनस्यापि कायोत्कृष्टतरवर्गणात्पत्ति- सदवाच्ये, तयोभीवी सदवाच्यते, अस्तित्वावक्तव्यत्वे इत्यर्थः। ते प्रति लब्धप्रवृत्तिरुत्पादः, तदैव च कायात्मनोरन्योन्यानुप्रवे- अपि न विरुके। तथाहि-अस्तित्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते । शाद्विषमीकृतासंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः, तदैव च प्रवक्तव्यत्वमपिविधिनिषेधात्मकमन्योन्यं न विरुद्धयते । अथवाऽरूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पत्तिविनश्वराणामुत्पत्तिः, तदैव च | वक्तव्यत्वं वक्तव्यत्वेन साकंन विरोधमुदहति। अनेन च नास्तित्वामिथ्यात्वाऽविरतिप्रमादकषायादिपरणतिसमुत्पादितकर्मबन्ध- ऽस्तित्वावक्तव्यत्वलकणभङ्गत्रयेण सकलसप्तनङ्ग्या निर्विरोधनिमित्तागामिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः. तदैव चोत्सृज्यमानोपा- तोपलक्षिता; अमीषामेव त्रयाणां मुख्यत्वाच्छेपनकानां च संयोदीयमानानन्तपरमाएवाद्यनन्तपरमाणु संयोगवित्रागानामुत्पत्तिः। गजत्वेनामीध्वेवान्तावादिति । नन्वेते धर्माः परस्पर विरुद्धाः, यद्वा-यदैव शरीरादेव्यस्योत्पत्तिः, तदैव तत्रैकान्तगतसमस्त- तत्कथमेकत्र वस्तुन्येषां समावेशः संभवति ?, इति विशेषणद्वाद्रव्यः सह साकात् पारम्पर्येण वा संबन्धानामुत्पत्तिः, सर्वव्या- रेण हेतुमाह-( उपाधिनेदोपहितमिति) उपाधयोऽवच्छेतिव्यवस्थिताकाशं धर्माधर्मादिषव्यसंबन्धात तदैव च भा- दका अंशप्रकाराः, तेषां दो नानात्वं, तेनोपहितर्पितम् । असविस्वपर्यायपरज्ञानविषयत्वादीनां चोत्पादनशक्तीनामप्युत्पादः त्वस्य विशेषणमेतत् । उपाधि नेदोपहितं सदयेष्वऽसत्त्वं न विशिरोनीवाचञ्चुनेत्रपिच्छोदरचरणाधनेकावयवान्तर्भावमयूरा। रुद्धम । सदवाच्यतयोश्च वचननेदं कृत्वा योजनीयम् । नपाधिनेरामकरणशक्तीनामिव, अन्यथा तत्र तेषामुत्तरकालमप्यनुत्पत्ति- दोपहिते सती सदवाच्यते अपि न विरुके । अयमभिप्राय:प्रसङ्गात् । सत्पादविनाशस्थित्यात्मकाश्च प्रतिवणं भावाः शी- परस्परपरिहारेण ये बत्तते, तयोःशीतोष्णवत्सहाऽनवस्थानलतोष्णसंपर्कादिभेदेन । न च पुराणतया क्रमेणोपलब्धिः प्रतिक्षणं कणो विरोधः। नचात्रैवम्, सत्त्वासत्त्वयोरितरेतरमविष्यग्नाबेन तथोत्पत्तिमन्तरेण संभवति । न चास्मदाद्यध्यकं निरवशेष- वर्तनात् । न हि घटादी सत्वमसत्त्वं परिहत्य वर्तते, पररूपेणा:धर्मात्मकवस्तुग्राहकं, येनानन्तधर्माणामेकदा वस्तुन्यप्रतिपत्ते- पिसवप्रसङ्गात्। तथाच तम्यतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यम,ते. रभाव इत्युच्येत; अनुमानतः प्रतिवणमनन्तधर्मात्मकस्य तस्य नैव त्रिभुवनार्यसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः। न चासत्वं सत्वं पप्रदर्शितन्यायेन प्रतिपत्तेः । सकलत्रैलोक्यव्यावृत्तस्य वस्तुनो- रिहत्य वर्तते स्वरूपेणाप्यसत्त्वप्राप्तेः । तथाच निरुपाण्यत्वात्स. ऽध्यक्तण ग्रहणे तघ्यावृत्तीनां पारमार्थिकतकर्मरूपतया । अन्य- वंशून्यतेति; तदा हि विरोधः स्याद्योकोपाधिकं सत्वमसत्वं च था तस्य तत्रावृत्त्ययोगात् , कथं नानन्तधर्मणां वस्तुन्यध्य- स्यात् । न चैवम्यतो न हि येनैवांशेन सत्त्वं तेनैवासत्वमपि । किं केण ग्रहणम् । ( सम्म) वन्योपाधिकं सत्वम, अन्योपाधिकं पुनरसत्त्वम् ।स्वरूपण हिस.. अन्योन्यनिरपेलतयाऽऽश्रितस्य मिथ्यात्वा वं, पररूपेण चासत्त्वम् । दृष्टं हि एकस्मिन्नेव चित्रपटावयावनि - विनाभूतमेव दर्शयन्नाह म्योपाधिकं तु नीलस्वमन्योपाधिकाश्चेतरे वर्णाःनीमत्वं हिनीजे संतवाएँ दोसे, सक्कोबूया वयंति संखाणं । बीरागाद्युपाधिकम,वर्णान्तराणिच तत्तजनव्योपाधिकाने । एवं मेवरक्तेऽपितनद्वर्णपुलोपाधिक वैचित्र्यमवसेयम्। न चै. संखाय असवाए, तेमि सम्वेऽपि ते सव्वा ।। १४६॥ निदृष्टान्तः सत्यासत्वयोर्जिन्नदेशत्वप्राप्तिः, चित्रपटाद्यवयविन Jain Education Interational Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) अणेगंतवाय अनिधानराजेन्द्रः। अणेगंतवाय एकत्वात् तत्रापि भिन्नदेशत्वासिद्धेः । कश्चित्पास्तु उपान्ते सौहित्यमुपवर्णयन्नाहदाष्टान्तिकेच स्याद्वादिनां न दुर्लभः।पयमप्यपरितोषश्चेदायुमता, तोकस्यैव पुंसस्तत्र तत्तपाधिनेदारिपतृत्वपुत्रत्यमातुलत्व स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं, वाच्यं न वाच्यं सदसत्तदेव । भागियावपितृव्यस्वभ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुझानाम विपश्चित नायनिपीततत्व-सुधोद्गतोगारपरम्परेयम् ॥२५॥ पि प्रसिफिदर्शनात् किं वाच्यम् ? । एवमवक्तव्यतादयोऽपि वा स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकमशास्वपि पदेषुयोज्यम, तदेवाधिच्याः । इत्युक्तमकारेणोपाधिभेदेन वास्तवं विरोधानावमाधु- कृतमेवैक वस्तु स्यात्कथञ्चिन्नाशि, विनशनशीलममित्यामित्यर्थः। ध्यैवाज्ञात्वैव , पवकारोऽवधारणे । स च तेषां सम्यमानस्या- स्यानित्यमविनाशधर्मीत्यर्थः । एतावता नित्यानित्य नक्कणमर्क भाव एव, न पुनलेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति । ततस्ते विधानम्।तथा स्यात्सदृशमनुवृत्तिहेतुमामान्यरूपमास्याद्विरूपं विरोधभीताः-सत्यासत्त्वादिधर्माणां बहिर्मुखशमुष्या संभा- विविधरूपं विसरशपारीणामात्मक, व्यावृत्तिहेतुविशेषरूपमित्यवितो यो विजोधः सहानवस्थानादिः,तस्माद्गीतास्त्रस्तमा- र्थः अनेन सामान्यविशषरूपो द्वितीयः प्रकारः। तथा स्याद्वाच्य नसाः। अत एव जडास्ताविकभयहेतोरभावेऽपि तथाविधप- घक्तव्यमा स्याद्नवाच्यमवक्तव्यामित्यर्थः। अत्र चसमासेध्याच्या शुवद्भीरुत्वान्मूर्खाः परवादिनस्तदेकान्तहताः, तेषां सत्यादि- मिति युक्तम, तयायवाच्यपदं योन्यादौ रूढमित्यसयतापरिधर्माणां य एकान्त इतरधर्मनिषेधेन स्थाभिप्रेतधर्मव्यवस्थाप- हारार्थ न वाच्यमित्यसमस्तं चकार स्तुतिकारः । पतेनाभिननिश्चयः, तेन हता इव हताः पतन्ति स्खलन्ति । पतिताश्च लाप्यानभिन्नाप्यस्वरूपस्तृतीयो नेदः । तथा स्यात्सद्विद्यमानसन्नस्ते न्यायमार्गक्रमणेनासमर्था न्यायमार्गाध्वनीनानां च मस्तिरूपमित्यर्थः । स्यादसत्तहलकणमिति । अनेन सदसदासर्वपामप्याक्रमणीयतां यान्तीति भावः । यद्वा-पतन्तीति प्र. ख्या चतुर्थी विधा । हे विपश्चितां नाथ! संख्याचतां मुख्य!श्यममाणमार्गतश्च्यवन्ते । लोके हि सन्मार्गच्युतः पतित इति नन्तरोक्ता निपीततत्त्वसुधोमतोमारपरम्परा,तवेति प्रकरणात्सापरिभाप्यते । अथवा-यथा बज्रादिप्रहारेण हतः पतितो मार्थ्याद्वा गम्यते । तत्वं यथावस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदः, तदेव मूर्छामतुच्छामासाद्य निरुद्धवाक्प्रसरो भवति; एवं तेऽपि जरामरणापहारिवाद्विबुधोपभोग्यत्वामिथ्यात्वावधोमिनिरावादिनः स्वाभिमतैकान्तवादेन युक्तिसरणिमननुसरता बज्रा करिष्णुत्वादान्तराहादकारित्वाञ्चपीयूषं तत्त्वसुधा । नितरामनन्यशनिप्रायेण निहताः सन्तः स्याद्वादिनां पुरतोऽकिश्चित्करा सामान्यतया पीता आस्वादिता या तत्त्वसुधा तस्या जाता वाङ्मात्रमपि नोचारयितुमीशत इति । अत्र च विरोधस्योप- प्राऽता तत्कारणिका झारपरम्परा उकारश्रेणिरिवेत्यर्थः । लक्षणत्वाद्वियधिकरण्यमनवस्था सङ्करो व्यतिकरःसंशयोप्र- यथाहि-कश्चिदाकपत्रं पीयूषरसमापीय तदनुविधायिनीमुद्रातिपत्तिर्विषयव्यवस्थाहानिरित्येतेऽपिपरोद्भाविता दोषा अ. रपरम्परां मुश्चति , तथा नगवानपि जरामरणापहारे तत्वामृत भ्यूह्याः। तथाहि-सामान्यविशेषात्मकं वस्त्वित्युपन्यस्ते परे स्वैरमास्वाद्य तद्रसानुविधायिनी प्रस्तुतानेकान्तवादभेदचतुउपालब्धारो भवन्ति । यथा सामान्यावंशपयार्वेधिप्रातिषेध- ध्याक्षणामुझारपरम्परा देशनामुखेनोझीर्णवानित्याशयः । रूपयोविरुद्धधर्मवोरकेत्राभिने वस्तुन्यसंभवाच्छीतोष्णव- अथवा-यरेकान्तवादिनिः मिथ्यात्वगरसनोजनमातृप्ति जक्षित, दिति विरोधः । न हि यदेव विधेरधिकरणं तदेव प्रतिषेध- तेषां तत्तद्वचनरूपा उझारप्रकाराः प्राक् प्रदर्शिताः। यैस्तु पचेनिम्याधिकरणं भवितुमर्हति,एकरूपतापत्तेः। ततोयाधिकरण्य- मप्राचीनपुण्यप्रागमारानुगृहीतैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिःस्यन्दि तत्त्वामपि भवति । अपरं च-येनात्मना सामान्यस्याधिकरणं येन मृतं मनोहत्य पीतं ते विपश्चितां यथार्थवादविदां हे य विशेषस्य, तावप्यात्मानौ एकेनैव स्वभावेनाधिकरोति, नाथ! श्यं पूर्वदसदर्शितोल्लेखशेखरा उमारपरम्परेति व्याख्ययम्। द्वाभ्यां वा स्वभावाभ्याम् । पकेनैव चेत, तत्र पूर्ववद्विरोधः। एते च चत्वारोऽपि वादास्तेषु तेषु स्थान प्रागेव चर्चिताःतथाद्वाभ्यां वा स्वभावाभ्यां सामान्यविशेषास्यं स्वभावद्वयमाधि- हि-श्रादीपमाव्योमोत' वृत्ते नित्यानित्यवादः। अनेकमेकात्मककरोति, तदाऽनवस्था-तावपि स्वभावान्तराभ्यां, तावपि मिति' काव्ये सामान्यविशेषवादः। सप्तभनयामभिवाप्याननिमास्वभावान्तराभ्यामिति । येनाऽऽत्मना सामान्यस्याधिकरणं प्यवादः, सदसद्वादश्च; इति न भूयः प्रयासः। इति काव्यार्थः॥२५॥ तेन सामान्यस्य विशेषस्य च,येन च विशेषस्याधिकरणं तेन इदानीं नित्यानित्यपक्षयोः परस्परपणप्रकाशनयकलकतया विशेषस्य सामान्यस्य चेति सङ्करदोषः । येन स्वभावेन सा- वैरायमाणयोरितरेतरोदीरितविविधहेतुडेतिसंनिपातसंजातमान्यं तेन विशेषः,येन विशेषस्तेन सामान्यामिति व्यतिकरः।। विनिपातयोरयत्नसिरुप्रतिपकप्रतिवेपस्य जगवच्गसनसाम्राततश्च वस्तुनोऽसाधारणाकारण निश्चतुमशक्तः संशयः । तत- ज्यस्य सर्वोत्कर्षमाहश्चाप्रतिपत्तिः, ततश्च प्रमाणविषयव्यवस्थाहानिरिति । एते च य एव दोषाः किल नित्यवादे, दोषाः स्याद्वादस्य जात्यन्तरत्वानिरवकाशा एव । श्रतः स्या- विनाशवादेऽपि समास्त एव । द्वादममवेदिभिरुद्धरणीयास्तत्तदुपपत्तिभिरिति, स्वतन्त्रतया निरपेक्षयोरेव सामान्यविशेषयोर्विधिप्रतिषेधरूपयास्तपामव परस्परध्वंसिषु कएटकेषु, काशात । अथवा विरोधशब्दोऽत्र प्रदोषवाची । यथा जयत्यधृष्यं जिन ! शासनं ते ॥ २६॥ विरुद्धमाचरन्तीति दुर्गमत्यर्थः। ततश्च विरोधेच्यो विरोध- किल्लेति निश्चये । य एव नित्यवादे नित्यैकान्तवादे दोषा अवैयधिकरण्यादिदोज्यो भीता इति व्याख्ययम् । एवं च नित्यकान्तवादिभिः प्रसज्जिताःकमयागपद्याभ्यामर्थक्रियाऽनुसामान्य शब्देन सवा अपि दोषव्यक्तयः संगृहीता भवन्तीति | पपत्यादयस्त एव विनाशवादेऽपि क्षणिकैकान्तवादेऽपि समाकाव्यार्थः ॥२४॥ स्तुव्या नित्यकान्तबादिभिःप्रसज्यमाना अन्यूनाधिकारी तथा हिअधानेकान्तवादस्य सर्वव्यपर्यायव्यापित्वेऽपि मूलभेदा:- | नित्यबाद। प्रमाणयति-सर्व नित्यं, सत्त्वात्। कणिके सदसत्काल- पेक्कया चातुर्विध्यानिधानद्वारेण भगवतस्तत्वामृतरसास्वाद- योरर्थक्रियाविरोधात्तलकणं सत्वं नावस्थां बनातीति । ततो Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३१) अणे गंतवाय अभिधानराजेन्दः । प्रोगंतवाय निवर्तमानमनन्यशरणतया नित्यत्वेऽवतिष्ठते । तथाहि-कणिको- गौ घटेते, न च पुण्यपापे घरेते, न च बन्धमोको घटेते । पुनः ऽर्थः सन् वा कार्य कुर्यादसन्वा?,गत्यन्तराभावात् । न तावदाद्यः | पुननः प्रयोगोऽत्यन्ताघटमानतादर्शनार्थः । तथाहि-एकान्तपक्का, समसमयवर्तिनि व्यापारायोगात्, सफल नावानां पर- नित्ये आत्मनि तावत्सुखदुःखनोगौ नोपपद्यते। नित्यस्य हि लक्क स्परं कार्यकारणभाषप्राप्त्याऽतिप्रसङ्गाश्च । नापिद्वितीयः पक्का णम्-'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वम्। ततो यदाऽऽत्मा सुखमकोदे क्षमते।असतः कार्यकरणशक्तिविकत्वात् । अन्यथा शश- नुनूय स्वकारणकलापसामग्रीवशाद दुःखमुपते, तदा स्वन्नाविषाणादयोऽपि कार्यकरणायोत्सहेरन्, विशेषाजावादिति । अ. वभेदादनित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्ग, एवं दुःखमनित्यवादी नित्यवादिनं प्रति पुनरेवं प्रमाणयति-'सर्व कणिक, नुभूय सुखमुपभुआनस्यापि वक्तव्यम् । अथावस्थाभेदादय सत्त्वात,अकणिके क्रमयोगपद्याज्यामर्थक्रियाविरोधात्,अक्रि. व्यवहारः । न चावस्थासु भिद्यमानास्वपि तद्वतो भेदः । याकारित्वस्य च भावलकणत्वात् । ततोऽर्थक्रिया व्यावर्तमाना सर्पस्येव कुएममार्जवाद्यवस्थासु इति चेत् । ननु तास्ततो स्वक्रोडीकृतां सत्तां ज्यावर्तयेदिति कणिकसिकिः। न हि नि- व्यतिरिक्ता अब्यतिरिक्ता वा ? व्यतिरेके तास्तस्यति संबन्धात्योऽर्थोऽर्थक्रियां क्रमेण प्रवर्तयितुमुत्सहते, पूर्वार्थक्रियाकरण- भावः, अतिप्रसङ्गात् । अव्यतिरके तु तद्वानेवेति तदवस्थितव स्वभावोपमर्दद्वारेणोत्तरक्रियायां क्रमेण प्रवृत्तेः, अन्यथा पूर्वक्रि. स्थिरैकरूपताहानिः । कथं च तदेकान्तैकरूपत्वेऽवस्थानेयाकरणाविरामप्रसङ्गात् । तत्स्वभावप्रच्यवे च नित्यता प्रयाति, दोऽपि नवेदिति । किञ्च । सुखपुःखभोगौ पुण्यपापनिर्बया, अतादवस्थ्यस्यानित्यतालवणत्वात् । अथ नित्योऽपि क्रमवर्ति- तन्निर्वर्तनं चार्थक्रिया , सा च कूटस्थनित्यस्य क्रमेणाकनं सहकारिकारणमर्थमुदीकमाणस्तावदासीत, पश्चात्तमासाद्य मेण वा नोपपद्यत इत्युक्तप्रायम् । अत एवोक्तम्-न पुण्यक्रमेण कार्य कुर्यादिति चेत् ।न । सहकारिकारणस्य नित्ये. पापे इति) पुण्यं दानादि क्रियोपार्जनीय शुभं कर्म । पापं हिंसाकिञ्चित्करत्वात् , अकिञ्चित्करस्याऽपि प्रतिक्कणेऽनवस्थाप्रस- दिक्रियामाध्यमभं कर्म । ते अपि न घरेते, प्रागुक्तनीतेः। तथा कात् । नापि योगपद्येन नित्योऽर्थोऽर्थक्रियां कुरुते , अध्यक्ववि- न बन्धमोक्तौ । बन्धः कर्मपुत्रैः सह प्रतिप्रदेशमात्मनो बहधरोधातू । नोककावं सकलाः क्रियाः प्रारजमाणः कश्चि- यांपामवदन्योन्यसंश्लेषः । मोक्तः कृत्स्नकर्मवयः। तावप्यकान्तदुपलभ्यते , करोतु चा, तथाऽप्याद्यकण पप सकलक्रियाप- नित्ये न स्याताम् । बन्धो हि संयोगविशेष:,स चाप्राप्तानां प्राप्तिरिसमाप्तद्धितीयादिक्षणेष्वकुर्वाणस्यानित्यता बादाढीकते; रिति लवणः। प्राक्कालभावनि अप्राप्तिरन्याऽवस्था। उत्तरकाकरणाकरणयारेकस्मिन् विरोधात् इति । तदेवमेकान्तद्वये | सभाषिनी प्राप्तिश्चान्यातदनयोरप्यवस्थाभेददोषो दुस्तरः। कथं ऽपि ये हेतवस्ते युक्तिसाम्या विरुद्धं न व्यनिचरन्तीत्यविचा- चैकरूपत्वे सति तस्याकस्मिको बन्धनसंयोगः?, बन्धनसंयोरितरमणीयतया मुग्धजनस्य ध्यानध्यं चोत्पादयन्तीति चिरुका गाचप्राक किं नाय मुक्तोऽभवती किञ्च तेन बन्धनेनासा वि. व्यभिचारिणो नैकान्तिका इति । अत्र च नित्यानित्यैकान्तपक्क- कृतिमनुभवति, न वा?। अनुभवति वेश्चर्मादिवदनित्यः । मानुप्रतिक्केप एवोक्तः। उपलक्षणत्वाश्च सामान्य विशेषाद्येकान्तवादा जयति चेन्निर्विकारत्वे सता असता वा तेन गगनस्येव न कोअपि मिथस्तुल्यदोषतया विरुद्धा व्यभिचारिण एव हेतूनुपस्पृ. उप्यस्य विशेषः । शति बन्धवैफल्यान्नित्यमुक्त एव स्यात् । तशन्तीति परिभाबनीयम् । अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते-(परस्परे- तश्च विशीर्णा जगति बन्धमोकव्यवस्था । तथा च पठन्ति-"वत्यादि ) एवं च कएटकेषु कुछशत्रुषु एकान्तवादिषुपरस्परध्वं- तपाभ्यां कि व्योम्न-इचमण्यस्ति तयोः फलम चोपमश्चेसिषु सत्सु परस्परस्मात ध्वंसन्ते, विनाशमुपयान्तीत्येवंशीसाः, सोऽनित्यः, खतुल्यश्चेदसत्फलः"॥१॥बन्धानुपपत्तौ मोकसुन्दोपसुन्दवदिति परस्परध्वंसिनः,तेषु,हे जिन ते तव,शासनं स्याऽप्यनुपपत्तिबन्धनविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तिःशब्दस्येति । एवस्याद्वादप्ररूपणनिरूपणं द्वादशात्रीरूपं प्रयचनं पराभिनायकानां मनित्यैकान्तवादेऽपि सुखदुःखाद्यनुपपत्तिः । अनित्यं हि अत्यकएटकानां स्वयमुस्चिन्नत्वेनैवाभावादधृष्यमपराभवनीयम् । 'श- न्तोच्छेदधर्मकम् । तथालते चात्मान पुण्योपादानाक्रयाकारिकाहे कृत्याश्च (५।४।३५)शत हैमसू कृत्यविधानाद धातुमश- णो निरन्बयं विनष्टत्वात् कस्य नाम तत्फलभूतसुखानुभवः ।। क्यं धर्षितुमनई वा,जयति सर्वोत्कर्षण वर्तते। यथा कश्चिन्महा एवं पापोपादानक्रियाकारिणोऽपि निरवयवनाशे कस्य दुःखराजः पीपरपुण्यपरीपाकः परस्पर विगृह्य स्वयमेव कयमपेयिद- संवेदनमस्तु ? । एवं चान्यः क्रियाकारी,अन्यश्च तत्फलभोक्तेत्सु द्विषत्सु अयत्नसिद्धनिष्कण्टकन्वं समकं राज्यमुपनुजानः | त्यसमञ्जसमापद्यते । अथ " यस्मिन्नेव हि सन्ताने, प्राहिता सर्वोत्कृष्टो नवत्येवं स्वच्ासनमपी ति काव्यार्थः ॥ २६॥ । कर्मवासना । फसं तत्रैव संधत्ते, कर्पासे रक्तता यथा"॥१॥ इति अनन्तरकाव्ये नित्यानित्यायेकान्तवादे दोषसामान्यमभिहित-| वचनान्नासमञ्जसमित्यापेवाइमात्रम, सन्तानवासमयारेवास्तम् । इदानी कतिपयतद्विशंषानामग्राहं दर्शयंस्तत्प्ररूपका- वत्वेन प्रागेव नियोजितत्वात् । तथा पुण्यपापे भपिन घटेते। त. रणमसद्भतोद्भावकतयोवृत्ततथाविधरिपुजनजनितोपज्यमिव योह्यक्रिया सुखदुःखोपनोगः। तदनुपपत्तिश्चानन्तरमेवोक्ता, परित्रातुर्धरित्रीपतेत्रिजगत्पतेः पुरतो नुवनत्रयं प्रत्युपकारका ततोऽर्थक्रियाकारित्वाऽभाचात्तयोरप्यघटमानत्यम् । किञ्च । रितामाविष्करोति अनित्यः कणमात्रस्थायी, तस्मिश्च वणे उत्पत्तिमात्रव्यग्रत्वात् तस्य कुतः पुण्यपापोपादनाक्रयाऽर्जनम् ? । दितीयादिकणेषु नैकान्तवादे सुखदुःखभोगी , चावस्थातुमेव न लभते, पुण्यपापोपादानक्रियानावे च न पुण्यपापे न च बन्धमोती । पुएयपापे कुतः ?, निर्मूलत्वात् तदसत्त्वे च कुतस्तमः सुखदुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं , दुःख जोगः । श्रास्तां वा कथञ्चिदेतत्, तथाऽपि पूर्वकणस. परैर्विसुप्तं जगदप्यशेषम् ।। २७॥ दृशेनोत्तरकणेन भवितव्यम्, उपादानाऽनुरूपत्वादुपादेयस्य । ततः पूर्वकणाद दुःखितादुत्तरवणः कथं सुखित नत्पद्यते?, कथ एकान्तवादे नित्याऽ नित्यैकान्तपक्षान्युपगमे, न सुखदुःखमो- च सुखिताततः स दुःखितः स्यात्; विसरशनागता.ऽऽपत्तेः। Jain Education Interational Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३१ ) अभिधानराजेन्द्रः । अतो गंतवाय एवं पुण्यपापादावपि । तस्माद् यत्किञ्चिदेतत् । एवं बन्धमोहयोरयसंभवः । लोकेऽपि हि य एव वरुः स एव मुच्यते । निरत्वनाशाभ्युपगमे चैकाधिकरणत्वाभावात्सन्तानस्य चावास्तवस्वात् कुतस्तयोः संभावनामात्रमपीति ? । परिणामिनि चात्मनि स्वीक्रियमाणे सर्वे निर्वाधमुपपद्यते । "परिणामोऽवस्थान्तर-गमनं न च सर्वथा ह्यवस्थानम् । न च सर्वधा विनाशः, परिणाम दामिष्ठः ॥ १॥ इति वचनात् पातका कारोप्याह"अवस्थितस्य यस्य पूर्वधर्मनिवृती धर्मान्तरोत्पतिः परि णामः " इति । एवं सामान्यविशेष सदसदभिलाप्याऽननि कान्तादेः स्वयमनिरभ्यूः । श्रथोत्तरार्द्धव्याख्या - एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखदुःखभोगादिव्यवहारे पर परतीथि परमार्थत शब्द दिशोऽस्ति दुखनासिना) नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नमाः, दुष्टा नीतयो दुतियो दुर्नयाः तेषां वदनं परेभ्यः प्रतिपादनं नीतिवादः तत्र यद् व्यसनमत्यासहिरीच स्थनिरपेक्ष प्रवृत्तिरिति यावतः दुर्भीतिपादद्व्यसनम् त देव सद्बोधशरीरोच्छेदन कियुक्तत्वादसिरियासिः कृपाण दुनीयाः तेन दिव्यसनासना करण तेन दुर्नयप्ररूपण वाकखन । एवमित्यनुभवसिद्धं प्रकारमा । अपि शब्दस्य भिमरादशेषार्थ जगनिखिलमपि त्रैलोयम् तत्तद्वापदेश इति बिलु शब्द सम्पन्नानादि नाथप्राव्यपरोपेण व्यापादितम ता यस्वेत्याशयः । सम्यग्ज्ञानादयो हि भावप्राणाः प्रावचनिकैर्गीयन्ते । श्रत एव सिद्धेष्वपि जीवव्यपदेशः । अन्यथा हि जीवधातुः प्राणधारणार्थेऽभिधीयते तेषां दशविप्राण धारणाभावादजीवत्वप्राप्तिः । सा च विरुद्धा । तस्मात्संसारियो दशविषद्रव्य प्राणधारणाज्जीयाः सिद्धाश्य ज्ञानादिभा पत्राचारादिति सिद्धम् स्वरूपं चोरकाव्ये व्याख्यास्यामः । इति काव्यार्थः ॥ २७ ॥ स्या० । वस्तुगोऽमियत सदसड़पत्यमनेकान्तजयपताकाय - पपादि परं तखस्यातिसंमित्येन दुरात्सम्मतिप्रभू तितार्थस्याचारमानिरोकितम् । अनेक जयपताका वृतिविव। (४) एकान्तेन सबै वस्तु सदिति तु न युक युक्तिश्या बतावदुष्यतेाभावे सर्वेसर्वा कलाकारप्रतिबन्धानाति तद्यु यतो भेदेन सुखदुःखजीविनमरणदूरास असूपरूपा दिकं संसारवैयमयणानुते ननुपपनाम न च सर्व मिथ्येत्यभ्युपपनं युज्यते, यतो दृष्टहानिरदृष्टकल्पना च पाकिञ्च सर्वयज्युपगम्यमाने संसारमोकाजाव तथा कृतनाशोऽकृताभ्यागमा जादापति चेत्रज स्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानमित्येतत्सर्वस्य जगतः कारसरितः प्रत्येयन्ति निर्मुकि सर्वथा सर्वस्य वस्तुन एकत्वेऽभ्युपगम्यमाने सत्वरजस्तमसामध्येकत्वं स्यात् । तद्भेदे व सर्वस्य भेद इति । तथा यदप्युच्यतेसभ्यस्य व्यकस्यप्रधान कार्याकार्ययादवाच्य मयूराएमकरणे खुपादीनां सतामेवोत्पादाज्युपगमादसमुत्पादे चाकमा नाम निसाहित्येतद्धयाम् तथाहि पि सर्व कारने कार्यमस्ति न तत्पाद निष्यन्नघटस्यः अपि - गंतवाय स्थायामेव पटताः कर्मगुणव्यपदेशः भवेयुः न च भवन्ति, ततो नास्ति कारणे कार्यम् । अथाऽनभिव्यतमस्तीतिचेतनाऽप्येकान्तेन सत्कार्यवाद एय सद्भावे हि पोमारविन्दानामप्येकान्तेनासतो स्थिमादेर्घादवोत्पतिः तः स्यात् । न चैतद् दृष्टिं वा । अपि चैवं सर्वस्य सर्वमादत्यन्तेः कार्यकारणवानियमः स्यात् । प 1 शायरार्थी शालिवीजमेवाऽऽद्यापि तु यत्किञ्चिदेवेति नियमेन विज्ञापूर्वकारिणमुपादानकारणादीना सत्कार्यवादइति सर्वदां सर्वमेत्यादिभि धर्म देकर तथा प्रतिनियतार्थ कार्यतया यचार्थकयाकारि देव परमार्थतः खदिति कृत्वा कदा मान्यविशेषात्मक परिस्थितम् अनेन नास्तीति भङ्गकद्वयेन शेषभङ्गका अपि द्रष्टव्याः । ततश्च सर्वे यस्तु सप्तभङ्गीस्वज्ञाय ते वामी स्वज्यक्षेत्रका नाचापेक या स्यादस्ति परच्यापेक्षा स्वास्यास्ति धनयोरेव धर्म योयीगपद्येनाभिधातुमशक्यत्यात्स्यायम्यम्। तथा कस्यचिदंशस्य स्वव्याद्यपदेया विवक्तित्यात्, कस्यचिच्चांशस्य परव्याद्य पापा देति तथैकस्यांशस्य स्वण्या द्यपेक्षया परस्य तु सामस्त्येन स्वव्याद्यपेक्षया विवचितत्वाद स्वादस्ति तितकांशस्य परस्याद्यपेया स्यान्नास्ति चावक्तव्ये चेति । तथैकस्यांशस्य स्वव्याद्यापकया, परस्य तु परद्रव्याद्यपेक्षया, अन्यस्य तु यौगपद्येन स्वपररूव्याद्यपेक्षया विवक्तित्वात् स्यादस्ति च नास्ति चाश्वक्तव्यम् । इयं च सप्तभङ्गी यथायोगमुत्तरत्राऽपि योजनीयेति । सूत्र० २ श्रु० ॥ श्र० । (६) कालाकान्तवादोऽपि मिथ्यात्वमेवेत्याहकालो सहावविई, पुण्यकर्य पुरिसकारोगता । मिच्छतं तो चेवा, समासयो होति सम्मत्तं ॥ १४६ ॥ कालस्वभाव नियतिपूर्वपुरुषकारणका एकान्ताः सर्वे एकका मिथ्यात्वम् ; त एव समुदिताः परस्पराजहद्वृत्तयः सम्यक्त्वरूपतां प्रतिपद्यन्त इति तात्पर्यार्थः ॥ १४०॥ ( सम्म) पं०व० तन कालादेकान्ताः प्रमाणतः संभवन्तीति तद्वादो मिथ्यात्ववादस्थिताऽम्बोम्यन्यपेक्षा त्या काव्यपदेनेकानेकस्वभावाः कार्यनिर्वर्तनपदः प्रमाणविषयतया परमार्थतः सन्त इति तत्प्रतिपादकस्य शास्त्रस्यापि सम्यक्त्वमिति तद्वादः सम्यग्वादतया व्यवस्थितः । यथैते कालाद्येकान्ताः मिध्यात्वमनुभवन्ति स्याद्वादोपटात पव सम्यक्त्वं प्रति पद्यते तथाऽऽत्मा च्येकान्त नित्यानित्यत्वादिधर्मात मिथ्यात्रम् अनेकान्तरूपतया त्वभ्युपगम्यमानः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत इत्याह रात्यिाशियो कृष्ण, कथं वे स्थिशिवाएं। पात्य व मोरखीवाओ, वं छितर गणा ।। १५० ।। नात्यात्मा एकान्त इति सांख्याः । अत एव प्राहुः यः कर्त्ता, स न भोक्ता, प्रकृतिवत् कर्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेः । यद्वा-येन कृतं कर्मन , कित्याच तासन्तनः कृतं न यत इतिवादी 1 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३३) अणेगंतवाय अनिधानराजेन्यः । अयोगंतवाय भोक्ता चात्मा किन्तु न मुच्यते , सचेतनत्वात् , अन्नव्यवत् , | दिप्रमाणावसेये सदसदामके वस्तुनि कस्यचिद्विरोधस्यासं. रागादीनामात्मस्वरूपाव्यतिरेकात, तदक्वये तेषामप्यतयादिति भवात् । न चाप्रसिविशेषणः पक्क, बौकिकपरीककैस्तथाभू. ज्ञायिकः। निहतुक एवासौ मुच्यते , तत्स्वभावताव्यतिरेकेण तविशेषणस्यापि प्रतिपत्या सर्वत्र प्रतीतेरन्यस्य वा विशेषणपरस्य तत्रोपायस्थानावादिति मएमतीप्राह । एतानि षट् मिथ्या- व्यवहारस्योच्छेदप्रसङ्गात् । अन्यथासूतस्य क्वचिदप्यसंभवात्वस्य स्थानानि, पलामप्येषां पक्षाणां मिथ्यात्वाधारतयाव्य- त्तथासूतविशेषणात्मकस्य धर्मिणः सर्वप्रतीतेनाप्रसिविशेष्यबस्थितेः। तथाहि-एतानि नास्तित्वादिविशेषणादीनि साध्यध- तादोषः। नाप्यप्रसिझोभयता दूषणम्; तथान्तद्वयव्यतिरेकेणामिविशेषणतयोपादीयमानानि किं प्रतिपक्षब्युदासेनोपादीय- न्यस्यासत्वतःप्रमाणाविषयत्वहेतुरपि नाप्रसिद्धः तत्र तस्य सन्ते?, आहोस्थित् कथंचित्तत्संग्रहणेति कल्पनाद्वयम् । प्रथम- स्वप्रतीतेः। विपके सत्वासनवान्नापि विरुरूः। अनैकान्तिकताs. पक्षे-अध्यक्षविरोधः, स्वसंवेदनाध्यक्षतश्चैतन्यस्यात्मरूपस्य प्यत पवायुक्ता। दृष्टान्तदोषा अपि साध्यादिविकलवादयो नात्र प्रतीतिः,कथञ्चित्तस्य परिणामनित्यताप्रतीतेश्व,शरीरादिव्या- संजविनः, असिकत्वादिदोषवत्येव साधने तेषां नावात् । नानुपारतः कर्तृत्वोपलब्धश्च, स्वव्यापारनिर्वर्तितभक्तरूपादिभो- मानतोऽनेकात्मक वस्तु तद्वादिभिः प्रतीयते । अध्यक्वसिकत्वा. क्तृत्वसंवेदनाच, पुजललक्षणतया, रागादिव्यक्ततया च, शमः | द्वस्तुप्रतिपत्तेरपि ततस्तस्मिन् विप्रतिपद्यते। तं प्रति तत्प्रसिद्ध सुखरसावस्थायां कथञ्चित्तस्योपलब्धेश्च । स्वोत्कर्षतरतमादि- नैब न्यायेनानुमानोपन्यासेन विप्रतिपत्तिनिराकरणमात्रमेव घिभावतो रागाापचयतरतमभावविधायिसम्यम्झानदर्शनादेरु- धीयत इति नामसिक विशेषणत्वादिदोषस्थावकाशः । प्रतिक्कपलम्भाश्चानुमानतोऽपि विरोधः। तथाभूनशानकार्यान्यथाऽनु- णपरिणामपरभागादीनां तूरुविकारार्वाग्भागदर्शनाऽन्यथाऽपपत्तिचैतन्यलक्षणस्यात्मनः सिद्धिर्घटादिवत् रूपादिगुणतः | नुपपद्यामानेनाध्यकादिवाधादस्मदायकस्य सर्वात्मना वस्तुमानस्वरूपगुणोपलम्भात् कथञ्चित्तदभिन्नस्याऽऽत्मलक्षण- ग्रहणासामर्थ्यात् स्फटिकादौ चार्वाग्नागपरनागयोरध्यक्त स्य गुणिनः सिद्धिरिति नानुमानविरोधः, इतरधर्मनिरपे-| एवैकदा प्रतिपत्तेरनवस्थैर्यग्राह्यध्यक्ष प्रतिवणपरिणामानुमानेन तधर्मलक्षणस्य विशेषणस्य तदाधारभूतस्य च विशेष्यस्याप्र- विरुष्यते; अस्य सदनुग्राहकत्वात्, कथञ्चित्प्रातिकणपरिणामसिद्धेः । अप्रसिद्ध विशेषणविशेष्योभयदोषैर्दुष्टश्च पक्षात्मेति स्य तत्प्रतीतस्यैवानुमानतो विनिश्चयात् । बचनेन, तत्सत्ताभिधानं नास्तीत्यनेन च,तत्प्रतिषेधाभिधान- अनेकान्तव्यवच्छेदकान्ताऽबधारिधर्माधिकरणत्वेन पदयोः प्रतिज्ञावाक्यव्याघातो लोकविरोधश्च । तथाभूत. धर्मियं साधयन्नकान्तवाद। न साधर्म्यतः विशेषणविशिष्टतया धर्मिणो लोके तद्व्यवह्रियमाणत्वात् ___ साधयितुं प्रभुापि वैधयंत इति स्ववचनविरोधश्च। तत्प्रतिपादकवचनस्येतरधर्मसापेक्षतया प्रतिपादयन्नाहप्रवृत्तेहेतुरपीतरनिरपेक्षकधर्मरूपोऽसिद्धः, तथाभूतस्य तस्य [७] साधर्म्यतो वैधयंतश्च साध्यसिद्धिः । कचिदनुपलब्धेः सर्वत्र तद्विपरीत एवाभावात् । विरुद्धश्व साहम्मश्रो व्व अत्यं, साहिज्ज परो विहम्मओ वा वि। रटान्तः, साधनधर्माधिकरणतया कस्यचिद्धर्मिणोऽप्रसिखे। तन्न प्रथमः पतः। नापि द्वितीयः, स्वाभ्युपगमविरोधप्रस. पएणोमं पमिकुछा, दोस वि एए असव्वाया ॥ १५२ ।। मात, साधनवैफल्यापत्तेश्च तथाभूतस्यानेकान्तरूपतयाऽस्मा समानस्तुल्यः साध्यसामान्यान्वितसाधनधर्मो यस्यासौ सभिरप्यभ्युपगमात् तस्माद्यवस्थितमेतदेकान्तरूपतया षडप्ये. धर्मा,साधर्म्यदृष्टान्तापेक्कया साधर्मी,तस्य भावः साधर्म्यम,ततो तानि। तद्विपर्ययेणाप्येकान्तवादे तथैव तानीति दर्शयनाह वार्थ साध्यधर्मादिकरणतया धर्मिणं साधयेत्परः, अन्यायहेतु प्रदर्शनात् । साध्यधर्मिणि विवक्षितं साध्यं यदि वैशेषिकादि साअस्थि अविणासधम्मा, करेश्वेएइ अस्थि णिवाणं । धेयत,तदातत्पुत्रत्वादेरपिगमकत्वं स्यात् अन्वयमात्रस्य तत्रा. अत्यि भ मोक्खोवाओ, मिउत्तस्स ठाणाई॥१५१॥ पि भावात्। अथ वैधाद् विगतस्तथाभूतसाधनधो ह्यस्माप्रस्त्यात्मेति पकः पुरणादेर्वादिनः।स चाविनाशधर्मी, एषा प्र- | दसौ विधर्मा, तस्य भावो वैधर्म्यम्, ततो वा व्यतिरेकिणो हेतोः तिज्ञा कलमतानुसारिणः।कर्तृमोक्तृस्वभावोऽसाविति मतं जै- प्रकृतं साध्यं साधयेत्, उभाज्यां वा ; याशम्दस्य समुच्चयार्थमिने। तथाभूत एवासी जमस्वरूप इत्यवपादकणचकमतानु- स्वात् । तथापि पुत्रत्वादेरेव गमकत्वप्रसक्तिः। श्यामयाभाव व सारिणः अस्ति निर्वाणमस्ति च मोक्कोपाय इत्यामनन्ति नास्ति- तत्पुत्रत्वादेः,अन्यत्र गौरपुरुषे अनावात, उभाभ्यामपि तत्साधने। कयाक्रिकव्यतिरिक्ताः। पाखएिमन एते चान्युपगमाः एकान्तेन अत एव साध्यासिरुिप्रसक्तिः स्यात्। अथाऽत्र कालात्ययापदिष्ट तदस्तित्वावरायक्वानुमानास्यामप्रतीते तथाऽभ्युपगमे च स्वा- स्वादिदोषसद्भावान साध्यसाधकताप्रसक्तिः, असिरुविरुकानस्तित्वेनेवान्यभावास्तित्वेनापि तस्य भावात सर्वजावसंकीर्ण- कान्तिकहे त्यानासमन्तरेणापरहेत्वानासासंभवात् । न च त्रैरूताप्रसक्तेः, स्वस्वरूपाव्यवस्थितेः स्वपुष्पबदसस्वमेव स्यात, प्यसकणयोगिनोऽसिद्धत्वादिहेत्वाभासता कृतकत्वादेरिवानिइत्यादि दूषणमसात् प्रतिपादितम् । हेतुरष्टान्तदोषाश्च पूर्व- त्यत्वसाधने संभवति । अस्ति च भवदभिप्रायेण त्रैरूप्यं प्रजत्रापि धाच्याः।चतुर्थपादं तु गाथायाः केचिदन्यथा पति- कृतहताविति कुतोऽस्य हेत्वाभासता? । अथ भवत्वयं दोषः, 'कस्सम्मत्तस्स गणाई ति'। अत्र तु पाने इतरधर्मा जहवृत्या येषां त्रैरूप्ये ऽविनानावपरिसमाप्तिः, नास्माकं च सकणहेतुप्रवर्तमाना पते षट् पक्काः सम्यक्त्वस्याधारतां प्रतिपद्यन्त इति वादिनाम् : प्रकरणसमादेरपि हेत्वाभासत्वोपपत्तेः श्रलकण्यव्याख्येयमानच स्यादस्त्यात्मा नित्यादिप्रतिज्ञावाक्यमध्यक्का- सद्भावेऽप्यपरस्यासत्प्रतिपक्वत्वादे तुलवणस्यासमवे तदा'दिना प्रमाणेन बाध्यते, स्वपरजावानासकाध्य क्वादिप्रमाणव्य- | भासत्यसंजवात् , 'यस्मात्प्रकरणचिन्ता स प्रकरणसमः' इति तिरेकेणान्यथाभूतस्याऽभ्यवादेरप्रतीतेः। तेनानुमानाभ्युपगमात प्रकरणसमस्य लक्षणाभिधानात । प्रक्रियेते साध्यत्वेनाऽधिक्रिस्ववचने लोकस्य व्यवहारविरोधोऽपि न, प्रतिक्षाया अध्यक्का येते निश्चिती पक्रप्रतिपको यौ तौ प्रकरणम्,तस्य चिन्ता संशया Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३४) मणेगंतवाय अनिधानराजेन्द्रः। प्रयोगंतवाय त् प्रवृत्त्यानिश्चयादालोचनस्वभावतो भवति । स एव तन्नि-| रन्तर्भाव अनित्यवादिनो नित्यधर्मानुपलब्धेरितरस्य चेतरधश्वयार्थ प्रयुक्तः प्रकरणसमः, पक्रयेऽपि तस्य समानत्वात । | मानुपलब्धेसिकत्वात् । असदेतत् । यतश्चिन्तासंबन्धिपुरुउभयत्रान्वयादिसद्भावात् । तथाहि तस्योदाहरणम-अनित्यः षेण समस्य हेतुत्वेनोपन्यासस्तस्य च तत्संबन्धिनो वा कथशब्दः, नित्यधर्मानुपलब्धेः, अनुपयन्यमाननित्यधर्मकं घटाद्य- मितरेणासिद्धतोद्भावनं विधातुं शक्यम् । यस्य पनुपसब्धिान नित्यं ष्टम, यत्पुन नित्यं न तदनुपनयमाननित्यधर्मकं यथा- मित्तसंशयोत्पत्तौ शब्दे नित्यत्वजिज्ञासा,स कथमन्यतराऽनुपमऽऽत्मादि । एवं चिन्तासंबन्धिपुरुषेण तस्वाऽनुपलब्धेरेकदेश- ब्धे हेतुप्रयोगेऽसिद्धतां घूयात् श्रतएव सत्रकारेण यस्मात्प्रकरणभूताया अन्यतरानुपलब्धेरनित्यत्वसिकौ साधनत्वेनोपन्यासे चिन्ता,श्त्यसिम्तादोधपरिहारार्थमुपात्तम् । एवमनित्यः शब्दः' सति द्वितीयश्चिन्तासंबन्धिपुरुष प्राह-यद्यनेन प्रकारणानित्यः सपकपक्कयोरन्यतरत्वाद् घटवदिति चिन्तासंबन्धिना पुरुषेणावंसाध्यते तर्हि नित्यतासिकिरपिअन्यतरानुपलब्धेस्तत्रापि स- केपरस्तत्संबन्धाश्वित्यः शम्बः पक्कसपक्कयोरन्यतरत्वादाकाशभावात् । तथाहि-नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपश्नग्धेः , अनुपल- बत् यदाह। तया प्रकरणसम एव पत्र प्रेरयन्ति-पक्कसपक्कयोरन्यभ्यमानानित्यधर्मकं नित्यं दृष्टमात्मादि । पुनर्यत् न नित्यं तन्नानु- तरः पक्कः, मपक्को वा यदि पक्क, तदान हेतोः सपक्कषिता पलभ्यमानानित्यधर्मकं, यथा घटादि । एवमन्यतरानुपनम्धरुभ- नहिशमस्य धर्मान्तरे वृतिः संनवीत्यसाधारणतैवास्य हेतोः वपके साधारणत्वात् प्रकरणानतिवृत्तेहेत्वाभासत्वम्। नच नि- स्यात् । अथ पत्तोऽन्यतरशब्दवाच्यस्तदा हेतोरसिम्ता । चितयोःपकप्रतिपकपरिग्रहेऽधिकारात् कथं चिन्तायुक्त एवं सा- सपक्कयोघंटाकाशयोः शब्याख्यधर्मिण्यप्रवृत्तिरसिऽन्तर्भूतधनोपन्यासं विदभ्यादिति वक्तव्यम,यतोऽन्यदा संदेहेऽपिचिन्ता- स्यास्य न प्रकरणसमता नच पक्कसपक्कयोर्व्यतिरिक्तःकश्चिदसंबन्धिपुरुषोऽन्यतराऽनुपाब्धेःपक्कधर्मान्वयव्यतिरेकानवगच्छ- न्यतरशम्दवाच्यः, यस्य परधर्मतास्वयश्च भवेत्, सायं देतुः। स्तबलात्स्वसाध्यं यदा निश्चिनोति, तदा द्वितीयस्तामेव स्वसा- प्रत्र प्रतिविदधति-भवेदेष दोषो यदि परयोविशेषशब्दषाच्यभ्यसाधनाय हेतुत्वेनाभिधते । यद्यतस्त्वत्पक्कसिफिरत एव मत्प- योतुत्वं विवक्तितं भवेत् , तशन भन्यतरशब्दाभिधस्यैव कसिद्धिःकिंन भवेत् १; त्रैरूप्यस्य पक्कद्वयेऽप्यत्र तुल्यत्वात् । अथ हेतुत्वेन विवक्तित्वात् । स च पक्कसपक्कयोः साधारणः, तस्यैव नित्यत्वानित्यत्वैकान्तविपर्ययेणाभ्यस्याः प्रवृत्तेरनैकान्तिकता। साधारणशबानिधयत्वात् । यदिवाऽनुगतो योर्धर्मः कश्चिनउन्नयवृत्तियनैकान्तिको न प्रकरणसमानयत्र पकसपकविपक्षा- मवाच्यो न नवेत्तदा विशेषशब्दपदन्यतरशब्दोऽपि न तत्र णां तुल्यो धर्मों हेतुत्वेनोपादीयते तत्रसंशयहेतुता;साधारणत्वेन प्रवर्तते, नाऽपि तच्छब्दादुभयत्र प्रतीतिर्भवेत् । दृश्यते, तस्मातस्य विरुरूविशेषानुस्मारकत्वात्। नतु प्रकृतपर्वविधःायतोनित्य- स्पकर्ता सपक्कतां चासाधारणरूपत्वेन कल्पितां परित्यज्यान्यतधर्मानुपमम्धरनित्य एव भावो न नित्ये, पवमनित्यधर्मानुपलब्धे- रशब्दो योरपि वाचकत्वेन योग्यः। ततो या विशेषप्रतीतिःसा नित्य एव नावो नानित्ये। एवं चात्र साध्ये विपकव्यावृत्तिः प्रकर- पुरुषविववानिबन्धना। यदा हि साधनप्रयोक्ता पकधर्मत्वमस्या जसमता,नानकान्तिकतापकष्यवृत्तित्वेनतस्या भावात्न यद्ययं विवकति तदाऽन्यतरशब्दवाच्यः पक्कः सपकेऽनुगमविशेषापकच्ये तदा साधारणाऽनैकान्तिकः। अथ नवर्तते कथमयं पक्क- भिधाय स्यात् । यतोऽलोकव्यवहाराचदार्थसंबन्धव्युत्पत्तियसाधकःस्थात्, अतकृतेरतत्साधकरवातानपकवये प्रकृत. स्तत्र च पशब्दस्य न सपके प्रवृत्तिः । नाऽपि सपक्वशब्दस्य स्य वृस्यम्युपगमात् । तथाहि-कथं साधनकालेऽनित्यधर्मानुपल- पके। यथा वाऽनयोःसङ्केतादपि नान्यत्र प्रवृत्तिरेवमन्यतरशम्दधिर्वर्तते न नित्ये । यदापि नित्यत्वं साध्यं तदाऽपि नित्यपक्क- स्य सामान्ये सडेतितस्य न विशेष एव वृत्तिः।उभयाभिधायकत्वे एवानित्यधर्मानुपलब्धिर्वर्तते माऽनित्ये । ततश्च सपक एव तु विवकावसानाऽन्यतरनियमः। न चैवमपि विशेषे तस्य पनी प्रकरणसमस्य वृत्तिः, सपकषिपक्षयोश्वानकान्तिकस्य साध्या- दूषणम्,तदवस्थायामेवं दोषोद्भावने कस्यचित् सम्यग्रहतूपपते। पेकसपतविपकव्यवहारः, नाऽन्यथा, तेने साध्यवयवृत्तिरुनय- कृतकत्वादेरपि पक्कधर्मत्वविवकायां विशेषरूपत्वादनुगमानासाध्यसपक्कवृत्तिश्च प्रकरणसमो, न तु कदाचित्साध्यापेक्कया वात्। सपकाविशेषितस्य पक्कधर्मत्यायोगात्। अथरुतकत्वमात्रविपकवृत्तिः। अनैकान्तिकस्तु-विपक्षवृत्तिरपीत्यस्मादस्य नेदः। स्य हेतुत्वेन विधवातोन दोषः, तर्हि तत्प्रकृतेप्रपतुल्यमा अन्यनच रूपत्रययोगेऽप्यस्य हेतुत्वम्, सप्रतिपक्वत्वात् । यस्य तुक- तरशब्दस्याप्यनगीकृतविशेषस्य द्वयाऽभिधाने सामोपपपाचित्साध्यापेकया विपकवृत्सिरनेकप्रतिबन्धपरिसमाप्तिरूपत्र- तेः। एतेन यदुक्तं न्यायपिद अनार्थः खल्याप कल्पनासमारोपितो ययोगे , तेन प्रकरणसमस्य नाहेतुत्यमुपदर्शयितुं शक्यम् । न | न लिङ्गात् तथा पक्क एवायं पक्कसपकयोरन्यतर इत्यादि । तदबाऽस्य कालात्ययापदिष्टत्वमबाधितविषयम् । ययोहि प्रकर- पिनिरस्तम् । त्रैरूप्यसद्भावेऽपिप्रकरणममत्वेनास्यागमकत्वात्। गचिन्ता तयोरयं हेतुः । न च ततः संदिग्धत्वाद् बाधामस्यो- प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तः कालास्ययापदिष्टोप पदर्शयितुं कमः । न च हेतुद्वयसभिपातादेकत्र धर्मिणि | हेतुत्वानासोऽपरोऽभ्युपगतः। यथा-पकान्येतान्याम्रफलानि,पकसंशयोत्पत्तेस्तजनत्वेनास्यानकान्तिकतया तेन संशयहेतुताऽनै शाखाप्रनषत्वात् उपयुक्तफलवत् । अस्य हि रूपत्रययोगिनोऽपि कान्तिकत्वम , इन्द्रियसनिकर्षादेरपि तथात्वप्रसक्तेः । न च त. प्रत्ययबाधितकर्मानन्तरप्रयोगात् ।अपविष्टतागमकन्ये निबन्धन स्वानुपलब्धिर्विशेषस्मृत्यादिश्चान्या संशयकारणम् न च तत्स हेतोः कामाइष्टकर्मानन्तरं प्रयोगः । प्रत्यक्कादिविरुरूस्य तुटकहिताया अस्या हेतुत्वम् केवमाया एव तस्वेनापन्यासात् । न च मानन्तरं प्रयोगातकासव्यतिक्रमेण प्रयोगः । तस्माच कालासंदिग्धविषयनान्तपुरुषेण निश्चयार्थमुपादीयमानाया अस्याः | त्ययापदिएशम्दानिधेयता हेत्वाभासता च। तदुक्तं न्यायभायकसंदेहहेतुतायुक्ता। नवतु वा कथञ्चिदतःसंशयोत्पत्तिः, तथाऽप्यः | ता-"यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्तागमविरुकं न्यायाभासः सः" इति । नैकान्तिकादस्य विशेषः। स हि सपकविपक्कयोः समानः,अयं तु तदेवं पञ्चसक्कणयोगिनि हेतावधिनानावपरिसमाप्तः।तत्पुत्रत्वातद्विपरीतः, साध्यवयवृत्तित्वात्तु प्रकरणसमः। न चासंभवः, दौतु त्रैलक्कएयेऽपिकालात्ययापदिष्टत्वान्न गमकत्वमिति नैयायिअस्यैवंविधसाधनप्रयोगस्य जान्तेः सद्भावात् । मथास्यासिके । काः। असदेतत् । असिकादिव्यतिरेकेण परस्य प्रकरणसमावेहे Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३५) ग्रणेगंतवाय अभिधानराजेन्द्रः। प्रणेगंतवाय स्वानासस्याप्योगात्। यश्च प्रकरणसमस्यानित्यःशब्दोऽनुपझज्य- त्वात्। नहि तत्र तथानूतहेतुनिश्चयादपरस्तस्यासाध्यप्रतिपादनमाननित्यधर्मकत्वादिन्युदाहरणं प्रदर्शितम्।तदसंगतमेव। यतो. व्यापारः । अत एव निश्चितप्रतिबन्धैकहेतुसद्भावे धर्मिणि न ऽनुपलभ्यमाननित्यधर्मकत्वं यदि नततःसिकं तदा पक्कवृत्तितया. विपरीतसाध्योपस्थापकस्य तल्लकणयोगिनो हेत्वन्तरस्य सऽस्यासिकेः कथं नासिद्धः। अथ तत्र सिकं तदा किसाभ्यधर्मि- द्भावः। तयोईयोरपि स्वसाध्याविनानुतत्वान्नित्यानित्यत्वयोश्च. त्वेनर्मिणि तत्सिम्म उत तद्विका इति वक्तव्यम्।यदितदन्विते कत्रैकान्तवादिमतेन विरोधादसंजवात्, तद्यवस्थापकहेत्वोतदा साध्यवत्येव धर्मिणि तस्य सद्भावसिक कथमगमकता?ान रप्यसंभवस्य न्यायप्राप्तत्वात । संभवे वा तयोः स्वसाध्याविनाहिसाध्यधर्ममन्तरेणाधर्मिनधनं विहायापरं हेतोरविनाभावित्वं नित्यत्वधर्मयुक्तत्वं धर्मतः स्यादिति कुतः प्रकरणसमस्या:भवेत् । तत् समस्तिकथं नगमकता?,विनाजावनिबन्धनत्वात् गमकता । अन्यतरस्यात्र स्वसाध्याविनामावविकलता तर्हि तत तस्याः । अथ तद्धि कालात्तत्सि तदा तत्र वर्तमानो हेतुःक- एव तस्याऽगमकतेति किमसत्प्रतिपक्वतारूपप्रतिपादनप्रयासेथं न विरुकः, विपक्ष एव वर्तमानस्य विरुरूत्वात् । प्रवति च न? किश्च नित्यधर्मानुपलब्धिः प्रसज्यप्रतिषेधरूपा, पर्युदामरूधर्मविका एव धर्मिणि वर्तमानो विपक्कवृत्तिः । अथ संदिग्ध- पावा शब्दानित्यत्वे हेतुः?ान तावदाद्यः पक्कः। अनुपलब्धिमात्रस्य साध्यधर्मवति तत्तत्र वर्तते तदा संदिग्धविपक्कव्यावृत्तिकत्वा- तुच्चस्य साध्यासाधकत्वात् । अथ द्वितीयः, तदाऽपिस धों बनैकान्तकः । अथ साधर्म्यव्यतिरिक्त धर्म्यन्तरे यस्य साध्या- पलब्धिरेव हेतुरिति। यद्यसौ शब्दे सिद्धा,कथं नानित्यता सिकिः? भाष एवं दर्शनं स विरुषः । यस्य च तदभावेऽप्यसावनैका- अथ चिन्तासंबन्धिना पुरुषेणासौ प्रयुज्यत इति न तत्र निश्चिता, न्तिकः । न धर्मिण एव विपक्वता; तस्य हि विपक्वत्वे सर्वस्य तहि कथं संदिग्धासिद्धो हेतुर्वादिन प्रति प्रतिवादिनस्वसी हेतोरहेतुत्वप्रसक्तेः । यतः साध्यधर्मासाध्यधर्मसदसत्त्वाश्रय- स्वरूपासिद्ध एव ?, नित्यधर्मोपलब्धः। तत्र तस्य सिके । त्वेन सर्वदा संदिग्ध एव साध्यसिः प्रागन्यथा साध्याभावे यदप्युभयानुपलब्धिनिबन्धना यदा द्वयोरपिचिन्ता, तदेकदेशोनिश्चिते साध्याभावनिश्चायकेन प्रमाणेन बाधितत्वारूतोरप्रवृ- पलब्धेरन्यतरेण हेतुत्वेनोपादने कथं चिन्तासंबन्येव दितीयः तिरेव स्यात् । प्रत्यक्वादिप्रमाणेन च साध्यधर्मयुक्ततया धर्मिणे तस्यासिद्धतां वक्तुं पारयतीत्याद्यभिधानम् । तदप्यसङ्गतम् । निश्चये हेतोयर्यप्रसक्तिः,प्रत्यवादित एव हेतुसाध्यस्य सिके, यतो यदि द्वितीयः संशयापन्नत्वात्तत्रासिद्धतां नोद्भावयितु तस्मात्संदिग्धसाध्यधर्माधर्मी हेतोराश्रयत्वेनैव इष्टव्य इति । समर्थः प्रथमोऽपि तर्हि कथं संशयित्वादेव तस्य हे तुतामनिधातुं यद्यनेकान्तिकस्तत्र वर्तमानो हेतुः, धूमादिरपि तर्हि तथाविध | संशयितोऽपि तत्र हेतुतामनिदध्यात्, तमुसिद्धतामप्याजदध्याएघ स्यात् । तस्याप्येवं संदिग्धव्यतिरित्तत्वात् । यदिहि विपक- तू चान्तेरुभयत्राविशेषात् ।यदपि साधनकाले नित्यधर्मानुपलवृत्तित्वेन निश्चितोयथा गमकस्तथासांदग्धव्यतिरक्यप्यनुमान- (धरनित्यपक एव वर्तते न विपक्क इत्याद्यभिधानम् तदसंङ्गतम्। प्रामाण्यं परित्यक्तमेव भवेत् । ततोऽनुमेयव्यतिरिक्त साध्यधर्म- विपक्कादेकान्ततोऽस्य व्यावृत्ती पक्वधर्मत्वे चस्वसाध्यसाधकवर्ति वर्तमानः साध्यानावे चानैकान्तिको हेतुः,साध्याभाववत्ये | स्वमेव अन्योन्यव्यवच्छेद्यरूपाणामेकव्यवच्छेदनापरत्र वृत्तिनिश्चवानुवर्तमानः पक्वधर्मत्ये सति विरुक इत्यन्युपगन्तव्यम् ।। ये गत्यन्तराभावात् । नहि योऽनित्यपक्क एव वर्तमानो निश्चितो यश्च विपक्काच्यावृत्तः सपके वाऽनुगतः पधर्मो निश्चितः स | वस्तुधर्मः स तन्न साधयतीति वक्तुं युक्त.म् । अथ द्वितीयोऽपि स्वसाध्यं गमयति । प्रकृतस्तु यद्यपि विपक्कादयावृत्तस्तथाऽपि | वस्तुधर्मस्तत्र तावनिश्चितो न; परस्परविरुधर्मद्वयोस्तदविना. न स्वसाध्यसाधकः, प्रतिबन्धस्य स्वसाध्येनानिश्चयात्। तद- नृतयोर्वा एकत्र मिएययोगात् । योगे वा नित्यत्वयोः शब्दानिश्चयश्च न विपक्कवृत्तित्वेन,किन्तु प्रकरणसमत्वेन,एकशाखा- ख्ये धर्मिएयेकदा सद्भावादनेकान्तरूपथस्तुसद्भायोऽज्युपगतः प्रभवत्वादेस्तु कालात्ययापदिष्टत्वेनोत । असदतत् । यतो यदि स्यात् । तमन्तरेण तकेतोः स्वसाध्याविनात्तयोस्तत्रायोगात् । धर्मिव्यतिरिक्त धर्म्यन्तरे हेतोःस्वसाध्येन प्रतिबन्धोऽयुपगम्य- धर्मिणि तयोरुपलब्धिरेव स्वसाध्यसाधकत्वमिति कुतस्तत्सते, तदा धर्मिण्यपादीयमानोऽपि हेतुः साध्यस्योपस्थापको न द्भावे परस्परविषयप्रतिवन्धः। तत् प्रतिबन्धो हितयोस्तथास्यात् । साध्यधर्मिणि साध्यधर्ममन्तरणापि हेतोःसद्भावाभ्युप- नूतयोस्तत्राप्रवृत्तिः सा च त्रैरूप्याभ्युपगमे विरोधावयुक्ता; गमात सहयातिरिक्त पत्र धर्मान्तरे तस्य साध्येन प्रतिबन्धग्रह- भावाभावयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया एकत्रायोगात्। णात् । नचान्यत्र स्वसाध्याविनाभाधित्वेन निश्चितोऽन्यत्र सा- अथ द्वयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपयोरेकत्रायोगादनित्यधर्मानुपभ्यं गमयत । अतिप्रसङ्गात् । अथ यदि साध्यधर्मान्यतत्वेन सा- लब्धेर्नित्यधर्मानुपलब्धेर्वा बाधा।न। अनुमानस्याऽनुमानाभ्यधर्मिण्यपि हेतुरन्ययप्रदर्शनकाल एव निश्चितस्तदा पूर्वमेव स्तरेण पाधायोगात् । तथाहि-तुल्यबलयोर्वा तयोर्वाधकसाध्यधर्मस्य धर्मिणो निश्चयात् पक्कधर्मताप्रहणस्य वैयर्यम् । भावोऽतुल्यबलयोर्वा न तावदाद्यः पक्षः। वयोस्तुल्यत्वे ए. असदतत् । यतः प्रतिबन्धप्रसाधकेन प्रमाणेन सर्वोपसंहारण कस्य बाधकत्वमपरस्य च बाध्यत्वमिति विशेषानुपपत्तेः। साधनधर्मसाध्यधाभावे कचिदपि न भवतीति सामान्ये- न च पक्कधर्मवाद्यभावादिरेकस्य विशेषतस्यानन्युपगमात् । न प्रतिबन्धनिश्चये पक्षधर्मताग्रहणकाले यत्रैव धर्मिण्युपक्ष- अम्युपगमे वा तत एवैकस्य दुष्टत्वान्न किश्चिदनुमानबाधया। भ्यते हेतुः, तत्रैव स्वसाध्यं निश्चाययतीति पक्षधर्मताग्रहण- तन्न पूर्वः पक्षः । नापि द्वितीयः । यतोऽतुल्यबलत्वं तयोः पक्षस्य विशेषविषयप्रतिपत्तिनिवन्धनत्वान्नानुमानस्य वैयर्थ्यम् ।। धर्मत्वादिभावकृतम्, अनुमानबाधाजनितं वा न तावदायः नहि विशिष्टधर्मिण्युपलन्यमानो हेतुस्तद्गतसाभ्यमन्तरे- पक्षः। तस्यानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वाऽनुमानबाधावैयर्थ्यणोपपत्तिमान् अस्य । अन्यथा तस्य स्वसाध्यव्याप्तत्वायो- प्रसक्तेः। नापि द्वितीयः। तस्याद्यापि विचाराऽऽस्पदत्वात् । गात । नचैयं तत्र हेतपबम्नेऽपि साध्यविषयसदसत्तानिश्चयः, नहि योस्ररूप्याऽतुल्यत्वे एकस्य बाध्यत्वमपरस्थ च बाध. येन संदिग्धव्यतिरेकिता हेतोः सर्वत्र भवेत् , निश्चितस्वसा- कत्वमिति व्यवस्थापयितुं शक्यम् । तत्रानुमामयाधाकृतमप्यध्याविनाचुवहेवपलम्नस्यैव साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपत्तिकप- तुल्यबलत्वमाश्तरेतराश्रयदोषापत्तेः परिस्फुटत्वात्। एतेन प Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) निधानराजेन्द्रः । प्रणे गंतवाय क्षसपक्षान्यतरत्वादेरपि प्रकरणसमस्य व्युदासः कृतो द्रष्टव्यः म्यायस्य समानत्वात् । यदप्यत्रासाधारणत्वासिद्धत्वदोषद्वय निरासार्थमन्यतरविपक्षपक्षयोः साधारणं हेतु स्पेन विवक्षितम् अन्यतरणात् तथाविधार्थप्रतिपत्तेस्तस्य तत्र योग्यत्वादित्यभिधानम् । तद्व्यसङ्गतम् । यतो यत्रा नियमेन फलसंबन्धो विविक्षितो भवति तत्रैव लोकेऽन्यतरशब्दप्रयोगो दृष्टः । यथा-देवदत्तयज्ञदत्तयोरन्यतरं नोजयेत्यत्रानिय मेन देवदत्तो यज्ञदत्तो वा भोजनक्रियया संबध्यते इत्यन्यतरशब्दप्रयोगः । नचैवं शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरः ; तस्य पक्षनाम्यतरशन्दवाच्यस्यायोगात् । यदपि यदा पक्षधर्मत्वं प्र योक्ता विवक्षति, तदाऽन्यतरशब्दवाच्यः पक्ष इत्याद्यभिधानम् । तदप्यसङ्गतम् । एवं विवक्षायामस्य कल्पनासमारोपितत्वेऽन रूपता लानुपपतेः। नहि कल्पनाविरतस्यार्थस्य त्रै रूप्यं वोपपत्तिमत्; अतिप्रसङ्गात् । तत्वे वाऽन्यस्य गमकतानिबन्धनस्याभावात् सम्यम्पेतुत्वं स्यादित्यमा कालात्ययापदिष्टस्य तुल्यलक्षणमसङ्गतमेव । नहि प्रमाणप्रसिद्धरूप्यसद्भावे हेतोर्विषयबाधा संभाविनी, तयोर्विरोधात् । साध्य सद्भाव एव हेतोर्धर्मिणि सद्भाव स्त्रैरूप्यम्, तदभाव एव च तत्र तत्सद्भावो बाधा, भावाभावयोश्चैकत्रैकस्य विरोध। किं चापागमयोः कुतो हेतुमिति पथम स्वा श्रीसंभवे गर्भावादिति चेत-हेनावपि सति मान मित्यखापि तयोर्विषयो बाधकः स्यात् । दृश्यते हि चन्द्राकांदा देशान्तरमाशिलि बाध्यमानम् | अथ तत्स्थैर्य ग्राह्यभ्यत्तस्यातदाभासत्वादू बाध्यत्वं तह शाखाप्रभवानुमानस्यापि नानात्वादमित्य भ्युपगन्तव्यम् । नचैवमस्त्विति वक्तव्यम, यतस्तस्य तदाभासत्वं किमध्यमाध्यत्वात त्रैरूप्यवैकस्यात् । न तावदाद्यः पक्षः । इतरेतराश्रयदोष सद्भावात् । तदाभासत्वेऽध्यबाध्यत्वम्, ततश्च तदाभासत्वमित्येकासिकावन्यतराप्रसिद्धेः । नापि द्वितीयः प्रेयसङ्गावस्तत्र परेणाभ्युपगमात् अनयुगात एव तस्यागमकत्वोपपत्तेरध्यक्ष बाधाऽन्युपगमवैयर्थ्यात् । नचापित्तुलक्षणमुपपम् वैरूप्ययनिश्चितस्यैव तस्य गमकाङ्गवोपपत्तेः । न च तस्य निश्चयः संभवतिः स्वसंबन्धिजोऽधित्वस्य तत्काविनोऽसयनुमानेऽपि स साध्यवधितस्यैव तस्य समास्योपपतेः न च तस्य निध यः संभवति, स्वसंबन्धिनोऽबाधितत्वनिश्चयस्य तत्कालजाविनो सम्यग्भावादुत्तरकालभाविनोऽसिकत्वात् । सर्व सबन्धिनस्तादारिपकस्योत्तर कालभावनासिद्धत्वा सर्वत्र स वेदा सर्वेषामत्र बाधकस्याजाव इति निश्चेतुं शक्यम् । तनिश्चय मिन्धनस्याभावानाध सिकस्यात्संबंधिनोऽनैकान्तिकराच संवादः प्रागनुमानप्रवृत्तेः । तस्यासिग्नुमानोत्तरकालं तत्सिद्ध्यन्युपगमे इतरेतरावदोषसके। तथाहि अनुसंवादा निश्चयः, ततश्चाबाधितत्वावगमे अनुमाने प्रवृत्तिरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । न चाविनाभावे निश्चयादप्यबाधितविषय तो योग्यदिनाभावपरिसमाप्तियादिनामविनिश्चये नानावनिश्चयस्यैवासंभवात्। 1 यदि च प्रत्यक्षागमबाधितकर्मनिर्देशानन्तर प्रयुक्तस्यैव कालात्ययापदिष्टत्वं तर्हि मूर्खोऽयं देवदत्तः, त्वत्पुत्रत्वादुभयाभिमतान्य पुत्रवत् इत्यस्यापि गमकता स्यात् । न हि सकलशास्त्रव्याख्या नृत्य जनतामानयाधितविषयत्यमन्तरेणाम्ययाधितविषयत्वं वा गमकतानिबन्धनमस्यास्तिान चानुमानस्य तुल्ययलत्वान्नानुमानं प्रति बाधकता संजाविनीति वक्तव्यम्; निश्चितप्र तिबन्धलिङ्गसमुत्थस्यानुमानस्यानिश्चित प्रतिबन्धलिङ्गसमुत्थेनातुल्यबलत्वात् । अत एव न साधर्म्य मात्रा सेतुर्गमकः, अपि त्यातिव्यतिरेकात् साधर्म्यविशेषात् । नापि व्यतिरेकमात्रात् किन्त्वङ्गीकृतान्चयात्। तद्विशेषान्वये च परस्परानुविद्धो यमात्रात् । अपि तु परस्परस्वरूपाजहद वृत्तसाधर्म्यवैधर्म्यरूपत्वात् । न प्रतिबन्धनिरायमाणनि मिति द्वादेवास्य यानासनमा धितविषयत्वापररूपविरहात् । यदा च पकधर्मत्वाद्यनेक वास्तवरूपकमेकं लिमभ्युपगमविषयः, तदा तथाभूतमेव वस्तु प्रसाधयतीति कथं न विपर्ययसिद्धि: ? नच साध्यसाधनयोः प रस्परतो धर्मिणका योगों लिङ्गस्योपमा नू, संबन्धासिद्धेः । नच समवायादेः संबन्धस्य निषेधे एकार्थसमचायादिसाध्यसाधनयोर्धर्मिणश्च संबधासंभव एका न्तपक्के तादात्म्यादेतदुत्पत्तिलक्षणो ऽप्यसावयुक्त एवेति पक्त्रधर्मस्य सपक एव सस्यम्, तदेव विपक्कात् सर्वतो व्यावृत्तत्वमिति बाध्यम् ? अन्वयव्यतिरेकयोर्भावाभावरूप सर्वधा तादात्म्यायोगात् । तत्त्वे वा केवलान्वयं । केवलव्यतिरेकी वा सर्वो हेतुः स्यात्, न त्रिरूपवान् । व्यतिरेकस्य चाभायानामरूपत्वातोस्त्वरूप हेतुना वस्य तुच्छरूपत्वात् स्वसाध्येन धर्मिणा वा संबन्ध उपपत्तिमान् । एवं विपके सर्वत्रासत्वमेय हेतोः । स्वकीय व्यतिरेकेण प्रतिनियतस्य तथा संजयात् । अतस्तदन्यधर्मान्तरं रूपये की न तुच्छानावमात्रमिति वक्तव्यम्, यतो यदि सपक एव सत्वं वि. पक्काव्यावृतत्वं न ततो भिन्नमस्ति तदा तस्य तदेव सावधारणं नोपपत्तिमतः वस्तुतान्याभावमन्तरेण प्रतिनियतस्य तत्नासंभवात् श्रय ततस्तदन्यद्धर्मान्तरं तकरूपस्यानेकधर्मात्मकस्य हेतोः तथा साध्याविना निधितस्याने कालात्मक तिपादनात् कथं न परोपन्यस्तहेतुना सर्वेषां विरुकानैकान्तेन व्याप्तत्यम् । किञ्च । हेतुः सामान्यरूपो वोपादीयेत परैः १, विशेषरूपो वा ? | यदि सामान्यरूपः, तदा तद्व्यक्तिज्यो निन्नमभिन्नं वा ।। न तावद्भिन्नम् । इदं सामान्यम्, श्रयं विशेषः श्रयं तद्वानिति वस्तुत्रयोपलम्भानुपलक्षणात् । तथा च सामान्यस्य भेदेनाभ्युपगन्तुमशक्यत्वात् । न च समवायवशात् परस्परं तेषां भेदेनानुपलक्षणम्, यतः समवायस्येह बुद्धिहेतुत्वमुपगीयते न च मेग्रहणमन्त रेणेस्थितमिति त्यत्ति संभवः निगृहीतविशे पणा विशेष्ये बुद्धिरिति कारणादानात्सिद्धान्तः। न च सामान्यनिश्वयः संस्थाननेदायसायमन्तरेणोपपद्यते यतो दूरे पदार्थस्वरूपमुपलभमानो नागृहस्थानकवादिसामान्यपलब्धुं शक्नोति न संस्थाननेदावगमादाधारोपलस्भमन्तरेण संभवतीति कथं नेतरेतराश्रयदोषप्रसंगः। तथाहिपदग्रहणे सति संस्थाननेदागमः तत्र च सामान्यविपावबोधः तस्मिन पदार्थावगतिरिति व्यकमित रेतरापत्यम् ककस वा विवादः समान्य स्थ स्पायसर्पगतायैकदेशे प्रथमतरमुपजायमा गायादिसामान्येन बोधो न भवेन् देशे सामान्यभेदस्य स्वाश्रय सर्वगतस्थानवस्थानात् व्यकान्तरा "" गंतवाय Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३७) अणेगंतवाय अन्निधानराजेन्छः। प्रोगंतवाय दनागतावस्थानाच। ततः सर्वगतमन्युपगन्तव्यम् , एवं च कर्का- सामान्यविशेषयोः स्वरूपं परस्परविविक्तमनूद्य निराकुर्वन्नाहदिभिरिव शावलेयादिभिरपि तदभिव्यज्येतानच कांद्यानामेव दवटिय-वत्तव्यं, सामन्नं पन्जवस्स य विसेसो । तदभिव्यक्तिसामर्थ्य,न शावलेयादीना मिति वाच्यम् । यतो यया एए समावणीया, विजजवायं विसेसेंति ॥ १५३ ॥ प्रत्यासत्त्या ताएव तदात्मन्यवस्थापयन्ति तयैव ता एघाश्वोऽश्व इत्येकाकारपरामर्शप्रत्ययमुपजनयिष्यन्तीति किमपरतभि व्यास्तिकस्य वक्तव्यं वाच्यं विशेष निरपेक्ष्य सामान्यमात्रमा असमान्यप्रकल्पनया?। नच स्वाश्रयेन्द्रियसंयोगात् प्राक स्व पर्यायास्तिकस्य पुनरनुस्यूताकारविविक्तो विशेष एव वाच्यः । पती च सामान्यविशेषावन्योन्यनिरपेको, एकैकरूपतया परझानजनने असमर्थ सामर्थ्य तदा परैरनाधेयातिशय तमपेक्ष्य स्परप्रधानेन एकत्रोपनीती प्रदर्शितौ, विनज्यवादमनेकान्तवाद स्वावभासिज्ञानं जनयति,प्राक्तनासमर्थस्वनावापरित्यागस्वना. सत्पथादस्वरूपमतिशयाने,असत्यरूपतया ततस्तावतिशय सभेते वान्तरानुत्पादे च तदयोगात्। तथाऽभ्युपगमेन कणिकताप्रसकेशन च स्वभावतरस्योपजायमानस्य ततो भेदः, संबन्धासिद्धि इति यावत्। विशषे साध्येऽनुगमाभावतः,सामान्ये साध्ये सिद्ध साधनवैफल्यतः.प्रधानोभयरूपे साध्ये उभयदोषापत्तितः, अनुतस्तद्भावेऽपि प्राग्वत्तस्य स्वावभासिझानजननायोगान्न प्रति भयरूपे साध्ये उभयाभावतः, साध्यत्वायोगात् । तस्माद्विवामासः स्यात् । तथा च सामान्यस्य व्यक्तिभ्यो देनाप्रति दास्पदीभूतसामान्यविशषोभयात्मकसाभ्यधर्माधारसाध्यधर्मिभासमानस्यासिस्वार्थहेतुत्वम् । किञ्च । प्रतिव्यक्तिसामाम्यस्य सर्वात्मना परिसमाप्तवान्युपगमात् एकस्यां व्यक्तावि एयन्योन्यानुविद्धसाधर्म्यवैधर्म्यस्वभावष्यात्मकैकहेतुप्रदर्शन तो नैकान्तवादपक्कोक्तदोषावकाशः संनवति । अत पव गाथाव, शतस्वरूपस्य तदैव व्यत्यन्तरे वृत्यनुपपत्तेस्तदनुरूपप्र पश्चार्धेनैती सामान्यविशेषौ समुपनीतौ परस्परसव्यपेक्ततया त्ययस्य तत्रासंवाद असाधारणता हेतोः स्यात् । यदि स्याद्वादप्रयोगतो धर्मिण्यवस्थापितो विनज्यवादमेकान्तवाद चासाधारणरूपा व्यक्तयः स्वरूपतस्तदा परसामान्ययोगादपि न साधारणतां प्रतिपद्यन्त इति व्यर्था सामान्यप्र विशेषयतो निराकृतः, अत एव तयोरात्मनानात् । अन्यथाऽनुमा नविषयस्योक्तन्यायनासत्वादित्यपि दर्शयति । कल्पना; स्वतोऽसाधारणस्यान्ययोगादपि साधारणरूपत्वाद् व्यक्तयः, स्वरूपतस्तदा परसामान्ययोगादपि न साधारण- यत्रानुमान विषयतयाऽज्युपगन्तव्यमिति दर्शयन्नाहता,अनुपपत्तेः। स्वतस्तद्रूपत्वेऽपि निष्फला सामान्यप्रकल्पनेति हेविसोवणीयं, जह वपणिज्जं परो नियत्ते । व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याभावादसिद्धस्तल्लक्षणो हेतुरिति कथं ततः साध्यसिद्धिः। अथ व्यक्तिव्यतिरिक्त जइ तं जहा पुरियो, दाई तो केण जिचंति ? ॥१५॥ सामान्य हेतुः । तदप्यसङ्गतमेव । व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य व्याक्ति- हेतुविषयतयोपनीतमुपदर्शितं साध्यमिबकणं वस्तु पूर्वपस्वरूपवद्वधात्यन्तराननुगमात् सामान्यरूपताऽनुपपत्तेः । कवादिना ' अनित्यः शब्दः' इत्येव यथा वचनीयं परो दृषणव्यक्त्यन्तरे साधारणस्यैव वस्तुनः सामान्यमित्यभिधानात् । वादी निवर्तयति, सिम्साध्यताऽननुगमदोषाद्युपन्यासेनैकान्ततस्यासाधारणत्वे वा न तस्य व्यक्तिखरूपाव्यतिरिच्यमान- धचनीयस्य तदितरधर्माऽननुषक्तस्यानेकदोषपुष्टतया निवर्तयिमूर्तिता, सामान्यरूपतया मेदाव्यतिरिच्यमानस्वरूपस्य बिरो. तुं शक्यत्वात् । यदि तत्तथा द्वितीयधर्माक्रान्तं स्यात् शब्दयोधात् । तन्न व्यतिरिक्रमपि सामान्यहेतुः, व्यक्तिस्वरूपवदसा- जनेन 'पुरिल्लः' पूर्वपकवादी श्रदर्शयिष्यत्, ततोऽसौ नैव केनचि. धारणत्वेन गमकत्वायोगात्। अत एव न व्यक्तिरूपमपि हेतुः। दजेष्यत । ततश्चासौ तथानूतस्य साध्यधर्मिणः प्रदर्शनात प्रदमचोभयं परस्पराननुविद्धं हेतुः,उभयदोपप्रसंगात् ।नाप्यनुभ- र्शितस्य चैकान्तरूपस्यासत्वान, तत्प्रदर्शकोऽसत्यवादितया नि-- यम्, अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणामेकाभावे द्वितीयविधानादनु- प्रहाई ति। भयस्यासवेन हेतुत्वायोगात् । बुद्धिप्रकल्पितं च सामान्यं व एतदेव दर्शयन्नाहस्तुरूपत्वात् साध्येनाप्रतिबद्धत्वादसिद्धत्वाच, न हेतुः। त एगतासन्तयं, सन्नूयमणिच्चियं च वयमाणो । स्मात्पदार्थान्तरानुवृत्तव्यावृत्तरूपमात्मानं विभ्रदेकमेव पदार्थस्वरूपं प्रतिपत्तुभेदाभेदप्रत्ययप्रसूतिनिबन्धनं हेतुत्वेनोपा लोइयपरिच्चियाणं, वयणि जपहे पमइ वाई ॥१५॥ दीयमानं तथाभूतसाभ्यसिद्धिनिबन्धनमभ्युपगन्तव्यम् । नच प्रास्तां तावदैकान्तेनासद्भूतमसत्य, सदूतूतमप्यनिश्चितं वदन यदेव रूपं रूपान्तराट्यावर्तते तदेव कथमनुवृत्तिमासादयति', वादी लौकिकानां परीककाणांबचनीयमार्ग पतति । ततोऽनेकासच्चानुवर्तते, तत्कथं व्यावृत्तिरूपतामात्मसात्करोतीति वक्त- तात्मकाखेतोः तथालतमेव साध्यर्धामणं साधयन् वादी सद्वादी व्यम,भेदाभेदरूपतयाऽध्यक्षतःप्रतीयमाने वस्तुस्थरूपे विरो. स्यादिति तथैव साध्याविनाभूतो हेतुर्मिणि तेन प्रदर्शनीयः। भासिद्धेरित्यसकदावदितत्वात् । किञ्च । एकान्तवाद्युपन्यस्त- तत्प्रदर्शने हेतोः सपतविपक्षयोःसदसत्त्वमवश्यं प्रदर्शनीयमिति हेतोः किं सामान्य साध्यम , आहोस्विद्विशेषः, उतोभयं यमुच्यते परैः। तदपास्तं नवति । तावन्मात्रादेव साध्यप्रतिपत्तेः। परस्परविविक्तम् , उतस्विदनुभयमिति विकल्पाः । तत्र न न च ततस्तत्प्रतिपत्तावाप विद्यमानत्वाद् रूपान्तरमपि तत्रावश्य तावत्सामान्यम्, केवलस्थासंभवात् , अर्थक्रियाकारित्वविक प्रदर्शनीयम, ज्ञानत्वादेरपि तत्र प्रदर्शनप्रसक्तेः। अथ सामर्थ्यात् सत्वाच। नापि विशेषः, तस्यामनुयायित्वेन साधयितुमशक्य तत्प्रतीयत इति नवचनेन प्रदश्यते तन्वयव्यतिरेकावपिततए. स्वात् । नाप्युमयम, उभयदोषानतिवृत्तेः। नाप्यनुभयम, तस्या वावश्यं प्रदर्शनीयो; अत एव दृष्टान्तोऽपि नावश्यं वाच्यः। साध. सतो हेत्वब्यापकत्वेनसाध्यत्वायोगात्।पतदेवाह गाथापश्चाढ़ें- यंवैधर्म्यप्रदर्शनपरत्वात्वस्योएनयनिगमनवचनयोस्तु दूरापामा अन्योन्यप्रतिकुटा प्रतिक्किप्तौ द्वावप्येतो सामान्यविशेषैकान्ता- स्तता, तदन्तरेणापि साध्याविनानूतहेतुप्रदर्शनमात्रात साध्यप्र. पसद्वादाविति, इतरविनिर्मुक्तस्यैकस्य शशङ्गादेरिव सा- | तिपस्युत्पत्तेरन्यथा तदयोगात् । त्रिशकणहेतुप्रदर्शनवादिनस्तुधयितुमशक्यत्वात् । निरंशवस्त्यज्युपगमविरोधा, मिरशे त्रैलकण्यविरोधात्। परि Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) अभिधानराजेन्द्रः । गंतवाय वा कल्पितस्वरुपत्रेरूप्याभ्युपगमोश्य संगतः परिकल्पितस्य परमासत्वे तदोषानतिक्रमात अपरमार्थसत्वायोगादस्तः सत्याविरोधात् । न च कल्पनाव्यवस्थापित रुणनेदा रूपनेद उपपत्तिमानिति निरंशस्य व्यम्। न च साधम्यादिव्यतिरेकेण तस्य स्वरूपं प्रदर्शयितुं शक्यत इति तस्य निःस्वभावताप्रसक्तिः न चैकल कृण हेतुवादिनोऽप्यनेकान्तात्मक वस्त्वभ्युपगमाद् दर्शनव्याघात इति वाच्यम्। प्रयोगगम पकखणी देतुरिति व्यवस्थापत्त्येकदिन प्रतिबन्धग्रहमपि किसङ्गत भविवलितरुपे आमनि पर्याभावात् प्रतिक्षणभ्वंसिन्यप्युनयग्रहणानुवृत्त्यैक चैतन्याना - वात् । कारणस्वरूपग्राहिणा ज्ञानेन कार्यस्य तत्स्वरूपग्राहिणा कार्यकारणावादेवस्वरूपग्रहणेऽपि तद्ग्रहणप्रस न च तदग्रहेऽपि निश्चयाऽनुत्पत्तेरदोषः, सविकल्पकत्वेन प्रथमाकिसंनिपातजस्याध्य कस्य व्यवस्थापनात् । न च कार्यानुभवानन्तरविना सारणेन कार्यकारणभावोऽनुसंधीयत इतिपयम अनुसृत रयप्रादुर्भावात् स्तस्योभयनिष्ठत्वात्; उजयस्य च पूर्वापरकालज्ञाचिन एकेनाहणात् न च कार्यानुनयानन्तरभाविनः सारणस्य कार्यानुयो जनकः, तदनन्तरं स्मरणस्याभावात् । न च कणिकै कान्तवादे का र्यकारणभाव उपपत्तिमानि च सम्तानादिकल्पना उपत्रोपयोगिनी । न च स्मरणकालेऽतीततद्विषयमात्रं प्रतीयते, अपि तु तदाऽनुभविताऽपि श्रहमेवमिदमनुभूतवानित्यनुनचित्रा धारानुतविषयस्मृत्यव्यवसायादेकाधारे अनुजय स्मरणे अभ्युपगस्तन्ये तदभावे तथाऽध्यवसायानुपपतेः। वणयोर गन्ना मंतया अनुभवस्मरणयोस्तदा प्रतिपत्ति दिपाले नास्ति तत्तता प्रतिपतुं पु कम; बोधाभावे प्राह्यग्राहकसंवित्तित्रितयप्रतिपत्तिवत् श्रस्ति च तरूर्मतया अनुभवस्मरणयोस्तदा प्रतिपत्तिरिति कथं कणिकैकातवादः तत्र वा प्रतिबन्धनिश्चय इति ? । नचैकान्तवादिनः सामाम्यादिकं साध्यं संजयति प्रतिपादितम् तस्मादात्म स्त्वयुपगन्तव्यम्, अध्यक्कादेः प्रमाणस्य तत्प्रतिपादकत्वेन प्रवृत्तेः। (८) स एव सम्मार्ग: ( अनेकान्त एव सन्मार्गः ) इत्युपसंचा दव्वं खित्तं कालं, जावं पज्जायदेससंजोगे । भेदं च पशुच्च समा, भावाणं पापा ॥ १५५ ॥ यक्षेत्रका सापयदेशसंयोगा नावानाश्रित्य वस्तुनो भेदे सति समा सर्ववस्तुविषयायाः प्रतिज्ञाप्यरूपायाः स्याद्वादरूपायाः पर्या पन्था मार्ग इति यावत् । तत्र व्यं पृथिव्यादिषं यच तदाश्रयं या आकाका युपदकिप्रत्ययन्त्रिणं वर्तमानात्मकं वा नवपुराणादिलक भावमादिलक्षणं पर्याय रूपादिस्वनावं देशम् मूसाडुरपत्रकायमादिकमनाबि विभागं संयोगं म्यादि प्रत्येकं स मुदाय व्यपर्यायलकणं भेदं प्रतिलकणव्यावर्त्तनात्मकं वा जीवा जीवादिभावानां प्रतीत्य समानतया तदतदात्मकत्वेन प्रज्ञापनानिरूपणा या सा सत्पथ इति नहि तदतदात्मक कव्यत्वादिनेदाप्राये विषाणादेर्जीयादिविशेषः यतो 3 लभाव पर्यायदेश संयोगज्ञेदरहितं वस्तु केनचित् प्रत्यकाद्यन्यमानवगन्तुं शक्यम्। न च प्रमाणागोचरस्य सद्व्यवहा प्रयोगंतवाय रगोचरता संधिनीति मयुपगम्यकान्ततोऽतदात्मकं प्रयादिव्यतिरिकरूपं च प्रमाणं तभिरूपयितुं शक्यम्, द्रव्यादिव्यतिरिक्तस्य शशभ्टङ्गवत् कुततेनादीनां प्रेदेऽपि समवायबन्धवशात् तत्संबद्धताप्रसङ्गः । संबन्धजेदेन तदभेदाभेद कल्पनइयानतिवृत्तेः प्रथमकसिंध भेदतो दात संयोग द्वितीयकल्पनायामसिंधिया नयेयं कुलादिस धविशेषविशिष्टदेवदत्तादेरिव समवायिनो जातिगुणत्वादे मेंदेनोपलब्धेः । नाई य एव दरामदेवदत्तयोः संबन्धः स एव त्रादिभिरा, तत्संबन्धविशेषणार्थवशेष फल्यग्रसकेः न बिशे पणं विशेष्यं धर्मान्तरावयवस्थापविशेषरूपतां प्रतिपद्यते। एवं समवायसंन्यस्यापवादनामपि विशेषणानामविशेषास जीवाजीपादव्यय सा स्पादिति समवायिरस किः कथं नासज्येत । न च समवायस्तदूग्राहक प्रमाणाभावात् संजवति, तद भावे न वस्तुनो योगो भवेदिति तदने का शाम के करूपमन्युपगन्तव्यम् । नचेकानेकात्मकत्वं वस्तुनो विरुद्ध प्रमाणनि वस्तुनि वि रोपायोगात् । तथाहि एकाने कामकमारमादि वस्तुप्रमेयत्वाचित्रपटरूप प्राप्राहकाकार संवित्तिरूपैक विज्ञानस्य प्रत्या त्मसंवेदनीयत्वात् । न च वैशेषिकं प्रति चित्रपटरूपस्यैकानेकस्वमसिकम् प्राक् प्रसाधितत्वात् नापि ब्राह्मग्राहकसंवित्तिल मरूपात्मकमेकं विज्ञानं बद्धं प्रत्यसि तथाभूतविज्ञा नस्य प्रत्यात्मसंवेदनीयस्य प्रतिक्षेपप्रसक्तेः स्वार्थाकारयोि ज्ञानमभिन्नस्वरूपम् विज्ञानस्य च वेद्यवेद्रकाकारी मनमानी कथञ्चिदनुप्रयगोचरापन्नौ । एतच्च प्रतिक्षणस्वनावनेदमनुभवदपि न सर्वथा नेदवत् संवेद्यत इति संविदात्मनः स्वयमेकस्य मनेकात्मकत्वं न विरोधमनुभवतीति कथमध्यादिचिकनिरामयुतं युक्तम् नहि कदाचित् कविवणिकत्वमन्तकृते तच निर्णयानुपपतेदात्मन एचान्तर्विज्ञानस्य बहिघंटा धामिनस्य निश्वयात् तथा नूतस्यानुभवस्य भ्रान्तिकल्पनायां न किञ्चिदष्वकमभ्रान्तसकमा भवेत् वेद्यवेदकाका स्थूलकाय प रमाणुरूपं वा घटादिकमेकं निरीकाम तम भेदानेदरूपतयाऽनुभूयमानं नान्तविज्ञानविषयतया व्यवस्थाप्येस। अतो यथादर्शनमेयेयमनुमेयव्यव स्थितिः न पुनर्यथातत्वमि त्येतदनिश्धितार्थाभिधानयनात केचित् प्रमाणेकान्तरूपं वस्तु तत्त्वमयं प्रतिपन्नवान् यत एवं वदन् शोभेत, यदा वाsarafarst निरंशक्षणिकैकान्तस्ततो नानुमानमप्यत्र मुसाधितत्वात् तस्य तेन निरम्य यविनश्वरं वस्तु प्रतिक्षणमवेक्षमाणोऽपि नावधारयतीति । एतदप्यमान प्रतिकृणं विशरावत खात् । अत एव कणिकत्वेकान्ते च सत्यादिहेतुरुपादयमानः सर्व एव विरु अनेकान्त एव तस्य संवादयालक्कणं सस्यम् । न चासौ तदेकान्तक्रमयौगपद्याज्यां संभवति, यतो या सत्वति तस्य कारणमितरण कार्यमित कार्यकारणलक्षणम्। कणिकेच कारणे सति यदि कार्योत्पतिर्जवेत् तदा कार्यकारणयोः सहोत्पत्तेः किं कस्य कारणं किं वा कस्य कार्य व्यवस्थाप्येत ? । त्रैलोक्यस्य चैककणवर्तिता] प्रसज्ज्येत । य. दनन्तरं यद्भवति तत्तस्य कार्यम्, इतरत् कारणमिति व्यवथा Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) मणगंतवाय अभिधानराजेन्द्रः। अणेगंतवाय बां कारणाभिमते वस्तुन्यसत्वे च भवतस्तदनन्तरभावित्वस्य दुर्घ- | क्षणमात्रावस्थायित्वप्रसक्तः। न च क्रमयोगपद्यव्यतिरिक्तं प्रकाराटत्वादितरविनष्टादपिच तस्य नावोनवेत्,तदभावाविशेषात्।न तरं संभवतीत्यर्थक्रिया व्यापिका निवर्तमाना व्याप्यां सत्यां चान्तरस्यापि कार्योत्पत्तिकालमप्राप्य विनाशमनुजवतश्विराती- नित्यादप्यादाय निवर्तत इति । यत् सत्तत् सर्वमनेकान्तात्मक तस्येव कारणता । यतोऽर्थक्रिया कणकये नविरुद्धत प्राक्काल-| सिरूम, अन्यथा प्रसक्तादिविरोधप्रसक्तः । न हि भेदमन्तरेण प्रावित्वेन कारणत्वे सर्व प्रति सर्वस्य कारणता प्रसज्यत, सर्व- कदाचित् कस्यचिदनेदोपलब्धिः,हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्तावस्तुक्कणानां विवक्षितकार्य प्रति भावित्वाविशेषात् । तथा च- स्मकस्यान्तश्चैतन्यस्य संवेदनाध्यकतो वर्णसंस्थानसदाद्यनेकास्वपरसन्तानव्यवस्थाऽप्यनुपपनैव स्यात् । न च सारश्यात्तहा- कारस्य स्थूलस्य पूर्वापरस्वभावपरित्यागोपादानात्मकस्य घ. वस्था, सर्वथा सारश्ये कार्यस्य कारणरूपताप्रसक्तरेककणमात्र टादेहिरेकस्थेन्द्रियजाध्यकतः संवेदनात् । सुखादिरूपादिजेसन्तानः प्रसज्येत । कथञ्चित्सादृश्येनैकान्तवादप्रसक्तिः । न च दविकसतया चैतन्य घटादेः कदाचिदप्युपलम्नागोचरत्वान्मसाहश्यं वदभिप्रायेणास्ति, सर्वत्र वैवकण्याविशेषात् । अन्य- हासामान्यस्यावान्तरसामान्यस्य था सर्वगतासर्वगतधर्मात्मथा स्वकृतान्तप्रकोपवयोषकणिकैकान्तवादिनोऽन्वयव्यतिरोकि- कता समवायस्य चानवस्थादोषतः संबन्धेतराभावात् 5प्रतिपत्तिः संजवतीति साध्यसाधनायाखिकानविषयायाःसाक- व्यगुणकर्मसामान्यविशेषाणामन्योन्यं तादात्म्यानिष्ठौ तेष्ववृत्तेः ल्येन व्याप्तेरसिद्ध। यत्सत्तत् सर्व कणिकंयथा शशब्द श्त्याद्य- सर्वपदार्थस्वरूपाप्रसिकिः स्यात् । स्वत पव समवायस्य मुमानप्रवृत्तिः कथं न भवेत् ?; अकारणस्य च प्रमाणविषयत्वम- जव्यादिषु वृत्ती समवायमन्तरेणापि द्रव्यादावपि स्वाधारेषु भ्युपगमसाध्यसाधनयोस्त्रिकाविषयव्याप्तिग्रहणस्य दूरात्सा- वृत्ति स्वत एव तस्मात्करिष्यन्तीति समवायकल्पनावेरितत्वात्। “नाननुकृतान्धयव्यतिरेक कारणं विषयः" इति व. यर्यप्रसक्तिवद्भेदप्रसक्तिषशप्रतिपत्तेः । अगृहीतस्वभावाद् चममनुमानोच्छेदकप्रसक्तं प्रााग्राहकाकारकानैकत्ववत्, प्राह्या- गृहीतस्वनावस्य व्यस्य चातद्वतां सामस्त्येन ग्रहणासंत्रकारस्पापि युगपदनेकार्थावभासनश्चैवैकरूपता एकान्तयादं प्र वात् कथं तदग्रहे तद्ग्रहणं भवेत् ? , अधाराप्रतिपत्ती तदातिकिपति । एवं भ्रान्त्यात्मनश्च सहर्शनस्यान्त हिश्व भ्रान्ता. धेयस्य तत्वेनाप्रतिपत्तेः । सामान्या/शेषु गृहीतेष्वपि सामास्मकत्वं कथञ्चिदज्युपगन्तव्यम् । अन्यथा कथं स्वसंवेदना- न्यादेः वृत्तिविकल्पादिदोषस्तेष्वपि पूर्ववत् समानः , तदाधेध्यकता तस्य भवेत् ? । तदभावे च कथं तत्स्वाभावसिकि यस्य तत्त्वेनाप्रतिपत्तेः। तदंशग्रहणेऽपि च सामान्यस्य व्यापितः मुक्ता । कथं च भ्रान्तझानं भ्रान्तिकावयाऽऽत्मानमसंविदत कदाचिदप्यप्रतिपत्तेः सद् द्रव्यमित्यादिप्रतिपत्तिस्तद्वत्सु नकदा. कानरूपतया चावगच्छन्नन्तर्बहिस्तथा नावगच्छेत् । यतो चिद्भवेत्, तदंशानां सामान्यादेरत्यन्तभेदात् । एवं द्रव्यादिब्रान्तकान्तरूपताऽऽद्युपप्लुतहशी भवेत् , कथं च म्रान्तविक षट्पदार्थव्यवस्थाऽप्यनुपपन्ना भवत् , प्रतिभासगोचरचारिणां पायोः स्वसंवदनमम्रान्तमविकल्पकं वाऽच्युपगच्छन्नने सामान्यादंशानां पदार्थान्तरताप्रसक्तेः। अथ निरंशं सामान्यकान्तं नान्युगच्छेत् । ग्राह्यग्राहकवृत्त्याकार विवेकसविर स्व मभ्युपगम्यते इति नाय दोषः तर्हि सकलस्वाश्रयप्रतिपत्त्यभा. संवेदनेनासंवेदयन् संविद्रूपतां वाऽनुनवन् कथं क्रमभाविनो बतो मनागपि न सामान्यप्रतिपत्तिरिति सद् द्रव्यं पृथिवीबिकल्पेतरा/मनोरनुगतसंवेदनात्मानमनुनवप्रसिर्फ प्रतिक्किरोत् । त्यादिप्रतिपत्तेर्नितरामनावः स्यात् । तदंशानां सामान्याद ततः मानहाविनः परस्परचिलक्षणान्स्वाजावान्वाऽनन्यथा नेदाभेदकल्पनायां द्रव्यादय एव दाभेदात्मकाः किं नाभ्युवस्थितरूपतया व्याप्नुवतः सकललोकप्रतीतं स्वतंक्दनम्, पगम्यन्ते ? इति सामान्यादिकल्पना दूरोत्सारितैवेति कुतअनेकान्ततत्त्वव्यवस्थापकमेकान्तवादप्रतिकेपि प्रतिष्ठितमिति । स्तद्भदैकान्तकल्पना ?। ततः सामान्यविशेषात्मकं सर्ववस्तु, निरंशकणिकस्खल कखमन्तर्बहिश्वानिश्चितमाप संविचिर्विषयी सस्वात् ।नहि विशेषरहितं सामान्यमात्र सामान्यरहितं करोतीति कल्पनाऽयुक्तिसंगतव; अप्रमाणशसिद्धिकल्पनायाः वा विशेषमात्रं संभवति तादृशः क्वचिदपि , वृत्तिविरोधात् । सर्वत्र निरङ्कुशत्वात् । सकलसर्वज्ञताकरफ्नप्रसक्तेनोकस्य वृस्या हि सवं व्याप्तं स्वलक्षणात्सामान्यलक्षणाद् वा संवित्तिः परस्थासंवित्तिः। नहि वास्तवसंबन्धासावे परिकल्पि तारशावृत्तिनिवृत्या निवर्तत एव, यतः क्वचिद वृत्तिमतोऽपि तस्य नियामकत्वंयुक्तम, अतिप्रसवात् । नचवास्तवः संबन्धः | स्वलक्षणस्य न देशान्तरवृत्तिः,नान्यन संयोगः, तत्संसर्गव्यवपरस्य सिरू इति तादात्म्यतदुत्पत्योरभावात् साध्यसाधनयोः च्छिन्नस्वभावान्तरविरहाद्विशेषविकलः, सामान्यवत् । एकस्य प्रतिबन्धनियमानावेऽनुमानप्रवृत्तिरोत्सारितैव । अथ कणि प्रतिसंबन्धस्वभावविशेषाभ्युपगमविशेषाणां तत्स्वलक्षणं साका निवर्तमानमप्यर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमणिकेच स्थास्यताति मान्यलक्षणमेव स्यात् । न च विशेषैरन्यदेशस्थितैः असंयुक्तनततोकान्तात्मकवस्तुसिद्धिानाकणिकेऽपि,क्रमयोगपद्याभ्यां स्यैकत्र तम्य वृत्तिः, अव्यवधानाविशेषात् । एवं च स्वभाषतस्य विरोधात्। तथाहि-न तावदक्षणिकस्य क्रमवत्कार्यकारणं विशेषाणां सामान्यरूपाः सर्व एव भावाः विशेषरूपात्र तत्र प्राक्तकरणसमर्थस्याभिमतकणवत् तदकरणविरोधात्प्राक्तद देशकालावस्थाविशेषनियतानां सर्वेषामपि सत्त्वं सामान्यमेकसामध्ये पश्चापि न तत्सामर्थ्यमपरिणामिनोऽनाधेयातिशय-| रूपस्, अन्यवधानात्। तस्य च ते विशेषा एव,अनेक रूपम,यतस्वात् । स्वभावोत्पत्तिविनाशाज्युपगमेऽपि नित्यैकान्तवादविरो- स्तदेव सत्त्वं परिणामविशेषापेक्षया गोत्वनालणस्वादिलक्षणा धात् । ततो व्यतिरिक्तस्वातिशयस्य करणेऽनतिशयस्य प्रागिय जातिः, परिणामविशेषाश्च तदात्मका व्यक्तय इति । परस्परपवादापतत्करणासंभवात्। सहकारिणोऽपेकाऽपि तस्याऽयुक्तै- व्यावृत्तानेकपरिणामयोगादेकस्यैकानेकपरिणतिरूपता संशव,यतोऽसहायस्यप्रागकरणखभावस्य पुनःसश्रीसहायस्य कार्य- यज्ञानस्येवाविरुद्धा व्यक्तिव्यतिरिक्तस्य सामान्यस्योपलब्धिकरणं नवेत् , नहि सहकारिकतमातशयमनमीकुर्वतस्तदा । लक्षणप्राप्तस्थानुपलब्धिः, शशश्टङ्गवदसवात् । सत्यरूपादिपक्कोपपत्तिमति तत्र क्रमेणापरिणामी भावः कार्य निवर्तयति, प्रत्ययः सामाम्यविशेषात्मकवस्त्वभावेऽबाधितरूपो न स्यात्। नापियोगपयेन कालान्तरे, तस्याकिश्चित्करत्वेनावस्तुत्वापत्तेः । न च चक्षुरादिः बुद्धौ वर्णाकृत्याराकारशून्यं सामान्यपर Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) श्रणेगंतवाय अनिधानराजेन्द्रः। प्रणेगंतवाय व्यावर्णितस्वरूपमवभासते, प्रतिभासभेदप्रसङ्गात् । यदि च शब्दमात्रसंतुष्टा गर्ववन्तोऽविकोविदसामा-अधिकोषदमझ तत्सर्वगतं पिण्डान्तरालेऽप्युपलभ्येत, स्वभावाविशेषादाश्र- सामर्थ्य येषां ते तथा, अविदितसूत्रव्यापारविषया इति यावत् ।' याभावादनभिव्यक्त्यभ्युपगमेऽभिव्यक्तस्वरूपभेदात सामान्य किमित्येवं त इत्याह-यथार्थतमेवाविरुद्धा अविवकेन प्रतिरूपता न स्यात् । नचाश्रयभावाभावादभिव्यक्त्यनभिव्यक्ति- पत्तिरेषामिति कृत्या सूत्रानिधायिव्यतिरिक्तविषयविप्रतिपत्तिसत्प्रत्ययकर्तृत्वे नित्यैकस्वभावस्य युज्येते, तदूपयोगिनोऽप्येवं स्वात् इतरजनवदज्ञा इत्यन्निप्रायः। अथवा स्वयूथ्या पव एकमकथं नानकान्तसिद्धिः स्वाश्रयसर्वगताप्रकाशितायाः सर्वत्र यदर्शने कतिचित्सूत्राण्यधीत्य केचित् सूत्रधरा चयमिति गर्विता प्रकाशितत्वात्मसकलवस्तुप्रपञ्चस्य सकृदुपलब्धिप्रसंगो न यथाऽवस्थिताम्यनयसव्यपेक्कसूत्रार्थापरिज्ञानादवितथात्मवि-- पा कस्यचिदुपलब्धिप्रसंगविशेषात् प्रकारान्तरेण प्रतीत्य- स्वरूपा इति गाथाऽनिप्रायः ॥ १५६ ॥ भ्युपगमे, अनेकान्तवाद एव स्वतः सतां विशेषाणां सत्तासं. अथैषामेव नयदर्शनेन प्रवृत्तानां यो दोषस्तमुद्भाववितुमाहबन्धानर्थक्यम,असतां संबन्धानुपपत्तिरिति प्रसक्नेरक्रियासा- सम्मईसणमिणमो, सयससमत्तबयणिज्जणिहोस । मान्यसंबन्धाद्यक्तीनामकियावत्वादब्यापकत्वं स्यात् । व्यक्ति अप्पुकोसविणहा, सलाहमाणा विणासें ति ॥ १५७ ॥ व्यतिरेके व्यक्तिस्वलक्षणवत्तत्सामान्यमेव न भवेत् । व्यक्तीनां सम्यग्दर्शनमेतत्परस्परविषयापरित्यागप्रवृत्तानेकनयात्मकम, बासामान्याव्यतिरेका व्यक्तिस्वरूपहान,सामान्यस्य तद्रूपता न भवेत्। न च व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षेऽप्यनवस्था,उभयपक्षदो तश्च स्यानित्य श्त्यादि सकलधर्मपरिसमाप्तवचनीयतया निर्दोपवैयधिकरण्यसंशयविरोधादिदोषप्रसङ्गात्। सर्वथा तदभा षम, एकनयवादिनः स्वविषयैस्तत्र व्यवस्थापनेनारमोत्कर्पण बोऽनवस्थादिदोषस्य प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् । प्रतीयमानेऽपि विनष्टा स्याद्वादानिगम प्रत्यनाझियमाणा वयं सूत्रधरा इत्यातथाभूतेऽतिविरोधादिदोषासाने प्रकारान्तरेण प्रतिभाससं स्मानं श्लाघ्यमानाः सम्यग्दर्शनं विनाशयन्ति, तदात्मनि नयं भवात सर्वशून्यताप्रसंगः। न च सैवास्त्विति वक्तव्यम् । स्वसं. न स्थापयन्तीति यावत् । अथ न ते आगमप्रत्यनीकाः, सद्भक्त स्वात, तद्देशपरिज्ञानवन्तश्चेति ॥ १५७ ॥ बेदनमात्रस्याप्यमाचप्रसंगतो निःप्रमाणिकायाः तस्याप्यन्युपगन्तुमशक्यत्वात् । तथापि तस्याभ्युपगमेन घरमनेकान्तात्मक कथं तद्विनाशयन्यत्राहबसवन्युपगन्तव्यम्, तस्याबाधितप्रतीतिगोचरत्वात्। तेन रूपा ण हु सासणजत्ती मे-त्तएण सिकंतजाणो होइ । दिकणिकविज्ञानमात्रशून्यवादाऽभ्युपगमः, तथा पृथिव्यायेका ण विजाणओविणियमा,पसवणानिच्चिओणाम १५७ स्तनित्यत्वाभ्युपगमः, तथाऽऽस्माद्यद्वैतानङ्गीकरणं, तथा परमो. न चशासनभक्तिमात्रेण सिमान्तज्ञाता भवति। न च तदज्ञानकाभावनिरूपणं, व्यगुणादेरत्यन्तन्नेदप्रतिक्षानं च,तथा हिंसा- वान्नावसम्यक्त्ववान् भवति,अज्ञानस्यार्थस्य विशिएचिविष. तो धर्माभ्युपगमः, यतो मुक्तिप्रतिपादनमित्याकान्तवादिप्र- यत्वानुपपत्तेः। तद्भक्तिमात्रेण श्रकानुसारितं यद् व्यसम्यक्त्वसिद्धं सर्वमसत् प्रतिपत्तव्यम; तत्प्रतिपादन हेतूनां प्रदर्शितनि- मार्गानुसारि, अवषोधमात्रानुषतरुचिस्वजावं तु सर्व भावसम्य. त्याउनेकान्तब्याप्ततत्वेन विरोधात् । इतरधर्मसव्यपेक्वस्यका- | क्वसाध्यफलनिवर्तकम,भावसम्यक्त्वनिमित्तत्येनैव तस्य - सवायच्युपगतस्य सर्वस्य पारमार्थिकत्वात् , अभिष्वजादि- व्यसम्यक्त्वमार्गानुसार्यवबोधसम्यक्त्वरूपतोपपत्तेः। न च जीप्रतिषेधार्थ विज्ञानमात्रायभिधानस्य सार्थकत्वात् । तथाहि- पादितस्वैकदेशज्ञाताऽपि नियमतोऽनेकान्तात्मकवस्तुरूपप्रकाप'अहमस्यैवाहमेवास्य' इत्येकान्तनित्यत्वस्वामिसंबन्धाद्यनि- नायां निश्चितो भवति, एकदेशज्ञानवतः सकलधर्मात्मवस्तुकानिवेशप्रभवरागादिप्रतिषेधपर कणिकरूपादिप्रतिपादनं युक्त- नविकतया सम्यक तत्प्ररूपणासंभात् । तथाहि-सर्वज्ञो यमेव । सालम्बनकानैकान्तप्रतिषधपरं विज्ञानमात्राभिधानं सर्व- थावस्थितैकदेशकः, जीवादिसकलतत्वज्ञाता वागमविदःसाविषया नवनिषेधप्रवणं शून्यताप्रकाशनं कणिक एवायं पृथि- मान्यरूपतयाऽनिधीयते, मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्याव्यादिरिति एकान्तानिनिवेशमूलद्वेषादिनिषेधपरम, तकित्य- येब्बिति वचनात् । त्वप्रणयम जात्यादिमदोन्मुसमानुगुणमात्मावतप्रकाशनजन्मा- तत्त्वं तु-"जीवाजीवाश्रवबन्धसंबरनिर्जरामोक्तास्याः सप्त प. न्तरजनितकर्मफलभोक्तृत्वमेव धर्मानुष्ठानमित्येकान्तनिरासप्र- दार्थाः" । तत्र चेतनालकणो जीवः। तद्विपरीतसवणस्वजीव, योगं जनपरलोकाभावावबोधनं व्याचव्यतिरकैकान्तप्रतिषे- धर्माधर्माकाशकासपुस्लभेदेन चासौ पञ्चधा व्यवस्थापितः।धाय तद्भदाख्यानम् । सम्म।नं। तत्पदार्थद्वयान्तर्वर्तिनश्च सर्वेऽपि नावा। नहि रूपरसगन्धरूप(१) ये च (एकान्तवादिनोऽक्षाः) विनेतनागमप्रतिपत्तिमात्र- दियःसाधारणासाधारणरूपा मूर्तचेतनाचेतनभव्यगुणाः, उ. ___ माश्रयन्ते, तेऽनवगतपरमार्था एवंति प्रतिपादयन्नाह स्केपणापक्केपणादीनि च कर्माणि,सामान्यविशेषसमवायाश्च जीपामेकनयपहगयं, मुत्तं सुत्तधरसहसंतुट्ठा। पाजीवन्यतिरेकेणाऽऽत्मस्थिति लनन्ते । त देनैकान्ततस्तेषाम नुपसम्भात, तेषां तदात्मकत्वेन प्रतिपत्तेः। अन्यथा तदसत्वप्रअविकोविअसामत्था,जहागम विभाग पमिवत्ती॥१५६॥ सक्तेः। ततो जीवाजीवाश्यां पृथग् जात्यन्तरत्वेन "द्रव्यगुणकर्म प्रत्येकनयमार्गगतं सूत्र कणिकाः सर्वसंस्कारा विज्ञानमात्रमेवे- सामान्यविशेषसमवायाः" न वाच्याः। एवं "प्रमाणप्रमेयसंदम्, भो जिनपुत्राः! यदिदं त्रैधातुकमिति ग्राह्यग्राहकोभयशू. हायप्रयोजनदृष्टान्तसिकान्तावयवतर्कनिर्णयबादजल्पवितएमा. न्यत्वमिति, नियमकंमएमव्यापि निष्क्रियमित्यादि सदकारणव- हेत्वाभासच्चलजातिनिग्रहस्थानानि" च न पृथगभिधेयानि । नित्यमिति "भत्मा रे! श्रोतव्यो ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासित- तथा-" प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहकार-स्तस्माद् गणश्च षोडशकः । भ्यः" इत्यादिसत्ता व्यत्वसंबन्धात् । सद् द्रव्यं च, स्थितिपरलो- तस्मादपि षोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि" ॥१॥इति किनोऽभावात् परसोकानावः । " चोदनानकणोऽर्थों धर्मः"। चतुर्विशतिपदार्थाः पुरुषधेति न वक्तव्यम् । तथा-दुःखइतिधर्माधर्मकयकरी दीत्यादिकमधीत्य सूत्रधरा वयमिति समुदायमार्गनिरोधाश्चत्वार्यव सत्यानीति न वक्तव्यम् । ते Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंतवाय था 'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि' इति न वक्तव्यम् । तत्प्रभेदरूपतयाऽभिधानेऽपि न दोषाः, जात्यन्तरकल्पनाया एवाघटमानत्वात्, राशिद्वयेन सकलस्य जगतो व्याप्तत्वात्, तदव्याप्तस्य शशभ्टङ्गतुल्यत्वात् शब्दब्रह्मादेकान्तस्य च प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् । अबाधितरूपोभयप्रतिभासस्य तथाभूतवस्तुव्यवस्थापकस्य प्रसाधितत्वाद्विद्याऽविद्योभयमेदादद्वैत कल्पनायामपि त्रित्वप्रसते बाह्यालम्बनभूतभावापेक्षया विद्यात्वोपपत्तेः । अन्यथा निर्विषयत्वेनोभयोरविशेषात् तत्प्रतिभागस्याघटमानत्वात् । न हि द्वयोर्निरालम्बनत्वे विपर्यस्ताविपर्यस्तज्ञानयोरिव विद्याविद्यात्यभेदः । ततो नायं वस्तुः नापणेगांचे तयतिरिक्तमस्ति । अयाश्रवादीनामप्यनुपपतिः राशन क अस्यात् । ततलेषां कामेदप्रतिपादनार्थत्वात् । अनयोरेव तथापरिणतयोः सकारणसंसारमुक्तिप्रतिपादनपरत्वात्तथाननस्यानेन वा कागज प्रदर्शनार्थत्वात् विप्रतिपत्तिनिरासार्थत्वात्, तद्वदभिधानस्यादु- अयोगजीव अनेकजीव-त्रिश्रनेके जीवा यस्येति । बहुजी वा ष्टत्वात् । तथाहि आश्रवति कर्म यतः स श्राश्रवः, कायवाङ्मनोव्यापारः । स च जीवाजीवाभ्यां कथञ्चिद्भिन्नः, तथैव प्रतीतिविषयत्वात् । अथ बन्धाभावे कथं तस्योपपत्तिः ?; प्राक्तत्सद्भावे वा न तस्य बन्धहेतुता नदि यचद्विदेतुकं तदभावेऽपि भवति, अतिप्रसङ्गात् बसदेतत् । पूर्वोत्तरापेयान्योन्यकार्यकारणभावनियमात् । नचेतरेतराश्रयदोषः प्रवाहापेक्तयाऽनादित्यात् । पुण्यापुण्यहेतुबन्धहेतुतया वासी द्विविधः उत्कर्षापकर्षभेदे मानेकप्रकारोऽपि दयमगुप्त्यादित्यादिसंख्याभेदमासादयन् फलानुबन्ध्यननुबन्धिभेद तोऽनेकशब्दविशेषवाच्यतामनुभवति । एकान्तवादिना त्वयं नासम्भवतीति कमजोगनिमितं " गाथाथै प्रदर्शयद्भिः प्राक् प्रतिपादितत्वात् । सम्म० । गया पु ; ( ४४१ ) अभिधानराजेन्द्रः । 66 - (१०) अनेकान्दस्वीकारावी कारयोः सम्यमथ्यात्वे"इश्श्रेयं गणिपिरुगं, निश्यं दव्वट्टियाऍ नायब्वं । पजापण अणिच्चं, निरुचानिच्चं च सियवादो ॥ ६२ ॥ जो सियवायं भारति, पमाणनयपेसनं गुणाधारं । भावेश से ण णसयं, सो डि पमाणं पवयणस्स ॥ ६३ ॥ जाति प्रमाणनयपेसलं गुणाधारं । भावेण भावो खोपमानं ६४॥ ति०मी०० अोगको मि- अनेककोटि-चि अनेकाः कोटयो द्रव्य यां स्वस्वरूपपरिमाणे या पेमांतेऽनेककोटयः कोरिया कोदुम्म्यादिषु ० "बजेगको मी कुटुंबिया अनेकाः कोटयो व्यसङ्ख्यायां स्वस्वरूपपरिमाणे वा येषां तेमेककोटयः, तैः कौटुम्बिकैः कुटुम्बिनिः, आकीर्णा संकुला या सा तथा खा चासी निता तुजनयोगात्संतोषवतीति कर्मधारयः । अत एव सा चासौ सुखा च गुना च वेति कर्मधारयः ॥ ज्ञा० १ अ० । श्री० । रा० । 9 गवखारय-अनेकारिक न० अनेकाने चाि राणि तैर्निर्वृत्तमनेकारिकम् । छाक्षरादिनिर्वृत्ते द्विनामनेदे, अनु० | "से किं तं श्रगक्खरिए ? । अणेगक्खरिए कना वीणा लता माला । तं अणेगक्खरिए” । अनु० । अगदी अनेकवादी स्त्री० अनके नश्यतां नराणां मार्गताः योऽपद्वाराणि यस्यां साऽनेक खाएकी विद्या० १ ०३ [अ०] अनेकनश्यतरनिर्गमापद्वारा पुष्यम् ०१० I १११ • अगपएसता 16 अो गखभसयस मिट्टि - नेकस्तम्भशतसन्निविष्ट - त्रि० । ७ तo | अनेकेषु स्तम्भशतेषु सनिविष्टे । ७ ब० यत्र वा श्रनेकानि स्तम्नशतानि सन्निविष्टानि । भ० श० ३३ उ० । ० । विपा० । एगं च मदं जवणं करोति श्रगस्तंभसयसन्नि विषं लील यिसालभंजियागं " झा० १ ० ० म० । अयोगगुण नाशाय अनेकगुणायक अनेकेषां मुपाददोषाणां च हायकः । बहुदोषाणां गगुणजाणए पंमिण विहिष्णू " जं० ३ वक० 1 अनेकचि त्रि० अनेकानि चित्तानि कृषिवाणि ज्यावस्गनादीनि यस्य सोऽनेकचित्तः । कृष्यादिषु व्यापृतचित्ते, आचा० १ ० ३ ० २३० ॥ अनेकजन्मन्नन्तभये, पा०वि० - जीवात्मके हरपादी "पुढवीचितमतमाया ढोसत्ता" दश० ४ ० । अणेगजोगधर अनेकयोगधर पुं० योगः कीद कलापसंबन्धः तं धारयन्तीति भनेकयोगधराः सन्धिसंप सूत्र० १ ० १ ० १ ८० । भोगस अनेकरूप-त्रि० विविधमत्स्येषु सुहममत्स्यवलमत्स्यादिषु प्रश्न० १ श्राश्र० द्वा० । अगणरपवर - अनेकनरमवर जाग्राद्य-वि० अनेकस्य मनुष्यस्य ये प्रवराः प्रलम्बा हुजा बाढवस्तैरग्राह्योपरिमेयोगपरायाः अमेयारप्रतिमेबस्थी वृक्कादी, रा० गणाम अनेकनामनन० अनेकपर्यायेषु "अणेगपरिर यंति वा प्रणेगपञ्जायति वा श्रणगणामभेदेति वा एगठा " अ० चू० १ अ० । अगणिग्गमदुवार अनैकनिर्गमद्वार-निविद्यन्ते ने कानि बहूनि निर्गमानि निःसराः यत्र प०१० प्रणेगताला राष्णुचरिष-मनेफताला परानुचरित - वि० नेके च ये तालाचराः तावादानने प्रेज्ञाकारिणः तैरनुचरित - सेवितो यः स तथा । श्र० । नानाविधप्रेक्काकारिसेविते, भ० ११ श० ४ ४०। विपा० । पुरादौ, का० १ श्र० । जं० । प्रोगदन्त- अनेकदन्त - त्रि० । अनेके दन्ता येषां ते अनेकदन्ताः। द्वात्रिंशद्दन्तेषु तं० प्रश्न० । अनेके दन्ता येषां ते अनेकदस्ता अनेकदन्त सं० - 66, अगदन्वक्ध- अनेक व्यस्कन्ध- पुं० । श्रनेकैः सचिताऽचितलकणैव्यैर्निष्पन्नः स्कन्धः अनेकद्रव्यस्कन्धः । विशिष्टैकपरिणामपरिणतसचेतना वेतनदेश समुदायात्मके स्कन्धे विशे०। याद 1 1 अगपएसता - अनेक प्रदेशता - स्त्री० । निन्नप्रदेशतायाम्, “भिप्रदेश सेवा-नेकप्रदेशता दिया" मिश्रता से अनेक प्रदेश प्रदेशयोगेन तथा निदेशक कप्रदेशयोग्यत्वमुच्यते, द्रव्या० १३ अध्या० । Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगपासंडपरिग्गहिय अज अगपासंमपरिग्गाहिय- अनेकपाखण्डपरिगृहीत- त्रि० ३ | अगवायामजोग्ग- अनेक व्यायामयोग्य पुं० । परिश्रमविशेषे, त० । नानाविधवतिभिरङ्गीकृते, प्रश्न० २ संब० द्वा० ॥ सिसा परिवाय अनेकबहु विविधविश्रमापरिनि एकाने अनेक एकजातीयोऽपि व्यक्ति दादू नयति तत आह-बहु प्रभूतं विथियो जातिभेदानाम कारः बहुविधः, प्रजुनजातिभेदतो नानाविध इति भावः । स केनापि निष्पादित विश्वास्यप्रायेन तथाविधज्ञेयादिसामग्री विशेषजनितेन परिणतो न पुन रीश्वरादिना निष्पादितो विश्वसा परिणतः। ततः पदत्रयस्थ पदयमीलनेन कर्मधारयः । नानाविधस्य भावोदते ०३ प्रति । गोगजागत्य अनेकनागस्य-शि० द्विषादिनागस्ये, नि० अगविसयनेकविषय ०ि अनेके यांसोपा- । अथवा येषां ते अनेकविषयाः प्रषितानिरूपितप्रकारतावत्सु द्रव्या० ए अध्या० । "अमायामायागयाममयुद्ध कर संते परि स्संते" अनेकानि यानि व्यायामयोग्यानि परिश्रमयोग्यानि वल्गनव्यामर्दनमल्लयुद्धकरणानि, तत्र वल्गनं उल्लल्लनं, व्यामर्दन परस्परेण मोनम, मलयुद्धानि प्रतीतानि । पतेः कृत्या शान्तः सामान्येन श्रममुपगतः परिश्रान्तः सर्वाङ्गीणं श्रमं प्राप्तः, एवंविधः सन् । कल्प० । अणेगवाल सयसंकणि अनेकन्यालवशनीय-शि०:३ स० [दर्भयजनके अमलसकि होत्या " ज्ञा० २ श्र० । या 1 अोग विहारि (ए) अनेक विहारिन् शि० वरकल्पि के, बृ० ५ ८० । ( ४४२ ) अनिधानराजेन्द्रः । - चू० २० उ० । प्रोगजाव अनेक भाव - त्रि० । बहुपर्थ्याययुक्ते, न० १४ २० ४ उ० । अगनूप अनेक शि० अनेकरूपे, २०१४८०४ ४० भोगभेद अनेक भेद- पुं० धने रुपयांचे, "अणेगपरिवा अणेगपज्जयं ति वा अणेग [णाम] भेदं ति वा एगठा " । श्र० चू० १ ० । अनेगरूप अनेकरूप श्रि० ६ ० नागाप्रकारे, " - रह हयाएं भीमाई भयेगरुवा विनिग्निगंधाएं सारं भणेगरुचाई" या ० ० ० " मुहं मोहगणे जयंत भरोगरूवा समणं चरंतं । फासा फुसंती असमंजसं च न ते सुक्खू मजसा पद्योगे " ॥ १ ॥ उत्त० १ श्र० । अनेक मित्यनेकविधं परयविषमसंस्थानादिभेदं रूपं स्वरूपमेवाभिति अनेकरूपा। त्रयोविंशतिविधाः । उत्त० ४ ० । मोगरूणा अनेकरूपधुना श्री० अनेकरूपा संख्याया अधिक धुना कम्पना यस्यां सा श्रमकरूपधुना । उत्त० २६० अनेकरूपधूनना- अनेकरूपा पासी संख्याज्ञातिक्रमणो यु गपदनेकवस्त्रग्रहणतो वा धूनना कम्पनात्मिका या सानेकरू पधूनना । उस० २६ श्र० । अनेकरूपना अधूनं कम्पनमन्यत् प्राम्यत् उ० २६ अ० । अनेकप्रकारं प्रयाणां परिमाणामुपरि नाम के, भनेकवस्त्राण्येकत्र गृहीत्वा युगपद् धूननात्मके वा प्रमादप्रत्यये प्रत्युपेक्षण मेदे ० ३ अधि"एगा मोसा अगरुचचुषा " उत्त० २६ अ० । " अणेगमपकारं कंपति, अथवा श्रगाणि एग काऊण घुण पमाणे पमायंति " पुरिमेषु खोटकेषु यत्प्रमाणमुकं भवति तद पुरिमाद यूनाधिकाया करोति । श्रो० । अयोगपरायाण-अनेकवचनप्रधान पुं० नानाविधवाव्यवहाराभि अनेकेषु विविधप्रकारेषु वचनेषु प्रधान मुख्यः । अनेकधा वचनप्रकारश्चायं निजशासनप्रवर्तनादी"प्रादायमधुरं मध्ये रुहं ततः परं कटुकम्। भोजनविधिम विबुधाः, स्वकार्यसिद्ध्यै वदन्ति वचः " ॥ १ ॥ अथवा-" सत्यं मित्रैः प्रियं स्त्रीभिरलोकमधुरं द्विषा । अनुकूलं च सत्यं च, वक्तव्यं स्वामिना सह " ॥ २ ॥ इति । जं ० ३ वक्ष० । 1 - , 66 योगसामने सापृपृजित कि० अनेकसाध्याथरिते, दश० ॥ अ० २३० - अग सिकनेकसिक पुं० एक समये के सिद्धाः अनेकसिकाः । प्रश्न० १ श्राश्र० द्वा० एकसमये ट्र्यादिष्वष्टशतातेषु स्था० १ ० १ उ० नं० । अनेके च एकस्मिन् समये सिज्यन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेदितव्याः । यस्मादुक्तम् बीसा अभयाला, सही बाबचरी य बोधव्या । चुलसी उम्र, रहियतरस्यं च ॥ १ ॥ श्रस्याविनेयजनानुग्रहाय व्याख्या- अर्थ समयान् यावन्निरतरमेकवयो शित्पर्यन्ताः सन्तः प्राप्यमुभयति ? - प्रथमे समये जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कर्षतो द्वात्रिंशत्सयन्तः प्राप्यन्ते, द्वितीयेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कतो एयं यावदशमेऽपि समये यको कोठाततः परममन्त शत्पर्यन्ता निरन्तरं सिन्द्रयन्तः सप्त समयान् यावत्प्राप्यन्ते परतो नियमादन्तरम् तथा एकोनपञ्चाशदादयः पितरं सिद्धपसमा पादचाप्यन्ते परतोऽदश्यन्तरम् तथा एकपादयन्ति निरन्तरं सिद्धान्त उत्कर्षत पञ्च समयान् यावदवाप्यन्ते, ततः परमन्तरम्, त्रिसप्तत्यादयअनुरतिपर्यन्ता निरन्तर सिद्यन्त उत्कर्षसम यान् यावत्, तत ऊर्द्धमन्तरम् । प्रज्ञा० १ पद । अन्ये तु व्याचकते - श्रष्टौ समयान् यदा नैरन्तर्येण सिद्धस्तदा प्रथमसमये जघन्येनैकः सिद्ध्यति, उत्कृष्टतो द्वात्रिंशदिति । द्वितीयसमये अनेक त्रास सर्वका समयः, उत्कृष्टतो गाथार्थोऽयं नावनीयः 'वती सत्यादि' । स्था० १ ० १ ० पा० श्रा० न० । ध० । भोगाइम अनेकागमनीय-म०होन अनेकहिची गम्यत इति अनेकागमनीयम् । बहुदियमेगन्तव्येऽध्वनि, नि० चू० १६ उ० । श्राचा० । अनेज-वि० निष्कम्पे, "कम्ये "आ००। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५३) श्रणेयाजय अभिधानराजेन्डः। अणोवयमाण अणेयाउय-अनैयायिक-त्रि० । न्यायेन चरात नैयायिकः, न | अणोज्जंगी-अनवद्याकी-खी। जगवतो महावीरस्वामिनो नैयायिक अनैयायिकः । असन्यायवृत्तिके, "अपमिपुष्ये दुहितरि जमालिगृहिण्याम, श्रा०म० द्वि० । श्रा० चू। अणेयाउए असंमुझे"। सूत्र०५ श्रु० २ ० । अणोज्जा-अनवद्या-स्त्री०। महावीरस्य हितरि, कल्प० । श्रणेलिस-अनीश-भिवा नाऽन्यत्र ईदृशमस्तीति अनीदृशम्। श्रा० क०। प्राचा। श्राचा० १ श्रु०६ अ०१ना अनन्यसदृशे काहितीये, सूत्रः। अणोत्तप्प-अनवत्राप्य-त्रि० । अविद्यमानमत्रत्राप्यमवत्रपणं "जे धम्म सुरुमक्वाति, पमिपुमा मलिसं"। सूत्र०१ श्रु० ११ अ० । अतुले , सूत्र० १ श्रु० ६ अ० । सज्जनं यस्य सोऽयमनवत्राप्योऽअजनीयः । अहीनसाङ्गत्वेअणेवंजय--अनेवंजूत--त्रि०। एवंप्रकारमनापन्ने , "प्रणेवं नूयं पि नालजाकरे, प्रव० ६४ द्वा० । दशा। वेयणं वेदति"यथा बद्धं कर्म नैवंजूताऽनेवनूता अतस्ताम,श्रयन्ते अणोत्तप्पया-अनवत्रप्यता-स्त्री०। असजनीयशरीरतायाम , ह्यागमे-कर्मणः स्थितिघातादय इति । ज० ५ श० ५ उ० । व्य० ६ १० । (विशेषार्थस्तु 'अणवतप्पया' शब्दे भणेसणा-अनेषणा-स्त्री०। ईषदर्थे नञ् । न एषणा अनेषणा।। भागे ३०२ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) प्रमादादेषणायाम् , ध० ३ अधि ।"असणाए पाणेसणाए | अणाकामज्जमाण-अनुपध्वस्यमान-निका माहात्म्यादपात्यपाणनायणाए वीयभोयणाए अणेसमाए" । इदमुक्तं प्रचति- मान, श्रा० । "अणेसणाए अणन्तरण दोसेण संकिता असणाए तुहा मह-| अणोम-अनवम-त्रि० । मिथ्यादर्शनाऽविरत्यादिविपर्यास्ते, स्स सकारेण गहिता" श्रा०४ अ01से एसणं जाणमणेसणं | आचा० १ श्रु० ३ ० २ उ०। च" एषणां गवेषणग्रहणषणादिकां जानन् सम्यगवगच्छन्ननेप- mumar-अवमानतर-त्रि० । अतिशयेनासङ्कीर्णे, णां चोद्गमदोषादिकां तत्परिहारं विपाकं च सम्यगवगच्छन् । सूत्र १ श्रु०१३ ० । १३ श०४ ००। अणेसणिज-अनेषणीय-त्रि० । एष्यत इत्येषणीयं कल्प्यम् , अणोरपार-अनर्वापार-त्रि० । अर्वाग्भागपरभागवर्जिते, तनिषेधादनेषणीयम् । न. ५ श० ५ ० । केनचिद्दोघेणाऽशु पश्चा० १५ विव० । प्रसन्धाऽपरपर्यन्ते, संघा० । विस्तीर्णके, सूत्र०१श्रु०६० । आचा० । नत्त । साधुनाऽग्राह्ये, स्वरूपे, प्रश्न. ३ आश्र0 द्वा०। “अणोरपारं पागास वेव उत्त० २० अ० । एभ्यते गवष्यते उद्गमादिदोषविकलतथा निरालंबं" महत्वादनर्वापारम् । प्रश्न. ३ आश्रद्वा० । साधभियंत् तदेवणीयं कम्प्यं , तनिषेधादनेषणीयम् । स्था० "जह समिक्षा पन्भट्टा, सागरसलिसे अणोरपारम्मि त्ति"अणोर३०१० । पिं० । “पूयं अणेसणिज्जं च, तं विज्जं परिजा पारमिति देशीयवचनं प्रचुरार्थे; उपचाराद् आराद् भागपरभाग णिया"। सूत्र: श्रु० अ० । रहिते, प्रा०म० द्वि०। अनेषणीयपरिहारमधिकृत्याह अणोलय-देशी-कणरहिते, निरवसरे च । दे० ना १ वर्ग । नयाई च सहारन्ज, तमुहिस्सा य ज क । अणोवणिहिया-अनौपनिधिकी-स्त्रीन विद्यते वक्ष्यमातारिसं तु ण गिएहेज्जा, अन्नपाणं सुसंजए ॥१॥ णपूर्वानुपूर्वानुपादिक्रमेण विरचनं प्रयोजनं यस्य इत्यनापअभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च प्राणिनस्तानि नूतानि प्राणिनः पनिधिको । व्यानुपूर्विन्नेदे, यस्यां वदयमाणपूर्वानुपूर्व्यादिसमारज्य संरम्भसमारम्भारम्भैरुपतापयित्वा तं साधुमुद्दिश्य क्रमेण विरचना न क्रियते साध्यादिपरमाणुनिष्पन्नस्कन्धविषसाध्वर्थ यत्कृतं तदकल्पितमाहारोपकरणादिकं तादृशमाधा या आनुपूर्त्या अनौपनिधिकीत्युच्यते। अनु० । कमदाषदुष्ट सुसयतः सुतपस्वी तदनं पानकं वा न भुञ्जीत । अणोवम-अनुपम-त्रि०ान विद्यते उपमा यस्यासावनुपमः । तुशब्दस्यैवकारार्थत्वानेवाभ्यवहरेदेवं तेन मार्गोऽनुपासितो| अतले." अतुलसुहसागरगया अब्वावाहं अगोवर्म पत्ता " भवति । सूत्र. १ श्रु० ० अ०। औ०। सारा अणेह-अनेहस्-पुं० । कालद्रव्ये, द्रव्या० १२ अध्या० । अणोवमदंसि (ण)-अनवमदर्शिन-पुं० । अवमं हीनं मिअणोउया-मनतुका-स्त्री० । न विद्यते ऋतू रक्तरूपः, शास्त्र ध्यादर्शनाविरत्यादि, तविपर्यस्तमनवमं तद्अष्टुं शीलमस्येप्रसिद्धो वा यस्याः सा अनृतुका । अरजस्कायां स्त्रियाम् , त्यनवमदर्शी । सम्परझानदर्शनचारित्रवात, प्राचा० १७०३ यस्या ऋतुकाले मासि मासि रक्तं न प्रसवति एतादृशी स्त्री अ०२०।" अरतेपयासु अणोवमदंसी णिस्समो पावेडिं पुरुषेण सार्द्ध गर्ने न धरते। स्था०५०। कम्मेहिं कोहामाणं हणिया य वीरे" प्राचा० १श्रु० ३ अ०२७० अणोकंत-अनुपक्रान्त-नि० । अनिराकृते, श्री०। अणोवमसरीअ-अनुपमश्रीक-त्रिकान० ब० । निरुपमानशोअणोग्यसिय-अनवधर्षित-न० । अव्य० स० । अवघर्षणम ने," अणोचमसरीश्रा दासीदासपरिखुडा" झा०८ अ०। वघर्षित,भाव क्तः प्रत्ययः, तस्याऽभावोऽनवधर्षितम् । भूत्यादि अणोवममुह-अनुपमसुख-न० । न विद्यते उपमा स्वाभाविनाऽनिर्मार्जने, जी. ३ प्रतिकारा० । “अणोग्घ (ह) सियाण कात्यन्तिकत्वेन सकलव्याबाधारहितत्वेन सर्वसुखातिशायिम्मलाए छायाएस ततोचेव समणुबद्धा" अनवधर्षितेन निर्मला वाद्यस्य तत्सुखमानन्दस्वरूपं यस्मिस्तत् । मोक्कसुखे, " ठाणतया छायया समनुबका युक्ताः। (श्रादर्शकाः) जी० ३ प्रति। मणोवमसुहमुवगयाणं " इति । सम्म० १ कापम । अणोज-अनवद्य-विः । निर्दोघे, ज्ञा० अ०। अयोवयमाए अनवपतत्-त्रि० । अनवतरति, “मणोक्यमा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४) प्रणोवयमाण अभिधानराजेन्पः। अमइ (गि)लाय हिं ब्वयंति " प्राचा० १ ० ५० १ १० । "तत्सवितुर्वरेण्यम् " इति । वशम्दो वाक्यानडारे शेयः,२ प्रणोवलेवय-अनुपलेपक-त्रि० । कर्मबन्धनरहिते, प्रभा २ | पाण्ये श्त्याकारसोपः। ब्रहमतेन गायत्रीब्याक्या-जै० गा। भाभदा। अम्मश्न-देशी-तृप्तार्थे, दे० मा० १ वर्ग। अणोवसंखा-अनुपसङ्ख्या -त्री० । संख्यानं संख्या, परि- श्रम (ब)इ (गि) साय-अमरसायक-पुं०। म भो दः । नप सामीप्येम संख्या उपसंख्या। सम्यग्यथाऽयस्थिता- जनं विना म्लायतीति अन्नग्लायकः। अनिग्रहविशेषात् प्रातरेव अर्थपरिज्ञानम् । नोपसंख्या अनुपसंख्या । अपरिकाने, “अणो- दोषानजि, औ० प्र० । सूत्र। . वसंखा पति ते उदाह, बहे सभो नास भम्ह एवं" सूत्र रायगिहे जाव एवं पयासी-जावश्यं ते ! अलगि२४० १२ अ०। लायए समणे निग्गंथे कम्मं णिलरेति एवइयं कम्मं परअपोवाहिय-अनुपषिक-त्रि । व्यतो हिरयादिकभापतो एम् णेरझ्याणं वासेणं वासेहिं वा वाससरण वा खविंति। मायया रहिते, प्राचा० १७०४०१० होणढे समहे । जावइयं ण नंते ! चउत्थभलिए सपणे प्रयोसहिपत्त-भनौषधिमात-त्रि० । औषधिबलरहिते, माय दिग्गंधे कम्मं णिजरेति, एवं कम्मं णरएमु णे४० रइया वाससपण बा वाससतेहिं वा वाससहस्सेण वा खअपोसिय-अनुपित-त्रि० । अव्यवसिते. सूत्र० १ २१४०।। वयंतिणो "अणोसिएणं न करेति णशा" ध०३ अधि। णडे समढे । जावश्यं एं भने । उट्ठजाए अशोहंतर-अनोपन्तर-पुंन श्रोधतरः । संसारोतरणं : समणे णिग्गंये कम्मं णिज्जरेंति, एवश्यं कम्मं गरएमु स्यनले, "अणोहंतरा पए, ग्वय श्रोहंतरितए " या १ रइया वाससहस्सण वा वाससहस्सेहिं का वाससयसहशु०१० ३ ०। स्सेण वा खवयंति ?, णोइणढे समहे । जावतियं णं भंते ! प्रणोहट्टय-अनपघट्टक-त्रि०। अविद्यमानोऽपघट्ट याया अहमभ तए समणे णिग्गथे कम्मं पिजरेइ, एवश्यं कम्म प्रवर्तमानस्य हस्तग्रहादिना निवर्तको यस्य स 100 परपसु रझ्या बाससयसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं भावाचस्तादी गृहीत्वा निवारकेणाऽनिवारिसे स्वच्छन्दप्रवृ- या वासकोमोर वा खवाते ?, गो इणढे समद्धे । जावरणं से, विपा०१ २०५01: तदेणं सा समदा मजा अगोद- भंते ! दसमजत्तिए समणिगंथे कम्म णिज्जरेक, एवट्टिया प्रणिवारिता सञ्छंदमती" मि०३वर्ग। इयं कम्मं पर एसुणेरड्या बासकोमीर या बासकोडी हिं प्रयोहारेमाण-अनक्यारयत्-त्रि० । अनवबुध्यमाने, दा० २६ / वा दासकोडाकोडीए वा खवयंति ? मोजावे समटे । मे अष्ट०। केणद्वेण जंते! एवं बुखा। जावश्यं अमगिलायए समाणे अणोहिया-अनोधिका-श्री। अविद्यमानजलाधिकायाम,भ० णिग्गये कम्मं एि नरेश, एवश्यं कामं शरएसु गरइया १५ श० १ उ०। बासेण वा नासेहिं वा वाससएण वा यो खवयंति, जावअनहा-स्त्रौ । प्रतिगहनत्वेनाविद्यमानोहायाम्, " पगं महं श्यं ननस्थभत्तिए एवं तं देव पुच्चभणिय सञ्चारेयवं अगामियं भणोहियं निनावायं दीहमखं" म० १५० १००। प्रएण(ब)-अन-न० । भनित्यनेन अनु-नन्। श्रग्रने प्रति अद जाव वासकोमाकोडीए माणो वधयति गोयमा! से के था। "अन्नाएणः" शाति सूत्रनिपेशाव अत्रार्थनयाम बहाणामए केइ पुरिसे जमे जराजजरियदेहे मिटिलतया जग्धिः । वाचबिएममएमकादिके, उत्स. १५० । शने पलितरंगसंषिणकगते पविकपरिममियतसेढी उपहामोदकादिके भक्ष्य, उत्त०२० अ०। श्रोदनादिके, सूत्र. १७० निए तएहालिाए पातुरे जिते पिवालिए चले कि४०२ उ० । भोजने, सूत्रः १७०२म० । उत्त० । मो०। लते पूगं मई कोसंचगंडियं तुर्क जमिलं गंविध्वं चिक्कणं अन्य-त्रि०। निजे, सरशे च । चाच० । 'अहं' पृष पाइदं अपत्तियं मुंमेण परसुणा अकम्मेज्जा तए णं से गित्यर्थः । नि० चू०१० मम । प्रधाः । स्वाति मुरिसे महंताई सराई करेई, जो महंताई महंताई दलाई रिके, द्वा० २५मा० । प्रश्न सर्वनामता चास्व, ०२ श०५०।"नो अमदेवे नो प्रोहिं देवाएं देवीश्री अजिजुजिय श्रवदानेइ, एवामेव गोयगाणेरइयाणं पावाई कम्माई भभिहांजय परियारे" भ०१श०५४०। "मपणेदि हवे गादीकयाई चिकणीकयाई एवं जहा छट्टसए जाच गो एवमाइणो" श्री राधा सूत्र । अन्यनिक्षेप:-"माणे महपज्जवसाणा भवंति । से अहाणायए के रिसे - शकतं पुण, तदसमादेशो चेव" अन्यस्य नामादिषाविधी निकैपलतमामस्थापने कुपणे, अन्यान्यत त्रिधा तदन्यत, हिगरणे पाउमाणे बहता जाव लोपन्तवम मा जवति । अन्यान्यत् , आदेशान्यच्चेति, व्यपरवश्वमिति। स०। से जहा सामए के पुरिप्से ताणे बाजार मेहावी -- आणे-च-न । अकारादी वर्णे, गमनस्वनावे, त्रि । अझे, पुणसिप्पोवगए एगं मई सामनिगडियं उके अजाईलं गविसं अचिकाएं प्राइदं संपत्ति अनिनिक्रवण परआगर अ० अरामते उचार्यत इति खाण्यम् । प्रणिधेये, साणा अकमज्जा, तए से परिसे पो महंताई महंताई Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४५) अभिधानराजेन्द्रः । अखर (गि) लाय सदाई करेइ, महंताई महंताई दलाई अवदाने, एवाम गोयमा ! समणा शिग्गंचायां अहाबादराई कम्पाई सिदिल का पिट्ट जान खिप्पामेव परिविकत्थाई भवंति वह तावइये जान पावसाथा जवंति से जड़ा वा के पुरिसे सुके तहत्यगं जाव तेयंसि पक्खिवेज्जा, एवं जहा बडसर तहा योकवले वि जाव पज्जवसाला भवंति से तेलट्टे णं गोयमा ! एवं वुच्च जावइयं गिarre समणे ग्गिंथे कम्मं णिज्जरेइ, तं चैव जान कोमाकोटी वा यो स्ववर्यति ॥ " ( अन्नगिलायतेति ) अन्नं विना ग्लायति ग्लानो भवतीति नायकः । प्रत्यग्रकूरादिनिष्पति यावद् बुद्धज्ञातुरतया प्रतीकिंतुमनुदय पवितरादि प्रातरेव बुझे डुमायइत्यर्थः । चूर्णिकारेण तु निस्पृहत्वात् " सीयकूर भोई अंतपंताहारो सि” व्याख्यातम् । अथ कथमिदं प्रत्याय्यम्, यदुत नारको महाकष्टापन महताऽपि कालेन तावत्कर्म न कपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति । । उच्यते दृष्टान्ततः। स चायम्- [से जहा नामए के पुरिसे त्ति ] यथेति दृष्टान्ते, नामेति संज्ञावने, 'रे। [सेति ] स पुरुषः [ जुझे] जीर्णो हानिगतदेदः । स च कारणवशादवृद्धभावेऽपि स्यादत आह(जराजरियदेद्देति व्यकम (सिढिलया बलितरंगसंपिणद्धगते ति) शिथितया त्वचा वक्षितरङ्गैश्व संपिनद्धं परिगतं गात्रं देहो यस्य स तथा । ( पविरल परिसमियदंत सेढि त्ति ) प्रविरलाः केचित्केचिच्च परिशटिता दन्ता यस्यां सा तथाविधा श्रेणिर्दन्तानामेवं यस्य स तथा । ( आउरे ति ) श्रातुरो दुःस्थः [ प स ] तितिक इति श्रीकाकारः । (दुबला [किल] मनमं गतः पर्वरूपो दिपुरुष छेदने समयौनवत्येवं विशेषितः (कोसंवर्गामिजयंति ) ' कोसंवति' वृकविशेषः, तस्य गरिमका सरडविशेयस्ताम् । ( जमिति ) जटावर्ता वलितोपलितामिति वृद्धाः । (गति) अधिमती (चिह्नणं ति) दणस्कन्धमिष्यन बातम्यादियां विशिष्टज्योपदिग्धाम्, वक्रामिति युकाः। (पति) अपत्रिकां अविद्यमानाधाराम एवंभूताच ग परीमका दुश्चेद्या भवतीत्येवं विशेषिता, तथा परशुरपि मुण्डोछेदको भवतीति मुण्ड इति विशेषितः शेषं शक यावत्पष्ठशतवढ्यास्येयमिति । ज० १६ श० ३ ४० । -अन्योक्त-षिः अविवेकिनः कथिते, श्रीग उत्थिय-अम्ययूधिक पुं० नादन्यपूर्ण सा स्तरं, तीर्थान्तरमित्यर्थः; तदस्ति येषां ते ऽन्ययूथिकाः । उपा० १ अ] त्या पेयाऽन्येषु श्र० । चरकपरिव्राजकशाक्याssजीवकवृकश्राचकप्रभृतिषु नि०यू० २०० । परतीर्थिकेषु, औ० । ज्ञा० नि० ० । श्राचा० । सरजस्कादिषु श्राचा० १ ० १ अ० १ उ० । तीर्थान्तरीयेषु कपिलादिषु का० १० प्र० । ( १ ) अन्ययूथिकाः कालोदायिप्रभृतयः । ( २ ) श्रम्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तिषु इदजविकस्य परअधिकस्य वाऽयुष चितिपतिः । ( ३ ) एको जीव एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोतीत्यत्र अन्ययूथिकैः सह विवादः 333 (४) ललितमित्यादिकर्मादिषु कुर्तीर्थि तिपतिः । (५) एकस्य जीवस्यैकस्मिन् समये क्रियाश्यकरणे यूथिकैः सह विप्रतिपतिः । (६) मतादानादिक्रियाविषये ऽत्ययूथिकासह विप्रतिपतिः । ( 3 ) भ्रमणानां कृता किया क्रियेत नवेत्यत्र विवादः । (८) प्रातिपातानी विरमणादी वर्तमानस्य जीव यो जीवोsयो जीवात्मेति विप्रतिपत्तयः । (९) परिचारणा कालगतस्य निर्ग्रन्थस्य भवति न वेति वि वादः । उत्थिय (१०) मते अन्यधिकमतोके ये तयोर्विवादः। (११) भाषाविषये ऽभ्यधिका मनोपन्यासः । (१२) पञ्चयोजनशतानि मनुष्यलोको मनुष्यैर्बहुसमाकीर्णः। (१३) सर्वे जीवाः अनेवंभूतां वेदनां वेदयन्ते इत्यत्र विवादः । (१४) शीतं श्रेय इत्यत्रान्यधिकैः सह विवादः । (१४) सर्वसुखविषयेविप्रतिपत्तयः । (१६) राजगृहनगरस्य बहिर्वैनारपर्वतस्याधःश्वस्य हृदस्य विषये विप्रतिपत्तयः । (१७) संसर्गस्तु कालादिभिः सदन समापरीय इत्यत्रागाढवचनम् । (१०) उदयोगान्यधिक सहन समाचरणीया । (१०) तथाभ्यधिकेरूपकरणरचना | (२०) तथा सूची प्रत्युपकरणान्यन्य पिके नकारा (२१) तथा शिक्यकादिकोपकरणकारणम् । (२२) अन्ययूथिकादिभिः सह गोचरचर्यायै न प्रविशेत् । (२३) (दाम) अन्वयुधि के ज्योऽशनादि देव (२४) तथा धातुप्रवेदनम् । (२५) तथा पादानामा समान । (२६) तथा पदमार्गादि । (२७) तथा भूतिकर्मादि मार्गद ( २८ ) ( वाचना ) अन्ययूथिकाः पाखरिरुनो गृहिणः सुखशीला वा न प्रवाजनीयाः । (२९) विचारविहारमेव निष्क्रमण (३०) विद्वारा (३१) (शिक्षा) मन्यधिकस्य वा गृहस्य शिल्पादिशिक्षणम् । (३२)धिकादिभिः पावनम् | (२३) यधिकादिभिः सह संभोगः | (३४) अन्यधिके: सूब्युपकरणम् । (१) सत्र अन्ययूथिकामाभृत: ते काले ते समर्पणं रायगिहे नामं नयरे होत्या । पण गुण सिलए चेहए बएणओ जाव पुढविलापओ तस्स गुणसास चेपस अदुरसामंते बढ़अस्थिया परिवसति से नहा- कामोदाई, सेलातं दाई, सेवासोदा, उद नामुद नमुद पाए, सेलवार, संखवालए, मुहत्थी महावई, नए अस्थिया असणया कचाई एग यो सहिया 1 नो समु Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४६) अमनत्थिय अन्निधानराजेन्कः। अमउत्थिय बागयाण समिविट्ठाणं संनिसएगाणं अयमेयासवे मिहो- स्थाने समागतानामागत्य च (सन्निविट्ठाणं ति) उपविष्टानाम्, कहासमुन्नावे समुप्पज्जित्था । एवं खलु समणे नायपुत्ते उपवेशनं चोत्कुटुकत्वादिनाऽपि स्यादत माह-(सन्निसप्माणं ति) सङ्गततया निषण्णानां सुखासीनानामिति यावत् । (अस्थिकाए पंच अस्थिकाए पएणवेइ धम्मस्थिकार्य जाव आगासस्थि त्ति) प्रदेशराशीन (अविकाए त्ति) अजीवाश्च तेऽचेतनाः, काकार्य । तत्थ एं समणे नायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजी याश्च राशयो अजीवकायास्तान् । 'जीवस्थिकार्य' इत्येतस्य स्वपकाए पयणवे । तं जहा-धम्मत्थिकार्य अहम्मत्थिकार्य रूपविशेषणायाह-(अरुवकायंति)प्रमूर्तमित्यर्थः।(जीवकायं ति) मागासस्थिकायं पोग्गलत्थिकायं एगं च णं समण नाय जीवन जीवो ज्ञानाद्युपयोगः, तत्प्रधानः कायो जीवकायोऽतस्तं कैश्चिजीवास्तिकायो जडतयाऽभ्युपगम्यते,अतस्तन्मतव्युदासापुत्ते जीवस्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पएणवेइ । तत्थ | येदमुक्तामति (से करमेयं मन्ने एवं ति) अथ कथमेतदस्तिकायब. णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अात्थकाए अरूविकाए परम- स्तु, मन्ये इति वितर्कार्थः। एवममुनाऽचेतनादिविनागेन भवतीति वेइ । तं जहा-धम्मात्थकार्य अधम्मत्थिकार्य आगसत्थिका- तेषां समुल्लापः (श्मा कहा अविष्पकमात्ति) श्यं कथा एषाऽस्तियं जीवत्यिकायं एगं च णं समणे नायपुत्ते पागलस्थिका कायवक्तव्यताऽप्यानुकूल्येन प्रकृता प्रक्रान्ता । अथवान विशेषेण प्रकटा प्रतीता अविप्रकटा । "अविनप्पकम ति" पागम्तरम् । यं स्वीकार्य अजीवकायं पपवेइ । से कहमेयं, मन्ने एवं ते. तत्र अविद्वत्प्रकृता अविज्ञप्रकृता, अथवा न विशेषत सत्प्राबणं कालेणं ते णं समए णं समणे जगवं महावीरे जाव० गुण- ल्यतश्च प्रकटा अव्युत्प्रकटा । (अयं च त्ति)। अयं पुनः (तं चेयसासिलए चेइए समोसो जाव परिसा पमिगया। तेणं काले णं त्ति)। यस्माद्वयं सर्वमस्तिनाबमेवास्तीति वदामः, तथाविधते णं समए णं समणस्स जगवो महावीरस्स जेट्टे अंते संवाददर्शनेन नवतामपि प्रसिद्धमिदं तत्तस्माचेतसा मनसा "वेदसति" पागन्तरे-कानेन प्रमाणाबाधितत्ववकणेन (पयमवासी इंदनूईनामं अणगारे गोयममोत्तेणं एवं जहा विति ति) अमुमस्तिकायस्वरूपलकणमर्थ स्वयमेव प्रत्युपेकध्वं एसए नियंदुद्देसए जाव जिक्खायरियाए अममाणे - पर्यालोचयतेति। हापज्जत्तं भत्तपाणं पमिलानेमाणे श्रायगिहाओ जाव तेणं कालेणं तेणं समए णं समणे भगवं महावीरे महाअतुरियमचवलं जाच चरियं सोहेमाणे तेसिं प्रमाउत्थि कहापमिवएणे या वि होत्था। कालोदाई य तं देसं हव्वयाणं अदूरसामंतेणं वीईबयइ, तए णं ते अपउत्थिया मागए कालोदाइ ति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं भगवं गोयमं अदरसामंतेणं वीश्वयमाणं पासंति, पासश्त्ता वयासी-से नणं ते कालोदाई एणया कयाई एगयो असम सदाति, सदावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु दे सहियाणं समुवागयाणं सहेब जाव से कहमेयं मएणे एवं वाणप्पिया! अम्हं श्मा कहा अविपकडा, अयं च गं गोयमे अदरसामतेणं वाईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया। से नणं कालोदाई अढे समठे। हंना! अस्थि । तं सच्चेणं एवमढे कालोदाई! अहं पंच अस्थिकाएपएणवेमि, तं जहाअम्हंगोयम एयमढं पुच्छित्तए तिकडु अप्सममस्स अंतिए धम्मस्थिकायं जाव पोग्गलस्थिकायं तत्थ णं अहं चत्तारि एयमढे पमिसुणंति, परिसुणंतित्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव अस्थिकाए अजीवकाए अजीवत्ताए पएणवेमि, तहेव जाव नवागच्छति, उवागच्चंतित्ता भगवं गोयमं एवं क्यासी-एवं एगं च णं अहं पोग्गलत्थिकार्य रूचीकायं पाणवेमि, तखल गोयमा! तव धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे नायपुत्ते एणं से कालोदाई समणं जगवं महावीरं एवं वयासीपंचअस्थिकाए पएणवे। तं जहा-धम्मत्थिकायं जाव आ एएसि ण नंते ! धम्मस्थिकायंसि अधमत्यिकार्यसि गासस्थिकायं तं चेव जाव रूविकायं अजीवकार्य पएण भागासस्थिकायंसि अरूवी कायंसि अजीवकार्यसि चकिबेई । से कहमेयं गोयमा! एवं ?, तए णं से भगवं गोयमे या केइ पासइत्तए वा चिट्ठित्तए वा निसीइत्तए वा सहते अहानस्थियं एवं बयासी-नो खलु देवाणुप्पिया !अ तए वा जाव तुयाट्टित्तए वा। नो इणसमटे । कालोदाइ! त्यिनावं नत्यित्ति वयामो, नत्यिनावं आत्थि त्ति वयामो, एयंसि एं पोग्गलस्थिकायंसि स्वीकार्यसि अजीवकार्यसि अझे ए देवाणुप्पिया! सव्वं अत्थिजावं अत्थि ति वया चकिया के आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा । एयाम णं मो, सव्वं नत्थिनावं नत्यित्ति वयामो, तं चेयमा खलु तु ते ! पोग्गलस्थिकायंसि रूवीकार्यसि अजीवकायांस ने देवाणुप्पिया ! एयमढे सयमेव पच्चुवेक्खह तिकडु ते जीवाणं पावाणं कम्माणं पावफलविवागसंजुत्ता कजति । भएणनथिया एवं वयासी-जेणेव गुणमिलए चेइए जे णो इणहे समढे । कालोदाइ ! एयसि एणं जीवत्यिकार्यसि णेव सपणे भगवं महावीरे एवं जहा नियंठुद्देसए जावन अरूविकायप्ति जीवाणं पाया कम्मा पावफन्नविवागसंजुत्ता तपाणं पमिदसेइ, पमिदंसेत्ता समण भगवं महावीरं बंद कति ? हंता! कज्जति। एत्य णं से कालोदाई संबद्धे नमंसह नन्चासणणे जाव पज्जुवास ।। समएं जगवं महावीरं वंदा नमसइ । नमसत्ता एवं क्यासी(तेणमित्यादि) (एगो समुवागयाणं ति) स्थानान्तरेज्य एकत्र | इच्छामि णं ते ! तुज्कं अंतियं धम्म निसामेत्तए एवं जहा Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४७) श्रम उत्थिय भनिधानराजेन्डः। अमनस्थिय खंदए तहेव पन्चइए तहेव एकारस अंगाणिज्जाव विहरइ, वत्ताए जाव नो दुक्खत्ताए जुज्जो नुज्जो परिणमा । एवं तएणं समणे जगवं महावीरे अप्पया कयाइंरायगिहाप्रोणय- खलु कालोदाई ! जीवाणं कराणकम्मा० जाव कजति । राओ गुण सिखाओ चेश्याओ पमिनिक्खमइ । पडिनिक्खा- दो नंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसनंडमत्तोवगरणा मइत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तेणं काले णं ते णं स- अम्ममप्मेणं सद्धिं अगणिकायं समारंभंति, तत्थ णं एगे मएणं रायगिहे नामं नगरे गुण सिलए नामं चेश्ए होत्था। पुरिसे अगणिकायं नज्जाले, एगे पुरिसे अगणिकाय नितएणं समणे जगवं महावीरे अप्पयाकयाई जाव समोसले व्वावेइ । एएसिं णं नंते ! दोएहं पुरिसाणं कयरे पुरिसे जाव पमिगया,तएणं से कालोदाई अणगारे अमया कयाई महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए जेणवे समणे जगवं महावीरं तेणेव उवागच्छ ।उवागच्छश्त्ता चेव महावेयएनराए चेव?, कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए समणं जगवं महावीरं वंदइ नमसइ। नमंसश्त्ता एवं वयासी- चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव, जे वा से पुरिसे अगणि(महाकहापवित्रेत्ति) महाकथाप्रबन्धेन महाजनस्य त कायं नजाले, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निम्बावे ? स्वदेशना ( एएसि णं ति ) एतस्मिन्नुकस्वरूपे ( चक्कि-| कालोदाई ! तत्य णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, या के ति ) शक्नुयात्कश्चित् । ( एयांस ण ते ! से पं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाब महावयणतराए पोगगलस्थिकायसीत्यादि ) अयमस्थ भावार्थ:-जीवसंबन्धी- चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निब्यावेइ , नि पापकर्माणि अशुभस्वरूपफझलकणविपाकदायीनि पु- से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव० जाव अप्पवेयणतराए दूगलास्तिकायेन भवन्ति, अचेतनत्वेनानुभववर्जितत्वात्तस्य, जीवास्तिकाये एव च तानि तथा जवान्त । अनुभवयुक्तत्वा चेव । से केणढे णं जंते ! एवं वुच्च तत्थ एंजे से पुरिसे तस्येति प्राकालोदायिप्रश्नद्वारेण कर्मवक्तव्यतोक्ता । अधुना जाव अप्पवेयणतराए चेव ? | कालोदाई ! तत्थ णं जे से तु तत्पश्चद्वारेणैव तान्येव यथा पापफसविपाकादनि जवन्ति । पुरिसे अगणिकायं उज्जालेश, से णं पुरिसे बहुतरायं पुढवीतथोपदर्शयिषुः कायं समारंभइ, बहुतरायं आनकायं समारंजइ, अप्पतरायं अस्थि णं ते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग-1 तेउकायं समारंजइ, बहुतरायं वानकायं समारंजइ, बहुतसंजुत्ता कजति । हता! अस्थि । कहं गंजते! जीवाणं पा रायं वएस्सहकार्य समारंजइ,बहुतरायं तसकायं समारंभ, वा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजंति । कालोदाई ! से तत्थ एंजे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेइ, से एं पुरिसे जहा नामए केइ पुरिसे मणुमं थालीपागसुषं अट्ठारस अप्पतरायं पुढविकायं समारंजइ, अप्पतरायं आनकायं स. वंजणाउलं विप्तमिस्सं नोयणं भुजेज्जा, तस्स लोयणस्स मारंभइ, बहुतरायं तेनकायं समारंभइ, अप्पतरायं वाउकायं आवाए जद्दए जवइ, तो पच्छा परिणममाणे २ दुरू समारंभइ, अप्पतरायं वएस्सइकायं समारंजइ, अंप्पतरायं बत्ताए पुग्गंधत्ताए जहा महस्सवर जाव तज्जो भुज्जो तसकायं समारंजइ, से तेणढे णं कालोदाई ! जाव अप्पपरिणमइ, एवामेव कालोदाई! जीवाणं पाणाइवाए जाव | वेयणतराए चेव ॥ पिच्छदसणसद्धे तस्स णं आवाए जद्दए भवर, तो (अस्थि णमित्यादि) अस्तीदं वस्तु यदुत जीवानां पापानि पच्छा परिणममाणे २ उरूवत्ताए भुजो नुज्जो परि कर्माणि, पापो यः फलरूपो विपाकः, तत्संयुक्तानि भवन्ती त्यर्थः । (थालीपागसुई ति) स्थाल्याम्-नवायां,पाको यस्य तत् णमा, एवं भुजो भुजो कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा स्थालीपाकम, अन्यत्र हि पक्कमपक्कं वा; न तथाविध स्यादितीदं जाव कजंति । अस्थि णं जंते ! जीवाणं कराणकम्मा विशेषण शुरूं भक्तदोषवर्जितं ततः, कर्मधारयः। स्थानीपाकेकमाणफलविवागसंजुत्ता कज्जति ?। हंता अस्थि । कहं नवा शुद्धमिति विग्रहः। (अधारसवंजणाउलं त्ति) अष्टादशभिणं नंते ! जीवाणं कमाणकम्मा० जाव कजंति ?। कालो नोकप्रतीयंजनैः शालनकैः तकादिभिर्वा; आकुलं सङ्कीर्ण दाई ! से जहा नामए केइ पुरिसे मामं थालीपागसुदं यत्तत्तथा । अथवाऽधादशभेदं च तद्व्य ञ्जनाकुत्रं चेति । अत्र भेदपदलोपन समासः । अष्टादश नेदाश्चैते-"सूश्रो १दो २ अट्ठारसवंजणाउनं श्रोसह मिस्सं नोयणं मुंजेजा, तस्स णं | जवएणं ३, तिन्नि य मंसा ६ गोरसो ७ जूसो ८ । भक्खा भोयणस्स आवाए नो भद्दए जवइ, तो पच्छा परिणम गुल लावणिया १०, मूलफल ११ हरियगं १२ मागो १३॥१॥ माणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवात्ताए जाव महत्ताप होय रसालू य १४ तहा, पाणं १५ पाणीय १६ पाणगं चेव १७ नो सुक्खत्ताए भुजो भुज्जो परिणमइ, एवामेव कालोदाई! अट्ठारसमो सागो १०, निरुवहशी लोइलो पिमो" ॥२॥ तत्र जीवाणं पाणावायवेरमणे जाव परिग्गहवरमणे कोह मांसत्रयं जलचरादिसत्कं,जूषो मुदगतन्दुलजी रक.कटुभाएमा दिरसः, भक्ष्याणि खएमखाद्यादीनि, गुललावणिया गुलपर्णविगे जाब मिच्छादसणसवाविवेगे तस्स एणं आवाए नो टिका लोकप्रसिका, गुमधाना वा । मूलफलान्येकमवे पदं, जहए भवइ, तो पचा परिषममाणे परिणममाणे सुरु- | हरितकं जीरकादि, डाको बास्तुकादिभर्जिका, रसाबू मजिका, Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४७) प्रमनस्थिय अनिधानराजेन्छः । प्रमनस्थिय समक्षणं चेद-"दो घयपला महु पलं,दहिस्सलाढय मिरियवी-| कांदा गमनस्वनावेऽतिदेशे तदर्षादौ निपततीत्यर्थः। क्त्वासादिस खंडगुलपलाई,एस रसावू निवजोगों"॥१॥ पानं सुरा- प्रत्ययपकोऽप्येवमेव । (जहिं जहिं च त्ति) यत्र यत्र दूरे वा दि, पानीयं जलं, पानकं बाकापानकादि, शाकस्तऋसिरति । सहशे वा, सा तेजोवेश्या निपतति (तहि तहिं ) तत्र तत्र (भावाय त्ति) आपातस्तत्प्रथमतया संसर्गः (नदए ति) मधुर- दरेतदेशे वा[तेत्ति] | तेजोलेश्या सम्बधिनः । भ० ७श. स्वान्मनोहरः (दुरूवत्ताप त्ति) दुरूपतया देतुनूततया (जहा १००। महासवर ति) षष्ठशतस्य तृतीयोदेशको महाश्रवकस्तत्र ययेदं (२) अथान्ययूथिकैः सह विप्रतिपत्तयः प्रदर्श्यन्ते, [श्रायुः] सूत्र तथेदाप्यवधेयम्। (एवामेव त्ति) विषमिश्रभोजनवत्, "जी. तत्र श्ह नविकस्य परजविकस्य वाऽऽयुषः समये विप्रतिपत्तिःपाणं पाणाश्वाए" इत्यादौ भवतीति शेषः । (तस्सणं तितस्य प्राणातिपातादेः (तो पच्छा धिपरिणममाणे ति) ततः पश्चा- Uउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्वंति, एवं भासंति, एवं दापातानन्तरं विपरिणमत् परिणामान्तराणि गच्चत् प्राणाति पएणवेंति, एवं परूवेति-एवं खल एगे जीवे एगेणं समपातादि,कार्ये कारणोपचारात प्राणातिपातादिहेतुकं कर्म (दुरूपत्ताएत्ति) पुरूपताहेतुतया परिणमति, दुरूपतां करोतीत्यर्थः। एणंदोआनयाईपकरे शतं जहा-इहभावियाउयं च परम(भोसडमिस्सं ति) भौषधं महातिक्तकघृतादि । (पवामेवे त्ति) वियाउयं च समयं इहभवियानयं पकरेऽतं समयं परनभोषधमिश्रनोजनबत् । (तस्स णं ति) प्राणातिपातविरमणादे: वियानयं पकरेइ, जं समयं परजवियाजयं पकरेइ तं समयं (भावार नो भदप नवति ) इन्छियप्रतिकूलत्वात् (परिण ज्ञानवियाउयं पकरेइ । इहभवियानयस्स पकरणयाए परप्रमाणे सि) प्राणातिपातविरमणादिपनवं पुण्यकर्म, परिणामान्तराणि गच्चद् अनन्तरं कर्माणि फलतो निरूपितानि । अथ भवियानयं पकरेइ, परभावियान्यस्स पकरणयाए हनविक्रियाविशेषमाश्रित्य तत्कर्तृपुरुषद्वयद्वारेण कादीनामल्पत्वबडु याज्यं पकरेइ । एवं खलु एगे जावे एगे णं समए णं दोभात्वे निरूपयति-(दोते!इत्यादि)(अगणिकार्य समारभंतित्ति) नयाई पकरेइ । तं जहा-इहनवियाज्यं च परभवियानयं च । तेजस्कार्य समारजेते. उपवयतः तक उज्ज्वालनन,अन्यस्तु से कहमेयं भंते ?। एवं गोयमा ! जंणं ते अमाउत्यिया विण्यापनेन । तत्रीज्वासने बहुतरतेजसामुत्पादेऽप्यल्पतराणां विनाशोऽप्यस्ति तथैव दर्शनादू। अत उक्तम्-'तत्थ ण एगे' इत्या- एवमाइक्खंतिम्जाव परजवियानयं च जे ते एवमाइंस,मिदि(महाकम्मतराए चेव त्ति)अतिशयेन महत् कर्म ज्ञानावरणा- 5 ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्वामिन दिकं यस्य स तथा, चैवशम्दः समुश्चये । एवं (महाकिरियतराए जाव परूवमि-एवं खल्लु एगे जीवे एगे णं समए णं एग चेवति) नवरं, क्रिया दाहरूपा(मदासवतराए चेव त्ति बृहत्कमबन्धहेतुकः। (महावयणतराए चेवत्ति) महती वेदना जीवानां प्रानयं पकरे । तं जहा-हनवियानयं वा परभवियापस्मात्स तया । अनन्तरमग्निवक्तव्यतोक्का। उयं वा । जं समयं इहलवियानयं पकरेइ, णो तं समयं अस्थि णं जंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओजासंति, परजरियानयं पकर, समयं परभवियाउयं पकरहे, णो उज्जोति, तति, पभासंति । हता! अस्थि । कयरे ण नंत! तं समयं इहभवियानयं पकरे । हलवियाउयस्स पकरणप्रचित्ता वि पोग्गना प्रोनासंति, जाव पनासंति। कालो याए णो परभवियानयं पकरेइ,परभवियाउयस्स णो इह नवियानयं पकरे । एवं खलु एगे जावे एगे णं समए दाई ! कुछस्स अाणगारस्स तेयलेस्सा निसहा समाणी दूरं एग आउयं पकरे । तं जहा-इहलवियाउयं वा,परभावियागता दूरं निवतइ, देसं गता देसं निवतइ, जहिं च णं उयं वा। सेवं भंते ! भंते तिजगवं गोयमे जाव विहरह।। सानियत तहिं च ते अचित्ता वि पोग्गला प्रोनासं दर्शनान्तरस्य विपर्यस्ततां दर्शयन्नाद-(भएणथिएति जाव पजासंनि। एए णं काझोदाई ! ते प्रचित्ता वि पो त्यादि ) अन्ययूथं विवक्कितसवादपरः सक, तदस्ति ग्गमा प्रोभासंति । तए णं से कामोदाई अणगारे समणं येषां ते अन्ययूधिकास्तीर्थान्तरीया इत्यर्थः । एवमिति भगवं महावीरं वंदा नमंस बहुहिं चउत्थछट्ठम० जाव वत्यमाणं (प्राकति ति) प्राण्यान्ति सामान्यतः । (जा. अप्पाणं जावेमाणे जहा पढमसए कालासोसियपत्ते लाव संति ति) विशेषतः । ( पपणवंति त्ति) उपपत्तिभिः। (पर चंतिति) भेदकथनतो इयोजीषयोरेकस्य वा समयभेदेनायुसचमुक्खप्पहीणे सेवं भंते ! तेत्ति। ईयकरणे नास्ति विरोध श्स्युक्तम् । ( एगे जीवे इत्यादि) (दो अग्निश्च सचेतनः सन्नवभासते,एवमचित्ता अपि पुद्गलाः किम-| भाउयाई पकर सि) जीवो हि स्वपर्यायसमूहात्मकः, सच घभासन्त इति प्रनयनाहअस्थि णमित्यादि] (अचित्ता वित्ति) यदैकमायुःपर्यायं करोति तदाऽन्यमपि करोति, स्वपर्यायवासचेतनास्तेजस्कायिकादयः तावदवनासन्त एवेत्यपिशनार्थः। उझानसम्यक्त्वपर्यायवत, स्वपर्यायकर्तृत्वं च जीवस्यान्युपगन्त(ोभासंति ति) प्रकाशा भवन्ति (चज्जोति ति) वस्तू व्यमेव । अन्यथा सिम्त्वादिपर्यायाणामनुत्पादप्रसङ्ग इति नापोतयन्ति। ( ततित्ति) तापं कुर्वान्त ( पनासंति सि)तथा धः । उक्तार्थस्यैव नावनाऽर्थमाह-[जमित्यादि] विभक्तिविपरिणाविधवस्तुदाहकत्वेन प्रभा बन्नन्त(कुछस्से त्तिविभक्तिविपरित माद्यस्मिन्समये, श्वभवो वर्तमानप्रवो यत्राऽऽयुषि विद्यते फलणामात् कुन दूरं गंता (दूरं निवयति) दरगामिनीति दरे तया तदिहलवायुरेवं परभवायुरपि । अनेन चेहलवायुःकरणसमये निपततीत्यर्थः । अथवा दूरे गत्वा दूरे निपततीत्यर्थः। (देसंगता | परनवायुःकरणं नियमितम् । अथ परजवायुःकरणसमये ह. दसं निवयह त्ति) अभिप्रेतस्य गन्तव्यस्य क्रमशताक्देशे तद- वायुःकरणं नियमयबाह-(जं समयं परभवियानयमित्यादि) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) निधानराजेन्द्रः । अलत्थिय मेसमयका द्वयोरप्यनिधायाकार्यतामाह [श् भविया यस्सेत्यादि ] ( पकरणयाए ति ) करणेन, एवं खवित्यादि निगमनम् । ( जपणं ते अएण्उत्थिया एवमाखंति) यानुपादाक्यस्यान्ते सत्ती न केवलमित्ययं था. नित्र " यशेषो यः (जे ते पचमासु मिच्छ्रं ते एवमाहं ( हंस) चतयन्तः धायं वर्तमान निर्देशेऽधिकृत निर्देशः स सर्वो वर्तमानः कालोऽतीतो भवतीत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थः मिथ्यात्वञ्चास्वयम एकेनाध्यवसायेन विरुयो युवोर्यन्धायोगात् । यच्चोच्यते-पर्यायान्तरकरणे पर्यायान्तरं करोति स्वपयत्वादिति । तदनेकान्तिकम् । सिद्धस्वकरणे संसारित्याकरणादिति टीकाकारम्याख्यानं तुरह भवायुर्यदा प्रकरोति वेदयत इत्यर्थः परभवायुस्तदा प्रकरोति प्रबध्नातीत्यर्थः, इहभवायुरुपभोगेन परभवायुर्बध्नातीस्वयं मिथ्या चैतत्परमतम् । यस्माज्जातमात्र जीव वायुर्वे दयते, तदैव तेन यदि परमायुर्वद्धं तदा दानाध्ययनादन वैययस्यादिति । एतच्चायुर्वन्धकालादन्यत्रायसेयम् । अन्यथाssयुर्बन्धकाले इहभवायुर्वेदयते, परभवायुस्तु प्रकरोत्येवेति । भ० १ ० ६ उ० । (३) एको जीव एकस्मिन् समये द्वे आयुषी प्रकरोतीत्यत्र अन्ययूथिकेः सह विवादः अनन्तरोकं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यग्नानिप्रतिपादि तत्वान्मिथ्याज्ञानिप्रतिपादितं त्वसत्यमपि स्यादिति दर्शयस्तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रमिदमाह - अस्थियां भंते ! एवमाइक्खंति, एवं जार्सेति, एवं पृष्ठवति, एवं परूर्वेति । से जहानामए जालगंठियाइ वा आणुपुब्बिगठिया अतरगंठिया परंपरगंठिया अामा गंजिया श्रममगुरुयत्ताए असमाजारियत्ता मागुरुसंनारियार अमघमनाए चिति एयामेन महूणं जीवाण बहू आजाइसहस्सेसु बहूई श्राउयसहस्साइं श्रणुपुत्रिगठियाई जाव चिति, एगे वि य णं जीवे एगेणं समरणं दो भाई पनिसंवेदव । तं जहा इहनवियायं च परनविया च मे समयं इनविषादयं परिसंवेदे तं स मयं परजवियायं पमिवेदे जान से हमे भंते! एवं ? । गोयमा ! जं ने अउत्थिया तं चैव जात्र परभवियाजयं च जे ते एवमाहंसु तं मिच्छा १ । अहं पुण गोयमा ! माइक्स्वामिनार असा चिति एनामेन एग मेगस जीवस बहूहिं आजाइस हस्सेहिं बहूहिं आउसाहस्सापुव्विठियाई जाव चिडंति, एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एवं उयं पडिसंवेदेइ । तं जहा - इहभविआउय या परभवा वाजे समर्थ इहजविया परिसं देड मो से समयं परजविया परिसंवेदेश, समर्थ परनवियायं परिसंवेदे णो तं समयं इहन विद्यालयं पडिसंवेदे विषापस पमिसंवेदणयाए यो परजवियाउयस परिसंवेदा, परभवियाउयस्त परिसंवेदखाए जो इद ११३ अमनत्थिय भवियापस्स परिसंवेदणा एवं खलु जीवे एगेणं समएवं एवं प्राउयं पद्धिसंवेदे तं जहां इहभविवाहवा परभािवा । [उत्थियाणमित्यादि] [जालगंठिय त्ति ] जालं मत्स्यबन्धनं, तस्यैव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका । किंस्वरूपा सेत्याह[पुब्बिडिय ति] अनुपूर्व्या परिपाठ्या प्रथिता गुम्फिता आचितमन्यीनामादी विधानादोचितानां च क्रमेणान्त एव करणात् । एतदेव प्रपञ्चयचाह -[असंतरगंठियति ] प्रथमत्रन्थीनामनन्तर व्यवस्थापितैन्धिभिः सह प्रथिता श्रनन्तरप्रबिता एवं परम्परैव्यवहितैः सह प्रथिता परम्परप्रथिता । किमुक्तं भवति - [ श्रन्नमन्नगठिय प्ति ] श्रन्योऽन्यं परस्परेण एकेन ग्रन्धिना सहान्यो प्रन्थिरन्येन च सहान्य इत्येवं प्रथिता अन्योन्यप्रथिता । एवं च [श्रश्रमन्त्रस्य साथ सिन्योऽन्येन अन्धनाद गुरुकता विस्तीर्णता, अन्योन्यगुरुकता, तथा [अन मन्नभारियताप त्ति ] श्रन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता, तया, पतस्यैव प्रत्येकोक्तार्थद्वयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमभिधातुमाह-[ अम गख्यसंभारियता ]ि अन्योन्येन गुरुकं यत्संभारिकं व तन्तथा तद्भावस्तत्ता, तथा [ श्रन्नमन्नघडत्ताप त्ति ] श्रन्योऽन्यं घटा समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता तया [ चिह्नत्ति ] आस्ते, इति दृष्टान्तः । श्रथ दाष्टन्तिक उच्यते[ एवामेव सि] अनेनैव न्यायेन बहूनां जीवानां संबन्धीनि [ बहुस्सु श्राजाइसहस्सेसु ति ] अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेष्वधिकरणभूतेषु बहन्यायुष्कसहस्राणि तस्वामिजीवानामाजातीनां च बहुसहस्रसंख्यानत्वात् । श्रनुपूर्वीचितानीत्यादि पूर्वपद् व्याख्येयम् नवरसिंह भारिकत्वं कर्मपुलापेत्तया वाच्यम् । अधतेषामायुषां को वेदन विधिरित्याह - [ एगे वि येत्यादि ] एकोऽपि जीवः आस्तामनेक एकेन समयेनेत्यादि प्रथमशतवत् । अत्रोत्तरम् - [जे ते एवमाहंसु इत्यादि ] मिथ्यात्वं चैषामेवम्-यानि हि बहूनां जीवानां चयाधिकाताम यथास्वं जीवप्रदेशेषु संबधानि स्युरसंबद्धानि वा ? | यदि संबखानि, तदा कथं भिनिन्नजीवस्थितानां तेषां जालग्रन्थिका कल्पना कल्पाये तुं शक्या?, तथापि तत्कल्पने जीवानामपि जालग्रन्थिकाकल्पत्वं स्यात्, तत्संबकत्वात् । तथा च सर्वजीवानां सर्वा संवेदनेन सर्वयजवनप्रसङ्ग शर्त । श्रथ जीवानामसंबद्धायाचि तदा तदेवादिजमेनिस्पद संबन्धादेवेति बच्चो कलम-एको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषवेदयति । सपि मिथ्या युयसंयेने युगपद्भवप्रसङ्गादिति । [ अहं पुण गोयमेत्यादि ] इह पक्के जालप्रम्धिकासंकन्निकामात्रम् । [ एगमेगस्सेत्यादि ] एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुष्वाजातिसहखेषु क्रमवृतेष्वतीतकालकेषु तत्कालापेया सत्सु बहूम्याथुस्सहस्राणि अतीतानि वर्तमाननवान्तान्यभावकम न्यभविकेन प्रतिबद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं प्रतिबकानि भवम्ति, न पुनरेकअप पनि [भवियायं वस] वर्तमानभवा [ परमादपाठयवसि ] परभवाय मानमचे निव तथा परनवे गतो यदा वेदयात व्यपदि श्यते [ परमवियातयं वति ] ॥ भ० ५ ० ३ ३० । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) अयण उत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। अमनस्थिय [४][कर्म] चलचलितमित्यादिकर्मादिषु कुतीर्थिक तिलि परमाणपोग्गला एगयओ साहणंति, ते निजमाणा सह विप्रतिपत्ति: हा वि तिहा विकजंति, उहा कन्जमाणा एगयो परअमउत्थिया नंते ! एवमाइक्वंति०,जाव परवेति । एवं मापुपोग्गल्ने पगयो उपदोसए खंधे भवइ, तिहा कज्जखलु चलमाणे अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे अनिज्जि माणा तिएिण परमाणुपोग्गला भवति, एकं जाव चत्तारि हो दो परमाणुपागला एगयो न साहणंति, कम्हा दो पंच परमाणपोग्गला एगयो साहणंति, साहणिता घरमाणुपोग्गलाणं णत्थि सिणेहकाए,दो परमाणुपोग्गला खंधत्ताएकजंति, खंधे वि यणं से असासए सया समिय एगयो न साहणति, तिमि परमाणुपोग्गला एगयो साह उवचिजइ य अवचिज्जा य पुलिंब भासा प्रभासा भासिपंति, कम्हा तिएिण परमाणुपोग्गाला एगयो साहणांत?। जमाणी नासाभासा भासासमयं वितिकतं च णं भातिशि परमाणुपोग्गसाणं अस्यि सिणेहकाए, तम्हा तिम्धि सिया भासा अज्ञासा, जा सा पुब्धि नासा अन्नासा परमाणपोग्गमा एगयो साहणंति । ते भिज्जमाणा हा वि भासिज्जमाणी भासाभासा जासासमयं वितिकतं पणं तिहावि कज्जति, दुहा किज्जमाणा एगयो दिवले परमा जासिया भासा अभासा, सा किंजासो जासा, अन्नापुणुपोग्गले भवइ, एवयमो दिवढे परमाणुपोगले नवइ, तिहा सओ भासा भासोपं नासा सा, गोखलु मा अभाकज्जमाणा तिएण परमाणुपोगमा हवंति, एव जाव सा नासा । पुब्धि किरिया अमुक्खा जहा जासा तहा चत्तारि पंच परमापुपोग्गला ए यो साहणंति, एगय-| भाणियन्वा, किरिया वि जाव करणम्रो गं सा दुक्खा नो मो साहणित्ता दुक्खत्ताए कज्जति, मुक्खे वि यणं से 1. खा सा प्रकरणो दुक्खा सेवं वचनं सिया, किच्चं दुसए सय मियं नवचिजश्यं अवचिज्जइयं पुन्धि जासा- क्खं फुसं सुक्खं कन्जमाणकमं दुक्खं कट्ट क ह पाणन्यनासा नासिज्जमाण जासा अन्नासा भासा मयं विति जीवसत्तावेदणं वेदति त्ति वत्तध्वं सिया।। कंतं च णं जासिय भासा जा सा पुव्वं नासानासा ना (चलमाणे प्रचलियत्ति) चलत्कर्माचलितं, चलता तेन चलितसिज्जमाणी मासा अभासा भासासमयं वितिकंतं च एं कार्यकरणाद् वर्तमानस्य चातीततया व्यपदेष्टुमशक्यत्वादेवमजा सयानासा साकि नासओ भाभा अन्नासो भासा। न्यत्रापि वाच्यमिति । (एगयओन साहणंति नि)पकत एकरचेम प्रजासत्रो कसा जाता, णो खबु मा जासओ भासा, पु- एकस्कन्धतयेत्यर्थः।न संदन्येते न संहती मिमिती स्याताम् । वि किरिया दुक्खा कज्जमाणी किरिया अदुक्खा किरि (नत्थि सिणेहकाए ति)मेहपर्यवराशिर्नास्ति सूक्ष्मत्वात, ज्या दियोगेतु स्थूलत्वात्सोऽस्ति (इक्वत्ताए कति सि )पश्चाया समयं वितिकनं च णं कमा किरिया दुक्खा जा सा त्पुमलाः संहत्य दुखतया कर्मतया क्रियन्ते नवन्तीत्यर्थः। (दुपुर्व किरिया दुक्खा कन्जमाणा किरिया अदुक्खा कि- नेवियणं ति) कर्मापि च । सेत्ति) तत् शाश्वतमनादित्वारिया समयं विड़कंतच णं कमा किरिया दुक्खा सा किंक तु । (सय त्ति) सर्वदा (समिवं ति) सम्यक्सपरिमाणं वा, चीयते चयं याति, अपचीयते अपचयं याति, तथा[पुष्यं ति] रणमो दुक्खा अकरणओ दुक्खा, अकरणओणं सा दुक्खा, भाषणात्याग जासति वाव्यसंहतिः। भास ति] सत्यादिणोखलु मा करण ओ दुक्खा, सेवं वत्तव्य सिमा, अकिञ्चं भाषा स्यात्तत्कारणत्वात विभज्ञानित्वेन वातेषां मतमात्रमेदुक्खं अफुसं दुक्खं अकजमाणकमं दुक्ख अकडु अकडु तनिरुपपसिकमुन्मत्तवचनयत्। अतो नेहोपपत्तिरत्यर्थे गवेषणीपाणज्यं जीवमत्तावेदणं वेदेति त्ति बत्तव्यं सिया,सकह या। एवं सर्वत्रापीति । तथा [भासिज्जमाणी भासा अन्नस सि] मेयं भंते ! एवं | गोयमा ! जणं ते अमनस्थिया एवमा-1 निसज्यमानवाग्द्रव्याण्यभाषा,वर्तमानसमयस्यातिमध्मत्वेन व्य वहारानङ्गत्वादिति। [जासासमयविरकंतं च णं ति] हक्तइक्वंति० जाव वेदणं वेदंति वत्तव्वं सया, जे ते एवं | प्रत्ययस्य भावार्थत्वात् विनाक्तिविपरिणामाचभाषासमयव्यतिप्राहम मिच्छं ते एवं आईसु | अहं पुण गोपमा! एवमाश्-| क्रमे च । [भासिय ति]निसृष्टा सतीनाथा भवति, प्रतिपाद्यक्खामि०, एव वसुचममाणे चलिए जाव णिज्जारजमाणे स्याभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्वादिति ।[प्रभासमोणं भास ति] णिज्जिएणे दो परमाणुपोग्गला एगयो साहणंति, क अभाषमाणस्य भाषा, भाषणात्पूर्व पश्चाश तदन्युपगमात् [नो स्वमु जासश्रो ति] भाष्यमाणायास्तस्या अनन्युपगमादिति । म्हा दो परमाणपोग्गला एगयो साहणंति?, दोएहं पर तथा [ पुब्धि किरियेत्यादि ] क्रिया कायिक्यादिका सा यामाणुपोग्गनाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणपोग्ग वन्न क्रियते तावत् [दुक्ख ति ] दुःखहेतुः[कज्जमाण ति] ला एगयो साहणंति, ते भिजमाणा उहा कजंति, हा क्रियमाणा क्रिया न दुःखा न दुःखहेतुः क्रियासमयव्यतिकजमाणा एगयो वि परमाणपोग्गझे एगयो पर कान्त च कियायाः क्रियमाणता, व्यतिक्रमे च कृता सती क्रिया दुःखेति इदमपि तन्मतमात्रमेव निरुपपत्तिकम् । अथवा माणुपोग्गने नवइ । तिप्लि परमाणुपोग्गला एगयो साह पूर्व क्रिया दुःखानभ्यासात क्रियमाणा क्रिया न दुःखामरणति, कम्हा तिरिण परमाणुपोग्गला एगयो साहणं भ्यासात् कृता क्रिया दुःखानुपतापश्रमादेः [करणो दुति? तिएई परमाणपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा क्ख तिकरणमाश्रित्य करणकाले कुवंत इत्यथः । । अक Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५१) एणउत्थिय अन्निधानराजेन्द्रः। अराणनस्थिय रणश्रो दुक्ख त्ति ] अकरणमाश्रित्य अकुर्वत इति यावत् [नो हाराङ्गत्वादतीतानागतयोश्च विनष्टानुत्पन्नतया सत्त्वेन व्यवखलु सा करणो दुक्ख त्ति] प्रक्रियमाणत्वे दुःखतया तस्या हारानङ्गत्वादिति। यच्चोक्तम्-भाषासमयेत्यादि । तदप्यसाधु । अभ्युपगमात् । [ सेवं वत्तव्वं सिया ] अथ एवं पूर्वोक्तं वस्तु भाष्यमाणनाषाया अभावे भाषासमय इत्यस्याप्य जिलापस्यावक्तव्यं स्यादुपपन्नत्वादस्येति । अथान्ययूथिकान्तरमतमाह- भावप्रसङ्गात । यश्च प्रतिपाद्यस्याभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्याअकृत्यमनागतकालापेक्षया अनिर्वर्तनीयं जीवैरिति गम्यं, दिति हेतुः। सोऽनैकान्तिकः । करादिचेष्टानामभिधेयप्रतिपाददुःखमसातं तत्कारणं वा कर्म, तथा अकृत्यत्वादेवास्पृश्यम- कत्वे सत्यपिभाषास्वासिके । तथा यदुक्तम्-अन्नापकस्य जाति। बन्धनीय तथा क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतं, चातीतकाले तदसङ्गततरम् । एवं हि सिम्स्याचेतनस्य वा नाषाप्राप्तिप्रसङ्ग तनिषेधादक्रियमाणकृतं कालत्रयेऽपि कर्मणो बन्धनिषेधाद- इति । एवं क्रियाऽपि वर्तमानकाल एव युक्ता, तस्यैव सत्याकताऽकृता। भाभीदरये द्विचनं , दुःखमिति प्रकृतमेव । के दिति । यच्चानच्यासाज्यासादिकं कारणमुक्तम् । तच्चानकाइत्याह-प्रामाभूतजीवसत्त्वाः । प्राणादिलक्षणं चेदम्-"प्राणा न्तिकम्। अनभ्यासादावपि यतः काचित्सुखादिरूपैव। तथा यदुद्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चन्द्रिया क्तम्-अकरणतः क्रिया पुःखेति। तदपि प्रतीतिबाधितम् । यतः शेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः" ॥१॥[यणं ति] शुभाशुभक- करणकाल एवं क्रिया पुःखा वा सुखा वा दृश्यते ,न पुनः पूर्व मवेदनां पीडांवा वेदयन्त्यनुभवन्ति । इत्येतद्वक्तव्यं स्यादस्यै- पश्चामा तदसत्त्वाविति। तथा यदुक्तम्-'अकिञ्च'मित्यादि, यरवोपपद्यमानत्वात् । यादृच्छिकं हि सर्वलोके सुखदुःखमिति।। ध्यावादिमताश्रयणात् । तदप्यसाधीयः। यतो यद्यकरणादेव कर्म यदाह-" अतर्कितोपस्थितमेव सर्वे, चित्रं जनानां सुखदुःख- दु:खं सुखं वा स्यात्तदा विविधैहिकपारलौकिकानष्टानाभाजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृ- वप्रसङ्गः स्यात् । अन्युपगतं च किञ्चित्पारलौकिकानुष्ठानं थाऽभिमानः"॥१॥[से कहमेयं ति] अथ कथमेतत् भदन्त! तैरपि चेति । एवमेतत्सर्वमज्ञानविजृम्भितम् । उक्तं च वृकैःएषमन्ययूथिकोनन्यायेनेति प्रश्नः ?। [जम्मं ते अम्मउस्थिए ] "परतित्थियवत्तव्य यः, पढमसप दसमम्मि उद्देसे । विनंइत्याद्युत्तरम् । व्याख्या चास्य प्राग्वत् । मिथ्या चैतदेवं यदि गीणा देसा, मश्भेया या वि सा सब्या ॥ १॥ सन्तचलदेव प्रथमसमये चलितं न भवेत्तदा द्वितीयादिप्वपि तद- यमसम्नूए , नंगा चत्तारि होति विभंगे। उम्मत्तवायसरिसं, चलितमेवेति न कदाचनापि चलेदत एव वर्तमानस्यापि वि- तो अम्माणं ति निद्दि ॥२॥" सद्भते परमाणो असद्भतमर्कापक्षया अतीतत्वं न विरुद्धम् । एतच्च प्रागेव निर्णीतामिति न दि, भसद्भूते सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं, सङ्गते परमाणी सद्भ पुनरुच्यते । यश्चोच्यते-चलितकार्याकरणादचलितमेवेति।त तं निप्रदेशत्वं, असते सर्वगात्मनि प्रसङ्गतमकर्तृत्वमिति । दयुक्तम् । यतः प्रतिक्षणमुत्पद्यमानेषु स्थासकोशादियस्तुष्य [अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि ] श्त्यादि तु प्रतीतार्थमेवेस्त्यक्षणभाविवस्तु आद्यक्षणे स्वकार्य न करोत्येव, असत्त्वाद, अतो यदन्त्यसमयचलितकार्य विवक्षितं परेण तदाघसमय ति, नवरं । दोहं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए त्ति ] चलितं यदि न करोति तदा क इव दोषोऽत्र कारणानां स्व एकस्यापि परमाणोःशीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शानामन्यतरदविरु कंस्पर्शद्वयमेकदैवास्ति । ततो द्वयोरपि तयोः स्निग्धत्वनाबालू स्वकार्यकरसस्वभावत्वादिति । यच्चोक्तम्-धौ परमाणू न संहन्येते,सूक्ष्मतया स्नेहाभावात् ।तदयुक्तमापकस्यापि परमाणोः| स्नेहकायोऽस्येव । ततश्च ती विषमस्नेहात्संहन्यते । इदं च मेहसंभवात् । सार्द्धपुलस्य संहतत्वेन तैरेवाभ्युपगमाच्च । परमतानुवृत्योक्तम् । अन्यथा रुवावपि रूकत्ववैषम्ये संहन्येते। यत उक्तम-[तिनि परमाणुपोग्गलाएगयो साहणंति,तेभि एवं यदाह-"समनिद्धया बंधो, न हो। सममुक्खया वि न उजमाणा दुहा वि तिहावि कज्जंति, दुहा कजमाणा एगयो हो । वेमायमुद्धनिक्ख-तणेण बंधो उ खंधाणं" ॥१॥ ति । दिवत्ति] अनेन हि सार्द्धपुलस्य संहतत्वाभ्युपगमेन तस्य [खंधे वियण से असासए त्ति ] उपचयापचयिकत्वाद् । अत बेहोऽभ्युपगत एवेत्यतः कथं परमाएवोः नेहाभावेन सङ्का एवाह-सिया समियमित्यादि] [पुन्थि भासा प्रभास (स] भाताभाव इति।यच्चोक्तम्-एकतःसार्द्ध एकतः सार्द्ध इति।एत प्यत इति भाषा, भाषणाच पूर्व न भाप्यत इति नभाषेति । दप्यचारु । परमाणोरीकरणे परमाणुत्वाभावप्रसङ्गात् । [भासिज्जमाणी भास त्ति ] शब्दार्थोपपत्तेः [ भासिया - तथा यदुक्तम्-पञ्च पुलाः संहताः कर्मतया भवन्ति । तद भास ति] शब्दार्थवियोगात् । [पुद्धि किरिया अदुक्ख ति] प्यसङ्गतम् । कर्मणोऽनन्तपरमाणुतयाऽनन्तस्कम्धरूपत्वात्प करणात्पूर्व क्रियैव नास्तीत्यसत्वादेव च न दुःखा, सुखाऽपि श्राणुकस्य च स्कन्धमात्रत्वात् । तथा कर्मजीवावरणस्वभा नासावसत्त्वादेव, केवलं परमतानुवृत्त्या दुःखेत्युक्तम,'जहा भासे घमिष्यते,तच्च कथं पश्चपरमाणुस्कन्धमात्ररूपं सदसलात त्ति' वचनात् । [ कज्जमाणी किरिया दुक्खा ] सत्त्वादिहाणि प्रदेशात्मकं जीवमावृणुयादिति । तथा यदुक्तम्-कर्म च शा यक्रियमाणा क्रिया दुःखेन्युक्तम्, तत्परमतानुवृत्यैव । अन्यथा श्वतम् । तदप्यसमीचीनमा कर्मणःशाश्वतत्वे क्षयोपशमाच सुखाऽपि क्रियमाणैव क्रिया। तथा [किरिया समयवितिकंतं च भावेन झानादीनां हानेरुत्कर्षस्य चाभावप्रसङ्गात् । रश्यते च णमित्यादि] रश्यम् । [किचं दुक्त्रमित्यादि ] अनेन च कर्मस. मानादिहानिवृद्धी। तथा यदुक्तम्-कर्म सदा चीयते अपची त्ता वेदिता, प्रमाणसिकत्वादस्य। तथाहि-श्ह यद् द्वयोरिश शबते घेति । तदप्येकान्तशाश्वतत्वेनोपपद्यत इति । यच्चोक्तम ब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य दुःखशकणं फलमन्यस्यभाषणात्पूर्व भाषा,तखेतुत्वात्। तदयुक्तमेव । औपचारिकत्वात्। तरत, न तद्विशिष्टहेतुमन्तरेण सम्नांच्यते, कार्यत्वात्। घटवत् । उपचारस्य च तत्वतोऽवस्तुत्वात् । किश्च । उपचारस्तात्त्विके यश्चासौ विशिष्टो हेतुः स कर्मेति । श्राह च-"जो तुलसाहणाण, वस्तुनि सति भवतीति तात्विकी भाषाऽस्तीति सिद्धम् । फले विसेसो ण सो विणा हेउं । कज्जत्तणो गोयम !, घमो यच्चोक्तम्-भाष्यमाणा अभाषा, वर्तमानसमयस्याव्यावहा व्व देऊ य से कम्म" ॥१॥ भ०१ श० १० उ०। रिकत्वात् । तदप्यसम्यक् । वर्तमानसमयस्यैवास्तित्वेन व्यव- [५][क्रिया] एकस्य जीवस्य एकेन समयेन क्रियान्यकरणे. Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणवत्थिय ( ४५२ ) अभिधानराजेन्खः । पुनरप्यन्यदूधिकान्तरमतमुपदर्शयन्नाद अस्थिया नंते ! एमाइति जान एवं खलु एगे जीये पण समर्पणं दो किरियाओं पकरे। तं जहा इरियायं च, संपराइयं च । जं समयं इरियावहियं पकरे तं समयं संपराइयं पफरे. जं समयं पराइ पकरे तं समयं इरियावहियं पकरेई । इरियावहियपकरणयाए संपरायं पकरे, संपराइयपकरणयाए इरियाबडिये पकरे, एवं स्वल एगे जीवे एगेणं समय दो किरियाओ पकरे । तं जहा - इरियावहियं च, संपराइयं च । से कहमेयं जंते ! एवं ? | गोयमा ! जणं ते अएण उत्थिया एवमाक्खति तं चव भाव० जे ते एवमातुमिच्छा ते एवमाहं अहं पुरा गोमा ! ए माइवखामि ४ - एवं खलु एगे जीवे एगसमए एकं किरियं परेड ससमयवतम्बदार नेयध्वं० जान इरियावहियं संपराइयं वा ॥ । [अवधियामित्यादि ] तत्र च [ इरियायहि ति] ईवी गमनं तद्विषयः पन्था मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, केवल काययोगप्रत्ययः कर्मबन्ध त्यर्थः [संप संपरैति परिभूमति प्राणं । जव एभिरिति संपरायाः कषायाः, तत्प्रत्यया याला साम्परायिकी, कषायहेतुकः कर्मबन्ध इत्यर्थः । [वि]इट सूत्रेयधिक स्वय धारणीयं ग्रन्थगौरवमयेनालिखितत्वात्तस्य तदम्-"जं समर्थ संयं परेषं परेश, हरियानहियापकरणयार संपराश्यं पकरेश, संपराश्यपकरणयाए हरियावहियं पकरे, एवं खलु पगे जीवे एगेणं समपणे दो किंरियाओ पकरेश । तं जढ़ा- इरियावदियं च संपराश्य चेति ससमयवन्तया य" सूत्रमिति गम्यम्: सा चैवम् - " से कह मेयं भंते! एवं? । गोयमा ! जणं ते श्रएणउत्थिया एवमाश्ववंति ४ जाव । संपराइयं च जे ते एवमादंसु मिच्छा ते एवमासु । श्रहं पुण गोयमा ! एवमाक्खामि ४ एवं खलु पगे जीवे पगेणं समपूर्ण वर्ग करिये पकरेजा यादि पूर्वोकानुसारेणाध्येयमिति । मिथ्यात्वं चास्यैवम्-पेर्य्यापथिक क्रिया अकषायो. दयप्रभवा, इतरा तु कषायोदयप्रभवेति कथमेकस्यैकदा तयोः संजयः ? । विरोधादिति । भ० १ ० १० उ० । • , उत्थि एवमाद एवं जासेड, एवं पावे एवं पवे एवं खलु एगे जावे एगे समपणं दो फिरिपाओ पकरे । तं जहा सम्मणकिरियं च मिकिरिच समयं सम्मकिरियं पकरेड़ तं समयं । जं मिच्छतिरियं पकरेड़, जं समयं मिच्छन्नकिरिये पकरेड़, तं समयं सम्मत्तरियं पकरे । सम्मत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्ताकरियं पकरेश, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए सम्म किरियं पफरे । एवं खलु एगे जीवे एगेां म म दो किरिया पकरे से जहा सम्म फिरियं, मिष्करिये च से कहमेवं जते । एवं गोषमा ज ते एउत्थिया एवमाइक्रांति, एवं जासंति, एवं पन्नविं उत्थिय ति, एवं परुविंति एवं खलु एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरे, तब जाव सम्मत्त किरियं च मिच्छत्ताकरियं च । जे ते एवम मिच्छा अहं पुरा गोपमा ! एवमाक्खामि० जात्र परूमि एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं फिरियं पकरे । तं जहा सम्मन करियं वा मिच्छ तकिरियं वा । जं समयं सम्मत्त करियं पकरे णो तं समयं मिष्ठ किरियं पकरे, जं समयं मिच्छतकिरिय पकरेह नो तं समयं सम्पतकिरियं पकरे । सम्मकिरियाप करणवाए नो मिच्छन करिव पकरे, मिच्छत किरियापकरणयाए नो सम्पत्तकिरियं पकरे। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समरणं एवं किरियं पकरेइ । तं जहा सम्मत्त किरियं वामिछत्तरियं वा । सेनं तिरिक्खनोणीत उद्देसओ वीओ ॥ [ते] इत्यादि] अन्ययूथिका अम्पतीर्थिकाः, म दन्त ! चरकादय एवमाचक्कते सामान्येन एवं भाषन्ते, स्वशिष्यान् श्रवणं प्रत्यभिमुखानवबुध्य विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति एवं प्रज्ञापयन्ति प्रकर्षेण शापयन्ति । यथा स्वात्मनि व्यवस्थितं ज्ञानं तथा परेमुत्पादयन्तीति एवं प्ररूपपतितस्यचिन्तायामसंदिग्धमेतदि ति निरूपयन्ति-इह खल्वेको जीव एकेन समयेन युगपद् द्वे क्रिये प्रकरोति । तद्यथा सम्यक्रियां च सुन्दराध्यवसायात्मिकाम्, मिथ्यात्वकियां वासुन्दराभ्यवसायात्मिकाम (समयमितिप्रा कृतस्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यस्मिन् समये सम्यक् क्रियां प्रकरो ति [ तं समयमिनि ] तस्मिन् समये सम्यक् क्रियां प्रकरोति । अन्योऽन्यसंवलनोभय नियम प्रदर्शनार्थमाद- सम्यक्त्व प्रकरणेन मिथ्यात्वकियां प्रकरोति, मिथ्यात्वक्रियाप्रकरणेन सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति । तडुजयकरणस्वनावस्य तस्वक्रियाकरणात्, सर्वात्मना प्रवृत्तेः अन्यथा ऽवियायोगादिति । एवं खायादि निगमनं प्रतीतार्थम् । [ से कहमेयं जंते ! इत्यादि ] तत्कथमेतद् भगवागाद गौतम! यतः इति वाक्यालङ्कारे ते अन्ययूथिका अधिकामाचकते इत्यादि प्राग्वत् यावत् । तन्मिथ्या त एवमाख्यातवन्तः । अहं पुनर्गौतम ! एवमाचके, एवं जाये, एवं प्रज्ञापयामि, एवं प्ररूपयामि इह खल्वेको जीव एकेन समयेन एकां क्रियां प्रकरोति । तद्यथा सम्यक्त्वक्रियां वा, मिथ्यात्वक्रियां वा । अत एव यस्मिन् समये सम्यक्त्वकियां प्रकरोति न तस्मिन् समये मिध्यात्वकियां प्रकरोति यस्मिन् समये मिध्यात्वकियां प्रकरोति न तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति । परस्परवैविनियमप्रदर्शनार्थमा-सम्पक्रियाकरणेन मिथ्याव्याकियां प्रकरोति मिध्यात्वकियात्रकरयेन सम्यक्त्वकियां प्रकरोति सम्ययमिध्यात्यक्रिययोः परस्परपरिहाराय थानारमकतया जीवस्य तदुभयकरणस्वभावत्वायोगात् । अन्यथा सर्वथा मोकामा काचिदपि मिध्यात्वनिवर्त्तनात् । जी० ३ प्रति० । (६) अदत्तादानादिक्रियाविषये ऽन्ययूथिकैः सह विप्रतिपलि: ते णं कासे णं ते णं समये णं रामागडे नवरे नएणओ । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५३) अणउत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रमउत्थिय गुणसिलए चेइए वहाश्रो० जाब पुट सिलावट्टो तस्स | त्थिया ते येरे जगवतं एवं वयामी-केणं कारणेणं प्रज्जो! णं गुणसिलयस्स एं चेश्यस्स अदरसामते बहवे अमउत्थिया तुझ दिम गिएहह० जाव दिम साइजह । तए णं तुपरिवसति । ते णं समये णं समणे जगव महावीरे आदिगरे जक दिप गिएहमाणाम्जाव दिप साइज्जमाणा, एगंतपंचाव समवसढे जाव परिसा पमिगया । ते ण काझे णं ते णं मियाया वि भवह । तए णं ते थेरा जगवंतो ने अएणनसमए णं समणस्स भगवो महावीरस्स बहवे अंतेवासी। थिए एवं वयासी-अम्हे णं अज्जो ! दिज्जमाणे दिले येरा जगवतो जाइसंपन्ना कुलसंपना जहाविश्यसए० जाव पमिगाहेज्जमाणे पडिग्गहिए निसिरिज्जमाणे निसिढे अनीवियासा मरणजयविप्पमुक्का समणस्स जगवो महा- म्हे णं अजो! दिज्जमाणं पमिग्गहगं असंपत्तं , एत्थ बीरस्स अदूरसामंते नऊंजाणु अहो सिरा माणकोट्ठोव णं अतंरा केइ अवहरेज्जा अम्हे णं तं नो खलु गाहावबगया संजमेणं तवसा अप्पार्थ भावेमाणा जाव विहरात । इस्स तए णं अम्हे दिएणं गिएहामो , दिएणं खंजामो, तए णं ते अएणउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेएव जवा- दिम साइज्जामो । तए णं अम्हे दिमं गिएहमाणा० गच्छति। नवागच्छतित्ता ते येरे भगवंते एवं क्यासी-तुज्के जाव दिलं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं असंजयमविरयअप्पमिहय एगंतपंमियाया वि भवामो; तुज्के णं अजो! अप्पणा चेव नहा सत्समसए विप्रो उद्देसमोर जाव एगंतवालाया- तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंतबामाया विभवह। तए वि जवह । तए णं ते थेरा भगवंतो ते प्राणउत्थिर एं ते अमनस्थिया ते थेरे जगवंते एवं वयासी-केणं कारएवं वयासी-केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं ति- णेणं अजो ! अम्हे तिविहं० जाव एगंतबालया विभविहेणं असंजय अविरय० जाव एगंतबालाया वि भवामो। वामो । तए णं ते थेरा जगवंतो ते अमनस्थिए एवं वतए णं ते भएणउत्थिया ते थेरे जगवंते एवं बयासी- यासी-तुज्झे णं अज्जो ! अदिमं गिरोहह ३, नए एं तुज्के एं अज्जो ! अदिएणं गिएहह , अदिएणं नुजह, | तुझे अदिग्मं गेण्हमाणा. जाव एगंतबाझाया वि भवह। अदिएणं साइजह, तए णं ते तुज्के अदिएणं गेण्हमाणा, तए णं ते अमाउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं बयासी-केणं अदिएणं संजमाणा, अदिएणं साइजमाणा, सिविहं तिवि- कारणोणं अज्जो! अम्हे अदिमं गिएहामो० जाब एगंतहरणं असंजय अविरय० जाव एगंतबालाया वि जवह । त- बालाया वि भवामो । तए णं ते थेरा भगवंतो ते अमनएणं ते थेरा जगवतो ते अएणउस्थिए एवं बयासी-केणं | थिए एवं वयासी-तुझे णं अजो ! दिज्जमाणे अदिये अज्जो ! अम्हं अदिएणं गेण्डामो, आदिएणं तं चेव० जाव गाहावश्स्स णं तं नो खलु तं तुज्के तए भुंजामो, अदिएणं साज्जामो, तए णं अम्हे अदिएणं णं तुज्के अदिमं गिएहह । तं चेव० जाव एगंतबालाया गएहमाणा० जाव प्रदिएं साइजमाणा, तिविहं तिविहेणं विजवह । तए णं ते अमनत्यिया थेरे भगवंते एवं वयासी. असंजयजाव एगंतबालाया विनवामो । तए णं ते अल- तुज्केणं अज्जो! तिविहं तिविहेणं असंजय० जाब एगंतउत्थिया ते थेरे जगवंते एवं वयासी-तुझे णं अज्जो! बामाया विभवह । तएणं ते थे। भगवंतो ते अमउत्थिए दिएणमाणे प्रदिएणे पमिगाहिज्जमाणे अपमिग्गहिए एवं वयासी-केणं कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं० जाव निसिरिज्जमाणे आणसिद्धे, तुज्के णं अज्जो ! दिएणमा- गंतवालाया कि जवामोतए णं वे अमाउत्थियाते थेरे एं पडिग्गहणं असंपत्तं एत्य एं अंतरा केइ अवहरिज्जा भगवंते एवं वयासी-तुझेणं अज्जो !रीयं रीयमाणा पुढवीं गाहावइस्स एं तं भंते ! णो खलु तं तुझे तए णं तु- पेञ्चेह,अभिहणह,वत्तेह, लेसेह, संघाएह, संघटेह, परितावह, ज्ने प्रदिपणं गिबहहा जाव अदिएणं साइजह, तए णं | किलामेह,उबद्दवेह, तए णं तुज्के पुढवीं पेचेमा अजिहतुज्के अदिशं गिएइमाणा. जाव एगंतबालाया विनवह। माणा. जाव उबद्दवेमाणा तिविहं तिबिहेणं अमंजयअ. वए णं वे थेरा जगवतो ते अमनस्थिए एवं बयासी-नो विरय० जाब एगंतबालापा वि भवह । तए णं ते थेरा खलु प्रज्जो ! अम्हे अदिएणं गिएहामो, अदिएणं मुं- जगवंतो! ते अम्पाउथिए एवं वयासी-नो खलु अज्जो ! नामो, अदिएणं साज्जामो । अम्हे णं अज्जो! दिएणं अम्हे रीयं रीयमाणा पुढवीं पेञ्चेमो अभिहणामो० जाव उवगिएहामो, दिवं अंजामो, दिसं साइजामो । तए णं अ- हवेमो अम्हेणं अज्जो!रीयं रीयमाणा कायं वा जोगं वा म्हे दिएणं गिएहमाणा, दिएणं चुंजमाणा,दिएणं साइज्ज- रीयं वा पदुच्च देसं देसेणं वयामो,पदेसं पदेसेणं क्यामो, णा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तम- तेणं अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पदेसं पदेसेणं वयमाणा, सप. जाव पगंतपंमियाया वि नवामो। नए णं ते अमउ- नो पुढवीं पेच्चेमो अनिहणामो० जाव नवहवेमो, तए एं Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४) प्रणात्थिय अभिधानराजेन्द्रः। प्राउत्थिय अम्हे पुढवीं अपेच्चेमाणा अणभिहणमागाजाव प्रणो- [कायं व सि] कायं शरीरं प्रतीत्योच्चारादिकायकार्यमित्यर्थः। हवेमाणा, तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपमियाया वि | [योगं वति] योगं ग्लानवैयावृत्यादिव्यापार प्रतीत्य [रीय षा पकुच्च सितं सत्यं प्रतीत्याप्कायादिजीवसंरकणमकणं सं. भवामो?, तुझणं अज्जो अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं यममाश्रित्येत्यर्थः। [देसंदेसेणं वयामो सि] प्रभृतायाः पृथिव्या असंजय० जाव चालाया विजवह । तए ण ते असउत्थिया ये विवक्षिता देशास्तै–जामो नाविशेषणेर्यासमितिपरायणत्वेन थेरे जगवते एव पयासी-केणं कारणेणं अज्जो अम्हे ति- सचेतनदेशपरिदारतोऽचेतनदेशैर्घजाम इत्यर्थः। पर्व (पदेस पविह तिविहेणं एगंतबालाया वि जवामो । तए णं त थेरा देसेणं बयामो)श्त्यापि,नवरं देशोनूममहत्वएमस, प्रदेशस्तु ल घुतरमिति । अथोक्तगुणयोगेन नास्माकमिवैषां गमनमस्तीत्यभगवंतो अमानथिए एवं बयासी-तुज्के णं अज्जा!रीयं भिप्रायतः स्थविरा यूयमेय पृथिव्याक्रमणादितोऽसंयतत्वारीयमाणा पुढवीं पेच्चेह० जाव उबद्दवहातए णं तुझ पुढवीं दिगुणा इति प्रतिपादनायाऽन्ययूथिकान प्रत्याहुः- तुम्छपेच्चेमाणाजाव उबद्दवेमाणातिविहं तिविहेणं जाव एग- णं अशो! इत्यादि] भ०० श०७०। तबामाया विभवह । तएणं ते माउत्थिया थेरे जगवंते एवं प्रागमनमाभित्य विचारः कृतोऽथ तदेवाभित्याऽन्यथि कमतनिषेधतः स एवोच्यतेबयासी-तुज्के एं अज्जो!गममाण अगए वीइकमिज्जमाणे प्रवीइकते रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते, तए णं ते तेणं काले णं ते णं समए णं रायगिहेजाव पुढवीसिघेरा भगवंतो ते अमरस्थिए एवं बयासी-नाखयु अज्जो! लापट्टए तस्स णं गुणसिनस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहने अम्हे गममाणे अगए वीइकमिज्जमाणे अवीइकते राय अमाउत्थिया परिवसंति। तए णं समणे जगवं महावीरे०जाव गिह नगरं जाव असंपत्ते अम्हे णं भज्जोगममाणे गए समांसलेण्जाव परिसा पमिगया। तेणं कालेणं ते णं समए वीइकमिज्जमाणे बीइकते रायागहं नगरं संपाविउकामे संप णं समणस्स जगवो महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदई णाम भणगारे जाव नहुं जाणु० जाब विहर। तए एं ते ते तुज्म णं अप्पणा चेव गममाणे अगए विइकमिजमाणे वीइकते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते तए णं ते थेरा अमाउत्थिया जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्चइ । उवागभगवंतो अपलथिए एवं पडिहणंति । एवं पमिहणेता गइ चश्त्ता भगवं गोयम एवं क्यासी-तुकेणं भज्जो तिविहं पवायनामं अज्य णं पएणवइंसु। तिविहेणं असंजय० जाव एगंतबालाया विभवह । तएणं (तेणमित्यादि) तत्र [जो ति] हे प्रायः ! [तिविहं तिविहणे भगवं गोयमे ते अमाउथिए एवं बयासी-से केणं कारणेति] त्रिविध करणादिक योगमाश्रिय त्रिविधेन मनःप्रभृति एं भज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं असंजय जाव एगंतकरणेन [प्रदिएणं सारज्ञह ति] अदत्तं स्वदड्ढे अनुमन्यध्व बामाया वि भवामो? तए णं ते अमउत्थिया भगवं गोयम इत्यर्थः। (विजमाणे अदिगणे इत्यादि)दीयमानमदत्तं दीयमा- एवं वयासी-तुज्केणं अज्जो! रीयं रीयमाणा पाणं पेचेह. नस्य वर्तमानकालत्वासस्य च अतीतकालवर्तित्वाद घर्तमा अजिहणह जाव उद्दवेह । तए णं तुज पाणे पेच्चमाणा नातीतयोश्चात्यन्तं भिन्नत्वाहीयमानं दत्तं न भवति । दत्तमेबदत्तमिति व्यपदिश्यते । एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि । तत्र दोय. जाव उद्दवेमाणा तिविहंजाब एगंतवालाया विजबह । तए मान दायकापेकया, प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया, निसृज्यमानं एं जगवं गोयमे ते अमनस्थिए एवं बयासी-णो खलु दिप्यमाणं पात्रापेक्तयेति [अंतरे सि] अवसरे । अयमनिप्रायः- प्रज्जो! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणा पेच्चमोजाब उपयदि दीयमान पत्रिऽपतितं सहतंजवाति तदा तस्य दत्तस्य स. वेमो अम्हे णं अज्जो ! रीयं रीयमाणा कायंच जोयं च तः पात्रपतनमक्षणं प्रहणं कृतं नवति । यदा तु तदीयमानमद रीयं च पहुच्च दिस्सा पदेस्सा बयामो,तए णं अम्हे दित, तदा पात्रपतनलकणं ग्रहणमदत्तस्येति प्राप्तामति। निन्धोतरवाश्ये तु-[अम्हे णं अजो! दिजमाणे दिने] इत्यादि यदुक्तं, स्सा २ वयमाणा पदिस्साश्वयमाणा णो पाणे पेच्चेमो० तत्र क्रियाकालनिष्ठाकाबयोरभेदाहायमानत्वादेर्दत्तत्वादिसमब- जाव णो नहवेमो, तए णं भम्हे पाणे अपेच्चमाणाजाव मयमिति । अथ दीयमानमदत्तमित्यादर्भवन्मतत्वाद् यूयमेषा- अणोद्दवेमाणातिविहं तिविहेणंजाव एगंतपंडिया विण्जाव संयतत्वादिगुणा इत्यावेदनायाऽन्ययथिकान्प्रति स्थविराः प्राहुः। भवामो,तुम्भेणं अज्जा! अप्पणोचेव तिविहं तिविहेणंजाव (तुज्केणं अज्जो ! अप्पणा चेवेत्यादि) (रीयं रीयमाण सितं गमनं, रीयमाणा गच्छन्ता, गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः। [पुढवीं पेचद एगंतबालाया वि भवह । तए णं ते अमउत्थिया भगवं तिथि: भाकामयथेत्यर्थः। [भभिहणहत्तिपादाभ्यामाभिमु गोयमं एवं बयासी-केणं कारणेणं अज्जो ! अम्हे स्येन हथ [वत्तेह तिपादानिघातं नैव वर्तयथ, इलदणतां न- तिविहं० जाब वि जवामो?। तए णं भगवं गोयमे ते यथा[बेसह ति] इलेषयथ, जूम्यां श्लिष्टान् कुरुथा[संघा- अमाउथिए एवं चयासी-तुम्भेणं प्रज्जो!रीयं रीयमाणा एह त्ति ] संघातयथ, संहतान् कुरुथ। [संघट्टेड ति] संघट्टयय स्पृशथ। [परितावेडत्ति परितापयथ, समन्ताज्जातसन्ता पाणे पेचेह० जाव उद्दवेह, तए णं तुम्भे पाणे पेञ्चमाणा. पान् कुरुथ। [किलामेह ति] लमयथ, मारणान्तिकसमुद्धातं जाव उद्दवेमाणा तिविहं० जाब एगंतबामाया विनवह । गमयथ इत्यर्थः। [उबहवेह त्ति ] उपनवयथ, मारयथ इत्यर्थः। तर पं जगवं गोयमे ते अमनस्थिर एवं पमिहणइ । पमि Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थिय हाइता जेणेव समणे जगवं महावीरे तेणेव उवागच्दछ । उपागच्छत्ता समर्थ भगवं महावीरं बंद शामंसह जच्चासो जात्र पज्जुवासइ गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं बयासी छ णं तुम्ह गोयमा ! ते अ उत्थिए एवं वयासी - साहु णं तुमं गायमा ! ते अमनथिए एवं वयासी-अत्थि एां गोयमा ! ममं बहवे अंतेवासी समा नियामत्या जे खं शो पन् एप बागरणं वागरेचर जहा णं तुम से तुमं गोपमा ते अहणउथिए एवं वयासी - साहु णं तुमं गोयमा ! ते अण्णउत्थि ए एवं वयासी ।। ( ४५५ ) निधानराजेन्द्रः | [ पेवेद स ] श्राक्रामथ (कार्य चति ) देहं प्रतीत्य व्रजाम इति योगः। देहश्वे मनशक्तो भवति, तदा वजामो नान्यथा, - शादित्यर्थः योगे च संयमव्यापारं ज्ञानापएम्नकम, प्रयोजनं निशाटनादि न तं विनेत्यर्थः [ [ [] गमनं अत्वरितादिकं गमनविशेषं प्रतीत्याधित्य कथमित्याह - [ दिस्सा [[दिख[स] रा रा [] पदिस्ता परिस्व ] प्रकर्षेण रा दृष्ट्रा । प्र०१८ ० ८ ० । (७) भ्रमणानां कृता क्रिया क्रियेतन वा ? इत्यत्र विवादः छत्विया णं जंते एमाइक्खर एवं भासे, एवं परूने कहां समा निम्गंधाएं किरिया कति है, तत्थ जा सा कमा कज्जइ हो तं पुच्छति १ । तत्यजा सा कडा हो कज्जर णो तं पुच्छंति । तत्थ जा सा कमा कज्जड़ तं पुच्छति । तत्थ जा सा अकडा णो कज्जइ पो सं पुच्छति । से एवं वतव्यं सिया अकिवं दुक्खं मफुर्स दुक्खं अज्जमाणकढं दुक्खं अकट्टु कट्टु पाणा नूया जीवा सत्तायां वेयंति, बत्तब्वं जे ते एवमाहंसु । ते मिच्छा । अहं पुरा एवमाक्खामि, एवं जासामि, एवं पनवेमि, एवं परूनेमि किवं दुपखं किज्जमानं कटं दुक्खं कट्टु कट्टु पाणा भूया जीवा सतावेयणं वेयंति ति बत्तव्वंसिया | - "अन्नन्चत्थियेत्यादि" प्रायः स्पष्टम्, किन्त्वन्यत।र्थिका इढ तापसा विज्ञानवन्त एवं वक्ष्यमाणप्रकारमाख्यान्ति सामान्यतेो मायन्ते विशेषतः क्रमेतदेव प्रापयन्ति पन्तीति पर्यायरूपपद्धपोतन्तिपान्ते व्यक भाषया प्रज्ञापयन्ति, उपपत्तिभिर्योधयन्ति प्ररूपयन्ति प्रजेदाविगत इति किं तदित्याह कथं केन प्रकारेण भ्रमणा निर्मन्थानां मत इति शेषः । क्रियत इति क्रिया कर्म, सा येति विप्रः वारो भा तथा कृता क्रियते बिहितं सत्कर्म्म दुःखाय भवतीत्यर्थः १ । एवं कृता न क्रियते २, चकृता क्रियते ३, अकृता न क्रियत इति । वर्तयनेन प्रसेन यो प्रमितं शेषन राकरणपूर्वकमभिधानुषुम ध्ये प्रथमं द्वितीयं चतुर्थे च न पृच्छन्ति । एतत्रयस्यात्यन्त रुचेरवि अात्मिय पयतया नस्याप्यप्रवृत्तेरिति तथाहि यासीकृता कियते तत्कर्म न भवति न तत्पृच्छन्ति यतविरोधे नासम्भवात् । तथाडे-कृतं चेत्कर्म कथं न मत्रतीति ?। उच्यते । न नवति चेत्कथं कृतं तदिति, कृतस्य कर्मणोऽजवनाभावात् । तत्र तेषु याऽसाचकृता यशदकृतं कर्म नो क्रियते न भवति नो तो पृष्ठति तास कर्मणा चरविवाणकल्पत्या दिति । श्रमुमेव च भङ्गत्रयं निषेधमाश्रित्यास्य सूत्रस्य त्रिस्था नकावतार शर्त संज्ञाव्यते । तृतीयभङ्गकस्तु तत्सम्मत इति तं पृच्छन्ति । अत एवाह तंत्र यासावकृता क्रियते यत्तदकृतं पू मविदितं कर्म न सम्पद्यते तां पृच्छन्ति पूर्वका लकृतत्वस्याप्रत्यक्कृतयाऽसत्वेन दुःखानुभूतेश्च प्रत्यक्कृतया स स्नातकस्यासम्मतादिति पृच्छतां चायमभि प्रायः यदि निर्मन्था अपि अकृतमेव कर्म दुःखाय देहिनां भवतीति प्रतिपद्यन्ते ततः सुष्ठु शोभनं अस्मत्समानबोधत्वादिति । शेषान्न पृच्चन्तस्तृतीयमेव पृच्छन्तीति भावः । [ सेति ] अथ तेषामकृत कम्युपगमयतामेवं यमाणप्रकारं मु स्यात् । त एत्र वा एवमाख्यान्ति परान् प्रति यदुत घअथैवं कम् प्ररूपणीयं तस्यवादिनां स्याद्भवेत् हते सति कर्मणि दुःखाजावात् । श्रकृत्यमकरण । यमबन्धनीयमप्रातव्यमनागते काले जीवनामित्यर्थः किं दुःखं दुःखात्कर्म [फुर्सत] अस्पृश्यं कमीकृतत्वादेव तथा क्रियमाचर्तमा मध्यमानं कृतं वातीतकाले बर्फ क्रियमाणम् इन् कर्मधारयो] या क्रियमाणमप्रमाणकृतम्। किंत 66 म् ? " अक्किथं दुक्खमित्यादि " पदत्रयं [तत्थ जा सा अकमा कजर ] तं पृष्ठतीत्यन्यतीर्थिक मताश्रितं कालत्रयालम्बनमाभित्य स्थानकावतारो ऽस्य । किमुतं प्रयतीत्याहअकृत्वा अकृत्वा कर्म । प्राणा द्वीन्द्रियादयः, जुतास्तरवः, जीवाः पचेन्द्रियाः, सस्याः पृथिव्यादयः । यथोक्तम्- प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया शेयाः, शेषाः सस्वा इतीरिताः " ॥ १ ॥ वेदनां पीकां वेदयन्तीति वव्यमित्ययं तेषामुद्धायः महानोपहतको प्राथ न्ते परान् प्रति यहुत एवं वक्तव्यं स्यादिति प्रक्रमः। एवमन्यतीपिंकमलमुपदश्ये निराकुद इत्यादि ] अम्यतीर्थिका एवमुक्तप्रकारमाहुः [सुप्ति ] उक्तवन्तो मिथ्या असतीर्थकामुकतायाः कियत्यानुपपतेः। कियते इति क्रिया यस्यास्तु कथनापि नास्ति सा कथं क्रियेति ? | अकृतकर्मानुभवने हि बद्धमुक्तसुखित दुःखितादिनिमहाराज इति स्वमनमाविष्कृाह मित्यादि ]] श्रहमित्यहमेव नान्यतिर्थिकाः, पुनः शब्दो विशेषपूर्वस्यणितामाद[ मायामीत्यादि पूर्ववत्कृत्यं करणीयमनागतका दुखं तकेतुत्वात् कर्म स्पृश्यं स्पृष्टल कणबन्धावस्थायोग्यम, क्रियमाणं वर्तमानकाले कृतमतीते प्रकरणं नास्ति कर्म्मणः कथञ्च नापीति भावः । स्वमत सवस्वमाह- कृत्वा कृत्वा, कम्र्मेति गम्यते । प्राणादयो वेदनां कर्मकृतवेदयनयनपीि स्वात्सम्यग्वादिनाम् स्था०३ डा० २० [] अतीन्द्रियस्य जीवस्य सिर्फ 'क' शब्दे महुकः करिष्यते ) तिमिवादी व वर्तमानस्यान्यो जीवोऽन्यो जीवात्मेति विप्रतिपत्ति: — Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५६) अगउत्थिय अभिधानराजेन्सः। मनस्थिय अमउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्रवंति जाव परूवति- अमनस्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, पहावेति, परवेंशिएवं खा पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छादसणसन्न एवं खल नियंतकालगए समाणे देवन्नएणं पप्पाणणं बमाणस्स अस्मे जीवे असे जीवाया पाणावायवेरमणे. से ण तत्थ नो अमदेवे नो अमसिं देवाणं देवीश्रो प्रनाव परिग्गहरमणे कोहविवेगे. जाब मिच्छादसणस- भिमुंजिय अभिजुजिय परियारे, णो अप्पणिचियाओ विवगे वट्टमाणस्स असे जीवे असे जीवाया उप्पत्तियाए| देवीभो अनिमुजिय अनि जिय परियारेइ, अप्पणामेव भाव पारणामियाए वमाणस्स अम्ले जीवे भले जीवाया अप्पाणं विउब्धिय २ परियारेक एगे वि य णं जीवे एगनग्गहे हा प्रवाए वट्टमाणस्स० जाव जीवाया उट्ठाणे० णं समरणं दो वेदे वदे । तं जहा-इत्थिवेयं च पुरिसवयं नाव परक्कमे बट्टयाएस्स० जाच जीवाया णेरइयत्ते तिरि-1 चा एवं प्रसात्थियवत्तव्बया णेयव्वा० जाव इत्थिवेयं च क्खमाणुस्स देवते वट्टमाणस्स० जाव जीवाया णाणा- पुरिसवेयं च स कहमेयं जिते! एवं | गोयमा ! जम्मं ते अक्ष. वरणिज्जे० जाच अंतराइये बट्टमाणस्स० जाव जीवाया, उत्थिया एवमाइक्खंति जाव इत्थीवेयं च परिसदेयं य। एवं कएलेस्साए. जाव मुकलेस्साए सम्माविट्ठीए ३, जेते एवमाइंसु, मिच्ग ते एवमाहंमु । महं पुण गांयमा! एवं चतुइंसणे ४ आभिणिवोहियणाणे ५ मइएणा- एवमाइक्वामि० जाव पस्त्रोमि-एवं खलु नियंठे कालगए णे ३ आहारसरणाए ४ एवं पोरालियसरीरे ५, एवं समाणे अभयरेसु देवलोएम देवताए उववत्तारो नवंति, मएजोए ३, सागरोवोगे अणागारांवओगे बट्टमाणस्स महिलिपसुजाव माणुभागेसु रंगतीमु चिरहितीसु से णं एणे जीवे अएणे जीवाया, से कहमेयं नंते ! एवं । तत्य देवे जवइ महिक्लिए० जाव दस दिसामो उज्जोवमाणे गोयमा ! जएणं ते एणउत्यिया एवमाइक्वंति० जाव पनासेमाणे जाव पडिरूवे, सेणं तत्थ अएणे देवे अमोसिं मिच्नं ते एवमाइंसु । अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामिक देवाणं देवीभो अनिमुंजिय २ परियारे, अप्पणिच्चिजाव परूवेमि-एवं खा पाणावाए जाब मिच्चादसणम- यामो देवीओ अनि जुजिय अभिबुंजिय परियारे, नो वे वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे सच्चव जीताया० जाव प्रणा- अप्पाणामेव अप्पाणं वेजब्धियं परियारेश, एगे बियणं जीवे गारोवभोगे बहमाणस्स सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया। एगेण समपणं एगं चेदं वेदे । तं जहा-इथिवेदं वा पुरिअन्ययधिकप्रक्रमादेवेदमाह-(प्रमउत्थिया णमित्यादि) सवेदं या । जं समय इत्थिवेदं वेदेह हो त समयं पुरिसवेदं प्राणातिपातादिषु वर्तमानस्य देहिनः (अ जीवत्ति) जीबति प्राणान् धारयतीति जीवः, शरीरं प्रकृतिरित्यर्थः । स बेदेइ, जं समयं पुरिसवेदं वेदेइ हो तं समयं इत्थिवेयं चान्यो व्यतिरिक्त अन्यो जीवस्य देहस्य सम्बन्धी अभिष्ठा- वेएन । इत्थिवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेदेइ, पुरिसवेयस्स तृत्वादात्मा जीवात्मा, पुरुष इत्यर्थः । अन्यत्वं च तयोः पुमा- उदएणं नो इत्थिवेयं वेएइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समपुनस्वभावत्वात् । ततश्च शरीरस्य प्राणातिपातदिषु वर्तमा एणं एगं वेदं वेदेइ । तं जहा-इत्थिवेदं वा पुरिसदें वा। मस्य श्यमानत्वात शरीरमेव तत्कर्तृ, न पुनगरमेत्येके । भ. न्ये स्वादु:-जीवतीति जीवो नाकरादिपायः, जीवात्मा तु स इत्थी इत्थिवेएणं उदिखेणं पुरिसं पत्थे, पुरिसो पुरिसभेदानुगामि जीवनव्यं द्रव्यपर्याययोश्चान्यत्वम, तथाविधन-] वेदेण उदिप्मेणं त्यि पत्थइ । दो वेए असमय पत्थे । तिभासभेदनिवन्धनत्वात् , घटपटादिवत् । तथाहि-ज्यमनुग तं जहा-इत्थी वा पुरिसं, पुरिसो वा इत्यिं ।।। साकारां बुर्षि जनयति, पर्यायास्त्वननुगताकारामिति । अम्ये स्वाहुः-अन्यो जीवोऽन्यश्च जीवात्मा जीवस्यैन स्वरूपामिति । (अमउत्थिप इत्यादि) (देवग्नूप णं त्ति) देवततेन प्रात्मनाकाप्राणातिपातादिविचित्रक्रियाभिधानं चेह सर्वावस्थासु जीवजी रणनतेन नो परिचारयतीति योगः(सेणं त्ति) असो निन्थदेवस्तवात्मनोभैदल्यापनार्थमिति परमतम् । स्वमतं तु-(सवेव जीवे प्रदेवलोके मो नैव (अक्ष्म सि) अन्यान् अात्मव्यतिरिक्तार देवान् सवेव जीवाय त्ति) स एव जीवः शरीरं स एव जीवात्मा जीव| सुरान् सुरान् , तथा नो अन्येषां देवानां संबन्धिनीर्देवीः (अनिजंजिय इत्यर्थः,कथञ्चिदिति गम्यम् । नानयोरत्यन्तं भेदः, अत्यन्तने त्ति) अभियुज्य वशीकृत्य प्राक्लिप्य वा परिचारयात परिभुझे देहेन स्पृएम्यासंवेदनप्रसका देहकृतस्य च कर्मणो जन्मान्तरे (णो अप्पणिपियानोन्सि) आत्मीया (अप्पणामेव अप्पाणं विडबेदनानावप्रसङ्गः। अन्यकृतस्यान्यसंवेदने चाकृताज्यागमप्रस ब्धियत्ति) स्त्रीपुरुषरूपतया विकृस्य । एवं च स्थिते (पगे विय जोत्पश्रम , अनेदे च परलोकानाव इति । व्यपर्यायव्याख्या-- णमित्यादि परउत्थियवतव्वया णेयब्व ति) एवं चेयं ज्ञातव्या. मेऽपि न यपर्याययोरत्यन्तजेदस्तथानुपन्धेः । यच प्रति "जं समयं त्थियेयं बेहतं समयं पुरिसधेयं वेएइ, जं समय जासभेदो नासावात्यन्तिकतद्भदकृतः, किन्तु पदार्थानामेव तुल्या परिसवेयं वेएइ तं समय शत्थवेय बेपक, इथिवेयस्स बेतुस्यरूपकृत इति जीवात्मा जीवस्वरूपम् । इह तु व्याख्याने यणयाए पुरिसवेयं वेप पुरिसधेयस्स बेयणयाए इथिवेये स्वरूपवतो न स्वरूपमत्यन्तं भिन्नं, भेदे हि निःस्वरूपता तस्य बेपह,एवं खलु एगे वि य णमित्यादि" मिथ्यात्वं चैषामेवम्-स्त्रीप्राप्नोति । नच शब्दलेदे वस्तुना भेदोऽस्ति, शिलापुत्र रूपकरणेऽपि तस्य देवस्य पुरुषत्वात्पुरुषवेदस्यैवैका समये कस्य वपुरित्यादाविवेति ॥ भ०१७ श०२ उ०। उदयोन स्त्रीवेदस्य, वेदपरिवृत्त्या वा स्त्रीवेदस्यैव न पुरुषवेद(९)[परिनारणा परिचारणा कालगतस्य निर्ग्रन्धस्य- | स्योदयःपरस्परावरुरूत्वादिति । [ देवोपसुत्ति ] देवजनषु Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५७) अभिधान राजेन्द्रः ॥ भण्उत्थिय मध्ये [ उपसा प्रति] मानल्या उपभक्तीति दृश्यम् । "महि कुए" इत्यत्र यावत् करणादिदं दृश्यम् - "ग्रहम्य महाबले महाजसे महासोले महाभागे दारवि यवत्येतुयभिय" बुद्धिका बादुरशिका [ अंगकुंकल मदुर्गमका पीठधार ] अङ्गदानि बह्नाभरणविशेषान् कुलानि कर्णाभरणविशेषान् यश्मानि तपो ज्ञानिक कर्णानावशेषान् धारयेयंशलो यः स तथा । [ विचित्तद्दत्थाजरणे विचिनमालामालिम के ] वि चित्रमाला च कुसुमस्र मौसी मस्तकें मुकटं च यस्य स तथा, इत्यादि यावत् । [रिकी जुईए पाए गया अच्चीर तेमेरा दस दिनाओ खोपमाणे सि] [ऋरि तिरार्थसंयोगः, प्रभा यांनादिदीप्तिः, या शोना, परस्परानदितेोज्वाला तेजः शरीर, लेश्या दे हव:, एकार्थावेते । उद्द्योतयन्प्रकाशकरणेन [ पन्नासेमाणे ति ] प्रजासयन् शोजयन् इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - [ पासाइ] ष्णां चिप्रमादजनक [दरसज्जे ] पहच श्राम्यति [ अभिरुवे ] मनोझरूपः [पमिरुवे. सि] ष्टारं द्रटारं प्रति रूपं यस्य स तथेति । एकेनैकदा एक एव वेदो वेद्यत। यह कारयमाद--[पमित्यादि ४० २०४० । (१०) बाह्मपरिरुततेअस्थिया जंते । एवमाश्वति० जाव परूति एवं खसमणा पंडिया समोरासमा बालभिया । जस्स णं एगपाणाए चिदंगे अशिक्खिते, से गंतवा चित्तवं सिया से कह मेयं जंते ! एवं ।। गोयमा ! जं गं ते उत्थिया एवमाइक्खति० जाव वत्तव्वं सिया, जे ते एवमाहंस, मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा !० जाव परूयेमि एवं खलु समणा पंभिया समणोवामा बालपंबिया, जस्स एवं एगपाणे वि दंमे णिक्खित्ते, से णं णो गतवाले चिन्न सिया ॥ , पतत्किम पकद्वयं जिनानिमतमेवानुवाद परतयक्त्वा द्वितीयप कं दूषयन्तस्ते श्दं प्रज्ञापयन्ति - ( जस्स णं एगपाणाए वि दमइत्यादि ) [ जस्स]ि येन दोना एकमाथि जी सापराधादी पृथिवीकायिकादी था कि पुनर्वषु दयको वधः । [ अलिखिते चि ] अनिक्कितोऽनुज्जितोऽप्रत्याख्यातो भवति । स एकान्तबाल इति वक्तव्यः स्यात् । एवं च श्रमणोपासका एकान्तबाला पवन बालपणमता, एकान्तबालव्यपदेशनिबन्धनस्या सर्वप्राणिदमत्यागस्य भावादिति परमतम् । स्वमतं तु एकप्राणिन्य पि येन द एमपरिहारः कृतोऽसौ नैकान्तेन बालः, किं तर्हि ?, बालपरितः विशसावेनास्य तदेवाह (जस्त्र द मित्यादि) देव बालत्वा दिजीवादिषु निरूपया - जीवाण मित्यादि) प्रागुकानां संयतादीनामिहोनांच परिकता यद्यपि शब्द भेदो नार्थतस्तथापि त् क्रियाव्यपेकः, पण्डितत्वादिव्यपदेशस्तु बोधविशेषा पेक इति । प्र० १७ शु० २ उ० । ( ११ ) जाषारायगिदे० जाप एवं यामी-अस्थिया णं भंते ! एव माझ्वसंति० जान परूर्वेति-ए खयु केवली अक्खाएसेां ११५ अण्उत्थिय इस्संति एवं ख आह दो भासा केसी जपलासेणं आहे समारो भासइ । तं जहा मोसं वा, सच्चामोसं वा, से कहमेयं जंते ! एवं १ । गोयमा ! जंणं ते अएण्उस्थिया जाए एमासु मिच्छेते एवमाहं अई पुण गोमा ! एवमाइक्खामि ४ - णो खलु केवली जक्खाए से आदिस्सर खोख केवली जनखाएसेां आहे समावे दो भासाओ भाइ । तं जहा- मोसं वा, सच्चामोसं वा; केवली णं असावज्जाओ अपरोवघाइयाओ आदच दो भासा भास । तं जहा - सच्चं वा सच्चामोसं वा ॥ (मासेणं इस ति) देवायेशेनाविश्यतेऽधिष्ठीयत इति [ नोख इत्यादि ] मोतु केवली यज्ञावेगेन वियते ऽनन्तवीर्यत्वात्तस्य । (श्रष्टाइत्ति) अन्याविष्टः परवशीकृतः सत्यादिभाषाद्वयं च ज्ञाषमाणः केवली उपधिप्रग्रहप्रणिधानादिकं विचित्रं वस्तु प्राषत इति । भ० १८ श० ७ ० । ( १२ ) [ मनुष्यलोकः ] पञ्चयोजनशतानि मनुष्यलोको मनुष्यै हुसमाकीर्ण उत्पाते ! एवमाक्स्वंति जान पति से जड़ा नाम जुबई जुपाने हत्येणं इत्यं गेहज्जा, चरस या नामी गाठतासिया एवामेव चचारि पंच जोगासपाई बहुसमाणे मणुयलो मस्सेहि, से कहमेवं भंते एवं गोयमा ! जसं ते मत्थिया जाव माणुस्सेहिं जे एत्रमासु, मिच्छाते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाववामेव चचारि पंचनोयणसाई बहुसमाइएने नेरसोए नेरइएहिं । अखत्यादि) बसमा )ि आयन्समाकीर्ण मिथ्यात्वं तद्वचनस्य विज्ञानपूर्वक त्यादवसेयमिति ॥ नः ५ श० ६३० । ( १३ ) [ वेदना ] सर्वे जीवा अनेवंभूतां वेदनां वेदयन्ते इत्यत्र विवादः - अत्थियाणं जंते ! एवमाइक्खं ति० जाव परूवेंति-सव्वे पाणा सबे या सच्चे जीवा मध्ये सथा एवं बेणं बेदंति से हमे भते ! एवं है। गोषमा ते पट त्थिया एवमाइक्रखति० जाव वेदंति; जे ते एवमाहंसु, मिच्छा ते एवमाह । भदं पुण गोयमा ! एवमाश्वखामि०जाय परूबेमि श्रत्येगइया पाणा ज्या जीवा सत्ता एवंभूयं यणं वेदंति, प्रत्येगइया पारणा च्या जीवा सत्ता अणेवंभूयं त्रेयवेदंति से केणा प्रत्येगइया तं चैव उचारे यां गोयमा ! जण पाणा च्या जीवा सत्ता जहा कमा कम्मा वहा वेषणं वेदंनि, ते पाणा या जीवा सत्ता एवंभूर्य वेणं वेदंसि नेणं पाशा या जीवा सत्ता जहा कहा कम्मा नो तहा वेयां वेदंति, तेगं पाला ज्या जीवा सत्ता अवंन्यं वेपनं वेदंति से तेा णं तच ।। 1 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५०) अप उत्थिय अनिधानराजेन्सः। भनत्थिय (पवंभूयं वेयणं ति) यथाविधं कर्म निबम्मेवंभूतामेयंप्रका- सर्व सुत अवरए विएणायधम्मे, एस णं गोयमा! मए रतयोत्पन्नां वेदनामसातादिकर्मोदयं वेदयन्त्यनुभवान्त । मि पुरिसे देस विराहए पणत्ते । तत्थ / जे से तच्चे पुरिसध्यात्वं चैतद्वादिनामवम-न हि यथा बद्धं तथैव सर्व कर्माऽनुभूयते, आयुः कर्मणो व्यभिचारात् । तथाहि-दीर्घकाझानुभवनी जाए से एणं पुरिसे सीलवं सुनवं नवरए विएणायधम्मे,एस पस्याप्यायुःकर्मणोऽस्यीयसाऽपि कालेनानुलवो भवति,कथम एं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पणते ३ । तत्थ णं यथाऽल्पमत्युव्यपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्यात् । कथं वा महा- जे से चउत्ये पुरिसजाए, से पुरिसे असीलवं असुसंयुगादी जीवसकाणामप्येकदैवमृत्युरुपपद्यतेति । [भणेवनूयं । तवं अणुवरए अविएणायधम्मे, एस णं गोयमा! मएपिति] यथा बकं कर्म नैवम्लूताऽनेवम्जूता, अतस्ताम् । श्रूयन्ते बागमे-कर्मणः स्थितिघातरसपातादयं इति ॥ भ०५।०५ उ01 पुरिसे सनविराहए पएणते। अएणउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खांत जाव परूवति अस्य चूर्यनुसारेण व्याख्या-एवं लोकसिकन्यायेन बबु निश्चयेन पहाऽन्ययूधिकाः केचिक्रियामात्रादेवाऽभीष्टाऽर्थसिएवं खलु सव्वे पाणा या जीवा सत्ता एगंतसुक्खं वे द्धिमिध्यान्त । न च किञ्चिदपि झानेन प्रयोजन, निश्चेष्टत्वात्। पणं वेयंति, से कहमेयं भंते ! एवं । गोयमा ! जएणं ते | घटादिकरणप्रवृत्तावाकाशादिपदार्थषत् । पञ्चते च- "क्रियेव अम्मात्थियाजाव मिच्चं ते एवमासु । अहं पुण गोयमा! फबदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतःखीभक्ष्यभोगको, म एवमाइक्खामि० जाव परूवोम-प्रत्येगइया पाणाया कानात्सुखितो भवेत" तथा-"जहा खरो चंदणजारवाही, भारस्स नागी नहु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेणहीणो, जीना सत्ता एगंतदुक्खं वेयणं वेयति । श्राहच्च सायं अत्ये माणस्स नागीन हुसर्गए"अतस्ते प्ररूपान्त-शील श्रेगइया पाणा नूया जीवा सत्ता एगंतं सायं वेयणं वेयंति, यः प्राणातिपातादिविरमणध्यानाध्ययनादिरूपा क्रियेव श्रेयोऽतिमाहच्च असायं वेयएं वेयंति, प्रत्येगइया पाणा ४ वेमायाए शयेन प्रशस्य , क्लाध्यपुरुषार्थसाधकत्वाच्यं वा समाश्रयणीयं बेयणं वेयंति, पाहच सायमसायं सेकेण्डेणं । गोयमा! पुरुषार्थविशेषार्थिना । अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिकिमिति , न क्रियाता, ज्ञानविकलस्य क्रियावतोऽपि फलसिझदर्शनात् । प्रनेरइया णं एगंतयुक्खं वेयणं वेयंति,पाहच सायं भवणबइ धीयतेच-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फत्रदा मता। मिथ्यापाणमंतरजोइसवेमाणिया एगंतं सायं वेयंति, पाच असा- कानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनातू" तथा-"पदमं नाणं वं पुढविकाश्या जाव मणुस्सा पायाए वेयंति, प्राहच्च तबोदया,एवं चिड सव्वसंजपा प्रमाणी किं काही किंवा,नाही व्यपावयं"।१॥ अतस्ते प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, बुतं श्रुतकासायमसायं , से तेणढे णं ॥ नं तदेव श्रेयोऽतिप्रशस्यमाश्रयणीयं वा पुरुषार्थसिकिहेतुत्या(अन्नउत्थियेत्यादि) (प्राह सायं ति) कदाचित्सातां वे- तुन तु शीलमिति । अन्ये तुझानक्रियाभ्यामन्योन्यनिरपेकादनाम । कथामति, उच्यते-"उववाएण च सायं,नेरहोदेवक- | ज्यां फलमिच्चान्ति । ज्ञानं क्रियाविकलमेवोपसर्जनीभूतक्रियं वा म्मुणा वा वि"(माहव असायं ति) देवा आइननप्रियविप्रयो फलदम् । क्रियाऽपि झामविकला उपसर्जनीनृतहाना था फलदेगादिवसातांवेदनां वेदयन्तीति । (माया यति) विविधया ति भावः । मणन्ति च-"किंचिद्वेदमयं पात्रं, किश्चित्पात्रं तपोममात्रया कदाचित्साता, कदाचिदसातामित्यर्थः । न. ६ यम् । प्रागमिष्यति यत्पात्रं, तत्पत्र तारयिष्यति"॥१॥अतश० १० उ० । स्ते प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, तथा शीलं श्रेयः, द्वयोरपि प्रत्येक पुरु(१५) [शीसमशीनं श्रेयः , श्रुतं श्रेय इत्यत्रान्यथिकैः षस्य पवित्रतानिबन्धनत्वादिति । अन्ये तु व्याचकते-शीसं थे यस्तावन्मुण्यवृत्या, तथा श्रुतं श्रेयः, अतमपि श्रेयो, गौणत्या सह विवादः तपकारित्वादित्यर्थः, इत्येकीयं भतम् । अन्यदीयमतं तु श्रुतं सयगिहे०जाव एवं वयासी-अणडास्थया णं भंते ! एच श्रेयस्तावत्। तथा शीलमपि श्रेयो, गाणवृत्त्या तनुपकारित्वादिमाइक्वंतिक जाव परूवेति-एवं खलु सील सेय, सुर्य सेय, त्यर्थः । अये चार्थ श्द सूत्रे काकुपागलच्यते । एतस्य च प्रथसुयं सील सेयं, से कहमेयं ते! एवं मव्याख्यानेऽन्ययूथिकमतस्य मिथ्यात्वं, पूर्वोक्तपकत्रयस्यापिफगोयमा ! जं जंते ससिकावनङ्गत्वात, समुदायपक्षस्यैव च फलासिफिकारणत्वात्। अणउस्थिया एवमाइक्वंतिजाव-जे ते एरमाइंसु, मिच्छा प्राह च-" नाणं पयासयंसो, हो तवो संजमो य गत्तिकरो। ते एवमाइंसु । अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामिक तिराहं पि समाोगो, मोक्खो जिणसासणे मणिभो" ॥१॥ जाव परूवेमि-एवं खनु मए चत्तारि पुरिसजाया पपत्ता । तपःसंयमौ च शीलमेव । तथा-"संजोगसिकी फलंध. यति,नाएगचक्केण रदो पया । अंधो य पंग य वणेसतं जहा-सीलसंपले नाम एगे नो सुयसंपले १। सुयसंपणे मिचा, ते संपउत्ता नगरं पक्ट्ठिा" ॥॥ति। द्वितीयव्याख्याननाम एगे नो शीलसंपद्ये २। एगे सीलसंपचे वि सुयसंपाये पकेऽपि मिथ्यात्वं, संयोगतः फलसिर्ट एन्वादेककैस्य प्रधानेतविशएगे नो सीनसंपक्षे नो मुपसंपातत्य गंजे से रविवकाया असङ्गतत्वादिति । महं पुनर्गौतम! पवमास्यामि, पढमे पुरिसजाए, से णं पुरिसे सीनवं असुयवं उवरए यावत्प्ररूपयामीत्यत्र तयुक्तं शीलं श्रेय इत्येतावान् वाक्यशेषो अविणायधम्मे। एसणं गोयमा मए पुरिसे देसाराहए पण दृश्यः । अथ कस्मादेवमत्रोच्यते-पवमित्यादि ] एवं वक्ष्यमा णन्यायेम [पुरिसजागत्ति ] पुरुषप्रकाराः [सोसवं असुरवं ति] ते १। तत्थणं जे से दोचे मुरिसजाप,सेणं परिसे असी- कोर्थः[चवरए अविनायधम्मेलिउपस्तो निवृता खबुना Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५९ ) अभिधानराजेन्द्रः । मण उत्थिय 1 पापात् वाचमभावतो धितोपत्र स्वर्थ गीतारणनिरतो गीतार्थ इत्यन्ये देसा राहत] ] देशं स्तोमं मोहमार्गस्वारा बोधरहितत्वात्कियापरत्वाच्चेति । [असील वं सुपयं ति] कोऽर्थः ? [ अवर विणायचम्मे] पापादनि वित्तसम्यरिति नाथः ॥ [ देखविराह ] देशस्तो कर्मशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोकमार्गस्य तृतीय भागरूपं, चारित्रं बिराधयतीत्यर्थः प्राप्तस्य तस्यापावनाद प्राप्त [ सवाराहप [] सर्व प्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः कानदर्शनयोः संगृहीतत्वात् । नहि मिथ्यादृष्टिविंशातधर्म्मा तस्व सो भवतीति । एतेन समुदितयोः शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुकमिति ( सव्वाराह ) इत्युक्तम् भ० ८ श० १० उ० । (१५) [ ] सर्वजीवानां सुखविषये ि अस्थिया जंते । एवमानखंति० नाव परुति-जा वया गयमि गरे जीवा, एवश्याणं जीवाणं नोचकिया केइ सुहं वा दुहं वा० जात्र कोलडिगमायमाचे निप्पा देन मायमात्रे कलममायमात्र मासमायमात्र मुग्गमायमवि जुगमायमविक्खिमायमात्र अनिनिव्वट्टेत्त। उवदंसित्तए से कहमेयं जंते! एवं गोपमा ! जाए माइक्रशि० जात्र मिच्छ्रं ते एवमाइंसु. अहं पुण गोयमा ! एवमाक्खामि० जाव परूवेमि- सव्वलोए वि य णं सव्वजीवाएं नो चक्किया केइ सुहं वा तं चैव जाव उवदंसित्तर से केलट्ठे ? । गोयमा! प्रणं जंबुद्दीवे दीवे० जाव विसेसाहिए परिक्खवेणं पष्ठसे । देवेणं महिष्एि० जाव महाणुभागे एवं महं सविलेवणगंधमगमंग हायतं अनदाले अहालेना० जाव इह्यामेव कछु केवलकर जंबुद्दी दीवं तिर्हि अच्छरानिवाएहिं तिससखुत्तो श्रणुपरियहित्ता णं हव्वमागच्छेजा, से नूणं गोयमा! से केवलकप्पे युरीने दीने लिहिं पाणपोग्गलेोर्ड फु? फुटे पकिवाणं गोषमा ! के तो पाणीगाणं कोमामा जान छवदंसिचर को समहे से तेणडे एं जाव उवदं सित्तए जीवेणं नंते ! जीवे जीवे । गोयमा ! जीवे ताव नियमा, जीवे जांबे वि नियमा जीवे । ० ( नत्थीत्यादि ) ( नो चक्किय त्ति ) न शक्नुयात् । ( जाव कोलडियमायमवि ति ) आस्तां बहु बहुतरं वा या कुकिमामपि कुकुक (नि प्पा ) वल (कल सि ) कलायः, ( जूय ति ) यूका; " दृष्टान्तोपनयः । एवं यथा गन्धपुरुवाना'श्रयमित्यादि तिनत्वात्कुनास्थिकमात्रादिकं न दर्शयितुं शक्यते । एवं सर्वजीवानां सुखस्य दुःखस्य चेति । भ० ६ ० १० ४० । 66 (१६) [ ] राजगृहनगरस्य बहिनारपर्वतस्याऽ९:स्थस्य हृदस्य विषये विप्रतिपत्तयःप्रत्यया भंते! एवमाखति, जाति परणभिपति एवं ख रायगिस्स नगरस्स पहिया वे - अणउत्थिय भारस्स पम्यस्त आहे एत्थ ां यहं एगे हरए ये पते । अहोगाई जोषणाई आयामविवखजेां नाणादुमममम उसे सस्सिरी जा परिरूने, तत्य ां बहने उदारा वलाहया संसेयंति, समुच्छियंति, वासंति, तव्वतिरिते विय सया समि हसि प्रकार अभिनिस्सा, मे कह मेयं भंते ! एवं । गोषमा जम्मे ते अउत्थिया एवमाहक्खतिजा जे ते एमाइक्खंति, मिच्छं ते एवमाइक्खंति । अहं पुल गोयमा ! एवमाइक्खामि, जासेमि, पावेमि, परूवोमएवं खलु रायगिहस्स एयरस्स वहिया बेभारपण्यवस्त अदूरसामंते एत्थ णं महातवावतीरप्पभने नाम पासवणे पत्ते । पंचणुसयाई आयाम विक्खंनेणं नाणामखं ममंडिउद्देसे सस्सिए पासादीए दरिस खिजे आरूने पांढरे, त स्थ में बहने उसिनजोणिया जीवा पपोग्गला पदमार वक्कमंति, विउक्कमति, चयंति, उवचयंति, तव्यतिरित्ते विय सया समर्थ उस उसने आउ आए अनिनिस्वद एस गोयमा ! महातवावतीरप्पन ने पासवणे, एस णं गोयमा ! महातवावतीरप्पनवस्स पासवग्रस्त ट्ठेपते । सेवं जंते ! भंते ति जगवं गोयमे समणं जगवं महावीरं बंदर नमसर | त्यादिपव्ययस् प्रदेशि ] अस्तातस्योपरि प बेत इत्यर्थः (र) हद [असे] अभिधानः कचि हरते इत्यस्य तत्र च श्रप्यः श्रपां प्रजयः, हृद एव वेति ( ओराल सिं) विस्तीर्णाः, ( बलाहयत्ति) मेघाः, ( संसेयंतित्ति ) संविद्यन्ति, उत्पादानिमुखयति संमुच्छेतिति ) संमत्पद्यन्ते वि ति) हदपूरणादतिरिकश्च उत्कलित इत्यर्थः । ( आउयाए त्ति ) restrः [ अभिनिस्सव ति ] अभिनिश्रवति करति [ मिच्द्धं ते मास्क्वति) मिध्यात्वं चैतद्वाक्यानस्य विमानपूर्वक स्वात्प्रायः सर्वक्षवचनविरुद्धत्वादन्यापहारिकण प्रायोम्य थोपलम्भाच्चावगन्तव्यम् । [ अदूरसामंते ति ] नातिदूरे नाप्यतिसमीप इत्यर्थः । पथ ति) प्रापकेोपमानमा वोत्रतीरप्पनवे नाम पासवणे शि ) आतप श्व आतप उष्णता, महोधासावातपथेति महातपो महातपस्य उपतीरं तरिसमीपे भवत्या यस्यासी महातपोपतीप्रभवः प्रथयति करतीति प्रश्रवणः, प्रस्यन्दन इत्यर्थः । ( वक्कमं ति) उत्पद्यन्ते, ( विक्रमंति) विनश्यन्ति। एतदेव व्यापार-व्यय उत्पद्यन्ते चेति । निगम समित्यादि) एषोऽनन्तरोरुप एप या अन्ययूधिपरिकल्पिताप्यसं हो महातपोपतीरप्रभवः प्रश्रवण उच्यते । तथा एष योयमनन्तरोक्तः ( उसिएजोलिए इत्यादि ) स महातपोपतीरप्रभवस्य प्रश्रवणस्यार्थोऽभिधानान्वर्थः प्रतप्तः । भ० २ श०५ उ० । इति दर्शिता अन्यधिकैः सह विप्रतिपत्तयः ( अन्ययूधिकविशेषैः कापिलादिभिः सह विवादास्तु ततच्छब्देषु, 'समोसरण 'शब्दे च दर्शविष्यन्ते) Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६०) प्रानस्थिय अभिधानराजेन्छः। अणउत्थिय (१७) संसर्गस्तु तैः [कापिलादिभिः सह न समाचरणीय पासासूदगवीणिया कन्जति । सा दुविहा-वसहीए संबद्धा , एव [आगाढवचनम् ] यथा इतरा असंबरून वसहीसंबका तिपिहा विहिता-बहिया, अंतो, अभ्ययूधिकं वा गृहस्थं वा पागाद वा बदति उवरि च । इमं तिविहाए वि विक्खाणं णिश्चजे निकख भएणनत्थियं वा गारत्थियं वा आगाद बदा परिगा विहिना उम्मि-जण अंतो व ओदए वा वि । वदंतं वा साइज्जइ । ए। हम्मियतलमाले वा, पणालगिदं च वरिमृ ।। १३४ ॥ भामाद इत्यादि । जा सा वसहीसंबद्धा सा निश्च परिणालो, जा सा अंते जे निवडू प्राडास्थिय का गारत्थियं वा फरुसं बदइ, संबद्धा सा नूमी उम्मिज्जति , सिरा वा उप्पलिंगा वा सोदगंवा रिहोहि पबिटुं, जा सा उवरि संवा साहम्मियतले अदनं या साइज्ज (१० जे जिस्खू अएणउत्यियं वा हम्मतले मायालो वा मंझविमान्छादितमाले वा वासोदगं पवि गारस्थियं वा आगाई फरुसं बदइ, वदंतं वा साइज्जइ ।।१।। कायाले वा पणाअच्छिदं । जे जिक्खू असउत्थियं वा गारत्यियं वा अश्मयरिए अच्चा- वसही य असंबछा, नदगागमगणकद्दमे चेव । सायणाए अच्चासाद, अच्चासायंतं वा साइज्जइ । १२। पढमा बसहिणिमितं, मग्गणिमित्तं दुवे इतरा ॥ १३५॥ प्रागाढगाहासुतं बसही पसंबका तिविहा-उदगस्स पागमो नदगागमो, बभागाढफरुसमीसग-दसमुद्देसम्मि वस्मितं पुव्वं । सहि तेण आगच्छति पविसति सि , अंगणे या जत्थ साहुणो गिहियतित्थिएहि, ते चेव य होति तेरसमे ॥२५॥ अच्छंति तं नाणबदगं पति ,णिग्गमणपहे वा उदगं पति,तत्य कदमो नवति, तत्थ पढमा जा वसही तेण पविसति त्ति,ते - जहा दसमुद्देसे भदंतं प्रति आगाढफरुसमीसगसुत्ता भ मतो दगवाहो कज्जति , मा वसहीविणासो नविस्सति, श्यरासु णिता, तहा इह गिहत्यअसउत्थियं प्रति वक्तव्या ।हमोहिं जा दुसुजा अयं पति,जा यणिग्गमपहे,पता अमतोदगवीणिया कतिमातिपहिं गिहत्थि अध्यातिथियं वा ऊपतरं परिभवंतो ज्जति, मा नवगं ठादि तितं च संसज्जति,तत्थ अंतिं तणं ताणं भागाढं फरुसं वा भणति तस्स पाणविराहणा कज्जमो वा होहि सि मग्गणिमितं णाम जातिकुलरूवभासा-धणवलपाहएणदाणपरिभोगे। मा मग्गो रुझिदित्ति, सदगेण कहमेण वा वसहिसंबकासु वि सत्तवयबुदिनागर-तकरभयकेयकम्मकरे ।। १६ । । दगवीणिया कज्जति । जाद ताव मम्मपरिष-द्वितस्स मुशिणो वि जायते ममं । एते सामामतरं, दगवीणिय जो उ कारवे निक्खू । किं पुण गिहीण मां, न विस्मति मम्मविको णं ।२७। गिहि अप्मतिथिएण ब, अयगोलसमेण आणाद।।१३६। जातिकुलरुवनासा धणेण बलेण पाहम्मत्तणेण य पतेहिदा- अयं सोहा, तस्स गोलोपिमो, सो तत्तो समंता दहति । एवं गं प्रति प्रदातासंति वि धणे, किमत्तणेण अपरिजोगी होनस- गिहिअध्मतिस्थिो वा समततो जीवोवधाती, तम्हा पतेहिं ण स्वो वयसा अपडिष्पनो मंदबुद्धिः स्वतो नागरस्तं ग्राम्य परि कारवे। भवति । तं वा गिहत्थं अम्मतिथियं वा तस्करप्रभृतककर्मकर दगवीणियएगछिया इमेजावे हि यिं परिभवति ॥ जदि ताव कोहणिमाहपरा वि जदि णो जातिमातिममेण घडिया कप्पंति, किं पुण गिहिणो दगवीणिय दगवाहो, दगएरिगालो य होति एगट्ठा । सुतरां कोपं करिष्यन्तीत्यर्थः ।। विणयति जम्हा तु दगं, दगवीणिय भाते तम्हा ।।१३। सो य उष्पन्नमंत इमं कुज्जा पुवके एगहिया, पयो दगधीणियं शिरुत्तं ॥ १३७ ॥ खिप्पं मरेज मारे-ज वि कुज्जाऽवगएहणा दाणि । गिहिअध्यतिथिपदि दगवीणियं कारवेतस्स श्मे दोसादेसव्वा वंचकरे, संताऽसंतेण पमिसिहो ॥२८॥ आया तु हत्थपाद, इंदियजायं च पच्छकम्मं वा । अप्पणा वा ममुप्पणो मरेज, कुवितो वा साहुं मारेजा , रुटो | फासुगमफासुदेसे, सबसियाणे य लहुगाय॥१३८॥ बा साहुं रायकुलादिणे गेण्हावेज्जा, साधुणा वासेहिनो देस- [प्राय इति] प्रायविराहणा-तत्थ हत्थ पादं वा लुसेजा, इंदिचागं करेज, संतेण भसंतेण वा प्रत्यभिमो एवं कुर्यात् । निक याण अपतरं वा लूसेजा, अहवा इंदियजायमिति वैदियादिया, यू०१३ २०॥ ते विराहेज्जा, पच्चाकम्म चा करेज्जा, तत्थ फासुपणं देसे मास(१८) सदकवीणिका सहूं, सम्वे चउलहूं, अफासुएणं देसे, सब्वे वा चउनहूं, अप्पणो जे निकावू दगवीणियं भपानस्थिएहिं वा गारथिएहि | करेतस्स पते चेव दोसा। बा कारोति , कारतं वा साइज्जइ ।। १५॥ दगवीणियाए अकरणे इमे दोसापण त दगंबोणिया वासोदगस्स वीणिया वि पणगादिहरितमुच्छण-संजमाताजीरगेसम्मे। कोवणानिमित णिज्जुस्तिकारो भाति वहिता विप्रायसंजम-नवधाणा से दुगंग य ।।१३।। रासामुदगवीणिय, वसहीसंबक एतरे चेन । कारणेण करेज वि बगवीणियं । किं कारणं !, मंवसहीसंवफा पुण, बहिया अंतो वरितिधा बिच १३३ बसही दुखभाए, वाघातजुयाएँ अहव सुलभाए । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६१ ) अभिधान राजेन्द्रः । अत्थिय तेहि कारणेहिं, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ १४० ॥ पोउली समुच्छ६ श्रादिग्रहणतो वेदियादि समुच्छंति, हरियकाओं चद्वैति, एसा संजमविराहणा । प्रायविराहणा सीतवसही भन्तं ण जीरति, ततो गेलां जायति, एते बसहिसंबद्धा दगवीणियाए अकज्जमाणीए दोसा, वसहिश्र - संबद्धा बहिना एमे दोसा-उदगागमे गणे अनादरे चिलिच्च ले लुतिश्रयविहारणा संजमे पणगा हरिता वेदिया था उवहिचिणासो कमेण मलिवासा डुगुविज्जति । कारणे गिहितिथिप विकारविज्जति । चितिपदमणिवा, पिउणे वा केाई भवे सहू वाघातो व साहस, णरिकरणं कप्पती ताहे ।। १४१ ।। पच्छाकडसाचिग्गह- निरनिग्गहजहए य असली वा । गिमिति थिए वा गिहिपुच्वं एतरे पच्छा ॥ १४२॥ दो वि पूर्ववत् कातो । नि० चू० १ ० । ( १९ ) [ उपकरणरचना ] अन्ययूथिकैः चिह्निमिलिकादि कारयति " जे भिक्खू सोतियं वा रज्जुयं वा चिलमिलि वा असउत्थि ए वा गारस्थिएण वा कारेति, कारंतं वा साइज्ज३ १४ || सुते सुत्ते भवा सोतिया, वस्त्रकंवल्यादिका इत्यर्थः । रज्जुए भवा रज्जुआ, दोरकि त्ति वृत्तं जवति । मरणे, वासे उन्नक्खणी जो एति । उल्लवहिँ विरतिव, अंतो बहि कसिएण इतरं वा । १६२ | जाव मंतओ ण परिद्वविजति ताव पच्छ धरिजति, अकाणे वा जाव मिलं न जति नाथ नादितो गतो बुज्जति, जओ एति, ततो कमगचिलिमिली दिजति, वासासु वा उद्भवदि विरद्वैति दोरे जहासंखं अंत बहि कसिण स्तरं वा । पंचचिलमिलए, जो पुत्रं कपती गहणं । असती पुत्रकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ १६३ ॥ वितियपदम उणे वा, निउणे वा होज्ज केणई असहू । वाघातो व साहस, नविकरणं कप्पती ताहे ॥ १६५ ॥ गाहा पूर्ववत् कण्ठा । नि० चू० १ ० । (२०) सूचीप्रभृत्युपकरणान्यन्ययूथिकेन वा गृहस्थेन वा कारयति - जे जिक्खू सूचियस्स उत्तरकरण अन्नउत्थिरण वा गारमिण वा कारेति, कारंतं वा साइज्जइ ।। १५ ।। सूयीमादीयाएं, उत्तरकरणं तु जो तु कारेज्जा । गिहि तित्थिएव, सो पावति प्राणमादीणि । १६६ । उच्चग्गहिता सूया - दिया तु एक्केकए गुरुस्सेव । गच्छं व समासज्जा, अरणायसेकेक सेसेसु ॥ १६७ ॥ सूची पिप्पलश्रो णच्छेयणं करणसोहणं वग्गहितोकरणं, पते य एक्केका गुरुस्स भवंति । सेसा तेहि चेव कज्जं कारेति, महल्लगच्छं वा समासज्ज श्रणायसा भलोहमया सर्वससिंगमयी वा सेससाहूणं एक्केक्का भवति । किं पुरा उत्तरकरणं ? । श्मं ११६ For Private अणउत्थिय पासग मडिलिसीयण- पज्जण रिउकरण प्रतरणं । सुहुमं पि जंतु कीरति, तदुत्तरं मूलविते १६८ ॥ पासगं विलंब जित,सएडकरणं मट्टिणिसायणं णिसारो पक्षलोहकारागारे रिजु नज्जुकरणं एवं सच्चे उत्तरकरणं । श्रहवा मूलनिव्वते वरं सुहममवि जं कजति तं सव्वं उत्तरकरणं ॥ सूर्यमादीयाणं, रिप्पमिकरणं तु कप्पती गढ़णं । सती पिकिम्मे, कप्पति ताहे सयं करणं ।। १६ ।। नि० ० १ ० ॥ (२१) शिक्यादि कोपकरणकारणम् जे भिक्खू सिकंग वा सिक्कगतगं वा असा उत्थिए वा गारत्यिएण वा कारेति, कारंतं वा साइज्जइ ॥ १३२॥ जे भिक्खु सिक्रोप्पादि सिकगं एसि जारिसं वा परिष्वायग इस सिक्कं प्रणतओ उपाणओ उच्चारुणं भस्मति, जारिलं काfare भोयगचुलियाणं, एस सुक्तत्थो । इदाणि निज्जुत्तिबित्थरो - सिकग करणं दुविधं, तसथावरजीवदेहणिप्फएणं । अंडगबालग कीमज - होरुवन्नादिगतेरस ।। १४३ ॥ जे पिप्पलगस्स उत्तरकरणं प्राणउत्थिरण वा गारस्थिए वा कारे, कारंतं वा साइज्जइ ॥ १६ ॥ पिप्पलगणहच्छेद-सोधणए चैव होति एवं तु । वरं पुण खातं, परिजोगे होति गायव्वं ॥ १८३ ॥ एवं पिप्पलगणच्छेयणसोहणे य एक्क्के चउरो सुत्ता, भत्थो पूर्ववत् । परिभोगे विसेसो श्मो वत्थं बिंदिस्सामिति, जाइ न पाद छिंदणं कुणति । अधवा विपादनिंदण, काहितो बिंदती वत्थं ॥ १८४ ॥ क्खं बिंदिस्सामिति, जाइ न कुणंति समुद्धरणं ॥ श्रवा समुद्धरणं, काहिंतो बिंदती एक्खे || १८५ ॥ पिप्पल गणहरूयाणं श्रप्पणे श्मा विधी म वा गेरिहत्ता, हत्ये उत्ताण्यम्मि वा कानं । भूमी व वेत्तुं एस विधी होति अप्पणणे ।। १८६ ॥ उभयतो धारणसंभवा मज्झे गेरिहऊण अप्पोति । सेसं कंटं ॥ कणं सोधिस्सामिति, जाई तु दंतसाधणं कुरणति । हवा वि दंतसोधण, कार्हितो सोहती करणे ॥ २८७ ॥ लाजालामपरिच्छा, दुल्लभप्रचियत्तसहसअप्परगणे । वारससु वि सुत्ते, अवरपदा होंति णायव्वा । १०८ । जे भिक्खु बायपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा चथिए वा गारत्थिष्ण वा परिघट्टीवेति वा, संवे वा, जम्माइति वा, अलमप्पलो कारणयाए सहममवि कप्पर, जारणमाणे सरमाणे अन्नमन्नस्स वि सरमाणे वियरति, वियरतं वा साइज्जइ ॥ ३० ॥ (जे भिक्खू लायपादं वा इत्यादि ) दो द्वियकंकुघाटतं मृमयं कपालकादि परिघट्टणं णिम्मोभणं संठवणं मुहादीर्ण जम्मावणं विसमाण समीकरणं श्रवं पजंतं सक्केति श्रप्पण कानं ति सुतं जवति, जागा जहा ण वट्टति, अउत्थियगार स्थि एहि कारावेचं जाणति वा, सुतं सरति, पस अम्होवदेसो प Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमउत्थिय अनिधानराजेन्द्रः। अमनत्थिय विसंवा सरह,अम्मममा गिहत्थऽउत्थिया,ताण वितरति पय- गिहत्या सोत्तियभणादि, अन्नतित्थिया परिव्यायगादि,सदग पति, कारयतीत्यर्थः। अहवा गुरुः पृष्टः साधुभियथा-गृहस्था- परिभोगी मत्तओ सूर्य,अहवा को सूर्शवादी तेण द लेजा, सोय म्यतीर्थिक कारयामः । ततःप्रयच्छते, अनुज्ञां ददातीत्यर्थः।। सीओदगपरिजोगी मत्तश्रो उट्वंककमादि तेण गेराहतस्स श्राप्रणिो सुत्तत्थो । नि० चू०५ उ०। णादिया दोसा, चउलहुं च से पच्छित्तं । श्मे सीतोदगपरिजोपढमवितियाण करणं, सुहममवी जो तु कारए भिक्रवू । श्णो मत्तागिहिअम्मतिस्थिएण व, सो पावति आणमादीणि १ए। दगवारगवदृणिया, उयंकाऽऽयमणिवल्लभा उ एहगा। पढमं बहु परिकम्मं, वितियं अप्पपरिकम्मं, सेसं कं । ज मयवारवगमत्ता, सीओदयभोगिणो एते ॥१३॥ म्हा पते दोसा तम्हा दगवारगो गटुअचं प्रायमणी लोट्टिया कमश्रो उबंको घट्टितसंगविते वा, पुव्वं जमिते य होति गहणं तु । कट्ठमश्रो वारओ वट्टयं कप्पयंतं पि कठमयं। पतेसु गेएहंतस्स असती पुब्बकमाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥२०॥ श्मे दोसानि० चू०५१०। नियमा पच्छाकम्म, धोतो वि पुणो दगस्स सो वत्थं । तं पिय सत्यं असणो-दगस्स संसज्जते वएणं ॥१३॥ जे जिक्खू दम्यं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा विणु-| भिक्सप्पयाणोवलितं पच्चा धुवंतस्स पच्छाकम्म स मनगो सूश्यं वा एणउत्थिरण वा गारथिएण वा परिघट्टावे असणादिरसभाविप्रोत्ति उदगस्स सत्यं भवति, तमुदगमधीइवा, जम्माइवे वा, अलमप्पणो कारणयाए सुहुममावि यनूतं संसेव्यते य ॥ १३७ ॥ णो कप्पड़, जाणमाणे सरमाणे अन्नमनस्स वि सरमाणे सीओदगोईणं, पमिसिक मा हु पच्चकम्मं ति । वियरति, वियरंतं वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ किं होति पच्छकम्मं, किंवन होतित्ति ते सुणसु ।१३॥ पढमवितियाण करणं, मुहममवी जो तु कारवे भिक्खू । । जेण मत्तेण सचिसोदगं परिभुजति, तेण भिक्खम्गहणं पमिगिहिएणतिथिएणव, सो पावति आणमादीणि।१६।। सिकं। सीसो पुच्छति-कहं पच्चाकम्मं भवति,णो प्रवति वा? घट्टितसंठविताए, पुव्वं जमिते य होति गहणं तु। भाचार्य भाइ-सुणसुअसती पुवकडाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥१७॥ संसहमसंसट्टे, भावे सेसे य निरवसेसे य । वेयुमयी गवलमयी, दुविधा सूयी समासतो होति । | हत्थे मत्ते दब्बे, मुछ-मसुके तिगहाए ॥ १४०॥ चनरंगुलप्पमाणा, सामिच्चएसंधणडाए ॥१०॥ संसट्टे हत्ये संसहे मत्ते सावसेसे दव्वे एपसुतिसु पदेसु भट्ट एकेका सा तिविधा, बदुपारकम्मा य अपरिकम्माए। नंगा कायब्वाविसमा सुद्धा,समा असुरूषानंगेसुश्मा गहणविधीअपरीकम्मा य तहा, णातल्या आणुपुवीए ॥२१॥ पढमे गहणं सेसे-सु वि जत्थ सा मुहं क्खु सेसं तु । अचंगुलाप्पमाणं, थिन्जंतो होते सपरिकम्मा तु । अमेसु तहा गहणं, असव्वसुक्खे वि वा गहणं ॥१४॥ अकंगुलमेगंतु, गज्जंती अप्पपरिकम्मं ।। २०॥ | (अनेसु ति) सेसेसु नंगेसु जदि देयं दवं सुक्खं अवलेकम जा पुन्ववट्टिता वा, पुव्वं संवित तत्थ सा वा वि।। सुक्खं ममगकुम्नादितो गन्नं पच्चाकम्मरस अभावात् विति यपदं ॥ १४१ ॥ लन्नति पमाणजुत्ता, सा णायव्या अधाकमगा ।१।। पढमवितियाण करणं, मुहुममवी जो तु कारवे भिक्खू । असिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे नए व गेलण्हे । गिहिएणतित्थिरण व,सो पावात आणमादीणि ५५२ | अघाण रोहए वा,जयणा गहणं तु गीयत्था ॥१५॥ घट्टितर्गवताए, पुब्बि जमिताइ होति गहणं तु । पूर्ववत् अनुसरणीया । नि० चू०१५ २०। असती पुन्धकहाए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥२३॥ जे निक्खू आएणउत्थिएण वा गारस्थिएण वा असणं गाहा सम्वाओ पूर्ववत् । नि०० १०० वा पाणं वा खाश्मं वा साइमं वा देश, देयंतं वा साइ(२२) अन्यथिकादिभिः सह गोचरचर्यायै न प्रविशेत्-| ज्जइ ॥ ७॥ जे भिकाबू गिहत्याण वा अएपस्थियाण वा सीओदग- जे निक्खू असणादी, देजा गिहि अहव अम्मातित्थीणं । परिभोयणा वा हत्येण वा मत्तेण वा दविएण वा नाय. सो आणा अणवत्यं, मिच्चत्तविराहणं पावे ॥२६॥ णेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गा- तेसिं अस्मतित्थियगिहत्थाणं दितो आणादी पावति, चनसहुं हेइ, पडिग्गाहंतं वा साइजः ॥ १८ ॥ च॥२६७ ॥ इमो सुस्तत्थो सव्वे वि य खदु गिडिया,परप्पवादीय देसविरता य । गिहिएणतित्यिएण व, मूयीमादीहितं तु मत्तमे। । पडिसिचदाणकरणे, जेण परालोगखीण ॥ २६ ॥ जे जिक्खू असणादी, पमिरछते आणमादीणि ।।१३५॥ एतेषु दानं शरीरशुभयाकरणं अधषा दान एव करणं यः Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भएणउत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। एणनत्थिथ परलोककालकी श्रमणः तस्यैतत् प्रतिषि, भया एतेषु | घेण मग्गेज, तदा से दिजनि, सेहे वा गिहिवेसहितो दाणं करणं किं पमिसि जेण समणो परलोककंक्षी । चाद- भावतो पब्बश्नो तस्स देजा, सत्येण वा पवमा अद्धाणं साहु. क श्राह-- तित्थगिहियं तत्तकारणेहिं गिहीण अच्चिमं तं साधू गिहीण जुत्तमदाणमसीले, कमसामइओन होति समण इव । पव्वजिणेजा, अधवा श्रद्धाणे भंतिपतियमादियाण देज्जा, वेज्जस्स वा गिलाणा श्राणियस्स देज्जा, तं च जहा दितस्स मजुत्तमदाणं चोदग!सुण, कारणं तत्थ ॥३७०॥ ज्जति तहा पुखभाणयं जत्थ गिहीणं अम्मतिथियाण य जुसं भापतित्थियगिहेत्येसु अविरतेसु त्ति काउं दाणं ण दि- साधूण य अंचियका जे उल्लले भत्तपाणमंडियमादिणा साहारं जाति, जो पुण देसविरतो सामाश्यकमो तस्स जं दाणं पमि- ण दिग्मं तत्थ ते गिही अम्मतिस्थिया विभज्जाएयव्या , अह सिमति, पयमजुत्तं, जेण सो समणनूतो सम्नति । प्राचार्य ते अणिच्चा साधु भणेज्जा, अहंवा ते पंता, ताहे साधू विभजाआद-हे चोदक ! पत्थ कारणं सुणसु ति, साहुणा विभयंतेण सम्वेसि वि हु सममामेव विनश्यम्, रंधण-किमि-वाणिज, पावति तस्स पुन्च विणिउत्तं सो।। एसूवदसो ॥ १७६ ।। नि० चू० १५ २० । कपसामाइयजोगि वि, मयस्स अपच्छमाणस्स ॥ से जिक्ख वा जिक्खुणी वा गाहावतिकुसं० जाव पविजदि वि सो कयसामहो नत्रस्सए अत्यति,तहा वि तस्स पु सिंतुकामे पो अम्पत्थिएण वा गारत्यिएण वा परिविजत्ता अहिकरणजोगा पावति तिरंधणजोगो कृषिकरणजोगो हारिउ वा अपरिहारिएण सकिंगाहावश्कुलं पिंमवायपमिवाणिजजोगो य, पतेण कारणेण तस्स दाणमजुत्तं । चोदक:- याए पविसिज वा, लिक्खमेज्ज था। णणु भणियं समणो श्वसावो। उच्यते-ओवम्मेण तु समणे ते | (से भिक्खू वा इत्यादि ) स निर्यावद् गृहपतिकुलं प्रवेष्टजेण सञ्चविरती ण अन्नति । जो भमति काम एभिर्वक्ष्यमाणैः सार्द्धन प्रविशेत्, प्राक प्रविष्टो वा नातिसामाश्य पारे, हा णिग्गतो साहुवसहीए । क्रामेदिति संबन्धः। यैः सहन प्रवेष्टव्यं तान् स्वनामग्राहअहिकरणं सातिजति,नता हु तं वोसरति सव्वं ।१७२। माह-तत्रान्यतीर्थकाःसरजस्कादयो गृहस्थाः, पिएमोपजीविनो धिग्जातिप्रभृतयस्तैः सह प्रविशताममी दोषाः। तद्यथा-ते पृष्ठतो आयरियोसीसंपुच्छति-सामाइयं करेमि त्ति । साधुवसही वि पा गच्छेयुरग्रतोवा,तेऽत्राग्रतो गच्छन्तो यदि साध्वनुवृत्या गच्चेतो पत्ततो प्रारम्भ जाव सामाइयं पारेऊण न णिग्गतो साधु युस्ततस्ततकृत र्याप्रत्ययः कर्मबन्धः,प्रवचननाघवंच, तेषां वा वसहोए पोसहसालानो वा एयम्मि साइयकालो तस्स - धिकरणजोगा पुज्वपवत्ता कज्जंति, तो सा किं सातिज्जति, स्वजात्याद्युत्कर्ष शति । अथ पृष्ठतस्ततस्तत्प्रवेषो, दातुर्वा अजाउताहु ते चोसरात सब्वे । उच्यते-ण बोसरति साइज्जति , कस्य साभं च,दाता संविभज्य दद्यात्तेनावमोदादी दुर्भिकाअदि साइज्जति एवं भणंतस्स सम्वविरती लम्भति ॥ १७२॥ दौ प्राणवृत्तिन स्यात, इत्येवमादयो दोषाः तथा परिहारस्तेन चरति परिहारिकः, पिएकदोषपरिहरणादुद्युक्तविहारी, साधुरिदुविहतिविहेण रुज्कति,अणुमन्ना तेण साण पमिरुका। त्यर्थ: । स एवंगुणकलितः साधुरपरिढारिकेण.पाश्र्वस्थावसअणुओण सव्वविरतो,स समामात सव्वविरो या१७३।। नः कुशीलसंसकयथायन्दरूपेणन प्रविशेत् , तेन सह प्रविष्टापाणादिवायादियाणं पंचएवं अणुब्बताणं सो विरतिं क नामनेषणीयनिवाग्रहणाग्रहणकृतादोषाःतथाहि-अनेषणीयप्ररोति । (दुविधं तिविधेण ति) दुविधेण करेति, ण कारवेति, हणे तत्प्रवृत्सिरनुज्ञाता भवत्यग्रहणे तेःसहाऽसंखडादयो दोचा। तिविध मणेण वायाए कारणं ति । एत्थ तेणं अणुमती ण णि तत एतान् दोषान् ज्ञात्वा साधुहपतिकुलं पिएमपातप्रतिशरुद्धा, तेण कारणेण वडसामाति ता वि सो सम्वविरतो ण या तैः सहन प्रविशनापि निष्कामेदिति । भाचा० २७० १ लम्भति, किं चाऽन्यत् ॥ १७३ ॥ कामी सघरं गणतो, मूलपश्या स होइ दहव्वा । (२३) [दानम् ] अन्ययूथिकेज्योऽशनादि न देयम्बेयणभेयणकरणे, उद्दिटकमं च सोनुंजे ॥ १७ ॥ से जिक्ख वा भिक्खुणी वाज्जाव पावटे समाणे णो अपगटेहितविस्सरिते , जिसेवा मशलिए व वोच्छे य । उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा परिहारिनोवा अपरिहापच्छाकम्मपवहणा, धुयावणं वा तदहस्स ॥ १७५॥ रियस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देज्ज पंच विसया-कामेति त्ति कामी सगृहेण सगृहः, अङ्गना वा, अणुपदेज्ज वा॥ सी,सह अङ्गनया साङ्गना, मूलपइसा, देसविरति त्ति वुत्तं भ माम्प्रतं तहानार्थप्रतिषेधमादबति । साधूणं सव्वविरती वृतादिच्छेदेन पृथिव्यादिभेदन | (से भिक्खू इत्यादि) स भिक्षुर्यावद् गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नुप्रवृत्तः सामायिकभावादन्यत्र जंच उद्दिकडं तं कडसा- पलक्षणत्वादुपाश्रयस्थो वो तेज्योऽन्यतार्थिकादिन्यो दोषसं. माइनो वि भुजति; एवं सो सव्वं ण भवति, एतेण कारणेणजवादशनादिकं न दद्यात्, स्वतो नाप्यनुप्रदापयेदपरेण गृहस्थातस्स ण कप्पति दाउं इमो । अहवा दिनति । तथाहि-तेज्यो दीयमानं दृष्टा लोकोऽभिमन्येत, पते वितियपदे परलिंगे, सेहट्ठाणे य वेजसाहारे । घेवंविधानामपि दक्षिणार्हाः। अपि च । तदुपष्टम्नाइसंयमप्रवर्तअकाण देसगलणे, असती पडिहारिते गहणं ।। १७६।। नादयो दोषा जायन्त इति । प्राचा० २ श्रु० १०१०।। पयस्स श्मा विभासा कारणे । परतित्थियाण मो. जे निक्खू भएपस्थिएण वा गारस्थिएण वा परिहारि. संतोदेज, सेहो उछोरणतणा देज,गिही अपतित्थी वाणिज्य ओ वा अपरिहारिपण वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अएण उत्थिय पसिन वा निक्वा क्खमंतं वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥ (vi) निधानराजेन्द्रः | पचिया नि अन्यतीर्थिक परिवाजक्या जीवप्रभृतयः गृहस्थामादिमिपारा परिहारिको मृतुत्तरदोसे परिह रति, अहवा मूलुत्तरगुट्टो घरेति, आचरतीत्यर्थः । तत्प्रतिपक्कभूतो अपरिहार्य ते वयथा । सूत्रम् लोकपति निक्खुस्सा, गिहिणा अथवा वि ष्मतित्थीणं । परिहारियस परिहारिणा मंतुं विधाराए ||३०० || सर्फि समान युगपत् एकत्र आहाकम्मं गाड़ापविधिका सा जमनादियोगत्रयं करणत्रयं च गाहावतिकुलं । अस्य व्याख्यागादगिरं गाढ़ा गेहूं त्ति वागिति वा पग, तस्येति गृहस्य पतिः प्रभुः स्वामी, गृहपतिरित्यर्थः । दारमत्यादिसमुदायो कुलं पिएक वाय पमियाप तिग्रस्य व्याख्या-पिंको असणादी गिहिणा दीयमानस्य पिएकस्य पात्रे पातः, अनया प्रज्ञया एत्थ दिहंतो जहा बालं बिलं घेतं गामं पवि भणच्छिक णिमितं गामं पविठोसि ? । भणाति सुतपायपरियार धरणपायप्रमिया ति, तदेव वायपडियाए ति । किंच इदं सूत्रं लोगोत्तरभ 1 - संज्ञाप्रति किंचित स्वयमयं संज्ञाप्रतिषद्धं नवति, अपविसति । अस्य व्याख्या चरगादि गाहा । अनु पश्चाद्भावे चरगादिसुणियसु पच्छा पागकरणकालतो वा पच्छा, एवं अनुशब्दः पश्चाद् योगे सिरुः । एत्तो एगतरेणं, सहितो जो गच्छती वियाराए । सो आणा व मिच्छनविराहणं पाव ।। ३०१ ।। एसो एगतरेण गित्थेण वा अस्मृतिस्थिरण वा समं पविसंतस्स आणादिया दोसा | आयसंजमविगहणाओ नावणा । गाहा पंरंगाई सकिदितस्सयो भावना नयति लोगो वयति पंडरंगादिपसायओ लभंति, सयं न बभंति, असारवचनप्रयत्नत्वात् । श्रधवा लोगो वदति-अनकिमंता य परलोगे वा श्रदिवाणामादिति इति ते शिष्यस्वमन्युपगन्ता यसति यत एभिः सार्द्ध पडते किंचान्यत् । अधिकरणगाहा, गिही श्रयगोल समाणो ण वट्टति भणितुं, पहि णिसीदतु बट्टवयाहिं वा भणतो अधिकरण गित्यो अबकी साहू लद्धी नव हणति, साहुस्स अंतरायं ग्रह संजतो श्रलकीतो गिइत्थस्स अंतरायं जेण समं हिंडति, दातारस्स वा अचिततं मिसिसिप " अवस्सयं श्रगणणा उहेज्ज, पंता वणादि वा करेज्ज, एगस्स वा गावपि तेज तं वेब अंतरा अि यता संखडा तीया य साहुस्स करेज्ज, दातारस्स वा करेज्ज, यस्स वा कुज्जा,दोरहता अडाणी िय एगस्स देज्ज, साहुस्स गिहत्थम्स वा, ते बेव अंतरादी दोसा । जता भष्यति संजयपदोसमाहा संजयगिही उभयदोष इति गतार्था एवं गा चति । अस्य व्याख्या -राट्ठे दुपदे चउप्पदे णवपर च एतेसु चैव इत्यादिसुया विसुनतिर साधुहिं वा पंगत - कैज्ज, उभयं वा किह पुणाति संकेज्ज, एते समणमाहा परोप्परं विरुद्धा वि एगतो अडंति, स एते जे वा ते वा खूणं एते घोरा चोरिया वा कामी वा दुपयादि वा श्रवहडामरहिं जमहा एते दोसा, तम्हा गिहत्थाऽतित्थाहिं समं भिक्खाए सप भगवानत्थिय विसिय वितियपदेण कारणे पवि सेज्जा वि । जतो वितियपदगाहा । श्रत्रियं दुग्भिक्खं, पतेसु अंचियादिसु पतोहं गिहस्थातित्थाहि समं भिक्खा लब्भति, अन्नदान लग्भति श्रतो तेहिं समा अडे, सो य जदि अहा भदो गिमनेर वा श्रहा भ पण पुर्ण समाणं दो तिष्टि घरा, श्रमहा ते चेवासंखडाही । रायदुट्टे सो रायवल्लभो गिलाणस्स सह एत्थ भोयणादि, मो... दव्वावेति, अमहा ण लब्नति, भिक्खायरियं वा वश्यंतस्स उ वि सरीरं ते पिडिनीयसाणे यावारेति श्रादिसदातो गो राती विपवितो पुरा इमा बिही पुण्यगते गाहा। मिहत्य नतिस्थिपसु पुण्यपषि पतंवा विट्टो अनावेति परिसं तापं दरिसेति जेण णज्जति, जड़ा पतेण समाणं हिंमंति, श्रडंतस्स य इमो विही पुञ्वं पच्छा कममरुपसु तो पच्छा क लिङ्गी तभी दानमरुतो महानग णा महानदप वि, एस चेव कमो । नि० चू० २ ० । भिक्खू भागंतारे वा आरामागारे वा माहाकु लेसु वा परियावसदेसु वा अन्ननत्यियं वा गारस्थियं वा असणं वा पाणं वा खाइ वा साइमं वा ओमा जायात, जायंतं वा साइज्जइ ॥ १ ॥ गंतारेसु वा आरामागारे वा गाहाले सहसुवा नृत्यी वा असा पाया वा साइमं वा ओजासिय श्रोभासिय जायति, जायंत वा साइ ज्ज || २ || जे निक्खू प्रागंतारे वा आरामागारेसु वा गाहा वडकुले वा परियाक्सन अमउत्थियाणि वा गारत्थियाणि वा असणं वा पाणं वा खाध्मं वा साइमं वा ओनासिय ओसियनायति वा साइत ॥३॥ लू परिया 'जेल' आगंतारो जन्य आगारा आमंतू वित तं श्रागंतागारं गामपरिसद्वाणं वियुतं भवति गाणं वा कयं श्रगारं आगंतागार, बहिया वासो प्ति, आरामे श्रगारं आरामागारं, गिहस्स पती गिढ़पती, तस्स कुलं हिपतिकुलं, अम्यगृदमित्यर्थः । मिपामा परियार, ि आवसो परियाचसदो, पहेतु जाणे हि पा गारथियं वा असणार प्रभासति, साइजति वा, तस्स मासएसइमा सुरुफासिया तारादीसुं, सणादी जासती तु जो भिक्खू | सो आए। प्रणवत्यं मिच्छतविराधणं पावे ॥ २ ॥ आगंतारादिसु गिहरथमनिधि वा जो भिक्लू असलादि प्रभासति सो पायति माणा अवश्थमिच्छत्तविराणं च ॥२॥ यागमकयमागारं आगंतुं जत्थ चिट्ठति अगारा । परिगमणं पनाओ, सो चरगादी तु होगविदो || ३॥ श्रागमा रुक्खा. ततेोहं कथं अगारं आगंतुं जत्थ चिठंति, भगारं तं श्रागंतागारं परि समंता गारणं गिभावं गते त्य र्थः । पज्जायोपवज्जा, सो य चरगपरिव्वायगसक्कश्रा जी चागमादि णेगविघो नतरा ॥ ३ ॥ देवरा तु दोसा, हवेज्ज प्रभासिते प्राणम्मि । पिता भावता पंते जरे इमे होति ॥ ४ ॥ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६५) अलनत्थिय अनिधानराजेन्मः। अमनस्थिय भट्ठाणहितो नासिते पंतनदोसा ; पंतस्स अचियत्तं भवति, पढमम्मी जो तु गमो, सुत्ते वितिए वि होत सो चेव । भोभासणता-अहो ! श्मे भद्ददोसा । ततिय चनत्थे वि तहा, एगत्तपुहत्तसंजुत्ते ॥ ११ ॥ जह पातगेसि दीसइ, जह य विमग्गंति में अगणम्मि । पढमे सुत्ते जो गमो, वितिए वि पुरिसपोदत्तियसुत्ते सो चेव दंतेंदिया तबस्सी, तं देमिण भारितं कज्जं ॥५॥ गमो । ततियचउत्थेसु वि इत्थित्तेसु सो चेव गमो ॥४॥ जहा एयं साहुस्सातरो दीसति, जहा-अयं अट्ठाणध्यिं विम जे निक्खू आगंतारेसु वा पारामागारेमु वा गाहावश्कुगंति-दंतेदिया तवस्सी तो देमि अहं पतेसिं णूणं से भारितं कजं, आपत्कल्पमित्यर्थः ॥५॥ लेसु वा परियावसहेसु वा अम नत्यियान वा गारत्यियाउ सष्ठिगिहि अएणतित्यी,करिज्ज अोनासिए तु सोअसते। वा कोनसपमियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खाश्म उग्ममदोसेगतरं, खिप्पं से संजतहाए ॥६॥ वा सामंवा ओभासिय ओभासिय जायति,जायंतं वा साइघमास्यास्तीतिश्राही,सोय गिद्दी, अम्मतिथिओवा, भोभा ज्ज॥५॥जे जिक्व आगंतारेसु वा पारामागारेसुवा सिए समाणसे इति । स गिही असतिथिो वा खिप्पं तुरियं गाहावश्कुलेसु वा परियावसहेसु वा अएणउत्थियाउणीवा सपहं नग्गमदोसाणं अस्पतरं करेज्जा संजयघाए ॥६॥ गारत्थियाउणीवा कोनहसपमियाए पमियागयं समाणं अ. एवं खलु जिणकप्पे, गच्छो णिकारणम्मि तह चेव ।। सणं वा पाणं वाखामंवा साइमंवा ओभासिय ओभासिय कप्पति य कारणम्मी, जतणा अोनासितुं गच्छे ॥७॥ जायति, जायंतं वा साइन्ज ।।६।। जे भिक्रवू आगंतारेसुवा एवं ता जिणकप्पे जणियं गच्छथासिणो विणिक्कारणे एवं पारामागारेसु वा गाहावश्कुलेसु वा परियावसहेमु वा चेव कारणजाते पुण कप्पति । येरकप्पियाणं अोभासि किं अएणत्थियाउणी वा गारस्थियाउणीवा कोउहबपमिचित्कारणं श्म याए पटियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खामं वा गेलएह रायदुढे, रोहग अघाण अंचिते ओमे ।। साइमं बा ओ नासिय ओजासिय जापति , जायंत वा एतेहि कारणहिं, असती अंभंति प्रोनासे ॥ ७॥ साइज्जइ ॥ ७॥ गिलाण घाण यदुद्रुवारोहगे वा अंतो अपश्चता अंचिते वा,अं. चियणं णाम दात्रसंधी,तत्थ भवणी उखंधिना उणवाणिफणं, जे मिक्खू आगंतारेसु वा इत्यादि कोऊहलं ति यावत्, कौतु केनेत्यर्थः। णिप्फ वा ण सम्भति, श्रोमं दुर्निक, पवं अंचिए प्रोमे, दीर्घ गाहासूत्राणिदुर्भिकमित्यर्थः । पतेहिं कारणेहिं अन्नभंते श्रोनासेज्जा प्रागंतागारेसुं, आरामगारे तह गिहा बसही । जिएणं समतिकतो, पुच्वं जतिकण पणगपणगोहिं॥ तो मासिएसु पच्च वि, ओजासणमादिमुं असढो ॥ ६ ॥ पुनहिताण पच्छा, एज गिही अम्मतिस्थि वा केई॥१॥ तमागतं जे असणातीतो भासति, तस्स मासलेहुं, धम्म इमा जयणा-पढमं पणगदोसेण गेराहति पच्छा दस पारस साधगधम्म वा पेच्छामो । एत्तो गाहाबीस भिम्ममासदासेण य एवं पणगभेदहि जाहे नि समतितो ताहे मासि अट्ठाणेसु प्रोभासणादिसु जतति, असढो। तत्थ अहलावणं कोऊ-हल केई बंद गणिमित्तं । तु भोभासणे इमा जयणा पुच्चिस्मामो केई, धम्म सुविधं व पेच्छामो ॥ १३ ॥ तिगुणगतेहिँ ए दिहो, णीया वृत्ता तु तस्स उ कहेह।। एगो एगतरणं, कारणजातेण आगतं संत । पुष्टापुहा व ततो, करेति जं सुत्तपमिकुटुं ॥ १०॥ जो निक्खू आभासति, असणादी तस्सिमा दोसा १४॥ पढमं घरे भोजासिज्जति अदि,एवं तयो वारायघरे गवेसि तस्सिमे भदपंतदोसायम्बो,तत्थ भज्जाति णीया बत्तन्ना, तस्स आगयस्सकहेज्जह प्रातपरोजासणता, अदिदिमेव तस्स अचियत्तं । साधू तव सगासं आगया, कज्जेणं घरे अदितु पच्छा प्रागंतारा- पुरिसो जासणदोसा, सविसेसतरा य इत्थीसु ॥१४।। दिसु दिउस्स घरगमणादि सब्वं कहेतु.तेण वंदिने अवंदिते वा अलद्धे अप्पणोश्रोभासणा सुद्धालभंति तिमि अदिले परस्स तेषेव पुढे अपुका वा जे सुते पमिसिकं तं कुब्वंति, बोनासंति प्रोभासणा किवणे ति,अदि वा अचियत्तं भवति,महायणऋत्यर्थः। मझेवा पणा, तेदेमिति, पच्छा अचियतं भवति,दाश्रो पुरिजे निकाबू पागंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुले. से श्रोभासणदोसा एव केवला, इस्थिपासु प्रोभासणदोसा, मुवा परियावसहेसु वा अनउत्यियं वा गारस्थियं वा को- संकादोसा य, आयपरसमुत्था य दोसा। बहसपडियाए पमियागयं समाणं असणं वा पाणं वा खा जहो उग्गमदोसे, करेज पच्छम अभिहमादीणि। इमं वा साश्मं वा भोजासिय ओभासिय जायति,जायंतंवा पंता पेलवगहणं, पुणरावत्तिं तहा सुविधं ॥१५॥ साइज्जइ ।। ४॥ भहनो उग्गमेगतरदोसं कुज्जा,पच्छष्माभिहडं पागाडाभिएवं अमाउत्थिया षा गारस्थिया था, एवं भएण स्थिणीयो हर्ष वा अमेजपंता साहुसु पेलवग्गहणं करेज्ज-अहो इमे बा गारस्थिणीभोवा। मदिखदाणा, जो भागच्छति तमोभासंति, साहुसावगधम्म Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अवनत्थिय वा पडिवजामि त्ति, श्रीनासिश्रो उद्दुरूदो परिनियत्तो जाहे सावगो होहामि ताहे य सुर्हिति, जर पवज्जं घेप्पामो सि एगो विपरिणमतेि, तो मूत्रं दोसु णवमं तिसु चरिमं, जं च ते विपरिणया असंजम कार्हिति तमावज्जति श्रधवा गिएहसु वश्यंति जम्दा एते दोसा तुम्हा ण श्रभासियो आगम, एवं विपच्छित्तं परिहरियं श्राणा अनुपालिया, प्रणवस्था, मिच्छत्तं च परिहरियं, दुविहविराहसा परिहारयत्ता कारणे पुण भोभासति । इमे य कारणा समदरिए, राहुडे नए व लदे । अद्धा रोहए वा, जतणा प्रजासितुं कप्पे ॥ १६ ॥ तिगुणगतेहि पा दिट्ठो, णीया वृत्ता तु तस्स तु कहेह । पुडा पुडा व तनो, करेंति जं सुतपडिकुद्धं ।। १७ ।। एगंते जो तु गमो, यिमा पोहत्ति धम्मि सो चैत्र । एगंता तो दोसा, सविसेसतरा पुहत्तम्मि ॥ १८ ॥ असिवे जदा मासं पत्तो ताड़े घरं गंतुं श्रनासिजति, श्रदिठे महिला से पति-अक्खेजासि सावगस्स साधुणो दहुमागता, ते आसिलो अविरई य समीवे सोउं अदभावेण वा श्रागतां सव्वं से घरगमणं कहिज्जति, कारणं च से दं। विजति, ततो जयणाए श्रोनासिज्जति, जर सो भणति, घरं पज्जह, ताहे तेणेव समं तवं मा अनिहडं काहि ति, असुद्धं वा एवं रायकुष्ठादिसु विपगतियसुत्ता तो पोहतिपसु सविसेसतरा दोसा ॥ पुरिसा जो उगमो, लियमा सो चैत्र होइ इत्थीसु । आहारे जो न गमो, नियमा सो चेव उवधिम्मि || १५ || जो पुरिसाणं गमो दोसु सुतेसु इत्थीण वि मो श्वेव दोसु सुते वक्त वो, जो आहारे गमो सो चेव अविसेसिओ नवकरण दरुषो ॥ १९ ॥ सूत्राणि चउरो जे क्खूि आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थिए वा गारित्थियण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अजिहडं ग्राहहु दिज्जमा पडिसेहिता तमेत्र अणुवित्तिय परिवेद्वेग २ परिजवेr परिजत्रेय प्रजासिय प्रभासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥ जे भिक्खू यागंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहाले वा परियावसहेसु वा अननत्थियाउ वा गारत्यियान वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिह आहहु दिज्जमाणं पाडसेहित्ता तमेव अणुवित्तिय २ परिवेट्टिय २ परिजविय २ ओभासिय २ जायति, जायं वा साइज || || जे भिक्खू आगंतारेसु वा रामागारे वा गाहाइकुलेसु वा परियावसहेसु वा - उत्थिवाणी व गारत्थियाणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहमं श्राहहु दिज्जमा पनि - - हित्ता तमेव वित्तिय २ परिवेट्टिय २ परिजविय २ श्रीजासिय २ जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे निक्खु आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहाइकुलेस श्रम उत्थिय वा परियावसहेसु वा उत्थियाजणी वा गारत्थियाउणी वा असा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अहिमं चाह दिज्जमानं पडिसेहित्ता तमेव अणुवित्तिय‍ परिवेट्टिय परिजवियर भासिय जायति, जायंतं वा साइज्जइ ॥ ११ ॥ गंतागाराइसुट्ठियाणं साहूणं श्रमतित्थिश्रो गारत्थिश्रो वा अभिहर्ड श्राभिमुख्येन हृतं श्रभिहतं, पारणादिसु को सही सयमेव आहड्डु दलपज्जति, पडिसेहेत्ता तमेव सि, तं दायारं अ युवतिय सि सत्त पदाई गंता परिवेट्टिय त्ति, पुरतो पिट्टतो पा तो ठिच्या परिजविय त्ति परिजल्प्य २ तुज्झेहिं रायं अहट्ठा आणियं मा तुज्भं अफलो परिस्समो भवतु, मा वा अधिर्ति करेस्सह, तो गेरहामो । एवं भोभासंतस्स मासलडुं । सुदेवसुद्धे पुरा जेण श्रसुद्धं तमावज्जो ॥ अगंतागारे, आरामऽगारे तह गिहा वसदी | गिरिअस तित्थिए वा, आणिज्जा अभिहर्ड अस सियमा २०| ओलज्जमवणं, परिवेढण पासि पुरउ ठातुं वा । परिजवणं पुण जंप, गेएहामो मा तुमं रुस्स ||२१| अवयति श्रलग्गिउं श्रढव्वलितुं परिवेढणं पुरतो पासश्रो वाउं परिजल्पनं परिजल्पः ; इमं जंपर गेरहामो, मा तुमं रूसिहिसि ॥ २१ ॥ तं परिसेवे नूणं, दोघं अणुवतिय गेएहती जो उ । सो आया अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ २२ ॥ एतेण उ वा तमापहडमेव पडिसेहेडं एकप्रतिषेधः, द्वितीयो प्रहा जो एवं गेरहति, तस्स श्राणादी दोसा, भद्दपंत दोसा य । आणाए भङ्गो प्रणवस्था कता, श्राहाकारं तेण मिच्छत्तं जणियं, इमे संजमविराहणा दोसा, भद्दपंतदोसो य । ते इति भद्दउ, करे पसंगं हालियाऽनिरता । माई कबडायारा, घेत्तव्यं जगती पंता ||२३|| भद्दो चिंते पण उवारण गएइति श्रहमे पुणो पसंग करेति, पंत पेग्गहणं करे, भणेज वा अहिलयं श्रनृतं तम्मि अभि भरिया श्रवियारिया ण गेएहमो ति प्रणिता पच्छा गेहूंति मायाविणो, तत्थ वसहीएण गेरहंति, इह परिणियंतस्त्र गेरहंति, कवमं कृतकाचारो कवमेण सम्यं पवनं श्रयरंति ण पतो को सब्जावो अस्थि, सम्भावेण माई किरियाजुसो कषमायामादि भरणति । एवं पंत्तो वदति-जम्दा एते दोसा तम्हा एवं घेत्तव्वं, कारणे पुण संगढणं कुर्वति ॥ २३ ॥ सिवे ओमोरिए रायद्दुडे जए व गेलो । अाण रोहए वा, जतणा परिसेवणा गहणं । २४ । परिसेहे उ जतणाए गए इंति । काय जयणा १, श्माजदि सच्चे गीतत्था, गहणं तत्थि व होति तु अलंजो वि । मीसे पुण वाइनणं, माय पुणो तत्थ आणेह ॥ २५ ॥ जादे पणगाजणार मासबहुं पत्तो, ताहे जइ सब्वे साधू गीयत्था, ताहे तत्थेव बसहीए गेएहंति, एसं गणिवारणत्थं वा भाति अहं घरगयाणं चेव दिज्जति, तजाणिज्जति, ताणि नं. ति श्रज्ञेकं गेहड़, ण पुणो रोमो ताहे घप्पेति प्रसंनेति, अप्पा For Private Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६७) अभिधान राजेन्द्रः । उत्थिय से यंता मगधमी पुण] बर्गीयायं पुरतो परिसेवेडं पोतस्स भवतिऊण भणति मा पुण आणे, तत्थव अम्हे हिमंता एहामो, णिमंतेज्जा । भहवा जर अपदोसवज्जितं नद्दपंत दोसा बाण जयंति वा गेति मं प्रति तुमे दूराहडं एवं आदरेण सुसंमितं । मुहवणोय ते आसी, विवरणो तेण गेरिहमो |२६| तुमे दूरामणि बेसपारायाण सुसंभिडियं कथं तुक परिसेधिते मुहबो विवो वि आसी, तेरा गेरहामो, एवं जयणा गेरहति, पसंगो णिवारितो गया य वंचिया आइड प्रतिनियच नायरमीकृत्वा पवं त्वया वि एवं सु वि २६ ॥ नि० यू० ३ उ० ॥ (२४) धातुप्रवेदनम् जे निक्लू अएण उत्थियाणं वा गारत्वियाणं वा गारतियमाणि वा चा पावेद, पावेयं वा साइज 129 | जे क्रियाणं वा गारस्थियाणं वा गारत्यियाणिहिं वा घाउं पत्रेएइ, पवेयंतं वा साइज्जइ १२० | परिमन् धम्माने से पति स धातुः । राधातुं निहिंन आइक्लवे तु जे भिक्खु । गणितित्विया व सो पावति प्राणमादीनि ॥ए४ अक्षरमणातो बहुजेदा धातुणिचाणविधीनिहितं स्थापितं, विज्ञातमित्यर्थः । तं जो महामाया ति तस्स श्राणादिया दोसा । इमे धातुनेदा तिविद्धो व होति धातू, पासाथ रसो य महिया चैत्र सो पुण सुवण वृत्तं वरतरकालायसादीणं ॥ ५५ ॥ सपरिग्गतरो चिप होड़ निही जलगओ य चलगो प कयाsकप होति सब्दो, अहितरं कायपो धातुमि । २६ । जत्य पासाणे दक्षिणो जुसे या धममाणे सुनचादि पति सो पासाणधातु धातुपाणिरण तंगादि आसतं परणादि भवति सो रखो नतिजामा जोगता बड़ता था धममाणा सुवणादि भवति, सो धातुमट्टिया, कालायसं लोई आदिम्हणाओ मणिरयणनोसियन्पवालगरादिजिहाश्मो 9 9 गप्प | ( सपरि) गाहा । सो णिही मनुयदेवतेहिं परिग्गहितो वा दिन अपरे जो था सो जले पोज, पलेवा, जोस थ सो दुविधो खितो या अनिल वा सोचे पिसीरुवेण प्रविधो-कयरूवो अक्रयरूवो वा रूवगाभरणादि कयरूवो, चक्कमिति प्रकयरूवो। से परिग्गहे श्रधिकतरा दोसा, कहतस्स विहानगसामिसमीयातो चातुसियं साधुं घा तुवाय कारवेति, एसेो धातुदंसणे दोसा । इमो णिधाणे मयूकवितो अहिकरणं जा करणं, निहिम्मि मकोमगहणादी । मोरणिवंsकियदीणा -रपियि गिहिजाणपण ते काहैया | दिवा ववहरयाणा को तए परंपरागणं ॥ ए७ ॥ मयूरको णामराया, तेण मयूरंकेण अंकिता दीणारा, आहरणादिया तेहिं दीवारो हिाणं वर्ष सम्मिि , उत्थिय गतो, तं केलमिति जिला उप यं, ते दीणारा बहता रायपुरिसाई दिठा । सो वणिम्रो तेहिं रायपुरिसेहिं रायसमं । चं णीतो । र पुच्छिओ-कतो ते तुम्भ दीगाराले कट्यिं अमुगसमी वाती एवं परंपरेण तानी जाब जेर्दि उक्तं, तेहिं सो गहितो, दंकियो य, असंजय णिग्गहणे श्रधिकरणं णिट्टिश्रो, क्खणेण य निसि जागरणं कायध्वं श्रहवा णिहिदंसणे अधिकरणं जागरणं ग्राम यजनकरणं उबालवनधूचपुष्याचमादिकरणे अधिकरणामित्यर्थः विणणे व विभीसिगा - मकोरुगादि वि सतुंमा भवति, तत्थ आयविराहणादि रायपुरिसेहि य गद्दणं, तत्थ गेएहणकरुणादिया दोसा, एत्थ श्मं वितियपदं सोमोरिए, रायदुडे भए व गेलो । काण रोहकल जातवादी पजावणादीगु ||१८|| असिवे वेज्जो भणितो, तस्स दंसिज्जति, धातुणिहाणगं वा, ओमे असंथरता गिहियतित्थिय सहाय धेनुं धातुं करोती, ि हिं वा गेरहति, रायदुठे रएणो उत्रसमणठा सयमेव, जो वा तं उसमेति तस्याधानं विचाणं या इंसेति योगादिनयतो जो तापेति तस्स इंसेति, गिणकर सर्व गिरि या सेति जो सारेति रोडगे असहाय हिता गेराइंति, अड्वा जो रोडगे आधारभूतो, तस्स दंसेति, कुराजतिमादिशमिया अबादी वा सणगहणा पणपभावणट्टा पूयादिकारणममितं सहाय सहितो गिद्दा सिन्धिया धातु विहान वा दहेज नि० चू० १३ ० । (२५) पादानामामार्जनमन , जे क्खूि एणउत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा पायं आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमनंतं वा साइज्जइ |११४ | जे भिक्खू उत्थियस्स ना गारत्वियस्ता पाए संाहेज वा पश्चिमदेज वा संवात या पलिम वा साइनइ ।। ११५ ।। जे निक्खु गाउत्थियस्व वा गारतिथयस्स वा पाए तेलेण वा घर वा बसाएण वा एवणीएवा मंखेन वाभिलिंगेल वा वा वा साइज्जइ । ११६ ।। जे भिक्खू अएणउत्थियस्स वा गारत्थि - यस वा पाय लांद्वेण वा कक्केण वा पोडमचुमेण वा उढोलेनवा उन्हे पाठवावा साइज | ११७ | जे भिक्खू त्यस्स वा गारत्थियस्स वा पायं सीश्रोत्रियमेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, उच्छतं वा पधोयतं वा साइज्जइ ॥ ११८ ॥ जे निक्खु अपनत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्य आ मज्जेज वा पमन्तेन वा आमा वा साइ उ || ११ | जे निक्खू उत्थियस्स वा गारस्थियस्स वा कार्य फूमेज्ज वा रएज्ज वा० जाव सायन ॥ १२० ॥ जे भिक्खू श्रात्यियस्स वा गारत्यियस्स वा कार्य संवाहेज्ज का, पश्चिमद्देज्ज वा, मंत्रातं वा पलितं Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६० ) अभिधानराजेन्ऊ: उत्थिय उत्वियस्स वा वा साइज ।। १२१ ॥ जे भिक्खू गारत्ययस्स वा कार्य तेण वा परण वा वह वा बसाएका मेसेज वाला वाजिलिंगंत वा साइज ।। १२२ ॥ जे निक्खू उत्थियस्स वा गारत्वियस्स वा कार्य लोदेन वा ककेा वा पोठमचुखेण वा उबोलिज्जा, जव्वट्टेज्ज वा उबोलंतं या नव्हंतं वा साइज्जइ ।। १२३ ।। जे भिक्खु एणउत्थियस्स वा गारथिस्सा कार्य सीओदगवियरेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोसेज्न वा पधोयेज्ज वा, उच्छोलंलं या पधोयं वा साइज्जइ ॥ १२४ ॥ जे जिक्खू अण्ण उत्थियस्स वा गारत्यियस्स वा कार्य मेजवा, रयेज्ज वा, पंखेज्नवा, फूमतं वा रतं वा मतं वा साइन || १२५ ॥ जे भिक्खू उत्थियस्स वा गारत्थियस्स वा कार्य सिबआमज्जेज्ज वा पमज्जेज्न वा आमजतं वा मतं वा साइज्जइ ।। १२६ ।। 3 एवं जाम सो उसो गमो यम यरं अस्थियरस वा गारत्थियस्स वा अभिलावो जाय । जे भिक्खू गामा गामं वृहज्जमाणे उत्थियस्स वा गारस्थिवस्स वा सीसवारि करे, करं वा साइत १६६ तृतीयोदेशकगमनिका चत्वारिंशति सूत्रवतव्या यावत् । जे भिक्न अन्नउत्थियस वा शारत्थियस्स वा सीसवारियं का रतीत्यादि ॥ पाप महादी, सीसदुरारादि मे करेजा । गिहिष्मतित्थियाण व, सो पावति श्रणमादीणि । ३५ | गुरुं पाय आण/दिया व दोसा अयंति मिष्ठ थिरीकरण सेदादियाण य तत्थ गमणं पवयणस्स ओभावणं; जम्हा पते दोसा तम्हा एतेसि वेयावचं णो कायध्वं । कारणे पुण कायन्वं " वितियपदमण, करेन्ज अवि को वि से व अप्पच्छे । जाते वा निपुणो परलिंगे सेहमादी ।। ३६ ।। कारणे परजिगपणी करेजा, सेहो या अणलोनियो किमिति करैतो सुको, तो या पचत्तणं करैतो सुद्धो मि० सू० ११ ४० । (२६) पदमार्गदि - जे जिक्खू पदमग्गं वा संकर्म वा अवलंबणं वा अन्नउत्थि - गावा गारत्यिरण वा कारेति, कारंतं वा साइज्जइ । ११ । जे निक्खू पूर्ववत् । पदं पदाणि, तेर्सि मग्गो पद्मग्गो, सो माणा कमिति सो संकमो कायारेत्यर्थः संतति । जं तं श्रवसो पुण वैति, ता मत्तावलंवो वा, चगारो समुच्चयवाच । एते श्रमतित्थिरण वा गिहस्थेण वा कारावेति, तस्स माखगुरु, आणादिणा यार्थी निती पदमग्गसंकपानं वा वसहिसंबद्धमेतरो चैव । उत्थिय विसमे कदमओ दऍ, हरिते तसपाणजातिषु वा ॥ १२२ ॥ प्रस्य व्याख्या पदमग्गोसोवाणा, ते ते तनाव हो इतरे वा । तज्जाता पुढवीए, इगमादी अतज्जा य ।। १२३ ॥ पदानां मार्ग: पदमार्गः, सो पूण मध्यो सोधाणा ते दुपा तज्जाया, इतरे अतज्जाया । तस्मि जाता तज्जाता, पुढवि चेष खणिऊण कता, न तम्मि श्रजाया अतज्जाया, इट्टगपासाणादिहिं कता, एकेका वसहीए संवा, एतरा असंबद्धा, घसहीए लग्गा विता, श्रसंा गराए भग्गपवेसदारे वा तं पुण विसमे कदमे या उदरे वा हरिण वा जाते तसपा या प्रणा संसत्तेसु करोति । इदाणी संकमोति ॥ १२२ ॥ १२३ ॥ अस्य व्याख्या 3 दुविधो य संकमो खलु, अांतरपट्टितो य वेहासो । दव्वे एगमणेगो, बलाबल्लो चैव णायव्वो ।। १२४ ॥ कमिज्जति, जेण सो संकमो, सो दुविहो । खलु श्रवधारणे । अतरतो-जो भूमीप देव पाठक, बेहासो-जो संभाबा बेलीसु वा पट्टितो पक्केको दुविदो मंगिय अरोगियो य एकानेकपट्टकृतेत्यर्थः । पुनरप्येकैको बलस्थिरविकल्पेन नेयः, तदपि विषमकमादिषु कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ १२४॥ अस्य व्याख्या आलं तु विहं मी कमे वशाय । 3 तो व एगतो वा विवेदिया सा तु वायव्या ।। १२५ ।। एतस्य वेच संकमस्य अवलंवति तं दु विहं भूमी वा संकमे या भवति भूमिए बिसमे लगणि मितं कज्जति, संकमे वि लग्गणणिमित्तं कज्जति, सो पुरा दुहओ एगओ वा भवति सा पुरा वेश्य ति भवति, मत्ताबलंबो वा ॥ १२५ ॥ एतेमामातरं पदमग्गं जो तु कारए जिक्वू । गिद्दिष्ठ तित्थिष्णव, सो पावति प्राणमादीणि । १३६ । तेसियमकमावलवाणमपरं जो भिक्खू गिहश्येण वा अतिथि वा कारयेति सो आणि पावेति इमे दोसा ॥ १२६ ॥ amमाणे कायवधो, अविते वि य वणस्सतितसाण । खणण व अहिदहरमा दिपा ||१२|| सम्मि गित्वे अतिरिथ या जीवनिकायार्थ विराहणा भवति, जर त्रि पुढवी अचित्ता भवति, तहा वि वणस्सतितसाणं विराहणा । श्रहवा पुढवीखण से अहिं दहुरं वाघापज्जा, करुं वा तच्छितोऽभंतरे अहिं उंदुरं वा घापञ्जा, एसा संजमविराहणा, आयाए हत्थं वा पादं वा लूसेज्जा, अहिमादिणा या खज्जेज्जा, अम्हा एते दोसा तम्हाण तेहि कारवेज्जा, श्रववारण कारवेज्जा वि ॥ १२७ ॥ सीता, बापातनुताएँ अधव सुलभाए । एतेहि कारणेहिं कप्पति ताहे सर्व करणं ॥ १३८ ॥ दुल्लभा बसही, ममगंतहिं विस लग्भति, श्रहवा सुलभा Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६९ ) अभिधानराजेन्द्रः । मा उत्थिय बसही, किं तु वाघातजुत्ता लब्भति, ते य वाघायदव्यपsि - बद्धा, भावपडिबद्धा, जोतिपडिबद्धा इत्यादि । पच्छद्धं कंठं । सयं करणे ताव इमेरि सो साहू करतिजितिदिघी दक्ख, पुव्वं तकम्मभावितो । sarat जती कुज्जा, गीयत्यो वा सागरे ॥ १२६ ॥ इंदियजपमाणो जिइंदियो, जीवदयालू घिणी, मोमकिरि याकरणे दक्खो, (पुव्वमिति) गिहत्थकाले तक्कम्मभावितो णाम तत्कर्माभिशः। स च रहकारधरणिपुत्रेत्यादि, यती प्रवजितः, स च उपयुक्तः कुर्यातमा जीवोपघातो भविष्यति, एवं तावत् कम्मभावितो गीयत्थो, तस्स श्रभावे श्रगीयत्थो, तक्कम्मभावितो तस्स भावे, तत्कर्म्माऽभावितो तस्य अभावे गीयत्थो अगोयत्थो य पंते सव्वे वि असागरे करेति । जदा तेहि प दमग्गसंकमा लंबणेहिं कज्जं सम्मत्तं तदा इमा सामायारी कतकज्जे तु मा होज्जा, तो जीवविराधणा । मोतुं तज्जायसामाणे, सेसे विकरणं करे ।। १३० ॥ कति परिसंमते कज्जे मा जीवविराहणा जवेत्, तओ तस्मात् साधुप्रयोगात् अतः तज्जातो सामाणे मोत्तुं सेसे विकरणं विणासणं कुज्जा, तज्जापण विणासे चि, मा पुढविकाइयविराहणा भविस्सति श्रववायं । वस्सग्गे पत्ते श्रववाओ भाति वितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केाई भने असहू | वाघाओ उबहिस्सा, पक्खरणं कप्पती ताहे ॥ १३१ ॥ वितियपदं श्रवघातो, तेण सयं करेति, गिहिया कारवेति, कह?, प्रति सयं श्रणिणो णिउणो वा केणश्य रोगातंकेण असहू सहुणो वा वाघातो विग्यंत व आयरियगिलाणो ति पोश्रणं परो गित्यो जतो पणा पुग्नानिडियकारणातो असमत्थो, ता तेण कारावंच कप्पते, तेसिं गिहित्थाण कारावणे मो कमो पच्छाकर साजिग्गड़, गिरानेग्गढ़ जद्दरण व असरणी । गिदिएपतित्थिए वा गिहिपुत्रं एतरे पच्छा । १३२ । sarat पुराणो पढमं ताव तेण कारविज्जति, तस्स प्रभावे साजिग्गहो गिदीयापुन्वतो सावगो, ततो निरभिभगहो दंसणसावगो, तभो श्रधा भद्दष्ण प्रसरिणगिरिणा मिथ्यारष्टिना पच्छाकमादि परतित्थियां वि चउरो हव्वा । एतेसिं पुण गिरिणा कारवां, पच्छा परतिस्थिणा अप्पतरपच्छुकम्म दोसातो ॥ १३२ ॥ नि० सू० १ ० । जे जिक्खू मनस्थिए वा गारत्थिष्ण वा अप्पणी पाए आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, श्रामज्जंतं वा पमज्जतं वा साइब्जइ ||१३|| जे भिक्खु अएएउत्थिए वा गर त्रिण वा अम्पो पाए संवाहेज्ज वा, पलिमज्जेज्ज वा, संवाद वा पमितं वा साइज्जइ ॥ १४ ॥ जे जिक्खू प्रणत्थि वा गारस्थिएण वा अप्पणो पाए तेलेण वा घरण वा नसेल वा बसाए वा एवीएए वा मंखेज्ज बा, जिलिंगेज्ज वा, मंखतं वा जिलिंगंतं वा साइज्जइ । १५ । ११८ उत्थिय जे भिक्खू उत्थिए । वा गारत्थिर वा अप्पणो पाए लोण वा ककेण वा एहाखेण वा पोउम चुपए बा सिरहाणेण वा उब्वट्टेज्ज वा, परियहेज्ज बा, जब्बतं वा परियतं वा साइज्जइ । १६ । जे निक्खु जत्यिएवा गारत्थि वा अपणो पाए सीओदगवियमेण वा उसिलोगवियमेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधावेज्ज वा, उच्छालंत पोतं वा साइज | १७| जे चिक्खू अमाउ स्थिएए वा गारत्थिय वा अपणा प ए फू ज्ज वा, रज्ज वा, खेज्ज वा फर्मतं वारयंतं वा मतं वा साइज्जइ । १८ जे भिकावू अस्थिर वा गारस्थिए वा अप्पणो पायं प्रायज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जतं वा पमर्ज्जतं वा साइज्जइ १० | जे भिक्व अमन त्थपण वा गारात्थ एण वा अपणो कार्य संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संवाहंत वा पमितं वा साइज्ज | 201 जे भिक्खू उत्थिए वा गारत्थि वा अपणो कार्य तेलेण वा घर वा बसेल वा वसारण वा वीएस वा मंखेज्ज वा, भिन्निगेज्ज वा, तं वा मिलिंग वा साइज्जइ | २१ | जे चिक्खू अपन त्रिण वा गार थिएण वा अपणो कायं लोदे वा कक्केरा वा एहाणेण वा पोडमचुलेण वा वजेण वा सिए - हाणेण वा उब्वज्जना, परियट्टेज्ज वा, उव्वतं परिषतं वा साइज |22| जे चिक्खू अम उत्थिए वा गारत्थि वा पण कार्य सीप्रदगवियमेण वा नसिणोदगत्रिय मेल वा उच्छोलेज्ज वा, पधोवेज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोवतं वा साइज्जइ | २३ | जे भिक्खू उत्थिए वा गारत्यिएवा पण कार्य मेज्ज वा, रएज्ज वा, मंखेज्ज वा, फूर्मतं वा रतं वा मतं वा साइज्जइ । २४ । जे भिक्खू अस उत्रिण वा गारत्थि एण वा अप्पणो कार्यसि वर्ण - उज्जेन वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जतं वा पमज्जैलं वा साइज्जइ || २ || जे भिक्खू अमजत्थि एण वा गारस्थिए वा अपण कार्यसि व संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संवाहतं वा पमितं वा साइज्जइ || १६ || जे भिक्खू अाउत्थि एण वा गारत्थिर वा अप्पो कार्यसि वणं तेण वा घर वावप्रेण वा बसाएण वा वर्णीए वा मंखेज्ज वा, निसिंगेज्ज वा, मखतं वा मिलितं वा साइज‍ ||२७|| जे भिक्खू उत्थिर वा गारस्थिए वा अपणो कायंसि वर्ण लोकण वा कक्केण वा राहाणेण वा पोलमचुम्पेण वा सिहाणेण वा उच्वट्टेज्ज वा, परियहेज्ज वा, उच्चतं वा परियतं वा साइज्जर || १८ || जे निक्खू अमउत्थिर वा गारस्थिएण वा अप्पो कार्यसि वणं सीओदगत्रिय वा उसिणोद्गविथडेण वा उच्छोलेज्ज वा, For Private Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७० ) अभिधानराजेन्द्रः । tryaत्थिय पधोवेज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइज्जः ॥ २६ ॥ जे भिक्खू उत्थिण वा गारत्यिष्ण वा अप्पणी कार्यसि वर्ण मेज्जा, रएज्ज वा, पंखेज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मतं वा साइज्जइ ॥ ३० ॥ जे भिक्खू अपन त्रिण वा गारत्थि वा असियां वा अप्पणो कायसि गं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगद वा अपयरेण वा तीखेण वा सत्यजाए अच्चिदिज्ज वा, विच्छि दिज्ज वा, अच्छिंदतं वा विच्छिंदतं वा साइज्जइ ॥ ३१ ॥ जे भिक्खू उत्रिण वा गारस्थिरण वा श्रप्पणो कार्यसि गंड वा पलियं वा अरियं वा असियं वा जंगदलं वा अपरेण वा तीखेण वा सत्यजाएण प्रच्चिदित्ता वा विच्छिदित्ता बा, पूर्व वा सोणियं वाणीहरंज्ज वा, विसोहिएज्ज वा, पीह तं वा विसोहतं वा साइज्जइ ॥ ३२ ॥ जे भिक्खू अएण उत्थिए वा गारत्यिरण वा अप्पणो कार्यसि गंडं वा मलियं वा अरियं वा असियं वा जंगद वा अायरेण वा तीखेण वा सत्थजाए वा श्रच्छिदावेज्ज वा, विद्विदावेज्ज वा पृयं वा सोलियं वाणीहाराज्ज वा, विसोहियाएज्ज वा, सीओोदगावयडेण वा उसिलोदगवियमेण वा उच्छालेज्ज वा, पधोयेज्ज वा, उच्छोनंतं वा पधोयतं वा माइज्जइ ॥ ३३ ॥ जे जिक्खू अएण उत्थिए वा गारत्थिष्ण वा अप्पणी कार्यास गंग वा पलियं वा अरियं वा सियं वा जंगदलं वा अरण्यरेण वा तिक्खेण वा सत्यजाए वा चिंदावज्ज वा, विि दावेज्ज वा, पूयं वा सोशियं वा सीहारवेज्ज वा, विसोहियरेण वा आलेवणजाएण श्रालिंपेज्ज वा, विलिपेज्ज वा, प्रापितं वा विलितं वा साइज्जइ ॥ ३४|| जे भिक्खू श्रष्ठ-उत्थिर वा गारत्थिए वा अप्पणो कार्यसि गमंत्रा पलियं वा ऋरियं वा अभियं वा जंगदलं वा श्रएणयरेण वा तीखेण वा सत्यजाएण वा अच्छिदावेज्ज वा, विच्चिदावेजवा, पूयं वा सोणियं वा पीहारावेज्ज वा. विसोहियाएज्ज वा अपरेण वा आलेवणजाए तेरेण वा घर वा वरण वा बसाएण वा णवणीए वा भिज्ज वा, मज्ज वा अभिगतं वा मंखतं वा साइज्जइ ||३५|| जे निक्खू अएण्डथिए वा गारत्यिएण वा अप्पो कार्यसिगं पक्षियं वा अरियं वा असियं वा भंगदल वा श्र परेण वा तिक्खेण वा सत्थजाएण वा छिंदित्ता वा, जिंदित्ता वा, पूयं वा सोयिं वाणीहाराएज्ज वा, विसोहियाएज्ज वा, अपरेण वा घुरणत्राए धुयाएज्जत्रा, पधुयाएज्ज वा, धुयावधु वा साइज्जइ । ३६ । जे भिक्खु अप्पणो पालुकि मेयं वा उत्रिण वा गारस्थिए वा अंगुञ्जिए निवेसिया निवेसियाय पीहराव, पीहरावतं वा साइज्जइ । ३७। For Private अमजत्थिय जे भिक्खु अउत्थिरण वा गारत्थिरण वा अप्पणो दीatri meसिहाओ कप्पावैज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पा , वाठा वा साइज्जइ । ३८ | जे भिक्खू उत्थिए वा गारत्थिए वा अप्पणो दीहाई वत्थीरोमाई कप्पावेज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पावतं वा संतानंतं वा साइज्जइ ॥ ३६ ॥ जे भिक्खू उत्थिरण वा गारत्थिरण वा अप्पलो दीहाई जंघारोमाई कप्पवेज्ज वा, सवावेज्ज वा, कप्पानंत वा संगतं वा साइज्जइ ||४०|| जे चिक्खू माउ थिए वा गारस्थिरण वा अप्पणो दीहाई सीसकेसाई कप्पवेज्ज वा, संठावेज्ज वा कप्पावतं वा संठावतं वा साइज्ज‍ | ४१| जे भिक्खू असउत्थिए वा गारन्थिए वा अपणो दीहाई कष्परोमाई कप्पावैज्ज वा, संगवेज्ज वा, कप्पावतं वा संतावतं वा साइज्जइ ||४२|| जे भिक्खू असउत्थिए वा गारत्थिए वा अप्पणो दीढ़ाई जुरोमाई कप्पावेज्जत्रा, संत्रावज्ज वा, कप्पावतं वा सावंतं वा साइज्जइ ॥ ४३ ॥ जे भिक्खू अउ - थिए वा गारत्थिष्ण वा अप्पणो दीहाई चक्वूरोमाई कप्पवेज्ज वा, संवावेज्ज वा कप्पानंतं वा संचावतं वा साइज्ज | ४४ | जे जिक्खू श्रमउत्थिए वा गारत्थि एण वा अपणो दीहाई करोमाई कप्पावेज्ज वा संठावेज्ज वा, कप्पा वा संठावंतं वा साइज्जइ । ४५ । जे निक्खू असउत्थिएण वा गारत्थि वा अप्पणो दीहाई मस्सुरोमाई कप्पावज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पानंतं वा संवातं वा साइज | ४६ | जे चिक्ावू आए उत्थिए वा गारत्थि - एवा अप्पणो दीहाई कक्खरोमाई कप्पा वेज्ज वा, संठाबेज्ज वा कप्पातं वा संावतं वा साइज्ज | 8७ । जे भिक्खू अएएात्थए वा गारत्थिएव वा अपणो दीहाई पासरोमाई कप्पावेज्ज बा, संत्रा वेज्ज वा, कप्पावतं वा संत्रातं वा साइज्ज | ४८ | जे भिक्खू उत्थिए वा गारथिए वा अपणो दीहाई उत्तरउट्ठाई रोमाई कप्पावेज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पानंतं वा, संवावतं वा साइज्जइ |४| जे भिक्खु अछा उत्थिए वा गारत्थिए वा अप्पणो दंते सीओदगवियमेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोलावेज वा पधोवावेज्ज वा, उच्छोलंतं वा पधोवतं वा साइज्जइ । ५० | जे भिक्खू भए उत्थिरण वा गारास्थिए वा अप्पणो दंते फूमावेज्ज वा, रयावेज्ज वा, मंखावेज वा, फूमावतं वा रयानंतं वा खावंतं वा साइज्ज‍ । ५१ । जे भिक्खू भए उत्थिए वा गारस्थिए वा अपणो भोडे मज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जातं वा मज्जातं वा साइज्जइ | २२ | जे जिक्ख अएण उत्थि एण वा गारस्थिरण वा अप्पणो आहे संवादावेज्ज वा, Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७१) अभिधानराजेन्यः | मनत्थिय " उत्थिए पलिमद्दावेज्ज वा, संवाहावतं वा पश्चिमदावंत वा साइज्जइ । ५३ । जे भिक्खू वा गारत्रिण वा अपणो घोडे तेलेण वा घर वा वमण वा वसारण वा एबीएल वा मंखाबेज्ज वा, भिलिंगावेज्ज वा, खातं वाभिलिंगावतं वा साइज्जर | २४| जे भिक्खु उत्थि वा गारस्थिरण वा अप्पो श्रो लोण वा ककेण वा पहाणेण वा पउमचुझेण वा व ण वा उबोलावेज्ज वा, उब्वट्टावेज्ज वा, उबोलावतं वा उट्टा वा साइज्जइ || जे भिक्खू उत्थि एण वा गारत्थि वा अपणो हे सीओदगविथडेण वा उसि शोदगवियमेण वा उच्छोलावेज्ज वा, पधोत्राएज वा, उच्छोलावतं वा धावा साइज्जइ । २६ । जे भिक्खू अाउत्थिए वा गारत्थिषण वा अप्पणो हे फूमा वेज्ज वा, रया वेज्ज वा, मखावेज्ज वा, फूमावतं वा रयावंतं वा मखा तं वा साइज | ७| जे भिक्खू उत्थिर वा गारथिए वा अपणो अच्छिणि ग्रामज्जा वेज्ज वा, पमज्जाबेज्ज वा, मज्जातं वा पमज्जावतं वा साइज्जइ । ए८ । जे भिक्खू अमन थिएन वा गारत्थिरण वा अपणो - चिणि संवाहावेज्ज वा, परिमदावेज्ज वा, संवाहावतं वा पलिमदानंतं वा साइज्जइ || जे निक्वू अछाउथिएन वा गारत्थि वा अपणो अच्छिण तेनेण वा घरण वा वसेर वा वसारण वा एवणीपण वा मखाबेज्ज बा, निलिंगवेज्ज वा मंखावंतं वा जिझिंगावतं बा साइज्जइ । ६० । जे जिक्खू प्रमउत्थिए वा गारत्थि एण वा अप्पयो अच्छिणि लोण वा ककेण वा हाणेण वा पउमचुझेण वा वमेण वा उलोलावेज वा, उन्नट्टावेज्ज वा, उनोझानंतं वा उब्वट्टावंतं बा साइज्जइ । ६१ । जे भिक्खू भए उत्थिए वा गारस्थिर वा अपणो अच्छिणि सीओोदगवियमेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोनवेज्ज वा, पधोलावेज्ज वा, उच्छलावंत वा घोलावतं वा साइज्जइ । ६२ । जे भिक्खु एणउत्थिर वा गारत्थिएण वा अप्पणो अच्छिण फमावेज वा, रया वेज्ज वा, मंखावेज्ज वा, झूमावतं वा रयातं वा मंखावंतं वा साइज्जइ । ६३ । जे निक्खू अण्णउत्थिए वा गारत्थिएण वा अप्पयो अच्छिम कमलं वा दंतमलं वा जमलं वा णीहरावेज्ज, णीहरावतं वा साइज्जइ । ६४ | जे भिक्खू अउ स्थिएण वा गारस्थिए वा अप्पणी कायानुसेयं वाजलं वा पंकंवा मल्लं वाणीहरावेज्ज वा, त्रिमोहावेज्ज वा, णीहरावंतं वा विसोहावतं वा साइज्जइ । ६५ । जे भिक्खु गामाणु उत्थिय गामं दुइज्माणं अएण उत्थिए वा गारत्थिए वा अपणां सीसवारियं करेइ, करंतं वा साइज्जइ । ६६ । सुत्तत्थो जहा ततिउद्देसगे, तडा भणियष्वं, णवरं अष्टनरिथरण कारवे त्ति वत्तवं । एवं प्रलम्बाधिकारः समाप्तः । पादप्पमज्जादी, सीसदुवारादि जो करेज्जाहि । गिहिष्मतित्थिहिँ व, सो पावति आगमादीणि || तेहिं प्रणवत्थियहि गारस्थिपण या कारवैतस्ल खु किं कज्ज ?, उच्यते कुज्जा व पच्चकम्पे, सेय मलादीहिँ होज्ज व अवएणो । संपातमेव होज्जा, उच्चोल ए फावणे कुज्जा । २५६ । ते साहुस्स पादे पमज्जित्ता पच्क्राकम्मं करेश, साहुस्स प्रस्वेदं म वा दडुं घाणं वा तेर्सि प्रधाऊण असुर इति श्रवं भासेज, अजयणाय वा पमज्जता संपातमेव होज्ज, बहुणा वा दबे अजयपाए धोवंता बोवणदोसं करेज्जा, भूमि ठिए घा पाणी झावेज, इमो भववादो ॥ २५६ ॥ चितिपदमन्जो, कारेज्जऽवि कोवि ते वि अप्पन्नं । जाते वा पुणो, परलिंगे सेहमादीसु ।। २६० ॥ अणम्भो कारवेज्जा, सेहो वा अजाणंतो कारवेज्जा, कारणेण वा परलिंगे गहिते परलिंगिमज्जट्टिश्रो कारवेज्जा, सेहो वा उपठितो जाव ण दिक्खिज्जति तण कारबेज्जा | २६०| किंचान्यत्पच्चकम्मादीहिं, विस्सामावेड वादि उज्जातो । पण विज्ज भाविता, सति देव हत्यकप्पं तु ॥ २६२ ॥ साहूण अभावे पकाकम्मेण श्रादिसदातो गिदीयाम्वरण दंसणं, सावगेण वा एतेहि विस्सामए, को विस्सामाविज्जा ?, बादीवा श्रागतो वा उजातो श्रान्तः । जे भाविता ते पणविज्जति । साधूनां पादरजः श्रेष्ठमाङ्गल्यं शिरसि धार्यते न दोषः। जे पुण अभाविता तेसिं सति मधुरपचणविज्जमानेन हत्थकप्पो तेसि दिज्जति मा पच्छाकम्मं करिस्सं । नि० चू० १५ उ० ॥ ('अष्टम किरिया' शब्दे संबाधनपरिमर्दनसूत्राणि वक्ष्यन्ते ) (२७) भूतिकर्मादि जे भिक्खू उत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा नूइकम्मं करे, करतं वा साइज्जइ || १४ || जे भिक्खु मनस्थिया वा गारत्थियाणं वा पसिणं करेइ, करंतं वा साइज्जड़ || १५ || जे क्खूि उत्थिवाणं वा गारत्थियाणं वा परिणापसिणं करे, करंतं वा साइज्जइ । १६ ।। जे भिक्खू उत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पसिणं कहे, कहतं वा साइज्जइ || १७ || जे निक्खू अष्पउत्थियाणं वा गारथिया वा परिणापसिणं काहे, काहनं वा साइज्जइ || १८ || जे भिक्खू अप उत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा तीत निमित्तं करे, करंतं वा साइज्जइ || १७ || जे भिक्खू उत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा परिपुष्पं निमित्तं करेइ, करतं वा साइज्जइ ॥ १० ॥ जे जिक्खू पत्थियाणं Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७२) अम उत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। श्रमानस्थिय वा गारस्थियाणं वा आगमी संनिमित्तं करेइ. करंत वा सा- जतो वा ते अणिहिदिहातो स्वयं पावंति, ततो ते तम्स पथधिइज्जइ ॥३१॥ ने भिकावू अमनत्यियाणं वा गारत्थिया हंगस्स साधुस्स अस्स वा साधुस्स पदोसमावज्जेति, अम्हें पडिणियत्तणेण परिसपंथं बूढा, इमेणं पंतावणादि करज्ज । णं वा लक्खणं करेक्ष, करतं वा साइज्जइ ॥ २२ ॥ जे अधवा दातो विंधेज ॥ भिवाव अमउत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा सुमिणं करेइ, वितियपदमणप्पज्झे, पावे अवि को विते व अप्प। करतं का साइज्ज ।।२३ ॥ जे भिक्स्व अमाउत्थियाणं वा अघाण असिव अहिओ-गातुरादीसुजाण मवि ५३।। गारत्यियाणं वा विजं पजइ, पतंवा साइजइ॥२४॥ सित्तादिगो अणप्पज्झो सेहोवा, अवि कोवि नो विधेज्ज, - जे भिकाव अमनत्थियाणं वा गारत्थियाणं वा मंतं पउंजइ,। आपको विश्रद्धाणे वा सत्थरस पहं अजाणंतस्स विधेज।मपजंतं वा साइज्ज ॥२५॥जे जिक्व अध्मचत्यियाणं सिवे गिलाणकज्जेचा वेज्जस्स फप्पियारिस्स वा प्राणिज्जवा गारत्थियाणं वा जोगं पउंज, पजंत वा साइज्जइ तस्स पंथमुवदिसति । भभियोगोत्ति बारातिणा देसितोगहि॥ १६ ॥ नि० चू० १३ । ते एवमादिकरणहिं जाणंतो वि कर्हितो सुद्धो । नि० ० मार्गप्रवेदनम् (२८) [साचना] अन्ययूथिकाः पाखएिमनो गृहिणः सुखमे भिक्खू अमनस्थियाणं वा गारत्थियाणं वा पहाणं शीला बा न प्रव्राजनीयाःविपरियासियाणं मग्गं वा पवेदेइ, संधि वा पवेदे मग्गाणं जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा बाएइ, बा संधि पवेदेइ, संकियोवा मग्गं पवेदइ, पवेदंतं वा सा वायंत वा साइज्जइ ।। २५॥ जे भिक्खू एणउत्थियं वा इज्ज ॥२७॥ गारत्थियं वा पडिच्छइ, पमिच्चंतं वा साज्जा ।। ६ ।। श्मो सुत्तत्थो जे भिक्खू पासत्थं वाएइ, वायंतं वा साइज्ज ॥२७॥ नहा पथि फिहिता, महा उदिसाविजाग ममुणंता। जे भिक्खू पासत्यं पमिच्छइ, पडिच्चतं वा साइज्जइश्न। तं विय दिसं पहं वा, पति विवजिया वनं ॥ ४० ॥ जे सिक्खू उसणं वाए, वायंतं वा साइज्जइ । २। जे पथि प्रनष्टानां पन्थानं कथयति,अमवीए या मूढाणं विसिभागं भिक्खू नसणं पमिच्छप, पडिच्छतं वा साइज्जइ । ३० । भमुणताणं वि दिसि विभागेण पहं कहेति । अतो चेव आगता तं चेव दिसं गचंताणं विवजिता वसणं सम्भावं कहेति ॥४॥ जे भिक्खू कुसीलियं वाएइ, वायंतं वा साइज्जइ । ३१ । मग्गो खसु सगमपहो, पंथो वा तबिवजिता संधी। जे भिक्खु कुसीबियं पडिच्चाइ, पहिच्छंतं वा साइज सोखनु दिसावि नागो, पवेयणा तस्स कहणाश्रोहा। । ३२। जे भिक्खू णितियं वाएइ, वायंतं वा साइज्जइ संधी संखेम्यगो जतो गमिस्सति सो दिसाभागो, तं तेसिं ।३३जे भिक्ख णितियं पडिच्छइ, पडिच्चतं वा साइज्जइ, मूढाणं पवेदेति, कथयतीत्यर्थः । सगममग्गा उजुसंधिसंखे ।२४। जे भिक्खू संसत्तं वाएइ, पायंतं वा साइज्ज डयं पवेदेति, उजुसंधिसंखम्या षा सगडमगं पवेदेति, कदय. । ३५। जे भिक्खू संसत्तं पमिच्चाइ, पमिच्छतं वा साइतिति वृत्तं भवति । अहवा सञ्चो चेव पहोमम्गो भपति, संधी ज्जइ । ३६। पथं बोधयन्वं । अहवा पंयुग्गमो चेव संधी, पंथस्स वा संधी अंतरे कहति, संधी उ बा जो वामदक्मिणो पहो,तं कहेति । एवं पासत्थे दोसुत्ता, सणे दो, कुसीले दो, संसदो,णि तिये दो, पतेसिं चायणं देति, पमिति, नायत्तेण वा सम्वेषु गिहिअम्मतित्यियाण व, मग्गं संधी । जो पवेदेति । । प्रहाच्छदवज्जिपसु चचलद, अहवा अत्ये व अहागंदे चउगुरू, मग्गातो वा संधि, संधीतो वा पुणो मग्गं ॥१०॥ सुत्त अत्येमुगतार्था । तसि गिहिभएणतित्थियाण मम्गादि कहेतो श्म हापासंमिय गिही, सुहसीलं वा वि जो उपबज्ने । पावति अहव पटिच्चति तेमि,चाओऽस्स य साति पोरोसिं।२२४॥ सो आशाअणवत्थं, मिच्चत्तविराहणं तहा दुविहं। । (पोरिस ति) सुप्तपोरिसिं अत्थपोरिसिं था देतस्स, तेसि पावति जम्हा तेणं, एते उ वए विवज्जेज्जा ।। १ ।। पा समीधातो पोसिस करतस्स, अहवा एको परिसिं बापतदुविहा आयपरसंजमविराधणा, तेसि साधविधि तेखपटेणे | स्स, अणेगासु धर्मगच्छंताणं श्मे अमे दोसा मतरत्तं तवो होति, ततो दो पहावति । बकायाण विराहण, सावय तेणोवहिं वि विहिं। देण लिमपरिया, एतो मूलं ततो दुगं ॥ २५॥ जं पावति जाता वा, पदोस तेसि तर्हिग्नोसि ॥ ५२ ।। सत्तदिवसे चञ्चमडं तबो, ततो एक्के दिवसे चरसह दो, जंते गच्छंता ग्काए बिराहेति, स विराधंतोतं णिप्प पाव- ततो पक्केक्कदिवसे मूसऽणबढ़ा पारंचिया,महवा तयो,तहेव य ति,तेण वा पहेण गबंताणं ते सावयोवहवं सरीरोवाहितेणोवहवं चचल,दो, सत्तदिवसे सेसा, पक्कषके दिवसं अहवा तवो पावति,(जं पावेति त्ति) जंवा ते गच्छता अमेसि उवदवं करेति। तदेष । गुरुच्छेदो, सत्तदिवसे,सेसा एक्केक, अहवाचनसतो Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१३) अमउत्थिय अनिधानराजेन्सः। अमनस्थिय वा सत्तदिवसे , ततो चउगुरु, ततो सत्तदिवसे, ततो ग्ल्ला जस्स तिमि वरिसाणि पगियायस्स संपूराणि, तस्स य ायासत्तदिवसे, ततो उग्गुरु सत्तदिवसे, ततो एते चेब,दो रपगप्पो अधिज्जियव्वो, पायरियाय कालगते पसेव समुच्छेदो। सत्त सत्त दिवसे, ततो मृाऽणवउप्पपारंचिया एक्के- अहवा कस्सइ साहुस्स पायारपगप्पस्स देसेण अणधीते सकदिणं, अहवा ते चेव चउलहुगादिगा सत्तसत्तदिवसिगा,ततो मुच्छेदो य जाओ, पतेसि सब्चो पायारपगप्पो पढमस्स वितिय दो.बहुपणगादिगा सत्तसत्तदिवसिगा सत्तसत्तदिवसेणेयव्वा, स्स य देसो य अवस्सं अहिज्जियब्वो, सा कस्स पासे महिजाव करगुरु, ततो मूलगुणऽणवट्टप्पपरिचिया एक्केक्कदिवसं; ज्जियवो । उच्यतेगिहिअम्मतिथिपसु श्मे दोसा । संविग्गपच्छाकमसि-पुत्तसारूवि पमिकते । मिच्चत्तथरीकरणं, तित्यस्सोनावणा य गेएहं तु । अन्भुट्टिते असती,अणिसुतत्य वतिदेसा वीति ।३१॥ देति पवंचणकरणं , तेणोक्खेवकरणं च ॥ १६ ॥ सगच्छे वेव जो गीयत्था, तेसिं असति परगच्छे संविग्गमकह मिच्छत्तं घिरतरं ?। उच्यते-तं दटुंतेसिं समीवे गच्छमिच्च गुन्नसगास, तस्स असति परगच्छ संविग्गममस्स,ताहे अ. नस्ल वि असति पत्ति पत्ति, अन्नसंभोश्यस्स वि असति पति, दिछी चितेति-श्मे चेव पहाणतरा जाता, पते पिपतेसिं समीवे अन्नसंभोश्यस्स वि असावणिश्रादि नक्कमेणं असंविम्गेसु तेसु सिक्खति, लोगो दटुं भणाति, एतेसिं अपणो आगमो णस्थि, वि णितियादिगणाओ आवकढ़ाए पमिकमावित्ता , भणिच्चि परे संति, ताणि सिक्खंति, णिस्सारंपवयणं नि ओभावणा, प्रह जाव अहिजश, ताव पमिकमावित्ता, तहा वि अणिच्चे तस्सेव तेसि देति, ता ते सत्यादिनाविता महाजणमध्ये चट्टं चोरं सगासे अहिज, सव्वत्थ वंदणादीनि न हावेह । पसेवजयणा खुज्जा विलियासणए करीसप पिलुआपत्तिएवमादि पवंचणं तेसिं असतीए पच्गकमादिसु पच्गको त्ति,जेण चारितं पकरेति नहाहंच,अहवा तेणोवसिक्तिकरण अक्लेवेति, चोयणं संगकडं उभिक्खंतो भिक्ख हिमश् वा, न वा सारूविगो पुण करेजा, सेज वा २२६ ॥ मुक्किलवत्थपरिहियो मुंगमसिहं धरे । अभजगो अपगिहिअध्यातिथियाणं, एए दोसाव देत गेएहते । तादिसु निक्खं हिंमद । अण्णे भणंति-पच्छाकमासिकपुस्ता चेव जे असिहा ते सारूविगा, एएसिं सगासे सारूविगार पगहणपमिच्छण दोसा, पासत्यादीणि पुच्चत्ता॥२७॥ च्वाणुलोमणं अधिज्जति, तेसु सारूविगादिसु पडिकते अन्तु . कंगा, णवरंपासत्यादिसु गहणपमिच्छणदोसा जे ते पण्णरस- छिपत्ति सामातियपडिकता तारोपितो अनुट्टिो,अहवा प. मे उद्देसगे वुत्ता, ते दब्धा , वंदणपसंसणादिया वा तेरसमे चाकमादिपसु पमिकतेसु एते सब्वे पासत्थादि पच्छाकमाजम्हा एते दोसा तम्हा गिहिअम्मतिथिया वा ण वाएयब्वा, दिया य असं खेतं येउ पमिकमाविजंति,(अणिच्चेसु तत्थ प. परपासंमिलक्खणे जो अपाणं मिच्चित्तं कुब्बतो कुतित्थिप तिदेसा वीति त्ति ) । अस्य व्याख्यावा पति, जिणवयण वा णानिगच्छति, सो परपासमी, जो पुण देसो सुत्तमहीयं, न तु अत्या अत्यितो व असमत्ती। गिही एणतिथिो वा इमेरिसो असति मणुामणुप्मे, इयरेतरपक्खीयमपक्खीयं ॥३२॥ नाणचरणे परूवरण, कुणति गिही अहव एण पासमी। पुबद्ध कं । (असति मणुममामुणे त्ति) पयं गच्छति । इतरे. पयएहि संपनत्तो, जिणवयमरणासम्गती जाति ॥२२०।। तर ति) असति णितियाण इतरा संसत्ता, तेसिं असति इतरा णाणदसणचरिनाणि परवेति । जिणवयणचोरो एति सो सं. कुशीला पयं णायब्वं, एसो वि अत्थो गो चेव लेसु वि पुवं पासंमी चेव सो वाइज्जर, जं तस्स जोग्गं ॥ २२८॥ जेसि विग्गएरिकएसु श्मेरिसा , जे पच्चाकमादिया मुंमं वा गा ते पच्छाकमादिया । जावज्जीवाए पमिक्कमाविज्जति एते व विप्पमुक्को, गच्छति गति एणतित्थीम् । जावज्जीयमणिच्छेसु जाव महिज्जति, तह वि अणिच्छेसु जदि । पबजाए अनिमुह, एति गिही अहव अन्नपासंडी॥ | मुंमं व धरेमाणे, सिंहं च फडित्तणित्यसिस्साह । नववायविहारं वा, पासत्था ओवगंतुकामं वा॥ १६ ॥ लिंगेण मसागरिए, ण चंदणादीणि होवेति ॥ ३३ ॥ जो अम्मतिथियाणुरूवा गती.तं गच्छति, सेसं केलं, नवे कार (ममधरे ति) तारयोहरणादि दवलिंग दिज्जति, जाव उद्देणं वा पज्जा वि(पव्वज्जाए) गाहा। गिही अप्पासंडी वा पञ्च सादी करे,सा सहस्सविसिहं फेमेतु । एमेव दवलिंग दिज्जति, उजानिमुहंसावगं वा उज्जीवणियत्ति जावसुत्तत्यो अस्थतो जाव पिंडेसणा,पस गिदत्यादिसु अववादो, इमो पासस्थादिसु अथवा अणिच्छिसु दब्वालिंग वा णो इच्छति फेमतुं, तो स सिंहस्सेव पासे अधिज्जत सविंगे गिओ चेव असागारिए पपसेसु य दो तित्ति नवसंपदा उज्जपविहारीणं उवसंपम्मो जो पासत्थादो सो नववादविहारद्वितो तं वा वाएज्ज,अहवा पासत्था दि पृयत्तिकाओ बंदणाइसब्बं ण हावेश, तेण वि वारेयध्वं पच्छा. साण जो संविग्गविहारं वगंतुकामो, अब्भुहिउकाम इत्यर्थः। कम्यस्स पासस्थादिमुयस्स वा जस्स पासे अधिज्जति, तत्थ तं वा पासत्थादिभावहितं चेव वाएज्जा जाव अम्तुति, एवं वेयावच्चं ण करे | श्मो विहीघायणा दिट्ठा, तेसिं समीवातो गहणं कह होज्जा? ।उच्यते आहार उवहि सेज्जा-एमणमादीसु होति जतियव्वं । अणुमोयए कारावण, सिक्खति य पदम्मिसो मुछो ।३४॥ वितियपदसमुच्छेदो, दसाहि ते तहा पकप्पति । जदि तस्स श्राहारादिया अस्थितो, पहाणं अह णत्यि, ताहे अपास्स व अमतीए, पमिकमंते व जयणाए ॥३०॥ सव्वं अप्पणा एसणिज्ज आहारादि सप्पाएयव्यं, अप्पणा जस्स भिक्युस्स णिकपरिया उवट्ठिति,णिकपरियागो णाम | असमस्यो Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७४) अएणउत्थिय अनिधानराजेन्द्रः। अगणनत्थिय चादति से परिवार, अकरमाणे मणादिवासहे। तत्थ वा थमिले गतस्स,अतो गिहत्येहिं समं गले, ते निवारैति, अव्वोच्छत्तिकरस्स उ, सुयजत्तीए कुणह पूयं ॥३५॥ गयह राययभेण समाणं गम्मइ, राहपएगा चेव सरणादुविहाऽसति एतेसिं, आहारादी करोति सव्वं तो । नूमी परिसोई कारणेहिं जयणाए गम्माति, सा य श्मा जयणापणिहाणीव जयंते, अत्तट्ठा एवमेव गेएहंतो॥ ३६॥ पच्छाकडत्तदंसण, असमिगिहिए तो कुलिंगीसु । जो तस्स परिवारो पासत्यादियाण वामी सपरिवारो सहाधि पुबमसोयवादिसु, पनरदवेमट्टिया य कुरुया य । ३०४। संताण करेंति, असंता वा णथि सदा, एवं असती एसोसि- पुव्वं पच्गकमेसु गिहीयाणुव्वएसु तेसु चेव सणसावपसु खगो माहारादि सव्वं पर्ण परिहाणीते जयणा , ते तस्स ततो एसु चेव कुतिथिएततो असमिनिहत्थेसु ततो कुलिविसोहिकोमीहि सयं करेंतो सुन्झति, अप्पणो विएमेव पुव्वं गिएसु प्रसरणासु सब्बासु सव्वसु पुव्वं असोयवादिसु पच्छा सुद्धं गेएहति । असति सुद्धस्स पच्छा विसोहिकोमीहि गेएहतो सोयवादिसु दूरं दूरेण परं मुहो ऽवे लंबवज्जितो पउरदवणं म. सिक्खति, अववादपदेण विसुज्कर । नि० चू०१५ ००। ट्टियाए य कुरुकुयं करेंतो अ दोसो। (९) विचारभूमेर्विहारलूमेर्वा निष्क्रमणम एमेव विहारम्मी, दोसा नहुँचगादिया बहुधा । से भिक्खू वा भिक्षुणी वा बहिया वियारनूमि वा विहा- असती पमिणीयादिसु, वितियं आगाढजोगिस्स ॥३०॥ रनूमि वा णिक्खममाणे वा पविसमाणे वा णो अमनस्थि विदारलूमीए वि.प्रायशः एत एव दोषाः । उरुश्चकादयश्च - एण वा गारथिएण वा परिहारियो वा अपरिहारिएणं धिकतरा बहवः । अन्ये नमुञ्चका कुट्टिदा उइंति वा वंदनादिसु सकिं बहिया वियारनूमि वा विहारजूमि वा णिक्खमेज प्रत्यनीकादिद्वितीयपदं पूर्ववत । चोदको भणति-जत्थेसिया चा, पविसेज वा।। दोसातत्थ तेहि साममं गंतुं वितियपदेण विसज्जाओ मा की रउ । आयरिओ भणति-आगाढजोगिस्स उद्देससमुद्देसादो (से भिक्खू वेत्यादि )स निर्बहिर्विचारभूमि संझाव्युत्सर्ग अवस्सं कायब्वा, नवम्सए य असम्भावहिं पमिणीयादि, अतो भूमि तथा विहारभूमि स्वाध्याय मि तैरन्यतीथिकादिभिः सह तेण समाणं गंतुं करेंतो सुद्धो। नि० चू० २ उ०। दोषसंनवान्न प्रविशेदिति संबन्धः । तथाहि-विचारजूमौ प्रासु. कोदकस्वरबह्वल्पनिपकृतोपघातसद्भावाद्विहास्नूमौ बासि (३०) विहारःकान्तालापकविकथनन्नयात, सेहाद्यसहितुकलहसद्भावाच्च से जिकरबू वा निक्खुणी वा गामाणुगामं दृज्जमाणे णो साधुस्तुतेः सहन प्रविशेत, नापि ततोनिकामेदिति। प्राचा०२ प्राणउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिन अपरिहाभ्र.१०१ उ०। रिएण वा सकिं गामाणुगामं दूइज्जेज्जा ॥४॥ जे जिकर अपनथिएण वा गारथिएण वा परिहारिउ | तथा (से भिक्खू वेत्यादि) स भिकुर्घामा प्रामान्तरम, उपवा अपरिहारिएण वा सदिबहिया विहारमि वा वियार- | लकणार्थत्वान्नगरादिकमपि (दूइज्जमाणे त्ति ) गच्चन्नेभिरन्य तीथिकादिभिः सह दोषसंभवान्न गच्छेत् । तथाहि-कायिकादि जूमि वा निक्खमइज्ज वा, पत्रिसज्ज वा, निक्खमंतं वाप निरोधे सत्यात्मविराधना,व्युत्समें च प्रासुकाप्रासुकग्रहणादायुविसंतं वा साइज्जइ ॥ ४०॥ पघातसंयमविराधने भवतः। एवं भोजनेऽपि दोषसंभवो नाव(जे भिक्खू अाउत्थियेत्यादि ) सम्मायोसिरणं वियारन्मी, नीयः, सेहादिविप्रतारणादिदोषश्चति । प्राचा०२ श्रु०१०१०। असन्काए सफायतमी जा साविहारभूमी, साउज्झामगपोरि- जे निक्रवू अमनथिएण वा गारथिएण वा परिहारिन सी वि भन्मति णो कप्पति । “एत्तो एगतरेणं " गाहा कंग ।। वा अपरिहारिएहिं सद्धिंगामाणुगामं दृश्जश, दुइजतंवा बीयारमिदोसा-संका अपवत्तणं कुरुकुया वा। साजा ॥ ११ ॥ दवअप्पक नुसगंधे, असती व करेज्ज उड्डाहं ॥३०॥ प्रामादन्यो प्रामो प्रामानुग्रामम् । शेषः पूर्वसूत्रार्थवत् ॥४१॥ बीयारजूमि असती, पमिणीए तेण सावए वा वि । णो कप्पति निक्खुस्सा , परिहारस्सा उ अपरिहारीणं । रायदु रोधग, जयणाए कप्पते गंतुं ॥ ३०३॥ गिहिअम्मतिस्थिएण व, गामणुगामं नु विहरित्ता।।३०६॥ विवारजूमीप पुरीसा वा , तप्तस्रोए अ दोसासंका ( अपय एत्तो एगतरेणं, सहितो दूरज्जती तु जे निक्खू । सणं ति ) अपवतंते य मुत्तरिणरोहे त्रीणि सल्यादिए मट्टि- सो माणाअणवत्यं, मिच्छत्तविराहणं पावे ॥ ३०७॥ याए बहुदवेण य कुरुकुया करेयवा , पत्थ उच्चालणे श्रोप्पील "पुरु गती" दृइज्जइति रीयति, गच्यतीत्यर्थः। रीयमाणो ति. गादी दोसा। अह कुरुकुयं ण करेति . उन्हाहो अप्पण वा दवेण स्थगराणं आणं आणम्मि जे अणवत्थं करेति, मिच्छतं अमेसि कलुसेण वा दवेण णिवेवंतं दई चमत्यरसियादिणा वा गांध- जणयति, भायरियसंजमविराहणं पावति । इमं च पुरिसविलेण अभावे वा दवस्स अणि बेविते जणपुरो नहाहं करेज्ज, जागेण पच्चित्तंजम्हा पते दोसा तम्हा तेहि साण गंतवं , अववादपए ने बज्जेज (वियार)गाहा। एणो वियारतमीए असति जदि ते मासादीया गुरुगा, मासो अविसेसियं चउएहं पि। गिहत्य प्रमाउत्थिया वदंति, ततो वएज, जतो अणावातमसं एवं मुत्ते पत्या-ण होति सहाण पच्चित् ।। ३०॥ लोभं तो इमे पदिणीतएण सावयबोधितदोसा । अंतर अगीयस्थनिक्वणो गीयत्वभिक्खुणो उज्जायस्स प्रायरिय Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७५) भएणउत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। अण्ण नत्थिय स्स एतेसिं चाह वि मासादी चगुरु मतं, अहवा मासलहुं सलाहत्थयं वा सिक्खावेश,सिक्खावंतं वा साइज्ज ।।.. बेव तवकालविसेसियं । अहवा अविससियं चेव मासाहुं। चोद (जे भिक्खू अन्नउत्थियं वा इत्यादि) सिप्पं तुम्गादि, सिग-माह-किं णिमित्तमिह सुत्ते पुरिसविभागेण पच्चिसं दिसं। लोगो वएणणा, अट्ठापदं जूतं , कक्कडगहेउ चुगाहा कहो, भाचार्य आह-सर्वसूत्रप्रदर्शनार्थम् । एवं सुत्ते २ पत्थाण सट्ठाण सलाहा कव्वकरुणप्पोगो। एस सुत्तत्यो । श्मा णिज्जुतीपजितं दट्टवं । इमा संजमविराहणा सिप्पसिलोगादीहिं, सेसकलाओ विसूश्या होति । संजतगतीऍ गमणं, ठाणणिसीयण उ अट्टणं वा वि। वीसमणादि पमिस्सुय-उच्चारादी अवीसत्था ।। ३० ।। गिहिअतित्थियं वा, सिक्खावते तमाणादी ॥ २०॥ सेसा उ गणियलक्खणसणरुयादिसुचिया ण गिही अण्णमासादीया गुरुगा, जिकावू व समानिसेगमायरिए । तित्थी वा सिक्खावेयब्वा । जो सिक्खावेति, तस्स आणादिया मासो विसेसिश्रो वा, चउएहवी चउसु सुत्तेमु ॥३१०॥ य दोसा, चउरहुं च से पच्चित्तं ॥ २० ॥ जदा संजो सिग्घगतीए वा वच्चति, तदा गिहत्थो वि सिप्पसिलोगे अट्ठा-वए य कक्कमगबुग्गहसलाहा । तितो अधिकरणं भवति , तएहा छुहाए व परिताविज्जति, तमिप्पमं बीसमंतो य सश्चित्तपुढविकाए उद्धहाणं निसी तुंनाग वम जूतो, हेतू कलहुत्तरा कन्यो ।। १ ।। यणे तु अट्टणं वा करेति, भत्तपाणादियाण उच्चारपासवणेसु पुवरण सुपसिका गाहा,पच्चरण जहासंखं तत्थ नदाहरणं । यसागारिओ भिकाउं अवीसत्थो साहुणिस्साए वागच्छंति। सिप्पं जं आयरिओवदेसेण सिक्खिज्जति, जहा तुष्मागं तुम्मातो फलादि खापज्जा, अहिकरणं साहू वातस्स पूरश्रो विति। दि, सिलोगो गुणवयहिं वाणा, महापदं चरंगेहिं जूतं, यपदेण गेरहेज्जा । परितावणाणिप्पमं पादपमज्जणादि वा अहवा श्मं अापदंण करेज्जा, तत्थ वि सहाणं अह करेति, उडाहो। अम्हेण विजाणामो, पुट्ठो अट्ठापयं इम वेति । भाष्यकारेणैवायमर्थ उच्यते मुणगाविसालकूरं, णेच्छति पम्पनातम्मि । २२ । अत्थंमिलमेगतरे, ठाणादी खफनवहि उड्डाहो । पुच्छितो अपुच्चितो वा भवति-अम्हे णिमित्तं ण सुटुजाणामो, धरणणिसग्गे वा तो जयस्स दोसा पमज्जणए ॥३११॥ पत्तियं पुण जाणामो, परंपरभावकाले दधि कूरं सुणगादिनावो साहुणिस्सए वा साहू अथंडिले ठाएज्ज, बद्धोवहिणाभारं ण नवति , अणिचो वा भणितो विणासी घटवत् कृतविप्रदुंदुउत्ति उडाहं करेति, धरणणिसग्गे वा वायकाइयसप्माण णासादयश्च दोषा भवन्ति । अहवा कर्कटहेतुसवनविक्यप्रतिउभयहा दोसो पमजतस्स उडाहो, अपमज्जणे य विराहणा पत्तिः । अत्राह-यथा दोषो मूर्तिमदमूर्तसदुःखभेदतो ज्ञानकाजम्हा ण गच्छे ॥३११॥ लभेदाच कारकनृतविशेषाच विरुदं सर्वनावैक्यम् । अथ नैवं, वितियपदं अघाणे, मूढमयाणंत दुट्ठणढे वा । ततः प्रतिक्षाहानिः। वुग्गहो रायादीणं अमुककाले कलहो भविनवहीसरीरतेणग-सावयजयदुल्लभप्पवेसे य ॥३१२।। स्सति । रमो वा जुहंसगममादिएण कसहे जयमादिसति । दो एहं वा कलह ताणं उकस्स उत्तरं कहेति',सलाह त्ति, कथाप्रद्धाणे सथिएहिं समं वञ्चति पंथाउ वा मूढोदिसातो वा सम्भावं कहेति । कव्वहिं वा वारितो कथं करेति?,सलाहकहत्येमुढो, साहू जाव पंथे उत्सरेति पंथमयाणंतो वा जाणा गिहिं णं ति,सब्वकालो तो सूचितातोभवंति, ताणि अध्यतिथिमादीणि समं गच्छेज्ज, रायदुढे वा रायपुरिसहि समं गच्छे, बोधिगा सिक्खाति, चउलह, प्राणादी य संजमे दोसा । प्राधिकरवं दिभया णको वा तेहिं समाणं णिहोसो हवेज्ज, तेणगभए वा नस्सग्गावदेसे य श्मं वितियपदगच्छे, सावयभए वा अम्मम्मि वा पगरदेसरज्जे दुल्लभपवसे असिवे ओमायरिए, रायदुढे नए व गेलएणे। तहिं समं पविसेज्ज । अमहा ण लम्भति । तत्थ पुण णगरादिसु विहरंतो तत्थ अत्यंतो णितितो भवति, तेहिं समाणं श्रद्धाण रोहए वा, सिक्खावणया न जयणाए ॥ २३॥ गच्छंतो इमा जयणा रायादिमाम वा इसरं सिक्खावेतो असिवगडितो तप्पभावा णिन्नएँ पिडउ गमणं, वीसमणादी पदा तु अस्मत्थ । ओढागादि लन्नति, ओमे वा पुग्वति सोचारायदुट्टे ताणं करेति । सावयसरीरतेणग-जएगुतिहाण जयणा तु ।। ३१३ ॥ वोहिगादिनये ताणं करेति। गिलाणस्स वा उसहातिपहिं उव ग्गहं करिस्सति । अहाण रोहगेसु वा नवग्गहकारी विस्सति। णिज्जए पिठो गच्छति, पिटुतो ठिता सम्वपमज्जणादि सा. एवमादिकारणे अवेक्खिऊण श्माप जयणाए सिक्खावेति । २३॥ मायारि पञ्जति, वीसमण त्ति पदा जदि असंजतो थांडो करेति,तो संजया एणयमिले गयंति, तेण सावयभयं जा पिठ संविग्गमसंविग्गो, धावियं तु साहेज्ज पढमतोगीयं । तो,तो मऊतो पुरतो वा गच्छति,मज्के तए पुरतो पिठो वा ग- विवरीयमगीए पुण, अणभिग्गहमाइ तेण परं ।। २४ ॥ मंति ॥३१३।। नि० चू०२ उ०। पणगपरहाणीए जाहे चउनहुँ पत्ता तेसु जतिचं ते से विप्र(३१) [शिका ] अन्ययूयिकं वा गृहस्थ वा शिल्पादि संतरतो ताहे सविम्गो धाविनं गीयत्थं सिक्खावेति, पच्चा शिक्कयति असंविग्गो धावितं गायत्थं; अगीएम विवरीयं कज्जति,ततो अजे निकावू अमउत्थियं वा गारस्थियं वा सिप्पं वा सि. संविम्गो धावितं अगीत,ततो संविम् अगीयं,अन्यविपरीतक रणाद हेतुमद्भावनां करिष्यति। संविग्ग अगीतार्थः । पच्छा गलोग वा अहापदं वा कक्करयं वा वुगाई वा सलाहं वा । हियाणुस्वयं, ततो पच्छा सणसावगे, ततो पच्चा अहानदय, Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म उत्थिय ततो मिच्छं श्रभिमाहाभिग्गाहियं । नि० ० १३ उ० ॥ (३२) [ संघाटी सीधनम् ] अम्यवृधिकादिभिः संघा सावपति जे निक्लू अपणो संपामियं त्रिण वा सीवावे, सीवा ( ४७६ ) निधानराजेन्द्रः | , इथिए वा गारवा साइज २२ । पण अपणिज्जं संघाडी ग्राम सबमी सरहसति सिकाऊदोहंमन्य जमिन स सरकखादिणा गिण यागादिणा संसिदावे अयण ॥ १२ ॥ शिकार अपना कारणे हि अतिथीहूँ। गिहि संघाडि सीवाने, सो पावति प्राणमादीणि २५ ।। जदि णिकारणे अपणा सीवेति, कारणे वा अएण उत्थियगारस्थिपति सिवावेति तस्स मासन्नहुं, आणादिया इमे दोसाणिकारणम्मि लढुगो, गिलाण आरोवणा पविडम्पि । उप्परकासमे, कारणको निपीए ।। २६ ।। विदे विराणा यतियवाजमविणा कार विधी सर्व तो सुद्धो योग आह-पढमुद्दे परकर से मासगुरुं वशियं, इह कहं मासलडुं भवति । श्रायरिय ग्रहकामं खलु परकरणे, गुरुमासो तु वपिओ पुब्विं । कारण सुनं सर्प गुणायते अहुओ ||२७|| गमचंते, पलिमंथो उग्गमो तु पवित्यो । एसपि अव अत्रहारो होति मध्येसिं ॥ २० ॥ कार्ममा खलु पूरणे, पुण्यं पढमुद्देस दह तु कार लिए सुत्ते अप्पणो अणुमाते परेण सीवावेंतस्स मासलहुँ, सडिए हमे दोसा (गधुणे) गाहा जदि बद्धं पाडले हैंति अगरू वधूगणदोसा, ग्रह बंधी मोतुं पडिलहति पुणो यंधति तत्पलिमेधो भवति, पडियस्थो दामो मेरा अक्खिते एगे वि सध्धेसि अपहारो भवति, अकारणे सिब्वणे य इमा दोसा " । सयसियणम्मि चिडं, गिलाण आरोपणा तु सविसेसा । मिति संजयम्बी सुत्तादी प्रकरणे इमं च ।।२५।। पोसित सूर्यदि ताहे मिलाणारोवा सवि सेसा सपरितामहादुक्खा छप्पतियबाधे श्रसंजमो भवति, तत्थ लहुगो सुतत्थपोरसि ए करेति, जहासंखं सुतासे इकं अत्थं नासेर, काइमं व परकारवणे दोसदंसणं । अनिसुद्धा काया, पष्फोमा उपया व वातीय पाक सिया उप्पति बेची यहरणं च ॥ ३० ॥ अट्टिकायादिया उपरि उति कार्या गहणा, पण्फोडणे छप्पया पडंति. बाउ संघट्टणा य घाणावाडसमय करें या उन श्रयो वा ऊरुयं विधति हरेज वा तं संघाई । इदाणि अपणा सिञ्चणकारणं भवति पिति तु चट्टमहोरगा व गेलाय य एकाहिं सिम कृष्णा ॥ ३१ ॥ दुई दया वा पाया या कंपनण तराने पुलो र उ अनुत्थिय अधवा उद्घोरंगा गिलाणो या ण तराने, पुणे २ संववेनं विसमणिवा एग सह सर्व सीतोसुद्धो मेरा तिरिण वंधा, एक्को दंसंते, वितीओ पासते, ततियों सज्ज वि । तिथि नक्कोण व भवति, कारण अरणउत्थिपण सिव्यावेति । चितिपहिया उसे ना होना की क्रम बघतो व सहस्सा परकरणं कप्पती ताहे ।। ३२ ।। पण असहू गिलावाघ / तो गिलाणाति, पओयणेण वा वमी एवं पोए कारवेडं कप्पति, इमाए जयणारपच्छाकाभिगढ़ णिरजिग्गड जण व असएणी | गिद्द अतिथि एहि असोयसोए गिट्टी पुवं ।। २३ ।। पच्छाकमा पुराणो पढमं तेण ततो अव्वयसंपो सावश्री साभिगो तो सख्खी भयो, मसणी भभो एउ गिहिदा | अन्नत्थं एए चउरो नेदा पक्कक्के असोय सोय या कायचा, पुगिहीसु, पच्छा सोयवादिषु पच्छा श्ररणतिथिए । नि० चू० ५ ० । - जे भिक्खू निषीणं संपादी स्थिर वा गारत्येण वा सिवावे, सिव्वावतं वा साइज्जड़ || ७ || श्रनतिस्थिपण गित्थेण सिवावेति, तस्स चउलहु श्राणादियाय दोसा | संघानी चतुरो, तिपमाणा ता जये दुनिहा | एगमगं छम्मी, अदिकारोऽगखंकीए ।। ५१ ॥ संधीगुणसंघारा सं 3 3 घामी देसी भासातो वा पाउरणे संघाम। ततो संखा, पमाणेण चउरो प्रमाणेन निपमाणगा एगा हत्था दीड़ा 5हत्थवित्धारा सा उवस्सए अत्थमाणीप भवति, दोतिहस्थदोहा, नित्याचारा, तत्येना भिक्खायरिया विचार गच्छती पाडणांत, चनहत्थ चउहत्था दीहा, चउडत्थवित्थारा, पया सव्वा वि पासगलका पुणो एक्केत्रका दुविधा । पच्चद्धं कंटं ॥ उ तं जो संजतीणं, गिट्टी हवा विप्रणतिरथणं । सिव्हावेती भिक्खु, सो पावति प्राणमादीषि ॥ ५२ ॥ तं संजतं। संजतेयं संघाडि जो आयरितो गिहत्थेण भरणतिरणवासियाति तस्मादियां दोसा | व संकि उहाको संहरिम्ना छ ।। ५३ ।। सो गिही अन्नतित्थी वा तत्य वसीकरणप्पयोग करेज्ज, अश्रेण वा पुडो-कस्स संतियं वत्थं । सो कधिज्ज संजती-संजतियं, ताढे तरस संको भवति, उद्दाहं वा करज्ज, नूणं को विसं बंधी अस्थि नेण एसो सिच्वेति, पमाणेण हीणमढीणं वा करेज्ज, तोमारे बावा संघाक कुब्जा वा अभियोगं परेश यं वज्जा, उप वा त्रिहो तत्थ परितावणादिनिष्फल उप्फोसणादि वा पच्छाकम्म कुज्जा, जम्दा पंत दोसा तम्हा मो विडी परिकर्ता अहि तु गणरो देति । गुज्जीवहिं तु गणिी, सिव्वेति जहारिहं मिलं तु|४| जं श्रतिप्यमाणं तं दिति च कुतिमादिणा परिकम्मियं भ 3 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थिय गुज्जेव तिथि का चहरो संघाडी तो पातं पाणिरोगो ब एवं गणहरो परिकस्मितं देति, सेसो गुन्जो वही तं गणिणी सरीरमाणं मिणि सिम्बेति, कारणे गिहि श्रमतित्थीण वा सिब्बाबोते ॥ ५४ ॥ (४७७) अभिधानराजेन्द्रः | वितिय पदमणिणे वा, निउणे वा होज्ज केवी प्रसहू । गणिगणहर गच्छे वा, परकरणं कप्पती ताहे ॥ ५५ ॥ गणी बाओ गहरो मायरियो भयो वा गच्छे को तो बाबु साह असोज्जा, गच्छे वा नरि कुसादे गिअतिथिणा वा सिध्यावैति । तत्थ इमो कप्पो पच्छाकसाचिग्गह- निरजिग्गहजद्दए य व मणी । गिभिछातित्पिण व गिहि पुर्व एतरे पच्छा। ५६ । पूर्ववत् सिन्यावणे इमो विही गाणं असती, संताणं गंतु सिवावे । पासहिय अवखित्तो, तो दोसे वंजणा ण जायति । ५७ । सो गित्यो अतिथियो का साहसमीयं सदपवती मा गतो सिन्वाविज्जति । जदि प्रभासागतो रा सन्नति, तो तस्स जं संवाणं तं गंतु सिग्वाविज्जति, जयखाप उपपदातो पुन्नत्थ संकामिज्जति, तस्स समीचे अवक्खितो वितो विसो वाता च चिट्ठति, जाव सिल्वियं, एवं पुव्युत्ता दोसा ण प्रवंति । ( ३३ ) संभोगः - जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उबहासे विस्वय, शिववंतं वा साइन | २० | मे भिक्खू प्रणवत्थिदेश वा गारत्थिष्ण वा सर्दि ज वा साइन २९ जे जिक्यू हथिया गारत्यिएहिं वा सद्धि यट्टिय परिवेट्टिय मुंज‍, जंतं बा साइज्जइ । ४० । शिया दिया था सिि माय प्रोष गतिविधि भावेदियो सम्बदिसं जितेस परयेद्वियो। मया मर्यादा बेतिः दिसि विदिसासुविच्मिट्टितेल परिवेष्टितः । भहवा एगपंती पसु भावेष्टितः, दुगादिसु ती धर्मता परिया परिवेति । गिहिष्मतित्थिरवि, सद्धिं परिवोतो व तं मजे । जे भिक्खू असणादी, इंजेन्ना प्रथमादीणि ॥ ६७३ ।। उत्थिसिद्धि जति चा परिवेद्वितो वा जति, तस्स भणादिया दोसा । प्रोमो चट पति विभागता - पुवं पच्छा संय, सोय सोयवाई य अदुगा वा । बना जनपदा, चरिमपदे दोहि वी गुरुगा ।। ६७६४।। पुष्पं संयामसोमवारी पच्छा संया (अमोय) प सुपर लड़गा (चउरो ति) ( जमलपदं ति ) काल तवेहि बिसेसिजति जाब चरिमपदं पच्छा संयुतो सोयवादी, तत्थ दिवि गुरुगं भवति । सुत्यीसु चऊ गुरुगा, चहुगा भएयासित्पीसु । १२० अमजत्थिय परउत्थिणि उग्गुरुगा, पुव्वावरसमणसत्तकं ॥ ६७५ ॥ पयासु चैव सुत्थीसु पुरं पच्छा असोय सोयासु चरगुरुगा कालतवेदिवसेसिता, पतेसु चेव श्रमतित्थियपुरिसेसु चसु - डुगा कालयविसिष्ठा, पयासु वेव परतित्थिनं सुरगुरुगा, पुध्वसंथुयासु समणीसु बेदो, (अवर ति) पच्छा संधुतासु समणीसु अट्टमं ति मूलं । अयमपरः कल्पः , अहवा विशालबके अपवास व चाहुगा । सुवि य दोस इत्थी - सुपालबद्धे चऊ गुरुगा || ६७६ ॥ मालवज्रेण पुरिसेण भणालचयेन व गहिताय श्रोषासमेव दो या दो विरयसम्महिष्ठिम्मि तेसु वि चउगुरुगा । प्रणालदंसणित्सुि, बल्लहु पुरिसे य दिट्ठ- आभट्टे । दिद्वितिय पुम आदि मेलानोई य उम्गुरुणा ।। ६७७ ।। इत्थीसु भणालबन्दासु भविरयसम्मद्दिट्ठिल, दिट्ठानद्वेसु पुरिसेसु, पतेसु दोसु वि बल्लहुगा, इत्थिसु दिठाभठासु, पुरिसंसुमदिन मेचिश) मानधाता (नोय (पु व्यभज्जा, पतेसु चचसु वि छग्गुरुगा । दिना थी, संजोइयसंजतीण बेदो य । श्रमसंजतीए, मूलं यी फाससंबंधा ।। ६७८ ॥ संजोयमंजती या दो ि तेश्रो ( अमष्यनि) असंभोइयसंजती मूलं इत्थीहिं सह अंतरस फासे संबंधो, आपपरोदोसा देहे संकाश्या य दोस जति संत तो मुसो तो अधिकरणं पुयं पच्छाकम्मे, एगतराहो । पामगढ़ कम्गदशे य अधिनं ।। ६७६ ॥ पुरे कम्मं संजतेण सह भो तव्वं. हत्थपादादिसुरं करे, संजतो भुंजिस्सह । अधिगतरं रंधावेति, पच्छाकम्मं कोवि एसोति सपेरा करेजवा डिजे संजय पा पहुष्यंते श्रपि रंधेज्जा, संजतो गिही वा एगतरो दुगु करेज्जा, बिलिंगभावेण वा उटुं करेज्जा, अषेण दिठे उड्डाहो भवति, कासादिरोगा या संमेज अधिकतरं दे पा श्रचियतं भवेज्ज । 1 तुम सिद्धिं तु बधिता दोसा । परिवरितो दिज तो चल मे दोसा ॥ ६८० ॥ परिवारितमज्जगते, सब्वपयारेण होति चड लहुगा । कुरुकुधकरणे दोसा, एमादिस उग्गमा होति ॥ ६८ ॥ मठितो जणस्स परिवारित्र जर भुंजर, अहवा समंता परिवारितो दोहं निरहं या जो भुजति, सम्प गारेहिं चड़लडुं गिहिभायणे य ण भुंजियव्यं । तत्थ भुंजतो प्रयाराम्रो भवति । कंसेसु कंसासुसिलोगो वाचमु मादिसु भुजंतस्स उड़ाहो भवति, कं चिय दवेण य उड्डाहो, इयरेण भ्राढकायाविराहचा बहुद्वेण कुरुकुरले उि नावादि दोसा, जम्दा एचमादी दोसा तदा स परिवेपि या न मुजियम्वं । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७ ) एणनत्थिय अभिधानराजेन्द्रः। अस्मतित्थियपवत्ताणुयोग विनियपदसेहसाहा-रणा य गेलम रायडेय। भएण (ब) गहण-अन्यग्रहण-न० । गानजाते मुखविश्राहार तेण अछा-ण सेहए न तत्येव ॥६२।। कारे गान्धर्विके, । " अन्नग्गहण ति गनग्गहस्स उमओ पुग्वं संथुप्रो पच्छा संथुश्रो वा पुब्वं एगभायणो पासी, स कराणरुंधेसु सरणीतो मरणतो सुवातसंगडीयासु य आणातस्स हेण श्रागतो जदि ण भुजति तो परिणमति , अतो यत्तं मुहं जंतं हवेज, अहवा अरणग्गहे गधविप्रो ति"। सेहेण संमें भुजति, परिवेद्वितो वि तेसागपसु मा तेसिं नि चू० १७ न०। संका भविम्सति-कि एस अप्पसागारियं समरिसति ति, प्राणजोग-ग्रन्ययोग-पु० । कार्यान्तरजननसंबन्धे,भनेकान्तअम्हे वा वि करेति मा बाहिरभावं गच्छपरिवेट्टितो भुजति । जयपताकावृत्तिविव० ४ अधि० । साहारण वा लब्धं, तंण चेव भुंजियव्वं । अह कक्खमंडिओ एणजोगववच्छेद-अन्ययोगव्यवच्छेद-पुं० । अन्ययोगस्य ताहे घेत्तुं तीरं भुजति । अह दाया भदेति ताहे तोहं चेव । सद्धिं परिवुडो वा भुजति,गिलाणो वा वेज्जस्स पुरतो समु कार्यान्तरजननसंबन्धलकणस्याभावे , अनेकान्तजयपताकाहिसेज्जा, जयणाए कुस्कुयं करेज्जा,रायदुट्टे रायपुरिसहि णि. वृत्तिविव०४ अधि०। ज्जतो तेहिं परिवेटुितो भुजेज्ज । श्राहारतेणगेसु तेसिं पुरो | प्राणजोगववच्छेयवत्तीसिया-अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाभुजेज्ज,अद्धाण तेण सावयभया सत्थस्स मज्झे चेव भुजति। स्त्री० । श्रीमलिषणविरचितस्थादमञ्जास्यवृत्तिवितूसहागं सव्वेसि एक्कावसही होज्जा,वाहिमादिभए जणण सह पिते श्रीहेमचन्छसरिविहिते निःशेषदुर्वादिपरिषदथिकेपकंदराइसु अत्यति। तत्थ तेसिं पुरतो समुदिसेज्जाओमे कहिं दके द्वात्रिंशत्पद्यमये प्रन्थे, श्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिकवि सत्ताकारे तत्थेव भुजंता ण लम्भति,भायणसुण लन्भति। श्रीसिकसेनदिवाकरविरचितद्वात्रिंशकानुकारि श्रीवर्षमानजितत्थेव भुजेज्जा सागारिए एक्को परिवेसणं करे, वहुमाइसु नस्तुतिरूपमयोगव्यवच्छेदान्ययोगव्यवच्छेदाभिधानं द्वात्रिंशदू संतरं संभुजंति, गाउं दुविण दवेण कुरुकुयं करे। सब्वेसु। द्वात्रिंशकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्तत्त्वावबोधनिबन्धनं विदधे । जहासंभवं एसा जयणा । नि० चू० १६ उ०। स्या०। (कुतीथिकैः श्रीवारेण सह अययायश्चिन्तितः । यथा अमनस्थियदेवय-अन्यपथिकदैवत-न०१६ त०। परतीर्थिक-| श्रीवीरो यथार्थवाद। तथा ऽन्ये ऽपि सौगतादयो देवाः यथार्था पूज्येषु हरिहरादिषु देवेषु, उपा०१०। औ । प्रा०पू०। प्रति. वादिनस्तेषां व्यवच्छेदो निषेधः अन्ययोगव्यवच्छेदः) [स्यादअम नात्थियपरिग्गाहिय-अन्ययथिकपरिगृहीत-त्रि० । तीर्था पादमजी टिप्पणी] प्राणजोसिय-अन्ययोषित-सी० । परकीयकलत्रेषु, मनुष्यान्तरीयैः पूज्यत्वादिनाङ्गीकृतेऽर्हचैत्यादौ , उमा १०।। णां देवानां तिरश्चां च परिणीतसंगृहीतभेदमिचेषु कसत्रषु, अन्ययूधिकास्तदेवतानि,तत्परिगृहीतानि वा अहश्चत्यानि,श्राव ध०२ अधि० । को न बन्देत् । तदुक्तं सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमानेनाऽऽमन्वेन-"णो खलु नंते ! कप्पर अज्जप्पनिर अमावत्थिया वा अमाउत्थिय- अएण (ब)म(ब)-अन्योन्य-त्रि० । अन्यशब्दस्य कर्मव्यदेवयाणि वा अएणउत्थियपरिम्गाहियाणि वा अरिहंतचेझ्याई तिहारे द्वित्वम् , पूर्वपदे सुश्च । “ोतोऽद वाऽन्योन्य." ।। वंदिसए वा णमंसित्तए वा" उपा०१ अ० औ०। अन्ययूथि- १॥५६॥ श्त्यादि-सूत्रेण अत्वं वा । परस्परार्थे , प्रा० । कपरिगृहीतानि वा अईश्चत्यानि अईत्यतिमालवणानि यथा भी. अल (ब) त (य) र-अन्यतर-त्रिका अन्य-इतर । बहूनां मध्ये तपरिगृहीतानि वीरभरूमहाकालादीनि । उपा०१०पाचू एकतरे, औ०। “अायरेसु भाभियोगसु देवलोगसु देवत्ताए एणो (तो) (दो)-अन्यतम्-अव्य० । अन्य-तसिन् । उववज" अन्यतरेषु केषुचिदित्यर्थः । भ०१श०१ उ०। नि० "तो दो तसो वा" ॥२॥ १६०॥ इति सूत्रेण तसः स्थाने तो चू० । "अमायरे वा दीहकालपडिबंध एवं तस्स न भव" दो इत्यादेशौ, पक्षे दसोपश्च । प्रा० ।“नहु दाहामि ते निक्खं, जं. वक्तानि चू० । उत्स० । “अम्पयरेसु देवलोगेस" निक्खू जायाहि अण्णो " । न हु नैव दास्यामि ते तुज्यं अन्यतरदेवानां मध्ये इत्यर्थः । स्था० ४ ठा०१ उ०। आचा। भिक्षा याचस्व अन्यतोऽस्मद्व्यतिरिक्तान् । उत्त०१०।। अस्पतरग-अन्यतरक-पुं०। एकस्मिन्काले भात्मपरयोरन्यमन्यअम्पकाल-अनकाल-पुं० सुत्रार्थपौरुभ्युत्तरकालं भिकाकाले, तरं तारयन्तीति अन्यतरकाः। अन्यतर- अण् । पृषोदरादित्वाद् "अयं अन्नकाल, पाणं पाणकावे" सूत्र०२ श्रु० १ ० । हस्वः, स्वार्थे कः । तपोवैयावृत्यविषयकसामर्थ्याऽभाषेन केवअम्मक्खाण-अन्वाख्यान-न० । अन्वादेशे, श्रा०म० प्र० । समुन्नयं युगपत्कर्तुमशक्नुवत्सु एकस्मिन् काले मात्मपरयोरेकतरं अम्मगुण-अन्यगुण-त्रि०ा चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणा तारयत्सु प्रायश्चित्ताहपुरुषेषु , व्य०१ उ० । नि। अचेतनेषु, "पंचएहं संजोए, अप्रगुणाणं च चेयणा गुणो" | अम्मतित्यिय-अन्यतीर्थिक-पुं० । चरकपरिवाजकशाक्याप्राधारकाग्न्यिगुणा पृथिवी । मूत्र. १ श्रु० १० १००। । जीवकवृकश्रावकप्रनृतिषु, निवृ०११ उ०। निचुभौतिकाएण (त्र) गोत्तिय-अन्यगोत्रीय-पुंस्त्री० । गोत्रं नाम दिषु वा, ध० २ मधिः । परदार्शमिकेषु, आव० ६ ०। तथाविधैकपुरुषप्रनवो वंशः । अन्यच्च तद् गोत्रं चान्यगोत्र | अम्मतिथियपवत्ता)ोग-अन्यतीर्थिकप्रवृत्तानुयोग-पुं० । तत्र जवा अन्यगोत्रीयाः। अतिचिरकालव्यवधानवशेन त्रुटिसगो- | अन्यतीर्थिकभ्यः कापिलादिन्यः सकाशाद्यः प्रवृत्तः स्वकीयाचात्रसंबन्धेषु, ध०१अधिक । वैवाह्यमन्यगोत्रीयः, कुलशीलसमैः रवस्तुतत्वमनुयोगो विचारः, तत्करणार्थ शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्थः, समम्घ०१अधिः । सोऽन्यतार्थिकप्रवृत्तानुयोग इति । पापश्रुतनंद , स०२६ सम०॥ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) अमत्तभावणा अभिधानराजेन्डः। अमममकिरिया अत्तजावणा-अन्यत्वजावना-स्त्रीका देहादेरात्मनो भेदतुकी, | थिके, वृ०३०। शाक्यादौ, गृहस्थे च । स्था०३ ग०४ मा "जीवः कायमपि व्यपास्य यदहो ! लोकान्तरं याति तद | एणपर-अन्यपर-त्रि०अन्यरूपतया परस्मिन् अन्यस्मिन् , भिन्नोऽसौ वपुषोऽपि कैव हि कथा द्रव्यादि वस्तु व्रजेत् । यथा एकाणुकाद् व्यणुकच्यणुकादि, एवं व्यणुकादेकाणुकव्यतस्माल्लिम्पति यस्तनुं मलयजैर्यो हन्ति दण्डादिनि णुकादि । आचा०२ श्रु०१२ अ० । यः पुष्णाति धनादि यश्च हरते तत्रापि साम्यं श्रयेत ॥ १ ॥ अण्णपरिनोग- अन्यपरिजोग-पुं० । स्वाद्यादिसेवने , पं० अन्यत्वनावनामेवं, यः करोति महामतिः । तस्य सर्वस्वनाशेऽपि, न शोकांशोपि जायते" ॥॥ प्रव०६७ व. २द्वा०। द्वा०। ध० । अएणपुरण-अन्नपुण्य-न। अन्नात्पुण्यमन्त्रपुण्यम । पात्रायानअपत्य-अन्यत्र-अव्य० । परिवर्जने, यथा “अन्यत्र भीष्मझो दानात्तीर्थकरनामादिपुण्यप्रकृतिवन्धरूपे पुण्यनेदे, स्था०६ 10 णान्यां,सर्वे योधाः पराङ्मुखाः" "अम्मत्थऽणानोगेणं सहसा एणपमत्त-अनप्रमत्त-त्रि० । अन्नार्थ प्रमत्तः। नोजनकरणागारेणं" इत्यत्र अन्यत्र अनाभोगात्सहसाकाराचापती वर्जयि- सक्ते, उत्त०१४ ० । त्वेत्यर्थः। ध०१ अधिः। “अणत्थ कत्थ" अन्यत्र कुत्रचिद् व- अन्यप्रमत्त-त्रिका अन्ये सुहृत्स्वजनादयस्तदर्य प्रमत्तः। उत्त० स्त्वन्तरे, विपा० १ ०२ अ० । आ००। "एणत्थ कस्था मणं अकुश्वमाणे " अन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन् । अनु। १४ अ० सुहृत्स्वजनमातृपितृपुत्रकलत्रमात्रादीनां कार्यकरणा सक्त , “प्राणप्पमत्ते धणमेसमाणे , पप्पोति मच्चु पुरिसो अन्यार्थ-पुं० । वा दुगभावः । भिन्नाथें , अन्योऽर्थः अनिधेयं जरं च" उत्स० १४ अ०। प्रयोजनं वाऽस्य । भिन्नानिधेयवाचक शब्द , भिन्नप्रयोजनके पदार्थ च । त्रि० । वाच । एणवेलचरक-अन्यवेलाचरक-पुं० । अन्यस्यां भोजनकाला पेक्कया प्राद्यावसानरूपायां वेलायां समये चरतीत्यादिकालाअन्वर्थ-पुं० । अनुगतोऽर्थम् । अत्या० स०। अर्थानुगते व्युत्प निग्रहविशेषविशिष्टे निको, स्था० ५ ० १ उ०। त्तियुक्ते शब्दे, वाच० "वियमपत्थे तयत्यनिरवेक्वं" विवक्ति एणनोग-अनभोग-पुं० । खाद्यादिरूपे नोग्यपदार्थे , “अताद् नृतकदारकादिपिएमादन्यश्वासावर्थश्चान्यार्थो देवाधिषादिः। सद्भावतस्तत्र यस्थितं नृतकदारकादौ तर्हि कवी एणभोगेहि लेणभोगेहि " औ० । श्त्याह-तदर्थनिरपेकं तस्येन्द्रादिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः, परमेश्व- ममता-अन्योन्य-त्रिणअन्यशब्दात् कर्मव्यतिहारेद्वित्वं, सुश्च यादि , तस्य निरपेकं संकेतमात्रेणैव तदर्थशून्ये नृतकदारकादौ | "श्रोतोऽद्वाऽन्योन्यप्रकोष्टातोद्यशिरोवेदनामनोहरसरोरुहे तोवर्तत इति पर्यायानभिधेयं स्थितमन्याय अन्वर्थे वा तदर्थ- श्ववः"।११५६॥ इति सूत्रेण श्रोतः अत्त्वम्। मकार आगमिकः। निरपेकं यत् कचिद् तृतकदारकादौ इन्सानिधानं क्रियते परस्परशब्दार्थ, का० अ०रा० श्रा०म०प्र० भ०। प्रातन्नामेतीह तात्पर्य्यार्थः । विशे० । चा० । उत्त। चं० प्र०) अनु० । स्था० । मूत्र० । “अम्ममएणप्रमत्थगय-अन्यत्रगत-त्रि। उत्तस्थानद्वयव्यतिरिक्तस्था- मपुरत्तया एणमएणमणुब्बया अण्णमाणदाणुवसया - नाश्रिते , भ०७० 10 प्रज्ञापककेत्राइवस्थापनाचापरत्र एणममहियच्चियकारया अममएणसु गिहेसु किच्चाई करस्थिते, भ० ६ श•ए उ०। णिजाई पच्चणुभवमाणा विहरति ।" (जिनदुत्नसागरदत्तअमत्थजोग-मन्वर्थयोग-पुं० । अनुगतशब्दशब्दार्थसंबन्धे , पुत्रयोमिथोऽनुरागवर्णकः)अन्योऽन्यमनुरक्तौ स्नेहवन्तौ,अतए. वाऽन्योऽन्यमनुव्रजतः इत्युनुवजन्ती, एवं ग्न्दानुवर्तको अनिप्रापश्चा० १२ विव० । यानुवर्तिनौ,एवं हृदयेप्सितकारको। (किच्चाईकरणीया ति) कएणत्था-अन्व-स्त्री० । अर्थमनुगता या संज्ञा सा अन्व. र्तव्यानि प्रयोजनानीत्यर्थः। अथवा कृत्यानि नैत्यिकानि, करणीा । अर्थमङ्गीकृत्य प्रवर्तमानायां संझायाम, कथम, शह यथा यानि कादाचित्कानि, प्रत्यनुलवन्तौ विदधानी । ज्ञा० २५०। भास्करसंका अन्वर्था । कथमन्वर्था ?। भासं करोतीति भास्कर "अम्मममं खिज्जमाणीओ विव" । परस्परं चक्कुषाऽऽलोकननोइति यो नासनार्यस्तमङ्गीकृत्य प्रवर्तत इत्यन्वर्था । आ० वनोकनेन य शाः संश्लेषास्तैः खिद्यमाना श्व । रा०। स्था॥ चू०१ अ०। "श्रममप सेवमाणा" अन्योऽन्यस्य परस्परस्यासेवनया;ब्रह्माएणदेसि (ए )-अन्यदर्शिन-त्रिका अन्यद् द्रष्टुं शीलम भितभोगेन क्वचित्पाठः। प्रश्न०४ श्राश्र0 द्वा० । “अम्मममं स्थत्यन्यदर्शी । अयथावस्थितपदार्थषष्टार, प्राचा० १७० करेमाले पारंचिए" अन्योऽन्यं परस्परं मुम्बपायुप्रयोगता २०६०। मैथुनं कुर्वन् पुरुषयुगमिति शेषः । उच्यते-"आसप्पपोसयअएणदत्तहर-अन्यदत्तहर-० । अन्येन दत्तं हरतीति राजा सवी, के विमणुस्सा दुवेयगा होति ।तेसिं लिंगविवेगोत्ति"। स्था०३ ठा०४ उ०वृष जीता ('पारंचिय' शब्देऽस्य व्याख्या) दिनाऽन्यज्यो वितीर्णस्यापान्तराल एव दके, “अण्णदनहरे तेणे, माई कम्नु हरे सदे" उत्त० ७ अ० । अमममकिरिया-अन्योन्यक्रिया-स्त्री० । परस्परतः साधुना एणदाण-अन्यदान-न । अशनादेरन्यस्मै दाने, “नो ति- कृतप्रतिक्रियया विधेयायां रजःप्रमार्जनादिकायो क्रियायाम, विहं तिविहणं, पश्चक्खा एणदाणकारवणं" पं०व०१द्वारा। अन्योन्य क्रियाश्च अन्योन्यक्रियाः । सप्तके दर्शिता यथाभएणधम्मिय-अन्यधार्मिक-जैनधर्मादन्यस्मिन् धर्म व से भिक्खू वा निक्खुणी वा अमममकिरियं अज्झ-- तते इति, मिथ्यारष्टी, मोघ । परधार्मिके, वृ०४०। परंती- स्थिर्य संसेश्यं णोतं सातिए णो संणियमे, से एणमएरपो Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) अमममकिरिया श्रानिधानराजेन्द्रः। अमममकिरिया पाये आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वाणो तं सातिए णोतं | साइज्जइ ॥२६॥ जे जिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स कार्य अ. णियमे, सेसतं घेव, एवं खबु तस्स निक्खस्स वा निक्खु- यण उत्थिएण वा गारस्थिएण वा फूमावेज्ज या, स्याएज्ज पीए वा सामगियं सत्तममो सत्तिको सम्पत्तो ॥ वा,मखावेज्ज वा, फूमावतं वा रयावंतं वा मंखावंतं वा साक्रिया रजःप्रमार्जनादिकास्ता अन्योन्यं परस्परतः साधुना इज्जइ ॥२७॥ जे भिक्खू पिग्गंथे णिग्गंथस्स कायंसि वर्ण कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योऽन्योन्यक्रियास- एणउत्थिएण वा गारथिएण वाआमज्जावेज वा, पमसैकक इति । प्राचा० २ श्रु० १३ १०। जावेज वा,श्रांमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइजइ ।।श्ना जे भिक्खू पिग्गये जिग्गंथस्स पाए एणनस्थिएण जे जिक्खूणिगंये णिग्गंयस्स कार्यसि वणं अमनस्थिवा गारथिएण वा आमज्जेज वा, पमज्जेज वा, आमजतं एण वा गारथिएण वा संवाहिजावेज वा, पलिपदावेज वा पमज्जतं वा साज्जा ।१६। जे जिक्खू णिग्गये णि वा संवाहिज्जावंतं वा पलिमहावंतं वा साइज्जइ ॥३॥ गंथस्स पाए प्राणनत्थिरण वा गारस्थिएण वा संवा जे जिक्खणिगंगये दिग्गंथस्स कायंसि वणं एणनस्थिहेज्ज त्रा, पलिमदेज चा, संवाहतं वा पलिमहंतं वा सा एण वा गारथिएण वा तेझेण वा घरण वा वमेण वा इउजय ॥१७॥ जे जिक्खू णिगंये णिग्गंथस्स पाए भएण वसारण वा एवणीएण वा मंखावेज्ज वा, भिलिंगावेज्जवा, उत्यिएण वा गारत्यिएण वा तेक्षेण वा घएण वा वाणेण मंखावंतं वा जिलिंगावतं वा साइज्ज ॥३०॥ जे भिक्ख वा वसारण वा णवणीएण वा मंखेज वा, जिलिंगेज्ज वा, जिग्गये णिग्गयस्स कायसि वर्ण अण्णउत्थिएण वा गारमेखतं वा भिलिंगतं वा साइज्जइ ॥१८॥ जे निक्खू णि'ग्गंथे णिगंथस्स पाए एणत्यिएण वा गारथिएण वा थिएण वा लोदेण वा ककेण वा एहाणेण वा पउपचुप्पण वानप्लोण वा सिणीहाणेण वा उबट्टावेज वा, परिवट्टावेज्ज लोद्रेण वा कक्केण वा एहाणेण वा पनुमचुम्मेण वा वमेण वा उद्घोलेज वा, उन्बट्टेज वा, उल्लोलतं वा उबटुंतं वा साइ वा, उन्बट्टावंतं वा परिवठ्ठावन वा साइज्जइ ।३१। जे भिक्ख जह ॥१॥ जे जिक्खू णिग्गये णिग्गयस्स पाए अएउ णिग्गथे णिगंथस्स वा कायंसि वणं अमनस्थिएण वा त्यिएण वा गारत्यिएण वा सीओदगवियोण वा उसि- गारथिएण वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण णोदगवियडेण वा उच्चोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा, उच्छो या उच्छोलावेज वा, पधोवावंज्ज वा, नगेलावंतं वापधोवालंतं वा पोवतं वा साइज्ज ॥२०॥जे जिक्र णिग्गये वंतं वा साइज्जइ ॥३शाजे जिक्खू णिगंथे णिग्गंथस्स काणिगंथस्स पाये अमउत्थिरण वा गारत्थिरण वा फ- यंसि वणं अण्णउत्यिएण वा गारथिएण वा मावेज वा, मेज्ज वा, रएज्ज वा, मखेज्ज वा, फूमंतं वा रयंतं वा मवंत रयाएज वा, मखावेज्ज वा,फूमावंतं वारयावंतं वा मंखावतं वा साइज्ज॥॥ जे निक्खू णिगंथे णिग्गंयस्स कार्य वासाइज्जइ॥३३॥ जे जिम्वणिग्गये णिग्गयस्स कार्यसि एणनस्थिएण वा गारथिएण वा आमज्जावेज वा, पम- एउत्यिएण वा गारस्थिएण वा गं वा पलियं वा ज्जावेज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइज्ज ।श्श अरियं वा आसियं वा नगंदलं वा अप्लयरेण वा तीखेजे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंधस्स कायं अएणउस्थिएण वा ण वा सत्यजाएण वा अच्छिदावेज्ज वा, विच्चिदावेज गारथिएण वा संवाहवेज्जा वा, पलिमदावेजावा, संवा- वा अच्छिदावंतं चा विञ्छिदावंतं वा साज्जइ ॥ ३४॥ हवेज्जावंतं वा पझिमहावेज्जावंतं वा साइजहाजेभिक्खू। जे जिक्खू णिग्गंथे जिग्गंयस्स कार्यसि अएणउत्यियएण णिगंथे णिग्गंथस्स कायं अएणउत्थिएण वा गारत्यिएणवा गारथिएण वा गंडं वा पक्षियं वा अरियं वा भसियं वा तेोण वा घरण वा बएणेण वा वसारण वा वणी- या नंगदलं वा अपणयरेण वा तिक्खण वा सत्थजाएण एण वा मंखावेज वा, जिलिंगावेज वा, मंखावंतं वा चा मच्छिदावेज वा, विचिदावेज वा, पूर्व वा सोणियं निलिंगावंतं वा साइज ॥ २४॥ जे जिक्खू णिग्गंथे| वाणीहरावेज वा, विसोहियाएज्ज वा, णिहरावंतं वा णिग्गंथस्स कार्य अएणउत्थिरण वा गारथिएण वा लो | विसोहियावंतं वा साइज्जइ ॥ ३५॥ जे निक्खू णिग्गंथे केण वा ककेण वा एहाणेण वा पउपचुप्मेण वा वएणेण णिग्गंयस कार्यसि अम्पत्थिएण वा गारथिएण चा गं वा सिहाणेण वा उबट्टावावेज्ज वा, परिवद्यावावेज वा, वा पलिय वा अरियं वा असियं वा भगदलं वा भएणयउबट्टावावंतं वा परिवद्यावावंतं वा साइज ।२५। जे जिवाबू रेण वा तिक्खेण वा सस्थजाएण अच्चिदावेज्ज वा, विधिणिग्गंथे जिग्गंथस्स कार्य भएणउस्थिएण वा गारस्थिएण | दावेज वा, पूर्व वा सोषियं वाणीहरावेज्ज वा, विसोहियावा सीमोदगवियडेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छो- वेज्ज वा, सीओदमवियडेण वा उसिणोदगवियमेण वा लावेज वा.पधोवावेज्ज वा, मच्छोलावंतं वा पोवावंतवाजच्छोलावेज्ज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावतं वापधोवा Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०१ ) अभिधान राजेन्द्रः / श्रममा किरिया तं वा साइज्जइ || ३६ || जे भिक्खु सिग्गंथे णिग्गयस्त कार्यसि उत्रिण वा गारत्थिए वा गंवा पलियं वा अरियं वा हावा असयं वा भंगद वा अरण्यरेण वा तिक्रखेण वा सत्य जाएण वा दिज्ज वा, विच्छिदावेजवा, पूर्व वा सोणियं वा णीहराएज्ज वा, विसोहियावेजवा, एयरेण वा आलेवणजाए वा विझेत्रणजाएवा पितं वा विलिंपावतं वा साइज्जड़ ||३७|| जे भिक्खू शिन्गंयेग्गिंथस्स कार्यसि श्रमउत्थिएण वा गारत्थिर वा गं वा० जाव अमरेण वा आले वणजाएतेले वा० जाव साइज्जइ ||३८|| जे भिक्खू णिग्गंथे furiate कार्यसि मनस्थिए वा गारत्थि एण वा गंम वा पलियं वा परियं वा असियं वा जंगलं वा अपरेण वा तिक्खेण वा सत्य जाएण अच्छिद वेज्ज वा विच्छिदावेज वा यं वा सोणियं वाणीहरावेज्ज वा, विसोहियाएज्ज वा, अपरेण वा धूवेण जीवाए धूवावेज वा, पधूवावेज्ज वा, धूवात वा पधूवावतं वा साइज्जड़ || ३ || जे भिक्खू लिग्गंथे frieसपालु किमियं वा कुच्छिकिमियं वा उत्थि एण वा गारत्थि एण वा अंगुलीयाए निवेसिय २ णीहरा वेज्ज वाणी वा साइज्जइ ॥ ४० ॥ जे जिक्वू णिग्गंथे uिires दीहाउएह सिहान अएणउत्थिए वा गारथिए वा कप्पवेज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पार्वतं वा सं वासाज्ज || ४१|| जे भिक्खु सिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई व रोमाई उत्थिर वा गारस्थिए वा कपावेन वा, संवावेज वा, कप्पावतं वा संठावंत वा साइ ज्जइ ॥ ४२ ॥ जे भिक्खू णिग्गंथे गिंथस्स दाई रोमाई उत्थिए वा गारत्यिएए वा कप्पाबेज्ज चा, संज्ज वा कप्पातं वा मंत्रावतं वा साइज्ज‍ ||४३|| जे जिक्वू णिग्गंथे णिग्गंथस्य दोहाई सीसकेसाई उत्रिण वा गारत्यिरण वा कप्पावेज वा, संगवेज वा कप्पा वा मंठावंतं वा साइज्जइ ॥ ४४ ॥ जे भिक्खू गिंयेग्गिं यस्स दीहाई करणरोमाई श्रएणन स्थिरण वा गारस्थिए वा कम्पावेज्ज वा. संतावेज घा, कप्पा वा वा साइज्जइ ||४|| ने निक्ख णिग्गंथे णिग्गंथस्स दोहाई जुरोमाई अम्मउत्रिण वा गारतिय वा कष्यावज्ज वा, संतावेज्ज वा, कप्पातं वा संवा साइज || ४६ || जे भिक्खु लिग्गंये लिगं - यस्स दीहाई पित्ताई अस्थिर वा, गारत्थएवा, कप्पवेज्ज वा, संठावेज वा कप्पावत वा संदावत बा साइज ||४७|| जे जिक्खू णिग्गंये णिग्गंथस्स दीहाई क्रोमाई अप्पर स्थिए वा गारस्थिष्ण वा कप्पा वेज्ज वा १२१ For Private समकिरिया संतावेज वा कप्पातं वा संठावंतं वा साइज | ४८ जे जिक्खू ग्गिंधे पियन दीहाई णकरोमाई अम्मउ० गारस्थि० कप्पवेज्ज वा, संठावेज्ज वा, कप्पावनं वा संवा वासाइज्जइ ||४|| जे निक्म्बू णिग्गंथे णिग्गंथस्स दीहाई मंसृरोमाई उत्थि० गारस्थि० कप्पावेज्ज वा, संत्रा वेज्ज वा, कप्पा वा साइज्जइ ॥ ५० ॥ जे जिक्खू णिग्गंथेग्गिंथस्स दीहाई कक्खरोमाई एण्ड० गारस्थि० कप्पावेज वा, संठावेज वा, कप्पावत वा संठातं वा साइज्जइ । ५१ । जे भिक्खू ग्गिंथे लिग्गंयस्स दीहाई पासरोमाई अएन० गारत्थिएण वा कप्पावेज्ज वा. संवावेज्ज वा, कप्पावंत वा संज्ञावतं वा साइज्जइ । ५२ । जे निक्खू ग्गिंथेगिंयस्स दी हाई उत्तरउडाई अरणउ० गारस्थि० कप्पावेज वा संठावेज वा कप्पावतं वा संठतं वा साइज || ५३ ।। जे भिक्खू ग्गिंथे णिग्गंथस्स दंते अण्णउ० गारस्थि० अघसंवेज वा पघसंवे " वाघ वा संतं वा साइज्जइ ||५|| जे भिक्खू ग्गिंथे णिग्गंथस्स दंते वा एड० गारस्थि० सीओ. दगत्रियण वा नसिणोदगवियमेण वा उच्चोलावेज वा, पघोवावेज्ज वा, उच्छोलावंत वा पधोत्रावतं वा साइज्जइ | २५ | जे निक्खू ग्गिंथे णिग्गंथस्स दंते अम्म उत्थिए० गारथिए वा फूमवेज्ज वा, रया वेज्ज वा, मंखाबेज्ज वा, " मातं वा स्यातं वा मंखावतं वा साइज्जइ ॥ ५६ ॥ जे निक्खू णिग्गंथेग्गिंणस्स उट्टे उ० गारत्यि० ग्रामज्जावज्ज वा पमज्जावज्ज वा, आमज्जावतं वा पमज्जासाइज्जइ ॥ ५७ ॥ जे भिक्खू णिगये ग्गिंथस्स उड़े अएड० गारत्थि संवादिवावेज्ज वा पलिमद्दावेज्ज वा, संवाहिवातं वा पलिमद्दानंतं वा साइज्जइ । ५८ | जे निक्खू ग्गिंथे णिग्गंथस्स उडे उ० गारत्थि० तेण वा घर वा पेण वा बसाए वा एवीएए या मखाज्ज वा, निलिंगवेज्ज वा, मंखावंत वा भिझिंगतं वा साइज्जइ । ५७ । जे भिक्खू ग्गिंथेग्गिंथस्स उडे उ० गारस्थि० सोदे वा ककेण वा एहाणेण वा पमचुपेण वा वणवा उञ्जोलावेज वा, उब्वट्टावेज्ज वा, उल्लोलावंतं वा उव्वट्टावंतं वा साइज्जइ ॥ ६० ॥ जे भिक्ja गिंयेग्गिंथस्म उट्टे असउ० गारस्थि० सीओदगवडे वा उसिणीद्गत्रियमेण वा उच्छोलावेज्ज वा, पधोवावेज्ज वा, उच्छोलावंतं वा पधोवावनं वा साइज्जइ | ६१ | जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथस्स उट्टे उ० गारत्थि फूतावेज्ज वा रयाएज्ज वा पंखात्रेज्ज वा, मानं वारयावतं वा मंखावंतं वा साइज्जइ । ६२ । जे , " Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) अमममकिरिया अभिधानराजेन्द्रः । ममममकिरिया जिक्खू णिग्गये णिग्गंधस्म अच्छिणि अमन० गारत्यिक परओ वा फासैण भावसंबंधो वेज्ज, ताहे पडिगमणं अएण. आमज्जाज्ज वा , पमज्जावेज्ज बा, आमज्जावंत वा तिथियादी दोसा,प्रहवा फास उज्जो शुत्तमोगी सा पुव्यरयादि संभरिउजा, अहवा चितिज्ज-परिसो मम भोश्याए फासो परिपमज्जावंतं वा साइज्जइ।६३ जे भिक्खू णिगये णिग्गं सी वा मम भोडया प्रासी, अनुत्तभोइस्स इस्थिफासेण कोडथस्स अच्छिाण एउ० वा गारत्यिए वा संवाहिया- यादि विनासावेज वा,पसिमदावेज्ज वा,संवाहियावंतं वा पतिमद्दावंतं वा | दीहं वणीमसेज्जा, पुच्छा कहि एरिसेण कहि एणं । साइजाने निक्खू णिग्गंथे जिग्गयस्स अच्छिणि अ ममनाइया एरिसी, सा वा चलणे बदे एवं ॥ १३ ॥ एणनगारस्थि० तेवेण वा घरण ना बसाएण वा णव. यो वा संजो संजतीयाए पमज्जमाणीप दहिं णीससिज्जा, गीण वा मंचावेज वा, निलिंगावेज वा. मंस्वावंत वा जाहे सो पुच्चगति-किमेयं दीदंते नीससिय? | सोभणाति-कि भिलिंगायत वा साइजड़।६। जेनिक्खू णिगये णिग्गंथ- | परिसेण भणाति कर्टि एणं तिनिबंधेकडेशमम भाश्या परिसी म अचिणि लोण वा कक्केण वा एहाणेण वा पनुमचुहो- | तुमं वी सा वा चणे पमजंती दी णीससेजा, पुच्चा कहं गं ण वा वश्रेण वा उरोलावेज वा, उबट्टावेज वा, उल्लोलावंत च एवं चेव पते संजतिहिं दोसा ॥ १३ ॥ वा नम्वट्टावतं वा साइजः ।६६। जे भिक्खूणिग्गये णिग्गं एते चेव य दोसा, असंजतीयाहि पच्चकम्मं च । थल अगिण एउ० गागत्यि० सीओदगवियडेण वा आतपरमोहुदीरउ, पानसत्तहु सुत्तस्थपरिहाणी ॥१४॥ जसिणोदगवियमेण वा उच्छोलावेज वा, पोवावेज वा, गिदत्थी अतिरित्तदोसा पच्चाकम्मं हत्ये सीतोदकेण प. उच्छोलावंतं वा पधांबावंत वा साइजइ।६७ जे निरखू णि खावेजा, पादत्रामज्जणादीहि य उचलवेसस्स मप्पणो मोहो उदिज्जेजा-सोजामि वा अहंको मे परिसकामोति तिगव्योहग्गथे णिग्गयस्स अच्छिाणि अएण उत्यिगारत्यि० फूमावा वेज्ज, तं वा मज्जलवेसंदटुं प्रोसि इत्थियाणं मोहो उदिज्जेज्ज, एज वा,रयाएज वा,मंखावाए ज वा, फूमावावंतं वारयात सरीरपानसत्तं च कतं नवति, आव तं करेति ताव मुत्तत्थपवा मंखावावंतं वा साइज्जइ ६७ जेनिक्खू णिग्गथे णिगं. लिमंथो ।। १४॥ यस्स अप उ० गारत्यिअच्छिमलं वा कएणमन्नं वादंतमन्नं . संपातिमादिधातो. विवज्जियो ने च योगपरिवाओ। वा हमलं वाणीहरावज्ज वा० जाव साइज्जइदए। जे| गिहिएहि पच्चकम्म, तम्हा समणेहिँ कायव्वं ।। १५॥ भिक्ख ग्गिये पिगंथस्स कायाउसेयं वा जलं वा पंकं पमजमाणं संपातिमे अभिधाएज्ज अजयत्तणेण (विवज्जितो वा मखं वा एणउ० गारत्यिक कोहरावेज्ज वा, विनो- ति)साधुणा विभूसापरिवज्जिपण होयग्वं । भणियं च-" विसा हावंग्ज वा जाव साइज्जइ ७० जे भिक्खू णिग्गये णि इत्यिसंसग्गी,,नि सिलोगो । एयस्स विवरीयकरणे भं भवे मोगपरिवादीय,जारिस सवेज्जगहणं परिसेण अनिवृत्तेन भविगंथस्स गामाणुगाम दुइज्जमाणे भएणउत्यिएण वा गार तव्यम,एवमादिशत्थिसु दोसा गिहत्थपुरिसेसु वि इत्थिफात्यिएण वा सीमनारियं करावेद,करावंतं बग साइजहा७१। सादिया मोनुं पते वेव दोसा, पच्चकम्मं च । श्मे य दोसाभामजनं सकृत,पुनः२ प्रमार्जनम,(जा समणि)गाहा। भादिम अजयंते पप्फोडे, ते पाएग उप्पीलणं च संपादी। हाओ बंधणादिसुत्ता पंत्र, कायसुत्तार, वणसुत्ता छ, गंगसुत्ता वामुकिमिसुतं गहसिहारोमराईमंसुसुतंच , पताणि उत्तरो. अतिपेल्लणाम्म आता, फोडणं खय अहिनंगादी।। १६ ॥ टुणासिगासु संच अधिणामजणसुत्ता तिमि मुहसुत्तं सय संजो अजयणाए पफोतो पाणे अभिहणेज्ज, बहूण याद. सुसं अधिमत्रा सुसं, सोसवारियसुतं च । पते उत्ताहीसं वेण धावतो पाणे अप्पीलायेज्ज वा,खिनुबंधे वा संपातिमा पसेसुत्ता तति आहेसगगमण भाणियवा । तस्य सयंकरण व पुण उजहा। एस संजमविराहणा प्रायविराहणाइमा-तेण गिक्षिणा णिम्गयोण समणम्स असतित्थिरण वा गारस्थिपण या कारवेति प्रतीव पेनिनो पादो,ताहे संधी वि करेज,फोडणं ति मित्धरत्ति ससा इमं अधिकयसुत भएणंति हल्लेग्जा, जहादिणा वा खयं करंज्ज, अहिंवा जंजेज्ज ॥ १६ ॥ समाणाण संजतीहिं, अमंजतीओ गिहत्यहिं। एते चेव य दोसा, असंजतीयाहि पच्छकम्मं च । गुरुगा लहुगा चउ वा,तत्य विप्राणादिणां दोसा।११। गिहिएहि पच्चकम्म, पछा तम्हा तु समणेहिं ॥१७॥ संजतीनो जदि समणस्स पायपमजणादि करेति,तो चउगु- गता, किंचि विसेसो । पुवरण गिदत्थी भणिता,पच्चरण रुगा(असंजती ओत्ति)गिहत्थिओजर करेंति,तत्थ विचउगुरुगा, गिहित्या, दो वि पाए पप्फोते कुच्छ करेज्ज, कुच्छतो पच्चागिहत्वपुरिसा जदि करेंति, तो चलहुगा,प्राणादिया य दोसा कम्मसंनयो, जम्हा एते दोसा तम्हा समणाण समर्हि कायभवति । १.१। ब्वं, णो गिहित्या अम्मतिस्थिया वा ग्यव्या ॥ १७॥ मिच्चत्ते उड्डाहो, विराहणा फासत्नावसंबंधे । वितियपदमणप्पज्झे, अच्छाब्यात अप्पणो न करे । पमिगमणादी दोसा, जुत्तानोगी य णायचा ।।१॥ पमजणादी तु पदे, जयणाए समयोरिहे भिक्खू ॥१८॥ इत्थियाहि कोरतं पासित्ता को मित्तं गजा-रते- अणप्पज्झकारवज्जा, अणप्पज्झस्म या कारविज्जंति, अद्धाण कावमिय त्ति, संजमविराहणा य, इस्थिफासे माहोदया, परो- पमिवरणो वा अतीव चच्या उपमजणादी पदे छप्पणो चव Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८३ ) निधान राजेन्द्रः | मल किरिया जयगा पकरज, अपणो असनो संजहि कारवेज्जा ॥ १८ ॥ सती य संजयाणं, पच्छाकममादिएहि कारज्जा | गिहिष्मतित्यिएहिं गिड़ स्थि- परतित्थि- तिविहाहिं । १६ । असती संजयाणं पच्चाकमेहि कारवेति, तो साभिग्गएहि, ततो निरभिग्गहहिं ततो अढाइ ततो णियलाई मिच्छ ही, ततो जिगहियमिच्छद्दिद्वारिं ततो श्रतित्थि एडिमि हिमादिहिं पुत्रं असायवादाहिं, पच्छा सोयवादीहि ततो पाहित्थिरितिस्थितिविहाहि तिततो गिहत्थीहिं णालबकाहिं श्रणाला तिविधाहिं घेरममितरुणीहिं, एवं परतिथिपर्णाहिं वि, संजतीहिं वि, एवं चैव, एसोचैव प्रत्थो वित्थतोभति तत्र पच्छा गिहत्थिपरतित्थितिविद्धादिति । गिढ़त्थी डुविदा - णालबद्धा प्रणालबद्धा । ततो इमेदि गिदत्थीहिं पालबाहि माताजगिणीधूया - अज्जिणी आलियाण असतीए । आणियलिय थेरेहिं, मज्जिमतरुणीहिँ अष्मतित्यीहिं ॥ २०॥ माता भगिणी धूम्रा अज्जियाऽयुत्सरी य पतेसिं असतीए, या चैव श्रणतित्थिणीहिं, एतेसिं असतीए प्रणालबद्धाहिं हत्याहिं तिविधार्हि कमेण थेरमज्झिमतरुणीहिं, तो एयाईं चैत्र अणतित्थियाहिं ति ॥ २० ॥ तिविहाय विएयाणं, सतीऍ संजतिमादिनगिणीहिं । प्रत्थिय नगिणीण सती, तप्पच्छा ऽवसेसतिविहाहिँ ॥ २१ ॥ माताजागणीधूया - अज्जियाण वि य सेसतिविद्या तु । एतासिं असती, तिविहा वि करेति जयरणा तु ॥ २२ ॥ अणालवणं थेरमज्जिमतरुणीर्द असति संजतीतो माता नागणी धूयाय अज्जिया एवमादि ततो करेति, ततो पच्छा अथ सेसाओ भणावकाओ तिविहाओ थेरमज्झिमतरुणीओ करावेति वा पयम्मि चैत्र श्रत्थे अरणायरियक इमा गाथा - ( माताभगिणी) । (पतासि सतीप त्ति) मायभगिणिनादियाणं ति, सेसं तिविहान ति अणालबद्धाओ संजतिओ तिविधात्र थेरमज्जिमतरुणी य जयणा जहा फासंवादि ण जवति, तदा कारवेति, करंति वा ॥ २१ ॥ २२ ॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंधीए पाए ग्रहणउत्थिएण वा गारत्थिर का आमज्जावंज्ज वा, पमज्जावेज्ज वा, श्रमज्जातं वा मज्जातं वा साइज 1991 जे भिक्खू शिग्गंथे ग्गिंथी पाए अमनत्थिए वा गारत्थि एण वा संवाहावेज्ज वा, पालमदावेज्ज वा, संवाहावतं वा पलिमद्दानंतं वा साइज्जइ || ७३ || जे जिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए पाए अण्णनात्थएव वा गारत्थिरण वा तेण वा घर वा वएणेरण वा बसाएण वा एवणीरण वा मंखेज्ज वा, निलिंगेज्ज वा, मंखतं वा निलिंगतं वा साइज‍ । ७४ । जे निक्खू णिग्गंथे णिग्गंधीए पाए ग्रहणउत्थिर वा गारन्थिए वा सोद्रेण वा कक्केण वा एहाणेण वा परमचणे वावरणे वा सिराहाणेण वा उव्वट्टेज्ज वा, परिवज्जा, उबर्हतं वा परिवर्हतं वा साइज्जड़ 19 | जे क्खू णिग्गंथेग्थिए पाए अरा उत्थिर वा गारत्थि | समकिरिया एण वा सीओदगवियमेण वा उसिणोदगाविय मेण वा उच्छोबेज्ज वा. धोत्रे वा, उच्छोलतं वा पधोवंतं वा साइज्जइ । ७६ । जे जिक्खू णिग्गंथेग्गिंधीए पाए एए उत्थिए वा गारथिए वा फूमेएज्ज वा, रयाएज्ज वा, पंखेएज्ज वा, फमावतं वा रावतं वा मतं वा साइज्जइ । ७9 | जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथी का थिएण वा गारत्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा, पमज्जावेज्ज वा, ग्रामज्जावतं वा पमज्जातं वा साइज || जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कार्य प्रणउत्थिर वा गारत्थि एण वा संवाहावेज्ज वा, पलिमदावेज्ज वा, संवाहावतं वा परिमदानंतं वा साइज्जड़ | 900 | जे जिक्खू णियेग्गिंथी कार्य अएणउत्थिएन वा गारस्थिए वा तेण वा घरण वा वसेल वा णत्रणीएण वा मखावेज्ज वा, जिलिंगावेज्ज वा, मंखावंतं वा जिझिंगावंतं वा साइज्जइ । ८० 1 जे भिक्खू भगंथे णिग्गंथीए कार्य प्रणउत्थिए वा गारत्थि एण वा लोकेण वा ककेण वा एहाणेण वा पउमचुम्मेण वा वरणेण वा सिगाहाणेण वा उच्चट्टावेज वा, परिवावेज्ज वा, उच्चट्टावंतं वा परिवहावतं वा साइज ८१ । जे निक्खू णिग्गंथेग्गिंथीए कार्य भए उत्थिए वा गारत्थि वा सीओदगवियमेण वा उसिणोदगत्रियमेल वा उच्छोलावेज्ज वा, पधोवावेज्ज वा, उच्छोलावतं वा पातं वा साइज । ८२ । जे भिक्खू ग्गिंथेगिंथी कार्य फूमवेज्ज वा, रयाएजत्रा, मखाबेज्ज वा, फूमातं वारयातं वा मंखावंतं वा साइज्जइ । ८३ । जे जिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कायंसि वर्ण श्रमउत्थिएण वा गारस्थिएन वा मज्जावेज्ज वा, पमज्जावेज्ज वा, आमजातं वा पमज्जातं वा साइज्जइ । ८४ । जे भिक्खू णिग्गंथेग्गिंथी कार्यसि वर्ण मउत्थिएण वा गारस्थिर वा तेक्षेण वा घरण वा बसाएण वा एएबीएल वा मखाज्ज वा, जिलिंगानेज्ज वा, मंखावंतं वा जिनिंगावतं वा साइज्जइ ||५|| जे भिक्खू ग्गिंथे गिंथस्स काय वर्ण प्रणनत्थिए वा गारत्थिएण वा लोण वारुकेण वा हाल वा पउमचुरणेण वा सिणं हाल वा उब्वावेज्ज वा, परिवावेज्ज वा, जन्बट्टावंतं वा परिवट्टावंतं वा साइज्जइ ||८६|| जे क्खि णिग्गंथेग्गिंथी ए कायंसि वणं अमनस्थिर वा गारस्थिए वा सीओदगवियमेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोलाबेज्ज वा, पधोवावेज्ज वा, उच्छोलावतं वा पधोवा वा साइज || 9 || जे भिक्खू ग्गिंये ग्गिंथीए कार्यसि वयं उत्थिरण वा गारस्थिएव वा फूमात्रेज्ज वा, रयावेज वा, मंखावेज्ज वा, फूमावतं वा स्यातं वा मखातं वा Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८४ ) अभिधानराजेन्द्रः । असम किरिया साइज ॥ ८ ॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कार्यमि अम्म उत्थिए वा गारस्थिए वा गं वा पक्षियं वा अरियं वा असियं वा जंगद वा अपरेण वा मत्यजाएए अच्छंदावेज वा, विच्छिंदावेज्ज वा मच्छिंदावतं वा विच्छिंदावतं वा साइज्जइ ॥ ८ ॥ जे जिक्खू सिग्गंथे शिग्गंथीए कार्यसि उत्थिए वा गारथिएण वा गं वा पलियं वा अरियं वा असियं वा जंगदवा श्रणयरेण वा तिक्खेण वा सत्यजाए वा श्रच्छि दावेज्ज वा, विच्चिदावेज वा पूयं वा मोणियंत्रा पीहराएज्ज वा, विसोहियावेन वा, पीहरावतं वा विसोदियावतंत्रा साइज्ज || ६० || जे निक्खु गिंथे णिग्गंथीए कार्यसि मउत्थि एण वा गारस्थिए वा गंड वा पक्षिय वा अरियं वा सियं वा भंगदलं वा अम्यरेण वा तिक्खेण त्रा सत्यजाएण अच्चिदावेज्ज वा, निच्छिदावेज्ज वा पूयं वा सोणियं वा णीहराएज्ज वा, विसोहियाबेज्ज वा, सीओदगत्रिय वा उसिणोगवियमे वा, उच्छोला वेज्ज वा, पधावावेज्ज वा, उच्छोलावं तं वा पधोवानंतं वा साइज ।। ६१ ।। जे भिक्खू ग्गिंथेग्गिंथीए कार्यसि उत्थिए वा गारत्थि एण वा गंवा पलियं वा अरियं वा असियं वा भंगदलं वायरेण वा तीखेण वा सत्यजाएण अि दावेज्ज वा विच्छिद वेज्ज वा पूयं वा सोयिं वाणीहराज्ज वा, विसोहियावेश वा अस्मयरे वा आवणजाए पिवेज्ज वा, विपिवेज्ज वा, आलिंपावतं वा विनिपातं वा साइज्जइ |२| जे जिक्वू ग्गिंथे गिंथीए कार्यसि अनु० गारत्थि० गं वा० जान अाय रेण वा श्रवणजाएण तेल्लेण वा० जात्र माइज्जइ ॥ ६३॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए कार्यसि उत्थिष्ण बा गारस्थिपण या गं वा पचियं वा अरियं वा असि वा जंगदल वा अम्मयरेण वा तिक्खेण वा सत्यजाएण श्र चिदावेज वा विच्चिदावेज वा पूयं वा सोशियं वाणीहरात्रेज्ज वा, विसोहियाएज्ज वा श्रयरेरेण वा धूत्रेण पण वा धूयाबेज्ज वा पधूयावेज्ज वा धूयावंतं वा पधूया वा साइज |४| जे भिक्खू गिंथे णिग्गंथी ए पालु किमियं वा कुच्छ किमियं वा अएउत्थिएण वा गारथिए वा अंगुलीयाए निवेसिय २ पीहरावे, पीहरावत वा साइज्ज |६|| जे जिक्खू लिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाओ सिहाओ उत्थिए वा गारन्थिएण वा कप्पावेज्ज वा, मंठावेज्ज वा कप्पावत वा संठावतं वा साइ ज्जइ |[७६| जे भिक्खु गिये ग्गिंथीए दीहाई वथीरोमा उत्रिण वा गारत्थिष्ण वाकप्पवेज्ज वा, संवावेज्ज वा, कप्पावनं वा संज्ञानं वा साइज्जइ 109 For Private असम किरिया भिक्खू गिंथेग्गिंथीए दीलाई जंघारोमाई अाउ थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावैज्ज वा, मंठावेज्ज बा, पावावा साइज्जइ || जे भिक्खू -ि थे णिगंधी दीहाई सीसकेसाई अएउत्थिए वा गार स्थिरण वा कप्पा वेज्ज वा, संवावेज्ज वा. कप्पवेज्ज वा, वा, कप्पा वा संावतं वा साइज्ज || जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई कएरोमाई उ थिए वा गारत्यिरण वा कप्पावेज्ज वा, संत्रा वेज्ज वा, पावावा साइज्जइ |१००| जे भिक्खू णिगंथेग्गिंथी दीहाई तूमहरोमाई अाउथिए वा गारत्यिरण वा कल्पवेज्ज वा, संठावे ना, कप्पावंतं वा सं साइज | १०१ । जे भिक्खू गिंयेग्गिंथीए दीहाई चक्वूरोमाई एण्ड थिए वा गारस्थिए वा कप्पवेज्ज वा, संठावेज्ज वा, कप्पानंतं वा संदावतं वा साइ ज्जइ । १०२ । जे भिक्खू ग्गिंये णिग्गंथीए दीहाई अच्छि पसाई मत्रिण वा गारत्थिए वा कप्पांवेज्ज वा सज्ज वा, कप्पा वा संठावतं वा साइज्जइ । १०३ । जे भिक्खू frieerinीर दीहाई णकरांमाई पर स्थि एरण वा गारत्थिए वा कप्पावेज्ज वा, संठावेज्ज वा, कपावत वा ठावा साइज्जइ ॥ १०४॥ जे चिक्यू शिथे णिग्गंथीए दीहाई कक्खरोमाई कप्पावेज्ज वा, संठावेज्ज वा, कप्पा वा संठा वा साइज्जइ । १०५ | जे जिक्वृग्गिंथे पिग्गंधीए दीहाई पास रोमाई अम्म उत्थिए वा गारत्थि एण वा कप्पा वेज्ज वा, मंठावेज्ज वा, कप्पावतं वा संठावंत वा साइज्ज || १०६ ।। जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए दीहाई उत्तरउड्डाई उत्थिए वा गारत्थि एण वा कप्पानेज्ज वा, संवावेज्ज वा कप्पातं वा संठावतं वा साइज्जइ । १०७ जे नि क्खू ग्गिंथ णिग्गंथीए दंते अमउत्थिए वा गारस्थिए ए वासाज्जा, पघसावेज्ज वा, घमावतं वा घसातं वा साइज्जइ । १०८ । जे जिक्खू लिग्गंथे निगर्थाए दंते उत्रिण वा गारत्थिए वा सओिदगत्रिय मेल वासिलोदगवियमेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोवा एज्ज वा, उच्च ज्ञावंत वा पधोवावर्त वा साइज्जइ ॥ १०६ ॥ क्रिग्गिंथे णिग्गए उ० गारस्थि० दंते फुमा वेज्ज वा, स्याज्ज बा० जाव साइज्जइ । ११० । जे भिक्खू णिगंथेपिगंधी उट्ठे अएण उत्थि ए०गारस्थिए वा आमाज्ज वा पमावेज्ज वा, आमाज्जैतं वा पमावैज्जतं वा साइज्जइ । १११ | जे भिक्खू ग्गिंथेग्गिंथीए द्वे - राणत्थि वा गारत्थि वा संवाहवेज्ज वा, पलिमदावेज्ज वा संपात वा पलिमद्दावतं वा साइज्जइ । ११२ Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) अलममकिरिया अनिधानराजेन्दः । अलमलबेह जे भिक्ख णिग्गथे णिग्गंथीए उढे एणनात्थएण वा पाए अस्थिरण वा गारत्थिएण वा आमावेज गारत्यिपण वा तेह्येण वा घरण वा वएणेण वा वसारण वा, पमावेज वा, आमावेज्जतं वा पमावेज्जतं वा साइवा णवरणीएण वा मंखाएज्ज वा,भिलिंगाएज्ज वा, मखा. ज्जइ ॥ १५५ ।। जे जिकरबू पिग्गंथे णिग्गंथीए कावंतं वा जिनिंगावंतं वा साइज्ज ।११३। जे निक्खू णि- याउ अप्पत्थिएण वा गारस्थिएण वा अचिमनं वा मांधे णिग्गंथीए उढे एणउत्थिएण वा गारथिएण वा कममलं वा दंतमखं वाणहमलं वा पीहरावेज वा. जाव लोकेण वा कक्केण वा एहाणेण वा पउमचुम्मेण वा व- साइज ॥१६॥ एवं सव्वं गिझगमगिद्धगमप्पसरिसंणेकोण वा नबोलावेज वा, जन्चट्टावेज्ज वा,नबोलावंतं वा यव्वं जाव जेणिग्गंथीए णिग्गंयस्स गामाणुगामं इज्जमाणे उन्बहावंतं वा साइज्ज ११४ा जे भिक्वणिग्गंये णिग्गं- अमाउत्थिएण वा गारथिएण वा सीसवारियं करावेइ, थीए उढे अप्पउत्थिएण वा गारत्थिरण वा सीओदगाव करावंतं वा साइज्ज ॥१७३|| जे निक्वणिग्गंथे णिग्गंयहेण वा उसिणोदगवियमेण वा उच्छोलावेज्ज वा, प थीए पाए अमउत्थिएण वा गारत्यिएण वा श्रामज्जावेज घोवावेज्ज वा, नुच्छोलावंतं वा पधोवावंतं वासाइज्जइ ।। वा, पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावंतं वा पमज्जावंतं वा साइ।११५॥ जे भिक्खू पिगंथे णिग्गथीए नहे एणउत्थि ज्ज ।। १ ।। एवं तं एतेण वा मरण सरिसाणेयव्या एण वा गारथिएण वा फूमावेज वा,रयाएज्ज वा,मखा- जाव जे णिग्गंयी णिग्गंथिए गामाणुगाम दुइज्जमाणे वेज्ज वा,फूमावंतं वा स्यावतं वा मखावंतं वा साइज्जइ ।। अमउत्थिएण वा गारथिएण वा सीसवारियं करावे, ।११६। जे भिक्खू णिगये णिग्गथीए अच्छिणि अमन करावंतं वा साइज्ज ॥ २४५॥ स्थिएण चा गारथिएण वा आमावेज्ज वा, पमावेज वा, अमावेज्जतं वा पपावेज्जंतं वा सारज्जा ।११७ जे भिक्खू सुत्ता एकचत्तालीसं तति उद्देसगगमा जाव सीसदुबारे सि सुत्तं; अत्थो पूर्ववत् । णिग्गंथे जिग्गंथीए अच्छिणि अएणनात्यएण वा गार एसेव गमो नियमा, णिगंथीणं पि होणायव्यो । थिएण वा संवाहावेज्ज वा, पलिमद्दावेज्ज वा, संवाहावंतं कारवण संजतेहिं, पुव्व अवरम्मि य पदम्मी तु ॥१३॥ वा पलिमहावंतं वा साइज्जा । ११७ । जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंधीए अच्चिणि अएणउत्थिएण वा गारथिएण संजमो गारत्यमादिपहिं संजतीणं पदे पमज्जणादि कारवेति, उत्तरोष्सु ण संजवति, अमक्खणाए वा संभवति । नि०० वा तेझेण वा घरण वा वएणण वा वसाएण वा एवणी १७००। एण वा मंखावेज्ज वा, भिलिंगावज्ज वा, मखावंतं वा नि. अममहागंग्यि-अन्योन्यग्रथित-त्रि० । परस्परेणैकेन ग्रन्थिना लिंगावंतं वा साइजइ ।११६। जे निक्खू 'णिग्गंथे णिग्णं सहाऽन्यो प्रन्धिरन्येन च सहाऽन्य इत्येवं प्रथिते, भ०५श. थीए अच्छिाण एणउत्यिरण वा गारथिएण वा लो ३३०। केण वा कक्केण वा पहाणेण वा पउमचुरणेण वा वएणे अाममागरुयत्ता-अन्योन्यगुरुकता-स्त्री० । अन्योन्येन प्रन्थण वा नबोलावेज्ज वा, उबट्टावेज्ज वा, उबोलावंतं वा | नाद् विस्तीर्णतायाम् , न०५ श० ३ १०। उव्वद्यावंतं वा साइज्जइ ।१२० । जे भिक्खू णिग्गंथे णि- | अाममगरुयसंजारियत्ता-अन्योन्यगुरुकसंभारिकता-स्त्री। गंथीए अच्चिणि अएणनथिएण वा गारथिएण वा अन्योन्येन गुरुकं यत्संनारिकं च तत्तथा, तद्भावस्तत्ता। अन्योसीओदगवियमेण वा उसिणोदगवियमेण वा नच्छोला- न्येन अन्धनाद् विस्तारसंभारवस्वे, न०५ श० ३ उ०। बेज्ज वा, पधोवावेज वा, उच्छोलावंतं वा पोवावंत वा अपमम्मघडता-अन्योन्यघटता-स्त्री० । अन्योन्य घटन्ते सं. साइज्जइ ॥ ११॥ जे भिक्खू णिग्गंथे णिग्गंथीए अ-1 बध्नन्तीति अन्योन्यघटाः । जी०३ प्रति० । अन्योन्यं घटाः चिणि अएणउत्यिएण वा गारथिएण वा फूमावेज्ज वा, । समुदायरचना यत्र तदन्योन्यघटम । अन्योन्यं घटाः समुरयावेज्ज वा, मंखावेज्ज वा, फमावंतं वा स्यावंतं वा मखा दायो येषां तेऽन्योन्यघटाः । परस्परसंबन्धतायाम्, प्र०५ श०३उ। वंतं वा साइज्जइ । १२२ । जे जिक्खू णिग्गंथेणिग्गंधीए कायाउ अएएनथिएण वा गारत्यिएण वा सेयं वा जलं | एणमएणपुट-अन्योन्यस्पृष्ट-त्रि० । स्पर्शनमात्रेण मिथः वा पंकंवा मट्वं वाणीहरावेज वा,विसोहावेज्ज वा, णि स्पृष्टे, भ०१ श०६ उ०। जी.। भएणमएणबछ-अन्योन्यवक-त्रि० । अन्योन्यं जीवाः पुहरावंतं वा विसोहावंतं वा साइज्जइ । १३ । जे जिकरबू | फलानां, पुलाच जीवानामित्येवमादिरूपेण गादतरसंबन्धे, णिग्गंथे णिग्गंथीए गामाणुगामं इज्जमाणे अएणउत्थिर-1 भ०१श०६ १०॥ ण वा गारत्यिएण वा सीसवारियं करेइ, करतं वा अमएणवेह-अन्योन्यवेध-पुं० । अन्यस्याऽन्यस्यां संबन्धे, मि. साजइ ॥ ३३४ ॥ जे जिक्खू णिग्गये पिग्गंधस्स च०२०२० "एणाएणवेहो भत्तित्ति" अन्योन्यस्य वेधः सं. १२१ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भएणममबेह अभिधानराजेन्द्रः। अएगाइह बधाऽन्योन्यवेधस्तस्मात् पञ्चदशाद्यारोप एकैकस्मिन् स्थापने प्रत्यक्ष प्रक्रमात्तरणोपायं पठति। स्पष्टमसंदिग्धम् । पठ्यते चसंयुज्यते इत्यर्थः । नि0 चू. २०००। (पएहति) पृछयते इति प्रश्नः तं प्रष्टव्यार्थरूपमुदाहरेदिति भूते अमममन्नास-अन्योन्याभ्यास-पुं० । अन्योन्यं परस्परम- लिट् । तत उदाहरेदुदाहृतवान् । पठ्यते च-"अपवास महो. ज्यासः । परस्परं गुणने, अनु० । घंसि एगे तिम्मे दुरुत्तरे" ति । अत्र तु प्रत्यये विशेषः-त तश्चार्णवान्महौघाद् दुरुत्तरात् तीर्ण इव तीर्णस्तीरप्राप्त इति भएणमए एनारियत्ता-अन्योन्यनारिकता-स्त्री० । भन्यो योगः। एको घातिकर्मसाहित्यरहितः, (तति) स देवमनुभ्यस्य या यो भारः स विद्यते यत्र तदन्यान्यन्नारिक, तद्भाव- जयोः परिषदि पकोऽद्वितीयः, स च तीर्थकदेव । शेषं प्राग्वस्तत्ता। परस्परं नारवत्वे, न०५ श० ३ ०। दिति सूत्रार्थः । उत्त०५०। एएमए गमणगय-अन्योन्यानुगत-त्रि०ा परस्परानुबके, नं0 | प्रणव-ऋणवत-त्रि० । सप्तविंशतितमे लोकोत्तरमुहूर्ते,० अमनममसंपत्त-अन्योन्यासंप्राप्त-त्रि० । परस्परमसंलग्ने, | ७ वक्षा जी. ३ प्रति। एणववएस-अन्यव्यपदेश-पुं० । परस्य व्यपदेश, इदं हि एणमए एसंवास-अन्योन्यसंवास-पुं०। परस्परमेकत्र सं- शर्करादिगुडखण्डघृतपूरादिकं यज्ञदत्तसंबन्धीति वतिनः बासे, व्य० ३ ३०। भावयन् दौकयत्यदेयबुध्या, न च वतिनः स्वामिनाउननुशात गृहन्तीति नियमोऽपि तेन भन्नः, शर्करादिकं च रक्षितमिति अमममसिणेहपमित्रछ-अन्योन्यस्नेहपतिबछ-त्रि० । प तृतीयांतिचारः । प्रव०७ द्वा०। रस्परं नहन प्रतिबद्धे, भ०१ श०५० । यनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वा परमपि चलनादिधोपेतं भवति । | भावालय-आई.पालक-पुं०। कालोदाय्यादिके अन्ययथिक जी०३ प्रति०। भ० ७.१० उ०। अप्पमयं-देशी-पुनरुक्केऽथें, दे० ना०१ वर्ग। भएणविहि-अनविधि-पुं० । सूपकारकलायाम् , जं. २ अप्पलिंग-अन्यलिङ्ग-न। अन्यतीर्थिकानां नेपथ्ये, वृ०१० पक्ष। सामा।और। एणह-अन्वह-अव्य० । अहि भाई वीप्साथै ऽव्ययीच अएगलिंगसिद्ध-अन्य शिक्षामिछ-पुं०। परिवाजकादिसंबन्धिनि वल्कलकषायादिवस्त्रादिरूपे द्रव्यलिने व्यवस्थिताः समा०प्रत्यहमित्यर्थे, वाचा निरन्तरमित्यर्थे, ध०१ अधि। सन्तो ये सिद्धास्तेऽन्यलिङ्गसिद्धाः। नं०। परिवाजकादिलि. भएण (ब)(ड)हा-अन्यथा-अन्य अन्येन प्रकारेणस्यसिद्धेषु, ल। श्रा० । ध०।। थे, भाचा.१७० ५ ० ३ उ० । मा० म०।०५०। एणव-अर्णव-पुं० । अासि सन्स्यस्मिन् । अर्णस-व। स भएणहाकाम-अन्यथाकाम-पुंग पारदायें, हा०१३अष्टावा। लोपः । समुद्र, उदकयुक्त, जलदातरि, सूर्ये, इन्च वाच अपणहाऽणुववत्ति-अन्यथाऽनुपपत्ति-सी० । अन्यथा - भों जलं विद्यते यत्रासावर्णवः । "अर्णसो लोपश्च"ति न्यभावेन अनुपपत्तिः संनयः। स्वाभावाप्रयोज्यसंभवे, अर्था(बार्तिकेन) अप्रत्ययः सकारलोपश्च । द्रव्यतो जलधी, भावतश्च भवे. उत्त०५०। पत्तिप्रमाणे च। तथाहि-पीनो देवदत्तो दिवा न चले, इत्यादी दिवाऽभोक्तुर्देवदत्तस्य पीनत्वं रात्रिनोजनं विनाऽनुषपभम, इति अएणवंसि महोघंसि, एगे तिएणे पुरुत्तरे। भानाद रात्रिभोजनकर्तृवृत्तिपीनत्वन रात्रिभोजनं करप्यते । तत्य एगे महाएने, इमं पएहमुदाहरे ॥ वाचा साध्याऽभावप्रकारेणानुपपत्ती, असति साध्ये देतोरनुएतस्मिन् कीरशि?,(महोघंसित्ति) महानोघःप्रवाहो द्रव्य- पपत्तिरेखाम्यथाऽनुपपत्ति रत्ला।"प्रन्यथाऽनुपपनत्वं, यत्र तो जलसंबन्धी,भावतस्तु भवपरम्परात्मकः प्राणिनामत्यन्त- तष त्रयेण किम । नान्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्रतत्रत्रयेण किम् ?" माकुलीकरणहेतुः, चरकादिसमूहोवा यस्मिन् स महोघस्त- ॥१॥ सूत्र.१७०१२५०। स्मिन् । महत्त्वं चोभयत्रागाधतयाऽदृष्टपरपारतया च मन्तव्य- | अमहाभाव-अन्यथाभाव-पुं० । अन्यथा अन्यरूपेण नायोम। तत्र किम् ? इत्याह-एक इति) असहायो रागद्वषादिसह- यस्य। यथारूपमुचितं ततोऽन्यथारूपेण भवने, बाचा विपरिणभावनिरहितो गौतमादिरित्यर्थः । तरति परंपारमानोति, त- मने, वृ०४ उ०। कालापेक्षया वर्तमाननिर्देशः (दुरुत्तरे इति) विभक्तिव्यत्ययाद् पदावार ( )--अन्यथावादिन-त्रि० । अनृत दुरुत्तरे दुःखेनोत्तरीतुं शक्ये। दुरुत्तरमिति क्रियाविशेषणं वा । नहि यथाऽसौ तरति तथा परैर्गुरुकर्मभिः सुखनैव तीर्यते,प्रत | "अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा जिभरागएव एक इति संख्यावचनो वा । एक एव जिनमतप्रतिपन्नः | | दोससंमोहा यनऽमहावाणो तणं" भाष०४०। | अमहि-अन्यथा-अव्य० । अन्यत्र “प्रपो दिहत्थाः " । । न तुचरकादिमताकुलितचेतसोऽन्ये तथा तरीतुमीशत इति । (तत्रति) गौतमादौ तरणप्रवृत्ते (एक इति। तथाविधतीर्थक । ६१ । इति त्राप्रत्ययस्थाने दिह स्था आदेशाः । अम्यस्मिन् रनामकर्मोदयादनुत्तरावाप्तविभूतिरद्वितीयः। किमुक्तं भवति? स्थाने इत्यर्थे, प्रा०। तीर्थकरः सह्येक एव भरते संभवतीति । महती निरावरण अपहिभाव-अन्यथाभाव-पुं०। विपरिणमने, १०४००। तया अपरिमाणा प्रज्ञा केवलज्ञानात्मिका संविदस्येति महाप्र-प्राणा-अन्वाविध-त्रि०ा अभिव्याप्ते, न०४ श०१०। शः। स किमित्याह-इमममन्तरवक्ष्यमाणं हृदि विपरिवर्नमान- परवशीकृते, भ०१८ श० ६००। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) प्रमाइम अनिधानसजेन्डः। प्रमाण प्रपा (मा)इस-अन्याश-त्रिका अन्यारशशब्दस्य "भन्या मिथ्यात्वतिमिरोपप्युतदृष्टीवस्य विपर्यस्त बोधे, विश० रोन्नाइसावरा इसौ"10।४। १३ । इति अपभ्रंशे अन्नाइसे- उत्त। मकानमनवबोधः। उत्त०३ अ० मूढतारूपे,आतुकानात्यादेशः । प्रकारान्तरतामापन्ने, प्रा०। भावे, मिथ्याष्टिकुतीर्थिकपार्श्वस्थादिसंबन्धिशास्त्रावगाहमाएणाएसि (ण)-अज्ञातैषिन-पुं० । जातिकुलसबव्यनि स्मके, दर्शा उत्ताससंशयविपर्ययादिरूपे मिथ्याज्ञाने,द्वा० व्यतादिनाऽपरीकितोऽज्ञातः, तारशं गृहस्थमादाराधर्थमे २१ द्वारा जीवाजीवविवेकरहिते, अष्ट० १२ अष्ट । सद्बोधाषयतीत्येवंशीलोऽतिषी। उत्त०२ अ० अज्ञातो जातिभुता भावे, दर्श०। कुशास्त्रसंस्कारे, औ० । कुत्सितत्वं च मिथ्यात्वदिजिरेषत्युति अर्थात् पिामादीनि इत्यज्ञातैषी । उत्त०३० संबलितत्वात् । उक्तं च-"अविससिया मरश्चिय, सम्मबिहिस्स अज्ञातस्तपस्वितादिनिर्गुणैरनवगत एषयते प्रासादिकं गवेषय तामझनाणं । मध्यराणाणं मिच्छा-दिट्रिस्ल सुयं पि एमेव" तीत्येवंशीलोऽक्षातैषी। उत्त० १५ १०। यत्र कुले तस्य साधो प्र०८० २१०। स्तपोनियमादिगुणो न ज्ञातस्तत्र एषयते प्रासादिकं गृहीतुं __ तब प्रज्ञानं मिथ्यात्वमिति उच्यतेबाभत इत्येवंशीलोऽज्ञातैषी । उत्त०१५ मा विशिष्टगुणर- प्रमाणे तिविहे पप्पचे । तं जहा-देस एणाणे, सवडकात एव भिकणरते, " अकामकामी अमा (मा) एसी परि- | माणे, जावऽएणाणे । व्यए स भिक्खू" उस० १५००। प्रमाण-अज्ञान- नन कानमक्षानम् । सम्यग्ज्ञानादितर (मन्नाणेत्यादि) कानं हि भन्यपर्यायविषयो बोधः,तनिषेधोऽ कान, तत्र विवक्तितव्यं देशतो यदा न जानाति तदा देशाकास्मिन् हाने, आव०। मम्, अकारप्रश्लेषात् । यदा च सर्वतो न जानाति तदा सर्वाअपाणं परियाणामि, नाणं नवसंपज्जामि । आव०४० ज्ञानम् । यदा विवक्तितपर्यायतो न जानाति तदा भावाझानमि(नाणे त्ति) ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयः, प्रज्ञानिनो मिथ्यारष्टयः । ति । अथवा देशादिकानमपि मिथ्यात्वविशिष्टमकानमेवात । माह च-"अविसेसिया मचिय, सम्महिहिस्स ता मचाणं । प्रकारप्रश्लेषं विनाऽपि न दोष इति । स्था० ३ ग० ३ ००। मश्नाणं मिच्चा-दिद्धिस्स सुयं पि पमेव"॥१॥ इति । अण्णाणे णं भंते! काविहे पएणत्ते। गोयमा ! तिविहे अज्ञानता च मिथ्याष्टिबोधस्य, सदसतोगविशेषात् । तथा पएणते। तं जहा-मइएणाणे सुयप्रणाणे विनंगनाणे। हि-सन्त्यर्या शह, तत्सत्वं कथंचिदिति विशेषितव्यं भवति, स्वरूपेणेत्यर्थः । मिथ्याष्टिस्तु मन्यते-सन्त्येवेति, ततश्चा से किं तं माणाणे । मझ्एणाणे चलबिहे पएणत्ते । पररूपेणापि तेषां सस्वप्रसङ्गः । तथा म सन्त्यर्था रह, तदस तंजहा-नम्गहे. जाव धारणा। से किं तं नगगहे। नग्गहे स्वं कथचिदिति विशेषितव्यं भवति, पररूपेणेत्यर्थः। स तु- सुविहे पएणत्ते । तं जहा-अत्योम्गहे य वंजणोग्गहे य । एवं न सन्त्येवेति मन्यते, तथा च तत्प्रतिषेधकवचनस्याप्यन्नावः जहेब आभिणिबोहियनाणं तहेव,णवरं एगहियवजंजाव प्रसज्जतीति । अथवा शशविषाणादयो न सन्तीत्येतत्कथचिदिति विशेषणीयम् , यतस्ते शशमस्तकादिसमवेततयैव नोइंदियधारणा, सेत्तं धारणा । सेत्तं मइअप्लाणे । से किं तं न सन्ति; न तु शशश्च विषाणं च, शशस्य वा विषाणं, शुद्धि सुयप्रमाणे । सुयप्रमाणे जं इमं अमाणिएहिं मिच्छादि. पूर्वनवग्रहणापेकया शशविषाणम, तद्रूपतयाऽपि न सन्तीति, ट्टिएहिं जहा नदिए जाव चत्तारि य वेदा संगोवंगा। सेत्तं तदेव सबसतोः कथञ्चिदित्येतस्य विशेषणस्यानन्युपगमात् । सुयएणाणे ।से किं तं विभंगनाणे । विभंगनाणे अणेतस्य ज्ञानमप्ययथार्थत्वेन कुत्सितत्वादकानमेव । माह च गविहे परमत्ते। तं जहा-गामसंगिए नगरसंठिए जाव समि"जह दुब्बयणमधयणं, कुच्चियसीसमसीलमसाप । जन्नतपाणं पिहु,मिच्गदिहिस्स अन्नाणं" ||शाइति । तथा मिथ्याऐ वेससंठिए दीवसंठिए समुद्दसंहिए वाससंगिए वामहरसंरायवसायो न ज्ञानम् , जवहेतुत्वात, मिथ्यात्वादिवत् । तथा ठिए पव्वयसंठिए रुक्खसंठिए यूजसंठिए हयसंगिए गययोपलब्धरुन्मत्तवत्सथाज्ञानफलस्य सतक्रियालवणाभावा- संठिए नरसंगिए किंनरसंहिए किंपरिससंलिए महोरगदन्धस्य स्वहस्तगतदीपप्रकाशवदिति । माह च-"सदसद संठिए गंधनसंगिए उसभसंगिए पसुपसयविहगवानरणाविसेसणाम्रो, भवदेक जस्थिोवलंभाओ । नाणफसानावामो, मिच्छादिहिस्स अन्नाणं"॥८॥ इति । स्था०२० णासंठाणसंगिए पएणते । ज०८ श०२० । ४ उ० । ध०। माव० "अमाणनमंतमच्छपरिहत्थणिहुर्तिदि- मोहविजृम्भणे, सूत्र०१ ० १ ० ३ ० । आचा० । ज्ञायते यमहामगरतुरियचरियखोखुम्भमाणनयंतचवमचंचलचसंतघु सुतरवमनेनेति शानं श्रुताख्यम, तदभावोऽज्ञानम् । प्रव० ०६ म्मंतजससमूहं " प्रज्ञानान्येव भ्रमंतो मत्स्याः (परिदत्य ति) द्वारा प्रकान-प्रकर्षे गर्वःप्रशाऽभावे दैन्यचिन्तनमित्युभयथा । दका यत्र स तथा। प्रनिभृतान्यनुपशान्तान यानीन्द्रियाणि उत्त०२०। मकानभावाऽभावान्यां द्विधा सोढव्ये एकषिसान्यष महामकरास्तेषा यानि त्वरितानि शीघ्राणि चरितानि शे परीषदनेदेशिकानपरीषहश्च सोढव्य एव, न तु कर्मविपाकचेष्टितानि तैः (खानुम्भमाणे ति) दृशं कुभ्यमाणो नृत्यन्निव जादज्ञानादुद्विजेत । आव० ४ अ०। तदुक्तम्-"विरतस्तपसोनृत्यश्च चपलानां मध्ये चञ्चलश्चास्थिरत्वेन चलंश्च स्थाना-1 पेतः, छमस्थोऽदं तथापि च । धादि साकाषके, नैषं तरगमनेन घूर्णश्च भ्राम्यन् जनसमूहो जनसंघातः, अन्यत्र स्यात् क्रमकालवित" ॥१॥ प्राव०१०। जमसमूहो यत्र स तथा तं, संसारमिति भावः । प्रौ० ।। नमः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमझानमिति । अनु। काना-| पतदेव सूत्रकृत प्रपञ्चयिषुस्ताबदभावपक्कमकीकृत्याहचरणकर्मोदयजनिते, आव०४० । प्रात्मपरिणामे, दर्श०।। निरहगम्मि विरो, मेहुणा ओ सुसंवुडो । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) अरमाण मनिधानराजेन्छः। प्रमाण जो सक्खं नालिजाणामि, धम्म कलाण पाचगं । संवच्चरेहिँ हिज्जइ, वारसयं असंखयज्जयणं । अर्थः प्रयोजनं, तदभावो निरर्थ, तदेव निरर्थक, तस्मिन् सति (पाईटीका ) विरतो निवृत्तः, कस्मात् ?, मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनमब्रह्म, परितान्तः खिन्नो वाचनया गङ्गाकूलेऽपि ता अशकटा याः संवत्सतस्मात् , अाश्रवान्तरविरतावपि यदस्योपादानं तस्यैवातिगृ-] रैरधीते द्वादशभिरसंस्कृताध्ययनमिति गाथावरार्थः। भावार्थकिहेतुतया दुस्स्यजत्वात् । उकं दि-“दुप्परिचया कामा श्मे" स्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः। स चायम्-गङ्गातीरे द्वौभ्रातरी वैतइत्यादि । सुष्ट संवृतः सुसंवृतः। इन्द्रियसंवरणेन, यः साक्वादिति काहीवां गृहीतवन्तौ,तत्रैको विद्वान् जातः,द्वितीयस्तु मूर्खः। यो परिस्फुटं नाभिजानामि, धम्मै वस्तुस्वभावं (कल्लाण त्ति) वि- विद्वान् सोऽनेकशिघ्याध्यापनादिना खिन्न एवं चिन्तयति स्मदुलोपाकल्याणं शुग्नं, पापकं वा तद्विपरीतं चेत्यस्यां गम्यमा- अहो! धन्योऽयं मे भ्राता यः सुखेन तिष्ठति, निद्रादिकमवसरे नत्वात् । यद्वा-धम्ममाचार,कल्योऽत्यन्तनीरुकतया मोका तमा- कुर्वन्नस्ति । अहं तु शिष्याध्यापनादिकष्ट पतितोऽस्मीति चिनयति प्रापयतीति कल्याणो मुक्तिहेतुः, तं, पापकं वा नरकादि न्तयन् काव्यमिदं चकारहेतुः । अयमाशयः-यदि विरतौ कश्चिदर्थः सिद्धयेन्नैवं ममाझा "मूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणाः, नं भवेत् । उत्त० ३० । “अज्ञानं खलु कष्ट, क्रोधादिज्योऽपि निश्चिन्तो१ बहुभोजनो२ऽत्रपमाना३ नक्तं दिवा शायका ४॥ सर्वपापेभ्यः। अथै हितमहितं वा, न वेत्ति येनावृतो लोकः"॥१॥ कार्याकार्यविचारणान्धवधिरो ५ मानापमाने समः ६, उत्त०२०ापाव० आचा०वि० "नातःपरमहं मन्ये,जगतो प्रायेणाऽऽमयंवर्जितो ७ दृढवपु मूर्खः सुखं जीवति" ॥१॥ दुःखकारणम् । यथाज्ञानमहारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम"॥१॥ भाचा०११०३०१०। “अजानन् वस्तु जिज्ञासुन मु परं नैवं चिन्तयति स्महोत् कर्मदोषिवत् । ज्ञानिनां ज्ञानमन्वीक्ष्य,तथैवेत्यन्यथा न तु" " नानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्यतां, ॥१॥ प्रा० मद्विारा० । “अप्माणओ रिपू अमो, पाणिणं णेव येषां यान्ति दिनानि परिमतजनव्यायामखिन्नात्मनाम् । विजति । पत्तो सकिरियातीप, अणत्या विस्सतो मुहा" ॥१॥ | तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तैरेव भूर्भूषिता , पं० सू०५ सू०। शेषैः किं पशुवद्विवेकरहितैर्भूभारभूतैर्नरैः"॥२॥ कदाचिसामान्यचय्ययैव न फलावाप्तिरत आह एवं पण्डितगुणान् अचिन्तयन् मूर्खगुणांश्वासतोऽपि चिन्ततोवहाणमादाय, पमिम पमिवज्ज उ । यन् शानावरणीय कर्म बद्धा दिवं गतः। ततश्युतो भरतक्षेत्र एवं पि विहरओ मे, उनमन नियट्टा ॥ भाभीरपुत्रो जातः । क्रमेण परिणीतः। तस्य पुत्रिका जाता। सा रूपवती। अन्यदा अनेक आभीरा घृतभृतशकटाः कश्चिन्न(पाईटीका) गरं प्रति गच्छन्ति स्म,असावपि तत्साथै घृतभृतं शकट गृतपो नद्रमहाभलादि,उपधानमागमोपचाररूपमाचाम्लादि,प्रा. हीत्वा चलितः। मार्ग सापुत्री शकटखेटनं करोति स्म । ततस्तदाय स्वीकृत्य, चरित्वेति यावत्। प्रतिमा मासिक्यादिनिक्षुप्रति- दूपव्यामोहितैराभीरपुत्रैः अपथे खेटितानि शकटानि तानि मां,(पमिवाज नत्ति)इति प्रतिपद्याजीकृत्य । पच्यते च-"पडिमं । सर्वाणि भन्नानि। तादृशं संसारस्वरूपं दृष्ट्वा संजातधेराम्यास पडिवजितो त्ति" प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्यान्युपगच्छति । एवम- आभीरः तां पुत्रीमुद्वाह्य दीक्षां जयाह । उत्तराध्ययनयोगोद्वहपिविशेषचर्ययाऽपि, आस्तां सामान्यचर्ययेत्यपिशब्दार्थः। विह- नावसरे असंख्ययाऽध्ययनोद्देशे कृते तस्य भाभीरभिक्षोर्शानारतो निष्पतिबन्धत्वेनानियतं विचरतः, गदयतीति कम ज्ञाना- चरणोदयो जातः, न तदध्ययनमायातिस्म, आचाम्लान्येव कवरणादिकर्म, न निवर्तते नातीति भिकुभिनं चिन्तयेदित्युत्त- रोति,उचैःस्वरेण तदभ्ययननिर्घोषं करोति स्म। एवञ्च कुर्वतरेण संबन्धः । अज्ञानाभावपक्के तु समस्तशास्त्रार्थनिकषापलक. स्तस्य द्वादशवर्षप्रान्ते अज्ञानपरीषहं सम्यगधिसहमानस्य ल्पतायामपि न दऽऽध्मातमानसो भवेत् , किन्तु पूर्वपुरुषसिं- केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । एवमशानपरीषहे आभीरसाधुकथा। डानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यं श्रुत्वा साम्प्रतं पुरुषाः कथं प्रतिपक्षे च भौमद्वारम् । तत्राऽप्येतत्सूत्रसूचितमुदाहरणम्स्वबुया मन्दयम्तीति परिजावयन् विगलितावलेपः सन्ने इमं च एरिसं तं च, तारिसं पेच्छ केरिसं जायं। भावयेत्-"निरटुयं" सूत्रद्वयम् । अकरगमनिका सैव,नवरं (निरध्यम्मि सि) निरर्थकेऽपि प्रक्रमात्प्रज्ञावझेपेरतो,मैथुनात्सुसं इय भणइ थूलजद्दो, सम्पायघरं गतो संतो।। वृतः सन्निरुद्धात्मा, सत्योऽहं यः साकारसमकं नाभिजानामि, ( पाईटीका) धर्म कल्याणं पापकं वा । अयमभिप्रायः-"जे एगं जाणति, से दं चेति द्रव्यम् , ईशमिति स्तम्भमूलस्थितमतिप्रभूतं सव्वं जाणति, जे सव्वं जाण, से एगं जाण" इत्याऽऽगमात् । च,अतिशयज्ञानित्वेन तस्य हदि विपरिवर्त्तमानतया द्रव्यस्ये. द्मस्थोऽहमेकमपि धर्म वस्तुस्वरूपं न तत्वतो वेनि, ततःसा. दमानिईशः, (तश्चेति ) तस्याज्ञानतः परिभ्रमणं, तारशमिति काद्भावस्वभावावनासि चेत्न विज्ञानमस्ति, किमतोऽपि मुकु विप्रकृष्टदुर्गदेशान्तरविषयं यस्य, कीदृशं केन सरशं जातम् ।। लितवस्तुस्वरूपपरिझानतोऽवलेपेनेति भावः। तथा तप उपधा न केनापि, नहि कश्चिद् गृहे सति व्ये द्रव्यार्थी बहिनादिभिरप्युपक्रमणहेतुभिरुपक्रमितुमशक्ये ग्अनि दारुणे वैरि म्यतीति भावः । इतीत्येवं भणति स्थूलभद्रः स्वजातिरिष णि निष्प्रतिपत्तिकः किल ममाह कारावसर इति सूबद्वयार्थः । स्वजातिरत्यन्तसुहृद्गृहं गतः सन्निति गाथार्थः । साम्प्रतमावृत्या पुनः सूत्रहारमङ्गीकृत्य प्रकृतसूत्रीपक्किप्त संप्रदायश्चात्र-यस्य च ज्ञानाजीणे स्यात् तेनापिहानपरीमज्ञानसद्भावे उदाहरणमाह षहो न सोढः। तत्रार्थे स्थूलभद्रकथापरितंतो वायणाएँ, गंगाकूलेऽपि घयसगमयाए । स्थूलभद्रस्वामी विहरन बालमित्रद्विजगृहं गतः,तत्र तमरष्टा Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) अमागण अभिधानराजेन्सः। प्रमाणिय तद्भार्या पृष्टवान्-क्वते पतिर्गतः? साप्राह-परदेशे धनार्जनार्थ प्रमाणया-अज्ञानता-स्त्री० । अज्ञानो निनिस्तस्य भावोगतोऽस्ति । ततः स्वामी तद्गृह स्तम्भमलस्थितं निधि पश्यन् | झानता । स्वरूपेणानुपश्वम्भे , भ० १ ० उ० स्तम्भाभिमुखं हस्तं कृत्वा "इदमीरशम, स च तारशः" इति भणित्वा गतः। ततः कालान्तरे गृहागतस्य विप्रस्य तद्भार्यया एणाणलचि--अज्ञानमन्धि-स्त्री०। आत्मनोऽझानस्य कानास्थूलभद्रस्वामिवचो शापितम्। तेन पण्डितेन ज्ञातम्-अत्रा- ऽऽवरणीयोदयतो लाने , “अन्नाणसद्धी ण नंते!कशविहा पमत्ता वश्य किश्चिदस्ति । ततः खानितः स्तम्भः। लब्धी निधिः। एवं ? गोयमा!तिविडा पम्पत्ता। तं जहा-मअम्माणलकी,सुयअमास्थूलभद्रेण मानपरीषहो न सोढः । शेषसाधुभिरपीदृशं न णलद्धी, विनंगणाणली " भ० ८ ० २ उ०।। कार्यम् । उत्त: ३०। (विषयान्तरं 'परीसह' शब्दे वक्ष्यते) भारतकाव्यनाटकादिलौकिकश्रुतरूपे पापश्रुतप्रसङ्गे, स्था०८ अप्माणवाइ (ए)-अज्ञानवादिन-त्रि० । सति मत्यादिके हेयोपादेयप्रदर्शके झानपञ्चके अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदति ठा। भावशुद्धप्रतिसेवाविशेषे , व्यः । तत्त्वं च अज्ञानिके, सूत्र. १ श्रु० १५ अ० । अन्नयरपमारणं, असंपत्तस्स नो पनत्तस्स । अण्णाणसत्य-अहानशास्त्र-न० । भारतकाव्यनाटकादी इरियाइसु नूयत्थे , अवट्टते एयमाणाणं ॥ लौकिकश्रुते, स्था० ए ग० । पश्चानां प्रमादामन्यतरेणापि प्रमादेनासंप्रयुक्तस्याकोमीकत-| प्राणााण (ण)-अकानिन्-त्रि० । न ज्ञानमहानं, तद्विद्यते स्थात एवादिषु समतिषु तार्थे न तत्त्वतो वर्तमानस्य यद्भ-| येषां तेऽशानिनः । अज्ञानमेव श्रेय इति वदत्सु वादिभेदेषु, वनमेतदकानम् । व्य० १० १० । कुशास्त्रसंस्कारेच, औ० ।। सूत्र०१ श्रु०१२ अ० ज्ञाननिहववादिष, "श्रमाणी प्रमाणं विनिर्माने (कानरहिते),त्रि० भ०१० ६ उ० । णवत्ता वेणश्यवादी"। सूत्र०१ श्रु०१२ श्र०ान शानिनोऽअण्णाणो-अज्ञानतस्-अव्य० । ज्ञानावरणोत्कटतयेत्यर्थे , शानिनः । नाब्दः कुत्सायाम् । मिथ्याझानेषु, पं०सं०१६/०। दश०१ चू। "अम्माणी कम्मं स्ववेति बहुयार्हि वासकोमोहि, तन्नाणी तिहि अएणाणाकरिया-अज्ञानक्रिया-स्त्री०। ५ त० । अज्ञानात् गुत्तो खवेश ऊसासमित्तेण" उत्त०१ अ०। अण्णाणी किं काही, क्रियमाणयोश्चेशकर्मणोः , स्था०३ ग०३०। ( श्रमाण किंवा णाही व्यपावगं" इत्यादि । सूत्र० १ श्रु० ७ अ०। किरिया तिविहा 'किरिया' शब्दे वदयते) अमा(भा)णिय-अझानिन्-पुं०। न ज्ञानमशानं, तद्विद्यते येषां अमाणणिवात्त-अज्ञाननित्ति-स्त्री। अज्ञानस्य निर्वृत्ती,भ01 | तेझानिनः। अज्ञानशब्दस्योत्तरपदत्वाद् वा मत्वर्थीयः। यथा-गी. "कविहाणं भंते ! प्रमाणणिवत्ती पम्मत्ता? गोयमा! तिविहा रखरवदरण्य मिति । प्राकृते स्वार्थिकः कः।सूत्र०११०१०१उ०। अरणाणणिवत्ती पमत्ता। तं जहा-मश्रणाणणिवत्ती,सुयत्र- आज्ञानिक-पुं० । अझानेन चरन्तीति आझानिकाः । प्रज्ञानं माणणिवत्ती, विनंगणाणणिबत्ती । एवं जस्स जर जाव वेमा- वा प्रयोजनं येषां ते आझानिकाः । श्राव०६अ।सम्यग्ज्ञानणिया" न. २६ श०८ उ०। रहितेषु अज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वादिषु, सूत्र०११०१०१३०। अएणाणतिग-अज्ञानत्रिक-न० 1 नश्शब्दः कुत्सायां, मिथ्या तन्मतं चेत्थमुपन्यस्यन्नाह सूत्रकृत्कानानामित्यर्थः । तेषां त्रिकं अज्ञानत्रिकम् । मिथ्याझानादित्रये, एणाणिया ता कुसना वि संता, पं० सं०१०। असंथुया णो वितिगिच्च तित्रा। एणाणदोस-अज्ञानदोष-पुं०। अज्ञानात्कुशास्त्रसंस्काराद हिं. अकोविया पाहु अकोविएहिं , सादिषधर्मस्वरूपेषु नरकादिकारणेषु धर्मबुद्ध्या ज्युदयार्थ या प्रवृत्तिस्तलकणो दोषोऽझानदोषः। अथवा उक्तलकणमझानमेव अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥२॥ दोषोऽवानदोष इति । स्था० ४ ०१ उ०।रोभ्यानस्य ते चाझानिकाः किन्न वयं कुशलाः, इत्येवं वादिनोऽपि लक्कणभेदे, भ०२५ श०७०।१०। प्रमाददोषे, प्राचा० सन्तोऽसंस्तुता अज्ञानमेव श्रेय इत्येवंवादितया असंबकाप्रसं१ श्रु०५ अ० १२० ।गा। स्तुतत्वादेव विचिकित्सा चित्तविप्मुतिश्चित्तनान्तिः संशतिप्रमाणपरीसह-अज्ञानपरीषह-पुं०।"झानचारित्रयुक्तोऽस्मि, स्तां न तीर्णा नातिक्रान्ताः। तथाहि-ते ऊचुः ये पते ज्ञानिनस्ते ग्यस्थोऽहं तथापि हि इत्यज्ञानं विषहेत,ज्ञानस्य क्रमलो नबेत्" परस्परविरुद्धवादितया असंबका असंस्तुतत्वादेव विचिकित्सा, ॥१॥ ति सोढव्ये परीषहभेदे, ध०३ अधिक प्रव०("प्रमाण" न यथार्थवादिनो जवन्ति । तथादि-एके सर्वगतमात्मानं वदन्ति। शब्देऽत्रैव भागे ४०८ पृष्ठेऽस्य तत्वमावदितम् ) तथाऽन्ये असर्वगतम् । श्रपरे अङ्गठपर्वमात्रम् । केचन श्यामाकअमाणपरीसहविजय-अज्ञानपरीषहविजय-पुं० । अज्ञोऽयं तन्दुलमात्रम् । अन्ये मूर्तममूर्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाटव्यवस्थि तमित्याद्यात्मपदार्थ एव सर्वपदार्थपुरःसरे तेषां नैकवाक्यता। पशुसमो नवेति किञ्चिदित्येवमधिक्केपवचनं सम्यक् सहमान नचातिशयज्ञानी कश्चिदस्तीति यद्वाक्यं प्रमाणीक्रियेत । नचासो स्थ परमदुष्करतपोऽनुष्ठामनिरतस्य नित्यमप्रमत्तचेतसो न मेs विद्यमानोऽप्युपत्रच्यतेऽर्वाग्दर्शिना। "नासर्वशः सबै जानाति" थापिहानातिशयः समुत्पद्यते इति चिन्तने , पश्चा०१३ विव० इति वचनात्" तथाचोक्तम्-"सर्वज्ञोऽसावितिधेत-सत्कालेऽपि प्रमाणफल-अज्ञानफल-त्रि०। अज्ञानमनवबोधस्तत्फलानि, बुजत्सुन्निः। तज्ज्ञान याविज्ञान-शून्यैर्विज्ञायते कथम् ?"|शन कानावरणरूपाणीत्यर्थः । धर्माचार्यगुरुश्रुतनिन्दारूपेषु ज्ञानावर- च तस्य रूम्यक् सपायपरिज्ञानाभावात्संनवः, संभवाभावश्चे. णकर्मसु , उत्त०२० । तरेतराश्रयत्वात् । तथाहि-न विशिष्टपरिकानमृते तदवाप्त्युपा१२३ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९० ) अभिधानराजेन्द्रः | प्राणिय पानम उपायमन्तरेण न चोपस्य विशिष्टपरिज्ञानस्याचासिरिति यस्य स्वरूप परिमल तथाहियत्किमप्युपलभ्यते, तस्यावाग्मभ्य परजाग र्भाव्यम् । तत्राग्भा गस्य चोपलब्धेनैतरयोः तेनैव व्ययस्याभागस्यापि भागकल्पनात तत्सर्वारातीयभागपरिकल्पनया परमाणुपयेमानता परमाणो स्यानाविकविप्रकृष्टत्वाददर्शनो पलब्धिरिति । तदेवं सर्वज्ञस्याभावादसर्वज्ञस्य च यथावस्थितवस्तुस्वरूपा परिच्छेदात्सर्ववादिनां च परस्परपदार्थ स्वरूपाभ्युपगमात् यथोत्तरपरिहामिनां प्रमादयां बहुतरासंभवादज्ञानमेव श्रेयः । तथादि-यद्यज्ञानवान् कथञ्चित्पादन शिरसि इन्यात्, तथापि चित्तशुद्धेन तथाविधदोषानुषङ्गी स्थादित्येवमज्ञानिन पचादिनः सन्तोन्नतिविति वितार्णा इति । तत्रैवंवादिनस्ते श्रज्ञानिका प्रकोविदा अनिपुणाः सम्यक्परिज्ञानावेकला इत्यवगन्तव्याः । तथाहि यसै - रभिहितम-ज्ञानचादिनः परस्परविरुद्धार्थ कादियान यथार्थया दिन इति तद्भवतु सर्वप्रीतागमाभ्युपगमचादिनामयथावादित्वम् । न चान्युपगमवादा एव बाधायै प्रकल्प्यन्ते, सर्वप्रणीतागमाभ्युपगमवाद्विनां तु न क्वचित्परस्परतो विरोधः, सहत्याप्रयथानुपपतेरिति तथाहि प्रावरणतया रागद्वेषमहानामन्नकारणानामनावा तामयथार्थमित्येवं तत्प्रणीतागमवतां न विरोधवादित्वमिति । ननु च स्यादेतत् यदि सर्वः स्यात् नचासो संभवतीत्युक्तं प्राकृ । सत्यमुक्तम् अयुक्तं तूक्तम् । तथाहि यत्तावदुक्तम् न चासी विद्यमानोऽप्युपग्दर्शिभिः। तदयुकमयो परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वात्सरागा वीतरागा व चेष्टन्ते, वीतरागाः सरागा व इत्यतः प्रत्यक्षेणानुपलब्धिः तथापि संभवानुमानस्य सद्भावात्तद्वाधकप्रमाणाभावाच तदस्तित्वमनिवार्यम् । संवानुमानं त्विदम व्याकरणादिना शास्त्राच्यासेन संस्क्रियमाणायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयो ज्ञेयावगमं प्रत्युपलब्धः तत्र कश्चित्तथाभूतान्यास यशात्सर्वशोऽपि स्थादिति । न च तदनावसाधकं प्रमाणमस्ति । तथाहि-न तादमित्य सर्वाभावः साधयितुं शक्यः । तस्य हि तज्ज्ञानायविज्ञानस्यपात्र इत्वाऽऽपत्तिरिति । नाप्यनुमानेन तदव्यजिचारिलिङ्गाजावादितिमा सर्वज्ञाभावः साभ्यते, तस्य सायलेन प्रवृत्तेः । न च सर्वज्ञानावे साध्ये ताम्विधं सादृश्यमस्ति येनासी सिभ्यतीति नाप्यपस्या, तस्याः प्रत्यादिप्रमा " " सर्व 9 पूर्वकत्वेन प्रवृत्तेः । प्रत्यकादीनां च तत्साधकत्वेनाप्रवर्तमानात् तस्याप्यप्रवृत्तिः । नाप्यागमेन, तस्य सर्वसाधकत्वेनापि दर्शनात् न प्रमाणपञ्चकाभावरूपेणाभावेन सर्वज्ञानायाः सिध्यति । तथादि सर्वत्र सर्वदान संभवति तद्माकममानो बनते तेन हि देशकालमित्र पानां पुरुषाणां यविहान तस्य प्रमा या तस्यैव सर्वहत्या उपसेनानर्तमान सर्वाभावं भावयति, तस्याव्यापकत्वात् । न चाव्यापकव्यानृत्य पाप्यासिकेति न च वस्वन्तरविज्ञानरूप भावः सर्वज्ञाभावसाधनायालम, वस्त्वन्तर सर्वयोरेकज्ञानसंसर्गप्रनिबन्धाभावात् । तदेवं सर्वबाधकप्रमाणाभावात्संजवानुमा नस्य च प्रतिपादितत्वादस्ति सर्वः तत्प्रर्णी नागमाज्युपगमामतभेददोषो दुरापास्त इति । तथाहि तत्प्रणीतागमाभ्यु 9 प्राणिय पगमादिनामेकवाक्यतया शरीरमाजव्यापी संसार्यात्मास्ति, तत्रैयन्धेः । इति इतरेतराश्रयदेोषश्चात्र नावतरत्येय । यतोऽन्यस्यमानायाः प्रज्ञाया ज्ञानातिशयः स्वात्मन्यपि दृष्टो, न पप नामेति । यनिहितम् तद्यथानानं - यस्य स्वरूपं परिलम, सर्वप्राग्भावनेत्यवधानस ssरातीयभागस्य च परमाणुरूपतयातीन्द्रियत्वादित्येतदपि वाङ्मात्रमेव । यतः सर्वज्ञानस्य देशकालस्वनावव्यवहितानामपि ग्रहणान्नास्ति व्यवधानसंभवः । श्रर्वाग्दर्शिज्ञानस्याप्यवयचद्वारेणापविनि प्रवृत्तेर्नास्ति व्यवधानम । न ह्यवयवी स्वावयवैवधीयत इति युक्तिसंगतम् । अपि च श्रज्ञानमेव श्रेय यत्राऽज्ञानमिति किमयं पर्युदासः १, आहोस्थिसत्यप्रतिषेधः तत्र यदि ज्ञानादन्यदानमिति ततः पर्युदासवृत्या नान्तरमेव समाधि स्थाद, नानवाद इति । अथ ज्ञानं न भवतीत्यज्ञानं, तुच्छो नीरूपो ज्ञानाभात्रः, स व सर्वसामर्थ्यरहित इति कथ श्रेयानिति । प्रानं श्रेय इति प्रसत्यप्रतिषेधेन ज्ञानं भय जयतीति क्रियाप्रतिषेध एव कृतः स्यात् । एतस्त्राध्यक्षबाधितम्, यतः सम्यग्ज्ञानादर्थे परिच्छेद्यमानोऽ कियार्थी न विसंवाद्यत इति । किश अज्ञानप्रमादयद्भिः पादेन शिरःस्पर्शनेऽपि स्वत्पदोष रिविज्ञानं श्रेय इत्युपगम्यते । एवं सति प्रत्यक्ष एव स्यादज्युपगमविरोधो नानुमानं प्रमाणमिति । तथा तदेवं सर्वथा ज्ञानादिनोऽ कोविदा धर्मोपदेशे प्रत्यनिपुणाः स्वतोऽकोविदेज्य एव स्वशिष्येज्यः, आहुः कथितवन्तः । बान्दसत्वाच्चैकवचनं सूत्रे कृतमिति । शाक्या अपि प्रायशोऽज्ञानिकाः। अविपतिं कर्म बन पातीत्येवं यतस्तेऽयुपगमयन्ति । तथा ये च बालमत्तसुतादयोऽस्पष्टविज्ञाना अबन्धका इत्येवमभ्युपगमं कुर्वन्ति, ते सर्वेऽप्यकोविदा इष्टव्या इति । तथाऽज्ञानपक्ष समाश्रयणाच्चाननुविचिन्त्य जापणान्मृषा ते सदा वदन्ति, अनुविचिन्त्य भाषणं यतो ज्ञाने सति भवति, तत्पूर्वकत्याच्य सत्यवादस्यातो ज्ञानानभ्युपगमादनुविचिन्त्य भाषणाभावः त दभावाच्च तेषां मृषावादित्वमिति ॥ २ ॥ सूत्र० १० १२ श्र० । इति दर्शितं सदृष्णमहानिनां मतम् । अय कियन्तस्ते ते दर्शयति नियुक्ति प एणायि सत्तट्ठी साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवचितकार्यसिद्धिमिच्छतां ज्ञानं तु सदाप निष्फलम्, बहुदोषत्वाश्चेत्येवमभ्युपगमवतां सप्तमेोपायनाप-जीवाजीवादन नय पदार्था परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भङ्गकाः संस्थाप्याः- सत्, असत, सदसत्, अवक्तव्यम्, सदवक्तव्यम्, असदवक्तव्यम, सदसदवक्तव्यमिति । अनिलापस्त्वयम् सन् जीवः, को वेत्ति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥१॥ असन् जीवः, को वेत्ति १, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥ २ ॥ सदसन् जीवः, को वेत्ति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥३॥ अवक्तभ्यो जीवः, को वेति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥४॥ सवक्तव्यो जीवः, को वेति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥ ५॥ असदवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥ ६ ॥ ससदवक्तब्यो जीवः, को बेति?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ॥७॥ एवमजीवादिष्यपि सप्त जङ्गकाः । सर्वेऽपि मिलितास्त्रिषष्टिः । तथाऽपरेऽमी चत्वारो नङ्गकाः । तथा सती जावोत्पत्तिः, को वेत्ति, किं वा तथा ज्ञातया ?|१| असती भावोत्पत्तिः, को वेति ?, किं वा तथा ज्ञातया ? |२| सदसती भावात्पत्तिः, को वेत्ति वा तया ज्ञातया । ३ । अवक्तव्या Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४००१ ) अभिधानराजेन्द्रः । पाणिय भावोत्पत्तिः, को वेत्ति ? किंवा तथा ज्ञातया ? |४| सर्वेऽपि सप्तषष्टरत्युत्तरं भङ्गकत्रयमुत्पन्नन्नावावययोपेक्कमिह नावोत्पतौ न संभवतीति नोपन्यस्तम् । उक्तं च- "अज्ञानिकवादिमतं, नव जी वादीन् सदादिसप्तविधान् ॥ भावोत्पत्तिः सदसद्, द्वेधा वाच्या व को वेत्ति ? " ॥ १ ॥ सूत्र०१०१२ श्र० । एतच्चतुष्टयप्र के पात्सप्तत्रष्टिर्नवाते । तत्र सन् जीव इति को वेसीत्यस्यायमर्थः- न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमस्ति योऽतीन्द्रियान् जीचादीनवभोत्स्यते । न त्र तैर्ज्ञातिः किञ्चित्फलमस्ति । तथाहि यदि नित्यः सर्वगतोऽमूर्ती ज्ञानादिगुणोपेत तद्गुणव्यतिरिको वा ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सिद्धिरिति तस्यादज्ञानमेष क्षेष इति सू० १ भु० १० २० | प्रब० । श्रचा० । स्था० । आव० । नं० । 1 साम्प्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टान्तमाहजविणो मिगा जहा संता परिचाण बजिआा । संकियाई संकेति संकिआई असंकिणो ॥ ६ ॥ परियाणिआणि संकंता, पासिताणि असंकिणो । अण्णाणजयसंविग्गा, पलित तर्हि तहि ॥७॥ तं पवेज्ज वज्यं, हे वज्रम वा वए । थेग्न पपपासाओ तं तु मंदे या देहई ॥ छ ॥ 四 , (जविणो इत्यादि ) यथा जविनो वेगवन्तः सन्तो मृगा - रण्याः पशवः, परि समन्तात् त्रायते रक्षतीति परित्राणं तेन वर्जिता रहिताः, परित्रात्विकला इत्यर्थः । यदि वा परित्राणं वागुरादिबन्धनं, तेन तर्जिता भयं गृहीताः सन्तो भयोवान्तलोचनाः समाकुलीभूतान्तः करणाः सम्यक् विवेकविकलाः, शनीयानि कृपाशादिरहितानि यानाणि ता न्येव शङ्कन्ते, अनर्थोत्पादकत्वेन गृएदन्ति । यानि पुनः शङ्काहांणि, शङ्का संजाता येषु योग्यत्वात्तानि शङ्कितानि शङ्कायोम्यानि वागुरादीनि तान्पराङ्किनस्तेषु शामकुर्वाणास्तत्र पाशादिके संपर्ययन्त इत्युत्तरेस संबन्धः ॥ ६ ॥ पुनरप्येतदेवाऽतिमोहाविष्करणायाह- [ परियासीत्यादि ] परित्रायते इति परिवारां तज्जातं येषु तानि यथा परित्राणयुकान्येव शङ्कमाना अतिमूढत्वाद्विपर्यस्तबुद्धयस्त्रातर्यपि भयमुत्प्रेक्षमाला पाशितानि पाशोपेतान्यनधपादकानि भि नः तेषु मकुर्वाणाः सन्तोऽज्ञानेन भयेन च [ संवियां ति] सम्यक् व्याप्ता वशीभूताः शङ्कनीयमशङ्कनीयं वा तत्राऽपरित्रा खोपेतं, पाशाद्यनर्थोपेतं वा, सम्यविवेकेनाऽजानानाः, तत्र त श्रानर्थबहुले पाशवागुरादि के बन्धने, संपर्ययन्ते समेकी भावेन परि समन्तात्, अयन्ते यान्ति वा, गच्छन्तीत्युक्तं भवति । तदेवं तं प्रसाध्य नियतिवादाधकान्ताऽज्ञानयादिनो दाष्टन्ति कत्वेनाऽऽयोज्याः । यतस्तेऽप्येकान्तवादिनोऽज्ञानकारस्त्राणभूतानेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं कालेश्वरादिकारणवा दाभ्युपगमेनाsनाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते । शङ्कनीयं नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शङ्कन्ते । ते एवंभूताः परित्राखाऽप्यनेकान्तवादे शङ्कां कुर्वाणा युक्तया घटमानकमनर्थ बहुलमेकान्तवादमशङ्कनीयत्वेन गृहन्तोऽज्ञानावृतास्तेषु तेषु कर्मबन्धस्थानेषु संपर्ययन्त इति ॥ ७ ॥ पूर्वदोषैरतुष्यन्नाचार्यो दोषान्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तनदष्टान्तमधिकृत्याह - [ श्रह तं पवेज्ज इत्यादि ] श्रथानन्तरमसौ मृगस्तव]] [[पामिति ] बद्धं बन्धनाकारण व्यवस्थितम् । मालिय , 3 वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद्वधमि कूटपाशादिकं बन्धनं यथायुपर प्लयेरन स्योपरि गच्छेत् तस्य वध्यादेर्वन्धनस्याधो गच्छेत्तत एवं क्रियमाणेऽसौ मृगः पदे पाशः पदपाशी वागुरादिवन्धनं, तस्मान्मुच्यते । यदि यापदं तं पाप्राज्यांमु कचित् पतिपते । आदिग्रहणाच्छादनमारणाविका किया सम्मा परिर णोपायं मन्दो जमोऽज्ञानावृतो न देहतीति न पश्यतीति ॥ कृपाशादिकं चापश्यन् यामवस्थामाप्नोमि तदनुमा " अप्पा हियपणाणे, विममंतेणुवागते । स बच्चे पयपासेणं, तत्थ घायं नियच्छइ || ६॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिश्रा । संकिई संकेति, संकिआई असंकिणो ॥ १० ॥ धम्मपणवरणाजा सा तं तु संकंति सूदगा । आरंजाई न संकेति, अविता अकोदिया ।। ११ ।। सम्पर्ग विकस्सं सम्बं मं विवि । अप्पत्ति अकम्पैसे एम मिगे हुए। १२ ।। , (अह त्यादि ) स मृगोऽदितामा तथाऽदितं महाबोध यस्य सोsहितप्रज्ञानः । स चाहितप्रज्ञानः सन् विश्रमान्तेन कूटपाशादि युक्तप्रदेशेनोपागतः । यदि या विषमा फूटपाशादिके आत्मानमनुपातयेत् । तत्र बासौ पतितो बरुश्च तेन कुटादिना पदयाशादी मनलाग न्धने, घातं विनाशं नियच्छति प्राप्नोतीति ॥ ६ ॥ " एवं दृष्टान्तं प्रदर्श्य सूत्रकार एवं दान्तिक मज्ञान विपाकं दर्शयितुमाह ( एवं तु इत्यादि) पवमिति यथा मृगा अज्ञानावृता अनर्थमनेकशः प्राप्नुवन्ति । तुरवधारणे । एवमेव, श्रमणाः केचित् पाखएमविशेषाश्रिताः । एके, न सर्वे । किं भूतास्ते इति दर्शयति-या विपरितापामानादिनां, नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः । तथा अनार्याः आराज्जाताः सर्वदेयधर्मेभ्य इति आर्याः न श्रर्या श्रनार्या अज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायिन इति यावत् । अज्ञानावृतत्वं च दर्शयति शकितनीयानि सुधर्मानुष्ठानादगि शङ्कमाना तथा शङ्कनीयान्यपायबलान्ये कान्त पक्षसमाश्रयणानि, श्रशङ्किनो मृगा इव मूढचेतसस्ततदारभन्ते यद्यदनर्थाय संपद्यन्त इति ॥ १० ॥ 9 3 शनीयाङ्कनीयविपर्यास माह : धम्मपणवत्यादि) धर्मस्य कान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा । तं त्विति । सामेव शङ्कते । असदप्ररूपणेयमित्येव मध्यवस्यन्ति ये पुनः पापपादानभूताः समारम्ननाशन्ते किमिति मुग्धाः सहजसद्विवेक विकलाः तथा अकोविदा अपमिताः सच्चाखाचरहिता इति ॥ ११ ॥ 9 ते च श्रज्ञानावृता यनाप्नुवन्ति तदर्शनायाह - ( सवप्पमित्यादि) सयंत्राप्यामा यस्यास सर्वात्मको जोन तं विधूये ति संबन्धः । तथा विविध उत्कर्षो गर्यो व्युत्कर्षो मान इत्यर्थः । तथा (णूमं ति) माया, तां विधूय । तथा ( अप्प सिनं ति ) क्रोधं विधूय पायधूनने व मोदनीय वधूननमायेदितं भवति । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) अमाणिय अभिधानराजेन्द्रः । अस्माणिय तदपगमाच्च शेषकर्माजावःप्रतिपादितो भवतीत्याह-[अकर्मी- | स्त्वनाभोगेन स्पृशति तस्मै न कश्चिदपराध्यतीत्येवं चाकानमेव शति ] न विद्यते कर्माशोऽस्यत्यकौशः। स च कर्माशो प्रधानभावमनुभवति, न तु ज्ञानमिति ॥ १६ ॥ विशिष्टज्ञानादू भवति, नासानादित्येव दर्शयति । एतमर्थ कर्मा __ एवमझानवादिमतमन्चेदानीं तदूषणायाहभावलकणं, मृगः अनानी (चुए त्ति) त्यजेत् । विनक्तिविपरिणामेन वा अस्मादेवंभूतादर्थात् च्यवेद् भ्रश्येदिति ।। १२ ।। अन्नाणियाणं वीमंसा, नाणे ण विनियच्छइ । अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासि ? ॥ १७॥ भूयोऽप्यझानवादिनां दोषाभिधित्सयाऽऽ४ वणे मुढे जहा जंतू, मूढे णेयाणुगामिए ।। ने एयं नाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया। दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्च ॥ १८ ॥ मिगा वा पासवफा ते, घायमेसंतितसो १३ ॥ अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणु गच्छ । माहणा समणा एगे, सव्वे नाणं मयं वए। आवज्जे उप्पर जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ।। १ ।। सबलोगे विजे पाणा, न ते जाणंति किंचण ॥१४॥ एवमेगे णियायही, धम्ममाराहगा वयं । मिलकर अमिलक्खुस्स, जहा वृत्ताऽणुभामए । अदुवा अहम्ममावज्जे, ए ते सव्बज्जयं वए ॥२०॥ ण हेउं से विजाणार, नामिअं अणुभासए ।। १५॥ (अनाणियाणमित्यादि ) न ज्ञानमझानं,तविद्यते येषां तेझाएवामन्नाणिया नाणं, वयंता वि सयं सयं । निनः । अज्ञानशब्दस्योत्तरपदत्वाद् वा मत्वर्थीयः । यथा गौरनिच्छयत्यं न जाणंति, मिनक्खु ब्व अवोहिया।॥१६॥ खरवदरएपमिति । यथा तेषामझानिनामज्ञानमेव श्रेयः, इत्मे. (जे एयमित्यादि) ये अज्ञानपतं समाश्रिता एनं कर्मकपणोपाय वंवादिनां योऽयं विमर्शः पालोचनात्मकः, मीमांसा बा न जानन्ति । आत्मीयाऽसद्ग्राहाऽऽग्रहप्रस्ता मिथ्यारष्टयोऽनार्या- मातुं परिच्छेत्तुमिच्छा सा, अज्ञानेऽज्ञानविषये (ण णियच्छक) स्ते मृगा श्व पाशवका घातं विनाशमेष्यन्ति यास्यन्त्यन्वेषयन्ति न निश्चयेन यति नावतरति, न युज्यत इति यावत् । था, तद्योग्यक्रियाऽनुष्ठानात् । अनन्तशो विच्छेदेनेत्यज्ञानवादिनो तथाहि-यैवंभूता मीमांसा, विमशी वा, किमेत ज्ञानं सत्यगताः ॥१३॥ श्दानीमज्ञानवादिनां दृषणोद्विनावयिषया स्ववाग्य- मुताऽसत्यमिति ? । यथा अज्ञानमेव अयो, यथा यथा च कात्रिता वादिनो न चलिष्यन्तीति तन्मताविष्करणायाऽऽह-(मा- नातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेक इति, सोऽयमेवंतूतो हणा इत्यादि) पके केचन, ब्राह्मणविशेषाः,तथा श्रमणाः परिणा- विमर्शस्तेषां न बुध्यते । एवंनूतस्य पर्यालोचनस्य शानरूपजकविशेषाः, सर्वेऽप्येते, झायतऽनेनेति ज्ञानम् । हेयोपादेयार्था- स्वादिति । अपि च-तेशानवादिन आत्मनोऽपि, परंप्रधानमका वि वर्क परस्परविरोधेन व्यवस्थितं, स्वकमात्मीय, वदन्ति । नवादमिति, शासितुमुपदेष्टुं, नालं न समर्थाः। तेषामझानपक्षसनच तानि कानानि परस्परविरोधेन प्रवृत्सवात्सत्यानि ! तस्मा- माश्रयणेनाइत्वादिति, कुतः पुनस्ते स्वयमकाः सन्तोऽन्येषां दज्ञानमेव श्रेयः,किं ज्ञानपरिकल्पनया इत्येतद्दर्शयति-सर्वस्मि- शिष्यत्वेनोपगतानामझानवादमुपदेष्टमलं समर्था भवेयुरिति ? अपि सोके, ये प्राणाः प्राणिनः, न ते किंचनापि सम्यगुपेतवाचं यदप्युक्तम-चिन्नमूलत्वात् म्लेच्छानुभाषणवत् सर्वमुपदेशादिजानन्तीति विदन्तीति ॥१४॥ यदपि तेषां गुरुपारम्पर्येण शानमा- कम् । तदप्ययुक्तम् । यतोऽनुभाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तुं शक्यते। यातं,तदपि छिन्नमूत्रत्वादवितथं न भवतीति दृष्टान्तद्वारेण द-| तथा यदप्युक्तम्-परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वादशानमेव श्रेय इ. शयितुमाह-(मिलक्खू आमियमखुस्सेत्यादि) यथा म्लेच्छ आर्य- ति। तदप्यसत् । यता भवतैवाझानमेव श्रेय इत्येवं परोपदेशदानाषाऽननिका, अम्लेच्चस्यार्यस्य म्लेच्छभाषाऽननिशस्य, यद्भा- नाभ्युद्यतेन परचेतावृत्तिज्ञानस्याज्युपगमः कृत इति । तथा:षितं,तदनुन्नापते अनुवदति, केवलं न सम्यक् तदभिप्रायं वेत्ति- न्यैरप्यज्यधायि-"प्राकाररिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषितेन च । यथाऽनया विवकयाऽनेन भाषितमिति । न च हेतु निमित्तं, नेत्रवक्त्रविकारैश्च, गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः" ॥ १७ ॥ तदेवं ते त. निश्चयेनासौ म्लेच्चस्तद्भाषितस्य जानाति, केवलं परमार्थशून्य पस्विनोऽशानिन प्रात्मनः परेषां च शासने कर्तव्ये यथा तद्भाषितमेवानुभाषत ति ॥ १५ ॥ एवं दृष्टान्तं प्रदर्य दाष्टी- न समर्थास्तथा दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-विणे इत्यान्तिकं योजयितुमाह-(एवमित्यादि) यथा म्लेच्चा, अम्लेच्च- दि)। वनेष्टव्यां, यथा कश्चिन्मूढो जन्तुःप्राणी, दिकपरिच्छेदं स्य परमार्थमजानानः केवलं तद्भाषिताननुभाषते, तथा प्रज्ञा- कर्तुमसमर्थः, स एवंभूतो यदा परं मूढमेव नेतारमनुगति , नकाः सम्यगझानरहिताः श्रमणा ब्राह्मणा वदन्तोऽपिस्वीयं स्वी- तदा द्वावप्यकोविदा सम्राज्ञानानिपुणौ सन्ता, तीवमसा, यंकानं प्रमाणत्वेन परस्परविरुद्धार्थनाषणात,निश्चयार्थ न जान- स्रोतो गहनं, शोक वा, नियच्छतो निश्चयेन गच्चतः प्राप्नुतः, न्ति । तथाहि-ते स्वकीयं तीर्थकरं सर्वज्ञत्वन निर्कार्य तदुपदे- भज्ञानावृतत्वात । एवं तेऽप्यमानवादिन आत्मीयं मार्ग शोजनशन क्रियासुप्रवर्तेरन्, न च सर्वविवका अर्वाग्दर्शनिना प्रहीतुं त्वेन निर्धारयन्तः परकीयं वाऽशोन्जनत्वेन जानानाः स्वयं शक्यते, "नासर्वज्ञः सर्व जानातीति" न्यायात् । तथाचोक्त- मूढाः सन्तः परानपि मोहयन्तीत ॥ १८॥ अस्मिन्नवार्य ह. म-"सर्वशोऽसाविति ह्येत-तत्कालेऽपि बुनुत्सुभिः । तज्ज्ञान- टान्तान्तरमाह-( अंधो अंधमित्यादि ) यथा अन्धः स्वशेयविज्ञान-रहितैगम्यते कथा ?" ॥१॥ एवं परचेतोवृत्तीनां यमपरमन्धं पन्थानं नयन, दूरमध्वानं विवकितादश्वनः पर. दरन्वयवादुपदेष्टुरपियथावस्थितविध क्या ग्रहणाऽसंभवानिश्व- तरं गच्छति, तथोत्पथमापद्यते जन्तुरन्धः । अथवा-परं पयार्थमजानाना म्लेच्छवदपरोक्तमनुभाषन्त एव । अबोधिका बो- स्थानमनुगच्छन्न विवक्तिमवाध्वानमनुयायादिति ॥ १९ ॥ एवं पहिताः, केवामित्यतोऽज्ञानमेव श्रेय इति। एवं यावद्यावका- रशान्तं प्रसाध्य दार्धान्तिकमर्थ दर्शयितुमाह-(एवमेगे नियायनाभ्युपगमस्तावत्ताबद्रुतरदोषसंजवः । तथाहि-योऽवगच्छन् हिति)। पवमिति पूर्वोक्तोऽर्थोपप्रदर्शने । एवं भावसूडा भापादेन कस्यचित् शिरः स्पृशति, तस्य महानपराधो भवति । य- वान्धाश्चै के आजीविकादयः, (नियायट्टि त्ति) । नयो मोक्का, सद् Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) प्रणाणिय अभिधानराजेन्द्रः। प्रणादत्तहर धो वा, तदार्थनस्ते किल वयं समाराधका इत्येवं संधाय कल वयं सम्माराधका इत्येवं संधाय | एणात (य)-प्रज्ञात-त्रि० । अनधिगते सम्यगनवधारिते, प्रत्रज्यायामुघताः सन्तः पृथिव्यम्बुवनस्पत्यादिकायोपमर्दैन । ध०३ अधि०। अनुमानेनाऽविषयीकृते,त्र.३ श०६.। पचनपाचनादिक्रियासु प्रवृत्ताः सन्तस्तत्तत् स्वयमनुतिष्ठन्ति, स्वयं स्वजनादिसंबन्धाऽकथनेन गृहस्थरपरिझातस्वभावादिअन्येषां चोपदिशन्ति, येनाभिप्रेतावा माकाप्तनश्यन्ति । अथ. भावे भिकी, प्रश्नः१ सम्ब० हा० । यत्र प्रामादा प्रतिमा वा तावन्मोक्षाभावस्तमेवं प्रवर्तमाना अधर्म पापमापोरन् । प्रतिपन्ना, तयाऽविदिते , प्रव०६७ द्वा० । जातिकुलसद्रव्यापुनरपि तद्दूषणानिधित्सयाऽऽह दिनाउपरीकिते, उत्त०२०। राजादिप्रतीजतत्वेनाविदितएवमेगे पियक्काहिं, नो अन्नं पज्जुवासिया । स्य भैदये, पञ्चा०१७ विवा "अमाय णाम जहा, अचित्तको अप्पणो य वियकाहिं, अयमंज़ हि दुम्मई । २१ । चित्तं काऊण ण जाणति" अझत्वात् अल्पविज्ञानत्वादित्यर्थः। एवं तकाइ साहिंता, धम्माधम्मे अकोदिया। नि० चू० १५००। दुक्खं ते नातुटुंति, सनणी पंजरं जहा ॥ २॥ प्रहात (य) नच-अझातोञ्छ-न० । विशुझोपकरणग्रहणे, सयं सयं पसंमंता, गरहंता परं वयं । दश०३चू० । परिचयाकरणे, दश० ९ अ०३ ००। जे उ तत्य विउस्संति, संसारं ते विनस्सिया ॥२३॥ श्रणाओं दुविहं, दव्वे भावे य होइ नायब्वं । (पवमित्यादि) एवमनन्तरोक्तया नीत्या एके केचनाऽझानि दबु णेगविहं, लोगरिमीणं मुणेयव्वं ॥ का वितर्कातिमीमांसाभिः स्वोत्प्रेक्विताभिरसत्कल्पनाभिः, अज्ञातो द्विविधम् । तद्यथा-व्ये नावेच । तत्र द्रव्योम्छमपरमन्यमाहतादिकं ज्ञानवादिनं न पर्युपासते न सेवन्ते । स्वा नेकविधं सोकमृषीणां तापसानां ज्ञातव्यम् । बलेपग्रहप्रस्ता वयमेव तत्त्वज्ञानानिझानपराः केचिदित्यवं तदेवानेकविधं व्योञ्चमाहमान्य पर्युपासते इति । तथाऽऽत्मीयैर्विकल्परेवमभ्युपगतवन्तो नक्खल खलए दब्बी, दंमे संमासए य पोती य । यथाऽयमेवास्मदीयोऽज्ञानमेव श्रेय इत्येवमात्मको मार्गः। (अंजू श्रामे पके य तहा, दबोंछे होड निक्खेवो ॥ रिति) निर्दोषत्वाद् व्यक्तः स्पष्टः परस्तिरस्कर्तुमशक्यः; जुर्वा तापसा उञ्चवृत्तयः, उखले टितेषु तन्मुलेषुये परिशटिताः प्रगुणोकुटिलः, यथावस्थितार्धाभिधायित्वात् । किमिति एवम शालितन्दुलादयस्तान् सच्चित्य रन्धन्ति । ( खलए त्ति) निदधति ?-हिर्यस्मादर्थे । यस्मात्ते दुर्मतयो विपर्यस्तबुष्य | खले धान्ये मदिते संव्यूढे च यत् परिशटितं तत् सच्चिन्यन्ति । श्त्यर्थः ।। २१ ॥ ( दवी ति ) धान्यराशेयदेकया दा उत्पाट्यते तद् सांप्रतमज्ञानवादिनां स्पष्टमेवाऽनानिधित्सयाऽऽह-(एवं त. गृहन्ति । एवमन्यत्रापि प्रतिदिवसं (दम त्ति) स्वामिनमकाइ इत्यादि) एवं पूर्वोक्तन्यायन तर्कया स्वकीयविकल्प-| नुज्ञाप्य यद् धान्यराशेरेकया यष्टचा उत्पाट्यते तद् गृहन्ति, नया साधयन्तः प्रतिपादयन्तो धर्म कान्त्यादिकेऽधमे च जी. एतदेवमन्यत्रापि प्रतिदिवसं ( समासप ति) अष्टप्रदेघोपमपादित पापेऽकोविदा अनिपुणा दुःखमसातोदयनक- शिनीभ्यां यद् गृह्यते शाल्यादिकंतावन्मात्र प्रतिगृहं गृहन्ति। ण तद्धेतुं वा, मिथ्यात्वाद्युपचितकर्मबन्धनं नातित्रोटयन्ति, अति-! यद्यपि बहुकं पश्यन्ति शाल्यादि, तथापि न मुष्टिं भृत्वा गृशयनेतद्यवस्थितम् । तथा तेन त्रोटयन्स्यपनयन्तीति। अत्ररान्त- एहन्ति [पोत्ती य त्ति] स्वामिनमनुशाप्य धान्यराशी पोस्ति मादन्यथा पारस्थः शकुनिः परं नोरयितुं पअरबन्धनादात्मानं तिपन्ति, तत्र यत् पोसौ लगति तद् गृहन्ति । एवमन्यत्रापि। मोचयितुं नानम् , एवमसावपि संसारपञ्जरादात्मानं मोचयितुं तथा श्राम, पकं वा यश्चरकादयो भिक्षाप्रविष्टा मृगयन्ते, पष नासमिति ॥२२॥ भवति व्योञ्छे निक्षेपः। अधुना सामान्यनकान्तवादिमतपणार्थमाह-( सय सयमि संप्रति भावोञ्छमाहत्यादि ) स्वकं स्वकमात्मीयं च दर्शनमभ्युपगतं प्रशंसन्तो पमिमापमिवसे ए-स जयवमजकिर एत्तिया दत्ती। वर्णयन्तः समर्थयन्तो वा , तथा गईमाणा निन्दन्तः परकीयां वाचम् । तथाहि-सांख्याः सर्वस्याविर्भावतिरोनाववादिनः सर्वे आदियति त्ति न नजद, अन्नाओ तबो जणिती ॥ प्रतिमाप्रतिपन्न एष भगवान् अद्य किल पतावद् दत्तीरा. वस्तु क्वणिकं निरन्वयं निरीश्वरं वेत्यादिवादिनो बौछान् दूषयन्ति । तेऽपि नित्यस्य क्रमयोगपद्यान्यामर्थक्रियाविरहात सां दत्ते इति न झायते, तेन तस्य भगवतस्तपोऽनातोञ्छ भवति। क्यान् । एवमन्येऽपि पटव्या इति । तदेवं य एकान्तवादिनः । व्य०१० उ०। सुरवधारणे जिन्नक्रमश्च । तत्रैव तेम्वेवाऽत्मीयात्मीयेषु दर्शनेषु । | अप्पात (य) चरय-अज्ञातचरक-पुं०। अक्षातोऽनुपदर्शितप्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगईमाणा विद्धस्यन्ते विद्वांस सौजन्यादिभावः सँश्चरति यः स तथा। औ०। प्रशातेषु वा स्वाऽचरन्ति । तेषु वा विशेषेणोशन्ति स्वशास्त्रविषये विशिएं गृहेषु चरतीति अज्ञातः। अशातगृहे वा चरामीत्यभिग्रहयति, पुक्तिवातं वदन्ति । ते चैवं वादिनः संसारं चतुर्गतिनेदेन संस- सूत्र० २ श्रु० २ १०। प्रकारमुत्प्राबल्यन श्रिताः संपद्धाः तत्र चा | अमातपिंग-अज्ञातपिएड-joअशातश्चासौ पिएडवाऽमातसंसारे उषिताः संसारान्तर्वर्तिनः सर्वदा जवन्तीत्यर्थः॥२३॥ पिंडः। अन्तप्रान्तरूपे पिण्डे, अशातेभ्यः पिराडोशातपिण्डः। सूत्र.१०१०२ उ०।। अशातेभ्यः पूर्वाऽपरसंस्तुतेभ्य उच्छवृत्त्या लब्धे पिण्डे, "श्र. प्रएपणियवाइ (एमज्ञानिकवादिन-पुं० । कानमन्यु- मातपिडेण हि पासपज्जा, णो पूयणं तवसा श्रावहेज्जा " पगमवारण येषामात तेऽशानिकास्त पव वादिनोऽज्ञानिकवा. | | सूत्र०१श्रु०१०१ उ० । दिना मकानमेव श्रेय श्त्येवं प्रतिष, स्था०४ ग०४ सत्राप्रमादत्तहर-अन्यादत्तहर-त्रिका अन्यरदत्तमनिस्ष्ट हरत्या Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए ) पादत्तहर अन्निधानराजेन्दः । अपारंनणिवित्ति दसे इत्यन्यादत्तहरः। ग्रामनगरादिषु चौर्यकृति, उत्त०७ असा गृहीत्वाऽदारपट्टराझ्या, असुतायाः सुतं जवात् । १३ । प्रणा (त्रा) दि । रि) स-अन्याश-त्रि० । अन्येव : पृष्टा साध्वीभिरास्यत्सा, मृतोऽजन्युज्झितस्ततः । श्यते । अन्य-हश-कश् , अात्वम् । " रशेः किप्टक्सकः" पट्टराझ्या समं चके, साऽथ सख्यं गतागतैः। २४। ८१२४२। इति ऋतो रिः । अन्यसदृशे, प्रा०। मणिप्रभाख्यस्तत्मनुसृते राझ्यभवन्नृपः। साच्याः सचातिजक्तोऽस्या, राजा चावन्तिवर्धनः। १५ । अएणाय-अन्याय्य-त्रि न्यायादपेते, सूत्र०१७०१३ मा नाताऽमारि न साऽथाऽभूत्, पश्चासापेन पीडितः। एणायनासि(ए)-अन्याय्य नापिन्-त्रि० । अन्याय्यं भा- राज्यं नातसुतेऽवन्ति-सेने न्यस्याग्रहीद व्रतम् । १६ । पितुं शीलमस्य सोऽन्याय्य जाधी। यत्किञ्चन भाषिणि, अस्थान सा कौशाम्बीनृपाइएम-मयाचन्न स दत्तवान् । धर्मघोषस्तयोरेका, प्रपेदेऽनशनं यतिः। १७॥ प्राषिणि, गुर्वाद्यधिक्केपकरे च । “जे विग्गहीए प्राणायभासी, भूयान्ममापि विगत-भयाया श्व सत्कृतिः। न से समे हो अ पने" सूत्र० १ श्रु० १३ अ० । द्वतीयीकस्तु कौशाम्बी-मवन्ती चान्तरा गिरौ ॥१८॥ अणायया-अज्ञातता-स्त्री० । तपसो यशःपूजाऽऽद्यर्थित्वेना. गुहाया वत्सकातीरे निरीहोऽनशनं व्यधात् । प्रकाशयाद्भिः करणे, स० ३२ सम । कोऽर्थः १, पूर्व परीषह- श्तश्चागत्य कौशाम्बी, रुरोधावन्तिसेनराट् ॥ १५॥ समर्थानां यदुपधानं क्रियते, तद्यथा लोको न जानाति धर्मघोषान्तिके नागाद, भयत्रस्तस्ततो जनः। तथा कर्तव्यम्, विश्वातं वा कृतं न नयेत,प्रच्छन्नं वा कृतं न-| सच चिन्तितमप्राप्तो, मृतो द्वारेण निगतः॥१०॥ येत् । भाव०४०। न लज्यते ततः किप्ता, द्वारोपरितलेन सः। अशातद्वारमाह साउथ प्रवजिता दध्यो, मा नधुके जनवयः॥११॥ कोसंवि अजिअसेणो, धम्मवसू धम्मघोस-धम्मजसो । ततश्चान्तःपुरे गत्वा-वोचन्मणिप्रनं रहा । जात्रा सह कथं योत्स्ये, सोऽवक कथमिदं ततः॥२२॥ विगयजया विणयबई, शकृिविनुसाइ परिकम्मे ॥ १॥ सर्व प्रबन्धमाचस्यौ, पृच्चाऽम्बां प्रत्ययो न चेत। कौशाम्बीत्यस्ति पूस्तत्रा-जितसेनो महीपतिः। पृष्ठाऽम्बाऽऽख्यत्कथावृत्तं, नाममुद्रामदर्शयत ॥१३ ॥ धारिणीत्यभिधा देवी, तत्र धर्मवसुर्गुरुः ॥१॥ राष्ट्रवर्द्धनसत्कानि, सायाभरणानि च । धर्मघोषो धर्मयशा-स्तस्यान्तेवासिनावुभौ । प्रथोचे प्रसरदूलज्जे, सोचे तं सोऽपि भोत्स्यते ॥ २४॥ प्रासीद्विनयवत्याख्या. तत्र तेषां महत्तरा ॥२॥ इत्युक्त्वा सा विनिर्गत्या-बन्तिसेनदलेऽगमत् । सच्छिष्या विगतभया, विदधेऽनशनं तपः। उपलक्य जनाः सर्वेऽ-वन्तिसेननृपस्य ताम् ॥ २५ ॥ महाप्रभावनापूर्व, सहस्तां निरयामयत् ॥३॥ आख्यनिहागताऽप्रया ते, दृष्टोऽपश्यन्ननाम ताम् । तौ च धर्मवसोः शिष्यौ, कुरुतः परिकर्मणाम् । मातः! कथमिदं चक्रे, सर्व तस्याप्यचीकथत् ॥२६॥ इतश्च तेदप तव सोदों, मिलितो ताक्यो मिथः । उज्जेणिऽतिवण, पालय सुरहवदो चेव । स्थित्वैकमासं कौशाम्भ्यां, द्वावप्युजयिनी गतौ ॥ २७ ॥ निन्ये सगुरुकाऽम्बाऽपि, वत्स्कातीरपर्वते । धारिणीऽवंतिसेणे, मणिप्पनो बच्चगातीरे ॥१॥ तत्रारोहावरोहांस्ते, कुर्वतो वीक्ष्य संयतान् ॥२८॥ उज्जयिन्यस्ति पूर्भूभृत् , प्रद्योतस्तत्सुतावुभौ । राष्ट्वा तेऽप्यगमन्नन्तुं, नृपो नत्वा मुनि मुदा । प्रायः पालकनामाऽभू-लघुर्गोपालकः पुनः॥४॥ चक्रतुर्दावपि स्थित्वा, महिमानं जनैः सह ॥२५॥ गोपालकः प्रववाज, पालको राज्यमासदत। एवं तस्याजनि श्रेष्ठा-निच्छतोऽपि हि सत्कृतिः । अवन्तिवर्धनो राष्ट्र-वर्द्धनश्चेति तत्सुतौ ॥॥ द्वितीयस्थतोऽप्यासी- सत्कारबवोऽपि हि ॥ ३० ॥ तौ राज-युवराजौच, कृत्वाऽभूत्पालको वती। ततो धर्मयशोऽवनिरीहं तपः कार्यम् । प्रा०क० । धारिणीकुक्षिजोऽवन्ति-सेनोऽभूद युवराजसूः ॥६॥ प्राणायवशविवेग-अज्ञातवाग्विवेक-पुं० । शुभाशुरुयोग्याभूभुजाऽन्येगुरुद्याने, स्वेच्छस्थाऽदार्श धारिणी । योग्यविषयत्वादिरूपो यैस्ते । वाग्विवेकमझातवत्सु, द्वा। कचे दूत्याऽनुरक्तस्तां, सा नैच्छद्भशमीलिता॥७॥ "प्रज्ञातवाग्विवेकानां, पएिमतत्वाभिमानिनाम् । यथा भावेन साऽवोच-बचातुरपि लजसे?। विषयं वर्तते वाचि, मुखेनाशीविषस्य तत्" ॥द्वा०२वा। ततोऽसौ मारितस्तेन, स्वशील साऽथ रक्षितुम ॥८॥ ययौ सार्थेन कौशाम्बी-मात्तस्वाभरणोच्चया । भएणायसील-अझातशील-त्रि० । पएिमतरण्यातस्वभावे, भूभुको यानशालायां, स्थिताः साध्वीनिरीक्ष्य सा ॥६॥ अग्रह्मशीले च। “ताणं अएणायसीलाणं (नारीणं)" तासांनाघन्दित्वा श्राविका साऽभूत्, क्रमाच्च वतमग्रहीत् । रीणामझातशीलानां परिमतैरप्यज्ञातस्वभावानाम् । यद्वा-नकागर्भ न सन्तमप्यास्यदू, व्रतलोभभयात्पुनः ॥१०॥ तं नाङ्गीकृतं शीलं ब्रह्मस्वरूपं याभिस्ता अज्ञातशीलास्तासाम् । झातो महत्तरायाः स्वः, सद्भावोऽथ निवेदितः। यद्वा-नमः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं झातं शीलं साध्वीनां याभिः मुगुप्त स्थापिता साऽथ, रात्री पुत्रमजीजनत् । ११ । परिवाजिकायोगिन्यादिभिस्ता अशातशीलास्तासाम, तं०। . स्वमुजावरणास्तिं, तदैवाभृष्य नृपतेः। अएणारंनाणवित्ति-अन्यारम्ननिवृत्ति-स्त्री० । कृप्याद्यारसौधागणे स्थापयित्वा, प्रकृन्ना स्वयमस्थित ।१२। म्नत्यागे, “ अण्णारंजणिवित्तीय , अप्पणा हिटणं चेव"। पार्थिवोऽजितसेनस्तं, दृष्ट्वाऽऽकाशतलस्थितः। पञ्चा०७ क्वि.. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०५ ) अभिधानराजेन्द्रः । अणावएस अण्णा एस-अन्यापदेश-पुं० । अन्यस्य परस्य संबन्धीं शुरुमात्यपदेशो व्याजोऽन्यापदेशः । परकीयमेततेन साधुज्यते इति साधुसम भने जानन्तु साधनो यस्मै तद् भक्तादिकं जवेत्तदा कथमस्मभ्यं न दद्यादिति साधुसंप्रत्ययार्थम् । अथ वा अस्माद्दानात् ममान्नादेः पुण्यमस्थिति प्रणने च पप अतिधिसंविनागस्य पक्षमोऽतिचारः । ४० २ अधि० । रियन्वित - त्रि० युक्ते, सूत्र०१०१० [अ०] व्य० उत्त प्राणपाउच अनिका- ० जयसिंहनाम्नो वणिकपुत्रस्य जामे: अनिकायाः पुत्रे, ती० । कतमः स महामुनिः ? । तदनु जगादमिक देव! उतरमपुरायां वास्तव्यो देवताक्यो वणिक पुत्रो दिम्यात्रार्थे दक्षिणमधुरामगमत्, तत्र तस्य जसिंहनामा पणिकपुत्रेण सह सौहार्यमभवत् अन्यदा - खानो ऽनिकानाम्नी तज्जामि स्थाने भोजनं परिवेष्य वातव्य जनं कुर्वती रम्यरूपामालोक्य तस्यामनुरक्तः। द्वितीयेऽह्नि वरकान् प्रोष्य जयसिंहो देवदत्त मन याऽऽविष्टसौहृदमन्यधाद्-अहं तस्मा एव ददे स्वसारम्, यो मद्गृहाद् दूरे न भवति, प्रत्यहं तां तं च यथा पश्यामि, याबद्पत्यजन्म तावद्यदि मद्गृडे स्थाता, तस्मै दास्यामीति देवदतो ऽप्यामित्युक्त्वा गृहप बीत् । तया सह जोगान् भुस्तस्यान्यदा पितृभ्यां लेखः प्रेषितः, वाचयतस्तस्य नेत्रे वर्षितुमश्रु प्रवृत्ते, ततस्तया हेतुः पृष्टो यावज्ञाम्रवीत् तावत्तयाऽऽदाय लेखः स्वयं वाचितः । पत्रे चेदं मितिमा गुरुभ्याम् "यह बत्स ! बायां निकट धनी, यदि मी जीवरती दिसेल गन्तव्यमिति" तदनु सा पतिमाश्वास्य भ्रातरं वाप्यपि सह प्रतस्थे चोत्तरमथुरां प्रति । सगर्भा क्रमान्मार्गे सूनुमसूत, नामास्य पितरी करिष्यत शर्त देवदत्तोके परिजन स्तमनेकमनिकापुत्र विक्रमेण देव सोऽपि स्वपुरी प्राप्य पितरी प्रण स्य च शिद्धं तयोरापयत् । संध त्यात तुकाते। तथा ऽप्यन्निकापुत्र इत्येव पप्रये। असौ वर्डमानश्च प्राप्ततारुण्योऽपि प्रोगांस्तृणवद्विधूय जयसिंहाचार्य पाश्वें दीक्कामग्रहीत् । गीताथीभूतः प्रापदाचार्यकम । अन्यदा विहरन् सगच्छो ऽद्ध के पुष्प - भद्रपुरं गङ्गातटस्थं प्राप्तः तत्र पुष्पकेतुर्नृपः। तदेवी पुष्पवती । तयोर्युग्मजी पुष्पः पुष्पवृक्ष पति पुत्र पुत्री बाभूताम् । तो सह वर्द्धमानी श्रीमन्तौ परस्परं प्रीतिमन्तौ जातौ । राजा बीपी बिये, तदा नूनं न जीवतः अध्यनयोि सोदुमनीशा तस्मादयोरेव विवाह करोमीि पौश्वनाऽपृच्चद्-प्रोः ! यन्ममाऽन्तःपुर उत्पद्यते, तस्य कः देव! अन्तःपुरोत्पन्नस्य किं वाध्यम, यदेशमये विि स्वाभिप्रायं निषेधदेव्यां धारयन्यामपि तयोरेव संध घटयन्नृपः। तौ दम्पती भोगान् छङ्कः स्म । राज्ञी तु पत्यपमानवैराग्या तमादाय स्पर्गे देवोऽम्पदा पुष्पली कथा पुष्पचूलो राजाऽभूत् । स च देवप्रयुक्तावधिस्तयोरकृत्यं ज्ञात्वा स्वप्नेषु पुष्का नरकादयःखानि च साच प्र भीता च पत्युः सर्वमावेदयत्। सोऽपि शान्तिमचीकरत्। स च देवः प्रतिनिशं नरकस्तस्या प्रदर्शयत् । राजा तु सर्वास्तीकिन पछीशा नरका प्रवास परे पातव्यमिति तैर्नरका नाचचहिरे, कैरपि असणा झी तु मुखं मोटयित्वा तान् विसंवादिवदसौ व्यम्राङ्गीत् । श्रथ नृपोऽधिकापुषाचार्यमाकार्य सदेवात्राहीत् । तेन तु वारशान् देव्यपश्यत् ताशा एवोक्ता नरकाः । राक्की प्रोचे भगवन् ! नवरिकवर कथमन्यत्वं चित्थरबद्द्-भद्रे ! जिनागमात्सर्वमवगम्यते । पुष्पन्नाऽवोचद्-जगवन! केन कर्मणा गुरुगुणाद-भर्फ महारम्परित्यनीका पञ्चेन्द्रियचात्मसाद्वाराचा यतिः पतन्ति कमेण ससुर स्तस्यै स्वर्गानदर्शयत् स्वप्रे राइया तथैव पाखण्डिनः पृष्ामपि राश्य नृपस्तमेवाचार्य स्वर्गस्वरूपमात् रोनापि यथावत्तत्रदिते स्वयाप्तिकारणमपृच्छद् राही । ततः सम्यक्त्वमूली यतिधर्मादिदमुनीशः प्रतियुकाच सा मधुकर्मा नृपमनुतापयति स्म ये सोचे-यदि मद मिकामा तदाप्रकृते नृपसत् मभूतस्याचार्यस्य शिष्या, गीतार्था च । श्रन्यदा च दुर्भिकं भुतोपयोगाद्यारिगं देशान्तरे मैत्री जालस्तत्रैवास्थात्, पानं च पुष्पचूलाऽन्तःपुराहानीय गुरवेऽदान् माता गुरुभावनाक रोदात्केवलज्ञानमुल्येदे तथाऽपि गुरुनियापाद गुरुनाथ केजीपूर्वकं विनयं केवल्यपि मात्येति । साऽपि च गुरोरुवरं दिसं पादितवती । अब तु वर्ष सरुमाह गुरुमि रभिहितम्-से! भुतसमष्टिपा इति । सामा-जगवन्! काय पनासीत्तेनैवायासिषमदम्। कुतः प्रायश्चित्ताऽऽपत्तिः । गुरुराह-न कथमेतद्वेद। तयोचे केवलं ममास्ति । ततो मिष्यामे दुष्कृतं केवल्याशा तनेति पृच्छतां गच्छाधिपः किमहं सेत्स्यामि नवेति । केवल्यूचे -मा कृध्वमधृतिम, गङ्गामुत्तरतां वो जविष्यति केवलम् । ततो गङ्गामुकः सह मायमारोदरः । यत्र यत्र सम्पत्तीमा मध्यदेशास मुनी सर्वाऽपि ममं ततो लोकः रजेति दु भर्गीकरणका प्राग्भवपल्या व्यन्तरीभूतया उत्त निहितः शूलप्रीतोऽयमका बजी पचिरानामेव शोधया पीकां, क्षपक एयां रूढोऽन्तकृत केवलीभूय सिद्धः । श्रासनैः सुरैस्तस्य निर्वाणमहिमा चक्रे । त एव तत्तीर्थं प्रयाग इति जगति पप्रथे। प्रकृष्टो यागः पूजा ऽत्रेति प्रयागः ती० ३६ कल्प०। संथा० । भाव० ग० । अमी- देशीदेवरभार्यायां ननान्दायां पितृष्वसरि च दे० ना० १ वर्ग । " " , , अणु-श्रज्ञ - - त्रि० । स्वनावविभावाविवेचके मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने विष्ठायामिव सूकरः । ज्ञानीति मज्जति ज्ञाने, मरास श्व मानसे " ॥ १ । पो० १६ विब० । अम्बु) (अ)- अन्योन्यत्रियाकर्मयतिहारे द्वित्वम् पूर्वपदे सुध"बोतोऽवाऽन्योऽन्य०॥१५६॥ इत्यादिसूत्रस्य बैकल्पिकत्वेनौतः स्थानेऽद्भावे संयोगादित्वेम हस्वे तथारूपम् । प्रा०] ह्रस्वाभावे 'प्रश्वोष्ठं' । श्रयन। पिं० ० असणा-अन्वेषणा-श्री० मार्गणायाम, प्रा०म० शि० । प्रार्थनायां च आचा० १ ० ० ० ६ ० सूत्र | प्रा०म० 3 64 Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येति ( ) असि (ए) - अन्वेषिन् - त्रि० । अन्वेष्टुं शीलमस्येति श्रन्वेषी। मार्गणाशी ले, श्राचा० १० २ ० ६३० । अांतरिक्ष अन्योन्यान्तरितालिक- वि० म्योन्यं परस्परमन्तरिता लययोस्तावन्योन्यान्तरिता यः द अध्ययद्दितकरशाखाकेषु पश्चा० ३० प्रणोएणकार - श्रन्योन्यकार - पुं० । परस्परं वैयावृत्यकरणे, बृ० ३ उ० । I प्रयोगमण अन्योन्यगमन त्रि । परस्परानिगमनीये, - (४०) निधानराजेन्द्रः । प्रश्न० २ सम्ब० द्वा० । ऋणणोण्णजणिय-अन्योन्यजनित - त्रि० । परस्परकृते, “ अ पोरणणियं च दोन दास, अगमणं च होज कम्र्म्म"| प्रश्न० २ सम्ब० द्वा० । अणोपक्वपामेवखावन्योन्यपक्रम विपक्षनावपुं०] अन्योन्य परस्परं यः पप्रतिपकभावः पतिपत् मन्योन्यप्रतिभावः । परस्परं पक्षविरोध, तथादि-य एमीमांसाशब्दः इति पहा, स एव सौगतानां प्रतिपक्ष सम्मते शब्दस्यानित्यत्वाद व पक्ष सीगतानामनि त्यः शब्द इति पक्षः स एव मीमांसकानां प्रतिपक्षः। एवं सर्वयोगेषु योज्यम् । स्या० । अणोपरगहियत्त-अन्योन्यप्रगृहीतत्व - न० । परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्तायाम्, स० ३५ सम० । सप्तदशे सत्यवचनातिशये, रा० । - अणोपलमबद्ध - अन्योन्य समनुबद्ध- त्रि० । परस्परानुगते, "मोसम बरु, णिच्छयतो भणियविसयं ६ विव० । " तु पा० प्रोममरत अन्योन्यसमनुरक्त त्रि० परस्परं सख्यौ, वृ० ६ उ० । अमोसमाधि- अन्योन्यसमाधि - पुं० । परस्परं समाधी, " अणोपलमाढीए एवं वर्ण विदति " यो यस्य गच्छान्तर्गतादेः समाधिरभिहितस्तयथा सप्तापि गच्छ्वासिनां निगच्छनि र्गतानां द्वयोरप्रदः पञ्चसु श्रभिग्रहः इत्यनेन विहरन्ति ॥ श्राचा० २ ० १ अ० ११ ४० । छोवएस - अन्योपदेश-पुं० । आहरणतदेशा क्योदाहरण भेदे, अन्नोवएमओ ना-हियवाई जेसिँ नात्थि जीवो उ । अग्रहयजावणा दाणाश्फलं तेर्सि, न बिजई चतह तदो । ७ए ॥ अन्योपदेशः अन्योपदेशेन नास्तिकवादी सो इति शेषः । श्रहो ! धिक्कष्टं येषां वादिनां नास्ति जीव एव न विद्यादिफलं या तेषां न विद्यतेोमयागतपः समाध्यादिफलं स्वर्गापवर्गादि तेषां वादिनां न विद्यते, नास्तीत्यर्थः कदाचिदेतच्छुत्वैवं युजयतु का नो हानि, नाज्युपगमा एव बाधायै जवन्तीति । ततश्च सत्ववचयान्यथानुपपत्तितस्ते संप्रतिपत्तिमानेतव्याः, इत्यलं विस्तरेण । गमनिकामात्रमेतदाहरणदेशमा परमकरणानुयोगानुसारेण भावनीयेति । गतं निश्राद्वारम् । दश० १ भol श्रएणोमरिश्र - देशी - श्रतिक्रान्ते, दे० ना० १ वर्ग | 33 1 " अरह तुम चा०, पालनाभ्यवहारयो, रुधादि०, पासने प०, स० अनिट् । श्रभ्यवहारे नोजने, श्रात्म०, स० अनिट् । प्रा कृते-" भुजो भुजजिमजेम कम्माएद समाणचमढचड्डाः ४ । ११० । इति जेरदादेशः । भएह-ते । प्रा० । अहमंती-झाना खी० भोजनं कुर्वत्या सं० औ०। अण्ड-अन- पुं० [आागृनोत्याद से कर्म येस्ते चाश्रवाः । पा० । श्रभिविधिना श्रौति श्रवति कर्म येभ्यस्ते श्राश्रवाः । कर्मोपादानभूतेषु प्राणातिपातादिषु पञ्चसु प्र०१० द्वा० । ( श्राश्रववक्तव्यता प्रश्नव्याकरणेषु आदावेव कृता सा च प्राणातिपातादिषु शब्देष्वेव दृश्या ) " 3 अघोष मूढानिकरण अन्योन्यमृदुष्टानिकरान० म्योन्यस्य मुदस्य एस्य किरणं तथापी नःपुन्यप्रवृत्तिस्तत्तथा ततोऽयोग्यतिकरणम्। परस्प रं मृदुषोः किवा प्रवर्तने तथाऽन्योऽन्यस्थातिकरणं परस्परेण पुरुषयोर्वेदविकारकरणं मृढातिकरणं पञ्चमनिषावश विवर्तनम् । दुष्टातिकरणं तु द्विविधम्- कषायतो विषयतश्च । स्वप पायस्तु प्रतिसे या । परपक्के तु कषायतो राजवधः, विषयतस्तु राजदार सवे. ति अथवा "बग्योऽयमुद्दादिकरणतः" इति व्याध्येयम् । तत्र चादिशब्दात्तीर्थकराया शातनाकरणपरिप्रदः । श्रस्माद् धि | अएहयजावणा-आश्रवजावना स्त्री० । सप्तम्यां भावनायाम, बयपाराञ्चिकं भवति । पञ्चा० १६ विव० । 66 'जंबू इमो अय-संवरविविएस्स णिस्संदं वोच्छामी, णिच्छयत्थं सुभासियत्थं महसीहि " |१| प्रश्न० २ श्राश्र० द्वा० । स्था० । उत्त० । “पंचविहो पनसो, जिऐदि इद्द अरहयो असादीयो हिंसा १ मोस २ मदिरे, अभ ४ परिग्गदं चेव ५ " ॥ १ ॥ प्रश्न० १ अभ० द्वा० । अएहयकर - आश्रवकर-पुं० । श्राश्रवः कर्मोपादानं, तत्करणशील श्रश्रवकरः । प्राणातिपाताद्याश्रवजन के ऽप्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था० ७ ठा० । श्रशुभकर्माश्रयकारिणि, ग० १ अधि० । श्री० । श्राचा० । 10 अथाधवभावना , " "मनोवयोवपुयगा। कर्म येनाशुभं शुभम् । भविनामाश्रवन्त्येते, प्रोक्तास्तेनाथवा जिनैः ॥ १ ॥ मैत्र्या सर्वेषु सत्वेषु, प्रमोदेन गुणाधिके । मध्यस्थेष्वविनीतेषु, कृपया दुःखितेषु च ॥ २ ॥ तं तथा वासितं स्वान्तं कस्यचित्कुख्यशालिनः । विदधाति शुभं कर्म द्विचत्वारिंशदात्मकम् ॥ ३ ॥ ध्यानमिध्यात्वरूपाय विपनः । आकान्तमशुभं कर्म, विदधाति द्वयशीतिधा ॥ ४ ॥ सर्वशगुरुसिद्धान्त - संघसद्गुणवर्णनम् । कृतं हितं च वचनं, कर्म संचिनुते शुभम् ॥५॥ श्री सङ्ग गुरुसर्वश-धर्म्मधार्मिकदूषकम् । उन्मार्ग देशवचन-मशुभं कर्म चेप्यति ॥ ६ ॥ देवार्चनगुरूपास्ति-साधुविश्रामणादिकम् । वितन्वतां सुगुप्ता च तनुर्वितनुते शुभम् ॥ ७ ॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) अराहयभावणा अभिधानराजेन्द्रः। अतिक्खतंड मांसाशनसुरापान-जन्तुधातनचौरिकाः। त्यत्रोटके चौलुक्यवंशीयभीमदेवनरेन्द्रसमकासीने तुरुक्कमल्लारे पारदार्यादि कुर्वाण-मशुभं कुरुते वपुः ॥८॥ राझि, ती०४१ कल्प। एतामावभावनामविरतं यो भावयेद्भावत अतर-अतर-पुं० । न तरीतुं शक्यते इत्यतरः। रत्नाकरे, वृ०१ स्तस्यानर्थपरम्परैकजनका दुष्पाऽऽश्रवौधात्मनः। व्यावृत्याऽम्बिलदुःखदावजलदे निःशेषशर्मावली तासागरे, प्रव०१द्वा०। अतिमहत्त्वादुदधिवत्तरीतुमचिरापार निर्माणप्रवणे शुभाश्रवगणे नित्यं रतिः पुष्यति ॥ १४ ॥ नेतुं न शक्यत इत्यतराणि । सागरोपमकालेषु, कर्म० ५ कर्म० । | असमर्थे , नि० चू० १३०याने , बृ० १ उ० । प्रव०६७ द्वा०। अतरंत-अतरत-त्रि० । असहे, नि० चू०१ उ० । व्य० । ग्लाएहाणग-अस्नानक-नाशरीरमज्जनाकरणे, भ०१२०१। ने, ध० ३ अधि०। उ०। औ० । स्था। अत-अत-पुंग अत्ति भतते जगदिति सृष्टिसंहारकृत्त्वात् । अ अतव-अतपस-त्रि०। ६ वा तपसा विहीने, “अतयो न होति क्षपादसम्मते शिवे, उक्तं च-"अक्षपादमते देवः, सृष्टिसंहारक भोगो" वृ० ४ २० । न० त० । तपसामनावे, उत्त० २३ अ० । च्छिवः । विभुनित्यैकसर्वशो, नित्यबुद्धिसमाश्रयः" ॥१॥ अतसी-अतसी-स्त्री० । (अलसी-तीसी) सुमायाम् , ग० २ "धियो यो नः प्रचोदयात् "श्रतति सातत्येन गच्छति 'ग-1 अधि०। अतसी वल्कलप्रधानो बनस्पतिः, यत्सूत्रं मालवादिदेशे त्यर्था ज्ञानार्थाः ' इति वचनात् अवगच्छतीति अत् स- प्रसिकम् । अनु। निचू० । प्रशा0 | र्वक्षः धियो यो नः प्रचोदयात्-इत्यत्र बौद्धस्तथा व्याख्या- अतह-अतथ-नन-तत्-कथ च । मिथ्यानृतेऽर्थे , सूत्र. १ नात् । जै० गा० । (परमेताहक शब्दः प्राकृते न प्रयोक्तव्यः) श्रु० १ ० २१०। अतंत-अतन्त्र-त्रि० । न तन्त्रं कारणं, तदधीना विवक्षा वा अतथ्य-न। असदर्थाभिधायित्वे, "अणवज्जमतहं तेसिं, यस्य । कारणानधीने अनायत्ते, अने० वृत्ति विवा। ण ते संवुमचारिणो" सूत्र० १ श्रु० १ ०२२० । विद्यअतकणिज्ज-अतर्कणीय-त्रि० । अनभिलषणीये, वृ०१०।। माने, भाचा० १ श्रु० ६ ० ४ उ० । वितथे ऽसतं , अतकियोवट्ठिय-अतर्कितोपस्थित-न० । अनभिसन्धिपूर्वि- प्राचा० १ श्रु० ६ ० २ उ० । कायामर्थप्राप्तौ यहच्छायाम, यथा-काकतालीयम, अजाक- अतहणाण-अतथाज्ञान-न० 1 न विद्यते यथा वस्तु तथा साने पाणीयम् , अातुरभेषजीयम , अन्धकएटकीयमित्यादि । यस्य तत्तथा । मिथ्याष्टिजीवद्रव्ये, तस्य वितथज्ञानत्वात् । आचा०१श्रु०१०१ उ०। नास्ति यथैव ज्ञानमववोधः प्रतीतिर्यस्मिस्तत्तथा । असातव्ये "अतर्कतोपस्थितमेव सर्च, चित्रं जनानां सुखदुःखजात- वा, चक्रतयाऽवभासमाने एकान्तवाद्यन्युपगते वा घस्तान, कम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न वुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाs- तथाहि-एकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु नैरभ्युपगत,प्रतिभाति च भिमानः॥१॥" भ०१श०१० उ० । तत् परिणामितयेति तदतथाज्ञानमिति । एष दशमो व्यानुप्रतकिओवहि-अतर्कितोपधि-पुं० । अतर्कणीये उपधौ, यमु-। योगः । स्था०१०ठा। यथा प्रच्चनीयार्थ प्रष्टव्यस्य शान तथैव पधिं न कोऽपि तर्कयति विशेषतः परिभावयति । व्य०८ उ०॥ प्रच्छकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाझानो जानत्प्रश्न इत्यर्थः । पतविपरीतस्त्वतयाज्ञानः । अजानत्प्रभे, भ०६ श० ८ १० । श्रतज्जाय-अतजात-त्रि० । अतुल्यजातीये, आव०४०।। अतार-तार-त्रि०। ६ ब०। तरीतुमशक्ये , नदीप्रवाहादा अतजाया-अवजाता-स्त्री० । अतुल्यजातीये क्रियमाणायां| यस्य हि तरणं नास्ति । " अथाहमतारमपोरिसीय सीमोदपरिष्ठापनिकायाम् , आव ४० । गम्मि अप्पाणं मुयंति"। ज्ञा०१४ श्रा प्रतह-अतट-पुं० श्रदीये तटे, "भतरुववातो सोचेव मम्गो"|| अतारिम-अतारिम-त्रि० । अनतिमहनीये, सूत्र १ श्रु३ भ. वृ०१ उ०। प्रतणु-अतनु-त्रि०ान विद्यते तनुः शरीरं येषां तेऽतनवः । २२० । सिद्धेषु, प्रव०१४ द्वाo! अतारि(लि)स-अताश-त्रि० न० स० । अतत्सरशे, "अता. रिसे मुणी ओहंतरे" आचा० ११०६०१० । उत्त। अतत्तवेइत्त-अतत्ववेदित्व-न० । साकादेव वस्तुतस्वमझातुं | अतिउट्ट-अतिवृत्त-त्रि० । प्रतिक्रान्तो वृत्तादतिवृत्तः । वृत्तमशीप्रमस्य पुरुषविशेषस्य । अर्वान्दर्शिनि, ध०१ अधिः। जानति,सुत्रा"जसी गुहाए जलणेऽतिउट्टे,अविजाणो मकर, अतत्तवेवाय-अतत्त्ववेदिवाद-पुं० । अतत्ववेदिनः साकादेव लत्तपएणो" ज्वानेऽग्नाबतिवृत्तो वेदनानिनुतत्वात स्वकृतवस्तुतस्वमज्ञातुं शीलमस्य पुरुषविशेषस्यार्वाग्दर्शिन इत्यर्थः। पुश्चरितमजानन् सुप्तप्रझो गतप्रज्ञाविधको दन्दह्यत । सूत्र० १ चादो वस्तुप्रणयनमत्तत्ववेदिवादः । साकादवी कमाणेन हि श्रु०५०१००। प्रमात्रा प्रोक्ते वस्तुप्रणयनेनातत्त्ववेदिवादः सम्यग्वाद इति ।। अनितिण-प्रतिन्तिन-त्रि० । न0 तक। अलाभेऽपि ईषत् ध०१ अधिक। किञ्चनाभाषिणि, दश १ ० । सकृत्किञ्चिदुक्ते, नुयोछातत्तिय-अताविक-त्रि० । अवास्तवे तात्विकानाचे, द्वा० जयोऽसुययाऽवत्तरिच । दशः१ अ०। १६द्वा० । अतिक्खतुंम-प्रतीक्ष्णतुएम-त्रि० । अनन्यन्तभेदकमुखे, प. तत्तचक्क- । अहिलपाटन पुगभञ्जके हरिवलीग्रामचै- वा०१६ विव०। १२५ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४ ) अतिक्खवेयरणी अन्निधानराजेन्फः। अतीरंगम प्रतिक्खवेयरणी-अतीक्षण(नैक) (हत्य वैतरणी--स्त्री० । अतित्यसिद्ध-श्रतीर्थ सिक-पुं० । तीर्थस्याभावोऽतीर्थम,तीपरमाधार्मिकविकुर्वितनरकनयाम, त। र्थस्थानावश्चानुत्पादोऽपान्तराख्ने व्यवच्छेदो वा, तस्मिन्नेव सिप्रतिहपुरव--अष्टपूर्व-वि० । पूर्वमदृष्टमदृष्टपूर्वम, पैशाच्या त- कास्तेऽतीर्थसिद्धाः । नं। तीर्थान्तरसिकेषु, श्रा० । तीर्थान्तरे थारूपनिष्पत्तिः। प्रथममेव दृष्टे, “परिसं प्रतिहपुरवं"। प्रा० । साधुव्यवच्छेदे जातिस्मरणादिना प्राप्तापवर्गमार्गा मरुदेवीप्रतित्त-अतृप्त-त्रि० । न तअसन्तुष्टे, उत्स० " एवं अद वत् सिकाः । स्था०१०१०। नहि मरुदेव्यादिसिद्धिगम नकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् ।नं। ध० । तथा तीर्थस्य व्यवताणि समायपंतो, भाव अतिसो पुहिओ अणिस्सो" उत्त०१५ च्छेदश्चनप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यपान्तरासे । तत्र ये जातिम। “अतिता कामाणं"। प्रभ० ४ श्राश्र0 द्वा०। स्मरणादिनाऽपवर्गमवाव्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिकाः । प्रतित्तप्प-अतृप्तात्मन्-त्रि० । सानिलाषे, पो०४ विव०। प्रज्ञा०१ पद । स्था। प्रतित्तमान-अतृप्तलाज-पुं०। ६ तातर्पणं तृप्न, तृप्तिरिति अतित्यावणा-प्रतिस्थापना-श्री० । उधनायाम, पं० सं० यावत् । तस्य लाभस्तृतलाना, न तथाऽतृप्तक्षाभः। सन्तोषाऽप्रा द्वारा प्लौ, उत्त० ३१ अ०। अतिदुक्ख-अतिदुःख-न० । अतिदुःसहे, भाचा० १०॥ प्रतित्ति-अतृप्ति-स्त्री० । असन्तुष्टौ, उत्त० ३४ असा चार- प्र०२०। तीय श्रद्धालवणम् । अतिमुक्खधम्म-अतिदुःखधर्म-त्रिका प्रतीव दुःखमशातावेदसंप्रत्यतृप्तिस्वरूपं द्वितीयमनिधित्सुराह नीयं धर्मः खजावो यस्य तत्तथा । अक्किनिमेषमात्रमपि कालं न यत्र दुःखस्य विश्रामः । तादृशे नरकादिस्थाने,सूत्र० "सया तित्ति न चेव विदइ, सघाजोगेण नाणचरणेस । य कलुणं पुण धम्मगणं, गाढोवणीयं अतिक्साधम्म" वेयावयतवासु, जहविरियं जावो जयइ ।। ६४॥ | सूत्र. १ श्रु० ५ अ०१०। तृप्ति संतोष कृतकृत्योऽहमेतावतैवेत्येवं रूपं, (नवैवेति)चशब्दस्य | अतिधुत्त-अतिधूत-पि० । अतीव धूतमष्टप्रकारं कर्म यस्य पुरणत्वान्नव विन्दति प्राप्नोति । श्रद्धाया योगेन संबन्धेन ज्ञान- सोऽतिधूतः । प्रनूतकर्मणि, सूत्र०२ श्रु०२०। चरणयोपिये झाने पतिं यावता संयमानुष्ठानं निर्वहतीति अतिधत-त्रि० । बहुलकर्मणि, “अयं पुरिसे अतिधुते परसंचिन्त्य न तद्विषये प्रमाद्यति, किंतर्हि नवनवश्रुतसंपदपार्जने यारक्खे" सूत्र. २ शु०१०। विशेषतः सोत्साहो भवति । तथा चोक्तम् अतिपास-अतिपार्ष-पुं० । ऐरवते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां "जह जद सुयमवगाहर, अश्सयरसपसरसंजुयमउन्वं । जाते सप्तदशे तीर्थकरे, स०८४ समः। तह तह पल्दार मुगी, नवनवसंवेगसमाए" ॥१॥ अतिप्पणया-अपनता-स्त्री० । स्वेदलालाभुजलकरणकारण"प्रत्थो जस्त जिणुत्तमेहिं भरिभो जायम्मि मोहक्सए, परिवर्जने, पा० । ध। बद्धं गोयममाश्यहि सुमहाबुकीहि जे सुत्तो। अतिमुधिय-अतिमर्हित-त्रि० । अत्यन्तमूर्छितोऽतिमूर्तितः। संवेगाश्गुणाण बुकिजणगं तित्थेसनामावहं, विषयदोषदर्शन प्रत्यविमूढतामुपगते, प्रभ० ४ श्राश्रद्वा । कायब विहिणा सया नवनवं नाणस्स संपजणं"॥१॥ प्रतिक्षिय-अतैल-२० । सर्वथा तैलांशरहिते, तं०। तथा चारित्रविषये विशुरुविशुरुतरसंयमस्थानावाप्तये समाव अतिवचंत-अतिव्रजत-त्रि० । अतिशयेन ग्रजति गच्चतीति, नासारं सर्वमनुष्ठानमुपयुक्तमेवानुतिष्ठति, यस्मादप्रमादकृतास. वेऽपिसाधुव्यापारा उत्तरोत्तरसंयमकएमकारोहणेन केवलका अति-बज्-शता बाहुल्येन गच्छति, जी. ३ प्रतिः। नलाभाय भवन्ति । तथा चागमः अतिविज्ज-अतिविद्य-पुं०। जातिवृरूसुखपुःखदर्शनादतीव षि"जोगे जोगे जिणसा-सम्मि दुक्खक्खया पंउजते । द्या तत्त्वपरिच्छेत्री यस्याऽसावतिविद्यः । जातनिवेदे तस्वझे, ककाम्म अणता, बट्टता केवली जाया" ॥२॥ "तम्हाप्रतिविजं परमंति पश्चा, आयंकदंसी ण कर पाबं"। तथा वैयावृत्यतपसी प्रतीते, आदिशब्दात्प्रत्युपेकणाप्रमाण- आचा० १७.११.२ उ०। नादिपरिग्रहः । तेषु यथा वीर्य सामर्थ्यानुरूपं जावतः सद्भाव- अतिविटस-पुं०।विशिष्टप्रझे, आचा०१९०३ भ०२०। सारं यतते प्रयत्नवान् स्वति । ध००। अतीरंगम-अतीरङ्गम-वि० । तीरं गधन्तीति तीरामा: अतित्तिलाभ-अतृप्तिलान-पुं० । ६ त० । तृप्तिप्राप्त्यभावे, (खन्प्रत्ययः)। न तीरमा अतीरङ्गमाः। तीरं गन्तुमसमर्थेषु, "संतोगकाले य अतित्तिलाभे" उत्त० ३४ अ०। आचा। अतित्थ-अतीर्थ--अव्य० । तीर्थस्याऽभावोऽतीर्थम् । तीधस्या अतीरंगमा एए, णाय तीरंगमिनए । नुत्पादे, (अपान्तराले) व्यवच्छेदे च । प्रज्ञा० १ पद । अपारंगमा एए, णाय पारंगमित्तए ॥१॥ अतित्थगरसिद्ध-अतीर्थकरमिक-पुं०।न तीर्थकराः सन्तः। ( अतीरंगमा इत्यादि ) तीरं गच्छन्तीति तीरंगमाः, पूर्वसिद्धाः । सामान्य केवत्रिषु सत्सु गौतमादिवत् सिकेषु,पज्ञा०१] पत् खच्प्रत्ययादिकम । न तीरकमा प्रतीरङ्गमाः ( पते पद । ल । पा० श्रा० । स्थानं0। इति)तान् प्रत्यकनावमापन्नान कुतीथिकादीन् दर्शयति ।नच तथा Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Hy) अतीरंगम अभिधानराजेन्द्रः । ते तीरङ्गमनायोद्यता अपितीरंगन्तुमबम, सर्वोपदिष्टसन्मार्गा- पहीणः स आप्तः । यदि वा (इटा) दृष्टाः, शोधौ शोधिविषये भावादिति भावः। तथा (अपारंगमा श्त्यादि)पारस्तटः, परकूलं, | भाप्ताः ॥ ५ ॥ व्य० १०००। समच्छन्तीति पारंगमाः, न पारङ्गमा अपारङ्गमाः/पत इति)पू आप्तस्वरूपं प्ररूपयन्तिचोक्ताः, पारगतोपदेशानावादपारंगता इति भावनीयम् । न च ते पारगतोपदेशमृते पारङ्गमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमनम्। अभिधेयं वस्तु यथावस्थितं यो जानीते, यथाझानं चाअथवा गमनं गमः , पारस्य पारे वा गमः पारगमः । निधत्ते स प्राप्तः॥४॥ सूत्रे त्वनुस्वारोऽयाक्कणिकः। न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपा- प्राप्यते प्राप्यते अर्थोऽस्मादित्याप्तः। यद्वा-श्राप्तिः रागादिदोरगमनाय । असमर्थसमासोऽयम् । तेनायमर्थः-पारगमनाय ते षक्षयः, सा विद्यते यस्येत्यर्श आदित्वादचि आप्तः। जाननपि न भवन्तीत्युक्तं प्रवति। ततश्चानन्तमपि संसार संसारान्तर्वर्तिन हि रागादिमान् पुमानन्यथाऽपि पदार्थान् कथयेत, तद्यवधिपवासते, यद्यपि पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वोपदे- त्तये यथाज्ञानमिति । तदक्तम्-"आगमो ह्याप्तवचन-माप्ति शचिकनाः स्वरुचिविरचितशास्त्रवृत्तयो नैव संसारपार गन्तु-| दोष वयं विपुः। वीणदोषोऽनृतं वाक्यं, नव्यात्वसंभात" मलम् । प्राचा०१ श्रु.२ अ०३२०। ॥१॥ अनिधानं च ध्वनेः परम्परयाऽप्यत्र षष्टव्यम् । तेनाकर विलेखनद्वारेण, अङ्कोपदर्शनमुखेन, करपल्यव्यादिचेशाविशेअतुच्छ नाव-अतुचनाव-त्रि०ा अकार्पण्ये, पं० २०४द्वाना षवशेन वा शम्दस्मरणाद्यः परोकर्थविषयं विज्ञानं परस्योउदराशये, पश्चा०६ विव०। स्पादयति, सोऽप्याप्त इत्युक्तं जवति । स च स्मर्यमाणः शब्दः अतुरिय-अत्वरित-त्रि० । स्तिमिते, ध० ३ अधिक। उत्त आगम इति ॥४॥ विपासा "अतुरियमचवलमसंभताए अविलंबियाए रायसस कस्मादमूदृशस्यैवाप्तत्वामत्याहु:रिसीए गई"। अत्वरितया मानसौत्सुक्यरहितया । कल्प। तस्य हि वचनमविसंवादि जवति ॥५॥ देहमनश्चापल्यरहितं यथाभवत्यवम् । भ०११श०११ तारा यो हि यथावस्थिताभिधेयवादी परिज्ञानानुसारेण तदुपदेशअतुरियगइ-अत्वरितगति-त्रि० । मायया सोकावर्जनाय कुशवश्च भवति. तस्यैव यस्माद्वचनं विसंवादशून्यं सजायते । मन्दगामिनि, वृ० १ ० । मढवश्चकवचने विसंवादसंदर्शनात् । ततो यो यस्यावश्नकः अतुरियभासि [ए]-अत्वरितनापिन-त्रि०। विवेकभाषि- स तस्याप्त इति ऋण्यार्यम्लेजसाधारणं वृद्धानामाप्तलकणमणि, प्राचा० १७०२ अ०६ २० । नूदितं भवति ॥५॥ प्राप्तभेदौ दर्शयन्तिअतुल-अतुल-त्रि० । तुलामतिकान्ते , संथा । असाधारणे, स०३० सम । निरुपमे , प्रश्न०१ श्राश्र० द्वा० । स च द्वेधा-लौकिको, लोकोत्तरश्च ॥ ६ ॥ लोके सामान्यजनरूपे भवो बौकिकः । लोकादुत्तरः प्रधानअत्त-पात-त्रि०। श्रा-दा-क्त । गृहीते, उत्त० १७०० । क-| मोकमार्गोपदेशकत्वालोकोत्तरः ॥ ६॥ रतमपरिगृहीते , झा० अ०। भीमो भीमसेन इति न्यायात् श्रात्तो गृहीतः सूत्रार्थो यैस्ते आत्ताः । गीतार्थेषु , बृ० १ तावेव बदन्ति लौकिको जनकादिर्लोकोत्तरस्तु तीर्यकरादिः॥ ७॥ ० । स्था । आत्मन्-पुं० । स्वस्मिन्, उत्त०३२ अ०। जीवे, प्राचा०१७० प्रथमाऽऽदिशब्देन जनन्यादिग्रहः । द्वितीयाऽऽदिशब्देन तु ६१०१०। पञ्चा । स्वजावे, नं० । गणधरादिग्रहणम् ॥ ७॥रना०४ परि०। आत्र-वि०। प्रा अनिविधिना त्रायते पुःखारसंरकति सुखं चो- न च वाच्यमानः कोणसर्वदोषः, तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि त्पादयतीति पात्रः। पु:खने सुखसाधके,"रश्याण ते ! किं नास्तीति । यतो रागादयः कस्यचिदत्यन्तनुच्छिद्यन्ते,अस्मदाअत्तापोग्गला अणत्तापोग्गला पा?" H०१४ श०९ जना स्थान दिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकोंपलम्भात, सूर्याधावारकजलदपटआप्त-त्रिका प्राप्ते, उत्त०१२ अ०। अतीव सुष्ठपरिकर्मिते, सू० बवत् । तथा चाहु:-"देशतो नाशिनो भावाः,दृष्टा निखिलनश्व रामेघपङ्कवादयो यद-देवं रागादयो मताः"॥१॥ इतिायस्य च प्र०२० पाहु चं०प्र०ा स्था। प्राप्तिहिं रागद्वेषमोहानामैका निरवयवतयते विलीनाः स एवाप्तो जगवान् सर्वज्ञः । अथानान्तिक प्रात्यन्तिकश्च वयः, सा यस्याऽस्ति स आप्तः। अभ्रादि दित्वाद्रागादिनां कथं प्रकय ति चेत् । न । उपायतस्तद्भाषास्वान्मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः । स्या० । यथार्थदर्शनादिगुणयुक्त पु-1 त, अनादेरपि सुवर्णमलस्य कारमृत्पुटपाकादिना विलयोपसरुबे, नं0 दशारागादिचिप्रमुक्ते, सूत्र०१ श्रु० ६ ०. म्भात् । तद्वदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपक्षतरतत्रजी० अप्रतारके, अप्रतारकश्च (प्रवीणदोषः सर्वज्ञः) अशेषदो. याच्यासेन विषयोपपत्ते, वीणदोषम्य च केवलज्ञानाव्यनिपक्रयाद भवतीति। उक्तंच-"अागमोऽह्याप्तवचन-माप्तं दोपकया चारात् सर्वज्ञात्वमा तत्सिरिस्तु-ज्ञानतारतम्यं कचिद्विधान्तं,ता. दू विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न यात्वसंभवात्" ॥१॥ रतम्यत्वात, अाकाशपरिमाणतारतम्यवत् । तथा-सुक्ष्मान्तरिदश०१० । व्य। तरार्धा, कस्यचित्तत्यकाः, अनुमेयत्वात्, वितिधरकन्धरानाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो न सो नवे । । धिकरणधूमध्वजवत् । एवं चन्सर्योपरागादिसूचकज्ये तिकीरागहोमप्पहीणो वा, जे वहा व सोधिए ॥५॥ । नाविसंवादान्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतयोऽपि हेतवो वाच्या स्या। सानादानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि येनाप्तानि स भवत्याप्तः ।। सत्रासाधूनां शोधिविषये इष्टे प्रायश्चित्तदे, व्य०१० उ०मोके. ज्ञानादिभिराप्यते स प्राप्त इति व्युत्पत्त्यन्तरम। यो वा गिद्धे- सुब०१७०१० अ०। एकान्तहिते, वि० भ० १४ श०६ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्त अभिधानराजेन्द्रः। अत्तकम्म प्रार्त-त्रि० । सानीभूते, भ० ३५ श० १००। दुखार्ते, स्था० | मेति प्रतिपादनं, तस्य पुरुषस्य ( दवम्मि अत्तकम्मं ति)श७ 10 । “कम्मत्ता दुग्भगा चेव, इच्चाई सुपुढो जणा" पूर्वा- रीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तम् । द्रव्ये द्रव्यविषये, प्रात्मकर्म चरितैः कर्मभिरारीः पूर्वस्वकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदि भवति । आत्मसंबन्धित्वेन कर्मकरणमात्मकर्म, इति व्युत्पन्या बा कर्मनिः कृष्यादिभिराास्तकर्तुमसमर्थाः । सत्र० १ ० ३ स्मश्रयणात् । नावात्मकर्म च द्विधा । तद्यथा-भागमतः, नोप्र०१०। आगमतश्च । तत्रागमत यात्मकर्मशब्दार्थकाता चोपयुक्तः । नो भागमतः पुनराहअत्तउवमास-आत्मोपन्यास-पुं०। आत्मान एव उपन्यासो निवेदनं यस्मिस्तदात्मोपन्यासम् । उदाहरणे, दोष, उपन्यास भावे अमुहपरिणओ, परकम्म अत्तणे कुणइ ।। नेदे च । दश। अशुनपरिणतोऽभेन प्रस्तावाढाधाकर्मग्रहणरूपेण भावेन इदानीमात्मोपन्यासद्वारं विवृण्वन्नाह परिणतः परस्परपाचकादःसंबन्धे यत्कर्म पचनपाचनादिजनितं अत्त नवनासम्मि य, तलागनेयम्मि पिंगन्नो थबई । शानावरणीयादि,तदात्मनः संबन्धि करोति। तच परसंबन्धिनः कर्मण प्रात्मीयत्वेन करण, नावे भावत आत्मकर्म, नो भागमतो मात्मन एवोपन्यासो निवेदनं यस्मिन् तदात्मोपन्यासम् , तत्र भावात्मकर्मेत्यर्थः । भावेन परिणामविशेषेण परकीयस्यात्मसं. च तडागभेदे पिकवः स्थपतिरुदाहरणमित्यवरार्थः। नावार्थः बन्धित्वेन कर्मकरणं भावात्मकर्मेति व्युत्पत्तेः । कथानकगम्यः। स चायम्-"इह एगस्स रनो तलागं सवरज एतदेव सार्द्धया गाथया भावयतिस्स सारनूतं च तलाग वरिसे वरिसे भरियं निजाताहे रामा नण-को सो उबायो होजा, जेण तं न भिजेजा। तत्थ आहाकम्मपरिणओ, फासुयमवि संकिलिहपरिणामो । एगो कविनोमणूसोजणति-जदि नवरं महाराय ! अच्छिपि- आयपमाणो बज्म, तं जाणसु अत्तकम्मे त्ति ॥२॥ गयो,कविलियारो से दाढियाओ,सिर से कविलियं, सो जीवं परकम्म अत्तकम्मा, करेइ तं जो गिणिहतुं हुंजे ॥ तो चेव जम्मि ठाणे भिजति तम्मि ठाणे जिक्तमति, तो णवरं ण भिजति । पच्छा कुमारामश्चण भणियं-महाराय! एसो चेव प्रासुकमचेतनबऋणमेतदेवणीयं च स्वरूपेण भक्तादिकम् । एरिसो,जारिसयं जणति,परिसोनत्थि प्रश्नो। पच्छा सो तत्थेव प्रास्तामाधाकर्मेत्यपिशब्दार्थः । संक्लिष्टपरिणामः सन्नाधाकर्म ग्रहणपरिणतः सन्नादत्ते गृण्इन् यथाऽहमतिशयेन व्याख्यानमारेत्ता निक्वित्तो । एवं परिसं णो भारिणयवं जं अप्पवहाए भव"। इदं लौकिकम् । अनेन लोकोत्तरमपि सूचि लब्धिमान, मद्गुणाश्चासाधारणविद्वत्तादिरूपाः, सूर्यस्प भावतम् । एकग्रहणेन तज्जातीयग्रहणात्तत्र चरणकरणानुयोगेनैवं नमिव कुत्र कुत्र न वा प्रसरमधिरोहन्ति । ततोमदुगुणावर्जित एष सर्वोऽपि लोकः पक्त्या पाच यित्वा च महामिष्टमिदमोदब्रूयाद् यदुत-" लाइयधम्माओ वि हु. जे पन्भट्ठा णराहमा नादिकं प्रयच्चतीत्यादि, स इत्थभाददानः साक्कादारम्नकर्तेव ते उ । कह दवसोयरहिया, धम्मस्साराहया होति" ॥१॥ झानावरणीयादिकर्मणा बध्यते । ततस्तझानावरणीयादिर्कम इत्यादि । द्रव्यानुयोगे पुनरेकेन्डिया जीवाः, व्यक्तोच्चासनिःश्वासादिजीवलिङ्गमद्भावात् , घटवत् इह ये जीवा न भव बन्धनमात्मकर्म जानीहि । इयमत्र भावना-प्राधाकर्म, यद्वा स्वरूपेण अनाधाकर्मापि नक्तिवशतो मदर्थमेतन्निप्पादितमित्या. न्ति न तेषु व्यक्तोन्नासनिःश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावः, यथा धाकर्मग्रहणपरिणतो यदा गृहाति तदा स साकादारम्नकघटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति तस्माज्जीवा पवैते इत्यत्रात्म तेव स्वपरिणामविशेषतो ज्ञानाबरणीयादिकर्मणा बध्यते, यदि नोऽपि तद्रूपापत्त्याऽऽत्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्याऽऽत्मोपघातजनकत्वेन प्रकटावति न जायते । पुनर्न गृण्हीयात्तर्हि न बध्येत । तत प्राधाकर्मग्राहिणा यस्पर स्य पाचकादेः कर्म तदाऽऽत्मनोऽपि क्रियत इति परकर्म प्रा. गतमात्मोपन्यासद्वारम् । दश०१०। स्मकर्म करोतीति बध्यते । एतदेव स्पष्टं व्यनक्ति-(परकम्मेप्रत्तकम-आत्मकृत-त्रि० । आत्मायें कृते स्वगृहार्थमेव स्था त्यादि ) तत आधाकर्म यदा साधुहीत्वा भुते स परस्पर पिते, पृ० १ उ०। पाचकादेयत्कर्म तदात्मकर्म करोति, प्रात्मनोऽपि संबन्धि भत्तकम्म-आत्मकर्मन्-न०। ६ त । स्वदुश्चरिते, “ निम्खु- करोतीति भावार्थः। प्रमुच भावार्थमस्य वाक्यस्याजानानः परो जातचिग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिँ दुम्मई " दश० ५ ० २ ०। संशयःप्रश्नयतिभात्मा अष्टप्रकारकर्मणाऽऽयतकरणकारणामोदनादिनिर्लिप्यते तदात्मकर्म । दर्श। यत्पाचकादिसम्बन्धि कर्म पाकादिलक्षणं, सत्य जे परकिरिया, कहं तु अनत्थ संकमा । झानावरणीयादिवकणं वा, सदात्मनः सम्बन्धि क्रियतेऽनेनेत्या तत्र परकर्म आत्मकर्म करोतीत्यत्र नाक्ये नवेत् परस्य वक्त. त्मकर्म । वृ०४ उ०। प्राधाकर्मशब्दार्थे, पिंगनिकेपाऽस्य-तदेवम व्यमा यथा-कथं परक्रिया परस्य सत्कं ज्ञानावरणीयादि कर्म, क्तमात्मनं नाम ।सम्प्रत्यात्मकर्मनाम्नोऽवसरातदपि चात्मक अन्यत्र प्राधाकर्मभोजके साधौ संक्रामतीति भावः। न खलु जा. म चतुद्धा । तद्यथा-नामात्मकर्म, स्थापनाऽऽत्मकर्म, च्यात्म तुचिदपि परकृतं कर्म अन्यत्र संक्रामति । यदि पुनरन्यत्रापि संककर्म, भावात्मकर्म वा । इदं चाधाकर्मैव तावद्भावनीयम, याव मत्तहि कपकश्रेणिमधिरूढः कृपापरीतताः सकसजगजन्तुकप्रोपागमतो नव्यशरीरं व्यात्मकर्म । मनिर्मूलनापादनसमर्थः सर्वेषामपि जन्नूला कर्मानात्मनि संक्रशरीरभव्यशरीरब्यतिरिक्तं तु अव्यात्मकर्म प्रतिपादयति मय्य कपयेत् । तथा च सति सर्वेषामेककालं मुक्तिरूपं जायतन जायते,तस्मान्नैव परकृतकर्मणामन्यत्र संक्रमः। उक्त च-कपकरेदव्वम्मि भत्तकम्मं, जं जो उ ममायए भवे दव्वं । । गिपरिगतः समर्थः सर्वकम्मिणां कर्म कपथित्या भवेत कृपापरी. यः पुरुषो यद्रव्यादिकं व्यं ममायते-ममेति प्रतिपद्यते। तन्म-| तात्मको यदि कर्मसंक्रमः स्यात्परकृतस्व। पर कनकमणि यस्मा. Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०.) अत्तकम्म मप्निधानराजेन्छः। अत्तगवेसणया भाक्रामति संक्रमो विनागो वा, तस्मात् सत्त्वानां कर्म यस्य मणश्चात्मकर्मीकरणमाधाकर्मणो ग्रहणे नोजने वा सति भवति संपन्नं तेन तद्वद्यते । तत्कथमुच्यते परकर्म प्रात्मक करो- यथा, तत उपचारादाधाकर्म आत्मकर्मेन्यच्यते।न नु तदाऽऽधातीति,दं च वाक्यं पूर्वान्तर्गतम् । अन्यथाऽपि केचित्परमा- कर्म,यदा स्वयं करोति, अन्येन वा कारयति,कृतं वाऽनुमोदते, र्थमजानाना व्याख्यानयन्ति । ततस्तन्मतमपाकर्तुमुपन्यसनाह- तदा भवेद् दोषः। यदा तु स्वयं न करोति, नापि कारयति, नाकूमनवमाएँ केई, परप्पउत्ते वि विति बंधो त्ति ।। प्यनुमोदते, तदा कस्तस्य ग्रहणे दोष इति । अत्राहकेचित् स्वपूज्या पव प्रवचनरहस्यमजानानाः कूटोपमायाः कूटदृष्टान्तेन, ब्रुवते-परप्रयुक्तेऽपि परेण पाचकादिना निप्पा-! काम सयं न कुव्वइ, जाणंतो पुण तहा वि तग्गाही । दितेऽप्योदनादौ साधोस्तह्राहकस्य भवति बन्धः । एतमुक्त वलेइ तप्पसंगं, अगिएहमाणो न वारे ।। १ ।। नवति-यथा व्याधेन कूटे स्थापिते मृगस्यैव बन्धो, न ध्या- काम सम्मतमेतत्, यद्यपि स्वयं न करोत्याधाकर्म; उपलक्षणधस्य, तथा गृहस्थेन पाकादौ कृते तह्राहकस्य साधोबन्धः, न | मेतत् ,न वारयति,तथापि मदर्धमतन्निष्पादितमिति जानानो यदि पाककर्तुः । ततः परस्य यत्कर्म ज्ञानावरणीयादि संजयति । श्राधाकर्म गृहाति तर्हि तग्राही तत्प्रसंगम् अाधार्कमग्रहणप्रतदाधाकर्मग्राही स्वस्यैव संबन्धि करोतीत्युच्यते । तदेतद सङ्ग वर्डयति। तथाहि-यदास साधुगधाकर्म जानानो गृहाति, सयुक्तम् । जिनवचनविरुकत्वात् । तथाहि-परस्यापि साका-1 तदाऽन्येषां साधूनां दायकानां च एवंबुद्धिरुपजायते-नाधाकर्म दारम्नकर्तृत्वेन नियमतः कर्मबन्धसंन्नवस्ततः कथमुच्यते जोजने कश्चनापि दोषः कथमन्यथा स साधु नानोऽपि गृही. तग्राहकस्य साधोर्बन्धो, न पाककर्तुः । न च मृगस्यापि प. तवान् ? इति । तत एवं तेषां बुच्च् पादे संतत्या साधूनामाधाकरप्रयुक्तिमात्राद्वन्धः, किन्तु स्वस्मादेव प्रमादादिदोपात एवं म्मभोजने दीर्घकालं पह जीवनिकायविघातः, स परमार्थतस्तेसाधोरपि। न प्रवयते । यस्तुन गृहाति स तथाभूतप्रसङ्गवति निवारयति; तथा चैतदेव नियुक्तिकृदाह प्रवृत्तेरेवाभावात्। तथा चाह-(अगिराहमाणो उ वारे) ततोऽ जणइ य गुरू पमत्तो, व कूडे अदक्खो य । तिप्रसङ्गदोपभथात्कृतकारितदोपरहितमपि नाधाकर्म भुञ्जीत। अन्यच तदाधाकर्म जानानोऽपि नुजानो नियमतोऽनुमोदते । एमेव नावकूमे, बज्मद जो अमुमनावपरिणामो ॥१॥ अनुमोदना हि नाम-अप्रतिषेधनम् | अप्रतिपिकमनुमोदनमिति तम्हा उ असुननावो. वजेयव्यो............... । वित्प्रवादात् । तत आधाकर्मभोजने नियमतोऽनुभोदनदोषोऽभणति प्रतिपादयति, चः पुनरर्थे । पुनरर्थवायम् एके केचन निवारितप्रसरः। अपि च-एवमाधाक.मनोजने कदाचिन्मनाझासम्यग् गुरुचरणपर्युपासनाविकतया यथाऽवस्थितं तत्त्वमवे. हारजोजनभिन्नदृष्टतया स्वयमपि पचेत् पाचयेद्वा । तस्मान्न दितारोऽनन्तरोक्तं वते-गुरुः पुनर्भगवान् श्रीयशोभद्रमरिरेष. सर्वथा प्राधाकर्म भोक्तव्यमिति स्थितम् । तदेवमुक्तमात्मकममाह। एतेनैतदावेयति-जिनवचनमवित, जिज्ञासुना नियमतः ति नाम ॥ पि० । नि० चू० । प्रज्ञावताऽपि सम्यग्गुरुचरणकमनपर्युपासनमास्थेयम, अन्यथा | अत्तग-आत्मग-त्रि० । आत्मनि गतीति श्रामगः। आन्तरे, प्रझाया अवतश्यानुपपत्तेः । तदुक्तं च-"तत्तदुत्प्रेक्ष्यमाणानां, "चिचा ण अत्तगं सोय" सूत्र १ श्रु) ए अ० । पुराणरागमैविना। अनुपासितवृहानां, प्रज्ञा नातिप्रसीदति"॥१॥ अनगवेमण-यात्र्तगवेषण- न व्याद्यापत्सु, श्रात्तस्य, उपगुरुवचनमेव दर्शयति-मृगोऽपि खलु कूटैः स बध्यते यः प्रम लकणमेतत् । अनार्तस्य वा, गवेषणं दुर्लभद्रव्यसंपादनादिरूतोऽदवश्व अवति । यस्वप्रमत्तो दक्षश्च स कदाचनापि न | । पमात्र्तगवेषणम् । औपचारिकविनयनेदे, व्य० १३०। बध्यते। तथा हि-अप्रमत्तो मृगःप्रथमत एव कृटदेशं परिहरति।। अथ कथमपि प्रमादवशात् कटदशमपि प्राप्तो भवति तथाऽपि अत्तगवेसागया-पानगवेषणता--स्त्री० । पात खानीभूतं गवेयावन्नाद्यापि बन्धः पतति,तावद्दकतया कागति तद्विषयादपसर्प- षति भैषज्यादिना योऽसावार्तगवेषणः। तदुभाव पार्तगवेषणति।यस्तु प्रमत्तो दक्तताराहतश्च,स यध्यत एव । तस्मान् मृगोऽपि ता। भ० २५ २०५०। श्रार्तस्य दुःखातस्य गवेषणमापबध्यते। परमार्थतः स्वप्रमादक्रियावशतो, न परप्रयुक्तिमात्रात् । धादेरित्यार्तगवेषणम् तदेवार्तगवेषणतेति । पीमितस्योपकार (एवमेव) अनेनैव मृगदृष्टान्तोक्तप्रकारेण (नावकूटे) संयमरूप- इत्यर्थः । स्था०७ मा नावबन्धनाय कूटमिव क्टमाधाकर्म, तत्र स बध्यते, ज्ञानावर पाल्प(त) गवेषणता-स्त्रीला आत्मना, प्राप्तेन वा नूत्वा गवे. गोयादिकर्मणा युज्यते, योऽशुभभावपरिणाम आहारमापद्यते, पणं सुस्थःस्थतयोरन्वेषणं कार्यमिति । लोकोपचारविनय. श्राधाकर्मग्रहणात्मका शुभभावपरिणामो, न शेषः। न खल्वाधा नेदे, स्था० ७ वा० । औ०। कमणि कृतेऽपि यो न तद् गृण्हाति, नापि भुङ्क्ते, स ज्ञानावरणीयाऽऽदिना पापेन बध्यते । नहि कूटे स्थापिते यो मृगस्तदेश पव साम्प्रतमाळेगवेषणरूपविनयप्रतिपादनार्थमाहनायाति, आयातोऽपि यत्नतस्तद्देशं परिहरतिस कृट बन्धमा- दव्वावश्माईसुं, अत्तमणत्ते गवेसणं कुएइ । प्रोति। तत्र परयुक्तिमात्राद् बन्धो येन परोक्तनीत्या परकृतकर्मण व्यापदि दलभाव्यसंपत्तौ च । तथा च भवति केषुचिद श्रात्मकमीकरणमुपपद्यते, किन्त्वशुभाध्यवसायजावतः। तस्मा- देशेवयस्यादिषु दुभं घृतादिद्रव्यमिति । श्रादिशब्दात के. दाभो भाव प्राधाकर्म ग्रहणरूपः साधुना प्रयत्नेन वर्जयित- प्रापदादिपरिग्रहः । तत्र केवापदि कान्तागदिपत्तने, कावापाद व्यः । परकर्म करोतीत्यत्र वाक्ये नावार्थः प्रागेव दर्शितः । दुर्भिक,भायापदि गाढम्यानन्थे। आत्तस्य पीमितस्य अत्यन्तसयथा--परस्य पाचकार्यत्कर्म तदात्मकर्मीकरोति, किमुक्तं न- हिष्णुतया, अनात्तस्य वा यथाशक्ति यद् गवेषणं करोति दलवाती-तदात्मन्याप कर्म करोतीति, ततो न कश्चिद्घोषः । परका | भव्यादिसंपादयति, सार्तगधेषणधिनयः । व्य०१०। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०१) अत्तगवेसय अनिधानराजेन्डः। भत्तट्ठ भत्तगवेसय-आत्मगवेषक-पुं० । प्रात्मानं चारित्रात्मानं गवे- | पदार्थाः(चनयत इति नितुकसहेतुकविनाशष्येन न विनश्यषयतीति आत्मगवेषकः। कथमयं मम स्यादिति संयमजीवमा- | न्ति । यथा बौद्धानां स्वत एव निर्हेतुको विनाशः । तथा च ते गयितरि, "तिगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खे उत्सगवेसए । एवं ऊचुः-"जातिरव हि नावानां, विनाशे हेतुरिप्यते । यो जाखु तस्स साम, जन्न कुज्जा न कारवे" ॥१॥ उत्त०२१०। तश्च न च भ्वस्तो, नइयेत्पश्चात्स केन च?" ॥१॥ तथा च वैनो ताहि विहन्नेजा, चरेजऽत्तगवेसए। शेषिकाणां मकुटादिकारणसानिध्य विनाशः सहेतुकःतनोन यरूपेणापि विनाशेन लोकात्मनोर्न विनाश इति तात्पर्यार्थः । आत्मानं गवेषयेत् , कथं मयाऽऽन्मा भवानिस्तारणीय . इत्य | यदि वा (दुहन सि )द्विरुपादात्मनः स्वभावाश्चेतनाचेतनरूपान्त्र न्येपयते । “आत्मगवेषकसिद्धिः स्वरूपापत्तिः" इति वचना विनश्यतीति । तथादि-पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशानि रूपापरित् । सिद्धिर्वाऽऽत्मा । ततः कथं ममाऽसौ स्यादित्यन्वेषक प्रा त्यागतया नित्यानि; न कदाचिदनीदशं जगदिति कृत्वा भास्मगषकःयद्वा आत्मानमेव गवेषयत इत्यात्मगषकः । किम त्माऽपि नित्य पव, कृतकत्वादिज्यो हेतुभ्यः । तथा चोक्तम्कं भवति?-चित्रालङ्कारशालिनीरपि खियोऽवलोक्य तदद्दाष्टि "नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि, नैनं दहति पाचकः। न चनं क्लेदयभ्यासस्य दुटताऽवगमात् कटिति तान्यो रगुपसंहारत आत्मा न्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥१॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽय-मवि. न्वे व नर्वात । उत्त०३ अ०। कार्योऽयमुच्यते । नित्यः सर्वगतः स्थाणु-रचलोऽयं सनातनः" अत्तगामि ( ए )-प्राप्त (त्म) गामिन-पुं०। प्राप्तं(मोकं) ग- ॥२॥ एवं च कृत्वा नासदुत्पद्यते, सर्वस्य सर्वत्र सद्भावात् । चति तच्छीनः । मोकगमनशीने आत्महितगामिनि, सर्वको. असति च कारकव्यापाराभावात् सत्कार्यवादः । यदि वा असपदिष्टमार्गगामिनि वा मुनौ, "मुसं न व्या मुणि अत्तगामी" दुत्पचेत, खरदिषाणादेरप्युत्पत्तिः स्यादिति । तथा चोक्तम्-"सूत्र० १ ० १० अ०। मदकरणादुपादा-नग्रहणात्सर्वसंभवानावात्।शक्तस्य शक्यकर णात, कारणभावाच्च सत्कार्यम्" ॥ एवं च कृत्वा मृत्पिएमेजपि अत्तगुण-आत्मगुण-पुं० । बुद्धिसुखपुःखेच्याद्वेषप्रयत्नधर्मा घटोऽस्ति, तदर्थिनां मृत्पिएमोपादानात्। यदि वा असदुपयेत, धर्मसंस्कारेषु जीवगुणेषु, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। ततो यतः कुतश्विदेव स्यान्नावश्यमेतदर्थिनां मृत्पिरामोपादानअत्तचिंतप्र-आत्मचिन्तक-पुंग प्रात्मानमेव चिन्तयतीति । प. मेव क्रियते, इत्यतः सदेव कारणे कार्यमुत्पद्यत इति । एवं च रकार्यमनपेक्यैवात्मानं चिन्तयति गणधारणायोग्ये, व्य०।। कृत्वा सर्वेऽपि नावाः पृथिव्यादय आत्मषष्ठा नियतिभावं नित्यअन्भुजयमेगयरं, पमिवजिस्सं ति अत्तत्रिंतो उ । त्वमागताः, नाभावरूपताम् । श्रभूत्वा च भावरूपतांप्रतिपद्यन्ते। आविर्भावतिरोनावमात्रत्वादुत्पत्तिविनाशयोरिति । तथा चानिजो वि गणे वि वसंतो, न वदति तत्ती तु अन्नेसिं ॥१॥ हितम्-" नासतो जायते भावो, नान्नावो जायते सतः " । य प्रात्मानमेव केवलं चिन्तयन्मन्यते-यथाऽहमन्युद्यतं जिन इत्यादि । अस्योत्तरं नियुक्तिकृदाह-“को वेप" इत्यादि प्राक्तकल्पं यथा लन्दकल्पानामेकतरं प्रतिपत्स्ये इति आत्मचिन्तकः । न्येव गाथा । सर्वपदार्थनित्यत्वान्युपगमे कर्तृत्वपरिणामो न योऽपि गणेऽपि गच्छेप,वसन् तिष्ठन्न वदति न करोति, तृप्ति स्थात,ततश्चात्मनोऽकर्तृन्वे कर्मबन्धानावातदभावाच्च को वेदमन्येषां साधूनां सोऽप्यात्मचिन्तकः । एतौ छावप्यात्मचिन्तकाव यति, न कश्चित्सुखदुःखादिकमनुभवतीत्यर्थः । एवं च सति नहीं । व्य० ३३०। कृतनाशः स्यात् । तथा असतश्चोत्पादानावे येयं मया प्रात्मनः अत्तट्ट-प्रात्मषष्ठ-पुं० । आत्मा पष्ठ इति । पञ्चाना नूताना पूर्वभावपरित्यागेनापरजावोत्पत्तिलकणा पञ्चधा गतिरुच्यते,सा मात्मा पठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पञ्चमे सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमोद्देश- नस्यात्। ततश्च मोकगतेरनावादीकादिक्रियाऽनुष्ठानमनर्थकमापकस्य अर्थाधिकारे, सूत्र। यते।तथाऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वनाबत्वेन त्वात्मनो देवमनुसांप्रतमात्मषष्ठवादिमतं पूर्वपयितुमाह प्यगत्यागती, तथा विस्मृतेरजावाद् जातिस्मरणादिकं वा न संति पंच महन्नूया, इह मेगेसिँ आहिया। प्राध्यति । यञ्चोक्तम्-सदेवोत्पद्यते। तदप्यसत् । यतो यदि सर्वथा आयट्ठो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥१५॥ सदेव,कथमुत्पाद उत्पादश्चेत,तर्हि सर्वदाऽसदिति।तथा चोक्त(संतीत्यादि)सन्ति विद्यन्ते,पञ्चमहानतानि पृथिम्यादीनि, इहा म्-'कर्मगुणव्यपदेशाः, प्रागुत्पनर्न सन्ति यत्तस्मात् ।कार्यमस द्वियं, क्रियाप्रवृत्तश्च कर्तृणाम्।१। तस्मात्सर्वपदार्थानां कथंस्मिन्ससारे,एकेषां वेदवादिनां सांख्यानांशवाधिकारिणांच,पतदाख्यातम्।आख्यातानि च नृतानि तेच वादिन एवमाहुरेवमाख्या चिन्नित्यत्वं सदसत्कार्यवादश्चेत्यवधार्यम् । तथा चाभिहितम् "सर्वव्यक्तिषु नियतं, कणे कणेऽन्यत्वमथ च न विशेषः । तवन्तः-यथा आत्मषतानि आत्मा पठो येषां नानि आत्मषष्ठानि,ज सत्यश्चित्यपचिल्यो--राकृतिजातिव्यवस्थानात्" ॥१॥इति। तथातग्निं,विद्यन्त इति । एतानि चात्मष्ठानि नृतानि यथाऽन्येषांवादि "नान्वयः स हि भेदत्वा-त्र भेदोऽन्वयवृत्तितः। मृझेदद्वयसंसनामनिन्यानि तथा नामीषामिति दर्शयति-आत्मा,लोकश्च पृथिव्यादिरूपः शाश्वतोऽविनाशी । तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्त - ग-वृत्तिजात्यन्तरं घटः" ॥१॥ सूत्र० । भु०१ १०१ उ०। अत्तट्ठ-आत्मस्थ-त्रि० । आत्मनि तिष्टतीति आत्मस्थः। जीत्वाचाकाशस्येव शाश्वतत्वम, पृथिव्यादीनां च तद्पाप्रच्युनेरवि. मश्वरत्वमिति ॥ १५॥ वस्थे, "प्रात्मस्वं त्रैलोक्य-प्रकाशकंनिष्कियं परानन्द्यमातीतादिशाश्वतत्वमेव नूयः प्रतिपादयितुमाह परिच्छेदक-मसं ध्रुवं चेति समयझाः" ॥२॥ पो० १५ विव०। आत्मार्थ-त्रि०। प्रात्मनोगार्थे स्वभोगार्थे, ध०२ अधिक। दुहओ ण विणस्संति, नो य नपजए असं । प्रात्मनोऽर्थः आत्मार्थः । अयमानतया स्वर्गादौ, आत्मैवार्थ मव्वे वि सव्वहा भावा, नियतीभावमागया ॥ १६ ॥ । प्रात्मार्थः: आत्मव्यतिरिक्त, मोके च । उत्त०।"रह कामनिय(दुहश्रोण विणस्संतीन्यादि) ने आत्मषष्ठाः प्रथिव्यादयः तस्म, अत्तके नाऽवरज्झर" उत्त०८ ०हा। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०३) अत्तहकरणजुत्त अभिधानराजेन्धः । अत्तवयणगिद्देस अत्तट्ठकरणजुत्त-आत्मार्थकरणयुक्त-त्रि० । भात्माहतार्थकर- तादिश्रवणतो गृहीतामातां वा इहलोकपरलोकयोः सद्योरणयुक्त, पं० चू०। धरूपतया हितां प्रज्ञामात्मनोऽन्येषां वा बुरुिकुतर्कव्याकुलीकअत्तगुरु-आत्मर्थगुरु-त्रि० । प्रारमनः स्वस्य अर्थः प्रयोजन रणतो दन्ति यःस आत्तप्रज्ञाहा,प्राप्तप्रज्ञाहा वा स्वस्य परेषांच गुरुयस्य स आत्मार्थगुरुः । सत्स. ३५ भ० । आत्मार्थ पर तत्त्वबुरिहन्तरि पापश्रमणे, उत्स० १७ १०। जघन्यो गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुः । दश०१ अत्तपण्णेसि (ण)-आत्मप्रशान्वेषिन्-पुं० । प्रात्मनः प्रका म० । स्वप्रयोजननिष्ठे, " चिंतेहिं ते परितावेद बाले, पीलेश कांनभात्मप्रका, तामन्वेष्टुं शीलं यस्य स प्रात्मप्रशान्वयीश्राअत्तगुरुकिल" उत्त० ३२० । स्मशानाऽन्वेषिणि आत्महितान्बोषिणि, सूत्र०१० अ०। अत्तचिंतग-आत्मार्थचिन्तक-पुंछ मात्मन एव केवलण्याथै आप्तप्रशान्वेषिन्-पुं० । आप्तो रागादिदोषविप्रमुक्तः, तस्य प्रका भक्तादिलकणं चिन्तयति, न बानादीनाम् , तथाकल्पसामाचा- केवलकानास्या, तामन्वेषु शीलं यस्य स भाप्तप्रकान्वेषी । रादित्यात्मार्थचिन्तकः। यद्वा-मात्मार्थों नाम भतीचारमलि सर्वज्ञोक्तान्वेपिणि, "वीराजे अत्तपरणेसी, तिमंता जिरनस्यात्मनो यथोक्तेन प्रायश्चित्तविधिना निरतिचारकरणं वि- दिया"। सूत्र० १ श्रु०९ अ०। शोधनमित्यर्थः । चिन्तयतीत्यात्मार्थचिन्तकः। परिहारतपःप्र- प्रत्तपएहह (ण)-प्रात्मप्रश्नहन्-पुं०। प्रात्मनि प्रम आत्मप्रतिपन्नत्वेनाऽस्मार्थमात्रचिन्तके, व्य १००। अस्तं हन्त्यात्मप्रश्नहा । केनचित्कृतस्य प्रश्नस्य वाके पापभअत्तट्टिय-आत्मार्थिक-त्रि०ाआत्मार्थे भवमात्मार्थिकम् ।आत्म- मणे, यथा-यदि कश्चित्परः पृच्नेत, किं भवान्तरयायी अयमामोऽर्थ आत्मार्थस्तस्मिन् प्रवमात्मार्थिकम् । प्रात्मन एवार्थे, "छ. स्मा, सत नेति । ततस्तमेव प्रश्नमातिवाचालतया हन्ति, यथाघक्खम मोयण मादणाणं, अत्ताध्यिं सिम्मंदगपक्वं"।माह्म- नास्त्यात्मा, प्रत्यक्कादप्रमाणैरनुपलभ्यत्वात; ततोऽयुक्तोऽयं णानामात्मनोऽर्थ आत्मार्थस्तस्मिन् अवमात्मार्थिकम, ब्राह्मणैर- प्रभा, सति हि धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्त इति । उत्त०१७ अ०। प्यात्मनव नोज्यम, नचाऽन्यस्मै देयम् । उत्त०१२ ०। अत्तपसएणमेस्स-आत्मप्रसन्नलेश्य-वि० श्रात्मनो जीवस्य अत्तता-मात्मता-स्त्री० । प्रात्मनो नाव प्रात्मता । जीवास्ति प्रसन्ना मनागप्यकमुषा पीताद्यन्यतरा लेश्या यस्मिंस्तदात्मप्रतायाम, स्वकृतकर्मपरिणतो च। “ह खमु अत्तताए तेर्दि सनलेश्यम् । उत्त० १२१०।। तेदि कुलेहिं अजिसपण संता" प्राचा०१० ६ ०१ उ०। प्राप्तप्रसनलेश्य-त्रि०ा प्राप्ता प्राणिनामिद परत्र च हिता प्राप्ता अत्तत्ताण-आत्मत्राण-न०१६ त०। मात्मरकायाम, सूत्र १ वा तैरेव प्रसन्ना लेश्योक्तरूपा यस्मिंस्तदाप्तप्रसन्नलेश्यम् । श्रु० ११०॥ भारमनिर्मलत्वकारणेन तेजःपद्मशुक्वादिलेश्यात्रयण सहिते, अत्तत्तासंवुम-आत्मात्मसंवृत-त्रि० । आत्मन्यात्मना संवृतस्य " धम्मे हरए बंभे, संति तित्थे प्रणाविले । मत्तप्पसपणप्रतिसंबीने, ज०३ श० ३ ०० । लेस्से," उत्त० १२ १०। अत्तमुक्करकारि(ण)-आत्ममुष्कृतकारिन्-त्रि० । स्वपापवि. अत्तनाव-आत्मनाव-पुं० । स्वाभिप्राये, सूत्र०१७० १३ अ०। धायिनि, “संपराश्य णियच्छति, अत्तक्कडकारिणो" सूत्र अत्तम-आतमति-त्रि० । पार्ने प्राध्याने मतिर्येषां ते मास१६०० अ०। मतयः । प्रातभ्यानोपयुक्तेषु, आतु। अत्तदोस-आत्मदोष-पुं०।६ त०।मात्मापराधे, स्था०५० अत्तमाण-आवर्तमान-त्रि० । श्रा-वृत-शानन् । “ यावत्ताअत्तदोसोवसंहार-आत्मदोषोपसंहार-पुं०। ६ तस्विकी वजीवितावर्तमानावटमानारकदेवकुलैवमेवे वः" ॥८२२२७१॥ यदोषस्य निरोधलकणे एकविंशे योगसंग्रहे, स. ३२ समः । इति वस्य मुक् । संयोगादित्वाद् हस्खः । अभ्यस्यमाने, प्रा। ____ अत्रोदाहरणम् अत्तमुक्ख-आप्तमुख्य-पुं० । आप्तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गवारवइ अरिहमित्ते, अणुकरी चेव तह य जिएदेवे। ताप्रधानत्वेन मुख्ये "शाखादयः"॥ ७।१।११४ ॥ इति हैमरोगस्स य नप्पत्ती, पमिसेहो अप्पसंहारे ॥१॥ सूखेण] तुल्ये यः प्रत्ययः। प्राप्तप्रधाने केवलानिनि, तं० । द्वारवत्या महापुर्या-महन्मित्रो वणिम्बरः। अत्तय-प्रात्मज-पुं०-स्त्री०। प्रात्मनः पितृश राज्जात त्याअनुद्ध प्रिया तस्य, जिनदेवश्च तत्सुतः॥१॥ स्मजः । मङ्गजे पुत्रे, ताश्यां पुध्यां च । यथा भरतस्याऽऽदिरोगस्तस्यान्यदोत्पन्नः, शक्यते न चिकित्सितुम्।। त्ययशाः। स्था० १० ग०।का।विपा। श्रावैद्या रुजोऽमुष्य, निवृत्तिमीसभक्कणात् ॥२॥ अत्तलछिय-आत्मलब्धिक-पुं० । यः प्रात्मन एव सस्वजनाः पितरौ चाथ, सर्वे प्रेम्णा भणन्ति तम् । का लब्धिर्भक्तादिलाभो यस्याऽऽसावारमलन्धिकः । स्वलसोऽवदत नैव भोक्ष्येऽहं, सुचिरं रक्तितं व्रतम् ॥३॥ ब्धिके, पंचा० १२ विव०। मृत्यु स्वीकृन्य सावा, प्रत्याचख्यो विचकणः। शुनेनाभ्यवसायेन, स्वात्मदोषोपसंहृतेः ॥४॥ अत्तव-आर्तव-त्रि० । ऋतुरस्य प्राप्तः, अए । ऋतुभवे पुष्पाअवाप्य फेवलझानं, सिकिसौधं अगाम सः। दी, "आर्तवान्युपजुजाना, पुष्पाणि च फलाणि च" रजसि प्रा० क० । श्राव 1 प्रा००। च, वाच । नि० चू । (अस्य व्याख्या 'गम्भ' शब्दे वक्ष्यते) अत्तपराह (प)-पाच (प्त) प्रहाहन्-पुं० । प्रातां सिद्धा-अत्तवयणणिदेस-प्राप्तवचननिर्देश-पुं० । मासस्य अप्रतार Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवययगिदेस कस्य वचनमासवचनं, तस्य निर्देश आप्तवचननिर्देशः । सर्वकोक्कागमे, "धम्मो मंगलमुनि ति पक्षा असो"। दश० १ ० । (koy) अभिधानराजेन्यः । अत ( प ) संजोग - आत्मसंयोग- पुं० । श्रात्मनः संयोगे - पशुमादिभिमजीवस्य सम्बन्धरूपे संयोगमे, ०१ अ० । ( " संजोग " शब्दे चैष विशेषतो दर्शयिष्यते ) असं परिगदिय आत्मसंपरिवृद्धीत वि० सं गृहीतः सम्पन्न प्रकर्षेण गृहीतोयेनातिसारये घमादिना स तथा । आत्मोत्कर्षप्रधाने, दश० १ ० ४ ० ॥ अत्तसक्खिय- आत्मसाक्षिक- त्रि० । आत्मा एव साविको यस्येति श्रात्मसाकिकः । स्वसाक्तिके, " आत्मसाहिकसद - सिद्ध किं लोकयात्रया ? " अष्ट० २३ अष्ट० । अत्तसम-आत्मसमम-त्रि० । आत्मतुल्ये, दश० १० अ० । अतसमाहि-भ्रात्मसमाधि-पुं० ६० स्वसिद्धी मा ध्यस्थवचनादिना परानुपघाते च सू० १ ०३४०३० अत्तसमाहिय- आत्मसमाधिक-पुं० । विश्व स्वास्थ्यवति, सू - म० १ ० ३ ० ३ ० । आत्मसमाहित- त्रि० श्रात्मना समाहित श्रात्मसमाहितः। ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगे सदापयुक्ते, भाचा०१ ० ४ भ० ३ ० । मात्मा समाहितोऽस्येत्यात्मसमाहितः । प्राहितान्यादिदर्शदावा था निष्ठान्तस्य परनिपातः । यद्वा प्राकृते पूर्वो रनिपातोऽताः । समादितात्मेत्यर्थः । शुभव्यापारवांते, याचा० १ ० ४ ० ३ ० । असम-माप्तशून्य-५० आप्तो वीतरागस्तस्य वाक्यं सिद्धान्तस्तेन वर्जितमाशून्यमिति मध्यपदसोपी समा सः | भाप्तवाक्येन शुन्यमाप्तशून्यं स्वमत्या भसंभावितं विरत्रय होके प्रन्थगौरवादर्शिते, (देवसेन एतत्प्रपनमची करतू द्रव्या० ३ अभ्या० । अत (आय) हिय मात्मनि० ६० मोका रके, प्रश्न०५ सम्ब० द्वा० । विशे०। मात्महितं दुःखेनाऽसुमता संसार पर्यटताऽकृतधर्मानुष्ठानेन सभ्यते अवाप्यत इति तचाहि न पुनरिदमतिदुर्लभ-मगाचसंसारज विष्टम्। मानुष्यं खद्योतक -तमिल्लताविलसितप्रतिमम् ” ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० २ ० २ ४० । १ अत्ता - देशी- जनन्याम, पितृष्वसरि, श्वश्वाम् पयस्यायां च । देना ब अत्तागम म्रात्मागम-पुं० [मपौरुषेये भागमे, "ययणेण का जोगा, भावेण य सो मणादिसुरूस्त । गढ़णम्मिय नो देऊ, सत्थं अत्तागमो कई ए " ॥१॥ उत्त० २ श्र० । अत्ता प्रप्राण- त्रि० ६ ० ० अनर्थप्रतिघातक वर्जिते प्रश्न० १ भाश्र० द्वा० । शरणविरहिते, प्रा० म० द्वि० । कन्धन्यस्तान् कृति का विरुराज्येऽयं विणविधिः अत्ताण चोर भेया, वग्गुर सोनिय पलाइणो रहिका । पढिचरगा य सहाया, गमागमणाम्मि नायन्या ॥ अतीकरण ( अत्ताण ति ) संयता आत्मनैव चौरादिसहायविरहिता ग यन्ति प्रायः निधचूर्णभिप्रायस्तु-(प्रताणति ) अत्राणो नाम स्कन्धन्यस्तलगुरु दितीया ये देशान्तरं गच्छन्ति, कार्पेटिका वा । वृ० १ उ० । आत्मशब्दस्य तृतीयैकचचनेऽपि 'भत्ताण प्ति' रूपं भवति । " असाण अणिग्गढ़िया करैति " आत्मना अनिगृहीता, अनिगृहीतात्मन इत्यर्थः । प्रइन० ५ श्राश्र० द्वा० । त्रि० । प्रताहिडिअ आत्मार्थिक आत्मलब्धिके, घ०३अधि० ॥ अति-आमि-श्री उपलब्धी ० १० ० रागद्वेषमोहानामैकान्तिके श्रात्यन्तिके च कये, स्या० । अतिज्ज [य] - प्रात्रेय - पुं० । मत्रिवंश्ये ऋमौ, “ जीर्णे प्रोजनमात्रेयः " ० क० । ( ' संखेव ' शब्दे कथा रुष्टव्या ) अत्तीकरण आत्मीकरण न० । श्रनात्मन आत्मत्वेन करणं श्रास्मीकरणम् । आत्मसात् करणे, पिं० । स्ववशीकरणे, नि०यू० तथ्य राजादीनां संयतैर्न करणीयम् । तटुक्तम्जे भयंकरे, अती करतं वा साइन नि०० । अणीकरणं राम्रो, साजावियं कतवं च हायब्वं । पुण्यावरसंच परख परोक्स्खमेकैकं ॥ २ ॥ तं पुण प्रतीकरणं दुविधं साजावियं करतवियं च । साभावियं संतं सच्चं चेतसो, तस्स सयणिज्जड, केतवं पुण अलियं । ते पुणो एक दुबिधं पुण्यं संयुता वा (अवरमिति ) पता संतुतं । पुष परोक्तं च परक्यमेव करेति परोक्मेण कारवैति । श्रद्वा राज्ञः समकं प्रत्यकम्, अन्यथा परोक्षं भवति । संते पच्चक्खपरोक्स्खे इमं भातिरायमरणम्मि कुलघर-गताएँ जातो व अहिपाए वा । निवासितवम अनुगागरण जातो वा ||२|| राया मते देवी श्रावमसत्ता कुलघरं गया, तसे अदं पुसो, जहा खुगकुमारो | श्रवधेयाए य जहा परमावती करकडूकोई रायपुतो शिच्छूढो । अपणत्थ गतेणं तेणाहं जातो, अभयकुमारो । असुगच्छगरण राणा अहं जातो, यथा-वसुदेपेण जरकुमारो उत्तरमरवरिण वा जियो तं प रकरणं कहं संभवति । जहा दुल्लभपवेसलज्जा- बुगो व एमेव मच्चमादीहिं । पच्चक्खपरोक्खं वा, करज्ज वा संथ को वि ॥ ४ ॥ सत्य रायकुले नोपदेखो, लजालुओ या, सो सापूप्य णो असतो, असत्तीकरणं काओ, तादे श्रमच्चमादीहि कारवेति, एमेव गणात्र असतं संवज्झति । एते चैव कुलघरादिकारणा जावज्जाणतो पच्चक्खं परोक्खं संघवं करेज्ज, भमच्चमा दीदि वा कारवेज्ज । एतो एगतरेणं, अधीकरणां तु संत असते । करोति राय, लडुगा वा आणमादीणि ॥ ५ ॥ परोपरी संते या भागादिणो यदांसा, लोमे परिवा उवसग्गे करेज्ज | राया रायमुदी वा रायामिता अमित दिन वा । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०५) अनिधानराजेन्द्रः। अत्तीकरण अत्तोवणीय जिक्खुस्स व संबंधी, संबंधिमुही व तं सोचा ॥ ६ ॥ इमा जयणासयमेव राया,राक्षः सुहृदः,ते पुनःस्वजना मित्राणि धा;राशो पणगादिमतिकतो, परोक्खं ताहे संतऽसंतणं । अमित्रा,ते स्वजना दायादाः,अस्वजनाः केनचित्कारणेम नि- एमेव य पच्चक्खं, जावे गाणं तु चउयजुओ ॥१३॥ रुद्धाः। अमित्ताण वाजे सुहिणो, साधुस्स वाजे संबंधिणो, पणगपरिहाणीए जाहे मासलहुं पत्तो ताहे संतं परोक्वं ताण वा संबंधीण जे सुही,तत् सोचा दुविहे उवसग्गे करेज। रहो य भावो जाणियव्वो, प्रियाप्रियेति, जो य रयणउज्जुत्तो संजमविग्घकरे वा, सरीरवाहाकरे व भिक्वस्स । यो दर्शनीयः तेजस्वी वा स अत्तीकरणं करेति, रायदु अणुलोमे पडिलोमे, कुज्जा सुविधे व नवमग्गो ॥ ७ ॥ वा उवसमणघा वेरज्जे वा आत्मसंरक्षणार्थे विरुद्धरज्जे या संजमविग्घकरे वा उपसग्गे सरीरवाहाकारके वा करेज्ज,जे संकमणा रोहगे वा णिग्गमणघा अवमंता वा भत्तट्टा संजमविग्घकराले अणुक्ला इतरे पडिकूला। एते दुविहे उव रमो वा सद्धि अहाणं गच्छता बहुसु उत्पत्तिपसु कारणेसु सग्गं करेज ॥७॥ एवमेव अप्पुवंती नत्तट्ठा, वादकाने वा पवयण चकावणघा, तथिमे अणुक्ला पमिणीयस्स वा सासणट्ठा अत्तीकतो वा जो णिक्खमेज, तव ट्ठा धम्म वा पडिवजिउकामस्स धम्मोवदेसदाणE कुलगणासाज्जसु रज्जसिरिं, जुवरायत्तं व गेएहसु व भोगे। दिकजेसु वा अणेगे। इति राय तस्सुहीम वि, उच्चे जितरे व तं घेत्तुं ।।। एतेहिँ कारणेहि, अत्तीकरणं तु होति कायव्वं । राया भणति-रज्जसिरिं साइज्जसु, अयं ते पयच्छामि रायारक्खियनागर-णेगम सव्वे वि एस गमो ॥ जुवरायत्तं, विसिटे वा भोगे गेएहसु । इति उपप्रदर्शने । राया एव। तस्य सुहृदः,तेऽप्येवमेवाहुः।(इतरे त्ति)जे रएणो पडिणी एतेहिं उत्तकारणेहिं वारमा अत्तीकरणं करेज,रायाणं जोरक्खया,पडिणीयाण वा जे सुहिणो, ते तं उपपञ्चावेउ घेत्तुं वि उ ति सोरायरक्खिो -राजशरीररककः। तत्थ वि सो चेव णगरं स्थाणं करेज्जा, उमरं करेंतीत्यर्थः॥७॥ रक्वति जो सो णगररक्खिओ-कोहपानओ। सब्वपगईओ जो रक्खति सोणियमारक्खिओ-सो सेह।।देसो विसो, तं जोरसृहिणो व तस्स विरिय-परक्कमे गाउ साहते रहो। क्वति सो देसारक्खिओ-चोरोद्धरणिकः। पताणि सव्वाणि जो तो सेही एस णिवं, अम्हे तु ए मुछ पगणेइ ॥६॥ रक्खति सोसञ्चारक्खियो। एतेषु सर्वकार्येवापृच्छनीयःसच, जे पुण भिक्खू, ते तस्स साहुस्स विरियबलपरिक्कमा णा- महायलाधिकतयेत्यर्थः। एतसि पंचराहं सुत्ताणं इमं पच्छकं अउं उप्पब्वाति, साहेति वा, रमो सो तं उपवायेइ, ते पुण | इदेसं करोति, रायारक्खियणागरणेगमे सब्वे । अपिशब्दाद्देशाकिं सप्पवावेति, एस रायाणं तो सेहिति ति। अम्हे रायाण रक्तिको द्रष्टव्यः। एतेसु विपसेव नवसग्गाऽववायगमोदछव्वो। सुछ पगणेश ॥ ॥ नि००४ उ०। इमे सरीरवाहाकरा पडिक्ला उवसग्गा सूत्रपातस्त्वेवम्श्रोनासिउ धिम्मुं-मिएण कुज्जा व रज्जविण्य मे। । जे भिक्खू रायरक्खियं अतीकरे, अत्तीकरतं वा साइएमेव मुहि दरिसिते, णियप्पदोसतरे मारे ।। १० ।। | जइ ॥८॥ जे भिक्खू णगररक्खियं वा अत्तीकरे, राया भणति-अहो! इमेण समणेण महापणमझेोभासियो| अत्तीकरतं वा साइज्जइ ।। ए || जे भिक्खू णिगमरधिग् मुरडतेन दुरात्मना य एवं भाषते, अह्वा एष भोगा क्खियं वा अत्तीकरे, अत्तीकरतं वा साइज्जइ ॥१०॥ भिलाषी मम परिस भिदि रज्जविग्धं करेज्ज, तं सो राया हणेज्ज वा,बंधेज्ज वा,मारज्जवा, रम्मो जे सुही,तेहिं प्राणेश्रो जे भिक्खू सव्वारक्खियं अत्तीकरेश, अत्तीकरतं वा साइरमो दरिसिते, राया तहेव पडिकूलं उवसगं करेज्ज ।। जइ ।। ११ ।। जे भिक्खू गामरक्खियं अत्तीकरेड, अत्तीइतरे णाम जे रमो अमित्ता,अमित्तसुहिणो वा, ते रमलो पडि- करनं वा साइज्जइ ।। १३ ॥ जे भिक्खू देसरक्खियं अरणीयताए तं मारेज्ज,भिक्खुस्स णीया वा पडिलोमे उवसग्ग त्तीकोड, अत्तीकरतं वा साइज्ज ॥ १३ ॥ जे भिक्खू करेज्ज ॥१०॥ उद्धंसिणमो लोग-सि भागहारी व होहि वा माणे।। सीमरक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरतं वा साइज्जइ ॥१४॥ इति दायिगादिणीता, करेज पमिलोमभुवसग्गे ॥११॥ जे जिकाव रस्मो रक्खियं अत्तीकरेइ,अत्तीकरतं वा साइज्जइ उद्धंसिय त्ति प्रोभासिया-अम्हे पतेण लोगे मज्झे श्रोभा-| ॥ १५ ॥ नि० चू० ४ उ०। सिश्रा वा एस श्रम्ह भागहारी होहि त्ति, मा वा अम्ह अधि- अत्तुकरिस-आत्मोत्कप-पु०। पञ्चमे गौणमोहनीयकर्मणि, स० कतरो पत्थ रायकुले होहि त्ति,दुव्ययणयाप बंधाइपहिं उत्ता- ५२ सम० । अहमेव सिमान्तार्थवेदी नापरः कश्चिन्मत्तुल्योवेति वा, जम्हा एते दोसा तम्हा ण कापति राणो अत्तीकरणं स्तीत्येवंरूपेऽभिमाने, “ण करेति दुक्खमोक्ख, उज्जममाणो वि काउं, कारणे पुण कप्पति ॥११॥ संजमतयेसु । तम्हा अत्तुकरिसो, वज्जेयवो जतिजणेण"॥२॥ गेलएण रायउटे, अवरजविरुफरोहगऽघाणे। सूत्र. १ श्रृ० १३ अ०। ओमुब्जावण सासण-णिक्खमणुवदेसकज्जेम ॥१०॥ अत्तुक्कोसिय-प्रात्मोत्कर्पिक-पुं०। श्रात्मोत्कर्षोऽस्ति येषां ते गिलाणस्स वेज्जेण उवदिद-हंसतेनं कल्लाणययं तित्तगं.महा- आत्मोत्कर्षिकाः। गर्वप्रधानेषु वानप्रस्थेपु, औ०। तित्तगं वा, कलमसालिओयणो वा, तारिण परं रराणो हवेज, | अत्तोवणीय-अात्मोपनीत-न । अात्मैवोपनीतस्तथा निवेदितादे जयणाए असीफरणं करेति ॥१२॥ | तो नियोजितो यस्मिस्तत्तथा। परमतदूपणायोपात्ते सति आत्म Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०६) अत्तोवणीय अभिधानराजेन्द्रः । प्रत्य मतस्यैव दुष्टतयोपनायके ज्ञाने, यथा पिङ्गलेनाऽऽन्मा । तथाहि- सव्वेसि पि इमेमि, विभागमहयं पवक्खामि ॥ १७ ॥ कथमिदं तमागमभेद भविष्यतीति राजा पृष्टः । पिङ्गसानिधानः (चतुर्विंशतिचतुर्विशतीति ) चतुर्विंशतिविधो धान्यार्थो, रस्थपतिरवोचत्-नेद स्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति। नार्थश्च (त्रिद्विदशधेति ) त्रिविधः स्थावरार्थः, द्विविधो अमात्येन तु स एव तत्र तदुपत्वान्निखात इति।तेन श्रात्मैव नि द्विपदार्थः, दशविधश्चतुष्पदार्थः। अनेकविध एवेत्यनेकविधः युक्तः स्ववचनदोषात् । तदेवविध प्रात्मोपनीतमिति । अत्रोदाहरणं कुप्याथः। सर्वेषामप्यमीषां चतुर्विंशतिचतुर्विशत्यादिसंख्यानियथा-" सर्व सत्वा न हन्तव्याः" इत्यस्य पक्कस्य दूषणाय क हितानां धान्यादीनां विभागं विशेषम, अथानन्तरं प्रवक्ष्यामीचिदाह-अन्यधर्मस्थिता इन्तव्या विष्णुनेव दानवाः । इत्ये त्यर्थः ॥ १७ ॥ दश ६ अ०। (धान्यादीनां व्याख्या स्वस्थाचंवादिनामात्मा इन्तव्यनयोपनीतो धर्मान्तरस्थितपुरुषाणामिति, | ने दर्शयिष्यत ) " अर्थानामजन दुःखमर्जितानां च रक्कणे । नदोषता तु प्रतीतैवास्येति । स्था० ४ ० ३ उ० । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगथै दुःखकारणम्" ॥१॥ स्था० अत्थ-अर्थ-पुं० । अर्थनमर्थः । अप्रेऽपि वलयादौ श्रुत्वा तद. ३ वा०३ 701 ' धिव्यं दुःखवर्द्धनम्। दश०१ अ 'धिगोंभिप्रायमात्रे, दश०१०। विद्यापूर्वे धनार्जने, आ० म० द्वि०।। उनर्थभाजनम्' इति वा पावान्तरम । ध०३ अधिः । अर्यतेऽधिगम्यते ऽर्थ्यते वा याच्यते बुन्सुनिरित्यर्थः। व्याख्या इदानीमर्थ इति तृतीयं भेदं प्रकटयिषुराहने, "जो सुत्ताभिप्पारो,मो अत्थो अज्जप य जम्ह त्ति" स्था०२ मा०१०। विशे० प्रा० । “प्रत्थस्स इमे अपोगो त्ति वा सयजाणत्यानिमित्तं,आयासाकोसकारणमसारं । निरोगो त्ति वा भासति वा विभासति वा वत्तियति वाएगहा" | नाऊण धणं धीमं नहु लुन्न तम्मि तणुयाम्म ॥६॥ प्रा० ० १ ० । अर्थस्त्रिविधः-सुखाधिगमः,पुरधिगमः, अनधिगमश्च श्रोतारं प्रति भिद्यते । तत्र सुखाधिगमो यथा-चकुष्म इह धनं ज्ञात्वा तत्र न बुज्यतीति योगः। किं विशिष्टं धनम्:तचित्रकर्मनिपुणस्य रूपसिमिः। दुरधिगमम्तु-अनिपुणस्य । अन सकलानर्थनिमित्तं समस्तपुःखनिबन्धनम् । प्रायासाश्चत्तोदः। धिगमस्तु-अन्धस्य । तत्रानधिगमरूपोऽवस्त्वेव । सुखाधिगम यथास्तु-विचिकित्साविषय एव न नवति । पुरधिगमस्तु-देशका- "गजा रोत्स्यति किं नु मे हुतवहो दग्धा किमेतहनं, वस्वभावविप्रकृष्टविचिकित्सागोचरीभवति । प्राचा०१ श्रु० ५ कि वाऽमी प्रनविष्णवः कृतीननं लास्यन्त्यदो गोत्रिकाः। १०५ उभऋ-गती, अर्यते गम्यते, झायत इत्यर्थः। विशे०। मूत्रा- मोषिष्यन्ति च दस्यवः किमु तथा नंष्टा निखातं तुधि, निधेये, उत्त०१ अप्रवानि चू प्राम.प्र. पं० व०॥ ध्यायनेवमहादेवं धनयुतोऽप्यास्ततरां दुखितः" ॥१॥ दशानं ज्ञानाचाराविषयभेदे यथार्थ एवार्थः करणीयः, न-1 तथा क्लेशः शरीरपरिश्रमस्तयोः कारणं निबन्धनम् । तथादित्यर्थभेदः। दश०१ अन("णाणायार" शब्दे विशेषो वक्यते)पं० "अर्थार्थ नऋचक्राकुलजलनिलयं केचिस्तरन्ति, वानि चू। सूत्रतात्पर्य, ध०४ अधि०। अयंत प्राथ्यत इत्यर्थः। प्रोद्यच्छनाभिघातोत्थितशिखिकणकं जन्यमन्ये विशन्ति । स्वर्गापवर्गप्राप्तिकारणजूते, उत्त०१८ अा अन्ये, आव०४ अ०। मणिकनकादा, कल्प० । शब्दादिविषयभावेन परिणते व्यस शीतोष्णाम्भःसमीरग्लपिततनुबताः केत्रिकां कुर्वतेऽन्ये, मूहे, विशेः। राजलदम्यादौ, स्था० ३ ग० ३ न. । प्राचू । शिल्पं चानल्पनेदं विदधति च परे नाटकाद्यं च केचित्"॥२।। "स्त्यानचतुर्थाथै वा" ॥12३३॥ इति संयुक्तस्यार्थनागस्य तथा प्रसारं, सारफलासंपानाद् । यदादवावं प्रयोजने पर जवति । धने तु 'अत्थो। प्रा० अर्यते गम्यते, "व्याधीनो निरुणद्धि मृत्युजननज्यानि-क्वये न कम, साध्यत इत्यर्थः । सूत्रस्याभिप्राये, “जो सुत्तानिप्पाओ, सो अ- नष्टाऽनिष्टवियोगयोगहृतिकृया न च प्रेत्य च । त्यो अन्जप जम्हा" विशेगा० म०प्र०। सूत्राधा श्राचा चिन्ताबन्धुविरोधबन्धनवधत्रासाऽऽस्पदं प्रायशो, __ अधुना त्वर्थावसरस्तत्रेदमाह वित्तं वित्तविचक्षणः क्षणमपि क्षमावहं नेक्षते" ॥३॥ (धम्मो एसुबाहो,) अत्यस्त चउब्धिहो उ निक्खेवो । इत्थं भूतं धनं मात्वा,न लुभ्यति नैव गृध्यति,धीमान् बुद्धिआहेण विहऽस्यो, चउसट्टिविहो विनागेण ।।१५।। मान , तस्मिन् द्रव्ये,चारुदत्तवत् तनुकमपि स्तोकमपि प्रास्तां यहित्यपेरर्थः । भावश्रावको हि नान्यायन तदुपार्जनाय अर्थस्य चतुर्विधस्तु निकेपो नामादिभेदात् । तत्रोधेन सामा प्रवर्तते, नाप्युपार्जिते तृष्णावान् भवति, किं तर्हिन्यतः षधिोऽर्थः । आगमनोभागमव्यतिरिक्तो ऽव्यार्थः चतु:षष्टिविधो विभागेन विशेषणति गाथासमुदायार्थः । "अायाददै नियुञ्जीत, धर्मे समाधकं ततः। अवयवार्थ त्याह शेषेण शेष कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छमैहिकम्"॥१॥ इति विमृशन यथायोगं तत्सप्तक्षेत्र्यां व्ययतीति । ध० र० । धन्नाणि रयण थावर-पय चनप्पय तहेव कुविरं च। श्रर्थ्यते परिच्छिद्यते इति अर्थः। पदार्थे, "सदेव सत् स्यात्सअोहेण छविहऽत्यो, एसो धीरेहि पन्नत्तो ।। १६ ।। दिति त्रिधाऽर्थी,मीयत दुर्नीतिनयप्रमाणैः" । स्था० । अर्थ्यत धान्यानि यवादीनि, रत्नं सुवर्णम, स्थावरं नृमिगृहादि, द्विप- इत्यर्थः । द्रव्ये, गुणे च, "अत्थो दव्वे गुणे वा वि" उत्त०१० दं गन्ध्यादि, चतुष्पदं गवादि, तथैव कुप्यं च ताम्रकलशाधने- पुरुषार्थभेदे,यतो हि सर्वप्रयोजनसिद्धिः। ध०१ अधिक प्रयोकविधम् । श्रोधेन पम्धिोऽर्थः, एषोऽनन्तरोदितः, धारस्तीर्थ जने, "स्त्यानचतुर्थार्थे वा ॥८॥२३॥ इति [हमसूत्रेण] ठत्वमार्षे करगणधरैः, प्राप्तः प्ररूपित इति गाथार्थः ॥२६॥ कदाचिन्न भवति । "अणुग्गहत्थं सुविहियाणं"इत्यत्र प्रयोज__ एनमेव विभागतोऽभिधित्सुराह नार्थकत्वेनैवाऽर्थशब्दस्य व्याख्यानात् । श्रोघका प्रावधा चवीसा चवीसा, तिग युग दसहा अणेगविह एक ।' "अत्यो त्ति या हेउत्ति या कारण त्ति वा एग"निचू०२०३० Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०७) प्रत्य अन्निधानराजेन्द्रः । अत्थकहा साम्प्रतं धर्मादीनामेव संपन्नतासंपन्नते अभिधित्सुराह- | अत्यंतरुब्भावणा-अर्थान्तरोभावना-स्त्री०। अलीकवचनधम्मो अत्थो कामो, भिन्न ते पिंडिया पडिसवत्ता। भेदे, ययेश्वरादिः की समस्तस्यास्य जगतः क्रोधादिकजिण वयणं नत्तिना, अवसत्ता होति नायचा ॥३॥ पायाऽऽध्मातचेतसः प्रच्छन्नपापस्य । दर्श०। धर्मोऽर्थः कामः, त्रय एते पिण्डता युगपसपातेन प्रति-| अत्थकंखिय अर्थकाइक्षित-त्रि० । कासा गृद्धिः, आसक्तिरित्यसपनाः परस्परविरोधिना, सोके कुमवचनेच । यथो- र्थः। अथें द्रव्ये काका अर्थकला, सा संजाता अस्येति अर्थकातम्-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य विखवपुर्व डिन्तः । भ०१श०७उ०। प्राप्तेऽप्यर्थे अविच्चिनेच्ने, ज० १३ यश्च । धर्मस्य दानं च दया दमश्च, मोक्षस्य सर्वोपरमः | श०६ उ०। क्रियासु" ॥१॥ इत्यादि । एते च परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो अत्याप्पिय अर्थकस्पिक-पुं० । भावश्यकादिश्रुतमधीतवति, पृ० जिनप्रवचनमवतीर्णाः, ततः कुशलाशययोगती व्यवहारेण अर्थकल्पिकमाहधर्मादितत्त्वस्वरूपतो वा निश्चयेन असपत्नाः परस्परविरोधि. अत्थस्स कप्पिो खबु, श्रावस्सगमादि जाव सूयगमं । नो न भवन्ति, सातव्या इति गाथार्थः।। २६॥ मोत्ताणं छेयसुयं, जेण अहीयं तदत्थस्स ॥ तत्र व्यवहारेणाविरोधमाह आवश्यकमादिं कृत्वा यावत् सूत्रकृतमहं तावत, यद् येनाजिणवयणम्मि परिणए,अवत्यविहिआणठाणओ धम्मो । धीतं स तस्यार्थस्य कल्पिको भवति । सुत्रकृताङ्गस्योपर्यपिनेमच्छाऽऽसयप्पयोगा, अत्थो वीसंभो कामो ॥ ३० ॥ दश्रुतं मुक्त्वा यद् येनाधीतं सूत्रं स तस्य सुत्रस्य समस्तस्याजिनवचने यथावत् परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठा प्यर्थस्य कल्पिको भवति । दसूत्राणि पुनः पठितान्यपि याव दपरिणतं, तावन्न श्राव्यते, यदा तु परिणतं भवति तदा कनात् स्वयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रावकप्रतिमाङ्गीकरणे नि ल्पिकः ॥ ७॥ वृ०१ उ० । रतिचारपालनाद्भवति धर्मः । स्वच्छाऽऽशयप्रयोगाद्विशि अत्थकय अर्थकत-स्त्री अर्थाथै, "भासणदानं च अत्थकप" एलोकतः पुण्यवलाच्चार्थः विश्रम्भत उचितकलत्रानीकर दश६०। णताऽपेक्षो विश्रम्भेण काम इति गाथार्थः ॥ ३०॥ अत्थकर-अर्थकर-पुं०। अर्थस्य करस्तत्करणशीसोऽधकरः । अधुना निश्चयेनाविरोधमाह प्रशस्तविचित्रकर्मक्कयोपशमाविर्भावतो विद्यापूर्व धनार्जनकरधम्मस्स फनं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणावाहं। । णशीने, आ० म०वि०। तमभिप्पेया माहू, तम्हा धम्मउत्थकाम त्ति ॥ ३१॥ | अत्थकहा-अर्थकथा-स्त्री० । अर्थस्य कथा लदम्या उपायप्रतिधर्मस्य निरतिचारस्य, फलं मोक्षो निर्वाणम,किं विशिष्टम् ? पादनपरे वाक्यप्रबन्धात्मके कथाभेदे, सक्तं च-" सामादिइत्याह-शाश्वतं नित्यम,अतुलमनन्यतुलम, शिवं पवित्रम,अ. धातुवादादि-कृप्यादिप्रतिपादिका। अर्थोपादानपरमा,कथाऽर्थनाबाधं बाधावर्जितमेतदेवार्थः। तं धर्मार्थ मोक्षमभिप्रेताःकाम स्य प्रकीर्तिता"॥१॥ तथा-"अर्थाख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधानः यन्तः साधवो यस्मात्तस्माद्धर्मार्थकामा इति गाथार्थः ॥३१॥ प्रतिभासते। तृणादपि लघु लोके, धिगर्थरहितं नरम" ति एतदेव दृढयन्नाह एतदेय विस्तरत नक्तम् ।। परस्रोगमुत्तिमग्गो, नत्यि हु मोक्खो त्ति विति अविहिन्न । अधुनाऽर्थकथामाह विज्जासिप्पमुवाओ, अणिवेओ संचओ य दक्खतं । सो अस्थि अवितहो जिण-मयम्मिपवरोन अन्नत्थ।।३।। सामं दंडो भेओ, उवषयाणं च अत्थकहा ।। १६५ ॥ परलोको जन्मान्तरलकणो, मुक्तिमार्गों, ज्ञानदर्शनचारित्राणि विद्या शिल्पमुपायोऽनिर्वेदः संचयश्च दक्तत्वं साम दामो नास्त्येव मोकः सर्वकर्मक्षयलकण इत्येवं युवते प्रविधिज्ञा भेद उपप्रदानं चार्थकथा, अर्थप्रधानत्वादित्य करार्थः । जावान्यायमार्गाप्रवेदिनः। अत्रोत्तरम-स परलोकादिः अस्त्येवा र्थस्तु वृरुविवरणादवसेयः। तच्चदम-"विज्जं पमुच्चस्थकवितथः सत्यो, जिनमते वीतरागवचने प्रवरः पूर्वापराविरो हा, जो बिज्जाए अत्थं उवज्जयति जदा-एगेण बिज्जा साधेन, नान्यत्रैकान्तनित्यादौ, हिंसादिविरोधादिति गाथार्थः हिया, सा तस्स पंचयं परप्पनायं दे । जहा वा-सब्वश्स्स ॥ ३३॥ दश०६ अ०। विज्जाहरचक्रवट्टिस्स विज्जापनावेण जोगा उवणया। सवाअस्त--पुंछ मेरौ,यतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदि स्स पत्ती जहा य सहकुबे वस्थितो, जहा य महेसरो नाम श्यते।स०३८ समा निरस्ते अविद्यमाने, त्रिशा०१३ अ०) कयं । एवं निरवसेसं जहाऽऽवस्सए जोगसंगहेसु, तहा भाणियअस्त्र--न । अस्यते क्षिप्यते । अस्-टन् । क्षेप्ये शरादौ, व्वं । विज त्तिगयं ॥ श्याणि सिप्पे ति। सिप्पेणऽत्यो उबज्जिवाच । धनुरादिषु, ध०२ अधि० । रिपुक्षेपणमात्रे साधने, णत्ति । एत्थ उदाहरणं कोक्कासो जहाऽऽवस्सए । सिप्पेत्ति प्रहरणमात्रे खम्गादावपि, पाच०। गयं ॥श्याणि उवाप सि । पत्थ दिईतो चाणको । जहा-चाणअत्थअवगम-अर्यावगम-पुं०१६ ताअर्थपरिच्छेदे, दश०१०।। केण बहुविहहिं अत्थो वज्जिओ। कई?, दो मज्जधाउरत्ताओ। पयं पि अक्वाणयं जहाऽऽवस्सए तदा भाणियब्ध । व्यापत्ति अत्थंगय-अस्तंगत-त्रि० । प्रस्तपर्वतं प्राप्ते, दश० ० अ०। गयं ॥श्याणि अणिन्वेए संचए य एक्कमेव उदाहरणं-मम्मणवाअत्यंतर-अर्थान्तर-न० । वस्त्वन्तरे, पो० १६ विवा पृथग्भूते, णिो । सो विजदाऽऽवस्लप,तदा भाणयब्वो" (अनंतनंत दर्श०। गामश्वमभिदधतोऽसत्यभेदे, ध०१अधिक न्यायमते 'दक्ख' शब्दे वक्ष्यते) दश०३ अ० विद्यादिभिरर्थस्तत्प्रधाना उदेश्यसिध्यर्थ प्रयुक्तशब्दसामर्थ्यानुदेश्यसिहयनुकूले दुध- कथा अर्थकथा । सदसपात्मकं वस्तुस्वरूपमिति पदार्थसाधनवाक्ये, वाच०। संबन्धियां वार्तायाम, स्या०॥ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०४ ) अत्थकामय अभिधानराजेन्द्रः। अत्यग्गहाण प्रत्यकामय-अर्थकाम-त्रि० । अर्थ द्रव्ये कामो वाम्छामात्र य- पलचउन्नागो चंदा-इचलसु तारेसु अमभागो॥ १४॥ स्याऽसावर्थकामः । व्यस्य वाञ्चके, न० १ २०७ उ०।। पलियंअहियरदो अयर ३,साहिया४सत५दसय६चउदमय। अत्यकिरिया-अर्थक्रिया-स्त्री० । सुखदुःखोपनोगे, स्या। सतरस ज सहस्सारे, तदुवरि ग अयरहिति ॥१५॥ अह जन्नुकोसठिई, अयरा तित्तीस हुंति सबढे। अत्यकिरियाकारि [ण]-अर्थक्रियाकारिन्-त्रि० । अर्थक्रि एतो परेण देवा, देवाण निई य पिच्चिन्ना ॥ १६ ॥ याकरणशीले, आ० म० द्वि० ॥ शसिनदपुत्तकदियं श्णमई, सुट्टियं पिते सका। प्रत्यकुसल-अर्थकुशल-पुं० अर्थोपार्जनं हस्तनाघवादिप- सव्वे असदहता, नियनियगेहेसु संपत्ता ॥ १७ ।। रित्यागेन कुर्वति, दश ५ अाधार। सुपभूयभत्तियाहू-यपवरपुरदयबहुसमृहनओ। अह तत्थ चीरसामी, चामीयरसमपहो पत्तो ॥ १० ॥ सम्प्रत्यर्थकुशल ति द्वितीय भेदं व्याचिख्यासुगाथापूर्वार्द्धस्य सिरिपवयणउत्थप्पण-पुवं जयता य पायनमणत्थं । द्वितीयं पादमाह इसिनहपुत्तसहिया, ते सब्वे सावया पत्ता ॥ १५॥ ..................",सुणइ तयत्यं तहा सुतित्यम्मि । काउं पयाहि णतिगं, सुभत्तिजुत्ता नमिउ ते सामि। निसियंति नचियदेसे, श्य धम्म कह नुवणगुफ॥ २० ॥ श्रणोत्याकर्णयति, नदर्थ सत्रार्थ, तथा तेनैव प्रकारेण स्वत भो नविया! अश्ल मिकौचित्यरूपेण, सुतीर्थे सुगुरुमूले । यत आह हं, नरजम्मं लहिय मह सययं । अन्नाण हणणमल्ले, पवयणभणियत्थकोसद्धे ॥१॥ "तित्थे सुत्तत्थाणं, गहण विहिणा उत्थ तिथमिणं । श्य पायनियधम्म, ते सहा विनवंति जयपहुणो । भयन्न चेव गुरु, विहिा विणया ओचित्तो" ॥२॥ इत्यादि। तं देवश्ििवसेम, सव्वं इसिभइसुयकहियं ॥ २२॥ अत्रायमाशयः-ऋपिन्नापुत्रवत् संविग्नगीतार्थगुरुसमीपश्र तो संस संसयरे-पुंजहरणे समीरणो सामी। वणसमुत्पन्नप्रवचनार्थकौशलेन जावश्रावकेण भाव्यमिति । भो भद्दा! देवग्इिं, एमेव अहं पिजंपेमि ॥ २३ ॥ ऋषिभपुत्रकथा चैवम् श्य सोउ ते सखा, सिनहसुयं सुयत्थकुसल का । "इत्थेव जंबुदीवे, भारदवासस्स मज्झिमे खमे। खामितु नमिनु पहुं तं, संपत्ता नियनियगिहेसु ॥ २४ ॥ अस्थि पुरी आलभिया, न कया वि रीहि पालभिया ॥१॥ श्यरो वि चंदिय जिणं, पुच्चियपसिणारे सगिहमणुपत्तो। सुगुरुप्पसायनल्लसिय-विमलबहवयणपत्थकोसल्लो । वरकमब्व पह विह, अन्नत्थ सवासए भविए ॥२५॥ इसिभइपुत्तनामो, सम्मो तत्यासि मुवियवो ॥२॥ सम्म सिभइपुत्तो, चिरकालं पालिकण गिहिधम्म । भन्ने वि तत्थ निवस-ति सावया श्रावया सुदधम्मा। कयमासभत्तयायो, जाओ सोहम्मसम्ममुगे ॥ २६ ॥ इसिनहसुश्री कश्या, वि तेहि मिलिएहि श्य पुछो ॥३॥ अरुणाभं पि विमाणे, चउपलियाई तहि सुहं हुनु । जो भो देवाणुपिया! देवाण चिई कहेसु अम्हाण । चविय विदेदे पवयण-कुसलो होउं सिवं गमिह ॥२७॥ सो वि हु पवयणभणिय-त्थसत्थकुसलो वि श्य नण ॥४॥ एवं निशम्य सम्यम्, भव्याः ऋषिभपुत्रसुचरित्रम् । असुरानागारविग्जू,३सुबन्न४ अम्गी उ ५वाउ ६याणया७ य। भवत नवतापहारिषु, कुशनधियः प्रवचनार्थेषु " ॥२८॥ उदही दीवर दिसा वि य,१० दसहा इह इंति नवणवई ॥५॥ इति ऋषिनद्रपुत्रकथा । इत्युक्तःप्रवचनकुशलकस्य अर्थकुशस पिसायर जया रजक्खा य,३रक्खसा४किनरायकिंपुरिसाद इति द्वितीयो भेदः । ध० र० । महोरगा य गंधव्या , अट्टविदा वाणमंतरिया ॥६॥ अत्थक-अकाएम-10 । प्राकृते-"गोणादयः" ।।२।७४॥ ससि १ रवि २ गद ३नक्वत्ता, तारा जोसिय पंचहा देवा। वेमाणिया य दुविहा, कप्पगया कप्पतीया य ॥ ७ ॥ इति अधक्कादेशः । अनवसरे, प्रा० । देना। तत्र कल्पगता: अत्थक्कजाया-अकाएमयाञ्चा-स्त्री० । अकालप्रार्थनायाम् , सोदमी-१-साण २ मणं-कुमार ३ माहिद बन ५ संतगया ६। बृ. ३००। सुकसहस्सारामणयह,पाणय१०आरणय ११अच्चुयजा१२।। अत्यगोसि ( ए )--अर्थगवेषिन-त्रि० । व्यान्वेषणकृति, ___ कल्पातीतास्त्विमे भ० १५ श० १ उ०। सुदरिसण १ सुप्पबद्ध २,मणोरम ३ सयभासविसा अत्यग्गहण-अथग्रहण-न। अर्थपरिझाने, व्य० ७ उ० । सोमगम ६ मोमाणस ७, पीइकर चव नंदिकरं ॥३॥ अर्थनिश्चयकरणे, विजयं च १ वेजयतं, २ जयंत ३ अपराजियं य ४सय ५। अत्रार्थग्रहणद्वारं विवरीषुराह-- एएन जे गया ते, कप्पाश्या मुणेयव्वा ।। १०॥ सुत्तम्मि य गहियम्मी, दिहतो गोण-सालिकरणेणं । चमरवनि अयर महिय, दिवपलियं तु सेसजम्माणं । आउंदो देसूणं, तारापलियं वणयराणं ॥ ११ ॥ नवभोगफलासाली, सुत्तं पुण अस्थकरण फलं ॥१॥ पलियं वासरथक्वं, वाससहस्मं च पलिय मरूंच। सूत्रे गृहीते सति अवश्यं तस्यार्थः श्रोतव्यः। कि कारणमिति चउभागो य कमेणं, ससिरविगहरिक्वताराणं॥१२॥ चेदुच्यते-दृष्टान्तोऽत्र गवा यावर्दन,शानिकेत्रेण । तत्र गोरादा१माहिरसत३साहिय४,दस५च उद्द६सत७अयर जासुरका तो यथा-कश्चिद्वलीवर्दः सकलमपि दिवसं चाहयित्वा हलादरपक्किकाऽहिगत दुवरि-तित्तीस अणुत्तरेसु परं ॥ १३ ॥ कघट्टान्मुक्तः सन् सुन्दरामसन्दरा वा चारियां प्राप्नोति,तां स. दसवरिससहस्सा, जवणवईसुंदिई जहन्नाओ। वामनास्वादयन् चरत्येव । पश्चाद घ्रातः सन् उपविश्य प्राक चीर्ण Jain Education Interational Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०९) अत्यग्गहण अनिधानराजेन्द्रः । अत्थदायि (गा) रोमन्धायते, रोमन्थायमानश्च तदास्वादमुपलनते। ततोऽसौनी- अत्यजत्ति-अर्थयुक्ति-स्त्रीग हेयेतररूपायोजनायाम, दश. रसं कचवरं परित्यजति । एवमयपि गृहवासारक घटान्मुक्तः । ५० उ०। प्रथमं यत्किमपि सत्र चारिकल्पं गुरुसकाशादधिगति, तत्ममर्थास्वादनविरहितं गृहाति, ततःसूत्रे गृहीते अर्थग्रहणं अत्थजोणि-अर्थयोनि-स्त्री० । अर्थस्य योनिग्धयोनिः । गकरोति । यदि पुनरर्थ न गृएदीयात तदा तन्मृत्रं निरास्वादमेव जलदम्यादरुपाये, "तिविहा अत्थजोगी पन्नत्ता । नं जहा-सासंजायते; अर्थे तु थुते सम्यक तदर्थमवबुध्यमानः सन्नसौ यथा मे, दंडे, भेए" सामदण्डादीनामन्यत्र स्वरूपम् । स्था० ३ वदयधारयत्युपदेशं, परिहरति विन्दुमात्रानेदादिदोषदुशान क ठा० ३ उ०। चवरकल्पनानिझापानिति शालिकरणदृष्टान्तः पुनरयम्। यथा- अत्थण-अर्थन-न। सानाद्यर्थ परस्याऽऽचार्यस्य पावऽव. कर्षकः शालीन महता परिश्रमेण निष्पाद्य तनो लवनमजनपव- स्थाय ज्ञानादिगुणार्जन, उत्त. २६ अ०। नादिप्रक्रियापुरस्सरं कोष्ठागारे प्रतिप्य यदि तैः शानिनिः खा अत्थणय-अर्थनय-पुं०:अर्थनिरूपणप्रवणत्वादर्थनयः स्या द्यपेयादीनामुपनोगं न करोति,ततः शालिसंग्रहः तस्याफलःसंपद्यते । अथासौ करोति तैः शानिभिर्यथायोगमुपन्नोगं ततः शा रत्ना० । मुख्यवृत्या जीवाद्यर्थसमाश्रयणात् । श्रा०म० द्वि०। लिसंग्रहः सफलो जायते। एवं द्वादशवार्षिके सूत्राभ्ययने परि यथाकथञ्चिच्छन्दा एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयः । श्रमे कृतेऽपि यदि तदीयमर्थ न शृणुयात्तदा स सर्वोऽपि परि अनु० । यो ह्यधमाश्रित्य वक्तृस्थसंग्रहव्यवहारसूत्राख्यप्रत्यश्रमो निष्फल एव भवेत्। अर्थे तु श्रुते सम्यगवधारितेच सफलः यःप्रादुर्भवति सोऽर्थनयः; अर्थवशेन तदुत्पत्तेः । अर्थप्रधास्यात् । अत एवाह-उपभोगफलाःशालयः,सूत्रं पुनरर्थकरणफ नतयाऽऽसौ व्यवस्थापयनीति । सम्म० । अर्थमेव प्राधान्यन शब्दोपसर्जनमिच्छति । सूत्र०२ श्रु०७०। लम् । चरणकरणादिरूपसूत्रार्थाचरणादिरूपस्तदर्यावरणफलं, तच सूत्रोक्तार्थाचरण श्रुत एवार्थे भवति, नान्यथा। अत्यप्पवरं सहो, सदाणं वत्युमुज्जुमुत्ता ॥ अतः ऋजुसूत्रान्ताश्चत्वारो नया वस्तु ब्रुवते प्रतिपादयन्ति । कथ. जइ बारसवासाई, सुत्तं गहियं सुाणहि से अहणो। । म्भूतम् ? इत्याह-अर्थप्रवरं शब्दोपसर्जनम् । अथवा अर्थप्रवरंबारस चेव समाओ, अत्थं तो नाहिसि नवा णं ॥१॥ प्रधानभूतोमुख्योऽर्थो यत्र तदर्थप्रवरम। शब्द उपसर्जनमप्रधा. नभूतो गौणो यत्र तच्छन्दोपसर्जनम् । शेषास्तु शब्दादयत्रयो यदि द्वादशवर्षाणि त्वया सूत्रं गृहीतम्, अतस्तस्य सूत्रार्थ- व्यत्ययमिच्छन्ति । विशे०। मधुना द्वादशैव समा वर्षाणि शृणु । ततोऽर्थ शृण्वन् स्वशा | अत्यणाण-अर्थज्ञान-पुं० । अभिधेयावबोधे, पश्चा० १२ नाचारककर्मक्षयोपशमानुसारेण शास्यसि वा, न वा (णमिति) तं विवक्षितमर्थम् (बृ०) किंच-संज्ञासूत्रादीन्यनेकवि विव०॥ धानि सन्ति । इत्थमनेकधा सूत्राणां संभवे तदर्थश्रवणमन्त अत्यणिकर-अर्थनि( कुर )पूर-न० । चतुरशीतिल बैर्गुणिरेण न शक्यते कीदशमिति विवेक कर्तुम, इति कर्तध्यमर्थ- तेऽर्थनिपूराङ्गे, अनु। प्रहणम् । अथ ते शिप्या युः-यः कण्ठतः सूत्रे निबद्धोऽ- | अत्यणिकरंग-अर्थनिपूराङ्ग( निकुराङ्ग )-न। चतुरशीर्थस्तेनैव वयं तुष्टाः, किमस्माकं दुराधिगमत्वाद्बहुपरिक्लेशेन | तिलक्षगुणिते नलिने, अनु । स्था। जी०। “ मजण णिसणज्ज अक्खा" इत्यादिप्रक्रियापुरस्सरमर्थ अत्यणिज्जावणा-अर्थनिर्यापणा-स्त्री० । अर्थः सूत्राभिधेयं ग्रहणप्रयासेनेति । एते इत्थं युवाणाः प्रज्ञापयितयाः । कथमित्याह वस्तु, तस्य निरित भृशं, यापना निर्वाहणा, पूर्वापरसाङ्गत्ये न स्वयं मानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमतो निर्यापणा । घाजे सुत्तगुणा खलु ल-क्खणम्मि कहिया उसुत्तमाई य। चनासंषभेदे, उत्त०१ अ०। अत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पमविज्जति ॥ अर्थस्य निर्यापणामाहपीठिकायां लक्षणद्वारे ये सूत्रस्य गुणाः 'निद्दोसं सारवं निजवगो अत्थस्स य, जो उ बियाणाइ अत्थ मुत्तस्स । तंच' इत्यादिना कथिताः। यद्वा-(सुत्तमाई यत्ति)"सुत्तं तु अत्येण विनिव्वहति, अत्थं पि कहे जे नरिणयं ।। सुत्तमेव उ" इत्यादिना प्रतिपादिताः, तैरेव हेतुभिरर्धग्रहणे मराला अलसाः शिष्याःप्रज्ञाप्यन्ते । यथा-भो भनाः! निदोष- अर्थस्य निर्यापक इति यद्भणितं तस्यायमर्थः-यो नाम सूत्रसारचविश्वतोमुखादयः सूत्रस्य गुणा भवन्ति, ते च यथा- स्यार्थ कथ्यमानं विजानाति । यदिवा-अर्थेन निर्वहति-अर्धाविधि गुरुमुम्वादथे थ्रयमाण एव प्रकटीभवन्ति । किंच-यथा- वधारणबलेन सूत्रपाठे निर्वहमुपयाति, तस्यार्थमपि कथयद्वासप्ततिकलापारडतो मनुष्यः प्रसुप्तः स किश्चित्तासां क- ति, प्रास्तां सूत्रं ददातीत्यपिशब्दार्थः । व्य) १० उ। लानां जानीते । एवं सूत्रमप्यथेनाबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यम् । अत्याणियय-अर्थनियत-त्रि०। अर्थनिबन्धने, सम्म०॥ बिचित्रार्थनिबद्धानि सोपस्काराणि च सूत्राणि भवन्ति । श्रतो गुरुसंप्रदायादेव यथावदवसीयन्ते न यतस्तत इत्थं युक्ति अत्यत्थिअ-अार्थिन्-त्रि० । अर्थमर्थयते इति अाधी द्रयवचोभिः प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते-गुरूणामुपदेशं व्यप्रयोजने, भ० १५ श०१ उ०। औः । शा1०। गृहन्ति द्वादशवर्षाणि विधिवदर्थम् । इति गतमर्थग्रहण- अत्थदंम-अर्थदएम-पुं० । शरीराद्यर्थदण्डे, प्रश्न) ५ सम्ब० द्वारम् ॥ ०१ उ०। द्वा। अत्यजाय-अथेनान-नाद्रव्यप्रकारे, पश्चा०१०विव०। अत्थदायि ( )-अर्यदायिन-त्रिक । सूत्राभिधेयप्रदातरि, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यदायि ( ) काउं प्रणामं च श्रत्थदायिस्स पज्जुखमासमणस्स नि० ० १ उ० । अत्थधम्मन्नासावयेत्त- अर्थधर्माज्यासानपेतन्त्र न० । श्र सारा श्री० रा० 29 प्रत्थधर - अर्थधर पुं० । श्रर्थयोरूरि स्था० ४ ० १ ० | "सुदसरा अधवराव श्रा० म०प्र० । अत्थपज्जय- अर्थ पर्याय- पुं । अथैकदेशप्रतिपादकेषु पर्या - येषु, अर्धरूपेषु पर्य्ययेषु च । विशे० । अर्थविषयं पर्येत्यवगच्छति यः सोऽपर्यायः । इंदर नूतार्थग्राहकत्वे सम्म | अत्यावा-अर्थमनिपति". ( २१० ) अभिधानराजेन्द्रः | भासाएँ जणते. समासीनमि श्रत्थपमिवत्ती " । विशे० । प्रत्यय - अपन० | उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सद्दित्यादिवदनेपदेविशे० । अत्यपिवासिय अर्थाि०प्र० मेऽप्यर्थेऽप्तिः । अथें अर्थस्य वा पिपासा संजाता अस्येति अविवासितः अतार्थविषय०१४ श० १ उ० । अत्यपुरस- अर्धपुरुष र पुरुषमेधा मम्मणवाक | आर म० द्वि० । श्राचू० । प्रत्यपुहत्त-अर्थ पृथक्त्व-न -न।" त्यो सुयस्स विसभो, तत्तो भिन्नं सुयं पुहतं ति" अर्थः किमुच्यते ?, इत्याह श्रुतस्य विषयो विधेयः, तस्माच्चार्थात्कथञ्चिद् भिन्नत्वात्सूत्रं पृथगुच्यते । प्राकृतादेव पृथम सूत्रालयक " अत्थमाण लम कचिवृत्तिः कचिवृत्तिः कचिदू विनाश कचिदन्यदेविविधानं बहुधा समं द्रय, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति" ॥१॥ 'अत्थबहुलं महत्थं, हे निवाश्रवसग्गगंभीरं " दश०२ अ० । अन्यभेवर्थ १० आगमपदार्थस्यान्यापरिकल्पने श्रावंती यावंती लोगम्मि विष्परामुसंति जीन० । 5 त्यत्र आचारसूत्रे यावन्तः केचन लोकेऽस्मिन् पार्साएमलोके वि परामृशन्तीत्येवंविनाजनपदे यां वातात् कृपे पतितां लोकाः स्पृशन्तीत्यन्यथायित्वाऽऽ । व्य १ उ० । ६० । दश० | ग० । जमजिदमा अवंतिमादी अत्यगुरुगो तु । जो मोबाईलाणादिवराहए। वरि ||२६|| वंजणं सुत्तं, अरणहाकरणं नेदो, ण जिंदमाणो अनिंदमाणी, अतित भणिनं होति सुजणे अनि असं अत्यंविकप्पयति । कहूं ?, जहा (अवंतिमादीणं ति) अवंतिक यावती लोगं, समणाय माणाय (विप्परामुसंति त्ति) अवंती णामं जणवो, यत्ति रज्जुत्रं ति गाम, पक्रिया कृवे लायंस णाया । जहा कृवे केया पमिता, ततो धावंति समणा भिक्खूगार माहरणा धिज्जाया । ते समणमाहणा कूवे जयरिडं पाणियमज्जे विविधं परामुसंति । श्रादिसदातो अपि सुत्तं एवं कष्पति । अति अम्हा अत्थं कप्पयति, एवं अत्थे महाकपिए सो ह अत्थे गुरुगों उ । अत्थस्स श्रणाणि वंजणाणि करेंतस्स मासगुरु । अहअंअत्थं करेति, तो चउगुरुगा। (जो श्रोत) भणितो अणितो तो सो य श्राद्दिदुसरुवा, (श्रणपाति ति) अनुपततीत्यनुपाती, घटमानो युज्यमान इत्यर्थः । न अनुपात अननुपाती, श्रघटमान इत्यर्थः । तमघममाणमत्थं सुन्ते जोजयंतो ( णाणादिविराहरा ति) णाणं आदी जेसिता णिमाणि गाणादणि। श्रादिसदातो दंसणचरिताः ते य विराहेति, विराणा मणा भंजणा य एगठा (णवरिं ति) इह परलोगगुणपादात् परसो पो विराहणार केव लेत्यर्थः । अत्थेति दारं गयम् । नि० चू० १ उ० । अस्वनोगपरिवजय- अर्थभागपरिवर्तित इत्येण नागेश्वरहिते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वा० । अत्यमंगली - अर्यमण्डली - स्त्री० ॥ द्वितीयायां पारुष्याम् श्राचायः मुत्रार्थ प्रज्ञापयन्ति शिष्याच हायस्येवंरूपायार्थरुष्याम् ध० ३ अधि० डी० ( एतद्विधिः 'वपया' शब्दे द्वितीयभागे ९८४ पृष्ठे सप्रपञ्चं प्रव्यः ) अत्थमय प्रस्तमय- न० | सूर्यादेर्दृश्यस्य सतोऽदृश्य भवने, भ०२० १० उ० । अत्थमहत्थखाणि-अर्थपदार्थखानि-पुं० । 1 बिना मया महार्थाः तेषाममा अर्थमहाखामि भाषावार्तिकरूपानुयोगवा यस "माणिं सुसमणचाणक अत्यमहुर- अर्थमधुरपि अत्यमदुराई" पं० ० ४ द्वा । विशेषमा आसीन वि० श्मशानवाने तसे अत्यमाणस्ल, उवसग्गानिधारप" उत्त० २ अ० । - [स्] पृथकता तस्य । श्रत्थाय पुहतं, जस्स तो वा पुढत्तओ जस्स" अर्थास्पृथक्त्वं कथञ्चिद् भेदो यस्य तदर्थपृथकत्वम् । स चार्थः पृयतः पार्थमभेदेन वर्तते ज्ञाने. " ते बंदिऊण सिरसा, अत्थपुढत्तस्स तेहि कहियस्स । सुपणास भगयो नि कित्तास्वामि " विशे० श्रा० म० । अत्थ पुहुत्त-प्रर्थपृथुस्त्र-न० 'अत्थस्स व पिहुभावो, पुहुप्तमत्थस्स वित्थतं ति " पृथु सामान्येन विस्तर्णमुच्यते, तस्य भाषः पत्यम् अर्थस्य प्रत्यमर्थमुपम जावायविस्त राम श्रुतज्ञाने, श्रुतज्ञानमात्रे च । तस्यार्थपुपुत्व संशितत्वात् । "जं वा श्रत्थे दुहुं, अत्थपुडुसं ति तभावो " अर्थेन पृथु विस्तीर्णमर्थप्रभु भायो पृथन अर्थपूरम प मेोरभेदोपचारात् । श्रुतज्ञाने " अत्थपुहुत्तस्स तेहि कहियस्स" । विशे० । अन्यपोरिमी - अर्थ पौरूषी - स्त्री० । श्रर्थप्रतिबद्धायां पौ रुपयाम, ० ३ अधि० ।" अत्थपोरिसिंग करेति, मासलहुँ ' नि०यू० १ ३० । अन्यत्पवर — अर्यप्रवर – त्रिअर्थः प्रवरो यत्र तदर्थप्रबरम् । मुख्यार्थ वयस्य हि वस्तुनोऽयं प्रधान अन्धदुल-अर्थबल - त्रि० । अर्थों बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहु Sv - अत्येति दारं ० 39 जापानिधेया श्रर्थाः, खान परलोकानुगुणार्थे "पपणा Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थमित्र्य श्रत्यमित्र - अस्तमित-त्रि । श्रत्यन्तास्तंगते, ज्ञा० ४ श्र० । अत्यमिदिय अस्तविनोदित पि०। अस्तमितासी कुलोत्पत्तिर्नगत्व दुर्गतत्वादिना, उदितश्च समृषिकीर्तिसुगतिलाभादिनेति अस्तमिनोदितः । प्रथमावस्थायां होने पश्चात् सिद्धि प्राप्ते पुरुष जाने । यथा हरिकेशबलाभोनगार स हि जन्मान्तरोपपन्ननीत्रै गत्रिकर्मवशादवाप्तहरिकेशाभिधानएकत्र कुलतया, दुर्भगतया दरिद्रतया च पूर्वमस्तमितादित्य इवानयत्यावस्तमिति पधात्प्रतिपाप्रमायो निष्कम्य चरणगुणायजिंसानियता प्राप्तसिनिया सुगति गततया च उदित इति । स्था० ४ ० ३ उ० । ( ५११ ) अभिधानराजेन्द्रः । - अत्थालिय त्यत्रिय-अर्थविनय-पुं० । विनयशब्दे वक्ष्यमाणार्थके विनयभेदे, दश० ७ ० । " अत्थ विणिच्चय- अर्थविनिश्चय- पुं० । श्रपापरचके कल्याणाव वितथनाचे “विनयं । इश०००। अत्यविरणाण- अर्थविज्ञान २०६० द्वापोह योगामोह सन्देहविपर्यासव्युदासेन ज्ञानरूपे बुद्धिगुणे, ध०१ अधि० । अत्यविण अर्थविहीन० गीतार्थे ०३४० अत्यसंपयाण-अर्थसंप्रदान-१० अर्थाने दलयन्ति " | अर्थदानं करोतीत्यर्थः । विपा० १ ० १ ० । अत्थमित्थमिय प्रस्तमितास्तमित-पुं श्रस्तमितश्वासौ सूर्य प्रत्थसत्य - अर्थशास्त्र - न० | अर्थागमनिमित्तं शास्त्रमर्थशास्त्रम् । या दुष्कर्मकारितया कॉि विवर्जितत्वात्, अस्तमितश्च दुर्गतिगमनादित्यस्तमितास्तमितः। पोप स्थान यथा काजाभिधानः सौफरिका सहि सूकरैश्चरति मृगयां करोतीति यथार्थः सौकरिक एवं दुष्कुलोस्पन्न प्रतिदिनं महिपपञ्चशतीव्यापादक इति पूर्वमस्तमितः पश्चादपि मृत्वा सप्तमनरकपृथिवीं गत इति अस्तमित एवेति । स्था० ४ ० ३ उ० । · 66 ० प्र० प्र० अपात्पादनये कौटिल्यरामस्था [झा० १ ० । प्रश्न० नं० 1 "अत्थसत्यको सल्लयमादी तदा उबचन्ना" आ० चू० १ अ० श्रा०म० द्वि० । (उदाहरणमस्य "वेणइया" शब्दे यते) अत्यमत्यकुमन्न-अर्थशास्त्रकुशल- त्रि० । ७ त० । नीतिशास्त्रादिषु कुशले, जं ३ वक्क० । अत्थसार अर्थसार - पुं० । द्रव्यतस्त्वे, आ० म० द्वि० । अस्यसिक- अर्थमिक अर्थो धर्म स इतरासाधारणो यस्य सोऽर्थसिद्धः । मम्मणवणिग्वत् सिद्धदे, ध० २ अधि० "पोरोमान्सको "प्रचुरा प्रनृतार्थः, अर्थपरोऽर्थनिष्ठ, अर्थसिकोऽतिशययोगान्मम्मणवविदित गाथादार्थः द्वि० भावार्थस्था नकादयसेयः (सव''ओको तर दशमे अर्थसिद्धे, जं० ७ वक्ष। ऐरवते नविष्यति पञ्चमे तीर्थकरे, तिए । प्रत्यसुरण - अर्थ १० मित्थादिकेऽर्थदीने पदे, स्था ग० १ ० । अत्यावस्था बी० स्पार्थेमा जीवा० १ अधि० । अस्यवारिया देशी-संध्यायाम दे०० वर्ग अत्थरय आस्तरकन भाच्छादके, म०प्र० जी०राण अस्तर जस्०ि निर्मले, "प्राथरयमिदमसुरगोत्ययं " श्रस्तरकेण प्रतीतेन मृदुमसूरकेण वा, अथवाऽस्तरजसा निर्ममेन मृदुमसूरके स्मादपततथा० ११ श० ११ ४० । । श्रत्थयुद्ध - अर्थलुब्ध - त्रि० । इव्यवाल से, भ० १५ श० १३० ॥ अस्थार्थयत् पञ्चविंशे मुटुक अत्थवति - अर्थपति-पुं० । धनपती, व्य० ७ उ० । 1 सुप्रतिष्ठि सनम प्रत्यवाय - अर्थवाद - पुं० । अर्थस्य लक्षणया स्तुत्यर्थस्य निदार्थस्य वा वादः यद्-करणे घप्रयगुणवाचके निन्दनीयदोषवाचके च शब्दविशेषे । भावे घत्रि तत्कथने, बाच० | अर्थवादस्तु द्विधा स्तुत्यर्थवादो निन्दार्थवादश्च । तत्र "पुरुष सर्वस्यादिर्थवाद तथा सस महिमा तु दिव्ये ब्रह्मपुरे वेदयते यस्तु स संस श" इति । तथा-" एकया पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति" इत्यादिका सर्वोऽपि स्तुत्यर्थवादः का पूर्णया" इत्यादि विधिवदोपि कस्मान्न भवतीति चेत्। उच्यते । शेषस्याग्निहोश्राद्यनुष्ठानस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति । एष वात्र प्रथमो यहां योऽग्निष्टोमः योऽनेनानिङ्काऽन्येन यजते स गर्त्तमभ्यपतत्" अत्र पशु [संपादन] प्रथमकरणन्निन्दाबाद मासाः संवत्सरोऽग्निरुष्णोऽग्निर्हिमस्य भेषजम् " इत्यादीनि तु वेदवाक्यान्यनुवचनानि प्रसिद्धस्यैवार्थस्य दादेति । विशे० । श्रा० म० । ऋत्थविगप्पणा-अर्थविकल्पना- स्त्री० । अर्थनेोपदर्शने, श्रा० प्रस्थालिय- अर्धालीक- न० । व्यार्थमसत्ये प्रश्न० २ - म० द्वि० । G र्थः । आलम्बनं वाच्ये पदार्थे अर्हतस्वरूपे उपयोगस्यैकत्वम् । अर्थ आलम्बनं चार्थासम्बने । श्रर्थे, आलम्बने । अलबनयोश्चैत्यवन्दनादौ विभावनम् । श्र० २७० । श्र० ८ । 1 । अत्थाण - प्रस्थान - २० | अविषये द्वा० १४ द्वा० | अस्थादा (अर्थादान १० ज्योपादानकर निमित्ते स्था०३ ०४ ० (अस्मिन्नेव भागे २६८ पृष्ठे 'प्रणवपराने व्यायामेन ) प्रत्थाम- अस्थामन् त्रि० । सामान्यतः शक्तिविकले, प्र० ७० ए उ० । शारीरिक बवविकले, झा० १ ० । विपा० । अत्यारिय-अस्तारिक- पुं० । मूल्यप्रदानेन शालिलचनाय क्षेत्रे किप्यमाणे कर्मकरे, व्य० ६ ० । अत्यारो - देशी - साहाय्ये, दे० ना० १ वर्ग । प्रस्थान अर्थासम्बन० अथ वाक्यस्य भावा Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थालोयण प्रत्यालीपण अर्यालोचनम अर्थस्य सामान्येन प्रणे ० चू० १ अ० । अत्पावनगड अर्थापग्रह महावऽथवग्रहः निर्देश सामान्यमात्ररूपाद्यर्थ बहनययन सामाविसेसणरट्रियास अयम्पह त्ति" । प्रज्ञा० ५ पद । भाचा० । अत्यावत्ति अर्थापत्ति स्त्री० श्रर्थस्य अनुकार्थस्य, श्रापत्तिः सिकिः। वाच| "प्रमाणषट्कविशा तो, यत्रार्थी नान्यथा भवेत् । अदृष्टं कल्पयेदन्यं, साऽर्थापत्तिरुदाहृता ॥१॥ इत्युक्तवकणे प्रमाणभेदे, रत्ना०२परि०सू०|टः श्रुतो वाऽर्योऽन्यथा, नोपपद्यत इति अदृष्टाकांप्रमाणचतुष्कवादिनोऽनुमान् या प्रमाण मापादिष्ट न्यथा नोपपद्यत इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिमन वासावर्थोऽन्यथाऽ पपयमनस्यानयने महाथैपरिकल्पनानिमित्त अन्य स येन विनोपपद्यमानत्वेन निस्मि परिकल्पये येन विना भोपपद्यते समपि वान वे तस्यान्यथानुपप पत्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथानुपपद्यमानत्वे सत्यप्राप रिकल्पकत्वासंभवात् । संभवे वा लिङ्गस्याप्यनिश्चित नियमस्य पामा स्यादिति तदपि नापस्थापकाद ति । स चान्ययाऽनुपपद्यमानत्वावगमः, तस्यार्थस्य न भूयोदर्शननिमित्तः सपड़े। अन्यथा लोप पार्थि कादित्यवायसिद्धिः स्थानापि विपक्षे तस्यानुपल म्ननिमित्तोऽसी । व्यतिरेकनिश्चायकत्वेनानुपलम्नस्य पूर्वमे य निषिद्धवान् किं तु विपर्यये तद्वाधकप्रमाणनिमित्तः । तर बाधकं प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृते प्रागेानुपपद्यमानस्यार्थ स्य तत्र प्रवृत्तिमद्भ्युपगन्तव्यम् । अन्यथाऽर्थापत्या तस्याऽयथाऽनुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत्तस्याऽन्यथापानागतम्, न तदपप्रवृतिः यायच्य न तत्प्रवृत्तिः न तावदर्थापत्युत्थापकस्यार्थस्याऽन्यथानुपपद्यमानत्वावगम इतीतरेतराश्रयत्वान्नार्थापत्तिप्रवृत्तिः । ६ - (५१२ ) अभिधान राजेन्ः / श्रत एव यदुक्तम् " श्रविनाभाविता चात्र, तदैव परिगृह्यते । न प्रागवगतेत्येवं सत्यष्येपा न कारणम् ॥ १ ॥ तेन संबन्धवेलायां, संवन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । अर्थापत्यैव मन्तव्यः, पञ्चादस्त्वनुमानता " ॥ २ ॥ इत्यादि । निरस्तम् । पचमत्युपमे अर्थापत्तेरनुधानस्य प्रतिदितत्वात् । स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाण संपाद्यः ?, श्राहोस्वित्स्यसाध्यधर्मिप्रवृत्तप्रमाण संपाचः ? इति । तत्र यद्याद्यः पक्कः । तदाऽत्रापि वक्तव्यम् । किं तद् दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तं प्रमाणं साध्यधम्मि सायाम्यथानुपपत्तस्पार्थस्य निश्चायपति, आटो 9 स्विमिंग प पकस्यार्थस्य, लिस्था स्वसायप्रतिपादन व्यापारं प्रति न कशिद्विशेषः । श्रथ द्वितीयः । स न युक्तः । न हि दृष्टान्तधर्मिणि निधितस्वाध्यान्यथाऽनुपश्यमानोऽम् साध्यधामणि तथा जवति । न च तथान्नानिश्चितः स साध्यधर्मिणि स्वसाभ्यं परिकल्पयतीति युक्तम् अतिप्रसङ्गात् । अय त्रिङ्गस्य दृष्टातधर्मप्रवृत्तप्रमाणत्ववशात् सर्वोपसंहारेण स्वसाध्य नियतत्वनिश्चयः पन्थास्वस्य साध्ययिता 1 प्रत्यायति प्रमणात्सर्योपसंहारेणारपार्थाऽन्यथानुपपद्यमानानि ति सिङ्गार्थापत्युत्थापकयोर्भेदः । नास्माद्भदादर्थापत्तेरनुमानं भेदमासादयति मनुमानेऽपि स्वाध्यचदेव विषया का प्रमाणं सर्वोपसंहारेण स्वसायनिय तत्वनिश्चायकमभ्युपगन्तव्यम् । श्रन्यथा सर्वमनेकान्तात्मकं स स्यादित्यस्य हेतोः पीतवस्तुयतिरेकेण धर्मिणोऽभा वात्कथं तत्र प्रवर्त्तमानं बाधकं प्रमाणमनेकान्तात्मकत्व नियतत्वमवगमयेत् सत्वस्य ? । न च साध्यधर्मिणि दृष्टान्तधर्मिणि च प्रवर्त्तमानेन प्रमानाथपत्युत्थापकस्यार्थस्य स्वा क्रमं प्रतिबन्धो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणार्थापत्यनुमानयोर्जेदोऽन्युपगतं युकः। अन्यथा पधर्मत्वसहितदेतुमुत्यादनुमा सत्यमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणप कवाद निरोकार्थप्रतिपतेरवि शेषा ततस्तमित्यभ्युपगमे स्वायाविनानृतादर्थादर्थप्रतिपत्तेरविशेषानुमानादपतेः कथं नागेसम्म श्रर्थापत्तिरपि प्रमाणान्तरम्, यतस्तस्या लक्षणम् - दृष्टः श्रुतो वायोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यष्टार्थकरूपम् । I कुमारिलोऽप्येतदेव नाप्यवचनं विभजन्नाद्द"प्रमाणविज्ञातो यथार्थो नान्यथा भवेत्। भटकायन्यं सादिता ॥ १ ॥ पञ्चतिरप्यस्मा मेनका प्रमाणादीनि परापूर्व"२ ॥ प्रत्याभिः प्रमाणसिद्धयोः पिना गोरपद्यते तस्यार्थस्य प्रकल्पनमर्थापत्तिः । यद तत्र प्रत्यक्षर्विकास यथाप्रत्यणस्पर्शमुप भ्य दाहकशक्तियोगो ऽर्थापत्या प्रकल्प्यते । न हि शक्तिरव्यकपरिछेनानुमानादिसमधिगम्यः प्रत्यर्थेन शनि कस्यचिदर्थस्य संबन्धासिद्धेः । अनुमानपूर्विका त्वर्थापत्तिर्यथाऽऽदित्यस्य देशान्तरप्राप्तत्या देवदत्तस्येव गत्यनुमानम् । ततो गमनशक्कियोगोऽर्थापस्थासीय उपमानपूर्विका था - गवयवद् गौरित्युक्तेरर्थाद्वाहदोह। दिशक्तियोगस्तस्याः प्रतीयथागोयायोगात् शब्दपूर्वकायोपतिर्यथा-श हामी सदस्यार्थेन संसिद्धिः अर्थापत्तिि श्रीपति कारण शब्दस्यार्थेन संबन्धसिद्धावर्धनस्यायसिपि शब्दस्य संबन्धायोगात् अभावका तो देवदत्तस्य टेर्शनादर्थादभिः । अत्र मिरचीपतिभिः शक्तिः साच्यते । म्यां नि त्यता । पष्ठद्यां गृहाद् बहिर्भूतो देवदत्त एव साध्यते । इत्येवं पद्मकाराऽर्थापत्तिः । अन्ये तु श्रुतार्थापत्तिमन्यथोदाढरन्ति'पीनो देवदत्तो दिवा न मुझे ' इति वाक्यश्रवणाद् रात्रिभोजनार्थापत्तिः गययोपमाया गोतानग्राह्यताशक्तिरुपमान पूर्विका ऽर्थापत्तिः । तदुक्तम् तत्र प्रत्यकतो ज्ञानात्, तदा दहनशक्तिता । परमिता सूर्ये यानातिगत १ ॥ पीनो दिवा में लुङ्क्ते इत्येवं प्रतिवचः श्रुतौ । मनोविज्ञानं ॥ २ ॥ गोस्तकिता । अभियानप्रतिष्पर्थमर्थान्यायोचिता ॥३॥ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१३ ) अभिधानराजेन्द्रः । अत्थावनि शब्दे वासामर्थ्यात् तत्प्रमे। प्रमाणाभावनिर्णीत - चैत्राभावविशेषितात् ॥ ४ ॥ गेादर्शिता । सामनयोत्थितामन्या-मपतिमुदाहरेत् ॥ ४ ॥ इत्यादि । ; इयं च पद्मकाराऽप्यर्थापत्तिनयक्षमतन्द्रियार्थ विषयत्वात् । अत एव नानुमानम् । प्रत्यक्ज्ञावगनप्रतिबनिङ्गप्रभपत्वेन तस्योपर्या अर्थापत्तिगोचरस्यार्थस्य कदाचिदययाविषयस्थात् तेन सहार्थापत्युत्थापकस्यार्थस्य संबन्धात्र तिपसे:, तदेवार्थापत्या ततस्तस्य प्रकल्पना । सम्म० । प्रत्याचिदोस अर्थापचिदोष-पुं० सूत्रदोषने - परानिष्ठमानपति तत्राऽर्थापत्तिदोषः । यथा-'गृहकुकुरो न इन्तव्यः' इत्युके अर्थपत्य शेषातो त्यापतति विशे० अनु० यथा-'ब्राह्मणाह्मणयाताय म० द्वि० । ० । प्रत्याद अस्ताप (य) वि० अगाथे, अस्तं निरस्तमद्यमानमधस्ततं प्रतिष्ठानं यस्य तदस्ताघ्रः । स्ताथो वा प्रतिष्ठानं, तदभावादस्ताथम झा० १४ अ० । पि० । यत्र नासिका न बुडति तत् स्ताधम, यत्र तु नासिका नुमति तदस्ताधम् | बृ० ४ च० | पञ्चदशे भारतातीतजने, प्रव० ६ द्वा० । प्रत्यादिगम - अर्याधिगम-पुं० । श्रभिधेयावगमे, पञ्चा०४विव०। अत्याहिगार अधिकार १० ६ त० यो यस्य सामायिकाअध्ययनस्यात्मीयोऽर्थस्तदुत्कीर्तनविषयके उपक्रमभेदे, "से किं तं अत्थाहिगारे ? अत्थाहिगारे जो जस्ल अज्झयणस्स अत्थाहिगारों से जदा साजोगविर कित्तागुणपि सी । स्वलियम्स निणावण-- तिगिच्वगुणधारणा चेव " ॥ १ ॥ सेतं श्रत्थादिगारे” । अनु० । श्राचा० । अस्थि - अस्ति-अव्य० । "स्तस्य थोऽसमस्त स्तम्बे” || ८|२|४५ ॥ इतिसूत्रेण स्तभागस्य थः । प्रा० । श्रस्तीति तिङन्तक्रियावचनप्र तिरुषको निपातः । श्र० । जीवा० । बह्नर्थे, सूत्र ०१ ४०१ २०१३० । निपातस्याध्ययन, अध्ययस्य च "सह 1 [च] विभक्तिषु वनेषु च सर्वेषु यत्र व्यति तदव्ययमिति" ॥१॥ प्रतिपादन त्या "सत्येक काः द्वयज्ञानिनः । जी०३ प्रति। भस्तिशब्दश्चायं निपातस्त्रिकालबिषयः । प्राचा० १ श्रु० ४ ०४ ० त्रिकालवर्त्तिषु विद्यमानेषु अर्थेषु, अभूवन् नवन्ति भविष्यन्ति च इति प्रत्ययवत्सु, स्था० ३ ठा० १ ३० । " अस्थि णं जंत ! जीवाणं पाणावारणं किरिया कजइ" । भ० १ ० १ उ० श्राव०| "अस्थि य १ निश्च २कुराई, ३ कयं च वेदे २४ अस्थि निव्वाणं । श्रत्थि य मोक्खोखाओ, ६ ः सम्मतस्स गणाई || १८ || प्रच० १४८ द्वा० । येन येन यदा यदा प्रयोजनं तत् तत्तदा तदाऽस्ति भवति जायते इति । अस्य आनन्ददेवानेच स्था० १० ० । प्रदे स्था० १० aro | अनु० । उत्त० । अस्तीति निपातः सर्वत्रिवचनः । यदाद शाकटायनन्यासकृत् भस्तीति निपातः सर्ववचनेविति । अनु० । अस्थि ( ण् ) - पर्थिन् - त्रि० । अर्थशब्दात अस्त्यर्थे 'अर्थाचा निहिते' इति वार्तिकेन इनिः । याचके, वाच० 1 यः परस्मान्मयेदं लभ्यमिति याचते । व्य० १ ३० । श्रर्थवति ईश्वरे, पञ्चा० १० १२ अत्थि काय विव० | स्वामिनि, विशे० । प्रत्थि अस्थिक- पुं० । बहुबीजकवृकविशेषे, प्रका० १ पद । तत्फले, न० । श्राचा० १ ० १ ० ५ ० । अर्थिन् त्रि० । याचके, स्वामिनि च । धणी अन्थियो" प्रा० । आस्तिक-पुं० [अस्तीति मतिरस्येति नित्यान्तर अपणेऽपि जिनोचिये निराकाप्रतिपत्तिमति ० यदाह 66 'मार तमेव सच्चं, निश्मकं जं जिणेहि पत्तं । सुहपरिणाम सम्मं, कंबार वि सुत्ति आरडिओ " ॥ ५ ॥ यत्राप्यस्य मोहवशात्कचन संशयो भवति, तत्राप्यप्रतिहनेयमर्गता श्रीजिनभकिमाश्रमणोदिता 64 'कत्थय महदुत्र्वलेणं, तस्त्रिय आयरिअविरहश्रो वापि । अगरणन्तणेण य, नाणावरणोदण्णं च ॥ १ ॥ ऊदाहरणासं नये । समयमविनहं तदा वि तं चितए म इमं ॥ २ ॥ भवकयपराणुग्गर-परायणा जं जिणा जगप्पारा । जिम गोसमोहा, यऽनन्नहा वाश्णो तेणं " ॥ ३ ॥ यथा या सूत्रातस्यैकस्याप्यरोचनादकरस्य प्रयति नरो म थ्यादृष्टिः । सूत्रं हि नः प्रमाणं जिनानिदितमिति । ध०२ अधि० । "भास्तिक मतमात्माद्याः, नित्यानित्यात्मका नव पदार्थाः। कालनियतिस्वनावे-श्वरात्मकृतकाः स्वपरसंस्थाः ॥ १ ॥ कालयरच्वानियतीश्वरस्वभावात्मनश्चतुरशीतिः " ॥ स्था० ४ ० ४ उ० । श्राव० । जीवा० । चार्वाकादिभिन्नदर्शन स्त्री कर्तरि च । नं० । तं० ॥ श्रत्थिकाय अस्तिकाय पुं० । अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना । श्रतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति अस्तिशब्देन प्र देशप्रदेशाः कचिदुष्यन्ते तच तेषां या कायाः अस्तिकायाः । स्था १० धर्मास्तिकायादि भ० २ श० १० उ० | दर्श० आ० चू० । तेच चारि अस्थिकाया अजीपकाया पचत्ता । तं जहाधम्मत्यिकार अधम्पत्थिकार आगासत्यिकाए पोग्गल - स्थिकाए । चत्तारि अस्थिकाया अरूविकाया पचत्ता । तं जहा धम्मश्विकार, अपम्पस्विकार आगासत्यिकार, स्किए । अजीबकाया वेतनत्वादिति मस्तिकाया मूवी त्यसूर्यप्रतिपादनाय अरूप्यस्तिकायसूत्रम रूपं मूर्तियांदिमत्वं तदस्ति येषां ते रूपिणः, तत्पर्युदासादरूपिणोऽमूर्ती इति । स्था० ४ ठा० ४ ० जी० । व्या० प्रदेशाध्याः चचारि परसग्गेणं तुझा पणना में जहा धम्मस्थिकाए, अधम्मत्यिकार, लोगागासे, एगे जीवं । प्रदेशाप्रेण प्रदेशप्रमाणेनेति तुल्याः समानाः सर्वेषामेषामसंख्यातप्रदेशत्वात् । स्था० ४ ० ३ ० । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) अभिधान राजेन्द्रः | अत्थिकाय साम्प्रतमस्तिकायद्वारमाद एएस भंते! चम्मस्थिका अधम्मस्थिकाय आगासकायमच कायपोग्गलास्थिका काममा दव्यहाए करे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहियावा ? | गोमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्यिकार, एए तिनिवि तुझा दव्वद्वयाए सव्वत्थोवा, जीवत्यिकार दबाए अर्णतगुणे, पोगलत्यिकाए दबट्टयाए अतगुणे, कासम दम्बवाए गुणे ॥ ( एसि णं नंते ! धम्मत्थिकायेत्यादि ) धर्मास्तिकायोऽधर्मा स्तिकाय श्राकाशास्तिकायः। एते त्रयोऽपि व्यार्थतया प्रव्यमेबाधा व्यार्थस्तस्य भावा इव्यार्थता, तथा अव्यरूपतया इत्यर्थः । तुल्याः समानाः, प्रत्येकमेक सङ्ख्याकत्वात् । श्रत एव सर्वे स्तोकाः तेभ्यो जीवास्तिकायो ग्यार्थतयाऽनन्तगुणः । जीवानां वादपि पुस्तिकायार्थतया नगुणः कथम पति चेत्। उच्यते ६६ परमाणुद्विश्वेशकानि पृथक २ इम्पाणि तानि च सामान्यतस्त्रिधा । तद्यथा- प्रयोगपरिगतानि, मिश्रपरिणतानि, विश्वसापरिणतानि च । तत्र प्रयोगपरिणतान्यपि तावज्जीवेज्योऽनन्तगुणानि एकैकस्य जीवस्थानतेः प्रत्येक ज्ञानावरणी यादिकर्मसु पुलस्कन्धेवेष्टितत्वात्। किं पुनः शेषाणि । ततः प्रयोगपरिवतेभ्यो मित्रपरिणतगुणानि तेभ्यो ऽपि विभ्रसापरिणाम्यनन्तगुणानि तथा च "सो पुग्गला पोगपरिणया मीस परिणया अनन्तगुणा, वीससा परिगया अनन्तगुणाः” इति । ततो जवति जीवास्तिकायात् पुफलास्तिकायो व्यर्थतया अनन्तगुणः । तस्मादव्यद्धासमयो द्रव्यार्थतया अनन्तगुणः । कथम ?, इति चेत् । उच्यते- इहेकस्यैव परमागोरनागते काले व प्रदेश विदेशका संख्याप्रदेशका यात एका अनन्तप्रदे शक कन्यापरिणामित या श्रनन्ता भाविनः संयोगाः पृथक पृथक् कालाः केवल देशोपलब्धाः । यथा चैकस्य परमाणोस्तया सर्वेषां प्रत्येकं द्विप्रदेशकादिस्कन्धानां च अनन्ताः संयोगाः पुरस्कृताः पृथक् पृथक काला उपलब्धाः । सर्वेषामपि मनुष्य क्षेत्रान्तर्वर्तितया परिणासंभवात् तथा क्षेत्र परमारमुमिन आकाशप्रदेशे अमिका अगाहिष्यते इत्येवमनन्ता एकस्य परमाणो धिक संयोगा यचैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमान तथा विदेशकानीनामपि स्कन्धानामनन्देशकन्यपान प्रत्येकं तत्तदेकप्रदेशाद्यवगाहभेदतोभिन्नभिन्नकाला अनन्ता भा विनः संयोगाः । तथा कावतो ऽप्ययं परमाणुरमुष्मिनाकाशप्रदेशेकथिति इत्येवमेकस्यापि परमाणोरेक निका प्रदेशेाभाविनः संयोगाः । एवं सर्वेप्यध्याकाशयदेशेषु प्रत्येकमसंख्येया भाषिनः संयोगाः । ततो भूयो भूयस्तथाऽऽकाशप्रदेशेषु परावृत्तौ कालस्यानन्तत्वादनन्ताः कालतो भाविनः संयोगाः। यथा चैकस्य परमाणोस्तथा सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येकं द्विप्रदेशकादीनां स्कन्धानां तथा भावतोऽप्यये परमारमुष्मिन् काले कालको भवतीत्येवमेकस्यापि परमाणोर्निभभिशकालाः अनन्ताः संयोगाः । यथा चैकस्य परमा नोस्तथा परमानां च सर्वे च प्रिशकादीनां स्कन्धानां पृथक पृथक् अनन्ता भावतः पुरस्कृताः अस्थिकाय संयोगाः । तदेयमेकस्यापि परमाणो यत्रकालभावविशेषसंबन्धवशादनन्ता नाविनः समया उपलब्धाः यकस्य परमाणोस्तया सर्वेषां परमाणूनां सर्वेषां च प्रत्येकं द्विप्रदेशका नाम न चैतत्परिणामका वस्तुव्यतिरेकपरिणामपुस्तिकायादिव्यतिरेके बोपपद्यते। ततः सर्वभ ! तात्विक सेयम् उप संयोगपुरखारका नाम भाविनि दि युज्यते कालेन हि संयोगपुरक्यारो हातां के विदुपपन्नः॥१॥ इति यथा च सर्वेषां परमानां द्विप्रदेशका दीनानां प्रत्येक अन्य क्षेत्रका सनावविशेपसम्बन्धवशादनताजाविनोऽकामयतीति सिकः पुत्रप्राति कायादनन्तगुणोऽकासमयो द्रव्यार्थतयेति । उक्तं रुन्यार्थतया परस्परमपबहुत्वमिति । इदानीमेतेषामेव प्रदेशातया तदाद एएसि णं भंते ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आागासत्थिकाए जीवत्धिकार पोगसत्यिकार अपदेसट्टयाए करे करेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया का ? गोयमा ! धम्मत्यिकार अधम्मस्थियाए, एसि णं दो बि तुझा पदसहयाए सम्बत्योना, जीवथिका पदेसयाए अनंतगुणा, पोग्गलस्थिकार प देसट्टयाए तगुणा, अद्धासमए पदेसट्टयाए अनंतगुणा, आगासत्थिकाए पदेस याए अनंतगुणा । पण मंते! अम्मत्धिकायेत्यादि धर्मास्तिकायोऽथ मस्तिकायः तद्वापि परस्पर प्रदेशार्थमुभयरवि लोकाकाशप्रदेशत्वात् शेषास्तिकाया कासमपापा च सर्वस्तोकौ । ततो जीवास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, जीवास्तिकाये जीवानामनन्तत्वात् । एकैकस्य च जीवस्य बीकाकाशप्रदेशपरिमाण प्रदेशत्वात् । तस्मादपि पुनास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः कथमिति । उच्यते-कर्मप्रदेशा अपि तावत्सर्वजीव प्रदेशेभ्योऽनन्तगुणा एकैकस्य च जीप्रदेशस्यानन्तानन्तः कर्मपरमाणुभिरायेष्टितपरि किं पुनः सकलपुस्तिकाय प्रदेशस्ततो भवति जीवाि कास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः तस्मादव्यकास मयः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः; एकैक कस्य पुफलास्तिकाय प्रदेशस्य प्रागुक्रमेण तद्य क्षेत्रकालावविशेषसंबन्धायतनन्तानामतीताकासमयानामनन्तानामनागतसमयानां भावात् । तस्मादाकाशास्तिकायप्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, श्रलोकस्य वात् गतं प्रदेशातयाऽप्यपत्यम् । इदानीं प्रत्येकं व्यार्थ प्रदेशाथेत या ऽल्पबहुत्वमाहएएसि णं ते! धम्मत्थिकायस्स दव्वट्टयाए पदेसइयाए कपरे कपरेहिंतो अप्पा या बहुया या तुला वा विसेसाया वा । गोमा ! सव्वत्थोवा एगे धम्मत्थिकाए दव्बट्टयाए, सो चैत्र पदेस याए संखिज्जगुणा। एएसि णं भंते! अधमस्थिकायस्स दव्यपदेसया करे कमरेहिंतो अण्णा या बहुचा वा तुझा वा विसेसाहिया का है। गोयमा सम्बत्यो एगे अधम्मस्थिका दष्वट्टयाए, सो पेय पदेसच्या प्रसं खिज्जगुणे । एतस्स णं जंते ! मागासत्यिकायस्स दब्बट्ठपदे Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यिकाय अभिधानराजेन्द्रः । अस्थिकाय सट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा गोयमा!सव्वत्योवे | आगासस्थिकाए य,एए णं तिनि वितुझा, दबट्ठयाए स. एगे आगासस्थिकाए दबट्ठयाए, सो चेत्र पदेसध्याए अणं- ध्वत्थोवा धम्मस्थिकाए, अधम्मत्थिकाए य, एए णं दोम तगुणा । एतस्स एं नंते ! जीवत्यिकायस्स दबट्ठपदेसट्ट वि तुझा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जीवत्थिकाए दब्बयाए कयरे कयरहितो अप्पा वा ४ गोयमा ! सव्वत्थो- हुयाए अणंतगुणे, सो चेव पदेसट्टयाए असंखिजगुणे, जीवत्थिकाए दवट्ठयाए,सो चेव पदेसट्टयाए असंखि- पोग्गलस्थिकाए दबट्टयाए अणंतगुणे, सो चेव पएसट्टज्जगुणा । एतस्स णं ते! पोग्गलत्थिकायस्स दबट्ठपदे- याए असंखेज्जगुणे, अद्धासमए दव्वद्वपदेसट्टयाए अणंसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा ?गोयमा ! सम्बत्यो- सगुणे, मागासस्थिकाए पदेसध्याए अणंतगुणा ।। वा पोग्गलत्थिकाए दवयाए, सो चेव पदेसट्टयाए अ- (पपसि ण नंते ! इत्यादि ) धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय संखिज्जगुणा, अच्छासमए ण पुच्छिज्जर, पदेसाजावा। | भाकाशास्तिकायः, पते त्रयोऽपि व्यार्थतया तुल्याः,सर्वस्तो काश्च प्रत्येकमेकसंख्याकत्वात् ३। तेभ्यो धर्मास्तिकायोऽधर्मा-- सर्वस्तोको धर्मास्तिकायो द्रव्यार्थतया, एकत्वात् । प्रदेशार्थ स्तिकायः, पतौ द्वावाप प्रदेशार्थतयाऽसंख्येयगुणी, स्वस्थाने तु तया असंख्येयगुणः,बोकाकाशप्रदेशपरिमाणप्रदेशात्मकत्वात् । परस्परं तुल्यौ । ताभ्यां जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया अनन्तगुएवमधर्मास्तिकायसूत्रमपि भावनीयम् । आकाशास्तिकायो णः, अनन्तानां जीवव्याणां भावात् ६। स एव जीवाकन्यार्थतया सर्वस्तोकः, एकत्वात् । प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, स्तिकायःप्रदेशार्थतया असंख्येगुणः, प्रतिजीवमसंख्येयानां प्र. अपरिमितत्वात् । जीवास्तिकायो द्रव्यार्थतया सर्वस्तोकः, प्रदे देशानां नावात् । तस्मादपि प्रदेशार्थतया जीवास्तिकायाशार्थतया असंख्येयगुणः, प्रतिजीवं लोकाकाशप्रदेशभावात् । त्पुमनास्तिकायो व्यार्थतया अनन्तगुणः, प्रतिजीवप्रदेशं कातथा सर्वस्तोकः पुनास्तिकायो व्यार्थतया, व्याणां सर्वज्ञा- नावरणीयादिकर्मपुलस्कन्धानामप्यनन्तानां भावात् ।स पिस्तोकत्वात् । स एव पुरयास्तिकायस्तद्व्यापेक्वया प्रदेशा- एव पुद्रलास्तिकायः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणः, अत्र भावना थतया चिन्त्यमानोऽसंख्येयगुणः। ननु बहयः खलु जगत्यनन्तप्रदे. प्रागिव तस्मादपि प्रदेशार्थतया पुत्रास्तिकायात् प्रसासमयो शका अपि स्कन्धा विद्यन्ते,ततोऽनन्तगुणाः कस्मान्न भवन्ति । व्यार्थतया अनन्तगुणः,अत्रापि भावना प्रागिव १०॥ तस्मादण्यातदयुक्तम् । वस्तुतत्वापरिकानात् । इह हि स्वल्पा अनन्तप्रदेशका काशास्तिकायः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणः, सर्वास्वपि विच विस्कन्धा;परमारवादयस्त्वतिबहवः। तथा वक्ष्यति सूत्रम्-"स-| दिशु तस्यान्तर्भावात, अकासमयस्य च मनुष्यकेत्रमात्रभावात ब्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा दवघ्याए, परमाणुपोग्गला द- ११ गतमस्तिकायम । प्रका० ३ पद। " चर्षि पत्थिकाहिं बध्याए अनन्तगुणा , संस्नेजपएसिया खंधा दम्वट्ठयाए सं- सोगे फुमे पत्ते । तं जहा-धम्मत्थिकारणं प्रधम्मस्थिकापणं खेज्जगुणा, असंखेज्जपएसियाए खन्धा दब्बघ्याए असंखेज्ज- जीवत्थिकारणं पोग्गलस्थिकापणं" खा०४ग०३ उ०। गुणा" इति। ततो यदा सर्वे एव पुद्गलास्तिकायाःप्रदेशार्थतयां अथवाचिन्त्यन्ते तदा अनन्तप्रदेशकानां स्कन्धानामतिस्तोकत्वात्परमारणूनां चातिबहुत्वानेषां च पृथक् श्रुच्यत्वात् असंख्येयप्रदे ___ करणं भंते ! प्रात्थकाया पएणता?। गोयमा ! पंच शकानां च स्कन्धानां परमाएवपेकया असङ्ख्यगुणत्वादसंख्येय- प्राधिकाया पलत्ता। तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्पत्थिगुण एवोपपद्यते, नानन्तगुणः । (अकासमए न पुच्चिजाति) काए, आगासस्थिकाए, जीवस्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए। अकासमयो च्यार्थप्रदेशार्थतया न पृच्च्यते । कुतः ? , इ धर्मास्तिकायादीनां चोपन्यासेऽयमेव क्रमः । तथाहि-धर्मात्याह-प्रदेशाभावात् । आह-कोऽयमद्धासमयानां च्यार्थतानि स्तिकायादिपदस्य माङ्गलिकत्वाद् धर्मास्तिकाय प्रादायुक्तः, यमः, यावता प्रदेशार्थताऽपि तेषां विद्यते एव तथाहि-यथा अ तदनन्तरंच तद्विपकत्वादधर्मास्तिकायः ततश्च तदाधारवादानन्तानां परमारपूनां समुदायस्कन्धो भएयते, सच व्यं, तदवयवाश्व प्रदेशाः। तथेहापि सकलः कालो बन्यम,तदवयवाश्च स काशास्तिकायः। ततोऽनन्तत्वाऽमूर्तत्वसाधाज्जावास्तिकामयाःप्रदेशा इति। तदयुक्तम् दृष्टान्तदान्तिकवैषम्यात, परमा या,ततस्तदुपष्टम्भकत्वात पुनास्तिकाय इति ॥ भ०२ श०१० णूनां समुदायः तदा स्कन्धो भवति, यदा ते परस्परसापेक्वतया उला तेषामस्तित्वम् । अत्र च जीवपुजवानां गत्यन्यथाऽनुपपत्ते. परिणमन्ते, परस्परनिरपेक्वाणां केवलपरमाणूनामिव स्कन्धत्वा धर्मास्तिकायस्य तेषामेव स्थित्यन्यथानुपपत्तेरधर्मास्तिकायस्य योगात् । भकासमयास्तु परस्पर निरपेक्का एव,वर्तमानसमय सत्य प्रतिपत्तव्यम् । न च वक्तव्यं तातिस्थिती च भविष्यतः, नावे पूर्वापरसमययोरजावात् । ततो न स्कन्धत्वपरिणामः। धर्माधर्मास्तिकाये च न भविष्यत इति । प्रतिबन्धानावादनेसदमावाच्च नामासमयाः प्रदेशाः, किं तु पृथक् द्रव्याण्येवेति । कान्तिकतेति। तावन्तरेणापि तदभणनेऽलोकेऽपि तत्प्रसङ्गात् । यदि त्वलोकेऽपि तद्गतिस्थिती स्यातां , तदाऽलोकस्यानन्तसम्प्रत्यमीषां धर्मास्तिकायादीनां सर्वेषां युगपद् व्यार्थप्र- स्वाद्वोकानिर्गत्य जीवपुभयानां तत्र प्रवेशादेकद्विश्यादिजीवपुदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वमाह जलयुक्तः सर्वथातच्चून्यो वा कदाचिल्लोकःस्यातनैतद् रमिष्टं एएसिणं जंते धम्मत्थिकाय अधम्मत्थिकाय आगासस्थि चेत्याद्यन्यदपि दूषणजासमप्यस्ति, नोच्यते प्रन्थविस्तरभयाकाय जीवत्थिकाय पोग्गलस्थिकाय अद्धाममया णं दबट्ठयाए दिति। आकाशं तु जीवादिपदार्थानामाधारः, अन्यथाऽनुपपसे रस्तीति श्रव्यम् । न च धर्माधर्मास्तिकायावेव तदाधारी पदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहया वा तुला वा | जविण्यत इति वक्तव्यम्।तयोस्ततिस्थितिसाधकत्वेनोक्तस्यात् । विसेसाहिया वा? गोयमा! धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए | न चान्यसाध्य कार्यमभ्यःप्रसाधयति, अप्रसङ्गात् । इति घटादि Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यिकाय ज्ञानगुणस्य प्रतिप्राणिस्वसंवेदनसिकत्वात् क्लीवस्यास्तित्वमवगन्तव्यम् । न च गुणिनमन्तरेण गुणसत्ता युक्ता, अतिप्रसङ्गात् । देवास्य गुणी युज्यते ज्ञानमसि यो बरातीवाद धम्मपितमतः तयानुरूप एव कश्चि गुणी समन्वेषणीयः। स च जीव एव, न तु देहः, विपरीतत्वात् । यदि पुनरनुरूप गुणानां गुणी कल्प्यते तहानवस्था रूपादिगुणानामप्याकाशादे कल्पनासङ्गादिति । पुस्तिका बस्य तु घटादिकार्यान्यथाऽनुपपत्तेः प्रत्यकत्वाश्च सत्वं प्रतीतमेवेति । अनु | (५१६) अभिधानराजेन्द्रः । 1 अस्तिकायानामस्तिकायत्वम् 1 एगे जंते ! धम्मत्किायप्यसे धम्मात्थकार ति व सिया । गोयमा ! जो इस समहे, एवं दोखि वितिभि त्रिचत्तारि पंच सत्ता नव दस संखेज्जा असंखेज्जा अंते! धम्मस्थिकायपदेमा धम्मत्थिकाए ति यत्तव्वं सिया है। गोयमा यो इण मम एगपदेखणे विय धम्मस्थिकाए ति वत्तब्वं सिया ? । गो इट्टे समट्ठे, से भंते! एवं युच्च एगे धम्मत्धिकावप्यसे नो धम्मत्थिकायेत्ति वत्तन्वं सिया, जात्र एगपदेसूणे वि यां धम्मात्काएनो पम्मत्यिकार चि वसव्वं सिया से पूर्ण गोयमा ! खंमे चक्के मगले चक्के १। जगत्रं ! नो खंमे चक्के सगले चक्के । एवं बत्ते धम्मे दंगे दूसे आउहे मोयए । से ते गोयमा ! एवं बुच्च, एगे धम्मत्थिकायष्पदेसे णो धम्मत्यिकार ति वत्तव्वं सिया० जाव एगपदेसूणे वि यां अम्मत्यिकार नो धम्मत्यिका बिच सिया से किं खाइए णं जंते ! धम्मत्थिकाए ति वत्तव्यं सिया । गोयमा ! असंखेज्जा धम्मस्थिकायप्परसा, ते सच्चे कसिणा पडिपुष्पा निरवसेसा एकग्गहागढ़िया । एस णं गोयमा ! धम्मत्किाए ति वत्तव्यं सिया । एवं अहम्मत्थिकाए वि । मागामत्विकायजीपत्कियोमालत्यिकार वि एवं क्षेत्र, नवरं तियहं पिसा श्रणंता जाणियन्त्रा, संसं तं चैव । 1 3 (खंडे चक्के इत्यादि) यथा खएकं चक्रं चक्रं न भवति, खएक वक्रमित्येवं तस्य व्यपदिश्यमानत्वात् अपि तु सकलमेव चक्रं व जवति । एवं धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्यात् । पतश्च निश्चयनयदर्शनम् । व्यवहारनयमते तु एकदेशेनोनमपि वस्तु वस्त्र । यथा खरामोऽपि घटो घट एव, छिन्नकर्षोऽपि श्वाश्चैव । भणति च - " एकदेशविकृतमनन्यवदिति । (से किं ग्राइप त्ति) अथ किं पुनरित्यर्थः । ( सन्धे समस्तास्ते व देशापेापि नयन्ति प्रकारका मन्येऽपि सर्वशब्दप्रवृत्तेः । इत्यत श्राह - ( कसिए ति ) कृत्स्ना न तु तदेकदेशापेक्क्या सर्व इत्यर्थः । ते च स्वस्वनावरहिता अपि भवस्वन्यताप्रतिपुर्ण श्रात्मस्वरूपेणाविका, ते च प्रदेशान्तरापेका स्वस्वनावन्यना अपि तथोच्यन्ते इत्याह- (णिरवसेस नि) प्रदेशान्तरतोऽपि स्वस्यभावेनान्यूना तथा समाह गहियति ) एकग्रहणेनैकशब्देन धम्मस्तिकाय इत्येवंलकनमूना ने तथा नित्यर्थः। का अस्थिकाय ते शब्दाः । ( पपसा श्रता भाणियव्वति ) धर्माधर्म्मयोरसंख्येयाः प्रदेशा उक्ताः। श्राकाशादीनां पुनः प्रदेशा अनन्ता बाया अनन्तप्रदेशकत्यान्त्रयाणामपीति । उपयोगगुण जीवास्तिकायः प्रादर्शितः । न० २ ० १० उ० । प्रदेशनिषूदनम् एयंसि णं भंते ! धम्मत्यिकाय अहम्मत्थिकायच्यागासत्यिकार्यसि चकिया के आसइतर वा सुइत्तए वा चि वाशिमीयता यह वाणो इस समझे, ता पुण तत्थ जीवा प्रगाढा से केाडे भंते ! एवं बुच्च - एयंसि णं धम्पत्थि० जाव आगासत्यिकायंसि नो चकिया के आसस वा जान ओगाडा गोयमा से जहा लाम कमागारसाला सिया दुहओ झित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्प सेइज्जे० जाव द्वारवयाणाई पिईति । दुवार० ती य कमागारसाला बहुमज्जदेसनाए जहां एको वा दो वा तिष्पि वा । नक्कोमेणं पदीवसहस्सं पक्षीवेज्जा, सेयं गोषमा ! ताओ पदीवलेस्माओ अणमणमंत्रछात्र माओ० जाव आश्रममधमत्ता ए चिति, हंता चक्किया णं गोयमा ! केइ तासु पर्द बल्लेस्सासु श्रासर बाजा यत्तिए वा जगने हो इसके समहे । आता पुण सत्य जीवा ओगादा से तेण गोयमा ! एवं बुच्चइ० जाव योगादा || 1 तस्मिन् समिति वाक्यालङ्कारे (पक्षिय ति) शक्नुयात्। कश्चित्पुरुषः । ० १३ श० ४ उ० । प्रमाणम् धम्मत्यिकार णं ते! महाल पण १। गोवमा ! लोए लोयमेत्ते झोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेत्र फुसित्ता चि एवं अम्मस्थिकाए लोयाकासे जीवत्यिकार पोग्गल स्थिकाएका जिल्लाबा || (केमहालय सि) मापयत्या निर्देशस्य कि महत्व यस्यासी किंमत्यः । ( लोए सि) लोको लोकप्रमितत्वात् लोकव्यपदेशाज्ञा उच्यते च-पंचत्थिकायमयं लोपमित्यादि लोके वासी बर्तते शिष्यत्वादाचार्यस्येति । लोकमात्रो लोकपरिमाणः, स च किञ्चिन्न्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादित्यत आह - ( लोपमाणे ति ) लोकप्रमाणो लोकप्रदेशप्रमाणत्वात्तत्प्रदेशानाम् । स चान्योन्यानुबन्धेन स्थित इत्येतदेवाद - (लोयमे त्ति) लोकेन लोकाकाशेन सकल स्वप्रदेशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः । तथा लोकमेव च सकलस्वप्रदेशः निष्ठतीति लास्तिकायो लोकं स्पृष्ट्वा तिष्ठतीत्यनन्तरमुतमिति । भ० २ श० १० उ० । गन्धरसादि- धम्मत्किाए णं कति वो, कति गंधे, कति रसे, कति फासे । गोयमा ! वने अगंधे अरसे फासे अस्वी अमीचे सासर अपए लोगदब्बे, ते समास पंचन पाते । तं जहा - दव्वओो खेत्तओ कालओ भावओ गु 1 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.१७) अभिधानराजेन्द्रः / अत्थिकाय ओदव्य धम्मस्थिकाए एगे दव्ये, खेचओ लोगप्पमाणमेत्ते, कालो न कयाइ न असि न कयाइ नत्थि जाय निये, भावओो अपने अंगचे अरसे अफासे, गुण गणगणे। अथम्मत्यिकार वि एवं चैत्र नवरंगु यो वाणगुणे । आगामत्यिकार वि एवं चैव नवरं खेतो आगासत्थिकाए लोयालोयप्पमाणमेत्ते अणंते न जाव गुण अवगाहगु जीवस्थिकार णं भंते! कइ वो, कइ गंधे, कइ रसे, कह फासे । गोयमा ! ने जान अरूबी जीने सासर अपडिए लोगदव्बे से समास ओ पंचविपचेतं जहा दबओ० जाव गुणओ। दब्बश्र णं जीवत्थिकाए अांताई जीवदव्वाई, खेत्तो लोगप्पमाणमेने कासम न कमाइ न यसि० जाव निचे जावओो पुरा अपने अगंचे अरसफासे, गुरुयो उपयोगगुणे | पोग्गल विकाए णं भंते कई नए, कह गं घरसका है। गोयमा ! पंचनले पंचरमे गंदे अडफासे रूबी अमीने सासर अपडिए लोगदब्जे से समामओ पं चविहे पसे से जहा-दव्यओ खेतओ कालो भाव गुओ। दव्व एवं पोग्गलत्यिकार णं ताई दब्वाई, सोलोवयमाणमेचे, काम न कया न सि० जानिये, जावभोर गंधसामंते गुणग इणगुणे ॥ अव इत्यादि) पदावर्णादिरपासून तु निःस्वभावः, नाः पर्युदासवृत्तित्वात् । शाश्वतो ऽव्यतोऽवस्थितः प्रदेशतः (लोगव्ये सि) कस्यास्तिर कस्यांश लोकद्रव्य भायत इति पर्यायतः (गुणश्रोति) कार्यतः [ गमणगुणे ति ] जीवपुफलानां गतिपरिण तानां गत्युपष्टम्भहेतु:, मत्स्यानां जलमिवेति । [ ठाणगुणेति ] जीचितिपरितानां नितु मत्स्यानां - मवेति । [श्रवगाहणागुणेति ] जीवादीनामवकाशहेतुः वदराणां कुममिव । [ चवओगगुणे ति ] उपयोग श्चैतन्यं साकारानाकारमेदम। [ गहन सि] ग्रहणं परस्परेण सम्बन्धनं जीवन वा, औदारिकादिभिः प्रकारैरिति । भ० २ श० १० उ० । अत्थित्त "धमत्थकारणं भंते ! " इत्यादिरालापकः तत्र च नवरं केवलं "लोयं चव फुसित्ताणं चि‍त्ति " । एतस्य स्थान"लोयं चेत्र ओगाहितानं चिटु" इत्यभिलापोटति ०२० श० २ ० ॥ (कायानां विषयेऽन्यवृद्धिकैः सह विप्रतिपत्तयः 'मरा त्थिय' शब्देऽस्मिन्नेव नागे ४४६ पृष्ठ दर्शिताः ) मध्यप्रदेशा: क ां नंगे ! धम्माधिकाम्स माझष्पदेसा पहना है। गोयमा ! अ धम्मन्धिकायस्य मन्पदेया परवाना | करणं ते! अहम्मदिकायस्स मन्पदेमा पत्ता? गोयमा ! एवं चैत्र । करणं जंते! आगासत्यिकायस्स मज्ज पमा पत्ता ? | गोयमा एवं चैव । कां जंते ! जीवत्यिकायस्स मदेसा पता । गोयमा ! अवका समपदेमा पणता एसि जंते! जीवस्विकायस्स मऊष्पदेसा कर आगासमे भोगादरा होति ? । गोयमा ! जहणणं एकांस वा दोहिं वा तिहिं वा चहिं वा पंचहि वा दहिं वा उक्कोसेणं अडमु णो चैव सच सेवं ते भंते चि ।। प्रत्येकं जीवानामित्यर्थः । ते च सर्वस्यामवगाहनायां मध्यनाग एव भवन्तीति मध्यप्रदेशा उच्यन्ते । (जशेणं एक्कांस वेत्यादि सोचविकाशयान्वात्तेवाय (फोसे असु प्ति ] करिमथ तेषामगाना तो स वस्तुस्वभावादिति । भ० २५ श० ४ उ० । स्था० । (अस्तिकायविषये कालोदायिसंवादः 'श्रएणउत्थिय' शब्देऽस्मिन्नव भा गे ४४६ पृष्ठे दर्शितः ) अत्यिकायधम्म अस्तिकायधर्म-पुं० [प्रस्तयः प्रदेशास्तेषां कायो राशिरस्तिकायः । स एव ( संज्ञया ) धर्मो गतिपर्याये जीवपुनयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्मः । स्था० १० ० । गत्युपएम्भलकणधर्मास्तिकायनामक व्यधर्मे, स्था० ३ वा०३४० ॥ प्रत्थिक्क - आस्तिक्य न० । ग्रस्तीति मतिरस्येत्यास्तिकः । तस्य जावः कर्म वा श्रास्तिक्यम् । तस्वान्तरश्रवणेऽऽपि जिनो - अवगाहनादयः स्वविषये निराकाङ्का प्रतिपसी २२ अधिस्तिकायादिविषयास्ति कषयायाम दर्श० सन्ति जिनको पदिशा परलोकादयो जात्रा इति । परिणाम ध० २ अधि० । संथा । धम्मत्यिकार णं भंते ! केमाल पाने १। गोयमा ! लोर ओपमेचे लोपय्यमाणे सोयमे लोयं चेष उग्गादि अरिषण (न) स्थिष्णवाय अस्तिनास्तिपादन हो ताणं चिट्ठति, एवं जाव पोग्गलत्थिकाए । हे बोए अंते ! धम्मत्थिकायस्स के ओगाडे । गोयमा साइरेग माटे, एवं एए अभिलावेणं जहा वियइसए० जात्र ईसिप्पन्नाराणं । जंते ! पुढवीलोयागासस्स किं संखेज्जनागं ओगाढा पुच्छा ? । गोयमा ! लो संखेज्जइजागं श्रोगाढा असंखेजजागं ओगाडा णो संखेननागे योगादा णो असंखजानागे ओगावा को सम्बं तो यं ओगादा से , , , 1 १३० के यथाऽस्ति यथा वा नास्तिः अथवा स्याचादानिमायतस्तदेवास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति । म० । यद्वस्तु लो. ', केऽस्ति धर्मास्तिकायादिपद ति । अथवा सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति. पररूपेण नास्तीति प्रवदतीति अस्तिनास्तिपूर्व नं० परि माणं षष्टिपदशतसहस्राणि । स० । " अन्थियत्थिष्यवायपुज्य स्स णं अठारस वत्थू दस चूलिया वत्थू पम्पत्ता" । नं० । स्थित अस्तित्वमानयेदश १०] अर्थयकारिकादेव परमार्थ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्थित सत्" इति वचनात् । श्रा०म० द्वि० ['खणियवाद' शब्दे ऽस्य उपप]ि गुणमेला परिसद् गुणः पुनः । तत्र इदं परिज्ञेयम-सत्तया यो नवति यस्मासद्भूततया व्यवहारो जायते स चास्तित्यगुणः ०११ अध्या० । चधर्मिणोरभेदात् वस्तुवि भ० यस्य वस्तुनो चैवास्त्विं तथैव जगवता तीर्थकरेण महस मिति दिदर्शयिषुर्यथावद् वस्तुपरिणामं दर्शयन्नाह - ( ५१०) अभिधानराजेन्द्रः । सें भंते ! प्रत्थित्तं प्रस्थित्ते परिणम एत्थित्तं एत्यित्ते परिणम ? | हंता गोयमा !० जाव परिणम || ( से णूणमित्यादि ) [ अत्थिन्तं अस्थिन्ते परिणम ] अस्तित्वमादेयादिनावेन सायम् उ "स धमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । श्रन्यथा सर्वभावानासादरूपमय सेयम् अहल्या दिव्यास्तित्वस्य कथं विजुत्वादिपर्यायाव्यतिरिक्तत्वात् । अस्तित्वेऽङ्गस्यादेरेवादिभावनसत्वे वक्रत्वादिपर्याय इत्यर्थः । परिणमति तथा भवति । इदमुक्तं भवति द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्तते । यथा - मृद्रव्यस्य पिएमप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति (परिणमति) नास्तित्यमपादेरष्ठादिनानामाम तथ्याङ्गादिनावत , याङ्गुल्यादेनीस्तित्वमङ्गुष्ठायस्तिरूपमन्यादेनस्तिष्ठा देः पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति । यथा - मृदो नास्तित्वं सत्यादिरूपं नास्तित्वरूपे पटे इति अथवा अस्तित्वमिति धर्मधर्मिणोरभेदात् परिणमति । सत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्यात् । विनाशस्य पर्यायान्तरगमनमात्ररूपत्वात् । दीपादिविनाशस्यापि तमिनादिरूपतया परिणामात् । तथा नास्तित्वमत्यन्तानावरूपं यत् स्वरविषाणादि, तन्नास्तित्वेऽत्यन्तानाव एव वर्तते । नात्यन्तमसतः सत्वमस्ति खरविषाणस्येवेति । उक्तं च-- " नासतो जायते भावो नाभावो जायते सतः | अथवा अस्तित्वमिति धर्मवर्तते यथापत्य एव मास्तिर बाद-नास्तित्वे सरखे वर्तते, यथाऽपटोऽपटत्व एवेति । " अथ परिणाम देतुदर्शनावाह , जं तं भंते! अत्थितं अस्थि से परिणमइ, णत्थित्तं एस्थिसे परिणाम, तं किं पयोगसा, वीससा । गोयमा ! पयोगसा वि तं वीससा वि तं ॥ (. जंतमित्यादि ) ( परिणमति) पर्या पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः । (रात्थितं णत्थिते परिणम त्ति) वस्वन्तरस्य पर्यायः- तत्पर्ययान्तरतां यानीत्यर्थः । (पओगस ति) सकारस्याऽऽगमिकत्वात्प्रयोगेण जीवव्यापारेण । (वीसस त्ति) यद्यपि लोके वाद जारुदस्ती वार्थो दृश्यः । इह प्राकृतत्वाद्वीससाए' इति वाच्ये वीससेत्युक्तमिति । अत्रोत्तरम् - (पओगसा वि तं ति) प्रयोगेणापि तदस्तिस्वादि, यथा- कुलालव्यापारादू मृत्तिए‌को घटतया परिणमति, भा विऋजुता वा वक्रतयेति । अपिः समुच्चये । (वीससा विसं ति ) यथा शुभ्राभ्रम शुभ्र भ्रतया । नास्तित्वस्यापि नास्तित्वपरिणामे प्रयोगसिपीताम्ये पोस्ट रणानि त अस्थिर या नृत्यादेरस्त्यिस्य नास्तित्यात् । सरसदेव स्यादिति स्था ख्यानान्तरेऽप्येतान्येवोदाहरणानि, पूर्वोत्तरावस्थयोः सत्या दिति । यदप्यजावोऽनाव एव स्यादिति व्याख्यातम्, तत्रापि प्रयोगेणापि तथा विस्रस्याऽपि अनावो भाव एव स्यात्, न प्र योगादेः साफल्यमिति व्याख्येयमिति । ज० ॥ अयकस्वरूपस्यैवार्थस्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाहसे पूर्ण जंते ! प्रत्थित्तं प्रस्थित्ते गमणिज्जं जहा परिथम दो मालागा, तहा गमाचेण वि दो भावना जाणियन्त्रा, जाव तहा मे त्यित्तं अत्यित्ते गमणिज्जं, जहा ते जंते ! एत्थं गमणिज्जं, तहा ते इह गमणिज्जं, जहा तेइ गमता ते इत्यं गमक है। हंसगोमा ! जहा मे इत्थं गमणिज्जं तहा मे इढ गमणिज्जं ॥ अस्तित्वमस्तित्व गमनीयं सद्वस्तुसत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः । (दो श्रालावग चि) (से णूणं नंते ! अस्थित्तं श्रत्थिते गमणिमित्यादि) 'पओगसा वि तं वीससा वि तं' इत्येतदन्त एकः, परिणामभेदाभिधानात्। 'जहा ते नंते ! अत्थित्तं अत्थिते गमणिमित्यादि ' तदा ' मे अस्थित्तं श्रत्थित्ते गमणिज्जं ' इत्येतदन्तस्तु द्वितीयोऽस्तित्वनास्त्यपरिणामयोः समताभिचायत एवं वस्तुप्रकापनाविषय समा निधायाच शिष्यविषयतां दर्शया' जाते त्यादि यथा वर्क पर यान समतमिति प्रवृत्या उप पकारबुद्ध्या वा ते तव भदन्त ! [ पत्थं त्ति ] एतस्मिन्मयि सन्निहिते स्वशिष्ये गमनीयं वस्तुप्रापनीयम् । तथा तेनैव समतालक्ष्यप्रकारेण उपकारधिया वा [ इदं ति ] हास्मिनू गृहिपावपिमकादो जने गमनीयं वस्तुप्रकाशनीयमिति प्रश्नः । अथवा [पत्थं ति] स्वात्माने यथा गमनीयं सुखप्रियत्वादि, तथा इह परात्मनि । अथवा यथा प्रत्यकाधिकरणार्थतया एत्थ मित्येतच्चब्दरूपामीति गमनं|यम् तथा इद इत्थमित्येतच्छब्दरू पमिति, समानार्थत्वाद्वयोरपीति । ज० १ ० ३ ० ॥ प्रत्यिभाव अस्ति ज्ञान पुं० विद्यमानभावे "अस्थिभावि वा विजमाणभावोति वा एगट्ठा" श्र० चू० १ भ० । अस्थि (च) र अस्थिर ० ० ० - 2 भाम् " ८ । १ । ८७ । इति थस्य प्राप्तमपि दत्वं प्रायिकत्वान्न भवति । प्रा० । अहढे ओघ० । अतरे, नि० चू० १० स० । धृति संदननहीनत्वेन बलहीने, व्य० २ उ० । चले च, उत्त०२० श्र० अपरिचिते, " अस्थिरस्स पुत्र्वगहियस्स वत्तणा जं इह थिकरणं " पञ्चा०१२ विव० । जीर्णे, आचा०२ श्रु०३ श्र०२४०| अस्थास्नुद्रव्ये, प्र० । अस्थिरं प्रलोटति स्थिरं वा प्रलोटति इति चिन्तयनादसे जंते ! अथिरे पनोहर, नो थिरे पलोह, प्रथिरे जन, नो थिरे नजर, मासए बाल वालियतं अमास सामए पंडिए पंकि अमामयं । ईता गीयमा ! थिरे पलोहप नात्र परियचं असासयं सेवं ते! अंबे लि० जाव विहरः । (अधिरे खि) प्रशास्तपरिपर्त भ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिर ध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः प्रतिसमयचखास्थिरत्वात् प्रतिपादपरिव, स्थिरं शिलादि न प्रतोदति । श्रध्यात्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मयेऽपि तस्य श्रवस्थितत्वान्नासौ प्रतोदति, उपयोगलॠणस्वभावान्न परिवर्तते । तथा अस्थिरं जङ्गुरस्वभावं खादिते विलयति मध्यमचिन्तायामपि द्भज्यते व्यपौत, तथा स्थिरमभङ्गुरमयः शनाकादि न जज्यते, अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः, स च न भज्यते, शाश्वतत्वादिति । जीवप्रस्तावादिदमाह - ( सासर बालए ) बालको व्यवहारतः शिशुः, निश्चयतोऽसंयतो जीवः, स च शाश्वतः, द्रव्यत्यात् । (बायितं ति ) इह कप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद्वालत्वम्, व्यवहारतः शिशुत्वम् निश्चय तस्त्व संयतत्वम् । तच्चा शाश्वतम्, पर्यायत्वादिति । एवं परिमतस्त्रमपि, नवरं परिकता व्यवहारेण शास्त्रो जीवः, निश्चयतस्तु संयत इति । भ० १ ० ० । तत्स्थे च स्थिरा नाम येषां तत्रैव गृहाणि अस्थिरा येषासन्यत्र गृहाणि । वृ० १ ८० । अत्थि (थि ) रनक्क - अस्थिरषट्क - ६- न० । अस्थिराऽशुभदुर्भगदुःस्यरागादेवाऽयशः कीर्तिरूपे नामकमैनेयके कर्म० १ कर्म० । ( ४१ ) अभिधान राजेन्द्रः । 9 अत्यि (वि) रणाम ( ण् ) - अस्थिनामन् १०कर्णपियवा अस्थिरायपक्षा प्रचन्ति तस्मि नामकर्मभेदे, कर्म० १ कर्म० । प्रत्थि (वि) रवि स्थिर २० अथिरानायशःकीर्तिसंज्ञे कर्मत्रिके, कर्म० ४ कर्म० । प्रत्थि (1) रग-अस्थिरद्विक०स्थिराना कर्मद्विके, कर्म० २ कर्म० । - कदाचिमतं वस्तू अत्यि (वि) रव्यय-अस्थिरव्रत-त्र० मुक्तया चलानि व्रताम्यस्येत्यस्थिरयतः हाति कदाचिद् मुञ्चति । उत्त० २० प्र० । अत्य (वि) वा अस्तिवाद पुं० भ्युपगमे, यथा-" श्रत्थि य शिवो कुराई, कयं च वेपर स्थि froari | अत्थिय मोक्खोवाओ, बः सम्मत्तस्स गणाई ॥ १८ ॥ प्रब० १४० द्वा० । एतमेवास्तिवादं समवसरणे जगवांस्तीर्थकर प्रख्याति । औ० । लोकादीनां वस्तुतः सतामस्तित्वमङ्गीकार्य्यमेवाऽन्यथा त्वनाचार इति । सर्वशून्यवादिमतविसेन लोकालोकयोः प्रविभागेनातिवं प्रतिपादयितुकाम माह एत्यि लोए अलोए वा, एवं सभं निवेसए । प्रत्थि सोए नोए वा. एवं सन्नं निवेसए ॥ १२ ॥ यदि वा सर्वत्रमस्ति नास्ति सर्वत्र बीचैम इत्यनेन सा मान्येन वस्त्वस्तित्वमुक्तम् । तथाहि सर्वत्र वस्तुनो वीर्ये शक्ति कियासामध्ये मनसः स्ववियानोत्पादनमा स्वन्ताभावाद्वराविषाणादेरप्यस्तत्येिवं संयं न निवेशयेत् सक्षेत्रीयेास्तीति जो एवं संनिवेशदितिअन बस्स्वस्तित्वं प्रसाधितम् । इदानीं तस्यैव वस्तुन ईषद्विशेपितत्वेन लोकालोकरूपतयाऽस्तित्वं प्रसाधयन्नाह - (पत्थि सोप अत्थिवाय दिधर्माधर्माकाशादि चास्तिकायात्मको वा स नास्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तथाऽऽकाशास्तिकायात्मकवेकः, स च न विद्यत एवेत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । तदभावप्रतिपत्तिनिबन्धनं त्विदम् । स द्यथा प्रतिभासमानं वस्त्ववयवद्वारेण वा प्रतिभासत, अवयपिद्वारेण वा तत्र न तावद्वारेण प्रतिभासमुत्पद्यन परमाणून प्रतिभासमानाभावी रागस्य परम एवात्मकत्वात् तेषां च स्थविज्ञानेन रुष्टुमशक्यत्वात् । तथा चोक्तम्- " यावद् दृश्यं परस्ताव द्भागः स च न दृश्यते । निरंदास्य नागस्य, नास्ति बद्मस्थदर्शनम् ॥ १ ॥ इत्यादि : नाप्यवयविद्वारेण विकल्पमानस्यावयवन एवाभावात्। तथाहि असौ स्वावयवेषु प्रत्येकं सामस्त्येन वा वर्तेताम्, अशांशिभावेन वा? | सामस्त्येनाव यविबहुत्वप्रसङ्गात् । नाप्यंशेन, पूर्वविकल्पानतिक्रमेणानवस्थाप्रसङ्गात् । तस्माद्विचार्यमाणं न कथंचिद्वस्स्त्वात्मकं भावं लभते । त तस्तत्सर्वमेवैतन्मायास्वमेन्द्रजालमरुमरीचिकाविज्ञानसदृशम् । तथा चोक्तम्- "यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्तं तथा तथा । यते स्वयमर्थिज्यो, रोचन्ते तत्र के वयम् ?" ॥ १ ॥ इत्यादि । तदेव वस्त्वनावे तद्विशेषोकालोकाभावः सिद्ध एवेत्यांनो सां निवेशयेत् किन्त्वस्तिको वैशाखस्थान तकटिन्यस्त करापुरुषसदृशः पञ्चास्तिकायात्मको वा सिरियाको यक्ति सदाकयानुपप से रिति भावः। युक्तिश्चात्र यदि सर्वे नास्ति, ततः सर्वान्तःपातित्वात्प्रतिषेधकोऽपि नास्ति इत्यतस्तदभावात् प्रतिषेधाभावोऽपि व सति परमार्थभूते वस्तुनि मायास्वजेन्द्रालादि व्यवस्था अन्य था किमाश्रित्य को वा मायादिकं व्यवस्थापयेत् ? इति । श्रपि सर्वाना था. युनानयति। सातवे वनस्तवं तत्सिकौ सर्ववस्तु सत्" ॥१॥ इत्यादि । यदप्यवयवावयवि विभागकल्पनया दूषणमभिधीयते, तदप्याई तमतानशेन । तन्मतं चैवंभूतम् । तद्यथा-नैकान्तेनावयवा एव नाप्ययययेष त्या स्वादाविपचानुपपचिरित्यतःकलोकोऽयमली फोऽपीति स्थितम् ॥१२॥ नवं मोकलकारिता प्रतिपाधना सद्विशेषभूतजीवाजीवरत्वप्रतिपादनायाद गत्थि जीवा जीवा वा, त्रं सन्नं निवेसए । मात्य जीवा अजीवा वा एवं समं निवेस ॥ १३ ॥ (सत्धि जीवा जीवात्यादि) जीचा उपयोगलकाः संसारिणो मुक्ता वा, तेन विद्यन्ते तथा अजीवाश्च, धर्माधर्माकापुलकालात्मका गतिरित्यवगाददानच्छायातपोद्यतादिष नानां परिज्ञानं नो निवेशये ना. स्तित्वनिबन्धनं त्विदम्, प्रत्यक्केणानुपलभ्यमानत्वात् । जीवा न विद्यन्ते, कायाकारपरिणतानि तान्येव धाननादिकक्रियां कुर्वन्तीति । तथाऽभिप्राये "पुरुष पवेदं सबै यद्भूतं यश्च भाव्यम्" इत्यागमात्। तथा श्रजीवा न विद्यन्ते, सर्वस्तनाचेतनात्ममात्रनिवर्तिवात गो एवं निवेशतू । किं त्वस्ति जीवः सर्वस्यास्य सुख दुःखादेर्निबन्धनभूतः स्व. संवित्तिसिद्धोऽहं प्रत्ययग्राह्यः; तथा तद्व्यतिरिक्ता धर्माधर्माकाशपुलादयश्च विद्यन्ते । सकल प्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यक्षेणानुभूयमानत्वात् । तद्गुणानां नूतचैनम्यवादीव वाच्यः । किं तानि भवदभिप्रेतानि तानि नित्यानि यदि Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्थित्राय प्रत्थिवाय नापि , च्युतानुरपन्नास्थिरैकस्वभावत्वा कायाकारपरिचतेऽयुपगमः । नास्ति न विद्यते पुण्यं गुजकर्मप्रकृतिलक्षणम्, तथा पापं तद्वितयमुत्पद्यते ग्रहो दविद्यमानम् अतिमलोपा विद्य मानमेव सिर्फ ताई जीवत्वं तथाऽऽत्माऽद्वैतवाद्यपि वाच्यः । यदि पुरुषमात्रमेवेदं सर्वम् कथं घटपटादिषु नोपलभ्यते। तथा निधनानां परान्तानामभावात्साध्यसा धनाभावः तस्मान्नैकान्तेन जीवाजीवयोरभावः, अपि तु सर्वपदार्थानां स्याद्वादाश्रयणाज्जीवः स्यादजीवः, अजीवोsपि च स्याञ्जीयः इत्यस्यापदापर्ण जीवपुद्गयोरन्योन्यानुगतयो शरीरस्य प्रत्यया उपयोषनाम्यमिति ।। १३ ।। जीवसि तन्नियोः ससरियाद्वारायातयोर्धर्माधर्म योरस्तित्वप्रतिपादनायाह पर्ययलक्षणं नास्ति न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । तदभाप्रतिपतिनिबन्धनं त्विदम-तत्र केषां चिनारित पुरायं पापमेव छुत्कर्षावस्थं सत्सुखदुःखनिबन्धनम् । तथा-परेषां पापं नास्ति, पुष्यमेवापचीयमानं पापं कार्य कुर्यादति अन्येतुभयमपि मस्त संसारयिं तु नियतिस्वभावादिकृत युक्त म यसः पुण्यपापशी संवाद संबन्धिशब्दानामेकस्य सत्ता परसन्तानान्तरीयकतो, नेतरस्य सत्तेति । नाप्युप्रयाभाषः शक्यते वक्तुम, निबन्धनस्य जगद्वैचित्र्यस्याभावात् । न हि कारणमन्तरेण कार्य नियतिस्वजावादियादस्तु गोराणां पादमसारिकाणां पादप्रसारिकाप्रायः अपि चलायमाने सशकियायम त सकलकार्योत्पत्तिः । इत्यतोऽस्ति पुण्यं पापं चेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । पुश्यपाचे रूपे तद्यथा पुद्गलकर्मण्यमिति जिनशासने दृष्टम् | यदशुजमथ तत्पाप-मिति भवति सर्वज्ञनिर्दिष्टम् " इति ॥ १६ ॥ 1 (५०० ) अभिधानराजेन्द्रः । पत्थि धम्मे अम्मे वा वंनिवेस । प्रत्थि धम्मे धम्मेवा, एवं सन्नं निवेस ॥ १४ ॥ (धिमेवेत्यादि ) धर्मः श्रुतया रिशायात्मको जीवस्यात्मपरिणामः कर्मकयकारणमात्मपरिणामः, एवमधमोऽपि मिथ्यात्याविरतिप्रमादकपाय योगरूपः कर्मवन्धकारणमात्मपरिणाम एव । तावेवंभूतौ धर्माऽधर्मौ कालस्वनावनियतीश्रादिमतेन न विद्येते इत्येवं संशां नो निवेशयेत् । कालादय एवास्य सर्वस्य जगद्वैचित्र्यस्य धर्माधर्माव्यतिरेकेणैकान्ततः कारणमित्येवमभिप्रायं कुर्यात् यतः त पवैकका न करगम, अपि तु समुदिता पवेति तथा चोकम् हि कालादीदियो केवसेदितो जायए किंचि । इह मुम्बरं धणार वि, ता सव्वे समुदिया ऊ" || १॥ इत्यादि । यतो धर्माधर्ममन्तरेण संसारवैयन पटामियत इत्यतोऽस्ति धर्मः सम्यग्दर्शनादिकः अधमिध्यात्वादिको निवेशदिति ॥१४॥ सनोध धर्माधर्मयोग्यमकसद्भाव इत्येवमाद हात्यि बंधे व मोक्खे वा ऐवं स निवेस । अस्थिबंधे मवा एवं समं निवेस ॥ १५ ॥ व [] बंधे मवा इत्यादि ] बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकतया कर्मपुद्गलानां जीवेन स्वच्या पारतः स्वीकरणम् । सामूस्यात्मनो गगनस्येव न विद्यत मोहां निवे शयेत् । तथा तदभावाश्च मोकस्याप्यभाव इत्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेत् । कथं तर्हि संज्ञां निवेशयेत् ?, इत्युत्तरार्थेन दर्शयतिअस्ति बन्धः कर्मपुद्गल जायस्थ, इत्येवं संनिवेशयेदिति । य सूयते मूर्तस्यामूर्त्तिमता संबन्धो न त इति तदयुक्तम् । आकाशव्य] सर्वव्यापितया पुद्गलः संबन्धो दुर्निवार्यः तदभावे यापित्वमेव न स्याद् । अन्यच्चास्य विज्ञानस्य इत्पूरमदिरादिना विकारः समुपलभ्यते, न चासी संबन्ध तोकि ञ्चिदेतत् । अपि च- संसारिणामसुमतां सदा तैजस कार्मणशरसद्भावादात्यन्तिकममूर्त्तत्वं न भवतीति । तथा तत् प्रतिपऋजूतो मोकोऽप्यस्ति तद्भावे बन्धस्याप्यनावः स्यात्, हस्यतोऽशेबन्धनापगमस्वभावो मोक्कोऽस्तीत्येवं संज्ञां निवेशयदिति । १५ । बन्धसद्भावे चावश्यंभावी पुण्यपापसद्भाव इत्यतस्तद्भावे निषेधद्वारेाहू णत्थि पुछे व पावे वा, ऐवं सन्नं निवेसए । अयि पुणे व पाने वा, एवं सन्नं निवेसए ।। १६ ।। न कारणमन्तरेण कार्य्यस्योत्पत्तिरतः पुण्यपापयोः प्रागुरूयोः कारणभूतावाश्रवसंवरी सत्प्रतिषेधद्वारे दर्शयितु काम आह त्यसवे संवरे वा, एवं स निवेम अस्थि आसवे संवरे वा, एवं सन्नं निवेस ॥ १७ ॥ (स्थि आसवे संवरे वेत्यादि) आश्रयति प्रविशति कर्म येन स प्राणातिपातादिरूप श्राश्रवः कर्मोपादानकारणम् । तथातनिरोधः संवरः। एतौ द्वावपि न स्त इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेव तदभावप्रतिपत्या शङ्काकारणं त्विदमनःकर्म योगः स श्राश्रव इति यथेदमुक्तं तथेदमप्युक्तमेव " उच्चालियम पाए हत्यादि "तत कार्यादिव्यापारेण कर्मबन्ध न भवतीति । युक्तिरपि किमयमा आत्मनो भिन्नः, उताऽभि नः १ । यदि भिन्नो नामासावाश्रवो घटादिवदभेदेऽपि नाश्रवत्वम, सिद्धात्मनामपि श्राश्रवप्रसङ्गात् । तदभावे च तन्निरोधलक्षणस्य संवरस्याप्यभावः सिद्ध एव । इत्येवमात्मकमध्यवसायं न कुर्यात् । यतो यत्तदनैकान्तिकत्वं कायव्यापारस्य "उच्चालयम्मि पाए" इत्यादिनोक्तं, तदस्माकमपि सम्मतमेव । यतोऽयमस्माभिरप्युपयुक्तकर्मबन्धोऽभ्युपगम्यते । निरुपयुक्तस्य कर्मबन्धः, तथा भेदाभेदोभयपक्षसमाश्रयणात्तदेकपक्षाश्रितदोषाभावः । इत्यस्त्याश्रवसद्भावः, तनिरोधश्व संवर इति । उक्तं च- " योगः शुद्धः पुण्या श्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः । वाक्कायमनोगुप्ति - भिराश्रवः संवरस्तूक्तः" ॥१॥ इत्यतोऽस्त्याश्रवस्तथा संवरश्चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥१७॥ श्राश्रवसंवरसद्भावे नावश्यंभावी वेदनानिर्जरासद्भाव इत्यतस्तं प्रतिषेधद्वारेणाह स्विया गिरा था, हवं स निवेसए । अस्थि वेयणा णिज्जरा वा, एवं सन्नं निवेस ||१०|| वेदना कर्मानुभवा तथा निर्जरा क पुन भनि विधेयेोनि वेशयेत् । तदभावं प्रत्याशङ्काकारणमिदम् । तद्यथा- "पल्योपमसागरोपमशतानुभवनीयं कर्मान्तर्मुनेच क्षयमुपयाति" इत्यम्युपगमात् । तदुक्ष- "कम् खवे बहुचाई पास Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्थिवाय अनिधानगजेन्दः । आत्थिवाय कोडीहिं । तपाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं "॥१॥ कविकल्पदोषानुपपत्तिः, अनभ्युपगमात् । संसार्यात्मनां कर्मइत्यादि । तथा क्षपकघेण्यां च झटित्येव कर्मणो भस्मीकर- णा साऊँ पृथग्भवनाभावात्तभयस्य च न नरसिंहवद्वस्वन्तर. यात, यथाक्रमबद्धस्य चानुभवनाभावे वेदनाया अभावम्तद- स्वात् । इत्यतोऽस्ति क्रोधो मानश्चेत्येवं संशां निवेशयेत् ॥२०॥ भावाच्च निर्जराया अपीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किमिति?। ___साम्प्रतं मायाझोभयोरस्तित्वं दर्शयितुमाहयतः कस्यचिदेव कर्मण एवमनन्तोरक्तया नीत्या क्षपणासपसा प्रदेशानुभवेन चापरस्य तूदयोदीरणाभ्यामनुभवनमि णस्थि माया व झोने वा, णेवं मन्नं निवेसए । त्यतोऽस्ति वेदना । यत आगमोऽप्येवंभूत एव । तद्यथा-"पु. अनि माया व लोने वा, एवं मनं निवेसए ॥ २१ ।। वि दुश्चिमाणं, दुप्पडिकनाण कम्माणं। वेइत्ता मोक्खो णस्थि (णस्थि माया व लोभेन्यादि ) अत्रापि प्राग्वन्मायायोभयोरना. अवेत्ता" इत्यादि वेदनासिद्धौ च निर्जराऽपि सिद्धैवेत्य- वादीनां निराकृत्यास्तित्वं प्रतिपादनीयमिति ॥२६॥ तोऽस्ति वेदना निर्जरा वेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १८ ॥ साम्प्रतं तेषां च क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाहवेदनानिर्जरेच क्रियाक्रियत्वे ततस्तभावप्रतिषधनिषधपू- पत्थि पेजे व दोसे वा, णेवं मन्नं निवेमए । र्वकं दर्शयितुमाह अत्यि पेज्जे व दोसे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥॥ पत्थि किरिया अकिरियावा, येवं सनं निवेसए । ( णस्थि वेजेत्यादि) प्रीतिलकणं प्रेम पुत्रकन्नधनधान्याद्या. अस्थि किरिया अकिरिया वा, एवं सन्नं निवेसए ॥१॥ त्मीयेषु रागः, तद्विपरीतम्त्यात्मीयोपघातकारिणि द्वषः, तावेती (णत्धि किरिया अकिरिया वा इत्यादि ) क्रिया परिस्पन्द द्वावपि न विद्यते । तयाहि-केवांचिदभिप्रायः । यदुत-मालक्षणा, तद्विपर्यस्ता त्वक्रिया,ते द्वेअपि न स्तो न विद्यते। यासोभावेवायययौ विद्येते , न तत्समुदायरूपोऽवयव्यस्ति । तथाहि-सांख्यानां सर्वव्यापित्वादात्मन आकाशस्येव परि तथा क्रोधमानावेव स्तः, न तत्समुदायरूपोऽवयवी द्वेष इति । निस्पन्दिका क्रिया न विद्यते । शाक्यानां तु क्षणिकत्वा तथा ह्यवयवेभ्यो यद्यभिन्नोऽवयवी तर्हि तदनेदात्त पब त्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा वाऽन्यथोत्पत्तेः पदार्थस मासी । अथ निन्नः , पृथगुपत्रम्भः स्यात् , घटपटवत् । इतीतेव, न तव्यतिरिक्ता काचित्क्रियाऽस्ति । तथा चोक्तम्-"भ त्येवमसिद्धिकल्पमूढतया नो संज्ञां निवेशयेत् । यतोऽवयवातिर्येषां क्रिया सैव, कारकस्यैव चोच्यते।" इत्यादि । तथा वयविनोः कांचनेद इत्येवं दानेदाण्यतृतीयपक्रसमाश्रयसर्वपदार्थानां प्रतित्तणमवस्थान्तरगमनात्सक्रियात्वम, अतो णात्प्रत्येकपकाश्रेितदोषानुपपत्तिः। इत्येवं चास्ति प्रीतिलकणं नक्रिया विद्यते इत्येवं सशां नो निवेशयेत् । किं तर्हि-श्र प्रेम, अप्रीतिसकणश्च द्वेष इत्येवं संझां निवेशयेत् ॥ २२ ॥ स्ति क्रिया अक्रिया वेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । तथाहि-शरी- साम्प्रतं कषायसद्भावे सिके सति तत्कायतोऽवश्यंभावी रात्मनोंर्देशाद्देशान्तरावाप्तिनिमित्ता परिस्पन्दात्मिकाक्रिया प्र- संसारसनाव इत्येतत्प्रतिषेधनिषेधद्वारेण प्रतिपादयितुमाहत्य केणैवोपमन्यते, सर्वथा निष्क्रियत्वे चात्मनोऽज्युपगम्यमा- णस्थि चानरंते संसारे, ऐवं मन्नं निवेसए । ने गगनस्येव बन्धमोवाद्यभावः ; स च रटबाधितः । तथा अत्थि चाउरते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥३॥ शाक्यानामपि प्रत्यकेणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रियाया मनाबः । अपिच-एकान्तेन क्रियाऽभावे संसारमोक्षाभावः स्यात् । पत्थि देवो व देवी वा, णेवं सन्नं निवेसए । इत्यतोऽस्ति क्रिया , तहिपकजूता चाक्रिया , इत्येवं संज्ञा अस्थि देवो व देवी वा, एवं सन्नं निवेसए ॥ २४ ॥ निवेशयेदिति ॥ १६ ॥ (णत्यि चाउरते इत्यादि)चत्वारोऽन्ता गतिभेदाः नरकतियङ्नतदेव सक्रियात्मनि सति क्रोधादिसद्भाव इत्येतदर्शयितुमाह- रामरकणा यस्य संसारस्यासौ चतुरन्तः संसार एव कान्तापत्थि कोहे व माणे वा, पेवं सन्नं निवेसए । रः,भयैकहेतुत्वात् । स च चतुर्विधोऽपि न विद्यते; अपितु सर्वेषां संसृतिरूपत्वात्कर्मबन्धात्मकतया च पुःखैकहे तुत्वात् । अथवा अस्थि कोहे व माणे वा, एवं सन्नं निवेसए ॥२०॥ नारकदेवयोरनुपलज्यमानत्वात्तिर्यामनुष्ययोरेव सुखदुःखोकस्वपयत्मनोरप्रीतिलकणः क्रोधः, सचानन्तानुबन्ध्यप्रत्याण्या- पतया तव्यवस्थानाद् द्विविधः संसारः,पर्यायनयाश्रयणात् त्वने नावरणसंज्वलनभेदेन चतुर्धाऽऽगमे पठ्यते । तथैतावद्भद पर | कविधः,अतश्चातुर्विध्यं न कथंचिद् घटत इत्येवं संज्ञांनो निवेशयेमानो गर्वः। एतौ द्वावपि, न स्तो न विद्यते । तथाहि-क्रोधः के- त्। अपित्वस्ति चतुरन्तः संसार इत्येवं संझा निवेशयेतायत्तक्तपांचिन्मतेन मानांश एव, अभिमानग्रहगृहीतस्य तत्कृतावत्यन्त. म्-एकविधःसंसारः, तन्नोपपद्यते । यतोऽध्यक्केण तिर्यकमनुष्ययो. क्रोधोदयदर्शनात् । कपकश्रेण्यां च भेदेन क्षपणानन्युपगमात् ।। भेदःसमुपलभ्यते। न चासावेकविधत्वे संसारस्य घटते । तथा तथा किमयमात्मधर्मः, पाहोस्वित्कर्मणः, उतान्यस्येतितत्रा- संभवानुमानन नारकदेवानामप्यस्तित्वाभ्युपगमाद् द्वैविध्यमपि स्मधर्मत्वे सिकानामपि क्रोधोदयप्रसङ्गः। अथ कर्मणः, ततस्तद- न विद्यते । संभवानुमानं तु पुण्यपापयोः प्रकृष्टफलभुजस्तन्मन्यकषायोदयेऽपितउदयप्रलङ्गात् । मूर्तत्वाञ्चकर्मणो हि घटस्ये. ध्यफलभुजा तिर्यमनुष्याणां दर्शनात । अतः संभाव्यते प्रकृव तदाकारोपलब्धिः स्यात् । अन्यधर्मत्वे त्वकिश्चित्करत्वम् । अतो एफलभुजो ज्योतिषां च प्रत्यक्तणव दर्शनात् । अथ तद्विमानानास्ति क्रोध इत्येवं मानाभावोऽपि वाच्य इत्येवं संज्ञा नो निवे- नामुपयम्भः, पवमपि तदधिष्ठातृभिः कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुपमा शयेत् । यतः कषायः कर्मोदयवर्ती दृष्टकृतनुकुटीजङ्गोरक्तवद- नेन गम्यते । ग्रहगृहीतवरप्रदानादिना च तदस्तित्वानुमाननो गलस्वेदबिन्दुसमाकुलः क्रोधाभातः समुपलभ्यते । न चा. मिति । तदस्तित्वे तु प्रकृष्टपुण्यफल तुज व प्रकृष्ठपापफल तुसौ मानांशः, तत्कार्याकरणात् , तथा परनिमित्तोत्थापितत्त्वाचे ग्मिरपि नाव्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यम् । संसारस्य पर्याय ति । तथा जीवधर्मकर्मणोरुभयोरप्ययं धर्मस्तद्धर्मत्वेन च प्रत्ये- नयाश्रयणे तु यदनकविधत्वमुच्यते । तदयुक्तम् । यतः सप्त Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२२) अस्थिवाय अनिधानराजेन्द्रः । अत्थिवाय पृथिव्याश्रिता अपि नारकाः समानजातीयाश्रयणादेकप्रकारा ___ अस्थि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेसए ॥१६॥ एव । तथा तिर्यञ्चोऽपि पृथिव्यादयः स्थावराः,तथा द्वित्रिचतुःपश्चेन्द्रियाश्च द्विपष्टियोनिकप्रमाणाः सर्वेऽप्येकविधा एव । सिकरशेषर्कमच्युतिलकणाया निजं स्थानमीषत्प्राम्भाराख्यं व्य. तथा मनुष्या अपि कर्मभूमिजाऽकर्मभूमिजान्तरद्वीपकसंमृर्छ वहारतः, निश्चयतस्तु तपरि योजनक्रोशषम्भागस्तत्प्रतिपादनजात्मकनेदमनाहत्यकविधत्वनैयाश्रिताः । तथा देवा आप ज कप्रमाणाजावात्स नास्तीत्येवं संझनो निवेशयत, यतो बाधकवनपतिभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकन्नेदेन भिन्ना एकविधवेनैव गृ प्रमाणानावात्साधकस्य चागमस्य सद्भावात् तत्सत्ताऽनिवारेहीताः। तदेवं सामान्यविशेषाश्रयणाचातुर्वेध्यं संसारस्य व्यव ति । आप च-अपगताशेषकल्मषाणां सिकानां केनचिद्विशिम स्थितम; नेकविधत्वम,संसारवैचित्र्यदर्शनात् । नाप्यनेकविध स्यानेन भाव्यम, तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य सोकस्याप्रजूतं द्रष्टत्वम, सर्वेषां नारकादीनां स्थजात्यनतिक्रमादिति ॥१३॥२४॥ व्यम् । न च शक्यते वक्तुमाकाशवत्सर्वव्यापिनः सिद्धा इति । सर्वभावानां सप्रतिपक्तत्वात्संसारसदनावे सति अवश्यं त यतो लोकालोकव्याप्याकाशमानचालोके पररूव्यास्याकाशमाविमुक्तिल कण या सिच्चाऽपि नवितव्यमित्यतोऽधुना सप्रति प्ररूपत्वात लोकमात्रव्यापित्वमापि नास्ति,विकल्पानुपपत्तेः ।तपक्कां सिद्धिं दर्शयितुमाह थादि-सिकावस्थायां तेषां व्यापित्वमन्युपगतमा उत प्रागपिन णत्यि मिच्छी असिद्धी वा, णेवं सन्नं निवेसए । तावत्सिवावस्थायाम, तद्व्यापित्वभवने निमित्ताभावात् । ना पि प्रागवस्थायाम,तद्भावे सर्वसंसारिणं प्रति नियतसुखदुःखानुअस्थि सिकी असिघी वा, एवं सन्नं निवेसए ॥२५॥ नयो न स्यात्। न च शरीरादहिरवस्थितमवस्थानमस्ति, तत्स(णधिसिमीत्यादि) सिद्धिरशेषकर्मच्युतिलकणा, तद्विपर्यस्ता सानिबन्धनप्रमाणस्यानावात् । अतः सर्वव्यापित्वं विचार्यमाणं खासिद्धिर्नास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् , अपि त्वसिः संसार न कश्चिद्घटते। तदनावेचसोकानमेव सिकानां स्थानम् । तविसकणायाश्चातुर्विध्येनानन्तरमेव प्रसाधिताया अविगाने नास्ति गतिश्च कर्मविमुक्तस्योच गतिरिति । तथा चोक्तम्-“लाओ परंत्वं प्रसिरूम,तद्विपर्ययेण सिरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोऽ मफले,अम्मी धूमे बसू धाविमुक्के । ग पुव्वपओगेणं, एवं सिस्तिसिकिरसिधिवेत्येवं संज्ञां निवेशयदिति स्थितम । इदंमुक्तं काण वि गईयो" ॥१॥ इत्यादि । तदेवमस्ति सिकि,तस्याम प्रवति-सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सदाक- निजं स्थानमित्येवं सह निवेशयेदिति ॥ २६॥ मवयस्य च,पीमोपदामादिनाऽध्यक्केण दर्शनात्। अतः कस्यचिदात्यन्तिककर्महानिसिकेरस्ति सिद्धिरिति । तथा चोक्तम्-"दोषा साम्प्रतं सिरः साधकानां तत्प्रतिपक्कभूतानामसाधूनां चास्तिवरणयोहानि-निःशेषाऽस्त्यतिशायिनी।क्वचिद्यथा स्वहेतुज्यो. स्वं प्रतिपिपादयिषुः पूर्वपतमाहबहिरन्तम वक्तयः"॥१॥ इत्यादि । सर्वसद्भावोऽपि संजवानुमा- णस्थि साहू असाहू वा, णेवं सन्नं निवेसए । नाद् अष्टयः। तथा हि-अभ्यस्यमानायाः प्रकाया व्याकरणादिना शाखसंस्कारेणोत्तरोत्तरवृरूपा प्रज्ञातिशयो एव्यः। तत्र क प्रात्थ साहू असाहू वा, एवं सत्रं निवेसए ।। ७ ।। स्यचिदत्यन्तातिशयप्राप्तः सर्वज्ञत्वं स्यादिति संभवानुमानेन चैत- नास्ति न विद्यतेशानदर्शनचारित्रक्रियोपेतो मोकमार्गव्यवस्थिदाशङ्कनीयम् । तद्यथा-ताच्यमानमुदकमत्यन्तोष्णतामियान्नाग्नि- तःसाधुः,संपूर्णस्य रत्नत्रयानुष्ठानस्याभावात,तदभावाच्च तत्प्रसावेत्। तथा-"दशहस्तान्तरंब्योमिन, यो नामोत्प्लत्य गच्च- तिपक्कनूतस्यासाधोरप्यभावः, परस्परापेक्वित्वात् । पतघ्यवति। न योजनमसौ गन्तुं,शक्तोऽज्यास शतरपि"॥१॥शति दृष्टान्त- स्थानस्यैकतरानावे द्वितीयस्याप्यनाव इत्येवं संज्ञांनो निवेशयेदाष्टान्तिकयोरसाम्यात् । तथाहि-ताप्यमानं जसं प्रतिक्षणं क्षयं त,अपित्वस्ति साधुः,सिकेःप्राक्साधितत्वात सिद्धिसत्ताचन गच्छेत, प्रज्ञा तु विवढ़ते। यदि वा प्लोषोपलब्धेरव्याहतमग्नि- साधुमन्तरेण । अतःसाधुसिस्तित्प्रतिपदभूतस्यवाऽसाधोरित्वम् । तथा वनविषयेऽपि पूर्वमर्यादाया अनतिक्रमाद्योज- ति। यश्च संपूर्णरत्नत्रयानुष्ठानाभावःप्रागाशङ्कितः,स सिकान्ताजनोत्प्लवनाजावस्तत्परित्यागेचोत्तरोत्तरं वृद्धया प्रज्ञाप्रकर्षगम- भिप्रायमबुध्वैव । तथाहि-सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्यारक्ताद्वष्टस्य सनवद्योजनशनमपि गच्छत् , इत्यतो रटान्तदाष्टान्तिकारसा- संयमवतः श्रुतानुसारेणाऽऽहारादिकं शुद्धबुरुधा गृएहतःकम्यात्तदेव नाशक्कनीयमिति स्थितम् । प्रज्ञावृध बाधकप्रमा- चिदज्ञानादनेषणीयग्रहणसंजवेऽपि सततोपयुक्ततया संपूर्णमेव माणाभावादस्ति सर्वत्वप्राप्तिरिति । यदि वाऽअननृतसमुद्क- रत्नहायानुष्ठानमिति । यश्च जदयमिदं चाभक्ष्यम, गम्यमिदं चाराम्तेन जीवाकुलत्वाउजगतो हिंसाया अनिवारत्वासियभा- गम्यम, प्रासुकमेषणीयमिदामदं च विपरीतमित्येवं रागद्वेषसंभपः। तथा चोक्तम्-"जले जीवाः स्थले जीयाः, आकाशे जीवमा- वेन समन्नावरूपस्य सामायिकस्यानाव: कैश्चिच्चोद्यते, तसेषां लिनि। जीवमायाऽऽकुले लोके, कथं भिकरहिंसकः?" ॥१॥ चोदनमज्ञानविजृम्भणात् । तथाहि-न तेषां सामायिकवतां इत्यादि । तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्वात्सिय नाव इति । तदेतद- साधूनां रागद्वेषतया जयाजदयादिविवेकोऽपि तु प्रधानमोयुक्तम् । तथाहि-सदोषयुक्तस्य पिहिताश्रयद्वारस्य पञ्चसमिति- काङ्गस्य सच्चारित्रस्य साधनार्थमाप चोपकारापकारयोः समसमितस्य विगप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवाद्यानुष्ठायिनो द्विचन्वा- भावतया सामायिकम्, न पुर्नभदयाजक्ष्ययोः समभाववृत्त्येरिहाददोषरहितभिताभुज सिमितस्य कदाचिद्रव्यतः प्राणि- ति ॥ २७॥ व्यपगेपणेऽपि तत्कृतबन्धाभावः, सर्वथा तस्यानवद्यत्वात् । तदेवं मुक्तिमार्गप्रवृत्तस्य साधुत्वम, इतरस्य चासाधुत्वं, प्रदतथा चोक्तम-"उच्चानियाम्मि पाए" इत्यपि प्रतीतम, तदेवं कर्म-! इयाधुना व सामान्येन कल्याणपापवतोः सद्भावं प्रतिषेधनिषेबन्धाभावात्मिद्धः सद्भावोऽव्याहत सामध्यभावादसिरिस धद्वारणाहद्भावोऽपीति ॥२५॥ साम्प्रतं सिकानां स्थाननिरूपणायाह णत्थि कद्वाणपावे वा, येवं सन्नं निवेसए । पस्थि सिद्धी नियंगणं,णेवं सन्नं निवेसए । अस्थि कहाणपावे वा, एवं सत्रं निवेसए ॥२०॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२३ ) अभिधानराजेन्द्रः । यत्थिवाय 1 1 काणपायेत्यादि ) यचेार्थफलम्यामि याण तन्न विद्यते, सर्वानुचितया निरात्मकत्वात् । सर्वपदार्थानां बौकाभिप्रायेण तथा तदभावे कल्याणवाँश्च न कश्चिद्विद्यते, तथाऽऽरमतवाद्यभिप्रायेण पुरुष एवेदं सर्वमिति कृत्वा पाप पापवान् वा न कश्चिद्विद्यते, तदेवमुभयोरप्यजावः । तथा चोक्तम्"विद्याविनयसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि वैश्य पाके च परिमताः समदर्शिनः " ॥ १ ॥ इत्येवमेव कल्याणपापकानावरूपां संज्ञां नो निवेशयेत् । श्रपि त्वस्ति कल्याणं, कल्याणवाँश्व विद्यते तद्विपर्यस्तं पापं तद्वाँश्च विद्यते इत्येवं संशां निवेशयेत् तथाहि नैकान्तेन कल्याणानावा यो बीरभि दितः सर्वपदार्थानामशुचित्वासंभवात् सर्वाऽचित्वे च बुरूनायिका प्राचार्यका सर्वपाद्यमानत्वात्परयादिभिस्तु न विद्यन्तं सदस दात्मकत्वाद्वस्तुनः । तदुकम-परसता दि वस्तुनो वस्तुत्वमिति । तथाऽमतिभावानाचात्पापाभावोऽपि नास्ति, अद्वैतभावे हि सुखी दुःखी सरोगो नीरोगः सुरूपः कुरूप दुभंगः सुनगोऽर्थवान् दरिद्रताऽयमन्त्रिको यं तु दान इत्येवमादिको जगदेवप्रयभावोऽयज्ञ कोऽपि न स्यात् । यच्च समदर्शित्यमुच्यते ब्राह्मणचाण्डालादिषु तदपि समानपीमोत्पादनतो द्रष्टव्यम्; न पुनः कर्मेत्पादित चियाजावोsपि तेषां ब्राह्मणचाएकालादीनामस्तीति । तदेवं कथंचित्कल्याणमस्ति तद्विपर्यस्तं तु पापकमिति । न चैकान्तेन कल्याणमेव, बतः केवलिनां प्रीणनघातिकर्मचतुष्टयानां खातासातोदयसङ्गावात् । तथा नारकाणामपि पञ्चेन्द्रियत्वविशिष्टामादिस दावानैकान्तेन तेsपि पापवन्त इति तस्मात्कथंचित्कल्याणं कथं चित्पापमिति स्थितम् ॥ २८ ॥ तदेवं पाणपापयोरनेकान्तरूपत्वं प्रसाध्यैकान्तं दूषयितुमाह- कक्षाणे पाच वाचि ववहारो ण विज्जइ । , जं बेरं तं न जाणंति सपना बालपंडिया ||२५|| , , ( कल्ला पावप इत्यादि ) कल्यं सुखमारोग्यं शोजनत्वं वा, तदणतीति कल्याणम् तदस्यास्तीति कल्याणः " अर्श आदिभ्योऽच् ” ५ । २ । १२७ ॥ इत्यनेन पाणिनीयसूत्रेण मत्वर्थीवाऽच्प्रत्ययान्तः; कल्याणवानिति यावत् । पापकशब्दोऽपि मत्वर्थीयाऽच्प्रत्ययान्तो द्रष्टव्यः, तदेवं सर्वथा कल्याणवानेयायम् तथा पापवादा न विद्यते। तदैकान्ततस्यार्थस्यैवाजावात् । तदभावस्य च सर्ववस्तूनामनेकान्ताश्रयणेन प्राक्प्रसाधितत्वादिति । एतश्च व्यवहाराभावासर्वत्र प्रागपि योजना मस्ति नास्ति वा सर्वत्र वीर्यमित्येवंभूत एकान्तिको व्यवहारो न विद्यते । तथा नास्ति लोकोऽलोको वा, तथा सन्ति जीवा श्रजीबा इति वेत्येवंभूतो व्यवहरो न विद्यत इति सर्वत्र संबन्धनीयम् । तथा वैरं वज्रं तद्वत्कर्म वैरं, विरोधो वा वैरम्, तद्येन परोपतापादिकान्तमा वा भवति त स्तीर्थिका बाला श्व बाला रागद्वेषकलिताः परिमताभिमानिनः तर्कता न जानन्ति परमार्थतस्यादिलणस्य धर्मस्यानकास्प वानाश्रयणादिति । यदि भ्रमणा भ्रमणा बालाः परिकता वा न जानन्तीत्येवं वाचं न निस्सृजेदित्युचरण संबन्धः । किमिति न निसृजेत् ? । यतस्ते किञ्चिज्ज्ञान अत्यिवाय न्त्येव । अपि च-तेषां तन्निमित्तको पोत्पत्तेर्यच्चैवंभूतं वचस्तम वाच्यम् । यत उक्तम्- "अप्पत्तियं जेण सिया, भाभु कुप्पिज्ज वा परो । सव्वलो तं ण भासेजा, जासं श्रयगामिणि " ॥ १ ॥ इत्यादि ।। २९ ।। असे अपरमपि वाक्यममाऽऽ-वयं वा वि सति वा पुणो वन्झा पाणा न वश्झन्ति इति वायं न नीसरे ॥ ३० ॥ असे असायानिमि त्येवं न ब्रूयात् प्रत्यर्थे प्रतिसमयं चान्यधान्यथाभावदर्शनात् । स एवायमित्येवंभूतरूपकत्वसाधकस्य प्रज्ञानस्य लूनं पुन जतेषु केशनादिष्वपि प्रदर्शनात् । तथापि शब्दादेकान कमित्यपि वाचं न निसृजेत सर्वाणिकरचे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वादुत्तरस्य निर्हेतुक उत्पादः स्यात् । तथा च सति "नित्यं सत्वमसत्त्वं वा, देतोरन्यानपेक्षणात् " इति । तथा सर्व जगद् दुःखात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात् सुखात्मकस्यापिनादिभावेन दर्शनात् तथा चोकमा निस्सयो, विमुणिवरो नट्टरागमयमोहो । जं पावर मुत्तिसुढं, कलो तं विरदारिकाय " " अवयवानुमतिप्रसंगाला रायणः साधुः परव्यापारनिरपेक्को न निसृजेत् । तथाहि सिंद्व्याघ्रमारादीन् परसत्वभ्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ्यम वलम्बयेत् । तथा चोकमै श्रीप्रमोद कायमाध्यस्यामि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानविगवेषु" इति मयोऽपि वा क्संयमो द्रष्टव्यः । तद्यथा-श्रमी गवादयो बाह्या न बाह्याः, त थामी कायद्या न देद्या केल्यादिकं वनवासा नेति ॥ ३० ॥ । अयमपरो यापम कारोऽन्तःकरणद्धिसमाधितः प्रद . दीति समियाचारा, जिसाभीविको। एमिच्छोपजीवति इति दिडिन पाए ।। ३१ । यन्ते समुपलभ्यन्तेन विधिना नितः संयत आत्मा येषां ते निनृतात्मानः । क्वचित्पाठः- ( समियाचारं त्ति ) | सम्यक् स्वशास्त्रविहितानुष्ठानाद विपरीत ते सम्यगाचाराः, सम्यग्या इतो व्यवस्थित आचारो येषां ते समिताचाराः। के ते ?, भिक्षणशिला निकामात्रवृत्तयः । तथा साधुना विधिमा जस ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति । तथा कान्ता दान्ता जितक्रोधाः सत्यसन्धा दृढवता युगान्तरमात्रदृष्टयः परिपूतोदकपाfथनो मौनिनः सदा तायिनो विविक्तैकान्तध्यानाध्यासिमोकी भूतानचायां अपि सरागा अपि वीतरा गाव वेन्ते इति मत्वैते मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टि न धारयेन्नैवं भूतमध्यवसायं कुर्य्यात् नाप्येवंभूतां वाचं निसृजेत्यते मिथ्योपचारइति स्थादर्श नवजूतस्य निश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वादित्यभिप्रायः । ते च स्वबुध्या वा भवेयुस्तन्तरीया या वनावपि न सा चुना तयारगुणपरकीर्त भवति । तावद्वरं विशुके ध्याने व्यग्रं मनः कर्तुम " ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ ३१ ॥ 9 Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यवाय ( ५२४ ) अभिधानराजेन्ऊ | किञ्चान्यत् दक्खिणाए पमीलंभो, श्रत्थि वा एत्थि वा पुणो ॥ वियागरेज्ज मेहावी, संति मग्गं च वूहए ॥ ३२ ॥ (दक्षिणात्यादि दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलम्भः प्राप्तिः, सदानवानोऽस्मादः सकाशादस्ति नास्ति येत्येवं न पामेचा मर्यादाव्यवस्थितः। यदि वा स्पधस्य तीर्थान्तरीयस्य वा दानं ग्रहणं वा प्रतिलाभः। स एकान्तेनास्ति संभवं नान् एकान्तेन सहान निषेध दोबाप तथाहि सदाननिषेधेऽ च तद्दानानुमतावप्यधिकरणोद्भव इत्यतोऽस्ति दानं न वेत्येवमकान्तेन न ब्रूयात् । कयं तर्हि ब्रूयात् ? इति दर्शयति-शान्तिर्मोतस्य मा सम्पन्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक मुद्र धं यथा मोकुमानिति तथा पादप दुकं भवति पृष्टः केनचिद्विधिप्रतिषेधमन्तरेण देयप्रतिग्राहकविषयं निरवद्यमेवं ब्रूयादित्येवमादिकमन्यदार्थ ॥ ३२ ॥ साम्यतमभ्ययनार्थमुपसंजितुराह एहिँ ठाहिँ, जिणदिट्ठेहि संजए । भारत अप्पा आमोक्खा परिव्व ॥ २२ शनि बेमि इत्येतेरेकारनिषेधद्वारे जानेकान्तविधायिभिःस्थनिय मायनो के रागद्वेपरहितैि मतिविकल्पोत्थापितैः संयतः सन् सयमवानात्मानं धारयन्नैभिविपदेशनावसरे याच्य तथा चोकमा ज्जाण, वयणाणं जो ण जाणइ विससे " इत्यादिस्थानैरात्मानं वर्तयनामोकायाशेषकर्मक्कयायें मोकं यावत्परि समन्तात्संयमानु'ष्ठाने प्रजेः, गच्छेत्यमिति विधेयस्योपदेशः। इतिः परिसमाप्त्ययें । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३३ ॥ अत्थीकरण-अर्थीकरण- न० । अर्थयते अर्थी वा करोति भये जनयते इत्यर्थीकरणम् राजादीनां प्रार्थने, तेऽऽामनः प्रार्थनाकारणे, मि० चू । जे अत्थी करे, अल्पीकर या साइनइ || १ || जेभियरक्खि अस्वीकर, अत्थी करतं वा साइ ||२|| जे जिक्खू लगर रक्खियं प्रत्थी करे, अत्थीकरतं बा सा ॥ २ ॥ जे भिक्खू गामरविखयं अत्थीकरे, अत्थीकरंतं वा साज्जइ ||४|| जे जिक्खू देसरक्खियं अ स्वीकरे, अस्वीकर या साइज ॥ ए ॥ जे भिक्खु सीमारक्लयं अस्वीकरे, अत्थी करता साह ||६|| जे निक्खु लिगमरक्खियं अत्यीकरे, ग्रत्यीकरतं वा साइज्जइ ॥ ७ ॥ ने भिक्खू सम्वारक्खियं अत्यं करे, स्पीकर वा साइत ॥ ८ ॥ प्रस्थयते प्रत्यया करे अर्थ व जयते नम्हा । अत्यीकरणं तम्हा, विज्जादिििमत्तमादीहि ॥ २२ ॥ साइ या अत्येति प्रार्थयते साधू वा तदा करेति जा सोराया तस्स सास्स अत्याजयति, प्रार्थयत । त्यर्थः । साधुर्वा अत्थुग्गह तस्य राज्ञः श्रर्थं जनयति । जम्हां एवं करेति तम्दा अत्थीकरणं जाणति । साधू रायाणं जणति मम श्रत्थि विजा, णिमित्तं वा तीतानागतं । ताहे सो राया श्रत्थीजवति । श्रादिसद्दातो राणादिजोगाइ अधीकरणं। धातुनिधादरिसणे, जयंतं तत्थ होति सहाणं । अत्ती अच्ची अत्थे - संत संतोष लहु लहुया ||२३|| धानुवाणा से सार्थ करेति महाकालमा से सिद्दि दरिसेति । एवं प्रत्थं जणयतो सघाणपच्छित्तं बकाया चचसु लहुगा। सीदावलोयणेण गतोऽप्यर्थः पुनरुच्यते श्रती, अच्ची, अत्थी, पते संते माल| एक्के एगतरेणं, अत्थीकरणेण जो तु रायाणं । अत्थीकरेति भिक्स्, सो पावनि आणमादीणि ॥। २४ ।। राया भिख संजम अनुगेल पते राया चारि गाहा जाव एतेहिं । नि० चू० ४ उ० । अत्थु (त्यो ) ग्गढ़ - अर्थात्रग्रह-पुं० श्रर्थ्यते इत्यर्थः। श्रर्थस्याधग्रहणमधयः सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षा निर्देश्यसा मान्यमानरूपार्थग्रहणलक्षणे मतिज्ञानभेदाभेदेनं० । स०] कर्म० भ० स्था० प्रज्ञा०| "सामन्नरूवा विसेसणरहियम्स अनिद्देसस्स” श्रवग्रहणमवग्रह इति । नं० प्र० श्रर्थ्यतेऽधिगम्यते, अर्ध्यते वाऽन्विष्यत इति श्रर्थः । तस्य सामान्यरूपस्याशेषनिरपेतानिर्देश्यस्य रूपादेय प्रथमपरिच्छेदनमर्थावग्रह इति निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनमिति यदुच्यते इत्यर्थः । स नैश्वयिको यः स सामायिकः। यस्तु व्यावहारिकः शब्दो ऽयमित्याद्युल्लेखवान् सोऽन्तमौहूर्तिक इति । श्रयं पञ्चेन्द्रि यमनः संबन्धात् षोढा इति । स्था० २ ar०१ उ० । (अर्थावग्रहस्य सोपपत्तिकः स्वरूपविवेकः ' उग्गह ' शब्दे द्वितीयभागे ६६८ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) स च मनः सहितेन्द्रियपञ्चकजन्यत्वात्योढा । प्रव० २१६ द्वा० । तथा च सूत्रम् - प्रत्थोवरगढे णं जंते ! कतिविद्धे पत्ते १ । गोयमा ! छवि पचेतं जहा- सोदीय अस्थावग्ग हे १, पाख दिप्रयोग २, पाणिदियत्यो ३, जिनिदिय प्रत्यवग्गहे ४, फासिंदिय अत्थोवग्गहे ५, नोइंदिप्रत्थोग ६ ।। मा० १५ पद स्था० । अथ कोऽयमर्थावग्रहः । सूरिराह अर्थावग्रहः पद्विधः प्रशप्तः तद्यथा बेन्द्रियार्थाय त्यादि । द्रियेणावग्रहो जनावमहानन्तरकालमेक सामाधिकमनिर्देश्यसामान्यरूपार्थावग्रहणं श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः । एवं प्राराजा स्पर्शनेद्रियार्थावग्रहेध्यपि वाच्यम्। वर्मनयोस्तु व्यञ्जनावग्रहो न भवति । ततस्तयोः प्रथममेव रूपद्रव्यगुणक्रियाविकल्पनाऽतीतमनिर्देश्य सामान्यमात्ररूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहो ऽवसेयः । तत्र ( नोइंदिपश्रत्थावग्गहो ति ) नो. इन्द्रियं मनः । तच द्विधा द्रव्यरूपं भावरूपं च । तत्र मनःपर्याप्तिनाम कम्मोदयतो यन्मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकानादाय मनस्त्वेन परिणमति, तद्रव्यरूपं मनः। तथाचाह चूर्णिकृत् 1 Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२५) अत्युग्गह अन्निधानराजेन्द्रः। अदक्खुदंसण "मणपज्जत्ति नामकम्मोदयो जोगो मणो दब्बे घेत्तुं मणत्ते- अदं (ई) सण-प्रदर्शन-नानका प्राकृते-"समासे वा" AGRA ण परिणामिया दव्वमणो भम" तथा-द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन ॥ इति दस्य वा द्वित्वम् । प्रा०। चाकुषशानाभावे,न विद्यते जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः । तथा चाह चूर्णि दर्शनं ग यस्येत्यदर्शनः। अन्धे, स्त्यानििनरोदयवति च । ग० कार पव-"जीवो पुण मणणपरिणामकिरियापन्नो भावमणो। १ अधिग न विद्यते दर्शन सम्यकत्वमस्यति व्युत्पत्तः । अयं च किं भणियं होह?-मणदब्वालंबणो जीवस्स मणवाचारोभा दीक्वितः सन् विकलतया यत्र तत्र वा सचरन् षट्रायान् विराचमणो भम" । तत्रेह भावमनसा प्रयोजनम, तद्ग्रहण ह्यवश्यं धयेविषमकोलककण्टकादिषु च पतेत् । स्त्यानस्तु प्रविष्ट अव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति; द्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसो. गृहिणां साधूनां च मारणादि कुर्यात् । प्रव०१०७ द्वा०। ध० । ऽसम्भवात् । भावमनो विनाऽपि च द्रव्यमनो भवति । यथा भवस्थकेवलिनः; तत उच्यते भावमनसह प्रयोजनम् । तत्र "विदो श्रदसणो स्त्रम, जाति उपघाततो य णायन्यो । नोइन्छियण भावमनसोऽर्थावग्रहो अव्येन्द्रियव्यापारनिरपेक्षो वघातो पुण तिविहो , वाहीनवघामअंजणताए ॥१॥ घटाद्यर्थस्वरूपपरिभावनाऽभिमुखःप्रथममेकसामायिको रूपा संगण चिय अवरो, थीणद्धीश्रो मुणयन्त्रो । बर्खाकारादिविशेषचिन्ताविकलो निर्देश्यसामान्यमात्रचि पतेसि सो हि इमा, जहक्कमेण मुणेयम्वो ॥२॥ ताऽऽत्मको बोधो नाइन्द्रियार्थावग्रहः। नं। अयं च नैश्चयिक सध्यिणयणे तह से-सएसु थीणद्धितो तु कमसोतु । एकसामायिकः । व्यावहारिकस्त्वान्तौहर्तिकः। स्था०६ ठा। उम्गुरु चउगुरु चरिम, दोसा तहि दिक्विते णमो ॥३॥ कायवि उरमणता, श्रावमणं खाएकटमादीसु। अत्यु ( त्यो) गहण-अर्थावग्रहण-न० । फलनिश्चये, भ० थंमिल्लअपमिनेहा, अंधस्स ण कप्पती दिक्खा ॥४॥ ११ श० ११ उ०। अवहति य महादोतं, दंसणकम्मोदएण थीणदी। अत्थुम-देशी-बघौ, दे० ना.१ वर्ग । एगमणेगय न से, जे काही तं तु श्रावजे"॥५॥ पं० भा०। अत्थुप्पत्ति-अर्थोत्पत्ति-स्त्री० उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः। चौरे, दे० ना.१ वर्ग। स्योत्पत्तिव्यवहार उच्यतेश पनि करार अदक्खु-अहष्ट-त्रि० न००। अवोगदर्शने, सूत्र० १४० २ व्य०१ उ०। अ०३००। अत्थेर-अस्थैर्य-न । अस्थिरत्वे, अष्ट०४ अष्ट। अदक-त्रि० । अनिपुणे, सूत्र. १ श्रु०२१०३ ७०। अत्योप्पायण-अर्थोत्पादन-न०। अव्याऽऽवर्जने, प्रव०२२६द्वा०। अपश्य-त्रि० । पश्यतीति पश्यः, न पश्योऽपश्यः! अन्धे, सूत्र०१ श्रु०२ ० ३ ० । आमाकीत् इत्यस्यापि 'अदक्खु' अत्योभय-अस्तोनक-नान० ब०। स्तोजकरहिते गुणवत्सूत्रे, इति रूपम् । प्रति० । भ०। अनु० "उय व कारो हत्ति अ-कारणाईय थोजया इंति" नत | वै हादिप्रभृतीनामकारणप्रक्षेपास्तोलकाः। तद्रहितमस्तोभ अदक्खुदंसण-अदक्षदर्शन-त्रि असर्वोक्तशासनानुयायिनि, सूत्र १ श्रु०२१०३ उ०। कम् । बृ० १ उ० । विशे। अष्टदर्शन-त्रि०। असर्वोक्तशासनाऽनुयायिनि, सून०१० अथवण-अथर्वण-पुं०। चतुर्थवेदे, "जाव अथवणकुसलेया २ अ०३ उ०। वि होत्था" विपा० १ श्रु०५ अ० । अपश्यकदर्शन-त्रि०। अपश्यकस्यापि सर्वस्याज्युपगतंदअद-अद-०। आश्चर्ये, “धियो यो नः प्रचोदयाऽत्" अदिति शन येनाऽसावपश्यकदर्शनः । स्वतोऽर्वान्दर्शिीन, सूत्रः। श्राश्चर्यरूपस्तत्कारणेऽनिवृत्तत्वात् , ततश्च हे अत् ! " विरामे अदक्खुव दक्खुवाहियं , सद्दहसु अदक्खुदंसणा। व"॥१॥३॥५१॥ इति दस्य तः । सावधाभिप्रायेण गा०व्या हंदिह सुनिरुक्छदसणे, मोहणिजेण कमेण कम्मुणा ११ ख्या। जै० गा० । पतारशः प्रयोगः प्राकृते न प्रयुज्यते । ( अदक्खुवेत्यादि ) पश्यतीति पश्यः, न पश्योऽपश्योभदम-अदएम--पुं० । प्रशस्तयोगत्रये, अहिंसामात्रे च । “एगे न्धः, तेन तुल्यं कार्याकार्याविवेचित्वादपश्यवत् । तस्याssभदंमे" स०१ सम। मन्त्रणं हे अपश्यवत् ! अन्धसरश ! प्रत्यक्तस्यैवैकस्याभदंमकु (को) दंमिम-अदएटकुदाएडम--त्रि०।दएकलन्य द्रव्यं उज्यपगमेन कार्याकार्याननि !, पश्येन सर्वझेन, व्याहतमु. दएम एव । कुद रामेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिमम्, तन्नास्ति यत्र | तं सर्वशागम, श्रद्धस्व प्रमाणीकुरु, प्रत्यकस्यैवैकस्याऽऽभ्युपतत्तथा ।दएमकुदएकाभ्यामगृह्यमाणषव्ये नगरादौ, तत्र दरामो गमेन समस्तव्यवहारविलोपेन इंत! हतोऽसि,पितृनिबन्धनस्याउपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यम् ; कुदएमस्तु-कारणिकानां ऽपिव्यवहारस्याऽसिरिति। तथाऽपश्यकस्याऽपि असर्वस्या:प्रजापराधान्महत्यपराधिनोऽपराधेऽल्पं राजग्राह्य द्रव्यमिति । भ्युपगतं दर्शनं येनासावपश्यकदर्शनः तस्याऽऽमन्त्रणं वाहे "उम्मुकं उक्कर के अदिजं अमेजं अभमप्पवेसं अदंगको अपश्यकदर्शन ! स्वतोऽग्दिर्शी भतांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च इंडिम अधरिमं गणियावरनामजलिय" (पुरीवर्णकः). सन् कार्याकार्याविवेचितयाऽन्धवदभविष्यत् यदि सर्वज्ञान्यु११ श० ११ उ०।ज्ञा० । जंग। कल्प। पगमं नाऽकरिष्यत्। यदि वाऽदको वा अनिपुणो वा यारश स्तादृशो वाऽचक्षुर्दर्शनमस्याऽसावचकुदर्शनः केवलदर्शनः प्रदंतवण-अदन्तवन-त्रि० । दन्तधावनरहिते, अदन्तधावनो मर्वज्ञस्तस्माद्यदवाप्यते हितं तत् श्रद्धस्व । इदमुक्तं जबतिधमा वीरमहापद्मयोस्तीथेऽनुज्ञातः । स्था० ए ०। अनिपुणेन निपुणेन वा सर्वदर्शनोक्तं हितं श्रद्धातव्यम् । यदि भदंभग-अदम्जक- त्रिवचनानुगतवचनविरहिते, व्य०३ उ01 | वा हे अदृष्ट ! हे अर्याग्दर्शन ! दृष्टाऽतीताऽनागतव्यवहितसू१३२ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२६) अदक्खदसण अभिधानराजेन्द्रः। अदत्तादाण श्मपदार्थदर्शिना ययाहनमनिहितमागमः, तं श्रमस्व । हे प्रह- मंतरविधुरवसणमग्गण उस्सवमत्तपमत्तपसुत्तवंचणाऽऽखिदर्शन, अदकदर्शन! ति वा, असबंझोक्तशासनानुयायिन् ! तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वझोक्ते मार्गे श्रद्धानं कुर्विति ता वणघायणपराणि हुयपरिणामतकरजण बहुमयं अकलुणं रात्पर्यार्थः । किमिति सर्वोक्ते मार्ग श्रद्धानमसुमान करोति ये यपुरिसरक्खियं सया सादुगरहणिज्जं पियजणमित्तजणभेनैवमुपदिश्यते । तन्निमित्तमाह-हंदीत्येवं गृहाण । हशब्दो वा- दविप्पीतिकारकं रागदोसबहुखं पुणा य नपूरसमरसंगामक्यालङ्कारे, सुष्टु अतिशयेन निरुद्धमावृतं दर्शन सम्यक अव- डमरकलिकलहवहकरणं मुग्गतिविणिवायवकृणं जवपुनन्नबोधरूपं यस्य सः । केनेत्याह-मोहयतीति मोहनीयम, मिथ्यावर्शनादिकानावरणीयादिकं वा,तेन कृतेन कर्मणा निरुद्धदर्शनः वकरं चिरपरिचियं अणुगयं पुरंत तइयं अधम्मदारं ।। प्राणी सर्वोतं मार्गन कत्ते । अतस्तन्मार्गश्रमानं प्रति चोद्यत हे जम्बूः ! तृतीयं पुनराश्रवद्वाराणां किमदत्तस्य धनादेराइति । सूत्र० श्रु० २ ०२०। दान ग्रहणमदत्तादानम?। 'हर दह' इत्येतो हरणदाहयोः परअदबुन-अपश्यवत-त्रि० । अपश्योऽन्धः, तेन तुल्यं कार्या- प्रवर्तनार्थी शब्दो, हरणदहनपर्यायौ वा छान्दसाविति । तोच कार्याविवेचित्वादपश्यवत् । अन्धसरशे कार्याकार्याननिके, मरणं च मृत्युः, भयं च भीतिरेता एव कलुषं पातक, तेन त्रासुत्र०१ श्रु०२ अ० ३००। सनं त्रासजनकं च रूपं यत्तत्तथा । तच्च तत् तथा (परसंतअदढ-अदृढ-त्रि० । दुर्बले, व्य०४०। प्राचा० । गत्ति) परसत्के धने यो गृहिलोभोरौद्रध्यानान्विता मूछा, स मुलं निबन्धनं यस्यादत्तादानस्य तत्तथा।तश्चेति कर्मधार. अददधिई-अहदधृति-त्रिका धृतिरहिते, निचू०१०। असम- यः। कालश्चार्धरात्रिविषयः,विषमश्च पर्वतादिदुर्गः, तैः संश्रितथे, नि० चू०११०। माश्रितं यत्तत्तथा। ते हि प्रायःतत्कारिभिराधीयत इति। श्रअदण-अदन-न । अद्-प्युट् । नोजने, वृ०१०। होच्छिम्मतण्हपत्थाणपत्थोइमइयं ति ) अधः अधोगती, अअदम्प-प्रदत्त-त्रिका प्राकुलीभूने, वृ०१उ०। विषादीकृते,"तेण च्छिन्नतृष्णानां अत्रुटितवाञ्छानां, यत् प्रस्थानं यात्रा, तत्र प्र स्तोत्री प्रस्ताविका प्रवर्तिकामतिर्बुद्धियस्मिंस्तत्तथा । अकीवि य गिलाणेण ते अदम्या" नि० चू०१० उ० । र्तिकरणमनार्यम; पते व्यक्ते । तथा छिदं प्रवेशद्वारम, अन्तरप्रदत्त( दिम)-अदत्त-त्रि० न० त०। अविताणे, प्रश्न०३प्रा- मवसरः, विधुरमपायः, व्यसनं राजादिदसतापः, एतेषां श्रद्वाधा अदत्तद्रव्यग्रहणरूपे तृतीये आश्रवभेदे, प्रश्न०१ मार्गणम, उत्सवेषु मत्तानां च प्रमत्तानां च प्रसुप्तानां च वचनं आश्र द्वा० । "हिंसामोसमदिमबंभपरिग्गहे " प्रव०१द्वान च प्रतारणम, आक्षेपणं च चित्तव्यग्रताऽऽपादनम , घातनं च अदत्त ( दिप) हारि(ण)-प्रदत्तहारिन्-त्रि० । प्रदत्तमप मारणम्, इति द्वन्द्वः । तत पतत्परत एतनिष्ठोऽनिभृतोऽनुप शान्तः परिणामो यस्यासी छिद्रान्तरविधुरव्यसनमार्गणोत्सहर्ते शीलमस्याऽऽसावदत्तहारी। परद्रव्यापहारके, "जे लसए धमत्तप्रमत्तप्रसुप्तवञ्चनाक्षेपणघातनपरानिभृतपरिणामः । स हो अदत्तहारी, रण सिक्खती से य वियस्स किंचि" सूत्र०१ चासौ तस्करजनः,तस्य बहुमतं यत्तत्तथा ।वाचनान्तरे त्विदमेभु. ३ अ०१ उ०। घं पठ्यते-"ग्दिविसमपावत्यादि "छि विषमपापकं च नित्य अदत्ता (दिमा) दाण-अदत्तादान-न । अदत्तस्य स्वा जिविषमयोः संबन्धीदं पापमित्यर्थः। अन्यदाऽऽहितन्याय मिजीवतीर्थकरगुरुभिरवितीर्णस्याननुज्ञातस्य सचित्ताचि-- प्रायः कर्तुमशक्यामिति भावः। अनिभृतपरिणामसतिष्ठं तस्करसमिश्रभेदस्य वस्तुन आदानं ग्रहणमदत्तादानम् । तच्च वि. जनबहुमतं चेति । अकरुणं निर्दय,राजपुरुषरक्तितम, तैर्निवारितविधोपाधिवशादनेकविधम् । " एगे अदिग्मादाणे" स्था०१ मित्यर्थः। सदा साधुगर्हणीयं, प्रतीतम् । प्रियजनमित्रजनानां ठा० १ उ०। सूत्र० । चौर इति व्यपदेशनिबन्धने, उपा) १ नेदं वियोजनं विप्रीति विप्रियं करोति यत्तत्तथा । रागद्वेषबहु१०। परस्थापहारे , श्राव० ६ अ । श्रा० चू। लं, प्रतीतम् । पुनश्च पुनरपि (उप्पर त्ति) उत्पूरेण प्राचुर्येण यथा च तददत्तादान प्र०३ अधर्मद्वारे यारक १ यन्नाम समरो जनमरकयुक्तो यःसंग्रामो रणः स तत्पुरसमरसंग्रामः, २ यथा च कृतं ३ यत्फलं ददानि ४ ये च कुर्वन्ति ५ शति प. सच ममरं भीत्यापलायनं, कलिकाहश्च राटीकलहो, न तु शभिारैः क्रमेण प्ररूपितं, तथैवेद प्रदर्श्यते रतिकलहः । वधश्चानुशयः, पतेषां करण कारणं यत्तत्तथा । (१) यादृशमदत्तादानस्वरूपं तत्प्रतिपादनम् । दुर्गतिविनिपातवर्द्धनं, प्रतीतम् । भवे संसारे, पुनर्भवान् पुनरु(२) अदत्तादानस्य नामानि । त्पादान् करोतीत्यवं शीतं यत्तत्तथा। चिरं परिचितम,अनुगत(३) ( यथा च कृतं) ये चादत्तादानं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् । मन्युच्चिन्नतयाऽनुवृत्तं, पुरन्तं दुष्टावसानं विपाकदारणत्वात् (४) अदत्तादानं यत्फलं ददाति तनिरूपणम् । तृतीयमधर्मधारं पापोपाय इति ॥ (५) प्राचार्योपाध्यायादिभ्योऽदत्तादाननिरूपणम् । (१) अथ यन्नामेत्यभिधातुमाद(६) लघुस्वकमदत्तं गृढाति । तस्स य नामाणि गाणाणि हंति तीसं । तं जहा-चोरिक (७) तपस्सैन्यादि न कुर्वीत । (१) तत्र या रामदत्तादानस्वरूपं तत्प्रतिपाद १ परहई २ अदत्तं ३ कूरिकम् । परलाभो ५ असंजमो यस्तावदाह - ६ परधणम्पि गेही ७ लोलिका ८ तक्करतणं हतिय जंबू! ततियं च अदिप्मादाणं हरदहमरणजयकबुसता- अवहारो १० हत्यलहत्तणं ११ पावकम्मकरणं १२ तेमणपरमंनिगगिकलो नमूलकालावममसंसियं अहोऽच्चि-| णिको १३ हरणविप्पणासो १४ आदियणा १५ झुंपणा माताहपत्याणपत्योइमश्यं अकित्तिकरं प्रणजं नि धणाणं १६ अप्पनो १७ प्रोवीसो १० मक्खेवो १५ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (x29) अभिधानराजेन्द्रः । अदत्तादाण क्त्रो २० विक्खेवो ? कूडया २२ कुलमसी य२३ कंखा २४ लालप्पणपत्था २५ (असासय) वसणं २६ इच्छा मुच्छाय २७ तरहा गेही य २८ नियइकम्मं 98 अवरोच्छत्तिविय ३० । तस्स एयाणि एवमाईणि नामज्जाणि हुति तीसं अदिएणादाणस्स पात्रकलिकलुसकम्मबहुलस्स अगाई । "तस्सेत्यादि" सुगमम्। तद्यथेत्युपदर्शनार्थः (चोरिक्कं ति) चोर. चोरिका, सैव सैौरिक्यम् १, परस्मात् सकाशात् हतं परहृतम् २, अदत्तम् - अविनीर्णम् ३, (कृत्रिकम ति) क्रूरं चित्तं कुरो वा परिजनो येषामस्ति ते कूरिणस्तैः कृतमनुष्ठितं यत्तत्तथा । कचितु 'कुरुंटुककृतमिति' दृश्यते । तत्र कुरुण्टुकाः काकटुक बीजप्राया अयोग्याः सद्गुणानामिति ४, परलाभः परस्माद् अध्यागमः ५, असंयमः ६, परधने गृद्धिः ७, (लौलिक त्ति) सौल्यम् , तस्करत्वमिति ९, अपहारः १०, ( हत्थलत्तणं ति ) परधनहरण कुत्सितो हस्तो यस्यास्ति स हस्तक्षः, नद्भावो हस्तलत्वम् । पाठान्तरेण'दस्तघुत्वमिति' ११, पापकर्मकरणं १२, (तेणिक्क त्ति ) स्तौनकस्तेयम् १३, हरणेन मोषणेन विप्रणाशः पररूव्यस्य, हरणं न तद् विप्रणाशः १४, ( श्रादियण ति ) आदानं, परधनस्येनि गम्यते १५, लोपेन श्रवच्छेदनं धनानां द्रव्याणां परस्येति ग म्यते १६, अप्रत्ययकारणत्वादप्रत्ययः १७, अवपीमनं परेषामित्यवपीमः १८, आक्षेपः, परद्रव्यस्येति गम्यते १९, केपः परदस्ताद् अत्र्यस्य प्रेरणम् २०, एवं विक्रेपोऽपि २१, कूटता तुलादीनामन्यथात्वम् २२, कुलमधी वा कुलमालिन्यहेतुरिति कृत्वा २३, काका, पररूव्य इति गम्यते २४, (लालप्पणपत्थण त्ति) लालपनस्य गतिलालपनस्य प्रार्थनेव प्रार्थना लालपनप्रार्थना, चौर्य हि कुर्वन् गर्दितलपनानि तदपलापरूपाणि, दीनवचनरूपा णिवा प्रार्थयति च तत्र हि कृते तान्यवश्यं वक्तव्यानि नवन्तीति भावः २५, व्यसनं व्यसनहेतुत्वात् । पाठान्तरेण - " असा - सणाय वसणं " आशंसनाय विनाशाय व्यसनमिति २६, इच्छा च परधनं प्रत्यभिलाषा, मूर्च्छा तत्रैव गाढानिष्वङ्गरूपा, तद्धेतुकत्वाददत्तग्रहणस्येति इच्छा मूर्च्छा तदुच्यते २७, तृ चप्राप्तव्यस्यात्र्ययेच्छा, गुद्धिश्वाप्राप्तस्य प्राप्तिवाञ्छा, तकेतुकं चादत्तादानमिति तृष्णा गृद्धिश्चोच्यत इति २० निकृतेर्मायायाः कर्म निकृतिकर्म २९, अविद्यमानानि परे बामक्कणि षष्टव्यतया यत्र तदपरोक्कम, असमक्कमित्यर्थः । इतिः रूपप्रदर्शने, अपिचेति समुच्चये ३० । इह च कानिचित्पदानि सुगमत्वान्न व्याख्यातानि । ( तस्मत्ति) यस्य स्वरूपं प्रावर्णितं तस्यादत्तादानस्येति संबन्धः । एतान्यनन्तरो दिनानि त्रिशंदिति योगः । पत्रमादिकानि एवंप्रकाराणि वाडनेकानीति सम्बन्धः । अनेकानीति कचिन्न दृश्यते । नामधेयानि नामानि भवन्ति । किं जुतस्य अदत्तादानस्य ?, पापेनापुण्यकर्मरूपेण कलिना च युद्धेन कलुषाणि मलीमसानि यानि कर्माणि मित्रोढादिव्यापाररूपाणितैर्बहुलं प्रचुरं यत्तानि वा बहुलानि बहूनि यत्र तत्तथा, तस्य । ( ३ ) अथ येऽदत्तादानं कुर्वन्ति तानाद तं पुरण करेंतिचोरियं तकरा परदच्वहरा बेया कयकरण - कलक्खा साहसिया लहुस्सगा अतिमद्दिच्छलोनग्गत्या दद्दरओबी का यगिकिया अमिरा अणभंजका जग्गसंधिया रायककारी य विसयनिच्छूढलोकवज्झा उद्दकगाम अदत्तादाण घायकपुरघायक पंयघायक आदी व कतित्थनेया लदहत्थसंपत्ता जूनकरा खंड रक्खर्थ । चोरपुरिस चोरसंधिच्छेया य गंविदा परधणहरण लोमावहारप्रक्खेवी हरुकारकनिम्मदगगूढ चोरगोचारे अस्सचोरकदासिचोरा य एकचोरा य कट्टक संपदायक ओलिंपकसत्यवायकविल कोसीकारका ग निगाह विलुंगा बहुविद्धं नेणिकद्दरणबुद्धी, एते असे य एवमादी परस्स दव्वाहिं जे अविरया ॥ विपुल वनपरिग्गहा य बहवो रायाणी परधणम्मि गिटा सर दब्बे असंतुट्टा परविसए अहिहणंति लुटा परधणस्स कज्जे, चउरंगममत्त बलसमग्गा निच्यिवरजो हजुरूसका हमहमिति दप्पिएहिं सेनेहिं संपरिबुका पनमसगमसू इचकसागरगरूल बूद्दा दिएहिं अणीएहिं उच्छरंता अभिनूय हरति परधणाई | अवरे रणमीसललक्खा संगामं प्रतिवयंति, सण्णबधपरियरनप्पामियचिंधपट्टगहिया - उपहरणा मादिवरवम्मगुंकिया विरुजालिका कवयकया उरसिरहवत्र तोला, पाइयवर फलकरचियपढ़करसरजसखरचावकरकरंचियनिसितसरवरिसवमकरकमुयंतचं मगधारानिवायमग्गे धमंडल संधितच्छलियतत्तिकणगवामकरगाह यखे डगनिम्मज्ञान किट्ठखपरंतकुंततोमर चक गया परनुमुसल लंगल मूललउमभिमिपालसवन्त्रपट्टिमचम्मेघणमोडियमोगर वर फलिहजंतप-त्यहणतो कुवेणी पीढाकलिए इलीपहरणमिलिमिलिंत खिष्पंत विज्जृज्जल विरचितसमप्पहनहत फुमपहरणे महारण संखभेरिवरतूरप उरपपडहाहय निनायगंभीरणंदितपक्खुभियविपुलघोसे हयगय रहजो हतुरियपस रियरयुतमंधकार बहुले कायरनरनयण हिययवाउलकरे विलुलियउक्कडवरमनम किरिमको मलोकुदामाऽऽमोवियपगमपडागच्छिवधयवेजयं तिचामरचतछतं ऽधकारगंभीरे हयहे सिय हत्थि गुलगुलाश्य रहघणघण। इयपाः कहर हराइयाफोयिसीनायकलिय विघुडुकुद्रकंन कय नद्दनीमगज्जिए सयरायहसंतरुसंतकल कलरवे असूणियत्रयणरुदजी मदसणाघरो गाढदढसप्पहार करणुज्जयकरे अमरिसवस तिब्बर कलक निदारितऽच्छिवेरदिडिकुद्धचे डिय तिवली कुडिन भिगुठिकया वधपरिणयनरसहस्सत्रिकम्मवियंनियत्रले वग्गततुरंगर पहावियसमर भडावकिय यज्ञाघव पहार साधितसमूरसवियबाहुजुयल मुक्कट्टहास पुकं तवोझबटुले लगाफलफलगावरण गहियगयत्ररपत्यं तदरियन मखलपरीपरपचग्गजुरू गन्नियनि उसितवरा सिरोसतुरियव्यनिमुहपहतकरिकरविंगियकरे अवइवनिमुद्धनित्रफायिपगलियरुहिरक जूमिकदम चिखलप कुबिदालि For Private Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२७) प्रदत्तादाण अनिधानराजेन्डः। अदत्तादाण यगलितनिल्लेलितंतफुरफुरंतविगझमम्महयविगयगाददिल- घोरसद्दे वेयालुट्ठियविसुखकहकहतपहासतवीहणग-- पहारमुच्छितरुलंतविन्जलविज्ञावकलणे हयजोहनमंततु- निरनिरामे अतिबीजच्चदुनिभगंधदरिसणिज्जे सुसाणे रगउदाममत्तकुंजरपारसंकियजणणिम्मुक्कडिएणदयभ-- वणे सुप्मघरलेणअंतरावणगिरिकंदरविसमसावयसमाकुलेसु गरहवरनसिरकरिकलेवराकिएणपामयपहरण विकिन्ना- वसाहमु किलिस्संता सीतातवसोसियसरीरा दकृच्छविनिनरणमिजागे नचंतकबंधपरे भयंकरवायसपरिलित- स्यातरियनवसंकमदुक्खसंजारवेदणिज्जाणि पावकम्माणि गिममलभमंतगयंऽधकारगंभीरे,वसुवमुहविकंपितन्य पञ्च- संचिणंता दुसजनक्वणपाणभोयण पिवासिया झुंफिया क्खपिनवणं परमरुद्दवीहणगं दुप्पवेसतरगं अजिवामि- किवंता मंसकुणिमकंदमूले जे किंचि कयाहारा नबिग्गति संग्गामसंकर्म पणधणमहंता, अवरे पाइकचारसंघा नप्पुया असरणा अमवीवासं नवेंति , बालसतसंकणीयं सेणावश्चोरवंदपागहिका य अमविदेसफुग्गवासी कालह- - अयसकरा तकराजयकरा कस्स हरामोत्ति अज्ज दव्वं इति रितरत्तपीतमुकिवणेगसयचिंधपट्टबंधा परविसए आभ- समामंतं करेंति, गुज्जं बहुयस्स जणस्स कज्जकरणेसु हणंति सुधाधणस्म कजे,रयणागरसागरं च नम्मीसहस्स-| विग्धकरा मत्तप्पमत्तपमुत्तवीसत्यछिद्दघाती बसणस्तुदरमु मालाऽऽकुलविगयपोतकलकतकलितं पातालकलससह- हरणबुच्ची विगव्व रुहिरमहिया परितत्ति नरवतिमज्जायमस्सवायवसवेगसमिलनचम्ममाणदगरयरयंऽधकारं वरफेण- तिकता सज्जणजणदुग्गछिया सकम्मेहिं पावकम्मकारी अपउरधवलपुलंपुलममुट्ठियाट्टहास मारुयविक्खुल्नमाणपा- सुजपरिणया य दुक्खभागी निच्चाजसदुहमनिब्बुक्ष्मणा इह णियजलमालुप्पलहुलियं तं पि य समंतओ खुनियबुलि- लोके चेव किलिस्संता परदव्बहरा नरा वसणसयमावणा। तखोखुभ्भमाणपक्खलियचलियविपुलजलचक्कवालमहान (तं पुणेत्यादि ) तत् पुनः कुर्वन्ति चौर्य तस्कराः, तदेव चौदीवेगतुरियापूरमाणा गभीरविपुलआवत्तचंचलनममाण ये कुर्वन्तीत्येवंशीलाः तस्कराः परद्रव्यहराः, प्रतीतम, ठेका गुप्पमाणूवनंतपच्चोणियंतपाणियपधावितखरफरुसपयंडवा निपुणाः,कृतकरणा बहुशो विहितचौरानुष्ठानाः, तेच लब्धलउलियसानिमफुटुंतवीचिकबोझसंकुलं महामगरमच्छकच्छ- क्वाश्व अवसरकाः कृतकरणलब्धसकाः, साहसिका धैर्यवन्तः, भोहारगाह तिमिसुसमारसावयसमाहतसमुशायमाणयपुरघो लघुस्यकाश्च तुच्छात्मानः,अतिमहेच्छाश्च सोनग्रस्ताश्चेति समासः। [दहरोवीनगा यत्ति दर्दरेण गझदर्दरण, वचनाटोपेनेत्यर्थः। रपउरं कायरजणहिययकंपण घोरमारसंतं महन्जयं भ अपनीमयन्ति गोपायन्तमात्मस्वरूपं परं विलज्जीकुर्वन्ति ये ते यंकरं पतिलयं उत्तामणगं अणोरपारं अगासं चेव निरवलंब दर्दरापत्रीमिकाः, मुष्णन्ति हि शतात्मानः-तथाविधवचनाकेनप्पाइयपवणधणियणोद्वियउवरुवरितरंगदरियअतिवेगच- पप्रकटितस्वभावं मुग्धजनमिति । अथवा-दर्दरणोपपीमयन्ति वखुपहमोच्चरंतं कत्थगंभीरविनलगज्जियगुंजियनिग्यायग जातमनोबाधं कुर्वन्तीति दर्दरोपपीमिकाः, ते च गृकिं कुर्वन्ती ति गृतिकाः । अभिमुखाः परं मारयन्ति ये तेऽनिमराः । ऋणं रुयनिवतितमुदीहनीहारिदमुच्चतगंजीरधुगधुगंतिसई पमि देयं व्यं भजन्ति न ददति ये ते ऋणनाकाः । भग्नाः पहरुंभंतजक्खरक्खसकृहमपिसायरुसियतज्जायनवसग्ग- सोपिताः सन्धयः विप्रतिपत्तौ संस्था यैस्ते भन्नसन्धिकाः , सहस्ससंकुलं बहुप्पाइयत्तूयं विरचितबालिहोमधूमउवचारदि- ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। राजकुष्टं कोशहरणादिकं कुर्वान्त ये मरुहिरऽञ्चणाकरणपयतजोगपयतचरियं परियंतजुगंऽतका ते तथा । विषयान्मएडब्लात् (निच्छूद्धति) निर्झरिता येते, तथा लोकबाह्या जनबहिष्कृताः, ततः कर्मधारयः । उदुकोहः सकप्पोवमं दुरंतमहानइनइवमहाजीमदरिसणिज्जं दुरणुचरं काश्च घातकाः, होहकाचवा अटव्यादिदाहकाः, प्रामघातकाबिसमप्पवेसं दुक्खुत्तारं दुरामयं लवणसानलपुरणं श्व पुरघातकाश्च पधिघातकाच गृहादिप्रदीपनककारिणः तीर्थअसितासियसमुच्चियगेहिं हत्यतरेकेहिं वाहणेहिं अतिवइ- भेदाश्च तीर्थमोचका इति द्वन्द्वः। लघुहस्तेन हस्तसाघवेन संप्रयुता समुहमके हणंति , गतृण जणस्स पोते परद-| का ये ते । तथा (जूयकरे त्ति) तकराः, खएमरकाःशुल्कबहरा नरा निरणुकंपा, निरवेक्खा गामागरनगरखे- पाला, कोहपाला वा, स्त्रियाः सकाशात स्त्रीमेव चोरयन्ति, इकबडममनदोणपहपट्टणासमणिगमजणवयं ते य धणस स्त्रीरूपावा ये चौरास्ते स्त्रीचौराः,एवं पुरुषचौरका अपि। सन्धि च्छेदाः खात्रखानकाः, एतेषां वन्तः । ततस्ते च प्रन्थिभेदका मिले हणंति, थिरहिययच्छिन्नमज्जा वंदिग्गह गोग्गहा प इति वक्तव्यम् । परधनं हरन्ति येते तथा परधनहारिणः। लोगेएइंति,दारुणमतिनिकिवा णियं हणंति छिंदिति गहसंधि- मान्यवहरन्ति येते सोमावहराः । निःशूकतया भयेन परप्रणानिक्खित्ताणिय हरति, धणधएणदबजायाणि जणवयकु- विनाइयैव मुष्णन्ति येते सोमावहरा उच्यन्ते । प्रातिपन्ति लाएं निग्विणमदी परदन्याहिं जे अविरया , तहेव केई वशीकरणादिना ये ते ततो मुष्णन्ति ते आकेपिणः । एतेषां दप्रदिप्मादाणं गवेसमाणा काझाकालेसु संचरंता चितग दून [दमकारगत्ति हन कुर्वन्ति ये ते हरकारका पागन्त. रेण-"परधणदारलोहावहारवक्वहिंमकारकत्ति" सर्वेऽप्येपजलियसरमदरदक्कक्लियकोबरे रुहिरवितवदणभक्खय तेचौरविशेषाः । निरन्तरं मर्दयन्ति येते निर्मदकाःगूढचौराः खादियपीतमाइणिजमंतजयकरं जंबुयखिक्खियंते घूयकय- प्रसन्नचौराः , गोचौराः, अश्वचारेकाः, दासीचौराश्च प्रतीता। Jain Education Interational Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१ ) अदत्तादाण अभिधानराजेन्द्रः । अदनादा पतेषां द्वन्द्वः। अतस्ते च एकचौरा ये एकाकिनः सन्तो हरन्ती- दायो यस्ते तथा । ततः पूर्वपदेन मह कर्मधारयः । अतस्तैः ति। [श्रोकट्टत्ति ] अपकर्षका ये गेहाद ग्रहणं निष्कासय- सरभसैः सहः ग्वग्चापकरैःनिष्टकोदण्डहस्तैः,धानुष्कैरिन्ति चौराएयाकार्य परगृहाणि मोपयन्ति, चौरपृष्ठबहाया1 संप्र- त्यर्थः । ये कगञ्चिताः कराकृष्टाः मुनिशिना अतिनिशिनाः दायकाश्चौराणां जक्तकादि प्रयच्चन्ति । ( श्रोचिपत्ति) अव- शग वागणास्तेषां यो वर्षबटकरको वृष्टिविम्नागे (मुयंत ति) चिम्पकाचौरविशेषा एव । सार्थघातकाः प्रदीताः। बिलकोली. मुच्यमानः स एव धनस्य मेघम्य चएडवेगानां धागणां निकारकाः परव्यामोहनाय विसर्वरवचनवादिनो, विसर्वरवच- पानः नस्य मार्गो यः स नथा। नत्र 'मंतेत्ति'पाठान्तरं च । नत्र नकारिणो वा । एतेषां इन्द्वः । ते च निग्रहाद्रहणान्निग्राह्य रा- मत्प्रत्ययान्तत्वान्निपातनि संग्रामेऽनिपतन्तीति प्रक्रमः । जादिना गृहीता इत्यर्थः । ते वेते विप्रोपकाश्चेति समासः । तथा अनेकानि धपि च मण्डलामाणि च खङ्गविशेषाः,तथा बहुविधेन (सेणिक्क त्ति) स्तेयेन हरणे बुहियेषां ते.'बहुविह- सन्धिताः क्षेपणायोमीणी उलिता ऊगताःशक्तयश्च त्रि. तेणिक्कहरणबुझीए'। पागन्तरेण-(बहुविधतहाऽवहरणबुद्धि शूलरूपाः, कनकाश्च वाणाः, तथा वामकरगृहीनानि खटत्ति) बहुविधा तथा तेन प्रकारेणापहरणे बुहियेषां ते तथा । कानि च फलकानि, निर्मला निकृष्टाः खङ्गाश्च उज्ज्वलावपते उक्तरूपा,अन्ये चैतेन्यः एवंप्रकारा अदत्तमाददतीति प्रक्र- कोशीकनकरवालाः । तथा प्रहरन्ति प्रहारप्रवृत्तानि कुन्तानि मः। कथंलूतास्ते ?, इत्याह-परस्य व्याये अविरता अनिवृत्ताः॥ च शस्त्रविशेषाः,नोमराश्च वाणविशेषाः, चक्राणि च अराणि, इति ये अदत्तादानं कुर्वन्ति ते उत्ताः ॥ गदाश्च दण्डविशेषाः, परशवश्च कुठाराः, मुशलानि च प्रतीअधुना त एव यथा तत् कुर्वन्ति तदुच्यते-विपुलं बलं सा- तानि, लाङ्गलानि च हसानि,शनानि च,लगुडाश्च प्रतीताः। भिमर्थ्य परिग्रहश्व परिवारो येषां ते तथा। ते च बहवो रा- न्दिपालाश्च शस्त्रविशेषाः । शवलाश्च भल्लाः । पट्टिशाश्चास्त्रजानः परधने गृकाः । श्दमधिकं वाचनान्तरे पदत्रयम् । तथा विशेषाः, चर्मेष्टाश्च चर्मनद्धपापाणाः, घनाश्च मुरविशेषाः,मौ. स्वके व्ये असंतुष्टाः परविषयान् परदेशानभिघ्नन्ति सुन्धाः, टिकाश्च मुष्टिप्रमाणपाषाणाः, मुकराश्च प्रतीताः, वरपरिघाश्च धनस्य कृते इत्यर्थः । चतुर्मिरङ्गेर्विन समाप्तं वा यद्वलं सै- प्रवलार्गलाः , यन्त्रप्रस्तराश्च गोफणादिपाषाणाः, द्रुघणाश्चट्टन्यं तेन समग्रा युक्ता येते तथा । निश्चितैनिश्चयवद्भिर्वरयोधः कराः , तोणाश्च शरधयः, कुवेण्यश्च रूढिगम्याः, पीठानि च सह याकं संग्रामस्तत्र श्रध्ध संजाता येषां ते तथा, ते च ते आसनानीति द्वन्द्वः। एभिःप्रतीताप्रतीतैःप्रहरणविशषैः कलिअहमित्येवं पिताश्च दर्पवन्त इति समासः। तैरेवंविधैः भृत्यैः तो युक्तो यः स तथा । तत्र इलीभिः करवालविशेषैःप्रहरणैश्व पदातिभिः । क्वचिसैन्यैरिति पठ्यते । संपरिवृताः समेताः, तथा (मिलिमिश्रित त्ति) चिकचिकायमानैः (खिप्पंत त्ति) विप्यपद्मशाकटसूचीचक्रसागरगरुमव्यूहानि, तैः । श्ह व्यूहशब्दः प्र- माणैः विद्यतः कणप्रभाया उज्ज्वलाया निर्मलाया विरचिता वित्येकं संवध्यते । तत्र पद्माकारो व्यूहः पद्मव्यूहः, परषामनभि- हिता समा सदृशी प्रभा दीप्तिर्यत्र तत् तथा । तदेवंविधं न. भवनीयसैन्यविन्यासविशेषः । एवमन्येऽपि पश्च । एतै रचि-1 भस्तलं यत्र स तथा; तत्र संग्रामे तथा स्फुटप्रहरणे स्फुटानि तानि यानि तानि तथा तैः। कैः ?, अनकैः सैन्यैः। अथवा-पद्मा- व्यक्तानि प्रहरणानि यत्र स तथा तत्र संग्रामे, तथा महारणस्य दि[हा श्रादिर्येषां गोमूत्रिकाव्यूहादीनां ते तथा तैरुरपलक्षितैः, संबन्धीनि यानि शश्च, नेरीच दुन्दुभिः, वरतूर्य च लोकमती. कैः?, अनीकैः। (उच्छरंत ति) प्रास्तृएवन्त आच्छादयन्तः,परा. तम,तेषां प्रचुराणां पटूनां स्पष्टध्वनीनां पटहानांच पटहकानामानीकानिति गम्यम् । अभिभूय जित्वा, तान्येव हरन्ति, परध- हतानामास्फालितानां निनादेन ध्वनिना गम्भीरेण यह लेन ये ननानीति व्यक्तम् । अपरे सैन्योतेभ्यो नृपेभ्योऽन्ये स्वयं यो- न्दिताः दृष्टाः, अक्षुभिताश्च जीतास्तेषां विपुत्रो विस्तीणों घोषो द्वारो राजानो रणशीर्षे संग्रामशिरसि प्रकृष्ठरणे लब्धं लदयं | यत्र स तथा तत्र । हयगजरथयोधेभ्यः सकाशात् त्वरितं शीयस्ते तथा । संगामं ति' द्वितीया सप्तम्यर्थैतिकृत्वा संग्रामे धं प्रसृतं प्रसरमुपगतं यजो धूली तदेवोद्धततमान्धकारणे अतिपतन्ति स्वयमेव प्रविशन्ति, न सैन्यमेव योध- रमतिशयं प्रवलं तमिस्रं तेन बहुलो यःस तथा तत्र, तथा कायन्ति। किंभूताः?.सन्नद्धाःसन्नहनादिना कृतसन्नाहाः, बद्धःप- तरनराणां नयनयोहदयस्य च (वाउसि त्ति) व्याकुलत्वं क्वोनं रिकरः कवचो यैस्ते तथा । उत्पाटितो गाढबद्धश्चिह्नपटोने- करोतीत्येवंशीलो यः स तथा तत्र । विलुत्रितानि शिप्रादिचीवरात्मको मस्तके यैस्ते तथा। गृहीतान्यायुधानि श- थिलतया चञ्चलानि यान्युत्कटवराण्युनतप्रवराणि मुकुटानि स्त्राणि प्रहरणानि यैस्ते तथा । अथवा-श्रायुधप्रहरणानां ते- मस्तकाभरणविशेषाणि किरीटानि च तान्यव शिखरत्रयांपताप्याक्षेप्येन कृतो विशेषः। ततः सन्नद्धादीनां कर्मधारयः। पूर्वो- नि,कामनानि च कर्णाभरणानि.सुदामानि च नक्वत्रमासाभिक्तमेव विशेषणं प्रपञ्चयन्नाह-'माढी' तनुत्राणविशेषः,तेन घरव- धानाजरणविशेषाः तेषामाटोपः स्फारता सा विद्यते यत्र स मणा च प्रधानतनुत्राणविशेषेणैव गुण्डिar प्रेरिता येते विलुलितोत्कटवरमुकुटकिरीटकुएमलोडुदामाटोषित इति । तथा माढीवरवर्मगुण्डिताः । पाठान्तरण-(वम्मटिवम्मगुडिता) प्रकटा याः पताकाः, नच्छ्रिताश्च ऊतींकृता ये गजगरुमादिध्वाः , तत्र 'गुडा' तनुत्राणविशेष एव अन्यत् तथैव । भाविद्धा परि- वैजयन्त्यश्च विजयसूचिकाः पताका एव चामराणि चत्रन्ति . हिता जालिका लोहकञ्चुको यैस्ते तथा । कवचेन तनुत्राण-1 प्राणि च तेषां सम्बन्धि यदन्धकारं तेन गम्भीरोऽलब्धमध्यो विशेषेणैव कएटकिताः कृतकवचा ये ते तथा। उरसा वक्षसा यः स तथा कर्मधारयः,ततस्तत्रः हयानां यद् हेपितं शब्दविशेसह शिरोमुखा ऊर्द्धमुखा बद्धा यन्त्रिताः कण्ठे गले तोणा- पः, हस्तिनां पद् गुयुगुलायितं शब्दविशेष एव, तथा स्थानां यत् स्तूणीराः शरधयो यैस्ते उरःशिरोमुखबद्धकराठतोणाः । (घणघणाय त्ति) घणघणेत्येवंरूपस्य शब्दस्य करणम्, तथा (पातथा [ पासिय त्ति ] हस्तपाशितानि वरफलकानि प्रधानफ- । कत्ति) पदातीनां यत् (हरहराइय त्ति) हरहरेतिशब्दलकानि यैस्ते तथा । तेषां सत्कोरचितोरणोचितरचनाविशेष करणम्, श्रास्फोटितं च करास्फोटरूपं सिंहनादश्च सिंहस्येव ण परप्रयुक्तपहरणप्रहारप्रतिघाताय कृतः [पहकर त्ति समु-1 शब्दकरणम, (जिलिय त्ति) सरिदा सीत्कारकरणम,विघुष्टं च Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण मन्निधानराजेन्धः। अदत्तादाए विरूघोषकरणं, उत्कृष्ठ नतएनादः, आनन्दमहास्वनिरित्यर्थः । देशा यत्र स तथा । ततः कर्मधारयः, तत्र । तथा नृत्यन्तिककएकृतशम्दश्च, तथाविधो गलरवः, त एव भीमगर्जित वधानि शिरोरहितकलेवराणि प्रचुराणि यत्र सतथा । जयंकरमेषज्वनियंत्र स तया तत्र । एकहेलया हसतां रुषतां वा कल बायसानां [परिवित्तगिक ति] परिबीयमानगृद्धानां यन्मएमसं लकणोरवो यत्र स तथा तत्र । तथा अशूनितेनेषत्शूलीकृतेन व- चक्रवाहं जाम्यतःसंचरतस्तस्य या गया तया यदन्धकारं तेन गदनेन ये रौद्रानीपणास्ते तथा। तथा नीम यथावतीत्येवं दश- म्नीरो यः स तथा।तत्र संग्रामे,अपरे राजानः परधनगृका,म. भैरधरोष्ठौ गाढं दष्टौ यैः,ते तथा। ततः कर्मधारयः।ततस्तेषां जटानां तिपतन्तीतिप्रकृतम्। अथ पूर्वोक्तमेवार्थ संक्किप्ततरेण वाक्येनारसत्वहरणे सुष्ठ प्रहारकरणे उधताःप्रयत्नप्रवृत्ताः करा यत्र स वसवो देवाः, वसुधा च पृथिवी, विकम्पिता यैस्ते तथा ते श्वरातथा तत्र । तथा अमर्षवशेन कोपवशेन तीव्रमत्यर्थे रक्त वाहिते जान इति प्रक्रमः । प्रत्यक्वमिव सावादिवतधर्मयोगात् पितृवनं मिरिते विस्फारिते अतिणी बोचने यत्र स तथा। वैरप्रधाना श्मशानं प्रत्यवपितृवनम (परमरुकवाहणगंति) प्रत्यर्थदारुणं भ. रपिदैररष्टिः, तया वैरहएचा धैरवुया वैरत्नाबेन ये फद्धाश्च- यानकं दुष्प्रवेशतरकंप्रवेष्टुमशक्यं,सामान्यजनस्येति गम्यम्। भ. रिताच तैः । त्रिवली कुटिला वलित्रया वक्रा भ्रकुटिनयनल- तिपतन्ति प्रविशन्ति संग्रामसंकटं संग्रामसगहनं,परधनं परजन्य लाटविकारविशेषता ललाटे यत्र स तथा तत्र । तथा वध (महंत त्ति) इच्छत इति । तथा अपरेराजन्या अन्ये (पाकचोपरिणतानां मारणाभ्यवसायवतां नरसहस्राणां विक्रमेण पुरु रसंघा) पदातिरूपचौरसमूहाः, तथा सेनापतयः किं स्वरूपा, पाकारविशेषेण विजृम्भितं विस्फुरितं बलं शरीरसामर्थ यत्र चौरवृन्दप्रकर्षकाच, तत्प्रवर्तका इत्यर्थः । अटवादेशे यानि दुर्गास तथा तत्र । तधा बझगनुरडैः रथैश्च प्रधाविता वेगेन प्रवृत्ता णि जलस्थलदुर्गरूपाणि तेषु वसन्ति ये ते तथा। काल हरितरये समरभाः संग्रामयोधास्ते तथा । आपतिता योद्धमुद्यताः, तपीतशुक्लाः, पञ्चवर्णा इति यावत् । अनेकशतसंख्याश्चिहपका दशा लाघवप्रहारेण दकताप्रयुक्तघातेन साधिता निर्मिमता हा बद्धा यैस्ते तथा। परविषयानभिघ्नन्ति सुधा शति व्यक्तम् । यैस्ते तथा ( समूरमविय सि) समुच्चूितं हर्षातिरेकादृद्धाकृतं धनस्य कार्य धनकृते इत्यर्थः । तथा रत्नाकरभूतो यः सागरः, तथा तं चातिपत्यानिम्नन्ति, अनस्यापातानिति सम्बन्धः । बाहुयुगलं यत्र तत्तथा , तद्यथा भवतीत्येवं मुक्ताट्टहासाः कृत ऊर्मयो वीचयस्तत्सहस्राणां मालाः पतयस्ताभिराकुलो यः स महाहासध्वनयः। ( पुषकंत त्ति) कुर्वन्तः पृत्कारं कुर्वाणाः, ततः कर्मधारयः । ततस्तेषां यो बोन: कलकसः स बहरो तथा । प्राकुला जमाभावेन व्याकुलितचित्ता ये च तोयपाता: विगतजझयानपात्राः सांयात्रिका: (कलकलंत सि) कलकयत्र स.तथा तत्र । तथा (फलगाधरणगहिय त्ति) स्फाराश्च लायमाना हसबोलं कुर्वाणास्तैः कलितो यः स तथा । अनेनाफलकानि च श्रावरणानि च सन्नाहा गृहीतानि येस्त तथा स्यापेयजलत्वमुक्तम्। अथवा ऊर्मिसहस्रमालानिराकुलोऽति[गयवरपत्थत ति ] गजवरान् रिपुमताजान् प्रार्थयमाना हन्तुमारोढुं वाऽभिलबमाणास्तत्र शक्तास्तच्छीमा बा येते त व्याकुलो यः स तथा । तथा विगतपोतैर्विगतसंबन्धनावोद्भिर था। ततः कर्मधारयः। ततस्ते च ते दृप्तभटस्खलाश्च दतियो कलकलं कुर्वद्भिः कलितो यः स तथा। ततः कर्मधारयः। तथाघपुष्टा इति समासः। तेच ते परस्परप्रलग्नाच, अन्योन्यं यो तम । तथा पातालाः पातालकलशास्तेषां यानि सहस्राणि तर्घातकुमारब्धा इत्यर्थः । ते च ते युद्धगर्विताश्व योधनकलाविज्ञान वशाद्वेगेन यत्सविसं जलधिजबम(रूम्ममाणं ति) उत्पाट्यमानं गर्विता,तेय ते विकोशतवरासिभिः निष्कर्पितवरकरबास,रो तस्य यादकरजस्तोयरेणुस्तदेव रजोऽधकारंधलीतमो यत्र स पेण कोपेन त्वरितं शीघ्रम, अभिमुखमानिमुण्यन प्रहगद्भिश्विनाः तथा तम्। वरः फेनोमिएमीराप्रचुरोधवक्षः (पुसंपुल ति) अनकरिकरा यैस्ते तथा । ते चेति समासः । तेषां [विगिय ति] वरतं यः समुत्थितो जातः स एवाट्टहासो यत्र । वरफेन एव धा म्यगिताः खपिकताः करा यत्र स तथा तत्र । तथा [अवश्टु प्रचुरादिविशेषणोऽट्टहासो यत्रस तथा तम्। मारुतेन विक्कोन्यति अपविकास्तोमरादिना सम्यम्बिकानेगुद्धभिशाः स्फाटि माण पानीयं यत्र स तथा; जलमानानां जलकल्लोलानामुत्पल: ताश्च विदारिता यैः,नेच्यो यत्प्रगलितं रुधिरं तेन कृतो नमो समूहः (हुलिय ति) शीघ्रो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः कर्दमस्तेन चिक्खिल्ला विवीनाः पन्थानो यत्र स तथा योऽतस्तम । अपिचेति समुच्चये।तथा समन्ततःसर्वतः शुभितवातत्र तथा कुकी दारिताः कुकिदारिताः,गलितं रुधिरं स्रवन्ति युप्रभृतिभिर्व्याकुलितं मुखितं तीरभुवि लुचितं (खोक्खुम्नमाणरुनन्ति वा नूमौ लुगन्ति, निम्मेलितानि कुक्तिो बहिष्कृतानि अ. त्ति ) महामत्स्यादिभिर्भृशं व्याकुली क्रियमाणं,प्रस्वसित निर्गत्राणि उदरमध्यावयविशेषा येषां ते तथा। [फरफरतविगल चपर्वतादिस्खलितं.चक्षित स्वस्थानगमनप्रपन,विपुलं विस्ती. ति] फुरफुरायमाणाश्च विकलाश्च विरुन्छियवृत्तयो ये ते । ण, जलचक्रवासंतोयमण्डलं यत्रस तथा। तथा महानवीगैर्गतथा मर्मणि हता मर्महताः, विकृतो गाढो यत्र दत्तः प्रहारो येषां काऽऽदिनिम्नगाजवैः त्वरितं यथा नवतीत्येवमापूर्यमाणो यः स ते तथा। अत एव मूर्छिताःसन्तो नमो लुवन्तः विह्वलाश्च नि तथा । गम्नीरा अझब्धमध्याः, विपुला विस्तीणांश्च ये आवर्मा स्सहानाः ये ते तथा । तथा कुक्किदारितादिपदानां कर्मधारयः। जसप्रमाणस्थानरूणस्तेषु चञ्चलं यथा भवन्तीत्येवं भ्रमन्ति संघरन्ति, गुप्यन्ति व्याकुत्रीजवन्ति, (उप्पतंति) उलन्ति वा ततस्तेषां विज्ञापः शब्दविशेषः करुणा दयाऽऽस्पदं यत्र स तथा ऊर्द्धमुखानि चनन्ति प्रत्यवनिवृत्तानि वाऽधापतितानि पायातन,तथा हता विनाशिना योधा अश्वारोहादयो येषां ते तथा।। नि प्राणिनी चा यत्र स तथा । अथवा जबचकवालति नदीनां तत्र ते वहया संभ्रमन्तस्तुरगाश्च उद्दाममत्तकुजराश्च परि- विशेषणमापूर्यमाणति चावतानामिति । तथा प्रधायिता विग. शतिनजनाश्व भीतजनाः (निम्मुक्कछिन्नध्वय त्ति) निर्मूलाः चिन्नाः तगतयः वरपरुषा प्रतिकर्कशा: प्रचएमाः रोजा व्याकुवितसकेनवो भन्ना दलिता रथवराश्च यत्र स तथा । नष्टशिरोभि- लिला विलालितजलाः स्फुटन्तो विदार्यमाणा ये वीचिरूपाः मिन्नमस्तकैः करिकवरैः दन्तिशरीरैराकीर्णा व्याप्ताः। पतित- कप्लोमाः, न तु वायुरूपाः कल्लोलाः तः सङ्कला यः सत प्रहरणा ध्वस्तायुधाःविकिएनरणा विक्षिनाकारातर्भागातःकर्मधारयोऽतस्तम निथा महामकरमत्स्यकच्छपाइच (चहा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण 1 रति] जलजन्तुविशेषा ते च प्राहतिमिमाराश्च ते । इन्द्रः। तेषां समाहताश्च परस्परेणोपहताः [ समुकायमाणयति ] समुद्धावन्तश्च प्रहाराय समुत्तिष्ठन्तो ये पूराः संघाः घोरा री. कास्ते च प्रचुरा यत्र स तथा तम् । कातरनर हृदय कम्पनमिति प्रतीतम । घोरं रौद्रं यथा भवतीत्येवमारसनं शब्दायमानं महाम यादोम्येकार्थानि [अणोरपारं ति) अनकपारमिष महत्वादनांकपारम. ग्राकाशमय निरालम्बमनहित पतद्भः किञ्चिदालम्बनमवाप्यत इति भावः । श्रौत्पातिक पवनेनोत्पातजनितवायुना [धणिय ति] अत्यर्थे, येन[गोलिय ति ] नोदिताः प्रेरिता उपर्युपरि निरन्तरं तरङ्गाः कोलास्ते, दस इव अतिमोऽतिक्रान्तः शेषयेगं यो वेगस्तेन तृतीयकचचनदर्शना त् । चक्षुःपथे दृष्टे मार्गे [मोच्छुरंतं कत्थइ प्ति ] कचिदेशे गम्भीरं विपुल गर्जितं मेघस्येव ध्वनिर्गुञ्जितं च, गुज्जालक्षणातोयं च निघता गगने व्यन्तरकृतो महाध्वनिः, गुरुकनि पतितं विदादिगुरु द्रम्यनिपातजनितध्वनियंत्र तथा सुदीर्घनिद्वादी महस्वप्रतिरको [ दूरसुवंत ति ] पूरे भूयमासो गम्भीरो धुगधुनित्येवंरूपथ शब्दो यत्र स तथा कर्म धारयः । ततस्तम् । पथि मार्गे [ रुभंत ति ] रुन्धानाः संचरिष्णून मार्ग स्वलयन्तो ये बक्षराक्षसकृष्णाण्डपिशाचल्य न्तरविशेषाः तेषां यत्प्रगर्जितं, उपसर्गसहस्राणि च । पाठान्तरेण - [ रुसियत्तज्जायउवसग्गसहस्स सि ] तत्र यक्षादयश्च रूपिताः, तातोपसर्वाः सलोपः स तथा तम बहूनि व औत्पातिकानि उत्पातान् भूतः प्राप्तो यः स तथा । वाचनान्तरे - उपद्रवेणाभिभूतो यः स उपरूवाभिभूतः । ततः प्रतिपथेत्यादिना कर्मधारयः । अतस्तम् । तथा विरचितो बलिना उपहारेख होमेनामिकारिकया धूमेन उपचारो देवतापूजा - स्ते तथा । दक्षं वितीर्णे रुधिरं यत्र तत्तथा, तच्च तदर्थनाकरणं च देवतापूजनं च तत्र प्रयता ये ते तथा । योगेषु प्रवहखोचितव्यापारेषु प्रयता ये ते तथा । ततो विरचितेत्यादीना कर्मधारयः । अतः सांपात्रिके रिति गम्यते । चरितः सेवि तो यः स तथा तम् । पर्यन्त युगस्य सकलयुगान्तमयुगस्य यो ऽन्तकालः क्षयकाल स्तेन कल्पा कल्पनीया उपमा रौद्रत्वायस्य स तथा दुरन्तं दुरवखानं महानदीनां गङ्गादी नां चेतरासां पतिः प्रभुर्यः स तथा । महाभीमो दृश्यते यः स तथा । कर्मधारयः। अतस्तम् । दुःखेनानुवर्यते सेव्यते यः स तथा तम् । विषमप्रवेशं दुष्प्रवेशं, दुःखोत्तारमिति च प्रतीतम् । दुःखेनाश्रीयत इति दुराश्रयस्तं लवणसलिल पूर्णमिति व्यक्तम् । असिताः कृष्णाः सिताः सितपटाः समुतिषु तान्यसिता ते वीरप्रयेषु कृष्णा एव सितपटाः कियन्ते दूरादनुपलतोरित्यथितेत्युक्तम | [ हत्थतरेकेहि ति] सांयात्रिकयानपात्रेभ्यः सकाशाद्दक्षतरैर्वेगवद्भिरित्यर्थः । वाहनैः प्रवहणैरतिपत्य पूर्वोक्तविशेषकं सागरं प्रविश्य समुद्रमध्ये प्रति गत्वा जनस्य सांगात्रिलोकस्य पोतान् पानपात्राणि परद्रव्यहरले ये निरतुकम्पा निःशुकास्ते तथा । वाचनान्तरे- परद्रव्यहरा नरा निरचुकम्पा [निरवेष शि] परलोकं प्रति निरनिर बेताः ग्रामो जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः श्राकरो या त्पत्तिस्थानम, नकरः श्रकरदायिलोकः, खेटं धूलीप्राकारः, कर्व कुनगरं मण्डवं सर्वतो नासधिवेशान्तरे द्रोणपथं जलस्थलपथोपेतं पतनं जलपथकं स्थलपचयुक्तं चान्नभूमि " :1 ( ५३१ ) अभिधानराजेन्ः | " प्रदत्तादाण रित्यन्ये आश्रमस्तापसविनिवास, निगम जननिवासः, जनपदो देशः। इति द्वन्द्वः । अतस्तांश्च धनसमृद्धान् प्रन्ति । तथा स्थिरहृदयाः तत्रार्थे निश्चलचित्तानिलज्जाश्च ये ते तथा । वन्दिग्रहगोग्रहाँका गृह्णन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा-दारुणमतयः निष्कृपा निर्मान्ति, विन्दन्ति सन्धिमिति सम्मान स्वस्थानन्यस्तानि हरन्ति धनधान्यद्रव्यजातानि धनधान्यरूप्यप्रकाशन् । केषाम इत्याह-जनपदानां लोकगृहाणां निर्घृणम तयः परस्य इन्याद्यैरवित्ता, तथा तथैव पूर्वकप्रकारेण के चिदसादानमवतीर्णे रूव्यं गवेषयन्तः कालाकालयोः सञ्चररास्योचितानुचितकयोः समन्तः, (विग चि) चिनप्रतीता प्रज्वलितानि यहिदीमानि सरसानि इन्ध नादियानिकृत्याकृशानि तथा विषप्रयोजनानि कवराणि मृतशरीराणि यत्र तथा तत्र श्मशाने | क्लिश्यमाना अटवी वासमुपयन्तीति संबन्धः । पुनः । किं जूते, दिनानानिसमा तानिति खदानीतानि काभिस्तास्तथा, तानिय माकिनीभिः शाकिनीनि सञ्चरन्तीभिः भयङ्करं यत्र तं रुधिरलिप्तवदनाकृतखादितपीतमाकिनी भ्रमद्भयङ्करम्। कचिदकत इत्येतस्य स्थाने " अदरंत" इति पठ्यते । तत्र चाभिर्निर्मयभिरिति व्यापम (जंबुपा खियंति) खिक्खीतिशब्दायमानः शृगालः, ततः कर्मधारयः॥ अतस्तत्र । तथा घूककृत घोरशब्दे कौशिक विहित रौद्रवाने, बेतासेभ्यः विकृतपिशाज्य उत्थितं समुपजातं विशब्दान्त रामि कहति स ) कहकहायमानं तिनी हणगं ति ) भयानकम् । अत एव निरनिरामं वा रमणीयं यत्र तथा । तथा तत्र, अतिबोनरसदुरभिगन्धे इति व्यक्तम् । पाठान्तरेण प्रतिदुरभिगन्धबी भत्तदर्शनी ये इति । कस्मिन्नेवंभूते !, ३त्याह श्मशाने पितृवने, तथा बने कामने यानि शून्यगृहाणि प्रतीतानिशामयगृहाणि, अन्तरे प्रामादीनामरुपये, आपणा हट्टाः, गिरिकन्दराश्च गिरिगुहाः। इति इन्द्रः। ताश्च ताः विषमश्यापदकर्मधारयः, अतस्ता का विधा त्याह- वसतिषु वा स्थानेषु वा क्लिश्यन्तः, शीतानपशोभितश रीरा इति व्यक्तम् । तथा दग्धच्छवयः शीतादिभिरुपहतत्वचः, तथा निरयतिर्यग्जव एव यत्सङ्कटं गहनं तत्र यानि दुःखानि निरन्तरदुःखानि तेषां यः सम्नारो बाहुल्यं तेन वेद्यन्ते अनुभूयन्ते यानि तानि तथा। तानि पापकर्माणि संचिन्वन्तो बभ्रन्तः 5 1 पुराणां मोदकादीनामनमाना च मद्यजन्नादीनां भोजनं प्राशनं येषां ते तथा । अत एव पिपासिता जाततृयः, (भुंझिय ति) बुछुविताः कान्ता म्लानीनूताः, मांसं प्रतीतम् ( कुणिमं मि ) कुणपः शवः, कन्दमूलानि प्रतीतानि यत्किञ्चिश्च यथावाप्तवस्तु । इति द्वन्द्वः एतैः कृतो वि हित आहारो नोजनं यैस्ते तथा । उद्विग्ना उद्वेगवन्त उत्ताउ त्सुकाः, अशरणाः अत्राणाः । किम् ?, इत्याह-अवीवासमरण्यवसनमुपयन्ति । किं जूतम?, व्यालशतशङ्कनीयं भुजगादिभिर्भयङ्करमित्यर्थः । तथा अयशस्कराः तस्करा भयङ्कराः, एतानि पदानि व्यक्तानि । कस्य हरामश्चोरयामः इति इदं विवचितम्। अथास्मिन्नहनि इव्यं रिक्थम् इति एवंरूपं, समामन्त्रणं कुर्वन्ति, गुहां रहस्यम्, तथा बहुकस्य जनस्य, कार्य करणेषु प्रयोजनविधानेषु, विकरा अन्तरायकारकाः, मत्तप्रमत्तप्रसुप्तविश्वस्तान बि अवसरे प्रतीक्षा येते तथा पार Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२ ) अभिधानराजेन्द्रः । अदत्तादाण शति व्यक्तम्। किञ्च (विगत्र्व ति) वृका इव नाखर विशेषा इव, (रुदिरम हियं ति) ग्लोहितेच्छवः (परितत्ति) परियन्ति सर्वतो . मन्ति । पुनः कथंभूताः, नरपतिमर्यादामतिक्रान्ता इति प्रतीतम् । सज्जन जनेन विशिएलोकेन, जुगुप्सिता निन्दिता ये ते तथा, स्वकर्मनिर्हेतुभूतैः पापकर्मकारिणः पापानुष्ठायिनः, श्रशुनपरिण ताश्चाशुनपरिणामाः, दुःखनागिन इति प्रतीतम् । (निश्चाविल [ उल] दुहमनिवरमण त्ति) नित्यं सदा प्राविलगं सकालुष्यमाकुलं वा दुःखं प्राणिनां दुःखहेतु, श्रनिर्वृतं स्वास्थ्यरहितं मनो येषां ते तथा । इह लोक पत्र क्लिश्यमाना व्यसनशतसमापन्नाः, पतानि पदानि व्यक्तानीति । (४) अथ तदेवेत्यादिना परधनहरणे फलद्वारमुच्यतेतदेव के परस्स दव्वं गवेऩमारणा गहिया य हता य बद्धा रुका य तुरियं प्रतिधामिया पुरवरं ममपिया चोरग्गहचारभडचामुकरण तेहि य कप्पमप्पहारनिदयाऽऽरक्खियखरफरुसवयणतज्जण गलत्यन उत्थलणादिं विमणा चारगबस पसिया निरयवसहिसरिसं तत्य वि गोम्पिकपहारत्रुम्मण निन्नच्छण कनु यत्रयण भे माग (जय) आभिजूया वित्तविणा मन्त्रिणडंमिखंमत्रणा, उक्कोमाचनपासुमग्गपरायणेहिं गोम्मिगनमेहिं विविहेहिं बंधणेहिं, किं ते हडिनियमवाल रज्जुयकु मंडगवर त्तसोहमं कन्नहत्थंडयवज्जपट्टदामक रिणकोडोहिं असेहि य एवमादिएहिं गोमिक मोगरी दुक्ख समुद्री रोहिं संको मलमोमहिं वति मंदारुकवामहपंजर भूमिघर निरोहकुब - चार की लगज़पचकचिततबंध एवंनाझेण उद्धचल रणबंधणविमाहिय विडियंता अहको मगगाठउर सिरक उन्पूरिय (यंत) फुरंत जर रुगमोमहिं संवद्धाय नीससंता सीसावेद करुयान्झत्रप्पड मंधिबंध एतत्तसलागसूश्याको मातिच्णविमाणाणि य खारकडुयतित्तनावरण जायणकारणसयाणि बहुयाणि पाचियंता, उरयोर्म | दिगाढपण सिंगम सुलिया गलका अकलोहदंड उर उदरवत्यपि परिपीलिया मयियसंचयंगुपंगा आणत्ति किंकरेहिं के य अविराहियवेरिएहिं जम पुरिससंनिभेहिं पहया ते तत्थ मंत्रपुष्पा चडवला वज्जपट्टपोरा इति वा कसब त्तवरतवेत्तपहारततायिंगुषंगा किरणा लवनवम्मत्रण वेयणविमुहियमणाकोट्टिमानयन जुयल संकोमोडिया य कीर्ति, निरुबारा एया अच्छा य एवमादी ओ वेयाओ पावा पार्श्वति, अदिति दिया मट्टा बहुमोहमोहिया परग्मि बुद्धा फासिंदियविमयतिव्वगिष्टा इन्यिगय रूप सदर सगंध इट्टर तिमहियनांगनएहाया तमगा गहिया य जे नरगणा पुणरचि ते कम्मदुब्बिया उवणीया गयकिंकराणं तमिं वधसत्यग पाढयां विलीकारकाणं लंचसयंगरयाणं कूरुकवडमायाणियमिश्रयण पणिहिवचणविमारयाएं बहुविध अनियसय जंप For Private अदत्तादाण काणं परलोक परमुहाणं निरयगतिगामियाणं तेहि य आणतजा (जी) यदंडा तुरियं उग्घाडिया पुरवरेहिं सिंघाडगतियचकचतरमहापहप वेतदंझ उकडले पत्थरपणालियपलिमुतिपादपरिहजाणुकोप्परप्पहारसंजग्गमथितगत्ता हारसम्मकारिणा पायियंगुपंगा कलुगा सुक्कोट्ठकंठगलताबुजिन्ना जायंता पारिणयं विगयजी विद्यासा तदाइता वरागातं पियन लहंति, वज्जपुरिसेहिं धामियंता तत्थ य खरफर सपडघट्टितकू रुग्गहगाढरुडानिस परामट्टज्जकरकुकिजय निवासिया सुरतकरणवीरगडियाविमुकुल कंठेगुणवज्जदूतच्याविन्द मल्लदाममरएन युप्पम से यमायताणेह उन्नुपियकलिगत्ता चुपगुंमि यसरी ररयरेणुभरियकेसा कुसं नगुक्किमुद्धा विसर्ज । त्रियासा घुणंता वज्जपापीया तिलं तिनं चैव ब्रिज्जमाणा सरीरविकचलो हिमोलित्तकागणिमसाणि खायियंता पाना खरकर सएहिं तानिज्जमाएदेहा वातिकनरनारिसंपरिवुडा पिच्छिज्जंता य नागरज ए बज्नेवत्थिया पणिज्जंति लगरमज्जेण किवरणकबुणा श्रत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा बंधुविप्पहीया विपिक्ता दिसो दिसिं मरणजयुव्विग्गा प्राघायदुवार संपाविषा अधरणा मूलग्गविलग्गनिणदेहा तेय तत्य कीरंति, परिकप्पियंगुपंगा उविज्जंति रुक्ख साहिं के कला विमाणा । अवरे चनरंगधणियबद्धा पव्त्रयकडगा पमुच्चते दूरपातयदुविस पपत्थर सहा असे य ग यचलणभक्षण निम्मदिया कीरंति पावकारी अट्ठारसखं किया कीरंति परिहिं । केइ उक्खित्तकणोडनासा उप्पादियनयदसत्रमा जिनिदियांचिया दिएका सिरा पणिज्जंति ब्रिजंतिय अमिणा निव्विसया विष्पहत्य पाया य पमुचंति, जात्र जीवबंधणाय कीरंति के परदव्वहरणबुद्धा कारग्गलीनयलजुयलरुका चारगाए हतमारा सयण त्रिप्पमुक्का मित्तजनिरक्कया निरासा बहुजाधिकारसदलज्जाया अलज्जा अणुवक खुहा परछ सिन एह तए हवे यहुपवित्रमुविद्यत्रिया विहलमलदुम्बला किलंता कामता वाहिया य आमानिनूयगत्ता परूढनइकेममयुरोमा मलमुत्तम्म शियगम्मि खुत्ता तत्थेव मया अकामुका पाए सुकड़िया खाइयाए छूढा, तत्थ य वगयसियान कोलमंजारवंदडामतुरुप क्खिगए विविहमुहसय-विगता कयविडंगा । केइ किमिलाइ कुथितदेहा आणि मध्यमाणासु कथं जंमओ सिपात्रो तुट्ठे जलेण माणा लज्जावणका य हंति सयणस्स विय दीढकाल मया संता पुणो परलोगसमावणा नरगे गच्छेति । निरभिरामे अंगारपत्तिककप्प अच्चत्य सीयवेयाऽऽसा Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण ( ५३३) अभिधान राजेन्द्रः । यणोदिसततदुक्खसयसमनिनूए ततो वि उन्चट्टिया समापुणो विपत्रज्जति तिरियजोणि, तर्हि पि निरोवमं - जवंति वेयणं ते, प्रणंतकाले जति लाम कहिं वि मणुयनावं लहिंति रोगेहिं पिरयगतिगमयतिरीयजवसयस हस्स परिट्टएहि तत्यवि य जवंताऽलारिया नीचकुञ्ज समुप्पमा लोयबज्जा तिरिक्खचूया य अकुसला कामभोगतिसिया जहिं निबंति निरयवत्तणि नवप्पवंचकरणपणोनि पुलो वि संसारवत्तममूले धम्मविवज्जिया अज्जा कूरा मिच्छसुतिपाय हुंति, एगंतदंमरुइलो बेढंता कोसिकार की मो पगं कम्म तंतुघरण बंधणेणं, एवं नरगतिरियनर अमरगमण पेरंतचक्कत्रा जम्मजरामरणकरण गंभीरडुक्खपक्खुभियन रसलिलं संजोगवियोगबीचि चिंतापसंगपसारय वहबंधमहल्लविपुलकबोल कबु विल्लवितझोन कलकलंत - बोलबहुलं माणण फेण तिव्वखिंसणपुलं पुत्रप्पन्यरोगयrपरभव विणिवायफरुनधारसणसमात्रमियकठिएकम्मपत्थर तरंग रिंगंतनिच्च मच्चुभयतोयपङ्कं कसायपायान्नसंकुलं भवसयस हस्सजलसंचयं अतं नव्वेजायं अणोरपारं महब्जयं जयंकरं पश्नवं अपरिमियम हिच्छक समतिवाडवेग उच्चम्ममाणाऽऽसापिवासापायास कामरतिरागदोसबंध बहुविह संकष्पविसदगरयरयंऽधकार मोहमहावत -- भोगजममाणगुप्पमाणुच्छलं तब हुगन्जवासपच्चोणि यत्तपाणिपधावियवसणसमाराण रुचकमारुयसमाहय मणुत्री वाकुलित गतकिलोलमंकुलजनं पमादवदुचंमदुसावयसमा उकायमा एगपूरघोरविद्धं सत्य ऽत्थबहुसं प्रमाणनमंतमच्च परिक्खानिदुतिदियमहामगरतुरियचरियखोक्खुब्भमाणसंताच निच्चय चलंत चवलचंचलत्ताणासरण पुव्वकम्मसंचयोदिष्वज्जवेदिज्जमाल बुहसयाव वागणं जनसमूहं इष्टिरस सायगारवोहारगहियकम्मपडिबद्धसत्तका ज्जमाणनिरयतल दुत्तस एणविसमबहुल अरतिरतिभयविमायसोगमिच्छत्तमेल संक्रमं प्राइसंताणकम्मघणलेस चिक्खिदुत्तारं अमरनरतिरियगतिगमणकुमिलपरिवत्तविपुलवे हिंसाऽलिय प्रदत्तादाण मेहुणपरिग्गहारंभकरण कारावणामायण ग्रहविह अणिटुकम्पपिभिंतगुरुजाराकंतऽग्गज लोघदूर निचोलिज्जमा जम्मग्गनिमग्गदु हत सरीरमोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सातासापरितावणमयं निव्वुड्डुयं करेंति । चउरंतमहंतमवय गं रुदं संसारसागरं अडियअणालवणपतिद्वाणमप्पमेयं चुलसी जोणिसयस हस्सगुवि अणालोकमंधकारं अनंतकालं जाव णिच्चं उत्तत्थमुपाभयस एणसंपन्रत्ता संसारसागरं वसंति उन्निमग्गवासवसहिं, जहिं जहिं आउयं निबंधति पात्रकम्पकारिणो बंधव जणमयमित्तपरिवज्जिया अणि १३४ अदत्तादाण ट्ठा जति । श्रादिज्जदुब्विणीया कुट्टारणामए सेज्जाकुभोयणा असूयणो कुसंहृयण कुप्पमाणकुसंठिया कुरुवा बहुकोमाणमायालोमा बहुमोहा धम्मममसम्मत्तपन्नट्ठा दारिद्दवदवा जिया निचं परकम्पकारिणो जीवपत्थर हिया किवा परिमितार्कका दुक्खलद्धाहारा अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरा परस्त पच्छंता रिद्धिसकार भोयणविसेससमुदयविहिं निदंता अप्पकं, कयंतं च परिवयंता, वह य पुरे कडाई कम्माई पागाईं विमणसो सोएण मज्ज माणा परिच्या हुंति, सत्तपरिवज्जिया य ठोभा सिप्पकल्लासमयसत्थपरिवज्जिया जहाजायपसुच्या अवियत्ता निच्चं नीयकम्मोव त्रिलोकुछ ज्जा मोहमणोरह निरासबहुना सापासपमिवरूपाणा अत्योप्पायलकामसोक्खे य सोयसारे हुतिं । फलवंतगाय सुट्ठ अवि नज्जच्चंता तद्दिवसृज्जुतकम्प यदुक्ख संवियासित्यपिंडसंचयपरा खीणदव्वसाराणिच्चं अधएको सपरिभोगविवज्जिया रहियकामभोगपरिभोग सव्व सोक्खा पर सिरिभोगोवभोग निस्सामगणापरायणा वरागा अकामिकाए विऐियंति दुक्खं, सुहं व व्वुितिं नवलंनंति, त्र्यंतविपुल दुक्खसयसंपत्ति परदव्ह जे विरया । एसो सो अदिष्मणदाणसफल विवागो इहलोए परसोए अप्पमुद्दो बहुदुक्खो महन्नयो बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो अमाओ वाससहस्सेहिं मुञ्चति न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो ति एमासु नायकुलनंदणो महष्पा जिलो उबवीरनामधेयो कसीयं अदिपादास फल विवागं, एव तं ततियं पित्रदिएणादाणं हरदहमरणजय कबुमतासण्परसंतिकगि झोजमुलं, एवं जात्र चिरपरिगयम गयं पुरतं ततियं अहम्मदारं सम्मत्त तिमि । ( तदेवेत्यादि ) तथैव यथापूर्वमभिहिताः केचित्केचन, परस्य द्रव्यं गवेषयन्त इति प्रतीतम् । गृह ताश्च राजपुरुषैः, हताश्च य घादिभिः रुषाश्च रज्ज्वादिभिः संयमि, चारकादिनिरुद्धाश्च (तुरियं ति) त्वरितं शीघ्र श्रतिघाटिता भ्रामिता श्र तिवर्तिता वा भ्रमिता एव पुरुवरं नगरं समर्पिता ढौकिताः, चौरम्राहाश्च चारभटाश्च चाटुकाराश्च ये ते तथा । तैश्व चौरग्राहचारभटचाटुकारैः; चारकवसतिं प्रवेशिता इति सम्बन्धः । कर्ष महाराश्च लकुटाकारवलितच वरैस्तामनाः, निर्दया निष्करुणा ये आरकिकास्तेषां संबन्धीनि यानि खरपरुषवचनानि अतिकर्कशभणितानि तर्जनानि च वचनविशेषाः ( गलस्थल त्ति ) गलग्रहणं, तथा (उत्थलण ति ) अपवर्तना, अपप्रेरणा इत्यर्थः । तास्तथा, तानि चेति पदचतुष्यस्य द्वन्द्वः । ताभिः विमनसो विपचेतसः सन्तः चारकवसतिं गुप्तिगृहं प्रवेशिताः । किं भूताम् ?, निरयवमतिसदृशामिति व्यक्तम् । तत्रापि चारकसनौ, ( गोम्मिक त्ति ) गौल्मिकस्य गुप्तिपालस्य संबन्धिनो ये प्रहारा घाताः (डुम्मण त्ति ) दवनानि उपतापानि, निर्भत्सनानि For Private Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३४) अदत्तादाणा अभिधानराजेन्द्रः। अदत्तादाण आक्रोशविशेषाः कटुकवचनानि च कटकवचनी भीषणकानि तथा । ( मत्थंत त्ति ) मश्यमान हृदयं येषां ते तथा । इह च भयजन्ना न, तरमि नूता येते तथा । पागन्तरण-पच्यो यद् । थकारस्य छकारादेशश्छान्दसत्वात् । तथा संचूर्णिताङ्गोभयं तेनानिनुता येते तथा । आक्तिप्तनिवसना आकृष्टपरिधा- पालाश्चेति समासः । आइप्तिकिङ्करैः यथाऽऽदेशकारिनिः, किनवस्त्राः, मलिने दमिखाएमरूपं वसनं वस्त्रं येषां ते तथा । उ- कुर्वाणैः । केचित केचन, आविराधिता पवाउनपराद्धा एव, वेस्कोचालञ्चयो व्यबहुत्वेतरत्वादिमिर्लोके प्रतीतजेदयोः पार्था- रिका ये ते तथा तैः, यमपुरुषसन्निभैः, प्रहता इति प्रकटमाते दुगुप्तिगतनरसमीपाद्,उन्मार्गणं याचन, तत्परायणास्तनिष्ठा ये अदत्तहारिणः । तत्र चरकगर्ने मन्दपुण्या निर्भाग्याः, चमवेदना त तथा,ते, गाल्मिकभटैः कर्तृभिः, विविधैबन्धनैः करणभूतबध्य- चपेटा, चपट्टः चर्मविशेषपट्टिका, पोरा इति लोहकुशीम्त इति संबन्धः। [किंते ति तद्यथा-हिडि ति] काठविशेषः, विशेषः, कषश्चर्मयटिका, सत्ताकंच, वरत्राचममयी महारज्जा, निगमान मोहमयानि,बालरज्जुका गवादिवालमयी रज्जुः,कुद- वेत्रो जलवंशः, एभिये प्रहारास्तेषां यानि शतानि तेस्ताएमकं काष्टमयं प्रान्ते रज_पाशं,वरत्रा चर्यमयी महारज्जः, बो- डितान्यापाङ्गानि येषां ते तथा, कृपणाः दुस्थाः, सम्बमानइसङ्कला प्रतीता,हस्ताण्डकं लोहादिमयं हस्तयन्त्रणं, वध्यपह- वर्माणि यानि व्रणानि क्वतानि, तेषु या वेदना पीमा, तया विमुश्चर्मपट्टिका,दामक रज्जुमयपादसंयमनं,निष्कोटमंच बन्धनवि- खीकृतं चौर्याद्विराजितं मनो येषां ते तथा । धनकुट्टनेन धनशेषः। इति द्वन्द्वः। ततम्तैरन्यैश्चोक्तव्यतिरिक्तैरेवमादिकरेवंप्रका- तामनेन निवृत्तं घनकुट्टिमम, तेन निगमयुगलेन प्रतीतेन, संकोरंगील्मकनाएमोपकरणगाल्मिकपरिच्छद विशेषैः दुःखसमुदी- टिताः सहोचिताः, मोटिताच जम्नाङ्गा, ये ते तथा । ते चक्रियरणैरसुखप्रवर्तकः । तथा संकोचना गात्रसङ्कोचनम, मोटना च | न्ते विधीयन्ते, प्राज्ञप्तिकिङ्करैरीत प्रकृतम् । किं भूताः ,निरुगात्रभजना, ताभ्याम; किम?, इत्याह-बध्यन्ते । के ?, इत्याह- धारा निरुरूपुरीयोत्सर्गाः, अविद्यमानसम्बरणा नवचनोच्चामन्दपुण्याः। तथा संपुटं काष्ठयन्त्रं, कपाटं प्रतीतम् । लोहपजरे रणा वा; पता अन्याश्च एवमादिका पवंप्रकाराः वेदनाः पापा: नूमिगृहे च यो निरांधः प्रवेशनं स तथा। कूपोऽन्धकृपादिः, चा. पापफनूताः , पापकारिणो वा प्राप्नुवन्ति । अदान्तेन्द्रिया, रको गुप्तिगृहं, कीझकाः प्रतीताः, यूपो युगं, चक्रं रथाङ्गं वृत्तिवशेन विषयपारतव्यण ऋताः पीमिता वशार्ताः, बहुमोबिततबन्धनं प्रतर्दितवाहुजङ्घाशिरसः संयन्त्रणम्, [ खंभाले- हमोहिताः, परधने लुब्धा इति प्रतीतम् । स्पर्शनेन्द्रियविषजति ] स्तम्भागलनं, स्तम्नारगनमित्यर्थः । उर्फ चरणस्य य स्नीकलेवरादी, तानमत्यर्थ, गृहा श्रन्युपपन्ना ये ते तथा । यद्वन्ध तत्तथा । एतेषां द्वन्द्वः । तत एभिर्या विधर्मणाः स्त्रीगता ये रूपशब्दरसगन्धास्तेषु इटानिमता या रतिः, तथा कदर्थनास्तास्तथा, ताभिश्च [विहमियतं ति] बिहेडयम ना नोगत एव महितो वाञ्छितो यः स्त्रीभोगो निधुवनं , तेन या वध्यमानाः, संकोटिता मोटिताः क्रियन्त ति सम्बन्धः। अधः तृष्णा आकार, तयां अर्दिता बाधिता येते तथा । ते च कोटकन कोटाया प्रीबायाः अधोनयनेन, गाद वाढं, उरसि धनेन तष्यतीति धनतोषकाः, गृहीताश्च राजपुरवरिति गम्यम् । हृदये , शिरसि च मस्तके, ये बझास्ते तथा । ते च ऊर्द्ध पूरिताः । ये केचन नरगणाः चौरनरसमूहाः,(पुणरवि ति) एकदा ते गौश्वासपूरितार्द्धकायाः , उद्ध्वा स्थिताः, धृल्या पारिताः। पाग- ल्मिकनराणां समर्पिता: तैश्च विविधबन्धनबहाः क्रियन्त इत्युक्तन्तर-[ उम्परियंतत्ति कई परितान्त्रा उर्द्धगतात्राः, स्फुरदुरः- म, ततः तेभ्यः सकाशात् पुनरपिते कर्मदुर्विदग्धाः, कर्मपापक्रिकण्टकाच,कम्पमानवकस्थताः, इति द्वन्द्वः। तेणं सतां यन्मोटनं यासुविषये फल परिझानं प्रति विज्ञाः, उपनीताः दौकिताः। राजमर्दन,आम ना वा,विपर्यस्तीकरणं वा, तेतथा ।ताभ्यां विहेड्य- किङ्कराणां,किंविधानाम ?,(तेसिं त्ति) ये निर्दयादिधर्मयुक्तास्तेमाना इति प्रकृतम् । अथवा-स्फुरदुरःकएटका श्वप्रथमाबहुव- षाम, तथा वधशास्त्रकपारकानां इति व्यक्तम् । विन नहीकारचनलोपो दृश्यः। ततश्चामोटना मनाज्यामित्येतदुत्तरत्रयोज्य- काणां तिथिट्टपोखकर्तणां विलोकनाकारकाणां घा,ल श्चाशतग्रा. ते। तथा च बहाः सन्तः निःश्वसन्तो निःश्वासान्धिमुश्चन्तः, हकाणांतत्र लञ्चा लत्कोचाविशेषः। तथा कूटं मानादीनामन्यथाशीर्षावटनं च वरत्रादिना शिरोवेटनं, [उहयाल त्ति] कर्वोर्ज- करणं,कपट वेषभाषावैपरीत्यकरणं,माया प्रतारणबुकिः,निकृतिक्योरो दारणं,ज्वाल। वा ज्वानं, यः स तथा सच | पाना चश्चन क्रिया, तयारी प्रच्छादनार्थ माया क्रियेव, पतासां यदाचरन्तरण-[उरुयावल त्ति] ऊरुकयोरावलनं करुकावलः । वपम्- ण प्रणिधिना एकाग्रचितप्रधानन्यवचनं, प्रणिधीनां वागढपुरुकानां काष्टयन्त्रविशेषाणां,सब्धिषु जानुकूर्परादिषु, बन्धनं वप- पाणां यश्चनं तच, तत्र विशारदाः पएिकता येते तथा । तेषां बहुमकसन्धिबन्धनं, तश्च तप्तानां शनाकानां कीलरूपाणां,सनीनां विधायीकशत जल्पकानां,परलोकपर मुखाना,निरयगतिगालक्षणतीक्ष्णाग्राणां,यान्याकुट्टनानि कुट्टनेनले प्रवेशनानि, तानि मिकानामिति व्यक्तम् । तैश्च राजकिङ्करैः,आझममादिष्टं, जातेदुतथा तानि चेति छन्दः। तानि प्राप्यमाणा ति संबन्धः । त- टानग्रहविषयमाचरितं,दरामश्च प्रतीतः,जीतदएमो वा रूपदरामो, वाणानं च बास्या काठस्येव, विमाननानि च कदर्धनानि, तानि जीवदामो वा जीवितनिग्रहलकणो , ये ते तथा । स्वरितं च तथा काराणि तिल काराणि,कटुकानि मरीचादनि, तिक्तानि प्रमुढाटिताः प्रकाशिताः,परवर शृङ्गाटिकादिपु, तत्र गृहाटक निम्बादानि , यत् [ नावण ति] तस्य दानं तदादि यातना- मिहाटकाकारं त्रिकोणस्थानमित्यर्थः । त्रिकं रथ्यात्रयमीलनकारणशतानि कदर्थनाहेतुशतानि, तानि बढ़कानि प्राप्यमाणाः। नस्थानम,चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीलनस्थानम,चन्चरमनकरथ्यातथा उरसि वकसि, (घामि त्ति ) महाकाष्ठं, तस्या दत्ताया पतनस्थानम, चतर्मुख देवछात्रकादि, महापथो राजमार्गः,पन्था वितायाः, निवेशिताया इत्यर्थः । यसाढप्रेरणं तेनास्थिकानि सामान्यमार्ग, फिविधाःसन्तः प्रकाशिताः?, प्रत्याह-चत्रदएमा हढानि संभग्नानि [सपांसुलग त्ति सपा स्थानि येषां ते लकुटः, काष्ठं, एः, प्रस्तरश्च, प्रसिद्धाः। (पणालि त्ति) प्रकृया तथा । गन्न इव वभिशमिव घातकत्वेन यः स गनः, सचासो | नाली शरीरप्रमाणादातरा याटः, (पणोभित्ति) प्रणोदितो जा. कालकलाहदगमश्च कालायसर्याएः, तेन नरमि बकसि, नदरे | तदएर, माष्टित्ता पाद पाणिवा जानुकपरं चतान्यपिप्रसिहाच जर च, वस्ती व शुह्यदेशे, पृष्टी व पृष्ठ, परिवासिता येते निपनिय प्रहारास्तैः संभग्नान्यामर्दितानि मार्यतानि विलोमिता Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३५ ) अभिधान राजेन्द्रः । अदत्तादाण निगात्राणि येषां ते तथा । श्रष्टादश कर्मकारणाः- अष्टादश चौरम सुतिहेतवः । तत्र चौरस्य तत्प्रसुतीनां च लक्षणमिदम् "चारः १ चौरापको २ मन्त्र), ३ दशः ४ काणकक्रयी । । अन्नदः ६ स्थानदश्चैव, चारः सप्तविधः स्मृतः ॥ ९ ॥ अत्र काणककवी बहुमूल्य राहतं काण हीनं कृत्वा क्रीणातीत्येवंशीलः । " "भलनं १ कुशलं २ तर्जा ३, राजनागो ४ ऽवलोकनम् ५ । मार्गदर्शनं ६ शय्या ७, पदभङ्गस्तथैव च ॥ १ ॥ विश्रामः १ पादपतन २-मासनं ११ गोपनं तथा १२ । खएकस्य खादनं चैत्र १३, तथाऽन्यन्मोहराजिकम् १४ ॥ २ ॥ पद्या १५- न्यु २६-दक १७ रज्जून, १८ प्रदानं ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रसूतयो ज्ञेयाः, अष्टादश मनीषिभिः " ॥ ३ ॥ तत्र भलनम् न भेतव्यं भवताऽहमेव त्वद्विषये नलिष्यामीत्यादिवाक्यैश्चौर्यविषयं प्रोत्साहनम् १। कुशलम् - मिलितानां सुखदुखतात २ हस्तादिनाची प्रतिपाद करणम्। राजगीराज भाग्यद्रव्यापहः । वलोकनम्-हर चौराणामुपेक्काड्या दर्शनम् ५ | अमार्गदर्शनम चौरमार्गप्रच्छकानां मार्गीन्तरकथनेन तदपज्ञानम् ६। शय्या-शयनीयसर्मपणादि ७ पदनङ्गः पश्चाश्चतुष्पदपनारादिद्वारेण च । विश्रामः-स्वगृ ह एव वासकाद्यनुज्ञा । पादपतनम् प्रणामादिगौरवम् १०। आसनम्-विप्ररदानम् ११ । गोपनम् - बारापहृत्रम् १२ । खएखादनम-मण्डका दिनक्तप्रयोगः १३ । मोहराजिके बोकप्रसिकम १४ । प्रदानमिति प्रयमा मजनितश्रमापनादितत्वेन पादेभ्यो हितं पद्यमुष्णजलतैलादि तस्य १५, पाकाद्यर्थे चाग्नेः १६, पानाद्यर्थे च शीतोदकस्य १७, चौराहुनचतुष्यदादिवन्ध १० प्रदान वितरण" नपूर्वकं पति सर्वत्र योज्यम अज्ञानपूर्वकस्य निरपराधत्वादिति । पतिराहा करेरि ति प्रकृतम् । करुणाः, शुष्कोष्ठकण्ठगतालुजिह्वाः, याचमानाः पानीयम्, विगतजीविताशाः, तृष्णार्दिताः, वराका इति स्फुटम् । (संपिय) तदपि पानीयमपिन अनन्ते वयेषु नियुक्ता ये तैर्वाभ्यमानाः प्रेर्यमाणाः । तत्र च धारुने, पुरुषा:- ते वध्य पुरुषाः स्पर्धक विनो यः पटको सिकिमकः तेन प्रार्थ पृष्ठदेशे घट्टिताः प्रेरिता ये ते तथा । कूरग्रहः कटिग्रहः तेन च गाढरुर्निसृष्टमत्यर्थे परामृष्टाः गृहीता ये ते तथा । ततः कर्मधारक यानां सम्बन्धि यत् करकुटीयुगं वस्त्रविशेषयुगलं तत्तथा, तन्निवसिताः परिदिताः । पाठान्तरे-वधाश्च करकुट्योहस्तलक्षणः, तयोः युगं युगतं, निनसिताश्च ये ते तथा । सुरकुसुमविचितं मुकुलं चिकलिसंकर गुरगुणं मित्यर्थः । बभ्यदूत इव वध्यदूतः बद्धचिह्नमित्यर्थः । श्राविद्धं परिहितं माध्यदाकुसुममात्रा, येषां ते तथा, मरणभयादुत्पन्नो यः स्वदः तेनायतमायाम यथा भवतीतिस्तानी जान चाहतानि गात्राणि येषां ते तथा चूनाङ्कारादीनां गुणितं शरीरं, कुसुमरजसा वातोत्खातेन रेणुना च धूड़ीरूपेण भरिताश्च नृताः केशा येषां ते तथा । कुसुम्भकेन रागविशेषेण मुनि , ताशा इति प्रतीतम् । घूर्णमानाः, जयविकत्वात् ! वध्याश्च हतव्याः प्राणप्रीताश्च च्वासादिप्राणप्रियाः, प्राणपीता वा नक्कि तप्राणा ये ते तथा । पाठान्तरण - ( वेज्कायणभीयत्ति ) वध अदत्तादाण केन्यो जीता इत्यर्थः 'तिनं तिनं विजमाणा' इति व्यक्तम | शरीराद्विकृतानि वनानिकाम सानि णखण्डपिशितानि तानि तथा खाद्यमानाः पापाः पानकोशकवशेष स्फुटितवंशशतैः ताड्यमानदेहाः, वातिकनरनारसिंपरिवृताः वातो येषामस्ति ते वातिकाः, वातिका श्व वातिकाः, अयन्त्रिता इत्यर्थः । तैर्नरैनार। निश्च समन्तात्परिवृता ये ते तथा । प्रेक्ष्यमाणाश्च नागरजनेनेति व्यक्तम् । बध्यनेपथ्यं संजातं येषां ते वध्यनेपथ्यताः प्रणीयन्ते नीयन्ते नगरमध्येन सन्निवेशमध्यभागेन, कृपणानां मध्ये करुणाः कृपणकरुणाः, श्रत्यन्तकरुणा इत्यर्थः। भत्राणाः, अनर्थप्रतिघातकाभावात् । अशरणाः, अर्थप्रापकाजावात् । अनाथाः, योगकेमकारिविरहितत्वान् । अबान्धवाः, बान्धवानामनर्थकत्वात्। बन्धुविप्रहीणाः बान्धवैः परित्यक्तत्वात् । विप्रेकमाणाः पश्यन्तः (दिलो दिसं ति) एकस्या दिशो ऽसां दिशं पुनस्तया अन्यां दिशमित्यर्थः । मरणभयेनाद्विग्ना ये ते तथा । ( आघायण त्ति) आघातनं च वध्यचूमिमण्डलस्य प्रतिद्वारम् । द्वारमेव संप्रापिता नीता ये ते तथा । अन्याः शूलाग्रे शूलकान्ते विनोऽवस्थितो भिन्नो विदारितो देहो येषां ते तथा । ते च तत्र आघातने, क्रियन्ते विधीयन्ते । तथा परिकल्पिताझोपाङ्गाः निनावयवाः उम्म्यन्ते वृक्षशाखाभिः । केचितू करुणानि, वचनानीति गम्यन्तेः विलपन्त इति । तथा अपरे चतुर्ध्वङ्गेषु दस्तपादलक्षणेषु ( धणियं ) गाढं बद्धा ये ते तथा पर्वतका नृगोः प्रमुच्यन्ते विप्यन्ते दूरात्पाता पतनं य, बहुविषमस्तरेषु पन्ताखमपाषाणेषु सहन्ते ये ते तथा । तथाऽन्ये वाऽपरे गजचरणमलनेन निर्मर्दिता दलिता ये ते तथा ते क्रियन्ते कैः प्रत्याद-मुरुपनि कुठारैः। तीतेर्नात्यन्तं वेदनोत्पद्यत इति विशेषणमिति । तथा केचित् अम्बे, उरिपनासाधनाणाः, उत्पाटितनयनदशनवृषणा इति प्रतीतम् । जिह्वा रसना, आचिता भाकृष्टा, विन्नौ कर्णे, शिरश्च, नयनाद्याः येषां ते तथा । प्रण। यन्ते, आघातस्थानमिति गम्यते । ब्रिद्यन्ते च खण्ड्यन्ते, असिना खड्ड्रेन, तथा निर्विषया देशांद् निष्कासिताः, छिन्नहस्तपादाय प्रमुच्यन्ते राजकिस्त्यज्यन्ते पाद देशान्निष्कास्यन्त इति भावः । तथा यावज्जीवबन्धनाश्च क्रियन्ते, केचिदपरे, के ?, इत्याह-परद्रव्यहरणमुग्धा इति प्रतीतम् काराया चारक परिघेन निगम निपति ये ते तथा । ते क ?, इत्याह -[ चारगाए त्ति ] चारके गुप्ता, किं विधाः सन्तः इत्याह- हतसारा अपहृतव्याः, स्वजन विप्रमुक्ता मित्रजननिराकृता निराशाचेति प्रतीत बहुजनाधिक्कारश ब्देन लज्जायिताः प्राप्त लज्जाः ये ते तथा । अलज्जा विगतलज्जाः, अनुवरूक्षुधा सततनुकया, प्रारब्धाभिनृता अपराद्धा वा ये ते तथा । शीतोष्ण तृष्णा वेदनया दुर्घटया पुराच्छादनया, घट्टिताः स्पृष्टा ये ते तथा विचर्ण मुखं विरूपा च विः शरीरत्वक, ये ते विवर्णमुखविच्छावकाः । ततोऽनुवद्धेत्यादिपदानां कर्मधारयः तथा विना अर्थानामा श्वासमर्था ये ते तथा क्लान्ता नानाः, तथा कासमाना रोगावशेषात्कुत्सितशब्दं कुर्वाणाः, व्याधिताश्च सज्जातकुष्ठादिरोगाः, आमेनापक्करसंनानिनूतानि गात्राएयङ्गानि येषां ते तथा । प्ररूदानि पितानि वृद्धत्वनासंस्काराद् नखकेशरमधुरोमाणि Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३६) अदत्तादाण अभिधानराजेन्सः। अदत्तादाण वेषां ते तथा। तत्र केशाः शिरोजाः, श्मभूणि कूर्चरोमाणि,शेषा- सलिलं यत्र स तथा तम । संयोगवियोगा एव बीचयस्तरका णि तु रोमाणीति । (मलमुत्तम्मित्ति)पुरीषमूत्र निजके,(खुसत्ति) यत्र स तथा । चिन्ताप्रसङ्गः चिन्तासातत्यं, तदेव प्रस्तं प्रसरो निमना,तत्रैव चारकबन्धने मृताः,अकामुकाःमरणेऽननिलाषा, यस्य स तथा । वधा हननानि, बन्धाः संयमनानि, तान्येवमततश्च बद्धा पादयोराकृष्टाः , स्वातिकायां [बूढ त्ति ] किप्ताः, हान्तो दीर्घतया, विपुलाइच विस्तीर्णतया, कम्बोसा महोर्मतत्र तु खातिकायां, वृकशुनकमासकोममार्जारवृन्दस्य संदंश- यो यत्र स तथा; करुणविज्ञपिते लोभ एव कलकलायमानो यो कतुएडैः पक्तिगणस्य च विविधमुखाशतैर्विसुप्तानि गात्राणि येषां बोलो ध्वनिः स बहुलो यत्र स तथा । ततः संयोगादिपदानां ते तथा । कृता विहिता वृकादिनिरव [विहंग त्ति विभागाः, कर्मधारयः।अतस्तम् । अवमाननमेवापूजनमेव,फेनो यत्र सतथा। खरामशः कृता इत्यर्थः । केचिदन्ये-[किमिणा सि] कृमिव- तीनखिंसनं वाऽत्यर्थनिन्दा पुनपुनप्रनुता अनवरतोनृता या न्तश्च, कुथितदेहा इति प्रतीतम् । अनिष्टवचनैः शप्यमाना रोगवेद नास्ताश्च परिभवचिनिपातश्च परानिनवसम्पर्कः, परु आक्रोश्यमानाः । कथम, श्त्याह-सुष्ठ कृतं, ततः कदर्थनमि- षधर्षणानि च निष्ठरवचननिर्भत्सितानि,समापतितानि समापति गम्यते । यदिति यस्मात् कवर्धनास्मृतः पाप इति । अथवा | नानि, येत्यस्तानि तथा तानि च तानि कग्निानि कर्कशानि. सुष्ठ कृतं सुष्छु सम्पन्न, यन्मृत एष पाप इति । तथा तुष्टेन जने- कुनेंदानीत्यर्थः। कर्माणि च ज्ञानावरणादीनि, क्रियावा,ये प्रस्तन हन्यमानाः , सज्जामापयन्ति गापयन्तीति लज्जापनास्त एव राः पाषाणाः, तैः कृत्वा तरङ्गरिङ्गद् वीचिभिश्चलन , नित्यं ध्रुवं, कुत्सिताः लज्जापनका, लज्जावडा इत्यर्थः । तेच जवन्ति जा- मृत्युश्च भयं चेति त पव वा तोयपृष्ठं जलोपरितनभागो यत्र यन्ते, न केवामन्येषां, स्वजनस्यापिच दीर्घकालं यावदिति त- स तथा । ततः कर्मधारयः। अथवा-अपमानेन फेनेन, फेनमिति था मृताः सन्तः, पुनमरणानन्तरं, परबोकसमापन्नाः जन्मान्तर- तोयपृष्ठस्य विशेषणम् । अतो बहुव्रीहिरेव अतस्तम् । कषाया एवं समापन्नाः, निरये गच्चन्ति,कथं नूते ?, निरभिरामे। अङ्गाराइच पातालाः पातालकलशास्तैःसंकुलो यः स तथा तम् । नवसहस्राप्रतीताः। प्रदीप्तकं च प्रदीपनकं च तत्कल्पस्तदुपमो योऽत्यर्धेशी- एपेय जलसम्चयस्तोयसमूहो यत्र स तथा तम्। पूर्व जननादिनवेदनेनासातनेन कर्मणा उदीर्णानि दीरितानि ,सततानि अ. जन्याखस्य सनिसतोक्ता, इह तु जवानां जननादिधर्मवतां विच्छिन्नानि यानि पुःखशतानि तैः समभिन्नूतो यःस तथा तत्र । जनविशेषसमुदायतोक्तेति न पुनरुक्तत्वम् । अनन्तमक्कयं, उद्वेजततस्ततोऽपि नरकादुकृत्ताः सन्तः पुनः प्रपद्यन्ते तिर्यग्योनि- नकमुद्वेगकरम, अनर्वापार विस्तीर्णस्वरूपम, महानयादिवि. म तत्रापि निरयोपमानामनुजवन्ति वेदनाम, ते अनन्तरोदिता. शेषणत्रयमेकार्थम् । अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्ग बृहदसग्राहिणः, अनन्तकालेन यदि नाम कथञ्चिन्मनुजभावं त्र- दजिलाषा लोकास्तेषां कनुषाऽविशुद्धा या मतिः सा पय भन्ते इति व्यक्तम् । कथम् ? इत्याह नैकेषु बहुषु,निरयगतौ यानि घायुवेगस्तेन (उद्धम्ममाण त्ति) उत्पाट्यमामं यत्तत्तथा । तस्य गमनानि तिरश्चां च ये भवास्तेषां ये शतसहस्रसंख्यापरिव- आशा अप्राप्तासम्भावनाः, पिपासाश्च प्राप्ताधकालाः, त एव स्तेि तथा तेषु, अतिक्रान्तषु सत्स्विति गम्यते । तत्रापि च म- पातालाः पातालकाशाः, पातालं वा समुज्जलतलं,तेभ्यस्तस्मानुजत्वलामे जवन्ति जायन्तेऽनार्याः शकयवनवम्बरादयः। किं द्वा कामरतिः शब्दादिष्वभिरतिः, रागद्वेषबन्धनेन च बहुविधसंनूताः?,नीचकुत्रसमुत्पन्नाः, तथा आर्यजनेऽपि मगधादौ समु कल्पाश्चेति द्वन्द्वः । तवक्कणस्य विपुलस्योदकरजस उदकरणोत्पन्ना इति शेषः। लोकबाह्या जनवर्जनीयाः,भवन्तीतिगम्यम् ति- र्यो रयो वेगस्तेनान्धकारो यःस तथा तम्। कमुषमतिवातेनायग्भूताश्च,पशुकल्पा इत्यर्थः । कथम्?, श्याह-अकुशलास्तत्त्वेव- शादिपातालाद्युत्पाद्यमानकामरत्याधुदकरजोरयोऽन्धकारमि-- निपुणाः,कामभोगे तृषिता इति व्यक्तम्। [जाहिं ति] यत्र नरकादि- त्यर्थः। मोह पच महावर्ती मोहमहावर्तः, तत्र भोगा एव कामा प्रवृसौ, न तु मनुजत्वं लभन्ते, यत्र निबध्नन्ति (निरयवत्तणि त्ति) एव, भ्राम्यन्तो मएमलेन सञ्चरन्तो, गुप्यन्तो व्याकुलीभवन्त निरयवर्तिन्यां नरकमार्गे, जवप्रपञ्चकरणेन जन्ममाधुर्यकरणेन, उद्वलन्त उच्चसन्तो,बहवः प्रचुराः, गनवासे मध्यनागविस्तरे, पणोल्लित्तिप्रणादीनि तत्प्रवर्तकानि,तेषांजीवानामिति हृदयमा प्रत्यवानवृत्ताश्च उत्पत्य निपतिताः,प्राणिनो यत्र जले तत तथा। यानि तानि तथा । अत्र द्वितीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः । पुन- तथा प्रधावितानि इतस्ततः प्रकर्षण गतानि यानि व्यसनानि तानि रपि आवृत्या संसारो जवो ( नेम त्ति) मूलं येषां तथा, दुःखा- समापनाः प्राप्ताये ते । पागन्तरेण-बाधिताः पीमिता ये व्यसनमोतिनावः । तेषां यानि मूलानि तानि तथा , कर्माणीत्यर्थः । समापना व्यसनिनः,तेषां हदि यत् प्रापितं तदेव चण्डमारुतनानि नियनन्तीति प्रकृतम् । इह च मूला इति वाच्य मूल इ- स्तेन समाहतममनोवाचिव्याकुलितं नड्रेस्तरङ्गैः, स्फुटन् वि. त्युक्तं प्राकृतत्वेन सिङ्गव्यत्ययादिति । किं भूतास्ते मनुजत्वे वर्त. दलन्, अनिस्तैिः कहोमहोमिनिःसंकुलं च जसं तोयं यत्रस माना भवन्ति ? , इत्याह-धर्मश्रुतिविवर्जिताः धर्मशास्त्रविकसा तथा तम । मोहावर्तभोगरूपनाम्यदादिविशेषणप्राणिकं व्यसइत्यर्थः। अनार्या आर्येतराः, कराः, जीवोपघातोपदेशकत्वात् । नमापनरुदितलकणदएममारुतसमाहतादिविशेषणं जलंयनत्यकदाः, तथा मिथ्यात्वप्रधाना विपरीततत्वोपदेशकाः श्रुतिसि- थः। प्रमादामद्यादयः,त एव बहवश्चण्डारौद्राः,पुष्टाः कुत्राः,श्वाकान्ततां प्रपन्ना अज्युपगताः, तथा ते च भवन्तीति । एकान्त- पदा व्याघ्रादयः,तेः समाहता अभिनूता ये (नकायमाणग ति। ६ एकरुचयः, सर्वथा हिंसनश्रझा इत्यर्थः। वेश्यन्ते कोशिकाकार- उत्तिष्ठन्तो (विविधचेपासु) समुपके मत्स्यादयः, संसारपके कीट श्व , अात्मानमिति प्रतीतम् । अष्टकर्मलक्षणेस्तन्तुभिर्यद्धन पुरुषादयः, तेषां यःपूरःसमूहस्तस्य ये घोरासैनाविध्वंसना बन्धनम् । तथा एवमनेन आत्मनः कर्मभिबन्धनलकणप्रकारण विनाशलकणाः, अनर्था अपायाः,तेबहुलो यत्र स तथा । अनरकतिर्यनरामरेषु यद गमनं तदेव पर्यन्तचक्रवालं वाह्यपरि- झामान्येव नूमन्तो मत्स्याः (परिदक्ख त्ति) दका यत्र स तथा ते। धेर्यस्य स तथा तम, संसारसागरं वसन्तीति सम्बन्धः। किंत- अनिभृतान्युपशान्तानि यानीन्द्रियाणि , अनिभृतेन्ष्यिा वा ये तम् ?, इत्याह-जन्मजरामरणान्येव करणानि साधनानि यस्य देहिनस्सान्येव, त एव वा, महामकरास्तेषां यानि त्वरितानि तत्तथा, तश्च गम्भीरदुःखं च , तदेव प्रकृभितं सश्चक्षितं प्रचुर। शीघ्राणि,चरितानि चेष्टानि,तरेव (स्त्रोक्युजमाण त्ति)भृशंकुज्य. Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३७ ) अभिधानराजेन्ः | अदत्तादाण माणो यः स तथा । सन्तापः एकत्र शोकादिकृतः, अन्यत्र वामवानिकृतो नित्यं यत्र स सन्तापनित्यकः । तथा चलनू चपत्रश्चञ्चसश्च यः स तथा अतित्र पत्र इत्यर्थः । स श्रत्राणानामशरणानां पूर्वकर्मसञ्चयानां प्राणिनामिति गम्यम पापं तस्य यो वेद्यमानो दुःखशतरूपो विपाकः स एव घूर्णश्च नमन जलसमूहो यत्र स तथा । ततोऽज्ञानादिपदानां कर्मधारयः तस्रानिपानि सायविशेषाः, तएवापद्वारा जलचरचिशेषाः, तैर्गृहीता ये क मंनिसच्या संसारके हातावरणादिवा, समुद्रप विचित्रचेष्टाप्रसक्ताः । (कविजमाण त्ति ) आकृष्यमाणा नरक एत्र तलं पातालं (दुत्तं ति) तदभिमुखं सन्ना इति सन्नकाः विनाः विपणार शोकिास तथा भरनिरनि भयानि प्रतीतानि । विषादो दैन्यं, शोकस्तदेव प्रकर्षावस्यम् । मिया विषयांस एतान्येवाः पर्वताः सङ्कटः स तथा अनादिसन्तानो यस्य कर्मबन्धनस्य तत्तथा तथ लेशाश्च रागायकमस्तेन दुरुता या स तथा । ततः स ऋषीत्यादिपदानां कर्मधारयः, अतस्तम् । श्रमरनरतिर्यग्गतौ यमनं सैव कुटिल परिवर्ता चक्रपरिवर्तना, त्रिपुया विस्तीर्णा वेला जलवृद्धिलक्षणा, यत्र स तथा तम् । हिंसाऽलीकादत्तादानमै पुनपरिग्रहलक्षणा ये आरम्ना व्यापाराः तषां यानि करणकारणानुमोदनानि तैरष्टविधमनिष्टं यत्कर्म पिशिकतं सश्चितं तदेव गुरुभारस्तेनाक्रान्ता ये ते तथा, तेदुर्गा एयेव व्यसनाम्येव यो जीतेन दूत्यर्थः नमान:, (उम्ममानिसम्पत्ति ) उन्मननिमकोजलगमनानि कुर्यादुर्लभं तलं प्रतिष्ठानं यस्य स तथा तम् । शरीरमनोमयानि दुः खानि उत्पिबन्त श्रासादयन्तः, सातं च सुखम्, असातपरितापनं च दुःखजनितोपतापः, एतन्मयमे तदात्मकस, ( उब्बुडुनिब्बु(ति) उन्मनिझत्वं कुर्वन्तः । तत्र सातमुन्मझत्वमिश्र, असातपरितापनं निमझत्यमिति । चतुरस्तं चतुर्थभागं दि मभेदगतिभेदाभ्यां महान्तं प्रतीम् कर्मधारयो दृश्यः अन दमनन्तं विसी, संसारसागरमिति प्रतीतम्। किंभूतम, इत्याह-अस्थितानां संयमाध्यवस्थितानामविद्यमानमालम्बनं प्रतिष्ठानं च त्राणकारणं यत्र स तथा तम, श्रप्रमेयसर्ववेदिना परियं चतुरशीति योनिशतसहस्रविलम् तत्र योनयो] जीवानामुत्पत्तिस्थानानि तेषां यासंपात समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेकत्वविवक्षणादुक्तसंख्याया श्रवि रोधित्वं द्रष्टव्यम् । तत्र गाथा-" पुढवि ७ दग ७ श्रगणि ७ मारुय ७, एकेके सत्त जोगिलक्खाओ । वणपत्तेय १० अंते १४, दस चोइस जोलिक्खाश्र ॥१॥ विगलिंदिपसु दो दो, चउरो चउरो नारयसुरेसु तिरिय इति चो क्खाय मणुपसु " ॥ २ ॥ इति । अनालोकानामज्ञानमन्धकारो यः स तथा तम् । श्रनन्तकालमपर्यवसितकालं यावत्, नित्यं सर्वदा उत्त्रस्ता उद्गतत्रासाम्यतितामुढा, भयेन संज्ञाभिश्च श्राहारमैथुन परिग्रहादिभिः, संप्रयुक्ता युक्ताः। ततः कर्मधारयः । वसन्ति श्रध्यासते, संसारसागरमिति प्रकृतम । इह वयसेनिरुध्यापकमेवं संसारस्य सत्या दिति । किं भूतं संसारम् ? उन्निमग्नानां वासस्य वसनस्य वसतिस्थानं यः स तथा तम् । तथा यत्र यत्र ग्रामकुलादौ श्रायुर्निवनम्ति पापकारिणश्वविधायिनः तत्र तंत्रेति गम्यते बा न्धवजनादिवर्जिता भवन्तीति क्रियासम्बन्धः । बान्धवजनेन १३५ • अदत्तादाण भ्रात्रादिना स्वजनेन पुत्रादिना, मित्रैश्च सुहृद्भिः परिवर्जिता ये ते तथा । श्रनिष्टाः, जनस्येति गम्यते भवन्ति जायन्ते । श्रनादेवर्धिनीत इति प्रतीगम स्थानासन कुजि नश्चेति समासः । (श्रसुरणो त्ति) अशुचयोऽश्रुतयः, कुसंहननाः छेदवय संहननयुक्ताः कुप्रमाणा श्रतिदीर्घाी श्रुतिस्खा था, कुसंस्थिता हुण्डादिस्थानाः । इति पदत्रयस्य कर्मधारयः । कुरूपाः कुत्सितयः बदुकांधमानमाया लोभा इति प्रतीनम मोटा धनिकामा अत्यज्ञाना वा धर्मसंज्ञाया धर्मदे सम्यक्त्वाच्च ये परिभ्रष्टास्ते तथा । दारिद्र पोपद्रवाभिभृताः नित्यं परकर्मकारिण इति प्रतीतम् । जीध्यते येनार्थेन इत्ये नद्रव्यरहिता ये ते तथा । कृपणा रङ्काः, परपिण्डतर्ककाः पर दत्तभोजन गवेषकाः, दुःखलब्धाहारा इति व्यक्तम् । श्ररसेन हिन्वादिभिरमेन चिरसेन पुराणादिनानप भोजनेनेति गम्यते । कृतकुनिपूरा यैस्तं तथा । तथा परस्य संबन्धिनं प्रेक्ष्यमाणाः । पश्यन्ति किम् ? इत्याह- ऋद्धिः सम्पत, सत्कारः पूजा, भोजनमशनम एतेषां ये विशेषाः प्रकाराः तेषां यः समुदायः, उदयवर्तित्वं वा, तस्य यो विधिविधानमनुष्ठानं, स तथा तम् । ततश्च निन्दन्ता जुगुप्समानाः, (अप्पकं ति) आत्मानं कृतान्तं च देवं, तथा परिवदन्तो निन्दन्तः, कानि ?,इत्याह[ इह य पुरे कडाई कम्माई पावगाई नि] इहैवमत्तरघटनापुराकृतानि च जन्मान्तरकृतानि कर्माणि इह जन्मनि पापकाम्यशुभानि । कचित्पापकारिण इति पाठः । विमनसो दीनाः, शोकेन दह्यमानाः परिभूता भवन्तीति सर्वत्र संबन्धनीयम् तथा सस्यपरिवर्जिताथ होभ शि] निस्सहायाः क्षोभणीया वा, शिल्पचित्रादिकला धनुर्वेदादिः, समयशास्त्रम- जैनबौद्धादिसिद्धान्तशास्त्रम्, एभिः परिवर्जिता ये ते तथा । यथाजातपचनृताः शिक्काऽऽभरणादिवर्जित सीवर्दादिसदृशाः, निर्विज्ञानत्वादिसाधर्म्या अि स्यादसानायान्यथमजनोचितानि कर्माण्युप येते तथा लोककुत्सनीया इति प्रतीतम मोदाद ये मनोरथा अभियापास्तेषां ये निराखाः पाबंदुला ये ते तथा अथवा मोघमनोरथा निलमनोरथाः, निराशबहुलाश्च आशाऽनावप्रचुरा ये ते तथा । श्राशा इच्छाविशेषः, सेव पाशां बन्धनं तेन प्रतिबद्धाः संरुकाः, नियन्त इति गम्यम् । प्राणा येषां ते तथा । अर्थोत्पादानं व्यार्जनं, काम सौख्यं प्रतीतम्, तत्र लोसारे लोकप्राने भवन्ति जायन्ते अफगाि अफलवन्तः श्रप्राप्तका इत्यर्थः । लोकसारता च तयोः प्र सीता बधा यस्यार्थस्तस्य मिश्राणि यस्यार्थस्तस्य बा न्धवाः । यस्यार्थः स पुमाँद्धां के, यस्यार्थः स व परिमतः ॥१॥ इति । तथा-"राज्ये सारं वसुधा वसुन्धराय पुरं पुरे सोचम् । सीधे पराङ्गना॥ ॥ इति कि जूता अपत्याह- सुष्टुपच (उजश्चंत त्ति) अत्यर्थमपि च प्रयतमानाः । उदारकर्मकात्। तद्विफ तां याति यथा बीजं महोपरे " ॥ १ ॥ तद्दिवसं प्रतिदिनम्कर्म व्यापारेण तेन मेकन सं स्थापितो मीलितः सिक्थानां पिएकस्तस्यापि सञ्चये पराः प्र धाना ये ते तथा । की व्यसारा इति व्यक्तम् । नित्यं सदा अवधनानामभिमान धान्यानां कोशा आश्रया येषां स्थिरत्वेऽपि तत्परिभोगेन वर्जिताश्च ये ते तथा । रहितं त्यक्तं कामयोः शब्दरुपयोः जोगानां च गन्धर Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादापा स्वस्पर्शानां परिलोगे सेवने यतत सर्वसीयमानन्द यस्ते तथा । परेषां यौ थियाः भोगोपभोगौ तयोर्यन्निश्राणं निश्रा, तस्य मार्गणपरायणा गवेषणपरा:, ये ते तथा । तत्र भोगोपनोगयोरयं विशेष:-" सर मुज्जर ति भोगो, सो पुण आहारपुकमाईश्रो । उवभोगो उ पुणो पुरा, उयनुज्जर बन्धनित्रयाइ ॥ १ ॥ इति । वराकास्तपस्विन अकामिकया अनिच्छया, विनयन्ति प्रेरयन्ति, अतिवाहयन्तीत्यर्थः । किं तत् ? इत्याह-दुःस्वमसुखं नैव सुखं नैव निर्वृतिं स्वास्थ्यमुत्रजन्त प्राप्नुवन्ति, अत्यन्तविपुत्र दुःखशत संप्रदीप्ताः परस्य ज्येषु ये अविरता भवन्ति, ते नैव सुखं लभन्त इति प्रस्तुतम्, तदेव यादृश फलं ददातिताशममितिम् अधुनाथयनोपसंहारार्थमाद (एसोसो) इत्यादि सर्वे पूर्ववत् । प्रश्न० ३ अश्र० द्वा० । ( पञ्चमं ये च कुतिद्वारे तृतीयधारेण सोकमिति न पृथगुरुम)। (अदत्तादानस्य पके काल नाव नेहा: "भदादारावेरमण” शब्दे ऽनुपदमेव वक्ष्यते ) ( ५३० ) यभिधान राजेन्द्रः । (x) माचार्योपाध्यायादिज्योऽसादाननिरूपणम्जे भिक्खु ायरियवज्झाएहिं अवादिणं गिरं - यति, आइतं वा साइत ।। २४ ।। गिरति वाणी वग्रणं, तं पुण सुत्ते चरणे वा जातं आयरियडवजाहिं दतं एइति, तत्थ सुत्ते एकं, अत्थे दो, चरणमूलुत्तमृगपचिस । विहमदत्ता उ गिरा, सुत्ते प्रत्ये तदेव चारिते । सत्सु सुषम्मी, भासा दोसे चरितम् ।। २२६ ।। एति पगार बहुमते तो या व गंतुं अच्छमाणो उजयं देणं ।। २१७ ।। " जा सुत्ते गिरा, सा दुविधा सुत्ते, अत्थे वा । चरणे सा सावज्जदोसजुत्ता जाता। कहं पुण सोऽदिं श्रइयन्ति । उच्यते - (पति यि ) गाहा । तस्स किंचि सुत्तत्थं संदि, सो सव्यं पति णिउति गारयेण इमेण पुच्छति, सीसत्तं वा न करेइ, बहुओ वाsहं णामि कदमं पुच्चिस्सं ?, एवमादिगारवट्टितो असतो विण गच्छति, गतो वाण पुच्छति, ताहे जत्थ सुत्तं श्रत्थाणि वा साथ मिलिमिर्मिकडरिया सेन वा गतागतं करेंतो सुणेति, उभयं पि अमावदमेण । एसा सुत्त दत्ता, होति चरितम्मि जा स सावज्जा । गारत्थियनासा वा दट्ठर पलिओ विसावा वि ॥२१८॥ चारशे दरं ससरं करेति पालोयणकाले पलिओ सेकि ताकते वा अस्थि पश्रिवित्ति, सेसं कंटं ॥ वितिओवि व आएसो, तब पंच तु पदाणि । जिक्खू आदियती, सो खमओ आम मों वा । २४६ | तत्रते वयतेणे रूपतेणे य जे नरे आयारभावतेणे य कुव देवविसं, एसिमा विभासा, (खमश्रो ) गाहा से जाव दुब्वलो भिक्खागश्रो, श्रमत्थ वा पुछियो सो तुमं खमओ ति भंते!, ताडे सो भणाति आमं, मोणेण वा अत्थति अहवा भणाति को जतीसुखमणं पुरुवइ ?, तेणेत्ति तुमं, सो धम्मकड़ीओ दाणे मिश्री गुणी वायगोपा अदत्तादाण पुच्छति जतीणं । पचि जणाति आर्य, तुहीको धम्मं कहिवादिवणे, रूत्रे णीयन पमिमाए || १२० ॥ भाति ये तुम्ह सपणोऽसि अट्या तुम सो पडिमं पडिवमासी, पत्थेव तदेव तुरिहकादि श्रत्थति । , बाहिर बावलियो परपश्चयकारणा आयारे । मानुरुदाहरणं तर्हि साये गोविंदपज्जा ।। २२२ ॥ प्रायारणे महराको उदाहरणं ते भावरुप्य तिणिमित्तं बाहर किरिया सुड्डुउज्जन्ता जे, ते श्रायारतेणा । भावतेजो जहा गोविद्यागोदेो, सिकंदरा पव्वयमज्भुवगतो पच्छा सम्मत्तं पडिवरणो । एवमादि गिरा अदितार्थ जो महका पता वयणम्सो कतो भवति । मुसावादिया य वरण भंसदोसा " एतेसाममतरे, गिरिं दत्तं तु आदिया जे तु । सो आणा अणवत्थं, मिच्छूतविराहणं पावे ||२२|| कंख्या । वासाणं ण पच्चित्तं, ते अदत्तं पि भादिपज । वितियपदमणप्पओ, आदिएँ अनि को विते व अप कुदाइ संजमट्ठा, दुल्ल दव्वेण जाणंता || २२३ ॥ खेत्तादिचिसो वा आप सेहो या उपसंपचाण विन देश तस्स उवपक्ष अबपो या जयगुणे, वाया कस्स वितत्य कुरिति गयागयं वा करैतो संजमे हेडं वत्ति । अस्थितो कमियादिठनिमित्य या संजयनासा से नासिजमाणा सागारिंगा संजयभासाओं गेएहेज्जा, तत्थ अविदिशा से गारस्थिगमासाए भासेज्जा आणि वा, सयपागेण वा, सहस्सपागेण वा दुलभदव्वेण कज्जं तदहाणिमित्तं परंजेज्ज । भयं वा किंचि संथववयणं जणेा । तदद्वावेव तेणादि वा पंचपदे भणेज्जा । नि० चू० १६ च० । “श्रदिनादाणं सुडुमं, बादरं च । तत्थ सुडुमं तणरुगलबार मलगादीणं गये । बादरं हिरसुष्पादि ” । महा० ३ श्र० । " स्वाम्यद तादिस्वामि जीवती करगुवेद सभेदेनादतं चतुर्विधम्। तत्र स्वाम्यदत्तं तृणोपलकाष्ठादिकम् तन्न स्वामिना दत्तम् १ | जीवादन्तं यत्स्यामिता दत्तमपि जीवनमयथा प्रत्यापरिणामधिकलो मातापितृभ्यां पुत्रादिदीकरैः प्रतिषिक माधाकर्मादि गृह्यते ३ । गुर्वदत्तं नाम स्वामिना दत्तमाधाकर्मादिदोषरहितं गुरूनननुज्ञाप्य यद् गृह्यते ४ । इति चतुर्विधस्याप्यत्र परिहारः । इत्युक्तं तृतीयं व्रतम् । ध०३ अधि चित्तता वा यं वा न वा बहु । दंतसोहण मित्तं पि, उग्गहंसि प्रजाइया ||१४|| वा मूख्यतः प्रमातश्च । यदि वा बहुमूल्य प्रमाणाभ्यामेव । किं बहुना ?- दन्तशांधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदाचनेति सूत्रार्थः । श० ६ ० | द्विपदवितयकिय - (६) लघुक गृहाति जे भिक्खु लसयं प्रदत्तं यदियति, आदियंतं वा साइनइ ॥ १९ ॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) अदत्तादाण अभिधानराजेन्द्रः। अदत्तादाण लहु थोवं, अदत्तं तेणं, आदियणं गहणं, साज्जणा अ- मिणा अदिएणं घेर्नु घरसामियमणुएणवेति श्मेण विणुमायणा, मासबहु पच्चित्तं ।। हाणणतं अदत्तं दवादि चउन्विहं पडिलेहणवणा,अणुसोमाणफरुसणाय अहियामो । दवे खेत्ते काले, भावे लहुसगं अदत्तं तु । अतिरिच्चमिदायणणि-ग्गमणे वा दुविधलेदो य ।।७७|| एतेसिं णाणतं, वोच्छामि अहाऽऽणुपुवीए ।। ७१ ॥ पडिलेई त्ति । अस्य व्याख्यादव्वखसकालाणं गहणं, साजणा अणुमायणा, मासलहू अब्जासत्थं गंतू-ण पुच्चणा दूरपत्तिमा जतणा । पच्चित्तं तं अदितं दत्वादिहिं चउन्विहं । तदिसमेतपमिच्छण-पत्तम्मि कहिंति सब्जावं ।।७०॥ दवखेतकामापं श्मं वक्खाणं सो घरसामी जदि खत्तं खलगं वा गते जदि अब्भासतो दव्वे कमणादिएसु, खेत्ते उच्चारजूमिमादीसु । गंतुं अणुएणविज्जति । अह दूरं गतो ताहे संघामओ णाम विधे. काले इत्तरियमवी, असा तु चिट्ठमादीमु ॥ ७३ ॥ ज्जाहिं। प्रागमेत दिसं अदरं गंतु पमिक्खति जाहे साह समीवणस्सतिभेश्रो कमालादीणं पसिको, कटणो बंसो, आदि वं पत्तो ताहे अणुलोमघयणहिं पप्मविज्जति ॥ ग्गहणाश्रो अवलेहणिया, दारुदंडपादपुरणमादि, पते अण अणुसासणं सजाती,म जाति मणुख त्ति तह वि तु अटुंते । गुनाते गेएहति । खेत्तो अदित्तं गेण्इति उच्चारभूमि, आदि- अजिग्गणिमित्तं वा, बंधणगा से य ववहारो ॥७॥ गहणाश्रो पासवणसाश्रो अणिवणनूमीए अणणुनवित्ता - जहा गोजातिमंगलचुनो गोजातिमेव जाति, आसमे विणो च्चारादी प्रायर खित्तो अदित्तं गतं । काले इत्वरं स्तोकं महिस्सादिसु चिति करेति । एवं वयं विमाणसामाणुसमेव जा. अणणुनं चिट्ठति भिक्खादि हिंमंतोजाव वासं वसति वितिच्छ मो। जदि तह विण देति,फरुसाणि वा भणति, ताहे सो फरुसं वा पमिति, महाणे वा अणणुनवेत्ता रुक्खहेटासु चिति ण भाति, अधियासिज्ज। जा तह विणिच्चभेज,ततो विजाप, निसीयति, तुयति वा, दवाश्सु वि मासाहुं ॥ चुहिं वा वसी कजति, णिमित्तण वा आउंटाविजति । तस्स श्दाणी जावे अदत्तं असतिरुक्खमादिसु बाहि वसंतु,माय तेण समाणं कलहेतु ।श्र. भावे पाअोगस्सा, अणणुप्रावणा तु तप्पढमताए । हवाहि विहभो-पायसंजमाणं न करणसरीराणं वा संज मचरित्ताणं वा पणवणं व अतिरिश्चंते, लयत इत्यर्थः। ताहेभठायते नमुबके, वासाणं वुवासे य॥ ७३ ॥ पति-अम्हे सहामो, ज एस श्रागतिमं सो एस रायपुत्ती ण उमुबके वासासु वा, वुहायासे वा, तप्पढमयाए पाओगाऽ- | सहिस्सति, एस वा सहस्सजोधी,सो विकयकरणो किचि करणगुणवणनावेण परिणयस्स दव्वादिसु चेव भावो लहु अद- ण दपति, जहाति । जहा-विस्सनूतिणा पुछिप्पहारेण खंधम्मि तं, अदुवा सादु बुढेसु जं जेसु जं जोग्गं पाउन नस्पति । कविट्ठा पामिया एस दायणा, तह वि अधायमाणे बंधिउंग्वेति, लदुसमदत्तं गेएहतस्स को दोसो?, मो जाव पनायं सो य ज रायकुत्रं गच्छति, तत्थ तेण समाणं वएतेसामनतरं, लहुसमदत्तं तु जो तु आदियइ । वहारो कज्जति, कारणियाणं प्रागतो भणति-अम्हेहि रायहिय प्राचितेहिं मुसित्ता सावहिं वा खजं वा,तोरम्मो अभिहियंसो प्राणा अणवत्थं, मिच्चत्तविराहणं पावे ॥ ७४ ॥ अयसो य अबंतो परकृतनिलयाश्च तपस्विनः, रायरक्खियाणि कारणतो गेएहंतो अपच्चित्ती, अदोसो य । य तपोवणाणि, ण दोसे ति। नि०यू०२ उ० । लघुकादत्तं अघाण गेलणे अो-मसिवे गामाणगामिमतिवेला। पुनः अननुज्ञापिततृणलेष्टुक्कारमल्लकालिकवृतादिच्छायविश्रम णादिविषयम् । जीता। तेणासावयममगा, सीतं वासं दुरहियासं || ७५॥ (७) गृहादौ तपस्तैन्यादि न कुर्वीतअकाणाश्रो णिग्गता परिसंता गाम वियाले पत्ता, ताहे अ- तवतेणे वयतेणे, रूबतेणे अजे नरे । णुमवितं कमादि गेएहेज्ज । वसहीए वि अणुप्मवियाए पायारभावतेणे अ, कुर्वः देवकिविसं ॥ १६ ॥ गएज्ज, आगाढगेल ने तुरियकज्जे खिप्पमेव अणुमवित गण्डेज्ज, ओमादरियाए अत्तादि अदिगं सयमेव गेराहेज्ज । अ. तपस्तनः,वास्तेनः, रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चिद्, प्राचारभासिवगाहिताणं ण को वि देइ, ताहे अदिमे संथारगादि गे. वस्तेनश्च पात्रयन्नपि क्रियां तथा भावदोषात्किस्विषं करोति एडेज्ज । गामाणुगामं दृज्जमाणा बियाले गाम पत्ता । जय किस्चिपिकं कर्म निवर्तयतीत्यर्थः । तपस्तेनो नाम कपकरूपकवसही ण बभति, ताहे बाहिं वसंतु, मा श्रदत्तं गेएहंतु । प्रह तुल्यः कश्चित्केनचित् पृष्टस्त्वमसौ रुपक शति?ास पूजाद्यर्थमाबाही दुविहा-तणासिंघातिवासावायामसगेहिं वा खिजिज्ज ह-अहम् । अथवा वक्ति-साधव एव कपकाः। तूष्णीं वाऽऽस्ते। ति, सीयं वा दुरहियासं, जहा उत्तरावहे अणवरतं वा सं एवं घास्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित्पृष्ट इति । पमति। एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः । एवमाचारस्तेनो विशिष्टाएतहिँ कारणेहिं, पुचउ घेत्तु पच्छणामवणा । चारयतुल्यरूप इति । भावस्तेनस्तु-परात्प्रेक्षितं कथश्चित कि श्चित् श्रुत्वा स्वयमनुत्प्रेक्तितमपि मर्यतत्प्रपश्चन चर्चितमित्या हेति अशाण णिग्गतादी, दिध्मदिढे इमं होति ।। ७६ ॥ सूत्रार्थः। पतेहिं तेणादिकारणेहिं वसहिसामीए दिठे अणुएणवणा, अ. अयं चेत्थंजूतःदिहे अद्धाण णिग्गयादी,सयणसमोसिगाई अणुमवर्नु घरसा. सण वि देवत्तं, नव उन्नो देवाकावस । Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाण तत्था विसे न जाइ, किम्मे किया इमं फलं ॥४७॥ ग्यापि देव तथापिक्रियापनयन उपपदेवकि विषे देवकिल्विषकाये तत्राप्यसैो न जानात्यविशुद्धावधिना किं मम कृते किविधिकदेवचमिति सूत्रार्थः । अत्रैव दोषान्तरमाह तत्तो वि से चत्ताणं, लब्जिही एलमूत्रयं । नरगं तिरवलनोद वा, बोर्डी जत्य सुदुद्दा ॥ ४० ॥ ततोऽपि दिवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यत एलमूकतामजभापादुकारित्वं मानुषत्य, तथा नरकं तिर्यग्योनि वा पारम्पर्येण सस्य । बोधिर्यत्र सुदुर्लभः । सकल सम्पनिबन्धना यत्र जिनधर्मप्रासिरापा । इह च प्रामत्यलम्कतामिति प कृद्भावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देशः । इति सूत्रार्थः । दश० अ० २ ० । ( श्रदन्तादानस्य दर्पिका क पिकाच प्रतिसेवा स्वस्थ पच वदते) द अदत्तादानमा पतितमिति उत्त० ३२ अध्ययने दर्शितमन्यत्र ते) (साधर्मिकादिस्तम्यं वप्प" शब्देऽस्म भागे २९ पृष्ठे दर्शितम् ) अदना ( दिया ) दाखकिरिया अदत्तादानक्रिया स्त्री० । आत्मार्थमव सहजे ०२४० सामिजीवी कदम ० ३ ० प्रदत्ता (दिशा) दायर लिय- प्रदत्तादानप्रत्ययिक पुं० । न० । प्रदत्तस्य परकीयस्थादानं स्वीकरणमदत्तादानं स्तेयं, तत्प्रत्ययिको दण्डः । एतच्च सप्तमे क्रियास्थाने, सूत्र० । ( ५४० ) प्रनिधानराजेन् 44 ग्रहावरे सत्तमे किरियाठाणे दिन्नादावतिए त्ति आहिलर में जहासागर के पुरिसे आप बा० (खाइ वा गारहेडं वा जाव परिवारहेडं वा सयमेव अदिन्नं आदिया अन्ने विदर्भ भादियानि अदिन्नं आदियंत अन्नं ममजा, एवं खलु तप तप्पत्तियं सावज्जं ति आहिज्जइ, सत्तमे किरियागणे अदिन्नादाणलिए चिहिए। एतदपि प्राग्वद् ज्ञेयम् । तद्यथा नाम कश्चित्पुरुष श्रात्मनिमित्तं (ज्ञातिनिमित्तम, अगारनिमित्तं) यावत्परिवारनिमित्तं परद्रव्यमदमेवात् अपरं च ग्रहन्तमप्यपरं सम जानीयादित्येवं तस्यादत्तादानप्रत्यधिकं कर्म संबध्यते इति सममं क्रियास्थानमाख्यातमिति । सूत्र० २ ० २३० । आा० ० प्र०व० । स्था० । प्रदता (दिव्या) दायविरइ श्रसादानविरति खी०प द्रव्यहरणविरती, महा० ७ अ० अता (दिशा) दाणवेरमण- श्रसादानविरमण - १० । अदत्तादानादू विरमणमदत्तादानविरमणम् । स्वाम्याद्यनुज्ञानं प्रत्याख्यामीति स्तेयविरतिरूपे व्रतभेदे, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा० तंत्र स्थूलका प्रत्याख्यानं तृतीयमतं सर्वाद प्रत्याख्यानं तृतीयं महाव्रतमिति । 1 तंत्र स्थूलकादत्तचिरमणमित्यम् 39 " दाणंतरं च णं धूलगं अदिपादाणं पश्चक्खामि दुविहं तित्रिणं ण करेमि ण कारवेमि मगसा वयसा कायसा स्थूलक मदसादानेचौर इति व्यपदेशनियन्धनम् उपा०१० 1 अदत्तादाणरमण थूल गमदत्तादाणं समणोवास पञ्चकखाइ, से अदिन्नादाऐ दुबिदे पाते । तं जहा सचितादनादाणे, अचित्तादत्तादाणे अ ॥ 3 महादानं द्विविधम स्थूल सूक्ष्मं स व परिस्थूलविषय बीयरोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमिति दुष्टाभ्यवसायपूर्वक स्यूतम् विपरीतमितरत् मेस्त् अदत्तादानं चेति समासः । तच्छ्रमणोपासकः प्रत्याख्यातीति पूर्ववत् । 'से' शब्दो मागधदेशी प्रसिको निपातस्तच्छब्दार्थः । तथादसादानं दिविधं महलम् गणधकारं प्ररूपित मित्यर्थः । तद्यथेति पूर्ववत् । सह चित्तेन सवित्तं द्विपदा दिनकणं वस्तु तस्य षादी सुन्यस्तन्यस्तविस्तृतस्य स्वामिना प्रदत्तस्य चौर्यबुद्ध्या आदानं सचिन्तादन्तादानम् । मदानमिति ग्रहणम् । अनित्नादि, तस्यापि क्षेत्रादीन्यस्त दुर्व्यस्तविस्मृतस्य स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यदुद्ध्याऽऽदानमचिन्तादन्तादानमिति । अदत्तादा को दोसो ?, अकते वा के गुणा ?, त्य इमं एवं चेच उदाहरणं जहाएगा गोडी सावगो जतीए गोट्ठीए एगत्थपगरणं वट्ट, जाणगते गोट्टिन एहिं घरं पेलियं थेरीए एक्केको मोरपुत्त्रेण पाए पतीए अंकिओपनाए य र निवेदयं । राया जगह-कह ने जायिन्या ? । बेरी as - एते पादे किया नगरसमागमे दिवा, दो वि तिथि पचारि सच्या गोडिगहिया । एगो सागो जण-न हरामि नहिं विप्रणयन एस हर तेहिं वि मुको। इयरे सामिया अपि य सामगेण गोई न पथिसि यज कई विपचया पचसह ताओ हारगं हिंसादि न देइ, न य तेसिं ओगट्ठाणेसु ठाई । आव ०६०। तस्यातिचारा: तयाsतरं च धूलगदिमादाणस्स पंच अश्यारा जाणियच्या, न समायरियब्वा तं जहा तेनाइडे, तकरप्पओगे, विरुद्धरज्जाकमे, कूरुतुला कुरुमाणे, तप्पमिरुवगववहारे । उपा० १ अ० । पतानि समाचरन्नतिचरति, तृतीयानुव्रत इति । " दोसा पुणसेनाहरूहि या विजने में या पचभिज्ञासा ततो मारेज्ज वा, दंगेज्ज वा इत्यादयः शेषेष्वपि वक्तव्याः । उक्त सातिचारं तृतीयायुव्रतम् । भव० ६ श्र० पा०| २० । ६० । सर्वस्माददतादानादू विरमणं त्वित्थम्अहावरे तच्चे जंते ! मढव्वए अदिन्नादाणा वेरमणं । सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि । से गामे वा नगरे वा रने या अवाया अणुवा वा चित्तमं वानाव सर्व गिरिजा ने उन्नेहिं दिनं गिएहा विज्जा, अदिनं गिए हंते त्रि अने न समजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविणं मणेणं वायाए कारणं न करोमि, न कारदेमि, करंतंपि न समझुमाणामि तस्स ते Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४.) अदत्तादागावेरमण अनिधानराजेन्डः। अदत्तादाणवेग्मण पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोमिरामि, तच्चे प्रहावरा च उत्था जावाणा-णिगंयणं नुग्गहंमि उग्गहियमि नंते ! महब्बए नवनिो मि सञ्चाओ अदिनादाणाओ। अभिक्खणं उग्गहणमौलए मिया । केवल बूया-णिग्गंयणं वेरमणं ॥३॥ उग्गहंसि जग्गादयंसि अनिकखणं ५ प्राणोग्गहसीन अथापरस्मिस्तृतीये भदन्त महावते अदत्तादानाविरमणमा सर्व अदिएणं गिण्डेजा , ग्गिंथे उग्गहंसि उग्गाहियंसि भदन्त ! प्रदत्तादानं प्रत्यास्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा-माम वा नग भाजिकवणं उग्गहणसीलए ति चनत्या भावणा ॥ ४॥ रेवा भरपये वेत्थनेन केत्रपरिग्रहः। तत्र प्रसति बुद्ध्यादीन गुणा प्रहावरा पंचमा नावणा-वीमिताग्गह जाइ से णि. मूति प्रामा,तस्मिन् । नास्मिन् करो विद्यत इति नकरम् । परएवं काननादि। अस्पं वा बहुवा अगुवा स्थलं वा चितवद्वा श्र गंथे साहम्मिएमु णो अणणुवीइमि उग्गरं जाति । केवली चित्तबद्धत्यनेन तुमव्यपरिग्रहः। तत्राल्पं मूल्यत एमकाष्ठादि, बूया-प्रवीमि नम्गहं जाति से णिग्गंथे माहम्मिएम बहु-वजादि । अणु प्रमाणतो बज्रादि । स्थनमेरएमकाष्ठादि । अदिम जम्गिदहेजा । से अणुवीइमि नग्गहं जाति से पतचित्तवद्वाऽचित्तबद्धति, चेतनाचेतनमित्यर्थः (णेव सयं णिग्गंथे साहम्मिएमु णो अणवीमि उग्गहं ति पंचमा अदिन गिएिजत्ति) नैव स्वयमदत्तं गृहामि , नेवान्यरक्तं ग्राहयामि, अदनं गृह्यतोऽप्यन्यान् न समनुजानामीस्येतद्यावजी भावणा ॥ ५॥ एत्तावता महन्दए मम्मं जाब प्राणाए वमित्यादि च नावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्वयम्-प्रद- पाराहिते आविनवइ तचं नंत महत्वए । प्राचा सादानं चतुर्विधम्-न्यतः, केषतः, कालतो, भावतश्च । व्य- श्रु० १ अ०॥ तोऽस्पादौ, केत्रतो प्रामादौ, कातो राज्यादौ, भावतो रागद्वे तस्य चेमे प्रतीचाराःपाच्यामा व्यादिचतुर्नकी स्वियम्-"दवप्रो नामेगे अदिनादा गोभावोभावो नामंगे नोदवसो २एगे वो वि एवं तृतीयेऽदत्तस्य, तणादेग्रहणादणुः । भावमओ विएगे णो दचओ नो जावो पातत्थ वरत्त. क्रोधादिभिर्वादरोऽन्य-सचिनाद्यपहारतः ।। ५०॥ दुस्स साहुणो कहिं वि भणणुमवेऊण तणाइ गेण्डओ दन्वो अदिनादाणं नो जावो, हरामीति अनुजयस्स तदसंपत्तीप एवं पूर्वोक्तरीत्या सूक्ष्मवादरनेदेन द्विविध इत्यर्थः । तृतीयभावो नो दब्बो । एवं चेव संपत्तीर जावो दब्योवि। ऽस्तेयवते प्रक्रमादतिचारो भवतीति शेषः । तत्र अतः सूक्ष्मः, चरिमभंगा पुण सुनो।" दश०४८०। अदत्तस्य स्वाम्यादिनाऽननुज्ञातस्य तृणादर्ग्रहणादनाभोग नाङ्गीकरणाद्भवति, तत्र तृणं प्रसिम्म । आदिशग्दाद् मंगल. अहावरं तच्चं महब्बयं पच्चाइक्खामि सवं अदित्रादा च्छारमल्लकादेरुपादानम् । अनाभोगेन तृणादि गृहताऽतिनागे णं, से गामे वा गरे वा अरसे वा अप्पं वा बहुं वा अ. नयति , प्राभोगेन स्वनाचार इति नावः । तथा-क्रोधादिनिः एं वा शुलं वा चित्तमंतं वा अचित्तपतं वा णेच सयं अदि. कषायैरन्येषां साधर्मिकणां चरकादीनां गृहस्थानां वा संबन्धि सचित्तादि सचित्ताचित्तमिश्रवस्तु, तम्या उपहारतोऽपहरणपअंगिएहेजा, णेवऽहिं अदिएणं गिराहावेजा, अप्नं पि रिणामाद बादरोऽतिचारो भवतीति संबन्धः। यतः "तम्मि अदिएणं गिराहतं ण समणुजाणेजा जावजीवाए जाब विएमेव य, दुविहो स्वम्मु एस होइ विलेप्रो । तणमगलगरमा बोसिरामि । तस्सिमाओ पंच नावणाओ नवंति--तस्थिपा लग, अनिदिम् गिएडओ पढम"॥ १॥ अनाभोगेनेति तहत्तिपढमा जावणा-अणुवीइमि उग्गई जाइ से णिग्गंथे हो लेशः। " साहम्मि अन्नसाह-म्मि आणगिहि प्राणकोहमा. आणणुवीइमि उग्गडं जाइ से णिग्गये। केवली व्या-अण ईहि । सचित्ताइ प्रबहरो, परिणामो हो वोमो "॥२॥ साधर्मिकाणांसाधुसाध्वीनाम, अन्यसधर्माणां चरकादीनामि. एबीमितोग्गहं जाति, से णिग्गंये अदिएणं गिरहेज्जा, ति तवृत्तिरित्युक्ताः तृतीयव्रतातिचाराः। ध०३ अधि०। एतदेव अणवीमि उग्गहं जाति से णिगये णो णवीइमितो- सर्वस्माददत्तादानविरमणं दत्ताऽनुज्ञातसंवरनाम्ना स्वरूपोपग्गहजाइत्ति पढमा जावणा ।। १॥ अहावरा दोच्चा ना- दर्शनपूर्वक सभावनाकं प्रश्नव्याकरणेषु तृतीयसंबरद्वारेऽभिबणा-अणुएणविय पाणजायणभोई से णिग्गथे णो अ हितम् । तस्य चेदमादिम सूत्रम्पणएणविय पाणलोयणभोई । केवझी चूया-प्रणाणाव जंबू ! दत्तमणुएणायसंवरो नाम होइ ततियं, सुन्बय महन्वयं प पाणभोई से णिग्गंधे अदिएणं मुंजेजा । तम्हा अणु गुणवयं परदव्वहरणपमिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंतएणविय पाणलोयणनोई से णिग्गंथे णो अपणपविय तएहामणुगयमाहितमण वयणकत्रुसआयाण मुनिग्गहियं मुपाणजोयणनोइ ति दोच्चा जावणा ॥ ॥ अहा- संजामियमणहत्थपायनिहुयं निग्गथं निहिकं निरुत्तं निरासवं बरा तच्चा जावणा-णिगंयेणं उग्गहंसि नग्गहिसि ए- निन्जयं विमुचं उत्तमनरवसभपवरबलवगमुविहितजसम्मतं सावता व उग्गहसीलए सिया । केवली या-णिग्गंये- परमसाधम्मचरणं जत्थ य गामागरनगरनिगमखेमकलमणं नम्गहंसि उम्गहियंसि एत्तावता व गोग्गहणसीले मंगवदोणमुहसंवाहपट्टणासमगयंच किंचिदव्वं-मणिमुत्तसिअदिमं नग्गिएहेजा णिग्गंथेणं जगहसि एत्ता- सप्पवानकंसदूमरययवरकण गरयणमादि पमियं पम्हटुं विष्पबता व उग्गहणसीलए सि ति तथा लावणा || ३ ॥ गट्ठन कप्पति कस्स ति कहेउं वा,गेएहेतुं वा, अहिरम सुव. Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदत्तादाणवेरमगा " हणकेण समले कंचनाएं अपरिग्गड मंडे लोगम्मिि रियव्वं, जं पिय होज्जाहि दव्त्रजातं खलगतं खेत्तगतं रनअंतरगयेच किंचि, पुष्फफलतयप्प दाल कंदमूलतणकटुसकराई अप्पं च बहुं च अणु वा धूलगं वा न कप्पाते। उग्गहे अदिएम्एहेच जे हणि इणि उग्गहे अधायिहियन्नं वज्जेपथ्यो य सबका अविषत्तपरण्ययेसो अपियत्तनतपाणं अत्रियत्त पीढफलगसे ज्जासंथारगवत्थपायकंबल गरयो डराने से लोग पोति पपाद पुंणा दि भाषणकोविकरणं परपरिवाओ परस्स दोसो परववएसेण जं च गिएदेति परस्स नासेइ जं च सुकयं दाणस प अंतराइ दाणस्स विप्यमासे पेणं चैव मठरिस च । जे वि य पीढफलग सेज्जा संथारगवत्थपत्यकंबलदंगर ओ हरनिसेोमपट्टमुहपोतियपायपुंणादि मायणचं मोत्रह्निजबगरणं असंविभागी असंगहरुई तत्रत्रय तेथे य रूवतेणे य आयारे चैव भावतेणे य सहकरे ऊंजकरे कलहकरे वेरकरे विकहकरे असमाहिकारके सया अप्पमाणभोई सततं युद्धमेरे व निखरोसी से तारिसए नाराद्दर स्थापणं ॥ अदत्तादाणवेरमण ( २४२ ) अभिधानराजेन्द्रः । गृहीतुं वृत्तत्वात् साधोः । यतः साधुहर्तव्यमित्यत आहइ-रिक्यं रजतं सुवर्ण व डेम ते विद्यते यस्य हिरण्यसुवर्णिकः, तनिषेधेनाहिरण्यसुवर्णिकः, तेन, समे तुल्ये evaणीयतया लेाचने यस्य स तथा । तेन अपरिग्रहो - नादिरहितः संवृतश्चेन्द्रियसंबरेण यः सोऽपरिग्रहसंवृतः । ते लोके यात संत या स यदपि च नवेद् व्यजातं इव्यप्रकार, खलगतं धान्य मलनस्थामाथितं क्षेत्रगतं कर्षणमितं (रमंतर (जंबू इत्यादि) तब जम्बूरियामन्त्रण (दनमा नाम सि) दत्तं च वितीर्णमन्नादिकम, अनुज्ञातं च प्रातिहारिकपीठफलकादिग्राह्यमिति गम्यते । इत्येवंरूपः संवरो दत्तानुज्ञातसम्बर इत्येवं नामकं भवति तृतीयं सम्बरद्वारमिति ग जम्बूनामन् महानमि तथा गुणाकामुष्मिकोपकाराणां कारणभूतं व्रतं गुणवतम् । किं स्वरूपमिदम पर रणप्रतिविरतिकरणयुक्तम मिता अपरिमाणऽव्यविषया अनन्ता वाकया, या तृष्णा विद्य माया तथा यनुगतं मयं वा विद्यमानव्यविषये महाभिलाषं यन्मनो मानसं वचनं च वाक, ताभ्यां यत्कमुषं परधनविषयत्वेन पापरूपमादानं ग्रहणं तत्सुष्ठु निगृहीतं नियमित यत्र तत्तया । तथा सुसंयमितमनसा संवृतन चेतसाहेतुना हस्ती व पादी व परनानपारापर सुमितमनस्तानृतम्] च विशे बणद्वयेन मनोवाक्कायनिरोधः परधनं प्रति दर्शितः । तथा निप्रेम्यं निर्गतवाह्याभ्यन्तरप्रथमः किं सर्व सिं; नितरामुक्तं सर्वर रूपादेयतयेति निरुक्तम् श्रव्यभिचार बानिरा कर्मादानरहितम् निर्भयमविद्यमानराजादिभ यमः विमुक्कं झोनदोषत्यकम उत्तमनरवृपाणां पवरप अवगति) प्रधानबलवतां च सुविहितजनस्य च सुसाधुनोकस्य सम्मतमभिमतं यत्तथा । परमसाधूनां धर्मचरणं धर्मानुष्ठानं यच तथा । यत्र च तृतीये सम्बरे, ग्रामाकरनगरनिगमखेटकपोमुखासनात प्रामादिया देवामणिमी यत् किञ्चिदपि कशिला कांस्य परजपरकनकरत्वादिकमया पतितं भ्रएं (पम् ति ) विस्मृतं विप्रणयं स्वामिकै वेषयद्भिरपि न प्राप्तं न कल्पते न युज्यते, कस्यचित् असंयतस्य संयतस्य वा, कवि प्रतिपादमिति यमध्यगतम् । वाचानान्तरे - 'जलथलगयं खेत्त मंतरगयं चति' दृश्यते । किञ्चिदनिर्दिष्टस्वरूपं, पुष्पफलत्वक्प्रवालकन्दमूतसृणकाशर्करादिप्रतीता तो बहु वा न अणु वा स्तोकं प्रमाणतः, स्थूलकं वा तथैव, न कल्पते न युज्यते । अव स्थादिरूपे स्वामिना ग्रहीतुमादातुं, ' जे ' इति निपातग्रहणे निषेध उक्तः । अधुना द्विधिमा - ( हमि ति ) अहम्यदनि प्रतिदिन मित्यर्थः । इखि अवग्रहमनुज्ञाप्य यथेह भवदीयेऽवग्रहे इदम् भवं च साधुवायोग्य रूव्यं प्रोष्यामि इति पृष्टेन तत्स्वामिना एवं कुरुते इत्यनुमते सतीत्यय गृहीतव्यमादातव्यं वर्जयितव्यय सर्वकार्य ( अवियत सि) साधून् प्रति अप्रीतिमतो यद् गृहं तत्र यः प्रवेशः स तथा । (अवियत ति) अप्रीतिकारिणः संबन्धि यद्भरूपानं तथा तद्वर्जयितव्यामते प्रक्रमः। तथा-अवियत्तपीठफत्रकशध्यासंस्तार का पात्र कम्बलद एक कर जोड रसनिषद्या-चपट्टकमुखांतिकापाद प्रनादि प्रतीतमेव । किमेवंविधदम ?, इत्याह-जाजनं पात्रं, जाए च तदेव मृरामयं उपधिशबर दिपक मिति समातस्तयमिति प्रक्रमः मंत्र स्थाप विदो विकत्थनं वर्जयितव्यमिति । तथा-परस्य दोषो दूषणं, द्वेषां वा वजयितव्यः परिवदनोयेन टूरणीयेन च तीर्थकर गुरुज्यां तयोरनुज्ञानत्वेनारूपत्वादिति । अतलक्षणं दिम"सामीजीवादतं, तित्ययरं तदेव य गुरुईि" ति । तथा-परस्पाचार्य लान दे - यावृत्यक राहिस्तसेनान्येन च वर्जयितव्यम्, आचार्यदेरेव दायकेन तथा परस्परसंबन्धिनाशयति 1 यच्च सुकृतं सचरितमुपकारं वा तत् सुकृतं तस्य नाशनं वर्जयितव्यं । तया दानस्य चान्तरायिकं विघ्नः, दानविप्रणाशो दत्तापलापः तथा निर्ममत्वं पराक नासत्याद्वर्जनीयमिति तथा विदि) यांनी ahaकशय्या संस्तारकवापात्र कम्बल दएककर जाइ रणनिषद्यामुखपतिपादनादि नाजनभाएकोभ्युपकरणंप्र संविभागी भाचार्यानादीनामेव लग्न विजजते, असौ नाराधयति व्रतमिति संबन्धः। तथा [असंगहरु सि] गोपग्रहकरस्य पीतादिकस्योपकरणस्यैषनादोषविमुक्तस्य सज्यमानस्यात्मम्भरित्वेन न विद्यते संग्रह रुचिर्यस्यासाव संग्रहरुचिः । (तववयतेणय ति) तपश्च वाक् च सोया तो नरःपानः ततः स्वभावो दुर्बल मनगारमोक्य को पि किञ्चन व्याक तथा साधो ! सत्यम् ? यः श्रूयते तत्र गच्छे मास कृपकः । एवं पृष्टे यो विवचिपकोप्यादयमेतत् पूर्णतया काः ! साधवः कपका एव भवन्ति । श्रावकस्तु मन्यते कथं स्वयमात्मानमयं नट्टारकः कृपकतया निस्पृहत्वात् प्रकाशयति ? | Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४३) अदत्तादाणवेरमा अभिधानराजेन्द्रः । अदत्तादाणवेरमण प्रतिकृत्वैवंविधमात्मौकत्यपरिहारपरं सकलसाधुसाधारणं व. प्रवर्तित लकणमिदम-"तवसंजमजोगेसुं, जो जोगो जत्थ तं चनमाविस्करोति , इत्यतः स एवायं यो मया विवक्कितः । इत्येवं पवते । असहुं व नियत्तेई, गणतत्तिल्लो पवनेई"॥१॥ इतरीप्र. पासवान्ध तप आत्मनि परप्रतिपत्तितःसम्पादयस्तपस्तेन उच्य- तीतौ । तथा-(सेहे त्ति) शैक्के अनिनवप्रवजिते,सार्मिके समाते। पर्व नगवन् ! स त्वं वाग्मी ?, इत्यादिभावनया परसंबन्धिनी नधम्मिक, लिङ्गप्रवचनाभ्यां तपस्विनि चतुर्थजक्तादिकारिणि, वाचमात्मान तथैव सम्पादयन् वास्तेन उच्यते । तथा (स्वते. तथा कुलं गच्छसमुदायरूपं चन्द्रादिक, गणः कुलसमुदायः णे यत्ति ) पवं रूपवन्तमुपजन्य स स्वं वानित्यादि भावन- कोटिकादिकः,सस्तत्समुदायरूपः, चैत्यानि जिनप्रतिमाः, एया रूपस्तेनः। रूपं च द्विधा-शारीरसुन्दरता, सुविहितसाधुने- तासां योऽर्थः प्रयोजनं स तथा । तत्रच निर्जरार्थः कर्मवयकामः, पथ्यं च। तत्र साधुनेपथ्यं यथा-"दहोरुगाउ-मने, जेसिजल्लंण | वैयावृत्यं व्यावृत्तकर्मरूपमुपष्टम्भनमित्यर्थः । अनिश्रितं कायाफासियं अंगं । मक्षिणा य चोलपट्टा,दोषिय पाया समक्खाया" | दिनिरपेकं, दविधं दशप्रकारम् । आइ च॥१॥ तत्र सुविहिताकाररञ्जनीयं जनमुपजीवितुकामः सुविहितः, "वेयावचं वावम-भावो इह धम्मसाहणणिमितं । सुविहिताकारधारी रूपस्तेनः। (मायारे चेव त्ति)आचारसाधु अन्नाइयाण विहिणा, संपायणमेस भावत्थो॥ १ ॥ सामाचार्यादिविषये स्तनो यथा-सत्वं यः क्रियारूचिः श्रूयते?, भायरिय १ उवज्काए २,धेर ३ तवस्सी४ गिझाणसेहाणा इत्यादिभाषना । तथव [भावतेणे य ति] नावस्य श्रुतमझानादि साहम्मिय कुल गण (सं-घ १० संगयं तमिह कायव्यं"॥२॥ विशेषस्य स्तनोजावस्तेनः। यथा-कमपि कस्यापि श्रुतविशेषस्य व्याख्यानविशेषमन्यतो बहुश्रुतादुपभुत्य प्रतिपादयति, यथाऽयं इति । बहुविधं जक्तपानादिदानभेदेनानेकप्रकार, करोतीति । मया पूर्वश्रुतपर्यायोऽन्यूहितो नान्य एवमभ्यूहितुं प्रतुरिति ।। तथा-नच नैव च ( अवियसस्स सि ) अप्रीतिकारिणो तथा-शब्दकरो रात्रौ महता शब्दनोखापः स्वाध्यायादिकारको. गृहं प्रविशति । न च नैव च [ अवियत्तस्स ति] अप्रीतिगृहस्थनापाभाषको वा । तथा-भाकरोयेन येन गणस्य भेदो कारिणः सत्कं गृह्णाति यद् नक्तपानमान वा [अवियत्तस्स ति] भवति तत्तकारी, येन गणस्य मनोःखमुत्पद्यते तशाषी। अप्रीतिकर्तुःसत्कंसेवते भजत, पीठफकशय्यासंस्तारकवनतथा-कहकरः कमरहेतुनूतकर्तब्यकारी । तथा-वैरकरः, प्र पात्रकम्बदएमकरजोहरणनिषद्याचोलपट्टकमुस्खपोत्तिकापादसीतः। विकथाकारी-ख्यादिकथाकार।। असमाधिकारकश्चि प्रोनादि नाजनभाएमोपध्युपकरणम् । तथा-न च परिवाद तास्वास्थ्यकर्ता स्वस्य, परस्य वा। तथा-सदा अप्रमाणभोजी परस्य जल्पति, न चापि दोषान् परस्य गृह्णाति । तथा-परव्यद्वात्रिंशत्कवलाधिकाढारजोका । सततमनुबरूवैरव सततम पदेशेनापि ग्नानादिव्याजेनापि,न किश्चिद् गृह्णाति, न च विपरिनुबद्धं प्रारब्धमित्यर्थः, वैरं धैरिकर्म येन स तथा । नित्य णमयति दानादिधर्माद्विमुखीकरोति, कश्चिदपि जनम् । न रोषी सदाकोपः ( से तारिसे त्ति) स तारशः पूर्वोक्तस्वरूपः । चापि नाशयति अपह्नवद्वारण दत्तसुकृतं वितरणरूपं सुचरितं (नाराहए ययमिणं ति) नाराधयति न निरतिचारं करोति,वतं । परसंबन्धि, तथा-दस्वा च देयं, कृत्वा वैयावृत्त्यादिकार्य, न महावतम् , श्दम-अदत्तादानविरतिस्वरूपं, स्वाम्यादिनिरननु भवति पश्चात्तापवान् । तथा-संविभागशीलः लग्धभक्तादिसं विभागकारी तथा संग्रहे शिष्यादिसंग्रहणे, उपग्रहे च तेषामेव कातकारित्वासस्येति। जक्तश्रुतादिदानेनोपष्टम्भने यः कुशलः स तथा । (से तारिसे अह केरिसए पुणाई पाराहए चयमिणं, जे से उहिं त्ति) स तारश आराधयति व्रतमिदमदत्तादानविरतिलकणम्। भत्तपाणादाणसंगहणकुसले अच्चतबालदुबलगिनाण इमं च परदवहरणरमणपरिरक्खणट्ठयाए परयणं वलमासखवणे पवत्तिायरियनवज्झाए सेहे साहम्मिए जगनया मुकहियं अत्तहियं पेच्चानाविकं प्रागसि भई तवस्सि कुलगणसंघचेइयडेय निज्जरही वेयावच्चं अणि मुझ नयाउयं अकुडिनं अनुत्तरं सम्बदुक्खपावाणं विउस्सियं दसविहं बहुविहं करे, न य अवियत्तस्स घरं पवि समणं ॥ सइ, न य अवियत्तस्स भत्तपाणं गिएहश, न य अवियत्त (श्म नेत्यादि ) इमं च प्रत्यकं प्रवचनमिति संबन्धः। परस्स सेवइ पीढफलगसेज्जासंथारगवत्यपायकंबलदंडगरो व्यहरणविरमणस्य परिरकणं पालनं स एवार्थः, तद्भावस्तत् । हरणनिसेज्जचोलपट्टमुहपोत्तियपायपुंजणा भायणभंमोब- तस्यैव प्रवचनं शासनमित्यादि व्यक्तम् । हिनवगरणं, न य परिवायं परस्स जंपति, न यावि दोसे प अस्य पश्च भावनारस्स गेएहति, परववएसेण विनाकिंचि गेएहति, ए य वि- तम्स श्मा पंच नावणाओ ततियस्त वयस्स हुंति परदव्यपरिणामेति कंचि जणं , ण यावि गासेति दिएणकयं हरणवेरमणपरिरक्षणढाए । पढम देवकुलसभापवाऽऽवसदाऊण य काऊण य होई पच्छाताविते, संविभाग हरुक्रवमूलारामकंदगाऽऽगरागिरिगुहकमंतुजाणजाणसीले संगहोवग्गहकुसले, से तारिसए पाराहेति वयमिणं ।। सालकुवियसालमंडवसुम्मघरसुनाणलेण पावणे अमम्मि य अथ प्रश्नार्थः। कीदृशः पुनः, 'आई' इति अनवारे, आराधयति एवमादियम्मि दगमट्टियत्रीनहरिततसपाणअममते अहाव्रतमिदम् । इह प्रश्नोत्तरमाह-(जे से इत्यादि) यः साधुरुप कमे फामुए विविन पसते उपस्सए होइ विहरियव्वं । धिभक्तपानादानं च संग्रहणं च तयोः कुशलो विधिको यः स तथा। बासवेत्यादि समाहारद्वन्द्वः ततोऽत्यन्तं यद्वाबलम्ला आहाकम्मबहले य जे से आसियसम्मजिओमित्तसोहियनवृहमासकपकं तत्तथा। तत्र विषये वैयावृत्यं करोतीनि योगः। छाणदुमणसिंपणअणुसिंपणजलणनंम्चालणं अंतोबाहिं तथा-प्रवृत्याचार्योपाध्याये, इह द्वन्द्वकत्वात् प्रवृत्यादिषु । तत्र मज्के च असंजमो जत्य वट्टति संजयाणं अट्टा बजेयध्वे ह Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५४) अदत्तादाणवरमण अभिधानराजेन्द्रः। अदत्तादाणावेरमण वस्सए से तारिसए मुत्तपरिकुटे । एवं विवित्तवासवसहि- वितिय प्रारामज्जाणकाणावणप्पदसजागे जं किंचि इ. समितिजोगेण जावितो भवति अंतरप्पा निचं अहिकरण-1 कम वा कढिरणगं वा जंतुगं वा परमेरकुच्चकुसडन्नप्पला. करणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुमायउग्गहरुयी॥१॥ लमयगवन्सयपुप्फफल तयपवालकंदमूलतणकट्टसकराई गे(पदमं ति ) प्रथमं भावनावस्तु विविक्तवसतिवासो नाम । एहति सेज्जावहिस्म अहान कप्पए, उग्गहे अदिसम्मि तत्राऽऽह-देवकुलं प्रतीतम, सभा महाजनस्थानम,प्रपा जस- गेएिहनं जे हणि हणि उग्गहं अणुाणविय गेएिहतव्वं । दानस्थानम, पावसथः परिवाजकस्थानम, वृक्कमसं प्रतीतम, एवं उग्गहसमितिजोगेण जावितो जवति अंतरप्पा णिच बारामा माधवी लताद्युपेतो दम्पतिरमणाभयो बनविशेषः, कन्दरा दरी.आकरो ओहाद्युत्पत्तिस्थानम् , गिरिगुहा प्रतीता। अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दसमणुमायनग्गहकर्मान्तो यत्र सुधादि परिकर्म्यते, उद्यानं पुष्पादिमकसंकुल रुयी ॥ २॥ मुन्सवादी बहुजननोम्यम, यानशाना स्थादिगृहम् कुपितशाला (वितियं ति) द्वितीय नावनावस्तु अनुक्कातसंस्तारकग्रहणं नाम। तूब्यादिगृहोपस्करशाला, मएम्पो यकादिमरामपः, शून्यगृहं, तश्चैवम्-आरामो दम्पतिरमणस्थानभूतमाधवीलतागृहादियुक्तः, श्मशानं च प्रतीतम् । बयन शैलगृहम्, आपण: पायस्थानम्, उद्यानं पुष्पमक्कसंकुलमुत्सवादी बहुजनभोग्यम, काननं साएतेषां समाहारन्तः। ततस्तत्र, अन्यस्मिंश्चैवमादिके एवंप्रकारे, मान्यवृक्कोपेत, नगरासन्नं च; वनं नगरविप्रकृष्टम, पतेषां प्रउपाश्रये.जवति विदर्तव्यमिति सम्बन्धः। किनूते?, दकमुदकम, देशरूपो यो नागः स तथा तत्र । यत्किञ्चिदिति सामान्ये नावमृत्तिका पृथिवीकायः,बीजानि शाठ्यादीनि,हरितं दादिवन- ग्रहणीय वस्तु । तदेव विशेषेणाह-रक्कम वा' दंढणसरशं तृणस्पतिः,प्रसाणा द्वीन्डियादयः, तैरसंसक्तो यः स तथा,तत्रात. विशेष एव । कठिन जन्तुकं च जलाशयज विशेषतृणमेव, पथाकृते गृहस्पेन स्वार्थे निर्वर्तिते,(फासुए त्ति) पूर्वोक्तगुणयोगादव र्णमित्यर्थः । तथा परा तृणविशेषः,मेरा तु मुअसिरिका,कों येन प्रासुके निवि, विविक्ते त्यादिदोषरहिते,अत एव प्रशस्ते, उपा. तृणविशेषेण कुविन्दाकूत कुर्वन्ति,कुशदयोराकारकृतो विशेश्रये वसतौ,भवति विहर्तव्यमासितव्यम् । यादृशे पुनर्नासितव्यं पः, पलाल कम्पबादीनाम, सुथको मेदपादप्रसिकम्तृणविशेषः। तथाऽसावुच्यते-(आहाकम्मबहुले यत्ति) प्राधया साधूनां स. चल्वजः तृणविशेषः, पुष्पफलत्वप्रवाल कन्दमूलतृणकाष्ठकस्याधानेन साधूनाश्रित्येत्यर्थः,यत्कर्म प्रधिव्याद्यारम्भक्रिया, शर्कराः प्रतीता, ततः परादीनां द्वन्छः पुनस्ता आदिर्थस्य तस तदाधाकर्म । आह च-"हिययम्मि समाहेन, पगमणेगं च गाहगं था। तद् गृहाति पादत किमर्थम् ?, शरयोपधेः संस्तारकरूपजंतु । वरणं करेइ दाया, कायाण तमाह कम्मतु" ॥२॥ तेन बहनः स्यापधेः,अथवा संस्तारकस्योषधेश्वार्थाय हेतव इह तदिति शेषो प्रचुरः,नद् वा बहु यत्र स तथा। [जे से त्ति] य एवंविधः सव- रश्यः,ततस्तं,न कल्प्यते न युज्यते । अवग्रहे सपाश्रयान्तर्वर्तिजयितव्य एयोपाश्रय इति संबन्धः । अनेन मूलगुणाः शुरूस्य नि अवग्राह्य वस्तुनि, अदत्तेऽननुज्ञाते शय्यादायिना [गिरिह परिहार उपदिष्टाः। स तथा [वासिय त्ति ] श्रासिक्तमासवन जे ति] गृहीतमादातुं, 'जे' इति निपातः । अयमभिप्रायः उपामीपदकच्चटकन्यथः । [सम्मजिय ति] सन्माजेनं शनाका श्रयमनुज्ञाप्य तन्मध्यगतं तृणाद्यपि तु कापनीयम् , अन्यहस्तेन कनवरशोधनम उन्सिक्तमत्यर्थ जलाभिषेचनम्, [सोदिय था तदग्राह्यं स्यादिति । पतदेवाह- इणि हणि ति] अहसि] शोभनं वन्दनमालाचतुष्कपरणादिना शोभाकरणम् [छाद नि अहनि प्रतिदिवसम् । अयमभिप्रायः-उपाश्रयानुशापनाजति गदनं दनांदिपटलकरणम्, [दुमणत्ति मेढिकया धव दिने उपगृहन्ति अवग्राह्यमिक्कडादिःअनुशाप्य ग्रहीतव्यमिति । लनम, (विपण सिग्गणादिना हमेः प्रथमतो लेपनम् ,[अणु. एवमित्यादिनिगमनं प्रथमभावनावदवसेयम, नवरमवग्रहविपण त्ति ] सद्धिनाया नूमेः पुनर्लेपनम् , [जलण सि ] समितियोगेन अवग्रहणीयतृणादिविषयसम्यकप्रवृत्तिसंबशैन्यापनांदाय वैश्वानरस्य ज्वसनम,शोधनार्थ वा प्रकाशकरणा धिनेत्यर्थः। य वा दीपप्रबोधनम । (भएरचालण ति) भाएमादीनां पितरकादीना, पम्यादीनां वा तत्र गृहस्थस्थापितानां साध्वर्थ चालनं सतियं पीठफलगसेज्जासंथारगट्ठयाए रुक्खा न चिदिस्थानान्तरस्थापनमा पतेषां समाहारद्वन्द्वः,विनवित्रापश्च रश्यः। यव्वा, न य छेयाणजेयणेण य सेज्जा कारियन्वा, जस्सेव नत प्रामिक्तादिरूपः अन्तर्बहिश्च उपाश्रयस्य, मध्ये मध्ये च, उपस्सए वसेज्जा, सेज तत्येव गवेसेज्जा, नय विसमं कअमयमो जीवविराधना, यत्र यास्मन्नुपाश्रये, वर्तते नवति, मयतानां साधनाम,अर्थाय हेतवे, [वजेयन्चे हु ति] वर्जयित रेजा, न य निवायपवायउस्मगतं, न समसगेसुक्खुभिव्य एव उपाश्रयो वसतिः, म तादृशः, मूत्रप्रतिकुपः-भागमनिषि- यवं, अग्गिधूमो य न कायव्यो, एवं संजमबहुले संवरबका प्रथम नावनानिगमनायाऽऽह-पवमुक्तेनानुष्ठानप्रकारण, विवि- दुले संवृमबहुले समाहिबगुले धीरो कारण फासयंते सययं को लोकद्वयाश्रितदोषवजितः, विविक्तानां वा निर्दोषाणां वा- अजाप्पकाणजुत्ते समीए, एवं एगे चरेज धम्म,एवं सि. मो निवामो यस्यां सा विविक्तासवसतिः, तद्विषया या स जासमितिजोगेण जावितो भव अंतरप्पा णिचं अहिकेरमितिः सम्यकप्रवृत्तिः,नया यो योगः संबन्धः, तेन नावितो जयत्यन्लगमा । किविधः ?, इत्याह - निन्यं मदा, अधिक्रियतेऽधि णकरणकारावणपावकम्माविरदत्तमणुमायउग्गहरुयी ।। कागक्रियने, दुर्गतावान्मा येन तद पुरधिकरणं दुग्नुष्ठानं, तस्य इदंतु तृतीयभावनावस्तु शय्यापरिकर्मवर्जनं नाम । तश्चैवम्याकरणं कागपणं च तदेव पापकर्म पापोपादानकिया, ततो वि. पीठफलकशय्यासंस्तारकार्थतायै वृक्षा न छेत्सव्याः, न च के. रतो यः स नथा । दनोऽनुक्कानश्च योऽवग्रहोऽवग्रहणीय वस्तु। बनेन नभूम्याभ्रितवृक्षादीनां करीनेन,भेदनेन च, तेषां पाषातत्र रुचिर्यस्य स तथेति । णादीनां वा शप्या शयनीयं कारयितव्या. तथा-यस्यैव गृह. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४५) अदत्तादाणवरमण अभिधानराजेन्द्रः। अदत्तालोयण पतेरुपाश्रये निलये वसेत-निवासं करोति, शय्यां शयनीयं पंचमगं साहम्मिएसु विणो पउंजियब्यो । नवयरणतत्र गवेषयेन्मृगयेत् । न च विषमां सती समां कुर्यात् । न नि पारणास विणओ पउंजियव्वो, वायणपरियणासु विणर्वातप्रवातोत्सुकत्वं, कुर्यादिति वर्तते।नच दंशमशकेषु विषयेषु खुभितब्यम-क्षोभः कार्यः। अतश्च दंशाद्यपनयनाथमाग्नि ओ पउंजियव्बो, दाएगहणपुच्चणासु विणओ पनं जियधूमो वा न कर्तव्यः। एवमुक्तप्रकारेण संयमबहुलः पृथिव्यादि- ब्बो, निक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियवी, प्राणेसु संरक्षणप्रचुरः, संवरबहुलः प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारनिरोध- य एवमाइसु बहुसु कारणमतेम विणओ पउंजिब्बो, विणप्रचुरः , संवृतबहुलः कषायेन्द्रियसंवृतप्रचुरः , समाधिब श्रो वि तवो, तवो वि धम्मो, तम्हा विणो पजियव्यो हुलश्चित्तस्वास्थ्यप्रचुरः, धीरो बुद्धिमानक्षोभो वा, परीषहेषु कायन स्पृशन् न मनोरथमात्रेण तृतीयसंबरमिति प्रक्रम गुरुसु साहुमु तवस्सीसु य, एवं विणएण नाविओ जवति गम्यम् । सततमध्यात्मनि श्रात्मानमधिकृत्य आत्मालम्बनं, अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्माविरते द. यानं चित्तनिरोधस्तन युक्तो यः स तथा । तत्रात्मध्यानं त्तमणुप्लायतम्गहरुयी ॥५॥ 'अमुगगेहे, अमुगकुले , अमुगमिस्से , अमुगरम्माणहिए, [पंचमगं ति] पञ्चमं नाववस्तु । किं तदित्याह-साधर्मिकेषु न मतचिराहणे' इत्यादिरूपम् । (समीए ति) समितः समि विनयः प्रयोक्तव्यः । एतदेव विषयभेदेनाह-(उपकरणपारणासु तिभिः , एकः ससहायोऽपि रागाद्यभावात् चरेदनुतिष्टेत्, त्ति) आत्मनोऽन्यस्य वा उपकरणं ग्वानाद्यवस्थायामन्येनोपकाधर्म चारित्रम् । अथ तृतीयभावनानिगमनायाह-एवमन्तरो रकरणम,तचं पारणे तपसः श्रुतस्कन्धादिश्रुतस्य पारगमनम् उपदितन्यायन शय्यासमितियोगेन शयनीयविषयसम्यक् प्रवृ- करणपारणे, तयोः विनयःप्रयोक्तव्यो,विनयश्चेच्छाकारादिदानेन त्तियोगेन, शेषं पूर्ववत् । बलात्कारपरिहारादिलक्षण एकत्र.अन्यत्र च गुर्वनुझ्या जोजनाचनत्यं साहारणपिंडवायला सइ भोत्तनं संजएण समि- दिऋत्यकरणलकणः। तथा-चाचना सूत्रग्रहणं,परिवर्सना तस्यैव तं,न सायम्पादिकं,न खु घनं, न बगियं, न तुरियं,न चवलं, | गुणनम,तयोविनयःप्रयोक्तव्योवन्दनादिदानलक्षणः। तथा-दानं सम्धस्यानादेानादिन्यो वितरणं,ग्रहणं तु तस्यैव परंण दीयन साहसं, न य परस्स पीलाकरं मावज, तह भोतव्वं जह मानस्यादानम,प्रचना विस्मृतसूत्रार्थप्रश्नः,एतासु विनयः प्रयोसे तातियं वयं न सीयति साहारण पिंडवायलाने मुहमे अ. क्तव्यः; तत्र दानग्रहणयोगुवनुशालकणः । प्रच्छनायां तु बन्ददिमादाणवयनियमवेरमणे, एवं साहारण पिंडवायलाभे स- नादिविनयः। तथा-निष्क्रमणप्रवेशनायास्तु आवधियकीनैपध्यामितिजोगेण नाविभो नवति अंतरप्पा णिचं अहिकरण दिकरणम् । अथवा हस्तप्रसारणपूर्वकं प्रमार्जनानन्तरं पाददि केपलकणः। किंबहुना प्रत्येक विषयभणनेनेत्यत आह-अन्यकरणकारावणपावकम्मचिरते दत्तमणुमाय नग्गहरुयी ॥४॥ षु नैवमादिकेषु कारणशतेषु विनयः प्रयोक्तव्यः। कस्मादेवमिइह चतुर्थ भावनावस्तु अनुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणम्। तचै- त्याह-(विनयोऽपि) न केवलमनशनादितपः,अपितु विनयोऽपि वम् साधारणः सहादिसार्मिकस्य सामान्यो यः पिण्डः, त- तपो वर्तते, आज्यन्तरतपोभेदेषु पक्तित्वात्तस्य । यद्येवं ततः म्य भकादे,पात्रस्य पतगृहलक्षणस्य,उपलक्षणत्वादुपध्यन्त- किम्?,प्रत पाह-तपोऽपि धर्मः, न केवलं संयमो धर्मः,तपोऽपि रस्य च, पात्रेवाऽधिकरण, लाभो दायकासकाशात् प्राप्तिः स धर्मों वर्तते, चारित्रांशत्यात्तस्य । यत एवं तस्माद्विनयः प्रयोक्त.. साधारणपिण्डपात्रलाभः, तत्र सति,भोक्तव्यमभ्यवहर्तव्यम्। व्यः । केषु ? इत्याह-गुरुषु साधुषु तपस्विषु च अष्टमादिकापरिभोक्तव्यं च केन कथम्?, इत्याह-संयतेन साधुना, (समिया रिषु ; विनयप्रयोगेदितीथंकराद्यनुज्ञास्वरूपादत्तादानविरमणं ति) सम्यक,यथाऽदत्तादानं भवतीत्यर्थः। सम्यक्त्वमेवाह-न परिपालितं जयतीति पञ्चमभावनानिगमनार्थमाह-पवमुक्तन्याशाकसूपादिकम, साधारणस्य पिण्डस्य शाकसूपाधिक भागे येन नावितो नवत्यन्तरात्मा।किंभूतः?-'नित्यमित्यादि' पूर्ववत् ॥ भुज्यमाने सकादिके साधोरणीतिरुत्पद्यते। ततस्तददत्तं भवति। एवमिागं संघरस्म दारं सम्मं चारयं होई सुपणिहियं इतधा-न खलु घनं प्रचुरं, प्रचुरभोजन ऽप्यप्रीतिरेव, प्रचुरभोजनताच साधारणे पिण्डे भोजकान्तरापेक्षया वेगेन भुज्यमाने मोहं पंचहिं वि कारणेहिं मणक्याणकारपरिरक्खिएहिं निचं भवतीति । तनिषधायाह-नवेगितं,मासस्य गिलने वेगवत्न आमरणंतं च एम जोगो नेयचो धिइमया मश्मया अणात्वरितं मुखकेपे न चपनं हस्तग्रीवादिरूपकायचलनवत्। न सा- सवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्साई असंकिलिट्ठो मुको हसमवितर्कितम,अतएव न च परस्य पीमाकरं च तत्सावा सम्वजिणमालाओ, एवं तश्यं संबरदारं फासियं पालियं चेति परस्य पीमाकरंसावद्यम,किं बहनोक्तेन?,तथा भोक्तव्यं संयतेन नित्यं यथा (से) तस्य संयतस्य, तद्वा, तृतीयव्रतं न सी. सोहिय तिरिय किट्टियं सम्मं आराहियं प्राणाए अणुपालियं दति नश्यति। पुरीकं चेदं, सूक्ष्मत्वात् । इत्यत आह-साधार-| भवति, एवं नायमीणणा भगवया पामवियं परूवियं पसिई णपिएकपात्रे माने विषयभूते सूक्ष्मं सुनिपुणमतिरकणीयत्वा- सिफिवरसासणमिणं आपवियं सुदेसियं पसत्यं ततियं दएकमपितदित्याह-प्रदत्तादानविरमण प्रवणेन व्रतन यनिय संबरदारं सम्मतं त्ति बेमि । मनमात्मनो नियन्त्रणं तत्तथा । पान्तरण-अदत्तादानादू व्रतमिति बुख्या नियमेनावश्यतया यद्विग्मणं निवृत्तिस्तत्तथा । दं च निगमनसूत्रं पुस्तकेषु किञ्चित साकादेव यावत्करणेन च दर्शितम् । व्याख्या चास्य प्रथमसम्बराध्ययनवदवसेयेति एतनिगमयमाह-एवमुक्तन्यायेन साधारणपिएमपात्रझान वि समाप्तमटमाऽध्ययनविवरणम् । प्रश्न०३ सम्बद्वा० । पयनूते समितियोगेन सम्यकप्रवृत्तिसंबन्धन भाचितो जब-] त्यन्तरात्मा । किंभूतः ?, इत्याह-निश्चमित्यादि' तथैव । अदत्ता (दिमा ) लोयग-अदवालोचन-ति । अदत्ता Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४६) अदत्तालोया श्रभिधानराजेन्द्रः। अदुगुंछिय गुरुपुरतोऽप्रकटिता, आलोचना-आलोचनाई पापं येन सो- अदिहसार-अदृष्टसार-त्रिका अगीतार्थे , पं० घू०। दत्तालोचनः । अकृतालोचने , ग.१ अधिक। अदनाहार-अदनाहार-पुं०। चौरे, "अदत्ताहारा चा से अय अदिहहह-अदृष्टहत-पि० । अदृष्टोत्केपनिकेपपनमानीते, ध. २ अधि०। प्राव। डरंति रायाणो वा से विमुंपति" प्राचा० १ श्रु.२१०३ उ०।। अदिवाणुनाव-अदृष्टानुनाव-पुं० । क० स०। अरष्टफनविपा. ऋदन-अदभ्र-त्रि० । न० त० । दम्भ-रक् । दभ्रमल्पम्, न के , विशे० । दभ्रमदभ्रम् । भूयर्थ ( अनला), जं. ३ वक्त । अदिम-अदत्त-त्रिका स्वामिजीवतीर्थकरगुरुभिरवितीणे, खा. अदम्भवार- अदभ्रवाह-त्रि० । अददं वहतीति अदभ्रवाहः । नृरिवाह केऽश्वादौ, "अदन्नवाहं अमेलनयण कोकासिय बहस १ ग० १ उ० । “अदि से विभ पिबित्तए" औ० । परकीपसलच्छ"जं.३वक०। ये द्रव्ये , आचा० ८ ० १ उ०। अदेन्य-न० । अदीनभावे , द्वा० ११ द्वा० । अदय-अदय-त्रि० । निर्दये, नि० प्यू) २ १०। अदनंत-अददत-त्रि० । अददाने , व्य० २००। अदिएणवियार-अदत्तविचार-त्रि०ान दत्तो विचारः प्रवेशो यत्रतान्यदत्तविचाराणि।भननुज्ञातप्रवशेषु कोष्ठिकादीनांगृहेषु, अदस-अदश-त्रि० । दशारहिते , दश०७०। व्य०००। अदारुय-अदारुक-त्रि० । काष्ठादिरहिते, तं। अदित्त-अल-त्रि० ।नता दर्परहिते शान्ते, पृ.११.। अदिज-प्रदेय-त्रि० न० ० । क्रयविक्रयनिषेधेन अविद्यमा- अदिस्म-अदृश्य-त्रि०। न०ता चकुषोऽविषय, उत्स०१३ नदातव्ये नगरादी , भ०११ श० ११. उ०। यत्र हिन केनापि | "पच्छन्ने श्राहारनीहारे आर्दस्से मंसमक्खुणा" स. कस्यापि देयमिति । ज० ३ वक० । कल्प। ३४ समः। अदि:-अष्ट- त्रिन० त० । अनुपलब्धे , ज्ञा० १६ प० । अदिस्समाण-अदृश्यमान--त्रि० । अनुपलभ्यमाने , आव०५ "तेसिमवि वरायाणमदिट्ठकाणाणमहमिदमयम्भुयं किंपि, अ० । अनुपदिश्यमाने, प्राचा० १ श्रु० ३ ०२०। . संपादयामीति" प्रा० चू०१ अ०। प्रारजन्मकृतकमाणे, नं0 | अदीण-अदीन-त्रि० । अकृजिते दीनाकाररहिते, प्रभ० १ द्वा०। प्रा०म० । विशे० प्राव। भ०(अदृष्टसिकिः 'कम्म' सम्ब० बा०। शोकानावात् । अन्त०७ धर्ग। प्रसत्रमनसि शब्द तृतीयनागे १४३ पृष्ठे अष्टश्या) नैयायिकसम्मते गुण. स्वप्नावस्थे, नि० चू३ उ० । नेदे, कर्तृफलदाय्यात्मगुण आत्ममनःसंयोगजः स्वकार्यविधिधाऽधर्मरूपतया नेदवान-प्रणाख्यो गुणः' इति वैशषिकैः प अदीणचित्त--अदीनचित्त-कि । अदैन्यवन्मानसे , पश्चात गेका दृष्यस्वरूपमुपवर्णितम । कर्तुः प्रियहितमाकडेतुर्धर्मः: श्रध- १८ विव० । मस्तु-अप्रियप्रत्यवायहेतुरिति । एतश्च तत्समवायिकारणस्या अदीणमाणस--अदीनमनस--त्रि०। अदीनं मनो यस्य स अदीस्मनो मनस आत्ममनःसंयोगस्य च निमित्तासमवायिकारण. नमनाः । सुत्रत्वाददीनमनाः अदीनमानसो वा । उस०अ०। त्वेनाज्यपगतस्य निषेधात कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात सर्वमनुफ्पन्नम् । सम्म० । अरधर्मणि पुरुष, ब्य० १० १० । अनिष्पकम्पचित्ते , भा० म० प्र० । अदिट्ठदेस-अदृष्टदेश-पुं० । अदृष्टपूर्वदेशान्तरे, व्य०१० उ० । अदीपया--अदीनता-स्त्री० । प्रशनाद्यलाभेऽपि वैलव्याजावे, अदिधम्म ( ए )-अष्टधर्मन्-त्रि० न० ब०। सम्यगनुपल- द्वा० २७ द्वा० । तद्पे निचुनिने, दश० १० १०॥ वश्रुतादिधर्मिणि, दश० १ ० दशा० । अदीणवित्ति-अदीनवृत्ति-त्रि० । अाहाराद्यमानेऽपि शुरुवृअदिवभाव अष्टभाव-पुं०। आवश्यकादिश्रुतमप्रवति,०१०॥ सौ , दश० अ०। अधादिमादृष्टलावद्वारं विवृणोति अदीसत्तु-अदीनशत्रु-पुं० । कुरुदेशनाथे हस्तिनागपुरवा स्तव्य स्वन मस्याते राजनि, स्था०५ ग०१०।हा। "अआवामग्रमाईया, सूयगमा जाच श्राइमा जावा। दीगसस्स रमो धारणापामोक्खाणं देवीसहस्संत रोडेया ते उण दिट्ठा जेणं, अदिहभावो हव एसो ॥१॥ | वि होत्था" विपा०२ श्रु.१०। श्रावश्यकादयः सूत्रकृता यावत् ये आगमग्रन्थास्तेषु वै अ-थ-अव्य० । अथशब्दो निपातः। निपातानामनेकार्थपदार्था अनिधेयास्ते आदिमा भावा उच्यन्ते,(ते )ते पुनीवा | त्वाद् अत इत्यस्यार्थे, सूत्र०१ श्रु० २ ० २ उ० । मानन्तयन न हया नावगताः स एषोऽदृष्टभाव इति । उपलकणत्वादा व्य, आचा0 ए अ०१०। दिमादृष्टनात्रो नवतीति । पृ० १३०। प्रदिहलाभिय-अदृष्टलाजिक-पुं० । अरस्थापि अपवारका अदुवागया--अदुःखनता-स्त्री०। दुःखस्य करणं दुःखनं, दिमभ्यानिर्गतस्य श्रोत्रादिनिः कृतोपयोगस्य नक्तादेहिशद् वा तदविद्यमानं यस्यामावदुःखना , तद्भावम्तसा। अदुःखकरण, भ०७ श) ६ उ० । पुःखोत्पादने मानसिकाऽसातानुदीरण, पूर्वमनुपमधादायकाडाभो यस्यास्ति स तथा। श्री। तेन वा । पा० । ध०। चरतीति अहण्यानिकः । अभिग्रहविशेषधारके भिक्काचरके, सूत्ररश्रु०२०। | अदगुंछिय-अजुगप्सित-त्रिका अगर्हिते, "अगंलियमणग Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४७) अदुगुंछिय अन्निधानगजेन्सः । अदइज्ज रहियमणवजमिम वि पगा" प्रा०म० द्वि० । सामायिके, मुस्तायां च,तस्याम्धा ऽत्यन्तशीतवीर्यन्वेन वैद्यकोत्तेजलमयमूत्र"अनिदं च अदुगुंबितमणगरहितं अणवजं चेच एगहा" आo | त्वाश्च तथात्वम, आप्यन्ते व्याप्यन्त ऋजुमासपतिथिनकत्रचू०१ १० । अनिन्दित, । योगकरणवारादयो येन । पाप-दन् ह्रस्वश्च । वामरे, वाचः। अबुट्ट-अदुष्ट-त्रि० । न त । दोषरहिते, प्रश्न सम्बद्वाण | अर्द-पु। अदते गम्यतेऽनेनोत अर्दः । आकाशे, जर २, अधिष्ट-त्रि० । द्वेषरहिते, प्रभार सम्बद्वा। श.२०॥ अदुट्ठचेत (स् ) अदुष्टचेतस्-त्रि०। ६० । अकलुपान्तःक भाई-त्रि० । अर्द-र-दीर्घश्च । किन्ने सरसे सजले वग्णे, "तितिक्खए जाणि अठचेयसा" भाचा० १ . स्तुनि , सूत्र। ५-४४०। अस्य निकेपार्थ सूत्रकृताङ्गनियुक्ति कृदाहअदत्तरं-अथापर-अव्य० ! अतोऽनन्तरमित्यर्थ, “ अत्तरं च नाम उवणा अई, दबदं चव होइ जावई ॥ ण गोयमा ! पक्षणं चमरे असुरिंदे" अथापरं चेदं च साम. एमो खयु अझो , निक्वेवो चगवहो होइ।। १ ।। यातिशयतर्णनम् । भ०३श.१०।अदत्तरं च मम [नाम ग्वणा अहमित्यादि] नामस्थापनाद्रव्यभावनेदाच्चममणा णिग्गथा"ज्ञा०२०।जी। तुर्धाऽऽद्रकस्य निक्केपो द्रष्टव्यः। तत्र नामस्थापन अनाहत्य द्रव्याऽप्रतिपादनार्थमाहअदुय-अत-न। भशी , भ०७श.001 उदगई सार, विअई खव तहा सिणेहई ।। अयत्त-अइनव-न० । समषिो सत्यवचनातिशये, स० एयं दन्नई खबु, भावेणं होड रागई ॥२॥ ३५ मम। ( उदगहमित्यादि ) तत्र व्याई हिंधा-प्रागमतो, नो भागअदुबंधण-अनुतबन्धन-न० । दीर्घकालिकबम्धने, सूत्र० मतइन । आगमती ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तोऽनुपयांगा व्यमि. १७०२। तिकृत्वा ।नो आगमतस्तु शरीरजम्यशरीरव्यतिरिक्त.म । यद. अदुवा-अथवा-व्या पक्कान्तरोपन्यासद्वारेणाऽज्यच्चयोपद- केन मृत्तिकादिक द्रव्यमार्कीकृतं तदुदकार्डम । मागई नु-य. शने, प्राचा० १ ० १ ०३० । सूत्र। ददिः शुष्कामप्यन्तमध्ये सार्डमास्ते, यथा-श्रीपर्णसावत्रल'. दिकम् । 'छविलाई'तु-यत् स्निग्धत्वग्न्यं मुक्ताफलरक्तामो अदर-दर-त्रि० । न० त० । अविप्रकृऐ, भ.१०१० कादिकं तदनिधीयते, वसयोपलिप्त वासार्डम् । तथा-मा. अदरग ( य ) अदूरग-त्रि० । शरीराऽनतिभेदके शल्ये क चक्रलेपाद्युपलिप्तं स्तम्भकुड्यादिकं यद्रव्यं तस्निग्धाकारएटकादौ, पञ्चा० १६ विवः । परस्परसमीपवर्तिनि, सूत्र १ तया श्लेष्माईमभिधीयते । एतत्सर्वमप्युदका दिकं च्यामेश्रु०४ अ०२ उ०। वानिधीयते, खनुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । नावाई तु पुनः गग. अदरगेह-अदूरगेह-न। प्रत्यासन्नप्रातिबेश्मिकगृहे, वृ०२ ३० स्नेहाभिवतः, तेनाई यज्जीवजन्यं तद्भावाऽमित्यानिधीयते । अदरसामंत-अदरसामन्त-पुं। दूरं विप्रकृष्टं, सामन्तं च सन्नि साम्प्रतमार्गककुमारमधिकृत्यान्यथा रुई, तनिषेधाददरसामन्तम् । नातिरे नातिसमीपे, भ०१ श० द्रव्या प्रतिपादयितुमाह११०। अनिकटाऽऽसन्ने उचितदेशे, औशा०1" अज्जसुह- एगनविय बचाऊ, जो अलिमुहओ नामगोए य । म्मस्स भणगारस्स अदरसामंत उर्फ जाण जाव विहरात" एते तिन्नाऽऽदेसा, दवम्मि अगे होंति ॥ ३ ॥ नि.१ वर्ग। अदूरागय-अदूरागत-त्रि० । समर्मापदेशं प्राप्ने, “अदूरागए बहु [एगभविय इत्यादि] एकेन भवेन यो जीवः स्वर्गादेगगत्या ककुमारत्वनोन्पत्स्यते । तथा-ततोऽप्यासनतरी बकायुकः । संपत्ते श्रद्धाण परिवरणे अंतरापहे बट्ट" भ०२ श०१००। तथा-ततो ऽप्यासन्नतमोऽनिमुखनामगोत्रः, योऽनन्तरसमयमेवा. असिय-अदृषित-त्रिका अनिवळेणाकमुषिते, पञ्चा०६विव० ईकस्वेन समुत्पत्स्यते । पते प्रयोऽपि प्रकारा व्यार्ड के प्रख्या प्रदेसकालप्पलावि (ण)-अदेशकालपलापिन्-पुं० । अदे. शति । भावार्डकं नु-भाईककुमार इति नगरनंद, दधिपती शकासे अनवसरप्रलपनशीलोऽनवसरप्रलापी । ('चनन' शब्द राजभेदे, तत्सुते, तवंशजेषु च। सूत्र. २ श्रु०६ श्र० । काधिदर्शिते) भाषाचपलनेदे, पृ.१०।। न्ययुक्त , प्रानुगुण्ययुक्ते च। अश्विन्यादिके षष्ठे नको , खी। अदेसाकासायरण-अंदेशाकामाचरण-न० । प्रतिषिको देशो- वाच० 1 आजीया रुद्रो देवता । ज्यो०६ पाहु। देशः, प्रतिषिद्धः कालोऽकावः, तयोरदेशाकालयोरचरणं अज-आर्डकीय-न० । आकासमुत्थितमध्ययनमाउंकीचरणानावः-अदेशाऽकालाचरणमा प्रतिषिद्धदशकालयाचर- यम् । श्राद्रककुमारवक्तव्यताप्रतिबद्धे सूत्रकृताङ्गस्य द्वितीयश्रुणाभावरूपे गृहिधर्मदे, अदेशाकामचारी हि-चौरादिभ्योऽ- तस्कन्धस्य षष्ठेऽध्ययने, सूत्र। बइयमुपज्वमाप्नोतिः अदेशाकालाचरणं बजाय विचारणम् । निरुतं नु विस्तरवो नियुक्तिकनैवेत्थमुक्तम्ध० १ अधिः । अपुरा अहमुतो, नामण अहगो य अरणगागे। अदोम-श्रदेष-पुं० । तस्वाविषयेऽप्रीतिपरिहारे, पो०१६ विवा तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं अज ति ॥ ४ ॥ अह-अन्द-पुं० अपो ददाति । अप-दा-क। ६ त ।"सर्वत्र [अहपुरा इत्यादि] आईकायुष्कनामगोत्रायनुभवन् भावाअवरामचन्छे" ||2|| इति सूत्रेण बलोपः। प्राग मेघे. | जॉनर्यात । यद्यपि शृङ्गवेरादीनामप्याद्रकसहाव्यवहारोऽस्ति, Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) अदइज्ज अभिधानगजेन्द्रः। अद्दगकुमार तथापि नेदमध्ययनं तेत्यः समुस्थितमतो न तैरिहाधिकारः।कि- (३) तपाईककुमारस्य समाधानम् । स्वाककुमारानिधानगागसमुत्थितमतस्तनैवहाधिकार ६. (४) अपगतरागद्वपस्य प्रन्नापमाणस्यापि दोषाभावः। तिकन्या तद्वक्तव्यताऽभिधीयते । एतदेव नियुक्तिकृदाह-[ अ. (५) बीजाापनोगिनो न श्रमरणव्यपदेशभाजः । हपुरा इत्यादि ] अस्याः समासनायमर्थः-पाईकपुरे नगरे प्रा. (३) समवसरणाापनागवतोऽपि भगवता न कर्मबन्धः । को नाम राजा , तन्सुतोऽमाऽकानिधानः कुमारः, तद्वंशजाः (७) केवलां भावशुक्रिमेव मन्यमानस्य बौद्धस्य वामनम् । किल सर्वेऽप्याकाभिधाना एक नवन्तीतिकृत्वा। स चानगार: (6) हिमामन्तराऽपि मांसो न नक्वणीयः। संवृतः। तस्य च श्रीमन्महावीरवमानस्वामिसमवसरणे गो- (1) आईककुमारेण सह ब्राह्मणानां विवादः ।। शाल केन माई हस्तिनापसैश्च वादाऽभूत् । नन च ते पत- (१०) एकदगिमनिःसहाककुमारम्योत्तरप्रत्युत्तराणि । दभ्ययनार्थोपन्यासन पराजिताः,अत इदमभिधीयते । ततस्त. (११) तथा हस्तितापसैः सहाक्तिप्रत्युक्तयः। स्मादाकात्ममुत्थितमिदमध्ययनमाकयामिति गाथासमा (?) বয় নামৰখি আকাথালঙ্ক सार्थः। व्यासार्थ तु स्वत एव नियुक्तिकदाईकपूर्वभवोपन्यास. गाथाभिरेव नियुक्तिकदाइनोत्तरत्र कथयिष्यतीति। ननु च शाश्वतमिदं द्वादशाकं, गणिपिकमाईककथानकं तु गामे वसंतपुरये, सामयिओ घरणिसहिओ निक्खंतो । श्रीवईमानतीर्थावसर,तत्कथमस्यशाश्वतत्वमित्याशक्क्याह- जिकवाऽऽयरिया दिट्ठा, ओहामिय जत्तवेहामं ॥1 कामं दुवालसंगं, जिणक्य मामयं महानागं । संवेगममावन्ने, माइ जत्तं चइन्नु दिगलोए । सन्यज्यणा तहा, सचक्खरसामवाओ य ॥५॥ । चनऊरण अद्दपुरे, अहसुनो अद्दो जाओ ॥॥ (काममित्यादि) काममित्येतदज्युपगमे, इष्टमेवैतदस्माकम् । पीती य दोएिह ढतो, पुच्छणमनयस्स पच्च वसो उ । तद्यथा-द्वादशाकमपि जिनवचनं शाश्वतं नित्यं महाभाग महानुभावमामपध्यादिऋद्धिसमन्वितत्वान्न केवलमिदं,सर्वाण्य तोणावि सम्मादीह-त्ति होज्ज पम्मिाऽरहम्मि गरे। प्यध्ययनान्येवतानि, तथा सर्वाकरसन्निपाताश्च मेलापका ] दव संबुच्छो र-विवओ य रायाण वाहण पलाओ। द्रव्यार्यादेशा नित्या एवेति ॥५॥ पव्यावता धारतो, रज्जं न करेति को अम्रो ॥११।। ननु च मतानुका नाम निग्रहस्थाने भवत इत्याशझ्याह अगणितो निक्रवतो, विहर पमिमा दारिगा चो। तह विय कोई अत्थो, उप्पजति ताम्म समयम्मि। मुवरण वमुद्दाराओ, रन्ना कहणं च देवीए ॥१॥ पुन्चभणिो अणुमतो, इति इसिनासिए य जहा।६। वरआइ पिता तीसे, पुराण कहणं च वरण दोचारे । (तह विय इत्यादि) यद्यपि सर्वमपीदं न्यार्थतः शाश्वत,नथा. वि कोऽप्यर्थस्तस्मिन्समये तथा केत्र च कुताश्चिदाईकांदः सका. जाणा पायविवं, आगमागं कहण निग्गमणं ॥१३॥ शादाविर्भावमास्कन्दति, स तेन व्यपदिश्यते । तथा-पूर्वमप्य पमियागए समीवे, सपरीवारा वि नियुपमित्रयाणं | सावर्थोऽन्यमुद्दिश्योत्तोऽनुमतश्च नति, ऋषिभाषितेत्तरा- जोग सुनो पुच्चण मु-तबंध पुत्ते य निग्गमणं ।।१४।। ध्ययनादिषु यथेति । रायगिहागम चोरा, रायजया कहण तसि दिखाया। साप्रतं विशिष्टतरमध्ययनोन्थानमाह गोसालनिकभी-निमियातावसहि मह वादा ।१५॥ अजद्दपण गोसा-लनिवाबनवति तदमीणं । वादे पगइयत्ते, सव्वे वि य समणमन्वगताओ । जह इत्थितावसाणं, कहियं इणमो तहा बोच्चं ॥७॥ अगसहिया मवे, जिणवीरमामिनिक्खना ॥१६॥ ( अजद्दपणेत्यादि ) आयाई केण समवसरणाभिमुख मुश्चलि. (गामे इत्यादि गाथाष्टकम् ) अासां चार्थः कथानकादवसेयः। नेन गोशाकनिकोस्तथा ब्रह्मवतिनां श्रिदपिकनां यथा ह- नधनस-मगधजनपदे वसन्तपुरग्रामःनत्र सामायिको नाम कटस्तितापसानां च कथितमिदमध्यनार्थजातं तथा वय सूत्रण- म्बी प्रतिवसति स्म। स च संसारभयाद्विग्नो धर्मघोषाचार्यान्तिक ति । सूत्र०२७०६ अ०। धर्म श्रुत्वा सपनीका प्रवजितः । म च सदाचारतः संविग्नः अदग-आईक-न) । अर्दयति रोगान् । अई अम्नतण्ययें रक, साधुनिः सार्द्ध विहरति स्म,तगसाधीभिः सहेति । कदाचिदीघश्च, संज्ञायां कन् । प्रायां नमो जातं वा घुन् । आईय. च्चासविकस्मिन्नगर निवार्थमटन्ती दृष्ट्वा तामसी तथाविधक. ति जिलाम, आर्द्र-णिच्-बुन वा । मूलप्रधाने नेदे, प्रार्षि मोदयापूर्वरतानुम्मरणन तस्यामध्युपपन्नः, तेम चात्मीयोऽनिकाव्यत्र । स्त्री०। वाच । शङ्गवेरे, प्राचा०२ श्रु०१० प्राया हितायस्य साधोनिवेदितः, नेनापि चैतत् प्रवर्तिन्याः, त. (पाद्रकशब्दार्थो नगरभेदादिकं च 'अ' शम्दे समुक्तम)। याऽपि चानिहितम्-न मम देशान्तर एकाकिन्या गमन युज्यते । न चासौ तत्राप्यनुबन्धं त्यच्यतीत्यतो ममास्मिन्नवसर भक्तप्रत्यामहग ( य ) कुमार-आईककुमार-पुं० । प्राकनामधेये कु ख्यानमेव धयः, न पुनर्वतविलोपनम् । इत्यतस्त्रया भक्तप्रत्यामारे, स्था० २ श्रु० ६ अ०। ख्यानपूर्वकमात्मोद्वन्धनमकर, मृता मागावदेवलाकम । अथाऽईककुमारस्य निरवशेषा वक्तव्यता भत्वाचन व्यतिकरमसौ संवेगमुपगतः । चिन्तितं च तेन-तया (b) नियुक्तिकृन्मताभप्रायेण संक्षिप्तमा:ककुमारकथानकम् । व्रतभङ्गभयादिदमनुष्ठितम् , मम यमौ संजात पंचायतोऽहम(२) पाककुमारेण सह विवदमानस्य गोशाकस्य तीर्थ-| पि भक्तप्रत्याख्यानं करोमोत्याचार्यम्यानिव मायावी. परविषयेऽसूयाऽऽविष्करणम् । मसंवगापनोऽसावपि नक्तं प्रत्याख्याय दिवं गतः । ततोऽपि च Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) अगकुमार अनिधानराजेन्द्रः। अद्दगकुमार प्रत्यागत्याऽऽद्रपुर नगरे आकसुतपाईकाभिधानो जातामा. बे? तयोक्तम्-तत्पादगतानिशानदर्शनतो जानामीति । तदेवमसी पिचदेवलोकारुच्युता वसन्तपुरे नगरे श्रेष्ठिकुसेदारिका जा. | तत्परिज्ञानार्थ सर्वस्य भिक्काथिनो निवां दापयितुं निरूपिता। ता। इतरोऽपिच परमरूपसंपन्नो यौवनस्थः संवृत्तः । अन्यदाऽ.| ततो द्वादशानिर्वगतः कदाचिश्चासौ प्रवितव्यतानियांगन तत्र. सावाईकपिता राजगृहनगरेश्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहाविष्करणार्थ व विहरसमायातः प्रत्यभिज्ञातश्च तया तत्पादचिह्नदर्शनतः । परमप्राभृतोपेतं महत्तमं प्रेषयति स्म । पाककुमारणासी पृष्टः-1 ततोऽसौ दारिका सपरिवारा तत्पृष्ठतो जगाम । माईककुमारोयथा-कस्यैतानि महार्दाण्यन्युप्राणि प्राभृतानि मन्पित्रा प्रेषितानि ऽपि देवतावचनं स्मरैंस्तथाविधकर्मोदयादवयं नवितव्यतानियास्यन्तीति । असावकथयत्-यथा-आर्यदेश तवपितुः परमामत्रं योगेन च प्रतिभम्नस्तया साई नुनक्ति स्म नोगान् ।पुत्रश्चात्पश्रेणिको महाराजः, तस्यैतानीति । आपककुमारणाप्यमाणि-किं सः । पुनराईककुमारेणासाबभिहिता-सांप्रतं ते पुत्रो द्वितीयः, तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रः ? । अस्तीत्याह । यद्येवं,मत्प्रहितानि अहं स्वकार्यमनुतिष्ठामि । तया सुतव्युत्पादनाथै कार्यसकर्सप्राभृतानि जवता तस्य सर्मपणीयानीति नणित्वा,महाहाणि प्रान नमारब्धम् । पृष्शा चासी बालकन-किमम्ब ! एतद्भयत्या प्रारतानि समाजिहितम्-वक्तव्योऽसौ मवचनाद्यथाऽऽककुमार ब्धमितरजमाचरितम् । ततोऽसाववोचद्-यथा तब पिता प्रवस्वयि स्निह्यतीति । स च महत्तमो गृहीतोजयप्रानृतो राजगृह- जितुकामः , त्वं चापि शिपुरसमर्थोऽर्थार्जने , ततोऽहमनामगात् । गत्वा च राजद्वारपालनिवेदितो राजकुलं प्रविष्टः। रपश्च था स्त्रीजनाचितेनानिन्येन विधिनाऽऽत्मानं प्रचन्तं च किस पाभेणिकः। प्रणामपूर्व निवेदितानि प्राकृतानि । कथितं च यथा सयिष्यामीत्येतदालोच्येदमारग्धमिति। तेनापि बालकेनोत्पन्नप्रसदिष्टम् । तेनाप्यासनाशनताम्बूलादिना यथार्हप्रतिपत्त्या सं- तिभया तत्कर्तितसूत्रेणैव'कायं मद्धोयास्यतीति'तम्मनोऽनुकूलमानितः। द्वितीये चायाककुमारसत्कानि प्राभृतान्यभयकुमा- भाषिणोपविष्ट एवासी पिता परिवेष्टितः। तेनापिचिन्तितम-यारस्थ समर्पितानि; कधितानि च तत्प्रीत्युत्पादकानि तत्संदिष्ट- घन्तोऽमी बालककृतवेएनतन्तवस्तावन्त्येव वर्षाणि मया गृहे स्थावचनानि । अजयकुमारेणापि परिणामिक्यबुद्धया परिणामितम्- तव्यमिति । निरूपिताश्च तन्तबो यावद्धादश,तावन्त्येव वर्षाण्यनूनमसौ जव्यः समासन्नमुक्तिगमनश्च, तेन मया साई प्रीति- सौगृहवासे व्यवस्थितः। पूणेषुद्वादशसुसंवत्सरेषुगृहानिर्गतः, मितीति । तदिदमत्र प्राप्तकालम्-यदादितीर्थकरप्रतिकरप्र- प्रवजितश्चेति । ततोऽसौ सूत्रार्यनिष्पन्न एकाकिबिहारेण विहतिमासंदर्शनेन तस्यानुग्रहः क्रियते, इति मत्वा तथैव कृतम् । रन् राजगृहाभिमुख प्रस्थितः। तदन्तराझे च तद्रकणार्थ यानि महार्हाणि च प्रेषितानि प्राभृतानीति । उक्तश्च महत्तमः-यथा- प्राक् पित्रा निरूपितानि पञ्च राजपुत्रातानि, तस्मिन्नश्वे नऐ मत्प्रहितप्रानृतमेतदेकान्ते निरूपणीयम् । तेनापि तथैव प्रति- राजभयाद्वलक्ष्याच न राजान्तिकं जग्मुः। तत्राटवीगेंण चौयण पन्नम् । गतश्वासाचा:कपुरम। समर्पितं च प्रानृतं राकः,द्विती- वृत्ति कल्पितवन्तः। तैश्चासौ दृष्टः प्रत्यजिज्ञातश्च । ते च तेन पृये चापाककुमारस्येति । कथितं च यथासंदिटम । तेनाप्ये. टा:-किमिति नवद्भिरेवंतूतं कर्माश्रितम् तैश्च सर्व राजभयादिकं कान्ते स्थित्वा निरूपिता प्रतिमा । तां च निरूपयत कहा- कथितम् । बाईककुमारवचनाच संयुकाःप्रव्रजिताश्व तथा राजपोहविमर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणम।चिन्तितं च तेन-यथा- गृहनगरप्रवेशे गोशालको,हस्तितापसाः, ब्राह्मणाश्च वादे पराममाभयकुमारेण महानुपकारोऽकारिसर्मप्रतिबोधत इति ।त- जिनाः । तथाककुमारदर्शनादेव हस्ती बन्धनाद्विमुक्तः । ते ताऽसावाईकःसंजातजातिस्मरणोऽचिन्तयत्-यस्य मम देवलो- च हस्तितापसादय आर्डककुमारधर्मकथाक्किप्ता जिनवीरसमकभोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानस्तृप्ति जूत्तस्यामीभिस्तुच्चैर्मानुषैः वसरणे निष्कान्ताः । राज्ञा च विदितवृत्ताम्तेन महाकुतूहलापूस्वल्पकालीनः काम भोगैस्तृप्तिनविष्यतीति कुतस्त्यम् । इत्येत- रितहृदयेन पृष्टः-भगवन् ! कथं त्वदर्शनतो हस्ती निरर्गलः स्परिगणय्य निर्विकामभोगो यथोचित नोगमकुर्वन् राक्षा संजा- संवृत्तः, इति महान् जगवतः प्रभाव इति । एवमभिहितः सतभयेन मा कचिद्यायादित्यतः पञ्चभिःशतैःराजपुत्राणां रवाय- नाककुमारोऽब्रवीनवमगाथयोत्तरम्तुमारेजे । आईककुमारोऽप्यश्ववाहनिकया विनिर्गतः, प्रधाना. ण दुकरं वारणपासमोयणं,गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं !। धन प्रपलायितः। ततश्च प्रव्रज्यां गृएहन देवतया सोपसर्ग नव जहा उतत्यावनिएणतंतुणा,सुदक्कर मे पमिहाइ मोयणं ।१७। तोऽद्यापि भाणत्वा निवारितोऽप्यसाबार्डको राज्यं तावन्न क. रोति स्म।कोऽन्यो मां विहाय प्रवज्यां ग्रहीप्यतीत्यनिसंधाय तां (ण पुकरमित्यादि)न दुष्करमेतम्नरपाशैर्यकमत्तवारणस्य विदेवतामवगणय्य प्रवजितः। विहरनन्यदाऽन्यतरप्रतिमाप्रातिपन्नः मोचनं बने,राजन्! पतलुमे प्रतिभाति पुष्करम-यश्च तत्रावलिकायोत्सर्गव्यवस्थितो वसन्तपुरे तया देवलोकाच्युतया प्रेष्ठिदु तेन तना बरस्य मम प्रतिमोचनमिति स्नेहतन्तवो हि जन्तूहित्रा परदारिकामध्यगतया 'प्रारमत्येष मम भर्ता' इत्येवमुक्तस नां पुरुच्छेदा भवन्तीति भावः । गतमाईककथानकम् । इति स्यनन्तरमेव नत्सन्निहितदेवतयाऽत्रयोदशकोटिपरिमाणा 'शो दर्शितं समासतो नियुक्तिकृतार्द्रककथानकम । भय तदेय भनं व्रतमनयेति' भणित्वा हिरण्यवृष्टिर्मुक्ता । तां च हिरण्यवार्षि सुत्रकृद् व्यासेन दर्शयन्नाहराजा गृएहन देवतया सर्पाद्युत्थानतो विधृतः। अभिहितं च तया (२) यथा च गोशाल केन साई पादोदाईककुमारस्य बथैतद हिरण्यं जातमस्या दारिकायाः,नान्यस्य कस्यचिदित्य तथाऽनेनाध्ययनेनोपदिश्यतेतस्तपित्रा सर्व संगोपितम।आईककुमारोऽप्यनुकूलोपसर्ग इति पुरा कर्म अह ! इमं मुणेहमत्वाऽवेनान्यत्र गतः। गच्चतिच काले दारिकायाः वरकाः समा- मेगंतयारी समणे पुराऽऽसी। गच्छन्ति स्म । पृष्टौ च पितरौतया-किमेषामागमनप्रयोजनम?।क से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, थितं च तान्याम-ययैते तव वरका इति । ततस्तयोक्तम्-तात! सकरकन्याः प्रदीयन्ते नानेकशः दत्ता चाहं तस्मै यस्मंबन्धि हि आइक्खति एहं पुढो विस्थरेण ॥१॥ रएयजानं जवद्भिर्गृहीतम्। ततःसापित्राऽजाणि-कित्वं तं जानी-1 सा जीविया पट्टविताऽथिरेणं, Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहगकुमार सजागओ गणभ मिले। इक्खमाणो बहुजनमत्यं, न संपानी परेण पुवं ॥ २ ॥ 6 एका 1 तं राजपुत्र भाग गोशाल को बीत् यथा हे आर्द्रक ! यददं ब्रवीमि तच्छृणु । पुरा पुत्र ने प्रकृतमिति दर्शयतिएकान्ते जनरहिने प्रदेशे चरितुं शीलमस्येत्येकान्तचारी तथा आम्पतीति भ्रमणः पुराऽपरोक्त प्रस्त धरणविशेवैर्निर्भसितो मां विहाय देवादिमध्यगतोऽसौ धर्म किल कथयति, तथा भिक्षून् बढ्नुपनीय प्रनृतशिष्यपरिकर कृत्वा भवद्विधानां मुग्धजनानामिदानां पृथक् पृथग्, विस्तरेणाचष्टे धर्ममिति शेषः ॥ १ ॥ पुनरपि गोशालक एव सा जीविया ' इत्याचायेवं बहुजनमध्यमतेन धर्मदेशना युष्मगुरुणाssधा सा जीविका प्रकर्षेण स्थापिता प्रस्थापिता की विहरत बौकिकैः परिभूयत इति मत्वा लोकपङ्किनिमित्तं महान् परिकरः कृतः । तथा चोच्यते- "छत्रं बानं पानं, वस्त्रं यष्टिं च चयति निकुः । वेषेण परिकरेण न कियनिनादिदानेन जीवि कार्यमिदमारण्यम् । किं तेन स्थिरेण पूर्वमासा मेरी किता नत्र तथाभूतमनुष्ठानं सिकताकयन्नवन्निरास्वाद यावज्जीवं कलम्, अतो मां विहायायं बहून् शिष्यान् प्रतायैवंभूतेन स्फुटाटोपेन विहरतील पूर्वचर्यापरित्या गेनापरकल्पसमाश्रयात् । एतदेव दर्शयति--सभायां गतः समनुपदि व्यवस्थितो गमो ति) गणशो बहुशः, अनेकश इति यावत् । भिक्षूणां मध्ये गतो व्यवस्थितः, आचक्कासोहित बहुजन्योऽर्थस्तम बज (५५०) अभिधानराजेन्द्रः । विहरति । एतच्चास्यानुष्ठानं पूर्वापरेण न संघत्ते । तथाहि यदि सांप्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रयं सिंहासनाशोकवृकनाम एकलचामरादिके माध्यततो या प्राणम्येकच फ्रेशमला तया कृता सा शाप केवलमस्येति अथ कर्मनिरतुका परमार्थजूता तनः साम्प्रतावस्था परप्रतारकत्वाद् दम्भकल्पेस्वतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठान योमौनवतिक धर्मदेशना रुपयोः परस्प रतो विरोध इति ॥ २ ॥ अपि च एतमेवंविइसिंह, दोवरगमन्नं न समेति जम्हा | पदपथेकान्तचारित्रमेय शोभनं पूर्वमाताततः सर्वदाऽन्यनिरपेक्षैस्तदेव कर्तव्यम् । श्रथ चेदं साम्प्रतं महापरिवार साधु मन्यते तदाप्याचरणीयमासीत्। अपि च-हे अध्येते नायाऽऽतपवदत्यन्तविरोधी वृत्ते नैकत्र समवायं गच्छतः। तथाहि यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रव न धर्मदेशना ?। अथः नयैव धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतमाला है। तस्मात्पूरयाहतिः । (३) तदेवं गोशालकेन पर्यनुयुक्त श्रार्द्धककुमारः लोकपआर्केनोसरावाचाह पुत्रि च इनिं च प्रणागतं वा, एतमेवं पत्रिसंयाति ॥ ३ ॥ अगकुमार ( पुवि चेत्यादि ) पूर्व पूर्वस्मिन्काले, यन्मौनवतिकत्वं, या कचर्या, तस्थत्वाद् घातिकर्मचतुष्टयकयार्थम । सांप्रतं यन्महाजनपरिवृतस्य धर्मदेशनाविधानं तत् प्राम्यद्धभोपा ढिकर्मचतुष्टयपणोद्यतस्य विशेषतस्तीर्थकरनाम्नो वेदनार्थम्, अपरासां चांर्गोत्र शुभायुर्नामादीनां शुभप्रकृतीनामिति । यदि पूर्वमनागते च काले रामपरहितत्वादेकनानानतिक्रमणाचे यमेवानुपच भगवानजनहितं धर्म धयन् प्रतिसंदधाति । न तस्य पूर्वोत्तरयोरवस्थयोराशंसारहितत्वाद्भेदोऽस्ति अता यदुच्यते भवता पूर्वोत्तरयारवस्थयोरसाङ्गत्यं तत् प्लयत इति ॥ ३ ॥ कर्मदेशना प्राणिनां कचिदुपकारो भवत्युत नेति ? ; भवतीत्याह समिच्च लोगं तस्थावराणं, स्वमंकर सम माइया । इक्खमाणो वि सदस्समज्जे, एतयं सारयती तढ़ने ॥ ४ ॥ सम्यग्यथावस्थितं लोकं द्रव्यात्मकं मत्वाऽवगम्य केवलालोकेन परिच्छिद्य, त्रस्यन्तीति त्रसास्त्रसनामकर्मोदयात्, द्वीन्द्रिया दयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयात्, स्थावराः पृथिव्यादयः तेषामुभयेषामपि जन्तूनां मंशार णशीलः केमंकरः। श्राम्यतीति श्रमणः- द्वादशप्रकार तपोनिएप्तदेहः । तथा-' मा हण' इति प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनः, ब्राह्मणो बास एवंभूतो निर्ममो रागद्वेपरहितः प्रार्थना भजाम्यात्यर्थं धर्ममाचाऽपि प्राग्वत् यथावस्थाय मौनव्रतिक इव वाक्संयत उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वाद्भाषागुणदोषविवेकशतया भाषणेनैव गुणावाप्तेः, अनुत्पन्नदिव्यज्ञानस्य तु मौनव्रतिकत्वेनेति तथा देवासुरनरनिय सहस्त्रमध्ये अपि व्य वस्थितः, पङ्काधारपङ्कजवत, तद्दोषव्यासङ्गाभावात् । ममत्वषिरहादाशंसादोषपिकलत्वादेकान्तमे वासी सारयति प्रख्याति नयति, साधयतीति यावत् । ननु चैकाकिपरिकरोपेतावस्थयां , - विशेषः प्रत्ययैवोपलभ्यमानात् सत्यमस्ति विशेष बाह्यतो नत्वान्तरतोऽपनि दर्शयति तथा चर्चा लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथार्चः। यदि वाऽच शरीरं, तश्च प्राग्वताहि सावशोकाद्यष्टप्रा त्सेकं याति नापि शरीरं संस्कारायत्तं विदधाति । स हि भगवानात्यन्ति रागद्वेषापि जनपरित जनपरि तोऽप्येकाकी, न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिद्विशेोऽस्ति । तथा चोक्रम-"रागद्वेषी विनिर्जित्य किमये करिष्यथितो ि जिंतावती, किमरण्ये करिष्यसि ?" ॥१॥ इत्यतो बाह्यतनं गमनान्तरमेव कषायजयादिकं प्रधानं कारणमिति स्थितम् ॥४॥ (४) अपगतरागद्वेषस्य प्रभाषमाणस्यापि दोषाभाव दर्शयितुमाहधम्मं तस्स उ णत्थि दोसा, स्वतस्स दंतस्स जितिंदियस्स । भासाय दोसे य विवज्जगस्स, गुणेय भागाप णिसेवग ॥ ५ ॥ तस्य भगवतो ऽपगतघनघातिकल इस्योत्ता सकलपदार्था Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहगकुमार अभिधानराजेन्द्रः । अद्दगकुमार विर्भावज्ञानस्य जगदभ्युद्धरणप्रवृत्तस्यैकान्तपरहितमवृत्तस्य पयाति; पापमशुभकर्मेति । इदमुक्त जयति-एतानि शीतोदकादी. स्वकार्यनिरपेक्षस्य धर्म कथयतोऽपि,तुशब्दस्य अपिशब्दार्थत्वा- | नि यद्यपीपत्कर्मबन्धाय, तथापि धर्माधारं शरीरं प्रतिपालयत सनास्ति कश्चिद्दोपः। किभूतस्य?, इत्याह-क्षान्तिसंपन्नस्य,अनेन एकान्तचारिणस्तपस्विनो बन्धाय न भवन्तीति ॥ ७ ॥ क्रोधनिरासमाह । तथा दान्तस्योपशान्तस्य, भनेन मानव्युदा (५)बीजायुपभोगिनो न भ्रमणव्यपदेशभाजःसमाह । तथा-जितानि स्वविषयप्रवृत्तिनिषेधेनेन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियः,अनेन तु लोभनिरासमाचष्टे । मायायास्तु लोभ सीतोदगं वा तह बीयकायं, निरासादेव निरासोकष्टव्यः, तन्मूलत्वात्तस्याः। भाषादोषाः- आहायकम्मं तह इल्थियाओ। असत्यसत्यामृषकर्कशाऽसभ्यशब्दोचारणादयः, तद्विवर्जकस्य | एयाइँ जाणं पडिमेवमाणा, तत्परिहर्तुः । तथा-भाषाया ये गुणाः हितमितदेशकालासंदि. अगारिणो अस्समणा भवंति ॥ ७॥ ग्धभाषणादयः । तनिषेधकस्य सतो अवतोऽपि नास्ति दोषः । उग्रस्थस्य हि बाहुल्येन मौनवतमेव भेयः, समुत्पत्रकेवलस्य तु पतत्परिहर्नुकाम माह-एतानि प्रागुप-यस्तानि मप्राशकोदभाषणमपि गुणायेति ॥५॥ कपरिभोगादीनि प्रतिसेवन्तोऽगारिणों गृहस्थास्ते भवन्त्यथ मणाश्चाप्रवजिताश्चैवं जानीहि । यतः-"अहिंसा सत्यमस्तेकिंभूतं धर्ममसौ कथयति !, इत्याह सं, ब्रह्मचर्यमलुब्धता" इत्येतच्छ्रमणलक्षणं वैषां शीतोदकमहव्वए पंच अन्वए य, बीजाधाकर्मस्त्रीपरिभोगवतां नास्तीत्यतस्ते नामाकाराज्यां तहेब पंचासव संबरे य ।। भमणाः , न परमार्थानुष्ठामत इति ॥९॥ विरति इह सामणियम्मि पन्ने, पुनरप्याक पवैतषणायाहलवावसप्पी समणे त्ति बेमि ॥ ६॥ सिया य बीओदगइत्थियाभो, महान्ति च तानि व्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि,तानिच पमिसेवयाणा समणा भवतु। साधूनां प्रशापितवान् पश्चापि । तदपेक्षयाऽनि लघुनि व्रतानि अगारिणो वि य समणा जवंतु, पीव, तानि श्रावकानुदिश्य प्रशापितवान् । तथैव पञ्चाश्रवान् प्राणातिपातादिरूपान् कर्मणः प्रवेशद्वारभूतान्तत्संबरं च स सेवंति ते वि तहप्पगारं ॥ ॥ सदशप्रकारं संयम प्रतिपादितवान् । संघरवतो हि विरतिर्भव-- स्यादेतजवदीयं मतं, यथा ते पकान्तचारिणः क्षुत्पिपासादिप्रत्यतो विरतिं च प्रतिपादितवान् । चशम्दात्तत्फलभूतौ निर्जरामो- धानतपश्चरणपीमिताश्च तत्कथं ते न तपस्विनः १, इत्येतदाशको चाइनास्मिन् प्रवचने, लोकेवा , भमणस्य नावःश्रामपयं-सं- क्याऽऽक भाद-(बीमादग ति) यदि बीजाद्युपभोगिनीपूर्णः संयमः, तस्मिन् वा विधेये मूलगुणान् महावताणुव्रतरूपान्, ऽपि भमणा इत्येवं नबताऽभ्युपगम्यते , एवं तांगारिणोऽपि तथा उत्तरगुणान् महावताणुवतम्पान्, कृत्स्ने संयमे विधातव्ये। गृहस्थाः भमणा भवन्तु, तेषामपि देशिकावस्थायामाशंसावता. प्राक इति चित्पावः । प्रज्ञाने तत्प्रतिपादितवानिति । किनृतो- मपि निष्किानतयैका किविहारित्वं, कृत्पिपासादिपीमनं व ऽसौ , नवं कर्म,तस्मात् (अवसप्पी ति) अवसर्पणशीसोऽवस- संभाव्यते । अत माह-(सेवति क) तुरवधारणे, सेवन्त्येव, तेपी, भाम्यतीति भ्रमणः तपश्चरणयुक्तः, इत्येतदहं प्रवीमि स्वय- ऽपि गृहस्थाः। तथाप्रकारमेकाकिविहारादिकमिति ।। मेष च भगवान्पज्ञमहावतोपपन्न इन्छियनोकियगुप्तो विरत- पुनरप्याको बीजोदकादिभोजिना दोषानिधित्सयाssभासौ सवावसपी सन् स्वतोऽन्येषामाप तथान्तमुपदेशंदत्त जे यावि बीमोदगनोत्ति जिक्ख, वान्, इत्येतद् प्रवामीति। यदि वाकंककुमारवचनमाकर्याऽसौ गोशालकस्तत्प्रतिपक्कनूतं वक्तुकाम इदमाह-श्त्येतत्य भिक्खं वि हिंडंति य जीवियड्डी। माणं यदहं प्रवीमि तवृणु त्वम, इति ॥६॥ ते णातिसंजोगमविप्पहाय, यथाप्रतिकातमेवाह गोशासकः कायोवगाऽणंतकरा भवंति ॥१०॥ सीओदगं मेवन बीयकायं, बेचापि भिक्तवः प्रवजिताः,बीजोदकभोजिनः सन्तोसम्यतो प्रा. आहायकम्मं तह त्थियाओ। बारिणाऽपि भिकां वाटन्ति जीवितार्थिनः,ते तथाजूता,कातिम एगंतचारिस्सिह अम्ह धम्मे, योगं स्वजनसंबन्ध, विप्रहाय त्यक्त्वा कायात्कायेषु चोपगच्छ न्तीति कायोपगा,तमुपमईकारम्भप्रवृत्तत्वात, संसारस्यानन्ततवस्सिणो हाजिसमेति पावं ।। ७॥ कराभवन्तीति । इदमुक्तं भवति-केवसं स्त्रीपरिभोग एव तैः परिभवतेदमुनाहि तम-परार्थ प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरि- स्यक्तोऽसावपि कन्यतः। शेषेण तु बीजोदकाद्युपभोगेन गृहस्थ. प्रहः, तथा शिकादिपरिकरो, धर्मदेशना च, न दोषायोत यथा,। कपा एव ते। यत्त निकाऽटनादिकमुपन्यस्तं तेषां, तद् गृहतथाऽस्माकमपि सिद्धान्ते यदेतद्वक्ष्यमाणं , तन्न दोषायेति । स्थानामपि केषांचित्संभाव्यते, नैतावता भमराजाज इति ॥१०॥ शीतं च तदकं च शीतोदकमप्राशुकोदकम; तत्सेवनं परि अधुनतदाकर्ण्य गोशालकोऽपरमुत्तरं दातुमसमर्थोऽन्यतीर्यिभोगं करोतु, तथा-बीजकायोपनोगम्, प्राधाकर्माश्रयणं,स्त्रीप्र कान्सहायान् विधाय सोलुएउमसारं बक्तुकाम माहसधं च विदधातु, भनेन च स्वपरोपकारः कृतो प्रवतीति । भस्मदीये धमें प्रवृत्तस्य पकान्तचारिण पारामोद्यानादि इमं वयं तुं तुम पाउकुठलं, काकिविहारोद्यतस्य तपस्विनो नाभिसमति-नाभिसंबन्धम- पानाइको गरिहास सव्व एव । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२). अदगकुमार अभिधानराजेन्मः। अगकमार पावाइणो पुढो किटयंता, घट्टनेन जात्या तल्लिङ्गप्रहणोदूघट्टनेन वाऽभिधारयामो गहसयं सयं दिहि करेंति पान ॥११॥ .णाहुट्योद्घयामः , केवलं स्वदृष्टिमार्ग तदभ्युपगतं दर्शनं मां पूर्वोक्तां, वाचम । तुशब्दो विशेषणार्थः, त्वं प्रादुकुर्व प्रादुकुर्मः प्रकाशयामः । तद्यथाप्रकाशयन् ,सर्वानपिप्रावादुकान ,गर्हसि जुगुप्ससे,यस्मात्सर्वेड " ब्रह्मा लूनशिरा हरिहशि सरुग् व्यालुप्तशिनो हरः, वि तीर्थकाबीजोदकादिनोजिनोऽपि संसारोचित्तये प्रवर्तन्ते, सूर्योऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक्सोमः कलङ्काङ्कितः । ते तु भवता नान्युपगम्यन्ते । वे तु प्रावादुकाः पृथक २ स्वीयां स्व थोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः, स्त्रीयां दृष्टिं प्रत्येकं स्वदर्शनं कीर्तयन्तः, प्रामुकुवन्ति प्रकाश. सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि "॥१॥ यन्ति । यदि वाग्लोकपश्चाईमा ककुमार श्राह-सर्वे प्रावादुका य. इत्यादि । एतच तैरेव स्वागमे पठ्यते , वयं तु श्रोतारः केवथावस्थितं स्वदर्शनं प्रादुष्कुर्वन्ति,तत्प्रामाण्याच वयमपि स्वद- लमिति । आर्डककुमार एव परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षसाधशनाविर्भावनं कुर्मः । तद्यथा-अप्राशुकेन बीजोदकादिपरिजोगि. नार्थ श्लोकपश्चाद्धेनाह-(मग्गे त्ति) अयं मार्गः पन्थाः सम्यमः कर्मबन्ध पव केवलं,न संसारोच्नेद इतीदमस्मदीयं दर्शनम् । ग्दर्शनादिकः कीर्तितो व्यावर्णितः। कैः?,प्रायः,सर्वौरस्त्याएवं व्यवस्थिते काऽत्र परनिन्दा?,को वाऽमोत्कर्षः इति ॥११॥ धधर्मदूरवर्तिभिः । किंभूतो धर्मः, नास्मादुत्तरः प्रधानो विकिञ्च चत इत्यनुत्तरः, पूर्वापराव्याहतत्वाद्,यथावस्थितजीवादिपते अन्नमन्नस्स विगरहमाणा, दार्थस्वरूपनिरूपणाच्च । किंभूतैरायः ?, सन्तश्च ते पुरुषाच अक्खंति उ समणा माहणा य । सत्पुरुषास्तैश्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतैराविर्भूतसमस्तपदार्थावि र्भावकदिव्यशानः। किंभूतो मार्गः ?, अञ्जू व्यक्तः-निर्दोषत्वासतो य अत्थी असतो यणत्थी, प्रकटः, ऋजुर्वा, वकान्तपरित्यागादकुटिल इति ॥१३॥ गरहाम दिढि ण गरहाम किंचि ॥ १२ ॥ पुनरपि स्वसधर्मस्वरूपनिरूपणायाऽऽहतेप्रावादुकाः,अन्योन्यस्य परस्परेण तु,स्वदर्शनप्रतिष्ठाऽऽशया पर• दर्शन गर्दमाणाः स्वदर्शनगुणानाचवते। तुशब्दात्परस्परतो व्या नई अहेवं तिरिय दिसास, . . इतमनुष्ठानं चानुतिष्ठन्ति। ते च श्रमणा निग्रन्थादयो,ब्राह्मणा द्वि- तसा य जे थावर जे य पाणा। मातयः, सर्वेऽप्येते स्वकं पक्कं समर्थयन्ति, परकीयं च दृषयन्ति । नूयाहिसंकानिदुगुंछमाणा, तदेव पश्चान दर्शयति-(सतो ति) स्वत इति स्वकीये पके स्वान्युपगमेऽस्ति पुण्यं, तत्कार्य च स्वर्गापवर्गादिकमस्तिाप्रख यो गरहती बुसिमं किंचि लोए ॥१४ तः परान्युपगमाच नास्ति पुण्यादिकमित्येवं सर्वेऽपि तीथिकाः उर्ध्वमधस्तिर्यक्ष्वेवं सर्वास्वपि दिक्षु प्रकारापेक्षया, भावदिपरस्परव्याघातेन प्रवृत्ता, अतो वयमपि यथावस्थिततस्वप्ररूप गपेक्षया वा, तासु ये प्रसाः,ये च स्थावराः प्राणिनः। चशब्दा णतो युक्तिविकलवादेकान्तदृष्टिं गर्हामो जुगुप्सामः, नासावे- स्वगतानेकभेदसंसूचकौ । भूतं सद्भुतं तथ्यं, तत्राभिशङ्कया कान्तो यथावस्थिततत्वाविर्भावको भवतीत्येवं व्यवस्थिते त- तथ्यनिर्णयेन प्राणातिपातादिकं पातकं जुगुप्समानो गर्हमाणः; स्वस्वरूपं वयमाचक्काणा न किञ्चिामः,काणाएगघट्टनादि- यदि वा भूताभिशङ्कया सर्वसावद्यमनुष्ठानं जुगुप्समानोनैव पप्रकारेण केवलं स्वपरस्वरूपाविर्भावनं कुर्मः, न च वस्तुखरूपा- रलोकं कञ्चन गर्हति निन्दति बुसिमंति)संयमवानिति। तदेवं विर्भावने परापवादः । तथा चोक्तम्-- रागद्वेषवियुक्तस्य वस्तुस्वरूपाविर्भावने, न काचिति । अथ " नेत्रनिरीक्ष्य विकण्टककीटसपान, तत्रापि गर्दा भवति, तर्हि न ह्यष्णोऽग्निः,शीतमुदकं,विषं मारणा सम्यक्पथा बजत तान्परिहत्य सर्वान् । त्मकमित्येवमादि किञ्चिद्वस्तुस्वरूपमाविर्भावनीयमिति ॥१४॥ कुज्ञानकुभुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान् , स एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिको निराकतोऽपि सम्यग्विचारयति कोऽत्र परापवादः ?" ॥१॥ इत्यादि। पुनरन्येन प्रकारेणाऽऽहपदि चैकान्तवादिनामेवास्त्येव नास्त्येव वाऽभ्युपगमक्तामयं प-1. प्रागंतगारे आरामगारे, रस्परगर्दाख्यो दोषो नास्माकमनेकान्तवादिनां, सर्वस्यापि समणे न जीते ण उवेति वासं । सदादेः कथञ्चिदभ्युपगमात् । एतदेव श्लोकपश्चाद्धेन दर्शयति-(स्वत इति) स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैरस्ति । तथा-(परत दक्खा हु संते बहवो मणुस्सा, इति ) परद्रव्यादिभिर्नास्तीत्येवं पराभ्युपगमं दूषयन्तो गर्दा ऊरणाअतिरित्ता य लवासवा य॥ १५ ॥ मोऽन्यानेकान्तवादिनः । तस्वरूपनिरूपणतस्तु रागद्वेषवि स विप्रतिपन्नः सन्नार्डकमेवाह-योऽसौ भवत्संबन्धी तीर्थरहान किश्चिमाम इति स्थितम् ॥१२॥ करः स रागद्वेषभययुक्तः। तथाहि-भसावागन्तुकानां कार्यरिएतदेव स्पष्टतरमाह कादीनामगारमागन्तागारं,तथाऽऽरामेऽगारमारामागार, तण किंचि रूवेणनिधारयामो, प्राऽसौ श्रमणो भवत्तीर्थकरः। तुशब्द एवकारार्थे। भीत एवासौ सदिहिमग्गं तु करेमि पाउं । तपाध्वंसनन्नयात्तत्रागन्तागारादौन वासमुपति, न तत्रासनस्था नशयनादिकाःक्रियाः कुरुते । कि तत्र जयकारणम्, इति चेसमग्गे इमे किट्टिएँ आरिएहिं, दाह-दका निपुणाःप्रभूतशास्त्रविशारदाः । हुशग्दो यस्मादअणुत्तरे मप्पुरिमेहि अंजू ॥१३॥ थे । यस्मादहवः सन्ति मनुष्याः,तस्मादसौ तद्भीतो न वासंतन कवन भ्रमणं, ब्राह्मणं वा स्वरूपेण जुगुप्सितानावयवो। समुपैति न तत्र समातिष्ठते। किंगूताः, न्यूनाः स्वतोऽवमा Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गकुमार हीनाः, जास्याद्यनिरिका वा पराजितस्मा इति । तानेव विशिनष्टि-लपन्तीति लगा वाचालाः घोषितानेकनकविचित्रदमकाः । तथा न लपा मौनव्रतिका निष्ठितयोगाः, गुटिकादियुपाशादभिधेयविषया प्रयत तस्तद्भयेनासी युष्मती ॥२७॥ ( ५५३ ) अभिधानराजेन्द्रः । पुनरपि गोशालक एवाऽऽह " मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता सुतेहिँ त्यणिच्छयना । पुद्धिमाणे अणगार अ इति संकमायो ण उवेति तत्य ।। १६ ।। मेघा विद्यते येषां ते मेधाविनो प्राणसमर्थाः तथाया देसी शिक युपेता बुद्धिमतः तथापि सूत्रविषयेऽवनिश् यथावस्थितसूत्रार्थदिन इत्यर्थः ते चैवंभूताः सूत्रार्थविपय मा प्रमकार्षुः अन्येनगरा पके केचन इस्पेस मानस्तेषां बिभ्यन्न तत्र तन्मध्ये उपैत्युपगच्छतीति । ततश्च न ऋजुमार्ग इति, भययुक्तत्वात्तस्य । तथा म्लेच्छविषयं गत्वा न कदाचिकर्मदेशनां च करोति, आर्य देशेऽपि न सर्वत्र । श्रपि तु कुत्रचिदेवेत्यतो विषमदृष्टित्वागद्वेषवत्यसाधिति ।। १६ ।। साद एतद् गोशालक मतं परिहर्तुकाम आई गोऽकाम किच्चा ण य बाल किच्चा, रायाभियोगेण कुभो नए त्रियागरेज्जा पसिणं न वा वि, सकामकिवं हि आरियाणं ॥ १७ ॥ स हि भगवान्प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामयो भवारी कम काम इच्छा, न कामो कामस्तेन कृत्यं कर्त्तव्यं यस्यासावकामकृ स्वास एवं न भवति अनिच्छाकारी भवतीत्यर्थः प्रेक्षापूर्व कारितया वर्तते, सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनो निरर्थकमपि त्वं कुर्वी भगवांस्तु सर्वः सर्वदर्शी परहितैकरतः कथं स्वपरात्मनोर्निरुपकारकमेवं कुर्यात् । तथा च बालस्य कृत्यं यस्य स बालकृत्यः, न चासैौ बालवदनालोचितकारी, न परानुधानापि गौरवाकर्म देशनादिकं विधते । अपितु यदि कस्यचि सस्यस्योपकाराय तद्भाषितं भवति ततः प्रवृतिर्भवति नान्य था। न राजाभियोगेनासी धर्मदेशना ही क कुतस्तस्य जयेन प्रवृत्तिः स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचित्कचित्संशयकृतं प्रश्नं व्यागृणीयाद्. यदि तस्योपकारो जवत्युपकारमन्तरेण न च नैव व्यगुणया यदि वाऽनुतरसुराणां मनःपर्यावज्ञानिनां यमनसैव तयिभावादत व्यापादित्युच्यते । यदप्युच्यते भवता यदि वीतरागोऽसी किमत धर्मकों क संतति चेदित्याशङ्कया स्वकामहत्येन स्वेच्छाचारिताऽसा यपि तीर्थकर्मणः कृपणाय न यथारूपोऽवज्ञान हास्मिरसंसारे कार्यक्षेत्रे चोपकारयोग्ये आर्याणां हि सर्वदेय धर्मदूरवत्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति । किञ्चान्यत्गंता च तत्था अदुवा अंगंता त्रियागरेज्जा समियाssसुपने । 9 १३ F अहराकुमार मारिया दंसण परिना, इति संकमाणा व उबेति तत्य ।। १० ।। स हि जगवान् परहितैकरतो गत्वाऽपि विनेयासन्नम्, अथवाऽप्यगत्वा यथा भव्य सस्योपकारो जवति तथा भगवन्तो ऽन्तो धर्मदेशनांमिति । उपकारे सति गवापि कथयन्ति असति तु स्थिता अपि न कथयन्ति । अतो न तेषां रागद्वेप संजय इति । केवलमाशुप्रज्ञः सर्वज्ञः समतया समदृष्टितया चक्रवसिंद्रमका दिषु पृष्टो वा धर्मे व्यागृणीयात् ; "जडा पुस्तकथ तडा तुच्छस्स कत्थर" इति वचनात् । इत्यतो न रागद्वेष सद्भावस्तस्येनिदेशमसी न जति तमाद-पाकर्मनिष्कृितानांपि परि समन्तादिता गताः प्र इति यावत्समा नगवानित्येतत् तेषु सम्यग्दर्शनमात्रमि कथंचिन जवति इत्याशङ्कमानस्तत्र न वजतीति । यदि वा विप तदर्श निनो भवन्त्यनार्याः शकयवनादयः, ते हि वर्तमानसु कमीकृत्य प्रवर्तन्ते न पारलौकिकम | कुर्वन्त्यतः स कर्मणेषु तेषु भगवान् यानि नपुनादितय दप्युच्यते यथा यथाऽनेकशास्त्रविशारद्गुटिकासि विद्याि कादितीर्थिक पराभवभयेन न तत्समाजे गच्छतीति । एतदपि बासप्रलपितप्रायम् । यतः सर्वज्ञस्य जगवतः समस्तैरपि प्राचामुखमव्ययतुं न शक्यते तु दूरात्सारयतः कुतस्तस्य पराजवः ? | भगवांस्तु केवलानोकेन यत्रैव स्वपरोपका रं पश्यति तत्रैव गत्वाऽपि धर्मदेशनां विधन्त इति ॥ १० ॥ पुनरन्येन प्रकारेण गोशालक आह प जहा णि उदपड़ी, प्रायस्स हे पगरेति संगं । तोत्र मे समणे नायपुत्ते, इच्चैव मे होति मर्ती वियक्को ॥ १६ ॥ यथा वणिक् कश्चिदुदयार्थी पण्यं व्यवहारयोग्यं नामं कर्पूरागकस्तूरिकाम्बरादिकं देशान्तरं त्या पिकानि तथा आयस्य लानस्य हेताः कारणान्महाजनसङ्गं विधते, तदुपमोऽयमपि भवतीर्थकर भ्रमण ज्ञातपुत्र इत्येवं मे मम मतिर्भवति, वितर्कों मीमांसा वेति ॥ १९ ॥ पवमुक्तो गोशाल के नाईकनवं न कुज्जाविणे पुराणं, चिचाम ताई सह एव । पन्नात्रया वंजवतं ति बुत्ता, सोदवही समणे चि बेमि ॥ २० ॥ यो जातः प्रदर्शितः स किं सर्वसाधन उत यदि देशो न नः इतिमावहति । यतो यंत्रोपचयं पश्यति तय कियां व्यापारयति न यथाकथि दित्येतायता साधर्म्यमस्त्येष अय सर्वसाधर्म्येति युज्यते यतो भगवान् विदितवेद्यतया सावधानुष्ठानरहितो न प्रत्ययं कर्म न कुर्यात्। तथाविधूनयत्यपनयति पुरातनं यज्ञ वोपादिकर्म बकम् । तथा त्यक्त्वा श्रमतिं विमति, जायी जयया सर्वस्व परित्राणः विमतिपरित्यागेन यं पवनवतीति भावः । तायी वा मोकं प्रति । अय-वय-मय-पय-वय-तयजय गतावित्यस्य रूपम्। स एव भगवानेवाऽऽह-यथा विमतिपरित्यागेन भूत एव भवतीत्येतायता व संदर्भेण मोक्कस्य तं ब्रह्मवतमित्येतदुक्तम् । तस्मिँश्चोते. तदर्थ वाऽनु-.. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५४) अहगकुमार अनिधानराजेन्डः। अद्दगकुमार तुने क्रियमाणे तस्योदयार्थी श्रमण इति धीम्यहमिति ॥२०॥ ___ एकान्तेन नवतीत्यैकान्तिकः,तथा नातवाभाथै प्रवृत्तस्य विपर्यनवनूता वणिज इत्येतदाईककुमारो दर्शयितुमाह- यस्यापि दर्शनात् । तथा-नाप्यात्यन्तिकः सर्वकालजावी,तरकयदसमारते वणिया नूयगाम, र्शनातास तेषामुदयो लाभो नैकान्तिको नात्यन्तिकश्चत्येवं तद्विदा परिग्गरं चेव ममायमाणा। वदन्ति । तौ च द्वावपिनाचौ विगतगुणादयी भवतः । एतदुक्तं भवति-कि तेनोदयेन वानरूपेण यो नैकान्तिकः, नात्यन्तिकन, ते णातिसंजोगमविप्पहाय, पश्चादनीयेति । यश्च भगवतः (से) तस्य दिव्यज्ञानप्राप्तिलप्रायस्स हेउं पगरंति संगं ॥ १ ॥ कण उदयो साभो यो वा धर्मदेशनाऽयाप्तनिर्जरासकणः, सच ते दि वणिजः,चतुर्दशप्रकारमपि नूतग्राम जन्तुसमूह,समार- सादिरनन्तश्च । तमेवंभूतमुदयं प्राप्तो भगवानन्येषामपि तथाभन्ते तदुपदिकाः क्रियाः प्रवर्तयन्ति,क्रयविक्रयार्थ शकटया- नृतमेवोदयं साधयति कथयति, श्लाघते वा। किंभूतो भगवानवाहनोटमरामलिकादिभिरनुष्ठानैरिति।तथा-परिग्रहं छिपद- न् ?, ताय।। अय-वय-मय-पय-चय -तय-णय-गताविल्यस्य चतुष्पद्धनधान्यादिकं ममीकुर्वन्ति ममेदमित्येवं व्यवस्था- दएमकधातर्णिनिप्रत्यय रूपम, मोकं प्रति गमनशील इत्यर्थः। पयन्ति । ते हि वणिजा झातितिः स्वजनैः सह यः संयोगस्तम' पायी वा,आसन्नजव्यानां त्राणकरणात् । तथा-शाती,काता कत्रिविप्रहायापरित्यज्य,प्रायस्य लाभस्थ तोनिमित्तादपरेण सार्क या,कात या वस्तुजातं विद्यते यस्य स ज्ञाती; विदितसमस्तवेध मग संबन्ध प्रकुर्वन्ति । भगवांस्तु पाजीवरकापरोऽपरिग्रहस्त्य- इत्यर्थः । तदेवंनतेन भगवता तेषां वणिजां निर्विवकिनां कथं क्तस्वजनपकः सर्वत्राप्रतिबको धर्मार्थमन्वेषयन् गत्वाऽपि धर्म- सर्वसाधर्म्यमिति ॥२४॥ देशनां विधत्ते, अतो भगवतो वणिग्भिः सार्क न सर्वसाध- (६)सांप्रतं कृतदेवसमवसरणपद्मावतीदेवच्छन्दकसिंहासनायुय॑मस्तीति ॥२६॥ पनोंग कुर्वन्नप्याधाकर्मकृतवसतिनिषेधकसाधुवकथं तदनुमपुनरपि वणिजां दोषमुद्भावयन्नाह तिकृतेन कर्मणाऽसौ न लिप्यते?,इत्येतोशाक्षकमतमाशङ्कघाऽऽहवित्तेसिणो मे संपगाहा , अहिंसयं सवपयाणुकंपी, ते जोयणट्ठा वणिया वयंति । धम्मे ठियं कम्मविवेगहे। वयं तु कामेसु अकोववन्ना , . तमायदंहिँ समायरंता, प्रणारिया पेमरमेमु गिझे ॥२॥ अवोहिए-ते पडिरूवमेयं ॥ ३५ ॥ वित्तं द्रव्यं तदन्वेष्ट्र शीलं येषां ते वित्तैषिणः। तथा-मैथुनेस्त्री- असौ भगवान् समवसरणाद्युपभोगं कुर्वनप्यहिंसकः सन्नुपसंपर्क, संप्रगाढा अध्युपपन्नाःतथा-ते भोजनार्थमाहारार्थ, व. भोगं करोति । एतदुक्तं भवति-नहि तत्र भगवतो मनागप्याणिज इततश्च यजन्ति, वदन्ति वातांस्तु वणिजो वयमेवं प्रमः- शंसा, प्रतिबन्धो वा विद्यते, समतृणमणिमुक्तालोएकाश्चनलया यौते कामेष्यभ्युपपन्ना गृद्धाः, अनार्यकर्मकारित्वादनार्या रसेषु तदुपनोगं प्रति प्रवृत्तेर्देवानामपि प्रवचनोद्विभावयिषणां कथं व सातागौरवादिषु गृहा मूच्छिताः, नत्येवंभूता भगवन्तोऽहं- नु नाम नव्यानां धर्माभिमुखं प्रवृत्तियथा स्यादित्येवमर्थमात्मता, कथं तेषां तैः सह साधर्म्यमिति', दूरत एव निरस्तैषा लाभार्थं च प्रवर्तनात, अतो नगवानहिंसकः । तथा-सर्वेषां कथेति ॥२२॥ प्रजायन्त इति प्रजा जन्तवः, तदनुकम्पीच, तान्संसारे पर्यटकिञ्चान्यत् तोऽनुकम्पयते तच्छीसश्च । तमेवंरूपं धर्मपरमार्थरूपे व्यवआरंभगं चेव परिग्गडं च , स्थितं कर्मविवेकहेतुभूतं प्रवद्विधा आत्मदपमैः समाचरन्त मात्मकल्पं कुर्वन्ति, वणि गादिभिरुदाहरणैः । एतचाबोधेरकानप्रविउस्मिया णिस्सिय प्रायदंडा। स्य प्रतिरूपं वर्तते। एकं तावदिदमझानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तनम्। तेसिं च से नदए जं वयासी, द्वितीय चतत्प्रतिरुपमहानं यद्भगवतामपि जगद्वन्द्यानां सर्वातिचनरंतऽपंताय उहाय णेह ॥२३॥ शयनिधानलूतानामितरैः समत्वापादनमिति ॥ २५ ॥ प्रारम्नं सावद्यानुष्ठानं च,तथा-परिग्रहं चाऽव्युत्मज्यापरित्यज्य, साम्प्रतमार्डककुमारमपहस्तितगोशालकं ततोभगवदनिमुखं तस्मिन्नेवारम्भ क्रयविक्रयपचनपाचनादिके, तथा-परिग्रहे च गच्चन्तं दृष्ट्वाऽथान्तराले शाक्यपुत्रीया निकवश्दमूचुर्यदंताणधनधान्यहिरण्यसुवर्णद्विपदचतुष्पदादिके, निश्चयन श्रिता बद्धा म्हष्टान्तदूषणेन बाह्यमनुष्ठानं दूषितं, तच्छोजनं कृतं नवता,यतो. नि:श्रिताः, वणिजो भवन्ति, तथाऽऽत्मैव दएमो, दएमयतीति प्रतिफल्गुप्राय बाह्यमनुष्ठानम,आन्तरमेव त्वनुष्ठानं ससारमोक्कयोः . दामो, येषां तेजवन्त्यात्मदएमाः, असदाचारप्रवृत्तेरिति। जाबो प्रधानाङ्गम,अस्मत्सिकान्ते चैतदेव व्यावार्यते । इत्येतदाईक्रकऽपि चैर्ण वणिजां परिग्रहारम्नवतां स उदयो लाभो यदर्थं ते मार!नो राजपुत्र ! स्वमवहितः शृणु श्रुत्वा चावधारयति भाणप्रवृत्ता,यं च त्वं लाभं वदसि,स तेषां चतुरन्तश्चतुगतिको यः त्वा ते निक्षुका प्रान्तरानुष्ठानसमर्थकमात्मायसिकान्ताजवि - मंसाराऽनन्तस्तस्मै तदर्थ जयतीति।न चेहासावेकान्तेन तत्प वनायेदमाहुःवृत्तस्यापि जवतीति ॥ २३ ॥ पिनागपिंमीमदि विघसले, एतदेव दर्शयितुमाह केई परज्जा पुरिमे इमे ति। गंत चंतिय नदएवं, वयंति ते दो वि गुणोदयम्मि। अझाउयं वा वि कुमारर त्ति, से उदए सादिपर्णत पत्ते,तमुदयं माहय ताणाई॥२४॥। स सिंपती पाशिवहण अम्हं ॥१६॥ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अड्गकुमार स पिण्याकः खलः, तस्य पिण्डिर्नित्तकं, तदचेतनमपि सत् कस्मिसंभ्रमेयादिविषये केलता प्राप तथाप्रवृत्तेन पुरुषोऽयमिति मत्यपि गृहीतम, ततोऽसौ म्लेच्छो वस्त्रवेष्टितां तां नपिएम पुरुषपावके तथा तुम्यकं कुमारो 3यमिति मत्वाऽग्नावेव पपाच, स नैवं चित्तस्य दुष्टत्वात्प्राणिवधजनितेन पानकेन युक्तमूलमा शुजन्यस्य इत्येवं नाद कुशलचि सप्रामाण्यादपि प्राणातिपातप्रतिघातफलेन युज्यते ॥ २६ ॥ अमुमेव तं वैपरीत्येना 35अनादि विकूण मिला ले, पिभागबुद्धी नरं पजा । कुमारगं वा वि अलाबुयं ति न लिई पाणिरहे अम् ||२७|| अथवाऽपि सत्य पचेत्, तथा कुमारकं बालं, तुम्बकबुद्ध्याऽग्नावेव पचेत । नवमे बासी प्रजनन पालन लिप्यतेऽसाकमिति ॥ २७॥ किञ्चान्यत्पुरिमं च विण कुमारगंगा, सूत्रम्मि केई परजायते । कश्चिन्मलेल ( ५५५ ) अभिधानराजेन्ऊ: । पिनायपिंग सतीमारुहेत्ता, बुदाण तं कप्पति पारणाए ||२८|| पुरुषं या कुमारं वा विडा कचित्यजाततेजस्वनाथा ह्यखपराडीयमिति मत्वा सतीं शोभनां तदेतद्बुद्धानामपि पारसाय भोजनाय कल्पते योग्यं भवति किमुतापरेषाम् । एवं सर्वास्ववस्थास्वचिन्तितं मनसाऽसंकलितं कर्मचयं नाग त्यसद्धान्ते तदुक्तम्-"अविज्ञानापचितं परिप चितमीर्यापथिकं स्वप्नान्तिकं चेति कर्मोपचयं न याति ॥ २८ ॥ पुनरपि शाक्य एव दानफलमधिकृत्याऽऽहसिपाय गाणं तु 5वे सहस्से, जे जोयए णितिए भिक्खुयाणं । ते पुत्रखंधं सुमहं जिणिता " अवंति आरोग्य महतसवा ||२५|| स्नातका बोचिसाचा तुराभ्रपञ्चशिखापदिकादिपरिग्रहः। भिक्षुकाणां सहस्रद्वयं. ये निजे शाक्य पुत्रीये धर्मे व्यवस्थिताः केचिदुपासकाः पचनपाचनाद्यपि कृत्वा भोजयेयुः समांसगुडदाडिमेनेष्टेन भोजनेन, ते पुरुषा महासत्त्वाः श्रद्धालयः पुण्यस्कन्धं महान्तं समावर्ज्य, तेन च पुण्यस्कन्धेनारोप्याख्या देवा भवका सर्वोत्तम देवगतिगच्छतीत्यर्थः ॥२६॥ (७) तदेवं वुद्धेन दानमूलः, शीलमूलश्च धर्मः प्रवेदितः, त देशाच्य सिद्धान्तं प्रतिपद्यस्येत्येवं मिणुकैरभिदितः मन्नार्थकोडनाकुलया दृष्टया तान्वीक्ष्योवाचेदं वक्ष्यमाणमित्याह अजोगरूवं इह संजयाणं, पारं तु पाया पका । आवोदिए दो वितं असा वयति जे यात्रि पडिस्सुणंति ॥ ३० ॥ रहास्थिम्भवदीये शाक्यमने संयनानां भिप्रा तदत्यन्तेनायोग्य रूपमघटमानकम्। तथाहि अहिंसार्थमुत्थितस्य त्रिगुप्तिगुमस्य पञ्चसमितिः तस्य सम्यगज्ञानपूर्वक क्रियां कुतो फल प स्मतेस्तस्य महामोहाकुलीनान्तरात्मना ख रुपयोर्विवेकम जानतः कृतस्त्या भावशुद्धिः । अत्यन्तमसाम्प्रतमेसद् बुद्धमतानुसारिणाम, यत्खलबुद्ध्या पुरुषस्य शूले प्रांतनपचनादिकम्। तथा बुद्धस्येवान्नबुद्ध्या पिशितभक्षणानुमत्यादिकमिनि देव दर्शयति प्राणानामेन्द्रियाणामपगमेन शब्दनकारार्थस्यात् पापमेव कृत्वा रस सातागौरवादिवास्तव भावं व्यावर्णयन्ति । एतच्च तेषां पापाभावव्यावर्णनमबोध्यै श्रवांचिज्ञाभार्थीयोपसंपद्यते तसाध्यत , इत्यादयेदन्यानिका अद्दगकुमार यस्तोपो वर्गवारसादिति । अपि च नाज्ञानावृतमूढजनजावया वृद्धिर्भवति । यदि च स्यात्, संसारामतिर्म तथा भावशुद्धिमेष केवन्नामज्युपगच्छतां भवतां शिरस्तु एकमुएनपिएमपातादिक, चैत्यकम्मदिकं चानुष्ठानमनर्थकमा तानापशुपजायन इति स्थितम् ॥३०॥ परपकं दूषयित्वाऽऽर्द्रकः स्वपकाऽविर्भावनायाऽऽद्द हेयं तिरियं दिसामु, विभाय लिंग तयावराणं । नूयाजिसका दुर्गमाणा, बदे करेजाव कुभ विहस्य ? ||३१|| ऊर्ध्वमस्तिर्य या दिशः प्रज्ञापनादिकास्तासु सर्वास्वपि [विशु प्रसानां स्थानांव जन्तूनां पत्रसंस्थाप पानादिकं तद्विज्ञाताशङ्कया जीवोपमर्दोऽत्र भविष्यतीत्यबुद्ध्या सर्वमनुष्ठानं जुगुसमानस्तदुपम परिहरन् वदेत् (प) अतः कुतोऽस्तीदा मामात्यके धमा दितो दोष इति ? ॥ ३१ ॥ श्रधुना पिण्याके पुरुषबुद्ध्यसम्भवमेव दर्शयितुमाहपुरिसेनि विवनि एवमत्य प्रणारिए से Sपुरिसे तहा हु । को जव विभागपिंकिया १ , वाया वि एसा बुझ्या असच्चा ।। ३२ ।। " पिया पुरुषोऽयमित्येवमत्यन्तजस्यापि विि एवं किसोरुभ्युपगमेन हुशब्दस्यैवकारात्येनार्य एवासौ यः पुरुषमेव खतोऽयमिति मत्वा तेऽपि नास्ति दोष इत्येवं वदेत् । तथाहि कः संभवः पुरुष इतो वागमत तकत्वात् । ततश्च निःशङ्कमानालयको ि तस्मादविवाद साकेन प्रवर्त्तितव्यमिति ॥ ३२ ॥ " जोपा Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगकुमार वायाजियोगे जमावहेज्जा, यो तारिमं वायमुदाहरिजा । द्वाणमेव गुणालं, यो दिखिए बूय ऽनुदालमेयं ॥ ३३ ॥ किञ्चान्यत् ( ५५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । वाचाऽभियोगो वागनियोगः तेनापि यद्यस्मात् श्रवहेत् पापं कर्म, ततो विवेकी जाषागुणदोषज्ञो, म तादृशी भाषामुदादरेशमियात् । यत एवं ततोऽस्थानमेतद्वचनं गुणानाम नदि प्रधावस्थितायां निधारयेतदनुदारमसु परिपूर निःसारं निरुपपत्तिकं वचनं ब्रूयात् । तद्यथा-पिण्याकोsपि पुरुषः पुरुषोऽपि पिण्याकः । तथाऽलाबुकमेव बालकः, बालक वायुकमिति ॥ साम्प्रतमाकुमार तं किं क्तिपराजितं सन्तं सोएवं विभणिषुराह - लभ अहो एवं तुभे जीवाणुभागे सुविचितिए य । पुच्वं समुदं अवरं च पुडे, प्रोलाइए पाणितले लिए वा ॥ ३४ ॥ अहो ! युष्मानि अथानन्तर्ये वा पर्वतान्युपगमे सात सा र्थो विज्ञानं यथावस्थितं तत्त्वमिति तथावगतः सुविचिन्तितो भषजियानामनुभागः कर्मविपाकस्तमेति -भवतां यशः पूर्वसमुद्रमपरं च पृष्ठ गतमित्यर्थः तथा भवद्भिवविधविज्ञानावलोकनेनावलोकितः पाणितलस्थ हवायें लोक इति श्रहो ! जवतां विज्ञानातिशयः, यदुत नवन्तः पिण्याकपुरुषालाच विशेषानभिज्ञया पापस्य कर्मणो यथैतद्भावाभावं प्राक्कल्पितवन्त इति ॥ ३४ ॥ तदेवं परपकं दूषयित्वा स्वपक्कस्थापनायाऽऽदजीवाणुना विचितयंता, हारिया अन्नविय सोहिं । न वियागरे अन्नपओपजीवी, एमोम्मोह संजया ॥ २५ ॥ मौनी शासनप्रतिपक्षाः सर्वोमाग अनुसारियो जीवानामनुनागमवस्था विशेष, दुमन बी वा सुष्ठ विचिन्तयन्तः पर्यालोचयन्तोऽन्नविधौ शुरूमाहतवन्तः स्वीकृतवन्तः, द्विचत्वा रिशापरहितेन माहारेणाद्वारे नतु भवतां शितापनं न दोषायेति । तथापी मा खानपीनीयान्पोको अनुप मनुधर्मस्तीर्थ करानुष्ठानादनन्तरं जयतीत्यमुना विशिष्यते । कास्मिन जगनि, प्रवचने व सम्पन रेवंविधमसामिति यच भवद्भिद्नादेप्राश्यमाननया या मांदिया तीन नामा कियांग्वे यथा-गोरधरावेया तथा समानत्वाद प्रयागपव्यवस्थितिर्गित नथा-शुकन कराया दिति हेतुर्भवस्तथा भवेन्मासं प्रा अद्दगकुमार वेन हेतुना । श्रोदनादिवदित्येवं कश्चिदादेति तार्किकः" ॥ १ ॥ सोऽसि नैकान्तिकविरुदोषदुत्यादयः । तथाहि निरंशत्या वस्तुनस्तदेव मांसं तदेव च प्राण्याङ्ग मिति प्रतिज्ञार्थकदेशावसिकः । तद्यथा नित्यः शब्दो नित्यस्या तू । अथ भिनं प्राण्य, ततः सुतरामसिकः, व्यधिकरणत्वात् । यथा-देवदत्तस्य गृहं, काकस्य काष्र्यम् । तथाऽनैकान्तिकोप, श्वादिमांसस्याभङ्ग्यत्वात् । अथ तदपि क्वचित्कथंचित्के पांचअक्षयमिति एवं न सत्यन्यादेरभक्ष्यत्वादनैकान्तिकत्वम् । तथाविरुभापि यथाऽयं देतुर्मासस्य या साय ति, एवं बुकानामपूजत्वमपि । तथा-लोकविरोधिनी चेयं प्रतिज्ञा | मांसोदनयोरसाम्याद् दृष्टान्तविरोधश्चेत्येवं व्यवस्थिते यदुक्तं प्राग् यथा बुकानामपि पारणाय कल्पत एतदिति, तदसाध्विति स्थितम् ॥ ३५ ॥ अन्यदपि निक्षुकोतमार्द्धककुमारोऽनूय दूषयितुमाहसिणगाणं तु दुवे सहस्से, जे नोयए हितिए जिया । संजय लोहियपाणि से ऊ, नियच्छते गरिहम्मिहेव लोए ।। ३६ ।। स्नानकानां बोधिसत्वकल्पानां निक्षूणां नित्यं यः सहस्रद्वयं दित्युकं प्रापयति संयतः सन् रुधिरपाजिना गौ निन्दां जुगुप्सापद साधुजनानामिद लोक एव निश्चयेन गच्छति, परलोके वाऽनार्यगम्यां गतिं यातीति । एवं तावत्सावद्याऽनुष्ठानानुमन्तॄणामपात्रभूतानां यद्दानं तत्क र्मबन्धायेत्युक्तम् ॥ ३६ ॥ किञ्चान्यत्मारिया , उर उद्दिभत्तं च पगप्पइत्ता | तं सोतेल्लेण उवक्खडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ ३७ ॥ आईक कुमार एव सम्मतमाविष्कुर्वदिमाह-स्थूले बृहत्कायमुपचितमांसशोणितम् उरमुरणकम् इह शाक्यशासने, भिक्षुकसंघांशेन व्यापाद्य घातयित्वा तथाहि प्रक पयित्वा भ्रमांसं लचणतैलाभ्यामुपसंस्कृत्य पाचयित्वा, सपिप्पलीकमपरस्रव्यसमन्वितं प्रकर्षेण भक्षणयोग्यं मांसं कुर्वन्तीति ॥ ३७ ॥ संस्कृत्य च यत्कुर्वन्ति तर्दशवितुमाह तं ममाणा पिसितं पतं ण प्रवलिप्यामो वयं रणं । मासु अज्जधम्मं, भारिया बाल रखे गिद्धा ॥ ३० ॥ सन्पिशितं शुकशोणितसंभूतमना इव भुजाना अपि प्रभूतजसा पापेन कर्मणा न वयमुपालिष्यामः इत्येवं धा एपेनाः प्रोचुः श्रनार्यायामिय धर्मः स्वभावो येषां ते तथामार्यकर्मकारिश्यादनार्थी वाला इव बाला विवेकरहितत्वाद्रसं मांसादिकेषु एदा अभ्युपपन्नाः ॥ ३८ ॥ 1 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५७) अद्दगकुमार अनिधानराजेन्द्रः । अगकुमार पतच तेषां महतेऽनयेति दर्शयति एसोऽधम्मो इह संजयाणं ।। ४१ ॥ जे याविभुति नहप्पगारं , भूतानां जीवानाम.उपमर्दशङ्कया सावधमनुष्ठान जुगुप्समाना सेवेति ते पावमजाणमाणा। परिहरन्तः, तथा-सर्वेषां प्राणिनां दएमयतीति दण्डः समुपतामणं न एयं कुसला करेंती, पस्तं, विहाय परित्यज्य, सम्यगुस्थिताः सत्साधयो यतस्ततो न वाया वि एसा बुझ्या उ मिच्छा ।। ३ ॥ शुञ्जते,तधाप्रकारमाहारम शुरुजातीयमपोऽनुधर्मः,इहास्मिन्प्रव. चने, संयतानां यतीनां तीर्थकगचरणात्। अनुपश्चाश्चर्यत इत्यनुना ये चापि रसगौरवगृद्धाः शाक्योपदेशवर्तिनः, तथाप्रकारं | विशेष्यते । यदि चारिति स्तोकेनाप्यतिचारेण वा पाभ्यते स्थलोरनं संस्कृतं घृतलवणमरिचादिसंस्कृतं पिशितंत्र,भुज- शिरीषपुप्पमिव सुकुमार इत्यतोऽणुना विशेष्यत इति ॥ ४॥ तेऽभन्ति, तेऽनार्याः, पापं कल्मषम्, अजानाना निर्विवेकिनः, किचाऽन्यत्सेवन्ते भाददते । तथा चोक्तम्"हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रोलस्य यद् , निग्गंथधम्मम्मि इमं समाहिं, बीभत्सं रुधिराविलं कृमिगृहं दुर्गन्धपूयादिकम् । अस्सिं सुठिच्चा अणिहो चरज्जा। शुक्राम्रक्प्रभचं नितान्तमालनं सद्भिः सदा निन्दितं , बुके मुणी सीलगुणोववेए , को भुते नरकाय राक्षससमो मांसं तदात्मनुहः?" ॥१॥ अञ्चत्थतं पाउणतीसि झोगे ।। ४॥ अपि च अस्मिन्मौनीधर्म बाह्याभ्यन्तररूपो ग्रन्याऽस्यास्तीति नि. "मांस भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम । ग्रंन्धः, स चासौ धर्मश्च निर्ग्रन्धधर्मः, स च श्रुतचारित्रास्यः, पतन्मांसस्य मांसत्वं, प्रवदन्ति मनीषिणः"॥२॥ कान्स्यादिको वा सर्वज्ञोक्तः,तस्मिन्नवंभूतधर्मे व्यवस्थित,इम पूर्वोतथा कं समाधिमनुप्राप्तः, अस्मिँश्चाशुकाहारपरिहाररूपे समाधौ,सुष्ठ "योऽत्ति यस्य च तन्मांस-मुभयोः पश्यतान्तरम् । अतिशयेन स्थित्वा, अनीहोऽमायः। अथवा-निहन्यत इति निहा, एकस्य क्षणिका तृप्ति-रन्यः प्राणैर्वियुज्यते" ॥३॥ ननिहोऽनिदः, पर्गपहरपीडितः। यदि वा-स्निद बन्धने, स्निह तदेवं महादोषं मासादनमिति मत्वा यद्विधेयं तद्दर्शयति इति स्नेहरूपबन्धनरहितः संयममनुष्ठान चरेत । तथा-बुएतदेवंभूतं मांसादनाभिलाषरूपं मनोऽन्तःकरणं, कुशला नि कोऽवगततत्वो, मुनिः कालत्रयवेदी, शीलेन क्रोधाद्युपशमसपुणा मांसाशित्वविपाकवेदिनस्तनिवृत्तिगुणाभिशाश्व, न कु पेण, गुणैश्च मूोत्तरगुणनूतैरुपेतो युक्त इत्येवंगुणकलिघन्ति, तदभिलाषादात्मनो निवर्तयन्तीत्यर्थः। श्रास्तां तावद्भ तोऽत्यर्थतां सर्वगुणातिशायिनी सर्वद्वन्द्वोपरमरूपां संतोषात्मिक्षणं, वागप्येषा यथा मांसभक्षणेऽदोष इत्यादिका भारत्यभि- का श्लाघां प्रशंसां लोके लोकोत्तरे वाऽऽनोति। हितोक्ना मिथ्या । तुशब्दान्मनोऽपि तदनुमत्यादौ न विधेय तथा चोक्तम्मिति । तनिवृत्तौ चेहवानुपमा श्लाघा, अमुत्र च स्वर्गापवर्गगमनमिति । तथा चोक्लम "राजानं तृणतुल्यमेव मनुते शकेऽपि नैबादरो , वित्तोपार्जनरवणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः । "श्रुत्वा दुःखपरम्परामतिघृणां मांसाशिनां दुर्गति, संसारान्तरवर्त्यपीद लभते समुक्तवन्निर्नयः , ये कुर्वन्ति शुभोदयेन विरति मांसादनस्यादरात् । संतोपात्पुरुषोऽमृतत्वमचिराद्यायात्सुरेन्डार्चितः"|१|श्त्यादि । तदीर्घायुरदूषितं गदरुजा संभाव्य यास्यन्ति ते, मत्येषद्भटभोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु च" ॥३६॥ इत्यादि। (९) तदेवमाईककुमारं निराकृतगोशालकाजीवकबोकमतमन केवलं मांसादनमेव परिहार्य्यमन्यदपि मुमुक्षणां परि भिसमीक्ष्य साम्प्रतं द्विजातयःप्रोचुः। तद्यथा-नो आईककुमार! शोभनमकारि भवता, यदेते वेदबाह्ये द्वे अपि मते निरस्ते, हर्तव्यमिति दर्शयितुमाह तत्साम्प्रतमप्याईत वेदबाह्यमेव, अतस्तदपि नाश्रयणार्ह भवधिसम्बेसि जीवाण दयट्टयाए , धानाम् । तथाहि-जवान् कृत्रियवरः क्वत्रियाणां च सर्ववर्णोत्तमा सावजदोमं परिवजयंता । ब्राह्मणा एवोपास्याः, न शूखाः, अतोयागादिविधिना ब्राह्मणसेतस्संकिणो शमिणो नायपुना , वैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाऽऽहउद्दिट्टन परिवजयंति ॥ ४० ॥ सिणायगाणं तु वे सहस्से , सर्वेषां जीवानां प्राणार्थिनां, न केवलं पञ्चेन्द्रियाणामेवेति स जे जोयए णितिए माहणाणं । ग्रहणमा दयार्थतया दयानिमित्त सापद्यमारम्भं महानयं दोष ते पुनखंधे सुमहज्जाणित्ता , इत्येवं मत्वा तत्परिवर्जयन्तः साधवः। तच्चडिनो दोषशङ्किन नवंति देवा इति वेयवाओ ।। ४३ ॥ ऋषयो महामुनयो कातपुत्रीयाः श्रीमन्महावीरवकमान शिष्याः, तुशब्दो विशेषणार्थः। पटकमाभिरता वेदाध्यापकाः शौचाचाउद्दिष्टं दानाय परिकल्पितं यजक्तपानादिकं,तत्परिवर्जयन्ति ।४। रपरतया नित्यं स्नायिनो ब्रह्मचारिणः स्नातकाः, तेषां सहनवयं किश्च नित्यं ये भोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जितपुण्य स्कन्धाः नयाजिसकाएँ सुगंछमाणा , सन्तो देवाः स्वर्गनिवासिनो जवन्तीत्येवंभूतो वेदवाद इति॥४३॥ मव्वेसि पाणाण विहाय दंमं ॥ अधुनाऽऽर्दककुमार पतद् दूषयितुमादतम्हा ए जुनि तहप्पगार, सिणायगाणं तु मुचे सहस्से , Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्दगकुमार जे नोयर शितिए कुलाया। से गच्छती सोमपगारे, विभिती गाजिसेवी ॥ ४४ ॥ ता सहस्रपमा भोजयन्ति किंसानाम कुलानि गृहाणि यानि नित्यं कुला माजीराः कुलाटा इव कुत्राटा ब्राह्मणाः । यदि वा कुलानि कत्रिनित्यं पविणां परतकुंकाणामाम यो येषां ते कुत्रालयास्ते । निन्द्यजी विकोपगतानामेवंभूतानां यो सहभोजनदानो बहुदा गतिषु। लुमि परी गाडी व्यासः यदि वा किंनरके यानि सोभिरद्भिन्यो यो न तदाता है, नरकामिसेवी प्रति योमा पानकुम्भीन सियासी तामा तवेदनमा सागरोपमानि यावतिष्ठनराधि बासी नवतीति ॥ ४४ ॥ दयावरं धम्म दुर्गमाणा, बहाई चम्म पर्सनाणा | एवं नेोपयती असलं, (440) अभिधानराजेन्द्र / सिंजाति कुसुरेहिं ? ।। ४५ ।। दया प्राणिषु कृपा, नया वरः प्रधानो यो धर्मस्तमेव धर्म, जुगुप्समानो निम्न तथा प्रायुपमादी धानृते धर्मनिर्वृतं जीवका योपमर्देन यो नोजयेत् किं पुनः प्रभूतान् ? । नृपो राजन्यो वा यः कश्चिन्मूढमतिधार्मिकमात्मानं मन्यमानः स बराको निशेव नियाकारत्वा नरकां पति, कुतस्तस्यासुरे त्यान्धकारत्वान्निशा धमदेवेष्वपि प्राप्तिरिति । तथा कर्मवशादसुमतां विचित्रजातिगमनाज्जातेरशाश्वतत्वम्, अतो न जातिमदो विधेय इति । यदपि कैथाह्मणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गताभ्यां त्रियाः, करुभ्यां वैश्याः, पद्भ्यां शुद्धाः, इति । एतदप्यप्रमाणत्वादतिफल्गुप्रायम् । तदद्भ्युपगमे च न विशेषो वर्णानां स्यात् । एकस्मात्प्रसुते शाखाप्रतिशास्त्रानृपन सोलो वा मुखाः स्य तयादिनां ब्रह्मणो मुखारुद्भवः साम्यतं न जायते युगासति निरकल्पना स्था दिति । तथा यदि कैश्विभ्यधायि सर्वज्ञनिकेपावसरे, तद्यथासर्वरहितोऽतीतः कालः कालत्वाद्वर्तमानकालवत्। एवं च मध्येथानातीतः काखादिविनिर्गत चातुर्वएर्यसमन्वितः, कालत्वाद्वर्तमानकालवत्। भवति च विशेषे फायरप्रदेशादिना नाशनीति | जानेवानित्यत्वं युष्मत्सिकान्त एवानिहितम् । तद्यथा'गायने यस पुरीषनेत्यादिना तथा “सद्यः पतति मांसेन वाकया बवणेन च । त्र्यंड शूजवति, ब्राह्मणः क्षीरविक्रय। " ॥ १ ॥ इत्यादिलोके नावश्यंभावी जातिपातः । यन कम्-" कायिकैः कर्मणां दोवै-यांति स्थावरतां नर मानितां मानवजातिताम् ॥१० त्यादिवर्धने घ - प्रद्दगकुमार शतानि नियुज्यन्ते पशुमध्यमेनि 66 चनात, न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः " ॥ १ ॥ इत्यादि वेदोक्तत्वान्नायं दोष इति चेत सम्दिमनिदितमे दिवात्स तानि " इत्यतः पूर्वोत्तरविरोधः । तथा-" आततायिनमायात-मपि वेदान्तगं रणे । जिघांसन्तं जिघांसीया न तेन ब्रह्मा भवेत्" ॥१॥ तथा-" शूद्रं इत्वा प्राणायामं जपेत्, अपदसितं या परिधान तथा "नास्थिजन्नभ मारयित्वा ब्राह्मणं जोजयेत्" इत्येवमादिका देशना विद्वज्जनमनांसि न रज्जयतीत्यतोऽत्यर्थम समञ्जस मित्र लक्ष्यते युष्मदर्शनमिति ॥ ४५ ॥ (१०) तदेवमाकुमारं निराकृतणावा भगवदतिकं गच्छन्तं दृष्ट्रा एकदएिमनोऽन्तराने एवमूचुः । तद्यथा-जो आईककुमार ! शोजनं कृतं भवता यदेते सर्वारम्भप्रवृत्ता गृहस्थाः शब्दादिविषयपरायणाः पिशिताशनेन राकसकल्पा द्विजातयो निराकृताः तासांप्रतमस्मत्सिकान्तं शृणु, श्रुत्वा चावघारय । तद्यथा सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, "प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहङ्कार - स्तस्मारुणश्च पोमशकः। तस्मादपि षोमशकात्पञ्च - (तन्मात्राणि ते ) ज्यः पञ्च भूतानि” ॥ १ ॥ तथा चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति । एतत्त्वाई तैरप्याश्रितमतः पञ्चविंशतितत्त्वपरिज्ञानादेव मोहाचातिरित्यतोऽस्मात्मिकान्त एव अयानापर इति । तथा न युष्मत्सिकान्तोऽतिदूरेण भिद्यते इति । एतद्दर्शयितुमाहधम्मम्म समुहयामो, प्रो अस्सि सुठिच्चा तह एसकालं । आयारसीले वृश्ऽद नाणं, ण संपरायाम्प विसेसमस्थि ॥ ४६ ॥ योऽयमस्मदीयाः सनरूपोऽपि कथंबिरस मानः । तथादि - युष्माकमपि जीवास्तित्वे सति पुण्यपापबन्धमोक सद्भावः, न लोकायतिकानामित्र तदभावे प्रवत्तिः नापि बौद्वानामिव सर्वाधारभूतस्यान्तरात्मन एवाभावः तथाऽस्माकमपि पञ्च यमा अहिंसादयः, जवतां च त एव पञ्च महाव्रतरूपान तथेन्द्रियमनयमो ऽध्याययोस्तुल्य एव अपि धर्मे बहुसमाने सम्यगुत्थानोत्थिता यूयं वयं च तस्मादस्मि न् धर्मे सुष्ठु स्थिताः, पूर्वस्मिन् काले, वर्तमाने, एष्ये च यथा गृहीतप्रतिनियोंद्वारा न पुनरन्ये यथा प्रतेश्वरयागविधानेन प्रय तोमुन्ति मोहयन्ति येति तथा समु यमनियम फक्त काम प्रधानत ज्ञानंच मोकाङ्गतयाऽभिहितं तच्च श्रुतज्ञानं, केवलाख्यं च, यथावायदर्शने प्रसिद्ध संस्क प्राणिनो यस्मिन्स संपरायः संसारः अभियोग विशेषोस्त। तथा हि-यथा जयतां कारणे कार्य नैकान्तेनासदुत्पद्यते, अस्माकमपि तथैवात्मा नित्यं भयाधितमेव तथो स्यादविनाशावपि पदनिप्रेती प्रविधीयतिरोनावाश्रयणादस्माकमपीति ॥ ४६ ॥ पुनरपि तथैवैकमनः सांसारिकी सम्पादनयाऽऽडू 1 अवतरूपं पुरिसं महंत, Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अद्दगकुमार अनिधानराजेन्छः। अद्दगकुमार सणातएं अक्खयमव्वयं च । दिता नानागतिषु संसरान्त,सर्वव्यापित्वादेकत्वाद्वा । तथा-न ब्रासन्चेमु नूतेमु वि सव्वतो से, ह्मणाः,न कृत्रियाः, न वैश्याः, न प्रेष्या न शूद्राः,नापि कीटपक्कि सरीसृपाश्च भवेयुः। तथा-नराश्च सर्वेऽपि देवलोकाश्चेत्येवं नानाचंदो व्ध ताराहि समस्यरूवे ॥४७॥ गतिभेदेनोनिोरन् । अतो न सर्वव्यापी आत्मा, नाप्यात्माद्वैतवापुरि शयनात्पुरुषो जीवः, तं यथा भवन्तोऽन्युपगतवन्तस्तथा | दोऽप्यायाति,अतःप्रत्येकं सुखदुःखानुभवः समुपलज्यते। तथा; षयमपि । तमेव विशिनष्टि-अमूर्तत्वादव्यक्तं रूपमस्यासाचव्य शरीरत्वपर्यन्तमात्र एवात्मा, तत्रैव तद्गुणविज्ञानोपलब्धरिति तरूपः, तथा करचरणशिरोग्रीवाद्यवयवतया स्वतोऽवस्थाना स्थितम् ॥४८॥ नातथा-महान्तं लोकव्यापिन,तथा-सनातनं शाश्वत, व्यार्थत तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमो यथार्थाभिधायी न भवति, प्रया नित्यं,नानाविधगतिसंभवेऽपि चैतन्यलकणात्मस्वरूपस्याप्र सर्वज्ञप्रणीतत्वातू, असर्वज्ञप्रणीतत्वं चैकान्तपकसमाश्रयणादिच्युतेः। तथा-अकय केनचित्प्रदेशानां बरामशः कर्तुमशक्यत्वा त्यवमसर्वज्ञस्य मार्गोद्भावनं दोषमाविर्भावयन्नाहत्। तथा-अव्ययम्,अनन्तेनापि कालेनैकस्यापि तत्प्रदेशस्य व्ययाभावात् । तथा-सर्वेष्वपि नूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिशरीर लोयं अयाणित्तिह केवलेणं , सर्वतः सामस्त्यानिरंशत्वादसावान्मा भवति।क श्व, चन्द्र श्व कहंति जे धम्ममजाणमाणा । शशीव.ताराभिरश्विन्यादिनिनत्रयथा समस्तरूपः संपूर्णः सं. पासंति अप्पाण परं च णट्टा, बन्धमुपयात्येवमसावपि प्रात्मा प्रत्येक शरीरैः सह संपूर्णः संथ संसारघोम्मि अणोरपारे । ए॥ ग्धमुपयाति, तदेवमेकदलिनिदर्शनसाम्यापादनेन सामवादपू. र्वकं स्वदर्शनारोपणार्थमा ककुमारोऽभिहितः, यत्रैतानि संपूर्णा- लोकं चतुर्दशगज्वात्मकं,चराचरं वा लोकम, अज्ञात्वा केवलेन नि निरुपचरितानि पूर्वोक्तानि विशेषणानि धर्मसंसारयोर्विद्यन्ते, दिव्यज्ञानावभासेनेहास्मिन् जगति,ये तीथिका अजानाना अविस एव पकः सश्रुतिकेन समाधयितव्यो नवति । एतानि चास्म. द्वांसो धर्म धुर्गतिगमनमार्गस्यार्गलानूतं,कथयन्ति प्रतिपादयान्ति, दीय एव दर्शने यथोक्तानि सन्ति नाईते, अतो नवताऽप्यस्म- ते स्वतो नष्टा अपरानपिनो त्रायन्ते । व?, घोरे जयानके ससारदर्शनमेवाभ्युपगन्तव्यमिति ॥४७॥ सागरे (अणोरपारे त्ति)अर्वाग्भागपरभागवजितेऽनाद्यनन्त इत्येतदेवमभिहितः सन्नाईककुमारस्तदुत्तरदानायाऽऽह वंजूते संसारार्णवे श्रात्मानं प्रतिपन्तीति यावत् ॥ ४॥ साम्प्रतं सम्यम्झानवतामुपदेष्टणां गुणानायिभावयन्नाहएवं ण मिज्जति ण संसरंति , सोयं विजाणं तिह केवझेणं , न माहणा खत्तिय वेसपेस्सा । पुत्रेण नाणेण समाहिजुता । कीमा य पक्खी यसरीसिवा य, धम्मं समत्तं च कहति जे ऊ, नरा य सव्वे तह देवलोए ॥४८॥ तारंति अप्पाण परं च तिन्ना ॥ ५० ॥ यदि वा प्राक्तनश्लोकः "अव्वत्तरूवं" इत्यादिको वेदान्तवाद्या लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केवलाबोकेन केवलिनो विविधस्मद्वितमतेन व्याख्यातव्यः। तथाहि-ते एकमेवाव्यक्तं पुरुषमात्मा मनेकप्रकारं जानन्ति विदन्तीहास्मिन् जगति प्रकर्षण जानानं महान्तमाकाशमिव सर्वव्यापिनं सनातनमनन्तमक्यमव्ययं ति प्रका, पुण्यहेतुत्वात् पुण्यम । तेन तथान्तेन ज्ञानेन समा. सर्वेष्वपि भूतेषु चेतनाचेतनेषु सर्वतः सर्वात्मतयाऽसौ व्यव-1 धिना च युक्ताः,समस्तं धर्म श्रुतचारित्ररूपं, ये तु परहितैषिणः, स्थित श्त्येवमन्युपगतवन्तः। यथा-सर्वास्वपि तारास्वेक एव च- कथयन्ति प्रतिपादयन्ति,ते महापुरुषास्ततः संसारसागरं तीर्णाः, संबन्धमुपयात्येवं चासावपि,श्त्यस्य चोत्तरदानायाह-(एव- परं च तारयान्ति सदुपदेशदानत इति के वलिनो लोकं जानन्तीमित्यादि) एवमिति । तथा-भवतां दर्शने एकान्तेनैव नित्योऽवि-| त्युक्ते यत्पुननेिनेत्युक्तं तद् बौद्धमतोच्चदेन झानाधार प्रात्मा कार्यात्माऽत्युपगम्यते इत्येवं पदार्थाः सर्वेऽपि नित्याः। तथा च अस्तीति प्रतिपादनामिति । एतदुक्तं नवति-यथाऽऽदेशिकः सति कुतो बन्धमोकसद्भावः । बन्धानावाश्च न नारकतिर्यनरा-1 सम्यक्षमाग श्रात्मानं परं च तदुपदेशवर्तिन महाकान्ताराद्विमरलक्वणश्चतुर्गतिकः संसारः। मोकानावाञ्च निरर्थकं व्रतग्रहण वक्तितदेशप्रापणेन निस्तारयत्येवं केवलिनोऽप्यात्मानं परं च नवता, पञ्चरात्रोपदिष्टयमनियमप्रतिपत्तिधेत्येवं च यदुच्यते संसारकान्तारानिस्तारयन्तीति ॥ ५० ॥ जवता यथाऽऽवयोस्तुल्यो धर्म शति । तदयुक्तमुक्तम् । तथा सं पुनरप्याककुमार एवाहसारान्तर्गतानां च पदार्थानां न साम्यम् । तथाहि-भवतां द्रव्यै-1 जे गरहियं गणमिहावसंति , कत्ववादिनां सर्वस्य प्रधानादनिन्नत्वात्कारणमेवास्ति, कार्य च जे यावि सोए चरणोववेया । कारणाजिन्नत्वात्सर्वात्मना न विद्यते । अस्माकं च द्रव्यपर्यायोजयवादिना कारणे कार्य द्रव्यात्मतया विद्यते, न पर्यायात्मकत उदाहमंतं तु समं मईए , या । अपि च-अस्माकमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तमेव सदित्युच्यते: अहाउसो' विपरियासमवे ॥ १ ॥ जवतां तु धौव्यं युक्तमेव सदिति । यावयाविर्भावतिरोभावी असर्वज्ञप्ररूपणमेवंचूतं भवति । तद्यथा-ये केचित्संसारान्तं. भवतोच्यते, तावपि नोत्पादविनाशावन्तरेण भवितुमुत्सहेते। तिनोऽशुभकर्मणोपेता समन्वितास्तद्विपाकसहाया,गहितं नितदवमैहिकामुष्मिकचिन्तायामावयोन कथञ्चित्साम्यम । किंच- न्दितं जगुप्सितं निर्विवकिजनाचरितं, स्थानं पदं कर्मानुष्ठानरूपसर्वव्यापित्वे सर्वात्मनामविकारित्वे चात्माद्वैते चाभ्युपगम्य- मिहास्मिन् जगति, आसेवन्ते जीविकाहेतुमाश्रयान्त, तथा च-य माने नारकतिर्यनराऽमरजेदन बालकुमारकसुभगर्भगा55- सदुपदेशयतिनो लोकेऽस्मिन् चरणेन घिरातपारणामरूपेणोपेताः क्यदरिमादिदेन या न मीयेरन्न परिमेयेरन्, नापि स्वकर्मचो । समन्विताः नेपामुनयेषामपि, यदनुष्टानं शोभनाशोभनन्धरूपम Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पि ५१४ाए (५६०) अगकुमार अभिधानराजेन्द्रः । अद्दगकुमार पिसत् तदसर्वहरवाग्दर्शनिः सम सरश तुल्यमुदाहतमुपन्य. भ्रमणानां यतीनां वतानि श्रमणवतानि, तेवपि व्यवस्थित स्तं,स्वमत्या स्वाभिप्रायेण, न पुनर्यथावस्थितपदार्थनिरूपणेन । ताः सन्त एकैकं संवत्सरेणापि ये प्रन्ति, ये चोपदिशन्ति, अथवा-पायुम्मन् हे एकदण्डिन् ! विपर्यासमेव विपर्ययमेवो. तेऽनार्याः, असत्कर्मानुष्ठायित्वात् । तथा-प्रात्मानं परेषांचा. दाहरेदसवको यदशोभनं तच्चोभनत्वेन; इतरवितरथेति । हितास्ते पुरुषाः। बहुवचनमार्षत्वात् । न तारशाः केवलिनोभयदि वा(विपर्यास इति)मत्तोन्मत्तप्रलापवदित्युक्तं नवतीति।५।। वन्ति । तथाहि-एकस्य प्राणिनः संवत्सरेणापि घात येऽन्ये पि(११) तदेवमकदपिमनो निगकृत्याककुमारो याघदून शिताश्रितास्तत्संस्कारे च क्रियमाणे स्थावरजङ्गमा विमाशगवदन्तिकं व्रजति तावद् हस्तितापसाः परिवृत्य तस्मुरिदं च मुपयान्ति, ते तैःप्राणिवधोपदेष्टभिर्न रष्टाः। न च निरबप्रोचुरित्याह घोपायो माधुकर्या वृत्त्या यो भवति स रष्टः, अतस्तेन केबलसंवच्छरेणावि य एगभेगं. मकेवलिनो विशिष्टविवेकरहिताश्चेति । बाणेण मारेन महागयं तु ।। तदेवं हस्तितापसानिराकृत्य भगवदन्तिकं गच्छन्तमाई ककुमार महता कलकलेन लोकेनाभिश्यमानं तं समुपसेमाण जीवाण दयट्ठयाए, लभ्य अभिनवगृहीतः संपूर्णलक्षणसंपूर्णो हस्ती समुवासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ १२ ॥ त्पन्नस्तथाविधविवेकोचितं यद् यथाऽऽककुमारोऽयमपकहस्तिनं व्यापाद्यात्मनो वृत्ति कल्पयन्तीति हस्तितापसाः, तेषां ताशेषतीर्थिको निष्प्रत्यहं सर्वपादपमान्तिकं वन्दनाय मध्ये कश्चिद्धतम एतदुवाच । तद्यथा-भो माईककुमार!सभुः बजति, तथाऽहमपि यद्यप्यपगताशेषबन्धनः स्यां तत पनं तिकेन सदाऽऽल्पबहुत्वमालोचनीयम्, तत्र ये अमी तापसाः महापुरुषमाईककुमारं प्रतिबुद्धतस्करपश्चशतोपेतं, तथाकन्दमूत्रफलाशिनस्ते बहूनां सत्त्वानां स्थावराणां तदाश्रितानां प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्वितं परमया भक्त्यैतदन्तिकं वोपुम्बरादिषु जङ्गमानामुपघाते वर्तन्ते । येऽपि च भैयेणात्मानं गत्वा वन्दामीत्येवं यावदसौ हस्ती कृतसंकल्पस्तावनटवर्तयन्ति तेऽप्याशंसादोपपिता इतश्चेतश्चाटाट्यमानाः पिपी घटादिति श्रुटितसमस्तबन्धनः सन्नाईककुमाराभिमुखं प्रदलिकादिजन्तूनां उपधाते वतन्ते । वयं तु संवत्सरेणापि, अपि सकर्णतालस्तथोलप्रसारितदीर्घकरः प्रधावितः, तदनन्तरं शब्दात् परमासेन चैकैकं हस्तिनं महाकायं बाणप्रहारण लोकेन कृतहाहारवगर्भकलकलेन पूत्कृतम। यथा-'धिक व्यापाचशेषसत्वानां दयार्थमात्मनो वृत्ति वर्तनं तदामिषेण वर्ष कष्टं हतोऽयमार्डककुमारो महर्षिर्महापुरुषः' तदेवं प्रलपमेकं यावत्कल्पयामः । तदेवं वयमेकसत्वोपघातेन प्रनृततर न्तो लोका इतश्चेतश्च प्रपलायमानाः, असावपि धनहस्ती ससत्वानां रकां कुर्म इति ॥५२॥ मागत्याऽऽककुमारसमीपं भक्तिसंभ्रमावनताप्रभागोत्तमाको निवृत्तकर्णतालः त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य निहितधरणीतलदन्ताग्रसाम्प्रतमेतदेवाऽऽककुमारो हस्तितापसमतं भागः स्पृष्टकराग्रतश्चरणयुगल सुप्रणिहतमनाः प्रणिपत्य मदूषयितुमाह हर्षियनाभिमुखं ययाविति । तदेवमा ककुमारतपोनुभावामंबच्छरेणावि य एगमेगं, दुन्धनोन्मुखं महागजमुपलभ्य स पौरजनपदः श्रेणिकराजस्तपाणं हणता अणियत्तदोसा । माईककुमारं महर्षि तसपःप्रभावं चाभिनन्द्यानिवन्ध च प्रोसेसाण जीवाण वहेऽनगा य, वाच-भगवन ! आश्चर्यमिदं, यदसौ वनहस्ती तारविधाच्छ स्रोच्छेपाचलाबन्धनाथुप्मत्तपःप्रन्नावान्मुक्त श्त्येतदतिदुष्कसिया य यो गिहिणो वि तम्हा ।। ५३ ।। रमित्येवमभिहिते,आर्डकुमारः प्रत्याह-भोः श्रेणिक महाराज! संवत्सरेणैकैकं प्राणिनं नतोऽपि प्राणातिपातादनिवृत्तदोषा- मैतहकरं यदसौ वनदस्ती बन्धनान्मुक्तः। अपि त्वेतहष्करं यस्ते भवन्ति । प्राशंसादोषश्च भवतां पञ्चन्द्रियमहाकायसत्त्व सोहपाशमोचनं,पतश्च प्राङ्कियुक्तिगाथया प्रदर्शितम्। सा चेयम. वधपरायणानामतिदुणे भवति । साधूनां तु-सूर्य्यरश्मिप्रका "ण दुक्करं वारणपासमोयणं,गयस्स मत्तस्स बणम्मि रायं !"जहः शितबीथिषु युगमात्ररश्या गच्छतामीर्यासमितिसमितानां उ तत्वाऽऽवसिपण तंतुणा, सुदुक्कर मे पमिहार मोयणं" ॥१॥ द्विचत्वारिंशदोषरहितमाहारमन्वेषयता लाभालाभसमत एवमार्डककुमारेण राजानं प्रतिबोध्य तीर्थकरान्तिकं गत्वाऽतीनां कुतम्त्य आशंसादोषः । पिपीलिकादिसत्वोपघातो निवन्ध च जगवन्तं भक्तिभरनिर्भर प्रासाञ्चके। भगवानपि घेत्यर्थः। स्तोकसत्त्वोपघातेनैवंभूतेन दोषाभावो भवताऽभ्युप तानि पनापि शतानि प्रव्राज्य तच्चिभ्यत्वेनोपनिन्य इति ॥५४॥ गम्यते,तथा च सति गृहस्था अपि स्वारम्भदेशवर्तिन एव प्रा. साम्प्रतं समस्ताभ्ययनार्थोपसंहारार्थमाहणिनो प्रन्तीति शेषाणां च जन्तूनां क्षेत्रकालव्यवाहतानां भव बुकस्म प्राणाऍ इमं समाहिं, दभिप्रायेण वधे न प्रवृत्तायत एवं तस्मात्कारणात्स्यादेवं स्तोकमतिस्वल्पं यस्माद प्रन्ति ततस्तेऽपि दोषरहिता इति ॥५३॥ प्रस्सि मुठिच्चा तिविहेण ताई। ___साम्प्रतमार्कककुमारो हस्तितापमान्दूपयित्वा तरि समुदं च महाभवाघे, तपदेष्टारं दूषयितुमाह आयाणवतं समुदाहरेजा ॥ ५५ ॥ त्ति वेमि। मंचच्रेणावि य एगमेगं, वकोऽवगततत्वःसर्वशो वीरवर्द्धमानस्वामी,तस्य,माझ्या तदा उगमेन, इमं समाधि सरूर्मावाप्तिलकणमवाप्यास्मैिश्व समाधी पाणं हणंता समणव्वयेम। सुष्ठ स्थित्वा मनोवाक्कायैश्च प्रणिहतेन्द्रियो न मिथ्याष्टिमनुमभायाऽहिए ते पुरिसे अणजे. न्यत, केवलं तदाचरणजगुप्सां त्रिविधेनापि करणेन न विधत। ण तारिसे केवमिणो नवनि ।। ५४ ॥ स एवंजूत भात्मनः परेषां च त्राणशीलः. तायं वा गमनशीलो Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६१) अद्दगकुमार अभिधानराजेन्द्रः। अदामलग मोकं प्रति, स एवं भूतस्तरीतुमतिबष्य समुहमिव दुस्तरं म- धर्मकं, रश्मिवच्छ, रइमय इति गयापुदगला व्यवन्दियन्ते । तेच हाभवौध मोक्वार्थमादीयत इत्यादानं सम्यग्दर्शनशानचारित्ररू- गयापुद्गलाः प्रत्यक्त एव सिद्धाः , सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनपंतविद्यते यस्यासावादानवान् साधुः स च सम्यग्दर्शनेन स. श्वायाया अध्यकता प्रतिप्राणिप्रतीतेः। अन्यच्च-यदि स्थूलवता पर तीथिकतपःसमृश्यादिदर्शनेन मौनीमाहर्शनान्न प्रच्य- स्तु व्यवहिततया, दूरस्थिततया वा नादर्शादिष्वधगाढश्मिर्भबते; सम्यग्ज्ञानेन तु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तप्रावा- वति, ततो न तस्मात्तद् दृश्यते, तस्मादवसीयते-सन्ति च्चासुकवादिनिराकरणेनापरेषां यथावस्थितमोकमार्गमाविभावय- यापुद्गला इति । ते चायापुस्तास्तत्तत्सामग्रीवशाद्विचित्रतीतिसम्यकचारित्रेण तु समस्तनूतग्रामहितैषया निरुकाव- परिणमनस्वभावाः । तथाहि-ते गयापुद्गला दिवा वस्तुन्यद्वार: सन् तपोवशेषाच्चानेकभावापार्जितं कर्म निर्जरयति । स्व. मास्वरप्रीतगताः सन्तः स्वसंवन्धिद्रव्याकारमा विचाणाः श्यातोऽन्येषां चैवंप्रकारमेवधर्ममुपाहरेनागृणीयादित्यर्थः । इतिः मरूपतया परिणमन्ते, निशि तु कृष्णाना, पतच्च प्रसरति परिसामाप्त्यर्थे , ब्रामाति ॥ ५५ ॥ सूत्र. २ श्रु. ७ अ०॥ दिवसे सूर्यकरनिकरम् , निशि तु चन्डोद्योते प्रत्यक्वत एवं श्रद्दग ( य ) पुर-आर्षकपुर-न० । नगरजेदे, यत्र पाककु सिकः। त एव चायापरमाणब श्रादादिभास्वरद्रव्यप्रतिगमार उत्पन्नः । सूत्र० २ श्रु० ६ ० । ताः मन्तः स्वसंबन्धिाब्याकारमादधाना यादृग्वर्णाः स्वसंब धिनि व्ये कृष्णो, नीमः, सितः,पीतो वा, तदाभाः परिणमन्ते। अदचंदण-आईचन्दन-न० । सरसचन्दने , औ० । " अ-1 एतदप्यादर्शादिष्वध्यकतः सिकम् । ततोऽधिकृतसूत्रेऽपि ये मइचदणाणुलित्तगत्ता इसिसिलिंधपुप्फप्पगासाई सुहमाई नुष्यस्य गयापरमाणव आदादिकमुपसंक्रम्य स्वदेहवणीअसंकिलिहाई बयाई पचरपरिहिया" इति । आईण सरसे- भतया, स्वदेहाकारतया च परिणमन्ते, ते तत्रोपलचिर्न श. न चन्दनेनाऽनुलिप्तं गात्रं येषां ते प्राचन्दनानुलिप्तगात्राः । रीरस्य, ते च प्रतिबिम्बशब्दवाच्याः। अत नक्तं न शरीरं पश्य(सुपुरुषवर्णकः ) औ०।। ति, किन्तु प्रतिभागमिति । नैवैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितम् । अद्दण-मर्दन-पुं० । अर्द-ल्युट् । गतौ , पीमायां, बधे, याचने यत उक्तं श्रागमेच। वाच । स्वनामण्याते राजनि च, येन पद्मावर्ती प्रार्थयित्वा "भासा उ दिवा छाया, प्रभासुरगता निसिं तु कालाभा। माणिक्यदेवप्रतिमाऽऽनीता । ती० ५:कल्प । सा चेव भासुरगया . सदेहवन्ना मुणेयच्या ॥१॥ जे पादारसं तत्तो , देहावयवा हवंति सकता। भद्दणो (एणो)-देशी-आकुले , दे० ना० १ वर्ग । तोस तत्थऽयलकी, पगासयोगा न इयरेसिं"॥२॥ . अदव अद्रव-त्रि० । निगालिते, पाव० ६ ०। एतन्मसटीकाकारोऽप्याह-यम्मान्ममेव हि पेन्द्रियकं स्थू ल व्यं चयापचयधर्मक , रश्मिवच्च भवति , यतश्चादादिषु अहव्व-अद्रव्य-न । रुप्याधुचितरूव्याभाये, पञ्चा० ३ विव०।। गया स्थूलस्य दृश्यते ऽवगादरहिमनः । न चादरों अनबगाढरअहह ग-आघहण-न। आ-छह-भावे र युट् । उत्क्वाथने, करणे शिमनः स्थूबरुव्यस्य कस्यचिद्दर्शनं भवति । मचान्तरितं रश्यते ल्युट । द्रव्यपाकायाग्नावुत्ताप्यमाने सदकतैनादी, उपा०३ अ । किञ्चित् , अतिदूरस्थं वा इति । अहा-अा-श्री रुदेवताके नकत्रनेदे, अनु । "दो अ- पलिभाग प्रतिभागं ( पेहति) पश्यति । एवमसिमण्यादिविषहात्रो" स्था०२ ठा० ३ उ० । “अद्दा खलु नक्खत्ते " सू० याण्यपि षट्र सूत्राण्यपि भावनीयानि । सूत्रपानोऽप्येयम्-"प्र०१० पाहु । 'अदा णक्खत्ते एगतारे' पं० सं०१ द्वार । सिं देहमाण मणूसे किं असिं देह , अत्ताणं देह , पसिनागं अदाश्थ-पादर्शित-न० । प्रादर्शनेन पवित्रीतूते, वृ०१०।। देव" इत्यादि । प्रशा० १५ पद । स्था० । स्फटिकादिमणौ , नि० चू० १३ उ० । 'अणायार' शब्देऽस्मिन्नेव भाये ३१३ पृष्ठे महामो-दशी-दर्पणे, दे. ना० १ वर्ग । श्रादर्श मुखप्रलोकनप्रस्तावेऽप्येतदुक्तम्) श्रद्दाग-आदर्श-पु० । दर्पणे, स। अदागपासेण (न)-आदर्शमश्न-पुं० । प्रश्नविद्याभेद, यया मा. श्रद्दायं पेहमाणे मणुस्से किं अदायं पहति, अत्ताणं दर्दो देवताऽवतारः क्रियते । पतद्वक्तव्यताप्रतिबके प्रश्नव्याकरपेहति, पलिजागं पेहाति ?। गोयमा ! णो अदायं पहति, __णानामष्टमेऽध्ययने च । परमिदानी प्रश्नध्याकरणेषु पतध्ययनं न दृश्यते । स्था० १० ग० । यो अत्ताणं, पलिजागं पेहति । एवं एतेणं अजिलावेणं अदागविजा-आदर्श वद्या-स्त्री० । विद्याविशेष , ययाऽऽतुर असि मणि दुधं पाणं तेवं फाणियरसं। श्रादर्श प्रतिविम्बितोपमृज्यमानः प्रगुणो जायते । व्य०५ उ०। (अहायमिति ) आदर्श ( पेहमाणे ति) प्रेक्ष्यमाणो मनुष्यः अदागसमाण-आदर्शसमान-पुं० । प्रदर्शन समानस्तुल्य इति किमादर्श प्रेक्कते?,अाहोस्विदात्मानम?। अबात्मशब्देन शरीरमभिगृह्यते। उत पलिनागमिति। प्रतिमागं प्रतिबिम्बम् । भगवा श्रमणोपासकोदे,स्था यो हिमाधुभिःप्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापनाह-प्रादर्श तावप्रेत एच, तस्य स्फुटम्वरूपस्य यथावस्थि वादादी नामकान् भावान् यथावत्प्रतिपद्यते सनिहितार्थानादततया तेनोपनम्नात् । श्रात्मानं आत्मशरीरं पुनर्न पश्यति, त - शकवत, स आदर्शसमानः । स्था०४ ठा०३ ३० । स्य तत्राभावात् । स्वशरीरं हि श्रात्मनि व्यवस्थित नादरों, अहामलग-श्राद्रामलक-नापीबुवृतसंबन्धिनि मधुरे, (ति ततः कथमात्मशरीर तत्र च पश्येत् ति ? प्रतिभागं स्वशरीर- संप्रदायः) ध०२ अधि०। पञ्चा। "अहामनगप्पमाण सश्य प्रतिबिम्बं पश्यति । अय किमात्मकः प्रतिबिम्ब ?। उच्यते-छा- चित्त पुढचिकायं गेएदंति" नि००१०। शाक्तसंबधिनि या पुद्गलात्मकमातथाहि-सर्वमैम्ब्यिकं वस्तु म्यूलं चयापचय. मकरे. प्रव०४ द्वा० . . . Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदारिद्य अभिधानगजेन्डः। अद्धमागही अदारिद्व-प्रारिष्ट-पुं० । कोमलकाके, प्रा० म०प्र०। अद्धजिा-अर्द्धजीर्ण-त्रि०। जीर्णाजीणे, आ.म.द्विा अदिय-अदित-त्रि० । पीमिते , व्य० १० उ० ।। अघजोयण-अईयोजन-म० । योजनस्याऊमर्मयोजनम् । अहोहि (ण-दोहिन-त्रिः। कस्याऽन्यवञ्चके, ध०३भधिका गब्यूती, १०४ उ० । अछ-ई-न। "श्रमाधिमूर्धाऽधेऽन्ते वा"।।२।४१। इति अट्ठम-अर्णाष्टम-त्रि०अर्द्धमष्टमं येषां तान्याटमानि । सासूत्रेण संयुक्तस्य ढत्वविकल्पनामात्र ढः प्रा०। समप्रविन्नागे, एक सप्तसु, का०१ "प्रमाण य रादियाणं अविश्कंनाणं" देशे च। विश०। “अगुलसोणिको जेटुप्पमाणो असी भणि स्था वा सार्कसप्ताहोरात्राधिकेषु-प्रतीनेषु, कर्म०१ कर्मा ओ" । जं. ३ पक। अधणाराय-अर्घनाराच-न0 1 अ नाराचमुन्नयतो मर्फटबअतो-दशी-पर्यन्ते , दे० ना० १ वर्ग। न्धो यत्र तदर्धनाराचम् । मर्कटकैकदेशबन्धनद्वितीयपावकी निकासंबन्धरूपे चतुर्थसंहनने, स.। यत्र हि एक मर्कटमक (द्धा)-अध्वन्-पुं० । प्राकृते-"पुंस्यन प्राणो राज बन्धो द्वितीये च पार्श्वे कीलिका भवति । जी०१ प्रतिका कल्प। प" ३५६॥ इति सूत्रेण अनः स्थाने वा प्राण इत्यादेशः।। पं०सं०। कर्म० । ०। स्था। प्रा० । पथि , को० । मार्गे , का० १४ अ० । नि0 । अच्छतुला-अतुना-स्त्री.। तुन्नाप्रमाणस्या, अनु। अच्छाणं पिय सुविहं, पंथो मग्गो य होइ नायचो॥ । अध्या द्विविधः, तद्यथा-पन्थाः, मार्गश्च। पन्था नाम यत्र ग्रामन अछछ-अर्घाई-न० । चतुर्नागे, पृ. ३ २० । जकाना किश्चिदेकतरमपि नास्ति । यत्र पुनामानुप्रा- अच्छा -श्रद्धादधा-स्त्री० । अमाया अझा अद्धाद्धा। दिवमपरम्परयाऽवसितं भवति स प्रामे मार्ग उच्यते । वृ०१०।। सस्य रजन्या वा एकदेशे प्रहरादौ . स्था० १० ग० । प्रयाणके, विपा०१४. ३ भा। अरुद्धामीसय-अधाामिश्रक-ना अद्धाकाविषयं मिश्रकं सप्रक (काण ) कप्प-अध्वकल्प-पुं० । अध्वनि गृह्यमाणे त्याऽसत्यमकाकामिश्रकम् । सत्यमृषाभेदे, यथा कश्चित्कस्मिकल्ये कमनीये श्राहारे, यू०१०। ('विहार' शम्दे पतदूधि- चित्प्रयोजने प्रहरमात्र पव मध्याह्नमित्याह । स्था०१० मा धिष्टव्यः ) अद्धपंचममुहत्त-अर्धपञ्चममुहूर्त-पुं० । अर्बपञ्चमाश्च ते मु. प्रककरिस-अईकर्प-पुंज पक्षस्याऽष्टमांशे, भनु । हुःश्च अपञ्चममुहूर्ताः । नवसु घटिकासु अयश्चना मुहती अपकविट्ठ-अकपित्थ-पुं० । अकपित्याकारवति,“. यस्य । ६ ब० । नवघटिकापरिमिते, "जया णं भंते ! नको कविटुसंहाणसंग्य " उत्तानीकृतममा कपिन्थस्यैव यत् | सिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स राईए वा पोरिसी जबर" संस्थानं तेन संस्थितमकपित्थसंस्थानसस्थितम् । सू०प्र० भ० ११ श० ११ उ०। १८पाहु। अधपल-अर्धपल-न० । कर्षद्वये , अनु । अच्छकुल( म )व-अ न्न(ड)व-पुं० । मगधदेशप्रसिके अद्धपग्निअंका-अर्धपर्य(त्य) इन-स्त्री० । करावेकपाद निवेधान्यमानविशेष , रा०। शनलकणायां लकणायाम्, स्था०५० १००। प्रककोस-अर्यक्रोश-पुं० । धनुःसहने, जं० ४ वक। अपेडा--अर्द्धपेटा-स्त्री० । पेटाया प्रमईपेटा । पेटायाः अमक्खणं-देशी-प्रतीक्षणे , दे० ना० १ वर्ग। समनएमे । अपटेवारपेटा । पेटाईसमानगमनकणे गोचरअमक्खि -देशी-सेझाकरणे, दे० ना० १ वर्ग। नेदे, पञ्चा० १० विव० । दशा । "अरूपेडा श्मीए चेव अरू संठिया घरपरिवाडी" पं०व०२ द्वा०। अर्कपेटाऽप्येवमेव, नवा अदक्खि(च्छि)कमक्ख-अर्दाक्षिकटाक्ष-न० । तिर्यग्व रमपेटासदृशं स्थानयोदिग्वयं संबच्योहश्रेषयोरेव पर्यटनितमक्ति येषु कटाकरूपेषु चेष्टितेषु ते । अकटाकेषु , "अक ति , वृ० १२० । स्था० । उत्त० । ध० । ग । ऽधिकरक्वचिद्विपाद लूसेमाणा बेति" जी. ३ प्रति । अधभरह-अर्कभरत-पुं० । जरतस्याङमभरतम् । भरताई, अशक्खिय -अक्षिक-त्रि० । अविकृतलोचने, महा०३०।। "अरूभरदस्स सामिका धीरकित्ति पुरिसा" प्रभ०४ आश्र द्वारा अखबा-अदेखन्दा-स्त्री० । अर्धजल गदयन्त्यामुपानहि, अद्धभरहप्पमाणमेत्त--अर्द्धभरतप्रमाणमात्र--त्रि० । अर्बरतवृ० ३३०। स्य यत्प्रमाणं तदेव मात्रा प्रमाणं यस्य स तथा । सातिरकेत्रिअच्छचंद-प्रदचन्छ- अचडाकारे सोपाने, का०१ श्रा पएघाधिकयोजनशतद्वयमिते, "महजरहप्पमाणमेतं वोदि स० । सौधर्मकल्पोऽळचजसंस्थानसंस्थितः । रा। विसेणं विसपरिणयं विसहमाणिकरत्तए" (वृश्चिक आशोअचवाल-अर्मचक्रवाल-न० । गतिविशेषे, स्था-७101 विषो वा ) स्था०४ ग०४३०॥ श्रद्धचकवाला-अईचक्रवाला-स्त्री० । अवलयाकारायां धे-अधमागह--अर्द्धमागध--न ।मगधाविषयभाषानिब म. णी, स्थान ७ वा०। यादशदेशोनाषानियते च । नि० चू० ११ उ० । अचल-अईपष्ट-त्रि० । सापु पञ्चमु, आ० म०प्र० । अद्धमागही-अर्धमागधी-स्त्री० । “रसोर्ल शौ" (OIN२८७) प्रजया-देशी-मोचकाख्यशदत्राणे, देना० १ वर्ग। । मागध्यामित्यादिमागधीभाषाशकणेनापरिपूर्णायां प्राकृतभाषा Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धमागही अडाकाल लक्षणबधाय भाषायाम और प्राकृतादीनां पराणां अपहारवरभद-अपहारसरभद्र पुं० कर्जदारबरीपाधि - भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा " रसोलशा " पतौ देवे, जी० ३ प्रति० । मागच्यामित्यादेिसती सा समाश्रितस्वकीयसमग्र अपहारपरमहावर-अर्थहारवरमावर 1 जी० ३ प्रति क्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते । "भगवं च णं श्रद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खद्" इति द्वाविंशो बुद्धातिशयः । स० ३४ सम० । विपा०| प्रशा० । रा० । श्राचा० । श्रा०म० श्रद्धमागही भासा मासिज्जमाणी विसिजर" भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह-"प्राकृत संस्कृतमागध- पिशाचभाषा च शौरसेनी षष्ठोऽत्र भूरिभेदो, देशविशेषादपभ्रंशः ॥ १॥ भ० ५२०४३० । अदमास श्रर्द्धमास-पुं श्रर्ध मासस्य । एकदे ०त०स०| पञ्चदशादात्मके मासस्यार्द्ध रूपे पक्षात्मके काले, प्रश्न २१ संब० द्वारा श्रद्धमासिय-अर्थमासिक त्रि । पाक्षिके, “ श्रद्धमासिए कलरिमुंडे ति " यदि कर्तव्यां कारयति तदा प पते कारणीयम, झरकर्तव्योंच लोचे प्रायश्चित्तम। कल्प० । अहभरतकाम अर्धरात्रकालसमय पुं० [समयः समाचारोऽपि भवतीति कालेन विशेषितः । कालरूपः समय. फालसमयः । स चानरारूपोऽपि भवतीत्यतोऽर्द्धरात्र कालसमयः। निशीथे रात्रेर्मध्यकाले, श्रद्धरतकालसमग्रंथि सुत्तजागरा श्राद्दीरमाथी श्रहीरमानी" इत्यादि । - 66 भ० ११ श० ११ उ० । 9 । अलपस्य सर्गेऽशे ज्यो० १ पाहु अवधविश्रारं दशा- मण्डने दे० ना० १ वर्ग । अत्रेयाली - अर्धवैताली - स्त्री० । वैताल्या विद्याया उपग्रामविद्यायान् ०१०२० अकासि अर्चनाडूत श्यिका श्री० [देवलसुतराजस्य प्रव्रजितस्य प्रवजितायामेव देव्यामुत्पन्नायां पुत्र्याम, आव०४ अ० अ० चू० ( 'सव्वकामविरत्तया' शब्दे कथा वयते ) असम - अर्धसम - न० 1 एकतरसमे वृत्ते यत्र पादा अक्षराणि वा समानि अथवा पत्र प्रथमतृतीययोर्द्वतीयचतुर्थयोध समत्वम् । (न सर्वत्र ) स्था० ७ ठा० । प्रहार -अर्धा-पुं० । नवसरिके कण्ठाभरणभेदे, रा० । शा० जी० वि० । जं० । जीवा० । आचा० भ० ॥ श्र० । स्वनामख्याते द्वोपे, समुद्रे च । जी०३ प्रति० । तत्रार्द्धहारद्वीपे, अर्द्धहारभद्रार्द्धहारमहाभद्रौ देवौ श्रद्धंहारसमुद्रे अर्द्धहारचराहारमहायरी "जी०३ प्रति । 1 (५६३) अभिधानराजेन्द्रः | , अवध हारजद - अर्धहारन - पुं० । अर्द्धहारद्वीपाधिपतौ देवे, जी० ३ प्रति० । अपहारमा अर्धहारवहान पुं० बहाराच पती देवे जी० ३ प्रति० । अपहारमहावर-अर्धहारमहावर पुं० [अहारसमुझाथ. पता देवे अहारवरमुद्राधिपती देवे च जी० ३ प्रति - - - अर्धहारवर - पुं० । स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुअद्धदारवरइमे च तत्र अर्जदारचराई द्वारपरमदावरी व देवौ वसतः। जी० ३ प्रति० । एं० अहारसमु श्रद्धहारवरवर - अर्धहारवरवर - पुं० । श्रर्द्धहारवर समुद्राधिपती देवे जी०३ प्रति अपहारोभास अर्धहारावभास पुं० स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुद्रभेदे च । तत्र अर्द्धहारावभासे द्वीपे श्रर्द्धहारावभासमझादारावभासमहाभद्री अर्द्धहारावभासे समुद्र अर्जदारावभासवरार्द्धहारावभासमहावरी देवी वखतः । जी० ३ प्रति० । अपहारोभासद अर्धहारावभासनद्र पुं० । महाराज भावाति देवे जी०३ प्रति , " अपहारोभाममहाभद - अर्थहारावासमहाभद्र ईहारावासद्वीपाधिपतौ देवे जी० ३ प्रति० । पारोला समाचा-अर्थदारावासवहार हायमासमुद्राधिपती ०३ प्रति । श्रधाभास अर्पहारायनासवर पुं० [हारावभासजी०३ प्रति अप-अपाश्री० समान कामेदेषु संकेतादिवाचकोऽप्यस्ति । न० ११ ० ११० । धनु । श्रवधिज्ञानाऽऽवरपोपशमलामरूपाली विशे ताका, वर्तमानाद्धा, अनागताद्धा च । कर्म० ५ कर्म० । अपातयधायु-१० श्रद्धा कालस्तस्यधानमायुः | कर्म विशेषोऽभवात्ययेऽपि कथयेपि - मिनि, स्था० २ ० ३ ३० । कायस्थितिरूपे आयुष्कर्मभेदे, स्था० २ ठा० उ० । यथा मनुष्यायुः कस्याऽपि भवाम्यय एव नागच्छति । "दोघं श्राउ पत्तं । तं जहा मनुस्साणं विदितरिक्वा सेवा २०३३० अद्घाकाल अपाका शेषः काफाल बन्द्रविक्रयाविशि तर्वर्तिनि समयादी कालभेदे न० ११ श० ११ ८० । विशेष आ० म० यू० । " श्राकालस्वरूपोपदर्शनार्थे विशेषावश्यकभाष्ये आह सूरकिरिया विसिको, गोरोहार किरियासु निरवेक्खो । श्रद्धाका राई, समयवखेत्तम्मि समाचाई ॥ ४ ॥ सूरो भास्करः, तस्य क्रिया मेरोचतसृष्यपि विशु प्रदक्षिणतोऽजस्रं मणल कणाः सुरस्यो पलकृणत्वान्प्रहन कुत्रतारापपीता किया तथा दिि समयक्षेत्रे या सम मासिक प्रदर्शन पर किया वाद सो sarकालो जपयते । कियैव परिणामवती कालो नान्य शन ये मोहादिकार Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्धाकाल अभिधानराजेन्दः । अद्धाएकप्प पेक्षा, न खलु यथोक्ताद्धाकालः क्रियां गोदोहाद्यामिकामपक्ष्य उद्दद्दरे सुभिक्खे, अकाण पत्र जणं च दप्पेणं ।। प्रवर्तते, किंतु सूर्यादितिम । तथाहि-यावद्यावत्केत्र स्वकिर दिवसादी चळ लहुगा, चन गुरुगा कालगा होति ।।३।। दिनकरश्चलन द्योतयते तद् दिवस नुच्यते, परतस्तु रात्रिः। नम्गम उप्पादणए-सणाएँ जे खन विराहिते गणे। तस्य च दिवसस्य परमनिकृष्टोऽसंख्यतमो नागः समयः। ते चासंख्येया श्रावलिका श्यादि। एवं च प्रवृत्तस्यास्य कालस्थ तं निप्पएणं तस्स उ, पायच्चित्तं तु दायव्यं ॥४॥ सूर्यादिगतिक्रियां विहाय काउन्या गोदोहादिक्रियापेवेति ? के पुढवी पाऊ तेऊ, वान वणस्सति तसा य आणंता । पुनरते समयादयोऽद्धाकालभेदा इत्याह नियुक्तिकार:-"सम- इयरेसु परित्तेसु य, जं जीह आरोवणा नणिता ।।५।। यावलियमुहुत्ता, दिवसमहोरत्तपक्खमासा य । संवच्चरयुगप लहुओ गुरुश्री बहु गुरु, चत्तारि उच्च लहुगा य । लिया , सागरनस्सपिपरिया ॥" विशे० । छग्गुरु दो मूलं, एवढप्पोघपारंची ।।६।। पतदेव सूत्रदाह असिवे प्रोमोदरिए, रायढे जए व आगाढे । से कितं अदाकाले ? अाकाले श्रणेगविहे पाणते । त गीयत्था मज्झत्या, सत्थस्स गवेसणं कुन्जा ।। ७॥ जहा-समयट्ठयाए आवलियट्टयाए०जाव उस्सप्पिणीय कालमकालं मोती,णातूण य अहिवति अणुएणवणा। याए। एस णं सुदंसणा अछादोहारच्छेयाणेणं छिजमा निच्चू मिच्छादिट्ठी , धम्मकहा एणमेते य ॥ ७॥ णा जाहे विभागं जो हव्यमागच्छा ,सेत्तं समए । समय सत्ययसमिए खंमी-परिच्छणे खत्रु तहेव पोग्गलिए । याए असंखेजाणं ममयाएं समुदयसमितिसमागमेणं एगा धम्मकहणिमित्तेणं, वसही पुण दवलिंगणं ।। ए॥ श्रावलिय त्ति वुच्चा, संखेजाओ आवसियाओ जहा सा संथे पंथे तेणे, पंचवितो उग्गही य दव्याणं । सिनदेसए.जाव तं सागरोवपस्स एगस्स भवे परीमाएं । सुत्मग्गामे दन्च-गहणं जयणाएँ गीयत्या ।। १० ।। (से किं तं श्रद्धाकाले इत्यादि) अद्धाकालोऽ नेकविधःप्राप्तः। तुबरे फले य पत्ते, गो महिसे मुत्तरा य हत्थी य । तद् यथा-(समयट्टयाए ति)समयरूपोऽर्थः समयार्थस्तद्भावस्तता, तया, समयनावेन इत्यर्थः । एवमन्यत्रापि । यावत् कर आणवमणातवे वि य , जयणाए जाणगे गहणं ॥११॥ णात् 'मुहुनटुयाए' इत्यादि दृश्यमिति । अथानन्तरोक्तस्य स- पिप्पन्नगसूति आरिग-एक्खव्यणतलियपुमगपत्ते य । यादिकात्रस्य स्वरूपमभिधातुमाह- एस जमिन्यादि) एषा- कत्तिय कत्तरिसिकग-संविदऍ लाउ चेव वात्तीय।।१।। नन्तरोक्तोसपिण्यादिका (अद्धादोहारच्छेयणेणं ति) हौ हारी भागो यत्रच्छेदने, द्विधा वा कारः करणं यत्र तद्, विहारं द्वि पेत्तिय सेन्निय गुलिगा-णं अगदसत्थकोसे य । धाकारं वा, तेन । (जाड़े त्ति) । यदा, समय इति शेषः। “सत्त जं चाहु व गृहकरं, गेएहद्द अडाणकप्पम्मि ॥ १३ ॥ मित्यादि" निगमनम् । (असंखजाणमित्यादि ) असंख्यातानां सीहाणुगा य पुरतो, वसजापामग्गतो समएणेति । समयानां संबन्धिना ये समुदया वृन्दानि तेषां याः समितयो पंथे तं पिय जंता, घरेंति जा अरूपज्जत्ती ।। १४ ॥ मोलनानि तासां यःसमागमः संयोगः समुदयसमितिसमागम दंमिय मिच्छद्दिट्ठी, समुदाए णिवारणं चणिधिसए । सन, यस्कालमान भवतीति गम्यते; सकावालिकेति प्रोच्यत । (सामिदसए ति) षष्ठशतस्य सप्तमोदेशके। भ०११ श०११उ०। सारूविसरण जद्दग-वसना पुण दवलिंगेणं ।। १५ ।। नवकरणचरित्ताणं, विलोयणा सरीरलोयणागाढे । श्रच्छाखिएण-अध्वखिन-त्रि०। पथि बहुचलनेन परिश्रान्ते, धम्मकहाणिमित्तेणं, पुमागकजण आगाढे ॥ १६ ॥ "जो पुण श्रद्धाविनं, अतिहिं पूएइ तं दाणं ।" पिं०। असिनादिकारणेहिं, अद्धाण पवजणं अणुएणातं । अवधाय-अमाच्छेद-पुरा प्रावनिकाद्विके, क०म०पं०सं०। उपकरणपुथ्वपमिले-हिएण सत्येण गंतव्वं ।। १७॥ श्रद्धाढय-अ ढक-पुंगमगधदेशसंबन्धिनि मानविशेने, औ०। वचंताणं असह, को तीण तरेज गंडपादेहिं ?। अधाण-अध्वन्-पुं० । पथि, "पुंस्यन प्राणो राजवच्च " अपरकमो तु ताहे, तहियं तु इमे वि मग्गेजा ।। १८ ॥ ।।३।४६ । श्त्यनः स्थाने आणेत्यादेशः । प्रा। एगवखुरऍ दुक्खरे, दुपिए अणुवंधि तह य अणुरंगा। अध्वान-न0 1प्रयाणके, "अहाणेहिं सुहेहिं पातरासेहि जेणेव अह नया वि जायति, असती अणुसहिमादीहिं।।१। मालामवी चारपल्ली तेणेव नवागच्च " विपा० १ श्रु०३ अ०। एगखुरा आसादी, दुखुरा उद्दादि दुपिय जड्डादी। अदधाणकप्प-अवकल्प-पुं०1 मार्गविहरणविधौ, (स च यथा अणुबंधी सकमादी, अणुरंगप्पिसी तु बोधव्या ॥२०॥ बद् बिहार' शब्दे दयिष्यते ) लेशतस्त्वत्र एएमु पुव्यवह-वखुरादिजातित्तु सिम्पुत्ताद।। ''अहुणा अघाणकप्प वोच्छामि। असती य खुडुओ वा, झिंगविवेगेण कति तु ।।१।। जेहिं च कारणेहिं, अद्धा णो गम्म ते णमो ॥१॥ आवासियम्मि सत्ये, तस्सेव तगं पि अपिएंति पुणो । असिवे प्रोमोदरिए, राथद्दढे नए व आगाढे । अह जणति गता संता, अप्पेजाह विममं एयं ॥२२॥ देसहाणे अपर-कमेय अद्धानो पणगे॥ ॥ साहे य रकमादी, चारेद। तेसि असतिप खुहो। Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाणकप्प लिंगचिपे कार्ड, चारेती जा गतावणं ॥ २३ ॥ एवं दुखुरादीसु वि, जयगा जा जत्थ सा तुकायव्वा । सुनत्यजागरणं प्रप्याहु तु सायन्त्रं ॥ २४ ॥ एतेसामातरं अवगाढा पो णिमेवेज्जा । सहाणगाव राहे, संवट्टियमो ऽवराहाणं ॥ २५ ॥ यारा तयोवस्थ दो सहेब मुझे वा । प्रायारपकध्ये नं, पमाण निम्माणपरिमम्मि । २६ ।। भाकप एसो ... पं० जाण अस्य महाकाय तिथि परिसा कर सीड परिसा पुरो, बसनपारसा मज्जओ मिगा य मक्के, बसना अंते । जाहे उत्तिन्ना श्रद्धाणं ताव न परिवेति; श्रद्धाकप्पं जाव श्रद्धपजत्ती, सो पुण सत्यवाहो मिच्छादिही समुद्राणं वा निचारेजा धम्मकदाइ पावणा, सारुवियसन्नभद्दहिं वा पन्न वेति । श्रह वसभा दव्यलिंगं काऊण पराणवेति वा णं । गाढा(बकरण ति) सो पुण मिच्छादिष्ठिश्रो उवधारणं वा विलोवेजा, चरितसरीरमाई वा पच्छा धम्मकहाइ पुलाग करेंति, आ गाढे कहं पुण गंतव्य सब्बेहि वि ? श्रह कोइन तर बहिचं अत-रखुमा ( ५६५ ) अभिधानराजेन्द्रः | अवयवार्थः पुनः कालो तप, पमाणमद तु वे तमिह । धापच्चक्खाणं, इसमें से पुणियं ॥ १२ ॥ काशन्देन का प्रस्तावदभिधीयते तस्य च कालस्य मुदुप रुष्यादिकं प्रमाणमप्युपचारात् । ( अहं ति ) श्रद्धां वदन्तीति शेषः । तुशब्दो अप्यर्थो भिन्नक्रमश्च यथास्थानं योजित एव । ततो ऽद्धापरिमाणपरिच्छिन्नं यत्प्रत्याख्यानं जयेत् तदिह श्रद्धाप्रत्याख्यानं दशमं पुचकायानादीनां परममि त्यर्थः । तत्पुनरिदं वक्ष्यमाणं भणितं गणधरैरिति ॥ १ ॥ सपा नवकार पोरिसीए, पुरिमèगासणेगठाणे च । आयंबिल जराडे, परिमेय अभि विगई ॥ २ ॥ श्रत्र भीमसेनन्यायेन नमस्कारशब्दात् परतः सहितशब्दो यः ततो नमस्कारश्च, कोऽर्थ ? - नमस्कारसहितं च पौरुषी च नमस्कार पौरुषं । तस्मिन्, नमस्कारविषये, पौरुषविषये चेत्यथे: पूर्व एकासनं व एकस्थानं चेति समाहारे सप्तम्येकवचने पूर्व एकास एकस्थावियेला आचामाम् च श्रभक्तार्थश्च श्राचामाम्लाभक्तार्थ, तत्र, श्राचामामलविषये उपवासविषये च । तथा चरिमे चरमविषये । तथाअनिग्रहे अनिग्रहविषये । तथा ( विगइ त्ति) विकृतिविषयेः सप्तम्येकवचनं मम व्यमिति । दशभेदमिदमाप्रत्याख्यानम् । नन्ये कासनादिप्रत्याख्यानं कथमकाप्रत्याख्यानम्, नहात्र कालनियमः श्रूयते ? | सत्यम् । श्रद्धाप्रत्याख्यान पूर्वाणि प्रायेणैकासनादीनि क्रियन्ते इत्यद्धाप्रत्याख्यानत्वेन भएयन्त इति ॥ २ ॥ प्रव० ४ द्वा० । " अद्धाणगमण - अध्वगमन-न० । पथि विहरणे, “सत्थ अद्वाणगमणे णो कप्पइ, सग वा जाव संदमाणियं वा दुरुहिताणं गच्छित्तर " औ० । स्था० । प्रधाणणिग्गय-अध्वनिर्गत त्रि० । मार्गनिर्गते, व्य०८ उ० । अपापमिवद्य अव्ययतिपन्न मार्गप्रतिष, २०२० १०] (अन्तरापथे वर्तमाने) विहारंवा कुर्वति, बु। अस्य त्रयो मेदाः। तथा" सामविहारी ते विय होती पडिवक्खा वृ० ५ ० । स्त्री० का चेह अवधाणवायणा-अध्यवाचना-श्री० मध्यमार्गे सूत्रार्थ धामी मिया-अधामिधिना काल सह प्रस्तावाद दिवसो रात्रिर्वा परिगृह्यते, संमिश्रितो यया साऽकाप्रदाने व्य० १३० । मिश्रिता सत्यपा प्रभावज्ञाय प्रापा०७ अद्धापरिवित्ति प्रद्धापरिवृत्ति स्त्री० कालपरावृत्ती, "अद्वापरिवित्तीश्रो, पमत्त इयरे सहस्ससो किच्चा । क० प्र०१ अद्धामीमय- अद्धामिश्रक - न० | कालविषये सत्यमृवादे, यथा कस्मिँश्चित्प्रयोजने सहायांस्त्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति प्रत्रीतीति । स्था० १० aro | 35 " चओ वाणं कर, असई खुश्रो लिगविवेगेणं श्रावासिय पच्चविनंति । श्रह भणेजा-तत्थ गया पच्चपिज्जाह, ताहे लिंगत्रिवेगेण खुद्दे उच्चारेश् । एवं गोणोऽवि दुष्पिओ नाम यत्थीअरंगी, सकमबंधी, पयंसा, एवं अप्पाबहुयं नाऊण | गाहा सिद्धं० जाय पमाणणिम्माणचरिमम्मि । एस अकाणकप्पो पं० ० ॥ । । प्राणसी अध्यशीर्षककारादिनिर्गमरूपे प्र घेशरूपे, पिं० । ततः परं समुदायेन सार्थकेन सह गन्तव्यम् । तस्मिन् व्य० ४ ७० | निर्भयमार्गान्ते वृ०३३० । 1 श्रद्धाणिय- आध्वनिक- त्रि० । पथिके, वृ० ४ उ० । श्रद्धापच्चक्खाण अद्याप्रत्याख्यान - न० कालाख्यामकामाश्रित्य पौरुण्यादिकालमाने, श्राव० ६ श्र० । पतच दशमं प्रायश्चितमित्यं प्रतिपादितप्रापचक्खाणं, जं तं कालप्यमाणं । पुरिपोरिसीए मुद्दत्तमासमासे ॥ १० ॥ काकाले प्रत्याख्यानं यद्, तत्कालप्रमाणच्छेदेन भवति पुरि १४२ अवासमय मापीच्यां मुहूर्त्तमासार्द्धमासैरिति गाथासंकेपार्थः ॥ १८ ॥ श्र० चू० ६ ० । - रात्री वा वर्तमानायामुत इति । प्रा० ११ पद | अधारून श्रद्धारूप-त्रि० । श्रद्धा कालः, सैव रूपं स्वनावो यस्य तदकारूपम् । कालस्वभावे, पञ्चा० ५ विव० । पक्रान्ति स्त्री० भर्द्धस्य समयागरूपस्य एकदेशस्य वा एकादिपदात्मकस्यापक्रमणमवस्थानं, शेषस्पतुयादिपघातस्यैकदेशस्पो गमनं यस्य रचना सापकान्तिः (समय) पादेकदेशा पक्रान्ती, विशे० । अच्छासमय- अधासमय पुं० का कालः, तल्लज्ञणः समयः क्षणो ऽकासमयः ॥ भ०२ २०१० उ० अद्धायाः समयो निर्विभागो Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडासमय अभिधानराजेन्द्रः। अधम्म भागः;समयः संकेतादियाचकोऽप्यस्ति,ततोविशिष्यतेऽकाम्प: यसत्ताकाः। पं०म०३ द्वाजकादानिकभाविनीषु कर्मप्रकृतिषु, समयः (मनु.) पट्टसाटिकारान्तसिरे सर्वसो पूर्वापरको- कर्म०५ कमा पं० सं०। ('कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६४ पृष्ठे टिविममुक्त वर्तमाने पकस्मिन् कालांशे, अनुजी पर द्रव्या- तासां स्वरूप कष्ट-यम ) णि, तत्र पञ्च धर्मास्तिकायादयोऽस्तिकायाः, षष्ठोऽकासमयः । अमु(धु) वसाहण-अभ्रवसाधन-1०। अध्रुवाणि नश्वराणि भस्य मस्तिकायत्यानावः, वर्तमानकणकणस्यनकन्वात , अ साधनानि मानुष्यवेत्रात्यादीनि यस्य तदध्रुवसाधनम् । मसीताऽनागतयोरसत्यात् । भ० २०१०१०।अनु०। बहुप्र- नित्यहे तो, पञ्चा० १६ विवा। देशत्य एव हि अस्तिकायत्यम् । अत्र वतीतानागतयोधिनष्टोत्पन्नत्वेन वर्तमानस्येव कानप्रदेशस्य सद्भावाद् नत्वेषमावलि अद्ध (धु) बोदया-अधुबोदया-स्त्री० । ध्रुधोदवप्रतिपक्कासुककादिकालानावः. समय बहुत्य एव तनुपपतेरिति चेद्, भवतु मंप्रकृतिषु, कर्मा यासां तु ब्यबस्छिनोऽप्युदयो नूयोऽवि प्रादुतर्हि, को निवारयता? “समयावलियमहत्ता दिवसमहो। भवति तथाविधद्रव्यक्त्रकालभयमावस्वरूपं पञ्चविध हेतुसंवरत्तपक्षमासा य" स्याद्यागमविरोध इति चेत् । नवम : - न्धं प्राप्य ता अध्रुवोदयः । "अव्वुच्चिनो उद ओ, जाणं पगईनिमायापरिकानात् । व्यवहारनयम तेनैव तत्र स्वच्युपगमात्; ण ता धुवोदइया " कर्म कर्म०। 'कम्म' शब्द द्वितीयजामे अत्र तु निश्चयनयमतेन तदसवप्रतिपादनात । नहि पुजस स्क- २७१ पृष्ठे प्रतिपादयिष्यने चैतत् । न्धे परमाणुसंघान श्यावनिकादिगतसमयसंघानः कश्चिदव- अच्छोवामिय-अच्छौपम्य-ना औषभ्यमुपमा पल्यसागररूपा स्थितः समस्तीति तदसत्त्वमसौ प्रतिपद्यते, इत्यन्नं विस्तरेण । अनु । ('समय' शब्दे एतत्प्ररूपणा चक्ष्यते ) तत्प्रधाना अहा कालोऽद्धापम्यम । राजदन्तादिदर्शनादौपम्य हाब्दस्य परनिपातः । पल्योपमादौ उपमाकाले, स्था०० वा प्रददि-अब्धि-पु.। आपो धीयन्ते ऽस्मिन् ।धा-आधारे कि। उपमानमन्तरेण यत्काल प्रमाणमनतिशायना गृहीतुं न शक्यते सरोवरे, ममु च । वाचः। ऊमौं, अप०१अष्ट । सागरोपमे तदकीपमिकमिति भावः । "दुविहे अकोयमिए पन्नते। तं जहा. (काविशेषे), द्वा० २६ द्वार । पलिश्रोवमे चेव, सागरोवमे नेव' स्था०२ ठा०४ उ० । अधि(ति) करण-अधृतिकरण-न०। मधिकरणे [कसहे], ___ सच नेदप्रभेदात्यां समासतोऽविधःनि० चू० १०००। भट्ठविहे अद्धोवामिए पन्नत्ते । तं जहा-पलिश्रोत्रमे १ साप्रकीकारग--अद्धकारक-त्रि० अर्बमहं करोमि, म पुन गरोवमे १ श्रोसप्पिणीए ३ नस्सलिणी पोग्गलपरिस्त्वया कर्तव्यमित्येवंकारके, पृ० ३३०। यट्टे अतीतद्धा ६ प्रणागयधा ७ सञ्चदान । अब?--अर्धचतुष्क-त्रि० । अर्काधिकत्रिषु , प्र० ४मात्र द्वा० । कर्मः। पल्योक्मसागरोपमयोरुपमाकालना स्पष्ट अवसानिएगादी नांत सागरोपमनिष्पन्नत्यापुपमाकालत्वं जावनीयम् । समयाअत्त-अर्धोक्त-त्रिका अर्बभाषिते, " असेण उ पंचाला" दिशीप्रहेलिकान्तःकालोऽनुपमाकालः । स्था0 0 10 । व्य० १००। अध-प्रथ-अव्य० । आनन्तये, “अध ससरीरो नमवं मकरप्रह(ध)-अध्रन-त्रिका अवश्यनावि प्रियामान्ते सूर्योदयवद | ध्वजो" (पैशाचीप्रयोगः) प्रा० । नि० चू० । धूयमान तथा यसदद्भवम् । श्राचा०१ १०५०२२01 अनियतसस्ये, "अधुवा अणियता प्रसासयासटणपटणविद्धंसणधम्मा अधा-अधन्य-त्रि० । न त। निन्थे," अधमा सूलग्गन्निकामभोगा" का०१०भस्थिरे, "अधुवधणधरणकोसपरिभो. देहा" प्रश्न. ३ आश्र0 5101 "नरगा वहिया अधम्मा ते गधिवजिया"। प्रधषा भस्थिराधनानां गणिमादीनां, धान्यानां वि यदीसंति" प्रश्न१०६०। शाल्यादीनां, कोशा प्राश्रया येषां स्थिरत्येऽविपरिमोगेन अध (8)म-अधम-त्रि० । जघन्ये, “निग्धिणमणसोऽहमबर्जिताच येते तथा । प्रभ० ३ पाश्रद्वा० । प्रवाचले, विवागं" [अधमविपागमिति] मधमो जघन्यो नरकादिप्राप्तिप्राचा० १ ० ८.१० । दशा० । सकणो विपाका परिणामो यस्य तत्तथाविधम् । [आर्तध्यानम्] अद (धु) वबंधिणी--अभुववन्धिनी-खी। न० ता ध्रुवन्धि. भाष० भ० । "अहो बय कोदेण माणेणं महमा गई" मानेन नीप्रकृतिप्रतिपकवासु कर्मप्रकृतिषु, यासां चनिजहेतुसभायेना- मधमा गतिर्भवति । गईभीटमहिषसूकरादिगतिः स्यात् । पश्यं बन्धस्ताः । क. प्र०। (ताच त्रिसप्ततिमझायाका: "कम्म" | उत्त० एम०। शब्दे तृतीयभागे २६१ पृष्ठे दर्शयिष्यन्ते ) अध (ह)म्म-अधर्म-पुं० । गतिपरिणतानां तत्स्वनायाधअक (धु ) वसंतकम्म-अध्रुवसत्कर्मन्-म०। सत्कर्मजेदे, यत्पुः । रणादधर्मः । भनुन धर्मो ऽधर्मः । अधर्मास्तिकाये जीवपुरनरनवाप्तगुणानामपि कदाचिद् प्रवति कदाचिन्न तद्भवस- लानां स्थित्युपएम्भकारिणि, स्था००१ ० "एगे भधम्मे" कर्म । पं० सं०३द्वा०। एकोऽधर्मो ऽनन्तप्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया । स०१ सम। श्रा अद्ध (धु ) वसकम्मिया-अध्रुवमत्कार्मिका-श्री० । ध्रुवसत्क मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगम्पे कर्मबन्धकारणे प्रात्मप रिणामे, " णत्थि धम्मे अधम्मे वा, णेवं सनं णिवेसए" सूत्र. मिकाप्रतिपक्कनूतासु कर्मप्रकृतिषु, क० प्र० । २७०५०। (यतिनां गृहिण चाधर्मपकप्रदर्शनं “ पुरिअक (धु) वसत्तागा--अध्रुवसत्ताका--स्त्री० । अध्रुवा कदाचिद् सविजयविभंग" शब्द करिभ्यते) सायद्यानुष्टानरूपे पापे, भवन्ति कदाचिन्न नवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासांता अन- "अधम्मेण चेव वित्ति कप्पमाणे विदरर" अधर्मण पापेन Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M अधम्म अन्निधानराजेन्षः । अधम्मात्थिकाय सायद्यानुष्ठाननैव दहनादुननिर्लाभनादिना कर्मणा वृत्तिर्वननं गतिपरिणतावपि जीवपुद्गलास्तत्स्वभावतया नाऽवस्थ पय. कम्पयन् कुर्वाणो विहरति, झा० १० अ० । रा० । विषा० । ति, स्थित्युपष्टम्नकत्वासस्यति अधर्मः, स चासो अस्तिकायम. । प्राव । पोरशे गौणाब्रह्मणि च, तस्याऽवारित्ररूप. भी उत्त० ३५ ०। कर्म। जीवपुद्नानां स्थितिपरिणामप. त्वात् । प्रम०४ आश्र द्वा०। रिणतानां तपरिणामोपटम्नकेडमूऽसण्यातप्रदेशसघा तात्मके द्रव्यविशेष, प्रज्ञा० पद । भनु ।स्था । श्राव०। अध ( 1 ) म्मक्खाइ-अधर्मख्याति-पि० । अधर्मेण स्याति द्रव्या।( सिद्धिरस्य 'भत्यिकाय' शम्दे ऽस्मिन्नेव माने यस्य । रासन धर्माद ख्यातिर्यस्येति च । भ.११ श०२३० ५१३ पृष्ठे दर्शिता ) अविद्यमानधोऽयमित्येवं प्रसिमिके, विपा० १ .१ अ तत्वं चअध (.) म्मक्खाइ (ण )-अधर्माख्यायिन् -त्रि० । अ. महम्मत्थिकाए एं नंते ! जीवाणं किं पवत्त: । गोधर्ममास्यातुं शीनं यस्य स तथा । झा०१८ जन धर्ममाख्या- यमा ! अहम्मत्यिकाए णं जीवाणं गणणिसीयणतयट्टण, तीत्येवंशोलो वा । न०३ श०७ ३० । अधर्मप्रतिपादके, विपा० मणस्स य एगत्तीभावकरणय जे गाव तहप्पगारा थि२०१०। रसनावा मवे ते अहम्मत्यिकाए पवनति ठाणलवअधाहम्मजुत्त-अधर्मयुक-ना३ता पापसंबके तहोयोदाह णणं अहम्मत्यिकाए। रणदे,स्था०। यहि उदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादी (ठाणनिमीयणतुयट्टण ति ) कायोत्सगासनशयनानि, प्रथयते केवलं पापानिधानरूपं,येन चोक्न प्रतिपाद्यस्याधर्मवुद्धिरु मावहरचनलोपदर्शनात् । तथा मनमश्च अनेकन्यस्यैकत्वस्व पजायते,तदधर्मयुक्तमातद्यथा-उपायेन कार्याणि कुटयात,कोलि. भवनमकत्वान्नावस्तस्य यत्करणं नत्तथा । ज०१३श०४०) कनलदामवत् । तयाहि-पुत्रवादकमकोटकमार्गणोपलब्धबिह अस्येमान्यभिवचनानिबामानामशेषमकोटकानां तप्तजलस्य विझे प्रकेपणनो मारणद अहम्मस्थिकायस्स गंजते ! केव.या अजिवयणा पम्मर्शनेन रजितचित्तचाणक्यावस्थापितेन चौराहे नलदामाभिधानकुविमेन चौर्यसहकारितालक्षणोपायेन विश्वासिता चा? गोयमा! अणेगा अनिवयणा पामत्ता । तं जहामिलिताचौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वे व्यापादिता इति । अधम्मति वा अधम्मत्यिकापति वा, पाणातिवाय० जाव आहरणतदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वात्तथाविधधोतुरधर्मबुद्धिज- मिच्गदसमहोत वा इरिया ग्रममि त वा. जाव उच्चारपानकवायोति, मत पव नैवंविधमुवाहर्तव्यं यतिनेति। वा०४ मा0 सवणजार पारिट्ठावणिया असमितीति वा मणगुत्ती. उ०। दं च नलदामकुविन्दोदाहरणं मौकिकम, । तथव"चाणकेण चंदे उच्चाइए चंदगुत्ते रायाणए विष एवं स ति वा वगुत्तीति चा काय अगुत्तीति वाजे यावर तह. वं वरिणता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदमंतिपहि मास्सेहि प्पगारा सन्चे ते अहम्मत्यिकायस्स अनिवपणा । न. सह चोरम्गादो मिलिओ णगरं मुस । चाणको वि अन्नं चो. २० श०२ उ०। रम्गादं च विउकामो तिदम गहेऊण परिवायगवेसेण णयर | 'टु अहम्मस्थिकायमभप्पएसा पत्ता' । ते च रुचकरूपा पविद्रो, गओणलदामकोलियलगासं, उवविट्ठो बणणसालाए शति । स्था००ग। प्रत्थर, तम्स दारो मक्कोमपदि खाओ, तेण कालपण अधर्मास्तिकायसिकि:-अधर्मोऽधर्मास्तिकायः, स्थितिः स्थान विसं खणित्ता दहा । ताहे चाणक्केण नमश्-किपए महसि ?, गतिनिवृत्तिरित्यर्थः तल्लकणमस्यति स्थानलकणः। स हि स्थिकोनिनो भण-जह पए समृलजाला ण स्वाजंति. तो तिपरिणतानां जीयपुफलानां स्थितिलकणकार्य प्रत्यपेक्वाकारणपणो वि बास्संति । ताहे चाणकण चिनियं-एस मए लड़ने त्वेन व्यानियत इति, नेनैव सदयत इत्युच्यते । भनेनाप्यनुमानचोरगाहो , एस गंदतेणया समूत्रया नहरिसिहिए । चोर मेव सूचितम । तदम-यद्यत्कार्य तत्तदपेक्वाकारणवत,यथा-घम्याहो कमो, तेण तिमिणा विस्संभिया-अम्हे सम्मिलिया टादि कार्यमा तथा चासौस्थितिः,यश्च नदपेकाकारणं तदधर्माससामो ति। तेहिं अन्ने वि अक्खाया-जे तत्थ मुसगा बहुया, स्तिकाय शति । अत्र व नैयायिकादिः सौगतो वा बदेत नास्त्यमहतराग मुसामो ति। तेहिं अने वि अक्खाया। ताहे ते तेण धर्मास्तिकायः, अनुपलभ्यमानात, शशविषाणवत् । तत्र यदि चोरम्गादेण मिसिळण सम्व वि मारिया । एवं महम्मजुत् ण नयायिका,तदाऽसौ वाच्यः-कथं जवतोऽपि दिगादयः सन्ति !, भाणियन्वं,ण य कायब्वं ति। दंतावल्लौकिकम । अनेन लोको भय दिगादिप्रत्ययसवणकार्यदर्शनाद्भवति हि कार्याकारण नुसरमविचरणकरणानुयोग व्यायोगं चाधिकृत्य सूचितम मानम,एवं सति स्थितिवणकार्यदर्शनादयमप्यस्तीति किन वगतब्यम, पकग्रहणात्तजातीयग्रहणमिति म्यायात् । तत्र च गम्यते । अथ तत्र दिगादिप्रत्ययकार्यस्यान्यनोऽसंभवात्तत्कारणकरणानुयोगेन-"वं भहम्मजुत्तं, कायव्वं किं विनाणिय रणभूतान दिगादीन् भनुमिमीमहेशतिमतिरिहाप्याकाशादीना वा । थोवगुण बहुदोसं, विसेसो गणपत्तेणं ॥१॥ त मवगाहनादिस्वस्वकार्यव्याप्तत्वेन ततोऽसंजवात, अधर्मामहा सो असि पि मालवणं हो"कव्यानुयोगे तु-"वाद. | स्तिकायस्यैव स्थितिलकणं कार्यमिति किं नानुमायते प्रथाम्मि तदा स्वे, विजाय बसेण पवयणहाए । कुजा सावज्जं पि सोन कदाचिद् सपः,पतदिगादिवपि समानम् । अथ सौगतः, ह, जह मोरीण उलिमादीसु॥१॥ सो परिवायगो चिलक्खी साऽप्येवं वक्तव्यः, यथा-भवतः कथं बाह्यार्थसिद्धिः,महि को ति"॥ भौदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनी कदाचिदसी प्रत्यकगोचरः, साकारझानादिनः सदा तदाकारबेति । गतमधर्मयुक्तद्वारम् । दश० १ मा स्यैव संवेदनात् । तथा च तस्याप्यनुलत्यमानस्वादनाव एव । अध ()म्मत्यिकाय-अधर्मास्तिकाय-पुं० । न धारयति । अथाकारसंवेदनेऽपि तत्कारिणमथ परिकल्पते, धूमज्ञान वा Jain Education Interational Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६०) अधम्मत्यिकाय अनिधानराजेन्डः। अधरगमण मिः । एवं स्थितिदर्शनेऽपि किं न तत्कारणस्याधर्मास्तिकाय- घण रज्यते इत्यधर्मप्ररजनः । रक्षयोरैक्यमिति कृत्या रेफस्थामे स्य निश्चयः । अथायमप्यभिदधीत-न कदाचिदसौ तत्कारण- सकारः । शा०२० अ० । अधर्मरागिणि, विपा०१ श्रु०१०॥ वनकित इति । ननु बाह्यार्थेऽपि तुल्यमेतत् . न हि सोऽपि तदाकारतया कदाचिदवलोकितः। श्रथ मनस्कारस्य चिदूपता अध (ह) म्मपलोइ () अधर्मप्रलोकिन्-त्रि० । न धर्ममुपादे. यामेव व्यापारः, न तु नियताकारत्वे, अतस्तत्रार्थः कारणं क यतया प्रलोकयति यः सोऽधर्मप्रलोकी । न०१२ श०२ उ0। अध म्यते , एवं तहि जीवपुभयपरिणाममात्र पव कारणं, स्थितिप ममेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी । ज्ञा०१८ श्रा रिणती पुनरधम्मास्तिकायापेक्वाकारणत्वेन व्याप्रियत इति कि अधर्मस्यैव उपादेयतया प्रक्वके परिजापके],विपा०१ श्रुवा म कल्पते ?। अथासौ सर्वदा सर्वस्य सन्निहित इत्यनियमेन अध (ह) म्परा[]-अधर्मरागिन्-त्रि० । अधर्म एव रागो स्थितिकारणं भवेत् । ननु पवमाऽपि किन सन्निहित इत्येवं यस्य सोऽधर्मरागी । दशा०६ अ०। स्वाकारमर्पयति । अथ चकुरादिव्यापारमयमपेक्कते, अधर्मा- अध (ह) म्मरु-अधर्मरुचि-त्रि० । न विद्यते धमें रुचियेषां ते स्तिकायोऽपि तर्हि स्वपरगतो विधसाप्रयोगानपेक्कत इति नान- अधर्मरुचयः । दश० १ ०। योर्विशपमुत्पश्यामः।तथा-नाजनमाचारः सर्वव्याणां जीवादी. नांनभ आकाशम, अवगाहोऽवकाशस्तव कणमस्येन्यवगाहनक अध (हम्मसमुदायार-अधर्मसमुदाचार-त्रि० । न धर्मरूपश्चाणम,नद्धय वगादं प्रवृत्तानाम सिम्बनीभवति, अनेनावगाहकारण रित्रात्मकः समुदाचारः समाचार: सप्रमोदो चाऽऽचागं यस्य स्वमाकाशस्योक्तम् । न चास्य तत्कारणत्वमसिरूम, यतो यद्य स तथा । न०१२ श०२२० । चारित्रविकले दुराचारे, विपा० बन्धयव्यतिरेकानुविधायि तत्तत् कार्यम, यथा-चक्रायन्वयध्य १ श्रु०१०। तिरेकानुविधायि रूपादिविज्ञानम्, अाकाशान्वयव्यतिरकानुवि- अब (ह) म्मसीलममुदायार-अधर्मशीलसमुदाचार-मि० । भायी चावगाहः । तथाहि-सपिररूपमाकाशं तत्रैव चावगा- अधर्म पर शीलं स्वनावः समुदाचारश्च यकिञ्चनामष्ठानं यस्य हः, न तु तद्विपरीत पुफलादौ । प्रथेवलोकाकाशेऽपि कथं स तथा । स्वभावतश्चेप्रया चाऽधर्मिके, का०१८अ । विपा०। नावगाह ? , उच्यते-स्यादेवं यद्धि कश्चिदधगाहिता भवेत् । अधहम्माणुय-अधर्मानुग-त्रि० । धर्म श्रुतरूपमनुगक ती. तत्र तु धर्मास्तिकायस्थ जीवादीनां चासत्येन तस्यैवाभाव ति धर्मानुगः , न धर्मानुगोऽधर्मानुगः । भ० १२ श०२ उ० । प्रति कस्या सौ समस्तु नन्वेवमपिन तत्सिकिः,हे तोरसिकत्वात्, तदसिफिश्चान्वयानावात् ; सति हि तस्मिन् भवन्यन्वयः । न च श्रुतचारित्रानावमनुगते, विपा०१ श्रु०१ अ० । धर्मे कर्तव्ये. ऽनुज्ञाऽनुमोदनं यस्यासावधर्मानुज्ञः। झा० १८ अ० । अधीनुतत्सस्वसिफिरस्ति, अन्वयानावे च व्यतिरकस्याप्यसिफिरस्ती कायके, विपा०२ श्रु० १ ०। ति । उत्त०२० अ०॥ अध (ह) म्मदाण-अधर्मदान-ना अधर्मकारणश्वासी दानं च | अध (ह) म्मिनोय-अधर्मियोग-पुं० । निमित्तवशीकरअधर्मपोपकं वा दानमधर्मदानम् । दानभेदे, यथा-"हिंसाऽनत- पादिप्रयोगे, स. ३० सम० । चौर्योद्यत-परपरिग्रहप्रसन्यः । यद्दीयते हि तेषां, तज्जानी- अध[हम्मिट्ठ-अधर्मिष्ठ-त्रि० । अतिशयेन धर्मी धर्मिष्ठः, सादधर्माय " ॥१॥ इति । स्था१००। न धर्मिष्ठोऽधर्मिष्ठः । भ० १२ श० २ उ० । अतिशयेन निअध(ह)म्मदार-अधर्मद्वार-न० । पाश्रवद्वारे, "पढमं अहम्म- धर्मे निख्रिशकर्मकारित्वादतिशयेन धर्मवर्जिते, ज्ञा०१०। दारं सम्मत्तं ति वेमि" प्रश्न १ आश्र० का । विपा० । रा०। स्त्र। अध[ह म्मपरख-अधर्मपक-पुं० । अनुपशान्तस्थाने, “अध- अधर्मीठ-त्रि० । अधर्मिणामिष्टः । अधर्मिणां वल्लभे, भ० १२ म्मपखस्स विनंगे एवमाहिप, तस्स णं श्माई तिन्नि तेवहार श०२उ०। पावदुयसया जयंतीति माक्खाई । तं जहा-किरियावाईणं, अधर्मेष्ट-त्रि० । धर्मः श्रुतचारित्ररूपः एवेष्टः पूजितो वा यस्य मकिरियावाईणं , अन्नाणियवाईणं , वेणइथवाणं , " सूत्र०२ स धर्मेष्टः । न धर्मष्टोऽधर्मेष्टः । अधर्म एव इष्टो घल्लभः पूभु०२ अ०। जितो वा यस्य स तथा । अधर्मेषके, अधर्मसभाजके था। अध(हम्मपजणण-अधर्मप्रजनन-त्रि०ा अधर्म जनयतीति अ. भ० १२००२ उ०। धर्मप्रजननः । लोकानामप्यधोत्पादके, रा०। अहम्मिय-अधार्मिक-त्रि०ान धार्मिको धार्मिकः । धर्मअप (ह) म्मपमिमा-अधर्मप्रतिमा--स्त्री। अधर्मविषया प्रतिमा। ण श्रुतचारित्रात्मकेन चरतीति धार्मिकः (तथान) भ०१५श०२ अश्रुतचारित्रविषयायां प्रतिज्ञायाम्, अधर्मप्रधाना वा प्रतिमा उपअधर्मण चरतीति अधार्मिकः। शा०२०प्र०ा पापिनि,विपा० अधर्मप्रतिमा । अधर्मप्रधान शरीरे, " पगा अध (ह)म्मपडि ११०३ अा असंयते,स्थानधर्मे भवं, धो वा प्रयोजनमस्येति मा, जसि (से) पाया परिकिलेस ति" एका अधर्मप्रतिमा, धार्मिकम, (तथान)नता धार्मिकविपर्यस्ते, स्पा०४ठा०१३० सर्वस्य परिक्रशकारणतयैकरूपत्वात्। अत एवाह-(जं से श्त्यादि) यद्यस्मात, स तस्याः। स्वाम्यात्मा जीवः। अथवा-(सित्ति) अध (ह)र-अधर-पुं०। न ध्रियते । धृङ-अन् । न० त०। पावन्नरम । सोऽधर्मप्रतिमावानात्मा परिविश्यते । ततश्च चाचा अधस्तनदशनच्छदे, जं०२वक्षः। नं० । उपा० प्रश्न। प्राकृतम्बन लिङ्गव्यत्ययाद् यस्यामधर्मप्रतिमायां सत्यामात्मा प्रास्यन्तिके कारणे , वृ० ३ उ० । परिकिश्यते सा एकैयति । स्था०१ ग०१००। अध (ह) रगमण-अधरगमन-न। अधोगतिगमनकारणे, अष[5]म्मपलजए-अधमपरज्जन-त्रि० । न धम प्ररज्यन्त "तहा गवालीकं च गरुयं भवंति अध (ह) रगमणं" प्रासजन्ति येते। म.१२ श.२ अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रक-I प्रभ०२माध० द्वा०। Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) अधरिम अनिधानराजेन्डः। अधिगरण अध[ह रिम-अधरिम-त्रि० । अविद्यमानं धरिममृण- तराध्ययननन्द्यध्यनादीनि , दृष्टिवादः परिकर्मसूत्राद्यङ्गत्वेऽपि द्रव्यं यस्मिस्तत्तथा । शा०१०। विपाग उत्तमर्णाधमर्णाभ्यां पृथगुपादानमस्य प्राधान्यख्यापनाथम् । चशब्दादुपाङ्गानि चौपरस्परं तहणार्थ न विवदनीयं, किन्तु अस्मत्पावें द्युम्नं गृ पपातिकानि, सजवत्यधिगमरुचिः। प्रव० १४९ द्वारा स्थान हीत्वा ऋणमुत्कलनीयमिति राजाज्ञाविशिष्टे नगरादौ, ०३ अर्हतः सकलसूत्रविषयिएयां रुचौ , ध०२ अधिः । वक्षः। विपा० । अधि [भि] गमसम्मदंसण-अधिगमसम्यग्दर्शन-न०। ३त। अध[हरी-अधरी-स्त्री० । पेषणशिलायाम , "अध-| गुरूपदेशादिजन्ये सम्यग्दर्शनभेदे, यथा भरतस्य । " अनिगम()रीसंठाणसंठिया दो वि तस्स पाया" उपा० १ ० । सम्मदसणे, विहे पम्मत्ते । पमिवाई चेव , अपमिथाई चेव ।" प्रतिपतन शीलं प्रतिपाति, सम्यग्दर्शनमौपशमिकं कायोपशमिअध[ह] रीलोह-अधरीलोष-पुं०। शिलापुत्रके,"अध कं वा । अप्रतिपाति कायिकम् । स्था० २ ग०१०। रीलोट्ठसंठाणसंठिश्रानो पाएसु अंगुलीओ" उपा० १ ०। अधि (हि) गय-अधिकृत-न० । अधि-कृ-नावे-क्त । अधि. भध (ह) रु?--अधरोष्ठ-न० । दू० स० । हस्वः संयोगे दी. कारे, दश० १ ०। र्धस्य" ।।१।८४ । इति सूत्रेण ओतो इस्वः। प्रा० । उपरि अधिगत-त्रि० । प्राप्ते, उत्त० १० अ० । विज्ञाते , व्य. स्थाधःस्थोष्ठयुग्मे, प्रश्न०३ आश्रद्वा०। अधस्तनदन्तच्छदे , " श्रोयवियसिलप्पबालविंबफलसमिभाऽधरुता" नं।' १० । पश्चा। अध [६] व [व]-अथवा-अन्य० । विकल्पे , नि० च० अधि (हि) गरण-अधिकरण-न०। अधिक्रियतेऽस्मिन्नि ति अधिकरणम् । आधारे , यथा चक्रमस्तके घटः । नि० चू० १० त० । १० । अधिक्रियते नरकगतियोग्यतां प्राप्यते प्रात्माऽनेनेत्यअधारणिज-अधारणीय-त्रि०ा विद्यमानो धारणीयोऽध. धिकरणम । कलहे, प्राभृते च । वृ०१ उ० । स० । मषों यस्मिंस्तत्तथा । शार अ०। अविद्यमानाधमणे पुरादी, (१) अधिकरणनिरुतानि समानार्थकानि च । विपा०१ श्रु०३०। आत्मनो धारयितुमशक्ये, भ०७ (२) अधिकरणनिक्केपः । श०६ 10 अयापनीये, यापनां कर्तुमात्मनोऽशक्ये च । शा० अ० । विपा०।०। (३) अधिकरणं न करणीयम् । (४) कृत्वा तु व्युपशमनीयम् । अधि [हि-अधि-अव्यः । प्राधिक्ये, भ०१ श० १३० । (५) अधिकरणोत्पत्तिकारणानि । अधि[हि] इ-अधृति-स्त्रीग धृतेरभावे, “तो तुमे पिया एवं (६) उत्पन्ने च व्युपशमनीयमेव नोपेकणीयम् । बसणं पावित्रो तस्स अधिइ जाया सुणित्तो चेव उद्घाय- (७)जावनिकेपः। लोहदंडग्गहा य वियडाणि भंजामि" आव०४ अ०। (0) अधिकरणं कृत्वाऽन्यगणसंक्रान्तिनं कर्तव्या। अधिहि ग-अधिक-त्रि० । अत्यर्थे, वृ०१०। (ए) गच्छादनिर्गतस्याधिकरणे समुत्पन्ने विधिः। (१०) खरपरुषाणि भणित्वा गच्छानिर्गच्छतो विधिः। अधि ( हि ) गम-अधिगम-पुं० । अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते | (११) गृहस्थैः सहाधिकरणं कृत्वाऽव्यपशमय्य पिएमग्रहपदार्था येन सोऽधिगमः । श्राव० ३ अ० । गुरूपदेशजे यथा णादि न कार्यम्। ऽवस्थितपदार्थपरिच्छेदे , एष सम्यक्त्वस्य हेतुविशेषः । नि- (१२) अनुत्पन्नमधिकरणमुत्पादयति । सादू वाऽधिगमतो जायते । तश्च पञ्चधा-औपशमिकं रक्षायि- (१३) कारणे सत्युत्पादयेत्। कं २ कायोपशमिकं ३वेदकं ४सास्वादनं च ५॥ ध०२अधिका (१४) पुराणान्यधिकरणानि कान्तव्युपशमितानि पुनरुदी"जुगवं वि समुप्पन्न, सम्मत्तं अहिगम विसोहे" आव०३० "गुरूपदेशमालम्ब्य, सर्वेषामपि देहिनाम् । यत्तु सम्यक श्रद्- (१५) निग्रन्थैर्व्यतिकृष्टमधिकरणं नोपशमनीयम् । धान तत् , स्यादधिगमजं परम् "॥१॥"जीवादीणमधि- (१६) निर्ग्रन्थीनिय॑तिकृष्टमधिकरणं व्युपशमनीयम् । गमो, मित्तस्स खोवसमभावे । अधिगमसम्म जीवो, (१७) साधिकरणेनाकृतप्रायश्चित्तेन सहन संभोगः कार्यः। पावेद विसुरूपरिणामो" ॥ ध० २ अधिक। (१०) अधिकरण्यधिकरणनिरूपणम्। अधि [ भि] [हि गमरुइ-अधि [भि गमरुचि-पुं० स्त्री०। (१) इमे अधिकरणनिरुत्ता, एगहिया यअधिगमो विशिष्टं परिज्ञान,तेन रुचिः जिनप्रणीततत्त्वानिलाषरूपा अहिकरणमहोकरणं, अहरगतीगाहगं अहोतरणं । यस्यासावधिगमरुचिः । प्रव० १४६ द्वा० । सरागदर्शनार्यभेदे, अधितिकरणं च नहा, अहीकरणं च अहिकरणं ॥१६॥ प्रज्ञा०१ पद। भावाधिकरणं कर्म चम्धकारणमित्यर्थः। अथवा-अधिक अतितत्स्वरूपं च रिक्तं उत्सूत्रं करणं अधिकरणम् । अधो अधस्तात् श्रात्मनः क. सो होइ अजिगमरुई, सुअनाथं जस्म अत्यो दिढें। रणम्। अधरा अधमा जघन्या गतिस्तामाश्मानं ग्राहयतीति। श्रएक्कारस अंगाई, पइन्नगा दिहिवाओ य ।। धो अधस्तादवतारमि गृहनिश्रेण्यानि वा नि धृतिररतिरित्यर्थः, यस्य श्रुतज्ञानमर्थतो दृष्ट, किमुत्तं भवति?,येन श्रुतझानस्या अस्थाः करणम् । अधीरस्य असत्ववतः करणं अधिकरणम् । थोऽधिगतो नवतीति । किं पुनस्तच्छुतज्ञानम् ? इत्याह-( पक्का अथवा-अधी: अबुद्धिमान् पुरुषः स तं करोति,श्त्यधिकरणम् । रस अंगाई ति) एकादशाङ्गानि आचारागादीनि, प्रकीर्णकान्यु सो अधिकरणो दुविधो, सपक्खपरपक्खतो य नापच्चो । १४३ रणम्। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७०) अधिगरण अभिधानराजेन्दः । अधिगरण एकेको वि य दुविहो, गच्छगतो णिग्गतो चेव ।। १६६ ॥ तेण जहा तपितमायसं जले पविखत्तं, पढमसमए एगंतण जा. साधिकरणे साधू दुविधेन अधिकरणेन नवति,तं चिमं वि लातणं करोत, वितिपादिसमएसु गहणं मुंच य । एवं तिसु धं-सपक्खाधिकरण,परपक्खाधिकरणं च । सपत्राधिकरण ओरालियादिसरी रेसु पढमसमए गहणमेव करोत, वितित्रादिकारी गच्छगतो, गच्चणिग्गतो वा , एवं परपक्वाधिकरणे ममपसु संघातपरिसामो,तेयगकम्माणं सव्यकालं न संघातप रिसामो, अनाद्यत्वात् । पंचराहं विजते सव्वसामो। अहवातिवि दुविधं । नि० चू. १००। एहं ओरालियविउविपाहारगाणं मलंगकरणा अठ-सिरो,जरं, (२) अस्य निकेपस्त्वित्थं नियुक्तिकदाह उदरं,पुछी,दो बाहाम्रो, दोणिय ऊरू,सेसं उत्तरकरणं । अहवा नाम उवणा दविए, भावे य चनविहं तु अहिगरणं । तिसु आश्वेसुओरालादी,उत्तरकरणं शेण,खंधकरणं त्रिफदवम्मि जंतमादी , नावे उदो कसायाणं ।। लादिघृतादिना वनकरणं । अथवा इमं चउन्विहं सब्वकरणं संघायकरणं परिसाडणाकरणं ॥२३९ ॥ नामाधिकरणं,स्थापनाधिकरणं, याधिकरणं, जावाधिकरणं चेति चतुर्विधमधिकरणम । तत्र नामस्थापने गतार्थे, व्याधिक संघाय परिसामणा, य मीसे तहे व पमिसेहे। रणम्-आगमतो,नो आगमतश्च । आगमतो-अधिकरणशब्दार्थ पमसंखणघणादी, उनि रित्थाणुकरणं तु ॥ २४० ।। निरूपयन्नतु प्रयुङ्क्ते वक्ता,नो भागमतो शरीरजग्यशरीरव्यतिरि परिसामगणाकरणं, तत्थ ओराझिय पगिदियादि पंचविधं, त. कम् । व्याधिकरणे यन्त्रादिकं अष्टव्यम, यन्त्रं नाम दलनयन्त्रा जोणी पाहुमादिणा । जहा सिरुसणायरिएण अस्सए कता, दि। भावे जावाधिकरणे कपायाणां क्रोधादीनां उदयो विज्ञेयः। जहा वापगेण आयरिएण सीसस्स उवदिट्ठो जोगो जहा महितत्र व्याधिकरणं व्याख्यानयति सो भवति,तंच सुयं शायरियस्स भाणिजेण,सो य णिकम्मो दलम्मिन अधिकरणं, चगविहं होइ आणुपुच्चीए ।। उणिक्खंतो माहसं उप्पादेचं सोयारयाण हत्थे विक्किण आयनिव्वत्तण निक्खवणे, संजोयण निसिरणे य तहा ।।। रिएण सुयं, तत्थ गतोभणाति-किं ते एएण?,अहं ते रयणजोगे पयामि । दव्वे आहराहि। ते य आहरित्ता पायरिएण संजोजव्ये व्यविषयमधिकरणं चतुर्विधं नवत्वानुपृा परिपा- तिता,एगते णिक्खित्ताभणितो-पत्तिपण कालेण प्रोक्खणेजाहि, टचा । तद्यथा-निर्वर्तनाधिकरणं,निकेपणाधिकरणं, संयोजना- अहं गच्छामि। तेण उक्खित्तोदिकविसो सप्पो जातो। सो तेण धिकरणं, निसर्जनाधिकरणं च । बृ० १ 30 । मारितो, अधिकरणच्चेश्रो,सो वि सप्पो अंतो मुहत्तेण मनो। णिब्बसणे अधिकरणं दुविध-मूलकरणं, उत्तरकरणं च । एवं जो णिव्यत्ते सरीरं तं आधिकरणकह,जतो सुत्ते भणियंतत्थ मूलणिवत्तणाधिकरणं अविहं भमति 'जविणं ते ओरालियसरीरंणिवत्तेमाणे किं अधिकरणं । अपढमे पंच सरीरा, संघामणसामणे य उनए वा । धिकरणी जीवो,अधिकरणी सरीरं,आधिकरणं णिवत्तणाधिकपमिहणा पमन्जण,अकरण अविधीय मिक्खिवणा २३५ रणं ॥ णिवत्तणाधिकरणं गतं ॥ निचू०४०। (पढमे ति) णिवत्तणाधिकरणे पंच सरीरा ओरासियादि, निक्षेपणाधिकरणं द्विधा-लौकिकं,लोकोत्तरिकं च । तत्र यन्म त्स्यग्रहणाथै गलनामा सोहकएटको कुराटं वा मृगादीनां प्रहसंघातकरणं साडनकरणं च। एवं अविहं मूत्रकरणं ॥२३५॥ णाय जालं वा, लावकादीनामर्थाय निक्तिप्यते शतध्यादीनि घरपुनः णिवत्तणाधिकरणसरूवं नमति घट्टादीनि वा यन्त्राणि स्थाप्यन्ते,तदेतल्लौकिकं निक्केपणाधिकरणिबत्तणा य सुविहा, मूलगुणे वा वि उत्तरगुणे य । णम् । यस्तु बोकोत्तरिक तत् पम्विधम्-यत्र पात्रायुपकरणं मूले पंच सरीरा, दोसु ते संघातणा णस्थि ।। २३७ ।। निक्तिपति तत्रन प्रत्युपेकते न प्रर्माजयति, न प्रन्युपेक्कत प्रमाण यति २, प्रत्युपेक्वते न प्रमार्जयति ३, यत्तु प्रत्युपेक्वते प्रमाजयति जिन्नसणधिकरणं विध-मूलगुणणिवत्तणाधिकरणं, उत्त तदुःप्रत्युपोक्तितं ४, प्रत्युपेक्तितं सुप्रमार्जितम् ५, सुप्रत्युपेरगुणणिवत्तणाधिकरणं च। मूले ओराझियादि पंच सरीरा वितं सुप्रमार्जितं ६ करोति । एवमेते पलाङ्गा निक्केपणाधिकरदहवा । दोसु य तेयकम्मपसु सव्वे काले संघातणा णस्थि, णम् । यस्तु सप्तमो भङ्गः सुप्रत्युपक्तिं सुप्रमार्जितं करोतीति अनाद्यत्वात् ॥ १३७॥ लकणः, स नाधिकरणं, शुरुत्वात् । यद्वा-यद् नुक्तं पानकं घा संघातणा य परिसा-हणा य उजयं व जाव आहारं। अपावृतं स्थापयति तनिकेपणाधिकरणम् । वृ० ११०। नजयस्स प्राणियतविनी,आदी अंते य समोतु।२३। श्याणि संजोयणा, सा विहा-स्रोश्या, झोउत्तरिया य । त्रिक त्रिवपि संभवति, नभयं संघातपरिसामी, तस्स चिती सोश्या अनेकविहाभणियता, द्विकादिसमयसंभवात् । संघातो आयातीए सर्व विसगरमादी लोए, लोनत्तरं भत्तोवधिमादिम्मि । परिसामो, अंते एगे पगममयता ॥२३८॥ अंती बहि श्राहारे, विहियविधा सिञ्चणा उवधी ॥श्वशा सर्वसंघातप्रदर्शनार्थमाह कंमादिलोअणिसिरण-पोनरणा पमादणा जोगे। हविपूओ कम्मगारे, दिटुंता हॉति तिमु सरीरम् । मूलादि जाव चरिम, अधवा वी जं जहि कमति ॥२४३।। करणे य खधकरणे, नत्तरकरणं तु संघडणा ॥२३॥ नि० चू०एन०। हविघितं,तस्य जो पृतो पञ्चति सोडविप्रो सोय घयपुम्सोन संयोजनाधिकरणमपि द्विविधम-लौकिकलोकोत्तरिकभेमति।संथायसंथते पक्वित्ते पढमसमए एगतेण घयम्गहणं क- दात् । तत्र लौकिक रोगाद्युत्पत्तिकारणं; विषगरादिनिरेति, विनिप्रादिममा गहणं मुंबति य, कम्मकारो लोहकारो, | पत्तिनिवन्धनं वा उपश्यं संयोजनम् । लोकोत्तरिक तु Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण अनिधानराजेन्द्रः। अधिगरण भक्तोपधिशग्याविषयसंयोजनमावृ०१ उ० । (४) कृत्वा तु व्युपशमनीयम्श्याणि णिसिरणा सुविधा-स्रोश्या, झोउत्तरिया,(लोश्या) जिक्व य अहिगरणं कडुत्तं अहिगरणं विवस मित्ता वि णिसिरणे तिविधा-सहसा पमापण ; अणाजोगेण य, पुवाइ ओसध्यपाहुमे इच्छाए परो आढाइजा, [इच्छाए परोनो ट्रेण जोगण । किंचि सहसा णिसरति पंचविधपमायनतरण पमत्तोणिसर ति , एगंत विस्सति अणाभोगो तेण णिसरति । आढाइज्जा,] इच्छाए परो अन्भुटेजा,[इच्छाए परो नो अनिचू०४ उ०। ब्लुट्ठज्जा,] इच्छाए परो वंदिज्जा, इच्छाए परी नो वंदिनिसर्जनाधिकरणमपि लौकिकम-शरशक्तिचक्रपाषाणादीनां जा, इच्छाए परो संगँजेजा, इच्छाए परो नो सन्तुंजेज्जा, निसर्जनम् । लोकोत्तरिक तु सहसाकारादिना यत्कएटककङ्क इच्छाए परो संवसिज्जा, इच्छाए परो नो संबसिज्जा, रादीनां भक्तपानान्तःपतितानां निसर्जनम् । वृ० १ उ०। इच्छाए परोउपसमिजाजो उसमइ नस्स पत्थि आराहणा, श्याणि णित्यत्तणादिसु पाश्चत्तं , तत्थ णिबसणे मूलादि पच्चकं । पगिदियादी णिवत्तयं तस्स अभिक्खमेवं दुश्च पढमवा जो न उवसमइ तस्स नथि आराहणा । तम्हा अप्पाणा चेब राए मूलं, वितियवाराए अणवठं, ततियवाराए पारंचियं, अधवा उपसमियव्यं स किमाहु-नंते !; उवसमसारं सामनं ॥ जे जहि कमति संघट्टणादिकं प्रायविराहणादिणिप्पमं वा। भिकुः सामान्यः साधुः , चशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादाचार्योएगिदियमादीमु तु, मूलं अधवा वि होति सहाणं । पाध्यायावपि गृह्यते । अधिक्रियते नरकगतिगमनयोग्यतां प्रा प्यते आत्मा अनेनेत्यधिकरणम् , कक्षहःप्रानृतमित्येकार्थाः। तकुसिरेतरनिप्पम, नत्चरकरणम्मि पुठभुत्तं ।। २४॥ स्कृत्वा तथाविधायकेत्रादिसाचियोपबृंहितकषायः मोहनीएगिदियं जाव पंचिंदियं णिवत्ते, तस्स मूसं, अहवा वि होति | योदयो द्वितीयसाधुना सह विधाय; ततः स्वयमन्योपदेशेन वा सत्राणं ति "कायचउसु" गाहा । परित्तं णिश्चत्तेति च बहु, पगिभिद्येत तस्यैहि कामुष्मिकापायबहुलं तां तदधिकरणं विविअणते चउगुरुं, वे इंदिरहिं र लहुँ,तेशदिए उग्गुरु, चाउरिदिर्ह | धमन कैः प्रकारैः स्वापराधप्रतिपत्तिपुरस्सर मिथ्याकुकृतप्रदानेवेदो, पंचेंदिप मूलं, उत्तरकरणे सिराकुसिरणिप्पमं पुवुत्तं, न तां व्युपशमय्य उपशमं नीत्वा ततो विशेषेणायसायितमइहेव पढमुद्दसए पढमसुत्ते णिक्खिवसंजोगणिसिरणेसु इमं | वसानं नीतं प्रातृतं कसहो येनाध्यवसायितप्राभृतो व्युत्सएकपच्चित्तं बहो नवेत् । किमुक्तं भवति:-गुरुसकाशे स्वपुश्चरितमालाच्य, तिय मासिय तिग पणए,णिक्खिवसंजोगगुरुगलहुगावा । ततप्रदत्तप्रायश्चित्तं च यथावत्प्रतिपद्य , नूयस्तदकरणायाच्युमुसिरेतरसंतरणिरं-तरे य वुत्तं णिसरण म्मि ॥२४५ ।। त्तिष्ठेत् । आह-येन सह तदधिकरणमुत्पन्नं स यद्युपशम्यमानोसत्तनंगीए पढमवितियततिएसु भंगेसु मासबहुँ, चउत्थपंच ऽपि नोपशाम्यति ततः को विधिः?, त्याह-"इच्छाप परो आढा. इज्जा" इत्यादि सूत्रम् । इच्छाया यथा स्वरूपव्यापारमाश्रियेत, मग्छेसु पणगं, चरिमोसुद्धो तवकासविसेसितो कायचो । प्रा प्रागेव संभाषणादिभिरादरं कुर्याद्वा न वेति भावः। एवमिच्चहारे नवकरणे वा एगे च नगुरुगं,दोसु च चबहुगं। अहवा-सा या परस्तमन्युत्तिष्ठेत् । इच्छया परोन साधुना सह संजीत, माणेण आहारे वनगुरुगा, ग्वकरणे बहुगो, णिसिरणे फुसिरा एकमएमल्यां भोजनं दानग्रहणसंभोग वा कुर्यात् । इच्छया परो अज्फुसिरे य संतरणिरंतरेसु वुत्तं पच्चित्तं पढमसुत्ते । दम्वाह न संनुजीता इच्छया परस्तेन साधुना सह संवसेत, समेकी. करणे गयं । नि० चू० ४ २० । तयैकत्रोपाश्रये वसेत , इच्छया परोन संवसेत् । इच्छया पर अथ भावाधिकरणमाड उपशाम्येत् । परं य उपशाम्यति कषायतापापगमेन निवृत्तो अह तिरिय उकरणे, बंधण निव्वत्तणा य निक्खिवणं। भवति तस्यास्ति सम्यग्दर्शनादीनामाराधना, यस्तु नोपशाम्यउवसमखएण उतुं, नदएण भवे अहीगरणं ।। ति तस्य नास्ति तेषामाराधना, तस्मादेवं विचिन्त्यात्मनैवोपशह क्रोधादीनामुदयो भावाधिकरणमित्युक्तम् । अतस्तेषामेवा- शान्तब्यमुपशमः कर्तव्यः । शिप्यः प्राह-[स किमाहु-भंते !] धस्तिर्यगृर्द्धकरणे अधोगतिनयने तिर्यग्गतिनयने ऊर्द्धगतिनयने अथ किमत्र कारणमाहुर्भदन्तः परमकल्याणयोगिनस्तीर्थकच स्वरूपं वक्तव्यम् । बृ० १ उ० । रादयः । सूरिराह-उपशमसारंश्रामण्यं, तद्विहीनस्य निष्फ(३) अधिकरणं च न करणीयम् लतयाऽभिधानात् । नक्तं च दशवकालिकनियुक्तो-"सामनम गुचरंत-स्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छपुपर्फ, अहिगरणकडस्स जिक्वाणो, वयमाणस्स पसजदारुणं । च निष्फलं तस्स सामन्नं " ॥१॥ इति सूत्रार्थः । अहे परिहायती बहु,अहिगरणं न करिज पांमए ।।१।। अथ विषमपदानि भाष्यकृद् विवृणोतिप्राधिकरणं कहः, तत्करोति तच्छी लश्चेत्यधिकरणकरः । त. घेप्पंति चसद्देणं, आयरिया निक्खुणीश्रो अ। स्यैवं नूतस्य भिक्कोः, तथाऽधिकरणकरी दारुणां जयानकांवा प्र अहवा जिकबुग्गहणा, गहणं खन्न होइ सबसि ॥ सा प्रकटमेव,वाचं अवतःमतोऽर्थोऽमोक,तत्कारणतृतो वा सं. इह सूत्रे भिक्षुश्चेति यश्चशब्दः, तेन गणी, उपाध्यायः, तथा यमः, स बहु परिहीयते ध्वंसमुपयाति । इदमुकं भवति-बहुना कालेन यदार्जितं विप्रकृऐन तपसा महत्पुण्यं तत्काहं कुर्वतः प. प्राचार्यों,भिक्षुण्यश्च गृह्यन्ते । अथवा-भिक्षुपदोपादानात् सर्वे. रोपघातिनी च वाचं अवतस्तत्क्षणमेव ध्वंसमुपयाति । तथाहि. बामप्याचार्यादीनां ग्रहणे तज्जातीयानां सर्वेषां प्रहणमिति "जं अजियं समीख-ल्लएहि तवनियमबंभमपहि। माहुतयं वचनात्। कलहंता, छड़े अह सागपत्तेहिं" इत्येवं मत्वा मनागप्याधिकरणं खामिय विनासिय विणा-सियं च खवियं च होइ एगहा। न कुर्यात् परिमतः सदसद्विवेकीति । सूत्र०१ श्रु०२ अ०२०। पाहण पहेण पाण्यण, एगहा ते उ निरयस्सा ।। Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः। अधिगरण क्षामितं विनाशमितं, विनाशितं तपितमिति च एकार्थानि शानां जापातोऽन्यत्र देशान्तरे भाषमाण उपहस्यते, सपहस्यमापदानि भवन्ति । तथा-प्राभृतं प्रहेणकं प्रणयनमिति वा त्रीण्य- नश्च संखमं करोति । यद्वा-प्रपश्चनं वचनानुकारेण वा करोति, प्येकार्थानि । तानि तु प्राभृतादीनि नरकस्य मन्तव्यानि । यत | ततः प्रपञ्च्यमानःसाधुनासहाधिकरणमत्परते। अभ्यस्मिन् वा एतदधिकरणं नरकस्य सामन्तकादेशप्राभृतमुच्यते । एवं प्र- वक्तव्ये कोऽप्यन्यद्भक्ति । यद्वा-हीनाकरमधिकाकरं वा पदं वहेणकप्रणयनपदे अभिन्नाचनीये ।' क्ति। तत्र हीनाकरं भास्कर इति वक्तव्ये भाकर इति वक्ति । अ. इच्छा न जिणादेमो, आढा उण आदरो जहा पुचि।। धिकाकरं सुवर्णमिति वक्तव्ये सुसुवर्णमिति ब्रवीति । मुंजण वास मणुन्ने, सेस मणुको च इतरे वा ॥ परिहारकद्वारमाहइच्छा नाम जिनादेशस्तीर्थकृतामुपदेशोऽयमिति कृत्वा नाद- परिहारियमविते, वियमणवाएँ णिविसंते वा । रादीनि पदानि करोति, किं त्वसच्छब्देन । तथा पाढा नाम कुच्चियकुले य पविसइ, वा जाणाउट्टणे काहो । आदरस्तं यथा पूर्वमुचितालापादिभिः कृतवाँस्तथा कुर्याद्वा न गुरुग्लानयासादीनां यत्र प्रायोग्यं लभ्यते तानि कुलानि पारिवाशेषाणि त्वभ्युत्थानादीनि सुगमानातिकृत्वा भाष्यकृता न हारिकाण्युच्यन्त, पकं गीतार्थसंघाटकं मुकत्वा शेषसंघाटव्याख्यातानि । अत्र च संभोजनसंवासनपदे मनोज्ञेषु सांभो. कानां परिहारमहन्तीति व्युत्पत्तेः। तानि यदि न स्थापयति, गिकेषु भवतः, शेषाणि त्वादराभ्युत्थानवन्दनोपशमनपदानि स्थापितानि वा अनर्थ निष्कारणं निर्विशति, प्रविशतीत्यर्थः । मनोज्ञेषु वा सांभोगिकेषु, इतरेषु वा असांभोगिकेषु भवेयुः।। यद्वा-पारिहारिकाणि नाम कुत्सितानि जात्यादिजुगुप्सितानीति कृता भाष्यकृता विषमपदव्याख्या । वृ०१उ० । भावः । तेषु कुलेषु प्रविशति । एतेषु स्थानेषु यदि नावर्तते न (५) अधिकरणोत्पत्तिकारणानि वा तेषु प्रवेशादुपरमते ततः कलहो भवति । अथ कथं तदुत्पद्यते? इत्याशङ्कावकाशमवलोक्य तदुस्थानकारणानि दर्शयति देशकथासञ्चित्ते य अचित्ते, मीसवोगयपरिहारदेसकहा। देसकहा परिकहणे, एके एके व देसरागम्मि । सम्मं वाउट्टत्ते, अहिगरणमओ समुप्पजे ॥ सोरट्ठदेस एगे, दाहिण वीयम्मि अहिगरणं । सचित्ते शैक्षादौ, अचित्ते वस्त्रपात्रादौ, मिश्रके स्वभाण्डमा न वर्तते साधूनामीहशी कथां कथयितुम् । स प्राह-कोऽसि प्रकोपकरणैः शिक्षादौ, अनासेव्ये अपरेण गृह्यमाणे, तथा त्वं?, येनैवं मां वारयसि । तथाऽप्यस्थिते अनुपरते सत्यधिक रणं भवति। यहा-(एकेक व देसरागम्मि त्ति) एका साधुः सु. बचोगतं व्यत्यानेड़ितादि । तन्न चाविधीयमाने परिहारः स्था राष्ट्र वर्णयति, यथा रमणीयः सुराष्ट्रो विषयः। द्वितीयः प्राहपना, तदुपलक्षितानि यानि कुलानि तेषु प्रवेशे क्रियमाणे दे. कपमएमूक! त्वं किं जानासि?, दक्षिणापथ पव प्रधानो दशः। शकथायां वा विधीयमानायां एतेषु स्थानेषु प्रतिनोदितो यदि पवमेकैकदेशरागणोत्तरप्रत्युत्तरिकं कुर्वाणयोरधिकरणं भवति । सम्यङ्नावर्तते न प्रतिपद्यते; अतोऽधिकरणमुत्पद्यत इति पृ० १ उ० । नि० चू। नियुक्तिगाथासमासार्थः । अथैनामेव विवृणोति (६) उत्पन्ने च व्युपशमनीयमेव नोपेकणीयम् आजव्बमदेमाणे, गिएहंतं तहव मग्गमाणे य । एवमुत्पन्ने अधिकरणे किं कर्तव्यम् , इत्याहसच्चित्तेतरमासे, वितहपमिवत्तिभी कलहो । जो जस्स न उबसमई, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं । आभाव्यं नाम शैक्ष, शैक्षः कस्याप्याचार्यस्योपतस्थे, प्रवज्यां जो उ उवेहं कुज्जा, आवजइ मासियं लहुगं ।। गृहामीति। तमुपस्थितं मत्वा विपरिणमय्य परः कश्चिदाचार्यो ___ यः साधुर्यस्य साधोः प्रज्ञापनया उपशाम्यति तस्य तेन सा. गृह्णाति । ततो मूलाचार्यों ब्रवीति-किमिति मदीयमाभाव्यं गृ- धुना विध्यापनं क्रोधाग्निनिर्यापणं कर्तव्यम् । यः पुनः साधुरुपहासि? पूर्वगृहीतं वा शक्षादिकं याचितो मदीयमाभाव्यं किं कां कुर्यात् स आपद्यते मासिकं लघुकम् । न प्रयच्छसीति । एवमाभाव्यं सचित्तमचित्तं मिश्रं वा तत्का लहुओ न उवेहाए, गुरुप्रो सो चेव नवहसंतस्स । लगृह्यमाणं पूर्वगृहीतं वा मार्यमाणमपि यदा वितथप्रतिपत्तितो न ददाति तदा सकलहो भवति । वितथप्रतिपत्तिर्नाम उच्चुयमाणा बहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसा ।। परस्याभाव्यमपि शक्षादिकमनाभाब्यतया प्रतिपद्यते । सपेक्तां कुर्वाणस्य लघुको मासः; उपहसत एवं मासो गुरुवचोगतद्वारमाह कः। अथ उत्प्राबल्येन तुदति अधिकरणं करोति, विशेषत - तेजयतीत्यर्थः । ततश्चत्वारो लघुकाः । अथ कलहं कुर्वतः सहावेच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव । यकत्वं साहाय्यं करोति, ततोऽसावधिकरणकृता सह सदृशअन्नम्मि य वत्तव्वे, हीणाहियअक्खरे चेव ।। दोष इति करवा सरशं प्रायश्चित्तमापद्यते, चतुर्गुरुकमित्यर्थः। सूत्रे सूत्रविषये, व्यत्यानेमना अपरापरोद्देशकाध्ययनश्रुतस्क तथा चाऽऽहमधेषु घट्टनाऽसापकश्लोकादीनां योजना । यथा-"सव्वे जीवा चउरो चनगुरु अहवा, विसेसिया होति भिक्खमाईणं । वि इच्छति, जीविउ न मरिजि" इत्यत्रेदमालापकपदं घटते. "सवे पाणपिया उ" इत्यादि । तथाभूतं सूत्रं परावर्तयन् अहवा चउगुरुगादी, हवंति उच्छेदनिट्ठवणा ।। किमवं सूत्र व्यत्यानेयसीति प्रतिनोदितो यदि न प्रतिपद्यते निशुवृषभोपाध्यायाचार्याणामधिकरणं कुर्वतां प्रत्येकं चतुर्गुतदाधिकरणं भवति । देशीभाषा नाम मरुमालवमहाराष्ट्रादिदे । रकम,ततश्चत्वारश्चतुर्गुरुका भवन्ति । अथवा त पक्ष चतुर्गुरुकाः, Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (49) अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः। अधिगरपा सपाकासविशषिता भवन्ति । तद्यथा-निकोश्चतगुरुकं तपसा, नम-अमुकममुकं च ब्रूहि इत्येवं शिक्कापणम, यहा-मा अमुष्मादकालेन च बघुकम । वृषभस्य तदेव कालगुरुकम उपाध्यायस्य पसर त्वं, दीनूय तथा लग यथा न तेन पराजीयसे । अथैया तपोगुरुकम । आचार्यस्य तपसा काझेन च गुरुकम् । अथवा उत्तेजनाऽनिधीयते। चतुर्गुरुकादारभ्य दे निष्ठापना कर्तव्या । तद्यथा-निक्षुरधिक अथ साहाय्यकरणं व्याख्यानयतिरणं करोति चेत चतुर्गुरुकम् । वृषभस्य पालघुकम् । उपाध्यायस्य परगुरुकम् । आचार्यस्याधिकरणं कुर्वाणस्य द इति । वायाए हत्थेहिं, पाएहि व दंतसउम्मादीहिं। यथा वाऽधिकरणकरणे आदेशत्रण प्रायश्चित्तमुक्तम, तथा जो कुण सहायत्तं, समाणदोसं तयं चिंति ॥ साहारयकरणेऽपि एव्यम; समानदोषत्वात् । द्वयोः कलहायमानयोर्मध्यादेकस्य पक्के नत्वा यः कोऽपि वाचा अथोपकाव्याख्यानमाद हस्तान्यां वा पद्भयां वा दन्तैर्वा लगुमादिभिर्वा साहाय्यं कपरपत्तिया न किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे। रोति, तं तेनाधिकरणकारिणा सह समानदोषं तीर्थकरादयो रते। अवि य उवहा वृत्ता. गुणां वि दोसो हवइ एवं ॥ अथाचार्याणामुपेतां कुर्वाणानां सामान्येन वा अधिकरणे दाधिकरणं कुर्वतो दृष्टा मध्यस्थभावेन तिष्ठति, नान्येषामप्युपदेशं प्रयच्छति। यतः परप्रत्यया या क्रिया कर्मसंबन्धःसा अस्माकं ___ अनुपदाम्यमाने दोषदर्शनार्थमिदमुदाहरणमुच्यतेननयति, परकृतस्य कर्मण आत्मनि संक्रमाभावात् । तथा अरत्तमजके एगं सञ्चता वणमंडहियं महंतं सरं अस्थि । योतायाधिकरणाऽपशाम्यते, ततः परार्थकृतो नवति । तं च तत्थ य बहणि जलचरथमचरखहचरसत्ताणि अच्छति ! परार्थ मुक्ता यदि मोकार्थिनस्तत आत्मार्थ एव स्वाध्यायादिके तत्थ एग महलं हत्थिजूहं परिवसइ, अन्नया य गिएइकाले यतध्वं यज्ञ कुरुता अपि चेत्यज्युश्चये । श्रोधनियुक्तिशास्त्रेऽन्युपे तं हत्यिजूहं पाणियं पाउं एहाउत्तिन्न मज्मएहदेसकाले का संयमाङ्कतया प्रोक्ता-"उवेहा संजमो बुत्तो" इति वच-1 नात् । यद्वा-मैत्रीप्रमादकारुण्यमाभ्यस्थ्यागिसत्वगुणााधिकक्ति संीयनरुक्खगयाए सुहं सहेणं चिट्ठः । तत्य य अदूरदेसे श्यमानाविनेयेषु मध्ये स्थापयन् या उपका प्रोक्ता ततः सैव | दो सरमा भंभिउमारका । वणदेवयाए अंते दर्दु सन्चेसिं साधूनां कर्तुमुचितेति नावः । अत्र निराह-(गुणो वि दोसो सनासाए आयोसियंहवर) यदिदमविनेयेषु माध्यस्थ्यमुपदिष्ट तत् संयतापेक्वया, न पुनः संयतानकीकृत्य: यस्मादसयतेवियमुपेका क्रियमाणा गु "नागा! वा जलवासीया!, सूणेह तसथावरा ! । ण, संयतेषु क्रियमाणा महान् दोषो नवति । उक्तं चौधनियुक्ता- सरमा जत्थ भमंति, अन्नावा परियत्तई" ॥१॥ बपि-" संजयगिहचोयणाचोयणे य वावार उवेहा । ता मा एत सरडे उवेक्खह, वारेह तुब्भे । एवं जणि या विते अथ 'परपत्तिया न किरिय ति' पदं भावयति- जलचरा ऽणोचिंतेति-किं अम्हं एते सरमाडंता काहिति। जद परो पमिसेविका, पावियं पमिसेवणं । तत्य य एगो सरडो तो पिडितो सोधामिजतो सुद्दपमुत्तस्म मज्क मोणं चरंतस्म, के अड्डे परिहायई ? ॥ एमस्त जूहाहिवस्स विलं ति काउं नासापुडं पविट्ठो। विश्त्री पदि पर आत्मव्यतिरिक्तः पापिकामकुदानकर्मोपाधिकरणा-1 वितस्स पिट्ठओ व पविट्ठो त सिरकपाले जुकं संपलग्गा। दिको प्रतिसेवनां प्रतिसेवते ततो मम मौनमाचरतः को नाम तस्स हन्थिस्स महती अरई जाया । तो वयण? मेहए अकानादीनां मध्यादर्थः परिहीयते?, न कोऽपीत्यर्थः । समाहोए चट्टमाणो उठेत्तातं वणसं चूरइ । बहवे तत्थ विअथ 'मोत्तु परळंच जयसु प्रायः' इति पदं ब्याचले स्संता घाझ्या,जलं च आडोहितेण जलचरा घाझ्या, तक्षागआयढे नवनत्ता, मा परमह वावमा होह । पालीय नेत्या,तडाग विणटुं,ताहे जलचरामव्वे विणहा। इंदि परट्ठानत्ता, आयट्ठविणासगा होति ॥ प्रो नागा हस्तिनः! जजबासिनो मत्स्यकच्चपादयः ! अपरे । प्रारमार्थो नाम ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं पारमार्थिकं स्वकार्यम्, ये असा मृगपशुपतिप्रभृतयः स्थावराश्च सहकारादयो वृत्ता, तत्रोपयुक्ता नवत । मा परकायें अधिकरणोपशमनादौ व्या-1 | एते सर्वेऽपि यूयं शृणुत मदीयं वचनम-यत्र सरसि सरटी पृता नवत । दीति हेतूपप्रदर्शने, यस्मात्परार्थायुक्ता आत्मार्थ-| भामत:-कलहं कुरुतः; तस्यानावः परिवर्तते, विनाशः संभाविनाशकाः स्वाध्यायध्यानाद्यात्मकार्यपरिमन्धकारिणो भवन्ति । | व्यत इति भावः। अथोपहसनोत्तेजनाद्वारे युगपद् व्याचष्टे ___ अमुमेवार्थमाह वसंडमरे जलथल-खहचरवीममण देवयाकहरू । एसो वि ताव दमयतु, हसइ व तस्सोमयाऍ ओहसणा। चारह सरहुवेक्षण, धामण गयनास चूरणया ।' उत्तरदाणं तह मो-सराहि अह होइ उत्तप्रणा ॥ बनखएममितेसरसिजलथलखचगणांविश्रमणं,तत्र सरटलएका द्वयोरधिकरणं कुर्वतोरेकस्मिन् सीदति सति आचार्योऽन्यो वा | नंदृष्टा वनदेवतया, नागा वा जलवासीया इत्यादि श्लोककथन क. प्रवाति-पषोऽपि तावददान्तपूर्णः, दम्यतामिदानीमनेन, यदि वा त्वा वारयत सरटी कलहायमानावित्युपदिएमा ततश्च तैर्नागादितस्वावमतायाः, पश्चात्करणे इत्यर्थः; स्वयमट्टहासरुपहसति, भिःसरटयोरुपेक्षण कृतम,एकस्य च सरटस्य द्वितीयेन धाटनं कृतं, एतदुपहसनमुच्यते । तथा तयोर्मभ्याद्यः सीदति तस्योत्तरदा- ततोऽसौ धाट्यभानोगजनासापुटं प्रविष्टवान्। तत्पृष्ठतोद्वितीयोऽ १४४ Jain Education Interational Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७४) अभिधानराजेन्ऊः । अधिगरण पि प्रविष्टः तयोश्च युके लग्नेऽसहवेदनार्थेन हस्तिना वनखरामस्य मिति पप हान्तः प्रयमनयः यथा तेषामुपेक माणानां तत्परः सर्वेषामप्याश्रयभूतं विनएं, तस्मिँश्च बिनमाने विना एचमत्राप्यायार्यादीनामुपेमाखानी महान् दोष उपजायते कथमिति चेत उच्यते तावधिकरणारी परस्परं मुमुद्धि पाया युध्येतां ततश्च परम्परया राजकुले झाते सति महान् दोषः यतः स राजादिश्य साधूनां बन्धनं या ग्रामनगरादेर्निष्कासन वा कटकमर्दन वा कुर्यात् । किञ्चान्यत् तावो भेदो अपसी, हाटी दंसणच रचनाणाणं । साहुपदोसो संसारवणो साहिकरणस्स || तापी भेदो, अशी हानिनामयरित्राणां तथा साधुष द्वेषः संसारवईनो नवति, पते साधिकरणस्य दोषा भवन्तीति समासार्थः । अनामेव गायां विवृति अयि अनलिए वा, तात्रों नेदो उ जीवचरणाएं । सरिसं नसलं, जिन्हें अयस एवं ॥ तापो द्विधा प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । तत्रातिभणिते सति चिन्तयतिमि येन स साधुनिरि सद्ज्यास्यानैरभ्यास्वातः इत्थनित्थं चाक्रुः, एष प्रशस्तस्ताप उच्यते । श्रथाभणितं न तथाविधं तस्य मुखे नणितं, ततचिन्तयति-हा ! मन्दनाभ्यो विस्मरणशीलोऽहं यन्मया तदीयं जात्यादिमर्मनिकुरम्बंन प्रका शितं, एष प्रशस्तस्तापो मन्तव्यः । तथा कलहं कृत्वा जीवि परवा पश्चातापाचेतसो विद्वासा मरणमभ्युपगच्छेयुकिमा कुशित नायः मोको ब्रूयात् श्रहो ! श्रमीषां श्रमणानां रूपसदृशं बांडः प्रशान्ताकारं रूपमवलोक्यते, तादृशं शीलं मनःप्रणिधानं नास्ति । यद्वा-किम ?, मन्ये जिहां लज्जनीयं किमप्यनेन कृतं येनैवं प्रम्लानवदनो हइयते, एवमादिक्रमयशः समुच्चक्षति । कुछ तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो । एयर सूपए व रायादि सिद्धे गहणादी || जकारमकारादिनिवनैराकृपे ताकिते वा दादभिराइते सति, पक्कापक्कि परस्परपकपरिग्रहेण साधूनां कलहे जाते सति गणनेदो जवति, तथा तयोः पक्कयोर्मध्यादेकतरपण राजकु राशि कथिते सति सूचकै पुरुष राजादीनां ज्ञापिते प्राणाकर्षणादयो दोषा भवन्ति । बनफलहो विन पदाज वच्छलम हाथी । जह कोहाइड्डी, तह हाणं। होइ चरखे नि || [वृसफल करणोतरकालमपि यः प मानस वा पतितेन परिहाणि साधी प्र पिने साधर्मित्वं विराधितं भवति दर्शनपरिद्वाणि यथा च चादीनां पाया वृद्धिस्ताचरणंउपि चारित्रस्य परिहासिनैयति विशुपमस्थानप्रति घातेनाविशुरू संयमस्थानेषु गमनं भवतीत्यर्थः । एतच व्यवहारमोनम अधिगरण नियतस्तु कसा सुचरितं कसायसहितो न संगी हो । सादृण पदेसेण य, संसारं सो विछे । खुदस्यैवकारार्थत्वादकषायमेव पायगरहितमेव चारित्रं भगवद्भिः प्रकृतम्, भतो निश्चयनयानिप्रायेण कषायसहितः संयत पद न भवति वारशून्यत्वात् तथा साधूनामुपरि पस्तेवासी संसारं पतितरं करोतिस्तत उपेक्का न विधेया । किं पुनस्तर्हि कर्तव्यम् ?, इत्याह यागादे अहिगरणे, उवसम अबका य गुरुवयणं । समद कुह जायं, बडण्या सायपत्तेहिं ॥ गाढे कर्कशे, अधिकरणे उत्पन्ने द्वयोरप्युपशमः कर्त्तव्यः । कथमिवाद कायमानस्य पार्श्वस्थ साधुनिर कर्षणमपसारणं कर्तव्यम, गुरुभिश्चोपशमनार्थमिदं वचनमभिधातव्यम् श्रार्याः ! उपशाम्यतोपशाम्यत । अनुपशान्तानां कुतः संयमः १, कुतो वा स्वाध्यायः ?, तस्मादुपशमं कृत्वा स्वाध्यायं कुरु । किमेवं मकवत् कनकरसस्य शाकपत्रैः छर्दना परित्यागं कुरुथ १ । कः पुनरयं मकः ?, उच्यते जहा - एगो परिव्वायगो दमगपुरिमं चिंतासोगसागरावगाढं पासति । पुच्छति य-किमेवं चिंतापरो । तेण से सब्जावो कहितो, दारिदाजितो मि ते सो-इस्सरं तुमं करेमि, जतो सीतातत्रत्रातपरिस्समं गणतेहिं तिमाचाणं सहतेहि पंजवारी अचिचद्रलपतपुफ्फफलाहारी हिं समीपत्तपुडएहिं जावतो रुसमा - हिं घेत्तव्यो । एस से उवचारो । तेण दमगेण सो कणगरसो छवचारेण गड़ितो वयं भरितं । ततो निम्तो ते परि ब्वायगेण भणियं सुरुषेण वि तुमे एस सागपत्ते ण छाईयो। ततो सो परिव्वायगो गच्छंतो दमग पुरिसं पुणो २ भणति मम पजावेण ईमरो नविस्वास सो यणो २ वज्जमाणो रुट्टो भति-जंतुज्झ पसारण इस्सरत्तणं, तेण मेनफलं तं कणगरसं सागपतेश उति ताई परिवा यंग नणियं हा हा दुरात्मन् ! किमेयं तुमे कयं १ । जंज्जियं समीख -लएहिँ तत्रनियमबंजमइएहिं । तं दाणि पच्छ नाहिह, सागप यदर्जितं शमीसंबन्धिभिः खल्लकैः पत्रपुटैस्तपोनियमग्रह्मतदिदानीं शापः परित्यजत् पश्चात्परित्यागकालादुई मुपरि तं ज्ञास्यास, यथा- दुष्प्रु मया कृतं यश्चिरसंचितः कनकरसः शाकपत्रैरुत्सिच्य परित्यक्तः । एवं परिव्राजकेस इमक उपालब्धः। अथाचार्यस्तायधिकरण कारिख बुपालभते । अर्धा चारित्रं कनकरसधानीयं तपोनि मीरजितं परीपोपसर्गादिश्रमं न गणयसि चिरात्कर्थ कथमपि मतिं तदिदानीं शाकपत्रसदरी का परित्यजन्तः पश्चात्परितप्यमानमनाः स्वयमेव शास्यसि । यथा-हा! बटुका ओपार्जितेन संयमकनकरसेन तुम्बकस्थानयं स्वजीवबहु • Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७५) अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः । अधिगरण सत्वा पश्चात्कलहायमानैः शाकवृत्तपत्रस्थानीयैः कषायैरु- कमाश्रमणाः! उपशान्तोऽहं , परमेष ज्येष्ठायोऽ मुको घा नोपसिच्योरिसच्यायमसारीकृतः, शिरस्तुण्डमुण्डनादिश्व प्रक- शाम्यति । तत आचार्यास्तस्य प्रज्ञापनार्थ परनिकेपं कुर्वन्ति । ज्याप्रयासो मुधैव विहित इति । वृ.१००। (स च परनि केपः 'पर' शब्द एवं करिष्यते) माह-कथमेकमुहूर्तभाविनाऽपि क्रोधादिना चिरसंचितं (७) अथ भावपरो व्याख्यायते, नावः कयोपशमादिः, तद. चारित्रं यमुपनीयते ?, उच्यते पेक्षया परो नावान्तरवर्ती, जावान्तरः स वेदोदयिकन्नावजं अज्जियं चरितं, देसूणाए वि पुन्चकोमीए। तिगृह्यते । तथा चाऽऽहतं पि य कसायमेत्तो, नासेइ नरो मुटुत्तेण ।। श्रादणमन्तुट्ठाणं, वंदण संनंजणा य संवासो। यदर्जितं चारित्रं देशोनयाऽप्यष्टवर्षानयाऽपि पूर्वकोट्या तद- एयाई जो कुणई, आराहण अकुणो नत्यि । पिस्तोकमल्पतरकालोपार्जितमित्यपिशब्दार्थः। तदपिंकवायि- अकसायं निन्याणं, सम्वेहि वि जिणवरेहिँ पन्नत्तं । तमात्रः, उदीर्णमात्रक्रोधादिकषाय इत्यर्थः। नाशयति हारयति, सो लन्न भावपरो, जो नवसते अणुवसतो॥ नरः पुरुषो,मुहूर्तेन, अन्तर्मुहूर्तेनेति भावः। यथा-प्रभूतकाल प्रादरः, अभ्युत्थान,वन्दनं, संभोजन, संवासश्चेत्येतानि पदानि संचितोऽपि महान् तृणराशिः सकृत्प्रज्वालितेनापि अग्निना य उपशान्तो जूत्वा करोति तस्याऽऽराधना अस्ति , यस्त्वेतानि सकलोऽपि भस्मसाद्भवति एवं क्रोधानलेनापि सकृदुदीरितेन न करोति तस्याऽऽराधना नास्ति । एतेन "जो उवसम तस्स चिरसंचितं चारित्रमपि भस्मीभवतीति हदयम् । एषमाचा अस्थि राहणा" इत्यादिका सूत्रावयवो व्याख्यातः । अय येण सामान्यतस्तयोरनुशिष्टिातव्या, नत्वेकमेव कश्चन वि किमर्थमादरादिपदानामकरणे अाराधना नास्ति?, इत्याह-अशिभ्य भणनीयम्। कपायं कषायाभावसंभवि निर्वाणं सकलकर्मकयलक्कणं सर्वैरपि यत प्राह जिनवरैः प्रकप्तम् । अतो यः कश्चिदुपशान्तेऽपि साधावनुपशान्त पायरिए न जणे अह , एग निवारेइ मासियं लहुगं । । आदरादिपदानामकरणेन सकषायः स भावपरो लभ्यते, औदरागद्दोसविमुक्को, सीयघरसमो उ अायरियो । यिकभाववर्तित्वात् । भाचार्यो नैकमधिकरणकारिणं भणति अनुशास्ति । अथा मथाचार्यस्तमुपशान्तं साधु प्रज्ञापयन् प्रस्तुतयोजनां कुर्वन्नादचार्य एकमेव निवारयति अनुशास्ति न द्वितीयम , ततो मा- सो वट्टइ उदईए, भावे तुं पुण खोवसामयम्मि। सिकं लघुकमापद्यते, असामाचारीनिष्पन्न मिति भावः । त जह सो तुह नावपरो, एमेव य संजमतवाणं ॥ स्मादाचार्यों रागद्वेषविमुक्तः शीतगृहसमो भवेत् । शीतगृहं नाम वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम, तश्च वर्षास्वनिवांतप्र जो भड़! द्वितीयः साधुरणप्यौदयिके भावे वर्तते; त्वं पुनः बातमः शीतकाले सोप्मम:ग्रीष्मकाले शीतलम यथा च तच. कायोपशमिके प्रावे वर्तसे । अतो यथाऽसौ त्वदपेक्कया वर्तिनः सर्वतम तथा जमकादेरपिप्राकृतपरुषस्य तत्सर्व- । भावपरस्तथा संयमतपोभ्यामप्येवं परः पृथग्भूत इत्यतस्त्वया तुक्षममेव भवति । एवमाचार्यैरपि निर्विशेषैर्भवितव्यम् । न काचित्तदीया चिन्ता विधेया । वृ० १ उ० । नि० चू०। अथ विशेष करोति, तत इमे दोषाः (७) अधिकरणं कृत्वाऽन्यगणसङ्क्रान्तिन कर्तव्याबारे एस एवं , ममं न वारे पक्खरागेणं । निक्खु य अहिगरणं अवि ओसमित्ता इच्चिजा अनं गणं बाहिरभाव गाढतर-गं तुपं च पेक्खसी एकं ।। उपसंपजित्ता णं विहरित्तए, कप्पः तस्स पंचराइंदियं नेयं एष आचार्य श्रात्मीयोऽयमिति बुद्ध्या अमुंवारयति एवं प. कमु , परिनिन्वविय दोचं पि तमेव गणं पमिनेअन्वं क्षरागेण क्रियमाणेन अननुशिष्यमाणः साधुर्बाह्यभावं गच्छ सिया, जहा वा तस्स गणस्स तहा सिया ॥ ति।यद्वा-स अननुशिष्यमाणो गाढतरमधिकरणं कुर्यात् । श्रथवा-तमाचार्य परिस्फुटमेव ब्रूयात्-त्वं मामेवैकं बाह्यतया भिकः, चशब्दादाचार्योपाध्यायो वा, अधिकरणं कृत्वा तदधिप्रेक्षसे,ततश्चात्मानमुद्ध्य यदि मारयति,तत आचार्यस्य पा. करणमप्यवशमय्य,श्च्छेदन्यगणमुपसंपद्य विहर्तुम. ततः कस्पते राश्चिकमाअथो निष्कामति ततो मूलम्। तस्माद् द्वावप्यनुशा. तस्य अन्यगणसंक्रान्तस्य पञ्चरात्रिंदिवं छेदं कर्तुम , ततः परिसनीयौ, अनुशिष्टौ च यद्युपशान्तौ ततः सुन्दरम् । अथैक निर्वाप्य २ कोमलवचःसलिल सेकेन कषायामिसंतप्तं सर्व उपशान्तो न द्वितीयः, तेन चोपशान्तेन गत्वा स स्वापराधप्र शीतलीकृत्य , द्धितीयमपि वारं तमेव गणं संघ प्रतिनेतन्यः निपत्तिपुरस्सरं तामितः, परमसौ नोपशाम्यति । पाह-कथ. स्यात् । यथा वा तस्य गणस्य, तथा कर्त्तव्यमेवेति सूत्रार्थः । मतदसौ जानाति यथाऽयं नोपशान्तः?, उच्यते-यदा बन्धमा- १०५ २० ॥ नोऽपिन वन्दनकं प्रतीच्छति। यदि वाऽवमरत्नकोऽसौ ततस्तं (ए) गच्चादनिर्गतस्याऽधिकरणे उत्पन्ने विधिःरत्नाधिकं न वन्दते , आद्रियमाणोऽपि वा नाजियते । गच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विधी होइ । एवं तमनुपशान्तमुपलक्ष्य ततोऽसौ किं करोतीत्याह सज्मायजिक्खदत्त-पाअोसए व चटर एकेके । उपसंतोऽणुवसंतं, पासिजा विएणवेइ आयरियं । 'गच्चादनिर्गतस्थानुपशाम्यतोऽयं विधिनवति-सुयोदयकाले यः तस्स उ पन्नवणट्टा, निक्खेवो परो इमो हो । स्वाध्यायः क्रियते तदवसरे प्रथममसौ नोद्यते , द्वितीयं भिउपशान्तः साधुरनुपशान्तमपरं दृष्ट्वा प्राचार्य विज्ञापयति- | कावतरणवेलायां तृतीयं भकार्थनाकाले, चतुर्थ प्रादोषिका. णा T Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६) अधिगरण प्रानिधानराजेन्द्रः। अधिगरण वश्यकबेलायाम् । एवं चतुरो वागनेकैकस्मिन् दिने नोद्यते, | स्तमगीतार्थ गीतार्थ वा गुरुर्न सारयति ततो द्वयोरप्याचार्यतच्चाधिकरणं प्रभाते प्रतिक्रान्तानां स्वाध्याये अप्रस्थापिते । स्यानुपशाम्यतश्च प्रायश्चित्तस्यापत्तिः । अन्ये अषते-मगीतार्थपवमादौ कारणे तमुत्पद्यते स्यानुपशाम्यतोऽपि नास्ति प्रायश्चित्तं , यस्तु गुरुरगीतार्थन उपडिलोहियमादिसु, नोदिऍ सम्म अपमिवजते । नोदयति, तस्य प्रायश्चित्तम् । ण विपट्टनेति नवसम-कासो ण मुघोजियं वाऽसी ।। गच्गे य दोलि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहय। दुष्प्रत्युपेक्तितं कुर्वन् मादिशब्दादत्युपेकमाणः, असामाचार्या नत्तष्णसज्झायं, बंदण लावं ततो परेण ॥ वा प्रत्युपेकमाणो नोदितः सम्यग् यदिन प्रतिपद्यते, ततो म. एवमनुपशाम्यन्तं गच्छो छौ मासौ सारयति, इदं पुनः पके धिकरणं भवेत् । उत्पन्ने चाधिकरणे यदि स्वाध्यायेऽप्रस्थापिते पक्षे परिहापयति । तद्यथा-अनुपशान्तस्य पके गते गच्छेतेन स्वयमेवोपशान्तस्ततः सुन्दरम् । अथ नोपशान्तस्ततो यःप्रस्था- साई भक्तार्थनं न करोति, न गृहाति बा, न पा किमपि तस्य पनार्थमुपतिष्ठते स चारणोयः । यथा-तिष्ठतु तावद यावत् स. ददातीत्यर्थः। हितीये पक्के गते स्वाध्यायं तेन समं न करोति, ३पिनो मिलिनाः, तत श्रागतेषु सर्वेषु सूरयो यते-आर्याः ! तृतीये पके गते चन्दनं न करोति,चतुर्थोऽपि पक्को यदागतोभपश्यत इमे साधवः स्वाध्यायं न प्रस्थापयन्ति । ते चेष्टोत्तरं वति ततः परमानापमपि तेन साई वर्जयति । प्रयच्चन्त्यवश्य-कालो न शुरूः, पराजितं तेषां साधूनां सूत्र पायरिय चउर मासे, संगँजति चनर दे सज्जायं । भुतं, ततो न स्थापयन्ति । एवं मणतो मासगुरू, साधवश्व सवेऽपि स्थापयन्ति स्वाध्यायं च कुर्वन्ति । वंदणलाये चउरो, तेण परं मूलनिच्छुनणा ।। काले प्रतिक्रान्ते भिकावेलायां जातायामिदमाचार्या जएयन्ते- प्राचार्यः पुनश्चतुरो मामान सरपि प्रकारैस्तेन समं संतुपोतरण अजत्तट्ठी, ण च वेला अनुंजणाऽजिलं । थे, ततः परं चतुरो मासान् जक्तार्थनं वर्जयति, स्वाध्यायं तु ण य पमिकमंति उबराम, णिरतीयारा तु पच्छाऽऽह ॥ ददाति । ततश्चतुरो मासान् स्वाध्यायं परिहत्य वन्दनालापौर दाति, ततः परं वर्षे पूणे सांवत्सरिके प्रतिक्रान्तेऽनुपशान्तस्य आर्य! माधवस्त्वदायेनानुपशमनन भिक्कां नावचरन्ति, तत गणानिष्कासनं कर्त्तव्यम् । सपशमं कुरु । स चेरेत्तरं प्राह-यूयमभक्तार्थिनो,न वा निका ____एवं वारसमासे, दोसु तवो सेसए नवे दो। बेला,एवमुत्ते सर्वेऽध्यवतरन्ति, तस्याभुपशान्तस्य द्वितीयं मास. परिडीयमाण तद्दिन-से तव मूलं पडिकते ॥ गुरु । निकानिवृत्तेषु साधुषु गुरखो जणन्ति-आर्य ! माधवो न नुजते । स प्राह-नूनं साधूनां न जीर्णम। एवमुक्ते सर्वेऽपि समु एवं द्वादशमास्यामप्यनुपशाम्यताईयोरादिममासये.ाषादिना तुझत, तम्य पुभम्तृतीयं मासगुरु। नूयोऽपि प्रतिक्रमणवे. चन विसजितस्तावत्तपः प्रायश्चित्तमेव, शेषेषु दशसु मासेषु लायां भणन्ति-आर्य! खाधवो न प्रतिक्रामन्ति, उपशमं कुरु । पञ्चरत्रिदिवं दो यावसांवत्सरिकम, एवं प्राप्त नवसि-पर्यं-- सोत्तरं प्रत्याह-तुरिति वित, संभावयाम्यहं निरतीचाराः षणारात्री प्रतिक्रान्तानामधिकरण उत्पन्ने एष विधिरुक्तः। (प. श्रमणास्तेन न प्रतिक्रामन्ति,एवमुक्ते मवेऽपि प्रतिक्रामन्ति । तस्य रिहायमाण तदिवस त्ति) पर्युषणापारणकदिना कैकदिवसेन पुनश्चतुर्गुरुकम् । एवं प्रभातकासे अधिकरण उत्पन्न यिधिरुक्तः। परिहीयता,तायनेयं यावत्तदिवसं, पर्युषणादिवस एवाधिकरण उत्पन्ने तत्र तपो मूलं वा भवति तच्छेदः । अथ प्रतिक्रमणं कुअमम्मि विकाशम्मी, पदंत हिंडंत मंडलाऽवस्से । । चंतामुत्पन्नं ततः सांवत्सरिके कायोत्सर्गे कृते मूलं च केवलं तिनि व दोषि व मासा, होति पडिकंत गुरुगा उ॥ | भवति । अथान्यस्मिन् काले अधिकरणमुत्पाम, कदेत्याह-पता हीना पतदेव सुव्यक्तमाहधिकादिपउने,भिवां दिएममानानां, मरामल्यां पा समुद्दिशतामा• एवं एकेकादणे, हवेतु ठवणादिणे वि एसेव । वश्यके वा । तत्र यदि द्वितीयवेलायामधिकरणमत्पन्नं तदा चेश्यवंदणसारे, तम्मि वि काले तिमासगुरू। प्रयो गुरुमासाः, चतुर्थवेलायामुत्पन्ने अनुपशान्तस्य द्वौ गुरुमा भारुपदशुद्धपञ्चम्यामनुदित आदित्ये यद्यधिकरणमुत्पद्यते मी, एवं विनापा कतव्या । अथ प्रतिक्रान्ते प्रतिक्रमणे कृते. ततः पर्युषणायामप्यनुपशान्ते संवत्सरो प्रवति । षष्ठचामत्पने ऽपि नोपशान्तस्ततश्चतुर्गुरुकाः ।। एकदिवसो न संवत्सर। सप्तम्यां दिवसद्वयम एबमकैकं दिनं एवं दिवसे दिवसे, चाउकाले तु सारणा तस्स। दापयित्वा तावनय यावत् प्रस्थापनादिनं पर्युषणादिवसः। तत्र जति वारे ण सारेति, गुरूण गुरुगो तु तति वारे ॥ वाऽनुदिते रवी करदे उत्पन्ने एवमेव नोदना कर्तव्या । प्रथम पवमनुपशान्तस्य दिवसे दिवसे चतुष्काले स्वाध्यायप्रस्था- स्वाध्यायप्रस्थापनं कर्तुकामैः सारणीयम, ततश्चत्यधन्दनार्थ पनादिसमयरूपे, तस्य सारणा कर्तव्या । यदि यावतो वारान् गन्तुकामाः सारयेयुः। तत्राप्यनुपशान्ते प्रतिक्रमणवेलायां सारप्राचार्यों न सारयति तावतो वारान् मासगुरुकाणि भवन्ति । यन्ति । एवं तस्मिन्नपि पर्युषणाकालदिवसे त्रिषु स्वाध्यायप्रस्थाएवं तु अगीतत्थे, गीतत्ये सारिए गुरू सुद्धो। पनादिषु स्थानेषु नोदितस्यानुपशान्तस्य त्रीणि मासगुरु काणि भवन्ति । जति तं गुरू ण सारे, आवत्ती होइ दोएहं पि । पमिकते पुण मुलं. पमिक्कमंते व होज अधिकरणं । एवं दिने दिने सारणाविधिरगीतार्थस्य कर्तव्यः,यस्तु गीतार्थः स योकं दिनं स्वाध्यायनिवाजक्तार्थनावश्यक वकणेषु चतुर्यु संवच्छरमुस्सग्गे, कयम्मि मूखं न सेसाई ।। स्थानेषु सारितस्तदा परतस्तमसारयन्नपि गुरुः शुरुः,यदि पुन-। पर्युषणादिने सर्वेषामधिकरणानां व्यवचित्तिः कत्तव्येतिक Jain Education Interational Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण प्रतिसमाप्ते आवश्यके यदि नोपशान्त, तो मृज्य । (पकिमंते व ति) अथ प्रतिक्रमणे प्रारब्धे यावत सांवत्सरिको महाकायोत्सर्गः तावधिकरणे ते मूलमेव केवलं न शेषाणि प्रायश्चित्तानि । ( 499 ) अभिधानराजेन्द्रः । संत्रच्चरं च रु. आयरिश्र रक्खए पयत्तेणं । जदि खाम उसमेता पव्वपराईसरिसरोसो | एवमाचार्यस्तं रुष्टं संवत्सरं यावत् प्रयत्नेन रक्षति । किमर्थम् ? इत्याह-यदि नाम कथचिदुपशाम्येत । अथ संवत्सरेणापि गोपशाम्यति ततः पर्वतराजीसरारोपः समन्तव्यः तस्य वर्षा को विधि, याह अणे दो आयरिया, एक परिसमुत्रेयस्स । ते परं गिहिए सो, वितियपदे रायपन्नइए || तं वर्षादूर्ध्व सूपार्थसमीपागमन्य द्वायाचार्य क्रमे के कं वर्षमेतेनैव विधिना प्रयत्नेन संरकृतः, तन्मध्याद्येनोपशमितस्तस्यैवासी शिष्यः ततः परं यदूमे य स्तदीयं मिपाकरोतीत्यर्थः । द्वितीयपदे राजतिस्प सिद्धं प्रस्तारदोषनपान हियते एवं निकोकम् । एमेव गणायरिए, गच्छम्म तवोउ तिम्नि पक्खाई । दो पक्खा आयरिए, पुच्छा य कुमारदिहंतो ॥ एवमेव गणिन श्राचार्यस्य च मन्तव्यम् | नवरमुपाध्यायस्यासुपशाम्यतो गच्छे वसतस्त्रीय शास्तपः प्रायश्चितम् परस दः आचार्यस्यानुपशाम्यत तपः परस छेदः शिष्यः पृच्छति कंसाराचे विषमं प्रायश्चितं प्रवच्यथ, रागपिणो वृषम प्राचार्यः प्राद-कुमारतोय प्रयति । स वोत्तरत्राभिधास्यते । उपाध्यायस्य त्रयः पक्कास्ते दिवसीकृताः पञ्चचत्वारिंशद्दिवसा नवन्ति ॥ ततः पणयालदिणे गणिणो, चन्दा काऊरण साहिएकारो । सण-सज्जाए, नंदलावे य हावेति । गणिनः संबन्धिनः पञ्चचत्वारिंशदिवसाः चतुर्द्धा क्रियन्ते । चतुर्भागे च साधिकाः सपादा एकादश दिवसा भवन्ति । तत्र राज्य उपाध्यायेन सममेकादश दिनानि भक्तार्थनं करोति । एवं स्वाध्याय वन्दनालापानपि प्रत्येकमेकादश दिनानि यथाक्रमं क रोति परतस्तु परिहापयति । पञ्चचत्वारिंशद चोपाध्यायस्य दशकच्छेदः । श्राचार्यस्तथैवोपाध्यायमपि चतुभिश्चतुर्भिर्मासैर्भ कार्थनादीनि परिहापयन् संवत्सरं सारयति । पदवीकृती दिवसा नयन्ति । तस :-- " तीस दिला आरिए, अद्धहृदिणा तु हावणा तत्य । गच्छेण चउपदेहिं मिच्छूडे लग्गती छेदे ॥ त्रिंशदिवासाधतुर्थभागेन का मदिवसा भवन्ति । गच्छे आचार्येण सदाकीटमानि दिवसानि भक्काधनं करोति । एवं स्वाध्याययन्दनालापनमपि यथाक्रममष्टमैर्दिवसैः प्रत्येकं हापयति । ततः परं गच्छेन चतुर्भिरपि नक्तार्थनादिनिः पदैर्नि कासित भाचार्यः पञ्चदशके वेदे लगति । १४५ ततः " संकंतो एगणं, सगणेण पवज्जितो चउपदेहिं । परिपु वरिसं वंदावेदि सारे ॥ स्वगणेन प्रक्तार्थनादिभिश्चतुर्भिः पदैर्यदा वर्जितः, तदा भन्यगणं संक्रान्तः पुनरन्यगणस्याचार्यो केवलं वन्दनालापाज्यां ज्यां पदायां संजना सारयति यावद्वर्षम्। सज्जायमाइए, दिणे दिणे सारणा परगणे वि । नवरं पुण नातं, तो गुरुस्सेयरे वेदो || परगणेऽपि संक्रान्तस्य आचार्यस्य स्वाध्यायादिभिः पर्दिने दिने सारा कियते । नवरं परगोपालस्ये नानात्वं विशेबः। श्रन्यगणसक्तस्य गुरोरसारयतस्तपः प्रायश्चित्तम् इतरस्य पुनरधिकरणकारिण श्राचार्यस्यानुपशान्तस्य ः अत्र पर प्राह-रागद्वेषिणो यूयम्-१‍ -आचार्य शीघ्रं बेदं प्रापयथः, उपाध्यायं बहुतरेण भिक्षु ततोऽपि चिरतरेण एवं निपाध्याययो भवतां रागः, आचार्ये द्वेषः । अत्र सूरिः प्रागुद्दिष्टं कुमाग्दृष्टान्तमाह-सरिसावंराधमंडो, जुवरमो भोगहरणबंधादी । 1 मज्जिम बंधवहादी, अव्वत्ते कन्नखिंसति ॥ "एगस्स रनो तिनि पुस्ता जेठो, मज्जिमो, कणिमो । तेहि य तिर्हि विसमत्थियं पितरं मारिता रज्जं तिहा विजयामो, तं च रक्षा णायं, तत्थ जेट्ठो जुवराया, तुमं पमाणो कीस एवं करेसिसि ? तस्स भोगहरणादिया बच्चे हयगारा कया । मज्जिमो रायप्पहाणो प्ति काचं तस्स भोगहरणं न कथं, अधिगरगा यहादिया कथा चव्यतो कहो पतेहिं विचारियो चिकाउं तस्समोमो खिसा इंडोय मोन प्रोगहराइया" अरगमनका सयपराधे युवराजस्य भोगहरणवन्धमादिको महान् दण्मः कृतः । मध्यमस्य बन्धवधादिको, न भोगहरणम्, अशक्तः कनिष्ठस्तस्य कर्णामांडनादिकः, खिसा च कृता । अयमथापनयः । यथा लोकेलों को तर उप्युक्त मध्यमपत्येषु पुरुषवस्तुषु समो लघुतरा यथाक्रमं दमः कियते । प्रमाणभूते च पुणे अभिपावर्तमाने एते दोषा:अपचय वीसत्य-नणंच लोगे गरड़ा दुरद्दिगमो । प्राणा व परिभवो व भयं तो लिहा दंडो ॥ । वाचार्य प्रगन्ति का चरित्रं भवति, स्वयं पुनरियति एवं सर्वे पूरे शेष्यप्रत्ययो भवति । शेषसानामपि कषायकरणे विश्वस्तता भवति, लोको वा गर्छौ कुर्यात् । प्र धान एवामां कहूं करोतीति, रोषणश्च गुरुः शिष्याणां प्रतीकानां दुरधिगमो भवति, रोपणस्य चाज्ञां शिष्याः परि वन्ति न च भयं तेषां भवति अतो वस्तुविशेषेण त्रिवा दरमः कृतः । गच्छम्मित पट्टए, जम्मि पदे निग्गतो चितियं । निक्खुगणायरियाणं, मूलं प्रणव- पारंची ॥ 9 यस्मिन् पदे प्रस्थापित निर्गतस्ततो द्वितीयं परं परगणे संक्रान्तः प्राप्नोति तद्यथा-पस प्रस्थापिते यदितिश्वेदं प्राप्नोति वेदे प्रस्थापिते निर्गतस्ततो मूत्रम, एवं निक्कोरुक्तगावच्छेदकस्यानयस्थाप्ये भावार्थस्य पारक्षि के पर्यवस्यति । Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (430) अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः। अधिगरण भयवा येन जक्तार्थनादिना पदेन गच्छान्निर्गतः, ततो द्वितीयपद- | स्वगणे स्पर्द्धकेषु संक्रान्तस्यानुपशाम्यतो दिवसे दिवसे पमन्यगणे गतस्य प्रारज्यते । यथा-गच्चाद्भतार्थेन पदेन निर्गतः, वरात्रिदिवश्छेदः, परगणे मनोज्ञेषु सांभोगिकेषु संक्रान्तस्य ततोऽन्यं गणं गतेन तेन समं गणो न जुड़े, स्वाध्यायं पुनः करो. दशरात्रिंदिवः, अन्यसांभोगिकेषु संक्रान्तस्य दशरात्रिंदिवः, ति । एवं स्वाध्यायपदेन निर्गतस्य चन्दनं करोति । वन्दनपदेन अन्यसांभोगेषु पञ्चदशरात्रंदिवः । अवसन्नेषु गतस्य विश. निर्गतस्यालापं करोति । श्रालापपदेन निर्गतस्य परगच्च- तिरात्रिदिवश्छेदः । एवं भिक्षोरुक्तम् । चतुभिरपि पदैः परिदारं करोति । 'भिक्खुगणायरियाणं ' अथोपाध्यायाचार्ययोरुच्यतेइत्यादिना तु त्रयाणामप्यन्त्यप्रायश्चित्तानि गृहीतानि । वृ० ५ एमेव य होइ गणी, दसदिवसादी भिामासंते। चानि चू०। ( द्वितीयपदं कारण सत्युत्पादगदित्यधिकारेऽनुपदमेव वक्ष्यते) पम्मरसादी तु गुरू, चनुसु वि गणेमु मासंते ।। (१०) खरपरुपाणि भणित्वा गच्गनिर्गच्छतो विधिः एवमेव गणिन उपाध्यायस्यापि अधिकरणं कृत्वा परगण संक्रान्तस्य मन्तव्यम् । नवरं दशरात्रिंदिवमादौ कृत्वा भिन्नयद्यधिकरणं कृत्वा प्रशापितोऽपि नोपशाम्यति, मासान्तस्तस्य च्छेदः। एवमेव गुरोरप्याचार्यस्य चतुर्यु स्वयस किं करोति ?, इत्याह णपरगणे सांभोगिकान्यसांभोगिकायसनेषु पञ्चदशरात्रिंदिखरफरुसनिढुंगई, अह सो भणिलं अनाणियन्वाई । वादिको मासिकान्तश्छेदः । एतत्पुरुषाणां स्वगणादिस्थान विभागेन प्रायश्चित्तमुक्तम् । निग्गमाण कलुसहियए, सगणे अट्ठा परगणे य ॥ अथ तथैव स्थानेषु पुरुषविभागेन प्रायश्चित्तमाहअथासौ खरपरुषनिष्टुराणि अभणितव्यानि वचनानि भणित्वा कबुषितहृदयः स्वगच्चानिर्गमनं करोति, ततोनिर्गतस्य सगणम्मि पंचराई-दियाइ निक्खुस्स तदिवस दो। तस्य स्वगणे परगणे च प्रत्येकमौ स्पर्ककानि वक्ष्यमाणा दस होइ अहोरत्ता, गाणायरिए व पामरसा ।। नि भवन्ति । स्वगणे संक्रान्तस्य भिक्षोस्तदिवसादारभ्य दिने दिने पश्चवरपरुषनिष्टरपदानि व्याख्याति रात्रिदिवश्छेदः। गणिन उपाध्यायस्य दशरात्रिंदिवः । आचान सरोस भणियं, हिंसग-मम्मवयण खरं तं तु ।। र्यस्य पञ्चदशरात्रिंदिवः। अप्पगणे भिक्खुस्स य, दस राइदिया नवे दो। अक्कोस णिरुवचारिं, तमसच्चं णिहरं होति । पणरस अहोरत्ता, गणिआयरिए भवे वीसा ।। ऊर्ध्व महता स्वरेण सरोपं यद्भणितं-दिसकं मर्मघट्टनवचनं अन्यगणे सांभोगिकेषु संक्रान्तस्य भिक्षोर्दशरात्रंदिवश्छेदः। वा,तत्तु खरं मन्तव्यम् । जकारमकारादिकं यदाकोशवचनं यश्च उपाध्यायस्य पञ्चदशरात्रिंदिवः। प्राचार्यस्य विंशतिरात्रिदिवः। निरुपचारि विनयोपचाररहितं तत्परुषम्। यदसत्यं सभाया अ एवमन्यसांभोगिकषु अवसन्नेषु च प्रागुक्तानुसारेण नेयम् । योग्य, कस्त्वमित्यादिकं तद् निष्ठुर भण्यते । वृ०५ उ०। इंदशानि भणित्या गच्चयान्निगतस्याचार्यः प्रायश्चित्तविभागं दयितुकाम इदमाह एवं एकेकदिणं , हवेतु ठवणा दिणे वि एमेव । अट्ठऽहअघमासा, मासा होतऽट्टअट्ठसु पयारो। चेइयवंदणसारिऍ, तम्मि व काले तिमासगुरू ॥२१॥ वासामु अ संचरणं, ण चेव इयरे वि पेसति ।। पासत्यादिगयस्स य, वीसं राईदियाइँ निक्खुस्स ।। स्वे गणे यान्याचार्यसत्कान्यष्टौ स्पर्द्धकानि, तेषु पते अपरा पणवीस उवज्झाए, गणिआयरिए नवे मासो ॥१४ परस्मिन् स्पर्द्धके संचरतो अष्टावर्द्धमासा भवन्ति । परगण- गणस्य गणे वा प्राचार्यः, अधवा-गणित्वमाचार्यत्वं च मध्येऽप्यटसु स्पर्द्धकेषु पक्षे पक्षे संचरतो अशावर्द्ध मासाः । यस्यास्त्यसौ गणिपायरियो । नि० चू० १० उ० । एवमुभयेऽपि मीलिता अष्टौ मासा भवन्ति, अष्टसु च ऋतु- अथैवं प्रतिदिन छिद्यमाने पर्याय पक्षण कियन्तो मासा मबद्धमासेषु साधूनां प्रचारो विहारो भवतीतिकृत्वा अपग्रहण मीषां छिद्यन्ते? , इति जिज्ञासायां छेदसंकल्पनामाहकृतम । वर्षासु चतुरो मासान् तस्याधिकरणकारिणः साधोः अाज्जा मासा, अट्ठहि मासा हवंति वीस तु । मंचरणं नास्ति वर्षाकाल इतिकृत्वा इतरेऽपि येषां स्पर्द्ध केषु संक्रान्तस्तेऽपि नं प्रज्ञाप्य वर्षावास इतिकृत्वा यतो गणादाग पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहि चत्ताउ जिक्खस्स ।। तस्तत्र न प्रेषयन्ति; तत्र यानि स्वगणे अष्टी स्पर्द्धकानि, तेषु स्वगणासंक्रान्तस्य भिक्षोः प्रतिदिनं पञ्चकच्छेदेन छि-. संक्रान्तस्य तैः स्वाध्यायभिक्षाभोजनप्रतिक्रमणवेलासु प्रत्येक द्यमानस्य पर्यायस्य पक्षणार्द्धतृतीया मासाः छिद्यन्ते । सारणा कर्तव्या ।'आर्य ! उपशमं कुरु' यद्येचन सारयन्ति तथाहि-पते पञ्चदश दिनानि भवन्ति, तैः पञ्च गुण्यन्ते, ततो मासगुरुकम्। जाता पश्चसप्ततिः । तस्या मासानयनाय त्रिशता नामे __ तस्य पुनरनुपशाम्यत इदं प्रायश्चित्तम् हते अतृतीयमासा अभ्यन्ते, स्वगणे चाणी स्पर्द्धकानि, तेषु पके पके संचरतः पञ्चकच्छेदन विशतिर्मासाश्विद्यन्ते । तथाहिसगणम्मि पंच राई-दियाएि दस परगणे मागोमुं । पञ्चदशानिर्गुणता जातं विंशोत्तरं शतम् , तदपि पञ्चभिअोसु होइ पहारस, वीसा तु गयस्म ओसमो ॥ गणितं जातानि षट्शतानि । तेणं त्रिशता भागे हृते विशतिर्मासा Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण अन्यन्ते तत्रापि गुणकार मामाहारयोगे 1 युज्य मासा श्रातव्याः । परगणे संक्रान्तस्य निक्कोदेशकेन बेदेन विद्यमानस्य पर्यायस्य पक्रेण पञ्च मासविद्यन्ते, दशकेनैव छेदेनाष्टनिः पकैश्चत्वारिंशन्मासाद्यन्ते, एवं भिक्कोक्तम् । उपाध्यायस्य पुनरिदम् पंच छ मासा पक्खे, अहिं मासा हवंति चताउ । मास पक्खे, अहिं सट्ठी नवे गणियो || उपाध्यायस्यापि स्वगणे दशकेन बेदेन पक्केण पञ्च मासाः, अनि पर्गुणिताश्चत्वारिंशन्मासाः विद्यन्ते, तस्यैव परगणे पकेन नाममा परिणत वाहन पकैर्गुणिताः परिर्मासा गणिनवियन्ते । ', मास पक्ले, अहिं मासा हवंति सही तु । दस मासा पक्खणं, अहिँसती उ प्रायरिए । आचार्यस्य स्वगणे संकास्पद नद्यमाने प यांचे पानमाला भासिय से । तस्यैव परगणसंक्रान्तस्य विशेन बेदेन पक्केण दश मासा अष्टभिः परशीतिर्मासविद्यन्ते । एवं स्वगणे परगणे व सांभोगिकेषु कान्तरूप उबलनाऽभिहिता अवधेषु च संक्रान्तस्य निपायास्याचार्यस्य वाय दिशा बेदसंकलना कर्त्तव्या । एसा विहीन निग्गऍ, सगणे चत्तारि मास उक्कोसा । चचारि परगणम्मी, तेज परं मूल निष्णं ॥ (US) अभिधानगजेन्द्र एष विधिगच्छा निर्गत स्योक्तः । अथ च स्वगणे असु स्पर्ककेषु पके पक्के संचरतश्चत्वारो मासा चत्कर्षतो भवन्ति । परगपणेऽप्येवं चत्वारो मासाः । एवमप्येष्वपि चत्वारो मासाः । ततः परं यद्युपशान्तस्ततो मूलम् । अथ नोपशान्तस्तदा निष्कासन कर्तव्यम: लिङ्गमपहरण चोप रागदोसे, सगणे चोत्रं इमं तु नाणचं | पंतापण निच्णं परकुलपरयोभिए ता गया ॥ शिष्यः प्रेरयति रागद्वेषिणो यत् स्वगणे स्तोकं छेदमाचितं दत्सम, परगणे तु प्रभूतम् । एवं स्वगणे नवतां रागः, परगणे द्वेषः। गुरुराद- श्यं वेदनानात्वं कुर्वतो वयं न रागद्वेषिणः । - तथा चात्र दृष्टान्तः एगस्स गिड़ियो चरो भनाओ। ततो व ते कम्हि एगे सरिसेरा कते पंतवेंता पीह मम गिहाओ त्ति निच्छूदाता का वरपर गया. बिया परं तलिया तुलो एगसरीरो घोमियो त्ति वयंसो, तस्स घरं गया, " नितीन वारसदार सग्मा हमारी विन गच्छ नायकतो वच्चामि ? नस्थि मे अन ममिओ जवि मारेहि तदा व तुमचे गती सर ति तत्थेव किया। केनापि गुड़िया मनां भार्याणां गृहका प्रतापनं कुनं कृत्या काम द्वितीया कुलम अधिगरा तृतीया घोटिको मित्रं, तहं गता, चतुर्थी तु न कापि गता । तो तुट्टे चलत्थी घरसामिशी कथा तयाए योमिय परं ती सोबत खरंटिता, आजीता। विनया घरं जंगीए में पहिये गाढतरं रुद्धेन प्रनिणि वि गतरोसेा खरंटिता, दे मियाय | पढमा दूरे एट्ठेत्ति न ताए किंवि पचयणं, महंतेरण वापच्छित्तदंडे दंडिडं प्राणिज्जइ । एवं पर संहालिया सारया अन्नसंजोया घोटियसमा संजोया, निगमे सघरसमा गच्छे जात्र दूरंतरं ताव महत्तरो मंगो जवद वृ० ५४० । (११) गृहस्थैः सदाधिकरणं कृत्वाऽप्ययमध्य पिण्ड ग्रहणादि न काम भिक्खु य अकर कटुत्तं अहिगरणं अविशोष मिलाना से कप गावकु मनाए वा पाणार ना निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, बहिया वियारमं वा विहारमा निमित वापस गामाणुगामं वा दुलर गानो वा गमितवा, वामावासं वा वत्युं जत्थे व अप्पणाऽऽयरियनवज्झायं पा सेज्जा, बहुस्वागमं तस्सं लिए आलोड़ना, परिकमिज्जा, निंदिज्जा, गर हिज्जा. विगुडेजा, विमोहेजा, अकरण्याए अबुजा, अरिहंतयोकम्पं पायच्चित्तं पश्विमे मे " " सुण पविए आदितन्त्रे सिया से य सुरण नो पड़थिए नो आदितव्ये सिया से व सुरण पटुवेतमा नो आईया स निच्चूड़ियां सिया || , अस्य संबन्धमाह - केण कथं कीस कथं नियुओ एम किं इटालोन ? | एसो बिगही तुदितो, करज कस असहमाणो ॥ केनेदं चहनं काष्टानयनं कृतं कस्मादेन कृतं निष्कासितोध्येय किमर्थमिहानयति एवमादिभिर्वचोदितो व्यथितः कश्चिदसहमानः कलहं कुर्यात् । अत इदमधिकरणसूश्रमारभ्यते । श्रनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-भिक्षुः प्रागुकः चशब्दादुपाध्यायादिपरिग्रहः अधिकरणं कलहं कृ नो कल्पते तस्य तदधिकरण मध्यवशमय्य गृहपतिकुलं भलाय वा पानाय वा निष्कासितुं वा, प्रवेष्टुं वा, ग्रामानुग्रामं वा गन्तुं विगाढा गएं संक्रमितुं वर्षावास या वस्तु किंतु यत्रैवात्मन चाचापोपापश्येत् कथंभूतमः प न्थादिकुशलम् । बह्नागमं अर्थतः प्रभूतागमम, तत्र तस्यान्तिके आलोचयत् स्वापराधं वचसा प्रकटयेत् प्रतिक्रमेत् मिस्यादुःष्कृतं तद्विषये दद्यात् । निन्द्याद् आत्मसाक्षिकं जुगुसेन, गत गुरुसाक्षिकं निन्यान् इह च निपा तात्त्विकं तदा भवति यदा तत्करणनः प्रतिनिवर्तते । ततआह-व्यावर्तेन तस्मादपराधपदानिवर्तेत, व्यावृत्तावपि कता Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) अधिगरण अन्निधानराजेन्द्रः । अधिगरण त्पापात्तदा मुच्यते, यदात्मनो विशोधिर्भवति। तत श्राह-प्रा. आझादयश्च दोषाः । स च गृहस्थो येन साधुना सहाधिकत्मानं विशोधयेत् पापमलस्फोटनतो निर्मलीकुर्यात् । विशुद्धिः रणं झातं तस्यानेकेषां वा साधूनां बन्धनं निष्कासनं वा कुर्यात्। पुनः पुनः करणतायामुपाद्यते । ततस्तामेवाऽऽह-प्रकरणता कटकमादाय सर्वानपि साधून कोऽपि व्यपरोपयेत् । व्युग्राहप्रकरणीयता, तया अभ्युत्तिष्ठत् । पुनरकरणतया अभ्युत्था- णं वा लोकस्य कुर्यात् । नास्त्यमीषां दत्ते परलोकफलम, यनेऽपि विशोधिः प्रायश्चित्तप्रतिपत्या भवति । तत आह-य- द्वाऽमी संज्ञा व्युत्सृज्य विकिरन्ति, न च निपयन्ति, बङ्गादिना । थाहे यथायोग्यं तपःकर्म प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते । तच्च प्रायाश्चि- या शस्त्रेण साधुना इन्यात् । अग्निकायेन वा प्रतिश्रयं दद्देत् । तमाचार्येण श्रुतेन श्रुतानुसारेण यदि प्रस्थापितं प्रदत्तं तदा उपकरणं वा अपहरेत, विषं गरादिकं वा दद्यात्, भिकां षा आदातव्यं ग्राह्य स्याद्भवेत् । अथ श्रुतेन न प्रस्थापितं तदा वारयेत् । नादातव्यं स्यात् । स चालोचको यदि श्रुतेन प्रस्थाप्यमान तरच वारणमेतेषु स्थानषु कारयेतूमपि तत्प्रायश्चित्तं नाददाति न प्रतिपद्यते ततः स निहितव्यः, अन्यत्र शोधि कुरुध्येति निषेधनीयः स्यात् । इति रजे देसे गामे, णिवेसणे गिहे निवारणं कुणाते । सूत्रार्थः। जा तेण विणा हाणी, कुलगणसंघे य पच्चारो॥ अथ भाध्यविस्तर: राज्ये सकलेऽपि निवारणं कारयेत् । एतेषां भक्तमुधिं वसअवियत्त कुलपवेसे, अइनूमि अणेसणिजपडिसेहे। ति वा मा दद्यात् । एवं देशे,ग्रामे, निवेशने, गृहे वा, निवारणं करोति । ततो या तेन भक्तादिना विना परिहाणिस्तां वृषन्नानप्रेअवहारमंगबुत्तर-सनावअवियत्तमिच्चत्ते ।। षयन् गुरुः प्राप्नोति । अथवा यः प्रभवति स कुलस्य गणस्य सा. अविदितभूमिस्थाने कथमधिकरणमुत्पन्नम् ?, इत्यस्यां जिशा. स्य वा प्रस्तारं विस्तरेण विनाशं कुर्यात । सायामभिधीयते-कस्मिंश्चित कुछ साधवः प्रविशन्तोऽप्रीतिक एयस्स पत्थि दोसो,अपरिक्खिय दिक्खगस्स अह दोसो। रास्तत्राजानतामनाजोगाद्वा प्रवेशे गृहपतिराकोशेद्, वा हन्याद, या साधुरप्यसहमानः प्रत्याक्रोशेत; ततोऽधिकरणमुत्पद्यते। ए. पत्नु कुजा पच्चारं, अपनू वा कारणे पभुणा॥ चमतिभूमि प्रविष्टे अनेषणीयभिकाया वा प्रतिषेधे, शैक्कस्य वा गृहस्थः चिन्तयति-एतस्य साधो स्ति दोषः, किं तु य एनमंझातकस्यापहारे, यात्राप्रस्थितस्य वा गृहिणः साधु दृष्टा मपरीक्ष्य दीक्तिवान् तस्याऽयं दोषः । अतस्तमेव घातयामीश्रमशलमिति प्रतिपत्तौ समयविचारेण या प्रत्युत्तरं दातुमस ति विचिन्त्य प्रतुः स्वयमेव. पस्तारं कुर्यात् । अप्रनुरपि - मथों गृहस्थस्वभावेन वा क्वापि साधौ ( अवियत्ते) अनि व्यं राजकुले दत्त्वा प्रणा कारयेत् । रहे अभिग्रहमिथ्याटेर्वा सामान्यतः साधाववलोकिते अधि यत पते दोषाःकरणमुत्पद्यते। तम्हा खलु पट्ठवणं, पुचि वसजा समं च वसनेहिं । पडिसेधे पडिसेधो, भिक्खुवियारे विहार गामेव । अधुलोमण पेच्छामो, णिति अणिच्छपि तं वसना ।। दोसा मा होज बहू, तम्हा आलोयणा मोधी॥ तस्मा कृपभारणांतत्र स्थापनं कर्तव्यम् । (पुब्बिति) येन साधुना भगवद्भिः प्रतिषिर्क न बर्तते माधूनामधिकरणं कर्तुम, पवं अधिकरणं कृतं तावन्न प्रेषयन्ति यावषनान् पूर्व प्रज्ञापयन्ति । विधिप्रातषेधे भूयः प्रतिषेधः क्रियते । कदाचित्तदधिकरण फि कारणम् ?, उच्यते-स गृहस्थः तं दृष्ट्वा कदाचिदाहन्यात। गृहिणा समं कृतं नवेत् , कृत्या च तस्मिन्ननुपशमिते भिकायर्या न अथ झायते न हनिष्यति ततो वृषभैः सम तमपि प्रेषयन्ति । तत्र दिण्डनीयम, विचारनूमाविहारभूमी वा न गन्तव्यम, ग्रामातु- गताश्चानुकूक्षयचोमिरनुलोम प्रगुणीकरणं तस्य कुर्वन्ति । - ग्रामं न विहर्तव्यम् । कुतः, इत्याह-मा बहवो बन्धनकपटक- थासी गृहस्थो बयात्-आनयत तावत्तं कलहकारिणं यनैकवार मदनादयो दोषा भवेयुः । तम्मात्तं गृहस्थमुपशमय्य गुरूणाम- पश्यामः, पश्चात् वामध्ये । नच ततो वृषभास्तदभिप्रायं शात्वा स्तिके आलोचना दातव्या । ततः शोधिः प्रतीच्चनीया। तं साधु गृहिणः समीपमानयन्ति । अथासौ साधुर्नेति ततो इदमेव भावयति बलादपि वृषन्नास्तं तत्र नयन्ति। अहिकरण गिहत्थेहि, ओसारण ककृणा य भागमणं । तेच वृषभाईदृशगुणयुक्ताः प्रस्थाप्यन्तेपानोयण पत्यवणं, अपेसणे होंति चन सहगा। तस्संबंधि मुही वा, पगया प्रोयस्सिणो गहियवका। गृहस्थैः सममधिकरणे चन्पन्ने द्वितीयेन साधुना तस्य साधोरप तस्सेव मुहीसहिया, गति वसभा तगं पुव्वं ।। सारणं कर्तव्यम् । अथ नापसरति ततो बाही गृहीत्वा प्राक तस्य गृहिणः, संयतस्य वा संबन्धिनः सुहृदो वाते भवेयुः प्रपंणीयः । इदं च वक्तव्यम-न घर्तते मम त्वया साधिकरणन गता लोकप्रसिका, ओजस्विनो बबीयांसः, गृहीतवाक्या मासमं भिकामटितुम् । अतिप्रतिश्रये परिनिवर्तामहे । एवमुक्ता देयवचसः, ईदृशा वृषनाः, तस्यैव गृहिणः सुहृद्भिःसहिताःतकं प्रतिश्रयमागत्य गुरुणामालोचनीयम् । ततो गुरुभिरुपशमनार्थ गृहस्थं पूर्व गमयान्त । वृषभास्तस्य गृहस्थस्य मूले प्रेषणीयाः। यदि न प्रेषयन्ति त. कथम् , इत्याहदा चतुर्लघु। सो निच्चुभति साहू, आयरिए तं च जुज्जसि गमेत्तं । प्राणादियो य दोसा, बंधणणिभण कम्गमादाय । । नाऊण वत्थुनावं, तस्स जदी णिनि गिहिसहिया। बुग्गाहण सत्येणं, अगरकरणं विसं वारे ॥ येन साधुना त्वया सह कलदितं स साधराचार्यैः साम्प्रतं Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण निष्कास्पते, अस्मदीयं वचो गुरवो नयन्ति अत आचार्यान् गमयितुं त्वं युज्य से युक्तो भवसि । एवमुक्ते यद्याबायें गमयति- कामयति ततो नष्टम्। श्रथ ब्रूते - पश्यामस्तावतं कलढकारिणम् । ततो ज्ञात्वा वस्तुतो गृहस्थस्य भावं किमयं हन्तुकामस्तमानाययति, त कामयितुकामः १ एवमभिमा कान्वा तस्यायं सुहृत् श्रतस्ते असहिता एवं तं साधुं तत्र नयन्ति । (uot) अभिधानराजेन्खः । , अथासौ गृडी तीव्रकषायतया नोपशाम्यति ततस्तस्य साधोगंच्यस्य च रक्षणार्थमयं विधिःमी अवस्सए वा उर्वेति पेसेंति फड़पतियो वा । देति सहाए सव्वे, वि ऐति गिहिणे अणुवसंते ॥ विष्वगम्यस्मिन्नुपाश्रये तं साधुं स्थापयन्ति, अन्यग्रामे वा यः स्पर्कक पतिस्तस्यान्तिके प्रेपयन्ति, निर्गच्छतश्च तस्य सहायानू ददति । अय मासकल्पः पूर्णस्ततः सर्वेऽपि नियन्ति निर्गच्छ न्ति। एष नुदविधि अथ गृहस्थ उपशाम्यति न साधुस्तदा तस्येदं प्रायश्चित्तमविओसियाम्म लहुगा भिक्सवियारे य वसहिगामे य गणसंकमणे भएपति, इदं पि तत्येव बच्चाहि ॥ अधिकरणे अव्यवसिते विचार वा गच्छति, वसतेर्निर्गत्यापर साधुवसतिं गच्छतिः ग्रामानुग्रामं विडरति सर्वेषु चतुर्लघु अथापर गणं संक्रामति ततस्तैरभ्यगण साधुभिर्भयते दहापि गृहिणः केोधनाः सन्ति ततस्तत्रैवज्ञ इदमेव सुव्यक्तमाड इह वि गिट्टी असिणा, गाय व इदं तुह कसाया। असि प्रयासं, जाए इससि वच्य तत्थेव || हापि प्रामे गृहिणो अधिषणाः क्रोधनाः, न चेह समागतस्य तत्र कषाया व्यवच्छिन्नाः। श्रतोऽन्येषामप्यस्मदादीनामायासं जनयिष्यसि तस्मात , सिद्धम्मिन संगिज्जति संकेताम्म उ अपेसो गुरुगा अजयणकणे, एगतरदोसतो जं वा ॥ अनुपशान् साधी गणान्तरं संक्रान्ते मुलाचा साधुसंपाद कस्तत्र प्रेपणीयः तेन च संघाटकेन शिष्टे कथिते सति द्वितीयाचार्यो न संगृह्णीयात् श्रथ मूलाचार्यः संघाटकं न प्रेपयति, तदा चतुर्लघु । संघाटको यद्ययतनया कथयति ततश्चतुगुरु अयनकथनं नाम बहुजनमध्ये गच्छेत्वाभतिएष निर्धर्मा गृहिभिः सममधिकरणं कृत्वा समायातः, सक लेनापि गच्छेन नोपशान्तः । एवमयतनया कथितेन साधुरेकतरस्य गुडिः साधुसंपादकस्य मूलाचार्यस्य वा प्रद्वेषतो पत्करिष्यति तनिष्पत्रं प्रायश्चित्तम् । लगा 1 तस्मादयं विधिः उसामितो गिरयो, तुम पि वामेहि पदि बचायो । दोसा हु अणुवसंते, या मुरझा तुच्छ सामइयं ॥ पूर्व गुरूणामेकान्ते कथयित्वा ततः स्वयमेकान्तेन भण्यते, उपशामितः स गृहस्थः, पहि ब्रजाम, त्वमपि तं गृहस्थं क्षाસદ્દ अधिगरमा मय, अनुपशान्तस्येह परत्र च बहवो दोषाः, समभावः सामायिकम् । तचैवं सकषायस्य भवतो न शुद्ध्यति न शुद्धं भवति । यमेकान्ते भणितो यदि गोपशाम्यति ततो गणमध्येऽप्येवमेव भणनीयः । ततोऽपि येनोपशाम्यति प्रत्युत सि चिन्तयेव तस्य गृहिणो निमित्तेनेहाप्यवकाशं न लभे । तत: राम तिमिरतो, पानं चिंतेड़ दीइसंसारी | पावं ववसिउकामो, पच्चित्ते मग्गा होति || कृष्णचतुर्दशीरजन्यां द्रव्याभावस्तम उच्यते । तस्यामेव व रात्रौ यदा रजो धूमधूमिका भवति तदा तमस्तिमिरं भरायते । यदा पुनस्तस्यामेव रजन्यां रजःप्रभृतयो मेघदुर्दिनं च भवति तदा तमस्तिमिरपटलमभिधीयते । यथा तत्रैवान्धकारे पुरुषः किञ्चिदपि न पश्यति, एवं यस्नीव्रतीबतरतमेन कषायोदयेनाभिभूतो भवते तमशब्दयेोपमार्थवाचक त्वात् । एवं भूतदपराधे हि तमपश्यन् दीर्घसंसारी तस्य गृहस्योपरि पापमैश्वर्याजीविताद्वा संशयिष्यामीति रूपं चिन्त यति । एवं च पापं कर्तुं व्यवसिते तस्मिन्नियं प्रायश्चित्ते मार्गणा भवति । वयामि यमाणे चारो अगा य होंति गुरुगा य । उग्गसम्म य छेदो, पहरण मूलं च जं तत्य ॥ जामि तं गृह पपरोपयामीति संकल्पे चतुर्लपयः पद भेदादारभ्य पथि व्रजतश्चतुर्गुरवः । यदि यष्टिलोष्टादिकं प्रहरणं मार्गयति तदा पलघवः । प्रहरणे लब्धे गृहीते च गुरुवः । उनी प्रहारे छेदः प्रहारे पतिते यदि न म्रियते ततः एव । अथ मृतस्ततो मूलम् । यत् स्वयं परितापनादिकं संभवतितत्तत्र वक्तव्यम् । पते खापरे दोषा तं चैव हिनेती, शिष्णकमगमदो य । आयरिए गच्छम्म य, कुलगणसंधे य पत्थारे || गृहस्थस्तं संयतं वधार्थमागतं रहा कदाचिया यति व्यापादयति मननिय कटकमन वा गृह्णाति । श्रथवा कटकमद रुष्ट एतस्य सर्वमपि गच्छं व्यापादयति यथा- पालकस्कन्धकाचार्य गच्छम् । अथवा बन्धननिष्कासनादिकमाचार्यस्य अपरगच्छस्य वा करोति । तथा कुलसमवायं कृत्वा कुलस्य बन्धादिकं कुर्यात् । एवं गणस्य वा संघस्य वा एष प्रस्तारः । एवमेकाकिनो व्रजत श्रारोपणा दोषाश्च भणिताः । अथ सहायसहितस्याऽऽरोपणामाहसंजतगणो गिगणो, गामे नगरे व देसरज्जे प । महिवतिरायकुलम्मिय, जा जहिँ रोवणा जलिया ।। बहवः संयताः संयतगणः, तं सहायं गृह्णाति, एवं गृहगणं वा सहायं गृह्णाति । स व गृहगणो ग्रामं वा नगरं वा देशं वा राज्यं वा भवेद् ग्रामादिवास्तव्यजनसमुदाय इत्यर्थः । एतेषां चासंयतादीनां येऽधिपतयः तान् वा सहायत्वेन गृह्णाति अन्यद्वा राजकुलं गृहीत्वा गच्छति । यथा-कालिकाचार्ये त्रिकराजवृन्दम; तत्र चैकाकिनो या यत्र संकल्पादेवारोपणा भविता सा नेहापि द्रष्टव्या । Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः। अधिगरगा एतदेव ब्याचष्टे यावता अधिकं तावत्तस्य प्रायश्चित्तदातुः प्रायश्चित्तम, आकासंजयगणो तदधिवो, गिही तु गामपुरदेसरज्ने वा । दयश्च दोषाः । अथोनं ददाति ततो यावता न पूर्यते तावदात्म ना प्राप्नोति । अतः सूबेण प्रस्थापना कर्तव्या । यस्तु सूत्रोकं एतेसिं चिय अदिवा, एगतरजुमो उभयतो वा॥ प्रायश्चित्तं नेच्नति, स वक्तव्यः-अन्यत्र शोधिं कुरुष्व । एषा निसंयतगणः प्रतीतः तेषां संयतानामधिपस्तदधिपः, प्राचार्य | र्यहणा नण्यते। प्रत्यर्थः। ये गृहिणः स्वग्रामपुरदेशराजवास्तव्याः,पतेषामधिपतयो अस्या एवं पूर्वार्द्ध व्याचष्टेवा भवेयुःतत्र ग्रामाधिपतिः,नगिकाधिपतिः,पुराधिपतिः,श्रेष्ठ, जेणऽहियं कथं वा, ददाति तावतियमप्पणो पावे। कोहपालो, देशाधिपतिर्देशरक्कको देशव्यापृतको घा, राज्याधिपतिर्महामन्त्री, राजा था; पतेषामेकतरेणोनयेन वा युक्तो महवा मुत्तादेसा, पावति चनरो भाग्घाया । मजति, तत्रेयं प्रायश्चित्तमार्गणा यत् यावता अधिकमनं ददाति तावदात्मना प्राप्नोति । अथवा सूत्रादेशादूनातिरिक्तं ददानश्चतुरोऽनुद्घातान्मासान् प्रामोति । तहि वचंते गुरुगा, दोमुतु बहुग गहण उग्गुरुगा। तचेदं निशीथदशमोद्देशकान्तर्गतसूत्रमनग्गिणपहरण बेदो, मूलं जं जत्य वा पथे। जे निक्खू उग्याइए अणुग्घाश्यं देह,अणुग्याइए नग्धाश्य संयतगणेन तदधिपेन वा सन्जयेन चा सहाहं बजामीति सं. वा देइ, देंतं वा साइजइ ॥१६॥ कल्पे चतुर्भधु । पदनेदमादौ कृत्वा तत्र प्रजतचतुर्गुरू, प्रहरण (तस्य चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तभित्यर्थः) स्य मार्गणायां दर्शने च द्वयोरपि पम्लघु,प्रहरणस्य प्रहणे पर अथ द्वितीयपदमाहगुरु । उहीणे प्रहरणे वेदः। प्रहारे दत्ते मूत्रम् । यद्वा-परिताप वितिय उप्पाएन, सासणपंते असक पंच पया । नादिकं पृथियादिविनाशनं यत्र पथि ग्रामे या करोति तन्निष्प आगाढे कारणम्मी, रायस्संसारिए जतणा ॥ समपि मन्तव्यम् । तथा गृहस्थवर्गेऽपि प्रामेण वा, प्रामाधिपतिना बावद् राज्येनवा, राज्याधिपतिनाबा. भयेन वा,सह व्रजामी. द्वितीयपदं नाम अधिकरणमुत्पादयेदपि शासनप्रान्तः प्रवचननिसंकरपे चतुर्गुरु । पथि गच्छनः प्रहरणं च गृह्यतः पालघु, प्रत्यनीकोऽसाभ्यश्च न यथातथा शासितुं शक्यते; ततस्तेन समगृहीते पागुरु शयं प्राग्वत । एवं भिक्कोः प्रायश्चित्तमुक्तम् ।। मधिकरणमुत्पाद्य शिकणं कर्तव्यम् । तत्र च स्वयमसमर्थः सं. यतनामनगरदेशराज्यलकणानि पञ्चापि पदानि सहायतया एसेव गमो नियमा, गणियायरिये य होइ णायन्यो। गृहीयात् । आगाढे कारण राजसंसारिका राजान्तरस्थापना, एवरं पुण पाणनं, असहप्पो य पारंची। तामपि यतनया कुर्यात् । तथाहि-यदि राजा अतीव प्रवचनणापप एव गमो नियमाणिन उपाध्यायस्याचार्यस्य,चशब्दार न्तोऽनुशिष्यादिभिरनुकसोपायन उपशाम्यति, ततस्तं राजानं शावच्छेदिकस्य वा मन्तव्यः । नवरं पुनरवनानास्वमधस्तादेकै स्फेटयित्वा तवंशजमन्यवंशज वा भड़कं राजानं स्थापयेत् । कपदहासेन यत्र भिवोर्मूलं, तत्रोपाध्यायस्याऽनवस्थाप्यम, था यच तं स्फेटयति स ईरगुणयुक्तो जवतिचार्यस्य पाराश्चिक.म। बिज्जापोरस्सबली, तेयसलकी सहायलदी वा। तपोई च प्रायश्चित्तमिन्धं विशेषयितव्यम उप्पादेन सासति, अतिपंतं कालगज्जो न्व। जिकावुस्स दोहि लहुगा,गणवच्छे गुरुग एगमेगेणं । यो विद्यावलेन युक्तः,यथा-प्रार्यखपुट औरसेनवा बसने युक्तः, स्वकाए आयरिए, दोहि च गुरुगं च णाणत्तं ।। यथा-बाहुबसी तेजोसम्स्या वा सलब्धिकः, यथा-ब्रह्मदत्तः ।संभिकोरेनानि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामवि नपःकालाज्या बघुका- तभये सहायलब्धियुक्तः,यथा-हरिकेशबलः। ईशोऽधिकरणनि, गणावच्छेदिकस्यैकतरेण-जपमा कालेन वा गुरुकाणि,उपा- मुत्पाद्यातिप्रान्तमतीवप्रवचनप्रत्यनीकं शास्ति,कामिकाचार्य ध। ध्यायस्यान्चार्यस्य च द्वाच्यामपि-तपःकालाज्यां गुरुकाणि, पत- यथा कालिकाचार्यों गर्दभिल्लराजानं शासितवान् । ०४ उ०। कानात्वं विशेषः । कथानकं चेत्यम्काकाण अकाऊण व, उवमंन उवट्टियस्स पच्चित्तं । को न गहाभिल्लो ?, को वा कामगजो?, कम्मि काले सासितो। सुतेण उ पध्वणा. अमुत्त रागो व दोसो वा ।। जएणति-उज्जेषी णाम पगरी, तत्थ य गद्दतिल्लो णाम राया, गृहस्थस्य प्रहारादिकमपकारं कृत्याऽकृत्वा या यधुपशान्तो निवृः | तत्य कालगन्जा गाम पायरिया जोतिसणि मत्नवनिया, ताण तः प्रायश्चिनप्रनिपत्त्यर्थ वाऽऽलोचनाविधानपूर्वकमपुनःकरणे- नगिणी रूपवती पढमे वयसि वट्टमाणा गनिवेगण गहिया,भतेपुरे नोपस्थितस्मदा प्रायश्चिदानव्यम्। कथम?,श्त्याद-सूत्रेण प्राय रदा, अजकालगा विम्मति; संघेण य विम्प्रत्तो ण मुंचति। ता. चित्तं प्रस्थापनीयम, प्रसूत्रोपदेशेन तु प्रस्थापयतो रागोवा द्वेषो । हे स्ट्रो अज्जकालगो परमं करेति-जइ गदभिल्लं गयाणं र. वा भवति । प्रनूतमापनस्य स्वरूपवाने रागः । स्तोकमापनस्य जात्रोण नम्मूलेमि तो पवयणसंजमोवधायगाणं तमुवेक्सगाप्रभूतदाने उषः। प य गति गच्छामि । ताहे कालगज्जो कयगेण उम्मत्तलोनूतो एवं रागद्वेषाभ्यां प्रायश्चित्तदाने दोषमाह निगच नवचचरमहाजणघाणेसु इम पलवंतोदिमति-जगदभिः लोगया,तोकिमतः परम?,जश्या अंतपुरं रम्म,तो किमतः परम? यो जति प्रावणो, अतिरेगं देनि नस्स त होति । विमयो जड वा रम्मो, तोकिमतः परम् ? सुणिवेठा पुरी जड़, तो मुत्ताा उ पहचएा, मुत्तमणिति निज्जुहणा।। किमतः परम?,जम् वा जणो सुवेसो,तो किमतःपरम्?,जधादिस्तो प्रायधिनमापन्नस्तस्य यावद व्यतिरिनं. ददाति, ततो मामि यो भिनं,तो किमतः परम्,जर सुपो देशकले ममामिनो Jain Education Interational Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिग किमतः परम् । एवं जामेन सो कागज्जा पारसकुलं गनो, नत्थ गोमा गयो दिदि माउति या तस्स साढाणुमाहिणा परमसामिणा कहि वि कारणे भट्टण कठारिंगा सद्दे पेसिया, सीसंविदाहिति । तं प्रकोष्यमाणं श्रयातं पेच्छिऊण सोय विमणो संजातो, अप्पाणं मारिडं वयसि । ताहे कागज्जेण भणितो मा अप्पाणं मारो साहिणि-पथ अधिण सीर । कालगज्जेण नणियं पहि हिंदुगदेषं वच्चामो । रण्णा मिसुयं । तत्तुल्लाण य अएसि पि पंचाण चंतीए साहिणा सुभं के कारिथाओ महेउ पेसियाओ ि या पेसिया मा अप्पाणं मारे । एहि वचामो हिंदुगदेसं । ते श्रपि सुरमा गया, कात्रो य एवपाउसा बट्ट । तारिसे काले तीर गंतुं तत्थ मंडनाई क्या विविभत्तिकणं जं कालग जो समझीणो सो तत्थ अधिवो राया रवितो, ताहे सगवंसो उपयो, वत्ते य वरिसाकाले कालगज्जेण मणिश्रो-गद्द जिल्लं रा याणं रोढमो, ताहे लामा रायाणो जे गद्दनिल्लेण श्रमाणिता ल मेलिनाय ततो वज्रेणी रोहिता तस्स य गद्दाभिनुस् - का विरजा माहारिणाम्पर पलाभिमुहारविया, ताहे परमे अवको गद्दाभिल्लो राया अम सोवासी बारे वादे सागी मग सदेव णातितरियो मनु या जो परस सुणेति स सम्बो कहिरं यमतो भयविग्भलो णठसेणो धरणित विक कालग ब्जो य गद्दनि अनुमत्तोववासिणं सञ्वविधाद्रक्खाणं असतं जोहाण णिरूयेति, जाहे एस गद्दनी मुहं विमंसेति जाय य सदं ण करेति ताव जमगलमगरण मुहं पूरेज्जा । तेहिं पुरिसोहं तद्देव कथं, ताहे सा वाणमंतरं । तस्स गद्दभिज्ञस्स उबर हगि मुतेनं बलहीणं कथं, ताहे सो विगहमिठो अबलो सम्मूसियों, गहिया उज्जेणी, भगिनी सं अमे गवया । नि० चू० १० उ० ॥ (१२) अनुत्पन्नमधिकरणमुत्पादयतिजे निक्खु एवाई अणुष्पछाई अहिगरणाई उप्पाए, उपायं वा साइज्जइ ॥ २७ ॥ नवं यत्पुरातनं न भवति, प्रध्यन्ना संपथकाने अविज्जमाना अधिकं करणं, संयमयोगातिरिक्तमित्यर्थः । नि० ० ५ उ० । (१३) कारणे सत्युपादयेत्वितियपदमणप्पो, उप्पादेवि कोविते प्रपो नाणं ते वा वि पुणो, विचिट्ठा य उप्पाए ॥ २५० ॥ पज्यो कोचितो वा रोहो वा श्ररिदो कारण पश्चाचितो कतो, कारणे सो अधिकरणं कावं विर्गिचियग्यो । निः खू० ५ उ० । ( ५०३ ) अनिधानराजेन्रूः | कारणान्तरमाह नादिकवि वा अनलविवेगडया व जाएं पि । अहिगरणं तु करेत्ता, करेज्ज सव्वाणि वि पयाणि ॥ आदिशब्दादावा शत्वादधिकरणं कुर्यात् । श्रकोविदो वा अद्याप्यपरिणत जनबचनः कः, स श्रत्वादधिकरणं विदध्यात् । यद्वा-जाननपिगीतार्थोऽपीत्यर्थः । अनलस्य प्रवज्याया अयोग्यस्य नपुंस , अधिगरण का: कारणे दहितस्य तत्कारणापरिसमामी विवेचनार्थ परिष्ठापनाय तेन सहाधिकरणं करोति कृत्वा चाधिकरणं सर्वानादरात्। कारणें कारण - 1 स्पष्टतरं भावयति दिखा सम्पन्ते सा ते कलहो वि नेता, फलो ते पा कारणे अनलस्यायोग्यस्य दीक्षा दत्ता, समाप्ते च तस्मिन् कारणे ः कियने तथा तेन समं कलहोऽपि कर्तव्यः कारणे वा शब्दप्रतिकायां वस्ती स्थिताः, ततोऽन्योन्यं तेन शब्दकारिणा समं कलदः क्रियते येन शदोन श्रूयते । वृ० ५ उ० । (१४) पुराणाम्यधिकरणानि कान्तव्युपशमितानिपुनरुद्र । रयति जे भिक्खू पोराणाई गिरणाई खामियविनस मियाई पुपो नदीरे, उदीरंत वा साइत || २८ ॥ पोराणा पूर्व उत्पन्ना अधिकरणं पूर्ववत् । दोसावगमो खमा. तं च खामियं भराणाते । विविधं श्रसमियं विउसमियं मिच्छाडुक्कमपदाणं । श्रहवा खामियं वायाए, मणसा विउसमियं, ध्यु हिजो उप्पादयति तस्स मामल खामियविनसमियाई, अधिकरणारं तु जे य उप्पार । पतस्थतिसि तु पण णमो ।। २५१ ।। पाषाणा, साधुधर्मे व्यवस्थिता इत्यर्थः । कई उप्पापति ?, कति साणो पुत्र्यं कलहिता, तम्मिय खामियविलमिते तत्थेगो भ जाति अहं णाम तुमे तदा एवं भणितो, आसी ण जुत्तं तुजः श्य रो पण ते निणा-याणि किं ते मुयामि एवं उप्पापति । स उपायगो 3 कृष्णादगमुपणं, संबो कसमे पाहू पुच्छ समृम्यतोऽति पायणे चैव।। २४२ ।। पुणो ते विकलुसिया उपायगा, जो उप्पलं संबद्धं णाम-वायाए परोप्परं सामनमारद्धा. कक्ख मं णाम, पासठितेहिं वि श्रोसमिज्जमाना विणोव समंति. (पाहुचं ति) रोसवसेण बलेबले लगा आणि मो. जो सो मिति सोप च्छितो मारणंतिय समुग्धापण समोहता, अतिघायणा मारणं । एतेसु णवसु गणेसु उपायगस्स इमं पच्चिसंलहुश्रो लगा गुरुगा, बम्मासा होति बहुगगुरुगा य । वेदो मूलं च तहा, अवटुप्पो य पारंची ।। २५३ ।। विनयादि गादीपति उप्पाप म त्ति काक्षं । ' तानो भेदो अपसो, हाणी दंसणचरितणाखाएं । साधुपदोमो संसारवणादी उदीरं ||२४|| पण दीरे वि कोबिते व अपके ! नाणं वा वि पुणो, विगिंचणट्ठा उदीरेजा ॥ २५ए ॥ ! पूर्ववत् । नि०यू०५ ३० । " Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिगरण (१५) निर्ग्रन्थैर्व्यतिकृष्टमधिकरणं नोपशमनीयम् - नो कप्पर निम्गंचाणं वितिगिहाई पाहुवाई विलसमितए ।। १० ।। (४) अभिधानराजेन्द्रः । अस्य संबन्धमाद वितिगिट्ठा समणाणं, प्रव्वितिगिट्ठा य होइ समणीयं । मा पाइ पि एवं भवेज्ज सुत्तस्य आरंभो ॥ यति मणानां दिग्भवति यतिधनमित्यनस्तरनिहितमेव तथाक मा प्राभृतमप्येवं भयेदित्येतस्यारम्भः । अस्य ध्यान म्यानां व्यतितानि क्षेत्रात प्रानृतानि फलदानित्यथेः । विमितुमुपशमयितुम्, किं तु यत्रोत्पन्नं न तत्रोपशमवि सूत्रार्थः । अत्र नाध्यप्रपञ्चः सेनासखातिरिने इत्यादी पट्ट भाषणाभेदे | दंतमते, उप्पज्जइ पाहुमं एवं ।। शय्यासनातिरिके, किमुकं यरियामतिरिकानिपानि परिषदे कुतिमा यदि वा हस्तादि ह स्तपादादिकं पादेन संघट्याऽऽक्रम्य कमयित्वा षजति यद्वाकथमध्यनुपयोगयो जाजन थापा बन्दने प्रभूतं नाम कस्तदेवमुत्पद्यते । अहिगरणसमुप्पणी, जादुत्ता पारिहारियकुलम्मि । सम्पमणानहंते, अधिकरण तओ समुप्पज्जो ॥ चस्पत्ति संभवे सति ततः सम्यगनावर्तमाने अधिकरणं समुस्पद्यते । हिगरणे उप्पने, अवितोसवियम्मि निग्गयं समयं । ssसाइज झुंज, मासा चचारि नारीया ॥ अधिकरने उत्पन्ने सति । साधिकरणमुपाद तस्मिन्नवितोषित निर्गतं श्रमणं य आसादयति प्रतिगृह्णाति स्वसत्तामात्रेण, यश्च तेन सह छड्के तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो मासा, भारिका गुरवः । सगणं परगणं वा वि. संतवितासते । बेदादि वलिया सोही, नातं तु इमं भवे ॥ येन सहाधिकरणमुपातिष परा संक्रान्तमधिकृत्य या दानिका शोधिः पूर्वकल्पने प जिंता साऽत्रापि तथैव वक्तव्या; नवरमत्र यनानात्वं तदेवं वक्ष्यमाणं भवति । तदेषाद मा देव द्वाणमेयस्स, पेसणे नइ तो गुरू । चक्रगुरु ततो तस्स कहते ॥ वि चकलहू अन्यत्र गतस्य यद्याचार्यः साधुसंघाट, संदेशं वा प्रेत्रयति, यदेवेऽधिकरणं कृत्वा समागतो वर्तते तस्मादेतस्य स्थानं मा देहि शति; तदा तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु । ततः प्रेषणानन्तरं यस्य पार्श्वे सोऽन्यत्र गतस्तस्य स प्रेषितो यदि कथयति तदा रिमपि प्रायश्वितं । यतस्तप्रेमे दोषा: दावणं व बेहार्स पदोसा नं तु काहिति । अधिगरण मूलं ओहावणे हो, नेहाले चरमं जने ॥ यद्यस्मात्प्रेषणे, कथने वा प्रादधानं करिष्यति वेहासंवा, वैहायसं नामोत्कलं वनम् । तत्राघावने तेन कृते सति प्रेषितुः कथयितुमू प्रायसम् वैहायसे चर पाराश्चिकमिति । अन्यश्च तत्यन्नत्थन वा संपदेति मे न वि व नंदमाणेणं । नंदति ते खलु मए, इति कप्पा करे पावं ॥ मम तवात्मीयसमीपे अन्यागतस्य जन्मान्तरवैगा स संत नामनिन्दन्ति महात भावात् । ततो न जन्मान्तरवैरिणः ते मम पृष्ठं मुञ्चन्तीति विचिन्त्य कलुषात्मा पापं कुर्यात् । किं तत् ?, इत्याह आदीवेज व पस गुरुणो अस्स पाय मरणं वा । कंमच्छारिन बूसय सहितो सयमुरस्स बलवं तु ॥ कमच्छारिनो नाम ग्रामो, ग्रामाधिपतिर्वा लूषका वा सढायास्तेन सहितः, स्वयं वा औरसो बलवान्, वसतिमादीपयेत्; गुरोरन्यस्य वा घातं, मारणं वा कुर्यात् । किं तत् ?, इत्याह जद जासइ गरणमज्जे, अवप्पयोगा व तत्थ गंतू । अभियोमिए प्रत्यागतो सिते व ते दोसा ॥ यः प्रेषितो यद्वा-अवप्रयोगाद् अन्येन कार्येण तत्र गत्वा गण मध्ये सकलगणलमकं यदि जापते, यथा-एषोऽधिकरणं कृत्वा येन साधिकरणममितोषले अभागत इति ते वि स्थापित एव प्रागुक्ता दोषाः । जम्दा एए दोसा, अविद्दी पेसणे व कहणे य । सम्हा इमे विहिणा, पेसन कहणं तु कायव्यं ॥ यस्मादविधिना प्रेषणे, कथने चतेरोदिता दोषाः तख दनेन वक्ष्यमाणेन विधिना प्रेषणं कथनं च कर्त्तव्यम् । तमेव विधिमाद गणियो अस्थि निन्नेयं रहिते किञ्चपेसितो | गमत तं रहे चेत्र, नेच्छे सहमहूं खु तो ॥ अन्येन प्रयोजनेन प्रेषितः सत्वरहिते विधि प्रदेशे अ निर्भेदं तदधिकरणरहस्यं गणित प्राचार्यस्य गमयति कथयति क्रमेणाचार्यस्तं कृताधिकरणं रहस्येव गमयति । यथा-त्वमित्यमित्थमधिकरणं कृत्वाऽत्र समागतो, न च स उपशमित इति । एवमुक्ते यदि स नेच्छेद् यथा-अहं नाधिकरणं कृत्वा समागतः विदं तेन सहाई (तु) निश्चितमिति । गुरुसमा गमितो, तहावि न नेच्छ । वाहे गणमामि जानते नातिनिहरं ॥ , एवं तस्यानिच्ायां स प्रयोजनान्तरव्याजेन प्रेषिते रहसि गुरुसमकमधिकरणं कथञ्चनापि तचित्तमनुप्रविश्य कथय ति, यथा रोषं न विदधाति । तथा गमितोऽपि यदि नेच्छति Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०५) अधिगरण अभिधानराजेन्द्रः । अधिगरण ततः प्रहरदिवसायतिक्रमेण प्रस्तावान्तरमारचण्य गणमध्ये तं णां गृहस्थानां साधूनां च मीलनं कृत्वा तेवांपुरतो द्वावपि परभाषते, परं नातिनिप्तुरम् । स्परं कमयतः । कुमादिममवाये यद्यत्पन्नं तनः कुलादिसमघायं कथं तं नापते, इत्याह कृत्वा कमयतः। कि कारणम् ?, यावन्मात्रैZहिनिः संयती रएं गणस्म गणिणो चेब, तुमम्मी निग्गने तया। तावतां मीननं कृत्वा परस्परं कमयतः, नत्राऽऽहश्रावती महती आसी, मो विवक्खो य तज्जितो ।। नवणीयतुहियया, साहू एवं गिहिणो न नाहिति । तदा तस्मिन्काले त्वयि अधिकरणं कृत्वा निर्गते समस्तस्यापि न य दम नया साहु, काहिंती तत्थ वोसमणं ।। गषस्य, गणिनश्चाचार्यस्य महती अधृतिरासीत् । येन च सह नवनीततुल्यहृदयाः साधवः, एवं गृहिणः, तुशब्दादभिनवशतवाधिकरणमभूत सोऽपि विपको गणिना गणेन च तर्जितः । कादयश्च कास्यन्ति । न च दएमन्नयात्सायोऽधिकरणे स. गणेण गणिणा चेत्र, सारेज्ज तमऊपिणो । मुत्पन्ने न्युपशमनं करिष्यन्ति, किंतु कर्मकपणाय, एवं ज्ञास्यताहे अनावदेसेण, विधेगो से विहिज्जइ । न्ति, पवरूपा च प्रतिपत्तिःशुभोदयपरम्पराहेतुः; अतस्तावतां मयमुक्तानन्तरं तत्रत्येन गणेन गपिना च स सम्यक् सारणी. मीलनं कृत्या परस्परं तौ कमयतः। पः शिक्षणीयः, येन स्वदोष प्रतिपद्य तत्र गत्वा विपकं कमय संप्रति यदुक्तं 'विश्यपयमिति' तव्याख्यानार्थमाहति । अथ स तथा सार्यमाणोऽकम्पितो नोपशमं नीतो:स्वना- रितियपदे वितिगिट्टे, वितोसवेज्जा नवहिते बहुसो । वत्वात्ततोऽन्यापदेशेन तस्य विवेकः परित्यागो विधीयते । विइतो जइ न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसेसु ॥ केनोपदेशेन !, श्त्याह द्वितीयपदे व्यतिकृयान्यपि प्राभृतानि वितोपये दुपशमयेन् । महाजणो इमो अम्हं, खेत्तं पि न पटुप्पति । कशम, इत्याह-येन सहाधिकरणं वदृशो बडून वारान् कृतं, त. वसही सचिरुका वा, वत्यपत्ता वि नत्यि हो । स्योपस्थितस्तं कमयति, स च कम्यमाणो द्वितीय उपशाम्यति। अयं माधुसाध्वीलकणो महान् जनोऽस्माकमेतावतां न चैतत् | यदि नोपशमंत् अनुपशाम्तश्च गतोऽन्य देशं ततःके प्रभवति, संकीर्णत्वात् । यदि वा वसतिः सनिरुद्धा सं. कटा वर्तते, तत एतावन्तः साधवोऽत्र न मान्ति, अथवा वस्त्र कालेण च नवतो, वज्जितो व अन्नमन्नेहिं । पात्राण्यस्माकं संप्रति न सन्ति । अपिशब्दानचात्र तथाविधः खीरादिसलकीण ब, देवय गेनन्न पुट्टो वा ।। शमोऽप्यस्ति, साधवोऽप्ये तेऽतीयासहनाः, तस्मात् यूयमन्यत्र तस्यान्यदेशं गतस्य बहुना कालेन गतेन तस्य कथायाः प्रत. कापि गता यदि पुनः स सार्यमाण उपशममधिगच्छति, ततः नयोऽभवन् , तत उपशाम्तः । अथवा अन्योन्यैः साधुनिः कृतास वक्ष्यमाणेन विधिनोपशमयितव्यः। धिकरण एव इति स्थानविधळमान एवं स्वचेतसि संकथयति. तत्र प्रथमतोऽधिकरणोपशमनस्थानमाह यथा कषायदोषेणाहं स्थाने स्थाने विषयमानः, नस्मादनं कषासगणिपरगणिणा, समायरेण वा। यैरिति पुनरावृत्तिः, अथवा कीरादिसलब्धीनां कीराभवादिरहस्सादि व नुप्पम, जं जहिं तं तहिं खवे ॥ लब्धीनामुपदेशनः सममुपगतवान् देवतया शिक्कितः, यदि वा स्वगणसक्तेन परगणसक्तेन वा तेनापि समनोन सांभोगिने-1 इलानत्वेन पृएस्ततश्चिन्तयति-यदि कथमपि साधिकरणोऽप्रितरेण वा सह रहसि या, आदिशब्दादरहसि था; यतो यत्राधि योऽहं ततः सापराधिको भवामि, तस्मात्तं गत्वोपामयामि। करणमुत्पन्नं तत्तत्र वपयेउपशमयेत् । पवं जातपुनरावृत्तिना यत्कर्तव्यं तदाहतत्रोपशमनविधिमाह गंतुं खामेयचो, अब न गच्छेजिमेहि दोसेहिं । एको व दो व निग्गम, उप्पमं जत्थ तत्थ वोसमणं । । नीयग उवसग्गो, तहियं वा तस्स होजन ।। गाये गच्च दु गजे, कुनगणसंथे य विइयपयं ।। तेन जातपुनरावृत्तिना यत्रोपममधिकरण तत्र गवा शमयिएकोबा, द्वौ वा, व.शादाजयोवा, चत्वारोवा, येऽधिकरणं कृ तव्यः । अथवा-पतेयंदयमाण दास्तत्र न गच्छेद्यत्रोत्पन्नमधिवा निर्गतास्ते यत्र ग्राम नगरे वाऽधिकरणमुत्पन्नं तत्रानीयन्ते, करणम् । केषिः, इत्यत श्राह-निजकाः स्वजनाः तस्य तत्र पानीय थैः सहाधिकरणमनूतैः सह न्युपशमनं कामणं कार्य विद्यन्त, ततस्तत्र गतस्य तैरुपसर्गः क्रियते । म। तत्पुनरधिकरणमेकस्मिन् गच्छ, यदि वा योगायोः, अथवा कुले, यदि वा गणे, यदि वा संघे, समुत्पन्नं स्यात, (विश् तथायपदमिति ) अत्रापि द्वितीयपदमपवादपदम् । ततो बक्यमा- गामो नहिउ हुज्जा, अंतर वा जणबनो निएडवगणं । जकारणैर्विएमपि प्रानृतं वितापयेत् । ततश्च वितोपणम अन्नं गता न तरई, अहवा गेलन्न पभिचरई ।। नावयिष्यते। यत्र ग्रामेऽधिकरणमुत्पन्नं स ग्राम स्थित नशीभूतः, अथवा साम्प्रतमधिकरणमुत्पन्नं यथोपशमयितव्यं तथा चाऽऽह अन्तराउजनादुस्थितो, यदि या येन सममधिकरणमजायत म तं जेत्तिएहिँ दिलु, तेचियमेत्ताण मेलणं काउं। नियगणं प्रविष्टवान् । अन्यत्र गत इतरो वा ग्यानो जातस्तगिहियाण व साहूण व. पुरतोऽन्जिय दोवि खामति ।। तो गन्तुं न शक्नोति । अथवा ग्लानं प्रतिचरनि । तदधिकरणमुत्पन्नं यावद्भिगृहस्थैः संयतैर्वा दृष्टं नावन्मात्रा- अनुजय पमिव ने, भिववादि अलंज अंतर नहिं वा । १४७ Jain Education Interational Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) प्राधिगरा अनिधानराजेन्धः। अधिगरगा रायमुटुं ओम, पासव वा अंतर ता वा ।। नि-युष्मानिः कोकिलाशब्दाभिर्धणियमतिशयेन वयं परिता पिताः । तथाअथवा सोऽधिकृतः क्षमयितुमना अच्युद्यतं बिहारं प्रतिपत्तु नम्बंति नाडनाई, कलंपिकलभाणणीण सुम्हाण । कामो लग्नं प्रत्यासन्नं तनो गन्तुं न शक्नोति । अथवा-अन्तराले तत्र वा यत्राधिकरणमुत्पन्नं, भिवाया अज्ञानो,यदि वाऽन्त विप्पाते जवताएं, जायंते जयं नरवतीतो ॥ रस्तत्र या राजाद्वएमवमौदर्यमाशिवं वा। युष्माकं कलभाननानां तु स्वरमनाशाननानां पुरतः कझापि सबरपुलिंदादिनयं, अंतर तहियं च अव दुजाहि।। मनागपि नाटकानि नाईन्ति, ततो भवतीनां विप्रकृते कारणम जानानानामस्माकं जयं नरपतितो यद् यूयं नाटकं प्रवेप्स्यध्ये। एएण कारणणं, वच्चंतं कपि अप्पाहे ॥ इति असहण उत्तेजित-मज्झत्था तो समति तत्व । अन्तरा तत्र वा शबरभयं पुलिन्दभयम, आदिशब्दात् स्तनम्लेगदिनयपरिग्रहः । भवेत, त एतः कारणस्तत्र गन्तुमशक्नुवन् असुणाम सन्चगणानं-कणे व गुरुसिटिमा मेरा ॥ यः कोऽप्यन्यःश्रावको चा, मिरुपुत्रो वा, मिथ्यार्चाि, तत्रना- इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारणासहनाभिर्या उत्तेजिताः कोपं ग्राको व्रजति, तं संदेशयति। यथाऽहमधुनोपशान्त पनैश्च कारण- हितानां मध्यस्थाः संयत्यस्तत्व शमयन्ति । न च तास्तदू भरागन्तुमशक्तः, तस्मात्स्वमत्रागत्य मया सह कमणं कुरु । एमनं कस्यापि श्रावितवत्यः। भथ मध्यस्थानां संयतीनामना____ ततः संदेशे कथितऽनेन यत्कर्त्तव्यं तदाह वतो वेलावशादा सर्वगणस्य भएमनमभूत् ताह सर्वगणभपर ने स्वस्व गुरुशिष्टं कर्त्तव्यम् । ततस्तावुपामयतः । अथ लज्जातो गंतूण सो वितहिय, सपक्खपरपक्वमेव मेलित्ता। नयतो वा न स्वस्वगुरोनिवेदितं तहि तत्रेयं मर्यादा । खामेइ सो वि कज्जं, व दीहए आगतो जेण ।। एतदेवादयस्य संदेशः कथापितः स तत्र गत्वा यैस्तदधिकरणं झातं गणहरगमाणं एगा-5ऽयरियस्त दोनि वा वग्गा | सपक परपकं च भेलयित्वा तं कमयति सोऽपिच कम्यमाणो यन कारणमागतस्तत्वारणं तस्य सावाददयति कथयति । आसनागम दूरे, च पेसणं तं च वितियग्यं ।। समस्तस्यापि गणस्य नएमने गते श्रान्मीयस्य समापे गमनम, ग्रह नत्यिको वि वचंता, ताहे उसपति अप्पणा। अथवा एकस्याचार्यस्य संबन्धिनौ तो द्वायपि संयतवर्गों, तत खामेइ जत्य मिलती, अदिट्ट गुरुणंतियं काउं । एकस्य समीपे गच्छता, ततः स एकस्ती वा द्वी गणधरौ तदधिअथ नास्तिकोऽपि नत्र जन् यस्य संदेशः कश्यते तर्हि मा करणं यत्र चैत्यगृहेऽन्यत्र चोत्पन्नं तत्र द्वावपि वर्गों नीत्वा उपश्मना स्वयमुपशाम्यति, सर्वथा मनसोऽधिकरणमुपशमपरायण शमयतः । अथ नजादिना स्वस्वगुरोनिवेदितमेकतरश्च पक्को नया स्फेटयति, ततो यत्र मिलति तत्र कमयति । थन का निर्गतः , तत भाह-(भासनेत्यादि) यद्यासनं गतोऽपान्तराल पि मिलति, ततस्तस्मिन्नदृष्ट गुरूणामन्तिक कृत्वा तं मनसि च नियं ततः सानाय्यते, मध सापायं ताद तामां कृत्य कामणं करोति । व्य. १०। ('वसह।' शब्दे साधुसा गणधर भागमति, आगत्य कमणं करोति। अथ दूरे गतस्तर्हि, पीकल हे यतना 'एकवगमा' प्रस्तावे द्रष्टव्या) वृष नाणां प्रेषणं कर्तव्यम्, ततो वृषभाः समेत्य ताः संयती: (१६) निर्ग्रन्थीभियंतिकृटमप्यधिकरणं क्रमयन्ति । अथ द्वितीयपको नोपशान्तस्ततः पुनरावृत्ती जाता यां पूर्वोक्तवदेवं प्रागुक्तं द्वितीयं पदमवसातव्यमा यत्र मिनन्ति व्युपशमनीयम् तत्रैव कमयन्ति । अमिलने गुरूणामन्तिके इति । कप्पर निग्गयीणं वितिगिट्टाई पाहमार्ड वितोसत्तए॥ एतदेव मूलतः सविस्तरं विनावयिषुरिदमाहकल्पते निर्ग्रन्धानां व्यतिकृष्टानि कलहान् बितोषयितुमुपशम- चइयघरं नश्त्ता, जत्थुप्पन्नं च तत्थ विझवणं । यितुमित्येष सूत्राकरार्थः।। लज भया व असिढे, दुवेगतरनिग्गम इमं तु॥ संप्रति भाष्यप्रपञ्चः स्वस्त्रगुरु निवेदने कृते तौ द्वायपि गुरुसंयतीवर्गद्वयमपि चैनिग्गयोणं पाहुड, वितोसरियन्वं वितिगिढ़। त्य गृहं नीवा, अथवा यत्रान्यत्रोत्पन्नमधिकरणं तत्र नात्याधिकिह पुण होन्ज उप्पणं, चेयघरवंदमागीणं ॥ करणस्य विध्यापनं कुरुतः । अथ लजया नयाद्वा गुरूणामशिचइययुतीय जणणे, गाहे उ अक्षातो बहि अच्छंति । रामनवत् । द्वयोश्च पकयोमध्ये एकतरस्य पक्कस्य निगमपरितावियाम धणियं, कोइलसद्दाहिँ तुम्भाहिं ॥ स्तत इदं कर्तव्यम्निर्ग्रन्धानांप्रातृतं विनोपयितव्यमुपशमयितव्यं भवति व्यतिक आसन्नमणायाए, अणवाएँ वा से गणहरा गम्म । प्रमाशिष्यः प्राद-कथं केन प्रकारेण पनस्तासामधिकरण मुत्पन्न जगनाय अनिक्खामण, आगाविज्जऽन्नहिं वा वि।। स्यात् ।। सूरिराढ-काश्चनायिका श्वैत्यवन्दनाय चन्यगृहं ग. | • यद्यासन्नं निभयं च ततस्ता निर्गताः संयत्यः स्वगणेन सद नाः, तस्मिश्च चैत्यगृहे बहिर्मुखमरमपादिकं न समस्ति; ततश्चै- आनाय्यन्ते । अथ सापाय ततस्तासां गणधर आगच्चति, ततत्यगृहमभ्यस्थितार्थत्यानि बन्दन्ते, तासां च बन्दमानानां प्र. साः संयत्य आनीताः,गणधरो वा कक भागतो यत्र जनकातं थमस्तुतरारज्याऽन्याः काश्चन संयत्यः समागताः, नाच मध्ये | जामनम नूत, तत्रानाय्यन्ते । अन्यत्र वा भानारय परस्परमअवकाशा नास्तीति बहिरूष्णे स्थिताः । ततो विस्तरण चै- निकमणं कार्यम। अथ दूरे गवास्तर्हि वृषनाः समागत्य संयती त्यस्तुतीनां भजनेता बदिःस्थिताः उमान परिताप्यमाना बद- मयन्ति । व्य०७०। Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) भनिधानराजन्यः । अधिारण अधिगरण सूत्रम् जीव पं भंते ! किं साहिगराण, णिहगरणी गायमा: साहिगरणं निग्गंयं निग्गये गिएइमाणे वा अगियहमाणे साहिगरणी, गो गिरहिंगरणी। मे केणटेणं पुच्छा?। गोय. वा नातिकमइ ॥ मा! विरतिं पमुच्च मे ते एहणं जाव को णिरहिअस्य व्याख्या प्राग्वत्। गरणी । एवं जाव वेमाहिए। अत्र भाष्यम्उपन्न अहिगरणे, ओममणं सुविऽनिकम दई। (साहिगरणि त्ति ) सह सहभाविनाऽधिकरणेन शरीरादिना वर्तत इति समासान्तविधः माधिकरणी । संसारिजीवस्य अगुसासणभासनिलं-जणा य जो ताऍ पविक्खो।। शरीरन्जियरूपाधिकरणस्य मदेव सहचरितत्वात्साधिकरणसंयत्या गृहस्थन सममधिकरणे उत्पन्न द्विविधमतिक्रमं रष्ट्वा स्वमुपदिश्यते । शस्त्राद्यधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्य तस्थाधिकरणस्य व्यवशमनं कर्तव्यम् । किमुक्तं नवति ?-स तदविरातरूपस्य सह तिवाजीवः साधिकरणीन्युच्यते । श्रत गृहस्थोऽनुपशान्तः सन् तस्याः संयत्याः संयमभेद, जीवित एव वदयति-(अविर पमुश्च त्ति) अत एव संयतानां शरीराभदं वेति द्विविधमतिकर्म कुर्यात् । तत उपशमितव्यमधिकरण दिसद्भावेऽप्यविरतरजावान साधिकरणित्वम् । (निरहिगरणि म । कथम्?, इत्याह-यस्तस्याः संयत्याः प्रतिपको गृहस्थस्तस्य त्ति) निर्गतमधिकरणमस्मादिति निरधिकरणी। समासान्तविधेप्रथमतः कोमलवननैग्नुशासनं कर्तव्यम् । तथाऽप्यतिष्ठति रधिकरणदूरवतीत्यर्थः। स च न भवति, अविरतेरधिकरणजापणं नापनं कर्तव्यम् । तथाऽप्यनिभवतो निरुम्भणं,यस्य या नवाया अदरवर्तित्वादिति । अथवा-सहाधिकरणिभिः पुत्रमिलम्धिस्तेन तया निवारणं कर्तव्यम् । वृ०६ उ०। त्रादिभिर्वर्तत नि साधिकरणी। कस्यापि जीवस्य पुत्रादीनाम(१७) साधिकरणेनाऽकृतप्रायश्चित्तन सहन संभोगः कार्य: भावेऽपि तद्विषयविरतरनावात्साधिकरणित्वमवसंयम । अत जे भिक्खू साहिगरणं अविओसमियपाहुमं अकडप- ५व नो निरांधकरणात्यपि मन्तव्यमिति ।। च्छितं परं तिरायाओ विष्फालियं अविष्फामियं संभुंजइ, अधिकरणाधिकारादेवेदमाहमंजूंजतं वा साइजइ। १५। जीवे णं भंते ! किं आयाहिगरणी, पराहिगरणी, तनुजदि णिहसे, निक्खू पुचवमितो सहाधिकरणः कषायभा- जयाहिगरण।। गायमा मायाहिंगरणी वि, पराहिगरण। वशुभभावाधिकरणसहित इत्यर्थः। विविध विविधर्हि वा पगा वि, तदुभयाहिकरण। वि । से केपटेणं भंते ! एवं बच्चइ. रोह विनसमियं उबलामियं किं तं?, पाड, कलहमित्यर्थः। ण विप्रोसमियं अविनोसामयं, पाहु, तम्मि पाहुरकरणे जे प. जाव तदुजयाहिगरणी वि। गोयमा ! अविरतिं पश्च जितं जेण सो कम्पत्तिो । "श्रमानानाः प्रतिषेधे "न से तेण्डेणं जाव तनयाहिगरणी वि। एवं भाव वेमाकृतं प्रायश्चित्तं अकृतप्रायश्चित्तं, जो तं संभुजणसंभोएण सं दिए। खुजति, एगमंमीप,मभुंजइत्ति वुत्तं भवति,अहवादाणम्गडेण मारण भुंगात तस्स चउगुरुगा भाणादिणा य दासा । नि. (आयाहिगरणित्ति अधिकरणी कृप्यादिमान, मारमनाऽधि करणी आत्माधिकरण।। ननु यस्य कृष्यादि नास्ति स कथमाधि०४उ०। करणी? इत्यत्रोच्यते-अविरत्यपेकया,इत्यत पवाऽविरति प्रतीत्ये(१७) अथ दएमकक्रमेणाऽधिकरएयधिकरणद्वयनिरूप ति वक्ष्यति। (पराहिगणित्ति) परतः परेषामधिकरणे प्रवर्तनेणायाऽऽहजीवे ते! अहिगरणी, अहिगरणं गोयमा! जीवे नाधिकरणी पराधिकरणी, (तदुभयाहिगरणित्ति) तयोरात्मअधिगरण। वि, अधिगरणं वि।से केणतुणं भंते ! एवं वु परयोरुभयं तदुनयं, ततोऽधिकरणी यः स तथेति । अधाधिकरणस्यैव हेतुप्ररूपणायाऽऽहव-जीव अधिगरणी वि, अधिगरणं वि गोयमा! अ जीवे ए नंते ! अधिगरणे किं पायप्पओगणिव्वत्तिए, चिरति पाच तेण्डेणं जाव अधिगरणी वि अधिगरणं परप्प योगणियत्तिए,तदुनयप्पोगणिबत्तिए ?। गोयमा ! पिणेरइए णं भो! किं अधिगरणी, अधिगरण | गोयमा! प्रायपोगणिव्वत्तिए वि, परप्पभोगणिबत्तिए वि, त. अधिगरणी वि, अधिगरणं पि । एवं जव जीव तहेव जयप्पोगणिवत्तिए वि । से केणटेणं भंते ! एवं वृञ्च । णेरइए कि, एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए। गोयमा ! अविरतिं पञ्च से तेणष्टेणं जाव तदुजयप्पनो(जीव णमित्यादि )। ( अहिंगरण। वित्ति ) अधिकरणं | सुतिनिमित्तं वस्तु, तच धिवक्कया शरीरमिन्द्रियाणि च, त गणिवत्तिए वि । एवं जाव वेमाणियाणं । था बायो हलगन्यादिपारग्रहः, तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः। (आयप्पभोगणित्तिपत्ति) आत्मनः प्रयोगेण मनःप्रभृति( अहिगरणं पि त्ति) शरीराद्यधिकरणेभ्यः कश्चिदव्यतिरि व्यापारेण निर्वर्तितं निष्पादितं यत्तत्तथा । एवमन्यदपिढयम्।न कत्वादधिकरणं जोयः । एतच्च द्वयं जीवस्याविरति प्रती नु यस्य वचनादिपरप्रवर्ननवस्तु नास्ति तस्य कथं परप्रयोगनित्यांच्यते तन यो विरतिमानसः शरीरादिभावेऽपि नाधिकर बर्तितादि भविष्यति?, इत्याशङ्कामुपदश्य परिहरन्नाह-(सेकेणणं, नाप्यधिकरणम्, अधिरतियुक्तस्यैव शरीगदेरधिकरणत्या. मित्यादि ) अविरत्यपेकया त्रिविधमप्यस्तीति भावनीयमिति। दिति । एतदेव चतुर्विंशतिदएमके दर्शयति-(नेरश्य इत्यादि) अथ शरीराणामिन्द्रियाणां योगानां च निर्वर्तनायां जीवादेभधिकरणी जीव इति प्रागुक्तम् । स च दरवर्तिनात्यधिकर रधिकरणित्वादिप्ररूपयशिदमाहमन स्यात्, यथा-गोमान् । इत्यतः पञ्चति जीवे णं ते! योगलियसरीरंणिबत्तिएमाणे किं अधि.. Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (46) अधिगरण अभियनराजेन्छः। अधिटुंत करणी, अधिगरणं। गोयमा! आधिगरणी वि,अधिगरणं पि। अ (आ) धि ( हि ) गरणिया-प्राधिकरणिकी-स्त्री० । से केणटेणं भंते ! एवं बुनइ-अधिगरणी वि, अधिगरणं पि|| अधिक्रियते स्थाप्यते नरकादिष्वात्मा येन तदधिकरणमनुः गोयमा! अविरतिं पञ्च से तेणटेणं जाव अहिगरणी वि, अ. ष्ठानविशेषी बाहां वस्तु चक्रस्वगादि, तत्र भवा, तन वा निधिगराणं पि । पुढवीकाइए णं नंते ! ओरालियसरीरं णिन्न. वृत्ता, प्राधिकरणिकी। प्रशा० २१ पद । खनादिनिर्वर्तनल क्षणे क्रियाभेदे, स०७ सम । स्था। त्तिएमाणे किं अहिगरणी. अधिगरणं । एवं चेव, एवं जाव अस्या भेदाःमणुस्से । एवं वेनब्धियसरीरं पि, णवरं जस्स अस्थि । जीवे एं अहिगरणिया णं जेते । किरिया कइविद्दा पाता। भंते आहारगसरीरं णिव्यत्तिएमाणे किं अधिगरणी पुच्छा। मंझियपुत्ता! दुविहा परमत्ता । तं जहा-संजायणाहिगरणगोयमा ! अधिगरणी वि, अधिगरणं पि।से केणटेणं जाव अधिगरणं पि । गोयमा ! पमादं पमुच्च से तेणटेणं जाव किरिया य, निन्चत्तणाहिगरणकिरिया य ।। अधिगरणं पि। एवं मणुस्से वितेया सरीरं जहा ओरालियं; (संजोयणाहिगरणकिरिया यत्ति ) संयोजनं हलगरविष कूटयन्त्राद्यङ्गानां पूर्वनिर्वतितानां मीलनं, तदेवाधिकरणक्रिया णवरं सबजीवाणं नाणियन्वं । एवं कम्मगसरीरं पि॥ | संयोजनाधिकरणक्रिया। (णिवत्तणाहिगरणकिरिया यत्ति) ( अडिगरणी वि अहिगरण पित्ति) पूर्ववत् । (एवं चेव त्ति)। निर्वर्तनमासिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं, तदेवाधिकरणाक्रया अनेन जीवसत्राजिलापः पृथिवीकायिकसूत्रे समस्तो वाच्य इति | निर्वतनाधिकरणक्रिया। भ० ३ श०३ उ। अधिकरणक्रिया दर्शितम् । ( एवं वेउचीत्यादि ) व्यक्तम् । (नवरं जस्स अस्थि द्विधा-अधिकरणप्रवर्तना, अधिकरणनिर्वर्तना च । तत्र निर्वत्ति) इह तस्य जीवपदस्य वाच्यमिति शेषः । तत्र नारकदेवा- र्तनेनाधिकरणक्रिया द्विविधा-मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिनां वायोः पञ्चेन्जियतियडयनुष्याणां च तदस्तीति झेयम् । या, उत्तरगुणनिवर्तनाधिकरणक्रिया च । तत्र मूलगुणनिर्व(पमायं पहुच्च त्ति) इहाहारकशरीरं संयमवतामेव भ- तनाधिकरणक्रिया-पञ्चानां शरीरकाणां निर्वर्तनम् । उत्तरगुघति । तत्र चाविरतेरभावेऽपि प्रमादादधिकरणित्वमवसे- | णनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया-हस्तपादाङ्गोपाङ्गानां निर्वर्तनम । यम् । दण्डकचिन्तायां चाहारकं मनुष्यस्यैव भवतीत्यत अथवा मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणक्रिया-असिशक्तिभिण्डिउक्तम्-( एवं मणुस्से वित्ति)। पालादीनां निर्वर्तनम् । संयोजनाधिकरणक्रिया-तेषां घियु. जीव णं भंते ! सोइंदियं णिवत्तिएमाणे किं अधिगर- | कानां संयोजनमिति । अथवा संयोगः विषगरहलकूडधणी, अधिगरणं । एवं जहेच पोशालयमरीरं तहेव साइंदियं नुर्यन्त्रादीनां, निवनाधिकरणक्रिया शर्वलकेण कालकूटमुपि नाणियर, वरं जस्म अस्थि सोइंदियं । एवं सोई करादीनाम् । कूटपाशनिवृत्ते क्रियाभेदे च । प्रा० चू०४०। दियं चविखदियं घाणिदियजिनिदियफासिदियाणि वि अधि (हि) गरणी-अधिकरणी-स्त्रीय कारापकरणविशेष, जाणियव्वंः जस्स जं अस्थि । जीवेणं भंते ! मणजोगे यत्र लाहकारा अयोधनेन लोहानि कुयन्ति । भ०६ श०१० णिव्वत्तेमाणे किं अधिगरणी, अधिगरणं । एवं जहेव सो- तेणं कालेणं तेणं समरणं रायगिहे. जाव पज्जुवासमाण इंदियं तहेव गिरवसेसं। वजोगं एवं चेव, णवरं एगिदिय- एवं वयासी-अत्यि णं जंते ! अधिकरणम्मि वाउयाए वइवजाणं । एवं कायजोगे कि, एवरं सन्चजीवा जाव वे- कमइ ?। ता अस्यि । से नंते ! किं पुढे नदाइ, अपुढे उमाणिए। सेवं नंते ! भंते ! तिन०१६ २०१ न०॥ दाइ । गोयमा ! पुढे नदाइ, णो अपुढे उदाइ । से जंते ! अधिक्रियते प्राणिदुर्गतावनेनेति अधिकरणम् । दानेना- किं सरीरी णिक्खमड, असरीरी शिक्खमा एवं जहा उसंयतस्य सामर्थ्य पोषणतः पापारम्भप्रवर्तने, हा० २७ खंदए जाव से तेणणं जाव णो असरीरी एक्स्वमइ । अष्ट० । आधारे, व्याकरणशास्त्रे- “कर्तृकर्मव्यवहिता-मसाक्षाद्धारयेत् क्रियाम । उपकुर्वत् क्रियासिद्धौ, शास्त्रे - (अस्थि त्ति) अस्त्ययं पकः, (अहिगरणमिति) प्राधिकरधिकरणं स्मृतम" ॥१॥ इति हरिपरिभाषिते अधिक एय, (वाउयाए त्ति) वायुकायः, (वश्करमा त्ति) व्युत्क्रामति रणसंक्षके कर्तृकर्मद्वाराक्रियाश्रये कारके, यथा-गेहे स्थाल्या अयोधनाभिघातेनोत्पद्यते, प्रयञ्चाक्रान्तसेनयत्वेनादावचेतनमन्नं पचतीत्यादौ गृहस्य कर्तृद्वारा, स्थाल्याश्च कर्मद्वारा, तयोत्पन्नोप पश्चात सचेतनीजयतीति संभाव्यत त । नस्पपरम्परया पाकक्रियाश्रयत्वाद् गृहादेः । वाच०। नश्च सन् म्रियत इति प्रश्नयन्नाह-"से भंते" इत्यादि । (पत्ति) स्पृष्टः स्वकायशस्त्रादिना सशरीरश्व कलेवराग्निप्कामति कार्मअधि (हि ) गरणकिरिया-अधिकरण क्रिया-स्त्री० । अधि. णापेकया औदारिकाद्यपेक्कया त्वशरीरीति । भ०१६श०१ ॥ करणविषयिका क्रिया अधिकरणक्रिया। कलहविषयके प्या अधिदि ) गार-अधिकार-पुं) । अधि-कृ-घञ् । ओघतः पारे, अधिकरणक्रिया द्विविधा-निर्वर्तनाधिकरणक्रिया, संयोजनाधिकरणक्रिया च । तत्राद्या-स्व गादीनां तन्मुष्टयादीनां प्रपञ्चप्रस्ताव, “ अहिगारो पुबुत्तो चम्विही विश्यचूलियनिवर्तनलक्षणा । द्वितीया तु-तेषामेव सिद्धानां संयोजनलक्ष ज्झयण" दश०१०। प्रयोजने,“अहिगारा शह नुमो एणं" व्य०९३०नि० चूछ । व्यापारे, "अहिगारो तस्स चिगति । अथवा प्राणिनां दुर्गत्यधिकारित्वकारणे, क्रियामात्रे जएणं" प्राचा०१ श्रु० २०१०। म । “अहिगरणकिरियापवत्तगा बहुविहं अनत्थं अवमई अपणो परम्स य करेंति" प्रभ०२पाश्रद्वा। । अधि (दि) टुंत-अधितिष्ठत-त्रिका निवसति, नि० चू०१२१०। Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) अधिट्ठावण अभिधानराजेन्द्रः। प्रधेकम्म भधि (हि) छावण-अधिस्थापन-न० । संनिषद्यावेष्टित एव संबन्धिनां स्थितिविशेषाणां च संबन्धिषु विकेषु विशुरुतरजोदरणादेरुपवेशने, “जे जिक्खू रयहरणं अदिए, अहितं रेषु स्थानेषु वर्तमानं सन्तं निजं भावमध्यबसायं यस्मादाधाया साइज" नि००५ उ०। कर्म भुजानः साधुरधः करोति , हीनेषु हीनतरेषु स्थानेषु बिअधि (हि ) द्वेश्त्ता-अधिष्ठाय-अन्य० । ममेदमिति गृही-| धत्त । तस्मासदाधाकर्म भावाधःकर्म जायस्य परिणामस्य सं. स्वेत्यर्थे , नि० चू० १२०।। यमादिसंबन्धिषु शुभेषु शुजतरेषु स्थानेषु वर्तमानस्य, अधःम धस्तनेषु हानेषु हीनतरेषु स्थानेषु कर्म क्रिया यस्मात्तद्भावाअधि (हि) मासग-अधिमासक-पुं० । अभिवद्धितवर्षद्वा-| धःकम्मति व्युत्पत्तेः। दशभागे , “पस अनिवझियवरिसवारसभागो अधिमासगो। एनामेव गाथां भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयतिजो पुण ससिसूरगतिविसेसणिप्पभो भधिमासगो असणीसं दिणा विसतिभागा य वत्तीमं भर्वति" नि० चू० २० उ० । तत्याणंता चारि-त्तपज्जवा होति संयमट्ठाणं । अधि ( हि) मुत्ति-अधिमुक्ति-स्त्री० शाखश्रद्धावति, द्वा० संखाईयाणि न ता-णि कंमगं होइ नायव्वं ।। 60॥ २३ द्वा०। संखाईयाणि उ कं-मगाणि बढाणगं विणिटिं। अधि (हि) वइ (ति)-अधिपति-पुं० । प्रजानामतीव सु- छहाणा न असंखा, संयमसेढी मुणेयच्चा || 0 | रक्तके, व्य०१उ०। किएहाइया उ लेसा, उक्कोसविसुचविइविसेसा उ । अधीमहि-अधीमहि-श्रव्य० । अस्यापत्यं :-कामः । तस्य एएसि वि सुकाणं, अप्पं तग्गाहगो कुणइ ॥१०॥ मह्यः कामिन्यः,ता अधिकृत्य-अधीमहि । खियोऽधिकृत्येत्यर्थे, "भगो देवस्य धीमहि" गायत्री वसतीति वसा विच्प्रत्यये इह सर्वोत्कृष्टादपि देशविरतिविमिस्थानाद जघन्यमपि स. रूपम् । कुवासि ?, इत्याकाडायामाह-अधीमहि , स्त्रीषु तिष्ठ विरतिविशुद्धिस्थानमनन्तगुणता च सर्वत्रापि षट्स्थानकचिमाने ख्यायत्तात्मनीत्याशयः । जै० गा० । म्तायां सर्वजीवानन्तकप्रमाणेन गुणकारेण अपव्या । इयं चात्र नावना-जघन्यमपि सर्वविरतिविकिस्थान केलिप्रकाच्छेदअधीरपुरिस-अधीरपुरुष-पुं० । अबुद्धिमति पुरुषे, उत्त. केन निघते, छित्त्वा च निर्विनागा भागाः सर्वसंकलनया ए । परिभाव्यमानाः सर्वोकृपदेशविरतिविशुद्धिस्थानगता निसाधुव-अध्रुव-पुं० । यः पुनरायत्या कदाचियवच्छेदं प्राप्स्य विजागा भागाः सर्वजीवानन्तकरूपेण गुणकारण गुण्यमाना ति स भव्यसंबन्धी यो बन्धः स धूयबन्धः । क०५ कर्म०। । यावन्तो जायन्ते तावत्प्रमाणाः प्राप्यन्ते । अत्राप्ययं भावार्थ:अधे (हे) कम्म-अधःकर्मन-न० । अधोगतिनिबन्धनं कर्म | इह किल असत्कल्पनया सर्वोत्कृष्टस्य देशविरतिविशुद्धिस्था. भधःकर्म । आधाकर्मणि , तथाहि भवति साधूनामाधाकर्मभु नस्य निर्विनागा जागाः १०००० दशसहस्राणि , सर्वजी वानन्तकप्रमाणश्च राशिः शतम् । ततस्तेन शतसंख्येन सम्जानानामधोगतिः, तनिबन्धनप्राणातिपाताद्याश्रवेषु प्रवृत्तेः।। पंजीयानन्तकप्रमाणेन राशिना दशसहस्रसंख्याः सर्वोत्कृष्टअस्य निकेपः-अधःकर्म चतुर्थ । तद्यथा-नामाधःकर्म, स्था देशविरतिविशुद्धिस्थानगता निर्विभागा नागा गुण्यन्ते , जापनाधःकर्म , व्याधःकर्म , नावाधःकर्म च । एतचाधाकर्म तानि १०००००० दशलक्काणि । एतावन्तः किल सर्वजघन्यवत्तावद्वक्तव्यं यावन्नोत्रागमतो भव्यशरीररूपं व्याधःकर्म । स्यापि सर्वविरतिविशुक्रिस्थानस्य निर्विनागा नागा जयन्ति । शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं तु व्याध:कर्म नियुक्तिकृदाह संप्रति सूत्रमनुधियते-तत्र तेषु संयमस्थानादिषु वक्तव्येषु, प्रथजं दब्बं उदगाइस, ढमहे वयइ जं च नारेण । मतःसंयमस्थानमुख्यत इति शेषः। अनन्ता अनन्तसंख्याः पाश्चासीईए रज्जएण व , ओयरणं दव्यऽहेकम्मं ।। ए६ ॥ त्यसंकलनया दशलकप्रमाणाः, ये चारित्रपर्यायाः सर्वजघन्यचायत्किमपि व्यमुपलादिकमुदकादिषु उदकपुग्धादिषु मध्ये रित्रसत्कविगुफिस्थानगता निर्विभागा भागास्ते समुदिताः संक्षिप्तं सत् भारेण स्वस्य गुरुतया अधो व्रजति तथा (जं चेति) यमस्थानम,अर्थात्सर्वजघन्यत्नावं प्राप्नुवन्ति । तस्मादनन्तरं यद यच (सीईए त्ति) निःश्रेण्या रज्ज्वाचा अवतरणं पुरुषादेः कृपा द्वितीयं संयमस्थानं तत् पूर्वस्मादनन्तभागनुरूम । किमुक्तं भदो , मालादेर्वा नुवि, तद् अधोऽधोव्रजनमवतरणं वा व्या वति ?-प्रथमसंयमस्यानगतनिर्यिभागभागापेक्वया ठितीयसंय. धःकर्म । द्रव्यस्योपलादेरधोऽधस्तामनरूपमबतरणरूपंवा मम्धाने निर्विनागा भागा अनन्ततमेन भागेनाधिका भवन्तीति। कर्म द्रव्याध:कति व्युत्पत्तेः । तस्मादपि यदू अनन्तरं तृतीयं तत्ततोऽनन्तभागवृष्म् । एवं पूर्वसंप्रति जावाधःकर्मणोऽवसरः, तञ्च द्विधा-श्रागमतो , नोभाग-1 स्मादुत्तरोत्तराणि अनन्ततमेन नागेन वृद्धानि निरन्तरं संय. मतश्च । तत्र भागमतोऽधःकर्म शब्दार्थज्ञानात् । तत्र चोप मस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावदद्गलमात्रक्षेत्रासंख्येयन्नागगत. प्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति । एतावन्ति च समुदितानि स्थायुत्तो नोआगमत आह नानि कराडकमित्युच्यते। तथा चाऽऽद्ध-संख्यातीतानि असंख्य संजमगणाणं कं-डगाण लेसाविईविसंसाणं । यानि । तुः पुनरर्थे। तानि संयमस्थानानि,कराम जयति ज्ञातजावं अहे करेई, तम्हा तं भाव ऽहेकम्मं ॥ ७॥ व्यम् । कएम नाम समयपरिभाषया अहलमात्रकेत्रासंख्येयसंयमस्थानानां वक्ष्यमाणानां कएमकानां संगयातीतसंयम भागगतप्रदशराशिप्रमाणा संख्या विधीयते । स्थानसमुदायरूपाणाम,उपलकणमेतत् षट्स्थानकानांसंयमश्रे तथा च भाध्ये उक्तम्श्च । तथा लेझ्यानां , तथा सातवेदनीयादिरूपशुनप्रकृतीनां "कंडंति इत्थ भन्नर, अंगुलभागो असोज्जो"। १४८ lain Education International Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५००) भनिधान राजेन्खः । भषेकम्म अस्माच्च कएरुकात्परतो यदन्यदनन्तरं संयमस्यागं जयति तत् पूर्वसंवेदभागाधिपत्यमक सत्कचरमसंयमस्थानगत निवैिभाग जागा पेया कराडकादनन्तरे संगमस्थाने निर्विज्ञागा भागा असंख्येयतमेन नागेनाधिकाः प्राप्यन्ते ततः पराणि पुनरपि कगरूकमात्राणि संयमस्थानानि सरमागानि ततः पुनरेक विसंस्थानं वनमणि समस्यामनिधातमागानि नयन्ति ततः पुनरप्येकममयेवनामाधिकं धनम् एवमनन्तभागाच संस्थान अ संगमस्थानामि तावक्तव्यानि यावतान्यपि कएरुकमात्राणि भवन्ति । ततधरमादसंख्येयभागाधिकसंयम स्थानात्यराि यथोत्तरमनन्तभाग द्धानि ककमाचाणि संयमस्थानानि भवन्ति । ततः परमेकं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानम्, ततो मूत्रादारभ्य यावन्ति संयमानानि प्रागनिकान्तानि तावन्ति भूविक्रमानिनाय पुनरये संस्थेयभागाधिक संगमस्थानं वक्तव्यम् । इदं द्वितीयं संख्येयभागाधिकं संयमस्थानम् । ततोऽनेनैव क्रमेण तृतीयं वक्तव्यम् । प्रमूनि चैवं संस्थेयभागाधिकानि स्थानानि तावद् वक्तव्यानि यावत्क सडकमात्राणि भवन्ति । तत उक्तक्रमेण भूयोऽपि संख्येयभागाधिक संयमस्थानप्रसंग संख्येयगुणाधिकमेकं संयमस्थानं वक्तव्यम् । ततः पुनरपि मूलादारभ्य यावन्ति संगमस्थानानि प्रागतिकान्तानि तान्यानि ततः पुनः प्येकं संवेगुणाधिकं संगमस्थानं प मूलादारभ्य यावन्ति नवन्ति संगमस्थानानि तावन्ति तथैव कन्यानि ततः पुनरप्येकं संस्थेयगुणाधिकं संगमस्थानं व कव्यम् । अमून्यप्येवं संख्येयगुणाधिकानि संयमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्कण्डक मात्राणि भवन्ति । तत उक्तक्रमेण पुनव संध्येयापकसंस्थाप्रसंगे असंवे विकं संयमस्थानं व कव्यम् । ततः पुनरपि मूलादारभ्य यायन्ति संयमस्थानानि प्रागनिकान्तानि नायन्ति तेनैव क्र मेरा भूयोऽपि बकस्यानि ततः पुनरप्येकमध्येवाधिक संयमस्थानं वक्तव्यम् । ततो जुयोऽपि मुनादारज्य तावन्ति संस्थान तथैवातिः पुनरगुणा विकसंयमस्थानं वक्तयम् । यावन्ति श्रभूनि चैव संस्थेयगुणा संयमस्थानानि तायन्त्यसंस्थेयगुणाधिकसंयम स्थानानि तावद्वतव्यानि यावत्कएडकमात्राणि भवन्ति । ततः पूपरिया पुनरप्यसंख्येपगुणाधिकसंयम स्थानप्रसंगे नन्तगुणाधिकं संयमस्थानं ततः पुनरपि खादारभ्य यावन्ति संगमस्थानानि प्रागतिक्रान्तानि तावन्ति त श्रच क्रमण भूयापि वक्तव्यानि । ततः पुनरप्येकमनन्तगुणापिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् । ततो भूयोऽपि मूत्रादारज्य तायन्ति संगमस्थानानि तथैव वक्तव्यानि । ततः पुनरप्येकमनन्तगुणाधिकं संयमस्थानं वक्तव्यम् । एवमनन्तगुणाविकानि संगमस्थानानि तावद्वक्तव्यानि यावत्क एकमात्राणि जयन्ति | मुकाम संपमस्थानानि मूलदार नवगुणस्थानं तत्र प्राप्यने पद्स्थानकस्य परिसमाप्तत्वात् । इत्थंनुतान्यसंख्येपानि कानि ममुदितास्थान तथा चाऽऽह जाष्यकृत "संपादिकं गाणि विवदि" सुगमय । अस्मिँश्च षट्स्थानके पोढा वृद्धिरुक्ता । तद्यथा-श्रनन्तनागवृद्धिः असंख्यात भागवृद्धिः, संख्यातनागवृद्धि:, संस्थेयगुणवृद्धि; असंख्येयगुणवृद्धिः, अनन्तगुणवृद्धिश्व । तत्र पारशोऽ नन्ततमो जागोऽसंख्येयतमः संख्ये यतमो वा गृह्यते ; वास्तु संख्येयो ऽसंख्येयोऽनन्तो वा गुणकारः स निरूप्यते तत्र द या अनन्तभागवुद्धिता तस्य सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागो हियते, हते च जागे लब्धिः सोऽनन्ततमो भागः। तेनाधिकमुत्तरं संयमस्थानम् । किमुक्तं नवति ? - प्रथमस्य संयमस्यानस्य ये निर्विनागा नागास्तेषां सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन राशिना मागे सति लगभ तीये संयमस्थाने निर्विनागा अधिकाः प्राप्यन्ते, द्वितीयस्य संयमस्थानस्य ये निर्विभागास्तेषां सर्वजीवसंख्याप्रमाणेन रा शिना भागे हुने सति निर्विभागररधिकास्तृतीये संयमस्थाने निर्विज्ञागा भागाः प्राप्यन्ते । एवं यद् यत् संस्थानमुपभ्यते सत्पात्य संगमस्थानस्य सर्वजवसंख्याप्रमाणेन राशिना भागे हृते सति यद् लभ्यते तावत्प्रमाणेनानन्ततमेन भांगेनाधिकमवगन्तव्यसंवभागाचिकानि पुनरेवम् पास्यपाश्चात्य यमस्थानस्य सत्कानां निर्विभागभागानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमा राशि जागे हुने सति यद्य सोऽखं यो भागः स्नानागनाधिकानि असंरूपेयभागाधिकानि स्थानानि वेदितव्यानि । संख्येयज्ञागाधिकानि चैवम् पाश्चात्यस्य संयमस्थानस्य उत्कृष्टेन संख्येयेन जागे इते सति यद् यभ्यते स स संख्येयतमा भागः। ततस्तेन तेन संख्येयतमेन भागेनाधिकानि संख्येयत्रागाधिकानि स्थामानि बेदियन संस्थेयष्यामि पुनम्पायरयस्य पाखारयसंयमस्थानस्य ये मे निर्विभागा जगत उन संख्येयक प्रमाणेन राशिना गुण्यन्ते ; गुपिते व सति यावन्त यावन्तो प्रति तावतावत्प्रमाणान संस्थेयगु मानित पदमा नन्तगुचावि च भावनीयानि; नवरमसंख्येयगुणवृद्धौ पाश्चान्यथ पाश्चात्यस्य संगमस्थानस्य निर्विज्ञागा भागा असंख्येयहोकाकाशप्रदेशप्रमाणेमासंस्थेचे गुज प्रमाणेनानन्तेन । इत्थं च नागहारगुणकारकल्पनं मा स्वमनीपिक संस्थाः कं कर्मसं पद्स्थानकगतनागहारगुणकारविचाराधिकारे-" सव्वजियाणमसंखे-जा नागसंखिजगस्स जेटुस्स । भागो तिसु गुणणा तिसु, ॥ इति । प्रथमाच्च षट्स्थानकादूर्ध्वमुक्तक्रमेणैव द्वितीयं षट्स्थानक मुत्तिष्ठति, एवमेष तृतीय एवं स्थानकाम्यपि तावद्वाय्यानि वादकाकाशप्रदेशमानि भवन्ति अवसा अयं पुणो सोगा, उडाण य व्वा" ॥ इत्थंतानि च असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानकानि संयमथेणिरुच्यते । तथा चाऽऽह "बट्टाणा व असं खा, संजम सेढी मुणेयञ्चा" तथा (लेस त्ति) कृष्णादयो मे श्याः स्थितिविशेषाः, उत्कृष्टानां सर्वोत्कृष्टानां सातवे दनीयप्रभृतीविविध स्थिति .99 1 1 कम्म 66. Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधेकम्म अभिधानराजेन्द्रः। अपगंग सव्याः । तत पतेषां संयमस्थानादीनां संबन्धिषु शुभेषु स्था-अधा (हो) हि-अधोऽवधि-पुं० । परमावधरधोवय॑वधिर्यस्य मेषु वर्तमानस्तग्राहक प्राधाकमग्राहकः , भात्मानमेतेषां साधाऽवधिः । परमावधेरधोवय॑वधियुक्त जीवे , "अधोदि संयमस्थानादीनां विशुद्धानामधोऽधस्तात्कयेति । नमोहवणं चेव अप्पाणेणं आया अहेलागं जाण" स्था०२ यदि नाम संयमस्थानादीनामधस्तादात्मानमाधाकर्मग्राडी ग० २००। करोति ततः किं दूषणं तस्थापतितम !, मत माह अन्तर-अन्तर-1०1"धर्गेऽन्त्यो वा" ७१।३०। इति सत्रेणानुभावावयारमाह-उमप्पगे किंचिनूणचरणग्गो। स्वारवैकल्पिकत्वम् । व्यवधाने, प्रा०। प्राहाकम्मग्गाही, अहो अहो नेह अप्पाणं ॥१॥ मन्त्रमी-खी०-अन्त्र-न । सदरमध्यावयवे, "पा विलग्गी मावानांसंयमस्थानादिरूपाणां विशुकानामधस्ताद डीनेषु डी- अन्त्रमी सिरु हसिउ खंधस्सु" प्रा.॥ मतरेषु अध्यवसायेववतारमवतरणमात्मन्याधाय कृत्वा किचिम्यूनचरणान इति । इह चरणेनानः प्रधानश्चरणामसच नि. अभाइस-अन्याश-त्रि० । “अन्यारशोऽन्नासावराइसौ" । भयनयमतापेक्षया कोणकषायादिरकषायचारित्रः परिगृह्यते । ४१३। रति अन्याशशब्दस्य प्रश्नाइसेत्यादेशः। अन्यसो. न च तस्य प्रमादसंभवेनापि मौल्यम, एकान्तेन लोभादिमोहनी अन्यप्रकारे च। प्रा०। यस्य विनाशात्। ततो न तस्याधाकर्मग्रहणसंभवः, इति किशि-अप-अप-स्त्री० । ब० व0 1जले, “पुवापोहवया नक्वते कि न्यूनग्रहणम्किञ्चिन्यूनेन चरणेनानःप्रधानः किश्चिन्यूनचर. देवयाए पणत। अपदेवयाए " सू०प्र० १० पाए। णाः । स च परमार्थत उपशाम्तमोह उच्यते । अतिशयख्या अपप स्टाण-अप्रतिष्ठान-पुं० । न विद्यते प्रतिष्ठानमौदापनार्थ चैतमुक्तम् । ततोऽयमर्थः-किश्चिन्न्यूनचरणाग्रोऽपि याव रिकशरीरादे कर्मणो वा यत्र साऽप्रतिष्टानः । मोक्के, प्राचा० त, प्रास्ता प्रमत्तसंयमादिरिति । प्राधाकर्मग्राही अधोऽधो रन १७०५ १०६० सप्तम्यां नरकायच्यां पञ्चानां कानादीनां प्रभादिनरकादो नयत्यात्मानम्, एतषणमाधाकर्मप्राहिणः । नरकासासानां मध्यवर्तिनि नरकावास, स्था०४ ठा०३०॥ एतदेव जावयति सूत्रस्येन्छे च । जी०३ प्रति"अप्पश्हाणे नरए पगं बंधइ अहंभनाउं, पकरे प्रहांमुहाँ कम्पाई। जोयणसयसहस्सं आयाणविक्वंभणं" पं० सं० १ द्वा० ॥ घएकरणं तिब्ण उ, नावण चोवचच्या य॥॥ अप'पहिय-अप्रतिष्ठित-त्रि नाना प्रतिष्ठानरहित, स्थान प्राधाकर्मप्राडो विशुकेल्या संयमादिस्थानेन्योऽवतीर्य भ. ठा० १ २० । कचिदप्रतिबके, अशरोरिणि च। आचा०२ श्रुग घोऽधोवर्तित होनेषु हीनतरेषु नावेषु वर्तमानोऽधोनवस्य अप (प्प) इपसरियत्त-अप्रकीर्णप्रसृतत्व-न । सुसंबन्धगलप्रभागिनारकरूपस्य नवस्य संवन्धि मायुर्बध्नाति । शेषा स्य सतः प्रसरणे, असंबद्धाधिकारित्वातिविस्तारयोरभावे यपि कर्माणि गत्याशीन अधोमुखानि अधोगत्यभिमुखानि, सत्यवचनातिशये, स० ३५ मम । औ०। अधोगतिनयनशीबानीत्यर्थः। प्रकरोति प्रकर्षण अस्सहकटुकसीवानुजावयुक्ततया करोति बन्नाति । बहानां च सतामाधा अपरस-अपक-त्रि० । अग्निना संस्कृते, पञ्चा०विव०। कर्मविषयपरिभांगनाम्पट्यवृस्तिो निरन्तरमुपजायमानेन ती- अपएस-अप्रदेश-त्रि० न० 101 प्रदेशहितत्व, न्या०१. श्रेण तीवतरेण भावन परिणामेन धनकरणं यथायोगं विभक्त- अध्या० । अवयवाभावाद् निरशे, भ०२००५ १० । निररुपनया निकाचनारूपतया वा व्यवस्थापनम् । तथा प्रतिकण- स्वय, विशेण । स्था० । नत्रः कुत्मार्थत्वादनाकणिकत्वेनाशिमन्यान्यपुजलग्रहणेन चय उपचयश्च। तत्र स्तो कतरा वृद्धिश्च- एजनाकोणत्वेन वा कुत्सिते प्रदेशे, पञ्चा०७विव० । (जीयः, प्रभूनतरा वृफिरुपचयः । एतेन च व्याख्याप्रशाप्तसूत्र- वानां सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वचिन्ता 'पएस' शब्द वक्ष्यते ) भाचार्यणानुवर्तितम् । तथा च व्याख्याप्रकप्तावालापक: अपोस-अपद्वेष-पुं० । अमत्सरे माध्यस्थ्य, पञ्चा० ३ विव०। "माहाकम्माऽन्नं तुजमाणे समणे निग्गंथे अठकम्मपगमीमो बंध अहे बंधर, अहे चिणा, महेनर्वाचगर" त्यादि। अपमिय-अपएिकत-पुंग। सद्बुझिरहिते, वृ० १ उ०। तत एवं सति अथ-अपथ-पुं०। प्रशस्रोपहतपृथिव्याम , १० १००। तसिं गुरूण मुदए-ण अप्पगं मुगइ पवदंतं । भपक-अपक-त्रि० । अम्यादिनाऽसंस्कृते शालिगोधूमौषधादी, न वएइ विधारे, महरगतिं निति कम्माई॥३॥ प्रव० द्वा० । पाकमप्रापिते , प्रम०५ सम्ब० द्वा०। नेपामधानवायुरादीनां कर्मणां गुरुणामधोगतिनयनस्वभाव- अपकोसहिजक्खाण्या--अपकौषधिभक्षणता-स्त्री० । अपक्काय, तया गुरुणीव गुरुणि तेषामुदयन विपकवेदमानुन्नवरूपण,विपा- अग्निनाऽसंस्कृताया ओषधेःशाल्यादिकाया भक्कणता भोजनमकवेदनानुनवरूपादयवशादित्यर्थः। दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं वि. पौषधिलकणता । जोजनत उपजोगपरिभोगवतातिचारजेदे,' धारयितुं निवारयितुमाधाकम्भग्राह। न शक्नोति । यतः कर्माणि उपा०१ अ०। अधाभवायुरादीनि उदयप्राप्तानिवलादधरगति नरकादिरूपांन. यन्ति । न च कर्मणः कोऽपि बलीयान, अन्यथा न कोऽपि नरकं अपक्खग्गाहि (ण)-अपग्राहिन्-त्रि० । न पकं गृहातीन्यपबायात, न वा कोऽपि दुःखमनुभवेत् । तस्मादाधाकर्म अ. वग्राही । शास्रबाधितपकाग्रहणशीले, स्था०९०। धागतिनिबन्धनमित्यधःकम्मत्युच्यते । तदेवमकमधमेति अपगंम-अपगएड-अपगतं गए; दोषो यस्मात्तदपमण्डम। मास ।बि। | निदोंदे, उदकफेने च । सूत्र. १६०६अ। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपगडक अमुक-अपएम० ए गत शुक्रम निर्देषार्जुन तथा अपग एकमुदकफेनं तत्तुल्यमपगण्डगृक्कम् । उदकफेनबदबदाते, "तरं धम्माचरं भाणवरं वारं सूत्र ०९०६० अपचय - अपचय - पुं० । श्रभावे, उत्त० १ अ० । अप (प) चक्ख - अप्रत्यक्ष त्रि० । चाक्षुषे, आ०म० द्वि० | अप्रत्यकer] बुद्धिः, प्रत्यक्कोऽर्थ इति वचनात् । ल० । अप (प) चक्खाण - अप्रत्याख्यान- पुं० । न विद्यते प्रत्याख्यानमवतादिरूपं येषु । स्था० वा० १४० । न विद्यते खल्पमपि प्रत्याश्यानं येषामुपायः देि येषु दनानि प्रमोद श्रप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता” ॥ १ ॥ ते चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः । कल्प० । न० त० । मनागपि विरतिपरिणामानावे, नं० । प्रज्ञा० | पं० [सं० । (Hora) प्रनिधानराजेन्द्रः । अपस्मारणं तियसंग्रामा आप प्ण चरखा किरिया प्रत्याख्यान क्रिया-बी० ॥ अप्रत्यास्यानेन नित्यभावेन किया कर्मव चादिकरणमचास्यानक्रिया । ज० १ ० २ ० । अप्रत्याख्यानजन्ये कर्मबन्धे, अप्रत्याख्यानमेव क्रिया । अप्रत्याख्यानक्रियाया अभावे, भ० १ श० ६ ० । - रुद्भेदा: अपच्चकखाकिरिया दुविहा पन्नत्ता । तं जहा-जीवयपच्चक्रखाकिरिया चेन, अजीव अपच्चक्खाणाकरिया चैव । ( जीव अपचक्खाण किरिया चैव त्ति ) जीवविषये प्रत्याख्यानाभावेन यो बन्धादिर्व्यापारः सा जीवाप्रत्याख्यानक्रिया । तथा( अजीव पचवाणकिरिया देव) व मद्यादिध्य प्रत्याख्यानात् कर्म्मबन्धनं सा अजीवाप्रत्याख्यानक्रियेति । स्था० २ ० १ ० । श्रा० चू० । सा च अविरतस्य अपच्चक्खाण किरिया एां भंते ! कस्स कज्ज‍ | गांयमा ! अन्नगरस्म पि अपक्खाणिस्स || अप्रत्याख्यानक्रिया श्रन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः, अन्यतरदपि, न किंचिदपीत्यर्थः । यो न प्रत्याख्याति, तस्येति भावः । प्रज्ञा० २२ पद । समैव सा सर्वस्य- जंतेति जगवं गोयमे समणं जगवं महावीरं बंद, नर्मसदा एर्मनचा एवं नयासी से भंते सेहिस्मय सकिनास्स खत्तियस्य समान अपच्चक्खाण किरिया कज्जइ । हंता गांयमा ! सेध्यिस्म० जान अपचवाण किरिया कम से केण हे जंत !१। गोमा र कुच्च से तेाडणं गोयमा एवं बुच्च-सेस्सि व तगृ० जाप कतई ॥ ( भंते! इत्यादि ) तत्र ' भंते चि' हे भदन्त ! इति, एवमाम शेषन्त इति कृतित्येत्यर्थः । (सेट्टिस्म) सितम मोती जननायकस्य [सुपरस्य [किस्स त्ति ] रङ्कस्य [ खत्तियस्स सिं] राइः [ पञ्चवाण किरिय त्ति ] प्रत्याख्यानक्रियायां अभावोऽप्रत्याख्यानजन्यो वा कर्मबन्ध [ भविर शि] इच्छानिवृति, सादि सर्वेषां स मैवेति । ० १ ० उ० । से नूणं भंते! हरिथरस य कुंपुस यसमा चैव अपश्चक्खाणकिरिया कजइ ? हंता गोयमा ! हरिथरस य कुंषुस्स य० जाव कज्जइ । स कंणणं एवं वुच्चइ० जाव कज्जइ । गांयमा ! श्रविर पशुश्च से तेज 66 जाब कज्जर " भ० 9 ० ८ उ० अप (प ) चक्खाणि (ए) - प्रत्याख्यनिन- ०० तo | अप्रत्याख्यातरि, अविरत यो न प्रत्याख्याति । प्रज्ञा० २३ पद । भ० । ( के के प्रत्याख्यानिनः १ इतेि " पञ्चकखाण " शब्दे दर्शविष्यते ) अप ( प ) च्चक्खाय- अमत्याख्यात- त्रि० । श्रकृतप्रत्याख्याने, भ० श० ५ उ० । अप (प ) च्चय - अप्रत्यय-पुं० । भविश्वासे, नि० चू० १३ उ० । प्रत्ययान्नावरूपे चतुर्विंश गौणासी के प्रश्न० २ आश्र० द्वा० । सप्तदशे गौणादन्तादाने च तस्य अप्रत्ययकारणत्वात् । प्रन० ३ आश्र० द्वा० । अपञ्चयकारग-अप्रत्ययकारक - त्रि० । विश्वासविनाश के, प्रा० २ आध० वा० । अपञ्चल-प्रमत्यक्ष - वि० । अयोग्य, नि० च० ११० । असमथे, अनलोऽप्रत्यलः, अयोग्य एकार्थाः । नि० चू० ११३०। श्राप० । पातावि ( ) - अपश्चात्तापिन्- त्रि० । आलोचितेऽपराधे पश्चात्तापमकुर्बति निर्जराजा/गनि भालोचनादानयोग्ये. प्र० २५०७८० । अपश्चात्तापी नाम यः पश्चात्परितापं न करोति - 'हा ! दुष्ट कृतं मया यद् श्रालोचितमिदानों प्रायश्चि तपः कथं करिष्यामीति मन्यते त्प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवानिति । व्य० १ ४० स्था० । अपच्छायमाणाश्रमच्छादयमिति शिवमाया अपायमाणा जान्यमचितमसदियं - मटुं भइक्खवर " ० १ ० । पच्छिन- पश्चिम-निविद्यते पचमादिि मः सन्ति "सत्यपराजय" नं० परमे मरणे, कल्प० । श्राव० । श्रा० म० । अकारस्त्वमङ्गल परिद्वारार्थः । पश्चात्काल नाविनि स० । “अपच्चिमे दरिस [ मेघकुमारस्य] विस्वर चिकट्टू" अकारस्यामङ्गलपरिहाराय पश्चिमं मं भविष्यति घकुमारस्य दर्शनं सर्वदर्शनं पाश्चात्यं भविष्यतीति भावः । अपान पश्चिममधिगग्येन मेघकुमारस्य दर्शनमेतदर्श नेन प्रविष्यतीत्यर्थः । झा० २ श्र० भ० । ६० । श्र०क० । पच्छिममारणं तियसंले हा भूसरणा- अपश्चिममारणान्तिकसंलेखनाोषणा-त्री० [वामङ्गलपारेद्वारार्थमपधि Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) अपच्छिममारगांतियसंलेहणाझसणा भनिधानराजेन्द्रः । अपडिपोग्गस मा,मरणं प्राणत्यागलकणम,म्ह यद्यदि प्रतिवणमाचीचीमरणम | अपज्जत्तणाम-अपय्याप्सनामन-न० । अपर्याप्तयो विद्यन्ते स्ति तथापि न तद् गृह्यते, किं दि , विवक्कितसर्वायुष्कक-| येषां ते अपर्याप्ता इति कृत्वा तमिबन्धनं नाम अपर्याप्तनाम । यलकणमिति। मरणमेवान्तो मरणान्तः, तत्र नवा मारणान्ति यदयाद् अन्तवः स्वयोग्यपर्याप्ति-(परिसमाप्ति ) समर्थाःग की, संलिख्यते कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना, भवन्ति, तस्मिन्नामकर्मणि, कर्म० १ कर्मः । स०। नोविशेषलकणा, ततः कर्मधारयादपश्चिममारणान्तिकसं अपज्जत्ति-अपर्याप्ति-स्त्री०। पर्याप्तिप्रतिपक्केऽथे, जी. १ खना । तस्या जोषणा सेवा, पश्चिममारणान्तिकसंलेखनाजा. पणा । मरणकाले संलेखनानाम्ना तपसा शरीरस्य कषायादी प्रति०। नां च कृशीकरणे, न०७ श०२ १० । कस्प० । स०। अपज्जवसिय-अपयवसित-त्रि० मताभनन्ते, "एस्थ णं सिहा भगवंतो सादिया अपज्जवसिया चिति" अपयेअपश्चिममारणं तियसलेहणाभूमणाझसिय-अपश्चिममार-- | घसिता रागाद्यभावेन प्रतिपातासंभवात् । प्रा०२ पद । गाजापितामापत-त्र। मपाश्चम-अपज्जवासणा-अपयेपासना-खी। न०० । सैवनायामारणान्तिकसंबग्बनाजोषणया जापितः सेवितस्तथा । अप• म, ज्ञा०१३ । थिममारणान्तिकसंखनायुक्त, अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना अपज्जोसणा-अपर्युषणा-स्त्री० । प्राप्तायामतीतायां या जोषणया झूषितः क्षपित इति । अपश्चिममारणान्तिककपि. तदेहे, स्था०२ ग० २००। पर्युषणायाम, नि. चू०१०००। अपच्छिममारणंतियसंलेदणामणाराहणता-अपश्चिममार अपट्टविय-अप्रस्थापित-त्रि० भकृतप्रस्थाने, “पुम्बएहमपहणान्तिकसंलेखनाजोषणाराधनता-स्त्री० । अपश्चिममारणा वित प्रवरएहे उहितेसु य" नि० ० ५ उ० । न्तिकसंलखनाजोषणाऽस्य आराधनमखएककालकरणं तद्-अप । प्प) कम्म अप (प) डिकम्म-अप्रतिकर्मन-न० । प्रतिकर्मरहिते, " सु. जावोऽपश्चिममारणान्तिकजोषणाराधनता । देशोत्तरगुणप्र मागारे व अप्पमिकम्मे" प्रश्रय सम्ब० द्वा०। शरीरप्रतिस्यास्यानभेदे, “पत्य सामायारी मासेवियगिदधम्मेण किम | क्रियावर्जपादपोपगमने, स्था०२ वा०४३। सावगेण पच्चा निक्खामियब्वं, एवं सावधम्मे उज्जमिनो दो. भप (प) मिकंत-अप्रतिक्रान्त- त्रिदोषादनिवृत्ते, माग न सकई तादे नत्तपच्चक्वाणकाले संधारसमणेण होयव्वं ति विनासा अहोतं" अपश्चिममारणान्तिकसंखनाजो- अप (प) डिचक्क-अप्रतिचक्र-त्रि० । न विद्यते प्रति अनुपणाराधना चातिचाररदिता सम्यक्पालनीयेति वाक्यशेषः। रूपं समानं चक्रं यस्य तदप्रतिचक्रम् । परचरसमाने, "श्रभाव०६०। औ०। प्पमिचक्कम्स जो होइ सया संघचक्कस्स" अप्रतिचक्रस्य । अस्या अतिचाराः चरकादि च तैरसमानस्य । नं। तयाणंतरं च णं अपच्छिममारणंतियसलेहणाऊसणारा- | अपामाच्छरा-4 हणाए पंच अइयारा जाणियव्या, न समायरियन्वा । तं | अप (प) मिल-अप्रतिक-त्रिका नास्य मयेदमसदपि समर्थजहा-इहलोगासंसप्पओगे १ परलोगासंसप्पओगे जी- नीयमित्येवंप्रतिज्ञा विद्यतेऽस्येत्यप्रतिज्ञः। रागषरहिते, "त. वियासंसप्पओगे ३ मरणासंसप्पओगे ४ कामनोगासंसप्प तेणं अणुसिहाते, अपमिन्नण जाणया" सूत्र०१ श्रु०३१०३ ओगे ५। नपा० उ०। आचाल । नाऽस्य प्रतिज्ञा इसोकपरलोकाशंसिनी विअ० श्राव । कल्प० । ध०। पत इत्यप्रतिकः । ऐहिकामुमिकाकाङ्काराहित्येन तपोऽनुष्ठा( 'इस्रोगासंसपोग' इत्यादिशब्दानां स्वस्वस्थाने व्याख्या तरि, सूत्र०१६० १० अ०"गंधसु वा चंदणमाहु सेटुं, एवं मु. द्वितीयादिभागेषु इष्टव्या) णीणं अपमिनमाहु" सूत्र०१ श्रु०६ अ० न विद्यते प्रतिज्ञा अपज्जत्त-अपर्याप्त--त्रि० । परि-पाप-क्त । मत। असमर्थे, निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिक्षः। सूत्र०१७०२ अ० २० । असंपूर्ण स्वकार्याऽक्कमे च । वाच । अपर्याप्तयो विद्यन्ते यस्य अनिदाने, यो हि वसुदेववत्सुसंयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न क. सोऽपर्याप्तः। "अभ्रादिभ्यः" रा४६। ति हैमसूत्रेणाप्रत्ययः। रोति प्रतिज्ञा च कषायोदयादाविरतिः। तद्यथा-क्रोधोदयात अपर्याप्तकर्मोदयेनानिवृते, स्था०९ ग०१०। तत्र द्वेधा अप स्कन्दकाचार्येण स्वशिध्ययन्त्रपीमनव्यतिकरमवलोक्य सबनवा. प्तिा-बध्या करणैश्च । तत्र ये अपय्याप्तका एव सन्तोनियन्ते इनराजधानीसमन्वितपुरोहितोपरि विनाशप्रतिज्ञा प्रकारि,त. न पुनः स्वयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ति ते लग्यपर्यापा, था-मानोदयात् बाहुबजिना प्रतिज्ञा व्यधायि, यथा-कथमहं शियच पुनः करणानि शरीरेमियादीनि न तावनिवर्तयन्ति, शन् स्वघ्नातून उत्पन्ननिरावरणकानान् ग्यास्थः सन् द्रश्यामीति, अथ चाऽवश्यं पुरस्ताभिर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः। इह च तथा-मायोदयान्मविस्वामिजीवेन यथाऽपरयतिविप्रसम्भो भ. पवमागमः-सम्यपर्याप्ता अपि नियमादाहारशरीरेणियपर्या वति तथा प्रत्याख्यानप्रतिज्ञा जगृहे । तथा-लोभोदयाद्वाविलिपरिसमाप्ताघेव म्रियन्ते, नार्वाक । यस्मादागामिनवायुर्व दितपरमार्थाः साम्प्रतक्विणो यत्याभासा मासक्षणादिका अपि या नियन्ते सर्व एव देहिनः,तच्चाहारशरीरन्जियपर्याप्तिपर्या प्रतिज्ञाः कुर्वते । आचा०१ ० २ ०५ ०० । प्रतिज्ञाहिते, मानामेव बभ्यत इति। कर्म०१कर्म०पं० सं० नं। प्रश्न सा प्राचा०१ श्रु० अ० २२० । सूत्र। अपजत्तग-अपर्याप्तक-पुं० । “विहा रश्या पम्मत्ता । तं अपपिपुल-अप्रतिपूर्ण-त्रि० । गुणशून्यत्वादिभिस्तुच्छे इतरपु. तगा चेव, अपाजत्तगाव , रुषाचीर्णत्वात् सद्गुणविरदानुछे, सूत्र०२७.२ अ०। स्था०५वा.२००। अपम्पिोग्गन-अप्रनिपुद्गल-ना दारिम, नि० चू०५ उ०। १४५ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपडिबभंत अनिधानराजेन्डः। अपडिवाइ(ण) अप। प ) मिवान प्रतिवध्यमान-त्रिः । कर्मकर्तर्ययं | नये, दश० ए ०१०। प्रयोगः । क्वचिदपि प्रतिष-धमकुर्वति, व्य० २ उ०। |अप () मिनद्ध-अप्रतिवन्ध-त्रि० । न० ता असंजाते, अप ( प ) मित्र-अप्रतिवछ-त्रि० । प्रतियन्धरहिते, श्र-I का० १ ०।। निवरहित , प्रव० १०४ चा | "अपमिबद्धो अनली ब्व" | अप (प्प)मिलचसम्मत्सरयणपडिलंन-अप्रतिलब्धसम्यक्त्व. प्रश्न ५ सम्ब० द्वा०। महा० । पञ्चा० । अप्रतिस्मसिंतेऽनुप-| रत्नप्रतिलम्भ-त्रि०ा असंजातविपुल कुत्रसमुद्भवे, ज्ञा० १ अ०। हते, षो विवः। अप ( प ) डिलेस्म-अप्रतिलेश्य-त्रि० । अतुलमनोवृत्तिषु, अप (प) मिरच्या अप्रतिवछता-स्त्री० । मनसि निरनि | " अप्पमिलेस्सासु सामएणरया दांता इणमेव णिमांथ पाययणं बतायाम् , नीरोगत्वे, उत्त. ३० म। तत्फलम् पुरमो काउं निहरति" प्रौ०। अप्पमित्रच्याए एं नंते ! जीवे कि जण यइ । अप्प अप (प)डिलेहण-अप्रत्युपेक्षण-न० । म प्रत्युपेकणमप्रत्युपेकडिबद्धयाए णं निस्संगतं जणयइ, निस्संगत्तणं जीवे एगे नम्। गोचरापन्नस्य शय्यादेश्चक्षुषाऽनिरीकणे, पाव०६अ। एगग्गचित्ते दिया य राम्रोय असजमाणे अपमित्रके यावि अप (प्प) मिनेहणासील-अप्रतिलेखनाशील-वि० । दृष्टया विहरप । प्रमार्जनशीझे, कल्प। मप्रतिबरूतया मनसि निरभिबङ्गतया निःसनवं बहिः स-अप ( प ) डिलहिय-अप्रतिलाख-(प्रत्युपेक्षि) त-त्रि। भावं जनयति, निःसरवन जीव एको रागादिविकतया जीवरका चकुषाऽनिरीक्विते, उपा०१०। तत एवैकाग्रचित्तो धम्मकतानमना एकाग्रतानिबन्धकहत्वभामंदिया च रात्री वासजन्, कोऽर्थः?-सर्वदा बहिः सङ्गं त्यजन् अप ( प ) मिलेहियदुप्पमित्रहियउच्चारपासवणचूमि-अअप्रतिबरूश्चापि विहरति । कोऽभिप्रायः?-विशेषतः प्रतिबन्ध प्रत्युपेक्षितदुष्पत्युपेक्षितोच्चारप्रश्रवणनूमि-स्त्री० । अप्रत्युपेविकलो मासकल्पादिनोद्यतविहारेण पर्यटति । नत्त०२९ । क्षिता जीवरक्षार्थ चक्षुधा न निरीक्षिता दुष्प्रत्युपाक्षताऽसअप (प) मिवफविहार-अप्रतिबछविहार-पुं० । अप्र म्यग् निरीक्षिता उच्चारः पुरीषः प्रश्रवणं मूत्रं तयानिमित्त तिवस्य विदारोऽप्रतियरूविहारः। व्यादिष सर्वभावेषु अभि भूमिःस्थण्डिलमप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपैत्तितोचारप्रश्रवणभूमिः। वारहितत्वेनैकवाऽनवस्थान, प्रब० अप्रतिवरूश्च सदा सर्वका पोषधोपवासस्य तृतीयातिचारभेदे, उपा० १ ० । ध०। लमभिवरहित इत्यर्थः। गुरूपदेशन हेतुभूतेन ।क, इत्याह प्रा० चू०। सर्वनावेषु च्यादिषु। तत्र कन्ये श्रावकादौ, केत्रे निर्वातवस अप (प्प) मिलेहियदुप्पमिलहियसिजासंथारय-अप्रत्युपेक्षित्यादौ, काले शरदादौ, भावे शरीरोपचयादौ, अप्रतिबकः । तदुष्पत्युपेक्षितशय्यामस्तारक-पुं०। अप्रत्युपेक्षितो जीवरकिमित्याह-मासादिविहारेण सिद्धान्तप्रसिदन विह रेविहारं कु क्षार्थ चक्षुषान निरीक्षित उद्घान्तचेतावृत्सितयाऽसम्या निर्यात् । यथोचित संहननाद्यौचित्येन नियमावश्यंभाव इति ।। रीक्षितःशग्या शयनं तदर्थ संस्तारकः । कुशकम्बलफलपतमुक्त नवति-व्यादिप्रतिवरूः सुखलिप्सुनया तावदेकत्र कादिः शय्यासंस्तारकः । ततः पदत्रयस्य कर्मधारय भवत्यन तिष्ठत, किं तर्हि, पुशलम्बनेन मासकल्पादिना,विहारोऽपिच प्रत्युपेतित दुष्पत्युपेक्तितशय्यासंस्तारकः । पोषधोपवासस्य न्यायप्रतिबकस्यैव सफरः । यदि पुनरमुकं नगरादिकं गत्वा प्रथमातिचारभेदे, अतिचारत्वं चास्य उपभोगस्यातिचारहतत्र महर्षिकान् श्रावकानुपार्जयामि , तथा च करोमि , यथा तुत्वात् । उपा० १० प्रा०चू० । पश्चा०। मां विहायापरस्य ते नक्ता न भवन्तीत्यादिद्रव्यप्रतिबन्धेन, तथा-निवातवसत्यादिजनितरत्युत्पादकममुकं केत्रमिदं तु न त अप ( प ) डिलेहियपणग-अप्रतिखितपञ्चक-न । तू.' थाविधमित्यादि केत्रप्रतिबन्धेन , तथा-परिपकसुरनिशाल्यादि ली। प्रालिङ्गनिका २ मस्तकोपधानं ३ गल्लमरिकामाससस्यदर्शनादिरमणीयोऽयं विहरता शरत्कालादिरित्या दिफा नक्रिया ५ पञ्चक, जीत० । लनिबन्धेन, तथा-निग्धमधुराद्याहारादिलाभेन तत्र गतस्य म- | अप (प) मिनोमया-अप्रतिलोमता-स्त्री० । भानुकल्ये, म शरीरपुष्टचादिमुखं भविष्यत्यत्र न तत संपद्यते । अपरं चै- भ० २५ श ७ उ० । स्था० । यमुद्यतविहारण विहरन्तं मामेवोधतं सोका भाणघ्यन्त्यमुकंतु शिथिनमित्यादिनावप्रतिबन्धन च मासकल्पादिना विहरति, कतु | अप (प)भिवाइ(ए)-अप्रतिपातिन्-त्रि० प्रतिपतनशीलं प्रनदाऽसौ विहारोऽपि कार्यामाधक एव । तस्मादयस्थानं विडारी तिपाति,न प्रतिपाति अप्रतिपाति।सदाऽवस्थायिनि,नं०। अनुप रतस्वभाव, ध०३ अधि० । आमरणान्तभाविनि, मा०म०प्रण बा न्यायप्रनियरूस्यव साधक इति । प्रव० १०४ वा०। आकेवलोत्पत्तः स्थिरे, कल्प०।स्था। केवल मानादर्वाग् भ्रअप (प) मिज्ममान-अप नेबुध्यमान-त्रि० । शम्दा शमनुपयाति अवधिज्ञानविशेष , नं० । विशे० । प्रा०म०। म्तराएयमयधारयति, भ० ९ २०३३ उ०। अप्रत्युलमान-त्रि० । वैरागतमानसन्थादनपहियमाणमानस, मेकिंत अपमिवाश्यं ओहिनाणं अपडिवाई प्रोहिनाजएश. ३३ 301 ओ०। णं जेणं असोगस्स एगाव आगामपएमं जाणा, पामड़, अप (प) मियार-अप्रतीकार-पुं० । व्यसनापरित्राणे, प तणे परं अपडिवाई श्रोहिनाणं । सेतं अपरिवाइए प्रोशा.२विव० । आचा। हिनाणं ॥६॥ अप (प) हिस्व-अनिरूप-त्रि० । अपगनुवृत्त्यात्मके वि. सेकि तमित्यादि अधकि तदप्रतिपास्यवधिज्ञानम् । प्रि Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (un) अपमिवाइ(गा) अभिधानराजेन्द्रः । प्रपदम गह-अप्रतिपास्यवधिज्ञान, यनावधिज्ञानेनालोकस्य संबन्धि-| संलीणे, नाव फासिदिय अपडिसंलणि । स्था०५वा०२।। नमकमप्याकाशप्रदेशम,प्रास्तां बहनाकाशप्रदेशानित्यपि शदार्थः । पश्यत् । एतच्च सामथ्यमात्रमुपवरायते नत्वलोके कि- अप ( प ) मिसुणेत्ता-अप्रतिश्रुत्य-अव्यः । प्रतिषणमाचिदण्यवधिज्ञानस्य द्रएव्यमस्ति; पतश्च प्रागवोक्तम् । ततपा- स्वेत्यर्थे, आव०४ अ०। रभ्याऽऽप्रतिपत्त्या केवल प्राप्तेरवधिज्ञानम् । अयमत्र भावार्थ:- अपमिसेह-अप्रतिपध--पुं०। अनिवारणे, पञ्चा०६ विधः। एतावति क्षयोपशम संप्राप्ते सत्यात्मा विनिहितप्रधानप्रतिपक्षबोधसंघातनरतिरिव न भूयः कर्मशत्रुणा परिभूयते, किन्तु अपमिस्मावि (ण)--अप्रतिम्राविन-त्रि० । पाषाणायामयभासमासादितैतावदालोकजयाप्रतिनिवृत्तः शेषमपि फर्मशत्रु जनं न प्रतिस्प्रवति । प्रतिस्रवणहिते, दर्श० । संघातं विनिर्जित्य प्राप्नोति केवलराज्यश्रियमिति, तदेतदप्रति- अप(प्प)मिहम-अप्रतिहत्य-भव्य। अर्पणमकत्वेन्य.१०३१०। पात्यवधिज्ञानम् । तदेवमुक्ताः षडप्यवधिनामस्य भेदाः। । अपप्प) डिहणंत-प्रतिघ्नत-त्रि० । सयचनमविकुयति, सम्प्रति व्यायपक्षयाऽवधिज्ञानस्य भेदान् चिन्तयति- । सं समासो चउन्धि पम्मत्तं । तं जहा-दन्यो ,खेत्तो , अप (प्प मिडय-अप्रतिहत-त्रि०। अप्रति घातरहिते अस्व पिम्त. कालो, भावभो । तत्थ दव्व ओ णं श्रोहिनाणी जड़ का० १६ अ0 कटकुळ्यपर्वतादिभिरस्खलिते, स. १समः । माणं अणंताई रूविदखाईजाणा, पासइ । उक्कोसेणं सव्वाई अविसंवादके, श्री० मा केनापि अनियारिते, उत्त०११ मा । मविदव्याई जाण्इ, पास । खेत्तो गं प्रोहिनाणी जह- अन्यैश्च सवयितुमशक्ये, उत्त० ११० श्रेणं अंगुलस्स असंखिज्जइ भागं जाणइ, पासह । उक्को-अप (प)मिहयगइ--अप्रतिहतगति--त्रि० । अप्रतिहतावहारे, मेणं ममंखिज्जाइं अलोगे लोगप्पमाणमित्ताई खंझाई जा | "अपमिहयगईगामे गाम य एगरायं णगरे जगरे पंचराय हाड, पासइ। कालो एं ओहिनाणी जहनेणं आवधि दरजंते य जिहंदिर" प्रश्न ५ सम्ब० द्वा० संयमे गतिः प्रवृ. त्तिन दन्यतेऽस्य कर्थाश्चदिति भावः । स्था० । गाए असखिन्जा भागं जाएइ, पासा नकोसेणं असंखिजाओ उस्सप्पणीअो अवसप्पणीओ अश्यमणागयं च | अप (प्प) मियपञ्चकवायप.बकम्म--अप्रतिहतप्रत्याख्यातपा-- पर्मन्-त्रिका प्रतिहतं निराकृतमतीतकालकृतं, निन्दादिकरकालं जाण पासइ । भावो णं भोहिनाण। जहन्त्रेणं | णेन प्रत्याख्यातं च वर्जितमनागतकालविषयं पापकर्म प्राणानि. अणंते नावे जाण पास । उक्कोसेएं वि अणंते भावे | पातादि येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, तनिषेधादप्रतिजाणाइ, पास। सव्वभावाणमएतत्जागं जाणइ, पासइ। पाणभपतनाग जाणइ, पासइil | हतप्रत्याख्यातपापकर्मा । अनिषिद्धात तामागतपापकमणि, न० "ओहीनवपच्चइनो, गुणपच्चइयो य वलियो ऽविहो । । तस्स य ब विगप्पा, दव्वे खेत्ते य काने य ।।१।। अप (प्प, मिहयबल--अप्रतिहतबल-त्रि० । अप्रतिढतं केना प्यनिवारितं बत्रं यस्य स अप्रतिहतबलः (उत्त० ) अप्रातहनरेझ्य-तित्यकारा, अोहिस्स बाहिरा इंति । समन्यैश्च लहुयितुमशक्यं बलं सामर्थ्यमस्येति भप्रतिहतबलः। पासंति सब्बो खलु, सेसा देसेण पासंति"॥२॥ सहजसामर्थ्यवति , उत्स० ११ १०॥ मे ओहिनाणं ।। नं। अपप्प डिहयवरणाणदमणधर-अप्रतिहतवरझानदर्शनधर - ( टीका चाम्य 'श्रोहि' शब्दे तृतीयभागे १४१ पृष्ठे अवधिः पुं० अप्रतिहते कटकुख्यादिभिरस्खालते,अविसंवादके वा । मन क्षेत्रप्ररूपणेन गतार्था सुगमा च नेहोपन्यस्तेति) एव कायिकत्वाद्वा वरे प्रधाने झानदशने कवनाख्ये विशेष. सामान्यबाधात्मके धारयति यः स तथा । केवलज्ञानदर्शनापअप (प) मिसंझीण-अप्रतिसंलीन-त्रि० । अकुशलेन्द्रि पयुक्ते जिने, भ० १० १० स०। प्रौ०।। यकषायाद्यनिरोधके, स्था० । अप (प्प) मिहयसासण-अप्रतिहतशामन-त्रि०। ६० । प्रखतस्य च त्रीणि सूत्राणि रिकताओं, "अपमिहयसासण असेणवई" ज्ञा० १६० । चत्तारि अपमिसलीणा पत्ता। तं जहा-कोहअपमिसं अप (प्प) मिहारय-अप्रतिहारक-पुं० । न० । प्रत्यर्पणायोग्य लोणे, माण अपमिसंनीणे, मायाअपमित्राणे, लोभ शरयासंस्तारक, प्राचा०२ श्रु० २ ० ३ ० । अपर्मिसंलाणे॥ अपप्पकार-अप्रतीकार-त्रिका सूतिकर्मादिरहिते, "किते पुनः साउण्हतएंडखुडवेयणअपमीकारअमविजम्मणा णिशभउ. चत्तारि अपडिमलीणा पमत्ता। तं जहा-मण अपमिसं- विग्गवासजगाणं " प्रश्न०१ श्राश्र० द्वा० । लीणे, वस्अपमिसली, कायअपडिसलीणे, इंदिय- अप(पापल-अप्रत्युत्पन्न-त्रि० । अनागमिके प्रतिपत्यकुशअपरिसलीणे | स्था० ४ ठा०२ न० । बे, "अपमुप्पो य तह, कहर तद्वद्धिती असे" । म्य.६ (टीका सास्य प्रतिसंलीनस्यव भावनीया) उ०। नि० खू० । पंच अपमिसलाणा पम्पचा। जहा-सोदियअप पदम-प्रथम-त्रि०ान त। प्रथमताधर्मरदिते अनादी, Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भपढम अभिधानराजेन्द्रः । अपमज्जित्ता भ०१८ श०१०। (जीवादीनामानां प्रथमस्वादिषिचारः अपत्तजावणा-अप्राप्तयौवना-स्त्री० । यौवनावस्थामप्राप्तायाम, 'पदम' शब्दे दर्शयिष्यते ) साच गर्भ न धरति प्राय पादादशवर्षकादार्तवाभावात्। स्था० अपदमखगइ-अप्रथमखगति-स्त्री० । अप्रशस्तविहायोगती , ५ठा०२०। कर्म० ५ कर्मः । अपत्तनूमिग--(य)-अप्राप्ततामेक-पुं० । म प्राप्ता भूमिका येम अपढमसमय-अप्रथमसमय-पुं० । द्वितीयादिके समये, स्था० २ सोऽप्राप्तभूमिकः । दूरस्थत्वेने स्थानमप्राप्ते " जायणमादि ० १०॥ अपत्तभूमिआ वारसो जाव "( नि० चू०)"जे जोअपदमसमयनववएणग-अप्रथमसमयोपपन्नक-पुं० । म० त०।। यणमादी गाणेसु जाव वारस जोयणा ते सव्वे भपत्तभूप्रयमसमयोपपन्नव्यतिरिक्तेषु नरयिकादिषु वैमानिकपर्यन्तेषु, मिया भवंति " नि0 चू० १० उ०। "परश्या दुविहा पएणता । तं जहा-पदमसमयोववपणगा | अपत्तविसय-अप्राप्तविषय-त्रि०ा अप्राप्तोऽसंबद्धोऽसंक्लिष्टो वि. चेव, अपढमसमयोववनगा चेव. जाव बेमाणिया" स्था०२ षयो ग्राह्यवस्तुरूपी यस्य तदप्राप्तविषयं लोचनम । अप्राप्तकारिग. २० । णि इन्छियजाते," लोयणमपत्तावसयं, मणो व्व जमगुग्गअपढमनमय उवसंतकसायवीयरागसंजम-अप्रथमसमयोपशा-| दार सुणति" विपा० १ ०२ अ०। न्तकषाववीतरागसंयम-पु.। क०सान प्रथमः समयः प्राप्तो | अपत्तिय-अपात्रिक-त्रि० । अविद्यमानाधारे,भ०१६ श०३ २०॥ येन सोऽप्रथमसमयः, स चासौ उपशान्तकषायवीतरागसंयम- अप्रीतिका-स्त्री० । अप्रेमिण, पञ्चा०७विवः ।। श्व तथा । उपशमणिप्रतिपन्नवीतरागसंयमभेदे, स्था०० ० अपत्य-अपथ्य-त्रि० । अहिते, "अपत्थं अंबगं मुश्था, राया अपढमसमयएगिदिय-अपयमसमयकेन्धिय-पुं० । प्रथमसमय रजंतु दारए" उत्स०७ अास्था। अप्रायोग्यभोजने, पश्चाo केन्धियन्निने, यस्यै केन्द्रियस्यैकेन्छियत्वे प्रथमः समयो ना-| ७विव०॥ ऽस्ति । स्था० १००। अप(प्पोत्थाण-अप्रार्थन-न। अनिलाघस्याऽकरणे, उत्त०३२२० । अपढमसमयक्खीणकसायवीयरागसंजम-अप्रथमसमयक्तीण अपप्प) त्थिय-अप्रार्थित-त्रि० । अमनोरथगोचरीकृते, ज. करायीतरागसंयम-पुं० । न प्रथमः समयः प्राप्तो येन सोऽप्र ३ वक। थमसमयः , स चासौ उपशान्तकषायवीतरागसंयमश्च तथा । अपशमश्रेणिप्रतिपन्नवीतरागसंयमन्जदे, स्था० ग०। अप (प्प) त्यियपत्थ (त्यिाय-अप्रार्थितप्रार्थक-त्रि० । अप्रा. अपढमसमयसजोगिनवत्थ-अप्रथमसमयसयोगिभवस्थ-पं० । थितं केनाप्यमनोरथगोचरीकृतं प्रस्तावान्मरणं,तस्य प्रार्थकोड निलाषी । मरणार्थिनि, जं.३वक्ता"कसणं एस अप्पत्थियपभप्रथमो नादिः समयो यस्य सयोगित्वे स तथा, स चासो भवस्थश्चेति भप्रथमसमयसयोगिभवस्थः । सयोगिनवस्थ स्थर पुरंतपंतसक्त्रणे" भ० ३ श०२ उ० । पा०।। भेदे, स्था० २०१००। अपद (य)-अपद-न० न०२०। वाहनवृतादौ, चरणहीने, परिअपदमसमयसिद्ध-अप्रथमसमयसिछ-पुं० । न प्रथमसमयसि- प्रद, पाचू०६ अ अष्टादशे सूत्रदोषभेदे, यत्र हि पद्ययन्धेड कोप्रथमसमयसिकः । परम्परासिमविशेषणाप्रथमसमयवर्ति न्यच्चान्दोऽधिकारेऽन्यच्छन्दोऽभिधानम् , यथाऽऽर्यापदेऽनि धातव्ये वैतानीयमभिदध्यात् । विशेला यत्र गाथाबके गीतिका. नि, सिकत्वसमयाद् हितीयसमयवर्तिनि सिरुविशेष, प्रज्ञा पदंवा नवासिकापदं वा क्रियते । वृ० १० । श्रा० म०1 १.पद । श्रा०ा स्थाo! दामिमाम्रबीजपूरकादौ वृक्के, विशे० । अनु० । न विद्यते अपढमसमयमुहुमसंपरायसंजय-अप्रथमसमयसमसंपरायस-1 पदमवस्थाविशेषो यस्य सोऽपदः । मुक्तात्मनि, "अपयस्स पयं यम-joन प्रथमः समयः प्राप्तो येन सोऽप्रथमसमयः,सचा. पत्थि " आचा० १ च ५ ० ६ उ० । सौ सूक्ष्मः किट्टीकृतः संपरायः कपायः संज्वसनसोभसकणो| अपदंस-अपदंश-पुं०। पित्तरुचि, नि० ० १ उ०। वेद्यमानो यस्मिन्स तथा। सरागसंगमभेदे, स्था०० ग०। । । अप (प्प) मुस्समाण-अप्रद्विष्यत-त्रि०। प्रद्वेषमगति, अम्त. अपापविय-अमहापित-त्रि० । प्रज्ञापनामप्रापिते, “सो य से-| वर्ग। मातगे अपनविना पन्नविनोबा घरे भणाति " नि०५० अपहवंत-अपजवत-त्रि० । नियमाणत्वे, ज०२ श०२०। २०॥ अपप्पकारित-अमाप्यकारित्व-न । विषयदेशं गत्वा कार्यअपन-अपात्र-पि० । अयोग्य, पृ०१०। प्रभाजने, नि कारित्वे, न०1 (नयनमनसोरप्राप्यकारित्वं द्वितीयभागस्य५५७ चू०१५ न पृष्ठे 'इंदिय' शब्दे यक्ष्यते ) अमाप्त-त्रि० । परायणोपस्थापनाभूमिमनधिगते, ध० ३.| अप (प) भु-अप्रभु-पुं० । नृतकादी, ध० ३ अधि० । ओघ0 धिः। अनधिगत, व्य० ४ ३०। पिं०। पूर्वमश्रुते, द्वा. १५६०। | अप (4) मज्जणसील-अप्रमार्जनशील-पि० । अप्रमार्जअपनजान अपवजान-त्रि० । न विद्यते पत्रजातं पकोद्भ- नशीले, कल्प। घो येस्यासावपत्रमानः । अजातपकोद्भये पक्किांते, "जहाअयप्प:मज्जित्ता-अप्रमाय-अन्य० । प्रमार्जनामकृस्वत्यंथें, दिया पोत्तमपनजानं, सायासगा पविडं मन्नमाणं " सूत्र "पासासागारिऍ, अपमज्जित्ता वि संजमो हो। तं चय ११.१४ प्रक पमज्जंते, असागारि मंजमा होह।" प्रव० ६६ वा। Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपमज्जिय अनिधानराजेन्द्रः। अपमाय अप.प) मज्जिय-अप्रमार्जित-त्रि० ।रजाहरण यस्त्राञ्चलादि. पगंजीवं पडुच्च जहएणणं अंतो मुहुत्तं डकोसणं पुन्चकोडी नाऽविशोधिते, प्रव०६ द्वा० । देसूणा णाणा जीवे पडुच्च सव्वछं; सेवं ते! ते!त्ति। अप (4) मज्जियचारि(ण)-अप्रमार्जितचारिण-पुं० । अप्रमा (जहमेणं अंतो मुहुत्तं ति) किलाप्रमत्तामायां वर्तमानजिते, अवस्थाननिधीदनशयनादिकरणनिक्केपोच्चारादिपरिष्टापनं स्यान्तर्मुहूर्त मध्य मृत्युनं भवतीति; चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंच कुर्धति, “ अपमज्जियचारीया वि जबा," इति षष्ठं समाधि- यतवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभावात् । स्थानम् । दशा०१० प्रश्न स चोपशमश्रेणी प्रतिपद्यमानो मुहर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघअप (प)मज्जियदुप्पमन्जियउच्चारपासवणनूमि-अप्रमार्जित न्यकालो लज्यत इति; देशोनपूर्वकोटी तु केवनिनमाश्रित्येति । (नाणा जीवे पहुच सब्बई ) इत्युक्तम् । अथ सर्वाफाभाषिदुष्पमानितोच्चारप्रस्रवणनूमि-श्री० । पोषधोपवासस्याति भावान्तरप्ररूपणायाऽऽह-भंत! अंत:त्ति इत्यादि भ०३श०३ चारभदे, चपा० १० । आव०। उ०। पञ्चानं०। अप(पमन्जियप्पमजियसिज्जासंथार-अप्रमार्जितदुष्पमा अप (प) मत्तसंजयगुणहाण-अप्रमत्तसंयतगुणस्थान-१० । जिंतशय्यामंस्तार-पुंगपोषधोपवासस्यातिचारे, २८ प्रमार्ज. सप्तमे गुणस्थानके, प्रव० २२४ द्वा०। नं शय्यादौ सेवनकाले वनोपान्तादिनेति दुएमविधिना प्रमार्ज अप (प्प) माण-अप्रमाण--न० । प्रमाणातिरिक्ते, वृ०३००। यदा नं प्रमार्जनम् । प्राध०६०। उपा०। सिद्धान्त पुरुषस्याहार उक्तोऽस्ति तस्मादाहारप्रमाणात् स्वादु भप (प) मत्त-अप्रमत्त--त्रि०ान प्रमत्सोऽप्रमत्तः। यद्वा-नास्ति लोभन अधिकमाहारं करोति, तदाऽप्रमाणा द्वितीय भाडारदोषः। प्रमत्तमस्येत्यप्रमत्तः । पं० सं०२३० । आचा। अज्ञानानि उत्त०२४अग('पमाण'शब्देऽस्य विवृतिः)प्रामाण्यविरुके,रत्ना०॥ काविकथादिषष्ठप्रमादरहिते, ग० २ अधि० । प्रा० । ते च प्रसायातमप्रामाएयरूपमपि धम्म प्रकटयन्तिप्रायो जिनकल्पिक-परिहारविशुहिक-यथालन्दकलिपक-प्रति __ तदितरत्वप्रामाण्यमिति ॥१॥ माप्रतिपन्नाः, तेषां सततोपयोगसम्भवात् ।नं। सान वि- तस्मात्प्रमेयाव्यभिचारित्वादितरत प्रमेयव्यभिचारित्वमप्राचते प्रमत्तः प्रमादो मद्यविषयकषायधिकथाप्रमादाख्यो यस्य। माण्यं प्रत्येयम् । प्रमेयव्यभिचारित्वं च ज्ञानस्य स्वव्यातरिक्तअप्रमादिनि, "अहो य राओ य अप्पमत्तण हुँति " प्रश्न ग्राह्यापेक्तयैव लवणीयम, स्वस्मिन् व्यभिचारस्यासंजवात् । ५ सम्ब द्वा० । निकादिप्रमादरहिते, "अप्पमत्तं समाहिए तेन सर्व ज्ञानं स्वापेक्या प्रमाणमेघ, न प्रमाणाभासम । ज्झा" आचा०१७० अ० २ उ० । "अपमते सया | बहिरर्धापेक्वया तु किश्चित्प्रमाणम, किश्चित्प्रमाणानासम् । परिक्कमेज्जा" प्राचा०१ श्रु० ४ ० १ ० । “अप्पमत्ते जए | रत्ना०१ परि०। (दश०)। "सुस्तसए अायारयमप्पमत्त" ( दश०)| अप (प्प) माणजोड (ण)-अप्रमाणभा जिन्-त्रिका द्वात्रिंशत. प्रयत्नवति च । “ अप्पमत्तो अहिंसओ" । दश.१०।। कवलाधिकाहारनोक्तरि, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा०॥ भप (प्प) मत्तसंजय-अप्रमत्तसंयत-पुं० । न प्रमत्तोऽप्रमत्तः, अप ( प ) माय-अप्रमाद-पुं० । न प्रमादोऽप्रमादः । प्रमादनास्ति वा प्रमत्तमस्यासावप्रमत्तः स चासो संयतश्चाप्रमत्त-| बर्जनलकणे शियोगसंग्रह, स० ३२ समः । संयतः। कर्म०३ कर्म०। प्रव० सर्वप्रमादरहिते सप्तमगुणस्था तत्र उदाहरणम्मकवर्तिनि, स०१४ सम। रायगिह मगहमुंदरि-मगहसिरी कुसुमसत्यपक्खेवो । परिहरि अप्पमत्ता, नटुंगी अन्नवी चुका ॥१॥ अप्पमत्तो दुविहा-कसायअप्पमत्तो य, जोगअप्पमत्तो पुरे राजगृहेऽत्रासी-जरासन्धो महानृपः । य। तत्य कनाय अप्पमत्तो दुविहो-वीणकसाओ, निग्गह-| गाथक्यौ तस्य मगध-सुंदरी मगधधियों ॥१॥ परो य । एत्थ निग्गहपरेण अहिगारो कई तस्स अप्प चेन्नासौ स्थानदैकाऽई, राजा च स्थाद्वशे मम । मगधश्रीस्ततो ऽश, तस्या नाट्यस्य वासर॥२॥ मत्ततं भवति ?, कोहोदयनिरोहो वा, उदयपत्तस्स वा विफ विषभावितसौवर्ण केसरायितसूचितिः । सीकरणं,एवं जाव लोभोति । जोगअप्पमत्तोमणवयणका- संचलितैः कर्णिकारैः, रोत्सहम पूजयत् ॥ ३॥ यजोगेहिं तिहिं व गुत्तो । अहवा अकुसझमणनिरोहो, प्रका मगधसुन्दर्या, विनाक्याभ्यूडते स्म तान् । किमेषु कणिकारेषु, न लीयन्ते मधुव्रताः ॥४॥ कुसलमण नदीरणं वा मणसो वा पगत्तीजावकरणं । सदोषाणि स्फुटं पुष्पा-एयेतान्यत्र च चेदहम् । एवं वइए वि, एवं काए वि, तहा ईदिएमु सोइदियविसय द्रदय योग्यानि नाचाया, भावितानि विषण वा ॥५॥ पयारनिराहो वा । सोइंदियविसयए तेसु वा अत्यसु प्राम्यता स्यान्मम तत-स्तमुपायन बांधये । रागदासविणिग्गहो, एस अपमत्तो । आ० चू०४ अ० । अत्रान्तरे ऽवतीर्णा च, रङ्गे मगधसुन्दरी ॥६॥ मङ्गले गीयमानऽक्का, प्रागायझीतिकामिमाम-। तस्य कान: पत्तं वसंतमासे, एमाओ अपमोहअम्मि घुट्टाम्प । अप्पपत्तमंजयस्स एणं भने ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स | मृत्तण कणियार, भमग सेवंति चूअकुसुमाई ॥१॥ सम्मावि यणं अप्पमत्तकाकानो केव चिरं होइ?। मंफिया!! वा गीतिम पूर्वी तां, चके मगधसुन्दर।। १४० Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अभिधानराजेन्छः । अपमाय अपमाय कर्णिकाराणि दुष्टानि, तत्परीहारतस्तया ॥ ७ ॥ गीतं नृत्तं च साकेप, छविता नाप्रमादनः । प्रणापरमं नाणी, णो पमाए कयादि। कर्तव्या साधुनाऽप्येवं, सर्वदाऽप्यप्रमादिता ॥७॥ पायगुत्ते सया धीरे, जायमायाएँ जावए । मा० का आव० । श्रा० चू० । प्रश्न | प्रमादानावे, प्राचा "भणएणपरम" इत्याद्यनुषुप् । न विद्यते अन्यः परमः प्रधा१० ५५०४ उप्रएम स्थानेषु अप्रमादवता भांवतव्यम्। नोऽस्मादित्यनम्यपरमः संयमः,तं कानी परमार्थवित नो प्रमादप्रमादा न कारयः येत्, तस्य प्रमादं न कुर्यात्कदाचिदपि। यथा चाप्रमादयत्ता भट्टहिं गणेहिं सम्मं संघमियन्वं जइयत्वं परक्कमियब्वं, | भवति तथा दर्शयितुमाह-(प्रायगुत्ने स्यादि) इन्कियनोहअस्सि च णं अट्ठ नो पमाएवं नवइ,अमुयाणं धम्माणं सम्म छियात्मना गुप्त आत्मगुप्तः । सदा सर्वकालम, यात्रा संयमसुणणयाए अन्नुध्यध्वं, सुयाणं धम्माणं आगिएडयाए यात्रा, तम्यां मात्रा यात्रामात्रा । मात्रा च-'अब्बाहारोण सहे' इत्यादि, तयाऽऽत्मानं यापये, यथा विषयानुदीरणन दीर्घकामोवहारणयाए अन्नुट्ठयत्वं नवा, तवाणं कम्माणं संज लं संयमाधारदेहप्रतिपासनं भवति तथा कुर्यात् । प्राचा.१ मेणं अकरायाए अन्मुडेयव्यं नवइ, पोराणाणं कम्माणं भ्र० ३ ० ३ उ०। सवमा विगिंचणयाए विमोहणताए अनुढेयव्वं नवः, अपरं चअसंगिहियपरिजणस्स संगिएहयाए अग्नुढेयव्वं जवः, उदाहु वीरे अप्पमादो महामोहे अलं कुसलस्स पमासेहं पायारगोगरं गहणयाए अन्य व्वं नवड, गिलाए- एणं संति मरणं संपेहाए जिनरधम्यं संपेहाए । स्स अगिनाए वेयावचं करणयाए अब्भुट्ठयब्वं भवइ. सा- (उदाहु इत्यादि) नत्प्रायल्येन प्रादोक्तवान् । कोऽसौ ? वीर, हम्मियाणं अहिगरणंसि उप्पन्नसि तत्य अणिस्सिान- अपगतसंसारभयः,तीर्थकृदित्यर्थः। किमुक्तवान् , तदेव, पूर्वोस्सिए अपक्खग्गाह। मज्फत्य नावनूए कहाण साहम्मिया तं वा दर्शयति-अप्रमादः कर्तव्यः। क?, महामोदे अजनाभअप्पसदा अप्पऊका अप्पतुमनुमा उवसामणयाए भन्नुढे घङ्ग एव महामोह कारणत्वान्महामोहः तत्र, प्रमादधता म नाव्यम्। श्राह-(अनमित्यादि) अयं पर्याप्तम्। कस्य ?,कुशनपव्वं भवइ । स्य निपुणम्य-सूद मक्विणः । केनालम् ?,मविषयकषायनिकाकपव्यम्। नवरमष्टासु स्थानेषुवस्तुषु सम्यग्घटितव्यम-अप्राप्तेषु विकथारूपेण पञ्चविधेनापि प्रमादन, यतः प्रमादा पुःखायभियोगः कार्य। यतितव्यम्-प्राप्तेषु तदबियोगार्थ यत्नः कार्यः। पराकः। गमनायोक्त इति स्यात् । किमालम्ब्य प्रमादनालम्',इत्युच्यते। मितव्यम-शक्तिकयेऽपि तत्पालन पराक्रम उत्साहातिरको विधे- (संति इत्यादि ) शमनं शान्तिरशेषकर्मापगमः,तो मोकपष पः। किंबहुना?-एतस्मिन्नटस्थानकलकणे वक्ष्यमाणेऽर्थन प्रमाद शान्तिरिति । नियन्ते प्राणिनः पौनःपुन्येन यत्र चतुगंतिके संमीयम-न प्रमादः कार्यों भवति । अश्रुतानामनाकर्णितानां धर्माणां सारे स मरणः संसारः । शान्ति मरणश्व शान्तिमरणं,समा धुतभेदानां सम्यक् श्रवणताय वाऽज्युन्धातव्यमभ्युपगन्तव्यं नः | डारद्वन्द्वः तत्संप्रेक्ष्य पर्यानोच्य,प्रमादवतः संसारानुपरमस्तत्पपनि। एवं श्रुतानां श्रोबेन्धिपविषयी कृतानामवग्रहणतायै मनो- रित्यागाच मोक इत्येताद्वचाति हृदयम । स चाकुशलः प्रेविषयीकरणतयोपधारणताय अविच्युतिस्मृतिवासनाविषयी।। क्ष्य विषयकषायप्रमादं न विदध्यात् । अथ च शानया सपशकरणायेत्यर्थः। (बिगिचणयाए ति) विवेचना निर्जरेत्य- मेन मरणं मरणावधिः, यावत्तिष्ठतो यत्फलं भवति तत्पर्यालार्थः, तस्यै। अत एव आत्मनो विशुक्रिशिोधना, अकल- च्य प्रमादं न कुर्यादिति । किञ्च-(भिउर इत्यादि ) प्रमादो हि इत्वम्। तस्यै इति । असंगृहीतस्थानाधितस्य, परिजनस्य | विषयाभिष्वङ्गरूपः शरीराधिष्ठानस्य च शरीरंभिपुरधम्म स्वशिष्यवर्गस्येति । (सेई ति) विभक्तिपरिणामाच्चैका- त पव निद्यत इति । निदुरं स पव धर्मः स्वभावां यस्य तद्रिस्यानिनवप्रवजितस्य, (आयारगोयरं ति) श्राचारः साधुस- दुरधम्मः। एतत्समीक्ष्य पर्यायांच्य प्रमादं न कुर्यादित संबन्धः। माचारस्तस्य गोचरो विषयो बनपटकादिराचारगोचरः । अ- आचा०१ श्रु.२१०४ उ० । प्रमादवर्जनरूपायां ४६ गौणाथवा-माचारश्च ज्ञानादिविषयः पश्चधा, गोचरथ निका- | हिंसायाम्, प्रश्न १ मम्बद्वा०। यत्नातिशय, पं० २०१०। बर्येत्याचारगोचरम् । इह विनतिविपरिणामादाचारगोचर- उपयोगपूर्वकरणक्रियायाम, नि० चू०१०। स्य ग्रहणतायां शिकणे शैकमाचारगोचरं प्रादयितुमित्यर्थः । सर्वक्रियास्वप्रमाद इति चतुर्थ साधुशिकम( अगिनाए ति ) अम्लान्या अखेदेनेत्यर्थ: । वै सुगइनिमित्तं चरणं, तं पुण छकायसंजमो चेव । यावृत्यं प्रतीति शेष: ।। अधिगरणसि त्ति ) वि सो पासि न तीरइ, विगहाइपमायजुत्तेहिं ॥ ११०॥ राधे, तत्र साधम्मिकेषु निश्रितं रागः, पाश्रितं द्वेषः। अथवा-नि धितमादागदिलिप्सा, उपाश्रिनं शिध्यकुलायपेका । तद्वर्जितो यः शोभना गतिः सुगतिः सिद्धिरेव, तस्या निमित्तं कारणं, चरमोऽनिधितोपाधितः। न पकं शास्त्रबाधितं गृहातात्यपकग्राही। णं यतिधर्मः। तमुक्तम्-"नो अन्नहा वि सिद्धी, पाविज्जर जं तभी अत एव मध्यस्थनावं भूतः प्राप्तो यः स तथा । स भवेदिति मीए वि ॥ एसो चेव उवामो, आरंजावट्टमाणो उ"॥१ शेषः । तेन च तथाभूतेन कथं नु केन प्रकारेण सार्धाम्मकाः तथासाधवः, अल्पशन्दा विगतराट महाश्वनयः अल्पऊमा विग- "विरहिततरकारमा पाहुदपमैः प्रचएम, सतथाविधप्रकीर्णवचनाः, अपतुमतुमा विगतकाधना वि- कथमपि जलराशि धीधना लक्यन्ति । कारविशेषाः नविष्यन्तीति जावयतोपशमनायाधिकरणस्या- न तु कथमपि सिदिः साध्यते शीलहीनैः, भ्युत्थातव्य जपतीति । स्था०८०। रदयति यतिधर्मे चित्तमेवं विदित्वा" ॥१॥ इति । Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अपमाय अनिधानराजेन्छः। अपराइत सत्पुनश्चरणं पटायसंयम एव, पृथ्वीजसज्वमनपवनवनस्पति- | पेकणा । अप्रमादेन प्रत्युपेक्षायाम, "छबिहा अप्पमायपतिजसकायजीवरकैव । किमुक्तं भवति?-पतेषुपजीवनिकायवेक- लेहा परमत्ता । तं जहा-"अणच्चावियं प्रचलितं, अणाणुमपि जीवनिकायं विराधयन् जगद्भर्तुराकाविलोपकारित्वादचा- बंधीममासिंचव । छप्पुरिमा णव सोडा, पाणीपाणधिसोरित्री संसारपरिषद्धकश्च । हण" ॥ स्था०६ ठा० । ('अणच्चाविय 'शब्दादीनां तथाचाहुः प्रतिहतसकसम्यामोहतमिन्नाः श्रीधर्मदासगणि व्याख्याऽस्मिन् भागे २८३ पृष्ठे 'मणच्चाविय 'शब्द, तथा मिश्राः बखस्वशब्देषु व्या) "सन्यामोगे जह को- प्रमच्चो नरवास घिनए। अप (प) मायनावणा-अप्रमादनावना-स्त्री० । मचादिमाणाहरणे पावर, वहवंधण दब्धहरवं वा॥१॥ प्रमादानामनासेवने, भाचा० २ श्रु०१५ मा। तहकायमहब्बय-सम्बनिवित्तीय गिरिडकण जई। अप (प) मायबुद्विजणगत्तण-अप्रमादवृदिजनकत्व-न। पगमवि विराईतो, आमच्चरन्नो रण बोहिं ॥२॥ होत्यकोही पच्ग, कयावरादाणुसरिसमियम मियं । अप्रमत्तताप्रकर्योत्पादकत्वे, पश्चा० ५ विव०।। पूण वि प्रबोयदिपमित्रो, भमा जरामरणम्गम्मि ॥३॥ अप (प) मायपडिसेवणा-अप्रमादप्रतिसेवना-स्त्री। अप्रमकिंच सकल्पप्रतिसेवायाम, नि० चू. १००। जीवनिकायमह-व्ययाण परिपालणा जश्धम्मो । अप (प) मेय-अप्रमेय-० न० त० । प्रमाणनापरिच्छेजइ पुण तारेन रक्खर, जवादि को नाम सो धम्मो ? ॥४॥ घे, प्रभा४ आश्र0 द्वा०"अणंतमप्पमयभवियधम्मचारतराजीवनिकायदया-विजियो नेव दिक्खिो न गिही। चकवट्टी नमोत्थु ते परहंतो त्ति कह बंदर" अप्रमयः, तद्जश्वम्मामो चुको, चुक्क गिहिदाणधम्माओ" ॥५॥ इत्यादि। गुणानां परैरप्रमेयत्वात्। प्रा० म०प्र० । प्राकृतजनापरिच्छेचे स पुनः संयमः पालयितुं वर्डयितुं (न तीरशस्ति) न शक्यते; मोके, ध० १ अधि० । शरीरजीवस्वरूपस्य छमस्थैरछेविकथा विरुकाः कथा राजकथाद्या रोहिणीकथायां सप्रपञ्चं जमशक्यत्वादिति । पान प्ररूपिता, आदिशब्दाद्विषयकवायादिपरिग्रहः, तल्लकणःप्रमा. अपयमाण-अपचमान-पुं० । न विद्यन्ते पचमानाः पाचका दो विकथादिप्रमादम ताक्कैः संयमःप्रतिपाझयितुं न शक्यते । अतः सुसाधुनिरसी न बिधेय इति । यत्रासौ अपचमानः । पाकक्रियानिवतकाऽसेविने, पचते इति पचमानः न पचमानोऽपचमानः। पाकमकुर्वति, “जं मए - प्रमावस्यैव विशेषतोऽपायहेतुतामाह मस्स धम्मस्स केवलिपन्ननस्स (इत्यादि) अपयमाणस्स पन्बज विजं विव, साईतो होइ जो पमाइलो । (इत्यादि ) पंचमहब्वयजुत्तस्स" ध०३ अधिः। सस्स न सिज्मइ एसा, करेइ गरुयं च अवयारं ॥११॥ अपया-अप्रजा-स्त्री० । अपत्य विकलायां स्त्रियाम, पृ०१०। प्रवज्यां जिनदीको विद्यामिव वीदेवताधिष्ठितामिव साध- अपर-अपर-पुं० । न विद्यते परः प्रधानोऽस्मादित्यपरः। बन जवति यः (पमानुत्ति)प्रमादवान् "भाल्विल्लोस्लाल- संयमे, प्राचा०१ श्रु०३०३ उ० । पूर्वोक्तादन्यस्मिन्, "अबंत-मंतत्तरमणाः मतोः" ॥ ८।२।१५९ ॥ ति (हैमसू- परा णाम जा सा पुचि भणिता ततो जा अण्णा सा अपरा" भात् ) वचनात् । तस्य प्रमादयतो न सिद्ध्यति-न फल- नि० चू० २० उ०। दानाय संपद्यते, पषा पारमेश्वरी दीका, विद्येव, चकारस्य अपरकम-अपराक्रम-त्रि० । न विद्यते पराक्रमः सामध्यमभिम्नमत्वात् । करोति च गुरुं महान्तमपकारमनर्थमिति । स्मिन्नित्यपराक्रमम । जलायलपरिक्षीणे, प्राचा० १०८ भावार्थः पुनरयम्-यथा अत्र प्रमादवतः साधकस्य विद्या अ०१०। फलदा न भवति, प्रहसंक्रमादिकमनर्थे च संपादयति, तथा शीतलविहारिणो जिनदीक्षाऽपि न केवलं सुगतिसंपत्तये अपरकममरण-अपराक्रममरण-न० । न विद्यते पराक्रमः म भवति, किन्तु दुर्गतिदीर्घभवभ्रमणापायं च विदधाति, सामध्यमस्मिन्नित्यपराक्रमम् । सामथ्र्य नष्टे मरण, किं तन्मभार्यमङ्गोरिव । उक्तं च रणम', तच्च यथा-जडाबलपरिक्षाणानामुदधिनाम्नामार्गस मुद्राणामपराक्रमं मरणमभूत्य मादशाद दृष्टान्तो, वृद्ध“सीयलविहारो खलु, भगवंतासायणा-निओएण। वादादायात इति । याचा०१ १०८०१००। (अस्मिन्नेतत्तो भयो सुदीहो, किलेसबहुलो जत्रो भणियं ॥१॥ व नागे २१६ पृष्ठे " अजसमुद्द" शब्द विशेषोऽस्य कष्टव्यः) तित्थयरपवयणसुयं, पायरियं गणहरं महिडीयं। अपरपरिग्गहिय-अपरपरिगृहीत-वि० । अनन्यस्वामिना परिभासायंता बहुसो, असंतसंसारिश्रो भणिो " ॥२॥त्ति। गृहीते अव्याकृते, न परोऽपरस्तेन परिगृढीतमपरपरिगृहीतम्। तस्मादप्रमादिना साधुना भवितव्यमिति । ध०र०। (प्रा. हितीयेरपरैः साधुभिः परिगृहीते, "श्रव्योगडेसु अपरपरिम्गचमकथा च 'अज्जमंगु 'शन्देऽस्मिनव नागे २११ पृष्ठे । हेसु. अपरपरिम्गटिएम" वृ०३० ।। 'नग्गह' शब्द द्वितीयबर्शिता ) सम्यक्त्वपराक्रमाक्ये एकोनत्रिशे उत्तराभ्ययने, भागे ७०८ पृष्ठ चतुर्विधा व्याख्याऽम्य वक्ष्यते) . स. ३५ सम। अपरात (य)-अपराजित-त्रिका न० त० । पराजयमप्राप्ते, अप (प) मायपमिनेहा-अप्रमादप्रत्युपेक्षणा-स्त्री० ।- याचा अन्यनाजिते, सूत्र०११०२ १०२ ३०।अपरिभूत, प्रभा विष्य अप्रमादेन प्रमादविपर्यायेण प्रत्युपेनणा अप्रमादप्रत्यु- ४माश्रद्वा०ाद्वासप्ततितमे महाग्रहे, पुं०।"दोअपराजिया' Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०० ) अभिधानराजेन्द्रः । अपराइत स्था० २ ० ३ ० ( पतत्सूत्र एवाऽयमुपलभ्यते । चन्द्रम गावातुन श्यते) रूपरेर म्युदयतु मिरजना अनभिभूता अपराजिताः । उत्त० ३६ अ० । अनुत्तरोपपातिकदेवविशेषेषु प्रज्ञा० १ पद । तद्विमाने च ज ० ३ २ स्थान। सप्तमे प्रतिवासुदेव, ०१ कल्प० । जाबसमुद्रस्य धातकी एकस्य पुष्करांद समुद्रस्य कालोदस्य समुद्रस्य च हारे, ज ० ३ प्रति० ॥ ( जम्बूद्वीपादिशब्देषु विवृतिरस्य द्रष्टव्या ) श्री ऋषभस्वामिमां त्रिषष्टितमे पुत्र, कल्प० । स्वनामख्याते चतुर्दशपूर्वधरे प्रति‍ भाचार्ये च नन्दिनः नन्दिमित्रः अपराजितः गोवर्धनो नबाहुश्चेति पञ्च श्रुतकेबलिनः । ० ६० । मेरोरुत्तरं रुचकपर्वतस्य कूटमेदे, न‍ । स्था०८arol अपराया अपराजिता श्री० महापसानिय वर्तमाने युग्म "अपाओ ( स्था० ) प्रका पु| " दुगले दो अपराओ" स्थ० २०४० अपराजिता राजधानी क्षण नाम वस्काराद्रिः । जं० ४ बक्र० । दशमगत्रौ, जं० ७ वक्क० । कल्पना उत्तरदिकस्यायां पुष्करिण्याम, सी०२ कल्पण डी०] अङ्गारस्य महाग्रहस्याग्रमहिष्याम्, स्था०४०२ उ० प षं सर्वेषां महादीनां चतुर्थी श्रश्रमहीपी अपराजिता । जी०३प्रति रुकवासिन्यामष्टम्यां दिकुमार महत्तरिकायाम, जं०५ वक्ष० भा० म० । स्था० । श्रा० चू० अष्टमयल देववासुदेवयोर्मातरि, श्राव० १ श्र० । श्रष्टमतीर्थकरस्य निष्क्रमणशिविकायाम्, स० ७२ सम० । श्रहिच्छत्रास्थे महौषधिनदे ती० ७ कल्प० । अपरामु विधेयंस- अपराविधेयांश १० स्वनामरूपात अनुमानदोषे, श्रपरामृष्टविधेयांशं यथा । श्रनित्यशब्दः कृतकत्यादिति । श्रश्र हि शब्दस्यानित्यत्वं साध्यं, प्राधान्यात् पृयनियमन तु समासे वायकल तिमिति पृथनिर्देशेऽपि पूर्वमनुवाद्यसदस्य निर्देश स्तर समानाधि करणतायां तदनुविधेयस्यानित्यत्वस्याऽलम्घास्पदस्य तस्य ० ति० । - अपरिसंपरिग्रहसंवृत ० ० ० धनादिर हिते इन्द्रियसंवरेण व संवृते, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा० । अपरिमहा अपरिग्रहा श्री विद्यते परिग्रहः कस्यापि स्याः साऽपरिग्रहा । वृ०६४० साधारणस्त्रियाम, "भपरिग्गद्दा णियार, सेवगपुरिसो उ कोइ बालस्तो। " व्य० २४० । अपरिग्गहिया अपरिगृहीता-स्त्री०। वेश्यायामन्य सत्कायां गृहीतभाटिकुलाङ्गनायाम, अनाथायाम् श्रा० । ० २० । उत० । आय० । विधवायाम, ध० २ अधि० देवपुत्रिकायां घटदास्यां च । " अपरिग्गदिया नाम जो मातादीदिं ण परिगहिया, अवि कुलटाय सा । श्र पुरा भणति देवपुत्तिया घमदासी वा-पचमादि, सो पुण भामीए वा अभासीर गच्छति, जो नामीप गच्छति, तस्स जदि श्रणेणं पढमं भागी दिनो साम घट्टति परनियतस्स गंतुं जा पुण अनामीप गच्छति सा जइ अम्वेणं जणिश्रो भय अहं तुमप समं सुविस्सामि ; ताप य तिरसण व प्ति अंतराश्यं काउं " श्र० चू०५ उ० । " , अपरिआइए-अपदाय - अव्य० । श्रगृहत्वित्यर्थे, भ० २५ अपरिग्गहियागमण - अपरिगृहीतागमन - न० । अपरिगृही श० ७ ४० । तायां गमनमपरिगृहीतागमनम् अपरिगृहासह मैथुनकरणस्वरूपे अश्यदारसन्तोष तिचारताऽस्य अतिकमादिनिः । उपा० १० । परदारत्वेन अपरिआ विय- अपरितापित- त्रि० । स्वतः परतो बाऽनुपजात कायमनःपरितापे, आय० । रुदत्वात् । ध० २० । घाष० । अपरिकम्प-अप रिकर्मन् त्रि० । साधुनिमित्तमा लेपनादिपरि अपरिचत्तका मनोग अपरित्यक्तकामजोग-पुंन परित्यका कर्मवर्जिते, पं० ० ४ द्वा० नि० चू० । 1 , कामगान गृहीतकामजोगे कामीच शब्दरूपे, भोगाय गन्धरसस्पर्शाः कामजोगाः । अथवा काम्यन्त इति कामाः, मनोज्ञा इत्यर्थः । ते च ते लुज्यन्त इति भोगाश्च शब्दादय इति कामजोगाः । न परित्यक्ताः कामनोगा येन स तथा । स्था० २ ग० ४ ० । अपरिच्छ अपरीक्ष-त्रि 66 - अपरिकम अपराक्रम त्रि० न० त०] पराक्रमरहिते त मेइत्यादि) त्याने " *मो निष्पादितस्वफलानिमानावे शेषरादितत्वात् चचङ्कमणतो वा । झा० २ श्र० । अपरिच्छय सोच्य भायो लाजः प्राप्तिरित्यर्थः । व्ययो सन्धस्य प्रणाशः। ते ब श्रयन् श्रनाहोचितं परिसेवमाणस्स अपरिपरि सेवा नवतीत्यर्थः । अपरिच्छत्ति गतं । नि० ० १ ० । अपरीक्ष्य-अध्य० अनालोच्यत्यर्थे नि० ० १ ० । अपरिखेदिता परिखेदितत्व १०याससम्भवात्मके चतुस्त्रिंशे बुद्धवचनातिशये, औ० । । अपरिग्गह- अपरिग्रह- पुं० । न विद्यते धर्मोपकरणाहते शरी रोपांगाय स्वल्पोऽपि परिग्रहो यस्य स तथा प्रत्याख्यातपरिग्रहे साधी, सूत्र० १ ० १ ० ४० | "अपरिमाढा अणारंना, भिक्खू ताणं परिव्व" सूत्र० १०१ अ०४ उ० । श्राचा० । न विद्यते परि समन्तात् सुखार्थे गृह्यत इति परिग्रहो यस्यासा परिग्रहः । सूत्र० १० ५ ० २३० । धनादिरहिते, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा० । अपरिक्ख - अपरीयदृष्ट-विमृश्यांचे, "अपरिक्खदि ण हुएव सिद्ध।" सूत्र० १ ० ७ अ० । अपालिय- अपरीनि कृतपरी उपस्थापना ०३० परिवार नियमाणं दांत " ध०३ अधि] अपरिक्खि यो पुग्वद्धं अपरिक्खिजं " श्रो अपरि अना परीसाबिक ०१० अपरिच्छाम - अपरिच्छन्न- त्रि० । परिच्छदरहिते व्य० ३ ० परिवाररहिते व्य० १३० । - परिय- अपरीक्षक उत्सवादरायव्ययायत्रि० नालोच्य प्रतिसेवमाने, जीत० । - Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणय निधानराजेन्डः । अपरिपाय अपरिणय-अपरिणत-त्रि० । न परिणतं रूपान्तरमापत्रमप- | गेत्यादि) तत्र दातृविषयं नावापरिणतं भ्रातृविषयं स्वामिविषयं रिणतम् । स्वरूपेणावस्थिते परिणाममप्राप्ते, यथा दुग्धं दुग्धना. च। गृहीतृविषयं जायापरिणतं साधुविषयम्। उनमपरिणतद्वारम। व पवावस्थितं दधिभावमनापन्नमपरिणतम् । पि० । देयं व्यं पिं०। एतच्च साधूनामकल्प्यम, शङ्कितत्वात् , कलहादिदोष. मिश्रमचित्तत्वेन परिणमनादपरिणतम् । ध०३ अधि० । अप्रा- संभवाच्च । ध०३ प्रति० । ग01 "अपरिणए दब्वे मासल९ सुकीभूते देयरुच्ये, तदाने प्रापतति सप्तमे पषणादोषेच, न०। चउलहुं अह सट्टाणपतिं " पं००(अपरिणतग्रहणनिष५.३ प्रधिः। प्रवामपरिणतमिति यदयं न सम्यगचित्तीभूतं धः 'पाणग' शब्ने वक्यते) दातृप्राहकयोर्वा न सम्यग्नावोपेतम् । भाचा०२७०१ १०७ १०। अपरिणतफलौषधिग्रहणम्यदाकव्येण अपरिणतमाहारं जावोनम, उभयोः पुरुषयोराहार से भिक्खू वा जिक्खुणी वा जाव पविसमाणे से प्रागंवर्तते, तन्मध्ये एकस्य साधवे दातुं मनोऽस्ति, एकस्य च नास्ति, तदाहारमपरिणतदोषयुकं स्याव, भपरिणतदा तारेसु वा पारामागारेसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावभाएमः। सहेसु वा अलगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरजिगंधाणि तचापरिणतद्वारमाह वा अग्धाय से तत्थ प्रासायवडियाए मुच्चिए गिके गअपरिणयं पि य दुविहं, दवे नावे य सुविहमिक्ककं । । दिए अज्कोववाले अहो ! गंधो अहो ! गंधो को गंधमाघादवम्मि होश उक, भावम्मि य होइ सझलगा ॥ एजा।से निक्खू वा भिक्खुणी वा जाच समाणे मेज पु ण जाणेज्जा, मालयं वा विरालियं वा सासवणालियं वा अपरिणतमपि विविध, तद्यथा-व्ये च्याविषयं, भावे ना. बविषयं, कव्यम्पमपरिणतं, भावरूपमपरिणतं चेत्यर्थः। पुनर अम्मतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफामुयं प्येकैकं दातृगृहीतसंबन्धाद द्विधा । तद्यथा-द्रव्यापरिणतं, दातृ. जाव लाभे संते णो पहिगाहेजा। सत्कं च । एवं नावापरिणतमपि । (से लिक्खू वेत्यादि) (आगंतारेसु वे ति)पत्तनाद बहिडेषु तद् द्रव्यापरिणतस्वरूपमाह तेषु घागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्तीति। तथाऽऽरामगृहेषु वा जीवचम्मि अविगए, अपरिणयं गए जीव दिलुतो। पर्यावसथेविति, भिक्षुकादिमठेषु चेत्येवमादिचन्नपानगन्धान सुरभीनाघ्राय स भिक्षुस्तेष्वास्वादनप्रतिकया भूचितोऽभ्युपसुद्धदही अभऊं, अपरिणयं परिणयं नई॥ पत्रः सन् अहो! गन्धः, प्रदो! गन्ध इत्येवमादरवाज गन्धं जिजीवत्वे सचेतनत्वे अविगते अभ्रष्टे पृथिवीकायादिकं बव्यम-1 घृतदिति। पुनरप्याहारमधिकृत्याह-से निक्खू वेत्यादि'सुगमम । परिणतमुच्यते, गते तु जीवे परिणतम् । अत्र दृष्टान्तो 5 सामुकमिति कन्मुको जलजः । बेरालियमिति कन्द पब स्थग्वदधिनी । यथा हि-दुग्धत्वात्परिनष्टं दधिभावमापत्रंपरिणत लजः। (सासवनालियं ति) सर्षपकन्दल्य इति । मुख्यते, दुग्धनावे चालते अपरिणतम्, एवं पृथिवीकायादिकमपि स्वरूपेण सजीवं सजीवत्वापरिशष्टमपरिणतमुच्यते । जी- | से निकग्व वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे सेज बेन च विप्रमुकं परिणतमिति । तयदा दातुः सत्तायां वर्तते पुण जाणेज्जा, पिप्पलिं वा पिप्पलिचुमं वा मिरियं वा मिसदा दातृसत्कम्,यदा तु गृहीतुःसत्तायां तदा गृहतृिसत्कमिति॥ रियचुमं वा सिंगवेरं वा सिंगवेरचुर्ण वा अम्मतरं वा तहसंप्रति दातृविषयं भावापरिणतवत् प्पगारं श्रामग असत्थपरिणयं अफासुयं लामे संते जाव दुगमाईसामने, जइ परिणम न तत्थ एगस्स | णो पडिगाडेजा। से भिक्खू वा जिक्खुणी वा जाव पविढे देमिति न सेसाणं, अपरिणयं नावनो एयं । समाणे सेजं पुण पलंवगजातं जाणेज्जा । तं जहा-अंबपलं एवं द्विकादिसामान्ये प्रामादिदिकादिसाधारणे देयवस्तुनि य. वा अंबागपलं वा तालपसं वा किन्फिरिपलंचं वा सुकस्य कस्यचिद् ददामीत्येवंभावः परिणमति, शेषाणामेत रभिपर्व वा सबइपलं वा अस्पतरं वा तहप्पगारं पलंमावतोऽपरिणतम,न भावापेकया देयतया परिणतमित्यर्थः। मथ साधारणानिसृष्टस्य दातृभाषापरिणतस्य च का परस्परं प्रति बजातं आगमं असत्थपरिणयं अफासुयं अणेसाणिजं जाव विशेषः । उच्यते-साधारणानिसृष्टं दायकपरोकत्वे, दातृ साभे संते नो पम्गिाहेज्जा।से जिक्खूवा जिक्खुणी वाजाव प्राषापरिणतं तुदायकसमकत्वे शति । पविढे समाणेसेज्जं पुण पबालजातं जाणेज्जा। जहा-आसो. संप्रति प्रतिविषयं भावापरिणतमाह स्थपबालं वा एग्गोहपवाझं वा पिलक्खुपवालं वापीयुरपएगेण वा वि तेसिं, मम्मम्मि परिणामियं न इयरेण । पालं वा साइपवालं वा अएणयरं वा तहप्पगारं पवाल जायं प्रागमं असत्यपरिणयं अफामुयं प्रणेसणिजं. तं पितु होइ अगेज्म, समलगा सामि-साहू वा ।। जाव णो पफिगाहेजा । से जिक्खू वा भिक्खुणी वा एकेनापि केनचित मप्रेतनेन पाश्चात्त्येन वा एषणीयमिति मनसि परिणमितं, न इतरेण द्वितीयेन, तदपि भावतोऽपारणतम जाव समाणे सेज्जं पुण सरडुयजायं जाणेज्जा। तं विरुत्वा साधूनामबाह्यम,शस्तित्वात, कमहादिदोषसंभषाम। जहा-अंबसरमुयं वा कविडसरफुयं वा दालिमसरयं वा संप्रति विविधस्यापि भाषापरिणतस्य विषयमाह-(सऊस- विक्षमरम्यं वा अपयरं वा तहप्पगारं सरफुयजायं आमं Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिणय । अनिधानराजेन्द्रः । अपरिणय असत्थपरिणयं अफासुयं जाव णो पमिगाहेज्जा । मे (से भिक्खू वेत्यादि) सनिकुर्यत्पुनरेवं जानीया सद्यथा-अग्र बीजानि जपाकुसुमादीनि, मूल बीजानि जायादीनि, स्कन्धयोनिवखू वा भिक्षुणी वा जाव पविढे समाणे सेजं | जानि शलक्यादीनि, पर्वबीजानि यादीनि । तथा अग्रजापुण मंधुजायं जाणेजा। जहा-उबरमंथु वा एग्गोहम) | तानि मूलजातानि स्कन्धजातानि पर्वजातानीति । (णमत्यत्ति) वा पिलक्खुमधु वा आसोत्यमयुं वा प्राणयरं वा तहः | नान्यस्मादग्रादेरानीयान्यत्र प्ररोहितानि, किन्तु तत्रैवाग्रादी जाप्पगारं मंधुजायं प्रामयं दुरुकं साणुवीयं अफामुयं जाव तानि, तथा (तक्कलिमन्धपण वा) तकनी णमिति वाक्यालङ्कार । पो पमिगाहज्जा। तन्मस्तकं तन्मध्यवर्ती गर्भः । तथा कन्दनीशीर्षकन्दलीस्तव 'कः । एवं नालिकेरादेरपि एव्यमिति । अथवा कन्दल्यादिम. " से भिक व वेत्यादि"पएम,णवरं (मंथुत्ति) चूर्णम् । (पुरुतं म्तकेन सदृशमन्यद्यच्छित्वाऽनन्तरमंव ध्वंसमुपयाति , तत् ति) ईषपिष्टम (सागुवीय नि) अविश्वस्तयोनिबीजमिति ॥ तथाप्रकारमन्यदाममशस्त्रपरिणतं न प्रतिगृहीयादिति । से भिक्खू वा भिक्रवाणी वा जाव समाणे सेजं पुण जाणे से निक्खू वा निकखणी वा जाव समाणे सेज्जं पुण जा,आममार्ग वा पूतिपिएणागं वा महं वा मज्ज वा सप्पि जाणेजा, नचुं वा काणं अंगारियं सम्मिस्सं वियसितं वा खोलं वा पुराणं एत्य पाणा अप्पसूया एत्य पाणा वेत्तगं वा कंदनीमुयगं वा अप्लयरं वा तहप्पगारं आम जाया एत्य पाणा संवा एत्थ पाणा अवुकंता एत्य पाणा असत्थपरिणयं जाव णो पडिगाहेज्जा ॥ अपरिपाता पत्य पाणा अविकत्या णो पमिगाहेजा ।। (से भिक्खू येत्यादि) स निकुर्यत्पुनरेवं जानीयात, तद्यथा-इ( से भिक्खू बेत्यादि) स भिनुर्यत पुनरवं जानीयात्तद्यथा कुंवा (काणगं ति) व्याधिविशेषात्सच्चिाऊं,तथा-अनारकितं वि(प्राममागं वे त्ति)आमपमं अरणिकतन्दुखीयकादि । तचाचप वर्णीनृतं, तथा-सन्मित्रं स्फुटितत्वक् (वियसियं ति ) वृकैःकमपकं वा, (पृतिपिरणागतिकुथितखाम । मधुमो प्रतीते,स गालैर्वा ईषद्भक्तिं, न घेतावता रन्ध्राद्युपकवेण तत्प्रासुकं नवतीपिघुतम , स्वालं मद्याधःकदमः, एतानि पुराणानि न ग्राह्या ति सूत्रोपन्यासः। तथा वेत्राग्रं (कन्दसीकसुयगंवत्ति)कन्दली. णि । यत एतेषु प्राणिनो अनुप्रमृता जाताः, संवृकाः, अव्युत्क्रा मध्य तथाऽन्यदप्येवप्रकारमाममशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति। नाः, अपरिणताः , अविश्वस्ता नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमेकाथिकान्यवैतानि, किश्चिद्भदाद्वा भेदः । से भिक्खू वा निक्षुणी या जाव समाणे सेजं पुण जासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव ममाणे सेज पुण ज्जा, लसुणं वा लसुणपत्तं वा समुणणानं वा समृणकंजाणेजा, नजुमेरगं वा अंककरेलुयं वा कसेरुगं वा सिं- दं वा लसुणचोयगं वा एणयरं वा तहप्पगारं आम पामगं वा पूतिालुगं वा अझयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्यपरिणयं जाव पो पमिगाहेजा। असत्यपरिणयं जाव णो पहिगाहेज्जा ॥ बशुनसूत्र सुगमम् । अवरं (चोयगं ति) कोशकाकारा सशुभ( से निक्खू वेत्यादि) (उच्चुमेरगं वेत्ति) अपनीतत्वगिक्षुग-| स्य बाह्यत्वक । सा च यावत्सा तावत्साधित्तेति ॥ एिकका (अंककरेलुअं वेत्ति)पवमादीन्वनस्पतिविशेषान जलमा- से भिक्खू वा निक्खुणी वा जाव समाणे सेज पुण माअन्यद्वा तथाप्रकारमाममशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ जाणेजा, अत्थि अं वा कुंजिपकं तिंगं वा वेयुयं वाप से भिक्खू वा जिक्खुणी वा सेजं पुण जाणेजा,उप- लगं वा कासवणालियं वा अप्पयरं वा आमं असत्यपरिलं वा नुप्पक्षणालं वा निसंवा निसमणालं वा पोक्खलं णगं जाव को पमिगाहेजा ॥ से जिकावू वा निक्खुण। वा पोकम्वल विजागं वा अप्लायरं वा तहप्पगारं जाव णो वा जाव समाणे सेज्ज पुण जाणेज्जा, कणं वा कणकुंडगं पमिगाहेजा ॥ वा कणपूयानि वा चानसं वा चाउमपि वा तिनं वा ( से भिक्खू येत्यादि)स भियत् पुनरेवं जानीयात्तयथा- तिलपिढे वा तिलपप्पगं वा अपयरं वा तहप्पगारं उत्पलं नीलोत्पलादि, नावं तस्यैवाधारः। भिसं पद्मकन्दमूलं, श्रामं असत्थपरिणयं जाव लाभे संते णो पमिगाहेज्जा। मिसमणालं पद्मकन्दोपरिवर्तिनी सता , पोक्खन पद्मकेसर, पो ( से भिक्खू वेत्यादि ) ( भत्थिअंति) वृतविशेषफसम । कावविभाग पद्मकन्दः । अन्यद्वा तथाप्रकारमाममशस्रोपहतं नो प्रतिगृतीयादिति ॥ (तेंदुअंति) टेम्बरुयम,(चिलु_त्ति) बिस्वं,( कासवणालिय) श्रीपर्णीफलं, कुम्नीपकशब्दः प्रत्येकमनिसंबध्यते । एतदुक्तंभसे निकावू वा निक्खुणी वा जाव समाणे सेजं.पुण जा. बति-यद शिकफलादि गर्तादावप्राप्तपाककालमेष बलात्पाकणेजा, अग्गवीयाणि वा मूलवीयाणि वा खंधवीयाणि वा मानीयते तदाममपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति (से इत्यादि) पारवीयाणि वा अम्गजायाणि वा मूलजायाणि वा खंधजा- कणमिति शाल्यादेःकणिकास्तत्र कदाचिन्नाभिःसंभवेत् । कणियाणि वा पोरजायाणि वाणामत्य तकलिमत्यएण वा तक. ककुएडं कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुमाः, ( कणपूर्यालयं ति) कलिसीसेए वाणान्त्रिपरमत्थएण वा खग्जूरमत्यएण वा ता णिकाभिः पूलिका, अत्रापि मन्द पक्कादी नानिः संनाव्यते । शेष सुगमम् । आचा० २७० १० १० । स्वभाववणे, लमत्यपण वा अएणयरं वा तहप्पगारं प्रामगं असत्यप नि०० १७ उ० । रसरुधिरादिधातुन्वेन परिणाममगते, रिण्यं नाव णो पनिगाहेजा। पा. ३ विव०। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०३) अपरिणामग अभिधानराजेन्द्रः । अपरिमाइ (ए) अपरिणामग-अपरिणामक-पुं०। न विद्यते परिणामो या- | घसिनः । प्रका०१८ पद । अनादिकोऽपर्ययमितो येन जाततार्थपरिणमनं यस्वस तथा । व्य०१०० उत्सर्गकरुची पुरुष, चिदपि मिकि गन्ता, अनादिको या सपर्यवसिता भवविशेषः । नं। जी०१ प्रति०। जी.२ प्रतिः। ( कायापरीतादिव्याख्यानं अंतर 'शब्दअपरिणामकमाह स्मिन्नव भागे ७७ पृष्ठे दृश्यम् ) जो दवखित्तकयका-खजावओ जं जहा जिणक्खायं ।। अपरिनुय-अपरिजूत-त्रि०। अपरिभवनीये, स्था० ७ ० । अपरिजोग-अपरिजोग-पुं०। परिजोगाभावे, स्था० ५ ठा०२ तं तह असतं, जाण अपरिणामयं साहुं । ०नि० चू। वो द्रव्यक्केत्रकालनावकृतं तद्न श्रद्दधाति तं तथा अश्रहधतं जानीहि अपरिणामकं साधुम् । वृ० १ उ० । पं०व० । अपरिमाण-अपरिमाण-त्रि० । न विद्यते परिमाणं यस्य स ( परिणाम' शब्दव्याख्यानावसरे प्रतिपरिणामकस्यापि तथा ।केत्रतः कालतो वा श्यत्तारहिते, "अपरिमाण वि आ. व्याख्याज्यधायि, तत्रैवास्यापि शम्दस्य व्याख्या इपान्तश्व णा, हमेगेसिमाहियं" सूत्र० १ ध्रु०१०४ उ०। निचू० । सपन्यः) अपरिमिय-अपरिमित-त्रि०। अपरिमाणे , न परिमितोऽपरिअपरिणिवाण-अपरिनिर्वाण-नापरिसमन्तादू निर्वाणं सु-| मितः । अनु० । परिमाणरहिते, "अपरिमियम हिचकलुसमखं परिनिर्वाणं, न परिनिर्वाणमपरिनिर्वाणम । समन्तात् शरीर•| तिवाउवेगउद्धम्ममाणं" अपरिमिता अपरिमाणा ये महेच्य बहदभिशापा अविरता लोकास्तेषां कबुधाऽविशद्धा मतिःसमनःपीमाकरे, " सम्धेसि सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं एवं वायुवेगस्तेन उत्पाद्यमानं यत्तत्तथा । प्रश्न० ३ सम्ब० महम्भय दुक्खं" आचा० १ श्रु०१०६०। । द्वा० । श्राव। "अपरिमियनाणदसणधरहिं" (तार्थभिः ) अपरिपत्त-अपरिझत-त्रि० । अझापिते, कल्प० । प्रश्न०१ सम्ब० द्वा० । वृ० । दर्श० । अनन्ते, औ० । वृदति, अपरिमाय-अपरिज्ञात-त्रि । परिकया स्वरूपतोऽनवगते, "अपरिमियं च वसाणे, कन्वं गजति नायब्वं" दश०२०। प्रत्याख्यानपरिकया चाप्रत्याख्याते, स्था०५ गावाचा अपरिमियपरिग्गह-अपरिमितपरिग्रह-पुं० । अपरिमितश्चा. अपरितंत-अपरितान्त-त्रि० । अपरितान्ते परिश्रममगच्छति, | सौ परिग्रहणं परिग्रहः । परिमाणरहितपरिग्रहे, श्राव०६अ। नं०। प्रभापं० भा०'अपरितन्तो सुत्तत्थ-तभएसु'पं०५०। अपरिमियवन-अपरिमितवन-त्रि० । अपरिमितं बलं यस्य सोऽपरिमितबन्नः । निर्विशेश्वार्यान्तरायक्वयादनन्तबलशाअपरितंतजोगि ( ण् )-अपरितान्तयोगिन-वि०। अपरिता लिनि, "तत्तो बला बझभद्दा, अपरिमियबला जिणवरिंदा" न्तोऽविश्रान्तो योगः समाधिर्यस्य सोऽपरितान्तयोगः । स्वार्थि विशे० । सूत्रः ।“अपरिमियबवारियजुत्ते" अपरिमितानि केनन्तत्वाचापरितान्तयोगी । अन्त० ७ वर्ग । अविश्रान्तसमा बलादीनि, तैर्युक्तो यः स तथा । उपा० ११०। धौ, अgo ३ वर्ग । अपरितान्ता प्रश्रान्ता योगा मनःप्रभृयास अपरिमियमणंततएडा-अपरिमितानन्ततृष्णा-स्त्री० । अपरिदनुष्ठानेषु यस्य स तथा; तत अपरिश्रान्तसंयमे प्रयते, प्रश्न माणज्यविषया अनन्तावाऽनया या तृष्णाऽविद्यमानध्याऽऽ. १ सम्ब० द्वा। येच्चग । अपरिमितवाञ्छायाम, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वा० । अपरितावणया-अपरितापनता-स्त्री० । शरीरपरितापानु अपरिमियसत्तजुत्त-अपरिमितमच्चयुक्त-त्रि० । अपरिमितत्पादने, भ०५श० एउ० परितापानुत्पादने, ध०३अधि०। मियत्तारहितं यत्सत्त्वं धृतिबलं तेन युक्तः । अपरिमितधैय्ये, समन्ताच्छरीरसन्तापपरिहारे, पा०। सृ० ३ उ०। अपरिताविय-अपरितापित-त्रि०। स्वतः परतो पाऽनुपजात अपरियत्तमाणा-अपरावर्तमाना-स्त्री०। परावर्तमाना अपकायमनःपरितापे, जी० ३ प्रति०। रावर्तमाना, पं० सं०३ द्वा० । परावर्तमानप्रकृतिभिन्नासु कर्मअपरित-परीत-पुं० न० त० । साधारणशरीरे, स्था० ३ प्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वा०। (मुलप्रकृतीनां बन्धादिप्रस्तावे वा०२ उ० । अनन्तसंसारे या जीवे, भ०६ श० ३ उ०। 'फम्म' शब्दे तृतीयभागे २९१ पृष्ठे दर्शयिष्यन्त एताः) अपरित्ते दुबिहे पप्पत्ते । तं जहा-कायअपरिने य, संसा अपरियाइत्ता-अपर्यादाय-अव्या परितः समन्तादगृहीत्वेरअपरिते य॥ स्य, स्था०२ ठा०१३०।सामस्त्येनागृहीते, स्था०१ठा० १७०। अपरियाणिता-अपरिझाय-अन्य०। परिक्षयाऽझात्या प्रत्याकायापरीतोऽनन्तकायिकः संसारापरीतः सम्यक्त्वादिना स्यानपरिक्षया चाप्रत्याख्यायेत्यर्थे, स्था०२ ठा० १३० । कृतपरिमितसंसारः। प्रज्ञा०१८ पद । कायापरीतः साधारणः, अपरियार-अपरिचार-त्रि० न० ब०। प्रविचारणामैथुनोपसंसारापरीतः कृष्णपाक्तिकः । जी०५ प्रतिः । सेवारहिते, अप्रविचारे, प्रज्ञा० ३४ पद । तत्र अपरिवदिय-अप्रतिपतित-त्रि० । स्थिरे, पश्चा० ७ विव० । संसार अपरित्ते दुविहे पएणते। तं जहा-प्रणादिए अ अपरिसा (स्सा) इ (वि)(ण )-अपरिहाविन्-पुं० । पजवसिए, अणाइए सपज्जवसिए ।। परिनवितुं शीलमस्य परिस्रावीन परिखाव अपरिस्रावी । संसारापरीतो विधा-अनाद्यपर्यवसितो यो न कदाचनापि। द्रव्यतः नावरहिते तुम्बकादौ, भावतः श्रुतार्थकरणाकारकड. संसारख्यवच्छेदं करिष्यति, यस्तु कारख्यति सोऽनादिसपर्य- नुयोगदानयोग्ये. वृ०। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिसाइ (या) एतत्स्वरूपं सप्रतिपक्कं निक्केपदृष्टान्तप्रदर्शन पूर्वकमुच्यतेअपरिक्षाविद्वारमाद परिसा अपरिसाई, दबे जावे व लोग उत्तरिए । एकेको विविहो, मञ्च वरुईऍ दिहंतो ॥ परिचितुं समस्येति परिक्षार्थी ; तद्विपरित परिक्षार्थी उभावपि द्विविधौ द्रव्ये, भावे च । तत्र व्यतः परिस्रावी घ टादिः, अपरिस्रावी तुम्बकादिः । भावतः परिस्रावी । एकैकोपि द्विविधः तद्यथा- लोग सि) लौकिका (रि) ( पदेकदेशे समुदायोपचाराद् लोकोसारिकः । तंत्र लौकिके भावतः परित्राविणि अमात्यदृष्टान्तः । (६०४) अभिधानराजेन्द्रः | स चायम् । "एगो राया, तस्स कन्ना गद्दनस्स जारिसा, सो निच्चं खोला प्रक्रिया भत्थर सो मन्नया अमध्येणं पते पुच्छिम्रो कि तुम्भे महारयपादा बोलाए श्रावडियाए अच्ह, न कस्लाइ सीमं कन्ना य दरिसेह ? । रन्ना सन्नावो कहिघो; भणियं च मा रदस्समन्त्रयं काहिसि सि । तेण अगंभीरयाए तं रस्सं अप्पढियासमाणेण अरुवि गंतुं रुक्ख कोकरे मुहं छोरा भणियं - गइनकन्नो राया। राया तं रुक्खं अन्नेण केणइतुं वादि कयं जवियन्त्रयावसेण यतं रणो पुरभो पदमं वाश्यंतवज्जं तं भण-गइनकन्नो राया । रन्ना अमवो तुमे परं परहसं मायं करस ते कदिये है। भमच्चेण जहावतं सिद्धं । एस लोइओ परिस्सावी । लोडसरिश्रो जो अप्यहियासमाणो पुषि वा अपुच्छि या अपरिणया अववायपयाणि कहे " । ईदृशस्य परिनाविणः सूत्रं यो ददाति तस्य चत्वारो लघवः । अर्थे ददाति तस्य चत्वारो गुरवः । यत एवं ततो अपरिस्वाविणो दातव्यम्। सोऽपि द्विधा-लौकिको, लोकोत्तरिकञ्च । तत्र लौकिके अपरिनाविणि बटुक्याः दृष्टान्तः । स चायम् राया सिडी मवो रक्लिओ मूलदेवो य एक्कार पुरोहियना बनी सिणीय अन्ना। ताद सव्वेसि संकेोवितो, ते आगया दुवारे ठिया । ताप भन्नंति जर महिला जाणे तो पविसह ते प्रति- जाणामो मूलदेवेण भणियं श्रहं जानामि सार महियं पविसह सिपो पुच्छि किं महिलारहस्सं? | तेण भणियं मारितेहिं विन्नस्स न कयन्वं । श्वं विदग्धः कामुकः” इति तुठाए सव्वरति रमिश्र । पारा पुलदेवी कि महिसार दे एयं उल्लावपि न जाणामि । रण्णा अवलवर सि बज्यो आसो त विन कदे, ताहे खाश्मीर भागंतु रन्नो पुरतो कहियं जड़ा पयं चैव महितारहस्सं, ऊं सरीरच्चाए वि न कसमीसइति । एस बोश्रो अपरिस्सावी । लोटस रिओ पुण जो प्रेशसुप्रस्थ रहस्सियाणि अपवायपास सुनिता उठिश्रो, तनो जश् कोइ अपरिणओ पुच्छर- कि वयं कहिज्जर १। भण-वरणकरण साहूणं वन्निज्जघ्” । ईदृशस्यापरिनाविणा यदि सूत्रं न ददाति तदा चतुर्लघु । अर्थे न ददाति तदा चतुर्गुरु । वृ० १ ३० । स्था० । एरिस्रवति श्रनवति कर्म बनातीत्येवं शीलः पायी तन्निषेधादपरिभावी अवन्धके निरुरूयोगे - यं च पश्चमः स्वातकभेदः । उत्तराध्ययनेषु त्वर्दन् जिनः केवलीत्ययं पञ्चमो भेद उक्तः, अपरिस्रावीति तु नाधीतम् । प्र०२५ " 46 अपवग्ग ०६० स्थान परिस्रपति नालोचकदोषानुपत्या यस्मै प्रतिपादयति य एवं शीलः सोऽपरिखायी। आलोचकदोषा प्रख्यापके आलोचनां प्रतीके "जो अन्नवस्स उ दोसे न कहे अपरिस्साई सो होइ " स्था० ० ० । पञ्चा० । ध० । व्य० । यो न परिस्रवति परिकथितात्मगुह्यजलमित्येवं शीलोsपरिस्रावी । अालोचनामाश्रित्य आचाराङ्गोक तृतीयभअतुल्य इत्यर्थः । ग० १ अधि० । अपरिसामि परिशाटि पुं० । परिशाटिवर्जिते म०१ मा । अ०] द्वा० शय्यासंस्तारके वि० ०२४० फलकादिमये, वृ० ३ ० । अनवयवोज्ने च " अपरिसाडि प्रक्लोवंजणवणापुलेवणभूयं ति " भ० ७ ० १ ३० । अपरिसादिष अपरिशारित १० । परिवादरहिते, उस० १ अ० । अपरिसुट अपरिशुद्ध - त्रि० । सदोषे, पञ्चा० ३ विष० । अयुक्तियुके, घाव० ४ श्र० । अपरिसेस - अपरिशेष- त्रि० । निःशेषे, प्रा० २ अभ० द्वा० । अपरिहारिय- अपरिहारिक- पुं० । न परिहारिकोsपरिहारिकः। पार्श्वस्यावसन्नकु] [असंसकयथाच्छन्दरूपे, चा० १० १ अ० १४० । मूलोत्तरगुणदोषाणामपरिहारके, मूलोत्तरगुणानां वाडधारके, अन्यतीर्थिकगृहस्थे या नि० ० २४० । अपरोवताव-अपरोपताप-पुं० परपीकापरिहारिणि, पं०स्०२०। अपरोवताव(न) - अपरोपतापिन् पुं० । साधूनां वर्णवादनि, पं० ० । अपलिअ - अपक्ष- इ-त्रि० । अग्निनाऽसंस्कृते, ध० २ अधि० । अपसिउंचमाण - अप्रतिकुञ्चयत्- त्रि० । अगोपयति, आचा० २ ० ५ अ० १ उ० । अपनिनंचि अपरिकुञ्चिन्- त्रि० । अमायाविनि, व्य० १३० । अपलिउंचिय- अमति (परि) कुञ्च्य - जि० । न परिकुयमपरियम । अकोटिल्ये, व्य० १ ४० । अमति (परि कृष्य-अव्य० मायामकृत्वेत्य य०१ उ० । नि० चू० । अपलिया- अपरिच्छत्रिपरिष्दरहिते व्य०३५० । अपनिमंथ - अपरिमन्थ- पुं० । परिमन्थः स्वाध्यायादिकृतिस्तदभावोऽपरिमन्यः (उत्त०) स्वाध्यायादी निरालस्ये ४०२३०१ अप (प) लीन-अमलीन-त्रि असं ०१० १ अ० । अपवग्ग - अपवर्ग-पुं० । जन्ममरणप्रबन्धोच्छेदतया सर्वः दुःखमालक मोके सूत्र०१०१३० संचाल वर्ग इति तस्य रागादिकयस्य भावे सकललोकोकि नशालिनः केवलज्ञानदर्शनयोग्धी सायां निस्तीमा यस्य सतो जन्तोरपवर्ग उके नियतीति । किं लक्षण, इत्याह- "स मात्यन्तिको दुःखविगम इतीति" सोऽपवर्ग, अत्यन्तं सकलदुःखास किनिर्मूलनेन भवतीति आत्यन्तिको Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवग्ग दुःखविगमः। सर्वशारीरमानसा शर्माविरह. सर्वांसा धारणानन्दानुवश्चेति । घ० १ अधि० । पत्रात्रीय-पवर्गबीज- न० मोक्षम्य कारणे, पो०६ विच० । अप (प) वत्तण- अप्रवर्तन न० । अप्रवृत्ती, पञ्चा० ४ वि० । अपवाद अपवाद० द्वितीय ० ० २० ४० । अप(प) विन- प्रवृत्त - त्रि०। तस्वतो व्यावृत्तं पञ्चा०१४ विष० । अप (प) विति-भ्रमचि स्त्री० गाडं मनोवाक्कायानामनय तारे, ध० १ अधि० । छाप (प) संसज्जि - अप्रशंसनीय त्रि० । साधुजनैः प्रशंसां कर्तुमयोपेतं । अप (प ) सज्झ - अप्रसा०ि अप्रधृष्ये व्य०७०। अप (प ) सज्झपुरिसायुग-प्रमसा पुरुषानुग - त्रि० । धृष्ट पुरुषानुखाणि (व्य०)"गणि गुणसंपणारसि सारणुगा । व्य० २ उ० । 33 ६ अप ( प ) सत्य-मशस्त- - त्रि० । न० त० । अशोभने, “अ सत्थे संजमे चयह भाव० ५ भ० । विशे० ॥ भ० । व्य० । श्रेयसे, अनादेये, स्था० ३ ० ३ ०० । बलवर्णादिनिमित्तं प्रतिसेविनि व्य० १० ४० । अपसत्यखेच- अप्रशस्त क्षेत्र - न० | शरीरादिक्के थे, नि००१०३० अपसत्यदन्य-भ्रमशस्तव्य न० या शोभ मि० च० ११ उ० । अपसत्यमेस्सा-प्रमशस्तलेश्या श्री कृष्णमी कापसा सु तिसृषु लेश्यासु, ब० ३४ म० । अपसत्य बिगगतिनाम-मशस्तबद्ध गगतिनामन् - १० । बि. डायोगतिनामात्पुनरप्रशस्ता गतिर्भवति यथा दि प्रस्तावदायोगतिनाम कर्म० कर्म० । अपसारिया - अपसारिका-श्री० । पटालिकायाम, पृ० २७० । अप-पशु-पुं० ० ० द्विपदचतुष्पदादिपरिग्रह) - हिते, " समणे भविस्सामि अणगारे भकिंचणे अपुते असू 39 आचा० २ ० ७ ० १ उ० ॥ अपस्ऩमाण- अपश्यत् - त्रि । अनी कमाणे, “ श्रपस्समाणे पसामि देवे जो य गुगे । " स०३० सम० । अपट्ठि - अप्रहृष्ट- त्रि० । अहसति, दश० ५ भ० १ ० | पहु-अप्रभु - पुं० । भृतकादी, घ० ३ अधि० । मनुष अभावयति ०१०४० । अपाइया पात्रिका - स्त्री० । पात्ररहितायाम् (निर्मन्थ्याम् ), निपातानन्यम् 66 1 नो कप निम्गंथीए पाध्याए हुनए । म पनि सूत्रार्थः । ( ६०५ ) अभिधानराजेन्डः | १५२ अपानायाः पात्ररहिनाया भवितुमति अपापाय अथ नाप्यम् - गां मा न बने, प्रभावण खिंसणा कुलघरे य । णास खड़य लज्जा, सुहाए होति दिना ॥ पात्रकमन्तरेण यत्र नत्र समुदेशनीयम तो कोदा गाव चार प्रमोति तत्रैवाने चरति । यया वा श्वानो यत्र स्वल्पमप्याहारं न तत्रैव पिके। पता अपि गोवान यो पाता कस्य पुरतः समु दिशन्ति- अहो ! श्राभिर्गोविनं श्वानवनं या प्रतिपनं पवं न प्रजना नवति । (त्रिणा कुलघरे य (स) तास्तथा जाना चा कुल वा लोक कुर्यात् यथायुपाया दिनरः स्तुपा या या व्यस्पृष्टास्ताः साम्प्रतं सर्वलोकपुरतो गाव इव चन्यो हिएकन्ते । एवमुक्ते ते यस्ता गृहमानयति 'ना' अत्याि लोकस्य पुरतः कुर्वलोकान् अहो बहुभा ! अस्ति स्त्रीणां लज्जाविभूषणं सा चैनासां नास्तीति । अत्र च लज्जायां स्नुषा दृष्टान्तो जयति । स च द्विधा प्रशस्तो प्रशस्ता प्रशस्तं तावदाह 9 उवासम्म सुदा, खिसीय शात्रि नामए । बिपास जुन गिएर वि य ण णाम अप्पाणं । यथा- स्नुषा वधृरुश्चैरासने न निषीदति नाप्येवं महता शदेन भाषते न च प्रकाशे भूभागे ते आत्मीयं च नाम न न प्रति एवं संपतीनिरपि भवितव्यम् । अप्रशस्त स्नुषादृष्टान्तः पुनरयम् धना महापपानं सदा ससुरे य इकमेक्स्स । दलमा विणा सज्जानासेण पानि ॥ अथवा प्रकारान्तरेण स्तुषारान्तः क्रियते महापदानि विरानिपानि पारीकैकस्य परस्परं त यथा लज्जानाशेन विनाशं प्राप्नुतः, तथा संयत्यपि निर्लज्जा विनश्यतीत्यर्थः । भावार्थयम-पमजाए मयाए पुत्रेण से अडिया हिमायत्तिका श्रीगंगनीयारेसुदासुरे सखिङ्गाश्यं कि श्री निस्सादिताप्रति विहित पा तेहि पर सागरिये पप्पा दो वि विद्याणि, एवं निरविवास हुआ। द्वितीय पदमाद पायस्स वि तेहिए. झामिऍ बूढे व सावयभए वा । बोहिभए खित्ता इव, अपाया हुज्ज वियपर || पात्रस्याभावे स्तेनकतया हते श्रग्निभावाद् ध्यामित कपूरेण किप्ते पात्रे श्वापदजये बोधिकभये वा शीघ्रं पात्राणि परित्य ज्य नष्टा सती किप्तचित्ता वा, आदिशब्दाद्यक्षाविष्टा वा अपात्रिका पात्रराता द्वितीयपदे जवेत् । वृ० ५ ० । पालक - मावृत- त्रि० । न विद्यते प्रावृतं प्रावरणं यस्येस्वप्रावृतकः । स्था०५ वा० १० औपक्षिकाद्युपरितनोपकरणरहिते. वृ० ५ उ० । अपारणय- अपानक -बि० । जालवर्जिते. जं० २ ० । चतु 1 Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भपागाय अभिधानराजेन्द्रः। अपणबंधय विधाहाररहिते, पञ्चा० १० विद्य० ॥ "छठेणं भत्तेणं अपाण- | अपिय-अप्रिय-त्रि । अप्रीतिकरे, ज श०३३ उ0। अप्रिएणं" ०२वकापानकसदृशेषु शीतलत्वेन दाढोपशमहे- यदर्शने. जी०१ प्रति० । अप्रीतिक,"अचियत्तं ति वा भपियतुषु स्थालीपानकादिषु, गोशालकसम्मतपदार्थेषु च । भ० १५ | तंति वा एगटुं" व्य०२ उ० । श०१ उ०। (तत्प्रदर्शन गोसासक'शब्द करिष्यामि)पानकाहारवर्जिते, जं०४ वक्तापानीयपानपरिहारवति, स्था० ६ म०। अपिवणिज्जोदग-अपानीयोदक-पुं० । भपातव्यजले मेघे, न. एकान्तरोपवासे, घ. ३ अधिः। ७ श०६ उ०। अपाय-अपाद-त्रि० । विशिष्टच्छन्दोरचनायोगोत्पादवर्जिते, | अपिमुण-अपिशुन-त्रि०। छेदनभेदनयोरकतरि, दश० ए० दश०१० स०। अपायच्छिम-अपादच्छिन्न-त्रि० । अच्छिन्नचरणे, नि० चू० | अपीकारग-अभीतिकारक-त्रि०अमनोई, स्था०३२०१उन १४१०। अपीइगराहेय-अनीतिकरहित-त्रि० । अप्रीतिवर्जिते, पक्षा अपार-अपार-त्रि० । अनन्ते, स०। ७विव०। अपारंगम-अपारडम-त्रि० । पारस्तटः परक्लं तद् गच्चती- अपीडतर-अनीतितर-त्रि० । अमनोइतरे, विपा०१६०१०॥ ति पारङ्गगमः, न पारङ्गमोऽपारङ्गमः । पारगतोपदेशाभावादपारंगमे, "अपारंगमा एप,ण य पारंगमित्तए"। एते कुतीथिका | अपीट(ल)णया-अपीमनता-स्त्री०पादायनवगाहने, पाध। दयः अपारङ्गमा इत्यादि। पारस्तटः परकूलं,तद् गच्चन्तीति पा-अपीमिय-अपीडित-त्रि० । संयमतपक्रियया पाभवनिरोधारङ्गमाः, न पारङ्गमा अपारङ्गमाः,पत ति पूर्वोक्ताः। पारगतोपदेशाभाषादपारङ्गता इति भावीयम । न च ते पारगतोपदेश नशनादिरूपतया पोमयाऽदुखिते, पं० सू०४ सू०।। मृते पारमनायोद्यता अपि पारं गन्तुमलम् । अथवा गमनं अपुच्छिय-अपृष्ट-त्रि० । पृच्चामगते, " अपुचिओ न भासिगमः, पारस्थ पारे वा गमः पारगमः । सूत्रे स्वनुस्वारोऽलात ज्जा, नासम णस्त अंतरा। पिट्टिमंसं न साज्जा, मायामोसं णिका, न पारगमोऽपारगमस्तस्मा अपारगमाय । असमर्थस- | विवज्जए ॥" दश०००। मासोऽयम् । तेमायमर्थ:-पारगमनाय ते न भवन्तीत्युक्तंभ-अपज-अपज्य- त्रिनताप्रवन्दनीये, आव०३०॥ वति । ततधानन्तमपि संसारान्तर्वर्तिन एवासते । यद्याप पारगमनायोद्यमयन्ति तथापि ते सर्वशोपदेशविकलाः स्वरुचिवि- | अपुट-अपुष्ट-त्रि० । पुर्वन्ने, १० ३ उ० । अपुष्कले, पत्र० १ रचितशालवृत्तयो नैव संसारपारं गन्तुमलम । माचा शु०१४ म०। भु० २ ० ३००। अपृष्ठ-त्रि० । अकीप्सिते, भ०३ श०१ उ०। अपारग-अपारग-त्रि०अतीरंगामिनि,सूत्र०१९०३७०३७०। अपुठ्ठधम्म-अपुष्टधर्मन्-पुं० । अपुष्टोऽपुष्कलः सम्यगपरिक्षातो अपारमग्गो-देशी-विश्रामे, दे० ना० १ वर्ग। धर्मः श्रुतच्चारित्राख्यो पुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावो येनासावअपाव-पाप-त्रि०। अपगताशेषकर्मकल,सूत्र०१६०१० पुष्टधर्मा। अगीतार्थे, “एवं नु सेहे वि अपुष्धम्मे, धम्मं न जा३ उ०। णार अबुज्झमाणे" सम्यगपरिणतधर्मपरमार्थे, सूत्र० १६० भपावभाव-अपापनाव-त्रि० । लन्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्ध- २४ । चित्ते, दश ०१ उ०। अपहलाभिय-अपृष्टनाभिक-पुं०। न पृष्टलानिकोऽपृष्टलाभिअपावमाण-अमामवत्-त्रि० । अनासादयति, ओघ०। काहे साधो! किं ते दीयते ?,इत्यादिप्रश्नमन्तरेण भिक्कां लभ माने भिक्काचरकभेदे, धर्मधर्मिणोरनेदोपचाराद् निकाचा अपावय-अपापक-पुं०।शुभचिन्तारूपे प्रशस्तमनोविनये, स्था। भेदे च । । ७ ठा० । अपापवाक्प्रर्वतनरूपे वाग्विनये, न० २५ श० ७ उ० । अपुट्ठवागरण-अपृष्टव्याकरण-न० । अपृष्टे सति प्रतिपादने, अपारा-पावा-स्त्री०। अपापाऽपरनाम्न्यां पुर्य्याम, यत्र श्रीम " एयं सव्वं अपुवागरणं नेयव्वं "भ० ३ श०१०। हावीरः स्वामी निवृत्तः। स्था। अपुठ्ठालंबण-अपुष्टालम्बन-न० । मरदापबादकारणे, प्रथ. भपास-अपाश-पुं० । अबन्धने, आचा० १ ० १ ० ३ उ०। द्वा०। अपासत्थया-अपार्श्वस्थता-स्त्री० । न पार्श्वस्थोपार्श्वस्थ अणकरणसंगय-अपुनःकरणसंगत-त्रि०। पुनरिदं मिथ्याचर. स्तस्य भावस्तत्ता । पार्श्वस्पतापरिहारे, अनया चागमिष्यद्भद्र- न करिष्यामीत्येवं निश्चयान्विते, पञ्चा० ११ विव०॥ साकारणानि कुर्वता प्राशंसाप्रयोगो न विधेयः। स्था०१० ठा। मागच्चव-अपुनश्च्यव-पुंoान पुनश्च्यवनं च्यवोऽपुनश्च्यवः, अपासिकण-अदृष्या-अन्य० । अनालोच्येत्यर्थे, नि०० १३०। देवेभ्यश्च्युत्वा तिर्यगादिष्त्पत्त्यभावे, उत्त० ३०। अपि (वि)-अपि-अन्य० । सम्भावने, उत्त०४ उ० स्था। अपुणबंधय-अपुनर्बन्धक-पुं० । न पुनरपि बन्धो मोहनीयवाढाथै, रा०। कोत्कृष्टस्थितिबन्धनं यस्य स अपुनर्बन्धकः । पञ्चा. ३ विवः । अपिट्टणया-अपिट्टनता-स्त्री० । यष्ट्यादितामनपरिहारे, भ० ७ | भावसारे धर्माधिकारिभेदे, यो०वि० । यस्तु तां तथैव कपशु०६०। यन् प्रन्धिप्रदेशमागतः पुनर्न तां भञ्चति नेत्स्यति चन्धि Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपुणबंधय अनिधानराजेन्डः। अपुगाबंधय सोऽपुनर्बन्धक उच्यते । “पावं ण तिव्वजावा कुण" इति ननूपचरितं वस्त्वेव न भवति, तत् कथमुपचारतः शेषस्य पूवचनात् । ध० ३ अधि। सेवा स्यात् ? इत्याशङ्कयाहएतस्यकणं यथा कृतश्चास्या नपन्यासः, शेषापेक्षोऽपि कार्यतः। पावं ण तिब्वभावा, कुण ण बहुमन्नई भवं घोरं । नासन्नोऽप्यस्य बाहुल्या-दन्यथैतत्पदर्शकः ॥१७॥ उचिअहिरं च सेवइ, सव्वत्य वि अपुणबंधो त्ति ॥ । कृतश्च कृतः पुनरिद अस्याः पूर्वसेवायाः उपन्यासः प्रशापपापमशुबै कर्म, तत्कारणत्वाकिंसाऽऽद्यपि पापम् । तद् नारूपः शेषापेक्षोऽपि अपुनबंधकनावासनजीवानाश्रित्य, नैव तीवनावाद् गाढसंक्लिएपरिणामात्करोति । अत्यन्तोत्कट- कार्यतो भाविनी जावरूपां पूर्वसेवामपेक्ष्य नहलोदकं पादमिथ्यात्वादिकयोपशमेन लब्धाऽऽत्मनर्मल्यविशेषत्वात्तीवेति वि. रोग इत्यादिष्टान्तात् । यतः, न नैवाऽऽसन्नोऽपि समीपवर्त्यपि, शेषणादापन्नम्-अतीवभावात्करोत्यपि,तथाविधकर्मदोषात्। त. जीवोऽस्यापुनर्बन्धकाभावस्य, किं पुनरयमेवेत्यपिशब्दार्थः। बाथा न बहु मन्यते न बहुमानविषयीकरोति, जवं संसार, घोरं इल्यात्प्रायेणान्यथाऽपुनबंधाचारविलकणो वर्तत इत्येतस्यारौद्र, घोरत्वावगमात् । तथा-उचितस्थितिमनुरूपप्रतिपत्ति, च थस्य प्रदर्शको व्यापकः । न हि मृत्पिण्डादिकारणं कार्याद् शनःसमुचये।सेवते भजते।कर्मनाघवात्सर्वत्रापि, भास्तामेक- घटादेर्बाहुल्येन वैलक्षण्यमनुभवद् दृश्यते, किन्तु कथञ्चित्तुप्रदेशकालावस्थापेक्षया समस्तेष्वपि देवातिथिमातापितृप्रभृ- ल्यरूपतामिति । तिषु मार्गानुसारितानिमुखत्वेन मयूर शिशुदृष्टान्तादपुनर्बन्धकः, श्दमेवाधिकृत्याहउक्तनिर्वचनो जीव इत्येवंविधक्रियालिको भवतीत्यलं प्रस- शुश्वबोके यथा रत्नं, जात्यं काञ्चनमेव वा। बेन । ध०१ अधि० । द्वा। गुणैः संयुज्यते चित्र-स्तदात्माऽपि दृश्यताम् ।।१७१|| प्रकारान्तरेण शुभयच्छुद्धिमनुभवत् क्षारमृत्पुटपाकादिसंयोगेन, लोके व्यजवाजिनन्दिदोषाणां, प्रतिपक्षगुणैर्युतः । पहाराहजनमध्ये यथा रत्नं पद्मरागादि, जात्यमकृत्रिमं, का. वर्षमानगुणपायो, अपुनर्बन्धको मतः ।।१७।। अनमेव वा चामीकर वा, गुणैः कान्त्वादिनिः, संयुज्यते सं क्लिष्यति, चित्रनानाविधैस्तदुचितैः, तद्वद् रत्नकाञ्चनवत, प्रा. भवाभिनन्दिदोषाणां चुडो लोभरतिर्दीनो मत्सरी' इत्यादिना स्माऽपि जीवः शुद्धयेत,किं पुना रत्नकाशने ?,इत्यपिशब्दार्थः । प्रागेवोक्तानां, प्रतिपक्षगुणैरक्षुद्रतानिर्लोभतादिभियुतो, वर्द्धमा दृश्यताम्-ऊहापोहचक्षुषाऽवलोक्यतामिति । नगुणप्रायो वर्द्धमानाः शुक्लपक्षकपापतिमयमलमिव प्रतिकत्र अत्रैव मतान्तरमाहमुल्लसन्तो गुणा औदार्यदाक्षिण्यादयः, प्रायो बाहुल्येन यस्य स तथा । अपुनर्बन्धको धर्माधिकारी मतोऽनिप्रेतः। तत्मकृत्यैव शेषस्य, केचिदेनां प्रचक्षते । आलोचनाद्यनावेन, तथाऽनाजोगसङ्गताम् ।।१८२॥ अस्यैषा मुख्यरूपा स्यात् , पूर्वसेवा यथोदिता । कस्याणाशययोगेन, शेषस्याप्युपचारतः ॥१७६ ॥ सा पत्यमाणविशेषणानुरूपा या प्रकृतिः स्वभावस्तया शेषस्य सकृदन्धकादे, केचित् शास्त्रकारा एनां पूर्वसेवा, प्रचक्षते व्याप्रस्यापुनर्बन्धकस्यैषा प्रागुक्तमुख्यरूपा निरुपचरिता, स्याग- कुर्वते, न पुनः सर्वे । कोहशीम् ,श्त्याह-श्राखोचनाद्यभायेन वेत् । पूर्वसेवा देवादिपूजारूपा, यथोदिता यत्प्रकारा निरूपिता आलोचनस्योहस्य, आदिशब्दादपोहस्य, निर्णयस्य, मार्गविषयप्राक् । कल्याणाशययोगेन-मनाग मुक्त्यनुकूमशुजभावसंबन्धेन, | स्याभावेन, तथाऽनाभोगसंगतां, तथा तत्प्रकारः, कश्चिदपि शेषम्यापुनर्बन्धकापेक्वया विसकणस्य सकृदन्धकादे, उपचारत भवस्वरूपाऽनिर्णायको योऽनाजोग उपयोगाभावस्तत्संगतां औपचारिकी पूर्वसेवा स्यात्, अद्यापि तथाविधभववैराग्या- पूर्वकारणभावेमोपचरितत्वमुक्तमत्र चानाभोगद्वारेणेति ॥ भावात्तस्य ॥१७॥ एतदेव समर्थयमान आहह केचिन्मार्गपतितमार्गाभिमुखावपि शेषशब्देनाहुः । तत्र न युज्यते, भपुनर्बन्धकावस्थाविशेषरूपत्वात्सयोरपुनर्बन्धकम युज्यते चैतदप्येवं, ती मनविष न यत् । हणेनैव गतत्वात् । यतो ललितविस्तरायां मार्गलकणामत्थमु- सदावेगो भवासङ्ग-स्तस्योच्चविनिवर्तते ।। १८३ ॥ क्तम्-इह मार्गधेतसोऽवक्रगमनं, तुजङ्गमनलिकाऽऽयामतुल्यो युज्यते च घटत एवैतदप्यनन्तरोक्तं वस्तु, किं पुनः परम्परोक्तविशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही कयोपशमविशेष म, इत्यपिशब्दार्थ एवं यथा केचित्प्रचक्षते। अत्र हेतु:-तीनेऽत्य.इति । तत्र प्रविष्ट मार्गपतितः मार्गप्रवेशयोग्यभावापन्नो मार्गा- न्तमुत्कटे, मलविषे कर्मबन्धयोग्यताबकणे, न नैव, यद्यस्मात, भिमुखः, एवं च नैतावपुनर्बन्धकावस्थायाः परपरतरावस्था- तदावगो माविषावेगः । किंरूपः,त्याह-नवासनः संसारभाजी वक्तुमुचिती, जगवदाझावगमयोग्यतपा पञ्चसूत्रकवृत्ताव. प्रतिबन्धः, तस्य शेषजीवस्य, उचैरत्यन्तं,विनिवर्तते, मनागपि नयोरुतत्वात् । यथोक्तं तत्र-श्यं च भागवती सदाका सर्वैवा. हि तनिवृत्तौ तस्यापुनर्बन्धकत्वमेव स्यात् इत्यौपचारिक्येव ऽपुनर्बन्धकादिगम्या । भपुनर्बन्धकादयो ये सवा उत्कृष्टां क- शेषस्य पूर्वस्यैवेति स्थितम् ॥ मंस्थिति तथाऽपुनर्बन्धकत्वेन वपयन्ति ते खल्वपुनर्बन्धकाः । अथ यां प्रकृतिमाश्रित्य पूर्वसेवा स्यात्तां, तद्विपर्ययं चाऽऽह आदिशब्दान्मार्गापतितमार्गानिमुखादयः परिगृह्यन्ते, रदप्रति- संक्लेशायोगतो नूयः, कल्याणाङ्गतया च यत् । . झालोचनादिगम्यलिकाः । पतम्येयं न संसारान्निनन्दिगम्येति । संसाराऽभिनन्दिनश्चापुनर्बन्धकप्रागवस्थानाजो जीवा इति। ताविकी प्रकातईया, तदन्या तूपचारतः ॥ १८ ॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०८) अपुणबंधय अभिधानराजेन्द्रः। अपणबंधय संकेशाऽयोगतो भूयः पुनरपि, तीवसंक्लेशाध्योगेन कल्याणा-] प्रतिष्ठितम् । किमुक्त जयति ?-स्वबुद्धि कल्पनाशिक्षियनिर्मितम् । तया च उत्तरोत्तरभववैराग्यादिकल्याणनिमित्तभावेन था। स्वचुरिकल्पना स्वच्छन्दमतिविकल्परूपा, सैव शिल्पी वैज्ञानिपद्यस्माद् वर्तते या सा तस्मात्तास्तिकी वास्तवरूपा, प्रकृतिः कस्तेन निर्मितं घटितम ; न तु न पुनस्तत्वतः परमार्थतस्तस्वभावलकणा धर्माऽई जीवस्य शेयाः तदन्या तु तस्या भ. द्भोगसुखं धर्मानुष्ठानं चेति। न्या पुनः प्रकृतिरूपचारत उपचारतरूपा ताश्विकप्रकृति तद्भावनाऽर्थमाहविसवणत्वात्तस्याः। जोगाङ्गशक्तिवैकल्यं, दरिद्रायौवनस्थयोः । एनां चाश्रित्य शास्त्रषु, व्यवहारः प्रवर्तते । मुरूपरागाश च, कुरूपस्य स्वयोषिति ।। १५० ॥ ततश्चाधिकृतं वस्त्र, नान्ययेति स्थितं बदः॥ १५ ॥ यह नोगाङ्गानि रूपादीनि । यदाद वात्स्यायन:-"रुपयांवपना चैनामेव तात्विकी प्रकृति चाश्रित्यापेक्ष्य, शास्त्रेषु यो चक्कण्यसौनाम्यमाधुर्यैश्वर्याणि भोगसाधनम्" इति। तत्रापिम्प. गप्रतिबकेषु,व्यवहारः पूर्वसवादिः,प्रवर्तते प्रज्ञापनीयतामेति । आयोवित्ताव्यत्वानि प्रधानानीति। एतदेव त्रितयमपेक्ष्याऽऽहततश्च तस्मादेव हेतोरधिकृतं पूर्वसेवालवणं वस्तु तात्त्विक, 'भोगाशक्तिवैकल्यं ' भोगाङ्गानां रूपादीनां, शक्तभोगासेबनान्यथा पुनर्बन्धकं व्यतिरिच्यत स्थितं प्रतिष्ठितं, हि स्फु-| नलकणाया वैकल्यमजावः, दरिझायौवनस्थयोईरिस्य भोगाटम, प्रद पतत्। विरहोऽयौवनस्थस्य त्वशक्तिरिति । सुरूपरागाशके च सुको नोक्तुमारग्धे स्त्रीगते सुन्दरे संस्थाने रागोऽभिभ्यतातिरेका, तथा आशङ्का च स्त्रीगतानुरागसंदेहरूपा तस्मिन् , ततः सुरूपरागचाशान्तोदात्तत्वमत्रव, शुखानुष्टानसाधनम् । शङ्का च सुरूपरागाश), पुनः कुरूपस्य तु पुंसः स्वयोषिति मुक्ष्मजावोहसंयुक्तं, तत्त्वसंवेदनानुगम् ।। १८६ ॥ स्वस्त्रियामिति । ततश्वशाम्तस्तथाविधेन्द्रियकषायविकारविकलः, उदात्त सोश अनिमानसुखाभावे, तथा निष्टान्तरात्मनः । तराचाचरणस्थितिबद्धचित्तः । ततः शान्तश्चासाबुदात्तश्च शान्तोदाना, तस्य नावस्तश्चम । अत्रैव प्रोक्तप्रकृती सत्यां, जा- अपायशक्तियोगाच्च, नहीत्थं भोगिनः सुखम् ॥११॥ यते शुद्धाऽनुष्ठानसाधनं निरवद्याचरणकारणमा तथा-सूक्ष्म. अभिमानसुखानावे अहं सुखीत्येवं चित्तप्रतिपत्तिरूपलक्षणभावोहसंयुक्तं बन्धमोकादिनिपुणभाषपर्यालोचनयुतम । प्रत स्यानिमानसुखस्याभावे सति, तथेति विशेषणसमुचये । क्लिष्टापव तत्वसंबेदनानुगं तत्त्वसंवेदनसंकितकानविशेषसमन्वितम्। म्तरात्मनोऽपूर्वमाणेच्चत्वेन साबाधचित्तस्यापायशक्ति.योगाचाततः पायस्य निर्वाहशरीरव्यवच्छेदरूपस्य दरिलायौवनस्थयोः कुरूशान्तोदात्तः प्रकृत्येह, शुजनावाश्रयो मतः । पस्य वा रुचिमतस्वीकृतोचाटनादेर्या शक्तियोग्यता,तस्या योधन्यो जोममुखस्येव, विनाट्यो रूपवान् युवा ।।१०।। गात्संबन्धात, चः समुच्चये। किम?, इत्याह-नहि नैवेत्थमनाव्य स्वादिविशिष्टस्य भोगिनः सुखं नोगज यद्विचरणैर्मुग्यत इति । शान्तोदात्त उक्तरूपः, प्रत्या स्वभावेनेड जने, शुभभावाश्रयः यथा च तद्भोगसुखमनुष्ठानं च ष्टान्तवार्शन्तिकभावेन परिशुरुचित्तपरिणामस्थानं, मतो जन्तुः । अत्र स्पान्तमाह स्यातां तथाऽऽहधन्यः सौनाग्यादेयतादिना धनाहों भोगसुखस्येव शब्दरूपरस. অন্যান্য যথাসম্ভ, ঘিাঘা বিমাবন্ধ, अतोऽन्यस्य तु धन्यादे-रिदमत्यन्तमुत्तमम् । रूपवान् शुभशरीरसंस्थानः, युषा तरुणः पुमान् । यथा तथैव शान्तादेः, शुष्टानुष्ठानमित्यपि ॥ १३॥ एतदेव न्यतिरेकत पाह अतः प्रागुक्ताद्भोगिनः सकाशात् , अन्यस्य तु भन्यप्रकार भाजः, पुनः धन्यावरुक्तरूपस्य भोगिन इदं भोगसुखमत्यन्तअनीशम्य च यया, न भोगमुखमुत्तमम् । मुत्तम,शेषनोगसुखातिशायि यथा स्यात्तथैव, शान्तादेशान्तो. अशान्नादस्तया शुकं, नानुष्ठानं कदाचन ॥ १०॥ दात्तप्रकृतेरनुष्ठानं प्रस्तुमित्यपाद्मपि शेयम् । भनीहशस्य व धन्यादिविशेषणविक लस्य पुनर्यथा न जोमसु. एवं सति यत्स्यात्तवाहवं शब्दादिविषयानुभवन्नकणम,उत्तम प्रकृष्ठम, अशान्तादेरशा- क्रोधायबाधितः शान्तः, उदात्तस्तु महाशयः। स्तम्यानुदात्तम्य च । तथा नोगसुखवत, अरनिर्वाणावमध्यवी. जकल्प नानुष्टानं देवपूजनादि, कदाचन कचिन पिकाले । शुभानुवन्धिपुण्याच, विशिष्टमातिसंगतः ।। १६३ ॥ क्रोधाद्यबाधितः शान्तः, उदात्तस्तु उदात्तः, पुनमहाशयो तहिं कि स्यात?,इत्याशङ्कयाह गाम्भीर्यादिगुणोपेतत्वेन महानेताः, शुभानुबन्धिपुण्याचपुमिथ्याविकल्परूपं तु, दयोद्वयमपि स्थितम् । एयानुबन्धिनः पुण्यात्सकाशात्पुनर्विशिष्टमतिसंगतो मार्गाम्बफिकल्पनाशिल्पि-निर्पितं न तु नच्चनः || १ए। नुसारिणौढप्रशानुगतः मन । फिमित्याहमिश्याधिकलारूपं तु मम्मचिकादिप मुग्धमृगादीनां जलादिप्रतिभामाकारं, पुनर्वयोगवि ऋणयाभाँगिधार्मिकयोदय मदनध्यमतः प्रायो, नववीजादिगोचरम् । मपि भोमहम्मानुशानरूपं, किं पुनरेवेकमित्यपिशब्दार्थः । स्थितं | कान्नाऽऽदिगनगेयाऽऽदि, तथा भोमीव सुन्दग्म् ।।१।४।। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०० ) अनिधानराजेन्द्र म पुयाबंधय कहते वितर्कयति, श्रयमपुनवन्धकः, अतो विशिष्टमतिसांगत्यात् प्रायो बहुल्येन । कथम् ?, इत्याद-भववीजादि गोचरं भ ववीजं भवकारणमः श्रादिशब्दाद्भवस्वरूपं भवफलं च गृहांत । यथा-" एस णं श्रणाइजी वे अणाजीवस्स भवे अगाइकम्मसंयोगविदुक्खये दुफले चिन्तित भवबीजादिगोचरो यत्र तत्तथा क्रियाविशेषणमेतत् । अथवा भवबीजादिगांचरो विषय ऊहनीयतया भववीजा दिगोचरस्तम् । श्रत्र प्रान्तः कान्तादिगतगेयादि । कान्ता वल्लभा, श्रादिशदात्तदन्यगायनादितं तत्यतिवद्धं यद् गये गीतम आदिशन्दापरखादिशेषेन्द्रियविषयः। तथा तत्प्रकारो गे योग्य भोगी सच सुन्दरं महान्यविपयस्थानमागतमिति वचा विचको प्रोगी सुन्दरं काम्यागिदि कहते तथाऽयं भव:जादिकमिति भावः । यथोदते तथैवाऽऽह प्रकृतेर्भेदयोगेन, नासमो नाम आत्मनः । देवनेदादिदं चीरु, न्यायमुषाऽनुसारतः ।। १५ ।। प्रकृतेः परपरिकल्पितायाः सस्वरजस्तमोरूपायाः स्वप्रक्रियाया शानाधरणादिलक्षणायाः, योगेनैकान्तेनैय नेनेत्यर्थः । नाम नाम परिणाम तम्बधानोन्मीलनादिकः प्रत्यक्षत एवोपलभ्यमानः, आत्मनो जीवस्य स्यात, किन्तु सजीवानां सर्वदेव सम एव प्राप्नोति । कुतः इत्यादयभ दाद देती। प्रकृतिभेदाभेदा नानात्वात् । - भिने ती कचिदपि फलनेद उपपद्यत इति कृत्वा इदमनेकानेव प्रकृतिभेष आत्मनः परिणामवैश्यास वस्तु चारु संगतं वर्तते । कुतः ?, इत्याह-न्यायमुद्राऽनुसारतः, न्यायस्य मुद्रा कृतनिधि परेर राजादिमुद्रात तस्या अनुसारतो ऽनुवर्तनात् । तथाहि यदि प्रकृतिनेदे सत्यपि परिणामनानात्वमात्मन इष्यते, तदा मुक्तानामपि प्राप्नोति संसारिणां मुक्तानामपि च प्रकृतिभेदाविशेषात् । एवं सर्वस्तयोगादमात्मा तथा तथा । भवे भवेदतः सर्व-प्राप्तिरस्याविरोधिनी ।। १७६ ॥ एवं च प्रकृतिभेदात्मनः परिणामनामात्यसाङ्गये सति पुनः कि स्यादित्याह स निरवशेषः, तद्योगात्कृतियां शिक्षण, अयम-अपुनर्वन्धकाद्यवस्थाभा आत्मा जीवः, तथा तथा नरनारका दिपर्यायभाकूत्वेन भवे संसारे, भवेत्स्यात् । अतस्तथा तथा भवनात् सर्वप्राप्तिः संसारापवर्गावस्थाला भरूपाऽस्यात्मनोऽविरोधिनी श्रविघटमाना संपद्यते । प्रकृतियोगातस्य संसारावस्या, विप्रयोगाच मुक्कावस्थेति भावः । सांसिद्धिकमलाद् यद्वा, न हेतोरस्ति सिता । तन्निं यदभेदेऽपि तत्कान्झादिविभेदतः ॥ १०७॥ सांसिद्धिकारकर्मयोग्यतालगागादिस्वभावात सांसिद्धिकमलं परित्येत्यर्थः । बद्धेति ऊहस्यैव पसारम्'न'ने हेतोरन्यस्वेश्वरानुमहादेः परिणामचितायां साध्यायां सिद्धता प्रमाणप्रतिष्ठिता । ईश्वरो हि अप्रतिस्खलितवैराग्यवान् । यतः पठ्यते-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जग स्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्व, सह सिद्धं चतुष्टयम् " ॥ १ ॥ १५३ ध 1 ततः कमी कञ्चनानुडी किसी योग्यतामपेच्य प्रवर्तते, इतरथा वेति द्वयी गतिः । किं बातः । यदि प्रथमः पक्कः, तदा सैव योग्यता हेतुः किम(श्वरानुग्रढ निग्रहास्याम है। अथा तदा न तु विभागेन, न वा क्वचित्, निमित्ताभावात् । यतः पठ्यते"सिमाना ॥ अपेक्षाहि भावानां कादाचित्कन्यसंभवः " ॥ १ ॥ इति ॥ सांसिद्धिकमलमचात्मनां परिणामधिपत्र हेतुः । तत्सांसिद्धिकमलं भिन्नं नानारूपम्, यद्यस्मात्कारणात्. अभेदेपि कथखित्सामान्यरूपतया तदपि कुतः स्वादतत्कालादिविनेदतः ते शास्त्रान्तरप्रसिका ये कालादयः कालस्वभाव नियनिपूर्वकृतपुकारला देवः सर्वजन् नका पदमुक्त का दात्तत्सांसिद्धिकं मनमात्मना सह मेदाभेदवृत्ति सथतो ना. नावृत्तं रूपं वर्तते ततस्तद्वशादेव परिणामवैचित्र्यमात्मनामनुपचरितमेवोपपद्यते, न पुनरीश्वरानुभावात् । प्रागुक्तयुक्तया तस्य इति वा पित्याविति ॥ इदमेव समर्थपति ; " विरोधिन्यपि चैवं स्या तथा लोकेऽपि दृश्यते । स्वरूपेतर हेतुभ्यां भेदादेः फलचित्रता ॥ १७ ॥ विरोधिन्यपि च परमानंद व सर्वार्थसिरियन न पुनः कथविरोधिनी सांसिद्धिकमहाम्यहम्बज्यु पगमे खति स्याद्भवेत्। यथा च विरोधिनी सर्पामि तथा नन्तरमेव दर्शितेति । तथेति हेत्वन्तरसमुच्चये । लोकेऽपि शास्त्र सायदर्शिवेपदार्थ ज्यां स्वरूपेतर हेतु परिक्षा शिकारणम्। यथा- सुपरस्य तर पुनर्निमितुर्यथावस्य चक्रीवदिताभ्यां ता मेादाद मेदाच यथा धात्स्यरूपमा दात्, इतरापेक्षया च भेदात् । किमित्याह फचित्रता कार्याणां नानारूपता । यदि हि मृन्मात्रक एव घटः स्यात्तदा सर्वधटानां मृन्मयत्वाविशेषादेकाकारतैव स्यात् । तथा वाह्यमात्रनिमत परिणामकारणविरदेख कुर्मरामायन क । स्यात्पत्तिः स्यादिति स्वरूपतरहेतू समाधियया कार्यपत्र प्रतिष च सांसिद्धिके मले सर्वजीवानां परिणामिकारणे सति तत्का लादिकारणसम्यकृतायां विश्कर्मयन्धकानां नानापरि णामप्राप्त्या सर्वो लोकः शास्त्रप्रसिको नरनारकादिपर्यायः, समासात् पुनरबन्धकत्यादि यात्रामा निलक्षणा मुक्तिरिति सर्वमनुपचरितमुपपद्यत इत्यूहते इति ॥ ततः किमित्याद एवम्प्रधानस्य, प्रायो मार्गानुसारिणः । एतद्वियोगविषयोऽप्येष सम्यक् प्रवर्धते ॥ १६६ ॥ एवमुक्तरूपेण ऊहप्रधानस्य वितर्कसारस्य प्रायो बहुल्येन, मार्गखारिणो निर्वाणपथानुकूल स्पा पुनग्धन्यथाऽपि प्रवृत्तिरस्य स्यादिति माया ग्रहणम् । एतद्वियो गविषयोऽपि आत्मना सह प्रकृतिविघटनगोचरः किं पुन जागोरपशन्दार्थः। एष ऊहः सम्यगूहनीयाथी Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्णबंधय अभिधानराजेन्दः। अपुरिस व्यभिचारी, प्रवर्ततेसमुन्मी लति । इदमुक्तं भवति-यथा भवबी- अपुणभाव-अपुनर्जाव-त्रि० । अपुनस्तथाजायमाने, "अपुजादिगोचरमतिनिपुणमूहते, तथा कमेणात्मनः कर्मणा वियो गन्नावे सिया" अपुननांव स्यात् कर्म, पुनस्तथाऽबन्धकत्यंन । गो घटत एवमप्यूहत इति । पं० सं०१द्वा। एवं सति यत्सिद्धं तदाह अपुणरागम-अपुनरागम-विलानित्ये,जन्मादिरहिते चादशा एवंलक्षणयुक्तस्य. प्रारम्नादेव चापरैः । अपुणरावत्तय-अपुनरावर्तक-पुं० न००। अविद्यमानपुनयोग नक्तोऽस्य विद्वद्भि-गोपेन्द्रेण यथोदितम् ॥२०॥ भवावतारे, सिकिंगत्यास्येऽथे, पुनर्नवचीजकमाभावात. तत्प्रा. एवंलक्षणयुक्तस्य पूर्वोक्तोहगुणसमन्वितस्य.प्रारम्भादेव प्रा. तानां पुनरजननात् । स०१ मम । औ०। " अपुनरावत्तयं रम्भमेव. वसवावकणमाश्रित्य, अपरैस्तीर्थान्तरीयैोगो व- सिरिंगणामधेयं गणं संपाविउकामेणं" ० १ ० १ ० ॥ क्ष्यमाणनिरुक्तः, उक्तोऽस्यापुनबन्धकस्य, विद्वनिर्विचक्षणैः, | भपुणरावित्ति-अपुनरावृत्ति-पं० । न । न पुनरावृत्तिः संसारे गोपेन्द्रेण योगशास्त्रकृता, यथोदितं यत्प्रकारमिदं वस्तु, तथो ऽवतारो यस्मात् तत्तथा। सियास्यज्थे, ध०२ अधि० । रा०। दितमिति । यो वि०॥ पुनरावृत्यभावे, पं० सू०। पुनरपिशुक्लपक्षेन्दुवत्मायो, वर्द्धमानगुणः स्मृतः। "ऋतुर्व्यतीतः परिवर्तते पुनः, क्षयं प्रयातः पुनरोति चन्छमाः। गतं गतं नैव तु संनिवर्तते, जलं नदीनांच नृणां च जीवितम्"। जवाभिनन्दिदोषाणा-मपुनर्वन्धको व्यये ॥ १॥ पं० सू०५ सू०। अस्यैव पूर्वस्यैवोक्ता, मुख्याऽन्यस्योपचारतः। "दग्धे बीजे यथा-त्यन्तं प्रापुर्भवति माङ्करः अस्यावस्यान्तरं मार्ग-पतिताभिमुखो पुन:॥ ॥ । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः" ॥१॥ ल.॥ (शुक्लेति) शुक्लपक्केन्दुवदुज्ज्वलपकचन्द्रवत, प्रायो बाहुल्येन, अपुणरुत्त-अपुनरुक्त-त्रि० । न० त० । पुनरुक्तिदोषरहिते, वद्धमानाः प्रतिकलमुतसन्तो, गुणा औदार्यदाकिण्यादयो यस्य भवाभिनन्दिदोषाणां प्रागुक्तानां कृत्वादीनां व्ययेऽपगमे "अपुणरुत्तेहिं महावितहिं संघृणई" |राजामा०म०। सत्यपुनर्बन्धकः स्मृतः॥१॥ (अस्यैवेति) अस्यैवापुनर्बन्धक "अनुवादादरवीप्सा-भृशार्यविनियोगदे त्वस्यानु । स्यै नोक्ता गुर्वादिपूजालकणा पूर्वसेवा,मुख्या कल्याणाशययो ईषत्संज्ञमविस्मय-गणनास्मरणेबपुनरुक्तम्"॥१दर्श०। गेन निरुपचरिता, अन्यस्यापुनबन्धकातिरिक्तस्य सकृद्वन्धका- अपुएण-पुण्य-त्रि० म०प० । अविद्यमानपुण्ये, विपा० १ देः, पुनरुपचारतः सा, तथाविधनववैराम्याभावात् । मार्गपति ९०७ मतावासातोदये वर्तमाने, “सामा णरश्याणं, पतमार्गाभिमुखी पुनरस्यापुनर्बन्धकस्य, अवस्थान्तरं दशाविशे. बसयंती अपुत्राणं । " सूत्र. १९०५ म०१० । मनायें परूपा, मागों हिचेतसोऽवक्रगमनं जुजङ्गमनलिकाऽऽयामनुल्यो पापाचारे,माचा०१०म०१ उ०। विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही कयोपशमविशेषः; तत्र प्रविष्टो मार्गपतितो मार्गप्रवेशयोग्यभवत्वोपपन्नश्च मार्गा अपूर्ण-त्रि० । पूर्णव्यतिरिक्ते, "अहवं अधमा अपुमा " भिमुख इति। नवमेतावषुनर्बन्धकावस्थायाः परतरावस्थानाजी, भपूर्णाः, अपूर्णमनोरथत्वात् । विपा०१४०७०। भगवदाझावगमयोग्यतया पञ्चसूत्रकवृत्तावनयोरुक्तत्वात् । अपुराणकप्प-अपूर्णकल्प-पुं० । प्रसमाप्तकल्पे, व्य० ४००। अपुनर्बन्धकस्यैवानुष्ठानं युक्तम् अपुरणकप्पिय-अपूर्णकल्पिक-पुं० । गीतार्थे असहाये, योग्यत्वेऽपि व्यवहितो, परे वेतो पृथग् जगुः । न्य० १० उ०। अन्यत्राप्युपचारस्तु, मामीप्ये वहजेदतः॥३॥ अपुत्त-अपुत्र--त्रि० न० ब० । सुतरहिते,"मपुत्रस्य न सन्ति योग्यत्वेषीति ] परे त्वेतौ मार्गपतितमार्गानिमुखौ योग्यत्वे लोकाः। ('लोगवाय' शब्देऽस्य मण्डनं पदयते)। स्वजनबन्धुरपिव्यवहितावपुनर्बन्धकापेक्कया दस्थाविति, पृथगपुनर्बन्ध- | हिते, निममे च । भाचा० २ ०६ म०२ उ०। कादिनी जगुः । अन्यत्रापि सकृदन्धकादावपि, उपचारस्तु प्र- अपुम-अम्-पुं० । नपुंसके, मोघः । पृ० । “अमेत्तिए घसेवायाःसामीप्य पुनर्वन्धकसग्निधानलकण सति, बहुभवतोऽ अपुमं जणिनो परिसंवामि" नि० ० १ उ०। तिनेदाभावात् ॥ ३ ॥ द्वा ०१४ द्वा०। पं.मू। बीजाधानमपि ह्यपुनबन्धकस्य । नचास्यापि पुलपरावर्तः संसारः(०)न अपुरकार-अपुरस्कार-पुं० । पुरस्करणं पुरस्कारः । गुणवाघेवं प्रवर्तमानो नेटसाधक इति भग्नोऽप्येतद्यत्नलिङ्गोऽपुनर्वन्धक नयमिति गौरवाध्यारोपः, न तथाऽपुरस्कारः । अवज्ञास्पदत्वे, इति तं प्रत्युपदेशसाफल्यं नानिवृत्ताधिकागयां प्रकृतायभून "गरदणयाप भपुरकारं जणयह" उत्त०२४०। ति कापिलाः। न वा पुनविपाक इनिच मागताः । अपन- अपुरकारगय-अपुरस्कारगत-त्रि० । भपुरस्कारं गतःप्राप्तोऽबन्धकास्ववंचूना इति जैनाः। तच्छ्ातव्यमेतदादरेण परिभा. पुरस्कारगतः । सर्वत्रावबाऽऽस्पदीनूते, उत्त० २०७० बनायमाल॥ अपुरव-अपूर्व-त्रि० । पूर्वमश्रुते, 'पूर्वस्य पुरवः' ।।२७० ॥ अपुणन्नव-अपुनर्नव-त्रि० । न० २० । पुनर्नवसम्नवरहिते, इति शौरसेन्यां पूर्वशब्दस्य पुरनेत्यादेशः । “अपुरवं नाडमे । यतः पुनर्जन्म न जति, "सिद्धिगाणलयं सामय-मब्बावाहं भपणम्भवं पसन्धं सोम" (ब्रह्मचर्य ), ततः पुनर्नवसम्नवा भपुरवागदं । पके-मपुव्वं पदं । अपुश्चागदं"। प्रा०॥ नावात् । प्रश्न आश्र०६०। अपूरिस-अपुरुप-पुंगान पुरुषः। न०तानपुंसके, स्था०६वान Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसक्कारपरकम पुरिसकारपरकम-पुरुषाकारपराक्रम - त्रि० न० ब० । पुरुपकारः पराक्रमश्च न विधेते यस्य सोऽपुरुषकारपराक्रमः । निष्यादिप्रयोजनेन प्रयोजनेन था पौरुषाभिमानेन रहिते, विपा० १ ० ३ अ० ॥ भ० । .. अपुरमा अपुरुषवाद (च्) पुं० [स्त्री० पुरुष नपुं स्तवादः, वाग्वा । वृ० ६ उ० । नपुंसकोऽयमित्येवं चातीयाम, विपथमा दावा पमाणे पस द्वितीयः प्रस्तारः । ( व्याख्याऽन्यत्र ) । स्था० ६ ० । पुरोहितर्मकारिरडित, यत्र तथाविधप्रयोजनाभावात् पुरोहितो नास्ति । पुरोडियम पुरोहित भ० ३ ० १ ४० । अन्य अपूर्व० ० ० अनि अनन्यसद, प्रच २२४० प्रति अपूर्व भा०म० द्वि० अपूर्वर आव० ४ अ० द्वा० ॥ (६) श्रभिधान गजेन्द्रः । - 1 अपुष्करण - अपूर्वकरण १० अपूर्ण किय पाय त्यपूर्वकरणम् । तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुरुश्रेणि गुणसंकमा, अन्यथा स्थितिबन्ध चिकारा बौगपद्येन पूर्वममाः प्रवर्तन्ते यपूर्वकरणम्। आचा० १ ० U [अ०] १० । प्राप्तं पूर्वमपूर्वम्, स्थितिघात. रसधाताद्यपूमिर्वर्तनं बापू च तत्करणंच अपूर्वक रणम् । भव्यानां सम्यक्त्वाद्यनुगुणे विशुद्धतररूपे परिणामधिशेषे, आ० म० प्र० । पञ्चा० । वृ० । बो० । ('करण' शब्दे तृतीयजागे ३५६ पृष्ठे व्याक्यास्यते तत् ) अपूर्वमन प्रथममिस्वर्थः करणं स्थितिघातरसमातगुणधचिगुणसंक्रम स्थितिबन्धानां पञ्चानामर्थानां निर्वर्तनं यस्यासावपूर्वकरणः | अमगुणस्थानकं प्रति जीवे कर्म० । तथाहिबृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणयादिकर्मस्थितेर पर्वतनाक रणेन एमनमस्पीकरणं स्थितिघात उच्यते । रसस्थापि प्रचुरीभूतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खरमन मल्पीकरणं रसघात उच्यते । पतौ द्वापि पूर्वगुणस्थानेषु विशुद्धेरपत्यादावेव कृतवान्। अत्र पुनर्विशुः प्रकृष्टत्वाद् बृहत्प्रमाणतया अपूर्वाविमौ करोति । तथा उपरितनस्थितेर्विशु विवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणमुदयक्षणादुपरि किप्रतरकपणाय प्रतिकणम संख्यगुणवच्या विरचनं गुणश्रेणिः । स्थापना - * तां पूर्वगुणस्थानेष्यविमुत्वा चनामाश्रित्याप्रीयसी मल्पदलिकस्यापवर्तनाद्विरचितवान् । इह तुमेव कालतो स्वतरां] दलिक रचनामाथि पुनः बहुत लिस्नाचिरचयतीति । तथा बन्यमानयुभप्रकृतिष्ययज्यमाना शुभप्रकृतिदृक्षिकस्य प्रतिक्षणमसंग चिकानं गुणसंक्रमः । तमप्यसाविद्यार्थी करोति तथा स्थिति कर्मणामशुद्धत्वात् प्राचीयसीं बबानू, इह तु तामपूर्वी बिशुरूत्वादेव हसीयसी ब( स्थान्धः अयं चापूर्वकर-पक उपशमकश्च । कृपणेोपशमनार्हत्वाच्चैवमुच्यते, राज्यार्हकुमारराजवत् । न पुनरखो कृपया युपशमयति वा कर्म०२] कर्म० प्रव० | पं० [सं० | दर्श० । श्रष्ट० । श्राचा० । पुरेन स्थानके, प्रव० २२४ द्वा० । एतच्च गुणस्थानकं प्रपन्नानां कानानाजीयान सामान्यनोऽसंकाश प्रदेशप्रमाणान्यश्यन्रम्यावस्थामानि भवति कथं पुननि जयन्तीति विनेयज्ञानुष दिवं गुणस्थानकमन्तर्मुहूर्त कालप्रमाणं भवति । तत्र प्रथमसमयेऽपि ये प्रपन्नाः, प्रपद्यन्ते, प्रपत्स्यन्ते तदपेका जयम्याग्ाम्यसंयन्यकादेशमायमाय स्थानानि लभ्यन्ते, प्रतिपनृणां बहुन्वाध्यवसायानां च विचि प्रतिभावनीयम मंतु यदि प स्थानकं प्रतिपद्यानामनन्तान्यध्यवस भवति । अनन्तरस्य प्रतिपत्पादनतिरेव प्रतिमा नत्वादिति । सत्यम् । स्यादेवं यदि तत्प्रतिपणां सर्वेषां पृथक पृथग्भान्येवाध्यायनि यायावर्तित्वादति। ततो द्विचिकतादयध्यवसाय स्थानिय समये तदन्या म्यधिकराणि चतुर्धसमयेन्यान्यचित यं यावच्चरमसमयः । एतानि च स्वाप्यमानानि विश्रमचतुरखं क्षेत्रमभिव्याप्नुवन्ति । तद्यथा-४००००००० अत्र प्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात्प्रथम समयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणविशम् तथ द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुम ततोऽपि द्वितीय- ३०००००० समयजघन्यास दुत्कुएमनन्तगुविशुता तृतीय- २००००० समय परिशुष्य ततोऽवि १०००० मनन्तगुण विकि स्येवं तावन्नेयं यावद्विचरमसमयोत्कृष्टशत् चरमसमयजघन्यमनन्तगुणचि शुरू ततोऽपि मलगुणविशुरू मिति । एकसमयगतानि चामून्यध्यवसायस्थानानि परस्परमनन्तभागवृरूचसङ्घपात भागवृद्धि सङ्ख्यातना गवृद्धिसंख्येय गुणदृ: ज्यसंख्येयगुणवृरून तगुणवृद्धिरूपषट्स्थानक पतितानि । युगपदे स्थानविष्टानां च परस्परमव्यवसायस्थानाया. : निवृत्तिरप्यस्तीति निवृतिस्थानमध्ये ते म त एवोक्तं सुत्रे " नियट्टि अनियट्टीत्यादि" । कर्म ०२कर्म० प्र० प्रपुव्यणाणगहण अपूर्वज्ञानप्रणामस्य निरन्तरं ग्रहणमपूर्वज्ञानप्रणमतीर्थकरनामकर्मबन्धकारणम् । श्रपूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तरं ग्रहणे. भा० म प्र० । प्रव० । अपु (पु) स्युष- अल्पोत्सुक त्रि० श्रविमनस्के, भाचा० २ ० ३ ० १ ० । अपु-अपृथक्त्व ० अविद्यमानं पृथकत्वं प्रस्तावात्संयमयोगेभ्यो विमुक्तत्व स्वरूपं यस्यासावपृथक्त्वः । सदा संयमयोगपति (०) संयमयोगे योनि ० ( सुप्पणिहिए विहर " उत्त० २६ अ० । अपुहत्तायोग अपृयक्त्वानुयोग पुं० । अनुयोगभेदे यत्रै कस्मिश्व सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते, अनन्तागमपर्यायत्वात् सूत्रस्य । दश० १ प्र० । अपूया प्रजा स्त्री० पुजाभावे, पूषाऽच्या दिवाऽदिया " स्पा०५ ० ३ उ० । अ करागुद्वाण-अपूर्वरानन० करस्य गुणस्थानकमपूर्वकरणगुणस्थानकर अष्टम अन-अप अनावरत आ० म०६०। । - 3 । Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१२) अपेय निधानराजन्द्रः। अप्पावरिया अपेय-अपेय--त्रि० । मद्यमांसरसादिके (पातुमनर्हे ), नि० अप्पउबदुप्प उतुच्छनक्खणय-अपकदुप्पकतुच्चजाणकचू०२ १०। न। अपक्कं अम्निना संस्कृतं, दुष्पकं चार्कस्विनं तुच्छ च नि:अपेयचक्खु-अपेतचकप-त्रि० । लोचनरहिते, बृ० १ उ०। सारमिति द्वन्द्वः । तेषां, धान्यानामिति गम्यम् । भक्कणमदअपेहय-अपेकक-त्रि० । अपेक्किणि, निर्जरापेक्विकर्मक्यापे नं तदेव स्वार्थिके कप्रत्यये सति अपकपुष्पकतुच्छभवणकम् । जोगपरिभौगोपनागवृत्तातिचारे, पश्चा० १ विष०॥ कक शति । आव०) ४ अ०। अपोग्गल-अपुद्गल-पुं० । न विद्यन्ते पुद्गला येषां तेऽपुद्गलाः अप्पांयण-अप्रयोजन-न० । अप्रयोजने निष्कारणतायाम, सिकाः । पुद्गलरहिते, स्था०५ ग०१ उ.। अनर्थोऽप्रयोजनमनुपयोगो निष्कारणतति पर्यायाः । आव. ६ अ०। अपोरिभिय-अपौरुपिक-त्रि० । पुरुषः प्रमाणमस्येति पौरुषि अप्पंग-अन्पाएम-त्रि० । अल्पान्यएमानि कीटकादीनां यत्र कम् : तन्निषेधादपौरुषिकम् । पुरुषप्रमाणाभ्यधिकऽगाधजत्रा तदल्पारामम् । अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्तते । अपमकरहिते, दौ, 'अत्थाहमपोरिसियं पक्खिवजा.' ज्ञा०५०। प्राचा०१ ७० ८ अ० ६ १०॥ अपोरिमीय-अपारुषय-त्रि० । पुरुषः परिमाणं यस्य तत्पौ अप्पकंप-अप्रकम्प-त्रि० । अविचत्रितसत्वे, “मंदरो श्च अप्परुपयं, तनिषेधादपौरुषयम्। पुरुषप्रमाणाभ्यधिकेगाधे जलादौ कंपे" मेरुरिवानुकूलाद्युपसगैरविचलितसत्वः । स्था० १००। "अस्थाहमतारमपोरिसीयं ति" झा० १४ अ० । पुरुषणाकृते वचन, अपौरुषेयो वेदः, वेदकारणस्याथ्यमाणत्वात् । स्था०१० अप्पकम्म-अस्पकर्मन्-त्रि० । लघुकमणि, स्था० ४ ठा० । गाल। पं.यानं०। (वेदानामपौरुषेयत्वविमर्शः 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे ५३ पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते ) अप्पकम्मता-अल्पकर्मतर-त्रि० । स्तोककर्मतरे, अकर्मतरे पाह-पु० । अपादनमपाहः । निश्चय, "हाइ अपाहा | च। “इंगालभूए मुम्मुरए छारियतूप तओ पच्छा अप्पकम्मवायो" । अपोहस्तावत् किमुच्यते ? , इत्याह-अपोहो भवत्य- तगए चेव"अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्याल्पशब्दः स्तोकार्थः। क्षारापायः। योऽयमपोहः स मतिज्ञानतृतीयभेदोऽपाय इत्यर्थः । वस्थायां त्वजावार्थः। भ०५ श०६उ० । नैरयिका ये नरकेषु विशे० । नं० । जुक्तियुक्तिभ्यां विरुकादर्थाद हिंसादिकात् उत्पन्नास्तेषु, (के महाकर्मतराः?, केऽल्पकर्मतराः ? , इति प्रत्यपायव्यावर्तने विशेषज्ञाने, (१०)एर पठो बुझिगुणः ।। 'नववाय' शब्दे द्वितीयभागे १७० पृष्ठऽवलोकनीयम) ध० १ अधि० । पृथग्भावे, तत्स्वरूपायां प्रतिलेखनायां च तथा। अप्पकम्मपञ्चायाय-अस्पकर्मप्रत्यायात-त्रि० । अस्पैः स्तोकैः चकपा निरूपयति यदि तत्र सत्वसम्नवो भवति, तत उद्धारंभिकरन पायायातायात करोति सत्वानामन्यवांभे सति, स चापाहःप्रतिवेखना नवति । कर्मप्रत्यायातःगएकत्र जनितत्वात्ततोऽस्पकर्मा सन् यः प्रत्याअाघ । बौद्धानिमते वादविशेष, तथाहि-अपोढवादिना वु यातः स तथा । लघुकमंतयोत्पश्ने, स्था० ४ ० १ उ० । ध्याकारी वाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इतीप्यते । यथो अप्पकाल-अल्पकान-त्रि० । अल्पः कालो यस्य तवल्पकासम् । क्तम्-" तगारोपगत्याऽन्य-व्यावत्यधिगतः पुनः । शब्दाथाऽर्थः स एवेति, वचनेन विरुध्यते"॥१॥ इति । सम्म | इत्वरकाझे, अनु। काम । (विशेषस्तु शब्दार्थनिरूपणावसरे 'सत्य' शब्दपोह अप्पकिरिय-अल्पक्रिय-त्रिका बघुक्रिये, स्था०४ ग० ३१०। विचारो घटव्यः) अप्पकिरिया-अस्पक्रिया-खी । निरवद्यायां वसती, पं०५० अप्प-अल्प-त्रि | स्तोके, सुत्रः १ श्रु०५१०२ । आ-| ३ द्वा०। चापिका प्रसाऔ० । प्रश्नाव। स्था०1०प्र० जा पुण जहुत्तदोसे-हैं वज्जिया कारिया सअट्ठाए । नि० चूा आ००। अभाव, प्राचा०१ श्रृ०७०६ उ०।। उत्त०। अनु० । प्रा० म०। रा० । अस्पशब्दो भाववाचकः । परिकम्मविप्पमुक्का, सा वसही अप्पकिरियायो॥ स्था०७० । वृ०। या पुनर्यथोक्तदोषैः कालातिक्रान्तादिलक्षणैर्वर्जिता केवलं अप (ण)-आत्मन्-पुं० । अत सातत्यगमने । अतति सततं ग- खस्यात्मनोऽर्थाय कारिता परिकर्मणा च विप्रमुक्ता; सर्वस्यापि कछनि विगुद्धिसंक्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा। उत्त०१० परिकर्मणः स्वत पवाने प्रवर्तितत्वात, सा वसतिरल्पक्रिया श्रा० चू । अत् मनिन् , प्राकृते-"भस्मात्मनोः पो वा" |२|| वेदितव्या। ५१ । इति सूत्रेण संयुक्तस्य वा पः । प्रा० । जीव, यत्ने, मन सम्प्रति यतनां दर्शयितुकाम दमाहमि, वृत्ती, वुद्धौ, अर्के, बन्हों, वायौ, स्वरूपे च । "अप्पणा चेव हिहिया वरिया--हि बाहिया न न लनंति पाहनं । उदौरइ" आत्मना स्वयमेव । भ० १२०३ उ0। "अप्पणा अप्पणा कम्मक्खयं करित्तए " अत्मनाऽऽत्मनः कर्मक्षयं कर्तमिति।। पुनानाऽजिणवं, चनसु भय पच्छिमाऽभिनवा ॥ झा० ५० प्रा० चा0। " अप्पणी भासाए परिणामणं " अधस्तन्य परितनानिर्वाभ्यन्ते,बाधिताश्च सत्यो नतुव, सन्नन्ते स्वभापापरिणामेनत्यर्थः । उत्त०२०।" अप्पा णा वेतर-| प्राधान्यम् ।श्यमत्र भावना-नवाऽपि वसतयः क्रमणे स्थाप्यन्ते णी, अप्पा मेकममामली।" उत्त०२० अ० देडे, प्रात्मन प्रा-1 तत्राल्पक्रिया निदोंऐति प्रथमम् । तद्यथा-अल्पक्रिया, कालाति: धारभूतत्वात् । उत्त० ३ ०( अस्मिन्नेव भागे ' अणाह' क्र.ता,उपस्थाना, अभिकान्ता, अनभिकान्ता, वा,महावा, शब्दे ३२५ पृष्ठ व्याख्यातमेतत् ) सावद्या, महासावद्या च । अत्राधस्तनी अल्पकिया, अस्यां यदि Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१३ ) अभिधानगजेन्द्रः । अप्पांकरिया अतिरिकाले तिष्ठन्ति ततः सा कालातिक्रान्ना, या माध्यने सा काज्ञातिकान्ना भवतीति नायः। कालानिक नाम यदि प्रागतितिस्वरूप कालमर्यादां द्विगुणां द्विगुणामप त्यो पागच्छन्ति, ननः सा उपम्यानया बाध्यते, उपम्याना सा भवतीति भावः । एवं यथासंभवमुपयुज्य वनव्यम् । ( पुग्वान नि )श्रामांच नवानां शय्यानांमध्ये कान्नातिक्रान्ता पूर्वा सा अनुशाना, अपक्रियाया अलाभेसा आश्रयणीया इति ज्ञावः । तस्या अप्यभावे शेपाणां पूर्वा उपस्थाना सा अनुशाना, एवं या या पुत्रां सामा अनुज्ञाना नावद्वतव्या याचन् सावद्यायाः महासावद्यायाः पूर्वा सा अनुमाना । एवं पूर्वस्याः पूर्वस्था अल्लाभे उत्तरम्या उत्तरस्या अनुका वेदितव्या । श्रजिनवं (चचसु भयत्ति) चनमृणु वर्मातिषु, अभिनवेनि दोषः संबध्यते । अनिनवं दोषं नज विकल्पय, कहाचिद्भवति कदाचिन्न भवनानि जान। दीत्यर्थः । श्रत्रापीयं नाचनाअतिकान्तायामपरिजुकेति कृत्वा विरायामयमनवदोषो जयति । वर्ज्यादिषु पुनयां अपरिनुक्तास्नासु नाभिनवदोषः । या भजना पश्चिमा। (अभिनव (स) पश्चिमो नाम महासाचचोपायः तस्मिन् अभिनव चिन्ह वा अर या अभिनवदोषा भवन्ति, एकपक्षनिर दिर्यः परिजानाति स प्रयेकल्पिकः । कथं पुनजानाति परिहर्तुम इतिचे आह उग्गमउपाय ए-सरणाहिँ युद्धं गवेमए वसहिं । तिविहं तिहिं विसुधं परिहर नवगेण देणं ॥ उफमेन, उत्पादनया, एषणया, शुद्धां वसतिं गवेषयति । तत्र या पानाही भाः। तेषु योपरिने परियो जानाति स ग्रहणे कल्पिकः कथंभूत पनि प्रमादिकां गवेषयति ?, इत्यत आह-त्रिविधां खातादिनंदनस्प्रिकाराम । तथा-त्रिनिर्मनसा वाचा कामेन च विद्ध गवेषयति तथा-खाता। स्तिस्रोऽपि बसतं। मानयन भेदेन परिहरति । तद्यथा - मनसा न गृह्णाति नापि ग्राहयति, नापि गृह्णन्तमनुजानीते । एवं वाचा कायेन च वक्तव्यमिति । पयिपगुणिधारिय, उपटतो जो जणो परिहरति । नोयणमारिए, आयरिन विसोहिकारो से ॥ अस्या व्याख्या प्राग्वत्। उक्तः शग्या कल्पिकः । वृ० १ ८० । इदानीमपतियाऽभिधानमधिकृत्याऽऽह इह खलु पाई वा ४ जाव तं रोयमा रोहिं अप्पणी सयाएतत्थ तत्थ अगारीहिं प्रगारा चेहयाई भवंति तं आ माथिबा० जानमिहाणि वा महया पुढविकायसमारं जाव अगणिकार वा उज्जयिपुत्रे जवति । जे नयेतरो तप्पगाराई भाषमाणि वा० जान गिरीवाबागच्छंत, इतर इतरेडिं पाहुमेहिं एगपक्वं ते कम्पं सेवंति प्रथमाउसो अप्पसावज्जा किरिया वि जवति । एवं खलु तस्स भिक्खु वा जिवस्तुणी वा सामन्गियं । रहेत्यादि सुगमम; नवरं अल्पशब्दोऽभाववाचीति । पतचस्य निकोः सामथ्र्यं संपूर्णो भिक्षुनाव इति । 66 अप्पको उहल कंनुवाणा अभिकता चैव श्रणमिकता य वजाय महायज्ञा साजमहकरिया य पनाच नव वमनयां यथाक्रमं नवभिग्नन्नरः प्रतिपादिनाः । श्रामुच अभिकान्नापकिये योग्ये, शेषास्वयोग्या इति । श्राचा० २.० २ ० २ २ ॥ वमतिपरिकर्मवादन लेपनादि सेय गोत्रने फामुप उंचे अहेमणिजे एो य खलु मुझे इमेदिं पामेहिं तं द्राण लेवणओ, संचार5वारपिओ पिंमवानेमणाओ || कानसूत्रे क्रिया मतिनदिनादि सूत्रेण नपरी दमासेयादि चित् कश्चित्साधुर्वसन्यन्वेषणार्थे भिक्कार्थ वा गृहपतिकु -- , पानोऽयं ग्राम चलो भवन नि नमस नामावासीयामादि निःमः पर हिनः । तदेव दर्शयति- (अहेसाण ति) यथाऽसौ मूलोत्तरगुदा ि नेवा: 66 'पट्टी वंसो दो धारणा चत्तारि मूलवेसीओ। मनगुर्णा विमुका, पसा य अढागडा बसडी ॥ १ ॥ मग पायी प परिकर्माणमुक्का, एमा मुलुनरगुणे ॥ २ ॥ मियभूमियासियो पनि कडा अपना य सिता सम्महा विय, विसोदिकोमी गया वसड़ी " ॥ ३ ॥ अत्र च प्रायशः सर्वत्र संभवत्वादुत्तर गुणानाम, नानेय दर्शयति । न चासौ शुरू भवत्यमोभिः कर्मोपादानकर्मभिः । नयथा-ज्ञान दिनादिना संस्नारकaudiकमाश्रित्य तथा द्वारमाथिन्य बृदलघुत्वापादननः, तथा द्वारस्थगनं कपाटमाश्रित्य तथा पितरुपतैिषणामाश्रित्य | तथादिनि प्रतिवनः साधून यातपि मेनोपनिमये निणं अन तपादि से नवः । इत्यादि निरूत्तरगुणैः शुरुः प्रतिश्रयो दुरापः । शुकेच प्रतिअयं साधुना स्थानादिविधेय श्रीपगमनञ्जयं बस सेवेन स विव होति दोसाओ " ॥ १ ॥ तरगुणकावापि स्वाध्या यादिभूमिसमन्वितो विविको दुराप इति । भाचा० २०२ अ०३० । येषां ते प्रप्यकिलंत अल्पकालं अपक्रान्तापयेमे ०२ अधि 'ओमे पलिताणं बहुसुभेणं दिवसे वाक्कतो' । श्राष०३ प्र० । अप्पकृषकूप-अन्यको कृपय वि०६० अस्पस्पन्द करादिनिररूपमेव चलने अल्पशब्दोऽवचा 'कुक्कुयं' कौकुच्यं करचरणभ्रूभ्रमणाद्यस बेष्टात्मक मस्येत्यरूपकीकुच्यः । हस्तपादशिरः प्रमुखशरीरावयवान म्याने पाऽप्यकुक्कुर " । उत्त० १४० ॥ " निसी 'कालाइ | अप्पको हम्ल - अल्पकौतूहल- त्रि० । ६० । स्त्रीरूपदर्श - Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) अप्पको उहत अग्निधानराजेन्द्रः। अप्पणो नादिषु अविद्यमानकोतूहले, अल्पशब्दस्यहाविद्यमानार्थत्वात् । अप्पज्जा )-आत्म-त्रि० । आत्मानं जानातीति प्रात्मकः । पृ. ३ उ०। "झो प्रः" ८।२।७३ । इति सूत्रेण अस्य वा मुक । याथार्थेनाअप्पकोह-अल्पक्रोध-पुं० । अविद्यमानकषायनेदे, नावाव त्मतत्त्वज्ञातरि, प्रा० । अपरायत्ते, नि० चू० १ ००। मोदरिकां प्रतिपन्ने, औ०।। अप्पज्जोइ-आत्मज्योतिष-पुं० । आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमाअप्पक्खर-अल्पाकर-न । अल्पायकराणि यस्मिस्तदल्पा-] त्मज्योतिः । कानात्मके पुरुषे, वेदे ह्ययं पुरुष आत्मज्योतिष्ठेनाकरम । औ० । मिताकरे. गुणति सूत्रे, यथा सामायिकसूत्रम्। भिधीयते । अप्रनुताक्षरे, विशे। औ०। अनु० । प्रा०म०। " अापक्खरं महत्थं भगुग्गहत्थं सुविहियाणं" भोघ०। अत्यमिए आश्चे, चंदे संतासु अग्गिवायासु । अप्पक्खरं महत्थं, महक्रवर उप्पऽत्य दोसु वि महत्थं । किं जोइरयं पुरिसो ?, अप्पज्जोइ ति णिहिहो।। दोसु वि अप्पं च तहा, नाणियं सत्यं चनवियप।।१३।। अस्तमिते श्रादित्ये, चन्जमस्यस्तमिते, शान्तेऽनौ, शान्तायां मत्रच चतुर्भङ्गिका-[भप्पक्खरं नि] अल्पान्यवराणि यस्मिन् तद वाचि याज्ञवल्क्यः -"किं ज्योतिरेवायं पुरुषः?,आत्मज्योतिःसम्रा मिति होवाच" । ज्योतिरिति झानमाह, श्रादित्यास्तमयादी। पावरं, स्तोकाकरमित्यर्थः। (मइत्थंसि)महानर्थो यस्मिन् तत महाध, प्रतूतार्थमित्यर्थः। तत्रैकशास्त्रं अल्पाकरंजवति महार्थच, किं ज्योतिः?, इत्याह-अयं पुरुष ति, पुरुष पात्मेत्यर्थः । अयं च प्रथमो नङ्गः। अथवाऽन्यत्किनूतं भवति (महक्खरऽप्यस्थ) कयंभूतः?, इत्याह (अप्पज्जोशत्ति) आत्मैव ज्योतिरस्य सोऽयमहाकरं, प्रनताकरं भवतीति हृदयम् । अस्पार्थ, स्वल्पार्थ मात्मज्योतिः, शानात्मक इति हृदयम् । निर्दिष्टो वेदविभिः मिति हृदयम, द्वितीयो नः । अथवाऽन्यत्किनूतं भवात , कथितः, ततो न ज्ञानं भूतधर्म इत्यर्थः । विशे० ॥ (दोसु वि महत्थं)द्वयोरपीति अकरार्थयोः श्रुतत्वादकराों- अप्पज्को-देशी-प्रात्मवशे, दे० ना० १ वर्ग। नयं परिगृह्यते । एतदुक्तं भवति-प्रनृतावरं प्रनतार्थ च, तृती- | अप्पर्कक-अपऊक-त्रि० । विगततथाविधविप्रकीर्णवचने , योजना तथाऽन्यत् किंनूतं प्रवति?,श्त्याह-(दोसुवि अप्पं च स्था गनभावावमोदरिकां प्रतिपत्रे, रा०। तहा)द्वयोरपि अल्पम, अकरार्थयोः। एतमुक्तं जवात-प्रल्पाकरमन्पार्थ चेति । तथेति-तेन श्रागमोक्तप्रकारेण, जणितमुक्तं, | अप्पमिकंटय-अप्रतिकएटक-त्रि०ा न विद्यते प्रतिमनुः कण्टको शाख, चतुर्विकल्पं चतुर्विधमित्यर्थः। यत्र तदप्रतिकण्टकम् । अप्रतिम , रा० ॥ मधुना चतुणामपि अङ्गिकानामुदाहरणदर्शनार्थमियं गाथा-अप्पमिवरिय--अप्रतिवत--पुं० । प्रादोषिके काले, "अप्पडिवसामायारी पोहे, णायज्झयमा य दिहिवाओ य । रियं कालं घेतूण य वेयए" प्रादोषिककालं यथा साधवः प्र. लोश्य कथासादि अणु-कमा य पकति कारगा चउरो॥१४॥ तिजागरितं गृहन्ति । वृ० १ उ० । श्रोधसामाचारी प्रथमभङ्गके सदाहरणं भवति । ततः प्रता अप्पण-आत्मीय-त्रि० । अपनशे, "शीघ्रादीनां बहिष्वादयः" करत्वमल्पार्थ चेति द्वितीयक्रमः । ज्ञाताध्ययनादिषष्ठाने प्रथम- G४।४२२॥ इति सूत्रेण आत्मीयस्य 'थप्पण' इत्यादेशः। स्वकीये, भुतस्कन्धे तेषु कथानकान्युच्यन्ते । ततः प्रभूताकरत्वमल्पार्थ "फोमेति जेहि अमउं अप्पण" प्रा०। स्वस्मिन्, उत्त०१ मा चेति द्वितीयाके ज्ञाताध्ययनान्यदाहरणम् । चशब्दादन्यच प्रश्नाचं०प्र० । शरीरे, प्राचा०१ श्रु०२ १०४ १०। यदस्यां कोटौ व्यवस्थितमारष्टिवादश्च तृतीयभनक उदाहरणम्। अप्पणबन्द-आत्मच्छन्द-त्रि० । स्वतन्त्रे, "बहिणुए तं धरु कयतोऽसौ प्रभूताक्षरः प्रभूतार्थश्च, चशब्दात्तदेकदेशोऽपि । चतु तिदकदशाभपा चतु:हि किंव णंद जेत्थु कुरुंबळ अप्पण-उन्दउं" प्रा०। भदाहरणप्रतिपादनार्थमाह-(सोश्य कथासादित्ति) लौकिक चतुर्भङ्गोदाहरणम, किंभूतं ! , कथासादि । श्रादिशब्दाच्छिव अप्पणट-आत्मार्थ-त्रि० । अनेन मे जीविका भविष्यतीति। भनादिग्रहः। (मएक्कम त्ति) अनुक्रमादिति। मनुक्रमेण परिपा स्वार्थे, दर्श। व्येवं तृतीयाथै पञ्चमी । कारकाणि कुर्वन्तीति कारकाएयुवाह अप्पणय--आत्मीय--त्रि० । प्राकृते." ईयस्यात्मनो णयः" ।। णान्युच्यन्ते। चत्वारीति । यथासंख्यनैवेति । भोघ०। २। १५३ । इति सूत्रेण आत्मनः परस्य यस्य णय इत्यादेशः । अप्पग-प्रात्मन्--पुं० । स्वस्मिन् , "जर अप्पगं न साहयामि स्वकीये, प्रा०। तो कहं मन्नं विणिम्गतो नगरानो" भाव.४०ामाचा। अप्पणाण-आत्मज्ञान-ज०। ६ त । वादादिव्यापारकाले सूत्र०। प्रभ०। किममुं प्रतिवादिनं जेतुं मम शक्तिरस्ति नवेति आलोचनरूपे अप्पगास--अप्रकाश--पुं० । अन्धकारे, नि००१उ० प्रयोगमतिसंपर्दोदे, उत्त०१५ अ०! आत्मपरिशानमित्यप्यत्र। अप्पगुत्ता-देशी-कपिकच्चाम, दे० ना.१ वर्ग । ध०र०। अप्पचिनय--आत्मचिन्तक-पुं० । अभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्त | अप्पणिज्ज-आत्मीय-निका स्वकीये, “अप्पणिजियाए महिनिधिते, व्य०१० उ०। लाए"। श्रा० म. द्वि० । नि० चू० । दशा।। अप्पचंदमा-अल्पच्चन्दमति-त्रि० । प्रान्मचन्दा अत्मायत्ता अप्पणी-स्वयम-अव्य स्वयमित्यव्ययार्थे, "स्वयमोऽर्थे अप्पमतिर्यस्य कार्यप्वसामान्मच्चन्दमतिः। स्वातिप्रायकार्यकारिणि.. जो न वा"||२१२०६ । इति सूत्रेण स्वयमित्यस्यार्थे 'अ"कस्स न होही येसो, मणम्यगतो मिरवगारी य । अप्पच्छा प्पणो' इत्यस्य वा प्रयोगः । “विसयं विपसंति अप्पणी कमबमरतो, पट्टियता गंतुकामो य" मा० म०प्र०ा विशे०। । लसरा"। पके-'सयं चेव मुणसि करणिज्ज।प्रा०1" अप्पो Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पयो 25 66 सवाई ति आत्मन आत्मीयानि । विपा० १ ० २ श्र० । अप्पतर- अल्पतर- त्रि० । प्रतिशयिते स्तोके, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जर " । भ० ० ६ ० । श्राचा० । सूत्र० । अप्परबंध - अल्पतरबन्ध-- पुं० । अत्यल्पे कर्मणां बन्धे, यदात्व विधादिबहुबन्धको भूत्वा पुनरपि सप्तविधाद्यल्पतरबन्धको भवति स एव प्रथमसमय एवाल्पतरबन्धः ( कर्म० ) । यदा तु प्रभूताः प्रकृतीबंध्नन् परिणामविशेषतः स्तोकां बद्धमारजते यथाऽष्टौ बध्वा सप्त बध्नाति सप्त वा बध्वा षम् वा बध्वा अप्पभक्खि ( ण् ) - अल्पनक्छिन् त्रि० । स्तोकाहारकारिणि, एकां तदानीं स बन्धोऽल्पतरः । तथा चाऽऽह "एगाश्रूप्पबिश्यो" पकादिभिरेकादिनिः प्रकृतिरूपाने बन्धयप्रकारः, अल्पतर इत्यर्थः । कर्म० ५ कर्म० । अप्यतुमतुम- अस्पतुमतुमधि० विगतको धमनोविकारविशेषे उस० १५ अ० | । ( ६१५ ) अभिधानराजेन्द्रः । - स्पा० वा० । अप्पत्त- अल्पत्व - न० । तुत्वे, पं० ० ४ द्वा० । अप्पतिय- अप्रीतिक-- न० श्रार्षत्वातथारूपम्। श्रप्रेणि, भ० ७ श० १ उ० । घ० । श्रा० म० दर्श० । श्रप्रीतिस्वभावे, भ०१३ श० १ ८० । मनसः पीकायाम्, श्रचा० २ श्रु० ७ ० २ उ० । कोचे, सुष०१०१०२० अपकरणे, नि० ० १४० । अप्पत्याम-प्रत्पस्थापन त्रिपामध्ये ०१०२ अ० ३ ० । श० १ ० । प्पण - अल्पधन - त्रि० । अल्पमूल्ये, " महाधणे अप्पधणे पत्येमुच् जो विवित्तमाचे" ० ३ ० अप्पपरसग - अस्पप्रदेशक- त्रि० । अरूपं स्तोकं प्रदेशानं कर्म दनिकपरिमाणं यस्य सः । स्तोकप्रदेशाम के कर्मणि, प्र० १ - अल्पपर्य्यायजात- न० । अल्पे तुषादौ त्यअप्पपज्जवजायजनीये, ध० ३ अधि० । अप्पपरणियचियत्यपरनिचि-श्री आत्मनः परेषां प रेज्यो निवृत्तौ, आलोचनाप्रदानतः स्वयमात्मनो दोषेज्यो निवृसिः उत्यन्ये शोचनाभिमुखा भवन्तीत्या मपि दोषेज्यो निवर्तनमिति ॥ व्य० १ उ० ॥ अप्पपरिग्गड अल्पपरिग्रह- पुं०। यधनधान्यादिखी कारे. ओ० अप्पपरिच्चाय- अल्पपरित्याग-पुं० । स्वल्पतरगुणपरिहारे, पञ्चा० १० विव० । अप्पपान-अपमा त्रि० अपशब्दोऽभावाभिधायी सथे हापि सुत्रत्वेन मत्यय प्रोपात् प्राणाः प्राणिन, अल्पा अविद्य मानाः प्राणिनो यस्मिंस्तदल्पप्राणम् । अवस्थितागन्तुकजीविरहिते उपाश्रयादौ, उत्त० १ ० । अल्पः प्राणः प्राणनकिया मिस्र प्राणाया स्मिन्, स च शिक्कायामुक्त:- "श्रयुग्मा वर्गयमगाः, यणश्चाल्पास यः स्मृताः " इति । तथा च वर्गेषु प्रथमतृतीयपञ्चमवर्णाः यमगा यवरलाच अल्पासत्रः । तादृशवर्णोच्चारणबः ह्यप्रयत्ने, बाह्यप्रयत्नस्तु एकादशधा विचारः संवारः श्वासो नादो घोषो घोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति । अल्पः प्राणः प्राणहेतुकं बलमस्य । अल्पबले, त्रि० । वाच० । अध्यराणासि (ए) अल्पपानानि त्रिपा अपलेवा तुं शीलमस्या सावल्पपानाशी । यरिकन पानपातरि सूत्र० १ श्रु० अ० । अपमिति ( ण् ) - अल्पपिएमा शिन-त्रि० । श्रयं स्तोकं पिएममनुं शीलमाशी ि तथा च आगमः' हे जन्नव ! आसीय, जन्थ तत्थ वसुदोचगयनिद्दा । जेण व ते व संतु-टु वीरमुणिओ सितं श्रप्पा " ॥ १६॥ सूत्र० १ ० १ अ० । अप्पभव - अल्पभव - पुं० । परीत सांसारिकत्वे, प्रति० । त्रि० । अपनानि (ए) अपनापन कारणे परिमितव तरि, दश० अ० । " अप्पं भासेज सुग्वप । तथा सुव्रतः साधु परिमितं हि भावेन सदा विचारहितो भये "दित्यर्थः । सूत्र० १० ए ० । अप्पनूय - अपनूत - त्रि० । अल्पसस्त्रे, स्था० ५ ० १ उ० । अप्पम अन्यमतित्र०प०प्र० । अप्पमम्यानरण- अपमान र त्रिलोक भारवन्ति महाघांभरणानि बहुमुपभूषणानि यस्यासी त था । अल्पभारवद्बहुमूल्यभूषणयुक्ते, हाए सुरुप्पावेसाई अप्पमहग्घाजरणा साश्रो गिठाओ पकिनिक्खमह " उप ०१श्र० । अप्परय - अल्परत - त्रि० । अल्पमिति श्रविद्यमानं रतमिति कीमितं मोहनीय कर्मोदयजनितमस्येति अल्परतः। श्रीमा विरहिते - वसप्तमादौ, उत्त० १ ० । कण्डूपरिगते कण्डूयन कल्परतरहिते, दश० ९ ० ४ उ० । अपरजस्- - त्रि० । रजोरहिते, उत्त० २ श्र० । प्रतनुबध्यमानकमणि, " सिके वा वह सासर देवे वा अप्पर महिडिए " उस० १ अ० । अप्पलाद्द्लद्धि - अल्पलानझब्धि- पुं० । महया तुच्छा व पा दिलाने विर्यस्य सोपान क्रेशेन पात्रा त्पादके, वृ० १८० । प्रपक्षीय अमलीन-शि० संबद्धे तीर्थषु गृहपा स्यादिषु संश्लेषमकुर्वति, " अणुक्कस्से अप्पलीणे, मण मुणि जावर सूत्र० १ ० १ ० ४०० । अप्पलीयमाण- अमलीयमानपि कामेषु मातापिचादिके वा लोकेन प्रतीयमाना अप्रतीयमानाः । श्रनभिषक्ते, आचा० १ ० ६ अ० २ उ० । अप्पलेव - अल्पक्षेप त्रि० । ६० । अल्पशब्दोऽजाववाचकः । पृथुका निर्देपे, श्राव० ४ ० | बलवणादी मीरसे, घ० ३ अधि० । - अप्पलेवा अल्पलेपा- स्त्री० । निर्लेपं पृथुकादि गृहतश्चतुथ्यां पिएमेघणायाम, आव० ४ ० ० । आचा० । पञ्चात् सूत्रण 'जस्स दिखमाणदव्वस्स णिप्पात्रचरणगादिस्स लेवो भवति सा अप्पलेवा " नि० चू० १६ उ० । ० चूर । अल्पलेपिकाऽप्यत्र, स्था० ७ ० स्तोकोऽल्पः पश्चात् कर्मादिजनितः 61 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पसेवा अनिधानराजेन्द्रः । अप्पा कर्मयन्धो यस्यां सालपलेपा । चनध्या पिामिपणायाम, तथा | सन्दकाबसमयसि अप्पठिकायमि" ज. १५ श० १ उ०। चाऽऽचाराङ्गम-"भरिस स्खलु पभिरहियसि भये पच्छाकम्मे अप्पसंतचित्त-अपशान्तचित्त-त्रि।। उत्करकोधादिदर्पितअप्पपनवजाए "ध ३ धि०। नावे, पक्षा० २ विव।। अप्परस-आत्मनश--त्रि । स्वयशे, ग० २ अधिः । अप्पसंतम-अप्रशान्तमति-त्रि० । परिणतशिप्ये, “मप्रअप्पवसा--प्रात्मवशा--स्त्री० । नार्याम, तस्या निरशान्वेन स्व-| शान्तमती शास्त्र-सदभावप्रतिपादनम् । दापायाभिनवादीच्छन्दात्वात् । प्रा.) को। शमनीयमिव ज्वरे" ॥१॥ मूत्र. १ श्रु०१४ अ०। अप्पवाइ ( ए )-आत्मवादिन-पुं०। पुरुष एवंदं सर्वमित्या- | अप्पस क्खिय-आत्मसाक्षिक-न । अात्मा स्वजीवः , स स्वदि 'प्रतिपत्रे वादिनि, नं०। संवित्प्रत्यक्षविरतिपरिणामपरिणतः माकी यत्र तदात्ममाक्षि कम । स्वायकेऽनुष्ठाने, " साइक्वियं देवसक्खियं भव्यअप्पतीय-अल्पबीज-त्रि० । अविद्यमानानि बीजानि शाल्या सक्स्वियं" पा०। दीनि नीवारश्यामाकादीनां यस्मिंस्तत् अल्पबीजम् ।बीजस्योप- अप्पसत्तचित्त- अल्पसचचित्त-त्रि० । आपत्स्ववैकव्यकरमलतणत्वात् एकेन्छियादिरहिते, उत्त) १० । आचा० । ध्यवसानकरं च सत्त्वमुक्तम । ततश्चापं तुच्छं सत्त्वं यत्र तदअप्पट्टि-अल्पवृष्टि-स्त्री० । मासारे, प्रा० को। सत्वं, तश्चित्तं यस्य सोऽल्पसत्वचित्तः । चेतसा विक्लवे, अप्पछिकाय-अल्पवष्टिकाय-पुं० । अल्पः स्तोकोऽविद्यमानो "ण दि अप्पसत्तचिसो धम्माहिगारी जो हो"। पशा २विव०। घा, वषण वृष्टिरधःपतन वृष्टिप्रधानः कायो निकायोपवृष्टिकायः । वर्षणधर्मयुक्तं च उदकं वृणिः तस्याः कायो राशिवृष्टि अप्पसत्तम-आत्मसप्तम-त्रि० । आत्मना सप्तमः । सप्तानां पूकायः । अल्पश्चासौ वृष्टिकायचाल्पवृषिकायः । स्तोके व्योमनि रणः । श्रात्मा वा सप्तमो यस्यासावात्मसप्तमः । अन्यैः पभिः पतदप्काये , स्था। सह विद्यमाने, " मल्लीणं भरहा अप्पसत्तमे मुंमे भवित्ता" अल्पवृष्णेश्च त्रीणि कारणानि स्था०७ ठा। तिहिंगणेहिं अप्पवाटिकाए सिया । तं जहा-तसिं च णं | अप्पसत्तिय-अल्पसाचिक-त्रिनिःसारे, “सुसमत्या वऽसदेसंसि वा पएसंसि वा णो बहवे उदगजोणिया जीवा य मत्था, कीरति अप्पसत्तिया पुरिसा । दीसंति सूरवादी,णारी पसगा ण ते सूरा" ॥१॥ सूत्र०१ श्रु० ४ अ०१०। पोग्गला य उदगत्ताए वकमांत विउक्कमति चयंति उवव अप्पसह-अल्पशब्द-पुं० । विगतराट्यां ध्वनौ , स्था०८ जंति देवा नागा जक्खा पो सम्ममाराहिया भवंति । ग० । राज्यादावसंयतजागरणभयात् । ०२५ श० ७३०। तत्थ ममाट्ठियं उदगपोग्गनं परिणयं वासिउकामं अन्न देसं अल्पकलडे, कलहक्रोधकारये, औ० । साहरंति, अन्नबद्दलगं च णं समडियं परिणयं वासिउ | अप्पसरयक्ख-अन्पसरजस्क-न। अल्पे तृणादी, भाचा०२ कामं वान्याए बिहणे । इचेएहिं तिहि गोहि अप्प-श्रु०१० ५२० । हिगाए सिया । अप्पसार-अल्पमार-न० अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारम् । (तेसिं ति)मगधादौ,चशब्दोऽल्पवृष्टिकारणान्तरसमुच्चयार्थः। प्रमाणतोऽल्पे वस्तुनः सारे, का० १ ० । “अप्पसारं तुत्धणमित्यत्रकारे । देशे जनपदे, प्रदेशे तस्यैव एकदेशरूपे, वाशब्दो ति जीवा बंधणं" आ० म०प्र०।"अप्पसारियं णे नवचरविकल्पाचौँ। उदकस्य योनयः परिणामकारणभूताब्दकयोनयः ति" निचू१००। त एवोदकयोनिका उदकजननस्वनावाः, व्युत्क्रामन्ति उत्पद्यन्ते, | अप्पमावज्जकिरिया-अल्पसावधक्रिया-स्त्री०। शुदायां वसती, व्यपक्रान्ति,व्यवन्ते, एतदेव यथायोगं पर्यायत प्राचष्टे-व्यवन्ते, प्राचा०२ श्रु० २ ०२ उ०। ('वसही' शब्देऽस्याः सुत्रम) उत्पद्यन्ते, क्षेत्रस्वभावादित्यकम्। तथा देवा वैमानिका ज्योतिकाः, नागा नागकुमाराः, नवनपत्युपलकणमेतत् । यक्का भूता अप्पसुय--अल्पश्रुत त्रि०ा अनधीतागमे, द्वा० २६ द्वा०। इति व्यस्तरोपल कणमा अथवा देवाति सामान्यमा नागादय अप्पसुह-अल्पसुख-त्रि० ।५ ब० । नोगसुखलवसम्पास्तुविशेषम, पतद्ग्रहणं न प्राय एषामेवंविध कर्मणि प्रवृत्तिरि- दके, प्रविद्यमानसुखे च । प्रमं० १ आभ० द्वा०। तिज्ञापना यः विचित्रत्वापा सूत्रगतरिति; नो सम्यगाराधिता अप्पहरिय-अल्पहरित-त्रि० । अल्पानि हरितानि दुर्वाप्रवानाजवन्ति । अविनयकरणाजानपदैरिति गम्यते । ततश्च तत्र मग- दीनि यत्र तत्तथा । दूर्वादिरहिते, आचा० २ ० ० ० धादी देशे प्रदेशे वा तस्यैव समुत्थितमुत्पन्नम्-उदकप्रधानं पौ ६ उ०॥ नं पुलसमूहो. मेघ इत्यर्थः । उदकपालं तथा परिणतमदकदायकावस्यां प्रामम् । अत एव विद्युदादिकारणात वर्षितुकामं अप्पहिंसा-अस्पहिंसा-स्त्री० । अल्पशब्दोऽनाववाची ।ममदन्य देशं मगधादिकं.संहरन्ति नयन्तीति द्वितीयम । अभ्रा. ल्पानामेव प्राणिनां हिंसायाम, व्य० १ उ०॥ णि मेघास्तबदलकं दुर्दिनम्. अभ्रवर्दनकम् । (वाग्याए सि)| अप्पा-आत्मन्-पुं० । अतति सातत्येन गच्छति तास्तान ज्ञानवयुकायः प्रनावातो विधुनाति विध्वंसयतीति तृतीयम् । दर्शनसुखादिपर्यायानित्याद्यात्मादिशब्दव्युत्पत्तिनिमित्तसंनवा" " इत्यादि निगमनमिति । स्था० ३ ० ३ उ० । अल्प- | तु । श्रा०म० द्वि० । जीवे, सन्न.२००(आत्मसियादिवशब्दस्याजाववचनवाद भविद्यमान वर्षे, "अमया कयाई पढम । क्तव्यता 'माता' शब्दे द्वितीयनागे १६७ पृष्ठे रुष्टन्या) Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाइय अभिधानगजेन्द्रः। अप्पाबय (ग) अप्पाइय-माप्यायित-त्रिका मनोकाहारैः स्वस्थीभूते, वृ०१०। (१) अपबहुत्वस्य चातुर्विध्यनिरूपणम् । (२)द्वारसंग्रहः । अप्पानअ-अल्पायुषक-त्रिणस्तोकजीविते,प्रभाश्रद्वा । (३) प्रथ्वीकायादीनां जघन्याद्यवगाहनया उत्पवहुत्वम्। अप्पानअत्ता-अल्पायुप्कता-स्त्री० । भल्यमायुर्यस्यासावरूपा (४) व्यस्थानाद्यायुपगमल्पवहुत्वम् । युष्का, तभावस्तत्ता। अल्पायुष्कतायाम, भ०५ श०६२० । (५) आहारद्वारे भाडारकानाहारकजीवानामल्पबहुत्वम् । अपमायुर्जीबितं यदू तदल्पायुः, तद् भावस्तत्ता । जघन्यायुश्वे, (६) सेन्प्रियाणां परस्परमल्पबहुत्वम् । स्था० ३ ठा०१०(अायुषः कारणं 'मा' शब्दे द्वि (७) उद्वर्तनापवर्तनयोरल्पबद्दत्वम् । तीयभागे ११ पृष्ठे वदयते) (८) उपयोगबारे साकारानाकारोपयुनानामल्पबढ़त्वम् । अप्पाउम्-अमोहत-पुं०1 प्राचरणवर्जके अभिप्रहविशेषग्राहके, (१) करायद्वारे क्रोधकवायादीनामल्पबहुत्वम् । सूत्र० २७०५०। (१०) कायिकघारे सकायिकानामल्पयत्वम् । अप्पानरण-अप्रावरण-न०। प्रावरणनिषेधास्तद्विषयोऽभिप्र (११) क्षेत्रहारे जीवाः कस्मिन् के स्तोकाः कस्मिन् बद्दव होऽप्यप्रावरणम । पञ्चा० ५ विव.1 प्रावरणत्यागरूपेऽभि इत्यादिनिरूपणम् । प्रहप्रत्याण्यानोदे, प्रव०४ द्वा० । अत्र पश्च आकारा:-"अ (१२) गतिद्वारे चतुःपश्चाएगतिसमासेनाल्पबहुत्वम् । भिमाहेसु अप्पाउरणं को पचक्खाइ, तस्स पंच (आगारा )। अमत्थऽणाभोगे, महसागारे, चोझपट्टागारे,महत्सरागारे सब्ब (१३) चरमद्वारे चरमाचरमाणामल्पबहुन्वम् । समाहिवत्तियागारे य"। (१४) जीवद्वारे जीवपुद्गलादीनामल्पवडत्वम् । । तथा च सूत्रम् (१५) ज्ञानघारे झानिप्रमुखाणामल्पबहुन्वम् । (१६) दर्शनद्वारे दर्शनिनामल्पवदुत्वम् । अप्पाउरणं पमिवज्जति अनत्थऽणाजोगेणं,महसागारेणं, (१७) दिगद्वारे दिगनुपातेन जीवानामपबदुत्वम् । चोलपट्टागारेणं, महत्तरागारेणं, सञ्चसमाहिवत्तियागा (१८) परीतद्वारे परीतापरीतनोपरितानामल्पबदुत्वम् । रेणं वोसिर त्ति | आव० ६ अ०। (१६) पर्याप्तद्वारे पर्याप्तापर्याप्तनोपर्याप्तानामस्पबदुत्वर । चोलपट्टकादन्यत्र सागारिकप्रदर्शने चोझपट्टके गृह्यमाणेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः । प्रव०४ द्वा० । (२०) पुमलद्वारम् । (२१) बन्धबारे आयुःकर्मबन्धकादीनामल्पबदुत्वम् । अप्पाण-आत्मन-पुं०। स्वस्मिन्, प्रश्न० २ माश्रद्वा० । “पुं. (२२) भवसिफिकद्वारम् । स्थन माणो राजवष"10।३१५६ । पुंबिले वर्तमानस्यानन्तस्य (२३) भाषकद्वारम् । स्थाने प्राण इत्यादेशो वा भवति, पके यथादर्शनं राजवत्कार्य प्रवति। प्राणादेशे च "प्रतः सेमोः" (३२)इत्यादयःप्रवर्त (२४) महादण्डकद्वारम् । ते । पके तु राक्ष: "जस्-शम्-सि-सां यो" (८।३। ५०) (२५) योगद्वारे चतुर्दशविधस्य संसारसमापनजीवस्य यो"टोणा"(८।३२४)"इणममामा"(८.३३५३)इति प्रवर्तन्ते। अप्पा गानामाबदुत्वम् । को। अप्पाणा । अप्पाणं | अप्पाणे । अपाणेण । अप्पाणेहिं । (२६) योनिद्वारम् । अप्पाणाम्रो अप्पाणासुन्तो । अप्पास्स । अप्पाणाण । अप्पा (२७) लेश्यारे सलेश्यानामल्पबदुत्वम् । गम्मि पाणेसु । मप्पाण-कभं । पो राजवत् । अप्पा । अपोहे अप्पा! हे अप्प! अप्पाणो चिति । अप्पाणो (२८) वेदद्वारम् । पेच्छाप्पणा । अप्पेडिं। अप्पाणो। अप्पाम्रो । अप्पाउ । - (२४) शरीरद्वारे आहारकादिशरीरिणामल्पबहुत्वम् । पादि। अपाहिन्तो । अप्पा । अप्पासुन्तो। अप्पणो धणं । - (१) तच्चतुर्विधम्प्पाणं | अप्पे । अप्पेसु । प्रा० । (य प्रात्मानमादर्शादी पश्यति शति 'अणायार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३१३ पृष्ठे दर्शितम् । चउब्धिहे अप्पाबहुए पलत्ते । तं जहा-पग-अप्पाबहुए, स्वजावे, न । स्था०२०२०। 'विश्अ णुभाव-पएस-अप्पाबहुए। अप्पाणरक्खि (ए)-प्रात्मरक्षिन्-त्रि० । प्रात्मानं रक्कति प्रकृतिविषयमल्पबहुत्वं बन्धापेक्षया, यथा-सर्वस्तोकप्रकृतिषपापेभ्यः कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील प्रात्मरकी । मात्मनः | न्धक उपशान्तमोहादिरेकविधवन्धकः, उपशमकादिसूक्ष्मसं. पापेभ्यो निवारके, उत्त० ४ ०। परायः षविधवन्धकः, बदतरबन्धकः सप्तविधबन्धकः,तअप्पाधार-अल्पाधार-पुं० अल्पस्य सुत्रस्य अर्धस्य वा प्राधा- तोऽविधयन्धक शति । स्थिति विषयमल्पबहुत्वं यथा- "सरोऽल्पाधारः । सूत्रार्थनैपुण्यविकले, व्य० १००। व्वत्थोवो संजयस्स जहन्नमो निबंधो पगिदियबायरपज्जल गस्स जहनो नियंधो असंखिजगुणो" इत्यादि । अनुनागं अप्पाबहुय(ग)-अस्पबहुत्व-न0 । अस्पं च स्तोकं बहु च प्र प्रत्यरूपबहुत्वं यथा--" सव्वयोवाई अणंतगुणबुठिाणाणि चूतमस्पाहु, तद्भावोऽल्पबहुत्वम् । दीर्घत्वासंयुक्तत्वे च प्रा- असंखेज्जगुणबुद्धिघाणाणि, असंखिज्जगुणाणि संस्विज्जगुणधुकृतम्यादिति । स्था०४ ग०२० । गस्यादिरूपमागणास्था- विहाणाणि असंखिजगुण जाव अणूतभागवुट्टिापाणि नादीनां परस्परस्तोकनूयस्त्वे, कर्मः ४ कर्म० । भमंखिाजगुणाणि" । प्रदेशाल्पबहुन्वं यथा- अट्टविदबंधगस्स Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .(३१८) अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्पः । अप्पाबद्य (ग) याच्यभागो थोबो नामगोयाणं तुल्लो विसेसाहिओ नाण- तगाणं जहाणिया ओगाहणा दोएह वितुल्ला असंखजसणावरणंतरायाणं तुलो विसेसाहिशो मोहस्स विसेसाहि गुणा १०।११। मुहमनिओयस्स पज्जत्तगस्त जहमिया श्रो बेयाणजस्स विसेसादियो ति"। स्था०४ग० २१०। ओगाहणा असंखेजगुणा १। तस्स चेव अपजत्तगस्स (२) तत्र द्वारसंग्रहगाथाध्यम् उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १३ तस्स चेव पजत्तगदिसिगइइंदियकाए, जोए वेए कसायोसायो । स्स उक्कोसिया ओगाहणा विसे साहिया १४। मुहुमवाउकाइसम्मानणाणदंसण-संजमउवोगाहारे ॥ १ ॥ यस्स पन्जनगस्स जहमिया ओगाहणा असंखेजगुणा १५ भासगपरित्तपज-तिसुदुमसम्म जवत्थि से चरिमे । तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया विसेसाहिया १६ । तस्स जीवऍ खेत्तं बंधे, पुग्गल-महदंडए चेव ।।२।। चेव पन्जत्तगस्स उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया १७ । एवं मुहमतेनकाइयस्स वि १० । १६।२०। एवं सुदुमप्रथमं दिग्द्वारम् १, तदनन्तरं गतिद्वारम , तत इन्द्रियद्वारम् ३, ततः कायद्वारम् ४, ततो योगद्वारम, तदनन्तरं दद्वारम् आउकाइयस्स वि२१ । ।२३ । एवं सुदुमपुढविका६, ततः कषायद्वारस ७, ततोलेश्याद्वारम, ततः सम्यक्त्वद्वा-| श्यस्स वि ।२४।२५।२६ । एवं बादरवाउकाइयस्स रम् र, तदनन्तरं झानद्वारम् १०, ततो दर्शनद्वारस ११, तनः वि २७ । २८ । २ए । एवं बादरतेनकायस्स वि३०। संयमद्वारम् १२, तत उपयोगद्वारम१३,तताहारद्वारम १४, ३१ । ३ । एवं बादराउकाइयस्स वि३३ ॥ ३४॥३५॥ ततो जासकद्वारम् १५, ततः (परित इति) परीताः प्रत्येकश।रिणः अक्लपाकिकाचा तदद्वारम् १६, तदनन्तरं पर्याप्तिकारम्१७, एवं बादरपुढविकाइयस्स वि ३६ । ३७ । ३८ । सम्बसिं ततः सूक्ष्मद्वारम् १०, तदनन्तरं संझिद्वारम् १ए, ततो (भव. तिविहेणं गमेणं भाणियध्वं बादरनिओयस्स जहलिया त्ति) भवसिद्धिधारम २०, ततोऽस्तीति-अस्तिकायद्वारम् २१, प्रोगाहणा असंखेजगुणा ३ए। तस्स चेव अपज्जत्तगस्स ततश्वरमद्वारम् २२, तदनन्तरं जीवद्वारम २३, ततः केत्रद्वारम् उक्कोसिया प्रोगाहणा विसेसाहिया ४० । तस्स चेव प२४,ततो बन्धद्वारम २५, ततः पुगलद्वारम२६, ततो महादरामकः २७, ति सर्वसंख्यया सप्तविंशतिद्वाराणि । प्रज्ञा० ३ पद । ज्जत्तगस्स उक्कोसिया प्रोगाहणा विसेसाहिया ४१ । पत्तेयसरीरबादरवणास्सइकोइयस्स जहलिया प्रोगाहणा (तत्र गायोपन्यस्तक्रममनाहत्याकरानुक्रमतो द्वाराणि निरूपविष्यम्ने, तया मध्ये ऽन्यतः किञ्चिद संगृहीतं प्रविष्य प्ररू असंखेजगुणा ४२ । तस्स चेव अपज्जत्तगस्स नकोसिया पयिभ्यतेऽपबहुत्वम) (अनुनागवन्यस्थानानामस्पबहुत्वं 'बंध' ओगाहणा असंखेजगुणा ४३ । तस्स चेव पज्जत्तगस्स शब्दे दृष्टव्यम्) नक्कोसिया असंखेजगुणा पत्र (३) [अवगाहना ] पृथ्वीकायादीनां जघन्याद्यवगाहना हकिल पृथिव्यप्तेजोवायुनिगोदाः ५ प्रत्यकें सूबमबादरयाऽस्पबहुत्वम- . भेदाः। एवमेते दशा एकादश च प्रत्यकं वनस्पतिः। एतेच प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकमेदाः२२ । तेऽपि जघन्योत्कृष्टावगाहनाः,श्स्येवं एएस ण नंते ! पुढवीकाश्याणं आक-तेक-वाऊ चतुश्चत्वारिंशतजीवनेदेषु स्तोकादिपदन्यासेनावगाहना व्या. वणस्स-काइयाणं सुहमाणं बादराणं पज्जत्तगाणं अप- स्येया । स्थापना चैवम्-पृथ्वीकायस्याऽधः सूचमबादरपदे, ज्जत्तगाणं जहम्मुक्कोमिया ओगाहणाए कयरे कयरोहितो तयोरधः प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तपदे, तेषामधः प्रत्यकें जघन्योत्कृजाव विसेसाहियावा? | गोयमा! सव्वत्योवा मुहमणिगो- टा चावगाहनेति । एवमकायादयोऽपि स्थायाः । प्रत्येकवनयस्स अपज्जत्तगस्स जहलिया ओगाहणा १ । सृहुमवा स्पतेश्चाधः पर्याप्तापर्याप्तपदद्वयम, तयोरधः प्रत्येक जघन्यो. त्कृष्टा वावगाहनेति । ह च पृथिव्यादीनामङ्गलासंख्येयन्नाऊकागस्स अपज्जत्तगस्स जहलिया प्रोगाहणा अ गमात्रावगाहनत्वेऽप्यसंस्येयनेदत्वादनतासंख्ययभागस्येतरेसंखेज्जगुणाशमुहमतेऊ.अपज्जत्तगस्स जहालिया ओ तरापेकयाऽसंख्येयगुणत्वं न विरुध्यते, प्रत्येकशरीरवनस्पतीगाहणा असंखेज्जगुणा शमुटुमाऊअपज्जत्तगस्स जह- नां चोत्कृष्टावगाहना योजनसहनं समधिकमेव गन्तव्यति। न० लिया प्रोगाहणा असंखेनगुणापासुहमपुढवी. अपज्ज- २६ श०३ उ०। सगस्स जहालिया ओगाहणा असंखेजगुणा ए। वादरवा (अस्तिकायद्वारे धर्मास्तिकायादीनां न्यार्थतयाऽल्पबहुकाश्यस्स अपजत्तगस्स जहलिया ओगाहणा असंखे. त्वम अस्थिकाय' शब्देस्मिन्नेव भागे ५१४ पृष्ठे समुक्तम् ) ज्जगुणा६। बादरतेऊ. अपजत्तगस्स जहमिया ओगाहणा (प्रात्मनामल्पबदुत्वम् 'आता' शब्दे द्वितीयत्नागे १७० पृष्ठे असंखेज्जगुणा । बादराऊ. अपजत्तगस्म जहमिया| वदयते) भोगाहणा असंखेज्जगुणा जावादरपुढवी. अपज्जत्तगस्स (४) [आयुः ] द्रव्यस्थानाद्यायुषामल्पवदुत्वम्जहमिया ओगाहणा असंरेख जगणा ए। पत्तेयसरीरवादरवणस्सस्काइयस्स वादरनिसोयरस, एएसिणं अपज्ज- एयरस एंजते दबढाणा उयस्स खेत्तहाणाउयस्स भो Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । पाबहुय (ग) गाण्डााउपस्सनावद्वाणउपस्थ कपरे करेहिनो० जात्र बिसेसाहिया १ । गोयमा ! सव्वत्थोवे खेत्तद्वाणाजए भोगाइका असंमाणे दव्वहाएाउ असे ज्जगुणे भाबडागाउए असंखेज्जगुणे, “ खेत्तो गाहरणदव्वे, वाउ पहुं खेचे सन्वत्यांचे सेसद्वाया संखेजा" ।। १ । ( एयस्स णं भंते ! ठाणाचयस्स ति ) द्रव्यं पुरुलद्रव्यं, तस्य स्थानं भेदः परमाणुद्विप्रदेशकादि, तस्यायुः स्थितिः । अथवा द्रव्यस्यापत्यादिनावेन यत् स्थानमवस्थानं, तद्रूपमायुः, द्रव्यस्थानायुः, तस्य; ( खेत हाणाउयस्स त्ति ) क्षेत्रस्याका शस्य, स्थानं भेदः पुलावगाढकृतः, तस्यायुः स्थितिः । अथवा क्षेत्रे एकप्रदेशादी, स्थानानामस्थानं मात्र स्थानायुः । एवमवगाहनास्थानायुर्भावस्थानायुश्च; नवरमवगाहनानियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वं पुरुझानाम् भावस्तु कालत्वादिः । ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेदः । उच्यते क्षेत्रम बगाढमेव भवगाहना तु विवक्षितत्रादन्यत्रापि पुन्नानां सपरिमाणाच माहित्यांमति "कबरे" इत्यादि कम्प परस्परेणादपबहुत्यध्याच्या गाथाऽनुसारेण कार्यातामा 'खेसोगाढणदव्वे, भावठाणाउ अप्पबहुयते । थोबा असंखगुणिया, तिनि य सेसा कहं नेया १ ॥ १ ॥ सामुसा तेण समं बंधपद्ययाभावा । सो पोग्लाथ धोयो, सायद्वाणकालो " ॥२॥ अयमर्थ:- क्षेत्रस्थान क्षेत्रेण सह पुल विशिष ग्धप्रत्ययस्य स्नेहादेरभावानेकत्र ते चिरं तिष्ठन्तीति शेषः । यस्मादेवं तत इत्यादि व्यक्तम् । अथावगाहनायुषो बाय "अनं खेत गयस्स वि, तं चियमाणं चिरं पि संधर । भोगाढमनापुष, " खेत्तनतं फुर्म हो ” ॥ ३ ॥ द पूर्वार्धेन क्षेत्राकाया अधिकाऽवगाढना केत्युक्तम् । उत्तराकेतु गाना नाधिक देति । कथमेतदेवस, इत्युच्यते " श्रोगाहणावबद्धा, खेत्तद्धा अक्किया व बद्धा य । न त भोगाइणकालो, बेतकामेतसंबको " ॥ ४ ॥ अथगादनायामगमनक्रियायां च नियता शेषादा विषहिता, अवगाहनासद्भाव एवा क्रियासद्भावः। एवं च तस्या - भावानुक व्यतिरेकेानावात् । अवगाहनातुन क्षेत्रकाया अभावेऽपि तस्या भावादिति । अथ निगमनस् 66 'अम्हा तत्यात्थ य, सम्वे प्रोगाहणा नवे बेचे । सम्हालेकाऽवगाहा असंचगुणा " ॥ ५ ॥ अथ द्रव्यायुषो बहुत्वं भाव्यते संकोयविकोपण ध, उवर मियाप ऽवगाहणार वि । तयिमेाणं चिय, चिरं पि दव्वाणवत्थाणं " ॥ ६ ॥ संकोचेन, विकोचेन वा उपरतायामप्यवगाहनायां यावन्ति पूर्वमास्तावतामेव चिरमपि तेषामवस्थानं संभवति । अनेनावगाहनानिवृत्तावपि सव्यं न निवर्तत इत्युक्तम् । अथ इभ्यनिवृतिविशेषेान निवर्तत एवेत्युच्यते 1 पाय (ग) " संघायमेयश्रो वा, दच्योवर मे पुणाइ संखित्ते नियमा तद्दव्योगा-ढणा नासो न संदेदो " ॥ ७ ॥ सङ्घातेन, पुलानां भेदेन वा तेषामेव यः संप्तिः स्तोकाय गाढनः स्कन्धो न तु प्राक्तनावगाढनः, तत्र यो व्योपग्मो - उपन्यासनि तत्र सति सुातरत्वेनापि तत्परिणतेः भवणाद् नियमात्तेषां द्रव्याणामवगाहनाया नाशो भवति । कस्मादेवम् ?, इत्यत उच्यते " " योगाहका दव्वे, संकोयविकोयश्रो य श्रवबका । न दव्वं संकोयण-विकोयमेत्तम्मि संग " ॥ ८ ॥ अवगाहनाच्येऽयम पाद्विकोचाच सोयादिपरित्यर्थः । अवगाहनादिकस्ये चिकयोरभावे सति भवति सा न नय स्येयं ध्येऽचाहना नियतान संबध्यते मन्ये ख त्वमिवेति । चतविपर्ययमाह-न पुनद्रव्यं सङ्कोचविकोचमात्रे सत्यप्यमानायां नियतन संबद्ध सोचविचान्याय गानानिवृत्तायपि इव्यं न नित्यानायां निप सदरम अथ निगमनस् " जम्हा तत्थन्नाथ व दव्वं भोगादणार तं देव । दव्या संखगुणा, तम्दा भोगाइकाओ " ॥ ६ ॥ अथ भावार्थत्वं नान्यते " संघाय भेयश्रो वा, दव्वोवरमे वि पज्जवा संति । गुणविरामे पुणादन्यं न ओगाहो " ॥ १० ॥ सङ्घातादिना पोपरमेऽपि पर्ययाः सन्ति यथा-पुरे दिगुणाः। सकल तुम नाना संते। अनेन पां चिरं खानं यस्य त्वचिरमित्युके । अथ कस्मादेवम ?, इत्युच्यते"संघायमेयबंधी विदाका न गुणकालो संघ बजे संबो सातदलणाभ्यां धर्माश्यां यो बन्धः संबन्धस्तदनुषसिंनी तदनुसारिणी, सङ्घाताद्यभाव एव व्याकायाः सद्भावात्, सद्भावे यानावात् नपुनर्गुणकाल सात मात्र काल संब येऽपि गुणानामनुपसंनादिति । " 33 अथ निगमनम् - " “अम्हा तत्थत्थ व दब्वे बेतावगाहणासुं च । तं चैव पज्जवा सं-ति वा तदका भसंखगुणा " ॥ १२ ॥ 'आह अणेगंतो यं, दव्योवरमे गुणाण वत्थाणं । गुणविष्परिणामम्मिय दन्यविसेस व उपोगंसो " ॥ १३ ॥ अव्यविशेषो अन्यपरिणामः । " विष्परिणयम्मि दब्बे, कस्सि गुणपरिणई भवे जुगवं । कम्मि विपुलतदवत्थे, वि होर मुणचिप्परीणामो " ॥ १४ ॥ "न सभ्यं किं पुण, गुणबाहुला न सम्यगुणनासो । यस बिसराणं गुणा ५ ० ७ ० । Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०) अप्पाबद्दय (ग) मन्निधानराजेन्डः। अप्पाबहुय (ग) ( नैरयिकाद्यायुपामल्पवहुत्वम्-" पाक" शब्दे द्वितीयभागे | अप्पजत्तगा विसेसाहिया, तेदिया अप्पजत्तगा विसे११-१२ पृष्ठे दर्शयिष्यते ) ( जातिनामनिधत्तायुरादीनां नेदाः | साहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, पगिदिया • पाउबंध' शब्दे द्वितीय नागे ३६ पृष्ठे वक्ष्यन्ते) अपजत्तगा अणंतगुणा,सइंदिया अपज्जत्तगाविसेसाहिया। (५) [माहारद्वारम] आहारकानाहारकजीवानामल्पबत्वम्एणमिणं भंते ! जीवाणं आहारगाणं पाहारगाण सर्वस्तोकाः पञ्चेन्डिया अपर्याप्ताः एकस्मिन्प्रतरे यावन्त्य इयासंख्येयभागमात्राणि स्वयमानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषाम । य कयरे कयरोहंती अप्पा वा०४१। गोयमा ! सम्बत्थोवा | तेभ्यश्चतुरिन्किया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभृताङ्गनासंख्येजावा अणाहारगा आहारगा अमेखि जगुणा। यभागखरामप्रमाणत्वात । तेज्यस्त्रीट्रिया अपर्याप्ता विशेषासर्वस्तोका जीवा अनाहारकाः, विग्रहगत्यापनादीनामेवाना- धिकाः, प्रनृततरप्रतरालासंख्येयभागखएममानत्वात् । तेहारकत्वात् । उक्तं च-“विग्गहगश्मावन्ना, केवलिणो समुह- भ्योऽपि द्वीन्छिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, प्रभूततमालाया अजोगी या सिद्धाय प्रणाहारा,सेसा आहारगा जीवा"॥१॥ | संण्येयनागखएम्प्रमाणत्वात् । तेय एकेन्द्रिया अपर्याप्ता तेज्य आहारका असलेषयगुणाः । ननु वनस्पतिकायिकानां अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामपर्याप्तानामनन्ततया सदा सिकेच्योऽप्यनन्तत्वात् तेषां चाहारकतयाऽपि लन्यमानत्वात प्राप्यमाणत्वात् । तेज्योऽपि सेन्डिया अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, कथमनन्तगुणा न भवन्ति । तदयुक्तम् । वस्तुतस्वापरिज्ञानात् । द्वीन्द्रियाद्यपर्याप्तानामपिता प्रक्षेपात् । गतं द्वितीयमापबहुत्वमह सूक्मानगोदाः सर्वसङ्ख्ययाऽप्यसझेचयाः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्स- । प्रका० ३ पद । जी० । समयराशितुल्याः सूक्ष्मनिगोदाः सर्वकालविगहे वर्तमाना लज्यन्ते । ततोऽनाहारका अप्यनिबहवः सकलजीवराश्यसं अधुनतेषामेव पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वमाहस्येयभागनुल्या इति । तेज्य आहारका असलेषयगुग्गा, तेच एएस नंते ! सइंदियाएं एगिदियाणं वेइंदियाणं तेनानम्तगुणाः । गतमाहारद्वारम् । प्रज्ञा०३ पद । जी। कर्म०। इंदियाणं चनरिदियाणं पंचिंदियाएं पजत्तगाणं कयरे ( इन्द्रियाणामवगाहनयाऽल्पबहुत्वं, तेषां कर्कशादिगुणाश्च 'ईदिय' शब्दे द्वितीयभागे ५५४ पृष्ठे वक्ष्यन्ते) कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा बिसेसाहिया (६) [इन्डियद्वारम् ] सेन्द्रियाणां परस्पग्मल्पबहुत्वम्- वा। गोयमा ! सव्वत्थोवा पजतगा चउरिदिया पंचिंएएसि णं ते ! सइंदियाणां एगिदियाणं बेदियाणं दिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेतेइंदियाणं चारिदियाएं पचिंदियाणं अणेदिप्राण य कयरे साहिया, बेदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिदिया कयरोहिंतो अप्पा वा बहुया वा तद्वा वा विसेसाहिया पज्जत्तगा अपंतगुणा, सइंदिया पज्जचगा संखेज्जगुणा । वा? । गोयमा ! मन्बत्थोबा पंचिंदिया चारिदिया वि-| सर्यस्तोकाश्चतुरिन्छियाः पर्याप्ताः, यतोऽल्पायुषश्चतुरिन्द्रियाः, सेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, वेइंदिया विसेमाहिया, ततः प्रजूतकालमवस्थानाभावात् । पृच्नसमये रतोका अपि प्रतरे यावन्त्यसंख्येयभागमात्राणि खरमानि तावत्प्रमाणा प्रणिदिया अणंतगुणा, एगिदिया अणं। सदिया विक। वेदितव्या तेभ्यः पञ्चेन्द्रियपर्याधा विशेषाधिकाः,प्रनूताङ्गलसर्वस्तोकाः पश्चेन्द्रियाः संख्येयाः, दशयोजनकोटाकोटिप्र संख्येयनागखएसमानत्वात् । तेन्योऽपि द्वीन्द्रियाः पर्याप्ता वि. माणविष्कम्जसूचीप्रतिप्रतरासंख्येयभागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगता-- शेषाधिकाः,प्रनूततरप्रतराङ्गलसंख्ययनागखएसमानत्वात् ।तेकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेज्यश्चतुरिन्छिया विशेषाधिकाः, ज्योऽपि त्रीन्जियाः पर्याप्त विशेषाधिकाः, स्वभावत एव तेषां विष्कम्नसच्यास्तेषांप्रभूतसंख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणत्वात्। तेच्योऽपि त्रीया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्नसूच्या:प्र प्रनूततमप्रतराइलसंख्येयजागखएडप्रमाणत्वात् । तेज्य पके. ख्यिाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां पर्याप्तानाभूततरसंख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणत्वात्। तेत्योऽपिद्वीन्डिया मनन्तत्वात् । तेच्यः सेन्द्रियाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियाविशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याःप्रनुततरसंख्येययोजनको दीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रत्क्षपात् । गतं नृतीयमपबहुत्यम् । टाकोटिप्रमाणत्वात् । तेज्योऽनीन्द्रिया अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । नेच्योऽपि एकेन्धिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिका सम्प्रत्येषामेव सेन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तगतान्यपबहुत्वायिकानां सिकेन्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । नेन्योऽपि सेन्ड्रिया वि न्याहशेषाधिकाः, दन्छियादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । तदेवमुक्तमेक- एएसि णं भंते ! सशंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं कभौघिकानामरूपयदुत्वम् । प्रशा० ३ पद । जी । अर्थतश्वेत्थम्- यरे कयरेडिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसेसाहि"पण 'चउ २ति ३ दुय ४ अपिदिय , पगिदिय ६ सई या वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सशंदिया अपज्जत्ता पदिया कमा इंति । थोवा १ तिन्नि य अहिया ४, दोऽणतगुणा ६ विसेसहिया"॥१॥ भ०२५ श० ३ ०। जी। जत्तगा सइंदिया संखेज्जगुणा । एएसिणं भंते ! एगिइदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्पबहुत्यमाह- दियाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ एएसिणं भंते ! सइंदियाएं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदि- । गोयमा ! सम्वत्थोवा एगिदिया पज्जत्तगा एगिदिया याणं चनरिंदियाण पंचिंदियाणं अपजतगाणं कयरे कयरे- अपजत्ता असं०। एएसिणं भंते ! वेदियाणं पज्जत्ताहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुद्वा वा विसेसाहिया वा। पजनाणं कयरे कयरेडिंतो अप्पा वा ४ । गोयमा ! गोयमा ! सव्वत्योवा पंचिंदिया अपज्जतगा. चरिंदिया सव्वत्धोगा इंदिया पजना बेइंदिया अपज्जत्ता असं Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्पाबहुय (ग) स्वेज्जगुणा । एएसि णं नंते ! तेइंद्रियाणं पज्जत्तापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा० ४ १। गोयमा ! सव्वत्योमा तेइंदिया पज्जतगा, तेइंदिया अपनतगा असंखेन गुणा एसि णं भंते ! चरिं दिवाएं पचापचाएं कयरे कपरेहिंतो अप्पा रा० ४ १ गोपमा ! सव्वत्योवा चउरिंदिया पज्जत्तगा, चरिंदिया अपज्जतगा असंखेज्जगुवा एसियां भंते! पंचेंद्रियाणं पन्नतापन्नसा करे करेदितो अप्पा बा० ४ १। गोयमा ! सव्वस्वोवा पंचिदिया पज्जसमा पंचिदिया अपक्षचगा गुण || ( ६२१ ) अभिधानराजेन्द्रः । सर्वस्तोकाः सेन्द्रिया अपर्याप्तकाः, इह सेन्द्रिया एव बहबस्तत्रापि सूक्ष्माः तेषां सर्वलोकापन्नत्वात् । समाश्वापर्याप्ताः सस्तो पर्याप्ताः संगुणाइति सेन्द्रियायाः स स्तोका पर्याप्ताः संयेयगुणाः । पथमेन्द्र अर्या सस्तोकाः पर्याप्ताः संस्येयगुणा भावनीयाः । तथा सर्वस्तोकाजमा पर्याप्ताः यावन्ति प्रतरेऽङ्गलस्य संख्येपभागमात्राणि खरमानि तावत्प्रमाणत्वात् तेषाम् । तेज्योऽपर्याप्ता अवेयगुणा, प्रतरगताखासंख्येयभागखण्डमा एवं त्रिचतुरियापान्ययिनि गतं स्वात्मकं चतुर्थमम्पबहुत्वम् । I सम्प्रत्येतेषां सेन्द्रियादीनां समुदितानां पयसा पर्यासनामयबहुत्वमाह एएसि णं भंते ! सइंदियाणं एगिंदियाणं बेदियाएं तेई दियाणं परिंदियाणं पचिदियाणं पापज्जचाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्वत्योवा दिवा पलला पंचिंदिया पनगा विसेसाहिया, इंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेईदिया पज्जतगा विसेसाहिया, पंचिदिया अपज्जतगा असंसेज्जगुणा, चरिंदिया अपना बिसेसाहिय, तेई दिया अपजतगा विसेसाहिया, बेदिया अपज्जतगा विसेसाहिया, एगिंदिया पज्जतगा अतगुणा, सइंदिया प्रपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिंदिया पज्जतगा संखेज्जगुणा, मइंदिया पज्जजगा बिसेसाहिया, सइंदिया विसेसाहिया | प्रागुक्तद्वितीयतृतीयापयत्यभाषनानुसारिणा स्वयं प्रासनीय तस्वभाषितत्वात्। गतमिन्द्रियद्वारम् । महापद् जी० प्र०(इन्द्रियोपयेोगाद्याविषयमल्पम भोका' शब्दे द्वितीयभागे ५६८ पृष्ठे प्ररूपयिष्यते ) (७) [र्तनाऽपवर्तन योरल्पबहुत्वम् ] सम्प्रति द्वयोरपि उनापपर्तनात् प्रतिपादयति यो पर अंतरे दुसु जननियो । कमसोप्रांतगुणिओ, दुसु वि भइत्यावणा तुझा ॥२२२॥ बाघारण अणुभाग-इंदकावचगणात. । १५६ - पात्रय (ग) छको निक्यो, सबंधीय सविसेसो २२३ ।। एकस्यां दिशि स्थिती यानि रुपद्धकानि तानि क्रमशः स्थाच्यन्ते । तद्यथा सर्वजघन्यं रसस्पर्द्ध कमादौ ततो विशेषाधि करसं द्वितीयम, ततो विशेषाधिकरसं तृतीयम् । एवं तावत्स परमन्ते तचादिरूपकादारभ्यां सरीसरस्पर्द्ध कानि प्रदेशापेक्षया विशेषढीनानि, अन्तिमस्पर्द्ध कादारभ्य पुनरधोऽधः क्रमेण प्रदेशामध्ये वृन्तरे द्विगुणहान्यन्तरे वा यत् स्पर्ककं याति तत् सर्वस्तोकम् । अथवा स्नेडप्रत्ययस्य स्पर्ककस्य अनुभागद्विगुणवृद्ध्यन्तरे, द्विगुणान्यन्तरे वादनुनाग तत्काल प्राप्य अन्तिमस्तिषु प्रभूतानि इति पर्कपापेारपि नि क्षेपस्तु एवमतिस्थापना यामुत्कृष्ट निरोपेऽपिच भावनीयम क्रमश इति च सकलगाथाऽपेक्षया योजनीयम् । ततो द्वयोरप्यतिस्थापना व्याघातबाह्या अनन्तगुणा, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्या । ततो वाघानेत्यादि उत्कृष्एं अनुभाग डकर्म कया वर्गणया एकसमयमात्रस्थितिगत स्पर्द्धक संहतिरूपया रूनम, एषा उत्कृष्टानुभागक एक कस्य याऽतिस्थापना, सा अनन्तगुणा । उनापनयो निक्षेपो विशेषाधिक स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः। ततः (ससंतबंधो य सविसेसो ति) पूर्व बद्धोष्टस्थितिकर्मानुनागेन सह उत्कृष्टस्थित्यनुभागबन्धो विशेषाधिकः । क० प्र० ॥ ( ) [ उपयोगद्वारम् ] साकाराऽनाकारोपयुक्तानामल्पबहुत्वम् एएसि णं ते! जीवाणं मागारोवडत्ताएं अणागारोवउत्ताप करे करेहिंतो अप्पा बा० ४ १ गोषमा! सव्वत्योवा जीवा अणगारोवनत्ता सागारोवत्ता संखिज्जगुणा । रहानाकारोपयोगः कालः सर्वस्तोका, साकारोपयोगकामस्तु ततो जया अनाकारोपयोगः सर्वस्वोका, पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेवावाप्यमानत्वात् । तेभ्यः साकारोपयोगोपयुक्तः सगुण साकारोपयोगका लस्य दीर्घतया तेषां पृच्छासमये बहूनां प्राप्यमाणत्वात् । गतमुपयोगद्वारम् । प्रशा० ३ पद | जी० । कर्म० 1 पं० [सं० 1 क० प्र० । कति कति असचितानामयम्यक कसमर्जितानां याचतुरशीतिसमर्जितानां कर्मप्रदेशामायामल्पबहुत्वं 'बंध' शब्द प्रदेशबन्धावसरे वयते) (ए) [ कपायद्वारम् ] क्रोध कषायादीनामल्पबहुत्वम्एस जे जीवाण सकसाई कोहकसाई माणकमाई मायाकसाई ओकसाई कमाईण य करे करेहिंतो अप्पा वा० ४१ । गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा कसाई, माणकसाई अतगुणा, कोहकलाई बिसे साड़िया, मायाकसाई विमाहिया, झांज कसाई विससादिया सकसाई मिडिया ॥ सर्वस्तोका कषायिणः, सिद्धानां कतिपयानां च मनुष्याणामकषायत्वात् । तेभ्यो मानकपायिणो मानकषायपरिणामवनोऽनन्त गुणाः, षट्स्वपि जीवनिकायेषु मानकषाय परिणामस्याऽवाप्यमानस्वात्यः कोपाधिविशेषाधिकाभ्यापा विशेषाधिकापिलोमाथि विशेषाधिका , Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२२) अप्पाबय (ग) अनिधानराजेन्छः। अप्पाबहय (ग) नकषायपरिणामकालापतया क्रोधादिकपायपरिणामकालस्य तगा अपंतगुणा | सकाइया अपग्जत्तगा विसेसाहिया । यधोतरं विशेषाधिकतया कोधादिकपायाणामपि यथोत्तर | प्रा० ३ पद । (टीका चास्य सुगमाऽतो न प्रतन्यत) विशेषाधिक त्वभावात् । लोभकपायित्यः सामान्यतः सकपायिणो विशेगधिकाः, मानादिकपायाणामपि तत्र प्रक्षेपात । साम्प्रतमेतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमस्पत्यमाह-- सकषायिण इत्यत्रैवं व्युत्पत्तिः-कपायशब्देन कषायोदयः परिगृहाते, तथा च लोके व्यवहारः-सकपायोऽयं, कपायोदयवानि एएसिणं ते! सकाझ्याणं पुढविकाइयाणं प्रानकाइयाणं त्यर्थः । सह कपायेण कषायोदयेन वर्तन्ते सकायोदयाः वि- तेउकाझ्याणं वाउकाइयाणं वणस्मश्काइयाणं तसकाश्याण पाकावस्थां प्राप्ताः स्वोदयमुपदर्शयन्तः कषायकर्मपरिमाणव- य पज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४१। गोयमा ! म्तस्तेषु सत्सु जीवस्यावश्यं कषायोदयसंभवात्।सकपाया धि सम्वत्थोबा तसकाझ्या पज्जत्तगा, तेउकाइया पज्जत्तगा धन्ते येषां ते सकपायिणः, कपायोदयसहिता इति तात्पर्यार्थः। गतं कषायद्वारम । मा० ३ पद । जी0। कर्म । सकषाथि. असंखेज्जगुणा, पुढाविकाइया पज्जत्तगा बिसेसाहिवा, णामकषायिणां चास्पबहुत्वचिन्तायां, सर्वस्तोका भकषावि. आनकाश्या पज्जत्तगा विसेसाहिया, वाचकाइया पज्जणः, सकषायिणोऽनन्तगुणाः । जी. ८ प्रति० । (काम- सगा विसेसाहिया, वणस्सश्काश्या पज्जत्ता भणंतगुणा, भोगविषयमस्पवहुत्वं 'कामभोग' शब्दे वदयते) सकाइया पज्जत्ता विसेसाहिया। प्रा०३ पद । (१०) [कायद्वारम] सकायिकानामरूपषहुत्वम् (रीका सुगमा) एएस ते! सकाइयाणं पुढविकाश्याणं भानकाइ साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां प्रत्येकं पर्याप्तापर्यायाणं तेतकाझ्याणं वाउकाइयाणं वणस्सकाझ्याणं तसका प्रगतमरूपबत्वमाहइयाणं अकाश्याणं कयरेकयरेहिंतो अप्पा वा०४१। गोय एएसि णं ते सकाइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं कयरे मा ! सन्चत्योवा तसकाश्या, तेनकाइया असंखेज्जगुणा, कयरोहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुद्वा वा विसेसाहिया पुदविकाइया विसेसाहिया, आजकाइया विसेसाहिया, वा वा ?। गोयमा!सम्बत्योवा सकाइया अपज्जत्तगा, सकानकाइया क्सेिसाहिया, अकाइया अणंतगुणा, वणस्सइकाश्या अणंतगुणा, सकाझ्या विसेसाहिया वा ।। झ्या पज्जत्तगा संखज्जगुणा । एएसिगंजते ! पुढविकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा सर्वस्तोकाससकायिकाः, द्वाछियादीनामेव प्रसकायिक- तुमा वा विसेसाहिया वा। योयमा ! सम्बत्थोवा पुढस्वात; तेषां च शेषकायापेक्तया अत्यल्पत्वात् ।तेज्यस्तेजस्का विकाझ्या अपज्जत्तगा, पुढविकाश्या पज्जत्तगा संखिजयिका प्रसंस्येवगुणाः, असंख्येवलोकाकाशप्रमाणत्वात् । तेज्यः पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रभूतासङ्खषयझोकाका गुणा । एएसि एं जंते ! प्राजकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं शप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेन्योकायिका विशेषाधिकाः, प्रत- कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४?। गोयमा ! सम्वत्योवा ततरासोपयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्यो वायुकायिका प्रानकाझ्या अपज्जतगा, प्रानकाइया पजत्तगा संविविशेषाधिकाः, प्रततमासचयसोकाकाशप्रदेशमानत्वात् । ज्जगुणा । एएसिणं जंते ! तेउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं तेन्योऽकायिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात । तेन्यो कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४ | गोयमा !सम्बत्योचा वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, मनन्तझोकाकाशप्रदेशराशिमानत्वात् । तेन्यः सकायिका विशेषाधिकाः, प्रथिवीकायिकादी. तेचकाइया अपज्जत्तगा, तेउकाइया पजत्तगा संखेजगुणा। नामपि तत्र प्रपात सक्तमौघिकानामल्पबहुत्यम् । प्रशा०३ एएसिणं भंते ! वाउकाइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं कयरे कयरेपद।जी। अर्थतवम-"तस-ते-पुढवि-जल-बा, उकाय-भ हिंतो प्रप्पा वा०४१। गोयमा सव्वत्थोवा वाउकाइया काय वणस्सासकाया । थोवा १ संस्खगुणाहिय २, तिन्नित अपजत्तगा,वाजकाइया पज्जत्तगा संखेजगुणा । एएमि एं होणतगुणा भहिय" त्ति । प्र०२५ २०३० पं०सं०। नंते वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापजचाणं कयरे कयरेरितो इदानीमेतेपामेवापर्याप्तानां द्वितीयमल्यवहुत्वमाह अप्पा बा०४।गोयमा सन्चत्योवा वणस्सदकाश्या प्रपएएसि णं नंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं आनकाझ्या- जत्तगा,वणस्सइकाश्या पज्जत्तगा संखेज्जगुणा। एएसिणं णं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्मइकाइयाणं तसकाइ- ते ! तसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो याण य अपजत्तगाणं कयरे कयरेहिंनो अप्पा वा०४ । अप्पा वा०४१। गोयमा सव्वत्थोवा तसकाया पज्जतगोयमा! सबन्थोवा नमकाइया अपनत्तगा, तेनकाइया - गा, तसकाइया अपज्जत्तगा घसंखज्जगुणा । प्रका०३पद। पग्जत्तगा अमखज्जगुणा. पुढविकाझ्या अपज्जत्तगा वि (टीका सुगमा) मेसाहिया, आजकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, वाउका- साम्प्रतमेतेषामेव सकायिकादीनां समुदितानां इया अपजत्तगा बिसेसाहिया. वएकाझ्या अपज- पर्याप्तापर्याप्तगतमल्पबहुत्वं पञ्चममाह Jain Education Interational Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) अप्पाबद्दय (ग) अभिधानराजेन्सः । अप्पाक्य (ग) पएसिणं ने सकाइयाण पूढविकाइयाणं आनकाइयाणं इदानीमेनेषामेवा उपय्यामानामाहतेउकाइयाणं वाउकाइयाएं वणस्सइकाइयाणं तसकाश्यागं पपसि णं भने : मुहमअपज्जनगाणं मुहुमपुदविकाध्या पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेदितो अप्पा वा०४ । गो- अपज्जत्तगाणं मुहमाउकाइमा अपज्जनगाणं मृहमनेयमा!मबत्योवा तमकाइया पज्जत्तगा,तसकाइया अपज्ज- नकाइया अपजनगाणं मुटुमवान्काध्या अपज्जनगाणं तगा असंखेज्जगुणा, तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखग्ज- मुटुमवागस्सश्काइया अपज्जनगाणं मुटुमानगोदा अपम्जगुणा, पुढ विकाश्या अपग्जत्तगा विसेसाहिया, प्रानकाइया तगाण य कयरे कयहिनो मापा वा०४१। गोयमा ! अप्पज्जत्तगा विसेसाहिया, वानकाइया अपज्जत्तगा वि- मन्चन्थोवा मुहमने उकाध्या अपजनया, मुहम पुद विकासेसाहिया, तेनकाइया पज्जत्तगा मरेवज्जगुणा, पुढविका- उया अपज्जत्तमा विमेमाहिया. मुहमारकाइया अपना इया पज्जत्तगा विसेसाहिया, अप्पकाइया-पजनगा विसे- त्तया विसेमाहिया, मुहमवाकारया अपज्जनया विसेसाहिया,वानकाश्या पन्जत्तगा विसेसाडिया,वणम्सडका:- साहिया, सहमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेनगुणा, मुहया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, वणस्मस्काइया पज्जचगा मवणम्सइकाश्या अप्पजत्तगा अणंनगुणा, सुहमा अपसंखज्नगुणा,सकाइया अपजत्तगा विसेसाडिया, मकाइया ज्जत्तगा विसेमादित्रा ॥ पज्जत्तगा संखेज्जगुणा,सकाइया विसेसाहिया । इदमपि प्रागुन.क्रमेणव भावनीयम । सर्वस्तोकास्त्रसकायिकाः पर्याप्तकाः, तेभ्यस्त्रसकायिका एवा- सम्प्रत्येतेषामेव पर्य्यामानां तृतीयमल्पवडत्यमाहउपर्याप्तका असंख्येयगुणाम, द्विन्द्रीयादीनामपर्याप्तानां पर्याप्त एएसि ण नंते ! मृदुमपज्जनगाणं मृहुमपुढविकाइयपज्जद्वीन्छियादिज्योऽसंख्येयगुणत्वात् । ततस्तेजस्कार्यिका अपर्याप्ता असहयगुणाः, भंसख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । ततः तगाणं मुहुमाउकाइयपज्जत्तगाणं मुहमनेउकाइयपज्जनपृथिव्यम्बुवायवोऽपर्याप्ताः क्रमेण विशेषाधिकाः। ततस्तेजस्का गाणं सुदुमवाउकाइयपज्जत्तगाणं, मुटुमवणस्सहकाश्यपग्नयिकाः पयांप्तकाः सहयगुणाः, मूक्ष्मेवपर्याप्लेज्यः पर्याप्तानां तगाणं मुहमानगोदपज्जत्तगाण य कयरे कयरोहिंनो अप्पा संख्येयगुणत्वात् । ततः पृथिव्यब्वायवः पर्याप्ताः क्रमेण विशेषा. पा०४१। गायमा! मबत्योवा मुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा, धिकाः। ततो धनस्पतयोऽपर्याप्ता अनन्तगुणाः। पर्याप्ताः सवधेय. गुणाः। तदेवं कायद्वारे सामान्येन पञ्चसूत्राणि प्रतिपादितानि ॥ मुहमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया। मुहमआउकाइया सम्प्रत्यस्मिन्नेव द्वारे सूक्ष्मवादरादिभेदेन पज्जत्तगा.विमेसाहिया, मुटुमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेपञ्चदश सूत्राण्याह साहिया, मुडमनिगोदा पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा,सहमवणएएसि णं भंते सुमार्ण मुदुमपुढविकाइयाणं सुहुमश्रा- स्सइकाइया पज्जतगा अणंतगुणा, मुटुमा पज्जत्ता विमेमउकाश्याणं सुहुमतेउकाश्याणं मुहमवानकाश्याणं मुहम- हिया। वणस्सइकाइयाणं मुहमणिोयाण य कयरे कयरेहितो दमपि प्रागुक्तक्रमेणय भावनीयम् । प्रज्ञा ३ पद । भाषा वा० ४१ । गोयमा ! सम्बत्योवा मुहमतेनकाझ्या पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतिद्वान्छियत्रीन्छियचनुरिन्द्रियपश्चेन्द्रिमुट्ठमपुढविकाश्या विसेसाहिया, मुहुमत्राउकाझ्या विसे- याणां नवानामल्पबहुत्वचिन्तायामाहसाहिआ. मुहुमवानकाइया विसेसाहिया, मुहुमनिगोदा अप्पाबहुगं सम्वत्थोवा पंचिंदिया, चरिंदेया विसेमाअसंखेज्जगुणा । मुहुमवणस्सइकाइया अणतगुणा, सुहुमा हिया, तेइंदिया विसेसाहिया, वेदिया विसेमाहिया, तेउविसेसाहिश्रा॥ काइया अमंखेज्जगुणा, पुढवि० श्राउ० वाउ० विमेसर्वस्तोकाः सूक्मतेजस्कायिकाः असंख्येयलोकाकाशप्रदेश साहिया, वणस्सइकाइया एंतगुणा। प्रमाणत्वात् । तेज्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका विशेषाधिकाः, प्रनूतासायलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्यः सदमाप्कायि सर्वस्तोकाः पझेन्द्रियाः, संख्ये ययोजनकोटीकोटिप्रमाणविष्ककाः, प्रत्रुततरासंख्येयलोकाकाशमानत्वात् । तेत्यः सूक्ष्मवा- मनसुनीप्रमितराश्यसंख्येयजागयत्यसंस्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशयुकार्यिका विशेषाधिकाः, प्रनृततमासलयेयलोकाकाशप्रदशरा. राशिप्रमाणत्वात्। तेज्यश्चतुरिन्डियाविशेषाधिकाः,विष्कम्भसशिमानत्वात् । तेभ्यः सहमनिगोदा प्रसंख्ययगुणाः । सूक्ष्म च्यास्तेषां प्रनूतसंख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणत्यातू । तेभ्योऽपि प्रहणं बादरव्यवच्छेदार्थम् । द्विविधा हि निगोदाः-सूक्ष्माः, श्रीन्डिया विशेषाधिकाः, तेषां विष्कम्भसूच्याःप्रनृततरसंख्येय. बादराश्वातत्र बादराः मरणकन्दादिषु,सूरमाः सर्वलोकापन्नाः, योजनकोटीकोटिप्रमाणत्वात् । तेयोऽपिवाडियाविशेषाधि. ते च प्रतिगोलकमसहचेया इति सूक्ष्मवायुकायिकेभ्योऽसंख्ये- काः, तेषां विष्कम्जसूच्याः प्रभूततमसंख्येययोजनकोटीकोटियगुणाः । तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिनि- प्रमाणत्वात् । तेत्यस्तेजस्कायिका असंख्येयगुणाः, असंख्येगोदमनन्तानां जावात् । तेन्यः सामानिकाः सूक्ष्मजीवा विशे- पलाकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेन्यः पृथियोकायिका विशेपाधिकाः, सूक्ष्मपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रक्षेपात् । गतमौ | पाधिकाः प्रभूतासंख्येयलोकाकाशप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽप्काघिकानामिदमल्पय हुत्वम् । यिका विशेषाधिकाः, प्रनतरासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२४) अप्पाबहय (ग) अनिधानराजेन्द्रः । अप्पाबहुय (ग) त्यात् । तेच्यो वायुकायिका विशेषाधिकाः, प्रनूततमासंख्येय पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४ । गोलोकःकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेयो बनस्पतिकायिका अनन्त यमा सव्वत्थोवा मुटुमचानकाझ्या अपज्जत्तगा, सुदुमवागुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । जी०। प्रति। उकाइया पन्जत्तगा संखेज्जगुणा । एएसि णं ते ! सम्प्रति पतेषामेवानिन्छियमहितानां दशानामरूपबहुत्वमाहएएस णं भंते ! पुदविकाइयाणं अउकाइयाणं तेन, मुहुमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा०४१। गोयमा ! सम्वत्थोवा मुहवाउ०,वणप्फति०,वेइंदियाणं तेइंदियाएं चरसिदियाणं पंचिं मवएस्सइकाइया अपजत्तगा, मुहमवणस्सकाइया पज्जदियाएं अपिदियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० जाच विसे साहिया? | गोयमा! सव्वयोवा पंचेंदिया, चउरिदिया तगा संखिजगुणा। एएसि भंते ! मुहमनिगोदाणं विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेदिया वि०,तेनकाइ पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४ । या असंखेज्जगुणा । पुढविकाइया वि०, आउकाझ्या वि०, गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगासुदुमनिवाउकाश्या वि०, अणिदिया अपंतगुणा, वणप्फतिकाइया गोदा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा । एएसिणं भंते ! सुहुमाणं अणंतगुणा ।। सुहुमपुढविकाइयाणं मुहुमाउकाइयाणं सुहुमतेउकाझ्याणं सवस्तोकाः पश्शेन्द्रियाः, चतुरिन्डिया विशेषाधिकाः, श्रीन्छि सुकुमवानकाइयाणं मुहुमवणस्सइकाइयाणं सुहुमनिगोंदाण मा विशेषाधिकाः, द्वान्द्रिया विशेषाधिकाः, तेजस्कायिका य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ४१ असंख्येयगुणाः, पृथिवीकायिकाः विशेषाधिकाः, अप्कायिका गोयमा सबत्योवा सुदुमतेनकाइया अपज्जत्तया, सुदुमपुरविशेषाधिकाः, वायुकायिका विशेषाधिकाः, अनिन्डिया अन- विकाश्या अपज्जत्तयाविसेसाहिया, सुमनाउकाश्या - म्तगुणाः, वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः । जी०१० प्रति०। पजत्तया विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपजत्तया बिसेमधुनाऽमीषामेव सूक्ष्मादीनां प्रत्येक पर्याप्तगता- साहिया, मुहुमते उकाश्या पज्ज० संखेज्जगुणा, सुदुमपुढविन्यल्पबहुत्वान्याह काइया पज्जनया विसेसाहिया, मुटुमआउकाश्या पज्जत्तगा एएसिणं ते ! मुहमाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कयरे कयरे. विसेसाहिया, मुहुमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया, महुमहिंतो अप्पा बा४.१। गोयमा! सव्वत्थोवा मुहुमा अपज्ज- निगोदा अपज्जत्तगा' असंखेज्जगुणा,मुहुमनिगोदा पज्जत्ततगा, मुहुमा पज्जत्तगा मखेज गुणा । एएसि णं भंते ! गा संखेजगुणा,सुहुमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अर्थातगुणा, सुदुमपुदविकाइयाणं पज्जत्ताऽपजत्ताणं कयरे कयरेहितो सुहुमा अपज्जतगा विसेसाडिया, मुहुमा वणस्सइकाइया अप्पा वा०४१ गोयमा ! सव्वत्थोवा मुटुमपदविकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमा पज्जत्तगा विसेसाहिया ॥ अपजत्तया, सुहुमपुढविकाश्या पजत्तगा संखेज्जगुणा । बादरेषु पर्याप्तेच्योऽपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, एकैकपर्या सर्वस्तोकाः सूक्ष्मास्तेजस्कायिका अपर्याप्ताः; कारणं प्रागेवो. तनिधया असंख्येयानामपर्याप्तानामुत्पादात । तथा चोक्तं प्राक् क्तम। तेभ्यः सूक्ष्माः पृथिवीकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः। प्रथमे प्रज्ञापनाण्ये पदे-" पजत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा तेच्यः सूक्ष्माप्कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः। तेज्यः सूक्ष्मघावकमंति, जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज" इति । सूक्ष्मेषु युकायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः। अत्रापि कारणं प्रागेवोक्तम् । पुनर्नाय क्रमः । पर्याप्ताश्चापर्याप्तापक्रया चिरकालावस्थायिन तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः । अपर्याप्लेजति । सदैवते बहवो लभ्यन्ते। तत उक्तम्-सर्वस्तोकाः सूक्ष्मा भ्यो हि पर्याप्ताः संख्येयगुणाः । इत्यनन्तरं भावितम् । तत्र अपर्याप्ताः, तेज्यः सूदमाः पर्याप्तकाः संख्येयगुणाः, एवं पृ- सर्वस्तोकाः सूक्ष्मतेजस्कायिका अपर्याप्ता सक्ताः । इतरे च म. थिवीकायिकादिष्वपि प्रत्येकं भावनीयम् । गतं चतुर्थमल्पब- धमपर्याप्ताः पृथिवी कायिकादयो विशेषाधिकाः विशेषाधिकत्वं च हुत्वम् । मनागधिकत्वम् , न द्विगुणत्वं न त्रिगुणत्वं वा । ततः सूक्ष्मतेइदानीं सर्वेषां समुदितानां पर्याप्तापर्याप्तगतं पञ्चममस्पबहु जस्कायिकेन्योऽपर्याप्तज्यः पर्याप्ताःसकातेजस्कायिकाः संख्येयः गुणाः सन्तः सूकमवायुकायिकाः पर्याप्तन्योऽपि असंख्यगुणा भवन्ति। तेच्या सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः। एएसिणं भंते !मुदुमाउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं तेत्त्यः सदमाप्कायिकाःपर्याप्ताः विशेषाधिकाः। तेज्योऽपि सूकयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा सव्वत्थोवा सु- क्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः। तेभ्यः सूदमनिगादा हुगाउकाइया अपज्जत्तया, सुजुमानकाश्या पज्जत्तगा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, तेषामतिप्राचुर्यात् । तेत्यः सूत्मनिसंखेज्जगुणा । एएमिणं भंते! मुहुमतेउकाइयाणं पज्जत्ता गोदाःपर्याप्ताः संख्येयगुणाः, सूक्ष्मध्वपतिभ्यः पर्याप्तानामांघपजत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ । गोयमा सव्व तः संख्येयगुणत्वात् । तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपा. ता अनन्तगुणाः, प्रतिनिगोदमनन्तानां तेषां भावात् । तेत्यः त्योवा मुहुमतेनकाइया भपज्जत्तगा, मुहुमते उकाश्या प सामान्यतः सूक्मा अपर्याप्तकाः विशेषाधिकाः, सूक्ष्म पृथिवीज्जत्नगा मंखिज्जगुणा। एएपिएं ते ! मुहमवाटकाइयाणं कायिकादीनामपि तत्र प्रकपात् । तेत्यः सहमवनस्पतिकायि त्वमाह Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२५ ) अभिधानराजेन्द्रः | बहुय (ग) 1 काः पर्यातका संख्येयगुणाः सूक्ष्मेषु हि अपत्यः पर्याप्तका संख्येयगुणाः । यच्चापारा विशेषाधिकत्वं तदस्पमिति न संयत्ययाघातः वेज्यः सूक्ष्मपतका विशेषाधि काः समचियादीनामपि पान तत्र प्रायः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् ॥ १५ ॥ तदेवमुक्ानि सूक्ष्माधितानि पञ्चसूत्राणि । सम्पति बाधितानि पानिधित्सुराह एासे णं जंते! बादरगा बादर विकाइयाबादराजकाइयाणं बादरतेकाइयाणं बादरवाङकाइयाणं बादरवणस्काइवार्ण पत्तेयसरीरवादरवणस्मइकाइया बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसादिया वा ? । गोयमा सम्बत्योवा बादरतसकाझ्या पादरलेउकाइया असंखेकजगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणइकाइया असंखेनगुणा, बादर निगोदा असंखेज्जगुरणा, बादर पुढविकाइया असंखे गुणा, बादर आकाइया असंखेनगुणा, बादरवालका या असंखेश्मगुणा, पादरवणस्सश्काइया अगुवा, बादरा विसेसाहिया || सर्वस्तोका बादरसकाधिकार, डीन्द्रियादीनामेव बा सत्वात्, तेषां च शेषकायेभ्योऽल्पत्वात् । तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अमयेयगुणाः असंख्येयलोकाकाशप्रदेश-प्रमाणत्वात् । तेज्योऽपि प्रत्येकशरीरबाद रवनस्पतिकायिका असंख्येयगुणाः स्थानस्या संध्येयगुणत्वात् । बादरतेजस्का यिका हि मनुष्यक्षेत्र एव भवन्ति । तथा चोक्तं द्वितीयस्थानये पदे-"कहि नेते ! वादकाचा समा गणा पना ? । गोयमा ! सहाषेणं श्रंतो मनुस्तखिते अडाइजेसु दीवस मुद्देसु निव्वाधारणं पन्नरसकम्मभूमिसु वाघापणं पंचसु महाविदेदेषु परथनं वापरतेडकाराणं परमाणं बाणा पन्नत्ता, तत्थेव बायरते नक्काश्याणमपज्जन्त्तगाणं ठाया पद्मता" इति । बादरवनस्पतिकायिकेषु त्रिष्वपि लोकेषु भयनादिषु । तथा चोकं द्वितीयेायये परे "कहि णं भंते! बायरवणस्स श्काश्याणं पञ्जन्तगाणं ठाणा पश्नत्ता ? | गोयमा ! सहाणेवं सरासु चोदीसु सतपणोद बोलो पापाले भवतु भवनाथ कप्पे विमासु विमाण बलियासु विमाणापत्थमेसु तिरियलोप अग मेसु तासु नदी दहेसु वापीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुज्जालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु विलपंतिपासु उरे निकरेपि विपद सुसमुद्देसु सम्बे बेव जनासम्म जलट्टा पर बारवण सहकारयाणं पज्जतगाणं गुणा पचता " । तथा " जत्थेब वायरवणस्स इकाइयाणं पज्जन्तगाणं ठाणा तत्थेव बायरवणसरकारयाणं प्रपज्जन्तगाणं गणा पन्नता " इति । ततः क्षेत्रस्यासंख्येयमुत्यादुपपद्यन्ते बाद तेजस्कायिकेभ्योऽये गुणाः प्रायेकशरीराद्रवनस्पतिकाधिकाः । तेज्यो बानि गोदा असंख्येयगुणाः तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्यात जलेषु सर्वत्रापि च प्राचात् पनकरोयाद्वादयो हिज भाविन ते च बादरानन्तकायिका इति । तेभ्योऽपि वादरपृथि १५७ पप्पाबहुय ( ग ) fierformedगुना पृथिवी सर्वेषु विमानभ वनपर्वतादिषु भावात् । तेभ्योऽसंख्येयगुणा बादराकायिकाः, समुदेषु जलप्राल्यात् तेज्यो बाद चायुकाधिक संख्य गुणा, सुपर सर्वत्र वायुसंयतेभ्यो बाचनस्पतिकाय का अनन्तगुणाः, प्रतिबादर निगोदमनन्तानां जीवानां भावात् । तेभ्यः सामान्यतो बादरा जीवा विशेषाधिकाः, बादरसकाविकादीनामपि तत्र प्रपात् । गतमेकमधिकानां बाद ग्रामपहृत्यम् । इदानीं तेषामेवापयशानां द्वितीयमाहएएसि णं भंते ! बादरा पजत्तगाणं बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगाणं बादरयाटफाइया अपतगाणं बादरतेउकाइया अपज्जत्तगाणं बादरवाचकाइया अपज्जत्तगाणं बादरवासइकाइया अपज्जतगाणं पयसासकाया अपनचगाणं बादर निगोदा अपननगाणं बादरतसकाइया अपश्चगाया व कयरे कपरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसेसाहिया का है। गोयमा ! सम्वत्योबा बादरतसकाइया अपनत्तगा, बादरतेकार या अपनलगा संज्जगुणा, पत्तेयसरीरवादरवणसहकाया अपन तगा असंखेज्जगुणा, वादरनिगोदा अपज्जत्तगा असंखे गुणा, बादर विकाश्या अनत्तगा असंखेगुणा, बादरआउकाड़या अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरबाउकाश्या अपज्जतगा असंखेज्ञगुणा, बादरवणस्सइकाइया अपज्जतगा अंतगुणा, बादर पज्जत्तगा विसे साहिया २ | सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्तकाः, युक्तिरत्र प्रागुक्कै - य तेज्यो बादरतेजस्कामिका अधयमा असंख्येयगुणाः असं स्पेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । इत्येवं प्रागुक्रमेणेदमस्व भावनीयम्। गतं द्वितीयम् । इदानीमेतेषामेव पर्याशानां तृतीयमपबहुत्वमाहएसियां भेते 1 बादरपज्जचयाणं बादरविकारया पन्नतया बादरप्राङकाइया पज्जचयाणं वादरतेकाइया पज्जत्तया बादरबाउकाइया पञ्चतया बादरवणारकाइया पत्ताणं पत्तेयसररीश्वादश्यास्सकाया पज्ज या बादरनिगोदपज्जत्तयाणं बादरतसकाइया पज्जतयाण य कमरे कमरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा बिसेसाहिया ना ? गोयमा सम्बत्योचा चादर ते उकाइया 1 पज्जत्तया, बादरतसकाझ्या पज्जत्तया संखेज्जगुणा, पत्तेयसरी रमादरवणस्मइकाइया पज्जतमा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा फणसगा असंसेज्जगुणा, बादरपुदविकाश्या पसगा असंखेज्जगुणा, बादरआउकाइया पज्जतया असंखेज्जगुणा, बादरचाउकाइया पज्जतगा असंखेज्जगुबादरवणस्सकाइया पज्जतगा अनन्तगुणा, पा दरपन्नता पिसेसाहिया ॥ ३ ॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२६ ) अभिधानराजेन्यः । पाय ( ग ) सर्वस्तोका बादरतेजस्कायिकाः पर्याप्ताः, श्रावलिकासमयवगंस्य कतिपय समयन्यूनैरावलिका समयैर्गुणितस्य यावान् समयराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वं तेषाम् । उक्तं च-" श्रावलिवगोय कुणा चलिए गुणिश्रो हु बायरा तेऊ " इति ॥ तेभ्यो बादरत्र सकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयंगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गलासंख्येयनागमात्राणि खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् । तेभ्यः प्रत्येकशर]रबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता श्रसंख्येयगुणाः, प्रतरे यावन्त्यङ्गुलासंख्ययभागमात्राणि खण्डानि ताचत्प्रमाणत्वात्तेषाम् । उक्तं च-" पत्तेयपज्जवणका-श्या उपयरं दरंति लोगस्स । अंगुल असंखभागे-ण भाइयमिति” । तेभ्यो बादरनिगोदाः पर्याप्तका असंख्येयगुणाः तेषामत्यन्तसूक्ष्मावगाहनत्वात्, जलाशयेषु च सर्वत्र नावात् । तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूतसंख्येयप्रतराङ्गुला संख्येयभागख एकमानत्वात् । तेज्योऽपि बादराष्कायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूततरसंख्येयप्रतराङ्कुबासंख्येयभागख एक संख्यत्वात् । तेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येयेषु प्रतेरषु संख्याततम जागवर्त्तिषु यावन्त श्राकाशप्रदेशांस्तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम् । तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिबादरै कै कनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् । तेभ्यः सामान्यतो बादरपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकानामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् । गतं तृतीयमल्पबहुत्वम् ॥ ३ ॥ इदानीमेतेषामेव पर्य्याप्तापर्य्याप्तानां चतुर्थमल्पबहुत्वमाह - एएसि णं. जंते ! बादराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा । । गोयमासवत्थोवा बादरा पज्जत्तगा, बादरा अप्पज्जतगा असंखेज्जगुणा । एएसि णं जंते ! बादरपुढ विकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १। गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरपुढ विकाझ्या पज्जत्तगा, बादरपुढ विकाश्या अपज्जतगा असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते ! बादर आउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताएं कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा० ४ १ । गोमा ! सव्वत्योवा बादरयाउकाइया पज्जत्तगा, बादरआउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा । एएसि णं जते ! बादरतेडकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसा दिया वा ? । गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतेजकाइया पज्जत्तया, बादरतउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा । एएसि णं भंते ! बादरवाडकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा०४१ । गोयमा ! सव्वत्योवा बादरवाजकाइया पज्जत्तगा, बादरचाकाश्या अपजत्तगा असंखेज्जगुणा । एएासे णं नंते ! बादर वरणस्स इकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो वा० ४९ । गोयमा ! सव्वत्योवा बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा । एएसि णं ते! पत्तेयसरीरवादरव एस्सइकाइयां पज्जत्ता For Private अप्पाबहुय ( ग ) पज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गौयमा ! सव्त्रत्यांचा पंत्तय सरीरवादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। एए से भंते! बादर निगोदाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? । गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरनिगोदा पज्जत्तगा बादरनिगोदा अप्पज्जत्तगा असं खिज्जगुणा । एएसि एां जंते ! बादरतसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा० ४ ? । गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरतसकाइया पज्जतगा, बादरतसकाइया अपज्जतगा असंखेज्जगुण ॥६४॥ इह बादरैकैकपर्याप्तनिश्रया असंख्येया बादरा अपर्याप्ता उत्पद्यन्ते । " पज्जत्तगनिस्साए अप्पज्जसगा षक्कमंति जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्जा" इति वचनात् । ततः सर्वत्र पतेभ्योऽपर्याप्ता असंख्येयगुणा वक्तव्याः । श्रसकायिकसूत्रं प्रागुक्तयुक्त्या नावनीयम् । गतं चतुर्थमल्पबहुत्वम् |४| सम्प्रत्येतेषामेव समुदितानां पर्याप्तापातानां पञ्चममल्पबहुत्वमाद एएसि णं जंते ! बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरभाउकाइयाणं बादरतेनकाइयाणं बादरवाउकाश्याणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदा बादरतसकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कय रेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसादिया वा १ । गोयमा ! सव्वत्योवा बादरतेकाझ्या पज्जत्तया, बादरतसकाइया पज्जत्तया श्रसंखेज्जगुणा, बादरतसकाइया अपज्जतया प्रसंखिज्जगुणा, बादरपत्तेयवणस्सइकाइया पज्जतगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा पज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा, बादरपुढ विकाश्या पज्जतगा असंखेज्जगुणा, बादरभाउकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरवारकाया पज्जत्तगा प्रसंखिज्जगुणा, बादरतेजकाईया अपज्जत्तगा असंखज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाश्या अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरनिगोदा अपत्ता असंखेज्जगुणा, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरच्या नकाश्या अपज्जत्तगा असंखज्जगुणा, बादरवालकाश्या अपज्जतमा असंखेज्जगुणा । बादरबस्सइकाइया पज्जतगा अनंतगुणा, बादरा पज्जतगा विसेसाहिया, बादरवणस्सइकाइया अपज्जतगा असंखेज्जगुणा, बादरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बादरा विसेसाहिया || सर्वस्तोका बादरतेजस्काथिकाः पर्याप्ताः । तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः । तेभ्यो बादरत्र कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः । तेभ्यो बादरप्रत्येक वनस्पतिका - यिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः । तेभ्यो बादरानिगोदाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः । तेभ्यो बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्तका Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२७) अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) असंख्येयगुणाः। तेभ्यो बादराकायिकाः पर्याप्ता असंख्ययगुणाः। तदनन्तरं पादरवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः, प्रतिवादतेभ्यो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता असंख्ययगुणाः । एतेषु प- रनिगोदमनन्तानां जीवानां भावात् । तेभ्यो बादरा विशेषादेषु युक्तिः प्रागुक्ता अनुसरणीया ॥ तेज्यो बादरतेजस्कायिका धिकार, बादरतैजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रक्तपात् । तेभ्यः मुहमवनस्पतिकायिका असंख्ययगुणाः, बादरनिगोदेच्यः सूअपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, यतो बादरवायुकायिकाः पर्याप्ताः संख्येयेषु प्रतरेषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः, बादर मनिगोदानामसंख्येयगुणत्वात् । तेज्यः सामान्यतः सूक्ष्मा तेजस्कायिकाश्चापर्याप्ता असंख्येयोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, विशेषाधिकाः, सूक्मतेजस्कायिकादीनामपि तत्र प्रकपात् । ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः । ततः प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिका- गतमेकमल्पबदुत्वम् । प्रज्ञा० ३ पद । जी०। शिकाः, पादरनिगोदाः, बादरपृथिवीकायिकाः, बादराकायि- ___ इदानीमेतेषामेवापर्याप्तानां द्वितीयमादकाः, बादरवायुकायिका अपर्याप्ना यथोत्तरमसंख्येयगुणा बकन्याः। यद्यपि चैते प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्त एएस णं ते! मृहुमअपज्जत्तयाणं मुहमपुढाविकाइयाणं थाऽप्यसंख्यातस्यासंख्यातभेदभिन्नत्वादित्थं यथोत्तरमसंख्ये- अपज्जत्तयाणं सुदुमाउकाझ्याणं अपज्जत्तयाणं मुहमतेयगुणत्वं न विरुभ्यते । तेज्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः नकाइयाणं अपग्जत्तयाणं सुहमवानकाझ्याणं अपज्जनपर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिबादरैकैकनिगोदमनन्तानां जीवानां पाणं मुहुमवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तयाणं मुहुमानगोदा प्रावात् । तेज्यः सामान्यतो बादराः पाप्ता विशेषाधिकाः, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रकपात् । तेभ्यो अपज्जत्तयाणं बादरा अपजत्तयाणं चादरपुदविकाइया बादरवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणा एकैकपर्याप्त- अपज्जत्तयाणं बादरआजकाइया अपज्जत्तयाणं बादरतेनबादरवनस्पतिकायिकनिगोदनिश्रयाः, असंख्येयानामपर्याप्त काइया अपज्जत्तयाणं बादरवाउकाड्या अपज्जत्तयाणं वाबादरवनस्पतिकायिकनिगोदानामुत्पादात् । तेन्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बावरतेजस्कायिकादीनामप्य दरवणस्सकाझ्या अपजत्तयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्सापर्याप्तानां तत्र प्रकपात् । तेभ्यः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणरहिताः काश्या अपज्जत्तयाणं बादरनिगोदा अपज्जत्तयाणं बादरसामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, बादरपर्याप्ततेजस्कायिकादी- तसकाइया अपज्जत्तयाण य कयरे कयरोहितोमप्पा वा० नामपि तत्र प्रेकपात् । गतानि बादराश्रितान्यपि पञ्च सूत्राणि । ४। गोयमा! सव्वत्थाचा बादरतसकाइयो अपज्जत्तगा', सम्पति सूक्ष्मवादरसमुदायगतां पञ्चसूत्रीमनिधित्सुः प्रथमत बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा २, पत्तयस मौधिकं सूक्ष्मवादरसूत्रमाद रीरबादरवणस्सइकाइया अपज्जगत्ता असंखज्जगुणा ३, एसि पं भंते ! मुटुमाणं मुहमपुढधिकाझ्याणं सहम-| बादरनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा ४, बादरपुढभाउकाश्याणं सुहुमतेजकाझ्याणं मुहुमवाउकाइयाणं सु- विकाझ्या अपज्जत्तगा असंखज्जगुणा ५, चादराजकाहुमवणस्सइकाइयाणं सुदुमनिगोदाणं बादराणं बादरपुढवि- इया अपज्जत्तगा असंखे० ६, बादरवाउकाइया अपज्जकाझ्याणं बादरभाउकाइयाणं बादरतेउकाझ्याणं बादरवाज- त्तगा असंखज्जगुणा ७, मुहमतेनकाइया अपज्जत्तगा काइयाणं चादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणस्स-| असंखज्जगुणा८, मुहुमपुढाविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाकाश्याणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कयरे कय- हिया ए, मुहुमाउकाइया अपजत्तगा विसेसाहिया रोहिंतो भप्पा वा०1 गोयमा! सन्वत्योवा बादरतसका- १०, सुहुमवाउकाझ्या अपज्जत्तगा बिसेसाहिया ११, इया १,बादरतेनकाझ्या असंखेजगुणा २, पत्चेयसरीरबाद- सुहमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखज्जगुणा १२, बादरवरवणस्सइकाइया असंखज्जगुणा ३, पादरनिगोदाभ- एस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणतगुणा १३, बादरा अपसखिज्जगुणा ४, बादरपुढविकाइया असंखेज्जगुणा ५, ज्जत्तगाविससाहिया १४,सुहुमवणस्सइकाइया भपज्जतगा पादरभाउकाइया असंखेज्जगुणा ६, पादरवाउकाश्या असंखिज्जगुणा १५, सुहमा अपज्जत्तगाविसेसाहिया १६। असंखेजगुणा ७, मुटुमतेउकाइया असंखेज्जगुणा , सर्वस्तोका बादरत्रसकायिका अपर्याप्ता। ततो पादरतेजस्कामुहमपुदविकाइया विसेसाहिया ए, मुटुमाउकाइया यिका बादरप्रत्येकवनस्पतिकायिकबादनिगोदबादरपृथिवीविसेसाहिया १०, मुटुमवाउकाझ्या विसेसाहिया ११, कायिकबादराकायिकबादरवायुकायिका अपर्याप्ताःक्रमण यमुहुमनिगोदा असंखेजगुणा १२, बादरवणस्सइकाइया थोत्तरमसंख्येयगुणाः । अत्र भावना बादरपञ्चसूज्यां यद द्विती थमपर्याप्तकसूत्रं तद्वत्कर्तव्या । ततो बादरवायुकायिकेभ्योऽ. पणंतगुणा १३, बादरा बिसेसाहिया १४, सुदुमवणस्स- संख्येयगुणाः सूदमतेजस्कायिका अपर्याप्ताः, मतिप्रजूतासंख्येइकाइया असंखज्जगुणा १५, मुहमा विसेसाहिया १६ ॥ यझोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्यः सुक्ष्मपृथिविकायिकाः (पएसि णं भंते ! इत्यादि) इह प्रथम बादरगतमपबहुत्वं सूक्ष्माष्कायिकाः समवायुकायिकाः सुक्ष्मनिगोदा अपबादरसूध्यां यत्प्रथम सूत्रं तद्वद्भावनीयं यावद्वादरवायुकायिक- यांप्ता यथोत्तरमसंख्येयगुणाः । अत्र नावना सम्मपञ्चसयां पदम । तदनन्तरं यत्सूक्मगतमपबदुत्थम । ततः सूक्ष्मप-1 यद् द्वितीयं सूत्रं तद्वत । तेज्यः सूक्ष्मनिगोदाऽपर्याप्तभ्यो थाअसूयां यत्प्रथमं सूत्रं तवत्, तावद्यावत्मदमनिगोइचिन्ता। दरवनस्पतिकायिका जीवा अपर्याप्ता अनन्तगुणाः, पति Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) अप्पाबहय (ग) अन्निधानराजेन्द्रः । अप्पाबद्दय (ग) पादरैकैकनिगोदमनन्तानां सद्भावात् । तेभ्यः सामान्यतो या- षाधिकार, बादरतेजस्कायिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रकपरा भपर्याप्तका विशेषाधिकाः, पादरप्रसकायिकापर्याप्तादी- पातू । तेभ्यः समवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्ययगुणाः, नामपि तत्र प्रकपात । तेभ्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता बादरनिगोदपर्याप्तेभ्यः सदमनिगोवपर्याप्तानामसंख्येय गुणत्वात् । असंख्येयगुणाः, बादरनिगादपर्याप्तज्यः सूक्ष्मनिगांदापर्याप्ता- तेभ्यःसामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कानामसंख्येयगुणत्वात् । तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माअपर्याप्ता विशे. यिकादीनामपि पर्याप्तानां तत्र प्रक्षेपात् ।गतं तृतीयमस्पयहुपाधिकाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकापर्याप्तादीनामपि तन प्रकपात्।। स्वम । प्रका० ३ पद । जी । गतं द्वितीयमापयत्वम् । प्रशा० ३ पद । जी। श्वानीमतेषामेव सक्ष्मवादगदीनां प्रत्येकं पयांप्तापर्याप्तानां अधुनतेषामेव पर्याप्तानां तृतीयमापबाहुत्वमाह पृथक् २ मस्परहुत्वमाहएएसिणं भंते ! मुहमपज्जत्तयाणं मुहमपुद विकाइयपज्ज एएसि एंनंते ! मुहुमाणं बादराण य पज्जत्तापज्जत्ताणं सगाणं सुहुमनाउकाइयपज्जत्तगाणं मुहमतेउकाश्यपज्ज कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा०४१। गोयमा ! सम्बत्योवा सयाणं मुहमवाउकाइयपज्जत्तयाणं मुहमवणस्सइकाइयप बादरा पज्जत्तगा,दादरा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, मुटुमा ज्जत्तयाणं मुहुमानगोयपज्जत्तयाणं बादरपज्जतगाणं वा अपज्जत्तगा असंखेजगुणा, मुहमा पन्जत्तगा संखज्जगुण।। दरपुदविकाश्यपजत्तयाणं बादरानकाइयपज्जत्तगाणंबा. एएसिणं ते! मुहमपुढविकाझ्याणं बादरपुढविकारदरभाउकाश्यपज्जत्तयाणं बादरतेउकाश्यपज्जत्तयाणं बा याण य पज्जत्तापज्जताणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४। दरवाउकाश्यपज्जत्तयाणं बादरवणस्सइकाइयपज्जत्तयाणं गोयमा! सम्वत्याना बादरपुढविकाइया पज्जत्तया, वादरपत्तयसरीरबादरवणम्सइकाइयपज्जत्तयाणं बादरनिगोदप पुढविकाइया अपज्जनया असंखजगुणा, मुटुमपुढविकाज्जत्तयाणं बादरतसकाश्यपज्जत्तयाण य कयरे कयरेहितो. इया अपजत्तगा असंखज्जगुणा, सुदुमपुढविकाझ्या पजप्पावा। गोयमा!सब्बत्योवा बादरतेउकाइया पज्जत्तगा त्तगा संखेज्जगुणा । एएसि णं ते! मुजुमानकाइयाबादरतसकाइया पज्जत्तया असंखिज्जगुणा, पत्तेयसरीर एं बादराजकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो बादरवणस्सकाझ्या पज्जत्तगा असंखज्जगुणा, बादरनिगो अप्पा वा ४ । गोयमा ! सव्वत्योवा पादरभाउकाड्या दा पज्जत्तया असंखेज्जगुणा, बादरपुढविकाइया पज्जत्नया पज्जत्तया बादराउकाझ्या अपज्जत्तया असंखेजगुणा, असं, बादरानकाझ्या पज्जत्तया असंखेजगुणा, बाद मुहुमानकाझ्या अपनत्तया असंखेजगुणा, मुहुमत्रारखाउकाइया पज्जत्तया असंखज्जगुणा, मुडमतेउकाइया उकाश्या पज्जत्तगा संखेज्जगुणा । एएसि रणं नंते ! सुदुमतेउकाइयाणं बादरतेउकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं पज्जसगा असंखज्जगुणा, महुमपुदविकाश्या पंज्जत्तगा वि कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ४ ?। गोयमा ! सम्बत्योवा संसाहिया, समभागकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया,मुहुमनाउकाश्या पज्जत्तगाबिसेसाहिया, मुडमनिगोदा पज्जत बादरतेउकाझ्या पज्जत्तगा, बादस्तेनकाइया अपज्जत्तया प्रसंखज्जगुणा । मुहुमतंउकाइया अपनत्तया असंखज्जया असंखेज्जगुणा, बादरवणस्सइकाझ्या पज्जसयाभणंवगुणा, बादरा पज्जत्तया विससाहिया,सामवणस्सइकाइया गुणा, मुहुमतेनकाश्या पज्जत्ता संखेज्जगुणा । एएसिणं जते । सुहमवानकाइयाणं बादरवाउकाइयाण य पज्जपज्जत्तगा असंखिज्जगुणा,सुहुमा पज्जत्तया बिसेसाहिया। तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहिंतो अण्णा वा०४१ । गो(सुहुमपज्जयाणमित्यादि ) । सर्वस्ताका बादरतेजस्का यमा ! सन्नत्योबा बादरवाउकाश्या पज्जत्तया, बादरयिकाः पर्याप्ताः, तेभ्यो बादरत्रसकायिकाः, बादरप्रत्येकवन बाउकाइया अपज्जत्तया असंखज्जगुणा । मुटुमवानकाझ्या स्पतिकायिकाः, बादरनिगोदा, बादरपृथिवीकायिकाः, बादराप्कायिकाः, बादरवायुकायिकाः पर्याप्ता यथोत्तरमसंख्ये. अपज्जत्तया असंखेज्न, सुकुमवाउकाश्या पज्जतया अयगुणाः । अत्र नावना बादरपञ्चश्यां यत् तृतीयं पर्याप्तसूत्रं संखेज्जगुणा। एएसि पं जंते ! मुहमवणस्सइकाइयाणं तद्वत्कर्तव्या। बादरपर्याप्तवायुकायिकेभ्यःमृतमतेजस्कायिकाः पादरवणस्सइकाइयाण य पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, पादरवायुकायिका दिप्रसंस्येयप्रतर हिंसो अप्पावा०४ गोयमा सव्वत्योवा बादरवणस्सप्रदेशराशिप्रमाणाः, सूक्ष्मतेजस्कायिकास्तु पर्याप्ता असंख्ये. यलोकाकाशप्रदेशाशिप्रमाणाः, ततोऽसंख्येय गुणाः । ततः इकाइया पज्जत्तया, वादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया - सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः सूक्ष्मायकायिकाः सूक्ष्मवायुकायिकाः संखिज्जगुणा, मुहुमवणस्सकाझ्या अपज्जत्तया असंखिपर्याप्ताः कमेण यथोत्तरं विशेषाधिकाः । ततः सूक्ष्मवायुफायि. जगुणा, मुहुमवण स्सइकाइया पज्जत्तया सखिजगुणा । केभ्यः पर्याप्तभ्यःसूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तका असंख्येयगुणाः, तेषा एएस णं ते ! मुहमनिगोदाणं वादरनिगोदाण य पज्जमतिप्रनूततया प्रतिगोलकं.भावात् । तेभ्यो बादरवनस्पतिकायिका जीवाः पर्याप्रका अनन्तगणाः , प्रतिवादरैकैकभिगोदम तापज्जत्तार्ण कयरे कयरहितो अप्पा वा०४१। गोयमा ! नन्ताना भावात् । तेभ्यः सामान्यतो बादराः पर्याप्तका विशे-' सव्वाचा बादरनिगोदा पज्जत्तया, पादरनिगोदा अप Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२६ ) अभिधानराजेन्द्रः । अप्पाबहुय (ग) जया असंखिनगुणा, सुमनिगोदा अपनचया असंखिज्जगुणा, सुमनिमोदा पज्जत्तया संखेज्जगुणा || सर्वत्रेयं भावना सर्व स्तोका बादराः पर्याप्ताः, परिमित क्षेत्रवतिस्वात् । तेभ्यो बादरा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः, एकेक बादरपपनिया असंख्येयानां बादपर्याप्तानामुदात्तेदमा अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः सर्वलोकोत्पतितया तेषां क्षेत्रस्यासंख्येयगुणवत्तेभ्यः सूक्ष्माः पर्याशकाः संकपेयगुणाः, चि कालावस्थायितया तेषां सदैव संश्येषगुणतया ऽवाप्यमानत्वातू । गतं चतुर्थ मल्पबहुत्वम् ॥ इदानीमेतेषामेव सूक्ष्मपृथिवी कायिकादीनां बादरपृथिवीका यिकादीनां च प्रत्येकं पापाता च समुदायेन पञ्चममहपबहुत्वमाह एसि णं ते! सुदुमाणं सुदुमपुविकाश्या सुमआ काश्याणं मते काश्याणं सुदुमाउकाश्याणं मुदुमवणसइकाइयाणं सुदुमनिगोदाणं बादराणं बादरपुढ विकाइयाणं मादरभाउकाइयाणं बादरते उकाध्यायं बादरवाचकाश्याएं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाणं पज्जचापञ्चचार्थ कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्वत्योवा बादरतेकाइया पतया १, बादरतसकाइया पलया अवगुणा २, बादरतसकाइया अप्पाचया असंखिजगुणा ३, पचेपसरीरवादरवण सइकाइया पनचया असंखिज्जगुणा ४, मादरनिगोदा पज्जच्या प्र संखिज्जगुण ए, वापरपुढविकाश्या पञ्चतया असंखेज्जगुणा ६, बादरच्याङकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा ७, बादरवाचकाश्या पज्जतगा असंखेज्जगुणा । बादरतेछकाइया अपना असंखिजगुणा ए, पत्तेयसरीरबा दरवणस्सइकाइया अपनतया प्रसंसेज्ज० १०, बादरनिगोदा पज्जतया असंखे० ११, बादरपुढविकाइया अपज्जतया असंखे० १२, बादरआउकाइया अपज्जत्तया असं० १२, बादरवालका या अपज्जतया असंखे० १४, सुरुमवेतकाझ्या अपज्जतया असंखेन्नगुणा १५, सु मढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया १६, सुडुमआकाइया अपनाना विसेसाहिया १७, मुदुमवाउकाया अपनतया विसेसाईया १०, मुहुमते काइया पन या संखि० १५, सुदुमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया २०, सुषमा काइया पज्जतमा बिसेसाहिया ११, सुडुमत्राजकाइया पजत्तया विसेसाहिया २२, सुहुमनिगोदा अपया असंखे० २३, सुहमनिगोदा पा संखे० २४, बादरवणस्सइकाइया पतया २५, बादरा पत्ता विसेसाहिया २६, वादरवणस्सइकाइया अपरागा असंखिखगुणा 29, बादरा अपतया विसेसाहिया २० वादरा विसादिया २६ इकाइया अपन 4 अप्पा बहु ( ग ) जगा अखि० ३०, मुद्रा अपना विमेमाडिया ३१, इकाइया पनगा असंखे० २२. मु 9 हुमा पन्नगा विसेसाहिया ३२ मा विमेाहिया २४ । ( प णं भने हुमाणं सुदुमविकाश्यानमित्या दि) सनोका बादराधिकाः पर्यमा प्रालि कासमयवर्ग कतिपय समयन्युनैगम विकासमये गुिं समयरा शिस्तावत्प्रमाणत्वान् तेषाम् १ | तेज्यो बादरसका चिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः प्ररे वायम्य तापेदभा गमात्राणि एकानि तावत्प्रमाणत्वासेपाम् २ | तेभ्यो बादरसकाधिका असा संश्येयगुणाः प्रतरे यायला ख्येयनागमात्राणि एकानि तावन्प्रमाणत्वा तेषाम् ३। ततः प्रस्यशरीरबादरवनस्पतिकायिक ४ बादरनिगोद ५ बाद पृथ्वीकायिक ६ बादrष्कायिक ७ बादरवायुकायिकाः ८ पर्याप्ता पयोत्तरमसंख्येयगुणाः । यद्यप्येते प्रत्येकं प्रतरे या संख्येयभागमात्राणि समानतामसाध्ये यभागस्यासंश्येय मेदमित्वादित्यं यथोत्तम संध्येयगुणयमभिधीयमानं न चिरुभ्यते यो बाइरतेजराधिकासा असंश्येयगुणाः संयेयोकाकाशप्रदेश प्रत्येकशरीरबारचनस्पतिकायिक १० बादरनगो ११ बादपृथिवीकायिक १२ बाद कायिक १३ बादरायुकाधिका अपर्याप्ता यथोत्तरमसंख्येयगुणाः १४, ततो बाद रवायुकायिकेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः सूक्ष्म तेजस्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः १५, ततः सूक्ष्मपृथिवीकाधिक १६ सूक्ष्माकाधिक १७ सूक्ष्म वायुका यिका अपर्याप्ता यथेोत्तरं विशेषाधिकाः १८ । ततः सूक्ष्मतेजकायिकाः पर्यत संख्यातगुणाः सदमेवपर्यासानामोघ पत्र संख्यावाद १० ततः सूक्ष्म पृथिवीकाधिक २० माकाधिक २१ मा विका शेषाधिकाः २२। तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्तां असंख्येयगुणाः, तेषामतिप्राभूत्येन सर्वलोकेषु भावात् २३ । तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्तकाः संख्ये यगुणाः, सूक्ष्मेष्वपर्याप्तेभ्यः पर्याप्तानामोघत सदा संख्येयत्वात् पते च बाजा विकादयः पदमभिगो पर्यवसानाः पदार्थ पथव्यन्यत्राविशेषेणासंस्थेयलोका काशप्रदेशप्रमाणातथा सङ्गीयन्ते तथाप्यसंख्येयस्यासंयमेव मिश्रत्वादित्यम शेषाधिकत्वं संये प्रतिपाद्यमानं न विरोगति २४| तेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोद्देभ्यो बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः, प्रतिवाद के निगमानां जीवानां भाव २५॥ तेभ्यः सामान्यतो बादरा पर्याप्ता विशेषाधिकार बाद पीसतेजस्काधिकानीनामपि तत्र प्रपात् २६ तेभ्यो बाचनस्पतिकायिका पर्यातका संयगुणाः एकैकपासवा दरनिगोदनिश्चया असंख्येयानां बाइरनिगोत्रा पर्याप्तानामुत्पादात् २७ । तेभ्यः सामान्यतो बादरा अपर्याप्ता विशेषाधिकाः, बाहरतेजस्कायिकादीनामप्यपत्र प्रक्षेपात् २८ ते सामान्यतो बारा विशेषाधिकाः पर्याप्तानामपि २२ तेभ्यसूक्ष्मवनस्पतिकाधिका अपर्याप्ता अवगुणाः बादरनिगोदेभ्यः सूक्ष्म निगोहानामप्यपर्याप्तानामप्यसंक्येय गुणत्वात् ३० । ततः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्तका विशेषाधिकाः सूक्ष्मपृथिवीकाधिकादीनामप्यपर्याप्तानां तत्र ३२ तेभ्यः सूक्ष्मत्रनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता भसंश्येयगुणाः, सूक्ष्मवनस्पतिकाधिकापतेभ्यो हि सूक्ष्मयनस्पतिकापसासं Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sage (ग) गुणाः पर्याप्ता ततः सूक्ष्मायया विशेषाधिक यगुणत्वबाधनायोगात् ३२ । तेभ्यः सामान्यतः सूक्ष्माः विशेषाधिकार पर्याप्तम पृथिवी काकादीनामपि तत्र प्र पात् ३३ । तनः सामान्यतः सुक्ष्माः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणर दिता विशेषाधिकाः, अपर्याप्तानामपि तत्र प्रक्षेपात् ३४ । गतं सूक्ष्मबादरसमुदायगतं पञ्चमपल्पबहुत्वं ततौ समर्थितानि पञ्चदशाऽपि सूत्राणि । इति गतं कायद्वारम् । प्रशा० ३ पद । मोम्मनो बादरयादराणामपव जी०३ प्रति० । (आरम्भिकादिक्रियाणामत्वं किरिया देते (११)[र] कस्मिक्षेत्रे जीवाः स्तोकाः कस्मिन् या बहवः ?, इति चिन्तयन्ते (६३०) अनिधानराजेन्द्रः | 6 खित्तावारणं सव्वत्योचा जीवा उठ्ठलोयतिरियलोए होतोय तिरियलो विसाड़िया, तिरियो प्रसंखिगुणा के प्रसंखेज्जगुणा उझोए असंखेनगुखा, अडोस विमादिया । , . पानोऽनुमारः देवानुपातस्तेन विनियमानाजीवा सर्वस्तोका लोकनियंमूलोके, इढ उर्द्धलोकस्य यदधस्तनमाकाशप्रदेशप्रतरं यच्च सर्वतिर्यग्लोकस्य सर्वोपरितनमाकाप्रदेशतरमेव उर्ध्व लोकप्रतरः, तथा प्रवचने प्रसिः । इयमंत्र भावना-इह सामस्त्येन चतुर्दशरज्ज्वात्मको लोकः । स त्रिधा भिद्यते तथा ऊर्चोक तिलोक कश्च । रुत्रका चैतेषां विभागः तथाहि रुचकस्याधस्तानवयोजननानि परियोजना - लोकस्यास्तादधोलोक उपरलोक देशोनसमर ज्जुप्रमाण ऊर्ध्वलोकः समधिक सप्तरज्जुप्रमाणोऽधोलोको, मध्ये रायोजन तोषस्ति तत्र का भूतभागाश्रययोजनातास्योपि कन्धप्रादेशिकमा सितस्य खोपरि देशिकमारते कोके इति व्यवह्नियेते । तथाऽनादिप्रवचनपरिभाषाप्रसिकः। तत्र वर्तमाना जीवाः सर्वस्तोकाः । कथम् ?, इति चेत् । उच्यते इद ये ऊर्ध्वलोकान्तिर्यग्जो के तिर्यग्लोका लोके समुद्यमानाविशन्ति ये च स्था एव केवनतत्तरद्वयाध्यासिनो वर्तन्ते किल विवक्षि प्रतरद्वये वर्तन्ते नान्ये ये पुनरूध्ये लोकादधोलोके समुत्पद्यमा नास्तत्प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ते न गएयन्ते तेषां सूत्रान्तरविषयस्वात् । ततः स्तोका एवाधिकृतप्रतरयवर्तिनां जीवाः । ननुध्वं लोकताना सर्वजीवानामसंख्येयभागोऽयमाणोच तिलोके समुद्यमाना विवहितं प्रतर स्पृशन्तीति कथमधिकृतद्वयस्पशन स्तोका है। द नाम यस्तुनस्यापरिज्ञानात् तथाहि यद्यपि नामक गनानां सजीवलोकानामसंग भागोनवरतं प्रियमा-सर्व एव नमुने प्रभू तनराणामधोलोके ऊर्ध्वलोके च समुत्पादात् । ततोऽधिकृतसोनिया के विशे पाधिका पोकोपनि प्रादेशिककाशप्रदे अपाय (ग) शतरं यश्च तिर्यग्लोकस्य सर्वाधस्तन मेकप्रादेशिकमाकाशप्रदेशतरमपम इत्युच्यते तथा प्रवचनप्रसिद्धेः । तत्र ये विग्रहगत्या तंत्रस्थतया वा वर्तन्ते तेविशेषाधिकाः कथमितिल गोनिकाचोली ईलिकामा अधिकृतं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति ये च तत्रस्था एव केचन तत्प्रतरद्वयमध्यासीना वर्तन्ते ते विवक्षितप्रतरद्वयवर्तिनः पुनरधोलोकादूर्ध्वलोके समुत्पद्यमानास्तत्प्रतरद्वयं स्पृरान्ति, ते नान्तरात् केवल मूर्ध्वोकाद लोको विशेषाधिक त्यालोकातिलो मुत्पद्यमाना ऊर्ध्वलोकापेत्तया विशेषाधिका अवाप्यन्ते ततो विशेषाधिकाः शतेज्यस्तिर्यग्ग्लोकवर्तिनो ऽसंख्येयगुणाः, उक्त क्षेत्रद्विक सिग्लो स्य स्पर्शनोऽयग्राः ६६ ये कंवले के घो लोके तिर्यग्लोके वा वर्तन्ते, ये च विग्रहगत्या उर्ध्व लोकतिर्यग् 13 3 " लोक स्पृशन्ति ते न गएयन्ते, किन्तु ये विग्रहगत्यावन्नास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति ते परिगृह्याः, सूत्रस्य विशेषविषयत्वात् । ते किर्तियोऽप पमिति चेत्, उच्यते- या प्रतिसमयमूलोके अधोलोके निगोदा उद्वर्तन्ते ये तु तिर्यग्लोकवनिंनः सूक्ष्मनिगोदा - र्तन्ते. तेऽर्थादधोलोके ऊर्ध्वलोके या केचितस्मिन्नेव वा तिर्यलोके समुद्यन्ते ततो न ते लोकसंस्पशिंग इति नाधिकृतसूत्रविषयाः तत्रोलोकालोकानां मनिगोहानामुवर्तमानानां मध्ये केविस्थान एप को अधोलोके वा समुत्पद्यन्ते केचित् तिर्यग्लोके, तेभ्योऽसंख्येयगुणा अधोलोकगता ऊर्ध्व लोके, ऊर्ध्व लोकगता अधोलोके समुत्पद्यन्ते । ते च तथेोत्पद्यमानास्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तीत्य संख्येयगुणाः । कथं पुनरेतदवसीयते यदुत एवंप्रमाणा बडवो जीवाः सदा विप्रढगत्यापन्ना लक्ष्यन्ते १, इति चेत्, उच्यते युक्तिवशात् । तथादिप्रागुकमिदमसूपसारे" सम्या जीवानो पज्जता नो अपज्जता, अपज्जता अनंतगुणा, पज्जचा संखेजगुणा " इति । तत पवन मापर्याप्ताः बहवा ये नैतेभ्यः पर्याप्ताः संख्येयगुणा एव नासंख्येयगुणाः ; नाप्यनन्तगुणास्ते चापर्याप्ता बहवोऽन्तरगती वर्तमाना लभ्यन्ते इति तेज्य ऊर्ध्वलोके लोकसंख्येयगुणा, उपपातकेषख्यातिमत्वाद असंख्येयानां च नागानामुइर्तनायाश्च संजयात् । तेभ्यो ऽधोऽधोलोकविशेषाःकलोको लोक क्षेत्रस्य विशेषात् तदेवं सामान्यतो जीवाम के त्रानुपातेनाल्पबहुस्वमुक्तम् । इदानीं चतुर्गतिद एक कक्रमेण तदनिधित्सुः प्रथमतो नैराधिकाणामाद स्वा सदस्योषा नेरश्या तेल के अहोलोगनिरियलोने असंखेज्ज० अहोलोए मसंखेज्जगुणा ॥ क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण नैरविकश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः त्रैलोक्ये लोकसंस्पर्शिनः । कथं लोकत्रय संस्पर्शितो नैरथिकाः ?, कथं वा ते सर्वस्तोकाः ? इति चेत्, उच्यते- ये मेरुशिखरे श्रञ्जनदधिमुखपर्वतशिखरादिषु वा बापीषु वर्तमाना मत्स्यादयो नारकेत्थित्सव ईसिकागत्या प्रदेशान् विपिति सेकसम से - Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पावत्य (ग) अनिधानराजेन्द्रः । अप्पाबद्दय (ग) कालमेव नरके पूत्पन्ने नारकायुकप्रतिसंवेदनाताते चेत्य नूताः प्रतिसंवेदनात् । नियंग्पोनिकाः नियश्च ततः संख्येयगुणाः।।। कतिपय इति सर्वम्ताकाः । अन्ये तु व्याचकते-नारका पव ताभ्योऽधोलोकनियंगलोकसं प्रतरद्वये वर्तमानाः संख्यययधोक्यापी निर्यक्पश्चेन्द्रियतयोत्पद्यमानाः समुद्धानवशतो गुणाः, बढ़पो हि नारकादयः समुदयातमन्तरेणाऽपि नियंग(वक्किप्तनिजामप्रदेशदएमाः परिगृह्यन्ते । ते दिकिन तदा नारका लोके निर्यक्रपश्चेन्द्रियन्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते । नियग़लोकवर्तिनश्च एव निर्विवादं तदायुकप्रतिसंवेदनात त्रैलोक्यसंस्पर्शिनश्च य- जीवास्तियगयोनिकरीत्वेनाऽधोलौकिकग्रामेष्यपि च ते न थोतवापायावदात्मप्रदेशदएकस्य विकिप्तत्वादिनि।तभ्योऽधोती. तथोत्पद्यमाना यथोक्त प्रतरद्वयं स्पृशन्ति । तियंग्यनिकझ्याः कतिय लोकसंकाः प्रागुक्तप्रतरद्वयस्य संस्पर्शिनोऽप्संख्येयगुणाः, युःप्रतिसंवेदनाच तिर्यग्योनिकरित्रयोऽपि तथाऽधोलौकिक यतो बहयोऽसंख्येयेषु द्वीपममुद्रेषु पञ्चन्द्रियतिर्यम्योनिका नर- प्रामा योजनसहनावगाहाः पर्यन्तेऽवाकविप्रदेशे नययोजनकेषत्पद्यमाना यधोक्तप्रतरक्ष्यं स्पृशन्ति, ततो भवन्ति पृबॉक्ते- शतावगाहा अपि तत्र काश्चिातर्यगयोनिकनियोऽयस्थानेनापि भ्योऽसंख्येयगुणाः, केत्रस्यासंख्यातगुणत्वात् । मन्दगदिक्केत्रा- यथोक्तप्रतरद्वयाध्यासिन्यो वर्तन्ते. ततो भवन्ति पूर्वोक्ताभ्यः दसंख्येयद्वीपसमुद्रात्मकं केत्रमसंख्येयगुणमित्यतो भवन्यसं- संस्ययगुणाः।४। ताभ्योऽधोलोके संस्पेयगुणाः, यतोऽधालीक्येयगुणाः । अन्ये त्यभिदधति-नारका एवासंख्येयेपुशीपसमु किकग्रामाः सर्वेऽपि च समुद्रा योजनसहनायगादाः, ततो देषु तियपश्चेन्छियतयोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घातेन वि नययोजनशतानामधस्तादू या वर्तन्ते मत्स्यीप्रभृनिकाः तिय विप्निजात्मप्रदेशदएमा द्रष्टव्याः। ते हि नारकायुःप्रतिसंवेदना ग्योनिकखियस्ताः स्वस्थानत्वात् प्रसूता पति संख्येयगुणाः, मारका उवर्तमाना अप्यसंख्येयाः प्राप्यन्ते, इति प्रागुक्तेभ्योऽ केत्रस्य संख्येयगुणत्वात् । ताभ्यस्तिर्यग्लोके संक्येयगुणाः । संख्येयगुणाः, तेभ्योऽधोलोकेऽसंख्येयगुणाः, तस्य तेषां स्वस्था उक्तं तिर्यगगतिमप्यधिकृत्याल्पय हुत्वम् । भत्वात् । उक्तं नारकर्गातमधिकृत्य केत्रानुपातनाऽल्पबहुत्वम् । इदानी मनुष्यगतिविषयमादइदानी तिर्यग्गतिमधिकृत्याऽऽह खेत्तागुवापणं सव्वत्योवा मणुस्मा तेयुके उलोयनिखेत्तावारणं सम्बत्योवा तिरिक्रवजोणिया उकुसोय-| रियलोप असंखेज्जगणा. अटोलोयतिरियलोए संखिज्ज तिरियलोए अहोलोयतिरियलोए विसेमाहिया तिरियलोए गुणा, अहोलोए संखजगुणा, तिरियलोए संखिजगुणा । असंखेज्जगुणा, तेलुके असंखेज्जगुणा, जलोए असंखि केत्रानुपातेन मनुष्याश्चिन्यमानाः त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ज्ज०, अहोलोए विसेसाहिया ॥ सर्वस्तोकाः,यतो ये ऊर्वजोकादधोलौकिकग्रामेषु सुमुत्पिन्मयो दं सर्वमपि सामान्यतो जीवस्त्रमिव भावनीयम् । तदवि मारणान्तिकसमुद्घातेन ममबहता जवन्ति, ते केचित्समुद्रातिरश्च एव समनिगोदानधिकृत्य भावितम् । तवशाहिर्निगतः स्वात्मप्रदेशस्त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति, येऽपिच अधुना तिर्यग्योनिकस्त्रीविषयमल्पबहृत्वमाह वैक्रियसमुद्घातमाहारकसमुद्घातं चागताःतयाविधप्रयत्नवि. शेषाहरतरमूर्बाधोविकिप्तात्मप्रदेशाः, ये च केवासमुद्घातगखेत्ताणुवापणं सम्बत्थोवा तिरिक्खजोणिणीअो उप तास्तेऽवित्रीनविलोकान् स्पृशन्ति । स्तोकाचेति सस्नोका.ने.. लोयतिरियलोए असंखेज्ज०, तेलुक्के असंखेज्ज., अहो- ज्य कर्चलोकतिर्यग्लोके सर्वलोकतिर्यग्सोकसंझे प्रतरद्वयसंलोयतिरियलोए संखिज्जगुणाओ, अहोलोए संखेजगु स्पर्शिनोऽसंख्येयगुणाः,यत हवैमानिकदेवाःशेषकायाश्च यथाणामो, तिरियलोए संखिजगुणाओ। संभवमूर्ध्वलोकात्तिर्यग्लोके मनुष्यत्वेन समुत्पद्यमाना यथा कमतरद्वयसंस्पर्शिनो भवन्ति । विद्याधराणामपि च मन्दरादि. केत्रानुपातेन तिर्यम्योनिकाः स्त्रियश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका ऊर्च- पु गमनं, तेषां च शुक्ररुधिरादिपुमले संमूच्छिममनुष्याणामुलोके, इह मन्दरादिवापीप्रभृतिष्वपि हि पश्चेन्छियतिर्यग्यो। त्पाद इति, विद्याधरा रुधिरादिपुलसमिधा अयगच्छन्ति । निकाः खियो भवन्ति, ताश्च क्षेत्रस्याऽल्पत्यात सर्वस्तोकाः। तथा ममूखिममनुष्या प्रतियथोक्तप्रतरदयस्पर्शवन्त उपजाय. ताभ्य ऊर्चलोकतिर्यरसोकसंझे प्रतरतूये वर्तमाना असंख्येय. न्ते,तेचातिवव इत्यसंख्येयगुणाः,नेभ्योऽधोझोकतिर्यम्कोकेमगुणाः । कथमिति चेत्, उच्यते-यावत्सहस्रारदेवलोकस्ता- धोलोकतिर्यग्नोकमंझे प्रतरद्वये संख्येषगुणः,यतोऽधोनौकिकबहेवा अपि गर्मव्युत्क्रान्तिकतिर्यकपञ्चन्द्रिययोनिघूत्पद्यम्ते, किं प्रामेषु स्वभावत एव बहवो मनुष्याः,सतोये तिर्यग्लोकान्मनुप्ये. पुनः शेषकायाः। ते हि यथासंभवमुपरिवर्तिनोऽपि तत्रो- भ्यः शेषकायेभ्यो वाऽधोनोकिकनामेषु गर्नव्युत्क्रान्तिकमनुष्यस्पद्यन्ते ; ततो ये संहस्रारान्ता देवा अन्येऽपि च शेषकाया त्वेन संमृम्भिमनुष्यत्वेन वा समुत्पित्सवो ये चाऽधोसोकाद. ऊर्ध्वलोकासियकपञ्चेन्ज्यिस्त्रीत्वेन तदायुःप्रतिसंवेदयमाना धोलौकिकनामरुपात् शेषाद्वा मनुष्येभ्यः शेषकायेज्यो वा नि. उत्पद्यन्ते,याःतिर्यग्लोकवर्तिन्यस्तियंपशेन्द्रियस्त्रिय ऊर्चलो- यंग्त्रोके गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यत्वेन वा संमूर्छिममनुष्यत्वेन के देवत्वेन शेषकायत्वेन चोत्पद्यमाना मारणान्तिकसमुद्घाने- वा समुत्पत्तुकामास्ते यथोक्तं किल प्रतरद्वयं स्पृशन्ति.बहुनरा. मोत्पत्तिदेशे निजनिजात्मकप्रदेशदएकान् विक्विपन्ति,ता यथोक्तप्र. चते तथा स्वस्थानतोऽपि केचिदोलौकिकप्रामेषु यथाक्तपसरघ्यं स्पृशन्ति । तिर्यग्योनिकाः खियश्च ताः ततोऽसंख्ययगु- तरदयस्पर्शिन प्रति प्रागुक्तेभ्योऽसंख्ययगुणाः, तेभ्य ऊर्चसोक था, केत्रस्याऽसंख्येयगुणत्वात् । ताभ्यस्त्रैलोक्ये संख्येयगुणाः, संख्येयगुणाः, सौमनसादिषु कीडा चैत्यवन्दननिमित्तं वा यस्मादधोलोकाद्भधनपतिव्यन्तरनारकाः शेषकाया आप चो+ प्रजूततरा विद्याधरचारणमुनीनां नाथात् । तेषां च यथायोग वलोकेऽपि तिर्यकुपञ्चेन्जियस्त्रीत्वेनोत्पद्यन्ते । ऊर्वलोकादेवा- रुधिरादिपुमलयागतः समूचिममनुष्यसंजवात । संध्योऽधोदयोऽप्यधोलोके च ते समवहता निजनिजात्मप्रदेशदएमैत्री- ल्होके संश्ययगुणाः, स्वस्थानत्वेन याहुत्वज्ञावात। तेभस्तियंग. नपि लोकान् स्पशन्ति । प्रभूनाच ते तथा तिर्यग्यानिकरुयायु: । लोके संख्येयगुणाः, केत्रय संस्पेयगुणस्वात्स्वस्थानवाच्च । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३२) अप्पाबहुय (ग) श्रनिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) सम्प्रति केत्रानुपातेन मानुषीविषयमल्पबहुत्वमाद- कसं प्रतरतवे वर्तमानाः संख्येयगुणाः । तद्धि-प्रतरतिकं खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाओ माणस्सीओ तेलुके उ- भवनपतिव्यन्तरदेवानां प्रत्यासन्नतया स्वस्थानं, तथा बहवो कूलोयतिरियलोए संखजगुणाओ, अहोलोयतिरियलोए भवनपतयः स्वनावस्थास्तिर्यग्लोकगमागमेन तथोद्वर्तमानाः तथा वैक्रियसमुद्घातेन समवहतास्तथा तिर्यम्लोकवर्तिनस्तिसंखेजगुणाओ, उछलोए संखेजगुणाओ, अहोमोए | र्यक्पथेन्द्रियमनुष्या वा भवनपतित्वेनोत्पद्यमाना प्रवनपत्यासंखेज, तिरियलोए सखेज० ॥ युरनुभवन्तो यथोक्तप्रतरस्यसंस्पर्शिनोऽतिवडव शति संख्येकेत्रानुशतेन मानुयश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकास्त्रैलोक्यस्पर्शि- यगुणाः। तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, भवनपतीनां स्वस्थान्य कर्वलोकादधोलोके समुत्पित्मना मारणान्तिकसमुदातवश-| नमिति कृत्वा तेभ्यस्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः, ज्योतिष्कम्यन्तविनिर्गतदरतरात्मप्रदेशानामधवा वैक्रियसमुदातगतानां केव- राणां स्वस्थानत्वात् । लिसमुदातगतानां वा त्रैलोक्यसंस्पर्शिन्यः तासां चातिस्तो अधुना देवारधिकृत्यास्पबढ़त्वमाहकत्वमिति सर्वस्तोकाः ताभ्य कर्बलोकतिर्यग्लोके कवनोक-| तिर्यगनोकसंझे प्रतरद्वये संख्येयगुणाः, वैमानिकदेवानां शेष खेत्ताणुवाएणं सव्वत्योवाओ देवीओ उठलोए उकूलोयकायाणां चोवलोकात्तियग्लोके मनुष्यस्त्रीत्वेनोत्पद्यमानानां तिरियझोए असंखेज्जगुणाओ, तेलुके संखज्जगुणाओ, तथा तिर्यग्लोकगतमनुष्यस्त्रीणामूर्ध्वलोके समुत्पित्सूनां मार- अहोसोयतिरियलोए असंखेजगुणाओ, पहोलोए संखेणान्तिकसमुद्घातवशाद दूरतरमूर्ध्वविक्षिप्तात्मप्रदेशानामद्यापि ज्जगुणाओ, तिरियझोए संखिज्जगुणाभो॥ कामकुर्वतीनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शनभावात, तासां चो सर्व देवसूत्रामिवाऽविशेषेण नावनीयम् । तदेवमुक्तं देवप्रयासामपि बहुतरत्वात् । ताभ्योऽधोलोकतिर्यग्सोके प्रागुकस्वरूपप्रतरद्वयरूपे संख्येयगुणाः, तिर्यग्लोकान्मनुप्यत्रीभ्यः विषयमौधिकमल्पबहुत्वम् । शेषेभ्यो वाऽधोलौकिकग्रामेषु यदि वाऽधोलौकिकामरूपात इदानीं भवनपत्यादिविशेषविषयं प्रतिपिपादयिषुः प्रथमतो शेषाद्वा तिर्यग्लोके मनुष्यस्त्रीत्वेनोस्पित्सूनां कासाशिद जवनपतिविषयमाहघोलौकिकप्रामण्यवस्थानतोऽपि यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शस- खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवाजवणवासी देवा उलोए उसम्भवान, तासां च प्रागुक्ताभ्योऽतिबदुत्वात् । ताभ्योऽप्यूर्व- सोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाओ, तेलुके संखिजगुणा, बोके संन्येयगुणाः, कीमार्थ चैत्यवन्दनानिमित्तं वा सौमनसादिषु प्रभूततराणां विद्याधरीणां संभवात् । ताभ्योऽपि अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा, तिरियलोए असंअधोलोके संख्येयगुणाः, स्वस्थानत्वेन तत्रापि बहुतराणां खिज्जगुणा, अहोलोए असंखेज । खेसाणवाएणं सबभावात् । ताभ्यस्तिर्यग्लोके संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यासस्येयगुण- त्थोवा जवणवासिणीओ देवीमो उकलोए तिरिलोए स्वात्, स्वस्थानत्वाच । गतं मनुष्यगतिमधिकृत्याल्पबदुत्वम् । असंखि०, तेलुके संखेजगुणाओ, अहोलोए तिरियदानी देवगतिमधिकृत्याऽऽह लोए असंखेन्ज., तिरियमोए असंखिज्ज, होलोए खेचाणुवाएणं सम्बत्योवा देवा उक्लोए उठलोयतिरि असं खिज.॥ यलोए असंखेज्जगुणा, तेलुके असंखेजगुणा, महोसोए केंत्रानुपातेन प्रवनवासिनो देवाशिन्स्यमानाः सर्वस्तोकाः तिरियलोए असंखेज्ज० | अहोलोए संखिज्जगुणाओ, कर्वलोके, तथाहि-केषाञ्चित सौधर्मादिम्वपि कल्पेषु पूर्वसंगतिरियलोए संखिज्जगुणाओ॥ तिकनिश्रया गमनं भवति केषाञ्चिन्मन्दरे तीर्थकरजन्ममहिमा निमित्तम, अञ्जनदधिमुखेऽष्टकानिमित्तम, अपरेषां मन्दिरादिषु क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमाना देवाः सर्वस्तीकाः, ऊर्ध्वलोके कीडानिमित्तं गमनम्।पते च सर्वेऽपि स्वल्पा इति सर्वस्तोका। धैमानिकानामेव तत्र भावात्, तेषां चाऽल्पत्वात् । येऽपि ऊर्वलोके तेज्य कर्वलोकतिर्यग्रोकसंके प्रतरखयेऽसंख्येभवनपतिप्रभृतयो जिनेन्द्रजन्ममहादी मन्दरादिषु गच्छन्ति | यगुणाः, कथमिति चेत्, उच्यते-रह हि तिर्यग्लोकस्था वैकितेऽपि स्वल्पा पवेति सर्वस्तोकाः। तेभ्य ऊर्ध्वझोकतिर्यग्लोके यसमुद्घातेन समबहता ऊर्बसोकतिर्यग्लोकं च स्पृशन्ति । ऊर्ध्वलोकतिर्यम्सोकसं प्रतरद्वये असंख्येयगुणा, तद्धि ज्यो- यथा ते तिर्यग्लोकस्था एव मारणान्तिकसमुद्घातेन समवनिष्काणां प्रत्यासमिति स्वस्थानम् । तथा भवनपतिभ्यन्तर. | हता ऊर्वलोके सौधर्मादिषु देवलोकेषु बादरपर्याप्तपृथिवीकाज्योतिका मन्दरादौ सौधर्मादिकल्पगताः स्वस्थानगमागमेन, यिकतया बादरपर्याप्ताऽपकायिकतया बादरपर्याप्तप्रत्येकवनस्पतथा ये सौधर्मादिषु देवत्वेनोत्पित्सवो देवायुःप्रतिसंवेद्यमा. तिकायिकतया च शुभेषु मणिविधानादिषु'स्थानेषत्पतुकामा माः स्वोत्पत्तिदेशभिगच्छन्ति यथोक्तप्रतरवयं स्पृशन्ति । ततः अद्यापि स्वभावायुःप्रतिसंवेदयमाना न पारभाषिकं पृथिवीमामन्येन यथोक्तप्रतरखयसंस्पर्शिनः परिभाध्यमाना अति- कायिकाचायुः। द्विविधा हिमारणान्तिकममुरातेन समबहता: पहव इति पालेभ्योऽसंख्येयगणाः. तेभ्यस्त्रलोक्यसंस्पार्श- केचित्पारजाषिकमायुः प्रतिसंवेदयन्ते, केचिन्नेति । तथा चोक्तं नः संख्येयगुणाः । ततो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका प्रकप्तौ-"जीवेणं भते! मारणतिगसमुग्धारण सम्मोहए सम्मोहदेवाम्नथाधिधप्रयन्नविशेषवशनो वैक्रियसमुद्घातेन समबह- णित्ता जे नविए मदरस्स पन्वयस्स पुरछिमेणं वायरपुढविना मम्नबीनपि लोकान् स्पृशान्त, ने चेत्य समवहताःप्रागु- काइयत्ताप ववचित्तए,सेणं ते! किं तत्थ गए ववजेजा, कमतरद्वयस्पार्शभ्यः सख्येयगुणाः, केवलवेदसोपलभ्यन्त प्रति | व्याहु पमिनियत्ता नववज्जा। गोयमा! प्रत्येगश्प तत्थ संस्थेयगुणाः । तेभ्योऽधोलोकतियग्लोके अधोलोकतिर्यग्लो-1 गए चेव उववग्जर, अत्थेगाए तमो परिनियत्तित्ता, दोचं Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाचय ( ग ) पि मारतिय समुग्धारणं समोदति, समोहणिता तओ पच्छा वववज्जइत्ति" स्वभावायुः प्रतिसंवेदनाच्च ते भवनवासिन एव लभ्यन्ते । ते इत्थंभूता उत्पत्तिदेशे विक्रितात्मप्रदेशद एमास्तथा ऊर्ध्वलोकगमनागमनतस्तत्प्रतरद्वय प्रत्यासन्न । मास्थानञ्च यथोकं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति । ततः प्रागुक्ते ज्योऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यस्त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः संख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्ध्वलोके तिर्यक्पश्चेन्द्रिया भवनपतित्वेनोत्पतुकामाः ये च स्वस्थाने वैक्रियसमुद्घातेन मारणान्तिकप्रथमसमुद्घातेन वा तथाविधतीयप्रयाविशेषेण समवहतास्ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिन इति संख्येयगुणाः परस्थानसमवहतेज्यः स्वस्थानसमवदतानां संस्थगुणत्वात् । तेभ्योऽघोलोकतिर्यगलोके अधोलोकतियेलोकसं प्रतरद्वयेऽसंख्येयगुणाः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया ति लोके गमनागमननावतः स्वस्थानस्थितक्रोधादिसमुद्घातगमनतश्च बहूनां यथोक्तप्रतरद्वय संस्पर्शभावात् । तेभ्यः तिग्लोकेऽसंस्थेयगुणाः, समवसरणादौ वन्दननिमित्तं द्वीपेषु च रमणीयेषु श्रीमानिमित्तमागमसम्भवादागतानां च चिरकालमव्यवस्थानात् । तेभ्योऽधोलोकेऽसंख्येयगुणाः, भवनवासिनामधोलोकस्य स्वस्थानत्वात् । एवं भवनवासिदेवीगत मल्पबहुत्वं भावनीयम् । ( ६३३ ) अभिधानराजेन्द्रः | सम्प्रति व्यन्तरगतमल्पबहुत्वमाहखचाणुवाणं सव्त्रत्थोवा जोइसिया देवा उठलोए, उड्नुझोयतिरियलोए असं खिज्ज०, तेबुक्के संखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असं खिज्जगुणा, अहोसोए संखेज्जगुणा, तिरियलोए असंखेज्जगुणा । खेत्ताणुवारणं सव्वत्योवा जोईसीओ देवी उरुलोए, उट्टलोयतिरियलोए असंखेजगुण, तेलुक्के संखेज्जगुणाग्रो, होलोयतिरियलोए असंखेज्ज०, अहोलोए संखि०, तिरियलोए असंखे० ॥ क्षेत्रानुपातेन ज्योतिष्काश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोकाः ऊर्ध्वलोके, केचिदेव मन्दरे तीर्थकर जन्ममहोत्सवनिमित्तम, अञ्जनदधिमुखेष्वष्टाहिकानिमित्तम्, अपरेषां केषाञ्चिद् मन्दरादिषु क्रीहानिमित्तं गमनसंभवात् । तेज्य ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वयरूपेऽसंख्येयगुणाः वकि प्रतरद्वयं केचित्स्वस्थाने स्थिता अपि स्पृशन्ति, प्रत्यासन्नत्वात् । अपरे वैक्रियसमुद्घातसमयदताः, श्रन्ये ऊर्ध्वलोके गमनागमनभावतस्ततोऽधिकृतप्रतरद्वयस्पर्शिनः पूर्वोक्तज्योऽसंख्येयगुणाः । तेभ्यस्त्रैलोक्ये त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः संख्ये यगुणाः । ये हि ज्योतिष्कास्तथाविधतीवप्रयनवैक्रियसमुद्घातेन समवहतास्त्रीनपि लोकान् स्वप्रदेशः स्पृशन्ति, ते स्वभावतोऽप्यतिषदव इति पूर्वोक्तेज्यः संख्ये यगुणाः। तेयोऽधोलोकतिर्यग्लोके प्रतरद्वये वर्तमाना असंख्येयगुणाः, यतो aarsaiलौकिकप्रामेषु समवसरणादिनिमित्तम, अधोलोके क्रीडानिमित्तं गमनागमनभावतो बहवश्वाऽधोलोका ज्योतिष्केषु समुत्पद्यमाना यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ततो घटते पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, तेत्यः संख्येयगुणाः, अधोलोके, बहूनामधोलोके क्रीडानिमित्त मधोलौकिकप्रामेषु सम सरणादिषु चिरकालमवस्थानात् । तेभ्यो ऽसंख्येयगुणास्तिर्यग्लोके, तिर्यग्लोकस्य तेषां स्वस्थानत्वात् । एवं ज्योतिकदेवीसूत्रमपि भावनीयम् । सम्प्रति वैमानिकदेवविषयमल्पबदुत्वमाह१५६ For Private पाय (ग) नावापणं सव्वत्यांचा वैमाशिया देवा उक्लीयतिरि यलोए, तेलुकं मंखेज ०, अदोलयग्यिए संविज्ज, होए मजगुणा, निरियलाए मंग्वेज्ज०, झोप असं खिज्ज० । खत्तावारणं सव्वत्यांवाओं वैमाणिणीदेवीओ लोयतिरियलोए, युकं संखजगुणा, होतोय तिरियलए मंखिज्ज०, अहोलाए संखेन०, तिरियता संखज्ज० उच्छलोप असं० ॥ " क्षेत्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमाना वैमानिका देवाः सर्व स्तोका ऊर्ध्व लोकतिर्यग्ज्ञोकसंज्ञ प्रतरद्वये, यता ये अधोलोके तिर्यग्लो वा वर्तमाना जीवा वैमानिकेत्पद्यन्ते ये च तिर्यग्लोके वैमानिका गमनागमनं कुर्वन्ति ये च विधनिप्रतरद्वयाध्यासिनः श्रीमास्थानं संश्रिताः, ये च तिर्यग्लो के स्थिता एव वैक्रिसमुद्घातमारणान्तिकसमुद्घातं वा कुर्वा णास्तथाविधप्रयत्नविशेषादूर्ध्वमात्मप्रदेशदशमं निसृजन्ति, ते वितिं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति । ते चाल्प इति सर्वस्तोकाः । तेभ्य त्रैलोक्ये संख्येयगुणाः कथमिति चेद्र ?, उच्यते-इह येऽधोलीकिकप्रामेषु समवसरणादिनिमित्त मधोलोके वा श्रीमानिमित्तं मताः सन्तो वैक्रियसमुद्धातं मारणान्तिकसमुद्धातं वा कुर्वाणा स्तथाविधप्रयत्नविशेषाद दूरतरमूर्थ्याविक्षिप्तात्मप्रदेशदरमाः, ये च वैमानिकवादी विकागत्या च्यवमाना श्रधोलौकिकप्रामेषु समुत्पद्यन्ते, ते किल त्रीनपि लोकान् स्पृशन्ति । बडवश्च पूर्वोकेभ्य इति संख्येयगुणाः । तेभ्योऽपि अधोलोकतिर्यग्जो के प्रतरद्वयसंक्के संख्येयगुणाः, अधोक्षौकिकप्रामेषु समवसरणादौ गमनागमनभावतो विवक्तिप्रतरद्वयाध्यासिनः समवसरणादो वाऽवस्थानतो बहूनां यथोक्तप्रतरद्वयसंस्पर्शभावात् । ते योsधोलोके संख्येयगुणाः, अधोलौकिकग्रामेषु बहूनां समवसरणादावत्रस्थानाभावात् । तेभ्यस्तिर्यग्ज्ञांके संस्येयंगुणाः, बहुषु समवसरणेषु बहुषु च क्रीडास्थानेषु बहूनामवस्थान:भावात् । तेज्य ऊर्ध्वलोकेऽसंख्येयगुणाः ऊर्ध्वलोकस्य स्वस्थानत्वात्, तत्र च सदैव बहुतरभावात्। एवं वैमानिकदेवीविषयसूत्रमपि भावनीयम् ॥ सम्प्रत्ये केन्द्रियादिगतमल्पबहुत्वमाह खेतावारणं सव्वत्थोत्रा एगिंदिया जीवा उठलोयतिरियलोए, अहोल्लोयतिरियलाए बिसेसाहिया, तिरियलोए असंखज्जगुणा, तेलके अमंद, उरुलोए असंखेज्जगुणा, होलोए बिसेसाहिया । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिंदिया जीवा अपज्जत्तगा उठलोयतिरियलोए, होलोयतिरियलीए बिसेसाडिया, तिरियन्झोए असंखेज्जगुणा, सेलुके असंखेज्जगुणा, उच्लोए अमंखिज्जगुणा, होलो विसेसादिया । खेत्ताणुत्राणं सव्वत्योबा एगिदिया जीवा पत्ता उच्छलोयतिरियलोए, होलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखज्जगुला : तेलुके असंखेज्जगुणा, उम्लोए श्रसंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया || Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३४) अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्डः। अप्पाबहुय (ग) केत्रानुपातेन चिन्त्यमाना एकेन्द्रिया जीवाः सर्वस्तोका ऊर्व ए असंखेज्जगणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा,अहोलोयतिरियलोकतिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोकतिर्यम्लोकसंझे प्रतरद्वये, यतो ये तत्रस्था एव केचन,ये चोर्चलोकातिर्यग्लोके,तिर्यग्लोकाद्वा ऊर्ध्व सोए असंखिज्जगुणा,अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियलोए लोके समुत्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमुद्धातास्ते किल विव संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवारणं सम्वत्थोवा चनरिंदिया क्षितप्रतरद्वय स्पशन्ति, स्वल्पाश्च ते इति सर्वस्तोका। तेभ्योऽ. जीवा पज्जत्तगा नहलोए, उन्लोयतिरियलोए असंखेजधोलोकतिर्यग्रोके विशेषाधिकाः, यतो ये अधोलोकात्तिर्यग्लो- गुणा, तेलुक्के असंखेज्जगुणा, अहालोयतिरियलाए असंके, तिर्यग्लोकाद्वाऽधोलोके ईशिकागत्या समुत्पद्यमाना विव खग्जगुणा, अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियसोए संखे । तितप्रतरद्वयं स्पृशन्ति, तत्रस्थाश्च ऊर्ध्वलोकाचाधोलोको विशेषाधिकः, ततो बहवोऽधोक्षोकात्तिर्यग्लोके समुत्पद्यमाना क्षेत्रानुपातेन केत्रानुसारेण चिन्त्यसाना द्वीन्द्रियाः सर्वस्तोअवाभ्यन्ते, शति विशेषाधिकाः। तेज्यस्तिर्यग्लोके असंख्येयगु काः ऊर्ध्वलोके,ऊवलोकस्यैकदेशे तेषां संभवात्। तभ्य ऊर्ध्वणाः, उक्तप्रतरद्विककेत्रात्तिर्यग्लोककेत्रस्याऽसंख्येयगुणत्वात् । लोकतिर्यम्सोके प्रतरखये असंख्येयगुणाः, यतो ये ऊर्थ लोकात् तेभ्यस्त्रैलोक्येऽसंख्येयगुणाः, बहवो हि ऊर्चलोकादधोलोके अ तिर्यग्लोके तिर्यग्लोका वाकवलोके द्वीन्छियत्वेन समुत्पत्तुकाधोलोकाद्वा ऊर्धोके समुत्पद्यन्ते । तेषां च मध्ये. बहवो मार मास्तदायुग्नुभवन्त ईलिकागत्या समुत्पद्यन्ते । ये च द्विन्द्रिया णान्तिकसमुदातवशाद्विक्किप्तात्मप्रदेशदएमास्त्रीनपि लोकान् एव तिर्यग्लोकादूर्ध्वरोके कलस्रोकाद्वा तिर्यग्लोके वीछियत्वे नान्यत्वेन वा समुत्पत्तुकामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुदया-- स्पृशन्ति,ततो भवन्त्यसंख्येयगुणाः। तेज्य ऊर्ध्वलोके असंख्ये ता अत एव हन्छियायुःप्रतिसंवेदयमानाः समुदूघातवशाच यगुणाः, नपपातक्षेत्रस्याऽतिबहुत्वात् । तेन्योऽधोलोके विशेपाधिका:, कर्बलोककेत्रादधोलोककेत्रस्य विशेषाधिकत्वात् । दूरतरविक्किप्तनिजात्मप्रदेशदण्डाः , ये च.प्रतरद्वयाऽभ्यासित-- क्षेत्रसमासीनास्ते यथोक्तप्रतरदयस्पर्शिनो बहवति पूर्वोक्तेएवमपर्याप्तविषयं पर्याप्तविषयं च सूत्रं नावयितव्यम् । ज्योऽसंख्येयगुणाः। तेज्यसैलोक्येऽसंख्येयगुणाः, यतो द्वीलि. अधुना द्वीन्द्रियादिविषयमल्पबदुत्वमाह याणां प्राचुर्येणोत्पत्तिस्थानान्यधोलोके तस्माचाऽतिप्रभूतानि खेत्ताणुवाएणं सन्नत्योवा बेइंदिया उनुलोए, नसोयति- तिर्यश्लोके, तत्र ये द्वीन्छिया अधोलोकार्बलोके वीडियत्वेना. रियसोए असंखेज्जगुणा, तेलुके असं०, अहोलोयतिरि न्यस्वेन पा समुत्पनुकामाः कृतप्रथममारणान्तिकसमुद्घाता: यलोए असंखेजगुणा, अहोलोए संखेज्जगुणा, तिरियस्रोए समुद्घातवशाचोत्पत्तिदेशं यावद्विक्तिप्तात्मप्रदेशदफास्त द्वी छियायुःप्रतिसंवेदयमानाः, ये चोर्ध्वलोकादधोलोके द्वीन्द्रिसंखेजगुणा । खेताणुवाएणं मव्वत्योवा बेइंदिया अपज्ज- याःशेषकाया यावद्द्वीन्छियत्वेन समुत्पद्यमाना द्विन्छियायुरनुतया उसलोए, उसलोयतिरियलोए संखेजगुणा, तेलुके भवन्ति, त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः ते च पूर्वोक्तेन्योऽसंख्येयगुणाः,ते. असंखेज्जगुणा, अहोझोयतिरियलाए असंखेज्नगुणा, ज्योऽधोलोकतिर्यम्लोकेऽसंख्येयगुणाः। यतो ये द्वीन्द्रिया अअहोलोए संखे०, तिरियलोए संखे० । खेत्ताणुवारणं धोलोकात्तिर्यग्लोके ये च द्वीडियास्तिर्यग्लोकादधोलोके द्वी ज्यित्वेन शेषकायत्वेनोस्पित्सवः कृतप्रथममारणान्तिकसमुसब्बत्योवा बेइंदिया पज्जत्तया नोए, नलोयतिरिय दूधाता द्वीन्छियायुरनुभवन्तः समुदधातवशेनोत्पत्तिदेशे यावलोए असंखेज्जगुणा, संयुक्के असंखज्जगुणा,अहोरोयतिरि- द्विक्षिप्तात्मप्रदेशदएमास्ते यथोक्तं प्रतरवयं स्पृशन्ति । प्रभूता-- यलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए संखेजगुणा,तिरियनोए चेति पूर्वोक्तन्योऽसंख्येयगुणास्तेभ्योऽधोलोके संख्येयगुणाः, संखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं संवत्थोवा तेशंदिया उमलोए, तत्रोत्पत्तिस्थानानामतिप्रचुराणां जावात् । तेभ्योऽपि तिर्यग्लो के संख्येयगुणाः, अतिप्रचुरतराणां योनिस्थानानां तत्र भाषात । उच्छलोयतिरियलोए असं०,तेसुके असंखेजगुणा,अधोसोए यथेदमौधिकं द्वीन्जियसूत्रं तथा पर्याप्ताऽपर्याप्तद्वीन्द्रियसूत्रौघिसंखेजगुणा,तिरियलोए संखेजगुणा। खेत्ताणुवाएणं सब- कत्रीन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताधिकचतुरिन्द्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तसूत्रात्योवा तेइंदिया अपज्जत्तगा नसोए,नलोयतिरियलाए। णि भावनीयामि। असंखिज्जगुणा, तेवुके अमंग्वेज्जगुणा, अहोतोयतिरिय साम्प्रतमधिकपञ्चेन्निविषयमल्पबहुत्वमाहलोए असंखेज्जगुणा, अहोमोए संखेजगुणा, तिरियनोए खेत्ताणुवाएणं सम्बत्थोवा पंचेंदिया तेझुक्के, उमढलोयतिरिसंखेज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा तेदिया पज्जत्तगा यलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए संवेजगुणा, उसलोए,उम्सलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा,तेलुके असंखि उम्हसोए संखेजगुणा, अहोलोए संखेजगुणा,तिरियझोए ज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए असंखेजगुणा । खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचेंदिया अपज्जसंखिज्जगुणा, तिरियलाए संखिज्जगुणा । खेत्ताणुवाएणं तया तेबुक्के,उम्ढलोयतिरियलोए असंखज्जगुणा,अहोरोसम्बत्योवा चनरिंदिया जीवा उलाए, जसलोयतिरिय यतिरियलोए संखेज्जगुणा, जमढलोए संखेज्जगुणा,अहोलाए असंखिज्जगुणा, तेलुके असंखिज्जगुणा, अहोलो लोए संखेज्जगुणा, तिरियलोए संखेज्जगुणा ॥ यतिरियलोए असखिज्जगुणा, अहोलोए संखज्जगुणा, केत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः सर्वस्तोकाः त्रैलोक्ये तिरियलोए संखेज्जगुणा । खेत्ताणुवारणं सम्वत्थावा चउ- त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, यतो येऽधोलोकादूर्ध्वलोके ऊर्ध्वलोकाद्वारिदिया जीवा अपज्जत्तगा नुनुलोए, उवलोयतिरियलो- | धोसोके शेषकायाः पश्चेन्द्रियायुरनुभवन्त ईलिकागत्या समु Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३५ ) अन्निधानराजेन्द्रः | बहु ( ग ) स्पद्यन्ते ये च पञ्चेन्द्रिया ऊर्ध्वलोकादधोलोके अधोलोकादूर्ध्वलोके शेषकायत्येन पञ्चेन्द्रियत्वेन वोम्पित्सवः कृतमारणान्तिकसमुद्घाताः समुद्धातवशात्पत्तिदेशं यावद् विक्कि - मात्मप्रदेशदण्डाः पञ्चेन्द्रियायुरद्याप्यनुभवन्ति, ते त्रैलोक्यसंस्पर्शिनः, ते चालो इति सर्वस्तोकाः । तेज्य ऊर्ध्वलोकतिलोके प्रतरद्वयरूपेऽसंख्येयगुणाः, प्रभूततराणामुपपातेन समुद्घातेन वा यथोकप्रतरय संस्पर्शसंभवात् । तेभ्योऽधोलोकतिर्यग्लोक संख्येयगुणाः, अतिप्रभूतनराणामुपपातसमुद्घाताज्यामधोलोकतिर्यग्लोक संप्रतरद्वय संस्पर्शभावात् । ते ज्य ऊर्ध्वलोके संख्येयगुणाः, वैमानिकानामवस्थानभावात् । तेभ्योऽधोलाकै संख्येयगुणाः, वैमानिकदेवेभ्यः संश्येयगुणानां नैरयिकाणां तत्र भावात् । तेभ्यस्तिर्यग्लोकेऽसंख्येयगुणाः, संमूर्किंङमजलचरखचरादीनां व्यन्तरज्योतिष्काणां सम्मूमिम नुष्याणां च तत्र भावात् । एवं पञ्चेन्द्रियापर्याप्तसूत्रमपि भावनीयं । पश्चेन्द्रियपर्याप्त सूत्रमिदम् खेतावारणं सव्वत्योवा पंचिंदिया पज्जत्ता उम्हझोए, उम्हलोयतिरियनोए असं०, तेलुक्के असं०, होलोयतिरिलए संखेज्ज०, अहोलोए संखेज्ज०, तिरियलोए असंखेज्जगुणा । क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानाः पञ्चेन्द्रियाः पर्याप्ताः सर्वस्तोकाः ऊर्ध्व लोके, प्रायो वैमानिकानामेव तत्र जावात् । तेभ्य ऊर्ध्वलोक• तिर्यलोके प्रतरद्वयरूपेऽसंख्येयगुणाः, विवाकेत प्रतरद्वय प्रत्यासनज्योतिष्काणां तदध्यासितक्षेत्राश्रितव्यन्तरतिर्यक्पश्ञ्चेन्द्रियाणां वैमानिकयन्तरज्योतिष्कविद्याधरचारणमुनितिर्यक्पश्ञ्चेन्द्रि याणामूर्ध्वलोके तिर्यग्लोके च गमनागमने कुर्वतामधिकृत प्रतरद्वयस्पर्शात् । तेभ्य त्रैलोक्ये त्रिलोकसंस्पर्शिनः श्रसंख्येयगुणाः । कथमिति चेत् ?, यतो ये भवनपतिभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका विद्याधरा वा अधोलोकस्याः कृतवैक्रिय समुद्घातास्तथाविधप्रयत्नविशेषादूर्ध्वलोकप्रदेशविहितात्म प्रदेशद एमास्ते श्रीनपि लोकान् स्पृशन्तीति संख्येयगुणाः । तेज्योऽधोलोकतिर्यग्लोके प्र द्वयरूपे संख्येयगुणाः, बहवो हि व्यन्तराः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया भवन पतयस्तिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोके वा व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा अघोलौकिकप्रामेषु समवसरणादावधोलोके क्रीडादिनिमित्तं च गमनागमनकरणतः, तथा समुद्रेषु केचिततिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः स्वस्थानप्रत्यासन्नतया, अपरे तदध्यासितक्षेत्राश्चिततया यथोक्तं प्रतरद्वयं स्पृशन्ति, ततः संख्ये गुणाः तेभ्यो ऽधोलोके संख्येयगुणाः, नैरयिकारणां भवनपतीनां च तत्रावस्थानात् । तेभ्यस्तिर्यग् लोकेऽसंख्येयगुणाः, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यव्यन्तरज्योतिष्काणामवस्थानात् । तदेवमुक्तं पञ्चेन्द्रियाणामल्पबहुत्वम् । इदानीमे केन्द्रियजेदानां पृथिवीकायिकादीनां पञ्चानामधिकपर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकं त्रीणि त्रीएयल्पबहुत्वान्याह चाणुत्राणं सम्वत्योत्रा पुढत्रिकाड़या उठलोय तिरिलोए, महोलायेति रियलाए विसेसाड़िया, तिरियलाए प्रसंखेज्जगुणा, तेलुके असंखिज्जगुणा, उझोए असंखेज्जगुणा, होलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवारणं सव्व अप्पाबहुय (ग) त्थोवा पुढविकाइया अपज्जत्तया उच्छलोयनिग्यिलोप, होलोयनिरियझर विसेसाहिया, तिरियन्झोए असंखेज्जगुण, तेलुके असंखेज्जगुणा, नच्लोए असंखेज्जगुएा, अहोलो विसेसाहिया । खेत्ताणुवारणं सव्वत्योवा पुढत्रिकाया पज्जत्तगा उठलोयनिरियन्झोए, निरियलोयहोलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेलुके श्रसंखेज्जगुणा, झोए असंखेज्जगुणा, होलोए विसेसाहिया | खेतापुत्राणं सव्त्रन्धोवा आउकाइया उचलोयनिरियलोए, अहोम्नोयतिरियलोए विससाहिया, तिरियझाए संखेज्जगुण, तेलुके असंखेज्जगुणा, उच्लोए श्रसंखेज्ज - गुणा, होलो विमाहिया । खेत्तावारणं सव्वत्थोत्रा आजकाइया अपज्जत्तया उमृझोय तिरियलोए, होझोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए असंज्जगुणा, तेतुके असंखेज्जगुणा, उढलोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेत्ताणुवारणं सव्वत्थोवा - उकाइया पज्जतया उम्डलोयतिरियलोए, होलीय तिरिनए विसेसाहिया, तिरियलोए श्रसंखेज्जगुणा, तेसुके अ संखज्जगुणा, उमढल्लोए असंखेज्जगुणा, अहोझोए विमेसाहिया । खेत्ताणुत्राएणं सव्वत्थोवा तेउकाइया लोयतिरियलाए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियन्झोए संखेज्जगुणा, तेलुके असंखे जगुणा, नम्ढलोए असं खिज्जगुणा, होलो विसेसाहिया । खेतापुत्राएणं सव्वत्थोवा काइया अपज्जतया उम्टलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलए विसेसाहिया, तिरियलोए असंखेज्जगुणा, तेचुके खिज्जगुणा, उम्ढलोए असंखेज्जगुणा, अहोझोए विसाहिया । खेतावारणं सव्वत्योवा तेडकाइया पज्जतया उम्झोयतिरियलोए, अहोझोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरिया असंखेज्जगुणा, तेलुक्के संखेज्जगुणा. नमला असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खेचाणुत्राणं सव्त्रत्थोवा वाउकाड्या उठलोयतिरियोए, अहोलोयतिरियलए बिसेसा दिया, तिरियन्झोए अमखेज्जगुणा, तेबुक्के प्रसंखिज्जगुणा, उम्हन्झोए असंखेज्जगुणा, होलोर विसे साहिया । खेत्ताणुवारणं सव्वत्थोवा वाउकाइया अपज्जत्तया उम्हलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियो बिसेसाहिया, तिरियझोए असंखेज्जगुणा, तेलुके असंखेज्जगुणा, उम्लोए असंखिज्जगुणा, अहोलोए त्रिसाहिया | खेत्ताणुवाणं सव्वत्थोत्रा बाउकाड्या पज्जतया नम्ढलोयतिरियलोए, होलोयतिरियलोए विमेसाहिया, तिरियलोए श्रसंखेज्जगुणा, तेलुके असंखेज्जगुणा, उम्लोए असंखेज्जगुणा, अहो लोए बिसेसाहिया । खेत्ताणुबाणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया नमहलोयतिरियलोप, Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३६) अप्पाबड्य (ग) अभिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) अहोझोयतिरियलोए विसेमाहिया, तेलुके असंखेजगुणा, | हितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा!। उम्दयोए असंखेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया। खे- गोयमा! सनत्थोवा मणुस्सा, णेरइया संखेज्जगुणा, त्ताणुवारणं सब्बत्थोवा वणस्सइकाझ्या अपज्जत्तया उमद- देवा असंखेज्जगुणा,सिद्धा अवंतगुणा, तिरिक्रुजोणिया लोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, ति- अयंतगुणा। रियझोए असंखिज्जगुणा, तेक्के असंखिज्जगुणा, उम्द- सर्वस्तोका मनुष्याः, षण्णवनिच्छेदनकच्चराशिप्रमाणत्वालोए असंग्वेज्जगुणा, अहोलोए विसेसाहिया । खत्ताणु- त्। स च षएणवतिच्छेदनकदायो राशिरणे ( 'सरीर' शब्द) वाएणं सन्नत्योवा वणस्सइकाइया पज्जत्तया उम्दसोयति दर्शयिष्यते । तेच्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः,भक्गुलमात्रके प्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूने द्वितीयवर्गमूलेन गुणिते रियनोए, अहोलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियलोए मावान्प्रदेशराशिनवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्यैकअसंखेजगुणा, तेसुके असंखिज्जगुणा, उपदलोए असंखे प्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो ननःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । ज्जगुणा, भहोमोए विसेसाहिया । तेभ्यो देवा असंख्येयगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिष्याणां च प्रत्येक प्रतरासंख्येयभागवर्तिश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्।ते. श्मानि पञ्चदशापि सूत्राणि प्रागुक्तकेन्द्रियसूत्रबद्भावनीयानि। भ्या सिद्धा अनन्तगुणाः, अजव्येभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । तेभ्यसाम्प्रतमौघिकत्रसकायपर्याप्तापर्याप्तत्रसकायसूत्राएयाह- स्तिर्यग्यामिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिरेभ्योऽ प्यनन्तगुणत्वात् । तदेवं नैरयिकतियम्योनिकमनुष्यदेवसिक खेत्ताणुवारणं सन्नत्थोवा तसकाइया तेसुके,उम्ढलोयति पाणां पञ्चानामल्पबहुत्वमुक्तम् । प्रज्ञा० ३ पद । रियन्नोए असंखिज्जगुणा, अहोलोयतिरियलोए असं खि पतचैवमर्थतो गाथाज्जगुणा, नन्दलोए संखेज्जगुणा, अहोलोए संखेज्जगु "नर-नेरश्या देवा, सिदा तिरिया कमेण व होति। णा, तिरियलोए असं खिज्जगुणा । खेताणुवाएणं सब थोव असंख असंखा, अणंतगुणिया अणंतगुणा" ॥१॥भ०२५ स्थोवा तसकाश्या अपज्जत्तया तेयुके,उम्ढलोयतिरियलोए श.३००। अमखिज्जगुणा, अहोसायतिरियलोए असंखिजगुणा,उन्ह- साम्प्रतं नैरयिकतिर्यग्योनिकतिर्यग्योनिकीमनुष्यमानुषीदेवलोए संखिज्जगुणा, महोलोए संविज्जगुणा,तिरियलोए। देवासक्षणानां सप्तानामरूपबत्वचिन्तायामाहअसखिज्जगुणा । खेत्ताणुवारणं सबथोवा तसकाइया प अप्पाबहुयं सम्वत्थोवा माणुस्सीओ, मणुस्सा असंखेजज्जत्तया तेलके,उम्ढलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणा, प्र गुणा, नेरइया असंखज्जगुणा, तिरिक्खजाणणीभो भसंहोतोयतिरियलोए असंखज्जगुणा,जम्ढलोए संखिज्जगु- खेजगुणाश्रो. देवा संखेज्जगुणा, देवीभो संखेजगुणानो, णा, अहालोए संखिज्जगुणा,तिीरयलोए भसंखेजगुणा । तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा । इमानि पञ्चेन्द्रिग्सूत्रवद्भावनीयानि। गतं केत्रवारमाप्रमा०३पद। प्रभसूत्रं सुगममा प्रगवानाद-सर्वस्तोका मानुष्यः,कतिपयकोटी. (१२) [गतिद्वारम् ] चतुर्गतिसमासेन पक्षगतिसमासेनाटग कोटिप्रमाणत्वात्।तान्यो मनुभ्या असंख्येवगुणाः,संमृश्चिमम नुष्याणां भेण्यसंख्येयनागप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यो नैरयि. तिसमासेन चाऽल्पबत्वम् का असंख्येयगुणाः। तेभ्यस्तियम्योनिकाःत्रियोऽसंख्येयगुणाः, एतेसि तेणेरइयाणंजाब देवाण य कयरे कयरेहितो. प्रतरासंख्येयभागवर्तिण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वाता ताभ्यो जाब विसेसाहिया। गोयमा! सन्बत्थोवा मणुस्सा, ने देवाःसंख्येयगुणा,वाणमन्तरज्योतिष्काणामपि जलचरतियंग्यो निकीभ्यःसंख्येयगुणतया महादएमके पठितत्वात्।तेज्यो देव्यः रश्या असंखेजगुणा, देवा असंखेजा, तिरिया अणंता । संस्येयगुणा,दानिशद्गुणत्वात् । "बत्तीसगुणाबत्तीसरुवमहिया प्रश्नसूत्र पारसिद्धम् । भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोकाः मनु- उहौति देवाणं देवीना" इति वचनात् । तान्यस्तिर्यम्योनिका प्याः, श्रेपयसंक्येयनागवर्तिननःप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेज्यो भनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तानन्तत्वात् । जो०७ प्रति। नैरयिका असंख्येयगुणाः, अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्यत प्रथ- स्वामीमेतेषामेव सिखसहितानामष्टानामन्यबहुत्वमाह-- मं वर्गमूलं तद् द्वितीयेन वर्गमूसेन गुण्यते, गुणिते च एएसिणं भंते! परइयाणं तिरिक्खजोणियाणे तिरिसति यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त भाकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात तेषाम् । तेभ्यो देवा असंख्ये. क्खजोणिणी मणुस्साणं मणुस्सीणं देवाणं सिद्धाण य पगुणाः, व्यन्तराणां ज्योतिरकाणां नैरयिकेभ्योऽप्यसंख्येयगुण अट्ठगतिसमासेणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया या तया महादण्डके पठितत्वात् । तेन्योऽपितियश्चोऽनन्ताः | तुझा वा विसेसाहिया वा। गोयमा ! सम्बत्थोवा मणुवनम्पतिजीवानामनन्तत्वात् । जी. ४ प्रति०। पं० सं०। स्सीओ,मणुस्सा असंखेज्जगुणा, रश्या प्रसंखेज्जगुणा, पशगतिसमासेनालपबहुत्वमाह तिरिक्खजोणिणीमो असंखेज्जगुणाभो, देवा असंखेजएपसि एंजते ! रझ्याणं तिरिक्खजोणियाणं मनु-| गुणा, देवीओ संखेज्जगुणाओ, सिका अणंतगुणा, स्साणं देवाएं सिघाण पपंचगइसमामेणं कयरे कयरे- | तिरिक्खजोषिया अणंतगुणा । Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाबहुय (ग) सर्वस्तोका मानुष्यो मनुष्यत्रिय, संस्थेवकोटाकोटिप्रमाणत्वात् । तान्यो मनुष्या असंख्येयगुणाः, वह मनुष्याः संम् ते वेदस्याचियात्। ते च संमूनजा वान्तादिषु नगरनिईमनान्तेषु जायमाना असंख्येयाः प्रा. या प्रसंश्येयगुणाः मनुष्यादे श्रेण्यसंश्येय भागगतप्रदेशराशिप्रमाण सायन्ते नैरविकारस्य ङ्गुलमात्रक्षेत्र प्रदेश राशिसत्कद्वितीय वर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रमाणश्रेणिगताकाशम देशराशियमाणाः ततो भयस्यसंख्येगुःतेयस्तिर्यग्योनिका स्त्रियो ऽसंख्येयगुणा, प्रतरासंख्येयज्ञागवर्त्य संख्येयश्रेणिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तान्योऽपि देवा असंयेाः प्रतरासंख्येपनामा पेपथेगि प्रदेशराशिमानात्। तेभ्योऽपि देयः संवेगुणाः द्वात्रिं गुणत्वात् । तात्योऽपि सिद्धा अनन्तगुणाः । तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः । श्रत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता । प्रज्ञा०३ पद । अर्थतश्चैवं गाथा"नारी नर नेरश्या, तिरित्थि सुर देवि सिद्ध तिरिया य । घोष असंखगुणा च संखगुणाऽतगुण दोन ॥ २ ॥ भ० २५ ३०३ उ० । अथ (समासेन) प्रथमा प्रथमसमय विशेषणेन गतिष्वल्पबहुत्वम्अप्पाच एतेसि भेते पदमसमरा जान पड मसमयदेवा करे कयरेहिंतो ० जाव विसारिया वा है। गोयमा ! सम्वत्योवा पदमसमयमगुस्सा, पदमसमय रया प्रसंखेज्जगुणा, पढम समयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्जोणिया असंखे जगुणा । एतेसि णं भंते! अपटमसम रयाणं जाव अपढमसमयदेवाणं कयरे कयरेहिंतो • जाव विसेसाहियावा ? गोयमा एवं नवरं पडस मयतिरिक्जोणिया अांतगुणा । एतेसि णं ते! पदमस मयनेरयाणं पदमसमपणेरयाणं कमरे कपरेहितो० जाय ( ६३७ ) अभिधानराजेन्द्रः । साहिया या गोयमा ! सव्वत्योषा पदमममयणेरइया, अपढमसमयणेरड्या असंखेज्जगुणा, एवं चेव तिरिक्खजोणिया, नवरं पढमसमय तिरिक्खजोणिया अनंतगुणा | मणुदेवा अप्पा जहा रहया। एएसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं० जात्र अपढमसमयतिरिक्खजोणियाण य कवरे कपरेटिंनो जाब विसारिया वा १ । गोयमा सोचा पडसमयमा अपदमसमयमगुस्सा संखेज्जगुणा, पदमसम्यणेरड्या संखेज्जगुणा, पढमसमय'देवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोलिया असंखेज्जगुणा, अपमसमयणेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा संवेज्जगुणा अण्डमममयतिरिक्त्रोणिया अवगुणा प्रश्नसूत्रं सुगमम् | जगवानाह - ह - गौतम ! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, श्रेण्यसंख्येय भागमात्रत्वात् । तेभ्यः प्रथमसमर्थनैरयिका असंख्या अतिप्रभूतानामेकस्मिन् समये पादसंभ वात् । तेज्यः प्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, व्यन्तरज्योतिष्काणामतिप्रभूततराणामेकस्मिन् समये उत्पादसंभवात् । तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यखेोऽसंख्येयगुणाः इह ये नारकादिगतियादागत्य तिर्यक्प्रथमसमये वर्तन्ते ते प्रथमसमयतिर्यञ्चो, न शेषाः ततो यद्यपि प्रतिनिगोदम संख्येयभागः सदा विग्रहगति१६० , , ه अपाय ( ग ) ', प्रथम तथापि निगोदानामपि न ते प्रथमममपतिर्यञ्च यः संख्याय सातमेतेषामेव चतुर्णामप्रथम समयानां परस्परमहपबहुत्वमाड- "एस एमिस्यादि" प्रक्ष सुगमम भगवानाह गीतम! सर्वो का अप्रथम समयमनुष्याः श्रेण्यसंख्येयभागमात्रत्वात् । तेज्योऽनयिका असंयमः, अलमाक्षेत्र प्रदेशराशेः प्रथमवर्गमुळे द्विनयेन वर्गले गुण यावान् प्रदेशराशिः तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त श्राकाशप्रदेशास्ता वत्प्रमाणत्वात् । तेज्योऽप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, व्यतरज्योतिष्काणामतिसमये निका अनन्तगुणाः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् । साम्प्रतमेतेषामेव नैकादीनां प्रत्येकं प्रथमसमयाप्रथम समयगतमल्पबहुत्वमाह -" पसि णं ते! " इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् | जगवानाह - गौतम ! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयनैरयिकाः, एकस्मिन् समयेतानामपि लोकानामेवो | मसमपथिका भाविकाप्रायम्यतेपोप नियंग्योनिकमनुष्यदेवसूचिकस्यानि नवरं तिर्यग्योकि प्रधममयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणा वक्तव्याः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् । साम्प्रतमेतेषामेव प्रथमसमयाप्रथमसमयानां समु दायेन परस्परमल्पबहुत्वमाह -"एसियामित्यादि " प्रश्नह - गौतम ! सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसूत्रं सुगमम् । भगवानाह - मनुष्याः एकस्मिन् समये संख्यामानामपि बोत्पादाव | ज्योऽप्रथम समय मनुष्या असंख्येयगुणाः, चिरकालावस्थायितया प्रतिप्रानृत्येन लभ्यमानत्वात् । तेभ्यः प्रथ समयनैरधिका अतिप्रभूतराणामेक समये उत्पादनात् तेषः प्रथमसमपदेचा असंख्येयगुणाः , 1 ज्योतिष्याणामेकस्मिपि समये अधिका चित्पादात् । तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका असंख्येयगुणाः, नारकगतिश्यादप्युपादाभ्योऽप्रथमसमय यिका असंख्येयगुणा अलप्रदेशराशेः प्रथमत्रगं द्विषवर्गमूलेन गुणिने यावान् प्रदेशराशिस्तावप्रमा णासु श्रेणिषु यावन्त श्राकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । तेज्योप्रयमसमपदेयाः असंख्येयः प्रतराज काशप्रदेश शिमात्यान्तेयोऽयमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् । जी० ८ प्रतिः । अत्र (व्यासेन) चत्वार्यपबहुत्वानि, तद्यथा-सिद्धेणं जंते ! सिद्धेसि कालतो केव चिरं होत ? गोपमा ! सादिए अपज्जव मिए । ( जी० ) तत्र प्रथममिदम् - एएस पढसमयस्याएं पडमसमयतिश्विरजोशियाएं परमसमयमगुस्साएं पडमसमयदेवाय य० जाब विसेसाहिया ? । गोयमा ! सव्वत्योवा पढमसमयमणुमा. पदमसमयाअखेज्नगुणा, परमसमयदेव प्रा. संजगुणा, पदमममयतिरिक्स जोशिया अखेरनगुणा ॥ सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः । तेभ्यः प्रथम समर्थनैरयिका असंख्येयगुणाः । तेभ्यः प्रथमसमयदेवा श्रसंख्येयगुणाः तेभ्यः प्रथमसमयतिर्यग्योनिका असंख्येयगुणाः, नारकादिशेषगतित्र Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३८) अप्पाबद्य (ग) अनिधानराजेन्धः। अप्पाबहुय (ग) यादागतानामेव प्रथमसमये वर्तमानानां प्रथमसमयतिर्यग्यो- प्रथमसमयाप्रथमसमयनेदेन भिन्नानां नैरथिकतिर्यग्यनिकमनिकत्वात्। नुष्यदेवसिकानां दशानामल्पबहुत्वान्यत्रापि चत्वारि । द्वितीयमेवम् तत्र प्रयमामिदमएएसि णं ते ! अपढमसमयणेरड्याणं अपढमसमय- एतोस णं भंते ! पढमसमयणेरझ्याणं पढमसमयतिरिक्खतिरिक्खजोणियाणं अपडमसमयमणसाणं अपढमसमयदेवा- जोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदवाणं पढमसमयए य कयरे कयरेहिंतोज्जाव विसेसाहिया वा १ । गोयमा! सिहाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा। सम्वत्थोवा अपढमसमयमणसा, अपढमसमयणेरइया अ-| गोयमा ! सव्वत्थोवा पदमसमयसिद्धा पढमसमयमणुसा संखेज्जगुणा, अपदमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढम- असंखज्जगुणा, पढमसमयणेरड्या असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खिनोणिया अणंतगुणा। समयदेवा असंखज्जगुणा, पढमसमयातरिक्खजोणिया असर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः, तेज्योऽप्रथमसमयनैरयिका | संखेज्जगुणा ॥ असंख्येयगुणाः, तेयोऽप्रथमसमयदेवा असंख्ययगुणाः, ते- सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिकाः, अष्टोत्तरशतादूर्द्धमभावात् । भ्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानाम- तेभ्यः प्रथमसमयमनुष्या असंख्येयगुणाः, तेभ्यःप्रथमसमयनैनन्तत्वात्। रयिकाः असंख्येयगुणाः, तेभ्यः प्रथमसमयदेवाः असंख्येयतृतीयमेवम गुणाः,तेच्या प्रथमसमयतिर्यश्चोऽसंख्येयगुणाः। एएसिणं पढमसमय रक्ष्याणं अपढमसमयणेरइयाणं कयरे। द्वितीयमिदम्कयरेहिता जाब विसेसाहिया। गोयमा सम्बत्योवा पढ एतेसि णं जंते ! अपढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयतिमसमयणरइया, अपढमसमयणेरड्या असंखेज्जगुणा । एए रिक्खजोणियाणं अपढमसमयपणूसाणं अपढमसमयदेवाणं सिणं ते! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयति अपढमसमयसिफाण य कयरे कयरोहितो. जाब विसेसारिक्खजोणियाणं कयरे कयरेहिंतोजाब विसेसाहिया ।। हिया वा। गोयमा! सव्वत्थोवा अपदमसमयमणूसा,अपगोयमा !सबत्योवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपदमस ढमसमयणेरइगा असंखज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। मणुयदेवाणं अप्पाबहुयं खेज्जगुणा, अपढमसमयसिंघा अपंतगुणा, अपदमसमयजहा नेरक्या। तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा । सर्वस्तोकाः प्रथमसमयनैरयिकाः, अप्रथमसमयनैरयिका सर्वस्तोका अप्रथमसमयमनुष्याः,अप्रथमसमयनैरयिका अ. संख्येयगुणाः, अप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, अप्रथमस असंख्येयगुणाः। तत्र प्रथमसमयतिर्यग्योनिकाः सर्वस्तोकाः,अ मयसिद्धा अनन्तगुणाः, अप्रथमसमयतिर्यश्चोऽनन्तगुणाः। प्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः, तथा सर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, अप्रथमसमयमनुष्याः असंख्येयगुणाः। तथा स तृतीयम्स्तोकाः प्रथमसमयदेवाः, अप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः। एएसिणं ते! पढमसमयणेरइयाण य अपदमसमयणेरइसर्वसमुदायगतं चतुर्थमेवम् याण य कयरेकयरेहिंतोज्जाव पिसेसाहिया वा ?। गोयमा! एएसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं अपढमसमयणेरह- सम्बत्थोवा पढमसमयणेरड्या, अपढमसमयणेरड्या असंयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं, अपढमसमयतिरिक्ख- खज्जगुणा । एतेसिणं जते ! पढमसमयतिरिक्खजोणिजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणूसाणं पढम- याणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाण य कयरे कयरेहितो. समयदेवाणं अपढमसमयदेवाणं सिदाण य कयरे कयरेहि- जाव विसेसाहिया वा। मोयमा! सम्बत्थोवा पढमसनोन्जाव विसेसाहिया?। गोयमा सव्वत्थोवा पढमसमय- मयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंमासा, अपढमममयमण्सा असंखेज्जगुणा, पढ़समयणेर- तगुणा । एतेसि णं नंते ! पढमसमयमणूसाएं अपढमसश्या असंखेजगुणा,पढमसमयदेवा असंखेजगुणा, पढमसम- मयमणूसाण य कयरे कयरेहिंतोजाव विसेसाहिया वा। यतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया गोयमा ! सम्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणमा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, सिका असंखेजगुणा। जहा मणूसा तहा देवा वि । एतोसणं - अणंतगुणा, अपदमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगणा।। ते! पढमसमयासिकाणं अपढमसमयसिद्धाण यकयरे कयरेसर्वस्तोकाः प्रथमसमयमनुष्याः, अप्रथमसमयमनुष्या अ- हितो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसेसाहिया वा । संख्येयगुणाः,तेज्यः प्रथमसमयनैरयिका असंख्येयगुणाः, तेभ्यो गोयमा ! सम्बत्थोवा पढमसमयसिका, अपढमसमयसिऽपि प्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽविप्रथमसमयतियशोऽसंख्येयगुणाः, तेज्योऽपि प्रथमसमयनैरयिका असंख्ये का श्राएं तगुणा। यगुणाः, तेन्योऽप्यप्रथमसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्यः सि. प्रत्येकभाविनैरयिकतिर्यमनुष्यदेवानां पूर्ववत् । सिमानामेवं का अनन्तगुणाः, तेन्योऽप्रथमसमयतिर्यग्योनिका अनन्तगु- सर्वस्तोकाः प्रथमसमयसिखाः, अप्रथमसमयसिमा अनन्तणाः । जी०६प्रति०॥ गुणाः। Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्डः। अप्पाबद्दय (ग) । समुदायगतं चतुर्थमेवम् सास्वादनास्तु कदाचित्सर्वथैव न भवन्ति, यदा भवन्ति तदा एएसिणं भंते ! पढमसमयणेरझ्याणं अपढमममयणेर जघन्येनैको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु देशविरतेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, याणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्ख तेच्यो मिश्रा असंख्येयगुणाः, सास्वादनासाया उत्कर्षतोऽ पिपमावलिकामात्रतया स्तोकत्वात् । मिश्राकायाः पुनरन्तजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं अपढमसमयमणुसाणं पढमस मुहर्तप्रमाणतया प्रभूतत्वात् । तेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः अविरत. मयदेवाणं अपदमसमयदेवाणं पढमसमयसिघाणं अपढम- सम्यग्दृष्टयः, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि प्रभूततया सर्वकालसंसमयसिद्धाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा भवात् । तेभ्योऽप्ययोगिकेवलिनो भवस्थाभवस्थभेदनिन्ना विसेसाहिया वा। गोयमा! सम्बत्थोवा पढमसमयसिया, अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्योऽप्यनन्तगुणा मि ध्यारष्टयः, साधारणवनस्पतीनां सिकेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । पढमसमयमणूसा असंखेजगुणा,अपढमसमयमणूसा असं तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति । तदेवमन्निहितं गुणस्थानवर्तिनां खिज्जगुणा, पढमसमयणेरश्या असंविज्जगुणा, पढमसमय जीवानामपबहुत्यम् । कर्म०४ कर्म०। पं० सं०। देवा असंखिज्मगुणा, पढमसमयतिरिक्वजोणिया असं- (१३) [चरमद्वारम] वरमाचरमाणामल्पबहुत्वम्वेज्जगुणा, अपढमसमयणेरइया अमंस्विज्जगुणा, अपट- एएसि एंजते ! जीवाणं चरिमाणं अचरिमाण य कयरे मसमयदेवा असंखिज्जगुणा, अपढमसमयसिमा अणंत- कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा ?।गोयमा ! सम्बत्योवा गुणा, अपढमसमयतिरिक्वजोणिया अपंतगुणा ।। जीवा अचरिमा, चरिमा अपंतगुणा । सर्षस्तोकाः प्रथमसमयसिद्धाः, तेयः प्रथमसमयमनुष्या इह येषां चरिमो भवःसंभवी योग्यतयाऽपितेचरमा उच्यन्ते। ते असंस्वेयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयमनुष्या संख्येयगुणाः, चार्थाद भव्याः,श्तरेऽचरमा अभव्याःसिद्धाश्च, सन्नयेषामपि च. तेज्यः प्रथमसमयनरयिका असंख्येयगुणा, तेत्यः प्रथमसम रमाचरमजावात्। तत्र सर्वस्ताका अचरमाः,अभव्यानां सिकानां यदेवा असंख्येयगुणाः, तेन्यः प्रथमसमयतिर्यञ्चोऽसंस्येयगु- च समुदितानामप्यजघन्योत्कृष्टयुक्तानन्तकपरिमाणत्वात् । तेणाः, तेज्योऽप्रथमसमयनैरयिका अनन्तगुणाः, तेभ्योऽप्रथम भ्योऽनन्तगुणाश्वरमाः, अजघन्योत्कृयानन्तानन्तकपरिमाणसमयदेवा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयसिद्धा अनन्त त्वात् । गतं चरमद्वारम् । प्रशा०३ पद । (रत्नप्रभादीनां चरगुणाः, तेभ्योऽप्रथमसमयतिर्यश्चोऽनन्तगुणाः। भावना सर्व माचरमगतमल्पबहुत्वं, सहातप्रदेशस्य सात प्रदेशावगाढस्य त्रापि प्राग्बत् । नवरं सूत्रे संकेप इति । जी०१० प्रति। परिमएमलादेश्वरमादिविषयमस्पबहुत्वं च 'चरम 'शब्दे पर दर्शयिष्यते) संप्रति गुणस्थानकेन्यवे वर्तमानानां जन्तूनामस्पबहुत्वमाह- (१४) [जीवद्वारम्] जीवपुलसमयद्रव्यप्रदेशपर्यायाणा(पण दो खीण दुजोगी,ऽणुदीरग अजोगियोव उवसंता। मल्पबहुत्वम्संखगुण खीण मुहुमा, नियट्टिअपुग्न समा अहिया ६श एएस णं ते! जीवाणं पोग्गलाणं अकासमयाणं सव्वदचाणं सन्चपएसाणं सव्वपज्जवाण य कयरे कयरे(थोष उवसंत सि) स्तोका उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनो जीवाः, यतस्ते प्रतिपद्यमाना उत्कर्षतोऽपि चतुष्पञ्चाशत्प्रमा हिंतो अप्पा वा०४१। गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा पोग्गमाणा एष प्राप्यन्त इति । तेज्यः सकाशात कोणमोहाः संख्ये- ला अणंतगुणा, अकासमया अणंतगुणा, सम्बदन्या वियगुणाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका एकस्मिन् समयेऽष्टोत्तरश- सेसाहिया,सब्बपदेसा अणंतगुणा,सब्बपज्जवा अपंतगुणा। तप्रमाणा अपि लज्यन्ते । पतचोत्कृष्टपदापेक्कयोक्तम् । अन्यथा प्रज्ञा ३ पद। कदाचिद्विपर्ययोऽपि इष्टव्यः । स्तोकाःक्कीणमोहा, बहवस्तु तेज्य सपशान्तमोहाः, तथा तेज्याकीणमोडेभ्यः सकाशात तदेवमर्थतःसूक्ष्मसंपराया निवृत्तिबादरापूर्वकरणा विशेषाधिकाः,स्वस्था- 'जीवा १पोग्गल २ समया ३,दम्वटपएसाय ५पज्जबा६चेव । में पुनरेते चिन्त्यमानास्त्रयोऽपि समास्तुस्या ति ॥६॥ थोबाडणंताऽणता, विसेसभहिया उधेऽणंता'॥१॥ शह भावना-यतो जीवाः प्रत्येकमनन्तानन्तैः पदकाः प्रायो जोगि अपमत्त इयरे, संखगुणा देससासणा मीसा ।। भवन्ति, पुफलास्तु जीवैः संघका असंबद्धाश्च भवन्तीत्यत: अविरय भजोगि मिच्छा, असंख चनरो दुवेऽणता।६।। स्तोकाः पुजवेभ्यो जीवाः। तेभ्यः सूक्ष्मादिन्यः सयोगिकेवलिनः संख्यातगुणाः, तेषां यदाहकोटिपृथक्त्वेन लज्यमानत्वात् । तेभ्योऽप्रमत्ताः संख्येयगुणाः, "ज पोग्गझावबका, जीवा पारण होति तो थोषा। कोटिसहस्रपृथक्तेन प्राप्वमाणत्वात् । तेभ्य (श्यर ति)अ- जीवेहि विरहियाऽविर-हिया व पुण पोम्गला संति"॥१॥ प्रमत्तप्रतियोगिनः प्रमत्ताः संख्येयगुणाः, प्रमादजावो हि बह- जीवेभ्योऽनन्तगुणाः पुमला कथम,यसैजसादिशरीरं येन जीनां बहुकामं च लज्यते, विपर्ययेण स्वप्रमाद इति न यथोक्त- घेन परिगृहीतं तत्ततो जीवात्पुशलपरिणाममाश्रित्य अनन्तगुणं संख्याव्याघातः। (देसेत्यादि) देशविरतसास्वादनमिश्राविरत- भवति, तथा-तैजसशरीरात्प्रदेशतोऽनन्तगुणं कार्मणम् , एवं च लक्कणाश्चत्वारो यधोत्तरमसंख्ययगुणाः, अयोगिमिथ्याष्टि- | ते जीवप्रतिबद्धेऽनन्तगुणे जीवविमुक्ते च ते ताभ्यामनन्तगुणे मक्षणौ च ही यथोत्तरमनन्तगुणो, तत्र प्रमत्तेभ्यो देशविरता प्रवतः, शेषशरीरचिन्ता त्विहन कृता, यस्मात्तानि मुक्ताम्यपि असंख्येयगुणाः, तिरश्चामप्यसंख्यातानां देशविरतिनावात् । खे खे स्थाने तयारमन्तजागे वर्तन्ते,तदेवमिह तेजसशरीरपुज Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) अप्पाबहुय (ग) पाभिधानराजेन्द्रः । अप्पाबद्दय (ग) ला अपि जीवेज्योऽनन्तगुणाः, किं पुनः कार्मणादिपुलरा- त्वात् । तथाऽन्येष्वपि तावत्सु तात्विक समयेषु गतेषु तावशिसहिताः । तथा पश्चदशविधप्रयोगपरिणताः पुमलाः स्तो त्त पचौपचारिकसमया जयन्तीत्येवमसंख्यातेषु कल्पनया श. काः, तेभ्यो मिश्रपरिणताः अनन्तगुणाः, तेयोऽपि विस्रसाप- तमानेषु तात्त्विकसमयेषु पौनःपुन्येन गतेवनन्ततमायां कल्परिणता अनन्तगुणाः, त्रिविधा पव च पुमलाः सर्व एव भव- नया सहस्रतमायां वलायां गता नवन्ति । तात्विकसमया न्ति । जीवाश्च सर्वेऽपि प्रयोगपरिणतपुलानां प्रतनुकेऽनन्त लोकलव्यप्रदशपर्यवमात्राः कल्पनया सक्तप्रमाणाः, एवं चैकभागे वर्तन्ते यस्मादेवं तस्माज्जीवेभ्यः सकाशात् पुमलाः बहु कस्मिस्तात्त्विकसमयेऽनन्तानामौपचारिकसमयानां भावात्सनिरनमाऽनन्तकैर्गुणिताः सिका इति । लोकद्रव्यप्रदेशपर्यवराशेरपि समया अनन्तगुणाः प्राप्नुवन्ति, प्राह च किं पुनः पुजलेभ्यः ? इति । "ज जेण परिग्गहिय, तेयादिजिएण देहमेको । यदाहतत्तो तमणंतगुणं, पोग्गलपरिणाम होई ॥१॥ . "ज सञ्चलोगदम्व-प्पएसपज्जवगणस्स नश्यस्स । तेयाश्रो पुण कम्मग-मणंतगुणियं जो विणिहिटुं। लब्जर समयक्खेत्त-प्पएसपज्जायपिमेण ॥१॥ एवं ता बद्धा, तेयगकम्मा जीवेहि ॥ २॥ पवासमपहिँ गपहि, लोगपज्जवसमा समयसंस्खा । पत्तोऽणंतगुणाई, तेसिं चिय जाणि होति मुक्काई। लब्भ अनहिं पिब, तत्तियमेतहि तावश्या ॥२॥ द पुण थोवत्ताभो, अग्गहणं सेसदेहाणं ॥३॥ पवमसंखज्जोह, समप िगतेहिंतो गयाहिं ति। जंतेसि मुक्काई, पिहोति सहाणऽणतभागम्मि । समयाओ बोगदव्व-प्पएसपज्जायमेत्ताओ॥३॥ तेण तदगाहणमिहं, बकाबद्धाण दोएडं वि श्य सव्वलोगपज्जव-रासीश्रो वि समया अणतगुणा । इह पुणतेयसरीरग-बद्ध चिय पोग्गला अणंतगुणा। पावंति गणिज्जंता, किं पुण ता पोग्गलेहितो?" ॥४॥ जीवहिं तो किं पुण, सहिया अवसेसरासीडिं ॥५॥ अन्यस्तु प्रेरयति-उत्कृष्टतोऽपि षण्मासमात्रमेव सिकिंगतेपोवा भणिया सुत्ते, पचरसविहप्पभोगयाओम्गा । रन्तरं भवति. तेन च सेत्स्यद्न्यः सिकेज्योऽपि च जीवेज्योसत्तो मौसपरिणया-तगुणा पोग्गमा जणिया ॥ ६॥ ऽसंख्यातगुणा एव समया नवन्ति । कथं पुनः ?, सर्वजीवेज्योते बीससा परिणया, तत्तो भणिया अणतसंगुणिया । ऽनन्तगुणा भविष्यन्तीति इहाप्यौपचारिकसमयापेक्वया सएवं तिविहपरिणया, सब्वे वि य पोग्गला लोए ॥ ७ ॥ मयानामनन्तगुणत्वं वाच्यमिति । अथ समयेज्यो व्याणि जं जीवा सब्वे विय, एक्कम्मि पोगपरिणयाणं पि। विशेषाधिकानीति कथम? अत्रोच्यते-यस्मात्सर्वे समया:प्र. बटुंति पोग्गलाणं, अणतभागम्मि तणुयम्मि ॥ ८॥ त्येक व्याणि, शेषाणि च जीवपुलधर्मास्तिकायादीनि ते. बहुपहि अणताणं, तर्हि तेण गुणिया जिपहितो। वेव किप्तानीत्यतः केवलेच्यःसमयेज्यः सकाशात समस्तद्रव्यासिका भवंति सब्वे, वि पोग्गला सव्वलोगम्मि" ।। ए॥ | णि विशेषाधिकानि भवन्ति, न संख्यातगुणादीनि, समयननु पुत्रेच्योऽनन्तगुणाः समया इति यमुक्तम्। तन्न संगतम् । ते. ] व्यापेक्कया जीवादिनन्याणामल्पतरत्वादिति। भ्यस्तेषां स्तोकत्वात । स्तोकत्वं च मनुष्यवेत्रमात्रवर्तित्वात्सम उक्तं चयानां पुद्गलानां च सकललोकवर्तित्वादिति । अत्रोच्यते-सम "एतो समर्दितो, होति विसेसाहियार दवाई। यकेत्रे ये केचन व्यपर्यायाः सन्ति, तेषामेकैकस्मिन् साम्प्रतं जंभेया सव्वे चिय, समया दवाइ पत्तेयं ॥१॥ समयो बर्तते । एवं च साम्प्रतं समयो यस्मात्समयकेत्रव्यपर्य सेसाई जीवपोग्गल-धम्माधम्म वराई छूढाई । वगुणो भवति तस्मादनन्ताः समया एकैकस्मिन् समये दवट्ठयाएँ समय-सु तेण दव्वा विसेसहिया ॥२॥ नवन्तीति । आद च" होति य अणंतगुणिया, श्रद्धासमया उ पोग्गलेहितो। नन्वद्धासमयानां कस्माद्व्यत्वमेवेष्यते?,समयस्कन्धापेक्षया ना थोवा ते नरखे-त्तमेत्तवत्तणाश्रो त्ति ॥१॥ प्रदेशार्थत्वस्यापि तेषां युज्यमानत्वात् । तथाहि-यथा स्कन्धो आपण समयक्खेत्त-म्मि संति जे केश दवपज्जाया । द्रव्यं सिद्धं, स्कन्धापर्यवा अपि यथाप्रदेशाः सिकाः, एवं समवट्ट संपयसमओ, तसिं पत्तेयमेकेके ॥ २॥ यस्कन्धवर्तिनः समया भवन्ति,प्रदेशाश्च व्यं चेति। अत्रोच्यते परमाणनामन्योऽन्यसव्यपेक्षत्वेन स्कन्धत्वं युक्तम, अद्धासमएवं संपयसमओ, जं समयस्खेत्तपज्जवज्झत्यो। तेणाणता समया, भवंति एक्केकसमयम्मि" || ३॥ यानां पुनरन्योऽन्यापेक्षिता नास्ति । यतः कालसमयाः प्रत्येकपवं च वर्तमानोऽपि समयः पुजलेज्योऽनन्तगुणो प्रवति, त्वे च काल्पनिकस्कन्धनावे च वर्तमानाः प्रत्येकवृत्तय एव, तएकाव्यस्याऽवि पर्यायाणामनन्तत्वात् । किं च । केवलमित्थं स्वभावत्वात्तस्मात्तेऽन्योऽन्यनिरपक्षाः, अन्योऽन्यनिरपेक्षत्वाच पुलेज्योऽप्यनन्तगुणाः समयाः सर्वलोकाव्यप्रदेशपर्याये न ते वास्तवस्कन्धनिष्पादकाः, ततश्च तेषां प्रदेशार्थतीत । ज्योऽप्यनन्तगुणास्ते संनवन्ति । तथाहि-यत्समस्तलोकद्र उक्तं चात्र आह-"अद्धासमयाणं किं,पुण दव्बट्रपव नियमेणं । व्यप्रदेशपर्यवराशेः समयकेत्रव्यप्रदेशपर्यवराशिना भक्ता- तेसि पपसट्रा विहु, जुज खंधं समासज्ज ॥१॥ नभ्यते । पतद्भावना चैवं किल-असद्भावकल्पनया सकणं सिद्धं खंधो दवं, तदवयवा वि य जहा पएस त्ति। लोकव्यप्रदेशापर्यवाणां तस्य समयत्तेत्रद्रव्यप्रदेशपर्यवराशि- इय तव्वत्ती समया, होति पपसा य दव्वं च ॥२॥ ना कल्पनया सहस्रमानेन भागे हृते शतं लब्धम, ततश्च भरण परमाणूणं, अनोन्नमवेक्व खंधया सिद्धा। किल तात्विकसमयाते गते लोकद्रव्यप्रदशपर्यवसंख्या तु- अकासमयाणं पुण, अन्नोन्नाचेक्खया नस्थि ॥ ३ ॥ ल्पा समयकेबद्रव्यप्रदेशपर्यवरूपसमयसंख्या लज्यते । स- श्रद्धासमया जम्मा, पत्ते पत्तेयखंधनावे य। मययापेक्षया असंख्यातगुण लोकस्य कल्पनया शतगुण- पत्तेयवत्तिणो थिय, ते तेणऽन्नोन्ननिरवेक्खा " ॥४॥ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाय (ग) अथ प्रेभ्यः प्रदेशा अनन्तगुणा इति । एतत्कथम् ? । उच्यतेश्रद्धासमयव्येभ्यः भाकाशप्रदेशानामनन्त गुणत्वात् । ननु केप्रदेशानां कालसमयानां च समानेऽप्यनन्तत्वे किं कारणमाश्रित्याकाशप्रदेशा अनन्तगुणाः, कालसमयाश्च तदनन्तभाग ( ६४१ ) अभिधानराजेन्द्रः | पिकस्यामनाद्यपर्यवसितायामाकाशप्रदे राधेश्यामेकैकप्रदेशानुसार स्पिंगायतनानां कल्पनेन ताज्योऽपि चैकैकप्रदेशानुसारेणैवाध्वधमायतश्रेण विरचनेन आकाशप्रदेशघनो निष्पद्यते कासमपश्य तु सेव श्रेण भवति न पुनर्धनः, ततः कालसमयाः स्तोका भवन्तीति । श्द गाथा तो सवपसाऽणतगुणां खप्परसऽपतता । सवापासमतं जे जिद १ ॥ शाह समेतत्तम्मित्तकाला किं पु निमित्तं १ । भणियं खमनंतगुणं, कालोऽयमणंतभागम्मि ॥ २ ॥ भन्न नभसेढीप, अणाइयाए अपज्जवसियाए । निष्फज्जर खम्मि घणो, न उ काले तेण सो थोवो " ॥ ३ ॥ प्रदेशेभ्यो ऽनन्तणाः पर्यायानार्थ गाथा"प्रत्तो य अनंतगुणा, पज्जाया जेण नहपपसम्मि । एक्कम्मि अणता, अगुरुन्नड्डू पज्जवा भणिया ” ॥ २ ॥ इति । भ० २५ ० ३ ० । गतं जीवद्वारम् । 60 (१५) [ कानद्वार ] ज्ञानिनामयम्एएम भंतेजीचणं निणिवोहियणाखीणं सुपपाणीयं प्रहिणाणीनं मणपज्जपणाणीणं केवलणाणीय कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ४ १ । गोयमा ! सत्योचा मणपज्जवनाणी, हिराणी असं०, आजिि बोड़ियनाणी सुयनाणी दोवि तुझा विसेसाहिया, केवलनाणी अतगुणा । सर्वस्तोका मनःपनि संपतानामे वामपन्थादि मनापर्ववहामसंप्रयात् । तेभ्य धिज्ञानिनः, नैरयिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवानामप्यवधिज्ञानसंजयात्। तेभ्य अनिनिधिः तानिना विशे बाधिका, विपक्षेद्रियमनुष्याणामेवाधिका नामपि केादिभिनियोधिक भूत ज्ञानभावावस्था उपि परस्परं तुल्याः । " जत्थ मइनाणं तत्थ सुअनाणं, जत्थ सुर्यनाणं तत्थ महनाणं" इतिवचनात् । तेभ्यः केवलज्ञामिनोऽनन्तसिद्धानामनन्तत्वात् चतं हि ज्ञानिनामल्पबहुत्वम् । इदानीं प्रतिपक्षभूतानामहानिनामपवत्वमाहएएसि णं भंते ! जीवाणं माणीणं सुयमपाणीणं. विजंगनाणी व कपरे कपरेदितो अप्पा बा० ४ गांयमा सन्वत्थोवा जीवा विभंगनाणी, मारणी सुप्रमाणी दोत्रि तुला अतगुणा | सर्वस्तोका विभङ्गज्ञानिनः, कतिपयानामेव नैरयिकदेवतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणां विभङ्गभावात् । तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्रुताशानितो ऽनन्तगुणाः, वनस्पतीनामपि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात् । स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । " अत्थ महअन्नाणं तत्थ सुभमां, जत्थ सुनाणं तत्थ महमाणं " इति वचनात् । १६१ अप्पाबहुय (ग) संयुभयेषां ज्ञानाज्ञानिनामत्पचत्वार 1 एएसि णं भंते ! जीवाणं आजि निवोदियनागीणं मृया हिणणं मरणपज्जा । एणं केवलणाी मनिषीणं मृयनाणीणं त्रिभंगनाणी यकरे करेदितो अप्पा ४ गोषमा सम्पत्योवा जीवा मरणपज्जवाणी, ओहिनाली अमंखिज्जगुणा, मानिनिवोडियनाणी पाणी व दोन तुझा विमादिया विनंगनाणी अमखेज्ज०, केवलनाणी तगुणा, मन्नाणी सुनाणी य दोत्रिं तुला अनगुणा । सर्वमनोकामनापर्ययज्ञानिनः संयतानामेवाद्धि - प्राप्तानां मनः पर्यवज्ञान संभवात् । तेभ्योऽसंख्येयगुणा अवधिज्ञा निः स्यानिनियोधिकानिनः ज्ञानिनश्वरोपा काः, स्वस्थाने तु द्वावपि परस्परं तुल्याः । अत्र जायना प्रागेचोला । तेभ्यो ऽसका विज्ञानिनः यस्मात्सुरी निरयमती च सम्यभ्यो मायोऽयगुणाः प ते देवनैरविका सम्परयोऽवधिज्ञानिनो मिथ्यारो विनङ्गज्ञानिन इत्यसंख्येयगुणाः, तेभ्यः केवलज्ञानिनोऽनन्नगु सिद्धानानन्तत्वाद तेभ्यो मत्यज्ञानिनः श्वानन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिकेभ्यो ऽप्यनन्तस्थान : तेच त्याना स्पस्थाने तु परस्परं तुस्याः । गत ज्ञानद्वारम् । प्रा० ३ पद । भ० | जी० | कर्म० । स्दानी ज्योतिष्काणामपबहुत्वमाह 1 एतेसि णं भंते ! चंदिमूरिभगढ़ क्ख ततारारूत्राणं करे करेहितो प्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहियात्रा ? । गोयमा ! चंदिमसूरिया दुवे तुला मन्वत्योवा एक्सेलगुणा, गड़ा संखेग्जगुणा, ताराहता संखेनगुणा || समनन्तरो मां प्रत्या बा, भदन्त सूर्यग्रहणां कतरेकतरेभ्यो स्तोकाः । वाऽत्र विकल्पसमुचयार्थे । कतरे कनरेज्यो बहुका वा कतरेयस्तु वा यत्र विकिपरिणामेन तृतीया व्याया करारे कतरेश्यो विशेष देति है। गौतम! चन्द्रसूर्या पते वेि परस्परं तुल्याः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चन्द्रसूर्याणां समसंख्याकत्वात् शेवेभ्यो ब्राविया सर्वेऽपि स्लोकाः ज्यो संक्षेपगुणानि प्राविंशतिगुणत्व प्रदाः संख्ये यगुणाः सातिरेक त्रिगुणत्वात् तेभ्योऽपि तारारूपाणि सं यगुणानि, प्रन्तकोटाकोटिगुणत्वादिति । जं०७ पत्त० | ज्ञानर्यायाणामपबहुत्वम् | ०८ श० २३० " सम्वत्थोवा नाणी, अण्णा गुणा १ प्रति सस्थादरोस्थावराणामपबहुत्वम" प्यायसम्पत्योचा तसा होता यावरा असंतगुणा" जी०2 प्रति० (निर्धग्धानां पुलाकादनामश्च विगांध' शब्देव) (१३) [ दर्शनद्वार]] दर्शननामपत्यम् एशले जंते ! जीवाणं चक्रमुदंसणं अचक्रखुदंसलीणं ओहिंदंसणणं केवन्नदंसणीए य कयरे करेहिं Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४२) अप्पाबद्दय (ग) अनिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) तो अप्पा वा० ४? । गोयमा ! सम्वत्थावा जीवा प्रो- न विद्यन्ते, तदभावात्तत्रोदकं प्रनतं, तत्प्रातत्याच वनस्पतिकाहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखेज्जगुणा, केवलदमणी | यिका अपि प्रजूता इति विशेषाधिका,तेभ्योऽप्युदीच्या विशि विशेषाधिकाः । किं कारणमिति चेत्, उच्यते-सदीच्यां हि अणंतगुणा, अचक्रवुदंसणी अणंतगुणा ॥ दिशि संख्येययोजनेषु द्वीपेषु मध्ये कस्मैिचिद् द्वीपेमायामधिसर्वस्तोका भवधिदर्शनिनः, देवनैरयिकाणां कतिपयानां च कम्भाज्या संख्येययोजनकोटाकोटिप्रमाणं मानसं नाम सराससंकिपश्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याणामवधिदर्शनभावात् । तेभ्यश्चक्षु- मस्ति.ततो दकिणदिगपेक्षया अस्यां मनूतमुदकम, उदकबाहुदर्शनिनोऽसंख्येयगुणाः, सर्वेशं देवनैरयिकगर्भजमनुष्याणां से- ल्याच प्रभूता वनस्पतयः, प्रभूता द्वीन्द्रियाः शलादयः, प्रजूताशितिर्वाञ्चन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणां च असंझितिर्यपञ्चे- स्तटसनशङ्खादिकलेबराश्रिताः त्रीन्द्रियाः पिपीलिकादयः, प्रन्द्रियाणां चतुर्दर्शनभावात् । तेभ्यः केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, भूताः पनादिषु चतुरिन्द्रिया चमरादयः, प्रनूताः पझेन्छिया सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्योऽचक्षुर्दर्शनिनोऽनन्तगुणाः, वनस्प मत्स्यादयः, इति विशेषाधिकाः॥ तिकायिकानां सिद्धभ्योऽप्यनन्तत्वात् ।गतं दर्शनद्वारम् । प्रका० ३ पद । कर्म। जी। स्दानी विशेषेण तदाह(१७) [दिग्द्वारम] दिगनुपातेन जीवानामस्पबहुत्वम्- दिसाणुवाएणं सब्बत्योवा पुढविकाझ्या दाहिणणं, उत्तदिसाणुवाएणं सम्बत्योवा जीवा पच्चच्छिमेणं, पुरच्चि- रेणं विसेसाहिया, पुरिछिमेणं विसेसाहिया, पञ्चच्चिमेणं मेणं विससाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसे- विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सन्नत्यावा आउकाश्या पचसाहिया। छिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहि या, उत्तरोणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सम्बत्थोवा तेउइह दिशः प्रथमे प्राचारास्येऽसे अनेकप्रकारा व्यावर्णिता, तह क्षेत्रदिशः प्रतिपत्तव्याः, तासां नियतत्वात् । इतरासांच काइया दाहिणुत्तरेणं, पुरच्चिमेणं विसेसाहिया, पञ्चचिमणं . प्रायोऽनवस्थितत्वादनुपयोगित्वाचा, क्षेत्रदिशां च प्रभवस्तिर्य विसेसाहिया । दिमाणुवाएणं सव्वत्योवा वाउकाश्या पुरग्लोकमध्यगतादष्टप्रदेशका रुचकाद् । यत उक्तम्-"अकृपपसो छिमेणं,पञ्चच्छिमणं विसेप्साहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, रुयगो, तिरियलोयस्स मज्झियारम्मि । एस पभवो दिसाणं, उत्तरेणं विसेसाहिया ॥ पसेव भवे अपदिसावं"३१॥ इति दिशामनुपातो दिगनुसरणं, तेन दिशोऽधिकृत्यति तात्पर्यार्थः । सर्वस्तोका जीवाः दिमनुपातन दिगनुसारेण, दिशोऽधिकृत्येति भावः । पृथिवीपभिमेन पश्चिमायां दिशि। कमिति चेत!,उच्यते-दं खल्प- कायिकाश्चिन्त्यमानाः सर्वस्तोका: दकिणस्यां दिशि। कथमिबहत्वं बादरानाधिकृत्य काव्यं, न सदमाखां, सर्वलोकापनानां | ति चेत् ', उच्यते-ह यत्र घनं तत्र बहवः पृथिवीकायिकाः, प्रायः सर्वत्राऽपि समत्वात बादरेष्वपि मध्ये सर्वबहवो वन- यन सुपिरंतत्र स्तोकाः,दकिणस्यां दिशि बहानि भवनपतीनां भस्पतिकायिकाः,अनन्तसंख्याततया तेषां प्राप्यमाणत्वात् । ततो बनानि, बढ़वो नरकावासास्ततः सुपिरप्राभूत्यसंभवात, सर्वयत्रतेबहवः तत्र बहुत्वं जीवानां, यत्र स्वल्पे तत्राल्पत्वम |वन- स्तोका दक्षिणस्यां दिशि पृथिवीकायिकाःतेज्य उत्तरस्यां दिस्पतयश्च तत्र बदयो यत्र प्रनृता प्रापः। “जत्थ जसं तत्थ वर्ण" | शि विशेषाधिकाः, यत्र उत्तरस्यां दिशि दक्षिणदिगपेक्षया इति वचनात । तत्रावश्यं पनकशैवालादीनां भावात् । तेच __ स्तोकानि प्रवनानि, स्तोका नरकावासास्ततो घनप्रानृत्यसंपनकशैवालादयो बादरनामकर्मोदये वर्तमाना प्रार्प अत्य- भवाद् बहवः पृथिवीकायिका इति विशेषाधिकाः । तेन्योऽपि न्तसदमावगाहनत्वादतिप्रभूतपिण्डीभावाच सर्वत्र सन्तोऽपि पूर्वस्यां दिशि विशेषाधिकाः, रविशशिद्वीपानां तत्र भाषात् । न चक्षुषा ग्राह्याः । तथा चोक्लमनुयोगद्वारेषु-" तेणं बाल तेभ्योऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः किं कारणमिति चेत!, ग्गा सुहुमपणगजीवस्स सरीरोगाहणाहितो असंखेजगुणा" उच्यते-यावन्तो रविशशिद्वीपाः पूर्वस्यां दिशि तावन्तः पश्चिइति। ततो यत्रापि नेते रश्यन्ते तत्रापि त सन्तीति प्रतिप मायामपि. तत एव तावता साम्यम् । परं अषणसमुके गौततव्याः। श्राह च मनटीकाकार:-इह सर्ववहयो बनस्प मनामा द्वीपः पश्चिमायामधिकोऽस्ति,तेन विशेषाधिकाः मित्र तय इतिकृत्या यत्र ते सन्ति तत्र बहुत्वं जीवानां, तेषां च बहु पर माह-जनु यथा पश्चिमायां दिशि गौतमद्वीपोऽभ्यधिक स्वम “जत्थ पाउकाओ तत्थ नियमा वणस्सश्काया" इति ।। समस्ति,तथा तस्यां पश्चिमायां दिशि अधोलौकिकमामा अपि "पणगसेवालहढा बायरा वि हौति, सुहुमा आणगिझान- योजनसहनावगाहाः सन्ति, ततः खातपूरितन्यायेन तत्तुस्या चक्षणा" इति । उदकं च प्रवृतं समुद्रेषु द्वीपद्विगुणवि- एव पृथिवीकायिकाः प्राप्नुवन्ति, न विशेषाधिकाः। नैतदवम् । कम्नात् । तेप्चापि च समुकेषु प्रत्येकं प्राचीप्रतीचीदिशोर्यथा- यतोऽधोलौकिकप्रामावगाहों योजनसहनं, गौतमद्वीपस्य पुनः क्रम चन्छसूर्यद्वीपाः, यावति च प्रदेशे चन्छसूर्यद्वीपा भवगाढा- षट्सप्तत्याधिक योजनसहरमुस्त्वं, विष्कम्भस्तस्य द्वादश. स्तावत्युदकाभावः, उदकाभावाच वनस्पतिकायिकाभावः, के- योजनसहस्राणि, यच मेरोरारज्याधोलौकिकमामेभ्योऽर्वाक्वसं प्रतीच्यां दिशि लवणसमुशाधिपसुस्थितनामदेवावामभूतो हानत्वं हीनतरत्वं तत्पूर्वस्यामपि दिशि प्रभूतगादिसम्भवात् गौतमद्वीपो लवणसमुज्यधिको वर्तते, तत्र च सदकाभा समानम् । ततो यधोलौकिकग्रामचिषु बुख्या गौतमद्वीप: बावनस्पतिकायिकानामभावात् । सर्वस्तोका जीवाः पश्चिमायां प्रतिप्यते,तथापि समधिक एवं प्राप्यते,न तुल्य इति । तेन स. दिशि, नेभ्यो विशेगधिकाः पूर्वस्यां दिशि, तत्र हि गौतमद्वीपो माधिकेन विशेषाधिकाः पश्चिमायां दिशि पृथिवीकायिका। नक्तं न विपते, ततस्तावता विशेषणाधिका भवन्त्यतिरिच्यन्ते, ते दिगनुपातेन पृथिवीकायिकानामल्पबहुत्वम् । दानीमकायि. ज्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः,यतस्तत्र चन्द्रसूर्यद्वीपा। कानामल्पबहुत्वमाह-(दिसाणुवापणं सव्वत्थोवा भाउकाश्या Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबद्दय (ग) अभिधानराजेन्द्रः। अप्पाबडेय (ग) इत्यादि ) सर्वस्तोका अकायिकाः पश्चिमायां दिशि, गौ- पुढविपुरच्छिमपञ्चच्छिमरत्तरेणं,दाहिणेणं असंग्वेजगुणा । तमद्वीपम्थाने तेषामभावात् । तेन्योऽपि विशेषाधिकाः दिसाणुवाएणं सम्बत्यांचा पंकप्पना पुढविणेश्या पुरच्चिमपूर्वस्यां दिशि, तेभ्योऽपि विशेषाधिका दक्षिणस्यां दिशि, पञ्चचिमनरेणं,दाहिणणं अमंग्वेजगुणा दिसाणुवापूर्ण चम्बसूर्यवीपाभावात् । तेज्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, मानसरासद्भावात । तेजस्कायिकानामल्पबहुत्यम-(दिसा. सम्बन्थोवा धूमप्पना पुढविनेरड्या पुरच्छिमपञ्चच्छिम उत्तरेणं, वापणं सम्वत्थोवा ते नकाश्या इत्यादि)तया दक्षिणस्यामुत्तर दाहिणणं असंखे जगुणा। दिसाणवाएगणं मञ्चन्योवा नमप्पभा स्यां च दिशि सर्वस्ताकाः तेजस्कायिकाः, यतो मनुष्योत्रे पुढविनेरइया पुरच्चिमपच्चच्छिम उत्तरेणं.दाहिणाणं असंग्वे. एब बादरास्तेजस्कायिका नान्यत्र तत्रापि यत्र बहवो मनुष्याः जगुणा । दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा अहेसत्तमा पुढावनेसत्र ते बहवो बाहुल्येन पाकारम्भसम्नवात , यत्र स्वल्पे तत्र स्तोकाः। तत्र दकिणस्यां दिशि पञ्चसुजरतेषु, उत्तरस्यां दिशि रश्या पुच्चिमपञ्चच्छिमनुत्तरणं,दाहिणणं असंखेजगुणा । पञ्चस्वैरावतेषु केत्रस्याल्पत्वात स्तोका मनुष्याः । तेषां स्तो- नैरयिकसूत्रे सर्वस्तोकाः पूर्वोत्तरपश्चिमदिविनाविनो नैरकत्वेन तेजस्कायिका अपि स्तोका अल्पपाकारम्नसम्भवात् । यिकाः, पुप्पावकीर्गनरकावासानां चात्राल्पवात, बहूनां प्रायः ततः सर्वस्तोका दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः तेजस्कायिका, स्वस्थाने संख्येययोजनविस्तृतत्वाच । तेज्या दकिणदिग्भागविभाविनी तु प्रायः समानाः। तेत्यः पूर्वस्यां दिशि संख्येयगुणाः,केत्रस्य संख्येयगुणाः, पुष्पावकीर्णनरकावासानां तत्र बाहुल्यान् तेषां संख्येयगुणत्वात् । ततोऽपि पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः, च प्रायोऽसययोजनविस्तृतत्वात्, कृष्णपालिकाणां तस्यां अधोलौकिकमामेषु मनुष्यबाहुल्यात् । इदानी वायुकायिकाना- दिशि प्राचुर्येणोत्पादाच्च । तथाहि-द्विविधा जन्तवः, शुक्रपा. मल्पबहुत्वम्-(दिसाणुवाएणं सम्बत्थोवा वानकाश्या पुर- किकाः, कृष्णपाक्षिकाश्च । तेषां लकणमिदम-किञ्चिदनपुमलपमिणमित्यादि) । इह यत्र शुषिरं तत्र वायुर्यत्र च घनं तत्र रावतमात्रसंसारास्ते शुक्रपालिकाः, अधिकतरसंसारनाजिवारवभावः । तत्र पूर्वस्यां दिशि प्रचूतं घनमित्यल्पा वायवः, मस्तु कृष्णपाक्तिका उक्तश्च-जेसिमवरदा पुग्गल-परियड्रोसेस. पश्चिमायां दिशि विशेषाधिकाः,अधोसौकिकग्रामेषुसम्भवात् । प्रो य संसारो।ते सुक्कपक्खिया खलु, अही, पुण कराहपक्खोउत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः,भवननरकावासबाहुल्येन शुरुष. ओ" ॥१.अत एव च स्तोकाः शुक्लपाक्षिकाः, अष्टपसंसारिरबादुल्यात् । ततोऽपि दक्किणस्यां दिशि विशेषाधिकं, उत्तर- णां स्तोकत्वात् । बहवः कृष्णपालिकाः, प्रनूतसंसारिणामतिप्र. दिगपेकया दक्षिणस्यां दिशि भवनानां नरकावासानां चाति- चुरत्वात् । कृष्णपाक्तिकाश्च प्राचुर्येण दक्विणस्यां दिशि समुत्प. प्रनूतत्वात । धन्ते, न शेषासु दिक्कु, तथास्वाभान्यात् । तच्च तथास्वाभाज्य पूर्वाचार्यैरेवंयुक्तिभिरुपद्यते। तद्यथा-कृष्णपाक्तिका दीर्घतरसंतथा यत्र प्रभूता आपस्तत्र प्रभूताः पनकादयोऽनन्तकायि सारजाजिन उच्यन्ते । दीर्घतरसंसारनाजिनश्च बहुपापोदया. का वनस्पतयः, प्रसूताः शशादयोवीन्द्रियाः, प्रजूताः पिएमी द्भवन्ति, बहुपापोदया करकर्माणः, करकर्माणश्च प्रायस्तथाभूतशैवालाचाश्रिताः कुन्थ्वादयः त्रीभियाः, प्रजूताः पदूमाद्याश्रिता मरादयश्चतुरिन्द्रिया इति। स्थानाव्यात् । तद्भवसिरुिका अपि दकिणस्यां दिशि समुत्पद्य न्ते, न शेषासु दिनु । यत उक्तम्-"पायामिह करकम्मा,भवसि. इदानी वनस्पत्यादीनामल्पबहुत्वम् किया वि दाहिणलेसु । नेरश्यतिरियमणुया, सुराश्ठाणेसु दिसाणुवाएणं मन्बत्योवा वणस्सइकाइया पञ्चच्छिमेणं, गच्छंति" ॥१॥ ततो दकिणस्यां दिशि बढ़नां कृष्णपालिकापुरच्चिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विससाहिया, उत्तरे- णामुत्पादसंभवात, पूर्वोक्तकारणद्वयाश सम्नवन्ति पूर्वोत्तरपएं विसेसाहिया। दिसाणुवाएणं सम्बत्थोत्रा बेदिया पञ्च श्चिमदिग्भाविभ्यो दाक्षिणात्या असंख्येयगुणाः । यथा च सा. मान्यतो नैरयिकाणां दिग्विनागेनाल्पबहुत्वमुक्तमपं प्रतिसिमेणं, पुरच्छिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, पृथिव्यपि वक्तव्यम्, युक्तेः सर्वत्रापि समानत्वात् । तदेवं प्रति. उत्तरेणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सम्बत्योवा तेईदिया पृथिव्यपि दिग्विभागेनाल्पबहुत्वमुक्तम्। पच्चटिमेणं, पुरछिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसा- इदानी सप्तापि पृथिवीरधिकृस्य दिविभागेनाल्पपाहुत्वमाहहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया । एवं चरिदया वि॥ दाहिणेहितो अहेसत्तमा पुढविनेर एहिंतो छट्ठीए तवनस्पत्यादिसूत्राणि चतुरिझियसूत्रर्पयन्तानि भकायिक- नया परस्तिमजतिनलोणं सूत्रवद्भावनीयानि । ज्जगुणा,दाहिणणं असंखेज्जगुणा । दाहिणोहितो तमानैरयिकाणामलपबहुत्वम् पुढविनेरएहिंतो पंचमा धूमप्पभाए पुढचीए नेरइया पुरदिसाणुवाएणं मन्नत्योवाणेरइया पुरच्छिमपञ्चश्चिमेणं,उ. | चिमपञ्चश्चिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं असंनरदाहिणेणं असंखजगुणा । दिसाणुवाएणं सम्वत्योवा खेज्जगुणा । दाहिणोहिंतो धूमप्पभा पुढविनेरएहिंतो रयणप्पना पुढविणेरइया पुरच्छिमपच्चच्चिमेणं, उत्तरेणं । चउत्थिए पंकप्पनाए पुढवीए णेरइया पुरच्छिमपच्चच्चिदाहिणणं असंखेज्जगुणा । दिसाणुवारणं सम्बत्योवा सक्कर- मउत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं असंखज्जगुणा । प्पना पुढविणेरड्या पुरच्चिमपञ्चचिमनत्तरेणं,दाहिणणं अ- दाहिणबेहिंतो पंकणनापुढविणेरइएहितो तझ्याए वासंखेज्जगुणा दिसाणुवाएणं सन्चत्योबाणेरड्या बाबुयप्पना लयप्पनाए पुढविनेरझ्या पुरच्छिमपञ्चच्चिमउत्तरेणं म. Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४४) अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय () संखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा । दाहिणोहितो व्यन्तराणामपबहुत्वमाहबालयप्पनाढविणरे एहितो बीयाए सकरप्पनाए पु-| दिसाणुवाएणं सन्चत्योवा वाणमंतरा देवा पुरतिमाग, ढवीए णेरड्या पुरच्छिमपञ्चच्छिमनत्तरेणं असंखेजगुणा, पञ्चच्छिमणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणणं दाहिणणं असंखेजगुणा । दाहिणāहिंतो सकरप्पभा विसेसाहिया। पुदविणरइएहिंतो इमी से रयणप्पनाए पुढचीए गरइया व्यन्तरसूत्रे नावना-यत्र शुषिरं तत्र व्यन्तराः प्रचरन्ति, यत्र पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणवणं घनं तत्र न। ततः पूर्वस्यां दिशि धनत्वात् स्तोका व्यन्तराः। ते ज्योऽपरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, अधोसौकिकग्रामेषु शपिरअसंखेज्जगुणा। सम्नवात् । तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि विशेषाधिकाः, स्वस्था. सप्तमपृथिव्यां पूर्वोत्तरपत्रिमदिायिभाविभ्यो नैरयिकेच्यो थे | नतया नगरावासबाहुल्यात । तेभ्योऽपि दकिमस्यां दिशिवि. मप्तम पृथिव्यामेव दाक्किणात्यास्तेऽसंस्येयगुणाः,तेज्यः षष्ठपृ. शेषाधिकाः, अतिप्रभूतनगरायासबाहुल्यात् । थिव्यां तमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्विभाविज्यो ज्योतिप्काणामल्पबहुत्वमाहउसंख्येयगुणाः । कथमिति चेत् !, उच्यते-रह सर्वोत्कृष्टपा- दिसाणुवाएणं सम्बत्योवा जोइसिया देवा पुरच्छिमपञ्चपकारिणः संक्षिपञ्चोन्छियतिर्यङ्मनुष्याः, सप्तमनरकपृथिव्या- छिमेणं, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया।। मुत्पद्यन्ते । किञ्चिद्धीनहीनतरपापकर्मकारिणश्च षष्ठचादिषु। तथा सर्वस्तोका ज्योतिप्काः, पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि, पृथिवीषु सर्वोत्कृष्टपापकर्मकारिणश्च सर्वस्तोकाः बढ़वध य-1 चन्द्रादित्याद्वीपेप्द्यानकल्पेषु कतिपयानामेव तेषां भावात् । तेथोत्सरं किञ्चिकीनतरादिपापकर्मकारिणः, ततो युक्तमसंस्येय-1 ज्योऽपि दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकाः,विमानबाहुल्यात, कगुणत्वं सप्तमपृथिवीदाक्तिणात्यनारकापेकया षष्टपृथिव्यां पूर्वो-| ष्णपाक्षिकाणां दत्तिणदिम्भावित्वाच । तेभ्योऽप्युत्तरस्यां दिशि सरपश्चिमनारकाणाम् । एवमुत्तरोत्तरपृथिवीरप्याधिकृत्य भाव विशेषाधिकाः, यतो मानसे सरसि बहवो ज्योतिष्काः क्रीमायितव्यम् । तेन्योऽपि तस्यामेष षष्टपृथिव्यां दकिणस्यां दिशि खानमिति क्रीममव्यापृताः नित्यमासते। मानससरसि च ये म. मारका असंख्येयगुणाःयुक्तिरत्र प्रागेवोक्ता। तेन्योऽपि पञ्चमपू त्स्यादयो जलचरास्ते आसन्नविमानदर्शनतःसमुत्पन्नजातिस्मरथिव्यां धूमप्रभाभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्नाविनोऽसंस्थेय जात् किशितं प्रतिपद्याऽनशनादि च कृत्वा कृतनिदानास्तत्रोगुणाः, तेत्योऽपि तम्यामेव पञ्चमपृथिव्यां दाक्षिणात्या भसं. स्पचन्ते । ततो जघन्यौत्तराहा दाकिणारयेभ्यो विशेषाधिकाः। क्येयगुणाः। एवं सर्वास्खपि क्रमेण वाच्यम् । वैमानिकानामरूपवहृत्वमाह- . .. पश्चेन्द्रियतिरश्चामल्प बहुत्वमाह दिसाणुवाएणं सम्बत्योवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरच्छिमदिसाणुवाएणं सव्वत्योवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया प पञ्चलिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं विसेसाबच्चिमेणं, पुरछिमेणं क्सिसाहिया, दाहिणेणं विसेसा हिया । दिसाणुवाएणं सव्वत्योवा देवा ईसाणे कप्पे पुरदिया, उत्तरेणं बिसेसाहिया ।, इदं च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियसूत्रमप्कायसूत्रवत् । चिमपच्चच्चिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, दाहिणणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सव्वत्योबा देवा सणकुमारे मनुष्याणामल्पबदुत्वमाह कप्पे पुरच्छिमपच्चच्चिमेणं,उत्तरेणं असंखेजगुणा,दाहिदिसाणुवाएणं सवत्थोवा मणुस्सा दाहिउत्तरेणं,पु गणं विसेसाहिया । दिसाणुवाएणं सव्वत्थोषा देवा माहिदे रच्चिमेणं संखेजगुणा, पञ्चच्छिमेणं विसेसाहिया। कप्पे पुरछिमेणं पच्चच्चिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगुणा, सर्वस्तोका मनुष्या दक्किणस्यामुत्तरस्यांच, पक्षानां भरतकेत्राणां पञ्चानामरावतकंत्राणामत्यस्पत्वात् । तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि दाहिणणं विसेसाहिया । दिसाणुवारणं सव्वत्थोवा बंजसंख्येयगुणाः, केत्रस्य संख्येयगुणत्वात्। तेभ्योऽपि पश्चिमायां लोए कप्पे देवा पुरच्चिमपच्चच्छिमउत्सरेणं, दाहिणणं भदिशि विशेषाधिकाः, स्वभावत पपाधोलौकिक प्रामेषु मनुष्य-| संखेजगुणा । दिसाणुवाएणं संतए कप्पे देवा पुरच्छिमपबाहुल्यभावात्। चच्छिमउत्तरेणं,दाहिणणं असंखेज्जगुणा। दिसाणुवाएणं भवनवासिनामल्पबहुत्वमाह सम्वत्थोवा देवा महासक्के कप्पे पुरच्छिमपच्चच्छिमउत्तरेणं, दिसाणुवारणं सब्बत्थोवा जवणवासी देवा पुरच्छिम दाहिणेणं पसंखेज्जगुणा । दिसाणुवाएणं सम्वत्योवा पञ्चच्छिमेणं, उत्तरेणं असंखेजगणा, दाहिणेणं असंखे देवा सहस्सारे कप्पे पुरच्छिमपञ्चच्छिमउत्तरेणं, दाहिण ज्जगुणा ॥ असंखेजगुणा । तेण परं बहुसमोववनगा समणाउसो । सर्वस्तोका नवनवासिनो देवाः, पूर्वस्या पश्चिमायां च दिशि | तथा सौधर्मे कल्पे सर्वस्तोकाः पूर्वस्या पश्चिमायां च विशि नत्र भवनानामल्पत्वात् । तेभ्य उत्तरदिग्भाविनोऽसंख्येयगणा वैमानिका देवाः, यतो यान्यापलिकाप्रविष्टानि विमानानि तानि स्वस्थानतया तत्रभवनानां बाहुल्यात् ।तेत्योऽपि दक्विणदिग्भा-1 चतसष्यपि दिचु तुल्यानि, यानि पुनः पुष्पावकीर्णानि तानि विनोऽसंख्येयगुणास्तत्र भवनानामतीव बाहुल्यात् । तथाहि- प्रभूतानि असंख्येययोजनविस्तृतानि, तानि च दक्विणस्यामुत्तनिकाये २ चत्वारि चत्वारि जवनशनसाझाएयतिरिष्यन्ते, कृ. रस्यां दिशि, नान्यत्र, ततः सर्वस्तोकाः पूर्वस्यां पश्चिमायां च ष्णपालिकाश्च बहवस्तत्रोत्पद्यन्ते, ततो जयनन्यसंस्येयगुणा.। | दिशि। तेज्य उत्तरस्यां दिशि असंख्येयगुणाः,पुष्पावकीर्णषि Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४५ ) अभिधानराजेन्द्रः । पात्रय (ग) ज्योद मागमां बाल्यादयेोजनविस्तृताचाच किणस्यां दिशि विशेषाधिकाः, कृष्णपाक्षिकाणां प्राचुर्येण तत्र गमनात्। पथमं शान्द्रामीयानि महालोककल्ये सर्वस्तोका पूर्वोतर पश्चिमदिरावि मो देवाः पनोदयः कृष्णयोनयो दक्षिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते शुपाक्षिकाः पुनः पूर्वोत्तरपश्चिमा 1 पाकिाध स्तोका इति पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भाविनः सर्वतोच तेभ्यो दक्षिणस्यां दिशि अगुवा कृष्णाशिकाणां बहूनां तत्रोत्पादात् । एवं लान्तकशुक्रसहस्रारसूत्रा दिवानिभाननादिषु पुनर्मनुष्या पोत्पद्यन्ते तेन प्रतिकल्पं प्रतिद्वैधेयकं प्रत्यनुखरविमानं न दि प्रायो बहुसमा बेदिकन्याः । तथा चाऽऽद-" तेण परं बहुमोचा सण-सो" इति ॥ इदानीं सिकानामपत्यमाह दिसाणुवारणं सव्वत्योवा सिन्या दाहिणउत्तरेणं, पुरछिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चच्छिमेव विममाहिया || सर्वस्तोकाः सिद्धाः दक्षिणस्यामुत्तरस्यां स दिशि । कथमिति चेत् , उच्यने- मनुष्य एष सिद्धान्तान्ये मनुष्या अपि सन्तो येण्याकारादेखि चरमसमये अपवाद्वास्तेव्याकाशप्रदेशेपूर्वमपि गच्छन्ति तेष्वेव बोपतिष्ठन्ते न मनागपि गति सिद्धान्त दक्षिण दिश पञ्चसु भरतेयुचरस्यां दिशि पञ्चखैरावतेषु मनुष्या श्रल्पाः, क्षेत्रस्यात् । सुषमसुषमारी व सिद्धेरभावादिति । तरसिद्धाः सर्वस्तोका, तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि संख्या पूर्वमिदेदानां प्रत्तैरायत क्षेत्रेभ्यः सस्यगुणतया तद्गतमनुक्याणामपि संख्येयगुणत्वात, तेषां च सर्वकालं सिद्धिभावात् । विशेषाधिकार प्रामेषु मनुध्यास्यात् । प्रज्ञा ०३ पद । प्रत्यदेवादीनाथ पास येते! विपदव्यदेवाणं नरदेवाएं० जान जाव दाण व करे करेहिं तो ० जा व विसेसा दिया वा । । गोयमा ! सम्बत्वोया परदेवा, देवादिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेनगुणा, विपदव्यदेवा असंखेज्नगुणा, भानदेवा असंखेज्जगुणा ॥ भरतैरयतेषु प्रत्येकं द्वादशानामेव तेषामुत्पतेर्विजयेषु वासु देवसम्भवाद, सर्वेष्येकदा अनुरुप चेरिति । ( देवाहिदेवा संखेजगुण सि) भरतादिषु प्रत्येकं तेषां चक्रवर्तिभ्यो द्विगुणतयोत्पतेविजयेषु च वासुदेवोपेतेभ्यप्युत्पतेरिति (धम्म चि) साधूनामेकदाऽपि कोटिसहस्रपृथत्यसङ्गादिति भ वियदम्यदेवा गुणति ) देशाविरतानां देवगतिमा मिनामसंक्यातल्या भावदेषा असंगुणति ) स्वरूपे देवतेचामतित्यादिति । अथ जावदेव विशेषाणां भवनपत्यादीनामला बहुत्प्ररूपणायाद सि ते जावदेवा जवणवासीयां वाणमंतराणं जोइसियाणं रेमाधिपाएं सोहम्यगाणं, नाव अच्चुगा गेवेज्जगाणं अणुत्तरोषत्राइयाण य कयरे कयरेहिंतो० जाई विसाय वा गोमा ! सत्योना रोपवाइया जा १६२ अप्पाचge (ग) देवा, उवरिमवेज्जा भावदेवा मंग्वेज्जगुणा, मज्जिमचेजामखेज्जगुरणा, हेट्टिममेवेज्जा संखेज्जगुणा, बच्चुयकप्पे देवा गुणा, जाभावदेव एवं जा जीवाभिगमे निविहे देवपुरिसप्पाबहु० जाव जो सिया जावदेवा गुणा ॥ (जड़ा जीवाभिगमे निविहे इत्यादि) इह च "तिविहे सि त्रिविधीषाधिकार यर्थः । देवपुरुषाणामप वाच्यम् । भ० १२ श० ६३० । (तश्च २८ अधिकारे वेदद्वारे वयते) (निगोदविषयं णिगोद' शब्दे दर्शयिष्यते ) । कायादि परिचार कारणा मल्पबहुत्वं ' परिवारणा ' शब्दे निरूपयिष्यते ) (10) [परीतद्वारम् ] पीतापतिनो परीतानामल्पबहुत्वम एएसि णं जंते ! जीवाणं परित्ताणं अपरिताएं नोपरित्ताणं नोपरित्ताए य कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा० ४ १। गोपमा सम्वत्योवा जीवा परिता नोपरिता मोअपरिक्षा प्रणतगुणा, अपरिता अतगुणा । " इह परीता द्विविधाः - भवपरीताः, काय परीता । तत्र भवपापा परावर्तमानसाः काय रिता: प्रत्येकशरीरिण, नवेऽपि परीनाः सर्वलोका पाक्षिकाणां प्रत्येकशरीरिणां च पापान कत्वात् । ततो नोपरीता नाभपरीता अनन्तगुणाः, उभयप्रतिसिपिता गुणाः कृष्णपाकिकाणां साधारण वनस्पतीनां वा सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । गवं परीतद्वारम् । (१९) [ पर्याप्तद्वारम् ] पतापर्थ्यासनोपर्यातानाम ल्पबहुत्वम् एएसि णं जंते जीवाणं पत्ताणं अपजत्ताणं नोपज्जसा नो अपजतान व कपरे फपरेरिंतो अष्ण प० । गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा नोपज्जत्तगा नोअपजसगा, अपज्जतगा अंतगुणा, पज्जतगा संखेज्जगुणा । सर्वस्तोका नोपासका गोपर्यातकाः उभयप्रतिषेधयो हि सिकाः, ते चापर्याप्तकादिभ्यः सर्वस्तोका इति । तेभ्योपर्याप्तका अनन्तगुणाः, साधारण वनस्पतिकायिकानां सिद्धेज्योऽनन्तगुणानां सर्वकालमपर्याप्तत्वेन सभ्यमानत्वात् । तेभ्यः पर्याप्ताः संस्येयगुणाः, श्ड सर्वबढ्यो जीधाः सूत्रमाः सूक्ष्माश्च सर्वकालमपर्याप्तेभ्यः पर्याप्ताः संख्येयगुणाः, इति संवययगुणा ठताः। गतं पर्याप्तद्वारम | प्रका० ३ पद । (२०) [पुलद्वारम् ] पुलानां केानुपातादिमिरयपवदुरमाह- स्साए सम्बत्यांना पोग्गला ते के. नायतिरियलोए शंतगुणा, होलोयतिरियलोए विसेसाहिया, तिरियो असंखे जगुणा. झोप अखिलमुषा, अहो लाए विमेसाहिया || इदमल्पबहुत्वं पुद्गलानां ज्यार्थत्वमङ्गीकृत्य व्याख्येयम. तथा सम्प्रदायात् । तत्र के श्रानुपातेन क्षेत्रानुसारेण चिन्त्यमानाः पुइताः त्रैलोक्ये प्रोक्यस्पर्शिनः रांका सर्वस्तोकान त्रैलोक्यव्यापी नीति पुरुतद्रव्याणांति भावः । यस्माम्महाम्क"धा पत्र त्रैलोक्यव्यापिनस्ते चाल्पा इति । तेभ्य रुद्ध लोकति Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४६ ) अनिधानराजेन्द्रः । अप्पाबहुय (ग) ग्लोके अनन्तगुणाः यतस्तिर्यग्ज्ञोकस्य यत्सवापरितनकादेशि तोकस्य सर्वास्तनप्रादेशिकं प्रत मेते अपि प्रतरे ऊर्ध्व लोकतिर्यग्लोक उच्यते । ते वाऽनन्ताः संख्येयप्रदोशिकाः, अनन्ता असंख्येयप्रदेशिकाः, अनन्ता अनन्तप्रदेशिका, स्कन्धाः स्पृशन्तीति द्रयार्थततेभ्योऽतिके प्रागुक्तप्रकारेण प्रतरूपे विशेषाधि काः, क्षेत्रस्य आयामविष्कम्भाज्यां मन. ग् विशेषाधिकत्वात् । तेभ्यस्ति असंख्येयगुणाः स्यात् । तेभ्यो येवगुणाः यतस्तिर्वमनोकाम क्षेत्रमसंख्येयगुणमिति । तेभ्योऽघोलोके विशेषाधिकाः, ऊर्ध्वलोकाधोलोकस्य विशेषाधिकत्वात् देशोनसप्तर मासमासलरप्रमाणस्वचोलोकः । संप्रतिदन्नुपानाययत्वमा दिसावाणं सव्त्रत्थेात्रा पोग्गन्ना उढदिसाए, अहोदिसाए विसेसाहिया, उत्तरपुर छिमेणं दाहिणपच्चच्छिण य दोत्रि तुला असंखेज्जगुणा, दाहिण पुरच्छ्रिमेणं उत्तरपञ्चच्छिमेण य दोषि तुल्ला विसेसाहिया, पुरच्छिमेणं - संजगुणा, पचचियेणं विसेसाड़िया, दाहिणणं दिस साहिया, उत्तरेणं विसेसा दिया । दिगनुपातेन दिगनुसारेण चिन्त्यमानाः पुन्नाः सर्वस्तोका ऊर्ध्वदिशि इह रत्नप्रभासमजू मितल मेरुमध्ये श्रष्टप्रादेशिको कवस्तस्माद्विनिर्गतादि पावकाः। ततस्तत्र सर्वस्तोकाः पुरुत्राः, तेज्योऽधोदिशि विशेषाधिकाः, अधोदिवि प्रभवति । चतुःप्रदेश या स्ततस्तस्याविशेषाधिकत्वात् तत्र पुला विशेषाधिकार, तेभ्य उत्तरपूर्वस्यां दक्षिणपश्चिमायां च प्रत्येकमसंख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः सन्तस्ते द्वे अपि दिशौ रुचकाद्विनिर्गते मुक्तावलि संस्थिते तिर्यग्लोकान्तमधोलोकान्तमूर्ध्वलोकान्त पयंसिते, ते येणारा पुला असंख्येयगुणाः क्षेत्रं तु स्वस्थाने सममिति । पुरुला अपि स्वस्थाने तुल्याः, तेभ्योऽपि दक्षिणपूर्वस्यामुत्तरपश्चिमायां च प्रत्यकें विशेषाधि काः, स्वस्थाने तु परस्परं तुख्याः। कथं विशेषाधिका इति चेत् ?, उच्यते - इह सौमनसगन्धमादनेषु सप्त सप्त कूटानि, विद्युत्प्रभमा तो नच तेषु कृरेषु धूमिकावश्याया दिसूक्ष्मपुत्र्याः प्रभूताः संभवन्ति ततो विशेषाधिकाः । स्वस्थाने तु क्षेत्रस्य पवैतादेव समानत्वात्या तेज्यः पूर्वस्यां दिशि देवगुणाः क्षेत्रस्यासंस्थेयगुणत्वात् तेभ्यः पश्चिमायां विशेषाधिका अपोलोकियामेषु पिरभाषतो बहूनां पुरुलानामस्थाननावात्। तेभ्यो दक्षिणस्यां विशेषाधिकार, बहुभा वात् । तेभ्य उत्तरस्यां विशेषाधिकाः, यत उत्तरस्यामायामविष्कम्नाभ्यां संख्ये य योजन कोटी कोटिप्रमाणं मानसं सरः, तत्र ये जलचराः, पनकरीचालाइ सत्वास्ते प्रतियह इति तेषां ये तेजसकार्मणपुलास्ने अधिकाः प्राप्यन्ते इति पूर्वोक्तेभ्यो विशेषाधिकाः। तदेवं पुल विषयमल्पबहुत्वमुक्तम् ॥ · इदानीं सामान्यतो द्रव्यविषयं क्षेत्रानुपातेनाऽऽह वाणं मन्यत्योबाई दवाई नेचुके, उहलो पतिरि लोप प्रांतगुणाई, मोक्षोपतिरियलोष विसे साईयाई | अप्पाबहुय (ग) नकुलाए असखज्ज०, महोलोए अनंतगुणाई, तिरपलोए संखिज्जगुणाई | क्षेत्रानुपातेन चिन्त्यमानानि अव्याणि सर्वस्तोकानि त्रैलोक्यसंपनि यो धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाय व्याणि पुत्रलास्तिकायस्य महास्कन्धा जीवास्तिकायस्य मारणातिसमुद्धतेनातीसमवद्दता जवालो इति सर्वस्तोकानि तेज्योतिर्यग्लो के प्रागुक्तस्वरूपरद्वयात्मके अनन्तगुणानि, अनन्तैः पुन्नद्रव्ये रनन्तैर्जीवद्रव्यैः तरूप संस्पर्शनाव तेभ्योऽधोलोकनिग्लो विशेषाधिकानि ऊ लोकतिर्यग्लोकादधोलोकतियैग्लोकस्य मना विशेषाधिका | तेज्य ऊलोके अवगुणानि क्षेत्रस्यासंरूपेवगुणस्था तू । तेज्योऽधोलोके अनन्तगुखानि । कथमिति चेत् ?, उच्यते-raiationप्रामेषु कालोऽस्ति, तस्य च कालस्य ततत्परमाणु सं स्पेया संस्यानन्तप्रादेशिकरूज्य क्षेत्रका सजायपर्यायसंबन्धवशात्प्रतिपरत्वादिज्यमनन्तता ततो भवत्यधोमके उनन्तगुणानि, तेज्यस्तिर्यलोके सक्येयगुणानि, अपोलोकिकामप्रमाणानां खएमानां मनुष्यलोके कालरूव्याधारभूते संस्थेयानामवाप्यमानत्वात् । साम्प्रतं दिगनुपातेन सामान्यतो इव्याणामल्पबहुत्वमाददिसाणुवारणं सव्वत्थोवाई दव्वाई अहेदिसाए, ঃदिसाए प्रांतगुणाई, उत्तरपुर छिमेयं दाहिणपथच्छमे दोषिलाई असंखेन्मगुणाई, दाहिणपुरच्चिमेणं उत्तरपञ्चच्छिमेण य दोवि तुझाई विसेसाहियाई, पुरच्चिमेणं असंज्जगुणाई, पचच्छिमेां विसेसादियाई, दाहिणेणं विसेसाहियाई, उत्तरेणं विससाहियाई । दिगनुपातेन दिगनुसार या सामान्यतो इय्याणि सर्वस्तोकानि अधोदिशि प्राख्यावर्जितस्वरूपायाम। तेभ्य ऊर्ध्वदिश्यनन्तगुणानि । किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते-रह ऊर्ध्वलो. के मेरोः पयोजनात स्फटिकमयं कामं तत्र चन्द्रादित्यनानुप्रवेशाद् रूपाणां कृपादिका प्रतिभागोऽस्ति, कालस्य व प्रागुकमा प्रतिपरमाण्वादि द्रव्यमानस्यात्। तेभ्योऽनन्त सानि तेभ्य उत्तरपूर्वस्यामी शान्यां दक्षिणपश्चिमा ऐ इत्यर्थः । असंख्येयानि, क्षेत्रस्यासंख्येयगुणत्वात् । स्वस्थाने " याम्यपि परस्परं निि पूर्वस्यामाग्नेय्याम, उत्तरपश्चिमायां वायव्यकोणे इति भावः । विशेषाधिकानि विद्युत्य समापवताधिनां भूमिकावा याणियाणां बहूनां सम्प्रयात् । तेभ्यः पूर्वस्यां दिशि असंख्येयगुणानि, क्षेत्रस्यासंरूयेयगुणत्वात् । तभ्यः पधिमा विशेषाधिकानि अधोलोकिकप्रमेषु पिनावतो बहूनां पुत्रलरूव्याणामवस्थानात्। ततो दक्षिणस्यां दिशि विशेषाधिकानि बहुभवन पिरभावात्। तत उत्तरस्यां विशेषाचिकानि तत्र मानससरसि जीवषयाणां साधितानां तेजस कार्मणपुलस्कन्धरूयाणां च नूयसां भावात् । सम्प्रति परमाणु फलानां संख्येयप्रदेशानाम संख्येयप्रदेशानामनन्तप्रदेशानां परस्परमल्पबहुत्वमाद एसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखेापदेसियाणं असंलेन पदेसियाणं भणतपदे सियाण य संधाणं दव्य Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४७) अप्पाबहुय (ग) अभिधानगजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) याए पएसट्टाए दवट्ठपदमट्टयाए कयरे कयरेहिनो अप्पा खा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, दवटुपदेसट्टयाए मचबा०४:। गोयमा! सम्बत्योका अणंतपदेमिया खंधा दव- त्योवा एगसमयहिइया पुग्गला.दचपएसट्टयाए मवेजहयाए,परमाणुपोग्गला दबट्ठयाए आतगुणा, संखेजपदे- ममयढिश्या पोग्गला दव्वघ्याए मंग्विज्जगुणा, ने चेत्र सिया खंधा दबट्टयाए संखेज्जगुणा, अमंग्वेज्जपदेसिया पदेसट्टयाए मंग्विज्जगुणा, अमंखिज्जममयडिया पोखंधा दबट्ठयाए असंखेजगुणा, पदेसट्टयाए सम्बत्थो- ग्गमा दबट्टयाए असंखिजगणा, ते चेव पदेसट्टयाण वा अणंतपदेसिया खंधा, पदेसट्ठयाए परमाणुपागमा अ. असंखेज्जगुणा । एएसि एं जने ! एगगुणकामगाणं मंपंतगुणा, संखजपदेसिया खंधा पदेसच्याए संग्वेजगुणा, ग्विज्ञगुणकालगाणं अमंखेज्नगुणकामगाणं प्रातगुणअसंखेज्जपएसिया खंधा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, द कामगाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए पदेसट्टयाए दन्वट्ठपदेबट्टपदेसच्याए सन्नत्योवा अणंतपदेसिया खंधा, दब- सट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४१। गोयमा ! जहा दृयाए ते चेत्र, पदसट्टयाए अणंतगुणा, परमाणुपोग्गला | परमाणुपोग्गला तहा जाणियव्वा । एवं संखजगुणकालदबहुपदेसट्टयाए अणंतगुणा , संखिजपदेसिया खंधा याण वि । एवं सेसाण विवएणरमगंधा जाणियव्या, दबट्टयाए संखिज्जगुणा, ते चेत्र य पदेसट्टयाए सं फासाणं कक्खम्मनयगरुयलढ्याणं जहा एगपदेमोखिजगुणा, असंखिजपएसिया खंधा दवट्ठयाए असं गाढाणं जाणियं तहा जाणियन्वं, अवसेसा फामा 'जहा खिजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा ॥ वएणा भणिया तहा जाणियव्वा ।। हि क्षेत्राधिकारतः क्षेत्रस्य प्राधान्यात्परमाणुकाद्यनन्ताणुकाः व्याख्यानं पारसिम्म् । नवरमत्राल्पबहुत्वभावनायां सर्वत्र स्कन्धा अपि विवक्षितकप्रदेशावगादा प्राधाराधेययोरभेदोपतथास्वानाव्य कारणं वाच्यम। चारादेकद्रव्यत्वेन व्यवहियन्ते । ते इथंभूता एकप्रदेशावगाढाः संप्रत्येतेषामेव केत्रप्राधान्येनाल्पबहुत्वमाह पुना पुलकव्याणि सर्वस्तोकानि,नोकाकाशप्रदेशप्रमाणानी त्यर्थः। नहि स कश्चिदेवंभूत आकाशप्रदेशोऽस्ति,य एकप्रदेशापएसि णं ते ! एगपएसोगाढाणं संखेजपएसोगाढाणं | वगाहनपरिणामपरिणतानां परमाएवादीनामवकाशप्रदानपरिअसंखिज्जपएसोगादाण य पागलाणं दबट्ठयाए पदेसह- णामेन परिणतोन वर्तते इति । तेभ्यः संख्येयप्रदेशावगाढाः याए दबट्टपदेसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४१। गो- पुश्मा द्रव्यार्थतया संख्येयगुणाः । कथमिति चेत् ?, उच्यतेयमा! सम्बत्योवा एगपदेसोबगाढा पुग्गमा दयट्टयाए,सं इहापि क्षेत्रस्य प्राधान्याद्रणुकाद्यनन्तापुकस्कन्धा द्विप्रदे शावगाढा एकमव्यत्वन विवक्ष्यन्ते, तानि च तथाभूतानि पु:खेज्जपएसोवगाढा पुग्गला दबट्ठयाए संखिजगुणा, असं लद्रव्याणि पूर्वोक्तभ्यः संख्येयगुणानि । तथाहि-सर्वलोकप्रदेशाखिज्जपदेसोवगाढा पोग्गला दवट्ठयाए असंखिजगुणा; स्तत्त्वतोऽसंख्यया अपि असत्कल्पनया दश परिकल्प्यन्ते, तेच पदसेट्ठयाए सम्वत्थोवा एगपदेमोवगाहा पोग्गना,पदेसट्टयाए प्रत्येकचिन्ता दशैवेति दश एकप्रदेशावगाढानि पुमच्यासंखिजपदेसोगाढा पोग्गना,पदेट्ठसयाए संखेजगुणा,असं णि सम्धानि, तेम्वेव दशसु प्रदेशेवन्यग्रहणान्यमोक्षणद्वारेण बहवो द्विकसंयोगा लज्यन्ते, इति भवन्त्येकप्रदेशावगाज्यो द्विखेजपदसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, प्रदेशावगाढानि पुषव्याणि संख्येयगुणानि । एवं तेभ्योऽपि दबढपदेसट्टयाए सव्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला,दब त्रिप्रदेशावगाढानि । एवमुसरोत्तरं यावदुत्कृष्टसंख्येयप्रदेशाधहयपदेसट्टयाए संखेजपदेसोगाढा पोग्गला दबट्ठयाए। गाढानिांततः स्थितमेतत्-एकप्रदेशावगाढेन्यः संख्येयप्रदेशासंखेजगुणा, ते चेव पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, असं- वगाढपुमला द्रव्यार्थतया संख्येय गुणा इति । एवं तेभ्योऽसंखिज्जपएसोगाढा पोग्गला दबट्ठयाए असंखेजगुणा, ते ख्येयप्रदेशावगाढाः पुरुला द्रव्यार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, असंख्या तस्य असंख्यातभेदभिन्नत्वात् । प्रदेशार्थतासूत्रं द्रव्यार्थपर्यायाचेव पएसट्टयाए असंखिज्जगुणा । एएसि ण नंते ! थंतासूत्रं च सुगमत्वात स्वयं भावनीयम । कालभावसूत्राएपपि एगसमयद्वितीयाणं संखिजसमयहितीयाणं असंखि- सुगमत्वात्स्वयंत्रावयितव्यानि, नवरं "जहा परमाणुपोग्गला ज्जसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए पदेसट्ठ-1 तहाभाणियव्वा" इति । यथा प्राक् सामान्यतः पुग्ला उक्तायाए दवठ्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा० स्तथा एकगुणकासकादयोऽपि वक्तव्याः। ते चैवम्-" सम्ब स्थोवा अणंतपपसिया खंधा एगगुणकालगा परमाणुपोग्गला ४१। गोयमा ! सव्वत्योवा एगसमयट्टिईया पोग्गला दबध्याए एगगुणकामगा अणंतगुणा, संखेज्जपएसिया दबट्ठयाए, संखेज्जसमयहितीया पोग्गला दवट्ठयाए सं- बंधा एगगुणकामगा संरजगुणा, असंखेज्जपपसिया खंधा खेज्जगुणा, असंखिज्जसमयहिया पोग्गला दबट्ठयाए पगगुणकालगा असंखेज्जगुणा, पएसध्याए सम्वत्थोवा प्रणंतअसंखिज्जगुणा, पदेसट्टयाए सन्चत्योवा एगसमयष्टि पएसिया बंधा एगपरमाणुपोम्गलाएगगुणकालगा अणंतगुणा" इत्यादि । एवं संख्येयगुणकालकानामनन्तगुणकालकानाईया पोग्गला, पदेसट्टयाए संखजसमयडिईया पोग्गला, | मपि वाच्यम् । एवं शेषवर्णगन्धरसा अपि वक्तव्याः । कर्कपएसट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिंज्जसमयहिइया पोग्ग-1 शमृद्गुरुमघवः स्पर्शा यथा एकप्रदेशाचवगादा भणितास्तथा Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४०) अप्पाबदय (ग) अभिधानराजेन्डः। अप्पाबडेय (ग) वक्तव्याः । ते वैवम्-"सम्बत्योवा एगपएसोगाढा पगगुणक- एस णं नंते ! एगपएमोगादाणं दुपदेसोगादाणं पोग्गलार्ण क्वाफासा दबघ्याए संखेज्जपएसोगादा एगगुणकक्षमा पदेसट्टयाए कयरे कयरहिंतो० जाब विसेसाहिया वा । फासा दम्वट्ठयाए संखेज्जगुणा" इति । एवं संस्येय गुणकर्कशस्पर्श प्रसंस्येयगुणकर्कशस्पर्शावाच्याः । एवं मृगुरुल गोयमा ! एगपदेसोगावहिंतो पोग्गलहितो दुपदमोगादा घव भवशेषाश्चत्वारः शीतादयः स्पर्शाः, यथा पदिय उक्ता- पोग्गमा पदेसट्टयाए विसेसाहिया। एवं जाव णवपदेसागास्तथा वक्तव्याः । तत्र पागेऽप्युक्तानुसारण सुगमत्वात् स्वयं ढोहतो पोग्गलेहितो दसपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाभावनीयः। प्रज्ञा ३ पद । ए विससाहिया। दसपएमोगाढोहतो पाग्गोहिंतो संखेज्जएएसि णं ते! परमाणपोग्गलाणं उपदेसियाण य खं- पएसोगादा पोग्गला पदेसट्ठयाए बदया। संखेज्जपएसांगाधाण य दबट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा देहितो पोग्गोहिंतो प्रसंखेज्जपदेसोगाढा पोग्गला पएसतुद्धा वा विसेसाहिया वा । गोयमा! दुपदेसिएरातो खं- हयाए बहया। एएस णं ते ! एगसमयहिइयाणं दुसधेहिंतो परमाणु पोग्गला दबट्ठयाए बहुया। एएसिणं भंते ! मयहिईयाण य पोग्गलाणं दबट्टयाए जहा ओगाहदुपदेसियाणं तिपदेसियाण य खंधाणं दबट्ठयाए कयरे णा वतन्वया, एवं ठितीए वि। परास णं ते ! एगगुकपरेहिंतो बहुया०। गोयमा ! तिपदेसिएहिंतो खंडितो एकालयाणं दुगुणकामयाण य पोग्गलाणं दबट्ठयाए । दुपदोसिया खंधा दबट्टयाए वहया । एवं एएणं गमरणं जाव एएसिणं जहा परमाणपोग्गलादीणं तहेव बत्तव्बया णिदसपदेसिएहिंतो णवपदेसिया खंधा दबयाए बहुगा । रवसेसा, एवं सब्वेसि वएणगंधरसाणं । एएसि णं भंते ! एएसि ते दसपएमा पुच्छा। गोयमा ! दसपदोसिए- एगगुणकवकाणं दुगुणकक्खमाण य पोग्गलाणं दबहहिंतो खंधेहिंतो संखेज्जपएसियाखंधा दबट्ठयाए बहुया। याए कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा । गोयमा ! एपसि एं भंते ! संखेज्जा पुच्छ । गोयमा ! संग्वेज्जपए- एगगुणकक्ख महिंतो पोग्गलहितो दुगुणकवखमा पोग्गला सिरहिंतो कंधेहितो असंखज्जपदेसिया खंधा दबट्टयाए दबयाए बिसेसाहिया, एवं जाव वगुणकक्ख महितो बहुया। एएसिणं नंते ! असंखेज्जपदोसिया पुच्चीगोयमा! पोग्गलेहिंतो दसगुणकक्खमा पोग्गना दवट्टयाए विसेअसंखज्जपदेसिएहिनो खंधेहितो अणंतपदेसिया बंधा द- साहिया, दसगुण कक्खमेहितो पोग्गलहितो संखेजगुणबट्ठयाए बढया। एएसि णं भंते ! परमाणु पोग्गलाणं प-1 कक्खडा पोग्गला दबयाए बहुया । संखेज गुणकदेसियाण य स्खंधाणं पदेसट्टयाए कयरे कयरेहितोबहुया !! क्खमेहितो पोग्ग हिंतो असंखेजगुणकक्षमा पोगोषमा ! परमाणु पोग्गलेहिंतो दुपदेसिया बंधा पदेसट्टयाए म्गला दबट्टयाए बहुया । असंखेजगुणकक्खडहिंतो पो. बहुया । एवं एएणं गमएणं जाव एवपएसिएहिं तो बंधे- म्गोहितो अशंतगुणकक्खडा पोग्गला दबट्टयाए बहुया । हितो दसपएसिया खंधा पदेसट्टयाए बहुया। एवं सव्वत्थ | एवं पदेसट्टयाए सव्वत्थ पुच्छा भाणियबा,जहा कक्खमा। पुच्छियव्वं । दसपएसिएहिंतो खधेहितो संरक्ज्जपएसिया एवं मउयगुरुपनहुया वि सीयउसिणणिदलक्खा जहा खंधा पदेनट्टयाए बहुया, संखेज्नपरासिएहिंतो खंधेहितो। वएणा । एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गाणं संखेजपएप्रमखेज्जपएसिया खंधा. पदेसट्टयाए बहुया। एएमिणं भंते ! सियाणं असंखेजपएसियाणं अएंतपएसियाणं खंधाणंदअसंखेग्जाएसियाणं पुच्छा। गोयमा अणंतपएसिएहितो। बट्ठयाए पदेसट्टयाए दबदुपदेसध्याए कयरे कयरोहितो. खंधेहितो अमखेग्जपएमिया खंधा पएसट्टयाए बटुया। ए. जाब विसेसाहिया वा। गोयमा ! सम्बत्योवा भणंतपएसि एणं जंने एगपएमोगाढाणं दुपदेसोगादाण य पोग्ग- देसिया खंधा दबयाए, परमाणुपोग्गना दबट्टयाए लाण य दबट्टयाए कयरे कयरेहिंतोविसेसाहया वा। गो- अणंतगणा,संखेजपएसिया खंधा दबट्ठयाए संखेजगुणा, यमा दुपदेसोगादेहिनो पोग्गले हिंतो एगपदेसोगाढा पोग्ग-1 अर्सखेजपएसिया खंधा दबध्याए असंखेजगुणा, पदेला बयाए विसेमाहिया। एवं एएणं गमपणं तिपदेसो- सट्टयाए सम्वत्योवा अणंतपदेसिया खंधा, पदेसट्टयाए गादेहिनो पोग्गलेहिनो दुपदेसोगाढा पोग्गमा दबट्ठयाए परमाणुपोग्गला, अपदेसहपाए अणंतगुणा, संखेज पदेविमेमाहिया जाच दमपण्मागादोईतो पोग्गःहितो एव सिया खंधा पदेसध्याए संखेजगुणा , असंखेज्जपएसिया पदेसोगादा पोग्गला दबध्याए विसेमाहिया । पपसि खंधा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, दवढपएसट्टयाए स ने! दमपणमा पुच्चा गोयमा! दमपदेसोगादेहितो मत्योवा अणंतपदेसिया, दबध्याए ते चेव, पदेसट्ठयाए पोग्गले हिनोमंखेजपपमोगाढा पोग्गला दबयाए बहुया, भएतगुणा, परमाणुपोग्गला दबट्ठयाए अपएसट्टयाए संखेजपएसोगाढहिनो पोग्ग हिंनो असंम्वेज्जपएसोगाढा अपंतगुणा, संखेजपएसिया खंधा दबट्टयाए संखजगुपोग्गला दबट्टयाए बहुया। एवं पुच्चा सञ्चत्य नाणियया। णा, ते चेत्र पदेमट्टयाए संग्वेज्जगुणा, असंग्वेजपएसिया Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४५) अप्पाबहुय (ग) भन्निधानराजेन्सः । अप्पाबद्दय (ग) खंधा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए अ- | (प्रयोगादिपरिणतानामध्पबहत्वं परिणाम' शब्दे वक्ष्यते) संखेज्जगुणा । एएसिणं भंते ! एगपदेसोगाढाएं संखेज्जप-1 (आहारायाऽस्पृश्यमानानामनास्वाद्यमानानां च पुफलानां देमोगाढाणं असंखेजपदेसोगाढाणं पोग्गनाणं दवट्ठयाए। परस्परमलपबहन्यम्-'आहार'शम्दे द्वितीयभागे ५०.पृष्ठे प्रतिपादयिष्यते) (प्रत्याख्यानविषयमल्पवहत्वं पच्चक्खाण' पएसट्ठयाए दबट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरोहितो जाब विसे- 1 शब्दे बयते ) (प्रवेशनकमाश्रित्य · पवेसणग ' शय्दे साहिया वा? । गोयमा ! सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला निरूपयिष्यते ) दन्चट्ठयाए , संखज्जपएसोगाढा पोग्गला दवच्याए (२१) [बन्धद्वारम् ] आयुःकर्मबन्धकादीनामल्पबहुत्वम्संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला दबट्ठ एएसि एंजते ! जीवाणं आनस्स कम्मरस बंधगाणं याए असंखेज्जगुणा , पएसट्टयाए सम्बत्योचा एगपएसोगाढा पोग्गला, पएमट्टयाए संखेन्जपएसोगाढा पोग्ग अवंधगाणं अपज्जत्ताणं पज्जनाणं सुत्ताणं नागराणं सला, पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, असंखेजपएसोगाढा पो मोहयाणं असमोहयाणं सातावेदगाणं असातावेदगाणं ईग्गला पदेसट्टयाए असंखेजगुणा,दव्यनुपएसट्ठयाए सव्व दियनवनुत्ताएं णोइंदियनवनत्ताणं सागारोव उत्ताणं अ. स्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला, दवहपएमट्टयाए संखेज्ज णागारोव उत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा पएसोगाढा पोग्गला, दबट्टयाए संखेज्जगुणा, ते चेव पदे तुला वा विसेमाहिया वा?। गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सट्ठयाए संखेज्जगुणा। असंखेज्जपएसोगाढा पोग्गला द पाउस्स कम्मस्स बंधगा. अपज्जनया संखिज्जगुणा, सुत्ता बट्टयाए असंखेजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगु संखिजगुणा, समोठ्या संखिजगुणा, सातादेदगा संखिपा । एएसि एं नंते ! एगसमयहितीयाणं संखेजसमयष्टि जगुणा. इंदियउवनुत्ता संखिज्ज गुणा, अणागारोवउत्ता तीयाणं असंखेज्जसमयद्वितीयाण य पोग्गलाणं जहाओ संखिजगुणा, सागासेवन्त्ता संखिज्जगणा, नोइंदियनगाहणाए तहा ठितीए विनाणियन्वं अप्पाबहगं । एए वउत्ता विसेसाहिया, अमातावेदगा विसेसाहिया, अमसि णं ते ! एगगुणकालगाणं संखेज्जगुणकालगाएं। मोहिया विसेसाहिया, जागरा विसेसाहिया, पज्जत्तगा असंखेज्जगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाण य पोग्गला विसेसाहिया, आउस्म कम्मस्स प्रबंधगा विशेसाहिया । णं दबट्टयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपएसध्याए एएमि जहा | हायुःकर्मबन्धकाबन्धकानां पर्याप्तापर्याप्तानां सुप्तजाग्रता परमाणुपोग्गलाणं अप्पाबहुगं तहा एएसि पि अप्पा- समवहतासमवहतानांसातावेदकासातावेदकानाम,इन्जियोपबहगं । एवं सेसाण वि वएणगंधरसारणं । एएसिणं भं युक्तनोइन्द्रियोपयुक्तानां साकारोपयुक्नाऽनाकारोपयुक्तानां सते ! एगगुणकक्खमाणं संखेज्जगुणकक्खमाणं असंखेज्ज मुदायेनाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम्। तत्र प्रत्येक तावद्मः -येन समुगुणकक्खमाणं अणंतगुणकक्खमाण यपोग्गलाण य दव्य दाये सुखेन तदवगम्यते। तत्र सर्वम्तोका श्रायुपा बन्धकाः,अ बन्धकाः संख्येयगुणाः, यतोदनुभूयमानजवायुरपि बिनागावयाए पदसट्टयाए दवट्ठपदेसट्टयाए कयरे कयरेहितो० जाव शेषपारभावकमायर्जीवा वनन्ति त्रिभागत्रिभागाद्यवशेष विसेसाहिया वा । गोयमा ! सव्वत्योवा एगगुणकक्खमा वा, ततो द्वौ त्रिभागावबन्धकाल एकं त्रिभागो बन्धकाल पोग्गना दवट्ठयाए, संखज्जगुणकक्खडा पोग्गला दबट्ठ इति बन्धकेभ्योऽबन्धकाः संख्येयगुणाः । तथा सर्वस्तोका अ पर्याप्तकाः, पर्याप्तकाः संस्पेयगुणाः । एतश्च सूक्ष्म जीवानधियाए संखेजगुणा, असंखेजगुणकक्खमा पोग्गला दबष्टयाए असंखे जगुणा, अणंतगुणकक्खडा पोग्गला दबट्ठ कृत्य चेदितव्यम् । सूक्ष्मेषु हि बाह्यो व्याघातो न भवति,ततस्तद जावाद्वानां निष्पत्तिः, स्तोकानामेव चानिष्पत्तिः। तथा सर्वथाए अणंतगुणा, पदेसट्ठयाए एवं चेव । णवरं संखेजगु- स्तोकाः सुप्ताः, जागराः संस्येयगुणाः, एतदपि सूक्ष्मानेकेन्धिएकक्खडा पोग्गला पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा । सेसं यानधिकृत्य वेदितव्यम् , यस्मादपर्याप्ताः सुप्ता एवं लभ्यन्ते, तंचेव । दबट्टपदेसट्टयाए सम्वत्थोवा एगगुणकक्खमा पो- जागरा अपि। उक्तं मूलटीकायाम्-"जम्हा अपज्जत्ता सुत्ता ल. गन्ना, दव्यपदेसट्टयाए संखेज्जगुणकक्खमा पोग्गला द ब्जति के अपजसगा जेसिं संखिजा समया अतीता ते य थोवा, इयरे वि थोयगा चेव,सेसा जागरा पज्जत्तगा संखिजवट्ठयाए संखेजगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए संखेजगुणा, गुणा" शति। जागराः पर्याप्तास्तेन संख्येयगुणा इति । तथा स. असंखेजगुणकक्खमा दवट्ठयाए असंखेजगुणा, ते चेव मवहता सर्वस्तोकाः,यत इह समबहता मारणान्तिकसमुद्घापदसट्टयाए असंखज्जगुणा, अणंतगुणकक्खका दबध्याए ! 'तेन परिगृह्यन्ते,मारणान्तिकश्च समुद्घातो मरणकाले,न शेपअणंतगुणा, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जपुणा । एवं मउ-1 कालं, तत्राऽपि न सर्वेषामिति सर्वस्तोकाः। तेभ्योऽसमबहताः यगुरुयलहुया वि अप्पाबहुगं । सीयउसिणणिलुक्खा-1 संख्येयगुणाः, जीवनकालस्यातिबहुत्वात् । तथा सर्वस्तोकाः सातवेदकाः, यत इह बहवः साधारणशरीरा अल्पे प्रत्येकशएं जहा वरणाएं तहेव ।। रीरिणः, साधारणशरीराश्च बहवोऽसातवेदकाः, स्वल्पाः साटीका सुगमा प्रज्ञापनापान गतार्था चेति नेहोप-यस्यते । तवेदिनः, प्रत्येकशरीरिणस्तु नूयांसः सातवेदकाः, स्तोका ज०२५ श०४ उ०। असातयेदिनः, ततः स्तोकाः सातवेदकाः, तेच्योउसातवेदकाः १६३ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५० ) अनिधानराजेन्: । अप्पाबहुय (ग) संख्येयगण तथा सर्वस्तोकान्योपयुक्ताः इन्द्रि योपयोगो हि प्रत्युत्पन्न कालविषयः यतः तदुपयोगकालस्य स्तोकत्वात् पृच्छ्रासमये स्तोका भवाप्यन्ते । यदा तु तमेसार्थमिन्द्रियेण हा विचारयत्यथ संया पयुक्तः स व्यपदिश्यते । ततो नोइन्द्रियोपयोगस्यातीतानागतबालत्वात्संख्येयमुनोत तथा सर्वस्तोका अनाकारोपयुकाः, अनाकारोपयोगकालस्य युक्ताः संख्ये वगुणाः, अनाकारोपयोगकासारसाकारोपयोगस्य संध्येयलन्यात्। इदानीं समुदायगतं सूत्रबदुत्वं माध्यते सा जीवाः प्रायुष्क बन्धकाः, आयुर्वन्धकालस्य प्रतिनियतत्वात् । तेज्योऽपर्यामाः संख्यगुणाः पस्मादपता अनुन्यमानभव त्रिभागाद्यव शेषायुषः पारभाविकमायुर्वन्नन्ति ततो त्रिभागावबन्ध कालौ, एकोऽबन्धकाल इति बन्धकालादबन्धकाल : संख्येयगुणः तेन संगदेवगुणा वाऽपर्याप्त आयुर्वन्यः ज्यो पर्याप्तेभ्यः सुप्ताः संख्येयगुणाः यस्मादपर्याप्तेषु च पर्याप्तेषु न सुमा लभ्यन्ते । पर्याप्ताश्चापर्याप्तेभ्यः संख्ये यगुणाः, इत्यपर्याप्तेभ्यः सुप्ताः संख्येयगुणाः, तेभ्यः समवद्धताः संख्ये - यगुणाः, बहूनां पर्याप्तेष्वपर्याप्तेषु च मारणान्तिक समुद्रातेन समवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् । तेभ्यः सातावेदकाः संख्येवगुणा, भायुर्वन्ध कार्यात सुमेष्वपि सातावेदकानां लभ्यमानत्वात् तेभ्य इन्द्रियोपयुक्त संख्येयगुणा, मसा - मद्रयोपयोग अभ्यमानत्वात् योनाकारोपयोगोपयुक्ताः, इन्द्रियोपयागेषु नोइन्द्रियोपयोगेषु वा उनाकारोपयोगस्य लभ्यमानत्वात् तेभ्यः साकारोपयु संस्थेयगुणाः, इन्द्रियोपयोगेषु नो इन्द्रियोपयोगेषु साकारोपयोगकालस्य बहुत विशेषाधिका बोकारोपानामतिप्रज्ञेपा रोपयुकानामपि तत्र प्रकेपात् । श्रत्र विनेयजनानुग्रहार्थमसद्भा वस्थापनया निदर्शनमुच्यते दृह सामान्यतः किल साकारोपद्विनवत्यधिकं १२ किला-दिवसाका रोपयुक्ताः, नोशन्द्रय साकारोपयुक्ताश्च । तत्रेन्द्रिय साकारोपयुका किलातीवस्तोका इति विशतिसंख्याः कस्यन्ते शेष सन् १७२मारोपयुक्त न नाकारोपयुक्ताश्च द्विपञ्चाशत्कल्याः । ततः सामान्यतः साकारोपयुकेभ्य इन्द्रियसाका विकल्प पञ्चाशत्कल्पेषु अनाकारोपयुक्तेषु तेषु मध्ये प्रतिप्तेषु द्वे शते चनिःसारोपयो जोइन्द्रियोप का विशेषाधिकार ज्योऽसातवेदका विशेषाधिकारियो पयुकानामध्यापेका १० नेोऽसमवाविशेषा धिकाः, सातवेद कानामध्य समय तत्वभावात् । तेभ्यो जागरा वि शेवाधिकाः समवहतानामपि केषांचि जागरत्वात् १२/ तेभ्यः पयांना विशेषाधिकाः, सुमानामपि केषांचिन् पर्याप्तत्वात्। सुप्ता हि अभिन्न जागरास्तु पापवेति नियमः १३ सेन्यप्रायुःकमबन्धविशेष अपयशानामा कम १४ मे विनेजनानुग्रहाय स्थापना राशिभिरुपदश्यते-रह द्वे उ आयु:कर्मका अपमा सुवास सानारोपयुक्ताः क्रमेण व्यायते तस्यास्तयां तेषामेव अप्पाबहुय (ग) पदानामधस्ताद् यथासंख्येयमायुरबन्धका पर्याप्ता जागरा असमहता असावेका नन्द्रयोपयुक्ताः साकारोपयुक् ना चेयम- श्राद्यमिति तत्परिमाणं संख्यायामेकः स्थाप्यते । ततः दोषगुणगुणास्त षु स्थाप्यते । तद्यथा-द्वौ चत्वार अझै पोश द्वात्रिंशत् चतुः सर्वोऽपि जीवराशिरनन्तानन्त स्वरूपोऽप्यसत्कल्पनया पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः परिकरो रायुर्वन्धकादिगताः संख्या शोधयित्वा यत शेष युरबन्धकादीनां परिमाणे स्थापयितव्यम्। तद्यथा-आयुरबन्धकादिपदेशेषु तेष्यशदधिके द्वे शते शते अर धिके द्वे शते चत्वारिंशदधिके द्वे शते चतुर्विंशत्यधिके दिनवत्यधिकं शतम् । एवं च सति उपरितनपङ्किगतान्यनाकारोपयुक्त पर्यन्तानि पदानि संख्येयगुणानि, द्विगुणद्विगुणाधिकत्वात् ततः परं साकारोपयुपदमपि संध्येयगुणम, त्रिगुणस्वात् शेषाद्रयुतानि प्रतिलोमं विशेषाधिकानि, द्विगुणत्वस्यापि क्वचिदभावात् । प्रका० ३ पद । ( प्रकृतिबन्धादीनाम ) सम्मति प्रागुकचतुर्निधबन्धे योगस्यानानि कारणं, प्रकृतयः प्रदेशाश्च तत्कार्य वर्तन्ते । तथा स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि का रणं, स्थितिविशेषास्तु कार्यम अनुभागवन्धाध्यवसायस्थानानिकारणम, अनुनागस्थांनानि तु तत्कार्ये वर्तन्त इति कृत्वा सप्तानामप्येषां पदार्थानां परस्परमपबहुत्वमनिचित्सुराद्दसेटिअसं विज्से, जोगणाणि पयमिनिभेया । विषयवसाया- ऽणुनागठाणा असंखगुणा ||८| योगो वीर्यस्य स्थानानि वर्षाविभागान्तरूपाणि कियन्ति पुनस्तानि भवति इत्याह-डि रसंस्थेयांशः श्रेण्यसंख्येयांशः । एतदुक्तं भवति-श्रेणेर्ययमाणस्वरूपाया असंख्येयभागे यावन्त आकाशप्रदेशा भवन्ति, ताबन्ति योगस्थानानि सर्वस्तोकनीति शेषः तत्र वचनानि योगस्थानानि भवति तथोच्यते ह कि निगस्यापि सर्वजधन्ययर्थब्धियुक्तस्य प्रदेश के चिया केचितु बहुवहुतरबहुतमचयात सर्वजघन्ययुक्तव यस्यापि प्रदेशस्य संधि केहेदेन हिमानमसंक्वेयलोकाकाशप्रदेशमा भागाद प्रयच्छति तस्य ततेोऽयेयगुणान् भागान् प्रयच्छति । उक्तं च "पचाररत असंखलोगान जतिपयसा । ततिथवीरियभागा, जीवपएसम्म पक्केके ॥ १ ॥ सम्वचिरिए जीवसम्मतिय संखा । ततोगुण बहुवरि जियपसम्मि " ॥ २ ॥ मागा अविनागपरिष्द इति वानर्थान्तरम् । ततः सर्पस्तोका विभागपरिच्छेदका लतानां लोकासंख्येय भागवर्त्यसंस्पेशराशिसंश्यानां जीवदेशानां समानवीयपरि या वर्गणा । तत पकेन यागपरिच्छेदेनाधिकामात्र प्रदेशानां द्वितीया वर्गणा। एवमेकांप Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पा बहु (ग) रमानानां जीवप्रदेशानां समानजातीयरूपा घनीकृतलोकाकाशश्रेणेरसंस्थेपभागप्रदेश राशियमाणा वर्गणा बाच्याः । १५ १५ १४ १३ १३ १२ ૨ ११ एताश्चैतावत्यो ऽप्यसत्कल्पनया पट् स्थाप्यन्ते तत्र जघन्यवर्गणायां जीप्रदेशा असंपेपर्यनागान्विताः । अथ सत्कल्पन या त्रयस्त्रयः स्थाप्यन्ते, एसाचैतावत्यः समुदिता एकं कमियते रुपये इति कः शब्दार्थः मुच्यते- एकैकोस रवीर्य भागवृद्ध्या परस्परं स्पर्द्धन्ते वर्गणा यत्र तत् । तत ऊर्ध्वमेफेन इथादिभिवी वीर्यपरिराधिका जीवदेशा न प्राप्यन्ते कि सर्दि १, प्रथमस्प कचरमवर्गला जोवप्रदेशेषु पावन्तो वीर्यपरिच्छेदास्तेभ्योऽ कलाकारेव वीर्यपरिच्छेदेरधिका जव देशा अतस्तेषामपि समानर्थभागानां समुदायो द्वितीयप का समुदायद्व कस्थाद्यवर्ग सीपवर्गणा। एचमेोचरकमेत अपि प्रदेश राशियाना वाध्याः । एतासामपि समुदाय द्वितीरुपयेकम् । इत कर्द्ध पुनरप्येकोतर वृद्धि सभ्यते । किं तर्हि - क्लोकाकाशप्रदेशतुन्यैरेव श्रीर्थभागरधिकास्तत्प्रदेशाः प्राप्यन्ते, अतस्तेनैव क्रमेण तृतीयस्पर्ककमारभ्यते । पुनस्तेनैव क्रमेण चतुर्थम, पुनः पञ्चममित्येवमेतान्यपि वीर्यस्पर्द्धकानि श्रे संस्थेय भागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणानि वाक्यानि । एषां चैतावसां स्पर्द्धकानां समुदाय एक योगस्थानकमुच्यते। एवं तावदेकस्य सूक्ष्मवियोदस्य भषासमये सर्वजघन्यस्य योगनकमभिहितं तदम्यस्य तु किश्चिदधिकवीर्यस्य जन्तोः, अनेनैव मे द्वितीय योगस्थानस्तु ते कमेण तृतीयम, तदन्यस्य तु तेनैव क्रमेण चतुर्थम् इत्यमुना कतान्यपि योगवानि मानाजीवानां काममेदवार संस्थेभावर्तनम प्रदेशराशिप्रमाणानि भवन्ति । ननु जीवा मामनन्तत्वात्तद्भशद्योगस्थानान्यनन्तानि कस्मान्न भवन्ति । नैतदेवमयत एकैकस्मिन् सह योगस्थानेऽस्थायी वर्तन्ते सा काम सरये योगस्थानेऽसंख्याता वर्तते तेषां तदेकमेव विवक्षितानि यथोकमानान्यव योगस्थानकानि भवन्ति । तथाऽपर्याप्ताः सर्वेऽप्येकस्मिन् यो गस्थान के एकसमयमवतिष्ठन्ते । ततः परमसंख्येयगुणवृद्वेषु प्रतिसमपम-योग्ययेोगस्थान के संक्रामन्ति पर्याप्तास्तु सर्वे स्वप्रायोग्य सर्वजघन्ययोगस्थान के जघन्यतः समयमुत्कृष्टतश्वसमावर्तन्ते ततः परमम्यद्योग स्वप्रायेोग्योत्कृष्टयोगस्थान के तु जघन्यतः समयम, उत्कृष्टतस्तु द्वौ समयौ, मध्यमेषु जघन्यतः समयम, उत्कृष्टतस्तु कचित् चतुरः, कचित्पञ्च, कचित् षट् कचित् सप्त, कचिद। समयान् यावद्वसंत इति तावानपि योगो मन प्रभृतिसहकारिकारण यशसंधिप्य सत्यमनोयोगः १, सत्यसृचासनयोगः ३ स्यामृषा मनोयोगः ४ | सत्यचाभ्योगः १, श्रसत्यवाण्योगः २, सत्यवृषायोगः ३ असल्यामुपायान्यो । महारिक काययोगः १ २४ १३ १२ ११ १० १० १५ १४ ( ६५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । ११ १० अप्पाबहुय ( ग ) श्रीहारिक मिकाययोगः २ वैकियकाययोगः ३ यमिअकाययोगः ४ ब्राहारककाययोगः ५ आहारकमिकाय योगाः ६, कार्मणकाययोगदनाचा प्रांत त्य प्रसंगेन । एतेभ्यश्धयोगानेयोध्येय असंख्यात गुणिताः । पपकिति) भेदशब्दस्य प्रत्येक संबधात्म कृतिभेदाल स्थितिभेदाच्च हानावरणादीनां भेदाः " - संखगुण " पदमनुभागबन्धस्थानानि यावत्सवंत्र यां जनीयम् । इयमत्र भावना इह तावदावश्यकादिष्ववधिज्ञा नदर्शनयोः क्षयोपशम विवाद संख्यातास्तावद्भेदा भयन्ति। ततश्च तदाचरणबन्धस्यापि तायप्रमाणनैदाि प्रयेण बकस्यैव विचित्रक योपशमोपपत्तेरिति । कथं पुनः क्षयो परामध्येऽप्यसंख्येयमेदत्वं प्रतीयते इति ततेतारतम्येनेति तथादि मियादारक गानामानं जघन्यमयधिद्विकस्य क्षेत्रं परिच्यतयोकम यदाह सफलतारश्वा विश्वानुग्रहकाम्ययाविहितानेक शास्त्रसंदभाँ भगवान् श्रीभद्रबादुस्वामी " जावश्य तिसमयाहा - रगस्त सुदुमस्स पणगर्जीवस्स । श्रोगाहणा जहन्ना, मोखितं तु ॥ १॥ तु बहुनेजस्काधिक जन्नतिमतामतिता मात्रं तस्य प्रमाणं भवति । यदांडुः श्रीमदाराध्यपादा:-" सच्चदुगणिया, निरंतरं जतियं मयि खित्वं सम्यदि सागं, पर मोदी वित्तनिद्दिट्टो " ॥ १ ॥ इति । ततो जघम्यात् शेवादारभ्य प्रदेश प्रवृत्रविषयत्वे स स्वसंख्येयभेदत्वमवधिद्विकस्य क्षेत्रतारतम्येन जवति । श्रत[स्तदाचारकस्याधिद्विकस्यापि नानाजीवानां क्षेत्रादिभेदेन बन्धवैचित्र्यादयवैचित्र्याचा संध्येयगुणभेदत्वम् । पवं नानाजीवानाश्रित्य मतिनावरणादीनां शेषाणामध्यावरणानां तथाऽन्यासामपि सर्वासां मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च - मादिभेदेन बन्धवैचित्र्यादुदयवैचित्र्याद्वाऽसंख्याता नेदाः संपद्यन्त इति । बक्तं च जम्हा मोहिबिसन्चो कोसे सन्यवयादिस जतियमित्तं फुलई, ततिय मित्तप्पएससमो ॥ १ ॥ तारतम्मभेषा, जेण बहू ति आवरणभिया । तेणासंखगुणतं पयकीणं जोगभो जाण " ॥ २ ॥ चतसृणामानुपूर्वीणां बन्धोदयवैचित्र्येणासंस्याता नेदाः, ते लोकस्यासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशितुल्याइति प्यूकारोका विशेषाः ननु जीवानामनन्तत्वात्तेषां बन्धोद यवैचित्र्येणानन्ता अपि प्रकृतिनेदाः कस्मान्न भवन्ति ? । नैतदे यशानां बन्धोदयानामेकपतित्वाद्विसाये तावन्त एव तद्भेदा भवन्ति । ते च ज्ञेदाः प्रकृतिभेदत्वात्मकतय इत्युच्यन्ते । ततश्च योगस्थानेज्योऽसंख्यातगुणाः प्रकृतयः, यत कस्मिन् योगस्थाने वर्तमानाजील जीवेन वा सर्वा अध्येताः प्रकृतयो वध्यन्त इति । तथा तेभ्यः प्रकृतिमेरेभ्यः सदा निरोप समाधिकविसमयाधिकान्नमुंड दिलक्षण असंख्यातगुणा भवन्ति । एकैकस्याः प्रकृतेरसंख्यातै स्थितिमा देकमेव हि प्रकृतिभेदं कचिज्जीवोऽन्येन स्थितिविशेषेण बध्नाति, स एव च तं कदाचिदन्येन दयितरेण कदाचित मेनेश्वमेकं प्रकृतिदमेकं समाश्रित्याख्याताः स्थिति Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५२ ) अभिधानराजेन्द्रः | अपचय (ग) 1 दा भवन्ति, किं पुनः सर्वप्रकृतीः सर्वजीवानाश्रित्य प्रकृतिभेदे ज्यः ? स्थितिनेन्दानामसंख्यातगुणत्वमित्यतः प्रकृतिभेदेभ्यः स्थितिभेदाः असंख्यातगुणा भवन्तीति ; तथा स्थितिभेदेभ्यः सकाशात् स्थितिबन्धाध्यवसायाः पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् स्थिति बन्त्राध्यवसाय स्थानान्यसंख्यातगुणानि । तत्र स्थानं स्थितिः ? कर्म्मणोऽवस्थानं, तस्या बन्धः स्थितिबन्धः । श्रध्यवसानान्यध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः। तिष्ठन्ति जीवा पष्विति स्थानानि, अध्यवसा या एव स्थानान्यध्यवसायस्थानानि; स्थितिबन्धस्य कारणभूताम्यध्यवसायस्यानानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि तानि स्थितिभेदेभ्योऽसंस्थेयगुणामि, यतः सर्वजधन्योऽपि स्थितिविशेपोऽसंख्य लोकाकाशप्रदेशप्रमाणैरध्यवसाय स्थानयंम्पते। 3तरे तु स्थितिविशेषास्तैरेव धोतरं विशेषयन्ते अतः स्थितिभेदेभ्यः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्यातगुणानि नियन्ति तथा अनुभागहासि) पदेकदेशे पदसमुदायोपचारादनुभागस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि तत्रानुपधान्योत्तरकालं भज्यते सेव्यतेऽनुभूयत इत्यनुनागो रसः, तस्य बन्धोऽनुज्ञागबन्धः, अभ्यवसानान्यध्यवसायाः, ते चेह कषायजनिता जीवपरिणामविशेषाः । तिठन्ति जीवा पच्वेति स्थानानि, अध्यवसाया एव स्थानान्यध्यवसाय स्थानानि, अनुभागबन्धस्य कारणनृतान्यभ्यवसायस्थानान्यनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि । स्थितिबन्धाध्यवसायस्थाभ्यान्यसंवेगुणानि भवन्ति, स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानं हो कैकमन्ततंप्रमाणमुक्त अनुगन्धास्थान त्येकैकं जघन्यतः सामायिकम्, उत्कृष्टतस्त्वष्टसामायिकान्तमेवो. क्तमत एकस्मिन्नपि नगरकल्पे स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थाने तदन्तर्गता नगरान्तर्गत नानाजान कालभेदेनैकजीवान् कालने देनैकजीवं वा समाश्रित्यासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानानि भवन्ति । तथादि - जघन्यस्थितिजनकानामपि स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानानां मध्ये पदार्थ सर्वतपुस्थिति बन्धाभ्यवसायस्थान पिदेशक्षेत्र फालभावजीयमे देना संख्येयलोकाकाशमदेशप्रमाणान्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थानानि प्राप्यन्ते द्विती यादिषु तु तान्यप्यधिकान्यधिकतराणि च प्राप्यन्ते इति सर्वेस्वपि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेषु भावनाः कार्याः । अतः स्थितिबन्याध्यवसायानेयोऽनुनागवन्याध्यवसायस्थानान्यसंये यगुणानीति । ततो कम्मपएमा, अतगुणिया तो रमच्छेया । ततस्तेभ्योऽनुभागबन्धाभ्यव सावस्यानेज्यः कर्मप्रदेशाः कर्मस्कन्धा अनन्तगुणिता भवन्ति । श्रयमत्र तात्पर्यार्थः- प्रत्येकममयानन्तः सिद्धान्त नागवर्तिभिः परमाणुभिर्विपद्यानग्यानगुणानंद स्कन्धान् मिथ्यात्वादिभिः प्रतिमयं जीवो गृहीत्युक्तम् | अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानानि तु सर्वाण्यव्यसंयेोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्येवाभिहितानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यः कर्मप्रदेशा अनन्तगुणः सिद्धा भवन्ति । तथा नरसप्रेस) ः कर्मप्रदेशेभ्यो रच्छेदाभ मन्तगुणा जयन्ति । नथाहि श्६ क्षीरनिम्बराद्यधिपरियाभागाध्यवसायस्थानविय कर्म्म रोजन्यते स चैकस्यापि परमाहोः संधी केवद्यमान अप्पाबहुय (ग) सर्वजानन्तगुणानविभाग परिच्छेदान् प्रयत दपि सूक्ष्मतयाऽन्यो भागो नोत्तिष्ठति सोऽविभागपरिच्छेद उच्यते । एवं भूताश्चानुभागस्यादिभागपरिच्छेद रास कर्मयेषु प्रतिपरमाणु सर्वजी वागगुणाः संप्राप्यन्ते यतः " गहण समयम्मि जीवो, उप्पारश् न गुणे सपञ्च्चयो । सम्म जियानंतगुणे, कम्मर से सम्ये" गुणशब्देनेहाविभागपरिच्छेदा उच्यन्ते । शेषं सुगमम् । क प्रदेशाः पुनः प्रतिस्कन्धं सर्वेऽपि सिकानामप्यनन्त भाग एव वर्तन्ते। अतः कर्मप्रदेशज्यो र अन्तःसिका म वन्तीति । कर्म० ५ कर्म० | (औदारिकादिशरीरबन्धकानामल्पबहुत्वं तु 'सरीर' शब्द एव दृश्यम् ) (२२) [ भवसि किद्वारम् ] भवसिद्धिकद्वारमाहएएसि णं जंते ! जीवाणं जवसिद्धियाणं अनवसिद्धिया नोजवसिद्धियाणं नो अभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा० ४१। गोपमा सपस्योषा अभवसिद्धिया नोजवसिद्धिया नोअनवसिद्धिया अतगुणा, भवसिद्धिया गुणा ॥ सर्वस्तोका अनयसिद्धिका समय जघन्ययुकान्तकपरि माणत्वात् । उक्तं चानुयोगद्वारेषु -" उक्कोस परिताणतरुवे पक्सिजनयजुसणं तवं होत्र अभयसिद्धिया वि तलिया चैव त्ति" तेभ्यो नोभवसिद्धिका नोश्रभवसिसिका श्रमन्तगुणाः, यत उभयप्रतिषेधवृत्तयः सिषास पान्योत्कृष्टान्त परिमाणा इत्यनन्तगुणाः । तेभ्यो भवसिद्धिका अनन्तगुणाः, यतो नव्य निगोदस्यैकस्यानन्तभागकल्पाः सिका नव्यजीवराशिनिगोदायासंध्येया लोके इति । गतं भवसिद्विारम प्रशाः ३ पद ॥ (२३) [ भापकद्वारम् ] आपका जापकारपत्यमादएएसि णं भंते ! जीवाणं जातगाणं अनासगाव य करे करेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसादिया था है। गोयमा सम्वत्योवा जीवा जागा, अगावगा अनंतगुणा ॥ सर्वस्तोका भाषा भाषाधिपाः इन्द्रियादीनामे भाषकत्वात् । श्रभाषका नापालब्धिहीना अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामनन्तत्वात् प्रा० ३ पद सत्यादिदेन भाषाणामल्पबहुत्वम् प्रज्ञा० ११ पद । (जापाद्रव्याणां खण्डादिभिर्भेदेर्भिद्यमानानामल्यवत्वं च 'नासा' शब्देवदयते) (२४) [ महादयद्वारम] सर्वजी चाल्पबहुत्वम्अह भंते! सजीवतुं महादेव वचसामि सब त्योवा गम्भवतियमस्सा, मस्सी सेगुणाओ वादरतेनकाइया पजत्तया संखिज्जगुणा, अणुत्तरोववाया देवा असेल, बरिमवेज्जगा देवा राममिवेज्जगा देवा संखेज्जगुणा, हे हिमवेज्ञगा, देवा गुणा, कप्पे देषा संखेनगुणा, भारो क Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५३ ) अनिधानराजेन्द्रः । पाहु ( ग ) पेदेवा संखेज्जगुणा, पाए कप्पे देवा संखेज्जगुणा, आलए कप्पे देवा संखेज्जगुणा; सत्तमा पुढवीए ऐरया संखेज्जगुणा, बडीए तमाए पुढवीए नरेsया अमं०, सहस्सारे कप्पे देवा असं खिज्जगुणा, महामुके कप्पे देवा असं खिज्जगुणा, पंचमाए धूमप्पभाए पुढबीए ऐरडया असं०, लंतए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा; चउत्थीए भाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, बंभन्झोए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, तच्चाए बालुयप्पनाए. पुढत्रीए ऐरइया संवज्जगुणा, माहिंदे देवा असंखेज्जगुणा, माणकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा; दीच्चाए मकरप्पभाए पुढवीए रझ्या असं०, संमुच्छ्रिममणस्सा असंखेज्ज०, ईसा कप्पे देवा अमं० ईसाणे कप्पे देवीओ संखे, मोहम्मे कप्पे देवा संखेज्ज०, सोहम्मे कप्पे देवीओ संखेज्जगुणाप्रो, जवणवासीदेवा असंखेज्जगुणा, जवणवासिणी ओ संखिज्जगुणा, इमी से रयणपनाए पुढबीए रया प्रसंखिज्जगुणा, खहचरपचिंदियतिरिक्खजोशिया पुरिसा संखेज्जगुणा, खहचरपंचिदियतिरिक्खजोणिणी - प्रो संखिज्जगुणाओ, यलय रपंचिदियतिरिक्खजोलिया पुरिसा असंखेज्जगुणा, थलचरपंचिदियतिरिक्खजो शिणी संखिज्जगुणा, जलयरपंचिदियतिरिक्खजोशिया पुरिसा संखेज्जगुणा, जलयरपंचिंदियतिरिक्ख जाणिीग्रो संविज्जगुणा, वाणमंतरा देवा संखेज्जगुणा, वाणमंतरी देव संखेज्ज०, जोइसिया देवा संखेज्जगुशा, जोइसी देवी संखिज्जगुणा, खहयरपंचिदियतिरिक्खजोगिया नपुंसया संखिज्ज०, थलयर पंचिदियतिरिक्खजोरिया नपुंसया संखेज्ज०, जनयर पंचिंदियतिरिक्खजोगिया नपुंसया संखे ०, चरिंदिया पज्जतया संखेज्ज०, चिदिया पज्जता विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्ता विसे०, पचिदिया अपज्जत्तया श्रसंखिजगुणा, चरिंदिया अपज्जचया विसेसाहिबा, तेदेिया अपज्जत्तया विसेसाहिया, बेईदिया अपज्जत्तया विससाहिया, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जतगा संखेज्जगुणा, बादर निगोदा पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बादरपुढविकाश्या अपज्जत्तगा असंखे बहु (ग) काइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया; सुहमआउकाइया अपज्जनया विमेसाहिया, सुमवाउकाइया अपजत्तगा विमे साहिया, मुहमनेकाइया पज्जत्तगा असंखिज्ज०, भुट्टमपुढविकाइया पज्जत्तगा विमेमादिया, मृदुमानकाइया पज्जतगा विसेसाहिया, मुहुमवानकाइया पज्जतगावमेसाहिया, हुमणिगादा अपज्जत्ता असंखे०, हुमणिगोदा पात्तया संखिज्जगुणा, अजवसिद्धिया अनंतगुथा. पडिवत्तियमम्पदिट्टी अांतगुणा, मिठा अंतगुणाः बादरवएस्सइकाइया पज्जनगा अनंतगुणा, बादरवजना विमाहिया, वादरवणस्सश्काश्या अपज्जत्तया अमंखिज्जगुणा, धादर अपज्जतया विसेसादिया, वादरा विसेसाहिया, सुदुमवणस्सइकाइया अपजत्तया असंखेज्जगुणा, मुटुमा आपज्जत्तया त्रिसेनाहिया, सुदुमवणस्सइकाइया पजत्तया खेज्ज०, सुहुमपज्जत्तया विसेमाडिया, मुहमा विसेसाहि या, जबसिद्धिया विसेमा हिया, निगोदा जीवा विमाहिया सजवा विसेसाहिया, एमिंटिया विसेसाहिया. तिरिक्खजोगिया विसेसाहिया, मिच्छदिट्टी विसेसाहिया. अविरया विसमाहिया, छनुमत्या विसेसाहिया. सजोगी विसेसाहिया, संसारत्या विमाहिया, सव्वजीवा विसेमाहिया || इदानीं महादण्डकं विचक्षुरुमापृच्छति (श्रह मंते ! इत्यादि ) अथ नदन्त ! सर्वजीवाल्यवत्वं सर्वजीवाल्पबहुत्ववक्तव्यतात्मकं महादयमकं वर्तयिष्यामि, रवयिष्यामीति तात्पर्यार्थः । श्रनेन एतत् ज्ञापयति-तीर्थकरानुज्ञामात्र सापेक पत्र भगवान् गणधरः सूत्ररचनां प्रति प्रवर्तते न पुनः श्रुताभ्यासपुरस्सरमिति । यद्वैतज्ज्ञापयति-कुशलेऽपि कर्मणि विनयेन गुरुमनापृच्छ्च न प्रवर्तितव्यं, किन्तु तदनुज्ञापुरस्सरम् अन्यथा विनेयत्वायोगात् । विनेयस्य हि लक्षणमिदम् - " गुरोर्निवेदितारमा यो गुरुभावानुवर्तकः । मुक्त्तयर्थं चेष्टते नित्यं स विनेयः प्रकीर्तितः ॥ १ ॥ गुरुरपि यः प्रच्छनीयः स एवं रूप:- "धर्मो धर्मकर्त्ता च सदा धर्मप्रवर्तकः । सत्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुव्यते " ॥ १ ॥ इति । महादएककं वर्तयिष्यामीत्युक्तम् । ततः प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति - ( सम्वत्थोवा गन्भवतियमसेत्यादि ) सर्वस्तोका गर्भव्युत्क्रान्तिका मनुष्याः, संख्येयको कोटिप्रमाणत्वात् १ । तेभ्यो मानुष्या मनुजस्त्रिय:- संख्येगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वात् । उक्तं च-"सत्तावीस गुणा पुण मयाणं तददिया चेव" इति २ तान्यो बादरतेजस्काथि काः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः कतिपयवर्गन्यूनावलिकाघनसम गुणा, बादरभाउकाइया पज्जत्तया असं खिज्जगुणा, बादरवाङकाइया पज्जत्तगा असंखिज्जगुणा, बादरते उकाड़या अपज्जतगा असंखज्जगुणा, पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइया अपज्जतगा असंखिज्जगुणा, बादर निगोदा अपज्जतया संखिज्जगुणा, बादरपुढविकाइया अपज्जत असंखेज्जगुणा, बादरआन कोइया पज्जत्तगा असंखिज्जगुणा, बादरवाचकाश्या अपज्जत्तया असखेज्जगुणा हुमाया अपज्जतगा असंखेज्जगुणा, सुडुमपुढवि-शिप्रमाणा उपरितनग्रैवेय कन्त्रिक देवाः । एवमुत्तरत्र ऽपि नावना प्रमाणत्वात् ३ | तेज्योऽनुत्तरोपपातिनो देवा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ४ । तेभ्य उपरितन प्रैवेधकत्रिक देवाः संख्येयगुणाः बृहत्तर क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागवर्तिनभः प्रदेशराशिप्रमागत्वात्। एतदपि कथमवलेयम्, इति चेत् । उच्यते विमानबाहुल्यात् । तथाहि अनुत्त रदेवानां पञ्च विमानानि विमानशतं तूपरितनग्रैवेयक त्रिकदेवानां प्रतिविमानं वाऽसंख्येया देवा यथा यथा चाधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते, ततोऽवसीयते-अनुत्तरोपपातिदेवेभ्यो बृहत्तर क्षेत्रपल्योपमासंख्येयनागवकाशप्रदेशरा १६४ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) , कार्या यावदाना तेज्योऽप्युपरितनमैवेत्रिकवेज्यो मध्यमपत्रिका संवेगुणाः ६ तेयोऽध्य धस्तनग्रैवेयकत्रिकदेवाः संख्येयगुणाः ७ । तेभ्यो ऽच्युतकपदेयाः संयतेभ्यो ऽप्यारचकदेवा संख्येयगुणाः । यद्यप्यारणाच्युतकल्पौ समश्रेणिकौ, समविमानसंख्याकौ च, तथाऽपि कृष्णपाक्षिकास्तथास्याभाग्यात् प्रादक्षिणस्यां दिशि समुपयन्तेोत्तरस्यां बढ़चश्च कृष्णपाकिकाः, स्तोकाः युक्तपाक्तिकाः, ततोऽच्युतकल्पदेवापेकया धारणकल्पे देवाः संख्येयगुणाः ए । तेभ्योऽपि प्राणतकल्ये देवाः सच्चेयगुणाः १० तेभ्यो ऽप्यागतकल्ये देवा सं कोयना, भावना धारयवत्कर्तव्या २१ लेभ्योऽपासअमरथियां नैरयिका अश्वगुणा घेण्यसंख्येयभागगतननः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १२ । तेभ्यः षष्ठपृथिव्यां नैरयिका संयगुणाः पतच प्रागेव दिगनुपालेन का स्पयत्यचिन्तायां जातिम] १३ तेभ्योऽपि सहस्रार कल्पदेया असंख्येयगुणाः पृथियनैकपरिणामहेतु श्रेण्यसंख्यायापेक्षया सहस्रारकल्पदे वपरिक्षाम तो बेवसंस्येयजाय स्यासंख्येयगुणत्वात् १४ । तेभ्यो महाशुके कल्पे देवा असंस्पेयगुणा, विमानवाहुयात् तथादि-पट्सहस्राणि विमा नानां सहस्रारका महाके, अन्यथ अनिनिदेवा बहुतरा स्वोस्तोकतराधोप रितनोपरितन विमानवासिनः, ततः सहस्रारदेवेभ्यो महाकुक्र कल्पे देवा असंख्येयगुणाः १५ । तेभ्योऽपि पञ्चमधूमप्रजाभिघाननरकथियां नैरयिका असख्यगुणा, बृहसमयसंख्येष भागवर्तिनः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १६ । तेभ्योऽपि सान्तके कल्ये देवा असंख्येयगुणा, प्रतिहत्तरप्रेयसंख्येयभांगगतनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् १७ । तेभ्योऽपि चतुयी पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नैरयिका असंख्येयगुणाः, युक्तिः प्रागुदेव भावनीया १८ तेयोऽपि ग्रह्मलोके कल्ये देवा संक्षगुणा युक्तिः प्रागुकैव १६ तेज्योऽपि तृतीयस्यां वालुकाप्रभार्या पृथियां नैरविका संपेषगुणाः २० ते यो मान्द्रो देवा गुणाः २१ न कुमार कल्ये देवा असं युक्तिः सर्पशाप प्रामु२२ ज्यो द्वितीयस्यां शर्कराप्रभायां पृथिव्यां नैरायेका असंख्येयगुथाः । पते च सप्तमधिपीनार का द्विपर्यप्रत्येक स्वस्थानेयमानाः सर्वेऽपि धोक संख्येय भागवर्त्तिनभःप्रदेशराशिप्रमाणा द्रष्टव्याः, केवलं श्रेण्यसं भागोऽयमेन तनयमसंख्येपगुणनया अल्पबहुत्वमनिधपमानं न विरुध्यति २३ ज्योतिरक पृथिवर संमिमनुभ्या असंपादि लमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संनियन गुणिते प्र धमावाद प्रदेशराशितापमान समान या वन्त्येकस्यामेव प्रादेशिक्यां श्रेणी भवन्ति तावत्प्रमाणाः २४ | तेभ्य ईशाने कल्पे देवा असंख्येयगुणाः, यतोऽङ्गनमात्रक्षेत्रप्र देशराशेः संबन्धिनि द्वितीये वर्गम्ले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशतितमानास्तु पकृतस्य लोकस्यै प्रादेशिक] श्रेणिषु यायम्तो नभःप्रदेशास्तवमा शा यतो देवदेवसमुदायस्तत किञ्चिनाविशत्तम भागक पानदेव ततो देवाः समूमिमनुष्येभ्योऽयगुणाः २५ नये देयोऽस्येव द्वात्रिंशद्गुण " ( ६५४ ) भिधानराजेन्द्रः । 9 अप्पावय (ग) स्वात् । " बत्तीस गुणा बत्तीसरूव श्रहियाश्रो होति देवीओ इति वचनात् २६ ताज्या सौधर्मकल्पे देवाः संख्ये रात्र विमानवाहुयात्तथादित तिसहस्राणि विमानानामशविंशतिशतसहस्राणि ईशाने कल्पे, अपि च-दकिणदिग्वर्ती सौधर्मकल्पः ईशानकल्पस्तूत्तरदिग्दि च दिशः कृष्णपाहिकाः समुत्पद्यन्तः शा मदेवेभ्यः सौधर्मदेवाः संख्येयगुणाः । नन्वियं युक्तिमहेन्द्रसनत्कुमारकल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहेन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकपदेचा असंख्येयमुना उधातु सौधर्मकल्ये सं ख्येयगणः। तदेव तत्कथम् ?, उच्यते वचनप्रामाण्यात् । न चात्र पाउचमः, यतोऽन्यत्राप्युक्तम् -" ईसाणे सव्वत्थ वि, बत्तीसगुणा उ होति देवी संबेज्जा सोहम्मे तो असंभव सी” ॥१॥ इति ॥ २७॥ तेभ्योऽपि तस्मिन्नेव सौधर्मकल्पे देव्यः संख्ये - यगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । "सव्वत्थ वि बत्ती सगुणा दौति देवीओ" इति वचनात् २० साज्य भवनवासिनः । कथम् ?, इति चेत् । इह अक्समात्र क्षेत्र प्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमे वर्गमूले तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिभवति तावत्प्रमाणायुर्धनं । तस्य लोकस्य एकप्रादेशिक श्रेण पायन्तो नमन्यदेशास्तापरमा भवनविदेवदेवीसमुदायका शिल्पा न पतयो देवा घटते सौधर्मदेवीभ्यस्ते संस्येयगुणाः २०७१। तेज्यो भवनवासिनो देयः संयेाद्वा०| याम्ययस्यां मायां पृथिव्यां नैराधिका अध्येय बहुलमा प्रदेशराशेः सम्बन्धिनि प्रथमवर्गले द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिने यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् ३१ । तेभ्योऽपि खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका पुरुष अपेयगुणा, प्रतरासंध यभागवश्वसंश्येयधेनिनः प्रदेशराशिप्रमाण ३२ ते भ्योऽपि चरपचेन्द्रियास्तिग्योनिका स्त्रियः संगवेयगुणाः, त्रिगुणत्वात् । तिगुणा तिरुव अहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयच्या" इति वचनात् ३३| ताज्यः स्थलचर पञ्चेन्द्रियास्तिर्यग्योनिः पुरुषाः संवगुणाः सरतरासंश्येयभाग संख्येयषमताकाशप्रदेशराशिप्रमायस्थ अचरन्द्रियतिर्यग्योनिकाः खियः संयेयगुणाः, त्रिगुणत्वात् ३४ । ताभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतियोनिका पुरुषाः संख्ये यगुणा, बृहत्तमप्रतरासंख्येयभागवत्वं संध्येयश्रेणिगताकाशयदेशराशिप्रमाणत्वात् ३६ । तेभ्यो जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाय संपेपणा त्रिगुणत्वात् ३७ व्यन्तरादेयाः पुंवेदोदयिनः संख्यगुणाः, यतः संख्ये योजनकोटाकोटिप्रमाणानि सूत्रीरूपाणि खण्डानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावन्तः सामान्येन व्यन्तराः केवलमिह पुरुषा विवहिता इति समुदायापेकृया किचिद्वात्रिंशत्तमागक यातित घटते जलचरपतिज्यः संख्धगुणा ३८ यतः संख्यगुणा, द्वाविंशत्यात् । ताभ्यो ज्योतिष्कदेवाः संख्येयगुणाः, ते हि सामान्यतः षट्पञ्चाशधिकशतप्रमाणानि सूचीरूपाणि बानिया न्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणाः ; परमिह पुरुषा विवक्षिना इति ते सकलसमुदायापेकया किंचिदूनद्वात्रिंशत्तमभागकल्पाः प्रतिपत्तव्याः, तत उपपद्यन्ते व्यन्तराज्यः संख्ये यगुहाः४० तेोयः गुणा, द्वाणि स्यात् ४२ यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नपुंसकाः 66 13 Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५५ ) अभिधानराजेन्द्रः | अप्पाबहुय (ग) सख्येयगुणाः। कचित् 'असंख्येयगुणाः, इति पाठः स न समीचीनः ऊ पर्यायान्तेऽपि ज्यो तिष्कदेवापेक्षया संख्येयगुणायोपपद्यते। तथाहि षट्पञ्चा शदधिकशतद्वयाप्रमाणानि सूचीरूपाणि सरमान यायम्ये कस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्योतिष्काः । उक्तं च- "उप्पभदोसयंगुल सूपए लेडि नाइया पयरं । जोइसिएहि हीर" इति । असंख्येयभागमात्राणि सूचीकपाणि खपमानि यावश्येक स्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्यगारा धतुरिया के चपापञ्जता-विति चऊ अक्षिणो अपहरति अंगुल खा समयं पुढो परं |१| अङ्गसंख्ये पायापेक्षया षट्पञ्चाशद चिकमल सगुणं ततो ज्योति वापर भाग्यमानाः पर्याप्तवतुरिन्द्रिया अपि सङ्घधेयगुणा एव घटते, किं पुनः पर्याप्तयापेक्षा समयभागमा परपशेयिनपुंसका इति ४२ तेभ्योऽपि स्थल वरपक्षेन्द्रपुंसकाः संवेयाः ४३ योजन काः संख्येयगुणाः ४४ । तेभ्योऽपि पर्याप्तचतुरिन्द्रियाः संख्ये - यगुणाः ४५ । तेभ्योऽपि पर्याप्ताः संश्यसंज्ञिनेदभिन्नाः पञ्चेन्द्रिया विशेषाधिकाः ४६ । तेभ्योऽपि पर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः ४७ | तेज्योऽपि पर्याप्तास्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः ४० यद्यपि चतुरियान पसीद्रतानां प्रत्येकमङ्गलाच्ये पनागमात्राणि सूचीरूपाणि समानियान्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणत्वमंबिशेषेणान्यत्र वर्ण्यते, तथाभ्यङ्गवाश्वनागस्य संख्येयमेभावादित्यं विशेषाधि कत्यमुध्यमानं न विरुदम् उपमन्यत्रापि "तमो पुंसफरसंखेाचनयर जल यरनपुंसका चतुरंदिया पराविति पासियत ४० तेभ्यो पर्याये पताः पचेद्रिया असंख्येयगुणा असा संस्वनागमात्राणि स्वण्मानि सूचीरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे जवन्ति तावत्प्रमाणत्वात् ४६ । तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया अपर्याप्ता विशेषाधिका ५० वी द्रियापविशेषाधिकाः ५१ विशेषाधिकार, यद्यपि चाप बायोपिताः प्रत्येकमपाखंरूपेच नागमात्रा णि खरामानि सूचीरूपाणि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्र अन्यमाविशेषेोकाः तथाप्यासंपेषनागस्य विचित्रस्वादित्थं विशेषाधिकयमुच्यमानेन विरोधमा २२ तेभ्योऽपि द्रन्द्रियार्यतेभ्यः प्रत्येकबादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता असंख्येयगुणाः, यद्यपि चापर्याप्तद्वं । न्द्रियादिवत् पर्यावनस्पतिकाविका भव्य संख्यागमात्राणि सूची पाणि खण्मानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे जवन्ति तावत्प्रमाणा अ न्यत्रोक्ताः, तथाऽप्यङ्गुञ्जा संख्ये नागस्यासंख्येय भेदभिन्नत्वादु बा दरपर्यप्रत्येक वनस्पतिपरिमाण चिन्तायामाया | संख्येयगुणहीनः परिगृह्यते, ततो न कश्चिद्विरोधः ५३ । तेयो बादरनिगोदा अनन्ताधिकशरीररूपाः पर्याप्त संध्ये गुणाः ५४ तेभ्योऽपि बादधिकाधिकार पर्याप्ताःख्येयगुणाः ५५ । तेभ्योऽपि पर्याप्तबाद राप्कायिका श्रसंख्येयगुणाः यद्यपि च पर्याप्तवाद प्रत्येक वनस्पतिकायिका उष्काषिकाः प्रत्येकमला संरूपेयभागमात्राणि सूचीरूपाणि रामानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा अन्यत्राविशेषेणोकालायकुलासंख्ये पागस्यासंस्थेय ने भिन्नत्वादित्यमसं गुत्थमभिधानेन दोष ५६ तेभ्यो बादरप पाचहु ( ग ) कायिकेभ्यो बादरा कायिकाः पर्यामा असंख्येयगुणा, घनीकृत लोकसंख्येय ना गया संख्येयप्रतरगमन प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् ५१ । तेभ्यो बादरतेजस्कायिका अपर्याप्ता श्रसंपेयगुणाः संवेग लोकाकाशप्रदेशराशिमा ५०। सभ्यः प्रत्येक यादवनस्पतिकायिका अपर्याप्त संखेयगुणाः ५६ । तेभ्योऽपि बादरनिगोदा श्रपर्यामका असंख्येय-गुणाः ६० । तेभ्यो बादरपृथिवीकायिका अपर्याप्तका श्रसंख्येयगुणाः ६१ । तेभ्यो वादगष्कायिका अपर्याप्ता असंख्येयगुणाः ६२ । यो बाचकाचिका अपर्याप्ता असंस्थेयगुणाः ६३ । तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कापिका अपर्याप्ता असंख्याः ६४ । तेभ्यः सूक्ष्मपृथिवीकायिका भवताविशेषाः ६४ । तेभ्यः सूक्ष्मा कायिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६६ । तेभ्यः सूक्ष्मवायुकाषिका अपर्याप्ता विशेषाधिकाः ६० तेभ्यः सूक्ष्मतेजस्कायिकाः पर्याशका असंख्येयगुणाः पदमेभ्यः पर्याप्तसूक्ष्माणां स्वजावत एव प्राचुर्येण भावात् । तथा चाह अस्यामेव प्रज्ञापनायां संग्रहणीकार:- " जीवाणमपजत्ता, बहुतरगा बायराण विनेया। सुहृमाणं य पजत्ता, ओदेण य केवली विति " | ६० । तेभ्योऽपि सूक्ष्मपृथिवीकारिकाः पर्याप्ता विशेषाधिकाः ६६ । तेभ्योऽपि सूक्ष्माय्कायिकाः पर्याप्ता विशेपाधिकाः ७० । तेभ्योऽपि सूक्ष्मवायुकायिकाः पर्याप्ता विशेपाधिकाः । तेभ्योऽपि सुक्ष्मनिगोदा अपाय गुहाः ७२ तेभ्यो पर्याप्ताः सूक्ष्मनिगोदा संख्येयगुणाः, यद्यपि च पर्यतेजस्काविकादयः पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदपर्यन्ता विशेषेान्याऽसंश्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणा उच् तथापि लोकसंख्येपावस्थाऽसंवेयनेद्रामेादित्थमबहुत्वमभिधीयमानमुपपन्नं द्रष्टव्यम् ७३ । तेभ्योऽभवसि - द्धिका अनन्तगुणाः, जघन्य युक्तानन्तकप्रमाणत्वात् ७४ । तेभ्यः प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः ७५ । तेभ्यः सिद्धा अनन्तगुणाः ७६ । तेज्योऽपि बादरवनस्पतिकायिकाः पर्याप्ता अनन्तगुणाः ७७ । तेज्योऽपि सामान्यतो बादरपयता विशेपाधिका बादरपर्यामपृथिवीकायिकादीनामपि तत्र प्रपात् । ७८ ज्यापर्यासवनस्पतिकायिका संस्थेयगुणाः ए कैकवादर निगोदपर्याप्तनिश्रयासंख्येयगुणानां बादरापर्याप्तनिगोदानां संभवात् ७९ | तेज्यः सामान्यतो बादरापर्याप्ता विशेषाधिका पृथिवी कायिकादीनामपि तत्र पा तेभ्यः सामान्यतो बादरा विशेषाधिकाः, पर्याप्तापर्याप्तानां तत्र प्रकेपात् १ | तेज्यः सूक्ष्मवनस्पतिकायिका अपर्याप्ता असंयेयगुणाः ८२ । तेज्यः सामान्यतः सूक्ष्मा अपर्याप्ता विशेषाचिका, सुदमा उपयमपृथिवी कायिकानामपि प्रपा 1 ३]स्पतिकायिकाः पर्यायः पर्याप्तसूक्ष्माणामपर्याप्तसूक्ष्मेभ्यः स्वभावतः सदैव संख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात्, तथा केवलवेट् सोऽनुपलब्धेः ८४ । तेज्योऽपि सामान्यतः सूक्ष्माः पर्याप्ता विशेषाधिकाः, पर्याप्तसूक्ष्मपृथिवीकायिकानामपि तत्र प्रदेपा ८५ ते पर्याप्ताऽपर्याप्तविशेषणरहिताः सूक्ष्मा विशेषाधिकाः, श्रप सूक्ष्मपृथिव्यप्तेजोयायुधनस्पतिकायिकानामपि तंत्रक्षेपात ०६ । तेभ्योऽपि भवसिद्धिका 'भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः ' भव्या विशेषाधिकाः, जघन्ययुक्तानन्तकमात्रा भव्यपरिहारण सर्वजीवानां भव्यत्वात् ८७ । तेज्यः सामान्यतो निगोदजीवा विशेषाधिकार भन्यानव्याधातिप्राचुर्येण बादग्सूक्ष्म निगोदजीवराशाचेव प्राप्यन्ते, नान्यत्र, अत्येषां सर्वे Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५६ ) अनिधानराजेन्द्रः | अण्याबहुय (ग) बामपि मिलितानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । अभव्याश्च युक्तान तक संख्यामा परिमाणास्ततो प्रस्यापेक्षा ते किञ्चिन्मात्रा भव्याश्च प्रागभव्यपरिहारेण चिन्तिताः । इदानीं तु बादर सूक्ष्मनिगोदचिन्तायां तेऽपि प्रक्विप्यन्त इति विशेषाधिकाः । तेज्यः सामान्यतो वनस्पतिजीवा विशेषाचिकाः, प्रत्येकश।रिणामार्प वनस्पतिजीवानां तत्र प्रक्षेपा ०९ | तेज्यः सामान्यत एकेन्द्रिया विशेषाधिकाः, बादरसुक्ष्मपृथिव। कायिकादीनामपि तत्र प्रकेपात् ६० | तेज्यः सामान्यतस्तिर्यग्योनिका विशेषाधिकार पर्याप्तपर्यायनिकृपद्रयाणामतिप्रगतिभाविनो मिपायो विशेषाधिकार पद कतिपयाविरतसम्पदृष्ट्यादिसं शिव्यतिरेकेण शेषाः सर्वेऽपि तिर्यञ्चो मिथ्यादृष्टिचिन्तायां चासंख्येयनारकादयस्तत्र प्रक्षिप्यन्ते । ततस्तिर्यग् जीवानुगतिका मिध्यापयमाना विशेषाधिकाः ६२ । तेभ्योऽप्यविरता विशेषाधिकाः, अविरतिसम्यग् टीनामपि तत्र प्रकेपात् ६३ । तेभ्यः सकषायिणो विशेषाधि का देशविस्तादीनामतिप्रपा ९४ विशेष पिका उपशान्तमदादीनामपि प्रपात् ६५गिनका सयोगिनामपि त भ्यः संसारस्था विशेषाधिकाः, प्रयोगिकेवलिनामपि तत्र प्रदे पात् ६७ । तेभ्यः सर्वजीवा विशेषाधिकाः, सिकानामपि तत्र प्र केपात् ६८ । गतं महाद रामकद्वारम् । प्रज्ञा० ३ पद । पं० सं० । (२५) [योगद्वारम] शविपस्य संसारसमापनजीवस्य योगानामध्पत्यय " 9 एएसि णं भंते ! चउदसविहाणं संसारसमानागाणं जीवाणं जहएको सगस्स जोगस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विमाहिया का है। गोयमा सन्वरथोवा मुस्स अपज्जनगस्स जहएलए जोए १, बादरस्स अपजत्तगस्स जहम्पर जोर असंखेजगुणे २ बेदियस्य अपजनगस्य जहणए जो प्रसंखे० ३ एवं तेइंद्रियस्स ४ एवं चारदिन अपिंचिदिवस कापजननस्स जहाए जोए असंखेज्जगुणे ६, सहिणपंचिंदियस्म अपज्जत्तगस्स जहएएए जोए असंखे० ७, सुहुमपज्जत्तगस्स जए जो असंग्वेलगुणे ८ बादरस्म पगस्न सर जोए असंखेज्जगुणे ६, मुदुमस्त अपज्जत्तगस्म उकोसए जोए असंखेज्जगुणे १०, बादरस्त अपनचगस्त उफोसए जोए असं० ११ सय पश्जनगर उफोसए जोए असं० २२, बादरस्स पज्जनगस्स उकोसर जोए असं स्वे० १३ बेदियस्य पज्जनगस्स जहार जोए प्र " " " " , " " ० १४ एवं इंद्रियस्स वि १५ एवं नात्र समिचिटिया पतगस्स मोर असं० १६, बेईदिवस अगस्स उकोसर जोए असंखे० १० एवं इंद्रिय व २० एवं चरिंदिवस वि २१ एवं जन समिदिवस अपज्जनगर उकोसर जोर अ सं० २२ दिन पज्जनगस्टकोसर जोए असं २५ एवं इंद्रियस्स व २५ एवं जासचिदियस्स पज्जत्तगस्स उकोसए जोए असंखेज्जगुणे२८ । " , , अप्पाबहुय (ग) ( जहन्नुकोगस्स जोगति) जघन्यो निकृषः का शिव्यय एव स व्यतधन्तरापेक उन्ह जघन्योत्कर्षः, तस्य योगस्य वीर्यान्तराय क्षयोपशमादिसमुत्थकायादिपरिस्पन्दस्य पतस्य च योगस्य चतुर्दशीयस्थान सम्बन्धोदाचाविशतिविधात्यादि जीवस्थानक विशेषाद्भवति, तत्र ( सव्वत्थोवेत्यादि ) सूक्ष्मस्य पृथिव्यादेः सूक्ष्मस्य तस्याध्यपकरासम्पूर्ण तत्रापि जघन्यस्य विवक्तित्वात्सर्वेभ्यो यो वक्ष्यमाणेज्यो योगेभ्यः सकाशात् स्तोकः सर्वस्नोको भवति, जघन्यो योगः स पुनवैदिककाम्मसौदारिक प्रथमसमयदनन्तरञ्च समयवृद्ध्याऽजघन्योत्कृष्टो यावत्सर्वोत्कृष्टो न जवति । (बायरस्त्यादि) बादरजीवस्य पृथिव्यादेरपथतिकीयस्य जघन्यो योगः पूर्योपेथा सातगुणोऽख्यात गुणवृद्ध याद तायव्यातगुणत्वं य सियोकाया पर्याया सम्झनामसाहिलांचा काय संस्था जयति संख्यातयोजनमायत्यात् तथापी योगस्य प रिस्पन्दस्यतायातस्य योपशमविशेषसामर्थ्या थोक्तमसंख्यातगुणत्वं न विरुध्यते, न ह्यल्पकायस्याप एव रूपन्दो भवति, महाकायस्य वा महानेव, व्यत्ययेनापि तस्य दर्शनादिति । भ० २५ श० १ उ० । 6 एतस्यैव योगाल्पबहुत्वस्य व्याख्यायिका गाथासुमनिगोयाइखण-Sप्पजोगवायर विगल अस एिएमएा । अपज्ज लहु पढमदुगुरु, पजंहस्सियरो संखगुणो ॥ ५३ ॥ 'तत्र सूक्ष्मनिगोदस्य सूक्ष्मसाधारणस्य लग्भ्यपर्याप्तकस्य सर्वजघन्यस्येति सामर्थ्याद् रयम। तस्यैव सर्वजघन्ययोग रूप प्राप्यमाणत्वादादिकशः प्रथमोत्पत्तिसमः मनिगोदा दिक्कणः, तत्र सप्तम्येकवचनलोपश्च प्राकृतत्वात् । किम ?, इत्या द - ( अप्पजोग ति ) अल्पः सर्वस्तोको योगो वीर्य, व्यापार इति यावत् । ततो बादरस्य ( विगल ति ) विकलस्य । (असराण ति ) संनिः अपरज ति प्रत्येकं गोदारणस्य गुरुरुत्कृष्टो योगो संवेगु वाध्यः। ततः प्रथमद्विकस्य (पञ्चस्यसि पर्याय स्पो जघन्य इतर उत्कृष्टयोगो यथाक्रममसंख्येयगुणो वाच्य इति गाथादरार्थः । भावार्थमसहममिगोदस्य पर्याप्त कस्य प्रथमसमये वर्त्तमानस्य जघन्यो योगः सर्वस्तोकः १ । ततो द्रयस्य लभ्यपसकस्य प्रथमस्व जम्यो योगोऽसंस्थेयगुणः २ ततो जीन्दियस्य समयपर्यासस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जन्यो योगोऽवगुणः ३ पर्याप्तस्य प्रथमसमये वर्तमानस्प जघन्यो योगोऽयेः । ततस्य पयं तकस्य प्रथमसमये वर्त्तमानस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुपः ५ । ततोऽसंकिपश्चेन्द्रियस्य लब्ध्यपर्याप्तस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्यो बोगोसंवगुणः । ततः द्वियस्य पर्यासस्य प्रथमसमये वर्तमानस्य जघन्य योगो संख्येयः । ततः सूक्ष्मनिगोदस्य स योगोऽयेयगुणः ततो बाद केन्द्रियस्थ पर्याप्तस्य पयो ११। ततः निगोदस्य पकस्पोट योगोऽसंख्येयगुणः १२ । ततो बादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्योत्क टोयोगोऽसंख्येयगुणाः १३ ॥ असमको पज्जनहभियर एवं दिलाया। 9 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) अनिधानगजेन्द्रः। अप्पाबद्दय (ग) अपजेयर संखगुणा, परमपजबिए असंखगुणा ॥५४॥ गणकारश्वात्रापि मृध्मक्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागरूपः प्रन्यके असमाप्ता अपर्याप्तास्ते च ते प्रसाश्च द्वीन्छियादयोऽसमापत्र- ग्राह्यः। तदत्र जघन्ययोगी जघन्यकर्मप्रदेशग्रहणं जघन्यस्थिति साः, अपर्याप्तद्वित्रिचतुरिन्जियाः, संश्यसशिपश्चेन्द्रियास्तेषामु च विदधाति, योगवृकौ च नकिरपानि स्थितमिति । (एव स्कृष्टोऽसमाप्तत्रसोत्कृष्टोऽसंख्येयगुणो वाच्यः। अयमर्थ:-पयांप्तया- विस्टाणेत्यादि) एबम, मकारस्य लोपः, प्राकृतवान् । पूर्वोक्त. दरैकेन्द्रियोत्कृष्टयोगाद् द्वीन्छियस्य लन्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो यो- योगप्ररूपणान्यायेन स्मैकन्द्रियादिजीवक्रमेणैव स्थितीमा योऽसंख्येयगुणः १४ । ततस्त्रीन्छियस्य लक्ष्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो स्थानानि स्थितिस्थानानि, वाच्यानोति शेषः। तत्र जघन्ययोगोऽसंख्ययगुणः १५ । ततश्चतुरिन्द्रियस्य लगभ्यपर्याप्तक- स्थितेरारज्य एकैकसमयवृद्ध्या सर्वोत्कृष्ट निजस्थितिपर्यवसानाः स्योत्कृष्ट योगोऽसंख्येयगुणः १६ । ततोऽसंशिपञ्चेन्छियस्य स. ये स्थितिभेदास्ते स्थितिस्थानान्यज्यन्ते । कथं पुनरेतानि वा. मध्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः १७ । ततः संशिप- च्यानि ? प्रति, कियणानि पुनरेतानि ?, इत्याह-सख्यगुछेदिषयस्य बन्यपर्याप्तकस्योत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः १८। णानि । तत्र संख्यान संख्या, तामहति संख्या "दण्मादिभ्यो (45जहन ति) ततखसानां पर्याप्तानां जघन्यो योगोऽसंख्ये. यः" ।।४।१७। ति (हैमसूत्रेण ) यप्रत्ययः । ततः यगुणो वाच्यः१६। ततोऽपि(इयर ति)सानां पर्याप्तानामुन्कयो संख्यः संस्येयः संख्यात इत्यों गुणो गुणकारो येषां तानि योगोऽसंस्पेयगुणों वाच्यः २० । इत्यतरार्थः । जावार्थस्त्वयम्- | संख्यगुणानि, संख्यानगुणितानीत्यर्थः । किं सर्वपदेषु संक्यानततःसंक्षिपञ्चेन्द्रियस्य समयपर्याप्तकोत्कृष्योगात्पर्याप्तद्वीन्द्रिय- गुणाम्येव, अहोस्विदस्ति कस्मिंश्चित्पदे विशेषः , इत्याहस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः २१। ततस्त्रीन्द्रियस्थ पर्याप्तकस्य (परमपजविर असंखगुण त्ति ) पर केवलम, अपर्याप्तद्वन्किजघन्यो योगोऽसंख्येयगुणःश ततश्चतुरिन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य ये अपर्याप्तद्वीन्द्रियपदे, नानि स्थितिस्थानानि असंख्यातगुणानि जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः २३। ततोऽमंझिपञ्चेन्द्रियस्प पर्या शततः सूक्मकोन्छियस्य पर्याप्तकस्य स्थितिस्थानानि संख्यातकस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः २४ । ततः संक्षिपञ्चेन्द्रियस्य तगुणानि ३ । ततो चादरैकेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य स्थितिस्थानानि पर्याप्तस्य जघन्यो योगोऽसंख्येयगुणः २५। ततः पर्याप्तद्वीन्द्रियस्योस्कृष्ट योगोऽसंख्येयगुणः २६ । ततः पर्याप्तत्रीम्झियस्यो. संख्यातगुणानि ।। पतानि च पल्यापमासंख्ययभागसमयतुस्कृष्टो योयोऽसंख्येयगुणः २७ । ततः पर्याप्तचतुरिन्छियस्योत्कृ स्यानि स्थितिस्थानानि भवन्ति । यत एकेन्द्रियाणां जघन्योष्टो योगोऽसंख्येयगुणः २० । ततः पर्याप्तसंझ्युत्कृष्टयोगादनुत्त स्कृष्टस्थित्योरन्तरालमेतावन्मात्रमेवति, ततोऽपर्याप्तद्वीन्द्रियस्य रोपपातिनामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः २ए । ततो ग्रैवेयकदेवा स्थितिस्थानान्यसंख्यातगुणितानि पल्योपमसंस्ययभागमात्रानामुत्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः ३० । ततो भागभूमिजानां तिर्य णीति कृत्वा ५ । ततस्तस्यैव द्वीन्द्रियस्य पर्याप्तस्य स्थितिमनुष्याणामुन्कृष्टो योगोऽसंख्येयगुणः३१ ततोऽप्याहारकशरी स्थानानि संख्यातगुणितानि ६ । ततस्त्रीन्द्रियस्यापर्याप्तकस्य रिणामुत्कयो योगोऽसंख्येयगुणः ३२ । ततः शेषदेवनारकतिर्यक स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि । ततस्त्रीन्द्रियस्य पर्यामनुष्याणां यथोत्तरमुत्कृष्टो योगोऽसंख्ययगुणः ३३ । तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणतानि । ततश्चतुरिन्छिय. अथ सुखावबोधायाल्पबहुत्वपदानां यन्त्रकमुपदश्यते। तदम- स्यापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संध्यातगुणितानि हाततः पर्या तचतुरिन्द्रियस्थ स्थितिस्थानानि संख्यातगुणितानि १०॥ ततोऽ- . मुधमनिअप- ज- बादर अप० जघद्वीन्छि० अप० ज- संक्षिपझेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संस्थातगुणितानि घि योग सर्वस्ता०१] योग असं०२ घ. यो.असं०३] नियम वयाप्रम्य स्थितिम्थानानि पीडिअपजघचतुरि० अप० जघा असंकि अप० ज स्यातगुणानि १२ । ततःसंक्षिपञ्चेन्द्रियस्यापर्याप्तस्य स्थितियो प्रस.४ । यो० असं०५ घ० यो प्रसं०६ स्थानानि संख्यातगुणानि १३ । ततः संशिपश्शेन्जियस्य पयोसंकि अप० जघ० सूक्ष्मनिगो० पर्यो |बादरपर्या० जघ० | तस्य स्थितिस्थानानि संख्यातगुणानि भवन्तीति १४। यो० असं०७ |ज यो० असं०८ यो० असं०९ स्थापनाद्वीनिक पर्या० श्रीन्छिय०प० जघ० चतुरि०प० जघ० सू०अपवादर हान्द्रिय त्रीन्द्रि चतु० असहि संक्षिा जघन्यो असं०१० यो० असं० ११ । यो० सं० १२ । | स्थितिपस्थि-अप०स्थिा अप०स्थिप०स्थि|प०स्थिअसंक्षिपर्या जघमंझिपर्या० जघसूक्ष्मनिगोद अप०] स्तो|ति सं०ति असं ति सं० [सं०]ति सं०ति सं० यो० असं०१३ यो.असं०१४ | उत्कृष्टयोमसं०१५ बादर अप० उत्कृ० द्वीडि० अप० उ-त्रीन्द्रि०अप० उत्कृतमा सूक्ष्म०प-बादर पद्वान्द्रिात्रीन्द्रि चतु० सं०प संकिका यो असं०१६ । कृ० यो असं०१७ यो० असं०१० । ०स्थित स्थिति प०स्थिपस्थियो स्थिति प० स्थि "स्थिा चतुरिन्जि०प०अमंशिअप० उत्कृ० संक्षि अप० उत्कृष्ट ति सं० सं० | सं० स० सं० ति सं० स्कृ० यो० असं.१६ यो असं०२० । यो० सं० २१ । तदेवं निरूपितानि योगासनेन स्थितिस्थानानिाकम कर्मा सूक्ष्मनि०पर्या० उ.बादर पर्या० उत्कद्वीन्कि०५० स्क० योगस्यैवाम्पबहुत्वं प्रकारान्तरेणाऽऽहकृ० यो० अस०२२| यो असं० २३ यो प्रसं० २४ एयस्म णं भंते ! पन्नरसविहस्स जहणुक्कोसगस्स त्रीन्छिन् प० उत्कृ० चतुरि०प० उत्कृ| असंकि पर्या० उत्कन कयर कयरेहिंतो० जाव विसेसाहिया गा| गोयमा ! यो०सं०२५ यो असं० २६ | यो० असं०२७ सब्बत्यो कम्मगमरीरस्स जहए जोए १, भोराशिसंदिपर्या० उत्कृ०/ अनुत्तरो० उत्कृ० | प्रेवेयकदेवकर यो० असं० २६ यो० असं० २६ । यो० असं० ३० यीसगस्स जहएणए जाए असंखेजगुणे २, बेउब्धियजागतमितिय० । श्राहारक० उत्कृष्ट देषना० ति०मनु० मीसगस्स जहएणए जोए असंखेजगुणे ३, ओरालिअयो० सं० ३१ | यो असं०३२ उत्कृण्यो असं०३३४ यसरीरस्स जहएणए जोए असंखेज्जगुणे ४, वेउब्धि Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५८ ) अभिधानराजेन्द्रः । अप्पा बहु ( ग ) सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्यः शीनयोनिका अनन्तगुणाः अनन्तकायिकानां सर्वेषामपि शीतयोनिकत्वात् तेषां च सिकेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । अप्पाबहुय (ग) यसरीरस्स जाए जोए असंखेज्जगुणे ५ कम्पगसरीरस्स नकोमए जोए अमखेज्जगुणे ६, आहारगमीसगस्स जहणणए जोगे असंखेज्जगुणे 9, आहा सच्चामोस - मीसग नकोस जोए असंखेज्जगुणे छ, ओरालि - मी सगस्स वेव्वियमीसगस्स । एएसि णं नकोसए जोए दोड़ वि तु असंखेज्जगुणे ए, मणजोगस्स जहएणए जोए असंखेज्जगुणे १०, आदारगस्स सरीरस्स जहएलए जोए असंखेज्जगुणे ११, तिविहस्स मणयोगस्स चउव्हिस बड़जोगस्स एएमि णं सत्तएह वि तु जहणए जोए असंखेज्जगुणे १२, आहारगसरीरस्स नक्कोसए जोए श्रसंखेज्जगुणे १३, ओरालिय सरीरस्स वेडब्बियसरीरस्स चव्त्रि हस्स यमजोगस्स च व्हिस् य बइलोगस्स । एएासे णं दसएह वि तुले उकोसए जोए असंखेज्जगुणे १४ । टीका सुगमा भ० २५ ० १ ३० । मनोयोग्याना मल्पबहुत्वम् - एएसि णं जंते ! जीवाणं सजोगीणं मरणजोगीणं वयंजोगिणं कायजोगीणं अजोगीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसेसाहिया वा ? । गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा मणजोगी, वयजोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी प्रांतगुणा, कायजोगी भांतगुणा, सजोगी विसेसाहिया । सर्व स्तोका मनोयोगिनः, संस्य संज्ञिपर्याप्ता एव हि मनोयोगिनः ते च स्तोका इति तेभ्यो बाग्योगिनोऽसंख्येयगुणाः, द्वीन्द्रि यादीनां वाम्योगिनां संशिभ्योऽसंख्यातगुणत्वात् । तेभ्योऽयोगिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्यः काययोगिनोऽनन्ताः, वनस्पतीनामनन्तत्वात् । यद्यपि निगोदजीवानामनन्तानामेकं शरीरं तथापि तेनैकेन शरीरेण सर्वेऽप्याहारादिग्रहणं कुर्वन्तीति सर्वेषामपि काययोगित्वान्नानन्तगुणत्वव्याघातः । तेभ्यः सामान्यतः सयोगिनो विशेषाधिकाः द्वीन्द्रियादीनामपि वाग्योग्यादीनां तत्र प्रक्षेपात् । गतं योगधारम् । प्रज्ञा ३ पद । कर्म० जी० । ५० सं० । (२६) [ योनिद्वारम] शीतादियोनि कानाम्एते सिणं भंते! जीवाणं सीतजोणियाणं उसिएजोलियाएं सीतोसि जोणियाणं अजोलियाण य कपरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ ? | गांयमा ! सव्वत्थांचा जीवा सीतोसिएजोपिया, उसि जोणिया असंखे जंगुणा, अजोलिया अांतगुणा, मीतजोरिया एंतगुणा । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः शीतोष्णयोनयः शीतोष्णोजययोनिकाः, नवनवासिगर्न जतिर्यक्रपञ्चेन्द्रियगर्भज मनुष्यव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामेवोज ययोनिकत्वात् । तेभ्योऽसं गुणा उष्णयोनिकाः सर्वेषां सूदनवादरभेदभिन्नानां तैजस्कायिकानां प्रभूततराणां नैरयिकाणां कतिपयानां पृथिव्या प्रत्येक वनस्पतीनां श्रोष्णयोनि कत्वात् । अयोनिका अनन्तगुणाः For Private सचितावित मिश्रयो निकानाम् एतेसि णं जंते ! जीवाणं सचित्तजोगीणं प्रचित्तजोजोणी मीसजोणीणं अजोशीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ?। गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा मीसजोणिया चित्तजोलिया असंखिज्जगुणा, अजोगिया अंतगुणा, सचित्तजोषिया अतगुणा । अल्पदुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका जीवा मिश्रयोनिकाः, गर्नव्युक्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव मिश्रयोनिकत्वात् । तेभ्योऽचित्तयोनिका असंख्येयगुणाः, नैरयिकदेवानां कतिपयानां च प्रत्येकं पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येक वनस्पति द्वित्रि तुरिन्द्रियसंम्मितिर्यक्पञ्चेन्द्रियसंमूमि मनुष्याणामचिन्तयोनिकत्वात् । तेज्योऽभ्ययोनिका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेज्यः सच्चिस योनिका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानां सविसयोनिकत्वात् तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् ।. संवृतविवृतयोनिका नाम एतेसि जंते ! जीवाणं संतुमजोणियाणं वियरुजोलियाण य संबुरुवियमजोणियाणं अजोणियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! संव्वत्योचा संतुमवियमजोणिया, विडजोणिया असंखेज्जगुणा, अजोगिया अतगुणा, संमजोषिया श्रणंतगुणा । अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः संवृतविवृतयोनिकाः, गर्भव्युकान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियमनुष्याणामेव संवृतविवृत योनिकत्वातातो विवृतयोनिकाः संख्ये यगुणाः, द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रयपर्यवसानानां संमूमितिर्यक्ञ्चेन्द्रियसंमूर्तिकममनुष्याणां च विवृतयोनिकत्वात् तेज्योऽयोनिका अनन्तगुणाः, सिकानामनन्तत्वात् । तेभ्यः संवृतयोनिका श्रनन्तगुणाः, वनस्पतीनां संंतयोनिकत्वात् तेषां च सिकेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। प्रज्ञा०८ पद् । (२७) [ लेश्याद्वारम् ] सलइयानामल्पबहुत्वमतत्र सोइया लेश्यानामल्पबहुत्वचिन्तायाम्- "सब्वत्थोबा अलेस्सा, सलेस्सा श्रणंतगुण" ज ० १ प्रति० । सम्प्रति सलेश्यादीनामष्टानामल्पबहुत्वमाहएएसि णं भंते! जीवाणं सलेसाणं किएहलेसाणं नीललेसाणं का सां तेउलेसाणं पम्हलेसाणं सुकलेसाणं अलेसाय करे करेहितो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्त्रत्थोवा जीवा सुकलेस्सा, पम्लेस्सा संखिज्जगुणा, ते. लेस्सा संखिज्ज०, अलेस्सा अांतगुणा, काउलेस्सा प्रांतगुणा, नील लेस्सा विसेसाहिया, कएलेस्सा विसेसाहियां ।। सर्वस्तोकाः शुक्कलेश्याः, लान्तकादिष्वेवानुत्तरपर्यवसानेषु वैमानिकेषु देवेषु कतिपयेषु च गर्भव्युत्क्रान्तिकेषु कर्मभूमिकेषु संख्येयव ग्रुष्केषु मनुष्येषु तिर्यक् स्त्रीपुंनपुंसकेषु कतिपयेषु सं वर्षायुकेषु तस्याः संभवात् । तेभ्यः पद्मलेश्या का संख्येयगुणाः, सा हि सनत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मलोक कल्पयासिषु देवेषु तथा प्रभूतेषु गर्भ कान्तिकेषु कर्मभूमिजेषु संख्येयवर्षीयुके Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५१) अप्पाबढ्य (ग) अभिधानगजेन्डः। अप्पाचदय (ग) पु मनुष्यत्रीपुनपुंसकेषु तथा गर्भव्युत्क्रान्तिकांतर्ययोनिकस्त्री- लसेश्याभावात् । तेज्योऽप्यसंस्येयगुणाः कापोतलेश्याः,प्रथमपुनपुंसकेषु असंख्येयवर्घायुकेष्ववाप्यते,सनत्कुमारादिदेवादय- द्वितीयपृथिव्योस्तृतीयपृथिवीगतेषु च कतिपयेषु नरकायासेषु समुदिता लान्तकादिदेवादिभ्यः संख्येयगुणाः, इति जयन्ति नारकाणामनन्तरोक्तेज्योऽसंख्येयगुणामां कापोतलेझ्यासद्भाशुक्ललेइयाकेन्यः पनलेश्याकाः संख्येय गुणाः, तेज्यस्तेजोले वात्। श्याकाः संख्येयगुणाः, सर्वेषां मौधर्मेशानज्योतिप्कदेवानां क- . अधुना तिर्यक्पञ्चेन्द्रियेचस्पबहुन्वमाहविपयानां च भवनपतिव्यन्तरगनव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पश्चेन्द्रिय- एएसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियारणं कएहलेम्साणं. मनुष्याणां बादराऽपर्याप्तकेन्द्रियाणां च तेजोसेश्याभावात् । जाव मुक्कलेस्साण य कयरे कयरोहिंनो अप्पा वा बहुया वा नम्बसंख्येयगुणाः कस्मान भवन्ति, कथं न भवन्ति , इति । चेत् । उच्यते-ह ज्योतिष्का नवनवासिभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, तुझा वा विमेसाहिया वा। गोयमा सम्बत्थोवा तिरिकखकिं पुनः सनत्कुमारादिदेवेन्यः,ते च ज्योतिष्कास्तेजोलेश्याका- मोणिया मुकलेस्मा, एवं जहा प्रोहिया,नवरं अमेस्सव ज्जा। स्तथा सौधर्मेशानकल्पदेवाश्च ततःप्राप्नुवन्त्यसंख्येयगुणाः। तद- (एवं जहा श्रोडिया इति) पयमुपदर्शितेन प्रकारेण प्राग्वत युक्तम्। वस्तुतस्वापरिकानात्। सेश्यापदे हि गर्भग्युत्कान्तिकति. औधिकास्तथा वक्तव्याः, नवरमलेश्यावर्जास्तिरश्चामसेश्यानायंग्योनिकानां संधिमपञ्चेन्धियतिर्यग्योनिकानां च कृष्ण- मसंभवात् । ते चैवम्-सर्वस्तोकास्तिर्यगयोनिकाः शुक्ललेश्यासेश्यायल्पबहुत्वे सूत्रं वक्यति-"सव्यत्योवा गम्भवतियतिरि- स्तेच जघन्यपदे संख्याता द्रष्टव्याः १. तेयोऽसंख्ययगुणाः प. क्वजणिया सुक्कलेस्सा,तिरिक्खजोणिणीओसंखेजगुणाओ,प- मलेश्याः २, तेभ्योऽपि संख्येयगुणास्तेजोलेश्याः ३, तेज्योम्हसेस्सागबनवकंतियतिरिक्ख जोणिया संखेजगणा,तिरिक्वजो ऽप्यनन्तगुणाः कापोतलेश्याः ४, तेभ्योऽपिनीलमेश्या विणिणीओ संजगुणाओ, तेनलेस्सा गम्भवतंतिरिक्वजोणिया 'शेत्राधिकाः ५, तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः ६, तेसंखेजगुणा,तेनलेस्सामोतिरिक्वजोणिणाश्रो संज्जगणाओ" भ्योऽपि सवेश्या विशेषाधिकाः । इति महादएमके च तिर्यग्योनिकस्त्रीभ्यो व्यन्तरज्योतिष्काश्च साम्प्रतमेकेन्द्रियेवल्पबहुत्वमाहसंख्येयगुणा वक्ष्यन्ते। ततो यद्यपि भवनवासिन्योऽप्यसंस्येयगुणा एतेसि एं नंते ! एगिदियाणं कएहलेस्साणं० जाव तेउ.. ज्योतिप्काः, तथापि पद्यलेश्याकेभ्यस्तेजोमेश्याकाःसंस्थयगुणा सेस्साश य कयरे कयरोहिंतो अप्पा वा० ४ । गोयंमा : सएव । इदमत्र तात्पर्वार्थ:-यदि केवनान् देवानेव पद्मलेश्यानधिकृत्य देवा एव तेजोलेश्याकाश्चिन्यन्ते ततो भवन्त्यसंख्येय. खत्योवा एगिदिया तेउलेस्सा, काउलेस्सा अपंतगुणा, . गुणाः, यावता तिर्यसमिधया पालेश्याकेभ्यस्तिर्यक्संमिश्रा नीललेस्सा विसेसाहिया, कएडलेस्सा विसेसाहिया।। एव तेजोसेश्याकाश्चिन्त्यन्ते, तिर्यश्चश्व पालेश्या अपि अति. सर्वस्तोका एकेन्छियास्तेजोबेश्याः, कतिपयेषु बादरपृथिव्यबहवस्ततः संस्येयगुणा इति । तेन्यः अलेश्याका अनन्तगुणाः, । प्रत्येकवनस्पतिकायिकेचपर्याप्तावस्थायां तस्याः सद्भावात् । सिमानामनन्तत्वात् । तेभ्यः कापोतलेझ्या अनन्तगुणाः, वनस्प- तेज्यः कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, अनन्तानांसहमवादरनिगोतिकायिकानामपि कापोतलेश्यायाः संजवात, वनस्पतिकायि- दजीवानां कापोतलेश्यासद्भावात् । तेज्योऽपि नीलश्या विकानां च सिकेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । तेन्योऽपि नीसलेल्या शेषाधिकाः, तेज्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः अत्र भावविशेषाधिकाः, प्रभूततराणां नाखलेश्यासंभवात् । तेभ्योऽपि | ना प्रागेवोक्ता। कृष्णलेश्याका विशेषाधिकाः, प्रभूतानां कृष्णलेश्याकत्वात् । | सम्पति पृथिवीकायिकादिमिषयमल्पबाहुत्यं वक्तव्यमा तत्र पृ. सामान्यतःसलेल्या विशेषाधिकाः, नीललेश्याकादीनामपि तत्र | थिव्यवनस्पतिकायानां चतस्रो लेश्या, तेजोषायुकायानां तिन प्रकपात् । प्रज्ञा० ३ पद । जी० । कर्म। इति तथैव सूत्रमाहतदेवं सामान्यतोऽल्पबहुत्वं चिन्तितं; संप्रति नैरायकेषु । पसिनंते ! पढवीकाश्याणं करहलेस्साणं० जाव तश्चिन्तयन्नाह तेउलेस्साण य कयरे कयरेडितो अप्पा वा०४१ गोयमा ! एतसि णं भंते ! नेरइयाणं काहस्साणं नीललेस्साणं जहा भोहिया एगिदिया, नवरं काउलेस्सा असंखिज्जकाउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुश्चा गुणा, एवं ग्राउकाइयाण वि । एतसिण नंते ! तेउवा विसेसाहिया वा ? । गोयमा ! सम्बत्योचा नेरझ्या काइयाणं काहस्साणं नीलकानलेम्साण य कयरे कयरेकाहसेस्सा, नीलसेस्सा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा अ हिंतो अप्पा वा०४१ । गोयमा ! सम्बत्थोबा तेडक्काश्या संखेज्जगुणा। . काउसेस्सा, मीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेनैरयिकाणां हि तिम्रो सेइयाः। तद्यथा-कृष्णलेश्या,नीललेश्या, कापोतलेझ्या । उक्तञ्च-"काऊपदोसु तश्वा-ए मीसिया नीग्नि साहिया,एवं वाउकाझ्याण वि । एतेसि एणं ते! वणस्सया चउत्थीए । पंचमियाए मिस्सा, कण्ढा तत्तो पदमकदा" इकाइयाएं कएहस्साएं0 जाव तेउलेस्साण य जहा ए॥१॥ ततः प्रयाणामेव पदानां परस्परमल्पबहुत्वचिन्ता, तत्र गिदियाणं बेइंदियतेइंदियचनरिदियाणं जहा तेउकाइयासर्वस्तोकाः कृष्णलेश्या नैरयिका, कतिपयपञ्चमपृथिवीगतन- । एतेसिणं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाएं कएहरकायासेषु षष्ठणं सप्तम्यां नैरयिकाणां कृष्णलेश्यासद्भावात् । सेस्साएं जाव मुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ततोऽसंख्येयगुणा नीललेश्याः, कतिपयेषु तृतीयपृथिवीगतनर. कावासेषु चतुध्यो समस्तायां पृथिव्यां कतिपयेषु पक्षमप्रथि- बहुया वा तुझा वा विसेसाहिया वा।। गोयया! जहा ओवगितनरकावासेगु नैरयिकाल पूर्वोकेभ्योऽसंख्येयगुणानांनी. हियाएं तिरिक्खजोणियाएं, नवरं काउलेस्सा असंखि Jain Education Interational Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६० ) अभिधानराजेन्द्रः | पाय ( ग ) ज्नगुणा १, संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोशियाणं जहा तेउक्कायाणं २, गन्भव कं तियपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं जहा प्रोहिया, तिरिक्ख जोगिया नवरं काउलेस्सा संखिज्जगुणा ३, एवं तिरिक्खजोगिणीणं वि ४ । 'पुढची कायामित्यादि' सुगमम् । द्वित्रिचतुरिन्द्रियविषयमपि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रे कापोतलेश्या असंख्यातगुणा नत्वनन्तगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिरक्षां सर्वसंख्ययाऽप्यसंख्यातत्वात् । संमूमिपञ्चेन्द्रियतिरश्चां यथा तेजस्कायिकानामुक्तं तथा वकव्यम् । तेजस्कायिकानामिव तेषामप्याद्य लेश्यात्रयमात्रसद्भावात् । गर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकसूत्रम्-तेजोलेश्यायः कापोत लेश्याः संस्येयगुणा वकन्याः, तावतामेव तेषां केववेद सोपलब्धत्वात् शेषमौधिकसूत्रं वकम्यम् । एवं तिर्यग्यो. .निकानामपि सुत्रं वक्तव्यम् । तथाचाऽऽह - ( एवं तिरिक्सजोणिणीण ति ) । अधुना संमूर्हिमगर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय स्त्रीविषयं सूत्रमाद एतेसि णं भंते ! संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजाणियाणं । गब्जवकंतियपंचिंदिय तिरिक्ख जोणि यक एह लेस्साणं० जाव सुकलेस्साए य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा ० ४ १। गोयमा ! सव्वत्थोवा गन्भवकंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, पम्हसेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिज्जगुणा, काउलेस्सा संखज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएढल्लेस्सा बिसेमाहिया, काउलेस्सा संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोलिया असंखेज्जगुरणा, नीलबेस्सा विसेसाहिया, कलेस्सा विसेसादिया । एतेसि णं भंते ! संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोगिणी य कएइलेस्साएं० जान सुक्कलेस्सारण य कयरे कयरेहिंतो अ पावा० ४ ? । गोयमा ! जहेव पंचमं सहा इमं पि बहुं जा णियन्नं ॥ एतच्च प्राग्वद्भावनीयम् । इदं किस पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाधि कारे षष्ठं सूत्रम, अनन्तरोक्तं च पञ्चमम् । अत उक्तम - ( अहेव पंचमं तहा श्मं उठं भाणियन्वं ) अना गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यक् पञ्चेन्द्रियतिर्यक्त्रीविषयं सप्तमं सूत्रमाहएसि णं जंते ! गज्जव कंतिय पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिशीण य कएइलेस्साणं जाव सुकन्नेस्सालय करे करेहिंतो अप्पा वा० ४ १। ग्रोयमा ! सव्वत्योवा गन्भवकंतियपंचिंदियतिरिक्खजोगिया (सुकलेस्सा, सुकलेस्साओतिरिक्खजीओ संखेज्जगुणा, पम्हलेस्सा गउजवकंतिय पंचिदियतिरिक्खजोशिया संखेज्जगुणा, पम्दमाओ तिरिक्खजोणिपीओ संखंज्जगुणाओ, तेजलेस्सा संखेज्जगुणा, तेनलेस्साच संखिजगुणाओ, काउलेस्सा संखेज्जगुणा, नलेस्सा बिसेसादिया | For Private अप्पा बहु (ग) कहलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साग्रो संखिज्जगुणाओ, नीलमा बिसेसादियाओ, कएह लेस्साओ साहिया ॥ " एसि णं भंते!" इत्यादि सुगमम् । नवरं सर्वास्वपिलेश्यासुत्रियः प्रचुराः सर्वसधयाऽपि च तिर्यक् पुरुषेज्यास्तिर्यक स्त्रियस्त्रिगुणाः, "तिगुणाऽतिरूव अहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्या " इति वचनात् । ततः संख्यातगुणा उक्ताः, नपुंसकास्तु गर्भव्युत्क्रान्तिकाः कतिपय इति न ते यथोक्तमस्पबहुत्वं व्याघ्नन्ति ॥ सम्प्रति संमूमिपञ्चेन्द्रिय तिर्य्यग्यानिक गर्भ व्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकतिर्यस्त्रीविषयमष्टमं तथा सामान्यतः पश्चेक्रियतिर्य्यग्योनिकतिर्य्यक्त्रीविषयं नवमं तथाच सामान्यतस्तिर्यग्योनिकतिर्यस्त्रीविषयं दशमं सूत्रमाह एतो भंते! संमुच्छ्रिम पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं गजवक्कतियपंचिदियतिरिक्खओणियाणं तिरिक्खजो - शिणीण य करहलेस्साएं ० जाव सुकलेस्माण व कयरे करेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयेमा ! सव्वत्थावा गजवर्कतियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, सुक्कलेस्सान त्ति संखिज्जगुणाचो, पम्हलेस्साओ संखिज्जगुणा, तेनलेस्साओ - गन्भ त्ति संखेज्जगुणा, तेउलेस्सान त्ति संखेज्जगुणा, का उलेस्साउ ति संखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएहलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्सा संखेज्जगुणा, नीलस्सा विसेसाहियाओ, कएहलेस्साओ विसेसादियाओ, कानलेस्साओ समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजो - णिया असंखिज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, करहलेस्सा विसेसादिया । एएसि णं जंते! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोषिणीण य क एह लेस्साणं० जाव सुक्क लेस्ता य करे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिदियतिरिक्खजोणिया सुकलेस्सा, सुकलेस्साच संखिज्जगुणाओ, पम्इलेस्सा संखिज्जगुणा, पम्हलेस्साओ संखिज्जगुणाश्रो, तेउलेस्सा संखेज्जगुला, ते उलेस्साओ संखिज्जगुणाश्रो, काउलेस्सा संखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएढलेस्सा विसेसाहिया काउलेस्सा संखेज्जगुणाश्रो, नीललेस्साओ विसेसादियाओ, कएहलेस्साचो विसेसाहियाओ । एते सि भंते! तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजो एए य कएड्लेस्साणं० जात्र सुकलेस्साए य कयरे कपरेहितो अप्पा बा० ४ १ । गोयमा ! जहेव एवमं अप्पाबहुगं, तहा इमं पि, नवरं कालेस्सा तिरिक्खजोलिया अांतगुणा । एवं एते दस पावदुगा तिरिक्खजो शियाणं १० । एवं मणुस्साए वि पावदुगा जाणियव्या; नवरं पच्छिमगं - पावहुगं पत्थि ॥ Personal Use Only " Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) निधानराजेन्डः । अप्पाबदुय (ग) भावना प्रागुक्तानुसारेण कर्तव्या । तियंग्योनिकविषयां सूत्र- गुणाओ, नीललेस्माओ विसेसाहियाओ, कएहम्माश्रो संकलनामाह-"एवमेते दस अप्पायहुगा तिरिक्सजोणिया विसेसाहियाअो,तेउलेस्सा देवा मंखिज्जगुणा, तेनुसेस्साजमिति" सुगमम् ननरमिहेमे पूर्वाचार्यप्रदर्शिते संग्रहणीगाधे ओ देवीश्रो संखेज्जगुणायो। . "भोहियपणंदि १संमु-धियाय गम्भत्तिरिक्वइत्यामोठा संमुच्चगम्भतिरिया, ५ मुच्छतिरिक्खी य ६ गन्नम्मि७ ॥६॥ सर्वस्तोका देवाः शुक्रलेश्याः,तेज्योऽसंख्येयगुणाः पनलेश्याः, समुच्चगम्भश्त्थी, ८ परिणदितिरिगस्थियाभो । इत्थी उ १०। तेज्योऽप्यसंख्येयगुणाः कापोतलेश्याः, तेभ्यो नीबसेश्या विशेदस अप्पबहुगभेया, तिरियाणं होति णायचा "॥ २ ॥ पाधिकाः, तेभ्योऽपि कृष्णलेल्या विशेषाधिकाः, पतावत्प्रागेव भावितमातेच्योऽपि कापोतलेश्याका देव्यः संस्पेयगुणाताच यथा तिरधामस्पबहुत्वान्युक्तानि तथा मनुष्याणामपि वक्त भवनपतिव्यन्तरनिकायान्तर्गता वेदितव्याः, अन्यत्र देवीनां काव्यानि, नवरं पधिमै दशममल्पबहुत्वं नास्ति, मनुष्याणामनन्तत्वानावात तदभावे "कासा प्रपंतगुणा" इति पोतलेश्याया असम्भवात् । देव्यश्च देवेभ्यः सामान्यतः प्रतिनिपदासंभवात्। कार्य द्वात्रिंशद्गुणा,ततः कृष्ण सेश्याभ्यो देवीभ्यः कापोतलेश्याया अधुना देवविषयमल्पबदुत्वमाह असमनवात्। देव्यश्च देवेभ्यः सामान्यतः प्रतिनिकायं द्वात्रिंश दुणाः, ततः कृष्णलेश्याभ्यो देवीभ्यः कापोतलेश्या देव्यःसंख्ये. एवेसि एं भंते ! देवाणं काढलेस्माण जाव सक्कलेस्सा यगुणा अपि घटन्ते, ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, ताभ्यः ण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४। गोयमा! सव्वत्थोवा कृष्णलेश्वा विशेषाधिकाः। अत्रापि प्राग्वद भावना। तेभ्यो ऽपि देवा मुक्कलस्सा, पहलेस्सा.असंखिज्जगुणा, काउलेस्सा तेजोलेश्या देवाः संख्यगुणाः, कतिपयानां भवनपतिभ्यन्तराअसंखिज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, करहलेस्सा जांसमस्तानां ज्योतिकसौधर्मशानदेवानां तेजोलेश्याकत्वात । तेभ्योऽपि तेजोमेश्याका देव्या संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशगुणत्वात्। विसेमाहिया, तेउलेस्सा संखिज्जगुणा ।। सम्प्रति भवनवासिदेवविषयं सूत्रमाहसर्वस्तोका देवाः शुक्ललेश्याः, लान्तकादिदेवलोकेम्वेव तेषां स एतेसि एं भंते ! जवनवासीणं देवाणं करहलेस्साणं. द्भावात् । तेभ्यः पनलेश्या असंख्येयगुणाः, प्रवनपतिभ्यन्तरदेघेषु सनत्कुमारादिदेवेभ्योऽसंस्थेयगुणेषु कापोतलेल्यासद्भावा- जाव तेनलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा बा०४१। व । तेभ्योऽपि नीलबेश्या विशेषाधिकाः, प्रततराणां भवन- गोयमा ! सन्नत्थोवा जवणवासी देवा तेउलेस्सा, काउपतिव्यम्तराणां तस्याः संभवात् । तेभ्योऽपि कृष्णलेश्या बि-] लेस्सा असंखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएहशेषाधिकाः, प्रसूततराणां तेषां कृष्णलेश्याकत्वात् । तेभ्योऽपि तेजोसेश्याः संख्ययगुणाः, कतिपयानां प्रवनपतिन्यन्तराणां स. लेस्सा विसेसाहिया। मस्तानां ज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवानां तेजोले श्यानावात् । (एपसिण भंते ! इत्यादि ) सर्वस्तोकाम्तेजोलेश्याः, महर्ष. अधुना देवीविषयं सूत्रमाह- . यो हि तेजोमेश्याका जवन्ति, महर्षयश्चाये, इति सर्वस्तोकाः। एएसिणं भंते ! देवीणं कण्हसेस्साणं० जाच तेलमेस्साण तेज्योऽसंख्येयगुणाः कापोतोश्याः, अतिशयेन प्रभूतानां का पोतोश्यासंनवात् । तेभ्यो नीललेल्या विशेषाधिकाः, अतिय कयरे कपरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुझा वा विसे प्रभूततराणां तस्याः संभवाव । तेज्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषासाहियावा गोयमा! सम्बत्योबानो देवीओकारलेस्सा धिकाः, अतिप्रनूततराणां कृष्णलश्यानावात् । एवं वनपतिश्री, नीलमेस्साश्रो विसेसाहियाभो,कपहलेस्सामो विसे-| देवीविषयमपि सूत्रं जावनीयम् । साहियात्रो, तेउलेस्माश्रो संखेज्जगुणाभो। (एपसि णं अंते ! देवीणमित्यादि ) देव्यश्च सौधर्मशानान्ता एतेसिणं ते! जवणवासिखीण देवीणं कालेस्सापवन परत इति तासां चतन्त्र एव सेश्यास्ततस्तद्विषयमेवा जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४। लावदुत्वमनिधित्सुना "जाव तेउलेस्साण य* प्रयुक्तम् । सर्वस्तोका देव्यः कापोतमेश्याः, कतिपयानां प्रवनपतिभ्यन्तरदेवा गोयमा! एवं चेव । नाकापोतलेश्याभावात् । तेन्यो विशेषाधिका नीलमेश्याः, प्र. अधुना भवनपतिदेवदेवाविषयं सूत्रमाहतूतानां भवनपतिभ्यन्तरदेवानां तस्याः सम्भवात् । तेयोऽपि एएसि णं नंते ! भवणवासीणं देवाणं देवीण य कएहकृष्णमेश्या विशेषाधिका, प्रजूतानां तासां कृष्णलेश्याकत्वात्। लेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहिंतोप्रणा बार ताभ्यस्तेजोलेश्याः संख्येयगुणाः, ज्योतिष्कसौधर्मशानदेवानामपि समस्तानां तेजोलेझ्याकत्वात्। ४। गोयमा ! सनत्थोवा भवणवासी देवा तेनलेस्सा,भसम्पति देवदेवीविषयं सूत्रमाह वणवासिणामो तेउलेस्सामो संखिजगुणाओ, काउन्नेएतेसि ण नंते ! देवाणं देवीण य कएइलेस्माणं० जाव | स्सा भत्रणवासी असंखिज्नगुणा, नीललेस्मा विसेसामुकलेस्माण य कयरे कयरोहिंतो अप्पाबा०४। गोयमा! हिया, कएहलेस्सा विसेमाडिया, काउझेस्सामो जवणसन्बत्थोचा देवा मुकलेस्मा, पम्हलेस्मा असंखेज्जगुणा, वासिणीअो संखज्जगुणाओ, नीललेस्साओ विसेसाहियाकानसेस्सा असंखेनगुणा, नीललेस्सा विससाहिया, भो, कपडलेस्साओपिसेसाहियाओ, एवं वाणमंतराण वि कएहसेस्सा विसेसाहिया,काउलेस्सायो देवीनो संखेज्ज- तिहोन अप्पाबहगा जव जवणवासीणं तहेव भाणियब्बा। . Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६२) अप्पाबहय (ग) भनिधानराजेन्मः। अप्पाबहुय (ग) (पपसि णमित्यादि ) सर्वस्तोका नवनवासिनो देवास्तेजो- अधुना भवनपतिव्यन्तरज्योतिकवैमानिकविषयं सत्रमाहमेश्याकाः। युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता । तेभ्यस्तेजोलेझ्याका भवनवा. एस एं ते! भवणवासीणं देवाणं वाणमंतराणं जो " देव्यः सत्ययगुणाः, देवेन्यो हि दव्यः सामान्यतः - सियाणं वेमाणियाणं देवाण य कएहसेस्साणं जाव सुतिनिकायं द्वात्रिंशद्गुणास्तत्रोत्पद्यन्ते संख्येयगुणत्वमिति । तेज्यः कापोतोश्या भवनवासिनो देवा असंख्येयगुणाः, तेन्यो कोस्साण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४१ गोयमा !स. पिनीलमेश्या विशेषाधिकाः, तेज्योऽपि कृष्णलेश्या विशेषा- बत्योबा वेमाणिया देवा सुकमेस्सा, पम्हलेस्सा असंखिधिकाः। युक्तिरत्र प्रागुताऽनुसरणीया।तेभ्यः कापोतलेश्या भव- ज्जगुणा, तेउलेस्सा भसंखिज्जगुणा, तेनलेस्सा जवणवानवासिन्यो देव्यः संख्येयगुणा, भावना प्रागुक्तभावनानुसारण सी देवा असंखिज्जगुणा, काउलेस्सा असखिज्जगुणा, भावनीया । ताभ्यो नीललेश्या विशेषाधिकाः, ताज्या कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, पवं बाणमन्तरविषयमाप स्त्रत्रयं भाव नीलमेस्सा विससाहिया , कण्हलेस्सा विसेसाहिया , नीयम। तेउलेस्सा वाणमंतरा देवा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा - ज्योतिष्कविषयसूत्रम् संखिज्जगुणा, नीलसेस्मा विससाहिया, कराहलेस्सा विएतमि णं नंते ! जोसियाणं देवाणं देवीण य तेउले-1 सेसादिया, तेउलेस्सा जोशसिया देवा संखेज्जगुणा । एतेसि माणं कयरे कयरहितो अप्पा वा०४१। गोयमा! सब्यस्थो णं ते ! जवणवासिणी वाणमंतर्राणं जोइसिणीणं वा जोसियदेवा तेनलेस्सा जोइसिपीमो देवीमो तेजले- TATोसजाव तेजोमाण पकयो स्सायो संखिज्जगपायो। कयरोहितो अप्पा वाp?| गोयमा ! सम्बत्योवानो देज्योतिकविषयमेकमेव सूत्र, तत्रिकाये तेजोबेश्याव्यतिरेकेख | वीश्रो माणिणीमो तेनलेस्साओ, जवणवासिणीमेश्यान्तरासम्नवात् , पृथग् देवदेवीविषयसूत्रद्वयासम्भवात् ।। भो तेजलेस्साओ असंखेज्जगुणाओ, काउलस्साओ वैमानिकदेवविषयं सूत्रमाहएतेसि एं ते! बेमाणियाणं देवाणं तेउलेस्साणं पम्ह असंखेजगुणाओ, नीललेस्सामो विसेसाहियाओ, कएहसेस्साणं मुक्कलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४१। लेस्सामो विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ वाणमंतरीदेवीगोयमा! सव्वत्थोवा बेमाणिया देवा मुकलेस्सा, पम्हलेस्सा भो असंखज्जगुणाओ, काउलेस्सामो असंखेजगुणाओ, असंखिजगुणा, तेउलेस्सा देवा असंखिज्जगुणा ॥ नीलसेस्साओ विससाहियानो,कएहस्साओ विसेसाहियासर्वस्तोकाः शनश्या, लान्तकादिदेवानामेव कलेण्यास ओ,तेउलेस्सामओ जोइसिणीमो देवीश्रो संखेज्जगुणाओ। म्भवात । तेषां चोत्कर्षतोर्प श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशि- (एएसिणंभंते! भवरणवासीणमित्यादि) तत्रसर्वस्तोका वैमामानत्वात् । तेज्यः पचलेश्या असंख्येयगुणाः, सनत्कुमारमा-1 निका देवाः शुक्ललेश्याः, पचलेश्या असंख्येयगुणाः,तेजोलेश्या हेन्जमालोककल्पवासिना सर्वेषामपि देवानां पचलेश्यासंभ- असंख्येयगुणाः,श्त्यत्र जावनाऽनन्तरमेव कृता। तेभ्योऽपि भवपात्। तेषां चातिवृहत्समधेपयसंख्येषभागवर्तिनभःप्रदेशरा- नवासिनो देवास्तेजोमेश्याका असंख्येयगुणाः कथमिति चेत्, शिप्रमाणत्वात् । सान्तकादिदेवपरिमाणहेतुश्रेण्यसंख्येयभागा- उच्यते-अङ्कलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूपेकया हमीषां परिमाणहतुभेण्यसंख्येयभागोऽसंख्येयगुणः, ते. लेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकज्योऽपि तेजोलेश्या असंख्येयगुणाः,तेजोलेश्या हि सौधर्मेशा. तस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्तानदेवानाम् , ईशानदेवाश्चाङ्गनमात्रकेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिनि वत्प्रमाणो भवनपतिदेवीसमुदायः, तातकिशिदूनद्वात्रिंशत्तमद्वितीयवर्गमूने तृतीयवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भव- भागकल्पाः भवनपतयो देवास्तत श्मे प्रभूता इति घटन्ते सौति तावत्प्रमाणासु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु। धर्मशानदेवेन्यस्तेजोलेश्याका भसंस्थेयगुणाः, तेन्यः कापोतयावन्तो नभःप्रदेशाः तावत्प्रमाणाः, ईशानकल्पगतदेवसमु- लेश्या प्रवनवासिन पवासंख्येयगुणाः, मल्पर्शिकानामप्यतिमदायस्तद्गतकिचिदूनद्वात्रिंशत्तमनागकल्पाः, तेन्योप सौध- भूतानां कापोतलेश्यासम्भवात् । तेभ्योऽपि भवनवासिन एव संकल्पदेवाःसंख्येयगुणाः स्वतो प्रवन्ति,पनवेश्येभ्यस्तेजोलेश्या नीललेश्या विशेषाधिकाः । युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता । तेभ्योऽपि असंख्येयगुणाः,देव्यश्च सौधर्मशानकल्पयोरेव, तत्र चकेवनाते- बाणमन्तरास्तेजोलेश्याका असंख्येयगुणाः । कथमिति चेत् !, . जोवेश्या,तेजोलेश्यान्तरासम्नवात् ;न तद्विषये पृथकसूत्रमतः। उच्यते-श्हासंख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणानि सूचीरूपाणि स. सम्पति देवदेवीविषयं सूत्रमाद रामानि यावन्त्यकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावान् व्यन्तरदेवदेषीस. एएसि णं जंते ! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेलो- मुदायः, तसतकिश्चिदूनद्वात्रिंशत्तमनागकल्पा व्यन्तरदेवाः, तत स्साणं पम्हलेस्साण य मुक्कलेम्साण य कयरे कयरेहितो श्मे भवनपतिभ्योऽतिप्रभूततमा श्युपपद्यन्ते।कृष्णमेश्येभ्यो भअप्पा वा०४१। गोयमा ! सव्वत्थोवा बेमाणिया देवा मु बनपतिभ्यो वाणमन्तरास्तेजोलेश्याका असंख्ययगुणाः,तेभ्योऽपि बाणमन्तराएव कापोतलेश्याका असंख्ययगुणाः,अल्पम्किानाकोस्सा, पम्हमेस्सा संखेजगुणा, तेउलेस्सा असंखिज्ज मपिकापोतमेश्यानावात्।तेभ्योऽपिवाणमन्तरानीलमेश्या पि. गुणा, तेउलेस्साओ वेमाणिणीओ देवीओ संखेजाओ।। शेषाधिकाः,तेज्योपिकृष्णलच्या विशेषाधिकाः,अत्रापि युक्तिः 'एएसि ण भंते!'श्त्यादि सुगमम,नवरं "तेच लेस्साओवेमाणि- प्रागुक्ताऽनुसरणीथा।तेजोलश्या ज्योतिका देवाः संख्येयगुणाः, णीओ देवीओ संखेजगुणाभो'देवेभ्यो देवानांद्वात्रंशद्गुणत्वात्।। यतः षट्पञ्चाशदधिकाशतद्वयप्रमाणानि सूचीरूपाणि याव Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६३ ) अभिधानराजेन्द्रः। अपचय (ग) न्ति खण्डानि एकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणो ज्योतिदेवदेवी समुदायः, ततकिञ्चिदूनद्वात्रिंशत्तमनागकल्पा ज्योतिष्कदेवाः, ततः कृष्णलेश्येभ्यो वाणमन्तरेभ्यः संख्येयगुणा एव घटते ज्योतिष्क देवाः, न त्वसंख्येयगुणाः, सूत्री रूपखण्ड प्रमा नहेतोः संख्ये ययोजनकांटी कोट्यपेक्क्या पट्पञ्चाशदधिकाकुलशतद्वय संख्येयनागमात्रवर्तित्वात् । सम्प्रति भवनवास्यादिदेवदेवीविषयं तदनन्तरं वनवास्था दिदेवदेवी समुदायविषयं सूत्रमाह एतोस णं जंते ! जवणवासीणं० जात्र बेमालियाणं देवा देवी य कहलेस्साणं० जात्र सुकलेस्साण य कयरे करेहिंतो अप्पा वा०४ १। गोयमा ! सव्वत्योवा माणि या देवा सुकलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेडनेस्सा प्रसंखेज्जगुणा, तेजले माओ देवीओ वमाीिओ संखेज्ञगुणाप्रो, तेउब्लेस्सा भवणवासीदेवा असं० तेउलेस्साओ भवणवासिणीओ संखेज्ज०, काउलेस्सा जवणवासी सं०, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएहलेस्सा विसे साहिया, काउलेमाओ भवरणवासिणी ओ संखेज्ज०, नीललेस्सा विसेसाहिया, कएलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउस्सा वाणमंतरा असं० तेउलेस्साओ वाणमंतरीप्रो संखे, काउलेस्सा वाणमंतरा असं०, नीझनेस्सा विसाहिया, कएलेस्सा बिसेसाहिया, काउंलेस्साओ वालमंतरीओ संखे०, नीलनेस्साओ विसेसाहियाओ, कएहलेस्सा विसेसादिया, तेउलेस्सा जोइसिया संखे०, तेजलेस्सा जोइसिपीओ संखेज्जगुणाो । तच्च सूत्रद्वयमपि प्रागुक्तभावनाऽनुसारेण भावनीयम् । प्रज्ञा० १७ पद | (लेश्या स्थानानामल्पबहुत्वं तु 'लेस्सा' शब्दे वक्ष्यते) ( वर्गणाया अल्पबहुत्वं बन्धप्ररूपणावसरे वेदयते ) ( २० ) इदानीं वेदद्वारमाह एएसि एवं जंते ! जीवाणं सवेदगाणं इत्थीवेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेदगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ।। गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पुरिसवेदगा, इत्थवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अलंतगुणा, नपुंसगवेदगा अनंतगुणा, सवेदगा विसेसाहिया । सर्वस्तोकाः पुरुषवेदाः, संज्ञिनामेव तिर्यकमनुष्याणां देवानां च पुरुषवेदभावात् । तेभ्यः स्त्रीवेदाः संख्येयगुणाः, यत उक्तं जीबाभिगमे - "तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिरिक्खजोणियइत्थीश्रोतिगुणाओ तिकवाहियाओ य तथा मनुस्सपुरिसेदितो म सीओ सत्तावीस गुणाभ सत्तावीसकबुतराओ य तहा देवपुरिसेहितो देवत्थी ओ वतं सगुणाओ वत्ती सरुत्तराओ य" इति । वृद्धाचार्यैरप्युक्तम " तिगुणा तिरुव ग्रहिया, तिरियाणा इत्थिया मुणेयब्वा । सत्तावीसगुणा पुण, मणुयाणं तदडिया चेव ॥ १ ॥ बत्तीलगुणा बी-सरूवग्रहिया य तद य देवाणं । देवीओ पन्नता, जिणेहि जियरागदो सेहिं " ॥ २ ॥ For Private पाचय (ग) वेदका अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् । तेभ्यो नपुंसकवेद अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् । सामान्यतः सवेदका विशेषाधिकाः, स्त्रीवेदक पुरुषबेकानामपि तत्र प्रपात् । प्रशा० ३ पद जी० । सवेदानामल्पबहुत्वचिन्तायाम् अपात्रहुगं सन्नत्योवा वेदगा, सवेदगा अंतगुणा । एवं मकसाती चैव अकसाती चेत्र जहा सत्रेया य तहेव जाणियन्त्रा । जी०१ प्रति० ॥ भ० । श्रथ वेदविशेषयतां स्त्रीपुंनपुंसकानां प्रत्येकमल्पबहुत्वम् तत्र स्त्रीणां पञ्चात्पबहुत्वानि । तद्यथा-प्रथमं सामान्येनाल्पबहुत्वम विशेषचिन्तायां द्वितीयं त्रिविधतिर्यक स्त्रीणाम, तृतीयं त्रिविधमनुष्यत्रीणाम्, चतुर्थ चतुर्विधदेवस्त्रीणाम्, पञ्चमं मिश्रस्त्रीणाम् । तत्र प्रथम मल्पबहुत्वमभिधित्सुराढ़ एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाएं मणुस्मित्थि - या देवत्थियाणं कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ म स्मित्थियाओ, तिरिक्रखजोणित्थियात्र असंखेज्जगुणाश्रो, देवित्थिया संखेज्जगुणाश्रो । ( पतासि णं भंते ! इत्यादि) सर्वस्तोका मनुष्य स्त्रियः, संख्यातकोटाकोटिप्रमाणत्वात् । तेभ्यस्तिर्यग्योनिकाः स्त्रियोऽसंख्येयगुणाः, प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं तिर्यक्त्रणामतिबहुतया संभवातू द्वीपसमुद्राणां वाऽसंख्येयत्वात् । तत्ताभ्योऽपि देवस्त्रियो 5' संख्येयगुणाः, भवनवासिन्यन्तरज्योतिष्क सौधर्मे शानदेवानां प्रत्येकम संख्येयश्रेण्या काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । १ । द्वितीयमल्पबहुत्वमाह एतासि णं भंते! तिरिक्खजो शित्थियाां जलयरी पंथarti खयरी य कयरा कयराहिंतो अप्पाओ वा बहुयाओ वा तुलाओ वा विसेसाहियाओ वा ?। गोयमा ! सव्व'त्योवा खहयरतिरिक्खजोगियाओ, यक्षयरतिरिक्खजो - शियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणियाओ संखेज्जगुणाओ । सर्वस्तोकाः खचरतिर्यग्योनिक स्त्रियः, ताभ्यः स्थलचरतिर्यम्योनिक स्त्रियः संख्येयगुणाः, स्वचराभ्यः स्थलचराणां स्वभावत एव प्राचुर्येण जावात् । ताभ्यो जलचरस्त्रियः संख्ये यगुणाः, लचणे कालोदे स्वयंजूरमणे च समुद्रे मत्स्यानामतिप्राचुर्येण जावात् । स्वयंभूरमणसमुद्रस्य च शेषसमस्तद्वीपसमुद्रापेचयाऽतिप्रभूतत्वात् । अधुना तृतीयमाहएतासि णं भंते! मस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मलूंमियाणं अंतरदीवियाण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा०४१ । गोयमा ! सव्वत्थोवा अतंरदी वग अकम्मत्तमंगमणुस्सत्थियाओ, देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मतूमगमपुस्सित्थियाओ दो वि तुलाओ संखेज्जगुणाओ, हरिवासरम्मगवाम अकस्मभूममस्सित्थिया दो वि तुलाओ संखेज्जगुणा, हेमवयहिरण्णत्रयवास अकम्पनूमगमणुरिन्थिया ओ दो वि तुम्नाओ Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६४ ) अभिधानराजेन्द्रः । बहु (ग) संखेज्जगुलाओ, नरहेरवयवास कम्म भूमगमपुस्सित्थियात्रो दो वि तुला संखेज्जगुणाम. पुव्वविदेह व रविदेहकम्ममगमस्सित्थिया दो वि तुलाओ संखेज्जगुणाो । सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाऽकर्मजूमकमनुष्यस्त्रियः, क्षेत्रस्यास्प स्वात् । ताभ्वो देवकुरूत्तरकुरु० स्त्रियः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य संख्ये यगुणत्वात् । स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्याः, समानप्रमाणके त्रत्वात् । ताभ्यो हरिवर्ष रम्य कंव कर्म्मभूमकमनुष्य स्त्रियः सं. श्य्यगुणाः, देव कुरूत्तरकुरुक्केत्रापेक्षया हरिवर्षरम्यक क्षेत्रस्यातिप्र चुरत्वात् । स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुल्याः, क्षेत्रस्य समानत्वात्। ताज्योऽपि हैमवत है र रायताकर्मभूमक मनुष्य स्त्रियः संख्ये - यगुणाः, क्षेत्रस्याल्पत्वेऽपि अल्प स्थितिकतया बहूनां तत्र तासां सम्भवात् । स्वस्थाने तु द्वयोरपि परस्परं तुस्याः । ताभ्योऽपि भरतैरवतकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः संख्ये यगुणाः, कर्म्ममितया स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण संभवात् । स्वस्थानेऽपि द्वयोरपि परस्परं तुस्याः । ताभ्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेह कर्मभूमकमनुष्यस्त्रियः संख्पयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यादजितस्वामिकाले श्व च स्वभावत एव तत्र प्राचुर्येण नावात; स्वस्थानेऽपि द्वयोरपि परस्परं तुल्याः । उक्तं तृतीयमल्पबहुत्वम् ॥ अधुना चतुर्थमाह एतासि णं नंते ! देवत्थियाणं जवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइमियाणं वेमालिनीए य कयरा कयराहिंतो अप्पा बा०४ १। गोयमा ! सत्योत्राओ नेमाणियदेवित्थियाओ,जवणवा - सीदेत्रित्थिया संखेज्ज गुणा भो, वाणमंतरदेत्रित्थियाओ श्रसंखज्जगुणाश्रो, जो सियदेवित्थिया संखेज्जगुणाश्रो । सर्वस्तोका वैमानिकदेवस्त्रियः, अकूलमात्र क्षेत्र प्रदेशराशेर्यद् द्वितीयं वर्गमूलं तस्मिन् तृतीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेोशकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभः प्रदेशा द्वात्रिंशतमन्नागहीनास्तावत् प्रमाणत्वात् । प्रत्येकं सौधर्मेशानदेवस्त्रीणां ताभ्यो भवनवासिदेवस्त्रियोऽसंख्येयगुणाः, मङ्गलमात्र के त्र प्रदेशराशेर्यत् प्रथमं वर्गमूलं तस्मिन् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुणिते यावत् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिद्वात्रिंशत्तमनागदीनस्तावत्प्रमाणत्वात् । ताभ्यो व्यन्तरदेवस्त्रियोऽसंस्थेयगुणाः, संख्येययोजनप्रमाणकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खाकानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे नवन्ति, तेज्योऽपि द्वात्रिंशसम नागेऽपनीते यच्छेपमवतिष्ठते तावत्प्रमाणत्वात् तासाम् । ताभ्यः संस्थेयगुणा ज्योतिष्कदेवस्त्रियः, षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुल प्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि खएडानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे प्रवन्ति ताभ्यो द्वात्रिंशसमे भागेऽपसारिते यावत्प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणत्वात् । उक्तं चतुर्थमपबहुत्वम् ॥ इदानीं समस्तस्त्रीविषयं पञ्चममल्पबहुत्वमादएतासि णं जंते ! तिरिक्खजोलियाणं जन्नयरीणं थलयरीणं खढयरीणं मणुस्सित्थिंयाणं कम्मभूमियाणं कम्मभूमियाणं तरदीवियाणं देवित्थियाणं जवणवा - सिणीं बाणमंतरीणं जोतिसियाणं वैमाणिलीण यकयरा कयराहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सव्वत्यो For Private अपाय ( ग ) वा अंतरदीवकम्पनूमगमणुस्सित्थियाओ, देवकुरुउत्तरकुरुश्चकम्मनूमगमस्सित्थियाओ दो विसंखेज्जगुणाओ, हरिवासरम्मगवास कम्मभूमगमपुस्सित्थिया दो विसंखेज्जगुणाओ, हेमवतहेरन्नवास अकम्पजूमगमस्सित्या दो वि असंखेज्जगुणा, नरहेरवयवासकम्मनूमगमणुस्सित्यीओ दो वि संखेज्जगुणाओ, पुत्रविदेह अवरविदेहवासकम्मभूमगमस्सित्थी ओ दो विसंखेज्जगुणाओ, माणियदेवित्थिया संखेज्जगुणाश्रो, जवणवा सिदेवित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, खहयरतिरिक्खजो शित्थियाओ प्रसंखेज्जगुणाओ, थलयर तिरिक्खजोणित्थिया संखेज्जगुणाओ, जल्झयरनिरिक्खजोगियियासंखज्जगुणा ओ, वाणमंतर देवि त्थिया संखेज्जगुणाश्रो, जोतिसियदेवित्यिया संखेज्जगुणाश्रो । सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकाकर्मभूमकमनुष्य स्त्रियः, ताभ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्ममक मनुष्य स्त्रियः संख्ये यगुणाः, ताभ्योऽपि हरिवर्षरम्यक स्त्रियः संस्थेयगुणाः, ताज्योऽपि हैमवतदैरण्यवतस्त्रियः संख्येयगुणाः, तात्योऽपि भरतैरवत कर्म भूमकमनुव्यस्त्रियः संख्ये यगुणाः ताभ्योऽपि पूर्वविदेढा पर विदेहमनुव्यस्त्रियः संख्ये यगुणाः । अत्र भावना प्राग्वत् । ताभ्यो वैमानिकदेवस्त्रियो ऽसंस्थेयगुणाः, असंख्येयश्रेण्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वासासाम । तान्यो जवनवासिदेवप्रियोऽसंक्यातगुणाः । श्रत्र युक्तिः प्रागेवोक्ता । ताभ्यः वचरतिर्यग्यानिक स्त्रियो ऽसंख्येयगुणाः, प्रतरासंस्थेयज्ञागवर्त्यसंध्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्तासाम् । ताभ्यः स्थल - चरतिर्यग्योनिक स्त्रियः संस्येयगुणाः, वृहत्तरप्रतरासंख्येयनागवसंख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । ताभ्यो जलचरतिर्यग्योनिक स्त्रियः संख्ये यगुणाः, बृहत्तमप्रतरासंख्येयनागवर्त्यसंचयेयश्रोणिगताकाश प्रदेश राशिप्रमाणत्वात् । ताभ्यो वाणमन्तरदेव स्त्रियः संख्ययगुणाः, संस्थेययोजनकोटाकोटिप्रमाणैकप्रादेशिक श्रेणिमात्राणि ख एकानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे जवन्ति तेयो द्वात्रिंशत्तमे भागेऽपहृते याचाम् राशि स्तिष्ठति तावत्प्रमाणत्वात् । ताभ्योऽपि ज्योतिष्करे वस्त्रियः संस्पयगुणाः। एतच प्रा. गेव भावितम् । चतानि स्त्रीणां पञ्चाप्यल्पबहुत्वानि । जी०२प्रति० साम्प्रतं नपुंसकानामुच्यते एसि णं भंते ! नेरइयनपुंसकाणं तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं मणुसनपुंसकाश य कतरे कतरेहिंतो ० जाव विसेसाहिया वा । गोयमा ! सव्वत्योवा मणुस्मनपुंसका, ने. रइयनपुंसका संखज्जगुणा, तिरिक्खजोणियनपुंसका प्रणतगुणा । प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह बैौतम! सर्वस्तोका मनुष्यनपुंसकाः, श्रेष्पसंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्योsia नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, अकुतमात्र क्षेत्र प्रदेशरा शौ तद्गतप्रथमवर्गमूत्रगुणितं याचार प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घन कृतस्य बोकस्य एकप्रादेशिकालु श्रेणीषु यावन्तो ननः प्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वा तेषाम् । तेभ्यस्तिर्यग्यो निकनपुंसका अनन्तगुणाः, निमोदजीवानामनन्तत्वात् । Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्डः। अप्पाबद्दय (ग) सम्प्रति नैरयिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाह देशराशिप्रमाणत्वात्। तेभ्योऽपि जलचरतिययोनिकनपुंसका: एतेसि णं नंते ! नेरश्यनपुंसकाएंजाब अहेसत्तमपुढ संख्येयगुणा,रहत्तरप्रतरामख्ययनागवल्संख्येयश्रेणिगताका. शप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्। तेत्योऽपि चतुरिन्द्रियनियम्योनिकनविनेरश्यनघुसकाण य कयरे कयरेहिं तो जाव विसेसाहिया पुंसका विशेषाधिकाः, असंख्येयकोट।कोटिप्रमाणाकाशप्रदेशवा। गोयमा! सन्बत्योवा अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसका,छ. राशिप्रमाणामु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादोश कीषु श्रेणिषु इपुढविणेरइयाणपुंसका असंखेज्जगुणा० जाव दोचा, पुढवि- यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । त्यस्त्रीन्सियनियंग्योनेरश्यनपुंसका असंखेज्जगुणा,इमी से रयणप्पभाए पुढचीए निकनपुंसका विशेषाधिकाः,प्रभूततरश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिनेरश्यणपुंमका असंखेज्जगुणा ।। मानत्वात् । तेभ्योऽपि द्वालियतिर्यग्यानिक नपुंमका विशेषा धिकाः, प्रभूततमणिगताकाशप्रदेशराशिमानत्वात् । तेभ्यः ते. (एएसि णमित्यादि) सर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवी नरयिक जस्कायिक केन्द्रियतियंग्योनिकनसका असंख्येयगुणाः, सूक्ष्मनपुंसकाः, अल्पतरश्रेयसंख्येय नागवर्तिनभःप्रदेशगशिप्रमाण. वादरभेदभिन्नानां तेषामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । स्चात । तेभ्योऽपि षष्टपृथिवीनैरयिकनपुसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यः पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका विशेषाधितेभ्योऽपि पञ्चमपृथिवीनगयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, ते काः, प्रनूतासंख्येयलोकाकाहाप्रदेशप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽपकान्योऽपि चतुर्थपृथिवीनैरयिकनपुंसका मसंख्येयगुणाः , तेभ्यो यिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुसका विशेषाधिकाः , प्रभूततराऽपि तृतीयपृथिवीनरयिकनपुंसका असंख्येयमुणाः, तेभ्योऽपि संख्येयलोकाकाशप्रदेशमानत्वात् । तेयोऽपि वायुकायिकैकेद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका असंभ्यातगुणाः, सर्वेषामप्येतेषां कियतियम्योनिकनपुंसका विशेषाधिकाः, प्रभृततमासंख्येयपूर्वपूर्वनैरयिकपरिमाण हेतुश्रेण्यसंख्येय जागापेकया असंख्ये लोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकै. यगुणाः, संख्येयगुणश्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिप्रमा केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणः, अनन्तलोकाकाशगत्वात् । दितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकेभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । पृथिव्यां नैरयिका असंख्ययगुणाः, अङ्गनमात्रकेत्रप्रदेशराशी सदगतप्रथमवर्गमूलगुणिते यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा अधुना मनुष्यनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाहसुघनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादशिकीषु श्रेणिषु यावन्त श्रा- एतेसिणं भंतेमणुस्साणपुंसकाणं कम्मन्नूमिका अकम्मकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । प्रतिपृथिवीं च पूर्वोत्तरपश्चि. नूमिकणपुंसकाणं अंतरदीवकाण य कयरे कयरोहितो अप्पा मदिग्भाविनो नैरयिकाः सर्वस्तोका,तेज्यो दक्षिणदिग्भाविनो. बा०४१। गोयमा! मबत्थाचा अंतरदीवगाऽकम्पनूमगमणुउसंख्येयगुणाः, पूर्वपूर्वपृथिवीगतदकिणदिग्भागभाविभ्योऽप्युत्तरस्यामुत्तरस्यां पृथिव्यामसंख्येयगुणाः पूर्वोत्तरपश्चिमदि स्सण पुंसका, देवकुरु नत्तरकुरुकम्मनूमगा दो वि संग्वेजभाविन इत्यादि । गुणा, एवं जाव पुचविदेहअवरविदेहकम्पनुमगमणुस्मसम्प्रति तिर्यग्योनिकनपुंसकविषयमल्पबहुत्वमाद- पुंसगा दो वि संखेजगुणा ।। एतसिणं भंते ! तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं एगिदिय सर्वस्तोकाः अन्तरद्वीपजमनुष्यनपुंसकाः एते च समर्डनजा द्रष्टव्याः, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यनपुंसकानां तत्रासंभवात , तिरिक्खजोणियनपुंसकाणं पुढविकाझ्यएगिदियणपुंसका संहतासु कर्मभूमिजास्तत्र भवेयुरपि । तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वपं० जाव वनस्सश्काश्यएगिंदियतिरिक्खजाणियणपुंसका- कर्मभूमकमनुष्यनपुंसका संख्येयगुणाः, तद्गतगर्भजमनुष्याण बेइंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं तेइंदियचनरिंदिय- णामन्तरद्वीपजगर्भजमनुष्येभ्यः संख्येयगुणत्वात् । गर्नजमनुपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जलयरथलयरखहय. प्योचाराद्याश्रयेण च संमूर्छनजमनुष्याणामुत्पादात् । स्वस्थाने तु वयेऽपि परस्परं तुल्याः । एवं तेज्यो हरिवपरम्यकवर्षाराण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा। गोयमा! कर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः संख्येयगुणाः, स्वस्थान तु द्वयपि सम्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणियणपुंसका, थायरातिरि- परस्परंतुल्याः। हैमवतरण्यवतवर्षाकर्मनमकमनुध्यनपुंसकाः क्खजोणियनपुंसका संखेज्जगुणा, जलयरतिरिक्खजोणि- संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः । तेभ्यो यनपुंसका संखेनगुणा, चतुरिदियतिरिक्खजोणियनपुंस भरतैरवतवर्षकर्मभूमकमनुष्यनपुंसकाः संख्ययगुणाः , स्व स्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः । तेन्यः पूर्वविदेहापरका विसेसाहिया,तेइंदिया विसे साहिया, बेइंदिया विसेसा विदेहकर्मजूमकमनुष्यनपुंसकाः संख्येयगुरणाः, स्वम्धाने तु हिया, तेउक्काइय एगिदियतिरिक्खा असंखेजगुणा, पुढ द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः। युक्तिः सर्वत्रापि तथैवानुसतव्या । विकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणिया विसेसाहिया , एवं संप्रति नैरयिकतिर्यमनुप्यविषयमल्पबहुत्वमादप्रामवाउ०, वणस्सइकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियणपंस एतेसि णं ते नेरड्यनपुमकाणं रयण पुढ विनरइयनपुंका अणंतगुणा ॥ सकाणं जाव अहेसत्तमपुढविनेरइयनसकाणं तिरिक्खजो(एपसि णमित्यादि ) सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्जियनियंगन णियनपुंसकाणं एगिदियतिरिक्वजोणियाणं पुदविकाइयपुंसकाः, प्रतरासंख्येयभागवर्त्य संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यः स्थल चरतिर्यग्योनिकनपुंसकाः संख्ये एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसकारणं जाव वएस्सइकाइयएपगुणाः , बहत्तरप्रतरासंख्येयजागवर्यसंस्येयश्रेणिगतनभःप्र. | निंदियनपुंसगाणं वशदयतहादयचनारायपचादयातार Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) अनिधानराजेन्डः। अप्पाबद्दय (ग) क्खजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं म- वा बहया वा तुझा वा विसेसाहिया वा। गोयमा ! सब स्मणपुंसकाणं कम्मनूमिकाणं अकम्मन्नूमिकाणं अंतर-1 त्थोवा वेमाणियदेवपुरिसा, जवणवइदेवपुरिसा असंखेदीवकाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४१। गोयमा ! जगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, जोइसियसम्बत्योवा अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसका, बट्ठपुढविनेरइ- देवपुरिसा संखेज्जगुणा।) यनपुंसका असंखेजगुणाजाव दोच्चा, पुढविनेरइयनपुंसका (पएसि ण भंते! इत्यादि)सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः, संख्येयको. असंखेजगुणा, अंतरदीवगमणुस्सणपुंसका असंखेजगु- टीकोटिप्रमाणत्वात् । तेभ्यः तिर्यग्योनिकपुरुषा असंख्येयगुणा,देवकुरूत्तरकुरु अकम्मलामिका दो वि संखेजगुणा, जाव | णाः, प्रतरासंख्येयभागवय॑संख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिपुबविदेह अवरविदेहकम्मभूमगमणुस्साणपुंसका दो वि सं प्रमाणत्वात्तेषाम् । तेभ्यो देवपुरुषाःसंख्ययगुणाः,बृहत्तरप्रतरा संख्येयभागवर्त्यसंस्येयणिगताकाशप्रदेशराशितुल्यत्वात् । ख जगुणा, रयणप्पभापुढपिनेरइयणपुंमका असंखेज्जगुणा, तिर्यग्योनिकपुरुषाणां यथा तिर्यग्योनिकस्त्रीणां मनुष्यपुरुषाणां खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियणपुंमका असंखेज्जगुणा, यथा मनुष्यत्रीणामस्पबहुत्वं वक्तव्यम् । संप्रति देवपुरुषाणाम. थायरा संखज्जगुणा,जनयरा संखेज्जगुणा,चतुरिंदियतिरि- ल्पबदुखमाह-सर्वस्तोका अनुत्तरोपपातिकदेवपुरुषाः, केत्रपखजोणियनपुंसका विसेसाहिया,तेइंदियनपुंसगा विसेसाहि स्योपमासंख्येयभागवाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्यात् । तेभ्य या,बेइंदियनपुंसगा विसेमाहिया, तेनकाइयएगिदियनपुंसगा उपरितनप्रैवेयकदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः,बृहत्तरक्षेत्रपस्योपमा संख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशराशिमानत्वात् । कथमेतदवसेयअसंखज्जगुणा, पुढविकाइयएगिदियनपुंसगा विसेसाहिया, | मिति चेत्,सच्यते-विमानबाहुल्यात् । तथाहि-अनुत्तरदेवानां आरकाश्यनपुंसगा विसेसाहिया,वाउकाइया विसेसाहिया,व- पञ्च विमानानि, विमानशतं तूपरितनदेयकप्रस्तटे,प्रतिविमानं णस्सकाश्यएगिदियतिरिक्वजोणियणपुंसका अणंतगुणा। चासंख्येया देवाः, यथाऽत्राऽधोऽधोवर्तीनि विमानानि तथा तथा देवा अपि प्राचुर्येण लभ्यन्ते, ततोऽवसीयते-अनुत्तरविसर्वस्तोका अधःसप्तमपृथिवीनैरयिकनपुंसकाः,तेल्यः षष्ठपञ्च मानवासिदेवपुरुषापेक्षया बृहत्तरकेत्रपल्योपमासंख्येयभागवमचतुर्थतृतीयद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका यथोत्तरमसंस्थे तिनभ-प्रदेशराशिप्रमाणा उपरितनग्रैवेयकप्रस्तटे देवपुरुषाः यगुणाः,द्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकेभ्योऽन्तरद्वीपजमनुष्यन एवमुत्तरत्रावि भावना विधेया। तेभ्यो मध्यमवेयकप्रस्तटे पुंसका असंख्पेयगुणाः, एतदसंख्येयगुणत्वं संमूनिजमनुष्या देषपुरुषाः संख्येयगुणा, तेभ्योऽप्यधस्तनप्रैवयकप्रस्तटे देवपुपेकं, तेग नपुंसकत्वाद्, एतावतांच तत्र संमूर्छनसंभवात् । ते रुषाःसंख्ययगुणाः,तेभ्योऽप्यच्युतकल्पदवपुरुषाः संख्येयगुणाः, भ्यो देवकुरूत्तरकुर्वकर्मनमकमनुष्यनपुंसका हैमवतहरैएयवताकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका भरतैरवतकर्मभूमकमनुभ्यनपुं. यद्यप्यारणाच्युतकल्पी समणिको समविमानसंख्याको च, तथापि कृष्णपाकिकास्तधास्वाभाव्यात् प्राचुर्येण दक्षिणस्या सकाः पूर्वविदेहापरविदेहकर्मनूमकमनुष्यनपुंसका यथोत्तरं दिशि समुत्पद्यन्ते। अथ केते कृष्णपाक्तिकाः !, उच्यते-इह इ. संख्येयगुणाः, स्वस्थानचिन्तायां तु द्वये परस्परं तुल्याः, पू ये जीवाः, तद्यथा-कृष्णपाक्तिकाः, शुक्लपाकिकाच । तत्र येषां विदेहापरविदेहकर्मचूमकमनुष्यनपुंसकेभ्योऽस्यां प्रत्यक्कत उ किश्चितूनोपाईपुशलपरावर्तः संसारस्ते शुक्लपाक्तिकाः, श्तर पलभ्यमानायां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिकनपुंसका असंख्ये दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपालिकाः । उक्तं च-"जेसिमबछो यगुणाः, तेभ्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुसकाः असंख्ये पोग्गस-परियट्टो सेसो य संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, याणाः, तेभ्यः स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका जल अहिए पुण कएदपक्खीओ" ॥१॥ अत एव स्तोकाः शुक्लपाचरपश्चेन्धियतिर्यम्योनिकनपुंसका यथोत्तरं संख्येयगुणाः, ज किकाः, अल्पसंसाराणां स्तोकानामेव भावात् । बहवः कृ. सबरपश्चेन्डियनपुंमकेभ्यश्चतुरिन्छियत्रीन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुं पणपाक्तिकाः, दीर्घसंसाराणामनन्तानां भावात्। अथ कथमेतसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रियातिर्यग्योनिकनपुंसके दवसातव्यं कृष्णपाक्तिका- प्राचुर्येण दक्विणस्यां दिशि समुत्प-- ज्यस्तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यम्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, धन्ते , उच्यते-तथास्वाभाव्यात् । तथ तथास्वानाव्यमेवं पूतेच्यः पृथिव्यम्वुवायुतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषा र्षाचायैयुक्तिनिरुपबृहितम, कृष्णपाक्षिकाः खलु दीर्घसंसारभाधिकाः, वायवेकेन्द्रियतिर्यम्योनिकनपुंसकेन्यो वनस्पतिकायि जिन उच्यन्ते, दीर्घसंसारभाजिनश्च बदुपापोदयात, बहुपाकैकेन्द्रियतिर्यभ्योनिकनपुंसका अनन्त गुणाः । युक्तिः सर्वत्रा पोदयाश्च ऋरकम्मर्माण, करकर्माणश्च प्रायस्तथास्वाभाव्यात। ऽपि प्रागुक्तानुसारेण स्वयं भावनीया। इत्युक्तानि पञ्च नपुंस तद्भवसिद्धिका अपि दकिणस्यां दिशि समुत्पद्यन्ते,यत उक्तम्कानामपि अल्पबहुत्वानि । जी०२ प्रति। "पायमिह कूरकम्मा, भवासिद्धिया वि दाहिणिसु । नेरश्यसाम्पतं पुरुषाणामुच्यन्ते-तानि च पञ्च । तद्यथा-प्रथम सामा- तिरियमणुया, सुरा य गणेसु गच्छंति" ॥१॥ ततो दक्विणभ्याल्पबहुत्वम् १, कितीयं त्रिविधतिर्यकपुरुषाविषयम् २, तृतीय स्यां दिशि प्राचुर्येण कृष्णपाक्षिकाणां संभवादुपपद्यतेऽच्युविविधमनुध्यपुरुषविषयम् ३, चतुर्थ चतुर्विधदेवपुरुषविषयम् तकल्पदेवपुरुषापेक्षया आरणकल्पदवपुरुषाः संख्येयगुणाः, ते४. पश्चमं मिश्रपुरुषविषयम् । भ्योऽपि प्राणतकल्पदेवपुरुषाः संख्ययगुणाः, तेभ्योऽप्यानततत्र प्रथमं तावदभिधित्सुगह कल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, अत्रापि प्राणतकल्पापेक्वया सं ख्येयगुणत्वं, कृष्णापालिकाणां दक्षिणस्यां दिशि प्राचुर्येण भा(एतेसि णं जंते ! देवपुरिमाणं जवणवासीणं वारणमंत-| वात् । एते च सर्वेऽध्यनुत्तरविमानवास्यादय प्रानतकल्पवाराणं जोइसियाणं चेमाणियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा | सिपर्यन्तदेवपुरुषाः प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमसंख्येभागवर्तिनभः Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबद्दय (ग) अभिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) प्रदेशराशिप्रमाणा अष्टम्याः । “प्राणयपाणयमाई पल्सस्साऽसं- यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् । तेन्यः संस्येय. सभागा उ" इति वचनात् । केवलमसंख्येयो भागो विचित्र- गुणा ज्योतिप्का देवपुरुषाः, पट्पश्चाशदधिकशतद्वयानलप्रमाणेइति परस्परं यथाक्तं संख्येयगुणत्वं न विरुध्यते । पानतकल्प कप्रादेशिकणिमात्राणि खएमानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भव. देवपुरुषेभ्यः सदनारकल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, न्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो नागस्तावत्प्रमाणत्वात् /जी०२ धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्याः श्रेणेरसंख्येयतमे भागे प्रति०। इति चन्चार्यल्पबहुत्वान्यक्तानि । ( भत्रकायावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात्तेषाम्,तेभ्योऽपि महाशु कारस्यान्याशः पाठः सम्मत इदानींतनप्रतिषु तु भन्यारश कल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, वृहत्तरघेण्यसंण्येयभा इति शन्द तो नेद प्राभाति, अर्थतस्तु न जेदः) गाकाशप्रदेशगशिप्रमाणत्वात् । कथमेतत् प्रत्येयमिति चेत् ?, सम्प्रति पश्चममल्पवाहुत्वमाहसच्यते-विमानबाहुल्यात् । तथाहि-षट्सहस्राणि विमानानां सदनारकल्पे, चत्वारिंशत्सहस्राणि महाशुक्र, अन्यश्चाधोवि एतेसिणं भंते ! तिरिक्वजोणियपुरिसाणं जलयराणं मानवासिनो देवा बहुबहुतराः, स्तोकस्तोकतरा उपरितनवि- थलयराणं खहयराणं भणुस्सपुरिसाएं कम्मजूमगाणं अमानवासिनः, तत उपपद्यते सहस्रारकल्पदेवपुरुषेज्यो महाशु- कम्मतमगाणं अंतरदीवगाणं देवपुरिसाणंजवणवामीणं क्रकल्पवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः,तेभ्योऽपि लान्तककल्प वाणमंतराणं जोतिमियाणं वेमाणियाणं सोधम्माणंजाब देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, वृहत्तमश्रेण्यसंख्ययभागवर्तिनभ:प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽपि ब्रह्मलोककल्पवासिनो सबट्ठसिकगाण य कयरे कयरोहितो. जाव विसेसाहिया ?। देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, योवृहत्तमश्रेण्यसंख्येयजागवा- गोयमा! मबत्योवा अंतरदीवगमणुस्मपुरिसा,देवकुरुउत्तकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्योऽपि माहेकंकल्पदेवपुरुषा रकुरुकम्मचूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखिजगुणा, हभसंख्येयगुणाः, नूयस्तरवृहत्तमश्रेण्यसंख्येयभागगताकाशप्रदे रिवासरम्मवासअकम्मनूमगमणुस्मपुरिसा दो वि संखेजशमानत्वात्। तेभ्यःसनत्कुमारकल्पदेवा असंख्येयगुणाः,विमानबाहुल्यात् । तथाहि-द्वादशशतसहस्राणि सनत्कुमारकल्पे वि गुणा, हेमवतहेरलवतवास अकम्मजूमगमणुस्सपुरिमा दो मानानाम, अष्टौ शतसहस्राणि माहेन्जकल्पे, अन्यच्च दक्षिणदि. वि संखेज्जगुणा , जरहेरवयवासकम्मजूमगमगुस्सपुरिग्भागवर्ती सनत्कुमारकल्पो,माहेन्द्रकल्पश्चात्तदिग्वी,दक्षिण- सा दो वि संखेजगुणा, पुवविदेह अवरविदेहकम्मनूस्यांच दिशि बहवः समुत्पद्यन्ते कृष्णपालिकाः, तत उपपद्यन्ते मगमणुस्मपुरिमा दो वि संखेजगुणा , अणुत्तरोववामाहेन्द्रकल्पात्सनत्कुमारकरूपदेवा भसंख्येयगुणाः। एते च सर्वेऽपि सहस्रारकल्पवासिदेवादयः सनत्कुमारकल्पवासिदेवपर्यन्ताः तिदेवपुरिसा असंखेजगुणा, उवरिमगेवेज्जगदवे पुरिसा संप्रत्यकं स्वस्थाने चिन्त्यमाना घनीकृतलोकैकश्रेयसंख्येयनागा खेजगुणा, मज्झिमगेवेजदेवपुरिसा संखेजगुणा , हिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणा अष्टव्याः । केवलं श्रेण्यसंख्येयभा- हिमगेवेन्जदेवपुरिमा संखेज्जगुणा, अच्चुते कप्पे देवपुगोऽसंख्येयभेदस्तत इत्यमसंख्येयगुणतया अल्पबहुत्वमनिधी | रिसा संखेजगुणा, आरणकप्पे. देवपुरिमा संखेज्जयमानं न विरोधभाक् । सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषेभ्य ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदशराशेः संबन्धि गुणा, पाणयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा , आणतकप्पे नि द्वितीयवर्गमूले तृतीयेन वर्गमूवेन गुणिते यावान् प्रदेशराशि देवपुरिसा संखेज्जगुणा , सहस्सारकप्पे देवपुरिसा अस्तावत्संख्याकासु धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीसुश्रेणी- संखेज्जगुणा, महामुक्ककप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा० बु यावन्तो नन्नःप्रदेशास्तेषां यावान द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्र- जाव माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणं कुमारमाणत्वात् । तेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, कप्पे देवपुरिमा असंखेजगुणा,ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंविमानबाहुल्यात् । तथाहि-अष्टाविंशतिः शतसहस्राणि विमानानामीशानकरपे, द्वात्रिंशश्च शतसहस्राणि सौधर्मकल्पे, अपि च खेजगुणा, सोधम्मे कप्पे देवपुरिमा संखेज्जगुणा , दक्षिणदिग्बी सौधर्मकल्पः,ईशानकल्पश्चोत्तरदिग्वर्ती,दक्किण भवणवासिदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, खहयरतिरिक्खजोस्यां च दिशि बहवः कृष्णपाक्षिका उत्पद्यन्ते । तत ईशानकल्प- णियपुरिता असंखेजगुणा, थलयरतिरिक्वजोणियपुबासिदेवपुरुषेभ्यः सौधर्मकल्पवासिदेवपुरुषाः सङ्ख्यगुणाः ।। रिसा संखेज्जगुणा , जन्नयरतिरिक्वजोणियपुरिसा संखेनम्वियं युक्तिः सनत्कुमारमाहन्छ कल्पयोरप्युक्ता, परं तत्र माहे. ज्जगुणा , वाणमंतरदेवपुरिसा संखेज्जगुणा, जति सियन्द्रकल्पापेक्षया सनत्कुमारकल्पदेवा असंख्येयगुणा उक्ताः, यह तु सौधर्मकल्पे संख्येयगुणाः,तदेतत्कथम्?, उच्यते-तथावस्तु देवपुरिसा संखेनगुणा। वाभाव्यात् । एतचावसीयते प्रज्ञापनादौ,सर्वत्र तथा भणनान् । सर्वस्तोका भन्तरद्वीपजमनुष्यपुरुषाः, क्षेत्रस्य स्तोकत्वात् । तेभ्योऽपि भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, अालमात्रक्के. तेन्यो देवकुरुत्तरकुरुमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्य बाहुअप्रदेशराशेः संबन्धिनि प्रथमवर्गमूले द्वितीयेन वर्गमूसेन गु- व्यात् । स्वस्थाने तु द्वयेऽवि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽपि दरिणिते यावान् प्रदेशराशिरुपजायते तावत्संख्याकासु घनीकृतस्य वर्षरम्यकवर्षाकर्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रस्यालोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तेषां या-! तिबद्दत्वात् । स्वस्थाने तु येऽपि परस्परं तुल्या, क्षेत्रस्य वान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् । तेभ्यो व्यन्तरदेवपु. समानत्वात् । तेभ्योऽपि हैमवतहरण्यवताकर्मभूमकमनुरुषाः संख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणकप्रादेशि- प्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, केत्रस्याल्पत्वेऽप्यल्पस्थितिकतया प्रा. कश्रेणिमात्राणि खरमानि यावन्त्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति, तेषां चुर्येण लभ्यमानत्वात । स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः। Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाचहुय (ग) तेभ्योऽपि रतैवतवर्ष कर्म्म जुमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, अजितस्वामिकाले उत्कृष्टपदे स्वभावत एव नरतैश्वतेषु च मनुष्यपुरुषाणामतिप्राचुर्येण संभवात् । स्वस्थाने च द्वयेऽपि परस्परं तुख्याः, क्षेत्रस्य तुल्यत्वात् । तेज्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहाद कर्म्मभूमकमनुष्यपुरुषाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात् । अजितस्वामिकाले श्व स्वभावत एव मनुष्यपुरुत्राणां प्राचुर्येण संभवात् । स्वस्थाने तु द्वयेऽपि परस्परं तुल्याः, तेभ्योऽप्यनुत्तरोपपातिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, क्षेत्रपल्योपमासंख्येयनागघर्त्याकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । तदनन्तरमुपरितनयैवेयक प्रस्तटदेवपुरुषा अच्युतकल्पदेवपुरुषा आरणकल्पदेवपुरुषाः प्राणतकल्पदेवपुरुषा आनतकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरं संख्येयगुणाः । जावना प्रागिव । तदनन्तरं सहखारकल्पदेव पुरुषा ज्ञान्तककल्पदेवपुरुषा ब्रह्मलोक कल्पदेवपुरुषा माहेन्द्र कल्पदेवपुरुषाः सनत्कुमार कल्पदेवपुरुषा ईशानकल्पदेवपुरुषा यथोत्तरमसंख्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, सौधर्मकल्पदेवपुरुभ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः । भावना सर्वत्रापि प्रागिव । तेभ्यः खचरतिर्यग्योनिकपुरुषा असंख्येयगुणाः, प्रतरासंख्येयनागवर्त्यसंख्येयश्रेणिगता काशप्रदेशराशिप्रमाण - त्वात् । तेभ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिक पुरुषाः संख्ये यगुणाः, तेभ्यो. ऽपि जलचर तिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः । युक्तिरत्रापिप्रा गिव । तेभ्योऽपि वाणमन्तरदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, संख्येययोजनकोटी कोटिप्रमाणैक प्रादेशिक श्रेणिक मात्राणि खएमानि बाषन्त्येकस्मिन् प्रतरे नवन्ति तेषां यावान् द्वात्रिंशत्तमो भागस्तावत्प्रमाणत्वात् । तेभ्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः। युक्तिः प्रागेवोक्ता । जी० २ प्रति० । इति प्रतिपादितानि स्त्रीपुंनपुंसकानां प्रत्येकमल्पबहुत्वानि । ( ६६८ ) निधानराजेन्द्रः । इदानीं समुद्रितानामुच्यन्तेन्तानि चाष्ट। तत्र - प्रथमं सामान्येन तिर्यक्त्रीपुरुष नपुंसक प्रतिबरूम, एवमेतदेव मनुष्यप्रतिबद्धं द्वितीयम, देवस्त्रीपुरुषनारकनपुंसक प्रतिबद्धं तृतीयम्, सकलसन्मिश्रं चतुर्थम, जनचर्यादिविभागतः पञ्चमम, कर्मभूमिजादिमनुष्यादिविभागतः षष्ठं, जवनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तम, जलचर्यादिविजातीयव्यक्तिव्यापकममम् ॥ तत्र प्रथममभिधित्सुगह एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोत्थिीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियपुंसकारण य कयरे कयरेहिंतो० जाव विमादिया ? । गोयमा ! सव्वत्योवा तिरिक्खजोयिपुरिमा, तिरिक्खजोणियत्थी संखेज्जगुणाओ तिरिक्खजोणिय पुंसका अांतगुणा । सर्व स्तोकास्तिर्यक्पुरुषाः तेभ्यस्तिर्य कूस्त्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात् । ताभ्यस्तिर्य नपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजी घानामनन्तत्वात् । संप्रति द्वितीयमल्पबहुत्वमाह एतेसि णं जंते ! मस्सित्यीणं मणुस्सपुरिमाणं मणुस्मरणपुंसकारणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १ । गोयमा ! सन्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्यीओ संखेज्जगुणायो मणुमपुंसका असंखेज्जगुणा । सर्वस्तोका मनुष्यपुरुषाः, कोटी कोटिप्रमाणत्वात् । तेभ्यो मनुष्यास्त्रयः संयेयगुणाः सप्तविंशतिगुणत्वात् । तेभ्यो For Private पाहु (ग) मनुष्य नपुंसकाश्च संख्येयगुणाः श्रेण्यसंख्येयजागगत प्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । संप्रति तृतीयमल्पबहुत्वमाह - एतेसिणं जंते! देविस्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयनपुंसकाण य कयरे कयरेहितो ० जाव विसेसाहिया १ । गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइयनपुंसगा, देवपुरिसा असंखेज्ज गुएा, देविस्थी संखेज्जगुणा ओो । सर्वस्तोका नैरचिकनपुंसकाः, श्रृङ्गलमात्रक्षेत्र प्रदेशराशौ स्वप्रथमवर्गमूलेन गुणिते यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । तेभ्यो देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, असंख्येययोजनकोटी कोटिप्रमाणायां शुचौ यावन्तो नभः प्रदेशास्तावत्प्रमाणासु घनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु यावन्त श्राकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणत्वात् । तेभ्यो देवस्त्रियः संस्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । सम्प्रति सकलसंमिश्रं चतुर्थमल्पबहुत्वमाहएतेसि णं भंते! तिरिक्खजो णित्थीएं तिरिक्खजोणिय पुरिसाए तिरिक्खजोरिणयनपुंसगाणं मणुस्सित्थीणं मणुसपुराणं मणुस्सनपुंसगाणं देवित्थीणं देवपुरिसाणं नेरश्यन सकाए य कयरे कयरेहिंतो० १ । गोयमा ! सव्वत्योवा मणूस पुरिसा, मणुस्सित्यीओ संखेज्जगुणा, मस्सलपुंसका असंखेज्जगुणा, नेरइयपुंसका असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणियपुरिसा असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाश्रो, देवपुरिसा संखेज्जगुणा, देत्रित्थिया संखेज्जगुणाओ तिरिक्खजोणियनपुंसका अांतगुणा । सर्व स्तोका मनुष्यपुरुषाः, तेभ्यो मनुष्य स्त्रियः संस्येयगुणाः । तेज्यो मनुष्यनपुंसका असंख्येयगुणाः । श्रत्र युक्तिः प्रागुक्ता । ते भ्यो नैरयिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, असंख्येयश्रेण्या काशप्रदे शराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यस्तिर्यग्योनिकपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेज्यस्तिर्यग्योनिक स्त्रियः संख्यातगुणाः, त्रिगुणात् । ताज्यो देवपुरुषाः संख्येयगुणाः, प्रभूततरप्रतरासंख्येय भागवर्त्यसंस्थेयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यो देवस्त्रियः संख्ये यगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । ताभ्यस्तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोदजीवानामनन्तत्वात् । संप्रति जनचर्यादिविनागतः पञ्चममल्पबहुत्वमादपतासि णं भंते! तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीणं थायरीणं खयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाएं जलयराणं थल पराणं खयराणं तिरिक्खजोणिय पुंसकाएं एगिदियतिरिक्खजोयिनपुंसकाणं पुढविकाइय एर्गिदियतिरिक्खजोशियन पुंसगाणं ०जाब वएस्सइकाइयए गिंदियति रिक्ख जोणिय नपुंसगारंग बेईदियतिरिकख जोगियणपुंसकःणं, तेइंदियचतुरिंदियपंचंदियतिरिक्रख जोणिय पुंसकारणं जल्झयराणं यक्षयराणं खइराणं करे करेहिंतो ० जाव विसेसादिया वा ।। गोयमा ! सन्वत्योवा खड् परनिरिक्खजोलियपुरिसा, खड़यर तिरि Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६ ) अभिधानराजेन्द्रः / अप्पाचय (ग) क्खजाणित्थिया संखेज्जगुएाओ, यन्नयर तिरिक्ख जोणिपुरिसा संखेज्जगुणा, थक्षयरतिरिक्खजोणित्यो संखज्जगुणाश्रो, जन्नयतिरिक्खजोणियपुरिसा संखज्जगुणा, जलयरतिक्खि जोणित्थियाओ संखज्जगुरणाओ, खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोयिष्णपुंसका संखेज्जगुणा, यज्ञयरपंचदियतिरिक्रख जोणिय पुंसगा संखेज्जगुणा, जलयरतिरिक्खजोलियापुंसक पंचेंदिया संखेज्जगुणा, यरिंदियतिरिक्खजोणियणपुंसका विसेसाहिया, तेइंद्रियणपुंसका विससाहिया, बेदिपुंसया विसेसाहिया, तेनकाइयए गिंदि यतिरिक्खजोलियणपुंसका असंखज्जगुला, पुढविनपुंसका विसेसाहिया, उप विसेसाहिया, वान० विसेसाहिया, वणफतिए गिंदियपुंसका अांतगुणा । सर्वस्तोकाः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकपुरुषाः । तेज्यः खचरतिर्यग्योनिक स्त्रियः संख्ययगुणाः, त्रिगुणत्वात् । ताञ्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः । तेभ्यः स्यलचरतिर्यग्योनिकप्रियः संख्येयगुणाः, त्रिगुणत्वात् । ताभ्यः जलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः संख्येयगुणाः । तेभ्यः जलचरतिर्यग्योनिकस्त्रियः संख्ये यगुणाः, त्रिगुणत्वात् । तान्यः खचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसकाः संख्येयगुणाः । तेज्यः स्थलचरतिर्यग्योनिकनपुंसका यथाक्रमं संख्येयगुणाः । ततश्चतुरिन्द्रियत्रीन्द्रियद्वीन्द्रिया यथोत्तरं विशेषाधिकाः । ततस्तेजस्कायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः । ततः पृथिव्य म्बुवायुकायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः । ततो वनस्पतिकायिकै केन्द्रिय तिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः । संप्रति कर्मभूमिजादिमनुष्यरूयादिविभागतः षष्ठमल्पबहुत्वमाह एयासि णं भंते! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्पभूमियाणं अंतरदी त्रियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमिकाणं कम्फमिकाएं अंतरदी विकाणं मणुस्सल पुंसकाणं कम्मभूमगाणं कम्म मगाणं अंतरदी विकाण य कयरे कमरे हिंतो अप्पा वा०४१ । गोयमा ! अंतरदीवक श्रकम्पनूमकमणुस्सत्थियाओ मस्स पुरिसा य एतेसि णं दोमि वितुल्ला सव्वस्थोवा, देवकुरुन त्तरकुरु कम्मनूमकमणुस्सित्थियात्र मणुस्पुरिसा एते दोपि वि तुला संखेज्जगुणा; हरिवासरम्मकत्रासश्चकम्मभूमकमणुस्सि त्थिया प्रो मधुस्सपुरिसायएते दो वि तुझा संखेज्जगुणा, हेमवते हेरण. कम्मभूमकमस्सित्थी ओ मणुस्सपुरिसा य दो वि तुला संखेज्जगुणा, नरहेरवतकम्मजुमगमणुस्तपुरिमा दोवि संखेज्जगुणा, नरहेरवयकम्मभूमगमस्सित्थियाओ दोविसंखेज्जगुणाओ, पुत्रविदेह अवरविदेहकम्प भूमगमगुस्सपु रिसा दो विसंखेज्जगुणा, पुव्त्रविदेह अवरविदेहकम्पनूमगमस्सित्थी ओ दो वि संखज्जगुणा, अंतरदीनग अकमनूमगमस्स पुंस का प्रसंखेज्जगुणा, देवकुरुउत्तरकुरुप्र १६० For Private अप्पात्रहुय ( ग ) कम्पमगमगुस्सणपुंनका दो विसंखेज्जगुणा, एवं तहेव जाव पुत्रविदेवरविदेद कम्मनुकम गुस्साए पुंसका दो विसंखेज्जगुण || ताभ्यः सस्तोका अन्तरद्वीपक मनुष्य स्त्रियो ऽन्नरीपक मनुष्यपुरुपाश्चः एते च इयेऽपि परस्परं तुल्याः । तत्रत्यस्त्रीपुंसानां युगलधर्मेोपेतत्वात् । तेभ्यो देवकुरुत्तर कुर्वकम्मैभ्रमक मनुष्य स्त्रियो मनुष्यपुरुषाः संख्ये यगुणाः । युक्तिरत्र प्रागेवोक्ता | स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । एवं हरिवरस्यक मनुष्य पुस्पस्त्रियो दैमवत है र एयवन मनुष्य पुरुषस्त्रियश्च यथोत्तरं संख्ययगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । ततो नतरवतक भूकम नुष्या द्वये संख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । तेभ्यो भरतरवतकर्मभूमकमनुष्यास्त्रयो द्वय्योऽपि संख्येयगुणाः समाविशतिगुणत्वात्, स्वस्थाने तु परस्परं तुख्याः । पूर्ववदेहापरचिदेड कर्म्मभृमक मनुष्य पुरुषा इयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । तयः पूर्वविदेहापर विदेहा कर्मभूमकमनुष्य स्त्रियो द्वय्योऽपि संस्थेयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात् स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । ताभ्योऽन्तरद्वीपक मनुष्यनपुंसका श्रसंख्ययगुणाः, श्रेण्यसंख्ययभागगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तेभ्यो देवकुरुत्तरकुर्वकर्मभूमक मनुष्यनपुंसका ध्येऽपि संख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । तेभ्यो हरिवर्ष रम्यक वर्षाकर्मभूमकमनुष्यनपुंसका ध्येऽपि संख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । तेज्यो हैमवत हैरण्यवता कर्मभूमक मनुष्यनपुंसका द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । तेज्यो नरतैरता कर्मभूमक मनुष्यनपुंसका इयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । तेभ्योऽपि पूर्वविदेहापविदेहकभूमकमनुप्यनपुंसका ध्येऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । संप्रति वनवास्यादिदेव्यादिविभागतः सप्तममल्पबहुत्वमाहएतासि णं जंते ! देत्रित्थीणं अवयवासीणं वाणमंतरीणं जोस माणि देवपुरिसाणं भवरणवासी० जात्र मणियाणं सोधम्मकाणं० जाव गविज्जकाणं अणुत्तरोववा - इयाणं परइयनपुंसकाणां रयणप्पभापुढविनेर इयनपुंसकाणं ० जावसत्तमापुढविनेरयनपुंसगाणं कयरे कयरेंहिता० जाव विसेसा हिया वा ? । गोयमा ! सन्वत्योवा अणुत्तरोववाइया देवपुरिसा, उवरिमवेज्जा देवपुरिसा संखेज्जगुणा, तहेव० जाव आणत कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, हेमतमाए पुढबीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, बट्टीए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुके कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, पंचमार पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, लंनए कप्पे असंखेज्जगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरश्या असंखेज्जगुरणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, तचा पुढवी नेरइया असंखेज्जगुणा, माहिंदे कप्पे देपुरिसा संखेज्जगुणा, सणकुमारे कप्पे देवपुरिसा श्रसंखेज्जगुणा, दोच्चाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७०) अप्पाबहुय (ग) अभिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) इसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, ईसाणे कप्पे वा०४१। गोयमा! सव्वत्थोवा अंतरदीवककम्मनूमिकमदेवित्थियाओ संखेजगुणाओ, सोधम्मे कप्प देवपुरिसा | णुस्सित्यीअो मणुस्सपुरिसा य एतेणं दो वि तुया सचसंखेज्जा, सोधम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखे०, नवन- त्योवा, देवकुरुनुत्तरकुरुकम्मजूमगमणुस्सित्थीओ मणुवासिदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, जवणवासिदेवीस्थियाओ स्मपुरिसा य एतेणं दो वि तुला संखेज्जगुणा; एवं संखे०, इमी से रयणप्पत्तापदंवी नेरइया असंखज्जगुणा, हरिवासरम्मवासे, एवं हेमवते हेरएणवते, जरहेरवतवासवाणमंतरदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा. वाणमंतरदेवित्थिया- | कम्मजूमगमणुस्सपुरिसा दो वि संखे, जरहेरवयकम्मजूम ओ संखज्जगुणाओ, जोतिसियदेवपुरिमा संबज्जगुणा, गमणुस्सित्थीनो दो वि संखेज्जगुणाओ, पुनविदेहअवरबिजातिसियदेवित्यियाओ संखेज्जगुणाओ॥ देहकम्ममगमणुस्सपुरिसा दो विसंखेज्जगुणा, पुन्यविदेहसर्वस्तोका अनुसरोपपातिकदेवपुरुषाः, तत उपरितनप्रैवेथ- अवरविदेहकम्मलूमगमणुस्सित्थियाओ दो वि संखेजकमध्यप्रैवेयकाधस्तनवयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपुरु- गुणामो, अणुत्तरोववातियदेवपुरिसा असंखेजगुणा%B पाययोत्तरं संख्येयगुणाः । ततोऽधःसप्तमषष्ठपृथिवीनरयिकन उवरिमगेवेज्जा देवपुरिसा संखेज्जगुणा० जाव आणतकप्पे पुंसकसहस्रारमहाशुक्रकल्पदेवपुरुषपञ्चमपृथिवीनयिकनपुं-- सकलान्तककल्पदेवपुरुषचतुर्थपृथिवीनरयिकनपुंसकब्रह्मलोक देवपुरिसा संखेज्जगुणा, अहेसत्तमाए पुढवीए नेरक्ष्यणपुंसकलादेवपुरुषतृतीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकमाहेन्द्रसनत्कुमारक गा असंखेजगुणा, छट्ठीए नेरइयणपुंसका असंखेज्जगुलगदेवपुरुषद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसका यथोत्तरमसंस्थय- णा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महागुणाः। तत ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेज्य ई सुक्के कप्पे असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए नेरइयनपंसशानकल्पदेवस्त्रियः संख्येयगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । ततः सौधर्मकल्पे देवपुरुषाः संख्ययगुणाः,तेयः सौधर्मकल्पे देव का असंग्वेज्जगुणा, लंतए कप्पे देवपुरिमा असंखेजगुस्त्रियः संख्ययगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । तान्यो भवनवासि- णा, चनथीए पुढयीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, देवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेभ्यो भवनवासिदेच्या संख्येय- बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, तच्चाए पुढवीगुणाः, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । तान्यो रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैर- ए नेरड्या असंखेजगुणा, माहिदे कप्पे असंखेजगुणा, यिफनपुंसका असंख्येयगुणाः, तेभ्यो वाणमन्तरदेवपुरुषा अ. सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखज्जगुणा, दोश्चाए पुसंख्येयगुणाः, तेज्यो वाणमन्तरदेव्यः संख्येयगुणाः, तान्यो ज्योतिष्कदेवपुरुषाः संख्येयगुणाः, तेभ्यो ज्योतिष्कदेवस्त्रियः ढवीए णरश्यणपुंसका असंखज्जगुणा, अंतरदीवगकसंख्येयगुणा, द्वात्रिंशद्गुणत्वात् । म्मजूमगमगुस्सणपुंसका असंखेजगुणा । देवकुरुउत्तरकुरुसम्प्रति विजातीयव्यक्तिव्यापकमममस्पबहुत्वमाह- अकम्मन्नूमगमगुस्सणपुंसका दो वि संखेजगुणा,एवं जाव एतासिणं भंते!तिरिक्वजोणित्थीथं जलयरीणं थलय- विदेहोति। ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा,ईसाणरीणं वहयरीणं तिरिक्वजोणियपुरिसा जलयराणं यलय- कप्प देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, सोधम्मे कप्पे देवपुराणं खहयराणं तिरिक्वजोणियणपुंसकाएं एगिदियतिरि- रिसा संखेज्जगुणा, मोघम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेजक्वजाणियनपुंसकाणं पुढवीकाइयएगिदियतिरिक्वजो-| गुणाओ, जवणवाासदेवपुरिसा असंखे०, भवणवासिदेणियनपुंसकाणं आनक्काश्यएगिदियतिरिक्खजोणियनपुंस- वित्थियाओ संखेजगुणामोश्मी से रयणप्पनाए पुढकाणं जाव वणस्सश्काश्यएगिदियतिरिक्वजोणियणपुंस- | वीए नरायनपुंसका असंखेज्जगुणा, खहयरतिरिक्खजोकाणं बेइंदियतिरिक्वजाणियण घुसकाणं तेदियतिरिक्व- णियपुरिसा संखज्जगुणा, खहपरतिरिक्खजोणित्थियाजोणियणपुंसकाणं चनरिंदियतिरिक्वजाणियणपुंसकाणं ओ संखज्जगुणाओ,थलयरतिरिक्खजोणियपुरिसा संखेपंचेंदियतिरिक्वजोणियणपुंसकाणं जलयराणं थायराणं ज्जा, थायरातिरिक्खजोणित्थियाओ संखे०, जलपरतिरिवढ्यराणं मएणस्मित्थीणं कम्ममियाणं अकम्ममि- क्खजोणियपुरिसा संखेज्ज०, जलयरतिरिक्खजाोणयाणं अंतरदीवयाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मनूमकाणं अ-| त्थियात्रा संखेजगुणामो, वाणमंतरदेवषुरिसा-संखेजगु-. कम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं मस्सनपुंसकाणं कम्मत- णा, वाणमंतरदेवित्थियानो संखेज्जगुणाओ, जोइसियमिकाणं अकम्मनूमिकाणं अंतरदीवकाणं देवित्थीणं भव- देवपुरिसा संखेज, जोशसियदेवित्थियायो संखेज्जगुएवासिणीणं वाणमंतरीणं जोतिसिणीणं वेमाणिणीयं देवपु- पायो। खहयरपंचेंदियतिरिक्वजणियणपुंसका असंखेज्जरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणि- गुणा, थलयरनपुंसका संस्खे०, जलयरनपुंसका संग्वे०, याणं सोधम्मकाणं० जाव गेविज्जकाणं अणुत्तरोववाझ्याणं चतुरिदियणपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, मेंनेरड्यनपुंसकाणं रयणप्पजपुढविनेरश्यनपुंसकाणं. जाव | दिया विसेसाहिया , तेनकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियअहेसत्तमापुढविनेरयनपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा | नपुंसका असंखे० पुढवि०विसेमाहिया,मानविसेसाहि Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाबहुय (ग) अभिधानराजेन्द्रः। अप्पाबहुय (ग) या, वाउ० विसेसाहिया, रणप्फकाइयएगिदियतिरि- सर्वस्तोका आहारकशरीरिणः, उत्कर्षतोऽपि सहपृथक्वन कावजोणियणपुंसका अपंतगुणा ।। प्राप्यमाणत्वात्। तेभ्यो वैक्रियशरीरिणाऽसंख्ययगुणाः; देवनार. सर्वस्तोका अन्तरद्वीपकमनुष्यस्त्रियो मनुष्यपुरुषाश्च, स्व काणां कतिपयगर्नजतिर्यपञ्चन्छियमनुष्यवायुकायिकानां च वै क्रियशरीरत्वात्।तेच्य औदारिकशरीरिणोऽसंध्येयगुणा,कहा. स्थाने तु द्वयेऽपि तुल्याः , युगलधर्मोपेतत्वात् । एवं देवकुरू नम्तानामपि जीवानां यस्मादकमौदारिकं शरीरं ततः स पकत्तरकुर्वकर्मजूमकहरिवर्षरम्यकवर्षाकर्मजूमकडैमवतहरण्य औदारिकशरीरी परिगृह्यते, ततोऽसंक्येयगुणा पवादारिकशरीबताकर्म नुमकमनुष्यस्त्रीपुरुषा यथोत्तरं संख्येयगुणाः, स्व रिणो नानन्तगुणाः माह चमूबटीकाकारःौदारिकशरीरिभ्योखाने तु परस्परं तुव्याः। तत्यो भरतैरवतकर्मजूमकमनुष्यपु शरीरा अनन्तगुणाः,सिकानामनन्तत्वात, औदारिकशरीरिणां रुपा दयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः । ते च शरीरापेकतया असंख्येयत्वादिति'। तेज्यो शरीरिणोऽनन्तज्यो भरतैरवतकर्मजूमकमनुष्यस्त्रियो दय्योऽपि संख्येयगुणाः, गुणाः, सिमानामनन्तत्वात । तेभ्यः तैजसशरीरिणः कार्मणश. स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः। तान्यः पूर्वविदेदापरविदहक रीरिणः अनन्तगुणाः, स्वस्थाने तद्वयेऽपि परस्परं तुख्याः। ते. मनूमकमनुष्यपुरुश द्वयेऽपि संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु पर जसकार्मणयोः परस्पराविनानावित्वात् । इह तैजसशरीरं कास्परं तुल्याः । तेन्योऽपि पूर्वविदेहापरविदेहकर्मनूमकमनु मणशरीरं च निगोदेवपि प्रतिजीवं विद्यते, इति सिकेज्योऽप्यज्यस्त्रियो दय्योऽपि संख्येयगुणाः, सप्तविंशतिगुणत्वात, स्व नन्तगुणत्वम् । जी०६ प्रति०। (श्रीदारिकादिशरीराणां चाल्पबस्थाने तु परस्परंतुल्याः। ताभ्योऽनुत्सरोपपातिकोपरितनवेय. दुत्वं 'सरीर' शब्दे वदयते) (संक्रमविषयमल्पबहत्वं 'संकम' कमध्यमवेयकाधस्तनप्रैवेयकाच्युतारणप्राणतानतकल्पदेवपु शब्दे द्रष्टव्यम् ) ( समुदातविषयमल्सबहुत्वं 'समुग्घाय' शम्दे रुषाः यथोत्तरं संख्येयगुणाः, ततोऽधःसप्तमषष्ठपृथिवीनरयि प्ररूपयिन्यते) कसहस्रारकल्पदेवपुरुषा महाशुक्रकल्पदेवपुरुषाः पञ्चमपृथि [संशिद्वारमसंश्यसंझिनोसंझिनाथसंकिनामल्पबहुत्वम् । वीनैरयिफलान्तककल्पदेवपुरुषाश्चतुर्थपृथिवीनरयिकनपुंसकब्रह्मलोककल्पदेवपुरुषतृतीयपृथिवीनरयिकनपुंसकमाहेन्द्रकल्प- एएसिणं भंते ! जीवाणं सन्नीणं असत्राणं नोसन्नीणं सनत्कुमारकल्पदेवपुरुषद्वितीयपृथिवीनैरयिकनपुंसकान्तरद्धी- नोअसत्रीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ४? | गोयपनपुंसका यथोत्तरमसंख्येयगुणाः। ततो देवकुरुत्तरकुर्वकर्म मा! सब्चत्याचा सन्नी, नोसनी नोअसम्रो अणंतगुणा, घूमकह रिवर्षरम्यकवर्षाकर्मनूमकहैमवतहरण्यवताकर्मनमकभरतरवतकर्मचमकपूर्वविदेहापरविदेहकर्मनूमकमनुष्यनपुंस असन्नी अर्णतगुणा। काः यथोत्तरं सख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु ये परस्परं तुल्याः। सर्वस्तोकाः संझिना,समनस्कानामेव संशित्वात् । तेन्यो नोसंतत ईशानकल्पदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तत ईशानकल्पे दे. किनो नोऽसंझिनोऽनन्तगुणाः,उभयप्रतिषेधवृत्ताहि सिद्धाः,तंच वास्त्रियःसंख्येताभ्यः सौधर्मकल्प देवपुरुषस्त्रियःसंख्येते. संझिभ्योऽनन्तगुणा पवेति। तेभ्योऽसंझिनोऽनन्तगुणाः,वनस्पती भ्यो भवनवासिदेवपुरुषा असंख्येयगुणाः, तेन्यो जवनवासिदे- नांसिखेन्योऽप्यनन्तगुणत्वात्। प्रका० ३पद । (माहारादिसंकोवास्त्रियः संख्येयगुणाः । ताभ्योऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैर- पयुक्तानां नैरयिकादीनामल्पबहुत्वं सन्ना'शब्दे वक्ष्यते) (सायिकनपुंसका असंख्येयगुणाः । ततः स्वचरतिर्यम्यानिकपुरुषाः मायिकादिसंयतविषयमांपबहुत्वं संजय' शब्दे एव द्रष्टव्यम) खचरतिर्यग्योनिकस्त्रियःस्थलचरतिर्यग्योनिकपुरुषाः स्थलचर- (संयमस्थानानामल्पबहुत्वं 'संजमट्ठाण' शब्दे भावयिष्यते) तिर्यग्योनिकनियः जलचरतिर्यभ्योनिकपुरुषाः जलचरतिर्यग्यो. [संयमद्वारम् ] संयतानामसंयतानां नोसंयतनिकत्रियो वाणमन्तरदेवपुरुषाः वाणमन्तरदेवस्त्रियो ज्योति नोमसंयतानामल्पबहुत्वम्एकदेवपुरुषाः ज्योतिष्कदेवत्रियो यथोत्सरं संख्येयगुणाः । एएसिणं नंते जीवाणं संजयाणं असंजयाणं संजयासं. ततः खचरपश्चेम्लियतिर्यग्योनिकनपुंसका भसंस्येयगुणाः । जयाणं नोसंजयाणं नोअसंजयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा ततः स्थलचरजलचरपश्चेन्जियतिर्यग्योनिकमपुंसकाः क्रमेण संक्येयगुणाः, ततश्चतुरिन्छियत्रीन्छियद्वीन्जियतिर्यग्योनिक वा०४१। गोयमा!सम्बत्थोवा जीवा संजया, संजयासंजया नपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः। ततस्तेजस्कायिकैकेन्द्रिय- असंखेजगुणा, नोसंजता नोअसंजता अपंतगुणा, अतिर्यग्योनिकनपुंसका असंख्येयगुणाः, ततः पृथिव्यवायुका- संजता अणंतगुणा। यिकतिर्यग्योनिकनपुंसका यथोत्तरं विशेषाधिकाः । बनस्पतिकायिकैकेम्ब्यितिर्यग्योनिकनपुंसका अनन्तगुणाः, निगोद सर्वस्तोकाः संयता,उत्कृष्टपदेऽपि तेषां कोटिसहमपृथक्त्वप्रजीवानामनन्तत्वात् । जी०२ प्रतिः। माणतया लन्यमानत्वात । "कोटिसहस्सपुहु मणुयलोप शरीरमाधत्य सशरीराशरीरास्पबहुत्वचिन्तायाम संजयाणं"शति वचनाता तेत्यः संयतासंयता देशविरतानस" सम्बत्थोवा ससरीरी, असरीरी अणंतगुणा" स्पेयगुणाः,तिर्यकपश्शेन्द्रियाणामसंख्यातानां देशविरतिसद्भा बात् । तेज्यो नोसंयता नोभसंयता अनन्तगुणाः, प्रतिषेध(२५)[शरीरद्वारम] श्राहारकादिशरीरिणाम: प्रयवृत्ता दिसिद्धाः, ते चानन्ता इति । तेन्योऽसंयता अनन्तअप्पाबह-सम्बत्थाबा पाहारगसरीरी, वेगब्धियसरीरी। गुणाः, वनस्पतीनां सिद्धेन्योऽप्यनन्तत्वाद । प्रका०३ पद। असंखजगुणा, ओरालियसरीरी असंखेज्जगुणा, प्र संस्थानानामरूपबहुत्वम्सरीरी अणंतगुणा, तेयाकम्मासरीरी दो वितुल्ला - एएसिणं ते! परिमंमझवट्टचउरंसतंसनायत अणित्येत्थापंतगुणा। णं संगणाणं दबट्ठयाए पदेसट्टयाए दबहुपदेसट्टयाए क्य Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७२) अप्पाबडुय (ग) अन्निधानराजेन्द्रः । अप्पाहार रेकयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा। गोयमा! सव्वत्थोवा "एपसि णमित्यादि" प्रश्नसूत्रं सुगमम् । नगवानाह-गौतम! परिमंडलसंवाणा दवट्टयाए, बट्टासंगणा दव्यद्वयाए संखे सर्वस्तोकाः सिकाः, असिद्धाअनन्तगुणाः,निगोदजीवानामतिजगुणा, चनरंमा संगणा दबट्ठयाए संग्वज्जगुणा, तंसा प्रभूतत्वात् । (सकाद्वारम) सूक्ष्मवादरनोसूक्ष्मनोवादराणामल्पबहुत्वम्संठाणा दबट्ठयाए संखेज्जगुणा, आयतसंगाणा दबट्ठयाए संखेज्जगुणा, अणित्यंत्या संगणा दबट्टयाए अ एएसि णं जंते ! सुहुमाणं बादराणं नासुहुमाणं नाबासंखेज्जगुणा । पदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा परिमंमला संठाणा, दराण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४१। गोयमा! सचबट्टासंगाणा पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा। जहा दबट्टयाए तहा त्थोवा जीवा नोमुहुमा नोबादरा, बादरा अणंतगुणा, सुपदमट्टयाए वि० जाव अणित्यत्था संगणा पदसट्टयाए । हुमा असंखेज्जगुणा। असंखेज्जगुणा । दवट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा परिमंम सर्वस्तोकाः जीवा नोसूक्ष्मा नोबादराः, सिद्धा श्त्यर्थः, तेषां सूक्ष्मजीवराशेर्बादरजीवराशेश्चानन्तभागकल्पत्वात् । तेभ्यो वासंगणा, दवट्ठयाए सो चेव गमगो भाणियब्बो. जाव दरा अनन्तगुणाः, बादरनिगोदजीवानां सिरेभ्योऽनन्तगुणत्वाअणित्यत्था संठाणा दबट्टयाए असंखेजगुणा,अणेत्थंत्थे- त् । तेभ्यः सूक्ष्मा असंख्येयगुणाः,बादरनिगोदेन्यः सूक्ष्मनिगोहिंतो संवाणेहिंतो दवघ्याएहितो परिमंमन्ना पदेसट्टयाए दानामसंख्ययगुणत्वात् । गतं सूक्ष्मद्वारम् । प्रज्ञा३पद। कर्मा असंखेजगुणा, वट्टासंगणा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा, सो क०प्र०। पं० सं०।(स्थितिबन्धानामल्पबहुत्वं 'बंध' शब्दे चेव पदेसट्ठयाए गमो जाणियव्वोजाव अणित्यत्या सं पष्टव्यम) ठाणपदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा । ज. ३५ श० ३००। अप्पाभिणिवेस-आत्मानिनिवेश-पुं० । पुत्रघ्नातकलत्रादिप्पा स्मीयाभिनिवेशे, नैरात्म्यावगतौ प्रात्मानिनिवेशः। नं० । ( पदकसमर्जितानां यावश्चतुरशीतिसमर्जितानामरूपबत्वं उववाय ' शन्दे द्वितीयमागे १२२ पृष्ठे निरूपयिष्यते ) अप्पायंक-अल्पातडु-वि०। अल्पशब्दोऽभाववाची । अस्पः [सम्यक्त्वद्वारम् ] सम्यग्दृष्टिमिथ्याष्टिसम्यमिथ्या. सर्वथाऽविद्यमान मातङ्को ज्यरादिर्यस्याऽसावल्पातङ्कः । जी० रष्टीनामरूपयाहुत्वम् ३ प्रति०। रा०। अनातके नीरोगे, भ०१४ श०१उ० । भरो. एएसिणं भंते ! जीवाणं सम्मादिहीणं मिच्छादिहीणं गिणि, प्राचा०१ २०१०६ २० उपा। रोम्पमुक्त, ध०३ अधि०। प्रोघ। सम्मामिच्चदिट्ठीएं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४। गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छदिट्ठी, सम्मादिधी अप्पारंभ-अल्पारम्न-त्रि० । कृप्यादिप पृथिव्यादिजीयोपम दें एवं कुर्वाणे, औ०। भणंतगुणा, मिच्छादिट्टी अणंतगुणा । सर्वस्नोकाः सम्यग्मिन्यारष्टयः, सम्यमिथ्यारष्टिपरिणाम अप्पावय-ममावृत-त्रि० । अस्खगिते, सूत्र.१७०५०१० कालस्यान्तर्मुहर्तप्रमाणतयाऽतिस्तोकत्वेन सेषां पृच्चासमये स्तो- अप्पावयदुवार-अमावृतद्वार-पुं० । अप्रावृतमस्थगितं द्वारं गृहकानामेव बज्यत्वात्। तेज्यः सम्यग्रष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धा- मुखं यस्य सोऽप्रावृतद्वारः । रढसम्यक्त्वे, यस्य हि गृहं प्रविश्य नामनन्तत्वात् । तेभ्योऽवि मिथ्यारण्योऽनन्तगुणाः, वनस्पति परतीथिकोअपि यद्यत् कथयति तदसौ कथयतु,न तस्य परिजकायिकानां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात तेषां च मिथ्यारष्टि नोऽप्यन्यथा भावयितुं सम्यक्त्वाच्च्यावयितुं शक्यते इति वादिति । प्रज्ञा० ३ पद। यावत् । सूत्र०२ भु०६०। सम्यक्त्वद्वारे सास्वादनसम्यम्दृष्टयः स्तोकाः, भोपशमिकस-| सम्यम्दष्टयः स्तोकाः, भोपशमिकस- | अप्पाह-संदिश-धा० । सम-दिग्-तुदा० । वार्ताकथने, प्राकते. म्यक्त्वात्केषांचिदेव प्रच्यवमानानां सास्वादनत्वात् । तेभ्य औ. "संदिशेरप्पाहः "॥८॥४।१०० ॥ इति सूत्रेण संपूर्वकस्य पशमिकसम्यम्हएयः सयातगुणाः । दिशेरप्पाहादेशः। प्रा०४ पाद । अप्पाहति संदिशति व्य०१ मीमा संखा वेयग-असंखगुण खइय मिच्छ दु अणंता। उ०। अप्पाहात संदेशं कथयति , यथा-मया कृतोऽमुकस्य संनियर थोवऽणंता-ऽणहार थोवेयर असंखा ॥४४॥ | समीपे कायोत्सर्ग इति । व्य०४ उ०। तेन्यौपशमिकसम्यगरएिभ्यो मिश्राः संख्यातगुणाः, तेभ्यो | अप्पाहएण-अप्राधान्य-न० । प्रधानत्वे, पचा० १षिय० । (वेयग ति) क्षायोपशमिकसम्यग्रयोऽसंख्यातगुणाः। तेभ्यः क्षायिकसम्यम्दृष्टयोऽनन्तगणाः, कायिकसम्यक्त्ववतां सिद्धा अप्पाहार-अल्पाहर- पुं०। अल्पश्चासौ माहारच अल्पानामनन्तत्वात् । तेज्योति मिथ्यायोऽनन्तगुणाः, सिकेन्योऽ हारः। स्तोकाहारे, अल्प आहारो यस्य सोऽम्पाहारः। स्तोपि वनस्पतिजीवानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यारहित्वादि- कमाहारमाहारयति साधौ, मः। ति । कर्म०४ कर्म। भट्ठकुकुमिग्रंमगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे [सिद्धिविषयकम ] सिद्धासिरूयोरस्पबहुत्वम्एसिएं जंते ! सिद्धाणं असिघाण य कयरे कयरे अप्पाहारे। हिंतो जाव विसेसाहिया वा?| गोयमा! सम्वत्थोवा कुक्कुटयएमकस्य यत्प्रमाणं मान तत्परिमाणं मान ये ते तथा । अथवा कुटीव कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटी सिद्धा, असिच्चा पाएंतगुणा । शरीरं, कुत्सिता भशुचिप्रायत्वात् कुटी कुकुटी, तश्या अएमक Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पाहार मित्रा एकक मुद्रपूरकत्वादाहारः कुकुटयकम नस्य प्रमाणतो मात्रा द्वात्रिंशत्तगांशरूपा येषां ते कुकुयएकक प्रमाणमात्राः । अतस्तेषामयमभिप्रायः- याचान् यस्य पुरुषस्याहारस्य द्वात्रिं शतमो भागस्तत्पुरुषापेकया कवलः । इदमेव कवलमानमाप्रसिद्धादिमानहानिकार शता कवलैः प्रमाणप्राप्ततोपपन्ना स्यात्, नहि स्वनोजनस्यार्द्ध उक्तवतः प्रमाणप्राप्तत्वमुपपद्यते । प्रथमव्याख्यानं तु प्रा भवतीति गम्यम । श्रथवाऽष्टौ कुकुटधडकप्रमाणमात्रान् कवलानाहारमाहारयति कुर्वेति साधौ अल्पाहारः स्तोकाहारः, आहारचतुर्थांशरूपत्वात्तस्य । भ० ७ [झा० १ ० | २ | आचा०| (अल्पाहारस्य प्रियाणि विषयेषु न वर्तन्त इति 'जिणकशब्द ) अप्पाद्दिगरण - अल्पाधिकरण- पुं० । श्रल्पमविद्यमानमधिकरणं स्वपकपरपक्ऋविषयो यस्य तत्तथा । स्था० ६ ० १० ० निष्कल, स्था०८ ग० । i - - ( १६७३ ) अभिधान राजेन्द्र | यस्मिन् - अर्पित प्राकृतसुतेन डीफिते उ० ३०हिते, न० श० ७ ० । ढौकिते, विपा १० २ श्र० । विशेष०१०० मि विसेस सामग्रपि नवरस " विशे० " जा यमदेव व्यमर्पितं प्रतिपादयितुमभीष्टम् । सम्म० १ काण्ड ॥ अनि कम भयकृता पेच्छत्रि० या स्तोका धर्मोपकरणशामि - मात्रविषयत्वेन तु सत्कारादिकामही अपशब्द स्याभाववाचित्वेनाविद्यमाना इच्छा वावा यस्येत्यल्पेच्छः । उत्त० ३ श्र० । श्रमहेच्छे, श्र० । धर्मोपकरणमात्रधारिणि, उत्त० २० न्यूनांदरताऽदारपरित्यागिनि ००यस्तो परिप्रारम्भेष्पिकरसिप तथा सूत्र० २ ० २ श्र० । मणिकनकादिविषयप्रतिबन्धरहिते, जी० ३ प्रति० । तं० | जं० । अणिय अभिय-प्र० प्रियस्याभावोऽप्रियम् विदुःखासिकायाम, सूत्र० १ ० ४ ० १ ० । न प्रियमप्रियम् । प्रीतिहेसौ ०१० ५ ० ० प्ये स० यदि तामुत्पादयति प्रति प्रेमाचि- श्रु० ८ ६ ० । 1 बये, स्था० ० ठा० । “अणिट्टा अकंता अपिया श्रमन्ना - अप्पुल्ल-आत्मीय - त्रिः । श्रात्मनि भवम् । मणा एका " विपा० १ ० १ ० । “कोहं असचं कुविजा, धारिजा पियमप्पियं । " अप्रियमपि कर्णकटुकतया तदनिटमपि, गुरुवचनमिति गम्यते । उत्त० १ श्र० । - (अप्पा) माधु-अप्पसर-अ - क्तः । अल्पीकृते, "मृया न चक्रेऽल्पितकल्पपादपः " वाच० । पियकारिणी अत्रियकारिखी निवेदनाद रूपाय भाषायाम अधिकारिणिव भासं ग ना सया सपुज्जो " दश० ६ ० ३ उ० । पिय अर्पितनय० विशेष्यति शेषः, तद्वादी नयोऽर्पितनयः । विशेष एवास्ति न सामान्यमिति समयप्रसिद्धे नये, विशे० । सम्म० । चितामभिगता श्री० [अमेमदेतुतायाम,२०६०३७० अप्पियववहार-अर्पितव्यवहार- पुं० । श्रर्पित इति व्यक्दारो १६६ .. अयोग माया समाः। अपनानामतायिकादिनावः | स्वाधार भाववति ज्ञाताऽयमित्यादिनादिरूपं बधमादायारण वक्त्रा स्थापित व्यवहारे. उत्त० १ अ० । 33 प्रियाः। दुःखहेतुनिवार के "मध्ये पाणापियाडया मुह साया पृक्परिकृला श्रपियवा धात्रा० ६२०२८० ३७० । यदि आ तवमिन ० ० ० । अपडाइ (ए) अयोध्यायिन पेपोन्थायी प्रयोजनेऽपि पुनःपुनरुस्थानी उस १ "अणुट्टाई निरुनिकु"०० पुत्तिंगपणगद्गमट्टियामक ममताण अल्पोनिङ्गपनकोडक मृत्तिकामर्कटसन्तान त्रि । उत्तिङ्कपनकोवक मृत्तिका मर्कटसवानरहिने, तोतिङ्गः पिपीलिकनकपनको म्याद युद्धविशेषता विकायाकृता मृतिका म कंसन्तानको बूतातन्तुजालम् । श्रात्रा ० १ श्रु० ८ श्र० ६ उ०। माया-अयम्पादक-शि०० १ अपिया पियान यथा जीवव्यम. किंविधम ?, संसारीनि संसाधित्र सरुपमपि पञ्चेन्द्रियम् तदपि नररूपमित्यादि । श्रनपिनमविशेतमेव यथा जीवद्रव्यमिति । ततश्वापितं च तदपि न्यपितापित नवतीतिशेषकरूपानु गंभेद, स्था० १० २ अपीकय-ग्रात्मीकृत त्रि । श्रासना गाढतरमागृहने, " प -! 1 64 हस्वः संयोगे " ||G|१|८४॥ भस्मात्मनोः पो वा ॥ २७ ॥ इति त्मस्य पः। "श्रनादौ " ॥२६॥ इति पः। "डिलमुलौ भवे ॥ १६३॥ इति सूत्रेण उल्ल प्रत्ययः । आत्मनि नये. प्रा० २ पाद । अरस्तु अल्पोन्सुक्य ००० अत्सुके, झा० १ अ० । श्रविमनस्के, श्राचा० २ ० ३ ०३ ३० । अप्पो देशी-पुं० २००१ वर्ग अपो-मोपालम्भ-पुं० [हितेत्यर्थः । उपालम्भ विनेयस्याविनिपातः अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य गुरुणा मार्गे स्थापनाय उपालम्भे, ( तीर्थकृता ) अप्पोलं ननिमित्तं पदमस्स णायज्जयणस्स श्रयमपत्ति बेमि " ० १ ० । अप्पोन देशी-त्रिवेप्पो म ए पनि हारि ३० नि०यू० । अप्पोवगरण संधारण भोकर सन्धारयमेयोपकरणे सन्धारणीये. षो० १ वि० ॥ पोत्रत्ति - श्रल्पोपधित्व - न० । अनुपयुक्त स्तोकोपधिसेविग्वे, दश० २ ० ॥ अप्पोस अन्यावश्याय- त्रि० । अधस्ननोपरितनःवश्यायत्रिस्वर्जिते, आचा० श्रुः ८ श्र० ६ ० । - Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्पोसहिमंतबस (६७४) अनिधानराजेन्धः। अफलवादि (ण) अपोसहिमंतवल-अल्पोपधिमन्त्रबल-त्रि० । अल्पं स्तोकमौवधिमन्त्रबलं यस्य स तथा । स्तोकेनौषधिमन्त्रवलेन युते. 'अप्पोसहिमंतबलो नहु अप्पाणं तिगिच्चिाहसि' श्राव०४ श्रा अप्फालण-आस्फानन-न । हस्तेनाऽऽतामने उत्तेजने, औ० । दशा । भम्भाडोरम्भाणं वादनमास्फालनमिति प्रसिकम् । रामा०यू०। अप्फालिजंत-प्रास्फाल्यमान-त्रि० । हस्तेनाऽऽताज्यमाने, " अफालिजंतीण भंभाणं होरंभाणं" रा । अफा (फा) लिय-प्रास्फालित-त्रि० । मा समन्तात्स्फारं प्रापिते, व्य० १ उ०। अप्फिह-अस्पृह-त्रि० । स्पृहाविरहिते “ उपसर्गाननिष्टष्टानेकोऽभीरस्पृहः क्षमेत" प्रा० म० द्विः।। अप्फुमिय-अस्फुटित-त्रि। अजर्जरे, जं० २ वक्व०।" अखंडप्फुमिया कायचा" प्रस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, अप्फुमियदंत-अस्फटितदन्त-त्रि० । अस्फुटिता अजर्जरा जरारहिता दन्ता येषां तेऽस्फुटितदन्ताः । जी०३ प्रतिक मजर्जरदन्तेषु, ०२ वका औला राजिरहिनदन्तेषु.तंगव्याकल्प अप्फुप्प-आक्रान्त-त्रि० । श्रा-क्रम-क्त । "क्तेनाप्फुमादयः" ८।४।२५८। इतिक्तविशिएस्याऽऽक्रान्तशब्दस्याप्फुमादेशः। प्रा०४ पाद । व्याप्ते, "अप्फुमा समाण। " नि० । अप्फुम त्ति, आस्पृष्टा व्याप्ता, आक्रान्ता शति यावत । अनु०॥ जं०रा०। अप्फोआ ( या)-अफोया-स्त्री०। वनस्पतिविशेषे, जी. ३ प्रति० । व्या जं० प्रा०। अप्फोडिन (ह)-आस्फोटिन-नाकरास्फोरे, जं.३ वक। प्रश्नः । न । झा० । कल्प। अप्फो ( फो) व-अप्फोव-प० । वृकाद्याकीणे, अफोव इति किमुक्तं भवति-आस्तीर्णवृत्तगुच्चगुल्मत्रतासंग्न इत्यर्थः, इति वृद्धाः । उन०१८ । अप्फोवममन-अप्फो ( फो) वमएमप-पुं०।अफोवश्चासौ मएडपः । नागवलाप्राक्कादिभिवंटिते स्थान, "अप्फोबममबम्मि, झायइ मखवियासवे" उत्त० १ अ०। अफझस-अपरुप-न। अनिष्ठुरे, मनःप्रवादके, व्य०३ उ । अफसमजामि ( ए )-अपरूपभापिन्-त्रि० । अपरुपमनिप्रं तद्भाषणशालोपरूपभाषी। बाम्विनयविशेष प्रतिपन्ने,व्य०१०। अफलवादि ( ए )-प्रफलवादिन्-।। न विद्यते कस्यानित क्रियायाः फलमिन्येवं वादिनि. सूत्र. श्रु० अ०१० अफ.लवादिनचाऽक्रियावादिन इति तत्रैवेतन्मतनुपन्यस्य दूषितम् ।। तीर्थान्तरीयाणामफलवादित्वम्अगारमावसंता वि, अरएणा वा विपनया। इमं दरिसाणमावण्या, सव्वक्खा विमुचई ॥ १५॥ तेणावि संधि णचा , न ते धम्मविप्रो जणा। जे ने न वाडाणो एवं, न ते ओहंतराहिया ।। २०॥ ने गावि मंधि गच्चा णं, न ते धम्मविश्रो जणा। जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा ॥ २१॥ । ते णावि संधि गच्चा ण, न ते धम्माविमो जणा। जे ते न वाइणो एवं, न ते गज्जम्स पारगा ।। २२ ॥ ते णावि संधि णच्चा णं, न ते धम्मविप्रो जणा। जे ते उवाइणो एवं, न ते जम्मस्स पारगा ।। २३ ॥ ते णावि संधि गच्चा णं, न ते धम्मविप्रो जणा। जे ते न वाणो एवं, न ते दुक्खस्स पारगा ॥ २४॥ तेणावि संधि णच्चाएं, न ते धम्मविप्रो जणा। जे ते उ बाणो एवं, न ते मारस्प्त पारगा ॥ २५ ॥ साम्प्रतं पञ्चतूतात्माऽद्वैततज्जीवतच्छरीराकारकामषष्ठकाणकपञ्चम्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां स्थ. दर्शनफबाभ्युपगम दर्शयितुमाह-(भगारेत्यादि) अगारं गृहं सदावसन्तस्तस्मिस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः । श्रारण्या या तापसादयः, प्रवजिताश्च शाक्यादयः । अपिः सम्भावने । ८ ते संजावयन्ति-यथेदमस्मदीय दर्शनमापना आश्रिताः सर्वमुखेन्यो विमुच्यन्ते । श्रार्षत्वादेकवचनं सूत्रे कृतम् । तथाहिपश्चनूततज्जीवतधरीरवादिनामयमाशयः-यथेदमस्मदीयं दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः सन्तः सर्वेन्यःशिरस्तुएममुगमनदएमाजिनजटाकाषायचीवरधारणकेशोस्लुश्चनभाग्ज्यस्तपश्चरएकाबलेशरूपेन्यो दुःखेभ्यो मुच्यन्ते । तथाहु:-"तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमोनोगवचनम् । अग्रिहोत्रादिकं कर्म,बालकीमेव सदयते" ॥१॥इति । सांस्यादयस्तु-मोक्षवादिन एवं संभाघयन्ति-यथा येऽस्मदीयं दर्शनमकर्तृत्वात्माऽद्वैतपञ्चस्कन्धादिप्रतिपादकमापनाः प्रवजितास्ते सर्वेभ्यो जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेकशारीरमानसाऽतितीवतराऽसातोदयरूपेज्यो :खेभ्यो विमुच्यन्ते । सकलद्वन्द्वविनिमोकं मोक्कमास्कन्दन्तीत्युतं भवति ॥ १६॥ इदानीं तेषामेवाऽफलवादित्वाविष्करणायाह-(ते णावीत्यादि)ते पञ्चनूतवाद्याद्याः, नापि नैव, सन्धि छिर्क विवरं, स च व्यजावभेदाद द्वेधा-तब व्यसन्धिः कुख्यादिः, नावसन्धिानावरणादिविवररूपः, तमझात्वा ते प्रवृत्ताः । णमिति वाक्यालङ्कारे । यथा-आत्मकर्मणोः सन्धिर्विधा भावलक्षणो प्रवति, तथा अबुधा श्व ते वराका पुःखमोक्षार्थमन्युद्यता इत्यर्थः । यथा त एवंभूतास्तथा प्रतिपादितं, लेशतःप्रतिपादयिष्यते च । यदि वा संधानं सन्धिरुत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं, तदज्ञात्वा प्रवृत्ता इति । यतश्चैवमतस्तेन सम्यग्धर्मपरिच्छेदे कर्तव्ये विद्वांसो निपुणाः, जनाः प. अनतास्तित्वादिवादिनो सोका इति । तथाहि-कान्त्यादिको १. शविधो धर्मस्तमज्ञात्वैवान्यथा च धर्म प्रतिपादयन्ति । यत्फलाभावाच तेषामफलवादित्वं तत्तरग्रन्थेनोदेशकपरिसमाप्त्यवसानेन दर्शयति-येते विति। तुशब्दश्चशब्दार्थे। य इत्यस्यानन्तरं प्रयुज्यते । ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, श्रोधो भवाघः संसारः, तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः॥ २०॥ तथा न ते वादिनः संसारगर्भजन्मदःखभारादिपारगा भवन्तीति । २१।१२।२३ । २४ । २५ । नाणाविहाई करवाई, अणुहति पुणो पुणो॥ संसारचक्कचालम्मि, मच्चुवाहिजगकुले ॥२६॥ उच्चावयाणि गचंता, गन्जमेस्संति एतमो। नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणासमे । २७। Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७५) अफलबादि (ण) अभिधानराजेन्धः । अवंज यत्पुनस्ने प्राप्नुवन्ति तदयितुमाह-(नागाविढाई इत्यादि) | अवंध-अवध-पुं० । पन्धाभावे, पं० म०७ द्वा० । नानाविधानि बहुप्रकागणि दुःम्बान्यमानोदयलकणन्यनुनम्ति | प्रबंधग-प्रवन्धक-पुं० । निरुरुयोगे, भ० २५ २०६०। ग्रा) पुनः पुनः । तथाहि-नरकेषु करपत्रदारण-कुंभीपाक-नप्रायःशाल्मलीसमालिङ्गनादनि,निर्यच च शीतोरणादिदमनाकुनाम म०वि०। नाऽतिसागरोपणकुत्तमादीनि, मनुष्येषु इष्टधियोगानिष्टसंयोग- | अंबंधव-अबान्धव-त्रि० । म्यजनसम्पाद्यकार्यरदिने, प्रमा शोकाकन्दनादीनि, देवेषु चाभियोगेाकिल्विपिकन्यच्ययना- १पाश्र०द्वा०। दीन्यनेकप्रकाराणि दुःखान, ये एवंनुना वादिनस्ते पौनापन्येन | अवन-अब्रह्मन-ना अकुशने कर्मणि, न मै युनं वित्तिनम, समनुभवन्ति । एतच श्लोकाऊँ सर्वेयूत्तरकोकाडेपु योज्यम्। अन्यन्ताकुडालवात्सम्य । प्रश्न ४ आश्रद्वा०। शेवं सुगमं यावद्देशकसमाप्तिरिति ॥२६॥ नवग्मुश्चायचा সন্তাছায়াঘাनीति-अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्नीनि गच्छन्तो मम्तो गर्नामेष्यन्ति यास्यन्यमन्तशो निर्विच्छेद अट्ठारसविड़े अवने प्रोगनिभं च दिवं, मणवयकापमिति प्रवीमीति । सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रन्याह-वर्वाम्यहं ण जोएण अणुमोणकागवणकरणेणऽटाग्मा बंभं ।। तीर्थराया न स्वमनीषिकया, स चाहं ब्रवीमि, येन मया ती- छह मृलतोद्विधा ब्रह्म नवनि-दारिक नियमनुष्याणां. दि. थैरसकाशाच्छ्नम् । एतेन च तणिकवादिनिरासो कष्टव्यः । व्यं च जयनवास्यादीनां, चशम्दम्य व्यवदितः मंबन्धः । मनो. । २७ । सूत्र० १ श्रु०१ म० १ उ०। वाक्कायाः कारणं,विधा योगेन निविधेनैवानुमोदनकारगाकरणन अफास-अस्पर्श-त्रि० । न विद्यते स्पशोऽएप्रकारो मृदुकर्क निरूपित, पश्चात्तु पूर्वोपन्यासः अब्राह्माशादाधा नर्वात । इय नावना-औदारिक स्वयं न करोति मनसावाचा कायेन, नान्येन शादिरस्यत्यर्थः । पो०१६ विधः। अशुनस्पर्श एकान्तोद्वेजनी- कारयति मनसा वाचा कायेन, कुर्धन्तं नानुमोदते मनमा चाचा ये, सूत्र. १६०५ भ०१००। कायन । एवं क्रियमपि। श्राव०४ अ०। एतच प्रश्नध्याकरणानां अफासुय-प्रमासुक-नान प्रगता भसवोऽसुमन्तो यस्मात्त- चतुर्थेऽध्ययने यथा यारशादिद्वारपश्चकेन । द्वारपञ्चकं चेदमदमासुकम् । सजीवे, भ०५ श०६ उ०। सचित्ते, आचा०१ "जारिसभोजनामा २,जह य कश्रो ३ जारिस फदिति।। भु०११ उ० । सूत्र०। स्था। जे विय करैति पावा ५, पाणवहं तं निसामेह" ॥१॥ अफासुयपडिसेवि (ए)-अप्रासुकप्रतिसेविन्-त्रि०ा अप्रासु प्रम०५ आश्रद्वा०। कं सचित्तं प्रतिसवितुं शीबमस्य स भवत्यप्रामुकप्रतिसेवी। तत्र यादृशमग्रनकारार्थप्रतिपादनायेदं सूत्रम्सचेतनजलादिवस्तुप्रतिसेवनशीसे,"अफासुयपमिसेविय, णाम जंबू ! अबंनं च च उत्थं सदेवमाणुयामुग्स्स लोयस्स पशुञ्जो य सीलवादी य ।" सूत्र०१ श्रु० ७ ०। स्थणिज पंकपणगपासजासत्यं इत्थीपुरिसनपुंसगवेदाचअफुस-अस्पृश्य-त्रि० । स्प्रष्टमयोग्ये, “ भफुसं दुक्खं" - एहं तवमंजमवंभचेरविग्यं भदाययणबहुपमादपलं कायग्कास्पृश्यं कर्माकृतत्वादेव । स्था० ३ ग०२००। परिससोवियं मुयण जणवजणिजं उऊंनस्यतिरियतिलोभफुसमाणग-अस्पृशद्गति-पुं० । अस्पृशन्ती सिवन्त- कपइट्ठाणं जरामरणरोगमोगवलं वधवंधविधायमुबिघायं रालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशदूगतिः। अन्तरालप्रदेशाना- दसणचरित्तमोहस्स हेउभ्यं चिरपरिचयमण्यगयं सुरंतं मस्पर्शनेनैवोर्व गच्छति सिके, औ०। चनत्थं अहम्मदारं ।। उज्जूसेढीपमिवन्ने अफुसमाएगई उद्धं एकसमएणं भ. (जबू! इत्यादि) जम्बू ! इति शिघ्यामन्त्रणम । अब्रह्म अकुशसं विग्गणं उठं गता सागारोवनत्ते सिज्जिहि ति॥ कर्म,तह मैथुनं विवक्तिम,अत्यन्ताकुशलत्वात्तस्य । माहचमन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिसिः, इष्यते च त. "नोकिचि अणुनायं,पमिसिकंवा यि जिणवरिवहिं। मुत्तं महुसप्रक पब समयः, य एव चायुकादिकर्मणां क्षयसमयः स एष | मेग, न जं विणा रागदोसेहि" ।। चकार पुनरर्थः। चनुर्थसूत्रनिर्वाणसमयोऽतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालप्र- क्रमापेकया सहदेवमनुजासुरैयों लोकः स तथा, तस्य प्रार्थनीदेशानामसंस्पर्शनमिति सूक्मश्चायमर्थः केवलिगम्यो ना- यमन्निसषणीयम् यतः-"हरिदरहिरण्यगर्भ-प्रमुखे भुवनेन को. बत इति । मो० ॥ “ अफुसमारणगती वितियं समयं ण फुसति, ऽप्यसौ शूरः । कुसुमविशिस्त्रस्य विशिमा-नस्वलयद्यो जिनाइअहवा जेसु अवगाढो जे य फुसति सहमविगच्छमाणो तत्तिए | न्यः" ॥१॥ पङ्को महान् कर्दमः, पनकः स एव प्रतलः, सूक्ष्मः वेव मागासपदेसे फुसमाणो गच्छति "पाचू०१०। पाशो बन्धनविशेषः, जालं मत्स्यबन्धनम । एतद्नुतमेतकुपम मऊ-प्रवन्ध्य-त्रि० । न वश्यमवयम् । भवश्यकार्यका- कलानिमित्तत्वेन दुर्मोचनत्वेन च साधात् । उक्तंचरिणि, सूत्र० । प्रवनयमेकादशं पूर्वम, वध्यं नाम निष्फलं,न "सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, विद्यते वन्यं यत्र तदवन्ध्यम, सफलमित्यर्थः । तत्राहि-सर्वे- मजा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । विज्ञानतपःसंयमयोगाः शुभफसेन सफत्रा वर्यन्ते,अप्रशस्ता- अचापाकृएमुक्ताः भवणपथजुषो नीलपङ्माण पते. भ प्रमादादिकाः सर्वे अशुजफला बरयन्तेऽतोऽवन्ध्यम्, तम्य यावश्लीलावतीनां न हदि धृतिमुषो रष्टिबाणाः पतन्ति" ॥ च परिमाण पविशतिपदकोटयः । स०। "प्रबंझपुवस्स तथा स्त्रीपुरुषनपुंसकवेदानां चिई लवणं यत्तत्तथा। तपः सं. बारस वत्थू पणत्ता" नं० । सामवश्यकार्यकर्तरि, सूत्र यमब्रह्मचर्यविघ्न मिति व्यक्तम् । तथा भेदस्व चारित्रवित२७०१०। विनाशस्यायतः नाम्याध्या ये बहवः प्रमादा मद्यविकथादय Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्बभ स्तेषां मूलं कारणं यत्तत्तथा। बह च किं किं न कुण 南 किन भासप चितर य कि किन पुरिसो विसयासत्तो. विह संघलिड व्वज्ञेण" ।। कातराः परीभीरवः श्रत एव कापुमपाः कुत्सितस्तैः सेवितं यत्तत्तथा । सुजनानां सर्वपापविरतानां यो जनसमूहस्तस्य वर्जनीयं परिहरणीयं यत्तत्तथा । उ च ऊलोको नरकश्चाधोलोकस्तिर्यग्लोक पतलकणं त्रैलोक्यं तत्र प्रतिष्ठानं यस्य तत्तथा । जरामरणरोगशोकबहुलं तत्रान्यत्र च जन्मनि जरामरणादिकारणत्वात् । उच्यते च जो मेव कि लग्भर, "इति ( गाहा ) बधस्तामनं, बन्धः संयमनं विघातो मारणम्, प्रभिरपि दुष्करो त्रिपातो यस्य च गाढरोगाणां हि माता "कुशः कालः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलः, धाकामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगतः । ( ६७६ ) अभिधानराजेन्द्रः । कृत शुनीमन्वेति श्वा इतमपि च हन्त्येव मदनः " ॥ १ ॥ दर्शनचारित्रमोहस्य हेतुभूतं तन्निमित्तम् । ननु चारित्रमोहमिति प्रीतम दाह-"तिस्प रागदो रिमोपरि गुणघाई || २ || द्विविधं कथायनोक प्रायमोहनीयभेदात् । यत् पुनदर्शन मोहस्य देतुमिदमिति प्रतिपद्यामहे णनातू । तथाहि तकेतुप्रतिपादिका गाथैवं श्रूयते भरतसिक येश्य-नवगुरुसासंघ सीओ बंध समोहंत संसारियो जेण ॥ १ ॥ भवतीढ वाक्यशेषः । सत्यम, किन्तु स्वपक्काब्रह्म सेवनेन या संघप्रत्यनीकता, तया दर्शनमोहं बनतोऽब्रह्मचर्ये दर्शनमो हेतुतां न व्यभिचरति । भण्यते च स्वपक्षानसेवकस्य मिथ्याकथं प्रबोधिरसाव. भिदिनः ? । आह - " संजइवउत्थभंगे, चेहयदब्वे य पथडा। रिसिघाये य चउत्थे, मूलग्गी बोहिलाजरस " ॥ १ ॥ इति । चिरं परिचितमनादिकाला सेवितम् । चिरपरिगतं वा पात्र अनुगतं अनवर चतुर्थमधर्मद्वारमा श्रबद्वारमिति अब्रह्मस्वरूपमुक्तम् । अथ तदेकार्थकद्वारमाह तस्म य णामाणि गाणाणि प्रमाणि हुंनि तीसं । तं जहाअरंभ १ मे २ परंन संसगि ४ सेवाहिकारी ए संप्पो ६ वाहणा पदा ७ दप्पो मोहो ए मणसंखोभो १० प्रणिग्गड़ो ११ विग्गडो १२ विद्याओ १३ त्रिभंगो १४१५ अहम्मो १६ असीलया १७ गामधम्मनची १८ रनी १६ रागचिंता २० कामजोगमारो २१ २२ र २३ २४ वरमाणो २५ बंजरविग्यो २६ वावसि २७ विगहा २८ पसंगो २६ कामगुणोति ३०त्रिय । तस्स एयाणि एवमादीणि नामधे - जाणि नि नी ।। 'स्मेत्यादि' सुगममा १ मैथुनं मिथुनस्य युष्य तुमचामिति गम्यते पान्तरेण । 'चरंन सि' चग्नू विश्वं व्याप्नुवन् ३ संसर्गः सम्पर्कः, ततः स्त्रीविशेषरूपात संसर्गजत्वात्संसर्गीत्युच्यते । श्रह ब नामापि स्त्रीति महादि, विकरोत्येव मानसम् । किं पुनर्द ܕܐܐ अबंन गं तस्याः विलासामिनः । सेवनां चौपहि प्रतिषेधनामधिकारो नियोगः सेवनाधिकारः हि चौग्रद्यनर्थसवास्वधिकृतो नवति । श्रढ च " सर्वेऽनथी विधीयन्ते नरैरर्थैकलालसैः । अर्थस्तु प्राथ्यते प्रायः, प्रेयसीप्रेमकामिभिः " ॥१॥ इनि ५ । संकल्पो विकल्पः, तत्प्रभवत्वादस्य संकल्प इत्युक्तम् । उक्तं च- "कामं जानामि ते रूपं. संकल्पास्किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविध्यसि " ॥ १ ॥ इति ६ । बाधना बाधदेतुत्वात् । केषाम् ? त्याह-पदानां संयमस्थानानां प्रजानां वा लोकानाम् । ग्राह च"छेद लोकेष्यपरं भावेविकाशिनीलोत्पलचारुनेत्राः, सुक्त्वा स्त्रियस्तत्र न हेतुरन्यः 39 ॥१॥ इनि७ । दर्पो देता, तज्जन्यत्वादस्य दर्प इत्युच्यते । श्रह च - "रसा पगामं न निसेवियन्वा परं रसा हित्तिकरा हवंति । दित्तं च कामा समनिति, डुमं जहा साठफलं तु पक्खी ॥ १ ॥ अथवा सम्पाद्यभिमानस्तस्य भवं वेदं नहि प्रशमाम्यादा पुरुषस्यात्र प्रवृतिः सम्भवतीति दर्प प "प्रशान्तशहिचित्तस्य, संभलः क्रियामै नपतिरेकि यो यदि रागंन मैथुनम् | १| इति । मोहो मोहनं वेदरूपमोहनीयोदयसंपाद्यत्वादस्याज्ञानरूपत्वाद्वा मोह इत्युच्यते । श्राह च 66 'दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत् परिहरन् यनास्ति तत्पश्यति । कुन्देन्दीवर पूर्णचन्द्र श्रीमा 33 रोषो नोरामिगात्रेषु यम्मोदते ॥१॥ ९ ॥ मनःसंकोनः चित्तचलनं, तद्विनेदं न जायते इति । उच्यते च " तिक्कमक इक्त्रकम-प्पहारनिन्जिन जोगसन्नाहा । नहरिसि जो वा जुबई - ण जं निसेवंति गयगव्वा ॥ १ ॥ १० ॥ अनिप्रदोनिषेधो मनसो विषयेषु, प्रवर्तमानस्येति गम्यते । एतत्प्रभवत्वाच्चास्यानिग्रह इत्युक्तम् ११ । ( विग्गहो सि ) दित्वादस्य विग्रदध्यते। उ " ये रामरावणादीनां संग्रमग्रस्त मानवाः । भूयन्ते मीनि मिलेन ते कामो निबन्धनम् ॥१॥ अथवा (गो) ि प्रहो विपरीतोऽभिनिवेशस्तत्प्रभवत्वादस्य तथैवोच्यते । यतः कामिनामिदं स्परूपम् - "दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाभिमानः सौक्यात्मकेषु नियमादिषु बुद्धि कीर्णवर्णपदपरियान्यरूपं, सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १॥ १२ ॥ विघातो गुणानामिति गम्यते । यदाद 'जइ वा हो' गाथाइयम १३ वि मोगुणानामेव १४ विभ्रमो ब्रान्त् विषयेषु परमार्थयुद्धाविभ्रमा मदनविकाराणामाश्रयत्वाद्विभ्रमा इति १५ । श्रधर्मः श्रचारित्ररूपत्वात् १६ । अशीलता चारित्रवर्जितत्वम् १७ । ग्रामधर्माः शब्दादयः कामगुणास्तेषां ततिर्गवेषणं पालनं च ग्रामधर्मतप्तिः, श्रब्रह्मपुरोहि तं कुर्वन्तीति ब्रह्मापि ते १८ रतिः रतं निधुवनम त्यर्थः १५ रागो रामानुभूतिरूपत्वादस्य चिगति पाठः २० | कामभोगैः सह मारो मदनं मरणं वा कामभोगमारः २१ | वैरं वैरहेतुत्वात् २२ | रहस्यमेकान्त कृत्यत्वात्२३॥ गुहां गोपनीयत्वात् २४ । बहुमानः बहूनां मतत्वान् २४ | ब्रह्म मैथुनविरमणं तस्य विघ्नो व्याघातो यः स तथा २६ । व्यापशिः भ्रंशो, गुवानामिति गम्यते २७ एवं विराधना २० प्र सङ्गकामेषु प्रसनमः २६ कामगुणो मकराः । ३०| इर्त । रूपप्रदर्शने । अपिचेति समुच्चये । तस्याब्रह्म पता Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७७ ) निधान राजेन्द्रः । अबंभ नि उपदर्शित स्वरूपाणि, एवमादीनि एवंप्रकाराणि, नामधेयानि त्रिशद्भवन्ति । काक्काऽऽधेयं प्रकारान्तरेण पुनरन्यान्यपि भवन्तीति भावः । उक्तं यनामेति द्वारम् । अथ तत्कुर्वन्ति तद् द्वारमुच्यते तं च पुण निसेविंति सुरगणा अच्छरा मोहमोहितमती असुर १ ग २ गरुल ३ विज्जुज्जलणदीवजदहिदिसिपवणथाय १० अपनियपणपनियइ सिवाइय यवादियकंदियमहाकंदियकू हे रुपयंगदेवा पिसाय नूयजक्ख रक्ख सकिएर किंपुरिसम होर गगंधन्न तिरियजोइसविमाणवासिमयगणा जलयस्थलयरखढचरा य मोहपमित्र चित्ता अवितरहा कामजोगतिसिया णं तएहाए बलवईएमईए समनिया गविता यं प्रतिमुच्छिता य जे भोसला तामसे भावेण प्रमुक्का दंसणचरितमोहरम पंजरं पिव करेंति एवं सेवमाणा, तुज्जो २ असुरसुरतिरियमणुयजोगरतिविहारसंपनत्ता य चकवट्टीसुरनरवतिसक्कया सुरवर व्व देवलोए जरहनगणगर निगमजयपुरवरदो मुदखे कव्व मम मंव संवाहपट्टणसहस्समhi थिमिमेयं गच्छत्तं ससागरं चुंजिऊण वसुदं नरसीहा नरवतिनरिंदा नरवसहा मरुयवसन कप्पा अन्नहियं रायतेयलच्छीए दीप्पमाला सोमा रायसतिलगारविससिसंखवर चक्क सोत्थियपभाग जब मच्छकुम्मरहवरजगभवविमारणतुरंगतोरणगोपुर मणिरय रणनंदियात्रत्तमुसल - लंगलसुरइयवरकप्परुक्स्वमिगवति भद्दास सुरुइथून वरमउमसरियकुमल कुंजरवरवसन पदीवमंदरगरुलज्झयइंदके उदप्पण अट्ठावयचाववाणनक्खत्तमेह मेहलवी जुगत-दामदा मणिकर्म मलुकमल घंटावर पोतसूचीसागर कुमुदागरमगरहारगागरने उरणगणगरवइर किएर मयूरवरराय हंससारसचकोर चकोत्रागमिहुणचामर खेरुगपच्चीसगविचित्ररतालियंटसिरियाभिसेयमेयणिखग्गंकुसविमल कल सर्जि-गारवच्चमाणगर सत्य उत्तम विजत्तवरपुर सलक्खणधरा व श्री सरायवरसहस्साणुजायमग्गा चउसद्विसदस्सपवरजुवतीण एकता रत्ताभा परमपम्हकोरंटगदामचंपगसुतत्तवरकणकनिकमत्रणा सुजाय सांगसुंदरंगा महग्घवरपट्टणुग्गयविचित्तरागरणीपणी निम्मियदुगुञ्जवरचीणप-कोसेज्जसोपी सुत्तकविजूसियंगा वरसुरभिगंधवरचुएएवा - सवर कुमुमनरियरिया कप्पियच्छेयायरिय सुकयरइदमालकरुगंगयतुमियत्ररत्तूमणपिणरुदेहा एकावलिकंठसुरइयवच्छपलं पलंबमाणसुकयपम उत्तरिजमुद्दिया पिंगलंगुलि - या उज्जलनेवत्यर याचिह्नगविरायमाणा तेएण दिवाकरो व दित्ता सारयनवत्थणियम हुरगंभीर निघोसा उप्पएण्समत्तरयणचक्करय एपहारणा नवनिदिपइणा समिककोमा १७० For Private अबंभ चाउरंता चाउराहिं सेणाहिं समगुजाइज्जमानमग्गा तुरंगपती पतीरहपती नरपती विपुल कुल बीसूय जसा सारयससिसकलमोम्मवयणा सूरा तिलोक्कनिग्गयपभावलष्ट सद्दा समतजरहाढिवा नरिंदा ससेल व कारणरणं च हिमवंतमागतं धीरा भोतॄण जरदवासं जियसत्तू पत्रररायसीहा पुत्रककतवप्पजात्रा निविट्टसंचियमृहा अणेगवाससयमाउतो जज्जाहिय जणवयप्पाणाहिं झाजियंता अतुलमफरिसर सरूवगंधे य अणुवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्मं अवितित्ता कामा, जुज्जो वलदेवा वासुदेवा य, पत्रर पुरिसा महानपरकमा महाधणुवियट्टका महासत्तसागरा दुडग धधरा नरवसना रामकेसवा भायरो सपरिसा वसुदेवसमुदविजयमादिदमाराणं पज्जुएणपयित्रसंवअनिरुद्ध निमढनभ्मुयसारणगयमुमुह5म्मुहार्द । जायवाएं अद्भुट्ठा कि कुमारकोमी दिया देवीए रोहिणीए देवीए देवईए यहियाणंदहियावनंदकरा सोलन रायवरसहस्साणं जायमग्गा सोलसदेवी सहस्त्ररणयण हिययदश्या पाणामकिणगरयण मोतियपवाल घणघणसंचया रिदिममिद्ध कोसाइयगयर सहससामी गामागरण गरखेडकव्वरुप मंदीमुइपट्टणासमसंवाद सहस्साथ मिय निन्नु यप्पमुदितजए -- विविहस सेयनिष्पज्ज माणमणी सरसरियतलागसेनका आरामुज्जारामणाभिरामपरिमंडियस्म दाहिणवेयगिरिविजत्तस्म झवणजलपरिग्गहस्स व्हिका अगुणकमजुत्तस्म अद्धनरहस्म सामिका धीर कित्तिपुरिसा ओहबला अतिबला अनिया अपराजियसत्तुमद्दणा रिउमहस्समानमहणा साएकोसा मच्छरी अचवला श्रर्चमा मियमंजुझप्पल्लावा इसियगंभीरमहरन लिया अन्नुवगयत्रच्छला सरमा लक्खणर्वजण गुणोत्रवेत्रा माणुम्माणपमाणपमि पुराण सुजायसवंगसुदरंगा ससिसोमा कारकंता पियदंसणा श्रमस्सणा पयं मदमप्पयारगंजीरदरिसिज्जा तालज्जयन विधगरुलकेनबलवगज्जतद रितदप्पिय मुट्ठियचाणुरचूरगा रिट्ठवसभघाती केसरी मुहविष्फामगा दरियागदप्पमहणा जमलज्जुछभंगा महासउलिया रिपू कंसमउभमोडगा जरासंघमाणमदा तेहि अविरल समसहियचंद मंगलसमप्पजेहिं सूरमरीयकवयत्रिणिमुयं तेहि सप्पमिदमेहिं आयवतेहिं धरिज्जतेहिं विगयंता ताहि य पवरगिरिकुटरविहरणसमुखियाहिं निरुवयचमरिपच्छिममरी र संजायाहिं अमइलसियमञ्जविमुकुलुज्जक्षित रयत गिरिसिह र विमलमसिकिरमरिसकल होय निम्मलाहिं पत्रणाहयचवल चलिय सलि - लियनच्चियवीयपसरियखी रोद्रगपत्र र सागरुप्पूर चल्लाहिं मा णससरपसरपरचियावासविसावे साहिं कणगगिरिमिहरसंसियाहिं श्रवाप्पाचवलजवियसिग्घवेगाहिं इंमत्रधुगाहिं Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७०) प्रबंभ अभिधानराजेन्छः । अबंन चेव कनिया नाणामणिकणगमहरिहतवाणिज्जुजलविचित्त- पुरवरफलिहवाट्टियनुजा नूइएसरविपुलभोगायाणफलि. दंमाहिं सालनियाहि नरकसिरिसमदयप्पकासणकराहिं हनुच्चूदीहबाहुरत्ततलोवश्यम उयमसनमुजायझक्वणपस - वरपट्टणुगयाहिं समिद्धरायकुलमेवियाहिं कायागुरुपवरकुंदुरु- स्थअछिद्दजान्नपाणीपीवरसुजायकोमनावग्गुलीतंबनविणकतुरुकधूववासविसिट्टगंधुझ्या निरामाहिं चिझियाहिं नु- सुइरुपननिधणखा निद्धपाणिनेहा चंदपाणि लेहा मूरपाणिजयो पास पि चामराहि उक्खिप्पमाणाहिं मुहसीयलवाय- नेहा संखपाणिनेहा चकपाणिनेहा दिसासोवत्यियपाणिलेहा वीयियंगा अजिता अजियरहा हलमुसलकणगपाणी संखच- रविससिसंखवरचकदिसासोवत्यिविभत्तमुरइयपाणिनेहा बकगयसत्तिणंदगधरा पवरुज्जलसुकयविमलकोपुनकिरीम- रमहिसवराहसीहसलरिमहनागवरपमिपुत्मविउलखंधा चरधारी कुंडल जोवियाणा पुंमरीयणयाणा एगावनिकंउरइ- रंगुलीप्पमाणकंबुवरसरिमगीवा अवट्टियमुविजत्तचित्तसमंयवच्छा सिरिबच्चसुलंछणा बरजसा सव्वाउयसुरनिकु- मुस्वचियमंसलपसत्यसहसविपुलहणुया उवचियसिलप्पसुमरश्यपलंवसोहंतवियसंतविचित्तवणमालरश्यवच्छा अ- वाझविवफलसन्निनाऽधरोहा पंडुरसमिसकलाविमनसंखगोद्वासयविजत्तलक्खएपसत्यरंदरविराश्यंगुपंगा मत्तगयन- खीरफेणकुंददगरयमुणालियाधवलदंतमेढी अखंगदंता अ. रिंदलालियविक्कमविलसियगती कमिसुत्तकनीलपीयकोसे- फुमियदंता अविरलता सुणिद्धदंता मुजातदंता एगदंतजवाससा पवरदित्ततेया सारयण वणियमधुरगंजीराणि- सेढी ब्व अणेगदंता हुतवहनिद्धं तधोततत्तनवाणिज्जरत्ततलकयोमा नरसीहा सीहविकमगती अत्थमिया-पवरराय- तालुजीहा गरुनायतनजतुंगनासा अवदालियर्युमरीयनयसीहा सोम्मा चारवयिपुएणचंदा पुवकयतवपनाया नि णा विकोसियधवक्षपत्तलच्छा आणामियचावरूयिलकिएहविट्ठसंचियमुहा अणेगवामसयमाउर्वतो नजाहि य जण नरायिसंधियसंगयायतसुजाफ्लूमगा अह्मणिपमाणजुत्तवयपहाणाहिं मालियंता अतुलसद्दफरिसरसरूवगंधे य| सवणा सुस्सवणा पीणमंसमकवोलदेसभागा अचिरुग्गयअाजविता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितित्ता का बालचंदसंठियमहानिन्नाडा नडुपतिपमिपुम्मसोमवयणा उमाणं, जो मंमनियारवरिंदा सबझा मअंतेउरा सपरिसा तागारुत्तमंगदेसा घणनिचियसुबकझक्खण्मयकमागारसपुरोहिया अमञ्चडंडणायकसेणाचतिमांतणीतिकुसला निभर्पिमिवग्गसिरा हुतवहनिदंतधोततत्ततवाणिज्जरत्तकसंणाणामणिरयणविपुलधणधाणसंचयनिहिसमिद्धकोसार. तकेसमी सामन्त्रिपोमयणनिचियच्छोमियमिनविसयपसजसिरिविपुत्रमणुनवित्ता विक्कोसंता बरोण मत्ता ते वि स्थमुहमलक्षणमुगंधसुंदरजुयमोयगभिगनीकज्जलपहिउवणमति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं, नुज्जो उत्तरकु शुभपरगणनि शनिउरंबनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरुदेवकुरुवणविवरपायचारिणो नरगणा भोगुत्तमा जोगल रया सुजायमुविभत्तसंगयंगा सक्खणबंजणगुणोववेया पसक्खणधरा जोगसस्सिरीया पसत्यसोमपडिपुएणरूवदरि त्यबत्तीसमक्खणधरा हंसस्सरा कोचस्मरा दुंदुहिस्सरा सहसणिज्जा सुजायसव्वंगसुंदरंगा रत्तुप्पलपत्तकंतकरचरण स्परा मोघस्सरा ओघस्सरा मुस्सरा सुस्सरनिग्योमा व जरिकोमलतमा सुपहियकुम्मचारुचलणा आपुवमुसंहयंगुली सभनारायसंघयणा समचउरंससंगणसंठिया गया उज्जोकिया उम्मयतणुतंबनिघनखा संछियसुसिविट्ठगुढगोफा एणी यंगमंगा पसत्यवी निरातका कंकगहणा कवोतपरिणामा कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्यजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयगम सउणिपासपिट्ठतरोरुपरिणया पउमप्पासरिसगंधसाससुएमुजायसंनिनोस्वरवारणमत्ततुझविक्कमविलासियगती ब रभित्रयणा अणुसोमवाउवेगा अबदायनिककामा विग्गरतुरगसुजायगुरुदेसा आयणहयोयनिरुवलेवा पमुइयवस्तु हनमयकुच्छी अमयरसफलाहारी तिगऊयममुखिया तिपरयसीहअइरेगवट्टियकमी गंगावत्तगदाहिणावत्ततरंगजंगरर लिग्रोवमद्वितीया तिमि य पलिप्रोवमाईपरमाउंपानइत्ता ते विकिरणवोहिवविकोसायंतपम्हगंभीरवियडनाभी साहयसा वि उवणमति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं,पमदा वि य तेसिं पदमुसन्नदप्पणनिगरियवरकाणगउरुसरिसवरवरवनियम हुँति सोमा मुजायसव्वंगसुंदरिओ पहाणमहिसागुणेहिं जुत्ता का नजगममसंहिगजनतणुकसिणनिछादिजलमहसु अतिकंतविसप्पमाणमउयसुकुमालकुम्ममंठियसिलिट्ठचलणा कुमालमनपरामरायी सविहगमुजायपीणकुच्ची झसाद- उज्जुमउयपीवरसुसंहतंगुलीओ अन्तुम्मतरश्यतमिणतंरा पम्हवियाणाभी संनयपासा संगतपासा मुंदरपामा मु- बसइनिफनखा रामरहियवदृसंठिय अजहमपसत्यलक्खजायपासा सितमाश्यपीएइयपासा अकरमयकणगरुयगनि- ण अकोप्पजंघजुयला मुणिम्मितसुनिगूढजानुमंसलपसत्यम्मलसजायनिस्वहयदेहधारी कणगसिनातनपसत्यसमत- सुबकसंधी कयनीखंभारेगमंठियनिधणमुकुमासमउयको. सउवयवित्थिामपिहलवच्छा जयसमिभा पीणरश्यपीवर- | मलअविरमा समसहितवट्टपीवर निरंतरोरू अहावयवीतिपट्ट पउनुसंठियमुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसुणिचियघणथिरसुबंधसंधी संठियषसत्यवित्थिरणपिहुझसोणी वदणायामप्पमाणदुगु. Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७८ ) अभिधान राजेन्द्रः । अबंभ णियविसाल मंसन्नमुवजहणवरधरीओ वज्जविराइयपसस्थलच्छण निरोदरीओ विविचितणुनमितमज्यभात्रो उज्जुग समसहियजच्चतणुक सिए निन्छ । देज्जल महमुकुमासुविभत्तरोमराई गंगावतगदादिणावत्ततरंगर्भरविकिरण तरुण वोहित अकोमायंतनमगंजीर विगमनाभी अब्डप सत्यसुजायपीणकुच्छी समंतपासा सन्नयपासा सुजायपासा मियमातिपीणराययपासा करं मुयकए गरुयगनिम्मल सृजाय निश्वयगायलडी कंच एकल सप्पमाणसमसंहितल चुचय आमेझगजमल जुयञ्ज वट्टियपओहरा भुयं पुत्रतय गोपुच्छ वट्टममसहित निम्मिय आदेज्जल महबाढ़ा बना मंसलग्गहत्था कोमलपीवरंगुल्झीया शिट पाणिलेहा ससिसूरसंखचक्कन र सोत्थिय विभत्तसुविरइयपालेिहा पीएम कक्खवत्थिष्पदेस पनि पुगल कपोला चउरंगुल सुप्पमाकं बुचर सरिसगीवा मंसल संवियप सत्यहणुया दानिमपुप्फप्पकासपीवरपत्रकोंचियवराधरा सुंदरोत्तरट्ठा दहिदगरय कुंदचंदवासंतिम उल अविद्दत्रिमलदसणा रत्तप्पलरचपडमपत्तसुकुमालताबुजीदा कणवीरमउलकुडिल - अनुष्य उज्जतुंगनासा सारदनव कमल कुमुय कुवलयदल निगरसरिमलक्खणपसत्यनिम्मल कंतनया अनामियचावरु लकिए हरा संगय सुजायतणुकमिण निकमगा प्रीणपमाणजुत्तसबणा सुस्वणा पीएमट्ठगंमलेहा चउरंगुल - विसालसमनिमाला कोमुदिरयाण कर विमल परिपुष्ट सोमवया उत्तम उत्तमंगा अकविलसुसिदिीहसिरया बतज्जयजुत्रथून दामणिकर्म म लुक सवाविसोत्थियपडागजबमच्छ कुम्मरहवरमयज्य अंक थाल अंकुस अट्ठात्रय सुपतिट्ठअमरासरिया भिसेयतोरणमेयिणि उदधिवरपवर भवणगिरिवरवरापंससुल लियगयवसभसीह चामरपसत्यबत्त सिलक्ख धरीओ हंससरिच्चगतिओ कोइलमदुयरिगिराओ कंता सवसमा वत्रगयवलीपलियांग दुवमवाहिदोसोयमुक्का उच्चत्तेण य नरथोवूणमूसियाओ सिंगारागार चारुमा सुंदरथरण जहणत्रयणकरचलणणयणा झावस्वजोगुणोत्रवेया मंदणवण विवरचारिणी श्र च्छराम्रो उत्तरकुरुमाणसच्छराओ अच्छेरगयेच्छ्रिणियाश्रतिष्ठि पलिमाई परमाउं पालयित्ताओं वि उवणमंति मरणधम्मं प्रतित्ता कामाएं, मेदुए सन्नपगिद्धा य मोहभरियासत्येहिं इति एकमेकं विसयं विमउदीरएहिं अवरे परदारेहिं हांति विमुणिया धननासं सयणविपणासं च पानृणंति, परस्स दाराओ जे अविरया मेहुणा संपगिहाय मोहभरिया अस्मा हत्य गवा य महिला मिगाय मारिति एकमेकं मणुयगणा वानरा य पक्खी य विरुज्जति मित्ताणि खिष्पं जवंति, सत्तू समयधम्मगणे य जिंदंति For Private अबभ पारदारी धम्मगुणरया य वंजयारी खगेण उलोट्र्यचरिताओ जसतो सुन्या य पार्वति अयस किति रोगना वाहि ताति रोयवाही, दुवे यलोयदुराराहगा जवंति इदलोए चैत्र परलोए परस्स दाराओ जे अविरया तदेव केड परस्म दारंगमा गहियाय हया य वरुद्धा य एवं० जात्र गच्छति त्रिपुत्रमोहानिनूयसमा मेदु मूलं च सुव्वए तत्थ तत्थ वतपुत्रा मंगामा जक्रखयकरा मीताए दोत्रतीए य कए रूपिणीए पनमावतीए ताराए कंचलाए रनमुनद्दार याए सुत्रगुलियाए किन्नरिए य सुख्व विज्जुमतीए रोहिणीए य असेसु य एवमाइ बहने महिलाक‍ सुव्वात अतिकता संगामा गामधम्ममूला, इह लोए ताव नट्ठा परलोए य नट्ठा महया मोहतिमिरंधकारे घोरे तमयात्ररसुहुमवायारेसु पज्जत्तमपज्ज तक साहारण सरीरपनेयसरीरेसुय अंम जपोयजजराउजर सनसंसेइमसमुच्छ्रिमजिज्जन वाइएस य नरगतिरियदेवमाणुसेस जरामरणरोगसोगबटुले पमसागरोवमाई मणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं प्रणुपरियहंति जीवा महामोहवसमनिविट्ठा; एसो सो अस्स फलवित्रागो इढ लोई को परलाईओपो बहुदुक्खो मदब्न बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कस असा वामसहस्सेहिं मुञ्चति न य अवयेत्ता अस्थि हु मोक्खति एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो वरवीरनामज्जो कहेसी य प्रबंभस्स फलविवागो, एयं तं वनं पि चत्यं पि सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स पत्थणिज्जं एवं चिरपरिचियमणुरायं दूरं तं चत्यं अहम्मदारं सम्मत्तं त्ति बोम | ( तं च पुण निसेर्वितित्ति ) तच्च पुनरब्रह्म निषेवन्ते सुरगणा वैमानिकदेवसमूहाः साप्सरसः सदेवीकाः, देव्योऽपि सेवन्त इत्यर्थः (इत्यादिदी काऽनुपयोगिनी महती चेत्युपेक्षिता) प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वा० । शेषद्वारयं मध्य एवायातम् । श्रब्रह्म मैथुनमिति पर्यायैा । (मैथुनशब्देन चोच्यमानो विषयो 'मेहुण' शब्द एव वक्ष्यते ) "अश्वंभचारयं घोरं, पमायं पुरहिडियं । नायरंति मुणी लोप, भैयापणविवजण " ॥ १॥ दश० ६ श्र० । श्रबंभवज्जण - अब्रह्मवर्जन- न० : दिवा रात्रौ वा पल्याचाश्रिस्य मैथुनत्यागरूपायां षष्ट्यामुपासक प्रतिमायाम्, तत्स्वरूपं चैत्रम्-" पुग्वोदियगुणजुत्तो, बिसेसओ विजयमोहणिजो य " प्रश्न० १ श्राश्र० द्वा० । ( ' उवासगपरिमा' शब्द द्वितीयभागे ११०५ पृष्ठे व्याख्याऽस्य द्रष्टव्या ) अब - अवध्य - त्रि० । बधमर्हति यत् । न० त० । वधानर्हे; " अवमाणयं वज्जाणं " प्रकारलोपे 'बज्जाणं ' इति भवति । तत्र श्रवध्यानां वधानहणामपि विद्वेषिवचनतो वध्यत्वेन स्थापितानां सुदर्शन सुजातादीनामिव देवताप्रातिदायतो निराकृतबध्यत्वदोषाणास | संथा । Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबज्ज असाध्य पौर्वाधितुमशकये, स्या । व्यवजऊमित अवाध्यमिकान्त पुं० भवाय परेर्बाधि शक्यः सिकता स्याद्वादलक्षणोऽस्य तथा कुतीर्थको पन्यस्तहेतुसमूहाशक्याधस्याद्वाद रूपसिद्धान्तम नवचनापिने तीर्थकरे, "अवाच्यसिद्धान्तमा ज्यम् स्या० । 19 - ( ६८० ) अभिधानराजेन्द्रः / अबज्जा - अबाध्या-स्त्री० । अयोध्यायाम, जं० ४ व०। ती० । गन्धिलक्ष्य विजय के त्रयुगले पुरीयुगले, " दो अबाओ " स्था० २ ० ३ उ० । अबक- अमरून० पद्यगद्यबन्धनरहिते प्रन्ये मा००। अबडिय - अबका स्थिक न० 1 अवज्रमस्थि यस्य तदबद्धास्थिकम् | अनिष्पन्ने फले, " जिने य बरुट्टिए वि एवं पमेव य होति बहुबीए" विशे० । आ० म० । अथाप्यबद्धबीजे अनिष्पन्ने, पृ० १ ० । भुते विशे० भा० प्र०]] अवकसूय-अवश्रुतन० ('करण' शब्दे व्याख्या ) अधिक पुं०। स्पृष्टं जीवन कर्म न स्कन्धबन्धनमद, तदेषामस्तीत्यबरिकाः । " भतोऽनेकस्वरात् " २६ तमप्रत्ययः स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकेषु निह्नचभेदेषु, स्था० ७ ठा० आ० म० । विशे० । दाहिनामाहिलाहरनगरे समुत्पन्ना तथाभिधित्सुराद्द पंचसया चुलसीया, तझ्या सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो प्रपदी दसहरनपरे समुप्पन्ना || पञ्च वर्षशतानि चतुरशीत्यधिकानि (५०४ ) तदा सिद्धिं गतस्य महावीरस्य, ततोऽबद्धि कहिवरष्टिर्दशपुरनगरे समुत्पन्नेति । कथं पुनरियमुत्पन्ना ?, इत्याह दस उर नगरुच्नुपरे प्रजार क्लियस मित्ततियगं च । गोट्ठामा हिनवम - मेसु पुच्छा य विकस्स ।। पद्मावतुर्यरहितय कन्यतातोऽवयोवाच गोडामाहिलनियो जातः। कथा च 'भञ्जरक्खिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१५ पृष्ठे समुक्ता ) गोष्ठामाहिलो मथुरात आगत्य पृथगुपाश्रये स्थितः । विशे० । दुर्बलका पुष्पमित्रोऽपवादग्रहणादिमा ब्युद्मादयति साधून च व्युग्राहयितुं शक्क्रांति, पूर्बनिकापुष्पमित्रः समीपे चाभिमानो नोिति, किन्तु व्याख्यानममोपस्थितस्य चिन्तनिकां कुर्वतो विन्ध्यस्यान्तिके समाकर्णयति । अन्यदा वामनपूर्वकर्मापास्यानविचारेऽनिनिवेशाद्विप्रतिपनो वयमाणानीत्या निन्हवो जात इति । अथ प्रकृत - ( "सो ऊण कालधम्मं गुरुणो गच्छमि सम्मित्तं व" इत्यादि) गायरानुधीयते कालोमो धर्मः पयः कालधर्मः तं गुरोरार्यरचितस्य श्रुत्वा तथा पुष्पमित्रं च गच्छेधिपति स्थापितमाकएयं गोष्टामाहिसः संजातमस्म राज्यवसाय किल्लेदं चकार किमित्याह बीसीएँ ठिम्रो, सिपरो य स कयाए । बिस्स. सुएइ पासे णुनासमाणस्स बक्खाणं ॥ विश्वसतौ स्थितः छिद्रान्वेषणपरः स गोष्ठामा हिलः कदाचिद्विन्ध्यस्यानुभाषमाणस्य चिन्तनिकां कुर्वतः पार्श्वे व्याख्यानं शृणोतीति विशे०। अबडिय - मोजे । (कविप्रतिपत्तिः) ततः किम, त्याहकम्माचे पुढं निकाइवं कम्पं । जीप से समं सूकलावोचमाणात ॥ उच्च केरो, संोभो समजवो वापि । प्रणिकाइयम्मि कम्मे, निकाइए पायमणुजवणं । सो ऊ जण सदो, वक्वाणमिणं ति पाव मोक्खाजावो जीन-पसकम्मा विभागात || इह कर्मपादाम्यहमे पूर्वे कम्र्म्मविचारे प्रस्तु पुष्पमित्र एवं व्याख्यानयति तद्यथा शीयप्रदेश सह मात्रमेव कर्म भवति । यथा-अकषायस्येर्यापथप्रत्ययं कर्म्म, त कालान्तर स्थितिमवाप्यैव जीवप्रदेशेज्य घटने पतित चूर्णमुहियदिति । अन्य (पुढं ति) बद्धमित्यापि संबध्यते, ततश्च बद्धं स्पृष्टं चेत्यर्थः । तत्र बरूं जीवेन सह संयोगमात्र मापनं स्पृष्टं तु जीवप्रदेशरात्मीकृतम् । एतश्चेत्थं बर्फ सरकालान्तरेच विघटते आक्षेप पति । ( निकाश्यं ति ) बद्धं स्पृष्टं चेत्यत्रापि संबध्यते । ततश्चापरं किमपि कम्मे वयं स्पृनिकासितं भवतीत्यदेव वस्पृष्टं गाढतराध्यवसायेन बद्धत्वादपवर्तनादिकरणायो - यांनी निकाचितमुच्यते । पदं च कालान्तरे अपविचाकसोऽनुभवमन्तरेण प्रायेणापगच्छति गाढतरवदत्कुपश्लेषितनिविडश्वेतकाहस्तकवदिति । अयं च त्रिविधोऽवि बन्धः सूत्री कला पोपमानाद्भावनीयः । तद्यथा-गुणावेष्टितसूचीकलापो मुख्यते, लोहपट्टबदसूची संघातसदृशं तु द स्पृष्टमभिधीयते बद्धस्पृष्टनिकाचितं त्यतिधनादतिक्रोमीकृतसूचीनिषयसन्निभं भावनीयमिति । नन्यनिकाचितस्य कमणः को विशेष इत्याह-उत्पादि रायष्टौ करणानि भवन्ति । उक्तं च- "बंधण संक्रमणव- द्वणा य उब्वट्टणा उरणया । उवसावणा निवती, निकायणा वत्तिकर णाइ" ॥१॥ तत्र निकाचिते कर्मणि स्थित्यादिखण्डनरूपा (उबइण ति) उपवर्तना प्रयते । तथा (उक्तेरो ति) स्थित्यादिवर्द्धनरूप उत्कोच उठानी केपलरूपः संक्रमः । तथा - ( खवणं ति ) प्रकृत्यन्तरसंक्रमितस्य कर्मणः प्रदेोदयेन निर्भरणं रूपम् तथा (अनुभवो ि स्वेन स्वेन रूपेण प्रकृतीनां विपाकतो वेदनमनुभवः । इदं बोलणमुरादीनां तदेाम्यगादीनि सर्वाप्यमि काचि निकाचिते तु प्रयो भवमेव प्रवर्त्तते, न पुनरपवर्तनादी में । त्यनयोविंशेषः । समावीर्णविकृष्टतपस्यामुत्कदाभ्यासेन तसा निकाश्याचं पीति पचनकिावतेऽपि कम्मेपनादिकरणप्रवृत्तिभवतीति प्रायोग्रहणम् । तदच व्याक्याने शीरनीरन्यायेन वहिततायोगोल कन्यायेन वा जीवप्रदेशैः सह कर्म्म संबद्ध Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८१) अबछिय अनिधानराजेन्द्रः । अबघिय मिनि पर्यवसितम्। विन्ध्यसमीपे श्रुत्वा तथाविधकर्मोदयादभिः अत्र भाग्यमनिवेशेन विप्रतिपन्नो गोष्ठामाहिसः प्रतिपादयति-ननु सदोष- आमंसा जा पुने, सेविस्मामि ति दसियं तीए । मिदं व्याख्यानम्-यस्मादेवं व्याख्यायमाने भवतां मोक्वाभावः जेण सुयम्मि वि जणियं. परिणामाओ असु तु ॥ प्राप्नोति, जीवप्रदेशैः सह कर्मणामविभागेन तादात्म्येनावस्थानादिति। प्राशंसातः प्रत्याख्यानं दुमित्युक्तम् । तत्राशंसा का ?, Eअमुमेवार्थ प्रमाणतः साधयन्नाह स्याह-(जत्ति) या एवंविधपरिणामरूपा। कथभूतः परिणाम?, इत्याह-पूणे प्रत्याख्याने देवलोकादौ सुगगनासंभोगादिभो. न हि कम्मं जीवाश्रो, अवेइ अविभागो पएसो व्व। गानहं सेविम्य, श्त्येवंभूतपरिणामरूपा च या आशंसा. तथा तदणवगमादमोक्खो, जुत्तमिणं तेण वक्खाणं ।। प्रत्याख्यानं दृषितं भवति । कुतः!, इत्याद-येन श्रुतेऽप्यागमेनहि नैव कर्म जीवादपैतीति प्रतिक्षा। अविभागाद वहषयो ऽपि भणित, दुष्परिणामाशुद्धेः प्रत्याख्यानम्शुद्धं भवति । गोलकन्यायतो जीवेन सह तादात्म्यादित्यर्थः, ६ष हेतुः। तथा चागमः-"सोही सद्दरणा जाणणा य चिणपऽप्रभा(पपसो व्ब ति) जीवप्रदेशराशिवदित्यर्थः, एष रष्टान्तः । सणा चेव । अणुपालणा विसोही, भारविसोही भवे ग्हा" | इह यद्येन सहाविभागेन व्यवस्थितं न तत्ततो वियुज्यते, यथा तत्र पच्चक्खाणं सव्वम्मुदेसियं' इत्यादिना श्रद्धानादिषु व्याजीवात्तत्प्रदेशनिकुरम्बम् । इप्यते चाविभागो जीवकर्मणो ख्यातेषु भावविशुद्धेर्यदू व्याख्यानं तत्प्रकृतोपयोगीति रश्यते । भवद्भिरिति न तस्माद्वियुज्यते, ततस्तदपगमात्तस्य कर्मणो "रागेण च दोसणं, परिणामेण वन दृसियं जंतु । तं खमु परजीवादनपगमादवियोगात्सर्वदेव जीवानां सकर्मकत्वान्मोक्का क्वाणं, भावविसुखं मुणेयव्वं" ॥१॥ति । विशे०। (पते विप्रप्रायः, तेन तस्मादिदमिद मदीयं व्याख्यानं कर्तुं युक्तमिति । तिपत्ती २५६ पृष्ठे 'कम्म' शब्दे, 'पच्चक्वाण' शब्दे च वक्ष्येते) तदित्याह एवं युक्तिभिः प्रशापितेऽपि यावदसौ न किञ्चित्प्रतिपद्यते ततः किं संजातम?, इत्याहपुट्ठो जहा अबको, कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ । श्य परणविओ वि न सो, जाहे सद्दहइ पूसामित्तेण । एवं पुध्मवर्क, जीवं कम्मं समझेड । अनगणत्थरोह य, काउं तो संघसमवायं ॥ यथा स्पृष्टः स्पर्शनमात्रेण संयुक्तोऽवकाकीरनीरन्यायादलोली पाहय देवयं वे-जाणमाणो वि पच्चयणिमित्नं । जूत एव कञ्चुको विषधरनिर्मोकः कञ्चुंकिनं विषधरं समन्वेति समनुगच्छति, एवं कापि स्पृष्टं सर्पकञ्चुकवत्स्पर्शनमात्रे वच्च जिणिदं पुच्छम, गयागया सा परिकहे। जैव संयुक्तमवर्क ववषयःपिण्डादिन्यायादलोलीभूतमेव जीवं संघो सम्मावाई, गुरूपुरोगो त्ति जिणवरो नणइ । समन्वेति, एवमेव मोक्षोपपत्तेरिति । विशे० । “यतो यद्भत्स्य- इयरो मिच्छावाई, सत्तमो निएहओऽयं ति ।। ते तेन, स्पृष्टमा तदिप्यताम् । कञ्चुकी कञ्चुकेनेव, कर्म एईसे सामत्थं, कत्तो गंतुं जिंणिंदमूलम्मि । भेत्स्यति चात्मनः" ॥१॥ प्रयोगः-यधन भविष्यत्पृथग्भावं, तसेन स्पृष्टमात्र, यथा कञ्चुका कम्चुकिना, भविष्यत्पृथग्भावं वे कहपूयणाए, संघेण तओ को बज्झो ॥ व कर्म जीधेन । उत्त०३० चतसृणामप्यासामकरार्थः सुगम एव । जावार्थस्तु कथानक[प्रत्यास्यानविषया विप्रतिपत्तिः] शेषादवसेयः । तच्चेदम्-एवं युक्तिभिः प्रज्ञाप्यमानो यावदसौ न किमपि कसे तावत्पुष्पमित्राचार्यैरन्यगधगतबहुश्रुतस्थषितदेवं कर्मविचार विप्रतिपसिमुपदश्येदानी प्रत्याख्यानविष- राणामन्तिके नीतः, ततस्तैरप्युक्तोऽसौ-याशं सूरयः प्ररूपययां विप्रतिपत्तिमुपदर्शयन्नाह म्त्यार्यरक्षितसूरिभिरपि तारशमेव प्रकपितं,न हीनाधिकम,ततो सोऊण भन्नमाएं, पञ्चक्खाणं पुणो नवमपुब्वे । गोष्ठामाहिलेनोक्लम-किं यूयमृषयोजानीथ?,तीर्थकरैस्तारशमेष सो जावजीव विहियं, तिविहं तिविहेण साहणं ॥ प्ररूपितं याहशमहं प्ररूपयामि । ततः स्थविरैरुक्तम्-मिथ्याभि निविष्टो मा कार्षीस्तीर्थकराशातनाम,न किमपि त्वं जानासि। स गोष्ठामाहिलः कर्मविचारे विप्रतिपन्नः पुनरन्यदा नवम ततः सर्वविप्रतिपत्तेः तस्मिन् सर्वैरपि तैः संघसमवायः कृतः। पूर्वे"करेमि भंते ! सामाश्यं सव्वं सावजं जोग पञ्चक्खामि सर्वेणापि च संघेन देवताहानार्थ कायोत्सर्गो विहितः। ततो जजावजीवाए " इत्यादि । यावज्जीवावधिकं साधूनां संबन्ध हिका काचिद्देवतासमागता ।सा वदति स्म-संदिशथ किंकप्रत्याभ्यान भएयमानं विन्ध्यसमीपे विचार्यमाणं शृणेति । रोमि । ततः संघःप्रस्तुतमर्थ जाननपि सर्वजनप्रत्ययनिमित्तं तदेव कृत्वा किं करोति !, इत्याह प्रवीति-महाविदेहं गत्वा तीर्थकरमापृच्चस्व, किं पुलिकापु प्पमित्रप्रमुखः संघो यद्भणति तत्सत्यमुत यगोष्ठामाहिलो बदजंपइ पच्चक्खाएं, अपरीमाणाइ होइ सेयं तु । ति । ततस्तया प्रोक्तम्-मम महाधिदेहे गमनागमने कुर्वन्त्याः जेसिं तु परीमाणं, तं दुटुं मासँसा होइ ।। प्रत्यहानुघातार्थमनुग्रहं कृत्वा कायोत्सर्ग कुरुत, येनाहं गच्छागोष्ठामाहिलो जल्पति-ननु प्रत्याख्यानं सर्वमपि अपरिमाण मिततस्तथैव कृतं संघेन । गता च सा। पृष्ट्वा च भगवन्तं प्र. सया अवधिरहितमेव क्रियमाणं श्रेयोहेतुत्वाच्छेयः शोभनं स्यागता कथयति स्म-यदुततीर्थकरः समादिशति-दुर्षलिकाभवति, येषां तु व्याख्याने प्रत्याख्यानस्य यावज्जीवादिपरिमाण पुष्पमित्रपुरस्सरसंघः सम्बग्वाद।। गोष्ठामाहिलस्तु मिथ्यामवधिविधीयते तेषामनेन तत्प्रत्याख्यानमाशंसादोषपुएत्वात वादी; सप्तमश्चायं निह्नव इति, तदेतच्छ्रुत्वा गोष्ठामाहिलो पुष्टं सदोषं प्राप्नोति। प्रवीति-नन्धल्पर्दिफेयं वराकी , का नामैतस्याः कटपृतना Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परा (६२) अबछिय अभिधानराजेन्द्रः। अबाहा पास्तीर्थकरान्तिके गमनशक्तिरित्येवमपि यावदसी न किश्चि- __यंभा कोहा पमारणं, रोगेणालस्सएण य ॥३॥ म्मन्यते तावरसंधेनोद्धाट्य बाह्यः कृतोऽनालोचितप्रतिक्रान्तश्च प्रथेत्युपन्यासार्थः। पञ्चभिः पञ्चसंख्येस्तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा कासं गतः ॥ ५४२ ॥ विशे० ॥ जन्तब इति स्थानानि,तः,यैरिति वदयमाणहे तुभिः शिकणं शिअबम्हज्य-अब्रह्मण्य-त्रि० । न. ० । मागण्याम-"न्य-] का, ग्रहणसेवनात्मिका न लज्यते नावाप्यते, तैरीशमबहुश्रुएय---जां प्रः"1-18 | २६३॥ इति सूत्रेण एयस्थाने दि. तत्वमवाप्यत इति शेषः । कैः पुनः सा न लभ्यते ! , इत्याहकक्तो नः । प्रा०५पाद । ब्रह्मएयशून्ये, भाभा० अव्ययी०,त. स्तम्भादू मानात , क्रोधात् कोपात्. प्रमादेन मद्यविषयादिना, यो । ब्रह्मण्यानावे, वाच। रोगेण गलतकुष्ठादिना, आलस्यनानुत्साहात्मना,शिक्षा नलअचल-अचल-नान बलं सामर्यमुत्कों वा। प्रभाव न०० ज्यत इति । कमश्च समस्तानां व्यस्तानां च हेतुत्वमेषां द्योतबलाभावे, वाचा शरीरबलवर्जिते.त्रिका विपा०१०३०। यतीति । उत्त० ११ १०॥ सूत्राभ। विषमपदादौ गन्तुमसमय, नारं बोदुमसमर्थे च । | भवालुया-अबाबुका-स्त्री० । भवामुशम्दाथै चिकणपमूत्र० १६०२ भ०३ उ० । जहा०1 दायें, तं। अभलत्त-अवन्नव-न। अबलस्य जाबोऽबलत्वम् । बला-| प्रवाहा-अबाधा-स्त्री० । बाध-लोमने,वाघत इति बाधा,कर्मण भाव, वृ. ६ उ०। उदयः । न बाधाऽबाधा । कर्मणो बन्धस्योदयस्य चान्तरे, भ. अरला-अबला-स्त्री० महिलायाम, को। अनिश्चितकरा ६ श०३ उ० । स० । ०। बाधा परस्परं संश्लेषतः पीडन, न बाधाऽबाधा । भ०१४ श०८ उ० । व्यषधानापेक्षयाऽन्तरे, याम, ११० स०४२ समाविशे० प्रा००। (अबाधया अन्तरम-अंतर' अवहि-प्रवाहित्थ-1०।आकारगोपने, वाच। मैथुने, सूत्र० शब्देऽस्मिन्नेव नागे ७८ पृष्ठे उक्तम) १०० मंदरस्स एंजते! पब्बयस्स केवइयाए अवाहाए जोइसंचार अपहिम्मए-अबहिर्मनम-त्रिभान विद्यते बहिर्मनो यस्यासा चरीगोयमा कारसेहिं एकवीसेहिं जोयणसएहिं अबाहाए सहिर्मनाः । सर्वोपदेशवर्तिनि, प्राचा०१श्रु०५ ०५१० जोसंचारं चरइ । लोगताओ णं नंते ! केवश्याए अबाहाए अबाहिस्सि-अहिलेश्य-त्रि०। प्रविधमाना बहिः संयमा- जोए जोइसे पसत्ते । गोयमा ! एकारसिं एकारसेहिं जोद बहिस्ताल्लेश्या मनोवृत्तिर्यस्यासावहिलेश्यः । भ०२ श० अणसएहिं अबाहाए जोइसे परमचे । धरणितलाओ णं १०। प्रश्नः । औ। जंते ! सत्तहिं उएहिं जोमणसएहिं जोइसं चारं चर। अबहुवादि ()-अवहुवादिन-त्रि० । असकृदव्याकुर्वाणे, एवं सूरविमाणे अहिं सएहिं चंदविमाणे अहहिं - प्राचा० १०६०४०। सीएहि उवरिने तारारूचे शवहिं जोअणसएहिं चार अबदुस्सुय (त)-प्रवदश्रुत-पुं०।बहुश्रुतं यस्य स बहुभुतः | चर। जोइसस्सणं नंते !हेहिवामो तलाओ केवड्याए नभुतोऽबहुक्षुतः । अनधीतनिशीथाध्ययने, अधुताधस्तन- प्रवाहाए सूरविमाणे चारं चर । गोयमा! दसहिंजोश्रुते च । निचू.१3० । भबहुश्रुतो नाम येनाचारप्रकल्पो अणेहिं प्रवाहाए चारं चर । एवं चंदविमाणे णनएहिं निशीयाध्ययननामकः सूत्रतोऽर्थतश्च नाधीतः । व्य० ३ उ० । जोमणेहिं चारं चर । उवरिलं तारारूवे दमुत्तरे जोअबहुतस्वरूपं च तद्विपर्ययपरिमाने तद्विविक्कं सुखेनैवसायत इत्यवानस्वरूपमाह एसए चारं चरइ , सूरविमाणाश्रो चंदविमाणे प्रसीए जो प्रणेहिं चारं चरइ, सूरविमाणाभो जोअणसए उपरिचे जे पावि होइ निधिज्जे, यो बुदे मणिग्गहे । तारास्वे चारं चर, चंदविमाणाप्रो बीसाए जोमणेहि अजिक्खणं नक्षत्र, प्रविणीए अनुस्मुए॥॥ नवरिने तारारूचे चारं चरइ। . (जे यावित्तियः कश्चित्, चापिशब्दो भित्रक्रमत्वाद् उत्त| (मंदरस्स भंते! इत्यादि ) मन्दरस्य भदन्त ! पर्वतस्य रत्र योदयेते, भवति जायते, निर्गतो विद्यायाः सम्यकशास्त्रा-1 कियत्या भवाधयाऽपान्तरामेन ज्योतिश्च चारं चरति ।पगमापाया निर्विद्योऽपि यस्तब्धोऽहकारी, लुब्धो रमादिग- गवानाह-गौतम! जगत्स्वभावादेकादशतिरेकर्विशत्यधिकैसिमान, न विद्यते विग्रह इन्द्रियनियमनात्मकोऽस्येत्यनिग्रहो योजनशतैरिन्यरूपयाऽबाधया ज्योतिषं चारं चरति । किउभारणं पुनःपुनरुत्प्राबल्येनासंबद्धभाषितादिरूपेण सपति वक्ति। मुक्तं भवति?-मेरुतश्चक्रवान एकविंशत्यधिकान्येकादशयोजउसपनि । भयिनीतश्च विनयविरहितो (अबहुस्सुए ति )य- नहातानि मुक्त्वा चलन ज्योतिश्चकं तारारूपं चारं चरति, प्रसदानित्यानिसंबन्धात सोऽबहुश्रुत उच्यत इति शेषः । सवि- क्रमाजम्बूद्वीपगतमवसेयम । अन्यथा लवणसमुद्रादिज्योतियम्याऽप्यबहुभुतन्वं, बहुश्रुनफलाभावादिति भावनीयम्। पत- धकस्य मेरुतो दूरवर्तित्वे प्रमाणासंभवः । पूर्व तु सूर्यचविपरीतस्वादश्रुत इति मुत्रार्थः।। न्द्रवक्तव्यताधिकारे अवाधाद्वारे सूर्यचन्द्रयोरेव मेरुतोऽबाधा कुतः पुनरीरशमवदुक्षुतत्वं लभ्यते?, इति तत्कारणमाह सक्ता,साम्प्रतं तारापटनस्य, इति न पूर्वापरविरोध ति । प्रथ स्थिरं ज्योतिश्चक्रमलोकतः कियत्या अबाधया अर्वाग् भवतिअह पंचहि नाणेहि, नेहि मिक्खा न लब्धा । प्रत इति पिच्छिषुश्चनुथै द्वारमाह-(खोगंतानो णमित्यादि) Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबाहा अनिधानराजेन्द्रः। प्रबाहा सोकान्ततः मलोकादितोऽर्वाक कियत्या प्रवाधया प्रक्रमात | पति,मेरोःसर्वतः एकादश योजनशतान्यकविंशत्यधिकानि मनन स्थिरं ज्योतिश्चक्रं प्रशप्तम ! | भगवानार-गौतम ! जगत्- तदनन्तरं चक्रवातया ज्योनिश्चक्र चारं चति । (ना लायस्वनावाद एकादभिरेकादशाधिकोजनशनरषाधया ज्यो. ताप्रोणमिन्यादि ) ता पति पूर्ववत् । लोकान्नादवांक, ति प्राप्त, प्रक्रमात् स्थिरं बोध्यम्, चरज्योतिश्चक्रस्य तत्रा- णमिति वाक्यानडारे । कियन्त्रमवाधया कृत्वा ज्योनियं भावादिति । अथ पश्चमद्वारं पृच्चनि-'धरणितलामोते.' प्राप्तम् । जगवानाह- पक्काग्मेन्यादि) एकादश योजनशताइत्यनेन तत्सूत्रैकदेशेन परिपूर्ण प्रश्नमत्रं बोध्यम् । तच्च- नि एकादशाधिकानि प्रयाधया कृत्या अपान्तगलं विधाय "धरणितमानो णं भंते ! उई उपरत्ता केवस्थाए अबादाए ज्योति प्राप्तम् । (ताजंब्दावे णं दीये कयरे नक्सत्ते । दिच्चि जोइसे चारं चरह । गोयमा ! " इत्यन्तं बस्वेक- इत्यादि मुगमम् । नवग्मभिजिन्नात्र सर्वाच्यम्तरं नक्षत्रदेशस्य बस्तुस्कन्धस्मारकत्वनियमात् । तत्रायमर्थ:-धर- मरामसमपेक्ष्य, एवं मुखादयपि सबाह्यादीनि चेदितव्यानि । पितलात् समयप्रसिकात् समभूतल जूनागादृर्ध्वमुत्पत्य कि- (ता चंदविमाणे णमित्यादि । संस्थानविषयं प्रश्नमूत्रं सुगमम। यत्याऽयाधया अधस्तनं ज्योतिष तारापटलं चारं चरति ? । भ- भगवानाह-( ता अद्धकविट्ठगेत्यादि ) अर्द्धपिन्धमुत्तानीकृत गवानाह-गौतम ! सप्तभिनवत्यधिकैयोजनशतैरिस्येवंरूपया मर्द्धमात्र कपिन्ध नस्येव यत संस्थानं तेन्यः संस्थितमकपिप्रवाधया मधस्तनं ज्योतिश्चकं चारं चरति । अथ सूर्यादिवि. स्थसंस्थानसंस्थितम । पाह-यदि चन्द्रविमानमर्द्धमात्रपिन्थपयमबाधास्वरूप संक्तिप्य भगवान् स्वयमेवाह-( एवं सू- फनमंस्थानसंस्थितं तत उदयकाले अस्तमनकाले यदि वा रविमाणे भट्ठदि सपदि चंद) इत्यादि । एवमुक्तन्यायेन तिर्यकपरिभ्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तबर्द्धकपिधफनाकारं नोयथासमभूमिनागादधस्तनं ज्योतिश्चकं नवत्यधिकसप्तयोजन- पलभ्यते,कामं शिरस सपरि वर्तमानं बर्नुलमुपनत्यते अद्धकशतैस्तथा समनूमि नागादेव सूर्यविमानमष्टभियोजनशतैश्व-| पित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापितस्य परजाग दर्शनतो छविमानमशीत्यधिकैरष्टभिर्योजनशतैरुपरितनं तारारूपं नव. वर्तुलतया श्यमानत्वात् ? । उच्यते-हाकपिथफलाभिजन रानैश्वारं चरति । अथ ज्योतिश्चक्रवारकेत्रापेकया . कारं चन्द्रविमानं न सामस्त्येन प्रतिपत्तव्यम, कितु तस्य याधाप्रश्नमाह-(जोश्सस्स णमित्यादि ) ज्योतिश्चक्रस्य द- चन्द्रविमानस्य पीठं,तस्य च पास्योपरि चन्ऽदेवस्य ज्योनि. शोत्तरयोजनशतब हुल्यस्याधस्तनात्तलात् कियस्था अबा- इचक्रराजस्य प्रासादः, तथा कथश्चनापि व्यवस्थितो यथा पान घया सूर्यविमानं चार चरति । गौतम! दशनियोजनैरिस्येवं. सह भूयान् वर्तुत्र आकारो जवति , स च दरजावात एकान्तरुपया अबाधया सूर्यविमानं चारं चरति । अत्रच सूर्यसमनू- रतः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते,नतो न कश्चिद दोषः। नागार्व नबत्यधिकसप्तयोजनाऽतिक्रमे ज्योतिश्चक्रबाहुल्य- नचैतत् स्वमनीषिकाया जृम्नितम् । यदेतदेव जिन नगणिकमूल नूत माकाशप्रदेशप्रतरः सोऽवधिमन्तव्यः । एवं चन्द्रा- माश्रमणेन विशेषणवत्यामापपुरस्सरमुक्तम्दिसूत्रेऽपि । एवं चन्द्रविमानं नवत्या योजनैरित्येवंरूपया प्रवाधया चारं चरति । तथा चोपरितनं तारारूपं दशाधिके " मद्धकविट्ठागारा, उदय ऽन्यमणम्मि कहं नदीसंति। योजनशते ज्योतिश्चक्रबाहुल्यप्रान्ते इत्यर्थः, चारं चरति । ससिसूराण विमाणा, तिरियक्खेत्तहियाणं च? ॥१॥ प्रय गतार्थमपि शिष्यव्युत्पादनार्थमाह-सर्यादीनां परस्पर उत्ताणऽकविता-गारं पीठं तदुवरि पासाम्रो । मन्तरं सूत्रकृदाह-(सूरविमाणाम्रो श्त्यादि ) सर्यविमानात् वहा लेखेण तो, समवढे दूरभावाभो" ॥२॥ चन्द्रविमानं अशीतियोजनैश्वारं चरति । सर्यविमानात् योज- तथा सर्व निरवशेष स्फटिकमयं स्फटिकविशेषमणिमयं, तथा नशतेऽतिकान्ते उपरितनं तारापटसं चारं चरति। चन्द्रविमानाद मभ्युमता आभिमुल्येन सर्वतो विनिर्गता उत्स्ता प्रबलतया विंशत्या योजनपरितनं तारापटसंचारंचरति॥मत्र सूचनामा- सर्वासु दिक्कु प्रस्ता या प्रभा दीप्तिस्तया सितं शक्रमभ्युमतोप्रत्वात् सत्रेऽनुक्ताऽपि प्रहाणां नक्षत्राणां च केत्राणां च क्षेत्रवि- चतप्रभासित तथा विविधा अनेकप्रकारा मणयश्चमकान्यानागव्यवस्था मतान्तराभिता संग्रहणिवृत्यादौ दर्शिता सिम्यते. दयो रखानि कतनादीनि तेषां भक्तयो विधिसिविशेषाः ता. “शतानि सप्त गत्वोव, योजनानां नुवस्तलात। भिश्चित्रमनेकरूपवत, आश्चर्यवद्वा विविधमणिरत्नचित्रमा तथा भवति च स्थितास्ताराः, सर्वाऽधस्तानजस्तले ॥१॥ बातोमृता वायुकम्पिता विजयोऽभ्युदयस्तत्संचिका बैजयतारकापटनात्वा, योजनानि दशोपरि। म्त्यभिधाना याः पताकाः। अथवा विजया इति वैजयन्तीनांपासूराणां पटसं तस्मा-दशीति शीतरोचिषः ॥२॥ कर्णिका उच्यते,तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्स्यः पता. चत्वारि तु ततो गत्वा, नक्षत्रपटलं स्थितम् । कास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, नातिच्चत्राणि च सप. गत्वा ततोऽपि चत्वारि, बुधानां पटसं भवेत् ॥३॥ युपरि खितातपत्राणि तः कसितं,नतो वातोतविजयवैजयन्ती. शुक्राणां च गुरुणांच, नौमानां मन्दसंझिनाम । पनाकाबनातिचत्रकनितं, तुजमुशम, अत एव (गगनतसमपौणि त्रीणि व गत्वोच, क्रमेण पटसं स्थितम्"॥४॥इति।। सिहंत सिहरंति)गगनतममम्बरतनमनाखत,अनियजिसजं०७ पक्षा रंयस्य तद् गगनतलानुलिखभिखरम । नथा जालानि जानका नि तानि च भवनभिसिषु लोके प्रतीतानि, तदनन्तरेषु विशि( मंदरस्स णमित्यादि ) ता इति पूर्ववत । मन्दरस्य | एशोनानिमित्तं रखानि यत्तद् जानान्तररतम्, सो चात्र प्रथमैपर्वतस्य जम्बूद्वीपगतस्य सनतिर्यगलोकमध्यवर्तिनः कि- कवचनलोपो एव्यः । तथा पञ्जरान्मीनितमिवबहिष्कृतमिव बक्षेत्रमबाधया सर्वतः कृत्वा चारं चरति ? । भगवानाह-| पञ्जरोन्मीलितमिव । यथा हि किन किमपि वस्तु पजराद (ता एकारसेत्यादि)ता शत पूर्ववत् । एकादश योजनशतानि वंशादिमयप्रच्चादनविशेषाद बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्यत्वापकविंशत्यधिकानि अबाधया कृत्वा चारं चरति । किमकंभ- शोभने एवं तदपि विमानमिति भावः। तथा-मणिकनकानां Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) अबाहा अनिधानराजेन्द्रः । अबोहि संबन्धिनी स्तूपिका शिखरं यस्य तद् मणिकनकस्तूपिकाकम् । अमुफ तेसि परकंतं, सफलं होइ सम्बसो ॥२२॥ तथा विकसितानि शतातपत्राणि पुराफरीकाणि द्वारादौ प्रतिक ये केचनावुमा धर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतातित्वेन स्थितानि तिबकाश्च भित्त्यादिषु चहाणि रत्नमयाश्चा दिपरिकानेन जाताय लेपाः पएिकतमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतईचाद्वाराग्रादिषु तैश्चित्र विकसितम, प्रातपत्रपुण्डरीक स्वानवयोधादबुका इत्युक्तम् । नच व्याकरणपरिहानमात्रेण तिलकार्कचन्द्रचित्रम् । तथा-अन्तयहिश्च लक्षणं मसण सम्यक्वव्यतिरेकेण तत्वावबोधो भवतीति । तथा चोक्तम्मित्यर्थः । तथा-तपनीयं सुवर्णविशेषस्तन्मय्या बालुकायाः "शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, सिकतायाः प्रस्तट: प्रतरो यत्र तसथा; तपनीयवालुका नैवाऽबुधः समनिगवति वस्तुतत्त्वम् । प्रस्तटतया सुवर्णस्पर्श शुभस्पर्श वा । तथा सश्रीकाणि नानाप्रकाररसन्नावगताप दर्वी, सशोजानि रूपाणि नरयुग्मादीनि रूपाणि तत्र तत् सश्रीक स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वति"॥१॥ रूपम् । प्रासादायं मनःप्रसादहेतुः। अत एव दर्शनीयं द्रष्ट यो. यदि वा अबुद्धा श्व बलवीर्यवन्तः, तथा महान्तश्च ते ग्यं, तदर्शनेन तृप्तरसंन्नवात् । तथा प्रतिबिशिष्टमसाधारणं रूपं भागाश्च महाभागाः । भागशन्दः पूजावचनः । ततश्च मयस्य तत्तथा । ( पर्व सुरविमाणे वीत्यादि) यथा चन्द्रविमान हापूज्या इत्यर्थः । लोकविश्रुता इति । तथा धीराः परानीस्वरूपमुक्तमेवं सूर्यविमानं ताराविमान च वक्तव्यं, प्रायः सर्वे कनेदिनः सुभदा इति । इदमुक्तं नवात-पएिमता अपि त्याघामपि ज्योतिर्विमानानामेकरूपत्वात् । तथा चोक्तं समवायारे- गादिनिर्गुणोकपृज्याः । अपि च-तथा सुभटवादं वह"केवश्या ण भंते ! जोसियावासा पन्नता !! गोयमा!इमी न्तोऽपि सम्यक्तत्त्वपरिज्ञानविकलाः केचन नवम्तीति दर्शसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमाणिज्जाबो नमिनागाओ स. यात-ग सम्यग् असम्यक, तनावोऽसम्यक्त्वम् । तदू कटु तनउयाई जोयणसयाई नएं उपत्ता दसुत्तरजायणस- शीसं येषां ते तथा, मिथ्यादृष्टय इत्यर्थः। तेषां च बालानां ययबाहवे तिरियमसंखेजे जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं किमाप तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रान्तमुद्यमअसंखेज्जा जोसिया विमाणावासा पन्नता । तेणं जोसि- स्तद शुरुमविशुरुकारि, प्रत्युत कर्मबन्धाय, भावोपहतत्वात्, यविमाणावासा अग्नुग्गा पमुसियपहसिया विविहमाणरय- सनिदानत्वाहेति, कुवैद्यचिकित्सायद्विपरीताऽनुबन्धीति । तच्च णनत्तिचित्ता तं चेवाजाव पासाईया दरिसणिज्जा पमिरूवा"। तेषां पराक्रान्तंसह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत शति सफसम्।सर्वश ०प्र० १० पाहुन बाधा अबाधा। अनाक्रमणे, रा०।जी। इति । सर्वाऽपि तक्रिया तपोऽनुष्ठानादिका कर्मबन्धायैवेति स्था०। भौ०॥ ॥ २२ ॥ सूत्र १ श्रु0 ८ अ० । बोधाविषये, वाच । अबाहिरिय-अबाहिरिक-त्रि० । बहिर्भवा बाहिरिका । "-1 अबुरुजागरिया-अबुफजागरिका-स्त्री० । ग्वस्थकानवता ध्यात्मादिभ्य इकण्"।६।३। ७७॥ इति हैमसूत्रेण इकणप्रत्ययः। जागरिकायाम, भ०। “अबुका अबुरुजागरियं जागरंति ति" प्राकारबहिर्वतिनो गृहपतिरित्यर्थः । न विद्यते बाहिरिका अबुद्धाः केवलकानानावेन यथासंभवं शेषकानसद्भावाच्च बुयत्र तदबाहिरिकम् । यस्य प्राकाराद् बहिहाणि न सन्ति सहशाः तेच, अबुकानां ग्वस्थज्ञानवतां या जागरिका सा तस्मिन् स्थाने, वृ० १०॥ तथा तां जाग्रति । न० १२ श०१०। अवाह्य-त्रि० । ग्रामस्यात्यन्तमबहिर्भूत, "अबाहिरए कप्पा अबद्धसिरी-देशा-मनोरथाधिकफलप्राप्ती, दे० ना० १ वर्ग। हेमंतगिम्हासु मासं वत्थर" व्य०१०। प्रवाहणिया-अबाधोनिका-स्त्री । अबाधया उक्तलकणया अबुनि -अबुटिक-त्रि० । तत्वज्ञानरहिते, ग०१ प्रधिः।मऊनिका अबाधोनिका । न०६ श०३०। अबाधाकालप कानिनि, पं० ० । बुरिरहिते, स्त्र० १६०२ अ० १००। रिहीनायाम, "अबाइणिया कम्महि पएणता" जी०प्रति०।। अबुह-अबुध-पुं० । विरोधे, अप्राशस्त्ये वा । न त।बुअविद्ध-अबिद-त्रि० । बेधरहिते, व्य०८ ०तं० । धभिने मूर्ख, अल्पकाने च । वाच०। प्रजानाने, सूत्र०१७०२ अविकान-प्रविककर्ण-पुं० । स्वनामख्याते तार्थिकमेदे, अ०१ उ. बालिशे, प्रश्न १ अाश्र0 द्वा० । तत्वपरिज्ञानयदपि गजतुरगस्यन्दनादिन्यतिरिक्तनिमित्तप्रनवः संख्याप्र विकले, वृ१००। त्ययः, गजादिप्रत्ययविलक्षणत्वाद, वस्त्रचर्मकम्बझे नीमप्रत्य- अबुहजण-अबुधजन-त्रिका अबुधोऽविपश्चितमः परिजनो ययवदिति संश्याप्रसिम्प्रत्यये अविस्कर्णोक्तं प्रमाणम् । तदयु- स्य स अवुधजनः । अकल्याणमित्रपरिजने, “विसयसुहेस पकम । गजादिव्यतिरिक्तसंकेतादिप्रभवत्वेनेष्टत्वात सिद्धसाध्य- सत्थं , अबुहजणकामरागपमिबद्ध" दश०२०॥ तादोपाघ्रातत्वात् । सम्मकाए । अबोह-अबोध-पुं० । नाममवगमे, ध.१ अधि०। अबीय-अद्वितीय-त्रि० । केनचिदपरेण सहावर्तमाने, यथादि अवोहंत-अबोधयत-त्रि० । मजागरयति, उत्त० २६ ०।। ऋषनश्चतस्सहरूया राज्ञां सा, मविपाश्वी त्रिनिस्त्रिभिः शतैः, वासुपूज्या पदात्या, शंषाश्च सहस्रेण सह प्रबजितास्तथा अबोहि-अबोधि-स्त्री०।नता अझाने, सूत्र०२४०६अ। भगवान् न केनाप्यतोऽमितीयः। कल्प। जिनधर्मानवाप्ती, औत्पस्यादिबुख्यभावे च । भ०१शहा अचुक-अबुद्ध-त्रि० । अषिपश्चिति, दश० २ भ०। अविवेकि- मिथ्यात्वकार्ये काने, "प्रबोधि (हिं) परियाणामि बोवि . नि, सूत्र० १ श्रु० ११ १०॥ संपजामि" प्राव०४ म०। अबुद्धनिन्दा कस्याबोधिनवति', इति प्रभस्योत्तरमाहजे अबुद्धा महाभागा, वीराऽसम्मत्तदसिणो। मिच्छादसणरत्ता, सनिदाणा किएहलेसमोगाढा । Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहि इह ने मरंति जीवा, तेमिं कुला जये बोही ॥ मियाददर्शनं मिध्यात्वं तु मिथ्याकिया मिलारूपं, तत्र रताः, तथा सह निदानेन देवत्वादिप्रार्थना रूपेण वर्तन्त इति समिधानाः। तथा कृष्णां सर्वाधरूप परणामरूपामवगाढाः प्राप्ता इडास्मिन् जगति एवंविधा ये जीवा प्रियन्ते तेषां दुर्लभो भवेद् योधिः । श्रातुः । अफिस प्रबोधिकलुप घ० मा दश०४० अबोडिवीय अयोधिपीज १० यन्तरे जिनधर्मा ( १८५ ) अभिधानराजेन्द्रः । 1 प्राप्तौ बाजमिव बीजं हेतुरबोधिबीजम् । पञ्चा० ४ विघ० । सम्यग्दर्शनाजावहेती, पञ्चा० ७ वित्र० । अवोहिय- अबोधिक न० अर्थाना० श्रव्ययी० स० । मिथ्यात्वफले ( अज्ञाने ), दश० ६ श्र० । न विद्यते बोधिर्यस्य सोऽबोधिकः । बोधरहिते, " निच्चयत्थं न जाणंति, मिलक्खु व्व श्रबोहिया " सुत्र० १० १ ० २४० । श्रविद्यमानबोधिके, श्री० मामात् नयान्तरायजिनधर्मलाभातिजागरेणाज्ञे, “ अप्पणो य अबोहीप, महामोहं पकुव स०३० सम० । 66 १॥ । अभ्यर्बुद पुं० [स्वनामच्या (आलू) पर्वते, श्री० । तत्कथा चैवम्अतीप्रणिपत्याऽहं श्रीमायनेमिनी । महारारूपस्य कल्पं अस्पामि देण्याः श्रीमानुपति-मादी वच्ये यथा यदधिष्ठानतो ह्येष प्रख्यातो वि पर्वतः ॥ २ ॥ श्री रत्नमालनगरे राजाऽभूषनशेखरः । सोऽनपत्यतया दूनः प्रैषीच्छाकुनिकान् बहिः ॥ ३ ॥ शिरस्यां कामारिएयास्ते दुर्गा दुर्गत्रियाः । वीक्ष्य व्यजिज्ञपन राई, नाव्यस्यास्त्वत्पदे सुतः ॥ ४ ॥ दिशा गर्नैव सा हन्तुं श " गर्ते क्षिप्ता कायचिन्ता - व्याजात् तस्मादू बहिर्निरेत् ॥ ५ ॥ सानुमत्या धारा बालान्तरे मुद गीता-नमस्तेरमानि सा ॥६॥ पुरारिता स्तन्यं चापयत् सन्ध्याइये मृगी। - महालक्ष्याः पुरोदा ॥ ७ ॥ सम्याश्चतुर्णी पादाना मधो नूतननायकम् । 19 ॥ शिशुरूपं सो वार्ता व्यम्भत० ॥ नृपोऽकोऽपीति श्रुत्वा मैत्री भटान्नुपः । तद्वधायाथ तं दृष्ट्वा, सायं ते पुरगोपुरे ॥ ए ॥ बालानिया, गोधस्यायतः पथि । तप्तथैव स्थितं भाग्या-देकस्तूका पुरोऽनवत् ॥ १० ॥ चतुष्पादाराले तं शिवधात् तच्छ्रुत्वा मन्त्रिवाक्यान्तं, राजाऽमंस्तौरसं मुदा ॥ ११ ॥ श्रीपुजाययः क्रमात्त्रोऽनुपस्तस्याऽभवत्सुता । श्रीमाता रूपसंपन्ना, केवलं सवगानना ॥ १२ ॥ तद्वैराग्यनिर्विषया, जातु जातिस्मरा पितुः । न्यवेदयत् प्राग्भवं स्वं यदाऽहं वानरी पुरा ॥ १३ ॥ संचरम्यर्बुदे शाखि शािं विद्धा वृका रुपमं में, कुण्डेऽपतत् तरोरधः ॥ १४ ॥ तस्य कामिततीर्थस्य, माहात्म्याद नृतनुर्मम । मस्तकं तु तथैवास्याप्यतः कपिमुपदम् ॥ १५ ॥ १७२ | अब्बुय श्री पुजोऽक्षेपयच्छी, कुण्डे प्रेष्य निजान् नरान् । ततः सा नृमुखी जज्ञे, तपस्वी चार्बुदे गिरौ ॥ १६ ॥ योगामन्यदा योगी, तो रूपमोहित दृष्ट्रा तां । खासर्यालपत् प्रेम्णा, मां कथं वृणुये शुभे ? ! ॥ १७ ॥ सोचेऽत्यगादाद्ययामो, रात्रेस्तावदतः परम् । ताम्रचूरु, कयाचिद्वद्या पनि १०॥ शैलेऽत्र कुरुषे इद्याः, पद्या द्वादश तर्हि मे । वरः स्या इति चेटैस्यै-द्वियाम्याऽचीकरत्स ताः ॥ १६ ॥ स्वशक्तथा कुक्कुटरवे, कृतके कारिते तथा । निषिोऽपि विवाहाय, नास्थात्तत्कैतवं विदन् ॥ २० ॥ सरितीरेऽथ तं स्वस्ना, कृतवीवाहसंभृतिम् । सोधे त्रिशूलमुत्सृज्य, विवोढुं संनिधेहि मे ॥ २१ ॥ तथाकृत्योपगतस्य पादयोः नियोज्य साऽस्य शूलेन, हृद्यत्रेण वधं व्यधात् ॥ २२ ॥ इत्याजन्माएमशीला, जन्म नीत्वा स्वराप सा । श्रीपुजः शिखरे तत्समीर ॥ २३ ॥ परमाखान्यापोभाने चलत्यहिः । ततो विकम्पासर्व प्रासादशिखरं विना ॥ २४ ॥ मौकिकास्याद नन्दिवर्धन त्यासी, प्राक शैलोऽयं हिमाफिजः । काले मार्बुद नागाचित् २५ ॥ यसन्ति द्वादश प्रामाः अस्योपरि धनोद्धुराः । तपस्विनो गौगालिकाः, राष्ट्रिकाश्च सहस्रशः ॥ २६ ॥ न स वृत्तो न सा वल्ली, न तत्पुष्पं न तत्फलम् । न स्कन्धो न सा शास्त्रा, या नैवात्र निरीक्ष्यते ॥ २७ ॥ प्रदीपवन्महौषध्यो, जाज्वलन्यत्र रात्रिषु । सुरभीणि रसाख्यानि बनाने विविधान्यपि ॥ २८ ॥ स्वच्छन्दाष्ठसदच्छामि स्तीकुसुमान्बिता । पिपासानन्द, नाति मन्दाकिनी धुनी ॥ २८ ॥ चका सत्यस्य शिखरा - एयुतुङ्गानि सहस्रशः । परिस्वलन्ति सूर्यस्य, येषु रथ्या अपि कृणम् ॥ ३० ॥ रामासीवज्रतैलेभ कन्दाद्याः कन्दजातयः । दृश्यन्ते च प्रतिपदं तत्तत्कार्यप्रसाधिकाः ॥ ३१ ॥ प्रदेशाः पेशखाः कुण्डेर सदा कार्यकारिभिः । अस्य धातुखनीनिम्य, निः॥ ३२ ॥ काकूते कृते कृतकुडतः। प्रादुर्भवति वाः पूरः कुर्वन् खलहसारवम् ॥ ३३॥ श्रीमाताऽभ्वरस्य, पशिष्ठाश्रम एव च । अत्रापि लौकिकारतीय, मन्दाकिन्यादयोऽपि च ।। ३४ ।। महारस्य नेतारः, परमारनरेश्वराः । पुरी चन्द्रावती तेषां राजधानी निधिः श्रियाम् ॥ ३५ ॥ sarन् विमलांबु, विमलो दएकनायकः । चैत्यमनस्यात प्रतिमान्वितम्॥ ३६ ॥ धराया गयर्ती पुत्रसंपदपस्पृहः । तीर्थस्यापनमत्यर्थ, चम्पकमधी ॥ ३७ ॥ पुष्पाग्दा मरुचिरं दृष्ट्रा गोमय गोमुखम् । दमेव श्रीमातुर्भवनान्तिके ॥ ३८ ॥ युग्मम) राजानके के गुजरेश्वरम् । प्रसाद्य भक्तया तं चित्रकूटादानाय्य तफिरा ॥ ३६ ॥ वैक्रमे वसुवस्वाशा १०८८, मितेऽन्दे भूरिरैव्ययात् । Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८६) अब्बुय अनिधानराजेन्द्रः । अब्भंगण सत्प्रासादं सुविमल-वसत्याहं व्यधापयत् ॥४०॥ आलेपः सनेहोऽस्नेहोषादीयते,ततो यथा मेहेन क्वितं क्रियते, यानोपनम्रसंघस्या-निम्नविघ्नविघातनम् । नवा,तथाऽनेनाभिधीयते । यद्वा-वणं म्रक्तित्वातकमनन्तरसूत्रोक्त कुरुतेऽनाम्बिका देवी, पूजिता बहुनिर्विधैः॥४१॥ मालेपं प्रयच्चन्तिान वा सर्वोऽपि व्रण आलेप्यते। द्विधा वा प्रकयुगादिदेवचैत्यस्य, पुरस्तादत्र चाइमनः। णाभूयाताकतो वणोऽपि म्रयते,प्रासेपोऽपिम्रवितुं दीयत इति एकरात्रेण घटितः, शिल्पिना तुरगोत्तमः॥४२॥ जावः। अनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-नो कल्पते पारिवासिबैकमे वसुवस्वर्क १२८७, मितेऽम्दे नेमिमन्दिरम। तेन वा तेसेन वा घृतेन वा नवनीतेन वा वसया वा गात्रमयनिर्ममे लूणिगवस-त्याइयं सचिवेना ॥४३॥ ङ्गितुंवा,बहुसेन तैलादिना नक्कितुंवा स्वल्पेन तैलादिना, नान्यत्र कपोपलमय बिम्ब, श्रीतेजःपालमन्त्रिराट् । गाढगादेभ्यो रोगातकेभ्यः,तान्मुक्तान कल्पते प्रत्यर्थः। दोषाश्चात्र तत्र म्यास्थत स्तम्नतीथें, निष्पन्न रकसुधाऽजनम् ॥४४॥ त पव संचयादयो मन्तव्याः। मूर्तीः स्वपूर्ववंश्यानां, हस्तिशालं च तत्र सः। माह-ययेवं परिवासितेन न कल्पते प्रक्रितुं, ततस्तदिवसानीम्यवाविशद्विशां पत्युः, श्रीसोमस्य निदेशतः॥४५॥ तेन कल्पिप्यते । अहो! शोभनदेवस्य, सूत्रधारशिरोमणेः । परिराहतश्चत्यरचनाशिल्पा-माम देने यथार्थताम् ॥४६॥ तदिवसमक्खणम्मी, लदुभो मासो न हो बोधव्यो। वजातत्रातः समुत्रेण, मैनाकोऽस्यानुजो गिरेः। प्राणायणा विराहण, धूलि सरक्खो य तसपाणा ॥ समुखातोऽन्वनेन, एमेत् मन्त्रीश्वरो भवात् ॥ ७॥ तदिवसातिनापि यदिम्रकयति तदा लघुमासः,प्रासादयश्च तीर्थद्वयेऽपि नग्नेऽस्मिन्, दैवान् पेच्कैः प्रचक्रतुः। दोषाः, विराधना च संयतस्य भवति । तथाहि-प्रक्षिते गात्रे अस्योद्धारं द्वौ शकाम्दे, वहिवेदार्कसम्मिले १२४३॥ ७ ॥ धूलिसंगति; सरजस्को वा सचित्तरजोरूपो वा तेनोक्तो लगतत्रायतीर्थस्योकर्ता, लल्लो महणसिंहभूः । ति, तेन चीवराणि मलिनीक्रियन्ते, तेषां धावने संयमविराधना, पीथमस्त्वितरस्याभूदुरुर्ता, चएडसिंहजः ॥ ४६॥ स्नेहगन्धेन वा ये त्रसप्राणिनो अगान्ति तेषां विराधना भवेत् । कुमारपामभूपाल-इचौलुक्यकुलचन्द्रमाः। भीवीरचैत्यमस्योः , शिखरे निरमीमपत् ॥५०॥ धुवणाधुवणे दोसा, निसि भत्तं उप्पिसावणं चेव । तत्तत्कौतूहलाकीणे, तत्तदोषविबन्धुरम् । चनसत्त स मइ तलिया, जबट्टणमाइ पलिमंथो । धन्याः पश्यन्त्यर्बुदाबि, नैकतीर्थपविषितम् ॥५१॥ स्नेहन मसिनीकृतानां चीवरायां गात्राणां च धावनाधायनयोरन्धः श्रोत्रसुधाकल्पः, श्रीजिनप्रभसूरिभिः। रुभयोरपि दोषाः। तथाहि-यदिन धाग्यन्ते तदा निशि भक्तम, श्रीमदर्युरकल्पोऽयं, चतुरैः परिवीयताम् ।। ५२॥ अथ धाग्यन्ते ततः प्राणिनामुन्प्लावना भवेत् । उपकरणइति श्रीमर्बुदाचवकल्पः समाप्तः ॥ ती०कल्प । शरीरयोर्वा कशत्वं च प्रवति । (स महत्तस एव हेवाको ल. गति, प्रतिते च गात्रपादयोर्मा धूली लगिण्यात तिकृत्वा तनिअम्भ-अत्र-10। अपो विभीति अग्नुम । मेघे, रा०ा अपभ्रं काऽपिनाति, तत्र गर्यो निर्मादधतेत्यादयो दोषाः । यावत्स्वशे-"लिमतन्त्रम"८।४।४४५ ॥ इति सूत्रेण पुंस्त्वम् । गात्रस्योद्वर्तनादिकं करोति तावत्सूत्रार्थपरिमन्यो भवति । "प्रभा लग्गा मोगरिदि, पहिन रडंतर जाय। जो पहा गिरि तदिवसमक्खणेण उ, दिट्ठा दोसा जहा उ मक्खिजा। गिमण-म,सो किंधणहि धणा" ॥१॥प्रा०४पाद । अम्राणि सन्त्यस्मिन्नित्यभ्रम । 'मम्रादिभ्यः'। ७२०४६॥ इति हैमसूत्रेण म. अदाणेषुब्बाए-ऽपवाएँ अरुकच्चजयणामो॥ त्वर्थीयोऽप्रत्ययः । प्राकाशे, "अन्जवलए विउव" । अने तहिवसम्रकणेन अनिता पते दोषा रष्टाः । द्वितीयपदे यथा यानि बार्दलकानि तानि विकुर्वन्ति, भाकाशे मेघान् विकुर्वन्ती- | प्रकयेत तथाऽभिधीयते-अवगमनेनाभारोद्वान्तः,परिधान्तो वा, त्यर्थः । रा०ासा । प्रा०म०। तेन वा कटी गृहीता, अरुणं तद्वाररोपे जातं कच्चूः पामा, अन्नंग-अन्यङ्ग-पुं० । अनि-अज्-भावे घन; कुत्वम् । तया वा कोऽपि गृहीतस्ततो यतनया प्रक्षयेदपि । स्तोकेन तैसादिना मर्दने, एकवारं तैसमर्दने च । नि०यू०३३०। तामेवाह समाईकयकज्जो, धुवितं मक्खेउ अत्थए भंते। अन्जंगण-अन्यजन-न । घृतवशादिना (प्रभ०४ सम्म परिपीय गोमयाई-नवट्टणा धोवणे जयणा । द्वा०) सहपाकतैलादिनिर्वा ( श्राचा०१ श्रु० भ०४०) प्रक,कस्प० ३ कण । स्था०नि०चू।प्रा० म०१०। प्रव० । संवागमनम,मादिशदादागमनादिकंच कायकृते कृतकार्यो,न साधूनामन्यजनं न कार्यम् संसहादतकार्यः, सर्वाणि बहिर्गमनकार्याणि समाप्येत्यर्थः । स यावमा प्रक्षणीयं तावन्मात्रमेव धावित्वा प्रकाढ्य ततो नो कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा परिवासिएण| प्रक्कयति, प्रवयित्वा च प्रतिश्रयस्यान्तस्तावदास्ते यावत्तेन तेवेण वा घरण वा नवणीएण वा बसाए वा गत्तं अन्नं- गात्रेण तत् तैलादिकम्रक्षणं परिपीतं भवति । ततो गोमयागित्तए वा पक्वित्तए वा ननत्थ आगादहिं रांगायंकेहिं । दिना तस्योद्वर्तनं कृत्वा यतनया यथा प्राणिनां प्लावनान भव ति तथा धावनं कार्यम् । अभ्य सम्बन्धमाह जह कारण तदिवसं, तु कप्पई तह नवेज इयरं पि । समिणेहो अमिणेहो, दिजइ मक्खित्तु वा तगं दिति ।। पायरियवाहि वसभे-हि पुच्चिए वेज संदेसो॥ सन्चो विवणो झिप्पर, दहा उवा मक्खणा भूया ॥ । यथा कारणे तदिवसानीतं प्रकणं कल्पते, तथेतरदपि परिवा Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभंगण अभिधानराजेन्द्रः। अभंतग्यादरिय सितं म्रतणं कारणे कल्पते। कमिति चेत?,अत आह-प्राचा- पशुयोर्बहिःकरणं, अथवा उपदिष्टः मन्नभ्यन्तरे गन्या नद्गयस्य कोऽपि व्याधिरुत्पन्नस्ततो वृषभः यद्यः पूर्वोक्तविधिना च्छादिप्रयोजनं घृते, एतदभ्यन्तरकरणम । यदि या मेम मह प्रष्टव्यः, तेन च संदेश उपदेशो दत्तो भवेत, यथा-शतपा- ये याहाभावं मन्यन्ते तानपि तथाऽनुवत्तं यति यथा तं तेजखिनकादीनि तैलानि यदि भवन्ति ततः चिकित्सा क्रियते । मभिमन्यन्ते, एतदन्यन्नरकरणम् ( व्या)। ततः किं कर्तव्यम् ?, इत्याह पुयण जहा गुरूणं, अभंतर दोएहमनबंताणं । सयपाग सहस्सं वा, सयमाहस्सं व हंसमझतेवं । नश्यं कुणनी बहिया, वेड गुरूणं च तं पिछो॥ दुरा उणीय असई, परिवासिज्जा जयं धीरे ॥ पूजनं यथाक्रमं गुरूणामभ्यन्तरकरणं यदभ्यन्तरे द्वयोरुपनोशतपाक नाम तैलं नपुच्यते-यदौपधानां शतेन पच्यते । यद्वा- स्तृतीयमुपशुश्रुषु यहिः करोनि, यदि वा तद् गच्छादिप्रयोजन एकेनाप्यौषधेन शतवारं पक्कं परिवासयेत् । एवं सहस्रपाक | पृएः मन्नभ्यन्तरं गत्वा गुरूणां ने कथयति । व्य० ३ उ० । शतसहस्रपाकं च मन्तव्यम् । हंसपार्क नागसेन औषधस- अभं । नि)तरग-आज्यन्तरक-पुं०। आसन्नमन्त्रिप्रभृनौ, मारम्मवृतेन यदेतत्तै पच्यते। मरुतैलं मरुदेशे पर्वतादुत्पद्यते । विपाश्रु० ३ अास्था । एवंविधानि दुर्लभषव्याणि प्रथमं तदेवसिकानि मार्गणीयानि, अथ दिने दिने न लभ्यन्ते ततः पञ्चकपरिहाण्या चतु अभं (नि) तरगाणिज-अज्यन्तरस्थानीय-पुं० । प्रागुरुप्राप्तो दूरादप्यानीय धीरो गीतार्थो यतनया अल्पसागारि- भ्यन्तरनामसु प्रेष्यपुरुषेषु, " अम्भितरमाणिजे पुरिसे सहाके स्थाने अन्वहं चीरेण वेष्टयित्वा परिवासयेत् । वे" का० १३ । इदमेव सुव्यक्तमाह अब्भ (नि) तरनव-अन्यन्तरतपम्--न० । अभ्यन्तरमन्तएयाणि मक्खणहा, पाणट्ठा पमिदिणं ण लंभेजा। रस्यैव शरीरस्य तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमान स्वाच, तच तत्तपश्चेति अभ्यन्तरतपः। औलोकिकरनभिनपणहाणीए जइलं, चउगुरु पत्तो अदोसोन ।। क्ष्यत्वात् तन्त्रान्तरीयैश्च परमार्थतोऽनासेव्यमानत्वात् मोएतानि शतपाकादीनि प्रकणार्थ पानार्थ वा प्रतिदिनं यदि न | क्षप्राप्त्यन्तरकत्वाचाज्यन्तरमिति । स्था०६ ग० । स०।पं० लभ्यन्ते ततः पश्चकपरिहाण्या यतित्वा चतुर्गुरुकं, यदा प्राप्तो व.| पश्चा०। ग०। भ.। उत्त० । अभ्यन्तरस्यैव शरीरस्य भवति तदा परिवासयन्नप्यदोषो न प्रायश्चित्तभाको पृ०५ ७०। कार्मणाकणस्य तापकत्वादज्यन्तरतपःप्रश्न०५ सम्बद्वा०॥ सूत्र०॥ "सेसे परोकायं तेल्लेण वा घएण वा वसाप वा मक्खेज प्रायश्चित्तादौ तपोदे, औ०।"प्रायाचित्तं ध्यानं, वैयावृत्त्य षा अभंगेज वा णो तं सातिए णो तं जियमे " प्राचा० २ विनयमथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट्-प्रकारमाभ्यन्तरं भु०१३ ० "जे भिक्खू अंगादाणं तेशेण वा घरण वा ण- नयति"॥१॥ध०१अधिग। उत्ता"कब्धिहे अभंवणीपण वा वसाए वा अभंगेज वा मखेज वा मागतं | तरिए तवे पाते । तं जहा-पायाचित्तं घिणो वेयावचं सवा मखंतं वा साइजह" नि०५०१०(अंगादाण ।। ज्झाश्रो झाणं विस्सग्गो" स्था०६०। शम्देऽस्मिन्नेव भागे ४० पृष्ठे व्याख्यातमेतत) “अनंगणं| अब्नं (भि) तरतो-अत्यन्तरतस-भव्य० । सप्तम्यर्थे तविहिपरिमाणं करे" उपा०१प्रा ('प्राद' शम्ने द्वितीय- सिन् । अभ्यन्तरे मध्ये इत्यर्थे, " सत्सएहं पयमीण, मम्भितर. भागे १०० पृष्ठे दर्शयिष्यते स्त्रम) तो कोमिकोडीए"। प्रा० म०प्र०। अम्मांगिएल्लय-अत्यजित-त्रि० । स्नेहाभ्यक्तशरीरे, पृ० १०॥ अम्भ (जि) तरदेवसिय-अन्यन्तरदेव सिक-१०। दिवपिं० प्रा० म०1ोघ०। साभ्यन्तरसम्भवेऽतिचारे, "मग्चुहिनोमि अभं-तरदेवसिय अनंगि (गे)त्ता-प्रत्यज्य-व्य० । तैलादिना अन्यङ्गं वा खामे" इति । ध०२ अधि०।। कृस्वेत्यर्थे, स्था० ३ ग० १ उ० । प्राचाo। अन् (भि) तरपरिस-अच्यन्तरपरिषत्-पुं० । श्री० । वअनंगिय-अज्याड़ित-त्रि० । स्नेहेन मर्दिते, पिं०। यस्यमएकलीस्थानीयायां परममित्रसदश्यां समित्यपरनामि कायां देवेन्द्राणां पर्षदि, रा० । स्था। अन्नं (म्नि) तर-अज्यन्तर-त्रि० । पुत्रकलत्रादिवत् प्रत्यासन्ने, स्था००ग० । अभं (नि) तरपाणीय-अन्यन्तरपानीय-त्रि०ा मभ्यन्तरे प्राभ्यन्तर-त्रि० । अभ्यन्तरे भवमाभ्यन्तरमामध्यस्थे,स्था पानीयं यस्य स तथा । मध्यस्थजलयुक्त चौरपरल्यादावर्थे, २०१०।पिं० विपाo शा० । अभ्यन्तरभागवर्तिनि, का० १० म०। रा। जी । “सबम्भंतराणंतरं मंडलं नवसंकमित्ता चारं| अभं (दिन)तरपुक्खरक-अत्यन्तरपुष्कराक-मामाचर" जं०७ धन। नुषोत्तरपर्वतादर्वाग्जवे पुष्करवरद्वीपस्याबें, जी०३ प्रति०ासू० अम्भं (भि) तरोसचित्तकम्म-अन्यन्तरतःसचित्र प्र.। (नामनिरुक्त्यादि 'पुक्सरवरदीव' शम्ने ग्यास्यास्यते) कर्मन-त्रिकामध्ये चित्रकर्मरमणोये, कर्म० २ कर्म० । कल्प०।। अभं (नि) तरपुप्फफल-अज्यन्तरपुष्पफझ-त्रि०।मअम्भ (भि ) तरकरण-अत्यन्तरकरण-10 भाषसंग्रह भ्यन्तराणि अभ्यन्तरजागवतीनि पुष्पाणि च फलानि च पु. भेदे,न्याय-अभ्यन्तरकरण नाम द्वयोः साध्वोर्गछमेढीभूत. पफनानि येषाम् । पत्रावृत्तत्वाद् बहिरहश्यपुष्पफलके वृक्ष,रा०। योरभ्यन्तरे कुलादिकार्यनिमि परस्परमुखपतोस्तृतीयस्यो- अग्नं (नि) तरबाहरिय-अन्यन्तरवाहिरिक-त्रि० । सहा . Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरबाहरिय त्र्यन्तरेण नगरमध्यभागेन बाहिरिका नगरबहिर्भागो यत्र ततथा । नगरमध्ये बाहिरिकाया विद्यमानत्वे, दशा० १० अ० । अन्नं (जि) तरय- ग्राज्यन्तरक-पुं० । राजानमतिप्रत्यासन्नी भूयावलगति, व्य० १ ० । ( ६८८ ) अभिधानराजेन्द्रः | अभं (नि) तरलद्धि - अन्यन्तरलब्धि-स्त्री० । श्रज्यन्तरावधेः प्राप्तौ तथाचोक्तं चूर्णे-" तस्थ अन्मंतरलकी नाम जन्य से वियस्स ओहिनाणं समुप्पं ततो ठाणाश्रो श्र रन्न सो ओहिनायी निरंतरसंबद्धं संखेज्जं वा असंखेज्जं वा वित्तश्रो श्रोहिणा जाणइ पासइ एम अग्भितरलकि ति " विशे० । “अभितरबद्धी सा,जत्य पईवप्पन व् सव्वन्तो । संमोहिना जितरोऽहीनारी ॥७३॥विशे (जि) तरसंबुक्का - अभ्यन्तरशम्बूका - स्त्री० । अभ्यन्त रादू मध्यभागात् शङ्खवृत्तगत्या मिकमाणस्य बहिर्निस्सरणे भवन्यां गोचरी, घ० ३ अधि० यस्यां क्षेत्रबहिभांगाच्छ वृत्तत्वगत्याऽटन क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽभ्यन्तरशम्बूका । स्था० ६ वा० । अभं (जि) तरसगडुकिया - अभ्यन्तरशकटोकिका - स्त्री० अङ्गडी मीबिया विस्ता पातु बाह्यस्त्युित्सर्गे एष भणितो ऽभ्यन्तरशकटोकिका दोष इति । कायोत्सर्गस्योकिकादोपदे, प्रत्र०५ द्वा० । श्राव० । अन्नं (भि) तरोहि--अज्यन्तरावधि पुं० । अवधिभेदे, श्रयं यत्यन्तरावधिः प्रदीपप्रभापटलचदवधिमता जीवेन सद सर्वतो नैरन्तर्येण सम्बकोऽखण्डो देशरहित एकस्वरूपोऽत पवा यं सम्बावाधिष्यते। विशे० । अजं (ग्निं) तरिया प्राज्यन्तरिकीखी। अभ्यन्तरभाग वर्तियां जवनिकायाम्, का० १ ० । अभक्ख-प्रत्याख्यातव्य- त्रि० (अभ्यास्यानाप्ये) श्रभ्याख्यानं नामाऽसदभियोगः, यथा चौरं चौरमित्याह । माचा० १ ० १ ० ३ ० । अम्भस्वदेशी दे० ना० १ वर्ग अन्भक्खाण-- अन्याख्यान- न० । श्राभिमुख्येन श्राक्यानं दोबाविष्करणमयाख्यानम् । प्र० ५ श० ६ उ० । ० । प्रकटमलदोषारोपणे, प्रज्ञा० २२ पद । प्र० । आव० । असदूदूषणाभिधाने, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वा०| अभिन्यसने, असदध्यारोपणे च । आव० ५ ० । परस्याभिमुखं दूषणवचने, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वा० । प्रव० । असदभियोगे, यथा चौरं चौरमित्याह । चाचा० १ ० १ ० ३ उ० औ० सुत्र० । । "एगे अन्नखाणे " स्था० १ ० १ ३० । अधिकरणाधिकमेनमरक्षाधिकोऽन्याक्याति भंते! दो साहम्मिया एगतो विहरति, तेहिं एगे तत्थ श्रयरं व्यकिवाणं परिसेविता आसोइया अमुएणं साहुणा सद्धिं इमियम्मि कारणम्मि मिसेवी पचपट्टे च सर्व परिसेवियं जवि पुच्छिषये किं पमिसेवी, अपमिसेनी है से व मेटुप - - तत्य जा अब्भक्रखाण । पथमेव परिहारने से य बज्जा-शो पमिमेवी, जो परिहारपणे जे सेपमा वदति से य पमाणात घेत लिया मे किमादु भेते, सध्या ववहारा ।। २२ ।। ही साधर्मिक सांभगिकी के संघटन विर तयोर्द्वयोर्मध्ये एक इतरस्याभ्या रूपानप्रदाननिमित्तमन्यत 'वियत्तं श्रभ्युपगच्छति, न परस्यैव केवलस्याभ्याख्यानं ददाति तत आह- (पच्चयडं चेत्यादि ) परेषामाचार्याणा मन्येषां च साधूनामेच संपत, अन्यथा को नामात्मानं प्रति से वितमभिमन्यत इति प्रत्ययो विश्वासः स्यादिति हेतोः च प्रतिसेवितमिति भणति । एवमुक्तो यस्याभ्याख्यानमदायि स प्रष्टव्यः किं वा नवान् प्रतिसेवी, नवा ? । तत्र यदि स देव प्रतिसेवी ततः स परिहारतपोभाकिते उपल णमेतत् । छेदादिप्रायश्चित्तभागपि क्रियते इति द्रष्टव्यः । अथस वदेत्-नाहं प्रतिसेवी; तर्हि परिहारः प्राप्तः स्यात् । न परिहारतपःप्रभृति प्रायश्चितभाक् क्रियते इति भावः । स च प्रतिसेवी वा यदज्याख्यानदाता " से " तस्य प्रतिसेवनायां प्रमाणं वरकादि वक्ति; तस्मात्प्रमाणाद् गृहीतव्यो निश्चेतव्यः सः । अथ किं कस्मात्कारणादेयमाबन्तः हे जयंत ! सूरि-सत्यप्रति व्यवहारास्तीकरेतास्ततो न दधात्प्रतिसे प्रायिते परार्थः। अधुना नियुक्तिमाध्यविस्तरः । तत्र भिकाचर्याविचारातुमि गमनविहारादिषु यो रत्नाति कुतोिपायमोजातः समत्नाधिकं । कारयेरन्यान्यानेन दुष्यति तानि प्रतिपादचपुरा रयणाहियवायएणं, खलियमिनियपेलणाऍ उदरणं । देव उनमे अम्भवखाणं कुरंगम्मि ॥ रत्नाधिवान रत्नाधिकोऽहमिति गर्वेण वमनाधिक शविभचकत्या सामाचार्यामस्तमपि पायोदयेन सर्जय ति । यथा- हे पुए ! शैक्ष! स्वलितोऽसीति । तथा पर्यापथिक प्रतिक्रम्य प्रथममेव परावर्तयन्तं यदि वा मितरपदं पदेन विमुचरन्तं [हा] ]] शक! मितिमुच्चारयसीति तर्जयति तथा पेल सि) अबे साधुभिमाणौऽपि कषायोदयतः स्वहस्तेन प्रेरयति तर्जयति । ततः सोअमरत्नाधिकः कषायितः सन् चिन्तयति पप राजाधिकवातेनेत्थं बहुजनसमकं तर्जयति, अथवेष सामाचारी, रत्माधिकस्य सर्वे कन्तव्यमिति, ततस्तथा करोमि यथैष मम घुको भवति । एवं चिन्तयित्वा तो द्वापि माग ती - श्रस्मिचार्या देवकुले वृक्कविषमे वा प्रथमालिकां कृत्वा पानीयं पास्याम इति, एवं चित्तौ तदभिमुखं प्रस्थिती अत्रान्तरे अमरत्नाधिकः परिव्राजिकामेकां तदभिमुखं गच्छन्तीं दृष्ट्वा स्थितः, उपलब्ध एष इदानीमिति चिन्तयित्वा तं रत्नाधिकं वदति-हो ! श्रद्य ज्येष्ठार्य ! कुरु त्वं प्रथमानिकां, पानीयं वा पिब, अहं पुनः संयामि एवमुक्त्वा त्वरितं मैने मध्याक्यानं दातं वसतावागत्यालोचयति । तथा दर्शयतिजेड अजेय अनं सारे कथं अजं । उबजीवितोऽत्य जंते !, मए वि संसडकप्पो व्व ॥ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) अब्भक्खाण अभिधानराजेन्षः । अन्नक्खागा ज्येष्ठार्येणाघ सद्य इदानीमार्यागृहे कृतमकार्य मैथुनानिसे- किञ्चिन्मात्र हिदिमत्वा समागतो ब्रूते-ज्येष्ठार्येण श्रागृहे वृक्षपालकणं, ततो भदन्त ! तत्संसर्गतो मयाऽपि संसृष्टकल्पो मै- | विषमे च क्वचित्प्रदेशे कृतमकार्यम, तसंसर्गतो मयाऽवि संयुनप्रतिसेवा, अत्रास्मिन्प्रस्तावे उपजीवितः ॥ सृष्टकल्प उपजीवित इति । ततोऽभ्याख्यातसाधुर्वदतिअहवा उच्चारगतो, कुमंगाईकमिनदेसम्मि । न मया प्रतिसेवितम् । एवं तेन प्रतिषिके प्रतिसेबने इतरोऽभ्या क्यानप्रदाता भवति-अहो ! ज्येष्टार्य! तव द्वितीयमपि व्रतं वेती कयं अकज, जेडजेणं सह मए वि ।। नास्ति, प्रास्तां चतुर्थमित्यपिशब्दार्थः।। अथवेत्यभ्याख्यानस्य प्रकारान्तरप्रदर्शने।कुमङ्गादौ फदिल्लदे दोएहं पि अणुमएणं, चरिया वसहे पुच्छियपमाणं । शे गहनप्रदेशे उच्चाराय गतस्तत्र च ज्येष्ठार्येण सह मयापिक-| तमकार्यमिति । तस्माद् व्रतानि मम साम्प्रतमारोपयत । अन्नत्थ वमह तुब्भे, जा कुणिमो देव उस्सग्गं ।। एवमुक्ते सरिनिः स एवं वक्तव्यः एवं द्वयोरपि विवदतोरेवमुच्यते-चरिका पृच्चतां यत्सा पक्ष्यति तत्प्रमाणयिष्यते । एवमुक्ते यदि तौ द्वावप्यनुमन्येते, तम्मागते वयाई, दाहामो देति वाऽऽउरंतस्स । ततो द्वयोरनुमतेन, संमत्या इत्यर्थः । वृषभाश्चरिकां प्रए प्रेष्यजूयत्थे पुण नाए, अलियनिमित्तं न मुलं तु ।। न्ते,ते च तत्र गताः प्रथमनश्चरिकां प्रज्ञापयन्ति, प्रज्ञाप्य पृच्छयोऽसौ त्वया अन्याख्यातः स यदा आगतो भविष्यति तदा न्ति-किमत्र सत्यम् , अलीकं वा एवं वृपभैश्चरिका पुसती तस्मिन्नागते वतानि दास्यामः। अथ स स्वरमाणो ब्रूते-भग. यद् ब्रूते तत्प्रमाणं कर्तव्यम् । तत्र चरिकयोक्तम्-भगवन! अभ्यबन्! कुशाग्रस्थितवाताहतजलबिन्रिवातिचञ्चनं जीविताम- ख्यानं तेन द्वितीयेन तस्मै दत्तमिति । एतयोक्तं वृषभा वसतिन शक्यते क्षणमात्रमप्यव्रतेन स्थातुम, इत्यधुनैव ममारोप्यतां तावागत्य गुरवे निवेदयन्ति । यथावस्थिते निवोदिते यद्यन्यबतादीनीति । तस्यैव त्वरमाणस्य ददति व्रतानि, वाशब्दो तरो वदति-गृहयति चरिका न सम्यकथयति । तदा गुरवो विकल्पार्थः । तत्र पुनर्तृतार्थो गवेषणीयः, किमयं सत्यं ब्रूते, द्वावपि प्रवते यूयमन्यत्र वसति याचयित्वा तत्र वसथ, याउतालीकम् ?,तत्र यथा नूतार्थो गवेषणीयस्तथाऽनन्तरमेव व- वदद्य रात्री देवताराधनार्थ कायोत्सर्ग कुर्मः । किमुक्तं नवक्यते। नृतार्थे च ज्ञाते यदि सत्यं, तदा द्वयोरपि मूनं दीयते। ति ?-कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छामः-कोऽत्र सत्यअथालीकम, ततो योऽज्याख्यातः स शुरूः, इतरस्य स्वभ्या- | वादी, को वाऽलीकवादी ? । इति । ख्यातुर्मूलं न दीयते, किन्त्वलीकनिमित्तं मृषावादप्रत्ययं चतु एवमुक्त तौ द्वावपि वसत्यन्तरे गते यदू गुरुकं प्रायश्चित्तमिति। भवति तदभिधित्सुराहसम्प्रति यथा नृतार्थो ज्ञायते तथा प्रतिपिपादयिषुद्वारगाथामाह अगिमादी सभा,पुचि पच्छा बजति निसि सुणणा। चरियापुच्छणपेसण, कावानिय तवसंघो य ज जणइ । श्रावस्सग प्राउट्टण, सम्भावे वा असम्भावे ॥ चउजंग निरिक्खा दे-वया य तहियं विही एसो।। अस्थिकाः कापालिकाः, श्रादिशब्दात्सरजस्कादिपरिग्रहः, त दूपाः मन्तः । किमुक्तं नवति ?-कापालिकं घेषं सरजस्कवेषं तत्र हतार्थे ज्ञातव्ये एष विधिः-चरिका परिव्राजिका, तस्याः कृत्वा यस्यां वसतौ द्वावपि जनो तिष्ठतस्तत्र पूर्व वृषभा गच्छप्रधनाय वृषभाणां प्रेषणं स चेत्सत्यवादी न मन्यते ततस्तो न्ति । यदि वा तयोर्गतयोः पश्चात्तत्र च गत्वा रात्री मातृस्थाने हावपि पृथगाश्रये प्रेक्ष्य तत्र वृषभाः ततस्वरूपगवेषणाय का- सुना इव तिष्ठन्ति, तथापि तयोः परस्परमुल्लापं शुरवन्ति । पालिकरूपेण प्रेष्यन्ते । कापालिकग्रहणमुपलकणम, तेन सरज- तयोश्वावश्यकं कर्तुकामयोर्योऽसाववमरत्नाधिकोऽभ्याख्यानकादिरूपेणापीत्यपि द्रष्टव्यम् । एवमपि नूतार्था निर्णये (तवो दाता,स इतरं प्रति मिथ्यादुष्कृतेनोपस्थित एतवदति-त्वं मया ति) तपः स्वकायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छति । एतस्यापि असता अभ्याख्यानेनाभ्याख्यातोऽतो मिथ्यादुष्कृतमिति । प्रकारस्यानावे संघो मेलयित्वा प्रच्छनीयः, तेन च निरीक्विणो ततो रत्नाधिको ब्रूने-किं नाम तवापकृतं मया, येनासदाच्या. निरीककानधिकृत्य चतुर्भङ्गी-केचित्तथानृतं तथानावेन पश्य- ख्यानं मे दत्तमिति ?। अवमरत्नाधिको भाषते-त्वं नित्यन्तीत्यादिरूपा वक्ष्यमाणा प्ररूप्यते । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वा- मेव यत्र तत्र वा कार्य सम्यग् प्रवर्तमानमपि हे इट! शैक्षत् । सा च चतुर्भङ्गी नद्रप्रान्तदेवता आश्रित्य संभवति । एष क!इति तर्जयसि, तेन मया त्वमसदन्याख्यानेनान्याख्यातः। द्वारगाथासंकेपार्थः । पवमावश्यके आवश्यकवेलायामावतने भावप्रत्याग्याने अ__ साम्प्रतमेनामेव गायां विवरीषुराह लीकाभ्याख्याने सद्भावो ज्ञायते । अथ न परस्परसंभाषणतः प्रासोश्यम्मि तिउणो, कजं से सीसए तयं सन्न । सद्भावो शायते, तदा सद्भावपरिज्ञानाभावे तपस्वी प्रष्टव्य इति शेषः। पमिसिधिम्मि य इयरो, भणा वीयं पि ने नस्थि ।। तथाचादअभ्याख्यातः साधुरागतः सन् श्रासोचयति-प्रथमालिकां या- सढो ति मं नाससि निच्चमेव, . धम्न जानामि द्वितीयः संघाटकः कापि गत शति केवलोऽहमा बहूण मज्झम्मि तो कहोमि । गतोऽस्मि । तत आचार्या ब्रुवते-सम्यगालोचय । ततःस स्मृत्या पालोचयति, यावत्तस्मिन्नपि तृतीये धारे तदालोचितम् । प्रभासमाणाण परोप्परं वा, ततस्त्रिगुणं त्रिःकृत्व आलोचिते यदि न प्रतिसेवितमित्यालोचय- देवाण-मुस्सग्ग तवस्सि कुज्जा॥ ति, ततो येन कारणेन श्रीन वारान् आलोचायितस्तत्कार्य कारणं नित्यमेव सर्वकालमेव यद्देश ! शैक्कक ! इति मां भाषसवे तस्य शिष्यते कथ्यते, यथा-सएप तव संबाटकस्त्वया सह से, तेन त्वमसताऽभ्याख्यानेनाभ्याख्यातः । अथ स रत्नाधिक १७३ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भक्खागा आभिधानराजेन्द्रः । अब्नणुमा स्तमवमरत्नाधिक यात्-यदि मया कदापि युक्त्या सह कृत- अन्तणुला-अज्यनुज्ञा-स्त्री० । कतव्यानुमतिदाने, स्था० । मकार्य ततः किं त्वया बहूनां मध्ये अहमेवमन्यास्यातः अनेन कृता प्रतिसेवनेति ! किन्न्वह मेवैकान्ते वक्तव्यो भवामि । यथा अथात्र भगवतो महावीरस्याऽज्यनुज्ञातानि प्रदश्यन्तेसुकृतमालोचनां गृहाण गुरूणामन्तिक इति । मम रोपेण त्वया. पंच गणाई समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं निऽऽत्मीयमपि शीलं विगोपितम,एवं सद्भायो ज्ञायते । एतावता गंथाणं णिचं वस्मियाई णिचं कित्तियाई णिचं बुइयाई "आवस्मग प्राउट्टण, सम्भावे वा." इति व्याख्यातम् । इदा. नीमनद्भाचे इति व्याख्यानयति-"अभासमाणाण परोप्पर णिचं पमत्थाई निच्चमभणुमाइं भवंति । तं जहा-खंती बा" इति । अथ कदाचित्तौ रोपतः परम्परं न संलपतः, तदा मात्ती अज्जवे मद्दवे लाघवे । पंच गणाई समणाणं जाव नयोः परस्परमभापमाणयोर्भूतार्थपरिज्ञानानावे तपस्वी कपको अब्भन्नायाई भवति । तं जहा-सच्चे संजमे तवे चियाए देवताध्यानार्थ कायोत्सर्ग कुर्यात्। कायोत्सर्गेण च दवेतामाकम्य पच्चति-कोऽनयोडियोमध्ये सम्यगवादी, को वा मिथ्या बंभचेरवासे । पंच ठाणाई समणाणं० जाव अम्भणुनायाई वादीति ? । तत्र यद्देवता ने तत्प्रमाणम् । तेन तप इति द्वारं जवंति । तं जहा-उक्वित्तचरए णिक्खित्तचरए अंतचरए व्याख्यातम् । । पंतचरए यूहचरए। पंच गणाईजाव अन्तणुनायाई भवं__अधुना मद्वारं व्याचिख्यासुरिदमाह ति। जहा-अन्नायचरए अन्नवेलचरए मोणचरए संसहककिंचि तहाऽतह दीसइ, चनभंगे पंत देवया जहा। प्पिए तन्जायसंसहकप्पिए । पंच गणईजाव अब्भणुनायाई अत्तीकरेइ मूल, इयरे सच्चप्पनिमाओ॥ जवंति। तं जहा-नव निहिए सुद्धेसणिए संखादत्तिए दिशासर्वप्रकारेणासायमाने भूतार्थे संघसमवायं कृत्वा तस्मै आवे। भिए पुहलाभिए । पंच ठाणाइंन्जाव अन्नान्नायाई नद्यते-रत्नाधिको वदति नाहं कृतवान्प्रतिसेवनाम, इतरो ब्रूते | वंति। तं जहा-आयंबिलए निविश्ए पुरिमसिए परिमियदावपि प्रतिसेवितवन्ताविति, तत्र किं कर्तव्यमिति ?। एयमादिना कृते ये संघमध्ये गीतार्थास्ते वदन्ति-किञ्चित्तथाभावं तथा पिंमवाइए जिन्नमिवाए । पंच गणाईजाव अम्भणुनाभावेन दृश्यते; किश्चित्तथाभावमन्यथाभावेन; किश्चिदन्यथाभा- याई नवंति । तं जहा-अरसाहारे बिरसाहारे अंताहारे वं तथाभावेन किंश्चिदन्यथाभावमन्यथानावेन । एषा चतुर्नङ्गी। पंताहारे खूहाहारे । पंच ठाणा० जाच भवति । तं जहाअस्यां चतुझ्या प्रथमो भङ्गः प्रतीतः। द्वितीयभङ्गभावना त्वे अरसजीवी विरसजीवी अंतजीवी पंतजीवी सहजीवी । पंच वम्-कोऽपि क्यापि वनप्रदेश गच्छति। तत्र केचिदारक्षका अ. पगतकमा असिव्यग्रहस्ता वल्गन्ति । ततः कदाचिद्देवता भकि ठाणाइंन्जाव भवंति । तं जहा-गणाइए नक्कुमुपासणिए कामाविनश्यत्वेष पुरुप इति तं दूरान्तरितं दर्शयति । तृतीय पम्मिट्ठाइवीरामणिए णेसज्जिए। पंच गणाई० जाव जभङ्गः-भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः सागारिकमकपायितं सङ्ग-| वति । तं जहा-दंडायइए लगंडसाई आयावए अवाउडए मकः कषायितं दर्शयति । चतुर्थभङ्ग:-कस्याञ्चिद्विपदि दासं | अकंमुयए॥ राशा कारितराजनेपथ्यं विनश्यन्तं दृष्ट्वा कदाचिद्भदेवता तदनुकम्पया स्त्रियं दर्शयति । एवं प्रान्ता भडा च देवता नित्यं सदा वर्णितानि फलतः कीर्तितानि संशब्दितानि, नाअन्यथा नूतं यद्वस्तु अन्यथा करोति-अन्यथा भूतं दर्शयति, मतः (बुश्याति) व्यक्तवाचोक्तानि, स्वरूपतः प्रशस्तानि ततो दृष्टमाप तावदप्रमाणमत्र । ननु ज्ञायते-किमपि दृष्टमवम प्रशंसितानि श्लाषितानि, शंसु स्तुताविति वचनात् । अभ्यनुरत्नाधिकन, अथ च सत्यप्रतिझा व्यवहारास्तीर्थकृद्भिरूपदिष्टा ज्ञातानि कर्तव्यतया अनुमतानि भवन्तीति । अयं च सूत्रोरक्षेपः स्तस्माद्यद् रत्नाधिको ब्रूते-न मया प्रतिसेवितमिति तत्प्र- प्रतिसूत्रे चैयावृत्यसूत्रं यावत् दृश्यत इति । स्था०५ ग०१ उ०। माणनः शुद्ध एप न प्रायश्चित्तभागिति । यदपि चावमरत्नाधि- (क्षान्त्यादीनां व्याख्या स्वस्थाने वक्ष्यते) को वक्ति-मया प्रनिसेवितमिति, तदपि प्रमाणमतस्तस्य मूलं असत्याऽज्याख्यानं कुर्वतः क्रियाप्रायश्चित्तमिति । व्य. २०। अब्जरलाण-अत्रच्छन्न-त्रि० । मेघावृते, वृ०१०। जे णं नंते ! परं अनिएणं असब्लूएणं अब्भक्खाणेणं अन्नड-देशी-प्रसिद्धशब्दः। अनुवजने, “अम्भमवंचिउ बे | अनक्खाइ,तस्स एणं कहप्पगारा कम्मा कजति । गोयमा! पयई, पेम्मु नित्त जाय । सव्यासण-रिठ-संभव-हो, कर जेणं परं अनिएणं असंतएणं अभक्खाणेणं अब्जक्खाइ, परिश्रत्ता ताव" । प्रा० । प्रेमशब्देन प्रिया वाच्या, अन्नदोप- तस्स णं तहप्पागरा चेव कम्मा कति, जत्येव ण अभिचारात । यथा प्रेमवतीत्युच्यते, तथा प्रेमापीत्युच्यते । प्रिया समागरछइ तत्थेव णं पमिसंवेदेइ । तत्रो से पच्छा वेदेइ प्रियमिति शेषः । प्रियम्, ( अभवंचिन इति ) अनुवज्य सेवं ते ! भंते ! ति। मुकालाग्य यावद् द्वौ पादौ निवर्तते तावत् सर्वाशनरिपुसंभवस्य चन्द्रस्य कगः किरणाः परिवृताः, प्रसृता इत्यर्थः। अलीकेन नूतनिहवरूपण पावितब्रह्मचर्यसाधुविषयेऽपि सर्वमनातीति'नन्द्यादि०॥५१।५२ ॥ इत्यनः प्रत्ययः । नानेन ब्रह्मचर्यमनुपालितमित्यादिरूपेण (असम्भूपणं ति) सर्वाशनोऽग्निः, तस्य रिपुर्जलं, तत्संभवश्चः । अनुबजेन रते | अभूतोद्भावनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना अथवा 'अब्भम' इति 'वंच क्त्वाप्रवंचयते लोकान् 'स्वराणां' | अलीकेन असत्येन तच व्यतोऽपि भवति, मुन्धकादिना मृगा।।४।२३८ ॥ अन्नमवंचिन ॥ १०४ पाद ।। दीन्पृष्टस्य जानतोऽपि नाहं जानामि इत्यादि । अत श्राह-भस Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्भणुमा अन्निधानराजेन्धः । अब्भास द्भुतेन दुष्टानिसन्धित्वादशोभनरूपेणाचौरेऽपि चौरोऽयमित्या- | अब्जमण-अज्यसन-न० । अनि-अस्-ल्युत् । अभ्यासे, पौन: दिना (अनक्खाणेणं ति ) आनिमुख्येनाख्यानं दोपाविष्कर- | पुन्येनेकक्रियाकरणे पुनःपुनरावर्त्तने, वाचः । “अम्भसणं ति गमभ्याख्यानं, तेन अभ्याख्याति ब्रूते । (कहप्पगार त्ति ) | वा गुणणं ति वा एगठा" दश अ०। कधप्रकाराणि ? किंकराणीत्यर्थः । (तहप्पगार ति)अभ्या-त्रालमिय-अन्यस्य-अव्य० । प्रत्यासीकृत्येत्यथे, व्या० ख्यानफलानीत्यर्थः । (जत्थेव णमित्यादि) यत्रैव मानुषत्वादा ६ अध्या। यभिसमागच्चति उत्पद्यते तत्रैव प्रतिसंवेदयत्यभ्याख्यानफलं कर्म, ततः पश्चाद्वेदयति निर्जरयतीत्यर्थः ॥ न श०७७०। अम्भहिय-अच्यधिक-त्रि० । प्रत्यर्थे, प्रश्न०४ आश्रद्वा० । जा" अग्नहियभीमभेरवपपगारेणं" | अभ्यधिकं यथा भअब्भाशुष्माय-अत्यनुज्ञात-त्रि० । कर्तव्यतयाऽनुमते, स्था०५ वत्येवं जीमनेरवोऽतिभीष्मो रवप्रकारो यस्य स तथा तेन ग०१ उ०। (वनदवेन ) ज्ञा० १ ० । प्रज्ञा० । "अन्जहियं सोभिनुअम्भत्थ-अज्यस्त-त्रि० । अभि-अल-क्त । पौनःपुन्यनैकजा- माढत्तो " प्रा०म०प्र० । " अभहियरायतेयलच्छीए तीयक्रियाकर्मणि पुनःपुनरावर्तिते , “शैशवेऽज्यस्तविद्यानां कल्प०३ कण। यौवने विषयैषिणाम्"।" उभे अज्यस्तम्"॥६॥१॥५॥ उ-अनाहियतरग-अत्यधिकतरक-त्रि० । विपुलतरे (विस्तीक्तयोः कृतद्वित्वयोरुनयोः धातुभागयोः । " नाभ्यस्ताच्च-| णे.) नं०। तुः" ॥७॥१॥ ७० ॥ "अभ्यस्तस्य च" ॥६।१।३३ ॥ वाच । अब्भागम-अध्यागम-पुं० । श्रानिमुख्येनागम्यतेऽत्र । अभिगुणिते, विशे० । प्रा०म०। पं०व०।। आ-गम्-क्त-अप। युके,कर्मणि अए । अन्तिके,करणे अग् । विगेअब्जपणा-अज्यर्थना-स्त्री०। परस्परप्रवर्तनायां त्वं ममेदं धे, भावे अप। अभ्युत्थाने, अभिघाते च अभिमुखगमने, घाय। कार्यममुष्य वा कुरु' इत्येवं रूपायाम, पञ्चा० ११ विव० । “जइ प्रा० । आसन्नवासे. नि० चू०५०। अन्नत्थे अपर, कारणजाते करेज सो को वि। तत्थ वि इच्छा- अब्भागमिय-अन्यागमिक-पुं० । आगन्तुकेषु, सुत्र० १६०२ कारो, न कप्पा बसाभिभोगाओ"॥२॥ श्रा०म० द्वि०। (अभ्य- अ.३ उ०। र्थनायां मरकदृष्टान्तः " इच्छक्कार" शब्दे द्वितीयभागे ५७५ अभागय-अन्यागत-पुं० । अभि-आ-गम्-क्त । जिन्नग्रामीणे पृष्ठे दर्शयिष्यते) गृहं गतेऽतिथौ, वाच।" तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, येन त्यक्ता अब्भपडल-अनूपटल-न। मेघवृन्दे, पृथिवीकायपरिणाम महात्मना । अतिथि तं विजानीया-च्षमच्यागतं बिदुः"॥१॥ विशेषे च । (अन्नक-तबक)। "अजपालपिंगमुज्जलेण" (उत्रे- श्त्यतिथेमेंदोऽस्य । आचा० ११०२०१००। ण) अनपटलमिव मेघवृन्दमिव बृहच्छायाहेतुत्वात् अन्नप- अन्नावगासिय-अज्ञावकाशिक-न । सहकारादेवाधोभाटल, पितसं च कपिशं सुवर्णकछिकानिर्मितत्वात् उज्ज्वसं नि- गवर्निनि प्रतिश्रये, बृ. २ उ० । मलं यत्तत्तथा । अथवा अभ्रमचकं प्रथिवीकायपरिणामविशेषस्तत्पटलमिव पिङ्गलं चोज्वलं च तत्तथा । तेन।ौ० । सूत्र। अब्भास-अत्यास (श)-पुं० । अज्यसनमन्यासः । प्रशूलजी० । प्रज्ञा०। व्याप्ताबित्यस्यानिपूर्वस्य घञ् । कर्म.५ कर्म० । हेवाके, स्था० ४ ० ४ उ० । परिचये, पो० १ विव० गुणने, अब्भपिसाय-देशी-राही, दे० ना० १ वर्ग। अनु। नावनायाम, "अभास त्ति वा भावण तिवा" (ए. अब्भवालया-अजूवालुका-खी। अभ्रपटसमिश्रषासुकारूपेख- कार्थम्) बृ०१० । अभ्यासादेव हि सर्वक्रियासु सुकीरबादरपृथिवीकायदे, प्रज्ञा०१ पद । जी। सूत्र। शलमुन्मीलति, अनुभवसिद्धं चेदं लिखनपटनसंख्यानगा ननत्यादिसर्वकलाविझानेषु सर्वेषाम् । अक्तमपि-" अभ्याअसनरहिय-अहित-त्रि० । राजामात्यादिपुत्रे गौरविके, सेन क्रियाः सर्वाः, अत्यासासकलाः कला अभ्यासाचा(बृ.) राजमान्ये, वृ० १ उ० । नि० चू। नमोनादि, किमन्यासस्य पुष्करम् ?" ॥१॥मिरन्तरं विरअम्भराग-प्रभ्रराग-पुं० । सायं सूर्यकरयोगाद् मेघानां नाना-| तिपरिणामाच्यासे च प्रत्यापि तदनुवृत्तिः स्यात् । यत उक्तम्वणे मेघे, प्रक्षा० १७ पद । "ज प्रभास जीवो, गुणं च दोसं च पत्थ जम्मम्मि । तं पाअन्भरुक्ख-अभ्रवृक्ष-पुं० । अभ्रात्मको वृक्षोऽम्रवृक्तः। भ० ३| व परसोए, तेण य अभासजोएणं" ध०२अधि० । अरष्टा म्तः-कश्चिमोपस्तदहर्जातं तर्णकमुक्तिप्य गवान्तिके नयत्यानश०६ उ०। वृताकारेण परिणतेऽऽ, जी०३ प्रति। अनु० । यति वा ततोऽसावनेनैव क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि यत्समअभवद्दलय-अत्रवादसक-न। अम्ररूपंवारो जलस्य दलक रिक्षपमभ्यासवशाद् द्विहायनं त्रिहायणमप्युरिक्वपत्येवं साधुरकारणमभ्रवादलकम् । मेघे, भ० १५ २०१० । अभ्र आका प्यज्यासात् शनैः शनैः परीषहोपसर्गजयं विधत्त इति । सूत्र शे पार्दनकमभ्रवादेनकम । ननोगतमेघे, "अम्भवहलयाई वि. १७० ११ १०ध्याने, एकावलम्बनेन मनःस्थर्ये च। विशे। उबर" प्रा० म०प्र० । अत्राणि मेघास्तैर्दिकम् । मेघैः कृते । "तत्रान्यासः स्थितौ श्रमः" तत्राच्यासः स्थितौ वृत्तिरहितस्था०३ ग०३ उ० । रा०। स्य चित्तस्य स्वरूपनिष्ठे परिणामे श्रमो यत्नः पुनःपुनम्तथाअब्जसंझा-अभ्रमन्ध्या-स्त्री०1 सन्ध्याकाले नीलाथम्रपरिण स्वेन चेतसि निबेशनरूपः। तदाह-" तत्र स्थिती यत्नोऽज्यातौ, जी० ३ प्रति। स इति ।" स च चिरं चिरकालं नैरन्तयेणादरेण चाधितोरअम्भसंथम-अन्तसंस्तृत-न० । मेधैराकाशाच्चादने, स्था०४ ढभूमिः स्थिरो भयति । तदाह-"स तु दीर्घकालनरन्तर्यसम०४ उ०। कारसेवितो दृढभूमिरिति"। द्वा० ११ हा० Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब्मास अभिधानराजेन्द्रः। अनुग्गम शुझोऽज्यास: अभासकरण-अज्यासकरण-न० 1 पार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतअच्यासोऽपि प्रायः, मनूतजन्मानुगो जवति शुकः। स्य पुनस्तत्रैव संस्थानलकणे संजोगभेदे, स.एसम व्य। कुलयोग्यादीनामिह, तन्मूलाधानयुक्तानाम् ॥ १३ ॥ ये अभ्यासगतास्तेषामात्मसमीपवर्तिस्वकरणे, व्य०३००। (अभ्यासोऽपीत्यादि) अभ्यासोऽपिपरिचयोऽवि.प्रायोबा- अब्भामग-अज्यासक-पुं० । निक्केपे, "णिक्खेचो स्थापनाभ्याहुल्येन, प्रभूतजन्मानुगोऽनेकजन्मानुगतो, भवति जायते. शुद्धो सक इत्यनर्थान्तरम" आ चू०१ अ। निर्दोषः, कुबयोग्यादीनां गोत्रयोगिव्यतिरिक्तानां कुलयोगिप्र- अन्नासगुण-अच्यासगुण-पुं० । गुणभेदे, स च भोजनादिवृत्तचक्रप्रभृतीनामिह प्रक्रमे, तासां मैञ्यादीनां मूलाधानं मू विषयः । तद्यथा-तदहर्जातबायकोऽपि जवान्तराज्यासात स्तलस्थापनं बीजन्यासस्तयुक्तानाम । कुबयोगिकणं चेदम्-"ये नादिर्क मुख एव प्रक्षिपति, उपरतरुदितश्च भवति । यदि बाऽयोगिनां कुले जाता-स्तद्धर्मानुगताश्व ये । कुत्रयोगिन उच्यन्ते, भ्यासवशात्सतमसेऽपि कवलादेर्मुख विधरप्रक्षेपाद व्याकुलितगोत्रवन्तोऽपि नापरे" ॥१॥ गोत्रयोगिनश्च-"सामान्यनोत्तमा चेतसोऽपि च तुदमात्रकण्डूयनमिति । आचा०१U०२१०१३० जव्याः, सर्वत्राद्वेषिणश्च ते। दयालबो बिनीताश्च,बोधवन्तो जि- अब्जासजणियपसर-अज्यासजनितमसर-त्रि०। मासेवनोद्तेन्छियाः" ॥१॥ इत्याद्यभिधानात् ॥१३॥ भूतवेगे, पं० व १ द्वा। ___ कस्य पुनरयमभ्यासः शुझो भवति ? इत्याह अब्भासत्य-अच्याशस्थ-त्रि० । निकटवत्तिनि, व्य० ६ उ० । अविराधनया यतते, यस्तस्यायामह सिद्धिमुपयाति । गुरुविनयः श्रुतगों, मूलं चास्या अपि झेयः ॥ १४॥ अब्भासवत्तिअ-अन्याशवर्तित्व-न० । अभ्याशो गौरव्यस्य समीपं तत्र वर्तितुं शीलमस्येत्यभ्याशवी, तद्भावोऽभ्याशवर्ति(अधिराधनयेत्यादि ) विराधना अपराधासेवन, तनिषेधादविगधनया हेतुनूतया, यतते प्रयन्नं विधत्ते, यः पुरुषस्तस्य त्वम् । भ०१५ श०७ उ० गुरुपादपीठिकाप्रत्यासन्नयत्तित्वप्रयतमानस्यायमन्यासः,इह प्रस्तुते,सिकिमुपयाति सिद्धिभाग् लक्षणे लोकोपचारबिनये, व्य०१०। औ०। स्था० । ग० । जयनि । गरुविनयः प्रागुक्तः, श्रुतगर्न श्रागमगर्भो, मुसं च का अज्यासप्रत्यय-पुं० । अभ्यासो देवाको वर्णनीयासन्नता वा रणं चास्या अप्यविराधनाया, झेयो शातव्यः। षो०१२ विव०। प्रत्ययो निमित्तं यत्र दीयते तदन्यासप्रत्ययम् । हेवाकेन अथाऽभ्यासनेदा: वर्णनीयासन्नतया वा प्रकाशनादौ, एतेन सतो गुणान् दीअन्ने नणंति तिविहं, सययविसयत्नावजोगनो णवरं । पयति । दृश्यते ह्यन्यासानिर्विषयाऽपि निष्फलाऽपि च प्र वृत्तिः, सन्निहितस्य च प्रायेण गुणानामेव ग्रहणमिति । स्था० धम्मम्मि अणुहाणं, जहुत्तरपहाणरूवं तु ॥१॥ ४ ग०४००। नि००। पमं च ण जुत्तिखम, णिच्यण यजोगो जओ विसए। अज्यासपीतिक-न० । अध्यासे प्रीतिकं प्रेम अभ्यासप्रीतिभावेण य परिहीणं, धम्माट्ठाणमो किहणु ॥२॥ कम् । लोकोपचारविनयभेदे, भ० २ श०५ उ० । ववहारओ न जुज्जतहातहा अपुणबंधगाईसु।। इति ॥ अब्भासवित्ति-अज्याशवत्ति-स्त्री० । नरेन्कादीनां समीपेऽवएतदर्थो यथा-अन्ये प्राचार्या वते-त्रिविधं त्रिप्रकार सतत. स्थाने, दश० ६ ०१ उ०। विषयजावयोगतः, योगशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात सतता अब्भासाइसय-अन्यासातिशय-पुं० । अभ्यासप्रकर्षे, पो. दिपदानां सतताच्यासादौ लाक्कणिकत्वात्सतताभ्यास-विषया । १० विव०। भ्यास-भावान्यासयोगादित्यर्थः । नवरं केवलं धर्मेऽनुष्ठानं यथोत्तरं प्रधानम्पम,तुरेवकाराथः। यदुनरं तदेव सततं प्रधान अन्जासासण-अन्याशासन-न । उपवरणीयस्यान्तिकेऽषमित्यर्थः। तत्र सतताभ्यासो-नित्यमेव मातापितृविनयादिवृत्तिः। स्थाने, स० ११ सम। विषयाभ्यासो-मोकमार्गनायकेऽहवकणे पौनःपुन्येन पूजना- | अन्नासिय-अजाषित-त्रि० । विगादिदेशोद्भवे, . ३ उ। दिप्रवृत्तिः। नावाभ्यासो-भावानां सम्यग्दर्शनादीनां भवोद्वेगेन भूयोभूयः परिशीलनम् । एतच द्विविधमनुष्ठानं न युक्तिकम नो अभिग-अन्यङ्ग-पुं० । स्नेहने, का० १० म० । पश्चाऽन्मदने, पपत्तिसह, निश्चयनययोगेन निश्चयनयाभिप्रायेण, यतो-माता दशा०६अ। पित्रादिविनयस्वनावे सतताभ्यासे सम्यग्दर्शनाद्यनाराधनारूपे अग्निगिय-अन्यनित-त्रि० । अभ्यतः क्रियते स्म पस्य । धर्मानुष्ठानं दुरापास्तमेव । विषय इत्यनन्तरमापर्गम्यः। विषये तस्मिन्, शा० १५०। ऽपि अहंदादिपूजालवणे विषयाभ्यासेऽपि भावेन भववैराग्यादिना परिहीणं धर्मानुष्ठानं कथं नु,न कथचिदित्यर्थः । श्रोकारः अन्तिम-सम्-गम-धातुः । मेलने, “समा अम्भिरः" ।। प्राकृतत्वात् । परमार्थो योगरूपत्वाद्धर्मानुष्ठानस्य निश्चयनयम ४। १६४॥ इति सूत्रेण समा युक्तस्य गमेरम्भिर प्रादेशः । प्र. ते भावान्यास पव धर्मानुष्टानम, नान्यद्वयमिति निगर्वः । व्यव- भिम-संगच्छते। प्रा०४ पाद । हारानु व्यवहारनयादेशानु युज्यते द्वयमपि तथा तथा तेन अम्निम-अजिन-त्रि० । अधिवृते, ध०२ अधिः। तेन प्रकारेण अपुनबन्धकादिषु अपुनर्बन्धकप्रतिषु।तत्रापुनर्वधकः पापं न नीबजावारकरोनीत्याद्यलक्षणः । श्रादिशब्दादपु अम्भुक्खणीया-प्रज्युक्षणीया-स्त्री० । पवनप्रेरितासु उदकका नर्बन्धकस्यैव विशिष्टोत्तरावस्थाविशेषभाजी मार्गानिमुखमार्ग र्णिकासु, पृ.१००। पतितौ, अविरतसम्यम्हस्यादयश्च गृह्यन्त इति । ध०१ अधिक। अन्जुग्गम-अन्युझम-पुं० । उदये, सूत्र १४० १४ १०। Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 अब्भुग्गय धनुमाय प्रयुक्त -त्रि० । श्रभिमुखमुद्रतोऽयुतः । उत्पाटिन, ओ० श्रभिमुच्येन सर्वतो विनिगते पं० २०१० पा चिते १०० त्रिपा० । श्रमिभागे मनागुन्नते, रा० । जं० । अभ्युत्कटे, रा० । जी० । भूद्वयमध्यतो विनिर्गते, जं० २ ० । श्रतिरमणीयतथा इणां प्रत्यनिमुन स्थिते रा० ॥ 'अनुग्गयम उलमल्लिया विमलधवलदंतं अभ्युद्गतमुकुता आयत कुरूमला ये मल्लिकाविच किलास्तद्वद् विमलोदन्तौ यस्य । अथवा प्राकृतत्वात् मस्त्रिका मुकुल वदभ्युद्गतासुनती मिदन्तौ यस्य तवयुद्गलमुकुमसिकावि मन्नवदन्तम् ( हस्तिनम् ) 1 उपा० २ ० "अनुभायम - समलियाचल सरससंग्राणं "अयुतान्युतानि चित्रय कोरकावस्थाविवकिलकुसुमचद्धनानि तथा स शं समं संस्थानं येषां तानि । जं० ७ वक्क० । 'अब्जुग्गयसुयश्वरश्वतोरणवरही अडियसालि मंजिया "युवेदिकायाः सम्बन्धिनि तोरणयरे रचिता लीलास्थिताः शालजञ्जिका यस्यां सा तथा ताम | (शिबिकाम् ) भ० ९ श० ३३ ३० । आ० म० । ० । ० । बहुरत्पनेचा १० 66 अ ( ६६३) अनिधानराजेन्द्रः । 93 अभ्रोद्गत शि० । उच्छे भ० १२ श० ५ ० । अनुग्गयभिंगार अभ्युतङ्गार- अभ्युतोऽनिमुखमुत उत्पा दितो भृङ्गारो यस्य स तथा । तथाभूते महाभागे, भौ० ॥ भ० दश (०१ अन्तग्गयमुसिय-अज्यु(ब्रो) तो च्छ्रित-त्रि० । अभ्युद्गतश्चासाबुच्छ्रितश्वेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः। श्रत्यर्थमुच्चे, भ० । “अब्जुग्गयमासे. पहसिया "अयुद्गतमनोगतं वा यथा भवत्येवमुि सत्ययुगतिः । अत्यर्थमुच्य इत्यर्थः प्रथमैकवचनसोपश्चात्र दृश्यः । तथा प्रहसित व प्रनापटलपरिगततया प्रहसितः । प्रभया वा सितः शुकूलः, संबद्धो वा प्रभासित इति । भ० २०८० स० । जं० । जी० । प्रजज्जय- अज्युद्यत- त्रि० । वर्कितुं प्रवृत्ते, 66 अन्भुग्गएसु खरवस " (मेधेषु) मा १ • सोद्यमे, ० अ० उद्यतविहारिणि ०४४० "अयं दुविध अम्भुखमरणेण, अन्यविहारेण था " नि० ० १६४० ॥ अभ्युद्यतविहारमरणयोः स्वरूपमाहजिण सुब-जहानंदे, तिविहो अनुज्जओ ग्रह विहारो । अम्भुज्जयमरणं पुण, पाजवगमरिंगिपिपरिया || जिनकाप, शुरू परिहारकल्पो, यथालन्द कस्मेति त्रिविधो न्युद्यतः; श्रथैष विहारो मन्तव्यः । अभ्युद्यतमरणं पुनस्त्रिविधम्- पादपोपगमनमिङ्गिनौमरणं, परिशेति भक्तप्रत्याख्यानम बुद्धिप्येतेषु अन्युद्यतरूपतया प्रेयसी । अतः कतरनयोः प्रतिपत्तव्यम् उच्यतेसयमेव प्राकालं, नाउं पेवित्त वा बहुं सेसं । बहुगुणाजी, बिहारमनुज्जयं नवइ ।। स्वयमेवाका खातिशयधुतोपयोगाइ दीर्घ शेषमशियमाणं हा पाऊन् श्रुताद्यतिश्ययुकमाचार्य बहुशेष १७४ भुट्टा या मवबुध्य; ततः सुबहुगुणलाभकाङ्क्षी सन् विहारमभ्युद्यतं भवति, प्रतिपद्यत इत्यर्थः । बृ० १ ३० । ('णिकप्पिय' शब्देऽस्य विधिः) अस्तुतयमरण अभ्युदयमि विद्धमिति श्रनन्तरमुक्तम् । बृ० १ ० नि० चू० | पं० ब० । संथा० । (पादपोपगमनादिषु वक्तव्यताऽस्य ) विहार-यत विहार-पुं० [अच्युतानां जनकल्पिकादीनां विहारे, पं० ० ४ द्वा० । बृ० । ( स च त्रिविध इति ' अनुजय' शब्दे उक्तम् ) प्रहास-अप्रधान-२० श्राभिमुख्ये मोत्थानमुद्गमनमभ्युत्थानम् | ग० २ अधि० । उत्त० । तदुचितस्यागतस्य श्र भिमुखमुत्थाने, पञ्चा० १७ विष० । दश० । द्वा० । विनयाहरूप दर्शनादेवाऽनन्यजने स्था० ७ डा० ससंभ्रममासनमोचने, उत० ३ अ० । व्य० । प्रव० । एष दर्शन विनयभेद इत्थं समाचरणीयःअन्तुडा लडुगा, पामत्यादन] तिरथी । संजणी पुणो तह, संजइवग्गे य गुरुगा छ || साधुभिः साधूनामेवान्युत्थानं विधेयं न गृहस्थादीनां तत्रापि संविज्ञानामेव न पार्श्वस्थादीनाम् । अथ पार्श्वस्थादीनामन्यतीर्धकानां हि वाभ्युत्थानं करोति तदा भवः । तथा संयत्यादीनामन्यतः र्थिनीनां संयतवश्यमभ्यु त्याने चतुरः। अथात्रैव दोषानुपदर्शयति 1 I उट्ठे इस्थिजह एस चिंति, धम्मे विश्रो नाम न एस साहू । दक्खिन्नपन्नावसमे चैवं, मिच्छत्तदोसा य कुलिंगिणी ॥ संयतं कस्या अपि खिया रायकादिि न्तयेत् - यथैष साधुः स्त्रियमायान्तं दृष्ट्वा श्रज्युत्तिष्ठति । तथा नामेति संभावनायाम् । संभावयाम्यहं नैष सम्यग्धर्मे श्रुतचारिशामके स्थितः अन्यथा किमेष बनाम अि व एवं स्त्रिया अज्युतिष्ठन् दाक्षिष्यवान् भवति । दाक्षिण्यपमायामुपैति विराधनायो दोषाः । यास्तु कुलिङ्गिन्यस्ताः परिवाजिकाप्रभृतयः, तासुअभ्युत्थीयमानासु यथा भइकादीनां मिध्यात्यगमनादयो दोषा भवन्ति । अन्तर्थिषु पुनरिमे दोषा: " श्रावणा पत्रयणे, कुतित्यजन्भात्रणा अबोही य । खिंसिज्जंति य तप्प - क्खिपाड़ गिहिमुव्वया बलियं ॥ भोभागवत सौगतादीनामन्यतीर्थिकानामन्त्याने प्रथम चरममहती अपभ्राजना भवति श्रहो ! निस्सारं प्रचचनममीयदेवमन्यदर्श निनामभ्युत्थानं विदधाति कुस्योद्भावना प्रभावना जयति तदेव दर्शन शोभनतर यदेव जेना अप्येतत्प्रतिपचानयुसन्तीति । ति ) प्रवचनला घवप्रत्ययं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्मोपचित्य भवोदधौ परिभ्रमन् बोधिलाभं नासादयन्ति । ये च गृहिणः सुव्रताः शोभनासुयतधारका सुझावका इ शाक्यादिपपातिभिरुपासकै कमत्यर्थयन्ते कमेव दर्शनं सर्वोत्तमं भवदीयगुरूणामपि एए चैव य दोसा, सर्विसेस पर उन्नतित्थिगी पि - : । Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नद्वाण लापपजियनं तहागयाणं अबयो य ॥ एते एव दोषाः प्रवचनापम्राजनादयो ऽन्यत | थिंकीष्वपि जवलि, नवरं सविशेषतराः शङ्कादिभिर्दोषैः समधिकतरा मन्तव्याः । गृहिणामन्यतीर्थिकादीनां चाभ्युत्थाने सामान्यत हमे दोषाः। तद्यथा - लाघवमेते ज्योऽप्ययं हीन इत्येवं लक्षणो लघुभाव उपजायते । अनूर्जितत्वं वरमुतं भवति । तथाहि -लोको ब्रूयात् अहो ! श्रदत्तादानाः श्वान व वराका अमी यदेवमाहारादिनिमि समवितरकाणामपि चाने कुन्ति तथा तेन पलम्भात्यफेन प्रकारेण गतं ज्ञानमेषां तथागताः सादिनस्तरा स्पर्थः । तेषामवसंवादो भयति यथा नामी सम्‌मोहमार्ग दृष्टवन्तः । अथ संयतीनामभ्युत्थाने दोषान् विशेषतो दर्शयन्नाह - पार्थ तस्सिओ करेंति किम्मो विडिया। एति वतिणि, जवियत्वं कारणेणेत्थ || संपतीमभ्युतिष्ठन्तं दृष्ट्रा कश्चिदभिनवधर्मान्तियेत्-प्रायपरियः सुविहितानां कृतकर्म कुर्वन्ति 'मो' इति पादपूरणे। एष पुनर्वतिनी मुत्तिष्ठति तद्भवितव्यमत्र का रति । एवं शालिम्पते दोषात पाविधेय प्रथमयुत्तव्यं तदपुरयानाकरणे प्राध ( ६६४ ) प्रनिधान राजेन्द्रः | " समभिवराह आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि तहेब होइ खड्डे य । गुरुगा महुगा लहुगो निभे पमिलोमविविषयं ॥ श्रचायें अभिषेके भिक्षौ तथैव क्षुल्लके: श्राचार्यादीन् प्राघुणिकान् यथाक्रममन ज्युत्तिष्ठति गुरुका लघुका लघुको भिश्रमासाोति प्रायभितानि द्वितीयादेशेनमेव प्रायि प्रतिलोमं प्रतीपक्रमेणाचार्यादीनां वयम | प्राचार्यस्य श्रमास अभिषेकस्य समास भोः घनलकस्य चतुर्गुरव इति भावः । एवं संग्रहगाथासमासार्थः । श्रथैनामेव विवृणीति परियरसायरि अतस्स चउगुरु होति । बसने दुगा अदुगो व भिनव ॥ चाचार्यस्य प्राचार्य प्रापूर्व कमायान्तमतिर वन्ति वृषभमनुष्ठितः चतुधुकाः निमनुतिष्ठतो मित्रमासः । एवमाचार्यस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् । शेषाणामतिदिशति कम सहाणपरडाणे, एमेव वसन्नभिक्खुङ्गाणं । जं परवाणे पावड़, तं चैव य सोवि सहाणे ॥ एवमेव वृषभ भिक्षुक्षुल्लकानामपि स्वस्थानपरस्थाने प्रायश्चित्तं यमनं नाम नामस्थानं याचा मि अस्थानम् । एवं भिकु कुलकयोरपि स्वस्थानपरस्थानभावना कर्त व्या । श्रत्र च यत्परस्थाने प्राचार्यः प्राप्नोति तदसावपि वृषभादिः स्वस्थाने प्राप्नोति । किमुकं भवति वृषस्य प्राचार्यम नानाने चतुमिको ज्युत्थाने मासलघु, कुज्ञकस्यानभ्युत्थाने भिन्नमासः । एवं י' अन्नुट्ठाण भिक्कु कुलकयोरपि मन्तव्यम् । श्रत्र परस्थानमाचार्यस्य वृषभा दय लेकमभ्युत्थाने पचासी चकादिकमापवान् तथा वृषभादयोऽपि स्वस्थानमनभ्युत्सितस्तदेव प्राप्नुवन्ति। देवप्रातःकालाभ्यां विशेषयग्राह दोहिँ वि गुरुगा एते, आयरियस्स तत्रेण कालेए । तवगुरुगा कालगुरू, दोहि वि बहुगा य खुइस्स || प्राचार्यस्यैतानि चतुर्गुरुकादीनि प्रायश्चित्तानि द्वाभ्यामपि गुरुकाणि कर्तव्यानि । तद्यथा तपसा, कालेन च वृषभस्य तपोगुरुकाणि भिको फालगुरुकाणि, हुल्लकस्य द्वाभ्यामपि प कालाभ्यां [लघुकाि हवा अधिसिहं चिय, पाहुणयागंतुर गुरुगमादं । । पार्मेसि अहिंता, चरगुरु लहुगा मदुगनिभं । अथवेति प्रायश्चित्तस्य प्रकारान्तरताद्योतकः । श्रावशिष्टमेयावार्यादिभिर्विशेवैर्विगदितं प्राचूर्णक मागन्तुकमनुन्तिर्या दय आचार्यप्रभृतयो यथाक्रमं चतुर्गुरु चतुर्लघुलघुमानि नमासान् प्राप्नुवन्ति । तद्यथा - आचार्यस्य यं वा तं वा प्राघूर्णक मागतमन ज्युत्तिष्ठतश्चतुर्गुरु, वृषभस्य चतुर्लघु, भिक्को घुमासः, कुल्लकस्य भिन्नमास इति । हवा वा तं वा, पानुरागं गुरुमहिं पावे । जिनं वसो सुकं, निक्खु लहू खुड्ड चडगुरुगा ।। अथवा यं वा तं वा प्राघूर्णकमनुत्तिष्टन् गुरुराचार्यो भिन्नमासं प्राप्नोति, वृषभः शुक्कुमासं, लघुमा समित्यर्थः । भिकुश्चतुर्लघुकम, कुलका चतुर्गुरुकम एतेन " पडिलोमविति" प व्याख्यातम् । अथ किमर्थमयं द्वितीयादेशः प्रवृत्तः ?, इत्याहवायणवापारणधम्मक सुत्तत्यचिंतरणासुं च । वाउलिए आयरिए, बिइयादेसो न जिन्नाई || शहाचार्यस्यानेकधा व्याक्षेपकः। तद्यथा-वाचनानामनुयोगः । साविनेयानां दातव्या । व्यापारणं साधूनां वैयावृत्त्यादिषु यथायोग्यं विधेयम् । श्राद्धानां धर्मकथनं विधातत्र्यम् । भूयस्सूत्रायो कर्तव्याः पवमादिषु कार्येषु निरन्तरमाचाय व्याकुलितो भवति । वृषन्नादयस्तु न तथा व्याकुल्ला ६त्यतोऽयं भिन्नमासादिद्वितीय आदेशः प्रवृत्तः । इयमत्र भावना श्राचार्यो बहुव्याकुलतया प्राघुणकमागच्छन्तं दृष्ट्वाऽपि नाभ्युत्थानं पारयेत् ; अतस्तस्य स्वल्पतरं प्रायश्चित्तम्। वृषभभिक्षुक्षुकास्तु यथाक्रममस्पाल्पतरास्पतमव्याक्षेपाः, ततो लघुमासानि प्रभूतप्रभूततरप्रभूततमानि तेषां प्रायश्वितानीति । अथ कस्य गुरुतमप्रायश्चित्तदाने विशेषकारणमाहबेसहर लइमुहर, सीधवलो असंफुनो खुट्टो । इति तस्स होंति गुरुगा, पालेइ हु चंचलं दंमो ॥ को बालः स खघुशरीरतया सुखेन उपविशति उतिप्रति या कीडनीया च प्रयेोज तदेह अस्फुटश्चासंवृतोऽसो भवति । अतो वदसापि प्राघुणकमागतं नोत्तिष्ठति महदृषणमाप्नोति । अत एतस्य चतुगुरुकाः प्रायश्चित्तम् । किञ्च यश्चञ्चलः स्वभावाच्चपलोऽपि " Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६५ ) अभिधानराजेन्द्रः । अब्भुट्ठाण सन् गुर्वादीनां नाभ्युत्तिष्ठति तं दण्डः प्रायश्चित्तलक्षणो दीयमानः पालयति, चञ्चलत्वमपनयतीत्यर्थः । अपि च , जता त्या पावर वालो वि पयएए दोसे । दार्णि स्वर्ण, पमाइ रक्खरणा सेसे ॥ बालस्यापि गुरुके प्रायश्चित्ते दत्ते सति शेषसाधवश्चिन्तयेयुःयदि तावदयं बालोऽपि प्रपूर्ण के अनयुत्थानमा ल के स्वल्पेऽप्यपराधे एवं दरामस्थानं प्राप्नोति । (हणु दा ति) तत इदानीमस्माकं प्रममन्युत्थाने प्रमादं कर्तुमहमनुचितमिति शेषसाधुवर्गस्यापि रक्षणं कृतं भवति । आह-अभ्युत्था 'नमकुर्वतामात्मसंयमयोस्तावत्काचिदपि विराधना नास्ति ततः किं कारणमेवमेवं प्रायश्वितं दीयते । उच्यते दितो बुबखर, अस्तुति नह गुणो पत्तो सम्हा सयन्दो, पानुशओ गच्छ आयरियो | पूर्वमाचार्थमनुष्ठिर भगवता माहामतिक्रामति । तथाचात्र करके दासेन दृष्टान्तः-" एगो राया, से केण दुक्खरएणं श्रारादिश्रो । रन्ना से पट्ट बंधिउ पहाणं रज्जं दिनं । तत्थ दंभ भोश्याश्णो दुअक्खरो ति काचं परिभावेणं तस्स - प्राणाश्यं न करेति । ताहे तेरा इंडिया, मारिया , जेबिया ते अति तेसिस परितुद्वेण रवि भागो दिनो " । अथार्थीपनयः - यथा तैरभ्युत्तिष्ठद्भिरिह लोके गुणः प्राप्तः तथा साधवोऽपि प्राघूर्णकमाचार्यमभ्युत्तिष्ठन्त इह परत्र च गुणानासादयन्ति तस्मात्प्राघूर्णक आचार्यः सकमेनापि गान्युत्पाताः । अमेव शतं व्यास्यानयति आराहितो रज्ज सपट्टबंधं, कासी य राया उ दुवक्खरस्स । सासमा सुकुमादी, नाईति ते प से दिया । श्राराधितः केनापि गुणविशेषेण परितोषं प्रापितः सन् राजा द्राक्षरकस्य पट्टबन्धं राज्यमकार्षीत् पचन्धपतिं विदि तवानिति भावः । ततः तं द्वाकरकराजं राज्यं प्रशासतं कु मायनांबिन्ते वयं कुलीनाः अयं तु हीनकुलोत्पन्नः आदिशब्दाद् वयं प्रधानपुरुषाः, अयं पुनः कर्मकर इत्यादि परिभययुद्ध्या नाज्युस्थानादिकमादरं तस्य कुर्वन्ति ततः ते तेन शका विनीताः शिक्षां प्रापिताः, 'विनयः शिक्षाप्रणत्योः ' इति वचनात् । कथं शिक्षिताः ?, इत्याहसम्पस हाउ निजूदा मारिया प विवदंता । जोगे संविनता अझ अपुणा ने छ । सर्वस्वमपहृत्य ते स्थनगरान्निर्गुडा निष्काशिता येत निष्काश्यमाना विषदले किमस्माभिरपराद्धं यो यो करको भविष्यति तस्य तस्य किं वयमज्युत्थानं करिष्यामः ?, इत्यादि कलायन्ते ते विवदमाना मारिताः। येतु तत्र त्यानादिकारिणाऽवणा गर्वितास्ते भोगे संविभक्ताः रा ज्यभोग संविभागस्तेषां कृतः । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनय: हिराया तित्थयरो, इयरोज गुरू उ होइ नायव्वो । साहू जहा व दंमिय, पसत्यमपसत्यगा ढोति ॥ यथा अधिराजो मौलपृथिवीपतिः, तथा तीर्थंकरः, यथा इतरो दधक्करकराजः, तथा तीर्थकराधिराजेनैवानुज्ञाताचार्यः पदपट्टबन्धमतिगणाधिपत्यराज्ये गुरुराचार्यो ज्ञातव्यो नवति । यथा च ते प्रशस्ता प्रशस्तरूपा दलिकास्तथा साधवोऽप्युनयस्वनावा भवन्ति । अन्नद्वाण तत्र जह से अहंता दियसम्यस्सा उ क्वमाजागी । इया आयरियं प्रशुहिंतान बोच्छेदो ॥ यथा ते दकटभोजिकादयो द्व्यकरकनृपतिमनुतिष्ठन्तो ह सर्वस्यापदिकस्य दुःखभागिनः संजाताः। इत्येवमासार्यमप्यनुष्ठितां दुर्विनीतखानाने उपलक्षणयादर्शना रित्रयोश्च व्यवच्छेदो भवति । ततश्चानेकेषां जन्मजरामरणादिदुःखाना मानोगिनस्ते संजायन्ते एषोऽप्रशस्तोपनयः । अथ प्रशस्तोपनयः 5 उट्ठा सिज्जासमाइएडिं, गुरुस्स जे होंति सयाऽणुकूला । नवी ह ते गुरू उ, संगिएडई देइ य तेसिँ सुत्तं ॥ उत्थानं - गुरुमागच्छन्तं दृष्ट्वा ऊर्ध्वं भवनं, शय्या सुन्दरावकाशे गुरूणां संस्तारकरचगम आसनमुपयेम दिरचनम् । यद्वा- (सेखासणं ति ) गुरूणां शय्याया आसनाच नीचतरशय्यासनयोराश्रयणम् । आदिशब्दाद अतिप्रग्रहणादि परिषदः । एवमादिभिर्विनयनदेय शिष्या सदैव गुरोरनुकृ नवन्ति तान् विनीतान् ज्ञात्वा अथानन्तरं गुरुः संगृह्णाति । मयैते सम्यकृपालनीया इत्येवं स्वीकरोति सूच तेषां प्रयच्छति, ततश्च ते श्ह परत्र च कल्याणपरम्परानाजनं जायन्ते । अथ प्रशस्तोपनयं विशेषतो नावयन्नाहपज्जायनाईत य वृद्धा, जयभिमा सीससमिकिमंता । कुष्यंतऽय अह ते गणाव, निज्जूहई नो य ददाइ सुत्तं ॥ पर्यायतो ये वृद्धास्ते अवमराशिकोऽयमिति बुद्ध्या जातिम धिकृत्य से वृद्धा, परिषर्षजन्मपर्याया इत्यर्थः सेोम ति बुद्ध्या, तरच तमकृत्ये वृद्धास्ते स्था, जात्यन्विता विशिष्टज्ञातिसंता ही मस्या, शिष्यसमृद्धिमन्तः परिवार संपता परिवारोऽय मिति बुख्या, गुरोरवामनभ्युत्थानलक्षणां कुर्वन्ति । अथैवमवज्ञाकरणानन्तरं गुरुस्तान् स्वगच्छनगरान्निर्यूहति पाक्षिकत्वादिभिः कारणैर्नियतुं न शक्यन्ते तेषां भोगविकल्प न प्रयच्छति। एवं तावन्याकमाचायेमङ्गीकृत्याभ्युत्थानानभ्युत्यानयोर्गुणदोषा उपयर्थिताः । ये च अथ सामान्यतो गडमध्ये स्थितस्यैवाचास्यानाने दोषमाह- मन्त्य पोरिसीए, लेवे पमिलेट आइयण पम्ये । पयन गिला तह - राम सम्मेसि ठाणं ॥ मायामागतं दृङ्गा गच्छसाधवो मध्यस्थास्तिष्ठन्ति ततः Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुहाण शनिधानराजेन्द्रः। अनुहागा पूर्वोक्तमेव प्रायश्चित्तम् । सुत्रार्थपौरुषी लेपप्रदानं प्रतिलेखनम् धम्मो य मूलं खल सोगईए । (आइयषं ति) 'प्रादान' समुइंशनं धर्मकथां वा विदधानाः प्र सा सोगई जत्थ अवाहया न, चलायमामा वा नान्युत्तिष्ठन्ति । अत्रापि तदेव वृषभादिविषयं प्रायश्चित्तम् । ग्लानो वा उत्तमार्थप्रतिपत्तौ वा शक्ती सत्यां यदि तम्हा निसेव्यो विणयो तदट्ठा ।। नोत्तिष्ठति तदा तस्यापि प्रायश्चित्तम् । यत एवमतःसर्वेषामन्यु- धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य मूलं प्रथममुत्पत्तिकारणं बिनयमस्थानं भवति । इदमत्र रदयम्-माचार्याणामनन्युत्थाने सूत्रपौ- भ्युत्थानादिरूपं वदन्ति, तीर्थकरादय इति गम्यते। स च धर्मः, रुषीकरणादीनि कदालम्बनानि, यथा ममायमालापकोऽर्द्ध- समुरवधारणे, सुगतेर्मूलं कारणं मन्तव्यम् ! दुर्गती प्रपतन्तं पन्तिो वर्तते, बेपो वा पात्रके नाद्यापि परिपूर्णे दत्तः, प्रति- प्राणिनं धारयति सुगती च स्थापयतीति निरूक्तिसिकत्वात्, सेखनादिकं वा सम्प्रति कुर्वाणोऽस्मि; ग्लानो पाकृतभक्तप्रत्या-| तस्येति भावः । अथ सुगतिः कीदशी गृह्यते ? , इत्याह-सा क्यानो वा ऽहमस्मीति, किन्तु सवरपि सूत्राभ्ययनादिव्या- सुगतिरभिधीयते-यत्राबाधना, सुत्पिपासारोगशोकादीनां शपारं परिहत्यान्युत्थातव्यम,एवं तावदुपाश्रये विधिरभिहितः। रीरमानसानां बाधानामनावसिकिरित्यर्थः। यत पषं तस्मात्तदर्य भधाम्यत्र गृहादौ रथ्यादिषु वा यत्र रश्यते तत्रायं विधिः- सुगतिनिमित्तं विनयो निषव्यः । इदमत्र हदयम्-इह कार्य दूरागयमुढेलं, अजिनिग्गंतुं नमति णं सव्वे । तावदन्यावाधसुखलक्षणो मोवा, तस्य च कारणं श्रुतचारित्रक पः सर्वकभाषितो धर्मः सद्गुरोरन्युत्थानवम्दनादिविनयसकदंडग्गहणं च मोत्तुं, दिढे जहाणमन्नत्ये ॥ णमुपायमन्तरेण न साधयितुं शक्यते । अतः परम्परया मोक्षदूरादाचार्यमागतं दृष्टा भाभिमुस्येन निर्गत्य सर्वेऽपि साधयो कारणमेवायमिति मत्वा तदर्थ विनय भासव्यत इति । (णमिति) एनमाचार्य नमन्ति शिरसा वन्दन्ते, यदा च गुरव आह-युक्तं पौरुषालेपप्रदानादिकारणादभ्युत्थानम, ग्लाउपाश्रयं प्रविशन्ति तदा दण्डक ग्रहणमपिकर्तव्यम, अन्यत्रत नोत्तमार्थप्रतिपनयोस्तु किमर्थमन्युत्थानम् !, उच्यतेप्रदादोरहेगुरी दण्डकग्रहणं मुक्त्वा अत्युत्थानमेव कर्तव्यम् । मंगलसफाजणणं, विरियायारोन हाविभो चेव । एवमभ्युत्थाने के गुणाः ?, इत्याह-- एहिँ कारणेहि, अतरंतपरिमनधणं ।। परपक्खो य सपक्खो, होइ अगम्मत्तणं च उट्ठाणे । अतरन्तो ग्वामः (परिन्न ति) मतुष्प्रत्ययलोपात् परिज्ञावान् मुयपूयणा थिर, पभावणा निज्जरा चेव ।। मनशनी, एतया गुरुणामभ्युत्थाने मङ्गलं जवति, ततश्च ग्लानपरपकः परपाखण्डिनः,स्वपकः पार्श्वस्थादिषगः, तयोरगम्य-| स्याचिरादव प्रगुणीभवन, कृतभक्तप्रत्याख्यानस्य तु निर्विघ्नत्यमनभिभवनीयता गुरोरन्युत्थाने भवति, तथा गुरवो ब मुत्तमार्थसाधनं स्यात् । यथा ग्लानपरिक्षा भवति तथा गुरुमहुभुता भवन्तीति भुतपूजनमपि कृतं स्यात् । अन्येषामभ्य- भ्युत्तिष्ठति,शेषाणामन्युत्थाने अकाजननं विहितं, यद्येषोऽप्येवं स्थानादी विनये सीदतां स्थिरस्वमनुष्ठितं भवति । प्रभाषना च गुरुमन्युत्तिष्ठति, ततोऽस्माभिः सुतरामभ्युस्थातव्यम् । अपि शासनस्यैव कृता भवेत्-महो!शोभनमिदं प्रवचनं यत्रैवंविधो | च-एवं कुर्वता म्लानेन परिक्षावता च वीर्याचारो न हापितो धिनयो विधीयते, निर्जरा च कर्मक्कयरूपा विपुला जवति, भवति, प्रत पतैः कारणैरेताज्यामध्यस्थातव्यम्। विनयस्याभ्यन्तरतपोभेदत्वात् तस्य च निर्जरानिबन्धन (मन्युत्थामाकरणे प्रायश्चित्तम) तया सुप्रतीतत्वात्। प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमुपदर्शयन्नाहभाह-यः प्रवजितः सर्वपापोपरतस्तस्य किं नाम चंकमणे पासवणे, वीयारे साहु संजई सकी। बिनयेन कार्यम, इति उच्यते समिणि वाइ प्रमच्चे, संघे वा गपसहिए वा ।। अकारणा नत्थिह कजसिकी, पणगं च भिन्नमासो, मासो लहुगो य होइ गुरुगो य । नयाऽणुवारण उ उति तएणा। सत्तारि टु लहु गुरु, बेदो मूझं तह पुगं च ।। सवायवं कारणसंपनत्तो, रह प्रथमगाथायाः द्वितीयगाथायाच पदानां यथासंस्थेन कज्जाणि साहेश पयत्वं च ॥ योजना तद्यथा-आचार्य चकमणं कुर्वाणं रष्ट्रा मान्युत्तिष्ठति प्रकारणा कार्यस्य सिरिरिहासिन जगति नास्ति, यद्यस्य पञ्चकं पञ्चरात्रिदिवानि प्रायश्चित्तम, प्रश्रवणभूम्यामागतं ना. कार्यस्योपादानं कारण तत्वेन बिना न सिध्यतीत्यर्थः । यथा ज्युत्तिष्ठति भिन्नमासः,विचारसंशां कृत्वा समागतस्यानभ्युत्थामृतपिएक विमा घट इति । कारणसद्भावेऽपि मच नैव, भनु ने मासगुरु, संयतीभिः सामागतस्यानुत्थाने चतुर्नघु, संबिपायेन उपायाभावेन कार्य भवतीति तज्ञाःकार्यसिरिवेदिमो नः श्रावकाः, तेः सममायातमनुत्तिष्ठतचतुर्गुरु, असंझिभिः पदन्ति । यथा मृत्पिएमसद्भावेऽपि चक्रचीबरोदकाग्रुपाय सममायातस्यानन्युत्थाने पसघु, संझिनाजिरसंहिनाभित्र मन्तरेण घटो न सिद्धति; यः पुनः सपायवान् कारणसंयुक्त स्त्रीभिः सममायान्तमनन्युत्तिष्ठतः पम्गुरु। धादिना सार्कमाप्रयत्नवान् भवति स साधयति, यथा कुम्भकारो मृत्पिएरमासा याते मनभ्युत्थिते वेदः, अमात्येन सामागते मूलम,संघेन च चऋचीवरापायसाचिव्यजनितोपष्टुम्भः स्यहस्तव्यापार साई समायाते अनुत्थिते अनवस्थाप्यम्, पका सहितं सूरिणम्पं प्रयत्नं कुर्वन घटं निर्माति । मागतमनुत्तिष्ठतः पाराश्चिकम् । पाह-ययेवमुपायकारणयुक्तः कार्याणि साधयति अथ किमर्थं सीभिः सममायाते गुरुतरं प्रायश्चितम्, ततस्तु ते किमायातम् !, इत्याह उच्यतेधम्मस्स मूलं विणयं वयंति, पूयंति पइयं इ-त्थियान पाएण तान महुसचा । Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नट्ठाण मनिधानराजेन्डः। अन्नुहाण एएण कारणेणं, पुरिसेमुं इत्थिया एत्य ।। योगत्रयेऽपि व्यापार्यमाणे दोषा यथा च गुणा भवन्ति तदेतत प्र. मह स्त्रियः प्रायेण पूजितं पूजयन्ति, यमेवाचार्यादिकं साधु तिपादयतिश्रावकादिभिरभ्युत्थादिना पूज्यमानं पश्यन्ति तस्यैव पूजां वि. मणो य वाया कामो अ, तिविहो जोगसंगहो । दधति,ताश्च स्त्रियः प्रायेण लघुसस्वास्तुच्छाशया भवन्ति।ततः ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स य गुणावहा ॥ साधुभिरनन्युत्थीयमानमाचार्य गाढतरं परिजयबुद्ध्या पश्यन्ति, न किमप्येष प्राचार्यो जानाति,नवाऽयं विशिएगुणवान् सं मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति त्रिविधो योगसंग्रहो भवनाव्यते, अन्यथा किमेते साधवो नाभ्युत्तिष्ठन्ति, एवमेतेन का ति, संक्षेपतस्त्रिधायोगो नवतीत्यर्थः । ते मनोवाकाययोगा प्रयुक्तस्य अनुपयुक्तस्य दोषाय कर्मबन्धाय जवन्ति, युक्तस्य तु रणेन पुरुषेषु साधुश्रावकादिषु पूर्व लघुतरप्रायश्चित्तमुक्त्वा पश्चात स्त्रियोऽधिकृत्य गुरुतरमुक्तम् । त एव गुणावहकर्मनिर्जराकारिणः संपद्यन्ते। इदमेव जावयतिअथ राशा सा समागतस्यानभ्युत्थाने किं कारणं ___ पाराश्चिकम् ?, इत्याह जह गुत्तस्सरियाई, न होति दोसा तहेव समियस्स । पाएणिद्धा एंति महायणेण समं फाति दोसो गच्चइ एएम गुत्तीठियप्पमायं, रुंभइ समिई सचेहस्स ॥ तणु वि गज्ऊ वकं होज कहं वा परिजूते बेमुजं वा कु यथा किस मनोवाकायगुप्तस्य ईयादिप्रत्यया अनुपयुक्तगमत्थियवेसम्मि मणुस्से वट्टा ॥ नादिक्रिया समुत्था दोषा न भवन्ति, तथैव समितस्यापि च क्रमणं कुर्वत श्यादिप्रत्यया दोपान नवन्येव । किं कारणम्!, राजादय ऋफिमन्तःप्रायेण बाहुल्येन महाजनेन सामन्तमश्रिम इत्याह-यदा किल गुप्तिषु मनोगुप्त्यादिषु स्थितो जवति तदा हत्तमादीनांमहता समवायेन समं समागच्चन्ति,तत एतेषु तनु-| योऽगुप्तिप्रत्ययःप्रमादस्तंनिरुणकितन्निरोधाच तत्प्रत्ययकापि रपि स्वस्पोऽपि अनन्युत्थानमात्रलकणो दोषः स्फाति गच्छति, न बनाति,यस्तु समिती स्थितः सचेष्टस्य यःप्रमादो यश्च तत्प्रसर्वत्र विस्तरतीति भावः। अपिच-साधुभिरनभ्युत्थीयमाने आ- त्ययः कर्मबन्धस्तयोनिरोधं विदधाति । चार्यः परिभूतो भवति, परिभवपदमुपगच्चतीत्यर्थः । परिभूत- परः प्राह-यो गुप्तः स समितौ नवत्युत नेति?, यो वा समितः स्य च वाक्यं वचनं कथं नाम राजादीनां प्राह्यमुपादेयं भवेत्। स गुप्तो भवत्युत नेति', वैयमिव रत्नं कुत्सितवेषे कार्पटिकवेषधारिणि मनुष्ये वर्तमान | यथा तदीये हस्ते स्थितं सदनर्यमपि तन्न जनस्योपादेयम्,एवं | ___ अत्रोच्यतेगुरुणामपि धर्मकथावाक्यं गाम्नीर्यमाधुर्यगुणैरनर्यमपि परिभू समितो नियमा गुत्तो, गुत्ते समियत्तणम्मि भइअन्यो। ततया न राजादीनामुपादेयं भवति । तदनुपादेयतायां च तेषां कुसलवइमुदीरंतो, जं वश्समितो वि गुत्तो वि ॥ सम्यदर्शनादिप्रतिपत्तिरपि न प्रवति, अतो राजा सार्क समा- इह समितयः प्रतीचाररूपा ध्यन्ते, गुप्तयस्तु प्रतीचाराप्रयाते अनभ्युत्थीयमाने पाराञ्चिकम् । तीचारोभयरूपाः।प्रतीचारो नाम कायिको वाचिको व्यापारः, परः प्राह-युक्तं प्रश्रवणभूम्यादेरागतस्याभ्युत्थानम्, यनु च- ततो यः समितः सम्यग्गमननाषणादिचेष्टायां प्रवृत्तः, स नि. क्रमणं कुर्वतोऽभ्युत्थानं तन्नास्माकं युक्तिक्षम प्रतिभाति । यमाद् गुप्तो गुप्तियुक्तो मन्तव्यः । यत्र गुप्तः समितत्वे भक्तव्यो यतः विकल्पनीयः,तत्र समितः कथं नियमाद् गुप्तः,श्त्याह-कुशलां अवस्सकिरियाजोगे, बट्टते साहुपूजया । निरपद्यतादिगुणोपेतां वाचमुदीरयन् यस्माद्वाक्समितोऽपि गु प्तोऽपि। किमुक्तं भवति?-यः सम्यगनुविचिन्त्य निरवद्यां भाषां परिफग्गुं तु पासामो, चंकमंते वि उट्ठाणं ॥ नाषते स नापासमितोऽपि वाग्गुप्तोऽपि च भवति, गुप्तेरप्रविचारविहारादिको योऽवश्यंकर्तव्यः क्रियायोगस्तत्र वर्त- तीचाररूपतयाऽप्यानिधानात्। अतः समितो नियमाद् गुप्त शति। मानो यदा समागच्चति तदा साध्वी श्रेयसी तस्य पूज्यता । गुप्तः समितत्वे कथं प्रजनीयः ?,श्त्याहयदा तु चकमणं करोति तदा निरर्थको योगो वर्तते । अतश्च जो पुण कायवईओ, निरुज्क कुमलं मण उदीरइ । कमत्यपि गुरौ यदुत्थानं तत्परिफल्गु निर्मुसमेव पश्यामः। यतउक्तं भगवत्याम्-"जावंच णं से जीवे पारंजे वह संरंभे वट्ट चिइ एकग्गमणा, सो खबु गुत्तो न समितो उ ॥ ताचणं तस्स जीवस्स अंतकिरिया न जवा" यः पुनः कायवाची निरुध्य कुशलं शुनं मन उदीरयन् एकाअत्र सूरिप्रतिविधानमाह प्रमना धर्मध्याना|पयुक्तचित्तः तिष्ठति स खलु गुप्त उच्यते, न समितः, प्रतीचाररूपत्वात् । यस्तु कायवाची सम्यक् प्रयुझे कामं तु एप्रमाणो, अरंगाईमु पट्टई जीवो । स गुप्तोऽपि स.मतोऽपि मन्तव्यः। सो न अणही गट्ठो, अवि बाहणं पि उक्खोवे ॥ अथ समितिगुप्तीनां परस्परमवतारं दर्शयबाहकाममनुमतं यदेष जीव एजमान आरम्भादिषु कर्मबन्धकार- वायगसमिई बिइया, तइया पुण माणसी भवे समिई। णेषु वर्तते,सतु स पुनः परस्पन्दोऽनर्थी निष्कारणं नेष्टो नाभि- सेसा उ काइया उ, मणो उ सव्वासु अविरुको॥ मतः । अपि बाह्वोरुत्तेपे बाहुत्क्षेपमात्रेऽपि, किं पुनः चक्रमगादिरित्यपिशब्दार्थः । अर्थादापनं-यः सार्थकः चङ्क्रमणा वाचिकसमितिः, सा द्वितीया वाग्गुप्तिमन्तव्या। यदा कि ल भाषासमितो भवति तदा यथा भाषाया असमितिप्रदिापारः स इष्ट एवेति। त्ययकर्मबन्ध निरुणद्धि तथा वाग्गुप्तिप्रत्ययमपि कर्मबन्ध निअथ साथकोऽपि व्यापारः कथमिष्टः,श्त्यस्यां जिज्ञासायां यथा रुणद्धि, एवं माषासमितिवाग्गुप्त्यारेकत्वम् । तृतीय पुनरष १७५ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रब्भुहाण गाख्या समितिमानसी मानसिकोपयोगनिष्पन्ना । किमुक्तं भ पति यदा साधुरेपणामितो भवति तदा श्रोत्रादिभिरिन्द्रि हस्तमात्रकधावनादिसमुत्थेषु शब्दादिषूपयुज्यते । अत एवास्या मनोगुप्तेश्चैकत्वं, शेषास्तु समितय ईयश्रादाननिकेपोचारादिपारिष्ठापनिकायाः कायिकाया। अतएवासां तामपि कायया सहेकत्वम् । (मणो उस सुरुति) मानसिक उपयोगः सर्वासु पस्यापि स मितिष्वविरुषः, समितिबन्धकेऽप्यस्तीति भावः । अत एवममोगुप्तस्य सपोसा समितीनां मनोगुप्या सहकत्वं । आह भिक्षा द्वारे स्थितस्य तथाद्वारादीनि कल्पनीयानिम श्रोषादिनिरुपयुतस्य भाषासमितिमनोगुप्त्येबासमतीनां तिसृणामपि संभवो दृश्यते । श्रतः किमासामेकत्वमुतान्यत्वम्? स्यापा वयसमितो थिय जाय, बाहारादीणि कप्पणिनाथ। एसओगे पुरा, सोपाई मानसी जवइ ।। शाननकितादिदशदोषरहितं मया ब्राह्यमित्येषणासमितिभावसंयुक्तो यदा साधुराहाराष्ट्रीनि कल्पनौयानि मार्गयति नदा वासमित एवासौ जायते, न पुनर्मनोगुप्तः इत्येवकारार्थः । यदा तु श्रोत्रादिभिरेषणायामुपयोगं करोति तदा मानसी नाम गुतिर्भव, मनोगुतिरित्यर्थः । न पुनर्वाग्भाषासमितिः । इदमेव तात्पर्यम् - भाषासमितिः, मनोगुप्तिश्चेति द्वे समितिगुप्ती युगपन्न भवतः, किन्तु भिन्नकालं, यद्यपि च "मणो य सब्वासु अविरुद्ध वचनाद् भाषासमितावपि मानसिकोपयोगः समस्ति, तथापि गौणत्वादसा सन्नपि न विवक्ष्यत इति । अपि चजो वि डियरस हा स्वादीयं तु भंगियाईमु सो वि य इरियासमिती, न केवलं चैकमंतस्स ॥ 93 9 ( ६६८ ) निधानराजेन्द्रः । - न केवलं चकमतश्चङ्क्रमणं कुर्वत एव ईर्यासमितिः किन्तु स्थितस्य गमनागमनक्रियामकुर्वतो भङ्गिकादिषु जङ्गबहुलगमबहुलादिश्रुतेषु परावर्तमानेषु प्रङ्गकादिरचना ययाऽपि हस्तादीमां बेटा साउदि परिस्पन्दरूपत्वादीयसमितिः प्रतिपत्तव्या यच परे प्रागुकं चक्रमनिकमादित्यरिहाराय चङ्क्रमण गुणानुपदर्शयति वायाई सहाणं, वयंति कुविया न संनिरोद्देणं । लाघवमग्निमुतं परिसमज अचकमतो || अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्चिरमेकस्थानोपवेशनलकणः संविरोधः तेन कुपिताः स्वस्थानाचता ये वाला चारादस्ते चक्रमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति । लाघवं शरीरे लघुनाथ उपजायते । श्रग्निपटुत्वं जागरानलपाटवं च भवति । यस्तु व्याख्याना दिजनितः परिश्रमः तस्य जयः कृतो भवति । एते चक्रमतो गुनवन्ति तो न निरर्थकं कंमणम् । श्राह यद्येवं ततः किमवश्यं तत्राभ्युत्थानं कर्तव्यमुत न ?, इस्त्रोने चकम पुरा जश्यं मा पतिर्मयों गुरुवितिश्रम्मि । | पणिरायनंदणं पुण, काय सई जहाजोगे || दो विशेष सम्पाद रागतस्य गुरोः तेभ्यमेवास्थानम् मणे पुनर्भकं वि I अनुहाण कल्पितम् । कथम् ?, इत्यत श्राह मा सूत्रार्थपरावर्तनायाः परिम न्थोव्याघातो भवत्विति कृत्वा यदि गुरवो अनभ्युत्थानं पितरति तदा भ्युत्थायम् परमे गुरूनिर्विसति सहदे वारमज्युत्थानं विधाय प्रणिपातयन्दन शिरः प्रणाम कृत् भगवन्! अनुजानीध्यमिति भणित्वा यथायोगं यप्सतं सुत्रा गुणनादिकं व्यापारं कुर्यात् । प्रथवा गुरवो न वारयन्ति ततो नियमादरयासम्यम् । पुनरपि परः प्रेरयति यदि चश्मात्याने सूत्रार्थपरिम थदोषो भवति तत स्मरते अमुडुमिदं बुध, जं कम हो जाएं। एवमकारिज्जतो, जद्दगभोई व मा कुज्जा | अतिसुतीय प्रयुद्धचितमिदं यमव्यथा कर्तव्यं भवति एवं विषयस्थानमकार्यमाणा भद्रकनोजिकस्यैव प्रसङ्गतोमा यषि नयं कार्षुरितिकृत्वा चक्रमणेऽपि अभ्युत्थानं कार्यते । अथ कोयं भोजका इत्युच्यते "जहागो मोहोरा तुण गाममंगलं पसासणे दिश्नं । सो तत्थ गतो, ताहे ते गामिया गुहा भद्दओ सामी होतोइयं विभवेति श्रढे तब पुतापुत्तियं तिवा जाया, तो म्हे चितणिति का करं पुव्वपरिमाणाओ थोक्तरं करेहि, प्रोपण अन्वगय। अनया जं जं ते विश्नवैति तो ढं सो भद्दप्रोसेसि गामेषाणं अनु करे। असत्यदेवलपसरा ते जहाहिं विश्वं माता सोमध्ये रुहे ते गामिला दंगिया, केर उद्देविया"। एस दितो । अयमत्थोक्याभो" कम सेपि विशिय प रिजितो हो परियो पष्टिले दंडिज्जा, जे य सत्य भयंतावराहिणो ते गच्छाम्रो निच्छुनिज्जा, विजयमकारिता य ते छह लोए पारलोए य परिच्चत्ता जयंति । श्रयरिश्रो य सरणमुवगपाणं तेसिं न सरेक्खणकारी भव, अओ चंकमणे व ते अट्टा कारिति । अपि च वसजाए होति बहुगा, प्रसारणे सारणे अपच्छित्ता । सेविय पुरिसा विहा, पंजरजग्गा अजिमुद्दा य ॥ ये ते गुरुचक्रमणादिषु नाभ्युत्तिष्ठन्ति तान् यदि वृषभा नसारयन्ति कस्मादाचार्यान्नान्युतिष्ठत पनायां चतु पयः अथ वृषनैः प्रतिनोदिताः परं ते न प्रतिशृएकन्ति, ततः सारण सति नृपमा अप्रायश्चित्ताः इतरे प्रायश्विमापद्यते - नभ्युत्थाने प्रसारणायां चामी दोषा भवन्ति ये प्रतीच्छका उ संपत्प्रतिपत्यर्थमायाता ते द्विविधा पुरुषा भवन्ति पञ्जर नग्नाः, संयमाभिमुखाश्च तत्र गच्छे वसतां पाचार्योपान्या यप्रवर्त्तकं स्थविरगणावच्छेदिका ख्यपदस्थपञ्चकस्य पारतन्त्र्यं यावत् परस्परं प्रतिनोदनाः, एतत् पज्जरमुध्यते एतस्मात् प दरभझा संयमानमुखास्तु पार्श्वस्था माहारिगाधारित्राभिलपिठाप्रवे तपस्या आगतास्तेषामभ्युत्थानविषयाः। मुख्यस्तु पाभ्यंस्याद्यप्रतिमोदन रयतजग्गा कटी अनुहारा दे अणुहागे सोही । अनिरोसो बासो, होहिर ने इत्थ चिह्नामी ।। Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६६ ) अभिधान राजेन्ः | अनुहा अस्माकं पूर्वस्मिन् गच्छे बसलाभाचार्यस्य चङ्क्रमणादिषु वारंवारं त्वेन की प्रग्मा अथासौ माता शोधिं प्रायश्चित्तं प्रयच्छति, गाढं व खरपस्यैः खरण्टयति, श्र स्मिंस्तु गच्छे न प्रायश्चित्तं न च खरएटना, श्रतोऽनिरोधोनियन्त्रणा तेन सुखं सुखदायी वासोऽत्र 'ऐ' अस्माकं नविष्यति ति मोतियात ठेवुन भूषः गच्छेयुः । जे पुण उज्जयचरणा, पंजरभग्गो न रोयए ते उ । मत्थ विसरणं न लम्भई एति तस्येव । ये पुनरुद्यतचरणाः स्वल्पेऽप्यनन्युस्थानादाय पराधे सम्पकप्रतिनोदनाकारिणः तान् परो न रोचयति न विपर्य प्रापयति । चिन्तयति च श्रन्यत्रापि गच्छान्तरे स्वैरित्वं स्वातव्यं न लभ्यत इति विचिन्त्य तत्रैव स्वगच्छे एति समागच्छति । अत्र संयमानिमुखोऽसी समागतस्ततः किम् ? इत्याहचरणदासीणे पुण, जो विष्णमहाय भगतो समणो । सो तेसु पात्रममाणो, सङ्कं वढेइ ओजो वि ॥ यः पुनः अमणधरणोदासीनान् पार्श्वादीन् सुखशीलविड़ारिणो विग्रहार्थ संयमाभिमुखः समागतः स तेषु शेयेषु साधुषु प्रविशन् उभयेषामपि साधूनां धयति । तथाहि यत्र गच्छे भसौ प्रविशति तदीयाः साधवः चिन्तयन्ति-एप "सुन्दा अम" इति परिभाष्यास्माकं मध्ये प्रविशति श्रतः सुन्दरतरं कुर्महे । यस्मादपि गच्छादायातः तदीया अपि चिन्तयन्ति श्रस्मान् सुखशीलानिति विज्ञायैव गच्छान्तरं ति, अतो वयमुद्यता भवाम इति । - aerसौ संयमानिमुखस्तत्रापि सामाचारी दापनं प्रतिनोदनाथा अभावच पयति ततचिन्तयति इत्य वि मेराहाणी, एते विदु सारखारणामुका । अवय अभिमुदो, तप्यथयनिज्जराहाणी | अत्रापि न केवलं पूर्वस्मिनित्यपिशब्दार्थः मर्यादाया अयुत्थानादिसामाचार्या हानिरवसोक्यते एतेऽपि च साधकः सारणवारणया मुक्ताः परिस्फुटं प्राक्तनगच्छसाधव इव निरगंलाः समीयन्ते, अतः को नामामीयां समीपे स्थास्पतीति मत्वा सं संयमामिमुखः साधुरम्यान् गच्छान्तरीयान् साधूर जति प्रविशति प्रविशतु नामान्तर का नो हानि । रिति चेत् ? अत आह-तत्प्रत्यया- तस्य साधोः संयमानुपासनोहम्भकारण देतुका या निर्जरा तस्था हानिः प्राप्नोति सा न भचतत्यर्थः । आइ-कि कारणमसीतेषु तत्र विशति इत्याहनहि नत्यि सारणा वारणाय पडिवायलाय गच्छम्मि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजमकामीण मोसव्वो । विस्मृते कचित् कर्तव्ये भवतदें न कृतमित्येवंरूपा स्मारणा सारणा, अकर्तव्यनिषेधो वारणा, उपलक्षणत्वादन्यथा कर्तव्यमनाभोगादिना अन्यथा कुर्वतः सम्यक् प्रवर्तना प्रेरणा, चारितस्यापि पुनः पुनः प्रवर्तमानस्य रोकिमितिनोदनाः एताः सारणादयो यत्र गच्छे न सन्ति स गच्छ गच्छ. कार्याकर मादगो मन्तव्यः । श्रत एव संयमकामिना संगमा अनुय भिमुखेन साधुना मोक्तव्योऽसौ नाश्रयणीय इति भावः । गाथायां प्राकृत्यादिकारस्य दीर्घत्वम् । प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमभिधित्सुः प्रस्तावनामाहूयमपरोड विकप्पे, पुव्वावरवादयति ते बुद्धी । लोग नए मेसज मो रुजोत्रसमे || श्रयमग्रेतनगाथायां वक्ष्यमाणोऽपरः प्रायश्चित्तस्य विकल्पः प्रकारः । अत्र परः प्राह - पूर्वापरव्याहृतमिदम, पूर्वमन्यादृशं प्रायचितमुक्त्वा दिवानामभिधीयते पूर्वापररुद्धमिति बुद्धिः स्यात् । तत्रोच्यते ननु केपि रुजोप में विधातव्ये यथा त्रिफलाधिककादिमेदादमेकविधं नेप 'मो' इति पादपूरणे। प्रयुज्यमानं रमेव एवमत्राप्येकरवानभ्युत्थानस्य तथा क्षेत्रमहाजनादिभेदेनाविधं मनिधीमान विरुद्धते। 1 परानि परिह प्रायशिमावीयारसाहुसंजइ - निगमघमा संघरायसदिए तु । सगो लगा गुरुगा, उम्मासा छेदम्मदुर्ग ।। भावार्थ विचारभूमेरागतं नाभ्युत्तिष्ठन्ति मासलघु साधुभिः समझायातमनज्युतितां चतुधवः संयतीभिः समं चतुर्गुर वः, निगमैः पौरवणिग्विशेषैः समं बल घवः, घटया महत्तरादिगोठीपुरुषसमचापला संपेन समं जम् राज्ञा सममनवस्थाप्यम् । ( सहिए सि ) संघसहितेन राज्ञा सममायातमनभ्युष्ठितां पाराकिम गतमन्युत्थानम० ३४० (पत्रावसरे देवी काररयुत्थानं न कर्त्तव्यं तदे तत् सर्वे' असेस' शब्देऽमिव भागे २४ पृष्ठे दर्शितम्) पुननैतत्करिष्यामीत्यन्युपगमे स्था० २ ० ३ ० प्रयले स्था० २ वा० १ उ० । श्रासनत्यागरूपे, संभोगासे भोगस्थाने यथा पाश्र्व स्थादेरज्युत्थानं कुर्वेस्नाद्विसंभाग्यः । स० १२ सम० । प्रब० । आव० । प्रा० चू० । गुरुनागतान् दृष्ट्वा स्वकीयस्थानाद्वभवने उत्त० ३३ (अयुत्याने दकः 'सकार शब्दे दर्शयिष्यते ) (त्रिभिः स्वनिर्देयामभ्युत्तिष्ठे युरिति 'मनुस्सलोय 'शब्दे दर्शविष्यते । प्रस्तुतिए अयुत्यातुम् अव्य० अभ्युपगन्तुमित्यर्थे खा - । स्वा० , २ ठा० १० | - धनुयियुत्थित त्रि० कृतोद्यमे, "अम्नुयिं राम। सि, पन्यखामुत्तमं " उस०९ ० "सम्पसुमेद्देसु" प्रर्वषणाय कृतोद्यमेषु, झा० १ अ० । प्रारब्धे, ध० ३ अधि० । अभ्युदिते, उस० [अ०] । से० । प्रस्तुता-प्रभ्युत्यात् त्रिअयुपगन्तरि स्था०५ ठा० १ उ० । अनुयन-अज्युत्थातव्य- - त्रि० । अन्युपगन्तव्ये, स्था०८ ग० भन्नुण्य-अज्युनत त्रि० । उन्नतिमति ज्ञा० १० । "अनुष्ाय रहयतलिणतंब सुनिनखा ” अभ्युक्षता रतिदाः सुखदाः, अथवा रचिता इव रचिताः, तलिनाः प्रतलाः, ताम्रा मारकाः, शुत्रयः पवित्राः, स्निग्धाः कान्ताः, नखा येषां ते तथा । प्रश्न० ४ श्र० द्वा०|" अनुरणयपीएर इयसंवियपोहरा श्रयुतायुश्च पीनौ स्थूलौ रतिदौ सुखप्रदौ संस्थितौ विशिष् " Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७००) अन्नमय अनिधानराजेन्डः। अभग्गसेण संस्थानवन्ती पर्याधरी स्तनौ यस्याः सा तथा । (वरतरुणी)। म, इत्येषोऽभ्युपगमसिद्धान्तः। वृ०१ उ०। अपक्वताथाभ्युपजी० ३ प्रति० । झा० । अत्युत्कटे, प्रा० म०प्र० । जं० । रा०। गमात्तद्विशेषपरीक्षणमभ्युपगमसिकान्तः । तद्यथा-किशब्दः, अब्जत-स्ना-धा०, पर०, अदा। शौचे, " स्नातेरनुत्तः " इति विचारे कश्चिदाह-अस्तु द्रव्यं शब्दः, स तु किं नित्योऽ। । ४।१४। इति सूत्रेण धातोः 'अनुत्त' इत्यादेशः । थानित्य इत्येवं विचारः। सूत्र०१ ० १२ १०।। अनुत्तर-स्नाति । प्रा०४ पाद । प्र-दोप-धा, दिवा। अब्तुवगय-अत्युपगत-त्रि० । अनि प्राभिमुख्येनोपगतः । श्रात्मप्रकाशे, “प्रदीपस्तेअव-संमसंधुक्काजुत्ताः" ।। प्राचा०२ श्रु० ३१०१००। अभ्युपगमवनि, व्य०७ उ०। १५२ । इति सूत्रेण प्रदीप्यतेः 'अनुत्त' आदेशः । अन्तु-| संप्राप्ते, पा० । श्रुतसंपदोपसंपन्न, आ० म०प्र० । अङ्गीकृते, त्त-प्रदीप्यते । प्रा०४ पाद । पं० २० १ द्वार। अभदय-अज्युदय-पुंगराजलक्ष्म्यादिलाभे, का०२०। अब्भोवगमिया-प्राज्यपगमिकी-स्त्री० । अन्युपगमेनानीकज्युदयो यथेह राज्याभिषेकादिप्रीतये भवति तथा स्वर्गापवर्ग-1 रणेन निर्वृत्ता तत्र भवा वाऽऽभ्युपगमिकी । स्वयमभ्युपगतायां प्राप्तिहेतुत्वादस्य संस्तारकस्य, अत एषोऽप्यन्युदयः। संथा। (वेदनायाम स्था०२०४०। या हि स्वयमभ्युपगम्यत अन्तुदयफल-अज्युदयफल-त्रि० । अभ्युदयनिवर्तके, षो. यथा-साधुनिः प्रवज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यचूमिशयनकेशो. ए विवा। ल्नुश्चनातापनादिभिः शरीरपीमाम्युपगमनम् । न० १श०४ अब्भुदयहेनु-अत्युदयहेतु-पुं० । कल्याणनिमित्ते, पञ्चा०७ न। " दुविहा वेदणा पत्ता । तं जहा-अन्जोवगमिया य विवा। उवक्कमिया य" प्रज्ञा० ३४ पद । अन्तुदयावुचित्ति-अच्युदयाव्यच्छित्ति-स्त्री०। स्वर्गादेरव्य- | अभग्ग-अलग्न-त्रि०ान भग्नोऽजग्नः । सर्वथाऽविनाशिते, वच्छेदे सन्तती, पो० ६ विव० ।। " एवमादिपहिं प्रागारहिं अन्नग्गो अविराहिओ हुज मे कारअनुय-अद्भत-त्रि० । सकसजुवनातिशायिनि भुतशिल्प- स्सग्गो" । आव०५ अ०। ध० । ल । प्रा० चू० । त्यागतपःशौर्य कर्मादिके अपूर्वे वस्तुनि, उपचारात् तदर्श- | अभग्गसेण-अभग्नसेन-पुं० । विजयानिधानचौरसेनापतिनश्रवणादिज्यो जाते विस्मयरूपे रसविशेषे, पुंग भनु०। पुत्रे, विपा० । तत्कथानकं चेदम्अदूलुतरसं स्वरूपतो बकणतश्वाऽऽह तच्चस्स नक्खेवो एवं खबु-जंबू ! तेणं कालेणं तेणं विम्हयकरो अपुल्चो, अनुसूअपुन्यो य जो रसो होइ।।। हरिसविसाओप्पत्ती-सक्खणा उ अन्भुप्रो नाम ॥ ६ ॥ समएणं पुरिमतालणामं एयरे होत्या, रिकि० तस्स एं पुरिमतालस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं अअन्नुभो रसो जहा मोहदंसी उजाणे, तत्य णं अमोहदंसिस्स जक्खस्स अन्नुभतरमिह एत्तो, अन्नं किं अस्थि जीवलोगम्मि । जक्खायतणे होत्था, तत्थ णं पुरिमताले महब्बले जं जिणवयणे अत्था, तिकालजुत्ता मुणिज्जति । णामं राया होत्या, तत्थ णं पुरिमनालस्स गयरस्स कस्मिचिदनुभूते वस्तुनि रहे विस्मयं करोति, विस्मयोत्कर्ष उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए देसप्पंते अम्बी संसया । एत्थ रूपो यो रसो नवति सोलुतो नामेति संटङ्कः । कथंभूतः?, अपोऽनुजूतपूर्वो वा । अनुभूतपूर्वः किंबवणः?, श्त्याह णं सालामवी णामं चोरपसी होत्या, विसमागरिकंदर्पविषादात्पत्तिलकणः, शुभे वस्तुन्यदक्षुते रष्टे हर्षजननल- दरकोलंबसएिणविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता लिकणः,अशुले तु विषादजननलकण प्रत्यर्थ:। उदाहरणमाह-"म- एणसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा अम्जितरपाणिया सुब्जय"-गाहा । इह जीवत्रोकेऽदूलुततरं श्तो जिनवचनात कि दुबभजलपरंता प्रणेगखंडी विदितजणदिएणनिग्गममन्यदस्ति, नास्तीत्यर्थः । कुतः १, श्त्याह-यद्यमाज्जिनबचनेनार्था जीवादयः सूक्ष्मव्यवदिततिरोहितातीभियामादि- पवेसा सुबहुयस्स विकविजयस्स जणस्स दुप्पवेसाया स्वरूपा अतीतानागतवर्तमानरूपाः त्रिकालयुक्ता अपि ज्ञायन्त वि होत्था । तत्थ णं सालामवीए चोरपदी विजए इति । अनु० । “ अब्भुए गीप अख़ए वाइए अभुए न?" अ. णामं चोरसेणाव परिवसइ, अहम्मिए० जाव लोद्भुतमाश्चर्यकारि । रा०। हियपाणी बहुणयरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारे साहास्सिए अब्ज़वगम-अच्युपगम-पुं० । अङ्गीकरणे, स्था० २०४३। सहवेही असिसहिपढममो, से णं तस्थ सालामबी चोरभन्नुवगमसिहंत-अन्युपगमसिमान्त-पुं०। सिकान्तभेदे,१० पल्लीए पंचएहं चोरसयाणं आहिवच्चं० जाव विहरइ। तए णं सच से विजए चोरसेणावइ बहुणं चोराण य पारदारियाण जं अभुविच्च कीरद, सेच्छाए कहा स अन्नुवगमो उ।। य गंविच्छेयाण य संधिजेयाण य खंम्पट्टाण य प्राणेसीतो वन्ही गयजू-ह तणग्गं मग्गुखरसिंगा। सिंच वहणं बिएणभिएणबाहिराऽहियाणं कुरूंगेया वि यत्त अच्युपेत्य स्वेच्छया अभ्युपगम्य वादकथा क्रियते। यथा- होत्था । तएणं विजयचोरसेणावइपुरिमतालस्स एयरस्स शीतो बन्हिः गजथं तृणाने, मझोर्जलकाकस्य, स्वरस्य च शाङ्ग-| उत्तरपुरिच्छिमिल्लं जणवयं वहहिं गामघाएहि य एयर Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभग्गण अभिधानराजेन्द्रः। अभग्गसेण याएहि य गोग्गहणेहि य वंदिग्गहणेहि य पंथकोहेहि य इ, गेएहत्ता पत्थियपमिगाई मरेड, जरेइत्ता जेणेव खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे उबीलेमाणे विद्धंसेमाणे | निएणए अंमवाणियए तेणेव नवागच्छइ, नवागच्चडत्ता विकंसेमाणे तज्जेमाणे तजेमाणे तामेमाणे तालेमाणे णिएणयस्स अंमवाणियस्स नवणे, तए णं तस्म णित्थाणे णिचणे णिकणे करमाणे विहरइ , मह- णिएणयस्स अंमवाणियस्स बहवे पुरिसा दिएणभए बलस्म रएणो अनिक्खणं २ कप्पाई गिएहप, तत्थ एणं बहवे कायमए यन्जाव कुकुमअंमए य एणसिं च बहणं विजयस्स चोरसेगावपस्स खंधसिरीणामं नारिया होत्या।। जमथलखेचरमाईणं अंडए तवएस य कंमएमु य जज्जअहीण तत्थ णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंधसिरीए णएमु य इंगालेसु य तलिंति जति सोविंति, तविंता भारियाए अत्तए अजग्गसणं णामं दारए होत्या अही- जजंता सोविंता य रायमग्गं अंतरावणंसि अंडयपणियणं एणं । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीर वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ, अप्पणो वियणं से णिएणए पुरिमतालणाम एयरे जेणेव अमोहदंमी उज्जाणे तेणेव अंमवाणियए तेसिं बहुहिं कायअंगरहि य० जाव कुकुडिसमोसढे परिसा राया निग्गो,धम्मो कहिओ, परिसा राया अंमएहि य सोल्लेहिं तट्विं भजे सुरं च ४ आसाए । विगओ, तेणं कामेणं तेणं समएणं समणस्स नगवो विहरइ, तएणं से णिएणए अंडए एयकम्मे ४ सुबहुपावं महावीरस्स जेटे अन्तेवासी गोयमे० जाव रायमग्गं समो समाज्जित्ता एगंवाससहस्मं परमाउं पाल,पालइत्ता कालमासे वगाढे तत्थ णं बहवे इत्थी पासइ, तर एणं तं पुरिसं राया कालगतच्चाए पुढवीए नकोससत्तसागरोवमहितीएस णेरइपुरिसा पढमंसि चच्चरंमि णिसियाविति , हिसियावितित्ता| एसु णेरइयत्ताए नववले, से णं ताओ अणंतरं उन्नहिता अहचुवपिउए अग्गउघाएइ कसप्पहारेहिं तालेमाणे २ श्हेव सालामवीए चोरपबीए विजयस्स चोरसेणावश्स्स खंकखुणं काकणिमंसाई खावे,खावेइत्ता रुहिरपाणं च पाय दसिरीए भारियाए कुच्चिसि पुत्तत्ताए उववो, तए गं से त्ति । तयाणंतरं च णं दोच्चं पिचचरंसि अहमहुमाउयाओ खंदसिरीजारियाए अप्पया कयाई तिएहं मासाणं बहुपगिअग्गयो घाएयति, घाएयतित्ता एवं तच्चे० अट्ठमहापिउए, पुलाणं श्मेयारूवे दोहल्ले पाउन्नूए-धमाओणं ताओ अम्भचउत्थे० अहमहामानए, पंचमे पुत्ता, छठे सुएहा, सत्तमे याओ जाणं बहुहिं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणजामाउया, अहमे धूयाओ, णवमे णतया,दसमे णत्तुयो, महिलाएहिं अमेहि य चोरमहिनाहिं सकिं संपरितुमा एकारसे पत्तुयावइ, बारसमेणणीओ,तेयारसमे स्सिय एहाया. जाव पायच्चित्ता सवालंकारचूसिया विउलं पतिया, चउद्दसमे पिनस्सियाओ, पारसमे मासियाओ पर असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च एआसाएमाणे विहयाओ, सोमसमे मासियाओ०,सत्तरसमे मासियाओ,अट्ठा रइ । जिमियतुत्तरागयाओ पुरिसणेवत्थिया साद० जाव रसमे अवसेसं मित्तणाशणयगसयणसंबंधिपरिजणं अग्ग पहरणावरणाभरिएहि य फलरहिं णिकिट्ठाहिं असीहिं श्रो घायंति,घायंतित्ता कसप्पहारोहिं तालेमाणेश्कलुणं का. अंसागरहिं तोणेहिं सजीवेहिंधणुहिं समुक्खिचेहिं सरेहिं कणिमसाई खावेइरुहिरपाणं च पाए । तए णं से भगवं गो समुद्घावेलियाहि य दामाहिं लंबियाहिं उसारियाहिं यमे तं पुरिसं पास, पासपत्ता अयमेयारूवे अकवत्थिये ५ नरुघंटाहिं निप्पत्तरेणं विजमाणे विज्जमाणे महया २ समुप्पाले जाव तहेव णिग्गए एवं वयासी-एवं खलु अहं उकिट० जाव समुद्दरवनूयं पिव करेमाणीमो सालाहभंते !-से णं नंते ! पुरिसे पुन्वभवे के आसी० जाव विहरइ । वीए चोरपद्वीए सव्वमो समंताओ लोएमाणीओ अएवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे हिंममापीओ, दोहलं वि णिति-तं जइ अई अहं पि जारहेवासे पुरिमताले णामं णयरे होत्था,रिफि०३ तत्थ णं बहुहिं पाणियगसयणसंबंधिपरियणमहिसाई अमोहिं सापुरिमताले उदये णामंराया होत्या,महया तत्थ णं पुरिमताले लाडवीए चोरपदीए सव्वनो समंतानो लोएमाणीओ निन्नए णाम अंमयवाणियए होत्था,अ० जाव अपरिभए आहिंम्माणीग्रो २ दोहलं विणिजामि त्ति कटु तंसि अहम्मिए जाव दुप्पमियाणंदे तस्स णं णिएिणयस्स अं-| दोहसि अवणिज्जमाणंसिक जाव कियामि तए णं से विजए चोरसेणावइ खंदसिरीजारियं ऊहय० जाव पास व्यवाणियस्स बहवे पुरिसा दिमजत्तिजत्तवेयणा कझाकविं एवं वयासी-किएहं तुम्हं देवा उहय० जाव झियासि, कोहालियामो य पत्थियाए पमिए गएडइ, गेएहत्ता पुरि सए एं सा खंदसिरी भारिया विजयं एवं वयासी-एवं मतानस्स एयरस्म परिपेरंते सुबहुकाकअंमए य घृतिअंम खलु देवाणप्पिया! ममं तिएहं मासाएंजाब कियामि,तए ए य पारेवस्टेडिजिवगिमयूरिकुकुडिअंडए य एणोसं णं से विजये चोरसेणावइ खंदसिरीजारियाए अंतियं चेव बहणं जलयरथलयरखडयरमाईणं अंगाई गेएड- | एयमटुं सोचा णिसम्म खंदसिरीभारियं एवं वयासी Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०२) अभग्गसेण अनिधानराजेन्द्रः । अभग्गसेगा अहामुहं देवाणुप्पिए ! एयमटुं पमिसुण, पडिणेश्त्ता तया-1 रिवसिनए मालामवीचोरपद्वीप अजंगसणे चोरसेणाणंतरं मा खंदमिरी नारिया विजएणं चोरमेणावणा अब्ज व अम्हं बहुहिं गामघाएहि य० जाव णिदणे करेगुयाया समाणी हतुवहहिं मित्त जाव अमेहि य बहुहिं माणे विहरड, तं इच्छामि णं साम। ! तुब्नं बादुच्छाया परिचोरमहिलाहिं सद्धिं परिखुमा एहाया जाब विनूसिया विपुलं ग्गहिया विजया निरु विग्गा मुहं सुहणं परिवसित्तए ति असण पाणं खाइमं साइमं सुरं च ५आसाएमाणी विहर। कह पायवमीया पंजलिउमा महब्बारायं एयमटुं विएणवंतिा जिमियनुत्तरगया पुरिसणेवत्या सायकवद्ध० जाव भा- तए णं से महब्बले राया तोसें जणवयाणं पुरिसाणं अंहिंडमाणी दाढलं वि णिनि, तए एवं मा खंदसिरी नारिया | तिए एयमढे सोचा णिसम्म प्रारुमुने० जाव मिसिमिसेसंपुसदोहरा समाणीयदोहला विणियदोहला वोच्चि- माणे ति बलियं भिनर्मिणिलामे साहद्द दंडं सहावेड,सहाएणदोहना संपुएणदोहझा तं गम्भं मुहं मुद्देणं परिवहइ, वेइत्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुभं देवाणुप्पिया! साझातए णं सा खंदसिरी चोरसेणावणी णवएहं मासाणं ब- मविचारपछि विलुपाहिं अभंगसेणचोरसेणावई जीवग्गाह हुपमिपुरगाणं दारयं पयाया। तए णं से विजयचोरसेणा- गिएहश्त्ता ममं उवएणेहि , तए णं से दंमे तह ति व तस्स दारगस इट्टीसक्कारसमुदएणं दसरत्तहिस्पमियं | एयमढे पडिमुणेइ, पमिसुणेश्त्ता तए णं से दंमे बहुर्हि पुरिकरेइ, तए णं से विजयचोरसेणावा तस्स दारगस्स ए. सेहिं साद० जाव पहरणेहिं साई संपरिबुमे मगइएहिं कारसमे दिवसे विपुलं असणं पाणं खाश्मं साइमं उवक्ख- फसएसिं० जाव निप्पतरेहिं वजमायणं महया उकिटणार्य गावे,उवखणावित्ता मित्तणाआमंतएइ, आमंतइत्ता० करेमाणे पुरिमतालं णयरं मझ मज्झेणं निग्गच्छद, निजाव तस्सेव मित्तणाइपुरो एवं क्यासी-जम्हा एणं अम्हं ग्गच्छत्ता जेणेव सालाढवी चोरपल्ली तेणेव पहारस्थगइमंसि दारगंसि गम्भगसि ममाणंसि इमेया रूचे दोहले मणाए तए णं तस्स अभंगसेणावश्स्स चोरपुरिसे श्मी से पानब्लूए तम्हा णं होउं मम्हं दारए अभंगसेणणामेणं, कहाए बछडे समाणे जेणेच साझाडवी चोरपली जेणेव - तर णं से अनंगसेणकुमारे पंचधाइ जाव परिघायड, नए। भंगसेणावइ तेणेव उवागया करयल० जाव एवं क्यासीणं से अनंगसेणे णामं कुमारे उम्मुक्कचालनावे याचि हो एवं खबु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले णयरे महब्बलेणं रत्था,अट्ठदारियाो . जाव अहो दाओ उम्पि जड ।। या महया भमचमगरणं परिवारणं दंडे आणए-गच्छहणं तर णं से विजए चोरसेणाव अए गया कयाइ कानधम्मु तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडकीचोरपट्विं विलुंपाहि, अभंणा संजुले, तए एं से अनंगसेणकुमारे पंचहि चोरस एहिं गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहिं गिरहोह, गिएहेपत्ता मम सद्धिं संपरिचुमे रोयमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया उवोहि । तए णं से दंमे महया भमचमगरेणं जेणेव साइट्टीसकारसमुदएणं णीहरणं करेइ, करेइत्ता बहुहिं लोइयाई लामवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए तए णं से अनंमयकिचाई करेइ,करेइत्ता कालेणं अप्पए नाए यावि होत्या,। गसेणचोरसेणावइ तसिं चोरपुरिसाणं अंतिए एयमढं सोचा तर णं से अज्नंगसेणकुमारे चोरसेणावड़ जाए अहम्मिए, णिसम्म पंचचोरसयाई सद्दावेड,सद्दावेइत्ता एवं वयासी-एवं जाव कप्पाई गेण्हइ, गेएहश्त्ता तए णं ते जाणवया पुरिसा खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले एयरे महब्बोजाव तेणेव अजंगसेणचोरसेणावरुणा बहुग्गामघायगवणाहिं ताविया स- पहारेत्य गमणाए आगए,तए णं से अभंगसेणे ताइं पंच माणा अमममं सदावेइ, सहावइत्ता एवं वयासी-एवं खलु चोरसयाई एवं बयासी-तं से यं खलु देवाणुप्पिया!अम्हं देवाणुप्पिया ! अनंगसेणचोरसेणावइया पुरिमताले पयरे तंदमं मालामवि चोरपावं अंमं पत्तं ांतरा चेव पमिसे हिपुरिमतालणयरस्स उत्तरिचं जणवयं वहहिं गामघाहि. तए, तए णं ताई पंच चारसयाइं अनंगसणस्स तह ति. जावणिकणं करेमाणे विहरत सेयं खलु देवाणुप्पिया! जाव पमिसुणेश, पमिसुणेचा तए णं से अभंगसणे चोरमहब्बलस्स रामो एयमटुं विरणवित्तए तथणं जाणवया सेणावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उपक्खमावेश,नपुरिमा एयमटुं प्राणमएणं पमिसुणे, पमिसुणेश्चा महत्थं वक्खमावेत्ता पंचहिं चोरसएहिं सकिं एहाए०जाव पायनिमहग्यं महरिहं रायरिहं पाहुमं गिएह,गएदइत्ता जेणेव पु ते जोयणमंकवांस तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं रिमताले णयरे तेणेव उवागन्छेइ, उवागच्चइत्ता जेणेव म-[ च ५, आभाएमाणे ४ विहर। जिमियनुत्तुत्तरागए वि य इब्वले राया तेणेव नवागच्छेइ, उवागच्चइत्ता महब्बलस्स णं समाणे आयते चोक्खे परमसुइनए पंचहिं चोरसएहि रएणो तं महत्थं. जाव पाहु उवणे३ करपत्र अंज- सम् िअल्लं चम्मं दुरूहइ, दुरूहइत्ता समजाव पहरणे सिं कह महब्बलं रायं एवं बयासी-तुजं वाहच्छा- मगइ तेहिं जाव रवेणं पचावरएहकालसमयांस सालाया परिगहिया निम्नया णिविग्गा सुहं मुहणं प-1 मवी चोरपाधियाओ णिग्गन्ध, णिगच्छइत्ता विसमदु Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०३ ) अभिधानराजेन्द्रः । अभग्ग से गगह लिए गदियानत्तपाणिए तं दमं परियालेमाणे चिइड़, तए णं से दंगे जेणेव अभंगसेणे चोर सेणावइए तेणेव नवागच्छे, जवागच्छत्ता अजंग सेणं चोरसेावरणा सद्धिं संपलग्गेया विहोत्था । तए णं से अनंग सेणे चोरसेगाव तं दमं खियमेव हयमहिय० जाव परिसेहंति, तणं से दंगे अभंगसेणे चोरसेणावई हय० जाव पमिसहिए समा अत्यामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कापरकमे. आधारणिज्जेमित्ति कट्टु जेणेव पुरिमताने एरे जे महबले राया तेणेव उवागच्छेइ, उवागच्छत्ता करयल एवं वयासी एवं खलु सामी ! अभंग से चोरसेपावई विमग्गगणं लिए गहियनत्तपाणिए णो खलु से सक्का के एड़ सुबहुएण वि श्रामत्रले वा हत्यिवले - या वा जोवसेण वा रहवत्रेण वा चाउरंगिणं पि उरं उरे गित्तए, ताहे सामेण य भेदेण य उवप्पदाणेण य वीसंमाणे उपत्तेयाचि होत्या । जे दंमेण य वियसे अतिरंगा सीसग समामित्तणाइणिय सयरण संबंधिपरियां च विपुलें धरणकणगरयण संतसारमावए जेणं दिनग्गणस्स य चोरसेणावर अभिक्खणं अभिक्खणं महत्या महग्घाई महारिहाई पाहुडाई पेसेड़ता अनंग सेणं च चोरसेणावर वीसंमाणे, तए ां से महन्त्रले राया श्राया काइ पुरिमताले परे एगं महं महइ महालियं कुमागार सालं करेइ, गखंभसयपासा ४, तए एां महब्वले राया या पुरिमताले एयरे उस्तुकं० जाव दसरतं पमोयं उघोसावे. नग्घोसाता को मुंवियपुरिसे सहावेइ, सहावेड़ता एवं बयासी - गच्छह णं तुब्भं देवाणुप्पिया ! सान्नामत्रीए चोरपीए तत्थ णं तुन्ने अनंग सेणं चोरसेणावकरयल० जाव वयह एवं खलु देवाणुप्रिया ! पुरिमता० महन्वन्नस्सरणो उमुके० जाव दसरते पमोदनुग्घोसिए तं कि देवाणुपिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पुष्पवत्यगंधमला लंकारे य इहं इव्त्रमाणिज्जं उदाहु सयमेत्र गच्छता को कुंबियपुरिसे महन्त्रलस्म रमो करयल ० जान पभिसुणे‍, पमिइता पुरिमतालाओ एयर प्रो पिमाइकिडोहं श्रहिं मुद्देहिं पातरासेहिं जेणेव माझात्री चोरपञ्जी तेणेव उवागच्छड़, नवागच्छत्ता अनंगसेणं कयरल० जाव एवं वयासी एवं खलु देवापिया ! पुरिमताल० महब्बलस्स मो उस्सुके० जान दाहु सममेव गच्छत्ता, तए णं से अभंगसेणे ते कोडंवियपुरिले एवं वयासी - अह णं देवागुप्पिया ! पुरिमता० सयमेव गच्छामिए कोत्रियपुरिसे सकारे, सक्काइचा पमिविसज्जेइ । तर णं से अनंगसे० बहुहिं मित्त जात्र परिवुमे, एहाए० जाव पायच्छिते सव्वालंकारविनू अभग्ग सेण सिए मालावी चोरपीओ मिक्खिमइ, पडिणिक्खमहत्ता जेणेव पुरिमता जेणेव महत्वले राया तेणेव० करयपरिगहियं महब्बलं रायं जएणं विजएणं बद्धावेश, बड़ा महत्व पाहुमं जवणेड़, तरणं से मह० गणस्स चोरम्स तं महत्थं० जान पमिच्छर, अजग्गसेएचोरसे० सकारे संमाणे, संमाणेइत्ता त्रिसज्जे कूमागारसालवणे आवासएहिं दनय । तए एां से अनग्गसेणे चोरमेणावर महवलेणं रमा विमज्जिए समाणे जेणेव कृमागारसाला तेच वागच्छर, नवागच्छता तर से मह० कोर्मुत्रियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं क्यासी-ग तुग्ने देवाणुपिया ! विपुलं अमणं पाणं खाड़मं साइमं चक्खमावेश, उबक्खमावेत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च सुवहुपुप्फगंधमलालंकारं च अभं मेस्स चोरसे० कमागारसाचाए उवोह । तर णं ते कोडुं विपुरिसा करयल० जाव उवएड़, तर एां से अजगसे० वहुहिं मित्तसद्धि संपरिवुमे एहाए०जाव सन्चालंकारविजूसिए तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च प्रासाएमाले ४ पत्ते विहरड़ । तए णं से मह० कोमुंबिय पुरिसे सदावे, सदावेता एवं क्यामी-गच्छद णं तुन्भे देषाणुपिया ! पुरिमतालस्स णयरस्स दुबारा पिडिंति, पिर्द्दितिना जंगसेण चोरसेणावर जीवग्गाहं गेएहंनि, गेएहंतिता महब्वलस्स रपो ते उत्रणेद्द, तए णं मह० अभंग चोरो एते विहाणं वज्यं आवेइ, एवं खलु गोयमा ! अभंगसे चो० पुरा० जाव विहइ | अभंगसेणं अंते ! चोरसे व कालमा से कालं किच्चा कहिँ गच्छिर्हिति कहिं उवत्रजिहिंति । गोयमा ! अभंगसेल चोरसे ० सत्तावीसं वासाई परमाउं पालित्ता अजेव विभागावसेसे दिवसे सूली जिलकए समाणे कालमा से कालंकिच्चा इमीसे रयणप्पभाए उक्कोसेणं णेरएयु उववज्जिर्द्दिति, से एां ताओ अंतरं उचट्टित्ता एवं संसारो जहा पढमे०जात्र पुढवी०, तओ उवट्टित्ता वालारसीए एयरीए सूयरत्ताए पच्चायाहिंति, से णं मच्छसोयरिएहिं जीविया विवरोविए समा० तत्थेव वाणारसीए ायरीए सेट्ठकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चाहिंति से णं तत्य उम्मुक जावे एवं जहा पढमे० जाव अंतकाहिं ति णिक्खेवो । ( एवं खति) एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणार्थः प्रज्ञप्तः, खलु वाक्यालङ्कारे । (अंबू त्ति ) श्रामन्त्रणे ( देसप्पत्ते ति ) मण्डलप्रान्ते ( विसमगिरिकंदरे कोलंबसंनिविट्ठा) विषमं धरेिः कन्दर कुहरं तस्य यः कोलम्बः प्रान्तः तस्य सन्निविष्ठा सन्निवेशिता या सा तथा । कोलम्बो हि लोके अवनतं वृकशास्त्राप्रमुच्यते । इहोपचारतः कन्दरं प्राप्तः कोलम्बो व्याख्यातः । विपा० ३ ५० ३० | ( इत्यादिटीका सुगमेति न गृहीता ) वारतपुरराजनि, प्रा० ० ६ ० । For Private Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०४) अभज्जिय अनिधानराजेन्डः। अभयकुमार अनजिय-अभग्न-त्रि० । अमर्दिते अविराधिते, प्राचा१भु० अभयकुमार-अजयकुमार-पुं० । श्रेणिकस्य राकः मन्दादेव्यामु१०१ उ०। त्पन्ने पुत्र, का। अनदप्पवेमा-अभटप्रवेशा-स्त्री० । भविद्यमानो भटानां राजा तद्वक्तव्यताछादायिनां पुरुषाणां प्रवेशः कुटुम्बिगृहेषु यस्यां सा तथा । यत्र पढमस्स य एं भंते ! अजायणस्स के अहे पाते। राजाज्ञां दातुं भटाः प्रवेष्टुं न शक्नुवन्ति तादृश्यां पुर्याम, भ०१२श०४०। ।शा० । विपा। एवं खबु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं इहेव जम्बुद्दीअजचट्ठ-अभक्तार्थ-पुं० । भक्तेन भोजनेनार्थः प्रयोजनं भक्ता- वे दीवे जारहेवासे दाहिणकृत्लरहे रायगिहे हामं नयरे थः, न भक्तार्थोऽजक्तार्थः । अथवा न विद्यते भक्तार्थों यस्मिन् होत्था । वप्लो-गुणसिलए चेईए वमो-तत्थ णं प्रत्याख्यानविशेष सोऽभक्कार्थः । उपवासे, ध०२ अधिक। रायगिहे णयरे सेणिए णामं राया होत्था। महिमाहिमवअत्र पञ्चाकाराः, तथा च सूत्रम् तवएणो -तस्स णं सेणियस्स रन्नो नंदा नाम देवी सूरे उग्गए अभत्तटुं पञ्चक्रवाइ, चउब्बिई पि आहारं होत्था, सुकुमालपाणिपाया वएणो-तस्स णं सेणियस्स असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं पुत्तो नंदाए देवीए अत्तए अजए नाम कुमारे होत्था । पारिकावणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागा- अहीण जाव सुरूवे सामजेयदंमउवप्पयाणणीतिसुप्पनत्तरणं वोसिरइ । नयविहिन्नू ईहापूहमग्गणगवेसणं अत्थसत्यमई विसारए भस्यार्थः-(सूरे उम्गए) सूर्योममादारज्य, अनेन भोजनानन्तरं उप्पत्तियाए वणश्याए कमयाए परिणामियाए चउबिहाए प्रत्याख्यानस्य निषेध शंत ब्रूते । भक्तेन भोजनेनार्थः प्रोजन | बुछिए उववेए, सेणियस्स रणो बहुसु कज्जेसु य कुटुंबेभक्तार्थः, न भक्तार्थोऽभक्तार्थः। अथवा-न विद्यते भक्तार्थो यस्मिन् प्रत्यास्यानविशेषे सोऽभनार्थः, उपवास इत्यर्थः। आका सु य मंतेमु य गुज्झेस य रहस्सएमु य निच्चएमु य आराः पूर्ववत् । नवरं पारिष्ठापनिकाकारे विशेषः, यदि त्रिविधा-| पुच्चिणिज्जे पमिपुच्चणिज्जे मेढीपमाणे आहारे आलंबणे हारस्य प्रत्याख्याति तदा पारिष्ठापनिक कल्प्यते, यदि तु चतु- चक्मेदीनृए पमाण~ए आहारनृए आनंबणनए चक्खू. विधाहारस्य प्रत्याश्याति पानकं च नास्ति तदा न कल्प्यते, सन्चकज्जस सम्बतूमियासु लकपच्चए विश्एणवियारे २ पानके तूचरिते कल्प्यत एव । (चोसिर) भक्तार्थमशनादि रज्जधुरचिंतते यावि होत्या, सेणियस्स रएणो रज्जं च वस्तु व्युत्सृजति । प्रव०४द्वार । ध०। माव० । भा०० । ल० प्र०। पंचा। रटुं च कोसं च कोडागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंअनत्तट्ठिय-अभक्तार्थिक-पुं० उपवासिके, ओघका द्वितीयेऽ. तेउरं च सयमेव समुप्पक्खमाणे समुप्पक्खमाणे विहरति । हि भोक्तरि, पं० व० २.द्वार । एवमित्यादि सुगमं, नवरम्-पवमिति यक्ष्यमाणप्रकारोऽर्थः प्राप्त इति प्रक्रमः। खलु वाक्यालङ्कारे । जम्बूरित्यामन्त्रणे । इहैवेति। अभत्तपाण-प्रभक्तपान-न० प्रक्तपानालाने, व्य०७०। देशतः प्रत्यासन्नेन पुनरसंख्येयत्वात् जम्बूद्वीपानामन्यवेतिअजय-अभय-न । न त। विशिष्ट प्रात्मनः स्वास्थ्य निश्रे भावः । (इत्यादिटीका सुगमा नोपन्यस्यते ) ज्ञा०१ मान। यसधर्मभूमिकानिबन्धननूतायां धृती, ल० । रा० । “अभयं निका स्था। विशे० आ० म०प००('मेहकुमार' शम्दे. पत्थिवा तुम्भं, मन्नयदाया भवाहि य"। उत्स०१८५० प्रा-1 ऽपूर्वसाङ्केतिकदेवमेलनं वक्ष्यते) णिरक्षायाम, सूत्र०१७०६ अ०। अविद्यमानं जयमस्मिन् स अभयकुमारकथा चेयम्त्वानामित्यनयः । सप्तदशविधे संयमे, भाचा०१६०१ १०५ अस्ति स्वस्तिकवत् पृथ्व्याः, पृथ्याः संपद भास्पदम् । उका सप्तप्रकारकभयरहिते, त्रिसूत्र.१९०६अाणि सुचङ्गमङ्गलव्याप्त, पुरंराजगृहाभिधम ॥१॥ कपुत्रे अजयकुमारे, पुं० । मा०० १०मा० म० । ध०। प्ररुढप्रौढमिथ्यात्व--काननकपरश्वधः । अभयंकर-अजयडूर-पि० । अजय प्राणिनां प्राणरकारूपं स्व सुधोज्ज्वलगुणश्रेणिः, श्रेणिकस्तत्र पार्थिवः ॥ २॥ तः परतधसदुपदेशदानात् करोतीत्यनयङ्करस्वतो हिंसानि- आगमार्थपरिज्ञान-विस्फूर्जबुकिवन्धुरः। वृत्तत्वेन परतश्च हिंसामा कार्षीरित्युपदेशदानेन प्राणिनामनु- तस्यानयकुमारास्यो, नन्दनो विश्वनन्दनः ॥३॥ कम्पके, “अभयंकरे वीरपणंतचक्लू" खूत्र० १९०६म प्रागच्छदन्यदा तत्र, मुनिपञ्चशतीयुतः। . निर्भयकरे, तं०। प्रकटीकृतसबर्मा, सुधर्मा गणभृद्धरः॥४॥ अभयकरण-अभयकरण-न० । जीवानामभयकरणे, (२०५०)। वन्दितुं तत्पदद्वन्द्वं, सर्वा श्रेणिको नृपः। मुत्तूण अजयकरणं, परोवयारो विनस्थि अम्मो ति। शासनोत्सर्पणामिच्छ-भगवत्सपरिषदः॥५॥ नानायानसमारद-स्तथाऽन्योऽपि पुरीजनः । डंमिागतेणगपायं, न य गिहिवासे अविगळं तं ॥२॥ जक्तिसंभारसंजात-रोमाशोच्नुसितां गतः ॥६॥ मुक्त्वाऽजयकरणमिहलोकपरलोकयोः परोपकारोऽपि नास्त्य- एवं प्रनावनां प्रेक्ष्य, तत्रैकः काष्ठभारिकः । न्य इति । अत्र हष्टान्तमाह-कशिमकीस्तेनकशातमत्र कष्टव्य- गत्वा वक्त्या गुरुन्नत्वा-औषधिर्ममिमं बथा ॥७॥ मानच गृहवासे अविकलं तद्-अभयकरणमिति गाथार्थः ॥ जन्तुघातो मृषाऽस्तेय-मबझच परिग्रहः। पं०३०१द्वार। भो भो जव्याः! विमुच्यन्ता, पश्चैते पापहेतवः॥ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार इत्याकये नरेन्द्राया पर्याऽगमत अमकः स तु तत्रैव, स्वार्थार्थी तस्थिवान् स्थिरः ॥ ५ ॥ गुरुस्तमुचे विश-सोयीत्। जानामि यदि वः पादान्, वरिवस्यामि सर्वदा ॥ १० ॥ ततः प्रम्राज्य तं सद्यो, गुरवः कृतयोगिनाम् । यामासुराचार, शिक्षयामासुराशु ते ॥ ११ ॥ मायामन्दगतम् प्रागस्यादि पौराः प्रेच्य प्रारयः ॥ १२ ॥ अहो ! महर्केस्त्याऽयं, महासत्वो महामुनिः । इति वक्रोक्तितः बिहे- रुपहास्यत सोऽन्वहम् ॥ १३ ॥ तसं पाहि । सुपस्वामिना प्रोयानेन वचस्थिता ॥ १४ ॥ संयमेार्क समाधान-मस्ति ते सुष्ठु सोऽभ्यधात् । अति मत्प्रसादेन विहारोऽन्यत्र सेद् भवेत् ॥ १५ ॥ विधास्यते समाधिस्ते, वत्सेत्युक्त्वा गुरुस्ततः । अभयस्यागतस्याख्या-द्विहारो नो भविष्यति ॥ १६ ॥ श्रभयः स्माह नः कस्मादकस्मादीदृशः प्रनो ! । अप्रसादोऽथ र परीषद १७ ॥ श्रनयोप्यभ्यधादकें, दिवस स्थीयतां प्रभो ! | निवर्त्तेत न वेदेष, न स्थातव्यं ततः परम् ॥ १८ ॥ ओमित्युके मुनीन्द्रेण निस्तन्द्रः शासनोती। जगाम धाम सद्धर्म-धामधामा ऽभयस्ततः ॥ १५ ॥ रत्नानाम सपत्नानां, रत्नगर्भाधिपोऽङ्गणे । कोटित्रयीं समाकृष्य, राशित्रयमचीकरत् ॥ २० ॥ तुझे राजा ददात्युचे रत्नकोडित्रयों जनाः ! | गृह पहि. पदत्य घोषयत् ॥ २१ ॥ ततोऽमिल तं लोको, लोलुपः सोऽभयेन तु । बभाषे गृह्यतामेषा, रत्नकोटित्रयी मुधा ॥ २२ ॥ युष्माभिः स्वगृहं गत्वा - ऽनया किन्तु गृहीतथा । यावज्जीवं विमोक्तव्यं, जलमग्नि स्त्रियस्तथा ॥ २३ ॥ इत्याकर्य जनास्तूर्णमुत्कर्णास्तज्जिघृक्कवः । विज्यतो निश्चलास्तस्थुः सिंहनादं मृगा इव ॥ २४ ॥ अन्यः प्रभोः ! कस्मादम्ब लोकोत्तरमिदं लोकः, किं कश्चित्कर्तुमश्विरः १ ॥ २५ ॥ सोsवाद | मुनिना तेन तत्यजे त्रयमप्यदः । कुततेत मतदुष्करकारकम् ॥ २६ ॥ नमस्तस्यैः समदशम् । समृषिमचयिष्यामस्तदानी महामते ॥ २७ ॥ अभयेन समं गत्वा, श्रीमन्तस्ते प्रणम्य तम् । महा कामयामासुः, स्वापराधं मुहुर्मुहुः ॥ २८ ॥ इत्येवमनयो जैन - शासनार्थविशारदः । अतिष्ठिपज्जनं मुग्धं, चिरं धर्मे जिनोदिते ॥ २७ ॥ इत्यवेत्थ पापकश्मले (७०५) अभिधान राजेन्द्रः सज्जना अभयवृत्तमुज्ज्वलम् । किन्तु मङ्ग सततं प्रवचनार्थकम् ॥ ३० ॥ ० ० ॥ अभयघास- श्रभयघोष - पुं० । स्वनामख्याते वैद्ये, ध० र० । अजयघोषकथा सेयम् आसीत् पूर्वपदे शत्रुसंहजिये। १७७ 1 1 वत्सावत्याख्यविजये, प्रवरा पूः प्रभङ्करा । १ ॥ तस्यां विधिवैद्यस्य मृतुः सत्कर्मकः । आमदनपोपायो वैद्यविद्याविशारदः ॥ २ ॥ नरेन्द्रमन्त्रिसाधेश - नगरष्टिनां सुताः । प्रशस्याः सद्गुणश्रेण्यो वयस्यास्तस्य जहि ॥ ३ ॥ मिलितानामधाम पामन्धमन्दि आगादनगारवृत्तिः, साधुमाधुकरी चरन ॥ ४ ॥ पृथ्वीपाल भूपाल पुत्र नाना गुणाकर। निकृष्टकुष्ठं ते हा प्रोचिरे वैद्यनन्दनम् ॥ ५ ॥ सदाऽर्थमिवेश्यावद्, भवद्भिच्यते जनः । न कस्यचित्तपरूयादे-चिकित्सा क्रियते किल ॥ ६ ॥ जगाद 'वैद्यजन्माऽपि, चिकित्स्योऽयं मुनिर्मया । भो भद्राः ! निश्चितं किन्तु भेषजानि न सन्ति मे ॥ ७ ॥ मुख्यं शाधि धानिनः॥ वाच सोऽपि गोशापं चन्दनं रत्नकम्बलम् ॥ ८ ॥ कद्वयेन केयं तृतीयं तु मदोकसि । विद्यते लकपाकाख्यं तैलं तद् गृह्यतां द्रुतम् ॥ ६ ॥ लक्षद्वयं गृहीत्वाऽथ, गत्वा ते कुत्रिकापणे । याचन्तोषस्तु श्रेष्ठ किं प्रयोजन १० तेऽवोचकुनिः साचो विधारयते आकर्ण्य तद्वचः श्रेष्ठी, चेतस्येवमचिन्तयत् ॥ ११ ॥ प्रमादशार्दूल-काननं । विवेकबुद्धि व वेद वाचको चिता ॥ १२ ॥ मारामं दृशं योग्यं, जराजर्जरवणाम् । यत् कुर्वन्त्यपि तदहो !, धन्यैभारोऽयमुह्यते ॥ १३ ॥ एवं विचिन्त्य स श्रेष्ठ, ते समप्यौषधे मुधा । भावितात्मा प्रववाज, वव्राज च महोदयम् ॥ १४ ॥ कृत्वा समग्र सामग्री, तेऽभिमा शक्तिशालिनाम् । समं वैद्यवरेण्येन, प्रययुः साधुसन्निधौ ॥ १५ ॥ त्यसैले सर्वासः । वेष्टितः कम्बलेनाथ, निरीयुः कृमयस्ततः ॥ १६ ॥ शीतत्वात्तत्र ते लग्नाः, निर्यद्भिस्तैः प्रपीडितः । लिप्तश्च चन्दनेनाशु स्वास्थ्यमाप मुनिः क्षणात् ॥ १७ ॥ त्रिदेवमा निर्वयुः क्रमः। मांसगास्तु द्वितीयस्यां तृतीयस्यां च तेऽस्थिगाः ॥ १० तान् हस्ते दयावन्त चिकिलेवरे । अभयघोष 1 संरोहण्या च तं साधुं सद्यः सज्रं प्रचक्रिरे ॥ १५ ॥ कमयित्वा च नत्वा च गत्वाऽन्तर्नगरं ततः । चैत्यंश्च विच तेयंश्येन कम्बल ॥ २० ॥ गृहीत्वा गृहिधर्मे च पश्चात् कृत्वा च संयमम् । सेसिन्सामानिकाः सुराः ॥ २१ ॥ ततश्च्युत्वा विदेहेषु भूत्वा पञ्चापि सोदराः । ते प्रवज्य च सर्वार्थ- सिके भूवन् सुरोत्तमाः ॥ २२ ॥ ततोऽप्यभयघोष जोश्यात्र भारते । बब नत्र्यसंदोद-बोधनः प्रथमो जिनः ॥ २३ ॥ विवास्त भरतो बाहु- -बलिर्ब्राह्मी च सुन्दरी । जरि तदपत्यानि प्रायुश्च परमं पदम् ॥ २४ ॥ एवं निशम्यानपवृत्तं मुदा गुरूणां गुणराजिनाजाम | दाने सदाऽप्योपधभेषजादेः, कृतोद्यमा भव्यजना भवन्तु || २ || || ध० २० । Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदा अजयदा - अभयनन्दा-खा । बुद्धिनिधाने, अ० १ वर्ग । अभयदय अभयद(क)य-पुं०। अभयं विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यम. निधन परमा प्रतिि ददातीति श्रनयदः । जी० ३ प्रति० । ल । तदित्यंतूतमभयं गुणप्रयोगादमियात्सर्वधा परार्थकारित्वा दू नगवन्त एव ददतीति । = २ अधि । रा० । न जयं दददाति प्राणापहणरसिके खुपसर्गकारियाणिनीयनयद यः । अथवा सर्वप्राणिनयपरिहारबती दयाऽनुकम्पा यस्य सोऽभययः । अरिखाया से उपदेशदान निवर्तके । भ० १ ० १ ० । और । । भवानामजाबाद जयस्याभावो sमयं तद्दायकः । तीर्थकरे, कल्प० १ ३० अजयदा - अजयदान - न० । दानत्रेदे, ग० "या स्वनावापियो तेभ्यो दीयते सदा। भभय दुःखभीतेभ्यो ऽभवदानं तदुच्यते ॥ १ ॥ ग २ अधि० । नदि यस्तो धर्म-स्तयोऽस्तिनले । प्राणिनां भयजीताना-मजयं यत्प्रदीयते ॥ ५१ ॥ द्रव्यधेनुधरादीनां दातारः सुलना चुवि । दुसेनः पुरुषो लोके यः प्राणिन्यप्रदः ॥ ५२ ॥ महतामपि दानानां कालेन कीयते फलम। भीताजयप्रदानस्य, कय एव न विद्यते ॥ ५३ ॥ दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतम् । सर्वामनयदानस्य, कलां नाईन्ति षोडशीम् ॥ ५४ ॥ एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयनीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥ ४५ ॥ सर्वे वेदान तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्प्राणिनां दया । ५६ । ६०० | अभयदेव जयदेव पुं० । नवाङ्कवृत्तिकारके स्वनामख्याते श्राचार्ये, स्था० । (२) तच्चरित्रं त्वेवमाख्यान्ति धारा भी महीधरस्य श्रेष्ठो धनदेव्यां नाम भार्याया मनवकुमारो नाम पुत्ररत्नं जज्ञे । स व धारायामेव समवसृतपवमाननिशिष्यजिनेश्वर रियोऽग्निके प्राज ज्ञातिशयात्पोश वर्ष जन्मपर्यायः कुमारावस्थ एव वर्द्धमानसू राज्यात कि०१० वर्षे प निन्दादुकालादिभिरध्ययन खगादिषु विरहादागमानां योत्येकदा निशि नाऽवस्थिनं तमजयदेवमूरिं शामनदेवताऽयोचत् भगवन् ! पूर्वाचार्यैरेकादशस्त्र प्यङ्गेषु टीकाः कृताः, तास्तु द्वे एवावशिष्टे. शेषाननाः पुनरुज्यतेऽनुति प्राचार्येगोम-शामनाऽश्वरि मातः ! ( ७०६ ) अभिधानराजेन्द्रः । - गहन कार्य कर्तुं कथं नु यतस्तद सूत्रं स्यान्महतेऽनर्थाय संसारपानाय भवेदिति । ततो देवयो कम भगवन्! स्वामहं समर्थमेव मन्वाऽयोत्रम् | यत्र च स्वंयसे तंत्र मेवाव्या व महावि देहं गत्वा तत्र सीमन्धरस्वामिनं पृष्ट्वा त्वां वयामीति न कि fe जविष्यति इति प्रवचनदेव्योत्साहितस्तत्कार्य प्रा रभत । समाप्तेः पूर्वमेव आचामाम्लतपसा निशि जागरणैश्च धातुप्रकोपाद विकृतधरः समजायत । तदा विष्टलोकैः सहप्राय वयमभयदेव व्याख्याति स्मेति कुपिना अनयदेव शासनदेवी अस्य शरीरे कुष्ठरोगमुदपादयत्मवादमा कर्य दुःखितमाचार्य रात्रावागत्य धरणेन्द्रस्तं रुधिरोग व्यनाशयत् । अकथपच्च-स्तम्भनग्रामपार्श्वे से ढिकानद्यास्त भूमिमध्ये श्रीपार्श्वनाथप्रतिमाऽस्ति यस्था प्रभावाद नागार्जुनेन रससिकिराताः तां प्रकटय्य तत्र महातीर्थ प्रवर्तय, ततस्वं विधूतापकसिंविष्यसि ततस्तत्राऽजयदेवसूर . जय तिहुश्रण' इत्यादि द्वात्रिंशद्गाथात्मकं स्तोत्रमुद्गीर्य सत्सम सा प्रतिमा प्रकटायिता, तस्मात्तस्याचार्यस्य महद्यशः सर्वत्र प्रोदच्छवत् । पश्चाकरणेन्द्रवचसा तस्य स्तोत्रस्य द्वे गाये वियोग्य विरामाधात्मकमेव प्राचीरमेवापि उपलभ्यते । सा च प्रतिमा' सम्भात ' नगरेऽद्यापि पूज्यमाना वरविति । सा च नेमिनाथशासनसमये २२२२ वर्षे कृतेति तत्प्रतिमाया भाखनपृष्ठे टङ्कितमस्ति पानावृती पा शकादिटीकाश्च निर्माय कर्पटवणिजनगरे वि०सं० ११३५ मिते देवलोकं गतः । जै० इ० । इत्येषोऽभयदेवसुरिः । अनेन नात्मकृतप्रबन्धेयेवं स्वपरिचयोऽदर्शिश्रीमदजयदेवसूरिनाम्ना मया महावीर जिनराज सन्तानपि नामदाराजवंशजन्मनेव संविग्नमुनिप्रवरश्रीमच चार्यान्तेवासियशोदेवमसिनामधेयसापोरसाधकस्यैव दि याकियाप्रधानस्य सादायेन समर्थित महान घानस्येव समापितापितानुयोगस्य मम मङ्गलार्थ पूज्यपूजानमो भवते वर्तमानयनाथाय श्रीमन्महावीराय नमः प्रतिपन्थिसार्थप्रमथनाय श्रीपार्श्वनाथाय नमः प्रवचनप्रबोधिकायै श्रीप्रवचनदेवतायै । नमः प्रस्तुतानुयोगशोधिकाबै श्रीोणाचार्य प्रमुख पण्डितपर्षदे, नमश्चतुर्वर्णाय श्रीश्रमणसङ्घभट्टारकायेति । एवं च निजवं शबत्सल राजसन्तानिकस्येव ममासमानमनमायासमा राजवंश्वा च वईमाननिः स्वजातितु सुचतपुरुषार्थसिद्धिमुपयुतां च योग्य इति । किश संत्सम्प्रदाय हीनत्वात्सद्दस्य वियोगतः । सर्वस्य परशास्त्राणामरस्य मे । १० वाचनानामनेकल्यात पुस्तकानामशुद्धितः । सुत्राणामतिगाम्भीयाम्मतिभेदाच्च कुत्रचित् ॥ २ ॥ कुम्पानि संजवन्तीह केवलं सुविवेकिनः । सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद्भाह्यो न चेतरः ॥ ३ ॥ शोध्यं न ममद्भिदं पापरैः । संसारकारण घोरा-पसिद्धान्तदेशनान४ ॥ कार्या न वा क्षमाऽस्मासु, यतोऽस्माभिरनादेः ॥ एनमनिका मात्र मुपकारीति चर्चितम् ॥ ५ ॥ तया संभाव्य सिद्धान्तादू, बोध्यं मध्यस्थया धिया । द्रोणाचार्यादिभिः प्राहै-रनेकैराहतं यतः ॥ ६ ॥ जैन ग्रन्थविशाल दुर्गमवनाधित्य गाढधमं साख्यानफन्नान्यमूनि मपका स्थानाङ्गसद्भाजने । संस्थाप्योपदितानि पुरार्थना श्रीमत्सविरतः परमसावेत्र प्रमाणकृतं ॥ ७ ॥ श्री विक्रमादित्यमरेन्द्रकाना नेन विंशत्यधिकेन युके । समास ( तिने वि०सं०११२०) निवा स्थानाङ्गदीका पधियोऽपि गम्या ॥ ८ ॥ स्था० १० वा० । - Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०७) अभयदेव अन्निधानराजेन्छः। अभयदेव तस्याचार्यजिनेश्वरस्य मदवद्वादिप्रतिस्पर्दिनः, प्रश्वमोद नूतमुक्ताफनविशदयशोराशिनियस्य तूर्णम। तबन्धोरपि बुषिसागर ति म्यातस्य सूरे वि । गन्नु दिग्दन्तिदन्तचननिहितपदं व्योम पर्यन्तभागान, उन्दोबन्धनिशस्वन्धुरबचःशब्दादिमलामणः, स्वल्पग्रह्मापहभाएमोदरनिविडनरोपिदिस्तैः सप्रतस्थे ॥२॥ भीसंविविहारिणः श्रुतनिधेचारित्रन्यूमामdः ॥॥ प्रद्युम्नसुरेः शिष्येण, तत्त्वयोधविधायिनी । शिप्येजाभयदेवास्य-प्रिणा वितिः कृता। तस्वैपाऽभयदेवेन, सम्मतेवितिःहता ॥३॥ सम्म ३ कापर। काताधर्मकथास्य, श्रुतभक्तघा समासतः ॥९॥ (युग्मम) ___ इत्यवं द्वितीयोऽभवदेवरिः ॥ निवृतिककुलनभस्तन-चन्द्रद्रोणास्यत्रिमुल्येन । परिमतगणेन गुणध-प्रियेण संशोधिता चेयम् ॥१०॥ (३) दपपुरीनगच्चोभये मलधारीत्वपरनामके मग, सत्र एकादशसुशतेप्नथ,विंशत्यधिकेषु धिक्रमसमानाम् (सं०११२०) कोटिकगणस्य मध्यमशाखायां प्रभवाहनकुलसंभूतः स्थूल ना. अणहिसपाटकनगरे,विजयदशम्वांच सिनेयम।११। ज्ञा०२४० स्वामिनो वश्यः । एकदा हर्षपुरा विदरन् अणहिल्लपट्टननगरे यस्मितीते भुतसंयमभ्रिया बहिःप्रदेशे सपरिवारः स्थितः, अन्यदा श्रीजयसिंहदेवनरेवमाप्नुवत्यय परं तथाविधम् । न्द्रेण गजफन्धारूढेन राजवाटिकाऽऽगतेम स्टो मतमहिनवस्त्रस्वस्याश्रय संवसतोऽतिदुखिते, देहः, राता च गजस्कन्धादवतीर्य दुष्करकारक इति दत्तं तस्य श्रीवर्षमानः स यतीश्वरोऽभवत् ॥१॥ "मलधारी" इति नामेति । जै० ३०। शिप्योऽभवतस्य जिनेश्वरास्वः,सरिसतानिन्धविचित्रशाखः। तया च विविधतीर्थकल्पे जिनप्रभसुरिः-- सदा निरासम्बविहारवर्ती, चन्द्रोपमश्चन्द्रकुलाम्यरस्य ॥२॥ "सिरिपरहवादणकुखसंन्नो दरिसपुरीयगध्ठानकारनतिअन्योऽपि विशो नुचि बुधिसागरः,पापिरत्यचारित्रगुणेरनूपमैः। शम्दादिलक्ष्मप्रतिपादकानघ-प्रन्यप्रणेता प्रवरः क्षमावताम्॥३॥ मो अभयदेवसूरी हरिसोरामो एगया गामाणुगामं विहरं तो सिरियाशिवाडवपट्टणमागमो, ग्मिो वादि पपसे सप... तयोरिमां शिष्यवरस्य वाक्याद्, रिवारो,अन्नबा सिरिजयसिंहदेवनारदेण गवखंधारुडेण रायया वृत्ति प्यधात् श्रीजिनचन्छसूरेः। शिष्यस्तयोरेध विमुग्धबुदि डियागरण दिछो मतमलिणबत्यदेहो, रापण गपखधामो मोमप्रेन्थार्थबोधेऽभयदेवत्रिः रिछप दुघरकारमोत्ति दिम 'भलधारि' ति नामं, अप्ररिपकरण ॥४॥ बोधो न शास्त्रार्थगतोऽस्ति तारशो, नयरमज्केनीमोरणा,दियो उवस्सयो बयवसहीसमावे.तत्थ न तारशी वाक्पटुताऽस्ति मे तथा । निमा सूरिणो"ती०४० कल्प । अस्य गुरुर्जपसिंहसरि माऽसीत, न चास्ति टीकेह न वृधनिर्मिता, हेमचन्द्ररिनामा चशियोऽभवत्वेन वि.सं. १९७० वर्षे 'ज. हेतुः परं मेऽत्र कृतौ विभोवचः॥५॥ वभावना' नाम प्रन्यो व्यरचि, येनैकसहस्व ब्राह्मणा जैनीस्ताः , यदिह किमपि दग्धं बुद्धिमान्याद् विरुवं, भऽपदेशादजयमेरुनगराददूरबर्सिनि 'मेमता' प्रामे प्रसिक मयि विहितकृपास्तषीधनाः शोधयन्तु । तजिनमन्दिरं कारितम । किश-मस्यैव मभयदेवसूरुपदेशाव विपुल मतिमतोऽपि प्रायशः सावृतेः स्या शुवनपालराजेन जिनमन्दिरे पूजा कृद्भिर्देयः करो मोचितः - नहि न मतिविमोहः किं पुनर्मारशस्य ? ॥६॥ जयमेरुराजेन जयसिंदेनापि तदुपदेशान्मासस्य पोरटम्यो - चतुरधिविंशतियुते,वर्षसहस्रशते (सं०११२४)च सिख्यम्। योश्चतुर्दश्योः बुक्क्रपञ्चम्यां च स्वराज्ये प्राणिमात्रवधो निवाधवलकपुरे प्रसस्यै, धनपत्योर्बकुअचन्दिकयोः ॥७॥ रितः। शाकम्भरी राजेन पृथ्वीराजेन च तमुपदेशाद् रणस्तम्भअणहिलपाटकनगरे, संघवरैर्वर्तमानबुधमुस्यैः ।। परे स्वर्णफलशोपशोभितं जिनमन्दिरं कारितम् । यदा च सोश्रीद्रोणाचार-विद्वद्भिः शोधिता चेति ॥॥पश्चा०१६विषण उभयदेवसरिरनशनेन देवलोक गतस्तदा तस्य शवं सन्दनमय“अविस्सई सयवत्यो, जिणनाहो पणसयाह वरिसाणं । रथे निधायाग्निसंस्कारः कृतः, तस्य च शवरथस्य पश्चात सर्व तपणुं धर्णिदनिमित्र-सन्निको विश्प्रसुप्रसारो॥ ५५॥ एव नागरो लोको जयसिंहराजश्व पृष्ठतोऽनुजगाम । दग्धे न सिरिअजयदेवसूरी, दूरीकयदुरिभरोगसंघानो। सदूजस्म रोगोपरूवनाशकमिति मत्वा सर्वलोका नविक्युः । पयडं तित्थं काही, अहीणमादप्पदिपंत" ॥५६॥ ती०६ कल्प । श्येतत्सर्य रणस्तम्भपुरीजिनमन्दिरे शिलायां सिखितमुपल(२) राजगच्चगये प्रद्युम्नत्रिशिध्ये, वेन धाद महार्णवो नाम भ्यते । श्त्यवं तृतीयोऽभयदेवसूरिः । जै०१०। ग्रन्धो विरचिता, 'न्यायवनसिंह' इति च विरुदं लेने। वि०सं० (४) नरेश्वरप्रिशिध्ये सं० १२४८ वर्षे विवेकमञ्जा : १२७६ वर्षे पावनाथचरित्रनानोमन्यस्य की माणिक्यचन्द्र कारकस्य आसमस्य गुरौ, अनेन च भबाहुरुतसामुहिकशारिणा तत्र लिखितम् यद्वादमहार्णवकुतोऽजयदेवसूररहं नवमो. खोपरि टीका कृता । केचिदेनं श्रीशान्त्याचार्यशिष्यं मन्यन्ते । उस्मीति । अभयदेवसूरेरेव शिष्यः धनेश्वरसुरिमुअराजस्य मान्यो इत्ययं चतुर्थोऽजयदेवसूरिः । नै० ३०। गुरुरासीदिति तत्समयोऽनुमातुं शक्यते । अनेनैय अभयदेवसूरि (५) रुपालीयगच्चोद्भवे विजयेन्ऽसूरिशिष्ये देवनसूरिजा तत्वबोधविधायिनी नाम सम्मतिटीका विरचितेति। जैन। एत स्फुटमेव प्रतिनाति ग्रन्थसमाप्ती गुरौ, अनेन काशिराजाद् 'वादिसिंह ' इति विरुदं लेने। 'ज. "इति कतिपधसूत्रव्याख्यया यन्मयाऽऽप्त, यन्तविजयं ' नाम महाकाव्यं च वि०सं०१२७८ वर्षे निर्ममे । कुशलमतुलमस्मात्सम्मते व्यसाथैः । इत्ययं पञ्चमोऽजयदेवसूरिः । जै० ३० । जवभयमभिभूय प्राप्यतां झानगन्ने, (६) गुणाकरमूरिसहवासिनि, येन वि०सं० १४१६ वर्षे विमसमनयदेवस्थानमनिन्दसारम॥१॥ सरस्वतीपाटन नगरे जक्तामरस्तोत्रटीका कृता, १४५१ वर्षे तिज.. पुष्यद्वाम्दानवादिद्विरदघनघटाकु-तधीकुम्भपीच यपहुत्त' नाम स्तोत्रं च निर्मितम् । जै. इ० । Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७०८ ) अभिधानराजेन्द्रः । अभयष्पदाण अभयप्पदाण- अभयप्रदान- न० । दानभेदे, " दाणाण सेकं श्र भयप्पदाणं " तथा स्वपरानुग्रहार्थमर्थिने दीयत इति दानमनेकपा ते मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां प्राणकारिवादयदानं श्रेष्टम् । तदुक्तम" दीयते म्रियमाणस्य, कोटि जीवित मेव वा धनकोटिन गुरदीयान् सर्वो जीवितुमिच्छति॥१॥ गोपालनादीनान्तरेा बुकी सुनातीति । अतोऽभवदानप्राचान्यस्थापनार्थ कथानकमिदम "वसन्तपुरे नगरे अरिदमनो नाम राजा । स च कदाचिचतुर्व धृतमेतो वातायनस्थः श्रीमायमानस्तिष्ठति । तेन कदाचिचोरो रररकृतएकमाल पानोरन्दनोपलिस प्रहतवयमिरिकमो राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः । दृष्ट्वा च ताभिः पृष्टम् किमनेनाकारीति ? । तासामेकेन राजदिन पथा-परद्रव्यापारेण राजविस्कमिति । तत एकथा राजा विज्ञप्तः- :-यथा यो भवता मम प्राग् वरः प्रति• पन्नः सोऽधुना दीयताम्, यथाऽड मस्योपकरोमि किञ्चित् । रा शापि प्रतिपन्नं ततस्तया स्नानादिपुरःसरमल तो दीनारदन्ययेन पञ्चविधान शब्दादीन विषयाकमदः प्रा पितः । पुनर्द्वितीययाऽपि तथैव द्वितीयमहो दीनारशतसहस्रव्ययेन लालितः । ततस्तृतीयया तृतीयम दो दीनारकोटिव्ययेन सत्कारितः । चतुर्थ्या तु राजानुमत्या मरणास्रक्षितोऽभयप्रदानेन । ततोऽसावन्याभिईसिता, नास्य त्वया किञ्चिद्दत्तमिति । तदेवं तासां परस्परं बहुपकारविषये विवादे जाते राज्ञासावेव चौरः समाहूय पृष्टः, यथा केन तव बहूपकृतमिति । तेना ऽप्यभाणि यथा न मया मरणमदाभयभीतेन किञ्चित् स्नानादिकं सुखं शांति अभयप्रदानानेन पुनर्जन्मानमियातिनः सर्वदानानामभयप्रदानं श्रेष्ठमिति स्थित म् सूत्र० १ श्रु ६ श्र० । अभयमेण अभयसेन पुं० वारकपुरराजनि पिं० श्राच अभयाभया श्री० [दधिवाहननृपस्य स्वनामस्याताय राश्याम, ती० ३५ कल्प । तं० । हरीतक्याम, नि० चू० १५ ब० । ६० । आत्रा० । अनयारिष्ट अनयरि०यद्यविशेष १ श्रु० ० ० । अनवसिद्धिय- अजव सिद्धिक- पुं० । न भवसिकिकोऽभवमिद्धिकः । अनध्ये, स्था० १ are १० नं०। " णेरड्या 5. बिहा पप्तानं हा भवसिद्धिया चेव, श्रभवसि किया चेच० जाय बेमाणिया " स्था० २ ठा० २ उ० । अजविय (व्व) - अनव्य-पुं० । न० त०। तथाविधानादिपारामिकभाषाका सिद्धिगमनायोम् जीये, कर्म० ३ कर्म० । कुतो नामत्र्यः सिद्धिं गच्छति । आद-ननु जीवन्य साम्येऽप्ययं भव्यः, अयं चानव्य इति किं कृतोऽयं विशेपः ? | नच वक्तव्यं यथा जीवत्वे समानेऽपि नारक तिर्यगादयो विशेषास्तथा नायामयत्वविशेषोऽपि भविष्यतीति पता कर्मजनिता एव नरकादिविशेषाः, न तु स्वानायिका जन्याभव्यन्यविशेषोऽपि यदि कम्मजनितस्तदा जयतु को निवारतनचैव देवाऽउददोन व जड़ कम्मकओ, न विरोहो नारगाइनेद व्व । भवाना सजावओ तेरा संदेहो ॥ या यदिको नाम्यवशेष जीवनामिष्यते अभविय नात्र कश्चिद्विरोधः, नारकादिनेदवत् । नचैतदस्ति यतो भव्याभव्याः स्वजावत एव जीवाः, न तु कर्म्मत इति यूयं प्रणथ; तेनास्माकं संदेड इति परे सतीत्याद दाने जीवनार्थ सहावओ भेो । जीवाजीवाइगश्रो, जह तह जव्बेयररावसेसो || " यथा जीवनजसोज्यत्व सम्प्रमेयाययत्यादी वाजवायचेतनाचेतनत्वादिस्वभावतो मे तथा जीवानामपि जीवत्वसाम्येऽपि यदि भव्यानव्यकृतो विशेषः स्यात्तर्हि को दोषः १ इति । इत्थे संबोधितो भव्यत्वादिविशेषमत्युपगम्य दूषणान्तरमाहएवं पि जन्मनाव जीव पि न सभावनाईयो । पाव निचो तम् प तदवत्ये नत्य निव्वाणं ।। नन्येवमपि यभावो निरोऽविनाशी प्राप्नोति स्वभावजातीयत्वात्स्वाभाविकत्वात्चचत्। भवत्येवमिति चेत्तदयुकम यतस्तस्मिन्नध्यभावे सदस्य नित्यावस्थापन नास्ति नि र्वाणम, 'सिको न भव्यो नाप्यभव्यः' इति वचनादिति । नैवम, कुतः ?, इत्याहजहाजावो नाइसहाको विनिहाणेचं । जइ भन्वत्ताभावो; जवेज्ज किरियाऍ को दोसो १ ॥ यथा घटस्य प्रागावोऽखभावजातीयोऽपि यः स निरोप यस्यापि ज्ञानतपसचिववरणक्रियोपायतोऽभावः स्यात्तर्हि को दोषः संपद्यते ?, न कश्विदिति । पपरिहारी प्रा55 प्रणुदाहरणमभावो, खरसिंगं पिव मई न तं जम्हा । भावो वियस विसिद्धो, कुंजापतिमेचेणं ॥ स्यान्मतिः परस्य तत्तु-अनुदाहरणमसौ प्रागभावः, जामरूपतवास्तुत्वात् स्वरविणवत्यस्माद्भाव एवासी पटनागनायस्तत्कारणभूतानादिकालप्रवृत पुरुय संघातरूपः केवलं घटानुत्पत्तिमात्रेण विशिष्ट इति, भवतु तर्हि घटप्रागभाववद्भव्य- स्वस्य विनाशः केवलम इथं सति दोषान्तरं प्रसजति कम इत्याद एवं भव्वुच्छेचो, कोट्ठागारस्स अवचनव्यति । तं नाणंणनागयकाबराव ॥ नये सति योच्छेदो भन्सारः शून्यः प्राप्नोति, अपचयात् । कस्य यथा समुच्छेदः १, इत्याह- स्तोकस्तो काऽऽकृष्यमाणधान्यस्य नृतकोष्ठागारस्य । इदमुक्तं भवति-कालस्यानन्त्यात्वएमासपर्यन्ते चावश्यमेकस्य प्रव्यस्य जीवस्य सिकिंगमनात्कमेणापचीयमानस्य धान्यकोठागारस्येव सर्वस्यापि भव्यरुप्राप्नोतीति । अत्रोत्तरमाह-तदेवमनन्त त्वाद्भन्यराशेः, अनागतकालाकाशवदिति । इह यद् वृहदनन्त केनाऽनन्त स्तोकस्तोकतयाऽपत्र । यमानमपि नोच्छिद्यते, यथा प्रतिसमयं वर्तमाननारमा उपचीयमानो ऽप्यनागतकालयमपराशिः, प्रतिसमयं बुद्ध्या प्रदेशापहारेणापचीयमानः सर्वननः प्रदेशग शिव इति न जांद कुतः ?, इत्याहजं चानीयाणागय काला तथा यो प संसिको Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (308) भन्नविय अनिधानराजेन्सः। अन्नाव एको अणंतभागो, जव्वाणमईयकालेणं ।। भवति नासौ धूमवानिति तण, नात्र धूमो नाग्निरित्यनुमानेन, एस्सेण तत्तिो चिय, जुत्तो जंतो विसबजव्वाण । गृहे गगों नास्तीत्यागमेनाभावस्य प्रतीतेः क्याऽभावप्रमाणं प्रव तताम? । रत्ना०२परि०। जुत्तो न समुच्छेओ, होज्ज मई कहामिणं सिकं । अस्यैव प्रकारानाहजवाणमणंतत्तण-मणतनागो व कह विमुक्कोसि । कालादो व मंमिय!, मह वयणाओ विपमिवजा। स चतुर्को-पागभावः प्रध्वंसानाच इतरेतराभावोऽत्ययस्माश्चातीतानागतकालौ तुल्यावेव,यतश्चातीतेनामन्तेनापिका न्तानावश्च ।। ५८ ।। सेनिक एव निगोदानन्ततमोभागोऽद्याविनव्यानां सिद्धः, पप्यता. प्राक् पूर्व वस्तूत्पत्तेरभावः, प्रध्वंसश्चासावभावश्च, इतरस्येऽपि भविष्यत्कालेन तावन्मात्र एव भव्यानन्तभागः सिद्धि गच्छन् तरस्मिनभावः, अत्यन्तं सर्वदाऽभावः । विधिप्रकारास्तु प्रायुको घटमानको न हीनाधिकः, भविष्यतोऽपि कालस्याती तनैनोंचिरे। अतः सूत्रकृद्भिरपि नाभिदधिरे ॥ ५० ॥ ततुल्यत्वात् । तत एवमाप सति न सर्वभव्यानामुच्चदो युक्तः, तत्र प्रागभावमाविर्भावयन्तिसर्वेणापि कालेन तदनन्तभागस्यैव सिद्धिगमनसंभवोपदर्शना यन्निवृत्तावेव कार्यस्य समुत्पत्तिः सोऽस्य प्रागनात। अथ परस्य मतिर्भवेत्-कथमिदं ससंबछा-यदुतानन्ता | अन्याः, तदनन्तभागश्च सर्वेणैव कालेन सेत्स्यति , इति । वः॥ ५ ॥ अत्रोच्यते-कालाकाशादय श्वानन्तास्तावद्भव्याः, तदनन्तभा-1 यस्य पदार्थस्य निवृत्तावेव सत्यां, न पुनरनिवृत्तावपि प्रगस्य च मुक्तिगमनात्कालाकाशयोरिव न सर्वेपामुच्छेद इति | तिव्याप्तिप्रसक्तः । अन्धकारस्यापि निवृत्तौ क्वचिद् ज्ञानोत्पप्रतिपद्यस्व । मवचनाद्वा मरिकक! समेतच्छुद्धहीति । विशेष त्तिदर्शनादन्धकारस्यापि ज्ञानप्रागभावत्वप्रसङ्गात् । नचैवमपि पञ्चा० । हा० कर्म । श्रा० । नं० । वृ० । दशा । रूपकानं तन्निवृत्तावेवोत्पद्यत इति तत्प्रति तस्य तत्वप्रसक्तिअनारिय-प्रभार्य-पुं० । अपत्नीके, कल्प। रिति वाच्यम् । अतीन्द्रियदर्शिनि नक्तंचरादौ च तद्भावेऽपि " पावती च समुवाच विना वधूटी, तद्भावात् । (स इति) पदार्थः, (अस्येति) कार्यस्य ॥ ५ ॥ अत्रोदाहरन्तिशोना न काचन नरस्य भवत्यवश्यम् । नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, यथा मृत्पिएडनिवृत्तावेव समुत्पद्यमानस्य घटस्य मृत्पिविश्वासमेव विट एव वेदभायः" ॥१॥ कल्प०१०। । एडः ॥ ६ ॥ प्रभाव-भाव-पुं० । अशुभभावे, उत्त०१० । जीवादयः प्रध्वंसाभावं प्राहुःपदार्था अन्यापकया मभावाः । निषेधे, भ० ४२ श० १ उ०। यमुत्पत्ती कार्यस्यावश्यं विपत्तिः सोऽस्य मध्वंसानाविनाशे, वृ०१ उ०। असम्नवे, दश०१ उ० । असत्तायाम, कः ॥ ६१॥ पञ्चा०३ विव० स० (अभावप्रामाण्यम ) यदपि यस्य पदार्थस्योत्पत्तौ सत्यां प्रागुत्पन्नकार्यस्यावश्यं नियमेन, " प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः, प्रमाणाभाव उच्यते। अन्यथाऽतिप्रसङ्गात । विपत्तिर्विघटन, सोऽस्य कार्यस्य प्रध्वंसाऽऽत्मनोऽपरिणामो वा, विज्ञान वाऽन्यवस्तुनि" ॥१॥ साजावोऽभिधीयते ॥६१ ॥ (सेति) प्रत्यक्काद्यनुत्पत्तिः, आत्मनो घटादिग्राहकतया परिणामानावः प्रसज्यपके, पर्युदासपके पुनरन्यस्मिन् घटविविक्ताख्ये उदाहरन्तिवस्तुनि अभावे घटो नास्तीति विज्ञानम, इत्यभावप्रमाण-1 यथा कपालकदम्बकोत्पत्ती नियमतो विपद्यमानस्य कमभिधीयते । तदपि, यथासंभवं प्रत्यक्षाद्यन्तर्गतमेव । तथाहि- लशस्य कपालकदम्बकम् ॥ ६॥ " गृहीत्वा वस्तुसद्भाव, स्मृत्वा च प्रतियोगिनम । इतरेतराभावं वर्णयन्तिमानसं नास्तिता मान, जायतेऽकानपेक्कया"॥१॥ स्वरूपान्तरात स्वरूपव्यावृतित्तिरेतरानावः ॥ ६३ ॥ इयमभाषप्रमाणजनिका सामग्री । तत्र च भूतलादिकं वस्तु प्रत्यक्षेण घटादिभिः प्रतियोगिनिः संसृष्टम, प्रसंसृष्टं वा गृह्य स्वभावान्तरान्न पुनः स्वस्वरूपादेव तस्याभावप्रसक्तः, स्वत ? । नायः पकः । प्रतियोगिसंसृष्टस्य भूतलादिवस्तुनः रूपन्यावृत्तिः स्वस्वभावव्यवच्छेद इतरेतराभावोज्यापोहनामा प्रत्यक्केण ग्रहणे तत्र प्रतियोग्यभावग्राहकत्वेनानावप्रमाण-1 निगद्यते ॥ ६३॥ स्य प्रवृत्तिविरोधात् । प्रवृत्ती वान प्रामाण्यम, प्रतियोगि. उदाहरणमाहुःनः सोऽपि तत्प्रवृत्तेः। द्वितीयपक्षे तु-अभावप्रमाणवेयर्य, यथा स्तम्भस्वजावात्कुम्नस्वनावव्यावृत्तिः॥६४॥ प्रत्यक्केणैव प्रतियोगिनां कुम्भादीनामनावप्रतिपत्तेः । अथ न | अत्यन्ताभावमुपदिशन्तिसंस्ष्टं नाप्यसंस्ष्टं प्रतियोगिभिर्भूतलादि वस्तु प्रत्यक्केण गृह्यते, कालत्रयापक्षिणी हि तादात्म्यपरिणामनिवृत्तिरत्यन्तावस्तुमात्रस्य तेन प्रणाभ्युपगमादिति चेत् । तदपि दुष्टम् ।। संसृष्टत्वासंसृष्टवयोः परस्परपरिहारस्थितिरूपत्वेनैकनिषेधे भावः॥६५॥ उपरतिधानस्य परिहमशक्यमान इति सदसदूपवस्तुग्रह- प्रतीतानागतवर्तमानरूपकासत्रयेऽपि याऽसौ तादात्म्यपरिणप्रवणेन प्रत्यक्केणैवायं वेद्यते । कचित्तु-तदघटं नूतलमिति, णामनिवृत्तिरेकत्यपरिणतिव्यावृत्तिः, सोऽत्यन्ताजावोऽनिधीस्मरणेन, तदेवेदमघट भूतलमिति प्रत्याभक्षानेन, योनिमात्र यते ॥६५॥ ११८ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१०) अनाव अभिधानराजेन्डः। अभि (भी)३ निदर्शयन्ति रूवे अज्क्रत्तिए जाव समुप्पज्जित्था, एवं खलु अहं उदा. यथा चेतनाचेतनयोः ।। ६६ ॥ यणस पुत्ते पजावइए देवीए अत्तए । तए णं से उदायणे न खत्रु चेतनमात्मतत्वमचेतनपुत्रात्मकतामचकप्रत, कत्र राया ममं अवहाय णियगं भायाणिज केसीकुमारं रज्जे गायति. कवयिष्यति वा; तश्चतन्यविरोधात् । नाप्यचेतनं पु वेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइत्तए ।इलतवं चेतनस्वरूपनामः अचेतनन्यविरोधात् ॥ रत्ना० ३| मेणं एयारूवेणं महता अपत्तिएणं मणोमाणसीएणं दुक्खेणं परि० । नं० सम्म अनावचातुर्विध्यं चावश्यमाश्रयणीयम् । अजिनूप समाणे अंते उरपरियालसंपरिवुमे सनंमत्तोवगतदुक्तम्-" कार्ययमनादिः स्यात, प्रागनावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य स्वभावस्य, प्रत्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१॥ सर्वात्मक रणमायाय वीभयाओ णयराओ णिग्गच्छश, जिग्गच्चतदेकं स्या-दन्यापोहव्यतिकमें" इत्यादि । सूत्र.१ श्रु०१०१ इत्ता पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव भ०। (सम्मत्यादिग्रन्थभ्या विशेषोऽवगन्तव्यः) परिचारान्नावो चंपा णयरी, जेणेच कूणिए राया,तेणेव नवागच्छइ, उवाद्विविधः-विद्यमानाजावोऽविद्यमानाभावश्च । विद्यमानः सन् गच्छइत्ता कूणियं रायं उपसंपजित्ता णं विहरः । तत्थ वि अनायोऽसन् वैयावृत्त्यादरकरणाद् विद्यमानाजायः । अबि. धमानः सन्नभावोऽविद्यमानाभावः । व्य० २२० । णं से विजलभोगसमितिसममागए यावि होत्था । तए एं से अभीकुमारे समणोवामए यावि होत्था; अभिगय जाव अनाविय-अनावित-त्रि० । असंसर्गप्राप्ते प्राप्तसंसर्गे वा वजतन्दुबकल्पे, अयोग्ये च । “ अनाविया परिसा" तृतीयमा विहर। नदायणम्मि रायरिसिम्मि समणबछवेरे यावि होश्वर्य्यम् | स्था० १० ठा। स्था । तेणं कालेणं तेणं समएणं इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए अनावियक्खेत्त-अनावितक्षेत्र-न।क. स०। संविग्नसाधु णिरयपारसामंतेसु चोयट्ठिअसुरकुमारावाससयसहस्सा पविषयश्रद्धाविकल्प, पार्श्वस्थादिभाविते व केत्रे, वृ० ३ उ०। मत्ता । तए णं से अनीश्कुमारे वह वासाइंसमणोवासगं अनावुग-अनावुक-न । न० त० । वेल्लुकादिरूपभावुकवि- परियायं पानणड, पाउणइत्ता अद्धमासियाए सोहणाए सकणे चजनादौ, पं.व.३द्वार । प्राव०। तीसं भत्ताई अणसणं तस्स ठाणस्स अणासोइयपमिकंते प्रभासग-अजापक-पुं०। नाषाऽपरयाप्ते अयोगिसिद्धे, एके कासमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णिरछिमे च । स्था०२ ग०४ ० । अनुग चं०प्र०ा ("भासग" यपरिसामंतेमु चोयटीए आतावा जाव सहस्सेसु अमयशब्दे दएमकोऽस्य वक्ष्यते) रंसि आयावा असुरकुमारावाससि आतावासंसि असुरअनासा-अनाषा-स्त्री० । मृषाभाषायाम्, सत्यामृषायां च । कुमारदेवत्ताए उववमो, तत्थ णं अत्यंगइयाणं असुरकुमाभ०१५ श०३ उ०। राणं एग पनिओवमट्टिई पसत्ता। तस्त णं अजीइस्स देवस्स अभासिय-अभासिक-त्रि०। प्रदीप्तिमति भूभ्यादिके अन्ये, एगं पलिओवमं ठिई पमत्ता। से णं अभीइदेवे ताश्री देवनि० चू० १३ ३०। मोगाओ आउक्खएणं ३ अणंतरं उबट्टित्ता कहिं गच्छिअभि-अभि-अन्य० । प्राभिमुस्ये, अनु । आचा। विपा० । हिति, कहिं उववन्जिहिति?। गायमा ! महाविदेहे वासे संमुखे, नं० विकल्पे, पदार्थसंजावने च। नि० चू०१०। क सिन्किाहति जाव अंतं काहिति, सेवं नंते ! नंते !ति || ञ्चित्प्रकार प्राप्तस्य द्योतने, आभिमुख्ये, अनिलापे, वीप्सायां, (अप्पत्तिपणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं ति ) अप्रीतिकेनालकणे, समन्तादर्थे च । वाच। प्रीतिस्वभावेन मनसोविकारो मानसिकं,मनसि मानसिकं,न बहिरूपलक्ष्यमाणविकारं यत्तन्मनोमानसिक, तने । केनैवविधेअभिभावम-अध्यापन-त्रि० । अनिमुखं समापन्ने, सूत्रः १ न? , इत्याह-दुःखेन । (सभंम्मत्तोवगरणमायाय ति ) स्यां श्रु०४ अ०२३। स्वकीयां भाराममात्रां भाजनरूपपरिच्छदमुपकरणं च शय्याअलि (भी)-अभिजिन-न० । ब्रह्मदेवताके नक्षत्रभेदे, स्था०| दि, गृहीत्वेत्यर्थः । अथवा-सह भाएममात्रया यदुपकरण त२०३१०। अनु।"दो अभिर्भा" स्था० २ ०३ उ०। तथा, तदादाय (समणुबकवेरित्ति) अव्यवच्छिन्नवरिजावः । (निरयपरिसामंतेसु त्ति) नरकपरिपार्श्वतः (चोसहीए पाजनश्च उत्तराषाढानवत्रस्य शेषचतुर्थाशसहितश्रवणनक्क यावा असुरकुमारावासेसु ति) इह "पायाव ति" असुरत्रायकलाचतुष्करुपम । शब्द० " अजीणक्वत्ते तितारे" पं०स०२द्वार। नत्रेण सहाऽस्य योगस्तत्रैव । ज्यो०६ पाहा कुमारविशेषाः, विशेषतस्तुनावगम्यन्त इति।भ०१३ २०६उ०। वीनभयनगरराजस्योदायनस्य प्रजावत्यां देव्यामुत्पने पुत्रे, भग लोकोत्तररीत्या द्वादशे दिवसे,कल्प०का श्रेणिकस्यधारिण्यां जाते पुत्रे,श्रणासच बीरान्तिके प्रव्रज्य पञ्चवर्षाणि भामण्यं म च प्रव्रजना स्वपित्रातदागिनेये केशिकुमारश्रमणे राज्यमधिष्ठापिते द्विष्ठः मन् ससेखनया मृतः सन्नसुरकुमारदेवत्वेनो परिपाट्य विजये विमाने उत्पन्न इति अनुत्तरोपपातिकदशा नां १ वर्ग १० अध्ययने सूचितम् । अणु० १ वर्ग। अभित्पन्नः । भ० १३ श. ६ उ० । स्था। मुखीनूप जयति शन, अभि-जि-क्वि । शत्रुजयिनए णं तस्स अत्नीइकुमारस्म अण्या कयाई पुन्चरत्ना नि, यात्रानुकूलनम्नमेदे, पञ्चदशधा विभक्तदिनस्याएमेभावरचकालसमयसि कुटुंबनागरियं जागरमाणस्स अयमेया- गे, स्मृतिप्रसिके कुतपकाले च । वाच । द० ५०। Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंजिय अनिधानराजेन्धः । अभियोगी आभगंजिय-मनियुज्य-भव्य० । सम्बन्धमुपागत्य प्रतिस्प- रियाणं पडिग्गई का काइयभूमि वच्चर, जाव आयरियाण बें, स्था० ३ ०४ उ० । वशीकृत्याश्लिष्य वा इत्येतेपामर्थ | पितत्तो दुनो नायो हीरति, ताहे सोमोसो भागनुं बालोणक, दशा०१० अ०। मम पि अधि भावो, तं पत्यं संजोगन्नेग की पिमो अन्थि, ताहे परिविज्जा, जो विहि परिवाणे मो उनि भमिहि अभियोग-अभियोग-पुं० । अनियुज्यमानतायाम, स द्विवि-| त्ति"। एवमेव विसकय पि । “एगा अगारी साहुणो अझोयधो-देवो मानुषिकश्च । व्य०० उ०। (स च 'उयसम्गपत्त' शब्दे धामा, सो य णो इति, ताए रुट्टाए विमेण मिम्मा निग्या द्वितीयभागे १०२६ पृष्ठे व्याख्यास्यते) अभियोजनमाभयोगः । दिना । तस्म य दिन्नमेत्ताणं चेव मिरोवेयगा जाया, परिणिराजानियोगादिके अनिच्चतोऽपिव्यापारणे,ध०२ अधि। श्रा यहो गुरुणो समप्पेऊण काईणं बोसिरक, जाब गुरुगो विमीदेशकर्मणि, औ । प्रश्न। आझायाम्, स्था०१० ठावशी. सवेयणा जाया, तं च गुरुणा गंधेण णायं, जहा इमं विममिकरणे, नि००१०। अभिनवे, आव०५०। वृ०। सूत्र। स्सं, भहवा नत्य लवकया निक्खा पमिया, ताहेत विसं गर्वे, आव० ५ ० । अभियोजनं विद्यामन्त्रादिभिः परेषां व.। उप्पिसह । एवं णाते परिदृविजनि"॥ शीकरणादिरनियोगः । स च द्विधा । यदाद इदानीममुमेवार्थ गाथाभिरुपमहरनाहदुविहो खव अभियोगो, दवे भावे य होइ नायव्यो। जोगम्मि न अविरश्या, अज्झोवन्ना मूल्वनिक्खुम्मि । दवाम्म होति जोगा, विजामंता भावम्मि । कमयोगिमणिचंच-स्स देड निक्खं अमुहनावो।०३। इदानीम् (अभिप्रोगोत्ति) व्याख्यानयन्नाद-(दुविहो खलु अनि योगे अविरतिकागृहस्थीदृष्टान्तः-अध्युपपन्ना रक्ता मुम्पेमिभोगोत्ति) इह द्विविधो अभियोगः-द्रव्यानियोगो, नावानि क्षौ, अनिच्छितस्तत्कर्मकर्तुः कनयोगां भिकां, भिकापिएम योगश्च ज्ञातव्यः । तत्र द्रव्ये योगो अध्ययोगइचूर्णम, तन्मिश्रः ददाति । पुनश्च तस्य साधोपॅडणानन्तरमेव अशुभभायो जातः । पिएमो द्रव्याभियोगपिएमः, सच परित्यजनीयः। भावानियोग तदनिमुखं चिन्तयतिइच, विद्यया मन्त्रेण वा पिण्डं ददाति स च भावाभियोगः संकाए स नियहो, दाऊण गुमस्म काइयं विमरे । पिएडः। स च परिष्ठापनीय इति । अत्र अगार्या दृष्टान्तः तेसि पि अमुहनावो,पुच्छा य ममं पि उस्मयणा।809) "एगा भावरश्या, सा अणिका पश्णो, ताए परिव्याश्या अ. तया च शङ्कया योगकृतभिक्षाशङ्कया निवृत्तः निक्षापरिभ्रमम्भस्थिया-किंचि मंतेण अभिमंतिऊण मम देहि, जेण पर णात् ! शेष सुगमम् । मे वसो होइ, ताहे ताए अभिमंतिऊण करो दिनो। अविरहयाए चिंतियं-मा एसो दिन्नो मरेज, तो ताए अणुकं एमेव संकियम्मि वि, दाऊण गुरुस्स काइर विसरे । पाए उकडरुडियाए छडिओ, सो गइहेण खाइयो, सो रति गंधाई विष्माए, जस्ममऽविही सियालबहे ॥५॥ घरदारं खोदिनमारको, ताणि निग्गयाणि जाव पेच्छंति ग. एवमेव विषकृतोऽपिदृष्टान्त:-गुरोर्दत्त्वा समर्थयित्वा कायिका दहेण खोहितं, सा अविरया नम-किमेय ति?,ताए स. व्युत्सृजति, तेन गुरुणा गन्धादिना विज्ञातम् । श्रादिग्रहणात् भावो कहिओ, तोहि वि सा चरिया दमाविया, एस दोसो, तत्तस्य उत्सर्जनं परित्यागः क्रियते, तत्र विधिना परिष्ठापनं एवं ताव जर तिरियाणं एसा अवस्था होश, माणुसस्स पुण कर्तव्यम,नानाविधिना प्रविधिपरिष्ठापने सति शृगालादिवधो सुहयरं होर, अश्रो परिसो पिंडोन घेत्तन्वो"। भवति । श्रो० । वृ०। ___ अमुमेवार्थ गाथानिरुपसंहरन्नाद अनिओगी-श्रानियोगी-स्त्री०। प्रा समन्तादानिमुख्येन युविज्जाएँ हो अगारी, अवियत्ता सा य पुच्छए चरियं ।। ज्यन्ते प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः किङ्करस्थानीआभिमंतणोदणस्स उ,अणुकंपत्तणमुस्ममं च खरे ।।६०४॥ | या देवविशेषास्तेषामियमाभियोगी । नावनायाम, वृ०। विद्यानिमन्त्रिते पिरमे भगारीष्टान्तः-सा भर्तुरस्वायत्ता न रो. अथाभियोगीमाह- . चते।सा च चरिको परिव्राजिकां पृच्छति पत्युर्वशीकरणार्थम् । कोउप्र-नई-पसिणे, पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी । तया अनिमन्त्रणमादनस्य कृत्वा दत्तं, तयाऽपि अगार्या पत्युर्म- रिहरससायगुरुयो, अजिोगीभावणं कुणइ ।। रणानुकम्पया न दत्तः स प्रोदनः, किन्तु उत्सन्नः, परित्यागः | ऋषिरससातगुरुकः सन् कौनुकाजीवी भूतिकर्माजीवी, कृतः। स च खरेण भक्ति इति ।। प्रश्नाजीवी, प्रश्नाप्रभाजीवी, निमित्ताजीवी च नवति एवंविध वारस्स पिट्टणम्मि य, पुच्छण कहणं च हो अगारीए। आनियोगीभावनां करोतीति ॥ (बृ.) सेहे चरिआ दमे, एवं दोसा इहिं पि सया ।। अथ ऋद्धिरससातगुरुक इति पदव्याख्यानार्थमाहस च गर्दन आगत्य द्वारं पिद्दति मन्त्रवशीकृतः सन् , शेष | एयाणि गारवटा, कुणमाणो आलिश्रोगियं बंधः । सुगमम् । एवं भावाभियोगे दृष्टान्त उक्तः। श्दानी व्यान्नियोगे चूर्मवशीकरणपिएमः, स उच्यते बीयं गारवरहिओ, कुव्वं पाराह गुत्तं च । "एगा अविरल्या, सा य गुरुअस्स निक्खुणो अज्झोववामा एतानि कौतुकादनि ऋफिरससातगौरवार्थ कुर्वाणःप्रयुजाअणुरत्ता, ताहे सा तं पत्थेइ, अणिजंतस्स चुम्माभिओगेण नः सन्नानियोगिकं देवादिप्रेष्यकर्मव्यापारफनं कर्म बध्नाति । संजोएउ भिक्खं पडिवेसिय घरे काऊण दवावियं ताए, जो| द्वितीयमपवादपदमत्र भवति-गौरवरहितः सन्नतिशयज्ञाने चेव तस्स साहुस्स पमिगहे पडियं तो चेव तस्स साहुस्स सति निस्पृह वृत्त्या प्रवचनप्रभावनार्थमेतानि कौतुकादीनि कुतत्तोमणो हीरक, तण य णायं, ताहे पियति, जियहो पाया। वनाराधको नयति, उगोत्रं च कर्म बध्नाति, तीथोन्नति Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१२) अनिरोगी अनिधानराजेन्डः। अभिग्गह करणादिति । गता आभियोगिकी भावना । वृ० १ न०।। अनिगमाःभ० स्था०ाी । येरे भगवंते पंचविहेणं अनिगमेणं अनिगच्छति । तं जहाअभिओयण-अभियोजन-न० । परेषां विद्यामन्त्रादिभिर्वशी-- सचित्ताणं दवाणं विसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं करणे, प्रशा०२० पद । श्राव०। अविनसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरसंगकरणेणं, चक्खुअनिकरखमाण-अभिकाइद-त्रि० । कनुमिति, दश . फासे अंजझिपगहेणं, मणसा एगत्तीकरणेणं ।। अ०३ उ०। ( अभिगमेणं ति ) प्रतिपत्या अनिगच्छन्ति समीपं गच्चन्ति । अभिकंखा-अभिकाङ्गा-स्त्री० । अभिलाषे, सूत्र० १ ०२ (सचित्ताणं ति) पुष्पताम्बूलादीनां ( विसरणयाए ति) अ०२ उ०। प्राचा०। व्यवसर्जनया त्यागेन,(अचित्ताणं ति) वस्त्रमुखिकादीनां, (अ. अभिकंत-अनिक्रान्त-त्रि०। भतिलखिते, प्राचा०१ श्रु०४ विसरणयाए ति ) अत्यागेन, (एगसामिपणं ति) भनेको. भ० ५ उ० । भावे निष्ठाप्रत्ययः । भभिक्रमणे, दश. ४१० । तरीयशाटकानां निषेधार्थमुक्तम् । (उत्तरासंगकरणेणं ति) उत्तरासङ्ग उत्तरीयस्य देहे न्यासविशेषः, चक्षुःस्पर्श रष्टिपाते, अभिकंतकिरिया-अभिक्रान्तक्रिया-नी। चरकादिभिर (पगत्तीकरणेणं ति ) अनेकत्वस्यानेकालम्बनत्वस्य एकत्वं नवसेवितपूर्वायां वसतो, आचा०५ श्रु० २ १०२०॥ करणं एकालम्बनत्यकरणं एकत्वीकरणं, तेन । भ०२ श०५ उ०। अनिकंतरकम्म-अभिक्रान्तक्रूरकर्मन्-त्रि० । हिंसादिक्रिया- दर्श० । सूत्र० । वस्तुनः परिच्छेदे प्राप्तौ अभिगम्यतेऽस्मिन्नित्यप्रवृत्ते, सूत्र. २ श्रु० २ ० । प्राचा० । भिगमः, इति व्युत्पत्त्या वस्तुपरिच्छेदाधिकरणे, दश०४ १०। अभिकतवय-अनिक्रान्तवयस्-न० । जरामतिमृत्युं वाऽतिका- | अभिगमण-अभिगमन-न । अनिमुखगमने, दशा० १० भ०। न्ते,आद्यवयोद्वयातिक्रमे जरानिमुखे वयसि,बालादीनांचयोप | ध० । का० । नि० । सूत्र० । सर्वबाह्यमएमलादभ्यन्तरप्रविशने, चयवत्यवस्था-तामभिमुम्नमाकान्ते, प्राचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सू०प्र०१३ पाहु ।“ अनिगमणच्याए" अवगमलकणाया येत्यर्थः । का० १२ भ०। अनिकमण-अनिक्रमण-न० । अनिमुख क्रमणे, प्राचा० १ अजिगमणजोग्ग-अभिगमनयोग्य-त्रि० । मनिमुखगमनायोश्रु०७०८ उ०। चिते, रा। अभिक्कममाण-अतिक्रममाण-त्रि० । गच्छति, भाचा०१० १ अ० २ ००। अभिगमरुप-प्रनिगमरुचि-पुं० । अभिगमो विशिष्ट परिकानं, अभिक्कम्म-अभिक्रम्य-अव्यापानिमुख्येन कानवेत्यर्थे, सूत्र तेन रुचिर्यस्यासौ अभिगमरुचिः । सम्यक्त्वभेदे, तइति च । १ श्रु० १ ० उ०। प्रव० १४ए द्वार । अभिक्खणं-अजीक्षणम्--अव्य० । अनवरते, प्रा०म०प्र०।। सो होइ अनिगमलई, सुयनाणं जस्स अत्यत्रो दिह । जा। प्रश्न । विशे। सूत्र । प्राचा० । पुनःशब्दाथें, स्था०५ एकारस अंगाई, पइलगा दिहिवामो य । ग०१उ०। “एगे समुप्पजेज्जा अभिक्खणं अभिक्खण इत्थि- यस्य श्रुतकानमर्थतो रष्टमेकादशाङ्गानि, प्रकीर्णकमित्यत्र जाकहं भत्तकहं" स्था०२ ग०४३०। अभीक्ष्णं पुनःपुनः। विशेषण तावेकवचनम् । ततोऽयमर्थः-प्रकीर्णानि उत्तराध्ययनादीनि, वृ०। नि००।दश।सानयोभयः । दशा० १०अ०।। रष्टिवादः, चशब्दादुपाङ्गानि च, स भवत्यधिगमरुचिः । प्रज्ञा. रा०ा वारंवारम् । कल्प०६ ०। उत्त। असकृत् । दशा०२ १पद । उत्स। प्र० । भृशम् । स०३० सम० । “अभिक्खणमोधाराणि भा- | अनिगमसल-अजिगमभाक-पुंज प्रतिपन्नाणुव्रते, ध०३अधिक। स" प्राव०४०। अजिक्खणिसेवण-अजीदणनिषेवण-० । अभीक्षणप्रतिसे अभिगमसम्पत्त-अनिगमसम्यक्त्व-ज। जीवाजीवपुष्पपा , पाश्रवसम्बरनिर्जराषन्धमोकेषु परीक्षितनवपदार्थाभिगमप्रत्यबने, व्य० ३ १०। यिके सम्यक्त्वभेदे, मा००४०। “अनिगमसम्मदंसणे अनिक्खमाइण-अजीणमायिन्-त्रि० । बहुशो मायाविनि; | दुवि पन्नत्ते । तं जहा-पडिबाई चेव, अपमिवाई चेव"। व्य० ३ उ०। स्था०२ ग०१०। अनिक्खसेवा-अभीक्ष्णसेवा-स्त्री० । प्रमाणाधिकसेवायाम, अनिगय-अभिगत-पुं० । न०। प्राभिमुस्येन गतः । प्रविष्टे, नि० चू१ उ०। वृ०१०। अजिक्खाझाभिय-अभिक्षामाजिक-पुं० अतुच्छानवज्ञानग्रा अतुच्छानवज्ञानमा- | अभिगिज्झ-अभिगृह्य-अव्या अङ्गीकृत्य अभिमुखीयेत्यर्थे, हके भिक्षाचर्याविषयकाजिनहविशेषधारके साधी, मी०सूत्र। स्था०२ ग०१3०। अजिक्खासेवणा-अभीक्षणासेवना-स्त्री० । मसकृदासेवना अभिगिऊत-अभिगृध्यत-त्रि० । भाभिमुल्येन लुज्यमाने याम्, नि० चू०१ उ०। लोभवशगीभवने, सत्र०२ श्रु०२ उ०। अनिगर्जन-अभिगर्जत-न० । घनध्वनिमुश्चने, उपा० २४०। अजिग्गह-अभिग्रह-पुं० । प्राभिमुस्येन महोऽनिग्रहः निचू० अनिगम-अजियम-पुंग सम्यग्धर्मप्रतिपत्ती, पागधगदशा २० भाभगृह्यत इत्यभिग्रहः। प्रतिकाधिशेष, भाव०६ भ०। Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१३) अनिग्गह अनिधानराजेन्द्रः । अभिग्गहिया साध्वाचारविशेषे, यथेत्थमाहारादिकममीयां कल्पते, इत्थं च गायंतो व रुदंतो, जं देश निसम्ममादीया ।। न कल्पते । ०१०। स च द्रव्यादिविषयभेदाच्चतुर्विधः । उत्किन पाकपिरात्पूर्वमेव दायकेनोदधृतं न ये चरान गवे. ध०३ अधिः । तत्र च्याभिग्रहो लेपकदादिभव्यविषयः, केत्राभिग्रहः स्वग्रामपरग्रामादिविषयः, कालाभिग्रहः पूर्वा पयन्ति ते उस्वितचरकाः। श्रादिशब्दाद निक्षिपचरका: मंख्याएदादिविषयः, भावाभिग्रहस्तु गानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादि दत्तिकाः, इष्टलाभिकाः, पृष्टलान्निका इत्यादयो गृह्यन्ते । त पत विषयः । औ०। प्रव०। गुणगुणिनोः कथंचिदन्नेदाद्भावयुताः खल्वभिग्रहा जवन्ति, भावानिग्रहा इतिजावः। यद्वा-गायन यदि दास्यति तदा मया हिमंति तो पच्छा, अमुच्चिया एसणाएँ उबलत्ता। प्रहीतव्यम,एवं रुदन वा,नियामादिा,आदिग्रहणादुन्धिनः,संदन्वादभिग्गहजुआ, मोक्खट्ठा सम्बनावेणं ॥ ७ ॥ प्रस्थितश्च यद्ददाति तद्विपयो योऽभिग्रहः स सर्वोऽपि नावादिमन्ति अटन्ति ततः पश्चाद, विधिनिर्गमनानन्तरमित्यर्थः । भिग्रह उच्यते। भमूर्षिता प्राडारादौ मूर्छामकुर्वन्तः, एषणायां ग्रहणविषया. तथायाम्, उपयुकास्ततपरा,व्याद्यभिग्रहयता वक्ष्यमाणद्रव्याद्य- श्रोस्मकणअहिसक्कण, परंमुहालंकिए य इयरो वा । भिग्रहोपेताः, मोकार्थ तदर्थ विहितानुष्ठानत्वात, भिक्काटनस्य नावऽनयरण जुभो, ह नावाभिग्गहो नाम ।। सर्वभावेन सर्वभावाभिसन्धिना तद्वैयावृत्त्यादेरपि मोकार्थत्वादिति गाथार्थः। अवयकन्नपसरणं कुर्वन् ,अनिष्वप्कन संमुखमागच्छन् परातत्र व्यानिग्रहानाह मुखःप्रतीतः, असकृतः कटककेयरादिभिः,इसरो वा इनक कृतः पुरुषो यदि दास्यति तदा ग्राह्यमिन्येतेषां भावानामन्यतलेवमसेवजुधेवा, अमुगं दव्वं व अज्ज घिच्छामि.। रण भावेन युतः, अथाय भावाभिग्रहो नामेति । वृ०१०। अमुगणं च दवेणं, अह दव्वाभिग्गहो चेव ॥ ८॥ आचा। "तए णं समणे नगवं महावीरे गम्भत्थेचेव :मेया सेपवज्जुगार्यादि, तन्मिश्रं वा,अलेपवद्वा तद्विपरीतम, अमुकं रूवे अभिग्गहं अनिगिरहद-नो खलु मे कप्पर अम्मापिदि द्रव्यं वा मएमकादि, अद्य ग्रहीष्यामि अमुकेन वाकव्येण दर्वी जीवंतेहिं मुंमे प्रवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए"। कुन्तादिना, अथायं न्याभिप्रहो नाम साध्वाचरणविशेष कल्प०५०।श्रीवीरः पञ्चाभिग्रहानभिगृह्मास्थिकग्राम प्रति इति गाथार्थः। प्रस्थितः। अभिग्रहाश्चैते-'नानीतिमदूगृहे वासः, स्थेयं प्रतिमक्षेत्रानिग्रहमाह या सदाशन गहिविनयः कार्यः३,मौनं ४ पाणीच भोजनम्॥" ॥१॥ कल्प०५ का प्रत्याख्यानभेदे, “पंच चरो अभिग्गहे" अट्ठउ गोअरनूमि, एलुगविक्खंभमेत्तगहणं च । पश्चचत्वारश्चानिग्रहे आकारा:-"अनिमाहेसु अप्पाउरण कोश सग्गामपरग्गामे, एवथ गिहाण खतम्मि ॥ एए पथक्वाइ, तस्स पंच (श्रागारा,) अमत्थऽणाभोगे सहसाअष्टौ गोचरनूमयो वक्ष्यमाणशकणाः, तथा एलुकविष्कम्भ गारे चोलपट्टागारे महत्तरागारे सेसेसु चोलपट्टागारो णस्थि मात्रग्रहणं च, यथोक्तम्-'एमुकविक्खंभश्त्ता तथा स्वग्रामप- विगईए भट्ट नव य आगारा"श्राव०६अ।ध०। ल० प्र०। रमामयोरेतावन्ति च गृहाण के इति; स केत्रविषयोऽभिग्रह इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यदित्येवंरूपे कुमतपरिग्रहे, स्था०२ इति गाथार्थः। पं०व०२द्वार। ग०१ उ०। गुरुनियोगकरणाजिसन्धी, द्वा०२ए द्वा० । एप कालानिग्रहमाह-- कायिकविनयभेदः। व्य०१० । दश०। पं० सं० प्रकाशकरणे, काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झ तहेव अवसाणे । अभियोगे, प्राभिमुख्येनोद्यमे गौरवान्विते च । वाच । अभिग्गहियसिजासणिय-अभिगृहीतशय्यासनिक-पुं० । अप्पचे सइ काले, आई विइओ अ चरिमम्मि । शरयासनाभिग्रहयुते साध्वाचारे, कल्प। काले कालविषयोऽभिग्रहः पुनरयम्-आदौ मध्ये तथैवावसा नो कप्पद निग्गंथाण वा निग्गंधीण वा अणजिग्गहियने निकावेलायाः,एतदेव व्याचष्टे-अप्राप्ते निकाकाले यत्पर्यटति स प्रथमोऽभिग्रहः । यस्तु सति प्राप्ने भिक्षाकाले चरति स सिज्जासणिएण दुत्तए॥ द्वितीयो मध्यविषयोऽभिग्रहः। यत्पुनश्चरमेऽतिक्रान्ते भिकाका नो कल्पते साधूनां, साध्वीनां वा (अणभिग्गहिय त्ति) न ले पर्यटति सोऽवसानविषयोऽनिग्रहः। अनिगृहीते शम्यासने येन स अनभिगृहीतशय्यासनः, अनकालत्रयेऽपि तु गुणदोषानाह भिगृहीतशय्यासन एव अनभिगृहीतशय्यासनिकः । स्वार्थ कण प्रत्ययः। तथाविधेन साधुना (हुत्सए त्ति। नवितुं न कदिंतगपडिच्चगाणं, हविज सुहुमं पि मा हु प्रवियत्तं । ल्पते ।वर्षासु मणिकुट्टिमे पीठफल कादिग्रहणवतैव नाव्यम, इय अप्पत्ते अइए, पवत्तणं मा ततो मज्के । अन्यथा शीतलायां भूमौ शयन उपवेशने च कुन्थ्वादिविराधददत्तच्चिकयोरिति-निक्षादातुरगारिणो भिक्षाप्रतीकस्य | नोत्पत्तेः । कल्प०९१०। च वनीपकादेर्मा नूत सदममप्यवियत्तमप्रीतिकम,श्त्यस्माकेतो- शनिग्गहिया-अभिगृहीता-स्त्री० । अनिग्रहवत्यामेषणायाम, रप्राप्तेऽतीतेच-भिक्काकामेऽटनं श्रेय इति गम्यते । (पवत्तणं मा | प्रव० । अनिग्रह धैवम-तासां.सप्तानामेषणानां मध्ये प्राचयोततो मझे ति) अप्राप्ते अतीत वा पर्यटतः प्रवर्तनं पुरस्कर्मपश्चा ईयोरग्रहण, पञ्चसु प्रहणं, पुनरपि विवक्तितदिवसे अन्त्यानां कर्मादेर्मा भूत्, तत एतेन हेतुना मध्ये प्राप्ते भिक्काकाले पर्यटति॥ पश्चानां मध्ये द्वयोराभप्रदः। प्रव०६ द्वा०। "अनिम्गहरहिया एअथ भावाभिग्रहमाह सणा जिणकप्पियाणं" नि००४००। प्रतिनियतावधारणे. नक्खित्तमाश्चरगा, भावजुया खल अभिग्गहा होति ।। यथा इदमिदानी कर्तव्यमिदं नेति । प्रज्ञा०११ पद । Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिघट्रिज्जमाण अभिधानराजेन्दः । अभिणबधम्म अभिघहिजमाण-अनिघठ्यमान-त्रि० । वेगेन गच्चति, रा०। अभिजुत्त-अभियुक्त-त्रि । पण्डिते, नं० । संपादितदूषणे, झा० अजिघाय-अलियात-पुं० । अनिहनने, प्रश्न०१आश्रद्वा०।। १४ अ० । स्या। लकुटादिप्रहारे , जीतः । नि० चू० । " गोफणधणुमा- अभिज्का-अभिध्या-स्त्री०। अभिध्यानमन्निध्या। स०५२ सम। दिअभिघाता" गोफणा च दवरकमयी प्रसिद्धा-तया, धनुप्रनृ. धनादिष्वसन्तोपे परिग्रहे, हा० १३ अष्टाद्वा०ा तदात्मके गौतिनिर्वा बटुकमुपलं वा यत्प्रक्षिपति, एषोऽअनिघात उच्यते । णमोहनीयकमणि, स०५२ समः। अथवा अभिट्ठय-अजित-त्रि० । प्राभिमुस्येन स्तुतोऽनिष्टुतः । प्राविहुवणणंतकुसादी-सिणेहउदगादि श्रावरिसणं तु । । व० अ० । स्वनामन्निः कीर्तिते, ल । अनु। काओं तु विवसत्थे, खारो तु कझिंवमादीहिं ।। अनित्य-अभिदुत-त्रि० । अध्यवसायरूपेण व्याप्ने, गर्भाधाविधुवनं बीजनक, संतकं वस्त्रं, कुशो दर्भस्तत्प्रभृतिभिर्षीज नादिकुखैः पीडिते, सूत्र. १ श्रु०२ १०३ ३० । यन् यत्प्राणिनो अभिहन्ति, एष वा अभिधात उच्यते,स्नेहो नाम उदकेन,पादिशब्दाद् घृतेन तैलेन वा, पावर्षणं करोति । कायो | अभिणंदण-अजिनन्दन-पुंग अस्यामवसर्पिण्यां जाते भरत. नाम द्विपदादीनां विम्बम, प्रतिरूपमित्यर्थः । वृ०४ उ०। क्षेत्रीये चतुर्थे तीर्थकरे, (आ० म०) तथा अभिनन्द्यते देवेन्द्रादिअभिचंद-अजिचन्द-पुअवसर्पिण्यां भरतकेने जाते प. भिरित्यनिनन्दनः। सर्व एव भगवन्तो यथोक्तस्वरूपा इत्यतो ञ्चदशानां दशमे, सप्तानां चतुर्थे वा कुलकरे, जं.२ वक्त। विशेषहेतुप्रतिपादनायाह-"अग्निनंदए भनिनंदाणा तेण" शके " अनिचंदेण कुबगरे उधणुसया उडं उच्चत्तेणं होत्था " गर्नादारभ्यार्भादणं प्रतिक्षणं यमभिवन्दितवानिति अभिनन्दनः। स्था०२ ग०१उ० प्रा० काप्रा०म०कल्प०। (पत्या- कृद्धहुलमिति वचनात् कर्मण्यनट् । तथा च वृरुसम्प्रदायःदयः 'कुलकर' शब्दे वक्ष्यन्ते ) दशाहपुरुषभेदे, अन्त० १ “गम्भप्पजिई अभिक्खणं सक्केण अभिवंदिया श्तो तेण सोपवर्ग । दिवसस्य षष्ठे मुहू, चन्छ १० पाहु । स०। ज्यो। भिनंदणो त्ति नामं कयं" प्रा० महि०० । स० प्रा० चू० । आक"अनिनंदणो अभरहे,परवर नंदिसेणजिणअभिजप्प-अनिजम्प-पुंगशब्दार्थकीकरणे,सम्म अन्ये तु(सौ चंदे" ति (समकालमुत्पनौ) ती०६ कल्प । स्था० । प्रव०। गतविशेषाः शब्द एवाजिजल्पत्वमागतःशब्दार्थ इति । स चा लोकोत्तरीत्या श्रावणमासे, सू० प्र० १० पाहु । भिजल्पः शब्द एवार्थ इत्येवं शब्देऽर्थस्य निवेशनम् , सोऽयमित्यन्निसंबन्धः तस्माद्यदाशब्दस्यार्थेन सहकीनूतं रूपंजवति अनिणंदंत-अनिनन्दयत-त्रि०। राजानं समृद्धिमन्तमाचक्कातदातं स्वीकृतार्थाकारं शब्दमनिजल्पमित्याहुः। सम्म०१ का- णे, औ० ।जय जीवेत्यादिनणनतोऽभिवृद्धिमाचक्षाणे, भ०० एमा(एषा स्वएमनमागम शन्द द्वितायभाग ७५ पृष्ठ वदयत) | श०००। प्रीति कुर्वति, संथा। श्रनिजाइ-अनिजाति-स्त्री०। कुलीनतायाम, उत्त० ११०। | अभिणंदमाण-अजिनन्दयत-त्रि० । समृद्धिमन्तमाचक्काणे, अभिजाणमाण-अभिजानत-त्रि० । आसेवनापफियाऽऽसे-] कल्प०५०। वमाने, आचा०१ श्रु०८ अ०४०। अजिणंदिजमाण-अभिनन्द्यमान-त्रि०। जनमनःसमूहैः सअजिजाय-अभिजात-त्रि०। प्राभि प्रशस्तं जातं जन्म यस्य मृकिमुपनीयमाने जय जीव नन्देत्यादिपर्यासोचनात् । औ० । सः। कुलीने, वाच । जं०। कुलीनलक्षणम् संस्तूयमाने, स्था० ए ०। "प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संचमविधिः, प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः । अनिणंदिय-अभिनन्दित-पुं० । लोकोत्तररीत्या श्रावणे मासि, अनुतसेको लदम्या निरनिनवसाराः परकथाः, ज्यो०४ पाहु। श्रुते चाऽसन्तोषः कथमनभिजाते निवसति?"राध०१ अधिण अभिणय-अभिनय-पुं० । अभि-नी-करणे अच् । हातभाव. लोकोत्तररीत्या दिवसन्नेदे, चं०प्र० १० पाहु । ज्यो। . व्यञ्जके शरीरचेशदौ, भावे अचि-अन्निनेयपदार्थस्य शरीरचेअजिजायत्त-अजिजातत्व-न०। चकुः प्रतिपाद्यस्येव नमि टाभाषणादिभिरनुकरणे, अभिनयति बोधयत्यर्थमत्र-प्राधारे कानुमारितायां सत्यवचनातिशयरूपायाम, स०३५ सम। अन् । शरीरचेपादिभिदृश्यपदार्थज्ञापके रूपकादौ दृश्यकाव्ये, अजिजायम-अजिजातश्रध-त्रि० । उत्पत्रितत्त्वरुची, उत्त. वाच० "चउब्धिहे अनिणए पझते।तं जहा-दिटुंतिप,पामसुए, १४ । सामंतोवणिए लोगमज्जवासिए" स्था०४०४१० अप्येअनिजित्ता-अनियोकुम्-अन्य। विद्यादिसामथ्यतस्तद ककाश्चतुर्विधमभिनयमभिनयन्ति । तद्यथा-दाटस्तिकं, प्रातिनुप्रवंशन व्यापारयितुम् । भ०३ श०५३०। श्रुतिक, सामान्यतो विनिपातिक,लोकायवसानिकमिति । एते नाट्यविधयोऽजिनयविधयश्च नरतादिसङ्गीतशास्त्रज्योऽय. अभिजिय-अभियुज्य-श्रव्य० । वशीकृत्य, आश्लिप्य, भ०२ सेयाः। श्रा०म०प्र० । रा०। श०५ ३० । व्यापार्य, स्मारयित्वा-एषामर्थे, सूत्र० १७०५ अभिणव-अजिनव-त्रि० । प्रत्यग्रे अजीणे, पो०५ विवः । अ०२३०। अजियोन्म-अव्य० । विद्यादिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्या-| विशिष्टवर्णादिगुणोपेते, जी०३ प्रतिः। पारयितुमित्यर्थे, प्रतिः। । अभिणवधम्म-अभिनवधर्मन्-Kor अधुनैव गृहीतप्रवज्ये,०४३०॥ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२५) अभिणिकंत अभिधानराजेन्मः। अभिणिसज्जा अनिणिकंत-अजिनिष्क्रान्त- विअधीताचारादिशास्त्रे. नद- | अजिणिवाहिना-अजिनिवन्ये-अव्य) । समाकृष्येन्यथे, "अर्थभावनोपहितचरणपरिणामे च। आचा० श्रु०६ अ०१. १०।। निणिहिताण उबदमेजा" मत्र २०१ श्राविधायेअजिणिगिक-अजिनिगृह्य-अव्यः । अयरुध्येत्यर्थे, प्राचा० | त्यर्थे, " दमसहस्सं अभिब्यट्टित्ता एंवदंमिनए" भ० ५ श०४ उ। १ श्रु० ३ ० ३ उ० अभिणिचारिया-अभिनिचारिका-स्त्री । आभिमुख्येन निय अनिणिबम-अभिनिर्वत-त्रिका क्रोधाद्यपशमेन शान्तीभूने, ता चरिका, सूत्रोपदेशेन बहुवजिकादिपु पुर्यज्ञानामाप्यायनि मुक्ते, सूत्र.१ श्रु०२१०१३०ा विषयकपायाधुपामाचीतीमित्तं पूर्वाहे काले समुत्कृष्ट समुदाने बघुगमने, व्य०४ ३० । भूते, प्राचा०१ श्रुE ०४ उ० । लोजादिजयान्निरातुरे, "खंतेऽनिनिम्बुडे देते, बीतगिह। सदा जए"। क्रोधादिपरित्याअनिणिपया-अभिनिप्रजा-स्त्री। अभि प्रत्येक नियता वि गाच्चान्तीनूते,सूत्र०१७०० अ०1"पायाश्रोविरनेऽनिनिम्बुडे" विक्ता प्रजा अभिनिप्रजा । प्रत्येकं विविक्तायां प्रजायाम, सूत्र०१०२०१०।"अभिनिम्बुडे अमाई" अभिनिवृत. व्य०६०। ग्रहणं संसारमहातरुकन्दोच्छेद्यविप्रतिपत्त्या । प्राचा०१ श्रु० १ भाभिणियोह-अभिनिबोध--पुं० । अंर्धाभिनिमुखो नियतः प्र- अ०१उ। तिनियतस्वरूपो बोधो बोधविशेषोऽभिनिबोधः । अभिनिवु-| अजिजिसजा-अजिनिपद्या-स्त्री० । अभि रात्रिमभिव्याप्य ध्यतेऽनेनास्मादस्मिन् वेति। मतिझाने,तदावरणक्कयोपशमे च। स्वाध्यानिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्यभिनिषद्या । अभि आ० म०प्र० सम्म० । नं० । श्राव। स्था० । आभिमूख्येन नैवेधिक्यां स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रत्यूपे प्रतियातायां निश्चितत्वेन च बुध्यते संवेदयते प्रात्मा तदित्यभिनिबोधः। वसती, व्य०१ उ०। अवग्रहादिकाने, अन्निनिबुध्यते वस्त्ववगच्चतीति अनिनि- वह परिहारियाऽपरिहारिया इच्छेन्जा-एगंनमो अभिबोधः । मतिज्ञानात्मनि, विशे०॥ निसिज वा अभिनिसीहियं वा चेतितएणो णं कपनि थेरे अभिाणियट्टण--अन्जिनिवर्तन--न० । व्यावर्तन, प्राचा० १७० | अणापुच्चित्ता एगंतओ अनिनिसेज् वा अजिनिसीहियं ३ अ०४ उ०1. वाचेइतए । कप्पड़ एहं थेरे पापुच्छिताते एगंतओ अजिनिअभिणिविट्ठ-अभिनिविष्ट--त्रि०ाबद्धाऽदरे, उत्त० १४ अ०। सेन्जं वा अनिनिसीहियं वा चेइनवाए थेरा य एहं से (ते) बकाऽऽग्रह, उत्त०१४ प० । अभिविधिना निविष्टम् । न०१२ वियरिजा-एवं एहं कप्पइ अनिनिसेज वा अभिनिसीहियं श. ३ उ० । जीवप्रदेशेषु अनिव्याप्त्या निविष्टे अतिगाढतां वा चेतेतए । थेरा एहं नो वितरेज्जा-एवं एहं णो कप्पर गते, भ० १३ श०७०। एगतो अनिणिसेजंवा अनिणिसीहियं वाचेनेतए । जो अभिणिवेस-अनिनिवेश--पुं० । अतत्त्वाग्रहे, पञ्चा० १४ विवा।। णो थेरेहिं अवित्तिए अभिनिसिज्ज वा अभिनिमीडियं चित्तावष्टम्ने, भोघः । तद्रूषे योगशास्त्रप्रसिके क्लेशभेदे, द्वा०। वा चेतोत. से संतरा छेदे वा परिहारे वा ॥२ ॥ विमुषोऽपि तथारूढः, सदा स्वरसवृत्तिकः। बहवस्त्रिप्रभृतयोऽनेके पारिहारिका उक्तशम्दार्था, वहयोऽपारिशरीराद्यवियोगस्या-भिनिवेशोऽजिलाषतः ॥२०॥ हारिका इच्छेयुरेकान्ते विविक्त प्रदेशान्तरे वसत्यन्तरेवा अभिनि पद्याम, अभि रात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निधीद(विदुषोऽपीति) विदुषोऽपि पणिमतस्यापि, तथारूढः पूर्व न्स्यस्यामित्यभिनिषद्या,तां वा.तथा निषेधा-स्वाध्यायव्यतिरेकेण जन्मानुभूतमरणदुःखाभाववासनावमा भूयः समुपजायमानः, सकलण्यापारप्रतिषेधः तन निर्वृत्तानेरधिकी। अभि श्रानिमुशरीरादीनामवियोगस्यानिलाषतः शरीरादिवियोगो मे मा स्येन संयतप्रायोग्यतया नैपेधिकी अभिनेयोधकी, तां वा । इयभूदित्येवं लक्षणाद्, अभिनिवेशो नवति, सदा निरन्तरं, स्वर मत्र भावना-तत्र दिवा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रौ वसतिमेष साध. सवृत्तिकोऽनिच्छाधीनप्रवृत्तिकः । तमुक्तम्-'स्वरसवाही पःप्रतियन्ति, सा अभिनपेधिकी । अनिधिक्यामेव स्वाविषोऽपि तथारुढोऽभिनिवेशः' इति।२०। द्वा०२५ द्वा०)"कई ध्यायं कृत्वा रात्रिमुपित्वा प्रत्यूषे वसतिमुपागच्छन्ति सा : बको पत्थ विचारे सोऽनिणिवेसेण अन्नहा कम्मं वज्जर " अनिनिषद्येति । तामभिनिषद्यामभिनषेधिक वा (चेति तप इति) श्रा० म०दि। गन्तुं,तत्र, नो नैव, से' तेषां पारिहारिकाणामपारिहारिकाणांच अभिणिवेह-अजिनिवेध-त्रि० । वेधने, वाच । उन्माने, कल्पते,स्थविरान् आचार्यादीन अनापृज्य (एकान्ततः) एकान्ते आ० म०प्र०। विविक्तप्रदेशे, वृसत्यन्तरेवा अनिनिषद्यामभिनषेधिकी वा ग. तुम, उच्छासनिश्वासव्यतिरेकेण शेषसाधुव्यापाराणां समस्ताअनिणिध्वगमा--अनिनिवगमा--स्त्री० । अनि प्रत्येक निय नामपि गुरुपृधाचीनत्वात् । तदेवं प्रतिषेधसूत्रमभिधाय सतो वगडः परिक्वेपो यस्यां सा अनिनियगडा । पृथक्परिके म्प्रति विधिसूत्रमाह-(कप्पति एवं थेरे श्रापुच्छिता ) - पायाम, व्य० ६ उ०। त्यादि सुगमम् । इह पारिवारिका नाम आपत्रपरिहारतपसोअभिनिाकृता-स्त्री०।पृथगविविक्तद्वारायांघसतो,व्य०१० ऽभिधीयन्ते । अभिणिचट्ट-अभिनिवृत्त-त्रि० । साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमा तत्र चोदकं प्राह - दिकमानिनिर्तनात्संपादिते, आचा०१ श्रु०६ ०१ ०। । पुवंसि अप्पमत्तो, भिकाबू उववामितो जयंतेहिं । Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) अभिणिसजा अनिधानगजेन्डः। अभिणिसज्जा एको व मुवे होजा, बहुया न कह समावना ॥ चेतेति निाम दिया वा, सुतत्थ निसीहिया सान॥ पूर्वस्मिन् कल्पे नाम्नि अध्ययने भिकरप्रमत्तो नदन्तः परमक- | मझायं कालणं, निसीहिया तो निमि चिय नवेति । व्याणयोगिभिरुपवर्णितः,नतः कथं परिहारतपःप्रायश्चित्ताऽऽर- अनिवसिउं जत्थ निसिं, उति पातो तई सेज्जा ।। त्तिर्यतः पारिहारिका जवेयुः?। अपि च-एको द्वौ वा पारिहारत तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृताः अस्मिन्निति स्थानम् । निषेधेन पापद्येयाताम, एकस्य एकाकिदोषाणां द्वयोरसमाप्तकल्पदो स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निवृत्ता नषेधिकी। पाणां संभवात् । ये च बहवस्ते च समाप्तकल्पकल्पत्वात् ततः स्थानमिति वा, नषेधिकीति वा (एगट्टमिति) एकार्थमः परस्परं रकणपरायणाः कथं पारिहारिकत्वं समापन्ना शति ? द्वावप्येतो तुल्यार्थाविति भावः। व्युत्पत्त्यर्थस्य द्वारप्यविशिष्टअत्राचार्य पाह स्वात् । यत्र स्थानमेवं स्वाध्यायनिमित्तमेकं, न तु कर्द्धस्थानं चोयग ! बहुउप्पत्ती, जोहा व जहा तहा समणजोहा । अवाग्वर्तनस्थानं बा चेतयन्ति । निशि रात्री दिवा वा सा दबच्चबणे जोहा, भावच्छलणे समणजोहा ।। सत्रार्थहेतुलता नैषधिकी । एतेनास्मिन् या धिक्युदे चोदक! परीपहाणामसहनेन श्रोत्रेन्द्रियादिविषयेवियानि क्ता सा सूत्रार्थप्रायोग्या नेषोधकी प्रतिपत्तव्या, नतु कालटेषु रागद्वेषाभिगमनेन परिहारतपःप्रायश्चित्तस्थानापत्या बह करणप्रायोग्या नषेधिकी प्रतिपत्तव्या । किमुक्तं भवति , नां पारिहारिकाणामुत्पत्तिन विरुद्धा । अथवा-यथा योधाः स. यस्यां नेषेधिक्यां दिवा स्वाध्यायं कृत्वा दिवैव, यदि वा श्रद्धबद्धकवचा अपि रणे प्रविष्टाः प्रतिपन्थिपुरुषैस्तथाविधं निशि च स्वाध्याय कृत्वा निश्येव निशायामवश्यं नैपेधिकमप्यवसरमवाप्य देशतः, सर्वतो वा छल्यन्ते, तथा श्रमण की वसतिमुपयन्ति सा अभिनषेधिकी । यस्यां पुनधिक्यां योधा अपि मूलगुणोत्तरगुणेष्वत्यन्तमप्रमत्ततया यतमाना अ. दिवा निशायां वा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रातर्वसतिमु. पिछलनामाप्नुवन्ति । सा च छाना द्विधा-व्यतो, भावत. पर्यान्त (तई इति) तका अभिशय्या अभिनिषद्येति जावः । इन । ऽव्यतश्छलना खड्गादिभिः। भावतः परीवहोपसर्गायैः । अथ स्थविरा प्रापृष्टा अपि यदा न ब्रुवन्ति, तदा किं नत्र व्यच्छमने व्यतश्चलनविषयाः, योधा रणे प्रविष्टा भटाः, कल्पते, न चा? । इत्याशङ्कायामाह-(थेरा एहमित्यादि ) भावच्यने जावच्छलनविषयाः श्रमणयोधाः॥ स्थविरा आचार्यादयः, चशब्दो वाक्यभेदे, एहमिति सम्प्रति यदुक्तं यथा याधास्तथा श्रमणयोधा इति तद्व्याख्या वाक्यालङ्कार, स तेषां पारिहारिकाणामपारिहारिकाणांचा विनयति तरेयुरनुजानीयुरेनषेधिकीमनिशय्यां वा गन्तुं, एवममुना प्रकाआवरिया वि रणमुहे, जहा सिजति अप्पमत्ता वि।। रण,एडमिति पूर्ववत् ,कल्पते अभिशय्यायामनिनषेधिक्यां वा उनणा वि होइ विहा, जीवनकरी य इयरी य॥ (चते तए इति) गन्तुम । (येरा एहमित्यादि) स्थविराः,एह मिति प्राग्वत् । नो नैव, तेषां वितरेयुरेवममुना प्रकारेण नो यथा योधा आवृता अपि सन्नरसन्नाहा अपि अप्रमत्ता अपि कल्पते एकान्ततोऽभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा गन्तुम। (जे णचरणमुखे प्रविष्टाः प्रतिनटेश्य न्ते । सा च छमना द्विधा मित्यादि) यः पुनर्णमिति वाक्यालङ्कतो, स्थविरैरवितीणोऽनजीवितान्तकरी, इतरा च । तत्र यया जीवताद् व्यपरोप्यते सा जीवतान्तकरी, यया तु परितापनाऽऽद्यापद्यते नापजावणं नुज्ञातः सन् एकान्ततो अभिनिषद्यामभिनषेधिकी वा (चेतेश) सा इतरा। गच्चति, ततः (से) तस्य स्वान्तरात् स्वकृतमन्तरं स्वान्तरं तस्मात् , यावत्र मिलति यावद्वा स्वाध्यायभूमनोत्तिष्ठति तामूलगुण उत्तरगुणे, जयमाणा वि हुतहा लिज्जति । वट् यद् विचालं तत् अन्तरं तस्मात्स्वकृतादन्तरात दो वा भावच्छन्नाणा य पुणो, सा वि य देमे य सव्वे य॥ पञ्चरात्रिन्दिवादिका, परिहारो वा परिहारतपो वा मासलघु. तथा यतयो रागादिप्रतिपक्कभावनासन्नाह सन्नका यथा- कादिः । एष सत्रार्थः॥ गर्म मूलगुणेषुत्तरगुणेषु चात्यप्रमत्ततया यतमाना अपि 'हु' मधुना नियुक्तिविस्तरःनिश्चिनं, भावग्छलनया परीपहोपसर्गादिभिःसन्मार्गच्यावनरूपया कल्यन्ते । साऽपि च जावचलना द्विधा-देशतः, सर्वतश्च । निकारणम्मि गुरुगा, कजे लहुया अपुच्चणे बहुओ। तत्र यया तपोऽहं प्रायश्चित्तमापद्यते-सा देशतो जावच्चलना। पमिसेहम्मि य लहुया, गुरुगमणे होतऽणुग्घाया ॥ यया मूलमानोति-सा सर्वतः। यदि निष्कारणे कारणाभावे अनिशय्यामभिनषेधिकी वा एवं परिहारीया-परिहारीया व होज बहुया तो। गच्छन्ति, ततस्तेषां प्रायश्चितं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः। अथ ते एगत निसीहिय-मनिसिजं वा वि चेएजा॥ कायें समुत्पन्ने गच्चन्ति, तत्र प्रायश्चित्त लघुकाश्चत्वारो लघुयतो रणे प्रविटा योधा श्व भ्रमणयोधा अपि परीषदादि मासाः। कार्यमुपरिष्टाद् वर्णयिष्यते । यदि पुनः कार्ये समुत्पन्ने भिश्छल्यन्ते, नत एवमुक्तेन प्रकारेण, बहवः पारिहारिका अपा अनापृच्न्य गच्छन्ति, तदा अपृच्छने लघुको मासलघुः । रिडारिकाच नवेयः । तदेवं पारिहारिकापारिहारिकवहुन्वमुप पृच्छायामपि कृतायां यदि स्थविरैः प्रतिषेधे गच्छन्ति ततो पाद्याधुना सत्रावयवान् व्याचिण्यासुराह-(ते पगंत इत्यादि) ते लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः। (गुरुगमणे इत्यादि) गुरुराचार्यः बहवः पारिहारिका अपारिहारिका वा एकान्तन एकान्ते विवि स यदि गच्छत्यभिशय्यामनिनषेधिकी वा ततस्तस्य. भवन्त्य-- के प्रदेशे प्रत्यासने दूरतरे वा नैपधिकमभिशय्यां वापि अनि- नुयातगुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः॥ निषद्यामपि चेतयेयुगच्छेयुः, गन्तुमिच्छयुरित्यर्थः । ये पुनर्वसतिपासाः समर्था निक्कवस्ते यदीच्छन्ति ततस्तेषामितत्र का नवेधिकी, का वा अतिशय्या ?, इति व्याख्यानयति- मे दोषाःगणं निसीहि य ति य, एगह जत्थ ठाणमेवेगं । तेणाऽऽदेमागलाणे, कामणइत्थीनपुंसमुच्चा वा Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिगिसज्जा अभिधानराजेन्द्रः। अनिणिसज्जा ऊणतणेण दोसा, हवंति एए उ वसहीए। गमे च बहनां स्वगच्छपरगच्छीयानां सूत्रार्थहानिः,प्रायकादीनां ये वसतिपानास्तर्वसतेरूनत्वे हीनत्वे पतेगाथापूर्वाकोला दोषण धर्मदेशनाश्रवणव्याघातः, लोके चावर्णवादः । यथा-विनर्माता भवन्ति । तद्यथा-स्तेनाचोरास्ते 'गताः साधवो वसतेः' इति एत शिष्या इति । गतमादशद्वारम् । कारवा बसतावापतेयुः, आदेशा आघूर्णकास्ते वा समागच्नेयुः, अधुना ग्लानद्वारमाद-- तेषां च समागतानामविधामणादिप्रसाक्तिः, समर्थसाध्वनावात् । (गिहाण ति) ग्लानो वा, तेषामभावे व्याधिपीमितो सयकरणमकरणे वा, गिमाणपरितावणा य मुविहो वि । समाधिमाप्नुयात् । (कामण त्ति) दाहो वा प्रदीपनकेन वस बालोवहीण दाहो, तदध्मलो व आदित्ते ॥ तेयात् । तथा स्तोकाः साधवो वसतौ तिष्ठन्तीति स्त्रियो वसतिपालेवभिशय्यादिगतेषु, द्विधा द्वाज्यामपि प्रकाराभ्यां नपुसका या कामविहलाः समागधेयुः। तत्रात्मपरोभयस. मानस्य परितापना । तद्यथा--स्वयंकरणे, प्रकरणे वा । मुत्था दोषाः। तथा मूर्ग कस्यापि पित्तादिवशतो भूयात् । तथाहिन्सानो यदि स्वयमद्वर्तनादिकं करोत,तदाऽपि तस्याऽ. तदेवं यतो वसतिपासानामिमे विनिर्गमे दोषास्तस्मातैरपि नागादादिपरितापनासंभवः । अथ न करोति, तथापि परिता. शय्यादिषु न गन्तव्यमित्येष द्वारगाथासंकेपार्थः। पनासंभवः, ततस्तनिमित्त प्रापद्यते तेषां प्रायश्चित्तम्। अन्यथ प्यासाथै तु भाष्यकृदाह या पश्चान्मुक्तो वसतिपालः स यदा प्रनूतं ग्लानस्य मानानांचा सुविहाऽवहार सोही, एसणघातो या य परिहाणी। कर्तव्यं करोति, तदा सोऽपि परितापनमनागाढमागाढं वा उपद्यते; ततस्तद्धेतुकमपि प्रायश्चित्तम् । गतं ग्लानद्वारम् । पाएसमविस्सामण-परितावणया य एकतरे॥ अधुना कामणद्वारमाह-(बालोवहीणमित्यादि) तेषु समर्थेषु स्तनरपहारो द्विविधः। तद्यथा-साध्वपहारः, सपध्यपहारचा वसतिपालेषुबासं बसतिपालं मुक्त्वा अभिशय्यामभिनषेधितस्मिन् द्विविधेऽप्यपहारेशोधिः प्रायश्चित्तम् । तद्यथा-पोका की वा गतेषु अग्निकायेन प्रदीप्ते उपाश्रये बाहानामुपधीनां च साधुमपहरन्ति स्तेनास्तदा वसतिपाक्षानां प्रायश्चित्तं मूलम् ।। दाहो भवेत् । तत्र योकोऽपि साधुम्रियते तदा चरमं पाराञ्चिअथ द्वावपहरन्ति ततोऽनवस्थाप्यमात्रिप्रभृतीनामपहरणे पारा- कं प्रायश्चित्तम् । अथ न म्रियते किन्तु दाहमागाढमनागादं या श्चिकम् । तथा जघन्योपध्यपहारे-पञ्चरात्रिन्दिवम् । मध्यमो- परितापनमामोति तदा तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् । अथोपधिजघपध्यपहारे मासलघु । उत्कृष्टोपध्यपहारे चतुर्गुरुकम्। तथा पप- न्यो मध्यम उत्कृष्टो वा दह्यते ततस्तनिष्पनं प्रायश्चित्तम् । णाया घातःप्रेरणमेषणघाता, स च स्यात् । तथाहि-भवत्यु- (तदमनोवत्ति)तदर्थ बालनिस्तारणार्थम, उपधिनिस्तारणापधिपात्रादिकमन्तरेण एषणाघातः, तत एषणाप्रेरणे यत्प्राय- थै वा अन्यः प्रविशेत, तदा कदाचित्सोऽपि बालो दोत विसं तदापद्यते तेषां वसतिपालानामिति । तथा (जाय प. अन्यश्च प्रविशन ततस्तदुभयानिमित्तमापद्यते प्रायश्चित्तम,सोके रिहाणि सि) या च परिहाणिरुपधिमन्तरेण शीतादिबाधित- च महान् अवर्णवादः । गतमग्निद्वारम् । स्य,तन्वेषणप्रयतमानस्य वा,सुत्रार्थस्य च भ्रंश, तनिमित्तकमपि समापद्यते प्रायश्चित्तम्। तत्र सूत्रपौरुप्या प्रकरणे मासमघु। अधुना स्त्रीनपुंसकद्वारमाहअर्थपौरुच्या प्रकरणे मासगुरु । अथोपधिगवेषणेन दीर्घकालतः इत्थीनपुंसगा विय, प्रोमत्तणो तिहा भवे दोसा। सूत्रं नाशयन्ति ततश्चतुसंधु । अर्थनाशने चतुर्गुरु । तथा तेषु अनिघाय पित्ततो वा, मुच्छा अंतो व बाहिं च ॥ वसतिपालेषु साधुवभिशय्यादिगतेषु आदेशानामाघूर्णकानां त्रियो नपुंसकों वा, अवमत्वेन हीनत्वेन, 'स्तोकाःसाधयो समागतानामध्यपरिश्रान्तानामविश्रामणे या अनागाढा प बसतो तिष्ठन्ति, परिणतव्रताश्चान्यत्र गता वर्तन्ते' इति कात्या रितापनोपजायते, तनिष्पन्नमपि तेषामापद्यते प्रायश्चित्तम् । समागच्छेयुस्त दागमने च त्रिधा आत्मपरोजयसमुत्थत्वेन दो(एकत्तरे ति) तेषु वसतिपालेवभिशय्यादिगतेषु यो मुक्त एकतरो वसतिपालः, स एको द्वौ बहवो था, 'यद्यागच्छन्ति पाः स्युः । तथादिन्यत् ख्यादिकमुपलभ्य स्वयं कोभमुपय न्ति साधवा, एष भास्मसमुत्थो दोषः । यत्पुनः स्वयमचुभ्यतः मापूर्णकातेसर्वेऽपि नियमतो विश्रमयितव्या इति जिनप्रवच साधून बलात् स्यादिकं क्षोभयति, एष परसमुस्थः । यदा तु नमनुस्मरन् बहून्प्राघूर्णकान् विनामयन्यदनागाढमागादंषापरितापनामामोति तनिमित्तकमपि समापतति तेषां प्रायश्चित्तम्। स्वयमपि तुज्यन्ति, स्यादिकमपि च कोभयात, तदा उभयसाम्प्रतमस्या एव गाथायाः पश्चार्क व्याख्यानयति समुत्थ इति ॥ मूर्गद्वारमाह-(अनिघातेत्यादि ) वस तेरन्तःस्थितस्य वसतिपालस्य कथमपि जराजीर्णत्वादिना भादेसमविस्सामण-परितावण तेसऽवच्छलत्तं च ।। पतस्यां बसती काष्ठादिभिः शरीरस्योपरि निपतद्भिर्यगुरुकरणे घि य दोसा, हवंति परितावणादीया ॥ हिर्वा घसतेः स्थितस्य कथमपि वातादिना पात्यमानेन मादेशानां प्राघूर्णकानामविश्रामणे, 'गाथायां मकारोऽलाक्षणि तरुणा , तरुशाखाया वा अनिघातेन मूर्ग भवेत् । - पत्रक्षणमेतत्-अनागाढा आगाढा वा परितापना स्यात् । यदि का,' एवमन्यत्रापि कष्टव्यमा दीर्घावपरिश्रमतो यदनागाढमा वा बसतेरन्तर्बहिर्वा व्यवस्थितस्यापि ततः पित्तप्रकोपतो मगादंषा परितापन, तथा तेम्वादेशेषु समागतेषु अवत्ससत्वमा र्ग जवेत । तत एकाकिनः सतस्तस्य को मूर्गमुपशमयेत्।। वात्सल्यकरणं तनिष्प तेषां प्रायश्चित्तम् । अम्यच वसति ततस्तनिष्पन्नप्रायश्चित्तसंभवः, प्रभूतश्च जनापवादः। तदेवं पपामेष्वपि शय्यादिगतेषु प्राघूर्णकानां समागतानामन्याभावे वाम्मुक्तानां वसतिपालानां दोषा अभिहिताः। गुरुः स्वयं वात्सल्यं करोति,गुरुकरणेऽपि च दोषा जयन्ति परितापनादयः। तथाहि-गुरोः स्वयं करणे सुकुमारतया अनागाढमा सम्प्रति ये अतिशय्यादिगतास्तेषां दोषानभिधित्सुरिदमाहगाईचा परितापनं स्यात् परितापनाघरोगसमागमः,रोगसमा जत्थ विय ते पयंती, अभिसेजंवा निसीहियं वा वि। Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१%) अभिणिसज्जा अनिधानराजेन्द्रः । अभिणिसज्जा तत्थ वि य इमे दासा, होति गयाणं मुणेयव्या ।। । दित्ता अदित्ता व तहिं तिरिक्खा ।। यत्रापि च विविक्ते प्रदशे ते निष्कारणगामिनो अभिशय्या- | चन प्पिया वालसरीसिवा वा, मभिनषेधिकी वा व्रजन्ति, तत्रापि तेषां गतानामिमे वक्ष्यमा- एगो व दो तिमि व जत्थ दासा ॥ णा दोषा भवन्ति ज्ञातव्याः। तत्र अतिशय्यायामन्निनैघोधिक्यां वा चतुष्पदाः तिर्यश्च विधा तानेवाऽनिधित्सुओरगाधामाद भवेयुः। तद्यथा-जुगुप्सिता नाम निन्दिताः,ते च गर्दभाप्रतृतयः। वीयारतणार-विखतिरिक्खा इत्यिो नपुंसा य । तद्विपरीता अजुगुप्सिताः, गोमहिप्यादयः । एकैके द्विधा; तद्य था-दृप्ताश्च दर्गामाता, तद्विपरीता अस्प्ताः, न केवलामस्थ सविसेसतरा दोसा, दप्पगयाणं हवंतेते ॥ म्तूताश्चतुष्पदा नवेयुः,किंतु ज्याला जङ्गादयः, सरीसृपा वाकथमप्यकालगमने विचारे विचारभूमावप्रत्युषेहितायां, । गृहगोधिकादयः, इत्थम्नूतेषु च तिर्यक्षु चतुष्पदेषु व्यानसरीतथा स्तेनाशङ्कायां [प्रारक्खित्ति] आरककाशङ्कायां वा, तथा सृपेषु, एको द्वौ त्रयो वा दोषा भवेयुः । तत्र एक:-श्रात्मविरानिरां चतुष्पदादीनां संजवे, तथा स्त्रियो वा दत्तसंकेतास्तत्र धनादीनामन्यतमः, द्वौ साधुजेदेनात्मविराधनासंयमविराधने, तिष्ठन्ति, नपुंसका वा दत्तसंकेतास्तत्र तिष्ठन्ति-इत्याद्याशङ्का प्रयः-कस्याप्यात्मविराधना, कस्यापि संयमविराधना, कस्यायामेते वक्ष्यमाणाः सविशेषतरा दोषा दर्पगतानां निष्कारण- प्युभयविराधनेति । अत्र चतुर्भङ्गी-कस्याप्यात्मविराधना, न गतानां जवन्ति । संयमविराधना १, कस्यापि संयमविराधना, नात्मचिराधना २, तदेव सविशेषतरत्वं दोषाणां प्रतिहारमभिधित्सुः प्रथमतो कस्याप्यात्मविराधनाऽपि संयमविराधना ३, कस्यापि नोविचारद्वारमधिकृत्याह भयबिराधनेति । उपलक्षणमेतत-जुगुप्सिततिर्यक्चतुष्पदसं. भवे विरूपाऽऽशङ्कासंभवतः प्रवचनोडाहोऽपि स्यादिति । अप्पमिलेहियदोसा, अविदिमे वा हवांत उनयम्मि । गतं तिर्यग्कारम् । वसहीवाधाएण य, एतमणंते य दासा उ । अधुना स्त्रीनपुंसकद्वारे युगपदभिधित्सुराहयदि नाम ते दर्पहताः कथमप्यचक्षुर्विषयवेलायां गता भवेयुः, ततः संस्तारकोच्चारप्रश्रवणादिषु भूमिध्वप्रत्युपक्कितासु ये संगारदिन्ना व उति तत्थ, दोपा ओघनियुक्ती सविस्तरमाख्यातास्ते सर्वेऽप्यत्रापि वक्त ओहा पमिच्छति निलिच्छमाणा। व्याः। तथा विकालवेलायां गमने यदि कथमपि शय्यातर उ इत्थी नपुंसा व करेज दोसे, चारप्रश्रवणयोग्यमवकाशं न वितरेत् ततोऽवितीणऽननुशाते तस्सेवणवाएँ जति जे उ॥ अवकाशे जयस्मिन् उचारप्रश्रवणकणे जवन्तिदोषाः तथाहि संगारः संकेतः, स दत्तो यैस्ते संगारदत्ताः, निष्ठान्तस्य परयदि अननुझाते अवकाशे उच्चारं प्रश्रवणं वा कुर्वन्ति तदाकदाचित् शय्यातरस्तेषामेव वसत्यादिव्यवच्छेदं कुर्यात, यदि वा निपातः प्राकृतत्वात, सुखादिदर्शनाश । दत्तसंकेता इत्यर्थः । सामान्येन दर्शनस्योपरिविद्वेषतःसर्वेषामपि साधूनामिति। अथ इत्यम्भूताः सन्तस्तत्राभिशय्यादिषु उपयन्ति गच्चन्ति, एवं वा कथमप्यत्राकणिकतया वसतेरनिशय्यारूपाया व्याघातो ज. लोकानामाशङ्का भवेत् । अथवा तत्र गतेषु जनानामेववेत,ततोरात्रिमूझवसतिमागच्छतां तेषां श्वापदादिभिरात्मवि. माशङ्का समुपजायते । तथा स्त्रियो नपुंसका वा ओघा इति । राधना । अथ नायान्ति वसति तदा अभिशय्यायाः समीपे अप्र तन्मुखान् निरीक्षमाणाः प्रतीकाते, ततोऽमी गताः। यदि वा त्युपेक्तिस्थानाश्रयणतः संयमविराधना । गतं विचारद्वारम् । तासां स्त्रीणां नपुंसकानां वा सेवनार्थ ये तत्रोपयन्ति पुरुषास्ते 'अस्मतरूयादिसेवनार्थमेतेऽच संयताः समागताः' इति दोषान् अधुना स्तेनद्वारमारक्षिकद्वारं च युगपदनिधित्सुराह अनिघाताऽवर्णवादादीन् कुर्युः । सुपा गेहा उवेति तणा, तदेवं यस्मादकारणे निर्गतानामिमे दोषास्तस्मात्र निष्कारणे आरक्खिया ताणि य संचरंति । गन्तव्यं, कारणे पुनर्गन्तव्यम् । तथाचाऽऽहतेणो ति एसो पुररक्खिोवा, कप्पा उ कारणेहिं, अजिसेज्ज गंतुमजिनिसीहिं वा । अन्नोन्नसंकाऍतिवायएज्जा ।। लहुगा उ अगमणम्मी, ताणि य कजाणिमाई तु ।। शुन्यानि गृहाणि, स्तेनाः विवक्षितगृहे प्रवेशनाय वेलां प्रती- कल्पते पुनः कारणैरस्वाध्यायादिबकणैर्वक्ष्यमाणैराभिशय्याकमाणाः, आरक्षिकादिभयतो वा उपयन्ति । तानि च शून्यानि मभिनषेधिकी वा प्रागुक्तशब्दार्थो गन्तुं, यदि पुनर्न गच्छन्ति गृहाणि भारतिकाः पुररक्तिकाः 'मा काश्चदत्र प्रविष्टश्चौरोनू- ततो लघुकाश्चत्वारो लघुमासाः प्रायश्चित्तम् । तानि पुनः यातू'इति संचरन्ति प्रविशन्तिापवमुभयषां प्रवेशसंभवे अन्यो- कार्याणि कारणानि इमानि वक्ष्यमाणानि ॥ तान्येवाऽऽहऽन्याशया प्रारक्षिका अभिशय्यायाम प्रविष्ट साधुमुपलभ्य | अममाश्यपादुणए, संसहे वुट्टिकायसुयरहसे । स्तेन एप व्यवतिष्ठते इति, स्तेना अग्रे प्रविष्टास्तत्र प्रविशन्तं । पढमचरमे सुगं तू, सेसेसु य होइ अभिसेज्जा ॥ साधं दृष्ट्वा पुररक्षक एप प्रविशतीत्येवंरूपया, स्तेना श्रारक्तिका वा अतिपातयेयुः व्यापादयेयुः । गतं स्तेनारकिकद्वारम् । वसतावस्वाध्यायः, प्राधूर्णका वा बहवः समागताः,वसतिश्च सम्प्रति तिर्यगद्वारमाह संकटा, ततः स्वाध्याये, प्राघूर्णकसमागमे, तथा संसक्ते प्रा गिजातिभिरूपाश्रये तथा बृष्टिकाये निपतति गलन्स्यां बसतो, दुगुंचिया वा अदुगुंधिया वा, तथा श्रुतरहस्ये वेदश्रुतादौ व्याख्यातुमुपक्रान्ते, अनिशय्या. Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा अभिधानराजेन्द्रः। अभिणिसम्जा अभिनैपेधिकी वा गन्तव्या। तत्र (पढमचरमे दुगं तू इति) प्रथमे लतीति तत्रापि संयमविराधना, अप्कायविराधनासंजवात् । सूत्रक्रमप्रामाण्यादस्वाध्याये,चरमे श्रुतरहस्ये, द्विकमभिशय्या- अन्य वृष्टिकाये निपतति उपधिका येन तीम्यते, स्तामितेन भिनैवधिको लक्षणं यथायोग्यं गन्तव्यं, शेषेषु च प्राघूर्णकस चोपधिना शरीरबग्नेन रात्रौ निता नायाति, निझाया अन्नावे सक्तवृष्टिकायरूपेषु, भवत्यनिशय्या गन्तव्या। च अजीर्णदोषः । तस्मात् संसक्तायां बसतो वृष्टिकाये च नितत्रास्यनानुपूर्व्यपि व्याख्याया इति न्यायख्यापनार्थ प्रथ पतति नियमतो गन्तव्या अतिशय्येति । तदेवमुक्तं गन्तव्यकामतः श्रुतरहस्यमिति चरमद्वारं विवरीषुरिदमाह रणम् । तथा चाऽऽद् दिट कारणगमणं, जइ य गुरु वच्चए तो गुरुगा। बेयसुयविजमंता, पाहुमि अवगीय महिमदिटुंता। इइ दोसा चरमपए, पढमपए पोरिसीभंगो।। ओरालइत्यिपेक्षण, संका पञ्चत्थिया दोसा ।। हमुपलब्धं जगवत्रुपदेशतः पूर्वसूरिभिः, कारणे अस्वाध्यावेदश्रुतानि प्रकल्पव्यवहारादीनि, तानि घसती अपारणाम- यादिलकणेऽभिशय्यायां गमन, तत्र यद्येवं दृष्ट कारणगमने कोऽतिपरिणामको वा शृणुयात, तथा विद्यामन्त्रांश्च वसतीक गुरुरभिशय्यामभिनषेधिकी वा व्रजेत् ततस्तस्य प्रायश्चि. स्यापि दीयमानान् अविगीतो निर्द्धर्मा शृणुयात,प्रानृतं वा यो तं गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः । को दोपणे गुरुगमने इति निप्रानृतादिरूपं वसती व्याख्यायमानम्, अविगीतः कथमपि चेत्, अत पाह-(ोरालेत्यादि )आचार्यः प्राय उदारशरीरो गृणुयात् । तच्छ्रवणे च महान् दोषः। तथाचात्र महिषहष्टान्त: भवेत् , सहाया अपि च कथमपि तस्य स्ताका अभूवन्, ततः "कयाइ जोणिपाहुरे वक्खाणिज्जमाणे एगण आयरियाईण काश्चन स्त्रियः सहायादीन् स्थापयित्वाऽस्य हृदयादिना प्रेरयेयुः। अदिस्लमाणेण निकम्मेण सुयं । जहा-अमुगदवसंजोगे अन्यच्च-शय्यातरादीनां शङ्का समुपजायते,तथाहि-किं वसतामहिसो समुच्छ; तं सोउं सो उत्थाविओ गतो अन्नम्मि गणे, वाचार्यो नोषितः, नूनमगारी प्रतिसेवितुं गत इति । यदि वा तत्थ महिसे दव्वसंजोगेण समुच्छावित्ता सागारियहत्थे स प्रत्यर्थिका प्रत्यनीकाःप्रतिवाद्यादयोऽल्पसहायमुपज्य विनाविक्किण, तं पायरिया कहमवि जाणित्ता तत्थ आगया, उदं. शायाऽऽययुः। तत एवमाचार्यगमने दोपाः,तस्मात्तेन न गन्तव्य. तो से पुच्चितो, तेण सन्जावो कहिओ । पायरिया भणंति मिति, न केवलमाचार्येण न गन्तव्यं किन्त्वेतैरपिन गन्तव्यम् । श्रमं सुंदरसुवम्परयणजुत्तादि गेएह । तेण अज्झवगयं । ततो केते एते?, इत्याहआयारपदि भणियं-अमुगाणि दब्वाणि यतिरिक्त्रसंजोएज्जासि ततो पनूयाणि सुवमरयणाणि भविस्सति । तेण तदा गुरुकरणे पडियारी, भएण बलवं करेज्ज जे रक्खं । कयं, समुत्थितो दिछीविसो सप्पो, तेण दिट्ठो मतो"। ततोऽ. कंदप्पविग्गही वा, अवियत्तो गणदुट्ठो वा ।। निशय्याऽभिनषेधिकी वा गन्तव्या। तथा प्रथमपदमस्वा गुगेराचार्यादेः करणे करणविषये ये प्रतिचारिणः प्रतिचारध्यायबाणं, तत्र दोषः पौरुषीभङ्गः । श्यमत्र नावना-अस्वा काः कायिकमात्रकादिसमर्पका विथामकाच, सर्म गन्तव्यं, तेषां ध्याये वसतावुपजाते स्वाध्यायकरणार्थमवश्यमनिशय्यायाम गमने गुरोः सीदनात् । तथा भयेन पश्चाद्वसतावपान्तरालेभिनषधिक्यां वा गन्तव्यम्, अन्यथा सूत्रपौरुष्या अर्थपौरुष्या ऽभिशय्यायांवा तस्करादिभयेन समुत्थितेन सर्वैरपि साधुभिः वा भङ्गः । तद्भङ्गे च तन्निष्पन्नप्रायश्चित्तापत्तिः।गतं चरमद्वार- न गन्तव्यम् , आत्मसंयमविराधनादोपप्रसङ्गात् । तथा यो मस्वाध्यायद्वारंच। बनवान् गुर्वादीनां तस्कारादिन्यो रकां करोति, तेनापि न सम्प्रति प्राघूर्णकादिद्वारत्रितयमाह गन्तव्यं, तमने गुर्वादीनामपायसंभवात् । तथा यः कन्दर्पः अभिसंघहे हत्था-दिघट्टणं जग्गणे अजिम्मादी। कन्दर्पशीलः,यश्च विग्रही,तथाचाऽऽराटिकरणशीमा, यो वा यत्र गम्यते तत्र शय्यातरादीनां कैश्चिदपि कारणैः पूर्ववैरादिभिः दोसु असंजमदोसा, जग्गण अबोवहीया वा ।। (अवियत्तो ति) अप्रीतो, यश्च स्थानपुरः, पुरादिष्टः, पतैरपि कदाचिदन्यत्तथाविधवसत्यलाभे साधवः संकटायां वसती सर्वैर्न गन्तव्यम,प्रवचनाडाहात्माविराधनादिदोषप्रसङ्गात् । यदि स्थिता जवेयुः, प्राघूर्णकाश्च साधवो भूयांसः समागताः, तत्र कथमपि ते गच्छन्ति ततो बलादाचार्यादिभिर्वारयितव्या इति । दिवसे यथा तथा वा तिष्ठन्ति, रात्री भूमिषु अपूर्यमाणासुयद्य अथ कारणे समुत्पन्ने तेषां गच्चतां कोनायकः भिशयां न बजन्ति तदा तस्मिन्नुपाश्रये अतिशयन संघट्टः प्रवर्तयितव्यः ?, उच्यतेपरस्परं संहननाभिसंकटतया सोऽभिसंघट्टा,तस्मिन्नेव स्थिता गंतव्य गणावच्छे-दयपचत्तियेरयगीयभिक्ख य । नां परस्परं हस्तपादादीनां घट्टन नवेत, तद्भावे च कलहासमाध्यादिदोषसंनवः । अथैतदोषनयादुपविष्टा एव तिष्ठन्ति, एएसिं असतीए, अगीयए मेरकहणं तु ।। ततो जागरणे रात्री जाग्रतामजीर्णादिदोषसंजयः। अजीर्ण कारणे अस्वाभ्यायादिलक्षणे समुत्पन्ने सति शेषसाधुभिर्गमाहारस्याजरणं, तद्भाबे च रोगोत्पत्तिः । रोगे च चिकित्साया न्तव्यमभिशय्यादि, तेषां च गच्चतां मायका प्रवर्तनीयो गणाचअकरणे असमाधिः, क्रियमाणायां च चिकित्सायां षट्काय- च्छेदको वक्ष्यमाणस्वरूपः । तदभावे प्रवर्ती, सोऽपि वक्ष्यमाणव्यापत्तिः इति गतं प्राघूर्णकद्वारम् । अधुनासंसक्तद्वारं चाह- स्वरूपः, तदभावे स्थविरः, तस्याप्यभावे गीतभिवगीतार्थ: (दोसु असंजमेत्यादि) द्वयोः-संसक्ते उपाश्रये वृष्टिकायेच सामान्यवती। एतेषामसति अभावेऽगीतार्थोऽपि माध्यस्थ्यादिनिपतति, असंयमविराधनारुपी दोषी । तथाहि-संसक्तत्वे - गुणयुक्तः प्रवर्तनीयः । केवलं तस्मिन्नगीतार्थे (मेरकहणं न प्रत्युपेक्षणीया वसतिरिति, तत्रावस्थाने स्फुटा संयमविरा- इति) मर्यादायाः सामाचार्याः कथनम्-यथा साधूनांमावश्यके धना । तथा वृष्टिकायेष्वपि निपतितेषु कचित्प्रदेशेषु वसतिर्गः भालोचनायां प्रायश्चित्तं दीयते, नमस्कारपौरुष्यादिकं च Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२०) अभिणिसज्जा निधानराजेन्द्रः । अभिणिसज्जा प्रत्याख्यायने यस्मै दातव्यामित्येवमादि सर्वे कथ्यते ति भावः। मपि मूवत एव न कुर्वन्ति । यदि वा अप्रस्थापिते कुर्वन्ति । कथं किस्वरूपः सोऽगीतार्थो नायकः स्थापनीयः?,श्त्यत पाद- यदि वाऽकालिकवेलायामुत्कालिकवेलायां वा कुर्वन्ति । मज्जत्थोऽकंदप्पी. जो दोसे विहइ हो चेव । सम्प्रति आवश्यकादिद्वारत्रितयमाहकेसु न ते सीएज्जा, दोसेसुं ते इमे मुणसु ॥ न करेंती श्रावस्सं, हीणाहियनिविट्ठपाउयनिसमा । मध्यस्थो-रागद्वेषविरहितः, अकन्दी-कन्दर्पोद्दीपनभाषिता- | दंडगहणादि विणयं, रायणियादीण न करेंति ॥ दिविका, एवंभूतो नायकः स्थापनीयः । तेन च साधयोs आवश्यकं मूलत एव न कुर्वन्ति,यदि वा हीनमधिकंचा,कायोसमाचारी समाचरन्तः शिकणीयाः, शिकमाणाश्च यदि कथ त्सर्गाणांहीनकरणतःकुर्वन्ति,अधिकं वाऽनुप्रेक्षाथै कायोत्सर्गायेयुः, यथा-यदि वयमेव कुर्मस्ततस्तव किम् ?, कस्त्वम् , णामेव चिरकालकरणतः कुर्वन्ति । यदि वा निविष्टा उपविष्टाः, इत्यादि, तदा स (लेहओ चेव त्ति) लोचकवत् तेषां सर्वेषां प्रावृताः शीतादिभयतः, कल्पादिकप्रावरणप्रावृता निषसाधूनां दोषान् अविस्मरणनिमित्तं मनसि लिस्खति, सम्यगव मास्त्ववरवर्तनेन निपतिताः प्रकुर्वन्ति । गतमावश्यकद्वारम् । धारयतीत्यर्थः । श्रथ केषु ते साधवः सीदेयुः, यान् स स्वचेतसि धारयति ?। सरिराह-तान्दोषानिमान् वदयमाणा (दंडगहणादि त्ति) दरामप्रहादौ, दण्डग्रहणं भाएममात्रकादी नामुपलकणम् ,दरामकादीनां ग्रहादौ ग्रहणे,निकेपेच,न प्रत्युपेकन् शृणुत । णं, नापि प्रमार्जनं,दुष्प्रत्युपेक्वितादि वा कुर्वन्ति । गतं दरामवातत्र यदुक्तं "एपसिं असतीए" इत्यादि, तव्याख्यानार्थमाह-| रम । विनयद्वारमाह-(विणयं ति) विनयं रत्नाधिकादीनामा. थेरपवित्नीगीया-ऽसतीए मेरकहंतऽगीयत्ये। । चार्यादीनां यथा रत्नाधिकं न कुर्वन्ति । गतं विनयद्वारम। भयगोरवं च जस्स उ, करेंति सयमुज्जतो जो य ॥ राजादिद्वारकदम्बकमाहस्थविरस्य, प्रवर्तिनः,उपसकणमेतत-गणावच्छेदस्य च, तथा रायं इत्थि तह भ-स्समादि वंतर रहे य पेइंति । गीतस्य गीतार्थस्य भिक्तोरसति अभाये अगीतार्थोऽपि प्रेषणी तह नक्खवीणियादी, कंदप्पादी वि कुव्वति ॥ यः, तस्मिश्वागीतार्थे प्रेष्यमाणे (मेर त्ति) मर्यादा सामाचारी यथोक्तस्वरूपां कथयन्ति, किविशिष्टः सोऽगीतार्थः प्रेष्यः?, राजानं निर्गच्छन्तं वा, स्त्रियं वा सुरूपामिति विशिष्टाभरणाआह-(भयगौरवमित्यादि ) यस्य भयं साधवः कुर्वन्ति, यस्य लकृतामागच्छन्ती वा, तथा 'तिरिक्ख' इत्यस्य व्याख्यानम्चानुवर्तना गुणतो भयतो गौरवं यथोचितं कुर्वन्ति । यश्च स्व प्रश्वादिकमश्वं वा हस्तिनं वा राजवाहनमतिप्रभूतगुणाकीणे, यमात्मना समुद्युक्तोऽप्रमादी,सोऽगीतार्थो नायकः प्रवर्तमीयः। व्यन्तरं.तथात्वविनुत्या विपणिमार्गेषु गच्चतः प्रत्यागच्छतो वा किं कारणमिति चेत् ?, उच्यते-असमाचारीरूपदोषप्रतिष प्रेक्षन्ते । एतेन राजनीतिर्यग्वाणमन्तरद्वाराणि व्याख्यातानि । धनार्थम् । तथेत्यनुक्तसमुच्चयार्थः , स चेदमनुक्तं समुचिनोति-कासप्रत्युअथ के ते असमाचारीरूपा दोषाः ?, अत आह पेक्कणं न कुर्वन्ति, न घा कालं प्रतिजागरति । गतं प्रेक्षाद्वारम् । तथा नखवीणिकादिकं नखैर्वीणावादनम्। प्रादिशब्दादू नखाना पमिलेहएऽसज्झाए, श्रावस्सगदंभविस्यराश्त्थी। परस्परं घर्षणमित्यादिपरिग्रहः । तथा कन्दर्पादि कन्दर्पकोतेरिच्छवाणमंतर-पेहा नहवीणिकंदप्पे ॥ कुच्यकोयुकादि कुर्वन्ति । प्रतिलेखनायामस्वाध्याये आवश्यकइण्डे,उपलक्कणमेतत्-दएम- एएमु वट्टमाणे, अट्टिएँ पमिसेहए इमा मेरा । कादौ विषये,तथा विनये वन्दनकादौ,तथा राशि, स्त्रियां,तिर्यश्नु हियए करेइ दोसे, गुरुए कहणं स देइ ते सोहिं ।। हस्त्यादिषु, वाणमन्तरे वाणमन्तरप्रतिमायां विपणिषु रथेन ग. चन्त्यांप्रेक्कायां कासग्रहणादौ,(नहवीण त्ति)नखवीणिकायांक एतेष्वनन्तरोदितेषु दोपेषु वर्तमानान्, पारयतीति क्रियाभ्यादवा समाचारीरूपाः दोषाः । एष धारगाथासंकेपार्थः। एतेन हारः कृतेऽपि वारणे यदि ते म तिष्ठन्ति, प्रतिषेधन्ति वा-यदि यदुक्तं प्रागुक्तानिमार दोषान् शृणुतेति तद्व्याख्यानमुपक्रान्त षयमेघ कुर्मस्ततः किं तव', को वा त्वम्, इत्यादि । ततोमिति एव्यम् । ऽस्थिते, प्रतिषेधिते था नायके श्यमनन्तरमुच्यमाना (मेर ति) मर्यादा सामाचारी।तामेवाह-दये तान् दोषान् करोति, कत्या तत्र प्रतिलेखनाद्वारमस्वाध्यायद्वारं च विवरीषुराह च गुरवे कथयति , स च गुरुर्ददाति तेषां शोधि प्राय - पमिलेहणसम्झाए, न करेंति हीणाहियं च विवरीयं । चित्तमिति । सेन्जोबहिसंथारय-दंडगनच्चारमादीसु॥ सम्प्रति वक्ष्यमाणार्थसंग्रहाय द्वारगाथामाहप्रतिलेखनां स्वाध्यायं वा मूलत एवम कुर्वन्ति, यदि वा दी. अतिबहुयं पच्चित्तं, अदिस वाहे य रायकराय। नमधिकं विपरीतं वा विपर्यस्तक्रमं कुर्वन्ति । नत्र येषु स्थानेषु प्रतिोखना संभवति, तानि स्थानान्युपदर्शयति-शय्योपधिसं. गणाऽसति पाहुणए, न उ गमणं मास ककरणे ।। स्तारकदएमकोचारादिषु । इयमत्र भावना-शय्या वसतिः, त चोदकवचनम-प्रतिबहुकं प्रायश्चित्तं गुरुमासादिन दातव्यम, स्याः प्रत्युपेक्षणं मूलत एव न कुर्वन्ति, यदि वा हीनमधिकं तहाने बतपरिणामस्यापि हानिप्रसक्तः । अत्र गुरुवचनम्-"जो वा कुर्वन्ति , अथवा यः शय्याया। प्रत्युपेक्षणाकालस्तस्मिन् न जत्तिएण सुज्झर " इत्यादि वक्ष्यमाणं, यः पुनरालोचनाप्रकुर्वन्ति, किन्तु कानातिक्रमेण । एवमुपधेः,संस्तारकस्य,दण्डका- दानेन प्रायाश्चत्तलक्षणं शल्यं नोकरति-तस्मिन्नदत्ते भदत्तादेश्च भावनीयम् । तथा उच्चारादिभूमि न प्रत्युपेक्वन्ते, हीनम- लोचने व्याधो रष्टान्तः । यः पुनराचार्यः शिष्यस्य प्रायश्चित्तधिकं वा, यदि वा कालातिक्रमेण प्रत्युपेक्षन्ते इति । स्थाध्यायः । स्थानापत्ति जाननपिन शोधि ददाति, तस्मिनदस्ते अदत्तप्रा Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२१ ) अभियानगजेन्द्रः । अमिणिसज्ज यश्चित्ते गुरौ दृष्टान्तो राजकन्या । पदैकदेशेन राजकन्याऽन्तःपुरपालकः । तथा "ठाणाऽसति” प्रत्यादि । संकटायां बतौ प्राघूर्ण समागते सति स्थानस्य योग्यभूमिप्रदेशस्य असत धनोऽयं निर्देशः) अविद्यमानत्ये असतो तु नैव गमनं, किन्तु यतना वदत्रमाला काय, तस्यां च यतनायां कर्तुमशक्यमानायामभिशय्यादिषु प्रेत्रयमाणा यदि केचन कर्करायन्ते यथा - अस्मद्वधाय प्राघूर्णकाः समागताः, यद् गन्त म्यमस्माभिरभिशय्यादिषु कर्तव्यं वा रात्री जागरणमिति, तदा तेषां कर्करणे प्रायश्चित्तं मासलघु देयमिति द्वारगाथासंकेपार्थः । साम्प्रतमेगामेव गाथां पिपरीषुः प्रथमतोऽतिवहुकं प्रायश्चित्तमिति व्याख्यानयति अति हुयं वेदिज्जइ, भंते ! मा हु दुरुवेढयो भवेज | पच्छितेहि अर्थने, नियदिसोनिओजा । दन्त ! पर कल्याणयोगिन् !, गुरोर्यदि प्रभूतं गुरुमासादि प्रा चिपदीयते ततः स प्रायश्चितैः समन्ततोऽतिशयेन वेष्टयते प्रतिवेष्टितः सन् मा निषेधे, 'हु' निश्चितं, दुरुद्वेको भूयात्-दुःखेन तस्य प्रायश्चित्तेभ्य उद्वेष्टनं स्यात्, अतिप्रभूतेषु हि गुरु प्रायश्चित्तेषु पदे दीयमानेषु कदाऽऽत्मानमुद्रेयिष्यतीति भावः । अपि च-अकारने यत् तत्र चापदे पदे नि ष्माभिर्दत्तैः प्रायश्चित्तैः स जज्येत भग्नपरिणामो भूयात् । तथा च सति महती हानिः । तस्मात् तं दिज्जउ पच्चित्तं, जं तरती साय कीरऊ मेरा । जा तीर परिहरि, मोसादि अपथम इहरा ॥ प्रायश्चित्तं दीयतां तरति शक्नोति साि 'मेरा' मर्यादा या परितु शक्यते । पाठान्तरं या परिवहितमि ति ) तत्र या परिवोढुं शक्यते इति व्याख्येयम् । उज्जयत्राप्ययं भावार्थ या परिपालयति । मासादि (अपओ इहरा इति) इतरथा प्रभूते प्रायश्चित्ते दत्ते मृषादोष उनयोरपि समुपजायते तत्र गुरोर्माशाधिकदि इतरस्य तु नग्नपरिणामतया तथा परिपालनायोगात् । अन्य अतिमात्रे प्रायश्चित्ते दत्ते युष्माभिरपि पूर्वमाशातनादोष सद्भावितः । अप्रत्ययश्चं शिष्यस्योपजायते, यथा- श्रतिप्रभूतमाचायोः प्रायश्वितं ददति वचैवंरूपं प्रायश्विना प्र पियत सकलजगज्जन्तुहितैषितया तेषामतिकर्कशप्रायश्चित्तोपदेशानायोगात् तस्मात् सर्वमिदं स्वमतिपरिकल्पि तमसदिति । एवं चोदकेनोक्ते गुरुराह जो जत्तिएण सुज, वराहो तस्स तत्तियं देइ । पुत्रमियं परिकहियं परूपमगाइए नारहि ।। चोदक आह-त्वया सर्वमिदमयुक्तमुच्यते यतो देशकालसंननाद्यपेया योऽपराधो पाचन्मात्रेण प्रायश्चितेन स्यापराधस्य शोधनाय तावन्मात्रमेव सूरिः प्रायश्चित्तं ददाति, माधि नानि तच पूर्वमेव घटपटादिभ हरणे जननिक्षेपण" इत्यादिना प्रथेग परिचितं तस्मान्न दोषः ॥ साम्प्रतमदत्तालोचने यो व्याधदृष्टान्त उपन्यस्तस्तं भावयतिकंटगमादिपविट्टे, नोकरई सयं न भोइए कहइ । १८१ अनिणिसज्जा कमीनूऍ वरणगए, आगलं खोजिया मरणं ॥ छह किल व्याधा वने संचरन्त उपानही पादेषु नोपनह्यन्ति, मा हस्तिन उपानहोः शब्दानी पुरिति । तकस्य व्याधस्या पदा बने उपानहीनापतिद्वयोरपि पादयोः कण्टकादयः प्रविष्टाः, आदिशब्दात् किलिञ्जादिपरिग्रहः । तानविन कटादीन स्वयं मोर नापि भार्यायै व्याध्यै कथयति । ततः स तैः पादतलप्रविधैः कण्टकादिभिः पीमितः सन् वनगतो हस्तिना पृष्ठतो धावता प्रेर्यमाणो धावन् कमडीभूतः - स्थले कम इव मन्दगतिरनून्, ततः प्रा. तो हस्ती प्रत्यासन्नं देशम' इति जानन् तुमध्या कोनं गत्वा, (आ. गणमिति) वैकल्यं प्राप्तः ततो मरणम् । एष गाथाऽकरार्थः । नायार्थस्वयम "गो पाटो उपादाग्बम्स पायतला कंटगाईणं भरिया, ते कंटगाध्या नो लयमुकरिया, नोवय वाहीए उद्धराविया, अन्नया वणे संचरतो हथिया दिडो, तो तस्सावंतसाध्या दूरतरं मेसे पतिहे अतिदुक्खेण श्रद्दितो महापायवो इव विन्नमूलो हत्थिनण वेयणभूतो पडितो, हथिया विणासितो" । वितिए सयमुदरती, अडिए जोझ्याएँ नीहरइ | परिमद्दणदं तमन्ना - दिपूरणं वरणगयपज्ञातो || अन्यो द्वितीयो व्याध उपानही विना वने गतः, तस्य वने संचरतः कष्टकादयः पादतले प्रविशस्तान् स्वयमुकरति, ये [च] स्वयमुन राज्यास्त अनुदानोजिया निभा व्याध्या नीहारयति - निष्काशयति, तदनन्तरं तेषां कण्टकादिवेधस्थानानामङ्गुष्ठादिना परिमर्दनं तदनन्तरं दन्तमलादना आदिशब्दात् कर्णमलादिपरिग्रह पूर्ण कटकादिवेधानाम् । ततोऽन्यदा वनं गतः सन् हस्तिना दृष्टोऽपि पत्राविजातीयमाना पटान्तः । साम्यतं दाशीतिक योजनामाद वाहत्याणी साहू, वाहिगुरू कंटकादि अवराहा । सोही य ओमहाई, पमत्यना छ । व्यावस्थानीयाः साधवः, व्याधीस्थानीय गुरु, डकादिम्या नीया अपराधाः, श्रोषधानि दन्तमलादीनि, तत्स्थानीया शोधिः। त्र द्वौ व्याधदृष्टान्तौ तत्र प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । आद्योऽप्रशस्तो, द्वितीयः प्रशस्तः । तत्र प्रशस्तेन ज्ञातेन दृष्टान्तेनोपनयः कर्तव्यः । आचार्योऽपि यदि तान् उपेक्षते, ततः कण्टकादीनामुपेक्षको व्याध श्व सोऽपि दुस्तरामापदमाप्नोति ॥ तथाचाऽऽह पादिमेवंत उपेक्ख न य णं ओवी अकुब्वंतो । संसारहत्यित्वं पाच चित्रयमियरो || इतरोऽपि श्राचार्योऽपि तुशब्दार्थोऽपिशब्दार्थ या प्रतिसेव मानान् उपेक्षतेन तु निषेधतिः न वाकुर्वतोऽकुर्वाणान् प्रायविशमुत्पीडयति न भूयः प्रायधिसदानदण्डेन ताडयन् (प्रायश्चित्तं ) कारयति, स विपरीतम्, श्राचार्यपदस्य हि यथोक्तमीत्या परिपालनफलमचिरात् मोकगमनं तद्विपरीतं संसार एव हस्तिहस्तं प्राप्नोति दुस्तरं संसारमागच्छतीति नायः । उपसंहारमादआलोपालोयण, गुणा व दोसा व वणिया एए । Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिणिसज्जा अनिधानराजेन्पः। अभिगिसज्जा अयमन्त्री दिलुतो, सोहिमदिंते य दिते य ।। सति स्थानस्थ-संस्तारकयोग्यभूमिल क्वणस्य असति, अपिपते अनन्तरादिता बानोचनायां गुणाः, अनालोचनायां दोषा शब्दोऽत्र सामर्थ्यादवगम्यते। असत्यपि, भावप्रधानोऽयं निर्देवर्णिताः । सम्प्रति यः प्रायश्चित्तं ददाति तस्मिन् शोधिमददा. शः। इत्यनावेऽपि, अन्यत्राभिशय्यादौन गन्तव्यम, किन्तु यतना ने, ददाने च, अयं वक्ष्यमाणो राजकन्यान्तःपुरपाल करू कर्तव्या । यदि तया अन्यत्र गमनं कुर्वन्ति, ततो गमने पूर्वोक्ता पोऽन्यो दृष्टान्तः। गुरुकाश्चत्वारो गुरुमासाः प्रायश्चित्तम् । तमेवाह का पुनर्यतना?, तामाह वत्थव्चा वारंवा-रएण जग्गंतु मा य वच्चंतु । निजहादिपलोयण, अवारण पसंगअग्गदारादि । एमेव य पाहुणए, जग्गण गाई अाब्याए । धुत्तपलायण निवकह-ण दंडणं अन्न ठवणं च ॥ घास्तव्या वारंवारण जाग्रतु । श्यमत्र भावना-वास्तव्यानांमध्ये "एगो कम्नतेउरपालगो, सो गोखलएण कन्नानो पलोएनीमो | यो यावन्मात्रमयामादिकं जागरितुं शक्नोति, तावन्मानं जागन वारे, ततो ताो अग्गदारण निफिडिउमाढत्ता, ततो वि | ति, तदनन्तरं जागरितुमशक्नुवन् अन्यं साधुमुत्थापयति,सोऽन बारेइ, ताहे ततो अनिवारिजमाणीओ कया धुत्तेहिं समं पिवजागरणवेनातिक्रमेऽन्यम,एवं बारेण वारण जाग्रतु । यदि पलायाओ, एवं सब्बमवारणादि केणइ रनो कहिय, ततो। पुनर्वास्तव्याः समस्ता अपि रात्रि वारेण जागरितुं न शक्नुवरामानस्ससम्बस्सहरणं कयं,विणासितोय,अमो कामतेउरपालो | न्ति, ततो यदि गाढं न परिश्रान्ताः प्राघूर्णकाः, ततःप्राघूर्णके ठवितो" अरगमनिका-निर्यहो गवाक्षः। गोखलक इत्यर्थः । (अणुव्वाए इति ) अपरिश्रान्ते, एवमेव-धारेण जागरणं स. श्रादिशब्दात्तदन्यतथाविधप्रदेशपरिग्रहः । तेन निहादिना मर्पणीयं, मा पुनः, चशब्दः पुनः शब्दार्थे, व्रजन्त्वभिशय्याम,यप्रोकने अचारणं कृतवान् , ततोऽप्रद्वारादिष्वपि प्रसङ्गः, अप्र- दि पुनर्वास्तव्याः प्राघूर्णकाश्च न वारेण जागरितुं शक्नुवन्ति, द्वारे अन्यत्र वा यथास्वेच्छ तासां कन्यानां प्रसङ्गः । ततोऽन्यदा तदानिशय्या गन्तव्येति । धूर्तेः सह पलायनम् । एतस्य च सर्वस्यापि वृत्तान्तस्य नृपस्य एमेव असंसत्ते, देसे अगलंतए य सम्बत्थ । पुरतः कथनं, ततो राजा तस्य कन्यान्तःपुरपालकस्य दरामनम्, अन्यस्य कन्यान्तःपुरपालकस्य स्थापनं चाकापति । अम्हवहा पाहुणगा,उति रिक्खा उ ककरणा ।। निज्जहगयं द8, वि तिओ कमान बाहरित्ना एं। एवमेव अनेनैव प्रकारेण, संसक्ते उपाश्रये यो देशः प्रदेशोऽ संसक्तस्तस्मिन्नसंसक्ते देशे, तथा वृष्टिकाये निपतति यःप्रदेविणयं करेइ तीसे, सेसभयं पूयणा रना । शो न गलति तस्मिन् प्रदेशे, यतना कर्तव्या । तद्यथा-संसक्काअन्यो द्वितीयः कन्यान्तःपुरपानको निर्मूहगतां गवाक्गतामे-| यां वसती येवबकाशेषु संसक्तिस्तान् परिहत्य शेषेष्वदकाशेकां कन्यां दृष्ट्वा (वाहरित्ता णं ति) एनां व्याहृत्य आकार्य विनयं षु संसक्तिरहितेषु पूर्वप्रकारेण जागरणयतना कर्तव्या । ततो शिक्षां तस्याः करोति, ततः शेषाणां कन्यानामुदपादि भय, दृष्टिकायेऽपि निपतति येववकाशेषु वसतिः निर्गति तानवतेनैव काऽपि गृहद्वारादिषु नावतिष्ठते, न च धूर्तरपहरणम, काशान्परिहृत्य शेषेवगलत्स्ववकाशेषु यतना पूर्ववत्कर्तव्येति। ततः सम्यककन्यान्तःपुरपासनं कृतवानिति राज्ञा पूजना (सम्वत्थ त्ति) यदि पुनः सर्वत्र संसक्ता, सर्वत्र वा गलति, कृता । एष दृष्टान्तः। तदाऽभिशय्या गन्तव्येति । यदुक्तं “मासो त ककरणे"इति, तत्र अयमर्थोपनयः ककरणं व्याख्यानयति-पते रिक्ताः प्राघूर्णका अस्मद्वधाय राया इव तित्थयरा, महतरय गुरू उ सादु कशाओ। उपयन्ति समागच्छन्ति । एवमादिभाषणं ककरणेति। सम्प्रति यदवादीत-आचार्येण न गन्तव्यम, अनापृच्छया वा प्रोलोयण अवराहा, अपसत्यपसत्थगोमाओ॥ . (साधुनिः) न गन्तव्यमिति, तद्विषयमपवादमाहराजा श्व राजस्थानीयास्तीर्थकराः, महत्तरः कन्यान्तःपुरपालका,तत्स्थानीया गुरवः,साधवः कन्यास्थानीयाः, अवलोकन वितियपयं पायरिए, निहोसे दूरगमणऽणापुच्छा। मपराधः। अत्राप्रशस्तेन कन्यान्तःपुरपाकेन, प्रशस्तन चोप- पमिसेहियगमणम्मी, तो तं वसना बलं नेति ।। नयः कर्तव्यः । तद्यथा-प्राचार्यः प्रमादिनः शिष्यान् न वारय- द्वितीयमपवादपदमाचार्यविषये, कसति ?,इत्यत आह-निर्दोष ति, न च प्रायश्चित्तं ददाति, स विनश्यति, यथा प्रथमः कन्या- स्याविदोषाणामभावे, यदि वा निर्गता दोषा यस्मात्तदू निर्दोष न्तःपुरपालकः। यस्तु प्रमाद्यतः शिष्यान् वारयति, प्रायश्चित्तं केत्र,तस्मिन्,तथा दूरे अभिशय्या,ततस्तत्र दूरगमने अनापृच्ग, म यथापराधं प्रयच्छति, स इह लोके प्रशंसादिप्रजां प्राप्नोति, तथा प्रतिषेधितस्य गमने द्वितीयपदमिदम-(तो त्ति) तस्मादेव परलोके च सम्यकशिष्यनिस्तारणतो निर्वाणमचिरादाप्नुया- संझादिस्थानात्परतो यदा वृषना बनानयन्ति, तदा प्रतिषेधित: दिति। प्रतिपृच्छामन्तरेणापि गच्छतीति । एष गाथासंकेपार्थः। सम्प्रति यदुक्तं प्राघूर्णकसमागमे संसक्ते उपाश्रये वृष्टिकाये साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुः प्रथमतः "आयरिए च निपतात अतिशय्या गन्तव्येति तद्विषयमपवादं क्रमेणा निदोसे" इति व्याख्यानयतिनिधित्सुराह-- जत्थ गणी न विनन्जा, जद्देसु य जत्थ नस्थिते दोसा। असझाइए असंते, ठाणाऽमति पाहुणागमे चेव । तत्य वयंतो सुच्छो, इयरे वि दयंति जयणाए । अन्नत्य न गंतव्वं, गमणे गुरुगा उ पुबुत्ता ।। यत्र गणी आचार्यों न झायते, अपिशब्दान्न च तथाविधीअस्वाभ्यायिके असति भविद्यमाने, प्रापूर्णकानामागमे वाs-| दारशरीरो, नापि केनचिदपि सह वादोऽनवता यत्र स्वभावत Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ७५३) अनिणिसज्जा अन्निधानराजेन्छः। अभिाणसज्जा एव भद्रेष्वनुत्कटरागद्वेषेषु लोकेषु प्रागुक्ताः रुयादिसमुत्था छन्, वृषभाश्च येऽन्ये साधवो वसतिमुपयान्ति, तेषां संदेश दोषा न सन्ति, तत्राभिशय्यामपि गच्छन्नाचार्यः शुद्धः, इतरे- | प्रयच्छन्ति। ऽपि ये अनापृच्च्या गच्छन्ति, येऽपि च प्रतिपेधितास्तेऽपि च अथासमीक्ष्य प्रतिषिद्ध इति वृषभाः कथं जानन्तीत्यत श्राहयतनया गच्छन्ति। जाणंति व तं वसना, अहवा वसनाण तोण सन्जावो । ___ का यतना, इति चेदत आह कहितो न मेऽस्थि दोमो, तो एं वसना बक्षा निति ।। बसतीऍ असजकाए, समादिगतो य पाहुणो दह । जानन्ति स्वयमेव तं वृपन्नाः यथा-निर्दोष एषोऽकारणे गुरुणा सोउं व असहाय, वसहिं नवेंति नणइ अने।। प्रतिषिद्धः, अस्मत्समकमेवास्य प्रायोऽवस्थानात् । अथवा तेन षसताबस्वाध्यायो जातो,गुरवश्व संझानुम्यादिषु गताः,ततोऽ- | वृपजाणां सनावः कथितः-यथा न मे कश्चन दोष इति । तत स्वाध्याये,तथा स्वयं(संझादिगतः)संज्ञानमिम,अादिशब्दादन्य एतद् ज्ञात्वा गुरुमनापच्चैव यथोक्तप्रकारेण वृषना बनान्नयद्वा स्थानं प्रयोजनेन गतः सन् प्राघूर्णकान् समागच्छतो दृष्ट्वा न्ति । योऽपि प्राचार्यस्य प्रतिचार्यस्य प्रतिचारी पूर्व प्रतिषिद्धः नूनमस्माकं वसतिःसंकटा प्राघूर्णकाश्च बहवः समागताः, ततो सोऽपि, तत्कर्तव्यं यद् वृषभैः सम्पादितं भवति' शर्त ज्ञात्वा न सर्वेषां संस्तारकयोग्यनूमिरवाप्यते शत विचिन्त्य,तथा पूर्व ततो गच्छत्यभिशय्वामिति न कश्चिदोषः। वसतावस्वाध्यायो नातूत् संझादिगतेन च तेन श्रुतं, यथा-जा- संप्रति अभिशय्याया नैधिक्याश्च दानाहतो वसतावस्वाध्यायस्ततोऽस्वाध्यायं च श्रुत्वा यावद् गुरुणां अभिसेजमजिनिसीहिय, एक्कक्का दावह होइनायव्वा। प्रधु वसतावागच्छति तावद् रात्रिः समापतति, दूरे चानिशय्या, रात्रौ च गच्छतामारककभयं, ततोऽनापृच्छ्यैव ततः एगवगमाएँ अंतो, वहिया संबऽसंबका ॥ स्थानादभिशय्यां गच्छति, केवलं येऽन्ये साधवो वसतिमुपयः या गन्तब्या अभिशय्या,अभिनषेधिकी वा, सा एकैका द्विविन्ति, तान् भणति-प्रतिपादयति, संदिशतीत्यर्थः। धा भवति । तद्यथा-साधुवसतेः (एगवगडाए इति)एकवृत्तिकिं तद् ?, इत्याह परिक्पायामन्तबहिश्च । श्यमत्र नावना-द्विविधा अनिशय्या, एका वसतेरेकवृत्तिपरिक्षेपाया अन्तः, अपरा बहिः। एवं नैपेदीवेह गुरूण इम, दूरे वसही इमो विकालो य । धिक्यपि द्विविधा भावनीया । तूय एकैकाऽनिशय्या द्विविधा। संथारकासकाइय-नूमीपेहट्ठ एमेव ।। तद्यथा-संबद्धा,असंबद्धा च। तत्र यस्या अनिशय्याया वसतेदीपयत प्रकाशयत-कथयतेति यावत् । गुरूणां, यथा-दूरे वस- श्च एक एव पृष्ठवंशः सा संबका । यस्याः पुनः पृथक् पृष्ठवंशः तिरभिशय्या । अयं च प्रत्यक्षत उपनयमानो विकालः समा सा असंबका । अथैकवृत्तिपरिकेपस्यान्तरभिशय्या द्विविधाऽपि पतितः, तत एवमेव अनापृच्छयैव युप्मान,संस्तारकभूमेः काल- यथोक्तप्रकारा घटते, या त्वेकवृत्तिपरिक्वेषस्य बहिःसा नूनमनमीनां कायिकीनूमीनां (कायिकी संज्ञा) उपलकणमेतत्-प्रश्र संबका स्यात्, तस्याः सुप्रतीतत्वात । या पुनः संबद्धा, सा बणतमीनां च प्रेक्वार्थमभिशयां गत इति । एवमनापृच्छाया कथमुपपद्यते ?, उच्यते--यस्या अनिशय्याया वृत्तिपरिक्के. मपवाद उक्तः। पस्य बहिर्भूतायाः, वसतेश्च तल्लग्नायाः पृष्ठवंशोऽपान्तराले च सम्प्रति प्रतिषिोऽपवादमाह भित्तिः, सा बहि'ताऽपि संबकति । नैषेधिकी पुनरन्तबहिएमेव य पमिसिद्धे, समादिगयस्स कंचि पमिपुच्छे। वा नियमादसंबद्धैव । हस्तशतस्याज्यन्तरतोऽस्वाध्यायिके समुत्पन्ने स्वाध्यायासंभवात् । तं पि य होढा असमि-क्खिऊण पमिसहितो जम्हा ।। तथा चाऽऽद-- कस्यापि साधारनिशय्यादिगमने गुरुणा प्रतिषिद्धे, संज्ञादिग जा सा उ अभिनिसीहिय,सा नियमा होउ ऊ असंबका। तस्य कायिक्यादिगतस्य कायिक्यादिनूमिगतस्य सत एवमेव. मनन्तरोक्तेन प्रकारेण,गुरुन् प्रति संदेशकथनं ज्ञातव्यम्।कथ संबछमसंबछा, अभिमेजा होति नायव्वा ॥ म?, इत्याह-( कंचि पमिपुच्छे त्ति) कमपि वृषभं प्रतिपृच्छे- अत्र येति-अवगते,सेति-यदुक्तं तद्दोपाभावोपक्रमप्रदर्शनार्थमितू-यथा न मम किमाप गमनप्रतिपेधकारणमनूत, केवल- त्यदुष्टम् । याऽस्य अभिनवोधकी, सा नियमाद्भवत्यसंघका । मेवमेव गुरुणा प्रसिद्धः, अथ च मया स्वाध्यायः कर्तव्यः, कारणमनन्तरमेवोक्तम्, या त्वनिशय्या सा संबका असंबद्धा बसतौ वा स्वाध्यायादिकमुपजातमतः किं करोमि?,यामि वस- च भवति ज्ञातव्या । ति,प्रतिपृच्चामि गुरुमिति। एवमुक्तते वृषभादयोऽनिशय्यां गन्तु- अथ कस्यां वेत्रायां तत्र गन्तव्यम', तत्र आहकामाः कालस्य स्तोकत्वात् यावद् वसतौ गत्वा गुरून प्रतिवच समागच्छन्ति तावद् रात्रिः पततीति तं प्रत्येवमुदी धरमाणच्चिय सूरे, संथारुचारकासनमीओ। रयन्ति । (तंपियेत्यादि) तदपि गुरूणां प्रतिपृच्चन (होढा पमिलेहियऽणुप्मविए, चसहहिँ वयंतिम वलं ॥ इति) देशीपदमेतत् । दत्तमेव, कृतमेवेत्यर्थः । यस्मादसमी- योऽसावनिशय्यायाः शय्यातरस्तं वृषभा अनुज्ञापयन्ति,यथाक्ष्यापर्यालोच्य, अनाभोगत एवेत्यर्थः । त्वं प्रतिषेधितः,ततोय. स्वाध्यायनिमित्तं धयमत्र वत्स्याम इति । तत एवं वृषभैरनहाबत्र किमपि गुरवो वक्ष्यन्ते तत्र वयं प्रत्याश्यामः-यथैष न पिते शय्यातरे, धरमाण एव अनस्तमिते एव सूर्ये, धानिशकिमाप गमनप्रतिषेधकारणं कृतवान्, प्रतिपृच्चगर्थं चागच्छन् । व्यायां संस्तारकोचारकालभूमीः प्रत्युप्रेक्ष्य नूयो घसतावागत्य अस्मानिर्वारितः,तावत्कालस्याप्राप्यमाणत्वात् । एवमुक्त्वा ब. श्मा वेवामिति “कालाध्वनोाप्ती" ॥१२॥ २४ ॥ शति लादपि तं वृषभा नयन्ति, सोऽपि च बलात्रीयमानश्चिन्तयति- (हैम) सूत्रेण सप्तम्यर्थे द्वितीया । अस्यामनन्तरं वक्ष्यमाणायां यथा नास्ति मम कश्चिद्दोषः, न गच्छामीति । स च तत्र ग-1 लायां बजन्ति । Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिणिसज्जा ( ७२४ ) अभिधानराजेन्छ । कस्यां वेलायाम् ? इत्यत श्राह - " वस्तु कार्य निस्वाषाण होई गंतव्यं । वाघारण न भरणा देतं सव्वं अकाऊण | व्याघातस्य स्तेनादिप्रतिबन्धस्याभावो नित्र्यघातः, तेन निर्व्या घातेन भवति गन्तव्यं वसतेराचार्यैः सममावश्यकं कृत्वा । व्याघातेन पुनर्हेतुभूतेन भजना विकल्पना का भजना ?, इत्यत श्राह - देशं वा श्रावश्यकस्याकृत्वा, स वाऽवश्यकमकृत्वा । सम्प्रति यैः कारणैः प्रतिबन्धस्तान्युपदर्शयतिनेणा सावय-वाला, गुम्मियत्र्या क्खिवणपमिणीए । इत्थिनपुंमगसम - नवास चिक्खिलकंटे य ॥ नेनाभरास्ते संध्यासमये अन्धकार संचरन्ति श्याविभूतिदाउमा दिपमन्ते ज्याला वा जङ्गमादयो वातादिपानाय भूयांसः संचरन्ति तथा गुल्मेन समुचरन्तीति कारकाणामप्युपरि स्था यिनो हिण्डकाः, आरक्षकाः पुररककाः, ते अकाले हिएममानान् गृह्णन्ति । तथा (ठवण त्ति) कचिदेशे एवंरूपा स्थापना क्रियते । यथा-अस्तमिते सूर्ये रथ्यादिषु सर्वधा न संचरणीयमिति प्रत्यनीको या कोऽभ्यन्तरादिकरणार्थ निवर्तते यो नपुंसका वा कामबहुलास्तदा उपसर्गयेयुः, संसक्तो वा प्रा णजातिभिरपान्तराले मार्गः, ततोऽन्धकारेणेर्यापथिकान शुख्यतिवर्ष संभाव्यते ( निति) कर्दम वा पछि नुवानस्ति ततो रात्री पाल कर्दमः कर्षकते हैं, ( कंटे त्ति ) कटका वा मार्गेऽतिवहवः, ते रात्रौ परिहर्नु न याकारः समुपस्थि देशतः सर्वतो वा ssवश्यकमकृत्वा गच्छन्ति । तत्र देशतः कथमकृत्वेत्यत आह थुतिमंगल कितिकम्मे, काजस्सगे य तिविह कियिकम्मे । तत्तो य पमिकपणे, आलोयण्याऍ कितिकम्मो ॥ स्तुतिमङ्गलमकृत्वा, स्तुतिमङ्गवाकरणे चायं विधिः-श्रावके समाते स्तुती उघार्थ तृतीयांस्तुत भिशय्यां गच्छन्ति । तत्र च गत्वा ऐर्यापथिकों प्रतिक्रम्य तृतीयस्तुति नि अथवा श्रावश्यके समाते एक स्तुति स्तुती अभिशय्यां गत्या पूर्वविचिनो ग्यन्ति । अथवा समाप्ते श्रावश्यके ऽभिशय्यां गत्वा तत्र तिस्रः स्तुतीदति । अथवा स्तुतियो पढ् कृति कम्मे तते ऽभयधिक प्रतिकम्य मुत्रिकां च प्रत्युपेक्ष्य कृतिकर्म कृत्वा स्तुतीर्ददति । ( काउस्सगे य निविह त्ति ) त्रिविधे कायोत्सर्गे क्रमेणाकृते, तद्यथा चरम कायोत्सर्गमकृत्वा अभिशय्यां गत्वा तत्र चरमकायोत्सर्गादिकं कुर्वन्ति । अथवा द्वौ कायोत्सर्गी चरमावकस्वा यदि वा त्रीनपि कायोत्सर्गान श्रकृत्वा, अथवा कायोत्सर्गेयोऽवननं यत् उपल 9 तो सामने दिया तो कृतिक श्रकृते. अथवा ततोऽप्यवीतने प्रतिक्रमणे कृते यदि वा नतोऽप्यवचने आलोचने कृते अथवा ततोऽप्यारासने कृतकर्माणि श्रकृते, अजिदाय्यामुपगम्य तत्र तदाद्यावश्यकं कर्त व्यमिति । एवमावश्यकस्य देशतोऽकरणमुक्तम् । अभिणिसज्जा इदानी सर्वस्याकरणमाह कासरगमका, कितिकम्मालोयणं जहोणं । गमम्मी एस विही, आगमणम्मी विहिं वोच्छं ॥ यो दैवकानि वारानुप्रेकार्थे प्रथमः कायोत्सर्गः तमप्यस्वा किमुक्तं भवति सर्वमावश्यकमकृत्यानशय्यां गच्छन्ति किमेवमेव गच्छन्ति, उतास्ति कश्चन विधिः । उच्यते श्रस्ती`ति ब्रूमः । तथा चाऽऽह - ( कितिकम्मालोयणं जहां ति ) जय जय सर्वे गुरुयो बन्द कृत्वा, यश्च सर्वोत्तमो ज्येष्ठः स आलोच्य तदनन्तरमनिशय्यां गत्वा सर्वमावश्यकमहीनं कुर्वन्ति । एषोऽभिशय्यायां गमने । अभिशय्यातः प्रत्यागमने पुनयो विधिस्तमिदानीं ये प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति आर अका, निव्यापारण होइ आगमणं । वाघायम्मि उ जया, देसं सव्वं च काऊं ॥ यदि कञ्चनापि व्याघातो न भवति ततो निर्व्याघातेन व्याघा ताजावेनाssवश्यकम कृत्वाऽनिशय्यातो वसतावागमनं भवति । श्रागत्य च गुरुभिः सहावश्यकं कुर्वन्ति । व्याघाते तु भजना | का पुनना इत्यत आह-देशमावश्यकस्य कृत्यासा वश्यकं कृत्वा । तत्र देशत श्रावश्यकस्य करणमाहकाउसर कार्ड, कितिकम्पालीषणं परिक्रमणं । किकम्मं तिवि वा, काजस्सग्गं परिणाय ॥ कायोत्सर्गमाद्यं कृत्वा वसतावागत्य शेषं गुरुभिः सह कुर्वन्ति अथवा ही कायोत्सर्गे कृत्वा यदि वा कान कृत्वा, अथवा कायोत्सर्गनयानन्तरं यत् कृतिक तत्कृत्वा, अथवा तदनन्तरमालोचनामपि कृत्वा यदि वा तत्परं यत्प्रतिक्रमणं तदपि कृत्वा, अथवा तदनन्तरं यत्कृतिकर्म भेदं. तत् क्षामणादर्वाक्तनं, परं चेत्यर्थः, तदपि कृत्वा पाठान्तरम् - " तिथि से वि" मूलकृतिकम्मांपेक्षा त्रिविधं वा कृतिक कृत्वा । अथवा कायोत्सर्ग चरमं षाण्मासिकं कृत्वा, परिज्ञा प्रत्याख्यानं, तामपि वा कृत्वा । अत्रायं विधिः-सर्वे साधवश्वरमकायोत्सर्ग वसतावांगत्य गुरुसमीपे वन्दनकं कृत्वा, सर्वोतमश्च ज्येष्ठ श्रालोच्य, सर्वे प्रत्याख्यानं गृह्णन्ति । अथवा-सर्वमावश्यकं कृत्वा, एकां च स्तुतिं दत्त्वा शेषे द्वे स्तुती कृत्वा, शेष गुरुसकाशे कुर्वन्ति । तदेवमुक्तं देशत आवश्यकस्य करणम् । अधुना सर्वतः करणमाह यति मंगलंच काउं, आगमणं होति अभिनिसिज्जातो । वितियपदे जयाऊ, गिलाणमादी उ कायव्वा ॥ अथवा प्रत्याख्यानं तदनन्तरं स्तुतिं मङ्गलं व स्तुतिप्रयाक र्षणरूपं तत्र कृत्वा श्रभिशय्यात आगमनं नवति । तत्रेयं सामाचारी गुरुसमीपे ज्येष्ठ एक आलोचयति आलोच्य प्रत्याख्यानं युद्धातोः ज्येष्ठस्य पुरत आलोचना । प्रत्याख्यानं कृतं पदन सर्वे ददति काम व द्वितीयपदे अपवादपदे लानादिषु प्रयोजनेषु भजना कर्तव्या । किमुक्तं भवति-ज्ञानादिकं प्रयोजनमुद्दिश्य वस्तौ नागच्छेयुरपीति । ज्ञानादीन्येव प्रयोजनान्याह - च गेला पास महिया, पर अंतरे निवे अगणी । Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनिणिसज्जा अन्निधानराजेन्सः। मनिप्पायसिद्ध अहिगरणहत्यिसंभम-गलम निवेयणा नवरि ॥ भिन्नाचारः। (व्य०)जात्योपजीवनादिपरिहरति, व्य०३ उ०। म्यानत्वमेकस्व बदनांवा साधूनां तत्राभवत्,तक सर्वेऽपि सा. अजितत्त-अभितप्त-त्रि० । अम्निना आभिमुख्यन सन्तापिते, धवस्तत्र व्याप्तीभूता शति न वसतावागमनम । अथवा वर्षे प सूत्र० १ श्रु०४ १० ११०। तितुमारब्धम् । महिका वा पतितुं लग्ना । यद्वा-(पदुदृत्ति) प्र. द्विष्टः कोऽप्यन्तरा विरूपकरणाय तिष्ठति। अन्तःपुरं वा तदानी अजितप्पमाण-अभितप्यमान-त्रि० । कदर्यमाने, सूत्र०१ श्रु० निर्गन्तुमारब्धं , तत्र च राज्ञा उद्घोषितम्-यथा पुरुषेण न ५०१ उ०। केनापि रथ्यासु संचरितव्यम् । राजा वा तदा निर्गच्छति, अभिताव-अभिताप-अव्य० । तापानिमुखे, प्राचा० १ श्रु०६ तत्र हयगजपुरुषादीनां संमदः। अग्निकायो वाऽपान्तराले अ०४ उ० । ऋकचपाटनकुम्भीपाकतप्तत्रपुपानशाल्मल्यालिमहान् उत्थितः। अधिकरणं वा गृहस्थेन समं कथमपि जातं वृ- अनादिरूपे सन्तापे, सूत्र०२ श्रु०६ अ० । दाहे, सूत्र० १ हद्, वृषनास्तदुपशमयितुं लग्नाः। हस्तिसंभ्रमो वा जातः। किमु- श्रु०५०१ उ०। तं भवति?-हस्ती कथमप्यालानस्तम्भं भक्त्वा शून्यासनः स्वे अभित्युय-अभिष्टुत-त्रि०। विशिएगुणोत्कीर्तनेन व्यावर्णिते, च्छया तदा परिभ्रमति। एतेषु कारणेषु नागच्छेयुरपि वसतिम् । नवरमेतेषु कारणेषु मध्ये ग्लानत्वे विशेषः । यदि ग्लानत्वमा. संथा। गाढमुपजातमेकस्य बहूनां वा, तदा गुरूणां निवेदना कर्तव्येति। अनित्धुबमाण-अजिष्टुवत-त्रि० । संस्तुवति, स्था० । समाप्ता प्राक्तनसूत्रस्य निर्विशेषा व्याख्या । व्य० १ उ०। अनिष्ट्रयमान-त्रिका अभिनन्द्यमाने संस्तूयमाने,स्था०६०। अभिणिसम-अनिनिस्सट-त्रि० । अभिविधिना निर्गताः | कल्प० । प्रा० म०। सटास्तदवयवरूपाः, केशरिस्कन्धसटा वा यस्य तदभिनि:- अनिदग्ग-अभिदर्ग-jo कुम्भीशाल्मल्यादी, (सुत्र०) अति. सटम् । बहिरभिनिर्गतावयवे, भ०१५ २० १००। विषमे, सूत्र० १ श्रु०५ ०२२० । अग्निस्थाने, सूत्र० १श्रु० अजिणिसिह-अभिनिसृष्ट-त्रि० । बहिर्भागानिमुखं निसृष्टे, | ५ अ०१०। जी ३ प्रति०रा०। अभिय-अनिद्रत-त्रि० । अध्यवसायरूपेण व्याप्ते, सूत्र०१ श्रु० अनिणिसेहिया-अभिनषेधिकी-स्त्री० । निषेधः-स्वाध्याय ३ अ०३३०। गर्भाधानादिपुःखैः पीडिते,स्न०१ श्रु०२ १०३ उ०। व्यतिरेकेण सकलव्यापारप्रतिषेधः तेन निर्वृत्ता नैषेधिकी । अनिधारण-अजिधारण-न० । प्रवज्यार्थमाचार्यादेर्मनसा अभि आभिमुख्येन संयतप्रायोग्यतया नैधिकी अभिनषेधिकी । दिवा स्वाध्याय कृत्वा रात्री प्रतिगन्तव्यायां वसती, व्य० १ संकल्पने, तश्च द्विधा-अनिर्दिष्ट, निर्दिष्टं च । अनिर्दिष्ट नाम १०। (तझमनवक्तव्यताऽनन्तरमेव 'अभिणिसज्जा' शब्दे ७१५ अभिधारयन् कमप्याचार्य विशेषतो न निर्दिशति । स च - पृष्ठे दर्शिता) भिधारको विधा-संझी, असंज्ञी च । पुनरेकैको द्विधा-गृहीत विङ्ग,गृहीतसिङ्गश्च। (वृ०) मनसि करणे, बृ० ३०० । व्य। अनि बिस्सड-अभिनिस्सत-त्रि० । बहिष्टानिर्गते, “बहिया अनिधेज-अभिधेय-त्रि० । अर्थे शब्दवाच्ये, यथा घटशब्देन अभिणिस्साओ पभासेंति"। भ० १४ श० एउ०। घटोऽनिधीयते । विशे०नि० चू। अनिणमकम-अजिनमकृत-त्रि० । आनिमुख्येन कर्मणा माय अभिपव-अजिप्रवृष्ट-त्रि० । कृतवर्षे , “घासावासे अभिया वा कृते, " अभिणूमकडेहि मुच्छिए, तिब्वं से कम्मेहिँ किञ्चती"। सूत्र. १ श्रु० २ ० १ उ०। पवुठे बहवे पाणा"। आचा०२ श्रु० ३ अ०१०। अजिम-अजिन्न-त्रि० । अविशीर्ण, उपा० २ ०। भिन्नश अनिप्पाइयणाम-आभिप्रायिकनामन्-ना अभिप्रायतःक्रि यमाणे नामनि, अनु०॥ ब्दार्थविरुद्ध, वृ०३ उ० । नि० चू०! से किं तं अजिप्पाइयणामे ? अजिप्पाश्यणामे अंवए अजिमगरि- अजिन्नग्रन्थि-पुं०। सकृदप्यनवाप्तसम्यग्दर्शने, पश्चा० ११ विव०। निंबुए वकुलए पलासए सिणए पीलुए करीरए। सेत्तं अअभिलपडो-देशी-रिक्तपुटे, शिशुन्निः क्रीमया जनप्रलोभार्थ जिप्पाइयनामे ॥ विपणिमार्गे रिक्ता पुटिका या किप्यते सैवमुच्यते । दे. ना. इह यक्षादिषु प्रसिद्धम् 'अम्बक-निम्बक' इत्यादि नाम देश१वर्ग । रूच्या स्वानिप्रायानुरोधतो गुणनिरपेक्षं पुरुषेषु व्यवस्थाप्यते, अनिष्पाय- (जाणिय)-अनिकाय-अन्य० । ज्ञात्वेत्यर्थे, प्रा तदभिप्रायिकं स्थापनानामेति । नावार्थ:-तदेतत्स्थापनाप्र माणनिष्पनं सप्तविधं नामेति । अनु। चा०१ श्रु० ए अ० १ उ० । बुद्धत्यर्थे, प्राचा० ११०६०६ उ० । आनिमुख्येन परिच्छिद्य इत्येतेषां शब्दानामर्थेषु, प्राचा० अनिप्पाय-अनिमाय-पुं० । मनोविकल्पे, विशे०। बुद्धिवि१श्रु० ३ अ० १ उ०। पर्यये, आ० म०वि०। बुझेरध्यवसाये, श्रा०म०प्र०। चेत:अभिमायदंसण-अभिज्ञातदर्शन-त्रि० । सम्यक्त्वभावनया प्रवृत्ती, प्राचा०१ श्रु०४ अ०१उ०। अभिप्रायश्चतुर्विधः-श्री स्पतिकी, वैनयिकी, कर्मजा, पारिणमिकीत्यादिना । प्रा०चू। प्राविते, प्राचा० १ श्रु० ए ० १ उ०।। संविझानमवगमो नावोऽभिप्राय इत्यनर्थान्तरम् । आ० म. अजिमायार-अजिन्नाचार-पुं०। न भिन्नो न केनचिदप्यती- प्र०। (अस्य च 'बुद्धि' शब्दे व्याख्या अष्टव्या) चारविशेषेण खण्डित आचारो ज्ञानाचारादिको यस्यासाव-| अभिप्पायसिक-अभिप्रायसिक-पुं० । बुद्धिसिद्धे, आ०म० । Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्पायसिद्ध अभिधानराजेन्द्रः । अभिसाव साम्प्रतमभिप्रायसिद्धं प्रतिपादयन्नाह अभिमाणबक-अजिमानबक-त्रि० । अनिमानास्पदे, सूत्र०१ विपुला विमला सुटुमा, जस्स मई जो चनबिहाए वा ।। श्रु०१३ उ० ।। बुद्धीए संपन्नो, स बुछिसिको इमा सा य ॥ अनिमार-श्राभिमार-पुं० । विशेषतोऽग्निजनके वृक्तविशेष, विपुला विस्तारवती, एकपदेनानेकपदानुसारिणीति भावः । उत्त० ३ ०। विममा संशयविपर्ययानध्यवसायमलरहिता,सूक्ष्मा अतिदुरव-अनिमह-श्राभिमुख-त्रि० । अभि भगवन्तं सदयीकृत्य मुखबोधसूक्ष्मव्यवहितार्थपरिच्छेदसमर्था , यस्य मतिः स बु- मस्येति अभिमुखः। भगवतः संमुखे, रा। कृतोधमे, पा०। द्विसिकः। यदि वा-यश्चतुर्विधया औत्पत्तिक्यादिभेदभिन्नया | चं०प्र०।ज्ञा० । स्था० । अन्तः। सु०प्र० । औ०। बुद्ध्या संपन्नः स बुद्धिसिद्धः। प्रा०म० द्वि० । श्रा० चू०। (अस्य कथा 'उप्पत्तिया' शब्दे द्वितीयभागे ८२५ पृष्ठे अहव्या) अभियंद-अनिचन्छ-पुं० । महाबलस्य राकः स्वनामख्याते प्रियवयस्ये, शा०००। अभिप्पेय-अभिप्रेत-त्रि० । मनोविकल्पिते, विशे० । प्राचा अभियावएण-अभ्यापन-त्रि० । प्रानिमुख्येन नोगानुकूख्ये. कामयति, दश० ६ ० । अभिप्रेतविषये, संयोगे च । उत्त०१ नाऽऽपन्नो व्यवस्थितः । सायद्यानुष्ठानेषु प्रतिपक्षे, सूत्र.१ श्रु. १०। ('संजोग' शब्देऽस्य विवृतिः) ४०१० । अनिभव-अभिजव-पुं० । अभियोगे, आव०५ अ० । पराजये, अभिरइ-अभिरति-स्त्री० । लोकेऽर्थादिभ्य आनिमुख्येन रतौ, प्राचा०१ श्रु०९ १०२ १०। प्रा० चू। अनिभवो नामादिभेद- विशे। तश्चर्तुधा । द्रव्याभिन्नवो रिपुसेनादिपराजयः, आदित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनकत्रादितेजोऽनिभवः । भावानिनवस्तु-परीषहो. अजिरमंत-अभिरममाण-त्रि०ा अनितो रतिं कुर्वाणे, "अभिपसर्गानीकजयात् ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायकर्मनिर्दसनं, प. | रममाणा तुझा" प्रश्न०१आश्रद्वा रीषदोपसर्गादिसेनाविजयाद्विमलं चरणं, चरणशुद्धर्शानावर- अभिराम-अभिराम-त्रिका रम्ये, झा०१३ अ०।ौ०। भनिरणादिकर्मवयः, तत्कयान्निरावरणमप्रतिहतमशेषज्ञेयग्राहि केव- मणीये, चं०प्र०२० पाहु० । विपा०रा० प्रा० म०स०। समुपजायते। इदमुक्तं भवति-परीषदोपसर्गज्ञानदर्शनावरणीय मनोरे, झा०१७ अ०। मनोहरे, कल्प०१०। मोहान्तरायाण्यभिभूय केवलमुत्पाद्य तैरुपलब्धमिति । आचा० १ श्रु० १ ०४०। अजिरुइय-अनिरुचित-त्रि० । स्वादुनावमिवोपगते, भ०६ अजिनविय-अभिनय-अन्य जित्वेत्यर्थे,भ०६ श०३३ उ० श० ३३ २० भनिन्य-अभिजूय-अव्य० । प्राभिमुख्येन पीमयित्वेत्यर्थे, अनिरूव-अनिरूप-त्रि०ाअभि भाभिमुख्येन सदाऽवस्थितानि रूपाणि राजहंसचक्रवाकसारसादीनि गजमहिषमृगयूथादीनि सूत्र०२ श्रु०१ अजित्वेत्यर्थे, प्रश्न०२ आश्र0 द्वा०। परा-1 घा जलान्तर्गतानि करिमकरादीनि वा यस्मिस्तदभिरूपमिति। जित्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०६ अादशातिरस्कृत्येत्यर्थे च। श्रा सूत्र०२ श्रु०१० । अभिष्टन प्रति प्रत्येकमभिमुखमतीव चा०१ श्रु०५०६ उ०।। चेतोहारित्वाद् रूपमाकारो यस्य स अभिरूप: । रा० । अभि अजिजूत-त्रि० । व्याने, जं० २ वक० । तिरोहितगभव्यापार सर्वेषां पूणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं यस्य तत् च । आचा० १ श्रु० ३ अ० १३०। अभिरूपमा अत्यन्तकमनीये, तं०। जी०। प्रशा० । स्था० । अभिमतरूपे, विपा० १ श्रु० २ ०। जं० । अष्टारं षष्टारं प्रअजिजूयणाणि ( ए )-अजिनूयज्ञानिन्-पुं० । अभिय त्यभिमुखं न कस्यचिद्विरागहेतुरूपमाकारो यस्य सोऽनिरूपः। पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवला रा। अनिमुखमतीवोत्कटं रूपमाकारो यस्य सः । सू० प्र० १ ख्यं तेन झानेन ज्ञानी । केवलिनि, सूत्र० १ श्रु० ६ उ० । पाहु०। मनोझरूपे, झा० १० उपा० औ० भ० । अभि अनिमंतिकण-(अनिमंतिय)-अभिमन्त्र्य-श्रव्य० । मन्त्र- प्रतित्तणं नवं नवमिव रूपं यस्य तदनिरूपम् । प्रा० म०प्र० पान संस्कृत्येत्यथे, " रायगणे जे खंभा, अच्चात ते अभिमं अनुसमयमहीयमानरूपे, सः।" अनिरुवं अभिरुवं पभिरूवं तिय अागासेण चप्पाश्या" प्रा०म० द्वि० । नि० चू० । पडिरूवं पासादीयं पासादीयं" आचा०२ श्रु०४ म०२ १०। अनिमञ्जु-अभिमन्यु-अव्यः । “ न्यण्योः " ८।४।३०५॥ अनिलप्प-अलिलाप्य-त्रि० । कथनयोग्ये, प्रज्ञापनयोग्य, इति पैशाच्या न्यायोः स्थाने जो जातः । अर्जुनस्य सुभद्रायां आ० म०प्र० । सूत्र । 'जे पुण अभिलप्पा ते दुविहा भवंजाते पुत्रे, प्रा०४ पाद। ति। तं जहा-परणवणिज्जा, अपएणवणिज्जा य । तत्थ जे ते अभिमय-आनिमत-त्रि० । इष्टे, सूत्र०२ श्रु०४ ० । विशे। अपएणवणिज्जा तेसु वि ण चेव अहिगारो अत्थि ति। जे पुण पम्पबणिज्जा भावा ते केवलणाणेण पासिकण तित्थयरो तिअभिमयट्ठ-अभिमतार्य-पुं० । अवधारितार्थे, शा० १०॥ त्थकरनामकम्मोदएण सब्यसत्ताणं अणुग्गहनिमित्तनासति"। अनिमाण-अनिमान--पुं० । अनि-मन्-भावे घ । आत्मन्यु- श्रा० चू० १ ०। स्कर्षारोपे, मिथ्यागवे, अर्थादिद, ज्ञाने, प्रलये, हिंसायां च। जिलाव-अजिलाप-पुं० । अभिलप्यते आभिमुख्येन व्यक्तवाच । “अभिमाणो माणो नएणति" । नि० चू० १ उ० । मुच्यते अनेनार्थ इत्यभिसापः । वाचके शब्दे, तद्विषये संयोगे ('इंद' शब्दे द्वितीयभागे ५४४ पृष्ठे तदभिमानो षष्टव्यः) | च । उत्त०१० प्रा०म०विशे०। प्रशा० ॥ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।७३७) अभिलावपाविय अभिधानराजेन्सः। अभिवमागा अजिलावपावियट्ठ-अभिलापप्लावितार्थ-पुं० । शब्दसंसृष्टऽर्थे, | रात्रशतानि ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वापटिनागा कर्म०६ कर्म। अहोरात्रस्य-३७।३।४ । एतदभिवतिसंवत्सरपरिमाणअनिसावपुरिम-अभिशापपुरुष-पुं० । अभिलप्यतेऽनेनेति म् । तत्र त्रयाणां अहोरात्रशतानां ध्यशान्येधिकानां द्वादाभिअभिलापः शब्दः, स एव पुरुषः पुंलिङ्गतयाऽभिधानात् । पु भीगे हते लब्या एकत्रिंशदहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्त्येकादश । ने रुषभेदे, यथा-घटः कुटो वेति । प्राह च-" अजिलावो पुंलि मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जानानि त्रिंशदधिकागाजिहाणमेत्तं घडो ब्व"स्था०३ ठा०१उ० प्रा००। नि त्रीणि शतानि ३३०। येऽपि च चतुश्चत्वारिंशद्वापष्टिभागा विशे० प्रा०म०। रात्रिन्दिवस्य, तेऽपि मुहूर्त करणाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि अभिलास-अभिलाष-पुं० । श्च्छायाम, स्था०५ ठा०२०। प्रयोदशशतानि विंशत्यधिकानि १३२० । तेषां द्वापरया नागो हियते, बब्धा एकविंशतिर्मुहर्ताः, शेषास्तिष्ठन्त्यष्टादश । तत्रैसन्धेऽप्यधिकतरस्य चाउछायाम, स्था०४०३ उ०। यदि कविंशतिमुहूर्ता मुहूर्तराशौ प्रक्षिप्यन्ते , जातानि मुहूर्तानां दमहं प्राप्नोमि ततो जव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्धायां प्रार्थना श्रीणि शतान्येकपञ्चाशदधिकानि ३५१ । एतेषां द्वादशयाम, नं। ममैवरूपं धस्तु पुष्टिकारि, तादीदमवाप्यते ततः भिर्भागो हियते, लम्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, शेषास्तिष्टम्ति समीचीनं जवतीत्येवं शब्दार्थो खानुबिके स्वपुष्टिनिमित्तनत प्रयः। ते घाटिनागकरणार्थ द्वाषटया गुण्यन्ते, जानं प्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसाये, नं०। मा० म० । दृष्टेषु श षमशीत्यधिकं शतम १८६ । ततः प्रागुक्ताः दोषीलता मब्दादिषु जोगेच्छायाम, का० ए ०। हूर्तस्वाटादश द्वापष्टिभागाः प्रतिप्यन्ते, जाते वे शते चतुअनिवामिय-अभिवात-त्रिकामासनेदे,संवत्सरजेदे चास्थान रुत्तरे २०४ । तयोर्वादशभिर्भागो ह्रियते , सम्धा मुहूर्तस्य तत्र एकत्रिशंहिनानि, एकविंशत्युत्तरशतं चतुर्विशत्युत्तरशत सप्तदश द्वापष्टिभागाः। (ता से णमित्यादि) ता इति पूर्ववत् । नागानामनिवर्कितमासः , एवंविधेन मासेन द्वादशप्रमाणोऽ सोऽनिवर्कितमासः कियान मुहूर्ताप्रेणाख्यात इति वदेत ?। निवर्द्धितसंवत्सरः। स च प्रमाणेन त्रीणि शतान्यहां ज्यशी भगवानाह-(ता नवेत्यादि ) नव मुहूर्तशतानि एकोनषष्ट्यधित्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषाष्टिजागा:-३८३। ४४।६। कानि ९५६ । सप्तदश च मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागाः । तथाहिस्था०५ म०३ न०। वृाकल्प० । साचं०प्र०। व्यायस्मिन् एकत्रिंशदप्यहोरात्राः त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि संवत्सरे अधिकमाससंभवन प्रयोदश चन्द्रमासा भवन्ति,सो त्रिंशदधिकानि मुहूर्तानाम् । तत उपरितना एकोनत्रिंशन्मुहूऽनिवर्द्धितसंवत्सरः । उक्तं च-"तेरस य चंदमासा, एसो स्तित्र प्रतिप्यन्ते, जातानि मुहूर्तानामेकोनपश्चाधिकानि नवअभिवडियो उ नायब्वो” जं० २ वक्व० । शतानि । ( ता एएसि णमित्यादि ) प्राम्बद् व्याख्येयम । (ता से ता एएसि णं पंचएहं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवालि णमित्यादि ) रात्रिंदिवप्रश्नसूत्रं सुगमम् । जगवानाह-( ता यसंवच्छरस्स अभिवलियमासे तिमतीमुहत्तेणं अहोरत्तेणं तिमीत्यादि) त्रीणि रात्रिदिवशतानि ज्यशीत्यधिकानि एकगणिज्जमाणे केवइयराशंदियग्गेणं आहिए। ता एकतीसं विंशतिमुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टादश द्वाषष्टिभागा रात्रि दिवाणाख्याता इति वदेत् । तथाहि एकत्रिशद अहोरात्रा द्वाराइंदियाइंएगुणतीसं च मुहुत्ता सत्तरसवावहिभागे मुहत्तस्स | दशभिर्गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि राराइंदियग्गेणं आहितति वदेजा। ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे- दिवानाम् ३७२ । तत एकोनत्रिंशत् मुहूर्ता द्वादशानिर्गुण्यन्ते, णं आहिता?। ता णव एगुणसटे मुलुत्तसते सत्तरस य वाव- जातानि त्रीणि शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि ३४० । तेषाट्ठिनागे मुहत्तस्स मुहुत्तग्गेण आहिता । ता एतेसि णं अका महोरात्रकरणाथै त्रिंशता भागो ह्रियते,अन्धा एकादश अहोरा त्राः, अष्टादश तिष्ठन्ति । येऽपि च सप्तदश द्वापष्टिजागाः मुहर्तमुवालसखुत्तकडा अजिवहीए संवच्चरे। ता से णं केवइय स्य, तेऽपि हादशभिर्गुण्यन्ते, जाते द्वे शते चतुरुत्तरे २०४। राशंदियम्गणं आहिता ति वदेजा। ता तिमि तेसीए रा ततो द्वाषष्टया भागो हियते, बन्धास्त्रयो मुहर्ताः, ते प्राक्तनेषु इंदियसते एकवीसं च मुहुत्ते अट्ठारसवावहिभागे मुहुत्त- अष्टादशसु मध्ये प्रतिप्यन्ते, जाता एकविंशतिर्मुहूर्ताः। शेषास्स राइंदियग्गेणं श्राहिया ति वदेजा। ता से णं केव- स्तिष्ठयन्त्यष्टादश द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य । (ता से णमित्यादि) तियमुद्त्तग्गणं माहिता ति वदेज्जा । ता एकारमुहुत्तस प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह-(एक्कारसत्यादि ) एकादश मुहूर्तसहस्राणि पश्च मुर्सशतानि एकादशाधिकानि अष्टाहस्सा पंचए एक्कारे मुदुत्ते सते अट्ठारस य वावहिनागे दश च द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्येति मुहूर्ताग्रेणानिवर्द्धितसंवत्सर महत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहिता ति वदेजा ।। आख्यात इति वदेत् । तथाहि-अभिवद्धितसंवत्सरस्य परिमाणं 'ता एएसि गां, इत्यादि पञ्चमानिवर्द्धितसंवत्सरविषयं श्रीएयहोरात्रशतानि व्यशीत्यधिकानि एकविंशतिर्मुहूर्ताः,एकप्रश्नसूत्रं सुगमम् । जगवानाह-( एकतीसमित्यादि ) ता स्य च मुहूर्तस्याष्टादश द्वाषाष्टिभागास्तत्र एकैकस्मिन् रात्रिइति पूर्ववत । एकत्रिशद् रात्रिन्दिवानि, एकोनत्रिंशच्च मु- दिव त्रिंशद् मुहर्ता शति त्रीण्यहोरात्रशतानि ज्यशीत्यधिकाहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदश द्वापष्टिनागा रात्रिन्दि- नि त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिर्मुहूर्तायाणाख्याता शति वदेत् । तथाहि-त्रयोदशनिश्चन्द्रमासै- स्तत्र प्रक्तिप्यन्ते, ततो यथोक्ता मुहूर्तसंख्या भवतीति । रनिवर्द्धितसंवत्सरः । चन्द्रमासस्य च परिमाणमेकोनत्रि- | चं० प्र०१२ पाहु० । निचू । ज्यो । जं० । (अवशेषा व. शत् रात्रिदिवानि, एकस्य च रात्रिन्दिवस्य द्वात्रिंशदा- क्तव्यता " मास" 'संवच्चर' शब्दयोः करिष्यते) पष्ठिभागाः । २६।३ । एतत् त्रयोदशभिर्गुण्यते, ततो यथासनवं कापटिभागः रात्रिन्दिवेषु कृतेषु जातमिदं त्रीण्यहो- अभिवक्लेमाण-भिवर्द्धयत्-त्रिका अभिवृर्षि कुर्वाणे,०७वका Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२०) अनिवायण अन्निधानराजेन्द्रः। अभिसमेच्च अनिवायण-अजिवादन-न० । वाइनमस्कारे, दश० २० । अनिसंजाय-अन्निसंजात-त्रि० । पेशी यावदुत्पन्ने, प्राचा० उत्तः । पादयोः प्रणिपतने, तं० । कायेन प्रणिपाते, संथा ।। १ श्रु०६०१०। आचा। अभिसंधारण-अक्सिंधारण-न० । पर्यासोचने, प्राचा० १ अभिवायमाण-अनिवादयत-त्रि० । अनिवादन कुवाणे, आ- ०१०१०।। बार १ श्रु० अ०१०। अनिसंधिय-अनिधित-त्रि० । गृहीते, आचा० १ श्रु०४ अनिवाहरणा-अभिव्याहरणा-स्त्री०। संशब्दनायाम,पश्चा० अ० २उ०। २ विव०। अजिसंन्य-अनिसंजूत-त्रि०। यावत्कललं तावदभिसंभूता। अनिवाहार-अजिव्याहार-पुं० । अभिव्याहरणमनिव्याहारः। __ आचा०११०६०१०। प्रादुर्भूते,याचा०२श्रु० ३ अ०१ उ०। कालिकादिश्रुतविधये उद्देशसमुद्देशादौ, आलोचनादिषु अष्टमे | अनिसंव-अनिवृष-त्रि०धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्तमाने, नये, विशे० । श्रा० म० श्राचा० १ ० ६.१ उ०। अधुना चरमद्वारं व्याचिख्यासुराह-- अतिसंवुल-अजिसंबुद्ध-मिका धर्मकथादिकं निमित्तमासायोसालय-सुयस्स मुत्तत्वतदुभएण ति। | पलब्धपुण्यपापतया झाते, प्राचा.१०६०१०। दन्वगुणपजहिँ य, दिडीवायम्मि बोधव्वे ॥ अजिसमन्नागय-अभिसमन्वागत-त्रि०ा अभिराजिमुख्येन सअजिब्याहरणं शिष्याचार्ययोः वचनप्रतिवचने अन्निव्याहारः। म्यगिष्टामिष्टावधारणतया अन्विति शब्दादिस्वरूपापगमात् पस च कालिकश्रुते आचारादौ, ( सुत्तत्थतदुभएणं ति) सूत्रतो | श्चादागतो ज्ञातः परिच्छिन्नः। आचा० १७०३ अ०१ उ०। प्रज्ञान ऽर्थतः, तभयतश्च । इयमत्र भावना-शिष्येण इच्छाकारणेदम- | आभिमुख्येन व्यवस्थिते, सूत्र०२७०१०। आचा०ा परिभो झाद्युद्दिशस्वत्युक्ते सति इच्छापुरस्सरमाचार्यवचनम्-'अहमस्य गत उपनोगं प्राप्ते, झा०२ श्रु० विशेषतः परिच्छिन्ने, भ०५श० साधोरिदमङ्गमध्ययनमुद्देश वा उद्दिशामि' बदामीत्यर्थः । प्राप्तो- ४० मिलिते,ज०१५श०१ उ०। अभिविधिना, सर्वाणीत्यपदेशपारम्पर्यख्यापनार्थ कमाश्रमणानां हस्तेन सोत्प्रेकया सूत्र- र्थः । समन्वागतानि संप्राप्तानि जीवेन रसानुभूति समाश्रित्य तोऽर्थतस्तदुभयतो वाऽस्मिन् कालिकश्रुते। अथोत्कालिके दृष्टिवादे (ज०१५श०४३०) उदयावलिकायामागतेषु, न०१३ श०७ कथम् ?, इत्यत माह-द्रव्यगुणपर्यायैश्च दृष्टिवादे बोद्धव्योऽभि- स०। भोग्यावस्थां गतेषु, स्था०४ ग०३०॥ याहारः। एतमुक्त भवति-शिष्यवचनानन्तरमाचार्यवचनम्-"इ-1 अभिसमागम-अभिसमागम-पुं० । अभीत्यर्थाभिमुख्येन न तु दमुद्दिशामि सूत्रतोऽर्थतस्तदुभयतो व्यगुणपर्यायैरनन्तरम विपर्यासरूपतया समिति सम्यक् न संशयतया तथा प्रा-मसहितैरिसि"पवं गुरुणा समादिशेऽभिव्याहारे शिष्यानिव्या-1 यांदया गमनमभिसमायमः । वस्तुपरिरहेदे. स्था० । हारः। शिष्यो ब्रवीति-'उद्दिशस्वेदं मम, इच्छाम्यनुशासनं क्रि | तिविहे अभिसमागमे पन्नते । तं जहा-नहूं अहं तिरिय । यमाणं पूज्यैरिति । एवमनिब्याहारद्वारमष्टमं नीतिविशेषनये।। प्रा०म०प्र०। जया णं तहा ख्वस्स समणस्स वा माहणस्स वा अइसेसे अनिविहि-अभिविधि-पुं० । सामस्त्ये, पञ्चा० १५ विवः । णाणदंसणे समुप्पज्जा, से णं तप्पढमयाए उमजिसमेश, मा०म०। तो तिरियं, तो पच्छा, अहे अहोलोगेणं सुरअभिवुष्ट्रि-अभिवृधि-पु० । अहिर्बुजापरनामके उत्तरभाषफ. निगमे पनत्ते समाउसो !॥ दनको, जे०७ वक्त (अइसेस त्ति) शेषाणि उनस्थझानान्वतिक्रान्तमतिशेष ज्ञान अभिवुकृित्ता-अभिवर्ध्य-अन्य | अनिता कारयित्वेत्यर्थे, दर्शनं, तश्च परमावधिरूपमिति सम्भाव्यते, केवलस्य न क्रमेसू०प्र०९ पाहु। खोपयोगः, येन-तत्प्रथमतयेत्यादि सूत्रमनवयं स्थादिति । तस्य अनिव्वंजण-अभिव्यजन-नास्वरूपतः प्रकाशने, सूत्र०१ ज्ञानादेरुत्पादस्य प्रथमता तत्प्रथमता,तस्याः ( उर्फ ति) ऊर्ध्व लोकमभिसमेति-समभिगच्छति जानाति । ततस्तियगिति तिश्रु० १ अ० १०॥ ग्लोक,ततस्तृतीये स्थाने अघ इत्यधोलोकमभिसमेति । एवं च अभिसंका-अनिशङ्का-स्त्री०। तथ्यानिणये, सूत्र० २ ०६ सामात्माप्तमधोलोको दुरभिगमः, क्रमेण पर्यन्ताधिगम्यत्वाअ०। स्था० । “ भूयाभिसंका गुछमाणे, ण णिव्वहे मंतप- दिति । हे श्रमणायुप्मन् ! इति गौतमामन्त्रणमिति । स्था० ३ देण गोय" नृतेषु प्राणिषु अभिशङ्का उपमर्दशङ्का, तयाऽऽशी- ग०४०। वांदं सावा, जुगुप्सां वान ब्रूयात् । सूत्र०१ श्रु०१४ श्र। अनिसमागम्म-अनिसमागम्य-श्रव्य । अभिराभिमुख्ये, स. अनिसंकि (ए )-अभिशङ्किन-त्रि.।“ उज्जू माराभिशं- मेकीनावे, प्राइ-मर्यादाभिविभ्योः । गम्ल-सप्ल-गती,सर्व एव की मरणा पमुच्चति" । मरणं मारः, तदनिशङ्की मरणा- गत्या ज्ञानार्था केयाः। आभिमुख्य सम्यग्ज्ञात्वेत्यर्थे, “एवं दुद्विग्नस्तत्करोति येन मरणात् प्रमुच्यते । आचा० १०३ अभिसमागम्म-वित्तमादाय पाउसो" दशा० ५ अध्या० । अ० १ उ०। आचा०॥ अभिमं (सं) ग-अभिष्वङ्ग-पुं० । भावरागे, विशेष। अध्यु- | अभिसमेञ्च-अजिसमेत्य-अव्यः । श्रानिमुख्येम सम्यगित्वा पपत्ती, स्था० ३ वा०४ उ०। ज्ञात्वा । आचा० १श्रुः ३ अ०३ उ० । श्रानिमुस्येन सम्यक Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिसमेच्च अभिधानराजेन्द्रः ।। अनिसेग परिच्छिद्य पृथक् प्रवदितं वा । प्राचा० १ श्रु०४ म०२ उ०। सयं मियाणं कलसाणं, अट्ठसयं चिंगाराणं कलसाणं, अवगम्येत्यर्थे, स्थाएग। आचा।समधिगम्य श्रववु-| एवं प्रायंसगाणं थालाणं पातीणं सुपतिटकाणं चियेत्यर्थे, अनिसमेत्य धर्म यावत्केवमित्वमुत्पादयेत् । “धर्मोपादेयतां कात्वा, संजातेच्कोऽत्र भावतः । इदं स्वशक्तिमालोच्य, त्ताणं रयणकरंडगाणं पुप्फचंगेरीणं० जाव लोमहग्रहणे संप्रवर्तते" ॥१॥ स्था० २ ग०१००। त्यचंगेरीणं पुप्फपमलगाणं जाव लोमहत्थपबगाणं - अभिसरण-अभिसरण-न०आपेकिकसंमुखाभिगमने, प्रश्न दुमयं सीदासणाणं उत्ताणं चामराणं अवपमगाणं बट्ट१आश्रद्वा० । काणं सिप्पीणं खोरकाणं पीणगाणं तेलसमुग्गकाणं अट्ठसअनिसरित-अनिसरित-त्रि०। रत्यर्थ सङ्केतस्थलं प्रापिते, हस्सं धूवकमुत्यकाणं विनव्वंति। तेसा भावियए विउचिए माचा०१ श्रु०२ म०५०॥ य कलसे यजाव धूवकडुत्थए य गेएहति,गेरिहत्ता विजअभिसव-अभिषव-पुं०। अनेकव्यसन्धाननिष्पन्नसुरासौवी-| याओ रायहाणीओ पमिनिक्खमंति, पमिनिक्खमित्ता ताए रकादौ मांसप्रकारखएमादौ सुरामध्वाभिप्यन्दिद्रव्ये, बन्यो उकिटाए नाव नकत्ताए दिवाए देवगतीए तिरियमसंखेपयोगे च । अयं च सावद्याहारवर्जकस्यानाभोगातिक्रमादि जाणं दीवसमुदाणं मऊ मज्केणं वीयीवयमाणा वीयीवनाऽतिचारः । प्रव० ६ द्वार। यमाणा जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंत,तेणेव उवाअभिसित्त-अभिषिक्त-त्रि० । कृतानिषेके जातानिषके,"श्रणेण अमयकलसेण अनिसित्तो अन्भदिय सोजितुमाढत्तो" गचित्ता खीरोदगं गेएहंति, खीरोदगं गेएिहत्ता जाई तत्थ आ०म० प्र०। नप्पनाइं० जाव सयसहस्मपत्ताई गएहति , ताई गेएिहत्ता अभिसेग-अभिषेक-पुं० । शुक्रशोणितनिषकादिक्रमे, आचा. जेणेव पुक्खरोदे समहे तेणेव उवागच्छंति, नवागच्चित्ता १ श्रु० अ० ज०सौषधिसमुपस्कृततीर्थोदकैः राज्याधिष्टा पुक्खरोदगं गेएहंति, पुक्खरोदगं गेएिहत्ता जाई तत्थ तृत्वादिप्राप्त्यर्थ मन्त्रोचारणपूर्वकं तद्योग्यशिरसोऽभ्युक्तम् । उप्पलाई० जाव सतसहस्सपत्ताइंगेएहंति, ताई गेएिहत्ता संथा। जेणेव समयखेत्ते जेणव भरहेरवयाइवासाई जेणवे मातन्काणामनिषक श्त्थम गधवरदामप्पभासाई तित्याई तेणेव उवागच्छति, तेणेव • जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव नवागच्छति, उवागच्चि उवागच्चित्ता तित्योदगं गेएहति, तित्थोदगं गिएहत्ता तित्ता अभिसयसनं अणुपयाहिणं करमाणे पुरच्छिमिहोणं स्थमट्टियं गेएहति, तित्यमट्टियं गेएिहत्ता जेणेव गंगासिंधुरदारणं अणुपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणे- त्तवतीओ सलिलाओ तेणेव उवागच्चंति, तोपेव उवागव नवागच्छति, तेणेव उवागच्चित्ता सीहासणवरगते पुर चित्ता सरितोदगं गेएहंति, सरितोदगं गेरिहत्ता नजयो च्चाभिमुहे सारणसएणे । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स | तटमट्रियं गेएडं ति, तम्मष्ट्रियं गेण्डित्ता जेणेव चहिमवंतसामाणियपरिसोववएणगा देवा आभियोगीए देवे सद्दावें सिहरिदासपञ्चता तेणेव नवागच्छंति, तेणेव जवागचित्ता ति,सद्दावेत्ता एवं वयामी-विप्पामेव नो देवाणुप्पिया! तुम्भे सब्बतुबरे य सबपुप्फे य सव्वगंधेय सन्चमझे य सब्बोसहि विजयस्स देवस्स महत्थं महग्यं महरिहं विपुलं इंदाजिसेयं मिकथए य गेएडंति,गेण्डित्ता जेणेव पउपदई घुमरियहा उवटवेह । तए णं ते आजिभोगिया देवा सामाणियपरिसो तेणेव उवागच्छंति, नवागच्छित्ता दहोदगं गएइंति,दहोववहाएहिं देवेहिं एवं उत्ता समारणा हट्ठ० जाव हियया कर-| दगं गेएिहत्ता जाई तत्थ नप्पलाइं० जाव सतसहस्सपत्ताई तन्मपरिग्गद्दियं सिरसावत्तं मत्थए अंजाल कडे 'एवं देवा तह | गेएइंति,ताइंगेरिहत्ता जेणेच हेमवतेरपवयाई वासाई जेणेव त्ति' आणाए विणएणं वयणं पमिसुऐति,पमिमणेत्ता उत्त- रोडिया रोहियातंसा सुबम्पकूलरुप्पकलाओ तेणेव नवागरपुरच्चिमं दिसीनागं अवकमंति, अवकामत्ता वेउब्बियसमु. च्छंति,तेणेव नवागवित्ता सजिलोदगं गेएहति,सलिलोदगं ग्घाएणं समोहणंति,समोहणेता सखि जाई जोयणाई ममं गेएिहत्ता उभयो तहमट्टियं गेएहति, नजयो तम्मट्टियं गेणिसरंति, णिसरित्ता तावइयाई पोग्गलागेण्ड । तं जहा-| मिहत्ता जेणेव सदावतिवियमावतिमालवंतपरियागावट्टरयणाए जान रिहाणं अहा वायरे पोग्गले परिसामेंति,परि वेयपब्बता तेणेव उवागच्चंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुसाडित्ता अहा सुहमे पोग्गले परित्तायनि,परित्ताइत्ता दोचं पि| वरे य जाव सम्वोसहिसिद्धत्थप य गएहति, मिहत्यए विउव्वियसमुग्याएणं समोहणंनि,समोहाणत्ता अट्ठमयं सोच-| गेएिहत्ता जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासहरपब्बते तेणेव उवागपियाणं कलसाणं, अहमतं रुप्पमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं च्छंति,तेणेच नवागचित्ता सव्वपुप्फे तं चेवण्जेणेव महापउमाणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसयं सुवारुप्पमयाणं कलसाणं, मद्दहमहापुमरीयद्दहा तेणेव उवागच्चंति, तेणेव उवागच्चित्ता अट्ठसहस्सं सुवाममणिमयाण कन्ससाण,अट्ठसय रुप्पणिया- जाई तत्य उप्पलाई तं चेवण्जेणेव हरिवासरम्मगवासाईजेणं कलसाणं, अट्ठसयं सुवस्मरुप्पमणिमयाणं कममाणं, अट्ठः। ऐव हरिकांताओमशिलाओनरगंताओ तेणेष उवागच्छति, १८३ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३० ) अभिधानराजेन्द्रः । भिसेग तेणेव उवागच्छिता सलिलोदगं गेएहांत, सन्निलोदगं गे - रिहत्ता तं चैव जेणेव वियडावतिगंधावति० वट्टवेयपन्त्रया तेणेत्र उवागच्छति, तेणेव नत्रागच्छित्ता सन्वपुष्फे यतं चैव० जेणेव सिढणीसवंतवास हरपव्वता तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य तं चैत्र ० जेणेव तिगिच्छि • केसरिद्दहं तेणेव उवागच्छंति, तेणेत्र जवागच्छित्ता दहोदगं एहंति, दहोदगं गेरिहत्ता तं चैत्र०जेणेव पुब्वविदेह अवरविदेहवासाणि जेणेव सीयामोओयामहानई श्रो जहा नई जेणेव सव्वचक्कवट्टिविजया जेणेव विदेहावरविदेहवासाई जेणेव सव्वमागढ़बग्दामपभामाई तित्याई जेणेव सव्वंतरपदी ओ० सलिलोदगं गण्डनि, मलिनोदगं गेण्डित्ता तं चैव जेणेव सव्ववखापव्वताः सव्वतुवरेय तं चेत्र० जेणेव मंदरे पव्त्रए जेणेव जमालवणे तेथेच नवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्त्रतुवरे य० जाव सच्चोसाहिसिद्धत्थए य एहंति, गेल्हित्ता जेणेव नंदणवणे तेणेव उत्रागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सन्त्रतुवरे य० जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचंदणं गेरहंति, गेरिहत्ता जेणेत्र सोमण सवणे देणेव उवागच्छंति, तेथेत्र उवागच्छित्ता सन्त्रतुवरे ० जाव सव्वोहिमित्यए य सरसं च गोसीसचंदणं दिव् च सुमदामं गेएडंति, सुमणदामं गेरिहत्ता जेणेव पंकुगवणे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य० जात्र सव्वोसाहसित्थए य सरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणदामं दद्दरमलय सुगंधिगंधिए य गंधे गेएहंति, गेल्हित्ता एगतो मिलति, एगतो मिलित्ता जंबूदीवस्स पुरच्छिमिद्वेणं दारेणं णिग्गच्छंति, पुरच्छिमिलेणं दारेणं णिग्गच्छिता ता उकार जाव दिव्वाए देवगतीए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दा मज्जं मझेणं वीतीत्रयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता विजयं ग याप्पियाहिणं करेमाणे करेमाणे जेणेव अनिमेयमजा जेणेव विजयदेवे तेणेत्र जवागच्छंति, तेणेव उवागच्छि ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्ट जएणं विजणं वद्धावेति वच्छावित्ता विजयस्स देवस्स तं महत्वं महग्धं महरिहं विपुलं अभिसेयं उबर्हेति ॥ टीका पाठसिद्धा । जी० ३ प्रति० रा० । औ० । जं० | आचार्यपदेऽभिषिक्तो यः सोऽनिषेकः । नि० चू० १५ उ० । सूत्रार्थतदुभयोपेते श्राचार्ये, व्य० १ ० । श्राचार्यपदस्थापना, वृ० ३ ३० । उपाध्याये, जीत० । गणावच्छेदके, नि० चू० १५३० । भिसे जलपूयप ( ) - श्रनिषेकजलपूतात्मन् पुं० । अभिषेकतो जवेन पवित्रित आत्मा यैस्ते तथा । तथाविधजलचोक्षेषु वानप्रस्थेषु श्र० । अनि सेगढ- अभिषेकपीठ - पुं० । न० । अभिषेकम एकपान्तर्गते अभिषेक सिंहासनाधिष्ठाने पीठे, जं० ३ वक्० । For Private अभिहम अभिसेग ( य ) अंक - अभिषेक भाऊ - न० । अभिषेक योग्ये उपस्करे, रा० जी० ॥ अभिसेग (य) सभा - अभिषेकसजा - स्त्री० । अभिषेक - सभायाम, यस्यां राज्याभिषेकेणाभिषिच्यते । स्था० ५ वा० ३ उ० । जिसेगसिला-अभिषेक शिला - स्त्री० | तीर्थकराणामभिषेकार्यशिलायाम्, स्था० । जंबू ! मंदरपत्रयपंगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाभो पत्ता । तं जहा - पंकुकंवल सिला, अतिपं मुकंबलसिला, रत्तकंबल भिक्षा, प्रतिरत्तकंबलसिला । ६ अनिषेकशिला चूलिकायाः पूर्वदक्षिणापरोत्तरासु दिक्षु क्रमेणावगम्या इति । स्था० ४ ठा० २ ० । अभिसेगा - अभिषेका स्त्री० । गच्छमहत्तरिकायाम, नि० चू० उ० प्रवर्तिनी आगम परिभाषयाऽभिषेकेत्युच्यते, घ० ३ अधि० । निक्षुक्यां च । नि० चू० १५ उ० । अभिसेज्जा-श्रभिशय्या - स्त्री० । अनिनिषद्यायाम, व्य० १ To | यस्यां नैषेधिक्यां दिया निशायां वा स्वाध्यायं कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रातर्वसतिमुपयान्ति । व्य० १ उ० । अनिस्संग- अभिष्वङ्ग-पुं० । गदादिष्वभिलाषे, पं०व० । जो एत्थ अनिस्संगो, संताने पावहेतु ति । अट्टज्जा विश्रप्पो, 11 लोकेऽनिष्वङ्गो मूर्छालक्षणः सदसत्सु गेहादिषु पापहेतुरिति पापकारणमार्तध्यान विकल्पः । अशुभध्यानभेदोऽभिष्वङ्गः । पं० ० १ द्वा० । पञ्चा० । अनिहहु - अनिहृत्य - अव्य० बलात्कृत्वेत्यर्थे, “ सेवं वदंतस्ल परो अभिहद्दु अंतो परिमासि बहु अहियं मंसं परिभाएता डिट्टु दलपज्जा" आचा० २ ० १ ० १० उ० ॥ अहिम- अजित - न० । अभि-साध्वनिमुखं हृतमानीतं स्थानान्तरादनिहतम् । श्रभ्याहते, पञ्चा० १३ विव० । साधुदानाय स्वग्रामान्परग्रामाद् वा समानीते एकादशोद्गमदोषदुष्टे, पिं० । अथाभ्याहतारमाह नमरणानं, निसीहमनिसीद्वयं अभिहढं वा । तत्य निसीहानीयं, उप्पं वोच्छामि नोनिसीहं तु ॥ ཞུ अभ्याहृतं द्विविधम् । तद्यथा-भाचीर्णम्, अनाचीर्णे च । तत्राना द्विधा । तद्यथा निशीथाच्या हतं, नोनिशीथाज्याहृतं च । तत्र निशीथमर्द्धरात्रं, तत्रानीतं किल प्रच्छन्नं जवति, यत्र साधूनामपि यदविदितमभ्याहृतं तन्निशीथाज्याहृतम् । तद्विपरीतं नोनिशीथाज्याहृतम् - यत्साधूनामज्याहृतमिति विदितं भवति । तत्र निशीथाच्याहृतं स्थाप्यम् । अग्रे वक्ष्यत इति भावः । संप्रति पुनर्वक्ष्यामि नोनिशीथाज्याहृतमिति । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिसग्गामपरम्गामे, संदेस परदेस मेव बोधव्वं । विहं तु परग्गामे, जलथल नावोडुजंघाए । Personal Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिहड (७३१) अभिहड अनिधानराजेन्डः। मोनिशीथाभ्याहृतं द्विविधम् । तद्यथा-स्वग्रामे स्वग्रामविषयं, | घसेयम् । नोगृहान्तरमनेकविधम, तच वाटकादिविश्यम् । तत्र परनामे परग्रामविषयम् । तत्र यस्मिन् प्रामे साधुनिवसति स वाटकः-प्रतिच्छन्नः प्रतिनियतः सन्निवेशः । साही-वर्तनी, सवैकिन स्वग्रामः । शेषस्तु परग्रामः । तत्र परनामे परग्रामविष- का अपान्तराले विद्यते, न तु गृहान्तरमित्यर्थः। निवेशनम् एकयमच्याहतं द्विविधम् । तद्यथा-स्वदेश परदेशं च । स्वदेशं स्व- निक्रिमप्रवेशानि धादिगृहाणि । गृह-केवलं मन्दिरम् । एतच्च प्रामाभ्याहतं, परदेशं परमामाभ्याहृतं चेति । तत्र स्वदेशो य. सकलमपि वाटकादिविषयमनाचार्णमनुपधोगसंनवे वेदितव्यत्र देशमरामले साधुर्वर्तते, शेषस्तु परदेशः। एतद् द्विविधम- म् । तदपि च गृहान्तराख्यं च मोनिशीथं स्वग्रामाच्याहतं पि प्रत्येक द्विधा । तद्यथा-(जलथल त्ति) सूचनात्सूत्रमितिक- प्रतिलाभयितुमीप्सितस्य साधोरुपाश्रयमानयेतू-कापोत्या, त्वा जलपथेनाभ्याहृतं, स्थलपधेनाभ्याहृतं च । तत्र जलपथे- यदि वा स्कन्धेन । उपनक्षणमेतत्-तेन करादिना च, यदि वा नाभ्याहृतं द्विधा-नावा, कुपेन च । उपलकणमेतत् । तेन मृन्मयेन नाजनेन, यद्वा कांस्येन । स्तोकजलसंभावनाय जवान्यामपि । तत्र नौस्तारिका, नहुप | संप्रत्यस्यैव स्वग्रामविषयिणो नोनिशीथाभ्याहतस्य संभवमाहतरणकाष्ठम् । तुम्बकादि बोउपरिग्रहणेन गृहीतं कष्टव्यम् । स्थलपथेनाप्यन्याहृतं द्विधा । तद्यथा-जल्या, पदन्याम। उप सुन च असइकालो, पगयं च पहेणगं च पासुत्ता । लक्षणमेतत् । तेन गन्यादिना च । श्य एइ काय घेत्तुं, दीवेइ य कारणं तं तु ।। तत्रामूनेव जन्नस्थलान्याहृतभेदान् सप्रपञ्चं विजावयन् रह साधुभिक्षामटन कापि गृहे प्रविष्टः, परं तत्तदानीं शून्य दोषान् प्रदर्शयति बदिनिर्गतमानुषमासीत्। यद्वा-अद्यापि तत्र राध्यते,इत्यसन अ. विद्यमानो भिक्काकालः। यदि वा तत्र प्रकृतं गौरवादस्वजननोजंघाबाहतरीए, जले थले खंधअरखुरनिबछा। जनादिकं वर्तते, ततो न तदानीं साधवे भिक्का दातुं प्रपारिता, संजमायविराहण, सहियं पुण संजमे काया ॥ यदि वा विहत्य साधोगतस्य पश्चात्प्रहेणकं सहेणकमागतं, त. अत्याह गाहपंका, मगरोहारा जले अवायाओ। थोत्कृष्टत्वात किल साधवे दातव्यम् । अथवा तदा श्राद्धिका कंटाहितेणसावय, यसम्मि एए जवे दोसा ॥ प्रसुप्ता-शयिता आसीत, ततः साध भिक्षा न दत्ता। इति पतैः कारणैः, काचित् श्रारिका तगृहाद् गृहीत्वा माधोरुपायतत्रजलमार्गे स्तोकसंभावनायां जवान्याम,प्रस्तोकसंभावनायां मानयेत,तश्चानयनस्य कारणं तदा शून्यं गृहमासीत'इत्यादिम्पं बाहुन्याम,यदि वा तरिकया। उपलक्षणमेतत् । उसुपेन वाऽज्या- दीपयति प्रकाशयति । तत् एवं नोनिशीथस्वग्रामाभ्याहतसंहृतं संभवति । स्थनमागे तु स्कन्धेन,यद्वा-(अरखुरनिबद्ध त्ति) नवः। तदेवमुक्त स्वग्रामपरग्रामभेदभिन्नं नोनिाथाभ्याहतम् । अत्र तृतीयार्थे प्रथमा । ततोऽयमयः-अरकनिषद्धा गन्त्री,नया। प्रय स्वग्रामपरग्रामभदनिन्नमेव निशीथाज्याहृतमपिदेशेनाहखुरनिबका रासनबलीवदयः, तैः। अत्र च दोषः सयमविरा. धना, आत्मविराधना च । तत्र संयमात्मविराधनामध्ये सयम एसेव कमो नियमा, निसीहमभिहडे वि होइ णायव्यो । विषया विराधना जलमार्ग स्थलमार्गे च-काया अप्कायादयो अविश्यदायगजावं, निसीहनिहडं तु नायव्यं ।। विराभ्यमाना इष्टव्याः । जबमार्गे आत्मविराधनामाह-(अत्था य एव क्रमः स्वग्रामपरप्रामादिको नोनिशीथाभ्याहते वक्तः, हत्यादि) अत्र प्राकृतत्वात क्वचित् विभक्तिलोपः, क्वचित वि स एव निशीथाभ्याहते नियमाद् ज्ञातव्यः। संप्रति निशीथाभक्तिविपरिणामश्च । ततोऽयमर्थः-अस्ताधे पादादिभिरसभ्य भ्याहतस्वरूपं कथयति-"अविश्य" इत्यादितः। यतिना न वि. मानेऽधोभूभागे अधोनिमजनशक्षणोऽपायो भवति । तथा कातो दायकस्याभ्याहृतदानपरिणामो यत्र, तेन अविदितदायमाहेन्यो जलचरविशेषेभ्यः, यद्वा पङ्कतः कर्दमरूपात ; अ कभावं निशीथाभ्याहतमवगन्तव्यम। किमुक्तं भवति ?-सर्वथा थवा मकरंज्यः, यद्वा ( उहारे ति ) कच्छपेज्यः । उ साधुना अभ्याहतस्पेन यद् अपरिहातं तनिशीथाभ्याहतमिति पलकणमेतत्-अन्येभ्यश्च पादबन्धकजनस्वादिभ्योऽपाया विना परग्रामाज्याहत उक्तः। शादयो दोषाः सभवन्ति । स्थलमार्गे आत्मविराधनामाह स एव निशीथस्याभिदमो गाथाचतुष्टयनोच्यते( कंटेत्यादि ) कण्टकम्यो, यदि वा अहिज्यो, यद्वा स्तेनेज्या, अथवा श्वापदेभ्यः । उपत्रकणमतत्-ज्वराद्युत्पादकपरिश्रमेन्यश्च अइदर जवंतरिया, कम्मामकाएँ ठान पेच्छति । स्थले स्थलमार्गे, एतेऽपायरूपा दोषाः प्रतिपत्तव्याः । उक्तम माणेति संखडीओ, मला सही व पच्छन्न। नाचीर्ण परप्रामान्याहृतं नोनिशीथम् । निग्गम देना दाणं, दियाएँ मन्नाइनिग्गए दाणं । संप्रति तदेव स्वानामान्याहृतं नोनिशीथं गाथाद्वयेनाद- सिट्टाम्म समगमणं, दिनऽन्ने वारयंतऽन्ने । सम्गामे विय दुधिहं, घरंतरं नोघरंतरं चेव । झुंजण अजीरपुन्च-गाइ अच्छति जुत्तसेसं वा।। तिघरंतरा परेणं, घरंतरं तत्तु नायव्वं ॥ आगम निसीहिगाई, न भुजई सावगासका। नोघरतरउणेगविह, वाडगसाहीनिवेसणगिहेसु । नक्खित्तं निक्खितं, आमगयं मह्मगम्मि पासगए । कापोयखंधमिम्मय-कंसेण व तं तु आणेज्जा ॥ .खामित्तु गया सखा, ते वि य मुद्धा असढभावा ॥ स्वग्रामविषयमप्यन्याहृतं विविधम् । तद्यथा-गृहान्तरं, नो- । कचित् प्रामे धनावडप्रमुखा बहवः श्रावकाः, धनवतीप्रभृतगृहान्तरं च । तत्र त्रिगृहान्तरात्परेण-त्राणि गृहाण्यन्तरं कृत्वा यश्च भाविका,पतेचाप्येक कुटुम्बधर्तिनः ।अन्यदा तेषामावसथे परतो यदानीतं तदूगृहान्तरम। एवं च सति किमुक्कं भवति?-यद विवाहः समजनि, वृत्ते च तस्मिन् प्रचुरमादेकााद्वरितम, ततगृहत्रयमध्यादानीयते,उपयोगश्च तत्र संभवति, तद् प्राचीर्णम-। स्तैरचिन्ति-यशैतत् साधुत्यो दीयतां, येन महत्वुण्यमस्माकं Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३२ ) श्रभिधानराजेन्द्रः । अभिड जायते । अथ च केचित् साधवोऽतिदूरेऽवतिष्ठन्ते, केचित् पुनः प्रत्यासनाः परमन्तराले न विद्यते, ततस्तेषु विराध मां भावयन्तो नाममिष्यन्ति आयता अपि च प्रचुरमोदकादिकम वलोक्य कथ्यमानमपि शुद्ध माधाकर्मशङ्कया न ग्रहीष्यन्ति । ततो यत्र ग्रामे साधवो निवसन्ति तत्रैव प्रच्च गृहीत्वा व्रजाम तिथैव च कृतम् । ततो भूयो चिन्तयन्ति यदि साधू नाव दास्यामस्ततोऽशुरुमा ते न प्रहीष्यति । तस्मात् तद् द्विजादिभ्योऽपि किमपि दद्मः तच तथादीयमानमपि पदि साधनपततस्तदवस्यैव तेषामगुकाशङ्का नविष्यति । ततो यत्रोच्चारादिकार्यार्थ निर्गताः सन्तः साधवः प्रेदयन्ते तत्र द इति। एवं तात्या वियति कस्मितिप्रदेशे देवकुलस्य वर्मा द्विजाः स्तोकं स्तोकं दातुमारब्धम् तत उच्चारादिकार्यार्थे विनिर्गताः केचन साधवो दृष्टाः, ततस्ते निमन्त्रिताः । यथा भोः साधवः ! अस्माकमुद्वरि मोदकादिकं प्रचुरवतिष्ठते ततो यदि युष्माकं किमप्युपकरोति ताई तत् तिगृह्यतामिति । साधवोऽपि शुरूमित्यवगम्य प्रत्यगृह्णन् । तैश्च साधुभिः शेषाणामपि साधूनामुपादेशि यथाऽमुकस्मिन् प्रदेशे प्रचुरमेयमशनादि लभ्यते । ततस्तेऽपि तवाय समाजमुः तत्र चैके श्रावकाः प्रचुरमोदकादिकं प्रयच्छन्ति । श्रन्ये च मातृस्थानतो ( मायाविशेषात् ) निवारयन्ति यथैवं तावद्द - यतां माधिकं शेषमस्माकं भोजनाय भविष्यति। अन्ये पुनस्ता नेव निवारयतः प्रतिषेधयन्ति । यथा-न केऽप्यस्माकं भोदयन्ते, सर्वेऽपि प्रयोक्ता, तनः स्तोकमात्रेण किञ्चिदुरितेन प्रयोजनं, तस्माद् यथेच्छं साधुभ्यो दीयतामिति । साधवश्च ये नमस्कारसहित प्रत्याख्यानास्ते नुक्ताः ये चापौरुष प्रत्यास्थानास्ते जाना बनावतीक्ष्यमाणा वर्तन्ते ते नाद्यापि नञ्जते । श्रावकाश्च चिन्तयामासुःयथेदानीं साधवो जुक्ता जविष्यन्ति ततो वन्दित्वा निजस्थानं व्रजाम इति । एवं च चिन्तयित्वा समधिकहरवेलायां साधुज्यो वसतावागत्य नैषेधिक्यादिकां सकलामपि श्रावकक्रियां कृतवन्तः । ततो ज्ञातं यथाऽमी श्रावकाः परमविवेकिनो ज्ञातारश्च परम्परया विवक्तिप्राभवास्तव्याः ततः सम्यनिमयाक्तिमनून स्वप्रमादभ्याहतमिति ततो 1 मे पू दिप्रतीयमाणा न ते येऽपि च भुजाना अपतिष्ठतैरपि यः कवल उस भाजने मुच्यते, व मुखे प्रप्तिं नाद्यापि गिलितं, तद् मुखाद् निःसार्य समीपस्थापितु सर्वमपि परिस्था पितम् । श्रावकश्राविकावर्गश्च सर्वोऽपि क्षमयित्वा स्वस्थानं जगाम तत्र वे भुलाये वास्तेऽपि सर्वेऽप्यरागभावा इति शुः । सूत्र सुगमम् । केवलं ( अश्दूरं जनंतरियत्ति ) केचित् अतिदूरे, कचित् नयन्तरिताः । उक्तं परप्रामाभ्याहतं निशीयम् । । श्रय स्वग्रामाभ्याहृतं तदेव गाथाद्वयेनाह - ल परागं मे अगत्यगवाएँ संखमी वा । वंदनगपचिडा, देश तयं पडिय नियता ।। नीयं पणगं मे, नियगाणं नेच्छ्रियं च तं तेहिं । सागरियाना, पाकुड़ा संखमे रुडा | इद काचिदन्याताराङ्गानिवृत्यर्थं किमपि गृहं प्रति अभिहम तो निवृत्ता सती साधोः प्रतिलाभनायोपाश्रयं प्रविट्रय साधुसंमुखमेवमाह नगवन् ! प्रदेशक मिदममुक स्मिन् गृहे गतया लब्धम् । प्रतीक्षं. ततो यदि युष्माकमिदमुपकरोति स प्रतितामिति नीतं ददाति या वजनानामर्थाय प्रदे कं मया पदाची परं हितं तता प्रतिनि वृत्ता वन्दनार्थमत्रागतेति, ततस्तद्ददाति । यदि वा मायया काचिदम्याहतमानीय सागारिकां शय्यातरी या सम्झिर्त समितिवेशन] पूर्वसंकेतां यथा साधवः शृण न्ति तथा प्रवक्ति गृहाणेदं प्रहेणकमिति । तया च मातृस्थानतः प्रतिषिद्धम् । यथा त्वयाऽप्यमुक स्मिन् दिने मदीयं प्रदेणकं न जगृहे, ततोऽहमपि त्वदीयं न गृहीष्यामीत्येवं निषिद्धा । ततः साऽपि मातृस्थानः कित्तिद्वितययाऽपि तथै व भाषितं त एवं परस्परं संखमे कलहे सति सा प्रदेणकनेत्री रुष्टा रोपपती बन्दनार्थे वसतौ प्रविशति ततोऽनन्तरं वृतं - स्वातं वा तदानीति उर्फ स्वमायाहृतमपि निशचम 1 संप्रत्यनाची निगमयाथीर्णस्य दामाद एयं तु णानं, विद्धं पिय ग्राहडं समक्खायं । पिय दुबई, देसे तह देदे य ॥ एतत् पूर्वोक्तमज्याहृतं निशीथ - नोनिशीथभेदाद्, यद्वा-स्वग्रामपरग्रामभेदाद द्विविधमप्याश्यात गायीम कमी संचयेद्विविधम तद्यथा-देशे देश च संप्रति देशस्थ देशदेशस्य च स्वरूपमाहइत्थसयं खलु देसो, आरेणं होइ देसदेसो य । तिमि गिहा, ते वि य लबओगपुञ्चग्गा ॥ 1 हस्तशतं हस्तशतप्रमितं क्षेत्रो देशः । हस्तशतादारात हस्तशतमध्ये इत्यर्थः देशदेशः । अत्र स्तरातप्रमाणे श्री यदि गृहाणि श्रीणि नवन्ति नाधिकानि ततः कल्पते। तान्यपि चेद गृहाणि उपयोगपूर्वकाणि भवन्ति । उपयोगस्तत्र दातुं शक्यते इत्यर्थः । ततः कल्पते, नान्यथेति । संप्रतिगृयज्यतिरेकेण हस्तशतादिसंभ तद्विषये कल्पविधि चाऽऽहपरिसेवणपती दूरपरसे व पंपसालगि इत्यस्या भंग परओ छ पमिक ॥ परिविष्यते ततो भोजनं दीयते येभ्यस्ते परिवेषणा जनाः पुरुषाः तेषां श्रेणितस्यां तत्र यस्मिन् पर्यन्ते साधुसंधा टको वर्तते, द्वितीयं तु देयं तिष्ठति । तत्र च स्पृष्टास्पृष्टभयादिना गन्तुं शक्यते । एवमुत्तरपदयोः परिवेषणस्यामा दूरदेशे लम्बगमनमार्गकादी यदि वा घशाला तादानीतस्य ग्रहणमाची कल्प त इत्यर्थः । परतस्त्वानीतस्य ग्रहणं प्रतिक्रुष्टं निराकृतं तीर्थकरादिभिः । , संप्रत्ययैवाचीर्णस्य मेदान प्रदर्शयतिउकोसमज्जिमजहन्नगं तु तिविहं तु होइ आइन्न । करपरिथत्त जहन्नं, सयमुक्कोस मज्जमं सेसं ॥ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / अनिहम अनिधानराजेन्छः। अभिहाणहेनकुसल त्रिविधमाचीर्णमभ्याहृतम् । तद्यथा-उत्कृष्ट,मध्यमं,जघन्यं च। आदिसहातो सिंहबग्घादियाण वा समीवातो जे पापति, सो तत्र यदा ऊर्धापरिष्टात् कथमपि हस्तयोगेन मुष्टिगृहीतेन वा मिहत्थो आणत्तो जं कमाइए तेणादिपहारे पावति,अंतरावा वा मरमकादिना, यदि वा स्वपत्यादिपरिवेषणार्थमोदनभृ- पुढवादीए काए विराहेज्जा,वंदिगहे तेणेहिं वा बद्धोहिमओवाजुतशाकरोटिकयोत्पादितया व्यवतिष्ठते । अत्रान्तरे च कथम- जंतो वा मारितोवा, ताहेसयणादिजणो भासति-संजयाण पा. पि साधुरागच्चति भिक्कार्थ, तस्मै च यदि करस्थं ददाति तदा | दे नेतो सावगो मारिनो त्तिा एवं उड़ाहो। तस्स वा सयणिज्जा करप्रवर्तनमात्रं जघन्यमभ्याहृतमाचीर्णम् । हस्तशतादभ्याहृतः | पदोसं गच्छेज्जा, तद्दव्वमस्स वा चोच्छेदं करेजा । सो वा पदोमुत्कृष्टम् । शेषं तु हस्तशतमध्यवर्ति मध्यमम् । तदेवमुक्तम- सं गच्छे वोच्छेदं वा करेजा, जम्हा एवमादि, तम्हा पाहमणो भ्याहृतम् । पि० धापाचा०। स्था० श्राव० व्या सूत्र०। गेराहेजा, अप्पणा गवेसेज । वितियपदेण गिदत्थाणीतं पिगेनिघून"गिहिणो अभिहम सेयं, जीश्रोण उ भिक्खुणो"| एहेज्जा ॥१५॥ गृहिणां गृहस्थानां यदन्यादृतं तद्यतेनोक्तुं श्रेयः श्रेयस्कर, न तु भिक्षूणां संबन्धीति (प्रश्नः) । अत्र तनुत्वं चास्या वाच असिवे प्रोमोयरिए, रायढे जए व गेलो। एवं द्रष्टव्यम्-यथा गृहस्थाच्यादृतं जीवोपमर्देन भवति, यतीनां सेहे चरित्तसावय-नए य जयणा इमा तत्थ ॥२०॥ तूऊमादिदोषरहितमिति । सूत्र.१७० ३०। "अत्र प्रायः सक्वेत्ते पादाए असतीप दुखनेसुवा,असिवगहितो वा गंतुमसस्वग्रामाभिहडे मासलहुं, परगामाभिहडे निप्पश्चवाए चउनहुँ, मत्थो,अहवा पायनूमीए अंतरा वा असिवं प्रोमं वा, एवं रायसपश्चवाए चनगुरूं"। पं०चू० । मुम्बोहिगभयं वा,सयं गिलाणे वावमोवा,सेहस्स वा तत्थ साअभिहतशब्दव्याख्या गरियं मा सीदज्जा । चरित्तदोसा वा, तत्थ अणेसणादिया जे निक्खू गाहावइकुलं पिंडवायपामयाए अणुपविटुं| दोसा,सावयभयंवा,तत्थ एवमादिकारणेहिं इमं जयणं करोति । समाणे परं तिघरंतराश्रो असणं वा पाणं वा खाइमं वा अप्पाहिति पुराणा-दि पादमत्थेण आणयह पायं । साइमं वा अभिडडं आहह दिज्जमाणं पडिगाहेश, पमिगाईतं तेहिं च सयमाणीए, गहणं गीतेतरे जयणा ।। १ ।। बा साज्जा ॥ १४ ॥ अप्पाहणं संदेसो,पुराणस्स संदिसति । श्रादिम्गहणेणं गिही"जे भिक्खू गाहावतिकुब० असणं वा पाणं वा खाश्मं वा | ताणुब्बयसावगस्स वा,सम्मदिहिणो वा संदिसंति। पादसत्थेसाइमं वा परं तिघरंतरात्रो" इत्यादि । तिमि गिहाणि तिघि- ण आणयध,तेदि वा आणीता जदि सच्चे गीयत्था तो गेएहति, रं, तिघरमेव अंतरं तिघरंतरं । किमुक्तं नवति ?-गृहत्रयात्प- श्तरा अगीयत्था तेसु जयणं करेंति, पुप्पं पमिसेदित्ता निन्ने रत इत्यर्थः । अहवा तिम्मि दो अंतरात्परत इत्यर्थः । प्रायारा भावे तेहिं तर्हि य जदा अत्तट्ठिया तदा गेण्हंति । गृहीत्वा किंचित् असणादी अनिहडदोसेण जुत्तं आहट्ट सा. एसेव कमो णियमा, आहारे सेसए य उवकरणे। हुस्स देज्ज, जो अणामं तिघरंतरापरेणं, आइस्मे वा अणुवउत्तो गेएहति, तस्स मासबहुं। नि० चू०३ उ० (अन्ययूथिकैः पुन्य अवरे य एए, सपज्जवा एतरे बहुगा ।। २२॥ सहाभिदृतग्रहणव्याख्या 'अएणउत्थिय' शब्दे ४६६ पृष्ठे उक्ता) जो पादे विही भणितो एसेव विधी आहारे, सेसोवगयणे य जे भिक्ख परं अजोयणमेराम्रो सपञ्चवायांस अभिड-| दटुब्बो। सपज्जवा ते, इतरे पुण निपज्जवा, ते अप्पसस्था चमाह दिजमाणं पमिग्गाहेइ, पमिग्गाहंतं वा साइज्जइ ।११।। उलढुगा । नि० चू० ११ उ०। श्रद्धजोयणाश्रो परो सपश्चवारण पदेण अभिहम-अनिरा- अभिहणण-अजिहनन-न० । वेदनोदीरणे, प्रश्न०१ आश्र भिमुख्ये, ह-हरणे, अभिमुखं हृतम, पानातमित्यर्थः । तं | द्वा०। पादाभ्यामाभिमुख्यन हनने, प्र०८२०७ उ० । अनिपडिगाहेति जो निक्खू, सो आणादी पावति, चनगुरुंच से मुखमागवतो हनने, भ०५ श०६०। प्राचा०। पच्चित्तं । एसो चेव प्रत्थो श्मो अनिहणमाण-अभिघ्नत-त्रि०। पादाभ्यामनिघातं कुर्वति, "खु परमजोयणाओ, सपञ्चवायसि अभिहडाणीयं । रचलणचंचपुमेहि धरणिलं अभिहणमाणं" जं०३ बका। तं जे भिक्खू पायं, पमिच्छते आणमादीणि ॥१७॥ । अनिय-अभिहत-त्रि० । मानिमुख्येन हतोऽभिदतः । चरणेन कंग । श्मेहिं वा सावायो पहे घट्टिते, " चरिदिया अभिया वत्तिया व्होसिया " भाष. सावय तेणा विहा, सव्वालजला महानदी पुन्ना ।। ४ अ०। ध० । प्राचा०। वणहत्थिदुट्ठसप्पा, पडिणीया चेव नु अवाया ॥१०॥ अभिहाण-अजिधान-न । अभिधीयते येन तदभिधानम् । नि. सीहादिया सावया। तेणा दुविहा-सरीरोवगरणे । जस्ले गाहम- चू० १ उ० । संज्ञायाम, विशे० । शब्दे, विशे० । नामनि, विगरापहि सव्वाला महाणदी वा अगाधा पुन्ना, वणइत्थी वा शे। अर्थाभिधानप्रत्ययाश्च लोके सर्वत्र तुल्यनामधेया। विदुछो पहे।कुंर्माणसादिसप्पा वा पहे विजंति,गिहीण वा वेरिया शेाभावे ल्युट । उच्चारणे, सूत्र० १६०१६ अाइड द्विविधदिपमिणीया संति, एवमादित्राऽवादि इमे दोसा ॥ १७ ॥ मनिधानं भवति-सतामसतां च । सतां यथा जीवादीनाम, तेणादिसु जं पावति, विराहए अंतरा काया। असतां यथा शशविषाणादीनाम | प्रा० चू०१०। बद्धहियमारिते वा, उडाहपदोसवोच्छेदो ॥१५॥ अनिहाणनेय-अजिधानन्जेद-पुं० । वाचकध्वनिभेदे, विशे। सो निहत्थो आणतो तेणगसमीयातो जं धातादि पावति। | अजिहाणदेउकुसल-अनिधानहेतुकुशल-पुं० । अभिधानेषु २०४ . Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३४) अभिहाणहेजकुसल अनिधानराजेन्द्रः। प्रमच्च शब्देषु देनुसाध्यगमकेषु कुशलो दक्कोऽनिधानहेतुकुशसः। शब्द-| अमारिप्रदाने, प्राणिघातनिवारणेचा पञ्चाए विवाउपा०। मार्गे चातीव सुमे, व्य० एउ० । वृ०॥ ध०। प्रश्न०॥ अनिहित (य)-अनिहित-त्रि०। उक्ते, प्राचा०१४०८ मच्च-अमात्य-पुं० । सहजन्माने मन्त्रिणि, कल्प. ३० । म०५ उ०। संथा० । नि०चूकाराज्यचिन्तके,प्रश्न०४ आश्रद्वा०नि००। अत्तीरु-अत्तीरु-त्रिका भी-रुकान० त०। शतमूल्याम, प्र राज्याधिष्ठायके, औ०ाजा ज्ञा० । अष्टादशानां प्रकृतीनां म. संकुचितपत्रत्वात्तस्या अन्नीरुत्वम् । वाच। सप्तप्रकारभयर हत्तरे, वृ०३ उ०। अमात्यसकणमाहहिते, आचा० २ ० १५ अ०१२०३० सत्वसंपन्ने, पोषण सज्जणवयं पुरवरं, चिंतंतो अथई नरवतिं च । सत्पन्ने महत्यपि कार्येऽबिन्यति. वृ०१०। अभीरु म कुतश्चिदपि स्तेनोद्नामकादेविविधां विभीषिकां दर्शयतो न वि ववहारनीतिकुसलो-ऽमच्चो एयारिसो अहवा ॥ भेनि । पृ०१० मध्यमग्रामस्य मर्चनाभेदे, स्था०७०। यो व्यवहारकुशलो,नीतिकुशलश्च सन् सजनपदं पुरवरं नरपति च चिन्तयन्नवतिष्ठते, स पतहशो नवति अमात्यः । अथवा-यो अखंजिन-अजुक्त्वा-अव्य० । अननुभूयेत्यर्थे, भा०॥ रापि शिक्षा प्रयच्चति स अमात्यः अभुजंतग-अन्युज्यमान-त्रि० । व्यापार्यमाणे, १०२ उ०। तथा चैतदेव सविस्तरं विभावयिषुराहअनुत्तलोग-अनुक्तनोग-त्रि०ान भुक्ता नोगा येन स प्रचुक्त राया पुरोहितो वा, संघिबाज नगरम्मि दो वि जणा। भोगः । पं०व०१ द्वा० । स्त्रीज़ोगाननुक्त्वा प्रवाजिते कौमार अंतेनरे धरिसिया-ऽमच्चेणं खिसिया दो वि ॥ कभावप्रतिबके, नि० चू०१ उ०॥ राजा पुरोहितचा वाशब्दः समुच्चये । एतौ बावपि जनौ अजूनाव-अनुतिलाव-पुं० । अनूतेर्भावोऽभूतिभावः । असंप (संघिबाउ सि)संघातवन्तौ,परस्परं मरुकावित्यर्थः । नगरे वर्ते ते।तौ च तथावर्तमानावन्तःपुरान्यां निजनिजकलत्रेण धर्विती, द्भावे, दश०८ अ०१०। भमात्येन-बद्धावपि खिंसितौ,निन्दापुरस्सरं शिक्वितावित्यर्थः । प्रभूउम्भावण-अभूतोजावन-न० अलीकनेदे, यथाऽऽत्मा श्या- एष गाथावरार्थः। जावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम्माकतन्त्रमात्रः । अथवा सर्वगत आत्मेत्यादि।ध०२ अधिक। " एगो राया, तस्स पुरोहितो, तेसिं दोएदं वि नजानो परोभर्यानिसंकण-अभूतानिशडून-पुं० । न चुतान्यभिशङ्कन्ते प्परं नगिणीो । अन्नया तेसि समुखावो जातो । रायभजा विज्यति यस्मात्स तथा । प्रशस्तवाविनयभेदे, स्था०७ठा०।०। भण-मम वस्सो राया । पुरोहियभज्जा जण-मम वस्सो भलेज-अजेद्य-त्रि०। जेद्यः सूच्यादिना चर्मवत्, तनिषे बंजणो । तोपेच्छामो कयराए वस्सो पती । ततो पुरोडियम जाए जत्तं नवसाहित्ता रमो मज्जा जमिणी निमंधादभेद्यः । भ०२ श०५ उ०। सूच्यादिना नेत्तुमशक्ये, “त तिया । रतिं पुरोहितो भणिो -मए ओवाश्यं कयं, भो भभेजा पत्ता । तं जहा-समए पपसे परमाणू" स्था० जइ मम दरो अमुगो समिजिर ति, ततो नगिणीप समं ३०२ उ०॥ तव सिरे जायणं काहं जेमेमि । सो य मे घरो संपायो। संअजेजकवय-अभेद्यकवच-पुं० । परप्रहरणाभेद्यावरणे, प्र. पयं तव मूलातो पसायं मम्गामि । पुरोहितो नणा-अणुग्गहो शाए । मेय त्तिारायभजाए राम्रो भणियो-अज रत्तिं तव पिट्ठीए विल. अजेय-अनेद-पुं० । सामान्ये अविशेषे, मा०म०वि०॥ गिउं पुरोहियघरं वचामि । राया भण-अणुग्गहो मे, तादे सारायं पल्लाणित्ता पिडीए विसगिता पुरोहियघरं गंतु पछिअजोग-अभोग-पुं० । अव्यापारणे संयमोपबृहणार्थस्वसत्ता- या।पुरोहितो वाहणोतिका खंने बको।तानो दो वि जणीयाः स्थापने, वृ० १०॥ मो पुरोहियस्स सबरि मत्थर भायणं काउं पुरोहिपण धरिजप्रभोजघर-अनोज्यग्रह-न । अदिएमनीयकुलेषु रजका.. माणे भायणे भुंजंति । राजा खंजे बको हयदेसियं करे । भोदिसंबन्धिषु, वृ०१ उ०॥ सुं गया रायभज्जा । ततो रमा पुरोहिपण धरिसितोमि ति तस्स सिरं मुंडावियं । अमचेषं तं सव्वं नार्य, पमाप राया पुरोअजोयण-अनोजन-न। अनन्यवहारे, पि॥ दिभो य खिसितो।" . श्रमश्न-अमलिन-त्रि० । स्वच्छे निर्मले, प्रश्न०४ आश्रद्वा । अमुमेवार्थमाह छंदाणुवत्ति तुन्नं, मज्झं मीमंसणा निवे खलिणं । अमंगलनिमित्त-अमंगलनिमित्त-त्रि० । अस्फुरगादिषु श्रमा निसि गमण मरुग थालं, धरेति हुंजंति तो दो वि ।। अलिकनिमित्तेषु, प्रश्न०५ आश्र द्वा०॥ तव वा पतिर्मम वा पतिश्छन्दानुवर्तीलिन विमर्शव्यतिरेकेण अमग्ग-मार्ग-पुं। मिथ्यात्वकषायादी, ध० ३ अधि० ।। ज्ञातुं शक्यते । ततो मीमांसापरा सा परीक्कां कर्तुमारब्धा । "अमग्गं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि" प्राव०४ म० ॥ तत्र राजनार्यया नृपे खलीनमारोपितं, ततो निशि रात्रौ पुरोअपग्गलग्ग-प्रमार्गलग्न-पुं० । पार्श्वस्थादिकुतीर्थमार्गप्रवाहप- हितगृहे गमनं, ततो मरुको ब्राह्मणः पुरोदितः शिरसा स्थालं निते, सामान्यप्राणिनि च । दर्श०॥ धरति । तत्रच द्वे अपि जाते । एषा गाथाक्षरयोजना । भावार्थोऽनन्तरमेव कथितः। अमग्या ( माघा) य-प्रमाघात-पुं० मा बहमीः, सा च है. धा-धनलक्ष्मी प्राणलक्ष्मीश्च । तस्या धातो हननं, तस्याऽभा अथ कथममात्यो द्वावपि तौ शिक्वितवान् , तत आहबोऽमाघात, 'श्रमग्घाय ति' प्राकृतत्वात् । भरण्यापहारे, पमिये सियरायाण, सोउमिणं परिजवेण हसिहि ति । Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३५) प्रमच्च अभिधानराजेन्मः। अमणा थीनिजितो पमत्तो, नच्चा रज्जं पि पेल्लेज्जा । तथा चाऽऽहप्रातिवेशिका नाम सीमान्तर्वर्तिनः प्रत्यर्थिनो राजान दं सूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सव्वसूयगा चेव । भुवा परिभवेन परिभवोत्पादनबुध्या हसिष्यन्ति, न केवलं पुरिसा कयवित्तीया, वसति निययम्मि रजम्मि ॥ हसिष्यन्ति किंतु स्त्रीनिर्जितःप्रमत्त एष इति ज्ञात्वा राज्य सूयग तहाणुसूयग, पमिसूयग सव्वसूयगा चेव । मपि प्रेरयिष्यन्ति, गृहीयुरित्यर्थः । महिला कयवित्तीया, वसंति निययम्मि रज्जम्मि । धिं तेसि गामनगरा-ण जोस इत्थी पणा यिगा ते य । सूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सव्वसूयगा चेव । विद्धिकया य पुरिसा, जे इत्थीणं वसं जाया॥ पुरिसा कयवित्तीया, वसंति निययम्मि नगरम्मि ।। धि निन्दायाम,तेषां ग्रामनगराणां,येषां स्त्री प्रणायिका प्रकर्षण सूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सदसूयगा चेव ॥ स्वतन्त्रतया नायिका । अत्र धिग्योगे द्वितीया प्राप्ताऽपि षष्ठी, प्राकृतत्वात् । तथा तेऽपि पुरुषाः धिकताः धिक्कार प्राप्तवन्तो महिला कयवित्तीया, वसंति निययम्मि नगरम्मि । ये स्त्रीणां वशमायत्सतां जाताः। सूयग तहाऽसूयग, पमिसूयग सव्वसूयगा चेव ।। तथा पुरिसा कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे गएणो॥ इत्थीओ बलवं जत्य, गामेसु नगरेसु वा । सूयग तहाऽणुसूयग, पडिसूयग सम्बसूयगा चेष । सो गामो नगरं वा वि, खिप्पमेव विणस्स। महिला कयवित्तीया, वसंति अंतेनरे रएको । यत्र प्रामेषु नगरेषु षा स्त्रियो बनवत्यः स ग्रामो नगरं वा क्षि- गाथाषटूस्यापि व्याख्या पूर्ववत् । तत एवं निजचारपुरुषैः प्रमेव विनश्यति । बहुवचनेनोपसंहारो जातौ बहुवचनमेकव- महिलाभ्यो राज्ञः पुरोधसश्च निशि वृत्तममात्यो ज्ञातवान् । चनं प्रवतीतिशापनार्थः। तदेवं राज्ञोऽपि यः शिक्काप्रदानेऽधिकारी सोऽमात्य इति । सएवमुक्ते राजा पुरोधा वा एवं मनसि संप्रधारयत । यथा- कममात्यस्य स्वरूपम् । व्य० १ उ०। 'नास्माकं ग्रामेषु नगरेषु वा स्त्रियो बलवत्यः' इति, तत आह अमर्त्य-पुं० । देवे, स्या०।। सूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सम्बसूयगा चेव । अमञ्चपूज-अमर्त्यपूज्य-त्रि०। देवाराध्ये तीर्थकदादी, स्था। पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतरज्जेसु ॥ अमचरिण)-अमत्सरिन्-त्रि०। परसंपददषिणि, दश १ तस्यामात्यस्य पुरुषाः कृतवृत्तयः कृताजीविकाः, चतसृषु दि. | चू० । परगुणमाहिणि, प्रश्न ४ श्राश्र० द्वा०। शु चरा कानाथै सामन्तराज्येषु प्रातिवेशिकराज्येषु वसन्ति ।त श्रमच्छरियया-अमत्सरिकता-स्त्री० । मत्सरिकः परगुणानापया-सूचकाः,अनुसूचकार, प्रतिसूचकाःसर्वसूचकाचा सूचकाःसामन्तराज्येषु गत्वा अन्तःपुरपालकैःसह मैत्री कृत्वा यत्तत्र रहस्यं मसोढा, तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता । भ० श० एन०। तत्सर्व जानन्ति । अनुसूचका:-नगराभ्यन्तरे चारमुपलनन्ते । परगुणग्राहितायाम, औ०। प्रतिसूचका:-नगरद्वारसमीपे अल्पव्यापारा भवतिष्ठन्ते । सर्व- अमज्जमंसासि (ण)-अमद्यमांसाशन-त्रि० । मद्यमांसमनसूचकाः-स्वनगरं पुनरागच्छन्ति , पुनर्यान्ति । तत्र ये सूच- इनति, सूत्र०२ श्रु० २ ० । अमद्यपे, अमांसाशिनि च । कास्ते श्रुतं दृष्टं वा सर्वमनुतूचकेन्यः कथयन्ति । अनुसूचकाः दश०२ चू। सूचककथितं स्वयमुपलब्धं च प्रतिसूचकेभ्यः। प्रतिसूचका अमज्जाइस-अमर्यादावत-पुं० । “मज्जाया सीमावस्था, न मज्जाअनुसूचककथितं स्वयमुपलब्धं च सर्वसूचकेभ्यः । सर्वसूचका या अमज्जाया, तीए जो घट्टति सो अमज्जाइलो" नि० चू० १ अमात्याय कथयन्ति । यथा तस्यामात्यस्य चतुर्विधाःपुरुषाः उ० मर्यादाया अवेत्तरि प्रवर्तके प्राचार्य च । नि००४.०। सामन्तराज्येषु वसन्ति , तथा महेला अपि । तथा चाऽऽह- . अमऊ-अमध्य-त्रि० । न० ब० । विनागचयं कर्तुमशक्ये, "तसूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सव्यसूयगा चेव । भो भ्रममा पम्लत्ता । तं जहा-समए,पएसे, परमाणू"। स्था. ३०४०। विषमसंख्यावयवाभावात् केत्रपरमाणी, भ. महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतरजम् ॥ २००६ उ०। अस्या व्याख्या प्राग्वत् । यथा च पुरुषाःखियश्च सामन्तराज्य अमण-अमन-न। अधिगमने, अन्तःपरिच्छेदे च । स्था० ३ समस्तषु वसन्ति तथा सामन्तनगरेष्वपि राजधानीरूपेषु। | ०४ उ०। तथा चाऽऽ: अमनस्-न । मनोविद्वेषिण्वर्थे, “तिविहे प्रमणे पामते । तं सूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सव्वसूयगा चेव । जहा-णोतम्मणे णोतयन्त्रमणे अमणे" स्था० ३ ०३१०। अविद्यमानान्तःकरणे, दर्श०।"भायक सुणिप्पकम्पो, झाणं पुरिसा कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु । अमणो जिणो हो।" प्रयत्नविशेषाद् मनः अपनीय अमना असूयग तहाऽणुसूयग, पमिसूयग सञ्चसूयगा चेव ।। विद्यमानान्तःकरणो जिनो भवति । आव०४० ज०।महिला कयवित्तीया, वसंति सामंतनगरेसु ॥ संझिनि च, क० प्र०। व गाथास्यमपि पूर्ववत् । यथा च परराज्येषु परनगरेषु च | अमणा-अमनाक्-अव्य० । न मनागमनाक । नितरा शब्दाथ, पुरुषाः खियश्च बसन्ति, तथा निजराज्ये निजनगरे अन्तःपुरे। सूत्र.२६०१०। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमगाम अभिधानराजेन्द्रः। अमर प्रमणाम-अमनाप- त्रिन जातुचिदपि भोज्यतया जन्लू- अमम्मणा-अमन्मना-स्त्री० भनवरतवञ्चमानायां वाचि,उपा० मां मनांसि आप्नोति । जी०१ प्रति। न मनसा प्राप्यते प्राप्य- २०रा०। ते चिन्तया यत्तत्तथा । उपा०८० अमय-अमृत-न। सुधायाम, पञ्चा० ३ विव० । कीरोदधिअमनोऽम-त्रि० । न मनसा अम्यते गम्यते पुनः पुनः स्मरणतो मथिते, प्रा० म०प्र०।" अमयमडियफेणपुंजसन्निगास" अ. यत्तदमनोऽमम् । प्रत्यर्थ मनोऽनिष्टे, भ०१ श०५०। मृतस्य क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुओ डिएमीरपूरस्तअवनाम-त्रि०। अवनामयतीति अवनामः।पीडाविशेषकारिणि, | त्सन्निकाशं तत्समप्रनम । राकान-मृ-क्तान००।मोके,होमाव"अमणुनाश्रो श्रमणामओ दुक्खाओ" सूत्र०७०१०। शिष्टव्ये, जले, घृते , अयाचिते वस्तुनि च । परब्रह्मणि, न०। अमाणुण-अमनो-त्रि० । मनसोऽनुकूलं मनोइंन मनोझम मरणशून्ये, त्रि० । विभीतके, स्त्री । वाच०। . मनोकम् । श्राव०४० । न मनसा ज्ञायते सुन्दरतया इत्यम- अमय-त्रिका अविकृती, "अमो य होइ जीयो, कारणविरनाश्रम । भ० श०३३ १०। स्वरूपतोऽशोभने, (कदमादी) हा जहेव आगासं । समयं च हो अनिश्चं, मिम्मयघडतंतुमाई. स्था० ३ ठा०१०। मनःप्रतिकूले,सूत्र.१६०६ अ0। असु- यं" अमयश्च भवति जीवः । विशे० । चन्द्रे, देना०१ धर्ग। न्दरे, प्रश्न ५ सम्बद्वा०। अनिष्टे, ग०१ अधि० । स्था० ।। अमयकलस-अमृतकलश-पुं० । अमृतपूर्णघटे, "अमयकलअशुभस्वभावे, स्था०८ ग० विपा०।अमनःप्रसादहेतौ विपा- | सेण अभिसित्तो"श्रा०म०प्र०। कतो दुःखजनके, जी०१ प्रति।" अमणुष्पपुरूवमुत्तपूश्य-| पुरीसम्मा" अमनोझाश्च ते दुरूपमूत्रेण प्रतिकपुरीषण च पू अमयघोस-अमृतघोष-पुं० । काकन्द्या नगर्याः स्वनामख्याते पाश्चेति विग्रहः । इह च दूरूपं विरूपं, पूतिकं च कुथितम् । राजनि, स च स्वपुत्र राज्य स्थापयित्वा धर्ममनशनं प्रतिपन्न (कामभोगाः) भ०६२० ३३ उ० । “ अमएमसंपओगसंप इति । संथा। उत्ते तस्स विप्पभोगसश्सममागए या विनवति" श्रमनोझो अमयणि हि-अमृतानधि--पुं० काजनबसानके प्रतिष्ठिते भगअनिष्टो यः शब्दादिस्तस्य यः संप्रयोगो योगस्तेन संप्रयुक्तो यः वति, ती० ४५ कल्प। स तथा; स च तथाविधः सन्, तस्यामनोज्ञस्य शब्दादेर्विप्रयो इन, तस्यामनाझस्य शब्दादेविप्रयो- | अमयतरंगिणी--अमृततरङ्गिणी-स्त्रीकामहोपाध्यायश्रीकल्यागस्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति । विप्रयोगचिन्ताऽनुगतः स्यात्। णविजयगणिशिष्य-मुख्यपण्डितश्रीलाभविजयगणिशिष्यावतं. चापीत्युत्तरवाक्यापेक्षया समुश्चयार्थः । असावार्तध्यानं स्यादि स-पण्डितधीजीतविजयगणिसतीर्थ्यतिलकपरिमतश्रीनयधिति शेषः, धर्मधर्मिणोरभेदादिति । भ० २५ २०७० । ग०। जयगणिचरणकमलसेविना पण्डितश्रीपञ्चविजयगणिसहोदजिन्नसामाचारीस्थिते संविग्ने, पं० २०२द्वारा साम्नोगिके, वृ० ३ उ०। नि० चू० । रेणोपाध्याय श्रीयशोविजयगणिना विरचितायां नयोपदेशटी | कायाम्, नयो। अमणुप्मतर-अमनोइतर-त्रि० । अकान्ततरे, अप्रीततरे च । अमयनिग्गम-देशी-चन्छ, दे० ना० १ वर्ग। विपा० १ ० १०॥ श्रमणुसमुप्पाय-अमनोज्ञसमुत्पाद-त्रि०ान मनोझममनो- | अमयप्प(ण)-अमृतात्मन्-पुं० । धर्ममेघसमाधी, द्वा०२०वा। झमसदनुष्ठानम् । तस्मादुत्पादः प्रादुर्भावो यस्य पुःखस्य तद- अमयफल-अमृतफल-न० । अमृतोपमफसे, झा० ए०। मनोज्ञसमुत्पादम् । स्वकृतासदनुष्ठानाजाते दुःखे, सूत्र०१ ७० अमयबद्धी-अमतबद्धी-स्त्री० । बल्लीविशेषे, प्रव०४ द्वा०। १०३उ०। ध० । गुमूच्याम, वाच०। अमगुस्स-अमनुष्य-पुं० । देवादी, नं० । रक्षापिशाचादी, (सिमान्तकौमुदी)। नपुंसके, नि० ० १ उ०। अमयनूय-अमृतनूत-त्रि० । माधुर्यादिभिर्गुणैः सुधासहोदरे, वृ०२ उ०। अमत्त-अमत्र-नानाजने, सूत्र०१ श्रु० ए०। अमयरसासायएणु-अमृतरसास्वाद-त्रि० । अमृतरसस्याअमम-श्रमम-त्रि० । ममत्वरहिते, कस्प०६ क । उत्त०। पं० स्वादस्तं जानाति इति अमृतरसास्वादकः। अमृतरसास्वाद. सू० । दश । निोनत्वात्-(औ०) निरभिम्वङ्गाद् अविद्यमा वेत्तरि, "अमृतरसाऽऽस्वादकः, कुनक्तरसलालितोऽपि बहुनममेत्यभिलापे, स्था० १ ग०। युगलिकमनुष्यजातिजेदे, जं० कालम्"। षो० ३ विवा।। ४ वक्षः। उत्सर्गिण्यां भविष्यति द्वादशे तीर्थकरे, अन्त० ५ वर्ग । प्रव० । तिः । स०। अवसर्पिण्यां जातो नवमो वासुदेवः अमयवास-अमृतवर्ष-पुं० । तीर्थकृज्जन्मादौ देवैः कृतायामकृष्णो भारते वर्षे पुण्मेषु जनपदेषु शतद्वारे नगरे द्वादशस्तीर्थ मृतवृष्टौ, आचा० २ श्रु० १५ अ० । करो भविष्यति । स्था०८ गती। पञ्चविंशतितमे दिवस- अमयसाय-अमृतस्वाद-jor अमृतवत् स्वाद्यते इत्यमृतस्यामुहर्ते च । च०प्र०१० पाहु० । ज्यो। दम् । अमृततुल्ये, सम्म०३ काम । अममत्तय-अममत्वक-त्रि० । न विद्यते ममत्वं मूर्ग यस्य स अमयसार-अमृतसार-न। न विद्यते मृतं मरणं यस्मिन्नसाअममत्वकः । 'शेषाद्वा ।।३।१७५। इति (हैम)सूत्रेण कच् प्रत्य- वमृतो मोकः । तं सारयति प्रापयतीति वा । मोकप्रतिपादके, यः।मुर्छारहिते, ०१ उ.1 निर्ममताके, "अममत्ता परिकम्मा,| सम्म ३ काएक दारविलम्भंगजोगपरिहीणा" पं०व०४ द्वा०। अमर-अमर-पुं० । देवे, कर्म०५ कर्म। आषाको पा. अममायमाप-अममीकवेत-त्रि।अस्वीकुर्वति मनसाऽप्यनाद- मात्रयोदशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प०७० । भविष्यतस्त्रायोदाने, प्राचा० १ श्रु० २ अ०५ उ०। | विंशस्यानन्तवीर्यतीर्थकरस्य पूर्वभवजीवे, ती०२१ कल्प।सि Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अमर अभिधानराजेन्द्रः। अमरदत्त केषु च, तेषामायुषोऽभावात् । १० । " श्मस्स चेव पडिवूह- शरिह बेरगागओ, पुरा मए कि कयं ति पुच्छेउ । णट्टाए अमराय महासही" (अमराय इत्यादि) अमरा- मुणिणो श्मस्स पासे, नो भद्द! इहं अहं पत्तो ॥ १५ ॥ यते-न मरः सन् व्ययौवनप्रतुत्वरूपाऽवसक्तोऽमर श्वा- जम्माउ वि निययमुई, सुमरिय रोएमि भ्य भणेकण | चरति प्रमरायते । भाचा० १ श्रु० २ अ०५ उ०। तेणं पहियनरेणं, नियवुत्तंतं मुणी पुछो ॥ १६ ॥ अमरकेउ-अमरकेतु-पुं० । विजये (क्षेत्रे) तमालसतानामनगर्या अह विम्हयरसपुनो, किं तु कहिस्सद श्मो सुसाहु त्ति ? । राक्षः समरनन्दनस्य मन्दारमार्या उदरसंभवे पुत्रे, दर्श०। सो अमरदत्तपमुहो, एकम्गमणो जणो जाओ ॥ १७ ॥ अमरचंद-अमरचन्छ-पुं० । नागेन्छगच्छीये महेन्द्रसरिशिष्य अह बजरियं मुणिणा, भो पहिय ! तुम इओ भवे तश्ए । मगहे गुब्वरगामे, देविसनामाऽऽसि कुलपुत्तो ॥ १० ॥ शान्तिरिशिष्ये , येन गुर्जरदेशाधिपतिसिद्धराजसकाशाद अध्यादणे रायगिहे, तुह गच्चंतस्स कोवि मग्गम्मि । ज्याघ्रशिशुक इति पदवी लेमे, सिद्धान्तार्णवनामा ग्रन्थश्च मिलिओ पहिओ कमसो, तए धणदुत्ति सो नारो ॥ १९ ॥ व्यरचि। इत्येकोऽमरचन्द्रसरिः । (१) तं वीससिउं रयणी, हणिय गहिकण तकणं सब्बं । (२) वायटीयगच्छीये जिनदत्तसूरिशिध्ये, येन चतुर्विंशति- जा जासि तुमं पुरो, हरिणा बुहिएण ताव हो ॥ २०॥ जिनचरित्रं पद्मानन्दान्युदयापरनामकं महाकाव्यं, बालभारतं. पत्तो पढमे नरप, असरिसक्खाइँ सहिय बहुयाई। काव्यकल्पलता, काव्यकल्पलतापरिमलः, उन्दोरत्नावली, क- तो उव्वट्टिय इहयं, सो एसो सेण संजाओ ॥२१॥ साकलापश्चेत्येवमादयो ग्रन्था विद्वश्चित्तचमत्कृतिकृतो नि- जो सेण! तए तइया, पहिलो पहरो भवम्मि सो एसो। रमायिषत । एतस्य शीघ्रकवित्वशक्तेर्मुग्धः वीशलदवो नाम अचाण तवं काउं, असुरनिकाए सुरो जाओ ।। २२॥ • गुर्जरधरित्रीश्वरोऽस्मै बहुमानमदात् । अयं च वैक्रमीयसंव संभरिय पुववश्रे-ण तेण हणिया तुहंम्मपिन सयणा । सराणां त्रयोदशशतकेऽवर्तत । जै००। निधणं धणं च णीय, जाणिया रोगा तुह सरीरे ॥ २३ ॥ अमरण-अमरण-न० । मृत्योरभावे, ध० १ अधिः । निनो तहेव पासो, एसो सुचिरं दुही हवेत त्ति । अमरणधम्म-अमरणधर्मन्-त्रिका तीर्थकरे, पं०व०४द्वा० ।। सो कुणइ अंतरा अं-तरा य वियणं परमघोरं ॥ २४॥ अमरदत्त-अमरदत्त-पुं० । जयघोषश्रेष्टिपुत्रे, ध०२०। तं सोनं भवभीओ. पहिओऽणसणं गहि मुणिपासे । कथानकं पुनरवम् सुमरंतो नवकारं, जाओ चेमाणिएसु सुरो ॥ २५ ॥ "विद्यमसिरिपरिकनियं, अनंकियं बहुसमिद्धलापहि । इय सुणिय पहियचरियं, अमरो संवेगपरिगो अहियं । रयणायरमऊ पि च, रयणपुरं अस्थि वरनयरं ॥१॥ नमिदं विन्नवर मुणिं, भयवं! मह कहसु जिणधम्म ॥२६॥ कयसुगयसमयपोसो, पुरसिठी अस्थि तत्य जयघोसो। ध००। जिणमुणिविहियपोसो, सुजसा नामेण से भज्जा ॥२॥ इच्छामि समासिाई, ति भणिय नमिदं च सुगुरुचलणदुर्ग । अमरानिहाणकुलदे-वयाएँ दिन्नु त्ति तो अमरदत्तो। तत्तो समित्तजुत्तो, गेहं पत्तो अमरदत्तो॥ ए८॥ नामेण ताण पुत्तो, पसन्नचित्तो सहावेण ॥३॥ सो पिटणा संलत्तो, किं वच्च ! चिराश्यं तए तत्थ । आजम्मं तम्वनिय-मयवासियहिययभवरकनं । तो मित्तेहिं वुत्तो, वुत्तो तस्स सयझो वि॥एy॥ पियरेहि पढमजुव्वण-भरम्मि परिणाविश्रो सोन ॥४॥ अह कुवित्रो जयघोसो, भणेश उप्पुन ! किं अरे तुमए । मह महुसमयम्मि कया-वि अमरदत्तो समित्तसंजुत्तो। । मुत्तु कुलागय सममं, धम्म धम्मंतरं गहियं ॥ १० ॥ पुप्फकरकुज्जाणे, कीनाश्कए समणुपत्तो ॥५॥ ता मुंच श्मं श्म्म, सियभिक्खणं करेसु निक्खूणं । सो कीलंतो तहिय, तरुस्स हिट्ठा निएइ मुणिमेगं । अन्नह तए समं मम, संभासो वि हुन जुनु सि ॥ १०१ ॥ तस्स य पासे एग, रुयमाणं पहियपुरिसं च ॥ ६॥ जण य कुमरोहे ता-य!पस सपरिक्खिऊण चित्तव्यो। तो कोन्गेण अमरो, आसन्नं तस्स होउ पुच्चे। धम्मो बरकणगं पिव, न कुलागयमित्तओ चेव ॥ १०२॥ किं नह ! रोयसि तुमं?, सगग्गयं सो वि इय भणइ ॥७॥ पाणिवहालियचोरि-कबिरपरजुवश्वज्जणपहाणो। कंपिल्लपुरे सिंधुर-सिहिस्स वसुंधराएँ दश्याए । पुव्वावरमविरुको, धम्मो एसो कहमजुत्तो?॥ १०३॥ श्रोवाइयलक्खेदि, एगो पुत्तो अहं जाओ ॥८॥ जह गिएहंतो उत्तम-पणियं वणिो नवेण वयणिज्जो। सेा ति विहियनाम-स्स अगया जाय मज्क उम्मासा । पडिवन्नुत्समधम्मो, न हीणिज्जो तहाऽहं पि ॥ १०४॥ ता सयलविहवसहिया, अम्मापियरो गया निहणं ॥५॥ तं सुणिय अनिणिविठो, सिही जपे रे पुरायार!। सप्पभिड पालिश्रोऽहं, जेहिं सयहिँ गरुयकरुणोहें। जं रोया कुणसु तयं, न इओ तं भासिउं उचिो ॥ १०५॥ मम इक्कयजमानहया, पंचत्तं ते वि संपत्ता ॥१०॥ पयं निसामिकणं, ससुरेण भणाविरो श्मो एवं । बहुलोयाणं संता-बकारणं विसतरु ब्व कमसोऽहं । जा मह सुयाएँ कजं, ता जिणधम्मं चयसु सिग्धं ॥ १०६ ॥ देण दुन्जरण य, पवुझिनो चिरं कालं ॥ ११ ॥ मुतं जिणधम्ममिम, सेसं सव्वमविऽणंतसो पत्तं । संप पुण दलोवरि, पिडगसमाणा अमाणक्खकरा । एवं चिंतिय अमरो, विसज्जप पिउगिहे भज्जं ॥१०॥ मह देहे जरपमुहा, रोगा बड़वे समुप्पन्ना ॥ १२॥ अनदिणे जणणीए, भणिओ एसो जहा तुमं वच्छ!। किंच पिसाओ भूओ, व कोवि मह अंतरंतरा अंग। जो रोयह तुह धम्मो, ते कुणसु वयं न बिग्घकरा ॥ १०८ ॥ पीमेश तह अदिछो, जह तं वुनुं पिन तरेमि ॥१३॥ किंतु अमराऽनिहाणं, कुलदेविं निशमेव अच्चेसु । तो जीवियब्वभग्गो, नग्गोहतरुम्मि जाव अत्ताणं । एयप्पसायपनवो, तुह जम्मो तो मो आह ॥१०॥॥ अत्ताणं बंधे-मि ताव पासो वि लहु तुट्टो ॥१४॥ अंब! न संपद कप्पक्ष, जिणमुणिवइरिसदेवदेविसु । | ԴԵՍ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३८) असरदत्त अभिधानराजेन्ः। अमहग्घय देवगुरु त्ति मई मे, भत्ती तह पणमणप्पमुहा॥ ११०॥ भजत दर्शनशुफिमनुत्तरां, नो मह तेसु पोसो, मणयं पिन भत्तिमित्तमवि किंतु । भवत येन महोदयशालिनः॥ १३४ ॥ ध०र०। देवगुरुगुणविनोगा, तेसु उदासत्तणं अंब!॥१११॥ अमरपरिग्गहिय-अमरपरिगृहीत-त्रि०। देवैः स्वीकृते, वृ०३३०॥ गयरागदोसमोह-तणेण देवस्स हो देवत्तं। तच्चरियागमपमिमा-पदसणा देवतं नेयं ॥११॥ अमरप्पभ-अमरप्रभ-पुं० । विक्रमसंवत्सराणां चतुर्दशशतके सिवसाहगगुणगणगउ-रवेण सत्थत्यसम्मगिरणेण। विद्यमाने नक्तामरस्तोत्रटीकाकारके कल्याणमन्दिरस्तोत्रटीकाइह गुरुणो वि गुरुतं, होश जहत्थं पसत्यं च ॥ ११३॥ कारकगुणसागर-गुरु-सागरचन्द्रस्य गुरौ, जै० ३०। ता अंब! पणमिय जिणं, नमिज्जए तिहुयणे विकह अनो?। अमरव-अमरपति-० । देवेन्डे, “अमरवा माणिनहे" भ० नहु रोयह लवणजलं, पीए स्त्रीरोहियजलम्मि ॥११४॥ श्य तेणं पमिभणिया, जणणी मोणं अकासि सविसाया। ३ श० ८ ० । प्रज्ञा । मल्लिनाथेनार्हता सहानुप्रवजिते कातअह कुविया कुलदेवी, से दस मीसणसयाई ॥११॥ कुमारे, ज्ञा० ८ ०। न य तस्स किंपिपहवर, सत्तिकधणस्स धम्मनिरयस्स। अमरवर-अमरवर-पुं० । महामहर्द्धिकदेवे, तं। चह पोसं अहियं, तो अमरा अमरदत्तम्मि ॥१६॥ अमरसागर-अमरसागर-पुं० । अञ्चलगच्चीये कल्याणसागपच्चक्खीहोउ कया-वि ती सो निरं श्म भणियो। रसूरिशिष्ये, अयं च उदयपुरनगरे वैक्रमीये १६६४ वर्षे रे कडधम्मगब्विय!,न पणाम मऊ विकरेसि॥११७॥ ता इपिह हणेमि तुम, दढधम्मोतं नणेइ अमरो वि । जन्म लब्ध्वा १७०५ वर्षे प्रव्रज्य १७१४ वर्षे खम्भातनगरे जाउयं पि बलवं-तो मारिज्जन को वितए ॥११०॥ आचार्यपदवी प्राप्तः। ततः१७१८ वर्षे भुजनगरेगच्नेशपदं भे। अद कह वितं पि तुटुं, मरियब्वे हरदा विना जाए। ततः सं०१७६२ मिते धवलकपुरे स्वर्ग गतः। जै०३० । को सहसणममलं, मइलर जवकोडिसयदुलहं? ॥११॥ अमरमुह-अमरसुख-२० । देषसुखे, आव०४०। तो अमरा सामरिसा, तस्स सरीरे विउव्वए पावा। अमरसेण-अमरसेन-पुं० । मल्लिनाथेमाईता सहानुप्रबजिते सीसच्छिसवणउदरं-तनिस्सिया वेयणा तिव्वा ॥ १२०॥ स्वनामख्याते ज्ञातकुमारे, ज्ञा०८० । स्वनामख्याते राजाजा इक्का वि हुजीयं, हरे नियमेण श्यरपुरिसस्स । न्तरे च । दर्श। दढसत्तो तह वि इमो, एयं चित्ते विचिते॥१२१ ॥ रे जीव!तए पत्तो, सिवपुरपहपत्थिए ण सत्थाहो। अमरिस-अमर्ष-पुं०।न-मृष्-घ । “शर्षतप्तवजेवा"IGI देवो सिरिअरिहंतो, अपत्तपुब्यो नवअरन्ने ॥१२२॥ २।५ । इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनस्येकारः । प्रा. २ पाद । ता मिण च्चिथ हियय-ट्टिपण मरणं पि तुज्झ जद्दकरं । मत्सरविशेषे, प्रा. म. द्वि० । महाकदाग्रह, उत्त० ३४ १०॥ एयम्मि पुण विमुक्के होसि जियंतो वि तमणाहो ॥ १२३ ॥ कोपे, प्रश्न०३ आश्र० द्वा। कित्तियमित्तं.च इम, सुक्खं तुह सणे अपत्तम्मि । अमरिमण-अमर्षण-त्रि०.। अपराधाऽसहिष्णी, प्रश्न पाविय अणंतपुग्गल-परियवहस्स नरएसु ।। १२४ ॥ आश्र द्वा० । अपराधिष्वकृतकम, स.। पमिक्ला हवठ सुरा, मायापियरो परंमुहा हुंतु। . अमसण-पुं० । प्रयोजनेष्वनलसे,स। पीमंतु सरीरं वा-हिणो विखिंसंत सयणा य ॥ १२५ ॥ अमरिसिय-अमर्षित-त्रि० । अमर्षः संजातोऽस्यामषितः । निवडंतु अवायाओ, गच्चन बच्ची वि केवलं इक्का। मा जाउ जिणे भत्ती, तदुत्ततत्तेसु तिसी य॥१२६ ॥ संजातमत्सरविशेषे, प्रा० म०वि०। इयनिच्छयप्पहाणं, तश्चितं नाव श्रोहिणा अमरा । अमल-अमल-पुं० । न विद्यते मल श्व मलो निसर्गनिर्मलतस्सत्त-रंजियमणा, भणेश संहरिय नवसम्मे॥ १२७॥ जीवमानिन्यापादनहेतुत्वादष्टप्रकारकं कर्म येषां ते अमलाः । धनसि तं महासय!,ते चिय सहिज्जसे तिहुयणम्मि। । सिकेषु, प्रव० ११४ द्वार । निर्मलमात्रे, त्रि०० म०प्र०। सिरिवीयरायचरणे-सु जस्स तुह इय दढाऽऽसत्ती॥१८॥ ऋषजदेवस्य सप्तमे पुत्रे, कल्प०७०। अज्जप्पनिई मज्क वि, सुच्चिय देवो गुरू विसो चेव । अमलचंद--अमलचन्छ--पुं० । वैक्रमीये ११५० वर्षे जुगुकच्चे तत्तं पितं पमाणं, जं पमिवन्नं तए धीर!॥ १२६॥ इय भणिरीप तीए, मुका अमरस्स उवरि तहाए । विहरति स्वनामस्याते गणिनि, जै० इ०। परिमसमिनिय अनिउला, दसम्वन्ना कुसुमवुडी ॥१३०॥ | अमलवाहण-अमलवाहन--पुं० । विमलवाहने महापनतीर्थतं दट्ठ महच्छरियं, तप्पियरो पुरजणो ससुरवग्गो। करे, ती०११कल्प। अमराए वयणेणं, जाओ जिणदसणे जत्तो॥ १३१॥ अमला--अमला--स्त्री० । स्वनामख्यातायां शक्राप्रमहिन्याम, ससुरेण पहिणं, तो धूया पसिया पगिहम्मि । ०१. श०५ उ० । ती० । स्था० । ('अग्गम हिसी' शम्देऽतप्पभिइ अमरदत्तो, सकुडंबो कुण जिणधम्मं ॥ १३२॥ स्मिन्नेव भागे १७३ पृष्ठे तत्पूर्वापरजवाबुक्तौ) सुचिर निम्मनदसण-सारं पालिय गिहत्थधम्ममिमो। जाओ पाण' अमरो, महाविदेहम्मि सिफिहिद ॥१३३॥ । अमहग्घय--अमहार्यक-त्रि० । महती अर्धा यस्य स महार्घः, अमरदत्तचरित्रमिदं मुदा, महार्घ एव महार्धकः , न महार्यकोऽमहार्धकः । अबहुमूख्ये, गतमलं परिभान्य विवेकिनः। उत्त० २० अ०। Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) अमहद्ध अनिधानराजेन्द्रः। अमावसा श्रमहकण--अमहाधन-त्रि० । अबहुमूल्ये, पश्चा० १७ विव०।। साहिं दोम । तं जहा-भरणी १,कत्तिया २ य । जेट्ठामृदि प्रमाइ (ए)-प्रमायिन्-त्रिकामाया अस्यास्तीति मायी । न दोलि । तं जहा-रोहिणी १, मग्गसिरं च । ता आसामायी अमायी । व्य०१ उ० । शायरहिते, प्रव० ६४ द्वार।। ढीणं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ?। ता तिमि नकौटिल्यशून्ये, दश० ए०३ उ०। सर्वत्र विश्वास्ये, स क्खत्ता जोएंति। तं जहा-अदा १,पुणव्वसू, पूसो ३ य। चालोचनादेरई। प्राचा०१श्रु०१०१ उ01 "नो पलि (पुवालसेत्यादि) द्वादश अमावास्याः प्रशप्ताः । तद्यथाउंचमाई" स्था०१० ठा० । व्य०1"श्राव राया च रज्ज, न श्राविष्ठी, प्रौष्ठपदी इत्यादि । तत्र मासपरिसमापकेन श्रविष्ठाय दुचरियं कहे तहा माई"। पञ्चा०१५ विव०। नक्कत्रेणापलक्कितो यः श्रावणो मासः, सोऽप्युपचारात् श्रविष्टा, अमाश्रूव-प्रमायिरूप-त्रि०। प्रमायिनो रूपं यस्यासावमा तस्यां भवा भाविष्ठी । किमुक्तं भवति ?-श्राविष्ठी नक्षत्रपरिसयिरूपः। अशेषच्छमरहिते, सूत्र.१ श्रु०१३ अ०। माप्यमानश्रावणमासभाविनी इति । प्रौष्ठपदी नक्षत्रपरिसमाप्यअमाइस-अमायाविन्-त्रि० । मायारहिते, प्राचा० १ श्रु०६ माननाद्रपदमासंभाविनी । एवं सर्वत्राऽपि वाक्याथो प्रावनीअ०४उ०। यः। (ता साविही णमित्यादि )ता इति पूर्ववत् । श्राविष्ठीमअमाइलया-अमायाविता-स्त्री०। माइल्लो मायावाँस्तदभाव- मावास्यां कति नक्षत्राणि युञ्जन्ति, कति नक्कत्राणि यथायोगं स्तचा । (मायात्यागे), निरुत्सुकतायाम, स्था० १०म० । चन्द्रेण सह संयुज्य श्राविष्ठीममावास्यां परिसमापयन्ति । भगवानाह-(ता दोसिमित्यादि) ता इति पूर्ववत् । द्वे नक्वत्रे युअमाणिय-अमान्य-त्रि०। अभ्युत्थानाझाकरणादित्यक्ते, "जया ङ्कः। तद्यथा-प्रश्लेषा,मघा च । श्ह व्यवहारनयमतेन यस्मिन् नय माणियो हो, पच्छा होइ प्रमाणियो । सिट्ठी व कव्वडे को पौर्णमासी जवति तत प्रारभ्य अर्याक्तने पञ्चदशे नको बूढो, स पच्चा परितप्पई"।दश०१०। अमावास्या । तत प्रारभ्य पश्चदशे नक्षत्रे पौर्णमासी । ततः अमाव (वा) सा-अमाव (वा) स्या-स्त्री० । प्रमा-सह श्राविष्ठी पौर्णमासी किल श्रवणे धनिष्ठायां चोक्ता । ततोऽमाववसतश्चन्द्राकौं यत्र । वस्-यत्, एयत् वा । कृष्णपक्कशेषदिने, स्यायामप्यस्यां धाविष्ठधामग्लेषा मघा चोक्ता । लोके च तहिने चन्काळ एकराशिस्थी जवतः । वाच०। तिथिगणितानुसारतो गतायामप्यमावास्यायां वर्तमानायामपि ___ एकस्मिन् वर्षे द्वादश अमावस्याः । तद् यथा च प्रतिपदि यस्मिन्नहोरात्रे प्रथमतोऽमावस्याऽनूत स सकलो ऽप्यहोरात्रोमावास्यति व्यवहियते । ततो मघानक्षत्रमप्येवं व्यबारस अमावसाओ पन्नचाओ । तं जहा-साविट्ठी,पाच वहारतोऽमावास्थायां प्राप्यते,इति न कश्चिद विरोधः।परमार्थतः ती, अस्सोती, कत्तिया, मग्गसिरी, पोसी, माही, फ- पुनरिमाममावास्यां धाविष्ठीमिमानि त्रीणि नक्षत्राणि परिसग्गुणी, चेत्ती, विसाही, जेठामूली, आसाढी। मापयन्ति तद्यथा-पुनर्वसु,पुष्योऽश्लेषाच तथाहि-अमावास्या द्वादश एव अमावस्याः प्राप्ताः। तद्यथा--श्राविष्ठी, प्रौष्ठप चन्द्रयोगपरिकानार्थ करणं प्रागेवोक्तम् । ता तद्भावना क्रियते। दी इत्यादि । तत्र श्रविष्ठा धनिष्ठा, तस्यां भवा श्राविष्ठी-श्राव. कोऽपि पृच्छति-युगस्यादौ प्रथमा श्राविष्ठयमावास्या केन चणमासनाविनी। प्रोष्ठपदा उत्तरभाउपदा, तस्यां जवा प्रौष्ठपदी म्युक्तेन नक्कत्रेणोपेता सती समाप्तिमुपयाति । तत्र पूर्वोदितभाद्रपदमासनाविनी । अश्वयुजि भवा आश्वयुजी-अश्वयु स्वरूपोऽवधार्यराशिः षट्पष्टिमुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च ग्मासनाविनी । एवं मासक्रमेण तत्तक्षामानुरूपनक्षत्रयोगात् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिनाग शेषा अपि वक्तव्याः । चं० प्र० १० पाहु । सू०प्र० । इतिप्रमाणो धियते । तत एकेन गुण्यते, प्रथमाया अ मावास्यायाः स्पृष्टत्वात । एकेन च गुणितं तदेव अवतीति रा. सम्पति (नकत्रयोगम् ) अमावास्यावक्तव्यतायामाह शिस्तावानेव जाताततस्तस्माद् द्वाविंशमुहूर्ताः,पकस्य च मुहूपुवालस अमावासाओ पसत्ताओ। तं जहा-सावट्ठी पोहव- तस्य षट्चत्वारिंशतिद्वाषष्ठिनागाः, इत्येवंपरिमाणं पुनर्वसुतीजावासाढी । ता सावट्ठीणं अमावासा कति एक्ख शोधनकं शोध्यते । ततः षट्पष्टिमुहर्तेभ्यो द्वाविंशतिमुहूर्ताः शुका, स्थिताः पश्चात् चतुश्चत्वारिंशत् ४४ प्य एकं मुहूत्ता जोति । ता दोएिण णक्खत्ता जोएति । तं जहा तमपकृष्य तस्य धाष्टिनागाः क्रियन्ते, कृत्वा च ते द्वापष्टिअसिलेसा १, महा ५ य । एवं एएणं अभिलावेणं णे भागराशिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः । तेन्यः षट्चत्वायव्वं । ता पोष्टिवती णंदोलिणक्खता जोएंति । तं जहा- रिंशत् गुद्धाः, शेषास्तिष्ठन्त्येकविंशतिः । त्रिचत्वारिंशतो मुपुव्यफग्गुणी १, उत्तरा ३ य । असोतिं दोसि । तं जहा हुतेभ्यः त्रिशता मुहूर्तेः पुण्यः शुरूः, स्थिताः पश्चात त्रयोदश इत्थो १, चित्ताय । कत्तियं दोमि । तं जहा-साति मुदूर्ताः। अश्लेषा नक्षत्रं चापाकेत्रमिति पश्चदशमुहूर्तप्रमाणं, तत इदमागतमश्लेषानकत्रमेकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मु.. १, विसाहाय । मग्गसिरं तिएिण । जहा-अणुरा इर्तस्य चत्वारिंशति हापष्टिभागेषु , एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य हा १, जेट्ठा, मूसो ३ य । पोसिं च दोमि। तं जहा- सप्तपष्टिधा विनस्य षट्पष्टिसंख्येषु भागेषु शेषेषु प्रथमाऽमापुवासाढा , उत्तरासाढा २ य ।माहिं तिमि । तं जहा-] पास्या समाप्तिमुपगच्छति । तथा च वक्ष्यति-".ता एएसिणं अभिई १, समणो २, धगिट्टा ३ य। फग्गुण दोसि ।। पंचएहं संबच्छराणं पढमं अमावासं चंदे केणं नक्खत्तेणं जो पर। ता असिलेसाहिं असिसेसाणं एको मुहुत्तो चत्तालीसं तं जहा-सतलिमया १,पुचपोहवतीय। चोतं तिमि ।। च वावट्ठिभागा , मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्टिडा छेता तं जहा-उत्तरभद्दवदा १, रेवती, पास्सणी ३ य। वि- छावही चुषिया भागा सेसा" शत॥यदा तु द्वितीयाऽमावास्या Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४०) अमावसा अन्निधानराजेन्डः। अमावसा चिल्यते, तदा सा युगस्यादित प्रारभ्य त्रयोदशी । ततः स स्य च मुहूर्तस्य पकोनविंशति द्वापष्टिनागेम्वेकस्य च द्वापध्रुवराशिः ६६ । ५। १ त्रयोदशभिर्गुण्यते । जातानि मुहूर्ता- ष्टिभागस्य सप्तविंशती सप्तषष्टिभागेषु तृतीयां आविष्ठीममानामष्टौ शतानि अशापञ्चाशदधिकानि ८५८ । एकस्य च मुहू वास्यां परिसमापयति ।। एवं चतुर्थी श्राविष्ठीममावास्यामनस्य पञ्चषधिजागाः ६५ । एकस्य च द्वापष्टि भागस्य ६२ स-| इझेपानवत्रं प्रथमस्य मुहूर्तस्य सप्तसु द्वाषष्टिनागेष्वेकस्य च स्काः त्रयोदश १३ सप्तषधि ६७ जागाः । तत्र-"चत्तारिय वा- द्वापष्टिनागस्य एकचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु ७।४१ याला, श्रह सोका उत्तरासादा" इति वचनात् । चतुर्निच पञ्चमी श्राविष्ठीममावास्यां पुष्यनको त्रिषु मुहूर्तेषु एकस्य त्वारिंशदधिकैमुहर्तशतैः षट्चत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरुत्तरा च मुहूर्तस्य द्विचत्वारिंशति द्वापष्टिनागेषु, एकस्य च द्वापषाढापर्यन्तानि नकत्राणि शुक्रानि, स्थितानि पश्चात महती. टिभागस्य चतुष्पञ्चाशति सप्तपष्टिभागेषु गतेषु ३ । ४२ । नां चत्वारि शतानि पोशोत्तराणि, एकस्य च मुर्तस्य ५४ परिणमयति । एवमुक्तेन प्रकारेण पतेनानन्तोदितेनाभिएकोनविंशतिषष्टिनागाः । एकस्य च धाष्टिभागस्य स झापेन, शेषमप्यमावास्याजातं नेतव्यमा विशेषमाह-(पोटुकास्त्रयोदश सप्तधष्ठिभागाः । ४१६१३१तत एतस्मात् वयं दोमि । तं जहा-पुवाफग्गुणी, उत्तरा य त्ति) तत्रैवं सूत्रत्रीणि शतानि नवनवत्यधिकानि मुहूर्तानाम, एकस्य च पाठ:-"ता पोष्वयं णं अमावासं कर नक्खता जोपंति ? ता मुहूर्तस्य चतुर्विशति षष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभा दोसि नक्वत्ता जोएंति। तं जहा-पुवफम्गुणी,उत्तरफगुणीय;" गस्य पदवष्टिः सप्तपष्टिभागा ३६९ ३३ इति शोधनी श्दमपि व्यवहारत उच्यते । परमार्थतः पुनस्त्रीणि नत्राणि यम् । ततः षोडशोत्तरेच्यः चतुःशतेभ्यः त्रीणि नवन- प्रौष्टपदीममावास्यां परिसमापयन्ति। तद्यथा-मघा, पूर्वाफाल्गुवत्यधिकानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात् सप्तदश मुहूर्ताः । नी, उत्तरफाल्गुनी च । तत्र प्रथमां प्रौष्ठपदीममावस्यामुत्ततेज्य एकं मुहूर्त गृहीत्वा द्वापष्टिभागाः क्रियन्ते । कृत्वा च द्वा रफाल्गुनीनक्षत्रं चतुर्यु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पर्मिशती षष्टिभागा राशौ प्रक्षिप्यन्ते, जाता एकाशीतिः। तस्याश्चतुर्विश द्वाषाष्टिभागेषु एकस्व द्वापष्टिभागस्य द्वयोः सप्तपष्टिभागयो।। तिः शुका, स्थिताः पश्चात् सप्तपञ्चाशत् । तस्या रूपमेकमा २६ । २ अतिक्रान्तयोः, द्वितीयां प्रौष्टपदीममावास्यां पूर्वाफादाय सप्तपष्टिभागाः क्रियन्ते, तेच्यः षट्पष्टिः शुद्धा, पश्चादेको ल्गुनीनक्षत्रं सप्तसु मुहूर्तेम्बेकस्य च मुहूर्तस्य एकपष्टौ द्वाऽवतिष्ठते, सप्तधष्टिभागराशौ प्रतिष्यन्ते, जाताश्चतुर्दशसप्तष षष्टिनागेषु, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य पञ्चदशसु सप्तषष्टिनागेषु हिभागाः । आगतं पुष्यनक्षत्रम् । षोडशसु मुहर्तेधेकस्य च ७।६१ । १५ गतेषुः तृतीयां प्रौष्ठपदीममावास्यां मघानकत्रमेमुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेष्वेकस्य च द्वापष्टिभागस्य कादशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुस्तिशति द्वापष्टिनाचतुर्दशसु सप्तषष्टिनागेष्वतिक्रान्तेषु द्वितीयां प्राविष्ठीममावा गेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्याष्टाविंशती सप्तपष्टिभागेषु ११ । स्यां परिसमापयति ।। यदा तु सृतीया धाविष्ठयमावास्या चि. ३४ । २८ गतेषुः चतुर्थी प्रौष्टपदीममावास्यां पूर्वाफाल्गुनीनन्त्यते, तदा सायुगादित प्रारभ्य पञ्चविंशतितमेति स ध्रुवरा. कत्रमेकविंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वादशसु द्वापष्टिशिः ६६ । ५।१ पञ्चविंशत्या गुण्यते, जातानि षोमश शतानि नागेषु, पकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाचत्वारिंशति सप्तषष्टिपश्चाशदधिकानि मुहूर्तानाम , एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च भागेषु ११ । १२ । ४२ गतेषु, पञ्चमी प्रौष्ठपदीममावास्यां विशदुत्तरशतं द्वापष्टिभागाः, एकस्य च धाष्टिभागस्य प मघानक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तचत्वाञ्चविंशति सप्तपष्टिभागाः १६५० १५ १७ । तत्र चतु रिशति द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चपञ्चाशनिर्वाचत्वारिंशदधिकर्मुहुर्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारि ति सप्तपष्टिनागेष्वतिक्रान्तेषु २४ । ४७।५५ परिसमापयति । शता द्वापष्टिभागैः प्रथममुत्तराषाढापर्यन्तं शोधनकं शुद्धम, (आसोई दोगिण । तं जहा-हत्थो, चित्ता यत्ति) । अत्राप्येवं स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां द्वादशशतान्यवोत्तराणि १२००% सूत्रपाठ:-"ता आसोई णं अमावासं कर नक्खत्ता जोऐति । द्वापष्टिभागाश्च मुहर्तस्य एकोनाशीतिः ७ए, पकस्य द्वाष तादोएिण नक्वत्ता जोपंति । तं जहा-हत्थो, चित्ता य" । एतष्टिभागस्य पञ्चविंशतिसप्तपटिभागाः । ततोऽभिः शत दपि व्यवहारतः। निश्चयतः पुनराश्वयुजीममावास्यां द्वे नको रकोनविंशत्यधिकैः ७१५ मुहूर्तानाम् , एकस्य च मुहूर्तस्य परिसमापयतः । तद्यथा-उत्तरफाल्गुनी, हस्तश्च । तत्र प्रथभाचतुर्विशत्या द्वाषष्टिनागः, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य षट्पट्या माश्वयुजीममावास्यां हस्तनक्षत्रं पञ्चविंशती मुहूतेषु, एकस्य च सप्तपष्टिभागैरेको नकापर्यायः शुद्धयति। स्थितानि पश्चात् त्री मुहूर्तस्य एकत्रिंशति द्वाषाष्टिनागेषु, एकस्य च द्वाघोटनागस्य त्रिषु सप्तषष्टिनागेषु २५ । ३१३; द्वितीयामाश्वयुजीममावास्यामुत्तणि शतानि मघाशीत्यधिकानि मुहानाम् ३८ए । एकस्य रफाल्गुनीनकत्रं चतुश्चत्वारिंशति मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य च मुहर्तस्य चतुष्पञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाष चतुर्पु द्वाषाष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य षोमशसु सप्तपटिलागस्य पदिशतिसप्तपष्टिनागाः। ततो भूयस्त्रिभिनयोसरैर्मुहर्नशनैः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशल्या द्वाषाष्टिना ष्टिभागेषु ४४ । । । १६ गतेषु, तृतीयामाश्वयुजीममागः, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य घदषष्ट्या सप्तपष्टिभागैरभि वास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं सप्तदशमुर्तेषु एकस्य च मुहूजिदादीनि रोहिणिकापर्यन्तानि शुद्धानि स्थितानि, पश्चाद तस्य एकोनचत्वारिंशति द्वावष्टिभागेष्वेकस्य काषष्टिभागस्य एमुहती अशीतिः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनत्रिंशद् द्वापष्टिना कोनत्रिंशति सप्तपष्टिभागेषु १७ । ३६ | २६; चतुर्थीमाश्वयुगानि, पकस्य द्वापष्टिनागस्य सप्तविंशति सप्तपष्टिनागाः ८० जीममावास्यां हस्तनक्षत्रं द्वादशमुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वाषाष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिचत्वा१४ । ततत्रिंशता मुहूर्तेमृगशिरः शुरूं, स्थिताः पश्चाशद् रिंशति सप्तपष्टिमागेषु १२।१७।४३ गतेषु, पञ्चमीमाश्वयुजी. मुहर्ताः ५० (ततः पञ्चदशभिराजी शुका, स्थिताः पञ्चत्रि- ममावास्यामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं त्रिंशति मुहूर्तेषु, एकस्यच मुह- शत ३५ । आगतं पुनर्वसु नक्कत्रम् । पञ्चत्रिंशति मुहर्तेचेक- टस्य द्विपञ्चशति द्वाषष्टिभागेषु, पकस्य चद्वाष्टिभागस्य षट् Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४१) अमावसा अनिधानराजेन्द्रः। अमावसा पञ्चाशति सप्तपष्टिनागेषु ३०।५०५६ गतेषु परिसमापयप्ति । | कस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशती द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाप(कत्तिनं दोमि । तं जहा-साई, बिसाहा य ति) अत्राप्येवं टिभागस्य एकोनविंशतौ सप्तपष्टिनागेषु २।१६ । १५; तृतीसूत्रपाठ:-"ता कत्तिश्रणं अमावास का नक्षत्ता जोति । ता | यामधिकमासभाविनी पौषीममावास्यामुत्तराषाढानक्षत्रमेकादोसि नक्वत्ता जोपंति । तं जहा-साई, विसादा यत्ति" एतः | दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनषष्ठी द्वापष्टिभागेषु, दपि व्यवहारनयमतेन । निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्षत्राणि कार्ति- एकस्य च द्वाचष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशति सप्तपष्टिजागेषु ११ । । कीममावास्यां परिसमापयन्ति । तद्यथा-चित्रा.स्वातिविशाखा ३३ गतेषु चतुर्थी पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्रं पञ्चदशसु च। तत्र प्रथमां कार्तिकीममावास्यां विशाखानकत्रं षोडशमह- मुर्तेषु,एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशति द्वापष्टिभागेषु,एकस्य तेषु, एकस्य च मुदूर्नस्थ पट्त्रिंशति द्वाषष्टिनागेषु, एकस्य च द्वाप च द्वाषाष्टिनागस्य षट्चत्वारिंशति सप्तपष्टिनागेषु १५:५६।४६; टिभागस्य चतुषु सप्तषष्टिनागेषु१६ । ३६।४ गतेषु, द्वितीयां का. पञ्चमी पौषीममावास्यां मूलनक्षत्रमेकोनविंशतौ मुदतेषु,एकस्य तिकीममावास्यां स्वातिनक्क पञ्चसुमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशदूद्वावष्ठिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य एनवसुद्धावष्टिभागेषु,एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तदशसु षष्टिना. कोनषष्टी सप्तषष्टिनागेषु १६।५01५६ प्रतिक्रान्तेषु परिसमापय- . गेषु५।९।१७ गतेषु, तृतीयां कार्तिकीममावास्या चित्रानक्षत्र न्ति । (माहिं तिरिण । तं जहा-अभिई,सवणो, धनि यत्ति) मष्टसु मुहूर्तेषु,एकस्य च मुहूर्तस्य चतुश्चत्वारिंशति द्वाषष्टिभा- अत्राप्येवं सूत्रालापक:-"ता माही णं अमावासं कर नक्सगेषु, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य त्रिंशति सप्तपष्टिनागेषु ८।४४ । सा जोपंति? । ता तिएिण नक्खत्ता जोप॑ति । तं जहा-अजिई, ३०, चतुर्थी कार्तिकीममावास्यां विशाखानक्षत्रं प्रयोदशमुहर्ते समणो, धनिट्ठा य" । एतदपि व्यवहारतः । निश्चयतः पुनरखु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशती द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च मूनि त्रीणि नक्षत्राणि माघीममावास्यां परिसमापयन्ति । तद्वाषष्टिनागस्य चतुश्चत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु १३ । २२ । ४४ यथा-उत्तराषाढा, अभिजित्, श्रवणश्च । तथाहि-प्रथमा माघीगतेषु, पञ्चमी कार्तिकीममावास्यां चित्रानकरमेकविंशती। ममावास्यां श्रवणनक दशम मुहूर्तेषु,एकस्यच मुहूर्तस्य पड़िमुर्तेषु , एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वापप्रिभागेषु, शतौ धाष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषाष्टिभागस्याटसु सप्तषष्टिभा. एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु २१॥ गेषु १०।२६।८ गतेषु; द्वितीयां माघीममावास्यामनिजिन्नक्षत्रं त्रिषु ।१४ गतेषु समाप्तिमुपनयति । ( मग्गसिरी तिमि । तं मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य दिशतौ द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च जहा-अणुरादा, जेठा, मूलो यत्ति) अत्रापि सूत्रालापक एवम् द्वापष्टिनागस्य विशती सप्तषष्टिभागेषु ३।२६।२० गतेषु, तृतीयां "ता मग्गसिरि णं अमावासंकर नक्खत्ता जोएंति? ता तिमि माघीममावास्यां श्रवणनकत्रं त्रयोविंशती मुहूर्तेषु, एकस्य च मुनक्वत्ता जोति । तं जहा-अणुराहा, जेठा, मुसो य" हूर्तस्यैकोनचत्वारिंशति द्वाषष्टिनागेषु, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य इति । एतदपि व्यवहारतः । निश्चयतः पुनरिमानि त्रीणि पञ्चविंशति सप्तषष्टिनागेषु २३ ॥ ३६॥ ३५, चतुर्थी माधीममावानक्कत्राणि मार्गशीर्षीममावास्यां परिसमापयान्ति । तद्यथा स्यामभिजिनक्षत्रं षट्सुमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशविशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा च । तत्र प्रथमां मार्गशीर्षीममावा ति द्वापष्टिनागेषु, एकस्य च द्वापष्टिनागस्य 'सप्तचत्वारिंशति स्या ज्येष्ठानकत्र सप्तसुमुहुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकचत्वारिंश सप्तपष्टिभागेषु ६ । ३७।१७ गतेषु पञ्चमी माघीममावास्याति द्वापष्टिभागषु,एकस्य चद्वापष्टिभागस्य पञ्चसुसप्तषष्टिनागेषु मुत्तराषाढानक्षत्रं पञ्चविंशती मुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य दशसु ७।४१।५, द्वितीयां मार्गशीर्षाममावास्यामनुराधानकत्रमे द्वापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य षष्टौ सप्तवधिभागेकादशसु मुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशसु झाष्टिनागेषु, धु२५ । १०।६० प्रतिक्रान्तेषु परिणमयति । (फग्गुणी दोसि । पकस्य च द्वारिजागस्याष्टादशसु सप्तपष्टिभागेषु ११२१४॥ १८ तं जहा-सयभिसया, पुवाहवया य त्ति) अत्राप्येवं सूतृतीयां मार्गशीर्षीममावास्यां विशाखानकत्रमेकोनविंशति मु बालापक:-"ता फग्गुणी णं अमावासं कर नक्वत्ता जोपंति। इर्तेषु,एकस्य च मुहर्तस्य एकोनपश्चाशतिद्वापष्टिभागेषु, एकस्य ता दोमि नक्खत्ता जोएंति। तं जहा-सयभिसया, पुन्वभवया एकत्रिशति सप्तषष्टिजागेषु २६ । ४९ । ३१ गतेषु; चतुर्थी मार्ग यति"। एतदपि व्यवहारतः । निश्चयतः पुनरमूनि त्रीणि शीर्षीममावस्यामनुराधानक्षत्रं चतुर्विशती मुहूर्तेषु, एकस्य च नक्षत्राणि फाल्गुनीममावास्यां परिसमापयन्ति । तद्यथा-ध. 'मुदतस्य सप्तविंशति द्वाषाष्टिभागेषु, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य निष्ठा, शतभिषक, पूर्वभारूपदा च। तत्र प्रथमा फाल्गुनीममापञ्चचत्वारिंशति सप्तपष्टिभागेषु २४.२७४५ गतेषुः पञ्चमी मार्ग वास्यां पूर्वभाद्रपदा एकस्मिन् मुहूर्ते, एकस्य च मुहूर्तस्य शीममावास्यां विशाखानवत्रं त्रिचत्वारिंशति महर्तेषु, एकस्य एकत्रिंशति द्वाष्टिभागषु , एकस्य चहापष्टिभागस्य नवसु च मुहूर्तस्य संबन्धिनो द्वाषष्टिनागस्य अष्टापञ्चाशति सप्तपष्टि सप्तषधिभागेषु १ । ३१ । । गतेषु; द्वितीयां फाल्गुनीमभागेषु ४३ । ०।५८ परिसमापयति । ( पोसिं च दोस्मि । मावास्यां धनिष्ठानक्षत्रं विंशती मुर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य तं जहा-पुवासाढा य, उत्तरासाढा यत्ति ) तत्रैवं सूत्राला चतुधिष्टिनागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वाविंशतौ सप्तषपकः-"ता पोसीणं अमावासं करनक्वत्ता जोपंति ?। ता दो ष्टिभागेषु २० । ४ । २२, तृतीयां फाल्गुनीममावास्यां पूर्वाषामिस नक्खत्ता जोति । तं जहा-पुब्वासाढा य, उत्तरासादा य दानक्षत्रं चतुर्दशसु मुहूर्तेधु,एकस्य च मुर्तस्य चतुश्चत्वारिंशसि" पतदपि व्यवहारत उक्तम् । निश्चयतः पुनस्त्रीणि नक्ष ति द्वापष्टिभागेषु,पकस्य च द्वाषाष्टिभागस्य पत्रिंशति सप्तषष्टित्राणि परिसमापयन्ति । तद्यथा-मुलं, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा भागेषु, १४ । ४४ । ३६, चतुर्थी फाल्गुनीममावास्यां शतनिष च। तथाहि-प्रथमां पौषीममावास्यां पूर्वाषाढानक्कत्रमणाविंश- कुनकत्रं त्रिषु मुहर्नेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तदशसु द्वाषष्टितौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्वारिंशति द्वापष्टिभागेषु, मागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशति सप्तपष्टिएकस्य च द्वापष्टिभागस्य षट्सु सप्तपष्टिनागेषु २८४६।६ गतेषुः | भागेषु ३ । १७ । ४४, पञ्चमी फाल्गुनीममावास्यां धनिद्वितीयां पौधीममावास्यां पूर्वाषाढानक्षत्र द्वयोर्मुहर्तयोरे- ठानकत्रं षट्सु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्विपञ्चाशति द्वा १८६ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४२ ) अनिधानराजेन्द्रः श्रमायसा य 1 षटिभागे, एकस्य च घाषष्टिभागस्य सत्केषु द्वाष्टौ सप्तनागेषु ६४२६२ गतेषु परिणमति (सीतिषिण । तं जहा - उत्तरभद्द्वया, रेवई, अस्सिणी य त्ति ) अत्राप्येवं सूत्रालापक:- "ता चित्ती णं अमावासं कर नक्खत्ता जोपंति ? | ता तिरिए नक्खत्ता जोपंति । तं जहाउत्तरभा व अस्सि सिए तेन नियमन पुनरणि नक्षत्राणि मायास्यां समापयन्ति । तद्यथा- पूर्व भाषपदा, उत्तरभाद्रपदा, खेती प्रथम वैीममावास्यामुत्तरमा सप्त शन्मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहर्तस्य पत्रिंशति द्वापभागेषु, एकस्य वाष्टिभागस्य दशसु सप्तषष्टिजागेषु, ३७ । ३६ । १०; द्वितीयां चैत्रीममावास्यामुत्तरभाद्रपदानक्कत्रमेकादशसु मुहूर्ते पु. एकस्य च मुहूर्तस्य नवसु द्वापष्टिभागेषु. एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य योनिषु ११ ।। २३ तृतीयां श्रमावास्यां खेती नत्रं पञ्चसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनाशनिद्वापनि एक द्वार शतिभागेषु५ ४६ ३७ चतुर्थी श्रमावास्यामु तरभाद्रपदा नक्षत्रं चतुर्विंशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाविंशतौ द्वापभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चाशति सप्तभागेषु २४ २२० ममावास्यांपूर्व शिष पकस्य च मुहर्तस्य सप्तपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिजागस्य त्रिपौ सप्तषष्टिभागेषु २७।७।६३ प्रतिकान्तेषु परिसमापयन्ति सा भर कत्तिया इति) अत्राप्येवं सूत्रपाठः-" ता विसार्हि णं अमावासंकर नक्खत्ता जोपति ? । ता दोपिए नक्खत्ता जोपंति तं जड़ा भरणी, कत्तिया य इति । एतच्च व्यवहारतः । निचयनः पुनखनित्राणि सीमावास्यां परिसमापय न्ति । तानि चामूनि । तद्यथा-रेवती, अश्विनी, भरणी का । तत्र प्रथम वैशाखमावास्यामश्विनी नाशि 39 कर मुस्का ष्टिनागस्य एकादशसु सप्तषष्टिभागेषु २८ । ४० । ११; द्वितीयां वैशाखीममावास्यामश्विनी नक्कत्रं द्वयोर्मुहूर्तयोरेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनचत्वारिंशद्विभागे एकद्वा भागस्य योती २३६२३नीय वैशाखीममावास्यां भीमेकादशसु एकस्य च मुनस्य चतुष्पात् द्वाषष्टिभामध्येकस्य च द्वापरिनागस्य अत्रिंशति सप्तषष्टिभागेषु १९ । ५४ । ३० गतेषुः चतुर्थी वैशाश्रममावास्यामश्विना पञ्चमुच मू मागे एक पञ्चाशतमा १४ २७१ पचवैशाखमा रेवती मेकस्य सं द्विस्य सत्य १६० ६४ परिणामयति । (जेठामूली रोहिणी मिगस्सिरं चेति ) अत्राप्येवं सूत्रालापक:-"ता जट्ठामूलि गं श्रमावासं कइ नक्खता जोपंति ?। ता दोणि नक्खना जोपंति । तं जहा रोहिणं, मि गसिरं न्र । एतदपि व्यवहारतः । निश्चयतः पुनरिमे द्वे नकालीमा परिपथारोहि कृतिका च । तत्र प्रथमां ज्येष्ठामूलीममावास्यां रोहिणी नक्ऋत्रमेोनिषु एक मुहूर्तस्य परिशनि एकस्य द्वापानस्य द्वादशसु समष्टिषु " अमावसा १६। ४६ । १५ गतेषुः द्वितीयां ज्येष्ठामूलीममावास्यां कृतिका नक्षत्रं त्रयोविंशती मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्यैकोनविंशत द्वाष्टिमागे एकस्य भागस्य प गेषु २३ । २६।२५ तृतीयां ज्येष्ठाममावास्यां रोहिणी न द्वाविशति मुहूर्तेषु पकस्य च मुहूर्तस्यैकोनप द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिजागस्य एकोनचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु ३२ । ५ । ३६; चतुर्थी ज्येष्ठामूली ममाचास्पां रोडिसीन मुर्गेषु एक मुहूर्तस्य द्वात्रिंशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशति सप्तषष्टिजागेषु ६ । ३२ । ५२ ; पञ्चमीं ज्येष्ठामूलं । ममावास्यां कृत्तिका नक्षत्रं दशसु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चसु द्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चष्टौ सप्तषष्टिभागेषु १० | ५ | ६५ गतेषु परिसमापयति । ( ता आसाढी णमित्यादि ) ता इति पूर्ववत् । श्राषाढ, णमिति वाक्यालङ्कारे । कति नक्कत्राणि युञ्जन्ति ? | जगवानाह - ( ता इत्यादि ) ता इति पूर्वणि युधि- पुनर्वसु, पुष्पश्च तदपि व्यवहार व परमार्थतः पुनरमूर्ति निकृणि आमावास्यां] परिणयन्ति तथा मृगशिरा, आ. पुन मुश्य तत्र प्रथमामाबादी ममावास्यामार्द्रा नक्ष दशमु एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशति द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वानागस्य यो पटनामेषु १००० ११३ द्वितीयामापाडीममायस्यां मृगशिरो न सप्तविंशती मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहू संस्तुति द्वाषभागेषु एकस्य च भागस्य पि शतौ सप्तषष्टिभागेषु २७ । २४ । २६; तृतीयामाषाढ । ममावास्पुन एकस्योद्वी ष्टिभागोरेकस्वाभागस्य चत्वारिंशत ६ । २ । ४०; चतुर्थीमाषाढीममावास्यां मृगशिरो नक्कत्रं सप्तर्विशतौ मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशति द्वाषष्टिनागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपञ्चाशति सप्तषष्टिभागेषु २७ । ३७ । ५३ मते पञ्चमीमापार्टममावास्यां पुनर्वसु नक्षत्राशिती मुथु, एकस्य च मुश्य पोश द्वाषष्टिभागेषु २२ । १६/० गतेषु परिसमापयन्ति इति । तदेवं द्वादशानामप्यमावास्यानां चन्द्र योगोपेतन कत्रविधिरुक्तः । चं० प्र० १० पाहु० । ज्यो० । संप्रत्येतासामेव कुलादियोजनामाहता सावि अमावासं किं कुले जोएति, उप जोएति, कुनोवकु वा जोएति पुच्छा ? । ता कुअं वा जो एति, उक्कुलं वा जोएति, गो लनइ कुलोवकुलं, कुलं जो एमाले महाएक्खत्ते जोएति, उत्रकुझं जोएमाले सिलेमा एक्खत्ते जोएति । ता साविडी णं अमावासं कु जोएति, उवकुलं वा जोए ति कुलेण वा जुत्ता उबकुलेण वा जुत्ता मावि श्रमावा जुत्त तं वत्तव्वं सिया एवं , यव्वं । मग्गसिरीए १ माहीए २ फग्गुणीए ३ आमादीप कुलोकुले जातियन्वं सेमाणं कुल्लोक्कुला - स्थि० जान कुलोकुलेा वा जुना आसाडी अमावास जुत्ता वतव्वं सिया || ( ता साविष्ठी समित्यादि ) ता इति पूर्ववत् । श्राविष्ठ श्रावणमासनाविनीमावास्यां किं कुलं नाक, उपकुलं कि, कु लोकुल वा युनक्ति ? | भगवानाह - ( ता कुलं वेत्यादि ) Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४३) अभावसा अनिधानराजेन्फः। अमावमा कुलमपि युक्ति, वाशब्दोऽपिशब्दार्थः' उपकुलं वा युनक्ति । अमावास्या भवन्ति, द्वौ चाजिवद्धिती संवत्सगै, तत्र पत्रिन लभते योगमधिकृत्य कुलोपनम् । तत्र कुलं कुत्रसज्ञ नक्षत्र | शतिरमावास्याः। स०६२ सम। थायिष्ठीममावास्यां युञ्जन्मघानकत्र युनक्ति । एतच्च व्यवहा- अधैवरूपा युगे कियन्योऽमावास्याः कियन्त्यश्च पौर्णमास्यः?रत उच्यते । व्यवहारतो हि गतायामप्यमावास्यायां वर्तमाना इति युगे तद्गतसर्वसंख्यामाहयामपि च प्रतिपदि योऽहोरात्रो मूजे अमावास्यायां संबन्धः तत्थ खलु इमाओवावहि पुणिमाओ, वावहि अमावास सकलोऽप्यहोरात्रोऽमावास्योत व्यवाहियते । तत एव व्यव- साओ पहाताओ। एए कसिणा रागा वावहि, एए कसिहारतः थाविष्टधाममावास्यायां मघानक्षत्रसंनयापुक्तम्-कुवं णा विरागा वावहि, एए चनवीसे पव्वसते, एवं चउचीमे युजन् मघानक युनतीति । परमार्थतः पुनः कुत्रं युजन् पुध्यनकत्र युनक्तीति प्रतिपत्तव्यम् , तस्यैव कुलप्रसिद्ध्या प्रसि कसिणरागविरागसर । ताजावइयाएं पंचएह मंवच्चराणं कस्य श्राविष्ठ घाममावास्यायां संजवातापतञ्च प्रागेव भावितम्। समया एएण चन्द्रबीसेणं सतेणं कागगा एवनिया णं एवमुत्तरसूत्रमपि व्यवहारनयमतेने यथायोगं परिभावनीय परिमना असंखेजा देमरागविरागसमया जयंतीनि जन्य म्। उपकुलं युजन् अश्लेषानकत्र युननि। संप्रत्युपसंहारमाह चउब्बीसे ममयसए तत्थ वावहिममए कसिणो रागो,वावट्ठि(ता साविही णमित्यादि) यत उक्त प्रकारेण द्वाभ्यां कुरोपकुलाच्यां श्राविष्ठधाममावास्यायां चन्द्रयागः समस्ति,न कुलो समए कसिणो विरागो, तवज्जियमक्खाया। पकुले, न ततः थाविष्ठीममावास्यां कुधमपि वाशब्दोऽपिश- (तत्थ खलु इत्यादि ) तत्र युगे खल्विमा एवंस्वरूपा द्वापब्दार्थः 'युनक्ति; उपकुलं चा युनक्ति इति वक्तव्यं स्यात् । य- ष्टिः पौर्णमास्यो, द्वापष्टिश्चामावास्याः प्राप्ताः। तथा युगे चन्द्रमदि वा कुलेन वा युक्ता, उपकुलेन वा युक्ता सती श्राविध स पते अनन्तरोदितस्वरूपाः कृत्स्नाः परिपूर्णा गगा द्वाषष्टिः, मावास्या युक्तेति वक्तव्यं स्यात् । ( एवं नेयव्यमिति) एवमु. अमावास्यानां युगे द्वाषाष्टिसंख्याप्रमाणत्वात्, तास्वेव चम्मम तेन प्रकारेण शेषमप्यमावास्याजातं नेतव्यम् । नवरं मार्गशी परिपूर्णरागसंभवात् । एते अनन्तरादितस्वरूपा युगे चन्द्रमसः - मायां फाल्गुन्यामाषायां च कुरोपकुलं जणितव्यम्, शे कृत्स्ना विगगा सर्वात्मना रागाजावा द्वाषष्टिः, युगे पौर्णमासीपाणां त्वमावास्यानां कुलोपकुत्रं नास्ति, ततो न वक्तव्यम् । सं नांद्वाषष्टिसंख्यात्मकत्वात् , तास्वेव चन्द्रमसः परिपूर्णविरागप्रति पाठकानुग्रहाय सूत्रालापका दर्यन्ते-"ता पोट्टबई णं अमा संभवात् । तथा युगे सर्वसंख्यया एकं चतुर्विदात्याधिक पर्वशत. वासं किं कुलं जोपर,नवकुलं वा जोप,कुत्रोव वा जोप?। म्; अमावास्यापौर्णमासीनामेव पर्वशन्दस्य वाच्यत्वात तासां ता कुलं वा जोप,नवकुलं वा जोएड,नो लभकलोवलं, कुलं च पृथक पृथक द्वाषष्टिसंख्यानामेकत्र मीलने चतुर्विशत्यधिजोएमाणे उत्तरफागुणी जोएइ,उपकुलं जोएमाणे पुवाफगुणी कशतत्वात् । एवमेव युगमध्ये सर्वसंकलनया चतुर्विदात्यधिक जोए । ता पोवई ण अमावासं कुलं वा जोपइ, अचकुलं कृत्स्नरागविरागशतम् । (ता जावइयाणमित्यादि) यावन्तः चा जोए , कुलेण वा जुत्ता उपकुलेण वा जुत्ता पोध्वया अमा पञ्चानां चन्नाभिवर्द्धितरूपाणां संवत्सराणां समया एकेन चतुवासा जुत्त त्ति वत्तब्वं सिया । ता आसोई णं अमावासं किं विशत्यधिकेन समयशतेन ऊनका पतावन्तः परिमिता संख्याकुवं जोपड, नवकुलं जोपड, कुलोवकुलं जोए ?।ता कुलं वा ता देशरागविरागसमया भवन्ति, पतेषु सर्वेष्वपि चन्द्रमसोदेजोएइ, उबकुख वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुल, कुलं जाएमा शतो रागविरागभावात् । यत्र चतुर्विशत्यधिकं समयशतं, तत्र णे चित्ता नक्खत्ते जोपर, नवकुत्रं जोएमाणे इत्थनक्खत्ते जो द्वापष्टिसमयेषु कृत्स्नो रागः हाषष्टिसमयेषु कृत्स्नो विरागः, एइ। ता पासोईण अमावासं कुलं वा जोएर, उवकुलं वा जो. तेन तर्जनमित्याख्यातम्, मयेति गम्यते । जगद्वचनमेतत्सम्यएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता आसोई अमावासा क् श्रच्यम् । च० प्र०१३ पाहु०। जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया । ता कत्तियं णं अमावासं किं कुलंजो सम्प्रत्यमावास्याविषय चन्नक्षत्रयोग सूर्यनक्तत्रयोगं च । एक, उबकुत्रं वा जोए, कुलोबकुलं वा जोएइ ? । ता कुलं वा __प्रतिपिपादयिषुः प्रथमामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाहजाएइ, उवकुलं वा जोप,नो बनाई कुलोवकण्वं ।कलं जोएमा- ता एते सणं पंचएहं मंवच्छराणां पढम अमावासं चंदे णे विसाहा नक्खत्ते जोए३, जबकुलं जोएमाणे सातिनक्खत्ते केणं णक्खत्तेणं जोएति ।ता असिलेमाहिं, असिलेसाणं एजोपः । ता कत्तियं णं अमावासं कुलं वा जोए, उबकुत्रं वा को मुहत्तो,चत्तालीसंच वावहिभागा मुहत्तस्स, वावहिजागं जोप, कुवेण वा जुत्ता उचकुलेण वा जुत्ता कत्तिई अमावा च सत्तहिहा छेत्ता छावट्टि चुरिण या जागा सेसा । तं समयं सा जुत्त त्ति वत्तव्यं सिया । ता मग्गसिरि णं अमावासं किं कुलं जॉपर, नवकुलं वा जोप, कुलोबकुलं वा जोपड ?। ता चणं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ?। ता असिलेसाहिं चेव, कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोए, कुलोवकुत्रं वा जोएइ, कुलं असिसाणं एको मुहुत्तो,चत्तासीसं वावद्विनागा मुदुत्तस्स, जोपमाणे मूलनक्खत्ते जोएइ, उवकुझं जोएमाण जहानक्वत्त वावहिजागं च सत्तट्टिहा बेत्ता उगवट्टि चुमियाजागा मेसा। जोप, कुलोचकुलं जोपमाणे अगुराहानक्खत्ते जोए । ता मग- "ता एएसि ण" इत्यादि सुगमम् । भगवानाह-(ता सिरि ण अमावासं कुलं वा जोपइ, उपकरं वा जाए, कुलो- असिलेसाहि इत्यादि) ता इति पूर्ववत् । अश्लेषाभिः सहसंयकुखं बा जोप, कुत्रेण वा जुत्ता उपकुलेण या जुत्ता कुलोवकु- युक्तश्चन्छः प्रथमामावास्यां परिसमापयति, अश्लेपानकत्रस्य लता वा जुत्ता जुत्त त्ति वत्तवं सिया" इत्यादि। निश्चयतः पुनः चपटवारकत्वात् तदपेकया बहुवचनम् । तदानी च प्रथमामाकुवादियोजना प्रागुक्तचन्द्रेण योगमधिकृत्य स्वयं परिजाबनी- वास्यापरिसमाप्तिवेलायामपानकत्रस्य एको मुहत्तः, चत्वारि. या। चं० प्र०१० पाहु । "पंच संबच्छरिपणं जुगे वावर्टि अ- शच द्वापष्टिभागा मुहूर्तस्य, द्वाष्टिनागं च सप्तष्टिया छिस्था मावासाओ"। युगे पञ्च संवत्सरा,तत्र त्रयश्चान्द्रा,तेषु पशिद षट्पष्टिचूर्णिका मागाः शेषाः । तथाहि-स एव ध्रुवनाशिः Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) अभिधानराजेन्द्रः । अमावसा ६६ । । १ प्रथमाऽमावास्या किल संप्रति चिन्त्यमाना वर्तते, यते केनचितं तदेव भवतीति तावानेव जातः । तत एतस्मात् -"वावीसं च मुहुप्ता, बायालीसं विस ठिभागा य । पयं पुणावसुस्स य, सोहेयव्वं हव पुनं" ॥१॥ इति वचनाद् द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य व मुहूर्त्तस्य षट्चत्वा रिंशद् द्वाषष्टिभागा इत्येवं प्रमाणं शोधनकं शोध्यते । तत्र पटूपटिमुर्त्तेभ्यो द्वाविंशति मुहूर्ताः शुकाः स्थिताः पश्चात् चतुर्थस्वारिश ४४ तेभ्य एकं मुमाकृष्य तस्य द्वाषष्टिभागाः कृताः, ते द्वापष्टिभागराशिमध्ये प्रक्विप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिः । तेभ्यः पवावारिंशत् सुद्धा, शेषास्तमयेकविंशतिः। त्रिमुक्ता पुष्यः शुरू स्थिताः पात्प्रयोदशानामिति पञ्चमूप्रमाण मातमानस्य एकस्मिन्मु शति मूर्त्तस्यापष्टिमागे एकस्य च द्वापािमस्य पि धाविनस्य पट्षष्टिभागेषु शेषेषु प्रथमाऽमावास्या परिसमाप्तिमुपगच्छति । संप्रत्यस्यामेव प्रथमायाममावास्यायां सूर्यनवत्रं पृच्छति - ( तं समयं च णमित्यादि ) सुगमम् । नगवानाद - (ता सिले साहिं चेव इत्यादि) रह य एवामावास्यासुचन्दनकृत्रयोगविषये राशि देव शोधनकं स एव सूर्यनयोगवश तदेव शोधनमिति । तदेव सूर्यन कत्रयोगेऽपि नक्कत्रं, तावदेव च तस्य नक्कत्रस्य नक्षत्रशेषमिति । सानिका प्रथममायायां परिसमापयति तस्यां च परिसमाप्तिवेलायां षाणामेको मुटु, पकस्य मुस्यत्यारिंशद्द्वटिभागाः एकस्य च द्वाविभाग स्य सप्तषष्टिधा छित्वा षट्षष्टिचूर्णिता भागाः शेषाः । द्वितीयामावास्याविषयं सूत्रमाह . तासि पंच संबद्धराणं दो अमावासं पं दे के नोति । ता उचरादि फग्गुणीहिं उचराणं फग्गुणीयं चत्तालीसं मुहुत्ता, पहाती च वावद्विजागा मुहुत्तस्स, वावट्टिभागं च सतट्ठिहा बेत्ता पट्टि चुहिया जागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं एक्सचेणं जो पुच्छा है ता उत्तराव फग्गुणी, उमराणं फग्गुणी चचाली मुद्रा तं चैव आ पहाड चुधिया जागा सेसा || (ता पास समित्यादि) सुगमम् । भगवानाह - ( ता उत्तराहिमित्यादि) उत्तराज्यां फाल्गुनीच्यां युक्तश्चन्द्रो द्वितीयाममावारूपां परिसमापयति तदाम व द्वितीयामावास्यापरिसमाप्ति लायामुत्तरः फाल्गुन्योत्वारिंशद् मुहर्त्ताः पा मुहूर्तस्य द्वापष्टिभाग व पायातस्य सत्काः पञ्चपर्णिका भागाः शेषाः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः १६५९गुरुयते जाध नां शतम् । एकस्य मुत्तस्य घाषष्टिजागा दश, एकस्य च भागस्य सप्तषष्टिया विस्य द्वी चूर्णिकानागी १३२ । १० । २ । तत्र प्रथमतः पुनर्वसुशोधनकं शोध्यते-द्वात्रिंशदधिकमुद्वाविंशतिमुदः शुकाः स्थितं धारं शनम् लेभ्यो येको मुसों गृहीत्वा उपभागीय कृत्वा च ते षष्टिभागा द्वाषष्टिमागराशी प्रक्रिया जाता द्विसप्ततिद्वषष्टिभागाः । तेभ्यः षट्चत्वारिंशत् शुद्धाः । स्थिताः अमावसा पश्चात्पविंशतिः नयोत्तराय मुशतात् विशुद्ध स्थिताः पादेोनाशीतिः। ततोऽपि पञ्चदशभिरा शुद्धा खिता पश्चात शुद्ध ततोऽपि त्रिशता पूर्वाफाल्गुनी शुद्धा खिला पश्चाच्चत्वारः, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रं च धर्द्ध क्षेत्रमिति पञ्चचस्वाति प्रमाणमत इमागतमुत्तराफाल्गुनी नक्षत्रस्य चन्द्रयोगमुपागतस्य चत्वारिंशति तेषु एकस्य च मुहूर्तस्व पञ्चशताषष्टिभागेपु एकस्य च द्वाषष्टिनास्थ स्पिची भूमिकाभागेषु शेषेषु द्वितीयाऽमावास्या समाप्तिं याति । संप्रत्यस्याममावास्यायां सूर्यनक्षत्रं पृच्छति( तं समयं च णमित्यादि ) सुगमम् । भगवानाइ (ता उत्तराहि इत्यादि ) ता इति पूर्ववत् । उत्तराज्यामेव फाल्गुनीयां युक्तः सूर्यो द्वितीयाममावास्यां परिसमापयति तदा द्वितीयामावास्यापरिसमाविवेज्ञायामुत्तरयोः फाल्गुन्योत्था रिंशद् मुहूर्ताः। "तं चैव जाव ति" वचनादेकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिनागाः, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य (पाट्ठि - दिया भागा सेससि) एतो भयोरपि चन्द्रसूर्ययोयोगपरिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वादवलेयम् । तृतीयामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह 1 ता एतेसि णं पंचए संवच्छरणं तच्चं अमावासं चंदे पुच्छाता इत्येणं, इत्यस्स पचारि मुसा, ती बावद्विभागा मुहस्स, वावधिना च सचडिहा जेसा चढसहिचिया जागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं णक्खणं नोएति पुच्छा है। ता इत्थेणं चेव । इत्यस्स णं तं चैव चंदस्स । (ता एसि णमित्यादि) सुगमम भगवानाह इत्ये मित्यादि) हस्तेन युक्तचन्द्रस्तुती याममावास्यां परिसमापयति । · तदानीं च हस्तनक्षत्रस्य चत्वारो मुहूर्ताः, त्रिंशश्च द्वाषष्टिजागा मुदस्य, द्वापष्टिभागं दास्या तुष्टिचूर्णिता भागाः शेषाः । तथादिसरा ६६ | ५ | १ तृतीयस्या अमावास्यायाः संप्रति चिन्तति त्रिनिर्गुपते जातमनवत्यधिक मुहूर्तानां शतम् एकस्य च मु हूर्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिनागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः । १९८ । १५ । ३ तत एतस्माद्विसप्तत्यधि नयारिंशता व मुहूर्तस्य द्वामागे पुन स्वाफाल्गुनी पर्यन्तानि नाणानि पश्चादयति इन्ते पञ्चविंशतिमुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य एकत्रिंशद्वापष्टि भागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः २५|३१| । ३ । तत श्रागतं हस्तनक्षत्रस्य चन्द्रेण सह योगमुपागतस्य चतुर्षु मुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिंशाते द्वाषष्टिभागेषु, एकस्वाभागस्य चतुध्वरी सप्तपष्टिनागेषु शेषेषु नृाममावास्यां परिसमापयति । अत्रैव सूर्यविषयं प्रसूमा( तं समयं च समित्यादि ) सुगमम् । भगवानाह - ( ता इत्थेणं चेव सि ) इस्तेनैव नकुत्रेण युक्तः सूर्योऽपि तृतीयाममावास्यां परिसमापयति । एतच्चो भयोरपि करणस्य समानत्वादवसेयम एवमुत्तरसूत्रयोरपि शेषेविषये मतिदेशमा ह-' इत्थस्स णं तं चेत्र चंदस्स' यथा चन्द्रस्य विषये शेषमुक्तं तदेव सूर्यस्यापि विषयं वक्तव्यम् । तथैव " हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता, तसंच वाचट्टिभागा मुहुत्तस्स, वावहिनागं च सप्तहिंदा देशा बस सुषि भागा सेखा " इति। Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमावसा ( ७४५ ) अभिधानराजेन्द्रः । संप्रति द्वादशामावास्याविषयं प्रश्नसूत्रमादसा एतेसि पंचए संवद्धराणं दुबालसमं अमावास चंदे के नक्खणं जोएनि पुच्छाता अदाहिं, अहाणं चत्तारि दुसादस च वावद्विभागा मृदुत्तस्स वावगं च सत्तविहा बेत्ता चप्पष्णं चुलिया जागा सेसा । तं समयं च सूरेकेणं क्खत्तेणं जोएति पुच्छा ।। ता प्रदाए चेव । अदाए दस्म तं चैव ॥ ( ता एसि णमित्यादि ) सुगमम् । भगवानाह - ( ता अद्दाहिमित्यादि कश्चन्द्रो द्वादशीममावास्यां परिसमापय ति तदानीमुमुहूर्त्तस्य द्वाि भागा द्वाधिना च सप्तपहिया दित्वा चतुि काभागाः शेषाः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ द्वादश्यमावास्या विश्यमानात द्वादशभिजातानि 1 राधिकानि मुहर्त्तानाम एकस्य च मु स्य षष्टिद्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७६२ । ६० । १२ । एतस्माच्चतुर्भिः शतैर्द्विचत्वा रिनाम, एकस्य च मुर्त्तस्य पत्ता द्वाषष्टिभागैः पुनर्वस्वादीन्युत्तराषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि - यानि स्थितानि पश्चात श्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकद्ि र्तानाम् एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ३५० | १४ | १२ | तत , निः शतैर्नवसरेनाम पकस्य च मुर्तश्चतुरित्या द्वापष्टिभागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागेरजिदाद निरोपियनानि कानिि रिशन्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्त्तस्य एकपञ्चाशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयोदश सप्तषष्टिभागाः ४०/५१ । १३ । गिरि स्थिताः पादः शेष तथैव १०/५१।२३। तत आगतमानक्षत्रस्य चन्द्रेण सह संयु चतुरस्य च दशसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च परिभागस्य चतुखाराति सपठिमागेषु ४ १० ५५ द्वादशी अमावास्या परिसमाप्तिमियति संप्रति सूर्यविषयं प्रश्नमाह - (तं समयं च समित्यादि) सुगमम् । नगवानाह - ( ता अद्दार वेव) आईयैव युक्त सूर्योऽपि द्वादशीममावास्यां परिसमापयति । शेषपाठविषये अतिदेशमाह-" श्रदाए जं चेव चंदस्स, तं चैव " चन्द्रस्य विषये श्रद्रायाः शेषमुक्तम्, तदेव सूर्यविषयेऽपि वक्तव्यम् । “श्रद्दाए चत्तारि मुहुत्ता, दश य वावट्टिभागा मुडुत्तस्स, वावहिनागं च सत्ताहिदा बेत्ता चप्पं चुणिया भागा सेसा " इति । चरमानिमामायास्वाविषयं प्रमा ता एतेसि णं पंच एवं संवच्चराणं चरिमं वावट्टि अमामार्ग बंदे के एक्वणं जोएति पुच्छा ? ता पुराव्या पुणन्दमुस्स बाबीसं मृदुता, छायाली च वाद्विभागा दुस्स सेसा तं समयं च सूरे केणं एक्ख ते जोति पुच्छा ? १ । ता पुरणव्वगुणा चेत्र, पुराव्वमुस्स लंबाबीसं मुहुत्ता, बायालीसं च वात्रट्ठिनागा मुहुत्तस्स सेसा । पास समित्यादि) सुगमम् भगवानाह (ता पुन्यमु १८७ 1 अमावसा रणा इत्यादि) ता इति पूर्ववत् पुनर्वसुना गुनश्चन्द्रश्वरमांद्वा पष्टितमाममावास्यां परिसमापयति । तदानीं च चरमद्वापछितमामावास्यापरिमा 1 , 9 हूर्त्ताः, षट्चत्वारिंशश्च द्वाष्टभागाः मुहूर्तस्य शेषाः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ द्वापट्या गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि हिनवत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागानां त्राणि शतानि दशांन्तराणि, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वापष्टिसप्तषष्टिजागाः ४०६२ । ३१० । तत एतस्माच्चतुभिः शतैर्द्वाचत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्त्तानाम, एकस्य स्वारिंशद्वाः प्रथमशोधन शुद्धम जातानाविपचाधिकानि मुद्दाम च मुहूर्त्तस्य द्वे शते चतुष्पष्टयधिके द्वापटिभागानाम् एकस्य च द्वापष्टिभागस्य द्वाषष्टिसप्तर्षाभागाः ३६५० | २६४ । ६२ । तनोऽनिजिदाद्युत्तराषाढापर्यन्त सकलन त्रपर्यायविषयं शोधनकम अशी शनानि एकोनविंशत्यधिकनि मुनीनाम एकस्प चतुर्विंशतिद्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाभागस्य प सप्तषष्टिजागाः ८१९ । २४ । ६६ इत्येवं प्रमाणं चतुर्गुणयित्वा शोध्यते । स्थितानि पश्चात् त्रीणि शतानि चतुःसप्तयधिकानि नाम एकस्य व मुहूर्तस्य चतुष्पदधिक शतं द्वाषष्टिभागानाम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पष्टिसप्तषष्टिभागाः ३७४ । १६४ । ६६ । ततो भूयस्त्रिभिः शतैर्मुनयः एकस्य न मुर्तस्य षष्टिभागैः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टचा सप्तष्टिनाग ३०६ । २४ । ६६ अनिजिदादीनि रोहिणी पर्यन्तानि कानि स्थितानि पश्चात्सप्तषष्टितनाम, एकस्य च मुहूर्तस्य षोडश द्वाषष्टिजागाः ६७ । १६ । ततस्त्रिंशता मुहूर्तेर्मृगशिरः, पञ्चदशभिरार्द्रा शुद्धा, स्थिताः पश्चात् शेषा द्वाविंशतिर्मुहूर्ताः एकस्य च मुहूर्तस्य पोश द्वाषष्टिजागाः २२० १६ । तत श्रागतं चन्द्रेण सह संयुक्तं पुनर्वसु नक्कत्रं द्वाविशनौ मुहूनेषु. एकस्य च मुहूर्तस्य परिशतिभागेषु देशेषु चरम घायपरिसमापयति सूर्यविषयं प्रह्मसूत्रमा सम णमित्यादि) सुगमम् । भगवानाह - ( ता पुरणव्वसुणाचेच ति) सूर्य: पुनर्वसुना चैव सह योगमुपागतश्चरमां घाषष्टितमाममावास्यां] परिणमति । शेषे अतिदेशमाह- (पुणन्वसुस्स णं बाबीसं मुहुत्ता इत्यादि ) एतच्च प्राग्वद्भावनीम् । चन्द्रमसः सूयेस्य चामावास्याविषये नकत्रयोगपरिज्ञानहेतोः करणस्य समानत्वात् । चं० प्र० १० पाहु० । संतिक मुहर्त्तेषु गतेषु श्रमावास्यातोऽनन्तरा पीर्णमासी कल्वा मुषु गतेषु माया अनन्तरममावास्या ?, इत्यादि निरूपयति 1 3 ता अमावामाओ पुश्लिमासि बचारि पायाले मु नसतेावहिनागे मुटुस्स आहिनाव देजा ता अमावासाओ से अमावामा श्रद्धा पंचासी मुहुत्तसते, तीसं च वावद्विजागे मुहुत्तस्म अहियाति - देना; ता पुष्पिमासिपीओ अमावामा चत्तारि वाया मुमते तं चेन तापुसिमासिणं ओणं सिमासिण - हा पंचासीते मुदुत्तसते, तीसंच वावद्विभागे मुहुत्तस्स आहिता। एस णं एवइए चंदे मासे; एस णं एवइए सगले जुगे ॥ " Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४६) अमावसा अभिधानराजेन्ः। अमिय (ता अमावासाओ णमित्यादि ) सुगमम् । नवरं अमावा- तव्याः । यदा आश्विनीपूर्णिमा अश्विनीनक्षत्रोपेता भवति तदा स्थाया अनन्तरं चन्द्रमासस्याद्धेन पौर्णमासी, पौर्णमास्या अ- पाश्चास्याऽनन्तरा श्रमावास्या चैत्री चित्रानत्रयुक्ता भवति,मनन्तरमर्कमासेन चन्द्रमासस्यामावास्या, अमावास्यायाश्च अ- शिवन्या प्रारज्य पूर्व चित्रानकत्रस्य पञ्चदशत्वात्। पतव्ययमावास्या परिपूर्णेन चन्द्रमासेन, पौर्णमास्या अपि पौर्णमासी हारनयमधिकृत्योक्तमवसेयम, निश्चयत एकस्यामप्याश्वयुग्मापरिपूर्णेन चन्द्रमासन भवति यथोक्ता मुर्तसंख्या । उपसं- सभाविन्याममावास्यायां चित्रानकुत्रासंभवात् । एतच्च प्रागेव हारमाह-(एस णमित्यादि ) एष अष्टौ मुहूर्तशतानि पञ्चाशी. दर्शितम् । यदा च चैत्री चित्रान कत्रोपेता पौर्णमासी भवति त्यधिकानि त्रिंशश्च द्वापष्टिभागा मुहर्तस्येति, पतावान् एता- तदा पाश्चात्या अमावास्या आश्विनी अश्विनीनत्रयुक्ता षत्प्रमाणश्चक्रमासः । तत एतावत्प्रमाणं शकलं खपमरूपं युगं; भवति, एतदपि व्यवहारतः । निश्चयत एकस्यामपि चैत्रमासचन्हमासप्रमितं युगं शकलमेतदित्यर्थः । च० प्र०१३ पाहु। भाविन्याममावास्यायामश्विनीनक्षत्रस्यासनवात् । एतदपिसूत्रपूर्णिमानकत्रात् अमावास्यायाम, अमावास्यानकताच माश्विनचैत्रमासावधिकृत्य प्रवृत्तम् । यदा च कार्तिकी कृत्ति'पूर्णिमायां नकत्रस्य नियमेन संबन्धमाह कानक्षत्रयुक्ता पार्णमासी भवति तदा वैशाखी विशाखानकंत्र युक्ता अमावास्या भवति, कात्तिकातोऽर्वाक विशाखायाः पञ्चजया णं भंते ! साविट्ठी पुलिमा जवइ तया णं माही दशत्वात् । यदा वैशाखी विशाखानकत्रयुक्ता पौर्णमासी नवअमावासा भवइ, जया णं भंते! माही पुमिमा नवइ तया ति तदा ततोऽनन्तरा पाश्चात्त्याऽमावास्या कार्तिकी कृत्तिकाणं साविट्ठी अमावासा जवइ ? | हंता, गोयमा ! जया नक्कत्रोपेता नवति, विशाखातः पूर्व कृत्तिकायाः चतुर्दशत्वात् । णं साविहीन्तं चेत्र वत्तव्वं । जयाणं भंते ! पोहबई पुएिण पतच कार्तिकबैशाखमासावधिकत्योक्तम् । यदा च मार्गशीर्षी मृगशिरोयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा ज्येष्ठामूली ज्येष्ठामूलनमा जवइ तया णं फग्गुणी अमावासा जव, जया णं कत्रोपेता अमावास्या, यदा ज्येष्ठामूली पौर्णमासी तदा मार्गफग्गुणी पुणिमा भवइ तया णं पोवई अमावासा जव। शीर्षी अमावास्या । एतच मार्गशीर्षज्यष्ठमासावधिकृत्य भावहंता , गोयमा ! तं चेव एवं । एतणं अनिलावणं इमामो नायम् । यदा पौषी पुष्यनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी तदा आपाढी पुष्मिाओ अमावासाओ ऐअव्वाओ। अस्मिणी पुस्लिमा | - पूर्वाषाढानत्रयुक्ता अमावास्या नवति,यदा पूर्वाषाढानत्रयुक्ता पीर्णमासी भवति तदा पौषी पुष्य नक्कत्रयुक्ता प्रमावास्या नवचेत्ती अमावासा, कत्तिगी पुलिमा विसाही अमावासा, ति। पतच्च पौषाषाढमासावधिकृत्योक्तमिति । जक्तानि मासामग्गसिरी पुमिमा जेट्ठामूली अमावासा, पोसी पुणिमा | ईमासपरिसमापकानि नक्कत्राणि । जंग ७ वक्व०। पासाढी अमावासा । अमि (मे) ज-अमेय-त्रिका अमिताऽनेकवस्तुयोगात् क्रय(जया ण भंते ! श्त्यादि) यदा भदन्त श्राविष्ठी श्रविष्ठानकत्र- | विक्रयनिषधाद् वा (कल्प०५०) अविद्यमानदातव्ये नगरायुक्ता पूर्णिमा भवति तदा तस्या अक्तिनी अमावास्या माधी | दौ, जं०३ वक्षः । अविद्यमानमाय्ये, न० ११ २० ११ १०। मघानत्रयुक्ता भवति । यदा तु माघी मघानत्रयुक्ता पूर्णिमा अमि (मे) -अमेध्य-न० । न० त०। अशुचिद्रव्ये , स्था० भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या श्राविष्टी श्रविष्ठानक्षत्र १० वा० । विष्ठायाम, तं० । “अमिज्केण लित्तोसि न जाणा । युक्ता भवतीति काका प्रश्नः ?। भगवानाह-( हंतेति) नवति। तत्र गौतम! यदा श्राविष्ठीत्यादि,तदेववक्तव्यं, प्रभेन समा केण विलितो"। प्रा० म०वि०। नोत्तरत्वात् । अयमर्थः-रह व्यवहारनयमतेन यस्मिन्नको पौर्ण- अमि ( मे) ज्झपुस्म-अमेध्यपूर्ण-त्रि० । विष्ठावृते, तं। मासी भवति तत प्राज्य प्राक्तने पञ्चदशे चतुर्दशे वा नक्कत्रे अमि (मे) ऊमय-अमेध्यमय-त्रि० । अमेभ्यं प्रचुरमस्मिन्निनियमतोऽमावास्या , ततो यदा श्राविष्ठी श्रविष्ठानकायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अर्वाक्तनी अमावास्या माघी मघानक ति । गृथात्मके, तं। प्रयुक्ता जवति,श्रविष्ठानकत्रादारभ्य मघानवत्रस्य पूर्व चतुर्द- | अमि (मे) करस-अमध्यरस-पु० । विष्टारसे, तं०।। शत्वात् । अत्र सुर्यप्रज्ञप्तिचन्द्रप्राप्तिवृत्त्योस्तु मघानवत्रादारभ्य | अमि ( मे) संनूय-अमध्यसंभत-त्रिका विष्ठासंभवे, तं०। अविष्ठानकत्रस्य पञ्चदशत्वादिति पाठः, तेनात्र विचार्यम् । एतच्च श्रावणमासमधिकृत्य भावनीयम् । यदा भदन्त ! मा अमि (मे) जकंकर-अमेध्योत्कर-पुं० । उच्चारनिकरकल्पे, पो. बी मधानक्षत्रयुक्ता पूर्णिमा भवति तदा श्राबिष्ठी श्रविष्ठानक- १विव०। त्रयुक्तः पाश्चात्या अमावास्या भवति, मघानक्कत्रादारज्य पूर्व अमित्त-अमित्र-न। अहितसाधके, स्था०४ ग० ४ उ० । श्रविष्ठानकवस्थ पश्चदशत्वात् । श्दं च माघमासमधिकृत्य आमा । ('पुरिसजाय ' शब्देऽस्य चतुर्भङ्गी अष्टन्या) भावनीयम् । यदा भदन्त प्रौष्ठपदी उत्तरभारुपदायुक्ता पौर्णमासी भवति तदा पाश्चात्या अमावास्या उत्तरफाल्गुनीनकत्र- अमिय-अमृत-त्रि० । अमरधर्मिणि, विशे० । मरणाभावे, श्रा० युक्ता नवति, उत्तरजापदादारज्य पूर्वमुत्तरफाल्गुनीनकत्रस्य म. द्वि० । तत्पथ्ये, आव०४०। “वर्षासु लवणममृतं, शरदि पञ्चदशत्वात् । पतञ्च भाजपदमासमधिकृत्य अवसेयम् । यदा जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते चोसरफाल्गुनीनक्षत्रयुक्ता पौर्णमासी भवति तदा अमावास्या गुडश्चान्ते" ॥१॥ सूत्र०१ श्रु० १ अ० १००। पौष्ठपद। उत्तरभारुपदोपेता जवति, उत्तरफल्गुनीमारज्य पूर्वमुत्तरभाद्रपदाननत्रस्य चतुर्दशत्वात् । इदं च फाल्गुनमासमधि अमित-त्रि० । परिमाणरहिते,ध०२ अधि०। अपरिदोषे, प्रा. कृत्योक्तम् । एवमेतेनानिलापेन इमाः पूर्णिमा अमावास्याश्च ने- | चू०१ अाअनन्ते,असंख्येये वनस्पतिपृथिवीजीवाव्यादौ च Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४७ ) अभिधान राजेन्द्रः । प्रमिय "केवली पुरच्छिम मियं पि जाणह, अमियं पि जाणइ " ॥ भ० ५ श० ४ ० । केवलज्ञाने च । विशे० । प्रमियगइ- अमितगति-पुं० । दाक्षिणात्ये दिक्कुमारेन्द्रे, प्र० ३०० उ० । स० । प्रज्ञा० । स्वनामख्याते माथुर संघीये माधवसेनाचार्य दिगम्बरजेनाथायें स वैक्रम १०५० वर्षे वद । येन धर्मपरीक्षा- सुभाषितरज्ञसंदोदना मानौ च प्रन्थौ निर्मिती । जै० इ० ॥ च अमियचंद - अमृतचन्द्र- पुं० । कुन्दकुन्दाचार्यकृत समयसार - थोपरि 'आत्मख्याति' नाम्म्याः टीकायाः, तथा प्रवचनसार टीकापालिकाका तत्वार्थसार पुरुषार्थ सिधुपाय-तदीपिकादियान कारके वैधमीये द्वायतनयमरा तके ( १६२ ) विद्यमाने श्राचार्ये, जै० इ० । अमियाणि । मणि ) - प्रमितझानन्० अमेतं च तद् ज्ञानं वामितज्ञानम्, तद्यस्यास्ति सोऽमितज्ञानी । श्र०म०प्र०] सर्वशे, स० । अपरिशेषज्ञानिनि, अनन्तानिनि च । श्रा० चू० १ भ० । केवलिन पं००/ अमितं नाण, तं तेर्सि मियणाषिणो तो ते । तं जेण ऐयमाणं तं चाणंतं जत्रो नेयं ॥ १०५० ॥ धनन्तत्वान्मातुमशक्यममितं लक्षणं ज्ञानं केवलज्ञानलक्षणं ततेषां विद्यमितानिनस्ते कथं पुनः केवलज्ञानस्यानन्त्यम् । इत्याह- तत्केवलज्ञानं, येन कारणेन ज्ञेयमानं वर्तते, ज्ञानस्य यानुयात्। तच ज्ञेयं सर्वमपि यतोऽनन्तमतः केवलज्ञानस्यानन्त्यमिति ॥ विशे० ॥ आमयतेयरिश्रमिततेजः सूरि पुं० स्वनामध्याते दे "एसि अमियतयसुरीणं अंतिए सहजायाए पब्व एयं वि सेसकारणं तेण भणियं " । दर्श० । अमियत्नूय - अमृतभूत1-न० । जूतशब्द उपमार्थः । परमपद हेतुत्याज्जरामरणादिविघातकत्वेनाऽमृततुल्ये जिनवचने, "जिण चयणसुभासियं अमियभूयं । " ऋतु० । प्रमियमे अमृतमेप ५० दुष्यमदुष्यमान्ते वणि चतु महामेघे, जं० ॥ चतुर्थमेघवक्तव्यतामाह तांसि च णं धयमेहंसि सत्तरतं विवर्तितांसे समाणंसिएत्य णं श्रमियमे णामं महामहे पाउन्नावस्सर, मरयमाणमिचे आयामेणं जाव वासं वासिस्सर, जे खं भरदे वासे रुक्खगुच्छ गुम्मलय व चितणपव्वगतिगओसहिपत्रालंकुरमाईए तथव फइकाइए जणस्स ॥ (सिइत्यादिधि घृतमेचे सतरा निपतति सति पत्र प्रस्तावेऽमृतमेघो नाम यथार्थनामा महामेघः प्रादुर्भविष्यति वर्षिष्यति इतिपर्यन्तं पूर्ववत् । यो मेघो भरते वर्षे वृक्षगुच्छगुल्मल तापल्या गुणानि प्रतीतानि पर्वगा इवाद हरि तानि दूर्वादीनि, औषध्यः शाल्यादयः प्रबालाः पल्लवाः अङ्कु राः शाल्या दिबीजसूचय इत्यादीनि तृणवनस्पतिकायिकान् बादरवनस्पतिकायिकान् जनयिष्यतीति । जं० ३ य० । मियर सर सोनम भमृता र सरसोपपत्र अमृतरसेन रसस्यो पमा यत्र तदमृतसर सोपमम सुधास्वादमधुरे, "सेसायं ( तीर्थकृताम् ) अमियरसरसोचमं आसि " । श्र० म० प्र० । - । अमुत्तत्त अमियाण-अमितवाहन पुं० श्रीराहदिक्कुमारेन्द्रे, स्था० २ ० ३ ४० भ० । प्रज्ञा० । स० । अमियासयि-अमितासनिक पुं० । अवद्धासने, मुर्मुहुः स्थानात् स्थानान्तरं गच्छति, अनेकाम्यासनानि सेवमाने, कल्प० ६ ० । मिल मल-म० ७०२०० मि । ऊर्णावस्त्रे, । - बू० । माचा० । अमिलक्खु - अम्लेच्छ - पुं० आयें म्लेच्छभाषाऽनभिशे, सूत्र ०१ श्रु० १ २०२ उ० । प्रमिला अमिला श्री० श्रीनेमिनाथस्य प्रथमशिष्यायाम, । स० [परिकायां स्वमहिष्याम, पृ० १३० श्रमिक्षाण-अम्मान-त्रि जमविने औ०नि००। । अमलाय - अम्लान - त्रि० । न म्लायते शीघ्रं तदिति । चिरममलिने नि० ० २४० । प्रमिला मादाम - अम्लानमाल्यदामन् - न० । अम्लानपुष्पदामन, भ० ११ श० ११ उ० । विपा० । अमिलिया मिलित-०ि असंसके, विशे० । अनेकशास्त्र। श्रसंसक्ते, । संवन्धीनि सूधारायेकत्र मातकिया यत्र पद्धति तन्मिलितम् । असदृशधान्यमेलकवत् । अथवा परावर्तमानस्य यत्र पदादिविच्छेदो न प्रतीयते तम्मिलितम्, न तथा अमिलितम् । मिलितदोषविप्रमुक्ते सूत्रगुणे, अनु० । पं० चू० । ग० । आमलितं यदू ग्र स्थान्तरवर्तिभिः परमिश्रितं यथा सामायिकसूत्रे दशवेकालि कोत्तराध्ययनादिपदानि न किपति । वृ० १ ० । अमु-अमोचन् त्रि० अमोचनले ०४० । अमुश् समुवि जो ण मुए " पं० भा० । पं० चू० । अमुकपुरणय-अयुक्तपूर्ण तत्रि अमुक्ता पूर्णता पेन तद । तत् अमुक्तपूर्णतम । पूर्णे, ध० २ अधि० । 66 - मुग- अमुक- त्रि० । अदस्-अकच् । उत्वमत्ये कस्य गः । प्रा० १ पाद | अदः शब्दार्थे अज्ञातनामरूपे विवक्षिते ऽर्थे, 66 अमुगंहि भोक्षं " अमुकस्मिन् भवतु । प्रश्न० २ श्र० द्वा० । अगं गामं चचामो, तर दो तिथि वा दिवसो अस्थामो" । आ० म० द्वि० | प्रब० । प्रयुग्ग- अमुन्नत्रि अविद्यमानमु अनु । । 66 अमुचिय प्रमूर्ति त्रिःसू० १ ध्रु० १० अ० । दश० । श्राहारादौ मूर्द्धामकुर्वति, पं०व०२ द्वार । पिरामे शब्दादिषु वा गृके, दश० ५ ० १ ३० । श्राचा० । अमु अझ पुं० । अज्ञे, मूर्खे च । वृ० १ उ० । प्रमु अमुणिय अज्ञात १० नास्ति मुणितं तं पत्र तहमुि - । ज्ञातं म् । ज्ञान विकले, प्रश्न० २ श्रध० द्वा० 1 अमुक्त अमुक्त त्रि०। लोकव्यापारप्रवृत्ते सकर्मणि, स्था०१० ना० अमूर्त्त त्रि० । श्ररूपिणि भाव० ४ ० । अमुत्तत्त-अमूर्तस्व न० मूर्तत्वाभावसमानिया० २ अध्या" मूर्ति दधाति य-मत्वं विपर्ययात्। " । Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) प्रमुत्तत्त अनिधानराजन्धः । अमोहणाधारि(ए) मतिः रूपरसगन्धस्पर्शादिसन्निवेशता, तस्या धारणस्वभावो नमति-( जस्स त्ति ) जस्स पुरिसस्स, 'ण इति पडिसेहे' मो. मूतत्वं, मूर्तस्वन्नावः, तस्माद्यद्विपरीतं तदमूर्तत्वम, अमूर्त- हो विएणाणविवच्चासो, दिही दरिसणं, स एवंगुणविसिट्टो स्वजावः । द्रव्या० १३ अध्या० । अमूढदिट्टी दरिसणं भएणति । जगारुद्दिष्स्स तगारण णिदेसो अमुत्ति-अमुक्ति-स्त्रीला मुक्तिर्मोक्षगतिः, न मुक्तिरमुक्तिः। संसार- कीरति-( तगं ति)। (बेति ) अवन्ति प्राचार्याः, कथयन्तीत्यर्थः। सुखाभिलाषे, पातु । सलोभतायां मिशे गौणपरिग्रहे, प्रभा अमृढदिष्ठिति दारं गयं ॥ नि० चू०१ उ०। ५ आश्र० द्वा०। _ श्याणि दितोअमुत्तिमग्ग-अमुक्तिमार्ग-न। न विद्यते मुक्तेरशेषकर्मप्रच्यु सुलसा अमूढदिट्ठी,....................................। तिक्षणाया मार्गः सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मको यस्मिस्तदमु-| सुलसा साविगा अमूढदिट्टित्ते उदाहरणं भवति-जगवं चपाए क्तिमार्गम् । अधर्मपके विभङ्गस्थाने, सूत्र०२ श्रु०२ भ०। एयरीए समोसरियो । भगवया य भवियथिरीकरणत्थं अंबडो अमुय-अस्मृत-त्रि० । मनोऽपेक्षया स्मृतिमनागते, प्र० ३ | परिवायगोरायगिहं गच्छंतोभाणो-सुझसं मम वयणा सायं श० ६ उ०। पुच्चेजसि । सोचिंतेति-पुस्ममंतिया सा, अरडा पुच्छति। तेस प्रमुयग-अमृतक-त्रि० । प्रबाह्याभ्यन्तरपुलरचितावयवशरी- परिक्षणाणिमिस नत्तं मगिता , अलभमाणेण बदणि स्वापि रिणि जीवे, स्था। "अमुयगो जीवति" देवानां बाह्याऽभ्यन्त काऊण मम्गिता। एं दिछ । नापति य-परं पुकंपाप देमि,ण ते रपुमक्षादानविरहेण वैक्रियवतां दर्शनाद् बाह्याभ्यन्तरपुद्गलर पत्सवुकीए । तेण भणियं-जदि पत्तबुझीए दहि ।सा भणति-ण दोमि। पूणो पउमासणं विनब्वियं। सा भणति जवि सिक्खा चितावयवशरीरो जीव इत्यध्यवसायवत् पञ्चमं बिभहा भणो तदा वि ते ण देमि पत्तबुझीए। तो तेण उवसंधारियं नम् । स्था०७०। सम्भावं च से कहियं । ण दिहिमांहो सुलसाए जामो। पवं प्रअमुसा--अमृषा-अव्य० । सत्ये, सूत्र० १ श्रु०१०म०। मूढदिद्रिणा होयव्वं"। निचू०१० (अस्मिन्नेव भागे ११२ अमुह-अमुख-त्रि०। निरुत्तरे, व्य० ९००। पृष्ठ 'अंबड' शन्देऽपि कथेयम् ) अमुहरि (ण )-अमुखरिन्-त्रि० । अवाचाले, उस०१०। अमूढलक्ख-अमृढलक्ष-त्रि० । अमूढः सुनिर्णयो लको बोधश्रमूढ-अमूढ-त्रि० । अविप्लुते, दश० १० भ० । सन्मार्ग, विशेषो यस्य सोऽमदतः । पञ्चा० १४ विव० । अष्ट । - थावस्थितवस्तुवेदिनि, वृ०१०। समस्ततत्त्वाविपरीतधेदसूत्र०१ श्रु. १४ अ०। तस्वसानिनि, अष्ट०२ अष्ट। ने, श्रा०म०द्वि०। अमूढणाण-अमूढज्ञान-त्रि० । यथावस्थितक्षाने, श्रा० म० द्विार पास अमेत्तणाण-अमात्रझान-न०। मात्रामानं, तेन रहितममात्रम्, अमूहादिष्ट्रि-अमूहदृष्टि-स्त्री० । अमूढा तपोविद्यातिशयादिकु- अमात्रं च तवानं च अमात्रज्ञानम् । अप्रमिते केवमहानिनि, तीधिकद्धिदर्शनेऽप्यमोहम्वभावादविचलिता, सा च रष्टिश्च सम्यग्दर्शनममुढष्टिः । प्रव. ६ द्वार । बुद्धिमत्कुतीथिकद- अमेहा-अमेधा-स्त्री०। मेधोपघाते, नि०० १० । र्शनेऽप्यविगीतमेवास्मदर्शनमिति मोहविरहितायां बुझौ, उत्स० | अमोसलि-अमुशाल-न । न मुशली क्रिया यस्मिन् प्रत्युपे२०। अमूढबुद्धिसंपन्ने, मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः । न कणे तद मुशलि । सुप्रत्युपेक्षण नेदे, ओघ । मुढोऽमूदस्तस्य दृष्टिः । याथातथ्यदृष्टी, नि००१ उ० । बालतपस्वितपोविद्या ऽतिशयदर्शनैर्न मूढा स्वरूपान्न चलिता रष्टिः । अणच्चाविय अचलियं, अणाणुबंधी अमोसलिं चेव । सम्यग्दशनरूपेण यस्याऽसौ असूढदृष्टिः । ग०१ अधि०। ध०। छप्पुरिमा ण च खोमा, पाणी पाणे पमज गया ।।२५।। पञ्चा०।दश। (अमोसलि त्ति) न मुशली क्रिया यस्मिन् प्रत्युपेकणे तदाणि अमढदिठि ति दारं--- दमुशलि प्रत्युपक्वणम् । यथा मुशलं कुट्टने ऊर्व संगति, मुह्यते स्म अस्मिन्निति मूढः, न मदोऽमूढः । अढदिघी, | अधस्तिर्यग् च । एवं न प्रत्युपेक्षणा कर्तव्या । किंतु यथा याथातथ्यष्टिरित्यर्थः॥ प्रत्युपेकमाणस्य कर्व पीविषु न लगति, न च तिर्यक्षु येन जहा सा भवति तदा नएणति नूमौ, तथा कर्तव्यम् । ओघ० । ध। स्था० । उत्ता नि० चू०। पोगविहा इडीओ, पृयं परवादिणं च दट्टणं । अमोह-अमोघ-त्रि० । अर्थववाऽऽयातत्वेनाविफले, अमिथ्या रूपे, विशे० । अबन्ध्ये, दश०७ १०। प्रादित्योदयास्तसमयजस्स ण मुज्का दिट्ठी, अमृढदिटिं तगं चेति ॥ २६ ॥ योरादित्यकिरणविकारजनितेषु मातानेषु कृष्णेषु श्यामेषु वा (रोगविह ति) णाणप्पगारा, का ता? (इकित्ति) इडीयो-इ. शकटाईसंस्थितेषु ( सूर्यबिम्बस्याधःस्थेषु कदाचिदुपसत्यस्सरियंत पुण विज्जामंतं तवोमंतं वा विनवणाऽऽगासगमण मानेषु रेखारूपेषु ) दरामेषु, भ० ३ श०६ उ० । जी0। अनु । विभगणाणादिऐश्वर्यम् (प्य त्ति)असणपाणखादिमसादिमव अमोह-त्रि० । मोहनं मोहो वितथग्राहः, न मोहोडमोदः। अस्थकंबलादी-जस्ल वाजं पाउम्ग तेण से पडिलानण पूया । केसि मा? (परवादिणं ति) जश्णसासण्वश्रत्तापरा,ते य परि वितथग्राहे, विशे। मोहरहिते, अष्ट०३२ अष्ट। जम्बूमन्दरस्य बाययरत्तपमियादी पासंमत्था,चस हाम्रो गिढत्या धीवरादि।। रुचकवरे पर्वते कूटभेदे, स्था० ८ ग० । दी। शोभाञ्जन्या अहवा चसद्दाश्रो ससासणे विजे इमे पासत्था, ते पयासकारा नगऱ्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे चैत्ये पूज्यमाने यक्के, विशे०॥ दी दहूं,'च अनुकरिसणे,पायपूरणे वा ददुग्यो। (दट्टणं ति) रवा अमोहणाधारि ( ण् )-अमोहनाधारिन्-पुं० । अमोदनं मो. जहा तेसि परवादीण पूया सकाररिद्विविसेसादासंति,ण तदा । दरहितं सभस्तमा समन्तादू धारयनीत्येवंशीलोऽमोहनाधारी। अम्द । माणुसर चेव मोक्नमग्गो विसितरो नबज्जा श्रतो। सूत्रादेनिमोहं धारके, व्य०१० उ०। Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहदंसि (यू) मोहदांस ( ) -अमोघदर्शिन् पुं० । अमोघं पश्यति यथावत्पश्यति, दश० ६ अ० । मोहवय- अमोहवचन १० | धर्मदेशनारूपेऽव्यर्थचचने, स्था० ४ ० ३ उ० । । अमोहा-भमोघा श्री० । अस्याः सुदर्शनाय मानि (मोघे निष्फलम् ) न मोघा अमोघा । भनिष्फला इत्यर्थः । तथादिशाश्वतस्वामिभावेन प्रतिपद्मा सती जम्बूद्वीपाधिपत्यमुपजन यति, तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिनावस्यैवायोगात्, ततोऽनिष्फलेति । ० ३ प्रति जं० उत्तराम्नाकिदि भागवर्तियां पुष्करिण्याम, द्वी० । स्था० । जी० । अम्ब - आम्र - पुं० । “ तान्नान्ने म्बः " | ८ | २ । ५६ । इति सूत्रेण संयुक्तस्य मयुक्लो 'म्ब' । चूत - ( आँब ) वृके, तत्फले च । 1 प्रा० २ पाद । त्र्यम्बकूणगइत्यगय - आम्रफल हस्तगत - त्रि० । स्वकीयतपस्तेजोजनितदादोपशमनार्थमानास्थिकं चूपति, ना० १५० १४० अम्मम - अम्मम - पुं० | स्वनामख्याते परिव्राजके, भ० १४० ( 'अं८०० स्था०राद्यतम्यता अनुस्वारप्रकरणे (म ) ड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ११० पृष्ठे निरूपिता ) अम्मया-अम्बा - स्त्री० । पुत्रमातरि ज्ञा० १ ० । प्रश्न० । भ० । नि० । अम्महे हर्षे " ८ । ४ । अम्म-अम्म-अध्य २०४ इति शौरसेन्यम् अस्मदे' इति निपातो वे प्रयोक्त रूपः।" अम्म पाए सुम्मसाथ सुपक्षिगढिदो भर्थ " प्रा० ४ पाद । 1 ( ७४९५ ) अभिधानराजेन्खः । " अम्मापितिसमाण - अम्बा पितृसमान- पुं० । मातापितृभ्यां समाने पुत्रेषु मातापिचोरि व्यवहारादिष्यविषमदर्शिनि, य०२ उ० । उपचारं विनाऽपि साधुषु एकान्तेनैव वत्सले श्रमणोपासके, स्था० ४ ० ३ ० । म्यापिपर-अम्बापितृ पुं० ३०० मातापित्रो, स्था० ३ ० १ ० । अम्मापेम्बा पैतृक न० । मातापितृसम्बन्धिनि, भ० ॥ अम्मापे णं भंते ! सरीरए केवयं कालं सचिव ? | गोयमा ! जावश्यं कालं से नवधारणिज्जे सरीरए प्र माय जव एवश्यं कालं संचित आहे णं समए समए वोयसिज्जमाणे चरिमकालसमयंसि वोच्छिणे अबइ । ( अम्माणं ति) अम्बापेतुकं शरीरावयवेषु शरीरोपचा रात, उक्तलक्षणानि मातापित्रङ्गानीत्यर्थः। (जावश्यं ति) याव तं कालं (सेति तन्नस्य वा जीवस्य, भवधारणीयं भवधारणप्रयोजनं, मनुष्यादिजबोपग्राहकमित्यर्थः । ( श्रब्वावरणे सि) अधिनम् (हे णं ति) उपचयान्तिमसमयादनन्तरमेतद् अम्बापैतृकं शरीरम् ( वोयसिजमाणे ति ) व्यवकृष्यमा - दीयमानमिति । भ० १ ० १ ० । अस्मदो मि अम्मि-अहम् — अस्मदः प्रथमैकवचनान्तस्य अम्मि अम्हि हं श्रहं अहयं सिना" । ८ । ३ । १०५ । इत्यनेन 'आम्' इत्यादेशः । "उन्नम न अम्मि कुविश्रा" प्रा० ३ पाद । १८८ 66 अम्हिया अम्मो अन्य० । " श्रमो श्राश्वय्यै" ।। २ । २०८ । इति सूत्रेण अम्मो इत्याश्चर्ये प्रयोक्तव्यम् । " अम्मो कह पारिज्ज‍ प्रा० २ पाद । ॥ ग्रम् अस्माकम् अस्मद् ग्रामासहितस्य "यो म अद श्रहं०" | | ३ | ११४ । इत्यादिसूत्रेणाम्दादेशः। प्रा०३ पाद ॥ वयम्-श्रस्मदो जसा सहितस्य " अम्द श्रम्हे श्रम्हो मो वयं भे जसा” । Û । ३ । १०६ । इति सूत्रेण श्रम्हादेशः । प्रा० ३ पाद । अम्द चोक्खा चोक्खायारा " औ० ॥ "" श्रम्हई-वयम्-श्रस्मान् -"जश्शसोरम्हे श्रम्हई” ८४३७६ ॥ अमजशि शशि व प्रत्येकमदेशौ । “भवस न सुश्रहिं सुश्रभिहिं, जिवँ श्रम्हाँ तिवँ वे वि" । " अम्द देखइ " प्रा० ४ पाद । अमं- अस्माकम् - " म्हं· अस्माकम् - " णे णो मज्ऊ अम्ह श्र० ८|३|११४ । इत्यादिसूत्रेणामा सहितस्यास्मदोऽम्हमादेशः । प्रा०३ पाद 'अहं णो आढाइ " विपा० १ ० ६ उ० । धूया 99 त्रि० । केरः प्रम्हकेर अस्मदीय वि० "इदमर्थस्य २१४७६ तीदमर्थस्य प्रत्ययस्य 'केर' इत्यादेशः । “सेवादी वा " । २ । ६। इति कद्वित्वम् । अस्मत्सत्के, प्रा० २ पाद । । । इति ब्रम्हतो - अस्मन्यम्-" ममाम्दी सि० ३११२ ि सूत्रेण ज्यसि ' अम्ह' इत्यादेशः । प्रा० २ पाद । - अम्हाण- क्रस्माकम् - - अस्मद् श्रामा सहिनस्य " णे णो मज्झ आद०" ० ३ ११४ इत्यादिसूत्रेण अन्हाणादेशः प्रा० ३ पाद । म्हातस अस्मादृश त्रि०" वारशास्तिः"३१७ इति पैशाच्यां 'ह' इत्यस्य स्थाने तिरादेशः । प्रा० ४ पाद। अम्हार-मम- पेशाच्या" २४५ इति ठधा लुक् । “संगर - सहिँ जुवमिश्र‍, देक्खु अम्हारा कंतु " प्रा० ४ पाद | - 66 अम्हारिस- अस्मादृश-त्रि० । दृशः किप्-टक्सकः " ८।११ १४२ इति सूत्रे वाचन्तस्य तो रिरादशः। "पद्म-श्मम- स्म ह्यां म्” ८ | २|७४| इति संयुक्तस्य स्मभागस्य मकाराक्रान्तो इकारः । प्रा० २ पाद । " अम्हारिसो' अस्मत्सदृशेषु, प्रा० १ पाद । अम्हासुन्तो- अम्हाहिन्तो - अस्मज्यम् - " ममाम्दो भ्यसि " छ । ३ । ११२ । इत्यस्मदो भ्यसि ब्रम्हादेशः "ज्यसस् तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो " ८ । ३ । ६ । इति सूत्रेण ज्यसः 'सुन्तो, दिन्तो' इत्यादेशौ । प्रा० ३ पाद ॥ अम्हि - अहम् - " अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं श्रयं सि ना " ८ । ३ । १०५ । इति सूत्रेण सिना सह 'अम्हि ' इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद ॥ अम्हिया अस्मिता श्री महद्वारा नुगमे द्वा० २९ द्वा० चान्तर्मुखतया प्रतिलोमतापरिणामेन प्रकृतीने चेतसि सामात्रमेव भाति साऽस्मिता । द्वा० २० द्वा० । अस्मिता रब्दकामनयोः परममिताविपरि Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५०) अम्हिया अभिधानराजेन्द्रः। अयण मयोः भोक्तृनोग्यत्वेनावस्थितयोरेकता अस्मिता । तदुक्तम्-'- चिय सोणिए । आउयं नरप कंखे, जहा पसं व पलए" ॥ ७॥ दर्शनशक्योरेकात्मतैवास्मिता" द्वा० २५ द्वा०। उत्त०७०। अम्हे-वयम्-अस्मान-"जरशसोरम्हे अम्ह" । ४ । ३७६॥ अयकमित्र-अयःकमि-न। यो लोहं तन्मयं यत्कमिद्धं श्त्यपभ्रंशे भस्मदो जसि शसि च 'अम्हे' इत्यादेशः। प्राकृतेऽप्ये- तत् । लोहकटाहे, ओघ । वम्-"अम्हे थोवा रिउ बहुश्र,कायर एम्ब भगंति"।प्रा०पाद । प्रयकरय-अजकरक-पुं०। सप्तदशेमहाग्रहे,सू०प्र०२०पाहु। अम्हेच्चय-आस्माक-त्रि० । अस्माकमिदम । " युष्मदस्मदोऽन कल्प००प्र०।०। "दो प्रयकरगा" स्था० २ ठा०२०) एश्चयः" ८।२।१४।। इत्यस्मदः परस्येदमस्यामः 'एश्चय' प्रयकोहय-अयःकोष्टक-न० । सोहप्रतापनार्थे कुशूले, भ०१६ इत्यादेशः । अस्मदीये, प्रा० ४ पाद ।। अम्हो-अस्माकम्-" णे णो मज्क अम्द अम्हं अम्हे अम्हो" श० १ उ० । उपा० । जी। ८।३।११४। इत्यामा सहितस्यास्मद 'अम्हो 'श्त्यादेशः।। अयक्खंत-अयस्कान्त-पुं० । लोहाकर्षके चुम्बके मणौ, मा० प्रा०३ पाद । म०प्र०। प्रय-अज-पुं० । अजैकपाद्देवे, स च पूर्वान्नाद्रपदानकत्रस्य अयगर-अजगर-पुं० । शयुःपर्याये, तरःपरिसर्पविशेषे, प्रश्न देवता । ज्यो०६पाहु'दो प्रया' स्था०२०३०।। १ आश्र० द्वा०महाकायस, जं०२ वक्ष । “से किं तं अअनु० । सूर्यवंशीये रघुपुत्रे, वाच० । यगरा। अयगरा एगागारा पन्नत्ता, सत्तं अयगरा"। प्रका० अय-पुं० । अयनमयः। श्णू गतौ इति धातोः “एरच्” ३।३।। १ पद । जी। ४६। इति [पाणि०] सूत्रेण अच् प्रत्ययः, श्रा०म० द्विा वेदने, अयगोलय-अयोगोझक-पुं० श्रयो लोहं, तस्य गोलः पिएमोऽसाभे,प्राप्तौ च । विशेश्रा० म० । श्राव०। श्टफोन० । स्था० । योगोलः । निचू०१ उ०। अयःपिरामे, दशा०७ अ० सूत्र । १ ग०१ उ० । शुभे, स्था० १००। अय-कृष्-धा-विसेखने, “कृषः क-साअाश्चाणच्छाअयस्-न । लोहे, नि० चू०५ १० । जी० । प्रश्न उत्त। याश्चाः " ।४।१८७ । इति सूत्रेण कृषः अयञ्चादेशः। प्रयागर-अयाकर-पुं० । लोहाऽऽकरे, यत्र लोहमुत्पद्यते। अयञ्छश्-कृषति । प्रा०४ पाद । नि० चू०५ उ०॥ यत्र वा लोहकारो लोहं मापयति । स्था०७० | अयण-अयन-नागमने, प्रा०म०द्वि०। उत्स०। स्था० झा अयं-अयम्-पुं० । “उँस्त्रियोनवाऽयमिमिश्रा सौ" ॥८॥३॥७३॥ प्रापणे, अनु० । परिच्छेदे, नं० । ऋतुत्रयमाने, कर्म०४ कर्म । इति इदम शब्दस्य सौ अयादेशे अयं । प्रा०३पाद । "अयं परमो पस्मासात्मके काले, तं० । जं० । भ० । अनु० । अयनानिषारमा सिकानि दक्षिणायनोत्तरायणलकणानि । कल्प०५ क्व०। सेसे अण?" अयमिति प्राकृतत्वादिदम । औ०। . साम्प्रतमयनपरिमाणं वक्तुकाम आहअयंत-आयत-त्रि०। आगच्चति प्रविशति, "जाव अयंतो निसाडियं कुणइ" प्रा० म०वि०। हि मासेहि दिणयरो, तेसीयं चरइ ममममयं तु । प्रयंपुल-अयंपुल-पुं० । अजीविकोपासके गोशासकशिध्ये, | अयणम्मि उत्तरे दा--हिणे य एसो विही हो । भ०८ श०५ उ०। पभिर्मासैदिनकरः सूर्यः व्यशीत्याधिक मामलशतं चरति। अयंसंघि-अयंसन्धि-वि० । " अयं संधीति " अयमिति प्रत्य- तथाहि-सर्वात्यन्तरमन्तरे द्वितीयमएमले यदा सूर्य उपसंक्रम्य गोचरापन्नः, आर्यकेतसुकुलोत्पत्तीन्द्रियनिवृत्तिश्रद्धासंवेग चारं चरति तदा स नवस्य सूर्यसंवत्सरस्य प्रथमोऽहोरात्रः। द्वितीयेन चाहोरात्रेण सर्वात्यन्तरात् तृतीयमण्डलं चरनि:पवं लकणः सन्धिः । आचा० १७०५ अ. १ उ० । 'अयंसम्धीति' सम्धान (सन्धिः) सन्धीयते वाऽसाविति सन्धिः । षभिर्मासैरूयशीत्यधिक मण्डलशतं चीर्ण नवति । एष दक्षिअयं सन्धिर्यस्य साधोरसावयंसन्धिः । नान्दसत्वाद् वि णायनस्य षण्मासप्रमाणस्य पर्यन्तः । ततः सर्वबाह्यादू मएमभक्तरलुक । यथाकालमनुष्टानविधायिनि, यो यस्य वर्त सादर्वागन्तरे हितीये मएमले यदोपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति मानः कालः कर्तव्यतयोपस्थितस्तकरणतया तमेव संधत्ते। तदा सतरायणस्य प्रथमो दिवसः। सर्ववाह्याद मामलाद,पतमुक्तं नवति-सर्वाः क्रियाः प्रत्युपेकणोपयोगस्वाध्याय तनं तृतीयं मण्डलं हितीयेनाहोरात्रेण चरति, एवं धमिर्माभिक्काचर्याप्रतिक्रमणादिका असंपन्ना अन्योन्याबाधयाss सैरुयशीत्यधिक मामलशतं सर्वाभ्यन्तरमएमलपर्यवसानम् । स्मीयकर्तव्यकाझे करोतीत्यर्थ इति । प्राचा०१ श्रु०२०५०। एप दकिणस्मिन् उत्तरास्मिन् वा अयने विधिः प्रकारोभवति । अत्रार्थे च करणं विवतुः प्रथमतः तपक्षेपमाहअयकंत-अयस्कान्त-पु० । अयसां मध्ये कान्तः रमणीयः । कस्कादित्वात् सत्वम् । कान्तिलोह शति ख्याते लोहभेदे, तेसीयं दिवसमयं, अयणे सूरस्स होइ पडिपुग्नं । बाच० । सन्निधिमात्रेण लोहाकर्षके, [चुम्बक] इतिख्याते प्रस्त- सुण तस्स कारगविहिं, पुयायरिओवएसणं ।। रभेदे च । अयसां प्रियत्वात्तथात्वम् । श्रा० म०प्र०। सूर्यस्यायनं दक्षिणमुत्तरं वा भवति परिपूर्ण ज्यशीत्यधिक अयकक्करलोड (ए)-अजकर्कर नोजिन-त्रि० । अजस्य ग- दिवसशतम् । कथमेतदवसीयते इति चेत् । उच्यते-ह गादेः कर्करमतिभ्रष्टं यश्चणकवेद तुज्यमानं कर्करायते तन्मेदो-| युगमध्ये दश सूर्यस्यायनानि भवन्ति,युगे च दिवसानामष्टाददन्तुरं पक्कं शवाकृतं मांसं,तद् भुङ्क्ते इत्येवंशीसोऽजकर्करभोजी।। शशतानि त्रिंशदधिकानि १७३० । ततौराशिकमवतारयतिभजादेः कर्करायितमांसभुजि, "यकारभोई य, तुन्दिवे । यदि दशभिरयनैरष्टादशादिवसशतानि त्रिंशदधिकानि बज्यन्ते, Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयण तत एकेनायनेन किं लभ्यम् ? । श्रह - राशित्रयस्थापना १०+१० ३०+१ । अत्रान्त्येन राशिना एक लकणेन मध्यमस्य राशेर्गुणनं एकेन च शुचितं तदेव भवतीति जातान्यानिश कानि तेषामन राशिमा दशकला रोग भागो हियते य शीत्यधिकं दिवसशतम् । एतावदेकस्य दक्षिणस्योत्तरस्य परिमाम् । सम्प्रति तस्य दक्षिण स्यैवायनस्य परिज्ञानविषये कारचिरप्रकारं पूर्वाचार्योपदेशेन प्रतिपाद्यमानं मृणु। तत्र करणमाद ( ७५१ ) अभिधानराजेन्द्रः । अप सूरस्स गणकरणं, पव्वं पन्नरससंगुणं नियमा । तिहिसंखितं ते बावडी जागपरिहीणं ॥ तेसीययविभतम्पितल तुरूपमाएजा । जड़ लऊं होइ समं, नायव्वं उत्तरं प्रयणं ॥ अव जागल, सिमेजाशाहिद जे सा ते दिवसा, होंति पवत्तस्स अयणस्स || सूर्यस्थापन परिज्ञानविषये करणमिदं वक्ष्यमाणमिति शेषः । साह पर्व पर्वसंस्थानं पचदशगुणं नियमात् कर्तव्य कि मुक्तं भवति युगमध्ये विवचितदिनात् प्राग्यानि पणि . तिकान्तानि तत्संख्या पञ्चदशगुणा कर्त्तव्येति । ततः पर्वणामुपरि यास्तिथयोऽतिक्रान्तास्तास्तत्र संक्षिप्यन्ते । ततो ( वावडीभागपरिमाणमिति प्रत्यहोरात्रम् एकैकेन द्वाष्टभागेन परि हीयमानेन ये निष्पन्ना श्रवमरात्रास्तेऽप्युपचाराद् द्वाषष्टिभागा परि विषेषः ततस्तस्मिन् धनते 1 नवसति रूपये का दिकं तत् आया पृथक स्थाने स्थापयेदित्यर्थः तत्र यदि स दिरूपं जवति, तदा उत्तरमयनमनन्तरमतीतं ज्ञातव्यम् । श्रथ भवति भागे वधं विषमं तदा जानीहि दक्षिणमयनमनन्तरम तीतम् । ये तु शेषा अंशाः पञ्चादवतिष्ठन्ते तत्कालं प्रवृत्तस्यायनस्य दिवसस्य दिवसा भवन्ति इातव्याः । तथाहि युगमध्ये नवमाखातिक्रमे पञ्चम्यां केनापि पृएम- किमयनमनन्तरमतीत किं वा साम्प्रतमयनं वर्तते ?, इति । तत्र नवसु मासेषु अष्टादश पर्याणि ततोऽश जाते तेधिके २७० | नवमासानामुपरिं पञ्चम्यां पृष्टमिति पञ्च तत्र प्रतिव्यन्ते, जाते द्वे शते पञ्चसप्तत्यधिके २७५, नवसु मासेषु चस्वारोऽवमरात्रा जवन्ति तथा ते चतुर्भिर्हीनाः क्रियन्ते, जाते द्वे शते एकसप्तत्यधिके २७१ । अस्य राशेस्यशीत्यधिकेन शतेन भागो ह्रियते, लब्धमेकं रूपम्, शेषा स्तिष्ठन्त्यष्टाशीतिः । तत आगतमिदमेकमयनमतीतं, तदपि च दक्षिणायनम् । साम्प्रतमुत्तरायणं वर्तते तस्य दिवसो व्रजतीति तथागमध्ये पञ्चविंशतिमासातिक्रमे दशम्यां केनापि म कियन्त्ययनानि गतानि ?, किं वाऽनन्तरमयनमतीतं ?, किं वा साप्रतमयनं वर्त्तते ? इति । तत्र पञ्चविंशतिमासेषु पञ्चाशत्पर्वा णि, तानि पञ्चदशभिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तशतानि पञ्चादशधिकानि ७५० । तत उपरितना दश प्रक्विप्यन्ते, जातानि सप्तशतानि षष्ट्यधिकानि ७६० | पञ्चविज्ञातिमासेषु चावमरात्रा अनवन् द्वादश ते ततोऽपनीयन्ते, जातानि सप्तशतानि श्रष्टचत्वारिंशदधिकानि ७४८ । एतेषां त्र्य शीत्यधिकेन शतेन भागो हियते लग्धाश्चत्वारः, शेष आगतानि चत्वार्थयनान्यतिक्रान्तानि चतुर्थ वाऽनमनन्तमतीतमुत्तरायणम् सम्मति दक्षिणाय " अयण नस्यापवर्तमानस्य षोडशो दिवसो वर्त्तते इति । पत्रमन्यदपि भावनीयम् । साम्प्रतं चन्द्रगतस्य दक्षिणस्योत्तरस्य वाप्यनस्य परिमाणमाहतेरस य मंगाई बढ़ना सहभागा य प्रणेण चर मोमो, नक्सले अकमासे ॥ st नत्रमासाईपरिमाणं चन्द्रायणम् । तत श्राह-नक्षत्रविषये योऽमासस्वतस्तावत् परमासनायनेन सोमरत तत्र त्रयोदश मएकबानि चतुश्चत्वारिंशतं सप्तषष्टिभागान्। किमुक्तं नवति?- त्रयोदश अहोरात्राः, एकस्य व अहोरात्रस्य सत्काश्चतुत्वारिंशदष्टिभागा दक्षिणस्पतिरस्य वा चन्द्राय स्य परिमाणमिति कथमेतदवसीयते इति चेत् उच्यतेरह नक्कत्रमासस्य परिमाणं सप्तविंशतिदिनानि, एकस्य च दिनस्य सत्का एकविंशतिः सप्तविंशतिभागाः । तत एतस्यार्थे यथोक्तं चन्द्रायणपरिमा प्रयति अथवा युगे चन्द्रायणानां ; पिकं शतं भवति अहोरात्राणां च युगे अष्टादश शतानि विदधामि ततो वैशिककर्मावकाशः। यदि चतुखिशेन शतेन अहोरात्राणामष्टादश शतानि शिधिकान प्राध्यन्ते तस एकेन किमः। " ना- १३४ + १८३० + १ । अत्र मध्यस्य राशेरन्त्येन राशिना गुणनं, एकेन च गुणितं तदेव नवतीति जातान्यष्टादशशतानिविशदधिकानि १०३० तेषामायेन सहिताद धिकशतरूपेण भागो हितेश पालित्यशशीतिः। तत श्रायस्य राशेतुश्चत्वारिंशता गुणने जातानि ष्टपञ्चाशत् षण्णवत्यधिकानि १८६६ । तेषां चतुस्त्रिंशेनाधिकेन तने भागो हिते अभागाः । सम्प्रति चन्द्रायण परिज्ञाननिमित्तं करणमाहचंदायणस्स करणं पव्वं परमगुणं नियमा । तिहिपखित्तं संतं, बावडी भागपरिहीणं ॥ नक्स प्रकमासे ण भागलक तु रुवमाता । जइस हुवइ समे, नायव्वं दक्खिणं अयणं । अह व जागस, सिमं जागा उत्तरं प्रययं । सेसाणं साणं, श्रोसिस्सड़ सो भवे करणं | सत्तट्ठीऍ विजत्ते, जं बद्धं तर हवंति दिवसाओ । साय दिवसभागा, पवनमाणस्स अयणस्स ॥ चन्द्रगतस्य दक्षिणस्योत्तरस्य वा अयनस्य परिज्ञानाय करमिदमयानि गुगमध्ये पनिकान्तानि तत्पर्वानं प ञ्चदशभिर्गुण्यते, ततः पर्वणामुपरि यास्तिथयोऽतिक्रान्तास्ताः तत्र प्रविष्यन्ते ततो द्वाषष्टिभागपरिहीनमवम रात्रपरिहीनं क्रियते, ततो नक्त्रस्यार्द्धमासेन तस्मिन् भक्ते सति यद् लब्धमेद्वियादिरूपं तद्देया पृथक स्थापयेदित्यर्थः । तत्र यदि लब्धं भवति समं तदा दक्षिणं चन्द्रायणमनन्तरमतीतमवसेयम् । श्रथ भवति भागलब्धं विषमं तदा उत्तरं चन्द्रायणमनन्तरमतीतं जानीहि । इद युगस्यादौ प्रथमतः चद्रायणमुख दक्षिणायनमोऽय समे भागे दक्षिणायनमनन्तरमतीतमव सेयमः विषमे लब्धे उत्तरायणमिति । शेषास्तु अंशा ये सरितास्तेषामंशानां विभके मतिय रात् प्रवर्त्तमानस्यायनस्य नवन्ति दिवस रात्रशा दिवस नागा तयाः तथाहि मसाविक Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५३) अयण अभिधानराजेन्द्रः। केनापि पृष्टम्-किं चन्द्रायणमगन्तरमतीतं ?,किंवा साम्प्रतमुत्तरं जं०।राउत्त को। भङ्गधाम. न.६श ७ उ० । बविणं वा वर्तते । तत्र नवसु मासेषु पर्वाणि अष्टादश, तानि |श्रयसीकुसुमप्पयास-अतसीकुसुमप्रकाश-त्रि० । नीले, शा०१ पञ्चदशमिगण्यन्ते, जाते द्वे शते सप्तस्यधिके २७० नवानां च | प्रान्तका उपा०रा०। मासानामुपरि पञ्चम्यां पृष्टमिति पञ्च तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते हे प्रयसीपुप्फ-प्रतसीपुष्प-न० धान्यविशेषस्य प्रसूने, उत्त. शते पञ्चसप्तत्यधिके 99५ । नवसु च मासेषु चत्वारोऽयमरा ३४ अ०। त्राः, ते ततोऽपनीयन्ते, जाते द्वे शते एकसप्तत्यधिके २७१ ।ए प्रयसी (सि ) वएण-मतसीवर्ण-त्रि० । अतसीकुसुमवणे तस्य राशेनकोमासान नागहरणं, तत्र नक्षत्रार्द्धमासो न परिपूर्णः,किन्तु कतिपयसप्तषष्टिभागाधिकः,तत एष सर्वोऽप्य श्यामवणे, उत्स०१६ म०। बमरांत्रशुरूः सप्तपट्या गुण्यते,जातान्यष्टादशशतानि शतमेकं अयहारि ( ५ )-अयोहारिन-त्रि० । लोहस्याहर्तरि, सत्र पश्चाशदधिकम् १८१५०ानकत्रार्कमासस्यचदिवसपरिमाणं अयो. १ ० ३ ०४००। दशदिवसाः१३,एकस्य च दिवसस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपष्टि- | अयाकिवाणिज-मजाकृपाणीय-ज० । ममोपरि कृपाणं पतिभागाः। तत्र त्रयोदश दिनानि सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्त- व्यतीत्यजा न वेत्ति, तथा सति अजागले कृपाणपतनरूपे प्र. षष्ट्या गुण्यन्ते, जातान्यष्टादशशतानि एकसप्तत्यधिकानि,तत्र तर्कितोपस्थिते, प्राचा० १ श्रु० १ ० १ ००। उपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपप्टिभागाः प्रतिप्यन्ते, जातानि अयाकुच्चि-अजाकुक्षि-वि० । अजायाः कुक्षिरिव कुकिर्यस्य नवपञ्चदशाधिकानि ६१५। एतैः पूर्वराशेर्भागे हते लग्धा एको. तदजाकुति। उपा० २ ०। नविंशतिः १६ । शेषमुद्वरन्ति सप्तशतानि सप्तसप्तत्यधिकानि प्रयागर ( न०)-अयाकर-पुं० । प्राकृतत्वार पुंसकत्वम् । ७७७ । तेषां दिवसाऽऽनयनाय सप्तषष्ट्या भागो ह्रियते, लोहाकरे, येषु निरन्तरं महारषास्थयोदलं प्रक्षिप्याऽय उत्पाद्यलम्धा एकादश दिवसाः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चत्रिशत सप्तपष्टि ते । जी०३ प्रति०। भागाः। यागतमेकोनविंशतिश्चन्छायणान्यतिक्रान्तानि,मनन्तरं अयाणंत-अजानत-त्रि० । अविदुषि, “पावस्स फलविवागं चन्द्रायणमतिक्रान्तमुत्तरायणम, दक्षिणस्य चन्द्रायणस्य सम्प्रति प्रवृत्तस्यैकादश दिवसा गताः, द्वादशस्य च दिवसस्य अयाणमाणा वटुंति"। प्रश्न०१ सम्ब० 5101 पञ्चत्रिंशत्सप्तपष्टिभागः, पञ्चम्यां समाप्तायां भविष्यन्तीति ॥ | भयावय-प्रजात्रज-पुं० । प्रजावाटके, "केर पुरिसे प्रयासय. तथा युगमध्ये पञ्चविंशतिमासातिक्रमे दशम्यां केनापि पृष्ठम्- स्स पगं महं अयावयं करेज्जा" | भ० १५ श० ३ ० । कियन्ति चन्द्रायणान्यतिक्रान्तानि?,किं च साम्प्रतमनन्तरमती- | अयावयट्ठ-अयावदर्थ-पुं० । न यावदर्थः । अपरिसमाप्ते. सं चन्द्रायणं, किंवा संप्रति वर्तते चन्द्रायणं, दक्विणमुत्तरं 'दश० ५ ० २ उ०। बेति? । तत्र पञ्चविंशतिमासेषु पर्वाणि पञ्चाशत् , तानि भय्य-आर्य-पुं० । “न वायो ग्यः" ।।४।२६६ । इति ये' पञ्चदशनिर्गुण्यन्ते, जातानि सप्तशतानि पञ्चाशदधिकानि भागस्य व्यः। [अस्यार्थस्तु 'अज' शम्देव भागे २०८ पृष्ठे ७५० । तत उपरितना दश प्रतिप्यन्ते, जातानि सप्तशतानि ष रूपव्यः]"अय्य ! पशे खु कुमाले मलयकेदू" । आर्य ! एचधिकानि ७६०। पञ्चविंशतिमासेषु चावमंरात्रा अभवन् एष खलु कुमारो मलयकेतुः। प्रा०४ पाद । द्वादश,ते पूर्वराशेरपनीयन्ते,जातानि सप्तशतानि अष्टाचत्वारिशदधिकानि ७४८ । तानि पष्टिनागकरणाथै सप्तषष्टया गुण्य अय्यनत्त-आर्यपुत्र-पुं० । “न वा यो व्यः" ८१४।२६६ । णि पावत्यधिकानि Love || इति शौरसेन्यां यस्य स्थाने ग्यः। श्रेष्ठपुणे, नाटकसंबोध्ये नायतेषां नवभिः शतैः पञ्चदशोत्तरैः ६१५ भागो हियते, लब्धा. | कादौ, "अय्यतत्त! पय्याकुलीकदाम्ह" आर्यपुत्र ! पर्य्याकुली. चतुष्पञ्चाशत । शेषमुद्धरत्यष्टौ शतानि षडशीत्यधिकानि | कृताऽस्मि । प्रा०४ पाद । ८८६ । तेषां दिवसानयनाय सप्तषष्टया जागहरणं, लब्धालयो- | अय्युण-अजेन-jo1"जचयां यः"10४/२६॥ इति मागध्यां दश दिवसाः,शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश,आगतानि चतुष्पञ्चाशत् जस्य स्थाने यः। ('अज्जुण 'शब्दे २२५ पृष्ठेऽत्रैवास्यार्थाः) चन्द्रायणानि अतिक्रान्तानि । अनन्तरं चातिक्रान्तं चन्द्रायणं द-| प्रा०४ पाद । किणं,सम्प्रति वर्तते उत्तरं चन्द्रायणम,तस्य च त्रयोदश दिव-अर--अर--पुं० । न0 । ऋ-अन् । चक्रनानिनेम्योर्मध्यस्थे काष्ठे, साश्चतुर्दशस्य च दिवसस्य पञ्चदश सप्तपष्ठिभागा दश- | शीघ्र च । वाच0 1 0। सर्वोत्तमे महासत्त्व-कुले यसपजायते। म्यां समाप्तायां भविष्यन्तीति । एवमन्यदपि भावनीयमिति ॥ तस्याभिवष्ये वृद्ध-रसावर उदाहृतः"॥१॥ इति वचनाद-अरः। ज्यो० ११ पाहु। चं० प्र०ासू० प्र०। तथा गर्नस्थेऽस्मिन् जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरो रष्ठ इति श्रयपाद (य)-प्रयःपात्र-न । लोहपात्रे," अयपादाणि अरः। ध०२ अधि०। जम्बूडीपेनरतक्षेत्रे वर्तमानायामवसर्पिघा तंबपादाणि वा" प्राचा०२ श्रु०६ म०६ उ०। एयां जाते सप्तमे चक्रवत्तिनि, स०। अष्टादशे तीर्थकरे, स० । आव० । ति० । स्था० । प्रव०। अयमग्ग-अजमार्ग-पुं०। द्रव्यमार्गभेदे,यत्र वस्त्येनाजेन गम्यते। तद्यथा-सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गतः ॥ सूत्र०१ २०११ म०॥ सुमिणे अरं महरिहं, पास जणणी अरो तम्हा ॥४॥ तत्थ सच्चे विसव्वुत्तमे कुले सुधिषिकरा एव जायंति,विसेसो अयत्रीहि-अजवीथि-स्त्री० । हस्तचित्रास्वातीविशास्त्राऽनुरा पुणो-(सुमिणो अरंमहरिदं ति ) गाहापच्चद्धं । गन्जगते माताए धापञ्चकरूपमहाग्रहचारविशेषमार्गे, स्थाएगा। सुमिणे सन्वरयणमयो प्राइसुंदरो बापमाणो जम्दा अरो अयसी-अतसी-स्त्री० । मालवकप्रसिद्ध धान्यविशेषे, (तीसी- | दिको तहा अरोति से णाम कतं ति गाथार्थः॥४॥ प्राव० २ अबसी)शा०५ अप्रिय० । प्रशाामा०मा मौला मन्त०।। भ०। मा० चू०। Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर अन्निधानराजेन्द्रः । अरपरि (री) सह अरजिनचरित्रं त्वित्थम् अरई आउद्दे से मेहावी सागरंतं चश्त्ता णं, नरहं नरवरीसरो। . रमणं रतिस्तदभावोऽरतिः,तां पञ्चविधाचारविषयां मोहोदयाअरो य अरयं पत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४० ॥ कषायाभिष्वङ्गजनितां मातापितृकलत्राथापितां, (स इति) च पुनः, अरो परनामा नरवरेश्वरः सप्तमचक्री सागरान्तं स. श्ररतिमान्, मेधावी विदितासारसंसारस्वभावः सन्, आवर्तेत मुखात भरतकेत्र षट्स्व एडराज्यं त्यक्त्वा अरजस्त्वं प्राप्तः सन् | निवर्तयेदियुक्तं भवति । संयमे चारतिर्न विषयाजिवामृते, अनुत्तरां गति सिरूगति प्राप्तः,मोकंगत इत्यर्थः। चक्रीभूत्वानी- कण्डरीकस्येव; इत्यत इदमुक्तं जवति-विषयाभिष्य के रति थैकरपदं शुक्त्वा मोकं गत इत्यर्थः। अत्र अरनाथदृष्टान्तः।- निवतेत । निवर्तनं चैत्रमुपजायते-यदि दशविधचक्रवालसारनाथवृत्तान्तस्तूत्तराध्ययनवृत्तिद्वयेऽपि नास्ति, तथापि प्रन्या- माचारीविषया रतिरुत्पद्यते, पौण्डरीकस्ययोत, ततश्चेदमन्तराल्लिख्यते-प्राग्विदेहविनूषणे मङ्गलावतीविजये रत्नसश्चया प्युक्तं नवति-संयमे रतिं कुर्वीत, तद्विहितरतेस्तु न किधिपुरी अस्ति । तत्र महीपालनामा भूपासोऽस्ति स्म, प्राज्यं द्वाधायै नापीहापरसुखोत्तरवुद्धिरिति । आह चराज्यं तुझे स्म । अन्यदा गुरुमुखाद्धर्म श्रुत्वा स बैराग्यमागतः, "वितितलशयनं वा प्रान्तभिक्का ऽशनं वा, स तृणमिव राज्यं त्यक्त्वा दीका ललौ । गुर्वन्तिके एकादशाङ्गानि सहजपरिजवो वा नीचदुर्भाषितं वा। अधीत्य गीतार्थों बभूव । बहुवत्सरकोटीः स संयममाराध्य महति फलविशेषे नित्यमभ्युद्यतानां, विशुरुविंशतिस्थानकैरईनामकर्म बबन्ध । ततो मृत्वा स न मनसि न शरीरे दुःखमुत्पादयन्ति"॥१॥ थिसिद्धविमाने देवो बभूव । ततश्च्युत्त्वाह भरतक्षेत्रे हस्ति " तणसंथारणिसम्मो, वि मुणिवरोजहरागमयमोहो। नागपुरे सुदर्शननामा नृपो बभूव ! तस्य राशी देवीनाम्नी ब जं पावर मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्कवट्टी वि"॥१॥ आचा० १ भूव । तस्याः कुक्कौ सोऽवततार । तदानी रेवतीनवत्र बनूव । भु०१०१०। तया चतुर्दश स्वमा रष्टाः। ततः पूर्णेषु मासेषु रेवतीनको तस्य "बरच बोसिरे" अरति चानभिमतकेत्रादिविषयां व्युजन्म बज्व । जन्मोत्सवस्तदा षट्पश्चाशदिक्कुमारिकाभिः | सजामि । आतु। चतुष्पष्टिसुरेन्बैनिर्मितः,ततः सुदर्शनराजाऽपि स्वपुत्रस्य जन्मो. सर्व विशेषाञ्चकार । अस्मिन् गर्जगते मात्रा प्रौढो रत्नमयोऽरः अरकम्म-अरतिकर्मन्-न० । नोकषायवेदनीयकर्मदे, यदुदस्वप्ने दृष्टः। ततः पित्राऽस्य 'भर' इति नाम कृतम् । देवपरि यात् सचित्ताचित्तेषु बाह्यमव्येषु जीवस्यारतिरुत्पद्यते । वृतः स वयसा गुणैश्च बढ़ते स्म । एकविंशतिसहस्रवर्षेषु भर स्था०९ग०। कुमारस्य पित्रा राज्यं दत्तम,एकविंशतिवर्षसहस्राणि यावरूाज्यं अरश्कारग-अरतिकारक-त्रि०। भरतिजनके, दश०१०। तुक्तवतः तस्य शस्त्रकोशे चकरवं समुत्पन्न, ततो भरतं संसा-अरपरि (री) सह-अरतिपरि (री) पह-पुं०ारमणं रतिः ध्य एकविंशतिसहस्रवर्षाणि यावशक्रवर्तित्वं बुचजे । ततः स्वा संयमविपया धृतिः, तद्विपरीतात्वरतिः, सैव परीषहः, परमी स्वयं वुलोअप लोकान्तिकदेवबोधितो वार्षिकं दानं दत्वा | तिपरीवहः । उत्त० २ १० । अरतिर्मोदनीयजो मनोविकारः, चतुःषष्टिसुरेन्सेवितो वैजयन्त्याख्यां शिविकामारुढः सहस्रा साच परीषदः, तनिषेधनेन सहनादिति । भ०८ श० ८ उ०। नवणे सहनराजनिः समं प्रवाजितः । ततश्चतुर्सानी असौ त्री बिहरतस्तिष्ठतो वा यद्यरतिरुत्पद्यते तत्रोत्पन्नारतिनाऽपि स. णि वर्षाणि छमस्थो विहत्य पुनः सहस्राम्रवणे प्राप्तः। तत्र शु म्यग्धर्मारामरतेनैव संसारजावमालोच्य भवितव्यम् । परीभ्यानेन वस्तपापकारः केवलज्ञानं प्राप । ततः सुरैः पहभेदे, आव० ४ ०। समवसरणे कृते स्वामी योजनगामिना शब्दन देशनां चका "गच्छस्तिष्ठनिषसो वा, नारतिप्रवणो भवेत् । राते देशनां भुत्वा केऽपि सुश्रावका जाताः, केऽपि च प्रत्र धर्मारामरतो नित्यं, स्वस्थचेता नवेन्मुनिः"॥२॥भा०म०द्वि० जिताः । तदानी कुम्भनूपः प्रवज्य प्रथमो गणधरो जातः।। न कदाऽप्यरतिं कुर्याद्, धर्मारामरतियतिः। अरनाथस्य षष्टिसहस्राः साधवो जाताः, साध्व्यः स्वामि गच्छस्तिस्तथाऽऽसीनः, स्वास्थ्यमेव समाश्रयेत् "॥१॥ नस्तावत्प्रमाणा एव जाताः । श्रावकाश्चतुरशीतिसहमाधि ध०३ अधि०। कलकत्रयमाना बभूवुः । सम्मेतशैलशिखरे मासिकाऽनशनेन भ __ अरतिपरीषहमाहगवानिवृतः । देवैनिर्वाणोत्सवो भृशं कृतः ॥ उत्त०१८ अ०। "अरेण परदा तीसं धणू उर्छ उच्चत्तेणं होत्था"।स०३० गामाणुगाम रीयंत, अणगारं अकिंचणं । समाकल्प० । अग्नौ, जै० गा०। ( अस्यान्तरं 'अंतर' शब्द. अरई अप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं ॥ १४ ॥ अस्मिन्नेव भागे ६६ पृष्ठे प्रदर्शितम् ) प्रामसत्रम्-असते बुख्यादीन गुणानिति प्रामः। सच जिगमिषिभरइ-अरति-स्त्री० । रमणं रतिः-संयमविषया धृतिः, तद्धि तः,अनुग्रामश्च तन्मार्गानुकूल, अननुकूलगमने प्रयोजनानावापरीता स्वरतिः।उत्त०२ असंयमविषयेऽधैर्य, उत्त०१०।सं. त्, मामानुग्रामम् । यद्वा-ग्रामश्च स एव लघुग्रामश्च तम् । अथवा यमोद्विग्नतायाम्, आचा०१श्रु०६ १०३ उ० । उद्वेगलक- प्रामानुग्राममिति रूढिशब्दत्वादेकस्माद् प्रामादन्योऽनुग्रामः । णे मोहनीयोदयजे चित्तविकारे, स्था०१ ठा० १ उ० । सूत्र। ततोऽपि प्रामानुग्राममुच्यते । नगरायुपलक्षणमेतत-ततो नगदश दशा० । वातादिजन्ये चित्तोवेगे, उत्त०११ अ० । अ- रादींश्च किमित्याह-(यंत ति) व्यत्ययाद्रीयमाणं विहरन्तम, मनोभेषु शब्दादिविषयेषु संयमे वा जीवस्य चित्तोद्वेगे, बृ० अनगारमुक्तस्वरूपम, अकिञ्चनं नास्य किश्चन प्रतिबन्धास्पदं १ उ०। सूत्र० । अनिष्टसंप्रयोगसंनवे मनोदुःखे, प्रव०४१ धनकनकाद्यस्तीत्यकिञ्चनो निष्परिग्रहः, तथा नृतम,अरतिरुक्तद्वार । इष्टप्राप्तिविनाशोत्थे मानसे विकारे, श्राचा० १७०३| रूपा, अनुप्रविशेन्मनसि लब्धाऽऽस्पदा भवेत् , (तमिति) भरतिअ०१० सूत्र०स०। | स्वरूपं, तितिक्तत् सहेत, परीषहमिति सूत्रार्थः। Jain Education Interational Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) अरइपरि (री)सह अनिधानराजेन्द्रः। अरश्मोहणिज्ज तत्सहनोपायमेवाऽऽह धाम्रदोहवः समुत्पनो मूकेन पूर्वोक्तरीत्या पूरितः।पुत्रो जातः। मूः अरई पिट्ठभो किच्चा, विरए आयरक्खिए । कस्तु तं बालं बघुमपि करे कृत्वा देवान् साधूंध बन्दापयति, धम्मारामे निरारंभे, वसंते मुणी चरे ॥१५॥ परं स दुर्सभबोधित्वेन तान् दृष्टा रटति । एषमावासकामावपि भृशं प्रतिबोधितोऽपि स न बुध्यते। ततो मृका प्रवाजितो गतः भरति पृष्ठतः कृत्वा विरतो हिंसादेः, आत्मा रक्तितो पुति-| स्वर्गम । अथ देवीभतेन सकजीवेन स नबोधिस देतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरविता, प्रायो वा ज्ञानादिलाभो र बोधिकृते जलोदरब्यथावान् कृतः। वैद्यरूपं कृत्वा देवेन उक्तकितोऽनेनत्यायरक्षितः, धर्मे प्रारमते रतिमान् स्यात् इति ध.| अहं सर्वरोगोपशमं करोमि। जलोदरी वाक्ति-मम जसोदरोपणाआरामः । यद्वा-धर्म एवानन्दहेतुतया पाल्यतया वाऽऽरामो ध-म्ति कुरु।वैयेनोक्तम्-तवासाध्योऽयं रोगः, तथाऽप्यई प्रतीकार मारामः, तत्र स्थितः, निरारम्भ उपशान्त एवंविधो मुनिश्चरेत् करोमि,यदि मम पृष्ठे औषधकोत्थानकं समुत्पाट्य मयैव सहाग. संयमाध्यनि, न पुनरुत्पन्नारतिरपध्यानेच्छः स्यात् ॥ १५ ॥ मिप्यसि।तेनोक्तम्-एवं भवतु। ततो वैद्येन स जलोदरी सजीअत्र पुरोहितराजपुत्रयोः कथा। यथा-अचनपुरे जितशत्रुनूपपुत्रः कृतः समाधिभाग जातः। ततस्तस्योत्पाटनाय औषधकोत्थलकअपराजितनामा रोहाचार्यपार्श्वे दीक्विता, अन्यदा विदरन् सग- स्तन दत्तः। स तत्पृष्ठे चमन् तं कोत्थरकमुत्पाटयति । देवमायरांनगरी गतः, तावता उज्जयिन्या आर्यरोहाचार्यशिप्यास्तन्ना- या स कोत्थलकोप्रतिनारवान् जातः, तमतिनारं बहन स गताः । पृष्टं साधुना तेन उज्जयिन्याः स्वरूपमा तैरुक्तम्-सर्व तन्न निधति, परंतमुत्सृज्य पश्चाफन्तुं न शक्नोति, मा नृत्पश्चातवरम, परं नृपपुनामात्यपुसौ साधूनुद्वेजयतः। ततो गुरूनापृच्छध स्य मे पुनर्जलोदरल्ययेति विमर्श कुर्वन् वैद्यस्यैव पृष्ठे कोत्यस्वभ्रातृव्यबोधार्थ शीघ्रमुज्जयिन्यां गतः,तत्र भिकावेझायां सोकै- सकं वहन् चमति । एकदा एकस्मिन् देशे स्वाध्यायं कुर्वन्तः साार्यमाणोऽपि वाढस्वरेण 'धर्मलाभ' इति पठन् राजकुसे प्र- धवो दृष्टाः। तत्र तौ गतौ । वैद्यनोक्तम्-रवं दीकायदा गृढीप्यास, विष्टः, राजपुत्राध्मात्यपुत्राभ्यां सोपहासमाकारितः । अत्राग- तदा त्वां मुञ्चामि । स प्रारजम्नो वक्ति-गृहीच्याम्येव । ततो वैचत, वन्द्यते । ततः स गतः । तान्यां उक्तम्-वत्सि नर्ति- घेन अस्य दीक्षा दापिता। देवे च स्वस्थानं गते तेन दीका तुम् । तेनोक्तम्-वाढम, परं युवां वादयतं; तौ तारशं वाद- परित्यक्ता । देवेन पुनरपि तथैव जलोदरं कृत्वा वैद्यरूपधरेण पु. यितुं न जानीतः ततस्तेन तथा तौ कुहिती पृथककृत- नरसौ दीक्षां ग्राहितः । पुनर्गते च देवे तेन दीका त्यक्ता । तृ. हस्तपादादिसन्धिबन्धनौ, यथा अत्यन्तमारार्टि कुरुतः । तौ तीयवारं दीको दापयित्वा वैद्यरूपो देवः साई तिष्ठति स्थिरी. ताशावेव मुक्त्वा साधुरुपाश्रये समायातः। ततो राजा सर्वच- करणाय।एकदा तृणभारं गृहीत्वा स देवः प्रज्ज्वलनामे प्रविलेन तत्राऽऽयातः,तमुपलक्ष्य प्रसादनाय तस्य पादयोः पपास। शति । ततस्तेन साधुनोक्तम-ज्वलात प्रामे कथं प्रविशासि । उवाच-स्वामिन् ! सापराधावपि इमो सजीकार्यो, अतः परम- देवेनोक्तम्-स्वमपि क्रोधमानमायामोनः प्रज्वलिते गृहवापराधं न करिष्यतः। साधुनोक्तम्-यदीमा प्रवजतस्तदा मुञ्चा- | से वार्यमाणोऽपि पुनः पुनः कथं प्रविशसि ? । वैद्यरूपेण मि । राज्ञोक्तम्-एवमप्यस्तु । ततस्तौ प्रथमं लोचं कृत्वा प्रवा- देवेनैवमुक्तोऽपि सन बुध्यते । अन्यदा तौ अटव्यां गतौ । देवः जितौ, तत्र राजपुत्रो निःशङ्कितो धर्म करोति, तिरस्तु अमर्ष कण्टकाकुले मागें चरति । स प्राह-कस्मादुन्मार्गेण यासि । वहति, अहं बलेन प्रवाजित इति चेतस्योद्वगं वहति । परं पाल- देवेनोक्तम्-त्वमपि विशुद्धं निर्म संयममार्ग परित्यज्य प्राधियित्वा द्वावपि चारित्रं शुद्ध मृत्वा तौ दिवं गतौ । अस्मिन्नवसरे व्याधिरूपे कएटकाकोणे संसारमागे कस्माद् यासि ?। एवं देवेकौशामन्यां तापसश्रेष्ठी मृत्वा स्वगृहे शूकरो जातः,तत्र जातिस्मर- नोक्तोऽपिस न बुध्यते। पुनरकस्मिन् देवकुले ती गती। तत्र यक णं प्राप्तवान्, सर्व स्वसुतादिकुटुम्ब प्रत्यभिजानाति परं वक्तुंन ईप्सितपूजापूज्यमानोअप पुनः पुनरधोमुखः पतति। स कथयतिकिश्चित शक्नोति स्म । अन्यदा सुतैरेष शूकरो मारितः, ततः स्व- अहो! यज्ञस्य अधमत्वं, यत्पूज्यमानोऽप्ययमधोमुखः पतति । दे. गृह एव सर्पोजातः। तत्रापिजातिस्मरणवान्, पुनस्तैरव मारितः, वेनोक्तम्-त्वमप्येतारशोऽधमः,यद्वन्धमानः पूज्यमानोऽपि त्वं पुन: ततः पुत्रपुत्रो जातः। तत्रापि जातिस्मरणमापास एवं चिन्तयति. पुनः पतसि।ततःस साधुर्वक्ति-कस्त्वम् । देवेन मूकस्वरूपं दकथमेतां पूर्वनववधूंमातरमहमुल्लपामि, कथं चेमं पूर्वभवपुत्रं पि- र्शितं, पूर्वभवसम्बन्धश्च कथितः। स वक्ति-पत्र का प्रत्ययः। तरमहमुखपामिः,इति विचार्य मौनमाश्रितो मूकवतभाग जाता। ततो वैताब्ये चैत्यवन्दापनार्थ देवेनाऽसौ प्रापितः। तत्रैकस्मिन् अन्यदा केनचित् चतुर्कानिना तद्बोधं ज्ञात्वा स्वाशष्ययोमुखात् | सिकायतनकोणे ऽसंजबोधिदेवेन स्वबोधाय मूकविदितं स्वगाथा प्रेषिता-"तावस!किमिणा मृत्र-व्वएण पडिवज जाणिअं कुएम्लयुगलं स्थापितमनूत् । तत्तदानीं दर्शितं, ततस्तस्य धम्मामरिऊणसूअरोरग-जाओ पुत्तस्स पुत्तत्ति"॥१॥एतांगाथां जातिस्मरणं जातं, तेनाऽस्य चारित्रे रढताऽनत् । अस्य पूर्वभुत्वा प्रतिबुकोगुरूणां सुश्रावकोऽभूत् । पतस्मिन्नवसरे सोड- मरतिः, पश्चादू रतिः। उत्त०१०। मात्यपुत्रजीवदेवो महाविदेहे तीर्थङ्करसमीपे पृच्छति-जगवन् ! अरपरि(री)सहविजय-अरतिपरि (री) षहविजय-पुं०।अरकिमहं सुलभबोधिनयोधर्वा ?, ति प्रश्ने प्रोक्तं तीर्थकरेण-वं दुर्लभबोधिः कौशाम्म्यांमूकभ्राता भावी' इति लब्धोत्तरः तिपरित्यजने, पं० सं०। सूत्रोपदेशतो विहरतस्तिष्ठतो वा कस सुरोगतो मूकपावें । तस्य बहुपव्यं दत्त्वा प्रोक्तवान् यदाऽहं दाचनापि यद्यरतिरुत्पद्यते तदाऽपि स्वाध्यायध्यानन्नायनारूप धर्मारामरतत्वेन यदरतिपरित्यजनं सोऽरतिपरिषदविजयः । स्वन्मातुरुदरे उत्पत्स्ये तदा तस्या आम्रदोहदो भविष्यति, स दोहदः साम्प्रतं मदर्शितैः सदाफलाम्रफोस्त्वया तदानीं पं० सं०४ द्वार। तस्याः पूर्णीकार्यः । पुनस्त्वया तथाविधेयं यथा तदानी अरइमोहणिज्ज-अरतिमाहेनीय-नानोकषायभेदे,यदुदयामम धर्मप्राप्तिः स्यात, एवमुक्त्वा गतो देवः। अन्यदा। सनिमित्तमानिमित्तं वा जीवस्य बाह्यान्यन्तरेषु वस्तुष्वप्रीतिदेवलोकात् व्युत्त्वा स देवस्तस्या गर्भे समुत्पन्नः, तस्या- नवति । कर्म०१ कर्म० । Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरंइरह अभिधानराजेन्द्रः । अरहंत भरभर-भरतिरति-स्त्री० । मोहनीयोदयाचित्तोवेगोऽरतिः, | अरजम्-त्रि० । स्वाभाविकरजोरहिते, स० । कल्प० । प्रकाश रतिः मोहनीयोदयाच्चित्तप्राप्तिः । इति छन्दः । कल्प०६ रजोगुणकामक्रोधादिशून्ये , धूलीशून्ये च । वाच० । त्रयःसप्तक० । रत्यरत्योद्धे, “एगा भरतिरती " | अरतिश्च तितमे महाग्रह, 'दो अरया" स्था०२० ३ उ०। चं० तन्मोहनीयोदयजश्चित्तविकार उद्वेगनक्कणः, रतिश्च तथा- प्र० कल्प० । सू०प्र० । ब्रह्मलोकस्थविमानप्रस्तटभेदे, न०। विधानन्दरूपा%; अरतिराति श्त्येकमेव विवक्षितम् , यतः स्था० ६ ग०। कुमुदविजयस्थराजधान्याम, "कुमुदे विजये कचन विषये या रतिस्तामेव विषयान्तरापेकया परति व्यपदि- अरजाराजधानी"जं०४ वक्कारजसोऽभावे (अव्य० न०) शन्ति, एवमरतिमेव रतिम, श्त्यौपचारिकमेकत्वमनयोरस्तीति। उत्त०१८ म०। (समा० स० न०) रत्यरत्योरेकतायाम, स्था० १ ग०१००। श्ररत-त्रि० । प्रारम्भनिवृत्ते, निर्ममत्वे च । आचा१श्रु०५ भरइसह-अरतिरतिसह-पुं० । अरतिरती सहते इत्यरति अ०३० । सूत्र। रतिसहः । रत्यरत्योहर्षविषादावकुर्वाणे, कल्प०५०। भरयंबरवत्थधर-अरजोऽम्बरवस्खधर-त्रि०। अरजांसि रजो. अरइसमावएणचित्त-अरतिसमापनचित्त-त्रि० । संयमे रहे। रहितानि च तानि अम्बरवस्त्राणि स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवगगताभिप्राये, दश० १ चू। सनान्यरजोऽम्बरवस्त्राणि, तानि धारयतीति यः स तथा । अरंजर-अरजर--न० । लजरमिति प्रसिद्ध उदककुम्ने, स्थान तथाविधवस्त्रधारके देवादी, भ०३श०२१० । उस०। प्रग। शा० । । अरक्खरी-(अरक्षापुरी)-स्त्री०।चन्द्रध्वजनृपपलिते स्वनामख्या- परयणि-अरनि-पुं० । वितताङ्गसौ करे, स्था०४ ग०४ उ ते प्रत्यन्तनगरे, “ततः प्रत्यन्तनगरे,अरक्वरीति नामनि। अस्ति | अरविंद-अरविन्द-न० । पद्मविशेषे [ कमले, ] श्रा० म०प्र० मारामलिकस्तत्र, जिनचन्द्रध्वजाभिधः" ॥ १४ ॥ प्रा०क० । प्रका"पुप्फेसुवा अरविंदं पहाणं"। सूत्र०१ श्रु०६ अास्था। मा०चू० । आव०। भरगाउत्त-अरकायुक्त--त्रि० । अरकैरभिविधिनाऽन्विते,भ०३ अरस-अरस-न० । अविद्यमानाहायरसे हिङ्ग्वादिभिरसं स्कृते, प्रभ०५ सम्बद्वा०। अप्राप्तरसे, द०५ ०२०। श०१ उ०। का० भ०।ौ०। अरगानत्तासिय--अरकोत्रासित-त्रि० । अरका उन्नासिता | अरसजीवि (ए)-अरसजीविन्-पुं० अरसेन जीवितुं शीमास्फालिता यत्र । आस्फालिताऽरके, भ० ३ श० १ उ०। लमाजन्माअप यस्य स तथा । अरसाऽऽहारे, स्था० ५ ग. अरज्जुयपास-रज्जुकपाश-पुं०। रज्जुकं विना बन्धने, तं०।। भरक्रिय-अहित-त्रि० । निरन्तरे , “राज्झयाभितावा अरसाल-अरसाल-त्रि. विरसे, 'अरसासं पि भोयणं सुनं तहषी तर्विति" अराहतो निरन्तरोऽनितापो दाहो येषां तेऽर-| गंधजुत्तं"नि चू०२ उ०। हिताभितापासूत्र०१श्रु०५१०१उ०। भराणि-भराण-पुं० । अन्यथै निर्मन्थनीयकाष्ठे, नि० ३ वर्ग। अरसाहार-अरसाहार-पुं० अरसं दिवादिभिरसंस्कृतमाहाविशे० । आव० । झा । “ अरणि महिऊण अग्गि पामेश" रयन्तीति भरसो वाहारो यस्यासापरसाहारः। तथाविधाप्रा० म०वि० । “अस्थि गं घाणसहगया अरणिसहगया"। भिग्रहविशेषधारके, स्था० ५ ठा०१ उ० न० श्री० । अरणिरम्यर्थ निर्मन्थनीयकाष्ठं तेन सह गतो यः स तथा । अरह-अरहम-पुं० । न विद्यते रह एकान्तो गोप्यमस्य, सकलभ० २५ श० ८ ०। सनिहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वात,श्त्यभरणिया-अरणिका-स्त्री० । स्कन्धबीजवनस्पतिभेदे, प्रा रहा। स्था०४०१ उ० । न विद्यते रहो विजनं यस्य सर्व रुत्वादसावरहा। स्था०६ ठा० । चा० १ ० १ ० ५ उ०। भरण-अरण्य-न०। कान्तारे, स्था०१ग०१3०1 उत्त०। अर्हत-पुं० । अशोकाद्यष्टमहाप्रांतिहार्यादिरूपां पूजामतीयभाव । निर्जने, अष्ट० ४ अष्ट० । वने, उत्त०१४ मा ईन् । पा० कल्पना स्थानसा अशोकादिप्रातिहार्यपूजाभरपवर्मिसग-अरण्यावतंसक-न० । एकादशदेवसोकवि-- योग्ये, कल्प०६० | सूत्र०। इन्छादिनिःपूज्ये,उत्त०६०। मानन्नेदे, स. १२ सम । तीर्थकृति, सूत्र०१७०६ अ० । जिन, स्था० ३ ठा०४ उ०। "तो परहा पम्पत्ता। तं जड़ा-मोहिनाणभरहा, मणपज्जवभरत-रक्त-त्रिका रागरहिते, प्राचा०१ श्रु०३ १०२०। णाणभरहा, केवलणाणअरहा" । स्था० ३ ग० ४ उ० । भरतमुट्ठ-अरक्तद्विष्ट-न० । रागद्वेषरहिते, दर्शाध००। |अरहंत-अर (र) हत-पुं० । अर्हन्ति देवादिकृतां पूजापरय-अरक-पुं० । अवसर्पिएयुत्सर्पिणीलकणस्य कासचक्रस्य मित्यहन्तः । अथवा नास्ति रहः प्रच्छन्नं किञ्चिदपि येषां सुषमसुषमाऽदिरूपे द्वादशे जागे,तिका अरशब्दार्थे,प्राथमद्विका | प्रत्यकझानित्वात्तेऽरहन्तः शेष प्राग्ववत्। पते च सलेश्या अपि भरकाणां परस्परसारश्यं यथा-" कुरुगि हरिरम्मयदुगि, भवन्तीति । स्था०३०४ उ०। अमरवरनिर्मिताऽशोकादिहेमबएरवगि विदेहे ॥ कमसो सयाऽवसप्पिणि, अरय- | महाप्रातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यर्दन्तः । अविद्यमानरहस्येषु, चनका समकासो" ॥१०८ ॥ लघुक्केत्रसमासप्रकरणे। अनु० । दशा १०। पं० स०। Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५६) अरहंत भनिधानराजेन्डः । । अरहमय अरहते सिके पायरिए उवज्झाए साहवो जत्था एएसिं नैच्चन्मामेघ नचिका-णीवते न त्वक्षत ॥७॥ चेव गन्नत्थसम्भावो इमो । तं जहा-सनरामरासुरस्स एं| समानवयसोऽवोचन, इसन्तस्तं च साधवः। स्वमईन्मित्र! धन्योऽसि, यच्छनीमर्कटीप्रियः ॥८॥ सव्वस्सेव जगस्स अट्टमहापाडिहाराए पूयाए समोक्नक्खियं अन्यदा क्रमणाचं जलवाहं विलचितुम । अणनसरिसमचिंतमाहप्पं केवलाहिट्टियं पवरुनमत्तं ॥ प्रमादातिन्जेदन, पदं प्रासारयन्मुनिः ॥ ७॥ (अरहते त्ति ) अरहंता असेसम्मक्खएणं णिहजवकुर- | तस्य तच्चिसमासाद्य, सा चिच्छेदाडिमरुतः। सानो न पुणो हिजवंति, जम्मंति, उववरजति था, परहंता स मिथ्यापुस्कृतं जल्प-अपतत्तजनादहिः॥१०॥ घा णिम्मदियनियनिद्दलियविल्लुयनिछवियअनित्यसुदुज्जा- सम्यग्दृष्टिः सुरी तां च, निर्धाट्य तं मुनेः क्रमम । या ॥ महा० ३ ० । श्रा० । प्रवादश० । त्रिभुवनपूजा- तथैवालगय भूयो, देवताऽतिशयेन च ॥११॥ ग०२ अधिक योग्येषु तीर्थकरेषु ऋषभादिषु, कल्प०१ १०। आजीवि- श्रा० म०। प्रा० चू०। ककल्पनया गोशालकोऽप्यहिन ,अत एव तेऽर्हदेवताका श्त्युच्य- अरहनक-पुं० । तारानग-मर्दन्मित्राचार्यपाश्ये प्रवजितया न्ते । “भरहंतदेवयागा" गोशालकस्य तत्कल्पनयाऽईत्वात्। भ० श०५ उ० । “जो जाणइ अरहंते, दन्वत्तगुणत्तपज्जव दत्तवणिग्भार्यया सह प्रवजिते पुत्रे, उत्त०२ अ०॥ (स चोष्णपरी षहमसहमान उत्प्रवजित इति'उण्हपरीसह' शब्दे द्वितीयभागे तेहि। सो जाण अप्पाणं,मोहोखलु जाइ तस्स लयं" ॥शानं०। ७५४ पृष्ठे वक्ष्यते) चम्पानगरीवासिनि देवदत्तएकलयुगलं अरहोऽन्तर-न० । अविद्यमान रह एकान्तरूपो देशोऽन्त मदीनाथाय समर्पके स्वनामख्याते सांयात्रिकवणिजि, का। श्व मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोन्तरः । अहम जिनेषु, __ अन्नककथाभ०२ श०१ उ०। तत्थ णं चंपाए एयरीए अरहणयपामोक्खा बहवे संजत्ता प्ररथान्त-पुं० । अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिप्रहो णावावाणियगा परिवसंति अठा जाव अपरिभूया । तए पलकणभूतः, अन्तश्च विनाशो जरायुपलकणभूतो येषां तेऽर णं से अरहएणगे समणोवासगे यावि होत्था श्रनिगयथान्ताः । ज०१२०१ उ०। जीवाजीवे । वएणो -तए णं तेसिं अरहलगपामोक्खाणं अरहयत-पुं०। कचिदप्यासक्तिमगच्चत्सुक्षीणरागत्वात्प्रकृष्ट- संजत्तानावावाणियगाणं अण्ण या कयाइं एगोसहियारागादिहेतुनूतमनोभेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्व- णं इमेया रूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जेत्था । सेयं वसु भावमत्यजत्सु जिनेषु, भ०१श०१०। अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज चमगं अरहंतमग्गगामि (ए)-अहेन्मार्गगामिन्-त्रि० । अर्हपदि-| गहाय लवणसमुदं पोयवहणेण उवगाहित्तए त्ति कट्ट अप्सऐन मागेण गन्तुं शीलं यस्य । जैने साधौ, “अरहंतमम्गगा मएएस्स एयमढे पमिसुणेति, पमिसुणेइत्ता गरिशमं च । मी, दितो साहुणो वि समचित्ता । पागरपसु गिहासुं, पसंते। अवहमाणा उ" ॥ १५१ ॥ दश०१ श्रा। गिरहेइ, गिएहेश्त्ता सगडी-सागर्म सज्जति, सज्जेतिया अरहतलछि-अहबन्धि-स्त्री० । लब्धिनेदे, ययाऽईत्वं स गणिमस्स व भंमस्स सगड़ी-सागमिय नरोति, भरना मवानोति । प्रव०२७० द्वार । सोहपसि तिहिकरणणखत्तमुदुत्तसि विउसं असणं पाणं अरहट्ट-अरघट्ट-पुं० । घटीयन्त्रे, “ जम्मणमरणारहहे, खाइमं साइमं जवक्खमावेइ, उवक्खमावेत्ता मित्तणाइनोनित्तण भवा विमुश्चिदिसि" प्रानु । आव०॥ अणवेलाए जुजावेति जाव प्रापुच्छेति, मापुच्छेदत्ता गअरहप्पय-अरहन्नत-पुं० । अर्हन्मित्रभ्रातरि,ग। णिमस्स ४ जाव सगडी-सागडिय जोयंति, जोयंतित्ता चंतवृत्तं चेत्थम् पाए णयरीए मऊ मज्केणं णिग्गच्छेति, णिग्गच्छेश्त्ता क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं द्वौ तत्र सोदरौ। जेणेव गंजीरपोयपट्टाए, तेणेव उवागच्छति, उवागच्चअर्ड नतोऽहन्मित्रश्च, ज्येष्टभार्या लघौ रता ॥१॥ इत्ता सगमी-सागडियं मोयंति, पोयवहणं सज्जति, सजे. लघुर्नेति तां चाऽऽह, भ्रातरं मे न पश्यसि । इत्सा गणिमस्स ४ जाव चवहस्स भमस्स जरंति, तंपर्ति व्यापाद्य सा भूय-स्तमूचे न स्वमस्त सः ॥१॥ दुलाण य समियस्स य तेबस्स य घयस्स य गुलस्स य निर्वेदेनाऽथ तनैत्र, स लघुर्वतमाददे। गोरसस्स य उदगस्स य भायाणाण य ओसहाण य भेसजातद्रक्ता साऽपि मृत्वाऽभूद्, प्रामे काप्यर्तितः शुनी ॥३॥ साधवोऽपि ययुस्तत्र, शुन्याऽदर्शि मुनिः स च । ण य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य तदैवाऽऽगत्य सा लषं, मुहुर्भतुरिवाऽकरोत् ॥ ४॥ अण्णसिं च बहूणं पायवहण पाउगाणं दवाणं पोयवहणं नष्टः साधुर्मृता साऽथ, जाताऽटयां च मर्कटी। भरोत, नरेइत्ता सोहणंसि तिहिकरणणखत्तमुहुत्तं सिविंतस्या एव च मध्येना-5टव्या यातां कथञ्चन ॥५॥ उलं असणं पाणं खाइमं सामं उवक्खमावति, मित्तणाई अन्तर्मुनीनां तं वीक्ष्य, प्रेम्णा शिश्लेष मर्कटी। तां बिमोच्याऽथ कष्टेन, स कथश्चित्पलायितः॥६॥ पापुच्छति, जेणेव पायवाणे, तेणेव उवागच्छति, नवागमृत्वा तत्रापि सा जश, यक्की तं प्रेक्ष्य सावधेः। चतित्ता तए णं तेसिं अरहणगपामोक्खाणं वाषियगाणं Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५७) अरहालय अनिधानराजेन्दः। प्ररहमय ते परियणोजाव ताहिं शहाहिं कंताहिं० जाव वग्गहिंध लंबोटं धवलवट्टअसिसिहतिक्खथिरपीणकुमिलदाढावगूभिणंदता य अभिसंधुयमाणा य एवं वयासी-अजवाय! | ढवयणं विकोसियधारासिजुयन्त्रसमसरिसतायचंचलगभाय ! माजल!नाइणेज! जगवया समुद्देणं अभिरक्खि- लंतरसलोलचवलफुरफुरंतनिवालियग्गजीई अवयस्थि ज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च जे पुणरवि लछडे कयक- महतविगयबीभच्चसालापगलंतरचताबुयं हिंगुलयसगज्जे अणहसमग्गे णियगं घरं हव्वमागए पासामो त्ति म्भकंदरविलं च अंजणगिरिस्स अग्गिजालुग्गिलंतवयणं कहु ताहिं सोमाहिं णिकाहिं दीहाहिं सपिवासाहिं आउसियअक्खचम्मोहगंडदेस चीणचिविमवंकभग्गणासं पप्पुयाहिं दिट्टीहिं णिरिक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिटुंति, रोतागयधमधमंतमारुयनिफुरखरफरुसमुसिरउन्नुग्गणासियपुतो समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेमु दिप्मेसु सरसरत्तचंद- ई घाइन्नडरक्ष्यभीसणमुहं उसमुहकप्पसकुलियमहंतणदहरपंचंगुलितलेसु अणुक्खित्तसि धूवंसि पुइएसु समु-| विगयझोमसंखालगझंबंतचलियकामं पिंगलदिपंतलोअणं हवाएस संसारियासु वलयवाहासु कसिएस सिएस -1 भिउमितमिनिकालं परसिरमालपरिणदचिंधं विचित्तगोयग्गेस पमुप्पवाइएस तूरेसु जइएसु सव्वसउणेसु गहिरसु | एससुबकपरिकरं अवहोलंतफुप्फुयंतसप्पविच्चुयगोचुरायवरसासणेसु माहिया किसीहणायल जाव रवेणं दरणनलसरमविरइयविचित्तवेयच्छमालियागं जोगकुरकपक्खुभियमहासमुद्दरवजूयं पिव मेशणं करेमाणा एगदिसिं० मसप्पधमधमंतसंबंतकामपूरं मज्जारसियाललगियरर्वधं दिलं जाव वाणियगा पोयणेसु उरूढा तमो पुस्समाणको वकं समु- घुग्घुयंतघूयकयकुंभलसिरं घंटारवेण जीमनयंकरं कायरजदाहु । इभो! सव्वेसामवि भे अस्थासको उवट्ठियाई कहा- पहिययफोमणं दित्तमट्टहासं विणिमुयंत बसारुहिरपूयमंणाई, पडिहयाई मन्चपावाई, जुत्तो पुस्सो विजयमुहुत्तो अयं समलिणपोचडतणुं बच्चासणयं विसालवच्छं पेच्छतानिदेसकालो, तो पुस्समाणए णं वके उदाहरिए हहतु- मणहमुहणयणकम्पवरवग्यचित्तकित्तीणिवसणं सरसरुहे कामधारकुच्छिधारगन्भिज्जसंजत्ताणावावाणियगा वाव- हिरगयचम्मविततकसवियबाहुजुयलं ताहि य खरफरुसमरिंसु तंणावं पुष्पुच्छंगं पुएशमुहिं बंधणाहिंतो मुचंति ।। सिणिदित्तअणिअसुभअप्पियअकंतवम्गहि य तजतएणं सा णावा विमुकबंधणा पत्रणबलसमाहया ऊसि- यंत पासंति । तं तासपिसायरूवं एजमाणं पासति,पासइत्ता यसियपमा विततपक्खा इव गरुमंजुबई गंगासलिलति- भीया संजातनया अप्पमएणस्स कायं समतुरंगेमाणा बक्खसोयवेगेहिं संखुम्भमाणी संखन्भमाणी उम्मीतरंगमाला- हणं इंदाण य खंदाण य रुद्दसिववेसमणणागाणं नूयाण य सहस्साई समइकमाणी समइकमाणी कड़वएहिं अहोरचेहिं जक्खाण य अजकोहकिरियाण य बहणि उवयाइयसयाईणि सवणसमई मणेगाई जोयणसयाई प्रोगाढा । तए | जवचीयमाणा चिति ॥तए णं से अरहमा समणोवास तोसिं अरहएणगपामोक्खाणं वाणियगाणं लवणस- तं दिव्यं पिसायरूवं एजमाणं पासइ,पासत्ता अभीए अतत्थे मुई अणेगाई जोयणसयाई प्रोगाढाणं समाणाणं बहुई | अचलिए असंनंते अणाउले अम्बिग्गे अभिष्णमुहरागणयउप्पाइयसयाई पानन्नूयाई। तं जहा-अकाले गज्जिए णवले अदाणविमणमाणसे पोयवाहणास्स एगदेससि वत्थं अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे अभिक्खणं अनि- तेणं नूमि पमजेति,पमज्जपत्ता ठगणं गयति,गयइत्ता करनक्खणं आगासे देवतया गच्चंति । एगंच णं महं पिसायरूवं यजाव त्ति कटु एवं क्यासी-णमोत्यु णं अरिहंताणं. जाव पासंति-तालजंघं दिवंगयाई बाहाहिं मसिम्सगमहिसका- ठाणं संपत्ताणं जाणं अहं एत्तो उबसग्गओ मुंचामि तो मेकसगं भरियमेहवयं संबोडें णिग्गयग्गदंतं निद्वालियग्गजमन- प्पइ पारेत्तए,अहणं एत्तो जवसम्गतो ण मुंचामि,तो मे तहापजुअलजी पाऊसियवयणगंमदेसं चीणचिविमनासिगं वि- चक्खाएवं ति कह सागारभत्तं पञ्चक्खाइ । तए पं से गयजुग्गभमुहि खज्जोयगदित्तचक्खुरागं उत्तासणगं विसा- पिसायरूचे जेणेष अरहमए समणोवासए तेणेव नवालवच्च विसालकुच्छि पलंबकुकि पहसियपयलियपव- गच्छा, उबागच्छइत्ता मरहमगं समणोवासयं एवं बमियगत्तं पणच्चमाणं अप्फोमंतं अभिवग्गंतं अजिग्गजंतं यासी-डंभो अरहयगा ! अपत्थियपत्थिया.! जाव बहुसो बहुसो अट्टहासो विणिमुयंतं नीलुप्पलगवलगुलि-| परिवजिया नो खबु कप्पश् तवसीलव्वयगुणवेरमणपयअयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं गहाय मानि-] च्चक्खाणपोसहोरवासाई चाबित्तए वा एवं खोजिसए मुहमापमंतं पासंति । तए णं ते अरहमगवज्जा संजत्ता-1 वा खमित्तए वा भंजित्तए वा नझिसए वा परिचत्तए णावावाणियगा एगं च णं महं तामपिसायं पासंति। ता- वा तं जाणं तुमं सीलन्चयं ण परिचयसि, तो मे अहं लजधं दिवंगयाहिं बाहाहिं फुट्टसिरं जमरणिगरवरमास- पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिएहामि, गेएिहत्ता सत्तरासिमाहिसकालगं भरियमेहवर्ष सुप्पणहं फालसरिसजीह हतलप्पमाणमेलाई उठं वेहासं उबिहामि । अंतो जलंसि Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहस्य अभिधानराजेन्द्रः। भरहमय णिव्वोसेमि जेणं तुमं अहहहवसट्टे अकाले चेव जीवि- णं तुम्हे जीया वातं जसं सके देविंदे देवराया एवं वयंतियानो ववरोविज्जसि । तए णं से अरहसाए समणोवासए सञ्चणं एसमढे तं दिडेणं देवाणुप्पिया णं इसी जुई जसे बले तं देवं मणमा चेव एवं वयासी-महणं देवाणप्पिया!अर- वीरिए पुरिसकारे परिकमे लके पत्ते अनिसमामागए ते हलए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं स. खामेमिणं देवाणुप्पिया नुज्जो भुज्जो जाच णो एवं करणका केणइ देवेण वा दाणवेण वा. जाव णिग्गंथाओ पाए त्ति कहु पंजलिउमे पायवमियाए एपमहं विणएपावयणायो चालितए वा खोजितए वा विपरिणामित्तए णं सुजो मुज्जो खामेश, खामेतित्ता अरहलगस्स मुवे कुंवा तुममं जा सका तंकरोह त्ति कट्ट अजीए० जाव प्र- मलजुयलं दलइ, दलइत्ता जामेव दिसि पाउन्लूए तामव निएणमुहरागनयणवएणे अदीणविमणमाणसे णिच्चले दिसिं पडिगए । तए णं से अरहएणए समणोवासए णिफंदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ । तए णं से निरुवसग्गे त्ति कह पडिमं पारेति । तए णं अरहरणदिव्वे पिसायरूवे अरहमगं समणोवासगं दोचं पि तच्चं| गपामोक्खा० जाव वाणियगा दक्षिणाणुकोणं वापि एवं वयासी-इंनो मरहमगा !० जाव धम्मज्झाणोन एणं जेणेव गभीरपोयहाणे तेणेव उवागच्चइ, उवागए विहरइ । तए णं से दिने पिसायरूवे अरहस्सगं सम गच्छइत्ता पोयं ग्वेइ । पोयं ठवेत्ता सगमी-सागमं सपोवासयं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, पासत्ता बलियतरामं ज्जे । सज्जेइत्ता गणिमं च ४ सगर्षि संकामे, प्रासुरने तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाई गिएहइ,गिएह सगमी साग जोति जेणेच मिहिला रायहाणी तेव इत्ता सत्तट्टतल जाव अरहमगं एवं वयासी-हंजो अरह- नवागच्छइ, उवागच्छत्ता मिहिलाए रायहाणीए बाहिपगा!अपत्थियपत्थिया:नो खबु कप्पड़ तबसीनमय गुण या अग्गुज्जाणंसि सगडी-सागाम मोए । तए णं अरहवेरमणं,तहेव० जाव धम्मकाणोवगर विहरइ । तएणं से पि एणगे समोवासए तं महत्थं विउलं. जाव रायारहं सायरूचे अरहलगं जाहे नो संचाएइ, निग्गंथाओ चानि पाहुडं कुंमलजुगलं गिएहइ, गिएहइत्ता मिहिलाए रायहातए वा तहेव मंते जाव णिनितं पोयवहणं सणियंस पीए अप्पविसइ । अप्पविसइत्ता जेणेच कुंजए राया णियं उपरि जले संवे। संवेइत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं प तेणेव उवागच्चर, जवागच्छत्तिा करयल. जाव कई तं मिसाहर। पमिसाहरित्ता दिलं देवरुवं विउच्वंति.अंतति- महत्थं रायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंमलजुयसं च पुरओ ग्वेक्खपडिवो सखिंखणियं० जाव परिहिए अरहाणगं सम- । तर णं से कुंभए राया तेसिं संजत्तगाणं० जाव पमिणोवासयं एवं वयासी-हंभो अरहएणगा! धमाोसणं तुमं] , पाहच्छइत्ता माद्ध विदहराय चश, पहिच्छइत्ता माविं विदेहरायवरकरणं सद्दावे। सदादेवाणप्पिया! जाव जीवियफले जस्स एं तब निग्गथे पाव-| वेइत्ता तं दिव्वं कुंमलजुयलं मल्लीए विदेहरायवरकम्पगाए यणे इमेयारूचे पवित्ती लका पत्ता अजिसममागया,एवं पिणका । पिणकइत्ता पडिविसज्जेइ । तए णं से कुंजए खल्बु देवाणुप्पिया! सके देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोह- राया ते अरहमागपामोक्खे० जाव वाणियए विउल्लेणं म्मावमिसए विमाणे सजाए सुहम्माए बहणं देवाणं मज्कगए वत्थगंधमवालंकारेणं जाव उस्सुकं वियरेइ।रायमग्गे मोगामहया सद्देणं प्राइक्खा भास पएणवे परूवेशा एवं खलु ढे य आवासे वियरइ पडिविसजे । पमिविसज्जेइत्ता तए जंबुद्दीने दीवे जारहे वासे चंपाए एयरीए अरहम्मए सम- णं अरहएणगसंजत्तगा वाणियगा जेणेव रायमग्गे मोगाणोवासए अहिगयजीवाजीचे नो खलु सका केण दवणे वा० ढे आवासे तेणेव उवागच्च। नवागच्छइत्ता भंमगववहरजाव निग्गंथाओ पावयणाओ० जाव परिणामत्तए वा। तए | एणं करोत पम्भिमे गिएहइ। गिएहइत्ता सगमी-सागर्म भरेएं अहं देवा सक्कस्म देविंदस्स एयम नो मद्दहामि नो पत्ति- तिजेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छ । उवागच्चश्यामि नो रोचयामि । तए णं मम इमेयारूवे अब्भथिए त्ता पोयवहणं सजेई नं संकाम, दक्षिणानुकूलेणं जाव ममुपजित्या गच्छामिणं अहं अरहमगस्स समणो- चाएणं जेणेच चंपा एयरी तेणेव नवगच्चइ । नवागच्चइत्ता वासयस्स अंतिय पाउन्नवामि जाणामि ताव अहं अरह- पोयपयट्ठाणे तेणेव पोयलवेइ । पोयलंवेपत्ता सगमी-सागमि मगं किंपियधम्मे नो पियधम्मे दधम्मे सीलन्चयगणे किं सज्जेइ । तं गणिमं ४ सगमी संकामेइ० जाव महत्थं चालेति जाव परिच्चइ नो परिचय त्ति कह एवं संपेहेमि | पाहुमं दिवं कुंमलजुयसं गिएहइ । गिएहइत्ता जेणेव चंसंपेहिता मोहिं पजेमि, देवाणुप्पिया! प्रोहिणा आभो. दच्छाए अंगराया तेणेत्र उवागच्छ । कागच्चइत्ता तं एमि उत्तरपुरच्छिमं दिसीनागं नत्तरपुरच्छिमं विउन्चियं म- महत्थं कुंमलजुयलं च जवणेइ । तए णं चंदच्छाए अंगमुग्धाति, ताए नकिचाए जाव जेणेव लवण समुद्दे जेणेव राया तं दिव्यं महत्थं च कुंमलजुयलं पमिच्चशपमिच्चतुम्हे तेणेव उवागामि,तुम्हाणं नरसगं करोमि । नो चेव | इत्ता ते अरहणगपामोक्खे एवं बयासी-तुम्भे णं देवाणु Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) अरहस्य अभिधानराजेन्धः। अरहालय प्पिया ! बहणि गामागर जाव प्राहिमह लवणसमुदं च | सितेपु ध्वजाग्रेषु पताकाग्रेषु पटुनिः पुरुपैः, पटु वा यथा भवभाभक्खणं अभिक्खणं पोयवहणेहिं उग्गहेह, तं अत्थि तीत्येवं प्रवादितेषु तूर्यषु जयिकेप जयावहेषु, सर्वशकुनेषु वा यसादिषु, गृहीतेधु राजवरशासनेषु आज्ञासु पट्टकेषु वा, प्रदुयाहिं भे केइ कहिं वि अच्छेरएदिडपुन्छ। तएणं ते मरहम नितमहासमुद्ररवभूतमिव तदात्मकमिय,तं प्रदेशमिति गम्यते। गपामाक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी-एवं खा (तो पुस्समाणबो वकं समुदा ति) ततोऽनन्तरं मागधो मसामी! अम्हे इहवे चंपाए नयरीए अरहानगपामाक्वा | सवचनं ब्रवीति स्मेत्यर्थः। तदेवाह-सवेंपामेव जयतामर्थसिबहवे संजत्तानावावाणियगा परिवसामो, तए णं अम्हे द्धिर्भवतु, उपस्थितानि कल्याणानि, प्रतिहतानि सर्वपापानि, अप्पया कयाइं गणिमं च ४ तहेव अहीणं अतिरित्तं० सर्वविघ्नाः। (जुत्तो ति) युक्तः पुष्यो नक्षत्रविशेषः चन्द्रमसा,६ हाबसरे इति गम्यते।पुण्यनकत्रं हि यात्रायां सिकिकरम् । यदाहु:जाव कुंनगस्स रलो उवणेमो, तए णं से कुंभए राया 'अपि द्वादशमे चन्छ,पुष्यः सर्वार्थसाधनः' इति, मागधेन तदु मल्लीए विदेहरायवरकमाए तं दिव्यं कुंमझजुयनं पिणके- पन्यस्तम् । विजयो मुहुर्तत्रिंशतो मुहुर्तानां मध्यात् भयं देश३ । पिणकेश्त्ता पमिविसज्जेइ । तए एं सामी! अम्हहिं कालः, एष प्रस्तावो गमनस्येति गम्यते । ( वक्के उदाहिए त्ति) कुलगरायभवणसि मसीए विदेहरायवरकमाए अच्छेरए पाक्ये उदाहते, तुष्टाः,कर्णधारा नियामकाः, कुक्षिधारा नौ दिढे पत्तो खलु अम्मा कावि तारिसिया देवकलगा. पावनियुक्तका श्रावेल्लकवाहकादयः, गर्भ भवा गभजाः, नौमध्ये बच्चावचकर्मकारिणः, संयात्रानीवाणिजकाः, भाएमजान जारिसिया णं मल्ली विदेहकएणा, तए णं चंदच्छाए पतयः, एतेषां द्वन्द्वः। (वावरिंसुत्ति )व्यावृतवन्तः स्वस्वव्याराया अरहएणगपामोक्खे सक्कारेइ सम्माणेइ । सम्माणेश्त्ता | पारेष्विति । ततस्तां नावं पूर्णोत्सङ्गां विविधभाएडनृतमध्यां, नस्सुकं वियर पमिविस जेइ । तए एं चंदच्छाए राया | पुण्यमध्यां वा,मध्यभागनिवेशितमाङ्गल्यवस्तुत्वात् । पूर्णमुखी, वाणियमजणियहासे दयं सदावेइ । सदावेइत्ता. जाव जइ पुण्यमुखी वा । तथैव बन्धनेन्यो मुश्चन्ति विसर्जयन्ति पवनवल समाहता वा वातसामर्थ्यात्प्रेरिताः। (कसियसिय त्ति) उच्छिवि य णं सासयं रज्जसुक्का तए णं से दूर हतुवे पमि तसितपटाः, यानपात्रे हि वायुसंग्रहार्थ महान् पट उच्छ्रितः सुणेइ, जेणेव सए गेहे जेणेब चानघंटे आसरहे मुरूडे० क्रियते । एवं चासावुपमीयते-विततपक्षेव गरुडयुवतिः । गजाव पहारेत्यगमणाए । ङ्गासलिलस्व तीक्ष्णा ये स्रोतोवेगा: प्रवाहवेगास्तैः संक्षुभ्य(संजत्तानावावाणियग ति) संगता यात्रा देशान्तरगमनं न्ती संकुभ्यन्ती प्रेर्यमाणा प्रेर्यमाणा, समुद्रं प्रतीति । कर्मयो संयात्रा, तत्प्रधाना नौवाणिजकाः पोतवणिजः, संयात्रानौवाणि- महाकहोला, तरङ्गा हस्वकम्बोयाः, तेषां मानाः समूहाः तत्सहजकाः । ( अरहस्सगे समणोवासगे यावि होत्थ त्ति) न केवल- राणि, (समतिकमाणि त्ति) समतिकामन्ती (ोगाढ त्ति ) मात्यादिगुणयुक्तः, श्रमणोपासकश्चाप्यभूत् । (गणिमं चेत्या-| प्रविष्टा । (तालजंघमित्यादि) तालो वृक्तविशेषः, सच दीर्घदि) गणिम-नालिकरपूगफलादि, यदणितं सद्यवहारे प्रविश- स्कन्धो नवति । ततस्तालवजधे यस्य तत्तथा । (दिवं गयाहिं तिधिरिम-यत्तुलाधृतं सह्यवडियते । मेयं- यत्सेतिकापलादिना बाहाहिं ति) आकाशप्राप्ताभ्यामतिदीर्घाभ्यां भुजाभ्यां युक्तमि मीयते । परिच्छेद्य-यद्गुणतः परिच्छिद्यते परीक्ष्यते वस्त्र- त्यर्थः । (मसिमूसगमदिसकाबगं ति) मपी कज्जलं, मूषक उमायादि । (समियस्स यत्ति) कणिकायाश्च,(योसहाण य ति) पुरविशेषः। अथवा मधीप्रधाना मूषा. ताम्रादिधातुप्रतापननाजत्रिकटुकादीनाम् । (सजाणु यत्ति) पथ्यानामाहारविशे- नं मषीमूपा, महिषश्च प्रतीत पव । तद्वत्कालकं यत्तत्तथा (भषाणाम।अथवा औषधानामे काव्यरूपाणां,भेषजानां व्यसंयो- रियमेहवां ति) जलनतमेघवर्णमित्यर्थः । तथा सम्बोष्टम् , गरूपाणाम् । श्रावरणानामगरक्षकादीनां, बोधिस्थप्रकराणां च [निम्गयग्गदंत ति] निर्गतानि मुखादग्राणि येषां ते तथा, नि(अनेत्यादि) आर्य !-हे पितामह !, हे तात!-हे पितः !, हे गेसामा दन्ता यस्य तत्तथा। [निल्लालियजमलजुयलजीहं ति] भ्रातः!, हे मातुल !, हे भागिनेय! भगवता समुझेणाभिरक्षमा निर्लालितं विवृतमुखानिस्सारितं यमलं समं युगलं द्वयं जिणाश्चिरं यूयं जीवत, भद्रं च भवतां,भवत्विति गम्यते । पुनरपि हयोर्येन तत्तथा। [श्राऊसियवयणगंडदेसं ति] "श्राऊलब्धार्थान् कृतकार्यान्, अनघसमग्रान्, अनघत्वं निर्दूषणतया, सिय ति , अापूसिय सि वा" प्रविष्टौ वदने गण्डदेशौ कसमग्रत्वमहीनधनपरिवारतया,मिजकं गृहं, 'हन्वं' शीघ्रमागता पोखजागी यस्य तत्तथा ।[चीणचिविमनासियं ति ] चीना न् पश्यामि. तिकृत्वेत्यभिधाय, (सोमाहि ति) निर्विकार हस्वा, चिपिटा च निम्ना, नासिका यस्य तत्तथा । [विगयत्वात् । (निकाहि ति ) समहत्वात् । (दीहाहिं ति ) दूरं या नुम्गनमुहिं ति ] विकृते विकारवत्यौ, जुग्ने, नग्ने इत्यर्थः । पावदवलोकनात् । ( सपिवासाहि ति) सपिपासाभिः पुनदर्श- गन्तरेण-भुग्नजग्ने अतीववके भ्रचौ यस्य तत्तथा । [ खज्जोयमाकाङ्कायतीभिः, दर्शनातृप्ताभिर्वा । ( पप्पुयाहिं ति) प्रप्मुता- गदित्तचक्खुराग ति ] खद्योतको ज्योतिरिङ्गणः, तब्दीप्तश्चक्षूनिरचजना निः, ( समाणिएसु त्ति ) समापितेषु दत्तेषु, रागो लोचनरक्तत्वं यस्य स तथा। उसासनकं भयङ्करम् । विनाबीति गम्यते । सरसरक्तचन्दनस्य दर्दरेण चपेटाप्रकारेण प- शालवको विस्तीरःस्थ बम,विशालकुक्ति विस्तीर्णोदरदेशम् । ञ्चाङ्गलिषु तलेषु, हस्तकेवित्यर्थः । (अणुक्खित्तंसीति ) अ- एवं प्रलम्बकुक्षि [पहसियपयालयपमिवाडियगतंति]प्रहसिता. नुरिक्षते पश्चादुत्पाटिते धूपे, पूजितेषु समुज्वातेषु, नौसांयात्रि- नि प्रहसितुमारब्धानि, प्रचबितानि च स्वरूपात, प्रवलिकानि वा कप्रक्रियायां समुजाधिपदेवपादेषु वा ( संसारियासु बन्नयबा- प्रजातवलीकानि, प्रपतितानि च प्रकर्षण श्लधीभूतानि, गाहासु ति ) स्थानान्तरादुचितस्थाननिवेशितेषु दीर्घकाष्ठमक्ष- त्राणि यस्य तत्तथा । वाचनान्तरे-“विगयनुग्गभमुयपहारीणबाहुषु. श्रावेल्लकेविति संभाव्यते । तथा-उच्छितेपूर्वीकृतेषु यपयलियपडियफुलिंगखजोयदित्तचाखुराग ति" पाठः। तत्र Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहस्मय अनिधानराजेन्द्रः। थरहालय विकते तुग्ने भ्रवौ प्रहसिते प्रचलिते प्रपतिते च यस्य स्फु-| मारुतो वायुनिरो निर्भरः, खरपरुषोश्यन्तकर्कशः, शुषिलिङ्गवत खद्योतकवच दीप्तश्चक्षुरागच यस्य तत्तथा । " पण रयोरन्ध्रयोर्यत्र तत्तथा । तदेवंविधमवलुग्नं च वकं नासिकाच्चमाणं " इत्यादि विशेषणपञ्चकं प्रतीतम् । (नीलुप्पलेत्या पुटं यस्य स तथा तम् । इद च पदानामन्यधानिपातः प्राकृतदि) गवलं महिषशृङ्गम् । अतसीमासवकदेशप्रसिद्धो धान्य. स्वादिति । घाताय पुरुषादिवधाय, घाटाभ्यां या मस्तकावयव. विशेषः । [खुरहारं ति ] तुरस्येव धारा यस्य स तथा तम विश्वेषाभ्याम, सद्भटं विकरालं रचितम, अत एव भीषणं मुखं सिं, खड़, रोह्यतितीक्ष्णधारो भवति, अन्यथा केशानाममु यस्य स तथा, तमा कलमुखे कर्णशकुल्यो कर्णावयवी ययोएम्नादिति कुरेणोपमा खड्गधरायाः कृतेति । अभिमुखमाप स्तौ तथा तौ च महान्ति दीर्घाणि विकृतानि सोमानि ययोस्ती तत्पश्यन्ति । सर्वेऽपि सांयात्रिकाः, तत्रानिकवर्जा यत्कुर्वन्ति तथा तौ च (संस्बालगं ति) शलवन्तौ च शडयोरक्तिप्रत्यासतद्दर्शवितुमुक्तमेवंपिशाचस्वरूपं सविशेषम् । तेषांतदर्शन चानु मावयवावशेषयोरालगौ संबद्धावित्येके, लम्बमानौ च प्रलम्बी, वदन्निदमाह-[तए णमित्यादि ] ततस्ते अहंकवर्जाः सां चलितौ च चसन्तौ कर्णो यस्य स तथा, तम् । पिङ्गले कपिसे यात्रिकाः पिशाचरूपं वक्ष्यमाणविशेषणं पश्यन्ति,दृष्ट्वा च बहू दीप्यमाने जास्वरे लोचने यस्य स तथा तम् । भृकुटिः कोपनामिन्द्रादीनां बहुन्युपयाचितशतान्युपचिन्वन्तस्तिष्ठन्तीति स- कृतविकारः, सैव तमिद्विद्युद्यस्मिंस्तत्तथा, तथाविधम् । पानामुदायार्थः । अथवा-"तए णं ते अरहमगवजा" इत्यादि गमान्त- न्तरेण-कुटितं कृतनुकुटिलं लबाट यस्य स तथा, तम् । नररम "पागासे देवयाओ नच्चंति" इतोऽनन्तरं कष्टव्यम् । अत शिरोमालया परिणकं वोष्टितं चिहूं पिशाचकेतुर्यस्य स तथा, एव वाचनान्तरे नेदमुपलभ्यते । उपमन्यते चैवम्-"अनिमुहं तम् । अथवा-नरशिरोमालया यत्परिण परिणहनं तदेव चिह आवयमाणं पासंति, तए णं ते अरहन्नगवजा नावावाणियगा यस्य स तथा तम् । विचित्रैबहुविध!नसैः सरीसृपविशेषैः भीया" इत्यादि । [तत्र तालपिसायं ति] तालवृत्ताकारोऽति- सुबद्धः परिकरः सन्नाहो येन स तथा तम् । (अवहोसंत त्ति) दीर्घत्वेन पिशाचस्तालपिशाचः, तम् । विशेषणद्वयं प्रागिव । अवघोलयन्तो डोलायमानाः,[पुष्पुयंत त्ति ] फूत्कुर्वन्तो ये सर्पा [ फुट्टसिरं ति] स्फुटितमबन्धनत्वेन विकीर्ण शिर इति शि- वृश्चिका गोधा बन्कुरा नकुलाःसरटाश्च तैर्विरचिता विचित्रा वि. रोजातत्वात्केशा यस्य स तथा तम् । भ्रमरनिकरवत वरमाप- विधरूपवती वैकक्षणोत्तरासङ्केन मर्कटबन्धेन स्कन्धसम्बनमाराशिवत् महिषवञ्च कासको यः स तथा तम्, भृतमेघवर्णम्, त्रतया वा मालिका माला यस्य स तथा तम । जोगः फणः तथैव शूर्पमिव धान्यशोधकनाजनविशेषवन्नखा यस्य स शू- स को रौद्रो ययोस्तो,तथा तौ च कृष्णसौ च तौ च तौ धमधपनखस्तम् । फालसदृशजिह्वमिति-फासं द्विपश्चाशत्पलप्रमा- मायमानौ च तावेव लम्बमानौ कर्णपूरी कर्णान्तरणविशेषौ यणमोहमयो व्यविशेषः, तच वहिप्रतापितमिह प्राह्यम, तत्सा- स्य स तथा तम् । मार्जारशृगालौ लगितौ नियोजितौ स्कन्धधयं चेह जिह्वाया वर्णदीप्तिदीर्घत्वादिभिरिति । लम्बोष्ठं प्रती- योर्येन स तथा तम् । दीप्तं वीप्तस्वरं यथा भवत्येवं (घुग्घुयंत तम् । धवलानिर्वृत्तानिरश्लिष्टाभिर्विशरत्वेन तीक्ष्णाभिः, स्थि- | सि) घूत्कारशब्दं कुर्वाणो यो चूकः कौशिकः स कृतो विहितः राभिनिश्चलत्वेन, पीनाभिरुपचितत्वेन, कुटिलान्निश्च वक्रतया, (कुंजल ति) शेखरका शिरसि येन स तथा तम् । घण्टानां रदंष्ट्राभिरवगूढं व्याप्तं वंदनं यस्य स तथा, तम्। विकोशितस्या वः शम्नस्तेन भीमो यः स तथा स चासौ जयंकरति, तं, कापनीतकोशकस्य, निरावरणस्येत्यर्थः । धारास्योधाराप्रधानख तरजनानां हदयं स्फोटयति यः स तथा, तम् । दीप्तमहासं अयोर्यद् युगलं द्वितयं तेन समसदशावत्यन्ततुल्ये तनुके प्रत घण्टारवेण भीमादिविशेषणविशिएं विमुञ्चन्तं वसारुधिले, चञ्चलं, विमुक्तस्थैर्य यथाभवत्यविश्रममित्यर्थः । गलन्त्यौ रपूयमांसमसमलिना (पोचल त्ति) विलीनाच तनुः शरीरं यरसातितोल्याद् सालां विमुञ्चन्त्यो रसलोले प्रत्यरससम्पटे स्य स तथा तमन्नासनकं विशालकसं च प्रतीते । (पेच्चंत चपले चञ्चले फुरफुरायमाण प्रकम्पे निर्मालिते मुखानिष्काशिते ति) प्रेक्ष्यमाणा दृश्यमानाः,अभिन्ना अखपमा नखाश्च मुखं च अग्रजिहे जिह्वाने इत्यर्थः, येन स तथा, तम् । (मवत्थियं नयने च कौँ च यस्यां सा तथा, सा चासौ वरव्याघ्रस्य चित्रा ति) प्रसारितमित्येके । अन्ये तु यकारस्यामुप्तत्वात् 'अवयत्यि. कर्बुरा कत्तिश्च चर्मेति सा तथा, सैव निवसनं परिधानं यय' प्रसारितमुखत्वेन दृष्टं दृश्यमानमित्याहुः। (महवं ति) महद् | स्य स तथा तम् । सरस रुधिरप्रधानं यजचर्म तहिततं घि विकृतं बीभत्सं लालाभिः प्रगलत् रक्तंचतालु काकुदं यस्य स स्तारितं यत्र तत्तथा। तदेवंविधं (ऊसवियं ति ) सव्रितमूकीतथा तम् । तथा हिङ्गबकेन वर्णकद्रव्यविशेषेण सगर्भकन्दरस- कृतं बायुगसं येन स तथा तम् । ताभिश्च तथाविधानिः, स. कणं वित्रं यस्य स तथा, तमिव । (अंजणगिरिस्स त्ति) विभ रपरुषा अतिकर्कशाः, अस्निग्धा स्नेहविहीनाः, दीप्ता ज्वलतिविपरिणामादजनगिरि कृष्णवर्णपर्वतविशेषम् । अथवा स्यचोपतापहेतुत्वात् । अनिष्टा अनभिलाषाविषयभूताः, - 'अवस्थियेत्यादि' 'हिंगुलुयेत्यादि' च कम्मंधारवेणैव वक्ष्यमा शुनाः स्वरूपेण, अप्रिया अप्रीतिकरत्वेन, अकान्ताश्च विस्वरजवदनपदस्य विशेषणं कार्यम् । यस्य तमित्येवंरूपश्च वाक्यशेषो खेन यावाचस्तानिस्तान कुर्वाणं प्रस्यन्तं तर्जयन्तं वा पकएल्यः। तथा अग्निज्वाला उफिरवदन यस्य स तथा तम् । श्यन्ति स्म। पुनस्तालपिशाचरूपं(एज्जमाणं ति)नावं प्रत्यागच्छ(मानसियत्ति) संकुचित यदकचर्म जलापकर्षणकोशस्तद्वत ।। न्तं पश्यन्ति । (समतुरंगमाणांति)प्राश्लिष्यन्तः स्कन्दः कार्तिके(कृत्ति) अपकृष्टावपकर्षवन्ती संकुचितौ गएडदशौ यस्य स यः, रुद्रः प्रतीतः, शिवो महादेवः, वैश्रवणो यवनायकः, नागो तथा, तम् । अन्ये वाहुः-पाचूषितानि संकुचितानि अक्षाणी भवनपतिविशेषः, नूतयका ब्यन्तरभेदाः, आर्या प्रशान्तरूपाः, क्रियाणि चर्म च श्रोष्ठौ च गएमदेशौ च यस्य स तथा तम् । दुर्गा कोवृक्रिया,सैव महिषारूढरूपा पूजाऽज्युपगमपूर्वकाणि प्राचना हस्वा (चिविम त्ति) चिपिटा निम्ना 'वंका' वक्राभग्नेव | र्थनानि उपचाचितान्युपचिन्वन्ते । उपाचिन्वन्तो विदधतस्तिष्ठजना, अयोधनकुट्टितेवेत्यर्थः, नासिका यस्य स तथा, तम् । ति स्मेति । अईनकवर्जानामियमितिकत्र्तव्यतोक्ता। अधुनाहरापादागतः (धमधमंत त्ति) प्रबनतया धमधमेति शब्दं कुर्वाणो। नकस्य तामाह-" तए णमित्यादि " । ( अपत्थियपत्थिय Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहस्य अभिधानराजेन्द्रः। अरिद्व ति) अप्रार्थितं यत्केनापि न प्रार्यते तत्मार्थयति स्म यः या भ्रातृजाययाऽहनतो मारितः । ग०२ अधि० । [अस्य कस तथा, तहामन्त्रणम् । पागन्तरेण-अप्रस्थितः सन् यः प्र- था 'अरहाय' शब्द पयोका] द्वारवतीवास्तव्ये रुग्णाचे वैस्थित इव मुमधुरित्यर्थः, स तथोच्यते, तदामन्त्रणम्-डे घोपदिएं मांसं निर्बन्धेऽप्यखादितवत्या अनुरुर्याः पत्यौ, आ० अपस्थितप्रस्थित !, यावत्करणात् (दुरंतपंत लक्षण त्ति) चु०४०आव०। ['अत्तदोसोवसंहार' शब्देऽस्मिन्नेव पुरन्तानि इष्टपर्यन्तानि प्रान्तान्यपसदानि सणानि यस्य जागे ५०३ पृष्ठेऽस्य कथा समुक्ता] स तया, तस्यामन्त्रणम् । (हीणपुमचाउद्दसी शत) हीना अरहया-अर्हता-स्त्री। तीर्थकरत्वे, पञ्चा०८ विष। भसमग्रा पुण्या पवित्रा चतुर्दशी तिथियस्य जन्मनि स तथा । चतुर्दशीजातो हि किल प्राग्यवान् भवतीति । श्रा- अरहस्सधारक-अरहस्यधारक-पुं० । नास्ति अपरं (रहस्य)रहकोशे तदभावो दर्शित इति । सिरिहिरिधीकित्तिवञ्जिय स्यान्तरं यस्मात्तदरहस्यम् । अत एव रहस्यं छेदशास्त्रार्थतत्वति" प्रतीतम् । (तवसीलब्वपत्यादि ) तपः, शीलवतान्यणु- मित्यर्थः। तद्यो धारयति अपात्रेच्यो न प्रयच्छति सोऽरहस्यधाप्रतानि, गुणाःगुणवतानि, विरमणानि रागादिविरतिप्रकारा, रकः । योग्यायैव छेदसूत्रदायके, वृ० ६ उ०। प्रत्याख्यानानि नमस्कारसहितादीनि, पोषधोपवासोऽष्टाहि अरहस्सभागि ( ण )-अरहस्यनागिन्-पुं० । रहस्यस्य प्रकादिषु, पर्वदिनेषूपवसनमाहारशरीरसत्काराब्रह्मण्यापारपरि ध्यन्नस्याभावोऽरहस्य, तद् भजते इत्यरहस्यभागी । अर्हति, वर्जनमित्यर्थः । एतेषां द्वन्दः । [चालित्तए त्ति ] अाकान्तर स्था० एम० । कल्प। गृहीतान् भङ्गकान्तरेण कर्तु, क्षोभयितुमेतानेवं परिपालयामि। [खोभित्तए तिकोनविषयान् कर्तु,खएमयितुं देशतः, नॉस अरहस्सर-अरहःस्वर-त्रि० । अप्रकटस्वरे महाशब्दे, सूत्र०१ र्षतः, 'उज्जितुं' सर्वस्यादेशविरतेस्त्यागेन परित्यक्तुं, सम्यक्त्व श्रु०५०१ उ०। बृहदाक्रन्दशब्दे, सूत्र०१ भु०५०२ उ० । स्थापि त्यागत इति । [ दोहिं अंगुलयाहिं ति ] अङ्गष्टकतर्जनी- अराइ-अराति-पुं० । व्याधौ, प्रा० म० द्वि० श्राचा विशे। ज्याम, अथवा-तर्जनीमध्यमाभ्यामिति ।[ सत्तहतलप्पमाणमे- प्रा० क० । शत्रौ, वाच। साईति] तनो हस्ततालानिधानो वाऽतिदी? वृक्तविशेषः, स एव प्रमाण मानं तलप्रमाणं, सप्तायै वा सप्ताष्टानि तलप्रमा अरि-अरि-पुं० । द्विषत्प्रत्यर्थिरिपुपर्यायः । निर्दये रिपौ, तं० । णानि परिमाणं येषां ते सप्ताष्टतमप्रमाणमात्राः, तान् गगनभा सामान्यतः शत्रौ, जं० २ वक० । ज्ञा० । जी० । प्रा०म० । गान् यावदिति गम्यते । [उ वेहासं ति] उर्दू विहायसि श्राव । जन्मान्तरवैरिणि, सूत्र.१०५ अ०२००। रथाङ्गे गगने । [विहामि ति] नयामि, [जेणं तुम ति ] येन त्वं चक्रे, विट्खदिरे, षदसु कामादिषु, वाच । [अट्टदुहवसट्टे ति] प्रार्तस्य ध्यानविशेषस्य यो [दुइ ति] जिय-अरिचय-पुं० । श्रीऋषभदेवस्य द्वाशीतितमे पुत्रे, दुर्घटः दुःस्थगो दुनिरोधो, वशः पारतन्यं, तेन हुतः पीडितः | कटप०७०। भार्तदुर्घटवशातः । किमुक्तं नवति?-असमाधिप्राप्तः।[ववरोवि. जसि ति] व्यपरोपयिष्यसे अपेतीभविष्यसीत्यर्थः। [चालि अरिचयग्ग-अरिष मवर्ग-पुं० । षमा वर्गः समुदायः षडुर्गः । तए त्ति] इह चलनमन्यथानावत्वं , कथम् ?, [खोभित्तए | अरीणां पडुर्गः । वाच । कामक्रोधलोनमानमोहमदाण्ये भात्ति] कोभयितुं संशयोत्पादनतः, तथा [विपरिणामित्तए ति] | न्तरशत्रुष, सूत्र. १७०१ अ०४० तथा अरयः शत्रविपरिणामयितुं विपरीताभ्यवसायोत्पादनत शति। 'संते' इति वस्तेषां षवर्गः, अयुक्तितःप्रयुक्ताः कामक्रोधशोभमानमदहर्षाः यावत्करणात् । 'तंते परितंते' इति द्रष्टव्यम् । तत्र श्रान्तः यतस्ते शिष्टगृहस्थानामन्तरङ्गारिकार्य कुर्वन्ति । तत्र परपरिशान्तो वा मनसा, तान्तः कायेन खेदवान्, परितान्तः सर्वतः गृहीतास्वनूढासु वा स्त्रीषु दुरभिसन्धिः कामः, अविचार्य परखिनः, निर्षिमस्तस्मादुपसर्गकरणादुपरतः। [लद्धेत्यादि] तत्र स्याऽऽत्मनो वाऽपायहेतुरन्तर्बहिर्वा स्फुरणाऽऽमा क्रोधः,दानार्वेषु सन्धासपार्जनतः,प्राप्ता तत्प्राप्तः,अनिसमन्वागता सम्यगासेवन स्वधनाप्रदानम्-अकारणपरधनग्रहणं च सोभः,दुरनिनिवेशारोतः[आश्क्खाश्त्यादि आख्याति सामान्येन, नाषते विशेष- हो युक्तोक्ताग्रहणं वा मानः, कुलबलैश्वर्यविद्यारूपादिनिरहङ्कारतः । एतदेव द्वयं क्रमेण पर्यायशब्दाभ्यामुच्यते-प्रज्ञापयति, करणं,परप्रधर्षनिबन्धनं वा मदः, निनिमित्तमन्यस्य दुःखोत्पादप्ररूपयति। "देवेण वा दाणवेण वा" इत्यादाविदं द्रष्टव्यम। अप नेन स्वस्य द्यूतपापाद्यनर्थसंश्रयेण वा मनःप्रमोदो हर्षः, -"किंनरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्वेण व ततोऽस्यारिषमवर्गस्य त्यजनमनासेवनम,पतेषां च त्यजनीवत्वसि" तत्र देवो वैमानिको, ज्योतिको वा । दानवो भवनपतिः, मपायहेतुत्वात् । यदाह-" राएमक्यो नाम नोजः कामाद शेषा व्यन्सरभेदाः , 'नो सदहामीत्यादि 'न श्रद्दधे प्रत्ययं न ब्राह्मणकन्यामनिमन्यमानः सबन्धुराष्ट्रो विननाश, करालश्च वैकरोमि।[नो पत्तियामित्ति] तत्र प्रीतिकं प्रीति न करोमि, [नो देवः ॥२॥ क्रोधाजनमेजयो ब्राह्मणेषु विक्रान्तः, ताजमश्च भृगु रोचयामि] अस्माकमप्येवंभूता गुणप्राप्तिनवत्वेवं न रुचिविष षु॥२॥ लोनादेशश्चातुर्वण्र्यमभ्याहारायमाणः,सौवीरवाजविन्दुः यीकरोमीति [पियधम्मे त्ति धर्मप्रियो, दृढधर्मा आपद्यापध ॥३॥मानाद्रावणः परदारान् प्रार्थयन्,दुर्योधनोराज्यादेशच॥४॥ मौदविचल, यावत्करणाकृयादिपदानि दृश्यानि । तत्र [शकि मदादम्भोद्भवो जूतावमानी, हैहयश्चार्जुनः॥५॥ हर्षाद्वातापिरगति] गुणद्धिः, द्युतिरान्तर तेजः, यशः ख्यातिः, वसं शारीरं, वीर्य स्यमभ्यासादयन,वृष्णिसश्च द्वैपायनमिति ॥६॥ध०१अधिक। जीवप्रभवम, पुरुषकारोऽनिमानविशेषः, पराक्रमः स एव नि- अरि-अरिष्ट-पुं० । रिष्-हिंसायाम्-क्त । न० त० । लशुब्यादितस्वविषयः, लब्धादिपदानि तथैव।[उस्सुक्क वियरेर त्ति] मे, वाच० । पिचुमन्दे , प्रज्ञा० १ पद । काके, फलविशेष हालाभावमनुजाबातीत्यर्थः। झा०प्र० स्था। च। औ० रुचकद्वीपस्थे रुचकपर्वतस्य पौरस्त्ये पञ्चमे कूटे, प्ररहमित्त-प्रहेन्मित्र- पुं ह मतलघुभ्रातरि, यस्मिन्नासक्त- दीपञ्चदशस्य तीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये,स०। प्रशस्ते, प्रा. Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिद्व अनिधानराजेन्द्रः । अरिहनेमि भू. १०। वृषनासुरे, कङ्कपक्षिणि, कङ्के [ रोग ] इति ] जाव तं होऊएं कुमारे अरिहनेमी नामणं ॥ ख्याते फेनिलफलकवृके च । पुं० । अधुने मरणचिह्न, सके, | (तेणं कानणं इत्यादि ) तस्मिन्काले तस्मिन्समये अईन् चक्षुर्जने, सूतिकागारे, मधेच । न । वाचाल०प्र०। अरिष्टनोमः, योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमो मासः, द्वितीयः पक्का भरिट्ठकुमार--अरिष्टकुमार--पुं० । कौमार्ये वर्तमानेऽरिष्टनेमो, श्रावण शुद्धः, तस्य श्रावणशुरूस्य पञ्चमीदिवसे नवसु मासेषु "भृशमरिष्टकुमार ! विचारय" कल्प०७ क्व०। बदुपरिपूर्णेषु सत्सु यावश्चित्रानक्षत्रे चन्द्रयोगमुपागते सति प्रभरिट्ठणेमि--अरिष्टनोम--पुं०। [धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः, गर्भ- रोगा शिवा अरोग दारकं प्रजाता। जन्मोत्सवः समुद्रविजयास्थे मात्राऽरिटरत्नमयनेमेरुत्पतनदर्शनादरिष्टनेमिः] अवसर्पि- भिधानेन ज्ञातव्यः, यावत् तस्माजवतु कुमारोऽरिटनेमि ना एयां भरतकेत्रजे द्वाविंशे तीर्थकरे,अनु। धर्मचक्रस्य नेमिव- कृत्वा, यस्मादू भगवति गर्भस्थे माताऽरिटरत्नमयं नेमि चक्रअमिः । 'सब्चे धम्मचक्कस्स णेमीय त्ति सामन्नं, विसेसो ग- धारां स्वप्नेऽजातीत, ततोऽरिष्टनेमिः, अकारस्य अमङ्गलभगते तस्स मायाए अरिहरयणमयो [मह ति] महासयो नेमी परिहारार्थत्वाच्च अरिष्टनेमिरिति । रिएशब्दो हि अमङ्गलवासप्पिजमाणो सुमिणे दिछो त्ति तेण सोऽरिम्नेमि त्ति' आय. चीति । कुमारस्तु अपरिणीतत्वात् । कटप० ७ क्व० । उत्त। २ अ० प्रा००॥ अपरिणयनं तु एवम्-एकदा यौवनानिमुखं नेमि निरीक्ष्य अथारिष्टनेमिचरितम् शिवा देवी समवदत्-'वत्स | अनुमन्यस्व पाणिग्रहणं, परय तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी पंच चित्ते चास्मन्मनोरथम। स्वामी तु योग्यां कन्यां प्राप्य पारण यामीति होत्या । तं जहा-चित्ताहिं चुए, चइत्ता गम्भं वकते, त. प्रत्युत्तरं ददौ । ततः पुनरेकदा कौतुकराहतोऽपि नगवान् हेव उक्खेवो० जाव चित्ताहिं परिनिन्बुए ॥ १७ ॥ मित्रप्रेरितःसंक्रीममानः कृष्णायुधशासायामुपागमत् । तत्र कौतु[तेण कालेणं इत्यादि ] तस्मिन्काले तस्मिन् समये अर्हनरि कोत्सुकैमित्रर्चिकप्तोऽडल्यने कुलालचक्रवच्चकं भ्रामितवान्, घनेमेः पञ्च-कल्याणकानि चित्रायामभवन् । तद्यथा-चित्रायां शा धनुर्मृणालवनामितवान्, कौमोदकी गदा यष्टिवत्पाटिच्युतः, च्युत्त्वा गर्भे उत्पन्ना, तथैव चित्राभिलापेन पूर्वोक्तपागे तवाम्, पाञ्चजन्यं शझंच मुखे धृत्वा प्रापूरितवान् । तदा चवक्तव्य इत्यर्थः । गवत् चित्रायां निर्वाणं प्राप्तः ॥ १७० ॥ "निर्मूल्याऽऽलानमूलं व्रजात गजगणः खण्डयन वेश्ममालां, अथारिष्टनेमेश्च्यवनम् धावन्युचोट्य बन्धान् सपदि हरिहया मन्पुरायाः प्रणष्टाः । शब्दावतं समस्तं बधिरितमजवत् तत्पुरं व्यग्रम, तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिहनेमी,जे से वा श्रीनेमेर्वक्त्रपद्यप्रकटितपवनैः पूरिते पाञ्चजन्ये" ॥१॥ साणं चनत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तिबहुले, तस्स एं तं तादृशं च शब्दं निशम्योत्पन्नः कोऽपि वैरीति व्याकुलाचित्तः कत्तियबहुलस्म बारसीदिवसेणं अपराजिआओ महावि- | केशवस्त्वरितमायुधशालायामागतः, ष्वा च नेमि चकितो । माणाश्रो बत्तीस सागरोवमट्टिइआओ अतरं चयं चश् निजन्नुजबलतुलनाय 'आवाच्यां बलपरीका क्रियते' इति नेमि वदस्तेन सह महावाटके जगाम । श्रीनेमिराहत्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे सोरियपुरे नयरे स "अनुचितं ननु भूठनादिकं, सपदि बान्धवयुकामिहावयोः। । महविजयस्स रने भारिआए सिवाए देवीए पुन्चरत्ता बलपरीकणकद भुजवासनं,भवतु नान्यरणःखसु युज्यते"॥१॥ वरत्तकालसमयंसि जाव चित्ताहिं गन्नत्ताए वकंते स. द्वान्यां तथैव स्वीकृतम्लं तहेव सुमिणदंषणदविणसहरणाइयं एत्य जाणि “कृष्णप्रसारितं बाहुं, नेमिनेत्रसतामिव । यव्वं ।। १७१ ॥ मृणालदएमवीनं, वारयामास लीलया" ॥१॥ शाखानिभे नेमिजिनस्य बाहौ, ततः स शाखामृगवद्विसमः। ( तेणं कालेणं इत्यादि ) तस्मिन् काले तस्मिन् समये अईन चक्रे निजं नाम दरियथार्थ-मुद्यद्विषाद द्विगुणासितास्यः"॥२॥ अरिष्टनोमः, योऽसौ वर्षाकालस्य चतुर्थो मासः सप्तमः पक्का ततो महतापि पराक्रमेण नेमिनुजेवलिते सति विषमचित्तः कार्तिकस्य बदुलपकः, तस्य कार्तिकबलस्य द्वादशीदिबसे अ कृष्णो मम राज्यमेष सुखेन गृहीप्यतीति चिन्ताऽऽतुरः स्वचिते पराजितनामकाद् महाविमानाद द्वात्रिंशतसागरोपमाणि स्थितिर्यत्र ईशात-अनन्तरं व्यवनं कृत्वा अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे चिन्तयामासद्वीपे भरतकेत्रे सौर्यपुरे नगरे समुविजयस्य राज्ञःभार्यायाः "क्लिश्यन्ते केवलं स्थूबाः, सुधीस्तु फलमश्नुते। शिवाया देव्याः कुक्की पूर्वापररात्रसमये मध्यरात्रौ यावत् ममन्य शङ्करः सिन्धुं, रत्नान्यापुर्दिवौकसः" ॥१॥ चित्रायां गर्भतया उत्पन्नः सर्व तथैव स्वप्नदर्शनकव्यसंहरणा ___ अथवादिवर्णनमत्र प्रणितव्यम ॥ १७१ ॥ "क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते। अथ भगवतो जन्म, अपरिणयनं च दन्ता दलन्ति कष्टन, जिह्वा गिलति सीझया" ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं समरणं अरहा अरिहनेमी, जे से ततो बलभप्रेण सहा लोचयति-किं विधास्ये, नेमिस्तु राज्यवासाणं पढमे मासे पुच्चे पक्खे सावणमुके, तस्स एं | लिप्सुनवांश्च तत आकाशवाणी प्रापुरमूत्-अहो हरे! पुरा मावणमुद्धस्स पंचमीदिवसेणं नवएहं मासाणं बहुपमिपुत्राणं नेमिनाथेन कथितमासीद्-यत द्वाविंशस्तीर्थकरो नेमिनामा कुमार पव प्रव्रजिष्यतीति श्रुत्वा निश्चिन्तो निश्श्याथै नेमिना जाव चिनाहिं नक्वत्तेणं चंदजोगमुवागएणं आरोग्गाऽऽ सह जलक्रीडां क मन्तःपुरीपरिवृतः सरोऽन्तरे प्रविष्टः । तत्र रोग्गं दारयं पयाया, जम्मणं समुद्दविजयानिमावेणं नेयवं० । च-"प्रणयतः परिगृह्य करे जिनं, हरिरवेशयदा सरोऽन्तरे। Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहनेमि अभिधानराजेन्द्रः। अरिट्टनेमि तदनु शीघ्रमासश्चत नोमिनं, कनकङ्गजघुसणाविः "॥१॥ ततोऽपि किं देवर ! मूढहक् त्वम्" ॥ ७ ॥ तथा रुक्मिणीप्रमुखगोपिका अपि ज्ञापितवान् , यदयं नेमिनि: बदमणाऽप्यवोचत्शकं क्रीडया पाणिग्रहाभिमुखीकार्यः । ततश्च ता अपि "स्नानादिसाङ्गपरिष्क्रयायां, "काश्चित केसरसारनीरनिकरैराच्छोटयम्ति प्रर्नु, विचकणःप्रीतिरसाभिरामः । काश्चिद् बन्धुरपुष्पकन्फुकनरैर्निनन्ति वक्तःस्थले। विनम्नपात्रं विधुरे सहायः, काश्चित्तीदणकटाकक्ष्यविशिखैर्विद्धयन्ति नमोक्तिभिः, कोऽन्यो भवेन्नूनमृते प्रियायाः" ॥८॥ काश्चिकामकलाविनासकुशला विस्मापयाञ्चक्रिरे" ॥१॥ सुसीमाऽप्यवादीतततध "विना प्रियां को गृहमागताना, "तावत्यः प्रमदाः सुगन्धिपयसा स्वर्णदिश्टङ्गीनृशं , प्राघूर्णकानां मुनिसत्तमानाम् ॥ मृत्वा तज्जन्मनिर्भरैः पृथुतरैः कर्तुं प्रतुं व्याकुलम् । करोति पूजाप्रतिपत्तिमन्यः?, प्रावर्तन्त मिथो इसन्ति सततं क्रीमोल्लसन्मानसा कथं च शोभा लभते मनुष्यः?" ॥९॥ स्तावयोमनि देवगीरिति समुद्ता श्रुता चाखिलैः॥२॥ एवमन्यासामारी गोपालनानां वाचोयुक्त्या यदनामाग्रहाच मुग्धाः स्थ प्रमदाः ! यतोऽमरगिरौ गीर्वाणनाथैश्चतु मौनावझम्बितमपि स्मिताननं जिनं निरीक्ष्य, “अनिषिरूमनुमपष्टया योजनमानवक्त्रकुहरैः कुम्भैः सहस्राधिकैः। तम्" इति न्यायाद् नेमिना पाणिग्रहणं स्वीकृतमिति ताभिर्बाडबाल्येऽपि स्नपितो य एष भगवान्नाभून्मनागाकुलः, मुद्घोषितम, तथैव जनोक्तिरिति । ततः कृष्णेनोग्रसेनपुत्री राकर्तुं तस्य सुयत्नतोऽपि किमहो! युप्माभिरीशिष्यते?" ॥ ३ ॥ जीमती मागिता , लग्नं पृष्टं, क्रोटिकनामा ज्योतिर्वित प्राहततो नेमिरपि हरिं ताश्च सर्वा जलेराच्छोटयति स्म , कमस- "वर्षासु शुजकार्याणि, नान्यान्यपि समाचरेत् । पुष्पकन्दुकैस्ताडयति स्म, इत्यादि सविस्तरं जलक्रीडां कृत्वा गृहिणां मुख्यकार्यस्य, विवाहस्य तु का कथा! ॥१॥ तटमागत्य नेमि स्वर्णासने निवेश्य सर्वा अपि गोप्यः परिवे. समुपस्तं बभाषेऽथ, कालक्षेपोऽत्र नार्हति । पच स्थिताः । तत्र रुक्मिणी जगौ नेमिः कथञ्चित् कृष्णेन, विवाहाय प्रवर्तितः ॥२॥ "निर्वाहकातरतयोहसे न यत्त्वं, मा भूविवाहप्रत्यूहो, नेदीयस्तद्दिनं वद ॥ कन्यां तदेतदविचारितमेव नेमे!। श्रावणे मासि तेनोक्ता, ततः षष्ठी समुज्ज्वरा" ॥ ३॥ भ्राता तवास्ति विदितः सुतरां समर्थो, चसितश्च श्रीनेमिकुमारः स्फारशृङ्गारः प्रजाप्रमोदकरो रथाद्वात्रिंशदुन्मितसहस्रवधूबियोदा"॥१॥ कढोधृताऽऽतपत्रसारम्श्रीसमुद्रविजयादिदशाह केशवबन्नद्रातथा सत्यभामाऽप्युवाच दिविशिष्टपरिवारः शिवादेवीप्रमुखप्रमदाजेगीयमानधवलमाल"ऋषजमुख्याजिनाः करपीडनं, विस्तरः पाणिग्रहणाय अग्रतो गच्चैश्च वीक्ष्य सारथि प्रतिविदधिरे दधिरे च महीशताम् । कस्येदं कृतमझनभरंवश्वमन्दिरम?,इति पृष्टवान्।ततः सोड:बुजिरे विषयांश्च बहून् सुतान्, ल्यग्रेण दर्शयन् इति जगाद-उग्रसेननृपस्य तव श्वशुरस्याय सुषुबिरे शिवमप्यथ सेभिरे ॥ २॥ प्रासाद ति, श्मे च तव भाया राजीमत्याः सख्यो चन्द्रानत्वमसि किन्तु नवोऽध शिवंगमी, ना-मृगलोचनाभिधाने मिथो वार्तयतः'। तत्र मृगलोचना वि. नृशमरिष्टकुमार ! विचारय । लोक्य चकाननां प्राह-हे चन्द्रानने स्त्रीवर्गे एका राजीमत्येकलय देवर! चारुगृहस्थतां, व वर्णनीया, यस्या अयमेतारशो वरः पाणिं प्रदीप्यति । चन्द्ररचय बन्धुमनःसु च सुस्थताम् ॥ ३॥ बदनाऽपि मृगलोचनामाहअथ जगाद च जाम्बवती जवात्, "राजीमतीमद्भुतरूपरम्यां, निर्माय धाताऽपि यदीरशेन । शृणु पुरा हरिवंशविजूषणम् । घरेण नो योजयति प्रतिष्ठां, सभेत विज्ञानविचकणः काम?":२॥ स मुनिसुव्रततीर्थपतिही, . इतश्च तूर्यशब्दमाकार्य मातृगृहाद राजीमती सखीमध्ये प्राप्ता शिवमगादिह जातसुतोऽपि हि ॥४॥ हे सस्यौ! भवतीभ्यामेव साझम्बरमागच्छन्नपि बरो विलोक्यपद्मावतीति समुवाच विना वधूर्टी, ते, अहमपि विलोकायतुं न लभेयमिति बलात्तदन्तरे स्थित्वा शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम् । नेमिमालोक्य साश्चर्य चिन्तयति स्मनो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, "किं पातालकुमारः?, किं वा मकरध्वजः सुरेन्द्रः किम् ॥ विश्वासमेष विट एव भवेदभार्यः" ॥ ५ ॥ किंवा मम पुण्यानां, प्राग्भारो मूर्तिमानेषः ? ॥१॥ - गान्धारी जगौ तस्य विधातुः करयो-रात्मानं न्युञ्छनं करोमि मुदा। . "सज्जन्ययात्राशुनसङ्घसार्थ येनैष बरो विहितः, सौजाग्यप्रभृतिगुणराशिः" ॥२॥ पर्वोत्सवा वेश्मविवाहकृत्यम् ॥ मृगलोचना राजीमत्यभिप्राय परिहाय सप्रीतिहासं-हे उद्यानिकापुंकणपर्षदश्च , सखि! चन्द्रानने! समग्रगुणसम्पूर्णेऽपि अस्मिन् वरे एक दूषणं शोजन्त पतानि विनाऽङ्गनां नो" ॥६॥ अस्त्येव, परं वरार्थियां राजीमत्यां शृण्वन्त्यां वक्तुं न शक्यगौर्युवाच ते। चन्द्राननाऽपि-हे सखि ! मृगलोचने! मयाऽपि तद् ज्ञातं, "भकानभाजः किल पकिणोऽपि, परं साम्प्रतं मौनमेवाचरणीयम् । राजीमत्यपि प्रपया मध्यस्थकिती परितम्य वसन्ति सायम् । तां दर्शयन्ती-हे सख्यौ ! यस्याः कस्या अपि बनाद्भुतभानीमे स्वकान्तासहिताः सुखेन, भ्यधन्यायाः कन्याया अयं वरो नवतु, परं सर्वगुणसुन्दरेऽस्मि Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिनेमि नू वरे दूषणं तु दुग्धमध्यात् पूतरकर्षणप्रायमसम्भाव्यमेव तदनु ताभ्यां सविनोदं कथितम् - भो राजीमति ! वरः प्रथमं मौरो विलोक्य अपरे गुणास्तु परिचये सति ज्ञायन्ते सर तु कालानुकारमेवास्मिन् दृश्यते राजीमती से सस्प त्याह श्रद्य यावत् युवां चतुरे इति मम भ्रमोऽभवत्, साम्प्रतं तुस भग्नः । यत् सकल गुणकारणं श्यामत्वं भूषणमपि दूषणतवा प्ररूपितम, शुणुतं सात सावधानीय भवत्यो श्यामत्येश्या मत्रत्वाश्रवणे च गुणान् केपलगौरत्वे दोषध तथाहि"नूर चिलवरि अगुरु ३, कत्यूरी घन कणीणिगार केखा । कसवट्ट ८ मसीए रयणी १०, कसिणा पप श्रग्धफला " ॥१॥ इति कृष्णत्वे गुणाः। "कपूरे अंगारो १, बंदे विपं २ कणीजिंगा जयजे ३ । जे मरियं ४ चित्ते, रेहा ५ कसिणा वि गुणहेक " ॥ २ ॥ इति कृष्णवस्त्वाश्रयणे गुणाः | "खरं अवणं १ दहिणं, हिमं च २ अमोरो रोगी ३ । परवसगुण असो, केवल गोरत्तणे ऽवगुणा " ॥ ४ ॥ एवं परस्परं तासां जल्पे जायमाने श्रीनोमः पशूनामास्वरं श्रुत्वा साक्षेपम हे सारथे ! कोऽयं दारुणः स्वरः । सारथिः प्राहयुष्माकं विया भोजन समुदायनामयं स्वरः स्युके स्वामी चिन्तयति स्म। चिविवाहोत्सवं यचानुत्सोजी घानाम् । इतश्च" इल्ली सहिओ ! किं मे दाहिणं चक्खु परिप्फुड ? ति" वदन्तीं राजीमत प्रति सख्यौ प्रतितमम ङ्गलम, इत्युक्त्वा थुथुत्कारं कुरुतः। नेमिस्तु हे सारथे ! रथमितो निवर्त्तय। अत्रान्तरे मे कोदरिणः स्वग्रीवया हरिणीग्रीवां पिधाय स्थितः । " अत्र कविघटना " - स्वामिनं निरीक्ष्य हरियो - " मा पहरसु मा पहरसु, पयं मह हिययहारिणि हरिण । सामी ! म्हं मरणं, वि दुस्सहो पियतमाविरहो " ॥ १ ॥ हरिसी नेमिमुखं निवारि प्रतिभू"सोपनो, तिमी प्रकारणं बंधू । वणवे वल्लह !, रक्खत्थं सब्बजीवाणं " ॥ २ ॥ हरिणो ये पत्नीप्रेरितो भू66 निज्झरणनीरपाणं, अरणतणभक्खणं च वणवासे । श्रम्हाण निरवराहा-ण जीवियं रक्ख रक्ख पढ़ो ! " ॥ ३ ॥ सर्वेऽपि यः स्वामिनं विज्ञपयन्ति तावत्स्वामी बनायेपशुकाः ! मुञ्चत मुञ्चत इमान् पशून्, नाहं विवाई क रिष्ये । पशुरक्ककाः श्रीनेमिवचसा पशून्मुञ्चन्ति स्म । सारथिरपि रथं निवर्त्तयति स्म । अत्र कविः (७६४) निधानराजेन्द्रः । " हेतुरिन्दोकल पो, विरदे रामसीतयोः । नेमे राजीमतीत्यागे, कुरङ्गः सत्यमेव सः" ॥ १ ॥ इति । समुद्रविजयशिवाविजयशिवादेवीप्रमुखानास्तु शीघ्रमेव रथं स्खलयन्ति स्म । शिवा च सवाष्पं ब्रूते "पत्येमि अणि तु पदपथ किंपि । काऊ पाणिगणं, मह दंसे नियय " ॥ १ ॥ नेमिराह"मुखाग्रहमिमं मात! मनुषीषु न मे मनः । मुक्तिमोर-मएमपतिष्ठते ॥ १ ॥ 39 या रामिण विराविश्यस्ताः खियः को निषेवते । यतः रिनेम तोsहं कामये मुक्ति, या विरागिणि रागिणी " ॥ १ ॥ इत्यादि । राजीमती दा देव! किमुपस्थितमित्युक्त्वा मूर्दा प्राप्ता स श्रीभ्यां चन्दनवैराभ्यासिता कथमपि सम्धसंज्ञा सवा गाढस्वरेण प्राद “हा जयकुलदिजवर हा निरुयमनाथ ! दा जगसरण! | हा करुणायर ! सामी !, मं मुभूणं कहं चलिओ ? " ॥ १ ॥ " हा हिश्रय घs ! निठुर!, अज्ज वि निल्लज्ज ! जीविभं वहसि । बकराओ, जर नाहो सो जाओ" ॥२॥ पुनर्निःश्वस्य सोपानं जगाद " जयलसिद्धता- मुसिगसिआइ घुस ! रतोऽसि । ता एवं परिणयणारंभेण विरंबिया किमई १ ॥ ३ ॥ सख्यौ सरोषम"सोसि वचमी सजि सरलं विरलं सामल, चुक्किम बिडी करिज्ज ॥ १ ॥ पिम्मरसम्म पिश्रसहि पम्म यि किं करेसि पिश्रभावं ?। पिम्मपरं किं पि वरं, अन्नयरं ते करिस्लामो" ॥ २ ॥ राजीमती कर्णौ पिधाय हा ! अश्राव्यं किं श्रावयथः"जक विधिमा पावे विनय तह वि मुत्तूण नेमिनाएं, करेमि नादं वरं अनं” ॥ १ ॥ पुनरपि नेमिनं प्रति"राधिकमेव दरसे स्वं याचकेभ्यो मागतेभ्यः । मयाऽथयन्या जगतामधीश, दस्तोव हस्तोपरि नै २ अथ विरक्ता राजीमती प्राह "जर वि हुएस्स करो, मज्झ करे तो आसि परिणयणे । तह वि सिरे मह सुचित्र, दिक्खासमए करो होही" ॥ ३ ॥ श्रथनेमिनं सपरिकरः समुद्रविजयो जगौ"नावाचा तोडादा, मुक्ति जम्मुनेश्वराः। ततोऽयुचैः पदं ते स्वाद कुमाराचारिणः ॥ १० माइ ! भोगकमदमास्मि । फिल् " एक स्त्री संग्रहेऽनन्त-जन्तु संघात घातके । जयतां नयसान्तेऽस्मिन् विवाहे कोऽयमाग्रहः ॥ १ ॥ अत्र कविः " मन्येऽङ्गनाविरक्तः, परिणयनमिषेण नेमिरामत्य । राजीमती पूर्वभव- प्रेम्णा समकेतयमुनाये ॥१॥ 33 कुमारावस्थावासः रहा रिनेम | दक्खे० जाव तिनि वाससयाई कुमारे अगारवासमये पसिना पुणरवि लोगंतिपहिं सव्वं तं चैव भाणियव्वं जात्र दाणं दाइयाणं परि भाइचा || अहंमद यावत् त्रीणि वर्षशतानि कुमार सन् गृहस्थावस्थामध्ये उषित्वा पुनरपि लोकान्तिकैरित्यादि सबै तदेव पूर्वोक्तं भणितव्यम् । लोकान्तिका देवा यथा-" जय निजितकन्दर्प !, जन्तुजाताभयप्रद ! | नित्योत्सवावतारार्थे, नाथ ! तीर्थ प्रवर्त्तय " ॥ १ ॥ इति स्वामिनं प्रोच्य स्वामी वार्षिकदानानन्तरं त्रिभुवनमानन्दयिष्यतीति समुद्रविजयादान - रसायन्ति स्म । ततः सर्वेऽपि सन्तु दानविधिस्तु श्रौषीरवद् ज्ञेयः ॥ १७२ ॥ कल्प० ७ ० । ० । Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६५) भरिटनेमि अभिधानराजेन्द्रः। अरिष्टनेमि अथ निकमणस म्तं वन्दितुमाययो । राजीमत्यपि तत्रागता। अथ प्रभोर्देशजे से वासाणं पढमे मासे चुच्चे पक्खे सावणमुके, तस्स नां निशम्य वरदत्तनृपः सहस्रद्वयनृपयुतो व्रतमाददे । हणं सावणसुद्धस्स बडीपक्खेणं पुन्वएहकामममयंसि उ रिणा च राजीमत्याः स्नेहकारणे पृष्टे प्रर्धनवतीनवादा रभ्य तया सह स्वस्य नवभवसम्बन्धमाचष्टे । तथाहि-प्रथत्तरकुराए सीयाए सदेवमणुासुराए परिसाए समणुग मे भवेऽहं धननामा राजपुत्रः, तदेयं धनवती नाम्नी मम्ममाणेजाव बारवईए मऊ मझेणं निग्गच्छ । निग्ग- त्पती अनूत् । ततो द्वितीये भवे प्रथमे देवलोके आवां च्छइत्ता जेणेव रेवयए उज्जाणे तेणेव उवागच्छ । उ देवदेव्यौ । ततस्तृतीये भवेऽहं चित्रगतिनामा विद्याधरः, तदेयं रत्नवती मत्पनी ३ । ततश्चतुर्थे नवे चतुर्थे कल्पे द्वाबागच्चइत्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं गवे।ठावेदत्ता वापदेवी ४ । पञ्चमे भवेऽहं अपराजितराजा, एषा प्रियसीयामोपच्चोरुहार । पच्चारुहत्ता सयमेव आभरणमवाल- तमा राझी ५। षष्ठे एकादशे कल्पे द्वावपि देवौ ६ । सकारं ओमुय। ओमुयत्ता सयमेव पंचमुहियं लोयं करेइ । क- समेऽहं शलो नाम राजा, एषा तु यशोमती राशी ७/रहेत्ता छट्टेणं नत्तणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जो टमेऽपराजिते द्वावपि देवौ ८ । नवमेऽहमयम्, एषा राजीम ती ।। ततः प्रतुरन्यत्र विहृत्य कमात्पुनरपि रैवतके समगमुवागएणं एगं देवदूसमादाय एगेणं पुरिससहस्सेणं स बासरत् । अनेकराजकन्यापरिवृता राजीमती तदा रचनेमिदि मुंडे भविता श्रागाराओ अणगारियं पव्वइए ॥१७॥ श्च प्रतुपावें दीका जगृहतुः। अन्यदा च राजीमती प्रक्षु न. (जेसे वासाणं पढमे इत्यादि) योऽसौ वर्षाकालस्य प्रथमोमासो तुं प्रतिव्रजन्ती मार्गे वृष्टया बाधिता । एकां च गुहां प्राविशत् । द्वितीयः पक-श्रावणस्य शुक्रः पक्षः। तस्य श्रावणशुरूस्य षष्ठीदि- तस्यां च गुहायां पूर्व प्रविष्टं रथनेमिमजानती सा क्लिनानि षसे पूर्वाहकालसमये उत्तरकुरायां शिबिकायां स्थितो देवम- घस्त्राणि शोपयितुं परितश्विक्षेप । ततश्च तामपहसितत्रिदशनुभ्यासुरसहितया पर्षदा समनुगम्यमानो यावद् द्वारषत्या | तरुणीरामणीयका साकात् कामरमणीमिव रमणीयां तथा नगर्या मध्यभागे निर्गच्छति । निर्गत्य यत्रैव रैवतकमुद्यानं तत्रैव विवसानां निरीक्ष्य भ्रातुर्वैरादिव मदनेन मर्मणि इतः कुललसपागच्छति । उपागत्य अशोकनामवृक्षस्य अधस्तात् शिविका ज्जामुत्सृज्य धीरतामवधीर्य रथनेमिस्तां जगादस्थापयति। संस्थाप्य शिविकातःप्रत्यवतरति। प्रत्यवतीर्य स्खयमे. "अयि ! सुन्दरि! किं देहः, शोभ्यते तपसा त्वया । घाभरणमाल्यालङ्कारान् अवमुश्चति,अवमुच्य स्वयमेवपञ्चमी सर्वाङ्गभोगसंयोग-योग्यः सौभाग्यशेवधिः ॥१॥ ष्टिकं लोचं करोति । कृत्वा च षष्ठेन भक्तेन अपानकेन जमरहितेन आगच्छ स्वेच्छया भद्रे !, कुर्वहे सफलं जनुः॥ चित्रायां नको चन्द्रयोगमुपागते सति एक देवदूष्यं गृहीत्वा आवामुभावपि प्रान्ते, चरिष्यावस्तपोविधिम्" ॥२॥ एकेन पुरुषाणां सहस्रेण साई मुण्मो नत्वा प्रचुरगारात्रिक ततश्च महासती तदाकार्य तं दृष्ट्वा च धृताद्भतधैर्यानं प्रत्युवाचम्य साधुतां प्रतिपन्नः ॥ १७३ ॥ कल्प०७ १० । स०। 'महानुभाव! कोऽयं ते-ऽनिलाषो नरकाध्वनि । अथ केवसोत्पादः सर्वे सायद्यमुत्सृज्य, पुनर्वाचन लज्जसे ॥१॥ अरहा अरिहनेमी चड़प्पन राशंदियाइं निच्चं वोसहकाए अगन्धनकुबे जाता-स्तियञ्चो ये नुजङ्गमाः। तेऽपि नो वान्तमिच्छन्ति, त्वं नीचः किं ततोऽप्यसि?" ॥॥ तं चेव सव्वंजाब पपपनगस्स राइदियस्स अंतरा वट्टमा इत्यादिवाक्यैः प्रतिबोधितः श्रीनमिपावे तदुश्चीमानोच्य णस्स जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहु तपस्तप्त्वा मुक्तिं जगाम । राजीमत्यपि दीकामाराध्य शिवशले, तस्स णं आसोयबहुलस्स पन्नरसीपक्खणं दिवसस्स ख्यामारूढा,चिरप्रार्थितं शाश्वतिकश्रीनेमिसंयोगमवाप । यदाहपच्चिमे लाए नजितसेलसिहरे वेयसस्स पायवस्स श्री "छमस्था बत्सरं स्थित्वा, गेहे वर्षचतुःशतीम् । पञ्चवर्षशतीं राजी, ययौ केवलिनी शिवम्"॥१॥१७४॥ अहमेणं जत्तेणं अपाणएणं चित्ताहिं नक्खत्तेणं जोगमु (कृष्णाग्रमहिषीप्रवाजनम् 'अमामहिसी'शम्देऽस्मिन्नेव नागे बागएणं जाणंतरियाए वट्टमास्स अणंते जाव जाण १७४ पृष्ठे उक्तम) माणे पासमाणे विहरइ ॥ १७४ ॥ अथ गणादिसंपत्(अरहा रिटुनेमी इत्यादि ) बहन अरिष्टनेमिः चतु अरहोणं अरिहनेमिस्स अट्ठारस गणा पश्चाशत् अहोरात्रान् यावद् नित्यं व्युत्सृष्टकायः तदेव-पूर्वोक्तं सर्व वाच्यं यावत् पञ्चपञ्चाशत्तमस्य अहोरात्रस्य अन्तरा अट्ठारस गणहरा हुत्या ॥ १७५॥ वर्तमानस्य योऽसौ वर्षाकालस्य तृतीयो मासः, पञ्चमः पक्षा-1 ( अरहोणं अरिटुनोमिस्स सि ) अर्हतोपरिष्टनेमेरष्टादश आश्विनस्य कृष्णपक्कः, तस्य आश्विनबदुलस्य पञ्चदशे दि. गणाः, अष्टादश गणधराश्व अभवन् ॥ १७५॥कल्प०७०। षसे दिवसस्य पश्चिमे भागे मजयन्तनामशैलस्य शिख. अथ श्रमणश्रमणीसंपत्रे वेतसनामवृत्तस्य अधस्तात् अष्टमेन भक्तेन अपानकेन ज भरहओ णं अरिहनेमिस्स वरदत्तपामुक्खाओ अट्ठारस लरहितेन चित्रायां नको चन्द्रयोगमुपागते सति शुक्लध्यानस्य मध्यजागे वर्तमानस्य प्रनोरनन्तं केवलज्ञानं स समणसाहस्सीओ उकोसिया समणसंपया इत्था ।१७६ । मुत्पन्नं यावत् सर्वनावान् जानन् पश्यंश्च विहरति, तत्र (अरहोणं अरिटुनेमिस्सेत्यादि) महतोऽरिष्टनेमे वरदत्तप्रकेवलकानं रैवतकस्थे सहनाम्रपणे समुत्पेदे, तत सद्यान- मुखाणि अष्टादश भ्रमणानां सहस्राणि, उत्कृष्टा एतावती श्रमपालको विष्णोय॑जिकपत् । विष्णुराप महा जगव-| सम्पदा अभवत् ॥ १७६ ॥ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६६ ) अभिधानराजेन्द्रः अरिनेमि अरहणं अरिने मस्त अज्जजक्खिणी पामुक्खाओ चचालीसं अजिवासाहसीओ उकोसिया जिया संपया हुत्वा ।। १99 ॥ (रम अनेमिक्स) भतोऽरिमेार्यदि णीप्रमुखाणि चत्वारिंशत् आर्यासहस्राणि उत्कृष्टश एतावती प्रार्यासम्पदा अभवत् ॥ १७७ ॥ कल्प० ७ ० । ० । ०० अथ आवकसंपत् अरहओ अरिनेमिस्स नंदपामुक्खाणं समणोवासगाणं गायसाहसी अ ऊणत्तरिं च सहस्सा नकोसिआ समोवासगाणं संपया हुत्या ।। १७८ ॥ (अरणं अरिनेमिस्सेत्यादि ) अर्हतोऽरिष्टनेमे, नन्दप्र मुखाणां श्रावकाणामेको लक एकोनसप्ततिश्च सहस्राः, उत्कृष्टा पतावतं श्रावकाणां सम्पदा अभवत् ॥ १७८ ॥ अरहो अरिनेमिस्स महासुन्यापामुक्खाणं सम शोवासियाणं तिथि सताइस्सीओ उत्ती च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासयाणं संपया हुत्था ॥ १७५ ॥ (अरहोणं रिट्ठनेमिस्स ) अर्हतोऽरिष्टनेमेः महासुव्रताप्रमुख धाविकाणां त्रयो मत्सहस्रा उत्कृष्ट ए तावती श्रात्रिकाणां सम्पदा अभवत् ॥ १७६ ॥ अथ चतुर्दशपूर्विणाम्अरहणं अरिनेमिस्स चत्तारि सया चदसपुत्री जिला जिसका साणं० जाव संपया हुत्या ॥ अर्हतोऽरिमेत्यादि शतानि चतुर्दशपूर्विणाम के मपि केवलितुल्यानां यावत् सम्पदा अभवत् । कल्प० ७ ० । अधावधिहाम्यादि " पारससया ओहिनाणी पारससया केवलनाणी पारससया वेडब्बियाणं दससया विलमईणं ॥ पञ्चदश शतानि अवधिज्ञानिनां सम्पदा श्रभवत् पञ्चदश शतानि केवलज्ञानिनां संपदा अजवत्, पञ्चदश शतानि वैसंपदा अभवत् दश शतानि सिं पदा अभवत् । कल्प० ७ क्ष० । "अरहो अरिमिरस असया वाईणं सदेवमवासु राए परिसाए वा अपराजियाणं नक्कोसिया वा संपया होत्था " । स्था० वा० स० अनुत्तरोपपातिकानाम् सोलसमा अणुचरोबवाइया, पर समसया सिद्धा तीसं अज्जियासयाई सिद्धाई ॥ १८० ॥ पोडशशतानि अनुत्तरोपपातिनां संपदा श्रभवत् पञ्चदश श्र मणानां शतानि सिंकानि, त्रिंशत् आर्याशतानि सिद्धानि ॥ १०० ॥ कल्प० 9 क्ष० । अथान्तरुभूमि: - अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स दुविहा अंतगरुभूमी हुत्था । तं जहा जुगंतगडभूमी व परियायंतगडपी य० जाव माओ पुरिसजुगाओ जुगंतगडभूमी, दुवासपरिआए अंतमकासी ।। १०१ ।। अरिनेमि (अरहओ अरिहने मित्यादि) सोडविधा अन्तकृया तथा युगान्तरुभूमिः पर्यायान्त भूमिश्च । यावत्; इदमत्रे योज्यम् अष्टमं पुरुषयुगं पट्टधरं युगान्तकृद्भूमिरासीत्, द्विवर्षपर्याये जाते कोऽपि श्रन्तमकार्थीतू ।। १८२ ॥ कल्प० ७ ० । स्था० । अथ भगवत श्रायुः -- तेगं कालेनं तेणं समएणं अरहा आरहनेमी तिन्नि वाससयाई कुमारवास मज्भे वसित्ता, चप्पन्नं राईदिया उत्थपरियं पाउणित्ता, देसलाई सत्तवाससबाई केवलिपरिमा पाणिता, परिपुनाई सत्तवासस याई सामन्नपरिया पाउणित्ता, एगं वाससहस्सं सव्वाउ पालइत्ता, खीणे वेयपिज्जा उपनामगुत्ते इमीसे सपिए दूसमसमाए बहुविताए, जे से गिम्हाणं चनत्थे मासे मे पक्खे आसाढसुद्धे, तस्स एणं प्रसादमुद्धस्स अमीषक्खेणं उपि उज्जितसरंसि पंचाई छत्तीसेहिं अणगारसहिं साऊँ मासिएणं जत्तेणं पाणएणं चितानक्वतेनं जोगमुचागरणं पुन्दरतावरणकालसमयंसि सजिएकासगए०, जब सच्चदुक्खपदीये ॥१०२॥ [ तेां कालेणं इत्यादि ] तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्दन् अरिष्टनेमि त्रीणि वर्षशतानि कुमारावस्थायां स्थित्वा चतुष् शाशदोरान उपस्थपयाचे पानयित्वा किञ्चिदूनानि सप्तवर्षशतानि केवलिपययं पाठयेत्या प्रतिपूर्णानि सप्तवर्षशतानि चारित्र पारा एक वर्षसहस्रं सर्वाः पाठ 3 क्षीणेषु सत्सु वेदनीयायुर्नामगोत्रेषु कर्मसु अस्यामेव अवसर्पिण्यां दुष्पमसुषमनामके चतुर्थेऽरके बहुव्यतिक्रान्ते सति, योऽसौ उष्णकालस्य चतुर्थो मासः श्रष्टमः पक्षः-भाषाशुरूः, तस्य श्राषाढशुद्धस्य श्रष्टमीदिवसे उपरि उज्जयन्तनाशैलशिखरस्य पञ्चभिः षट्शतैरनगाररातेः खाई मासिकेन अनशनेन भयानकेन जलरहितेन, चित्रान चन्द्रयोगमुपाग ते सति पूर्वापररात्रिसमये मध्यरात्रौ निषष्ठः सन् कालगतः, यावत् सर्वदुःखप्रक्रीणः ॥ १८२ ॥ इति ॥ कल्प० ७ क्ष० । सभ अथ निर्वाणायिता कालेन महत ) पुस्तक लिखनादि जातमित्याह रओ आरनोमेरेस का लगयस्स जाव सम्बदुक्खप्पडीएस चउरासीई बाससहस्साई चिताई पंचासीमस्स बाससयस नववासपाई बिताई समस्सय वाससयस अयं असीइमे संवरे काले गच्छ ॥ १८३॥ अर्हतोऽरिष्टनेमेः कालगतस्य यावत् सर्वदुःखप्रक्कीणस्य चतुरशीतिवर्षसहस्राणि व्यतिक्रान्तानि पञ्चाशीतितमस्य वर्षस प्रस्यापि न वर्षशतानेि व्यतिज्ञान्तानि दशमस्य वर्षशतस्य श्रयं श्रशीतितमः संवत्सरः कालो गच्छति ॥ १८३॥ श्रीनेमिनिवणात् चतुरशीत्या वर्षसहस्रैः श्रवणमद, श्रीपा निर्वाणं तु वर्षाणां व्यशीत्या सहस्रैः साः सप्तभितरदिति सुधिया शेयम् । कल्प० ७ ० | ती० । Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६७) अरिट्टनेमि अभिधानराजेन्द्रः। अरिहंत " उज्जंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स । अरिष्टनेमिकल्पोऽयं, लिखितः श्रेयसेऽस्तु वः। तं धम्मचक्कवादि, अरिटुनेमि नमसामि" ||०२ अधि। | मुखातू पुरा विदां श्रुत्वा, श्रीजिनप्रनसूरिभिः ॥ १॥ ती० २६ ( अरिपनेमिना राजीमतीपरित्यागः, तया प्रवजितया कामा- कल्प०।"दो तित्थगरा नीमुप्पलसमा वन्नेणं पसत्ता । तं जहासरथनेमिप्रतियोधश्च ' रहनेमि' शब्द वच्यते) मुणिसुब्बए चेव, अरिटुनेमी चेव"। स्था० २ ग०४ उ०। प्रणहिलपट्टने पूज्यमाने श्रीअरिष्टनेमिदेवे, ती। अरिहा-अरिष्टा-स्त्री० । कच्चविजयकेत्रवर्तिराजधानीयुगले, तत् कथा चेयम् जं०४ वका“दो अरिहाओ" । स्था०२ ग०३ उ०। पणमिय अरिहनेमि, अणहिलपुरपट्टणावयंसस्स । बंजाणगच्चनिस्सिय-अरिहनेमिस्स कित्तिमो कप्पं ॥१॥ अरिहारि-अरिष्टारि-पुं० । अरिष्टाण्यवृषभासुरमर्दके श्री कृष्णे, “प्रकृति देवकी चक्रे, पृष्टारिष्टारिणा कणात्"। मा०क०। "पुव्वं किर तिरिकन्नरज्जनयरे जक्नो नाम महठिसंपन्नो नेगमो अरित्ता-अरिता-खी० । सामान्यतः शत्रुनावे, ज०१५ शा होत्था । सो अमया वाणिज्जकज्जे महया बदल्लसत्येण कयाणगाणि गणिऊण कन्नउज्जपडिबकं कमज्जाहिवसभाप मणि ५ उ०। गाए कंचुनिआसंबाधदिलं गुज्जरदसं पइट्टिो , आधासिओ। अरिदमण-अरिदमन-पुं०। सप्ततितमे श्रीऋषनपुत्रे, कल्प०७ कमेण लक्खारामे सरसनईतमे पुचि अणहिवाडयपट्टः क्ष०ा बसन्तपुरराजनि,यस्य पत्न्याऽभयं दत्वा चौरो मोचितः। पनिवेसट्ठाणं कारितं आसी । तत्थ सत्यं निवेसित्ता अत्यंतस्स सूत्र १ श्रु० ६०। (अस्य कथा-'अभयप्पदाण' शब्देऽतस्स नेगमस्स पत्तो वासारत्तो । वरिसिउं पवत्ता जलहरा। स्मिन्नेव भागे ७०८ पृष्ठे दर्शिता ) श्रीप्रभनृपोपकावके नृपे, अनया भवयमासे सो बल्लसत्थो सब्बो वि कत्थ विगओ, को ध० १०॥ वि न जाणा, सम्वत्थ गवेसावित्रोन लो।तो सब्बस्स ना-अरिरिहो-अव्य । पादपूरणे, प्रा०२ पाद । सेव अचंतचिंताउरस्स तस्स रत्तीए आगया सुमिणसि भगवई अंबा देवी। नणियं च तीए-बच्च!जगसि.सबसिवा अरिस-प्रशस्-न । 'हरस' इति लोकप्रसिद्ध गुदाइरे जक्खेण वुत्तं--अम्मो ! कत्रो मे निदा, जस्स बहल्लसत्थो सव- रोगे, तं०। जी। ०।का।विपा० । उपा० । यदवलेन वायुस्सनूमो विप्पणछो। देवीए साहियं-भद्द!पयम्मि लक्खारामे अं- मंत्र पुरीषं च प्रवर्तयते तासां गुदप्रविष्टानां शिराणां विधातेबिलियाथूणस्स हिडे पडिमातिगं वट्टए । पुरिसतिगं खणावि-| शो येगो नवति । प्रव० १५२ द्वार। त्ता तं गादयन्वं । एगा पमिमा अरिटुनेमिसामिणो, अवरा परिसन्न-अर्शस-त्रि अर्शोरुम्णे, "अरिसिद्धस्स व परिसिरिपासनाहस्स, अन्ना य अंबियादेवीए । जक्खेण वायरितत्थ य अंबिलिप्राथूणाणं बाहुल्ले सो परसो कई नायब्यो । दे. सा, मा खुम्भं तेण बंधए कमणी"। नि०.५००। अर्शोपीप जंपियं-धोउमयं मंगलं पुप्फप्पयरंजत्थ पाससितं चेव ग वतः पादतलदौर्बल्यादीसि मा सुभ्येरनिति कृत्वा क्रमणिके ममातिगस्स जाणिजासितिमि परिमातिपय असौ बध्नाति । वृ.३ उ०। राजते भतुक वश्लासयमेव प्रागच्छिहिति। पहाए तेण उट्टेक-आरित-ई-धा-पूजने, सका । योग्यत्वे, अक० स्वादि० ण बलिविहाणपुवं तहाकर पयमीहूनामो तिमि वि पमिमाओ। पर० सेट् । वाच०।"ई-श्री-डी-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित्" पूश्याओ विदिपुवं । स्वणमित्तेण अतक्वियमेव आगया बरला । ७।२।१०४ । इति सूत्रेण संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व कारः। संतुझो नेगमो । कमेणं कारिनो तत्थ पासाओ। गवियानो अरिह-अर्हति । प्रा०२ पाद । पमिमारो ॥ अनया अइच्छिए वासारते अग्गहारगामाओ अई-त्रि०। योग्ये, सूत्र०१७०३ १०२३० । स्था० । लकअट्ठारससयपट्टसानियघरअसंकियाओ बंनाणगच्छमंडणसिरिजसोभद्दसूरिणो खंभाश्तनयरोवरि विहरंता तत्थ आगया। सो णोपेततयाऽचार्यपदयोग्ये, व्य० १०००। पूज्ये, विशे० । प्रशगेहिं विनविभ-भगवं! तित्थं उल्लंघि गंतुं न कप्पड़ । पुरो स्ततया पूज्ये, स०। तो तेहिं सूरिदि तत्थ ताओ पडिमाओ मग्गसिरपुसिमापध-| अरिहंत-अति-पुं०।अर्हन्त्यशोकायष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुयारोवो महसवपुब्वं करो । अज्जवि पर वरिस तम्मि चेव | रासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूढानवधवासदिट्ठो धयारोबो कीर।सोयधयारोवमहूसबो विकमाइश्चाओ नाजालाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यपंचसुसासु दुउत्तरसु (५०२) वरिसाणं अश्कतेसुसंबुत्तो। तो रूपां निखिलप्रतिपत्तिप्रकयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यअसएसु दुउत्तरेसु विक्कमवासेसु (८०२)मणहिल्लगोवालए प. ईन्तः । स्था०२ ठा० १०श्रावजं० । सूत्र। अनु। रिक्खियपरसे लक्खारामहाणे पट्टणं चाबक्कडबंसमुत्ताहलेण| आ० म०। जी०। प्रा० चू०। विशे० । आचा० । तीर्थकत्सु, घणरायराणा निवेसियं । तत्थ वणराया खमरायतूप्रमवय- मा०म०वि०। रसीदरयणाचसामंतसीहनामाणो सत्त चानुकम्वंसरायणो सम्प्रति प्राकृतशैल्या अनेकधाऽर्हच्चदनिरुक्तसंत्रव जाआओ।तत्येव पुरे चालुक्लबसे मूलरायचामुंमरायबल्लनरायदु इति दर्शयन्नाहसभरायनीमदेवकन्नजयसिंहदेवकुमारपालदेवजयदेववालमू-- इंदियविसयकसाए, परीसहयाणाए उवसग्गे। लरायभीमदेवाभिहाणा पगारस नरिंदा । तो वाघेलाअत्तए लूणप्पसायवीरधवलवीसलदेवअज्जुणदेवसारंगदेवकम्मदेवान एए अरिणो हंता, अरिहंता तेण वुचंति ।। रिंदा संजाया । ततो प्रवावदीणसुरत्ताणाणं गुज्जरधारत्तीए इन्द्रियादयः पूर्ववत् । वेदना त्रिविधा-शारीरो,मानसी, उभभाणा पयवा । सो अरिहनेमिसामी कोहंमीयपामिहारो अज्ज-| यरूपा च । 'एए अरिणो हंता' इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्यावि तहेव पूज्जा ति" ॥ -विभक्तिव्यत्ययः । ततोऽयमर्थः-पतेपामरीणां हन्तारोऽन्त Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६०) अरिहंत अन्निधानराजेन्द्रः। अरिहंतमणुमाय इति पृचोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिः। स्यादेतत्, अनन्तरगाथा- द्वितीयनागे ४०३ पृष्ठे काव्या) " अरिहंता लोगुत्तमा भयामेत एवोक्ताः, पुनरप्यमीषामेवेहोपन्यासो न युक्तः । उच्यते | रिहंते सरणं पबग्जामि " । भाव०४०। (भईन्तो अनन्तरगाथायां नमस्काराह त्वहेतुत्वेनोक्ताः, इह पुनरभिधा- लोकोसमा इति 'चउसरणगमण ' शब्दे वक्ष्यते) (3निरुक्तिप्रतिपादनार्थ उपम्यासः। अस्थोऽतीन्द्रियम न जानाति, तमेवाहर्न जानातीति वक्ष्यते साम्प्रतं प्रकारान्तरतोऽरय आख्यायन्ते, ते चाटो कानावर "छउमत्य' शब्द) (महन्त एव सर्वका इति “सब्बएणु' णादिसंज्ञाः सर्वसत्त्वानमिव । तथाचाह शब्द निरूपयिष्यते) अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिज़यं हो सञ्चजीवाणं । जम्बहीवे दीवे जरहेरवएसु वासेसु एगसमए एगजुगे दो तं-कम्ममरीहंता, अरिहंता तेण बुच्चंति ॥ अरिहंतवंसा उप्पजिंस वा, उपजिति, उपजिस्संति वा ।। अष्टविधमष्टप्रकारम, अपिशब्दादुत्तरप्रकृत्यपेक्कया अनेकप्र- पश्चादिकः कामविशेषो युग, तत्रैकस्मिन् तस्याप्येकस्मिन्समये; कारम् । चशब्दो भिन्नक्रमः,ल चावधारणे । ज्ञानावरणादि कमैं- "एगसमए एगजुगे" इत्येवंपाठेऽपि व्याख्योक्तकमेणैव,श्त्यमेव अंरिभूतं शत्रुन्तं भवति सर्वजीवानां सत्वानाम, अनवबोधा- वार्थसम्बन्धात, अन्यथा वा जावनीयेति । द्वापदतां वंशौ प्रदिपुःखहेतुत्वात् । तत्कर्मारिहन्तारो यतः, तेनाईन्त उच्य- वाहो-एको भरतप्रभवः, अन्य ऐरवतप्रनव इति । स्था०२ न्ते । रूपनिष्पत्तिः प्राग्वत् । ग० ३००। अथवा एकस्मिन् केत्रे एकसमये हावर्हन्तौ नोत्पद्यते इति कपिलअरिहंति वंदणनपं-सणाणि अरिहंति पयसकारं । वासुदेवं प्रति मुनिसुव्रतोक्तिः । का०१६ अ०। जम्बूद्वीपे मन्द रपौरस्त्ये शीताया महानद्या उत्तरे दक्किणे च उत्कर्षण अष्टौ सिफिगमणं च अरिहा, अरिहंता तेण वुच्चंति ।। । प्रष्टीजम्बूद्वीपे मन्दरपश्चिमेन शीतोदाया महानद्या उत्तरे अई-पूजायाम । भर्हन्ति वन्दननमस्करणे, तत्र बन्दनं शिर- दक्षिणे च सत्कर्षण अष्टावष्टौ । प्रतिकच्छादिविजयक्षेत्रमेकैकसा, नमस्करणं चाचा । तथा-अईन्ति पूजासत्कारं, तत्र वन- स्मिन् छात्रिंशत्तीर्थकरा इति। स्था०० गा(अर्हत्युत्पद्यमाने माल्यादिजन्या पूजा, प्रत्युत्थानादिसंभ्रमः सत्कारः। तथा- लोकान्धकारोद्योताविति "अंधयार" शब्देऽस्मिन्नेव नागे १०७ सिध्यन्ति निष्ठितार्थी भवन्त्यस्यां प्राणिनः सिकिःलोकान्तक्षेत्र- पृष्ठे समुक्तम, तथा 'तित्थयर' शब्द सर्वा वक्तव्यता अष्टव्या) लकणा। वक्ष्यति-"इह बोदि चइत्ताण, तत्थगन्तूण सिज्जा" | "ससिधवला अरिहंता" इति गाथायामईदादीनां श्वेतातमनं प्रति अर्हन्तीत्यर्हाः योग्याः।"अच्"।५।१४ाश्त्यन् । चारोपः किंतुकः ? इति प्रश्ने, महन्तः पञ्चवर्णाः, सिद्धास्त्वतन कारणेनाईन्त सच्यन्ते । अन्तीत्यर्हन्तः। वर्णाः शास्त्रेषुव्यक्ततयैवोक्ताः सन्ति, आचार्यादयोऽपि केवलतथा पीतादिवर्णा पव भवन्ति, ते तेषु पूर्वाचावणेक्रमेण ध्यायदेवासुरमणुएमु य, अरिहा पूया मुरुत्तमा जम्हा।। मानेषु श्वेताद्ये कैकवारोपणपूर्वकमेषां ध्यानं सिकिकृद प्रव तीति,ते तु सर्वास्वाप क्रियासु द्रव्यकेत्रकाल नावादिसामग्रीविअरिणो हंताऽरिहंता, अरिहंता तेण वुचंति ।। भिन्नासुप्रवर्तत इति न काऽप्यनुपपत्तिः।१५७। सेन०२ उल्ला। देवासुरमनुजेभ्यः-'सूत्रे पञ्चम्यर्थे सप्तमी, प्राकृतत्वात्' पूजाम अरिहंतकमभोयभव-अईक्रमाम्भोजभव-त्रि० । महतां श्रीईन्ति प्राप्नुवन्ति । कुत इति चेत् । मत आह-यस्मात्सुरोत्तमा उपचितसकलजनासाधारणपुण्यप्राग्भारतया समस्तदेवा तीर्थकराणां क्रमाश्चरणाः त एवाम्भोजानि कमलानि, तेज्यो सुरमनुजोत्तमाः; ततः पूजामटमहाप्रातिहार्यलकणामहन्तीत्य भव उत्पत्तिर्यस्य तदर्हत्क्रमाम्भोजभवम् । जिनेश्वरचरणईन्तः। इत्थमनेकधा त्वर्थमनिधाय पुनः सामान्यविशेषाभ्यामु पङ्कजसम्नवे, द्रव्या०५ अध्या। पसंहरनाह-(भरिणो हंता इत्यादि) यतोऽरीणां हन्तारः, तथा- अरिहंतकमजोयसमासिय-अहत्क्रमाम्भोजसमाश्रित-त्रि० । रजो बध्यमानक कम, तस्य रजसो यतो दन्तारः, तेनाहेन्त उ- अहंतां वीतरागणां क्रमाश्चरणास्त पवाम्भोजानि कमलानि तत्र च्यन्ते। "अरिहन्तारः" इति वा स्थितस्य अर्हन्त इति निष्पत्तिः समाश्रितः। मईच्चरणाम्जशरणीजूते, द्रव्या०१३ अध्या०। प्राग्वत् । आ० म० द्वि० । ध० । नं० । ओ०। सू०प्र० । श्रावण अरिहंतचेइय-अर्हचैत्य-न। अशोकायष्टमहाप्रातिहार्यादिअईन् जैनानां परमपूज्यः । यो वि०। म्पां पूजामहन्तीति अर्हन्तः तीर्थकराः, तेषां चैत्यानि प्रति" अमवीरें देसियत्तं, तहेव निज्जामया समुदम्मि । मालकणानि अईचैत्यानि । श्दमत्र भावना-चित्तमन्तःकरणं, कायरक्खण्ट्ठा, महगोवा तेण वुच्चंति" ॥ विशे० । तस्य भावे कर्मणि वा ( " वर्णढादिज्यप्ट्य च चा" रागहोसकसाप, य इंदियाणि य पंचवि परीसहे। ७।१ । ५६ । इति दैमसूत्रेण टचणि ) कृते चैत्वम । उवसम्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण- वुचंति" ॥ विशे०। तत्रार्दतां प्रतिमाः प्रशस्तसमाधिचित्तोत्पादकत्वाद महपाचू स्या०। (णमोकार' शब्देऽस्य व्यागया यथास्थानं च)| त्यानि भएयन्ते । अहत्प्रतिमासु, “अरिहंतचेश्याणं करेमि 'णमो अरिहंताणं जगवंताणं'। अर्हन्तो नामादिनेदाधनेकनेदाः, 'कासगं" आव०५ म० । मा० ० । प्रति० । ध०। 'नाम-स्थापना-हव्य-भावतस्तन्यासः' इति वचनात् । तत्र | अरिहंतनासिय-अहदनाषित-त्रि० । महदूनिः सम्यगास्याभावोपकारित्वेन भावार्हत्संपरिग्रहार्थमाह-भगवद्भपः। स०] प्र० । " अरिहंताणमवनं बदमाणे भरतपण्णम्स | त, सूत्र० १७०६अ। मस्स अवनं बदमाणे " इत्यादि ' अवयवाय' शब्द:- | प्रारहंतमणुमाय-अईद नुझात-पि० । भईद्भिः कर्तव्यतया. त्रैव जागेऽने वक्ष्यते) (अहवाशातना 'पासायणा' शब्दे ऽनुकाते, प्रका० १२ पद । Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुय अरिहंतसक्खिय अभिधानराजेन्द्रः। अरिहंतसक्खिय-अईत्सा किक-न० । अन्तस्तीर्थकरास्ते अरुणवरावनासवरारुणवरावभासमहावरी देवी । सू० प्र० साक्विणः समकभाववर्तिनो यत्र तत् । “ शेषाद्वा" ७ । ३ । १६ पादु० जी०।०प्र०। १७५ । इति [हैम ] सूत्रेण कप्रत्ययविधानादईत्साविकम् ।। अरुणाभ-अरुणाभ--पुं० अरुणकान्तौ, चन्द्रं गृहतो राहोर्दशमे भईद्भिः कृतसावित्वे, पा० । कृत्स्नपुले, सू०प्र०२० पादुण विमानभेदे, स० सम०। स्था। अरिहंतसमणसिज्जा-अर्हच्छुमणशय्या-स्त्री । अर्हतां श्रम-| अरुणुत्तरवमिंसग--अरुणोत्तरावतंसक-न०। विमानभेदे, स० णानां च शय्याऽर्हच्मणशय्या । चैत्यालयोपाश्रयरूपासु श- सम। य्यासु, जीत। अरुणोदग-अरुणोदक-पुं० । अरुणद्वीपस्य परितः प्रसृते अरिहंतसासण-अर्हच्छासन-न0 । जिनागमे, प्रभ० ५ सम्ब० समु, अरुणोदे समुझे सुभष्मनाभद्री देवी । सू० प्र० १६ द्वा०। पाहु । चं० प्र० । द्वी० । न०। अरिहंतसिजा-अच्छय्या-स्त्री० । चैत्यगृहे, ध० २ अधि० ।। अरुणोववाय-अरुणोपपात-पुं० । अरुणो नाम देवस्तत्समयअरिहदत्त-अर्हद्दत्त-पुं० । आर्यसुस्थित-सुप्रतिबुझयोः पञ्चमे | निबको ग्रन्थस्तदुपपातहेतुररुणोपपातः । संक्षेपिकानां दशानां शिष्ये, कल्प० ८ ०। षष्ठेऽध्ययने, स्थान अरिहदिन-प्रदत्त-पुं०।सिंहगिरेश्चतुर्थे शिघ्ये,कल्प०८ का नन्द्यध्ययनटीकायां चूर्णिकारो भावयतिअरुउवसग्ग-अरुगुपसर्ग-पुं० । रोगरहिते उपसर्गे, तं०। जाहे तमज्य णं नवउत्ते समाणे अणगारे परियह साहे अरूपोपसर्ग-पुं० । पार्षत्वाद् वकारलोपः । रूपरहिते उत्पा-1 से अरुणे देवे ससमयनिवरत्तो चलियासणे संभमुते, तं०। भवनोयणा पत्तावही विघ्नाय हहपहढे चलचवलकुंअरुग-अरुक-न० । प्रणे, " अरुगं इहरा कुत्थर"वृ०३००। मलधरे दिव्वाए जुईए दिव्वाए विजूईए दिबाए गईर अरुण-अरुण-पुं० । नन्दीश्वरवरसमुषस्य परतोऽरुणोदस जेणामेव से जगवं समणे निग्गंथे अजयणं परियट्टेमाणे मुद्रपरिवेष्टिते हीपभेदे, स स वृत्तवनयाकारसंस्थानसंस्थि प्रत्येइ तेणामेव उवागावागछित्ता भचिभरोणयवतः। तत्र अशोकवीतशोकौ देवी । सू०प्र०१६ पाहु । अनु। यणे विमुक्कवरकुसुमगंधवासे नवे । नवयइत्ता ताहे से समद्वी । जी । प्रज्ञा ।नं० । स्था० । “रुयगा उ समुदाओ, एस्स पुरतो वित्ता अंतडिए कयंजलीमो जवउत्ते संवेगदीवसमुद्दा भवे असंस्विजा । गंतूण हो अरुणो, अरुणो दीयो तो उदही"॥ ६४ ॥ द्वी० । हरिवर्षनामाऽकर्ममिवृत्तवैता. विसुज्झमाणऊवसाणे तमज्यणं मुणमाणे चिट्ठ। सत्यपर्वतस्याधिपती देवे, स्था०४ ग०३३०। अरुणोपपात म्मत्ते अज्झयणे भण-जयवं ! सुसज्झाइयं मुसप्रन्धप्रतिपाद्ये देवे, स्था० १० ग० । उपा० । सू० प्र०। वि- ज्काइयं वरं वरेहि ति, ताहे से इहलोयनिम्पिवाते मानन्नेदे, अरुणादीनि दश विमानानि-" अरुणे १ अरुणाभे २ समतणमणिमुत्ताहलोहचणे सिचवररमणिपमिवनिखमु, अरुणप्पड़ ३ अरुणकंत ४ सिट्टेय ५ । अरुणज्झए य छ म्भराणुरागेसमणे पमिनण-न मे भो! वरेणं अट्ठो त्ति । ६, तय ७ मिसे ८ गवे काले १०" ॥ ५ ॥ शिष्टादिनामा-1 न्यरुणपदपूर्वाणि रइयानि । उपा० ६ अ०-जनन् । सूर्ये, ततो से अरुणदेवे अहिगयरजायसंवेगे पयाहिणं करेत्ता सूर्यसारथी, गुडे, सन्ध्यारीगे, निःशब्दे, दानवभेदे, कुष्ठनेदे, बंदर, नमंसद, वंदित्ता नमंसित्ता पमिगच्छद ।। नं०टी०॥ पुन्नागवृते, अव्यक्तरागे, कृष्णमिश्रितरक्तवर्णे च । तद्वति, त्रि०। यदा तदभ्ययनमुपयुक्तः सन् श्रमणः परिवर्तयति, तदाऽ. कुडूमे, सिन्दूरे च । न० मडिजष्ठायां, श्यामाकायाम, अतिवि- साबरुणो देवः स्वसमयनिवसत्वाच्चलितासनः संभ्रमाशापायां, नदीभेदे, कदम्बपुष्पायां च । स्त्री० । वाच । न्तलोचनः प्रयुक्तावधिस्तद्विशाय दृष्टप्रहएश्चलचपलकुण्डनअरुणगंगा-अरुणगङ्गा-स्त्री० । महाराष्ट्रजनपदमी बहति धरो दिव्यया द्युत्या दिव्यया विभूत्या दिव्यया गत्या यत्रवासी नदीभेदे, ती०१८ कल्प। भगवान् श्रमण अध्ययनं परिवर्तयति तत्रैवोपागच्छति । उपाअरुणप्पन--अरुणान-पुं०।चतुर्थेऽनुवेलन्धरनागराजे, तदा- गत्य च भक्तिनरावनतवदनो विमुक्तवरकुसुमवृष्टिरवपतति । प्रवपत्य च तदा तस्य श्रमणस्य पुरतः स्थित्वाऽन्ततिः कृतापासपर्वते च । जी०३ प्रति०। स्था० 1 विमानन्नेदे, सपा० । अाराहोश्चन्द्र गृह्णतो दशमे कृत्स्नपुझले,०प्र०२० पादु० । अलिक उपयुक्तः संवेगविशुद्ध्यमानाध्यवसानः तमभ्ययनं ग्रास्तिष्ठति। समाप्ते च भणति-सुस्वाध्यायितं सुस्वाध्यायितअरुणप्पभा-अरुणपना--स्त्री० । नवमस्य तीर्थकरस्य निक मिति वरं वृषिवति।ततोऽसाविहलोकनिष्पिपासासमतृणमणिमणशिषिकायाम्, स०। मुक्तासोटकाञ्चनः सिरुवरवधूनिर्भरनुगतचित्तः श्रमणः प्रति अरुणवर-अरुणवर--पुं० । स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रेच । तत्र जणति-नमेवरेणार्थ इति। ततोऽसावरुणो देवोऽधिकतरजातसं. अरुणवरे द्वीपे अरुणवरभद्रारुणवरमहाभजी, अरुणवरे समुझे वेगः प्रदक्षिणां कृल्पान्दते,नमस्यति । वन्दित्वा नमंसित्वा प्रअरुणभकारुणमहानद्रा देवौ । सू०प्र० १५ पाहु० । जी० । तिगच्छति । एवं वरुणापपातादिष्वपि भणितव्यमिति । स्थाo अनु । द०५०। १० वा० नं० । पा०ा द्वादशवर्षपर्यायस्य श्रमणस्य कल्पतेश्ररुपवरोभास-अरुणवरावजास-पुं० । स्वनामख्याते द्वीपवि- रुणोपपातः । व्य०१०। शेष, समुद्रविशेषे च । तत्राणवरावभासे द्वीपे भरुणवराव भरुय-अरुष-नावणे, "नातिकंइयं सेयं, अरुयस्लावरकभासभद्रारुणवरावभासमहाभद्रौ, अरुणवरावभाससमटे ति"। अरुषो व्रणस्यातिकपयितं नवैविखनं न श्रेयो न Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७०) अग्निधानराजेन्डः। प्रख्य अलक्क शोभनं भवति , अपि त्वपराध्यति, तत्कण्ड्यनं व्रणस्य दोषमा- अलंकरण-अलडुरण-न० । शोभाकारके, करप० ३००। वहति । सूत्र० १ श्रु० ३ अ० ३ ०। अलंकार-अझड्कार-पुं०। अलझक्रियते नूष्यतेऽनेनेत्यनङ्कारः। अरुज--त्रि०। आधिव्याधिवेदनारहिते, ध०२ अधि०। शरी कटककेयूरादिके, सूत्र०१ श्रु० ३ ० २ ०। औ० । प्रश्न। रमनसोरजावादू अविद्यमानरोगे सिद्धिस्थाने, स०१ सम० । रा० । दशा० । आभरणविशेषे, रा०। भा० म०। १० । असमऔ०। जी० । कल्प। कृ-करणे घञ् । जूषायाम , हारादौ नूषणे, साहित्यविअरुह-अहित-पुं० । “नचाहति" ।८।२ । १११ । इति पयदोषगुणप्रतिपादके ग्रन्थे, शब्दनूषणे-अनुप्रासादौ, शब्दासूत्रेण संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उदू, अदितौ च भवतः। धभूषणे-उपमादौ च । बाच० "चउबिहे अलंकारे पम्मत्ते । तं अरुहो , अरहो, अरिहो । प्रा० २ पाद । योग्ये, तीर्थ- जहा- केसालंकारे वत्थालंकारे मल्लालंकारे आभरणालंकारे"। करे च । प्रव०२७५ द्वार। स्था० ४ ० ४ ००। प्रा० चू० ॥ अरुह-पुं०ान रोहति भूयः संसारे समुत्पद्यते इत्यरुहः,संसा पद्यत इत्यरुहः,ससा- | अझंकारचूलामणि-अलस्कारचमामाण-पुं० । खनामख्यातेsरकारणानां कर्मणां निर्मूलका कपितत्वात् । अजन्मनि सिके, | लङ्कारग्रन्थे, यस्य वृत्तिः प्रतिमाशतक-नयोपदेशकृता कृता ॥ प्रव० २७५ द्वार । क्षीणकर्मबीजत्वात् (अरुहः) । आह च | नयो । प्रति०। "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्त. प्रादुर्भवति नाट्टरः। कमबीजे तथा दग्धे, अलंकारिय-अमडारिक-पुं० नापिते, ज्ञा० १३ । न रोहति भवाङ्करः" ॥१॥ भ०१ श०१ उ० । आव०। दर्श। प्ररूप-अरूप-त्रि० । न विद्यते रूपं स्वभावो यस्यासावरूपः। अलंकारियकम्प-अलङ्कारिककर्मन्-नानखम [म ] एमप्रतत्स्वभावे, अने०४ अधि० । नादौ, का० २ अ०। तुरकर्मणि, विपा०१ श्रु०६०। भरूवकाय-अरूपकाय-पुं०। अमूर्ते धर्मास्तिकायादौ, न० अलंकारियसहा-अलाइकारिकसना-स्त्री० नापितकर्मशाला याम, ज्ञा०१३अ० अक्षङ्कारिकसभा यस्यामसक्रियते। स्था० ७श०१० उ०। ५०३ उ०। अरूवि (ए)-अरूपिन्-त्रिका रूपं मूर्तिवर्णादिमत्त्वं तदस्या अलंकिय-अक्षाकृत-त्रि० । मुकुटादिनिः [प्रश्न ५ सम्ब स्तीति रूपी, न रूपी अरूपी । अमूर्से, स्था०५ ठा०३ उ०। धर्मास्तिकायादौ, प्रज्ञा०१ पद । भाव० । द्वा०] विभूषिते, दशा०१०१०। औ०। का० । कृतालङ्कारे, ज. श०३३ २० । उत्प्रेवादिनिरलङ्कारैर्विपिते, विशे०। “ धम्मत्यिकार तसे, तप्पएसे य ाहिए । अनु० । उपमादिभिः काव्यालङ्कारैरुपेते,प्रा०म०द्वि० । स्था। अहम्मे तस्स देसे य, तप्पपसे य ाहिए ॥ ५ ॥ आगासे तस्स देसे य, तप्पएसे य ाहिए । उत्त० । भन्यान्यस्फुटानस्वरविशेषाणां करणादलङ्कतम् स्था० भासमयए चेव, अरूवी दसहा भवे"॥६॥ सत्स०३६अ। ७ ग० । अनु । अन्यान्यस्वरविशेषकरणेनालङ्कृतमिव गी(टीकाऽनयोः 'जीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०३ पृष्ठे दर्शिता) यमाने गीतगुणभेदे, जी०३ प्रति।। स्पातीते अमुले आत्मनि,भ०१७श०२ उ०। दर्शाकर्मरविते | अलंचपक्खग्गाहि (ए)-अलञ्चापतग्राहिन्-पुं० ।" प्रलंसिके, प्रा. म.द्वि० । मुक्ते, स्था०२ ० १ उ०" अरूवी चपक्खगाढी, परिसया स्वजक्खाओ" न कस्यापि लश्चाससा, अपयस्स पयं नत्थि, सेणं सहेण रूपेण गंधण रसेण | मुत्कोचं गृहन्ति, नाप्यात्मीयोऽयमिति कृत्वा पकं गृहन्ति, ते फासे इश्वेतावंतित्ति बेमि" (अरूवी सत्त त्ति) तेषां मुक्ता- पतारशा अचापकग्राहिण रूपेण मृा यक्वा इव रूपयक्षाः, मनां या सत्ता साऽरूपिणी । अरूपित्वं च दीर्घादिप्रतिषेधेन | मूर्तिमन्तो धर्मैकनिष्ठा देवा श्त्यर्थः। व्यं गृहीत्वाऽत्मीयत्वेन प्रतिपादितम् । प्राचा०१७०५०६ उ०। पक्कापरिग्राहकेषु रूपयक्केषु, व्य० १ उ०। अरूविअजीवपएणवणा-अरूप्यजीवप्रडापना-स्त्री० । रूप- प्रसंधूम-असंधूम-पुं० । अत्यन्तमसिने, अष्ट० ३ अष्ट। व्यतिरेकेणारूपिणो धर्मास्तिकायादयः,तं च ते अजीवाश्च अरू- अलंबसा-अलम्बुषा-स्त्री०- उत्तरदिग्भागवतिरुचकवासिन्यां प्यजीवाः तेषां प्रशापना अरूप्यजीवप्रकापना। अजीवप्रका- दिक्कुमा-म, ०५ वक०प्रा०म० बी० प्रा० का पनाभेदे, प्रज्ञा०१ पद। स्था० । आ००। अरे-अरे-अव्य०। रतिकलहे, “अरे! मए समं मा करेसु उव अलंजोगसमत्थ-अलंजोगसमर्थ-त्रि० । प्रत्यर्थ भोगानुनबनसडासं" प्रा०२पाद । रोषाहाने, नीचसंबोधने, अपकृती, अ. | सूयायां च । वाचः। प्ररोग-रोग-त्रि०। निष्पीमे, भ०१७ श०१०। अशेष- अलक-प्रलके-पुंoावाराणसीनगर्यो राजन्नेदे,अन्ततत्कथाइन्द्वरहिते सिद्धे, सूत्र० १ श्रु० १० १००। नकंतु अन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य षोडशेऽध्ययने प्रतिपादितम्। तद्यथा-"तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसीए णयरीए काममअल-अल-न० । भब्-अच् । वृश्चिकपुच्छस्थे कण्टकाकारे हावणे चेति । तत्थ णं वाणारसीए एयरीए अलके नाम राया पदार्थे, हरिताले च । वाच । अभीष्टकार्यसमर्थे, आचा०२ होत्था। तेणं कामेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे० जाब श्रु०५ अ०१० । अलादेव्याः सिंहासने, शा०२ श्रु०। विहरा,परिसा निग्गया। तएणं असक्के राया श्मी से कहाए स०, अलं-अलम-अव्य०। पर्याप्ते, नि००१ उ०। आचा। भ०। हन्तुह० जहाकुणिए नगवों महावीरस्स० जाव पज्जुवासति, का। दश । समर्थे, स्त्र० १ श्रु० अ०। प्रत्यर्थे, औ०।। धम्मकहातं से अलके राया समणस्स जहा सदायणे राया तहा प्रतिषेधे, सूत्र०२ श्रु. ७ अ०। मूषणे, सामर्थे, निवारणे, नि. निक्खंतो,नवरं जेटुपुतं रजे अनिसिंचति० जाय एकारस अंगाई बेधे, निरर्थकत्वे, अस्त्यर्थे, अवधारणे च । वाच। | बहुहिवासाई परियातो० जाय विपुसे सिके" मन्त०७वर्ग स्या Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलक्खण्या अझक्खण्या-लक्षणता स्त्री० । असमन्जसाभिधायितायाम, विशे० । लगापुरी - अलकापुरी - स्त्री० । वैश्रवण यक्ष पुर्य्याम, अन्त०१ वर्ग०/ अक्षयपुर-अयलपुर-म० "अचलपुरे चलो:२११ इति सूत्रेण पुरशब्दे नकारप्रकारयोत्ययः । कृष्णावे नानद्योः समीपस्थनगरे, प्रा० २ पाद । अल-अनक ५० बाारसे, अनु अत्तय- अलक्तक-पुं०। लाकारसेन रक्ते, “जे रसए ते अनन्तए" । यो रक्तो लाकारसेन -[ प्राकृतशैल्यां कन् प्रत्ययः ] स एव रश्रुतेर्तश्रुत्या अलक्तक उच्यते । अनु० । अल-अलब्ध- -त्रि० । अनुपाते, स्था० ५ ० २ उ० । अप्रातेच सूत्र० १० २ श्र० ३ ३० । 9 लाजुत्त - अलब्धियुक्त - त्रि० । स्वकीयलाभविहीने, पञ्चा० १८ विच० । ( ७७१ ) अनिधानराजेन्द्रः । रहते २० असकिय अलब्धिक अलमसिरीअलजश्री श्री० [अलादन्या मातरि श्रलमंधु - देशी - पुं० | समयभाषया समर्थे, स्था० ४ वा० २० अलमरधु ह्ममस्तु शि० अमस्तु निषेधो भवतु य पयमा ह सोऽलमस्त्वित्युच्यते । निषेधके, स्था० ४ ठा० २ उ० । प्रलय- अलक- पुं० । वृश्चिककण्टके, "अलए भंजावेद ” इति वृश्चिककका शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः ॥ विपा० १४०६० अक्षयमा अलका श्री० [कैलासस्य पूर्वतः पुण्यमी अलपा - अलका श्री वैश्रवम० अ० लव-सप-त्रि। लपन्तीति बपा वाचालाः । घोषितानेकन र्क चिविषमका तथा न पा भला मौनमालिकेषु मिति योगेषु गुटिकादिषु पसाद अभिधेयविषया धागेव न मिस्सरति । सूत्र० २ श्र० ६ ० । अनवासक-लवणसंस्कृत विशिष्टसंस्काररहिते, व्य० ४ ० । अलस+अह्मम० निरुद्यमे, २०१० मन्दे, जीवा० । असमर्थ च | सूत्र० २ श्रु० २ अ० । स्था० । गएडोलके, पुं० । " अनसो ति वा गंगो सि वा सुनायो चिया बग" नि०यू०१४०॥ अल्लसग--अलसक--पुं० । “ नोर्ध्वं व्रजति नाधस्तादाहारो न च पच्यते । आमाशयेऽलसीभूतस्तेन सोsनसकः स्मृतः ॥ १ ॥ कालिक उपा 66 हस्तपादादिस्तम्भेश्वयथौ, श्राचा० १ ० २ ० १ उ० । अलसमाण सायमान- त्रि० । अनलसोऽलसो भवतीत अतसायते, अलसायत इति अलसायमानः । श्रत्र माच् सोहि ३४ ३० इति हेमसूत्रेण लोहितादेराकृतिगणत्वात् व्यर्थे क्यप्रत्ययः, स च पित् । आलस्यं भजमाने, ग० १ अधि० । - अक्षससत्त - श्रम ससस्त्र न० कापुरुषे, वृ० १ उ० । अलसी - अतसी स्त्री० | "असती सातवाने लः || २|११| इति सूत्रेण तस्य लः । प्रा० १ पाद । धाम्बभेदे, आचा० १ भु० १०५३० । अलाभपरि (री) सह अन हुय- अलघुक-न - न० । श्रत्यन्तसूक्ष्मे, स्था० १० वा० । अन्ना- भन्ना स्त्री० विधुकुमार महतरिकाभेदे, स्था० ६ डा० । पररास्व नागकुमारेन्द्रस्याप्रदिष्या शा० २० महिसी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १७० पृष्ठेऽस्याः पूर्वापरभवावुती) प्रला अनायु न० तुम्यके, औ० अनु० सू० । - | । । सूत्र० - न० । अलाबुकं विद्यते येन तदलाचुआला उच्छेय- अलाबुच्छेददमके पिप्पखादिश, मूत्र० १०४०२३० अलाउपाय - अलाबुपात्र न० | तुम्बकभाजने, औ० श्राचा० स्था०| अलाघवया - अलाघवता - स्त्री० । अविद्यमानं लाघवं लघुता यस्य स तथा; तद्भावोऽलाघवता । बाघवाभावे, बृ० । अघालाव्या उहि सरीरमलाप, देदे णिद्धाइकसरीरों संघसगसासभया, ण विहरड़ विहारकामो वि ॥ लाघवं गौरवम् । तश्च द्विधा - उपधौ, शरीरे च । तत्र देहे देहविषयमाययमिदम्-तिदिन आदिगु रादिमधुरः प्रतिदिनमस्य च हिमारी सन् मार्गे गच्छतः शरीरामुल्य यो गात्रसंघ या यास तद्भयाद्विहरणकामोऽपि न विहरति । अथोपकरणे लाघवमाद सागारि पुराभाग रहन दास अविसक जारजया । ण विहरति श्रोम सावय, नियईअगणि भाए एज्जो ति ॥ सागारिकेण शय्यातरेण, तदाऽऽदौ स्वपुत्रैर्भ्रातृनिर्नप्तृभिश्च पौत्रैः कस्यापि साधोरविषहस्यातीवप्रभूतस्य कम्बल्याद्युपकरणस्य दानमकारि । स च साधुस्तद्भारजयान्न विहरति । अन्यदा तत्राचमं किं संजातम् । स चापि न विरति [ साथ सि] श्रावण चिन्तितम् एव साधुः किमद्यापि न विहरति, नूनं बहूपकरणप्रतिकोऽयम् । ततस्तेन श्रावकेण तस्य संयतस्य भिक्काद्य विनितस्य सर्वमप्युपकरणं निष्कारयाम्यत्र संगोप्य निह त्या मायया तदीय उपाश्रयः सर्वोऽपि [ अगणि ति ] अग्निना प्रदीपितः । ततः समायातः, दृष्टः प्रतिश्रयो दग्धः । कृतवान् हा ! कई दाहा! कथं, बहूपकरणं दग्यमिति परि पृशख आयकाः किञ्चिदुपकरणं निष्काशितं न वेति । सादन] शकं किमपि निष्काशातुं परं [भाग ] भाजनद्वयं महता कष्टेन निष्काशितम् । ततः साधुना भणितम्विहरामि संप्रति यस्यां दिशि सुनित्तम् । श्रावकः प्राह - [ पा सि ] सुभक्षीभूते भूयोऽप्यागच्छेः । ततः प्रतिपत्रं साधुना तद्वचनम्। समागतः कालान्तरेण पुनरपि तत्रैवासौ । निवोदितः आयकेण बधायस्थितो व्यतिकर, मयित्वा च सर्वमपि त दीयमुश्करण एवमादयो दोषा उपकरणाला भवन्ति। बृ० २ ८० । पञ्चा० । नि० चू० । अलाभ ( अलाज-पुं० भने लामा, न लामो ह भः । अभिलषित विषयाप्राप्तौ उत्त० २ म० । अलाज (ह) परि (री) सह-अलानपरिषद - पुं० । अलाभः प्रतीतः, तत्परिषणं च तत्र दैन्याभावः । भ० ८ उ० | प्रब० । स० । प्रश्न० । नानादेशविहारिणो विभवमपेक्ष्य बहुषश्चनीचैर्गृहेषु भिकामानवाप्याऽप्यसंविष्टचेतसोदा श० Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७१) अलाभपरि (री) सह अभिधानराजेन्द्रः। अलाहि तृविशेषपरीक्षानिरुत्सुकस्य 'अलाभो मे परमं तपः' इत्येवमधि- तैयव जितः। तृतीये प्रहरे बलदेवः । सोऽपि तथैव जितः, कगुणमलान मन्यमानस्याऽझानपीडासहने, पं० सं०४बार । तुर्ये प्रहरे उत्थितं कृष्णं क्रोधपिशाचस्तथैव प्रोक्तवान्। कृष्णः स चैवम्-याचितालाभे सति प्रसन्नचेतसैवाविकृतवदनेन प्र- प्राह-मां जित्वा मत्सहायान् भक्कय । ततो यथा यथा कोथवितव्यम् । आव०४०। तमुक्तम् पिशाचो युध्यति तथा तथा कृष्णः-'अहो ! बलवान् एष म" परात्परार्थ स्वार्थ वा, सभेताऽन्नादिनाऽपि वा। ब्लः' इति तुष्यति। यथा यथा कृष्णस्तोषवान् भवति तथा तथा मायेन्न लाभाद् नालाभाद्,निन्देत्स्वमथवा परम्"शध०३अधिः पिशाचःक्षीयते । एवं कृष्णेन पिशाचः सर्वथा कीणः स्ववन“परकीयं परार्थ च, लज्येताऽन्नादिनैव वा। मध्ये किप्तः। प्रभाते तदङ्गानि राष्ट्वा कृष्णेनोक्तम्-किमेतद्भवतां जा. लम्धे न मायेद् निन्देद् वा, स्वपरान् नाप्यमानतः " ॥१॥ तम। ते सर्वेऽपि रात्रिवृत्तान्तं प्राहुः । कृष्णेन स्ववस्त्रमण्यादाश्रा० म०वि०। कृष्य दर्शितः। एवं कृष्णवद् यस्तोषवान् भवति सोऽवानपरीप्रवृत्तेच कदाचित् लाभान्तरायदोपतो नसभेतापीत्व- पहं जेतुं शक्नोति। लाभपरिषदमाह अथ द्वितीयं लोकोत्तरं दणदणकुमारकथानकं कथ्यते-कस्मिपरेसु घासमेसेज्जा, भोयणे परिनिहिए । श्चिद ग्रामे कोऽपि कृशशरीरी कुटुम्बी (पाराशरो विप्रः) बसति सके पिंमे अलके वा, पाणुतप्पेज्ज संजए ॥१॥ स्म। अन्येऽपिबहवस्तत्र कुटुम्बिनो वसन्ति स्माधारकेणतेराजअजेवाहं न लग्जामि, अवि लाभो सुए सिया।। वेर्षि कुर्वन्ति स्म। राजसत्कपञ्चशतहलानि वाहयान्ति स्म। एक दातस्य शशरीरिणः पञ्चशतहलवाहनवारका समायातः, तेन जो एवं पमिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए॥५॥ चवादिता वृषनामभकपानवेलायामप्येकोऽधिकचाचो दापितः। प्रा० चू०४ ०। तदातरायं कर्म बरूम,ततोमृत्वाऽसौ बहुकालामतस्ततःसंसा(परेसु इत्यादि) परेष्विति गृहस्थेषु प्रासं कवसम, अनेन रे परिभ्रम्य कस्मिंश्चिद्भवे कृतसुकृतवशेन द्वारिकायां कृष्णवाच मधुकरवृत्तिमाह । एषयेद्वेषयेत्, तुज्यत इति भोजनमो- सुदेवस्य पुत्रत्वेन समुत्पन्नः। ढण्ढपेति तस्य नाम प्रतिष्ठितम् । दनादि, तस्मिन्परिनिष्ठिते सिद्धे मा उत्प्रथमगमनात्तदर्थ पा- स दराढणकुमारः श्रीनोमपावें अन्यदा प्रबजितः। लानान्तकादिप्रवृत्तिः, ततश्च लब्धे गृहिभ्यः प्राप्ते, पिरामे पाहारेऽलब्धे रायवशान्महत्यामपि द्वारिकायां हिण्डमानो न किञ्चिदनादि वाप्राप्ते नानुतप्येत संयतः। तद्यथा-अहो! ममाधन्यता, यदहं लभते, यदि कदाचिल्लभते तदा सर्वथाऽसारमेव । ततस्तेन न किञ्चिल्लने । उपलकणत्वात्-सब्धे वा लब्धिमानहमिति न | स्वामी पृष्टः। स्वामिनातुसकलः पूर्वभववृत्तान्तः तस्य कथितः। येत् । यद्वा-लब्धेऽप्यलोऽनिष्टे वा संभवत्येवानुताप इति . तेन चाऽयमनिग्रहो गृहीतः-परलाभो मया न प्रायः। अन्यदा त्रार्थः। किमालम्बनमालम्ब्य नानुतप्येत,त्याह-(अज्जेवेत्यादि) | धासुदेषेन स्वामिना इति पृष्टम-भगवन् ! एतावत्सु भ्रमणसअद्यैवास्मिन्नेवाइम्यहं न लन्नेन प्राप्नोमि । अपिः संभावने संभा- | हस्रेषु को दुष्करकारकः । स्वामिना ढएढणर्षिरेव दुष्करकाव्यते-पतल्लाभःप्राप्तिश्चश्वः आगामिनि दिने,स्यादवेत् । उपल- रक ति उक्तम् । कृष्णेनोक्तम्-स श्दानी कास्ति । स्वामी कणत्वात् इव इत्यन्येयुरन्यतरधुर्वा मां स्यादित्यनास्थामाहाय प्राह-वं नगरं प्रविशन् तं उदयसि । हष्टः कृष्णः श्रीनेमिजिनं एवमुक्तप्रकारेण(पमिसंचिक्खे त्ति)प्रतिसमीकते अदीनमनाःस- प्रणम्य सस्थितः। पुरद्वारे प्रविशन् तं साधु रवान्, हस्तिस्कअलानमाश्रित्यालोचयत्ति,अलाभोऽलाभपरीवहः,तं न तर्जयति ग्धादुत्तीयं कृष्णस्तं वचन्दे । तेन धन्द्यमानोऽयं साधुरेकेनेत्येन नाभिनवति, अन्यथा नूतस्त्वनियत इति भावः॥ उत्त०३०॥ दृष्टः। चिन्तितं च तेन-अहो! एष महात्मा कृष्णेन यन्यते । एवं मथ 'नाणुतप्पेज संजये ति 'सूत्रावयवमर्थतः चिन्तयत एव तस्य गृहे ढएढणर्षिः प्रविष्टः। तेन मोदकैःप्रतिस्पृशन्नुदाहरणमाह लाभितः। ततः स्वामिसमीपे गत्वा पृच्छति-मम लाभान्तरायः जायणपरीसहम्मी, बलदेवो इत्थ होइ श्राहरणं । क्षीणः । स्वामिना उक्तम्-एप वासुदेवलानः । मम परलाभोन किसिपारासर ढंढो, अलाभए हो उदाहरणं ।। ५० ॥ | कल्पते प्रत्युक्त्वा नगरादू बहिर्गत्वा उचितस्थगिमले मोदकान् विधिना परिष्ठापयन् गुजध्यानारोहण केवली जातः । एवमन्यैउत्त० नि०१खाएड । रपि भलानपरीषहः सोढव्यः । अलाभात् अनिष्टाहारसाभात, याचापरीष बलदेवोऽत्र भवत्याहरणमुदाहरणम् । कृषिप्रधा अस्याहारप्रान्ताहारभोजनात शरीरे रोगा उत्पद्यन्ते,मतो रो. नः पाराशरः कृषिपाराशरो, जन्मान्तरे (ढंढ इति) ढएढणकु- गपरीषहोऽपि सोढव्यः। उत्त०२०। मारोऽलाभकेऽनाभरीबहे भवत्युदाहरणमिति गाथाऽक्तरार्थः । अलाय-अन्नात-नक। उल्मुके, ०५ उ० । का० । जी० । भावार्थस्तु संप्रदायादवसेयः । उ० ३ ०। प्रशाादश स्था। अग्रभागे ज्वलत्काठे, नं0। अत्र अलाभपरीषहे कथाद्वयम-लौकिकं १, लोकोत्तरंच। अलावमिसक-अनावतंसक-न० । मलादेष्या भवने,का० २४०। तत्र प्रथम सौकिकं कथानकं कथ्यते-एकदा कृष्णः १, बलदेवः २, सात्यकिः ३, दारुका ४, एते चत्वारोऽप्यश्वापहता अटव्यां अलावु-अलाबु-न० । “यो वः" ७।२ । २३७ । इति सूत्रण घटवृकाधो रात्रौ सुप्ताः, आद्ये प्रहरे दारुको यामिको जातः, बस्य वः। प्रा०१पाद । तुम्बे, जं० ३ वक्क० । "अलावुगा ण अन्ये त्रयः सुप्ताः तदानीं क्रोधपिशाचः तत्रायातोदारुकंप्रत्या- प्ररिज्जति " नि००१ उ०। ह-अहमेतान् सुप्तान साम्प्रतं भकयामि, यदि तवैषां रकणेश- अनाहि-अव्य० ।" अलाहिइति निवारणे" ८।२।१६। क्तिस्ति तदा युद्धं कुरु। दारुकणोक्तम्-बाढम्। ततो लग्नं युरूम। प्रबाहि ति निवारणे प्रयोक्तव्यम् । “मलाहि किंवाउपण यथा यथा दारुकस्तं पिशाचं हन्तुं न शक्नोति तथा तथा तस्य मेहेण" प्रा० २ पाद। क्रोधो वर्कते। तथा च दारुकस्य न युद्धसाभो जाता,पराभूत पव मलम-अव्या पर्याप्ती, मलमत्यथै पर्याप्तः शक्तः भ०१५ .दारुका सुप्तः । द्वितीये प्रहरे सात्यकिकत्थितः। क्रोधपिशाचेन । शु०१०। Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७३) अलिउल अनिधानराजेन्षः। अलियवयण अनिउल-अलिकुल-न० । भ्रमरसमूहे, “छीबे जरशसोरिं" | रामित्यादि वदतः । इदमपि सर्वचतुष्पदविषयात्रीकस्योपक्षक्ष. 1018 | ३५३। इति जनासोः '' इत्यादेशः। "कमसई मेल्लषि | एम् २ । तम्पलीकं परसक्कामप्यात्मादिसताम्, प्रात्मादिसभलिबल, करि-गडा महंति" । प्रा०४ पाद । तां वा परसक्ताम, ऊषरं वा क्षेत्रमनूपरम्, अनूषरं बोपरमित्या. अलिंग-अलिङ्ग-नाप्रधाने, (साझ्यपरिकल्पितप्रकृती,)। दि वदतः । इदं चाशेषाऽपदद्रव्यविषयालीकस्योपसकणम । द्वा०२०द्वा०। यदाह-"कम्मागहणं उपया-णसूभग चउपयाण गोवयणं । अपयाणं दवाणं, सब्याणं शूमिवयणं तु" ॥१॥ ननु य. अलिंजर-अग्निजर-न० । महदकभाजनविशेष, उपा० ७ घेवं तर्हि द्विपदचतुष्पदापदग्रहणं सर्वसंग्राहकं कुतो न कृ. प्राबदककुम्ने, स्था० ४ ग०२० । तम् । सत्यम । कन्याद्यनीकानां लोकेऽतिर्हितत्वेन रूढश्रालिंदग-अलिन्दक-पुं०। गृहाहाराप्रवर्तिगण्डिकायाम, त्वाद्विशेषेण वजनार्थमुपादानम् । कन्याऽ बीकादौ च भोगान्तवृ. २२० । नि० चू। रायद्वेषवृद्ध्यादयो दोषाः स्फुटा एव । यत आवश्यकचूर्णी "मुसावाए के दोसा, अकजंते वा के गुणा? । तत्थ दोसा अखिदुग-प्रबिन्दुक-न । एमत्वे, अनु० ॥ कामगं चेव अकागं भणतो भोगतरायदोसा; पछा वा श्राअसित्त-अलिप्त-त्रि० । प्रकृतलेपे, अलिप्तस्य तत्वसमाधिर्म-| तघातं करेज्ज, कारवेज्ज वा; एवं सेसेसु भाणिअव्वा" इत्या. वति, पूर्णानन्दवृत्तिरपि । अष्ट० ११ अष्टः । दि। तथाऽन्यस्य ते रकणायान्यस्मै समयते इति ३। न्यासः सुवर्णादिः, तस्य निहवोऽपलापस्तद्वचनं स्थूलमृपावादः। इदं अरित्र-न । नौकेपणकाष्ठोपकरणभेदे, प्राचा० २ भु० ३ चानेनैव विशेषणेन पूर्वालीकेभ्यो नेदेनोपात्तम् । अस्य चाद१०१००। तादाने सत्यपि च तस्यैव प्राधान्यविवकणान्मृषावादत्वम् । अलिपत्त-अलिपत्र-नावृश्चिकपुच्छाकृती,विपा०१७०६०। कूटसाक्ष्य सभ्यदेयविषये प्रमाणीकृतस्य लश्चामत्सरादिना कटं अलिय-अलीक-न०। पुं०।" पानीयादिष्वित्" ।। १।१० वदतः । यथा-'अहमत्र साक्षीति' अस्य च परकीयपापसमर्थ कत्वलकणविशेषमाश्रित्य पूर्वेन्यो भेदेनोपन्यासः ५ इति । अ. इति सूत्रेण ईकारस्य इत्वम् । प्रा०१ पाद । कषायबशान्मिथ्या प्राय भावार्थः-मृषावादः क्रोधमानमायालोभत्रिविधरागद्वेषभाषणे, अनृतभाषणे, उत्त०१०। मृषावादे, प्रव० २३७ हास्यभयवीमाक्रीडारत्यरतिदाक्किण्यमात्सर्यविषादादिभिः सद्वा० । स्था० । प्रश्न० । दर्श० । द्विधा अलीकम्-अनूतो भवति। पीडादेतुश्च सत्यवादोऽपि मावादः। सद्भयो हितं सद्भावनं, नूतनिहवश्व । यथा-'ईश्वरकर्तृकं जगत्' इत्याद्यन्न त्यमिति व्युत्पत्या परपीमाकरमसत्यमेव ।यत:-"असिन जा. तोद्भावनम् । 'नास्त्यात्मा' इत्यादिस्तु मृतनिहवः। विशे० । सिव्वं, अस्थि हु सच पिजन वत्तन्वं ।सचं पितं न सच, जे श्रा०मा नि0 चू०। अनु0 । भ० । असीकवादजनितकर्मानौ, परपीमाकर वयणं" ॥१॥ स च द्विविधः-स्थूल, सूक्ष्मश्च । प्रश्न०३ आश्र0 द्वा० । “अलियनियडिसातिजोयबहुलं". तत्र परिस्थूलबस्तुविषयोऽनिदुष्टविवकासमुद्भवश्च स्थूलः, तलीका शुभफलापेक्वया निष्फलो यो निकृतवन्धनप्रच्छादनार्थ द्विपरीतः सूदमः । श्रादहि-"दुविहो अमुसावाओ, सुहुमो थूलो वचनस्य [सासि] अविश्रम्भस्य च अविश्वासवचनस्य योगो व्यापारस्तेन बहुलं प्रचुरं यत् तत्तथा । प्रश्न. २ आश्र० अ तत्थ इह सुहुमो। परिहासाश्प्पभवो, थूलो पुण तिव्वसंकेसा" द्वा०।" अलियं न भासियव्वं, अस्थि द स पिजन वत्तव्वं । ॥१॥श्रावकस्य सूक्ष्ममृषावादे यतना, स्थूलस्तु परिहार्य एव । सच्चं पि होइ अनियं, जंपरपीमाकरं वयणं" ॥१॥ दर्श० । तथाऽऽवश्यकसूत्रम्-'थूलगमुसाबादं समणोवासो पश्चक्वाइ, से अ मुसाबाप पंचविहे पराणत्ते । तं जड़ा-कम्मालिए १, अनियणिमित्त-अलीकनिमित्त-नामृपावादप्रत्यये,व्य० २२० गवालिए २, नोमालिए ३, णासावहारे ४, कूमसक्खे अ५ अलियजीरु-प्रतीकनीरु-पुं० । सत्यवादिनि, व्य०७०। इति । तच्चूर्णावपि-“जेण भासिएण अप्पणो परस्स वा अ तीव बाधाओ अश्संकिलेसो य जायते, तं अटाए वाऽणाए श्रलियवयण-अलीकवचन-नावितथभाषणे, प्रव०४१ द्वार। वा ण वएज्जत्ति" । पतच्चासत्यं चतुर्बा-नूतनिन्हवः १, यथा-कि दिवा प्रचलायसि ? इत्यादिप्रश्ने-न प्रचलयामीत्यादि अभूतोद्भवनं २, अर्थान्तरं ३, गर्दा च ।। तब भूतनिन्हवो भणने, प्रव. २३५ द्वार । उत्त०स्था० । ( पश्चालीकानि) यथा नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्यं, नास्ति पापमित्यादि १। अभूभथ द्वितीयमणुव्रतं दर्शयति तोद्भावनं यथा-आत्मा श्यामाकतन्दुलमात्रः, अथवा सर्वगत द्वितीय कन्यागोनूम्य-लीकानि न्यासनिहवः। प्रात्मेत्यादि । अर्थान्तरं यथा-गामश्वमभिवदतः ३ । गर्दा कूटसाक्ष्यं चेति पश्चा-सत्येन्यो विरतिर्मतम् ॥ २६ ॥ तु त्रिधा-एका सावधव्यापारप्रवर्तिनी, यथा-केत्र कृषेत्यादि १। द्वितीया अप्रिया-कारणं काणं वदतः। तृतीया आक्रोद्वन्द्वान्ते भूयमाणाप्लीकशब्दस्य प्रत्येकं संयोजनात् कन्या शरूपा, यथा-अरे! बान्धकिनय!३ श्त्यादि । ध०२अधि। सीकं, गवालीकं, तूम्यमीकं चेति, तानि । तथा-प्यासनिन्हवः | दर्श। पञ्चा। श्रा। कटसाच्यं चेति, पञ्च पञ्चसंख्याकानि, अर्थात् क्लिष्टाशयसमुत्थस्वात स्वासत्यानि, तेभ्योविरतिर्विरमणं, द्वितीयं अधिकारा अलीकवचनप्ररूपणादव्रतं मतं,जिनैरिति शेषः । तत्र कन्याविषयमलीकं कन्याली. जे निक्खू बहुमयं मुसं वय, वदंतं वा साइज्जइ ॥१॥ कं द्वेषादिभिरविषकन्यां विषकन्यां, विषकन्यामविषकन्यां चा, मुसं प्रलियं, लहुसयं अल्पं, तं वदो मासलहु । सुशीला वा पुःशीलां, दुःशीसांवा सुशीलाम, इत्यादि बदतो तं पुण मुस चविडंभवति । इदं च सर्वस्य कुमारादिद्विपदविषयस्यासीकस्योपनकणम् ॥गवालीकम्-अल्पकारांबटुकारा, बटुक्कारांवाऽल्पत्ती। दवे खेत्ते काले, जावे लहसगं मसं होति । Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७४) भलियवयण अन्निधानराजेन्डः। अलियवयण एतेसिं गाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुब्बीए । ६०। जे य जणो अवाया, सपमीपक्खा ज णेयन्वा ॥ णाणसे विसेसो, प्राणुपुवीए दव्वादिउवनासकमेण ब-| यो धक्ता अलीकवचननाषकः, यश्च वचनीयः-अलीकवचनं पखाणं। यमुद्दिश्य भएयते, बेषु च स्थानेष्वलीकं संत्रवति, यारशीच - स्मे दम्वादि उदाहरणा तत्र शोधिःप्रायश्चित्तम, ये चाऽलीकं भणतो अपाया दोषाः,ते दब्बे वत्थपयादिसु, खेत्ते संथारवसहिमादीम् । सप्रतिपक्षाः सापवादा अत्र भणनीयतया ज्ञातव्याः। इति द्वा रगाथासमासार्थः। कालेऽतीतमणागा, नाचे भेदा इमे होति ॥ ६१ ॥ साम्प्रतं तामेव विवृणोतिपदमपादस्स वक्खाणं प्रायरिए अनिसेगे, निक्खाम्म य थेरए य खुईय। मजा पुणो णेस तुहं,णयावि सो तस्स दबतो अलियं । गुरुगा लहुगा गुरुलहु-जिएणे पमिलोम विश्रणं ॥ गोरस्सं च जणंते, दवंजूते व ज भणति ॥ ६॥ वत्थं पायं च सहसा भणेजा-मज्क एस ण तुऊ, सहसा इहाचार्यादिर्वक्ता, पचनीयोऽपि एकैकतरः । सत श्दमुच्यतेगोरश्वं छूते, द्रव्यतो बा अनुपयुक्त इत्यर्थः। प्राचार्यमलोकं भणति चतुर्गुरु, अभिषेक भणति चतुर्लफु, भिलु भणति मांसगुरु,स्थविरं भणति मासलघु, कुलकं प्रणति . महवा दव्वालियं इम निसमासः । (पडिलोम विहएणं ति) द्वितीयेनादेशेनैतदेव वत्थं वा पाय वा, अणुप्पाक्ष्यं तु सो पुट्ठो। । प्रायश्चितं प्रतिलोमं वक्तव्यम् । तद्यथा-आचार्यमलोक भणति भणति मए उप्पाश्य, दंव्वा भलियं नये अहवा ॥६॥ भिन्नमासः, अनिषेक प्रणति मासलघु, एवं यावत् कुलकं नणतश्चतुर्गुरु, एवमाभिषेकादीनामप्यालीकं भणतां स्वस्थाने वत्थपात्रतादि अनेण उम्गमिया, अमोजण-मए बप्पाश्या ।। परस्थाने च प्रायश्चित्तमिदमेव मन्तव्यम् । भभिलापश्चेत्य दन्बो अलियं गयं। कर्तव्या-अभिषेकमाचार्ये भलीकं प्रणति चतुर्लघु श्त्यादि ॥ खेत्तत्रो (संथारवसतिमादीसु इत्यादि) अस्य व्यास्या- तस्वलीकवचनं येषु स्थानेषु संभवति, तानि सप्रायश्चित्ता नि दर्शयितुकामो द्वारगाथावपमाहणिसिमादीसंमूढो, परसंथारं भणाति मज्झेणं। सो खेत्तवसही व प्रो-syग्गमिया वेति तु मए त्ति ।६।। पयला उद्धे मरुए, पच्चक्खाणा य गमण परियाए। (णिसि ति) राईए अंधकारसंमृदो परसंथारामि प्र समुदेससंखमीभो, खुड्गपरिहारियमुहीओ। प्पणो भणहा मासकप्पपाउग्गं बा वासावासपाउम्गं वा खित्तं श्रावस्सगमणं दिसा-मु एगकुले चेव एगदब्बे य ।। बसही रिवनमा अमेऽणुग्गमिया भणाति-मए ति। स्वित्तो पमियाखित्तागमणं, पमियारिखत्तायचुंजणयं ॥ घा मुसावाश्रो गो। प्रचलापदमापदं मरुकपदं प्रत्याख्यानपदं गमनपद पर्यायकालातीतमणागए त्ति' भस्य व्याख्या पदं समुद्देशपदं संखडीपदं क्षुद्धकपदं पारिवारिकप [मुहीकेणुवसमितो सहो, मए ति उत्सामितोऽणयाऽतीए । भो त्ति] पदैकदेशे पदसमुदायोपचारादू घोटकमुखी पदम, अकोण हुतं नवप्तामे, अणातिसतो अहं एस ॥६॥ वयं गमनपद दिग्विषयपदं, एककुलगमनपदं, एकद्रव्यग्रहण पदं, प्रत्याख्याय गमनपदं, प्रत्यास्याय भोजनपदं चेति द्वारगापको अनिग्गहमिच्छो एगेण सामिणा स्वसामित्रो। अनोसाह थाद्वयसमासार्थः। पुच्छिमो-केणेस सलो उवसामिओ ?। अन्नया विहरतेण मए ति । भवंतीए एगो अभिग्गहमिच्छो अरिहंतसाहुपडिणीओ। प्रयतदेव प्रतिद्वारं विवृणोतिसाहूण व समुल्लायो-को गुतं नवसामेज !! तत्थ एगो साहू पयलासि किंदिवाण य,पयमामिला दुह णिएहवे गुरुगा। प्रणातिसत्तो भणति-सोय अवस्सं मया अवसामियब्वो। एवं अभदरसितनिएहवे, लडुगा गुरुगा बहुतराणं । एण्यकालं प्रति मृषावादः। कोऽपि साधुर्दिया प्रचलायते, स चाम्येन साधुना प्रणित:अधवा कालं परुष इमो मुसाबादो किमेवं दिवा प्रचसायसे । स प्रत्याह-न प्रचलाये;पर्व प्रथमतीतम्मि य अट्ठम्मी, परचुप्पले यणागते चेव । वारं निडवानस्य मासलघु, ततो भूयोऽप्यसौ प्रचलायितु विधिसुत्ते जं जाणित, भणाति णिस्संकितं जावे ॥६६॥ प्रवृत्तः । तेन साधुना प्रणितः-मा प्रचलायिष्ठाः। स प्रत्याहतीतमणागतपप्पनेसु कालेसु जं मपरिमायं तं निस्संकियं न प्रचालये । एवं द्वितीयवारं निहवे मासगुरु । ततस्तथैव भासंतस्स मुसाबानो भवति। विधिसुतं दसवेयालियं, तथापि प्रचसायितुं प्रवृत्तः, तेन च साधुना अन्यस्य साधोर्दशितः बासुकी। तत्थ जे कालं पमुख मुसावायसुत्ता ते शहट्टम्वा । ययैवं प्रचलायते,परं न मन्यते ततस्तेनान्येन साधुना भणितोनावे भेमो इमो ति । नि००२ उ० । ऽपि यदि निहते तदा चतुर्लघु । अथ तेन साधुना बहुतराणां तेषां च पराणामपि यथाक्रममियं प्ररूपणा, तामेव प्रकपणां वित्र्यादीनां साधूनां दर्शितः, तैश्च भणितोऽपि यदि निहते तदा चिकीर्षुरलीकवचनविषयां द्वारगाथामाह चतुर्गुरु। बत्ता वयणिज्जो वा, जेसु य ठाणेसु जा विसोही य । निएहवणे निएहवणे, पछि वकए उ जा सपयं। Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७५) अलियवयण अभिधानराजेन्द्रः। अलियवयण लघुगुरुमासो लहंगो, लहुगादी बायरे इंति ।। धः-कति वर्षाणि भवतां पर्यायः? इति । स एवं पृष्टो भणतिएवं निह्नबने निहवने प्रायश्चित्तं वर्द्धते यावत् स्वपदम; पारा एतस्य साधार्मम च दश वर्षाणि पर्याय इति । एवं छलेन ते. श्चिकं तराश्चिकम् । तद्यथा-पञ्चमं वारं निढ़वानस्य पम्मघु, षष्ठं नोक्ते,स प्रच्छकःसाधुः-मम नव वर्षाणि पर्याय इत्युक्त्वा प्रवन्दि तो वन्दितुं लग्नः । इतरवलवादी भणति-उपविशत, भवन्तः वारं पागुरु, सप्तम मूलम् , नवममनवस्थाप्य, दशम पारं स्वयमेव वन्दनीया इति । कथं पुनरहं वन्दनीयः इति सनोक्ने,निहवानस्य पाराश्चिकम् । अत्र च प्रचलादिषु सर्वेष्वपि लवादी भणति-मम पञ्च वर्षाणि पर्यायः, एतस्यापि साधोः द्वारेषु यत्र यन लघुमासो वा नवति तत्र तत्र सूदमो मृषावा पश्चा एवं द्वे पञ्चके मीसिते दश भवन्ति । ततो ययमाचयोरुजदः, यत्र तु चतुर्लघुकादिकं भवति तत्र बादरोमृषावादो भवति। योरपि वन्दनीया इति भणति। गत प्रचलाद्वारम्। अथ समुद्देशद्वारमाहप्रथाद्वारमाह वह न समुद्देसो, किं अत्यह कत्थ एस गगणम्मि । कि पीमि वासमाणे,पणीसि पण वासविंदवो एए।। वहति संखमीओ, घरेसु नणु आउखंडणया ॥ भुंजंति हीण मरुगा, कहिं ति नणु सस्सगेहेसु ।। कोऽपि साधुः कायादिभूमौ निर्गत्य आदिवं राणा प्रस्यमाकोऽपि साधुर्वर्षे पतति प्रस्थितः,स चापरणे भणितः-कि 'वा मानं रष्ट्रा साधून स्वस्थान् मौनान् प्रणति-आOः ! समुदेशो समाणे' वर्षति निर्गच्गमि?, एवं जाणित्वा तथैव प्रस्थितः। तत धर्तते किमेवमुपविष्टा स्तिष्ठय?। ततस्ते साधवो नायमनीकं ते श्तरेण साधुना भणितम्-कथं न निर्गच्गमीति प्रणित्वा निर्ग- इति कृत्वा गृहीतजाजनमुपस्थिताः पृच्छन्ति । कुत्रासी समुदेच्छास। स प्राह-वास-शन्दे इति धातुपागद् वासति श-| शो भवति?स प्राह-नन्वेष गगनमार्गे सूर्यस्य रादुणा समुद्देशः दायमाने यो गध्यति स वासति निर्गच्कृतीत्यनिधीयते।। प्रत्यकमेव दृश्यते ॥ अथ संखडोद्वारम् । कोजपि साधुः प्रथमासिमत्र तु न कश्चिदू वासति, किन्तु वर्षबिन्दव एते, तेषु गन्ग- कापानकादिनिमित्तं विनिर्गतः प्रत्यागतो भणति-प्रचुराः संखमि। एवं ग्लवादेन प्रत्युत्तरं ददानस्य तथैव प्रथमवारादिषु उचो वर्तन्ते,किमेवं तिष्ठय? ततस्तेसाधवो गन्तुकामाः पृच्छन्तिमासलघुकादिकं प्रायश्चित्तम् ॥भथ मरकद्वारम् । कोऽपि सा. श्रूत ताः संस्खमयः। स छसवादी भणति-तेषु तेषु गृहेषु संखडयो धुः कारणे विनिर्गत उपाश्रयमागत्य साधून भणति-साध. घर्तन्त एव । साधवो भणन्ति-कथं ता अप्रसिद्धाःसंखडयमवो यात, शुञ्जते मरुकाः । एवमुक्ते. ते साधव उहाहितभा- च्यन्ते । छलवादी भणति-नणु श्रारखंगणय ति] नम्वित्याजना भणन्ति-(कहि ति सि)कते मरुका शुञ्जते ? । इतरः केपे । पृथव्यादिजीवानामायंषि गृहे गृहे रन्धनादिभिरारप्राह-ननु सर्वे प्रात्मीयगृहेषु, एवं छलेनोत्तरं प्रयच्छति। म्भैः संखड्यन्ते, ताः कथं न संखडयो भवन्ति । मथ प्रत्याख्यानद्वारमाह अथ कुल्लकद्वारमाह- - हुँजसु पञ्चक्खातं, मए त्ति तक्खण पहुंजो पुट्ठो। खुइग!जणणी ते मिया,रुइए जीवशत्ति अथ भणितम्मि। किं व ए मे पंचविहा, पञ्चक्खाया अविरईभो ॥ माइत्ता सव्वजिया, नवेसु तेणेस ते माता ।। कोऽपि साधुना भोजनवेलायां गणितः-भुव समुद्दिश । स कोपि साधुरुपाश्रयसमीपे मृतां शुनीं दृष्ट्वा कुखकमपि भप्राह-प्रत्याख्यातं मयेति । एवमुक्त्वा मण्डल्या तत्कणादेव णति-कुल्लक ! जननी तव मृता । ततः कुल्लकः प्ररुदितो-रोप्रचुक्तो-जोक्तुं प्रवृत्तः। ततो द्वितीयेन साधुना पृष्टः-आर्य ! स्व. वितुं मग्नः। तमेवं रुदन्तं दृष्ट्वा स साधुराद-मा रुदिहि, जीवति येत्थं भणितम्-मया प्रत्याख्यातम् । स प्राह-किंवा मया प्रा ते जननी । एवमुक्त कुल्लकोऽपरे च साधवो जणान्त-कथं पू. णातिपातादिका पञ्चविधा भविरतिर्न प्रत्याख्याता, येन प्रत्या- मृतेत्युक्त्वा संप्रति जीवतीति प्रणसि । स प्राह-एषा या त्यानं न घटते । शुनी मृता सा तव माता भवति । क्षुल्लको ब्रूते-कथमेषा मम अथ गमनद्वारमाह मातामृषावादी साधुराह-सर्वेऽपि जीवा प्रतीते काले तव मातृत्वेन बभूवुः। तथा च प्रमाप्तिसूत्रम्-"एगमेगस्स ण जीवस्स बच्चास नाहं वच्चे, तक्खण वच्चए पुच्छिो भणइ । सम्वजिया माश्त्ताए पित्ताए भायत्ताए पुत्रत्ताए धूयत्ताप सितं न वि जाणसि, ना गम्म गम्ममाणं तु ॥ भूतपुवा । हंता गोयमा ! एगमेगस्स जीवस्स जीवा तहा ' केनापि साधुना चैत्यवन्दनादिप्रयोजने बजता कोऽपि साधु- सूतपुवा" । तेनैव कारणेनैषा शुनी त्वदीया मातेति॥ रुक्त:-कं त्वमपि ब्रजसि!, गच्चसीत्यर्थः । स प्राह-नाहं वजा मथ परिहारिकद्वारमाहमि। एवमुक्त्वा ततक्षणादेव अजितु प्रवृत्तः। तेन पूर्वप्रस्थितसा जाणे दणं, दिशा परिहारग त्ति बहु करणे । धुना पृष्टः कथं न बजामीति भणित्वा गजसिस भणति-सिसान्तं न जानीषे त्वम् । मन्वित्याकेपे । भो मुग्ध ! गम्यमान कत्थुज्जाणे गुरुयं, वयंति दिहेसु लहुगुरुगा ॥ मेव गम्यते, नागम्यमानम,यसिंश्च समये त्वयाऽहं पृष्टस्तस्मिन्ना नवनगा न णिनते, प्रासोइए तम्मि नग्गुरू होति । . गच्यामि, इति ॥ परिहरमाणा वि कहं, अप्परिहारीजवे छेदी ॥२॥ मथ पर्यायद्वारमाह किं परिहरंति णषु था-णुकंटए मूल तुज्म सम्वे य । दस एयस्स य मज्झय, पुच्छिय परियाय वेइ न छलेण।। अहमेगो भगवई, बहिं पवयणस्स पारंची॥३॥ मम नवए बंदिअम्मि, भणाइ वे पंचगा दसो ॥ कोऽपि साधुरुद्याने स्थितानवसमान् पृष्ठा प्रतिभयमागत्य कोऽपि साधुरात्मद्वितीयः केनापि साधुना बन्दितुकामेन - भवति-मया परिहारिका रष्टा इति । साधवो जानते, यथा Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७६) अलियवयण अभिधानराजेन्द्रः। प्रसियवयण शुरूपरिहारिकाः समागताः । एवं ग्लाभिप्रायेण कथयत एव | यूयं सर्वेऽप्येकत्र मिलिता इति भणतो मूलम् | अहमेकाकी किं मासलघु । नूयस्ते साधवः परिहारिकसाधुदर्शनोत्सुकाः पृच्च- करोमीति भणतोऽनवस्थाप्यम् । सर्वेऽपि यूयं प्रवचनस्य न्ति-कुन ते रष्टाः । स प्राह-उद्याने, एवं भणतो मासगुरु । बाह्या इति वदति पाराञ्चिकम् । ततः साधवः परिहारिकदर्शनार्थ चालताः, वजन्तो यावन्न प. दमेवान्त्यपदं व्याख्यानयतिश्यन्ति तावत्तस्य कथयतश्चतुर्सघु । तत्र गतैरेववसन्नेषु क. घयतश्चतुर्गुरु। प्रवसन्ना अमी इति कृत्वा निवृत्तेषु कथयतः किं गलेण जपह, किं मं कुप्पेह एव जाणता । पम्नघवः । ते साधव र्यापधिकी प्रतिक्रम्य गुरूणामालोच- बहुएहिँ को विरोहो, सलभेहि व नागपोयस्स? ॥ यन्ति-विप्रतारिता वयमनेन साधुनेति, एवं वाणेषु तस्य गतार्था । . षम्गुरु । श्राचार्यैरुक्तम्-किमेवं विप्रतारयसि ? । स चेष्टोत्तरं अथावश्यंगमनद्वारमाहदातुमारब्धः-परिहरन्तोऽपि कथमपरिहारिणो भवन्ति !, एवं अवतश्छेदः । साधवो भणन्ति-किं ते परिहरन्ति येन प. गच्चस ण ताव गच्छ, किं खुण जासित्ति पुच्छितो भणति । रिदारिका सच्यन्ते । इतरः प्राह-स्थाणुकपटकादिकं तेऽपि वेला ण ताव जायति, परसोगं वा वि मोक्खं वा॥ परिहरन्ति, पवमुत्तरं ददतो मूलम् । ततस्तैः सर्वैरपि सा- कोऽपि साधुः केनापि साधुना पृष्टः-आर्य गच्छसि निकाचर्याधुनिरुक्तो दुष्टोऽसि यदेवंगतेऽप्युत्तरं ददासीति । ततः स मास प्राह-अवश्यं गमिष्यामि । इतरेण साधुना भाणितम्-ययेप्राह-सर्वेऽपि यूयमेकनीभूताः, अहं पुनरेकोऽसहायोऽतः प- बंतत उत्तिष्ठ, बजामः। स प्राह-न तावदद्यापि गच्छामि।श्तरेराजीये, न परिफल्गु मदीयं जस्पितम, एवं भणतोऽनवस्था- ण भणितम्-किं खुरिति वितर्के।न यासिगच्चसि, त्वयादिनप्यम् । अथ ज्ञानमदावलिप्त एवं प्रवीति-सर्वेऽपि यूयं प्रवचन- णितम्-अवश्यं गमिष्यामि। एवं पृष्टो भणति-नतावदद्यापिपस्य बाह्याः, एवं सर्वानधिक्तिपतः पाराश्चिकं भवति। रलोकं गन्तुं बेझा जायते, अतोन गच्गमि । यद्वा-मोकं गन्तुं इदमेवान्त्यपदं ब्याचष्टे नाद्यापि वेला, अतो न गच्छामि । अपिःसंभावने । किं संभाकिं गगलेण जंपह, किं मं कोप्पह एवऽजाणंतं । वयति-अवश्यं परलोकं मोकं वा गमिष्यामीति ।। बहुएहि को विरोहो, सलभेहिँ व नागपोयस्स? ॥ _अथ 'दिसासु त्ति' पदं व्याख्यानयतिकिमेव गगलेन न्यायेन जल्पथ, बोकडवन्मूर्खतया किमेवमेवं कतरि दिसि गमिस्ससि, पुवं अवरं गतो नणति पुव्वे । प्रलपथेत्यर्थः । किञ्च-मामेवाजानतोऽपि (कोप्पट) गले धृत्वा किं वा ण होति पुच्चा, इमा दिसा अवरगामस्स ।। प्रेरयथ । अथवा एवमपि बहुभिः सह को विरोधा', शलभै। एकः साधुरेकेन साधुना पृष्टः-आर्य! कतरां दिशं भिक्काचर्या रिव नागपोतस्येति। गमिष्यास। स एवं पृष्टो ब्रवीति-पूर्वी गमिष्यामि। ततःप्रच्छकः अथ घोटकमुखीद्वारमाह साधुः पात्रकारयुद्वाह्याऽपरां दिशं गतः। श्तरोऽपि पूर्वदिग्गमनाजणइ य दिट्ट नियत्ते, पालोए आमंति घोझगमुहीओ। प्रतिज्ञातां तामेवापरां दिशं गतः। तेन साधुना पृष्टम्-पूर्वी गमिपूरुस सव्वे एगे, सन्चे बाहिं पवयणस्स ॥ ज्यामीति भणित्वा कस्मादपरामायातः । स प्राह-किं वा अपमासो बहुओ गुरुओ, चनरो मासो हवंति सद्गुरुगा। रस्य प्रामस्येयं दिक् पूर्वान भवति,येन मदीयं वचनं निरुध्येत । उम्मासा लहुगुरुगा, ओ मुझं तह दुगं च ॥ ॥ प्रथैककुलद्वारमाहएकः साधुर्विचारभूमौ गतः, उद्यानोदेशे वरवाश्चरन्तीरवलो अहमेगकुलं गच्छं, वच्चह बहुकुक्षपवेसणे पुट्ठो। क्य प्रतिश्रयमागतः,साधून विस्मितमुखः कथयति-शृणुत, य. जणति कहं दोम्मि कुले, एगसरीरेण पविसिस्सं ॥ दद्य मया यादृशमाश्चर्य रष्टम् । साधवः पृच्चन्ति-कीरशम् ।स कश्चित्केनचिद्भितार्थ समपृच्चिा तेनोक्तम्-आर्य! एहि व्रजावो प्राह-घोटकमुख्यः स्त्रियो रष्टाः; एवं भणतो मासलघु । ते सा. भिक्काम । स प्राह-व्रजत यूयमहमेकमेव कुत्रं गगमि। एवमु. धव ऋजुखभावाश्चिन्तयन्ति-यथा घोटकाकारमुखमनुष्यस्त्रि- क्त्वा बहुषु कुलेषु प्रवेषु लग्नः। ततोऽपरेण साधुना पृष्टः कथयोऽमेन रष्टा इति । ततस्ते पृच्छन्ति-कुत्र तास्त्वया रष्टाः। मेकं कुलं गमिष्यामीति णित्वा बहूनि कुलानि प्रविशसि। म प्राह-उद्याने, एवं खुवतो मासगुरु । साधवो इष्टव्यास्ता इ. स पर्व पृष्टो भणति-वे कुले पकेन शरीरेण युगपत् कथं प्रवेत्यभिप्रायेण व्रजन्ति, तदानीं कथयतश्चतुर्लघु । रष्टासु वमवासु क्यामि।एकमेव कुलमेकस्मिन् कासे प्रवेष्टुं शक्यम, न बहूचतुर्गुरु । प्रतिनिवृत्तेषु साधुषु षम्लघु । गुरुणामालोचिते षस्गु नीति भावः॥ रु। ततो गुरुभिः पृष्टो यदि जाति प्राम,घोटकमुख्य पवैता यतो दीर्घमधोमुखं प्रमुखं वडवानां भवतीत्येवं ब्रवीति तदा छेदः । प्रथैकद्रव्यग्रहणद्वारमाहततः साधुनिर्भणित:-कथं ताः खिय सच्यन्ते । इतरः प्रत्याह- बच्चह एगं दव्वं, घेत्यं ऐगगहे पुच्छितो जणति । यदि न स्त्रियस्तर्हि किं पुरुषाः, एवं अवाणस्य मूलम् । सर्वे यूयमेकत्र मिलिता अहं पुनरेक पव, पवं प्रणतोऽनवस्थाप्यम् । गहणं तु लक्खणं पो-गलाण गेएहेमि तेणऽहं एगं ।। सर्वपि प्रवचनस्य बाद्या इति भणतः पाराश्चिकम् । कोऽपि साधुर्भिकार्य गच्चन् कमपि साधु भणति-व्रजामो अथान्त्यप्रायश्चित्तं प्रकारान्तरेण प्राह निक्षायाम्। स प्राह-व्रजत यूयमहमेकं भव्य प्रहीष्यामि । एव मुक्त्वा निकां पर्यटन्ननेकानामोदनद्वितीयाङ्गादीनां बहूनांक. सब्वेगत्या मूलं, अहगं एकट्यो य अणबहे । व्याणां प्रहणं कुर्वन साधुभिः पृष्टो जणति-(गहणं तु इत्यादि) सन्चे बहिभावा पव-यणस्स वयमाण चरिमं तु ॥ गतिलक्षणो धर्मास्तिकायः, स्थितिलकणोऽधर्मास्तिकायः, Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवयण अपग्रहलक्षण आकाशास्तिकायः उपयोगलरानो जीवा स्तिकायः, ग्रहणलक्षणः पुरुत्रास्तिकायः । एषां च पञ्चानां व्याणां मध्यात्युफलानामेव ग्रहणरूपं लक्षणं, नान्येषां धर्मास्तिकायादीनाम तेन दमेकमेव गुहामि न बहू नीति व्याख्यातं द्वितीयद्वारगाथायाः पूर्वार्कम् । अथ मियाइ खित्ताय भुंजण्य त्ति " पश्चार्द्ध व्याख्यायते - प्रत्याख्या 66 प 'नाहं गच्छामीति प्रतिषिध्य' गमनं करोति । प्रत्याख्याय च 'नाहं तुजे इति भणित्वा' भुङ्क्ते । श्रपरेण च साधुना पृष्टो अति गम्यमानं गम्यते नागम्यमानम् भुज्यमानमेव दृश्यते नाभुज्यमानम् । अनेन पश्चार्थेन गमनद्वारप्रत्याख्यानद्वारे व्यायति इति प्रतिपत्तव्यम् सर्वत्रापि प्रथमवारं प्रस्तो मात्र अधाभिनिवेशेन यदन निकाययति तदा पूर्वोकनया पाराचिकं यावद्द्रष्टव्यम्। तदेवं येषु स्थानेष्यलीकं संभवति या दश च यत्र शोधिः तदभिहितम्। संप्रति ये अपायास्ते सापवादा इति द्वारम् । तत्रानन्तरोक्तान्यल । कानि प्रणतो द्वितीय साधुना सहासंखडाद्युत्पत्तिः संयमात्मविराधनारूपा सप्रपञ्चं सुधिया वक्तव्या । श्रपवादपदं तु पुरस्ताद् जणिष्यते । बृ०६ उ० जीत० । अलीबचनाख्याद्वारस्य व्याया ( ७७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । • जंबू ! वितियं च अभिषवयां अनुगनचचलन नियं जयकरदुहकर अयस कर बेरकरगं अरतिरतिरागदोसमणसंकि लेसविवरणं निपनिपटिसाइजोपबतु ीयजाणिसेचियं निसर्स अपकारगं परमसानुगरहणिनं परपीलाकारकं परमकएहलेससहियं दुग्गतिविशिपायवणं जवपुणजवकरं चिरपरिचितमयं दुरंतं कित्तिये बितिय अहमदारं ॥ 'जम्बू' इति शिष्यामन्त्र वचनम् 'द्वितीयं च' द्वितीयं पुनरा श्रवद्वारम, अलीकवचनं मृषावादः । इदमपि पञ्चनिर्यादशकादिद्वारे तत्र पाशमिति द्वारमायिकवचनस्य स्वरूपमाह-लघुर्गुणगौरवरहितः, स्व श्रात्मा येषां ते लघुस्वकाः, तेभ्योऽपि ये लघवस्ते बघुस्वकलघवः, ते च ते चपलाच, कायादिभिरिति कर्मधारयः । तैरेव भणितं यत्तत्तथा । तथाभयकरं दुःखकरमयशः करं वैरकरं च यत्तत्तथा । अरतिरतिरागद्वेषलक्षणं मनःसंक्लेशं वितरति यत्तत्तथा । भलीकः शुभफलाया निष्फलो यो नितेन्धनच्छादनार्थवचनस्य (सा इति श्रविश्रम्भस्य च श्रविश्वासवचनस्य योगो व्यापारस्तेन बहुलं प्रचुरं यत्तत्तथा । नीचैर्जात्यादिहीनैः प्राय इदं निषेवितं तथा। नृशंसं सुकावर्जितं, निःशंसं वा श्लाधारहितम्, श्र प्रत्ययकारकं विश्वासविनाशकम् । इतः पदचतुष्टयं कण्ठ्यम् । तथा-मवे संसारे पुनले पुनः पुनर्जन्म करोतीति न पुनर्भवकरम् चिरपरिचिगमनादिसंसारेऽज्यस्तम अनुगतमन्यवच्छेदेवानु र विपाकदारुणं द्वितीयमधमेद्वार कीर्तित। युक्तम | एतेन वा अथ यनामेत्यनियमतस्य णामाणि गोणि हुंति तीसं । तं जहा - अलिथं १ स २ अणनं ३ मायाबोसो ४ असंतगं ए म कमवत्युं ६ निरत्ययमवस्थ च ७ विदेसगरहणि जुगं ६ कक्कतकारणाय १० पंचणा य ११ मिच्छा १६५ अलियत्रयण पच्छाकर्म च १२ साती १२१४ उपकूलं च१५ १६ श्रन्नक्खाणं च १७ किव्विसं १८ वलयं १९५ गणं च २० मम्मणं च २१ नूमं २२ नियती २२ प्र पच्चओ २४ असमझो २५ असरसंघचणं २६क्खो २७ अवहीयं २८ उवहित्रसुद्धं २६ अवलोवो तिथि ३० तस्स एपाछि एमाईसि णामधेनाणि ति तीसं सावज्जस्स अलियस्स बइजोगस्स अगाई । " तस्स" इत्यादि सुगमं यावत्तद्यथा । अनीकं १, शतः, शवस्य मायिनः कर्तृत्वात् २, अनार्यवचनत्वादनार्यः ३, मायालक्षणकपायानुगतत्वात् मृषारूपत्वाच्च मायामृषा ४, ( असंतगं ति ) असदद्धनिधानरूपत्वादसत्यम (कूलकयममवत्युं ति) कूटं परवचनायें न्यूनाधिकभाषणं, कपटं भाषाविपर्ययकरणम विद्यमानवस्वनिधेयोऽय यत्र तदयस्तु पदत्रयस्याप्येतस्य कथञ्चि समानार्थत्वेनैकतमस्यैव गणनादिदमेकं नाम है (नि रत्ययमत्ययं वेति निरर्थकं सत्यार्थनिष्कान्तम, अपार्थकम् अपगतखत्यार्थम दहापि द्वयोः समागतया एकतरस्येव म नादेकत्वम 3 ( बिदेसगर िति ) विद्वेषो मत्सरस्तस्माद् गर्हति निन्दति येन, अथवा तत्रैव विद्वेषादू गते साधुनिर्यत्तद्विद्वेष गर्हणीयमिति छ, अनृजुकं वक्रमित्यर्थः ६, कल्कं पापं मायावा, तत्कारणं कल्कं माया पापं च १०, वञ्चनाच ११, मित्राच्या कर्मच) मध्येतिकृया पाकृतं निराकृतं न्या वादनियतत्तथा २२, (सातीति) अनि १२ च् ति) अपसदं विरूपं उत्रं स्वदोषाणां परगुणानां चाऽऽवरणमपच्छत्रम्, उच्चत्रं वा न्यूनत्वम् १४, ( उक्कूलं च सि) उत्कूलयति सम्मादपभ्यंसयति कूलाद्वा वायसरत्वातटा पचहुस्कूलम् । पाठान्तरण- - उत्कूलम् ऊर्ध्व धर्मकलाया यत्तत्तथा २५, आम तस्य पीडितस्येदं वचनमिति कृत्या १६ पाख्या नं चोवारनम असतां दोषाणामित्यर्थः १७वस्य पापस्य हेतुत्वात् १८ वलयमिव वलयं, वक्रत्वात् १६ गनमिव गहने, तस्वात् २० मन्मनमिव मन्मने च, अस्फुटत्वात् २१, ( नूमं ति ) प्रच्छादनम् २२, निष्कृतिर्मायायाः प्रच्छादनार्थे वचनम् २३, अप्रत्ययः प्रत्ययाभावः २४, असमयोऽसम्यगाचारः २५, असत्यमल्लीकं संदधाति करोतीति सत्यमन्यस्तद्भावोऽसत्यसन्धाय २१, विपक्ष:-- त्यस्य सुकृतस्य चेति भावः २७, ( श्रवहीयं ति) अपसदा निन्द्या वास्तदपधीकम पायान्तरे अपणाश्यं 6 - जनादेश मतिगच्छत्यतिक्रामति यत्तदागम २८ । (उहित ) उपधिना मायया असाचयमुपयशुम २९, अवलोपो वस्तुसद्भावप्रच्छादनम्, इत्येवंप्रकारार्थः । अपि ति समुययार्थः ३० ( तस्याणि पचमाि नामधेजाणि हृति तीस सावज्जस्त श्रल्लियस्स वश्जोगस्स अगाइ ति ) इह वाक्ये एवमकरघटना कार्या- तस्यालीकस्य सावधस्य वाग्योगस्य एतान्यनन्त रोदितानि त्रिंशत् एवमादीन्येवंप्रकाराणि चानेकानि नामधेयानि नामानि भवन्तीति ॥ यन्नामेति द्वारं प्रतिपादितम् । श्रथ ये यथा चालीकं वदन्ति तौस्तथा चाऽऽह तं च पुरण वदंति केइ अलियं पावा असंजया विरया कलमकुमलचलनावा कुका लुफा नया-प इस्स Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७०) प्रलियवयण अन्निधानराजेन्द्रः। अलियवयण त्थिया य सक्खीचोरा चारभमा खंडरक्खा जियपूइकरा स्तिकवादिनो लोकायतिकाः,वामं प्रतीपं लोकं वदन्ति ये सर्ता य गहितगहणा ककगुरुगकारिका कुलिंगा उवहिया वा लोकवस्तूनामसत्त्वस्य प्रतिपादनात्ते वामलोकवादिनः, प्रणन्ति प्ररूपयन्ति । प्रश्न०२ आश्रद्वा०। णियगा य कूमतुला कूममाणा कुमकाहावणीवजीवी पमकारककनायकारुइज्जा वंचरणपरा चारियचटुयारनगर तथा किमन्यवदन्तीत्याहगुत्तियपरिचारकदुहवाश्मयकअणवसनणिया य पुन्च- तम्हा दाणवयपोसहाणं तबसंयमबंजचेरकबाणमादिकालियवयणदच्छा सहस्सिका लहुस्सगा असच्चा गार- याणं नत्थि फलं, नविय पाणबहअलियवयणं, न चेव विया अमञ्चथावणाहिचित्ता उच्चचंदा मणिग्गहा अणि- चोरककरणं, परदारासेवणं वा, सपरिग्गहपावकम्माश्करयया बंदण मुक्कवादी भवति । अलियाहिं जे अविरया णं पि नात्य किंचि, न नेरश्यतिरिक्खमणुयजोणी, न अवरे पथिकवादिणो वामलोकवादी भणंति ॥ देवसोको वा अस्थि, न य अस्थि सिदिगमणं, अम्मापि(तं चेत्यादि ) तत्पुनर्वदन्त्यलीकम् । (केर ति) के यरो वि नाथ, नविय अत्थि पुरिसकारो, पच्चक्खाणचित्र सर्वेऽपि, सुसाधूनामसीकवचननिवृत्तत्वात । किवि मवि नत्थिन वियत्थि काझमच्चू,अरिहंतचकवट्टी वलशिष्टाः, पापाः पापात्मानः, असंयता असंयमवन्तः, अवि. देवा वासुदेवा नत्थि, नेवत्थि के रिसो, धम्माधम्मफलं रता अनिवृत्ताः । तथा-(कवडकुमिलकडुयचमुलभाव ति) विन अत्यि किंचि बदुयं व थोवं व तम्हा एवं जाकपटेन हेतुना कुटिलो धक्रः कटुकाश्च विपाकदारुणत्वात, णिकणं जहा सुबहुइंदियाएकुलेसु सव्य विसएसु वह चटुलश्च विविधवस्तुषु कणेकणे आकाङ्कादिप्रवृत्तेः, भावश्चिसं येषां ते तथा । 'कुद्धा, सुशा' इति सुगमम । (भया-य ति) नत्यि काइ किरिया वा, एवं नणंति नथिकवादियो इमं परेषां भयोत्पादनाय, अथवा-जयाच (हस्सात्थिया-य ति) पि वितियं कुदंसणं असम्जावं वादियो पमति मूढा, हासाथिकाच हासार्थिनः । पागन्तरेण-हासार्थाय (सक्ति संजूओ अंमकाओ लोको, सयंजुणा सयं च निम्मित्रो, सि)साक्षिणः चौराःचारभटाश्च प्रतीताः । (खंडरक्ख त्ति) एवं एतं अलियं, पयावरणा इस्सरेण य कय ति केइ, शुष्कपालाः। (जियपूरकराय त्ति ) जिताश्च ते पूतिकराश्चेति समासः । (गहियगहण ति) गृहीतानि प्रहणकानि यैस्ते एवं विएहुमयं जयाण सयं च निम्मित्रो कसिणमेव य तथा । (ककगुरुगकारग त्ति) कक्कगुरुकं माया, तत्कारकाः । जगदिति केश, एवमेके वदंति मोसं-एको आया, अकारको (कुलिंग ति) कुलिटिणः कुतीथिकाः।( उवदिया पाणियग वेदको य सुकयस्स य दुक्यस्स य करणानि कारणाणि य त्ति) सपधिका मायाचारिणः, वाणिजका वणिजः । किनू सन्बहा सबहिं च, णिचोय,णिकिओ,निग्गुणो य,अणुवले. ताः। कूटतुलाः,कूटमानिनः,कूटफार्षापणोपजीविन इति पदत्रय म्यक्तम, नवरं कापणो धम्मः। ( पडकारककलायकाज वोत्ति अवि य । एवमाइंसु असम्भावं जंपि एहिं किंचि जीत्ति) पटकारकास्तन्तुवायाः, कलादाः सुवर्णकाराः, कारु वझोके दीसंतिसुकयं वा दुक्कयं वा-एयं जदिच्छाए वा,सहावेकेषु वरुटछिम्पकादिषु भवाः कारकीयाः। किंविधा एते अ- णवापि,दायवयप्पभावोवा वि भवति,नत्थि तत्थ किंचि सीकं वदन्ति:,श्त्याह-वञ्चनपराः, तथा-चारिका हैरिका, चटु- कयकं तत्तं, सक्खणावहाणं नियतिकारिया एवं केइ पति, काराः सुखमङ्गलकराम, नगरगुप्तिकाः कोपालाः, परिचारका इतीरसमायगारवपरा बहवे करणालसा परूति धम्मवीये परिचारणां मैथुनानिवलं कुर्वन्ति, कामुका इत्यर्थः । इटवादिनोऽसत्पतग्राहिणः, सूचकाः पिशुनाः, (अणबलभाणियाय मंसएण मासे,अवरे अहम्माओ रायदुई अन्जक्खाणं नति)ऋण गृहीतव्ये बलं यस्यासी ऋणबझो-बलवानुत्तम- णति अलियं, चोरो ति अचोरियं करेंतं । ममरायोत्ति कः, तेन जणिता अस्मद् द्रव्यं देहीत्येवमाभिहिता ये अधम- वि य एमेव उदासीणं, दुसीलो नि य परदारं गच्छति त्ति ास्ते तथा । ततश्चारकादीनां द्वन्द्वः । ( पुवकालियवय मालिति सीसकलियं अयं पि गुरुतप्पो त्ति एणे एणदमति) वक्तुकामस्य वचनाद यत्पूर्वतरमभिधीयते परानिप्राय सवयित्वा, तत्पूर्वकालिकं वचनं, तत्र वक्तव्ये दकास्ते वमेव नणंति, नवहणंति, मित्तकलत्ताई सेवंति अयं पि तथा, अथवा पूर्वकालिकानामर्थानां पचने श्रदका निरतिशय- सुत्तधम्मो, इमो वि वीसंनघायो पावकम्मकारी, अकम्पनिरागमास्ते तथा । सहसा अवितर्यभापणे ये वर्तन्ते ते कारी अगम्मगामी अयं दुरप्पा बटुएसु य पातगेसु जुत्तो साहलिकाः,लघुस्वकाः लघुकात्मानः, असत्याः सनोऽहिताः, त्ति एवं जपति मच्चरी जद्दके वा गुणाकात्तिनेहपरलोगनिगौरविकाःऋष्यादिगौरवत्रयेण चरन्ति ये असत्यानामसद्भतामामर्थानां स्थापनं प्रतिष्ठामाधिचित्तं येषां ते असत्यस्थापना प्पिवासा; एवं एते अलियवयणदक्खा परदोतृप्पायणसंसधिचिसाः । उच्चो महानात्मोत्कर्षणप्रवणः गन्दोऽनिप्रायो येषां त्ताबेढेति, अक्वयियवीएणं अप्पाणं कम्मबंधणेण मुहरि ते उच्छन्दाः अनिग्रहाः स्वैराः । मनियता अनियमवन्तो- असमिक्खियप्पलावी निक्खेवे अवहरांति , परस्स - नवस्थिता इत्यर्थः । श्रनिजका वा अविद्यमानस्वजनाः,अलीकं स्थाम्मि गढियागका, अजिजुजति य परं असंतएहिं वदन्तीति प्रकृतम् । तथा उन्देन स्वाभिप्रायेण मुक्तवाचः प्रयुक्त- । लुद्धा य करेंति कमसक्खिसणं, असबा अत्यालियं च, वचनाः, अथवा छन्देन मुक्तवादिनः सिद्धवादिनस्ते जवन्ति ।। के, इत्याह-प्रालीकादये अविरता,तथाऽपरे उक्तेभ्योऽन्ये ना-। कमालियं च,जोमाझियं च,तहा गवालियं च, गरुयं भ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलियवयण अभिधानराजेन्द्रः। अलियवयण पंति, प्रहरगतिगमणं, अएणं पि य जाश्रूवकुलसीसप- [नत्थि त्ति] न सान्त, प्रमाणाविषयत्वात् । [नेषऽस्थि के रि. च्चवमायानिगुणं, चबमा पिमुणं परमध्नेदकमसंतकं वि सत्रो ति] नैव सन्ति केचिदपि ऋषयो गौतमादिमुनयः, प्रमा णाविषत्वादेव, वर्तमानकाले वा ऋषित्वस्य साध्वनुष्ठानस्यादेसमणत्यकारकं पावकम्ममूलं मुद्दि दुस्सुयं अमुणियं सत्वात्, सतोऽपि वा निष्फलत्वादिति। अत्र च शिक्काऽऽदिप्रनिलजं लोगगरहणिज्जं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जराम चाहानुमेयत्वादईदाद्यसत्वस्यानम्तरोक्तवादिनामसत्यता ऋ. रणयुक्खसोगने असुफपरिणामसकिलिह भणंति ॥ पित्वस्यापि सर्वज्ञवचनप्रामाण्यन सर्वदा भावादित्येवमाशाग्रा ह्यार्थाऽपलापिनां सर्वत्रासत्यवादिता भावनायेति। तथा-धर्मायस्माचरीरं सादिकमित्यादि, तस्मादानव्रतपौषधानां वितर- धर्मफलमपि नास्ति किश्चिद बहुकं वा स्तोकं वा, धर्माधर्मयोगनियमपर्वोपवासानां, तथा-तपोऽनशनादि, संयमः वृ रदृष्टत्वेन नास्तित्वात् । “नथि फलं सुकप" इत्यादि यदुक्तं स्यादिरका, ब्रह्मचर्य प्रतीतम् । एतान्येव कल्याणं कल्याणहेतु- प्राक् तत्सामान्यजीवापेकया, यच्च "धम्माधम्म” इत्यादि,तद्स्वात्तदादियेषां ते ज्ञानभ्रकादीनां तानि तथा, तषां, नास्ति फलं विशेषापेक्कयेति न पुनरुक्ततेति । [तम्ह ति] यस्मादेवं तस्मादेकर्मवयसुगतिगमनादिक, नापि च प्राणिवधानीकवचनमशु- धमुक्तप्रकार वस्तु विज्ञाय [जहा सुबहुदियाणुकूलेसु ति] भफलसाधनतयति गम्यम् । तथैव नैव च चौर्यकरणं,परदार यथा यत्प्रकारासुबहुधा प्रत्यर्थमिन्द्रियानुकला येते तथा, तेषु सेवनं वाऽस्त्यशुभफलसाधनम्, तथैव सह परिग्रहणे यवर्तते सर्वेषु विषयेषु वर्तितव्यम् । नास्ति काचित् क्रिया पा-अनितत्सपरिग्रह, तश्च तत्पापकर्मकरणं च पातकक्रियामेवनं तदपि न्यक्रिया वा पापक्रिया वा, उभयक्रिययोरास्तिककल्पितत्वेनानास्ति किश्चित, क्रोधमानाचासेवनरूपा नारकादिका च जगतो परमार्थिकत्वात् । भणन्ति चविचित्रता स्वभावादेव न कर्मजानेता । तदुक्तम्-" कपटकस्य "पिब स्वाद च चारुलोचने!, यदतीतं वरगात्रि! तन्त्र ते । च तीक्णत्वं, मयूरस्य च चित्रता। वर्णाश्च ताम्रचमानां, स्व- नहि जीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्" ॥१॥ प्रावन भवन्ति हि"॥२॥ इति।मृषावादिता चैवमेतेषाम् स्वभावो | एवमित्यादिनिगमनम् । तथा-इदमपि द्वितीयं नास्तिकदहि जीवाचनान्तरभूतः, तदा प्राणातिपातादि जनितकमैक शनापेक्षया कुदर्शनं कुमतमसद्भावं वादिनः प्रज्ञापयन्ति कत्रकरोऽसाधनान्तरभूतः,ततो जीव पवासौ, तव्यतिरेका-| मूढाः व्यामोहवन्तः। कुदर्शनता च वयमाणस्यार्थस्याप्रातत्स्वरूपवत् । ततो निर्हेतुका नारकादिविचित्रता स्यात्। नच माणिकत्वाद् वादिप्रोक्तप्रमाणस्य प्रमाणाभासत्वाद् नावनिहेतुकं किमपि भवति,अतिप्रसङ्कादिति।तथा-न नैरयिकति. नीया । किंभूतं कुदर्शनम् ? श्त्याह-सम्भूतो जातोऽण्डकाद् यखानुष्यजानां योनिरुत्पत्तिस्थानं पापपुण्यकर्मफलनूताऽस्तीति जन्तुयोनिविशेषाद् लोकः वितिजलानलानिलनरनारकिनाकिप्रकृतमान देवलोको वाऽस्तीति पुण्यकर्मफलता,नैवास्ति सि. तिर्यग्रूपः। तथा स्वयंभुवा ब्रह्मणा स्वयं चात्मना निर्मितो हिंगमनं सिके,सिरूस्य वाऽनावात् । अम्बापितरावपिन स्तः, विहितः। तत्राण्डकप्रनूतवनवादिनो मतमित्यमाचतेउत्पत्तिमात्रनिबन्धनवाद मातापितृत्वस्थानचोत्पत्तिमात्रनिवन्धनस्य मातापितृतया विशेषो युक्तः, यतः कुतोऽपि किश्चिदु "पुवं आसि जगमिणं, पंचमहन्भूयवन्जिय गभीरं । पद्यत एव । यथा-सचेतनाच्चेतनं यूकामत्कुणादि, अचेतनं च एगम्भवं जलेणं, महप्पमाणं तर्हि मंडं ॥१॥ मुत्रपुरीपादि । अवेतनाश्च सचेतनं, यथा-काष्ठाद घुणकी वीईपरंपरणं, घोलतं अस्थि उ सुहरकालं । टकादि, अचेतनं च चूर्णादि । तस्माज्जन्यजनकनावमात्रमर्था फुट्ट दुभागजायं अऊं नमी य संवुत्तं ॥२॥ नामस्ति नान्यो मातापितृपुत्रादिविशेष इति । तदभावात्तद्भोग तत्थ सुरासुरनारग-समय सचप्पयं जगं सव्वं । विनाशापमाननादिषु न दोष इति भावः। मृषावादिता चैषां सप्प भणियमिणं, भंडपुराणसत्थम्मि"॥३॥ घस्त्वन्तरस्य पित्रोः स्वजनकत्वे समानेऽपि तयोरल्यन्तहिततया तथा स्वयंनिर्मितजगद्वादिनोजणन्तिविशेषवत्वेन सत्वात् । हितत्वं च तयोः प्रतीतमेव । आह च "प्रासीदिदं तमोजूत-मप्रकातमलकणम् । दुष्प्रतीकारावित्यादि नाप्यस्ति पुरुषकार,तं विनव नियतितः प्रवितय॑मविकेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥१॥ सर्वप्रयोजनानां सिद्धे। उच्यतेच-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयण तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टे स्थावरजङ्गमे। योऽर्थः,सोऽवश्यं भवति नृणां शुजानोवा। भूतानां महति कृते. नष्टामरनरे चैव, प्रनटोरगराकसे ॥२॥ ऽपिहि प्रयत्ने, नाभाव्यं नवति न भाविनोऽस्ति नाशः" ॥१॥ केवलं गहरीते, महातविवर्जिते । मृषाभाषिता चैवमेषाम्-सकललोकप्रतीतपुरुषकारापलापेन अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः॥३॥ प्रमाणातीतनियतिमताभ्युपगमादिति। तथा-प्रत्याख्यानमपिना. तत्र तस्य शयानस्य, नान्नेः पर्ण विनिर्गतम् । स्ति, धर्मसाधनतया धर्मस्यैवाभावादिति । अस्य च सर्वकष तरुणरविमण्डलनिनं, रयंकाशनकर्णिकम् ॥४॥ चनप्रामाण्यमास्तित्वात् तद्वादिनामसत्यता । तथा-नैवास्ति तस्मिन् पग्रेस जगवान् , दएकी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। कालमृत्यू, तत्र कासो नास्ति, अनुपलम्मात् । यच्च वनस्पति ब्रह्मा तत्रोत्पन्न-स्तेन जगन्मातरः सृष्टाः॥५॥ कुसुमादिकाललकामाचकते,तत्तेषामेव स्वरूपमिति मन्तव्यम। अदितिः सुरसंघानां, दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । असत्यं तेषामपि-स्वरूपस्य धस्तुनोऽनतिरेकात कुसुमादिकर- विनता विहङ्गमानां, माता सर्वप्रकाराणाम्" ॥६॥ णमकारणं तरूणां स्यात् । तथा-मृत्युः परलोकप्रयापलकण, असावपि नास्ति, जीवालावेन परलोकगमनानावात् । अथवा नकुलादीनामित्यर्थः। कालकमेण विवकितायुष्कर्मणः सामस्स्यनिर्जराऽवसरे मृत्युः "काः सरीसृपाणां, सुससा माता च नागजातीनाम् । कालमृत्यु,तदभावश्चमायुष एवाभावात्। तथा आहे दादयोऽपि सुरनिश्चतुष्पदाना-मिला पुनः सर्वबीजानाम्"॥७॥इति । Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लियवयण एवमुक्रमेण तदनन्तरोदितं वस्तु अलीकान्तज्ञानभिः प्ररूपितत्वात् । तथा-प्रजापतिना लोकप्रभुणा ईश्वरेण च महेश्वरेण कृतं विहितमिति केचिद्वादिनो, वदन्तीति प्रकृतम् । भणन्ति चेश्वरवादिनः - "बुद्धिमत्कारणपूर्वकं जगत्, संस्थानविशेपयुक्तत्वादादिवदिति । कुदर्शनता चास्य वल्मीका भितो कान्तिकत्वात् कुलालादित्यस्य बुद्धिमत्कारणस्य साधनेारित्यादिति तथा ययधेश्वरकृतं तथा विष्णुमयं विष्वात्मकं कृत्नमेव च जगदिति केचिद्वदन्तीति प्रकृतम् । भणन्ति च एतन्मतावलम्बिनः ( 100 ) अभिधानराजेन्द्रः । "विस्थते विष्णु, विष्णुः पर्वतमस्तके | ज्वालमालाकुले विष्णुः सर्वे विष्णुमयं जगत् " ॥ १ ॥ तथा - " अहं च पृथिवी पार्थ!, वाय्वग्निजलमप्यहम् | वनस्पतिमतवादं सर्वभूततोऽहम् ॥ १ ॥ "सोफिल-हृदयगमाम लोगांम पीईपरंपरेचं, पोतो "मि SC 33 स किन मार्कण्डेय ऋषि:सो तपावर-परासुरमरतिषिजन गावं जगमिणं, महनूयविवज्जियं गहरं ॥ २ ॥ विजयम्मी पिनोपायचं सहसा । मंदरगिरिं वतु, महासमुदं वऽविधि ॥ ३ ॥ धमि तस्स सयणं, अच्छर तह बालओ मणभिरामो ॥ सुरुचिसो विष्णुरित्यर्थः। त्यो पसारो से रिसियो पछि बन्द ! नशियो म मामरिहसि उ ५ ॥ तेणय घेतुं हत्थे, मिलिश्रो सो रिसी तम्रो तस्स । पिचवर उदरम्मि जयं, ससेनवणकाणणं सव्वं " ॥ ६ ॥ ति ॥ पुनः सृष्टिकाले विष्णुना सृष्टम। कुदर्शनता यास्य प्रतीतिवाच स्वात् । तथा एवं वक्ष्यमाणन्यायेन एव केचन आत्माद्वैतवाद्यादयो वदन्ति मृपा अलीकं, यहुत एक श्रात्मा । तदुक्तम्एक एष हि नृतात्मा, भूते नूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ तथा-" पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यश्च भाव्यम् " इत्यादि । कुदर्शनता चास्य सकललोकविलोक्यमाननिबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् तथा कारकः सुखदेतूनां पुण्यपापकर्मणामकर्ता ऽऽत्मेत्यन्ये वदन्ति अमूर्तत्वनित्यत्वाभ्यां कर्तुरिति दर्शनाचा मूर्तन परिणामित्वेन च कर्तृत्योः अक र्तृत्वे चाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । तथा-वेदकश्च प्रकृतजनितस्य सुस्तदुष्कृतस्य च प्रतिबिम्बोदन्यायेन भोकाह कदाचिदपि वेदकता न युक्ला, आकाशस्येवेति कुदर्शनता चास्य । तथा सुकृतदुष्कृतस्य च कर्मणः करणानीन्द्रियाणि कारणा निहेतवः सर्वथा सर्वप्रकारैः सर्वत्र च देशे काले च, न वस्त्वन्तरं कारणमिति भावः । करणान्येकादश-तत्र वाक्पाणिपाद पायूपस्थलत्तणानि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि स्पर्शमादीनि तु पञ्च रून्द्रियाणि एकादशं च मन इति । एषां चाचेतनावस्थायामकारकत्वात्पुरुषस्यैव कारकावेन कुदर्शनत्यमस्य तथा-निस्यश्चासौ । यदाह - " नैनं विन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । नचैनं वेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ श्रच्छेद्योऽयमभेथोऽयमतोऽयं सनातनः" इति सच्चैव एकान्तनित्यले हि सुखदुःखबन्ध मोकाद्यभावप्रसङ्गात् । तथा-निष्क्रियः सर्वव्यापित्येनायकाशाभाचाद् गमनागमनादि क्रियाचर्जितः । प्रस चैतदेदमात्रोपमानंतर वेन नियतत्वात् तथा नि 33 अलियवयण " गुणा, सरवरजस्तमोल कणगुणत्रयव्यतिरिक्तत्वात् प्रकृतेरेव ह्येते गुणा इति । यदाह-" अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने । इति सिद्धता चास्य सर्वथा निगुण, तम्पुरु पस्य स्वरूपमित्यन्युपगमात् (सेस) अनुपले पकः कर्मबन्धनरहितः । श्रइ च-" यस्मान्न बध्यते नापि, मुच्यते नापि संसरन् " । " संसरति बध्यते मु-च्यते च नानाश्रया प्रकृतिः" इति सचैतत् मुक्तामुतयोरेवमविशेषप्रसङ्गतू | पाठान्तरम् - (अन्नोवलेव त्ति) अत्र अन्यश्चापरो लेपनः, कर्मबन्धनादिति यदितिशब्दानुपादानात् । इत्यपि च-तीपप्रदर्शने, अपिवेति-अतीवादान्तरसमु यार्थः । तथा एवं यमाणप्रकारेण (आ) उच्यते स्म असद्भावमसन्तमर्थे, यदुत यदपि यदेव सामान्यतः, सर्वमित्वर्थ: शहास्मिन् किश्चिदविवचितविशेष, जयलोके, दस्ते सुकृतं वा आस्तिकमतेन सुकृतफलं सुखमित्यर्थः दुष्कृतं वा दुष्कृतफलं दुःखमित्यर्थः पतत् ( जइच्छाए व त्ति ) यदृच्छया वा, स्वजाचेन वाऽपि दैवकप्रनायतो वादिविधिसामर्थ्यतो वाऽपि प्रयति न पुरुषका कर्म वा दितादितनिमित्तमिति भावः तत्र-: -अनभिसन्धिपूर्विकाऽर्थप्राप्तिः यदृच्छा । पठ्यते च " श्रतर्कितोपस्थितमेव सर्वं, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽथ वृथाऽनिमान: "तथा" पिशाबस्य पने सामोरापि न स्पृशामः परच्या सिद्धयति लोक यात्रा, मेरी पिशाचाः परितारयन्ति ॥२॥ निःस् नः स्वत एव तथा परिणमति इति भावः। उक्तं च- "कः कण्ट कानां प्रकरोति तैक्यं विचित्रभागपचिणां च स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ? " ॥१॥ इति । दैवं तु विधिरिति लौफ्रिकी भाषा तत्रोकम प्राप्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारणं दैवमलङ्घनीयम् । तस्मान शोचामि नविसमयो मे पदस्मदीयं हि तत्परेषामथाद्वीपमा दपि, मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् । श्रानीय ऊटिति घटयति विचिरभिमतमभिमुखीभूनः ॥१॥ इति सद्भूतता यात्र प्रत्येकमेषां जनमतप्रतिथाहि "काम सहाय नि यई, पुञ्चकयं पुरसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेव उ, समासश्रो हुति सम्म" ॥१८ इति तथा नास्ति न विद्यते तथ लोहे, किचिच्छुनमशुनं वा, कृतकं पुरुषकारनिष्पत्रकृतं च कार्ये, प्रयोज नमित्यर्थः । पाठान्तरेण " नत्थि किंचि कयकं तसं " । तत्र तत्त्वं वस्तुस्वरूपमिति तथा लक्षणानि वस्तुस्वरूपाणि विधिघाश्च भेदा लक्षणाविधास्तासां लक्षणविधानां, नियतिश्व स्वभावविशेषश्च कारिका कर्त्री, सा च पदार्थानामवश्यतया । तद्यथाभवने प्रयोजयित्री, नवितव्यतेत्यर्थः । अन्वायतः मुद्रादीनां राद्धिस्वभावत्वमितरयातत्स्वभावत्वम् यश्च राद्धावपि नियतरत्वं नादिरसता सा नियंतिरिति । "नहि नयति यन्न भाव्यं भवति व भाव्यं विनाऽपि यत्नेन । करतनगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति " ॥ १ ॥ श्रसत्यता चास्व पूर्ववत् । एवमित्युक्तप्रकारेण, केचिन्नास्तिकादयो जल्पन्ति । ऋरिस सातगौरवपराः, ऋरुधादिषु गौरवमादरस्तत्प्रधाना इत्यर्थः । बहवः प्रभूताः करणालसाञ्चरणालसा धर्म्म प्रत्यनुधमाः, स्वस्य परेषां च चित्ताश्वासनिमित्तमिति भावः ; तथा प्रपयन्ति धम्मेविमर्शकेण धर्मविचारयेन, (मोति ) मृषा पारमार्थिकधर्ममपि स्वबुद्धिदुर्विलसितेनाधर्मे स्थापयन्ति । ܪ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७१) अत्रियवयण अभिधानराजेन्बः। अलियवयण एतद्विपर्ययं चेति भावः । इह च संसारमोचकादयो निदर्शन- बन्धपरिक्लेशबहुलं, तत्र-बधो यष्टयादिनिस्ताडनं, बन्धः संय. मिति । तथा-अपरे केचन, अधर्मतोऽधर्ममङ्गीकृत्य राजदुष्टं नृ मनं, पारक्वेश्यमुपतापः, ते बताः प्रचुरा यत्र तत्तथा । भपविरुद्धम-अभिमरोऽयमित्यादिकम्' अभ्याख्यानं परस्यानिमुखं | पन्ति चैते असत्यवादिनामिति । जरामरणःखशोकनेमम्-जरादूषणवचनं,भणन्ति ब्रुवते,असीकमसत्यम। अभ्याख्यानमेव दर्श. दीनां मूलमित्यर्थः । अशुद्धपरिणामेन संक्लिष्टं संक्वेशवत्त त्तथा भणन्ति । यितुमाह-चौर इति जणन्तीति प्रकृतम्। कं प्रति?,श्त्याह-अचौर्य केते भणन्ति ?कुर्वन्तं चौरतामकुर्वाणमित्यर्थः । तथा-डामरिको विग्रहकारीति । अपिचेति समुच्चये। नणन्तीति प्रकृतमेव ।(एमेव ति) अलियाहिसंघिसंनिविट्ठा असंतगुणुदीरगा य संतगुणएवमेव चौरादिकं प्रयोजनं विनैव, कथंभूतं पुरुषं प्रति?, श्त्याह- नासका य हिंसानूतोवधातियं अलियसंपत्ता वयणं उदासीनं डामरादीनामकारणम् । तथा दुःशील इति च हेतोः पर सावज्जमकुसलं साहगरहणिज्जं अधम्मजणणं जणंति दारान् गच्छतीत्येवमभ्याख्यानेन मलिनयन्ति नाशयन्ति,शीलकलितं सुशोलतया परिहारविरतम,तथा-अयमपि न केवलं स एव । श्रणजिगहियपुस्मपावा पुणो य अहिकरणकिरियापवत्तका गुरुतल्पक इति दुर्विनीत इति; अन्ये केचन, मृषावादिनः, पवमे. बहुविहं अनत्यं अवमई अप्पणो परस्स य करेंति एवमेव व निष्प्रयोजन भणन्ति; उपनन्तः विध्वंसयन्तः तवृत्तिकीर्त्या- जंपमाणा,महिसे सूकरे य साहिति घायकाणं, ससपसयरोदिकमिति गम्यते । तथा-मित्रकलत्राणि सेवते सुहृद्दारान् भ- हिए य साहिति वागुरीणं, तित्तिरवकलावके य कविंजजते, अयमपि न केवलमसौ, पुनलुप्तधर्मा विगतधर्म इति । (श्मो वित्ति) अयमपि विश्रम्नघातकः पापकर्मकारीति लकवोयके य साहिति सउणीणं,ऊसमगरकच्कने य सावक्तव्यम् । अकर्मकारी स्वनूमिकाऽनुचितकर्मकारी, अगम्यगा हिंति मच्छियाणं, संखके खुदए य साहिंति मकराणं, मी भगिन्याद्यनिगन्ता, अयं पुरात्मा (बदुपसु य पातगेसु अयगरगोणसममिलिदव्वीकरमनली य साहिंति बालित्ति) बहुभिश्च पातकैर्युक्त इत्येवं जल्पन्ति, मत्सरिण इति पाणं, गोहा सेहा य सल्लगसरमके य साहिति लुकगाव्यक्तम् । भद्रके वा निर्दोषे विनयादिगुणयुक्ते पुरुष वा, , गयकुलवानरकुले य साहिति पासियाणं, सुकशब्दनद्रके वा, एवं जल्पन्तीति प्रक्रमः । किंभूतास्ते ?. इत्याह-गुण अपकारः, कीर्तिःप्रसिका, स्नहः प्रीतिः, परसोको वरहिणमयणसालकोइलहंसकुझे सारसे य साहिति पोसजन्मान्तरम, एतेषु निष्पिपासा निराकाङ्का एते । तथा-एवमु गाणं, वधबंधजायणं च साहिति गोम्मियाणं, धणधनतक्रमेण, पतेऽलीकवचनदकाः, परदोषोत्पादनप्रसक्ताः, वेष्टय- गवेलए य साहिति तकराण, गामे नगरपट्टणे य साहिति न्तीति पदत्रय व्यक्तम । अक्कतिकबीजेन अकयण पु:खहेतुने चोरियाणं, पारघातियपंथधातियाओ साहिति गंथिनेयात्यर्थः । प्रात्मानं स्वं,कर्मबन्धनेन प्रतीतेन,[मुहरि ति] मुखमेव अरिः शत्रुरनर्थकारित्वाद्येषां ते मुखारयोऽसमीक्कितप्रक्षापिन: णं, कयं च चोरियं णगरगुत्तियाणं साहिति, संछणनिअपर्या लोचितानर्थकवादिनः, निक्षेपान्माषकानपहरन्तिः परस्य ल्लंछणधमणदुहणपोसणवणणदुवणवाहणादियाइं साहिसंबन्धिनि अथे द्रव्ये प्रथितगृद्धाः अत्यन्तगृतिमन्तः । तथा- ति बहूणि गोमियाणं, धाउमणिसिलप्पवाक्षरयणागरे य अभियोजयन्ति च परमसद्भिः, दूषणैरिति गम्यम् । तथा- साहिति प्रागरीणं, पुप्फावहिं च फलविहिं च साहिति मुन्धाइच कुर्वन्ति कूटसावित्वमिति व्यक्तम । तथा-जीवानामहितकारिण, अलीकं च व्यार्थमसत्यं, भणन्तीति योगः। मालियाणं, अस्थमहुकोसए य साहिति वणचराणं, जंता, कन्यासीकं च कुमारीविषयमसत्यं, सम्यतीकं च प्रतीतम् । विसाई, मनकम्माहेवणाभिप्रोगजणणाणि चोरियाए तथा-गवालीकं च प्रतीतं, गुरुकं बादरं खस्य जिह्वाच्छेदाधन- परदारगमणस्स बहुपावकम्मकरणो अवकंदणे गामघार्थकरं परेषाश्च गाढापतापादिहतु,भणन्ति भाषन्ते। यह कन्याss तिए वणदहणतमागभेयणए बुधिविसए वसीकरण दिभिः पदैविपदापदचतुष्पदजातय उपलकणत्वेन संगृहीता। भयमरणकि सुवेगजणिआई जावबहुसंकिलिट्ठमातिद्रष्टव्याः। कथंनूतं तत?, इत्याह-अधरगतिगमनम्-अधोगतिगमनकारणम्, अन्यदपि चोक्तव्यातिरिक्तं, जातिरूपकुलशीलानि णाणि नूयघाओवघाइयाइं सच्चाणि विताइं हिंसकाई प्रत्ययकारणं यस्य तसथा; तच्च मायया निगुणं निहतगुणं वयणाई उदाहरांति पुट्ठा वा अपुट्ठा वा, परतत्तिवावमा य शति समासः । तत्र जातिकुलं मातापितृपक, तद्धेतुकं असमिक्खियनासिणो उपदिसंति-सहसा जट्टा गोणा गवच प्रायोऽलीकं संजवति , यतो जात्याविदोषात्केचिदत्री या दमंतु, परिणयवया अस्सा हत्थीगवेलगकुकमा य किकवादिनो भवन्ति । रूपमाकृतिः,शीसं स्वन्नावः,तत्प्रत्ययस्तु नवत्येव,प्रशंसानिन्दाविषयत्वेन वा जात्यादीनामलीकप्रत्ययताजा जंतु, किणावेध य, बिक्केह, पचह, सयणस्स देह, पीयह बनीयेति । कयंजूतास्ते?,चपलाःमनश्चापल्यादिना। किंभूतं तत्!, दासीदासजयकभाइल्लगा य सिस्सा य पेसकजणो कम्म-- पिशुनं परदोषाविष्करणम्पम, परमार्थभेदकं मोकप्रतिघातकम्। करा किंकरा य एए सयणपरिजणे य कीस अत्यति भारि[असंतगं ति] असत्कमविद्यमानार्थम, असत्यमित्यर्थः। असत्त्व या ने करेतु कम्म, गहणाई वणाई खित्तखिलमिबल्लराई के पा सस्वहीन, विद्वेष्यमप्रियम्,मनर्थकारकं पुरुषार्थोपघातकं, पापकर्ममूसं क्रिष्टलानावरणादिर्धाजं,5ष्टमसम्यक्रष्टं दर्शनं यत्र उत्तणघणसंकमाइं डकंतु य समिज्जंतु य रुक्खा भिज्जंतु तद् दुष्टम,दुर्घभुतं श्रवणं यत्र तद् दुःश्रुतं,नास्ति मुणितं ज्ञानं यत्र जंतं नंडाश्यस्स उवहिस्स कारणाए,बहुविहस्स य अट्टाए मुणितम, निर्लज्ज लज्जारहितं, लोकगहणीयं प्रतीतम, बध- । उच्छु दुज्जंतु, पीलियतु यतिमा, पचावेह इकाओ मम Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८२ ) अभिधानराजेन्द्रः लियवयण , घरट्टयाए, सेता य कसत कसावेह वा अड़ंगामनगरखेमकव्वमं संनिवेसेह मवीदेसेसु विपुलसीमं, पुप्फाणि कंदमूलाई कालपत्ताई गिएह, करेह संचयं परिजणस्सऽट्ठयाए साझीबीजवा य सुरुचंतु मक्षितु उप्पूयंतु य, लडं च पविसंतु कोठागारं, अप्पमढकोसगा य ईणंतु पोतसत्या, सेना विजाउ जाउ ममरं, घोरा वरंतु, जयंतु य संगामा, परंतु य सगरुवाहणाई. उपनयणं पोलगं विवाहो जो अमुगम्य होत दिवसे सुकरणे समुदुत्ते सुनक्खत्ते सुतिहिम्मि य थज्ज होउ एहवणं, मुदितं बहुखज्जपेज्जकलियं को नुकविएावणसंतिकम्याणि कुण्ड, ससिरचिगोचरागविसमेमु, सजास्स परिजणस्स व निययस्स प जीवियस परिरवखणडयाए परिसीसकाई च देह, देह य सीसोबहारे विविहोसहिमज्जमंसभक्ख अषाणमयागुलेवापदी क्जालेजला सुगंधधूवोचवारपुप्फफलसमिके, पायच्छिते करेह, पाणातिवाय करणेन बहुविहे विवरीउपायसुविपावसासो मग्गचरिया मंगलनिमित्तपभिप्राय देनं वित्तिच्छेयं करहे मा देह किंचिदाणं, ण २, सुङ्ग विद्यो भयो चिउव दिसंता, एवंविहं करेंति अलियं मयेणं वायाए कम्मुला य । अली के योऽनिसंधिरभिप्रायस्तत्र निविष्टा अलीकाजिसन्धिनिविष्टाः, असद्गुणोदरिकाश्चेति व्यक्तम् । सद्गुणनाशकाच तदपलापका इत्यर्थः । तथा-हिंसया नूतोपघातो यत्रास्ति तद् हिंसाभूतोपघातिषं वचनं प्रणन्तीति योगः । अलीक संप्रयुक्ताः संप्रयुक्तालीकाः, कथंभूतं वचनम:, सावयं गर्हि तं गतिकर्मयुक्तम् अकुशलं जीवानामशत्रकारित्याव अकुशलनरप्रयुक्तत्वाद्वा । श्रतएव साधुगईणीयम्, अधर्मजननं, भवन्तीति पदचयं प्रतीतम् कथंभूताः, इत्याद पुण्यपापा:- प्रविदितपुण्यपापकर्मदेतव इत्यर्थः । तदधिगमे दि नालीकवादे प्रवृत्तिः संभवति । पुनश्ध-महानोरकालम, अधि करणविषया या क्रिया व्यापारस्तव्यवर्धकाः। तथाधिकरणक या द्विविधा निर्तनाधिकरणक्रिया, संयोजनाधिका च। तत्राद्या खड्गादीनां तन्मुष्टचादीनां निवर्त्तनलकणा, द्वितीया तु तेषामेव सिकानां संयोजनल कृति अथवा दुर्गती का रधिक्रियते प्राणी, सास अधिकरणक्रिया हा बहुविधम नर्धमा अपमपर्तन आत्मनः परस्य च कुर्वन्ति, एवमेव श्रबुद्धिपूर्वकं, जल्पन्तो भाषमाणाः। एतदेवाद-महिधान् शूकरांश्च प्रतीतान् साधयन्ति प्रतिपादयन्ति घातकानां रादिकानाम्, शराशयरोदितां साधयन्ति वारिणां श शादय श्रादत्र्याश्चतुष्पदविशेषाः; वागुरा मृगबन्धनं, सा एग्रामस्ति ते वारिणः तितिरवर्तकलायकां कपिब्ज कपोत कांका पक्षिविशेषान् साधयन्ति शकुनेन श्येनादिना मृगयां कुर्वन्तीति शाकुनिकास्तेषाम, सउणीणं' इति च प्राकृतत्वात् । झषमकरान् कच्छपश्च जनचरावशेषान् साधयन्ति, मत्स्याः पण्यं येषां ते मासिकास्तेषाम् (संखंक त्ति) शखाः प्रतीताः, श्रवकाश्च रू दिगम्याः, अतस्तान का कपर्दकान् साधयन्ति मकरा मकरा जलविहारित्वाकीवराः तेषाम् । पाठान्तरे - 'मग्गिराणं' भलियवयण मार्गयतां तवेषिणाम्। अजगरगोनस मण्डमिदमुनि श्च साधयन्ति, तत्र अजगरादयः उरगविशेषाः, दर्वीकराः फणामृताः, मुकुलिनस्तदितरे, व्यालान् हजङ्गान् पान्तरित व्यालपा स्ते विद्यन्ते येषां ते व्यासपिनः तेषाम् । अथवा व्यालपानामत्र प्राकृतत्वेन "बालचीति" प्रतिपादित पाचनान्तरेचाया ति' दृश्यते । तत्र व्याले कारन्तीति वैपालिकानामिति । तथा गोधाः सदा शल्यकशरकां साधयन्तीति लुग्धकानां, गोधादयो जपरिसर्पविशेषाः शराः साः कुबयानरकुलानि च साधयन्ति पासिकानां कु थेः । पाशेन बन्धनविशेषेण चरन्तीति पाशिकास्तेशम् । तथाशुका: कीरा को मयूराः मदनशालाः शारिका: कोकिला परनृतः, हंसाः प्रतीताः, तेषां यानि कुलानि वृन्दानि तानि तथासारसां साधयन्ति पाषाणांपक्षिपोषाणामित्यर्थः तथा वधस्तामनं बन्धः संयमनं वातनं च कदनमिति समाहारद्वन्द्वः। तच्च साधयन्ति गौल्मिकानां गुप्तिपालानाम् । तथा धनधान्यग कां साधयन्ति तस्कराणामिति प्रतीतम। किं तु गावो बसीचर्दं सुरभयः, एलकाः वरम्राः। तथा-ग्राम नगरपशनानि साधयन्ति परिकारणासन करवर्जितम् ; प्रत्तनं द्विविधम्-जलपसनं, स्थलपत्तनं च । यत्र जनपथेन भाएकानामागमस्तदाद्यम्, यत्र च । स्थनपथेन तदितरत् चौरिकाणां प्रचिचिपुरुषाणाम्। तथा पारे पर्यन्ते मार्गे घातिका गन्तॄणां हननं पारघ्रातिकाः (पंथघाइयति) पथि मार्गे पयेत्पर्थ घातिका गन्तृणां हननं प विघातिकाः, अनयोर्द्वन्द्वोऽतस्ने साधयन्ति च ग्रन्थिभेदानां चौरविशेषाणां कृतां च चौरिकां चोरणं, नगरगुप्तिकानां नगररहिकाणां साधयन्तीति वर्त्तते । तथा शानि इजादिभिः निर्मानं वतिकरणं, पति) ज यापूर दोहनं प्रती महिष्यादीनाम, पोषणं पयसादिदानतः पुष्टीकरण, वननं वासस्यान्यमातार योजनं (दुबरा थि) - नमुपतापनमित्यर्थः । वाहनं शकटाद्याकर्षणम, एतदादिकानि अनुष्ठानानि साधयन्ति बहूनि गौमिकानां गोमताम् । तथा धातुगैरिकं, धातवो लोहादयः, मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः, शिला दृषदः, प्रवालानि विक्रमाणि रत्नानि कर्केतनादीनि तेषामाकराः खनयस्ताः साधयन्ति श्राकरिणाम आकरवताम् । पुष्पेत्यादिवाक्यं प्रतीतम्, नवरं विधिः प्रकारे तत्र अर्थका मूल्यमानं, मधुकोशकाका कफोत्पलिस्थानम् अधेमधुकोशका, तान् साधयन्ति, पनचरा पुलिन्दा नाम तथा यन्त्राणि बच्चाटनाद्यकरलेख नमकारान् जनसंग्रामादियाणि वा उदाहरन्तीति योगः । विषाणि स्थावरजङ्गमानि दालमानि मूलकर्म मूलादिप्रयोगतो गर्भपातनादि ( साहेबण ति) आक्षेप पुरोभादिकरणम्। पाठान्तरेण- (चिति) घाहित्य तत् जायम पाठान्तरेण (धिदेशमत्य र्थः । अभियोग्यं वशीकरणादि, तश्च इव्यतो द्रव्यसंयोगजनितं नावती विद्यामादिजनितं ज्ञात्कारो वा मन्त्रौषधिप्रयोगाचानात्रयोजनेषु तद्व्यापारणानीति इतना बो रिकायाः परदारगमनस्य बहुपापस्य च कर्मणो व्यापारस्य यत्करणं तत्तथा; अवस्कन्दनाः छलेन परबलमईनानि, प्रामघातिकाः प्रतीताः, वनदहनतडागभेदनानि च प्रतीतान्येव, बुरुर्दिषयस्य च यानि तानि तथाकरणादिकानि प्रतीतानि प्रथमरणानिरिति गम्यते भा वेनाध्यवसायेन बहुसंक्लिष्टेन मलिनानि कलुषानि यानि, तथा भूतनां प्राणिनां घातश्च हननम्, उपघातका परम्पराघातः, तौ विद्येते Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८३.) अलियवयण थन्निधानराजेन्द्रः । अलियवयण येषु तानि भूतघातोपघातकानि,सत्यान्यपि द्रव्यतस्तानीति यानि तस्तत्रा तथा-सुनत्रेषु पुष्यादौ, सुतियौ च पञ्चानां नन्दादीपूर्वमुपदर्शितानि हिंसकानि हिंस्राणि वचनान्युदाहरन्तिातथा- नामन्यतरस्यामनिमतायाम। 'अज्ज' अस्मिन्नहनि, भवतु स्नपनं पृष्टा वा अपृष्टा वा प्रतीता, परतृप्तिन्यापूताश्च परकृत्यचिन्त- सौलाग्यपुत्राद्यर्थ बध्वादेमज्जनं, मुदितं प्रमोदवत् , बहुखाद्यनाकाणिकाः, असमीक्षितभाषिणः अपर्यालोचितवक्तारः, सपदि- पेयकलितं प्रभूतमांसमद्याधुपेतम् । तथा-कौतुकं रक्षादिकं (विशन्ति अनुशासति, सहसा अकस्माद्-यदुत नष्ट्राः करताः, गो- पहावण सि)विविधैर्मन्त्रमूत्राभिः संस्कृतजः स्नापनकं विएयो गावो, गवया अटव्याः पशुविशेषाः, दम्यन्तां विनीयन्ताम् । स्नापनकं, शान्तिकर्मचाग्निकारिकादिकमिति द्वन्द्वः। ततस्ते कुतथा-परिणतवयसः संपन्नावस्थाविशेषाः, तरुणा इत्यर्थः । रुत । केषु?, श्त्याह-शशिरव्योश्चन्बसूर्ययोग्रहण राहुलक्षणन उअश्वाः, हस्तिनःप्रतीताः,गवेलककुक्कुटाश्च उरतताम्रचूमाश्च पराग उपरजनं, ग्रहणमित्यर्थः,शशिरविग्रहोपरागः। स च वि. कीयन्तां मूल्येन गृह्यन्तां, क्रापयत च एतान्येव प्राहयत च, पमाणि च विधुराणि पुःस्वप्नाशिवादीनि,तेषु । किमर्थम्?,इत्याविक्रीणीध्वं विक्रेतव्यम्। तथा-पचत पचनीयं, स्वजनाय च दत्त, ह-स्वजनस्य च परिजनस्य च निजकस्य वा जीवितस्य पपिबत च पातव्यं मदिरादि । वाचनान्तरेण-खादत पिवत दत्त रिरक्षणार्थमिति व्यक्तम् । प्रतिशीर्षकाणि च दत्त स्वशिरःप्रतिच । तथा-दास्यश्चेटिकाः, दासाश्चेटकाः, भृतका भक्तदानादिना रूपाणि पिष्टादिमयशिरांसि आत्मशिरोरक्षार्थे यच्छत, चपोषिताः, (भाइलग त्ति) ये लाभस्य भागं चतुर्भागादिकं ल- पिडकादिच्य इत्यर्थः। तथा दत्त च शीघोंपहारान् पश्वादिभन्ते, पतेषां द्वन्द्वः। ततस्ते च, शिभ्याश्च विनेयाः, प्रेष्यकजनः। शिरोषलीन्, देवतानामिति गम्यते । विविधौषधिमद्यमांसन्नप्रयोजनेषु प्रेषणीयलोक,कर्मकरानियतकासमादेशकारिणः,र्कि- च्यानपानमाल्यानुबेपनानि च, प्रदीपाश्च ज्वलितोज्ज्वलाः, कराश्च प्रादेशसमाप्तावपि पुनः पुनःप्रश्नकारिणः, पते पूर्वोक्ताः, सुगन्धिधूपस्योपकारइचोपकरणम्-अङ्गारोपरिक्षेपः,पुष्पफलानि स्वजनपरिजनं च कस्मादासते अवस्थानं कुर्वन्ति ?(भारिया नेक- च, तैः समृकाः संपूर्णा ये शीर्षोपहाराः, ते तथा, तान् , दत्त रिज कम्म ति)कृत्वा विधाय, कर्म कृत्यं, तत्समाप्तौ यतो भारि- चेति प्रकृतम्। तथा-प्रायश्चित्तानि प्रतिविधानानि कुरुत । केन?, का दुर्निर्वाहाः 'भे''नवतां " करतुति" कचित्पाः । तंत्र प्राणातिपातकरणेन हिंसया, बहुविधन नानाविधन। किमर्थम्?, (भारय त्ति) भार्या 'ने' भवतः सम्बन्धिन्यः, कर्म कुर्वन्तु ।। श्त्याद-विपरीतोत्पाता अशुभसूचकाः प्रकृतिविकाराः, पुःस्वअन्यान्यपि पाठान्तराणि सन्ति, तानि च स्वयं गमनीयानि । माः, पापशकुनाश्च प्रततिाः । असौम्यग्रहचरितं च करग्रहचातथा-गहनानि गह्वराणि, वनानि वनखण्डानि, केत्राणि चधान्य- | राः,अमङ्गलानि च यानि निमित्तानि अङ्गम्फुटितादीनि, एतेषां धपनमयः, खिलभूमयश्च हलैरकृष्ठाः, वखराणि च केत्रविशेषाः, द्वन्द्वः, तत एतेषां प्रतिघातहेतुमुपहननानिमित्तमिति। तथा वृततस्तानि उत्तृणैर्वगतेस्तृणैः, घनमत्यर्थे, संकटानि संकी-| तिच्छेदं कुरुत,मा दत्त किश्चिदानमिति तथा-सुष्छु हत हत,श्ह र्णानि यानि तानि तथा, तानि दह्यन्ताम । पाठान्तरेण-गहना- तु संभ्रमे द्वित्वम् । सुष्टु छिन्नो जिन्नश्च विवक्षितः कश्चिदिति, नि वनानि छिद्यन्तां, खिलनूमिवल्लराणि सत्तृणधनसंकटानि | पवमुपदिशन्तः। एवंविधं नानाप्रकारम् । पाठान्तरं वा-त्रिविधं दयन्ताम । (सडिजंतु य त्ति) सूज्यन्तां च वृत्ताः, जिन्दन्तां छि- त्रिप्रकारं,कुर्वन्स्यनीक, व्यतो नालीकमपि सत्त्वोपधातहेतुत्वा. न्दन्तां वा यन्त्राणि च तिनयन्त्रादिकानि,भाएडानि च नाजना- जावतोऽलीकमेव । त्रैविध्यमेवाह-मनसा, वाचा,[कम्मुणा निकुण्डादीनि,भाण्डी वा गन्त्री,पतान्यादिर्यस्य तत्। तथा-उप- यत्ति] कायक्रियया। तदेतावतो यथा क्रियतेऽलकिं, येऽपि तत् धिरुपकरणं तस्य (कारणाए त्ति) कारणाय हेतवे । वाचनान्तरे कुर्वन्तीत्येतद् द्वारद्वयं मिश्रं परस्परेणोक्तम्। तु-यत्र नाण्डस्योक्तरूपस्य कारणाद् देतोः । तथा-बहुविधस्य अथ ये तान् कुन्ति तान् भेदानाहच, कार्यसमूहस्येति गम्यम् । अर्थाय इववो (जंतु त्ति) दूयन्तां लूयन्तामिति, धातूनामनेकार्थत्वात् । तथा-पीज्यन्तां च अकुसला पज्जा अलियामा अलियधम्मनिरया तिला, पाचयत चेष्टकाः गृहार्थम् । तथा-केत्राणि कृषतां कर्षयतां अलियासु कहासु अभिरमंता तुट्ठा अझियं करेउ हुंति वा। तथा-लघु शीघ्र, प्रामादीनि निवेशयत, तत्र प्रामो जनपद य बहुप्पगारं, तस्स य अलियस्स फलस्स विवागं अप्रायजनाश्रितः, नगरमविद्यमानकरदानं, कर्बर्ट कुनगरम् । को, अटवीदेशेषु। किंभूतानि प्रामादीनि?,विपुलसीमानि। तथा-पुष्पा याणमाणा बति महन्नयं अविस्सामवेयणं दीहकादीनि प्रतीतानि । [कालपत्ता ति] भवसरप्राप्तानि गृहीत, सबहुदुक्खसंकमं परयतिरियजोणिं, तेण य अलिकुरुत संचयं परिजनार्थम्।तथा-शालयःप्रतीता,लूयन्तां,मस्य- एण समणुवका आइहा पुणब्भवंधकारे नमंति, भीमे न्तास, उत्पूयतां च,लघु च प्रविशन्तु कोष्ठागारम् । [अप्पमहक्को मुग्गश्वसहिमुवगया ते य दीसंति यह दुग्गया जुरंता परसगा यति] अल्पा लघवो, महान्तस्तदपेक्षया, मध्यमा श्त्य वसा अत्यभोगपरिवज्जिया अमुहिता फुडितच्छवी-बीभर्थः । उत्कृष्टा उत्समाश्च, हन्यन्तां पोतसार्थाः बोदित्थसमुदायाः, शावकसम्हा वा। तथा-सेना सैन्यं, निर्यातु निर्गच्छतु ।निर्गत्य च्छविवरणा, खरफरुसविरत्तज्झामकुसिरा निच्छाया सच यातु गच्छतु डमरं विमुरस्थानम्। तथा-घोरारौका वर्तन्तां राविफलवाया असक्कयमसक्कया अगंधा अचयेणा उभगा च, जयन्तां संग्रामा रणाः। तथा प्रवदन्तु च प्रवर्तन्तां शकटवा- अकंता काकस्सरा हीणभिन्नघोसा विहिसा जमबहिरम्या हनानि-गन्यो यानपात्राणि च । तथा-उपनयनं बालानां क. य मम्मणा अकंतविकंतकरणा णीया णीयजणणिमेविणो माग्रहणं,चोझगं ति] चूमोपनयनं वासकप्रथममुण्डनम्, विवाहः लोगगरहिणिज्जा निच्चा असरिसजणस्स पेसा दुम्मेहासोपाणिग्रहणं, यज्ञो यागः, अमुष्मिन् भवतु दिवसे। तथा-सुकरणं बवादिकानामेकादशानामन्यतरदानिमतं, सुमुहूर्तों रौ-| गवेदअप्पसमयसुतिबज्जिया नराधम्मबुधिवियला अकादीनां त्रिशतोऽन्यतरोऽभिमतो यः, एतयोः समाहारद्वन्द्वःत-| लिएण य तण य मज्जयाणा असतएण अवमायण लिएण य तेण य मज्माणा असंतएणं अबमाणणपिडि Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८४) अलियवयण अभिधानराजेन्छः। अलेवाड मंसाडिक्खेवपिसुणभेयाणगुरुबंधवसयाणमित्तऽवक्खारणाऽऽ मनीयानि विकृतानि च करणानीन्द्रियाणि कृत्यानि वा येषां दियाई अब्भक्खाणाई बहुविहाई पावंलि अमणोरमाई हि- | ते तथा । वाचनान्तरे-अकृतानि न कृतानि विकृतानि च विरूपतया कृतानि करणानि यैस्ते तथा । नीचा जात्याययमणमगाइं जावनीव हु दुघराई अणि?खरफरुसवयण दिभिः, नीचजननिषविणो, लोकगर्हणीया इति पदद्वयं व्यतजणणिन्नत्यणदीण वयणविमणा कुनोयणा कुवास- क्तम् । भृत्या मर्तव्या एव । तथा-असहशजनस्य अनसा कुवसहीसु किलिस्संता नेव मुहं नेव निबुझं नवननं- मानशीललोकस्य द्वेण्या द्वेषस्थानं, प्रेष्या षा प्रादेश्याः, दुर्भधति,अच्चंतविपुलदुक्खसयसंपलिना,एसो सो अलियवय- सो दुर्बुद्धयः ।[ लोगेत्यादि ] श्रुतशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात्-लोणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पमुहोब- कश्रुतिः लोकाभिमतं शास्त्रं नारतादि, वेदश्रुतिः ऋक्सामादि हुदुक्खो महन्भो बहुप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वेदशास्त्रम, अध्यात्मश्रुतिः चित्तजयोपायप्रतिपादनशानं, समयश्रुतिः आईतबौद्धादिसिमान्तशालं, ताभिर्वजिंता येते वाससहस्सेहिं मुच्चतो हा य अवेदयित्ता अत्यि हु मो तथा । क पते एवंनूताः, इत्याह-नरा मानवाः, धर्मबुद्धिवि. क्खो त्ति, एवमाइंसु नायकुलनंदणो महप्पा जियो न वी- कलाःप्रतीतम्। अलीकेन च अत्रीकवादजनितकर्माग्निना, तेन रवरनामधेजो कहेसीमं अलियवयणस्स फलचिवाग; एयं कालान्तरकृतेन, दह्यमानाः [असंतपणं ति ] प्रशान्तकेनानुतं वितियं पि अनियवयणं लहस्सगलहुचवलभणियं भ पशान्तेन असता वा अशान्तत्वेन रागादिप्रवर्तनयेत्यर्थः। अप माननादि प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः। तत्रापमाननं च मानहरणं, यकरदुइकरअयमकरवरकरणं अरतिरतिरागदोसमासांक पृष्ठमांसं च परोदयस्य दूषणाविष्करणम् । अधिक्केपश्च निन्दासवियरणं अनियनियमिसातिजोगबहुलं नीयजणनिसे- विशेषः, बलैनेंदनं च-परस्परं प्रेमसम्बद्धयोः प्रेमच्छदनं, गुरुवियं निसंसं अप्पच्चयकारकं परमसाहुगरहाणज्जं परपी- बान्धघस्वजनमित्राणां सत्कमपक्कारणं च अपशदं कारायमाकारकं परमकिएहलेससहियं दुग्गतिविणिवायवणं माणं वञ्चनपरानिनूतस्य वा एषामपककरणं, सानिध्याकरण मित्यर्थः । एतानि आदिर्येषां तानि तदादिकानि । तथा-अ. नवपुणब्लवकरं चिरपरिचियमणुगयदुरतं ति बेमि ॥ भ्याख्यानानि असदुषणानिधानानि बहुविधानि, प्राप्नुवन्ति लभन्ते इति । अनुपमानि । पान्तरेण अमनोरमाणि,हृदयस्य अकुशला वक्तव्यावक्तव्यविभागानिपुणा अनार्याः पापकर्मणो उरसो, मनसश्च चेतसो, [दूमगा इति ] दावकान्युपतापकानि दुरमयाताः [अलियम ति] अलीका माझा आगमो येषां तानि तथा । यावज्जीवं मुर्धराणि माजन्माप्यानुद्धरणीयानि, ते तथा, त एवासीकधर्मनिरताः, अलीकासु कथास्वभिः अनिष्टेन खरपरुपेण चातिकोरेण वचनेन यत्तर्जनम्-रे!, दारममाणाः। तथा-[ तुझा अत्रियं करेउ हुंति य बहुप्पगार ति] सपुरुषेण भवितव्यमित्यादि। निर्भर्त्सनम्-अरे दुष्कर्मकारिन् ! अत्र-तुष्टा भवन्ति चालीकं बहुप्रकारं कृत्वा उक्वेत्येवमकरघटना अपसर दृष्टिमार्गादित्यादिस्पं, ताज्यांदीनं वदन, [विमण ति] कार्येति । तथाऽत्रीकविपाकप्रतिपादनायाह-[तस्स त्ति ] द्वि विगतं मनो येषां ते तथा । कुभोजनाः, कुवाससः, कुवसतिषु तीयाऽऽभवत्वेनोच्यते-तस्याऽलीकस्य फसस्य कर्मणो वि क्रिश्यन्तो, नैव सुखं शारीरं, नैव निवृत्ति मनःस्वास्थ्यम, सपाक उदयः, साध्यमित्यर्थः । तमजानन्तो वर्षयन्ति महानयम पलभन्ते प्राप्नुवन्ति; अत्यन्तविपुलदुःस्त्रशतसंप्रदीप्ता, तदिविश्रामवेदनां, दीर्घकालपटुःखसंकटां, नरकतिर्यग्योनि, तत्रो यता अलीकस्य फसमुक्तम् । एसो' इत्यादिना त्वधिकृतहारत्पादनमित्यर्थः । तेन चालीकेन, तपोजनितकर्मणेत्यर्थः । निगमनमिति । व्याख्या त्वस्य प्रथमाध्ययनपश्चमद्वारनिगमसमनुबका अधिरहिताः, आदिशा आसिङ्गिताः, पुनर्नवान्धकारे नवत् । (पयं तं वितियं पि) इत्यादिनाऽध्ययननिगमनम् । भ्राम्यन्ति, भीमे पुर्गतिवसतिमुपगतास्ते च दृश्यन्ते इह जी प्रम०१ आश्रद्वा अपवादपदे-"पढम घिगिचणट्टा" प्रायम्घलोके। किंजूताः १, इत्याह-दुर्गता दुःस्थाः, पुरन्ताः दुष्पर्य; भतीकवचनम्, अयोग्यशकस्य विवेचनार्थ वदेत् । ०६ उ०। वसानाः, परवशा स्वतन्त्रता, अर्थभोगपरिवर्जिताः सव्येण भोगैश्च रहिताः, [ असुहिय त्ति ] असुखिताः, अविद्यमानः । अल्लक्खि (ए)-अरूतिन्-त्रि० । अरुकस्पर्श सद्भावादासुहृदो वा, स्फुटितच्ययः विपादिकाविचर्चिकादिभिः विकृत. कि । स्निग्धस्पर्शवति, न० ११ श० ४ उ०। त्वचः, बीनत्सा विकृतरूपाः, विवर्णा विरूपवर्णा इति पदत्रय भलक-अलुब्ध-त्रि० । अलम्पटे लोभरहिते, प्रम०५ सम्ब० स्य कर्मधारयः । तथा-खरपरुषा प्रतिकर्कशस्पर्शाः, विरक्ता द्वा० । “भारादुक्कोसं जो, लणं तयं न भत्तो । एस भलुरति कचिदप्यप्राप्ताः, ध्यामा अनुज्ज्वच्छायाः, फुषिरा असा- | दो दारं, ........ ....." ॥ पं० भा०। पञ्चा०। रकाया इति पदचतुष्कस्य कर्मधारयः। निश्गयाः विशोनाः, | अले-भरे-भव्यः। नीचसंबोधने, "अले कि एशे मददेकलहा अव्यक्ता विफसा फलासाधनी वाम्येषां ते तथा। [प्रस फिलासाधना वाम्येषा ते तथा। [ अस- सबले" प्रा०४ पाद । कयमसकय त्ति] न विद्यते संस्कृतं संस्कारो येषां ते असं. भलेव-प्रोप-पुं० । अलिप्ततायाम, प्रव०४द्वार । प्रसेपमध्ये स्कृता एतारशा असंस्कृता अविद्यमानसंस्काराः, ततः कर्मधा मोमणा नी रोटी खाखरादिकंकल्पते नवेति प्रम-बहुषु अन्येषु रयः। मकारश्च लाकणिकः । अत्यन्तं वा असंस्कृताः। प्रत पवा. गन्धाः, प्रचेतनाः,विशिष्टचैतन्यानावात् । पुर्नगा अनिष्टाः, म. प्रलेपशब्देन वल्लचणकादिकं व्यास्यातमास्त,बृहत्कल्पभाष्यवृ. कान्ता अकमनीयाः, काकस्येव स्वरो येषां ते काकस्वराः, त्तिमध्ये तु-'मोभणादिरोटीसाखरासाउाटु' इत्यादिहीनो हवा निन्नश्च स्फुटितो घोषो येषां ते तथा । (विहिंसन्ति) कमलेपमध्ये कल्पते इति व्याख्यातमस्ति । सेन०२ मा०॥ विहिसाः, जमाश्च मूर्खाः, वधिरान्धका येते तथा । पागन्तरे- अलेवकर-अलेपकत-न० । वल्लचणकादावपिच्छिले कव्वे, ण-जमबधिरा मूकाच,मन्मना भव्यक्तवाचः, अकान्तानि अक। पि० । पञ्चा। Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलेवकम प्राभिधानराजेन्डः। प्रलोभया तत्रालेपकतानि तावदाह शम्देऽस्मिन्नेव जागे ३४३ पृष्ठे दशमाधिकारे समुक्तम् । कि यानझोक इति तु 'लोग' शब्दे सक्ष्यते) कंजुसिणचाउनोदे, संसद्ययामकडमूलरसे । अलोभया-श्रलोभता-स्त्री० । लोनत्यागरूपेऽष्टमे योगसंप्रहे, कंजियकदिए लोणे, कुट्टा पिज्जा य नित्तुप्पा ॥ स०३५ सम०। प्रश्न०। प्राव०। कंजियउदगविलेवी, प्रोदयकुम्माससत्तुए पिहो । प्रलोभतामाहमंमगसामियोसिमे, कंजियपत्ते असेवकमे॥ साएए पुंडरिए, कंडरिए चेव देवि जसजदा । काजिकमारनासम,सष्णोदकमुत्य त्रिदण्डम, (चामोदगं ति)। तन्दुमधावनम,संसृष्टं नाम गोरससंसृष्टे भाजने प्रक्षिप्तं सद्यदु सावत्थि अजिअसेणे, कित्तिमई खुङगकुमारे ॥१॥ बकंगारेसेन परिणामितम,आयाममवश्रयणम्, (कट्ठमूसरसेति) जसज सिरिकता, जयसिंघो चेव कन्नपाने । काठमूलं चणकवादिद्विदलं, तदीयेन रसेन यत्परिणामितं नट्टविहीपरिप्रोसे, दाणं पुच्चाइ पवज्जा ॥३॥ तत्काष्ठमूनरसं नाम पानकम् । तथा-पत्काम्जिककथितं, [लोणे मुट्ट वाइडं सुट्ट गाइअं,सुट्ट नच्चि सामसुंदरि। तिसमवणं यावद।कुछा चिम्चिनिका,पेया च प्रांता,नितुप्पाअचे.पडा अबग्घारिता वा तथा-विलंपिका द्विविधा-एका अणुपालिअदीहराश्या-श्रो सुमिणं ते मा पमायए ॥३॥ कानिकविलेपिका, द्वितीया उदकविलेपिका । ओदनस्तन्दुसा अर्थः कथांतो धेयःविभक्कम फुल्माषा उडदा,राजमाषा वा सक्तवो भृष्टयवकोद " साकेतं नाम नगरं, पुएरीको नरेश्वरः । रूपाः,पिट मुजादिचूर्ण,मएडकाः सकणिकामवाः,समितम-अट्ट युवराजः करमरीको, यशोभद्रा च तत्विया ॥१॥ का,उस्वित्रं मुझेरकादि, कानिकपत्र काझिकेन वाष्पितम्-अराणि रक्तस्तां वीक्ष्य दूत्योचे, सा नै मारितोऽनुजः । कादिशाकम, पतानि कालिकादीन्यसेपकृतानि मन्तव्यानि वृ०१ नंटा सार्थेन तत्पत्नी, श्रावस्ती नगरी ययो॥२॥ 1०11०। प्रसेपकृतपात्रस्य ववश्यं कल्पो दातभ्यः।ध०३अधिक। तत्राचार्योऽजितसेना, कीर्तिमती महत्तरा। प्रलेसी-अलेश्यिन्-पुं० । सेश्यारहिते अयोगिनि, सिद्धे च । तत्र साऽपि प्रवव्राज, धारिणीवत्तदन्तिके ॥३॥ स्था० ३ ग०४०। परंन साऽत्यजत्पुत्रं, किन्तु क्षुल्लमचीकरत् । स वयःस्थो व्रतं कर्नु-मनमो जननी जगी ॥४॥ अलोग (य)-अलोक-पुंगनत धर्मादीनां न्याणां यामीति स्थापितो मानो-परोध्य द्वादशान्दिकाम् । वृत्तिर्भवति यत्र तत, तारशकेत्रमिह लोक, तहिपरीतं बलो- एवं महत्तराऽऽचार्यो-पाध्यायैरपि स वजन ॥५॥ काख्यं केत्रम् । आव०५० । सोकविको अनन्ताकाशास्ति- स्थापितोऽन्यारतैः कुस्लो-ऽष्टाचत्वारिंशदब्दिकाम । कायमात्रे, सूत्र०१६०१२ १० प्रा० म०प्रव० । यत्र क्षेत्रे| तथाऽप्यतिष्ठन् प्रेषि मा-त्रोचे त्वं माऽन्यतो गमः॥६॥ समवगाढौ धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ, तावत्प्रमाणे लोका, साकेते पुरमरीफस्ते, पितृव्योऽस्ति नृपस्ततः॥ शेषस्त्वलोकःजी०१ प्रतिका"एगे भलोप" एकोऽलोकोऽनन्त. मुखां कम्बलरनं चा-दाय तत्र बजेः सुत!॥७॥ प्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया । स० १सम० । १० प्र० । ततोऽस्था यानशाखायां, राज्ञः श्वो नृपमीकितुस् । लोगस्सऽस्थि विवक्खो, मुफत्तणो घमस्स भघडो ब्य। पर्षद्याभ्यन्तरायां स, त्रैवत प्रेक्षणं निशि ॥८॥ नर्सकी तत्र नर्तित्वा, रङ्गेण सकलां निशाम् । स घाई चेव मई, न निसेहामो तदणुरूवो ॥ विभातायां विभावो, निनिद्रासुरवृत्ततः॥ए । अस्ति लोकस्य विपक,व्युत्पत्तिमच्छुखपदाभिधेयत्वात्।इ- तन्माताऽचिन्तयत्पर्ष-सोषिता तरूनं बहु । इ यदू व्युत्पत्तिमता शुद्धपदेनाभिधीयते तस्य विपक्षोरष्टः,पथा. चेत्प्रमादोऽस्या मुथः स्म-स्ततो गीतिमिमां जगौ॥१०॥ घटस्याघटः। यश्च लोकस्य विपक्कः सोऽसोकः। अथ स्याम्मतिर्न "सुटु वाइयं सुट्ट गाइअं, सुटु नचियं सामसुंदरि!" इत्यादि। लोकोऽनोकइति ।योऽशोकस्य विपकःसघटादिपदार्थानामन्यतम अत्रान्तरे स च कुल्ल-कुमारो रनकम्बलम। एव भविष्यति,किमिह वस्त्वन्तरपरिकल्पनया?। तदेतत्रापर्यु- युवराजो पशोनको, निर्मसं रत्नकुण्डबम् ॥११॥ दासनमा निषेधानिषेभ्यस्यैवानुरूपोऽत्र विपकोऽन्वेषणीयः। न- सार्थवाही निज हारं, राजेभाऽऽरोहकोऽङ्कशम् । लोकोऽत्रोक इत्यत्र च सोको निषेध्यः,सचाकाशविशेषः,अतोऽ- मन्त्रीच कटकं लक्ष-मूल्यानि निखिलान्यपि ॥१२॥ सोकेनापि तदनुरूपेण भवितव्यम् । यहापण्डित इत्युक्तविशि- त्यागं यस्तत्र दत्ते स्म, स समस्तोऽप्यलिख्यत । कानविकनश्चेतन एव पुरुषविशेषो गम्यते, नाचेतनो घटादिः, जात्या त्यागे कृते राक-स्तोषो रोषोऽन्यथा पुनः ॥ १३॥ एवमिहापि लोकानुरूप एवाऽलोको मन्तव्यः । उक्तं च-"नम्यु सर्वेऽपि प्रातराहूताः, क्षुः पृष्टोऽब्रवीदिदम् । तमिवयुक्तं वा, यकि कार्य विधीयते । तुल्याधिकरणेऽन्यस्मि यावत्तन्मूलमायातो, राज्यलक्ष्मीसमीहया ॥१४॥ लोकेऽप्यर्थगतिस्तथा" ॥१॥" नभिवयुक्तमन्यसहशाधिकरणे गृहाण राज्यं राज्ञोचे, स नैच्छदिदमचिवान् । तथा ह्यर्थगतिः" । तल्लोकविपकत्वादस्त्यलोक इति। विशे०।- व्रत निर्वाहयिष्यामि, खुको गोत्याऽनयाऽस्यहम् ॥१५॥ रकः प्राह-" स घटाई चेव मती," गुरुः प्राह-" न निसेडामो युवराजोऽवदद्राजा, वृको राज्यं ददाति न । तदनुरूवो" स्था०१०१ उपा“सिका निगोयजीवा,णस्सई मारयित्वा तदादास्ये, इति चिन्ताऽभवन्मम ॥ १६॥ कालपुग्गला चेव । सबमलोगागासं,गप्पेपऽणतया या प्रव० छचे राजाऽधुनाऽप्येतद्, गृह्यतां सोऽपि नैहत । २५६ द्वार। (अलोके व्यकेत्रकालभावाः सन्ति नवेति'अणुओग। सार्थवाही जगी पत्यु-गंतस्य द्वादशाग्द्यतत् ॥ १७ ॥ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रलोभया (७८६) भनिधानराजेन्द्रः। अधक ततोऽन्याऽऽनयनेच्छातः, भुत्वा गीतिमिमां स्थिता।। झी"10।४।५४ । इत्यालीयतेरशीत्यादेशः । अलीमारमन्यूचेऽन्यनृपः साई, घटनातः स्थितोऽधुना ॥१८॥ पालीयते । प्रा०४ पाद । । प्रत्यन्तराजभिमिए, प्रोक्तो इस्तिनमानय । प्रवी-पानीतुम्-मन्या माधयितुमित्यर्थे, ०६.०। या मारय तन्मेने, निवृत्तं गीतिकाश्रुतेः॥१९॥ अस्मत्कृतेऽनया गीतं, किलेति प्रतिबोधतः । अवीण-आलीन-त्रिकामा-ईषद् मीनः। जीतामाभिते, दत्तोऽस्मानिःप्रनो! त्याग-स्तुष्टः सर्वेषु अपतिः ॥ २०॥ भातु । कल्प०। प्रतिज्ञा । गुरुसमाभिते संलीने, मा सम. सर्वे सुबकुमारस्य, मार्गलनाः प्रवबजुः। न्तात्सर्वासु क्रियासु लीनो गुप्तः। अनुल्वणचेष्टाकारिणि, जी०३ असोजतैवं कर्तव्या, सर्वैरपि महात्मभिः"॥२१॥ मा०क०। प्रति । तं०। गुरुजनमाभितेऽनुशासनपिन गुरुषु वेषमापद्यमाअलोल-मनोन-त्रि० । अमुन्धे, नि० चू० १०००। अमाप्त ने, जं०२वक । का। कानादिवासमन्ताखीने, व्य० १०० प्रार्थनाऽतत्परे, दश० १० १० । प्रवीणपलीणगुत्त-मालीनालीनगुप्त-त्रि० । मङ्गोपाङ्गानि अलोप-प्रलोअप-पुं०।सरसाहारादिलाम्पत्यरहिते,त. सम्यक्संयमयति, दश.८० २०॥ प्रव-प्रव-अव्य० । प्राधिक्ये, स०१ सम० । प्रधाशदायें, अल्ल-आई-त्रि० । जलसंपृक्ते, "भल्लं चम्म पुरूहा"। आई प्रप० २१६ बार । विशे। मा० मा प्रका० । नं० । अवनमषः "तुदादिभ्यो न को" इत्यधिकारे "कितो वा" (उणा-) श्त्यचर्माधिरोहति । ज्ञा० १२ अ०। नेन भौणादिकोऽकारप्रत्ययः । गमने घेदने, मा० म०प्र०। भल्लोऽकुसुम-अस्मकीकसम-न० । पीतवणे लोकप्रसिद्ध विशेmol गुच्छविशेषपुष्पे, प्रज्ञा० १ पद । ज० । रा०। अवअक्ख-दृग्-धा प्रेकणे, “दशो निमच्छ-पेच्छावयच्छाअलकच्चूर-आकच्चूर-पुं० तिक्तव्यविशेषे, प्रव०४द्वार।। घय-वज-सब्बव-देखोमक्यावसाऽवनक्स-पुलोत्र-पु. प्रदग-आर्षक-न० । शुक्रवेरे, (आदा ति ख्याते) ध० २ लम-निआऽवास-पासाः"।८।४।१८१ । ईतिसूत्रेण शेः. 'अषमक्ख'भादेशः। अवअवश्-पश्यति । प्रा०४ पाद । अधिःप्रव० । । अद्वत्थ-उत-तिप्-धा० । ऊर्ध्वक्केपे, “सक्किपेर्गुलगुञ्छोत्था- अवधक्खिअ-देशी-निवापितमुखे, दे० ना० १ वर्ग । लुत्थोन्नुत्तोस्सिक-हक्खुवाः"10।। १४३ । मलत्थ-तू अवअच्छ-देशी-कक्षावखो, दे० ना० १ वर्ग। क्षिपति । प्रा०४ पाद। अवअच्च-हादि-धा० । माहादोत्पादने, “हादेवमयः"८। अलमत्था-माघमुस्ता-स्त्री० । (नागरमोथा इति ख्याते)| ४। १२२ । हादतेपर्यन्तस्याण्यन्तस्य च 'अषमच्छ' इत्यादेभाऽवस्थे गन्धप्रधाने वनस्पतिम्ले, प्रव०४ द्वार | ध०।। शः । अवअच्छश्-हादयति । प्रा०४ पाद । अल्लाबपुर-नका मल्लाबुद्दीननिवासिते म्लेच्छदेशस्थे नगरजेदे, |अवअचिअ-देशी-निवापितमुखे, देना.१ वर्ग। यत्र गत्वा श्रीजिनप्रभसूरिभिम्लेंच्गः प्रतियोधिताः । “पत्ता | अवमणिअ-देशी-असंघाटिते, ३० ना० १ वर्ग। रायभूमिमंडणं सिरिअल्लाबपुरदुग्गं"। ती०४ए कल्प । प्रवास-रश्-धा० । “प्शो निन्छ-"111१८॥ भदाबुद्दीणसुरत्ताण-अबाबुद्दीनमुन्नतान-पार० श० । वैक श्त्यादिना स्त्रेण रशेः 'अवमास' इत्यादेशः । प्रवासमवत्सराणां द्वादशशतकादौ गुर्जरधरित्र्युपावके तत्कालिक पश्यति । प्रा०४ पाद। राजजेतरि यवनराजे, ती०१६ कल्प। अवइ-अवतिन्-पुं० । अविरतसम्यग्दृष्टौ, वृ०१०। अलिअ-उप-सप्-धा0। समीपगमने, “उपसरल्लियः"। अवउज्जिय-अवकुब्ल्य-अव्य० । अधोऽवनम्यत्यथे, माचा०२ ।४।१३६ । उपपूर्वस्य स्पेः कृतगुणस्य 'अमित्र' इत्यादेशः। अल्लिअश्-सपसर्पति । प्रा०४ पाद । " तस्स सरणमल्लि भु०१ म०७०। यह" दिश०१उ०। अवउझिकण-अपोख-अन्य० । परित्यज्येत्यर्थे, "अषउज्जिअनियावणबंध-ग्रालायनबन्ध-पुं० । द्रव्यस्य द्रव्यान्तरण | कण ही" । वृ०३७०। श्लेषादिनाऽऽलीनकरणरूपे बन्धे, “से किं तं अल्लियावणबंधे ?।। अवउमग-अवकोटक-न० । काटिकाया अधोनयने, विपा० मल्लियावणबंधे चलब्धिहे पलत्ते । तं जहा-सणाबंधे, उच्चय- १०२०प्रश्न बंधे, समुच्चयबंधे, साहणणाबंधे" 1 भ० ८ ० एस० । अवउडगबंधण-अवकोटकबन्धन-त्रि० । अवकोटकेन रुका(चतुर्णामेषां व्याख्या स्वस्वस्थाने प्रदर्शयिभ्यते) टिकाया मधोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा। प्रीबायाः पश्चाद्भाप्रशियावण वंदणय-आलायनवन्दनक-ना प्राचार्यादीनामा गानयनेन बद्ध, विपा० १ श्रु०२०। बादुशिरसां पृष्ठदेशे .. श्रयणाय प्रतिक्रमणान्ते ज्येष्ठानुक्रमेण वन्दने, आव०४०। न्धने, प्रभ०१ आश्रद्वा०। अनिव-अर्पि-ऋ-णिच-पुक । प्रदाने, "अरल्लिवचच्चुप्प- प्रवकसणग-अपवसनक-अवजोषणक-न। तपोविशेषसेपणामाः "||४|३ए। इत्यर्यन्तस्य मल्लिवादेशः । - | वायाम्, पञ्चा० १६ विव०। झिवश्-अर्पयति । प्रा०४ पाद । | अवंक-अवक्र-पुं० । पक्रोऽसंयतः, न वक्रोऽवक्रः। संयते घिरआधी-श्रा-ली-धा। आत्म०प० । माश्रयणे, "भासीको.] ते, व्य०१० सोपाधिशुद्ध ऋजी, भाचा०९४०३१०१० Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) अवंग अनिधानराजेन्धः। अवकिरियव्य अवंग-प्रपामा-पु.। नयनोपान्ते, जं. १ वक्ता का प्राचा स्स । सूरिदि भन्नइ-वे ताव जाव पभाए मायरं ते पुच्छामो । ततो तेण सयमेव लोअं का पयहो । सूरीहि चिंतियं-मा पस अपंगुयज्वार-अपावृतद्वार-त्रि० । कपाटादिभिरस्थगितगृह सयं गिहीयलिंगो होउ ति कसिङ से समाप्पियो वेसो, दिना द्वारे, "भवंगुयवारा" खदर्शनलानेन कुतोऽपि पाखएिकाद दिक्खा । ततो निवमिळण चलणेसु भणितो-असमत्थोऽहं दीबियति शोजनमार्गपरिप्रदेणोदाहशिरसस्तिष्ठन्तीति जाव हपवजापरियायपरिवालणस्स, ता संपय चेव अणसणं कारति वृद्धव्याख्या । अन्ये त्वादुः-मिथकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थ ऊण इंगिणि करेमि । ततो पपण अणुजाणवित्रो नीदरिउ गितगृहद्वारा इत्यर्थः । भ०१।०५ उ० । दशा० । भौ० । सहाणामो पत्तो कथारिकुगिसमीथे, इंगियं एप्स काऊण उद्घाटितद्वारे, न०1१० १००ारा विओ काउस्सगेण । भइसुकुमारयाए सरीरस्स धराणतलअवंचक-प्रवञ्चक-त्रि० । पराज्यसनहेती, " अवंचिगा कि- फाससंजायरुहिरप्पवाहेण समागया सियासी सह सहि रिया"। भवञ्चिका पराग्यसनहेतुः क्रिया मनोवाकायव्यापार पिल्लपाह। ततोएग जंघं सियाबीए साश्यं वीर्य पिल्लवपाहि रूपति द्वितीयमृजुव्यवहारलक्षणम् । ध०र०।। पढमजामे, एवं ऊरू वियजामे, तश्यजामे पेटुं, एवं सो जयप्रवंचकजोग-प्रवञ्चकयोग-पुं० । पञ्चकत्वविकले योगे, व तं वयणं सममाहियासिऊण तश्यजामे समाहीए कालं काऊण गतो तम्मि चव विमाणे । ततो समागया परुचासन्नपो०। मवाकयोगाइच त्रयः। तद्यथा-सद्योगाऽवञ्चकः, क्रिया देवा, मुक्कं गंधोदयं कुसुमवरिसं, माहयामओ देवकुंदुहीरो, ऽवञ्चका, फसावञ्चकः । ततस्वरूपं चेदम् उग्घुटं च हरिसभरनिम्नरोहि-अहो! एस महाकालो। घरे थ “सद्भिः कल्याणसंपने-देशनादपि पावनैः। से भजाणं परोप्परं समालोओ जाओ, तेसिं सिहं-उठो कत्थ तथादर्शनतो योगः, माद्योऽवञ्चक उच्यते ॥१॥ वि गो । ततो य से जहा पुच्छिया। तीए वि समाचलमणाप तेषामेव प्रणामादि-क्रिया नियम इत्यलस् । सूरीहिं सर्व साहियं । ततो पभायाए रयणीए सचिट्ठीए नीहक्रियाऽवञ्चकयोगः स्या-महापापकयोदयः ॥२॥ रिया भद्दा, सह सम्वसुम्नाहिं सुसाणं पत्ता। दिउं च कुमंगाश्री फलाबचकयोगस्तु, सद्भय पव नियोगतः। मेरश्यदिसाए आसयठियं कलेवरं । ततो सोयभरविउरिया उसानुबन्धफलावाप्ति-धर्मसिकौ सतां मता" ॥३॥ पो० म्मुक अणेगपलावगेणं तहा रोहयं जहा वसीणं घिय तुज्ज. ८ विव०। ति हियया। ततो कहमवि संठविया सयणघग्गेणं, गया य अवंजएजाय-अव्यजनजात-त्रि० । व्यञ्जनान्युपस्थरोमा सिप्याए नए तमे, कयं तत्थ संकुकरणं,पच्छालोइयाकच्चाणि, पि जातानि यस्य स तथा । प्रजातोपस्थरोमणि, व्या पाययणाणि य काराविऊण महाए अहसंवेगाबोसह सुण्हाहिं १०००। गहिया पध्वजा। एगा उण गुन्विणि त्ति काऊण छिया घरे । जातो अवजणिज-अवन्ध-त्रि० । निष्कारणे बन्दनान, यथा- पुत्तो। तेण पिउमरणगणे काराविया विउपमिमा, समुग्धोसि"पासत्थो मोसनो, होश कुसीलो तदेव संसत्तो। प्रहदो वि यं महाकालो त्ति नामेण प्राययणं । तं च संपयं सोश्याप रिग्गहियं महाकालो सि विक्खायं । अवन्तिसुकुमारकथानकं थपए, अवंजणिज्जा जिणमयम्मि" ध०५ अधिः। समाप्तमिति ॥ दर्शन संथा० ॥ अवंतरसामन-श्रवान्तरसामान्य-न० । व्यत्वकर्मत्वादौ-स | अवंतिसेण-अवन्तिसेन-पुंगचएमप्रद्योतपौत्रे पालकस्य राकः साघटकापरसत्तायाम, प्रा० म०वि०। पुत्रे, मा० क०। ('अमायया' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ४४ प्रतिवरण-अवन्तिवन-पुं०।अवन्तिराजप्रद्योतात्मजपास- पृष्ठेऽस्य कथोक्ता) कराजस्य पुत्रे, आव० ४ ०। मा० क० । प्रा० चू। अवंती-अवन्ती-स्त्री. । उज्जयिनीनगरीप्रतिबद्ध जनपद विशेषे, प्रा०म० वि०। अवंतिसुकुमान-अवन्तिमुकुमार-पुं० । प्रबाश्रेष्ठनीपुत्रे, दर्श०।। " उज्जेणीए नयरीए जीवंतसामिपमिमाए अज्जमुहत्यिणामेथ | अवंतीगंगा-अवन्तीगङ्गा-स्त्री० । गोशालकमतप्रसिकेकालविसरिवरा पज्जुवासणत्थं उजाणे समोसढे । भणिया य शेषे,“एगा अवंतीगंगा सत्त अवंतीगंगानो, सा एगा परमाऽवंसाहुणो-जहा बसहिं मग्गह । ततो साहुणो विहरमाणा गया तीगंगा"भ० २४श०१०। भाए सेट्रिणीए घरे । तीए बि बंदिळण पुच्चिया-जहा को अवंदिम-ग्रवन्ध-त्रि० । बन्दनान, " पच्छा दोशमवं. भयवंताणं भागमणाताह सिटुं-देसतराओ मजसुहत्यिसो रिसंतिया वसाह जाएमो। ताए वि हट्ठतट्ठाप जाणसाला दरि | भवखमाण-अवकाइत-त्रि० । पश्चाभागमवलोकयति, सिया। अनया पायरिया महुरवाणीए नसिणिगुम्मं नाम मज्जयणं परियति । तीसे पुत्तोऽवंतिसुकुमामो णाम । सो विदे. का० म०। बकुमारोषमो सत्सतसे पासायवरगो बत्तीसाए भज्जादि समं अवकंखा-अवकाङ्गा-स्त्री० । अभिलाषे, प्रामा० १४.श्म० दोगुंगोम्ब देवो लल। तेण वि मुत्तविरहेण निस्सुयं चिति- | २० । सत्र । औत्सुक्य, स्था०४ ग० ३००। यंच-नपयं नाडयसरसं ति सत्सओ उपरिभूमीप्रो भूमी संप | अवकारि (ए)-अपकारिन्-त्रि० । अपकारकरणशीले,हा. हारेक, कत्थमत्ये गए परिसं सुयमणुभूयपुवं । एवं ईहापोह २६ अष्ट। मम्गेणं गवेसणं कुणंतस्स भवियव्वयावसेण तयाऽऽवरणिज्जकम्मक्खनोवसमेणं जाइसरणं संपत्तो। तो य प्रायरियाणं अवकिरण-अवकिरण-न। सत्सर्गे, आव० ५ ०। पायमले बंदिळण भणिय-भयवं! एवं सब्ब मज्झ चरियं-अहं | अवकिरियब-अवकिरणीय-न। विक्षेपणीये त्याज्ये, प्रश्न तत्थ देवो भासि, ता संपयं देहि वयं, उस्सुगाऽहं तिनि वास- ५आश्र द्वा०। पा) Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८८) प्रवकंत माभिधानराजेन्द्रः। अवग्गह अरकंत-अपक्रान्त-त्रि० । सर्वांनभावेन्योऽपगते दृष्टे, तब- अवगयवेय-अपगतवेद-त्रिका क्षपितवेदे, प्रव० २६१ द्वार। न्येज्योऽतिनिकृष्टे अपक्रमणीये," जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्ब- अवगाढ-अवगाद-त्रि० । आश्रिते, स्था० १ ग.१ उ० । यस्म दाहिणेणं श्मीसे रयणप्पनाए पुढधीए र अवकंतमहानि अवगाढगाढ-गादावगाढ-त्रि० । अधोव्याप्ते, " भवगाढगाढासरया परणता । तं जहा-सोले, लोमुए, उहक्के, निदके, जरए, प. जरए । चउत्थीप णं पंकप्पभाए पुढवीए अवकंतमहादिरया रोए अतीव उपसोनेमाणा उयसोनेमाणा चिति"। गाढं पएणत्ता। तं जहा-मारे, वारे, मारे, रोरे, रोरुप, साडखड़े"। बाढमवगादास्तैरेव सकलक्रीडास्थानपरिभोगनिहितमनोमिस्था०६ ग०। रधोऽपि व्याप्ताः, गाढावगाढा ति वाच्ये, प्राकृतत्वादवगाढगाअव्युत्क्रान्त-त्रि०ान व्युत्कान्तमव्युत्कान्तम । सचेतने, मिथे ढाः। वह च देवत्वयोग्यस्य जीवस्याभिधानेन तदयोग्यः साम यदिवसीयत एवेति । ज०१२०१ उ०। च । नि०० १७ उ०। अवकंति-अपक्रान्ति-स्त्री० । गमने, बाचा०१ ७०८०६ अवगार-अपकार-पुं० । विरूपाचरणे, "अपकारसमेन कर्मणा,न न० । परित्यागे, शा०००। नरस्तुधिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरुते हि यातना, द्विषर्ता यातमशेषमुद्धरेत" १॥ सूत्र. १७०८७०। अवकमाण-अपक्रमण-न। विनिर्गमे, स्था०७ मा आचा अपसर्पणे, दश०१०। अपसरणे, भ०१५ श०१ उ० । का। अवगास-अवकाश-पुं० । गमनादिचेष्टास्थाने, पाव.६० । "निग्गमणमयकमाएं, निस्सरणं पलायणं य पगा" । व्य "ततो लगावगासो सयं बुको भण" प्रा०म०प्र० । भ१०उ०। वस्थाने, स्था०४ ठा०३ २०। उत्पत्तिस्थाने, सूत्र०२०३० अवकमित्ता-अवक्रम्प-अन्य० । गत्वेत्यर्थे, दश०५ १०१०।। अवगाह-अवगाह-पुं० अवकाशे, उत्त० २८०। श्रवक्कम्म-अवक्रम्य-अव्य० । विनिर्गत्येत्यथे, व्य० १ उ वृक्ष अवगाहणा-अवगाहना-स्त्री० । जीवादीमाश्रये , देहे च। अवक्कय-अवक्रय-पुं०। भाटकप्रदाने, वृ० १ उ०। स्था०४ ग० ३ ००। (कस्य कीरगवगाहनेति 'श्रोगाहणा' अबक्कास-अप (व) कर्ष-पुं० । अपकर्षणमवकर्षणं वा अप शब्दे तृतीयभागे ७६ पृष्ठे द्रष्टव्या) [व] कर्षः । अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात्कुतोऽ | अवगाहणागुण-अवगाहनागुण-पुं० । अवगाहना जीवादीनापि ब्यावर्तने, ज०१२ श०५ उ०।। माश्रयो गुणः कार्य यस्य सः । तस्या या गुण उपकारो यस्मात अप्रकाश-पुं० । अभिमानादान्ध्ये, भ०१५ श० ५०ात. सोऽवगाहनागुणः स्था०५०३उ०।जीवादीनामघकाशदात्मके मोहनीयकर्माण, स० १२ सम । हेती बदराणां कुपम श्वाकाशास्तिकाये, भ०२ श० १० १० । प्रवक्खंद-अवस्कन्द-पुं० । अव-स्कन्द-आधारे घम् । जिगीष-1 | अवगिझिय अवगृह्य-अव्या उद्दिश्येत्यर्थे, कल्प.एक। णां सैन्यनिवेशस्थाने शिबिरे, आक्रमणे, भावे घनावाचा अवगुण-अवगुण-पुं०।७र्गुणे, "अवगुण कयण मुरण।" प्रा० "कस्कयोनाम्नि"।८।२।४। इति स्कस्य सः। प्रा०२पाद ।। पाद सू० ३५ ॥ अवक्खक्कण-अवष्वस्कण-न० । पश्चाद् गमने, प्रव० २ द्वार। | अवगुणंत-अवगणत-त्रि । अपावृएषति, भ०१५ श०१०। अवक्खारण-अपकारण-ना अपशब्दकारणे, प्रश्आ श्रद्वा अवगृढ-अवगढ-नि० । व्याप्ते, शा. अ०। अपक्षरण--न० । सान्निध्याकरणे, प्रश्न० २ आश्रद्वा । अवग्गवाहि-अपग्रबोध-पुंगसमीपगतबोधौ सुलभवोधौ,प्रति अवक्खेवण-अवकेपण-न० । श्रव-किप-धा०-ल्युट् । अधःस्थान अवग्गह-अवग्रह-पुंगा अवग्रहणमवप्रहः । इन्छियानिन्धियसंयोगहेती, रियाविशेषे अधःपातने च । आ0 महि०।। निबन्धने सांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारचतुष्टयान्यतमे, रत्ना। अवगंमसुक्क--अपगएमशक्ल-त्रि० । अपगतं गण्डमपद्रव्यं यस्य विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुदत्तूतमत्तामात्रगोचरदतदपगतगएडम, तद्वच्छुकम् । निर्दोषार्जुनसुवर्णवच्छक्के, यदि शनाज्जातमाघमत्रान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमववा गएकमुद्रकफेनम, तद्वच्बुक्सम् । उदकफेनतुल्यनुने, सत्र १ श्रु०६ म०॥ ग्रहः ॥ ७॥ अवगलियनवदंम-अपकर्णितनवदएम-त्रि० । अवधीरितसं. विषयः सामान्यविशेषात्मकोऽर्थः, विषयी चकुरादिः, तयोः सारजये, जीवा० १ आधिः। समीचीनो वान्त्याद्यजनकत्वेनानुकूलो निपातो योम्यदेशावअवगम-अपगम-पुं० । विनाशे, विशे०। वस्थानं, तस्मादनन्तरं समुद्तमुत्पन्नं यत्सत्तामात्रगोचर निःशेषविशेषवमुख्येन सन्मात्रविषयं दर्शनं निराकारो बोधः, अवगम-गुं० । विनिश्चये, विशे। तस्माजातमाचं सत्त्वसामान्यादवान्तरैः सामान्याकारर्मनुअवगय--अवगत--त्रि० । “अवापोते च" ।।१।१७२ । इत्य- ध्यत्वादिनिर्जातिविशेविशिष्टस्य वस्तुनो यद् प्रहणं कानं तस्य क्वचिदप्रवृत्तेन श्रोत् । प्रा०१पाद। अवधारिते, प्राचा० दवग्रह इति नाना गीयते । रत्ना०२ परि० । भाव० । प्रका। १ श्रु०१ ०१ उ । सम्यगवबुद्धे, " अवगयपत्तसरूवे " स्था। योनिद्वारे, प्रव० ३०द्वार । अवगृहाति इति अवग्रहः । अवगतं सम्यगवबुकं पात्रस्य श्रावणीयस्य प्राणिनः स्वरुपमात्रं उपधौ, प्रोघ० । ( अवप्रहभेदादिः 'नग्गह' शब्दे द्वितीयत्नागे येन सोऽयगतपात्रस्वरूपः। ध००। ६ए पृष्ठे वदयते) Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवचय अवचय- अपचय- पुं० [ अपचये, अनु० दश० । सूत्र०। देशयोपगमे, भ० ११ श० ११ ० कयोपगमे, सूत्र० १० २ ० ( ७८९ ) अभिधानराजेन्द्रः | ३ उ० । अवचिय- अपचित- त्रि० । शोषिते, उत० २५ प्र० । जीवप्रदे शैविरहिते, अनु० । अवचियमंससोणिय - अपचितमांसशोणित- नं० । शोषितमांसरुधिरे, उत्त० २५ प्र० । पश्चात् अयचुली । व्यवचुवी-भवी श्री० राजदन्तादित्यादयन्दस्य पूर्वनिपातः । भव किं० प्रवच्च - अपत्य - न० । न पतन्ति यस्मिन्नुत्पन्ने दुर्गतौ अयश:पङ्के वा पूर्वजास्तदपत्यम्। पुत्रादौ कल्प० क्ष० । पुत्रे, पुत्र्यां च । श्राव० १ ० । संयत्या अपत्ये जानते श्रनवनव्यवहारः व्य० । सांप्रतमन्यं व्यवहारमुपदर्शयति अदुवा प्रणयकुला, परिभज्जिकाम समणसमणीभ । असा पर ण लिया, करेति वाति-यवहारं ॥ अथवेति व्यवहारस्य प्रकारान्तरोपदर्शने । भ्रमणः अमी बेति द्वावप्यन्यान्यकुलौ अन्यतः भ्रमणः अन्यकुला अमणी, प्रतिभा प्रतिपतितुकामी स्वस्थाचार्येण च ती प्रभूतमशिष्टौ परं न स्थिती स्वस्वसममत्येन वागतिकव्यवहारं वागेत्रान्तः परिसमाप्तिर्वागन्तः, तत्र जवो वागन्तिकः; स चासौ व्यवहारश्च तं कुरुतः। तद्यथा- यानि भस्माकमपत्यानि जनिच्यन्ते तेषां मध्ये ये पुरुषास्ते सर्वे मम याः स्त्रियस्ताः सर्वा स्तव । अथवाऽभ्रमणीभूते ये पुरुषास्ते सर्वे मम स्त्रियः सर्वायदि भति-सयपत्यानि तपर्यायस्थानि ममेति तयोः संसारे स्थित्वा पुनः प्रयस्यां प्रत्युपस्थितयो देव वागन्तिकेन व्यवहारेण निश्चितं तदेव तयोः संभवति । अह न कतो तो पच्छा, तेसिं प्रस्तुठियाण ववहारो । गोणी प्रजाभिईबि खरए व खारिया य ॥ अथ न कृतः पूर्व नागन्तिको व्यवहारः, पश्चात्तयोः प्रव्रज्यायाम ज्युत्थितयोः स्वस्वकुलममत्वेन व्यवहारो प्रण्डनमभूत् । तत्र कामोदन्तमुद्ामिकारान्तं परिका टान्तं यान्तरान्तरोपन्यस्यन्ति संयत सत्कार-सवरहाते, कौटुम्बिक अथ चेयमन्या दृष्टान्तपरिपार्टीगोपीणं संगिलं, उन्नामला य नीयपरदेसं । तत्तो खेते देवी, रो अभिसेयणे चैव ।। संयतीसमाकुलाः गवां संग समुदायं दशन्तीकुर्वन्ति । सन्नन्तरे संकुलका या सामिला परदेशंौता कुर्वन्ति ततः पुनरपि संकुला बीज संकुलाः देवोऽभिषेचनं चैवेति। ततः तत्र भएमने जाते यथा संयतीसकुलका गोदृष्टान्तं कुर्वन्ति तथा प्रतिपादयति - संजइत्त जयंती, संमे मस्स जं तु गोणीए । जायति तं गोणिवह स्स होति एवम् एयाई ॥ (संजइत्ता) संयती सत्काः समानकुलकाः श्रुवते - अन्यस्य सत्केन १९८ अवच एमेन गोयतेऽन्यं तत् सबै गोपतेभवति यदू स्वामिनः। एवमनेनैव दन्तेनास्माकमप्येतान्यपत्यात्या भवन्ति, न युष्माकमिति । एवमुके - बेतियरे तू ज बटवाए असे । जं जायति मोले नो, दिने तं अस्सियस्सेव ।। इतरे संयतसमानकुल का म्रुवते अस्माकमेतान्यपत्यानि भवन्ति यथा-मूल्ये असे दन्देनान्यसर के नाश्येन करवाया जायतेउपत्यं तद अम्बिकस्य व्यावहारिकैरेवमेव व्यवहारनिश्चयात् । एवमेतान्यप्यस्माकमिति । एवमुक्ते - जस्स महिलाए जायति, उन्भामइलाऐं तस्स तं होइ । संजइइत जयंती, इयरो बंती इमं सुणसु ॥ यस्य मलाया नार्यायाः, उद्घामिलायाः स्वैरिण्याः, जायते सुतः परलय तस्य तत्सर्वमाभवति एवमस्माकमपि, इति ( संजइत्ता) संयनीसत्काः समानकुलका भणन्ति । इतरे ब्रुवन्ते इदं वक्ष्यमाणमुद्भ्रामिक कौटुम्बिककृतं शृणुततेणं कुटुंबिएणं, उन्नामइलेण दोएह वी दंगो | दिनो सावि व तस्सा, जाया एवम् एयाई ॥ येन स्वैरिष्या अपत्यानि जनितानि तेन कौटुम्बिकेन उद्घामिलेन राजकुले गत्या कथितम् - यथाऽहं देव ! तस्याः सर्वे भोगभरं हामि स्म, सोऽपि च तत्पतिर्मदीयेन भोगज्ञरेण निर्यूढवान्, तस्मात्प्रसादं कृत्वा मदीयान्यपत्यानि दापयतेति । तत एवमुक्ते राजा कुपितः, तथा भोगनरसंवाददर्शनत एवमिमावपत्याय का रणाविति द्वापि सर्वस्यापहरणतो दण्डितवान् तथा चाह द्वयोरपि दयमो दत्तो, दापित इत्यर्थः । सा चापत्यापहरणतोऽनम्यगतिका सती तस्य जाता । एवमस्माकमेतान्यपीति । पुरवि व संजता, वैति खरियाएँ प्रखरण । जं जायति खरियाहिव - तिस्स होति एवऽम्ह एयाई ॥ पुनरपि संपतीसरा सरिकायां गर्दन्यामन्यरकेय अन्यसत्न गर्दन जायते तत्सरिकाचिपतेर्भवतिमस्माकमप्येतानीति । तदेषं प्रथमहान्तपरिपाटी प्राचिता ॥ संप्रति द्वितीयां विभावयिषुः प्रथमतो गोषर्गदृष्टान्तं भावयतिगोणी संगियो, न प्रदवी अगोणं । जायाइँ वच्छागाईं, गोणादिवती प्रो एइंति | गत्रां स्त्रीगवानां संगिनः समुदायो नष्टोऽटव्यां पतितः, तत्र च तस्यान्यगवेनान्यसत्तात्मकानि बसपाथि तानि गवेषणतः कथमपि य लाभ गवाधिपतयः सीवीस्वामिनोति न स्वामिनः। एवमेतान्यप्यस्माकमिति । एवमुके संवतसत्ता उखामिकारान्तं पूर्वोकमुपन्यस्यन्ति तथा चाऽऽद उब्जामिय पुन्वुत्ता, हवा नीया उ जा परविदेसं । तसेच सा भवती एवं अहं तु प्रभवति ॥ उभ्रामिका पूर्वमुक्ता । यथा-सापत्या तस्य जाता । अथवा या Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) प्रवच्च अभिधानराजेन्द्रः। अवटुंभ परं विदेशं नीता सा तस्यैवानवति, पश्चादपि नान्यस्य । एवमे- २०॥ विशे०। “कम्ममवज्जं जंगर-हियं ति कोहार तान्यपत्यान्येषा चाऽस्माकमानवतीति। तारि" कर्मानुष्ठानमव जयते। किमधिशेषेण ?, नेत्याह-वत एवमुक्ते गर्हित निन्धम, अथवा क्रोधादयश्चत्वारोऽवचं, तेषां सर्षाव चहेतुतया फारणे कार्योपचारात । श्रा०म०वि० भ० ॥ इयरे जणंति बीयं, तुभं तं नीयमनखेत्तं तु । अवज्जकर-अवद्यकर-पुं० । अवधं पापं तत्करणशीलः । पापितं होइ खेत्तियस्सा, एवं अम्हं तु एयाई॥ नि, सूत्र. १७०४ अ०२ उ०॥ इतरे संयतीसत्का भणन्ति-बीजं युष्मदीयं तत्कालक्केत्रसादृश्यविप्रनम्नतः कथमपि वापकैरन्यत् क्षेत्रं नीतमः अन्यत्र केत्रे उप्त अवजभीरु--अवद्यनीरु-त्रि०ा पापनीरो, मोघला पापाच्चाकमित्यर्थः । तद् लोके केत्रिकस्य भवति, पवमेतान्यपत्यान्यस्मा ते, वृ. ३ उ०। कमिति । अवज्झाण-पध्यान-न० । अप्रशस्तं ध्यानमपध्यानम् । मा. संयतसत्का अत्र प्रत्युत्तरमाह ििवध्याने, औ०। पापकर्मोपदेशे हिंसकार्पणे, ध०२अधिकारह रमो धूयाश्रो खलु, न माउदाउ ताउ दिति। देवदनश्रावककोङ्कणसाधुप्रभृतय उदाहरणानि | श्राव०६ अ०। न वि पुत्तो अनिसिजइ, तासिं छदेण एव ऊम्हं ॥ अवज्झाया-अपध्यानता-सी० । आरौद्रादिभ्यायित्वे, न स्वलुथाराशो दुहितराता मातृच्छन्दतो मातृणामभिप्रायेण, स्था० ३ ० ३ १०॥ दीयन्ते; नापि पुत्रोऽभिषिच्यते तासां मातृणां बन्दनानिप्रायेण । अवज्झाणायरिय-अपध्यानाचरित-पुं०अपध्यानमारौद्रः किन्तु राज्ञः स्वालिप्रायेण । ततो यथा-राजा प्रधानमिति सर्व | रूपं तेनाचरित आसेवितो योऽनर्थदण्डःस तथा। अनर्थदण्डराश आयत्तम, एवमत्रापि पुरुषः प्रधानमिति सर्व पुरुषस्याय- भेदे, उत्त० ३ अधि० । नमतः सर्वमस्माकमानवति । अवकाय-अपध्यात-त्रि० । दुर्ध्यानविषयीकृते, उत्त०६ अन एवं व्यवहारे वर्तमाने श्रुतधर आचार्यों व्यवहारं पुष्टचिन्तावति, शा०१४ १०॥ छेनुकाम दमाह भवटु-अवटु-०। कृकाटिकायाम् , भ०१५ श०१ उ०। विपान एमादिनत्तरोत्तर-दिलुता बहुविहान उ पमाणं । अवटुंभ-अवष्टम्न-पुं० । स्तम्भाधवलग्ने, ध०३ अधिः। पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होइ पमाणं पवयणं तु ।। इदानीमवष्टम्नद्वार प्रतिपादयन्नाहपवमादय उत्तरोत्तरदान्ता बहुविधा अभिधीयमानान प्रमाणम, किन्तु प्रवचने पुरुषोत्तरिको धर्म इति पुरुषः प्रमाणम् । अव्वोच्छिन्ना तसा पाणा, पमित्नेहा न सुज्जई । अतः सर्वे पुरुषा लभन्ते, नेतरे ति । व्य० ४ उ० । तम्हा हवसमत्थस्स, अवट्ठभो न कप्पइ ।। ५०७॥ अवच्चामेलिय-अव्यत्यानेमित-न । एकस्मिन्नेव शास्त्रेऽन्या- अवष्टम्भः स्तम्भादौ न कर्तव्यः,यस्मात्प्रत्युपेक्कितेऽपि तस्मिन न्यस्थाननिवद्धान्येकार्थानि सूत्राण्यकत्र स्थाने समानीष पटतो पश्चादपित्रव्यवच्छिन्ना अनवरतं असा प्राणा जवन्ति,ततश्च तत्र व्यत्यानेमितम् । अथवा-श्राचारादिसूत्रमध्ये मतिचर्चितानि न. प्रत्युपेकणा न शुध्यति । [तम्हा हसमत्थस्सेति तस्मादष्टो त्सदृशानि सूत्राणि कृत्वा प्रक्षिपतो व्यत्यानेडितम् । अस्थान नीरोगः, समर्थस्तरुणः, तस्य पवंविधस्य, साधोरवष्टम्भो न क ल्पते नोक्तः। विरतिकं वा व्यत्यानेडितं,न तथाऽव्यत्यानेडितम् । व्यत्यानेमितदोषरहिते सूत्रगुणे, अनु० । ग० । विशे० | पं०चू०। दानी के ते प्रसाःप्राणिनः?, इत्येतत् प्रदर्शनायाहअवच्छलत्त-अवत्सलत्व-न० वात्सल्यकरणे, व्य० १००। संचरकुंथुद्देहिय-लूआ वा होइ दाली य । एवं घरकोलिया, सप्पे वीसंजरे सरमे ॥५०॥ अवच्छेय-अवच्छेद--पुं० । विभागेऽशे, स्था० ३ ठा० ३ ०। तत्रावष्टम्भे स्तम्भादौ, संचरन्ति प्रसपन्ति; के ते?, कुन्थुसत्वाः अवजाणमाण--अवजानान-नि० । अपलपति, सूत्र०१ ध्रु॥ उद्देदिकाश्च लूना कोलियकः, तत्कृतो जेदः भक्षणं भवति, ४०४०। तथा च दाली राजिर्भवति, तस्यां च वृश्चिकादेराश्रयो भवति, अवजाय-अपजात-पुं० । अप श्त्यपसदो हीनः पितुः सम्पदो तथा च-गृहकोलिया घरोलिका, श्यमुपरिस्था भूत्रयति, तन्मूत्रेण चोपघातश्चक्षुषो भवति । सो वा तत्राश्रितो भजातोऽप्रजातः । पितुः सकाशादीषशीनगुणे पुत्रनेदे,यथाऽऽदि वति, वीसंभरो जीवविशेषः, उन्दुरो वा भवेत, सरटः कृत्ययमः, भरतापेकपा तस्य हीनत्वात् । स्था०४ वा० १३०॥ कलासः, स चा दशनादि करोति । अवजुय-अवयुत-त्रि०। पृथग्भूते, व्य०७ २०पृथग्भावे, नि. इदानी भाष्यकारो व्याख्यानयनाहचू० १६ उ०। संचारगा चनदिसि, पुव्वं पमिलेहिए वि अति । अवज-अवध-न० "अवधपण्य०" | ३।१।१०१ । श्त्यादिना (पाणि०) सूत्रेण निपातः। “द्यय्यर्याजः" ।।२।२।। इति धस्य उद्देही मूल पुणो, विराहणा तभए भेओ। ५० ज्जः। प्रा०५ पाद । पापे, प्रा०म० द्वि० । श्राव। श्रा० चू।। संचारकाः कुन्थ्यादयः पूर्वोक्ताश्चतसृष्वपि दिलु तस्मिन्नवष्टम्ने सूत्र० । विशेष प्राचा० निदोष, उत्त०६ श्रावृ० । संथा। परिभ्रमन्ति, पूर्वप्रत्युपोक्कितेऽपि तस्मिन् स्तम्भाधवष्टम्भे अन्ये मिथ्यात्वकवायलक्षणे, आ० म.प्र.। गो, सूत्र०१ श्रु०१०। आगच्छन्ति । [बहेहि ति] कदाचिदसौ स्तम्भादिरवष्टम्भः मूले Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवटुंभ अभिधानराजेन्द्रः। प्रवणय उद्देहिकादिन्नक्षितः, ततश्च अवष्टम्नं कुर्वत उपरि पतति, पु- द्वितीयादिसमयेषु तन्मात्रस्तावन्मात्रतयां प्रवर्तमानोऽवस्थिनश्च विराधना तदुजये भवति, आत्मनि संयमे च भवति, भे- तबन्धो भवति । कर्म०५ कर्म०। दश्व पत्रकश्च भवति ॥ अवड-बट-पुं० । कूपे, स्था०२० उ० । अनु०। प्रका० । लू आइ य मढणे सं-जमम्मि आयाइ विच्चुगाईया। प्रा०म०। एवं घरकोइलिया-अहिउंदरसरडमाईसु ॥ ५१०॥ अवल-अपार्द्ध-न0 अपगतमहं यस्य तदपार्कम् । अर्द्धमात्रे, लतादौ च मढने मर्दने संयमविषया विराधना भवति, प्रारम- सू०प्र०१० पाहुः। चं० प्र० । अर्द्धदिवसे, भ०१६श०३००। विराधना च वृश्चिकादिभिः क्रियते, एवं गृहकोकिलिका अहि- अवकृखेत्त-अपार्थक्षेत्र-न० । अपगतमकं यस्य तदपार्द्धमउन्दुरसरटादिविषया संयमविराधना, अात्मविराधना च भव चमात्रम् । अपार्द्धमर्द्धमात्र केत्रमहोरात्रप्रमितं येषां चन्ऽयोगतीत्युक्त उत्सर्गः ॥ स्यादिमधिकृत्य तान्यपावेत्राणि । च० प्र० १० पाहु० । सू० इदानीमपवाद उच्यते प्र० । समयकेत्रापेक्वया पञ्चदशमुहूर्तेषु, स्था० ६ ठा। अतरंतस्स च पासा, गाढं मुक्खंति तेणऽवलुभो । अवमृगोलगोलच्छाया-अपाईगोलगोलच्छाया-स्त्री० । गो संजयपिडे थंने, सेलमुहाकुडवेंटीए ।। ५११ ।। लैबहुविधैर्मिलित्वाथो निष्पादित एको गोलः स गोलगोलस्तस्य अतरन्तस्य च तिष्ठठो ग्लानादेः पावोनि गाढमत्यर्थ दुःख- छाया गोलगोलच्छाया, अपार्द्धमात्रस्य गोलगोलस्य च्छाया न्ति, तेन कारणेन अवष्टम्भं कुर्वीत । क्व?, अत आह-संयत- अपार्द्धगोलगोलच्छाया। अर्द्धमात्रमिलितानकगोलच्छायायापृष्ठे स्तम्मे वा [ सेल ति] पाषाणमये स्तम्भे,सुधाऽर्जिते कुड्ये म, चं०प्र०८पाहु । घा अवष्टम्भं कुर्वीत । अवधिकायां वेरिटकायां वा कुड्यादी अवमूगोमच्चाया-अपार्द्धगोलच्छाया-स्त्री० । अपार्द्धमात्रस्य कृत्वा ततोऽवष्टम्भं करोति । उक्तमवष्टम्भारम् । श्रोघ०।०। गोलस्य गयायाम, स० प्र०८ पाहु० । च० प्र० । भवहग-अपार्यक-त्रिका अपगतपरमार्थप्रयोजने, द्वा०१६ द्वार। अवगोनपुंजच्छाया-अपागोनपुञ्जाया-स्त्री० । गोअवठ्ठाण-अवस्थान-न० । व्यवस्थायाम, व्यवस्था संस्थितिः लानां पुज्जो गोलोत्कर इत्यर्थः । तस्य गया गोलपुञ्जच्छायाः स्थितिरवस्थानमवस्था चैतान्येकार्थिकानि पदानि । वृ०५ अपार्द्धस्य गोलपुञ्जस्य छाया अपार्कगोलपुअच्छाया। अपाउपस्थिती, श्राव०४ अ०। (तत्र साधोः किमयस्थानं श्रेयः मात्रगोलपुजच्यायायाम् , चं०प्र०८ पाहु० । सू० प्र०। बतादनामांत ' प्रावस्सिपा ' शन्द द्वितीयभाग ५६३ पृष्ठे अवमृगोलावलिच्छाया-अपार्द्धगोलावविच्छाया-खो । गोत्राबक्ष्यते; अवधिज्ञानस्याऽवस्थानं द्रव्यादिभेदनिन्नमिति 'अप नामावलिर्गोलावलिस्तस्याश्या गोलावनिच्छाया; अपार्द्धा या डिबाइ (ण)'शब्दे अत्रैव जागे ५६५ पृष्ठे, ' श्रोहि' शब्दे| गोसावलिच्छाया अपाऊँगोलावनिच्छाया । अपार्डमात्रगोलातृतीयभागे १५१ पृष्ठे च अष्टव्यम) वलिच्छायायाम् , चं० प्र०७ पाहु० । स्था०॥ अवटिइ-अवस्थिति-स्त्री० । मर्यादायाम्, स्था० ३ ग०४! अवमूचंदसंगण-अपार्द्धचन्द्रसंस्थान-न० । अपएमर्फ चन्द्रसका अवस्थाने निष्णकम्पतया वृत्ती, पाव०४१०। अस्यापार्दचन्द्रः, तस्य यन्संस्थानमाकारः । गजदन्ताकृती, वद्रिय-अवस्थित-त्रि०। शाश्वते, स्था० ३ ० ३ ० ।। स्था०२०३१०।। नित्ये, का०५०।" सिजायरपिने य १, चाउज्जामे य अवभाग-अपार्द्धभाग-पुं०। चतुर्थभागे, आचा० २ श्रु० १ परिसजेटे य ३। किरकम्मस्स य करणे ४, चत्तारि अवट्टिया। 101 कप्पा"॥१॥ स्था०६ वा० । निश्चल, स्था० ५ ०३ २० अवयोमोयरिया--अपाविमौदरिका-स्त्री०। अवमस्योनस्योअवर्धिष्णी, जी०३ प्रति०। यन्न डीयमानं न वा घर्डमानम् ।। दरस्य करणमवमौदरिका,अपकृष्ट किश्चिदूनमरूं यस्यां साऽपाळ, तं०।स। "अवष्ट्रियसुविभत्तविचित्तमंसू"। अवस्थितान्यवपिणूनि सुविभक्तानि विविक्तानि विचित्राणि अतिरम्यतया द्वात्रिंशत्कवलापेकया द्वादशानामपार्करूपत्वात् । अपार्द्धा च साऽधमौदरिका चेति । अवमादरिकानेदे,“दुवाक्षस कुक्कुडिअंउदभुतानि इमभूणि कूर्चकेशा येषां तेऽवस्थितसुविनक्तविचि श्मश्रवः । जी० ३ प्रति० । अनन्तपर्यायात्मके वस्तुनि, तत्र मगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अवलोमायरिया द्वापर्यायाणामानन्स्येन अविरहाद व्यावस्थितत्वम् । ज०२ श० दशकुछटायरकप्रमाणमात्रान्कवतानाहारमाहारयति अपाळ5१ उ० । स्वप्रमाणे स्थिते, जी०३ प्रति०। अनवस्थितविलकणे वमीदरिका उक्तशब्दार्था भवतीत्येवं सप्तम्यन्तन्याख्यानं नेयम्। अनयोगदानयोग्ये स्वलिङ्गावस्थिते, संविनविहारापस्थिते च। प्रथमान्तब्याख्यानं तु धर्मधर्मिणोरभेदादपाविमौदरिका सा१०।['श्रणवट्टिय' शब्देऽत्रैव भागे ३०१ पृष्ठे व्या | धुर्भवतीत्येवं नेतव्यम् । ज०७श १ उ० । व्य० । ख्यात एषः] स्थित्या रक्तेि, "अवट्टिए आणाए पाराहए अवण-अवन-न० गमने, वेदने च । नं०॥ याविनव" । आचा०२ श्रु०१५ अ०३ । अवर्णन-अपनयत-त्रि० । अशक्नुवति, नि० चू०१ उ०। श्रवट्ठियबंध-अवस्थितबन्ध-पुं० । यदा तु यावतीः प्रथमसम अवणमंत-अवनमत्-त्रिका नीचीभवति, रा०॥ ये बरुवान् ताबतीरेव द्वितीयादिष्वपि समयेषु बध्नाति, तदा प्रवणय-अपनय-पुं० । पूजासत्कारादेरपनयने, स्था०८ ग०। सबन्धोऽवस्थितत्वादवस्थितवन्ध इति। पं० सं०५ द्वार प्रकतिबन्धनेदे,क० प्र०। यथाऽटो बनाति सप्त बनाति सप्त वा बच्चा | दविनावण, निन्दाया च । प्रव० १०३ द्वार । श्रा० पद पर बध्वा एकां बध्नाति तथा स एव तयस्कारोऽल्पतरोवा अवनत-त्रि०। व्यतो नीचकाये, भावतोऽदीने, दश०५०। Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७९२) प्रवणयण अभिधानराजेन्द्रः। भवझवाय श्रवणयण-अपनयन-नानिषेधने, विशे०। कोऽयं संघः?, यः समवायबलन पशुसंघष प्रमार्गमपि मार्गी करोतीति। न चैतत्,साधुकानादिगुणसमुदायात्मकत्वात्तस्यतेन प्रवणीयउवणीयवयण-अपनीतोपनीतवचन-न। अरूपवती च मार्गस्यैव मार्गीकरणादिति॥ तथा-विपकं सुपरिनिष्ठित,प्रकस्त्री किन्तु सवृत्तेतिरूपे षोमशवचनानां द्वादशे, प्राचा० २ पपर्यन्तमुपगतमित्यर्थः। तपश्च ब्रह्मचर्य च भवान्तरे येषाम, बि. श्रु०४ म०१ उ०। प्रका० । प्रव०।। पकं वा उदयागतं तपो ब्रह्मचर्य तद्धेतुकं देवायुकादिकर्म येषां श्रवणीयचरय--अपनीतचरक-पुं० । अपनीतं देवद्रव्यमध्याद ते तथा; तेषामवर्ण वदन। न सन्त्येव देवाः,कदाचनाप्यनुपलभ्यपसारितम्, अन्यत्र स्थापितमित्यर्थः । तदर्थमभिग्रहतश्चरति मानत्वात् । किा-तैविटैरिव कामासक्तमनोनिरविरतैस्तथा नितद्गवेषणाय गच्चतीति अपनीतचरकः । अनिप्रहविशेषधा निमेषेरचेच नियमाणैरिव प्रवचनकार्यानुपयोगिमित्यादि. कम् । इहोत्तरम्-सन्ति देवाः, तत्कृताऽनुग्रहोपघातादिदर्शरके, ०। नात् । कामसक्तता च मोहसातकोंदयात् । इत्यादि । स्था०५ अवणीयवयण-अपनीतवचन-न० । कुरूपा नीतिवचनभेदे, ग०१०। प्रव० १४० द्वार। अथ (बानादीनां ) व्यासार्थमाहअवध-अवर्ण-त्रिकान विद्यते वर्णः पञ्चविधःसितादिरस्येत्य काया वया य ते चिय, ते चेव पमायअप्पमाया य । वर्णम् । वर्णरहिते अमूर्तहव्ये, पो०१५विव० अश्लाघायाम, पं० व०४ द्वार । स्था० । अयशसि अकीतौं, निचू०१० उ०। वर्ण मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किंच पुणो । ताया अकरणे, औग एकदिग्ब्याप्यसाधुवादवादे,ग०२माधिक। रह केचिदिग्धाः प्रवचनाशातनापातकमगणयन्त इत्यं भूत स्यावर्ण युवते।यथा-पम्जीवनिकायामपिषट्रायाःप्राप्यन्ते, शा. अवणवंत-अवर्णवत-त्रि० । अन्लाघाकारिणि, स०३० समा त्रपरिझायामपितएव,अन्येवध्ययनेषु बदुशस्त एवोपवण्यन्ते। भवणवा (ण)-अवर्णवादिन-पुं०। प्रवर्ण वदितुं शीलम- एवं व्रतान्यपि पुनः पुनस्तान्येव प्रतिपाद्यन्ते । तथा-त एम स्येत्यवर्णवाद।। अकीर्तिकरे, “ नाणस्स केवलीणं, धम्मा- प्रमादाप्रमादाः पुनः पुनर्वएयन्ते । यथोत्तराभ्ययने श्राचाराने यरियाण सव्वसाणं । माई अवसवाई, किदिवसियं भावणं च । एवं च पुनरुक्तदोषः। किंच-यदि केवलस्यैव मोक्षस्य सा. कुणई" ॥ १॥ ग०२ अधि० । वृ०। धनार्थमयं प्रयासस्तर्हि मोकाधिकारिणां साधूनां सूर्यप्राण्या दिना ज्योति शास्त्रेण,योनिप्राभृतेन चा किं पुनः कार्यम,न किधिअवयवाय-अवणेबाद-पुं०। अश्लाघायाम, ध.२ अधिका दित्यर्थः। तेषामित्थं युवाणानामिदमुसरम-ह प्रवचने यत् त एम श्लाघाचादे, दश । “भवनवायं च परंमुहस्स, पञ्चक्नो " कायादयो भूयो नूयः प्ररुप्यन्ते, तन्महता प्रयझेनामी परिपा(न भासिज्ज) अवर्णवादं चाश्लाघावादं परामुखस्य पृष्ठतः प्रत्य लनीयाः, इदमेव धर्मरहस्यमित्यादरातिशयख्यापनार्थत्वास पु. ततश्च; न भाषेत इत्यर्थः । दश० ए ० ३ उ० । नरुक्तम् । “अनुवादाऽऽबरवीप्सा-नृशायविनियोगहेत्वस्याम् । मईदादिपञ्चकावर्ण वदन् दुर्लभबोधिः ईचत्संन्नमविस्मय-गणनास्मरणवपुनरुक्तम्" ॥१॥ ज्योनिः पंचहि गणेहिं जीवा बभबोहियत्ताए कम्मं पकरेंति ।। शास्रादेरेव शिष्यप्रवाजनादिषु शुभकार्योपयोगफलत्वात्परम्प रथा मुक्तिफलमेवेति न कश्चिद्दोषः । गतो ज्ञानावर्णवादः । तं जहा-अरहंताणमवन्नं वदमाणे, अरहतपसत्तस्स ध अथ केवस्यवर्णवादमादम्मस्स अवनं वदमाणे, आयरियनवायाणमवन्नं वदमा एगंतरमुप्पाए, अन्नोनावरणया दुवेएई पि । णे, चाउन्निसंघस्स अवनं वयमाणे, विविकतवबंभचेराणं केवलदंसपणाणे, एगेकाले गतं ।। देवाणं भवनं वदमाणे। इह केवलिनामवर्णवादो यथा-किमेषां शानदर्शनोपयोगी क्रमेण "पंचहि" इत्यादि सुगमम,नवरं दुर्लभाबोधिर्जिनधर्मों यस्य स भवतः, उत युगपत। यद्याद्या पका-ततोयं समयं जानाति तंस. तथा,तद्भावस्तत्ता। तया दुर्लभवोधिकतया,तस्यैव वा कर्म मो- मयं न पश्यति,यं समय पश्यति तं समयं न जानातीत्येवमेकाहनीयादि, प्रकुर्वन्ति बध्नन्ति, महतामवर्णमश्लाघां वदन् । यथा- न्तरिते सत्पादेवयोरपि केवबज्ञानदर्शनयोरन्योन्यावरणता नवेत्। “नत्थी घरहंत त्ती,जाणतो कीस भुंजए नोए । पाइंडिय उवजी कानावरणदर्शनावरणयोःसमूलका कषितत्वात् । अपरस्य चा. बरस समवसरणादिरूपाए ।एमाइ जिणाण अवमो" न च ते वारकस्याभावात्परस्परावारकतैबानयोःप्रामोतीति भावः मिथ नानवन, तत्प्रणीतप्रवचनोपलब्धेः। नापि भोगानुभवनादेदोषः, युगपदिति द्वितीयः पक्षःककी क्रियते,सोऽपिन क्षोदकमः।कुतः?, अवश्यवेद्यत्वात् तस्य । तीर्थकरनामादिकर्मणश्व निर्जरणोपाय- इत्याद-एककाले युगपदुपयोगद्वये मजीक्रियमाणे, वाशब्दः पका. त्वात्तस्य । तथा-वीतरागत्वेन समवसरणादिषु प्रतिबन्धाभावा- न्तरद्योतनार्थः। द्वयोरपिसाकारानाकारोपयोगयोरेकत्वं प्रामोति, दिति ॥ तथा-अहत्प्राप्तस्य धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य । प्राकृत- तुल्यकालभाबित्वादिति। अत्रोत्सरम-श्ह यथा जीवस्वाभाव्यादेः भाषानिवमेतत्,तथा-किंचारित्रेण,दानमेव श्रेय इत्यादिकमव- सर्वस्यापि केवसिन एकस्मिन् समये एकतर एयोपयोगो प्रव. णे वदन् । उत्तरं चात्र-प्राकृतभाषात्वं श्रुतस्य न दुष्टं, बालादीनां ति, न द्वा; “ सन्चस्स केवनिस्सा, जुगवं दो नस्थि उपभोगा" सुखाध्येयत्वेनोपकारित्वात् । तथा-चारित्रमेव श्रेयो, निर्वाणस्या- इति वचनात् । यथा चायमेकैकसमये उपयोग उपपद्यते, तथा नन्तरतुत्वादिति ॥ आचार्योपाध्यायानामवर्ण घदन् । यथा-गा- विशेषावश्यकादिषु श्रीजिनभरकमाश्रमणादिभिः पूर्वत्रिभिः लोऽयमित्यादि । न च बानत्वादि दोषः,बुख्यादिभिवृद्धत्वादिति । सप्रपञ्चमुपदर्शित इति नेदोपदर्शिता, अन्धगौरवभयात् । द्वितथा-चत्वारो वर्णाः प्रकाराःश्रमणादयो यस्मिन् स तथा । स एवं तीयपक्वानुपपत्तिनोदना वनभ्युपगतोपानम्नत्वादाकाशरोमन्थ. स्वार्थिकामाविधानाश्चातुर्वर्णः, तस्य संघस्यावर्ण पदन् । यथा- वमिव केवलं भवतः प्रयासकारिणीति । Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवलवाय अनिधानराजेन्द्रः। अवसवाय मथ धर्माचार्याऽवर्णवादमाह अह देस एत्य लहुगा, सुत्ते अत्यम्मि गुरुमादी ॥३॥ जचाईहिँ अवलं, भास पहा न यावि नववाए । सबम्मि तु सुयणाणे, नूया वा ते य निक्खुणो मूलं । अहितो छिहप्पेही, पगासवादी अणणुकूले ॥ गणि प्रायरिए सपदं, न दाणमावजण चरिमं ।।६।। मात्या, आदिशब्दात् कुलादिभिभ दोषैरवणे भाषते । यथा-नैते गिहिणं मूलगुणेसू, देसे गुरुगा तु सव्वहिं मूलं । विशुरुजातिकुलोत्पन्नाः,नवा लोकव्यवहारकुशलाः, नाप्येते औ. उत्तरगुणेसु देसे, लहुगा गुरुगा तु सव्वेसि ॥२७॥ चित्यं विदन्तीत्यादि । नचादि वर्तते उपपाते गुरूणां सेवावृत्ती, अहितोऽनुचितविधायी.निद्रप्रेक्ती-मत्सरितया गुरोदोषस्थाननि मूलगुण उत्तरगुणे, गुरुगा देसम्मि होंति साहूणं । रीकणशीसा, प्रकाशवादी-सर्वसमकं गुरुदोषभाषी,अननुकूलो. मुत्तणिवातो देसे, तं सेवंतस्स आणादी ॥२०॥ गुरुणामेव प्रत्यानीकः,करबालकवत । एष धर्माचार्यावर्णवादः। सामादियमादी , सुयधम्मो जाव पुश्वगतं । अथ सर्वसाधूनामवर्णवादमाह सामाश्यरोईए-कारसमा उ जाव अंगा तो ।।२६।। अविसहणाऽतुरियगई,अणावत्तीय अवि गुरूण पि ।। पंचविहो समानो सुयधम्मो । सो पुणो दुविहो-सुत्ते, प्रत्ये खणमित्तपीयरोसा, गिहिवच्छसकाइसंचश्या ॥ य। चरित्तधम्मो विहा-अगारधम्मो, अणगारधम्मो य । अहो! अमी साध्वोऽविषहणा न कस्यापि पराभवं सहन्ते, एकेको इविहो-मूयुत्तरगुणेसु देसे सब्वे वा सुयधम्मे अ वर्म बदति । एवं चरिते ऽविहो अवयो। सुत्तस्स दसे चअपि तु स्वपक्कपरपक्कापमाने संजाते सति देशान्तरं गच्छन्ति । (तुरियगह सि) अकारप्रश्लेषादत्वरितगतयो मायया लोकाव. चलहुगा, अत्यम्स देसे चगुरुगा; सबसुयस्स अवो जिजनाय मन्दगामिनः। अननुवर्तिनः प्रकृत्यैव निष्ठुराः, गुरुणामपि क्खुणो मूवं; अभिसेयस्स अणवछो; गुरुणो चरिमं । पयं महतामपि,आस्तां सामान्यलोकस्येत्यपिशब्दार्थः। द्वितीयोऽपि दाणपच्छित्तं । प्रावजणाए तिएह वि सम्वे सुत्ते अप्पे वा पारंशब्दः संभावनायाम् । संभाव्यन्त एवंविधा अपि साधध इति । चियं । गिही मूलगुणेसु जदि देसे अवनं वदति तो चउगुरुगं, कणमात्रप्रीतिरोधा:-तदैव मयः तदैव च तुष्टाः, अनवस्थितचि सम्वाद मूलं, गिही उत्तरगुणेसु जदि देसे अवनं वदति तो त्ता इत्यर्थः। हिवत्ससा:-तैस्तैधाटुपचनरात्मानं गृहस्थस्य चउलहुगा। गिहीणं सव्वुत्तरगुणेसु गुरुगा । साहणं मूलगुणेसु रोचयन्ति । अतिसंचयिनः-सुबहुवनकम्बलादिसंग्रहशीलाः, वा जदि देसे अवनं वयति तो चगुरुणा । दोसु वि सम्वेसु सोभबहुला इति भावः अत्र निर्वचनानि-इह साधवः स्वपक्षा मूलं । एत्थ अत्थस्स देसे गिहीण य मूलगुणदेसे । साहूण चपमाने यद्देशान्तरं गच्छन्ति तदप्रीतिकपरोपतापादिभीरुतया, य उत्तरगुणदेसे सुसणिवातो भवति । एवं अवनवयं सेवन परानबाऽसहिष्णुतया। अत्वरितगतयोऽपि स्थावरत्रसजन्तु तस्स आणादिया दासा नवंति । पुष्वकं गतार्थत्वात्कंचं, सु. पीडापरिहारार्थ,न तुलोकरजनार्थम् । अननुवर्तिनोऽपि संयम यस्स सामादियादि जाव पक्कारस भंगा ताव देसो, पयं चेव बाधाविधायिन्या अनुवर्तनाया प्रकरणात, नं प्रकृतिनिष्ठरत सह पुन्वगएण सव्वसुयं ॥ था। क्षणमात्रप्रीतिरोषा अपि प्रतनुकषायतया न निर्व्यवस्थित कहं पुण वदेतो आसादेति ?चित्ततया । गृहवत्सला अपि कथं नु नामामी धर्मदेशनादिना जीव विरहिए पेहा, जीवागलमुग्गदंमता मायं । यथानुरूपोपायेन धर्म प्रतिपद्यरनिति बुख्या, न पुनश्चाटुका- दोसो य परकमेसू, चरणे एमादिया देसे ॥३०॥ रितया । संचयवन्तोऽपि मा भूदुपकरणानावे संयमाऽऽत्मवि काया क्या य ते चिय, ते चेव पमायअप्पमाया य । राधनेतिबुख्या, न तु लोनबहुमतयेत्युत्तरम् ॥ ०१०। जोतिसजोणिमित्ते-हि किं व वेरग्गपवणाणं ॥३१॥ (अर्हतामवर्ण वदन्, अर्हत्प्राप्तस्य धर्मस्यावर्ण पदन, आचायोपाध्यायानामवणे बदन्, चातुर्वर्णस्य सस्य चाऽवणे घदन (जीवविरहिए वि) जीवहिं विरहिते जाव पमिलेहणा सन्मादं प्राप्नुयादिति 'उम्माद' शब्दे द्वितीयभागे ८४८ पृष्ठे कन्नति, सा निरस्थिया, जीवाले वा लोगे चकमणादिकिरियं पक्ष्यते ) ज्ञान्यवर्णवादेन कानावरणीय कर्म बध्यते । कर्म करतो कहं निदोसो, परिगिदियाण य संघट्टणेमासलहु दाणे १कर्म। एवं,अप्पावराहे उम्गदम्या अजुत्ताजं च वितियपदेण माया अत्र प्रायश्चित्तमाह यमणं भणिय,तं वि अजु,आहाकम्मादिपसु परकडेसु को दो सो। एवमादिचरणस्स देसे अवनो। सर्व यमनियमात्मकंचाजे भिक्खू धम्मस्स अवमं बदइ, अवर्ण पदंत या साइ रित्रं कुशलपरिकल्पितमाएष सर्वावर्णवादः। इमेरिसमुत्ते नवन ज्जा ।। ११२॥ वदति-(काया वया) भयुकं पुणो पुणो कायवयाण बनणं, पमाधृ धारणे,धारयतीति र्धमः। ण बनो भवनो णाम-अयसो, यापमादाण य, किंवा वेगपवणाणं जोतिसेण, जोणीपाहुमण वा, णिमित्तेण वा सम्वं वा वदेत जासाणिवळं । एवमादिसुय प्रकीर्तिरित्यर्थः । यद व्यकायां वाचि। भासायणा । एवं प्रवनं वदेतो प्राणादिया य दासा, सुयदेवया दुविहो य होइ धम्मो, मुयधम्मो समणधम्मो य। पाखिलादिचित्तं करेज्ज अनेण वा साहुणा सह संखभषे-कीसुयधम्मोखनु दुषिहो, मुत्त प्रत्ये यहोति णायव्वा॥२॥ समष भाससि ति| जम्हा एते दोसा सम्हाणो अवध वदे । दुविहो य चरणधम्मो, भगारमणगारियं चेव । कारणे वदेज्जा वि[विहो तस्स अवमो,देसे सब्वे यहोति नायव्या॥२४॥ वितियपदमणप्पज्के, वएज प्रति कोविते व अप्पज्के। मूलगुणवत्तरगुणे, देसे सब्वे य चरणधम्मो उ । जाणंते वा वि पुणो, जयऽवत्तव्यादिसू चेव ॥३॥ Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) अवसवाय अनिधानराजेन्द्रः। अवडंस भणप्पको वा अवि कोवितो,सोवा वएज अवत्तव्यादिसुवि,जो मित्यर्थः । यथा-शः कदल्या; कन्दली भेर्याम् । अथवा-"पंजुअवनवादपक्वग्गणं करेति, सो य जे रायादिबलवन्तो त- लपुप्फुम्मीसा, उंबरकमकुसुममालिया सुरभी । परतुरगस्स म्भया बदेज्ज, दोसा। नि० चू०११ ३०। (अधर्मस्यावर्णवादः वि रायझोलश्या अम्गसिंगेसु"॥१॥ ०१ उ०। 'महम्म' शब्द अत्रैव भागेऽने वक्ष्यते । रात्रिनोजनस्यावर्णवादो अवत्थव-प्रवास्तव-त्रिका वस्तु पदार्थः; तस्येदं वास्तवम । न 'रा भोयण' शब्द प्रेक्षणीयः) वास्तवमवास्तवम् । परसंयोगोद्भवे, अष्ट. १ भ४० । अवमा-अवज्ञा-प्रो० । अनादरे, औ०। पो०॥ अवस्था-अवस्था-स्त्री० । भूमिकायाम् , हा० २६ अष्ट। अवएडवण-अपहवन-न० । मृषादण्डे, प्राचा० १७०५ | प्रवस्थातिग-अवस्थात्रिक--न। दशाविशेषत्रये-छमस्थाव. अ०१००। वस्थाकेवल्यवस्थासिकावस्थास्वभावे जिनानां छन्मस्थकेयनिप्रवाहाण-अपस्नान-०। तथाविधसंस्कृतजसेन स्नाने, वि. सिम्त्वे, दर्श। पा०१०१ अगस्नेहापनयनहेतुषव्यसंस्कृतजलेन स्नाने, ज्ञा० पायापास--वस्थापरिणाम-40। घटस्य प्रथमद्विती१३ ॥ ययोःक्षणयोःसरशयोरन्वयित्वेनेव परिणामे, द्वा० २४ द्वा०। अवतट्ठ-अनतष्ट-त्रि० । तनूकते, सूत्र १ श्रु०५ ०२०। प्रवत्थाभरण-अवस्थाभरण--न० । अवस्थोचिते भाभरणे, प्रवत्त-अव्यक्त-पुं० । अद्याप्यपरिणतवयास, पृ.१००।श- स्था० ८ ग०। दोऽयं रूपादि इत्यादिना प्रकारेणानिर्देश्ये, विशे। गण- अवस्थिय-अवस्तृत--त्रि०। प्रसारिते, का । लिम्पनादिना संस्कृते, ध० ३ अधि० । स्था० । प्रवत्ता नाम घसतिः-गणमृत्तिकाभ्यांजलेन चोपलिप्मभूमितला अव्यक्तस्था प्रवत्यु-अवस्तु-न०। असति, प्रा० म०वि०ा अविद्यमानं बनयुक्ता वा, निर्वाता वा । ग०१ अधि। निचू०। अगीतार्थे स्त्वभिधेयोऽर्थो यत्र तदवस्तु । अनर्थके,प्रम०२ भाभा द्वा०॥ नि००२ उ०। अवत्थोचिय-अवस्थोचित-त्रि० भूमिकाऽनुरूपे,पञ्चा०विव प्रवत्तव-प्रवक्तव्य-त्रि० । अनुचारणीये, दश ७ मामा भवदग्ग-अवदन-नापर्यन्ते, सूत्र०२४०२० । अवसाने, नुपूर्व्यनानुपूर्वीप्रकारान्यां वक्तुमशक्ये अव्ये, अनु। विप्रदेशि | सूत्र० २४०५ म०॥ कस्कन्धोऽवक्तव्यमित्याच्यायते । अनु०॥ अवदल-अपस्वदल-पुं० अपदलमपसदं द्रव्यं कारणभूतं मृभवत्तनगसंचिय-अवक्तव्यकसञ्चित-त्रिकाया परिणामविशेषो तिकादि यस्याऽसौ अपदलः । अवदलतियां दीयते इत्यवन कति नाप्यकतीति शक्यतेवक्तुं सोऽवक्तव्यका, स चैक इति, दलः । आमपकतया प्रसारे, स्था०४ ठा० ४००। तत्सञ्चिता प्रवक्तव्यकसञ्चिताः । समय समये एकतयोत्पन्नेषु भवदाय-अवदात--पुं०। गौरे, प्रा०४ाद्वा०। मेरयिकादिषु, उत्पद्यन्ते हि नारका एकसमये एकादयोऽसंध्येयान्ताः। उक्तं च-"पगे व दो व तिन्नि व, संखमसंस्खा य अवदालिय-अवदारि(नि)त-त्रि० विकाशिते विवृतीकृते, उपा० एगसमएणं । उववज्जते चया, उदृता वि एमेवं" ॥१॥ २० । अवदासियगरीयवयणा (नयणा) "अवदारितं रविस्था० ३ ठा०१301 किरणैर्विकाशितं यत्पुएरीकं सितपनं तबद्वदनं मुखं, नयने वा येषां ते तथा । जं०२ वक्षः। प्रवत्तव्यबंध-अवक्तव्यबन्ध-पुं० । बन्धभेदे, यत्र तु सर्वथाs. अवदार-अपद्वार--न । द्वारिकायास, का०२०।"तेण अवबन्धको भूत्वा पुनः प्रतिपत्य बन्धको भवति स प्राधसमये भव हारेणं, सो अतिगतो असोगवणियाए" | आ० म०वि०॥ तव्यबन्धः, अयं पुनरुत्तरप्रकृतीनामेव भवति न मूलप्रकृतीनाम, तासांसर्वथाऽबन्धकस्याऽयोगिकेवलिनः सिकस्य वा प्रतिपाता. अवदाहण-अपदाहन-ना तथाविधदम्भने, विपा०१०१०। भावेन पुनर्बन्धानावात् । कर्म० ५ कर्म० । पं० सं० । अवकंस-अपध्वंस-पुं० । अपवंसनमपध्वंसाचारित्रस्य तत्कप्रवत्तव्वा--अवक्तव्या-स्त्री० । अमुत्र स्थिता पजीति कौशिक- स्य चाऽसुरादिभावनाजनिते निवासे, स्था। भाषावत् सावद्यत्वेनानुचारणीयायां भाषायाम्, दश० ७०। चनबिहे अवद्धंसे पसत्ते । तं जहा-आसरे, पानियोगे, प्रवत्ससत्यकोहि-अवाप्तस्वास्थ्यकोटि--पुं० । अवाप्ता लब्धा संमोहे, देवकिन्विसे ॥ स्वास्थ्यकोटिरनावाधताप्रकर्षपर्यन्तो यैस्ते तथा। सिकेषु, हा० तत्रासुरजावनाजनित आसारो येषु चानुष्ठानेषुषर्तमानोऽसुरत्व३२ अट। मर्जयति तैरात्मनो वासनमासुरभावना एवं भावनाऽन्तरमपि। प्रवत्तासण-अवत्रासन-नाबाहुल्यांखिया निष्पीमने कामा-| अभियोगभावनाजनितः अनियोगः, संमोदभावनाजनित: के नि० चू० १३०। संमोहः, देवकिल्बिषभावनाजनितो देवकिल्विष इतिाह च कन्दर्पजावनाजनितःकन्दोऽपध्वंसा पश्चमोऽस्ति, स च सत्रवि भवत्यंतर-अवस्थान्तर--नादशाविशेषे, द्वा० ११ द्वार । मोक्तःचतुःस्थानकानुरोधात्।भावना हि पश्चाऽऽगमेऽनिहिताः। पर्यायान्तरे, पञ्चा० १८ विव०। आह च-"कंदप्प १देवाकिञ्चिस २,अभिओमा ३ प्रासुराय. अवस्थग-अपार्थक-नापौर्वाप-योगादप्रतिसबका सूत्रदोष, संमोहा ५। पसा संकिलिका, पंचविहा भाषणा भणिया" यथा-दश दामिमानि,पमपूपाः, कुण्डं बदराणि प्रा० म०वि०।॥१॥प्रासां च मध्ये यो यस्यां भाषनायां वर्तते, स तद्विधेप्रभा । विशे० । यस्यावयवेष्वर्थो विद्यते न समुदाये; असंबद्ध- वेव देवेषु गति,चारित्रलेशप्रभावात् । उकंच-"जो संजो Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६५) अवस अनिधानराजेन्द्रः । अवयण विपया-सु अप्पसस्थासु बट्टा कहिं चि। सो तबिहेसु गच्चक, अवमार-अपस्मार-पुं० । चित्तविकृतिजे गदे, स च वातपित्तसुरेसु भरो चरणहीणो" ॥ १ ॥ इति । स्था० ४ मा०४१०।। श्लेष्मसंनिपातजत्वाच्चतुर्धा । तमुक्तम्-"नमाऽऽवेशः सर. अवधारियन्व-अवधारयितव्य-न । संप्रधारणीये, पञ्चा० ३ | म्भो-द्वेषो को हतस्मृतिः । अपस्मार इति शेयो, गदो घोरश्वविव०। तुर्विधः" ॥१॥ आचा० १ श्रु० ६ अ०१ उ०। अवधीरिय-अवधीरित-पि० । अपमानिते, पृ० उ०। अवमारिय-अपस्मारित-त्रि० । अपस्मारः संजातोऽस्य । अपअवधूय-अवधूत-पुं० । अव-धू-क्त । अनिभूते, निवर्तिते, स्माररोगवति-अपगतसदसद्विवेकभ्रममूचादिकामवस्थामनुचालिते,अनाहते च । “यो विलक्याऽऽश्रमान् वर्णान्,आत्मन्येव भवति, आचा०१ श्रु०६ अ० १ उ० ॥ स्थितः पुमान् । प्रतिवर्णाश्रमी योगी, अवधूतः स उच्यते" ॥२॥ अवमिय-अवमित-त्रि० वणिते, ६० ३३०॥ इत्युक्तमवणे परमईसे, वाच । स्वनामख्याते लौकिके अध्या अवय-अपद-न० । वृक्षादौ, सूत्र०१ श्रु०११७०। गोशीर्षचन्दस्मचिन्तके प्राचार्ये, यदाहावधूताचार्य:-न प्रत्ययानुग्रह मन्तरेण तव शुश्रूषादयः, उदक पयोऽमृतकल्पज्ञानाजनकत्वात् । नप्रभृती, सूत्र०१ श्रु०८ अ० प्रा० चू०। पदहीने, वाचः। ल० । विकिप्ते, आव०४ ०। अब्ज-न० पये, प्रशा०१ पद। अवच-त्रि० । अनुच्चे, उत्त० ३ ०। जघन्ये, सूत्र०१श्रु. प्रवपयोग-प्रवप्रयोग-पुं० । विरुद्धौषधियोगे, पृ०१ ४० । १० प्र०। अववक-अवबक-त्रि०। अर्थग्रहणपूर्वकं विद्याऽऽदिग्रहणनि अवयक्खंत-अवप्रेक्षमाण-त्रि०ा पृष्ठतोऽभिमुखं निरूपयति,ओघका मितं विवक्कितकानपरायत्ते, ध० ३ अधि० । ग० । अवयक्खमाण-अपेक्षमाण-त्रि०ा अपेकमाणे, अवकाङ्कति च। अवबुद्ध-अवबुक-त्रि० । अवगते, अने०२ अधिक। "मम्गे स्थाई अवयक्त्रमाणस्स" अवकाङ्कतोऽपेकमाणस्य प्रधबोह-अवबोध-पुं०। निकापरिहारे, ध०२ अधिकानि-| वा । भ० १० श०२ उ०। स्वे, विशे०।संज्ञायाम, स्मृती, संज्ञा स्मृतिरवबोध श्त्यना- अवयम्ग-देशी-ना पर्यन्ते, स्था० २०१०।प्रवयगं" न्तरम् । भाचा०१७०१०१ उ०। इति देशीवचनोऽन्तवाचकः । भ० १ .१ उ०। अवचोरण-अवबोधन-न० । प्रतारणे, पञ्चने, शिक्कणे च । अवयम्भ-हम-धाला "शो निअच्छ०1४.१८१इत्यादिना कव्या०८ मध्या० । रशेरवयकादेशः। अवयश्-पश्यति । प्रा०४ पाद । अवबोहि-अवबोधि-पुं० निश्चयार्थप्रतिपत्तौ, मा००१ मा अवयण-प्रवचन-न० । नमः कुत्सार्थत्वात् कुत्सिते पचने, प्रवम्भस-अपभ्रंश- अपभ्रश्यते इत्यपत्रंशः। संस्कृतभाषा- स्था०६०। विकृती, "पष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः" तत्परिकान अवचनानिमेकोनत्रिंशः कलाभेदः। कल्प०७० । नो कप्पा निग्गंयाण वा निग्गंथीण वाश्माइंउ अवयणाप्रवन्नास-भवनास-पुकातेजसो शानस्य च प्रतिभासे, सू०प्र० रन जापानियाणे निरागो गि ३ पादु०। वयणे, फरुसवयणे, गारस्थियवयणे, विउपसमियं वा पुणो भवभासिय-अवजासित-त्रिका प्रकाशिते, विशे। उदीरित्तए । अपभाषित-त्रि० । दुष्टभाषिते, व्य०१०॥ [नो कप्पत्ति] बचनव्यत्ययाद् नो कल्पन्ते निर्ग्रन्धानां नि. अवममंत-अवमन्यमान-त्रि०। परिहरति, "मा पयं अवमता, प्रेन्यानां वा मानि प्रत्यक्षासनानि, पडिति पदसंख्याकानि, अप्पेणं लुंपहा बहुं"। सूत्र.१ ७.३०४०। प्रवचनानि-नमः कुत्सार्थत्वादप्रशस्तानि वचनानि, पवितुं भा. अवमह-अपमर्द-पुं० । अपवर्तने, “अवमदं मप्पणो परस्सय षितुम् । तद्यथा-अलीकवचनं, हीलितवचनं, सिंसितवचनं, प. करेंति" प्रभ०२आधद्वार। रुषवचनम, अगारस्थिता गृहिणस्तेषां वचनं, म्यवशमितं या उपशमितकरणं, पुनः भूयोऽपि,उदीरयितुंन कल्पत ति कमः। अवमाण-अपमान-न। अनादरे, उत्त०१५ मा विनयभंडो । अनेन व्यवशमितस्य पुनरुदीरणवचनं नाम षष्ठमवचनमुक्तमिति प्रभ० ५ प्राभा द्वार। सूचसकेपार्थः। अवमानना हस्तादो जव्यप्रमाणे, स्था०४०१०। । अथ भाष्यकारो विस्तरार्थमभिधित्सुराहप्रयमाणण-अपमानन-नायूयमित्यादिवाच्ये त्वमित्यादिक उच्चेव अवत्तवा, अलिगे हीलीय-खिस-फरुसे य। पे प्रपूजापचने, प्रभ०५ सम्ब० द्वार । मनभ्यस्थानादिनिः गारत्य-विप्रोसमिए, तेसिं च परूवणा णमो॥ अपूजने, औ० । प्रभ०॥ चमेवावचनान्यवतम्यानि साधूनां वक्तुमयोम्यानि । तद्यथा-अ. प्रवमाणिय-अपमानित-त्रि० । अपमानं प्राहिते, "प्रथमा लीकवचन, हीलितवचनं खिसितवचनं, परुषवचनं, गृहस्थवणिनो नरिदेणं"। व्य१०।०॥ चनं, व्यवशामतोदीरणवचनम्, तेषां च पश्यामपि यथाक्रममिअवमाणियदोहला-अवमानितदोहदा-स्त्री० । तणमपि ले यं प्ररूपणा ॥ ०६०। (असीकवचनव्याख्याऽस्मिन्नेव भागे होनाविच अनापूर्ण मनोरथायाम, ज०११० ११ उ०। । 'असियवयण' शब्दे ७७४ पृष्ठे निरूपिता) Jain Education Interational Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवयण अभिधानराजेन्द्रः। अवयव मन प्रायश्चित्तम् मपि गणिनं भवति, यदि नाम गौरवेखापि पठेत् । एवमेष शेषएमेव य हीलाए, खिसा फरुसवयणं च बदमाणो। । बपि वाचकादिषु पदषु द्वितीयपदं योजयेद-योजनां कुर्यात् । मारत्थ-वि ओसमिए, इमं च ज तसि णाणतं ।। खिंसावयणविहाणा, जे चिय जातीकुमादिया बुत्ता। पवमेव हीलितवचनं, खिसावचनं, परुषवचनमगारस्य वचनं, कारणियदिक्खियाणं, ते चैव विगिंधणावाग । व्यवशमितोदीरणवचनं च बदतः प्रायश्चित्तं मन्तव्यम् । यौ सिंसावचनविधानानि चान्येव जातिकुनादीनि पूर्वमुक्तानि, त तेषां नानात्वं तदिदं भवति एव कारणिकदीक्षितानामयोम्यानां कारणप्रजितानां विवेचने आदिमुं चउसुं, विसोहि गुरुगादि जिममासंता ।। परिष्ठापने उपाया मन्तव्याः। पणुवीसओ विनाओ, विसेसितो वितिय पमिलोमं ॥ | खरसकं मन्यवयं, अगरणेमाणं नणंति फरसं च । आदिमेषु चतुर्भपि होलितखिसितपरुषगृहस्ववचनेषु शोधि- दन्बो फरुसवयणं, वयंति देसि समासज्ज ॥ चतुर्गुरुकादिका जिचमासान्ता आचार्यादीनां प्राम्बद मन्तव्या । इह यः कोरवचनभणनमन्तरेण शिकां न प्रतिपद्यते स बरतद्यथा-आचार्य आचार्य हीलयति चतुर्गुरु १, उपाध्यायं हीलय साध्य उच्यते।तं स्वरसाध्य मृदुधाचमगणयन्तं परुषमपि भणति चतुर्लघु २, भिक्षु हीलयति मासगुरु ३, स्थविरं हीलयति न्ति । देशी देशजापां समासाद्य कन्यतः परुपवचनमपि वदन्ति; मासलघु ४,कुल्लक हीलयति भिन्नमासः॥पतान्याचार्यस्य त कन्यतो नामन दृष्टभावतया परुषं भणन्ति,किन्तु तत्स्वानाव्यात, पःकालाभ्यां गुरुकाणि भवन्ति,एते आचार्यस्य पञ्च संयोगा उ यथा-मालवास्यामिनिति अथवा यथा यथा लोको भणति,तथा ताः। नपाध्यायादीनामपि चतुर्णामेवमेव पञ्चपञ्चसंयोगा भव तथा देशी देशभाषामाश्रित्य साधवोऽपि प्रणन्ति । न्ति।सर्वसत्यया ते पञ्चविंशतिर्भवन्ति । अत एवाह-पञ्चविंश खामियदोसवियाई, जप्पाएऊण दव्यतो रुटो। निकः पञ्चविंशभङ्गपरिमाणो विभागोत्र भवति । स च तपःकासाभ्यां विशेषितः कर्तव्यः। द्वितीयादेशेन चैतदेव प्रायश्चि कारणदिक्खिय अनसं, असंखडीओ त्ति धाति ।। तं प्रतिलोम विनयम; जिन्नमासाद्यं चतुर्गुरुकान्तमित्यर्थः । यःकारणे अनलो दीक्तितस्तेन समं समापिते कार्य पुनः कामिएवं खिसितपरुषगृहस्थवचनेष्वपि शोधिमेन्तव्या । वृ०६उ०. तव्युत्सृष्टान्यधिकारणान्युत्पाथ व्यतो दुष्टभावं बिना रुष्टो कुअथ द्वितीयपदमाह पितो बहिःकृत्रिमान् कोपविकारान् दर्शयमित्यर्थः । असंखडि. पदम विगिचण्डा, उवलं नविगिचणा य दोसु नये। । कोऽयमिति दोषमुत्पाद्य तमननं शैक्षं धाटयति-गच्चाधिष्कास. अशुसासणा य देसी, छटे य विगिचणा नणिता॥ यति । ०६ ३०॥ प्रथममलीकवचनमयोग्यशैकस्य विवेचनार्थ वदेत् , योस्तु अवयव-अवयव-पुं०।अवयविन पकदेशे, अनु । अनुमितिवाहीलिखिसितवचनयोर्यथाक्रममुपातम्भविवेचने कारणे भव- क्यैकदेशेषु, ते च पञ्च-प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयरिगमनान्यवतः-शिकादानम, अयोग्यशिकापरित्यागश्चेत्यर्थः । परुषवचनं यवाः । वश० १७०। सूत्र० । दशावयवा वा-प्रतिज्ञा प्रतिकातु परसाध्यस्थानुशासनां कुर्वन्, गृहस्थवचनं पुनर्देशी देशभा- विशुद्धिः हेतुहेतुविशुभिः, दृष्टान्तो दृष्टान्तविशुक्षित, उपसंहार षामाश्रित्य भणेत् । षष्ठे च व्यवशमितोदीरणवचने, शैक्षस्य उपसंहारविशुद्धिः, निगमनं निगमनविद्यादिः । दश०१०। विवेचनं कारणं भणितम् । गाथायां स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतस्वात। से किं तं अवयवेणं । अवयवणंइति द्वारगाथासमासार्थः। सिंगी सिही विसाणी, दाढी पक्खी खरी नही पाली। अथैनां विवरीपुराहकारणिए दिक्खंता, तरियम्मि कजे जति अणलं तु । सुपय चउप्पय बहुपय, लंगूली केसरी कउही ॥१॥ संजमजसरक्खहा, होई दाऊण य पसाई ।। परिभरबंधणभम जा-पिजा महिलिअंनिवसणेणं । सित्येण दोणवायं, कविं च एकाएँ गाहाए॥३॥ कारणे अशिवादावनलोऽयोग्यः शैको दीक्षितः, ततस्तरिते स. मापिते तस्मिन् कार्ये तमनखं जहति|कथम्,इत्याह-संयमय सेतं अवयवेणं । शोरकार्थ-संयमस्य, प्रवचनयशःप्रवादस्य च रक्षणार्थ, 'होटुं'। (सेकिंतं अवयोणमित्यादि) अवयवोऽवयविन एकदेशस्त. गाढमलीकं दत्वा पलायन्ते शीघ्रमन्यत्र गच्छन्तीत्यर्थः। " मनाम यथा-'सिंगीसिहीत्यादि'गाथा|ङ्गमस्यास्तीति एजी यः पुनराचार्यः समाचार्यो, सारणादिप्रदाने वा सीदति तमु त्यादीन्यवयवप्रधानानि सर्वाएयपि सुगमानि,नवरं द्विपदं ध्यान दियेत्थं हीलितवचनं वदेत दिचतुष्पदंगवादि,बदुपदं कर्णशझाल्यादि। भत्रापि पादमवणा. केण स गणि त्ति कतो,अहो!गणीजणति वागणिं अगणि। घयवप्रधानता भावनीया[कहित्तिककुद स्कन्धासोचत. एवं तु सीयमाण-स्स कुणति गणिणो वालंभ ॥ देहावयवनकणमस्यास्तीति ककुदी वृषन इति। परिमर' गाथा। परिकरबन्धेन विशिष्टनेपथ्यरचनासवणेन, भटं शूरपुरुषं,जानी. केनासमीक्षितकारिणाऽयं गणीकृतः। या-अहो! अयं गणी, यायावेत्तथा-निवसनेन विशिष्टरचनारचितपरािहतपरिधानअथवा गणिनमप्यणिनं भणति । एवं गणिनः सामाचार्यो शि लकणेन महिला स्त्रीतां,जानीयादिति सर्वत्र संबध्यते।धान्यानां कादाने वा विषीदने उपालम्भं करोति। कोणस्य पाकः खितापा,तंचतन्मध्याद गृहीत्वामिरीक्षिते. अगणिं वाजणाति गणिं,जदि नाम पवेज मारवेण वितं । नैकेन सिक्थेन जानीयात् । एकया च गाथया लालित्यादिका. एमेव सेसएमु वि, वायगमादीसु जोएन्जा ।। व्यधर्मोपेतया श्रुतया कविजानीयात् । पयमत्राभिप्राय:-यदा स पदि कोऽपि बदुशोऽपि भण्यमानो न पति ततस्तमगणिन- | नेपथ्यपुरुषाधवयवरूपपरिकरवन्धादिवर्शनद्वारेण भटमहिला पता Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (313) अभिधानराजेन्द्रः | अवयव पाककविशब्दप्रयोगं करोति तदा भटादीन्यपि नामान्यवयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वादवयवना मान्युच्यन्त इति छह तदुपन्यास इति । इदं चावयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वात्सामान्यरूपतया प्रवृत्ताकोणनासो नियत इति ॥ अनु० ॥ अवयव ( ण् ) - वयविन्- त्रि० । प्रदेशिद्रव्ये, स्था० रना० नवययविषयमेव नास्ति, विकल्पद्वयेन तस्याऽयुज्यमानत्वाय. खरविषाणयत् । तथाहि श्रवयविपयज्यो भन म. अभिन्नं न तावदभिन्नम् भने हि अवयवा स्यात् ? । । अनेदे श्रवयदिवानामेकाचं स्थात्, अवयववद्वाऽवयवय स्याप्यनेकत्वं स्यात्, अन्यथा नेद एव स्यात्, विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदनिबन्धनत्वादिति । निम्नं चेत् तत् तेभ्यः, तदा किमचयं प्रत्येकमवयवेषु सर्वात्मना समवेत देशतो येति । यदि सर्वात्मना तदाऽवयवरूपद्रव्यंस्याद कथमेकार्य तस्य । थदेतितो यथेषु तेष्वपि देशेषु तर प्रवर्धते देशतः सर्वतो वा है। सर्वतखेव तदेव दूषणम्। देशतत्तेष्वपि देशेषु कथमादिरनवस्या स्यादिति । अत्रोच्यते यदुक्तं विकल्पद्वयेन तस्यायुज्यमानत्वादिति । तदयुक्तम् । एकान्तेन भेदाभेदयोरनभ्युपगमात् । अथवा एव हि तथाविधैकपरिणामतया श्रवयविष व्यपदिश्यते एवं चतथाविधविचित्र परिणाम या अवयवा इति । श्रवयविषव्याभावे तु पते घटावयवा पते चपटावयवा इत्येवमसङ्कीर्णावयवव्यवस्था न स्यात् । तथा च प्रतिनियतका प्रतिनियतबस्सुपादानं न स्थात तथा [च] [सर्वममसमापनपद्येत । सन्निवेशविशेषाद्यवयवानां प्रतिनियतता भविष्यतीति चेत् ? । सत्यम, केवलं स यत्र सन्निवेशविशेषो ऽवयविषव्यमिति । यच्चोच्यते-विरुद्धधर्माध्यास्त्रो ज्ञेदुनिबन्धनमिति । तदपि न सुक्तम् । प्रत्यक्ष संवे- अवरदाहिणा - ग्रपरदक्षिणा - स्त्री० | नैर्ऋत्यां दिशि, व्य०१ ४०। २ विवo | दनस्य परमार्थापेका भ्रान्तत्वेन संव्यवहारापेक्षा त्वभ्रातत्येनायुपगमादिति । यदि नाम भ्रान्तत्वमभ्रान्तत्वं कथमिति ?, एवमत्रापि वकुं शक्यत्वादिति । किञ्च विद्यते यविध्यम, अव्यभिचारितया तथैव प्रतिभासमानस्यात्, अ यययन्नीलवद्वा । नचायमसियो हेतु तथाप्रतिज्ञासस्यानुय मानत्वात् नाप्यनैकान्तिकत्ववित्सर्वयव्यवस्थायाः प्रतिभाम्माधीनत्वात् । अन्यथा न किञ्चनापि वस्तु सिद्धयेदि ति । स्था० १ ठा० १ उ० । रत्ना० । आचा० । सम्म० । अवयासण- प्रवत्रासन - न० । वृक्कादीनां प्रभावेन चालने, पं० व० ४ द्वार । श्लेषण - न० | वृक्षादीनामालिङ्गापने, वृ० १ ० । अश्यासाविषप्राश्लेषित ० लिङ्गिते, विश०१५०४० - वासेऊण अवकाश्य-अन्य प्रकार प्रकटीकृत्य अवर-अपर ०ि अस्मि ०२०२०प्र०नि० - I " . च्० । सू० प्र० । ज्ञा० । “अवरं वोच्छं" अपरमिति उक्तादन्यद्व क्ष्यामि । सूत्र० १ ० ३ ० २ ० द्वितीयस्मिन् चं० प्र०३ पाहुo | पश्चात् काल भाविनि श्राम्रा० १४० ३ ० ३ ० । आ० म० । पश्चिमे, "अवरेण पन्नासं ताहे सिंधुदेवि श्रोवेद " । आ० म० प्र० । न परोऽपरः । स्वस्मिन् बृ० ३ उ० । श्यवरकंका-अपरकङ्का--स्त्री० घातकीखण्डभरत क्षेत्र राजधा अवराइया गमनं 'दुबई' शब्दे पद के शाताधर्मकथा याः षोमशेऽध्ययने, स०१८ लम० । प्र० । झा० । आव० । स्था० । “कण्ट्सवरकंका" कृष्णस्य नयमवासुदेवख प्रीपदनिमित्तमपरक कागमनमार्यम् कल्प० २ ० ॥ अवरच्छ-अपरोक्ष न० श्रविद्यमानानि परेषामत्रीणि द्रष्टयत्र तत्परोमस दोनची च । - प्रश्न० ३ श्राश्रर द्वार । । अवरयंत अपराध्यत्रि० दोषमावहति सूत्र० १ ० ३ श्र० ३ ० । रजसा लिप्यमाणे, सूत्र० १० १ ० ३ उ० । नश्यति, उत्त० ७ श्र० । अवस्य अपराह्न पुं० दिनस्य चरमवहरे स्था०४० २४० | "कालसमयसि । पाश्चात्यापराद्धकासमयो दिनस्य चतुर्थमहरलक्षणः । नि०३ वर्ग अवरहकाल अपराइकाल ५० सूर्यस्य गतिपरिणतस्व पश्चिमेन गमने श्र० चू० १ श्र० । अवरत - अपररात्र- पुं० । रात्रेरपरे जागे, स्था० ४ ०२ उ "पुव्वावरतकालसमयंसि " । विपा० १ ० ६ ० अवरदारिय- अपरद्वारिक-म० पश्चिमद्वारिकेषु नक्षत्रेषु स० स०|" पुस्साइया णं सन्स एक्खत्ता अवरदारिया पत्ता । तं जहा - पुसो, असिलेसा, मघा, पुव्वा फग्गुणी, उत्तराफग्गुएली, हत्थो, चित्ता" । स्था० ४ ठा० ४ उ० । अपरदा हि--यपरदक्षिण-पुं० । अपरदक्षिणदिम्मा पञ्चा० 1 अवरुद्ध - अपराद्ध- न० । अपराधनमपराकम् । पीडाजनकतायाम, पि० । विनाशिते, त्रि० । झा० १ श्र० अवरधिय-पराद्धिक- पुं० । श्रपराधनमपराद्धम् - पीमाजनकता; सदस्यास्तीति अपराधिका लूनास्फोटे, खदिदेशे च पिं० अवरफा- अपरपाणी-स्त्री० पाणिकायाम ०८० अवरमम्मवेहित्त- अपरममवेधित्व - न० परमर्मानुदूधट्टनस्वरूपत्वे विंशतितमे सत्यवचनातिशये, स० ३५ सम० । अवरराय-- अपररात्र- पुं० । रात्रेः पाश्चास्ये यामद्वये, श्राचा०१ ०५ श्र० ३ उ० | - । । अवरविदेह अपरविदेह पुं० अपरथासौ विदेह स्था०२ aro ३ उ० | जम्बूदीपे पश्चिमतो मदाविदेहजागे, स्था० १० ठा० । तत्र सदा दुष्पमसुत्र मोत्तमर्द्धिः । स्था० २ ठा० ३ ० ॥ जं० | "दो अवरविदेहाई” स्था० २ ठा० ३ ० । प्रवर विदेहकूम - अपरविदेहकृट न० । निश्वस्य वर्ष धरपर्वतस्य नीलधरपर्वतस्य च वाकूठे का स्था अवरसामा परसामान्य- न० । म्रव्यत्वादी- सामान्यन्याप्यसामान्ये, स्या० । अवरहा- अपरथा - अव्य० । अन्यथाऽर्थे, पञ्चा० वि० ॥ म्याम, का० १ ० । (तत्र हृताया द्रौपद्या श्रानयनाय कृष्णस्य | अवराइया अपराजिता - स्त्री० । महावत्सविजयदेवस्य रा२०० Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६८) अभिधानराजेन्द्रः । अवलंबण तेसि परिक्खणडा, अवराहपए व वज्जेज्ता ॥ १८२ ॥ अष्टादशसहस्राणि तुरवधारणे षशीलं भावसमा चिलणं, तस्पाङ्गानि नेदाः करणानि या शाजिने मानिरूपितशब्दार्थः प्रकृतानि प्ररूपितानि तेषां शीला परिरक्षणार्थं परिरक्षणानिमितं अपराधपदानि प्रागभिहितस्य रूपाणि दितिगाथार्थ इ० २७० आ० चू० । मा प्रत्यपरास्थाने, दश०] अवराट्सपव-अपराधशस्यमनव०ि पृथ्वी संघट्टाद्यतिचाररूपशल्पानमिले पञ्चा० १६ वि० । अपराधपदमाह - अवराहुत्त - अपराभृत-पुं० । पश्चान्मुखे, यंति " । आव० ४ अ० । इंदिययसाया, परीसहा वेयणा य उवसग्गा । एए अवराहपथा जत्य विसीति कुम्मेहा ॥१८२॥ इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि विषयाः स्पर्शादयः, कषायाः क्रोधा. दयः इन्द्रियाणि चेत्यादि इन्द्रः परीषदाः कुत्पिपासादयः बे दना अशानानुभवणाः, उपसर्गा दिव्यादयः। एतान्यपराधपदानि मोकमार्गे प्रत्यपराधस्थानानि । यत्र येष्विन्द्रियादिषु सत्सु विषीदन्ति श्रवभ्यन्ते । किं सर्व एव ? नेत्याह- दुर्मेधसः, क्षुल्लकवत् । कृतिनस्तु एभिरेव कारण नूतैः संसारकान्तारं तरन्तीति गाथाऽर्थः । कुल्लकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः । फोली कथानक "कुंकणचो जहा एगो तो अवरिं- उपरि- अव्य० । “ बोपरौ ” ।१। १०८ । इति उतोऽत्यम् । "वक्रादावन्तः १२६ । इत्यनुस्वारागमः । प्रा० १ पाद प्रथमापञ्चमीमम्यन्तार्थ से शब्दस्यायें, पाप० । 23 अवरिल - (न० ) उपरि- अव्य० । प्रावरणे, " उपरेः संव्याने " । ८२ १६६ इति संस्याने ऽर्थे वर्तमानापरिशात् स्वार्थे विधानात् । प्रा० २ पाद । । । पुरा पो सो पेय तस्स अईयो सीयमानो व भण-संता ! ण सक्केमि श्रणुवाहणो हिंडिडं । अणुकंपा सं अपरिसण-अवर्षण न० पानीयपाते, दर्श० । अवरूत्तर- अपरोत्तर-पुं०। अपरोशरस्यां दिशि प० २ चि०। 1 दाउदा सादे उपरितलासीपण कुंभकचरा-अपरोक्षरा श्री० वायव्यां दिशि ०७ ४० इंति से कयाम्रो पुसो भण-सी मे अश्व मरता हे सीसवारिया से श्रणुमाया । ताहे भण्इ-न समिभिडिंडिये तो से पडिसन विस्स आर एवं तरामि खत ! भूमी सुविडं । ताहे संथारो से अण्णाओ । पुणोभणारा तरामि खंत! [लो कार्ड तो सुरेश पकिज्जियं साहे भणति श्रन्हाण्यं न सक्केमि । तत्रो से फासूयपाणपण कप्पो दिजइ । आयरिया उग्गं च जुयलं धिप्पति । एवं जं जं भणति तं तं सोखतो पनिबद्धो तस्सऽणुजाणति । एवं काले गच्छमा मे पमणिश्रो-न तरामि अविरइयाए विणा श्रच्छिउं खंत! ति । साहे तो दो अजोगो सिकाउन पसियाओ शिष्फे डिओ | कम्मं काउं ण याण । भगाणंतो घृणसंखडीप धणि काउं अजिèण मत्रो । विसयविसट्टा मरिउं महिसो आयाओ वाहिजा । सो य खंतो लामण्णपरियागं पालेऊण आक्खर कालो देवसु उबवमो, ओर्दि पउंजद । श्रहिणा भोणतं ते पुणे तेसि हा किणह बेदयिडीए जो वादे य गरुगं तं । अतरंतो योद्धुं तोरण विपदं भाइ तरामि खेना! निवखं हिंडि यं भूमीप सयणं झोयं काउं । एवं ताणि वयणाणि सव्वाणि उउत्रारेति, जाव अविरइयाए विणा न तरामि खंत ! ति । ताहे. एवं भणतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं कहं परिसं I सुतिलाई ईहापूरममाणगवेसणं करे एवं चितयंतस्स तस्स जातिसरणं समुप्पनं । देवेण ओही पडता । संबुदो पच्छा भयं पञ्चक्त्ता देवलोयं गनो" । "एवं पर पर विलीतो संप्पल वसं गच्छति । जम्दा एसो दोस्रो तम्हा भट्टारसीगसहस्वार्ण सारणाश्चिमि पर अपराह्नपद बज्जेज्ज " । तथाचाहअहारस उ सदस्सा सीलंगाणं निहिं पचता । अवराइया जधानी युगले, अं० ४ पक्ष० । स्था० ॥ शङ्खविजय क्षेत्रयुगले राजधानीयुगले, स्था० २ ० ३ ० । जे० । उत्त० । अबराह — अपराध — पुं० । गुरुविनयलङ्घने, आव० १ ० । "त्यमेव मरिसेद् " ० ० ० (अपराध यतोऽन्य)" अयराट्सहस्रणीओ " अप । राधसद गृहणिरूपाः (स्त्रियः ), ब्रह्मदत्त मातृचुत्रनीचत् । तं । अनरापय अपराधपद-म० 66 'अवराहुतो वा 66 अवरोप्पर- अपरस्पर-११। "परस्परस्यादिरः" ८४४०३ इति पचे परस्परशब्दस्यादिरकार अम्योऽयशब्दार्थे, "अप्पर जोताई, सामिव मंजि जा" प्रा०४ पाद अवरोह-अवरोध पुं० [अन्तःपुरे, श्री० [परमकेा बेह नि० चू० ८ उ० । (तत्र भिक्षाटनाऽऽदिव्यवस्था 'उबरोह' शब्दे द्वितीय मागे ०७ पृष्ठे ८ष्टव्या ) अवलंब - अवलम्ब त्रि० । अधोमुखतयाऽवलम्बमाने, मौ० । अपलंवग-अलम्बक न० ड ०४० अवलंबण - अवलम्बन न० । अवलम्ब्यत इति अवलम्बनम । हदूबहुलमिति वचनात्कर्म एयनट् विशेषसामान्याच नं०थं विशेषसामान्यार्थाय नमः इति उच्यते मद्द शब्दोऽयमित्यपि कानं विशेषावगमरूपत्वादवायज्ञानम् । तथाहि-शब्दोऽयं, नाशब्दो रूपादिरिति शब्दस्वरूपावधारणं विशेषावगमः, ततोऽस्माद् यत्पूर्वमनिर्देश्य सामान्यमात्रमयमणमेकसामायिकं स पारमार्थिको ऽवग्रहः तत तु यक्तिमिदमिति मनसा हा तदनन्तरं तु शब्दस्वरूपावधारणं शब्दोऽयमिति तदवायज्ञानम् । तत्रापि यदा उत्तरधर्मजिज्ञासा भवति किमयं शब्दः शाङ्गकि या शाइति तदा पायास्वं शब्द इति ज्ञानमुत्तरविशेषावगमापेक्कया सामान्यमात्रावसम्बन मित्यचइत्युपचर्यते । स च परमार्थतः सामान्यविशेषरूपार्थीच लम्बन इति विशेषसामान्यार्थाय त्युक्वमे ब्द इति ज्ञानमालस्थ्य किमयं शाङ्खः किं वा शार्ङ्गः ? इति ज्ञानमुदयते। ततो विशेषसामान्याथविग्रदो ऽवलम्बनम् ॥नं प्रबल • म्यते यच सम्पनम् अयतरसामु सरतां चाय लम्बनहेतुभूतेबलम्वनवादस्तो विनि० ० ० ० - Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६ ) अवलंबण अभिधानराजेन्द्रः। अक्वट्टणा मा० म. । प्रवलम्ब्यते इत्यवलम्बनम् । वेदिकायाम , मस्त- अवध-अवन-न०। सयाविशेषे, चतुरशीतिरववाहशतसहकाबलम्बे च । नि० चू०। स्राणि एकमवधम् ।जी. ३ प्रति० । भ० । कर्म०। जं० । अवलंबणं तु दुविहं, नूमीए संकमे य णायव्यं । अनु०। स्था। दुहतो व एगतो वा, विवेदिया सा तु णायचा ।। | अवंग-अववाह-ना संख्याविशेषे, चतुरशीतिरडडसहस्राअवलंबणं दुघि भूमिए वा, संकमे या नवति । भूमीए विस- णि एकमववाङ्गम । जी० ३ प्रति० । कर्म० । अनु० । स्था। मे लग्गणणिमिसं कज्जति। संकमे विलम्गणणिमित्तं कज्जति।सो अवका-अवपाक्या-स्त्री०। तापिकायाम,भ० ११श०११ २० पुण दुहको एगो य भवति । सा पुण (वेड्य त्ति) मतावलंबो, निचू.१० । भावे युद, करण बाहादि गृहीत्वा धारणे, अववग्ग-अपवर्ग-पुं० । मोके, प्रा०म०वि०। "सब्बंगियं तु गहणं,करेण अवलंबनं तु देसम्मि" त्ति । स्था०५ अवचट्टण-अपवर्तन-न।कर्मपरमाणूनां दीर्घस्थितिकालताग०२ उ०। (पर्वतादी पतन्त्या निन्थ्या अवलम्बनं 'गहग' शन्दे वक्ष्यते) मपगमय हस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापने, पं० सं०५ द्वार। अवलंबणया-अवलम्बनता-स्त्री० अवलम्बनस्य भावोऽवल अववणा-अपवर्तना-स्त्री०। अपवय॑ते हस्वीक्रियते स्थिम्बनता, अवनदे, नं०। त्यादि यया साऽपवर्तना।स्थित्यनुनागयोईस्वीकरणे, क. प्र.। अवलंबणवाहा-अवलम्बनवाहा-स्त्री० : उभयोः पार्श्वयोरब तत्र तावत स्थितिविषयाऽपवर्तनामाहलम्बमानानामाश्रयभूतायां मित्तौ, प्रा० म०प्र० । जं०। जी। ओवट्टतो य ठिई, नदयावशिवाहिरा विविसेसा । भवसंबिकण--अवलम्य-श्रव्य० । आश्रित्येत्यर्थे, पं० ब०२ निक्खवइ से तिनागे, समयाहिऍ सेसमबई य ॥१८॥ द्वार | ग० । विषयी कृत्येत्यर्थे, श्राव० ५ अ० । वनइ ततो अतित्या-वणा य जावालिगा हवः पुना। अवलंबित्तए--प्रवलम्बितुम-अव्या भाकर्षयितुमित्यर्थे, दशा तनिक्खेवो समया-हिगालिगुणकम्मविश्वगणा ॥१६॥ ७०। स्थितिमपवर्तयन् उदयावलिकाबाह्यान स्थितिविशेषान् स्थिअवलंबिय-अवलम्बित-त्रि० । अविच्छिन्ने, का०१ म०। तिदान अपवर्तयति । के ते स्थितिविशेषाः १, इति चेत् । उ. च्यते-उदयावलिकाया उपरिसमयमात्रा स्थितिः द्विसभयमात्रा अवलम्ब्य-श्रव्य० लगित्वत्यर्थे, "णो गाहावतिकुबस्स दुवा स्थितिः, एवं तावद्वाच्यं यावद बन्धावलिकोदयाऽवलिका हीरसाई अवलंबिय अवलंबिय चितुज्जा"। आचा०श्च०१०६उ ना सर्वा कर्मस्थितिः। एते स्थितिविशेषाः । सदयावलि कागप्रवलक-अपलब्ध-त्रि० । न्यकारपूर्वतया लन्धे, स्था० ! ताच स्थितिः सकलकरणयोग्येति कृत्वा तां नापवर्तयति । तत ग। “परघरप्पवेसे लद्धावसका " अन्त० ५ वर्ग । उक्तम्-उदयावलिकाबाह्यानिति । कुत्र निक्षिपतीति चेत् ।। 8. प्रवलाव-अपलाप-पुं०। निहवे, नि० चू० । यथा कस्य ध्यते। अत पाह-निविपति-आवलिकायास्त्रिभागे तृतीये नागे समयाधिके शेष समयं न मुञ्चत्युपरितनं त्रिभागवयमतिक्रम्य । सकाशेऽधीतम् !, शति प्रो अन्यलकाशेऽधीतमन्यस्मै कथ इयमत्र भावना-उदयावलिकाया उपरितनी या स्थितिस्तस्या यति । नि०यू०१उ०। प्राव।। दसिकमपवर्तयन् उदयावलिकाया उपरितनौ द्वौ त्रिभागौ प्रवलिंब-अवलिम्ब-पुं० । देशविशेषे, स्था०२ ग०४०। समयानावतिक्रम्याधस्तने समयाधिके तृतीये नागे निकपति; अवलेहणिया-प्रवलेखनिका-स्त्री. । अवनिख्यमानस्थ बंश- एष जघन्यो निक्षेपो, जघन्या चातिस्थापना । यदा अदयावशलाकादेर्षा प्रतन्ध्यां त्वचि, स्था०४ ० २ 30 । वर्षावास-| लिकाया सपरितनौ द्वौ त्रिभागौ द्वितीया स्थितिरपवर्तयते कर्दमस्फेरनिकाय पादसेखनिकायाम, नि० ० १००। तदा प्रतिस्थापना प्रागुक्तप्रमाणा द्विसमयाधिका भवति। नि केपस्तु तावन्मात्र एव । एवमतिस्थापना प्रतिसमयं तावद्धिअवलहिया-अवलोहिका-स्त्री०। तन्दुसकचूर्णकसिद्ध पुग्धे, मुपनेतन्या यावदावलिका परिपूर्णा भवति । ततः परमतिस्थासिके ह्यविशेष, प्रव०४ द्वार। पना सर्वत्रापि तावन्मात्रैव भवति निक्षेपस्तु वर्कते। स च ताअवलोअण-अवलोकन-न० । दर्शने, रत्नाधिकादौ मृते क-| बदू यावद् बन्धावलिकाऽतिस्थापनाऽऽवसिकारहिता सर्वाऽपि पणमस्वाध्यायश्च कार्यः । ततोऽन्यदिने परिकानावावलोक-| कमस्थितिः । उक्तं च-"समयाहि अश्थवणा, बंधावलिया य नं कार्यम् । पाव० ४.१०। मोनु निक्खेवो । कम्मईि बंधादय-आवलियमुनु पोष"॥१॥ अवलोयणसिहरमिला-अवलोकनशिखरशिला-स्त्री० । उ-] कर्मस्थितिबन्धावलिकामुदवावलिकां च मुक्त्वा शेषां सर्वामपि जयन्तपर्वतशिलाविशेष,उञ्जयन्ते-"अवलोअणसिहरसिला, अ अपवर्तयति इत्यर्थः । तदेवमुदयावनिकाया उपरितनं समयघरेणं तत्थ वररसो सव।सुअपक्खसरिसवनो,करे सुवरं मात्र स्थितिस्थानं प्रतीत्य वर्तमानायामपवर्तनायां समयाहेम" ॥२७॥ ता. ४ कल्प । धिके प्रायलिकापाःत्रिनागो निक्केपःप्राप्यते । स च सजघअवलोब-अवलोप-पुं० । वस्तुसद्भावप्रच्छादने त्रिंशत्तमे गौ.। न्यः। सर्वोपरितनं च स्थितिस्थान प्रतीत्य प्रवर्तमानायामपव सनायां यथोक्तरूप उत्कृष्टो निकेपः । सच-"उदयायलि उपणालीके, प्रभ० २ प्रा० द्वार। रित्थं, ठाणं अहिकिर हो रहीणो। निक्खेबोसम्वोपरि,जिश्रवक्षय-प्रवन्धक-न । नोकाक्षेपणोपकरणभेदे, भाचा बाणवसा भवे परमो" ॥१॥ एष नियाघाते अपवर्तनाऽधिभु०३ अ०१० कारविधिरुतः। Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८००) अववट्टणा अभिधानराजेन्धः। अवविह संप्रति व्याघाते तमाह संप्रत्यनुभागापवर्तनामतिदेशेनाहवाघाए समजणं, कंगमुक्कस्सिआ अइत्यवणा। ........."एवं प्रोवणाईन ॥११॥ मायठिई किंचूणा, विइ कंडुक्कस्सगपमाणं ॥ २२०॥ एवमुद्धमाप्रकारेणापत्तनाऽप्यनुभागविषया वक्तव्या, केवअत्र व्याघातोनाम स्थितिघातः तस्मिन् सति तं कुर्वत इत्यर्थः। लमादित प्रारज्य स्थित्यपवर्तनावत् । तद्यथा-प्रथमं स्पर्धकं । समयानं करमकमात्रमुत्कृष्ट प्रतिस्थापना।कथं समयोनमिति नापवय॑ते, नापि द्वितीय, नापि तृतीय, एवं तावद्वक्तव्य यावचेत् ? । उच्यते-उपरितनेन समयमात्रेण स्थितिस्थानेनापवर्त दावलिकामात्रस्थितिगतानि स्पर्ककानि भवन्ति । तेन्य उपमानेन सह अधस्तात् कण्डकमतिक्रम्यते । ततस्तेन विना रितनानि तु स्पर्ककान्यपवत्येन्ते । तत्र यदा उदयावलिकाया कण्डकं समयोनमेव नवति । कण्डकमानमाह-" डाय उपरि समयमात्रस्थितिगतानि स्पर्ककानि अपवर्तयति तदा विई इत्यादि"। यस्याः स्थितेरारभ्य तस्या पथ प्रकृतेरुत्कृष्टं समयोनावसिकात्रिभागद्वयगतानि स्पर्ककानिप्रतिक्रम्याधस्तनेषु स्थितिबन्धमाधत्ते, ततः प्रकृति सर्वा साऽपि स्थिति य मावलिकासत्कसमयाधिकत्रिनागगतेषु स्पर्क केषु निक्षिप्यते। स्थितिरिति उच्यते । उक्तं च पसलहम्बटीकायाम यदा तूदयावलिकाया उपरि न द्वितीयसमयमात्रस्थितिगतानि यस्या यस्याः स्थितेरारभ्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धं विधत्ते नि स्पर्ककान्यपवर्तयति, तदा प्रागुक्ता प्रतिस्थापना समयोमापयति तस्या प्रारभ्य उपरितनानि सर्वाएयपि स्थितिस्था नावलिकात्रिभागद्यप्रमाणा समयमात्रस्थितिगतैः स्पर्धकैरनानि मायस्थितिसंहानि नवन्ति, सा मायस्थितिः किश्चिदूना धिकाऽवगन्तव्या। निक्केपस्तु तावन्मात्र एव, एवं समयकएमकस्योत्कृष्ट प्रमाणम् । पञ्चसङ्कहे पुनरेवं मूलटीकाव्यास्था वृद्ध्या अतिस्थापना तावकृषिमुपनतव्या यावदावलिका पकृता-"सा मायस्थितिकर्यतः किञ्चिदूना किश्चिदूनकर्मस्थिति रिपूर्णा भवति, ततः परमतिस्थापना सर्वशापि तावन्मात्रैव । नि. प्रमाणा वेदितव्या । तथाहि-अन्तःकोटीकोटीप्रमाणं लितिवन्ध केपस्तुवईते,एवं निर्णाघातेसतिषष्टव्यम् । व्याघाते पुनरनुनामाधाय पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रिय उत्कृष्टसंक्लेशवशाउत्कृष्टां स्थिति गकएमकंसमयमात्रस्थितिगतस्पर्ककन्यूनमतिस्थापना द्रष्टव्या। विधत्ते इति सा डायस्थितिरुत्कर्षतः किश्चिदूनकर्मप्रमाण कएमकमानं समयमात्रन्यूनत्वं च यथा प्राक स्थित्यपवत्तायामुस्थितिप्रमाणेति,सा चोरकृष्ट कण्डकमुच्यते। श्यमुत्कृष्टव्याधा कं तथाऽत्रापि अष्टव्यम् । अत्रास्पबहुत्वमुच्यते-सर्वस्तोको जतोऽतिस्थापना। एतच्चोत्कृष्ट कपमकं समयमात्रेणापि न्यूनं क घन्यनिक्षेपः, ततो जघन्यातिस्थापना अनन्तगुणा, ततो व्याघाते एडकमुच्यते। एवं समयदयेन,समयत्रयेण,एवं तावद् न्यून वाच्यं अतिस्थापना अनन्तगुणा, तत उत्कृष्टमनुनागकएडकं विशेषायावत् तत्पल्योपमासंस्थेभागमात्रं प्रमाण जवति, तब जघन्यं धिकम, तस्य एकसमयगतैः स्पर्क कैरतिस्थापनातोऽधिकत्वाकरामकम,स्यं च समयोनजघन्या व्याधातेऽतिस्थापना। संप्रत्य तू । तत उत्कृष्टो निकेपो विशेषाधिकः, ततोऽपि सर्वोऽनुभागो स्पबहुत्वमुच्यते-तत्रापवर्तनायां जघन्यो निकेपः सर्वस्तोका, | विशेषाधिकः । क०प्र०। पं० सं०। नस्य समयाधिकाथलिकात्रिभागमात्रत्वात् । ततोऽपि जघन्या अवचट्टणासंकम-अपवर्चनासंक्रम-पुं०। प्रभूतस्य सतो रसतिस्थापना द्विगुणा त्रिसमयोना,कथं त्रिसमयोनं द्विगुणवमिति चेत् उच्यते-व्याघातमन्तरेण जघन्या प्रतिस्थापना प्रावलिका स्थ स्तोकीकरणे, पं० सं०। अपवर्तनासंक्रमस्तु बन्धेऽबन्धे या त्रिभागस्यं समयोनं नवति,आवझिका चाऽसत्कल्पनया नवस-1 प्रवर्तते । “सम्वत्थाऽववट्टणा विरसाणं" इति वदयमाणवमयप्रमाणा करप्यते, तततिभागद्वयं समयोन पञ्चसमयप्रमाण चनात् । पं० सं०५ द्वार। मवगन्तव्यम्। निक्केपोऽपि जघन्यः समयाधिकाबलिकात्रिभा अववयमाण-अवपत-त्रि०। मृषावादमकुर्वति, आचा० १ गरूपोऽसत्कटपनया चतुःसमयप्रमाणो द्विगुणीकृताखसमयोन: शु०५०२ उ०। सन्तावानेव भवतीति।ततोऽपिव्याघातं विना उत्कृष्ट प्रतिस्था | अवरोवित्ता-अव्यवरोपयिता-स्त्री० । अनशकतायाम, "जि पना विशेषाधिका,तस्याः परिपूर्णावसिकामात्रत्वात्। ततोव्याघा- | भामयामो सोक्खाभो अववरोवेत्ता भव"। स्था०६ वा०। ते उत्कृष्ट प्रतिस्थापना असंख्येयगुणा,तस्या उत्कृष्टमायस्थिति- | अववाय-अपवाद-पुं०। परदूषणाभिधाने, प्रश्न १ सम्ब. प्रमाणत्वात् ।ततोऽप्युत्कृष्टो निहेपो विशेषाधिकः, तस्य समया- द्वार। द्वितीयपदाश्रयणे, दशेधा विशेषोक्तविधौ,यथा-"पु. धिकावलिका द्विकोनसकलकर्मस्थितिप्रमाणत्यात, ततः सर्वा ढवाश्सु प्रासेवा, उप्पन्ने कारणम्मि जयणाए । मिगरहियस्स कर्मस्थितिर्विशेषाधिका | संप्रत्युद्वर्तनापवर्तनयोः संयोगेनास्प- ग्यिस्सा, अबवाम्रो होइ नायबो" ॥२॥ दर्शाध०। पञ्चा बहुत्वमुच्यते-तत्रोद्वर्तनायां व्याघाते जघन्यावतीस्थापनानिके प्रतिनि.चून उत्सर्गस्य प्रतिपक्ष, वृ०१ उ० (विशेषवक्तव्य पौ सर्वस्तोको,स्वस्थाने तु परस्परं तुल्या, भावनिकासंख्येय ता'सत्त' शब्द वीक्ष्या) तथाविधद्रव्यकेत्रकालभावापत्सुक भागमात्रस्यात्। ततोऽपवर्तनायां जघन्यो निकपोऽसंख्येयगुणः, निपतितस्य गत्यन्तराभावे पञ्चकादियतमयाऽनेपणीयादिग्रहणे, तस्य समयाधिकावलिकात्रिभागमात्रत्वात् । ततोऽप्यवर्तनायां स्या । अनुकायाम, नि० चू० १ उ० । निश्चयकथायाम, जघन्यातिस्थापना द्विगुणा त्रिसमयोना। भत्रभावना प्रागेव कृता। नि. चू०५ उ०॥ ततोऽप्यपवर्तनायामेव व्याघातं विना उत्कृष्ट अदिस्थापना वि. अववायकारि(ए)-अवपातकारिन्-पुं० । आज्ञाकारिणि, शेषाधिका, तस्याः परिपूर्णावलिकाप्रमाणत्वात्। तत उद्वर्तना. पं० सं०१द्वार। यामुत्कृष्टातिस्थापना संख्येय गुणा,तम्या उस्कृष्ठावाधारूपत्वात्। ततोऽपवर्तनायां व्याघाते उतकृष्टा प्रतिस्थापना असंख्येयगुणा, अववायसुत्त-अपवादसूत्र-न० । अपवादिकार्थप्ररूपके सूत्रतस्या उत्कृष्टडायस्थितिप्रमाणत्वात् । तत उद्धर्तनाया उत्कयो भेदे, वृ०१०। ('सुत्त'शदे विवृतिरस्य एव्या) निक्षेपो विशेषाधिक ततोऽप्यपवर्तनायामकृयो निकपो विशेषा- अवविह-अवविध-त्रिका स्वनामल्याते भाजीविको-(गोशासधिका; ततोऽपि सर्वा स्थितिर्विशेषाधिका"। कम्प्रापं० सं०] कमतो-) पासके, भ०८ श०५ उ०। Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०१) अवशल अनिघानराजेन्डा अवहड अवशल-अवसर-पुं० । मागध्याम "रसोर्लशौ" धान्ना अवसित-अपसिधान्त-पुं०1 सिमान्तादपक्रान्ते,"संसारइत्यनेन रूपनिष्पत्तिः। प्रस्तावे, "णं अवशलोपसप्पणीया ला- कारणाद् घोरा-दपसिकान्तदेशनात्" । स्था० १० वा०॥ प्राणो"। प्रा०४ पाद २०३ सूत्र । अवसे-अवश्यम्-अव्यका" अवश्यमो में-डो"।।४।४२७। अवस-अवश-पुं० । कर्मपरक्शे, उत्त०६१० परवशे, सूत्र०१ इत्यपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे में प्रत्ययः।" भबसे सुकहिं पण" शु० ३ ०१ उ० । उत्त० । प्रभा प्रा० ४ पाद । अवश्यम-प्रन्य० । "अवश्यमोहे-मौ"||४|४२७ । इत्य अवसेस-अवशेष पुन अवशिष्टे, स्था० ७ ठा। पातु । तदपनशे स्वार्थे मः। निश्चये, अशक्यनिवारणे च । “भवसन सु रिने उपाय अहि सुप्रजिअहि" । प्रा०४ पाद । अवसेह-गम्-धा० । “गमेरई-श्रइच्छा एवजा" मा १६१ अवसनण-अपशकुन-म० । मानसूचके निमित्तभेदे, पृ.।। इति सूत्रेण गमेरवसेहादेशः । अवसेह-गच्छति।प्रा० ४ पाद ॥ तानि चमलिणकुचेले अन्न-गियराए साणखुज्जवमभे य । श्रवसेह-न-धा० । प्रदर्शने, “नशेणिरिणास-णिवहावसे ह."८।४। १७८ । इत्यादिसूत्रेणावसेहादेशः । अवसेदरएए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ तिस्स ॥ नश्यति । प्रा०४ पाद। मसिनः शरीरेण बर्वा मलीमसः, कुचेलो जीर्णादिवसपरि अवसोग-अपशोक-पुं० ।वीतशोके, जम्बूद्वीपापेकया द्वादशधाना, अभ्याङ्गितः स्नेहाभ्यक्तशरीरः, श्वा वामपार्श्वदक्षिणपागामी, कुन्जो वरुशरीरः । वमभो वामनः । एते मलिनाद द्वीपाधिपतौ देवे, दीप। योऽप्रशस्ता नवन्ति क्षेत्रानिर्गच्चतः ॥ अवस्स-अवश्य-त्रि० । अवश्यप-योऽवश्यशदोऽकारा न्तोऽप्यस्ति । प्रा० म० द्वि० । प्रभा । नियते, भाव० ४००। रत्तपमचरगतावस-रोगियविगला य आउए विज्जा । अवस्सकम्म-अवश्यकमेंन्-न० । भवश्यक्रियायाम, मा० कासायवत्थल-लिया य ज न साहति ॥ चू०१०। अवस्सकरणिज-अवश्यकरणीय-न० । मुमुक्षुभिरवश्य रक्तपटाः सौगता,चरकाः काणादा, धाटीवाहका वा; तापसा क्रियते इति अवश्यं करणीयम् । विशे० । प्रावश्यके, सरजस्कारोगिणः कुष्ठादिरोगाक्रान्ताः,विकलाः पाणिपादाद्य. मुमुक्षुजिनियमानुष्ठयत्वात्तस्य । अनु० | प्रवश्यकरणमिति -चयवन्यजिताः, श्रातुरा विविधदुःस्त्रोपद्धताः, वैद्याः प्रसिकाः, प्रश्ने प्रदर्यते-अन्वर्थत्वावश्यकरणसंक्षायाः, भास्करवफाषायवनाः कषायवनपरिधानाः, उद्धूलिता नस्मोतित त्, अवश्यकरणीयत्वादवश्यकरणं कुर्वन्तीति । कथमिदमवगावाः धूलीधूसरा वा । एते केत्रानिर्गच्छद्भिदृष्टाः सन्तो यात्रा श्यकरणं, कथमियमन्वयेति ? दर्शाते-अर्थमनुगता या संज्ञा गमन, तत्प्रवर्सक कार्यमप्युपचारात् यात्रा, तां न साधयन्ति । साऽन्वर्था; अर्थमजीकृत्य प्रवर्तत इत्यर्थः । कथमिहा;यथा-भा. उक्का अपशकुनाः । वृ० १ स। स्करसंशा अन्वर्था । कथमन्वर्था , नासं करोतीति जास्कर इति अवसक्कण-अवष्वष्कण-न० । साध्वयावसर्पणे, पश्चा० १३ यो भासनार्थः,तमङ्गीकृत्य प्रवर्सत हत्यन्वर्था। तथाऽवश्यकरणविव० । माचा । पश्चाद्रमने, प्रव० २ द्वार। मिति श्यं संज्ञा अन्वर्या। कथमिति चेत्? घूमहे-अवश्य फियत अवसकि (ए)-प्रवष्वष्किन्-त्रि० । अवसर्पणशीले, सूत्र०५ इत्यवश्यकरणमिति योऽवश्यकरणार्थोऽवश्यकर्त्तव्यता तमकी कृत्य प्रवर्तते यस्मात्तस्मात्सर्वेकेवलिभिः सिखद्भिरवश्यक्रि७० ६.१००। दूरगमनशीले, सूत्र.१७०३ १०२ उ०॥ यमाणत्यादवश्यंकरणमित्यन्वर्थसंझासिफिः । प्रा० चू०२ अ०॥ अवसज्ज-गम्-धा० । “गमेरई-अपाणुवजावसजसोल० अवरसकिरिया-अवश्यक्रिया--स्त्री० । पापकर्मनिषेधे, “प्र. 11४१६२ । इत्यादिना गमेरवसज्जाऽऽदेशः । अवसजा वस्सकम्म ति वा अवस्सकिरिय ति वा एगहा"। मा० चू० गच्छति । प्रा०४पाद॥ १०। अवसप्पि [ [ ] अवसर्पिन-निका परिहारिणि, सूत्र.१७०५ अवह--कृप-धा० । सामगे, " कृपोऽबढोणिः"।८।४।१५१। भ.२०॥ इति रुपेः 'यह' इत्यादेशो रयन्तो भवति । वहावेश-कल्पते। अवसय-अपसद-त्रि०। तुच्छे, स्था०४ ग०४०॥ प्रा०४ पाद। अवसर-अवसर-पुं० । प्रस्ताव, विन्नागे च । दश० ११० । अवह-रच्-धा०-चुरा०। प्रतियो, “रचेरुम्गहावद-बडविडाः" "अहुणाऽवसरोणिसीहचूलाए" । नि० चू० १० । ।८।४1ए | इति रचेर्धातोः 'अवह' प्रादेशः। वहा-रच यति। प्रा०' पाइ। अवसरण-अवसरण-न । समवसरणे, प्रव०६२ द्वार भ०। अवह-अपहति-स्त्री० । विनाशे, विशे० प्रा० म० । अवसवस-अपस्ववश-त्रि०अपगतात्मतत्वे, शा०१६ मा अवहह-अपहृत्य-श्रव्य० । परिहत्य, (मौ०) परित्यज्य, अवसह-अवसथ-पुं० । गृहे, उत्त० ३२ भ०॥ ( सूत्र० १ भु०४ भ० १ उ० । दर्श० । दश ) निरूप्येत्यर्थे, प्रवसावण-अवश्रावण-नाकाजिके," अवसावणं लाडाणं माचा०२ २०५०२ उ०। कंजिनं भन्न"सि । इह लाटदेशेऽवभावणर्फ काम्जिकं म- अवहम-अवहत-त्रि०) "प्रत्यादी डः"1८1१। २०६ । ति गयते । वृ०१०। तस्य मः । प्रा०१पाद । परिहते, नि० ०१०१०। प्राच० । Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०२) अवहम अनिधानराजेन्द्रः। प्रवाय "बालगं अबहाय अवहमे विसुझे भव" निःशेषबालानले. काटिकादेशादाशिरोवृत्तेर्जयादितरेषां चायना निरोघादपापहारात् । भ० ६ ० ७ उ0नि0 चू।। आव० । देशान्तरं ध्वगतित्वसिद्धेरवादिना जलादिनाऽसंगताऽप्रतिरुद्धता । जिनीते, प्रव०१ द्वार। तोदानो हि योगी जले महानद्यादौ महति वा कर्दमे तीक्ष्णेषु अवहत्यिय-अपहस्तित-त्रि० । निराकृते. नं० ॥ वा कण्टकेषु न सजति, किन्तु लघुत्वात्तुलपिण्डवजालादाव निमजन्नुपरि तेन गच्छतीत्यर्थः । तदुक्तं-"उदानजयाज्जलपअवहसंजम--अपहृत्यसंयम-पुं० । अवधिनोचारादीनां परि कण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च" । द्वा० २६ द्वा० । ष्ठापनतः क्रियमाणे, स०१७ सम०। अवाईण-अवातीन-त्रि० । वातीनानि वातोपहतानि, न वातीअवहन-अवहनन--न० । उदूखले, वृ० १०॥ नानि अवातीनानि । वातेनापतितेषु, रा०। जी० । का० । अवहमाण-अनव-वि० । ननन् अनन् । श्रारम्भाऽकरणेन पी- अवानह-अमातृत-त्रिका प्रावरणरहिते, दश०३ मा प्रावमामकुर्वति, "एसंते अवहमाणा उ" । दश० १ ० ॥ रणाभावे, न० । न०२ श० १ ००। अवहर--गम्--धा0। "गमेश्रच्चा०" ८।४।१६२ । इत्यादिना | अवागिश्व-प्रवाग्मिन्-त्रि० । भवाचासे, व्य०७ उ०। गमेरबहरादेशः । अवहर-गच्छति । प्रा०५ पाद । अवामणिज्ज-अवामनीय-न० । संसर्गजंगुणं दोषं वा संसर्गानश-धा-दिवा०। प्रदर्शने, “नशेणिरिणास-णिवहावसेह-प न्तरेणाऽवमति कन्ये, स्था० १० ठा० । डिसा-वसेहाबहराः"1181१७८ । इति नशेरबहरादेशः। अवहर-नश्यति । प्रा०४ पाद । अवाय-अपा(वा)य-पुं। अप-इ-अन् । रागादिजनितेषु प्राणिनाअप-ह-धा० । चोरणे, स्था० ५ म०१ उ० । स्वीकरणे, सूत्र मैहिकामुमिकेष्वनर्थेषु, स्थाot To 30 पायोऽनः; स यत्र द्रव्यादिष अभिधीयते,यथा-एतेषु द्रव्यादिविशेषेषु अस्त्यपाया, १श्रु० अ० । प्रभ० । उपा० । भूते तु-' अवहरिसु' अपह विवक्तिव्यादिविशेषेधिव, हेयता चाऽस्य यत्राभिधीयते तदातवान् । स्था०१० ठा0। हरणमपाय इति । उदाहरणभेदे, स्था०४० ३००। विनाभवहाय-अपहाय-श्रव्य० । त्यत्वेत्यर्थे, भ० १५ श०११ शे, ध०१ अधिo विश्लेषे, नं। तत्रापायश्चतुःप्रकारः। तद्यउ० । सूत्र ॥ था-व्यापायः, केवापायः, कालापायः, भावापायति । अवहार-अपहार-पुं० । अपहरणमपहारः। प्रा० म०द्वि० ॥ तत्र व्यादपायो व्यापायः । अपायोऽनिष्टप्राप्तिः । व्यगीदेवहिष्करणे, नि च। मेव वाऽपायो व्यापायः, अपायहेतुत्वादित्यर्थः । एवं केत्रा दिष्वपि भावनीयम्। वमणविरेगादीहिं, अनंतरपोग्गलाण अवहारो। सेल्लुव्वदृणजलपु-फचुएणमादिहिँ वज्झाणं ॥ साम्प्रतं द्रव्य पायप्रतिपादनायाऽऽह" अम्मतराणं दृसियभंसियपित्तवहिरा दियाण बमणविरयमादी दबावाए दोन उ, वाणियगा जायरो धणनिमित् । हिं अवहारो बाहिरो सरीरातो पूयसोणियसिंघाणगलालगम्भ- वहपरिणएकमेक, दहम्मि मच्छेण निन्ने ओ॥ ५५॥ मलादि तेल्लुब्वट्टणादिहिं बझं अवहरति । नि० च ७३०।। द्रव्यापाये चदाहरणम-दौ तु (तुशब्दादन्यानि च) वणिजौनाचौ,उत्त०४ अ०। प्रश्न जनचरविशेष, प्रश्न०२ आश्रद्वार। तरी धननिमित्तं धनार्थ, वधपरिणती एकैकमन्योन्यं दे मत्स्ये. अवहारवं-अवधारवत्-पुं० । अवधारणावति, स्था० १० ठा०।। न निर्वेद ति गाथाऽकरार्थः। नाबार्थस्तु कथानकादवसेयः । तश्चेदम-"एगम्मि संनिवसे दोभायरोदरिद्दपाया,तेहिं सोरहें अवहि-अवधि-पुं। अवशब्दोऽधःशब्दार्थः । अव अधो वि. गंतूण साहस्सिो ण चलमो रूवगाणं विढविभो । ते असयं स्तृतं वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः । यद्वा-अवधिर्म- गाम संपत्थिया,श्ता तं णउन्नयं वारपण वहति । जया एगस्स र्यादा रूपिम्वेव वस्तुषु व्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपतया, हत्थे तदा श्यरो चिंतेइ-'मारेमि णवरमेए स्वगा ममं होंतु'। तदुपलकितं ज्ञानमप्यधिः । प्रत्यकज्ञानभेद, प्रशा० २० पद ।। एवं बीश्रो चिंतेश्-'जहाऽहं पनं मारेमि'। ते परोप्परं वहप('ओहि' शन्दे तृतीयभागे १४० पृष्ठे व्याख्यास्यते) । रिणया अवस्संति। तओ जाहे सम्गामसमी, पत्ता,तत्थनईअवहेम-मुन्-धा० । मोचने, “मुचेश्छड्डावहेड-मेल्लोस्सिक-रे तडे जिथरस्त पुणराबत्ती जाया। धिरत्यु मम, जेण मए दप्रव-णिलञ्च-धंसाडाः" । ८।४। ६१ । इति मुञ्चतेरवडादे- व्यस्त कर भाउविणासोचिंतित्रो'। परुमो य श्यरेण पुच्छिभो। शः । अवहेडइ '-मुश्चति । प्रा०४ पाद । कहिए नणा-मम पि पयारिसं चित्तं होतं । ताहे एयस्स दोसे णं अम्हेहि पयं चितियं ति काउं तेहिं सो नउरो दहे बूढो । अवहेमिय-अवाधाकृत-अवकोटित-त्रि० । प्राकृतत्वात्सथा- तेय घरं गया। सो अपनलो तत्थ पमंतो मच्चएण गिलिश्रो। रूपम् । अधस्तादामोटिने, 'अवहमियपट्टिसनत्तमंगे'। उत्त० सो मच्छो मेपण मारिओ, वीहीए ओयारियो । तेसिं च १५ अ01 भानगाणं भगिणी मायाए बीहि पछविया,जहा-मच्छे प्राणह । अवहोलेंस-अवदोरयत्-त्रि० । दोलायमाने, ज्ञा० ८ ०। जंजाउगाणं सिऊं ति । ताए असमावसीए सोचेच मच्छो आणीश्रो । सेमीए फालितीए ण नलश्रो दिट्ठो। चेडीए चिंतियंअवाअसंगया-अवाद्यसङ्गता-स्त्री। जलादिनाऽप्रतिरुद्धता-| एस गाउनओ मम चेव भविस्सत्ति नुच्छेगे करो। ठविज्जतो याम, द्वा० । यथेरीए दिछो,णाओ अं। तीए भणिय-किमेय तुमे जच्चंगे काय? " समानस्य जयाद्धामो-दानस्याबाद्यसङ्गता"जिदानस्य । सावि लोहं गया ण साहातानो दो वि परोपरं पहरंतो।सा Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०३) अवाय अनिधानराजेन्मः। अवाय थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आया, जेण तक्खणमेव वियह,अढवा पत्थ भम्गिम्मिणिबडादि । सो अ अगंधणोस. जीषियानो वघरोविया । तेदि तु दारपार्ह सो कावड्यरो पाणं किन दोजाईओ-गंधणा, अगंधणायाते भगंधणा माणिणाश्रो । स णउलो दिहो। थेरीगाढप्पहारा पाणविमुक्का णि- णोताहे सो अग्गिम्मि पविट्ठो,णय तेणतं बंतयं पश्चाविश्यं । स्सलु धरिणिअसे पार्डिया दिवा । चितियं च हि-दमो सो | रायपुत्तो विममो। पच्छा रमाण घोसावियं-रज्जे जो मम भवायबहुलो अत्थो अणत्यो ति । एवं दवं वायहेजति । सप्पसीसं आणेइ तस्साहंदीणारं देमि । पच्छा लोओ दाणारलौकिका अप्याहुः लोनेण सप्पे मारेउ आदत्तो । तं च कुलं, जत्थ सो खमम्रो "अर्थानामर्जने दुःख-मर्जितानां च रक्षणे । नप्पलो, तं जासरं रति हिंडा, दिवसो न हिंडक, मा जीवे आये दुःख व्यये पुःखं, धिर व्यं दुःस्त्रवर्द्धनम् ॥ १॥ दहेहामित्ति काउं। अमाया पाहिडिगेहि सप्पे मम्गंतेहिं रतिंचअपायबहुलं पापं, ये परित्यज्य संसृताः। रेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्सबिनं दिकं ति। दारे से विश्रो तपोवनं महासत्वा-स्ते धन्यास्ते मनस्विनः" ॥शा इत्यादि। प्रोसदिश्री आवाहे । सो चितेह-दिठो मे कोवस्स विवाओ। एतावत्प्रकृतोपयोगि । "तम्रो तेसिं तमवायं पिच्छिऊण णिवे. तो जर अहं अनिमुहो णिग्गच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुच्छेण यो जाओ। तो तं दारियं कस्स दाऊण निविनकामभोत्रा पाढतो णिप्फिडि जत्तिय णिप्फेमेइ तावदयमेव आर्हिपम्वइयत्ति" गाथार्थः। मिश्रो दिति, जाव सीसं छिन । मो य सो सप्पो देवयाइदानी केत्राद्यपायप्रतिपादनायाऽऽह परिग्गहिरो । देवयाए रसो सुमिणए दरिसणं दिन । जहाखेतम्मि अवक्कमणं, दसारवन्गस्स होइ अवरेणं । . मा सप्पे मारेह, पुत्तो ते नागकुलाओ उञ्चट्ठिऊण भविस्तर दीवायणो अकाले, जावे मंडुकियाखवो ॥५६॥ तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेजाहि । सो य स्वमगसप्पो तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः। ततश्च क्षेत्रादपायः,केत्रमेव वा, त मरित्ता तेण पाणपरिश्चारण तस्सेव रमो पुत्तो जाभो, जाए कारणत्वादिति। तत्रोदाहरणम्-अपक्रमणमपसर्पणं दशारवर्ग दारए णामं कयं णागदत्तो । खुद्दलो चेव सो पब्वइओ। सो स्य दशारसमुदायस्य भवति । अपरेणाऽपरत इत्यर्थः। जावार्थः अकिर तेण तिरियाणभावेण अतीव दुहामुत्रो दोसीणवेलाए कथानकादवसेयः। तच्च वक्ष्यामः । द्वैपायनश्च काले । द्वैपायन चेव आढवो जिउं जाव सुरत्थमणवेश वसंतोधम्मसद्धिो ऋषिः। काल इत्यत्रापि कालादपायः, काल एव वा, तत्कारण यातम्ति अगच्छे चत्तारि खमगा तं चाउम्मासिओ तेमासिनो स्वादिति ।अत्राऽपिन्नाचार्थः कथानकगम्य एव । तच्च पक्ष्यामः। दामासिनो एगमासिश्रो सि । रत्ति च देवया बंदिडं मागया। भावे मण्डक्किकाकपक इति। अत्रापि भावादपायो भावापायः,स चाचम्मासिस्रो पढमठिो। तस्स पुरओ तेमासिओ। तस्स पुरएव चा, तत्कारणत्वादिति । अत्रापि च भावार्थः कथानकादधसे- ओ दोमासिनो।तस्स पुरनो एगमासिओ। ताण य पुरोखुद्दयः । तच्च बक्याम ति गाथार्थः जावार्थ उच्यते-"खित्ता मो।सब्बे स्वमगे अतिक्कमित्ता ताप देवयाए खुद्दओ वंदिनो,एपायादाहरणं-दसारा हरिवंसरायाणो । पत्थ महई कहा-जहा गते स्वमगा रुघा निम्मरकंति य गहिया चाटम्मासिअखहरिवंते उपभोगियं चेव जणइ-कंसम्मि विषिधाइए सावायं मरण पोते भणिया य प्रणेण-कडपूयणि! अम्हे तवस्सिणोण खेत्तमय ति काऊण जरासंधरायभएण दसारवग्गो महुराओ - वंदसि, एयं करभायणं बंदसि त्ति। सा देवया नणा-अई भावक्कमिऊण बारवहंगो ति"। प्रकृतयोजना पुनानयुक्तिकार यखमयं वदामि,ण पूयासकारपरेमाणिणो अवदामि । पच्गते एव करिष्यति किमकाएक एव नःप्रयासेन ? कासावाए उदाहर. चेवयं तेण अमरिसं वहति। देवया चितेरे-मा पते चेयं सरिणं पुण-काहपुच्छिपण भगवयाऽरिट्रणेमिणा घागरियं-वारसाह टहिं तितो सपिहिया चेव अत्थामि, ताऽदंपडियोहहामि ।वि. संवच्छरोहिं दीवायणाश्रो बारवईनयरीविणासो । उज्जोत- तियदिवसे अचेल्लो संदिसावेऊण गयो । दोसीणस्स पडिरायणगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरिब्वायत्रो मा ण- आगो पासोइत्ता चासम्मासियखमग णिमंतर तेण पडिग्गहं गरि विणासहामि त्ति कालावधिमप्यो गमेमि त्ति उत्तरावहं से खेझं णिच्छूढं । चेचओ भणश्-मिग मे मुक्कडं, तुम्भे मए गभो । सम्मं कालमाणमयाणिऊण य बारसमे चेव संबच्छरे नेलमल्लमो ण पणामित्रो,तं तण उप्पराओ चेव फेमित्ताखामश्रागो। कुमारेहि खलीको कयाणयाणो कोयो उववयो। त. लए छूढं । एवं जाव तिमासिपणं जाव एगमासिए थिच्नई। मोय णगरीए अबानो जानो त्तिणमहा जिणनासियं ति"। तं तेण तहा चेव फेमियं असुयाणित्तालंबणे गिराहामि त्ति काउं "भावायाए उदाहरणं खमश्रो-एगो स्वमश्रो चेल्लपण समं भि खमपण चेल्लो बाहं गहिओ। तं तेण तस्स चेल्लगस्स श्रदीगणक्वायरियं गो। तेण तत्थ मंडलिया मारिता । चेल मणसस्स विसुद्धपरिणामस्स सेस्साहि विसुज्झमाणीहिं नदाऽऽएक जणिय-मंडुक्कलिया तप मारिया । स्वमगो नणति-रे दुह! वरणिजाणं कम्माणं स्खपण केवलनाणं समुप्पन्नं । ताहे सा देवसेह विरमश्या चेव एसा ते गया । पच्छा रत्ति श्रावस्सए प्रा. ता भणति-किह तुम्भे बंदियच्या?, जेणेचं कोहाभिभूया अस्थलोश्त्ताण खमगेण सा मंडुक्कसिया मालोइया । ताहे चेल्लएण ह। ताहे ते खमगा संवेगमावामा मिच्छा मे दुकमंति, अहो! भणियं-खमगा!तं मंदुक्कलियं बालोएहि । खमश्रो रुठो तस्स घालो उवसंतचित्तो अम्दहि पावकम्मेहिं आसाभो । एवं चेल्लयस्स खेलमलमय घेत्तणं उठाइम्रो अंसियालए खंभे तेसि पि सुहझवसाणणं केवलनाणं समुप्पन्नं । एवं पसंगओ आवडिभो वेगेण । इतो मोय जोइसिएसु उववन्नो । तओ | कडिय कहाणयं । उवणो पुण-कोहादिगाओ अप्पसत्थभाचइत्ता दिहीचिसाणं कुले दिछीविसोसप्पो जाओ। तत्थ पगे वाश्रो मुग्गईए अवाश्रो ति"॥ ण परिहिंडतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खो । प्राहितुंड- परलोकचिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाहएण विज्जाश्रो सम्वे सप्पा श्रावाहिया मंहले पवेसिश्रा भणिया-अम्ने सब्वे गच्छंतु, जेण पुण रायपुत्तो खो सो अ सिक्खगप्रसिक्खगाणं, संवेगघिरट्टयाएँ दोएहं पि । स्थउ । सब्वे गता। एगो वियो।सो भणिो -अहवा विसं पा- दवाईया एवं, दंसिजते अवायाप्रो॥५७॥ Jain Education Interational Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (००४) प्रवाय निधानराजन्डः । अवायविजय शिक्षकाशिककयोः-अभिनवप्रवजितचिरप्रवजितयोः, अभिनव दुक्तं जवति-शाइख एवाऽयं शाई पवायमित्याद्यवधारणात्मक: प्रवजितगृहस्थयोर्वा,संवेगस्थैर्यार्थ द्वयोरविरुव्याद्याः, एवमुक्तेन | प्रत्ययोऽवाय इति । व्यवसायमेवावायं ब्रुवत इति । आमाप्र० । प्रकारेण, बक्ष्यमाणेन वा दर्यन्ते अपाया इति । तत्र संवेगो भेदास्तस्यमोकसुखाभिलाषा, स्थैर्य पुनरज्युपगतापरित्यागः । ततश्च कथं से किं तं अवाए । अवाए गबिहे पाणने । तं जहा-सो. नु नाम मुखनिबन्धनद्रव्याद्यवगमात्तयोः संवेगस्थैये स्यातां, सन्यादिषु वा प्रतिबन्ध इति गाथार्थः । तथा चाऽऽह इंदियनवाए, चक्खिदियअवाए, घाणिदियअवाए, जिदवियं कारणगहियं, विगिंचिअचमसिवाखेत्तं च । भिदिय अवाए, फासिदियअवाए, नादिय प्रवाए । तस्स बारसहि एस-कालो, कोहाइविवेगमावम्मि ॥५॥ णं इमे एगठिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा इहोत्सर्गतो मुमुकुणाव्यमेव अधिकं वस्त्रपात्रादि,अन्यबा कन- | जति । तं जहा-भाउट्टणया पञ्चाउदृपया अवाए घुछी कादिन ग्राह्यम् । शिक्ककाहिसंदष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिस विमाणे । सेत्तं अवाए। माप्तौ परित्याज्यम् । अत एवाह-द्रव्य कारणगृहीतं विकिश्चितन्यं 'सेकिंतमित्यादिवत्र श्रोत्रेन्द्रियेणायायःधोत्रेन्द्रियावायःभोत्रेपरित्याज्यम, अनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात् । दुरन्ताग्रहाच क्रियनिमित्तमर्थावग्रहमधिकृत्य यः प्रवृतोऽवायःस श्रोग्रेन्ट्रिया. पायहेतुत्वात् दुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्यैः स्वधिया भाव वाय इत्यर्थः एवं शेषा अपिलावनीयाः तस्स णमित्यादि'प्राम्बत्। नीयेति । एवमशिवादिक्षेत्र च, परित्याज्यमिति वर्तते। अशियादिप्रधानं केत्रमशिवादिकेत्रम। आदिशब्दात्तु-कनोदरता-राजद्धि अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि,विशेषचिन्तायां पुनर्नानार्थानि । तत्र आवर्ततेहातो निवृत्त्याऽपायनावप्रतिपस्यनिमुखो वर्तते येन टादिपरिग्रहः परित्याज्यं चेदम,अनेकैहिकामुष्मिकापायसंजबा बोधपरिणामेन सावर्तनः,तद्भाव आवर्तनता शतथा-आवर्सन दिति । तथा-द्वादशभिर्वरेष्यत्कालः, परित्याज्य इति वर्तते। प्रति ये गता अर्थविशेषेषतरानरेषु विवक्षिताऽपायप्रत्यासनतरा तत पवापायसंनयादिति भावना । एतदुक्तं भवति-पशिवादि. वोधविशेषास्ते प्रत्यावर्तनाः,तद्भावःप्रत्यावर्तनता। तथा-अपामुष्ट एण्यत्कालो द्वादशभिर्वरनागत एवोज्झितव्य इति । उकं यो निश्चयः सर्वथा ईहाऽभावाद्विनिवृत्तस्यावधारणाऽवधारितच-"संवच्चरवारसए-ण होहि असिवंति ते तो णिति ।सु. मर्थमवंगच्छतो बोधचिशेषः सोऽवाय इत्यर्थः । ततस्तमेवावधासत्थं कुब्वंता,अतिसयमादीहिनाळणं"॥॥ इत्यादि । तथा-को. रितमर्थ क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः पुनः स्पष्तरमवधादिविवेकाभाव इति । क्रोधादयोऽप्रशस्ता नावाः, तेषां वि बुध्यमानस्य या बोधपरिणतिःसा बुद्धिः ४ तथा-विशिष्टं मान बकः नरकपासनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः।भाव इति नावापाये विकानं क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थविषय एव तीव्रतरधाकार्य इत्यय गाथार्थः। एवं तावद्वस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधि रणातुर्बोधिविशेषः । “ सेत्तं प्रवाए" इति निगमनम् । नं०। कृत्यापायः प्रदर्शितः। दश०१० (कव्यानुयोगसंबभ्यपायस्तु 'आता' शब्द द्वितीयभागे १८८ पृष्ठे समुक्तः) अवायमा-अव्याकृता-स्त्री० । गम्भीरशब्दार्थायाम् , अविभा. अवग्रहीतस्य ईडितस्य चार्थस्य निर्णयरूपे अभ्यवसाये-शाह बितार्थत्वात् अव्यक्ताक्षरयुक्तायांवानापायाम ,ध०२ अधि। एवायं शार्ङ्ग एवायमित्यादिरूपे अवधारणामके मतिनेदरूपे वायणिज्ज-प्रवाचनीय-पुं० । पाचनाया अयोग्ये, स्था०१ प्रत्यये, मा० म०प्र०। प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चये, स्था०४ ठा० ग०४30"चत्तारियायणिज्जा पमत्तातं जडा-अविणीप,वि. ४ उ०। व्यारा०।दशा। भाईहितस्पैच वस्तुनः स्थाण गपडिपद्धे, अविउसवियपाहुमे, माई" स्था०४ ग०३ उ०। रेवायमित्यादिनिश्चयात्मके बोधविशेष, प्रव० २१६ द्वार । नं०। सम्म०। विशे०। भवायदसि (ए) अपायदर्शिन-पुंगअपायान दुर्भिक्षदुर्यलईहितविशेषनिर्णयोऽवायः॥ ए॥ स्वादिकान् ऐहिकाननान् पश्यति । अथवा-कुर्लभवोधिकत्वा दिकान् सातिचाराणां तान् दर्शयतीत्येवंशीलोऽपायदशी। ध०२ इंहितस्य हिया विषयी कृतस्य विशेषस्य कर्णाटमाटादेनि- अधि० । अपायाननन् चित्तनाऽनिर्यादादीन् दुभिंदौरयो याथात्म्येनावधारणमवाय इति । रत्ना०२ परि। ल्यादिकतान् पश्यतीत्यवंशीसः। सम्यगालोचनायां च दुर्लनअथ मतिज्ञानतृतीयभेदस्यापायस्य स्वरूपमाह बोधिकत्वादीनपायान् शिष्यस्य दर्शयतीति अपायदीति। स्था० महराश्गुणत्तणो, संखम्सेवेति जं न संगस्स । ८ ग० । इहलोकापायदर्शनशीसे आलोचनाईनेदे, व्य०१ विल्याणं सोऽवाओ, अणुगमवरगनावाभो ॥२८॥ उ० । यः सम्यगालोचयति कुञ्चितं वा सोचयति दतं पा मधुरस्निग्धादिगुणत्वात् शक्खस्यैवायं शम्दो नशृङ्गस्येत्यादि प्रायश्चित्तं सम्यग् न करोति, तस्य यदि त्वसम्यगासोचयिष्यसि यद् विशेषविज्ञानं सोऽवायो निश्चयज्ञानरूपः। कुतः, इत्याह-पु प्रतिकुञ्चितं वा करिष्यसि दत्तं वा प्रायश्चितं न सम्यक् पूररोबर्त्यर्थधर्माणामनुगमनावातू-अस्तित्वनिश्चयसनावातातत्राऽ यिच्यास ततस्ते भूयान् मासिकादिको दएमो नयिष्यतीत्येवविद्यमानार्थधर्माणां तु व्यतिरेकाजावान्नास्तित्वनिश्चयमस्वात् । मिहलोकापायान्, तथा संसारे जन्ममरणादिकं त्वया प्रभूतमअयं च व्यवहारार्थावग्रहानन्तरभावी वाय उक्तः । निश्चया नुभवितव्यं, दुर्लभबोधिता च तवैर्व नविष्यतीत्येवं परदवप्रहानन्तरजावी तु स्वयमपिष्टव्यः । तद्यथा-श्रोतुर्माख लोकापायांश्च दर्शयति , सोऽपायदर्शीति भावः । व्य. १ स्वादिगुणतः शब्द एवायं, न रूपादिरिति हिापायविषयाश्च उ० । “भिक्खदुब्बलाई, हलोए जाणए अवापओ। विप्रतिपत्तयः प्रागपि निराकृता इति नेहोक्ताः। इति गाथार्थः दंसह य परलोए, दुबहबोदित्त संसारे "॥ १ ॥ स्था० ८ ॥२०॥विशेo"ववसायम्मि अवाश्रो," नं। विशिष्टोऽवसायो मा०। दर्श० । पञ्चा। व्यवसायः निर्णयो निश्चयोऽवगम इत्यनान्तरम् । तं व्यव- वायविजय-अपायविच (ज) य-न० । अपायारागादिसायम्, अर्धानामिति धर्तते, भवायं बुचत इति संसर्गः। एत- जनिताः प्राणिनामैहिकामुष्मिका अनर्थाः। (विचीयन्ते निणीय. Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ५ उ० । (८०५) वायविजय थनिधानराजेन्द्रः। अविकार न्ते पर्यासोच्यन्ते वा यस्मिंस्तदपायविचयम ) प्राकृतत्वेन | अविमक्खंत-प्रवीक्षमाण-त्रि०ा पृष्ठतो निरूपयति,ध०३ अधिक। विजयमिति। अपाया वा विजीयन्ते अधिगमद्वारेण परिचिती। क्रियन्ते यस्मिन्नित्यपायचिजयम् ॥ स्था० ४ ठा. उ० । अविडय-अदितीय-त्रिका द्वितीयरहिते, द्वितीयनिका भ. ग। सम्मकारागद्वषकषायाश्रवादिक्रियासु प्रवर्तमानानामि. ३ २०२०। हपरलोकयोरपायानां ध्याने, ध.२ अधि० । दुटमनोचा- अविउमाण-अविव्यमान-त्रि०ापीग्यमाने,स्त्र०२७०२०। कायव्यापारविशेषाणामपायः कथं नु मे न स्यादित्येवंभूते संकसप्रबन्धे,दोषपरिवर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वात् ।सम्म०१ काए। अविनप्पगमा-श्रव्युत्मकटा-खी।न विशेषतः उत्प्राबल्यधर्मध्यानस्य प्रथमे भेदे, माव०४ अामा००। (विस्तर तश्च प्रकटा अव्युत्प्रकटा । विशेषतोऽप्रकटायाम, भ०७ श. तोऽस्य स्वरूप धम्मन्माण' शब्दे वक्ष्यते) १०००। भवायसचिमालिप-अपायशक्तिमालिन्य-नानरकाधपाय. अविद्वत्मकृता-स्त्री० । अविद्वद्भिरजानद्भिः प्रकृता प्रस्तुता था शक्तिमलिनत्वे, द्वा० २२ द्वा० । भविद्वत्प्रकृता । भ०१० २०७० । अविश्वप्रकृतायाम, ज०१ श०१०।"श्रम्ह श्मा कहा अविउप्पकमा"।०१७श०७४ अवायहेउत्तदेमणा-अपायहेतुत्वदेशना-स्त्री० । असदाचारा "अविउप्पकडे ति" अपिशब्दः सम्भावनार्थः । उत्प्राबल्येन नर्थमझतादेशनायाम, ध० । अपायहेतुत्वदेशनेति । अपायाना प्रस्तुता प्रकटा वोत्कृतोत्प्रकटा वा, अथवा अविद्वद्भिरजानमनर्थानाम इहलोकपरसोकगोचरापां हेतुत्वं प्रस्तावादसदा द्भिः प्रकृता प्रस्तुता वा अविद्वत्मकृता। ज०१७ श०७०। चारस्य यो हेतुनावस्तस्य देशना विधेया । यथा-" यन्त्र प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्त अविउसरणया--अव्युत्सर्जनता--स्त्री० । प्रत्यागे, भ० ११० मनार्यः, प्रमाद इति निश्चितमिदं मे" ॥१॥ प्रमादश्वासदाचार | ५७० इति । ध०१ अधि। अविउस्सम्ग-अव्युत्सर्ग-पुं० । प्रमुत्कसने, व्य०१०। प्रवायाण-अपादान-न० । अपादीयते वियुज्यते यस्मात्तद्वि अविओग-प्रवियोग-पुं०। पुमित्रायविरदे ,तं०। युज्यमानावधिचूतम्-अपादानम् । अनु। दोऽवस्खएमने । दान भविमोसिय--अव्यवसित-त्रि०ामनुपशान्ते, वृ०४ उ०।खण्डनम । अपमृत्य मा मादया दानं खण्डनं वियोजनं यस्मात्सदपादानम् । विशे० । प्रा००। अपादीयते अपा नुपशान्ते इन्वे, “अविभोसिए धासति पावकम्मी" सूत्र०१ यतो विश्लेषतः या मर्यादया दीयते दोऽवखएडने इति वच धु० १३ अ०। नात् खण्ज्यते भियते, आदीयते वा गृह्यते यस्मात्तदपा- भविभोसियपाहम--अव्यवसितमाभूत--त्रि० । अव्यवसितमनुदानम । अवधिमात्रे तत्र पञ्चमी भवति । यथा-अपनय गृ-1 पशान्तं प्राभृतमिव प्राभृतं (नरकपालकौशसिक) तीवक्रोधलहाद धान्यम् , इतो वा कुशूलाद् गृहाणेति ॥ स्था० ० ठा। क्षणं यस्यासावव्यवसिनप्राभृतः। वृ०४०। अनुपशान्तकोअवायाणप्पे (वे) हा-अपायानुप्रेक्षा-स्त्री० । अपायानां प्रा. पे,स्था०४ ग०३ उ01"अप्पे बिपारमाणि, भवरादे वयाखाजातिपाताचावकारजन्यानमामनुप्रेक्काऽनुचिन्तनमपायानु-1 मियंत च । बहुसो उदीरयंतो; भविप्रोसियपाहुडो स समुं" प्रेक्षा । ग० १ अधि० । भ० । शुक्लध्यानाऽनुप्रेकामेदे, ॥१॥ पारमाणिं परमक्रोधसमुदातं बजतीति मावः । स्था. यथा-"कोहो य माणो य मणिमहीया, माया य लोभो य ३ ग0 ४००। ('वायणा' शब्देऽस्याऽवाचमीयत्वम्) पवकुमाणा । चत्तारि एते कसिणा कसाया, सिंचिति मूसा। साया, सिाचात मूलाई | प्रबिंदमाण-प्रविन्दमान-त्रिका भलभमाने,विपा०१९०२०। पुपम्भवस्स" ॥१॥ शह गाथा-"प्रासबदारावाए, नह संसारो सुहाणुभावं च । भवसंतापमनंतं, वत्थ्णं विपरिणामंच" अधिकंप-प्रावकम्प-त्रि० । मनःशरीराभ्यामचले, पम्चा इति । स्था० ४ ठा०१ उ०। १८ विव० । निःस्पन्दे. पञ्चा० १२ विव०॥ अवारिय--वारित--त्रि अनिवारिते, अकृत्यं कुर्वति तत्म-अविकपमा-श्राविकम्पमान-त्रिकोधकार्य्यस्य कम्पनस्यावर्तकेनानिषिद्ध, निरङ्कुशे, "प्रजा प्रचारियानो, इत्थीरजंन तं कर्तरि, "विगिंच कोदं मविकंपमाणे" कराध्यवसायः कोगच्छं" । ग०२ प्रधिः। धस्तं त्यज,तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयत्यविकम्पनः। अवतार्य-अन्य० । मध उत्सायेंत्यर्थे, दश०५० २० भाचा१०४०३ उ०।। अवावकहा-अवापकथा-स्त्री० । शाकघृतादीन्येतावन्ति तस्यां भविकत्थण-अविकत्थन-पुं० । नातिवहुभाषिणि, स्वस्पेऽपि रसवत्यामुपयुज्यन्त इत्येवरूपायांकथायाम, स्थापग०२० केनचिदपराद्धे पुनः पुनस्तत्कीर्तनेन रहिते गुणवत्सूरी, प्रव० अवि-अपि-अग्य० । सम्नाबने, उत्स०३० स्था।। ६४ द्वार। ग० हितमितभापिणि,प्राचा०१९०१ ०१ उ०। आचासत्राव्य निचा अविकरण-अविकरण-न०। पूर्वगृहीतवस्तूनां यथास्थानमपदार्थसंन्नावने, नि० चू० ४ उ०। समुपये, भ० १०३ प्रपे,“संथारय मायाप,मविकरणं काय संपन्चात्ताए"। मवि. उ. अष्टः । दर्श० । अवधारणायाम, नि० चू० १७०। करणं कृत्वा, प्रविकरणं नाम यत्साधुना करणं कृतं तृणानां प्रआचा० । वाक्योपन्यासे, प्राचा०१श्रु०६ भ०१०। प्रेरणा स्तरणं, कम्बिकानां बन्धनं, फलकस्य स्थापनं तदपनीय संप्रवयाम, निर्णयभवनदेतौ च । दर्श०। खल्वथे, व्य०१०। जितु विदर्तुम् । वृ० ३७०। अवि-अपिच-अव्य० । समुचये, जं०४ वक्ष। |अविकार-अविकार-त्रि० । गीतादिविकारराहते, पृ०१० २०२ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविकारि (ण) अनिधानराजेन्द्रः । प्रविणीय भविकारि (ण)-अविकारिन्-पुं० । अनुभटवेष, मकन्दर्प- अनवमनने, अग्रहणे, अतत्त्वग्रहणे च । सम्म०२ काण्डा विद्या शीले च। ०३ उ०। वेदान्तिनां वेशः। द्वा०१६ द्वारा योगशास्त्रप्रति वेशभेदे, द्वा० मविकोवियपरमत्थ-अविकोपितपरमार्थ-त्रि० । विज्ञापित- १५ द्वा०। "नित्यशुच्यात्मताख्याति-रनित्याशुच्यनात्मसु । - समयसनावे, पं० व १ द्वार । विद्या"। अष्ट०१४ अष्टः । अविद्योपालवादविद्यमानमपिरअविगश्य-अविकृातक-त्रि० । निर्विकृतिके घृतादिविकृतित्या श्यते । यत उक्तम-"कामस्वप्नभयोन्मादै-रविद्योपलवात्तथा। पश्यत्यसन्तमप्यर्थ जनः केशेन्दुकादिवत्" इति । विशे। गिनि, स्त्र. २ २०५०। प्रविणय-अविनय-पुंकुशाख, उस० ३४ प्र०ा विशिष्टोनअविगमिय-अविकटित-त्रि० । अनालोचिते, व्य०१ उ०। यो विनयः प्रतिपत्तिविशेषः, तत्प्रतिषेधोऽविनयः। अप्रतिपत्तिविप्रविगप्प-अविकल्प-पुं०। निश्चये,प्रा०म०द्वि०1निभेदे च।। शेष, स्था। सम्म०१ काएड। अविणए तिविहे पन्नते। तं जहा-देसच्चाई, मिराअविगय-अविगत-त्र० । अभ्रष्टे, पिं० । संबणया, णाणपेम्मदोसे ॥ अविगल-अविका-त्रि० । परिपूर्णे, पो० १ विव० । पञ्चा।। (अन्येषां सर्वेषां शम्दानां स्वस्वस्थाने व्याख्या) नवरमियमत्र अखामे, षो०५ विव० भावना-आराध्यविषयमाराध्यसम्मतविषयं वा प्रेम, तथाऽsअविगल कुल-अविकलकुल-त्रि० । ऋद्धिपरिपूर्णकुले, ज०८ | राध्यसम्मतविषयो देष इत्येवं नियतावेती विनयःस्यात् । नक्तं श० ३३ उ०। च-" सरुषि नतिस्तुतिवचनं, तदभिमते प्रेम तद्विधि षः। दानमुपकारकीर्तन-ममन्त्रमूलं वशीकरणम्" ॥ १ ॥ इति अविगिट्ट-प्रविष्ट-त्रि० । विकृष्टन्निन्ने अविकृष्टतपःकर्मका नानाप्रकारौ च तावाराध्य तत्सम्मतेतरलकणविशेषानपेकत्वे. रिणि-षष्ठान्ततपःकारिणि, पञ्चा० १२ विव० । नानियतविषयावविनय इति । स्था० ३ वा० ३ उ०।। प्रविगियवयण-अविकृतवचन-त्रि० । अनत्यन्तनिर्वादितमुखे, अविणासि (ए) अविनाशिन्-त्रि० । कणापेक्षयाऽपि अनिप्रोघ० रन्वयनाशधर्मिणि, दश० ४ मा पा०। अविगीय-अविगीत-पुं०।विशिष्टगीतार्थरहिते, व्य०३०।। अविणिच्छय-अविनिश्चय-पुं०। प्रमाणाभावे, पं० २०४ द्वार। निर्धर्मणि, व्य० १ उ०। प्रति०। श्रावग्गह-अविग्रह-पुं० । वनरहिते, प्रौ। अविणीय-अविनीत-त्रिका अधिनयवति, उत्त०१०। विनयअविग्गहगइसमावन्न-अविग्रहगतिसमापन-पुं० । उत्पत्तिक्के विरहिते, उत्त० ११ १०। अविनीतलकणमाहत्रोपपने, भ० १४ श०५ उ० । अविग्रहगतिनिधाद् ऋजुगतिके अवस्थिते, भ० २५ श० ३ उ०। अह चउदसगणेहिं, वट्टमाणे न संजए । अविग्ध-अविघ्न-न० । विनाभावे, कल्पका औलानि अविणीए बच्चई सो उ, निव्वाणं च न गच्छा। प्रत्यूहे, वृ०१ उ० । दर्श० । कारण पवादृष्टसामर्थ्यादपाया प्रत्यादि सूत्राटकम । अथेति प्राम्बच्चतुर्जिरधिका दश चतुजावे, द्वा०२३ द्वा०। दंशतेषु चतुर्दशसंख्येषु स्थानेषु; सूत्रे तु सुव्यत्ययेन सप्तम्यर्थे अविघुट-अविघुष्ट-न० । विक्रोशनमिव यद्विस्वरं न भवति तृतीया। वर्तमानस्तिष्ठन् । तुः पूरणे । संयतस्तपख। अविनीत - व्यते। स तु शति । अविनीतःपुनः किम्?,त्याह-निर्वाणं च मोक्षं. तदविघुटम, अनु । विक्रोशन श्वाविस्वरे,रा०स्थााजी। चशब्दादिहव ज्ञानादींश्च न गच्चति न प्राम्रोति। १०११ 01 अविचित्त-अविचित्र-त्रि० । रोहिते, " अविचित्तो लोहिल्लमि कानि पुनश्चतुर्दश स्थानानि ?, इत्याहत्यर्थः । नि० चू० १६ उ०। अजिक्खणं कोही हवइ, पबंधं च पकुव्बइ । अविच्चा-अविच्यति-स्त्री० । तदुपयोगादविच्यवनमविच्यु- मित्तिज्जमाणो वई, सुयं सकूण मज्जइ ॥७॥ मिलिनो : मां तिः। धारणनिदे, न०। प्रा०म०। अवि पावपरिक्खेवी, अविमिनेसु कुप्पड़ । अविच्छिएण-अविच्छिन्न-त्रि०। विच्छेदाननुबके, स्था०४ मुपियस्सावि मित्तस्स, रहे जासह पावगं ॥८॥ ग०१०। पइसवाई उहिले, थके बुके अणिग्गहे । अविजाण-अजानत-त्रि० । लुप्तप्रझे, अपगतावधिविवके, असंविनागी अवियत्ते, अविणीए त्ति बुचई ।। “जसी गुहाए जसणेतिउट्ट, अविजाणो इज्झर कुत्तपक्षो । सूत्र० १ श्रु. ५०१ ३०। प्रश्नः । अन्नीदणं पुनः पुनः,यद्वा-वर्ण कममभि अभिक्कणमनवरतं,को धीक्रोधनो भवति-सनिमित्तमनिमित्तं वा कुप्यनेयास्ते प्रबन्ध अविग्जमाणनाव-अविद्यमाननाव-पुं०।नास्तिजावे,"असं च प्राकृतत्वात कोपस्यैवाविच्छेदात्मकं (पकुब्वहति प्रकर्षण पञ्जय त्ति वा मत्थिनावोत्ति वा अबिजमाणजावो ति वा एग कुरुते,कुपितः सन् सान्त्वनैरनेकैरपि नोपशाम्यति; विकथादिष छा" प्रा० चू० १ अ०। वा अविच्छेदेन प्रवर्तनं प्रबन्धः,तं च प्रकुरुते।तथा-(मित्तिजमाअविज्जा-अविद्या-स्त्री। कर्मणि, "अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽ- णोति) मित्रीयमाणोऽपि मित्रं ममायमस्त्विति दृश्यमानोऽपि, विद्यामुपासते विद्यया मृत्युतीया विद्ययाऽमृतमश्नुते" नं० ।। भपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात,वमति त्यजति,प्रस्तावाद् मित्रीथि Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०७) प्रविणीय अभिधानगजेन्द्रः। अविनाम तारमैत्री वाकिमुक्तं भवति?-यदि कश्चिकार्मिकतया वक्ति,यथा- देहरूपो यम्य (निकोः) सोऽवितकः। कुतकरहिते, "सुसमाहित्यं न वेत्सीत्यहं तव पात्र लेपयामि। ततोऽसौ प्रत्युपकारभीरुतया तलेसस्स अविनक्कस्स निक्वुणो" । दशा०५ अध्या। प्रतिवक्ति-ममासमेतेन । कृतमपि वा कृतघ्नतयान मन्यत इति बम- अवितह-अविनथ त्रिभान वितथमबिनयम्-सत्यमाप्राव०४ा तीत्युच्यते तथा(सुयं ति)अपेर्गम्यमानत्वात् श्रुतमपिआगममपि, भव्यभिचारिणि, पञ्चा विद्याणिगंथं पावयणं प्रवितहः सम्वा प्राप्य मात्तिदर्प याति। किमुक्तं भवति?-ध्रुतं हि मदाप मेयं " । पूर्वमनिमनप्रकारयुक्तमाप सदन्यदा विगताभिमहारहेतुः,स तु तेनापि हप्यति। तथा-अपिःसंभावनायाम संभा. तप्रकारमपि किश्चित्स्यात् । अत उच्यते-अवितथमेतत, न व्यत एतत्-यथा-असी पापैः कयश्चित्समित्यादिषु स्वसित प्रक्ष कालान्तरेऽपि विगताभिमतप्रकारमिति । भ०१० श०५१०। णैः परिक्तिपति तिरस्कुरुत इत्येवंशीयःपापपरिकेपी,प्राचार्यादी प्रश्नः । आचा। तथ्ये, आ००४ अ० | यथास्थिते, कल्पक नामिति गम्यते । तथा-अपिर्जिनक्रमः,नतो मित्रेभ्योऽपि सुहायो ११० । याथातथ्येन व्यवस्थिते, सूत्र०१ श्रु. १३ अ० । य. ऽपि, आस्तामन्येभ्यः कुप्यति कुष्यति । सूत्रे चतुर्थ्य| सप्तमी । थावदननुष्ठिते, मुत्र. १ २५०२ उ० । यथाऽवस्थितपि"कुधदुहेासूयाथांनां यं प्रतिकोपः।१४।३७।इत्यनेन (पाणि०) सूत्रणेह चतुर्थीविधानात् । तथा-सुप्रियस्याप्यतिवल्लनस्यापि रिडतार्थवचने, सूत्र १ श्रु०१६ अ । सदनताथें, औ। मित्रस्य, रहस्येकान्ते, भाषते बक्ति, पापमेव पापकम् । किमक्कं अवितिम-अविती-त्रि०। तितीर्षी पारमगते, सूत्र०१७०२ भवति?-अग्रतः प्रियं वक्ति, पृष्ठतस्तु प्रतिसेवकोऽयमित्यादि- भ०१०।। कमनाचारमेवाविष्करोति । तथा-प्रकीर्णमितस्ततो विक्तिप्तम, अविदिल्ल-अवितीर्ण-त्रि०। प्रदत्ते, वृ०३ उ० प्रा०म० नि०चूछ। असंघमित्यर्थः । वदति जल्पतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवाद।। बस्तुतत्वविचारेऽपि यतकिञ्चनवादीत्यर्थः । अथवा-यः पात्र प्रविदिय-अविदित-त्रि०ान विदितमविदितम् । वस्तुतोपमिदमपात्रमिति चाऽपरीक्ष्यैव कथञ्चिदधिगतं श्रुतरहस्यं वद. रिकाते, "संवेदनमात्रमविदितं त्वन्यत्।" संवेदनमा वस्तुतीत्येवंशानःप्रकीर्णवादीति। प्रतिझया चदमित्थमेवेत्येकान्ताभ स्वरूपपरामर्शशून्यमविदितं त्वन्यत, कथञ्चिद्वस्तुमादित्वे पि पगमरूपया वदनशीलः प्रतिक्षावादी । तथा-(दुहिल त्ति) द्रोहण. नविदितं वस्तु तदित्यविदितमुच्यते । पो० १२ विव०। शीलो द्रोग्धान मित्रमप्यनभिह्यास्ते । तथा-स्तम्धाः तपस्य अविदुय-अविद्रुत-त्रि। उपद्रवरहिते अनुपप्लवे,पो० शविषा हमित्याद्यहंकृतिमान् । तथा-लुग्धोऽन्नादिवभिकाजावान् । तथामनिग्रहः प्राग्वत् । तथा-असंविभजनशीलोऽसविभागी, नाहा. अविश्वत्थ-अविध्वस्त-वि० । अव्युत्कान्ते, अपरिणते, आचाo रादिकमवाप्यातिगईनोऽन्यस्मै स्वल्पमपि यच्छति,किन्त्वात्मा २७०१०००। अप्रासुके, प्राचा०२ श्रु० १७०७०। नमेव पोषयति । तथा-(प्रवियत्त ति) अप्रीतिकरो,रश्यमानः सं. प्ररोहसमर्थे बीजादौ, दश०४०। नाप्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति। एवंविधदोषान्वितो- अविधि-प्रविधि--पुं० । असमाचार्य्याम, वृ० ३ १०॥ ऽविनीत इत्युच्यते इति निगमनम्। उत्त०११ अ०। ('विणय' शब्द सर्वमधिकार व्याख्यास्यामि) सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहिते, अविधिपरिहारि (ण)-प्रविधिपरिहारिन्-पुं० । संयमार्थे मा. पृ०४ उ०। अविनीता नाम ये बहुशोऽपि प्रतिनोद्यमानाः प्रमा- | युक्ते, "संजमडाएत्ति वा पाउत्तेत्तिवा अविधिपरिहारिसिवा घन्ति । बृ० १ उ० ॥ सूत्रार्थदातुर्वन्दनादिविनयरहिते, स्था०१एगटा" । पा) चर। ग०४ उ० । ( अस्यावाचनीयत्वं 'वायणा' शब्दे वक्यते) प्रविप्पाग--अविप्रयोग--पुंगारकायाम्, "सुक्खाणं अविप्पअविणीयप्प ( ण् )-अविनीतात्मन्-पुं० । विनयरहिते अना- प्रोगेणं " स्था०४ ग०४०। त्मझे, प्रज्ञा० ३ पद । दश। अविष्पकट्ठ-अविप्रकृष्ट--त्रि० । न विप्रकृष्टं दरम् । प्रासने, अविष्मा-अविका-स्त्री०। अविज्ञानमविक्षा । अनाभागकृते, सूत्र. शा०१०।। श्रु०१ अ०१००। अविप्पणास-अविपणाश-पुं० । शाश्वतत्वे, विशे। प्रविष्याय-अविज्ञात-त्रि० । अविदिते, आचा० १ ०१ ० अविबुध-अविबुध-त्रि० । भावसुप्ते, व्य० ३ उ० । १०॥ अविभज्ज-अविनाज्य-त्रिका विनतमशक्ये, स्था० ३ ग० प्राविमायकम्म( ण )-अविज्ञातकर्मन-ना अविज्ञातमविदि २०० । ज्यो। तं कर्म क्रिया व्यापारो मनोवाकायलकणो यस्य । भकातमन आदिव्यापारे, प्राचा० १ श्रु० १० १००। अविभत्त-अविभक-त्रिका प्रकृतविभागे, वृ० । तत्र थावान् अविष्मायधम्म-अविज्ञातधर्मन-त्रि० । पापादनिवृत्ते अज्ञातध सागारिकादीनां साधारणचोल्लक उपस्कृतस्तावानद्याप्यस्खएमः पुज एव अधस्तनानागादिक्षिका कृता सा अंशिका अवि. मणि, अविरतसम्यग्दृष्टौ च । न०८ श०१० उ० । जत्युच्यते ॥ ०२०। अविसोवश्य-अविकोपचित-न। अविज्ञानमविज्ञा,तयोपचि | अविभात्ति-विजाक्ति-स्त्री० । विभागाभावे, व्य० ३ उ० । तम् । अनाभोगकृते कर्मणि, सूत्रका तन्न बध्यते शाक्यसमये । यथा-मातुः स्तनाद्याक्रमणेन पुत्रध्यापसायप्यनाभोगानको- | अविजय-अविनव-पुं० । अदारिद्रघे, व्य०६ उ०। पचीयते । सुत्र०२ श्रु०१ १०१ उ०। केवलकायक्रियोच्छेने क-अविनारस-अविनागिम-त्रि० । अविभागेन निवृत्तोऽविभागिमणि, सूत्र० १ श्रु०१ अ०२ उ०।। मः । एकरूपे, भ०२० श.उ० । विभागेन निवृत्तो वि. अवितक-अधितके-पुं० । न विद्यते वितर्कोऽश्रद्दधानक्रियाफलं | नागमः, तनिषेधादविभागिमः। जागशन्ये, स्था०३ ग०२ नम - ७ ॥ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०८) अविनाइय भाभिधानराजेन्द्रः। अविर अविनाश्य-अविनाज्य-त्रि० । विभक्तुमशक्ये, " तो प्रवि- अविमोयणया-अविमोचनता-स्त्री० । वस्त्रादीनामत्यागे, म० भाइया परणत्ता। जदा-समप, पपसे, परमाणू" स्था० ३] श० ३३ उ०। ठा०२०। प्रविय-अपिच-अव्य० । न्युषये, तंभ। अविभाग-अविनाग-पुं० । संबको विभागो नैरन्ताभावः, अविक-पुं० । मेचे, प्राचा० १९०१ ० ६ उ० । तदनावोऽविभागः। नैरन्तये, पिं०॥ अवियत्त-अव्यक्त-त्रि० । अपरिस्फुटे, सूत्र. १९०४ म०५ अविभागपलिच्छेय-अविभागपरिच्छेद-पुं० । परिधिधन्त | ०। मुग्धे, सहजविवेकविकले च । सूत्र० १९०११०२२० । इति परिच्छेदा अंशाः,तेच सविभागा भवस्यतो विशेष्यन्ता प्रवियत्त-देशी-म० अप्रीतिके, मा० म०प्र०। स्था। ग०। विभागाचते परिच्छेदाश्त्यविभागपरिच्छेदाः । निरंशेषु मंशे- अप्रीतिकारण , प्रभ० १ भाभ० हार । उत्त०। प्रति। धु, न०८ श० १० १० । केबलिप्रया छिद्यमानो यः परम- दश । स्था। निकृष्टोऽनुभागांशोऽभिसूक्ष्मतया न ददाति सोऽविनागप- अवियत्तजंजग-अव्यक्तज़म्भक-त्रि०, अन्नाद्यविनागेन ज़म्भरिच्छेद उच्यते । उक्तं च-"बुद्धी छिज्जमाणो, भानागं सो के, भ० १४ श०८००। न दे जो अकं । अविनागपलिच्छेत्रो, सोहि अणुभागबंध- | अवियत्तविसोहि-अवियत्तविशोधि-पुंग। मवियत्तस्याप्रीतिम्मि" ॥१॥ कर्म० ५ कर्म० । वृ०। कस्याविशोधिः,तनिवर्तनादवियत्तविशोधिः । विशोधिभेदे, भविभागुत्तरिय-अविभागोत्तर-त्रि० । एकैकस्नेहाविनागषु, स्था० १००। क०प्र०। अवियत्तोवघाय-प्रवियचोपघात--पुं०।अप्रीतिफेन विनयादेअविभाव-अविनाव्य-त्रि० । अविभावनीयस्वरूप, प्रभा १ __ रुपघाते, स्था० १० वा० । प्राथद्वार। अवियानरी-अविजनित्री-स्त्री० । अपत्यानामविजननशीलाअविनूसिय-अविभषित-त्रि०ा विनूषारहिते, वृ० १००। यां स्त्रियाम, ज्ञा० २ ० । “तस्स बंधुमई जजा, अविया उरी" | प्रा०म० प्र०। अविनूमियप्प (ए)-अविनूषितात्मन्-त्रि०। विनूषाविर-अवियाणय-अविकायक-त्रिका विशिष्टायबाघराहते, भाचा० हितदेहे, प्रव० ७२ द्वार । आव० । १ भु०१०१००। अविमण-अविमनस्-त्रि० । प्रविगतचेतसि, अनु०। प्रशून्यचि- अवियार--अविचार-नान विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितते, अन्त०७ वर्ग । प्रमः । प्रनाभादिदोषात अविगतमानसे, रस्मादितरत्र,तथा-मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र, यस्य तद. प्रभ०१ सम्ब० द्वार। विचार इति ।ग०१अधिक मर्यव्यञ्जनयोगान्तरतोऽसंक्रमणे, अविमुत्तया-अविमुक्तता-स्त्री० । सपरिप्रदतायाम, स्था०४ श्राव० ४ ० । भ०। ५० । “एगत्तवितके भवियारे" शुक्रध्यानग०४०। भेदे, स्था०४ ग०१०। अविमुत्ति-अविमुक्ति-स्त्री० सलोनतायाम, पञ्चा०१७ चिका प्रवियारमणवयणकायवक--मविचारमनोवचनकायवाक्य त्रिभविचाराण्यविचारितरमणीयानि परमाथविचारगुणनया गृक्षौ, नि० चू. २००। युक्त्या वा विघटमानानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा । अविमुक्तिद्वारमाह अविचारापयविचारणीयानि अशोभनतया निरूपणीयानि मपदवे भावेऽविमुत्ती, दवे वीरवाएहानबंधणता। र्यालोचनीयानि मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा । मविचासरणग्गहणे कमणे, पश्च मुच्चो वि आणे॥ रयुगन्तःकरणयाग्देहवाक्ये, सूत्र. २०४० अवियारसोडण?-अविचारशोधनार्थ-पुं० । संयमस्वलितमविमुक्तिर्विधा-सव्यतो, भावतश्च । व्या विमुक्तौ-'वीरल्लों नायकः पकी रान्तः। स चस्नायुसन्तानबन्धनेन पादे बद्धोयत्र विशुरुिनिमित्त, पं० व०२ द्वार। तित्तिरिप्रभृतिकः पक्की रश्यते तत्र मुच्यते, ततस्तेन यदा तस्य अविरइ-अविराति-स्त्री०। सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यजावे, कर्माशकनस्य ग्रहणं कृतं स्यात्तदा भयोऽपि तथैव तं शय्यातरस्य दशप्रकाराऽविरतिः। कथम,इत्याह-मनःस्वान्त,करणानीन्द्रिकर्षणं क्रियते, तत भागतस्य हस्ततालमांसं दीयते ततो मांसे याणि पञ्च, तेषां स्वस्वविषये प्रवर्तमानानामनियमोऽनियन्त्रप्रगृद्ध आसक्तः सन् मुक्तोऽपि स्नायुवन्धनमन्तरेणापिशकुनिमा. णं; तथा पएणां पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाणां जीवानां नयति, पानीय च तत्रैवावतिष्ठते । एषा द्रव्याविमुक्तिः ।। वधो हिंसीत। कर्म०४ कर्म प्राणातिपातादीनामनिषेधे, जीअथ जावाविमुक्तिमाह त० अब्रह्मणि, स्था ६ ठा०1"अविरंपच बाले पाहिज्जा" जावे उक्कोसपणी-यगिकिंतोतं कुलं न.बड़ेति । येयमविरतिरसंयमरूपा सम्यक्त्वानाबाद मिथ्यारष्टेघव्यतोऽ विरतिरप्यविरतिरेव, तां प्रतीत्याधित्य वालवद् बालोऽशः। एहाणादीकजेसु व. गते वि दूरं पुणो एंति ॥ " तत्थ णं जा सा सव्वतो मधिर एसद्वाणे भारभाषो भावाविमुक्तिः पुनरयम्-उत्कृष्टद्रव्यं शाल्योदनादि, प्रणीतं | प्रहाणे " तत्र पूर्वोक्तेषु येयं सर्वात्मना सर्वस्माद् अविरघृतादि,तयोर्या गृस्तिौंस्यं ततस्तत्कुलं शय्यातरसंघन्धि,न परि- तिविरतिपरिणामाभावः । सूत्र. २ ० २ ०। "अखेदो त्यजति । मथवा-स्नानरथयात्रादौ पर्वणि कार्येषु च गणसह- विषयावेशाद्, भवेदविरतिः किल " विषयावेशाद् बाह्येन्द्रि प्रयोजनेषु, दरमपि गता भूयस्तत्रैव समागच्छन्ति । ० २ ० यार्थब्याकेपल कणादखेदोऽनुपरमलक्षणः किलाविरतिर्भवत् । Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८० ) अविरह अभिधानराजेन्द्रः। अविस्त द्वा०१६ द्वा०। अविरमणेषु, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार । अप्रत्याख्याने. अविरल-अविरल-त्रि० । घने, औ०।" अविरलसमसहियस्था० १०० "जवि अन जायसव-स्थ कोइदेहेण माणवो चंदमंडलसमप्पभेहि"। अविग्लानि घनशवाकावत्वेन ममानि एन्थ । अविरइअब्धयबंधो, तदा विनियो भवे तस्स" ॥१॥ध० तुल्यशलाकातया सहितानि संदितानि अनिम्नाऽनुन्नतशला२ अधिक। कायोगान् चन्द्रमामलसमप्रभाणि च शशिधरविम्बवत् प्रभाअविरइ (य) वाय--अविरति (क) वाद--पुं०। अविरतिरब्रह्म, त न्ति वृत्ततया शोभन्ते यानि तानि तथा तैः (छत्रैः) ॥ प्रभ०४ द्वादो वार्ता । मैथुनचायाम, स्था० ६ ठा० । माश्रद्वार। अविरइया-अविरविका-खी० । न विद्यते विरतिर्यस्याः सा | अविरलदंत-अविग्लदन्त-त्रि० । अविरला दन्ता यस्य । घनअविरतिका । स्त्रियाम, स्था०६ठा० । ६० । रदने, औ० । यस्य हि यथा अनेकदन्ता अपि सन्त एकाअविरत-अविरक्त-त्रि। भनुरते, औ०। कारदन्तपय श्व लक्ष्यन्ते । तं०। अनिश्य-अविरत-त्रिका अविरमात स्म सावधयोगेभ्यो निवर्तते | अविरल पत्त-अविरलपत्र-श्रि० । धनपत्रे, " अविरलपत्ता स्मेति : पं० सं० १ द्वार । सावद्यादचिरते, स्था०२ ठा० १ उ०।। भन्दिपत्ता"। अत्र हेतौ प्रथमा । ततोऽयमर्थः-यतोऽविरलपत्रा उत्त। च० प्र० पापस्थानेभ्योऽनिवृत्ते, दश०१०म०प्रश्न। अतोऽच्छिापत्राः । जी० ३ प्रति० । रा०। ध० । प्राणातिपातादिविरतिरहिते विशेषण तपस्यरत, भ० विराट-अविरत-पुं०। विरहानावे, व्य०१३० । सातत्ये२००१०। गृहस्थे, सूत्र०१२०१म१० । मिथ्यादृष्टी नावस्थाने, प्राचा० १ २०१०६०। च। श्राव ४०। अविरयवाइ(ए)-अविरतवादिन-पुं०। वदनशीलो वादी; भवि- अविरहिय-अविरहित-त्रिका सन्तते, पचा० १०विव०। रतस्य वाद्यविरतवादी। परिग्रहवति, भाचा०११०४०१०। अविरादिकण-अविराध्य-अन्य० । अखएममनुपाल्येत्येथें, अविरयसम्मत्त-अविरतसम्यक्त्व-पुं० । अविरतसम्यष्टी, पा० । सम्यक्पालयित्वत्यथे, ध० ३ अधिक। कर्म०५ कर्म०॥ अविराहिय-अविराधित-त्रि० । न विराधितोऽविराधितः । अविरयसम्मदिहि-अविरतसम्यग्दृष्टि-पुं० । विरतिर्विरतम; देशभने, २० । अपराद्धे, प्रश्न० ३ आश्र द्वार । कीचे क्तप्रत्ययः। तत्पुनः सावद्ययोगे प्रत्याख्यान, तन्न जानातीति अविराहियसंजम-अविराधितसंयम-पुं० । प्रव्रज्याकालादानान्युपगच्छति, न तत्पालनाय च यतत इति त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गरः। स्थापना रभ्याऽभग्नचारित्रपरिणामे संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्ततत्र प्रथमेषु चतुर्यु भङ्गेषु मिथ्यारष्टिः, महानि गुणस्थानकसामर्थ्याद्वा स्वल्पमायाऽऽदिदोषसम्भवेऽप्यनाच रितचरणोपघाते, भ०१ श०२ उ०। त्वात् । शेषेषु सरयष्टिः , झानित्वात् । सप्तसु भनेषु नास्य विरतमस्तीत्यविरतः । "मभ्रादि- अविराहियसामए-अविराधितामाय-त्रिका पाराधि भ्यः"।७।२।४६ । इति अप्रत्ययः । चरमभते- तचरणे, भ० १५ श० १२० । प्रतिसकलसुयतिसमाचा. ss विरतिरस्तीति । यद्वा-विरमति स्म सावद्ययो- | रे, दर्श०। (भस्योपपातः 'तववाय' शब्दे द्वितीयभागे ए८१ गेभ्यो निवर्तते स्मेति विरतः । “ गत्यर्थाकर्मक- पृष्ठे रुष्टव्यः) . पिबतुजेः"।५ । १ । ११ । इति करि क्तप्रत्यये | अविरिक-अतिरिक्त--त्रि० । मविभक्तीकृते, व्य० एन०। - विरतः । न विरतोऽबिरतः , स बासौ सम्य अविरिक्य-त्रि० । अविभक्तारक्थे, व्य०१०। गाष्टिश्चाविरतसम्यग्दृष्टिः । इदमुक्तं भवति-यः पूर्ववर्णि अविरिय-अवीर्य-त्रि० । वीर्यरहिते, विपा० १ ० ३ ०। तोपशामकसम्यग्रष्टिः शुरुदर्शनमोहपुओदयवर्ती कायोपशमिकसम्यग्दृष्टिवा कीणदर्शनसप्तको वा क्षायिकसम्यग्दृष्टि- अविरुष्क-अविरुक-त्रि० । सङ्गते, पश्चा०६ विवश युक्ते, पञ्चा० वा परममुनिप्रणीतां सावद्ययोगविरति सिकिसौधाभ्यारो- | १७ विव० । पूर्वपुरुषमर्यादाऽनतिक्रमेणाविरोधभाजि. व्य०१ हणनिश्रेणिकल्पां जाननप्रत्याख्यानकषायादयविनितत्वाना- उ०। वैनयिके, उक्तं च-"अविरुको विणयकारी, देवीईणं पज्युपगच्छति, न च तत्पावनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्रह- राएँ भत्तीए ॥ जड वेसियायणसुप्रो, एवं अन्ने वि नायब्वा" ष्टिरुच्यते ॥कर्म०२ कर्म० । देशविरते श्रावके, स०१४ सम। ॥१॥ मा० १४ अ० । औ०। धर्माद्यप्रतिपन्थिनि, "अविरुरूकु. भाव० । प्रव० । पं० सं० । दर्श लाचार-पालने मितभाषिता" । (अविरुरूस्येति) धर्माद्यप्रतिप. अविरयसम्मदिष्टिगुणहाण-अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान- न्थिनः कुलाचारस्य पालनमनुवर्तनम् । द्वा० १५ द्वा० । विरुन० । अविरतसम्यग्दृष्टेः गुणस्थानमविरतसम्यग्दृषिगुणस्था राज्यविरहिते प्रामादौ, वृ० १ उ०।। नम् । चतुर्थे गुणस्थाने, कर्म० । अविरुकवेणय-अविरुच्छवैनयिक-पुं० । क्षितीशमातापितृउक्तं च गुरूणामविरोधेन विनयकारिणि, अनु० । " बंधं अविरह, जाणतो रागदोसक्खं च । अविलंबिय-अविलम्बित-त्रि० । नातिमन्थरे, भ० १०७ विरश्सुहं श्च्छतो, विर काउंच असमत्थो ॥१॥ १०। कल्प। एस असंजय सम्मो, निंदतो पावकम्मकरणं च । आहंगयजीवाजीयो, अवलियदिछी बलियमोहो "॥२॥| अविला-अवी-स्त्री० । ऊरण्याम, पिं०। कर्म०२ कर्मः। पं० सं। | अविलुत्त-अविलुप्त-त्रि० । संसृतराज्ये, व्य० ७ ०० । Jain Education Interational २०३ | | 14-1 -- - - - -- -- Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अविवज्जय अभिधानराजेन्द्रः। प्रवीरिय अविवज्जय-अविपर्यय--पुं० । अतस्मिंस्तहिर्विपर्ययः,न वि- अविसोहिकोहि-अविशोधिकोटि-स्त्री० । आधाकर्मादिगुणेऽ पर्ययोऽविपर्ययः । तत्वाभ्यवसाये सम्यक्त्वे, विशे० । विशुरुवर्ग, ताश्च पमिमाः-स्वतो हन्ति घातयति नन्तमनुअविवेग-अविवेक-पुं० । असदुपयोगे, अष्ट० १५ अष्ट। | जानीते । तथा-पचति, पाचयति, पचन्तमनुजानीते इति । अविवेगपरिच्चाग-अविवेकपरित्याग-पुं०। नावतोऽशानपरि आचा० १ श्रु० १ ० १ उ०। त्यागे, पं० व १ द्वार। अविस्स-अविश्र-न० । मांसरुधिरे, प्रध०४० द्वार। अविसंधि--अविसन्धि-पुं० । अव्यवच्छिन्ने, आव०४०। अविस्ससाणज-अविश्वसनीय-त्रिका विश्वासकर्तुमयोग्ये,तंक प्रा० चू०। ध। अविस्सामवेयणा-अविश्रामवेदना-स्त्री। विश्रान्तिरहितायाअविसंवाइ (ण)-अविसंवादिन्-त्रि०ारष्टेष्टाऽविरोधनि, पा मसातवेदनायाम, प्रश्न० १ आश्र० द्वार। अविसंवाश्य-अविसंवादित-त्रि०। सद्भुतप्रमाणाबाधिते,पा। अधिहडा-देशी-पुं०। बालके, “सीहं पाले गुहा, अविहम तेल अविसंवाद-अविसंवाद-पुं० संवादे,स च प्राप्तिनिमित्तं प्रव- सा महही य" । ०१ उ०। त्तिहेतुभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शनम् । सम्म १काएम। | अविहलमाण-अविहन्यमान-त्रि० । न विहन्यमानोऽविहन्यअविसंवायण (णा)जोग-अविसंबादन (ना) योग-पुं। विसं- मानः। विविधपरिषदोपसगैरहन्यमाने, “अविहम्ममाणो फवादनमन्यथाप्रतिपन्नस्वान्यथाकरण, तद्रूपोयोगो व्यापारः,तेन लगावतही"। विधातमक्रियमाणे, प्राचा०१ श्रु०६ अ०५ न वा योगः संबन्धो विसंवादनयोगः, तनिषेधोऽविसंवादनयोगः। अविहवबह-अविधववध-स्त्री०। जीवत्पतिकना-म,भ०१२ भ०० श०६00 । अनाभोगादिना गवादिकमश्वादिकं यदति, श०२ उ०। कस्मचित किञ्चिदज्युपगम्य वा यन्न करोति सा विसंवादना, अविहाम-अविघाट-स्त्री० । अविकटावर्ते, व्य०७ उ०। तद्विपक्केण योगः सम्बन्धोऽविसंवादनायोगः। संवादनासंबन्धे, स्था० ४ ठा० १०॥ अविहिंस-अविहिंस-त्रि०ान विद्यते विहिंसा येषां तेऽविहिअविसम-अविषम-त्रि०। समतले, तं०। साः । विविधैरुपायैरहिसकेषु, आचा०१ श्रु०६०४०। अविसय-अविषय-न । बाह्यार्थाभावेन निर्गोचरे, पञ्चा- अविाहसा-अविहिंसा-स्त्री० । विविधा हिंसा विहिंसान विहिं५विव०। सा अविहिंसा । विविधप्राणातिपातवर्जने,"अविहिंसामेव पब्वअविसहण-अविसहन-त्रि० । कस्यापि परानवाऽलोदरि., अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो" सूत्र०१ श्रु०२१०१३०। वृ०१०। परिहिकय-प्राविधिकृत-त्रि० । अविधिना कृतमविधिकृतम् । अविसाइ ( ए )-अविषादिन-त्रि० । विषादवर्जिते, अणु०३] अशक्त्यादिना न्यूनाधिककरणे, दर्श० । घर्ग। धामदीने,प्रश्न०१ सम्ब०द्वार । खेदरहिते,ध० ३अधि० । अविहिएणु-प्रविधिक-त्रि० । न्यायमार्गाऽप्रवेदिनि,दश०१० किं मे जीवितेनेत्यादिचिन्तादिरहिते, अन्त०७ वर्ग । परीषहाद्यभिद्रुतत्वेन कायसंरकणादौ दैन्यमनुपयाते, पं० ब०१द्वार । अविहिजोयण-अविधिनोजन-ब०। “कागसियालयनुतं दविप्राविसारय-अविशारद-त्रि० । अचतुरे, उत्त०२८ १०। यरसंसव्वो परामुळं । एसो उ हवे अविही " । इत्युक्तलक्षणे काकष्टादिभोजने, ओधा अविमुछ-अविशुद्ध-त्रि० । विशुद्धवर्णादिरहिते, स्था० ३] अविहिसेवा-अविधिसेवा-स्त्री०। भविधेर्विधिविपर्ययस्य सेवा ग०४० सेवनम्-अविधिसेवा। निषिकाचरणे, पो०५ विव०। अविसुनेस्स-अविशुषोश्य-त्रि०कृष्णादिलेश्ये, जी०३ | भावहडेय-अविहेठक-पुं० ान काचिदप्युचिते पादरशून्ये, “श्रप्रति। विनाशानिनि, भ०६ २०१301 (तत्र अविशुद्धलेश्यो विहेमए जो स भिक्खू" । दश०१० अ०। देवो विशुद्धलेश्यं देवं पश्यतीति 'विनंग' शब्दे वयते) | अवीश्दव्व-अवीचिद्रव्य नानवीचिरून्यमवीचिकव्यम् ।सअविसेस-अविशेष-त्रि० । निर्विशेष, पञ्चा० १३ विव० । नग म्पूर्णे आहारद्रव्ये, सर्वोत्कृष्टायामाहारवर्गणायां च । १३ नगरनद्यादिकृतविशेषरहिते अविशेषलकणे जूनागादौ, स्था० श० ६ उ01 ('वीश्दव्य' शब्देऽस्य व्याख्या) २ ठा०३ उ०। प्रवीमंत-अवीचिमत-त्रि० । अकषायसंबन्धवति, प्र०१००० अविससिय-अविशेषित-त्रि विभागरहिते, वृ० ५ उ० ।। २ उ०। अनर्पिते, स्था० १० ग०। प्रविसेसियरसपग-अविशेषितरसप्रकति-स्त्री० । रसः स्ने- | अवीश्य-अविविच्य-अव्याअपृथग्भूयेत्यर्थे, भ०१० श०२०। होऽनुभाग श्येकार्थः, तस्य प्रकृतिःस्वभावः । अविशेषिता अवि- अविचिन्त्य-अन्य० । अविकल्प्येत्यर्थे, ज०१० श०२ उ० । वकिता रसप्रकृतिः, उपलकणत्वात् स्थित्यादयो यस्मिन्नसावविशेषितरसप्रकृतिः । अविवकितानुभावे,क० प्र०। अवीय-अद्वितीय-त्रि०ान० ब० । एकाकिनि, कल्प० ६ क्षा अविसोहि-अविशोधि-पुं० । उपपाते, शबलीकरणे च ।। असहाये, विपा० १ ०२०। ओघ०। अतिचारे, आ-चू०१०। अवीरिय-अवीर्य-पुं० । मानसशक्तिवार्जते, भ०७ETON Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) प्रवीसभ अभिधानराजेन्सः। अवुसराश्य भवीसंभ-अविश्रम्भ-पुं० । अविश्वासे, गौणे तृतीये प्राणातिपाते असंविग्गा संविग्गजणं इमण प्रालंबणेण हीसंतिच। प्रश्ना प्राणवधप्रवृत्तो हि जीवानामविश्रम्भणीयो प्रवती- | धीरपुरिसपरिहाणी, नाऊणं मंदधम्मिया केश । ति प्राणवधस्याविभ्रम्भकारणत्वादविधम्भव्यपदेशः। प्रश्न०१ | हीलंति विहरमाणं, संविग्गजणं असंविग्गो ॥ ३३१॥ प्राश्रद्वार॥ अवीसत्य-अविश्वस्त-त्रि० । विश्वासरहिते, ग०२ अधिः । कंग । के पुण धीरपुरिसा?, इमे केवलमादि हि चोइस, एवपुचीहिं विरहिए एपिंह । अबुग्गहट्ठाण-अविग्रहस्थान-नाकलहाऽनाश्रये,स्था"पायरियउपज्जायस्स णं गणंसि पंच प्रवुग्गहट्ठाणा पाता। तं जहा. सुद्धममुद्धं चरणं, को जाणति कस्स भावं च ॥३३॥ पायरियनवज्कापणं गणंसि आणं वा धारणं वा सम्मं पउंजित्ता बाहिरकरणेण समं, अजितरयं करेंति अमुणेचा । भवर १,एवं महाराणियाए सम्म०२, आयरिवउवज्झाएणं ग- गंतेणं च नवे, विवजिओ दिसते जेण ।।३३३॥ पंसि जेसु य पजवजाए धारो ते काले सम्म०३, एवं गिला. एते संपदं णस्थि, जदि पते होता तो जाणता, असीदंताणं णसेहवेयावचं सम्म०४, पायरियउवज्झाएणं गणसि आपु चरणं सुद्ध, श्यरोसिं असुरूं। केवलमादिणो णा पमिचोयंता जियचारी यावि भवर, यो प्रणापुच्छियचारी।" स्था०५ पच्छितं च जहारुहं देतो चिंतंति, अभितरगो वि परिसो ना०१०। चेव भावो । ण य एगंतरेण बाहिरकरणजुत्तो अम्भंतरकरणअवुत्त-अनुक्त-त्रि०। केनाप्यप्रेरिते, स्था०८ ठा। युक्तो जवति। कहं ?। उच्यते-जेण विवजितो दीसति-जहाअवुसराइय-अवसराज-पुंoारत्नश्रेष्ठे, तद्वदीप्तिमति पदार्थमा- उदाइमारगस्स पसमचंदस्स य बाहिरे अविसुको, अरहो वे, नि० चू। विसुको चेव । वसुराजमवसुराज भणति जा दाणि पिरतिचारा, हवेज तव्वज्जिा व सुज्किज्जा। जे भिक्खू वुसराश्यं अवुसराइयं वदइ, वदंतं वा साइ- न य हुंति निरतिचारा, संघयणधितीण दोब्बडा ।३३। ज्जा॥ १३ ॥ संपयकासं जदि णितियारा हवेज, महवा-तव्वज्जियाणाम घसूणि रयणाणि, तेसुराओ वसुरानो । अधचा-राई दीप्तिमान, मोहिणाणादिवजिआजह चरित्तसुकी हवेज्ज, तो जुत्तं वस्तु-मे राजते शोभत इत्यर्थः। तं विवरीयं जो अणति, तस्स चरखा। अविसुरुचरणासंघयणवितीण दुम्बात्तणो यपचित्तं करेंति। मा णिज्जुत्ती संघयणधितिब्बलसओ चेव श्मं च ओसया भणंतिवसुमं ति वा वि वसिमं, वसतिरातिणिो पन्जया चरणे। को हा! तहा समत्यो, जं तेहि कयं तु धीरपुरिसहिं । जासत्ती पुण कीरात, दढा पइएणा हव एवं ॥३३५।। तेसु रतो वुसराई, असिम्मि ततो अवुसराई ॥३०॥ धीरपुरिसा तित्थकरादी जहासत्तिए कीरति एवं भणमाणे ते दुविधा-दब्वे,जावे यादब्वे मणिरयणादिया, भावे णाणा ददा पहराणा भवति जो पर्व भणति, जो पुण अपणहा वदति, दिया। इह भाववसुहिं अधिकारो। ताणि जस्स अस्थि सो वसु अमदा य करोति, तस्स सचा पइमाण भवति । मंतिजामति। अहवा-इंदियाणि जस्स वसे वटुंति,सो वसिमं भस्म आयरिमओ नणतिति। अहवा-णाणदसणचरिसेसु जो वसति णिचकालं सो वसतिरातिणिओ जम्मति।अहवा-व्युत्सृजति पापम्-अन्यपदार्थाख्या सव्वेसिँ एव चरणं, पुणोय मोयावगं दहसयाणं। नं, चारित्रं वा वसुमं ति घुञ्चति । वसति वा चारित्रे वसुराती- मा रागदोसवसगा, अप्पण सरणं पलीवेह ।। ३३६॥ भष्मति । अहवा-(पज्जयाचरणे ति)एते चारित्तहियस्स पज्जाया, सम्वेसि भवसिरियाणं, चरण-सरीरमाणसाणं सुक्याण वि. एगट्रिया इत्यर्थः । एसवुसराई जपति । पमिपक्खे अवुसराई।। मोक्षणकर,तं तुझे सयं सीयमाणो अपणो चरित्रोण रागाअहवा णुगता उभयचरणाणं दोसमावमा मा भणह-चरणं णत्यि, बुसि संविग्गो भणितो, अवुसि असंविग्ग ते तु वाञ्चत्यं ।। मा तत्येव बसह, तं चेव सरणं पलीवेह, णो सहेत्यर्थः। ने भिक्खू उ वएज्जा, सोपावति प्राणमादीणि ॥३२॥ कंठा । 'वोचत्थं ति 'खुसिराइयं भसिराश्य, अधुसिराश्य संतगुणणासणा खल, परपरिवाओ व होति अलियं वा। बुसिराइयं भणति । धम्मे य अबहुमारणा, साहुपदोसे य संसारो ॥ ३३७ ।। पत्य पढमं खुसिराइयं अवुसिराइयं त्रपति श्मोहि चरणं णथि त्ति एवं भणतेहिं साधणं संतगुणणासो कतो कारणेहिं भवति, पवयणस्स य परिजवो कतो भवति अलियवयणं च रोसेण पमिणिवेसे--ण वा वि अकयंत मिच्भावणं । । भवति । चरणधम्मे पत्रोविजंते, चरणधम्मे य अबहमाणो संतग पोच्छाएत्ता, भासति अणुणेसणे ते ॥३३०॥। कतो नवति, साधूण य पदोसो कतो भवति, साधुपदोसेण कोर फस्स वि कारणे अकारणेवा रुठो पमिणिवेसेण 'सो पृ.। य संसारो वठितो नवति ॥ इज्जति, अहंण पूज्जामि'। एवमादिविभासा अकयपूयाए । 'पतेण तस्स नवयारो कओ, ताहे मा एयस्स पडिउवयारोकायब्वो। खय-उवसम-मीसं पिअ.जिणकाले वितिविहं भवे चरणं । होहि'सि मिनभावणं मित्तेणं नदिमेणं । सेसं कं। 1 मिस्सातो च्चिय पावति, खयउवसमं चणाणचा ॥३३॥ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१२) अवुसराइय अनिधानराजेन्षः। अवुसराश्य तित्थकरकासे वितिविदं चारित्तं-खाइयं,नवसमियं, खाइप्रोव- चरणमग्गं गदति,श्मेहि कारणाद मं च से शवभवोदी (अत्थं) सामियं च। तम्मि वितित्थकरकामे मिस्साओ चेव चारित्ताओ फलं । अहवाखाश्यं नवसामियं वा चारित्तं पावति, नान्यस्मात् । बदुतरा य] गुणसयसहस्सकलियं, गुणंतरं वा अभिलसंताणं । चरित्तविसेसा वोवसमभावे भवंति । चरणकरणामिलासी, गुणुत्तरतरं तु सो लहइ ॥३४॥ किंच तीर्थकरकाले वि गुणाणं सयं गुणसयं,गुणसयाणं साहस्सी, दोजगभया सकारअइयारो वि हु चरणे, वितस्स मिस्सेण दोस इतरम् । स्स हस्सता कता,ते य अट्ठारस सीसंगसहस्सा,तेहि कलिय जुवच्छातुरदिलुता, पच्छित्तेणं स तु विमुज्झो ।। ३२६॥ तं संखियं वा। किंत,चारितं, तंजोय पसंसति।किंच-गुणश्चा(इयरेनु त्ति) खाइए उवसमिए वा । जहा-वन्वं खारादीहिं सौ उत्तरं च गुणोत्तरम् | अधवा-अन्येऽपि गुणाः सन्ति क्षमादसुज्कति, प्रातुरस्स वा रोगो वमणविरेयणप्रोसहपोगोई सो. या,तेषामुत्तरंतं च गुणुत्तरंसरागचारित्तं । गुणुत्तरतरं पुण अहहिजति, नहा साधुस्स चरणादिश्यारो पच्छित्तणं सुज्जति । क्वायचारित्तं भवति, तं च जे अभिलसंति ते च उज्जतचरणा जं च भणियं-अतिसयरदिएहिं सुखाभुचरणं ण सुन्झति- । श्त्यर्थः। ते य व्ववूहते जो ओसरणो अप्पणा य उज्जयचरणो विहं चेव पमाणं, पच्चक्खं चेव तह परोक्खं च ।। होई ति चरणकरणाभिलासी भन्मति, स एवंवादी गुणुत्तरतरं सभति, अहक्वायचारित्रमित्यर्थः । अथवा-गुणुत्तरतरं पुण चर वा तिविहा पढमं, अणुमाणोपम्मसुत्तितरं ॥२४॥ मोक्यमुहं भरणति, तं लभाति । श्रोहि-मणपजव-केवानंच एवं तिविधं पश्चन, धूमादग्निझान जो पुण प्रोसण्णोमनुमानम्, यथा गौः तथा गवय औपभ्यं, सुत्तमिति आगमः, इयर ति एवं तिविधं परोक्खं । जिणक्यणजावितण तु, गुणुत्तरं सो वि जाणता। सुचमसुदं चरणं, जहा उ जाणंति प्रोहिणाणीयो। चरणकरणाजिलासी, गुणुत्तरतरंतु सो हणति ॥३४६॥ गुणुसरतरं चारितं,साधूवा; अप्पणा य चरणकरणावधाते वट्टआगारेहि मणं पिक, जाणंति तदेतराभावं ॥३४॥ ति,अहवा-चरणकरणस्स जुत्ताण वा निंदा परोवघायं करे, स पुचद्धं कं । जहा परम्स मुहणे ति बादिरागारोह अंतर-| एवंवादी गुत्तरं चारितं,मोक्खसुईया, दणात ण लभति,जण गतो मगो जति,तहाइयर त्ति परोक्खणाणीमालोयणाविहाण सो दाहसंसारित्तणं णिवत्तेति । सोउं पुवावरबादियाहि गिराहिं आचरणहिंय जाणंति चरित जो प्रोसम्मं ओसरणमग्गं वा वदतिभावं च सुद्ध, सुद्धतरं च । चोदग पाह-जह गारेण भावो णज्जति तो सदाश्मार सो होती परिणीतो, पंचएहं अप्पणो अहितिओ य । गादीण किं ण णाभो । भाचार्य प्राह सुयसीलवियत्ताणं, नाणे चरणे य मोक्खे य ॥३४७।। कामं जिणपचक्खा, गृहाचाराण दम्मणो जावो । पंचपासत्यादिसुयसीलो विहारलिंगाओ घाओ कामा, म. तद वि य परोक्खमुद्धी, जुत्तस्स व पहावीसाए॥३४॥ वियत्ता अगीयत्थाणाणचरणमोक्त्रस्सय पतेसि सव्वोर्स पकि णीतो नवति । काममिति अनुमतायें । जाविजे ग्वाहमारगादिगूढायारा, तेमि छउमत्येणं सुक्खं उबलभति, भावो सो जिणाणं पुण इमेहिं पुण कारणेहिं ओसहं ओसप्तमगं वा उबवूहेज्जापञ्चक्लो, तहा विपरोक्त्रणाण) भागमाणुसारेण चरित्तसुम्ि वितियपदमणप्पज्झो, वएज्ज अविकोविते व अप्पन्झो। करैति शेव। कह ? । उच्यते-( जुत्तस्स वत्ति ) जहा सुत्तोव- जाणते वा वि पुणो, जयसातव्वादिगच्छट्ठा ॥३४॥ उत्तो मीसजायकोयरोरागोति पमरस उग्गमदोसा,दस पस- रायासिं य ओसएणाणुवत्तिो भया भरणज्जा तव्वादं ति। णा दोसा,एते पणवीसंजढा सुत्ताणुसारेण सोहंतोचरण सोहे- कश्चिद्वादी ब्रूयातू-तपस्विनमतपस्विनं अवतः पापं भवतीति नः ति,तहा सुत्तापूसारेण पच्चित्तं देतो करतो य चरितं सोधेति। प्रतिक्षा | तत्प्रतिघातकरणे चुसिराइयं अवुसराश्य भणज्ज, ___ अपजतचरणो इमेहि कम्नति होजा दुभिक्खादिसु वा ओसरणभाविएसु खेत्तेसु अत्यंतो ओसहोज हु वसाणप्पत्तो, सरीरदोबल्लताएँ असमत्थो। । माणुवत्तीओ गच्छपरिपालणट्ठा भणेज्ज ॥ चरणकरणे अमुके, मुकं मागं परवेजा ॥२४॥ जे जिक्खू अवुसराश्यं वुसराइयं वदइ, वदंतं वा साइव्यसनं श्रावती, मज्जगीतादियं वा, तम्मि गजमति, अहवा- जः ॥ १४ ॥ सरीरबलत्तणो असमत्यो समायपाहिलेहणादि किरिय एमेव वितियमुत्ते, वुसराइयं अवुसराई व । का,अकप्पियादिपमिसेहण च । अधवा-सरीरदोब्बलो, अस. जो पुण वएज्ज भिक्खू, अबुसिराईतु वुसिराई॥३४॥ मत्थो य, अददधम्मा, एवमादिकारणेहि चरणकरणं से अवि. सुरू। तहा वि अप्पागं गरिहंतो सुरूं साहुमागं पम्वेतो श्रा कराठ्या । ऍगचारियं जयंता, सयं व तेमु य पदेसु बटुंते ।। राधगो चेव भवति । इमे चेव अत्यो भणति सगदोसछायणट्ठा, के पसंसंति णिकम्मे ॥ ३५० ॥ श्रोमरणादिविहारे, कम्मं सिढिलेति मुलनवोहीए । कोइ पासत्यादीणं एगचारियं भवति-'एस सुंदरो,एयरस ए गागिणो ण केण सह रागदोसा नप्पज्जति' । सो वि अप्पणा चरणकरणं णिगृहति, न य बाहिं दुसनं जाणे ।।३४४|| गच्चपंजरभग्गो तम्मि चेव गणे वट्टति । सो य अप्पणिज्जदोसे कएठ्या । जो पुण श्रोसयो होउ ओसम्मं मग्गं उबवूहरू, सुकं | गदिउकामो तं पासत्यादियं एगचारि गिद्धम्म पसंसति । Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसराइय (१३) अभिधानराजेन्द्रः । इमं च भणति करना, पाडिया विमीदेति । एसो निविउयमग्गो, जस्स जवती य चरणसुकी ३५१ ।। एवं जयंत मे दोसा अभक्खाणं णिस्- कमाइ अरसंजमस्स व थिरचं । अप्पा उम्मगडिओ, अववाद पतित्यस्स ॥ २५२ ॥ असंजतभारभाव अनलाई सिरातियं भणति सो यपसंसिनमाणो सिस्को भवति मंदधम्माण वि अजमे थिरीकरणं करेति । श्रक्षं च उम्मग्गपसंलणाय अप्पणा य उम्मम्गद्वितो, ततो विश्वास व अन्यपदार्थेन अपवाद नयति । किंच जो जत्थ होइ मग्गो, ओयासं सो परस्स अविदंतो । गंतुं तस्य वतो, हमे पहाणं ति घोसंति ।। २५३ ।। श्राणिगदितेण श्रोस्सएणो उवसंथारेयव्वो । सेसं कंठं । किंवपुष्यगय कालिय- संतासंतेहि केइ खोजेंति । प्रोस्सएण चरणकरणा, इमं पहाणं ति घोसंति ॥ ३५४ ॥ पुव्वगय कालियसुयणिबंधपश्चयतो दीसंति । तत्थ कालियसुये इमेरिलो आलायगो "बहुमोहोरा पच्छा संतु कालकरेा कि आप विराह । गोषमा! राह णो विराहए"। एवं पुवगहिए वि जे के वि श्रालावगा ते उच्चरिता पर बोति अप्पा वा सुमति सीदतीत्यर्थः ते य ओस चरणकरणाइमं ति अप्पणो चरिचं पहा घोति मेसि पुरतीअरस्तु गीयत्वे तरु मंदम्मिणो । परियारक्ष्या हे संमोहेल निरंजति ।। २५५ ।। जेण श्रायारपगप्पो एकाइतो एस श्रबहुस्सुतो; जेण चापस्मगादिया अत्यो] [] मुधो सो बनायो, सोस परिमाण दवे जावानी सरिस एस तरुणो, प्रसंवेगी धम्मो एते पुरिसे विपरिणामेति श्रप्पणो परिवार देवें, एतेदि य परि चारतो लोगस्स जो होतं, कालिये दिया भणिहि श्रवा अभणितेर्हि वा संमोहेचं श्रप्पणो पासे णिरंभति, ध रतीत्यर्थः । श्रहवा जो एवं पचेति एमो बे व अगीरथी तो वा मंचम्मो या सेकं | जत्थोचित्र विहारो, तं चैव पसंसए सुलनवोही । विहार पुरा, पसंए दीहसंसारी || ३५६ ।। जो संवारा जब से पति जो सो भो जो पुण भोखविहारं पसंति सो मोदी दीहसारी भवति ॥ 11 वितियपदमप्पज्झो, व एज्ज अविकोविएव अप्पज्झो। जो जाणंता वि पुणो, जयसातव्वादिगच्छट्ठा ॥ ३६७॥ पूर्वप्र जे निक्खू बुमराध्या गणाओ अवसराइयं गणं संकम, समं या साइज ॥ १५ ॥ बुसिराज्यगणाओ ने भिक्खू संक्रमे सिराई | २०४ वोगमा पदमवियतिवचउत्थे, सो पावति प्राणमादी थि ||३५८ ॥ 1 तो वुसिरातियं चउभंगो कायन्त्रो । चउत्थनंगे अवत्युं ततियनंगे थे, पदमपिति संकमो पडिसिको पढने सं कर्मतस्स मासल, दिगाह - विि डिसेहो पदमनंगे कि पांडसेहो ? बाचात्कार डिसेहो, कारणे पुण्य पढमभंगे उवसंपदं करेति । साय वसंपया कालं पमुच्च तिविदा श्माउम्पासे वसंपद, जहण वारससमा उ मज्जिमिया । आरका कोसा, पमिच्छसीसे तु आजीवं ॥ १५६ ॥ उपसंपदा तिथिहा- जम्मा, महिमा, कोसा य जहा मासे, मज्जिमा बारसवरिसे, उक्कोसा जावज्जीवं । एवं पमि egree एगविहा चेव जावज्जीवं श्रायरिश्र ण मोसव्वो । बम्मासेऽपूरेता, गुरुमा बारससमा चहलडुगा । " ते पर मासियत्तं भणितं पुण भारते कज्जे ॥ ३६० ॥ जेण परिणम्यासिभा उपसंपदा या सो जदि मासे पूरा जाति, तस्स गुरुगाजे पारस परिसा कया, ते अ पूरिता जाइ तो चडनहुं । जेण जावज्जीवं उद्यसंपदा कता, तस्स मासला परे शिकार समा वारससमा उवसंपया कया, तस्स वि ग्म्मासे अपूरेंतस्स चचगुरुगा चैत्र, तस्सेव वारससमाश्री अपूरेतस्स चचनहुगा । एस सोही गच्हतो तिस्स प्रणिता नि० ०१६ ४० वेवमाण अपेक्षमाण त्रि० निरीक्षमाणे, झा० ३० प्रवेज प्रवेद्य-० । स्वसमानाधिकरणसमान कामीनसाहात्काराऽविषये, द्वा० ३० द्वा० । प्रदेशसंजय-प्रवेद्य संवेद्यपद १० महामिध्यात्वनिबन्धने पशुत्वादिशब्दवाच्ये द्वा० २३ द्वा० । अवेष-प्रवेद पुं० [पुरुषवेदादि वेदरहिते, प्रा० २ पद् । सिद्वादौ, स्था० २ ० १ ० । अवेयत्ता-अवेदयित्वा - अव्य० । वेदनमकृत्वेत्यर्थे, प्रन० १ - - आध० द्वार । प्रवेपण प्रवेदन ० न विद्यते वेदना यस्य स भवेदन | अल्पवेदने बेदनारहिते, उत० १६ ० सातासात वेदनामावात् सिके च । प्रज्ञा०२ पद । प्रवेपथ-प्रपेतवाच्य० चचनी पारहिते ० १४० अरमाण अविरमणध्यानन० विरमण विरमण तस्य ध्यानम् । मा भूत् पुत्रयोविंशतिबुद्धिरित्यङ्गीकृतामपि देशविरति परित्यज्य प्रान्तग्रामसमाश्रितयोः ' एते साधवो मांसाशिवो राक्षसा' इत्यतस्तानयमिति विनिचित्रतारणयोर्भृगुपुत्रयोरिव, जयदेवेन प्रतिबोद्ध्यमानस्यापि मुहुर्मुहुरिति यतस्तातुरिय मेतार्थस्येव वा इज्याने तु भयोगमा अव्याकृतास्त्री० तिगीरदार्यायामन्द प्रयुक्तायांचा अविभावितात्या भाषायाम, प्र० १ सम्ब० द्वार | "अवोच्छिन्नए प्रयोगडाए" । स० ६ सम० | भन्याकृता, यथा - बालकादीनां धपनिका । दश० ७ ० । - Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) अभिधानराजेन्द्रः । अवोटि अवधिमा अम्युनि० उत्तरोत्तरानुत्या व्यवच्छेदशून्ये, आचा० १ श्रु० ४ ० ४ ० । भवोच्छित्तिणय-श्रव्यवच्छित्तिनय- पुं० । श्रुतस्य कालान्तरमा स्था०५०२४० अतिप्रतिपादनपरो नयोव्यवस्विचिनयः। म्यास्तिकनये, नं० । अयोद्धतियहु- अव्यवच्छिनिनयार्थ- पुं० । ६० । ज्येनं० ॥ अयोच्चिचिण्यया- अय्यवच्चिचिनवार्थता खी० । अव्ययच्त्रि गियार्थस्य भावोऽव्ययच्विनियार्थता यापेक्षायामनं० 33 वोसिरण - अव्युत्सर्जन- न० । अपरित्यागे, दशा० १० अध्या० । अवोह अपोह-पुं० । अपोहनमपोहः । निश्चये, नं० । श्रा० म० । प्राप्तार्थ " तत्तो श्रवोहर वा ततः पर्यालोचनानन्तरमपोहते । श्र० म० प्र० । अपोह्यते स्वाकाराद्विपरीत श्राकारोऽनेनेत्यपोहः | स्वाकारविपरीताकारोन्मूलके, रत्ना० ४ परि० । अन्यापोढपदार्थाधिगति सम्मका राड (अपोदः शब्दार्थः प्रसिद्ध इति आगम' शब्दे द्वितीयभागे ६२ पृष्ठे द्रव्य) अपगत ऊदो वादिसमुद्रावितस्तक 4स्मात् 'बहु० । वादिसमुङ्गावित तर्कनिरासार्थ के प्रतिवादिसमुद्भाविते तद्विरुद्धे तर्कभेदे, वाच० । ( 'पोह' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ६१२ पृष्ठे संक्षेपतोऽयं निरूपितः, विस्तरतस्तु ' सइत्य शब्देवदयते) अबोहर णिज्ज - अव्यवहरणीय त्रि० । जीर्णे, नि० चू० १३० । अन्वईनाव अव्ययी जाय पुं० धनव्ययमव्ययं भवत्यनेन । श्रव्यय-चिव-भू- करणे घञ् । व्याकरणप्रसिद्धे समासभेदे, वात्र० । अनु० । से किं । व्यभावे अगामा, अणु या अफरिदा अनुरिया से अनजाने समासे ॥ पूर्वपदार्थमानोऽयथीभाव-तत्र ग्रामस्य धनु समीपेन मध्येन वाशनिर्निर्गता अनुग्रामम् । एवं नद्याः समीपेन मध्येन वा निता अनुनदि, इत्याद्यपि जावनीयम् । अनु० । अव्यंग - अव्यंग - न० । अकृते यस्य कृतं कृतं न विद्यते । व्य० ७ उ० । अव्यक्ति-अव्याक्षिप्त-त्रि स्थिरे, 'अव्यक्ते वेपसा' अध्याप्तेिन स्थिरेण चेतसा । उत्त० २० अ० । अन्यत्रोपभोगमगच्छतेत्यर्थः दरा० ५० १४० पं० च० व्यापम कुर्वति प्रतीच्छनायोम्ये, “वक्खेवणा दुसा, दिवसपसु लीहाले । दुगमादी जो य पढं तो न करेति विक्खेवं ॥ १ ॥ अवखितो एसो, आउन्तो अणराहमणसो उ ॥ पं० भा० । अव्ययम-अव्यग्रमनस् त्रियधमनाकुम चित्तोपरमतो मनश्चित्तमस्येत्यव्यग्रमनाः । अनुकूल चित्ते, 99 उत्त० १५ श्र० । अव्यक्त-अव्यक्त - न० । न व्यक्तमव्यक्तम् । श्रनिर्देश्ये स्वस्वरूपनामात्यादिनारहिते, नं० सर्वत्रकृत पिते प्रधाने, आ० म० प्र० । स्था० । अव्यक्तादव्वक्तं प्रभवति, ततः षष्टितन्त्रं जातम् । श्रा० म० प्र० । श्रुतवयोज्यां लघौ, आचा० २०५ अ० ३३० । वयसा लघौ श्रुतेनात्यल्प श्रुते, जीत० । रोमसंभवो न भवति तावन्ये भयः अवत्तिय ति । नि० ० १८ उ० । व्य० । श्रव्यक्तोऽष्टानां वर्षाणां मध्ये बालः । भोघ० । अगीतार्थे, नि० ० २ उ० । श्रनवगतच्छेदग्रन्थरहस्ये, ध० २ अधि० । श्रव्यक्तोऽगांतार्थस्तस्याऽव्यक्तस्य गुरोः पुरतो यदपराधालोचनं तदव्यक्तम् । श्रालोचनादोषे, व्य०१ उ० । स्था० । " जो य श्रगीयत्थस्सा, अलोप तं तु होइ श्रव्वत्तं अन्य "सत्यासत्यनामेतियवादी संयताऽभ्युपगमे संदिग्धबुद्धौ निये, आ० म० द्वि० | अन्यत्तगम- अव्यक्तगम त्रि० गमनाभावे, नंपुमसमर्थे च सूत्र० १ श्रु० १४ अ० । अन्व (व) तन्नगसंचिय- अवक्तव्यकसंचित पुं० । ड्यादिः संख्याव्यवहारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसंख्यायाश्च संख्यात्वेनासंख्यात्वेन च वक्तुं न शक्यते असाववक्तव्यः। स च एक कस्तेनाऽवक्तउपेन एककेन एकायोत्पादन संचिता कसंचिताः। कतित्वना कतित्वेन चानिर्वचनीयोत्पादेषु न० २० श० १०३० । (अत्र दण्डक 'वाय' शब्दे द्वितीयभागे ए२१ पृष्ठे वक्ष्यत ) अव्यय - अव्यक्तदर्शन- पुं० प्रयमस्पष्टं दर्शनमनुभक स्वार्थस्य पत्रासाव्यदर्शनः । स्वदर्शन. ०२६ श० ६ उ० । अन्यत्तमय- अव्यक्तमत-पुं० । न ज्ञायतेऽत्र कोऽपि संयतः कोउपसंयत व सर्वस्याभ्युपगमान व्यक्तमस्फुटमन्यकं मतं येषां तेऽव्यकमताः संयताद्यवगमे संदिग्धषु नि वेषु विश० ॥ श्र० म० । श्रा० चू० । अव्त्रत्तरूत्र- अव्यक्तरूप त्रि० । अमूर्तत्वादव्यक्तं रूपमस्या - सावव्यक्तरूपः । तथा करचरण शिरोग्रीवाद्यनवयवतया स्वतोऽवस्थानाज्जीवे, सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । अम्मतिय-अव्यक्तिक । अस्यतमस्फुटं वस्तु अभ्युपगमती विद्यते येषां ते अन्याः संयताद्यवगमे संदिग्धबुद्धिषु, स्था० ७ ठा० । उत्त० । औ० । तदुत्पतिमतं चेत्थम् - तृतीयनिह्नववक्तव्यतामाह चोदा दो वाससया, तश्या सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो अव्वत्तियदिट्ठी, सेयवियाए समुप्पन्ना ॥ चतुर्दशाधिकं वर्षशतद्वयं तदा श्रीमन्महावीरस्य सिकिं गतपासीतानिन कायां नगर्यो समुत्पन्नेति । कथम्? इत्याह 3 सेवियपोलसा, जोगे तदिवसहिययम्ले य सोहम्मिनलिणिगुम्मे, रायगिरियजदे ॥ निगयो पापादयेापादनामान आया यः स्थिताः। तेषां च बहवः शिष्या आगाढयोगं प्रपन्नाः। अपरवाचनाचार्यासखे च त एवाऽऽचार्याषाढसुरयस्तेषां वाचनाचायेत्यं प्रतिपक्षाः तथाविधकर्मविदवरजहृदयाकृत्य सचदेवोके देवत्वेनोत्पन्नाः । नच विज्ञाताः केनापि गच्छमध्ये । ततोऽवधिना किविहायसानुकम्पासमा तदेव शरीरम धिष्ठायोरथाप्य च प्रकास्तेन साधचः यथा वैरात्रिकाल ततः कृतं साधुभिस्तथैव श्रुतस्योद्देशसमुद्देशानुज्ञाश्च तद Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अव्वत्तिय अभिधानराजेन्द्रः। अव्वत्तिय प्रतः कृताः । एवं दिव्यप्रभावतस्तेन देवेन तेषां साधूनां अथ प्रतिविधानमाहकालभनादिविघ्नं रकता शीघ्रमेव विस्तारिता योगाः । ततो. थेरवयणं जा परं, संदहो कि मुरो ति माहु त्ति। ऽनेन तच्चरीरं मुक्त्वा दिवं गच्छता प्रोक्ताः साधवः । यथा देवे कहं न संका, किं सो देवो न देवो त्ति ? | 'कमणीयं भदन्तैयदसंयतेन सता मया प्रात्मनो वन्दनादौन वारिताः; चारित्रिणो यूयम् । अहं ह्यमुकदिने कालं कृत्वा , दिवं तेण कहियं ति च मई, देवोऽहं रूबदरिसाणाओ य । गतो युष्मदनुकम्पयाऽत्रागतः, निस्तारिताश्च भवतामागाढयो- साहु त्ति अहं कहिए, समाणरूवम्मि किं संका॥ गाः। इत्याधुक्त्वा कमयित्वा च स्वस्थानं गतः । ततस्ते साधव- देवस्स च किं वयणं, सच्चं ति न साहुरूवधारिस्त । स्तच्छरीरकंपरिस्थाप्य चिन्तयन्ति-अहो! असंयतोबहुकालं व. | न परोप्परं पि वंदह, जं जाणंता वि साहु ति ॥ न्दितः। तदित्थमन्यत्रापि शङ्का-कोजानाति कोऽपि संयतः, कोऽप्यसंयतो देव इति। ततः सर्वस्याप्यचन्दनमेव श्रेयः, अन्यथा तिम्रोऽप्युक्ताः । ह्यसंयतवन्दनं, मृषावादश्च स्यात् । इत्थं तथाविधगुरुकर्मोद- किञ्च-यदि प्रत्यक्केष्यपि यतिषु भवतां शङ्का, तर्हि परोक्षेषु यातपरिणतमतयः साधवोऽव्यक्तवादं प्रतिपन्नाः परस्परं न जीवादिषु सुतरामसौ प्राप्नोति,ततः सम्यक्त्वस्याप्यभाव इति धन्दन्ते। ततः स्थविरैस्तेऽनिहिताः-यदि परस्मिन् सर्वत्र जवतां কম্বাইसंदेहस्तहि ययुक्तं देवोऽहमिति' तत्रापि भवतां कथं न संदेहः?, जीवाइपयत्थेमुं सुहु-मन्ववाहियविगिट्ठरूवमुं। किस देवो वाध्देवो वा?,इतिअथ तेन स्वयमेव कथितम् 'अहं दे अचंतपरोक्खेमु य, किह न जिणाईसु ने संका॥ वः,तथा देवरूपं च प्रत्यक्ष एव दृष्टमिति न तत्र संदेहः। हन्त! यद्येवं तहि य एवं कथयन्ति वयं साधवः,तथा साधुरूपं प्रत्यक्षत एव ह. गतार्था। श्यते, तेषु कः साधुत्वसंदेहः, येन परस्परं यूयं न वन्दवे । नच श्रथ जिनवचनाजीवादिषु न शङ्का, तदतदिहापि मानमित्याहदेववचनादेव वचनं सत्यमिति शक्यतेवक्तुम,देववचनं हि क्रीमा तव्वयणाअोव मई, न तनयणे मुसाहुवित्तो ति । धर्थमन्यथाऽपि संभाव्यते। नच तथा साधुवचनं, तद्विरतत्वात्ते आलयाविहारसमिओ, समणोऽयं वंदणिज्जो त्ति ॥ पामितिापवं च युक्तिनिर्यावन्न प्रज्ञाप्यन्ते तावदुद्धाट्य बाह्याःताः पर्यटन्तश्च राजगृहं नगरं गताः।तत्रच मौर्यवंशसंभूतो बन्नज अथ तवचनाजिनवचनाजीवाद्यर्थेषु न शङ्का । ननु यद्येवं, तवचने इदमप्यस्ति-यदुत शोभनं साधुवृत्तं श्रमणशीलं यस्याद्रो नाम राजा,स च श्राद्धः। ततः तेन विज्ञाताः। यथा-अव्यक्तवादि. सौ सुसाधुवृन इति हेतोः श्रमणोऽयमिति निश्चयावन्दनीयः । नोनिया इह समायाता गुणशिक्षकचैत्ये तिष्ठन्ति, ततः स्वपु सुसाधुवृत्तोऽपि स कथं ज्ञायते', इत्याह-श्रालयविहारसमित रुषान् प्रेष्य राजकुले आनायिताः। तेन ते कटकमद्देन मारणार्थ हति कृत्वा । उक्तं च-" प्रासपणं विहारेण, गणा चंकमणा चाहताः । ततो हस्तिनिकटेषु च तन्मर्दनार्थमानीतेषु तैः प्रो ण य । सक्का सुविहियं ना, नासा वेणइप णये" ॥१॥ कम-राजन् ! वयं जानीमा-श्रावकस्त्वं, तत्कथं श्रमणानस्मानित्यं मारयसि । ततो राक्षा प्राक्तम्-युष्मतसिद्धान्तेनैव को उपपत्यन्तरमाहजानाति किं श्रावकोऽहं, न वा । भवन्तोऽपिकिं चौराश्चारिका जह वा जिणिंदमिमं, जिणगुणरहियत्ति जाणमाणा वि। अभिमग वेत्यपि को वेत्ति । तैः प्रोक्तम्-साधवो वयम् । यद्येष- परिणामविमुकत्यं, वंदह तह किं न साहुं पि। मव्यक्तवादितया किमिति परस्परमपि यथाज्यष्ठं वन्दनादिकं होज न वा साहुत्तं, जइरूवे नत्थि चेव पमिमाए । न कुरुथ १; इत्यादिनिष्ठुरैमृदुभिश्च वचनैः प्रोक्तास्ते भरप सा कीस बंदणिज्जा, जावे कीस पमिसेहो। तिना । ततः संबुद्धा लजिताश्च निःशङ्किताः सन्मार्ग प्रतिपन्नाः। ततो राज्ञा प्रोक्तम्-भवतां संबोधनार्थमिदं मया सर्वमपि सुगमे । नवरं प्रथमगाथायां प्रतिमायाः साधुरूपेण सह व. विहितमिति कमणीयमिति । न्दनीयत्वे साम्यमुक्तम् । द्वितीयगाथायां तु साधुरूपे विशेष दर्शयति-यतिरूपे प्राणिनि साधुत्वं नवेद् न वेति संदिग्धमेव, अमुमेवार्थ भाष्यकारः प्राह प्रतिमायां तु जिनत्वं नास्त्येवेति निश्चयः। ततः किमिति सा गुरुणा देवीनूए, समणरूपेण वाश्या सीसा । वन्दनीया, यतिरूपे च किमिति वन्दनप्रतिषेधः। सन्जावपरो कहिओ, अव्वत्तियदिष्ट्ठिणो जाया॥ अत्रोत्तरमाह-- गतार्था। अस्संजइजरूवे, पावाणमई मईन पमिमाए | कथमन्यक्तदृष्यो जाताः?, इत्याह नणु देवाणुगयाए, पमिमाए वि होज सो दोसो । को जाण किं साहू, देवो वा तं न वंदणिज्जो ति। । अथैवत्ता मतिः परस्य नवेत्-असंयतेऽधिष्ठितयतिरूपे वन्द्य माने ततासंयमरूपपापाऽनुमतिर्भवति, न त्वसौ प्रतिमायाहाज्जा संजयनमणं, होज मुसावायममुगो ति॥ म् । अत्रोच्यते-ननु देवताऽधिष्ठितप्रतिमायामप्ययमनुमतिको जानाति किमयं साधुवेषधारी साधुर्देवो वा ?, नास्त्येधात्र पधारा साधुदवा वा नास्त्येधात्र लक्षणो दोषो भवेदिति । निश्चय इति । अत्र नच वक्तव्य साधुरेवायं तद्वेषसमाचारदर्श अयैवं ब्रूयात्परः; किमित्याह-- नाद्भवानिवः आर्यापाढदेवेप साधुवषसमाचारदर्शनेनानका. न्तिकत्वात् । तस्मान्न कोपि वन्दनीयः, संशयविषयत्वात् । यदि अह पमिमाएँ न दोसो, जिणबुकीए नमिउ विमुफस्स। पुनर्वन्येत, तदा आर्याषाढदेवबन्दन श्वासंयतवन्दनं स्यात, तो जइरूवं नमिउं, जश्बुछीए कहं दोसो ?॥ अमुको ब्रवीतीति भाषणे च मृषावादः स्यादिति । अथ प्रतिमायां नानुमतिलकणो दोषः, किं कुर्वतः ?, नमस्यतः, Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१६) प्रवत्तिय अभिधानराजेन्मः। अव्वत्तिय कया?, जिनबुद्ध्या, कथंभूतस्य?,विझुकाध्यवसायस्य । यद्येवं ततो यदि जिनमतं जवां प्रमाणं तर्हि मुनिरित्यनया बुद्ध्या पालयतिबुद्ध्या यतिरूपं विशुरूस्य नमस्थतः को दोषो येन भवन्तःप यविहारादिबाह्यकरणपरिशुद्धं देवमप्यमरमपि वन्दमानो विरस्परं न वन्दन्ते । अत्रापरः कश्चिदाह-यद्येवं, लिङ्गमात्रधारिणं शुरुभावो भवेद्दोषरहितो विशुरू एव । उक्तं चागमे-" परग. पार्श्वस्थादिकमपि यतिबुद्ध्याऽविशुरूस्य नमस्यतो न दोषः। तद. रहस्समिसीणं, संमत्तगणिपिम्गम्भसाराणं । परिणामियं प. युक्नमा पार्श्वस्थादीनां सम्यग्यतिरूपस्याप्यनावात् । तदनावश्च माणं, निच्चयमवलंबमाणाणं" ॥१॥ इत्यादि । 'बालपणं विहारेण'इत्यादियतिलिङ्गस्यानुपलम्जाताततःप्रत्यकदोपवतः पावस्थादीन्वन्दमानस्य तत्सावद्यानुझानलकणो दोष जइ वा सो जइरुवो, दिघो तह केत्तिया सुरा भन्ने । एव । उक्तं च-"जह चेनंवलिंग, जाणतस्स नमिउ हव दोसो। तुम्मोहि, दिद्वपुवा, सव्वत्थापच्च ओ जंजे ॥ निव्वंधसं पि नाउं, ण बंदमाणे धुवो दोसो" ॥१॥ इत्यादि ।प्र. वा इति अथवा, यथा आर्याषाढदेवो यतिरूपधरोऽत्र दृष्टः, तिमायास्तु दोषाभावात्तद्वन्दने सावद्यानुझानावतो न दोष इति। तथा कियन्तःसुराम्ततोऽन्ये भवद्भिदृष्टपूर्वाः,यचेतावन्मात्रेणा अत्र पुनराप पराजिप्रायमाशङ्कय परिहरनाह- पिसर्वत्राप्रत्ययो (भे) भवतां नहि कदाचित्कथञ्चित् कचिदाश्चश्रह पमिमं पि न बंदह, देवासंकाएँ तो न घेत्तन्वा । र्यक.लये कस्मिश्चित्तथाभावाशङ्का युज्बत इति भावः। तस्मानव हारनयमाश्रित्य युक्तं भवतामन्योऽन्यवन्दनादिकम् । उक्तं चआहारोवाहिसेन्जा-श्रो देवकया भवे जं नु । "निच्छयउ दुनियको, भावे कम्मि वट्टए समणो । ववहारो अथ प्रतिमामपि न वन्दध्वे यूयम् । हन्त ! यद्येवं शङ्काचारी य जुञ्जर, जो पुवग्ोि चरितम्मि" ॥१॥ इत्यादि । प्रदान, तर्हि-मा देवकृता भवेयुरित्याहारोपधिशय्यादयोऽपि न ग्राह्या इति। एतदेव समर्थयन्नाहकिञ्चेत्थमतिशङ्कालुतायां समस्तव्यवहाराच्छेदप्रसङ्गः, उमत्थसमयवज्जा, ववहारनयाणुसारिणी सव्वा । कुतः, इत्याह तं तह समायरंतो, सुज्झइ सन्चो विमुकमणो।। को नाणइ किं भत्तं, किमओ किं पाणयं जलं मज्ज । संववहारो विबल्ली, जमसुचपि गहियं सुयविहीए। किमलावू माणिकं, किं सप्पो चीवरं हारो॥ कोवेइ न सव्वएणू, वंदश्यस्स जाइ छउमत्थं ।। को जाण किं सुझ, किमसुद्धं किं सजीवनिजीवं । निच्छयववहारनो-वणीयमिह सासणं जिणिंदाणं । किं जक्खं किमलखं, पत्तमभक्खं तो सव्वं ॥ एगयरपरिच्चाओ, मिच्छं संकादो जे य॥ को जानाति किमिदं भक्तं,कमयो वेत्याद्याशङ्कायां जक्तादाव जइ जिणमयं पवजह, तो मा ववहारनयमयं मुयह । पि कृम्यादिभ्रान्त्यनिवृत्तेः सर्वमभकमेव प्राप्तं भवतः। तथाअलावुचीवरादौ मणिमाणिक्यसपादिवान्यनिवृत्तः सर्वमजो चवहारपरिच्चाए, तित्थुच्छेप्रो जवेऽवस्सं ॥ ग्यं च प्राप्तमिति । चतम्रोऽपि सुगमाः। नवरं (कोवे इत्यादि) न कोपयति-नाप्रतथा माणीकरोति न परिदरति, जुड़े इत्यर्थः। (संकादओ इत्यादि) जणा विन संवासो, सेमो पमया-कुसीलसका वा । येऽपि शङ्काकाङ्कादयस्ते हि मिथ्यात्यमिति संबन्धः। होज गिही व जातिय, तस्साऽऽसीसा न दायव्वा ।। पतावत्युक्ते तत् किं तत्र संजातम् ?, इत्याहन यसो दिक्खेयम्बो,भन्योऽभन्यो त्ति जेणको मुण? | श्य ते नासग्गाहं, मुयंति जाहे बहं पिजमंता । चोरोत्ति चारिओनि य, होज्ज य परदारगामि त्ति ॥ ता संघपरिच्चत्ता, रायगिहे निवपणा नानं ॥ को जाणइ को सीसो, को वा गुरुप्रोन तम्विसेसो वि । बलनद्देण पयाया, भणंति सावयं तवस्सि नि । गज्का न बोवएमा, को जाण सबमलियं पि॥ मा कुरु संकमसंका-रुहेसु जणिए भणइ राया । किंबहुणा सव्वं चिय, संदिकं जिणमयं जिणिंदा य। को जाणइ के तुब्भे, किं चोरा चारिया अभिमरे वत्ति। परलोयसग्गमोक्खा, दिच्छाए किमत्य प्रारंभो ॥ संजयरूवच्चन्ना, अजमहं भे विवाएमि ॥ अह संति जिणवारिंदा, तव्वयणाओय सम्बपमिवत्ती।। नाणचरियाहि नजर, समणोऽसमणोव कीस जाणंतो। तन्वयणाश्रो च्चिय जइ-वंदणयं विते कहं न मतं ॥ तं सावयसंदेहं, करेमि भणिए निवो जण ॥ सर्वा अपि प्रकटार्थाः । नवरं "जश्णा विन संवासो" - तुम्नं चिय न परोप्पर-वीसंभो साहवो त्ति किह मकं । स्यादिनाऽज्युपगमविरोधो दर्शितः। (अह संतीत्यादि ) अथ नाणचरियाहिँ ता जइ, चोराण व किं न ता संति ।। सन्ति जिनवरेन्याः, तद्वचनसिद्धत्वात् तेषाम् । तद्वचनादेव जवनत्तिो भयान य, पमिवन्ना उ ते समयसम्गाई। च सर्वस्यानि परलोकस्वर्गमोकादेः प्रत्तिपत्तिर्भवति । एवं निवखामियाजिगंतुं, गुरुमनं ते पमिकता॥ तर्हि तद्वचनादेव यतिवन्दनमपि कस्मान सम्मतमिति ?। सर्वेऽप्युक्तार्थाः सुगमाश्च, नवरं नृपतिना बलभमेण 'ते आगअपि च ताः' इति ज्ञात्वा आघाताः पाहूताः,'के यूयम?, इति पृष्टाश्च भ. ज जिणमयं पमाणं, मुणि त्ति तो बज्झकरणपरिमुषं। णन्ति-देश्रावक' इत्यादि । (नाणचरियाहिति) ज्ञानक्रियाभ्यां यो देवं पि वंदमाणो, विसुद्धजावो विसुच्छो त्ति ।। जवतामपि साधव इति विश्रम्भः परस्परं नास्ति, स ताभ्यां कथं Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्वत्तिय श्रानिधानराजेन्द्रः । अव्वाबाह मे जायते । अपि च किं ते कृत्रिमे कानक्रिये चोराणामपिन स्तः, | अब्बसण-व्यसन--पुं० । लोकोत्तररीत्या द्वादशे दिवसे, च भवताति पयविंशमथाऽर्थः॥३०॥ ति तृतीयोऽव्यक्ता जं०७वक भिधाननिहवः समासः। विशे० प्रा० म०। प्रा०चू०॥ अच्चय-अव्यय-पुं० । मताअखएमने, कथमप्यात्मनोऽव्य-| प्रबह--अव्यथ--न० । देवाशुपसर्गजनितं जयं चलने वा व्यथा, यात् । डा0 द्वारा कियतामप्यवयवानां म्ययाऽभावात् । बा. तदनविाऽन्यथा । व्यथाऽभावे शुक्लभ्यानासम्बने, न० २५ श. ५ अगसदाऽवस्थायिनि, विशे० स्था। सूत्रा"धुवे गियर ७ उ० । स्था० । ग०। ०॥ सासए अक्सए अन्धए" अव्ययः,तत्प्रदेशानामव्ययत्वात् । भ० अवडिय--अव्यथित--बिकापरेणानापादितःस्ने, जी०३प्रतिक श०१०। द्वादशाकं प्रवचनमव्ययं, मानुषोत्तराद् बहिः पं० सू० । प्रतामिते, ज०३ श०५उ० । अदीनमनसि, दश समुद्रवदन्ययत्वादेव । नं०। ननु 'यत्कोफिलः किल मधी' इ नापीडिते,पञ्चा०५ विवानिष्पकम्पमाने धीरे,पृ० १ उ०॥ त्यत्र बम्दाने का विभक्तिः, तश्चारुचतकलिका' इत्यत्र तत्रब्दानेच का विभक्तिः । अत्र यत्तचन्दावव्ययौ बा, आमव्ययी अब्बाइक-अव्याविद्ध-नासूत्रगुणमेदे,अव्याविखं यत्तस्य सू. वेति प्रमे-यध्धन्दाप्रे क्रियाविशेषणत्ये द्वितीया विभक्तिर्वाक्या- प्रस्याधस्तनपदमुपरितनम, उपरितनमधोन क्रियते। र्थमादाय,अव्ययत्वे तु प्रथमाऽपि संभवति। तब्दाने तु तस्य अव्वाइद्धक्खर-अव्याविकाकर-न । विपर्यस्तरत्नमालापूर्वपरामर्शित्वेन प्रथमा चिनक्ति, व्याख्यानान्तरेण सप्तम्यपी गतरत्नानि श्व व्याविकानि विपर्यस्तानि अकराणि यत्र तद् ति यत्तच्चदावव्ययावनव्ययौ च वतेते इति सर्व सुस्थमिति। व्याविकाकर,न तथा च्याविद्धाक्षरम । व्याविद्धाकरत्वदोषरहि. सेन०२ उल्ला० १५३ प्रश्न ते सूत्रगुणे, ग०२ अधि० । श्रा०म० । अनु० ॥ अब्बवासिय-अव्यवसित-त्रि०ा अनिश्चयवति, पराक्रमवति च । मनागम-अव्यात-त्रिकामव्यक्तेऽपरिस्फुटे, प्राचा १४०१ स्था। भ०१०। तो गणा अव्यवसिअस्स अहियाए अमुहाए अक्स अव्चाबाह-अव्याबाध-न0 1 न चिद्यते व्यायाधा यत्र तदन्यामाए अणिस्सेसाए अणाणुगामियत्चाए जवंति। तं जहा-से बाधम् । द्रव्यतः खड्गाधभिघातकृतया, नाचतो मिथ्यात्वादिकणं मुंमे भविता अगाराश्रो अणगारियं पब्बइए णिग्गंथे तया, द्विरूपयाऽपि व्याबाधया रहिते वन्दने,प्रव०२ द्वार ।"मपावयणे संकिए कंखिए वितिगिच्चिए भेदसमाव कसुस- चाबाहं दुविहं-दव्वे, भावे य" जव्यतः खड्गाधनिघातव्याबाधासमावने णिम्पयं पावयणं णो सहहरु, णो पत्तिय, णोरो कारणविकले, भावतः सम्यग्रष्टेश्चारित्रवतो चन्दने, प्राव०३ श्र0 शरीरबाधानामभावे, "किं ते ते! अन्याबादं ।सोएइ तं परीसहा अजिजुजिय अभिमुंजिय अभिभवति । मिला! ज मेवातियपित्तियसंमियसम्मिवाश्यावविहरोगापंका मो से परीसहे अभिजिय अभिजुजिय अभिजवइ । सरीरगया दोसा उवसंता णो उदीरेति । सेत्सं अम्बावादं"। से णं मुंमे नवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वए पंच-| भ०१८ श०१०१०। विविधा भावाधा न्याबाधा, तनिषेधात्। हिं महन्मएहिं संकिए० जाव कझुससमाव; पंच महावयाई श्री० व्यावाधावर्जितसुखे, औ० "अचाबाहमुवगयाणं"प्रा० को सहइन्जाव नो से परीसहे अजिजुंजिय अभिजुंजिप महिला "अव्वाबाहमव्वाबाहेण" भव्यायाधमन्याबाधेन,सुध सुखेनेत्यर्थः । ०५ श०४ ००कल्प० । अमूर्तत्वात् (रा०) अजिजवइ । से णं मुंमे भवित्ता अगाराश्रो अणगारियं अकर्मकत्वात (ध०२ अधि०) परेषामपीडाकारित्वात् (. पबदए गहिं जीवनिकाएहिं जाव भनिनव।। १श०१३०) केनापि व्याबाधयितुमशक्यत्वात् (जी०३ प्रति०) ज्याबाधारहिते सिद्धिस्थाने, रागादयो हिन तद्बाधितुं बीपि स्थानानि प्रवचनमहाबतजीवनिकायलकणामि भव्यव प्रभविष्णवः। प्रज्ञा० ३६ पदं । कल्पका राज खुधादिवाधारहिसितस्यानिश्चयवतोऽपराक्रमवतोवाहितायाऽपथ्याय,असुखा तत्वात (ब्रह्मचर्यम् ) प्रश्न०४ सम्बद्वार । गन्धर्वादिलकयमुखाय, भक्षमाय असंगतत्वाय, अनिःश्रेयसाय अमोकाय, भावव्यायाधाविकलो (ध्यानदेशः) भन्यायाधशम्देन विशिष्यते। अमानुगामिकत्वाय-प्राभानुबन्धाय भवन्ति । (सेणं ति) यस्य प्राब ५० व्य बाधन्ते परं पीडयम्तीति व्याबाधा, तश्रीणि स्थानानि अहितादित्वाय भवन्ति,स शहिलो-देशतःस भिषेधादण्याबाधाः। वि० भ०१४ श०८० उत्सरयोः कृष्णराबंतो वा संशयवान, कातितः तथैव मतान्तरस्यापि साधुत्वेन ज्योरन्तर्गतसुप्रतिष्ठाभविमानवासिलोकान्तिकदेवेषु, स्था०८ मतो,विचिकित्सितः फलम्प्रति शङ्कापेतः, मतएव भेदसमाप ठाणभ01 "व्वाबाहाणं देवाणं नव देवा नव देवसया पपणसो वैधीभाषमापता-पवमिदंम चैषमिति मतिका, कलुषसमा सा; एवं अगिच्छा घि, एवं रिटा वि।" स्था० ग0। पत्रो नैतदेवमितिप्रतिपत्तिकः। ततश्च निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थिक प्रशस्तं प्रगतं प्रथम वा पचनमिति प्रवचनम्-प्रागमः । दीर्घत्वं अस्थि नंते ! अबाचाहा देवा ? | हंसा अस्थि । से प्रारुतत्वात् । न भरते सामान्यतः, न प्रत्येति न प्रीति- केणडेणं जंते ! एवं बुच्च अव्वाबाहा देवा । अब्बाबाहाँ विषयीकरोति; न रोचयति नचिकीर्षाविषयीकरोति । तमि देवा गोयमा ! पलणं एगमेगे अन्याबाहे देवे एगमेग. ति, ग एवम्भूतस्तं प्रवजिताभासं, परिषह्यन्ते इति परीषहाः स्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपनंसि दिव्वं देवहिं दिव्वं सुधादयः, अनियुज्य अनियुज्य सम्बन्धमुपागस्य प्रतिस्पसंवा भनिभवन्ति म्यक् कुर्वन्ति इति । शेषं सुगमम् । स्था० देवजवि दिव्वं देवाणुनावं दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं ज. १०४ उ01 बदसेत्तए पो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि भावाहं वा २०५ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (525) प्रव्याबाह भनिधानराजेन्धः। असंक पवाह वा बाबाहं वा उप्पाएइ, विच्छेदं वा करेइ, ए सुहुमं दे; ० ३३० । (अत्र रटान्तः ' उम्गह' शब्दे द्वितीयचणं उबदसेज्जा से तेणटेणं० जाव अव्वाबाहा ॥१॥ भागे ७०० पृष्ठे कष्टव्यः ) अविसंसृते, दशा० ३१०। (अछिपत्तमित्ति) अतिपत्रे प्रक्षिपदमणि ( प्राबाई व | अ HD | अन्नोचिन्न-अव्यवच्छिन्न-त्रिकास्ववंशस्य परम्परया समा. त्ति) ईषद्वाधां (पवाहं वत्ति ) प्रकृष्टवाधां (वाबाहं ति)। गते, ग्य०७०। क्वचित, तत्र तु व्याबाधां विशिष्टामाबाधां (छविच्छेय ति) श्रन्नोचित्ति-अव्यवच्छित्ति-त्रिका "श्रमानोनाः प्रतिषधे"न शरीरच्छेदं ( ए सुदुमं च णं ति) । सूक्ष्ममेवं सूक्ष्मं यथा न्युतित्तिरब्युच्चित्तिः।प्रतिपत्ती,यः स्वयं कृतार्थोऽप्युत्तममवाप्य भवत्येवमुपदर्शयत, नाट्यविधिमिति प्रकृतम् । ज० १४ धर्म परेभ्य उपदिशात । पं० चू० । अव्यवच्छित्या श्रुतं वाचयेत, श०८ उ०। भुतस्य शिष्यप्रशिष्यपरम्परागततयाऽव्यवभित्तियादितिपअव्यावह-अध्यापत-त्रिका व्यापारवर्जिते,“सडियपडियंन की चममव्यवच्छित्तिः कारणम् । आ० म०प्र०॥ रक, जहिय अब्बागम तयं वत्थु"। यत् शटितपतितेयत्र व्यापारः | अव्योच्चित्तिणयह-अव्यवच्छित्तिनयार्थ-पुं० । अव्यबच्चिकोऽपि न क्रियते तद्वास्तु अव्यापृतमुच्यते । इति सक्ति- तिप्रधानो नयोऽव्यवच्छित्तिनयः, तस्यार्थः । ज्ये, भ० ७ स्वरूपे वास्तुभेदे, बृ० ३ उ०। श०३ ०। भव्यावन-अध्यापन-त्रि०। अविभिन्ने,न्य०१ उ०। अविनष्टे,भ० अधोयमा-अव्याकृता-स्त्री० । गम्भीरशब्दार्थायां मन्मना१ श० ७ उ०। क्षरप्रयुक्तायां वा प्रभावितार्थायां वा नापायाम,भ०१०।०४उ०। अव्वाचारपोसह-अव्यापारपौषध-पुं० । व्यापारप्रत्याख्यान असइ-अमृति-स्त्री० । अश्नुते तत्प्रभवेन समस्तधान्यमानानि पूर्वकं क्रियमाणे पोषधोपवासवते, "अम्वापारपोसहो दुविहो. व्यानोति इत्यतिः । प्रवामुखहस्ततलरूपे, तत्परिचिन्ने देसे,सव्ये या देसे अमुगवावारं करेमि, सम्बे ववहारे से बल धान्ये च । अनु० । प्रसृतेर, ज्ञा० ७० ।"दो मसईओ सगडघरपरिकम्मादयो न कीर" | प्राव० ६ ०। पसई"Iोघ० । अब्बावारमुहिय-प्रव्यापारसुखित-त्रि०ा तथाविधव्यापारर अस्मृति-स्त्री० । अस्मरणे, ध.१ अधिः। हिततया सुखिनि, वृ. ३३०। अन्वाहय-अव्याहत-त्रि० । अनुपहते, वो० १४ विवास्वपरा-असई-असकृत-अव्य० । प्रमेकश श्त्यथे, पञ्चा०१०विवः । विरोधिनि, व्य०१३० । अन्याधिते, नं० । आचा। भ०1"असरंतु मणुस्सोहि, मिच्गदमो पजुज" - अव्वाहयपुवावरत्त-अव्याहतपूर्वापरत्व-न० । पूर्वापरवा सकृद् वारंवारम् । उत्त०९ अ०पं० ब०। जी। योग "असई क्याऽविरोधरूपे सत्यवचनातिशये, रा०। स०॥ घोसट्टचसदहे"। न सदसकृत, सर्वदेत्यर्थः । दश०१० अ०। अवाहिय-अव्याह(कृत-त्रि० । अनाहूते, जी० ३प्रति० । अ असई-असती-स्त्री० । दुःशीलायाम, ०२ अधि० । दास्याम, कथिते, "मवाहिते कसाश्या" प्राचा० १ श्रु० ए ०२ उ० । भ०० श0 उछ । प्रव०।। अव्वुकंत-अव्युत्क्रान्त-त्रिका अपारणतविध्वस्तप्रासुके, ग.।। असईजणपोसण या-(स्त्री०)असतीजनपोषण-ना असतीज२ अधिक। नस्य दासीजनस्य पोषणं तद्भारिकोपजीवनार्थ यत तत्तथा। भन्यो-प्रव्यो-अव्य०/ संबोधनादौ, व्य०७ ३० । एवमन्यदपि करकर्मकारिणः प्राणिनः पोपणमसतीजनपोषणअन्वो सूचना-दुःख-संभाष गापराध-विस्मयानन्दादर मेवेति । दासीजनस्य क्रूरकर्मकारिणो वा पोषणे, उपा०१ म०। जय-खेद-विषाद-पश्चात्तापे ।।२०४॥ असईपोस-असतीपोप-पुं० । असत्यो दुःशीलास्तासां दासी'अम्बो' इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम् । सूचनायाम-"अञ्चो सारिकादीनां पोषणं पोषोऽसतीपोषः। तत्र लिलमतन्त्रम, तेन दुक्करयार"।दुःखे-"अब्बो दलंति हिअ ग्रं" संभाषणे-"अम्वो शुकवादीनामपि पुंसां पोषणमसतीपोषः । यदवाचि-"मजाकिमिणं किमिणं ?" | अपराधविस्मययोः रमोरमक्कड-कुक्कमसारीयकुक्कुराईणं । दिन्थिनपुंसाई-ण "अमोहरति हिमश्र, तह विन बेसा हवंति जुईण । पोसणं असपोसणयं " ॥१॥ प्रव० ६ द्वार । दुःशीअवो कि पि रहस्सं, मुणंति धुसा जणब्भहिमा" ॥१॥ लानां शुकसारिकामयूरमार्जारमर्कटकुक्कुटकुक्कुरशूकरादितिश्रानन्दादरजयेषु रश्चां पोषणे, भाटीग्रहणार्थ दास्याश्च पोष, गोल्लदेशे प्रसिको"अब्बो सुपहायमिणं, अन्वो अज्जम्ह सप्फलं जी। ऽयं व्यवहारः । एषां च दुःशीनानां पोषणं पापहेतुरेवेति अम्वो अइअम्मि तुमे, नवरं जर सान जूरिदिर" ॥ दोषः पश्चदशं कर्मादानमेतत् । ध०२ अधिः। श्रा०ाभ। खेदे-"अब्बो न जामि छेतं"। विषादे ध०र० । (असतीपोषणं तु तुानेन साधुना रूमकेन्यो न देयमिति 'जोयण' शब्दे वत्यते) "अब्बो नासेंति दिहि. पुनयं बति देति रणरणयं । परिह तस्सव गुणा, ते चित्र अब्बो कह ए एग्रं?" असण-अशकुन-पु.न.त० । आक्रन्दध्वनिप्रतिषेधषचपश्चात्तापे-"अवोतह तेण का,अहवं जह कस्स साहेमि?" मप्रनृती शकुनविपरीते अनिष्टार्थसंसूचके, पञ्चा७विव०। प्रा०२ पाद । पं० व०। ध। अवोगड-अव्याकृत-त्रि० । अविशेषिते, बृ०२२० । अब्वो. असंक-अशडु-नन विद्यते शङ्का यस्य मनसस्तदशकम् । गडमविनत्तं"। अव्याकृतं नाम यहायादैरविनक्तमिति। वास्तुने- निशङ्के, आचा० १ ० २ ० ३ उ०। Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संका विज अलि-अशनीय शि० फूटपाशादिरहिते - स्थाने, सूत्र० १ ० १ ० २८० । असंकपिय-सङ्कन्पित-जि० स्पार्थ संस्कुता सान्यतया मनसाऽप्यकल्पिते, भ० ७ श० १३० । संकम - असङ्क्रम- पुं० । परस्परममीलने, अष्ट० १४ अष्ट० संक्रमण -प्रशङ्कमनस्- त्रि० । अशङ्कं मनो यस्यासौ अशङ्कमनाः । उपोदमनियमफलत्वा शङ्कारहिते शास्तिक्यमत्युपपेते, मात्रा० १ ० २ श्र० ३ उ० । असंकि ( ण् )--अशङ्किन् --त्रि० । शङ्कामकुर्वाणे, सूत्र० १ श्रु० । १ ० २३० । (१८) अभिधानराजेन्द्रः । संकिय-अशङ्कित त्रिशनीये " प्रकिया संकति, संकिया असंकिणो । " सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । असंकि लिड असंक्लिष्ट - त्रि० । विशुद्धाध्यवसाये, श्रातु० । निषणे "अकिलिद्वाई पत्याई औ० विशुध्यमानपरिणामवति, प्रश्न० १ सम्ब० द्वार । 66 प्रसंकि लिट्ठायार-संक्लिष्टाचार-पुं० । अक्लिष्ट श्हपरलोकाशंसारूपसंक्लेश विप्रमुक्त श्राचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः । व्य० ३ ० | सकलदोषपरिहारिणि, व्य० ३ उ० । संकिलस-असंक्लश-पुं० । विशुद्धयमानपरिणामदेतुके संदेशाभावे " तिथि असंकिलसेवाले इंसफिलेले, किलेसे" स्था० २०४० " असं किले से परम तं जदा उपसिकिसे जायर किलेसे" स्था० १० ठा० । (अस्य 'संकिलेस' शब्दे व्याख्या ) असंख० अविद्यमानसचे उत०५ ० अवि - - द्यमानपरिमाणे च । हा० २६ अष्ट० । संवगुणीरिय-असंख्यगुणदीर्थ नि० प्रसंख्यातगुणयोगे, कर्म० ५ कर्म० । अट० । असं असंयम न० बाचिके कलहे नि० ० १४० । ग० । वृ० ॥ संखमिय-संखमिक पुं० । फलदशीले, वृ० १ ० 1 प्रसंस्वय--असंस्कृत--त्रि० । उत्तरकरणेनात्रुटिते पटादिवत्संधातुमत्ये, उत्त असंस्कृतं जीवितमित्युक्तमतस्तद्व्याचिख्यासुराह निर्युतिकृत्उत्तरकरणेण कथं नं किं भी संखयं तु शायव्यं । से असंखयं खलु असंखपस्सेस णिज्जुती || उत्त० नि० १ खराम । मूलतः स्वदेत उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं विशेषाधानात्मक करणमुत्तरकरणं, तेन कृतं निर्वर्तितं यत् किञ्चिदित्यवित्र तिघ टादि, (यतदोर्नित्यमभिसंबन्धत्वात्) तत् संस्कृतम् । तुरवधा रणे । सचैवं योज्यते यदुत्तरकरणकृतं तदेव संस्कृतं ज्ञातव्यम् । शेषतोऽन्यत् संस्कारामुचितं विदीर्णमुक्ताफलोपममसंस्कृतमेथ, अनुशब्दस्यैवकारस्यात् । प्रसंस्कृतमित्यस्य सुनाय या पक्ष्यमाणा नियुक्तिरिति निक्षेपनि क्तव्यतया च प्रतिज्ञातम् । अथवा यथाऽऽचारपञ्चमाध्ययनस्य 31 असंखलोगसम 9 । 6 " 'आयंती' इत्यादिना पदेन नाम, तथाऽस्याप्य संस्कृतमिति नाम । ततश्यासंस्कृतनाम्नो स्वैपायनस्यैषा नामनिष्पनिज्ञेपनिर्युक्तिः, तत्प्रस्ताव एव व्याख्यातव्येति गाथाऽर्थः । उत्त०४ अ० । येन करणेनात्र प्रकृतं तदाहकम्मगसरीरकरणं प्रापकरणं असंखयं तं तु । तेहिगारो तम्हा, न अप्पमादो इह चरितम्मि ।। कर्मकशरीरकरणं कार्मणदेहनिर्वर्त्तनं तदपि ज्ञानावरणादिनेदतो ऽनेकविधमित्याह-आयुष्करणमिति। आयुषः पञ्चमकप्रकृत्यात्मकस्य करणं निवर्तनमायुष्करणमा (असंखयं तं तु चि) तत्पुनरायुष्करणम संस्कृतमुसरकरणे - दितमपि पटादिवत्सं धातुं न शक्यम् । यतः- “फट्टा तुट्टा च श्ह पडमादी संजयंति नयनिउणा । सा का वि नरिथ नीती, संधिजर जीवियं जीए " ॥१॥ एवं च स्वरूपतो हेतुतो विषयतश्च व्याख्येस्वरूपतो हेतु उत्तरकरणेन कथं इत्यादिना प्रत्ये व्याख्यातम् । अनेन त्वायुष्करणस्यासंस्कृतत्वोपदर्शनेन विषयतः इदानीं तूपसंहारमाह- ( तेण अडिगारो शिवा कर्मणा संस्कृतेनाधिकार (सदा ितस्माद शब्दोऽवधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः संबन्धः । ततोऽयमर्थः यस्मादसंस्कृतमायुष्कर्म तस्मादप्रमाद एव प्रमादाभाव एव, चरित्रे इति चरित्रविषयः कर्त्तव्य इति गाथार्थः । उत्त० ४ भ० ॥ संत मालापकविभ्यन्ननिपावसरः स च सूत्रे सति भवति । तथेदमअसंखयं जीवि मा पमायए, जरोवलीयस्स हु नात्य तार्थ । एवं वियाग्राहि जो पमते, कथं विहिंसा अजया मिहिंति।। संस्क्रियत इति संस्कृतं न तथा असंस्कृतम् शक्रशतैरपि सतो पर्फवितुं त्रुटितस्य या कायदस्य संधामक्यत्वात् । किं तत् ?, जीवितं प्राणधारणरूपम् । ततः किमिस्वाहमा प्रमादीः किमुक्तं भवति यदीदं कथचित संस्क तु शक्यं स्वाचतुरङ्गधा धर्मेऽपि प्रमादो दोषायैव स्यात; यदा कृतं तत्परिक प्रमादिनस्तदतिक्रममिति मामा कृथाः कुतः पुनरसंस्कृतम, जरया पोहानिक पया उपनीतस्य प्रक्रमान्मृत्युसमीपं प्रापितस्य प्रायो जरा न तरमेव मृत्युरित्येवमुपदिश्यते । दुर्हेतौ, यस्मान्नास्ति न विद्यते त्राणं शरणं येन मृत्युरा स्थाद उकं च पाचक:-"मङ्गलैः कौतुके विद्यामन्त्रस्तयोपयेन शका मरणात् श्रातुं, सेन्द्रा देवगणा अधि" ॥ १ ॥ यद्वा स्थादेतत् पाये धर्मविधास्यामीत्याशक्याह-जरामुपनीतः प्रापितो गम्यमानत्वात्स्वकर्मनिर्जरोपनीतः, तस्य नास्ति त्राणं, पुत्रादयोऽपि हि न तदा पालयन्ति तथा चात्यन्तमवधीरणा स्यात् श्रस्य न धर्मे प्रति शक्तिः, श्रद्धा वा भावना । यद्वा-त्राणं येनासावपनीयते पुनर्यौमनमानीयते न साकरणमस्ति ततो याचदसौ नासादयति ता बद्धम् मा प्रमादी उर्फ हि "तथापि जरया रो बाध्यते प्रसभम् । तावच्छरीरमसी विद्वाय धर्मे कुदयमतिम् ॥ १॥ उत्त०४ श्र० । (जरोपनीतस्य च त्राणं नास्तीत्यत्र दृष्टातोऽनमशः, तत्कथा च 'अट्टण' शब्दे अत्रैव भागे २३= पृष्ठे उता उतराध्ययनेषु चतुर्थेऽध्ययने त प्रमादाप्रमादामि धायकमप्यादानपदेना संयमित्युच्यते सू० १ ० १० ० प्रसंखलोगसम असलोकसम त्रि. असंख्येयलोका 55काशप्रदेशप्रमाणे कर्म०५ कर्म० 9 Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंखेज्ज अन्निधानराजेन्द्रः। असंखेज्जय असंखेज-असंख्येय-त्रि० संख्याऽतीते, भ०१ श०५ उ० । ग- संख्यानामित्यर्थः । राशीनामन्योन्यमन्यासः परस्परं गुणणनामतिक्रान्ते, भा००१०।। नास्वरूप एकेन रूपेणोन उत्कृष्ट परीतासंख्येयकं भवतीति । अमंखेज्जकालसमयहि-अमाथेयकालसमयस्थिति-पुं०। प. इदमत्र हृदयम-प्रत्येकं जघन्यपरीतासंख्येयस्वरूपा जघन्य परीतासंख्येयका पव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तः पुजा व्योपमाऽसद्धेयभागादिस्थितिषु नैरविकादिषु एकेन्द्रियविक-| व्यवस्थाप्यन्ते । तैश्च परस्परं गुणितयों राशिर्भवति स एकेन लेन्डियवर्ज वैमानिकपर्यन्तेषु, स्था० । “बिदा हया कपेण हीनमुन्कृष्टं परीतासंख्येयकं मन्तव्यम् । अत्र सुखप्रति - पएणतातं जहा-संखेज्जकालसमयडिया चेव,भसंस्खेज्जका पत्यर्थमुदाहरणं दर्यते-जघन्यपरीतासंख्येयके किलासत्कससमयहिया चेव । एवं एगिदियविगदियबज्जा० जाव ल्पनया पक्ष रूपाणि संप्रधार्यन्ते। ततः पचव बाराः पञ्चपञ्च वाणमंतरा" | स्था० २ ग०२३०॥ व्यवस्थाप्यन्ते। तथाहि-५1५1५1५1५। अत्र पञ्चनिः पञ्च असंखेज्जगुणपरिहीण-असंख्यातगणपरिहीण-त्रि०। गुणिताः पञ्चविंशतिः। सा च पञ्चभिराहता जातं पञ्चविंशसंख्यातगुणेन परिहीणो यःस तथा। असंख्येयभागमात्रे,ौ। शतमित्यादिकमेणामीषां राशीनां परस्पराज्यासे जातानि पअसंखेज्जजीविय-असङ्ख्यातजीवित-पुं० । असंख्यजीवा- ञ्चविंशत्यधिकान्यकत्रिशच्चतानि । एतत्प्रकल्पनया पताधम्मास्मकेषु वृक्केषु, भ० । " से किं तं असंखेजजीविया ?। असंखे- मः । सद्भावतस्त्वसंख्येयरूपो राशिरकेन रूपेण गुणहीन उत्कजजीविया दुविहा पएणत्ता । तं जहा-एगहिया,बहुट्टिया य"। टं परीतासंख्येयमित्याद्यनन्तरोक्ताद्वियुक्तासंख्येयकादेकस्मिन् भ०७ श०३१०। रूपे समाकर्षिते उत्कृष्ट परीतासंख्येयकं निष्पद्यते इति प्रतीयत एव । इत्युक्तं जघन्यादिभेदभिनं त्रिविधं परीतासंख्येयकम ॥ असंखज्जय--असंख्येयक--न० । गणनासंख्याभेदे, अनु० ।। अथ तावद्भेदभिन्नस्यैव युक्तासंख्येयकस्य निरूपणार्थमाहसे कितं असंखेन्जए | असंखेज्जए तिविहे पहाते । जहस्मयं जुत्तासंखेज्जयं केवइअं हो ? । जहन्नयं- जुत्तातं जहा-परित्तासंखज्जए, जुत्तासंखेज्जए, असंखज्जा. संखेजयं जहमयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अन्नसंखेज्जए । से किं तं परित्तासंखेज्जए । परित्तासंखेज्जए मसभासो पमिपुस्मो जहन्नयं जुत्तासंखेजयं हो। अहवातिविहे पाते । तं जहा-जहए, नकोसए, अजहममाणु सक्कासए परित्तासंखेज्जए रूवं पक्वित्तं जहस्मयं जुत्तासंखे. कोसए। से किं तं जुत्तासंखेज्जए । जुत्तासंखेज्जए तिविहे परमत्ते । तं जहा-जहामए, उक्कोसए, अजहलम जय हो।आवलिभावि तत्तिआ चेव । तेण परं अजहमणुक्कोसए । से किं तं असंखेन्जासंखजए। असंखेज्जासंखे माणुकोसयाइं गणाई० जाव नकोसयं जुत्तासंखेजयं न ज्जए तिविहे पपत्ते । तं जहा-जहमए, उक्कोसए, अज पाव । उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं केवश्अं होइ ? । जहा एणं जुत्तासंखेज्जएणं श्रावलिआ गुणिमा अन्नममब्भासो हसमणुकोसए॥ सवणो उकोसयं जुत्तासंखेज्जयं होइ । महवा जहर असंख्येयकं तु-परीतासंख्येयकं, युक्तासंख्येयक, असंख्येया- | ऽसंख्येयकम । पुनरेकैकं जघन्यादिभेदात् विविधमिति सर्व-| असंखेज्जासंस्त्रज्जयं रूघृणं उक्कोसयं जुत्तासंखेज्ज होई॥ मपि नवविधम् ॥ (जहमयं जुत्तासंखेजयं केवअमित्यादि)। अत्रोत्तरम-(ज. अथ नवविधमसख्येयकं प्रागुद्दिष्टं निरूपयितुमाह हस्मयं परित्तासंखेजमित्यादि ) व्याख्या पूर्ववदेव । नबरं-(प्र अमनब्जासो पडिपुत्रो सि) अन्योन्याभ्यस्तः स परिपूर्ण एव एवामेव उकोसए संखेजए रूबे परिखते जहस्मयं परि राशिरिद गृह्यते,नतु रूपं पात्यत इति नावः। (अहवा उक्कोसए तासंखेज्जयं भवइ । तेण परं अजहममाकोसयाई ग परिसासंखेजए इत्यादि) प्रावितार्थमेव । (प्रावलिया तत्तिपाइं जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ । उको- था वेव ति) याचन्ति जघन्ययुक्तासंख्येयके सर्षपरूपाणि प्रासयं परित्तासंखेज्जयं केवइ हो । जहस्मयं परित्तासंखे प्यन्ते प्रायसिकायामपि तावन्तः समया नवन्तीत्यर्थः । ततः ज्जयं,जहन्नयपरित्तासंखेन्जमेवाणं रासीणं अन्नमणम्भासो सूत्रे यत्रापलिका गृह्यते तत्र जघन्ययुक्तासंस्येयकतुल्यसमय राशिमाना सा कष्टव्या । (तेण परमित्यादि ) ततो जघन्ययुस्वणो नकोसं परित्तासंखेजयं होइ । कासंख्येयकात्परत एकोत्तरया वृद्ध्या असंख्येयान्यजघन्यो(एवामेंव सि) असंख्येयकेऽपि निरूप्यमाणे एवमेवानवस्थि- टानि युक्तासंस्थेयस्थानानि भवन्ति, याबदुत्कृष्ट युक्तासंख्येयक तपल्यादिनिरूपणा क्रियत इत्यर्थः । तावद्यावदुत्कृष्टसंख्येच- न प्रामोति । अत्र शिष्यः पृच्छति-(उकोसयं जुत्तासंखखय. कमानीतं, तस्मैिश्च याषदेकं रूपं पूर्वमधिकं दर्शितं तथवा तत्रै- मित्यादि) अत्र प्रतिवचनम्-(जदमएणमित्यादि ) जघन्येन व राशौ प्रक्तिप्यते तदा जघन्यं परीतासंख्येयकं भवति । युक्तासंख्येयकेनावलिका समयराशिर्गुण्यते । किमुक्तं भवति?. (तेण परमित्यादि) ततः परं परीतासंख्येयकस्यैवाजघन्योत्- अन्योन्यमन्यासः क्रियते,जघन्ययुक्तासंस्थेयराशिस्तेनैव राशिना कृष्टानि स्थानानि भवन्ति यावदुत्कृष्ट परीतासंख्येयकं न गुएयत इति तात्पर्यमा एवं न कृते यो राशिर्भवति स एव एके. प्राप्नोति। शिभ्यः पृचति-कियत्पुनरुत्कृष्ट परीतासंख्येयकं भव. न रूपेणोन उत्कृष्टयुक्तासंख्येयकं भवति । यदि पुनस्तदेव तद्रूपं ति? । अत्रोत्तरम्-(जड़मयं परित्तासंखेज्जयं ति) जघन्यप- गुण्यते तदा जघन्यमसंख्यासंख्येयकं जायते । अत एवाहरीतासंख्येयकं यावत्प्रमाणं भवतीति शेषः, तावत्प्रमाणानां (अहवा जहायं असंखेज्जासंखेजयं रुचूणमित्यादि) गता. जघन्यपरीतासंख्येयकमात्राणां, जघन्यपरीतासंण्येयकमतरूप-| र्थम् । उक्तं युक्तासंख्येयकं त्रिविधम् । Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5२१) असंखेन्जय अभिधानगजेन्द्रः। असंवेज्जय इदानीमसंख्येयासंख्ययक विविध विभणिपुराह- घन्यामंख्येयासंख्येयकं त्रिवयित्वा सशरािशी, परम्पर जहनयं असंखेज्जासंखेज्जयं केवइयं होइ? । जहन्नएणं श्रीन वारानज्यस्येत्यर्थः । अयमत्राशयः-जघन्यासंख्येयास ख्येयकराशेः सदशद्विराशिगुणनलकणो बों विधीयते, नस्यागणाई जुत्तासंखेज्जएणं प्रावलिया गुणिया अपमहा पि वर्गराशेः पुनर्गः क्रियते, तस्यापि धराशेः पुनरपि वर्गो भासो पमिपुमो जहालयं असंखेज्जासंखेज्जयं होइ । निप्पाद्यते इति । ततः किमिन्याह-इमान वक्रयमाणम्वरूपान, अहवा उकोसए जुत्तासंखेज्जए रूवं पक्वित्तं जहप्तायं अ- (दसेति) दासस्यान किप्यन्त इति । "कमगि घनि"नेपा:-प्र. संखेज्जासंखेज्जयं होश । तेण परं अजहणमणुक्कोसयाई० केपर्णीयगायनान् विपम्व निधेहीव्युत्तग्गाथायां सम्बन्धः। नथाहि-बोकाकाशम्य प्रदेशाः, धर्मश्चाधर्मश्चैक जवश्व धधिजाव नकोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं ण पावइ । उक्कोसयं मैकजीवाः, तेषां देशाः प्रदेशाः । अयमत्रार्थ:-धम्तिकाय. असंखेजासखजय केवश्यं होइ ? | जहमयअसंखेजासं- प्रदेशाः, अधर्मास्तिकायप्रदेशाः, एकजीवप्रदेशाश्व ॥८॥ खेजयमेत्ताणं रासीणं असमाभासो रूवृणो उक्कोसयं तथाअसंखेज्जासंखेजयं हो॥ ठिबंधऽवसाया, अणुभागा जोग यपनिजागा । ( जहमयं असंखज्जासंखेज्जयमित्यादि ) इदं तु सूत्रं भा-| एह य समाणसमया, पत्तेयनिगोयए विनम् ।। ७२॥ बितार्थमेव । नवरं (पमिपुरको त्ति ) परिपूर्णी रूपं न पात्यत इत्यर्थः । 'अहवा' इत्याद्यपि गतार्थम् । (तेण परामत्यादि)। स्थितिबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि कपायोदयततः परं ( असंखेज्जासंखेज्जकं केत्तिर्यामत्यादि ) अत्रो रूपाण्यध्यवसायशब्देनोच्यन्ते, तान्यसंख्येयान्येव । तथाहित्तरम्-(जहस्मयं असंखेज्जासंखेजयेत्यादि) जघन्यमसंख्ये झानावरणस्य जघन्यान्तर्मुहर्तप्रमाणः स्थितिबन्धः, उत्कृष्टतयकं यावद्भवतीति शेषः । तावत्प्रमाणानां जघन्यासंख्येयक स्तु त्रिंशत्सागरोगमकोटाकोटिप्रमाणः, मध्यमपदे त्वद्वित्रिरूप संख्यानामित्यर्थः । राशीनामन्योन्यमन्यासः परस्पर गु चतुरादि समयाधिकान्त हादिकोऽसंख्येयनेदः । एषां स्थिणनास्वरूपः, एकेन रूपेणोन उत्कृष्टमसंख्येयासंख्येयकं भवति । तिबन्धानां निर्वर्तकान्यध्यवसायस्थान नि प्रत्येकमसंख्येयझोअयमत्र जावार्थ:-प्रत्येकं जघन्यासंख्येवासंख्येयक रूपा जघन्या काकाशप्रदेशप्रमाणानि भिन्नान्यध । एवं च सत्येकस्मिन्नपि ऽसंख्येयाऽसंख्येयका एव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तो रा. ज्ञानावरणेऽसंख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि लज्य न्ते । एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यम । (अपनाग त्ति) शयो व्यवस्थाप्यन्ते । तेश्च परस्परगुणितयों राशिर्भवति स अनुभागा ज्ञानावरणादि कर्मणां जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसएकेन रूपेण हीन उत्कृष्टमसंख्येयासंख्येयकं प्रतिपत्तव्यम् । विशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निर्वर्तकान्यसंख्येयलोकाउदाहरणं चात्राप्युत्कृष्टपरीतासंख्येयकोक्तानुसारेण वाच्यम् । काशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्त्यतोऽनुभागविअनु०॥ शेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याः, कारणलेदाश्रितत्वात्कार्यभेदासाम्प्रतमसंख्यातानन्तकस्वरूपमाह नाम । ( जोगळेयपलिनाग त्ति ) योगो मनोवाक्कायापयं वाइय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमेकसि चउत्थयमसंखं । य, तस्य केलिप्रज्ञाचोरेन प्रतिविशिष्टा निर्विजागा भागा योहोई असंखासखं, लहु रूवजुयं तु तं मझं ॥ ७॥ गच्छेदपरिभगाः। ते च निगोदादीनां संझिपश्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानामाश्रिता जघन्यादिनेदभिन्ना असंख्येया मन्तव्याः । (अन्ने वग्गियमित्यादि ) अन्ये आचार्या एके सूरय एवमाहुः-यथा ( दुण्ह य समाणसमय त्ति) द्वयोश्च समयोरुत्सर्पिण्यवसचतुर्थकमसंख्यं जघन्ययुक्तासंख्यातकरूपं,वर्गितं तावतैव राशिना पिणीकामस्वरूपयो समया असंख्येयस्वरूपाः । ( पत्तयनिगुणितं सतू, (एक्कमिति) एकवारं, भवति जायते संपद्यतेऽसंख्यासंख्य,लघु जघन्यं, जघन्यासस्यातासंख्यातकं भवतीत्यर्थः। गोयप त्ति) अनन्तकायिकान् वर्जयित्वा शेषाः पृथिव्यपुतेजो. अत्रापि मतेऽसंख्यातकमुद्दिश्य मध्यमोत्कृष्टभेदप्ररूपणा पूर्व कै. वायुवनस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः, सर्वेऽप जीवा इत्यर्थः, ते वेति दर्शयत्राह-(रूवजुयं तु तं माझं ति) रूपेण सर्पपल चासंख्येया जवन्ति । निगोदाः सृदमाणां बादराणां चानन्तका यिकवनस्पतिजीवानां शरीराणीत्यर्थः, ते चासंख्याताः । एव. क्षणेन युतं रूपयुतम् । तुरवधारणे, व्यवहितसम्बन्धश्च । तदिति-तदेवानन्तराभिहितं जघन्यासंख्येयासंख्येयादिकम् । किं मेते प्रत्येकमसंख्येयस्वरूपा दश केपास्तान् विपस्व ॥ ८२ ॥ भवतीत्याह-मध्यं मध्यमासंख्येयासंख्येयादिकं भवति ॥२०॥ अथ राशिदशकप्रक्षेपानन्तरं तस्यैव राशयस्मिन् विहिते रूबूणमाइमं गुरु, तिवम्गिलं तं इमं दसक्खेवे । यद्भवति तदाहसोगागासपएसा, धम्माधम्मेगनीवदेसा य ।।१।। पुणरवि तम्मितिबग्गिएँ, परित्तऽणत लहु तस्स रासीणं । तदेव जघन्यासंख्येयासंरयेयादिकं रूपोनमेकेन रूपेण रहितं अब्जासे बहु जुत्ता-तं अब्भव जिप्रमाणं ॥ ३ ॥ सत्,पादिमं तदपेक्वयाऽऽद्यस्य राशेः संबन्धि गुरु उत्कृष्ट नव- पुनरपि ( तम्मि ति ) तस्मिन्ननन्तरोदिते प्रतिप्रक्षेपतीति । अयमत्राशयः-जघन्यासंख्येयासंख्येयकं रूपोनं सद् युक्ता- दशके, त्रिवर्गिते श्रीन वारान् बर्गिते सति, परीतानन्तं अघ संख्यातकमुत्कृष्टं भवति, जघन्यपरीतानन्तक रूपोनमसंख्येया- जघन्यं नवति । इदमुक्तं भवति-जघन्यासंख्येयासंण्येयकसंख्येयकमुत्कृष्ट भवति, जघन्ययुक्तानन्तकं तु रूपोनमुत्कृष्टं प- स्वरूपं वारत्रयं वर्गिते राशी ते केपाः क्षिप्यन्ते । तत इत्थं रीतानन्तकं जवति, जघन्यानन्तानन्तकं तु रूपोनमुत्कृष्ट युक्ता- पिण्डितो यो राशिः संपद्यते स पुनरपि वारत्रयं बम्यते । नन्तकं भवतीति । अधुना जघन्यपरीतानन्तकं मतान्तरण | ततो जघन्य परीतानन्तकं भवतीति । दमिदानी जघन्ययुक्तानप्ररूपयन्नाह-(तिवग्गिउं तं इत्यादि ) तदिति प्रागभिहितं ज-| न्तकनिरूपणा याह-(तस्स रासीणेत्यादि ) तस्य जघन्यपरी २०६ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (८२) असंखेज्जय अन्निधानराजेन्डः। असंघयण तानन्तकस्य, संबन्धिनां राशीनामन्योन्यमज्यासे सति, बघु ज- जघन्योत्कृष्टशब्दवाच्यमनन्तानन्तकं द्रष्टव्यम् । कर्म०४ कर्म। घन्यं युक्तानन्तकमभव्यजीवमानं भवति । श्यमत्र भावना-जघ- (यद्यपीदं पूर्व 'अणंतग' शब्देऽस्मिन्नेय भागे २६५ पृष्ठे नाविन्यपरीतानन्तके ये गशयः सर्षपरूपाः, ते पृथक पृथग् व्यव-| तं, तथापि मनान्तरणेहोपन्यस्तम्) स्थाप्यन्ते, तेषां तथाव्यवस्थापितानां जघन्यपरीतानन्तकमा- असंखेजवित्थम-असंख्येयविस्तृत-त्रि०। असंख्येयानि यो नानां राशीनामन्योऽन्यायासे सति युक्तानन्तकं जघन्य न जनसहस्राणि आयामविष्कम्नेण,असंख्येवानि योजनसहस्राणि वति । तथा जघन्ययुक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि वर्तन्ते, अभ परिक्वेपेण च विस्तृते, जी०३ प्रति। यसिद्धिका अपि जीवा केवलिना तावन्त एव रष्टा इति ।।८३॥ असंग-असह-त्रि० । बाह्याभ्यन्तरसकरहिते, प्रका० ५ पद। अथ प्रसङ्गतो जघन्यानन्तानन्तकप्ररूपणमप्याह आव०। प्रव० । न विद्यते सङ्गोऽमूतत्वाद् यस्य स तथा । तब्बग्गे पुण जायइ, ताणंत बहुतं च तिक्खुत्तो। श्राचा० १७०५० एउ। आत्मनि सविकले. पो० ८ वग्गसु तह वि न तं हो-तखेवे खिवसु उ इमे || विव० । अभिष्वङ्गाभाववति, पो०१४ विव० । मोके, पं0 4. ३द्वार । सकसक्लेशाऽनावात (ौ०) सिद्धे, तनुल्यावस्थे, तस्य जघन्ययक्तानन्तकराशेर्वर्गे सकृदन्यासे-तद्वर्गे कृते स च । " भये च हर्षे च मतेरविक्रिया, सुखेऽपि दुःलेऽपि च निति, पुनर्भूयोऽपि, जायते संपद्यतेऽनन्तानन्तं लघु जघन्यं,जघ विकारता । स्तुतौ च निन्दासु च तुल्यशीलता, बदन्ति तांत. न्यानन्तकं जयतीत्यर्थः । उत्कृष्टानन्तानन्तकप्ररूपणायाह-(तंच तिक्वुत्तो इत्यादि) तश्च तत्पुनर्जघन्यमनन्तानन्तं त्रिकृत्वा त्वविदोऽह्यसङ्गताम" ॥१॥षो०१५ विव०। श्रीन् वारान् वर्गयस्व-तावतैव राशिना गुणय। अयमत्रार्थ:- प्रसंगह-असंग्रह-पु०। असंग्रहशीले, व्य०४ उ० । जघन्यानन्तानन्तकराशेस्तावतैव राशिना गुणनस्वरूपो वर्गः असंगहरुड-असंग्रहरुचि-पुं०। न विद्यते संग्रहे रुचिर्यस्य सः। क्रियते, ततस्तस्य वर्गितराशेः पुनवर्गः, तस्यापि वर्गितराशे - गच्छोपग्रहकरस्य पीगदिकस्योपकरणस्यैषणादोषविमुक्तस्य योऽपि वर्ग इति । तथाऽपि-पवमपि,वारत्रयं वर्ग कृते ऽपि; त लज्यमानस्यात्मम्भरित्वेन संग्रहे रुचिमनादधाने, प्रश्न० ३ दुत्कृष्टमनन्तानन्तकं,न भवति न जायते । ततःकि कायम. सम्ब० द्वार। स्याह-अनन्तक्षेपानिमान् वक्ष्यमाणस्वरूपान् पट् षट् संख्यान विपस्व निधेहीति ॥४॥ असंगहिय-असंग्रहिक-पुं० । व्यवहारनयमतानुसारिणि कि शेषवादिनि नैगमे, विशे। तानेव पानन्तकेपानाह असंगृहीत-त्रि० । अनाश्रिते, स्था०००। सिद्धा निगोयजीचा, वणस्सई.काल पुग्गमा चेव ।। असंगाणुहाण-असङ्गानुष्ठान-न० । निर्विकल्पस्वरसवाहिसबमलोगनहं पुण, तिवग्गिरं केवल उगम्मि ।। ५ ।। प्रवृत्तौ, ध०१ अधिः । अष्ट।। सर्व एव सिहा निष्ठितनिःशेषकर्माणः, निगोदजीवाः सम ध्यानं च विमले बाधे, सदैव हि महात्मनाम् । स्ता अपि सूक्ष्मजादरभेदभिन्ना अनन्तकायिकसत्त्वाः,वनस्पतयः प्रत्येकानन्ताः सर्वेऽपि वनस्पतिजीवा। काल शति-सर्वोऽप्य सदा प्रसूमरोऽनन्ने, प्रकाशो मगने विधोः ॥ ३०॥ तीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः, पुशलाः समस्तपुलरा- (ध्यानं चेति) विमले बोधे च सति महात्मनां सदैव हि शेः परमाणवः । सर्व समस्तम्, अलोकनभोऽलोकाकाशामति; ध्यान भवति, तस्य तनियतत्वात्। रष्टान्तमाह-अनभ्रेऽभ्ररहिते उपक्षणत्वात् सर्वोऽपि लोकालोकप्रदेशराशिः, इत्येताशि- गगने विधोखदितस्य प्रकाशः सदा प्रसमरो नपात, तथा: प्रक्षेपानन्तरं यस्मिन् कृते यद्भवति तदाह-पुनः पुनरपि विर्व- वस्थास्वान्नाव्यात् ॥२०॥ गयित्वात्रीन वाराँस्तावतैव राशिना गुणयित्वा, केवलद्विके के. सत्मवृत्तिपदं चेहा-सङ्गानुष्ठानसंज्ञितम् । वलज्ञानकेवलदर्शनयुगसे किप्ते सति ॥ ८५॥ संस्कारतः स्वरसतः, प्रवृत्या मोक्षकारणम् ॥१॥ खित्तेऽणंताणंतं, हवई जिर्से तु ववहरइ मज्झं। (सदिति ? सत्प्रवृत्तिपदं चेद प्रभायामसकानुष्ठानसंचितं श्य सुहमत्यवियारो, लिहिओ देविंदरीहिं ॥ ६ ॥ भवति,संस्कारतःप्राच्यप्रयत्नजात्, स्वरसत इच्छानरपेक्ष्येण, किने न्यस्ते सति,अनन्तानन्तकं भवति जायते,ज्येष्ठमुत्कृष्टम। प्रवृत्त्या प्रकृष्टवृत्त्या, मोक्षकारणम् । यथा-रढदएमनोदनादनतुः पुनरर्थे,व्यवहितसम्बन्धश्च व्यवहरति व्यवहारकारि मध्यं न्तरमुत्तरश्चनमिसंतानस्तत्संस्कारानुषेधादेव भवति, तथा तु मध्यमं पुनः । इयमत्र भावना-इह केवलज्ञान केवलदर्शनश- प्रथमाभ्यासाद् ध्यानानन्तरं तत्संस्कारानुवेधादेव तत्सहम्देन तत्पर्याया उच्यन्ते, ततः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः पर्या- शपरिणामप्रवाहोऽसमानुष्ठानसंझ लभत इति जावार्थः ॥२१॥ येवनन्तेषु विप्लेषु सत्स्विति अष्टव्यम् । नवरं केयपर्यायाणा- प्रशान्तवाहितासंज्ञ, विसनागपरिक्षयः। मानस्याज्ञानपर्यायाणामप्यानन्त्यं वेदितव्यम् । एवमनन्तानन्तं शिववर्त्म ध्रुवाध्वेति, योगिन्निीयते यदः ॥ १२॥ ज्येष्ठं भवति, सर्वस्यैव वस्तुजातस्यात्र संगृहीतत्वात् । अतः परं वस्तुसत्वस्यैव संख्याविषयस्यानावादित्यभिप्रायः । सूत्राभि (प्रशान्तेति) प्रशान्तवाहितासंइं साख्यानां,विसभागपरिकप्रायतस्त्वित्थमप्यनन्तानन्तकमुत्कृष्टं न प्राप्यते, अनन्तकस्याष्टः | यो बौलानाम,शिववम शेवानां,धूवाध्वा महावतिकानाम् इत्ये. विधस्यैव तत्र प्रतिपादितत्वात् । तथाचोक्तमनुयोगद्वारेषु-। वाह यागाभरदाऽसङ्गाऽनुष्ठान ग बंहि योगिभिरदोऽसङ्गाऽनुष्टानं गीयते॥२॥द्वा०५४ वा पो०। "एवमुक्कोसयं अणंताणतयं नस्थि" । तदत्र तत्वं केवलिनो असंघयण-असंहनन-न०। आचैखिनिः संहननैवजिते, नि० विदन्ति । सूत्रे तु यत्र क्वचिदनन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्रापि चू० २० उ० । Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२३) असंघाइम अभिधानराजेन्द्रः। असंजय प्रसंघाइम-असंघातिम-त्रि०। द्विकादिफलकेषु कपाटबदसं- | असंजमकर-असंयमकर-त्रिकासाधुनिमित्तमसंयमकरणशीले,पिं० घातेन निर्वृत्तेषु, नि० चू० २२० । असंजमट्ठाण-असंयमस्थान-ना असमाधिस्थानादिषु,व्य० । असंचइय-असाश्चयिक-पुं०। बहुकालं रवितुमशक्ये दुग्धद असमाहिट्ठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि । धिपकानादौ, कल्प० ९क्ष। असंचयित-त्रिणप्रसंजातसंचये,मासिकौमासिकचातुर्मासि पशिओवमसागरोवम-परमाणु ततो असंखेज्जा ।। कपाश्चमासिकपाण्मासिके वा प्रायश्चित्ते वर्तमाने, व्य०१०॥ एप प्रायश्चित्तराशिः। कुतः ? । उच्यते-यानि खल्वसमाधिअसंजई-असंयती-स्त्री०। अविरतिकायाम, बृ०१००। स्थानानि विंशतिः। खलुशब्दः संजावने । स चैतत्संभावयति असंख्यातानि देशकासपुरुषन्नेदतोऽसमाधिस्थानानि; एवमेकअसंजण-असज्जन-जा असङ्गे, अगृहौ च । नि०० ११०।। विंशतिः शवलानि द्वाविंशतिः परीषहाः। तथा-मोहे मोहनीये प्रसंजम-असंयम-पुं० । न संयमोऽसंयमः । प्रतिषिरूकरणे, कर्मणि ये अष्टाविंशतिभेदाः, अथवा मोहविषयाणि त्रिशत प्रा००४ ०पं० सं० । सावधानुष्ठाने, सूत्र०१ २०१३ अ0 स्थानानि, एतेभ्योऽसंयमस्थानेभ्य एष प्रायश्चित्तराशिरुत्पमाणातिपातादौ, "मसंजमं परियाणाामि, संजमं नवसंपज्जामि" द्यते । व्य०१उ०। ध०३ अधिक प्रश्ना श्रा०चू०। बालभावे, प्राचा०१ श्रु०५ भ० असंयमस्थानभेदाः५1०1"अस्संजममत्राणं, मित्तं सब्वमेव य मम" असं. से जयवं ! केवइए असंजमहाणे पएणते? । गोयमा । यम विराधनास्वनावमेकविधम् । प्रातु। सूत्रा “गिदिया ग जीवा समारंभमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जा। तं जहा- अणेगे असंजमट्ठाणे पएणते. जाव णं कायासंजमट्ठाणे। पुढविकाश्यप्रसंजमेजाव वणस्सश्काश्यप्रसंजमे" । स्था० से जयवं! कयरे कायासंजमट्ठाणा | गोयमा ! काया५ग०२ ०। असंजमा:-" तेशदिया णं जीवा समारंभमाणस्स संजमहाणे अणेगहा पएणत्ते । तं जहारविहे असंजमे कज्जा । तं जहा-घाणामाओ सोक्खाओ व. "पुढविदगामणिवाऊ, वणप्फती तह तसाण विविहाणं । घरोवेत्ता नवर, घाणामएणं दुक्खणं संजोएत्ता भवइ० जाव फासमएणं पुक्नेणं संजोयेत्ता भवर" ॥ रह चाव्यपरोपण हत्येण वि फरिसणयं, वज्जेज्जा जावमी पि ॥ मसंयोजनं च संयमोऽनाश्रवरूपत्वादितरदसंयम इति । खाo साउएणखारखित्ते, अग्गी लोणूमनंबिवेणाहे। ६ ठा० । “चरिदिया णं जीवा समारंभमाणस्न अविहे पुढवीदीण परोप्पर, खयंकरे वज्जसत्थेए । असंजमे कज्ज । तं जहा-चक्खुमाभो सोक्खाओ ववरोवे एहाणुम्मद्दणखोभण-हत्थंगुलिमक्खिसायकरणणं । त्ता नवर, चक्खुमपणं दुक्खणं संजोएत्ता भव"। स्था०८ ना।"पंचिदिया णं जीवा समारंजमाणस्स पंचविहे असं श्रावीयंते अणंते, आऊजीवे खयं जति ।। जमे कज्ज । तं जहा-सोदियअसंजमेजाव फासिदियअसं- संधुकजालणाणहि, एवं नज्जोयकरणमादीहिं । जमें" । स्था। "सब्बपाणभूयजीवसत्ता णं समारंभमाणस्स बीयणफूमण नज्जा-वणेहिँ सिहिजीवसंघायं ।। पंचविहे असंजमे कज्जा । तं जहा-पगेदियअसंजमे० जाव पं. जाइ खयं अन्ने विय, उज्जीवनिकायमइएगं । चेदियअसंजमे"। स्था०५ ग०२ उ०। पं० सं०1"सत्तविहे प्रसंजमे पाते । तं जहा-पुढविकाश्यअसंजमे जाव तस जीवे जलको सुट्ट इ-उवि हु संभक्खा दस दिसाणं च। काश्यअसंजमे अजीवकाइयअसंजमे" | स्था०७ ग० ॥ "दस अोवीयणगतालियं-टयचामरोक्खेहत्थतालेहि। विहे असंजमे पत्ते । तं जहा-पुढविकाश्यअसंजमे० अजी- धोवणमेवणलंघण-ऊसाहिं च वाऊणं ॥ घकाश्यप्रसंजमे०" । स्था० १० ठा। अंकुरकुहरकिसलय-प्पवालपुप्पफलकंदलाईणं । सत्तरसविहे असंजमे पपत्ते । तं नहा-पुढविकाश्यअसंजमे, हत्थफरिसेण बहवे, जति खयं वणप्फई जीवे ॥ उकास्यअसंजमे,तेउकाश्यअसंजमे,बाउकाइयअसंजमे, व- गमणागमणनिसीयण-सुयणघणअणुवनत्तयपमचो। । पास्सइकाइयअसंजमे, वेइंदियभसंजमे, तेइंदियअसंजमे, च- वियलेंदियवितिचनपं-चेंदियाण गोयम! खयं नियमा।। उरिदियअसंजमे, पंचिंदियअसंजमे, अजीवकाय असंजमे, पाणावायविरई, सेयफन्नया गिरिहऊण ता धीमं!। पेहाअसंजमे, उपहाअसंजमे, अवहअसंजमे अप्पमज्ज- मरणावयम्मि पत्ते, मरेज विरई न खंडिजा।। णाअसंजमे, मणअसंजमे, वइअसंजने, कायअसंजमे । अनियवयणस्स विरई, सावज्ज सबमवि न नासिञ्जा। अजीवकायासंयमो विकटसुवर्णबहुमूल्यवस्खपाने पुस्तकादि- | परदबहरणविरई, करेज्न दिन्ने वि मा लोनं ॥ ग्रहणम | प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा । स च स्थानोपकरणा- धरणं मुघरबंभ-व्वयस्म का परिग्गहन्वायं । दीनि अप्रत्युपेकणमविधिप्रत्युपेक्वणं वा । उपेकाऽसंयमयोगेषु राईलोयणविरई, पंचिदियनिग्गहं विहिणा॥" ग्यापारणं, संयमयोगेष्वव्यापारणं वा । तथाऽपहत्यसंयम:-अ. विधिनोपारादीनां परिष्ठापनतो यः । तथा-अप्रमार्जनाऽसंयमः महा० ७ ०। पात्रादेप्रमार्जनया चेति । मनोवाक्कायाऽसंयमास्तेषामकुशला- संजमपंक-असंयमपड-पुं०। पृथिव्याद्यपमर्दकर्दमे,बृ०१उ। नामुदीरणानीति । स०१७ समा ध० प्रश्न पं. भाजपा० चू०। (मैथुनं सेवमानस्य कोदशोऽसंयम इति 'मेडण' शब्द) असंजय-असंयत-त्रि०ान विरतोऽसंयतः। अविरते, भाव०४ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय श्र० | स्था० | मिथ्यादृचादौ भ० ६ ० ३ ० । अविरत सम्पदपि तु नं० निवृत्ते १ श्र० १० ० | दश० । गृहस्थे श्राचा० २०२ श्र० १० 1 निश् स च श्रावकः, प्रकृतिभषको वा स्यात् । श्राचा० २ चू श्रु० १ ० २० | गृहस्थकर्मकारिण प्रवजिते, सूत्र० १० ७ श्र० । श्रसाधौ संयमरहिते, स० १ ० १ ४० औ० प्रश्न० । झा० । श्रसंयमवति आरम्भपरिग्रहप्रमत्ते ब्रह्मचारिणि, स्था० १० वा० । पार्श्वस्थादौ, ध० २ अधि० । (असंयतानां कृतिकर्म न कर्त्तव्यमिति 'किकस्म' शब्दे वदयते ) ( असंयतानां पञ्च जागराः 'जागर' शब्दे वयन्ते ) असंजयया असंयतजा स्त्री० [असंयमवतामारम्भपरिग्रहप्रसक्तानां ब्राह्मणादीनां पूजायाम, कल्प० २ क्ष० । स्था० (सासननदशमजिनयोरन्तरे प्रवृति शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे २०० पृष्ठे उक्का ) जिनानामन्तरेषु साधुषु वि. च्छेदे सति प्रत्येकबुद्धादिः केवली जवति, न वा ? | यदि भ पति अन्येषां धर्म कथयति नवेति उत्तरी केवलय साक्षार नसारोकारवादी दृश्य परं परं धर्म निषेधा कराणि ग्रन्थे दृष्टानि न स्मर्यन्ते । सेन० १ उल्ला० २९ प्र० ॥ असंजन-असंल अनन्तजिनसमकालीने परचतजिने 44 भर हे अंतऍ जिणो, परवऍ श्रसंजले जिणबरिंदो " ति० । स० । ( ८२४ ) अभिधानराजेन्द्रः । असंजोता असंयोगात्रि० संयोगमकारयति, "सो यामएं दुक्खणं असंजोएत्ता भवइ " । स्था० १० वा० । संजोग (संयोगिन् पु० संयोगरहिते, सिके व स्था० २ ० १ ३० ॥ संविय संस्थापित त्रि० । श्रसंस्कृते, नं० । - संणि (संनि) हिसंचय असन्निधिसंचय - पुं० । न विधेत संनिधमद को खर्जूरीवादेः पर्युषितस्य संचयो धारण यत्रास्तावसन्निधिसंचयः । सन्निधिविकले, “इमस्स धम्मस्स० पंचमहव्वयजुत्तस्स श्रसन्निहिसंचयस्स " । पा० । संत त्रि० विद्यमाने ००१० अशोभने सूत्र० १ श्रु० [ अ० प्रश्न० । अशान्त - - त्रि । अनुपशान्ते, प्रश्न० २ श्र० द्वार । संत असन्तति [स्त्री० शिष्यशिष्या दिसन्तानानुपजनने वृ० १५० । प्रसंग मस्क न० सदनिधानात् पञ्चमे गौणाली के, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । अविद्यमानार्थके असत्ये प्रश्न० २ श्राश्रः द्वार । श्रसद्भूते वचने श्रशोभने, प्रश्न० २ सम्ब० द्वारा अशान्तक न० । अपशमप्रधाने, प्रश्न० २ सम्ब० द्वार । असंतय- अमान्तत न रागादिप्रवर्तने, प्रश्न० २ आश्र०द्वार असंताचेल असदलपुं० अविद्यमानेषु देवेषु वाससि करे देष्यापगमानन्तरं तथाभावात् पञ्चा० १७० अति प्रशान्ति स्त्री० शास्यभावे, प्रनिर्यासंती च सूत्र० १ ० ६ अ० । । असंगहियप (गू) असंथम- असंस्कृत त्रि । शकट घ्व विशरारुतया संचरितुमशक्नुवति, व्य० ७ उ० । वृ० । असमर्थे, श्राचा० २ श्रु० १ ० । तवलन्नहारणा, तिविहो तु संघडो तिहे तिविहो । नवसंयममीसस्ता मासादारोवणा इथमो || असंस्तृतो नाम पष्ठाष्टमादिना तपसा क्लान्तो ग्लानत्वेन असमयो दीर्घनि वा गच्छ पर्याप्तं न लभते संस् तः विदेतिविदो त्रिवि अध्यन संस्कृतः सवि तद्यथाप्रवेशे अप्यमध्ये अयोरेव तत्र तपोऽसंस् तस्य निर्विचिकित्सस्य मासादिका इह समाहिरारोपणा नवति । बृ०५ उ० । असंथरण-संस्तरण - न० । अनिर्वाहे, पृ० १ ० | दुर्जिकग्लानाद्यवस्थायाम, ध० ३ अधि० । अपर्याप्तलाभे, पं० २०३ द्वार । 'संथरणम्मि असुद्धं, दुराई पि गितर्दितयाण हियं । आवर दितेणं, तं चैव हियं असंथरणे । नि० चू० १ उ० । असंथरमाण - (असंथरंत ) - संस्तरत् - त्रि० । गवेषणामप्यकुर्वति, व्य० ४ उ० । 66 " असंय असंस्तुतत्रि असंय, सू० १ ० १२० असंदिद्ध-असंदिग्ध - वि० संदेवर्जिते, दशा० ४० क० निश्चिते सकलसंशयादिदोषरहिते, स्था० ६० असंदिग्धत्त - असंदिग्धल - न० । असंशयकारितायाम, एकादशे सत्यवचनातिशये च । स० ३५ सम० । श्री० | रा० । सैन्धवशब्दव वसमतुरगपुरुषाद्यनेकार्थसंशय कारित्वदोषमुके सूत्र विशे० । अनु० आ० म० । असंदिदवाया असंदिग्धवचनता स्त्री० परिस्फुरवचनतारूपे वचनसम्पद्भेदे, उत्त० १ अ० । स्था० । असंदिग्धवचनमाद अन्वत्तं अफुमत्थं, अत्यबहुत्ता व होति संदिग्धं । विवरीयमसंदिद्धं, वयणे सा संपया चउहा || अभ्यक्तं वाचो व्यक्तताया श्रभावतः अस्फुटार्थमक्षराणां सनिवेशविशेषतः, विवक्षितार्थबहुत्वाद्वा भवति संदिग्धम् । तद्विपरीतमसंदिग्धम तद्वचनं यस्यासाव संदिग्धवचनः । पपा वचने संपच्चतुर्द्धा चतुष्यकारा ॥ व्य० १० उ० । असंदीण असंदीन त्रिपक्षमासा खुद केनाप्यमाने सिहलद्वीपादौ भाचा० १ ० ६ श्र० ३ ० ॥ असंधिमसन्मित्र अपान्तराले सन्धिरहिते ५ उ० । असंपत्त - श्रसंप्रयुक्त त्रि० । अयुक्ते, नि० चू० १ ० । असंपभोग-प्रसंप्रयोग- पुं० प्रयोगे ०३ अपि० प्रयोगे, भ० २५ ३० 9 उ० ॥ अपमपिप्य) संगृहीतात्मन् कि संप्रगृह( - त्रि० । लोकात्मास्य सोऽप्रगृहीतामा निभमाने, अहमासा बहुतः तपस्वीं सामाचारी कुशलो जात्यादिमान् का इत्यादि दशा ३० Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२५) असंपगहियया अभिधानराजेन्षः। असंसह असंपगहियया-असंप्रगृहीतता-स्त्री०। संप्रग्रहरहिततारूपेमा- असंमोह-असंमोह-पुं०। देवादिकतमायाजनितस्य,सूक्ष्मपदाचार्यसम्पभेदे, व्यः। मसंप्रगृहीतता नाम जात्यादिमदैरनु- थविषयस्य च संमोहस्य मूढताया निषेधे, औ० । गास्था। सिक्तता । तथाह प्रसंसप्प-प्रसंलप्य-त्रि०।संलपितुमशक्येषु प्रतिबहुषु, मनु०॥ आयरिश्रो बहुस्सुनो, तवसि अहं जाइएहि मयएहिं। । प्रसंलोय-असंलोक-पुं०। मप्रकाशे, भाचा संलोकवति, जो होइ अणस्सित्तो, असंपगहिरो वि सो भव ॥ । त्रि अनापातेऽसलोके स्थशिडले व्युत्सृजेत् । प्रसंलोकं गत्वोप्राचार्योऽहं बथतोऽहं तपस्यहमिति मदः, जात्यादिनिर्वा म-| सारं प्रस्रवणं वा कुर्यात् । प्राचा० २ श्रु० १० १० । ध। देयों प्रवत्यनुत्सिक्तः स भवत्यसंप्रगृहीतः, मदसंप्रग्रहरहित-| असंवर-प्रसंवर-पुं० । संवरणं संबरः, न संवरोऽसंवरः । त्वात् । व्य०१०००। पा०। भावे, स्था० । “पंचविहे असंवरे पत्ते । तं जहाअसंपग्गह--असंप्रग्रह-पुं० । समन्तात् प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृत- सोइंदियभसंवरे० जाव फासिदियअसंवरे" । स्था०५ ग. लकणेन प्रदणमात्मनोऽवधारणं संप्रग्रहः। तदभावोऽसंप्रग्रहः। २ उ०।" विहे असंवरे पम्पत्ते । तं जहा-सोदियअसंउत्त०१ म०प्रात्मनो जात्याशुत्सेकरूपग्रहवर्जने, वाचनासंप- बरे जाव फासिदियत्रसंवरे णोदियभसंवरे"। स्था०६ दूदे, स्था० ८ ग०। गा"भट्ठविहे असंवरे पम्पत्ते-तं जहा-सोईदियअसंवरे० जाब कायअसंवरे" स्था०1 “दसविहे असंवरे पाते।तं जहाअसंपत्त-असंप्राप्त--त्रि० । प्रससने, रा०। सोहंदियभसंवरे जाव सुइकुसम्गसंवरे"। स्था०८ ग०। असंपत्ति-असंपत्ति-स्त्री० । प्रायश्चित्तमारवहनासामर्थ्य, । असंवलिय-असंवलित-त्रि० । प्रवर्धिते, तं। "असंपत्तीए मासलहु, संपत्तीए मासगुरु" नि००१००। "मसंपत्तिपत्ताणं रयहरणं पच्चुहिज्जा" । महा०७०। असंविग्ग-असंविग्न-वि० । न संविनोऽसंविनः । पार्श्वस्थादी, असंपहिड-असंप्रदृष्ट-त्रि० । महर्षिते, उत्त० १५ १० । “अब नि००१०शीतलविहारिणि, पं० व. २२ द्वार। व्यः । असंविना अपि द्विविधाः-संविग्नपाक्तिकाः, असंविळपालिकाग्गमणे असंपदिट्ठा जे से भिक्स्"। उत्त० १५०। । संविग्नपाकिका निजानुष्ठाननिन्दिनो यथोक्तसुसाधुसमाअसंपुम-असंपुर-त्रि० । अव्यावृते, " मुहं वा प्रसंपुडं वा- चारप्रसपकाः, असंविळपाकिका निर्धर्माणः सुसाधुजुगुप्सका। ताऽऽरंभदोसेण अच्छेज्ज" नि० चू० २०७०। असंफुर-असंस्फुर-त्रि० । असंवृते, वृ० ३२० । "तत्थावायं विहं, सपक्खपरपक्खो य नायव्वं । दुबिहे होश सपक्खो , संजय तह संजईणं च ॥१॥ असंबद्ध-असंबछ-त्रि० । संश्लिष्टे, "असंबद्धो हविज्जाज संविमामसंचिग्गा, संविग्गमणुत्त एयरा चेव । गणिस्सिप" | पशिनीपत्रादकवद् गृहस्थैः। दश० असँविग्गा वि य दुविहा, तप्पक्खिय एयरा चेव " ॥२॥ संप्रत्यसंबद्ध शति पञ्चदशं नेदं निरूपयितुमाह- प्रव० ११ द्वार। जावतो अणवरयं, खणभंगुरयं समत्थवत्थूर्ण । असंविग्गपक्खिय-संविनपाक्षिक-पुंनिर्धमणि सुसाधुजुसंबंधो विघणाइसु, बज्जा पमिबंधसंबंधं ॥ ४॥ । गुप्सके, प्रव० ९१ द्वार। प्रावयन् पर्यालोचयन, अनवरतं प्रतिकणं, वणनङ्गारतां | असंविनाग-असंविनाग-पुं० । संविभागाभावे, दश०९ मा सततं विनश्वरता, समस्तवस्तूनां तनुधनस्वजनयौवनजी- असंविभागि (ए)-असंविनागिन्-पुं०। संविभजति भानीवितप्रभृतिसर्वभावानां, संबद्धोऽपि बाह्यवृत्या प्रतिपालनवर्द्ध ताहारमन्यज्यः साधुभ्यः प्रापयतीत्यवंशीलः संविभागी, न सं. नादिरूपया युक्तोऽपि, धनादिषु धनस्थजनकरिहरिप्रभृतिषु, | विभागी असंविभागी। आहारेण स्वकीयमेव उदरं बिभर्ति इत्यवर्जयति न करोति बन्धो मूर्छा नपं संबन्धं संयोग, नरसु. र्थः। अन्यस्मै न ददाति । उत्त०३३१०। प्राचार्यग्नानादीनामेषन्दरनरेश्वर श्व, यतो जावतो भावयत्येवं नावश्रावक:-"चि- णागुणविशुद्धिलब्धमविजजमाने, प्रश्न०३ संव० द्वार। यत्र कता पायं च चउप्पयं च, खितं गिहं धणधनं च सव्वं । क-1 चन लाभेऽसंविभागवति, "असंविभागी न दु तस्स मोक्खो"। म्मप्पीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदरपावगं ब"॥१॥ दश १० स्यादि । ध० र०। (नरसुन्दरनरेश्वरकथा 'परसुंदर' शब्दे। असंवम-प्रसंवृत-त्रि०। इन्छियनोइन्द्रियैरसंयते,सूत्र० १०१ पक्ष्यते) असंबुक-असबुछ-त्रि० । अनवगततत्त्वे, उत्त०१०। ०३ उ०। हिंसादिस्थानेज्यो निवृत्ते असंयतेन्द्रिये, सूत्र०१ (०२०१०। अनिरुद्धाश्रवद्वारे, भ० १ श०१ उ०। प्रअसंभंत-असंभ्रान्त-त्रि०ा अनन्यचित्ते, पं०व०१ द्वार । यथा मत्ते, भ०७ श०१०। ( असंवृतस्यानगारस्य वक्तव्यता बदुपयोगादि कृत्वाऽनाकुले, दश०१०। भ्रमरहिते, विपा०१ 'अणगार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २७३ पृष्ठे समुक्का) (स्वमश्च भु०१ ०। रा०ा अनुत्सुके, भ० ११ श०-११ उ० । 'सुविण' शब्द वदयते) असंचम-असंभ्रम-पुं० । भयाऽकरणे, ओघ०। असंसइय-असंशयित-नि० । निःसंशयिते,सूत्र०२ श्रु०२०। असंभाविद-असंनावित-त्रि० । “तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयु- | असंसद्ध-असंसृष्ट--त्रि० । अन्यदीयपिएडैः साहाऽमीलिते, क्तस्य"। बा४।२६०। इति तस्य दुः। संभवमकारिते,प्रा०४ पाद।। बु० २ ० । अखरण्टिते, औ० । १०७ Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) असंसहचरय अभिधानराजेन्द्रः। असच्चोवाहिसच्च प्रसंसहचरय-असंसृष्टचरक-पुं० । असंसृष्टेन हस्तादिना दी- असञ्चमोसमणजोग-असत्यामुषमनोयोग-पुं० । न विद्यते यमानस्य प्राहके, औ०॥ सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः । मसअसंसट्ठा-असंसष्टा--स्त्री० । असंसृष्टेन इस्तेनाऽसंसृष्टेन च त्यश्चासौ अमृषश्च; "क्त नादिभिन्नैः" ।३।१ । १०५। इति पात्रकेण[सावशेष व्यं] जिवां गृह्यतःसाधोः प्रथमायां पिएडै कर्मधारयः। असत्यामृपश्चासौ मनोयोगश्चासत्यामृषमनोयोषणायाम,प्रय०१६द्वार । स्था०। प्रा०चू० । नि०यू० ॥ भाव० । गः । मनोयोगभेदे, कर्म०४ कर्म। आचाणसूत्र । धापश्चाग('लित्त' शब्देऽसंसृष्टायाः प्ररूपणम्) असञ्चरुइ-असत्यरुचि-पुं० । असत्ये मृषाभाषणे असंयमेशा असंसत्त-असंसक्त--त्रि० । असमिलिते, लत्त०२०। विशे०। रुचिर्यस्याऽसावसत्याचिः । असत्यं रोचयमाने व्य० ३ उ० अप्रतिबद्धे, दश० प्र० । असंबके, उत्त० ३०। असच्चवश्जोग-असत्यवाग्योग-० वाग्योगनेदे, कर्म०४कर्म०॥ असंसय-असंशय-न० । निश्चिते, द्वा०२० द्वा० । निःसंदेहे, असच्चसंधत्तण-असत्यसंधत्व-न० । असत्यमलकिं संदधावृ०१ उ०। ति करोतीति असत्यसन्धः, तद्भावोऽसत्यसन्धत्वम् । षधि. असंसार-असंसार-पुं० । न संसारोऽसंसारः । संसारप्रति- शे गौणालीके, प्रभ०२प्राश्र० द्वार। पक्षनूते मोके, जी० : प्रतिः। संसारानावे, द्वा० ११ द्वारा असञ्चामोसा-असत्यामृषा-स्त्री० । यन्त्र सत्यं नापि मृषा, तत्र भसंसारसमाव-प्रसंसारसमापन-पुं०। न संसारोऽसंसारो असत्यामृषा वस्तुप्रतिषेधमन्तरेण स्वरूपमात्रपालोचनपरे. मोक्षस्तं समापन्नः असंसारसमापन्नः । मुक्ते, प्रशा० १ पद । 'अहो देवदत्तघटमानय, गां देहि मह्यम्' इत्यादिचिन्तनपरेभासिके, स्था०२ ठा०१२० जी०॥ पामेदे, इदं हिस्वरूपमात्रपालोचनपरत्वान्नयथोक्तलक्षणं सत्वं, नापि मृषा । पं० सं० १ द्वार। "जं णेव सवं, णेव मोसं, णेव असक-अशक्य-त्रि० । कर्तुमपार्यमाणे, ध० । अशक्ये भाव सच्चमोसं-असच्चामोसं णाम, तं चनत्थं भासज्जातं" चतुप्रतिपत्तिरिति अशक्ये झानाचारादिविशेष एव कर्तुमपार्यमाणे थी नापा-योच्यमाना न सत्या, नापि मृषा, नापि असत्यामृषा कुतोऽपि धृतिसहनकालबलादिवैकल्याद्भावप्रतिपत्तिः-भावे- आमन्त्रणाऽकापनादिका साऽत्रासत्यामृषेति । प्राचा०२४० नान्तःकरणेन प्रतिपत्तिरनुबन्धः, न पुनस्तत्र प्रवृत्तिरपि, अ- |४०१ उ०।। कालौत्सुक्यस्य तत्वत वार्तध्यानत्वादिति :ध०१ अधिक। सांप्रतमसत्यामृषामाहअसक्कय-असंस्कृत-त्रि० । न विद्यते संस्कृतं संस्कारो यस्य प्रामतणि प्राणवणी, जायाण तह पुच्छणी अपनवणी। सोऽसंस्कृतः । अविद्यमानसंस्कारे, प्रश्न०१आश्र0 द्वार। पञ्चक्खाणी जासा, नासा इच्छाणुनोमा य ॥४२॥ असक्कयमसकय-असंस्कृतासंस्कृत-त्रि० । कर्मधारयः । मका आमन्त्रणी, यथा-हे देवदत्त इत्यादि । एषा किलाप्रवर्तकत्वात रोऽत्रालाकणिकः । अत्यन्तमसंस्कृते, प्रश्न०४ाश्र0 द्वार । | सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियागतस्तथाविधदलोत्पत्तरसत्यामृषे. असकहा-असत्कथा-स्त्री० । अशोभनकथायाम, नर्श । ति। एवमाज्ञापनी, यथा-दं कुरु । श्यमपि तस्य करणाकरणअसक्किरिया-असत्क्रिया-स्त्री०। अशोभनायां चेष्टायाम, प भावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अदुष्टविवकाप्रम तत्वादसत्यामृषेति। एवं स्वबुख्याऽन्यत्रापि नावना कार्येति। याचचा विव। चनी, यथा-भिक्षां प्रयच्छति। तथा प्रच्छनी, यथा-कथमेतदिअसकिरियारहिय-असक्रियारहित-त्रि० । म्रक्षितपिहितादि ति ?। प्रशापनी, यथा-हिंसादिप्रवृत्तो दुःखितादिर्जवति । प्रत्या द्वारेण जीवोपमर्दरूपाप्रशस्तव्यापाररहिते, पञ्चा०१३ विव० । ख्यानी भाषा, यथा-अदित्सेति।भाषा इच्छानुलोमा च, यथाप्रसगडा-अशकटा-स्त्री० । शकटैरुत्पथं नीतत्वात्स्वनामख्या- केनाचित् कश्चिदुक्ता-साधुसकाशं गच्छाम इति । स ाह-शोते आजीरकन्यारत्ने, दश०३ अ०। (तवृत्तं 'उवहाण'शम्दे जनमिदमिति गाथाऽर्थः॥४२॥ द्वितीयभागे १०४६ पृष्ठे उदाहरिप्यते ) अणजिग्गहिआनासा, भासा अ अनिग्गहम्मि बोधब्बा। प्रसग्गह-असदग्रह-पुं० । अशोभनाभिनिवेशे आप्तवचनवाधि संसयकरणी नासा, वायम अव्वायमा चेव ॥४३॥ तार्थपकपाते, पञ्चा०१ विव० चारित्रवतोऽपि असहदः संभव अनभिगृहीता भाषा-अर्थमनभिगृह्य योच्यते, डित्यादिवत् । ति, मतिमोहमाहात्म्यादिति । ध०२०। भाषा चाभिग्रहे बोधव्या-अधमनिगृह्य योच्यते, घटादिवत् । भसच्च-असत्य-न० । सत्यविपरीते, नास्ति जीव एकान्तसपो तथा संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते, सैन्धववेत्यादिकुविकल्पनपरे, पं० सं०१द्वार। उत्ताअलीके, प्रश्न०२ | मित्यादिवत् । व्याकृता-स्पटा प्रकटार्या-देवदत्तस्यैष भ्रातेत्यादि. आश्रद्वार । असत्यं च महत्तमं पातकं यतो योगशास्त्रान्तर- वत् । अव्याकृता चैव अस्पधा ऽप्रकाटा-बालकादीनां थपनिश्लोके-" एकत्राऽसत्यजं पापं, पापं निःशेषमन्यतः । द्वयोस्तु- केत्यादिवदिति गाथार्थः । उक्ताऽसत्यामृषा । दश०७०। लाविधृतयो-राद्यमेवातिरिच्यते" ॥१॥ इति । ध० २ अधि। ॥१॥ इति । ध० २ अधिः। असच्चोवाहिसच्च-असत्योपाधिसत्य-न० ।सशब्दार्यत्वेनासप्रश्नः । प्रा. चू०। त्या उपाधयो विशेषा बलयांडलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वअसचमणजोग-असत्यमनोयोग-पुं० । कर्म सानास्ति जी नेदानुयायिनः सुवर्णादिसामान्यात्मनस्तत् सत्यमसत्योपाधिव एकान्तसद्भूतो विश्वव्यापीत्यादिकुविकल्पचिन्तनपरे म- | शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयम् । सविशेषे सामान्ये, अन्ये त्वाःनोयोगे, कर्म०४ कर्म०॥ यदसत्योपाधिसत्यं स शब्दार्थः इति । सम्म०१ काण्ड । Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) असज्ज निधानराजेन्डः। असज्जाइय असउर्ज-अमज्जत-त्रि० । सङ्गमकुर्वति, "असज्जमित्थीसु हिश्रा, जेहि न कया आणा, ते मेच्छेहिं कूसिमा मारिया य, पएज्ज पूयणं" प्राचा० १ श्रु० ५ ०४०। जे वि तत्थ के परिमुक्का ते वि रमा दंडिया"। __ अकरयोजना त्वेवम्-म्लेच्छन्नयमाकण्यं नृपेण ( गाथायां प्रसज्जमाण-प्रसज्जन-त्रि०ासङ्गमकुर्वति,उत्त०१४म। "ते सप्तमी तृतीयाथै) घोषणा कारिता । यथा-दुर्गापयतिगच्च्थ, कामनोगेसु असज्जमाणा, माणुस्सपसुंजेयावि दिब्बा" ॥१४॥ मा विनायथ, तत्र ये अतिगतास्ते म्लेच्छभयात् स्फिटिता, उत्त०१४१०। "असजमाणो य परिव्वपज्जा" असज्जमानः स. श्तरे हताः, कृतसर्वस्वापहाराश्च कृताः । येऽपि शेषाः कथमपि मकुर्वन् गृहपुत्रकामत्रादिषु परिव्रजेदुयुक्तविहारी । सूत्र०१ म्लेच्छभयविप्रमुक्तास्तेषामाज्ञाभङ्गकरणतो नृपेण दएकः कृतः। भु० १० म०। व्य०७० असभ्य-असाध्य-त्रिकामशक्ये, पिं०। मनिवर्तनीयस्वनावे, "कितिप्रतिष्ठितपुरे, जितशत्रुर्नराधिपः। प्रा०म०वि०। स्वदेशे घोषितं तेना-गच्छति म्लेच्छभूपता ॥१॥ असज्काश्य-अस्वाध्यायिक-न०। प्रा मर्यादया सिद्धान्तोक्त- त्यक्त्वा ग्रामपुरादीनि, दुर्गेषु स्थीयतां जनैः । न्यायेन पठनम्-श्राध्यायः; सुष्ठ शोभन प्राध्यायः स्वाध्यायः स ये राजवचसा दुर्ग-मारूढास्ते सुखं स्थिताः॥२॥ एव स्वाभ्यायिकम् । नास्ति स्वाध्यायो यत्र तदस्वाध्यायिकम् । नारूढा ये पुनर्दुर्ग, म्लेच्छायैस्ते विलुएिटताः। रुधिरादौ स्वाध्यायाकरणदेतो, प्रव० २६८ द्वार । न स्वा- भाशाजनान्नृपेणापि, गतशेषं च दपिमताः ॥३॥ ध्यायिकमस्वाभ्यायिकम् । कारणे कार्योपचारादू रुधिरादौ, अस्वाध्यायेऽपि स्वाध्यायाद्,दएडः स्यादुभयादपि । ध० ३ अधिक। देवताच्चसनेत्येकः, प्रायश्चित्तागमोऽपरः ॥४॥ अस्वाभ्याये स्वाध्यायो न कर्तव्यः हमोके परस्मिश्च, कानाधफलता भवेत" मा०क०। णो कप्पा निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा असज्जाइए स एष रष्टान्तोऽयमर्थोपनवःकायं करित्तए; कप्पा निग्गंथाणं वा निग्गंथीयं वा स- राया इव तित्थयरो, जाणवया साहु घोसणं मुत्तं । जमाइए सज्जायं करित्तए । मेच्छा य असमाओ, रयाणाई व नाणादी॥ अस्य व्याया-न कल्पते निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां वा अस्वाभ्या- भत्र राजाश्व तीर्थकरः,जानपदा श्व साधवः,घोषणमिष सूत्र, यिके स्वाध्यायं कर्तुम, कस्पते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां षा म्लेच्ग व अस्वाध्यायः,रनधनानीय कानादीनि । तत्र ये सा. स्वाभ्यायिके स्वाध्यायं कर्तुमिति सूत्राकरसंस्कारः॥ धबो जानपदस्थानीया राजस्थानीयस्य तीर्थकरस्याज्ञां नानुपाअधुना भाभ्यप्रपश्च: लयन्ति,ते प्रान्तदेवतया ग्ल्यन्ते,प्रायश्चित्तदण्डेन चदएज्यन्ते। असमाश्यं च दविहं, आयसमुत्थं परसमुत्थं च । व्य०७.०मा०क०। जं तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं ॥ केन पुनः कारणेनाऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं करोति, विविध खल्वस्वाभ्यायिकम्।तद् यथा-मात्मसमुत्थं, परसमु-1 तत माहस्थम् । चशब्दश्चास्वाभ्यायिकतया तुल्यकक्षतासंसूचकः । तत्र | थोवावसेसपोरिसि, अज्जयणं वा वि जो कुणइ सोउं । यत् परसमुत्थं तत् पशविधं सातव्यम् । पाणाइसारहीण-स्स तस्स बसना उ संसारे ।। तानेव पश्चप्रकारानाह स्तोकावशेषायामपि पौरुण्यामध्ययनं पाठ उद्देशोवाऽद्यापिससंजमघाउप्पाए, सदेवए बुग्गहे य सारीरे । माप्तिन नीत इति कृत्वा उद्धाटायामपि पौरुभ्यामस्तमिते वासर्ये, एएमु करेमाणे, आणाश्य मो उ दिटुंतो।। अथवा अस्वाध्यायिकमिति श्रुत्वाऽपि योऽध्ययनं पागम, भपिसंयमघाति संयमोपघातिकम, औत्पातिकमुत्पातनिमित्तं, सदैव शब्दादुद्देशनं च करोति,तस्य ज्ञानादित्रिक तत्त्वतोपगतं, तीर्थदेवताप्रयुक्तं, व्युद्ग्रहः,शरीरं च एतेषु पञ्चवप्यस्वाध्यायिकेषु कराकाभङ्गकरणादिति । ज्ञानादित्रिकसारहीनस्य संसारेनस्वाध्याय कुर्वत्याकादयः भाकाभकादयो दोषाः,तथाऽऽका तीर्थ रकादिजषभ्रमलक्षणे ग्लना जबति, अपारघोरसंसारे निपतनं कराणांयोभअति, तस्य प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु। अनवस्थयाऽन्येऽपि प्रवतीति नावः। तथा करिष्यन्तीति, तत्रापि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु, यथा वादी तथा अप्रैच रयान्तान्तरं समभिधित्सुराहकारी न नवतीति मिथ्यात्वं,तनिष्पन्नमपि प्रायश्चित्तं चतुर्गुरु । भहवा दिहतियरो, जह रखो पंच के पुरिसा उ । विराधना विधा-संयमविराधना, आत्मविराधना च । तत्र दुग्गादी परितोसिउ, तेहि अराया अह कयाई॥ संयमविराधना ज्ञानाचाराविराधना । भात्मविराधनायामेवमुदाहरणम् । तो देति तस्स राया, नगरम्मी इच्चियं पयारं तु। तदेवाह गहिए य दे मोल्लं, जणस्स आहारवस्थादी॥ मेच्चनय घोसण निवे,दुग्गाणि प्रतीहमा विणस्सहिहा।। एगेण तोसियतरो, गिहेऽगिहे तस्स सबहिं विघरे । फिडिया जे उ अतिगया, इयरा हय सेस निवदंमो।। रत्थाश्मुं चनुएई, एविह सज्काइए नवमा ॥ "कस्स वि रमो मेच्यखंधावारो विसयं प्रागंतुं इणियकामो, अथवेति दृष्टान्तस्य प्रकारान्तरसूचने। श्तरो दृष्टान्तः । यथातं भयं जाणित्ता रमा सविसए सकले वि घोसावियमित्य-मे- राक्षः केचित्पञ्च पुरुषाः सेवकास्तैरथ कदाचिद राजा दुर्गादिषु चखंधावारो भागतुं बिसयं इणिउकामो बट्टति, तुम्ने फुग्गाणि | पतितो निस्तारितः, तत्रापि तेषां पञ्चानां मध्ये एकेन केनचि. अतीह । तत्थ जेहिं रनो आणा कया, ते मेच्चभयातो फि- | स्परमसाध्वसमवलम्ब्य नूयस्तरं साहायिकमकारि, ततस्तेषां Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२०) अभिधान राजेन्द्रः । असजाइय तेनैकेन जितानां चतुर्थी राजा परितुष्टः सन् नगरे रथ्यादिषु गृहचर्य्यादिषु प्रचारमीप्सितं ददाति । यथा-'यत्किमपि रथ्यायामापणादिपु त्रिचतुवा देव वस्नाहारादिकं प्राप्नुयात् युष्माकमेव एवं प्रसादे हते वखाद्दारा नगरादितः स्वेच्छया गृहीते, राजा यस्य सत्कं यद् गृहीतं, तस्य मूल्यं ददाति । येन चैकेन पुरुषेण भूयस्तरसादायिकं कुर्वता राजा तोषिततरः, जस्य राजा गृहेऽगृहे वा सर्वत्र नगरमध्ये प्रचारमीप्सितं विरतिमन्तरानुजानाति किं तेन ते बनाउदा रादि तस्य मूल्य राहा दीयते । इतरेषां चतुणीरच्याऽऽदिष्वेव प्रचारमनुज्ञातवान् न गृहेषु एवमुक्तेन प्रकारेण प्रस्तुते स्वाध्यायिके उपमादृष्टान्तः । तदेवमुक्तो दृष्टान्तः । सम्प्रति योजनामाद , पदमम्मि सन्चचेहा, सजाओ या विवारितो नियमा । सेसेस य सज्जाओ, चेट्टा न निवारिआ अण्णा ॥ प्रथमे स्वाध्यायिके संयोपपातिल सर्वा कार्यिकी वा विकी नेहा स्वाध्याय नियमाद्वारितः तोषकतर पुरुपानीयतया तस्य सर्वत्र साधुव्यापारेषु प्रवृत्तेः शेषेषु पुनः चतु स्वाध्यायिकेषु, स्वाध्यायः, स्वाध्याय एव केचलो निवारितो, ना. म्या काकी वाचिकी वा प्रतिलेखनादिकाष्टाचारिता, तेषां शेषपुरुषचतुष्टयस्थानीयानां वहिः रथ्यादायि एव व्यापारभावात् । तदेवं पञ्चस्वप्यऽस्वाध्यायिकेषु सामान्यतो विशेषतश्वोदाहरणमुक्तम । इदानीं प्रथममस्वाध्यायिकं संयमोपघाति प्ररूपयतिमडिया व मिश्रवासो, सबित्तरए व संजये तिविहे । दब्वे खेते काले, जहियं वा जमिरं सव्वं ॥ महिका गर्भमा पतन्ती प्रसिद्धा, तस्यां तथा--गृहादौ यत्पतिवर्ष तस्मिन तथा सचितरजसि च एवंवि त्रिप्रकारे संयमे-पदैकदेशे समुदायोपचारात् संयमोपमातिनि अस्वाध्यायिके निपतति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावत वर्जनं भवति । तव द्रव्यतः एतदेव त्रिविधमस्त्राध्यामिकं रूव्यम् | क्षेत्रतो- ( जहियं ति) यादति क्षेत्रे तत्पतति तावत् के. त्रम् | कालतो- ( यच्चिरं ति) यावन्तं कालं पतति तावन्तं कालम् नावतः काशिदवज्यते । एनामेव गाथां व्याख्यानयति महिया उगन्जमासे, वासे पुण होंति तिनि उ पगारा । बुलु तच फुसीए सचितरजो व आयंत्रो || महिका गर्नमा प्रतीता गर्नमासो नाम कार्तिकादियां माघमासः । वर्षे पुनस्त्रयः प्रकारा भवन्ति । तानेवाह - ( बुब्बु त्रिवर्षे निपतति पानीयमध्ये बुझ्दास्तोलाका उत ततो वर्षमप्युपचाराद्बुदमित्युच्यते बु बजे द्वितीय वर्ष तृतीय (फुसी ति) जलस्पर्शिक निपतन्त्यः तत्र बुद्दे वार्यनिपतति यामाष्टकादूर्ध्वम् । भन्ये तु व्याचकतेप्रयाण दिनानां परत दिनानां जलस्पर्शिकारूपे सप्तानां परतः सर्वमप्कायस्पृष्टं नवति । ततस्तत्र व्यतः क्षेत्रतः कालतो जावतश्च वर्जनं प्राग्वद्भावनीयम्, यावच्चापका यमयं न भवति यावदुपाश्रयो निर्गलस्तन सर्व स्वाध्यायप्रतिलेखनादि क्रियते, बस्ति निर्मम्यते इति 'सवित्तरजो' नामपारसमन्वित वातोद्धता साधूलि त सरो सज्जाइय वर्ज्यते, ततोऽस्यां गाधायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । तच्च दिगन्तरेषु दृश्यते, तदपि निरन्तरपाते त्रयाणां दिनानां परतः सर्वपृचिकायाभाविकरोति तथापि पतितद्रव्यादित वर्जन प्राग्वत् । तदेवतुमाह दव्वे तं चिय दव्वं, खेत्ते जहियं तु जच्चिरं काले । ठाणादि नास जावे, मोतुं उमासनम्मे ॥ रूव्ये द्रव्यतः तदेषास्वाध्यायिकं माहिकं भिन्नवर्षे सचिन्तरजो या येते तो यत्र क्षेत्रे निपतति कालतो यादचिरं कालं पतति भावतो मुक्या उसमे ने जीता घातसंभवात् । शेषां स्थानादिकाम्, आदिशब्दाद् गमनागमनप्रतिलेखनादिपरिषद कायिकांचे भाषांच वर्जयति ॥ 1 बासत्ताणाssवरिया, निकारण ववंति कज्ज जयलाए । इत्यगुलिसमाए, पोचावरिया व नासंति ॥ निष्कारणे कारणाभावे वर्षत्रयाणां कम्बलमयः कल्पः, तेन सौत्रिककल्पान्तरितम सर्वात्मना भावृतास्तिष्ठन्ति, न कामपि लेशतोऽपि चेष्टां कुर्वन्ति । कार्येतु समापतिते यतनया ढस्तसंक्रया धनिया च व्याहरन्ति पोताऽवरिता या जालनादिप्रयोजने वर्षाकल्पाssवृता गच्छन्ति । गतं संयमोपघात्यऽस्वाध्यामिकम् । इदानीमत्पातिकमाह सुमंसयर हिरं केससिमा तह रोषाए । सरुद्धिरेऽहरतं, अवसेसे जच्चिरं सुतं ॥ अत्र दृष्टिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । पशुवृष्टी केशी दिला व तत्र पनि यदि रजो निपतति मांसमिस पानिपतन्ति वृदि न्ति द्वारा केशाः पतन्ति शिलावृष्टि-पापानिपतनं करकादिशिला वर्षमित्यर्थः । तथा-रारजस्वलासु दिनु सूत्रं न पश्यते शेषाः सर्वा अपि बेाः क्रियन्ते तत्र मांसे रुधिरे व पतति मदोरात्रं वर्त्यते, अवशेपवाद माचिरं पश्यादिपतनकासं तावत् सूत्रे नन्द्यादिशेषका तु पंसू सम्प्रति पांशुरज उदूघातव्याख्यानमाहअचितरजो रयोसलाओ दिसा रउपाते। तत्थ सवाते निव्वा-यए य सुत्तं परिहरति ।। पांशवो नाम धूमाकारमापारमुरमचित्तं रजः । रजउदूघातो रजस्वला दिशः, यासु सतीषु समन्ततोऽन्धकार इव हृश्यते तत्र पशुवृष्टी, रजउदूघाते वा सवाते निर्वाच पतति यावत्पतनं तावत्परिहरन्ति मत्रैवापवादमाद- साभावि तिथि दिया, सुगिम्हर निक्खिति जड़ जोगं । तो तम्मि परंतम्मी, कुशंति संवच्चरऽज्जायं ॥ यदि सुग्रीष्मकालप्रारम्भ उपहारम्भे, चैत्रशुक्रेत्यर्थः शम्याः परतो यावत् पौर्णमासी अशान्तरे निरन्तर श्रीणि दिनानि यावत् यदि योगं निक्तिपन्ति एकादश्यादिषु त्रयोदशीपर्यन्तेषु, यदि वा त्रयोदश्यादिषु पौर्णमासी पर्यन्तेषु प्रचित्तरजोऽव देठ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असकाइय पशुरोपा नायें कार कति भाषिके पतति, संवत्सरं यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति, इतरथा नेति । ब्य० ७ उ० । “दसविहे ओरालिए असज्जा पाते । तं जहा सोणि असुरसामंत माणसानं बंदोवरा रोबराए पर रायवुग्गढ़ उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरे" । ( स्था० ) " दसविहे अंतलिक्खिर भसज्जाद पन्ते । तं जटा उक्काचा दिसिदा गरिबी निवार खात्तिए घूमिए महिया रज्जुग्धाए " । स्था० १० ठा० ॥ भ० च० । व्य० । (ORE) अनिधानराजेन्द्रः | इदानीं सदेवमाह दिसाविज्जुक गजित पक्खदिने । एक्केकपोरिसिं ग-ज्जियं तु दो पोरिसिं इति ॥ - गन्धर्वनगरं नाम यच्चकत्यादि नगरस्पोत्यानसुचनाय संध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालकादिसं स्थितं ते दिसत होता, उस्का सरेशा प्रकाशयुक्ता बा, गर्जितं प्रतीतं, यूपको वक्ष्यमाणलक्षणः, यक्षदीप्तं नाम एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा यद् दृश्यते विद्युत्सदृशः प्रकाश तेषु मध्ये नगरादिकमेकामेकां पोरुप च इन्ति गर्जिन पुन पौरुपी सि joaगर नियमा, सदेवयं सेसगाणि भजिओ । जेा न नज्जति फुटं तेण व ते तु परिहारो ॥ अत्र गन्धर्वनगरादिषु मध्ये नियमात्सदेवकम, म म्यथा तस्यानावात | शेषकाणि तु दिग्दाहादीनि भक्कानि विकल्पि तानि कदाचित स्वाभाविकानि भवति कति देवतानि तत्र स्वाभाविकेषु स्वाध्यायो न परिह्रियते किन्तु देवकृतेषु परम् । येन कारमेन स्फुटं वैचित्वेन तानि नायते तेन तेषामविशेषपरिहारः । सम्प्रति दिदाहादिव्याख्यानमाददिसि दाह विमूलो, ठक सरेहा पगासचा वा संज्जच्छेयाऽऽवरणो, न जूनो सुकदिन तिमि || दिशि पूर्वादिकायां विषयो दाहः यदिन्दाहः । किमुक्तं जवनि ? - श्रन्यतमस्यां दिशि महानगर प्रदीप्तमियोपरि प्रकाशोऽवस्तादग्धकारइति दिग्दाहः उल्का पृतः सरेखा, प्रकाशयुक्त या सूपको नाम के दिनानि यावत् द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुर्थ्यां चेत्यर्थः । संध्याच्छेदः संध्याविभागः स वियते येन स [[दावरणान्द्रयमत्रभावापा रूपेषु त्रिषु दिनेषु संभ्यागतश्चन्द्र इति कृत्वा संध्या न विभाव्यते ततस्तानि शुक्लप श्रीणि दिनानि यावत् चन्द्रः संध्यावरणः स धूपक प्रति। एतेषु त्रिषु दिवसेषु प्रदोष की पौरुषी नास्ति, संध्यादादिभयनादिति । अत्रव मतान्तरमाह- केसिंचि होति मोदा, उ जून ते तु होति आइसा । सिंचाइमा सि खलु पोरिसी दोषि ॥ केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन ये भवन्ति शुक्लपके प्रतिपदा दिषु दिवसेषु मोचाः शुभाशुभम्यननिमित्त तिथपादा आदित्य कर विकारजानेता आदित्यस्योदयसमये अस्तमय समये वा श्रताघ्राः कृष्णश्यामा वा ग्रूपक इति ते भवन्ति " २०८ असत्काइय पर्तन्ते चीणः नैतेषु स्वाध्यायः परिष्यित् त्वाचार्याणामनाचीर्णास्तयां मतेन यूपको द्वे पौरुप्यौ हन्ति । वाद न केवलमूनि सदेवानि चंद्रमरुपरागा, निम्पाए गुजिने अहोर चंद जमेण्ड उ, उक्कोसा पोरिमि किं ।। सूरो जहण वारस, उक्को पोरिमीन सोनस । सगह निन्यु एवं मुरादी होना || बोरा सूर्योपरा व दिनानि वाक्यशेषः तथा साखे निरवानाकृतो महाराजित सो तः । गजनी विकारो जमानो महान जित, तस्मिन् निर्घाते गुजिने च प्रत्येकमहोरात्रं यावत् स्वाध्याय परिहारः । तत्र जघन्यत उत्कर्षतश्च चन्द्रोपराग सूर्यो परागं वाथिन्य स्वाध्यायोचितकामानमाह-द्रो जयन्ये नीलम्कनः परुषद्विपम द्वादश पौ रित्यर्थः । कथमिति चेन् ?, सच्यते- उच्छन् चन्द्रमा राहुणा गृइतिस्ततयतः पौराि एवमौ । घादश पुनरेवम्-प्रभातकाले चन्द्रमाः सग्रह एवास्त मुपगतः ततश्चतस्त्रः पौरुषीदिवसस्य इन्ति, चनत्र श्रागामिन्या रात्रेः, तत्र द्वितीयस्य दिवसस्य । श्रथवा श्रौत्पातिकग्रहणेन सर्वरात्रिकं ग्रहणं जातम्: सग्रह एव निमग्नः ततः : संदूषितत्रेचतस्रः पौरुषीः, अन्यच्चा होरात्रम् । अथवा अम्रच्छन्नतया विशेषपरिज्ञानाभावाश्च न ज्ञानं कस्यां वेलायां ग्रहणं, प्रभाते च प्रहोनिमज्जन् दृष्टः, ततः समग्ररात्रिः परिहता, अन्यश्चाहोरात्रमिति द्वादश सूर्यो जघन्येन द्वारा उत्त मिति -सूर्यः सग्रह एवमुत्रः प रुपी रात्रेर्हन्ति चतस्त्र श्रागामिनो दिवसस्य, चतस्त्रस्ततः परस्या रात्रेः एवं द्वादश । श्रभिश पुनरेवम्-सूर्य उच्छन् राहुणा गृहीतः सकलं च दिनं समुत्पातवशात्सग्रहः स्थित्वा सग्रह एवास्त मुपागतः। ततश्चतस्रः पौरुपीदिवसस्य हन्ति चतस्र श्रागामिन्या रात्रेः, ततश्चतस्रः परदिवसस्य, ततोऽपि चतस्रः परतराया रात्रेः, एवं षोडश पौरुपीर्हन्ति, सग्रहनिमग्नः, सग्रह एवास्तमितः । तथा चोक्तम्- " एयं उगगमनं गहिए सग्गहनिःघुमे ददुत्वमिति " (सूरा जेस होरस ति) सूर्यादयो येनाहोराषाः । ततः किमित्याह आनंदिमुके, सोच्चिय दिवसो य राती य । निग्पायगुंजए, सो चिय बेला उ जा पत्ता || यतः सूर्यादिरहोरात्रः, ततो दिनमुक्ते सूर्ये स एव दिवसः, सैव च रात्रिः स्वाध्यायिकतया परिद्वियते चन्द्रे तु तस्यामेव रात्रौ मुके यावदपरको नोदेति तावदस्वाध्यायः इति रात्रिः, अपरं च दिनमिति, एवमहोरात्रमस्वाध्यायः । श्रन्ये पुनराराचीर्णमिदम्-चन्द्रो रात्रौ गृहीतो रात्रावेव मुक्तः, तस्या एव वर्जनीयं यस्मादागामिसूद समाप्ति रोरावस्थ जाता। सूर्योऽपि यदि दिवा गृहीतादियमुक्त स्तस्यैव दिवसस्य शेष, रात्रिश्व वर्जनीया इति । तथा निर्घा सञ्जिनयोः प्रत्येकमः परयां वेलायां नियो गुतं वापि कृते दिने भवेत्, द्वितीयेऽपि दिने यावत्सैव वेला प्राप्तः भवति दस्तयोरप्यस्वाध्याय स्वाहोरात् Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३०) असज्झाइय अन्निधानराजेन्द्रः। प्रसज्झाइय उक्तं च-निर्घातो गुज्जितं च लोकप्रतीतो, " एए अहोरसं उ- परस्परं सकलुषभावे बहवस्तरुणाः परस्परं लोर्युभ्यन्त, सतो बहणंति त्ति"। यष्टिभिर्वा लोष्टादिभिर्वा परस्परं भएमने कनहे यावनोपशमो तथा भवति सेनाधिपादिव्युग्रहस्य तावदस्वाध्यायः। अत्र कार णमाह-(गुज्जगउहाह प्रवियत्तं) गुह्यकाः कौतुकेन प्रेक्षमाणा. चउसंगासु न कीरइ, पामिवएमुं तहेव चउसुं पि। जलयेयुः,तथा बदुजनो 'निर्दुःखा पते' इति मन्यमानोऽप्रीत्योजो जत्थ पूजती तं, सव्वेहि सुगिम्हतो नियमा। हाहं कुर्यात्-‘लोकोपचारबाया एते' इति तथा-दएिमके कामचतस्रः सन्याः , तिम्रो रात्रौ । तद्यथा-प्रस्थिते सूर्य,अर्धरात्रे, गते (अमराए ति यावदन्यो राजा नाभिषिक्तो भवति तावत्प्र जानां महान् संहाभो भवति, तस्मिन्संकोनेसति स्वाध्यायोन प्रभाते च चतुर्थी दिवसस्य मध्यभागे।एतासु चतसृष्वाप स्वाभ्यायो न क्रियते । शेषक्रियाणां तु प्रतिसेखनाऽऽदीनां न प्रति कल्पते।किमुक्तं भवति?-यावत्संक्षोभस्ताबदस्वाध्यायः अत्राफि षेधः। स्वाध्याय करणे चाशाभादयो दोषाः। तथा-चतस्रःप्रति पूर्वोक्ता दोषाः। सभयं म्लेच्गदिभयाकुलं,तस्मिन्नपि स्वाध्यायो म कर्तव्यः । एतेषु न्युग्रहादिध्वस्वाध्यायविधिमाह-(जश्चिपदः। तद्यथा-आषाढपौर्णमासोप्रतिपत् , अश्वयुक्पौर्णमासीप्र रमनिदोहोरत्तं)व्युग्रहादिषु यश्चिरं यावन्तं कासम्, (अनिदो तिपत्, कार्तिक पौर्णमासीप्रतिपत, सुग्रीष्मप्रतिपत,चैत्रमासपो. ति) भनियमस्वस्थमित्यर्थः। तावन्तं कासमखाध्यायः स्वस्थभईमासीप्रतिपदित्यर्थः । एतास्वपि चतसृष्वपि प्रतिपत्सु तथैव-स्वाध्याय एव न क्रियते, न शेषक्रियाणां प्रतिषेधः । इह प्रति बनानन्तरमप्येकमहोरात्रं परिहत्य स्वाध्यायः कर्तव्यः । पदग्रहणेन प्रतिपत्पर्यन्ताश्चत्वारोमहाः सुचिता इति एषांचतुर्णी उक्तं चमहानां मध्ये यो महो यस्मिन् देशे यतो दिवसादारभ्य "निहोसीभूते वि अ-होरत्तमो परिहरित्ता उ। यावन्तं कालं पूर्यते तस्मिन् देशे ततो दिवसादारस्य तावन्तं सज्झाओ कीर इह, संखोभे दंडिए य कालगए" ॥ कावं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति यत्पुनःसर्वेषां पर्यन्तः "सव्येसि जाव अनेनेतदपि चितमस्ति ततस्तदभिधित्सुः " संस्रोमे पामिवतो" इति वचनात् सुप्रीष्मकश्चैत्रमासनाबी पुनर्महा इंडिए" इत्येतदार्प व्याख्यानयतिमहः सर्वेषु देशेषु शुक्लपक्षप्रतिपद आरज्य चैत्रपूर्णमासीप्र दंमि' कालगयम्मी, जा संखोभो न कीरते ताव । तिपत्पर्यन्तो नियमात प्रसिद्धः, ततो यद्यध्वानं प्रतिपन्नस्तथापि तदिवस भोइमहतर-वामगपतिसेज्जयरमादी। चैत्रमासस्य शुक्रपक्षप्रतिपद प्रारज्य सर्व पक्ष पौर्णमासीप्रतिपत्पर्यन्तं यावदवश्यमनागादो योगो नितिप्यते,शेषेषु भागाढा. दएमके कालगते सति यावत्संक्षोभस्तावत्स्वाध्यायोन क्रियते, दिकेषु योगो न निक्किप्यते, केवझे स्वाध्यायं न कुर्वन्ति । गत अन्यस्मिस्तु सुरादि स्थापितेव्होरात्रातिक्रमण क्रियते स्वास्थ्यसदेवमस्वाभ्यायिकम् । व्य०७०।गा। भवनात्। तथा-नोजिके ग्रामस्वामिनि,महत्तरिके ग्रामप्रधाने,वा टकपतौ घसत्यनुरते वाटकैकस्वामिनि, तथा-शय्यातरे, श्रादि"णो कप्पाणिगंधाण वाणिग्गंधीण या चउहि महापामि शब्दादन्यस्मिन्वा शय्यातरसंबन्धिनि मानुषे कालगते, तदिवथपहि सकार्य करेसए। तं जहा-आसाढपाडिवप, इंदपाडिवप, कतिप्रपामिवप, सुगिम्हपामिवए । णो कप्पा णिगंयाण बा समस्वाध्यायः, एकमहोरात्रं यावत्स्वाध्यायपरिहार इत्यर्थः। णिग्गंथोण वा चहि संकाहिं सज्जायं करेत्तए । तं जहा-पढ तथा-- माए पच्छिमाए मऊपढे अद्धरत्ते । कप्पणिग्गंथाण वाणि- | पगएँ बहुपक्खिए वा, सत्तघरंतर मते च तश्विसं। गंथीण वा चउकालं सज्जायं करेत्तए । पुवाहे अधरपहे निदुक्ख ति य गरिहं, न पति सणीयगं वा वि।। पोसे पच्चूसे।" स्था० ४ वा०२२० । अन्योऽपि यो नाम प्रामे प्रकृतोऽधिकृतो महामनुष्यः, तस्मिन् इदानी व्युग्रहजमाह यदि वा-बदुपातिके बदुस्वजने कालगते, अन्यस्मिन्वा प्राकृते बुग्गह दमियमादी, संखोभे दंडिए य कालगते। खवसत्यपेक्षया सप्तगृहाच्यन्तरे कालगते तद्दिवसमेकमहोराअणरायए य सजए, जञ्चिरमनिदोच्चऽहोरत्तं ।। प्रमस्वाध्यायः किं कारणमत आह-निईःखा अमी' इत्यप्रीत्या गई णसंभवात् , ततो न पठन्ति । अथवा-तथा पठन्ति यथा न व्युग्रहे परस्परविग्रहे दण्डिकादीनाम्,आदिशब्दात्सेनापत्या कोऽपि शूणोतीति । मदिवारूदितशब्दोऽपि यावत् श्रूयते तादीनां च परस्परं विग्रहे अस्वाध्यायः। इयमत्र भावना-दौ दएिमको | धन पन्ति ॥ सस्कन्धावारी परस्परं संग्राम कर्तुकामौ यावनोपशाम्यतस्तावत्स्वाध्यायः कर्तुं न कल्पते । किं कारणमिति चेत?, छ- हत्थसयमणाहम्मी, जय सारियमादितो विगिंचिजा । च्यते-तत्र वाणमन्तराः कौतुकेन स्वस्वपकेण समागच्छन्ति, ते | तो सुकं अविविते, अन्न वसहि विमग्गंति ।। बलयेयुः, भूयसां च लोकानामप्रीतिः-वयमेवं भीता वर्तामहे, कोऽप्यनाथो हस्तशताभ्यन्तरे मृतः,तस्मिन्ननाये हस्तशताभ्यकामध्यापदं प्राप्स्यामः, एते च श्रमणका निर्दुःखं पठन्ति । न्तरे कालगते स्वाध्यायो न क्रियते । तत्रेत्यं यतना-शय्यातरस्य ঋগাৰহাৰ্য্যালাখামমা খামা वा, तथाविधस्य श्रावकस्य वा भद्रकस्य वार्ता कथ्यते-यथा सेंणाहिवभोइयमह-यरपुंसित्थीण मजुके वा। स्वाध्यायान्तरायमस्माकमनाथमृतकेन कृतमस्ति, ततः सुन्दर भवति यदीदं गज्यते। एवमभ्यर्थितो यदि शरणातरादिर्विगिश्चसोहादिमणे वा, गुज्झगउड्डाह अवियत्तं ।। येतू परिष्ठापयेतू,ततः शुरूं भवतीति स्वाध्यायः कार्यः। अथ न द्वयोः सेनाधिपत्यो यो; तथाविधप्रसिद्धिपात्रयोः, तयोः शय्यातरार्दिर्न कोऽपि परिष्ठापयितुमिच्छति तदा तस्मिन्ननाथे परस्परं व्युद्ग्रहे वर्तमाने,अथवा मवयुके, तथा-द्वयोः प्रामयोः। मृतके अविविक्त अपरिष्ठापिते अन्यां वसतिं मागयन्ति । Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३१ ) निधानराजेन्द्रः । मसकाइय भारसही असती, ताड़े रति यसमा विवेचति । विकिन्ने व समंता, जं दिट्ठ अराढए सुद्धा || अन्यस्था वसतेरभायो यदि ततो रात्री सागरिकाक्षो वृषप्रास्तदनाथमृतकं विविचन्ति, अन्यत्र प्रक्पिन्ति । श्रथ तत्कलेपरं चाशादिभिः समन्ततो विततो विकसि मन्ततो निभालयन्ति तत्र यद् दृष्टं तत्सर्वमपि विविचन्ति । इतरस्मिस्तु प्रयक्षे कृतेऽप्यदृष्टे 'अराठा' इति कृत्वा शुरूः स्वाध्यायं कुर्वन्तोऽपि न प्रायश्चित्तभागिन इति भावः । गतं व्युइहजम् । इदानीं शारीरिकमाह सारीरं पिय विहं माणुसतेरिच्चियं समासेणा । वोरच्छं वत्य तिहा, जलथलखढनं पुणो चउदा ॥ शरीरे नवं शारीरं समान संकेत द्विविधं द्विप्रका रम्। तद्यथा-मानुषं तैरश्चं च । तत्र तैरचं त्रिधा-जलजं जलमत्स्यादितिर्यग्नवम, एवं गवादीनां स्थलजं, खजं मयूरादीमाम् पुनरेकैकं चतुर्दा-तुप्रकाराः । तानेव प्रकारानादचम्म रुहिरं च मंसं अपि य होइ चटविगप्पं तु । दवा दव्वाईयं, चव्विहं होइ नायव्वं ॥ , चर्म शोणितं रुधिरं मांसमस्थि इत्येतानि प्रतीतानि । एवमेकैकं जनजादि चतुर्विकल्पं नवति । अथवा जलजादिकं प्रत्ये कं चर्मादिदतश्चतुर्विकल्पं सत्पुनर्ब्रव्यादिकं सव्यादिदतस्वतुर्विधं भवति ज्ञातव्यम् । तानेव प्रत्येकं व्यादीन् चतुरो भेदानाहपंचिदिवाण दब्बे, खिने सहित्य पोग्गलाकि । तिकुरत्यंतरिए वा नगरे वार्ड तू गामस्स ॥ यतः पचेन्द्रियाणां जलजादीनां चतुष्टयमस्वाध्यानिद्राणामतः परिहस्ताभ्यन्तरे परिह रणीयं, न परतः। श्रथ तत्स्थानं तैरन पौफलेन मांसेन समन्ततः काककुर्कुराऽऽदिनिर्व्याक्षिप्तेनाऽऽकीर्ण व्याप्तं, तदा यदि संप्रामस्त तस्मिन् तिसृभिः कुध्याभिरन्तरिते विकीर्णे पुइले स्वाध्यायः क्रियते । अथवा नगरे, तदा तत्र यस्यां राजा सबलवाहनो गच्छति, देवयानं, रथो वा, विविधानि वा संवाहनानि ग च्छन्ति, तया महत्याऽप्येकया रथ्यया श्रन्तरिते स्वाध्यायः कार्यः । अथ स ग्रामः समस्तोऽपि विकीर्णेन पौङ्गलेनाकीर्णो विद्यते, तिसृभिः कुरथ्याभिरन्तरितं पोइलमवाप्यते, तदा ग्रामस्य बहि स्वाध्याय विधेयः गता तो मार्गणा । संप्रति कालतो भावतश्च तामाद का तिपोरी अट्ठव, जावे सुत्तं तु नंदिमादीयं । महिधोयरकपके, यूढे वा होति एवं तु ॥ तत एकैकं जलजादि गतं चर्मादि कालतस्तिस्रः पैौरुषीईन्ति । (अति) यत्र महाकाय पञ्चेन्द्रियस्य मूषिकाननं तत्रास्वायायविघातः गता कामतोऽपि मार्गणा । भावत आह- भावतो नन्द्यादिकं सूत्रं न पति (बहिधोपत्यादि) यदि षष्टिहस्तेभ्यः परतो बहिः प्रकाल्य मांसमानीतं, यदि वा राखी पाकेन नहा मन पहियत यही राजे बहिः के वा तत्रानीते शुरूम, अस्वाध्यायिकं न भवतीति भावः । अथवा १ असज्काश्य यत्र स्तान्यन्तरे पतितमस्वाध्यायि रुचिरं नान पानीयमवाट घागतः तेन व्यूढं तदा पौरुषमध्येऽपि शुरूमस्वाध्यायिकमिति स्वाध्यायः कार्यः । तो पुल सहीणं, धोयम्मी अवयवा तहिं होंति । तो तिष्टि पारिसीओ, परिहरियव्वा तर्हि हुंति ॥ यदि पुनः चचिस्तानामन्तरे मां प्रायति तदा तस्मिन् धोते व नियमाः पतिता भवन्ति ततस्तिः पौरयः स्वाध्यायमधिपरिहर्ता भवति । 'वा' इति यदुकं तदिदानीं भावयतिमहकावे ऽद्दोरणं, मंजारादीण मृसगादि इते । अविभिसे गोवा, पति एगे जइ पलाति ॥ स्था महाकाये मूषिकादी मार्जारादिना हते मारिते अहोरात्रमष्टौ पौरुष । यवद स्वाध्यायः । अत्रैव मतान्तरमाद- (अविजिने ३त्यादि) के प्रादुः यदि माजांरादिना मूषिकादिरविधि ए सद् मारितो मारयित्वाचा अथवा मात्पलायते, तदा पठन्ति साधवः सूत्रं, न कश्चिद्दोषः अन्ये नेच्छन्ति यतः कस्तं जानाति अविभिन्नो भिन्नो वा मारित इति । अपरे मात्र माजरादिः स्वयं मृतोऽन्येन वा केनाप्यवि भिन्न एव सन् मारितस्तत्र यावत्कलेवरं न भिद्यते तावना - स्वाध्यायिकम, विभिन्ने अस्वाध्यायिकमिति । तदेतदसमीचीनमयत कर्मादिमेततुर्विधमस्वाध्यायिक, तस्मादयिमिनोऽप्यस्वाध्यायिकम् तस्मादविनिन्नेऽप्यस्वाध्याय एव । तो बाद च भिन्ने, श्रंमयबिंदू तदा त्रियाताए । रायप, परवपणे साणमादीयि ॥ अन्तरुपाश्रयमध्ये यदि योपवाद बहिः बदिस्ताभ्यन्तरे पदि तदण्डममिमाप्यस्ति तदा तस्मिन् ज्झिते स्वाध्यायः कल्पते । अथवा पतितं सत् तदण्डकं जिनं तस्य वाऽरामकस्य कललबिन्दुर्भूमौ पतितः, तदा जिने अ एडके, विन्दौ च भूमौ पतिते न कल्पते स्वाध्यायः। अथ कललं पतितं सदरमकं जिनं कलिलबिन्दुर्वा तत्र लग्नः, तदा तस्मि न हिस्तेभ्यः परतो बढ़िया धोते कल्पते। तथाविज्ञातायां प्रसूताय तैरस्यामस्वाध्यायः पौरुषीत्रितयं यावत् । तथाये राजपथे स्वाध्याधिक बिन्दयो गञ्जितास्ते न गरायन्ते तथाअन्यत्र प्रतिपतित चास्वाध्याधिकम, ततो वर्षोदकमवाण - स्मिन् पुढे कल्पते । यदिकमाश्रित्य परस्य वचनं तद भावषिध्यते इति गाथासपार्थः । : साम्प्रतमेनामेव विवपुरिदमाह अंडयमुऊिपकप्पे, न य भूमि स्वति इढरा तिथि असजाइयपरिमाणं, मच्छियपाया जहिं खुप्पे ॥ यद्यमनियमेव पतितं तदा तस्मिन्नुते स्वाध्या यः कल्पते, अथ जिनं तदा न कल्पते । न च भूमिं खनलि. इतरथा भूमिखननेन यदि तदस्याच्याविकमपनयन्ति त थाऽपि तिखा पौरुषी यावदस्वाध्यायः भरड विदुराच्या विकस्य प्रमाणं यत्र महिकापादा निमज्जन्ति । किमुक्तं भवलियामा महिकायादा मुमन्ति तावन्मात्रेयकविदौ भूमौ पतति सति अस्वाध्यायः । - Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३२) असज्काश्य अन्निधानराजेन्धः। असज्जाइय अधुना 'वियाताए' इति व्याख्यानार्थमाह मानुष्यकं मानुषमस्वाध्यायिकं चतु। तद्यथा-चर्म,रुधिरं, अजराउ तिप्लि पोरिस, जरान्याणं जरे पमिएँ तिलि। मांसमस्थिच । एतोवास्थ मुक्त्वा शेषेषु सत्सु केत्रतो हस्तशता ज्यन्तरे न कल्पते स्वाध्यायः। कालतोऽहोरात्रम् । (परियावानिजतुवस्सपुरतो, गलियजति निग्गलं होजा ।। विवाम त्ति) मानुषं तैरश्चं वा यद् रुधिरं तद यदि पर्यापन तेन अजरायुप्रसूतास्तिस्रः पौरुषीः स्वाध्याय हन्ति महोरात्र- स्वभाववर्णाद्विवीनूतं भवति स्वादिरसारसमाससारादिकच्छेदं मुक्त्वा, अहोरात्रे तु चिन्ने आसन्नायामपि प्रसूतायां रूपं, तदा स्वाध्यायिकं भवतीति क्रियते, तस्मिन् पतितेऽपि स्वाकल्पते स्वाध्यायः, जरायुजानां यावजरायुसम्बते तावदस्वा- ध्यायः । (सेस ति) पर्यापनं विवर्ण मुक्त्वा शेषे स्वाध्यामिक ध्यायः, जरायौ पतितेऽपि सति तदनन्तरं तिनः पौरुषीर्याव- नवति । (तिग त्ति) यत् अविरताया मासे मासे प्रार्तवमस्वादस्वाध्यायः। तधा-उपाश्रयस्य पुरतो नीयमानं तदस्वाध्यायिक भ्यायिकमागच्छति तत्स्वभावतस्त्रीणि दिनानि यावदस्वागनित भवति, तदा पौरुषीत्रयवदस्वाभ्यायः । यदि पुनर्निर्गसं ध्यायः । त्रयाणां दिवसानां परतोऽपि कस्याचित् गलति, पर भवेत्तदा तस्मिन्नीते स्वाध्यायः। तदातवं न भवति, किं तु तन्महारक्तं नियमात्पर्यापनं विवणे ___ "रायपह बूढे" इति व्याख्यानार्थमाह भवतीति नाऽस्वाध्यायिकं गण्यते। तथा यदि प्रसूताया दारको रायपहे न गणिजति, अह पुण अप्पत्थ पोरिसी तिलि। जातस्तदा सप्त दिनान्यस्वाध्यायिकम, अष्टमे च दिवसे स्वा ध्यायः कर्तव्यः । अथ दारिका जाता तार्ह सा रक्तोत्कटेति, अह पुण न्दं हुस्सा, वासोदेणं ततो सुकं ॥ तस्यां जातायामष्टौ दिनान्यस्वाध्यायः, नवमे दिने स्वाराजपथे यद्यस्वाध्यायिकविन्दवो गलितास्तदा तदस्वाध्यायि ध्यायः कल्पते। कंन गण्यते। किं कारणमिति चेत्, उच्यते-यतस्ततः स्वयोग्यत पागच्छतां गच्छतांच मनुष्यतिरश्वा पदनिपातैरवोक्तिप्त पतमेव गाथाऽवयवं व्याचिस्यासुराहभवति । जिनाशाचात्र प्रमाणमतो न दोषः। अतः पुनस्तदस्वा- रत्तुक्कमए इत्यी, अट्ठ दिणा तेण सत्त सुक्कऽहिए । ध्यायिक तेरश्च राजपथादन्यत्र पटिहस्ताज्यन्तरे पतति तदा तिएह दिणाण परेणं, अणाउयंतं महारत्तं ॥ तिस्रः पौरुषीर्यावद स्वाध्यायः। अथ तदपि वर्षादकेन व्यूढं भ निषेककाले यदि रक्तोत्कटता, तदा स्त्री इति, तस्यां जातायां वेत. उपलकणमेतत-प्रदीपनकेन च दग्धं, तदा शुरूं तत्स्थान दिनान्यावस्वाध्यायः । दारकः शुक्राधिकः, तेन तस्मिन् जाते मिति कल्पते स्वाध्यायः ।। सप्त दिनान्यस्वाध्यायःतथा-स्त्रीणां त्रयाणां दिनानां परतस्तसंप्रति " परवयणे साणमादीण" इति व्याख्यानयति महारक्तमनातवं नवति, ततो न गणनीयम् । चोदेति समुद्दिसिन, सा जो जड़ पोग्गलं तु पजाहि। दंते दिट्टे विगिंचण, सेमऽडिग वारसे न वासाई। नदरगणं चिट्टइ, जा तान उ हो असज्झाओ॥ कामित बूढे सीया-ण पाणमादीण रुद्दघरे । अत्र परचोदयति-श्वा यदि पौद्गलं तैरश्चं मांसं बहिः समुद्दि. श्य (निगाल्य। तत्रागच्छेत, तर्हि यावास तत्र तिष्ठति तावत्ते यत्र हस्तशवाभ्यन्तरेदारकादीनां दन्तः पतितो भवति तत्रनिनोदरगतेन पीऊलेन अस्वाध्यायः कस्मान्न भवति?। भालनीय,यदि दृश्यते तदा परिष्टाप्यः अथ सम्यग्मृगयमाणैरपि सूरिराह न रष्टस्तदा शुरुमिति कल्पते स्वाध्यायः । अन्ये तुं अवते-तस्य भष्मति जड़ ते एवं, सज्झाओ एव तो उ नत्यि तुहं। अवहेमनार्थ कायोत्सर्गः करणीयः दन्तं मुक्वा शेषाङ्गोपाङ्गा दिसंबन्धिन्यस्थिनि हस्तशताभ्यन्तरे पतिते द्वादश वर्षाणि न असझाइयस्म जेणं, पुसोसि तुमं सयाकालं ॥ कल्पते स्वाध्यायः। अथ तत्स्थानमग्निकायेन ध्यामितं, पानीयन जएयते-अत्रोत्तरं दायते-यदि ते एवं पूर्वोक्तप्रकारेण मतिः, वा ब्यूदं, तदा शुरुमिति, ध्यामिते व्यूढे वा स्वाध्यायः कल्पते। ततस्तव स्वाध्यायः कदाचनापिं नास्त्येव । पवकारो निन्नक्रमः, तथा-(सीयाण त्ति) श्मशाने यानि कलेवराणि दग्धानि तान्यसच यथास्थानं योजितः। कस्मान स्वाध्यायः कदाचनापीति?, स्वाध्यायिकानि न भवन्ति, यानि पुनस्तत्र अनाथकलेवराणि न अत आह-येन कारणेन सदाकालं सर्वकालं त्वमस्वाध्यायि दग्धानि, निस्वातीकृतानि वा तानि द्वादश वर्षाणि स्वाध्याय कस्य पूर्णः, शरीरस्य रुधिरादिचतुथ्यात्मकत्वात् । भनन्ति । यद्यपि च नाम श्मशानं वर्षोदकेन प्रव्यूढं, तथापि तत्र जइ फुसती तहि तुमं, जइ वा लेढारिएण संचिहे। न कल्पते स्वाध्यायः, मानुषास्थिबहुलत्वात् । (पाणमादीण ति) इहरा न होति चोयग, बंतं तं परिणयं जम्हा ।। पाणनामाऽम्बरो नाम यक्षो हिरमिक्कापरनामा देवतं, तस्यायदि श्या खरपटेन मुनेन तत्रागत्याऽऽन्मीय तुण्डं वापिस्पृ. ऽऽपतनस्याधस्ताद् मानुपान्यस्थीनि निक्षिप्यन्ते-ततस्तत्र शति । यदि वा सरपिटतेनैव मुखेन संतिष्ठते,तदा भवत्यस्वा तथा-मातृगृहे चामुण्डायतने, रुगृहे वाऽधस्ताद मानुषं कध्यायः, इतरथा यदि पुनर्बहिरेव सुख लीडा समागमति तदा पास निक्षिप्यते । ततस्तयोरपि द्वादश वर्षाएयस्वाध्यायः । न भवति । तथा-यद्यप्यागत्वा वमति, तथापि चोदक !ना अमुमेव गाथाऽवयवं व्याचिख्यासुराहस्वाध्याधिकम, यस्मात्तद् वान्तं परिणतम् । एवं मार्जारादिकम सीयाणे जं दहूं, न तं तु मुत्तणऽणाहनियाई। प्यधिकृत्य भावनीयम् । गतं तैरश्चम् । आडंबर रुदमादी-घरेम हेट्टऽट्ठिया वारा ।। अधुना मानुषमाह श्मशाने यत् दग्धमस्थिजातं तदस्वाध्यायिकन नवति। तन्ममाणुस्सगं चउछा, अढि मुत्ताण सयमहोरत्तं । क्वा, शेषाणि यानि न दग्धानि,निखातानि वा,तानि द्वादश व. परियावएणविवमा, सेसे तिग सत्त वढे वा ॥ पीणि स्वाध्याय प्रन्ति । तथा-प्राइम्बरे भामम्बरयक्षायतने,रुके Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३३) श्रसज्जाश्य अन्निधानराजेन्डः। असज्जाइय रुद्रायतने मातृगृहेषु माडम्बरादीनामधस्तादस्थीनि सन्ति, दिषु भस्वाध्यायदिनानीति कृत्वा त्यज्यन्ते, तद्वत् 'ई'दिनमपि, तेन कारणेन तत्र द्वादश वर्षाएयऽस्वाध्यायः । तेन हेतुना कथं न त्यज्यते?, केचिवमतिनस्तदिनं त्यजन्ति,पाअसिवोमघायणेसुं, वारस अवसोहियम्मि न करेंति। । त्मनां का मर्यादा?,इति प्रश्ने, उत्तरम्-'ईद' दिनास्वाध्यायविषये वृद्धाऽनाचरणमेव निमित्तमवसीयते। ह।०३ प्रका० ११ प्र० । कामिय व्ढे कीरइ, आवासियसोहिए चेव ।। जे भिक्खू असज्काए सफायं करेइ, करंतं वा साइपत्र प्रामे समुत्पनेनाशिचम भूयान् जनः कालगतः, न च नि-| काशितः,यदि वा-अवमौदर्येण प्रनूतो जनो मृतो, न च निष्का ज्जा ।। १५॥ तः, अथवा-भाघातस्थानेषु ज्यान जनो मारयित्वा निक्षिप्तो | जम्मि जम्मि कारणे सकारोण कीरति तं सव्वं असहाय,त वर्तते । पतेप्वशिवावमौदर्यायतनस्थानेषु पूर्व विशोधनं क्रिय- च बहुविहं वक्त्रमाणं; तत्थ जो करे, तस्स चउलदु, प्राणाभते, विशोधने च क्रियमाणे यद् रष्ट तत्परित्यज्यते । अरष्टविषये गो, प्रणवत्था, मिच्छतं, मायसंजमविरादणा य । नि० चू०१६ च देवतायाः कायोत्सर्ग कृत्वा पगन्त । मथ न क्रियते विशो- उ०। (स्वाध्याये एव स्वाध्यायः कर्तव्य इति ' सजाय ' शब्दे धनं, ततस्तस्मिन्नविशोधिते द्वादश वर्षाणि यावत् स्वाध्यायं न चतुर्थभागे वयते) कुर्वन्ति । अथ तत् मशिवादिस्थानमानिकायेन भ्यामित,वर्षोद __णो कप्पणिग्गंयाणं वा णिग्गंथी वा अप्पणो अकेन वा प्लवितं, तदा क्रियते तत्र स्वाध्यायः ( आवासियसोहिए चेव सि ) श्मशानं यदि योजनैरावासितं ततस्तस्मिन्ना सज्काइए सम्झायं करित्तए, कप्पति गं अप्ममयस्स वा. वासिते शोधनं क्रियते, यद्रश्यते तत् विविच्यते। एवं शोधिते यणं दिलिइत्तए । तस्मिन् अष्टाद्युपघाताय देवतायाः कायोत्सर्ग कृत्वा स्वा- न कल्पते निग्रन्थानां निर्ग्रन्धानांवात्मनःसमुत्थेऽस्वाध्यायिके ध्यायं प्रस्थापयन्ति । स्वाध्याय कर्तु,किन्तु कल्पते परस्परस्य वाचनांदापयितुमन्यत्र। महरग्गाममयम्मी, न करेंती जान नीसियं होति। यदि वा प्रकाशनानन्तरं गाढवन्धे प्रदते सति तत्रापि स्वयमपुरगामे च महंते, वामप्रसाहिं परिहरंति ॥ पि वाचनां दातुं कल्पते इति वाक्यशेषः। डहरके बुचके प्रामे कोऽपि मृतः, तस्मिन् मृते तावत्स्वाध्या एतदेव भाष्यकारः सप्रपञ्चमाहयो न क्रियते यावत् कमेवरं न निष्काशितं भवति । पुरे पत्तने प्रायसमुत्थमसज्का-इयं तु एगविह होइ दुविहं वा। महति वा प्रामे वाटके साहौ वा यदि मृतो नवति तदा तं एगविहं समणाणं, दुविहं पुण होइ समणीणं॥ वाटकं साहि वा परिहरन्ति । किमुक्तं भवति ?, तत्र न कुर्वन्ति स्वाध्यायं यावत्तद्वारकात साहीतो वा निष्काशतं नवति, मात्मनः शरीरात्समुत्थं संनूतमात्मसमुत्यमस्वाध्यायिकमेक विधमानवति,द्विविधं वा। सत्र यत् एकविधम-प्रशो भगन्दराबाटकात साहीतोऽन्यत्र मृते नास्वाध्यायः । दिविषयम, तत् श्रमणानां भवति । श्रमणीनां पुनर्भवति विधिजइ य नवस्सयपुरतो, नीज्जइ तं महब्धयं ताहे। धम्-अशी प्रगन्दरादिसमुत्थम् , ऋतुसंभवं च । हत्यसयंतो जावउ, तावउ न करेंति सज्झायं ।। तत्र यतनामाह-- यदि तत् कमेघरं मृतकं नीयमानं संयतानामुपाश्रयस्य पुर- धोयम्मि य निप्पगले, बंधा विमेव होति नकोसा । तो हस्तशताज्यन्तरेण नीयते, ततो यावत् हस्तशतान्तो ह. परिगलमाणे जयणा, विहम्मी हो। कायन्या ।। स्तशतं व्यतिकम्यते, तावत्र कुर्वन्ति स्वाध्यायम, हस्तशतं व्युत्कान्ते पठन्ति । वणादौ निप्रगले धौते उपरि क्षारप्रक्तपपुरस्सरं त्रयो पन्धा उ. अत्र पर माह त्कर्षतो भवन्ति । तथाऽपि परिगलति द्विविधे वणादावावे च पतना वक्ष्यमाणा कर्तव्या। कोवी तत्थ भणेजा, पुप्फादी जाव तत्थ परिसाडी। पतदेव सप्रपञ्च प्रावयतिजा दीसंती तावन, न कीरए तत्थ सकारो॥ समणो उ वणे व जग-दरे व बंधेको य वारति। कोऽपि तत्रयात्-या तत्र मृतके नीयमाने पुष्पादीनाम,प्रादिशमाद जीर्णचीवरखएमादीनामुपाश्रयस्य पुरतो हस्तशताभ्यन्तरे तह गालते गरं, छोढुं दो तिएिण बंधामओ ।। परिशादिः, सा यावत् रश्यते तावत्सत्र न क्रियते स्वाभ्यायः। अमणो व्रणेवा,जगन्दरेवा परिगलति हस्तशताबदिगत्वा निअत्र रियह प्रगलं प्रकाल्य चीयरेकारंक्षिप्त्वा उपरि अन्यन् चीवरं कृत्वा घणं जगन्दरं वा बध्नाति, तत एवमेकं बन्धं कृत्वा वाचयति । भाइ न य तं तु तर्हि, निजंतो मोतु हो असम्झायं । - यदि तथापि परिगलत्यऽस्वाध्यायिक,तत परिकारं मिक्षिप्य जम्हा चउप्पयारं, सारीरमतो न वजंति ॥ द्वितीयं बन्धं ददाति, ततो वाचयति । तथाऽप्यतिष्ठति तृतीयजण्यते-अत्रोत्तरं दीयते-तत्र नीयमानं मृतकं मुक्त्वा अन्यत्क- मपि बन्धप्रत्यवतारं दत्वा वाचयति । नकपुष्पादिकं पतितमस्वाध्यायिकं न भवति,यस्मात् शरीरमस्वा. जाहे तिपिण विजिन्ना, ताहे हत्यसयत्राहिरा धोर्ड। भ्यायिकं चतुःप्रकारं रुधिरादिभेदतश्चतुर्विधम् । पुष्पादिकं च बंधिउ पुणो वि वाए, गंतुं प्राणत्थ व पदति ॥ तव्यतिरिक्तम, अतोनस्वाध्यायिकतया तत्र वर्जयन्ति। प्रात्मसमुत्थं त्वतनसत्रे व्याख्यास्यते।व्य०७ उग'ईद'दिने ऽस्वाध्या- यदा प्रयोऽपि बन्धास्तेनाऽस्वाध्यायिकेन विनिना भवन्ति. यः। यथा-महाहिसावत्वेनाऽऽश्विनचैत्रदिनानि सिमान्तवाचना-। तदा हस्तशताद बहिर्गस्वा निप्रगलं प्रकास्य, पुनः कारं निक्षिप्यो १०६ Jain Education Interational Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) प्रसज्झाइय अभिधानराजेन्द्रः। असज्माइय परि तीवरेण बचा पुनरपि वाचयति , अन्यत्र वा गन्तुं उपेत्य कृतमपराधं समिहितासन्निहितप्रातिहार्यप्रतिमा स्थान पठन्ति । दाम्यति, इति एवममुना प्रकारण भुतकानमपि स्तमपराध एमेव य समणीणं, वणम्मि श्यरम्मि सत्त बंधा । । न मते । तत्र परलोकेषु गतिप्रपातो दरामः,ह लोके प्रान्तदेवतह वि य अट्ठयमाणे, धोकणं अहव अन्नत्थ ॥ ताकुलना स्यात्। एवमेघ भ्रमणीनामपि व्रणविषये यतना कर्तव्या भवति।इत- सगो दोसो मोहो, असझाए जो करे सज्झायं । रस्मिन्नार्तचे सप्त बन्धाः पूर्वप्रकारेण प्रवन्ति । तथापि व्रणे इतर- भासायणा व का सा, को वा जणितो प्रणायारो॥ स्मिन् वाऽतिष्ठति हस्तशताद् पहिः प्रकाल्य तथैव बन्धान दत्त्वा रागात दोषात मोहावा योऽस्वाध्याये स्वाध्यायं करोति तवाचयति, भन्यत्र वा गत्वा पठन्ति । स्य का कीरशी फबत भाशातना', कोवा कीरशः फलद्वारण एतेसामनयरे, असकाए अप्पणो उ सज्झायं। भणितोऽनाचारः। जो कुण अजयणाए, सो पावर प्राणमादीणि ॥ तत्र रागद्वेषमोहान् व्याख्यानयतिएतेषामनन्तरोदितानामन्बतरस्मिसात्मनोऽस्वाभ्यायिके सति | गणिसद्दमाइमहितो, रागे दोसम्मि न सहते सरं । यः स्वाध्यायं करोति,तत्राप्ययतनवा,स प्राप्नोत्याकादीनि तीर्थ- सन्चमसज्जायमयं, एमादी होइ मोहे न॥ करानाभलादीनि दूषणानि, मादिशब्दावनवस्थादिपरिग्रहः। गणी भाचार्यः, प्रादिशब्दादुपाध्यायोगणावच्छेदक इत्यादिपरिन केवममिमे दोषाः किं त्विमे महः। एवमादिभिःशनैर्महित उत्कर्षतोयोऽस्वाध्याय स्वाध्या सुयनाणम्मि अनत्ती, लोगविरुकं पमत्तछलणा य । करोति,स रागे द्रष्टव्यः। यस्त्वन्यस्य गणिशनमुपाध्यायशब्दं षा न सहते-अहमपि परित्वा गणी उपाध्यायो नविष्यामिति वि. पिज्जा साहणवेगु-प्रधम्मया एव मा कुणम् ॥ चिन्त्य यत्रादरपरोऽस्वाध्यायपि स्वाध्यायं विदधाति, सदेपेडअस्वाध्यायिके पठने श्रुतकानस्याऽभक्तिर्विराधना कृता जवति, वसातव्यः । यस्तु सर्वमस्वाभ्यायमयमित्येवमादि विचिन्त्यातद्विराधनायां वर्शनविराधना, चारित्रविराधना च, तद्भावे मो. स्वाध्यायं करोति, एष भवति मोह इति । काभावः । तथा-लोकविरुकमिदं वदात्मनोऽस्वाध्यायिके पठ सम्प्रत्याचार्यः फलद्वारेणाऽऽशातनामादनम् । तथा दि-लौकिका अपिणे आर्तवे च परिगलति नम्मायं व लज्जा , रोगायंकं व पाउणे दीडं। परिवेषणं देवतार्चनादिकं वा न कुर्वन्ति । तथा-प्रमत्तीनूतस्य तित्ययरभासिआओ, भस्सइ सो संजमाओवा ।। प्रान्तदेवतया छलना स्यात् । तथा-यथा विद्या उपचारमन्तरेण साध्यसाधनबैगुण्यधर्मतया न सिध्यति, तथा भुतकानमपि। इहलोए फलमेयं, परलो' फलं न देंति विज्जाम्रो । तस्माद् मैवं कार्षीः। भासायणा सुयस्स य, कुन्नइ दीहं तु संसारं ।। भत्र परावकाशमाह सन्मादं वा लन्नेत,रोगाऽऽतकुंचा दीर्घ प्राप्नुयात,तीर्थंकरभाचोयइ जड़ एवं सो-णियमादीहि होइ सम्झायो। पिताद्वा संयमाद् श्यति, रहलोके विद्या माधुतस्कन्धादिन क्षणाः फर्म, परलोके च मोकलक्षणं न बदति न प्रयतो जरितो च्चिय देहो, एएसिं किएहु कायव्वं ॥ | पन्ति । न केवलं फलदानानावः, कि तु श्रुतस्याऽऽशातना दी परचोदयति-यद्येवमुक्तप्रकारेणास्वाध्यायो नवति । ततएतेषां संसारं करोति । तदेवं फलत माशातनाऽभिहिता। शोणितादीनां देहो भृत इति तत्र कथं स्वाभ्यायः । साम्प्रतमनाचारं फलत आह__ भत्र त्रिराह नाणायार विराहिएँ, दंसणयारो वि तह चरित्तं च । कामं भरितो तोसि, दंतादी अवजुया तह वि वजा । चरणविराहणयाए, मुक्खाभावो मुणेयव्यो । प्रणवजुया उ अवज्जा, लोए तह उत्तरे चेव ।। अस्वाध्याये स्वाध्यायं कुर्वता मानाचारो विराधिता,तविराधकामं मन्यामदे एतत्-तेषां शोणितादीनां भृतो देहः, तथापि ये नायां दर्शनाचारश्चारित्रं च चिराधितम् । चरणधिराधनता मोक्षाभाषः। दन्तादयोऽवयुताः पृथगनुताः,तेचा वर्जनीयाः,ये त्वनवयुताः अत्रैचापवादमाहअपृथग्जूता लोकं उत्तरेच अवा अपरिहर्त्तव्याः। वितियागाढे सागा-रियादि कालगय असति वुच्चेए । एतदेव भावयति एएहि कारणहिं, जयणाए कप्पर काउं॥ अजंतरमललिचो, कुणती देवाणमच्चणं लोए। अस्य व्याख्या प्राग्वत् । व्य० ७ उ० । ध०।। बाहिरमललित्तो उण, ण कुणइ अवणेइ व ततो गं ॥ | जे जिक्खू भप्पणो अस्सम्झाए समायं करे, करंत आभ्यन्तरमनलिप्तोऽपि देवानामर्चनं लोके करोति, बाह्यमल- दा साइजइ ॥ १६ ॥ लिप्तः पुनर्न करोति। मपनयति वा मसंततःशरीरात् । एवमत्रापि भप्पणो सरीरे समुत्थे प्रसज्झाए ति सज्झायो अप्पणो ण जावनीयम्। कायबो । परस्स पुण ण वायणा दायव्बा महंतेसु गच्चेसु । आनट्टियावराई, सन्नहिया न क्खमेइ जह पमिमा । अचानलाण णिचो-ढयाण व होजं ति सज्जाओ। श्य परलोए दंमो, पमत्तालणा इह सिया ॥ अरिसाभगंदलासुं, इति वायणसुत्तसंबंधो ॥ १३६ ।। Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३५ ) असज्काइय अभिधानराजेन्द्रः। प्रसद अवाउन्नत्तणो समणीण य णियोदयसंनयो नाम सज्जाओ यद्यपि न करोति किंचिदपराधम् । सर्प श्वाऽविश्वास्यो, प्रवति ण भविस्सति, तेण वायणसुत्ते विही भम्मति ॥ नि० ० १४ तथाऽप्यात्मदोषहतः"॥१॥ तथा-प्रशंसनीयः श्लाघनीयश्च स्यात, उ०। अस्वाभ्यायदिनत्रयान्तकृत उपवास आलोचना तपसि पति, प्रशमशत प्रक्रमः। यदऽवाचि-"यथा चित्तं तथा वाचो,यथावान वा! इति पण्डितरविसागरगणिकृतप्रश्नस्य हीरविजयनि. चस्तथा क्रियाः। धन्यास्ते त्रितये येयां, विसंवादो न विद्यकृतमुत्तरम-अस्वाध्यायदिनत्रयान्तःकृत उपवास आलो- ते" ॥१॥ तथोद्यच्छति प्रवर्तते, धर्मानुष्ठाने इति शेषः। भावसा. चना तपसि नाबाति । ही० २ प्रका० । चैत्राश्विनमासचतु- रंसद्भावसुन्दरं स्वचित्तरञ्जनानुगतं, न पुनः पररअनायेति; . मांसकद्विकसत्का प्रस्वाध्यायाः पञ्चमीचतुर्दशीयामद्वयाऽनन्तरं प्रापं च स्वनिसरञ्जनम् । तथाचोक्तम्-"भूयांसो मूरिलोयद्वगन्ति तद्यामद्वयं तिथिभोगापेक्षया, किंवा औदयिकापे- कस्य, चमत्कारकरा नराः । रजयन्ति स्वचित्तं ये, भूतले क्षयेति प्रश्ने, चैत्राश्विनमासयोः पञ्चमीतिथेरदिस्वाध्याया तेऽथ पञ्चषाः" ॥१॥ तथा-" कृत्रिमैडम्बरश्चिः , शक्यलगन्ति, न तु सूर्योदयात; एवं चतुर्मासकस्थाऽस्वाध्यायोऽपि स्तोषयितुं परः । मान्मा तु वास्तवैरेव, हतकः परितुष्यचतुर्दशातिरदोल्लगतीति संप्रदाय इति (१५६) तथा- ति" ॥१॥ इति । उचितो योग्यो, धर्मस्य पूर्वव्यावर्णितस्वरूपतिरधोऽस्थि सरसं भवति, तस्यास्वाध्यायिक कियतः प्रह- स्य, तेन कारणेनेषोडशः, सार्थवाहपुत्रचक्रदेववत् । रान् यावद्भवतीति प्रश्ने, तिर्यगस्थि त्रिप्रदराणामुपरि याव चक्रदेवचरितं त्वेवम्सरस तावदऽस्वाध्यायिकं नवतीतिज्ञायते ( २१३ ) । तथा अस्थि विदेदे चंपा-5वासपुरं पउरपउरपरिकलियं । ऽऽश्विनमासाऽस्वाध्यायदिनेषु सिमान्तगाथापञ्चक पन्ति, तस्य तत्पनं कल्पते नवेति प्रश्रे, अस्वाध्यायदिनेषु सिद्धान्त. तत्थाऽऽसि सत्यवाहो, अरुहो रुद्ददेषुत्ति ॥ १ ॥ संबन्ध्येकगाथापाठोऽपि न शुद्ध्यतीति (२३५)।तथा-सूर्यग्रह तस्स य नजा सोमा, सहावसोमा कयाइ गिहिधम्म ।। सा पमियजा गणिणी-ऍ वालचंदाएँ पासम्मि ॥ २॥ ण यद्भवति तदस्वाध्यायिक कुत प्रारज्य कियद्यावद्भवति, तं किंनि विसयविमुदं, दट्ट पउहो भणेर से भत्ता। तथा-यौगिकानां कियान्त प्रवेदनानिन गुयन्तीति प्रश्ने,यत्सर्यप्रणं भवति तत मारभ्याऽहोरात्र यावदस्वाध्यायिक, तदनु मुंथ पिए ! धम्ममिमं, भोगि पि व नोगविग्धकरं ॥ ३ ॥ सारेकं प्रवेदनमशुषं ज्ञायत इति (२१०) । (सेन०३ ला०) सा सादर जोगेहि, रोगेहि व मह कयं, श्मो प्राह । तथाऽऽश्विनाऽस्वाध्यायिकदिनत्रयमुपदेशमालादिनं गण्यते, किं च विट्ठमदि-हकप्पणं कुणसि तं मूढ ! ॥४॥ तथा चतुर्मासकवास्वाध्यायिके तापवते नवेति प्रभे, त. सा भणह इमे बिसवा, पसुगणसादारणा वि पयक्खा । दस्वाध्यायिके दिनत्रयमुपधानमध्ने, न तथा चातुर्मासकत्रये, माणिस्सरियाइफलो, विकिन्नधम्मो समक्खो ते ॥५॥ तस्माबतुर्मासकत्रयास्वाध्यापिके उपदेशमालादि गण्यते असरदाणप्रससो, विलक्वचित्तो प्रश्च स बिरत्तो । मालवणाविरतो, ती समं वया सम्वत्तो॥६॥ (५४)। सेन०४ नहा। मन मग्गह कन, सोमा अथिति सहर न य तोसो। असमाइयणिज्जुत्ति-अस्वाध्यायिकनियक्ति-स्त्री० । अस्वा- तम्मारणहेउमर्दि, उवा गिट्तो घडे विविउं ॥ ७॥ ध्यायिकप्रतिपादकाऽऽवश्यकान्तर्गतप्रतिक्रमणाध्ययममध्यगते भणह पिए! अमुगघडा- दाममाणेसु सा वि सरलमणा। भबाहुस्वामिकते नियुक्तिग्रन्थे, भाव। जा खिवाकर कुंभे, ताहका कसिणतयगेण ॥on "असमाश्मनिज्जुर्ति, वुच्छामी धीरपुरिसपन्न । उका अहंति पदणो, सा साहसो वि गाढसढयाए । जनालण सुविहिबा, पवयणसारं उवलहति" ॥१॥ गारुमिया गारुहिया, चार करो इलबोनं ॥९॥ "प्रसझाश्मनिज्जुस्ती, काहा भे धीरपुरिसपन्नत्ता । सिग्धं से उबुडियं, चिउरेरि निबडियं च दसणेहिं । संजमतवघ्गाणं, निग्गंथाणं महरिसीण ॥ १०॥ विसभीएहि व पाणे-हि टूरदूरेण प्रोसरियं ॥ १०॥ असझाइनिज्जुत्ति, जुत्तं जं ताव चरणकरणमाउत्ता। प्रचश्य सोमा सोह-मकप्पलीलावयंसमुविमाणे । साद्ववंति कम्म, प्रणेगभवसंचिश्रमणतं" ॥११॥ पलिओवमर्डिया, सोमा सुरसुंदरी जाया ॥ ११ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धम् । आव० ४ अ०। रुद्दो स रुददेवो, नागसिरि नागदत्तसिठिसुयं । असद-अशठ-पुं० । शम्भावरहिते, भोघ० । रागद्वपरहिते परिणीय नीश्वाहा- तुंजिउं पंचविहविसए ॥१२॥ कालिकाचार्यादिवप्रमाणस्थे, वृ० ३ उ० । अभ्रान्ते, द्वा० २ रुद्दज्झाणोवगो, नरयावासम्मि पढमपुढवीप। द्वा० । अमायाविनि, जीत० । सरलात्मनि, जीत० । प्रा० म० । बाडक्खडामिहाणे, पलियाऊ नारओ जाओ ॥ १३ ॥ पराऽवञ्चके, ध०१ अधि। ध०२०। अनुष्ठानं प्रति श्रनाल ग्रह सो सोमाजीत्रो, चवि सोहम्मो विदेहम्मि । स्थवति, दर्श। इन्द्रियविषयनिग्रहकारिणि, नि० चू०१० उ०! सेलम्मि सुंसुमारे, जामो दंती धवलकंती ॥१४॥ सप्तमगुणवत्साधी, शठो हि वञ्चनप्रपञ्चचतुरतया सर्वस्वाप्य श्यरो वि तोव्वट्टिय, जाओ कीरो तर्हि चिय गिरिम्मि। कीरी' सह रमतो, नरभासाभासिरो भमः ॥ १५ ॥ विश्वसनीयो भवति । प्रव० १३६ द्वार। . कश्या वितं गदं, करेणुयानियरपरिगयं वटुं। साम्प्रतमश इति सप्तमं स्पष्टयनाहअसतो परं न वंचद, वीससाणिज्जो पसंसणिज्जो य । पुन्चनवम्भासाओ, बबुलीबहुलो विचितह ॥१६॥ विसयसुहाउ माओ, किह णु मए वंचियबमो एस । नजम जावसारं, उचिो धम्मस्म तणेसो॥१४॥ एवं उवायचितण-पवणो पत्तो सए नीमे ॥ १७ ॥ शो मायावी; तद्विपरीतोऽशः परमन्यं न वश्चति नाभि- ता तत्थ चंदलेदा-भिहाणसरि हरितु संपत्तो। संधतेत एष विश्वसनीयः,प्रत्ययस्थानं प्रवति । इतरःपुनःपुनः । सोलार इति सयरो, भयनीप्रोप्रणतं कीरं ॥१८॥ .. वञ्च यन्नपि न विश्वासकारणम् । यदुक्तम्-"मायाशीलः पुरुयो, । भो !स्थ गिरिनिरंजे, चिकामेगो श्दागमी खयरो। Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३६) प्रसढ अनिधानराजेन्डः। असढ नसे कहियव्योऽहं, गोऽयमसो कहेयन्यो ॥ १६॥ (राजा) सो संतोससुहारस-पाणप्पवणो सुणिजए सवयं। तो कीर ! खीरमहुमडुर-बयण ! मह एवमुवकयं तुमए । (यकदेवः) अवि तरुणो दविणमिणं, पाविय पापहि पसरंति४ तुज्क वि अहं अवस्सं, करिस्समणुरुवमुवयारं ॥२०॥ (राजा) नणु सो महाकुलीणो, अह आगओ स खयरो, अदहलीलार पडिनियत्तो। ( यज्ञदेवः) को दोसो इह कुलस्स विमनस्स। कहियं सुपण पयं, इमस्स सो हरिसिओ हियए ॥२१॥ भश्चहलपरिमलेसु वि, इत्थंतरम्मि तत्था-गये गयं तं जहिच्छिया भमिरं । कुसुमेसु न कुँति कि किमओ?॥ ४५ ॥ पासिनु चिंता सुमओ, अहह अहो ! सुंदरोऽवसरो॥१२॥ (राजा) जर एवं ता किजउ, समतो गेडसोहणं तस्स। .. तो निवडिनियमिनडिओ, ठाउं करिसंनिदिम्मि जणइ पियं ।। (यादेवः) एवं किं देवस्स वि, पुरो जंपिज्जए अए अनियं॥ भणियं वसिहरिसिणा, कामियतित्थं श्म खितं ॥ २३ ॥ तो निवश्णा तलारो, चंदणभंडारिएण सह भणियो। जो इत्थ भिगुनिवार्य, करे सो लहर कामियं तु फलं। । भो! चक्कदेवगेहे, नटुं दव्वं गवेसेहि॥४७॥ . इय भाणिय पिया' सम, तहि वि पत्तो निलुक्को य ॥२४॥ सो चित नरवडणा, अहह! असंभावणिज्जमार। तब्बयणपेरिओ पुण, नीलारइखेयरो पिवासहियो। किं काया पाविजद, रविविवे तिमिरपम्भारो॥४॥ चलचवलकुंमलधरो, सप्पो गयणममाम्मि ॥१५॥ अहवा पहुणो आणं, करेमि पत्तो तमो गिहे तस्स। तं दह चिंता करी, कामियतित्थं मं खुजं इयं । पभणइ चंदणदब्व, नळं जाणेसि भो भर !॥ ४९ ॥ खेयरॉमिदुणं जायं, पमियं किर कीरमिहुणं पि ॥२६॥ (चक्रदेवः ) नहु नहु मुणेमि किंचि वि, तो किं मिणा तिरिय-तणेण मऊ ति चिंतिय नगाओ। (तलवरः) तो भो ! तुमए न कुप्पियध्वं मे। ऊंपावर सो तहियं, अहुडियं कीरमिहणं तं ॥२७॥ जं रायसासणणं, तुह गेहं किंपि जोइस्सं ॥५०॥ संचुन्नियंगुवंगो, हत्थी गलहत्यिो वि वियणाए । (चक्रदेवः) कोवस्स को गु समओ, फुरिय सुहझवसाओ, जाओ वंतरसुरो पवरो॥२०॥ सया पयापालणत्यमेव जओ। अश्सयकिलिकचित्तो, विसयपसत्तो सुनो वि संपत्तो। नयकुलहरस्स देव-स्स एस सयलो वि संरंजो ॥५१॥ रयणाश्लोहियक्खे, नरए अतिक्ख दलक्खे ॥ २६ ॥ तो तसवरो गिहतो, पविसियजा निणर्थ निहाले। इतश्व ता कंचणवासणयं, चंदणनामंकियं मयं ॥ २॥ अस्थि विदेहे सिरिच-कवालनयरम्मि सत्थवाहबरो। तो भणह सदुक्खमिमो, कुरो तए चकदेष! पत्तमिण । अप्पामियचक्कक्खो, सुमंगला पणश्णी तस्स ।। ३०॥ किह मित्तत्थवणीय, पयमि नियं ति सो प्रणा ॥ ५३॥ श्रद सो करिंदजीचो, चविळणं ताण नंदणो जाओ। तलवर:नामेण चक्कदेचो, सया वि गुरुजणबिहियसेवो ॥ ३१॥ कह चंदणनामंक, (चक्र०) नामविवज्जासमो कह वि जाये। उन्वयि श्यरो वि दु, जामो तत्थेव जन्नदेवु त्ति। तसबर:सोमपुरोहियपुत्तो, दुवे वि तरुणत्तमणुपत्ता ॥ ३२॥ जर एवं ता कित्तिय-मित्तं श्ह वासणे कणगं ॥ ५४॥ सम्भावकश्यवेहिं, जाया मित्तीर तेसिमन्नोनं । चक्रदेव:पुयकयकम्मदोसा, कया वि चिंतइ पुरोहियसुओ ।। ३३ ॥ चिर गोवियं तिन तहा, सुमरेमि अहं सयंचिय निपह । कद एस चक्कदेवो, इमाउ अतुच्चलचिवित्थरो। तलवर:पाविहिह फुड भंसं, ९ नायं अस्थि इद उवाप्रो ॥ ३४॥ भंमारिय! किसख, धणमिह सो प्राह अजुयमियं ॥५॥ चंदणसत्थाहगिह, मुसि दविणं सिवित्तु पयगिहे, तो गेडाविय नउलं, नियति सव्वं तहेव तं मिलियं । कहिउं निवस्स पुरो, भंसिस्सं संपयाठ श्मं ॥ ३५ ॥ भणइ पुणो रक्खिपह, भो नद! फुडक्खरं कहसु ॥ ५६ ॥ काउं तहेव स नणा, वयंस! गोवेसुमझ दविणमिणं । अह वासत्थं सहय, सुकीनिय कीलियं पचितम्मी। नियगेहे सो वितओ, एवं चिय कुणइ सरलमणो ॥ ३६॥ मित्तं दूसेमि कहे, तो चक्कदेवो पुणाह नियं ॥ ५७ ।। वत्ता पुरे पवत्ता, मुठं चंदीगडं तितो पुट्ठो। सलवर:सत्थाहसुएणेसो, दविणमिणं कस्स भो मित्त!?॥ ३७॥ कित्तियमित्तं परस-तियं धणं तुह गिहम्मि चिरे। सो आह मज्म दब्वं, तायभया गोविय तुद गिहम्मि । चक्रदेवाआसंका न मणागवि, कायमचा चक्कदेव! तए ॥ ३८॥ निवयं पि अस्थि बहुय, पजत मम परधणेणं ॥ ५० ॥ इत्तो य चंदणेणं, अमुगं अमुगं च मह गयं दव्वं । तो तमवरण सच, गिहं नियंतेण तं धणं पत्तं । कहियं निवस्स तेणं, नयरे घोसावियं एवं ॥ ३६ ।। कुविएण चक्कदेवो, हढेण नीरो निवसमीचे ॥ ५ ॥ चंदणगिहं पमुळं, जेणं केण वि कदेउ सो मज्क। रमा भणियं नणु जर, अप्पमिहयचक्कसत्यवाहसुए । रिहं न तस्स दंडो, पच्छा सारीरिमो मो ॥४०॥ नहु संनवर श्मं तो, कहेसु को इत्थ परमत्थो॥६॥ श्रद दिणपणगम्मि गप, पुरोहिपुत्तो निर्व भणइ देव!। परदोसकहणविमुहो, न किंचि जा जंप पमो साहे। जाविन जुज नियमि-सदोसफुमवियां काउं॥४१॥ बदयं विमंविऊणं, निविसओ कारिओ रन्ना ॥ ६ ॥ परमशविरुकमेय, ति धारिलं पारिमो न दिययम्मि । प्रद सो विसायविदुरो, गुरुपरिजवदवझलकियसरीरो। चंदणधणं भवस्सं, अस्थि गिहे चक्कदेवस्स ॥ ४२ ॥ चिंता किं मम संपर, पणटुमाणस्स जोपण १॥ ६ ॥ (राजा) नए सो गरिटुपुरिसो, रायविरुकं इमं कह करिज? | "वरं प्राणपरित्यागो, मा मानपरिवएडना । (यज्ञदेवः) गरुया वि लोहमोहिय-मश्णो चिटुंति बाल व४३ | प्राणत्यागे क्षणं दुःखं, मानभने दिने दिने" ॥ ६३ ॥ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३७) असढ अन्निधानराजेन्द्रः। असढ श्य चिंतिय पुरवाह, वडविमविणि जाव बंधए अप्पं । सत्तालकाहलातर-लबहबरवपसरभरियनहविवरे। ता तग्गुणगणरंजिय-हियया पुरदेवया झत्ति ॥ ६४ ॥ अग्गाणीयम्मि वहं-तयम्मि दीणे य बंदिजणे ॥ ८ ॥ गाउं निवजणणिमुहे, निवपुरश्रो तं कहे वुत्तत्तं । सा चंदपाणपिया, सनीलनियसीखंडणभएण । उबंधणपरंतं, तो दुहिश्रो चिंतए राया ॥ ६५ ॥ पंचनमुकारपरा, कंपावह तम्मि कवम्मि ॥ ५॥ "उपकारिणि विश्वास्ये, आर्यजने यः समाचरति पापम् । प्रवियम्बयानियोगा, पमिया नीरम्मि जीविया तेण । तं जनमसत्यसंध, जगवति वसुधे! कथं वहसि ?" ॥ ६६ ॥ पडिकूवयम्मि वाउं, गमे सा वासरे का वि ॥ ११ ॥ श्य परिजाविय रन्ना, पुरोहिपुत्तं धराविउ तुरियं । इत्तो य गया धामि-त्ति चंदणो नियपुरे समणुपत्तो।' तत्थ गएणं दिछो, सत्याहसुनो तह कुणतो ॥ ६७ ॥ दश्या हड त्ति नाउं, जाओ अविरहदुह मुहिओ ॥ १२ ॥ छिदिनु कत्ति पासं, सो गयमारोविऊण हिट्ठण । तो ती मोयणत्थं, संबलयं दविणुन नलयं गहियं । मड़या वि वित्यमेणं, पवेसिओ नयरमञ्झम्मि ॥ ६८॥ अहणगवीो चलिओ, वारेण वहंति तं भारं ॥ ३॥ भणिो य भो महायस.. तुज्क कुत्रीणस्स जुत्तमेव श्मं । पत्ता कमेण तं जि-नवदेसं तया पुणो अस्थि । तह पुच्छिरस्स वि मम, ज परदोसो न ते कहिश्रो ।। ६६ ॥ धणजायं पासे दा-सयस्स इयरस्स पाहेयं ॥ १४ ॥ किं तु तुह जमवरद्धं, अन्नाणपमायो इहऽम्हहिं । तो पुधनवज्जासा, दासो चितेइ सुन्न-रम्नमिणं । तं खंमियब्वं सब्वं, खमापहाणा सु सप्पुरिसा ॥ ७० ॥ अत्यमित्रो गगणमणी, प्रोसिओ गम्यतिमिरभरो॥ ५ ॥ इत्धंतरे भमेडिं,बंधिय तत्थाऽऽणिो पुरोहिसुनो। ता इत्थ कूबकुहरे, खिविऊणं सत्थवाहसुहमेयं । रोसारुणनयणेणं, रना बज्को समाणत्तो ॥ ७१ ॥ . धणजापण इमेणं, भवामि भोगाण आभागी॥ ६॥ तो भणश् चक्कदेवो, वच्छलहियएण पगइसरखेण । तो जण निविडनियमी, निसं तिसा वाहए ममं सामि!। महमित्तेण इमेणं, किं नाम विरुकमायरियं ? ॥ ७२ ॥ सोवि हु सहावसरलो, जा कृवे नियइ तत्थ जसं ॥ ७ ॥ पुरदेवयाएँ कहियं, कह निवो दुटुचिहियं तस्स । ता तेण पावपन्ना-रपिल्लिएण स पिल्लिओ अवमे । मन्नुनरजरियचित्तो, तो चिंतह सत्थवश्पुत्तो॥ ७३ ॥ तत्तो वि पएसाओ, पाविठो अहणगो णहो । ए८ || श्रमयरसा विसं पि व, ससहरबिंबाउ अग्गिबुधि व्व। अह चंदणो जलंतो, सिरठियपाहेयपुट्टलो पडियो । परिसमित्ताउ इम, किमसममसमंजसं जायं? ॥ ७४॥ पमिकवे बहु बग्गो, य चंदकंता कह विछित्ता ॥ ६ ॥ एवं सो परिभाविय, गाढं निबडित्तु निवरचलणेसु। भयविहला भण नमो, अरिहंताणं तितं सरेण फुडं । मोयावर नियमित्तं, तो हिट्टो भण नरनाहो ॥ ७५ ॥ उबलक्खिय आह श्मो, जिनधम्माणं अनयमनयं ।। १०० ।। "पकारिणि वीतमत्सरेवा, सदयत्वं यदि तत्र कोऽतिरकः । तं सुणिय मुणिय दश्य, मरेण रोएइ तारतारमिमा । अहिते सहसाऽपराधलब्धे,सघृणं यस्य मनः सतांसधुर्यः७६। तो अन्नुम्नं सुहदुह-वत्ताहि गर्मति तं रणि ।। १०१ ॥ मह सत्यवाहपुत्तो, सयवत्तपत्तनिम्मनचरित्तो। उप सहस्सकिरणे, तं पादेयं दुवे विभुंजंति । जडबडगपरीयरियो, नियगेहे पेसिप्रो रना ॥ ७७॥ कश्वयदिणेसु एवं, पक्खीणं संबलं सच्वं ॥ १०२॥ तेणावि जन्नदेवो, पानविप्रो पणयसारवयणहि । अह चंदो पर्यवइ, दइए ! एयाउ वियडअबडाओ। सक्कारिय संमाणिय, पटुविभो निययनवणम्मि ॥ ७८॥ गंनीराउ जवाउ व, उत्तारो उत्तरो नूणं ।। १०३ ॥ जाम्रो जणप्पवानो, धन्नो एसेव सत्यवाहसुनो। तम्हा कुणिमोऽणसणं, मा मणुयन्जवं निरत्ययं नेमो। भवयारपरे वि नरे, श्य जस्स म. परिप्फुरद ॥ ७ ॥ इय जा कहे ता से, दाहिणनयणेण विप्फुरियं ।। १०४ ॥ बेरग्गमम्गलम्गो, कयावि सिरियाम्गभूश्गुरुपासे । इयरीए वामेणं, सो प्राह पिएइ अंगफुरणेहिं । गिपहेश् चक्कदेवो, दिक्खं दुहकक्खदहणसमं ॥७॥ एस किलेसोन चिरं, होही अम्हं ति तकेमि ।। १०५ ॥ बहुकालं परिपालिय, सामन्नं सो अणन्नसामन्त्रं । इत्थंऽतरम्मि पत्तो, सत्यवई नदिवद्धणो तत्थ । जामो अजिभवभो, नवप्रयराऊ सुरो बंभो ॥१॥ रयणउरनयरगामी, उदयत्थं पेसए पुरिसे ॥ १०६॥ तत्तो चविय विदेहे, अरिअजिए मंगलाव विजए । तेजा नियंति कूवं, ता चंदणचंदकंतमनिदहूं । बहुरयणे रयणवरे, सत्थप्पहुरयणसारस्स ॥ २ ॥ साहित्तु सत्यवाणो, कढंति य मंचियाएँ लहुं ॥ १०७ ॥ सिरिमाइपियाएँ जाओ, चंदणसारु त्ति नंदणो तस्स । पुट्ठो य सत्थवश्णा, बुत्ततं कहइ चंदणो सव्वं । कंता य चंदकंता, दुवे वि जिणधम्मपरिकलिया ॥७३॥ संचवित्रो नियनयरा-भिमुहं बूढो य दिणपणगं ॥ १०८ ॥ मरि स जन्नदेवो, वि उच्चपुढवा' नारो जाओ। दिघो तेण निवपहे, छट्टदिणे हरिविदारिओ पुरिसो। पुण आहेमयसुणो , मरितं तत्थेव नववन्नो ॥ ४ ॥ नाउं धणोवलंना, हहा ! वराओ अहणगु त्ति ॥ १० ॥ तत्तो नमिय बहुनव, जाओ सो रयणसारदासिसुओ। तं दब्वं गहिऊणं, पकामसुविसुज्झमाणपरिणामो। अहणगनामा पीई, पुव्वुत्ता तेसि संजाया ॥५॥ रयण उरे संपत्तो, पत्ते सुनिउंजिउंदव्यं ।। ११०॥ अनदिणे रयणनरं, दिसि जत्ताण गयम्मि निवझम्मि । गिवित्त विजयवरुण-रिसमीचेऽणवजपयजं । सबरवा विज्केऊ, नंजिय गिएहइ बहुं वदं ॥८६॥ जाओ य सुक्ककप्पे, सोलसअयरहिई अमरो ॥ १११ ॥ हरिया य चंदकंता, सेसजणो को विकस्थ विय नद्रो। तो चविउ ह भरहे, रहवीरपुराभिहाणनयरम्मि । श्रावासियो य बलिउं, सबरवई जिन्नकृवतडे ॥७॥ गेहवइनंदिवद्धण-सुंदरिपुत्तो इसो जाओ ॥ ११२॥ बोसीणे सयादिणे, निसाबसेसे पयाणकालम्मि । नामेराडपंगदेवो, अणंगदेबु ब्ब बहलरूवेण । अरहसबसपुरक्खड-नियनियकिञ्चेसु निचेसु॥८॥ सिरिदेवसेणगुरूयो, पासे पमिबन्नगिहिधम्मो ॥ १३ ॥ २१० Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३८) असढ अनिधानराजेन्द्रः। असढकरण अह अहणगो वि हरिणा, हणिो सेलाइनारओ जाओ। इय चितिकण सम्म-सदाश्गुरुपासपत्तसामन्नो । सीहो भविय तहिचिय, पुणो वि पत्तो असुहाचित्तो ॥ ११४॥ नववन्नो गेपिज्जे, सो तए भासुरो अमरो ।। १३६।। तो हिंडिय भूरिभवे, तत्व य सोमसत्थवाहस्स। अस्थिह विदेहवासे, वासवदेहं व सज्जवजहरं । मंदिममारियाए, जाओ धणदेवनामसुभो ।। ११५ ॥ अंवयसहस्सकलियं, चंपावासं ति वरनवरं ॥ १४॥ असढसढमाणसाणं, तेसिं पाई परुप्परं जाया। तत्थाऽऽसि माणिजहो, जद्दोवज्जणमणो सया सिही। ते दविणज्जणमणसो, कया वि पत्ता रयणदीवे ॥११६ ॥ जिणधम्मरम्मकामा, तस्स पिया हरिमई नामा १४१ ।। कश्वयदिणेहि बलिया, सपुराभिमुई विढत्सबहुवित्ता। सो वीरदेवजीवो, तत्तो गेविज्जगाउ चविऊण । अह धणदेवो जाओ, नियमित्तपत्रचणप्पवणो ॥ ११७ ॥ नामेण पुन्नभद्दो, ताणं पुत्तो समुप्पन्नो ॥ १४२ ।। कम्मि वि गामे हट्टे, कराविया मोयगा वे तेणं । तणं च पढणसमए, घोसं पढममवि उच्चरतेण । इक्कम्मि विसं वित्तं, पयं मित्तस्स दाहं ति ॥ ११८ ॥ अमरु त्ति समुद्धवियं, बुधइ अमरो वि तेणेसो ॥ १४३॥ पाउलमणस्स जाओ, मग्गे इंतस्स तस्स वच्चासो। दोणो विमो धूमा-ऍ बारश्रयराज नारो जाओ। सुको सहिणो दियो, सयं तु विसमोयगो नुत्तो ॥ ११९ ॥ मच्छो सयंत्रमणे, नविउं तत्येव उववन्नो ।। १४४ ॥ अश्विसमविसविसप्पिर-गुरुवेयणपसरपरिगो झत्ति । भमिय भवे तत्थ पुरे, नंदावत्तऽभिदसिदिध्याए । धणदेवोपरि चत्तो, धम्मेण व जीविएणावि ॥ १२० ॥ सिरिनंदाप धूया, संजाया नंदयति ति ।। १४५ ।। बहु सोश्कण तस्स य, मयकिश्च काउणंऽगदेवो वि । भवियम्वयावसेणं, परिणीया सा न पुन्ननहेण । पत्तो कमेगा सपुरे, तन्नियगाणं कह सवं ॥ ११ ॥ सा पुवकम्मवसश्रो, जाया पश्वचणिक्कमणा ॥ १४६ ।। तेसिं पभूयदवं, दाउं पुच्छित्तु पियरपमुहजणं। से परियणेण कहिंयं, वदुत्तरकूडकवडनियडिकुमी । सो पुश्वगुरुसमीवे, गिपहर बयमुभयलोयहियं ॥ १२॥ सामिय! पिया तुहेसा, न य सहहिय पुणो तेणं ।। १४७॥ दुकरतवचरणपरो, परोवयारिकमाणसो मरिउ । कइया वि सब्बसारं, कुंमलजुयलं सय अवहरित्ता। गुणवीससागराऊ, पायणकप्पे सुरो जाओ ॥ १२३ ॥ पाउलहियय ब्व इमा, साहइ पणो पण ति ॥१४८॥ कालेण तो वि चओ, जंबुद्दीवम्मि परवयवासे । तेण वि नेहवसेणं, घमाविड नवयमप्पियं तं से। गयपुरनयरे हरिनं-दिसेठियो परमसकुस्त ॥ १२४॥ इय हरियमन्नमन्नं, तीए दिन्नं पुण इमेण ।। १४६॥ लनिमश्पणपणीए, जाओ पुत्तो य वीरदेवु सि । न्हाणावसरे कइया, मुद्दारयणं समप्पियं तीसे । सिरिमाणभंगसुहगुरु-समीवकयगिहिवनच्चारो॥१२५॥ संझाएँ मग्गियं पुण, सा आह कहिं विनणु पडियं ॥१५॥ धणदेवो वि हु तश्या, उक्कमबिसवेगपत्तपंचत्तो। तत्तो अइसनंतो, निनणं एसो निहाल गिहतो। नवसागरोवमाऊ, उववन्नो पंकपुढवीए ॥ १२६॥ भज्जाभरणसमुग्गे, नई दव्वं नियइ सव्यं १५१ ॥ पुणरवि भविय तुयंगो, दारुणवणदावदकुसब्बंगो। किं कुंमलाइ दब, गयं पिलर्क इमीगू न गयं वा। जामो तहिं चि किंचू-णअयरदसगाउ नेरो ॥ १२७ ।। करकलियदविणजाओ, एसो चितेइ सवियकं ।। १५२॥ तिरिएसु जमिय सो त-स्थ गयपुरे श्दंनागसिटिस्स। इत्तो य सा तहिं चिय, पत्ता इयरो य झत्ति नीहरिओ। नंदिमईभजाए, दोणगनामा सुमो जामो ।। १२० ।। कापड नंदयंती, धुवमिमिणा जाणिया अहयं ॥ १५३॥ पुबुत्तपीइजोगा, इगह ववहरंति ते दोवि । जा सयणाण वि मझे, नो उप्पाए लाघवं मऊ । वित्त बहुं विढतं, तो चिंतश् दोणगो पावो ॥ १२९ ।। सज्जो संजोइयक-म्मणेण मारेमि ताव इमं ॥ १५४ ।। कह एसो अंसहरो, हखियन्चो हुँ कराविलं शरिह । का तयं सयंचिय, अणेगमरणावहहि दवहिं। नवधवलहरं उच्च-त्तणेण नहमणुलिहंतं व ॥ १३०॥ तमिसम्मि संठवती, मका दुट्टेण सप्पेण ॥ १५५ ।। तत्थुवार शुवि अनोमय-कीलगजालानियंतियगवत्वं । पमिया धस त्ति धरणि, जाश्रो हाहारवो श्रामहतो। भोयणकप निमंति-तु वीरदेवं कुडुंबजुयं ॥ १३१ ।। तत्थागो पई से, पाहूया पवरगारुडिया ॥ १५६॥ तो से दंसिस्समिम, रमणीयत्ता सयं स प्रारुहिही। सब्वेसि नियंताण वि, खणेण निहणं गया गया पावा। खडहडिकण निवडिही, पाणेहि वि कत्ति मुच्चिहिदी ।१३२॥ उठीप पुढवीप, पुरो नमिही अणतभवं ।। १५७ ।। श्रह निविवायमेसो, बिहवनरो मज्झ चेव किर होही। तं दट्ट पुग्नभद्दो, सोयजुओ ती काउ मयकिच्चं । नय को जणचवाओ, श्य चिंतिय कार तहेव ॥ १३३ ।। बेरमगभावियमणो, जाडो समणो विजियकरणो ।। १५८ ।। जा भुत्तुत्तरमेर, दुवे विधवलहरसिहरमारुढा। सुक्ककाणानसद-सयलकमिंधणो धुणियपावो । सश्मश्रहिश्रो दोणो, अणपसंकप्पभरियमणो ॥ १३४॥ सो जयवं संपत्तो, लोयग्गसुसंठियट्ठाणं ॥ १५६ ।। भा मित्त! पहिश्य, निजूहे विससु जपिरो तत्थ । निरुनिश्वेयनिमित्तं, पकित्तिया पुरिमपच्छिमिल्लभवा । सयमारूढो इको, पडिप्रो मुक्को य पाणेहि ॥ १३५।। इहयं असढगुणम्मी, पगयं पुण चक्कदेवेण ॥ १६० ।। हाहारवमुद्दलमुहा, तुरिय उत्तरिय वीरदेवो वि। ति फलमातरम्यं चक्रदेवस्य सम्यक, जा नियर ता पदिट्ठो, मित्तो पंचत्तमघुपत्तो ॥ १३६ ॥ प्रतिभवमाप धान्यं भावभाजो निशम्य । हा मित्त ! मित्तवच्चल, उन्नदूसणरहिय ! रहियनयमको । भवत भविकलोका: स्पटसंतोषपोषाः, कथमपि हि परेषां वञ्चनाचचवो मा ॥१६१॥ इय यदुविहं पलिविउं, मयकिच्चं कुणइ सो तस्स ॥१३७॥ जललवतरले जीए, विज्जुलयाचंचलम्मि तरुणत्ते । ॥ इति चक्रदेवचरितं समाप्तम् ॥ को नाम गेहवासे, पमिबंधं कुणइ सवियेश्रो ॥ १३८ ।। असढकरण-असठकरण-पुं० । मायामविप्रयुक्तो भूत्वा य Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।८३६) असढकरण अनिधानराजेन्द्रः । असलि (ण) थोविहितानुष्ठानकारके, वृ०६ उ० । " असढकरणो नाम | गुगेरेव । तश्च गुरोः पादयोलगिवा "इच्छकारि भगवन! पसासम्वत्थादानतो अप्पाणं मायाए गति असढो होऊणं कसिगं | नगरी फामुएणं एसणिण असणपाणखाइममाइमेण वन्यकरेति" । (न शगे यस्मादिति विग्रहाभिप्रायेण ) नि० चू० पडिग्गहकम्यलपायपुछणएं पामिहारिनपीढफल गसिजासंथा२० उ०। रएणं असहभेसनेण य भयवं अणुगहो कायब्दोति" पाठपू. असहजाव-अशउजाव-पुं०। श्रमायाविनि, व्य०४०। शु. व भक्त्या कार्यम् । एतच्चोपलक्षणं शेषकृत्यप्रश्नस्यापि। यतोदिद्धचित्ते, श्राव०६ अग स्ववीर्य प्रति मान्द्यं कुर्वाणे, निचू. नकृत्ये "पञ्चक्खाणं च काऊणे.पुच्छर सेसकिच्चयं । काय म. २०१०। णसा काउं,ओअण च करे मं"ति । 'पुच्छए' इत्यादिना पृच्छति असण-अशन-न० अश भोजने, ब्युट । भोजने, नि० चू०११ साधुधर्मनिवाहशरीरनिरावाधवातीद्यशेषकृत्यम् । यथा-निर्व हति युष्माकं मयमयात्रा,सुखं रात्रिर्गता भवतां,निराबाधाः शउ। स्था। सूत्र। अश्यते इत्यशनम् । अश भोजने इत्यस्मात् रीरेण यूयं,न बाधते वः कश्चिद्याधिः, न प्रयोजनं किञ्चिदौपधा. ल्यूट । ध०२ अधि। एवं लोके,लोकोत्तरिके तु श्राशु क्षुधांशम दिना, नार्थः कश्चित् पथ्यादिनेत्यादि । एवं प्रभश्च महानिर्जरायति इति "खीरलयादिफलाणि वा" श्रा००६अ। ओद हेतुः।यमुक्तम्-'अभिगमणवंदणनमं-सणेण परिपुच्छणेण साह नादिभक्ते, प्रव०४ द्वार । दश प्राचा०। श्राव०। उत्तका दर्शक ण चिरसीचअंपिकम्म,खणेण विरलत्तणमुवेई राप्राम्वन्दना. तत्र अशनमाह वसरेच सामान्यतः 'सुहराईसुहतपसरीरनिरावाध' इत्यादिप्रअसणं ओणसत्तुग-मुग्गजगाराइ खजगविही य । भकरणेऽपि,विशेषणात्र प्रभः सम्यग्स्वरूपपरिक्षानार्थः,तदुपा यकरणार्थश्चेति प्रक्षपूर्व निमन्त्रणं युक्तिमदेवेति । संप्रति स्वि खीरा सूरणाई, मंमगपभिई उ विनेयं ॥ निमन्त्रणं गुरूणां वृहद्वन्दनदानानन्तरं थाहाः कुर्वन्ति, ये श्रादिशब्दः स्वगतानेकजेदसूचकः सर्वत्र संबध्यते। ततो- च प्रतिक्रमणं गुरुभिः सह कृतं,स सूर्योदयादनु यदा स्वगृहाद दनादि, सक्त्वादि,मुद्गादि,जगार्यादि,जगारीशब्देन समयमा- याति, तदा तत्करोति; येन च प्रतिक्रमणं वृहद्वन्दनकं चेत्युजयषया "रब्बा" भएयते । तथा खजकविधिश्व-खाद्यक-मण्डि- मपि न कृतं,तेनापि वन्दनाद्यवसरे एवं निमन्त्रणं क्रियते; ततश्च का-मोदक-सुकुमारिका-घृतपूर-लपनश्री-स्वर्यच्युताप्रभृति- यथाविधि तत्कालमिति। एप बहिडपस्य विधिः । कारण विशेष पक्वान्नविधिः । तथा-कीरादि, आदिशब्दाद्दधि-घृत-तक- तु तत्प्रतिश्रयेऽपिगम्यते, तत्राप्येष एवं विधिः, अग्रतनोऽपि च । सीमन-रसासादिपरिग्रहः । तथा-सूरणादि, आदिशदादा कारणान्याहकादिसकलवनस्पतिविकारव्यञ्जनपरिग्रहम मएमकप्रभृति च. परिआय-परिस-पुरिसं, खेतं कालं च आगमं नच्चा। मरामकाः प्रभृतिर्यस्य चोरिका-कुवरिका-चूरीयका-इदुरिका. प्रमुखवस्तुजातस्य तन्मएडकप्रति, विशेयं ज्ञातव्यमशनम। कारणजाए जाए, जहारिहं जस्स जं जोग्गं ॥४॥ प्रव०४ द्वार । " असणाणि य चउसही" स० । पर्यायो ब्रह्मचर्य,तत् प्रभूतकालं येन पानितं,परिषद् विनीता सा. "असणं ओयण सत्तुग, मंडग पयरब विदन जगरा। धुसंहतिः, तत्प्रतिवर्क पुरुष ज्ञात्वा; कथम्?; कुलगुणसहकार्याकंदवजाई सम्वा, सजलविही सत्त विगई य ॥ ३५॥ . एयस्याऽऽयत्तानीतिःपचं तदधीनं केत्रमितिःकालमवमप्रतिजागअसणम्मि सत्त विगई, साइम गुल मदु सुरा य पाणम्मि । रणमस्य गुण इति,बागमं सूत्रार्थोजयरूपमस्यास्तांति शास्वेति । खाइम पक्कन्न फला-ण उहेणय सधअसणम्मी ॥४०॥ साम्प्रतमेतदकरणे दोषमाहचण आद मसुर तुबरी, कुलत्थ निष्पाव मुग्ग मासा य । एआइ अकुव्वतो, जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । चवल कलाया राई, पमुहं उदवं व निम्ह ॥४१॥ ण भवइ पवयणनत्ती, अभत्तिमंतात्रा दोसा ।।५।। तिन अयसि सिलिंद कंगू, कुद्दव अणुयादवं सिणेह जं। तथाभमंति केइ दुदलं, पायं धन्नु ब्वतं सव्वं ॥ ४२ ॥ उप्पन्नकारणम्मी, किडकम्मं जो न कुन्ज दुविहं पि। कट्ठदलं पक्कन्नं, तक्कर दहि दुद्धपाय मीसं जं। जमणंतकायजायं, पत्त फलं पुप्फ बीयं च ॥४३॥ पासत्थाईआणं, उग्घाया तस्स चत्तारि ॥ ६ ॥ पुढविकाऊ सम्बो, बलकिंझप्पभिर सब्यनिम्मधनं । (दुविहं पीति ) अभ्युत्थानवन्दनअक्षणम्, इत्यवं प्रसझेन । हिंगुलवाप्पी नछे-पभिई असणं बहुविद ज"॥४४॥ ल०प्र०।। ध०२ अधिक। नीलवर्णे बीजकानिधाने धृक्षविशेषे, आचा० २ श्रु० १० अ०। असणि-अशनि-पुं० । पविरित्यस्य पर्यायः । है । आकाशे प्रज्ञा । रा0 1 ही। पतत्यग्निमये कणे, प्रज्ञा०१ पद । विशेफे, स० प्र० २० पाहु । अमणग-अशनक-पुं०। बीजकाभिधाने बनस्पतिभेदे, श्री। तं० । विद्युद्धने, वाच। असणिमेह-अशनिमेघ-पुं० । करकादिनिपातवति पर्वतादिदाअसणदाण-प्रशनदान-न० 1 अश्यत इत्यशनमोदनााद, तस्य रणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघे, भ०७ श. ६ उ० । दानमशनदानम् । तस्मिन्नशनदाने प्रशनशब्दः पानाद्युपलक्षपाथः । श्राहारदाने, पं०५०२ द्वार । श्राव। असणी-अशनी-स्त्री सवले सोमस्य महाराजस्याग्रमहिण्याअसणाणिमंतण-अशनादिनिमन्त्रण-न। गुरोराहारनिम- म, भ०१० २०५ २० । स्था। न्त्रणे.धला अशनादिनिमन्त्रणमिति । अशनादिभिरशन-पान-खा- | अससि ( ए )-असंझिन्-पुं० । संशिविपरीतोऽसंशी विशिदिम-स्वादिम-वस्त्र-पात्र-कम्बल-पादोन-प्रातिहारिकपी- पृस्मरणादिरूपमनोविज्ञानविकले, कर्म०४ कर्म० । "रोरइया 5. उफन-शय्यासंस्तारकौषधभैषज्यादिभिः निमन्त्रणं, प्रस्तावाद विहा पम्मत्ता । तं जहा-समिचेव, अससि चेव । एवं पंचिदिया Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०४०) असलि (ण) अन्निधानराजेन्द्रः। असम्भावुब्भावण सम्वे विगलिंदियवजा0 जाव वेमाणिया" स्था० २०१०। स्यात्, न तु साध्यसिमिकरमिति । तथा-ऋजुभावस्य कौटिपं० सं० । नं। "असलि विहा-अणागाढमिच्छदिट्ठी, श्रा- ल्यत्यागरूपस्यासवनमनुष्ठान देशकेनैव कार्यम् । एवं हि तगाढमिच्चदिट्टी य" नि०चू०५ उ०। स्मिन्नविप्रतारणकारिणि संभाविते सति शिष्यम्तदुपदेशान्न कुअससिमाउय-असंत्यायुष-न। असंझिना सता बसे परजव तोऽपि दूरवर्ती स्यादिति ॥ ध० १ अधिः । प्रायोग्ये आयुषि, भ० १ २०२०। (“आउ" शब्दे द्वितीय-असदारंज--असदारम्न--पुं० । प्राणवधादौ, पं०व० ३ द्वार। जाग १५ पृष्ठे १३ अधिकारे चैतद् व्याख्यास्यते) "बासोासदारम्भः" बालो हि पूर्वोक्तः, असन् असुन्दर आरम्भो. असपिनूय-असंझिनूत-पुं०।मिथ्यादृष्टी, भ०१ श०२०। ऽस्येत्यसदारम्भः, अविद्यमानं वा यदागमे व्यवच्छिन्नं,तदारभते इत्यसदारम्भः । न सदा सर्वदा स्वस्तिकालाद्यपेक्ष आरम्भोऽअसलिय-असंश्रित--न । मिथ्यादृष्टिश्रुते, तश्च कालिको. स्येति वा ।" वृत्तं चारित्रं ख-स्वसदारम्नविनिवृत्तिमत्तश्च । पदेशेन हेतूपदेशेन दृष्टिवादोपदेशेन च त्रिविधम् । नं०। प्रा० सदनुष्ठानम्" असदारम्भोऽशोभनारम्नः प्राणातिपाताद्याश्रवच् ('समिसुय' शब्दे वैतत् वक्ष्यते )। पञ्चकरूपः, ततो विनिवृत्तिमहिसादिनिवृत्तिरूपमहिंसाद्यात्म. असमिहिसंचय-असंनिधिसंचय-पुं० । न विद्यते संनिधेःप. कम् । षो०१ विव० । पञ्चा० । [रण येषा ते तथा। सनिधिशून्ये युग- | असद्द-प्रशब्द-पुं० । अर्द्धदिग्व्याप्यसाधुवादे, ग० २ अधि०। लिकमनुष्ये, ज०२ वक० । तं । जी। ब० स० शब्दवर्जिते, वृ० ३००। असती-असतो-स्त्री० । असंप्राप्ती, नि० चू० १२ उ०।" प. असद्दांत-अश्रद्दधत-त्रि० । कामकुर्वति, "भरुअच्छे धाणिमारण वा असती चुक्कखचिएण वा" महा०५०। श्रो असहहंतो उन्जेणिए " ० ३ ०० "एको देवो असहहंतो" अमत्त-अशक्त-त्रि०ा असमथे, दर्श। पि०। नि० चू०१ उ०। असक्त-त्रि। अपाकृतमदनतया समतृणमणिलेष्टुकाश्चने समता-असहहण-अश्रधान-न० । निगोदादिविचारविप्रत्यये,ध.। पन्ने, प्राचा०। "जे असतापावेहि कम्मेहि" ये अपाकृतमदनतया | २ अधि०। समतृणमाणलेणुकाञ्चनाः समतापन्नाः पापेषु कर्मस्वसक्ताः असप्पवित्ति-असत्पत्ति-श्री० । असुन्दरप्रवृत्ती,पो०१६वित्रा पापोपादानानुष्ठानारताः । प्राचा० १ श्रु०५ ०२२० । भसप्पलावि (ए)-असत्पलापिन्-त्रि०। असदभावमलापिअसत्व-न । नास्तित्वे, स्या० । पररूपेणाविद्यमानत्वे, नं० । नि, नि० चू०१६ उ०। असत्ति-अशक्ति-स्त्री० । असंयोगे, असंपर्के, षो० ४ विव०। असबल-अशबल-पुं० । मालिन्यमात्ररहिते, प्रश्न १ संव. असत्य-अशस्त्र-न० । निरवद्यानुष्ठानरूपे संयमे, " से असत्य- द्वार। शबलस्थानदूरवर्तिनि, अातु० । निरतिचारे, स्था०५ स्स खेयो, जे असत्थस्स खेयो से पज्जवजातस्स खेयो" ग०३१० । अतिचारपङ्काभावात् एकान्तविशुद्धचरणे, भ. प्राचा०१ श्रु०३०१०। २५ श०७ उ०। असत्यपरिणय-अशस्त्रपरिणत-त्रि० । अशस्त्रोपहते, प्राचा० असबलायार-प्रशवलाचार-पुं०।विशुक्राचारे,अशचलः सिता. २ श्रु० १ अ० ८ ० । ('अपरिणय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे सितवर्णोपेतबनीवर्द श्वाकवुर आचारो विनयशिक्षानाषागो६०१ पृष्ठेऽस्य सूत्राएयुक्तानि) चरादिको यस्य सोऽशबलाचारः । व्य० ३ ० । असदायार-असदाचार-पुंण् । सदाचारविलक्षणे हिंसाऽन. असन्त-असत्य-त्रिकासनोपवेशनाऽयोग्ये खले, औ०। प्रातादौ, ध०। श्रसदाचारः सदाचारविज्ञक्षणो हिंसाऽनृतादिदेश. व० स्था०। अशोजने असनावप्ररूपके ऽसभ्ये, यथा-इयामाविधः पापहेतुर्भेदरूपः । यथोक्तम्-" हिंसाऽन्तादयः पञ्च, कतण्डलमात्रोऽयमात्मा' तिवदन्तः पण्डिताः। निचू०१६उ०॥ तत्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः, इति पापस्य है- असम्भवयण--असभ्यवचन-त्रि० । खरकर्कशादिके दुर्वचने, तवः" ॥ ९ ॥ तस्य गर्दा यथा "असम्भवयणेहि य कलुणा विवन्नत्था" दश० ८ ० २ उ० । " न मिथ्यात्वसमः शत्रु-न मिथ्यात्वसमं विषम । असन्जाव-असदनाव-त्रि० । अविद्यमानार्थे, औ०। प्रश्न । न मिथ्यात्यसमो रोगो, न मिथ्यात्वसमं तमः॥१॥ द्विपदविषतमोरोगैर्दुःखमेकत्र दीयते। झा। अतथ्यभावे, आव०५० सद्भावस्याभावे, पिं० । अमिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तोर्जन्मनि जन्मान ॥२॥ विद्यमानाः, सन्तः-परमार्थसन्तः, भावा जीवादयोऽनिधेयभूता वरं ज्वालाकुले क्षिप्तो, देहिनाऽत्मा हुताशने । यस्मिंस्तदसद्भावम् । सर्वव्याप्यादिरूपात्मादिप्रतिपादके कुन तु मिथ्यात्वसंयुक्तं, जीवितव्यं कदाचन ॥३॥ प्रवचने, उत्त० ३ ०. इति तत्वाश्रमानं गर्दा पवं हिंसादिष्वपि गहायोजना कार्या। असब्भावट्टवणा--असदजावस्थापना-स्त्रीला अक्वादिषु मुन्यातथा-तस्याऽसदाचारस्य हिंसादेः स्वरूपकथनं यथा-प्रमत्तयो कारवयां स्थापनायाम,साध्वाद्याकारस्य तत्रासद्भावात् । अनु०। गाप्राणिय परोपणं हिंसा, असदनिधानं मृषा, अदत्तादानं असजावपट्टवणा-असञ्जावमस्थापना-स्त्री० । असदूभूतार्थस्तेयं. मैथुनमब्रह्म, मृच्छी परिग्रह इत्यादि । तथा-स्वयमाचार. कटानायाम, न०११ श०१० उ० जी०। कायकन पारहाराऽसदाचारस्य संपादनीयः, यतः स्वयम- अमभावन्नावणा-असदलावोदतावना-स्त्री०।६ ताअविसदाचारमपरिहरतो धर्मकथनं नटवैराग्यकथनामवानादेयमयं | धमानार्थानामुम्रेक्षणे, और। यथाऽस्त्यात्मा सर्वगतः, श्यामा Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसब्भावुब्भावणा अभिधानराजेन्डः । असमारंनमाण कतरादुनमात्र बेत्यादि (दश.४ अ०) अचौरेऽपि चौरोऽयमि- वा नियतविहारादिनाऽनन्यसमानोऽसदृशः । यहा-समानः स्यादि वा । भ०५श०६०। साहारो,न तथेत्यसमानः। अथवा-'समाणो त्ति' प्राकृतत्वादअसन्तूय--असदत्तूत-न० । न सद्भूतमसद्भूतम् । भनृते, सन्निव सन् यत्राऽऽस्ते तत्राप्यसन्निहित इति । दृदखसन्निहितो हि सर्वः स्वाश्रयस्योदन्तमावहति, अयं तु न तथति; एवंविधः आव.४० स चरेदप्रतिबद्धविदारितया विहरेदू, भिक्षुर्यतिः। उत्स०३ अ०। असमंजस-असमन्जस-त्रि० । अघटमानके, " असमंजसं को असमारंज-असमारम्न-पुं० । समारम्भाऽभावे, “सत्तविदे जंपति"। श्राराचा। प्रसमारंभे पम्मत्ते । तं जहा पुढविकाश्य भसमारम्ने जाव अअसमंजसचेडिय--असमजसचेष्टित--न0 । शास्त्रोत्तीर्णभाषित. जीवकायअसमारंभे।" स्था०७ ठा० । करणे (दर्श० १० अ०) प्राणिवधादौ, पश्चा०२ विव०। असमारंभमाण-असमारम्भमाण-विला भव्यापादयति, स्था० श्रसमण--अश्रमण--पुं० । श्रामण्यादविच्युते, “गतुंताय पुणो ६ ग० । असमारम्भमाणानां पचविधादिसंयमःगच्छे, ण य तेणासमणो सिया।" सूत्र० १ ० ३ ० २ २०॥ एगिंदिया एं जीवा असमारंजमाएस्स पंचविहे संजमे असमणपाउग्ग-अश्रमणप्रायोग्य-त्रि० । साधूनामनाचरणीये, कज्जइ। तं जहा-पुढ विकाश्यसंजमे जाव वणस्सइकाश्यसंध०३ अधि०। श्रसमणुन-असमनोह-त्रि० । मनिटे, स्था० ४ ग०१3०। जमे । एगिदिया णं जीवा समारंनमाणस्स पंचविहे असंजमे शाक्यादौ, आचा० १ श्रु०८०१ उ० । त्रिषट्यधिके प्राक्षक कज्जातं जहा-पुढविकाश्य असंनमेजाव वणस्सइकाइशतत्रये, आचा०१ श्रु०८ १०१ उ० । असमनोज्यस्तु दान यअसंजमे । पंचिंदिया एवं जीवाणं असमारंभमाणस्स पंचग्रहणं प्रति सर्वनिषेध इति । प्राचा० १ श्रु० ८ ७०२ उ०। । बिहे संजमे कजा । तं जहा-सोइंदियमंजमे० जाव फाअसमणुमय-असमनुज्ञात-त्रि० । 'यदि भवान् कस्मैचिद्ददा- | सिदियसंजमे । पंचिंदियाएं जीवा समारंजमाणस्स पं. ति तदा ददातु' इत्येवमननुकाते, माबा०२ श्रु०१ अ०८ उ01 | चविहे असंजमे कज्जइ । तं जहा-सोइंदियअसंजमे0 जाव "असमणुमायतस्स भदेतस्स" नि००१०। फातिदियअसंजमे । सबपाणभूयजीवसत्ताणं असमारंसमत्त-असमाप्त-त्रि०। अपूस, नि००५ ०। भसमाप्तक जमाणस पंचविहे संजमे कज्जइ । तं जहा-एगेदियस्पे, व्य०४ उ०। संजमे पंचेंदियसंजमे । सधपाणयनीवसत्ताणं समारंअसमत्तकप्प-असमाप्तकल्प-पुं० । असमाप्तश्चापरिपूर्णश्व क जमाणस्स पंचविहे असंजमे कज्जा । तं जहा-एगेंदिया स्पः । अपरिपूर्णसहाये विपरीते, ध०३ अधि० । “चतुबद्धे वासासु उ-सत्तसमत्तो तदूणगो इयरो। असमत्तो जायाणं, ओ संजमे जाव पंचेंदिय असंजमे । हेण किंचि आहब्ब" ॥१॥ पञ्चा० ११ विव.पं०व०। (एगिदिया णं जीव त्ति ) एकेद्रियान्, णमिति वाक्यालअसमचदंसि (ए)-असम्यक्त्वदर्शिन्-पुं० । न सम्यगस- द्वारे । जीवान, असमारम्भमाणस्य संघट्टादीनामविषयीकुर्वतः, म्यक, तस्व भावोऽसम्यक्त्वम, तद् द्रष्टुं श्रीनमस्य स तथा। सप्तदशप्रकारस्य संयमस्य मध्ये पञ्चविधसंयमो व्युपरमोडमिथ्यादृष्टी, सूत्र० १ श्रु0 0 अ० । नाश्रवः, क्रियते भवति । तद्यथा-पृथिवीकायिकेषु विषये संयमः असमत्थ-असमर्थ-त्रि० । अशक्त, पं० ३०१ द्वार । भ्रत्तेपमा संघट्टाछुपरमः-पृथिवीकायिकसंयमः । पचमन्यान्यपि पदानि । असंयमसूत्रं संयमसूत्रवद्विपर्येण व्याख्येयमिति । (पंचिदियाणअनीरो, सूत्र०१ श्रु०४ १०१ 30। हेतुदो, यथाऽयं हेतुर्न स्व मित्यादि ) इह सप्तदशप्रकारसंयमभेदस्य पञ्चेन्ज्यिसंयमलसाध्यगमक इत्यर्थेनासौ स्वसाध्यघातक इति। रत्ना० परिका कणस्येन्डियभेदेन भेदविवकणात्पञ्चविधत्वं, तत्र पश्चेन्डियाअसमय-भसमय-पुं० । असम्यगाचारे पञ्चविंशे गौणालीके, नारम्भे श्रोत्रेन्ड्रियस्य व्याघातपरिवर्जन-श्रोत्रेन्द्रियसंयमः । एवं प्रश्न० २ अाश्र० द्वार। इष्टकाले, अयोग्यकाले च । वाच। चक्षुरिन्ज्यिसंयमादयोऽपि वाच्याः । असंयमसूत्रमेतद्विपर्याअसरिसवेसग्गहण-असावेषग्रहण-न० । भार्यादेरनार्यादि- सेन बोद्धव्यमिति । (सबपाणित्यादि) पूर्वमेकेन्द्रियपञ्चेन्धिनेपथ्यकरणे, पं०व०४ द्वार । स्वयमार्यः सन् अनार्यवेष करो यजीवाश्रयेण संयमासंयमावुक्तौ, इह तु सर्वजीवाश्रयेण प्रत ति; पुरुषो वा स्वरूपमन्तर्हितः सन् स्त्रीरूपं विदधातीत्यादि । एवं सर्वग्रहण कृतमिति । प्राणादीनां चायं विशेषः-"प्राणा तदेतदसशवेषग्रंहणम् । वृ० १ उ०। द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पश्चन्द्रिया क्षेयाः, शेषाः सत्वा इतीरिताः" ॥१॥ स्था० ५ ० २ उ० । असमवाइकारण-असमवायिकारण-न० । न समवैति, सम्अव-इ-णिनि । न० त० । समवायिकारणवर्तिनि कार- तेदिया णं जीवा असमारंभमाणस्स बिहे संजमेकणमेदे, वाच० । यथा-तन्तुसंयोगा: कारणरूपव्यान्तरस्य ज। तं जहा-घाणामाओ सोक्स्वानो अवरोवेत्ता नवह, दूरवर्तित्वादसमवायिनः, त पव कारणमसमवायिकारणम् । घाणामएणं दुक्खेणं असंयोएत्ता नवघ, जिब्भामयाश्रो मा०म० द्वि० ।आ० चू०।। असमाण-असमान-पुंजन विद्यतेसमानो यस्य सेोऽसमानः गृह सोक्खाओ अववरोवेत्ता जप, एवं चेव फामामयाओ वि। स्थान्यतीथिकेभ्यः सर्वोत्कृष्टे, "असमाणो चरे निक्खू" उत्तः ।। तेदिया णं जीवा समारंजमाणस्स छबिहे असंयमे कन्न। न विद्यते समानोऽस्य वृहिष्वाश्रपामूक्तित्वेनान्थतीर्थिकेषु । तं जहा-घाणामाश्रो सोक्खाओवररावेत्ता नवइ, घाणाम. Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) असमारंभमाया अनिधानराजेन्धः। असमाहिहाण एणं दुक्खेणं संजोयेत्ता नव०, जाव फासमएणं दुक्खेणं दवदवचारिया विनवति ?,अपमज्जियचारिया विभव, संजोएत्ता नबइ। दुपमाज्जियचारिया वि भवति ३,अतिरित्तसेज्जासणिए ४, (तेइंदिगणमित्यादि) काव्य, नवरं ( असमारंभमाणस्स त्ति)। रायणियपरिभासी ५, थेरोक्यातिए ६, जूतावघाव्यापादयतः। (घाणामाश्रो तिघ्राणमयात सौख्याद् गन्धोपा- | तिए , संजलणे ८, कोहणे , पिट्ठीमंसए यावि भवति दानरूपात् अव्यपरोपयिता श्रभ्रंशकता घ्राणमयेन गन्धोपाल. १०, अतिक्खणं अतिक्खणं ओहारिए ११, णवाई म्भाभावरूपेण दुःखेनासंयोजयिता भवति । इह चाव्यपरोपणमसंयोजनं च संयमः, अनाश्रयरूपत्वात, इतरदसंयम इति ।। अधिकरणाई अणुप्पाणाईनप्पाइ वा नवति १२, पोरास्था०६०। णाई अधिकरणाई खामित्तविउसमिताई उदीरित्ता नवति "चरिदिया ण जीवा असमारंभमाणम्स अछविहे संजमेकः | १३, अकाले सज्कायकारिया वि नवति १४, ससरक्खउज । तं जहा-चक्खुमानो सोक्खाश्रो अबवरोवेत्ता भव , पायिणाए १५ सद्दकरे १६ भेदकरे ऊऊकरे १७ कक्षचक्खुमपणं सुक्खणं असंजोएसा जवइ, एवं जाव फासामाओ हकरे असमाहिकरे १० सुरप्पमाणभोइए १६ एसणाए सोक्खायो अबवरोवेत्ता भवइ, फासामपणं दक्खणं असंजोएत्ता भवइ । च उरिदिया ण जीवा समारंभमाणस्स विहे असमिते याचि नवाते २० एवं खबु थेरोहिं भगवंतोर्हि वीसं असंजमे काज । तं जहा-चावमाश्रो सोश्वाश्रो चबरोवेत्ता असमाहिट्ठाणा पएणत्त त्ति वोमि पढमा दसा सम्मत्ता ॥ नवर, चक्षुमएणं सुक्खेणं जं जाएत्ता भवइ । एवं जाव फासामाग्रो सोक्खायो" । स्था० ठा० । “पचिदिया णं ननु यथाकथञ्चित् गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षपुत्थितेन्यो जीया णं असमारंभमाणस्त दसविहे संजमे कब्जइ । तं जहा वा सकाशात् , यथोच्यते-" परिसुट्ठियाणं पासे सुणेइ, सोयामयाओ सोक्खाओ अववरोवत्ता भवइ, सोयामपणं दु सो विणयपरिभास ति" । यमुक्तं स्थविरैः विंशति-- पत्रण असंजोश्त्ता जबइ। एवं जाव फाप्लामपणं टुक्खणं असं रसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि । तत्र किं स्थविरैः अन्यतः पुरुषजोएत्ता भव । एवं असंजमो विभाणियब्वों" स्था० १०० विशेषात्, अपौरुषेयागमात,स्वतो वातत्रोच्यते-भगवतः सका शादेवावगम्य तैरधिगम्य प्राप्ताः, 'थेरोहिं ति' कथनाद् शानअसमाइड-असमाहृत-त्रि० । अशुभे, “वितिगिच्छसमावाणं स्थचिरैरित्यावेदितं भवति, न तु जातिपर्यायस्थचिरैः । जातिअपाणणं आसमाहडाए बेस्साए " अशुझ्या लेश्ययोद्रमादि- पर्यायस्थविरत्वेऽपि श्रुतस्थविरा एव प्रज्ञापयितुं समर्था नवदोषपुमिदमित्येयं चित्तविजुत्या। प्राचा०२ श्रु०१ अ०३३०।। न्ति, इति कृतं प्रसङ्गेन । इत्युक्त उद्देशः। पृच्छामाह-(कयरे इत्यादि)कतराणि किमभिधानानितान्यनन्तरसूत्रोद्दिष्टानि, खलुअसमाद्दडसुघसस्स-असमाहृतकलेश्य-त्रि० । असमाहृ. चोक्यालङ्कारे। शेषं प्राग्वादीत। निर्देशमाह-श्मानि अनन्तरं ताउनङ्गीकृता शुद्धा शोजना लेश्या येन स तथा । श्रात्तध्यानो वक्ष्यमाणत्वाद् हाद परिवर्त्तमानतया प्रत्यक्वाणि तानि इति, पहततयाऽशोननलेश्ये, सूत्र. २ श्रु० ३ ०। यानि त्वया पृष्टानि। शेषं पूर्ववत्। तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। असमाहि-असमाधि-पुं०। अपभ्याने,सूत्र० १ श्रु०२ अ०२० । (दवदवचारिया विनवति) गतौ यो हि दुतं द्रुतं संयमात्मसमाधान समाधिः-स्वास्थ्यम, न समाधिरसमाधिः । अम्वा- विराधनानिरपेको व्रजति-आत्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ योजस्थ्यनिबन्धनायां कायादिचेष्टायाम, श्रा०म० द्वि० स्था। यति; अन्यांश्च सत्त्वान् घ्नन्नसमाधौ योजयति,सत्त्ववधजनितेन "दसविदा असमाही पत्ता । पाणाश्वाए. जाव परिगरिया च कर्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधौ योजयति,श्रतो दुतं हन्तुअसमिइ० जाव उच्चारपासवणखेलसिलाएगपारिहायणिया | त्वसमाकुलतया चलाधिकरणत्वादसमाधिस्थानम, एवमन्यअसमिई" ज्ञानादिभावप्रतिषेधे अप्रशस्ते जावे,स्था० १०००। प्रापि यथायोगमवसेयम् । चशब्दाद् भुञ्जानो भाषमाणः असमाहिकर-असमाधिकर-त्रि० । असमाधिकरणशीलोऽस. प्रतिलेखनां च कुर्वन् आत्मविराधनां संयविराधनां च प्रा मोति । अपिग्रहणात् तिष्ठन् आकुञ्चनप्रसारणादिकं वा हुर्त माधिकरः । आ० मद्विा । चित्ताऽस्वास्थ्यकर्तरि, प्रश्न ३ दुतं कुर्वन् पुनः पुनरवलोकयन्नप्रमार्जयन् अात्मविराधनां च संवा द्वार । प्रा०चू । असमाधिमरणे च, व्य० ४ १०। प्रामोति। शब्दार्थस्तु भावित एव । ननु स्थानशयनादिषु दुतत्वअसमाहिहाण-असमाधिस्थान-न०। समाधिश्चेतसः स्वास्थ्यम, निषेधेसति किमर्थ गमनमेवोपन्यस्तम्? उच्चते-यतः पूर्वमीर्यामोक्षमार्गेऽवस्थितिरित्यर्थः । न समाधिरसमाधिः, तस्य स्था. समितिस्ततोऽन्या, शति हेतोः पूर्व गमनमेव मुख्यत्वेनापात्तमिनन्याश्रयाधि०३आधा। असमाधिानादिभावप्रतिषेधः,अप्रश- ति । तथा-(अपमन्जिय त्ति) अप्रमार्जिते अवस्थान-निषीदनस्तो भाव इत्यर्थः । तस्य स्थानानि पदानि असमाधिस्थानानि । शयनोपकरण-निकेपोच्चारादिप्रतिष्ठापनं च करोति २ । तथास्था०१० उ० । चित्ताऽस्वास्थ्यस्याश्रयेषु, प्रश्न०५संब० द्वार । पुष्पमार्जितचारी तथा-(अतिरित्तसेन्जासणिएत्ति) अतिरिक्ता. यैर्हि श्रासेवितैरात्मपराभयानामिह परत्रोभयत्र वाऽसमाधि- अतिप्रमाणा शय्या वसतिरासनानि च पीठकादीनि यस्य सन्ति रुत्पद्यते । स्था०१०टा०। सोतिरिक्त शय्यासनिकासच-अतिरिक्तायां शय्यायांघवशासासुयं मे आनसंतणं जगवया एवमक्खायं-इह खत्रु थेरे दिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवासयन्तीति तैःसहाधिकरहिं भगवतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पणता । कयरे खल णसंभवादात्मपरावसमाधी योजयतीति । एवमासनाधिक्य पि वाच्यमिति । तथा-(रायणियपरिभासि त्ति ) रात्निकपरिथेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्टाणा पएणता? । इमे खयु भाषी श्राचार्यादिपूज्यगुरुपरिभवकारी, अन्यो वा महान् कश्चिथेरेहिं भगवंदोहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पाणता । तं जहा- जातिश्रुतपर्यायाद्वा शिक्षयति, तं परिभवति अवमन्यते, जात्यादि. Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असमाहिहाण अनिधानराजेन्छः। असमिक्खियमासि (ण) भिर्मदस्यानैः अथ वा-"महरो अकुलीणोत्ति य,उम्मेही दमगमः | णं कुर्वन् महता शब्देनोहपतिः दोपाश्चेहोत्तराध्ययनवृने. दबुकित्ति। अवि अप्पसाभलद्धी, सीसोपरिजवति आयरियं"।१।। रवसेयाः १६ । नथा- भेदकरे त्ति) येन कृतेन गम्य इति । एवं च गुरुं परिभवन् आझोपपातं वा कुर्वन् आत्मानमन्यां- नेदो नवति तत्तदातिष्ठते ( झझकरे त्ति) नन्कगेति येन वाऽसमाधौ योजयत्येव ५। तथा-(थेगेवघार त्ति) स्थविरा श्रा- गणस्य मनोपुःखमुत्पद्यते, तद्भापत वा १७ । तथा-(कलहचार्यादिगुरवः, तान् श्राचारदोषेण शीलदोघेणाऽयज्ञादिभिर्वोप- करे त्ति अाक्रोशादिना येन कलहो भवति तत्करोति; स चैव हन्तीत्येवं शीलः स एवं चेति स्पविरोपघातिकः ६। नथा-(नूतो गुणयुक्तो हि असमाधिस्थान भवति इति वाक्यशेषः १० । बघातिए त्ति) भूतान्येकेन्द्रियादीनि तानि उपहन्तीति भूतोप तथा-(सूरप्पमाणलाई) सूरप्रमाणनोजी योदयादस्तसमघातिक प्रयोजनमन्तरेण,ऋद्धिरसातगौरवैर्वा, विभूषानिमित्तं यं यावदशनपानाद्यन्यवहारी नाचिनकाले स्वाध्यायादि न क. घा, प्राधाकर्मादिकं वा,पुष्टालम्बनेऽपि समाददानः; अन्यद्वा ता रोति, प्रतिप्रेरितो रुष्यति, अजीणे च बह्वाहारेऽसमाधिः संजाय. दृशं किञ्चित् जाषते वा करोति, येन भूतोपघातो भवति ७) त इति दोषः २५ । तथा-( एसणास भिए अममिए यावि (संजसणे त्ति) संज्वलतीति संज्वलन:-प्रतिक्षणं रोषणः, स भवति ति) एषणाय समितश्चापि संयुक्तोऽपि नानैषणां परिच तेन क्रोधेनात्मीयं चारित्रं सम्यक्त्वं वा इन्ति, दहति घा हरति, प्रतिप्रेरितवासी साधुभिः सह कलहायते । अनेषणीज्वलनवत् । तथा-(कोहणे त्ति ) क्रोधनः सत्करोत्यन्त. यं मां परिहरन् जीवोपरोधि वर्तते । एवं चात्मपरयोरसक्रुको भवति, भनुपशान्तवैरपरिणाम इतिभावः । तथा-(पि माधिकरणादसमाधिस्थानमिदं चिंतितममिति २०। ( एवं टीमसए त्ति) पृष्टिमांसाशिकः, पराङ्मुखस्य परस्यावर्णवादका खस्वित्यादि) एवमित्यनन्तरोत्तेन घिधिना, खर्वाक्यारी, श्रगुणनाघीति भावः, सचैवं कुर्वन् आत्मपरोनयेपांच शह लहसी। शेषं व्याख्यानार्थम् !(इति मिसि) इति परिसमापरत्र चासमाधी योजयत्येव । अपिशब्दात् साकाद् वा वक्ति इति सावेषमयों वा।पतानि असमाधिस्थानानि अनेन वा प्रकारेण झयम तथा-(अनिक्खण २ ओहारिए त्ति)अभीक्ष्णं अभीक्ष्ण वीमीति गणधरादिगुरूपदेशतो, नतु स्वोत्प्रेक्षययुक्तोऽनुगमः; अवधारयिता शङ्कितस्याप्यर्थस्य निःशङ्कितस्येव-एवमेवायमि. नवप्रस्तारस्वम्यतोऽवसेयः । दशा० १ ० । स० । प्रा० त्यवं वक्ता । अथ या-अवहारयिता परगुणानामपहारकारी यथा चू०। आव०॥ तथा,दासादिकमपि परं प्रति तथा प्रणति दासश्चोरस्त्वमित्या असमाहिमरण-असमाधिमरण-न० । बालमरणे, पातु० । दि ११ । तथा-(णवाई इत्यादि ) नबानामनुत्पन्ननामधिकर असमाधिमरणे दोषाःणानां कलहानामुत्पादयिता, तांश्चोत्पादयन् आत्मानं परं चाs. समाधौ योजयति । यथा जे पूण अटमईया, पयलियसन्ना य चक्कभावा य । " वादो भेदो अयसो, हाणी सणचरितणाणाणं । असमाहिणा मरंति उ,न हु ते आराहगा मणिया ॥३०॥ साहुपदोसो संसा-रवद्धणो साधिकरणस्स ॥१॥ ये पुनर्जीवाः,अष्टौ मदस्थामानि येषां तेऽप्रमादिकाः। 'अत्तमईप्रतिभणि श्रमणिए वा, तावो मेदो चरित्तजीवाणं । श्रा' इति पाठे आते आतध्याने मतियां ते प्रासमतिकाः स्वारूचसरिसं ण सील, जिम्हं ति य सो चरति लोए ॥२॥ थे हकप्रत्ययः, प्रचलिता विषयकायादिभिः सन्मार्गात्प. जं अजियं समीख-ल्लापहि तवणियमवंभमइएहि ।। रिप्रभ्रष्टा संज्ञा बुद्धिर्थेषां ते प्रचलितसंहाः । प्रगसितसंज्ञा वा, मा हुनयं छिज्जेहिह, बहुवत्तासागपत्तेहिं" ॥३॥ चः समुच्चय; कच्यते संकल्पते प्रात्मा परो वा ऐहिकपारत्रिक लानाद्येन स वक्रः, कुटिलो घा भावो येषां ते तथा,यत एवंविअथवा नवानि अधिकरणानि यन्त्रादीन तेषाम्-"न वावत्त धाग्रत एवाऽसमाधिना चित्तास्वास्थ्यरूपण म्रियन्ते । मह नैव, कलहो विण, पढति अवच्छलउ दंसणे हीणो । जह कोवाहिवि हुरषार्थे,ते पाराधका उत्तमार्थसाधका भवन्तीत्यर्थः। पातु। बुही, तद हाणी होति चरणे वि"॥१॥ नवोत्पादयिता १२। (पोराणाई ति ) पुरातनानां कलहानां कमितव्यवशमितानां असमाहिमरणकाण-असमाधिमरणध्यान- 'मएसमाधिना मर्षितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता भवति १३ । तथा-(अ. एपनियताम्'इति चिन्तनमसमाधिमरणध्यानम् । स्कन्द काचार्य काले सज्झायेत्यादि ) अकाले स्वाध्यायकारकः । तत्र प्रतिकु प्रथम,यन्त्रे पीलवतोभव्यपालकस्येव दुर्ध्याने,आतु। काला-उत्कालिकसूत्रस्य दशवैकालिकादिकस्य संध्याचतुष्टयं असमाहिय-असमाहित-त्रि० । अशोभने वीनसे दृष्टे च । त्यक्त्वाऽनवरतं भणनम्, कालिकस्य पुनराचारामादिक- सूत्र०१९०३ अ०१०। सत्साधुप्रदूषित्वात् शुभाध्यवसास्योद्घाटापौरुषी यावद्भनम् । अवसानयामं च दिवसस्य, यरहिते, सूत्र.१७०३ अ०३30। मोकमार्गाण्यात भावसनिशायाश्चाद्ययामं च त्यक्त्वा अपरस्त्वकाल एय। अकाल- माधेरसंबूततया दूरेण वर्तमाने, सत्र०१ श्रु० ११ अ०। स्वाध्यायकरणदूषणानि तु बृहत्कल्पवृत्तितोऽवसेयानि नेह | नासमिक्खियकारि (हा)-असमीक्तिकारिन-त्रि० । अनाविस्तरत्वामुक्तानि १४ । तथा-( ससरक्खपाणीत्यादि)। लोचितकारिणि, दश०६ अ०। सरजस्कपाणिपादो-यः सचेतनादिरजोगुगिडतेन दीयमानां भिकां गृहाति । तथा-यो हि स्थरिडलादौ संक्रामन् न पादौ असमिक्खियप्पनावि ( ण् )-असमीक्षितप्रमापिन्-पुं०। प्रमार्टि । अथ वा-यस्तथाविधकारणे सचित्तादिपृथिव्यां अपयांलोचितानर्थकवादिनि, प्रश्न० २ श्राश्र0 द्वार । " अणूकल्पादिनाऽनन्तरितायामासनादि करोति स सरजस्क हितं पुटवावरं इहपरलोगगुणदोसं वा जो सहसा भणइ, सो पाणिपाद इति । स चैवं कुर्वन् संयमे असमाधिना श्रा असमिक्खियप्पलावो"। नि००८०। ('चंच' शब्दे त्मानं संयोजयति १५ । तथा-( सद्दकरो त्ति ) शब्दकरः | एतत्स्वरूपं वक्ष्यते) सुप्ते प्रहरमात्रादुई रात्रौ महता शब्देनोल्लापस्वाध्याया- असमिक्खियत्नासि(ए)-असमीक्षितभाषिन्-पुंछ । अप- दिकारको गृहस्थभाषाभाषको वा वैरात्रिकं वा कालग्रह- | लोचितवक्तरि, प्रश्न. २ आश्र० द्वार । Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४४ ) अभिधानराजेन्द्रः । समिय असमिय असमित पुं० समितिषु प्रमते पचा० १६ चिव ईर्यादिषु समिति अनु०० " एसो समिश्र भगि भयो पुर्ण असमियो इमो डोर सो काइयोमादी, एकेक नवरि पडिलेहे ॥१॥ नव तिन्नि तिनि पेहे, वेति किमेत्थं मित्राहो । श्र० ४ श्र० । 99 असम्यन्त्र० ते ० समियं तिष्यमाणस्स एगढ़ा समिया होइ, समियं तिमलमास एगदा असमिया हो । - कस्यचिन्मिथ्यात्यश्वादिस्थ कथं पौलिकः शब्दः १, इत्यादिकमसम्यगिति मन्यमानस्यैकदेति मिथ्या परिमापशमला शहाविचिदेिशतः सम्यगिति भवति । श्राचा० १० ५ ० ५३० ॥ असमोढ्य असमत० दपदानुपरते कृतसमुद्घाते नेक्षे, च । म० १ए श० ३ उ० । असम्मत्त सम्यक्त्व न० । दर्शनादुद्वेगे, आव० ४ श्र० । असम्मत्तपरीसह असम्यक्त्वपरीषद पुं० । असम्यक्त्वसहनकारिणि सर्वपापविरोधी आ तथापि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिजानं तोषा समस्येत दिति असदपरीषद्धः तत्रैवमालोच्यते धर्माधर्मीयपापल कणौ यदि कर्म रूपौ पुत्रात्मकौ, ततस्तयोः कार्यदर्शनादनुमानसमधिगम्यत्यम् अध कमाकोचादिक धर्माधर्मी ततः स्यामुय स्वादात्मपरिणामरूपत्वात्यविरोधः॥ देवास्त्वत्यन्त सुखास स्यान्मनुष्यलोके च कार्याजावाद मनुष्य भावाश्च न दर्शनगोचरमा यान्ति । नारकास्तु तीव्रवेदनातः पूर्वकृतक मौद याने गडबन्धनवशीतत्वादस्वतन्त्राः कथमायान्तीत्येवमालोचयतोऽखम्प बहजयो भवति । आव० ४ अ० । ० असयं श्रस्वयम् - अव्य० | परत इत्यर्थे ० ६ श० ३२ ० | प्रसरण - श्रशरण त्रि० । अत्राणे, स्था० ४ ० १ स्वार्थप्रापकवर्जिते प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । शरणमनालम्बमाने, आचा०। शरणं गृहं, मात्र शरणमस्तीति अशरणः। सोगे अक्खू एतां सोउलारं गच्छति णायपु 9 संयमे, असुरणाप श्राचा० १० अ० १ उ० । असरणभावणा-अशरणनाचना स्वी० आत्मनोऽशरणत्यपर्यालोचनायाम, प्रत्र० । सा च अशरणभावना"पितुर्मातुभ्रतुस्तनयदयितादेश्व पुरतः, प्रभूताः । दन्तः शिष्यन्ते यमनुभूत हहा ! कथं लोकः शरणरहितः व्यास्यति कथम् ? ॥ १ ॥ ये जानन्ति विविसि कियाप्रावरियं प्रथमन्ति ये च दधति ज्योतिःकलाकौशलम् । विप्रेष्य सकललोक्यविभ्यंसन व्यग्रस्थ प्रतिकारकर्मणि न हि प्रागल्भ्यमाविति ॥ २ ॥ नानाशस्त्रपरिश्रमोद्भवेष्टितः सर्वतो गत्युद्दाममदीन्धसिन्धुरशतैः केनाप्यगम्याः कचित् । शक्रश्रीपतित्रकिणोऽपि सहसा कीनाशदासैर्श्वलादाकृष्टा यमवेश्म यान्ति हह हा ! निस्त्राणता प्राणिनाम् ॥ ३ ॥ सुरगिरिं पृथ्वी पृथुस्त्रसात् ये कर्तुं विष्णः कृशमपि चिनेचात्मनः । निःसामान्यबलप्रपञ्चचतुरास्तीर्थेकरास्तेऽप्यहो !, नैवाशेषजनी पपस्परमपाकर्तुं कृतान्तं कुमाः ॥ ४ ॥ कलत्रमित्रपुत्रादि-निवृत्तये । इति शुद्धमतिः कुर्या-दशरपयत्व भावनाम्” ॥५॥ प्रव० ६७द्वा० ॥ अशरणभावना चैवम् 66 'इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । श्रहो ! तदन्तकात, कः शरण्यः शरीरिणाम् ? " ॥ १ ॥ शरणे साधुः शरण्यः । तथा"पितुर्मातुः सुतनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ २ ॥ शोचन्ति स्वनावन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेभ्यमाणं न शोचन्ति नात्मानं मूढबुरूयः ॥ ३ ॥ संसारे दुःखदावाग्नि-ज्वलद्ज्वालाकरातिते । घने मृगार्भकस्व, शरणं नास्ति देहिनः ॥४॥ घ०३ अधि असराहा-प्रशरणानुभेक्षा श्री जन्मजरामरणम यैरभिदुते व्याधिवेदनाग्रस्ते जिनवरवचनादन्यन्नास्ति शरणं कसिलोके इत्येवमशरणस्य चत्राणस्य अनुप्रेक्षायाम्, स्था ४ ० १ उ० । - सरिस सहरात्रि विसरले, "असणाया - डु सहियव्वा" आव० ४ श्र० । असरिसवेगग्गहण असह वेग ग्रहण २० आर्यादेरनार्यादिनेपथ्यकरणे, पं० व० ४ द्वार सरीर अशरीर त्रि० । अविद्यमानशरीरोऽशरीरः । औौदारिकादिपञ्चविधशरीररहिते, प्रा० म० द्वि० सिके, "असरीरा जीवघेणा दंसणनाशोवउत्सा" औ० । स्था० । असरीरपमिवद्ध - शरीरप्रतिबद्ध - त्रिण त्यक्तसर्वशारे, भ १८ श० ३० । सव्वय असलाडा भरलाघा श्री० अकीर्तिसाधने मसाधुवादे ग० १ अधि० । असलिलप्पलाव असलिलप्लाव - पुं० । अजबप्यावे, जनं वि ना रेनिरित्यर्थः । तं । - - असलिझरपवाद असलिलप्रवाह पुं० [सं० असवण्या-श्रवणता स्त्री० । अनाकर्णने, “इमस्त धम्मस्स असवणयाए" ध० ३ अधि० । असम्पण प्रसद्व्यवज्जनन० पुरुषार्थानुपयोगि विनियोगत्यागे न सद्व्ययोऽसदृद्व्यस्तत्र धनोभनम् । द्वा० १२ द्वा० । असम्बन्ध-असर्वज्ञ-मन सत्र सदसनम के वलकानावरण केवलदर्शनावरणरदिते घावरणे, पं०सं०४ द्वार ! सव्यणु अस “सर्वोऽ साविति वाऽपि मुरभिः। तानवविज्ञानर दिनैर्गम्यते कथम् ? ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० १ ० २३० । सव्यदरिसि सर्वदर्शन मे डा० २३३० अव्ययभसयत १० असत्ये "मिस , चित - 3 Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४५) असव्यय अभिधानराजेन्द्रः। असाहुदिट्टि चा, असचंति बा, असव्वयं ति वा, अकरणीय ति वा एगट्ठा" | असायबहुला मणुम्ला" | दश०१ चू। (पतश्च तृतीय स्थानम् श्रा० चू०११०॥ 'अट्ठादसट्टाण' शब्देऽत्रैव भाग २४६ पृष्ठे व्याख्यातम)। असव्वासि (ण)-प्रसर्वाशिन्-त्रि० । अल्पजोजिनि, व्य० असाय (या) वेणिज-असातवेदनीय-न । असानं 5:. खं, तद्पेण यद् वेद्यते, नदसातवेदनीयम् । कर्म०६ कर्म । पं० असह-असह-त्रि० । असमथे, व्य०१०। जीत। सं० प्रशा। दीघन्य प्राकृतस्यात् । स०३७ सम० । वेदनीयकअसहाय-असहाय-त्रि । एकाकिनि, वृ०४ उ० प्रा०म०।। मभेदे, स्था०७०।। अविद्यमानसहाय,यः कुतीर्थिकप्रेरितोऽपि सम्यक्त्वादावचलनं असार-असार-त्रि। साररहिते तं० । “उम्गमुप्पायणासुद्धं. प्रति परसाहाय्यमनपेक्षमाणस्तस्मिन् , दशा०१० मा । एसणादोसवज्जियं । साहारणं प्रयाणतो, साहू होह असारअसहिज-असाहाय्य-त्रि० । न विद्यते साहाय्योऽस्य । सादा श्रो" ॥१॥ भोघ०। य्यमनपेक्वमाणे, उपा० १ ० ( 'आणंद' शब्दे द्वितीयजागे असारंभ-असारम्भ-पुं० । प्राणिवधार्थमसंकल्पे, " सत्तविहे ११० पृष्ठेऽस्य सूत्रं वक्ष्यते) प्रसारंभे पत्ते । तं जहा-पुढविकाश्यबसारंजे जाव अजीअसहीण-अस्वाधीन-त्रि० । अस्ववशे, "असहीणेहिं सारही. वकाश्यअसारमे।" स्था०७ ठा0। चाउरंगोहिं" । दश । असावगपानग्ग-अश्रावकमायोग्य-त्रि०ान० त०। श्रावकानुअसह-असह-त्रिका चरणकरणे अशक्ते, पं० भा० । सुकुमारे चिते, ध०२ अधिक। राजपुत्रादी प्रवजिते, स्था० ३ ठा० ३ उ०। असमथें, ओघ०।। असावज-असावद्य-त्रि० । अपापे, " असावजमकक्कसं" रखाने, नि• चू०१ उ०। दश०७०। “अहो जिणेहि असावजा, वित्ती साहण देसि. असहिष्णु-त्रि० । राजादिदीकिते सुकुमारपादे, वृ० ३ उ०।। या"। दश०५० चौर्यादिहितकर्मानालम्बने प्रशस्तमनोवि. नयजेदे, स्था० ७ ग०।। असहुवग्ग--असहवर्ग-पुं०। असमर्थे राजपुत्रादी, ध०२ अ प्रसासय-प्रशाश्वत-त्रि। तेन तेन रूपेणोदकधारावच्चश्वद धि० । पं० चू। असहेज-असाहाय्य पुं०। अविद्यमानं साहाय्यं परसाहायिक भवतीति शाश्वतं, ततोऽन्यदशाश्वतम् । आचा०१७०५० २ उ०। अशश्वद्भवनस्वन्नावे, रा०प्रतिक्षणं विशरणे, प्र०५ मत्यन्तसमर्थत्वाद् येषां तेऽसाहाय्याः। श्रापद्यपि देवादिसादा आश्रद्वार। कण कणं प्रति विनश्वरे,तं० ०म० भ० श्राचा ग्यकानपेकेषु स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृ. अपराऽपरपर्यायप्रापिते, स्था०१० मा० उत्त0 1 स्व जालत्तिषु, भ०२००५ उ० । ये पाखरिमाभिः प्रारब्धाः सम्य- सदृशे अनित्ये, सूत्र.११०१०३ उ०। संसारिणि, स्था०२ क्त्वाद् विचलनं प्रति, किन्तु न परसाहायिकमपेक्वन्ते स्वयमेव ठा०१०।" अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च । तत्प्रतीघातसमर्थवाजिनशासनात्यन्तनावितत्वात् तेषु तथा- देवासुरमनुष्याणा-मृष्यश्च सुखानि च " ॥१॥ सूत्र०१ श्रु०८ विधेषु श्रावकेषु, भ० २ श० ५ उ० । प्राजन्ममरणादिसहितत्वात् संसारिणि, स्था०४ ठा०४ उ० असागारिय--असागारिक-निला सागारिकसंपातरहिते प्रदेशा. (जावप्राधान्येन तु) विनाशे, प्रश्न०३ आश्रद्वार। अविद्यमान दी, व्य०३ उ० । गृहस्थेनारश्यमाने, नि० च.१००। । शाश्वतमस्मिन्नित्यशाश्वतः संसारः । अशाश्वतं हि सकलअसाधा (हा) रण--असाधारण--त्रि०ा अनन्यसरशे, दर्श०।। मिह राज्यादि । तथा हारिलवाचक:उपादानहेती, अने०२ अधिक। "चन्नं राज्यैश्वर्य धनकनकसारः परिजनो, असाधारणाणगंतिय-असाधारणानकान्तिक-पुं० नित्याश- नृपत्वाद् यनुभ्यं चलममरसौख्यं च विपुलम् । छदः, श्रावणत्वात् इत्यादिसपकविपक्षव्यावृत्तत्वेन संशयजनके चलं रूपारोग्यं चलमिह चलं जीवितमिदं, हेरवानासे, रत्ना० ६ परि० । जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपिहिचलः"॥१॥उत्त०८० असाय (त)-असात-न० न०ता दुःखे, सूत्र०२७०१ ० असाहीण--अस्वाधीन-त्रि० । परायत्ते, प्राचा० १ ० २ १५ उ० । असुखे, आचा०१७०२ १०३ उ० । स्था० । असात भ० १०॥ वेद्यकर्मणि-सविपाकजे,प्राचा०१ श्रु०४०६३०। मनःप्रतिकूले असाहु-प्रसाधु-त्रि० । अमङ्गले. बृ०१०। अशोभने,सूत्र०१ पुःखे, प्राचा०१ श्रु० अ०२ १० अप्रत्युत्पादके, अनु० असा- भु०५ ०२०। प्रसवृत्ते, सूत्र०२ १०१ ० । अनर्थोतवेदनीयकोदये,प्रश्न०१ माथ० द्वार । "बिहे प्रासाए पम्स- दयहेती, सूत्र०१७०२०२१० । निर्वाणसाधकयोगापेते। जहा-सोदिय प्रसाए जाव नोइंदियअसाप"। स्था०६ क्षया ( दश०७०) प्राजीविकादौ कुदर्शनिनि, नि०३ वर्ग । मा० असातवेदनीये कर्मणि,उत्स०३३१०ासातास्यवेदनीये असंयने, स्था०७०।षम्जीवनिकायबधानिवृने औद्देशिवेदनीयकमन्नेदप्रभवायाम (प्रश्न १ श्राश्र0 द्वार) पुखरूपा- कादिजोजिनि अब्रह्मचारिणि, स्था०१०म० । अविशिष्टकर्मयां बेदनायाम, स्त्री०। प्रज्ञा० ३४ पद। कारिणि, सूत्र०१ श्रु० १२ १०।। असायज्जण-अस्वादन-न० । अननुमनने, व्य०२ उ०। | असाहुकम्म-प्रसाधुकर्मन्-न । फ्रूरकर्मणि, स्त्र. १ श्रु० ५ अमा ( स्सा) यण-पाश्चायन-पुं०। प्रवर्षिसन्ताने, जं०७/ अ० १ ० । जन्मान्तरकृताऽगुभानुष्ठाने, सूत्र० १ श्रु० ५ वक। अ०२०। असायबहन-असातवहन- त्रिपुःखप्रचुरे, संथा। "नुजो असाहदिलि-असाधष्टि--पुं० । परतीधिकष्टी, व्य०४ उ० । Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) असाहधम्म अनिधानराजेन्द्रः। असिक असाधम्म--असाधधर्म-पुं० । वस्तुदानस्नानतपणादिके अ-| जावजीवं वयं घोरं, असिणाणमहिहिया"॥६३॥ संयतधर्मे, सूत्र० १ १० १४ अः। दश०६अध। असाहुया-असाधुता-स्त्री० । कुगतिगमनादिकरूपायाम, सूत्र | असिस्थ-असिक्य-न० । सिक्थवर्जिते पानकाहारे, पञ्चा० १५० ४ अ.२ उ० । घोहस्वभावतायाम् नत्त०३ अ०। ५विव०। असाहुव-असाधुवत-अव्य प्रसाधुमहति यत्प्रेक्षसटिभ-असिछ-असिह-पुंग संसारिणि. नं०जी०स्थाए । सूत्र गादियुक्त तस्मिन् . असाधुना तुल्यं वर्तने. उत्त० ३ अर हेत्वाभासनेदे, रत्ना। असि--असि-पु० । खड़े.उप २ श्रानि । जी० । रा तत्रासिहमजिदधतिव्यः विपा० सं० प्रौला "असिमोग्गरसत्ति कुतहत्या"। असिमु. यस्यान्यथाऽनुपपत्तिः प्रमाणेन न प्रतीयते सोऽसिछः दूगरशक्ति कुन्ता हस्ते येषां ते असिमुद्गरशक्तिकुन्तहस्ताः । ॥ ४ ॥ "प्रहरणात" ॥३११५५॥ इति सप्तम्यन्तस्य पाक्षिकः परनिपा अन्यथाऽनुपपत्तोर्वपरीताया अनिश्चितायाश्च विरुद्धानकान्तितः। जी ३ प्रति। अस्युपलक्विते सेवकपुरुषे." असिम कृषी कत्वेन की तयिष्यमाणत्वादिह हेतुस्वरूपा प्रतीतिद्वारकैवान्यवाणिज्यवर्जिताः " तत्रासिनोरलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः प्रसं थाऽनुपपत्त्यप्रतीतिरवशिष्टा अपव्या; हेतुस्वरूपा प्रतीतिश्चेयमयमाःमध्युपसविता लेखनाविनः मधयः,कृषिरिति-कृषिकर्मों शानात्, सन्देहादु, विपर्ययाद् वा विझेया ॥४॥ पजीविनः, वाणिज्यमिति-वणिग्जनोचितवाणिज्यकोपजी - अथामुं भेदतो दर्शयन्तिविनः । तं । असिना यो देवो नारकान् छिनत्ति सोऽसिरेव ।। स विविध नभयासिछोऽन्यतरासिघश्च ॥ ४६॥ परमाधार्मिकनिकाये, भ०३ श०६ उ० । सभयस्य वादिप्रतिवादिसमुदायस्यासिका अन्यतरस्य वादिहत्ये पाए ऊरू, बाहु मिरा पाय अंगमंगाणि । नः प्रतिवादिनो वाऽसिद्धः ॥ ४९ ॥ दिति पगामंतू, असि ऐरए निरयपाला ।। ७०॥ तत्राद्यन्नेदं वदन्ति( हत्येत्यादि ) असिनामानो नरकपाला अशुभकर्मोदयव. नजयामिछो यथा-परिणामी शब्दश्चाक्षुपत्वात् ॥५०॥ तिनो नारकानेवं कदर्थयन्ति । तद्यया-हस्तपादोरुबाहुशिर: चापा गृह्यत इति चाक्षुषः,तस्य भावश्चानुषत्वं, तस्मात् । पाङदीन्या प्रत्यङ्गानि छिन्दान्ते प्रकाममत्यर्थ खरा मयन्ति, तु अयं च वादिप्रतिवादिनोरुभयोरप्यसिकः, श्रावणत्वाच्चशब्दोऽपरदुखोत्पादनविशेषणार्थ इति ॥ सूत्र०१ श्रु०५०१ उ०। वाराणस्यां सरिनेदे, ती० ३८ कल्प। द्वितीयं भेदं वदन्तिअसिकंमतित्थ-असिकए मतीर्थ-न । स्वनामण्याते मथुरास्थे अन्यतरासिन्छो यथा-अचेतनास्तरवो, विज्ञानेनिजयायुतीथे, तो ए कल्प। निरोधनकणमरणरहितत्वात् ॥ २१ ॥ अमिक्खग- अशिक्षक-त्रि । चिरप्रनजिते, दश १ ।। ताथागतो हि तरूणामचैतन्य साधयन् विज्ञानेन्द्रियायुर्नि रोधलक्षणमरणरहितत्वादिति हेतूपन्यासं कृतवान् । स च असिखुरधार-अमिथुरधार-पुंग कुरस्येव धारा यस्य असेः। जैनाना तरुचैतन्यवादिनामसिद्धः । तदागमे द्रुमेध्वपि विज्ञानेअतिच्छेदके खने. उपा० २ अ० । छियायुषां प्रमाणतः प्रतिष्ठितत्वात् । इदं च प्रतिवाद्यसिध्यपेअसिखेमग-असिखेटक-न० । असिना सह फलके, प्रश्न क्षयोदाहरणम् । वाद्यसिद्भयपेक्षया तु-अचेतनाः मुखादयः, उ. १. प्राश्रद्वार। त्पत्तिमत्वादिति । अत्र हि वादिनः सास्यस्योत्पत्तिमत्त्वमप्र सिद्धम, तेनाविर्भावमात्रस्यैव सर्वत्र स्वीकृतत्वात् । असिचम्मपाय-असिचर्मपात्र-न० स्फुरके, भ० "असिचम्म. नन्वित्थमसिम्प्रकारप्रकाशनं परैश्चक्रे-स्वरूपेणासिद्धः, स्वरूपायं गहाय" । असिचर्मपात्रं स्फुरकः । अथवा-असिश्च खतः, पंवाऽसिद्धं यस्य सोऽयं स्वरूपासिद्धः, यथा-अनित्यः शब्दः, चर्मपात्रं च स्फुरकः, खद् कोशका वा पासवर्मपात्रं, तद् गृ चाक्षुषत्वादिति । ननु चाकुषत्वं रूपादावस्ति, तेनास्य व्यधिकहोम्या । "असिचम्मपायहत्थकिञ्चगएणं अप्पाणेणं ति" । असि रणासिद्धत्वं युक्तम् । न । रूपाद्यधिकरणत्वेनाप्रतिपादितत्वात् । चर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा, कृत्यं संघादिप्रयोजनं गतः शब्दधर्मिणि चोपदिष्टं चाकुपत्वं न स्वरूपतोऽस्तीति स्वरूपाप्राधिनः कृत्यगतः, ततः कर्मधारयः, अतस्तेन प्रात्मना । अथ. सिम्म । विरुकमधिकरणं यस्य, स चासाबसिरुश्चेति व्यधिवा-असिनर्मपात्रं कृत्वा हस्ते कृतं येनासी असिचर्मपात्रहस्त करणासिद्ध:, यथा-अनित्यः शब्दः, पटस्य कृतकत्वादिति । कृत्वाकृतः,नेन । प्राकृतत्वाश्चैवं समासः। अथवा-असिचर्मपात्र ननु शब्देऽपि कृतकत्वमस्ति, सत्यं, न तु तथा प्रतिपादितम् । स्य हस्तकत्यं हस्तकरणं गतः प्राप्तो यः स तथा, तेन । भ०३ नचान्यत्र प्रतिपादितमन्यत्र सिकं भवति । मीमांसकस्य वा श०५ उ०। कुर्वतो व्यधिकरणासिद्धम् ।२। विशेष्यमसिहं यस्यासौ विशेअसिह-अशिष्ट-त्रि० । अनाख्याते, नि० ० २ उ० । अक प्यासिका, यथा-अनित्यः शब्दः, सामान्यत्वे सति चावपत्वाथिते, वृ०२ उ०। प्रा०म०। तू । ३। विदोपणासिद्ध, यथा-अनित्यः शब्दः, चाकपत्वे सति प्रसिणाण-अस्नान-त्रि० । अविद्यमानस्नाने, पंचा० १० वि. सामान्यवत्वात् ।४। पक्कैकदेशासिद्धपर्यायः पक्कभागेऽसिद्धत्वाव) । " अमिणाधियडभोई" प्रस्नानोऽरात्रिभोजी चेत्यर्थः। तू भागासिकः, यथा-अनित्यः शब्दः, प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । उपा०१ अ०। प्राचा। ननु च घाद्यादिसमुत्थशब्दानामपीश्वरप्रयत्नपूर्वकत्वात् कथं " तम्हा ते ण मिणायंति, सीपण उसिणण वा । | भागासिवम ?। नैतत्। प्रयत्नस्य तीव्रमन्दादि नावानन्तरंश Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७) असिम निधानगजेन्द्रः। अम्मिच हादस्य नथाभावो हि प्रयत्नानन्तरीयकत्वं विकिनम । नव- च्चेत. तदपि तुल्यम् । तन्पित्रावळगय हि तामकम् । पर्व रप्रयन्नस्य नीवादिभावोऽम्ति, नित्यत्वात् । अनभ्यपगनेश्वर नहिं प्रयोजक सम्बन्धेन सम्बन्धो हेतः कथं व्यधिकरणः इति प्रति वा नागामिद्धवम् ।। श्राश्रयासिद्धः यथा अम्ति प्रधा. चेन ।नन यदि साध्याधिगमप्रयोजकसम्यन्धानाबाद वैयधिनं, विश्वस्य परिणामकारणत्वात । ६ । ग्राश्रयैकदेशामिः करायमुच्यने, नदानी समतमेवैतदस्माकं दोषः, किन्तु प्रमेय. यथा निन्याः प्रधानषुरूपेश्वराः, अकृतकस्वात । अत्र जैनस्य वादयोऽपि ब्यधिकरणा पत्र वायाः स्युन व्यभिचायादयः । पुरुषः सिको, न प्रधानेश्वरी । ७ । मन्दिग्धाश्रयामिद्धः यथा तम्मापकान्यधर्मन्याभिधानादेव व्यधिकरगो हेन्यामामस्ने गोवेन संदिह्यमाने गवये आरगयकोऽयं गौः, जनदर्शनोत्पन्न- सम्मतः, म चागमक इति नियम प्रन्याचनमहे। अथ प्रनिमोघासत्वात् (G। संदिग्धाश्रयैकदेशामिकः : यथा-गोत्वेन संदि- हशकल्याऽन्यथाभिधाने ऽपि ब्राह्मण जन्यन्वादिन्येव हेन्यथै प्रतिह्यमाने गवये गविच आरण्यकावेतो गावौ, जनदर्शनोत्पन्नत्रा- पद्य साध्यं प्रतिपद्यते इति चेन्, पर्व नहिं प्रतिभोहशक्यैव पटभ्य सत्वात् । ए। आश्रयसंदिग्धवृत्पसिकः; यथा-आश्रयहेत्वोः कृतकवादित्यभिधानेऽपि पटस्य कृतकवाद निस्यन्य रथ्म । एवं स्वरूपनिश्चये श्राश्रये देतुवृत्तिसंशये मयूरवानयं प्रदेशः, के- शब्दस्यापि नत पव तदस्विनि प्रतिपत्ती नायमपि व्याधिः कायितोपेतत्वात् । १० । श्राश्रयैकदेशसंदिग्धवृत्यामद्ध, यथा- करणः स्थानः तस्माचथोपात्तो हेतुस्तथैव तझमकन्वं चि. आश्रयहेत्वोः स्वरूपनिश्चये सत्येवाऽऽश्रयैकदेशे हेतुवृत्तिसंशये| न्तनीयम । नच यस्मात्पटस्य कृतकत्वं तस्मानदन्येना प्य. मयूरवन्तावेतौ सहकारकर्णिकारी, तत एव । ११ । व्यर्थवि- नित्येन भवितव्यमित्यस्ति व्याप्तिः । अतोऽमा व्यनिचागशेपणासिका, यथा-अनित्यः शब्दः, सामान्य वत्त्वे सति कृतक- देवागमकः । एवं काककाएर्यादिरवि । कथं वा धिकर. तत्वात् । १२ । ब्यर्थविशेष्यासिकः; यथा-अनित्यः शब्दः, कृत- णोऽपि जलचन्द्रो ननश्चन्ऽस्य, कृत्तिकोदयो या शकटोदकत्वे सति सामान्यवत्वात् । १३ । संदिग्धासिरूः यथा-धू- यस्य गमकः स्यात् ?, इति नास्ति व्यधिकरणो हेन्यानासः । मवारपादिविवेकानिश्चये कश्चिदाह-वह्निमानयं प्रदेशः, धूमव- आश्रयासिकताऽपि न युक्ता । अस्ति सर्वशः, चन्छोपरागादित्वात् । १४ । संदिग्धविशेष्यासिकः; यथा-अद्यापि रागादियु- शानान्यथाऽनुपपत्तेरित्याइरपि गमकत्यनिमयात् । कथमत्र क्तः कपिलः, पुरुषत्वे सत्यद्याप्यनुत्पन्नतत्वज्ञानत्वात् । १५ । सर्वधर्मिणः सिद्धिः ? इति चेत्, अमिहिरपि कभिनि संदिग्धविशेषणासिका, यथा-अद्यापि रागादियुक्तः कपिलः, कथ्यताम? | प्रमाणागोचरत्वादस्योत चेन्, पवं तर्हि तथापि सर्वदा तत्वज्ञानरहितत्वे सति पुरुषत्वात् । १६ । एकदेशा- तत्सिकिः कथं स्यात् ? । ननु को नाम सर्वशमिणमत्यधात, सिद्ध, यथा-प्रागभावो वस्तु, विनाशोत्पादधर्मकत्वात् । १७।। येनैष पर्यनुयोगः सोपयोगः स्यादिति चेतनवम । प्रमाणाविशेषणकदेशासिद्धः, यथा-तिमिरमभावस्वजावम, व्यगुण गोचरत्यादित्यतः सर्वको धर्मी न भवतीति सिषार्धाषितम्यात । कर्मातिरिक्तत्वे सति कार्यत्वात् । अत्र जैनान् प्रति तिमिरे - अन्यथेदमम्बरं प्रति निशिततर-तरचारिव्यापारमाय नवेत्। व्यातिरको न सिद्धः। १८ । विशेष्यैकदेशासिद्धः; यथा-ति- एवं चमिरमभावस्वभावं, कार्यत्ये सति द्रव्यगुणकर्मातिरिक्तत्वात् । "प्राश्रयासिकता तेऽनुमाने न चेतः ।१६ । संदिग्धैकदेशासिद्ध, यथा-नायं पुरुषः सर्वक, रागव- साऽनुमाने मदीये तदा किं भवेत् ?। क्तृत्वोपेतत्वात् । अत्र लिङ्गादनिश्चिते रागित्वे संदेहः । २० । आश्रयासिस्ता तेऽनुमानेऽस्ति चेत्, संदिग्धविशेषणैकदेशासिद्धः; यथा-नापं पुरुषः सर्वज्ञः, रा. साऽनुमाने मदीये, तदा किं भवेत् ?"।। गयक्तृत्वोपेतत्वे सति पुरुषत्वात् । २१ । संदिग्धविशेष्यैकदे- यदि त्वदीयानुमानेनाश्रयासिकिरस्ति, तदा प्रकृतेऽप्यसौ मा शासिद्धः यथा-नायं पुरुषः सर्वशः, पुरुषत्वे सति रागवक्तृ- नूदा धर्मिण उभयत्राप्यैक्यान्ः अन्यस्यास्य प्रकृतानुपयोगिस्वोपत्वात् । २२ । व्यर्थैकदेशासिका, यथा-अग्निमानयं पर्वत-| स्वात् । अथास्ति तत्राश्रयासिकिः, तदा बाधकाभावात् एषा प्रदेशः, प्रकाशधूमोपेतत्वात् । २३ । व्यर्थविशेषणैकदेशासिद्धः कथं मदीयेऽनुमाने स्यादिति भावः। यथा-गुणः शब्दः, प्रमेयत्वसामान्यवत्त्वे सति बाबैकेन्भियग्रा तथा च-- ह्यत्वात् । अत्र बाखैकेन्द्रियग्राह्यस्यापि रूपत्वादिसामान्यस्य "विकल्पाद्धर्मिणः सिरिः, क्रियतेऽथ निषिध्यते । गुणत्वाभावाद्यभिचारपरिहाराय सामान्यवत्त्वे सतीति सार्थ द्विधाऽपि धर्मिणः सिद्धि-र्विकल्पाते समागता" ॥१॥ कमः प्रमेयत्वं तु व्यर्थम् । २४ । व्यर्थविशेष्यैकदेशासिद्ध, यथागुणः शब्दः, बाह्ये केन्द्रियग्राह्यत्वे सति प्रमेयत्वसामान्यवत्वात द्वयमपि नास्मि करोमीत्यप्यनभिधेयम, विधिप्रानिधयोर्यग। २५ । एवमन्येऽप्येकदेशासियादिद्वारेण नुयांसोऽसिकने पद्विधानस्य प्रतिषेधस्य चासंभवात् । यदि च द्वयमपि न कराषि दाः स्वयमभ्यूह्य वाच्याः। उदाहरणेषु चतेपु षणान्तरस्य स तदा व्यक्तममूल्यकयी कथं नोपहासाय जायसे?:नधातायामाश्रम्भवतोऽप्यप्रकृतत्वादनुपदर्शनम् । त पते भेदा भवद्भिः कथं यासिरूघुझावनाऽघटनात् । ननु यदि विकल्पसिऽपिर्धामणि प्रमाणमन्वेषणीयम, तदा प्रमाणसिकेऽपि प्रमाणान्तरमधिष्यनाभिहिताः॥ ताम । अन्यथा तु विकल्पसिद्धेऽपि पर्याप्त प्रमाणान्वेषणेन. अउच्यते-पतेषु ये हेत्वानासता नजन्ते, ते यदोनयवाद्य- हमहमिकया प्रमाणलक्षणपरीक्वणं परीककाणामकक्षीकरणीय सिकरवेन विवक्ष्यन्ते, तदोनयासिद्धेऽन्तर्भवन्ति । यदा स्वन्य- च स्यातः तावन्मात्रेणैव सर्वस्यापि सिके। तथा च चाकुपवातरासिकत्वेन तदाऽन्यतरासिक इति । व्यधिकरणासिद्धस्तु दिरपि शब्दानित्यत्वे साध्य सम्यगहेतुरेच भवेदिति चेत् । तदहेत्वाभासो न भवत्येव । व्याधिकरणादाप पित्रोाह्मण्या- त्यल्पम् । विकल्पाद्धि सत्वासस्वसाधारणं धर्मिमात्र प्रतीयते, त्पुत्रे ब्राह्मण्यानुमानदर्शनात, नटनटादीनामपि ब्राह्मण्यं क- न तु तावन्मात्रेणैव तदस्तित्वस्यापि प्रतीतिरस्तिः यतोऽनुमानास्मानाय साधयतीति चेत् ? । पक्कधोऽपि पर्वतव्यताः तत्र ऽनर्थक्यं भवेत् । अन्यथा पृधिवीधरसाना-कारे कृशानुमत्वसाचित्रभानु किमिति नानुमापयति ?, ति समानम् : व्यनिचारा- धनमप्यपार्थकं भवेत् तस्याग्निमतोऽनग्निमतो वा प्रत्यकेणैव प्रे Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध अनिधानराजेन्द्रः। प्रसिद्ध कणात । अग्निमत्त्वाऽनग्निमत्त्वविशेषशून्यस्य शैलमात्रस्य प्रत्य- कोऽपि न साधुः, यतो यदि पक्षधर्मत्वं गमकवाङ्गमङ्गीकृत केण परिच्छेदाद नानुमानानर्थक्यमिति चेत; तास्तित्वना- स्यात् तदा स्यादयं दोषः,नत्रैवम् । तत्किमाश्रयवृत्यनिश्चयेऽपि मिनत्वविशेषशून्यस्य सर्वज्ञमात्रस्य विकल्पनाऽऽकलनात क- केकायितान्नियतदेशाधिकरणमयूरसिधिर्भवतु ? । नैवम् । केथमत्राप्यनुमानानर्थक्यं स्यात् ? । अस्तित्वनास्तित्वव्यतिरेकेण कायितमात्र हि मयूरमात्रेणैवाविनाभूतं निश्चितमिति तदेव गकीदृशी सर्वझमात्रसिफिरिति चेत् ? ; अग्निमत्वानम्निमत्त्वव्य- मयति । देशविशेषविशिएमयूरसिद्धौ तु देशविशेषविशिष्टस्यैतिरेकेण कोणीधरमात्रसिडिरपि कीदृशी? ति वाच्यम् । दो- व केकायितस्याविनाभावावसाय इति केकायितमात्रस्य तव्यणीधरोऽयमित्येतावन्मात्राप्तिरेवेति चेत्, इतरत्रापि सर्वश- भिचारसंभवादेवागमकत्वम् । एवमाश्रयैकदेशसंदिग्धवृत्तित्येतावन्मात्राप्तिरेव साऽस्तु: केवलमेका प्रमाणलकणोपपन्न- रयासिद्धो न जवतीति । व्यर्थविशेपर्णावशेष्यासिहावपिनास्वात प्रामाणिकी, तदन्या तु तद्विपर्ययाद्वैकल्पिकीति । नमुकि- सिम्जेदो वक्तुरकौशलमात्रत्वाद्वचनवैयर्थ्य दोपस्य । एवं व्यमनेन दुर्भगाऽभरणभारायमाणेन विकल्पेन प्रामाणिकः कुर्या- थैकदेशासिकादयोऽपि वाच्याः । ततः स्थितमेतद्-पतेष्वासदिति चेत् ? । तदयुक्तम् । यतः प्रामाणिकोऽपि पट्तीपरित- अभेदेषु सजवन्त उन्नयासिद्धान्यतरासिरूयोरन्तनवन्ति । नकंकर्कशशेमुपीविदोषसङ्ग्यावद्विरा जिराजसभायां खरविषाण- वन्यतरासिको देत्वानास पव नास्ति । तथाहि-परेणासिद्ध मस्ति नास्ति वेति केनापि प्रसर्पहर्पोदुरकन्धरेण सापेक्ष प्र- इत्युद्भाविते यदि वादीन तत्साधकं प्रमाणमाचक्कीत, तदा प्रमात्याहतोऽवश्यं पुरुषाभिमानी किश्चिद् धूयाद्, न तूष्णीमेव पु- णाभावादुभयोरप्यसिद्धः। अथाचक्षीत, तदा प्रमाणस्यापकपणीयात: अप्रकृतं च किमपि प्रज्ञापन् सनिकारं निस्सायेंत, प्र. पातित्यादुभयोरप्यसौ सिकः। अथवा-यावद् न परं प्रति प्रमाकृतभाषणे तु विकल्पसिकं धर्मिणं विहाय काऽन्या गतिरास्ते?। णेन प्रसाध्यते तावत्तं प्रत्यसिद्ध इतिचेतू गौण तोसिरुत्वमा अप्रामाणिके वस्तुनि मूकवावदृकयोः कतरः श्रेयानिति स्वय- नदि रत्लादिपदार्थस्तत्त्यतोऽप्रतीयमानस्तावन्तमपि कालं मुमेव विषेचयन्तु तार्किकाः? इति चेत् । ननु भवान् स्वोक्तमेव ख्यतस्तदाभासः । किञ्च-अन्यतरासिद्धो यदा हेत्वाभासतावतिकेचयतु, मूतव श्रेयसीति च पूत्करोति निष्प्रमाणके स्तदा चादी निगृहीतः स्यात्, न च निगृहीतस्य पक्षादनिग्रह वस्तुनीति विकल्पसिकं धर्मिणं विधाय मूकताधर्म च विदधा- इति युक्तम्,नापि हेतुसमर्थनं पश्चाद् युक्तम, निग्रहान्तत्वाद्वादतीत्यनात्मकशेखरः । तस्मात्प्रामाणिकेनापि स्वीकर्तव्यैव कापि स्येति । अत्रोच्यते-यदा वादी सम्यग्हेतुत्वं प्रतिपद्यमानोऽपि विकल्पसिद्धिः। नच सैव सर्वत्रास्तु, कृतंप्रमाणेनेति वाच्यम् । तत्समर्थनन्यायविस्मणादिनिमित्तेन प्रतिवादिनं प्रानिकान् वा तदन्तरण नियतव्यवस्थाऽयोगात्।पको विकल्पयति अस्तिस- प्रतिबोधयितुं न शक्नोत्यसिम्तामपि नानुमन्यते , तदाऽ. बझा, अन्यस्तु नास्तीति किमत्र प्रतिपद्यताम् । प्रमाण- न्यतरासिकत्वेनैव निगृह्यते । तथा-स्वयमनभ्युपगतोऽपि पद्राव्यवस्थापिते त्वन्यतरस्मिन् धर्म दुईरोऽपि कः कि रस्य सिद्ध इत्येतावतैवोपन्यस्तो देतुरन्यतरासिको निग्रकुर्यात् । प्रमाणसिवनहे तु धर्मिणि सर्वज्ञखपुष्पादौ हाधिकरणम्। यथा-साङ्ख्यस्य जैन प्रत्यचेतनाः सुखादयः, विकल्पसिद्धिरपि साधीयसी; तार्किकचक्रचक्रवर्ति- उत्पत्तिमत्वाद्धटवदिति । ननु कथं तर्हि प्रसङ्गसाधनं सूपनामपि तथाव्यवहारदर्शनात् । पवं शदे चाकुषत्वमपि पादं स्यात् ?; तथा च प्रमाणप्रसिव्याप्तिकेन चाक्येन परसिद्धयेदिति चेत् । सत्यम् । तद्विकल्पसिद्धं विधाय यदि त- स्यानिष्टत्वापादनाय प्रसञ्जनं प्रसनः। यथा-यत्सर्वथैकं तन्नात्रास्तित्त्वं प्रमाणेन प्रसाधयितुं शक्यते,तदानीमस्तु नाम तत्सि। नेकत्र वर्तते, यथैकः परमाणुस्तथा च सामान्यमिति कथमनेद्धिः नचैधम् । तत्र प्रवर्त्तमानस्य सर्वस्य हेतोः प्रत्यक्षप्रति- कव्यक्तिवर्ति स्यात् ?; अनेकव्यक्तिवर्तित्वाभावं व्यापकमन्तरेण कितपकत्वेनाककीकारार्हत्वात; ततः कथमस्तित्वाप्रसिौ सर्वथैक्यस्य व्याप्यस्यानुपपत्तेः । अत्र हि वादिनः स्याद्वादिनः शब्दे चाक्षुपत्यसिफिरस्तु ? । एवं च नाश्रयासिको इत्वाभासः सर्वथैक्यमसिद्धमिति कथं धर्मान्तरस्यानेकव्याक्तिवर्तित्वाभासमस्तीति स्थितम् ॥ नचैवं विश्वस्य परिणामकारणत्वादि- वस्य गमकं स्यादिति चेत् ? तदयुक्तम् । एकधर्मोपगमे धत्यस्यापि गमकता प्राप्नोति। अस्य स्वरूपासिद्धत्वात् प्रधा- मान्तरोपगमसंदर्शनमात्रतत्परत्वेनास्य वस्तुनिश्चायकत्वाभानासिद्धौ विश्वस्य तत्परिणामित्वासिके। एवमाश्रयैकदेशासि- वात, प्रसङ्गविपर्ययरूपस्यैव मौलहेतोस्तनिश्चायकत्वात् । प्रद्धोऽपिन हेत्वाभासः। तर्हि प्रधानात्मानौ नित्यावकृतकत्वा- सतः खल्वत्र व्यापकविरुद्धोपसब्धिरूपः । अनेक-यक्तिवर्तिदित्ययमप्यात्मनीव प्रधानेऽपि नित्यत्वं गमयेत् । तदसत्यम् । स्वस्य हि व्यापकमनेकत्वम, एकान्तकरूपस्यानेकव्यक्तिवर्तिनित्यत्वं खल्वाद्यन्तशून्यसदूपत्वम्, प्राद्यन्तविरहमात्र वा वि. त्वविरोधात् । एकान्तैकरूपस्य सामान्यस्य प्रतिनियतपदार्थाबक्तितम् ? । श्राधेऽत्यन्ताभावेन व्यभिचारः, तस्याकृतकस्या-| धेयत्वस्वभावादपरस्य स्वनावस्याऽभावनाऽन्यपदार्थाधेयप्यतदूपत्वात् । द्वितीये सिद्धसाध्यता; अत्यन्ताभावरूपतया | त्वासंभवात् तद्भावस्य तदभावस्य चाऽन्योन्यपरिहारस्थितलप्रधानस्याद्यन्तरहितत्वेन तदभाववादिनिरपि स्वीकारात् । तणत्वेन विरोधादिति सिद्धमनेकत्र वृत्तेरनेकत्वं व्यापकम्; तर्हि देवदत्तवान्थ्येयौ वक्रवन्ती, वक्तृत्वादित्ययं हेतुरस्तु।। तद्विरुद्धं च सर्ववैक्यं सामान्ये संमतं तवेति नाऽनेकवृत्ति. नैवम् । न वान्येयो वक्त्रवान्, असत्वादित्यनेन तद्वाधनात्। त्वं स्याद्विरोध्यैक्यसद्भावेन व्यापकस्यानेकत्वस्य निवृत्त्या व्यातदसत्वं च साधकप्रमाणाभावात् सुप्रसिद्धम् ॥ संदिग्धा-1 प्यस्थानकवृत्तित्वस्याऽवश्य निवृत्तेः । नव तनिवृत्तिरज्युपश्रयासिद्धिरपिन हेतु दोषः हेतोः साध्येनाऽविनानावसंभवात्।। गतेति लब्धावसरः प्रसङ्गविपर्ययाख्यो विरुकव्याप्तापन ब्धिधमिरुस्तु पदोषः स्यात् । साध्यधर्मविशिष्टतया प्रसिद्धो। रूपोऽत्र मौलो हेतुः, यथा-यदनेकवृत्ति तदनेकम् । यथा-श्रहि धर्मी पकानोच्यते, नच संदेहास्पदीभूतस्यास्य प्रसि- नेकनाजनगतं तालफलम् , अनेकवृत्ति च सामान्यमिति एकद्विरस्तीति पदोघेणैवास्य गतत्वान्न हेतो>पो वाच्यः । सं- खस्य विरुरुमनेकत्वम् । तेन व्याप्तमनेकवृतित्वमः तस्योपक्षदेवाश्रयैकदेशासिद्धोऽपि तथैव । आश्रयसंदिग्धवृत्त्यास-| धिरिह मौसत्वं चास्यैतदपेक्षयैव प्रसङ्गस्योपन्यासात् । न चा-- . Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( HI) असिफ अनिधानराजेन्द्रः । असिलोगभय यमुभयोरपि न सिकः सामान्ये जैनयोगाभ्यां तदभ्युपगमात् । असिमसिसरिज-असिमषिसदक-त्रि० । करवाल कन्नलतुततोऽयमेव मौलो हेतुरयमेव ब वस्तुनिश्वायकः । ननु प. ल्ये, त। घयमेव वस्तुनिश्वायकः कतीक्रियते,तहि किं प्रसङ्गोपन्यासेन!, प्रागेवायमेवोपन्यस्यताम् । निश्चयाङ्गमेव हि वाणो धादी पादि असिय (त) असिन-त्रि० । रुष्णे, प्रश्न० ३ प्राथ० द्वार । नामवधेयवचनो भवतीति चेत् । मैवम। मौनहेतुपरिकरवादस्य । मा० म० । झ्यामे, जं. ६ घर० । अशुभे, विशे० । अनयअवश्यमेव हि प्रसङ्गं कुर्वतोऽर्थः कश्चिविधायबिमिटो, निश्च. बजे मूच्कीम कुर्वाणे पङ्काधारपङ्कजवत्तत्कर्मग्गा दिहामाने, त्रिका यश्च सिम्तुनिमित्त ति यस्तत्र सिको हेतुरिष्टस्तस्य व्याप्य- सूत्र.१०२०१०। प्रसङ्ग कुर्वति, याचा०१४०५ व्यापकजायसाधने प्रकारान्तरमेवेतन। यत्सर्चपैकं तवानेकत्र ०४०। वर्तते शति व्याप्तिदर्शनमात्रमपि हि बाधकं विरूधर्माध्यास-| प्रसियकेस-मसितकेश-त्रि० । असिताः कृष्णाः केशाः मातिपतीत्यन्योऽप साधनप्रकारः। एवं च नान्यतरासिरूस्य | येषां ते भसितकशाः । रुपणकेशे (युगझिके), जी० ३ प्रति कस्यापि गमकत्वमिति ॥५१॥ रत्ना०६ परि० । असियग-मसितक-न० । दात्रे, भ० १४ श० ७ उ । श्राअसिछिमग्ग-असिकिमार्ग-नान विद्यते सिकेोकमय विशि चा। प्रस्थानोपलवितस्य मार्गों यस्मिस्तदसिकिमार्गम । सिद्धय हेतौ, असियगिरि-श्रमितगिरि-पुं०। स्वनामख्याते पर्वते, "ससूत्र० २ श्रु०२ भ०। ब्वाणि वि घसियगिरिम्मि ताचसा समं तत्थ गया " श्रावण असिधारब्बयं-असिधाराव्रत-न । प्रसिधारायां संचरणीय प्र०ा भा० चू। मित्येवं रूपे नियमे, ज्ञा० १ अ.। प्रसिरयण-असिरत्न-न० । चक्रवर्तिनां रत्नोत्कृष्टे खड़े, असिधाराग-प्रसिधाराक-नासेर्धारा यस्मिन् व्रते पाक्रम- स्था० ७ वास। णीयतया, तदसिधाराकम् । असिधारावदनाक्रमणीये, भ०।। असिरावणिकूवखननसम-असिराव निकृपखननसम-त्रि । "श्रसिधारागं वयं चरिश्वयं" असेर्धारा यस्मिन् व्रते भाक-| असिरायामवनौ कूपखननमखननमेव, अनुदकप्राप्तिफलत्वात, मणीयतया तदसिधाराकं. तसं नियमः,चरितव्यमासेवितव्यम्। तेन समम् । अविवक्षितफले, पो०१०विव० । तदेतत्प्रवचनानुपाननं तब दुकसमित्यर्थः । भ० ६ श०३३१०।। अमिलक्खण-असिमक्षण-न० । खड्गलक्षणपरिक्षाने, जै० । असिधारागमण-प्रसिधारागमन-न०। ७० । खद्धारायां नवम्चसने; उत्त० १६ श्र "अङ्गमशतोईमुत्तम केनः स्यात् पञ्चविंशतेः खगः ॥ असिपंजर-असिपञ्जर-न० खगशक्तिपञ्जरे,प्रश्न०२ संबद्वार। अङ्गलमानाद् छयो, वणोऽशुभो विपमपर्वस्थः" ॥१॥ अङ्गलशतोई मुत्तमः खगः पञ्चविंशत्यङ्गोन कनः, अनयोःप्रअसिपंजरगय-अमिपञ्जरगत-त्रिका भसिफ्जरे शक्तिपजरे माणयोर्मध्यस्थितः । प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमादिवङ्गलेषु यः गतः । खद्गशक्तिव्यग्रकररिपुपुरुषवेष्टिते, प्रश्न० २ संब० द्वार । स्थितो प्रणः स अभः, अर्थादेव समासेषु हितीयचतुर्थपअसिपत्त-असिपत्र-नं० । असिः खड्गः, स एव पत्रम् । स्था०४ ष्ठाष्टमादिषु यः स्थितः स गुभः, मिथपु समविषमाइखेषु ग०४०। असिः खगस्तस्य पत्रमसिपत्रम । जी० ३ प्रति०। मध्यम इत्यादि । ज०३ वक्षः । ज्ञा० । औ०। असिसक्काप्रति. अस्याकारपत्रे, भ०३ श०६ उ० । खड्ने, झा० १६० । स०। पादके शास्त्रे, सूत्रः१७०१०१०। असिः खड्गस्तदाकारपत्रवद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रितनारकान असिलहि-असियष्टि-स्त्री० । स्वयतायाम, विपा०१ श्रु० ३ सिपत्रपातनेन तिलशश्विनति सोऽसिपत्रः । पुं०। स. १५ अशा सम० ज० । नवमे परमाऽधार्मिके, प्रव०१८ द्वार । असिलाहा-अश्लाघा-स्त्री० । असहोपोद्घट्टने, स्था०४० अत्र नियुक्ति: १०। कपोहणसकरचरण-दसाढणफुग्गऊरुबाहूर्ण । असिलील-अश्लील-न०। भमङ्गसजुगुप्साबीडाव्यजके दोष. यण नेयण सामण, असिपत्तधणूहि पामेति ॥७॥ विशेषे, यथा-मोदनार्थे चकारादिपदम् । रत्ना०७ परि०।। (कमोठ इत्यादि) प्रसिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानो नरकपाला| असिलेसा-अश्लेपा-खी० । सपदेघताके नक्षत्रनेदे, ज्यो० भसिपत्रवन बीभत्सं कृत्वा तत्र छायाऽर्थिनः समागतान् नारका | ६ पाहु० । सू०प्र० । “असिससाणक्खते छत्तारे पामते"। न वराकान् भस्यादिनिः पाटयन्ति, तथा-काँप्टनासिकाकर- स्था०७ ठा० । चरणदशनस्तनस्फिगूरुबाडूनां छेदनभेदनशातनादीनि विकुर्वि-प्रसिलोग-अश्लोक-पुं० । प्रकीती. स०७ सम । अयशसि, तवाताहृतचलिततरुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्तीति । तदुक्त- | भाव०४ मा मप्रशंसापाम, आप०१ असा अधणे, व्य०६०। मू-"जिन्नपादनुजस्कन्धा-शिवन्नकर्णीष्ठनासिकाः । भिन्नताल असिलोगजय-अश्लोकजय-म० । अश्लोकोऽश्लाघाऽकीर्तिशिरोमेदाः, जिन्नाकिहृदयोदराः" ॥१॥ सूत्र० १ ० ५ ०१ | रित्यनान्तरम् । स एव जयमश्लोकभयम् । अकीर्तिभये, यथा उ० । प्रा० चू०। केनचिहानादिना श्लाघोपार्जिता,पश्चादपि तद्विनाशभीत्या उकाअसिप्पजीवि ( ए )-अशिल्पजीविन्-पुं० । न शिल्पजीवी म एव दानादौ प्रवर्तत इति । दर्श० । एवं हि क्रियमाणे अशिल्पजीवी । चित्रकरणादिविज्ञानेनाऽऽजीविकामकुर्वति, | महदयशो भवतीति तद्भयान प्रवत्ति इति । स्था. ७ उत्त०१५ अ०। "असिप्पजीवे अगिहे अमेत्ते" उत्त०१५ ।। चा आव० । स्थाः । २१३ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव सिव शिव-देवताकृपये ०२ श्रोघः । व्यन्तरकृते व्यसने, आव० ४ श्र० । नि० चू० I - ( ८५० ) अभिधानराजेन्द्रः । मारौ, व्य० ४ ० । 66 यसवण- असिनाकारवने प्र०१ आखद्वार सिप्पनमणी-अमिनी-स्त्री० कृष्णासुदेवस्य मेयम्, सा तत्थ तालिज्जर जत्थ बम्मासे सव्वरोगा पसमंति जो तं सदं सुणति । " वृ० १ उ० । असिवान प्रशिवादिक्षेत्र १० । अशिवादिप्रधानक्षेत्रे, " विगिचियत्र्यमसिवाइखेत्तं च । " दश० १ ० । असिवावा- अशिवापन न० विनाशप्राप्ती व्य०७४० । असह-अशिख पुं० [प शिरसो एकमात्रं कारयति न रजोहरणद एककपात्रादिकं धारयति - तस्मिन् गृहस्थभेदे, व्य० ४ उ० । [विज्ञन्यूनतसंख्यायाम् प्रा० २ असी अशीतिस्त्री० पद । तं । असीभरक असीभरक- पुंग सीभरो नाम उपन् परं झाल यासिताः प्रकृतत्वात्वार्थिकप्रत्ययवि धानद सीनरकः । लाल्या परमसिञ्चति, व्य० ३ उ० । असीलया अशीलता स्त्री चारित्रवर्जित्वे, प्रश्न० २ श्र० द्वार | असलमंत अशीलवतु- वि० सावद्ययोगाविरते, अविरतमात्रे च । सूत्र० १ ० ७ ० ॥ अनु अत० प्रयुचे उत्त० २० असुश्रागर-अस्त्राकृति - स्त्री० । न्यग्रोधपरिमण्डलादिषु श्रप्रशस्त संस्थानेषु कर्म० ५ कर्म० । अस अशुचि वि० न० त०] अपचित्रे, प्रा० म०प्र० प्रा० ॥ अस्पृश्य (०६ पद) आशीयपति श्री विष्ठाऽकछेदप्रधाने, सूत्र०२०२० दशा स्नानादिवर्जितत्वात थाविधे साधौ, भ० श०६ २०| सदाऽविशुद्धे, तं विष्ठायाम्, दश० पिं० । अमेध्ये, स्था०९ वा० । जी० | "जां श्रम्ह किंचि असु भवति तदप व महिआए पक्वाति सुई भ वति, एवं खबु अम्ह चोक्खाचोक्खायारा सुइसुश्समायारामबेता अमिसेअजलपूयप्पासो अभिषेण सगं गमिस्वामो" श्री० रा० ० "असुरविलीयविनयची भच्छादरिसणि" । चिषु विलीनो मनसः कलिमलपरिणामहेतु:, (विगयं इति) विप्रनष्टं तदभिमुखतया प्राणिनां मतं गमने यस्मिन् स तथ वीभत्सया निन्दया दर्शनीयो वीनरसादर्शनीयः। ततो विशेषणसमासः । अशुचिविलीनविगतवी जत्सादर्शनीयः । जी० ३ प्रति० । आहाराचमव्यवहारिणि ५० । तमेवाचियमेदतः प्ररूपयति दब्वे जावे असुई, जावे आहारवंदणादीहिं । कप्पं कुछ अकष्पं, विविहेहिं रागदोसेहि ॥ अशुचिद्विधा द्रव्यतो भावतश्च । तत्र योऽशखिना लिप्तगात्रो यो वा पुरीषमुत्सृज्य पूतौ न निर्लेपयति स व्यतोऽचिः भाषे भावतः पुनरशुचिराहारबन्धनादिभिर्विविधैर्वा रागद्वेौः कल्प्य मकम् करोति । किमुतं भवति-आहारोपधिशय्यादिनिमित्तं व्यसुइतभावणा चन्दनीयादिना वा तोचित याई वा एष स्वग संवन्धी स्वकुलसंबन्धी स्वगणसंबन्धीति रागतः, अथवा-न मामेवन्दतेविरूपं या भाषितवानित्यादि द्वेषतोऽयं खतोपदेशेनाभाव्यमनाभाव्यं करोति, अनानाव्यमप्यभाव्यम्, सोऽव्ययहारी भावतोऽशुचिः । देवमाह o जावे सुई, दम्मी विट्टमादीसेतो न । पाणऽतिवागादीहिं, मावम्मी होर अईयो | निर्द्विधाद्रध्ये भावे च तत्र व्येष्ठादिना प्ि श्रादिशब्दान्मूत्रलेप्यादिपरिग्रहः । नावे प्राणातिपातादिभिभवत्यशुचिः । व्य० ३ उ० । - -- अश्रुति-त्रि शास्त्र िम० ७० ६४० ॥ प्र० । असुइकुणिम- अशुचिकुणिम-न० । अपवित्रमांसे, तं० । असुरनायकम्मकरण-अशुचिजातकर्मकरण जातकर्मणां करणे, भ० १२० ११ ४० रा० नालच्छेदादिकरणे, कल्प० ५ ० । शु असहाय अनुपिस्थान-१० विधाने स्थाने मा० ३ श्र० । विष्ठास्थाने, दर्श० । असुरचनापणा अशुचित्वभावना स्त्री० देहस्याभ्युचित्यप लोचनायाम प० । अशुचित्वनावनाऽपीत्यमरसागमांसमेदोऽस्थि-मज्जाशुकान्त्रवर्चसाम्। अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कृतः १ ॥१॥ नवस्रोतःस्रवस्र - रसनिः स्यन्दपिच्छिले । देrsपि शुचिसंकल्पो, महन्मोहविजृम्नितम् ॥२॥ नवज्यो नेत्र २ श्रोत्र २ नासा २ मुख १ पायूपस्थेच्यः १ स्रोतेभ्यो निर्गमद्वारेभ्यः सन् मिरा तस्य निस्वदो नियनले विधिले शेषं सुगमम् । ६०३ अधि अधाशुचितावना " लवणाकरे पदार्थाः पतिता लवणं यथा भवन्तीह । काये तथा मल्लाः स्यु-स्तदसावद्युचिः सदा कायः ॥ १ ॥ कायः शोणितक्रमीलनभवो गर्भे जरावेष्टितो, मात्राऽऽस्वादितखाद्यपेयरसकेकि क्रमात्प्रापितः । क्लिमाः मरुजानपदापास्पदं, कैर्मन्येत सुबुद्धिभिः सूचितया सर्वे संकुलः ।। २ ॥ सुस्वाद शुभगन्धि मोदकदधिकीरेकुशाल्योदनकाकापटिकापुरस्वर्गच्युताऽऽप्रादिकम्। मुत्सद्व यत्र मला सर्वत कार्य सकलाशिमिदो! मोहान्धता मन्यते ॥ ३ ॥ अम्माकुम्भ कियत्कालं लग्नयथोत्तमं परिमलं कस्तूरिकाद्यैस्तथा। विष्ठा कोकमेतदङ्गकमहो ! मध्ये तु शौचं कथंकारं नेष्यथग्ध कथंकारं तासीरजम १ ॥४॥ दिव्यामोडियासितदिशः श्रीखण्डकस्तूरिकाकर्पूरारुप्रभृतयो भाषा यदाक्षेषतः। दोध्यं दत न मचाते सोऽप्यो ! Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुइत्तभावणा देहः केन ने नियत ॥ ५ ॥ इत्याशौचं शरीरस्य, विभाव्य परमार्थतः । ( ८५१ ) अभिधान राजेन्यः | । सुमतिर्ममतां तत्र न कुर्वीत कदाचन || ६ || प्रब० ६७ द्वार | प्रसुबिन - अशुचिविल- न० । परमाऽपवित्रविवरे, तं० । असुइय - अशुचिक - त्रि० । अपवित्रस्वरूपे, तं० | ० | स्था अमेध्ये मूत्रपुरीषादी, स्था० १० प्रा० अमुइकिलिङ - प्रशुचिसंक्लिष्ट - न० | न० त० | अमेध्येन दुष्टे, भ ६० ३३ उ० । असृसमुप्पा- अशुचिसमुत्पन्न - त्रि० । अपवित्रोत्पन्ने, तं । प्रसुइसामंत - अशुचि सामन्त न० । श्रमेध्यानां मूत्रपुरीषादीनां समीपे, स्था० १० वा० । असुखगइ - असुखगति - स्त्री० । श्रप्रशस्तविहायोगतो, कर्म० ५ कर्म० । सुनाइ- असुजाति खी० । एकद्वित्रिचतुरयजातिखणा - - । सु अप्रशस्तगतिषु, कर्म० ५ कर्म० । अनुज्झमाण- अशुध्यतु-वि० अनपद्धति, "असुरक्षमाणे -- । सबसोति पा० १६ वि० नि० ० 33 I । असुद्ध - अशुद्ध- त्रि । सावद्ये, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । श्रवि शुद्धकारिणि, श्र० । वारिधि ०१०८ ० "अपरिणामसंकिलि भति" अशुरूपरिणामेन संक्लिएं संकेश्वरात् तथा भण न्ति । प्रश्न० ९ श्राश्र० द्वार । असुरूजाव - अशुद्धभाव - पुं० । अनन्तानुबन्ध्यादिसङ्गतमातृस्थानरूपे अप्रशस्ताऽध्यवसाये, पञ्चा० १८ चिव० । अमुद्रसभाव--अशुकस्वभाव-पुं० औपाधिके-पनि। तबहिर्भाव परिणमनयोग्ये, व्या० १२ अध्या० । असुभ ( द ) - शुभ- त्रि०/ अशोभने, दर्श० । अशुभरसगन्धस्प | युके, जी प्रति अनकारिस, सू० १०५०१ ० । पापप्रकृतिरूपे कर्मणि, स्था० ४ ० ४ उ० । श्राव० पुण्यबन्धे, स्था० ५ ० १ उ० । श्रशर्मणे, दशा०८ श्र० । अशुभ (इ) कम्मबहुल अनकर्मबहुल वि० क्लुप कर्मप्रचुरे, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । (ह) किरियादिरहिय-अशुभ क्रियादिरहित- वि० 'अप्रशस्तकाय चेष्टाप्रभृतिविकले, श्रादिशब्दादनका दुश्मनोयोगविकलतापरिग्रहः । पञ्चा० १३ विव० । - सुन (ह) लमाण - अनाध्यवसान म०क्रिश्प रिणामे, पञ्चा० १६ विव० । असून (६) शाम-अशुभनामन ० नानुवन्ध नामकर्ममे दे उ०३३० यदुद्यान्नानेरधः पादादीनामवयवानामशुभ "ता भवति, तदशुभनाम । प्रादादिना हि स्पृष्टः परो रुष्यतीति ते शुत्वम् । कामिनीव्यवहारेण व्यभिचार इति चेत् । नैवम् । तस्य मोहनिबन्धनत्वात् स्तुतिति इति रातोदोषः । पं० [सं० ३ द्वार । कर्म० श्रशुभनामकर्मणः प्रकृतयो मध्यमभेदविवक्षया चतुस्त्रिंशद्भेदा भवन्ति । तद्यथा-नरकगति १ति गति २ एकेन्द्रिय ३ द्वन्द्रिय ४ त्रीन्द्रिय ॥ चतुरिन्द्रियजाति ६ ऋषभनाराच ७ नाराच अर्द्धनाराच ए कीलिका १० असुरकुमार सेवार्तक संहनानि ११ न्यग्रोधमण्डलसंस्थान १२ सादि १३ वामन १४ कुब्ज १५ हुएडक १६ अप्रशस्तवर्ण १७ अप्रशस्तगन्ध १८ अप्रशस्तरल १६ अप्रशस्तस्पर्श २० नरकानुपूर्वी २२ तिर्यगानुपूर्वी २२ उपघात २३ अप्रशस्तविहायोगति २४ स्था वर २५ सूक्ष्म २६ साधारण २७ अपर्याप्त २८ अस्थिर २८ अशुभ ३० दुभर्ग ३१ दुःस्बर ३२ श्रनादेय ३३ अयशोऽकी प्ति३४ रिति । उत्त०३३ ० प्र० । श्रशुभमनादेयत्यादि । अपूज्ये च कर्मदे, स्था० २ ० ४ ० । असुभ (ह) तरंडुत्तरलप्पाय - अशुभ ( अमुख ) तरण्डो-. चरणमा बि० अशुलमशोभनं कण्टकादियोगदा एव दुखहेतुत्वात् तथ तत् तरपमं च काहादि तेन तर पारगमनं तत्प्रायस्तत्कल्पो यः स तथा । पञ्चा० ६ विव० । फण्टकानुगतशाल्मलीत रडोत रणतुल्ये, "असुरतरंगुत्तरजयाओ दवरथओ समरथो " प्रति । असून (ह) व अशुल न० अमलतायाम - अशुभत्व - । श्रमङ्गलतायाम् भ० ६ 66 श० ३ उ० । । असुभ (ह) दुक्खभागि (ए) - अशुभदुःखभागिन-बि० । अनुवन्धि बद्दुःखं तद्जागिनः प्रश्नः १ भा० द्वार दुःखानुबन्धिदुःखभागिषु भ० ७० ६ ० अनुभ (ह) विभाग अजविपाकन० असातादिनो- । दयवति कर्मणि, स्था० ४ ना० ४ उ० । 3 सुजा (हा ) - अशुना - स्त्री०। न विद्यते शुभो विपाको यासांता शुभाः । पं० सं० ३ द्वार । विपाकदारुणकटुकरसासु पापकर्मप्रकृतिषु पं० सं० ३ द्वार । ( सर्वाश्चैताः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २०२ पृष्ठे वक्ष्यन्ते ) प्रभा (हा खुप्पेहाशुजानुमेका श्री० संसाराऽन त्वानुचिन्तने, भ०२५ श०७ ०| ग० | "कोहोय माणो य अणिगहीया, माया य लोभो य पत्रकुमाणा । चत्तारि पते कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणम्भवस्स” ॥ स्था० ४ ०१ ०। अमुष-अश्रुतनिर्णिते स्था० ८ डा० भा० प्रवचनद्वारेणानुपलब्धे, भ० २ श० ८ ० । अमुषणिस्य अधुत निश्चित १० सर्वधा शास्त्रसंपर तस्य तथातथाविधयोपशमनावत पयमेव यथावस्थितंत्रस्तुसंस्पर्शमतिज्ञानरूपे बुद्धिचतुष्के, नं० ('धमिणि वोडियणाए' शब्दे द्वितीयजागे २५३ पृष्ठेऽस्य व्याख्या वक्ष्यते ) असुर-असुर-पुं० भवनपतिष्यन्तदेव स्था० ३ ० १ ४० पदेकदेशे पदसमुदायोपचारादसुरकुमारे, प्रच० १६४ द्वार | नं० । प्रश्न० भ० औ० आ० म० सूत्र० । स्था० ॥ असुरस्यानोत्पत्रेषु नागकुमारादि ० १ ० १ ० ३ दानवे, अनु० । असुरकुमार-असुरकुमार पुं० । असुराश्च ते नवयौवनतया कुन माराश्चेत्यसुरकुमाराः स्था० १ ठा० १ उ० । नवनपतिनेदेषु, प्रज्ञा० १ पद । स्था० ('गण' शब्दे तदावासाः वच्यन्ते ) नवरमिह - जगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ, नमसचा एवं क्यासी अस्थि भंते ! इमीमे रणपनाए " Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमार - अभिधानराजेन्द्रः। असुरकुमार पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति। णो इण्डेसमढे, सुंजमाणा विहारत्तए, अहणं ताो अच्चरानो नो आएवं. जाव अहे मत्तमाए पुढवीए सोहम्मस्स कप्पस्स अहे। ढायति नो परियाणंति, णो णं पनू ! ते असुरकुमारा देवा जाव । अस्थि-णं भंते सिप्पनाए पूढवीए अमरकुमारा देका ताहि अच्चराहिं सचि दिवाई जोगभोगाई लुंजमारणा परिवसंति?। णो णढे समढे । से कहिं खाणं भंते ! अमु. विहरित्तए । एवं खबु गोयमा! अमुरकुमारा देवा सोहम्म रकुमारा देवा परिवसति ?। गोयमा ! मीसे रयणप्पभाए कप्पं गया य गमिस्सति या केवइकालस्स णं भंते ! असुपुढवीए असीनत्तरजोयणसयसहस्सबाहम्झाए एवं असुरदे. रकुमारा देवा उठं उप्पयति० जाव सोहम्मं कप्पं गया य ववत्तवयाएजाव दिव्वाइं जोगभोगाईनुजमारणा विहरंति। गमिस्संति या गोयमा! अणंताहिं प्रोमप्पिणीहिं अणंअस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए?।। ताहिं अवसाप्पिणी हिं समईकंताहिं अत्यि णं एमनवेलो. हंता अस्यि । केवइयाणं भंते ! अमुरकुमाराणं देवाणं अहे। यच्छेरयनूए समुप्पज्जइ । जपं असुरकुमारा देवा नहुँ उप्पगतिविमए पाने । गोयमा ! जाव अहे मत्तमाए पुढवीए, । यति०, जाव सोहम्मे कप्पे । तचं पुण पुढवि गया य गमिस्सति य । किं पत्तियं णं भंते ! (एवं खनु असुरकुमारेत्यादि) एवमनेन सूत्रक्रमणेति । स चैवम "उरि पगं जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता देहाचेग जोयणसहस्सं असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गया य गमिस्सति य?। गोयमा!| वजेत्ता मज्के अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, पत्थ णं असुरकुपुब्यवेरियस्म वा वेयण उदीरणयाए पुव्वसंगइयस्म वेदण. माराणं देवाण चोसहिं नवणावाससयसहस्सा भवतीति उवमामणयाए एवं खनु असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गया अक्वायमित्यादि । (विउञ्चेमाणा व स्ति) संरम्भेण महक्रियय गमिम्संति य । अन्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं शरीरं कुर्वन्तः। (परियारमाणावत्ति)परिचारयन्तः परकीयदेवीनिरियगतिविमए पामते। हंता अस्थि । केवल्याणं भंते ! नां भोग कर्तुकामा इत्यर्थः । (अहाबहुस्सगाईति ) यथेति यथोचितानि लघुस्वकानि अमहास्वरूपाणि, महतांहि तेषां नेतुं अमुरकुमागणं देवाणं तिरियगाविसए परमत्ते । गोयमा ! गोपयितुं वा शक्यत्वादिति यथाअघुस्वकानि । अथवा-लघूनि जाव असंखेजा दीवसमुदा नंदिस्सरवरं पुण दी ग- महान्ति वरिष्ठानीति च वृक्षाः। (आयाए त्ति) श्रात्मना, स्वयमिया य गमिस्संति य । किं पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा त्यर्थः (पगतं ति) विजनं ( अंतं ति ) देश (से कहमियाण परेति त्ति) अथ किमिदानी रत्नग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमदेवा नंदिस्सरवरं दी गया य गमिस्संति य । गोयमा ! णकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिकाः,रत्नादातृणामिति। (तो से पच्चा जे इमे अरहंता जगवंतो एएसि णं जमणमहेमु वा नि कायं पबहंति ति) ततो रत्नादानात् (पच्छ त्ति) अनक्खमणमहेम वा णाणुप्पायमहिमासु वा परिनिव्वाणमहि. न्तरं ( से त्ति) एषां रत्नादातृणामसुराणां कायं देह प्रव्यथन्ते मासु वा एवं खत्रु अमरकुमारा देवा नंदिस्सरवरं दीवं प्रहारैः प्रघ्नन्ति वैमानिका देवाः, तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्यनान्तर्मुहर्तम्,उत्कृष्टतः षण्मासान् यावत् । न०३ गया य गमिस्संति य । अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं दे. श०२०। वाणं उगविसए । हंता अस्थि । केवश्यं च णं भंते ! किं निस्साए णं जंते असुरकुमारा देवा उर्छ नप्पयंति० असुरकुमारा देवा णं उठं गतिविसए ?। गोयमा! जाव अ- जाव सोहम्मे कप्पे ?। गोयमा से जहा नामए इहं सबराइ वा चुए कप्पे सोहम्मं पुण कप्पं गया य गमिस्मंति य । किं बव्वराइ वा टंकणाइ वा नूचुयाइ वा पएहाया वा पुलिंपत्तियं एं भंते ! अमुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया | दाइ वा एगं महं वणं वा गहुँ वा पुग्गं वा दरिं वा विसमं य गमिस्संति य । गोयमा! तसिं देवाणं जवपञ्चश्यवेरा- वा पम्वयं वा णीसाए सुमहलमवि अस्मवलं वा हस्थिवलं गुवंधे तेणं देवा विकुब्वेमाणा वा परियारेमाणा वा आ- वा जोहवलं वा धणूवनं वा आगिनंति, एवामेव असुरकयरकवे देवे बित्तासेंति, अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय मारा देवा गमत्थ अरहते वा अरहंतचेइयाणि वा अणआयाए एगंतमंतं अवकमंति । अस्थि णं नंते ! तेसिं गारे भावियप्पणो निस्साए नळू उप्पयंति० जाच सोहम्मे देवाणं अहालहुमगारयणाई ?। हंता अस्थि । से कहमि- कप्पे । सो वि य णं भंते ! अमुरकुमारा देवा नळू उप्प. दाणि पकरेंति,नओ से पच्छा कार्य पव्वति । पनू! णं भं- यंति० जाव सोहम्मे कप्पे । गोयमा ! णो इणहे समढे । ते ! तेमि अमुरकुमाग देवा तत्थ गया चेव समाएं ताहिं महिहिया णं असुरकुमारा देवा उर्ल नप्पयंतिम्जाव सोहअच्छेहि सकिं दिवाईजोगजोगाई झुंजमाणा विह- म्मे कप्पे। पित्तए। णो इणट्टे ममद्दे,मेणं तो पमिनियत्तति, पडि- 'सबराइ वा इत्यादौ शबरादयोऽनार्य विशेषाः [गहुंधत्ति गर्ताः, नियत्तिना मागच्छद, इहमागच्छत्ता जपणं ताओ [दुग्ग व ति] जलमुर्गादि, [दरि वत्ति ] दरी पर्वतकन्दरां, विसमं वत्ति] विषम गर्ननर्वाद्याकुलभूमिरूपम्। निस्साए ति] अच्छगो आढायनि परियाणंति। पन!णं भंते ! अमुर निधयाऽऽश्रित्य [धणुवलं व ति] धनुरवलं [आगलेति ति] कुमाग देवा नाहिं अन्नगहि महिं दिवाई भोगभोगाई आकलयन्ति-जेण्याम इत्यध्यवस्यन्तीति । [ नन्नाथ त्ति ] ननु Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५३) असुरकुमार अन्निधानराजेन्डः। असेहिय निश्चितमत्र इहलोके, अथवा (अरिहंतेवा णिस्साए उहुं उ- | अमविर-अस्वापिन-त्रि० । अनिखानी, नि०० १० उ० ॥ प्पयंति ) नान्यत्र-तनिधया अन्यत्र न, तां विनत्यर्थः । न. ३ श०२०। असुसंघयण-असुसंहनन-न । ऋषभनाराचादिषु अप्रशस्तकिंपनियं णं जंते ! असुरकुमारा देवा उलु उप्पयंति. संहननेषु, कर्म कर्म । जाव सोहम्मे कप्पे गोयमा तोस एं देवाणं अहणोवव असुह-असुख-न० । दुःखे, स्था० ३ ० ३ ०। पगाण वाचरिमनबत्थाण वा इमेया रूवे अन्नथिएन्जाव | अमू-प्रसूयिन्-त्रि असूयतीति तच्छीलोऽसूयी असूयधा तोस्ताच्छीलिकणकप्राप्तावपि बाहुलकाद गिन् । अमृयाऽस्त्य. समुप्पज्जइ, अहोणं अम्हेहिं दिन्चा देविकी सका पत्ता स्येति भसूर्य। । मत्वर्थीय इनिः । गुणेषु दोषाऽऽविष्कारिणि, अनिसममागया जारिसियाणं अम्हहिं दिव्या देविठ्ठी| स्था०१७ श्लो०। जाव अभिसमामागया नारिसियाणं सकेणं देविंदणं दे- असइय-असुचित-त्रि० । व्यञ्जनादिरहिते, अकथयित्वा वा वरमा दिन्चा देविनी जाव अजिसममागया, जारिसि-| दत्ते नोजनादौ,दश० ५ ० २२० । याएं सकेणं देविंदेणं० जाव अजिसमामागए तारिसियाणं असून-अमयु-त्रिका मत्सरिणि, 'अहो ! सुरष्टं त्वदसूयुदृष्टम् ' अम्हहिं विजाव अभिसमयागए, तं गच्छामो णं सक्कस्स | इतिपावे न किञ्चिदचारु । असूयुशब्दस्योदन्तम्योदयनाद्यैायदेविंदस्स देवरलो अंतियं पाउब्जयामो पासामो, ताव सक तात्पर्य्यपरिशुद्ध्यादौ मत्सरिणि प्रयोगादिति । स्या०१७ श्लोन स्स देविंदस्स देवरलो दिवं देविहिं जाव अजिसमामा भसूण-प्रशून-त्रि० । अचलवति, सूत्र०१४०७०। गयं पासतु, ताव अम्हहिं वि सकं देविदे देवराया दिव्वं | असूया-अमूचा-' असूया-अमूचा-स्त्री० न० त० परस्य दोषप्रतिषेधेनात्मनदेविठं जाव अजिसमायागयं तं जाणामो, ताव सकस्स दे स्ताहन्दोषभाषणे, "श्रप्पणो दोसं भासति ण परस्स,एसा अ. विदस्स देवरयो दिव्वं देविहिं जाव अभिसमयागयं जा सूया । यथा-" अम्हे मो धणहीणा, शामिपागारम्मि इलिम तुम्भे । एस असुया सूया, णवरं परवन्धुणिद्देसो"॥१॥ निक णओ, ताव अम्हे वि सके देविंदे देवराया दिलं देविहिं चू०१००० । (इत्यादि 'प्रागाढवयण' शब्दे द्वितीयभागे आभिसममागयं । एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा ६२ पृष्ठे वक्ष्यते) उहं उप्पयति० जाव सोहम्मे कप्पे ॥ अस्या-स्त्री० । गुणेषु दोषाविष्करणे, "गुणेष्वस्यां दधतः प. (किंपत्तियं ति) का प्रत्ययो यत्र तत् किंप्रत्ययम । ( अहु रेऽमी, मा शिश्रियन्नाम जवन्तमीशम्।" स्या०३ श्लो। योववझगाणं ति) उत्पन्नमात्राणां (चरिमभवत्थाणं व सि)| असयावयण-असयावचन-न । अकमावचसि, दर्श। भवचरमभागस्थानं, च्यवनावसरे इत्यर्थः। भ. ३१०२ उ०। असरिय-असूर्य-पुं० । न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सोऽसूर्यः । असुरदार-असुरद्वार-न० । सिकायतनानां दक्किणद्वारेषु, यत्रा बनान्धकारे कुम्भीपाकातौ, सर्वस्मिन् वा नरकावासे, "असुरा वसान्त । स्था०४ ठा०२ उ०। |सूरियं नाम महाभितावं, अधंतमं दुप्पतरं महंतं"। सूत्र. १ असुरसुर-असुरसुर-त्रि० । सुरसुरेत्यनुकरणशब्दोऽयम् । न०] शु०५ १०१ उ० । ७श०१० । नम्ब० । सुरसुरेत्येवंचूतशणवर्जिते. प्रश्न असबवाय-प्रसूपपाद-त्रि०ा दुर्घटे, " अतोऽन्यथा सत्त्वमसप१ संव. द्वार। पादम।" स्या०२२ श्लो०। असुरिंद-असुरेन्छ-पुं० । चमरे, बलिनि च । स० । ('द' शब्द | असेज्जायर-अशय्यातर-पुं० । वसतित्यागादिदेतुभिः शय्या. द्वितीयत्नागे ५३४ पृष्ठेऽस्य व्याख्याऽवसेया) तरत्वेनाव्यवहाय्ये वसतिदातरि, नि० २००। (तत्कारप्रायप्पवायस्स णं पुवस्स सोसस वत्थू परमत्ता। चमर णानि 'सागारियपिंड' शब्दे धक्ष्यन्ते) बलीणं उवारियालेण सोलस जोयणसहस्साई माया असेय-अश्रेयम्-न । अकल्याणे, अष्ट० ३२ अष्ट० । मविक्खंभेणं पामता। असेलेसिपमिवन्नग-अशैलेशीप्रतिपन्नक-पुं० । शैलेशीना माऽयोग्यवस्था, तां प्रतिपन्नाः शैलेशीप्रतिपन्नाः । स्वार्थिक चमरवल्योर्दक्षिणोत्तरयोरसुरकुमारराजयोः ( सवारियालेण त्ति) चमरचश्चावीचञ्चाऽभिधानराजधान्योर्मध्यान्त्रता कप्रत्ययः । तद्व्यतिरिक्ताः अशैलेशीप्रतिपन्नकाः । अयोग्यऽवतरपार्श्वपीरूपेऽवतारिकल्पने षोडश योजनसहस्राण्या वस्थामनापन्ने सयोगिनि संसारिणि, प्रशा० २३ पद । यामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्तयोरिति । स०१६ सम० । असेस-अशेष-त्रि० । शेषरहिते कृत्स्ने, सूत्र० २ श्रु०५०। असुरिंदवजिय-असुरेन्डवर्जित-त्रि०। चमरवासिवर्जिते, न सकने,पञ्चा० १५ विवासर्वस्मिन् ,पञ्चा० १० विवआचा। १४ श० एन० । अष्ट। असेससत्तहिय-अशेपसत्त्वहित न० । समस्तप्राण्युपकारके, असुलन-असुलभ-त्रि०। उर्लने, पो०५ विव०। "जिणिवयण असेससत्ताहियं" । पञ्चा० १६ विव० । असुवण-अस्वपन-न० । निजाऽलस्यघाते, वृ० १००। । असेहिय-असैनिक-न० । न० त० । सांसारिके, क्रियासिौ असुवाल-असुवर्ण-त्रि० । न सुवर्णमसुवर्णम् | अप्रशस्तवर्ण-1 अजाते आकस्मिके, सूत्र। गन्धरसस्पर्शेषु, कर्म०५ कर्म० । सुहं वा जइ वा मुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५४) निधानराजेन्द्रः । सेहिय सैद्धिक सिमोस कि यदि वा दुःखम से सांसारिकम् । अथवा सैकिकम सैकिकं च सुखम् । यथा-त्रकूचन्दनानोकिया सीमसैकिम अन्तरमा दरूपमसैकिम तथा सैकिकमसैद्धिकं च दुःखम् । यथा-कशा ताडनानादिक्रिया- सिद्धौ नवं सैखिकमः उरातिशूला दिरूपमहोत्यमसेदिकं १०१०२४० । योग- अशोक पुं० कलीनामक एकाश्चिमेदे श्र० । प्रज्ञा० | कल्प० । स्था । श्रशोकादयः पञ्च वर्णा भवन्ति ततो विशेषणम्" किएहासोपइ वा " रा० । श्राचा० । अनु० । मल्लि जिनश्य चैत्यको शोकः स० । चम्पायां स्वनामा पा नार्थे ० १० कल्प | पूर्व नवे तंतुर्थबलदेवर्ज । वे, स० ति० ॥ चतुःसप्ततितमे महाप्रद्दे, "दो असोगा ।" स्था०२ ग०३ उ० नं०प्र० सू० प्र० । कल्प० । अशोकवनदेवे व जी०३ प्रति० । वीतशोके, त्रि० । वाचः । असोगचंद अशोकचन्द्र पुं० श्रेणिकपुत्रे कूणिके, स च पितुः श्रेणिकस्य पूर्वदेति दास्या अशोकवाटिकायामुज्जित इत्यशो कचन्द्रनामाऽभवत् । श्रा० चू०४ श्र० । आव० । ती०। ( 'कूणिय' शब्दे चैतद् दर्शयिष्यते ) " राया तप असोगचंदर साि नगरिं गहेत्थि " प्रा० म० प्र० । श्रा० चू० । ('पारिणामिया' कूलया लुक ' शब्दयोश्वोदाहरिष्यते ) असोगजक्ख- अशोकय पुं० विजयपुरे नगरे नन्दनवने उद्या ने स्वनामख्याते यके, विपा० २ श्रु० ३ अ० । असोगत - अशोकदल पुं० साकेतनगरे स्वनामस्याने प स्य समुद्रदत सागरदत्तनामानौ भ्रातरौ दर्श० । असोगराय अशोकराज पुं० । चम्पायां वासुपूज्य जिनेन्द्रपुत्रमयवनुपतिपुत्री लक्ष्मीकिजात रोडिणीनाम्या भ्रातृभगिन्या स्वयंवरे वृते पत्यौ, ती० ३५ कल्प । असोपा अशोकलताश्री० तिर्यकुशाचाप्रसराभावाप्राकृतिक जं० १ ० सोगसग - अशोकावतंसक - न० । सौधर्मादिविमानानां पूर्वस्यां दिश्यवतंसके; रा० । प्रज्ञा० जी० । असोगवण-अशोकवन-२० अशोकाने बने, अनु० अयोगवणिया-प्रशोकवनिकाखी० अशोकाने प्रचने आ० म० द्वि० । 66 असोगवरपायव - अशोकवरपादप-पुं० । श्रत्युत्कृष्टे अशोकवृक्के, ईसि असगवर पायवसमुवट्टिया उ" जी० ३ प्रति० रा० । असोगसिरि-प्रशोकधी ०६० चन्द्रगुप्तस्य पौधे बिन्दुसा पुत्रे, पाटलिपुत्रे नगरे वीरमोकानन्तरं चन्द्र 66 सम्पतिः राजाने उत्तरोत्तरं समृद्धिमा महाराजा अभवन् । कल्प०८ ३० ! चंदगुत्तपत्त उ, बिंदुसा रस्स नतु । असोगसिरिणो पुत्तो, अंघो जाय कागणि " ॥ ८६२ ॥ विशे० । वृ० | नि० चू० । असोगा- अशोका - स्त्री० । धरणनागकुमारेन्द्रसत्कका महाराजस्याऽग्रमहिष्याम, स्था० ४ ठा० १ ३० । श्रीशीतलस्य शासनदेव्याम्, सा च नीलवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाश रुपिया फायुकामपाणिया च प्र०२७ । असोच्चा द्वार | नलिनविजय क्षेत्रपुरी युगले, नक्षिनो विजयश्च अशोका पूः । जं० ४ वक्ष० । ' दो असोगाश्रो ' । स्था० २ ठा० ३ उ० । असोना-अश्रुत्वा धन्य० प्राकृतधर्मानुरागादेव धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाम अथाश्रुत्वा केवलपर्यन्तं लभते न वा ? रायगिट्टे० जाव एवं वयासी- असोचा णं भंते! केवलिस्स वा केवलिसवगस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिवासगस्स या उपासियाए वा तप्पक्खियस्स वा तपस्वि यसraगस्स वा तपक्खियसावियाए वा तप्पक्खियउ - वासगस्म वा तप्पक्खिगडवासियाए वा केवलिपात्तं धम्मं लभेज सक्याए । गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा अत्थगइए केवलिपन्नत्तं धम्मं लजाए, अत्येगइए केवझिप प नो लज्ज सवणयाए । से केलणं भंते ! एवं बुब असोचा पं० जाव नो मनेज्ज सवण्याए १ । गोयमा ! जस्स णं नाणावणिजाणं कम्पार्थ खभवसमे कमे भवड़ से णं असोच्चा केवलिस्स वा० जाव तप्यविस यवासियाए वा केवलिपात्तं धम्मं लभेज्ज सवण्या ए । जस्स णं नाणावरणिजाएं कम्माणं खओवसमे नो कमे जब से णं असोचा केवलिस्सा जाव तपक्खिय जवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो वनेज्ज सवणयाए । से तेण णं गोयमा ! एवं बुच्चइ, तं चैत्र ० जाव नो लभेन सरणयाए । असोचा णं जंते! केवलिस वा० जान तपस्वियवासियाए वा केवलं बोर्डि बुझेच्छा । गो मा ! सोचा णं केवलिस्स वा० जाव प्रत्येगइए केवलं बोर्डिग्ग्मा, अत्येगइए केवलं बोर्डि नो बुज्जेज्जा, से के हो भंते !० जाव नो बुज्जेज्जा ।। गोयमा ! जस्स गं दरिसणावरपिज्जा कम्माणं खओवसमे कमे जवइ, से सोचा केवलिस वा०जाव केवलं वोहिं बुज्जेज्जा, जस्स णं दरिमणावरणिजाएं कम्माणं खओवसमे नो कमेन वइ, सेणं असोच्चा के लिस्स वाण्जाव केवलं बोहि नो बुज्जेज्जा, से तेगडे० जाव नो बुज्जेज्जा । असोच्चा एं जंते ! केवलिस वा० जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केव-. लं मुंगे भावेत्ता आगाराओ अपगारियं पव्वज्जा ? | गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा अरथेग केवलं मुझे नविता आगाराओ अएगारियं पव्वज्जा, अत्येग केवल विना आगाराश्रोणगारियं नो पव्वज्जा से केलट्ठेणं०जात्र नो पव्त्रपज्जा । गोपमा ! अस्मां धम्मंतरायाणं कम्माणं खओसमे कमे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस्म वाण्जाव केवलं मुमे भविता आगाराम अद्यगारियं पयएचा । Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 544 ) अभिधानराजेन्द्रः । सोच्चा जस्स णं धम्मंतरायाणं कम्माणं खओवसमे नो कमे नवर, से एां असोच्चा केवझिस् वा जाव मुंगे भवित्ता० जाव नो पन्चज्जा, से तेणट्टेणं गोयमा ! ० जाव नो पञ्चएज्जा । असोच्ना णं जंने ! केवलिस्स० जाव नवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं श्रवसेज्जा ? । गोयमा ! अत्थे - गइए केवलं वंभचेरवासं श्रवसेज्जा, अत्थेगइए नो प्राव सेज्जा | सेकेट्टे भंते ! एवं बुच्चइ० जात्र नो आवसेज्जा ? । गोयमा ! जस्स एणं चरितावरणिजाएं कम्माणं खओवसमे कमे जवड़ से णं असोचा केवलिस वा० जात्र केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा, जस्स रणं चरितावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कमे नवर, से णं असोच्चा केवलिस्स वा० जाव नो आवसेज्जा, से तेलट्ठे जाव नो आवसेज्जा । असोच्चा पं भंते ! केवलिस वा० जाव केलेणं संजमेणं संजमेज्जा : । गोयमा ! असोचा णं केबसिस्स वा जाव० चत्रासियाए अत्इ केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, प्रत्येगइए केवझेणं संजमेणं नो संजमेज्जा से केण्डेणं० जाव नो संजमज्जा ? । गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिजाणं कम्मा खत्रसमे कमे जवइ, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केलेणं संजमेणं संजमेज्जा, जस्स एणं जयणावर णिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कमे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस वा० जाव नो संजमेज्जा, से तेपणं गोयमा ! - • जाव अत्थेगइए नो संजमेज्जा । असोच्चा णं भंते ! केवलिस वा० जाव वासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरे । गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा० जाव अत्येगइए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, प्रत्येगइए केवलेणं० जान नो संवरेज्जा | से केणट्टें० जाव नो संवरेजा ?। गोयमा ! जस्म णं श्रज्जवसाणावर णिज्जाणं कम्माणं खोत्रसमे कमे भवड़, सेणं असोच्चा केवलिस्स वा० जात्र केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, जस्स एणं अज्झरसाणावर णिज्जाणं क - म्माणं खओवसमे नो कमे जवइ, सेणं असोचा केवलिस्स वा० जाव नो संवरेज्जा, से तेलट्ठेनं० जाव नो संवरेज्जा । सोचा णं भंते! केवलस्स वा० जात्र केवलं आभिणिवोहियनाणं उप्पा मज्जा ? । गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा० जाव उवासियाए वा अत्येगइए केवलं आभिणिवोहियनाणं उपामेज्जा, प्रत्येगइए केवलं आभिनिवोहियनाणं नो उप्पामेजा। से केणद्वेणं० जाव नो उप्पामेज्जा ? । गोयमा ! जस्स विहियनाणावर पिज्जाणं कम्माणं खश्रवसमे कम जवइ से रंग असोच्चा केवलिस्स वा० जाव केवलं आभिणिवोद्दियनाणं नृप्पा मेज्जा, जस्स णं आजिवोहिनाणावरणिजाए कम्माणं खओवसमे नो कमे जवइ, सेणं । असोच्चा असोच्चा केवलिस वा० जात्र केवलं श्रभिरिवोहियनाणं नो नृप्पाज्जा, से नेणट्ठे जाव नो नृप्याकेज्जा । असोच्चा एवं भंते ! केवलिम्स वा० जान केवलं सूचनाएं उ पामेज्जा ? | एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स वत्तव्त्रया भणिया, तदा सुणाणस्स वि भाणियव्वा, नवरं सुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमो भाणियव्वो । एवं चेव केवलं ओहिनाएं जाणियन्त्रं, नवरं ओहिनाणात्ररणिजाणं खओवसमो भारिणयन्त्रो । एवं केवलं मापज्जत्रणाएं उप्पाडेज्जा, नवरं मण्पज्जवनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खोत्रसमं भाणियन्त्रं, असोच्चा णं भंते ! केवलिस वा० जाव तप्पक्खियडवासियाए वा केवलनाणं - पामेज्जा एवं चैत्र नवरं केवलवाणावर खिज्जाणं कम्माएं खए जाणियन्त्रे, सेसं तं चेत्र । से तेपट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० जाव के बनाएं नो उप्पादेज्जा || युद्धदन्तोद्देशक इति उक्तरूपाश्चार्थाः केवलिधर्माज्ज्ञायन्ते, त श्रुत्वाऽपि कोऽपि लभत इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थमाद - (रायगित्यादि ) तत्र च ( सोच्च त्ति ) अश्रुत्वा धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमना कार्य, प्राकृतधर्मानुरागादेवेत्यर्थः ( केवलिस्स वति) केवलिनो जिनस्य । (केवलिसावगस्स प्ति ) केवल्ली येन स्वयमेव पृष्टः श्रुतं वा येन तद्वचनमसौ केवलिश्रावकः, तस्य ( केवलिउवासगस्स व प्ति ) । केवलिन उपासनां विदधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनासौ केचल्युपासकः । (तप्पक्खियस्स सि ) केवलि पाक्तिकस्य स्वयं बुद्धस्य (धम्मं ति ) श्रुतचारित्ररूपम् (बभेज्जत्ति ) प्राप्नुयातू । (सवण्या त्ति ) श्रवणतया श्रवणरूपतया, श्रोतुमित्यर्थः । ( नाणं|वरणिज्जाणं ति ) बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य मतिज्ञानावरणादिभेदेनावग्रहमत्यावरणादिभेदेन च बहुत्वात् । इह च क्षयोपशमग्रहणाद् मत्यावरणाद्येव तद् ग्राह्यं, न तु केवलावरणम्, तत्र कस्यैव भावात, ज्ञानावरणीयस्य क्कयोपशमश्च गिरिसरिदुपलघोलनान्यायेनापि कस्यचित्स्यात्, तत्सद्भावे चाश्रुत्वाऽपि धर्म लभेत, श्रोतुं कयोपशमस्यैव तल्लाभेऽन्तरङ्गकारणत्वादिति । ( केवलं बोहिति ) शुद्धं सम्यग्दर्शनं (बुज्जेज्जत्ति ) बुध्येतानुभवेदित्यर्थः। यथा प्रत्येकबुद्ध्यादिरेवमुत्तरत्राप्युदाहर्त्तव्यम् (दरिसणावरणिज्जाणं ति ) । इह दर्शनावरणीयं दर्शनमोहनीयमभिगृह्यते बोधः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् । तल्लानस्य च तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति । ( केवलं मुंगे भवित्ता आगाराओ अणगारियं ति ) केवलां सम्पूर्णो वाऽनगारतामिति योगः । ( धम्मंतरायाणं ति ) श्र न्तरायो विघ्नः सोऽस्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि धर्मस्य चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि, तेषां वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदानामित्यर्थः । ( चरितावणिज्जाणं ति ) इह वेदलकणानि चारित्रावरणीयानि विशेषतो प्राह्याणि मैथुनविरातलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात् । (केवलेणं संजमेणं संजमेज्जत्ति ) इह संयमः प्रतिपन्नचरित्रस्य तदतिचारपरिहाराय यतनाविशेषः । ( जयणावर णिज्जाणं ति ) इह तु यतनावरणी - Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । असोच्चा यानि चारित्रविशेषविषयवीर्यन्त रायलक्षणनि मन्तव्यानि । (अवसाणावरणिजाणं ति) संवरशब्देन श्रुताध्यवसायवृत्तेविवक्षितत्वात्तस्याश्च जावचारित्ररूपत्वेन तदाचरणक्कयोपशमसभ्यत्वादध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीयान्यु कानीति । पूर्वोक्तानेवार्थान् पुनः समुदायेनाहअसोचा णं ते! केवन्झिस्स वा० जाव तप्पक्खियनवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सत्रणयाए, केवलं बोहिं बुज्ज्जा, केवलं मुंगे भवित्ता आगाराओ अणगारयं पव्वज्जा, केवलं वंनचेरं वामं आवसेज्जा, केवले संजमेणं संजमेज्जा, केवझेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलं प्राभिणिवाहियनाणं उप्पामेज्जा ०जात्र केवनं मणपज्जवनाणं उप्पामेजा जाय केवलनाएं उप्पाडेज्जा ? । गोयमा ! - साच्चाएं केवलिस वा० जाव जवासियाए वा श्रत्येगइए केपिन्नत्तं धम्मं भेज्ज सवणयाए, प्रत्येगइए केवलिपउन्नत्तं धम्मं नो लजेज्ज सवण्याए, अत्येगइए केवनं बाहि बुज्ज्जा, अगए केवलं बोहिं नो वुज्जेजा, प्रत्येगइए केवलं मुंडे जवित्ता आगारा अणगारियं पव्नएज्जा, अगए जाव नो पव्वज्जा, प्रत्येगइए केत्र - सं वंज चेरवास आवमेज्जा, अत्थेगइए केवलं० जाव नो आवसेज्जा, अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, प्रत्येगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा, एवं संवरोग व अत्थेगइए केवलं जिवोहियनाणं उप्पामेज्जा, प्रत्येगइए० जाव नो उप्पामेज्जा, एवं० जाव मद्यपज्जवनाएं प्रत्येगइए केवलनाणं उप्पा मेज्जा, अस्थगइए केवल नाणं नो उप्पामेज्जा | से केलट्ठेणं नंते ! I एवं बुच्चइ असोचा णं तं चेत्र जात्र प्रत्येगइए केत्र - नाणं नो उप्पामेज्जा ?। गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जाएं कम्माणं खओवसमे नो कडे जवई, जस्स एणं दंसणावराणीजाणं कम्माणं खओवसमे नो कमे जव, जस्स एणं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ, एवं चरितावरणिज्जाणं जयणावर णिज्जाणं अछत्रसाणावरणि जाणं आभिणिवोहियनाणावरणिज्जाएं ० जाव मणपज्जवनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कमे नवर, जस्स णं केवल नाणावर पिज्जाणं० जाव खए नो कमे जवई, सेणं असोच्चा केवलिस्स वा० जाव केवक्षिपन्नत्तं धम्मं नो अभेज्ज सवणयाए, केवलं वोहि नो बुज्छेज्जा० जाव केवलनाएं नो नृप्पामेज्जा, जस्स णं नाणावराजाणं खओवसमे कमे जवड़, जस्स एणं दरिसणावरणिजाणं खओवसमे कमे नवर, जस्म णं धम्मंतरायाणं एवं जात्र जस्म णं केवल नाणावर शिज्जाणं कम्माणं खए कमे नवर, सेणं असोच्चा केवलिस्स वा० जाव केव For Private यसोच्चा क्षिपन्नत्तं धम्मं लभेज्ज सत्रणयाए, केवलं बोहिं बुज्जेज्ना केवलनाणं उप्पामेज्जा ॥ ( असोच्च्चा णं नंते ! इत्यादि ) अथाश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यथा केवलज्ञानमुत्पादयेत् तथा दर्शयितुमाहतस्स णं जंते ! बर्फ बट्टणं अनिक्खित्तेणं तत्रोकम्पेणं बहाओ परिज्जिय परिज्जिय सुराभिमुद्दस्स आया मी आयमाणस्म पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पग पयणुकोहमाणमायालो भयाए मिउमद्दव संपन्नयाए - atmere rarre faणीययाए अन्नया कयाइ सुभेणं अज्जवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं साहिं विद्युज्जमाली हिं विसुज्ऊमाणीहिं अलीयाए तयावरणिज्जाणं कम्माणं खोस मेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करमाएस्स विनंगे नाम ना समुपज्जर, से णं तेणं विनंगनाणसमुप्पनेणं जहनेणं गुन्नस्स असंखेज्जइजागं उक्कोसणं असंखेज्जाई जोयणसहस्सा जाणए पासइ, से णं तेलं विनंगनाणं समुत्पन्ने जीवे वि जाएइ, जीवे वि जाखड़, पासत्ये सारं सपरिग्गहे संकिलस्समाणे वि जाणइ, विसुज्ऊमाणे वि जाणइ, से णं पुन्त्रामेव सम्मत्तं पडिवज्जर, समणधम्मं रोएर २ चरितं परिवज्जइ, लिंगं पडिवज्जर, तस्स एणं तेहिं मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेोहं सम्मदंसणपज्जवेहि वमाहिं, से विनंगे अन्नाऐ सम्मत्तपारंगहिए खिप्पामेव ही परावत्तइ ॥ ( तस्स ति ) योऽश्रुखैव केवलज्ञानमुत्पादयेत तस्य कस्यापि" बटुं बणमित्यादि " च यक्तम्, तत्प्रायः षष्ठतपचरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गज्ञानविशेष उत्पद्यत इति शापनार्थमिति । ( पगिज्भिय त्ति ) प्रगृह्य, धृत्वेत्यर्थः । "पगइभद्दयाए " इत्यादीनि तु प्राग्वत् । ( तयावरणिजाणं नि ) वि. नङ्गज्ञानावरणीयानां ( ईहापोहममाण गवेसणं करेमाणस्स ति) इहेहा सदर्थाभिमुखा ज्ञानचेष्टा, अपोदस्तु विपक्कनिरासो, मार्गणं वाऽन्वयधर्मालोचनं, गवेषणं तु व्यतिरेकधर्माल्लोष - नमिति ( सेसं ति ) असौ बालतपस्वी ( जीवे वि जाणइति ) कथञ्चिदेव न तु साक्षादू, मूर्त्तगोचरत्वात्तस्य । ( पासंडत्थे ति) व्रतस्थान् (सारंभसपरिगहे त्ति ) सारम्भान् सपरिग्रहान्सतः । विविधान् जानातीत्याह - ( संकि लिस्समाणे वि जाणए त्ति ) महत्या संक्रियमानतया संक्लिश्यमानानपि जानाति (विसुज्झमाणे वि जाणइति ) अल्पीयस्या विशुद्धयमानतया विशुद्धयमानानपि जानाति, श्रारम्भादिमतामेवस्वरूपत्वात् । (सेणं ति) सौ विभङ्गज्ञानी जीवाजी वस्वरूपपाखरामस्थसंक्लिश्यमानतादिज्ञापकः सन् (पुवामेव त्ति ) चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वमेव, ( सम्मत्तत्ति) सम्यग्भावं ( समणधम्मं ति ) साधुध ( रोए - १त्ति) श्ररूत्ते चिकीर्षति वा । (श्रीपरावत्तशत्ति) अवधिभवतीत्यर्थः । इह च यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिमादावनिधाय सम्यक्त्वं परिग्रहीतं, विनङ्गज्ञानमवधिर्भवतीति पश्चादुक्तं, तथापि चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्व सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव विभ Personal Use Only Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५७ ) अभिधानराजेन्द्रः । असोचा ङ्गज्ञानस्याधिभावो इष्टव्यः सम्यक्त्वचारित्रभावे विभङ्गज्ञानस्यानावादिति । अनमेव लेश्यादिनिर्निरूपयशाह भंते! कलेस्सासु होज्जा ? । गोयेमा ! तिसु त्रिसुलेस्सा होज्जा । तं जहा - तेउलेस्साए पम्ट्लेस्साए सुकलेस्साए । से णं जंते ! कइसु नाणेसु होजा ? । गोयमा ! ति आभिणिवोहियना सुयनाश्चद्दिनाणेसु होजा से भंते! किं जोगी होजा, अजोगी होजा ? | गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा । जदि सजोगी होज्जा, किं मण जोगी होज्जा, वह जोगी कायजोगी चा होज्जा ? | गोगमा ! मरणजोगी होज्जा, बड़जोगी होजा, कायजोगी वा होज्जा | से णं जंते ! किं सागारोवनते होज्जा, अणागावते वा होजा ? । गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणगारोवेत्ते वा होज्जा । से णं जंते ! करसिंघणे होज्जा ? । गोयमा ! वोमहनाराय संघय होज्जा से णं भंते! कयरम्मि संत्राणे होज्जा ?। गोयमा ! छहं संगणा अपरे संत्राणे होना । से णं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होज्जा ? । जहभेयं सचरणीए उक्को - से पंचधसइए होज्जा से णं जंसे ! कयरम्पि ए होज्जा ।। गोयमा ! जहां साइरेगडवासाउए उक्कोसेणं पुत्रको मिश्राए होज्जा । से णं भंते ! किं सवेदए होज्जा, अवेदए होज्जा ? । गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो - वेदर होज्जा । जइ सवेदर होज्जा, किं इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेद होज्जा, पुरिमनपुंसगवेदए होज्जा, नपुंसवेद होज्जा ? । गोयमा ! नो इस्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेद वा होज्जा, नो नपुसगवेदए होज्जा, पुरिनपुंसगवेदए वा होज्जा | सेणं जंते ! किं सकसाई होज्जा, अक्साई होज्जा । गोयमा सिकाई होज्जा, नो अक्साई होज्जा ?। जर सकसाई दोज्जा से गं अंते ! कसु कसाएस होज्जा !! गोमा ! च संजनको हमाणमायालोजेसु होज्जा । तस्स vidhar अबसाना पत्ता ? । गोयमा ! असंखेज्जा प्रज्जव सारणा पत्ता । ते णं भंते! किं पसत्या, अप्पसत्या ? | गोमा ! सत्या, नोपसत्या । से णं नंते ! तेहिं पसत्येहिं अज्जवसाणेहिं वचमाणेहिं भणतेहिं नेरइयजवरगहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोए, प्रणतेहि तिरिक्खजोलिय० जाव विसंजोएइ, प्रांतेदिं मणुस्सभवग्गहणेहिंतो अप्पा विसंजोएइ, अणंतेहिं देवजवग्ग होहिं अप्पाणं विसंजोएइ, जाओविय से इमाओ नेरइयतिरिक्खजो नियम णुस्सदेवगइनामाओ चत्तारि उत्तरप्पगमीओ य, तासि च णं उवग्गहिए अनंता बंधी कोहमाणमायालोभं खनेइ, खवड़ेत्ता अपञ्चक्रखाएकसाएकोमाणमायालोने खवेइ, खवेइत्ता पचक्खाणा २१५ For Private असोचा वर कोमामायालाभे खवेड, खवेत्ता मंजलो कोहमाणमायाओ ने खत्रे, खवेइत्ता पंचविहं नाव जिं नवविहं दरिसरणावर णिज्जं पंचविदं अंतगइयं तालमन्याकडं चणं मोहणिज्जं कट्टु कम्मरयविकिकरं अपुच्चकर परिसते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कास पमिपुणे के अवरना दसणे समुप्पज्जइ । [[सें भंते! इत्यादि]] तत्र [सेणं ति] स यो विभङ्गानी भूत्वा ऽवधिज्ञानं चारित्रं च प्रतिपन्नः। [तिसु बिसुद्ध लेखासु होज ति] यतो भाव लेश्यासु प्रशस्तास्वव सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते, नावि शुद्धास्थिति। [तिसु आभिणिघोहियेत्यादि ] सम्यक्यमतिभुतावधिज्ञानानां विभङ्गविनिवर्तनकाले तस्य युगपद्भावादाये ज्ञानत्रय एवासौ तदा वसंत इति । [ णो जोगी होज्जत्ति] अवधिज्ञानकाले अयोगित्वस्याभावात् । 'मणजोगी' इत्यादि च एकतर यो प्रधान्यापेकयाश्वगन्तव्यम्॥ [सागारोवनत्ते वेत्यादि ] तस्य हि विभङ्गशानान्निवर्त्तमानस्योपयोगद्वयेऽपि वर्त्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिरस्तीति । ननु- "सच्चाश्रो लकीश्रो सागाव गोवस्त्र भवति" इत्यागमादनाकारोपयोगे सtयत्वावधिब्धिविरोधः । नैवम् । प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात्तस्यागमस्यावस्थित परिणामापेक्षया चानाकापियोगेऽपि लब्धिलाजस्य सम्भवादिति । [श्रो सहनारायसंघयणे होज्ज ति ] प्राप्तव्य केवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथमसंहमन एक नवतीति । एवमुत्तरत्रापीति । [सवेयर होज्ज ति] विज स्याबधिज्ञाव काले न वेदक्कयोऽस्तीत्यसौ संवेद एव । [नो इत्थिare होज्ज ति] स्त्रिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वनावत एवाभावात्। [पुरिसनपुंगवे व ति] बद्धितकत्वादित्वेन नपुंसकः पुरुषनपुंसकः। [सकसाई डोज्ज ति] विभङ्गावधिकाले कषायक्कयस्याभावात् । [ चउसु संजनणकोहमाणमायालोने दोज्ज प्ति ] स ावधिज्ञानता परिणतविभङ्गङ्गानश्चरणं प्रतिपन्न रक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात, संज्वलना एव क्रोधादयो भवन्तीति [पसत्य त्ति] विभङ्गस्यावधिजावो हि नाप्रशस्ताध्यघसानस्य भवतीत्यत उक्तम्- प्रशस्तान्यध्यवसायस्थानानीति । [ अणतेहिं ति ] अनन्तैरनन्तानागतकालभाविभिः । [ विसंजोइ ति ] विसंयोजयति, तत्प्राप्तियोग्यताऽपनोदादिति । ( जाओ वियत्ति ) या अपि च । ( नेरश्यतिरिक्त्रजोशियमस्सदेवगतिनामाश्रां ति ) एतदभिधानाः । ( उत्तरपयडीओ यप्ति ) नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृतेरुत्तर भेदभूताः । ( तासि च णं ति ) तासां च नैरयिकगत्याद्युत्तरप्रकृतीनां शब्दादन्यासां च ( उवगाहिए त्ति ) श्रपग्राहकान् उपष्टम्नप्रयोजनान् अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् कपयति । तथा प्रत्याख्यानादींश्च तथाविधानेत्र क्षपयतीति । (पंचविहं नाणावर णिज्जं ति) मतिज्ञानावरणादिभेदान् (नवविहं दरि सणावरणिजं ति ) चतुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कस्य, निद्रापञ्चक स्य च मीलनानविधत्वमस्य । ( पंचविहमंतराश्यं ति ) दानलानभोगोपभोगी विशेषितत्वात् पञ्चविधत्वमन्तरायस्य, तत्वपयतीति संबन्धः । किं कृत्वेत्यत श्राह ( ताल मत्थाकमंच मोहणिज्जं कट्टत्ति) मस्तकं मस्तकसूची कृत्तं छिन्नं यस्यासौ मस्तककृत्तस्तालश्चासौ मस्तकृत्तश्च तास मस्तकवृत्तः बान्दसत्वाच्चैवं निदेशः । तानमस्तकतय यत्तनालमस्तक कृत्तम. श्रयमर्थः- छिन्नमस्तकता कल्पं च मोहनीयं कृत्वा । यथाहि विन्नमस्तकस्तालः Personal Use Only Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५७) असोचा अभिधानराजेन्द्रः । असोच्चा कीणो भवति, एवं मोहनीयं च कृत्वा कोणकृत्वेति भावः । इदं ति] एकव्याकरणादेकोत्तरादित्यर्थः। [पन्यावेज वत्ति] प्रव्राजचोक्तमोदनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति । अथ कस्मादनन्ता. येद् रजोहरणादिजव्यलिङ्गदानतः। [मुंडावेज वत्ति मुगडयेत् नुबन्ध्यादिस्नभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि कृपयत्ये- शिरोमुञ्चनतः [उवएस पुण करेज त्ति अमुप्य पाश्वे प्रव्रजत्या. येत्यत श्राह-(तालमत्थेत्यादि ) तालमस्तकस्येव कृतं क्रिया दिकमुपदशं कुर्यात् । " सहावईत्यादि" शब्दापातिप्रनृतयो यस्य तत्तालमस्तककृतं. तदेवविधं च मोहनीयम् । (कह त्ति) यथाक्रम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यभिप्रायण हैमवतहरिवर्परम्यकैरएयइतिशब्दस्यह गम्यमानत्वात्. निकृत्वा इति हेतोः, तत्र कपिते वतेषु, केत्रसमासानिप्रायेण तु हैमवतैरएयवतहरिवर्षरम्यकेषु कानावरणीयादि कपयत्येवेति, तालमस्तकमोहनीययोश्व क्रि- जवन्ति, तेषु च तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसंपन्नस्य तत्र ग. यासाधम्यमेव । यथा-तासमस्तकविनाशक्रियाऽवश्यनावितान- तस्य केवबज्ञानोत्पादसद्भावे सति [साहरणं पडुच्च ति] देवेन विनाशा, पवं मोहनीयकर्मविनाशकियाऽप्यवश्यभाविशेषक- नयनं प्रतीत्य [ सोमणमवणे ति] सौमनसवनं मेरौ तृतीय मर्मविनाशति । श्राह च-" मस्तकसूचिविनाशे. तालस्य यथा [पंडगवणे ति] मेरौ चतुर्थ (गट्टए वत्ति) गर्ने निम्ने भूनागे ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत्कर्मविनाशो-ऽपि मोहनीयक्षयं नित्यम्" अधोलोकग्रामादौ (दरीए व त्ति) तत्रैव निम्नतरप्रदेशे (पा॥१॥ ततश्च कर्मरजोविकिरणकरं तद्विकपकमपूर्वकरणम्-अस- याले वत्ति) महापातालकलशे वक्षयामुखादी (भवणे व त्ति) दृशाध्यवसायविशेषमनुप्रविएस्याऽनन्तम, विषयानन्त्यात्:अनु. नवनवासिदेवनिवासे ( पारससु कम्मभूमीसुत्ति ) पञ्चभरतरं सर्वोत्तमत्वात् निर्व्याघातं कुट्यादिजिर प्रतिहननात, नि- तानि पञ्चैरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवलकणासु कर्माणि रावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात्, कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात, कृषिवाणिज्यादीनि तत्प्रधानभूमया कर्मभूमयस्तासु ( असाद प्रतिपूर्ण सकलस्वांशयुक्ततयोत्पन्नत्वात्, केवनवरझानदर्शनं के इत्यादि) अर्ड तृतीयं येषां तेऽद्धतृतीयाः, ते च ते द्वीपाश्चेति वलमभिधानतो वरझानान्तरापेकया, ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्श- समासः,अतृतीयद्वीपाश्च समुजौ च तत्परिमितावर्द्धतृतीयद्वीनम् । समाहारद्वन्द्वः । ततः केवलादीनां कर्मधारयः । इह च पसमुद्रा,तेषां, सचासौ विवक्षितो देशरूपो भागोऽशोऽईतृकपणाक्रमः "अम्ममिच्छमीससम्म, अटु नपुंसिस्थिवेयकं च । तीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभागः, तत्र । पुमवेयं च खवेई, कोहाईए य मंजसणे" ||२|| इत्यादिग्रन्थान्त- अनन्तरं केवख्यादिवचनाश्रवणे यत्स्यात् तदुक्तम, अथ रप्रतिको नचायमिहाश्रितः, यथा कथञ्चिकपणामात्रस्यैव वि. तच्छुवणे यत्स्यात्तदाहचक्कितत्वादिति । से णं भंते ! केवसिपमत्तं धम्मं आघवेज वा पनवेज सोचाणं ते! केवलिस्स वा० जाव तप्पक्खियउवासियाए वा परवेज वा ?। णो इणढे समढे । नमत्थ एगणाएण वा केवलिपस्मत्तं धम्म लभेज सवणयाए । गोयमा!सोचा वा एगवागरणेण वा। से एं भंते ! पवावेज वा मुंमावेज णं केवनिस्स वा० जाव अत्यंगपए केवलिपमत्तं धम्म वा? नो इणढे समढे, उवदेस पुण करेजा । से णं नंते ! एवं जा चेव असोचाए वत्तव्बया, सा चेव सोचाए विभाकिं सिझ३० जाव अंतं करे ?। हंता सिझ३० जाव करेइ । णियब्वा, नवरं अभिझावो सोच्च त्ति,सेसं तं चेव णिरवसेसं० से णं नंते ! किं नएं होजा, अहे होजा, तिरियं होग्ना? जाव जस्त णं मणपज्जवणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओगोयमा ! उर्छ वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा वसमे कमे भवइ, जस्सरणं केवलणाणावरणिज्जाणं कम्माहोजा, न होजमाणे सहावा वियडावइ गंधावइ मानवं एं खए कमे नवइ, से णं सोच्चा केवलिस्स वा. जाव नवातपरियाएमु वट्टवेयकपचएमु होज्जा, साहरणं पमुच्च सो मियाए वा केवझिपत्तं धम्म लज्ज सवणयाए, केवझं मणसवणे वा पंगवणे वा होज्जा, अहे होज्जमाणे गहुए बोहिं बुज्केज जाव केवझणाणं उप्पामेजा, तस्स अट्ठवा दरीए वा होज्ना, साहरणं पडुच पायाले वा भवणे वा मं अट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं अप्पाणं जावेहोना, तिरियं होजमाणे पायरसमु कम्मजूमीमु होज्जा, माणस्स पगइभद्दयाए तहेव. जाव गवसणं करमाणस्स ओ. साहरणं पमुच अदाइजदीवसमुद्दतदेकं देसभाए होज्जा ।। हिणाणे समुप्पज्जद, से णं तेणं ओहिणाणेणं समुप्पएणेणं ते णं भंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा ? | गोयमा ! | अंगुनस्स असंखेज्जश्भागं उक्कोसेणं असंखेग्जाई अलोए जहोणं एको वा दो वा निसि वा उक्कोसणं दस, से तेण- लोअप्पमाणमेत्ताई खमाइं जाणइ पास।से णं नंते ! क: तुएं गोयमा ! एवं बुचड, असोचाणं केवनिस्स वा जाव इसु लेस्सासु होज्जा ? । गोयमा! छमु लेस्सासु होज्जा । अत्येगइए केवनिपमत्तं धम्मं बभेज सवणयाए, अत्येग- तं जहा-कण्हलेस्साए० जाव सुकनेस्साए । से णं नंते ! इए केवलि• जाव नो लज्ज सवणयाए० जाव अत्थगए | कश्मणाणेसु होज्जा ?। गोयमा! तिमु वा चउसु वा होज्जा, केवानाणं उप्पाडेजा, अत्धेगइए केवलनाणं नो उप्पा मेजा। तिसु होज्जमाणे तिसु आभिणिवोहियणाणमुअणाणो[प्राघवेज त्ति ] आग्राहयेच्छिष्यानर्थापयेद्वा, प्रतिपादनतः हिणाणेसु होज्जा, चउसु होज्जमाणे श्राभिणिवोहियनाणपूजां प्रापयेत् । [पम्मवेज त्ति ] प्रज्ञापये भेदभणनता बोधये- मुअणाणोहिणाणमणपज्जवणाणेसु होज्जा। सेणं नंते ! द्वा । [ परवेज (त्त ] उपपत्तिकथनतः [णऽमास्थपगनापण व त्ति ] न इति योऽयं निषेधः, सोऽन्यत्र एकज्ञानादेकमुदाहरणं किं सजागी होज्जा? एवं, जोगो अोगो संघयणसंगणं वर्जयित्वेन्यर्थः; तथाविधकल्पत्वादस्येति । [एगवागरणे व नच्चत्तं पाउयं च, एयाणि सव्वाणि जद्दा असोच्चाए तहेव Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५६) असोचा अभिधानराजेन्द्रः। अरसमुह भाणियब्याण सेणं नं : किं सवेदए पुच्चा । गोयमा पयन्नाह-[से गं अंते : इत्यादि] नत्र [ से णं नि] सोऽनन्तरोसवेदए वा होजा, अवेदए वा होज्जा । जड अवेदए वा विशेषणोऽधिज्ञान। [दम लेसासु दोन ति] यद्यपि भावहोज्जा, किं नयमतवेदए, खीणवेदए होजा?। गोयमा: सेश्यासु प्रशस्नाम्वेव निमृष्यवधिज्ञानं अभने, तथापि द्रव्यले - उया प्रतीन्य पद स्वपिलेश्याम अमते,सम्यक्वश्रुतवत् । यदादयो उवमतवेदए होज्जा खीणवेदए होज्जा । जइ सवेदए | "सम्मत्तसुयं सब्बासु लनाति" नवाने चामौ पटम्याप जयहोज्जा किं इत्यावेदए होज्जा पुच्चा । गोयमा ! इत्थी- तीत्युच्यत इति। [तिसु व नि] अधिज्ञानम्याऽऽद्यशानद्वयाविवेदए वा होज्जा, पुरिसवेदए वा होज्जा, पुरिसाणपुंस नानूतत्वादधिकृताधिदानी त्रिपु हानेपु भात [च उस या गवेदए वा होज्जा । से णं भंते ! मकसाई होज्जा, अक होज ति मनि श्रुतमनःपयंवझानिनोऽधिज्ञानोत्पसौ नानचनु एयनावाचतुर्पु हानेस्वधिकृतावधिज्ञानी नोंदति [मवेयए थेसाई होज्जा ? । गोयमा ! सकसाई वा होज्जा, अकसाई त्यादि ] अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्ती सवेदकः सन्नधिदा. वा होजा। जइ अकसाई होज्जा, किं नवसंतकसाई | नी भवेत,क्षीणवेवस्य वाऽवधिज्ञानोत्पत्तायवेदकः सन्नयं स्या. होज्जा, खीणकसाई होज्जा | गोयमा ! णो उवसंतकसाई त् [नो वसंतवेयए हो त्ति] उपशान्तवेदोऽयमधिकानी न होज्जा, खीणकसाई होज्जा। जइ सकसाई होज्जा से एं भवति, प्राप्तव्यकेवलज्ञानस्यास्य विवक्षितत्वादिति । [सकसाई घेत्यादि] वः कपायकये सत्यवधि लनतेस सकवायं सन्नवधिभंते ! कसु कसाएसु होज्जा । गोयमा! चउसु वा तिमु ज्ञानी भवेत, यस्तु कपायकयेऽसावकषायीति [च उसु वेन्या. वा दासु वा एक्कम्मि वा होज्जा, चउसु होज्जमाणे चनसु दि] यद्यकीणकपायः सन्नवधि बनते तदाऽयं चारित्रयुकत्वाचसंजलणकोहमाणमायालोनेसु होज्जा, तिस हाजमाणे तुघु संज्वबनकपायघु जवति । यदा तु क्षपकश्रेणिवर्तिन्वेन संतिमु संजनणमाणमायालोलेसु होज्जा, दोसु होजमा ज्वलनक्रोधे वीणेऽवधि लभते, तदा त्रिषु संञ्चतनमानादिषु, यदा तु तथैव संज्वलनक्रोधमानयोः कीणयोस्तदा धयोः, एवमे. णे दोसु संजनाणमायामोनेसु होज्जा, एगम्मि होज कति । भ० एश. ३१ उ० । माणे एगम्मि संजलणझोले होज्जा । तस्स गंजते! के भगवतीनवमशतकोक्तोऽश्रुत्वाकेवनी धर्मोपदेशं दत्ते नवेवश्या अफवसाणा पमत्ता। गोयमा!| असंखेज्जा, एवं त्यत्र एक झानं एक प्रश्नं च मुक्वा धर्मोपदेशं न दत्ते इति जहा असोच्चाए तहेव. जाव केवलणाणं समुपज्जा।। तत्रैवोक्तमस्तीति । ही०२ प्रका० । सेणं ते! केवलिपपत्तं धम्मं आघवेज्ज वा पहा- असाणिय-अशोणित-त्रिका अरुधिरप्राप्ते, पञ्चा०१६ विवा वेज्ज वा परवेज्ज वा। हंता गोयमा प्राघवेज्ज वा पहा असोम्मग्गहचरिय-असौम्यग्रहचरित-न० । कूरग्रहचारे, प्रवेज्ज वा परवेज्ज वा । सेणं नंते ! पवावेज्ज वा मुं भ०२ आश्र द्वार। मावेज्ज वा ? । हंता पव्वावज वा मुंमावेज्ज वा । से णं असोयहया-प्रशोचनता-स्त्री०। शोकानुत्पादने,पा। धानका नंते ! सिज्मइ बुज्झ० जाव अंतं करेइ । तस्स णंनंते ! सिस्सावि सिति जाव अंतं करोति । हंता सिकं असोडिहाण-प्रशोधिस्थान-न । कुशीलसंसाम, ओघः। ति० जाव अंत करेंति । तस्स णं नंते ! पसिस्सा विमि अस्स-अश्व-पुं)। घोटके, दश०१०। तं । प्रक्षा० अश्विनीज्झंति ? । एवं चेव, जाव अंत करेंति । सेणं ते! किं नकत्रदेवतायाम, ज्यो०१५ पाहु० । म०प्र०1"दो अस्सा" स्था०१ ठा०१ उ०। उर्छ होज्जा, अहे वा । जहा असोचाए जाव तदेकदेस अस्व-पुं०। न विद्यते स्वं जव्यमस्य सोऽयमस्वः । निर्ग्रन्थे, भाए होज्जा । से णं जंते ! एगसमएणं केवड्या होज्जा?। गोयमा ! जहमेणं एको वा दो वा तिमि वा, उक्कोसेणं प्राचा०२ श्रु०१ १०१ उ०। अट्ठसयं, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ, सोच्चा णं के अस्सकम-अश्वकर्म-पुं० । अश्वमुखस्य परतोऽन्तीपे, नं०। बलिस्स वा० जाव केवलिनवासियाए वा० जाव अत्थेग-1 अस्सकामी-अश्वकर्णी-स्त्री० । कन्दभेदे, भ०७ श०२ उ० । झ्या केवलणाणं जप्पामेज्जा, प्रत्येगक्ष्या केवलणाणं णो जी० । प्रा० । जप्पामज्जा॥ अस्सकरण-अश्वकरण-न०। यत्राश्वानुद्दिश्य किश्चिक्रियते (सोचाणमित्यादि ) अथ यथैव केवल्यादिवचनाश्रवणावाप्त तस्मिन् स्थाने, प्राचा०२ श्रु० १०अ०। बोध्यादेः केवलज्ञानमुत्पद्यते,न तथैव तच्चूणावाप्तबोध्यादे,कि अस्सचोरेग-अश्वचोरक-घोटकचौरे,प्रश्न०३आश्र द्वार। न्तु प्रकारान्तरणेति दर्शयितुमाह-" तस्स णमित्यादि" [तस्स अस्सतर-अश्वतर-पुं० । एकखुर [खच्चर] भेदे, प्रशा०१ पद । त्तियः श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्यापि,अर्थात्प्रतिपन्न सम्यग्दर्शनचारित्रनिङ्गस्य "अहमं अटुमेणं" इत्यादि च यदु मस्समुह-अश्वमुख-पुं० । आदर्शमुखस्य परतोऽन्तीपे, प्रज्ञा. तं, तत्प्रायो विकृष्टतपश्चरणवतः साधारवधिज्ञानमुत्पद्यत इति १पद । नं0 1 ('अंतरदीव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८ पृष्टे:झापनार्थमिति। [लोयप्पमाणमंत्ताई ति] लोकस्य यत्प्रमाणं मा- स्य वर्णक उक्तः ) एवाकारमुखे पुरुषाकाराऽभ्याङ्केच कित्रा,तदेव परिमाणं येषां तानि तथा। अथैनमेव वेश्यादिनिनिरू- भरे, वाचः । पवावज वा न सणं जंते मोडिहाण-अशा Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६०) अरसमेह अभिधानराजेन्द्रः। अस्साववोहितित्य अस्समेह-अश्वमेध-पु)! अश्वो मध्यते हिंस्यते ऽत्र । मेध-घन । स्संति। तओ निअचेलं बलहिं तानो पउमज्जिया रुठो तुम तेहि यज्ञभेदे वाचा "पद सहस्राणि युज्यन्ते,पशूनां मध्यमे ऽहनि । निऊस्थिरे धम्मसंकरकारयअरहतपासमीहिन विडंविनोसि अश्वमेधस्य वचनादू, न्यूनानि पशुभित्रिभिः" ॥१॥अनु० । त्ति। तो सो सम्बधम्मविमुहो जाओ,परमकिविणो धम्मर. विशे। स्वा० ॥ सि लोअं हंसंतो मायारं तोह तिरित्रानो प्रबंधित्ता भवं भ. अस्ससोग-अश्वसेन-पुं० । पार्श्वनाथस्य जिनस्य पितरि, मिऊण जाओ तुमं गयवाहणं तुरंगमो। तुऊ चेव पमिबोहणत्थं अम्हाण वि मित्थाणगमणं ति।सामिणो वयणं सुच्चा तस्स जायं प्रव०११ द्वार। श्रावक चतुर्दशे महाग्रहे, च०प्र०५० पाहु। जाइस्सरणं । महिमा य सम्मत्तमृलदेसविरई, पञ्चक्खायं म. प्र.। स्था । सचितं फासुनं तेण नीरं च गिराहा, छम्मासे निव्वाहिश्र अस्साउदिष्य-असादोदीर्ण-त्रि०। प्रसादनेन कर्मणोदीरिते, त्ति असो मरिऊण सोहम्मे महिष्टिओ सुरोजानो। सो प्रोहिणा प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । मुणि पुबनवं सामिसमोसरण ठाणे रयणमयं चेश्यमकासी। अस्साएमाण-अस्वादयत-त्रि०। ईषत्स्वादयति इतुखएडादे- तत्थ सुब्वयसामिणो पडिम अप्पारणं च अस्सरूवं गवि गओ रिव यह त्यजति, भ०१२ श० १ उ०। प्राचा। सुरालयं । तो अस्साययोहतित्थं तं पसिरू। सोदेवो जसिअसं. घविग्घहरणेणं तित्थं पनावितो कालेण नरनवे सिभिह। अस्सात-आस्वाद-पुं० । रसनाऽऽद्वादके स्वादे, वृ०१०। कान्तरेण सउलिआविहारुत्ति तंतित्थं पसिर्फ कहं?। हेव ज. अस्सामित्त-अस्वामित्व-न० : निःसङ्गलायाम, पं० २०७द्वार। बुद्दीवे सिंहलदीवे रयणदेसे सिरिपुरनयरे चंदगुप्तोराया। तस्स अस्साववोहितित्थ-अश्वाववोधितीर्थ-म० । स्वनामख्याते चंदखेडा भारिया । तीसे सत्तएहं पुत्ताणं नवीर नरदत्ता देवी प्रागहणणं सुदंसणा नाम धूनाजाया; अहीअसकलविज्जा पत्ता तीर्थ, ती। जुब्वणं । अन्नया अत्थाणे पि उच्छंगरायाए तीसे धणेसरो नाम नमिकण मुब्बयजिणं, परोक्यारिकरसिप्रमसिअरुई। । नेगमो जरुअच्छाप्रो आगतो। विज्जपासहिप्रतियमुनगंधे वाअस्साववोहितित्थ-स्स कप्पमप्पं भणामि अहं ॥१॥ णिए य छीयं । तेण नमो अरईताण' ति पढिसोउं मुच्चिा सा, "सिरिमुणिसुब्बयसामी उप्पन्न केवलो विहरंतो एगयाए कुट्टियो अवाणियओ, पते वेयणाए य जाइसरणमुवगया एइकृपुरानो एगयाए ठाणगरयणिए सहिजोअणाणि संधिश्र पार- सा दट्टण धम्मबंधु त्ति मोइयो।रमा मुच्छाकारणं पुच्चिाप अस्समेहजस जियसत्तुराइया निअसेणा-तुरंगमं सब- तीए भणिश्र-जहाऽहं पुश्वभवे नरुअच्छे नम्मयातीरे कोरिटवलक्खणसंपन्नं होमि मुच्छिश्रो । इमो अहकाणाओ दुग्गरं णे वरूपायवे सनलिआ आसी। पाउसे अ सत्तरत्तं महावुट्ठी जाजाहि ति पडिवाह लामदेसमंडणे नम्मयान अनंकिए भ. या। अहमदिणे हाकिसंता पुरेनमंती अहं बाहस्स घरंगणारुपनयरे कोरिटवणं पत्तो। समवसरणे गया सोभा बंदिवं, भोपामिसं चित्तुं नहीणा, वीसहे निविता य, भणुपयमागराया विगयारूढो पागम्म भगवंतं पणमिमो।इत्यंतरे सो हरी पण वादेण सरेण विका, मुहानो पडिअंपलं, सरंच गिएिहत्ता सिच्याए बिहरंतो नियमपुरिसेहि समं तत्थागो सामिणोर- गओ सोऽवट्ठाणा तत्थ करुण रसंती ब्यत्तणपरिअत्तणपरा दिटा वमप्पडिरूवं पासितो निश्शतो संजाओ। सुभाय धम्मदसणा। एगेण सूरिणा,सित्ता य जलफ्तजलेणं,दिनो पंचनमुक्कारोसद्दतेण नाणिो असो पुबनवो भगवया। जहा पुश्वभवे श्हेव जंतु- हिनो अमए । मरिऊण अहं तुम्ह धना जायं ति । तो साविसहीवे अवरविदेहे पुखमविजए चंपाए नयरीए सुरासिद्धो ना- यविरत्तामहानिबंधेण पिअरे आपुच्छ्यि तेणेव संजत्तिएण स. म राया अहमासि, मज्झपरममित्तं तुम मसारो नाम मंती पहिया वाहणाणं सत्तसपहिं भरुअच्छे, तत्थ पोसयं वहुत्था। अहं नंदणगुरुपायमूझे दिक्वं पडिपाजिय पत्तो पाणय- स्थाणं पोत्रमय दवनिचयाणं, एवं चंदणागरुदारुणं धन्नजलि कणे । तत्थ वसागरोवमा आउं परिपालित्ता तो चुभो हं धणाणं नाणाविदपकनफसाणं, पहरणाणं एवं छसया पोत्राणं तित्थयरो जाभो। तुमं च वज्जिअ नराओ भारहे वासे पउमि- पपासं, सत्यधराणं पष्मासं पाहडाणं, एवं सत्तसयवाहणणिसंडनयरे सागरदत्तो नाम सत्थवाहो अहसि मिच्छदि- जुत्ता पत्ता समुहतीरं । तओ रमा तं वाहणवूह सिंहलेट्री विण।श्रो अ। अनया तुमए कारियं सिवाययणं, तप्प्यण- सरप्रवक्वंदसंकिपा मजिपाए सेखाए पुरक्खोभनिवात्थं च श्रारामो राविभो । भावो अ एगो तस्स चिंताकरणे रणाय गंतुं पाहुडं च हाउं सुदंसणाआगमणेणं विश्नत्तो निनुत्तो, गुरु प्राए से णं सचओ वि किरिमायो सब्वाचं- रामा तेण संजत्तिएण । तो सो पश्चोणीए निम्गो । पाहम तो तुमं कालं गमेसि, जिणधम्मनामपणं सावएणं तुम्भ झाया दाबण पमिश्रो । कन्नाए य वेसमहूसवो अजाओ। दित चे. परमा मित्ती, तेण सम् िएगया गो तुम सासगासे । तेहिं दे. मं, विहिणा बंदिरं पूनं च, तित्थोषवासोभ को, रमा दि. सणंतरे भणियं-"जो कारवर पमिमं, जिणाण अंगुरपब्वमित्त- के पासा पनिआ रायणा य अट्ट वेलाउना अहसया गामाणं म्मि। तिरिनरयगइञ्चारे, तूणं तेणऽग्गला दिया"।१। एनं सोडण अटुसमा वप्पाणं अट्ठसया पुराणं दिएणा, एगदिने अजत्तिय तुमे गिहिमागंतूण कारिया हेममई जिणिदपमिमा, पट्ठाविळण भूमि तुरंगमो चरह, तत्ति पुबदिसाप, जत्ति व हरथी जाच, तिसंऊं पूरउमादत्तो । तं अन्नदिअहे संपत्ते माहमासे लिंगपूर- तत्तिा पच्चिमाप दिपणा । उवरोहेण सव्यं पमिवरणं । अन्नया णपब्वं पाराहेउं तुमं सिवाययणं पत्तो । तो जडाधारीहिं वि तरसेवायरियस्स असे निअपुयभवं पुच्छह जहा-भयवं केण रसं विश्र घयं कुंभीओ उत्तरिश्रोलिंगपरणत्थं । तस्थ लग्गाओ कम्मुणा अहंसउलिआ जाया, कहं न तण वाहेण अहं नियघयपिपीलियाओ, जमिएहि निद्दयं पारहिं मदिजमाणो द- त्तिाआयरिएहि भणिअं-भहे. वेयकुपचए उत्तरसेढीए सुरम्मा ट्रण सिरं धृणित्ता सारि लम्गो तमं । अहो! एपसि ईसणीण नाम नयरी। तत्थ विजाहरिदो संखो नाम राया।तस्स विजयाविनियया । अम्हारिसा गिहिणोवराया कहं जीवदयं पालइ- I भिहाणा तुम धूत्रा श्रा भिदाणा तुमं धूश्रा आसि । अन्नया दाहिणसेखीए महिसगामे Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६१) अस्साववोहितित्थ अभिधानराजेन्मः । ग्रहक्खाय वश्चंतीए तुमए नईतडे कुक्कुडमप्पो दिघो। सोय रोसबसेणं अह-अथ-श्रव्य । आनन्तये, प्रा. चू०४ अ०। सूत्र० । नि) तए सारियो। तत्थ नईए तीरे जिणाययणं दहण वंदिनं भयव चू। दर्शक । अनु० । क०प्र० । उपन्यामे, नं० । वक्तव्याम्लगे. श्रो बिव परमजत्तिपरवसाए तुमए । जाओ परमाणंदो। तो पन्यास, उत्त०३० । अवसानमगलाथे, सुत्रशु० १६ चश्याओ निग्गच्छंतीए तुमए दिट्टा पगा परिस्समखिन्ना अ० । वाक्यापन्यासे, पाना० १०६०२० सूत्र उपसाहुणी। तीए पाए वंदिता धम्मघोहिया अज्जाए तुम। तुमए प्रदर्शने, याचा १० अ०१० । उत्त०। पक्षान्तरद्योतने, वि तीसे बिस्सामणाईहि सुस्सृसा कया, चिरं गिदमागया। का- नक ५ श०६उ० । विकल्पे, जी०१ प्रति० । विशेषे, लेण कालधम्म पवमा भट्टज्माणपराया कोरंटयवणे सउणी स्था० ७ ० । प्रक्रिया दिध्यर्थेषु, यत उनम-अथ प्रक्रिया जाया तुमं । सो अकुक्कासप्पो मरिकरण वादो संजाभो। तेण पुब्व- प्रश्नानन्तर्य्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु । वृ० १ उ० । रेण समणीभवे तुम वाणेणं पदया। पुब्वभवकयाप जिणभ- जी। आ म० । दश० । अनु० । स्था० । प्र० । त्तीप, गिलाणसुस्साए अ अंते बोहिं पत्तासि तुमं । संपयं वि यथार्थ, पा०म० प्र० । वाक्याला मूत्र० १श्रु: अ० । कुणसु जिणप्पणीनं दाणाइधम्मं ति। एवं गुरुणं चयणं सुश्चा पादपूरणे, पश्चा०६ए विव०। सब्बतं दब्बं सत्सखित्तीप वि वेश। चेप्रस्स उकार करे।चउ अधस-न०। अधस्ताच्छन्दाधे,श्राचा०१९०१ १०५ उ० स्था। सिं च देवकुलयामो पोसहसासा-दाणसाना-प्रज्क्रयणसालाओ कारइ । भमो तं तित्थं पुटवभवनामेणं सउनिमाविहारु ति मृ० प्र० । जीवा० । अधोगतो, "यहोच्छिन्नं" प्रश्न। ३ आश्र। भस्म । अंतो य संलेहणं दब्वभावभेयभिन्नं काउं कयाणसणा द्वार । अधोलोके, स्था०३ ग०४०1 दिग्नेदे, स्था०६मा। सा वासादे सुद्धपंचमीए साणं देवलोग पत्ता । सिरिसुब्वयसा | अई-अहम्-अस्मदः सिना सहाऽहमादेशः। प्रा०।"णे ण मि मिसिद्धिगमणाणंतरं करसेहि लक्जेहिं चुनसीसहस्सेहि च- अम्मि"॥८।३।१०७॥ इत्यादिमूत्रेण अस्मदोऽमा सदाहउसयसत्सरेहिं च वासाणं अपहि धिक्कसाहिय व्व संवच्चरो मादेशः । प्रा० ३ पाद । आत्मनिदेशे, प्रा० म०प्र० । आव० । पयट्टो । जीवंतसुब्वयसामिप्रविक्खाए पुण पगारसलक्खोहि अहंकार-अहङ्कार-पुं० । महोऽहं, नमो मह्यमित्यवमहङ्करणमअठावीसूणपंचणवासहस्सेहिं च वासाणं विकमो भावी । पसा सलाविहारस्स अप्पत्ती। लोअतिस्थाणि अणेगाणि हस्कारः । निजगुणेषु बहुमाने, विशे०। ऐश्वर्य जात्यादिमदज. भरुअरचे बटुंनि । कमेण उदयपुग्ने वाहमदेवेण सितुंजय निते अभिमाने, मूत्र०१ श्रु० ए० । सुख्य न मुःखीत्यवपासायकारकारिप, तदणुजेण अंबडेण पुणऽथ सउलिप्रावि मात्मनः प्रत्यये, सूत्र. १ ७० २ ० । प्रा0 मः। हारस्स उद्धारो कारिओ । मिच्चदिहीए सिंधवादेवीए अंब अहमिति स्वस्थानावनोन्मादपरे परभावकरणे कर्तृतारूपे, अष्ट०४ डस्स पासायसिहरे नचंतस्स सवसग्गो की । सो उ अष्ट)। सूत्र। अहं शन्देऽहं स्पर्शऽहं गन्धेऽहं रूपेऽह रसेऽहं स्वानिवारिश्रो विज्जाबलेण सिरिदेमचंदसूरीहिं । "अस्साघमोह मी अहमीश्वरोऽसौ मया हतः, ससत्वोऽमुंडनिध्यामीत्यादिप्रत्यतित्थ-स्स एस कप्पोसमासोरइयो ।सिरिजिणपहसुरीहि,भ. यरूपे, स्या०१५ श्लोअनिमाने, आव०३ मा यत्रान्तःकरणमविपाई पदिज्ज तिकालं" ॥१॥ अश्वावयोधकल्प समाप्तः ॥ हमित्युच्छेखनविषयं वेदयते। द्वा०२० द्वा०। बुद्धिरेवाहङ्कारव्याती० १० कस्प। पारं जनयन्ती अहङ्कार इत्युच्यते । द्वा० ११ द्वा० । भस्सावि (ण)-आस्राविण-त्रिकामा समन्तात् सवति तच्ची- अहक्कम-यथाक्रम-अध्य० । यथापरिपाटि इत्यर्थे,दश ४ मा। ल पानावी । सच्छिद्रे, सूत्र। "जदा अस्साविणि नावं.जाइ | अक्खाय-प्रथा(यथाव्यात-न । अथशब्दो यथार्थ, आइ अंधो दुरूहए।" सूत्र०१श्रु० १ ० २ उ० । अभिविधौ,याधातश्येन, अग्निविधिना च यत् आख्यात(कथितम. अस्सि-अत्रि-पुं०॥ चतुर्दिग्विभागोपलक्षितासु कोटिषु, स्था०६ कषाय चारित्रमिति)तदथाख्यातम् | यथा सर्वस्विन् जीवलोके क्यात प्रसिझमकवायं भवति चारित्रमिति तथैव यत् तद् यठा। थाख्यातं प्रसिकम् । ० म०प्र०। आर्षे यकारलोपः। प्रा. २ अश्विन-पुं० । अश्विन्या देवतायाम, स्था० २ ठा०२ उ०। पाद । अकषाये चारित्रे, प्रा० चू०१० । पश्चा०। पं. अस्सिणी-अश्विनी-स्त्री० । नक्षत्रभेदे, ज० ७ वकः । स्था० । सं० । विशे०। अनु० । अश्विन्या अश्वोदेवता । सू० प्र०१० पाहु । "अस्सि अथ यथाख्यातं विवृगवन्नाहणी नक्स्त्रत्ते तितारे पणते।"स०३ सम । अहसदो जाहत्थे, आलोनिविहीऍ कहियमक्वायं । अस्सेमा-अश्लेषा-स्त्री० । नक्षत्रभेदे, जं० ७ वक० । विशे० । चरणमकमायमुदितं, तमहक्खायं नहक्खायं ॥१७॥ अस्सोकंता-अश्वोत्क्रान्ता-स्त्री० । मध्यमग्रामस्य पञ्चम्यां | अत्थेत्ययं याथातथ्याथें, आइ अनिविधौ, ततश्च याथातथ्यना. मूलनायाम, स्था०७०। निविधिना चाऽऽख्यातं कथितं यदकणयं च चरणं तदयाख्या. तम, यथाख्यातं वा उदितमिति ॥ १२७५ ॥ अस्सोती-आश्वयुजी-स्त्री०। अश्वयुजि भवाऽऽश्वयु जी। प्रइचयुङ्मासनाविन्याममायां, पौर्णमास्यां च । ०प्र०१०पहु। एतच्च कतिविधमित्याहस०प्र० । तं दुविगप्पं छनम-त्थकेवलिविहाणो पुणेकेकं । अस्तवदि-अर्थपति-j०। “स्थर्थयोः स्तः"।। ४।२९१ । इति | खयसमज-सजोगाजो-गिकेवलि विहाणो विह।१२८।। र्यस्य स्तः । “पो वः । ७।१।२३१ । इति पस्य वः । धनिनि, तश्च यथाख्यातचारित्रं उद्मस्य केवलिस्वामिनेदात द्विविधम् । हमप्रा०५ पाद । दुः। स्थसंबन्धि पुनरपिद्विविधम-मोहकयसमुत्थं तदुपशमप्रनय च । २१६ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६२) अहक्खाय अनिधानराजेन्द्रः। अहम्माणि (ण) केवखिसंबभ्यपि सयोग्ययोगिकेवदितो द्विविधमेवेति ।१२८० रुषाणां धमों कानपर्यायलकणस्तस्माद्वा सकाशाऽत्तरः प्रधा विशे० । पशा। उत्त० । प्रा०म० । अनु० । तदपि द्विविध- | नः स एवौत्तरिकः। (अहोवहिप त्ति) नियतकत्रविषयोऽवधिमुपशमककयकश्रेणिभेदात् । शेषं तथैवेति। न. श०३ उ० । | स्तद्रूपं शानदर्शनं प्रतीतमिति ॥ स्था०१० ठा0। अहक्खायसंजम-अथाख्यातसंयम-पुं० । अथशब्दो यथार्थः, | अहमहमितिदप्पिय-अहमहमितिदर्पित-त्रि० । अहमहमित्येवं यथैवाडकषायतयेत्यर्थः। प्रास्यातमनिहितमथास्यातम्। तदेष | दर्पवति, प्रश्न० ३ प्राभलवार। संयमोऽधास्यातसंयमः । अयं च प्रस्थस्योपशान्तमोहस्थ क्षी- अहम्म-अधर्म-पुं०। पापे, सूत्र० १९०१ म०२०।दश। णमोहस्य च स्यात् केवलिना, सयोगस्याऽयोगस्य च स्या सावधानुष्ठाने, दशा०६०। प्रधर्मस्य वर्ण घदति, नि००। दिति । भकपायसंयमे, स्था० ५ ग०२ उ० । कर्म। जे निक्खू भधम्मस्स वसंवदइ, वदंतं वा साइज्ज।११३। अदक्खायसंजय-अयाख्यानसंजत-पुं० । अकरायचारित्रिणि, यह अहम्मो नारहरामायणादि पावसुतं, चरगादियाण या"अहवायसंजए पुच्चा । गोयमा दुविदे पम्मत्ते! तं जहा-उ. जपंचग्गितवादिया वयविसेसा, महवा-पाणादिया मिच्नगदमत्ये य केवधी य"। न. २५ श०७ उ० । सणपज्जवसाणा अद्यारस पावठाणा, पतेसिं वन्न वदतीत्यर्थः। अहटाण-यथास्थान-न० । स्थानमनतिक्रम्येत्यर्थे द्वा०२० एसेव गमो नियमा, वोच्चत्थे होति तं अहम्मे वि। अहत (य)-अहत-त्रिका प्रकते, अन्यथानीते च । चं० प्र० | देसे सने य तहा, पुन्चे अवरम्मि य पदम्मि ॥ ३३ ॥ २ए पाहु । मू० प्र। वोच्चत्यो, विपक्ने वनवायं धदतीत्यर्थः । सेसं कठं । अत्त-अधस्त्व-न० । जघन्यतायाम् , भ० ६ श० ३१०।। शहरह विताव लोए, मिच्छत्तं दिप्पए सहावेणं । अहत्थ-यथास्थ-त्रि० । यथावस्थिते, स्था०५ ग० ३ उ०।। किं पुण जइ उबवूहति, साह अजयाण मज्झम्मि ॥३वा यथार्थ-त्रि० । यथाप्रयोजने, यथान्ये च । “ अहत्थे वा जाये। (इहरह वित्ति) सहावेण प्रदीप्यते प्रज्ज्वलते। किमिति निर्देश, जाणिस्सामि" । स्था०५ ग० ३ उ०। पुनर्विशेषणे। किं विशेषयति?,सुतरां दीप्यते इत्यर्थः। यदीत्यभ्यु पगमे। “मजया अग्गतो उवदति, ताहे थिरतरं तेसि मिच्चत्तं अहत्यच्चिल-अहस्तच्चिन्न-त्रि० । हस्तौ अच्छिन्नौ यस्य स | भवतीत्यर्थः । शेषं पूर्ववत् । नि० चू० ११ १० । धर्मरहिते, तथा । अकृत्तकरे, नि० चू०१४ उ०। विपा० १ ० २ ०। • अहन्यवाय-यथार्थवाद-पुं०। यथाऽवस्थितवस्तुतस्वमस्यापने, अहम्पो -अधर्मतस्-मव्य० । अधर्ममनोकत्येय, प्रभा २ स्या० १ श्लो। माश्र० द्वार। अहत्थाम-पथास्थाम-न । प्राकृतलक्षणेन पकारस्य सोपे फेष अहम्पकेउ-अधर्मकेतु-पुं०। केतुर्ग्रहविशेषः,स श्व यास तथा । बस्वरः । यथावले, नि० ० १ ००। पापप्रधाने, का० १० भ०। अहप्पदाण-यथाप्रधान-अल्य० । प्रधानमनुरुभ्येत्ययें, यो पर हम्मक्खाइ-अधर्मरूयायिन-पुं०ान धर्ममाझ्यातीत्येवं शीलो. प्रधानो जन इत्यर्थः। भ०१५ श.१०। ऽधर्मास्यायो ।अथवा-न धर्मास्यापी प्रधास्यायी। धर्मकथअहम-अधम-त्रि० । जघन्ये, भाव०४०। निन्धे, उत्त० १३ नाशीसे, दशा०६०। अ०। निकृष्टे. "नरेंदजाई श्रदमा नराणं" उत्त०१३ म० । मूत्र । अधर्माख्याति-पुं० । अधर्मादास्यातिर्यस्य स अधर्माच्यातिः। तुझे. स्था० ४ ठा० ४ ० । ( मधमपुरुषाणां मानम 'भंगुन' शन्नेऽत्रैव भागे ४४ पृष्ठे उक्तम् ) पापकर्मतया प्रसिदे, दशा० ६ मा अमंनि-अहमन्तिन-पुं० । महमेव जात्यादिभिरुत्तमतया -1 अहम्मजीवि(ण)-अधर्मजीविन्-पुं० । मधर्मेण जीवति प्राणान् यन्तवत्यभिमानवति, स्था। धारयतीति अधर्मजीवी । अधर्मेण प्राणधारके, दशा० ६ ०। दसहिं गणोहिं अहमंतीति थंलेजा। जहा-जाइपएण| अहम्मट्ठाण-अधर्मस्थान-न०। पापस्थाने, सूत्र. २ भु० २ मात्रयोदशषु क्रियास्थानेषु,सूत्र. २४०१०। धर्मादपेते वा कुलमरण वा. जाव इस्सरियमएण वा नागमुवन्ना वा | स्थाने, सूत्र०२ मु०२०। मे अंनि हव्वमागच्चंति पुरिसधम्माअोवा मे नत्तरिए। रए| अहम्मति(ण)-अधर्मार्थिन-पुं० । अयोऽस्थास्तीत्यर्थी, प्रधअहोवहिए नापदंसणे ममुप्पन्ने । म्मेणार्थी अधमार्थी। अधर्मप्रयोजने,प्राचा० १६०६०४ उ० । (दसहीत्यादि ) स्पष्ट, नवरं (महमंतीति) प्रहम,मन्ती ति। अहम्मदाण-अधर्मदान-नभधर्मपोषकं दानमधर्मदानम् । अन्तो जात्यादिप्रकर्षपर्यन्तोऽस्यास्तीत्यन्ती। प्रहमेव जात्यादि. अधर्मप्रतिपादकत्वाद् वाऽअधर्म एव । चौरादिन्यो दाने, तिरुत्तमतया पर्यन्तवती अथवाऽनुस्वारःप्राकृततयेति । मदम- स्था.१० वा। अतिप्रतिशयवानिति । पवंविधोखेनेन (थंभेज सि) स्तन्नीयात् अहम्मसेवि(ण)-अधर्मसेविन्-पुं०। कलत्रादिनिमित्तषटकायोमनधो भवेत, माद्यदित्यर्थः। यावत्करणात् 'बलमरण रूपमए. ण मुयमपण तवमरण लाभमएण' इति रश्यम् । तथा (नागसु पमईकारिणि, "खुस्स धम्माउ महम्मसेविणो।" दश०१०। वह नि नागकुमाराः मुवर्णकुमाराश्च । वा विकल्पाथें । मे मम अहम्माणि(पा)-अहम्मानिन्-० । महमेव विद्वानिति मानो मन्तिक समीप हवं 'शीघ्रमागचन्तीति । पुरुषाणां प्राकृतपु-| गोऽस्येति अहम्मानी । अहङ्कारिणि, प्रा० म. द्वि० । Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६३) अहय अनिधानराजेन्द्रः । ग्रहाछंद प्रहय-महत-त्रि० । अतते अव्याहने, प्रा० म.प्र) । जी। भम्मद अहान कालो, वनर जो जे चिर नेण"॥ ॥स्था ५ नवे, भ०: श०६ उ० । रा०। अव्यवचिकने, कप०१०। ०१० "से कितं अहाणित्तिकाले?, अहाउणिवनयअस्खपिडते, सूत्र० २७०२० । मलमूषादिनिरनुपढ़ते प्रत्य काले ज ण णेरडपण वा तिरिक्वज़ोणिरण चा मास्केण वा प्रे, चा०१०। • देवेण वा अहाणिवत्तिय सेत्तं पालेमाणे अहामणिचानका. ले"॥ भ. १२ श० ११ उ०। प्रहर-अधर-पुं० । अधस्तारकाये, भाव० ३ म० । अधस्तनदन्तच्छदे, मौ० । प्रका० । तं०। ग्रहाउय-ययायुष्क-नगदेवाचायुष्कलकणे काल भेदे, प्रा.म. विका (काल शन्दे तृतीयभागे चैत ट्याल्याम्यते । यथाबड़े अहरगइगमण-घरगतिगमन-न० । अधोगतिगमनकारणे, मायुधि च। स्था। प्रभ०२प्राभाद्वार । दो अहाउयं पाले । तं जहा-देवच्चेच नेरक्यच्चेव ।। अहरायाणय-यथारत्नाधिक-अव्य० । यथाज्येष्ठार्यतयेत्यर्थे, (दो इत्यादि । यथावकमायुयं थायः, पान यम्यनुनन्ति नोपकापं० २०२ द्वार। म्यते तदिति यादिति । "देवा नेग्या वि य, असम्बबामार. प्रहरी-अधरी-स्त्री० । पेषणशिलायाम, उत्त। या तिरियमणुया । उत्तमपुरिमा य नहा, चरमसरीग निमयक मनी" ।।१॥ इति वचने सत्यपि देवनारकयोरेवेह भणने, द्विअहरु(रो)-अधरोष्ठ-पुं० । “हस्वः संयोगे" 10 1१।४॥ स्थानकानुराधादिति । स्था० २ ० ३ ० । इति दीर्घस्य हस्वः । प्रा०१ पाद । दंष्ट्रिकायाम, कल्प ११०।। अहाक (ग) ह-यथाकन-त्रिका प्रात्मार्थनिनिधर्तिते पाहाअहव-अथवा-भव्य० । " वाऽव्ययोत्खातादावदातः " ।। रादौ, "अहागमेसुरीयंति, पुप्फेसु जमरो जहा" दश. १५०। ७।१।६७ । इत्यातोऽत्वम; अहव अहवा। विकल्पे, प्रा०१| नि० चू०।६० । पादास। अहाकप्प-यथाकप-अव्य० । यथाऽत्रोक्तं तथाकरणे कम्पोअहवण-(अथवा-अन्य० । 'अहवण ति' प्रखएडमव्ययपद न्यथा त्वकल्प इति यथाकल्पम् । कल्प.एका प्रतिमाकल्याम् । अयवेत्यस्यायें, वृ०१०। विकल्पप्रदर्शने, निचू. १ नतिक्रमे तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमे, दशा०७० स्थानकाकउ० | वाक्यालङ्कारे, अनु० । पानतिकान्ते, स्थविरकल्पोचिते कल्पनीये च ।न।पा।१०। अहवा-अथवा-भव्य० । संबन्धस्य प्रकारान्तरतोपदर्शने,न्य०१। अहाकम्प-यथाकर्म-अन्य । फर्मानतिकमे, द्वा० १६ द्वा० । सापूर्वोक्तप्रकारापेकया प्रकारान्तरत्वद्योतने, पश्चा०३ विव०। प्रहापडिग्गहिय-यथाप्रतिगृहीत-त्रि० । यथाप्रतिपने पुनहासनि० चध०। पं० सं०। ग0 । भ० । पकान्तरे, सत्र०१० मनीते, भ० २ श०५ उ० । १३ अ० । वाक्योपन्यासे, सूत्र०२४०२० अहाबंद-ययानन्द-पुं०।यथा उन्दोऽभिप्राय घा, तथैवाऽऽ. अहवण-अर्थवन-पुं०ऋग्वेदादीनां चतुर्थे वेदे, भ०१० गर्मनिरपेकं यो वर्तते स ययाग्न्दः । व्य०१ १० प्रब० । ध०। १२० । अनु० । प्रौ। नि००। यथाकथंचिव नागमपरतन्त्रतया छन्दोऽभिप्रायो बोधः अहस्स-अहास्य-न० । हास्यपरित्यागे, भाव०म०। प्रवचनार्थेषु यस्य स यथाछन्दः। भ०१०४ उ०ावच्चन्दम तिविकल्पिते, माघ ३ । अहह-अहह-अन्यः । अहं जहाति, महम+हा-क-पृषो ।स. म्बोधने, आश्चर्ये, खेदे, क्लेशे, प्रकर्षे चावाचा प्रा०२ पाद । जेनिक्खु गणामो अवकम्म अहाछंद विहारं विहरेज्जा, से य इच्छेज्जा दोचं पि तमेव गणं नवमंपजित्ता णं विहअहा-अधम्-अव्य० । दिग्नेदे, स्था० ६ ग०। रत्तिए अच्छिया इच्छा से पुणो आलोएज्जा, पुणो पमिअथ-अव्य० । याथातरवे, विशे० । मानन्तये, “महा पंसुरप्प कमेजा, पुणो छेयपरिहारस्स नवट्ठाइया ।। भाए"।रजनीविघातानन्तरम् । दीर्घत्वमार्षत्वात्। कल्प०३०। यः भिक्षुर्गणादपक्रम्य यथाकृन्दविहारण विहरेत्स इच्छेद अहाअत्थ-यथार्थ-अन्य० । नियुक्त्यादिव्यास्यानानतिक्रमे, द्वितीयमपि वारं तमेव गणमुपसंपद्य विहार्नुम, तत्र स पुनरास्था०७ ग। सोचयत्, पुनः प्रतिक्रामेत, पुनश्छेदपरिहारस्यालोचयेत् । अहाउओवक्कमकाल-यथायुष्कोपक्रमकान-पुं०। यथा बस्या- व्य० अ०२१०। युष्कस्योपक्रमणं दीर्घकालभोग्यस्योपक्रमणं यथायुकोपक्रमः श्वानी यथारन्दस्वरूपमुपवर्णयतिस चासौ कालच यथायुकोपक्रमकालः। कालभेदे, विशे०। उस्सुत्तमायरंतो, उत्सुत्तं चेव पन्नवेमाणो। अहामणिब्बत्तिकाल-पथायुर्निवृत्तिकाल-पुं० । कालभेदे, एसो य अहाउँदो, इच्छा छंदो य एगट्ठा ।। स्था०। यथा यत्प्रकारं नारकादिभेदेनायुः कर्मविशेषो यथा 55 सूत्रादुम-उत्तीर्णम् (परिभष्टमित्यर्थः) उत्सूत्रं. तदानरन् प्रतियुः। तस्य रौद्रादिभ्यानादिना निवृतिवन्धनं, तस्याः सकाशात् सेवमानः, तदेव यः परेज्या प्रज्ञापयन् वत्तते, एप यधाच्चन्दोयः कालो नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायुर्निवृत्तिका भिधीयते । सम्प्रात उन्दःशब्दार्ध पर्यायेण व्याचशे-इच्छा बन्द लः। अथवा-यथाऽऽयुषो निवृत्तिस्तथा यः कालो नारकादिन इत्येकार्थः। किमुक्तं भवति?-उन्दो नाम इच्छति। व्युत्पत्तिश्च यथा. घेऽवस्थानं, स तथेति । अयमप्यकाकाल एवायुष्ककर्मानुभव. चन्द-शब्दस्य प्रागेवोपदर्शिता। चिशिष्टः सर्वसंसारजीवानां वर्तनादिरूप इति । उक्तं च उत्सूत्रमित्युक्तमत नसूत्रं व्याख्यानयनि" आनयमित्तविसिहो, स एव जीवाण वत्तणाऽऽदिमश्रो।। उस्सुत्तमणुचदिद, सच्चंदविगप्पियं अण्णुपाती। Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) अहाबंद अनिधानराजेन्छः । अहाबंद परतित्तियप्पवित्ते, मतितणेऽयं अहाउंदो ।। अणुवाइ-अणणुवाई, परूवणा चरणमाईमुं । उत्सू नाम यत्तीर्थङ्करादिभिरनुपदिष्टम, तत्र या सूरिपरम्परा- इस्तगताः पादगता वा नखाः प्रवृताः दन्तैश्त्तव्याः, न नवगता सामाचारी,यथा-नागिता रजोहरणमूर्ध्वमुखं कृत्वा कायो- रदनेन । नखरदन हि ध्रियमाणमधिकरणं नवति । तथात्सर्ग कुर्वन्ति । चारणानां वन्दनके कथमपीत्युच्यते श्त्यादि, (अभिप्तमिति) पात्रमसिप्तं कर्तव्यम,न पात्र लेपनीयमिति जावः। साऽप्यनेपूपाने नोपदित्यनुपदिष्टम् । सङ्केततोऽनुपदिष्टमाद | पात्रलेपने बहुसंयमदोषसंजवात् । (हरियट्रिय त्ति) हरितप्रस्वच्छन्दन स्वाभिप्रायण विकल्पितं, स्वेच्छाकल्पितमित्यर्थः।। तिष्ठितं भक्तपानादि प्राचं,तग्रहणे हि तेषां हरितकायजीवाअत एवाननुपाति । सिद्धान्तन सहाघटमानकम् । न केवलमूत्सू- | नां भारापहारः कृतो भवति । (पमज्जणा य नितस्स ति) यदि त्रमाचरन् प्रज्ञापयंश्च यथाच्चन्दः, किन्तु यः परतृप्तिषु गृहस्थ छन्ने जीवदयानिमित्तं प्रमार्जना क्रियते,ततो यहिरप्यच्छन्ने किप्रयोजनेषु करणकारणानुमतिभिः प्रवृत्तः परतृप्तिप्रवृत्तः । तथा यता, जीवदयापरिपालनरूपस्य निमितस्योभयत्रापि संभवात् । 'मतंतिणो' नाम यः स्वल्पेऽपि केन चित्साधुनाऽपराऽनवरतं अत्तरघटना त्वेवम्-'नितस्स' निर्गच्छतः प्रमार्जना भवतु, पुनस्तं रुपन्नास्ते, अयमेवरूपो यथाच्छन्दः। यथा वसतेरन्तरिति । एवं यथाच्छन्देन चरणेषु च प्ररूपतथा पाऽनुपातिनी अनुसारिणी, अननुपातिनी च क्रियते। सच्दमतिविगणिय , किंची सुखसायबिगइपामबद्धो ।। अथ किस्वरूपाऽनुपातिनी ?, इत्यनुपातिन्यननुपातिन्योः तिहि गारवेहि मज्जर, तं जाणाही अहादं ।। स्वरूपमाहस्वच्छन्दमतिविकल्पित किश्चितं तल्लोकाय प्रशापयति,ततः प्राणुवाइ ती नज्जइ, जुत्तीराग्यं खु जासए एसो । प्रज्ञापनगुणेन लोकाद्विकृतील जते, ताश्च विकृतीः परितृञ्जानः जं पुण सुत्तावेयं, तं होति आणणुवाति त्ति ॥ स्वसुखमासादयति । तेन च सुखासादनेन तत्रैव रतिमातिष्ठ- यद्भापमाणः सन् यथाच्छन्दो शायते-यथा 'खु' निश्चितं युति । तयाचाह-सुखासादे सुखासादनविकृतौ च प्रतिबद्धः। क्तिसङ्गतमेष भापते,तदनुपातिप्ररूपणम् । यथा-यैव मुखपोत्तितथा-तेन स्वच्छन्दमातविकल्पितप्रज्ञापनेन लोकज्यो प्रवति, का सैव प्रतिलेखनिका इत्यादि । यसु पुननाध्यमाणं सूत्रापेतं अभीटरसांचाहारान् प्रतिलभते, वसत्यादिकं च विशिष्टमतः सूत्रपरिभ्रष्टं तद्भवत्यननुपाति । यथा-चीनपट्टः पटलानि क्रिसत्येभ्यो बहु मन्यते । तथाचाह-त्रिनिः गौरवैशिरससा- यताम् । यद्युपधिकापतनसंभवतो युक्त्यसङ्गततया प्रतिभासतलकणर्माद्यति य एवंभूतः, तं यथाच्छन्दो जानीहि । मानत्वात् । तत्र चरणे प्ररूपणमनुपात्यननुपाति चोक्कमिदं द नरसूत्र प्ररूपयन् यथाच्छन्द उच्यते, तत उत्सूत्रप्र चान्यदू एव्यम्। रूपणामेष भेदतः प्ररूपयति तदेवाहअहछंदस्स परूवण, उस्सुत्ता दुविह होइ नायचा ॥ सागारियादिपलियं-कनिस्सज्जासवणा य गिहिमत्ते । चरणेमु गईसुं जा, तत्य य चरणे इमा होति ।। निग्गंथिचेट्ठणाई, सेहो वा मा सकप्पस्स ॥ यथाच्चन्दसः प्ररूपणा उत्स्सूत्रा सूत्रादुत्तीर्णा द्विधा भवति का सागारिकः शय्यातरस्तद्विषये बूते-यथा शय्यातरपिएमे गृतव्या। तद्यथा-चरणेषु चरणविषया, गतिषु गतिविषया, तत्र घमाणे नास्ति दोषः, प्रत्युत गुणः, बसतिदानतो भक्तपानादि.. या चरणविषया, साश्य वक्ष्यमाणा भवति । दानतश्च प्रभूततरनिर्जरासंभवात , आदिशब्दारस्थापनाकुले प्वपि प्रविशतो नास्ति दोषः । ( पलियंक त्ति ) पर्यादिषु पतामेवाह रितुज्यमानेषु न कोऽपि दोषः, कवलं नुमावुपवेशने साघवापमिलेहण मुहपोत्तिय, रयहरण निसेज्ज पायपत्तए पट्टे।। दयो बहुतरा दोषाः (निसिज्जासेवण त्ति) गृहिनिषद्यायामापमलाइ चोल उपा-दसिया पडिझेहणापोते ॥ सेव्यमानायां,गृहेषु निषद्याग्रहणे इत्यर्थः। को नाम दोषः?. अपि. या मुखपोत्तिका मुखवत्रिका,सैव प्रतिलेखनी-पात्रप्रत्युपेकया त्वतिप्रभूतो गुणः, ते हि जन्तवो धर्मकथाश्रवणतः संबोधपात्रके सरिका कि द्वयोः परिग्रहेण?, अतिरिक्तोपधिग्रहणेन सं. माप्नुवन्ति (गिहिमत्ते ति) गृहिमात्रके भोजनं कस्मान क्रियते ?, जवात् । तथा-(ग्यहरगनिसेज सि) कि रजोहरणस्य द्वाज्या एवं हि प्रवचनोपघातः परिहतो भवति । तथा-(निम्गंथिचेनिपद्याभ्यां कर्तव्यम,एकानिषद्याऽस्तु ? (पायमत्तएत्ति) यदेव टुणादि ति) निर्ग्रन्थीनामुपाश्रये अवस्थानादा को दोषः ?, सं. पात्रं तदेव मात्रकं कियतां.मात्रकं वा पात्रमाद्वियोः परिग्रहण?। क्रिटमनोनिरोधेन ह्यसक्लिष्ट तु मा विहारक्रम कार्युरिति । तथा-(पट्टत्ति य एव पट्टचोलकः स.पव रात्रौ संस्तारकस्यो- चारे वेरज्जे वा, पदमसमोसरण तह य नितिएम् । त्तरपट्टः क्रियता, किं पृथगुत्तरपट्टपरिग्रहेण ? । तथा-(पमलाई सुन्ने अकप्पए वा, अनाउंने य संजोए । चोल त्ति) । पटलानि किमिति पृथक ध्रियन्ते, चोलपट्टएर भिक्षार्थ हिएममानेन द्विगुणस्त्रिगुणो वा कृत्वा पटलकस्थाने निवेश्य चार,चरणं, गमनमित्यकाऽर्थः। तद्विषये व्रतार्थे, तद्यथा-चतुर्यु मासेषु मध्ये यः पतति तावन्मा विहारक्रम कायदा तु न ताम् । (उपादसिय त्ति) रजोहरणस्य दशाः किमित्यामरयः पतति वर्षे,तदा को दोषो दिममानस्येति। तथा वैराज्येऽपि ब्रूतेक्रियन्ते !, मौक्तिकाः क्रिपत्तां, ता हयूमयोभ्यो मृदुतराभव. न्ति । तथा-(पमिलणापोते त्ति) प्रतिलेखनावेलायामेकं पोतं यथा वैराज्येऽपि साधवो विहारक्रम कुर्वन्तु.परित्यक्तं हि साप्रस्तार्थ तस्योपरि समस्तवस्तुप्रेकणं कृत्वा तदनन्तरमुपाश्रया धुभिः परमार्थतः शरीरं,तर्याद ते गृहीष्यन्ति कि चूर्ण साधूत् तद् बहिः प्रत्युपेरणीयमा एवं हिसहती जीवदया कृता इति ।। नाम, सोढव्याः खलु साधुभिरुपसर्गाः। ततो यमुक्तम्-"नो क प्प निग्गंथा-णं बेरज्जविरुद्धर संसि । सज्जं गमण सज्ज-मादंतच्छिन्नमसितं, हरियहिय पसज्जणा य पिंतस्स । गमणं ति"। तदयुक्तमिति । (पढमेण समोसरणे त्ति) प्रथम स. Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६५ ) अहाचंद अभिधानराजेन्द्रः। अहाबंद मवसरणं नाम प्रथमवर्षाकालः,नत्रवते-यथा प्रथमममवसरणे वयभपि गमिष्यामः । उता गतिपि यथाच्दस्य विनयउममादिदोपपरिशुद्धं वस्त्रं पात्रं वा किं न कल्पते गृहीनुमा द्वि. प्ररूपणा। तीयसमवसरणेऽपि धुममादिदोपपरिशुरुमिति कृत्वा गृह्यते । संप्रति नेषां यथाच्चन्दानामेवंबदतां दोषमुपदर्शयानसाच दोषशुकिरुभयत्राप्यविशिष्टेति। (तह य नितिपमुत्ति)तया जिणवयए सव्वसारं, मूलं मंमारदक्व मुक्वम्म । नित्येषु नित्यनासेषु प्ररूपयति-यथा-निन्यवासेऽपि यद्युममोत्या. दरणाशुद्धं सभ्यते नक्तपानादि, ततः को दोषः ? प्रत्युत कानं सम्मत्तं मश्लेत्ता, ते दोग्गइयगा हुंति । दीघमेककेत्रे वसतां सूत्रार्थादयः प्रभूता भवन्ति । तथा-(सुन्न. ते यथाच्छन्दाश्चरखेषु गनिषु चयवाणाः सम्यमय सम्यग्दर्शति) यापकरणं न केनापि हियते, ततः शून्यायां वसती क्रिय- नम। कथं नुतमिन्याड-जिनानां सर्वज्ञानां वचन जिनयननं द्वादमाणायां को दोषः ? । अथोत्संघटनेनोपहन्यते, तच चेत्तस्यौपः । शार्क तस्यमार प्रधानं.प्रधानवचोऽस्य तदनन्तरेण धनम्य पतिधिक उपघातः (तथा अकप्पिय सि) अकल्पिको नामागीतार्थः; तस्याप्यश्रुतत्वात् । पुनः किविशिष्टमित्याह-मूत्रं प्रथमं कारणं.मं. तदु विषये ब्रूते-यथा-अकल्पिकेन प्रथमशैकरूपेण शुरुमझा- सारदुःखमोक्षस्य समम्नसांसारिकपुःखविमोक्रमोकम्य. नदेव. तोञ्छ वस्त्रपात्राद्यानीतं किं न परिभुज्यते? ; तस्य झातोचत- नूतं सम्यक् मसिनायत्या श्रान्मनो ऽगनिवईका नयन्ति । या विशेषतः परिभोगाईत्वात्। (संभोप इति) तथा संभोगे बूते. मुगतिस्तेषामेवंवदनां फलमिनिभावः । इह पूर्वमुन्सवेऽनुन्सयथा-सर्वे पञ्च महावतधारिणः साधवः,सांभोगिका एव युक्ता | वे वा गृहीतस्य पार्श्वस्थस्य प्रायश्चित्तमुक्तम् । नासांनोगिका इति। तत्र उत्सवप्ररूपणार्थमाहसाम्प्रतमकल्पिकोचितं विवृणोति सक्कमहादीया पुण, पासत्थे ऊसवा मुणेयव्या । किंवा अकप्पिएणं, गहियं फासुयं तु होइ उ अभोज्जं ।। अहबंदे ऊमवो पुण, जीए परिसाएँ उ कहेइ ।। अन्नाचं को वा, होरे गुणो कप्पिए गहिए?॥ पार्श्वस्थे पावस्थस्य, उत्सवा झातव्याः शक्रमहादयः इन्किं वा केन वा करोन अकल्पिकेन अगतिार्थेन गृहीतं प्रासु- महादयः। श्रादिशब्दात् स्कन्दरुरुमहादिपरिग्रहः। यथाच्छन्दकमझातोश्चमपि अभोज्यमपरिभोक्तव्यं नवति । को वा कल्पि- स्य पुनरुत्सवो यस्याः पर्षदः पुरतो यथाच्चन्दः स्वच्छन्दविककेन (अत्र गाथायां सप्तमा नृतीयाऽर्थे ) गृहीतो गुणो नवतिः | ल्पितं प्ररूपयति सा पर्वत झातव्या । एतदपि च सवभूते. बजयत्रापि शुद्धत्वाविशेषात् । यः पर्षदि स्वकीयकुमतप्ररूपणं चतुर्मासपएमासवर्षेषु कदाअधुना (संभोए ) इति व्याख्यानयति चिता करोति, अनीदणं वा, तत एतेषु वतव्यम, तश्च पार्श्वपंचमहन्वयधारी, समपा सम्वेसि किं न गंजंति । । स्थाऽऽगमानुसारेण केयम् । इय चरण-वितहवादी, एत्तो वोच्छ गतीसं तु ।। अत श्राहपञ्चमहावतधारिणः सर्वे श्रमणाः किं नैकत्र नुञ्जते ?, किं ना. जाहिँ बहुगो तहिँ बहुगा,जहिँ बहुगा चउगुरू तहिं ठाणे। विशेषेण सर्वे सांभोगिका जवन्ति ?.येनेके सांभोगिकाः, अपरे जहिँ गणे चनगुरुगा, जम्मासे तत्थ ऊ जाणे ।। असांभोगिकाः क्रियन्ते इति । इत्येवमुपदर्शितेन प्रकारण यथाच्छन्दोऽनासोचितगुणदोषः, चरणे चरणविषये वितथवादी । जहि पुण छम्मासा तहिँ, व्यं पुण छेयगणए मूलं । अत ऊर्द्ध तु गतिषु वितथवादिनं वयामि । पासत्ये जनणियं, अहबंदे विवाहियं जाणे ॥ यथाप्रतिज्ञातमेव करोति यत्र पार्श्वस्थस्य मासलघु प्रायश्चित्तमुक्तं तत्र यथाच्छन्दसि चत्वारो - खेतं गतो य अडविं, एको संचिहए तहिं चेव । लघुकाः। यत्र चत्वारोघुकाम तत्र स्थाने च चत्वारोगुरवः। यत्रच स्वारो गुरुकास्तत्र पएमासान् गुरुन् जानीहि । यत्र पुनः घरमासा. तित्यगरो त्तिय पियरो, खेत्तं पुण भावतो सिछ।। स्तत्र ज्ञातव्या वेदः,च्छेदस्थाने च मूत्रम। तद्यथा-यद्युत्सवानाचेकस यथाच्छन्दो गतिषु विषये एवं प्ररूपणां करोति-"एगो गह- दाचित्कथयति ततश्वत्वारो सघुका मासा अथाभीक्ष्णं कथयति वती, तस्स तिशि पुसा, ते लम्बे छेत्तकम्मोवजीविणो पिय- ततश्चत्वारो गुरुकाः । श्रथोत्सव कदाचित् ते ततश्चत्वारो गुरेण चित्तकम्मे नियोजिया। तत्थेगो खेत्तकम्मं जहाणत्तं करेइ ।। रुकाः; अनीक्षणकथने षण्मासा गुरवः। परमासा यायदतीक्षणका पगो अडवि गतो; देसं देसेण हिंड इत्यर्थः । एगो जिमित्ता थने मूलम् । अत्रोत्सवानुत्सबविशवरहिततया सामान्यतोऽनिजिमित्ता देचकुलादिसु अत्थति । कालंतरण तेसि पिया मतो। धानमुक्तमोघेन प्रायश्चित्तम्। अधुना विभागत उच्यते-चतुरो मातोहं दव्वं पितिसियं ति का सव्वं सम्म विरिक्कं । एवं तेसि जं सान यावत्कदाचिपुत्सवाभावे प्ररूपणायां चत्वारो लघुमासाः। एगेण उपज्जियं तं सब्वेसि सामम्म जायं । एवं अम्हं पिया परमासान् यावच्चत्वारो गुरवः। वर्ष यावत्परामासा गुरवः। तथातित्थयरो,तस्स वयोवदेसेणं सब्वे समणा कायाकलेसं कु- चतुरो गुरुमासान् यावदुत्सवाभावेऽभीषणप्ररूपणायाः चत्वारो व्यंति। अम्हे न करेमो, जं तुभोहं कयं । अम्हं सामन्नं जहा तु. गुरुकाः पिएमासान यावत्सवमभीक्ष्णप्ररूपणायां षण्मासा गरम्भे देवलोग सुकल पब्वयाई वा सिकिंवा गच्छह, तहा अम्हे यावर्षे यावदेवंप्ररूपणायां छेदः। चत्वारोमासान यावदुत्सवे क. विगच्छिस्सामो"। एप गाथाभावार्थः। अक्षरयोजना त्वियम- दाचित्प्ररूपणात् चत्वारोमासा गुरवः।पएमासान यावदवप्ररूप. एकः पुत्रः केत्रं गतः। एकोऽटवीम.देशान्तरेषु परिनुमतीत्यर्थः । णायां षएमासा गुरवः । वर्ष यावत्प्ररूपणायां दः । तथा-चअपर एकस्तत्रैव संतिष्ठते। पितरि च मृते धनं सर्वेषामपि स. तुरो मासान् यायदुत्सवेष्वभीषणं प्ररूपणायां चतुर्गुभकः छेदः। मानमा एवमंत्रापि पिता पितृस्थानीयस्तीर्थकरः । क्षेत्रफलं धनं | वधे यावदेवप्ररूपणाया मूलामात । पतदव सामान्यता ग्रहणम् । पुनर्विभावतः परमार्थतः सिमिः, तां यूयमिव युप्मदुपार्जनेन (पासत्थेत्यादि) पावस्थे यत्र स्थाने यत् भणितं प्रायश्चित्तं त Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६६) अहाबंद अन्निधानराजेन्छः। ग्रहामग्ग स्मिन् स्थाने यथाच्छन्दो विवर्डित-विशेषेण वर्तितंजानीहितश्च अदातच-यथातच्च-न। अभिधानार्थानतिक्रमे, अन्वर्थसत्यातथैवानन्तरमपदर्शितम् । कस्मावितिं जानीहि शतिचेत?, उ- पने च। स्थाठा०१उ०। दशा शब्दार्थानतिक्रमे तत्वानच्यते प्रतिसेवनात प्ररूपणाया बहुदोपत्वात्,यह पार्श्वस्थत्वं त्रया तिक्रमे च । भ.२श०१ उ० । स्या०। णामपि संभवति । तद्यथा-निकोर्गणावच्छेदिनः, प्राचार्यस्य च । यथातथ्य-न। सत्य.कल्प०६०। व्य० । एकान्ततः यथा यथाच्छन्दत्वं पुनर्निकोरेव । ततः पार्श्वस्थविषयं सूत्रं त्रिसूत्रास्मकं यथाच्चन्द विषयं त्वेकस्वरूपमिति । येन प्रकारेण तथ्यं सत्यं, 'तत्वं वा' तेन यो वर्ततेऽसौ यथा तथ्यो 'यथातत्व' वा दृष्टार्थाविसंवादिनि, फलाविसंवादिनि सम्पति कुशीतादीनां प्रायश्चित्तविधिमनिदेशत पाह 'च स्वप्नदे, भ० । तत्र दृष्टार्थाविसंवादी स्वप्नः, किल कोपासत्थे आरोवण, ओहवित्नागेण वनिया पुव्वं । ऽपि स्वप्नं पश्यति-यथा-मह्यं फलं हस्ते दत्तं, जागरितस्तत्तसब्वे वि निरवसेसा, कुसीलमाढीण नायव्वा ।। थैव पश्यतीति । फलाविसंवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुजयैव पूर्व पाश्वस्थे प्रायशित्तम्योघेन, विजागेन वाऽऽरोपणप्रदा. राधारूढमात्मानं पश्यति, बुरुश्च कालान्तरे सम्पदं लभत इ. नमपवर्णिता,सैव निरवशेषा ओघेन, विनागेन च ज्ञातव्या। यत्र ति । भ०१६ श०६ उ० । तु विशेषः स तत्र तु वयते । गतं यथाच्छन्दसूत्रम् । व्य०१ अहापज्जत-यथापर्याप्त-त्रि० । यथालम्धे, अणु०३ वर्ग। उ० भ.। अहापडिरूव-यथामतिरूप-त्रि० । उचिते, औ० । नि०च। जे भिक्खू अहाबंदं पसंसइ, पसंसंतं वा साइजा ॥१॥ येन प्रतिरूपेण साधूचितस्वरूपं तस्मिन्, विपा०१ श्रु०१० जे निक्बू अहाबंदं वंद, वंदंतं वा साइज ॥१०॥ अहापणिहिय-यथाप्रणिहित-त्रि० । यथाऽवस्थिते, "अहापअहच्छंद त्ति यकाररूपव्यञ्जनलोपे कृते.स्वरे व्यवस्थिते च : णिहिएहिं गाएहिं " भ० ३ श०२ उ०। चति । उन्दोऽभिप्रायः, यथाऽस्यानिप्रेतं तथा प्रज्ञापयन् अहाछंदो नवति । तं जो पसंसति , वंदति वा तस्स चउगुरुगं, अहापरिग्गहिय-ययापरिगृहीत-त्रि० । परिग्रहणानुरूपेण प्राणादिया य दोसा । ( निचू) (इतोऽग्रे व्यवहारेण गतार्थः) स्वीकृते, "अहापरिगहिया वत्था धारेजा" प्राचा०१ श्रु० कारणे पुण पसंसति वंदति वा ८०४ उ०। अहापरिमाय-यथापरिझात-त्रिका परिज्ञानानुरूपेणाभ्युपगवितियपदमणप्पजके, पसंस अविको विते व अप्पझो। ते, प्राचा० २ श्रु० २ ० ३ उ० । “अहापरिमातं वसामो" जोऽणंते वावि पुणो, भयसा तव्यादि गच्चा ।।१ ।। यथापरिक्षातं यावन्मानं केत्रमनुजानीते भवान् तावत्केत्रम् । अहाच्छंदो कोइ राशस्सिो , तब्भया तं पसंसति, वंदति वा प्राचा०२ श्रु०२१०३००। (तब्वादित्ति)कश्चिदेव वादी प्रमाणं कुर्यात-अहाछंदोन बन्यो, मापि प्रशंस्यः, इति प्रतिज्ञा करमाकेतोः ? । उच्यते-कर्मबन्ध अहापवत्त-यथाप्रवृत्त-न0 । येनैव प्रकारेणानादिकालेऽभूत् कारणत्यातू । को दृष्टान्तः?, अविरतमिथ्यात्ववन्दनप्रशंसनवत। तेनैव प्रवृत्तवद् नाप्राप्तपूर्वस्वभावान्तरप्राप्ते, पञ्चा० ३ विव० । ईदशप्रमाणस्य दूषणेन दोषमावति प्रशंसनवन्दनप्ररूपणं कुर्वन् | अहापवित्तिकरण-यथाप्रवृत्तिकरण-न । यथाप्रवृत्तस्य क(गच्छत्ति) को अहाउंदो प्रोमाइसु गच्चरक्खणं करेति, | रणे सम्यक्त्वानुगुणे करणभेदे, कर्म०५ कर्म । अष्टः । तं वंदति पसंसति वा, ण दोसो। निच० ११ उ०। प्राचार्ये यथाच्छन्दे जातेऽन्यत्रोपसंपत् । व्य० ४ ०। अहापवित्तिसंकम-यथाप्रवृत्तिमंक्रम--पुं०। यथा यथा जघन्य मध्यमोत्कृष्टानां योगानां प्रवृत्तिस्तथा तथा संक्रमणे, पं० सं० अहाउंदविहारि (ण)-यथाउन्दविहारिन-पुं०। आजन्मापि ५ द्वार । क० प्र०1 ('संकम' शब्दे विवरिष्यते) यथाछदे, ज०१० २०४ उ०। अहावायर-यथाबादर-नि० । असारे, भ. ३ २०१० स्थूअहाजाय-यथाजात-न0 । यथाजातं नाम यथा प्रथमतो जन सप्रकारे, "अहावायरा कम्माई" भ०६ श०१ उ० । कनीजगन्निगतो,यथा च श्रमणो जातस्तथैव जातत्वक्रमेण दीयमाने वन्दनके,वृ०३ नुण यथाजातं जन्म श्रमणत्वमाश्रित्य,योनि ल्प० । यथोचितबादरे आहारपुकले, प्रति० । तत्र रजोहरणमुखबस्त्रिकाचोत्रपट्टकमात्रया श्रम- | अहावीय-यथाबीज-न। यद्यस्योत्पत्तिकारणं,तस्मिन्,सूत्र० हो जाता रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः,एवम्भूत एव वन्दति, | २ श्रु० ३ अ०। तनतिरेकाच यथाजातं भरायते कृतिकर्मवन्दनम्। श्राव०३०। अहावोह-यथावोध-30। योधानतिक्रमे, ध०१ अधिक। यथाजानं-जातं जन्म, तञ्च धा-प्रसवः प्रवम्याग्रहणं च । तत्र प्रसवकाले रचितकरसंपुटो जायते, प्रवज्याकाले च गृही. अहाभांग-यबाभक-पुं० । साध्वनुकूले श्रावके, वृ० १ उम तरजोह रणमुखवस्तिक इति । अत एव रजोहरणादीनां पश्चानां श्राव० । शासनबहुमानवति, वृ० १ उ०। शास्त्रे यथाजातत्वमुक्तम्। तथा च तत्पाठ:-"पंच अहाजाया, महाभाग-यथानाग-अव्यः । यथाविषये, दश०५०। चोलयपट्टो१तहेव रयहरणं । उसिभ ३ खोमिअ४निस्सि-जयजुअलं तह य मुहपोती" ॥२॥ यथा जातमस्य स यथाजात,त अहाय-ययानूत-पुं० । तात्त्विके, स्था० १ ठा०१०। थाभूत एव बन्द ते, रति वन्दनमपि यथाजातम् । ध०५ अधिक अहामग्ग-यथामार्ग-अव्या ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्कयोअहाणुपुन्ची-यथानुपूर्वी-स्त्री० । यथाक्रमे, ज्यो०२ पाहु.। पशमनाचानतिक्रमे, दशा० ७ असा हा स्था। औदयिकभा"अहाणुदुव्वीए स पस्थिया" । रा० । वापगमे, स्था०७ ठा०ा व्य० । कल्प। भ०। Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६७) प्रहारायणिय अनिधानगजेन्द्रः। प्रहालंद प्रहारायणिय-यथारात्रिक-ग्रव्यायथा यथा रत्नधिकोन तेषां यथालन्दिकानां पञ्चको हि गणोऽम कल्पं प्रतिपद्यते । वेत्तदनतिक्रमे. वृ०३ उ०। "अहारायाणयं गामाणगामं दुः। इति उत्कृष्ट मेकैकम्य गणम्य पुम्पपरिमाणमेदिनि । जे जा" आचा०२ श्रृ) ३ अ०३ ३० । अथ बहुवकव्यत्वानिरवशेषाभिधाने ग्रन्थगौरवप्रसक्त्या अहारि ( ए )-अहारिन्-त्रि मनसोऽनिष्टे, भाचा० १ श्रु० यथालन्दिककल्पस्यातिदेशमाह६ ०२ उ। जा चेव य जिएकप्ये, मेग सा चेव संदियाएं पि । भहारिय-यथार्ज-अव्यका ऋजुताऽनतिक्रमे,"अहारियं रिएजी" | नाणनं पुण सुने, भिक्ग्वायरि मामकणे य ।।६०२|| यथा ऋजु भवति तथा गच्छेद्, नार्दवितर्द, विकार बा कुर्वन थैव च जिनकल्पे जिनकल्पविषया ' मेग' मर्यादा पञ्चयि. गच्छेत् । आचा०२ श्रु० ३ ०२ उ० । धतलनादिरूपा, सेव च यथालन्द्रिकानामपि प्रायशः, नानात्वं यथारीत-अव्यारीतं रीतिः, स्वभाव इत्यर्थः। तदनतिक्रमे- नेदाः पुनजिनकल्पिकेभ्यो यथालन्टिकानां सूत्रे मूत्रविषये, ण यथारीतम् । स्वनावानतिक्रमे, "अहारीय गय" यथागतं तथा निक्षा बर्यायां, मासकटपे च। चकागप्रमाविषयं चेति । रीयते गच्चति, यथा स्वानाविकौदारिकशरीरगत्या गच्चतीत्य- अधातिदेशपूर्वकमल्पवक्तव्यत्वात्प्रथमं मामकल्पनानान्बमेवाहर्थः । भ० ५ ० २ उ०। अहलंदियाण गच्छे, अप्पमिवद्धाण जह जिणाणं तु । यथाई-त्रिः । यथोचिते, स्था० २ ठा० १ उ० । यथार्हा या य- नवरं कासविमेसो, नवासे पाणगचरमासो ॥६१३।। स्योचिता लोकयात्रा-लोकोवितानुवृत्तिरूषो व्यवहारः, सा यथामन्दिका द्विधा गच्छे प्रनिवका अप्रतिवहाच । गन्ने च प्रतिविधेया। यथायोकयात्राऽतिक्रमे हि लोकचित्तविराधनेन ते बन्धोऽमीयां कारणतः, किञ्चिदश्रुतस्यार्थस्य श्रवणार्थमिमि म षामात्मन्यनादेयतया परिणामापादनेन स्वलाघवमेवोत्पादित तव्यम् । ततो यथासन्दिकानां गच्छे अप्रतिवद्धानाम, नपलक्षणभवति । एवं चान्यस्यापि स्वगतस्य सम्यगाचारस्य लघुत्व. त्वान्प्रतिबद्धानां च; तवेण सत्तेग' इत्यादिनावनाम्पा मोऽपि मेवोपनीतं स्यादिति । उक्तं च-" लोकः खस्वाधारः, सर्वेषां सामाचा। यथा जिनकलिपकानां पूर्वमुक्ता, तथैव समवमेया।' धर्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्या- 'नवरं' केवलं द्विविधानामपि यथालन्दि कानां जिनकल्पिकेभ्यः ज्यम्" ॥ ३५ ॥ ध० १ अधि० । औचित्ये, पो० १० विव० । काले कालविषये विशेषो भेदोज्ञातव्यः । तमेवाह-उवासे प्रहालंद-अथ (यथा) लन्द-पुं० । यावन्माने कामे, प्राचा. पणगचउमासो ति ऋतौ ऋतुबहकाने, वर्ष वर्षाकाले च, य२०७०१ अ०। अथेत्यव्ययम, सन्दशब्देन काल उच्यते। थासंख्यं दिनपश्वकं मासचतुष्टयं चैकत्रावस्थानं भवति । श्यम. तत्र यावना कालेनोदकाःकरः शुष्यति, जघन्यतस्तावति का- प्रभावना-ऋतुबके काले यथालन्दिकसाधवो यदि विस्तीणों ले, कल्प०८० प्रामादिर्भवति,तदातं गृहपतिरूपानिः षभिवाधीभिः परिकभेदाः प्य एकैकस्यां वीथ्यां पञ्च दिवसानि निकामटन्ति, तत्रैव च संदं तु होइ कालो, सो पुण नकोसमझिमजहन्नो। वसन्ति । एवं षभिर्वीथीभिरेकस्मिन् ग्रामे मासः परिपूर्णो जब ति । तथाविधविस्तार्णग्रामाभावे तु निकटतमेषु षट् ग्रामेषु उदउल्ल करो जाविह, मुक्कइ सो होइन जहन्नो ।६१६। पञ्चपञ्चदिवसं वसन्ति । उक्तं च कल्पनाप्येसन्दं तु भवति कासः।समयपरिजापया सन्दशब्देन कालो भ एकेक पंचदिणे,पण पण ऊ निट्टिो मायो । पंजा। एयत इत्यर्थः । स पुनः काबनिधा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । पतच्चूर्णिश्च-"जह एगो चेव मासो सवियारोत्ति विच्छिन्नो, तत्र लदकार्ड: करो याचना कालेन इह सामान्येन लोकेषु शु तो बीटीओ काउं पक्कीए पंच एव दिवसाणि हिंडंति। विश्प्यति, तावान् कालविशेषो जबति जघन्यः अस्य च जघन्यत्वं प्रत्याख्याननियमविशेषादिषु विशेषत उपयोगित्वात, अन्यथा याए वि पंचदिवसे: जाव ग्मीए वि पंचदिवसा एवं एगगामे प्रतिसूक्तातरस्यापि समयादिनक्कणस्य सिकान्तोक्तस्य कालस्य मासो भव।अह नथिएगोगामो सथियारो,तो हवं जहादि याण लगामखित्तस्स परिपेरतणं तेसि एक्के पंचदिवसाणि संजवात्। अत्यति । एवं मासो विभिन्जमाणो पण पण निटिओ हो ति"। उक्कोस पुन्चकोमी, मज्के पुण हुंति ऐगगणाई । अथ यथानन्दिकानामेव परस्परं दमाहइत्थ पुण पंचरत्तं, उक्कोसं होड़ अहलंदं ।। ६२० ॥ गच्छे पमिबहाणं, अहवंदीणं तु अह पुण विसेसो । उत्कृपः पूर्वकोटीप्रमाणः; अयमपि चारित्रकानमानमाश्रित्य प्रोग्गह जो तेसिं त, सो आयरियाण आभवइ । उत्कृष्ट उक्तः, अन्यथा पढ्योपमादिरूपस्यापि कालस्य संभवात् । गच्छप्रतिबकानां पुनर्यधानन्दिकानां गच्छप्रतिबज्या सका. मध्ये पुनर्नवन्त्यनेकानि स्थानानि वर्षादिभेदेन कालस्य । अत्र शाद् विशेषो दो भवति । तमेवाह-तेषां गच्चप्रतिययथानपुनर्यधालन्दकस्य प्रक्रमे पञ्चरात्रं यत्यागमानतिक्रमेण सन्द न्दिकानां यत्क्रोशपञ्चक लक्षणक्षेत्रावग्रहः,स प्राचार्याणामेव भकाल उत्कृष्टं भवति; तेनैवात्रोपयोगात । वति । यस्याऽचार्यस्य निश्रया ते विहरन्ति तस्यैव स क्षेत्रावग्रजम्हा उ पंचरतं, चरंति तम्हा न हुँति अहनंदी। । हो नवतीति भावः । गच्छाप्रतिबद्धानां तु जिनकल्पिकवत हे. पंचेच होइ गच्छो, तेमि उक्कोसपारमाणं ॥ ६२१ ।। त्रावग्रहो नास्तीति । यस्मात्पञ्चरात्रं चरन्ति पेटाऊँ, पेटाद्यन्यतमायां वीथ्यां भैनि- . अथ द्विविधानामाप यथालन्दिकानां निकाचर्यानानात्वं मित्तं पञ्च रात्रिदिवान्यटन्ति तस्माद्भवन्ति यथालन्दिनः विव विवक्षुराहकितयथा लन्दभावात्। तथा पञ्चवै पुरुषा भवन्ति गच्चो गणः, एगवसहीऍ पणगं, इन्वीहीओ य गामि कुब्वंति । Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६० ) अभिधानराजेन्द्रः । अहालंद दिवसे दिवसे अर्थ, अति बडीस नियमेण ॥ ६२५ ॥ ऋतुकाले कस्वां बसती पञ्चकं पञ्च दिवस वतिष्ठन्ते । वर्षासु पुनश्चतुरो मासान् यावदेकस्यां वसतौ ति ताप बांधीः कुर्वन्तिकागृ द्विरूपाभिः निधीनियम परिकल्पयन्ति । एकैकस्यां च वयां पञ्च पञ्च दिवसानि भिक्षां पर्यटन्ति । तत्रैव च वसति उपकल्पचूर्णीमागे गामो कीर, एगो पंचदिव भिक्खं हिंडंति, तत्थेव वसंति वासासु एगत्थ चउमासोति । तासु च वीथीषु दिवसे दिवसे नियमतोऽन्यामन्यां भिकामरन्तिः उष्टृत्तादिनिक्षः पञ्चकमध्यादेकस्मिन् दिवसे यां निकामन्ति न पुनर्द्वितीयेऽपि दिने तामेवादन्ति, किन्त्वन्यामन्यामिति भावः । इत्थं तावदस्माभिर्व्याख्यातं, सुधिया तु समयाविरोधेनान्यथाऽपि व्याख्येयमिति । अथ सूत्रनानात्वं निर्दिदित्तुर्यथालन्दिकनेदानेनाहपाइरे, इक्का ते मिणाय घेराय । प्रत्यस्स उ देसम्मिय, असमते तेसि पमिबंधो ||६२६ || यथादिका द्विविधाः इतरेगा प्रति ते पुनरेकैकशो द्विनेदा:-जिनका पि रकल्पिकाश्च । तत्र यथालन्दिककल्पपरिसमाप्त्यनन्तरं ये जि एवं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनका ये तु विरमेवायिष्यन्ति ते स्थविरकल्पिकाः । इह च ये गच्छे प्रतिबद्धास्तेषां प्रतिबन्ध अनेन कारणेन भवति यदर्थस्यैवन सूत्रस्थ, देश एकदेशोऽयमान गुरुसमीपे परिपू हीरा प्रतिप्रदाय गच्छे प्रतिबन्ध तेषां तस्यावश्यं गुरुसमीदिति । अथ परिपूर्ण सूत्रार्थस्य कथं न प्रतिपद्यन्त इत्याहलग्गाइमु नरते, तो पमित्रज्जित्तु खेत्तवाहिनिया | गिएहति जं अगहियं तत्थ य गंतून आयरियो ॥ ६२७|| तोमं तयं पच्छड़, खेत्तं इंताय तेसिमे दोसा । वंदने, लोगी होइ परिवाओ ।। ६२० || न तरेन गई, आयरिओ ताहि एह सो चैव । अंतरपनि पमित्रम - जगामवसर्हिय वसहिं वा ॥ ६२६ ॥ सीए य अपरिजोगे ने चंदने न बंदई सो उ तं धेनुमपमिवका, ताहि च्छिति ।।६३०|| लग्नादिषुत्वरमाणेषु शुभेषु अन्नयोगचन्द्रादिषु ऊगित्यागतेषु सत्सु अन्येषु च लग्नादिषु दूरकालवर्तिषु न तथा भध्येषु वा गृहीतापरिपूर्ण सूत्रार्था अग्निदिव्यतया कल्पं प्रतिपद्यन्ते । ततः प्रतिपद्य तं कल्पं गच्वान्निर्गन्य गुर्वधिष्ठितात् क्षेत्रग्रामनगहे देशेनानि रता गृहन्ति यदगृह । तमनघ। तमर्थज तं तत्र चायं विधिः-यहुतआचार्यः स्वयं तत्र गत्वा तेभ्यो यथालन्दिकेभ्यः (नयं ति) तम थे शेषं प्रयच्छति ददानि । अथ त एवाचार्थसमीपमागत्य किमिति नमर्थशेषं न गृहन्तीत्याह - (खेतं ईनाणेत्यादि) केत्रमध्यं समागच्छतां तेषां ययान्दिका नाम एते वच्यमाणा दोषाः। तथा हियमानेषु समालो कमध्ये परिवादो निन्दतादित्यादिकानां अहालंद स्थित्यैव आचार्य मुक्त्वा अन्यस्य साधोः प्रणामं कर्तुं न कल्पतेः गच्छ साधवश्च महान्तोऽपि तान् वन्दन्ते, ततो लोको देत् यथा कुष्टशीला निर्गुणाश्च एते, येन श्रन्यान् साधून् वन्दमानानपि न व्याहरन्ति न वन्दन्ति वा । गच्छ संबन्धिसाधूनां वा परिभ्रत्वाऽङ्का भदेव अवश्यमेते दुशीला निर्गुणाय ये न बन्धन्ते स्मार्थिक वा पतेतियन्दमानानपि वदन्ते इति । अथ यदि जङ्घाबलकीणतया तत्सकाशं गन्तुं (न तआचार्यस्तदा पति आगच्छति । कोणा इतर मूल सद्विगतिस्वं ग्रामविशेष पहा, प्रतिवृषभामा मूलत्रा द्विगम्यूतिस्वात् भिकाचामान्, अथवा बहिर्मूलक्षेत्राद् मूत्रक्षेत्र एव वा श्रन्यवसति वाशब्दात् मूलवसतिम् । श्यमत्र जावना -यद्याचार्यो यधादिसमीपे तं न शक्नोति तदा यस्तेषां यथादिकानांमध्ये चारण सोपीमागच्छति श्राचार्यस्तु तत्र गत्वा अर्थ कथयति । श्रत्र पुनः साधुसंघाटको मूलक्षेत्रात पानं गृहीत्वा आचार्याय ददाति स्वयमाचार्यः सं ध्यासमये मूलमायाति प्रथान्तरपट्टीमागन्तुं न शक्नोति तदा अन्तरपल्लीप्रतिवृषभग्रामयोरन्तराले गत्वा अर्थ कथयति । तत्रापि गन्तुं प्रति तत्रापि गन्तुमर प्रतिपुषमग्राममूल के प्रयोरन्तराले तामामध्ये मूत्रत्रस्यैव विजने प्रदेश अथ तत्रापि गन्तुमसमर्थास्तदा मूल क्षेत्रमध्य एवान्यस्यां बसतो त्या तथापि गमनशाये मूलवसतावेव प्रध्नमाचार्यस्तस्मै यथालन्दिकायार्थशेषं प्रय तीत उत्कल्पचूर्ण "आयरिप सुरु पोरिसियो रिसिं च गच्छे नियाण दाउ अहालंदियाणं सगामं गंतु, अत्थं सा अन तरह दो वि परिसओ दागंतु तो सुरूपोरिसिं दानं वच्चर, अत्थपोरिसिं सीसेण दयावे‍ । अत्थसुत्तपोरिसिं पि दातुं गंतुं न तरह, तो दो वि पोरिसीओ सीसेण वायावे अप्पणा अडालंदिप वापर । जश् न सक्केइ आयरिश्र सपा अचाहे जो तेलि अदादिबाणं धारणाकुसो सो अंतरपसिधे सवसई पति आयरियो तस्स गंतुं अत्थं कति । एत्थ पुण संघामो भत्तपाणं गहाय आयरियस्स नेश, गुरू वेयालियं पडिए इति । एवं पिश्रसमये गुरु अंतरापचिसमगामस्य अंतर याति असति पडियसने पाय असतिपविभ वासगामस्स य अंतरा वापत्ति, असति वसभगामस्स बहियाप वापति । प्रतरं सग्गामे श्रन्नाए वसद्दीप, अतरंते एगवसही 1 अपरिभोने वाले इत्यादि॥ सीय अपरभो गोशि) तस्यां च पापपरिभोगे तथाविधजनाकीर्णे स्थाने, तेभ्योऽर्थशेषं प्रयच्छतीति योगः । तत्र च ये ग साधो महान्तोऽपि यथालन्दिकं वन्दते, स पुनर्यथालदिनदति वयं तमशेषं गृहीत्वा परिनिहित योजनस्वाद गच्छेति सन्तोपधादिकाच्या वयानुरूपं विहरन्ति जिकल्प परिपालयन्ति इति प्र० ७० द्वार | वृ० | घ० । विशे० । 1 " अथ जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक भेदभिशानां परस्परं विशेषमाहजाकपिया सहियं किंवि गिपि ते न कारिति । निष्प मिकम्मसरीरा अवि पि पि नवति ॥ ६३१| जिनकल्पका यथानन्दिकाः काक्षे मारणा Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६९) प्रहालंद अनिधानराजेन्दः। अहासंद प्यातङ्के समुत्पन्ने, न कामवि चिकित्सा ते काग्यन्ति , तथाक-1 पन्नरस पुरिसा उक्कोसेणं महस्सपुदत्तं पुयपमिवनगाणं जहलपस्थितेः । अपि च-मिपतिकर्मशरीराः प्रतिकर्मरहितदेहास्ते श्रेणं कोमिपुहत्तं, उक्कोमण वि कोमिपुत्तमिति"। केवलं जघनगवन्तस्तत मास्तां तावदन्यत, भक्किमलमपि नापनयन्ति,श्र-| न्यादुत्कृष्टं विशिष्टतरं झेयमिति । प्रव० ७० द्वार। वृ०। प्रमादातिशयादिति । अथ गच्चप्रतियच्यथालन्दिकद्वारमाहथेराणं नाणतं, अतरंतं अप्पिएंति गउस्स । पडिबके को दोमो, आगमणेगागिणम्स वासासु । ते विय से फासुरणं, करिति सव्वं पिपमिकम्मं ॥६३॥ | सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो।। स्थविरकल्पिकयथासन्दिकानां जिनकटिपकयथालन्निकेभ्यो ना. प्रनिबन्धन प्रतिबन्धः,गच्छप्रतिबन्ध इत्यर्थःतत्र कारणे यथानात्वं भेदः, यथा अशक्नुवन्तं व्याधिबाधितं सन्तं स्वसाधु. लन्दिकानां च वक्तव्य (को दोसत्ति) को नाम दोषो भवति यमर्थयन्ति गच्छस्य गच्छवासिसाधुसमूहस्य स्वकीयं पञ्चकग ते यथासन्दिका आचार्याधिष्ठिते केत्रे न तिष्ठन्ति । (आगमणेगाणपरिपूरणार्थ च तस्य स्थाने विशिष्टकृतसंहननादिसमन्वित गिणस्सत्ति) यद्याचार्याः स्वयं केत्रबहिर्गन्तुं न शक्नुवन्ति तत मन्यं मुनि स्वकस्पे प्रवेशयन्ति । तेऽपि च गच्छवासिनः माध. एकाकिनो यथालन्दिकस्थागमनं भवति (वासासु सिवामु घः ( से त्ति ) तस्य अशक्नुवतः प्राशुकेन निरवधेनानपाना उपयोग दवा यदि जानाति वर्ष न पतिष्यति तन आगच्छति:दिना कुर्वन्ति सर्वमपि परिकम प्रतिजागरणमिति । न्यथा तु नेति । श्रुतसंहननादिकस्तु गमः स एव निरवशेषो वकिश्व क्तव्यो यो जिनकल्पिकानाम् : यस्तु विशेषः स प्रागेवोक्तः । एकेकपरिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। अथ प्रतिबद्धपद व्याख्यानजे पुणसिं जिणकप्पे, जावे सिं वत्थपायाणि ॥६३३॥ सुत्तत्थमावसेसो, पमिवंधो सिमो जवे कप्पो । स्थविरकल्पिका यथालन्दिका अवश्यमेव एकैकपतग्रहकाः आयरिए किइकम्मं, अंतर बहिया य वसहीए । प्रत्येकमेकैकपतग्रहधारिणः, तथा सप्रावरणाश्च भवन्ति । ये सूत्रार्थस्तैगृहीतः परमद्यापि सावशेषो न संपूर्णः, एष तेषां गपुनरेषां यथालन्दिकानां जिनकल्पे भविष्यन्ति, जिनकल्पिक चविषयप्रतिबन्धः । तेषां चायं वक्ष्यमाणः कल्पो, यथा-श्राचायथालन्दिका इत्यर्थः । जावे तेषां वस्त्रपात्रे सप्रावरणाः प्राव. यस्यैव कृतिकर्म बन्दनकं दातव्यं, तथा-यद्याचार्यों न शक्नोति रणपतग्रहधारिपाणिपात्रभेदभिन्नभाविजिनकल्पापेक्षया के गन्तुं ततोऽन्तरा वा प्रामस्य, बहिर्वा बसतो, यथासन्दिकस्य पांचिद्वस्त्रपात्रलकणमुपकरणं भवति, केषां च नेत्यर्थः । प्रव० वाचनां ददाति । एतत्तूसरत्र भावयिष्यते । ७० द्वार । वृ०। अथ को दोष इति द्वारं शिष्यः पृच्छति । यथाऽद्याचार्याधिअथ सामान्येन यथालन्दिकप्रमाणमाइ ष्ठिने केत्रेते तिष्ठेयुस्ततः को दोषः स्यात?, अच्यतेगणमाणो जहना, तिनि गण सयग्गसो य उकोमा। नमणं पुबब्भासा, अणमण दुस्सीलथप्पगासका। पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसो ॥६३४।।। प्रायड कुकुम त्ति य वादो लोगे ठिई चेव ।। गणमानतो गणमाश्रित्य जघन्यतस्त्रयो गणाः प्रतिमद्यमान- यथालन्दिकानां न वर्तते आचार्य मुक्या अन्यस्य साधोः का जवन्ति । शताग्रशश्न शतपृथक्त्वमुत्कृष्टतो गणमानं, पुरुष-। प्रणामं कर्तु, तथाकल्पत्वात् । ततस्ते केत्रान्तस्तिष्ठन्तः पूर्वाज्याप्रमाणं स्वेतेषां प्रतिपद्यमानकानां जघन्यतः पञ्चदश, पञ्चको सानमनं प्रणाम साधूनां कुर्युः, गच्चवासिनश्च यथासन्दिकान् हि गणोऽम का प्रतिपद्यते । गणश्च जघन्यतनयः, ततः चन्दन्ते ते पुनर्यथालान्दकास्तान भूयो न प्रतिवन्दन्ते, ततस्तेषापञ्चभिर्गुणिताः पश्चदश, उत्कृष्टतः पुनः पुरुषप्रमाणं सहस्रशः मनमने झोको यात्-दु-शीला अशीलाः स्तम्भकल्पा अमी,यसहस्रपृथक्त्वम् । तोऽन्येषामित्धंवन्दमानानामपि न प्रतिवन्दनं प्रयच्छन्ति, न वा ___ पुरुषप्रमाणमेवाश्रित्य पुनर्विशेषमाह. कमप्यालापं कुर्वन्ति । गच्छवासिषु वा लोकस्य स्थाप्यकशानं भवति-अवश्यं स्थाप्या :शीलत्वादवन्दनीयाः कृता श्रमी, पडिव जमाणगा वा, इक्काइ हवेज कणपक्खे नि । अन्यथा कथं न प्रतिवन्धन्ते। प्रात्मार्थिका वा अमी येनाप्रतिवन्दहोति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा ॥ ६३४ ॥ मानानपि बन्दन्ते, कौकुटिका वा मातृस्थानकारिणोऽमी लोकपुनपमिवनगाण वि, नकोसजहन्नसो परीमाणं । पङ्किनिमित्तामत्थं वन्दन्ते । एवं लोके वाद उपजायते, कारणैः क्षेत्रबहिस्तिष्ठन्ति । आपच स्थितिरेव कल्प एवायममीषां, यत् कोमिपहु जणियं, होइ अहासंदियाणं तु ॥६३५॥ क्षेत्रात्यन्तरे न तिष्टन्ति । प्रतिपद्यमानका पते जघन्यत एकादयो वा भवेयुन्यूनप्रकेपेस अथामीपामेव कल्पमाहति,यथालन्दिककल्पे हि पञ्चमुनिमयो गच्चा,तत्रच यदारमान दोनि वि दाउं गमणं, धारणकुसलस्म देस्स वहि दे। स्वादिकारणवशतो गच्चसमर्पणादिना तेषां न्यूनता भवति तदेकादिकःसाधुस्तं कल प्रवेश्यते,येन पञ्चको गच्गे भवति,एवं करकम्मं चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिज्जा य ।। जघन्यापत्तेः प्रतिपद्यमानकास्तथा शतानश उत्कृष्टाः प्रतिपद्य- प्राचार्यः सूत्रार्थपौरुप्यौ द्वे अपि गच्छवासिनांदत्वा यथासन्दिमानका एवेति ॥६३४॥ पूर्वप्रतिपन्नानामपि सामान्यनोत्कृष्टतोज- कानां समीपे गमनं करोति,गत्वा च तत्र तेषामर्थ कथयति।घन्यतश्च परिमाणं कोटिपृथक्त्वं जणितंत्रवति ययासन्दिकानाम। थाचार्यों न शक्नोति तत्र गन्तुं ततो यस्तेषां यथासन्दिकानां मध्ये उक्तं च कल्पचूर्णी-"पडियजमाणगा जहन्नणं तिनि गणा,उक्को । धारणाकुशनोऽवधारणाशक्तिमान, केत्रबढिरन्तरा पल्लिकायाःप्र. सेणं सयपुत्तं गणाण पुरिसप्पमाणेणं पमिवजमाणगा,जहणं | स्यासने भूनागे समायाति, तत्र च गत्वा प्राचार्यस्तस्यार्थ ददा २१८ , Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७०) अहालंद अनिधानराजेन्षः। ग्रहालहुस्सय ति। स च श्रुतभक्तिहेनोराचार्याणां कृतिकर्म वन्दनकं दत्त्वा चोल- ग्रामे षट् वीथीः परिकल्प्य यथालन्दिका एकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पट्टकद्वितीय औपग्रहिक्यां निषद्यायामुपविपश्चार्थ शृणोति । पञ्च दिवसान् भिक्षामटन्ति तस्यामव चवाथ्यां वसतिमपि गृअथ "दोनिवि दाउंगमणं" इत्येव दर्शयन्नाह हन्ति" । एवं प्रतिवीथ्यां'पणगेणं'रात्रिंदिवपञ्चकेन मासो अत्थं दो च अदा, बच्चइ वायावए व अन्नेणं । विभज्यमानः सन् पद्धिारहोरात्रपञ्चकैनिष्टितः सम्पूर्णो भवति। अय नास्ति विस्तीर्णो ग्रामस्ततो ( हवंतहालंदियाण उग्गामा एवं ता ननबछे वासासु य काउमुत्ररोगं ।।। इति) मूलवेत्रपार्श्वतो ये लघुतरा षट् ग्रामा भवन्ति, तेषु प्रत्येक यद्याचार्यों द्वे अपि पौरुध्यौ दत्वा गन्तुं न शक्नोति ततोऽर्थ- पश्च पश्च दिवसान् पर्यटतां यथावन्दिकानां तथैव बनिरहोमदरवा. तथाऽप्यशक्तो द्वावपि सूत्रार्थाबदत्वा व्रजति, अन्येन रात्रपञ्चकर्मासः परिपूर्को नवतीति । वृ०१ उ०। वा शिष्येण स्थशिष्यान् वाचयति वाचनां दापयति । अथाचार्यस्तत्र गन्तुमशक्तस्ततो यथासन्दिकः सूरिसमीपमायाति, एवं ता. अहालहुस्सय-ययालघुस्वक-ना यथेति यथोचितानि लघुवत् ऋतुबद्ध षटव्यम् । वर्षासु.चशब्दः पुनरर्थे। वर्धासु पुनरयं वि. स्वकानि श्रमहास्वरूपाणि, महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वा शशेषः-उपयोगं कृत्वा किं वर्ष पतिष्यति नवेति विमृश्य यदि क्यत्वादिति यथालघुस्वकानि । अथवा लघूनि महान्ति वरिजानाति पतिष्यति ततो न प्राचार्याणां समीपमायाति । ठानीति च वृक्षाः । अमहास्वरूपेषु, भ० । "देवाणं अहासहुस गाई रयणा हंता अत्थि" भ०३ श० २ ०। अनेकान्तलघुके अथ गुरवस्तत्र गताः कथं समुद्दिशन्तीत्याह वीणाग्रहणग्राह्ये, व्य० ७ उ० । स्तोके, व्य० । संघामो मग्गणं, जत्तं पाणं च नेइ न गुरूणं । __ यथालघुस्वकादिव्यवहारप्ररूपणामाहअच्चुएहं थेरा वा, तो अंतरपशिए एइ ।। गुरुओ गुरुस्सतरगो, अहागुरुस्सो य हो ववहारो। गुरूणां यथालन्दिकसमीपमुपगतानां योग्य नक्तं पानं च गृहीत्वा संघाटकोमार्गेण पृष्ठतोगत्वा गत्वा तत्रनयति । अथ या लहुसो लहुस्सतरगो, अहाबहुस्सो य होइ ववहारो॥ चता कालेन यथासन्दिकानामुपाश्रयं गुरुवो व्रजन्ति तावता,श्र एएसि पच्चित्तं, वुच्छामि अहाणुपुबीए । त्युष्णमता वा तपश्चरन्ति, स्थविरा वा वाकिवयःप्राप्तास्ते व्यवहारस्त्रिविधः। तद्यथा-गुरुको गुरुस्वतरको यथागुरुस्वकश्राचार्यास्ततोऽन्तरपत्रिकायामेको यथासन्दिको धारणासं- श्च । तत्र यो गुरुकः स त्रिविधः। तद्यथा-लघुशो लघुस्खतरको पन्नः समायाति, तत्र गुरवोऽपि गत्वा तस्य वाचनां दत्वा यथालघुस्वकश्च । एतेषां व्यवहाराणां, यथानुपूर्ध्या यथोक्तपरिसंघाटकेनाऽऽनीतं भक्तपानं समुद्दिश्य संध्यासमये मूलके- पाट्या, प्रायश्चित्तं वक्ष्यामि। किमुक्तं जबति?,एतेषु व्यवहारेषु त्रमायान्ति । समुपस्थितेषु यथापरिपाट्या प्रायश्चित्तपरिमाणं अनिधास्ये। अथाऽन्तरपश्विमपि गन्तुमसमर्था गुरवः, ततः किमित्याह यथाप्रतिज्ञातमेव करोतिअंतरपमिवसले बा, विइयंतर बाहि वसजगामस्स । गुरुगो य होइ मासो, गुरुगतरागो चनम्मासो। अत्राए सहीए, अपरीनोगम्मि वाए। अहगुरुओ उम्मासो, गुरुगयपक्खम्मि पमिवत्ती॥ अन्तरपतिकाप्रतिवृषलग्रामयोरन्तराले गत्वा यथासन्दिकंवा गुरुको नाम व्यवहारो मासो मासपरिणामः, गुरुके व्यवहारे यति,तत्र गन्तुमशक्तो प्रतिवृषभग्रामे, अथ तत्रापि गन्तुं न श समापतिते मास एकः प्रायश्चित्तं दातन्य इति जावः। एवं गुरुक्रोति ततो (विइयंतरं ति) द्वितीयं प्रतिवृक्षमूल वेत्रयोरपान्त- तरको भवति चतुर्मासपरिमाणः । यथागुरुकः परमासः, षणरावलक्षणं यदन्तरं तत्र गत्वा वाचनां प्रयच्छति,तत्रापि गमना- मासपरिमाणः । एषा गुरुकपके गुरुकव्यवहारे त्रिविधे यथा-. शक्ती वृषभग्रामस्य मूलकेत्रस्य बहिर्विजने प्रदेशे गत्वा वाच- क्रम प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिः। यति, यदि तत्रापि गन्तुं न प्रभविष्णुः ततो मूलवेत्र एवान्यस्यां वसती, तत्रापि गन्तुमशक्तौ तस्यामेव मूलबसतो अपरिभोग्ये सम्प्रति लघुस्वकव्यवहारविषयं प्रायश्चित्तप्रमाणमाहअवकाशे वाचयति। तीसा य परमवीसा, पनरसे पसवीसा य । तत्र चेयं सामाचारी दस पंच य दिवसाइं, लहुसगपक्वम्मि पमिवत्ती॥ तस्स जई किइकम्म, करिति सो पुण न तेसि पकरेइ । लघुको व्यवहारस्त्रिंशत त्रिशदिवसपरिमाणः। एवं अघुतरक: जा पढ ताव गुरुणो, करे न करेइ उ परेणं || पञ्चविंशतिदिनमानः । एषा लघुकव्यवहारे त्रिविधे यथाक्रम तस्य यथालन्दिकस्य यतयो गच्छवासिनः साधवः कृतिकर्म प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिः। यथालघुको व्यवहारः पञ्चदशपश्चर्यिकुर्वन्ति स पुनर्यथालन्दिकस्तेषां गच्छवासिनां कृतिकर्म न शतिदिवसप्रायश्चित्तपरिमारणः। एवं लघुस्वतरको दशदिवस. करोति, यावश्च पति अर्थशेषमधीते गुरोरपि तावदेव क मानः । यथालघुस्यकः पञ्च दिवसानि पञ्चदिवसप्रायश्चित्तानि रांति, परतस्तु न करोति, तथाकल्पत्वात् । परिमाणः । एषा लघुस्वकव्यवहारपक्षे प्रायश्चित्तपरिमाणप्रअमीषामेव मासकल्पविधिमाह तिपत्तिः । व्य०२ उ०। एको मासवियारो, हवंतऽहासंदियाण छग्गामा। सम्प्रति भाण्यकृत् यथासघुस्वकग्रहणं, तृतीयसूत्रमासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निडिओ होइ ।। गतमन्यतरग्रहणं च व्याख्यानयतियदि मूल क्षेत्रस्य बहिरको ग्रामः सविचारः सविस्तरो वर्तते, विहो य अहालहुसे, जहमश्रो मज्झिमो य उवहीरो। आह च चूर्णिकृत्-" सवियारो ति विस्तृतः ततस्तस्मिन् अनयरग्गडणेण उ, घेप्पा तिविहो उ उवहीओ। Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०७१) अभिधानराजेन्द्रः | अहाजहुस्सय यथालघुस्वके उपचिद्विविधो यति जघन्यो मध्यमस्य । अन्यतरग्रहणेन तु त्रिविधो ऽप्युपाधः परिगृह्यते । तदेवं कृता विषमपदव्याख्या भाष्यकृता । व्य० ६३० । श० ६ उ० । महाविद यथाविध- अव्य० । शास्त्रीयन्यायानतिक्रमे, द्वा० ७ द्वा० । अद्दासंखम-ययासंखद १० निष्कम्पे पट्टादो, नि०यू०२४० अहासंथड - यथासंस्तृत - न० । शयनयोग्ये, श्राचा० २ ० २ श्र० ३ उ० । यथासंस्कृत १० तृणादि चोपभोगा भवति तथैव ल ज्यते तस्मिन, स्था० ३ ०४ उ० । श्राचा० । अदासंविभाग यथा (चाचा) संविभाग-५० यथा सिद्धस्य स्वार्थे निर्वर्तितस्येत्यर्थः, अशनादेः समितिसङ्गतत्वेन पश्चात्कमादिदोषपरिहारेण विभजनं साधवे दानद्वारेण विनागकरणं यथासंविभागः । श्रतिथिसंविज्ञागवते, उपा० १ ० १ भ० । "अहाविभागो नाम आदि अहाकम् देति तो साधुमद्देनज ति देहिमा उतारेति तेण ग्राहाकमेव सो महाविभागो नयति जो बहावसानं पापो सदसपी फलज्ञासंचारगादीण संविभागो सो - हाचिनायो भवति फालु एस विभाग । ति भणियं हो" । आ० चू० ६ अ० । श्रधासंविभाग इत्यनुषंदितव्यः । अस्यातिचारा:-" तयाऽनंतरं च णं अहासंविभागस्स पंच श्रारा जाणिवा न समायरियग्वा । तं जहां सचित्तसिविसाया २ कामाने २ परोषदेशे मच्छरया ४ " । उपा०२ अ० । ( 'इहिस्संविभाग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३४ पृष्ठे उक्तोऽस्य विस्तरः ) अहासच्च यथासत्य - न० । याथातथ्ये, श्राचा० १ ० ४ ० २ ४० । अद्दासति यथाशक्ति-अव्य० स्पशक्यौचित्ये ३०२२ द्वा० ००४०नुसारे पं० सू० ३० । अहामुतपथासूत्र अन्य सामान्यतः सूत्रातिक्रमे दशा० - - | go | स्था० । उपा० शा० सूत्रानुसारेणापादितसत्यता के व्य० एन० | सूत्राविरुधे, कल्प० ६ ० ॥ अहाह-यथासुखअन्य सुखानतिक्रमे ०१० महावगास - यथावकाश-अव्य०। यो यस्यावकाशः यद्यस्योस्प सिस्थानम अथवा भूम्यम्बुका साऽऽकाशवी संयोगः कामे, सूत्र "तेखि व महादीनं महावगामेवं स्त्यी" अहि-म० उरः परिसर्पदे ४० २१० वर्षे उ " ३४ अ० । ज्ञा० । सूत्र० । यथावकाशेनेति । यो यस्यावकाशो मानुरुदयादिकस्तत्रापि किल वामा स्त्रियो, दक्षिणा कुक्तिः पुरुषस्योभयाश्रितः परढ इति । अत्र चाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजमिति चत्वारो जङ्गाः । तत्राप्याद्य एव भङ्गक उत्पत्तेरवकाशो, न शेषेषु त्रिष्विति । सूत्र० २ ० ३ श्र० । अहावच्च - यथापत्य - पुं० । यथाऽपत्यानि तथा ये, ते यथापत्याः । पुत्रस्थानीयेषु भ० ३ श० ६ ० | कल्प० । महावच्चाभिधाय पथापत्यानिज्ञात वि० यथाऽपत्यमेवमभिज्ञाता अवगता यथापत्यानिज्ञाताः; अथवा यथापत्याच तेनाति कर्मचारयः । पुत्रस्थानी वेष्यामेातेषु भ० ३ अहा सुदुम - यथासूक्ष्मबायरे पुग्गले परिसामे” । कल्प० २ ० । 3 अहाह अहह अन्य खेदे संबोधने आपले प्रकर्पे च । वाच० । प्रा० । अहिंसा -त्रि० । सारे भ० ३ श० १ उ० । “अड़ा अस्य भेदा: से किं तं ही ? । श्रही दुविधा पण्णत्ता । तं जहादव्वीकरा य, मंडलियो य ॥ - अथ के ते अहयः ? । गुरुराट् - अहयो द्विविधाः प्रशप्ताः । तद्यथा दवकराश्च मुकुल्लिनश्च । तत्र दवव दर्वी फणा, तत्कशीलादकरा, मुकुल फणाविरद्वयोग्या शरीरावयवविशेषाकृतिः, सा विद्यते येषां ते मुकुलिनः फणाकरणशक्तिवि कला इत्यर्थः । अत्राऽपि शब्दौ स्वगतानेक भेदसूचकी प्रा०१ पद | आचा० । (दवकर मुकुलिजेदा स्वस्वस्थाने द्रष्टव्याः ) अहि-अहित त्रि० दिनाऽकारिण, स० ३० सम० । अहिणियट्टि अहितनिवृत्ति स्त्री० । प्राणातिपाताद्यकरणे, - पं० ब० २ द्वार । अ (आ) हिचा अभिजाति-श्री०० "०" || १ | १८७ । इति भस्य हः। "कगचज०" ० १ १७७ । इत्यादिना तजयोर्मुकू । ' अतः समृद्ध्यादौ वा " । ८ । १ । ४४ । इति अकारस्य दीर्घः । सत्कुलोत्पत्तौ प्रा० १ पाद । ढुं० १ पाद । हिश्राहिश्रसंपत्ति-अधिकाधिक संप्राप्ति - स्त्री० । वृद्धी, पं० - - बं० ४ द्वार अहिऊल - दद् - धा०- भस्मीकरणे, सक० "दहेरहितलाबुङ” १८ | ४ | २०८ । इति दधातोरदिऊलादेशः। अहिऊलर, डहर, दहति । प्रा० ४ पाद । प्रसिध अहिंसक ० प्र० १० द्वार अहिंसा-अहिंसन न० अन्यापाने ०१ अधि । - अहिंसा-अहिंसा खान दिसासा | निं० ० २४० ॥ प्राणवियोगप्रयोजनव्यापाराभाव, द्वा० २१ द्वा० । प्राणिघातवर्जने, पं० ० १ द्वार । (१) स्वरूपनिर्वचनम्। (२) अतिलक्षणम् । (३) श्रहिंसाख्यसंवरघारस्याशेषा वक्तव्यता । (४) वैरियमुपसेविना रूपणम् । पालनोद्यतस्य यद् विधेयं निरूपणम (५) (६) प्रथमव्रतस्य पञ्च भावनाः । ( 9 ) सर्वे प्राणा न हन्तव्याः । (८) वैदिक हिंसाविचारः । (ए) मि सम्मान न हिस्यादिति प्रतिपादनम् । (२०) श्रार्थनिरूपणम् । (११) मनान्तरेऽहिंसा नाही। (१२) सर्वे प्रायाका हिसां मोक्षाभूतां प्रतिपद्यते न प्राधान्येन । Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा (१३)वेचन , (१४) एकान्त नित्यानित्यात्मनि दिसा न घटत इति निरूपणम्। (१५) आत्मनः परिणामित्वे हिंसाया भविरोधनिरूपणम् । (१६) स्वर्गादयो हि यदि स्वकृतकर्मानापादिता एव स्युरिति तदा कर्माभ्युपगमो निरर्थक इति हिंसाऽपि असंभवा जैनानामिति विचारः । ( १७ ) आत्मनो नित्यानित्यत्वस्य देहाद्भिन्नाभिन्नत्वस्य व साधनेप्रमाणोपदर्शनम (१८) आत्मनोऽसर्वगतत्वे गुणवर्णनम् । 66 (८७२) अभिधानराजेन्द्रः । ( १ ) श्रस्य निक्षेपः । हिंसाए परिक्लो, होड़ अहिंसा पिडा सा दर जाने हा अहिंस जीवापाड पि ४५ । दश० नि० | तत्र प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । अस्या हिंसायाः, किम्?, प्रतिकूलः पक्षः प्रतिपक्षः, श्र :, श्रप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं प्राणाऽव्यपरोपणमित्यर्थः किमभवत्यति तत्र चतु कारा असा (प्ये भावे यति व्यतो भायतको भ ङ्गः। तथा-व्यतो नो जावतः । भावतो न इव्यतः। तथा-न रूयतो न भाव इति । तथासति भयोन्यास अनुक्तसमुच्चयार्थकत्वादस्येति । उक्तञ्च - "तथा समुश्चयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रेयेषु" इत्यादि । तथाचार्य भङ्गभावार्थ भात" जहा के पुरखे मिचव परिणामपरि मिपासिता आचाहियको सरं णिसिरिखा, सेय मिए तेरा सरेण विधे मए सिया एसा दव्वश्रदिंसा, भावो वि या नभात साखर्यादि समितस्य साधोः कारणे गच्छत इति । उक्तं चचानियम्मि पाप, इरियासमियस्ल संकमट्ठाए । वावेजेज कुलिंगी, मरिज तं योगमासज्जा ॥ १ ॥ न य तस्स तं निमित्तो, बंधो सुडुमो वि देसिनो समए । अम्हा सो अपनतो, साउ पमा चिनिहिड़ा" ॥२॥ इत्यादि । या पुनर्भवतो, न द्रव्यतः सेयम- "जहा के वि पुरिसे मंदमंदष्पगाईसिलिका रज्जुं पासिता एस महि तितपरिणाम णिकठियाऽसिपत्ते दुअं दुत्रं विदिजा । एसा भाव हिंसाचरस्तु शून्यः श्वेवम्भूतायाहा प्रतिपोऽसेिति एकार्थकानिचित्साह ( श्रहिंसजीवाइवा त्ति ) न हिंसा अहिंसा, न जीवातितिपातः अजीवातिपातः । तथा च तद्वतः स्वकर्मातिपातो भवस्येवाऽजावश्च कर्मेति भावनीयमिति । उपलक्षणत्वाश्चेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः । दश० १ श्र० । त्रतस्थावरजीवरक्कायाम, संथा० । प्रमादयोगात्सत्त्वव्यपरोपणविरतिरूपे प्रथमे व्रते, घ० । (२) प्रथममहिंसा व्रतलक्षणमाह प्रमादयोगाद्यत्सर्व जीवास्यपरोपणम् । सर्वथा यावी, मोचे तत् प्रथमं व्रतम् ॥ ४॥ प्रमानो कामसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशयोग पुयाधान धर्मानादरभेदादष्टविधः तद्योगात् तत्संबन्धात् सर्वेषां सूक्ष्मादि भेदानां जीवानां प्राणिनां वेडस प्राणाः पचेद्रल यो साता दश तेषां यथासंभवेनायपरोपणम बिना शनदेशतोऽपि स्यादित्यत सर्वचेति। सर्वप्रकारेण त्रि हिंसा विधत्रिविधेन भट्टेन तर स्थायी बं प्राणधार वाचत्तत्प्रथमं प्रोचे जिनैरिति शेषः । प्रथमत्वं चास्य शेषाधारत्वात् सूत्रक्रमप्रामाण्याश्चावसेयम् । द्वितीयो हेतुश्च द्वितीयवतादिष्वपि भाग्य इत्युक्तं प्रथमं व्रतम् । ध० ३ अधि० । " तरिथमं पढमं ठाणं, महावीरेण देखियं । अहिंसा निऊणा दिडा, सम्भूय संय मो" ॥९॥ ० ० ६ ० (दशविधस्थानगस्य - कानां च व्याख्या ' अट्ठारसद्वारा ' शब्देऽस्मिन्नेव जागे २४०० पृष्ठे, स्वस्वस्थाने च द्रष्टव्या ) (३) हास्यसंवरद्वारस्यैषा वक्तव्यतातत्य पदमं हिंसा, तस्थावरसम्मन्यखेमकरी । ती सभावणार, उ किंचि वोच्छं गुणुद्दे ॥ (तत्य चि) तब तेषु पञ्चसु मध्ये प्रथमं सम्बरङ्गारमहिंसा (तसधावरसम्यनृपमरि सस्थावराणां सर्वेषां भूतानां हेमकरणशीला तया महिसाचा सभावनायास्तु भाष नापञ्चकोपेताया एव (किंचित्ति ) किञ्चनाल्पं, वक्ष्ये गुणोदेशं गुणलेशमिति । प्रश्न० । - अथ प्रयमसम्बर निरूपणावाद सत्य पदमं अहिंसा जा सा सदेवमनुपासुरस्म लोगस्स जवति दीवो. ताणं, सरणगती, पडा, निव्वाणं, निव्वुर, समाही, संती, कित्ती, कंती, रश्य विरइय सुयंग तित्ती, दया, विमुक्त्ती, खंती, सम्मत्ताराहणा, महंती, बोडी, बुद्धी, घिती, समिद्धी, रिद्धी, विद्धी, विती, पुडी, नंदी, जद्दा, बिसुकी, लकी, विसिद्धदिडी, कला, मंगलं, पमोओ, विभूति सिच्छावासो, रक्खा, अण्णासवो, केवलीणं ठाणं, सिव समियी, सील संजमो त्ति य, सीलधरो, संवरो य, गुत्ती, ववसाओ, उस्सतोय. जमो, आायतणं, जयणमप्पमात्र, असासो, विसासो, अजश्र सव्वस्स वि श्रमाघाओ, चोक्खपविती, सुती, पूया, विमलपभासा य, निम्मलतर चि । एवमादीनि नियगुणनिम्बियाई पज्जवनामाणि हुति अहिंसाए जगवतीए । (त्यादि) तत्र तेषु पञ्चसु सम्बद्वारेषु मध्ये प्रथममा स परद्वारमहिंसा किंभूता ? या सा सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य भवति (दीवत्ति) द्वीपो दीपो वा । यथाऽगाधजलधिमध्यमन्नानां स्वैरम्यदथितानां महोर्मिमालामध्यमज्जमानगात्राणां त्राणं भवति द्वीपः प्राणिनाम; एवमयमहिंसा संसारसागरमध्यगतानां व्यसनतपापमितानां संयोगवि योगयी चिविधुराणी प्राणं भवांत तस्याः संसारसागरोसारहेतुत्वात् इति हिंसा दीप उक्ता यथा पापकारनि राकृतरसराणां हेयोपादेयार्थहीनोपादानमुमनसां वि मिरनिकर निराकरणेन प्रवृत्यादिकारणं नवति; एवमहिंसा ज्ञा नायरणादिकमतमित्रनेन विद्धानेन प्रवृत्त्यादिकारणत्वादीप उक्ता तथा त्राणं, स्वपरेषामापदः सं• रक्षणात् । तथा शरणम्। तथैव सम्पदः, सम्पादकत्वात्। गम्यते श्रेयोऽर्थिभिराश्रीयत इति गतिः। प्रतिष्ठन्ते श्रासते सर्वे गुणाः सुखानि वा यस्यां सा प्रतिष्ठा तथा निर्वाणं मोक्कः, तद्धेतुत्वा Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) अहिंसा अन्निधानराजेन्डः। अहिंसा निर्वाणम । तथा-निवृत्तिःस्वास्थ्यम, समाधिः समता, शक्तिः, पूजा वा भावतो देवताया अचनम् । विमलप्रभासा, नशक्तिहेतुत्वात् । शान्तिः डोहविरतिः, कीर्तिः, ख्यातिहेतु. न्निबन्धनत्वात् ।( निम्मलनर ति) निमनं जीवं करोति स्वात् । कान्तिः, कमनीयताकारणत्वान् । रतिश्च रतिहेतु- या सा तथा, अनिशयेन वा निर्मला निर्मलनग । ति नाम्नां स्वात् । विरतिश्च निवृत्तिः पापात् । श्रुतं श्रुतज्ञानमङ्गं कारणं समानौ । एवमादीन्येवंप्रकारागि निजकगुणनिर्मितानि, यथायस्याः सा श्रुताना । श्राद च-“पढम नाणं तो दया " - | नीत्यर्थः । अत एवाह-पर्यायनामानि तत्तद्धमाश्रिताभिधात्यादि । तृप्तिदेनुस्वात् तृप्तिः । ततः कर्मधारयः । तथा- नानि भवन्त्यहिंसायाः; भगवत्या इति पूजावचनम् । दया ददिरका । तथा-विमुच्यते प्राणी सकलबन्धनेच्यो यया एसा भगवती अहिंसा, जा सा जीयाएं पिव सरणं, पसा विमुक्तिः । तथा-कान्तिः क्रोधनिग्रहः, तज्जन्यत्वादहि क्खीणं पिच गयणं, तिसियाणं पिच सलिलं, खुहियाणं साऽपि तान्तिरुता । सम्यक्त्वं सम्यग्बोधरूपमाराध्यते यया सा सम्यक्त्वाराधना । (महंति त्ति) महती सर्वधर्मानुष्ठानानां पिव असणं, ममुद्दमज्के व पोनवणं, चउप्पयाणं च बृहती । आह च-" पक्कंचिय एकवयं, निहि जिणवरेहिँ आसमपयं, उहहियाणं च ओसहिवलं, अमवीमाके सहि। पाणाश्वायविरमण-सब्बासत्तस्स रक्खहा" ॥१॥ च सत्थगमणं, एत्तो विसिहतरिका अहिंसा जा सा पुढवीबोधिः सर्वधर्मप्राप्तिः, अहिंसारूपत्वाच्च तस्या अहिंसा जल-प्रगाणि-मारुय-वणफती-बीज-हरिय-जलचर-थलचरबोधिरुता । अथवाऽहिंसा सानुकम्पा, सा च बोधिकारण खहचर-तस-थावर-सम्बनूयखेमकरी। मिति बोधिरेवोच्यते। बोधिकारणत्वं चानुकम्पाया:--"अणुक. पा कामनिजर-बासतवे दाणविणयविभंगे। संजोगविप्पभोगे, एषा सा भगवत्यहिंसा या सा नीतानामिव शरणमित्यत्रासबम्यूसम्बइसिक्कारे" ॥१॥ इति वचनादिति । तथा-बुद्धिः, श्वासिका, देहिनामितिगम्यम् । पक्वीएं पिच गयणं त्ति) प. साफल्यकारणत्वादू बुकिः। यदाद-"वादत्तरिकलकुसना, पं. क्षिणामिव गगनं, हिता, देहिनामिति गम्यम् । एवमन्यान्यपि मियपुरिसा अपंडिया चेव । सन्त्रकलाणं पचरं,जे धम्मकला न घट पदानि व्याख्येयानि। किं भूतादीनां शरणादिसमैव सा!,नेआमंति" ॥१॥ धर्मश्वाहिसैव । धृतिचित्तदाख्य, तत्परिपाल- त्याह-(पत्तो त्ति ) एतेयोऽनन्तरोदितेच्या दारणादिभ्यो नीयत्वादस्या धृतिरेवोध्यते । समृद्धिहेतुखेन समृहिरवो. विशिष्टतीरका प्रधानतरिका अहिंसा,हिततयेति गम्यते। शरणाच्यते । एवं ऋछिवृद्धी । तया-सापपर्यवसितमुक्तिस्थि- दितो हितमनकान्तिकमनात्यन्तिकं भवति;अहिंसातस्तु तद्वीपतिहेतुत्वात् स्थितिः। तथा-पुष्टिः, पुण्योपचयकारणत्वात् । रीतं मोक्षावाप्तिरिति तथा-'या साइत्यादि,याऽसौ.पृथिव्यादी. माह च-"पुष्टिः पुण्योपचयनम्" नन्दयति समृद्धि नयतीति नि च पञ्च प्रतीतानि, वीजहरितानि च वनस्पतिविशेषा श्रानन्दा । भन्दते कल्याणीकरोति देदिनामिति भता । विशुद्धिः हारार्थत्वेन प्रधानतया शेषवनस्पतिभेदेनोक्ताः,जनचरादीनि च पापक्षयोपायत्वेन जीवनिर्मलतास्वरूपत्वात्। प्राह च-"शुद्धिः प्रतीतानि प्रसस्थावराणि सर्वभूतानि, तेषां केमकरी या सा पापक्षयेण जीवनिर्मलता" । तथा-केवलज्ञानादिवब्धिनिमि- तथा, एषा पपैव, भगवती अहिंसा, नान्या। यथा लौकिकैः कतत्वावब्धिः। विशिष्टष्टिः प्रधानदर्शनमतमित्यर्थः, तदन्य- ल्पिता-"कुलानि तारयेत् सप्त, यत्र गौर्वितृषी भवेत् । सर्वथा दर्शनस्याप्राधान्यात्। आह च-"कि ती पढियाप, पयकोमीप सर्वयत्नेन, भूमिष्ठमुदकं कुरु" ॥१॥ इह गोविषये या दया सा पलासनूयाए । जत्थेत्तियं न नायं,परस्स पीडा न कायब्या"।। किल तन्मतेनाऽहिंसाऽस्यां च पृथिव्युदकपूतरकादीनां हिं. कल्याणं, कल्याणप्रापकत्वात् । मङ्गलं, छरितोपशान्ति- सास्तीत्येवंरूपा न तम्यगासेति । हतुत्वात् । प्रमोद, प्रमोदात्पादकत्वात् । विभूतिः, सर्व- (४) अथ यैरियमुपलब्धा सेविता च तानाहविनूतिनिबन्धनत्वात् । रक्षा, जीवरकणस्वभावत्वात् । सि एसा जगवती अहिंसा जा सा अपरिमियनाएगदसणकावासः, मोकावासनिबन्धनत्वात् । अनाश्रवः, कर्मबन्ध घरेहिं सीलगुणविए यतवसंजमनायकहिं तित्थकरेहिं निरोधोपायत्वात् । केवलिनां स्थानं, केवलिनाहिंसायां व्यवस्थितत्वात् । (सिवसमितिसीलसंजमोत्ति य)शिवहेतुत्वे. सव्वजगवच्छोहिं तिलोगमहितेहि जिपचंदेहिं सुछ दिघा न शिवसमितिः सम्यक्प्रवृत्तिः, तदूपत्वादहिंसा शिवसमि ओहिनाणेहिं विणाया उज्जुमतीहिं वि दिवा विपुलतीहिं तिः। शीलं समाधानं, तदूपत्वाच्छीलम् । संयमोऽहिंसात उप विदिता पुव्वधरेहिं अधिया विउव्वीहिं पत्तिमा आजिणिरमः । इति रूपप्रदर्शने; चः समुच्चये। (सीलघरोत्ति शा- बोहियनाणीहिं सुयनाणीहिं मणपजवणाणीहिं केवलसगृहं चारित्रस्थानम् । सम्बरश्च प्रतीतः । गुप्तिरशुभानां णाणीहिं आमोसहिपत्तेहि खेलोमहिपत्तहिं जबामहिपत्तेमनःप्रभृतीनां निरोधः । विशिष्टोऽवसायो निश्चयो व्यव. हिं विप्पोसहिपत्तेहिं सयोसहिपत्तेहिं वीजबुछीएहिं कोसायः । उच्छ्रयः स्वभावोन्नतत्वम । यो नाचतो देव हबुकीहिं पयाणुसारीहिं संभिस्मसोतेहिं सुयधरोहिं मणपूजा । आयतनं गुणानामाश्रयः । यजनमभयस्य दानं, यतनं वा प्राणिरकणं प्रति यत्नः । अप्रमादः प्रमादर्जनम। बन्नएहिं वयबलएहिं कायबलएहिं नाणबलएहिं दंसणपाश्चास आश्वासनं प्राणिनामेव । विश्वासो विश्रम्भः। बलरहिं चरित्तबलएहिं खीरासवेहिं महुआसवेहिं सप्पि(अभओ ति ) अभयं सर्वस्यापीति प्राणिगणस्य । अ यासवेहिं अखीणमहाणसिएहिं चारणेहिं विज्जाहरेहिं चमाघात अमारिः । चोकपवित्रा, एकार्थशब्दद्वयोपादानात अतिशयपवित्रा । शुचिर्भावशौचरूपा । प्राह च-"सत्यं शौचं उत्यभत्तिएहिं बहनत्तिएहिं अट्ठमभत्तिएहिं दसमनत्तितपः शौचं, शौचमिन्छियनिग्रहः । सर्वभूतदया शौचं, ज- एहिं एवं वाझसचउदससोलसअचमासमासदामालशौचं च पञ्चमम" ॥ ॥ इति । (पूयत्ति) पवित्रा, | सतिमासच उमासपंचमामउमासजत्तिएहिं उक्खित्तचर २१ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) अहिंसा अन्निधानराजेन्द्रः । अहिंसा एहिं एवं निक्खित्तचरएहिं अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूह- गवेसियवं,अमाए भगहिए अदुहे अदीण अविमणे अचरएहिं समुदाणिचरएहिं अप्मगिलाइएहिं मोणचरएहिं कबुणे अविसाती अपरितंतजोगी जयणघमणकरणचसंसहकप्पिएहिं तजायसंसहकप्पिएहिं नवनिहिएहि मुके। रियविनयगुण जोगसंपउत्ते भिक्खू जिक्वेसणार णिरए मं सणिएहि मखादत्तिएहिं दिल्लाभिएहिं आदिट्ठलानिएहिं च सम्बजगज्जीवरक्खणदयट्टयाए पावयण भगवया मुकपुट्ठलानिएहिं पायंबोलएहिं पुरमलिएहि एकासणिए- हियं अकेहियं पेच्चा भावियं आगमेसि नई सुफ नेयाहिं निवित्तिपहिं भिल्यपिस्वातिएहिं परमियपिस्वातिएहिं उयं अकुमिन्नं अत्तरं सव्वदुक्खपावाण विनसमणं ।। अंताहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरमाहारहिं तु-| (इमं चेत्यादि ) अयं च वक्ष्यमाणाविशेष सञ्छो गवेषणीय च्याहारेहिं लूहाहारेहिं अंतजीवोहिं पंतजीवींहिं लूहजीवी-| इति सम्बन्धः । प्रश्न०१ सम्बद्वार । (सगद्यथाऽन्यत्राऽन्यत्र) हिं तुजजीवीहिं नवसंतजीवीहिं पसंतजीवीहिं विविन | अथ यदुक्तं "तासे सभावणाए, उकिंचि वोच्छं गुणुदेसं" जीबीहिं अखीरमधुसप्पिएहिं अमज्जमंसासिएहिं गणाइ. इति, तत्र का भावना ?, अस्यां जिज्ञासायामाहएहिं पमिमट्ठाइएहि ठाणुक्कमुएदि विरामणिएहिं पोस (६) प्रथमव्रतस्य (अहिंसारूपस्य ) पञ्च भावना:-- किएहि मायएहिं बगमसातिएहिं एगपासाएहिं आया- तस्म इमा पंच भावणाओ पढमस्स वयस्स हुंति, पाणावएहिं अवाउएहिं अणिटुभएहिं अकंडुयएहिं धूतकेस- वायवेरमणं परिक्खरगट्टयाए पढमं गणगमणगुणजोमंसुलोपनखेहि सव्वगायपमिकम्मविष्पमुक्कोहि समाचि- गजेंजणगंतरनिवतियाए दिट्ठीए रियव्वं कीम्पयंगतभामुयधरविदितत्यकायबुद्धीहिं धीरमतियुछिणो य जे ते सथावरदयावरण निच्च पुप्फफलतयपवालकंदमूलदगमट्टिभासी विसनग्गतेयकप्पा णिच्छयववसायपज्जत्तकयमतीया यवीयहरियपरिवज्जएण समं, एवं खु सव्वे पाणा ण हीपिच्चं समायज्झाणं अवंधधम्मउझाणा पंचमहन्व- नियन्वा न निंदियन्वा न गरहियव्वा न हिमियब्बा न यचरित्तजुत्ता समिया समितीसु समितपावा गंवहजगव- बिंदियव्वा न निंदियवान वहेयव्वा न मयं मुक्खं च चला णिच्चमप्पमत्ता एयहि य अमेहि य जा सा अ- किंचि लब्जा पावेन जे एवं रियासमिइजोगण जाविओ एपालिया जगवती ॥ नवति अंतरप्पा असवलमसंकिलिट्ठनिव्वणचरित्तनाव(पदानामर्थः स्वस्वस्थाने द्रष्टव्यः) नवरं (एतेहि यति) ये| णाए अहिंसए संजए सुसादु १॥ ते पूर्वोक्तगुणा एतैश्चान्यैश्वानुकून लक्षणैर्गुणवङ्गिाऽसावनुपा (तस्सेत्यादि) तस्य प्रथमस्य व्रतस्य, भवन्तीति घटना, मिता भगवती अहिंसा, प्रथम सम्वरद्वारमिति हृदयम् । श्मा वक्ष्यमाणप्रत्यक्काः पञ्च भावना; भाव्यते वास्यते व्रते(५) प्रथाहिंसापालनोद्यतस्य यद्विधयं तदुच्यते- नात्मा यकाभिस्ता नावना ईर्यासमित्यादयः। किमों जवन्तीइमं च पुढवी-दग-अगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावर त्याद-(पाणा इत्यादि ) प्रथमवतस्य यत्प्राप्यातिपातविरमण लक्षणस्य परिरक्वणस्वरूपं, तस्य परिरक्षणार्थाय ( पढमं ति) सव्वयसंजयदयट्ठयाए सुदं उंछ गवेमियव्वं अकयम प्रथमभावनावस्थितिर्गम्यते,स्थाने गमने च गुण योगं च स्वपरकारियमणाहुयमादिडं अकयक नवकोमोहिं परिसुफ प्रवचनोपघातवर्जनलकणगुणसम्बन्धं योजयति करोति या दमहिं य दोसेहिं विप्पमुक्कं उग्गम उप्पायणेसणासुचववगय- सा। तथा-युगान्तरे युगप्रमाणनूभागनिपतति या सा युगान्तचुयचश्यचत्तदेहं च फामुयं च न निसिज्ज कदा पयोय- रनिपातिका,ततःकर्मधारयः। ततस्तया दृष्टया चकुषा (इरिय व्वं ति) ईरितव्यं गन्तव्यम् । केनेत्याह-कीटपतलादयश्च त्रसाथ फासउवणीयं न तिगिच्छामंतमझनेसजकज्जहेनं न स्थावराश्चकीटपतङ्गत्रसस्थावराः, तेषु दयापरी यस्तन, नित्यं लक्खणुपायसुमिणजोसनिमित्तकह कहकप्पोतं न वि पुष्पफयत्वक्प्रवालकन्दमूत्रदकमृत्तिकाबीजहरितपरिवर्ज केन, मंभणाए न विरक्खणाए न वि सासणाए न विजण-| सम्यगिति प्रतीतं, नवरं प्रवालः पखवाडूरः, दकमुदकमिति । रक्खासासणाए भिक्खं गवेसियवं, न विवंदणाए न वि- अर्यासमित्या प्रवर्तमानस्य यत् स्यातदाह-(पवं खु ति) एवं माणणार न वि पूयणाए न वि वंदणमाणणपूयणाए भि च ईयासामत्या वर्तमानस्येत्यर्थः, सर्वप्राणाः सर्वजीवा नही सयितव्या अवज्ञातव्या जवन्ति,संरक्षणप्रयतत्वान्न तानवज्ञाचिक्खं गवेसियव्वं, न वि होलणाए न वि नंदणाए न वि ग षयीकरोतीत्यर्थः। तथा-न निन्दितव्याः,न गर्दितव्या भवन्ति,सरहणाए न वि होलणानिंदणागरहणाए निक्खं गवेसि- था पीडावर्जनोद्यतत्वेन गोरव्याणामिव दर्शनात् । निन्दाच स्वयवं, न वि भेसणाए न वि तजणाए न विनालणाए न वि समक्षा,गही वा परसमका । तथा-नदिसितव्याः पादाक्रमणेन जेसणतजणताक्षणाए भिक्खं गवेसियव्वं, न विगारवेणं मारणतः,एवं न च्छेत्तव्याद्विधाकरणतः,न नेत्तव्याःस्फोटनतः, (न वयवत्ति) न व्यधनीयाः परतापनात,न भयं भीतिः,हावं न वि कुडणाए न वि वणिमयाए न वि गारवकुहण वा शरीरादि किश्चिदम्पमपि, ज्या योग्या प्रापयितुम'जे'इति पणिमयाए जिक्खं गवेसियध्वं, न वि मित्तयाए न वि प निपातो वाक्यालङ्कारः पवमनेन न्यायेनेयांसमितियोगेनर्यात्याएन वि सेवणाए न वि मित्तयपत्याए सेवणाए जिक्खं समितिव्यापारण, जाविता वासितो नवत्यन्तरात्मा जीवः। कि नगरता ॥ Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा (८७५) भनिधानराजेन्डः। अहिंसा म्बिध इत्याद-अशवलेन मालिन्यमानरहितेन, असक्लिष्टेन हकर, प्रकृष्टदोषं प्रदोपिकं, तथा-प्राणिनां परितापकारीत्यादि विशुद्भयमानपरिणामवतो, निर्यणनाक्कतेनासा नति यावत् ।। न विधेयमिति । प्राचा०१ ध्रु० ३ घू०। चारित्रण सामाधिकादिना भावना वासना यस्य सोऽशवसा- तश्यं च वइए पावए पावगं अहम्मिकदारुणं निसंसं संक्लिष्टनिर्वणचारित्रभावनाकः । अथवा-अशवलाक्ष्यिनि वहबंधपरिकिटेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिलिटुं न प्रणचारित्रभावनया हेतुनूतया अहिंसकोऽवधकः, संयतो मृपावादाघुपरमाद् मोक्षसाधक इति । प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। | कयावि वइए पावियाए प्रो पावगं किंचि वि भासियध्वं,एवं मजिहणेज वा वत्तेज वा परियावज वा सज्ज वा न वासमितिजोगेण भावि यो भवई अंतरप्पा असवलमसंकिहवेज्ज वा इरियासमिए से णिग्गये णो इरियाअसमिए लिट्ठनिव्वणचरित्तजावणाए अहिंसओ संजओ मुसाहु ३। त्ति पढमा नावणा ॥ (तश्यं चत्ति) तृतीय पुनर्भावनावस्तु वचनसमितियंत्र वाचा ईरणं गमनमौर्या, तस्यांसमितो दत्तावधानः, पुरतो युगमात्र पापं न भणितव्यम् । इत्येतदेवाह -(वइए पावियाए इति)काका नुभागन्यस्तर्राष्ट्रगामीत्यर्थः नत्वसमितो भवेत्। किमिति?,यतः ध्येतव्यम् । एतद् व्याख्यानं च प्राग्वत् । प्रश्न १ सम्ब० द्वार। केवल धूयात् कर्मोपादानमेतद्गमनक्रियायामसमितो हि प्राणि- अहावरा तच्चा भावणा वई परिजाणति, से णिग्गंथे० नाऽभिहन्यात पादन ताम्यत्, तथा-वर्तयेदन्यत्र पातयेत्, तथा- जाव वाइपाविया सावज्जा सकिरिया० जाव जूतोवघाइया परितापयेत्पीडामुत्पादयत्, अपद्रापयद्वा जीवितादू व्यपरोप तहप्पगारंबई यो उच्चारेजा व परिजाणइ, से णिगये यदित्यताममितेन भवितव्यमिति प्रथमा भावना। प्राचा २ ० ३ चू। जाव बइं अपाविय त्ति तच्चा भावणा।। अथापरा तृतीया भावना, तत्र निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन ज. वितिगं च मणेण पावएण पावकं अहम्मिकदारुणं नि व्यतव्यमिति । प्राचा०२ श्रु०३चू०।संसं वहबंधपरिकिलेसबहुलं जरामरणपरिकिलेससंकिविट्ठ चउत्थं आहारएसणाए सुझं उठं गवेसियवं, अप्पाए न कया वि मणेणं पावएणं पावगं किंचि विकायव्वं, एवं अकहिए असिढे अदाणे अकलुणे अविसाती अपरितंतमण समितिजागेण नावितोजवति अंतरप्पा असवन्नामसकि जोगी जयणघडणकरणचरित्तविनयगुणजोगसंपनत्ते निलिट्ठनिव्वणचरित्तन्नावणाए अहिंसए संजए सुसाहु २॥ क्खू निक्खसणाए जुत्ते समुदाणिकण निक्खचरियं - द्वितीयं पुनविनावस्तु मनःसमितिस्तत्रं मनसा पापं न ध्यातव्य लं घेत्तूणं आगए गुरुजणस्स पासं गमणागमणातिचारपमापतदेवाह-मनसा पापकन पापकमिति काका ध्येयम् । ततश्च मिक्कमणपामते पालोयणदायणं च दाऊण गुरुजणस्स पापकेन दुष्टेन सता मनसा यत्पापकमशुनं तन्न कदाचिन्मनसा पापकं किञ्चिद्ध्यातव्यमिति वक्ष्यमाणवाक्येन सम्बन्धः। जहोवएसं निरइयारं अप्पमत्तो पुणरवि असणाए पपुनः किनुतं पापकमित्याह-अधर्मिकाणामिदमाधार्मिक, तन यत्तो पमिकमित्ता पसंत-श्रासीण-सहनिसम्मो मुदत्तमेत्तं च तदारुणं चेति प्राधर्मिकदारुणं, नृशंसं शूकावर्जितं, वधेन हन- काणसुहजोगनाणसज्झायगोवियमणे धम्ममणे अविनेन, बन्धेन संयमेन, परिक्लेशेन च परितापनेन हिंसागतेन मणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सछासंवेगनिज्जरबहुसं प्रचुरं यत्तत्तथा । जरामरणपरिक्लेशैः फलभूतैः, वाचमान्तरे-'भयमरणपरिक्लेशैः' संक्लिष्टमशुभं यत्तत्तथा।न कदा मणे परयणवच्छवनावियमणे नटेऊण य पहट्ठोजहराइणिचिन्न कचनापि कामे (मणेण पावएणं ति ) पापकंनैव मनसा यं निमंतश्त्ता य साहवे नावनो य विइसे य गुरुजणेणं उ. (पावगं ति)प्राणातिपातादिकं पापंकिश्चिदल्पमपिध्यातव्यमका- पविढे संपमजिऊण ससीसं कायं तहा करयर्स अमुच्चिए प्रतया चीन्तनीयम् । एवमनेन प्रकारेण मनःसमितियोगेन चि- अगिछे अगदिए अगरहिए अणज्कोववो अणाइले अतसत्प्रवृनिमक्षणव्यापारेण भावितो वासितो भवत्यन्तरात्मा जीवः । किविध इत्याह-अशवनासंक्लिष्टनिर्वणचारित्रजा बुके आपत्तहिए अमुरसुरं अवचवं अणन्नुयपविलंबियमपनाका, मशवलासंक्लिएनिवणचारित्रभावनाया वा अहिंसकः, परिसामि आलोयणनायणे जयमप्पमत्तणं वगयसंजोगमसंयतः सुसाधुरिति प्राग्वत् । प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। गिंगाक्षं च विगयधूमं अक्खोवंजणवणाणुलेवणजयसंजममहावरा दोचा जावणा माणं परिजाण, से णिग्गंथे जे जायामायानिमित्तं संजमभारवाहणट्टयाए मुंजेज्जा पाणय मणे पावए सावज्जे साकरिए अएहयकर छयकरे भेय धारणट्ठयाए संजएणं समियं एवमाहारसमितिजोगेण नाकर अधिकरणिए पाउसिए परिताविते पाणाश्चाइए नू वितो भवति अंतरप्पा असवलमसंकि लिट्ठनिव्वणचसोवघातिए तहप्पगारं मणं णोपधारेज्जा, मणं परिजाणति, रित्तनावणाए अहिंसए संजए मुसाहु ४॥ मे णिग्गंथे जे य माणे अपावते ति दोच्चा भावणा ॥ (चमत्थं ति) चतुर्थभावनावस्तु प्राहारसमितिरिति । तामेघा. ह-(भाहारपसणाए सुद्धं उंछं गधेसियञ्छ ति ) व्यत्तम । - द्वितीयभावनायां तु मनसा दुप्रणिहितेन नो भाग्यम । त- दमेव नावयितुमाह-कातःश्रीमत्प्रवाजिनादित्वेम दायकजना दर्शयति-यन्मनः पापकं सावधं सक्रियं ( भराहयकर ति) | नवगतः, अकथितः स्वयमेव यथाई श्रीमत्प्रवजितादिरिति, कर्मावकारि, तथा-दनभेदनकरम, अधिकरणकरं कब- अशिष्टोऽप्रतिपादितः परेण । वाचनान्तरे-' अनाए मकदि. Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७६) अहिंसा अभिधानराजेन्द्रः । अहिंसा ५ भदुद्धेति' रश्यते। 'प्रदीणे' इत्यादि तु पूर्ववत् । भिक्षाम. साधु भुजीत न बलरूपनिमित्तं, विषयलौल्येन वा। अविकलो क्षेपणया युक्तः (समुदाणेउण त्ति) अटित्वा निक्षाचो गोचर- हि भोजनसंयमसाधनं शरीरं धारयितं समों भवतीति मियोञ्जमपाल्पगृहीतं भैयं गृहीत्वा आगतो गुरुजनस्य (भुजेज्जति) तुजीत भोजनं कुर्वीत । तथा नाजने कारणान्तपाच समीपं गमनागमनातिचाराणां प्रतिक्रमणेन ईर्यापथि- रमाह-प्राणधारणार्थतया जीवितव्यसंरक्षणायेत्यर्थः । संयतः कादण्डकेनेत्यर्थः। प्रतिक्रान्तं येन स तथा ( भालोयण त्ति) साधुः। णमिति वाक्यालङ्कारे। (समियं तिसम्यक्।निगमयमाहआलोचनं यथागृहीतभक्तपाननिवेदनं तयोरेवोपदर्शनं च (दा- पवमादारसमितियोगेन भाबितःसन्नवत्यम्तरात्मा अशवलासं. ऊण त्ति) कृत्वा (गरुजणस्स त्ति) गुरोगुरुसंदिस्य वा वृषभ- किष्टनिर्वणचारित्रनावनाकः, अशघलासंक्लिष्टभावनया हेतुस्य (जहोवएमति) उपदेशानतिक्रमेण, निरनिचारं च दोष- भूतया वा अहिंसकः संयतः सुसाधुरिति। प्रश्न०१ सम्ब० द्वार। वर्जनेन अप्रमत्तः, पुनरपि च अनेषणाया अपरिज्ञातानालोचि प्रहावरा च उत्या नावणा आयाणमनिक्खेवणास.. तदोपरूपायाः, प्रयतो यत्नवान्, प्रतिक्रम्य कायोत्सर्गकरणेनेति मिए से णिग्गंथे णो अणायाणभंमणिक्खेवणासमिए भावः । प्रशान्त उपशान्तोऽनुत्सुकः, आसीन उपविभुः। स एव विशेष्यते सुखनिषाः-सनाबाधवृत्योपविष्टः। ततः पदत्रयस्य क णिग्गंथे केवली वूया आयाणभंडाणिक्खेवणाअसमिए णिमधारयः मुहूर्तमात्रकं च कालं ध्यानेन धर्मादिना,शुभयोगेन सं. गगये पाणाइं नूयाई जीवाइं सत्ताई अभिहणेज वा जाव यमव्यापारेण गुरुविनयकरणादिना, ज्ञानेन ग्रन्थानुप्रेकणरूपेण, उद्दवेज्ज वा पायाणमणिक्खेवणासमिए, से णिग्गंथे णो स्वाध्यायेन वाऽधीतगुण नरूपेण.गोपितं विषयान्तरगमने निरु प्रायाणगंमणिक्खेवणा असमिए ति च उत्या जावणा ॥ कं मनो येन स तथा । अत एव धर्म श्रुतचारित्ररूप मनो यस्य स तथा । अत पवाविमना प्रशून्यचित्तः, शुभमना असंक्निष्ट तथा चतुर्थी भावना आदानभाएममात्रनिक्षेपणासमितिः, तत्र चेताः, अविगहमणे त्ति) अविग्रहमनाः असंक्लिष्टकलहचेताः, निर्ग्रन्यने साधुना समितेन भवितव्यमिति । प्राचा० २७० अव्युहमना वा अविद्यमानासदाभिनिवेशा, (समादियमपेत्ति) ३ चू०। समं तुल्यं रागद्वेषानाकलितं आदितमुपनीतमात्मनि मनो येन स पंचमग्गं पीढफनगसेज्जासंथारगवत्थपत्तकंबलदंडकरयसमाहितमनाः,शमेन चोपशमन अधिकं मनो यस्य स शमाधि- हरणचोलपट्टगमुहपोत्तियपायपुंगणादि एयं पि संजमस्स कमनाः,समाहितं वा स्वस्थ मनो यस्य स समाहितमनाः। श्रा उबवूहणट्टयाए वातातपदंसमसगसीयपरिरक्खणट्टयाए उच तस्वधमान,संयमयोगविषयो वा निजानिलापः, संवेगश्च मोक्षमार्गाभिशापः संसारजयं वा,निर्जरा च कर्मकमणं मनसि य वगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं संजएणं निश्चं पडिलेम्य महासंयेगनिर्जरामनाः। प्रवचनवात्सल्यभावितमना इति हणपप्फोमणपमजणाए अहो य राओ य अप्पपत्तेण कपव्यम् । उत्थाय च प्रहृष्टस्तुष्टोऽतिशयप्रमुदितो, यथारानिक होइ सययं निक्खियव्वं च गिरिहयध्वं च जायणभंडोबहि यथाज्येष्ठं, निमन्य च साधून साधर्मिकान् जावतश्व भक्त्या उपकरणं, एवं आयाणनंडणिक्खेवणासमिई जोगेण जा(विडमय त्ति विताणे च तुझ्व स्वमिदमशनादन्येवमनुकाते व सति भक्तादौ गुरुजनेन गुरुथा,उपविष्ट उचितासने संप्रमृज्य वितो जवति अंतरप्पा असक्षमसंकिशिनिबण चारतभुखबखिकारजाहरणाभ्यां सशी कायं समस्तकं शरीरं, तथा- भावणाए अहिंसए संजए मुसाहु ५॥ करतलं हस्ततलं च, अमच्छिते भाहारविषये न मूढिमागतम् । ( पंचमग्गं ति ) पञ्चमभावनावस्तु आदानसमितिनिकेश्रका अत्राप्तरसे ऽनाकालनवान्, अग्रथितः रसानुगतन्तुभिरसं- पसमितिलकणम् । पतदेवाह-पीठादिद्वादशविधमुपकरणं प्र. दर्भितः, अगर्दितः पाहारविषये अकृतगर्द इत्यर्थः। अनध्युपप- सिकम् । (पयं पीति) पतदपि अनन्तरोदितमुपकरणम, अपिशभो न रमेषु पकानमनाः, अनाविलोऽकलुषः,अमुन्धः लोनविर- दादन्यमपि संयमस्योपबृंहणार्थतया संयमपोषणाय, तथादितः, (अतिष्ठिए त्ति) नास्मार्थ एव अर्थो यस्यास्स्यसावना वातातपदंशमशकशीतपरिरक्षणार्थतया उपकरणमुपकारकम त्माधिकः,परमार्थकारीत्यर्थः । ( असुरसुरं ति ) एवं नूतशब्दव उपधिः, रागद्वषरहितं क्रियाविशेपहामिदम् । (परिहरियव ति) र्जितः (अवनवं ति) बचवचेतिशब्दरहितम,अनद्वतमनुत्सुकम्। परिभोक्तव्यं,न विभूषादिनिमित्तमिति भावना,संयतेन साधुना अचित्तम्बितम् अनतिमन्दम् ।अपरिशाटि परिशाटिवर्जितं, 'भु- नित्यं सदा, तथा-प्रत्युपेक्षणाप्रस्फोटनाच्यां सह या प्रमार्जना जेज्जा' इति क्रियाया विशेषणनामानि । (आलोयनायणे सि) सा तथा तया, तत्र प्रत्युपेक्षणया चकुापारण, प्रस्फोटनया प्रकाशमुने अथवाऽऽलोके प्रकाशेनाऽन्धकारे पिपीलिकावाला- आस्फोटनेन, प्रमार्जनया च रजोहरणादिव्यापाररूपया (ग्रहो दीनामनुपक्षम्भात,तथा भाजने पात्रे,पात्र बिना जलादि सम्पति- य राओत्ति) अहिच रात्री च, अप्रमत्तेन भवति सततं निकेतसस्वादर्शनादिनि, यतो मनोवाकायसंयतत्वेन प्रयत्नेनादरेण प्तव्यं च भोक्तव्यं, प्रहीतव्यं चादातव्यम् । नादातव्यं किं तत् ?, व्यपगतसंयोग संयोजनादोषरहितं (अणिगालं च त्ति) रागप- श्त्यार-भाजनं पात्रं, भाएकं तदेव मृण्मयं, उपधिश्व वस्त्रारिहारेणेत्यर्थः। (विगयधुमंति) द्वेषगदितम् । प्राइच-"रागेण स दि, पतत प्रयलक्षणमुपकरणमुपकारकारि वस्त्विति कर्मइंगावं,दो पेशा स धूमग वियागीहि ति" मकस्य धुर पाञ्जनम् धारयः । निगमयनाह-एवमादानेत्यादि पूर्ववत्, नवरं रहअकोपानं, तब बनानुलेपनं च ते भूतं प्राप्तं यत्तत्तधा, तत्क- प्राकृतशैक्याऽन्यथा पूर्वापरपदनिपातः, तेन भाएडस्योपकरण पतिस्पर्धः । संयमयात्रा संयमप्रवृत्तिः,सैव संयमयात्रा मात्रा स्यादानं च प्रहणं, निक्षेपणा च मोचनं, तत्र समिति रमादा तनिर्मिसंतुयंत्र तत्संयमयात्रामानिमित्तम् । किमक्तं जबति?- ननिक्षेपणासमितिरिति वाच्ये, प्रादानभाण्डनिक्केपणासमितिसंयमभारवहनाधतया इयं जावनेद-यथाऽस्योपाजनं नारव-| रित्युक्तम् । प्रश्न १ सम्वन्द्वार । हनायव विधी येत न प्रयोजनान्तरे, एवं संयमनारवहनायैव | अहावरा पंचमा भावणा आलोश्यपाणभोई, से णिग्गंथे - Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७७ ) अभिधानराजेन्द्रः । हिंसा अणालोपाभोभोई केवली वूया अणालोयपोषणनोई से दिग्गंचे पाणातिवा० ४ अनिल बा०जाब उवेल या तम्हा सोयपाणभोषणभाई से णिग्गंचे तो अणालोइयपाणभो नि पंचमा भावणा ।। तथा परा पञ्चमी भावना आलोकितं प्रत्युपेचितमशनादि भो कम्यं तदकरणे दोषसंभवात् । श्राचा० १ श्रु० ३ चू० । अथाध्ययनार्थ निगमय चाह एवमयं संवरस्स दारं समं संचरियं हुंति, सुप्पाणहियं, इम पंचावि कारणाहिं मणत्रयकायपरिरक्विएहिं नि*चं आमरणंत च एस जोगो नियन्वो चिंतिमता मतिमता अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्साती असं किलिडो मुदो सध्वजिणमपुण्यातो, एवं पढमं संवरदारं फासिये पा लियं सोहियं तिरियं किट्टियं आराहियं श्रणाए अपपासियं जयति एवं नापमुखिया जगवया पि वियं सिद्धं सिर्फ सिकवरसासन मियां आपवियं सुदेसिय पसत्यं पढमं संवरदारं सम्मत्तं ति वेमि ॥ I मिति मे मसाल, संदरस्यानावस्यद्वार सुपायः सम्यक संकृतम् सेवितं भवति किंजिया प्रविधि सुरत के किविरि स्वामिकार भावनावि अहिंसापान शुमिकापरिनिरिति तथा नित्यं सदा आमरणास्तं मरणरूपमन्तं याय मात्परतोयसम्भवात एपो गोऽनन्त रोदितभावनापञ्चकरूपो व्यापारो, नेतव्यो वोढव्य इति भाषा केन?तिमा स्वस्थबिसेन, मतिमतामा भूतोऽयं योगः -अनाश्रयः नवमानुपादानरूपः यतोऽकलु ', पापस्वरूपमिव नि कर्म जलप्रवेशापेन चिकित्वादेवापरिखावी न परिकर्म ज समवेतः, असंक्रिटो न शिक्लेशरूपः, युद्ध निर्दोष, सर्वजातः सर्वदेवामनुमतः एवमितीयमित्यादिभावनापखयोगेन प्रथमं सम्बद्वारमहलसि विस्पृथिकाले विधिना प्रतिपन्नं पालितं सतत स म्यगुपयोगेन प्रतिचरितं ( सोहियं ति) शोभितमन्येषामपि निदानाचा शोधितं वा निराकृतं तीरितं तीरं पारं प्रापितं, कीर्त्तितमन्येषामुपदिष्टम्, आराधितमेभिरेव प्रकारैर्निष्ठां नीतम्, आइया सर्वज्ञत्रचंननानुपालितं भ यति पूर्वकालसाधुभिः पालितालसाधुभिधानु प्ररूपं श तमुनिना क्षत्रियाविशेषरूपेण यतिना, श्रीमन्महावीरेणेत्यर्थः। भ यदि प्रापितं सामान्यतः कथित प्रतिदानभेदकयनेनप्रसिद्ध सिद्धं प्रतिष्ठि सिद्धानां निष्ठितार्थानां वरशासनं प्रधानाशा सिश्वरशासनम्. इदमेतत् । (श्राघवियं ति) श्रर्घः पूजा तस्य श्राप्तिः प्राप्तिजता यस्य तदति अर्थ वा पितं प्रति यतिं - देशितं सुष्ठु दर्शितं सदेवमनुजासुरायां पर्षदे नानाविधनयमासुदेशित प्रशस्तं यमिति प्रथमं सं रं समाप्तमिनि । सम्ब० १ द्वार । २२० हिंसा पंचम भावणा एतावया च सवयं सम्यं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिते अट्टिने आणार आहा रिए यावि जवति, पढमे जंते मद्दव्यए पारणाइवाया वेरमणं । इति इत्येयं पञ्चभिः प्रथमं स्प कीर्त्तितमवस्थितमायानिवतीति प्राचा०२५०३० ( 9 ) सर्वे प्राणा न हन्तव्याः सेवेमि मे व अतीता जे प पप्पा जे प आगमिस्सा भरत जगतो ते स एवमाश्वति एवं जाति भूया एवएव पति सध्धे पाणा सव्ये या सप् जीवा सध्ये सभा न ताव आणायच्या परि प घेतव्वा ण परितावेयव्वा ण उद्दवेपव्वा || च ये ऽतीता अतिक्रान्ताः, ये प्रत्युत्पन्ना वर्तमानकाल भाविनः ये चागामिनात एवं प्रपयन्तीतिः स्व यतः कालस्यानादित्यादिति यसमा नाता प्र व्यक्ता आयामिकाल कापकापेकितानस्थितत्सत्य 4 थ्यन्ते तत्रोत्सर्गतः समयक्षेत्रसम्नविनं मप्तत्युत्तरशतं ए स्वपिविदेहेषु प्रत्येक वादेकस्मिन् ि शतपञ्चस्वपि भरतेषु पश्च, एव मैरावतेष्वपीति तत्र द्वात्रिंशत् प अभिगुणितापरंशत्यधिकं 1 शतमिति जघन्यस्तुविशति चैवस्वपि महे विदेहान्तर्महानद्युनयतटसङ्गावात्तीर्थकृतां प्रत्येवं चत्वारः, लेपि पञ्च निशिता विशतिर्मरतेरायसपोरामादाय माथवेति अन्ये तु ध्यायते मेरोः पूर्वापर विस्ता महाद्विपदसिधा सतर मुक्को, इतरे दससमयखेत्तजिण माणं । चोत्तीस पढमदोवे, अ रसिक हमे अर्हन्त र्हन्ति पूजासत्कारादि कमिति नागप 1 दुसर ने मानार्थ स्वादिदमपि द्रव्यमेवमाचचक्षिरे: एवमाख्यास्यन्ति एवं सामान्यतः सदेवमनुजायां पद्यईमागध्या सर्वसत्व स्वभावानुगामिया जापयामास्ते पीत्यनोदायान्तेवासि नो जीवजीवाश्रसम्बनिर्जरा मोकृपदार्थापयन्ति प्रापयन्ति। एवं सम्यदर्शनकारिणि मोक्षमा विष् त्याविरतिप्रमादाययोगापः स् प्ररूपपन्ति प यथा सर्वे सामान्यविशेषात्मकमित्यादिना प्रकारे कामीतिक दर्श प्राणाः सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवानस्पतयः द्वितुप्प द्राद्रिः सनिश्वासायुराणचाराना तथा भवति प्रविष्यस्यभूयनितिभूतग्रामान्तपातीति एवं सर्व जीवन्ति जीवनीविपुरिति जीयाः नारसियन रामधन तथा सर्व एव स्वकृतयातासातोदभाज शब्दस्य मेदपयांचे प्रतिपादनमित्येति ते सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिना न हन्तव्या दएम कशा SSदिभिः पवितायाः प्रसह्याभियोगदानत न परिवा दासदास्यामिति परितापयिताः शारीर Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा मानसपीमानतो नापादितव्याः प्राणव्यपरोपणतः । श्राचा० १ ० ४ अ० १ उ० । (छ) वैदिक विचार: श्रप्रमत्तस्य योगनिबन्धनप्राणव्यपरोपणस्य श्रहिंसात्वप्रतिपा दनार्थ 'हिंसातो धर्मः' इति वचनं रागद्वेषमाह । योगनिबन्धनस्य प्रणयपरोपणस्य फलानो वैदिकसाया प्रतिमा हिंसावत्प्रसक्तम्, नच तस्या अतन्निमित्तत्वं, 'चित्रया यजेत पशुकामः' इति तृष्णानिमित्तश्रवणात् । न चैवंविधस्य वाक्यस्य प्रमाणनापत्तिमती तयासिनिमित्त सोपदेश ष्णादिवृद्धिनिमित्ततदन्यतद्विघातोपदेशवाक्यवत् । न चापौरुषेये प्रामाण्यम, तस्य निषित्वात् । न च पुरुषप्रणीतस्य हिंसाविधायकस्य तस्य प्रामाण्यम, ब्राह्मणो ढन्तव्य इति वाक्यवत् । न वेदवित्सा अहिंसात्मप्रसाया अति थोपपत्तेः न च'ब्राह्मणो न इन्तव्यः इति तद्वाक्यबाधितत्वान्न प्र साहित्य'नो वेदवाक्यवाधितचित्रादियजनवाक्यविहितहिंसावत् प्रकृतहिंसायाः तद्विहितस्वोपपत्तेः । अथ ब्राह्मणो इन्तव्य इति वाक्यं न कचिद्वेदे श्रूयते । न । उच्छिन्नाऽनेकशाखानां तत्राऽभ्युपगमात् । तथा च ' सहस्रवर्मा सामवेदः' इत्यादिश्रुतिः । अथ यज्ञादन्यत्र हिंसाप्रतिषेधः, तत्र व तद्विधानम् । यथा चान्यत्र हिंसाऽपायहेतुरित्यागमात् सिद्धं तथा तत एव तत्र स्वर्गहेतुरित्यपि सिकम् । न च यदेकदै कत्रापायसुम्पेन सर्वशास्त्रेषु प्रसि तृष्णादिनिमित्ताच प्रकृति प्रतिपादितत्वात् न यन्निमित्तत्वेन यत्प्रसिद्धं तत्फलास्तरार्थित्वेन विधीयमानम/सर्गिक दोष न निर्वर्तयति - थाऽयुर्वेदप्रसिद्धं दाहादिकं रोगनाशार्थतया विधीयमानं निमि तं दुःखं क्लिटसंवहेतुतया च मस्त्रविधानादन्यत्र हिंसादिकं शास्त्रे प्रसिद्धमिति, सप्ततन्तावपि तद्विधीयमानं काम्यमानफल सानिमन दिसानः खर्गादिसुखप्राप्ता वस्तुनिक कर्मदेतुनाऽसंगता, नरेश्वराचनाने ह्मणादिचानन्तरायासग्रामादितानज्ञात[दस्यापि तथात्वोपपत्तेः अथ दो ब्राह्मणादिनि दिनानिमिन पनि स्वयवरविहिनदि सानिर्वर्तिता न भवतीति समानम् । श्रथाश्वमेधादावालज्यमानानां गादीनां तारकविरचिताऽपि न एवं हिंसा स्यात्, देवतोद्देशतो म्लेच्छादिविरचिता च ब्राह्मणगवादिहिंसा च न हिंसा स्यात् । श्रथ तदागमस्यामात्या तदुपदेशजनिता हिंसा अहिंसा वेदस्य कुतः प्रामाण्यनिरुपय गमान्नरुत्तस्यासंभवात प्रदर्शित निर्माता, परमकस्थि किमस्य दीहाशब्देन मु लकारणस्य कार्यनिर्वर्तकत्वात्, अन्यथा कारणत्वायोगात् । तत्र तपादनार्थ चैनमभिनाददोषान उपादेयफलप्राप्तिनिमित सम्यग्ज्ञानादिपुष्टिनिमित्तदीकाप्रवृत्तियो भवेत्ताम्यपरत्वं प्रदर्शितवानयुपगन्तव्यम् । तथाऽभ्युपमानात्वं वेदानां तत्र पूर्वकोषा नतिवृत्तेः ॥ सम्म ३ काएम गाथा १५८ "हिस्साचिराणि च । श्रात्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स धार्मिकः ॥१॥ अनु 31 ( =७) निधानराजेन्द्रः | 1 हिंसा उपदेशमाह उरालं जगतो जोगं विलासं पलिति प । सन्दुक्खा प अभ सच्चे अहिंसिता ॥ ए ॥ ( उरालमिति ) स्थूलमुदारं, जगत औदारिकजन्तु ग्रामस्य, योगं व्यापारं स्थापित्यर्थः औदारिकशरीरिणो हि ज तथा मानवस्थाविशेषाने कललार्बुद रूपा विपर्यासभूतं बालकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परि समन्तादयन्ते गच्छन्ति पर्ययन्ते । एतदुक्तं भवति श्रदारिकशरीरिणो हि मनुष्यादेवी कौमारादिकः कालादिकृतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चाऽन्यथाभवन्त्यते न पुन प्राताय सर्वदेति । एवं सर्वेषां स्थावरजङ्गमानामन्यथाऽन्यथा च भवनं द्रष्टव्यमिति । अपि च सर्वे जन्तवः, श्राक्रान्ता अभिभूताः, दुःखेन शारी रमान सेना सातोदयेन दुःखाकान्ताः सन्तो यथावस्थाभाजो लभ्यन्ते श्रतः सर्वेऽपि ते यथाऽहिंसिता भवन्ति तथा विधेयम् । यदि वा सर्वेऽपि जन्तवोऽकान्तमनभिमतं दुःखं येषां तेऽकान्तदुःखाः, चशब्दात् प्रियसुम्नाश्च ते तान् सर्वान् न हिंस्यादित्यनेन वा अन्यधात्यान्तो दर्शितो प्रयत्युपदेशय दत्त इति॥॥॥ (६) किमर्थं सस्वानून हिंस्यादित्याह - एवं खु नाषिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण । अहिंसासमया चैव एतावतं वियाणिया ।। १० । ( एवं खुत्यादि) सुरवधारणे। एतदेव ज्ञानिनो बेकवतः, सारं न्याय्यं यत्किञ्चन प्राणिजातं स्थावरं जङ्गमं वा, न हिनस्ति न परितापयति । उपलक्षणं चैतत्-तेन न मृषा ब्रूयाप्रादसं गुरदीपात्रा सेवेत न परिग्रहं परिगृहीवा नक्तं जतित्येवं ज्ञानिनः सारं पत्र कर्माथवेषु वर्तत इति । अपि च-अहिंसा समता खिमता तां तावद्विजानीया त् यथा मम मरणं दुःखं वाऽप्रियम्, एवमन्यस्यापि प्राणिलोकस्येति । एवकारोऽवधारणे । इत्येवं साधुना ज्ञानवता, प्राणिनां परितापनाऽपद्रावणादि वा न विधेयमेवेति ॥ १० ॥ सूत्र० १० १ अ० ४ उ० । (१०) त्राहिखासिद्धयर्थमाद पुत्री आणिबाऊ, तरुवरखसबीयगा । मया पोयजराऊ, रससंसेयब्जिया ॥ ८ ॥ ( पुढवी आठ इत्यादि) तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मबादरपर्याकायनेमिया, तथाऽएका विका अनिकायका वायु काधिक भूवनस्पतिकायिकान् लेसमेन तृणानि कुशवव्यामि यूताशोकादिकाः, वह बीजे इति तु शाोिधूमादीनि प चिकायाः । षष्ठत्रसकायनिरूपणायाद - अश्मजाः शकुनिगृहकोकिलकसरीपादयः तथा पोता पोतना हस्तिशरनादयः ॥ जम्बावेष्टिताः समुत्पद्यन्ते गोमनुष्याद राधिकादेजीता रजा तथा संस्थेत सं स्वेदजा वृक्रामत्कुणादयः उद्भिशाः खञ्जरीटकदरादय इति । श्रज्ञातभेदा हि दुःखेन रदयन्त इत्यतो नेदेनोपन्यास इति । एतेहिं एहिं काहिं तं विज्जं परिजाशिया । मणसा कात्रणं णारंजी व परिगई ॥ ए॥ एभिः पूर्वोकैः प्रभिरपि कायैस्त्र सस्थावर रूपैः, सूक्ष्मदादर Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) अहिंसा अभिधानराजेन्सः । अहिंसा र्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदभिन्न रम्नी नाऽपि परिग्रही स्यादिति सं. नक्षत्रमन्त्रकासनियमा दृष्टाः,तेषु चाभिषेचनादिषु पर्यालोच्यमावन्धः । तदेतविद्वान् सश्रुतिको परिक्षया परिज्ञाय प्रत्यास्यान- नेषु हिंसैव संपद्यते,वैदिकानां हिंसेंव गरीयसी धर्मसाधनं, यपरिक्षया मनोवाकायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणामारम्भं परिग्र. कोपदेशात् । तस्य च तया विनाऽभावादित्यभिप्रायः। उक्तं चइंच परिहरेदिति ॥ ६॥ सूत्र० १ श्रु० ए ० । "ध्रुवः प्राणिवधो यके" ॥ ७॥ सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, मतिमं पमिलेहिया । (१२) तदेवं सर्वे प्रावापुका मोक्षाभूतामहिंसां न प्राधान्येन सव्ये अकंतनुक्खा य, अतो सब्वे अहिंसया ॥६॥ प्रतिपद्यन्त इति दर्शयितुमाह.. सर्वा याः काश्चनानुरूपाः पृथिव्यादिजीवनिकायसाधनत्वेना ते सव्वे पावाउया आदिकरा धम्माणं णाणापना णानुकूत्रा युक्तियः साधनानि। यदि वा-ऽसिकविरुझानैकान्तिकपरि- पाउंदा णाणासीला जाणादिट्ठी गाणारुई णाणारंजा हारेण पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्यविपक्कव्यावृत्तिरूपतया युक्तिसङ्गता णाणाज्जवसाणसंजुत्ता एगं महं मंझलिबंध किच्चा सच्चे युक्तयस्ताभिर्मतिमान् सद्विवेकी, पृथिव्यादिजीवनिकायान्प्रत्युपेक्ष्य पोलोच्य जीवत्वन प्रसाध्य,तथा सर्वेऽपि प्राणिनोऽका एगयाउ चिट्ठति ॥ ७० ॥ म्तदुःखा पुःखद्विषः सुखलिप्सवश्च मत्वाऽतो मतिमान् सर्वान (ते सव्वे श्त्यादि) प्रवदनशीला प्राधादुकाः सर्वेऽपि त्रिषपि प्राणिनो न हिंस्यादिति । युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः सङ्केपेणे घुत्तरत्रिशतपारमाणा अपि, आदिकरा यथास्वं धर्माणाम; येमा इति-सात्मिका पृथिवी, तदात्मनां विदुमलवणोपलादीनां| पिचतचिप्यास्तेपि सर्वे; नाना भिन्ना प्रज्ञा झानं येषां ते नासमानजातीयाङ्करसद्भावाद विकाराङ्करवत् । तथा-सचेतन नाप्रज्ञाः। श्रादिकरा इत्यनेनदम ह-स्वरुचिविरचितास्ते नमम्भो,भूमिखननादाविष्कृतस्वभावसंजवाहर्दुरवत् । तथा-सा त्वनादिप्रवाहायाताः। ननु चाहतानामपि आदिवविशेषणमत्मकं तेजः,तद्योग्याहारवृध्या वृध्युपलब्धेर्बालकवत् । तथा-सा स्त्येव । सत्यमस्ति । किन्तु अनादिर्हेतुपरम्परेत्यनादित्यमेव,तेषां स्मको वायुः, अपरारितनियततिरश्चीनगतिमत्त्वादम्भोवत् ।। च सर्वज्ञप्रणीतागमानाश्रयणान्निबन्धानाभावः, तदनावच भितथा-सचेतना वनस्पतयो,जन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां नपरिज्ञानमत एव नानाछन्दाः; ग्न्दोऽभिप्रायः; जिन्नाभिप्रासद्भावात, खीवत्। तथा-कतसरोहणाहारोपादानदौर्हदसद्भा या इत्यर्थः । तथाहि-उत्पादव्ययधौव्यात्मके वस्तुनि सायेवस्पर्शसंकोचसायाह्नस्थापप्रबोधाश्रयोपसर्पणादिन्यो हेतुभ्यो रेकान्तेनाविर्भावतिरोभावाश्रयणादन्वायनमेव पदार्थ सत्यवनस्पतेश्चैतन्यासिकिः। द्वान्द्रियादीनां तु पुनः कृम्पादीनां स्पष्ट त्वेनाधिन्य नित्यपक्कं समाश्रिताः। तथा-शाक्या अत्यन्त कणिमेव चैतन्यम,तद्वेदनाश्चोपक्रामकाः स्वाभाविकाश्च समुपलच्य केषु पूर्वोत्तरभिन्नेषु पदार्थेषु सत्सु स एवायमिति प्रत्यभिज्ञामाना मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिश्वनयकेन भेदेन तत्पी- प्रत्ययः सदृशापरापरोत्पत्तिर्वितथानां भवतीत्यतत्पकसमाश्रयडाकारिण उपमर्दान्निवर्तितव्यमिति ॥६॥ णादनित्यपक्कं समाश्रिता शति। तथा-नैयायिकवैशेषिका: केषा. पतदेव (पुनः) समर्थयन्नाह चिदाकाशपरमारयादीनामेकान्तेन नित्यत्वमेव, कार्यद्रव्याणां च घटपटादीनामेकान्तनानित्यत्वमेवाश्रिताः। एवमनयाऽदिशाएवं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण । ऽन्येऽपि मीमांसका तापसादयोऽन्यूह्या इति । तथा-ते तीथिका अहिंसासमयं चेव, एतावंतं विजाणिया ।। १० ॥ नानाशीनं येषां ते तथा, शील व्रतविशेषः, सच भिन्नस्तेषामनु( एवं तु इत्यादि ) खुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा । पत भवसिद्ध एव । तथा-नाना रष्टिदर्शनं येषां ते । तथा-नाना रुचिदेवानन्तरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तनं, शानिनो जीवस्वरूपतद्वध रेषां ते नानारुचयः। तथा-नानारूपमध्यवसानमन्तःकरणप्रवतिकर्मबन्धवेदिनः, सारं परमार्थप्रधानम्। पुनरप्यादरख्यापनार्थमे- येषां ते तथा । इदमुक्तं नवति-अहिंसा परमं धर्माङ्गम । सा च तदेवाह-पत्कञ्चन प्राणिनमनिष्टःखं सुखैपिणं न हिनस्ति, प्र. तेषां नानाभिप्रायत्वादबिकलत्वेन व्यवस्थिता। तस्या एव सूत्रभूतवेदिनोऽपि शानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं, यत्प्राणातिपातनि- कारः प्रधान्यं दर्शयितुमाह-ते सर्वेऽपि प्रावादुका यथास्वपक्कवर्तनमिति । ज्ञानमपि तदेव परमार्थतो,यत्पीमातो निवर्तनम् । माश्रिता एकत्र प्रदेशे संयुता मएमलिबन्धमाधाय तिष्ठन्ति ॥८॥ यथोक्तम्-"किंताए पढियाप, पयकोमीए पयालभूयाए । जत्थिा (१३) अहिंसाप्रसिध्यर्थ विवेचनमाहत्तियं ण णायं, परस्स पीडा न कायव्वा" ॥१॥ तदेवमहिंसा- पुरिसेयं सागणियाणं इंगालाणं पारंबहुपभि पुग्नं गहाय अ. प्रधानः समय आगमः संकेतो बाऽपदेशरूपः, तदेवंभूतमहिसासमयमेतावन्तमेव विझाय, किमन्येन बहुना परिझानेनैतावतैव नमएएं संडासएणं गहाय ते सव्वे पानाउए आगरा धम्मापरिक्षानेन मुमुक्कोर्विवक्वितकार्यपरिसमाप्तेरतो न हिस्यात्क णं णाणापन्ना. जाव णाणाझवसाणमंजुत्ते एवं वयासीचनोत ॥ १० ॥ सूत्र० १ श्रु० ११ १०॥ इंनोपावानया: आगराधम्माणं णाणापन्नाजावणाला(११) मतान्तरेऽहिंसा न तादृशी अज्झवसाणसंजुत्ता ! इमं ताव तुम्ह सागणियाणं इंगालाआहुः कथमेते प्रावादुका मिथ्यावादिनो भवन्ति। अत्रोच्यते-] एं पाई बहुपमिपुन्नं गहाय मुहुत्तयं पाणिणा धरेह, को यतस्तेऽप्यहिंसांप्रतिपादयन्ति,न च तांप्रधानमोक्काङ्गभूतांसम्य- | बहु संमासगं संसारियं कुज्जा, णो बहु अग्गिय जणियं गनुतिष्ठन्ति । कथम?,साजधानां ताववानादव धर्मो न तेषामर्दि- कुजा, पो बहु साहम्मियं वेयावडियं कुजा, णो बहु परधसा प्राधान्येन व्यवस्थिता,किंतु पञ्च यमा इत्यादिको विशेष इति। म्मियं वेयावमियं कुजा, उज्जया णि यागपमिवन्ना अमायं तथा-शाक्यानामपि दश कुशला धर्मपथा अहिंसाऽपि तत्रोक्ता, न तु सैव गरीयसी धर्मसाधनत्वेन तैराश्रिता । वैशेषिकाणाम कुव्यमाणा पाणिं पसारेह. इति बुच्चा से पुरिसे तमि पावा. पि-अभिसेवमोपवासब्रह्मचर्य-शुभकुखवासबानप्रस्थदानयज्ञादि- दुयाणं तं सागणिया इंगालाणं पाई बहुपमिपुनं अ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) अहिंसा निधानराजन्यः। अहिंसा उपएण सडासएणं गहाय पाणिंसु णिसिरिति, तए तास्तेजोवायुपूच्चैर्गोत्रोद्वलनेन कलंकमीनावभाजो भवन्ति,क हुशो नवियन्ति च ॥८॥ ते पावाच्या आगरा धम्माणं णाणापन्ना० जाव णाणा ते बहूर्ण दमणाणं बहणं मुंडणाणं तजणाणं तालणाणं झवसाणसंजुत्ता पाणिं पमिमाहरांत । तए णं से पुरि अदु बंधणाणं० जाव घोलणाणं माइमरणाणं पितामरणाणं से ते सव्वे पावाउए आदिगरेधम्माणं० जाव णाणाज्: जाइमरणाणं भगिणीमरणाणं भज्जापुत्तधूतसुएहामरणार्ण बसाणसंजुत्ता एवं वयासी-इंभो पावाया! आगरा ध. दारिदाणं दोहगाणं अप्पियसंवासाणं पियविप्पोगाणं भ्माणं णाणापन्नःजाव णाणावसाणसंजुत्ता कम्हाणं तुम्भे पाणिं परिमाहरह, पाणि नो महिन्जा, द किं ज बहूणं सुक्खदोम्मणस्साणं आभागिणो जविस्संति अणाविस्सइ,मुक्वंति मन्त्रमाणा पमिसाइरह,एस तुला एस प्प दियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं तुजो माणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं स. नुज्जो अणुपरियहिस्संति, ते णो सिकिस्संति, णो युमोसरणे, तत्थ णं जे ते समणा माहणा एवमाश्क्वंति जिकस्संति० जान णो सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति, एस जाव परुति-सचे पाणाजाव सत्ता हंतव्वा अजावेय तुल्ला एस पमाणे एस समासरणे पत्तेयं तुबा पत्ते ना पारेघेतव्वा परितावेयव्वा किलामेतच्या उद्दवेतव्वा पमाणे पत्तेणं समोसरणे ।। ७२ ॥ ते पागंतु छेयाए ते आगंतु जेयाए० जाव ते आगंतु जाइ तथा-ते बहूनां दण्डादीनां शारीराणां पुःखानामात्मानं भाजन कुर्वन्ति,नथा-ते निर्विवेका मातृवधादीनां मानुपाणां दुःखानां, जरामरणजोणिजम्मणसंसारपुणभवगन्जवासजवपवंच तयाऽन्येषामप्रियसंयोगार्थनाशादिनिर्दुःखदौमनस्यानामानाकलंकलीभागिणो भविस्संति ।। ८१ ॥ गिनो भविष्यतीति । किं वहनोत्तेनोपसंहारब्याजेन गुरुतर मर्थसंबन्धं दर्शयितुमाह-(अणादिय इत्यादि) नास्यादिरस्तीतेषां चैवंव्यवस्थितानामेकः कश्चित्पुरुषः, तेषां संविदर्थ ज्व त्यनादिः संसारः। तदनेनेदमुक्तं भवति-यत्कश्चिदनिहितं-यथा लतामगाराणां प्रतिपूर्णी पात्रीमयामयं भाजनमयोमयेनैव संद ऽयमएमकादिकमणेत्यादित इति। एतदपास्तम् । न विद्यतेऽवदग्रं शकेन गृहीत्वा तेपांढौकिनवानुवाच तान्-यथा भोःप्रावादुकाः! पर्यन्तो यस्य सोऽयमनवदनोऽपर्यन्त इत्यर्थः । तदनेनेदमुक्तं न. सर्वोक्तविशेषणविशिष्टाः! इदमङ्गारभृतं भाजनमेकैकं मुहर्स प्र. पति-यदुक्तं कैश्चियथा प्रलयकालेऽशेषसागरजलप्लावन,हास्येकं सांसारिकाणामिवाऽग्निस्तम्भनं विधत्ते, नापि च साध दशादित्योभमेन चात्यन्तदाहः, इत्यादिकं सबै मिथ्येति ।दीघ. मिकाऽन्यधर्मिकाणामग्निदाहोपशमादिनोपकारं कुरुत शति, मित्यनन्तपुफलपरावर्तरूपं कालावस्थानम्, तथा-चत्वारोऽन्ता वो मायामकुर्वाणाः पाणि प्रसारयत । तेऽपि च तथैव कुर्युः। गतयो यस्य स नथा, चातुर्गतिक इत्यर्थः। तत्संसार एव का. ततोऽसौ पुरुषः तद्भाजनं पाणौ समर्पयति । तेऽपि च दाहश नारः संसारकान्तारो निर्जलः सन्जयस्त्राणराहतोऽरण्यप्रदेशः स्या हस्तं संकोचयेयुरिति । ततोऽसौ तानुवाच-किमिति पाणि कान्तार इति। तदेवंभूतं भूयो न्यः पौनःपुन्येनानुपरिवर्तिभ्यन्ते प्रतिसंहरत यूयम? एवमभिहितास्ते ऊचुः-दाहजयादिति । एत. अरहदृघटीन्यायेन तत्रैव भ्रमन्तः स्थास्यन्तीति।अत एवाह-यत. दुक्तं भवति-अवश्यमग्निदाहभयान कश्चिदग्न्यभिमुखं पाणि द स्ते प्राणिनां हन्तारः। कुत एदिति चेत,सावद्योपदेशात्। एतदीप दातीत्येतत्परोऽय दृष्टान्तः पाणिना दग्धेनापिनियतां भविष्य. कथमिति चेदत औदशिकादिपरिभोगानुशयत्यवमवगन्तव्यनि?,दुःस्वमिति चेन्, यद्येवं नवन्तो दाहापादित दुःस्वनीरवःसुख मित्यतस्ते कुप्रावचनिका नैव सेत्स्यन्ति नैव ते लोकाग्रस्थामाशिप्सवस्तदेव सतिसऽपि जन्तवः संसारोदरविवरवर्तिन एवं ऋमिष्यन्ति । तथा-न ते सर्वपदार्थान् केवलशानावाप्या प्रोनूता एवेन्येवमात्मतुलयाऽन्मौपम्यन यथा मम नानिमतं दुःख. त्स्यन्ते; अनेन शानातिशयजावमाह । तथा-न तेऽप्रकारेण मित्येवं सर्वजन्तूनामित्यवगम्याऽदिसैव प्राधान्येनाश्रयणीया। कर्मणा मोक्ष्यन्ते । अनेनाप्यसिद्धेरकैवल्यावानेश्च कारणमाह। तदेतत्रमाणम्। पचा युक्ति:-"अात्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति तथा-परिनितिः परिनिर्वाणमानन्दसुखावाप्तिः, तां ते नेष प्रा. स पश्यति" । तदेव समयमरण, स एष धर्मविचारो यत्रा प्स्यन्ते, तेनापि सुखातिशयाभावः प्रदर्शितो भवतीति । तथाहिसा संपूर्ण तंत्रय परमार्थतो धर्म इत्येवंव्यवस्थिते तत्र नेत शारीरमानसानां दुःखानामात्यन्तिकमन्तं करिष्यन्त न्यनये केचनाविदितपग्मार्धाः श्रमणब्राह्मणादय एवं वक्ष्यमाणमा नाध्यपायातिशयाभावः प्रदर्शितो भवति । एषा तुला, तदेतचढ़ते, परेपामात्मदायोत्पादनायैवं भाषन्ते, तथैवमेधं धर्म प्र. पमान, यथा सावद्यानुष्ठानपरायणाः सावद्यभाषिणश्च कुप्रावहापयन्ति व्यवस्थापयन्ति,तथाऽन्येन प्राण्युपतापकारिणा प्रका. चीनका न सिध्यन्यवं स्वयथ्या अप्यौदेशिकादिपरिभोगिनो रेण परेषां धर्भ प्रापर्यात व्याचकते । तद्यथा-सर्वे प्राणा न सिध्यन्तीति । तदेतत्प्रमाणे प्रत्यक्षानुमानादिकम् । तथाहिइत्यादि यावद्धन्तव्या दण्डादिभिः परितापयितव्या धर्मार्थमर प्रत्यक्तेणैव जीवपीडाकारि चौर्यादिबन्धनान्न मुच्यते। पवमन्येघट्टादियहनादिभिः परिग्राह्या विशिष्टकाले श्राकादौ रोदितम. ऽपीत्यनुमानादिकमण्यायोज्यम् । तथा-तदेतत्समयसरणमागल्या श्य, नथाऽपहायतच्या देवतायागादिनिमित्तं वस्तादय मविचाररुपामात प्रत्येकं च प्रतिप्राणि प्रतिमावादुकमेतत्तुला. श्वेत्येव ये अभणादयः प्राणिनामुपनापकारिणी भागं नापन्ते, दिक द्रव्यमिति ॥८॥ अागामिनि कालेऽनेकशो बहुशः स्वशारोच्छदाय च भाषन्ते तथा ते सायद्यमापियो भविष्यन्ति,काले जातिजगमरणानि तत्य एं जे तेममणा माहणा एवमाइक्खंति० जाव परूपनि प्राप्नुवन्ति । योन्यां जन्म योनिजन्म तदनेशो बहुशो | वेति सव्वे पाणा सम्वे नया सब्वे जीवा सव्वे सचा प गभंन्चुत्नान्नजाऽवस्थायां प्राप्नुवन्ति, नधा-संसारप्रपञ्चास्तग- इंतव्वा, ण अज्झायब्वा, ण परिपेचल्ला, उद्दवेयन्वा, Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ते यो आगंतु बेयाए ते णो आगंतु याए० जाव जाइजरामरण जोणि जम्मण संसारपुणन्जवगन्जवासभवपर्वचकलंकसीभागियो नरिति ते णो बहूणं दंमणा० जाव गो बहूणं मुंमणाएं० जाव बहूणं दुक्खदोम्पणस्साणं शो भागो नावस्संति, अणादियं प णं श्रवपदीहम चानरंतसंसारकंतारे भुज्जो भुज्जो णो परियहिस्संति तेसिं सिज्यंति० जाव सव्वक्खाणं तं करिसंति ॥ ८३ ॥ (sst ) अनिघानराजेन्द्रः । ये पुनर्विदिततत्त्वा श्रात्मौपम्येनात्मतुलया सर्पजीवेयहिंस कुर्घाणा एवमाचकते । तद्यथा सर्वेऽपि जीवा दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्ते न हन्तव्या इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तं दण्डनादिकं स प्रतिषेधं भणनीयं यावत्संसारकान्तारमचिरेणैव ते व्यतिक्रमिष्यन्तीति ॥ ८३ ॥ सूत्र० २ ० २ अ० । "सामेयम् अधम्मो मुनिशा पवेदियो। " सूत्र० २ श्रु० २ श्र० १० । (१४) का विश्वेऽनिवारमनि हिंसादन घटते, तर्हि क घटन्त इत्यत आहनित्यानित्वे तथा देहा-ािभि च तत्त्वतः । घटते चात्मनि पापा- दिसादीग्यविरोधतः ॥ १ ॥ नित्यश्चासावनित्यश्चेति नित्यानित्ये, तत्र नित्यानित्ये आत्मन्यज्युपगम्यमाने हिंसादीनि घटन्ते इति संबन्धः । न होकान्तेन नित्यमनित्यं वा वस्तु किमपि कस्यापि कार्यस्य करणक्रमम् । तथाहि-यमस्य कार्य परो न भवति एकरूपत्वेनानतिक्रान्तसुमियत्। पिएरातिक्रमेनि प्राप्तेः । तथा मृत्पिण्डस्य कार्य घटो न भवति सर्वचैवानुनमा भावेनानकिपिि महत्वपर्ययानिकमाभ्युपगमे वाऽनुयायित्वेन नित्यत्वं य स्तुनः खादिति आचार्य नावानतिक्रमात पि एमवत् घटवच्चेति । स्यात् कथित्वादिरन्यथा । तदेवं नित्यानित्यमेष वस्तु कार्यकरणमिति ननु नियानित्यस्य धर्म योर्विरुकत्वात्कथमेकाधिकर णत्वम् । अत्रोच्यते यथा ज्ञानस्य भ्रान्ताभ्रान्तत्वे परमार्थसंययद्वारापेक्षया न विरुद्वे एवं नित्यत्वं पर्यायानित्यत्वं न पिरुरूनच उपयोः परस्परं नेदः यतो यदेव वस्वनतिरूपमिति व्यपदिश्यते, तदेवापेक्षितविशिष्टरूप इति । तथेति वाक्या न्तरोपक्षेपार्थः । देहावरीरात् । किमित्याह-निनो व्यतिरिक्तः, स चासावजिन्नश्च व्यतिरेकी भिन्नाभिन्नः, तत्र भिन्नाभिन्न एव - जीव शरीरातस्यैवोपलभ्यमानत्वात् तथाहि जीवस्या मूर्तव्याद्देस्य मूर्ती पोत्या मेदः । तयोर्देहस्पर्शने च जीवस्य वेदनोत्पत्तेरभेदश्चेति । श्राह च "जीवसरणं पि हु, भेयानेओ तहोवलं नाम्रो । मुत्तामुत्त प्रणश्रो, ठिक्क म्मिय वेयणाओ यं" ॥१॥ सर्वथा भेदे हि शरीरक तकर्मणो जयान्तरेऽनुभवानुपपत्तिः स्यात् । श्रभेदे च परलोकहा-' निः शरीरनाशे जीवनाशादिति । शब्दोऽनुक्तसमुच्चये । ततश्च सदसतीत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । श्राह च "संतस्त्र सरुवेणं, तहा विरुत्रे संतस्स । हंदि विसिठत्तरात्र, होति विसिधा सुहा ई" ॥१॥ या विशिष्टाः प्रतिप्राणिवेद्याः । तत्त्वत इति परमार्थ२२१ हिंसा तः मित्यानित्यादौ न पुनः कल्पनया, पारमार्थिकत्वं च नित्यानित्यत्वाददर्शनमेवजी न्या वात् परिणामस्वरूपोऽपरापरपर्यायलक या माहिग्यासंबन्धमोसादीनि कम स्याह-अवरोधः परोचे एका हिंसादिभ्यप गम्यमानेषु विरोधात्रेणेति नाय इति ॥ १ ॥ (१५) भात्मनः परिणामित्ये दिसाया अविशेषदर्शना पीडाकर्तृत्व योगेन देहव्यापम्यकृया | नया मीति संशादिसैपा सनिबन्धना ॥ २ ॥ पीमा दुःखवेदना, तस्याः कर्ता विधाता तद्भावः पीडाकर्तृत्वं, रायसेन या योग संस् शरीरस्य, व्यापत्तिर्विनाशो देहव्यापत्तिः, तस्या अपेक्षा निश्रा तथा तथेति हमार यामिनिमित्येवंरूपात्साचितका हिंसा परोपणाचा परिणाम गम्पमा हि सा, सनिबन्धना सनिमित्ता। परिणामवादे हि पीमकस्य पीभनीय स्वच परिणाम पीडामुपयते देह विनाशसंश एकान्तु पीमातुस्यादोगां पूर्वोकन्यायेनायुज्यमानत्वा हिंसा निर्मितिया " क्रियतेऽनिम्न वाटयदि निन्नः, तदा देहस्य तादृवस्थ्यं स्यात् । श्र धाभिन्नः तदा देह एव कृतो जवतीति । तदयुक्तम् । अभिन्ननाशकर हि वस्तु नाशितमेव भार दिसमेत अनेन चोकेन स्थानान्तर वधो निर्दिष्टः। तथा च "तप्यज्जायविरणासो. दुक्खुपाओय संकि सोया एस वहो जिण भणिओ, वज्जेयच्चो पयते ॥ १ ॥ नन्च स्माद् धानका मरणमनेन देहिना प्राप्तव्यमित्येवं फलात् स्वकृतकर्मणा चशादू हिंसा भवत्यन्यथा वा? | यद्याद्यः पक्ष मतदा हिंसकस्याहिसत्यमेव स्वकर्मकृ मित्र तथा कर्मनिर्जरालस्वैपाकरस्येव कर्मज्ञयावाप्तिलक्षणो गुणः स्यात् । अथान्यथेति तदा निविशेषत्वात्सर्वे हिंसनीयं स्यात् ॥ २ ॥ (१६) तथा स्वादयोऽपि स्वतर्मानापादिता एव स्युरितिकर्माभ्युपगमो अर्थ इत्याहतानाम हिंसाया असंभव एवेत्याशक्याह- हिंस्य कर्मविपाकेऽपि निमितत्वनियोगतः । हिंसकस्य भवेदेषा, पृष्टाऽदृष्टाऽनुवन्धतः ॥ ३ ॥ हिंस्यते माइति हिस्यः तस्य यत्कर्म, तस्य विपाक उदयो हिस्पर्मविपाकः तत्रापि हिहिंसाया स्तां] दिपकर्मविपाकाभावकल्पनायां निमित्तस्य निमित कारणाचस्य नियोगोऽवश्यंभाषोनिभित्यनियोगः दिसकस्य व्यापादकस्य, भवेत् जायेत । एषा हिंसा । श्रयमभिप्रायःयद्यपि प्रधानहेतुभावेन कर्मोदयाद्धिस्यस्य हिंसा भवति, तथाअहिंसकस्य तस्यां निमित्ताभावेनोपज्यमानस्यास्याऽसौ जयतीत्युच्यते । न च वाच्यं हिंस्यकर्मणैव हिंसकस्य हिंसायां प्रेरितत्वात्तस्य न दोष इति । श्रभिमरादेः परप्रेरितस्थापि लोके दोषदर्शनादननु यदि निमितभावेऽपि हिंसा स्पादिती. च्यते । तदा वैद्यादीनामपि तत्प्रसङ्गः सत्यम् | केवलं सा तेबांन Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८२) अहिंसा अभिधानराजेन्द्रः। अहिंसा अष्टादुष्टाभिसंधिवात् । एतदेव व्यतिरेकेणाह-सुपा दोषवती कानंदेडसंस्पर्शबेदनमिति: पदत्रयस्यास्य समाहारद्वन्द्वः,तस्माकर्मबन्धनिबन्धनत्वाद् पुष्टानुबधतो तुष्पचित्ताभिसंधर्भवति। दस्यात्मनो, नित्यादिसिकिः नित्यानित्यत्वदेहाद्भिन्नाभिनत्वप्रपदार--"जो उ पमत्तो पुरिसो, तस्स उ जोगं पच जे स- तिष्ठा, चशब्दः पुनःशब्दार्थः। नित्यानित्यत्वादिविशेषणे श्रात्मन्य. त्ता । वावजंती नियमा, तेसि सो हिंसोहोरे"॥२॥ नतु शुन्ना हिंसादिसिकिः,नित्यानित्यत्यादिसिरिःपुनःस्मरणादेरिति भावः। भिसंधेः, यदाह-"जा जयमाणस्सनब, विराहणा सुत्तविहिस- प्रयोगश्चात्र-नित्यानित्य आत्मा, स्वयंनिहितद्रव्यादिसंस्मरणामग्गस्स। सो होइ निजरफला, अज्झत्थविसोदिजुत्तस्स"४१॥ न्यथानुपपत्तः । तथाहि-न तावदेकान्तनित्ये स्मरणसनवः, एतेन च यदुक्तं वैयावृत्यकरस्येव हिंसकस्य कर्मनिर्जरणसहा. तस्यैकरूपतयाऽनुभवस्यैव स्पष्टरूपेणानुवर्तनात, इतरथा नियत्वानिर्जरालान इति । तदपि परिहतम। यतो न हिंसको वै. त्यताहानेः, नाप्यनित्यत्वे स्मरणसंनवोऽनुभवकालानन्तरवण यावृत्यकरवचनाभिसन्धिः। शेषं त्वनन्युपगमानिरस्तमिति । एव कर्तुर्विनष्टत्वात्कस्य स्मरणमस्तु ?; नान्येनानुभूतमन्यः अधिकृतश्लोकार्थसंवादिन। चेयं गाथा-"नियकयकम्मुवभो- स्मरति । अथानुभवकणसंस्कारात्तथाविधः स्मरणक्वणः गे, विसंकिलेसो धुवं वहतस्त। तत्तो बंधोतं खलु, तम्विर- समुत्पद्यते । नैवम् । यतोऽनुगमलेशेनापि वर्जितानामत्यन्तविईए विवज्ज ति" ॥१॥ लकणानामसंख्येयकणानामतिक्रमे जायमानस्य स्मरणक्वणस्य एवं परिणामिन्यात्मनि हिंसायाः संभवमाविर्भाव्याहिंसाया- पूर्वकालीनानुनवक्षणसंस्कारो यदि परं श्रद्धानगम्यो न युक्तिस्तमाह प्रत्याय्यः, प्राक्तनानुजवकणस्य चिरतरनत्वात, अपान्तरालततः समुपदेशादेः, क्लिष्टकर्मवियोगतः। कणेषु च संस्कारलेशस्याप्यनुपलब्धेः सहसैवानन्तरवणस्य शुभनावानुबन्धेन, हन्तास्या विरतिर्भवेत् ।। ५॥ विलक्षणस्मरणक्षणोत्पादोपलब्धेरिति। परिणामपके तु प्राक्त नानुभवकणनाऽऽहितसंस्कारानुगमवत् तत्कणप्रयाहरूपानायतः परिणामिन्यात्मनि हिंसा घटते ततस्तस्माम्सिाघटनात, नाविधधर्मसमुदयस्वभावादात्मनः सकाशात् स्मरणकणोअस्या विरतिर्नवेदिति योगः।सतां ज्ञानगुरूणां जिनादीनामुपदे त्पादो युक्तियुक्त इति । न च वाच्यमपान्तरालणेष्वनुभवशो हिंसाहिसयोः स्वरूपफलादिप्रतिपादन सदुपदेशः, सतांवा संस्कारो नोपलच्यत इति कथं तत्सत्तेति निर्वी जत्येन स्मरमावानामुपदेशः, सन् वा शोभन उपदेशः,स प्रादिर्यस्य स तथा, णस्यानुपपत्तिप्रसङ्गादिति । तथा-नित्यानित्य आत्मा,प्रत्यभिज्ञातस्मात्, आदिशब्दात ज्ञानश्रद्धानपरिग्रहोऽभ्युत्थानादिपरिग्रहो नान्यथानुपपत्तेः। तथाहि-एकान्तनित्यत्वेऽनुभवस्यैव सावादनु. चा।भाह च-"अब्भुटाणे विणए, परकमेसाहुसेवणाए या सम्मई वृत्तेन प्रत्यजिन्नानसंभवः। अनित्यत्वे तु अनित्यत्वादेव पूर्वद्रधुः सणसंनो,विरयाविरईय चिरईय"॥१॥तथा क्लिएकर्मणां दीर्घस्थि पूर्वरवस्तुनश्च नष्टत्वादपूर्वयोश्चोत्पन्नत्वान्न प्रत्यभिज्ञानसंभतिक कानावरणादीनां,वियोगः देयोपशमः,तस्मात् क्लिष्कर्मवि वः। नचादृष्टवतोऽदृष्टे प्रत्यनिज्ञानमस्ति, तथा अप्रतीतरितिथि योगात । आह च "सत्तएहं पयडीणं, अनितरोय कोमिको. भूषे-लूनपुनर्जीतकेशादिष्वपि प्रत्यानिकानमस्तीति ग्राह्य प्रति तस्य मीप । काऊण सागराणं, जर लहर चउराहमन्नयरं"॥२॥शुभभा व्यलिचारित्वेनाप्रमाणतया सर्वत्राप्रामाएयम् । नैवम्। प्रत्यकवानुबन्धेन प्रशस्ताभ्यवसायाव्यवच्छेदेन, इत्येवंकारणपरम्परया स्यापिकनिमिचारात् सर्वत्राप्रामाण्यप्रसङ्गादिति । तथा-दे. हन्तेति प्रत्यवधारणार्यः,कोमलामन्त्रणार्थो वा। अस्याः परिणा दाद्भिन्नाभिन्न प्रात्मा,स्पर्शवेदनाऽन्यथाऽनुपपत्ते तथाहि-यद्यसो म्यात्महिंसायाः, विरतिनिवृत्तिवेत् जायेत, घटत इत्यर्थः॥४॥ देहाद्भिनो भवेत्,तदादेहेन स्पृष्टस्य वस्तुनो नसवेदनं स्याद,देव। ततः किं जातमित्याह दत्तस्पृष्टवस्तुन इव यज्ञदत्तस्य न । श्रथामिनो, दोहमात्रत्वेन तस्य अहिंसैषा मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । परसोकानावप्रसङ्गादवयवान्तरहानी चैतन्यहानिप्रसङ्गाश्चेति । तथेति समुच्चयो लोकप्रसिस्तिो जनप्रतीतेर्नित्यानित्यमात्मादिएतत्संरक्षणार्थ च, न्याय्यं सत्यादिपासनम् ।।५।। वस्त्विति गम्यते। यतस्तदेवं वस्त्ववं परिणतमिति वदन् वस्तुत्वाअहिंमा अव्यापादनम, एषा अनन्तरोक्तोपपत्तिका हिंसाविर• विचित्तिमवस्थान्तरापत्तिच प्रतिपद्यमानो जनो लक्ष्यते। न च तिः,मता श्ष्टा विपुषां, मुख्यानिरुपचरिता । इयं च प्रासङ्गिकप्र. लोकप्रतीतिविरुकमर्थमुपकल्पयन्प्रमाणं प्रमाणताभासादयतीधानफलापेक्कया क्रमेण स्वर्गमोक्षप्रसाधनी देवलोकनिर्वाण- ति॥६॥ हेतुभूता। अथैतस्या एव स्वर्गादिसाधनत्वारिक सत्यादिपासने- (१८) आत्मनो विनुत्वे पूर्व दोष उक्तोऽथासर्वगतत्वेऽस्य नेत्याशक्याह-एतत्संरक्षणार्थमनन्तरोदिनाहिंसावतपरित्रा गुणमाहणार्थम्, शब्दःपुनरर्थोऽवधारणाओं वा । न्याय्य न्यायादनपेत. देहमात्रे च सत्यस्मिन, स्यात् संकोचादिधर्मिणि । म् उपपन्नमित्यर्थः । सत्यादिपावन मृषावादादिनिवृत्तिनिर्वाहणम. अहिंसासस्यसंरकणे वृत्तिकल्पत्वात्सत्यादिवतानामिति ॥ धर्मादेर्श्वगत्यादि, यथार्थ सर्वमेव तु ॥ ७॥ (७) श्रथ पूर्वोक्नस्यात्मनो नित्यानित्यत्वस्य देहाद्भि- देह एव शरीरमेव मात्र परिमाणं यस्य स देहमात्रः, तस्मिन् देमानिन्नत्वस्य च साधने प्रमाणोपदर्शनायाह हमारे देहमात्रता चास्य देह एव तद्गुणोपाब्धेः। चशम्नः पुनर. स्मरणप्रत्यनिशान-देहसंस्पशवेदनात। थः। नित्यानित्यादिधर्मके आत्मनि हिंसादिरुपपद्यते, देहमात्रे पुनःसति भवति।अस्मिन्नात्मनि, स्थावत्, सर्व यथार्थमिति संबअस्य नित्यादिसिचिश्व, तथा लोकप्रसिछितः ॥ ६ ॥ ग्धः किंमते तत्र',संकोचादिःसंकोचनादिः,आदिशब्दात् प्रसरस्मरणं पूर्वापलब्धार्थानुस्मृतिः, प्रत्यभिज्ञानं सोऽयमित्येवंरूपः ण, धर्मः स्वजावो यस्य स तथा, तस्मिन् ; संकोचादिधर्मकत्वं प्रत्यवमर्शः, तथा देहस्य शरीरस्य संस्पर्शो वस्त्वन्तरण स्पर्शनं, चास्य सूक्मेतरशरीरव्याने। कि तत्स्यादित्याह-(धर्मादेरुग. तस्य वेदनमनुभवन, देहसंस्पर्शेन वा वेदनं स्पर्शनीयवस्तुपरि त्यादि)"धर्मेण गमनमय, गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेणा ज्ञानेन चा. Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा 1 पचर्थः" इत्यादिकं वचनमिति गम्यते यथायें निरुपचरितं सर्वमेव निरवशेषमेव, तुशब्दः पूरण इति ॥ ७ ॥ उपसंहरन्नाह ( ७८३ ) अनिधानराजेन्द्रः | वचनकर्तरि भगवति महावीरे, पञ्च०ए निव विचार्यमेतत्सचा, मध्यस्थेनान्तरात्मना । प्रतिपत्तव्यमेवेति न खल्वन्यः सतां नयः ॥ ८ ॥ विचार्य विचारणीयम एतदनन्तरमहिंसादिविचारितं सद्बुद्ध्या शोभनप्रया, मध्यस्थेनाऽपक्कपतितेन, अन्तरात्मना जीवेन, मानार्थ तथा प्रसिपलम्यमेव नतुनस्वी त्र्यम्। इतिशब्दो विवहितार्थपरिसमाप्तौ । अथ कस्मात्प्रतिगन्तव्यमेवेत्याह- तु नैव अन्य नसतां गतस्य विद्वाया अधिकृततीर्थविधातृ पुरुषाणां नयो न्याय इति ||८|| हारि०१६ अष्ट | द्वा०| विशे अहिंसालक्खय-अहिंसालक्षण- अहिंसा प्राणिसंरक कवि यस्य स अहवालानुकम्पानुमेय संभवे, पा० । दयाचिहे, घ० ३ अधि० । अहिंसासमय अहिंसासमय आयमे संपुं० । अहिंसाप्रधाने केते चोपदेशरूपे, सू० १० ११० भासिय अहिसित ०ि अमारिते, खू० १ ० १ ०४४० अहिवंत-अनिकाङ्क्षत्रिभिपति "महितेहिं सुभासियाई " । पं० व० ४ द्वार अगियरगुण- अधिकतरगुण ०। प्रटतरगुणे, पञ्च०१८ , वि० - अहिकरण अधिकरण-२० नरकतिर्यग्गतिषु श्रात्मनोऽधिकरणं वा तुल्यस्वे इत्यर्थः । कल, नि० चू० ४ उ० । हिकरणी अधिकर णी स्त्र101 सुवर्णकारोपकरणे, स्था०पा०| अहि किन अधिकृत्य अभ्य० प्रतीत्येत्यर्थे "पचसि या पप्पत्ति वा अडिकिच सि वा एगठा" । श्रा० चू० १ ५० । दिग अधिक विशिष्टे, पञ्च० ३ विष दिगगुणत्य- अधिकगुणस्थ त्रि० । अधिकगुणवर्तिनि बो० ७ विव० । हिगत अधिकत्वम० विशिष्टेतरत्वे पञ्च० ३० अहिंगम-अधिगम ० विशिष्टपरिज्ञाने प्र० १४३ द्वार अवबोधे, स्था० ७ ठा० । “गांणं ति वा संवेदणं ति वा अहिंगमोति वा वेयपि त्ति " । श्रा० चू० १ ० । अभिगम पुं० [पयारे, "अभिगमे भगत" ० ('अभिगम' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे ७१२ पृष्ठेऽस्य जेदा उक्ताः ) प्रद्दिगमण-अधिगमन - न० । परिच्छेदने, विशे० । प्रहिगमरुइ-अधिगमरुचि पुं० । स्त्री० । सम्यक्त्वभेदे, तद्वति न्च | प्रव० २४५ द्वार । ( ५६८ पृष्ठे तथा ७१२ पृष्ठे चास्मिन्नेव भागे अधि० अनि० प्रकरणे प्रष्टव्यम ) अहिगमाम अधिकमास अभिमासे, पो०१ पाहु० । अगिय अधिकृत प्रस्तुते विशे० पञ्चाभावे क्तः, अधिकारे, न० । विशे० । अधिगत ०ि परिक्षा अनुगीता य०१४० पिस्ते प्राप्ते २० - - अहिगरण अहिगयगुणद्धि अधिकृतगुणदृद्धि-श्री० सम्यक्त्वादगुणवर्द्धने, पञ्चा० २ विवः । अहिगयजीव अधिकृत जीव- पुं० । प्रस्तुतसत्त्वे, यथा दीक्षाधिकारे दीकरणीय इति । पञ्चा० २ विव० । अहिगयजीवाजीव-अधिगतजीवाजीव- त्रि० । श्रधिगतौ सम्यग्विशातौ जीचार्ज । वौ येन स तथा । जीवाऽजीवयोः परमार्थतो विज्ञान रा० । अहिगड-अधिगतार्थ ५० अधिगतोऽयो येन स तथा अ धिगतार्थो वाऽथावधारणात् । तत्रशे, दशा० १० श्र० । वर्तमान - अहिगयविसिष्ठभाव-अधिगतविशिष्टजाय पुं० प्रस्तुत जाध्यवसाये पञ्चा० १६ विव० अहिगयसुंदरभाव - अधिकृतमुन्दरभाव - पुं० प्रस्तुतशोजनपरिणामे, पञ्चा० १८ विव० । - 9 अहिगरण अधिकरण-२० अधिक्रियतेऽधिकारी दुर्गतावात्मा येन तद‌धिकरणम्। वाह्ये वस्तुनि स्था० २ ठा० १ उ० | आव० । प्रव। पापोत्पत्तिस्थाने, श्रातु० । दुरनुष्ठाने, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वार । स्वपकपरपकविषये विग्रहे, स्था० garo | राठौ, तत्करचचने च कल्प० एक० । कलहे, ग०३ अधि । खड्गनिवर्त्तनादा ०५ श्र० । श्री० । सूत्र० । कायद्याने हलका ०७० १४० अधिकरणस्य कर्त्तव्यता कामणा च 'अधिगरण' शब्देऽस्मिन्नेव जागे ५७२ पृष्ठे ५७१ पृष्ठे च उक्ता, नवरं चातुर्मास्ये ) यासावास पनोसवियानो कप्पः निमगंवाए वा निगयी वा परं पज्जोसवणाओ अहिगरणं बड़तए, जेणं निम्गंध या निधी वा परं पोसपणाओ अहिगरणं व से कप्पे वयमिचि सिया जेणं निग्गंथाए वा निग्गंथी वा परं पज्जोसवणाओ अगरणं वय, से णं निज्जूहियव्वे सिया ॥ ५८ ॥ यात्रावासं पोस विवाणमित्यादि) चतुर्मास स्थितानां मो कल्पते साधूनां सखीनां पापरम अधि करणं राटिः, तत्करं वचनमपि अधिकरणं, तत् वक्तुं न कल्पतेः कोऽपि साधु साध्वी वा परंपषणातः अधिकरणं क्लेशकारि वचनं वदति, स एवं वक्तव्यः स्यात् यत् आर्यकनातिपदिन तया यदधिकरणत्या यश त्वं पर्युषणातः परमपि अधिकरणं चसि सोऽयमकल्प इति भावः । यश्चैवं निवारितोऽपि साधुवी साध्वी वा पर्युपर अधिक सनिनिय ताम्बूलप बहिः कर्त्तव्यः यथा ताम्बूलिकेन मन्यपत्रविनाशन भयाद् बहिः क्रियते, तद्वदयमप्यनन्तानुबन्धिक्रोधाविष्टो विनष्ट एवेत्यतो बहिः कर्त्तव्य इति भावः तथा Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिगरण अनिधानराजेन्डः। अहिगरणि उन्योऽपि द्विजदृशान्तः । यथा-नेटवास्तव्यो रुद्रनामा द्विजो व्याख्या प्राम्वत् । अथ सोऽनुपशान्तः सन् कुर्यादिनेदं द्विप्र. वर्षाकाल कदारान् ऋएं हनं लात्वा केत्रं गतः । हलं वाहय- कारं, संयमभदं जीवितभदं चेत्यर्थः । तस्तस्य गली बलीव उपविष्टः । तोरण ताड्यमानोऽपि या तत श्राहवन्नोसिष्ठति तदा कुहेन तेन केदारत्रयमृत्खरामरवाहन्यमानो संजमजीवियभेदे, संरक्षण साहुणो य कायव्वं । मृत्खएहस्थांगनमुखः श्वासरोधान्मृतः। पश्चास्स पश्चात्तापं वि पविक्खनिराकरणं, तस्स ससत्तीऍ कायव्वं ।। दधानो महास्थानं गत्वा स्ववृत्तान्त कथयन्नुपशान्तो न वेनि संयमभेदे जीवितभेदे वा तेन क्रियमाणे संरक्कणं साधोः कतैः पृष्ठो. नाद्यापि ममोपशान्तिरिति वदन् द्विजैरपाक्तयश्वकं । तव्यम् । तथा-तस्य साधार्यः प्रतिपक्कः, तस्य निराकरण स्वपवमनुपशान्तकोपतया वार्पिकपीण अकृतकामणः साध्वादिरपि उपशान्तापस्थितस्यैव मूलं दातव्यम् ॥ ५८ ॥ शक्त्या कर्तव्यम्॥ ___ कथं कर्तव्यमित्यत आहवासावासं पज्जोसवियाणं० इह खत निग्गंयाण वा नि श्रासासणभेमणया, जा बदी जस्म तं न हावेज्जा । गयीण वा अज्जेव कक्ष में कमुए विगहे समुपजि किं वा सति सत्तीए, होइ सपक्खे उवेक्खाए ?॥ त्या, सेहे राइणि यं खामिजा, राणिए वि सहं खामिज्जा, तस्य प्रथमतः कोमलवचरनुशासनं कर्तव्यम् । तत्राप्यतिष्टति खमियन्वं खमावियध्वं उपसमियव्यं उवसामियव्वं मुमइसं जीपणमुत्पादनीयम् । तथाऽतिष्ठति यस्य या लब्धिः स तां पुच्चणाबहुलेणं होयव्यं, जो उबसमइ तस्म अत्यि न हापयेत, प्रयुञ्जीतेत्यर्थः। एतदव विपके फलाभावापदर्शन आराहणा, जो न उवसमा तस्स नस्थि राहणा; त- अढयति-किं या सत्यांशको नवति स्वपके स्वपक्कस्य उपक्का ?, म्हा अप्पणा चेव नवसमियब्बं । से किमाइ भंत !, उच- नैव किञ्चिदिति जावः । कयझं स्वशक्तिवैफल्यमुपवानिमित्तं, प्रा. यश्चित्तापत्तिश्च भवति । तस्मादवश्यं स्वशक्तिः परिस्फोरणीयसमसारं खु सामन्नं ।। एए || ति। व्य०२ उ । स्था0 | "अधिकरण प्रायः कलिकिंचकलहं चतुर्मास स्थितानामिह खलु निश्चयेन साधुसाध्वीनां च ऊंऊ कमरं वा करेजा गच्छबज्झो" महा०७० । “अहि(अजेवत्ति) अधव पर्युषणादिन एव च 'कक्खमं' उ करणं पबश, नाहे न करे"। श्राव०६अ। आश्रय, पो०३ श्वेःशब्दरूपः कटुको अकारमकारादिरूपो विग्रहः कहः स- विव० । सन्निधाने श्राधारे, स च देशकालादिः। यथा चक्रममुपचते, तदा ( सहे ति ) शैक्षो लघुः रानिक ज्येष्ठं का- स्तकादी स्वप्रस्तावे च निष्पद्यत घट इति; एवं पटादावपि भामयति । यद्यपि ज्येष्ठः सापराधस्तथापि लघुना ज्येष्ठः क्षमा व्यम् । आ० चू०१ अमा० म० । स चतुर्भेदः। तद्यथा-व्या. णीयः, व्यवहारात । अथापरिणतधर्मत्वाखघुज्येप्ट न क्षमयति । पक औपरलेषिकः,सामीप्यको, वैषयिकश्च । तत्र व्यापको यथातदा किं कर्तव्यमित्याह-(गणिए वि सेह खामिजास) तिबेषु तैनम् श्रीपश्लेषिको यथा-कटे श्रास्ते,सामीप्यको यथा. यष्ठाऽपि शैक्षं क्षमयति । ततः क्वन्तव्यं स्वयमेवं क्षमयितव्यः गङ्गायां घोषः, वैषयिको यथा-रूपे चक्षुः। आ० म०वि० नि परः, उपशमितव्यं स्वयमुपशमयितव्यः परः (सुमत्ति) शो- चा विशे। स्वपरिणामे च सामायिकमव्यवच्छिन्नं धरतीत्य. भना मतिः सुमती रागद्वेषरहितता,तत्पूर्व या संपृच्छना सूत्रार्थ- धिकरणम् । अधिकरणपरिणामाऽनन्ये सामायिककर्तरि सा विषया समाधिः प्रभा वा तद्वहुलेन जवितव्यं; येन सहाधिक-| चादौ. विशे०। रणमुत्पन्नमासीत्तेन सह निमलमनसा पालाप:दि कार्यमि- हिगरणकर (म)-अधिकरणकर-त्रिका अधिकरणं कत्रनि भावः । अथ द्वयोर्मध्ये ययेकः क्षमयति नापरस्तदा काग हस्तत्करोति तच्छी लश्चेत्यधिकरणकरः । कलहकरे, “अहिकतिरित्याह-(जो उनसम इत्यादि) य उपशाम्यति,अस्ति तस्या रणकडस्स निक्खुणों" सूत्र० १ ध्रु०२ १०२ उ० । आचा० । Ssराधना, यो नोपशाम्यति नास्ति तस्याऽऽराधना । तस्मात् श्रात्मना उपशमितव्यम् । ( से किमाह त्ति । तत्कृत ति प्रभ अहिगरणज्माण-अधिकाध्यान-न० । आधकरणं पापोत्यगुरुराह-(उवसमेत्यादि) उपशमसारमुपदामप्रधानम्, खु नि. तिहेतुस्थानं. तस्य ध्यानमधिकरणभ्यानमः वापीध्यानतत्परश्वये, श्रामण्यं श्रमणत्यम् । कल्प.एक०। स्य नन्दिमणिकारस्येव । दुध्यान, आतु। साधिकरणस्य प्रतिक्रिया अहिगरणसान-अधिकरणशाल-न । मोहपरिकर्मगृहे, भ. १६ श०१ उ०। साहिगराणं जिक, गिलायमाणं नो कप्पर तस्स गणापच्छे यस्स निजहितए अगिलाए करणिज्जं वेयावमि | अहिगरणसिकंत-अधिकरणसिद्धान्त-पुं० । यसिद्धात्र न्यस्यार्थस्यानुपङ्गेण मिक्षिः, तस्मिन् सिद्धान्तभेदे,सूत्र०१२० यं जा रोगायंकातो विप्पमुक्के ततो पच्छा प्रहालहुस्सगे | १२ अ० । “स चासो अहिगरणो, जहियं सिद्धे सेसं अणुनामं ववहारे पट्टवियन्ने सिया इति । समवि सिम्झे, जह निचले सिद्ध अन्नत्तामुत्तत्तसंसिद्धी " अथास्थ सूत्रस्य कः सवन्धः ?, इति संपन्धप्रतिपादनार्थमाह- | यस्मिन् सिद्ध शेषमनुकमपि सिध्यति, यथाऽऽत्मनो नित्यत्वे अनिनयमाणो समगो, परिगहो वा में नारिता कलहा। सिर्फ, शरीरादन्यत्वसंसिफिरमूर्तत्वसंसिरिश्च । एषोऽधिकनवसामेयवो न ततो, अह कज्जा दविहनेयं न ॥ | रणसिकान्तः । सूत्र। श्रमणं साधुमभिभवन् गृहस्थो यदि, या । स ) तम्य गृह- | अहिगगण-अधिकराण-स्त्री० । अधिक्रियते कुट्टनार्थ लोहास्थस्य, परिग्रहः परिजनः बारितः सन् कलहं कुर्यात, ततः स दि यस्यां साऽधिकरणः । लोह कारसुवर्णकाराशुपकरणे, क वह उपशमयितव्यः। पतप्रदर्शनार्थमधिकृतस्त्रारम्भः। अस्य | भरः १६२०११० । स्था। Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (G८५) अहिगरणिखोडि अनिधानराजेन्द्रः । अहिद्विय अहिगरणिखोमि-अधिकरणखोटि-स्त्री० । अधिकरणनिवे रिनेमिमुत्तिसहिया सिवुद्धकलिआ अपसुविहत्या सिंहशनकाष्ठे, यत्र काष्ठेऽधिकरणी निवेश्यते। भ०१६ श० १ उ०। वाहणा अबा देवी चिट्ठ । ससिकरनिम्मलसलिल पडिअहिगरणिया-अधिकरणिकी-स्त्री०। अधिकरणविषये व्या- पुष्मा उत्तराभिहाणा वावी। तत्थ मज्जणे कप तब मट्टिपारे,प्रश्नासाच द्विविधा निवर्त्तनाधिकरणक्रिया,संयोजनाधि- श्रालेवे अकुट्टीणं कुटुरोगोयसमो हय । धन्नतरिकूवस्स करणक्रिया च । तत्राद्या ख गादीनां तन्मुष्टयादीनां निवर्तनलकणा। य पिंजरवहार मट्टिाए गुरुवएसा कंचणं चप्पज । - द्वितीया तु-तेषामेव सिद्धानां संयोजनलकणेति । दुर्गती भकुंमतमयरूढाए मंडुक्कबंनीए दोण पगचुल्गेण खीयकाभिरधिक्रियते प्राणी तासु, प्रश्न आश्र० द्वार। प्रति। रेण सम्मं पीपण पन्नामहासंपन्नो निरोगो किनरम्सरोथ होप्राव। “अहिगरणिया णं भते! किरिया कतिविहा पमत्ता। । तत्थ य पापण उववणेसु सचमही रहाणं वंदया उबगोयमा ! दुविहा पहाता । तं जहा-संजोयणादिगरणिया य, लज्नति, ताणि ताण अफजाणि साहति । तहा जयंती-नागणिवत्तवाहिगरणिया य"। प्रज्ञा १२ पद। दमणी-सहदेवी-अपराजिआ-लक्खणा-तिवमी-नउठी-सअहिगा(या):-अधिकार-पुं०। प्रयोजने, प्रस्तावे च । विशे० । उली-मपक्खो-सुबहासिला-मोहली-सोमली-पविभना-निमाम० । दश । नि००। व्यापारे प्राचा०१श्रु० २०१ विसी-मोरसिहा-मना-विसहापानिइत्रो महोमहाश्रो एन्थ ला संघाला अधिक्रियन्ते समाश्रियन्ते इत्यधिकाराः। प्रस्ताव चट्ठति । सोश्श्राणि अ अणेगाणि हरिहरदिगमागम्जचंविशेषेषु, प्रव०१ द्वार। डिमानवयंभकुमाईणि तिस्थाणि । तहा पसा नयरी मअहिगारि-( ण् ) अधिकारिन-त्रि० । तद्योग्ये, प्रय०२ द्वार। हातसिस्स सुगिहीयनामधेयम्स कएहरिसिणो जम्मभू मित्ति, तप्पवपक्रयपरागकणानकपण पवित्नीकयाप य वन्चश्रालम्बनापरपर्याये योग्ये, संघा० । पञ्चा० । दर्श०। स्स पाससामिस्स संभरणणं आहिवाहिसप्पधिसहरिकारअहिच्छत्ता-अहिच्छत्रा-स्त्री० । जङ्गलदेशप्रतिबद्धे पुरीभेदे, ण चोरजसजलपरायट्ठगहमारिनूपेश्रसाणीपमुहखुदो"अहिच्छत्ता जंगलो चेव" अदिच्चत्रा नगरी, जङ्गलो देशः, वदवा न हवंति भविश्राणं ति"। प्रार्यक्षेत्राणि । प्रव० १४८ द्वार । सूत्र० । "चपाए नयरीप उत्तर "इन एस अहिच्चत्ता-कप्पो उपसिनो समासेणं । पुरच्छिमे दिसि भाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्था" शा० सिरिजएपहसूरी, पउमावईधरणकमलपित्रो"॥१॥ १६१० तत्कटपश्च इति अहिच्छत्राकल्पः समाप्तः । ती०७ कल्प० । आचा। " तिहुमणभार[ तिजप, पयर्ड नमिऊण पासजिणचंदं। । अहिछत्ताए कप्पं, जहासुहं किपि जमि" ॥१॥ अहिजाय-अजिनात-त्रि। कुलीने, 'अहि जायं महक्खमं"अ“ हेव जंबुद्दीचे दीवे जारहे चासे मज्झमखंडे करुज- | भिजातं कुलीने महती कमा यत्र तथा पूज्यं क्कम समयत्वं यत्तगलजणवए संखाई नाम नयरी रिकिसमिका हुत्था ।। त्तथा। ततः कर्मधारयः अथवा-अभिजाताना मध्ये महत् पूज्यं तत्थ जयवं पाससामी उसस्थविहारणं विहरतो कान- कर्म समथे च यत्तत्तथा । भ०एश० ३३ उ01 सगे रिश्रो पुचनिबद्धवरेण कमगसुरेण अविच्छि- अहिज्जग-अधीयान-त्रि० । प्रकृति-प्रत्यय-लोपा-उगम-वर्णनधाराए वापहि वारसंतो अंबुदो विउब्धियो । तेण सयले | विकार-काल-कारकादिवेदिनि, दश ५ अ०। महामंडले पगन्नबीभूए आकंठमग्गं भगवंतं श्रोहिणा | अटिजमाण-अधीयमान-त्रि० । पति, व्य०४ श्राभोपऊण पंचम्गिसाहणजुयं कमरमुणिं आणाविध कहा अहिजिन-अध्येतुम्-अव्य । पठितुमिन्यथे,दश ४ अ.। खीमी अंतरमजंतसप्पभवनधयारं सुमरेण धरणिंदण नागरापण अग्गमहिलाहिं सह आमंत्रण मणिरयणविचा अहिन्जित्ता-अधीत्य-अव्य०1 अध्ययनं कृत्येत्यर्थे,उत्त०१०। अं सहस्ससंखफणामडलग्तं सामिणो उवार कोकण पवित्वेत्यर्थे, उत्त० १ ० । हि कुंमलीकयरोयणं संगिएदा सो उवसग्गो निवारिओ। अहिफियता-अभिध्यितता-स्त्री० । भिध्या लोनः, सा संजातो परं तसे नयरीए अहिच्चत्त ति नाम संजाय । तत्थ ता यत्र सनिध्यितः। न निध्यितोऽनिध्यितः । तद्भावस्तत्ता। पायारएहिं जहा जहा पुरो चियो उरगरूवं। धरणिदो कुडि- प्रलोभे, भ०६ श० ३ उ०। लगप सप तहा तहा श्ट्टनिवेसो कयो । अज्ज वि तहेव | अहिटाए-अधिष्ठान-न । सन्निषद्यावेोहिते एवोपवेशने, नि. पायारे रयणा दासह । सिरिपाससामिणो चइयं संघण कारियं, च) ५ उ० । भावे ल्युद-आश्रयणे,सूत्र० १ १०२०३१०। चेश्याश्रो पुवदिसि अइमहुरपसनोद गाणि कमरजलहरो- 'अहिहाणं कारुण चितो' आ०म०वि०। पतित्थे, स्वामित्वे च । ज्जियजलपुष्पाणि सत्त कुंमाणि चिठति । तज्जले सुविहिएदा- | आचा०२६०७ अ०१उ०।। णाश्रो निदिया थिरवत्थाश्रो वंति। तेसि कुंमाणं मट्टियाए धा• अहिडिजमाण-अधिष्टीयमान-त्रि० । समाक्रम्यमाणे, स्था०४ उचाइमा धाउसिम्भिणिति, पाहाणलठिमुहिश्र महासिद्धरसावत्रा य इत्यं दीस । तत्थ निच्छरायणस्स अणेगे ग० १२० । भभिगदाणावग्यामिणोचकमा निष्फसीहा । तीसे पुरीए महिद्वित्तए-अधिष्ठातुम- अव्य० । निपदयादिना परिभोक्तमिअंतो बहिं पत्तेयं कूवाणं वीहियाणं च सवायं लक्खं अत्था | स्यर्थे, वृ० ३ न। महुरोदगाणं । जत्तागयजणाणं पाससामिचेए एडवणं कर्ण- अहिहिय-अधिष्ठित-त्रि० । अध्यासिते, का०१४ अ० । “सं. ताणं अज्जवि कमठो खरपयरदुदिपवागजिप्रविज्जुमाइ वो जुद्धमढिद्वितो" भा०म०प्र० । प्राविष्टे, स्था० ५ ग० २ १०। इरिसे। मूलदेवआओ नादरे सिद्धखिसम्मि पाससा- वश्यतां गते, "राजादिट्टिया" राजाधिष्ठता. राजाधीनाः । मिणो धराणदपउमावईसेविप्रस्स चेपायारसमोये सि.. | का० १४ अ० । २२२ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०८६) अनिधानराजेन्द्र महिया तुलमयमयाहिवयमुह अणि उमयमयात्रियमुर- श्रदिनकुलमृगमृगाधिपत्र मुख-प्रि० । जनयहरिसिंहप्रभृतिके, प्रमुख प्रणादश्यमहिव्यादिपरिषः पञ्चा० २ वि अहिणंद - अभिनन्दन- पुं० । श्रस्यामवसर्वियां जाते भर सत्राये चतुर्थे तीर्थकरे, ध० २ अधि० । "अपतिषु प्रसस्य सिद्धस्तरायते । अभिनन्दन देवस्य, कल्पं जल्पामि बेशतः " ॥ १ ॥ इकुवंशमुकाम यकिरीराज सूनोः अवरसा सरसांराजहंसस्य कपिलाञ्चनस्य चामीकररुचेः स्वजन्मपत्रित्रित श्री कोशलापुर स्य सार्द्धनुः शतत्रिनयोत्वकावस्य चतुर्थीश्वरस्य श्रीमदभिनन्दनदेवस्य चैत्यं मानयदेशान्तर्वर्तिमङ्गलपुर प्रत्यासन्नायां महावतायां मेदामासीत् तस्यां श्रविचित्रकर्मचतायामजात निर्वेदा मेदाः प्रतिवसन्ति स्म । श्रन्यदा तुच्छत्रेच्छ सैन्येन तत्रोपेल्यभनं निमीकृतं च प्रमदोर तया दुराकानीकादिकालितानामप्रति जनविलानां भगवतोभद रूप चिम्यं केचित्साहानीयातानि च कला संजात मनः खेदैर्मदैः संमील्य एकत्र प्रदेशे धारितानि । एवं वंदीयसि गतवत्यसि हरहमितगुणग्रामाभिरामाद् धारादुपेत्य नित्यं वणिकः स्वकलाको बरजाभिययस्तत्र कयायिकरूपं वाणिज्यमकार्षीत् । स च परमाईतः । ततः प्रत्यहं गृहमागत्य दे यमपूजा देवपूजायां न जातु बुभुजे । ततः पीपमुपेयाने दारुणकर्म निस्तेराम किमर्थं त्वमेहिरेयाहिरांकुरुषे श्रस्यामेव पल्ल्याम?, वणिगुचितभोज्यपूरणकल्पवल्यां वल्भ्यां किं न जुके ? । ततश्च नणितं वणिजा भो राजन्या पाचदहेत्वं देवाविनकृतसवनं न पश्यामि पूजयामि चेतावन्न वय प्रगल्ले किरा ग यद्येवं देवं प्रतिनियता तुज्यं दर्शयामस्त्वदभिमतं वतम् वणिजा प्रोचे तथाऽस्तु । ततस्तैस्तानि नवापि वा सप्तापित्रा खण्डानि यथावयवन्यासं संयोज्य दर्शितं भगवतोऽभिनन्दनस्य दिग्यं सूचनरम्यमाणा विप्रमुदितमुद्द सवासनातिशयेन तेन मनसा नमस्तस्वर दुरितो भगवान पूजिनका पुष्पादिन्दि विरचिताः भोजनमकरोत्। गुरुतरामित इत्यकार प्रतिदिन जनजाति अपरे गुरुदविवेकातिरेकस्यात्किमपि नाि स्तद्विवशकलानि युनकीकृत्य कचिदपि संगोषितानि वृत्ते या जावयां प्रतिमामानासी जे विषय मनसा बिहिनं भयानकमुपवासत्रयम् । अथ स मेदैरपृथ्वि किमर्ये नानासि । स यथातथ्य मे वाकययत्। इतः किरातवातैरवादि-य मानद दमस्तं देवमणिता बभा णे वितरिष्याम्यवश्यमिति तितस्तैस्तत्म कलमपि शकलानां नवकं सप्तकं वा प्राग्यत् संयोश्य प्रकटीकृतम् । दृषु॑ च तेन संयोज्यमानं सुन निषाद संस्पर्शधिपादकविहृदयः समजनि मासादिता महीत याचदिदं लोकश्रमितम समुपतबिम्बा निजगरे यस्य विग्यस्वनपसन्पन्दनलेपेन पूरा दमदमा आईप व्यतीति प्रबुद्धेन प्रातर्जातप्रमोदेन तथैव चक्रे । समपादि भगवानखण्डवपुः, सन्धयश्च मिलिताश्चन्दनलेपमात्रेण क्षणमात्रेण । भगवन्तं विशुरूश्ररूया संपूज्य भुक्तवान् । पश्याजीवः पीच मुदमुदन पद गुमादि मेदेयः तदनन्तरं तेन वणिजा मणिजातमिव प्राप्य प्रहृष्टेन शून्यखेटके पिप्पलतरोस्तले वेदिकाबन्धं विधाय सा प्रतिमा महिमता । ततः प्रभृति श्रावक संघाचातुर्वण्यं लोकाञ्चतुर्दिगन्तादागत्य यात्रोत्सवं सूत्रयितुं प्रवृताः। तत्र अनवकीर्तिमानुकीर्तिम्बाराजकुलातंत्र मतपत्याचार्यञ्चत्यचिन्तां कुर्वते स्म । अथ प्राग्वाटवंशावतंसेन थाइडात्मजेन साधुहाला केन निरपत्येन पुत्रार्थिना विरचितमुपातिकम्पनिमा तदा चैत्यं कारयियामीति । क्रमेणाधिष्ठायक त्रिदशसानिध्यतः पुत्रस्तस्यादेषचत कामदेवास्यः । तचैत्यमुचैस्तरशिखरमचोकरत्वापुढालाकः । क्रमात्साधुनावडम्य दुहितरं परिणामितः कामदेवः पित्राऽपि माहाग्रामादाहूय मलयसिंहादयो देवाचकाः स्थापिता महणियाभिष्यो मे गद्दे कृतवान्किलादस्य भगवतोऽसीतिः सेवक इति भगवद्विप नचन्द्रनगलनाच्च तस्यालः पुनर्नवी भूतमयतायिनं निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वरः स्फुरद्भक्तिप्राग्भारभास्वरान्तःकरणः स्वामिनं स्वयमपूजयत्। देवपूजार्थं चतुर्थिशांतिदल भूमिपतिभ्यःद्वादशां पावन देवाकेभ्यः प्रददाववनिपतिः। श्रद्यापि दिग्म एकलव्यापिप्रजावबैनो भगवानभिनन्दनदेवस्तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति । " अभिनन्दनदेवस्य, कल्प एष यथाश्रुतम् । अल्पीयान् रथांच के श्रीरमः ॥ १ ॥ इति सकलयनिवासिलोकाभिनन्दनस्य श्रीअभिनन्दनदेवस्य कल्पः । ती० ३२ कल्प ! अहिणव-अभिनव त्रि० नूलविशिष्टवर्णादिगुणोपेते, रा० हिणवस अभिनवधाक-पुं० व्युत्पन्नधाय पिं० ॥ अहिणिवोह आनि निबोध-पुं० । अर्थानिमुखो नियतः प्र तिस्वरूपको बोधविशेषोऽभिनिबोधः । मतिज्ञाने, अनिनिधुयस्मादस्मिन् देति अनिनिबोधः । मत्यापरणयोपशमे प्रज्ञा० २६ पद । 97 हि अनि त्रिसंयोगादेर्जस्व गुरु स्याद्ववे "कोणत्वेऽनिशाद" १ । ५६ । इति णकारादुत्तरस्यात ठः। श्रहिएणु । प्रा० १ पादो ञः । ८२ । ८३ । इति अस्य लुक, अहिजो प्रा०२ पाद प्राशे, वाच० । अहित अभिनत्रियन्तमिते उ० २२० । श्रहित्ता - अधीत्य - अव्य० । पठित्वेत्यर्थे, “ अटुंगमेयं बहचे अहित्ता, लोगंसि जाणति अणागताई" । सूत्र० १ ० १२ अ० । अहिदट्ट अहिदष्ट न० । सर्पदशने, पञ्चा० १८ विव० । अहिदडाइ - श्रदिष्टादि त्रि० । सर्पदशनप्रभृतौ, “अहिदाइसु छेयाइ वजयंती तद् सेसं " । पञ्चा १८ विव प्रहिधारणा अभिधारणा बी० परियति वातागमनमार्गे तस्मिन्, आचा० १३० १ अ० ७ ० । हिप-ग्रह-पा० "अहो लगे दर पहारा - - - - Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) अहिपञ्चुत्र अनिधानराजेन्द्रः। अहिराय दिपच्चुभाः" !01 ४।२०६ । इति ग्रहेरहिपच्चुअ आदेशः। सांप्रतमहितहितस्वरूपमाहअहिपच्चुअश्-गृह्णाति । प्रा० ४ पाद । दहितेव्व समाजोगा, अहिश्रो खीरदहिकंजियाणं च । अहिम-अनिमन्यु-पुं० । “न्यएयइजा नः"10।४। पत्थं पुण रोगहरं, न य हेक होइ रोगस्स ।। ६१०॥ २६३॥ इति द्विरुक्तो नः। प्रा०४ पाद । "अनिमन्यौ जजीवा" ८।२।२५। तिवभागस्य जो जश्च । पके-'अहिमन्नू! दधितैसयोः,तथा-कीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोप्रा०२पाद। ऽहितो, विरुद्ध इत्यर्थः । तथा चोक्तम्-"शाकमूसफलपिआईपम-श्राहिमृत-पुं० । मृताहिदेहे, जी० ३ प्रतिः । सर्पकले- एयाककपित्थलवलैः सह । करीरदधिमत्स्यैश्च, प्रायः क्षार वरे, विपा० १ श्रु० ११० विरुध्यते" ॥१॥ इत्यादि । अविरुद्धव्यमेलनं पुनः पथ्यं, तथ रोगहरं प्रादुर्वृतरोगविनाशकरम् । न च भावितो रोगस्य हेतु: प्राहिमर-अनिमर-पुं० । अनिमुखाः परं मारयन्ति ये तेऽभि करणम । उक्तश्च-"अहिताशनसंपर्का-त्सर्वरोगोद्भवो यतः । मराः। प्रश्न० ३ संव० द्वार । दर्दरचौरेषु अश्वहरेषु, नि० चू० तस्मात्तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिवेषणम्" ॥१॥पिं० १०। अहियास-अध्यास-पुं० । परोषहादीनां सम्यतितिक्षायाम, अहिमाश्य-अह्यादि-पुं० । उरःपरिसादौ, उत्त० ३६ ०। प्राचा० १७०६ अ०६ उ० । सूत्र० । वर्तने पासने, सूत्र० १ महिमास-अधिमास-पुं० । अनिवर्द्धितमासे, पाव०१०। श्रु०७०। अहिय-अधिक-त्रि० । प्राधिक्यविशिष्टे, " भारूढो सोहर "कान्तं न कमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः, भहियं सिरे चूडामणि जहा" उत्त० २२ अ० ज०। श्री० । अक्ष- सोढा दुःसहतापशीतपवनाः क्लेशान तप्तं तपः । रपदादिभिरतिमात्रमधिके, अनुगहेतोदृष्टान्तस्य चाधिक्ये स. ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्द्वैन तत्त्वं परं, ति,अधिक यथा-अनित्यः शब्दः, कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वा यद्यत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो ! तेस्तैः फलैर्वञ्चितः " ॥१॥ भ्याम्, घटपटवदित्यादि।एकस्मिन् साध्ये एकएव हेतुईष्टान्तश्च सूत्र०१७०२ अ०१ उ० । श्राचा उत्ता स्था० । अविवक्तव्यः। अत्र च प्रत्येकं यानिधानाधिक्यमिति भावः। अनु। चलकायतया (का०१०) साष्टवातिरेकेण सहने, स्था० विशे०।० प्रधिकं यत्पञ्चानामवयवानामन्तरेण समधिकम् । ४ ठा०३उ०। वृ० १ उ० । मा० मद्विः । “अहियसस्सिरीयं " अधिकरूपे | अहियासणया-अहिताऽऽसनता-स्त्री० । महितमननुकूलं टोण सश्रीक शोभनो यः स तथा तम् । कल्प०३ ०। अधिकमा सपाषाणाद्यासनं यस्य स तथा, तद्भावस्तत्ता । अननुकूझासने, पि विधा-व्ये भावे च । तत्र द्रव्याधिके तथैव वेऽविरतिके स्था०६ठा०। दृष्टान्त औषधैः पीहकेन च (एवं तावदक्षरपदादिभिराधिके सूत्रे दोषा मासाघुप्रायश्चित्तादयः “हीणक्वर" शब्द व. अध्यशनता-स्त्री० । अध्यशनमेवाध्यशनता।दीर्घत्वं तु प्राकृक्यन्ते) सम्प्रति भावाधिक एवोदाहरणमाह तत्वात् । अजीर्णे भोजने, “अजीर्णे भुज्यते यत्तु, तदध्यशनमु"पामले सोग कुणाले, उज्जेणी सेहलिहण सयमेव । च्यते" इतिवचनात् । स्था० ६ ठा०। अहिय सवत्तीमत्ता-उहिएण सयमेव वायणया । अदियासित्तए-अध्यासयितुम्-अन्य० । अधिसोदुमित्यर्थे, मुरियाण अप्पडिहया, प्राणा सयमंजणं निवे णाणं । माचा० १ श्रु० अ०४ उ०। गामग सुयस्स जम्म, गंधवाउट्टणा के । अहियासित्ता-अधिसह्य-अव्य० । सोद्वेत्यर्थे, सूत्र १ श्रु० ३ जंदगुत्तपत्तो य, बिदुसारस्स ननु भो। असोगसिरिणो पुत्तो,अंधो जाय कायणि"॥ वृ०१उगविशे० भ०४ उ०।। अहित-त्रि० । अपथ्ये, भ०७ श०६ उ० । स्था। अपाये, अहियासिय-अध्यासित-त्रि०ा भावे क्तः। कृतेऽधिसहने, "दस्था०५०१० । भावप्रधानोऽयं निर्देशः।परिणामासुन्द वियाण पासअदियासियं ।” श्राचा०१ श्रु० ६ ० ३ ००। रत्वे, दशा०६ अ०। अहियासेतु-अध्यासह्य-अन्य० । अधिकमासद्य। अत्यर्थ सोटेअहियदिण-अधिकदिन-न । दिनवृद्धी, स्था०६ ठा। | त्यर्थे, प्राचा० १ श्रु०६ अ० १ उ०। अहियपोरिसीय-अधिकपौरुषीक-त्रि० । पुरुषप्रमाणाधिके, अहियासेमाण-अध्यासयत-त्रि० । सम्यतिनिकमाणे,आचा. " कुंभीमहंताहियपोरिसीया, समूसिता लोहियपूयपुम्ला "।। १ ध्रु० ६ ०१०। सूत्र० १ ० ५ ० १ उ०। अहिरणसोवलिय-अहिरण्यमौवर्णिक-पुं०।हिरण्यं रजतं,सुवर्ण अहियप्पणाण-अहितमकान-त्रि० । अहितं प्रशानं योधो च हेम,ते विद्यते यस्य स हिरण्यसौर्णिकः।तथा नाप्रश्न ३ यस्य सोऽहितप्रशानः । अहितबोधे, सूत्र० १ श्रु० १ ०२२० । संव०द्वार । हिरण्यं रजतं सौवर्णिकं सुवर्णमय कनककलशादि. अहियरूवसस्सिरीय-अधिकरूपसश्रीक-त्रि०। भतिशोनिते, न विद्यते हिरण्यसौवणिके यत्राऽसौ अदिरण्यसावर्णिकः। उप. कल्प० ३ ०। लकणत्वात् सर्वपरिग्रहरहिते, पा० । रजतसुवर्णमयकलशाअहियहिय-अहिवहित-त्रि० । अतिवहुकादिषु तथाविधे दिरहिते, ध०३ अधिक भोजने, पिं०। प्राहराय-अधिराज-पुं०। मैलिपृथिवीपतौ, ३० ३००। Jain Education Interational Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।८८८) अहिरियया यानिधानराजेन्द्रः। अहणोवपन्नग अहिरियया-अन्हीकता-स्त्री० । निजतायाम, उत्त० ३४ अहीयमुत्त-अधीतसूत्र-त्रि० । गृहीतसूत्रे, “सम्मं श्रदीयम्अ० । पिं० । | तो ततो विमलयरबोहजोगाओ" पं०व०१ द्वार । अहिरीमण-अहीमनस-त्रि० । मचाकारिणि शीतोष्णादौ अहीरग-अहीरक-न । विद्यमानस्यैव न विद्यते हीरिकास्तपरीषदे, प्राचा० १५०६०२ उ०॥ न्तुलकणा मध्ये यस्य तदहीरकम् । तन्तुहीने, प्रय०४ द्वार । अहिरेम-पूरि-धा० । पूरणे । " रेग्धामोग्घवोधमागुंमाहि अहणाधोय-अधुनाधौत-त्रि० । अचिरौते, अपरिणते च । रेमाः " 10 । । १६६ । महिरेमा पूरह, पूयते । प्रा० ५ पाद। दश०५ अ०। पाहिलंघ(ख)-काइन-धा० । अभिलाषे, “काङ्केराहाहिन- | अहण अहवासिय-अधुनोदवासित-त्रि० । अचिरोदवासिते, बाहिमलय० ।।४।१६। इत्यादिसूत्रेण कातराहिलं प्रोघ० । साम्प्रतोद्वासिते, व्य० ४ ०० । घाहिलखादेशः । अहिलंखाइ, अहिलंघः। प्रा० ४ पाद । अहणोवलित्त-अधुनोपलिप्त-त्रि०ासाम्प्रतोपलिप्ते,दश०५०। अहिसाण-अहिलान-न० मुनबन्धनविशेष, का०१७ अामु अहणविवामग-अधुनोपपन्नक-त्रि० । अचिरोपपन्ने, स्था। खसयमने, ज० ३ वक० । औ० । कविके, ज्ञा०४०। अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेप्रहिलावित्थी-अभिलापस्त्री-स्त्री० । अभिलप्यत इत्यजिला तिहिं गणेहिं अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेज्जा मापः, स एव स्त्री । स्त्रीलिमाभिधाने शब्दे, यथा-शालामामासिद्धिरिति । सूत्र० १ श्रु०४ १० १० उ०। सं लोगं हव्चमागच्छिसए, णो चेव णं संचाए हन्नभहिलोयण-अभिलोकन-न० । अभिलोक्यते अवलोक्यते मागचित्तए । तं जहा-अहणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वेसु यत्र तदभिलोकनम् । उन्नतस्थाने, प्रश्न ४ संबद्वार। कामनोगसु मुच्चिए गिछे गढिए अज्झोववन्ने से णं माअहिवइ-अधिपति-पुं० । नायके, स्था० ५ ०१ उ० रक्षके, गुस्सए कामजागे णो आढाइ, णो परियाणाइ, णो अटुं जे०१ वक्षनरेन्द्र, प्रश्नपत्राद्वार। बंधइ,यो णियाणं पगरेपणो ठिइप्पकप्पे पकरे,अहुणोमहिवइजंजग-अधिपतिजम्भक-पुंग राजादिनायकविषयेज- ववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्येसु कामनोमेसु मुच्चिए गिछे म्भके, भ०१४ श०० ००। गदिए अक्रोवबन्ने, तस्स णं माणुस्सए पेमे वोरिछ वि. अहिवदंत-अधिपतत्-त्रा आगच्छति, भोघ०। चिन्ने दिव्वे संकते नवइ २ अहुणोववने देवे देवनोएसु प्रहिवासण-अधिवासन-नाशुझिविशेषापादनेन विम्बपति- दिनेसु कामभोगेसु मुछिए० जाव अज्कोववन्ने,तस्स णष्ठायोग्यताकरणे, पचा चिव। मेवं भवइ यएिहं गच्छं मुहुत्तं गच्छं, तेणं कामेणमप्पाअहिमकण-अभिष्वक -न । विवक्कितकालस्य संघद्धने प- उया माणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता जव। श्वेएहिं तिहिं रतः करणे, वृ०१ उध। ठाणेहिं अहणोववन्ने देवे देवलोगसु इच्छजा माणुस्स प्रसिरिय-अभिसृत-त्रि० । प्रविष्टे, प्रा. म. द्वि०। लोग हन्त्रमागच्चित्तए, नो चेव णं संचाए इन्वमागच्चिअहिमहण-अधिसहन-न । तितिरण स्था०६०।। त्तए, अहणोववन्ने देवे देवलोगेमु दिब्बेसु कामनोगेसु अहीकरण-अधीकरण-न० । अधीग्बुष्मिान पुरुषः, स तं क-| अमुच्चिए अगिके अगढिए अणकोववन्ने तस्स णरोनीत्यधीकरणम् । कलहे, नि० चू०१० उ०।। मेवं नवइ, अस्थि णं मम माणुस्सए भवे प्रायरिएइ वा नहीण-अधीन-त्रि० । स्वायत्ते, प्रश्न०४ संब. हार। उबकाएइ वा पवत्तेइ वा थेरेइ वा गणी वा गणहरेइ अहीन-त्रि० । अन्यूने, "अहोणपमिपुसपंचिदियसरीरा" भ. वा गणावच्छेएइ वा जेसिं पनावेणं मए इमा एयारूवा इनान्यन्यूनानि स्वरूपतः प्रतिपूर्णानि लकणतः पञ्चापीन्द्रि दिव्या देवी दिव्या देवजुई दिब्वे देवाणुभावे के पत्ते अयाणि यस्मिन् तत् तथाविधं शरीर यस्याः सा तथा । औ० ।। निसमधागए तं गच्छामि णं तं जगवं बंदामि णमंसामि का विपा० भ० । अहीनमगोपालप्रमाणतः परिपूर्णपञ्चे- सकारेमि सम्माषणेमि कहाणं मंगलं देवयं चेडयं पज्जुवान्द्रियं, प्रतिपुण्यपन्जिय वा शरीरं यस्य सोऽहानपरिपूर्ण- सेमि ॥१॥ अहणोचवन्ने देवे देवलोगेसु दिवस कामपञ्चेन्द्रियशरीरोऽहानप्रतिपुषयपञ्चेन्द्रियशरीरो वा । स्था। भोगेसु अमुच्चिए० जाव अणज्कोववन्ने तस्स एं एवं भवठा० । कल्प। इ, एस ण माणुस्सए नवे गाणी वा तवस्सीइ चा अश्अहीणक्खर-प्रथीनाक्षर-न । एकेनाप्यारेणादीने, ग० २ अधिः । सूत्र० । गुणे, अनु० । गए। विशे० । संघा. ('हीण- | दुक्करमुक्करकारगे तं गच्छामि णं जगवते वंदामि णमंसामि० पसर' शम्दे कथा वयन) जाव पज्जुवासामि ॥॥ अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु० बहीण देह-अही नदेह-वि० । परिपूर्णदेवावयवे, व्य०३ उ०।। जाव आएकोक्वन्ने तस्स णमेवं जव, अस्थि णं मम माअहीय-अधीन-प० । प्रागमिते, "उवयारोत्ति वा अहीतं ति | एम्सए नवे मायाइ वा० जाव मुएहाइ वा तं गच्छामि णं वा प्रागमियं ति घा पगटुं" नि०यू०१० । स्था। तेनिमंनियं पारन्जवामि, पासंतु ता मे इमं एयारूवं दिवं Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5७१) अहुणोववन्नग अनिधानराजेन्डः। अहणोक्वन्नग देवहिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणभावं न पत्तं अजिस- णोऽस्यास्तीति गणी गणाचार्यः गणधरो जिनशिष्यविशेषः । महागयं ; इच्छेपहिं तिहिं गणोहं अहुणोवबन्ने देवे देव. नायिकाप्रति जागरको वा साधुधिशेषः । चतश्च-" पियध. म्मे दधम्मे, संचिग्गो जो य नेयंसी संगहुवम्गहनुमो, मोगेसु इच्छेज्ज माणुसं सोगं हन्धमागच्छित्तए संचारित्त सुत्तविक गणाहिवाई" ॥१॥ गणस्यावच्छेदो विनागोऽदोए हब्बमागछित्तए ॥ ३ ॥ ऽस्यास्तीति । यो हि गणान् संगृहीत्वा गच्छोपटम्भायैवोअधुनोपपन्नो देवः, केत्याह-(देवलोग ति) इह च बहु पधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति स गणावच्छेदिकः । श्राह चवचनमेकस्यैकदा ऽनेकेयूत्पादासम्भवादेकार्थे दृश्यम, घच "ओहावणापहावण-खेत्तोबहिमग्गणासु अविसाई । सुत्तनव्यत्ययादेवलोकानकस्योपदर्शनार्थ चा; देवलोकेषु मध्ये क स्थतपुभयविक, गणवत्यो एगिसो हो"॥१॥। इम त्ति) चियलोक इति, इच्छेदभिलपेत् पूर्वसङ्गतिकदर्शनाद्यर्थ मा श्यं प्रत्यक्कासन्ना, एतदेव रूपं यस्या न कालान्तरे रुपान्ननुषाणामयं मानुषस्तम् । (हब्ब ति) शीघ्रम् ( संचाए त्ति) रभाक सा पतद्रूपा , दिव्या स्वर्गसम्जवा प्रधाना वा देवाशक्कोति । दिवि देवलोके भवा दिव्यास्तेषु कामी च शब्दरूप नां सुराणामृतिः धार्विमानरत्नादिसंपवधिः, एवं सर्वत्र, नवरं द्युतिदीप्तिः शरीराभरणादिसम्भवा, यतिचा युक्तिरिष्टपग्विालवणी भोगाश्च गन्धरसस्पर्शाः कामभोगाः तेषु । अथवा-का रादिसंयोगलवणाऽनुभाचोऽचिन्त्या वैक्रियकरणादिका शक्तिम्यन्त शति कामा मनोज्ञाः, ते च इति तुज्यन्त इति भोगाः लब्ध उपार्जितो जन्मान्तरे प्राप्त इदानीमुपनतः, अनिसमन्याशब्दादयः, ते च कामभोगास्तेषु,मूचित इव मूच्छितो मूढः,त गतो भोग्यतां गतः । तदिति तस्मात्तान् भगवतः पृज्यमास्वरूपस्यानित्यत्वादेविबोधाक्षमत्वात् गृद्धः, तदाकाङ्क्षावानत. नान् बन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामि प्रणामन सत्करोम्यत्यादरकरत इत्यर्थः। प्रथित इव ग्रथितस्तद्विषये कोहरज्जुभिः संदर्जित णेन वस्त्रादिना वा संमानयाम्यचितप्रतिपस्या कल्याण मङ्ग इत्यर्थः। अध्युपपन्न प्राधिक्येनासक्तोऽत्यन्ततन्मना इत्यर्थः। नो दैवतं चैत्यमिति बुध्या पर्युपासे सेये प्रत्यकम । ( एस ण ति) प्राडियतेन तेवदरवान् भवति, नो परिजानाति-पतेऽपिच ध एपोऽवध्यादिप्रत्यकीकृतः मानुप्यके भये, वर्तमान इनिशेषः । स्तुनूता इत्येवं न मन्यते तथा तेधिति गम्यते। नोगार्थ बध्नाति मनुष्य श्यर्थः । ज्ञानीति वा कृत्वा तपस्वीति वा कृत्वा.किभिपरिदं प्रयोजनमिति ननिश्चयं करोति । तथा-संधु नो निदानं नि दुष्कराणां सिंहगुहाकायोत्सर्गकरणादीनां मध्ये दुष्करमप्रकरोति-पते मे नूयासुरित्येवमिति । तथा तेष्वेव नोस्थितिप्र नुरक्तपूर्वोपनुक्तप्रार्थनापरतरुणामन्दिरवासाप्रकम्पन ह्मचर्यनु:कल्पमवस्थाने विकल्पनम-पतेय तिष्ठेयमिति,पते वा मम तिष्ठ पासनादिकं करोतीति अतिदुष्करकारका, स्थलभवत् , न्तु स्थिरीभवन्त्वित्येवंरूपं स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टप्रक तस्मात । (गच्छामि त्ति) पूर्वमेकवचननिदेशेऽपीह पूज्यस्प याचार आसेवेत्यर्थः। तं प्रकरोति कर्तुभारभते,प्रशब्दस्या विवक्षया बहुवचनमिति । तान् पुष्करश्कारकान् जगवतो दिकर्मार्थत्वादिति। एवं दिव्यविषयप्रशक्तिरित्येकं कारणमातथा वन्दे इति द्वितीयम् । तथा-"माया वा पिया या भजाइ वा यतोऽसाबधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मूच्छितादि वि जाणीद वा पुत्ताइ वा धृया वा" इति । यावच्चन्दाकेपः शेषणो भवति, अतस्तस्य मानुष्यकं मनुष्यविषय, प्रेम स्नेहो, येन मनुष्यलोके आगम्यते तद्व्यवच्छिन्नम,दिवि भवं दिव्यं स्वर्ग स्तुपा पुत्रनार्या । तदिति तस्मात्तेपामन्ति के समीपे प्रापुर्नवामि प्रकटीजवामि । (ता मे त्ति) तावत् मे ममेति तृतीयम् ॥ स्था. गतवस्तुविषयं संक्रान्तं तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति दिव्यप्रेमसंक्रा ३ ग० ३ उ०। न्तिरिति द्वितीयम् ॥२॥ तथाऽसौ देवो यतो दिज्यकामभोगेषु मूचितादिविशेषणों भवति ततस्ततप्रतिबन्धातू (तस्स णं ति) चनहिं गणेहिं अहुणोक्वामे णेरइए णिरयलोगंसि इतस्य देवस्य । एवं ति) एवंप्रकारं चित्तं नवति, यथा (इय-1 च्छेजा माणुमं लोगं हन्धमागच्छित्तए णो चेव णं संचाहिंति) श्दानी गच्छामि (म हुत्तं ति) मुहूर्तेन गच्छामि, कृत्य- एइ इन्धमागच्छित्तए॥१॥ अहुणोवबन्ने ऐरइए णिरयझो. समाप्ताबित्यर्थः । (तणं कालेणं ति) येन तत्कृत्यं समाप्यते सच कृतकृत्यत्वादागमनशक्तो भवति, तेन कालेन, गतेनति शे गंसि समुन्न्यं वेधणं वेयमाणे इच्छेजा माणुसं लोगं हपः । तस्मिन्या काले गते, 'णं' शब्दो वाक्यालङ्कारे । अल्पा ब्वमागचित्तए. णो चेव एं संचाए हव्यमागच्छित्तए ।।२।। यषः स्वनाबादेव मनुष्यमात्रादयो यद्दर्शनार्थमाजिगमिपति हुणोववन्ने णेरइए णिरयलोगंसि णिरयपाहिं भुज्जो तेन कालधर्मेण मरणेन संयुक्तो भवति। कस्यासौ दर्शनार्थमा-1 भुजो अहिहिजमाणे इच्छेजा माणुसं लोग हव्वमागगच्छति असमाप्तकर्तव्यता नाम तृतीयमिति (इच्चेत्यादि )निगमनम् ॥३॥ देवः कामेषु कश्चिदमूञ्चितादिविशेषणो भवति। च्छित्तए,नो चेव णं संचाएइ हव्यमागच्छिनए ॥३॥ अहुतस्य च मन इति गम्यते । एवंभूतं भवति प्राचार्यप्रतिबोधक णोववन्ने णेरइए णिरयवेयणिजसि कम्मंसि अक्खीएंसि प्रव्राजकादिरनुयोगाचार्यो वा । इति एवंप्रकारार्थों, वाश- अवेडयसि अधिनिमंसि इच्छेजा. नो चेवणं संचाए. ब्दो विकल्पार्थः । प्रयोगस्त्वेवम-मनुष्यनवेऽयं ममाचार्योऽस्ती- एवं निरइया ओअंसि कम्मंसि अक्खीणं सिजाव णो चेव ति वा उपाध्यायः सूत्रदाता, सोऽस्तीति वा । एवं सर्वत्र, नवरं प्रवत्तयति साधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती । एं मंचाएर हव्वमागच्छित्तए ।।४।। इच्चेएहिं चनहिं गउक्तं च-"तवसंयमयोगेसुं, जो जोगो तत्थ तं पयट्टेइ । असुई हिं अहुणोवबन्ने णेरइए० जाव नो चेव एं संचाएइ च नियत्तेइ, गणतत्तिहो एयत्तीओ "॥१॥ प्रवर्तिव्यापा- हव्यमागचित्तए || रितान् साधुन् संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः। अधुना जीवसायान्नारकजीवानाश्रित्य तदाह-( चउहीउक्तञ्च-" थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति बावारिएसु अत्धेस।। त्यादि) सुगम, केवलं (गणेहि ति ) कारणः। ( यहुणावय. जो जत्थ सीय जय, संतबलो तं थिरं कुण" ॥१॥ग- ति । अधुनोपपनोऽचिरोपपनो निगतोऽयः शुभमस्मादिाते २२३ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहुणोववन्नग अभिधानराजेन्छः । अहुणोववन्नग निरयो नरका,तत्र भवो नैरयिका तस्य चाऽनन्योत्पत्तिस्थानतां लोकेषु, देवमध्ये इत्यर्थः । (हब्वं) शीघ्रम् (संचाए३) शक्नोति । दर्शयितुमाह-निरयलोके तस्मादिच्छेन्मानुषाणामयं मानुषस्तं कामनोगेषु मनोझशब्दादिषु मूर्छित श्व मूबितो मूढस्तत्स्व. लोकं केत्रविशष (हब्बं) शीघमागन्तुं (नो चेव त्ति) नैव, 'ण' वा- रूपस्यानित्यत्वादेबियोधातमत्वात् गृद्धः,तदाकाङ्कावान् अतृप्त क्यालङ्कारे। (संचाएइ) सम्यक शक्नोति प्रागन्तुं समुन्नूयं ति) इत्यर्थः । प्रथित श्व प्रथितः,तद्विषयस्नहरज्जुभिः संदर्भित समुद्भूता मतिप्रबलतयोत्पन्ना। पागन्तरण-संमुख नूतामेकहे- इत्यर्थः । अध्युपपन्नोऽत्यन्ततन्मना श्त्यर्थः । नाद्रियते-न तेण्यालोत्पन्नाम् । पानमन्तरेण-अमहतो महतोभवनं महद्भुतं तेन सह दरवान् भवति ।न परिजानाति पतेऽवि वस्तुजूता इत्यवं न या सासमहद्भूता,तांसमभृतांवा वेदनांपुःस्वरूप वेदयमा. मन्यते-तथा तेविति गम्यते । नोऽथ प्रतिबध्नाति-पतरिद प्रयोमोऽनुजवन इच्छेदिति मनुष्यलोकागमनेनायाः कारणमेतदेव जनमिति निश्चयं करोति । तथा-नो तेषु निदानं प्रकोति-पते वाऽशक्तस्य,तीववेदनाभिभूतो हि न शक्त आगन्तुमिति । तथा- मे नूयासुरित्येवमिति। तथा-नो तेषु स्थितिप्रकल्पमवस्थानविनिरयपालरेवंवादिभिःभूयोभूयः पुनःपुनरधिष्ठीयमानः समाफ- कल्पनम् एतेष्वहं तिष्ठामि, पते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरा भवन्स्वि. म्यमाण आगन्तुमिच्छेदित्यागमनेच्छाकारणमेतदेव बाऽऽगमना- स्येवरूपं स्थित्या वा मर्यादया प्रकृष्टः कस्प आचारः स्थितिशक्तिकारणं,तैरत्यन्ताक्रान्तस्यागन्तुमशक्तत्वादिति। तथा-निर- प्रकल्पः,तं प्रकरोति कर्तुमारजते,प्रशदस्यादिकर्मार्थत्वादिति। ये वेधते अनुभूयते यद् निरययोग्यं वा यवदनीयम् अत्यन्ताशु- एवं दिव्यविषयप्रसक्तिरेकं कारणं, तथा-यतोऽसावधुनोत्पत्रो जनामकर्मादि,असातवेदनीय वा, तत्र कर्मणि अक्षीणे स्थित्या देवः कामषु मूछितादिविशेषणोऽतस्तस्य मानुण्यकमित्यादीति अवेदितेऽननुभूतानुभागतयाऽतिजीणे जीवप्रदेशेभ्योऽपरि- दिव्यप्रेमसंक्रान्तिद्धितीयम् । तथाऽसौ देवो यतो भोगेषु मूञ्छिशटिते इच्छेन्मानुषं लोकमागन्तुं, न च शक्नोति अवश्यवेधक-1 तादिविशेषणो भवति ततस्तत्प्रतिबन्धात् । (तस्स णमित्याद।मनिगमयन्त्रितत्वादित्यागमनाशक्त एव कारणमिति। तथा- ति) देवकार्यायसनया मनुष्यकार्यानायत्तत्वं तृतीयम् । तथा-दि(एवमिति) "अहुणोववने " इत्याद्यभिलापसंसूचनार्थः। नि- व्यभोगमूर्छितादिविशेषणत्वात्तस्य मनुष्याणामयं मानुष्यः,स रयायुके कर्मणि अक्कीणे, यावत्कारणात् 'अवे' इत्यादिर- एव मानुष्यको गन्धः प्रतिकूलो दिव्यगन्धविपरीतवृत्तिः प्रतिइयमिति निगमयन्नाह-(इचपहिं ति)। इति एवंप्रकारैरेतैःप्र. लोमश्चापिइन्द्रियमनसोरनाहादकत्वादेकार्थों चैतावत्यन्तामनोत्यकैरनन्तराक्तत्वादिति। अनन्तरं नारकस्वरूपमुक्तमातेचासय- ज्ञताप्रतिपादनायोक्ताविति । यावदिति परिमाणार्थः। (चत्तारि मोपएम्जकपरिग्रहादुत्पद्यन्त इति । स्था०४ ग०१०॥ पंचेति) विकल्पदर्शनार्थ कदाचिद्भरतादिप्येकान्तसुषमादौ चअधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु त्वार्येव, अन्यदा तु पञ्चापि मनुष्यपश्चेन्द्रितिरश्चां बहुत्वेनौ. दारिकशरीराणां तदवयवतन्मलानां च बहुत्वेन पुरभिगन्धचाहिं गणेणिं अहुणोवबन्ने देवे देवलोगेसु इच्छेजा | प्राचुर्यादिति । प्रागच्चति मनुष्यक्षेत्रादाजिगमिषु देवं प्रतीति । श्दश्च मनुष्यक्षेत्रस्याशुभस्वरूपत्वमेवोक्तमान च देवोऽन्यो था माणमं योग हबमागउित्तए णो चेव संचाए हव्वमा- नवज्यो योजनेयः परत प्रागतं गन्धं जानातीति। अथवा मत गच्छित्तए । तं जहा-अहुणोववन्ने देवे देवलोगेसु दिव्वसु एव वचनात् यदिन्द्रियविषयप्रमाणमुक्तं तदौदारिकशरीरेन्द्रि यापेकयैव संजाव्यते, कथमन्यथा विमानेषु योजनलकादिप्र. कामनोगेमु मुच्चिए गिके गढिए अनोववाले से णं मा माणेषु दूरस्थिता देवा घण्टाशब्दंशृणुयुः, यदि परं प्रति शब्दगुस्सए कामभोगे यो अढाइ, यो परियाणा, णो अटुं द्वारेणान्यथा वेति नरभवाशुभत्वं चतुर्थमनागमनकारणमिति । पंधर, पोणियाणं पगरेइ,णो विप्पगप्पं पगरेइ ॥१॥ अहु- शेषं निगमनम् । स्था० ४ ग० ३ ०। गोववन्ने देवे देवलोएसु दिवेमु कामभोगेसु मच्छिए० ४ चनहिं गणोहिं अहुववन्ने देवे देवलोएम इच्छेज्जा मातस्स णं माणुस्सए पेमे वोच्छिले दिव्चे संकंते नवइ ।।२।। णुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए संचाएइ हव्वमागच्चित्तए। अहुणोववन्ने देवे देवलोएमु दिव्येसु कामभोगेसु मुछिए तं जहा-अहुणोवबन्ने देवे देवसोगेसु कामभोगेसु अमुच्चि४ तस्स णं एवं भव इयएिहं गच्छं मुहुत्तेणं गच्चंतेणं एजाव अणज्कोववो तस्स एं एवं जवइ-अस्थि खलु कालेणमप्पाना मणुस्सा कालधम्मुणा संजुत्ता भवं- मम माणुस्सए भवे आयरिएइ वा उवज्काए वा पवित्तीइवा ॥३॥ अहणोववन्ने देवे देवलोएम दिव्वेसु कामभोगे- थेरेइ वा गणी वा गणहरइ वा गणावच्छएइ वा जेसिं सु मुच्चिए०४ तस्स णं माणुस्सए गंधे पमिकूले पडि- पजावेणं मए इमा एयारूवा दिव्या देवकी दिव्वा देवसोमे यावि जवड, न पिय णं माणुस्सएणं गंधेचनारि जुई लछा पत्ता अनिसमामागया तं गच्छामि गं, ते भपंच जोयणसयाइं हवमागच्च॥॥ इन्चेएहिं चहि ठा- गवते वंदामि० जाव पज्जुवामामि । अदुणोववाले देवे देवयहिं अहणोववन्ने देवे देवलोपसु इच्छेजा माणुसं लोगं सोएमु० जाव अणझोपवले तस्स णमेवं जबइ, एस णं हषमागच्छित्तए, णो चेव णं संचाए हव्वमागच्चित्तए ।। माणुस्सए नवे गाणीइ वा तवस्सीइ वा अमुक्करकारए त्रिस्थानके तृतीयोदेशके प्रायो व्याख्यातमे वेद तथापि किञ्चि. तं गगमि णं ते जगवते वदामि०जाव पज्जुवासामि॥२॥ दुच्यते-(चडहि बाणेहिं नो संचाए त्ति) संवन्धः । तथा-देवः। अहणोववले देवे देवलोएसु० जाच अणझोववो तस्स Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महुणोववन्नग अभिधानराजेन्दः । अहउवाय णमेवं जवइ, अस्थि णं मम माणुस्सए नवे माया वा० अथ चैतत्, णमिति वाक्यालङ्कारस्था०३०१उ०। आचा। तेपे, नियोगे च । स०।। जाव मुएहाइ वा तं गच्छामि ए, सिमंतियं पाउन्जवामि, पासंतु तामे इममेयारूवं दिव्वं देवष्टि दिनं देवजुईनकं पत्तं अहेनु-अहेतु-पुं० । यथोक्तहेतुप्रतिपक्ष, स० । अनुमानानु स्थापके हेत्वाभासे, स्था। अभिसममागयं ॥३।। अहुणोववाले देवे देवेला सु० जाव | पंच अहेज पत्ता । तं जहा-अहे ण जाणइ० जाव अणज्झोपवले तस्स णमेवं भवइ,अत्थि णं मम माणुस्सए अहेउग्नमत्थमरणं मरइ ॥ ६ ॥ पंच अहेऊ पापभा । तं जवे मित्ते वा ही वा सहाएइ वा संगइएइ वा तोसिं जहा-अहेउणा न जाणइ० जाव महेनणा उनमत्थमरणं च णं अम्हे अप्पमम्मस्स संगारे पडिसुए नवा , जो मे मरइ ॥ ७॥ पंच अहेक पलत्ता । तं जहा-अहनं जाण पुन्निं चयइ से संबोहियब्वे श्चेएहिं० जाव संचाएइ इ- जाव अहेनकेवलिमरणं मर ॥८॥ बमागचित्तए ॥ ४॥ तथा पञ्चाऽहेतयो यः प्रत्यक्वज्ञानादितयाऽनुमानानपेकःस धूप्रागमनकारणानि प्रायः प्राग्वत,तथापि किञ्चिदुच्यते-कामभो मादिकमतुनाऽयं हेतुर्ममानुमानोत्थापक इत्येवं जानातीगेवमूञ्छितादिविशेषणो यो देवस्तस्य (एषमिति) एवंनूतं मनो त्यतो हेतुभूतं तं जाननहेतुरेवासावुच्यते । एवं दर्शनयोप्रवति यदुत अस्ति मेकिंतदित्याह-आचार्य इति वाऽऽचार्य एत धाभिसमागमापेक्वयाऽपि तदेवमहेतुचतुष्टयं छद्मस्थमाभित्य द्वाऽस्तितिरूपप्रदर्शने, वा विकल्पे।एवमुत्तरत्रापि।कचिदिति देशनिषेधत आद- अहेतुमिति ) धूमादकं हेतुमहेतु भावेन न जानाति न सर्वथाऽवगच्छति, कथश्चिदेवावगच्चतीशब्दोन रश्यते,तत्रसूत्रं सुगममेवेति। चाचार्यःप्रतिबोधप्रवा. त्यर्थः । नमो देशनिषेधार्थत्वात, ज्ञातुधावभ्यादिकेवलित्वनानुजकादिरनुयोगाचार्यो वा, उपाध्यायः सूत्रदाता, प्रवर्तयत्तिसाधूनाचार्योपदिष्टेषु वैयावृत्यादिग्विति प्रवर्ती, प्रतिव्यापारितान् मानाव्यवहर्तृत्वादित्येकोऽयमहतुर्देशप्रतिषेधत सक्तः । एवमहेतु साधून मंयमयोगेषु सीदतःस्थिरीकरोतीति स्थविरो, गणोऽस्या कृत्वा धूमादिकं न पश्यतीति द्वितीयः । न बुध्यते न श्ररुत्ते स्तीति गप्पी,गणाचार्यों गणधरो वा जिनशिघ्यावशेष आर्यिका शति तृतीयः। नाभिसमागच्चतीति चतुर्थः । तथा-अहेतुमध्यप्रतिजागरको वा साधुविशेषः, समयसिद्धान्तो गणस्यावच्छेदोऽ वसानादिहेतुनिरपेक्षं निरुपक्रमतया ग्यस्थमरणमनुमानव्यव. स्यास्तीति गणायच्दकः।यो हितं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवो हतत्वेऽप्यकेवलित्वात्तस्यायं च स्वरूपत एव पश्चमो हेतुरुक्तः । तथा-पश्चाहतवो योऽहेतुना हेत्वनावनावध्यादिकेवलित्वाद पधिमार्गणादिनिमित्तं विहरति ( इमे त्ति) श्यं प्रत्यक्कासन्ना जानात्यसावहेतुरेवेत्येवं पश्यतीत्यादयोऽपि । एवं च प्रस्थमा. पतदेव रूपं यस्या न कालान्तरादापि रूपान्तरजाक सा, तथा दिव्या स्वर्गसंभवा प्रधाना वा देवद्धिर्विमानरत्नादिका श्रित्य पदचतुष्टयेनाहेतुचतुष्टयं देशप्रतिषेधत आह । तथा: हेतुनोपक्रमाभावेन छमस्थमरणं म्रियत इति पञ्चमोऽहतः पुतिः। शरीरादिसम्भवा युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवारादिसंयो. स्वरूपत एव उक्तः ६ तथा-पश्चातवोऽदेतं न हेतुभावेन विकगलक्षणा सम्धा उपार्जिता जन्मान्तरे प्राप्तेदानीमुपगता, अभि ल्पितं धूमादिकं जानाति केवलितया योऽनुमानाव्यवहारित्वासमन्यागता जोग्यावस्थां गता (तंति) तस्मात्तान् जगवतः पुज्यान बन्दे स्तुतिभिर्नमस्यामिप्रणामेन सत्करोमि, प्रादरकरणे सोऽहेतुरेव । एवं यः पश्यतीत्यादि । तथा अहेतुं निर्हेतुकमनुम बस्लादिना वा समानयाम्युचितप्रतिपत्त्या कल्याणं मजलं पक्रमत्वात् केवलिमरणमनुमानाव्यवहारित्वाद् म्रियते यास्यदैवतं चैत्यमिति बुस्या पर्युपास्ये सेवामीत्यकम् । तथा-काने सावहतुःपञ्चमः।पते पश्चापीह स्वरूपत उक्ताः।७। एवं तृतीया न्तसूत्रमप्यनुसर्तव्यमिति।नागमनिकामात्रमतत,तत्त्वं तुबहुश्रुता भुतकानादिनत्यादि द्वितीयम् । तथा-(भायाइ वा भजाइ घाभ विदन्तीति ॥ स्था०५ ग०१०। न विद्यते हेतुरस्येति, अनाइणीय वा पुत्ता वा धूया वेति) यावत् शब्दापः, स्नुषा पु. द्यपर्यवसिते नित्ये, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ. । भ०। अनार्या (तं) तस्मात्तेषामन्तिकं समीपं प्रार्भवामि प्रकटी. भवामि (ता) तावत् (मे) मम इति पागन्तरमिति तृतीय- अहेउवाय-अहेतवाद-पुं० ।हिनोति गमयत्यर्थ मिति हेतुः, तम । तथा-मित्रं पश्चात् स्नेहवत् सखा बालवयस्यासुहृत्सजनो परिथिनोऽर्थोऽपि हेतुः,तं वदति य आगमः स हतुवादः । हितैषी सहायः सहचरस्तदेककार्यप्रवृतो वा, संगतं विद्यते य. यस्तु वस्तुस्वरूपप्रतिपादकत्वेऽपि तद्विपरीतोऽसावहेतुवादः । स्यासौ साङ्गतिकः परिचितस्तेषां ( अम्हे त्ति) अस्माभिः (अ दृष्टिवादादन्यस्मिन्, सम्म० । समसस्स त्ति) अन्यान्यं (संगारेत्ति) संकेतः प्रतिश्रुतोऽज्युपगतो भवति स्मेति । (जो मे त्ति ) योऽस्माकं पूर्व च्यवते देव. (दुविहो धम्मावाओ, अहेउवाओ य हेउवाओ य)। लोकात्म संबोधयितव्य इति चतुर्थम्। इदं च मनुष्यनवे कृतसं- तत्थ उ अहेउवाओ, जवियाभवियादोजावा ॥१४॥ केतयोरेकस्य पूर्वलक्षादिजीविषु भवनपत्यादिपूत्पद्य व्युत्वा भव्याभव्यस्वरूपप्रतिपादक आगमः,तद्विभागप्रतिपादने अध्यच नरतयोत्पन्नस्यान्यः पूर्वलतादि जीवित्वा सौधर्मादिषूत्पय क्षादेःप्रमाणान्तरस्याप्रवृत्तेः। नह्ययं भव्योऽयमभव्य इत्यत्रागमसंबोधनार्थ यदिहागच्चति तदवसेयमिति । इत्येतैरित्यादि नि- प्रमाणेन प्रमाणान्तरप्रवृत्तिसंनवः। अस्मदाद्यपेक्वयान तु तद्विजाग. गमनामिति ॥ स्था०४० ३३०। प्रतिपादकं वचो यथार्थमर्हद्वचनत्वात,अनेकान्तारमकवस्तुप्रतिपामहे-अधम्-दिग्भेदे, नि० चू० १० १० । भ० । दकवचोवदित्यनुमानात् तद्विनागप्रतिपत्ती कथं न तस्यानुमानाव षयता। न । एवमप्यागमादेव तद्विभागप्रतिपत्तेस्तद्वयतिरेकेण प्रअथ-अव्य० । अथार्थे,भ०१श०६ उ०। 'प्रहेणं से अम्मापियरं'। For'ब्रहण स अम्मापियर'| माणान्तरस्य तत्प्रतिपत्तिनिबन्धनम्यानावात्। अर्हदागमस्य च प्रा. Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८९२) अहेउवाय अभिधानराजेन्द्रः ।। अहोलोय धान्यार्थसंवादनिबन्धनतत्प्रणीतत्वनिश्चयेऽनुमानतोऽतीन्द्रिया-असत्तमा-अधःसप्तमी-स्त्री.। तमस्तमायां पृथिव्याम, अयो। धेविषये प्रामाण्यं निश्चीयत इत्यभ्युपगम्यत एव । बागमनिरपेक्ष-| ग्रहणं विना सप्तमी नपरिष्टाश्चिन्त्यमाना रत्नप्रनाऽपि स्यादित्यस्य तु प्रमाणान्तरस्यास्मदादेस्तत्र प्रवृत्तिन विद्यत इत्येतावता | धोग्रहणम् । “ अहेसत्तमाए पुढयीए" स्था० २ ठा० ४ ००। अहेतुवादत्वमेव विषयागमम्योच्यत इति वचनव्यापार केवलमपेक्ष्यायं कमः । यदा तु शानदर्शनचारित्रत्रितये यथा तदनु अहो-हो-अव्य० । न हा-मो। शोके, धिगर्थे, विषादे, दयाठानप्रवणस्ततिकमश्च पुरुषः प्रतीयते, तदाऽनुमानगम्योऽपित- याम्, सम्बोधने, प्रशंसायाम, वितर्के, असूयायां च । वाच। बिनागो भवति । यथा भव्योऽभव्यो वाऽयं पुरुषः, सम्यग्ज्ञाना- विस्मये,प्रा० म०प्र०ादशाभास्थान उत्त०। सूत्रादिपरिपूर्णत्वाच्याम,सोक प्रसिद्धभव्याभव्यपुरुषवत् । अहे तुवा- श्चयें, अष्ट० १८ अष्ट०प्रति। प्राचा० । विपा० । दैन्ये, प्रामदागमावगते धर्मिणि भव्याभव्यस्वरूपे विपरीतनिणयफलो प्रणे च । ग०२ अधिः । अनु०। सूत्र। हेतुबादः, प्रवृत्ते योऽयमागमे नव्यादिरभिहितः स तथैव, यथोक्तहेतुसद्भावादिति । आह अहोकरण-अधःकरण-म० । अधोऽधस्तादात्मनः करणम् । कबहे, नि० चू०१० उ० । भविप्रो सम्मइंसण-पाणचरित्तपमिवत्तिसंपन्नो। अहोकाय-अधाकाय-पुं० । अधस्तात्कायोऽधः कायः । पादे, णियमा सुक्खंतकमो, त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥१४१॥ | आय० ३ ०। भव्योऽयं सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिपत्तिसंपूर्णत्वात् उक्त पुरुषवत्, अहोणिस-अहर्निश-न० । अहोरात्रे, "णिरये णेरड्याणं महो। तत्परिपूर्णत्वादेव नियमात्संसारदुःखान्तं करिष्यति,कर्मव्याधे- पिसं पञ्चमाणाणं" सुत्र०१ १०५१०२१०। रात्यन्तिकविनाशमनुनविध्यति, तन्निवन्धनामध्यात्वादिप्रतिपकाभ्याससारमीनावात्, व्याधिनिदानप्रतिक्लाचरणप्रवृत्ततथा- | अहोतरण-अधस्तरण-न० । अधोऽधस्तादवतारभूमि गृहनिविधाऽऽतुरवत्यः पुनर्न तत्प्रतिपकाभ्याससात्म्यवान्नासौ दुः- श्रेण्या व करणमधःकरणम् । कलहे, निचू० १० १०। सान्तकृत नविष्यति, तन्निदानानुष्ठानप्रवृत्ततथाविधाऽऽतुरबद् इति हेतुवादस्य लक्षणम् । हतुवादःप्रायो दृष्टिवादमतस्य द्रव्या अहोदाण-अहोदान-न० । विस्मयनीथे दाने, "अहोदाणं चनुयोगत्वात् , 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोकमार्गः' इत्यादर घु]" अहो दिविस्मये, विस्मयनीयमिदं दानं कोऽन्यो दाता? नुमानादिगम्यस्यार्थस्य तत्र प्रतिपादनात्। यथाऽत्रानुमानादिग उत्त०२०। कल्प० । श्रा० म. अहोदामस्थायमर्थः-एवं म्यता तथा गन्धहस्तिप्रभृतिभिर्विक्रान्तमिति नेद प्रदश्यते, प्र दीयते एवं हि दत्तं भवतीति । श्राव०१०। न्धविस्तरजयात् ॥ सम्म० ३ का एड । अहोदिसिन्चय-अधोदिखत-न। दिगधोऽधोदिक,तत्संबन्धि, अहम्म-अधःकर्मन-म | विशुरूसंयमस्थानेन्यः प्रतिप तस्या वा व्रतमधोदिग्वतम् । एतावती दिगध कूपाद्यवतारपाऽऽन्मानमविशुषसंयमस्थानेषु यदधोऽधः करोति तदधः णादवगाहनीया न परत इत्येवंरूपे दिखतभेदे, आव०६ अ० । कर्म । वृ०४ उ० । अधो नरकादेर्येन भक्तन नुक्ते वाऽमा क्रियते | अहोजागि ( ए )-अधोभागिन्-त्रि० । अधस्तादू भागिनि, तधःकर्म । दश.५ अ० । अन्नविशुरुभ्यः संयमादिस्थाने | सूत्र २ श्रु० ३ ०। उधोऽधस्तरामागमने, पिं० । प्राधाकर्मणि, पिं०1('अधेकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५१ पृष्ठेऽस्य व्याण्या) अहोरत्त-अहोरात्र पुं०। त्रिंशन्मुहूर्तात्मके, ज्यो० २ पाहु01 ज० । कर्म० । भ० दिवसरायुजयात्मके, सुप्र०१० पाहु। सूत्र०। प्रहेकाय-अधःकाय-पुं० । ऊचादिके, सूत्र०१ श्रु०४ अ. विशे० । अनु० । प्रा० म०। उत्त। स्था० । कासभेदे, न०। १००। "तिविहे अहोरते तीते, पमुप्पन्ने, अणागए" । स्था० ३ ठा अहेगारवपरिणाम-अधोगौरवपरिणाम-पुं० । येनायुःस्वभावेन उ० । अहोरात्रे, प्रा० चू०१ श्रा० म०। (पौरुषीकालः जीवम्याधो दिशि गमनशक्तिलकणपरिणामो भवति, तस्मिन् | 'काल' शब्दे तृतीयभागे वदयते) गौरवपरिणामनेदे, स्था० ए ठा0। अहोराश्या-अहोरात्रिकी-स्त्री० । त्रिभिर्दियसैर्याति प्रति मा । अहोरात्रस्यान्ते षष्ठभक्तकरणात् प्रतिमाभेदे, पञ्चा० १० अहेचर--अधश्चर-पुं० । विलवासित्वात् सर्पादौ, आचा०१५० वित्रा "अहोराईदिया गवरं छठेणं जत्तेणं अपाणपणं बहि८०८ उ०। यागमस्स वा० जाव रायहाणीए वाईणि दोवि पादे बग्धारित. अहेताग्ग-धस्तारक-पुं० । पिशाचभेदे, प्रशा० १ पद। पाणिस्स ट्राणं गई तप, सेस तं चेव जाव अणुपालिया भवर" प्रा० चू०४०। अहेपनगछरूव-अधःपन्नगार्फरूप-त्रिका अधोऽधस्तन, यत् अहोलोय-अधोलोक-पुं० । लोक्यते केवनिप्रया परिच्छिद्यपन्नगम्य सर्पस्या तस्येव रूपमाकागे येषां नेऽधःपन्नगाधरू ते ति लोकः । अधोव्यवस्थितो लोकोऽधोलोकः । अथवापाः। अधःपन्नगाः वदति,सरलेषु दीर्घषु च। जी०३ प्रतिकारा उधःशब्दोऽशुनपर्यायः, तत्र च केत्रानुनावाद बाहुल्येना शु. अहेसरिराज-यथैषणीय-त्रि० । उत्कर्षणापकर्षणरहिते, अप- भ एव परिणामो ऽव्याणां जायतेऽतोऽशुभपरिणामबद्रव्यरिकर्मणि, "असणिज्जाई वत्थाई जाएजा" । आचा०१ श्रु०८ योगादधोऽशुभो लोकोऽधोलोकः ॥ अ०४उ। अहवा अहो परिणामो, खेत्ताणुनावण जेण उसम्म यण नसेचिपाद वग्वालिया Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोलोय अन्निधानराजेन्फः । ग्रहोहिय असुनो अहोति भणिो . दवाएं तोऽहोलोगो ति॥ | अहोषियड-अधोविकट-त्रिका अधः कुख्यादिरहिते, छन्ने - लोकभेदे,स च अस्यां रसप्रभायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये ननः परि तदनावे च । प्राचा०१७०६०२० प्रतरद्वयश्च प्रदेशो रुचकः, समस्थितस्य च प्रतरद्वयस्य मध्ये | अहोविहार-होविहार-पुं०।अहो इत्याश्चर्य, विहरणं वि. एकस्मादधस्तनप्रतरादारभ्याधोऽनिमुखं नधयोजनशतानि परि हारः। आश्चर्यभूतोऽहोविहारः। संयमानुष्ठाने, "समुछिप महोहत्य परतः सातिरकसप्तरज्वायतोऽधोसोकः। अनु। चमरा. दिनवने, आव०१ अास्थाका प्रशासन प्रा०म० अधोलौकि विहारप" प्राचा० १ श्रु०२ म.१००। केषु प्रामेषु, नं0 "अहोलोऐणं चत्तारिवि सरीरा अहोनाए णं | अहोसिर-अधःशिरस-त्रि०ा अधोमुखे, "अहोसिरा कंटया सत्त पुढवीश्रो पमत्तानो, सत्त घणोदहीनो पमत्तानो, सत्त जायंति" अधोमुखाः कण्टकाः नवन्तीति चतुर्दशस्तीर्थकराघणवाओ पत्ताओ, सस तणुवाया पमत्तानो, सत्त उवासं- तिशयः। स० ३४ सम। मधोमस्तके, उत्त०२३ अग" तरा पत्ता, पपसुण सत्तसुवासंतरेसु सत्त तणुवाया प- जाणू अहोसिरे" मधोमुखो नो तिर्यग्वा विक्विन्तरष्टिः, किन्तु इट्ठिया,पपसु ण सत्तसुतणुवापसु सत्त घणवाया पट्ठिया,स- नियतभूभागनियमितहष्टिः।ज्ञा०१०। विपा। जं०। सू० । ससु घणयापसु सत्त घणोदही पइट्टिया, एएसु णं सत्तसुध- प्र० भ० । औ०।०प्र० । नि०। णोदह सुपिंडलगपिलसंगणसंठियाभो सत्त पुढवीओ पसत्ताओ । तं जहा-पढमा जाव सत्तमा" । स्था० ७ ग०। । | अहोहि-अधोऽवधि-त्रि०ा परमावधेरधोवयंवधिर्यस्य सोऽ. धोवधिः । परमावघरधोवय॑वधियुक्ते, रा०। स्था। महोबाय-अधोवात-पुं० । अधो गच्छन् यो पाति वातः सोअधोवातः । प्रका१पदा अधोनिमजति वायभेदाभ्रहोहिय-यथावधि-त्रि. याप्रकारोऽवधिरस्येति यथावधिः । पद । अपानजे बायो बाजीत। मा० म०। । नियतकेत्रविषयावधिशानिनि, स्था०२ ग०९३० सा 00000000 atostoeloeloeloelcaloa pelo ogledosJooloolooleatoeloeloeloeloe catooteotostoelca goseloosoleatoatoatostertoata stoia marat 4 444444444%AA .. . कोकोकोकोकोनाकोकाकोकोकोकोकोकाकोकाको SAREE • इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वश्रीमन्नहारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री १०० श्रीविजयराजेन्प्रसूरिविरचिते अनिधानराजेन्से हस्वाऽकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम्। ॥ समाप्तश्चायं प्रथमो नागः ॥ AN MORE 长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长长 ാരരരരരരരരരരരരരം രാരാരാരാരിരാരാരിരാരാരാംശം Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 വാവര്ക്ക് വ്യക്തമാക്കാൻ മാത്ര്ര്രാം മ്ര്ബ്ര് മ്മ് 小座 非法基本法法:主未来去去去去去去去去注半半生半生半生半生生津津津津实然的 中学生穿民茶社 | jiggingry II:|| 与 款3: ® : cn能长张 oiseasonicationalso arootstoreasteasonicoloreationasonionalcoho chi e AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA4 s , 中坐坐坐坐坐坐坐 RゲゲACT分かる方が大分大分公ム 种求法生生法主法法学法来来来去法米法半步未生带半老半米卡卡卡卡林法半一半牛牛牛牛牛牛牛牛牛牛牛米半挂卡法法半生生击法法违法的 इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीयकलिकाल-सर्व-श्रीमनटारक जैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री १००० श्रीविजयराजेप्रसूरिविरचिते - निधानराजेन्छे ਮੈਟ ਚ ਤ ਤ ਸੂਰਤ ਸੂਤ ਰ ਦ ਤ ਤ ਵ ਰ ਵ ਵਾ ਵਜੂਨ ਚ ਦਵਾ ਤ ਰ ਸ ਰ ਹ ਦ ਰ ടാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാാവിന്ദ് പ് ਦ ਵ ਸੂਟ ਸੂਟ ਦਵਾ ਦਾ ਮੁੱਦਾ ਵ ਵ ਰ ਰ ਰ ਰ ਰ ਰ ਊਵਾ ਹਲੂਣਾ ਦੇਣਾ ਨਾ ਵਟਣਾ : प्रथमो नागः समाप्तः। 三险, 我老半半半未未料半老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老 ケケヘケヘケヘケケケケケケヘケヘケヘケヘケヘケヘケ然 yeyonyosreyeoyoyoyoyoyoyoyoyoyudjenyo syo YODOJ/DYCOJOYOY Oyoycoyoqayooyeojwoyonye Gyeyooje 201乎变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变变 Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________